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सोमवार, 31 मई 2021

🔆🙏🙏🔆🙏🙏🔆🙏 परिच्छेद ~72, [ (29-30-31 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-72 ] Kali is supreme जब तक गृहस्थ/त्यागी उपदेशक का मन बहिर्मुख बना हुआ है तब तक उसे माँ काली को मानना ही होगा । नहीं तो भ्रष्टाचार फैलेगा ।”

(१)

 [ (29-30-31 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~72 ] 

 🔆🙏श्री रामकृष्ण शनिवार की अमावस्या को माँ का दर्शन करने स्वयं कालीघाट जायेंगे🔆🙏

 [गुरुगृह -वास (निर्जन) में रहते हुए प्रशिक्षु को अकारण घर जाने की अनुमति नहीं। ]

श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर बैठ रहे हैं । कालीमाता के दर्शन के लिए कालीघाट जाएँगे । श्री अधर सेन के घर होकर जाएँगे । वहाँ से अधर भी साथ जायेंगे आज शनिवार, अमावस्या (new moon, auspicious for the worship of the Divine Mother) है 29 दिसम्बर, 1883 । दिन के एक बजे का समय होगा ।

गाड़ी उनके कमरे के उत्तर के तरफ के बरामदे के पास आकर खड़ी है । मणि गाड़ी के द्वार के पास आकर खड़े हुए ।

मणि(श्रीरामकृष्ण से) – क्या मैं भी चलूँ ?

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ গাড়িতে উঠিয়াছেন — ৺ কালীঘাট দর্শনে যাইবেন। শ্রীযুক্ত অধর সেনের বাটী হইয়া যাইবেন — অধরও সেখান হইতে সঙ্গে যাইবেন। আজ শনিবার, অমাবস্যা; ২৯শে ডিসেম্বর, ১৮৮৩। বেলা ১টা হইবে। গাড়ি তাঁহার ঘরের উত্তরের বারন্দার কাছে দাঁড়াইয়া আছে।

মণি গাড়ির দ্বারের কাছে আসিয়া দাঁড়াইয়াছেন।ণি (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — আজ্ঞা, আমি কি যাব?

It was the day of the new moon, auspicious for the worship of the Divine Mother. At one o'clock in the afternoon Sri Ramakrishna got into a carriage to visit the temple of Kali at Kalighat. He intended to stop at Adhar's house on the way, since Adhar was to accompany him to the temple. While the carriage was waiting near the north porch of the Master's room, M. went to the Master and said, "Sir, may I also go with you?"

श्रीरामकृष्ण – क्यों ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন?

MASTER: "Why?"

मणि – एक बार कलकत्ते के मकान से होकर आता ।

[মণি — কলকাতার বাসা হয়ে একবার আসতাম।

M: "I should like to visit my home in Calcutta."

श्रीरामकृष्ण (थोड़ा सोंचकर) – फिर जाओगे ? क्यों ? यहाँ अच्छे तो हो ।

मणि घर लौटेंगे, कुछ घण्टों के लिए; परन्तु श्रीरामकृष्ण की इसके लिए सम्मति नहीं है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (চিন্তিত হইয়া) — আবার যাবে? এখানে বেশ আছ। মণি বাড়ি ফিরিবেন — কয়েক ঘন্টার জন্য, কিন্তু ঠাকুরের মত নাই।

Sri Ramakrishna reflected a moment and said: "Must you go home? Why? You are quite all right here."M. wanted to see his people a few hours, but evidently the Master did not approve.

(२)

  [ (29-30-31 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~72 ] 

🔆🙏 वेदान्तवादी संन्यासी के साथ श्रीरामकृष्ण द्वारा हिन्दी में ब्रह्मज्ञान पर चर्चा 🔆🙏  

(বেদান্তবাদী সাধুসঙ্গে ব্রহ্মজ্ঞানের কথা)

आज रविवार, 30 दिसम्बर, 1883, पूस की शुक्ला प्रतिपदा है । दिन के तीन बजे होंगे । मणि पेड़ के नीचे अकेले टहल रहे हैं । एक भक्त ने आकर कहा, “प्रभु (C-IN-C) बुलाते हैं ।” कमरे में श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । मणि ने जाकर प्रणाम किया और जमीन पर भक्तों के बीच बैठ गए ।

[রবিবার, ৩০শে ডিসেম্বর, পৌষ শুক্লা প্রতিপদ তিথি। বেলা তিনটা হইয়াছে। মণি গাছতলায় একাকী বেড়াইতেছেন, — একটি ভক্ত আসিয়া বলিলেন, প্রভু ডাকিতেছেন। ঘরে ঠাকুর ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। মণি গিয়া প্রণাম করিলেন ও মেঝেতে ভক্তদের সঙ্গে বসিলেন।

Sunday, December 30, 1883; At three o'clock in the afternoon, while M. was walking up and down under a tree, a devotee came to him and said that the Master had sent for him. M. went to Sri Ramakrishna's room and found a number of devotees there. He saluted the Master.

कलकत्ते से राम, केदार आदि भक्त आये हुए हैं । उनके साथ एक वेदान्तवादी सन्त भी आए हैं । श्रीरामकृष्ण जिस दिन रामचन्द्र का बगीचा देखने गए थे उस दिन उस साधु से भेंट हुई थी । साधु पासवाले बगीचे में एक पेड़ के नीचे अकेले एक चारपाई पर बैठे हुए थे । राम आज श्रीरामकृष्ण की आज्ञा से उस साधु को अपने साथ लेते आए हैं । साधु ने भी श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की थी ।

[কলিকাতা হইতে রাম, কেদার প্রভৃতি ভক্তেরা আসিয়াছেন। তাঁহাদের সঙ্গে একটি বেদান্তবাদী সাধু আসিয়াছেন। ঠাকুর যেদিন রামের বাগান দর্শন করিতে যান, সেই দিন এই সাধুটির সহিত দেখা হয়। সাধু পার্শ্বের বাগানের একটি গাছের তলায় একাকী একটি খাটিয়ায় বসিয়াছিলেন। রাম আজ ঠাকুরের আদেশে সেই সাধুটিকে সঙ্গে করিয়া আনিয়াছেন। সাধুও ঠাকুরকে দর্শন করিবেন — ইচ্ছা করিয়াছেন।

Ram, Kedar, and others had arrived from Calcutta. Ram had brought with him the Vedantist monk whom the Master had visited near his garden a few days earlier. On that occasion Sri Ramakrishna had asked him to bring the sadhu to Dakshineswar.

श्रीरामकृष्ण उस त्यागी सन्त (संन्यासी) के साथ आनन्दपूर्वक वार्तालाप कर रहे हैं । उन्होंने अपने पास छोटे तख्त पर साधु को बैठाया । बातचीत हिन्दी में हो रही है ।

[ঠাকুর সাধুর সহিত আনন্দে কথা কহিতেছেন। নিজের কাছে ছোট তক্তাটির উপর সাধুকে বসাইয়াছেন। কথাবার্তা হিন্দীতে হইতেছে।

The monk was sitting on the small couch with the Master. They were talking happily in Hindusthani.]

  [ (29-30-31 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~72 ] 

🔆🙏अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ही अनाहत शब्द ब्रह्म -` ॐ ' के प्रतिपाद्य हैं🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण (वेदान्ती साधु के प्रति) – यह सब (दृष्टिगोचर जगत-ब्रह्माण्ड) तुम्हें कैसा जान पड़ता है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — এ-সব তোমার কিরূপ বোধ হয়?

MASTER: "What do you feel about all this?"

वेदान्ती साधु – यह सब स्वप्नवत् है ।

বেদান্তবাদী সাধু — এ-সব স্বপ্নবৎ।

MONK: "It is all like a dream."

श्रीरामकृष्ण – ब्रह्म सत्य और संसार मिथ्या, यही न ? अच्छा जी, ब्रह्म कैसा है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা? আচ্ছা জী, ব্রহ্ম কিরূপ?

MASTER: "Brahman alone is real and the world illusory. Well, sir, what is Brahman?"]

वेदान्ती साधु – शब्द ही ब्रह्म है । अनाहत शब्द (ॐ) ।

সাধু — শব্দই ব্রহ্ম। অনাহত শব্দ।

MONK: "Brahman is the Sound. It is Om."

[MONK: "Brahman is the Sound. It is Om."]

श्रीरामकृष्ण – परन्तु शब्द का प्रतिपाद्य (कोई मूर्त-रूप, परिचायक नाम-रूप) भी तो एक है । क्यों जी?

[MASTER: "But there must be something indicated by the sound. Isn't that so?"]

वेदान्तवादी साधु – वही वाच्य है और वही वाचक भी है ।

[সাধু — বাচ্য * ওই হ্যায়, বাচক ওই হ্যায়।

MONK: "That Itself is the thing indicated as well as the indicator." 

{* 'वाच्यवाचकभेदेन  त्वमेवपरमेश्वर।' (अध्यात्मरामायण ) ओम (ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर (के अवतार राम) का वाचक है।  ईश्वर वाच्य और प्रणव वाचक।  ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। 

यह बात सुनते ही श्रीरामकृष्ण समाधिस्थ हो गए । चित्रवत् स्थिर बैठे हुए हैं । साधु और भक्तगण आश्चर्यचकित होकर श्रीरामकृष्ण की यह समाधि-अवस्था देख रहे हैं । केदार साधु से कह रहे हैं, “এই দেখো জী ! ইস্‌কো সমাধি বোলতা হ্যায়।” --“यह देखिए, इसे समाधि कहते हैं ।” साधु ने ग्रन्थों में ही समाधि की बात पढ़ी थी । समाधि कैसे होती है, यह उन्होंने कभी नहीं देखा था ।

[এই কথা শুনিতে শুনিতে ঠাকুর সমাধিস্থ হইলেন। স্থির, — চিত্রার্পিতের ন্যায় বসিয়া আছেন। সাধু ও ভক্তেরা অবাক্‌ হইয়া ঠাকুরের এই সমাধি অবস্থা দেখিতেছেন। কেদার সাধুকে বলিতেছেন —“এই দেখো জী! ইস্‌কো সমাধি বোলতা হ্যায়।”সাধু গ্রন্থেই সমাধির কথা পড়িয়াছেন, সমাধি কখনও দেখেন নাই।

At these words Sri Ramakrishna went into samadhi and sat motionless. The monk and the devotees looked wonderingly at him in his ecstatic condition. Kedar said to the monk: "Look at him, sir. This is samadhi."The monk had read of samadhi but had never seen it before.

  [ (29-30-31 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~72 ]

[आब सोअहम् उड़ाये देओ।  आब हाम तोम; - विलास !   

আব্‌ সোঽহম্‌ উড়ায়ে দেও। আব্‌ হাম্‌ তোম্‌; — বিলাস!]

 🔆🙏 अपने ‘सोऽहम् ' भाव को उड़ा दो । अब ‘हम और तुम’ लेकर विलास करें ।🔆🙏

 Do away with your 'I am He'.  Let us now keep 'I' and 'Thou' to enjoy the fun." 

“সেই আমি” উড়ায়ে দাও; — এখন “আমি তুমি” 

श्रीरामकृष्ण धीरे धीरे अपनी प्राकृत अवस्था में आ रहे हैं । अभी जगन्माता के साथ वार्तालाप कर रहे हैं। कहते हैं – “माँ, अच्छा हो जाऊँ, बेहोश न कर देना । साधु के साथ सच्चिदानन्द की बातें करूँगा । सच्चिदानन्द की बातें करते हुए आनन्द मनाऊँगा ।”

[ঠাকুর একটু একটু প্রকৃতিস্থ হইতেছেন ও জগন্মাতার সহিত কথা কহিতেছেন, “মা, ভাল হব — বেহুঁশ করিস নে — সাধুর সঙ্গে সচ্চিদানন্দের কথা কব! — মা, সচ্চিদানন্দের কথা নিয়ে বিলাস করব!”

After a few minutes the Master began gradually to come down to the normal plane of consciousness. He said to the Divine Mother: "Mother, I want to be normal. Please don't make me unconscious. I should like to talk to the sadhu about Satchidananda. Mother, I want to be merry talking about Satchidananda."

साधु निर्वाक् होकर देख रहे हैं और ये सब बातें सुन रहे हैं । अब श्रीरामकृष्ण साधु से बातचीत करने लगे । कहते हैं अब तुम ‘सोऽहम् उड़ा दो । अब ‘हम और तुम’ लेकर विलास करें ।

[সাধু অবাক্‌ হইয়া দেখিতেছেন ও এই সকল কথা শুনিতেছেন। এইবার ঠাকুর সাধুর সহিত কথা কহিতেছেন — বলিতেছেন — আব্‌ সোঽহম্‌ উড়ায়ে দেও। আব্‌ হাম্‌ তোম্‌; — বিলাস! (অর্থাৎ এখন সোঽহম্‌ — “সেই আমি” উড়ায়ে দাও; — এখন “আমি তুমি”)।

The monk was amazed to see the Master's condition and to hear these words. Sri Ramakrishna said to him: "Please do away with your 'I am He'. Let us now keep 'I' and 'Thou' to enjoy the fun."]

जब तक ‘हम’ और ‘तुम’ यह भाव है, तब तक 'माँ' भी हैं । आओ, उन्हें लेकर आनन्द किया जाय । श्रीरामकृष्ण के कथन का शायद यही मर्म है ।

[যতক্ষণ আমি তুমি রয়েছে ততক্ষণ মাও আছেন — এস তাঁকে নিয়ে আনন্দ করা যাক। এই কথা কি ঠাকুর বলিতেছেন?

कुछ देर इस तरह बातचीत हो जाने के बाद श्रीरामकृष्ण पंचवटी में टहलने चले गए । राम, केदार, मास्टर आदि उनके साथ हैं ।

[কিছুক্ষণ কথাবার্তার পর ঠাকুর পঞ্চবটীমধ্যে বেড়াইতেছেন, — সঙ্গে রাম, কেদার, মাস্টার প্রভৃতি।

A little later the Master was walking in the Panchavati with Ram, Kedar, M., and the other devotees.

   [ (29-30-31 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~72 ]

🔆🙏  प्रवर्तक -संन्यासी भी गृहस्थों के लिए सम्मान के पात्र होते हैं🔆🙏   

He who has renounced the world has already made great progress. 

[সংসার যে ত্যাগ করেছে, সে অনেকটা এগিয়েছে।]

श्रीरामकृष्ण(सहास्य) – साधु को तुमने कैसा देखा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — সাধুটিকে কিরকম দেখলে?

MASTER (to Kedar, with a smile): "What did you think of the sadhu?"

केदार – उसका शुष्क ज्ञान है । अभी उसने हण्डी चढ़ायी भर है – अभी चावल नहीं चढ़ाए गए ।

[কেদার — শুষ্ক জ্ঞান! সবে হাঁড়ি চড়েছে, — এখনও চাল চড়ে নাই!

KEDAR: "It is all dry knowledge. The pot has just been put on the fire, but as yet there is no rice in it."]

श्रीरामकृष्ण – हाँ, यह ठीक है, परन्तु है त्यागी । जिसने संसार (गृहस्थ जीवन) को त्याग दिया है वह बहुत-कुछ आगे बढ़ गया है ।

[जिसने संसार को (कामिनी -कांचन में आसक्ति को) त्याग दिया है , उसने पहले ही बहुत प्रगति कर ली है।] 

“साधु अभी प्रवर्तक है । उन्हें अगर कोई प्राप्त न कर सका, तो उसका कुछ भी नहीं हुआ । जब उनके प्रेम में मस्त हुआ जाता है, तब और कुछ नहीं सुहाता । तब तो – ‘आदरणीय श्यामा माँ को बड़े यत्न से हृदय में धारण किए रहो । मन तू देख और मैं देखूँ, और कोई न देखने पाए ।’ 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তা বটে, কিন্তু ত্যাগী। সংসার যে ত্যাগ করেছে, সে অনেকটা এগিয়েছে।“ সাধুটি প্রবর্তকের ঘর। তাঁকে লাভ না করলে কিছুই হল না। যখন তাঁর প্রেমে মত্ত হওয়া যায়, আর কিছু ভাল লাগে না, তখন:--যতনে হৃদয়ে রেখো আদরিণী শ্যামা মাকে!  মন, তুই দেখ আর আমি দেখি আর যেন কেউ নাহি দেখে!

MASTER: "That may be true. But he has renounced everything. He who has renounced the world has already made great progress. The sadhu belongs to the stage of the beginner. Nothing can be achieved without the realization of God. When a man is intoxicated with ecstatic love of God, he doesn't take delight in anything else. Then —Cherish my precious Mother Syama, Tenderly within, O mind; May you and I alone behold Her, Letting no one else intrude."

केदार श्रीरामकृष्ण के भाव के अनुरूप एक गीत गाते हैं –'मनेर कथा कोइबो की सई , कोईते माना - दर्दी नोइले प्राण बाँचे ना। ' (भावार्थ) – “सखि, मन की बात कैसे कहूँ? कहने की मनाई है । दर्द को समझनेवाले के बिना प्राण कैसे बच सकेंगे ! जो मन का मीत होता है वह देखते ही पहचान में आ जाता है । वह विरला ही होता है ।.......”

ঠাকুরের ভাবে কেদার একটি গান বলিতেছেন—মনের কথা কইবো কি সই, কইতে মানা —  দরদী নইলে প্রাণ বাঁচে না। মনের মানুষ হয় যে জনা,  ও তার নয়নেতে যায় গো চেনা, ও সে দুই-এক জনা, ভাবে ভাসে রসে ডোবে,  ও সে উজান পথে করে আনাগোনা (ভাবের মানুষ)।

Kedar repeated the words of a song in keeping with the Master's feeling: How shall I open my heart, O friend? It is forbidden me to speak. I am about to die, for lack of a kindred soul To understand my misery. . . .

    [ (29-30-31 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~72 ]

🔆🙏काली और ब्रह्म दोनों अभेद हैं । काली प्रधान है ।🔆🙏

["Kali and Brahman are identical...."Kali is supreme." 

কালী ব্রহ্ম অভেদ। কালী প্রধানা হ্যায় ।  

श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में लौट आए हैं । चार बजे का समय है – कालीमन्दिर खुल गया । श्रीरामकृष्ण वेदान्तवादी साधु को लेकर कालीमन्दिर जा रहे हैं । मणि भी साथ हैं ।

कालीमन्दिर में प्रवेश कर श्रीरामकृष्ण भक्तिपूर्वक माता को प्रणाम कर रहे हैं । वेदान्तवादी साधु भी हाथ जोड़कर सिर झुका माता को बारम्बार प्रणाम कर रहे हैं ।

[ঠাকুর নিজের ঘরে ফিরিয়াছেন। ৪টা বাজিয়াছে, — মা-কালীর ঘর খোলা হইয়াছে। ঠাকুর সাধুকে সঙ্গে করিয়া মা-কালীর ঘরে যাইতেছেন। মণি সঙ্গে আছেন।কালীঘরে প্রবেশ করিয়া ঠাকুর ভক্তিভরে মাকে প্রণাম করিতেছেন। সাধুও হাতজোড় করিয়া মাথা নোয়াইয়া মাকে পুনঃপুনঃ প্রণাম করিতেছেন।

Sri Ramakrishna returned to his room. About four o'clock the door of the Kali temple was opened, and the Master walked to the temple with the monk; M. accompanied them. Entering the inner chamber, the Master prostrated himself reverently before the image. The monk, with folded hands, also bowed his head repeatedly before Kali.]

श्रीरामकृष्ण – क्यों जी, दर्शन कैसे हुए ?

[ শ্রীরামকৃষ্ণ — কেমন জী, দর্শন!

MASTER: "What do you think of Kali?"

वेदान्तवादी हिन्दीभाषी साधु (भक्तिभाव से) काली प्रधान है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেমন জী, দর্শন!/ সাধু (ভক্তিভরে) — কালী প্রধানা হ্যায়। 

MONK (with devotion): "Kali is supreme."]

श्रीरामकृष्ण – काली और ब्रह्म दोनों अभेद हैं । क्यों जी ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কালী ব্রহ্ম অভেদ। কেমন জী?

MASTER: "Kali and Brahman are identical. Is that not so?"]

वेदान्तवादी साधु – जब तक मन बहिर्मुख बना हुआ है तब तक काली को मानना ही होगा । जब तक बहिर्मुख हैं तब तक भले बुरे दोनों भाव हैं – तब तक एक प्रिय और दूसरा त्याज्य, यह भाव है ही ।

“देखिये न, नाम और रूप ये सब तो मिथ्या ही हैं, परन्तु जब तक मैं बहिर्मुख हूँ तब तक मुझे स्त्रियों को त्याज्य समझना चाहिए । और उपदेश के लिए ‘यह अच्छा है, यह बुरा है’ यह भाव रखना चाहिए – नहीं तो भ्रष्टाचार फैलेगा ।”

[সাধু — যতক্ষণ বহির্মুখ, ততক্ষণ কালী মানতে হবে। যতক্ষণ বহির্মুখ ততক্ষণ ভাল মন্দ; ততক্ষণ এটি প্রিয়, এটি ত্যাজ্য। “এই দেখুন, নামরূপ তো সব মিথ্যা, কিন্তু যতক্ষণ আমি বহির্মুখ ততক্ষণ স্ত্রীলোক ত্যাজ্য। আর উপদেশের জন্য এটা ভাল, ওটা মন্দ; — নচেৎ ভ্রষ্টাচার হবে।”

MONK: "As long as one's mind is turned to the outer world, one must accept Kali. As long as a man sees the outer world, and discriminates between good and evil, he must accept good and reject evil. To be sure, all names and forms are illusory; but as long as the mind sees the outer world, the aspirant must give up woman. The ideas of good and evil are applied to one who is still a student on the path; otherwise he will stray from the path of righteousness."]

श्रीरामकृष्ण साधु के साथ बातचीत करते हुए कमरे में लौटे ।

[ঠাকুর সাধুর সঙ্গে কথা কহিতে কহিতে ঘরে ফিরিলেন। Thus conversing, the Master and the monk returned from the temple.

श्रीरामकृष्ण – देखा, साधु ने कालीमंदिर में प्रणाम किया ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — দেখলে, — সাধু কালীঘরে প্রণাম করলে!

MASTER (to M.): "Did you notice that the sadhu bowed before Kali?"

मणि – जी हाँ । 

মণি — আজ্ঞা, হাঁ!

M: "Yes, sir."

(३)

     [ (29-30-31 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~72 ]

🔆🙏हलधारी संसार को मिथ्या बोलता है , उधर बच्चा पैदा करना चाहता है 🔆🙏

दूसरे दिन सोमवार, ३१ दिसम्बर है । दिन का तीसरा पहर, चार बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ कमरे में बैठे हुए हैं । बलराम, मणि, राखाल, लाटू, हरीश आदि भक्त भी हैं ।

[পরদিন সোমবার, ৩১শে ডিসেম্বর (১৭ই পৌষ, শুক্লা দ্বিতীয়া)। বেলা ৪টা হইবে। ঠাকুর ভক্তসঙ্গে ঘরে বসিয়া আছেন। বলরাম, মণি, রাখাল, লাটু, হরিশ প্রভৃতি আছেন। ঠাকুর মণিকে ও বলরামকে বলিতেছেন —

Monday, December 31, 1883; At four o'clock in the afternoon the Master was sitting in his room with M., Rakhal, Latu, Harish, and other devotees.

श्रीरामकृष्ण मणि और बलराम से कह रहे हैं –“हलधारी का ज्ञानियों जैसा भाव था । वह अध्यात्म-रामायण, उपनिषद् – यही सब दिनरात पढ़ता था । इधर साकार की बातों से मुँह फेरता था । मैंने जब कंगालों के भोजन कर जानेपर उनकी पत्तलों से थोड़ा थोड़ा अन्न लेकर खाया, तब उसने कहा, ‘तेरे लड़कों का विवाह कैसे होगा ?’ मैंने कहा, ‘क्या रे साला, मेरे लड़के-बच्चे भी होंगे ! आग लगे तेरे गीता और वेदान्त पढ़ने में ! देखो न, इधर तो कहता है – संसार मिथ्या है और फिर विष्णुमन्दिर में नाक सिंकोड़कर ध्यान !”

[“হলধারীর জ্ঞানীর ভাব ছিল। সে অধ্যাত্ম, উপনিষৎ, — এই সব রাতদিন পড়ত। এদিকে সাকার কথায় মুখ ব্যাঁকাত। আমি যখণ কাঙালীদের পাতে একটু একটু খেলাম, তখন বললে, ‘তোর ছেলেদের বিয়ে কেমন করে হবে!’ আমি বললাম, ‘তবে রে শ্যালা, আমার আবার ছেলেপিলে হবে! তোর গীতা, বেদান্ত পড়ার মুখে আগুন!’ দেখো না, এদিকে বলছে জগৎ মিথ্যা! — আবার বিষ্ণুঘরে নাক সিটকে ধ্যান!”

Addressing M. and Balaram, the Master said: "Haladhari followed the path of knowledge. Day and night he used to study the Upanishads, the Adhyatma Ramayana, and similar books on Vedanta. He would turn up his nose at the mention of the forms of God. Once I ate from the leaf-plates of the beggars. At this Haladhari said to me, 'How will you be able to marry your children?' I said: 'You rascal! Shall I ever have children? May your mouth that repeats words from the Gita and the Vedanta be blighted!' Just fancy! He declared that the world was illusory and, again, would meditate in the temple of Vishnu with turned-up nose."

शाम हो गयी है । बलराम आदि भक्त कलकत्ता चले गये हैं । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में बैठे हुए माता का चिन्तन कर रहे हैं । कुछ देर बाद मन्दिर में आरती का मधुर शब्द सुनायी पड़ने लगा ।

[সন্ধ্যা হইল। বলরামাদি ভক্তেরা কলিকাতায় চলিয়া গিয়াছেন। ঘরে ঠাকুর মার চিন্তা করিতেছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুরবাড়িতে আরতির সুমধুর শব্দ শোনা যাইতে লাগিল।

In the evening Balaram and the other devotees returned to Calcutta. The Master remained in his room, absorbed in contemplation of the Divine Mother. After a while the sweet music of the evening worship in the temples was heard.

 [ (29-30-31 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~72 ]

🔆🙏अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव की भक्ति करना ही उनके भक्तों का वेदान्त है 🔆🙏

“अरे कृष्ण ! ‘तू मेरे ही लिए देहधारण करके आया है ।’

[ কৃষ্ণ রে! তুই আমার জন্য দেহধারণ করে এসেছিস বাপ। ]

O Krishna,  Thou hast assumed this body for my sake.']

रात के आठ बज चुके हैं । श्रीरामकृष्ण भाव में आकर मधुर स्वर से माता के साथ वार्तालाप कर रहे हैं। मणि जमीन पर बैठे हुए हैं ।

[রাত্রি প্রায় ৮টা হইয়াছে। ঠাকুর ভাবে সুমধুর স্বরে সুর করিয়া মার সহিত কথা কহিতেছেন। মণি মেঝেতে বসিয়া আছেন।

A little later the Master began to talk to the Mother in a tender voice that touched the heart of M., who was seated on the floor.  

श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से नामोच्चारण कर रहे हैं – “ हरि ओं ! हरि ॐ ! हरि ॐ !”

माँ से कह रहे हैं – “माँ ! ब्रह्मज्ञान देकर मुझे बेहोश न कर रखना । मैं ब्रहमज्ञान नहीं चाहता माँ ! मैं आनन्द करूँगा ! विलाप करूँगा !”

फिर कहते हैं – “माँ, मैं वेदान्त नहीं जानता – जानना भी नहीं चाहता ! माँ, तुझे पाने पर वेद-वेदान्त कितने नीचे पड़े रहते हैं ।

“अरे कृष्ण ! मैं तुझे कहूँगा, ‘यह ले –खा ले - बच्चे !’ कृष्ण ! कहूँगा, ‘तू मेरे ही लिए देहधारण करके आया है ।’

[" वेदान्त जानी ना माँ ! जानते चाई ना माँ ! ... माँ , तोके पेले वेदवेदान्त कोतो नीचे पोड़े थाके !.... (काली-कृष्ण अभेद) ..... कृष्ण रे ! तोरे बोलबो --- ' खा रे, -ने रे - बाप ! कृष्ण रे ! बोलबो , तुई आमार जोन्ने देहधारण कोरे ऐसेछिस  बाप।      

[“ও মা! ব্রহ্মজ্ঞান দিয়ে বেহুঁশ করে রাখিস নে! ব্রহ্মজ্ঞান চাই না মা! আমি আনন্দ করব! বিলাস করব!” আবার বলিতেছেন — “বেদান্ত জানি না মা! জানতে চাই না মা! — মা, তোকে পেলে বেদবেদান্ত কত নিচে পড়ে থাকে! কৃষ্ণ রে! তোরে বলব, খা রে — নে রে — বাপ! কৃষ্ণ রে! বলব, তুই আমার জন্য দেহধারণ করে এসেছিস বাপ।”

"Mother, don't make me unconscious with the Knowledge of Brahman. Mother, I don't want Brahmajnana. I want to be merry. I want to play." Again he said: "Mother, I don't know the Vedanta; and Mother, I don't even care to know. The Vedas and the Vedanta remain so far below when Thou art realized, O Divine Mother!" Then he said: "O Krishna, I shall say to Thee, 'Eat, my Child! Take this, my Child!' O Krishna, I shall say to Thee, 'My Child, Thou hast assumed this body for my sake.']

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अमरत्व का रहस्य : 

हम न मरैं, मरिहें संसारा।

हम कूं मिला जियावनहारा।।

अब न मरूँ मरनै मन माना। 

तेई मुए जिन राम न जाना।।

साकत मरैं संत जन जिवैं। 

भरि भरि राम रसायन पीवैं।।

हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं।

 हरि न मरैं हम काहे कूँ मरिहै।।

कहैं कबीर मन मनहि मिलावा। 

अमर भये सुख सागर पावा।। 

~ संत कबीर।

[https://mrityunjai51.wordpress.com/category/uncategorized/

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अब हम राम सनेही पाया, 

आगम अनहद सों चित लाया ॥

तन मन आतम ताको दीन्हा, 

तब हरि हम अपना कर लीन्हा ॥१॥

वाणी विमल पँच पराँनाँ, 

पहली शीश मिले भगवाँनाँ ॥२॥

जीवित जन्म सफल कर लीन्हां, 

पहली चेते तिन भल कीन्हां ॥३॥

अवसर आपा ठौर लगाया, 

दादू जीवित ले पहुँचावा ॥४॥

साक्षात्कार सम्बन्धी विचार प्रकट कर रहे हैं - अब हमने अनाहत शब्द श्रवण में चित्त लगाकर शास्त्र - प्रतिपाद्य अपने प्रेम - पात्र राम को प्राप्त कर लिया है। प्रथम  हमने अपना तन मनादि सर्वस्व समर्पण किया है, तब उन हरि को हमने आत्म स्वरूप करके प्राप्त किया है । जिनने अपनी वाणी, पँच ज्ञानेन्द्रिय, मन और प्राणों को विमल करके पहले उन भगवान् को अपना सर्वस्व समर्पण किया है,उन्होंने जीवितावस्था में ही अपना जन्म सफल किया है । जो पहली अवस्था में (विद्यार्थी जीवन में) ही सावधान हो गये हैं उन्होंने बहुत अच्छा किया है।  क्योंकि ठीक समय पर अपने जीवत्व अहँकार रूप शिर को भगवत् के समर्पण करके जीवितावस्था में ही विवेक द्वारा अपने आत्मा को असत्य से उठाकर सत्य परब्रह्म के स्वरूप में पहुंचा दिया है ।

(ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। इस एक शब्द को ब्रह्मांड का सार माना जाता है।  ब्रह्मप्राप्ति के लिए निर्दिष्ट विभिन्न साधनों में प्रणवोपासना मुख्य है। मुण्डकोपनिषद् में लिखा है:

प्रणवो धनु:शरोह्यात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते।

अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥

प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है । उसका सावधानी पूर्वक वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए । ओंकार के अवयवों का नाम है–अ, उ, म, बिन्दु, (अर्धचंद्र रोधिनी, नाद, नादांत, शक्ति, व्यापिनी या महाशून्य, समना तथा उन्मना।) इनमें से अकार, उकार और मकार ये तीन सृष्टि, स्थिति और संहार के सपादक ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र के वाचक हैं। प्रकारांतर से ये जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाओं के भी वाचक हैं। बिन्दु तुरीय दशा का द्योतक है। बिन्दु मन का ही रूप है। मात्राविभाग के साथ-साथ मन अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है। अमात्र भूमि में मन, काल, कलना, देवता और प्रपंच, ये कुछ भी नहीं रहते। इसी को उन्मनी स्थिति कहते हैं। वहाँ स्वयंप्रकाश ब्रह्म निरंतर प्रकाशमान रहता है। 

[माण्डूक्य उपनिषद में ॐ के चतुर्थ पाद की व्याख्या है। विस्तृत व्याख्या देखें -विवेक-जीवन विवेक-अंजन ब्लॉग / सोमवार, 20 जुलाई 2020/माण्डूक्य उपनिषद,गौड़पादीय कारिका , शंकर भाष्य सहित , आनन्दगिरि टीका.]   

ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है।

कठोपनिषद में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंचशून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं।

 जब तक गृहस्थ/त्यागी नेता  का मन बहिर्मुख बना हुआ है तब तक उसे माँ काली को (अवतार वरिष्ठ को) मानना ही होगा । *गुरुगृह -वास में प्रशिक्षु को घर का पानी भी नहीं पीना चाहिए।*/*वेदान्तवादी संन्यासी के साथ ब्रह्मज्ञान पर चर्चा * /साधु – शब्द ही ब्रह्म है । अनाहत शब्द (ॐ) । – परन्तु शब्द का प्रतिपाद्य (कोई मूर्त-रूप) भी तो एक है । क्यों जी ? [MASTER: "But there must be something indicated by the sound. Isn't that so?"] साधु – वही वाच्य है और वही वाचक भी है ।MONK: "That Itself is the thing indicated as well as the indicator." * 'वाच्यवाचकभेदेन  त्वमेवपरमेश्वर।' अध्यात्मरामायण। ओम (ॐ)  ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है।] अब तुम ‘सोऽहम् उड़ा दो । अब ‘हम और तुम’ लेकर विलास करें ।"Please do away with your 'I am He'. Let us now keep 'I' and 'Thou' to enjoy the fun."[गृहत्यागी प्रवर्तक -संन्यासी भी केदार जैसे गृहस्थों के लिए सम्मान के पात्र है !नाम और रूप ये सब तो मिथ्या ही हैं, परन्तु जब तक मन बहिर्मुख है तब तक एक गृहस्थ को अपनी धर्मपत्नी के सिवा अन्य  स्त्रियों को भोग्या दृष्टि से देखना  बुरा है’ यह विवेक-भाव रखना चाहिए – नहीं तो भ्रष्टाचार फैलेगा ।” 

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🔆🙏 🔆🙏 🔆🙏 ॐपरिच्छेद ~71, [(27 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ] "How long man perform his duties?*CINC के सानिध्य में मणि के गुरुगृह वास का 14 वां दिन *कर्म कब तक हैं ? – जब तक उन्हें प्राप्त न कर सको । उन्हें प्राप्त कर लेने पर सब चले जाते हैं । तब पाप-पुण्य के पार जाया जाता है ।*ईश्वर-कोटि से अपराध नहीं होता ** सच्चा वैष्णव, शैव-शाक्त मार्ग की निन्दा नहीं करता* गृहस्थों (प्रवृत्ति मार्ग) के लिए- ज्ञानयोग या भक्तियोग ? **ईश्वर कर्ता हैं, तथापि कर्मों के लिए जीव उत्तरदायी है*[शिष्य दो प्रकार के होते हैं - बन्दर का बच्चा और बिल्ली का बच्चा] *मुमुक्षुत्वं या ईश्वर को देखने की व्याकुलता -समय सापेक्ष* [मनुष्य जीवन का उद्देश्य है - ईश्वर प्राप्ति — परा और अपरा विद्या —विज्ञानी दूध पिता है ! ]भुक्ति और मुक्ति ( 'भोग- desire-अर्थ और काम' तथा 'योग-liberation- धर्म और मोक्ष') दोनों के सामने अपने सिर को झुकाता हूँ;[अपने गुरु (नेता/CINC- नवनीदा) को आम मुखतारी (Power of Attorney) दे दो ! अभ्यास-योग = 'नेतृत्व करना तथा -'CS को DS' तक ले जाना !'

[(27 दिसंबर, 1883) परिच्छेद ~71, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

(१)

 🔆🙏C-IN-C श्री रामकृष्ण के सानिध्य में मणि के गुरुगृह वास का 14 वां दिन 🔆🙏 

[मणि ने अपने गुरु (नेता) की दिनचर्या को ध्यान से देखा]   

[Mani carefully observed the routine of his guru (leader)]

दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में मंगल आरती का मधुर शब्द सुनायी दे रहा है । उसी के साथ प्रभाती-राग से मन्दिर की शहनाई बज रही है । श्रीरामकृष्ण उठकर मधुर स्वर से नामोच्चारण कर रहे हैं । कमरे में जिन जिन देवियों और देवताओं के चित्र टँगे हुए थे, एक-एक करके उन्हें प्रणाम किया । फिर पश्चिमवाले गोल बरामदे में जाकर भागीरथी के दर्शन किए और प्रणाम किया । 

[দক্ষিণেশ্বরে কালীবাড়িতে মঙ্গলারতির মধুর শব্দ শুনা যাইতেছে। সেই সঙ্গে প্রভাতী রাগে রোশনচৌকি বাজিতেছে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ গাত্রোত্থান করিয়া মধুর স্বরে নাম করিতেছেন। ঘরে যে সকল দেবদেবীর মূর্তি পটে চিত্রিত ছিল, এক-এক করিয়া প্রণাম করিলেন। পশ্চিম ধারের গোল বারান্দায় গিয়া ভাগীরথী দর্শন করিলেন ও প্রণাম করিলেন।

The temple garden was filled with the sweet music of the dawn service, which mingled with the morning melody from the nahabat. Leaving his bed, Sri Ramakrishna chanted the names of God in sweet tones. Then he bowed before the pictures of the different deities in his room and went to the west porch to salute the Ganges.] 

भक्तों में भी कोई कोई वहाँ हैं । उन लोगों ने प्रातःकृत्य समाप्त करके क्रमशः (C-IN-C) श्रीरामकृष्ण को आकर प्रणाम किया ।

राखाल श्रीरामकृष्ण के साथ इस समय यहीं हैं । बाबूराम पिछली रात को आए हैं । मणि श्रीरामकृष्ण के पास आज चौदह दिन से हैं ।

[ভক্তেরা কেহ কেহ ওখানে আছেন। তাঁহারা প্রাতঃকৃত সমাপন করিয়া ক্রমে ক্রমে আসিয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে প্রণাম করিলেন।রাখাল ঠাকুরের সঙ্গে এখানে এখন আছেন। বাবুরাম গতরাত্রে আসিয়াছেন। মণি ঠাকুরের কাছে আজ চৌদ্দদিন আছেন।

Some of the devotees who had spent the night at the temple garden came to the Master's room and bowed before him. Rakhal was staying with the Master, and Baburam had come the previous evening. M. had been staying there two weeks.

आज बृहस्पतिवार है, अगहन की कृष्णा त्रयोदशी, 27 दिसम्बर 1883 ई. । आज सबेरे ही स्नानादि समाप्त करके श्रीरामकृष्ण कलकत्ता जाने की तैयारी का रहे हैं ।

[আজ বৃহস্পতিবার, অগ্রহায়ণ কৃষ্ণপক্ষের ত্রয়োদশী তিথি; ২৭শে ডিসেম্বর, ১৮৮৩ খ্রীষ্টাব্দ। আজ সকাল সকাল ঠাকুর স্নানাদি করিয়া কলিকাতায় আসিবার উদ্যোগ করিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण ने मणि को बुलाकर कहा, “आज ईशान के यहाँ जाने के लिए कह गए हैं । बाबूराम जाएगा और तुम भी हमारे साथ चलाना ।” मणि जाने के लिए तैयार होने लगे ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ মণিকে ডাকিয়া বলিলেন, “ঈশানের ওখানে আজ যেতে বলে গেছে। বাবুরাম যাবে, তুমিও যাবে আমার সঙ্গে।মণি যাইবার জন্য প্রস্তুত হইতে লাগিলেন।

”Sri Ramakrishna said to M.: "I have been invited to Ishan's this morning. Baburam will accompany me, and you too." M. made ready to go with the Master.


 [(27 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ] 

🔆🙏 यात्रा के पहले माँ काली का नाम लेकर,श्री रामकृष्ण का गाड़ी पर बैठना 🔆🙏  

जाड़े का समय है । सुबह आठ का समय होगा । श्रीरामकृष्ण को ले जाने के लिए नौबतखाने के पास गाड़ी आकर खड़ी हुई । चारों ओर फूल के पेड़ हैं, सामने भागीरथी । सब दिशाएँ प्रसन्न जान पड़ती हैं। श्रीरामकृष्ण ने देवताओं के चित्रों के पास खड़े हुए प्रणाम किया फिर माता का नाम लेते हुए यात्रा करने के लिए गाड़ी पर बैठ गए । साथ बाबूराम और मणि हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण की बनात (ऊनि शॉल ), बनात की बनी हुई कान ढकनेवाली टोपी (ऊनि टोपी) और मसाले की थैली ^*साथ ले ली है, क्योंकि जाड़े का समय है, सन्ध्या होने पर श्रीरामकृष्ण बनात ओढेंगे ।

[^*जैसे दादा की नस्सी,  बड़ी डिबिया से निकाल कर छोटी स्टील की डिबिया में रख ली है। सफ़ेद ऊनि चादर , और मफलर रख ली है।]  

[শীতকাল। বেলা ৮টা, নহবতের কাছে গাড়ি আসিয়া দাঁড়াইল; ঠাকুরকে লইয়া যাইবে। চতুর্দিকে ফুলগাছ, সম্মুখে ভাগীরথী; দিক সকল প্রসন্ন; শ্রীরামকৃষ্ণ ঠাকুরদের পটের কাছে দাঁড়াইয়া প্রণাম করিলেন ও মার নাম করিতে করিতে যাত্রা করিয়া গাড়িতে উঠিলেন। সঙ্গে বাবুরাম, মণি। তাঁহারা ঠাকুরের গায়ের বনাত, বনাতের কানঢাকা টুপি ও মসলার থলে সঙ্গে লইয়াছেন, কেন না শীতকাল, সন্ধ্যার সময় ঠাকুর গায়ে গরম কাপড় দিবেন।

At eight o'clock the carriage hired for the Master stood waiting in front of the nahabat. On all sides plants and trees were in flower, and the river sparkled in the sunlight of the bright winter's day. The Master bowed once more before the pictures. Then, still chanting the name of the Divine Mother, he got into the carriage, followed by M. and Baburam. The devotees took with them Sri Ramakrishna's woolen shawl, woolen cap, and small bag of spices.

श्रीरामकृष्ण का मुखमण्डल प्रसन्न है । सब रास्ता आनन्द से पार कर रहे हैं । दिन के नौ बजे होंगे । गाड़ी कलकत्ते में आकर श्यामबाजार से होकर मछुआ-बाजार में आकर खड़ी हुई । मणि ईशान का घर जानते थे । चौराहे पर गाड़ी फिराकर ईशान के घर सामने खड़ी करने के लिए कहा ।

[ঠাকুর সহাস্যবদন, সমস্ত পথ আনন্দ করিতে করিতে আসিতেছেন। বেলা ৯টা। গাড়ি কলিকাতায় প্রবেশ করিয়া শ্যামবাজার দিয়া ক্রমে মেছুয়াবাজারের চৌমাথায় আসিয়া উপস্থিত হইল। মণি ঈশানের বাড়ি জানিতেন। চৌমাথায় গাড়ির মোড় ফিরাইয়া ঈশানের বাড়ির সম্মুখে দাঁড়াইতে বলিলেন।

Sri Ramakrishna was very happy during the trip and enjoyed it like a child. About nine o'clock the carriage stopped at the door of Ishan's house.

ईशान आत्मीयों के साथ आदरपूर्वक सहास्यमुख श्रीरामकृष्ण की अभ्यर्थना कर उन्हें नीचेवाले बैठकखाने में ले गए । श्रीरामकृष्ण ने भक्तों के साथ आसन ग्रहण किया ।

कुशल-प्रश्न हो जाने के बाद श्रीरामकृष्ण ईशान के पुत्र श्रीश के साथ बातचीत करने लगे । श्रीश एम. ए., बी. एल. पास करके अलीपुर में वकालत कर रहे हैं । एण्ट्रेंस और एफ. ए. की परीक्षाओं में विश्वविद्यालय में उनका प्रथम स्थान आया था । इस समय उनकी आयु लगभग तीस वर्ष की होगी । जैसा पाण्डित्य है, वैसा ही विनय भी है (extremely modest)। लोग उन्हें देखकर यह समझ लेते हैं कि ये कुछ नहीं जानते । (হাতজোড় করিয়া শ্রীশ ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন।)  हाथ जोड़कर श्रीश ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।

मणि ने श्रीरामकृष्ण को उनका परिचय दिया और कहा, “ऐसी शान्त प्रकृति का मनुष्य दीख नहीं पड़ता।”

[ঈশান আত্মীয়দের সহিত সাদরে সহাস্যবদনে ঠাকুরকে অভ্যর্থনা করিয়া নিচের বৈঠকখানাঘরে লইয়া গেলেন। ঠাকুর ভক্তসঙ্গে আসন গ্রহণ করিলেন। পরস্পর কুশল প্রশ্নের পর ঠাকুর ঈশানের পুত্র শ্রীশের সঙ্গে কথা কহিতেছেন। শ্রীশ এম্‌এ, বি-এল পাশ করিয়া আলিপুরে ওকালতি করিতেছেন। এন্ট্রান্স ও এফ-এ পরীক্ষায় ইউনিভার্সিটির ফার্স্ট হইয়াছিলেন, অর্থাৎ পরীক্ষায় প্রথম স্থান অধিকার করিয়াছিলেন। এখন তাঁর বয়স প্রায় ত্রিশ বৎসর হইবে। যেমন পাণ্ডিত্য তেমনি বিনয়, লোকে দেখিলে বোধ করে ইনি কিছুই জানেন না। হাতজোড় করিয়া শ্রীশ ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন। মণি ঠাকুরের কাছে শ্রীশের পরিচয় দিলেন ও বলিলেন, এমন শান্ত প্রকৃতির লোক দেখি নাই।

Ishan and his relatives greeted the Master and led him to the parlour on the first floor. Shrish, Ishan's son, was introduced to Sri Ramakrishna. The young man practised law at Alipur. He had been a brilliant student, having stood first in two of the university examinations, but he was extremely modest.

  [(27 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ] "

🔆🙏 फल आ जाने पर फूल चला जाता है - ज्ञान होने पर कर्म समाप्त हो जाता है 🔆🙏

Duties drop away after the realization of God. 

কর্ম কতদিন। যতদিন না তাঁকে লাভ করা যায়।]

[कर्म (टेण्डर भरना, वकालत करना ) कब तक हैं ? – जब तक उन्हें प्राप्त न कर सको । उन्हें प्राप्त कर लेने पर, कर्तव्यपालन की बाध्यता नहीं रहती, 'योगक्षेमं वहाम्यहम्'। 

श्रीरामकृष्ण (श्रीश के प्रति) – क्यों जी, तुम क्या करते हो ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (শ্রীশের প্রতি) — তুমি কি কর গা?

MASTER (to Shrish): "What is your profession?"

श्रीश – जी, मैं अलीपुर जा रहा हूँ, वकालत करता हूँ ।

[শ্রীশ — আজ্ঞা, আমি আলিপুরে বেরুচ্ছি। ওকালতি করছি।

SHRISH: "I am practising law at Alipur."

श्रीरामकृष्ण (मणि से) – ऐसा आदमी और वकालत !

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — এমন লোকেরও ওকালতি? 

MASTER (to M.): "For such a man to be a lawyer!

श्रीरामकृष्ण (श्रीश से) – “अच्छा, तुम्हें कुछ पूछना है ? – संसार में अनासक्त होकर रहना, क्यों ?”

[শ্রীরামকৃষ্ণ (শ্রীশের প্রতি) — আচ্ছা, তোমার কিছু জিজ্ঞাসা আছে?“সংসারে অনাসক্ত হয়ে থাকা, কেমন?”

MASTER (to M.): "For such a man to be a lawyer! (To Shrish) Well, have you any questions to ask? Perhaps you want to know how to live unattached in the world. Isn't that so?"

श्रीश – परन्तु कार्य के निर्वाह के लिए संसार में कितने ही अनुचित काम करने पड़ते हैं । कोई पापकर्म कर रहा है, कोई पुण्यकर्म । यह सब क्या पहले के कर्मों का फल है ? क्या यह करते ही रहना होगा ?

[শ্রীশ — কিন্তু কাজের গতিকে সংসারে অন্যায় কত করতে হয়। কেউ পাপ কর্ম করছে, কেউ পুণ্যকর্ম। এ-সব কি আগেকার কর্মের ফল, তাই করতে হবে?

SHRISH: "Under the pressure of duties people do many unrighteous things in the world. Further, some are engaged in good work, and some in evil. Is this due to their actions in previous births? Is that why they act this way?"

श्रीरामकृष्ण कर्म कब तक हैं ? – जब तक उन्हें प्राप्त न कर सको । उन्हें प्राप्त कर लेने पर सब चले जाते हैं । तब पाप-पुण्य के पार जाया जाता है ।

“फल आ जाने पर फूल चला जाता है । फूल दीख पड़ता है फल होने के लिए । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কর্ম কতদিন। যতদিন না তাঁকে লাভ করা যায়। তাঁকে লাভ হলে সব যায়। তখন পাপ-পুণ্যের পার হয়ে যায়।/ “ফল দেখা দিলে ফুল যায়। ফুল দেখা দেয় ফল হবার জন্য। 

MASTER: "How long should a man perform his duties? As long as he has not attained God. Duties drop away after the realization of God. Then one goes beyond good and evil. The flower drops off as soon as the fruit appears. The flower serves the purpose of begetting the fruit.]

 [(27 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ]

🔆🙏उनकी ओर जितना बढ़ोगे, उतना ही वे कर्म घटा देंगे 🔆🙏  

তাঁর দিকে যত এগুবে ততই তিনি কর্ম কমিয়ে দিবেন।

 (The more you advance toward God, the less He will give you worldly duties to perform.)

“सन्ध्यादि कर्म कितने दिन के लिए ? – जितने दिन तक ईश्वर का नामस्मरण करते हुए रोमांच न हो आए, आँखों में आँसू न आ जाएँ । ये सब अवस्थाएँ ईश्वर-प्राप्ति के लक्षण है, ईश्वर पर शुद्धा-भक्ति प्राप्त करने के लक्षण हैं ।

“उन्हें जान लेने पर मनुष्य पाप और पुण्य दोनों के परे चला जाता है । रामप्रसाद ने कहा है, भुक्ति और मुक्ति ( 'भोग- desire-अर्थ और काम' तथा 'योग-liberation- धर्म और मोक्ष') दोनों के सामने अपने सिर को झुकाता हूँ; क्योंकि काली तथा ब्रह्म एक तथा अभिन्न है, यह मर्म जानकर धर्माधर्म को मैंने छोड़ ही दिया है ।

[সন্ধ্যাদি কর্ম কতদিন? যতদিন ঈশ্বরের নাম করতে রোমাঞ্চ আর চক্ষে জল না আসে। এ-সকল অবস্থা ঈশ্বরলাভের লক্ষণ, ইশ্বরে শুদ্ধাভক্তিলাভের লক্ষণ।“তাঁকে জানলে পাপ-পুণ্যের পার হয়।

 “প্রসাদ বলে ভুক্তি মুক্তি উভয় মাথায় রেখেছি,

আমি কালী ব্রহ্ম জেনে মর্ম ধর্মাধর্ম সব ছেড়েছি।

"How long should a devotee perform daily devotions such as the sandhya? As long as his hair does not stand on end and his eyes do not shed tears at the name of God. These things indicate that the devotee has realized God, From these one knows that he has attained pure love of God. Realizing God one goes beyond virtue and vice. I bow my head, says Prasad, before desire and liberation; Knowing the secret that Kali is one with the highest Brahman,I have discarded, once for all, both righteousness and sin.]

“उनकी ओर जितना बढ़ोगे, उतना ही वे कर्म घटा देंगे । गृहस्थ की बहू गर्भवती होने पर उसकी सास धीरे धीरे उसका काम घटा देती है । जब दसवाँ महीना होता है, तब बिलकुल काम घटा दिया जाता है । बच्चा हो जाने पर वह उसी को लेकर व्यस्त रहती है, उसी को लेकर आनन्द करती है ।”

[“তাঁর দিকে যত এগুবে ততই তিনি কর্ম কমিয়ে দিবেন। "The more you advance toward God, the less He will give you worldly duties to perform."গৃহস্থের বউ অন্তঃসত্ত্বা হলে শাশুড়ী ক্রমে ক্রমে কাজ কমিয়ে দেন। যখন দশমাস হয়, তখন একেবারে কাজ কমিয়ে দেন। সন্তানলাভ হলে সেইটিকে নিয়েই নাড়াচাড়া, সেইটিকে নিয়েই আনন্দ।”

  [(27 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ]

🔆🙏अभ्यासयोग~  अपने मन के सोलह में से पन्द्रह भाग ढेंकी के मूसल पर स्थिर रखें🔆🙏

ध्यान मूलं गुरु मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदम्।

मंत्र मूलं गुरु वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा॥ 

[ Yoga of Practice : `পনর আনা   মন ঢেঁকির পাটের দিকে। 

Keep Fifteen parts of your  mind out of sixteen fixed on the pestle ]

श्रीश – संसार में (गृहस्थ जीवन में) रहते हुए उनकी ओर जाना बड़ा कठिन है ।

[শ্রীশ — সংসারে থাকতে (गृहस्थ जीवन में रहते हुए)  থাকতে তাঁর দিকে যাওয়া বড় কঠিন।

SHRISH: "It is extremely difficult to proceed toward God while leading the life of a householder."]

श्रीरामकृष्णक्यों ? अभ्यास-योग  (Yoga of Practice) है । उस देश में बढ़ई की औरतें चिउड़ा बेचती हैं । वे कितनी ओर ध्यान देकर कितने काम सम्हालती हैं, सुनो । एक तो ढेंकी चल रही है, हाथ से वह धान सरका रही है, और एक हाथ से बच्चे को गोद में लेकर दूध पिला रही है । ऊपर के जो खरीदार आते हैं, उनसे मोल-तोल कर रही है, इधर ढेंकी का काम भी चल रहा है । खरीदार से कहती है, ‘तो तुम्हारे ऊपर जो बाकी पैसे हैं, वे सब दे जाना, तब और चीज ले जाना ।’

देखो, लड़के को दूध पिलाना, ढेंकी चल रही है उसमें धान सरकाना और कूटे हुए धान निकालना, और इधर खरीदार के साथ बातचीत करना, ये सब एक साथ कर रही है । इसे ही अभ्यास-योग कहते हैं; परन्तु उसका पन्द्रह आना मन ढेंकी पर लगा हुआ है; क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि ढेंकी हाथ पर गिर जाय, और एक आना मन लड़के को दूध पिलाने और खरीदार से बातचीत करने में है । इसी तरह जो लोग संसार में (गृहस्थ जीवन में) हैं उन्हें पन्द्रह आना (90%) मन ईश्वर को देना चाहिए । न देने से सर्वनाश हो जाएगा – काल के हाथ पड़ना होगा (जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसना पड़ेगा ?) । और एक आने (10%) से दूसरे काम करो ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন? অভ্যাসযোগ ? ও-দেশে ছুতোরদের মেয়েরা চিঁড়ে বেচে। তারা কত দিক সামলে কাজ করে, শোন। ঢেঁকির পাট পড়ছে, হাতে ধানগুলি ঠেলে দিচ্ছে আর-একহাতে ছেলেকে কোলে করে মাই দিচ্ছে। আবার খদ্দের এসেছে; ঢেঁকি এদিকে পড়ছে, আবার খদ্দেরের সঙ্গে কথাও চলছে। খদ্দেরকে বলছে, তাহলে তুমি যে ক’পয়সা ধার আছে, সে ক’পয়সা দিয়ে যেও, আর জিনিস লয়ে যেও।

“দেখ, — ছেলেকে মাই দেওয়া, ঢেঁকি পড়ছে, ধান ঠেলে দেওয়া ও কাঁড়া ধান তোলা, আবার খদ্দেরের সঙ্গে কথা বলা, একসঙ্গে করছে। এরই নাম অভ্যাসযোগ। কিন্তু তার পনর আনা মন ঢেঁকির পাটের দিকে রয়েছে, পাছে হাতে পড়ে যায়। আর এক আনায় ছেলেকে মাই দেওয়া আর খদ্দেরের সঙ্গে কথা কওয়া। তেমনি যারা সংসারে আছে, তাদের পনর আনা মন ভগবানে দেওয়া উচিত। না দিলে সর্বনাশ — কালের হাতে পড়তে হবে। আর এক আনায় অন্যান্য কর্ম কর।

MASTER: "Why so? What about the yoga of practice? At Kamarpukur I have seen the women of the carpenter families selling flattened rice. Let me tell you how alert they are while doing their business. The pestle of the husking-machine that flattens the paddy constantly falls into the hole of the mortar. The woman turns the paddy in the hole with one hand and with the other holds her baby on her lap as she nurses it. In the mean time customers arrive. The machine goes on pounding the paddy, and she carries on her bargains with the customers. She says to them, 'Pay the few pennies you owe me before you take anything more.' You see, she has all these things to do at the same time — nurse the baby, turn the paddy as the pestle pounds it, take the flattened rice out of the hole, and talk to the buyers. This is called the yoga of practice. Fifteen parts of her mind out of sixteen are fixed on the pestle of the husking-machine, lest it should pound her hand. With only one part of her mind she nurses the baby and talks to the buyers. Likewise, he who leads the life of a householder should devote fifteen parts of his mind to God; otherwise he will face ruin and fall into the clutches of Death. He should perform the duties of the world with only one part of his mind.

[(27 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ]

(ज्ञान हो जाने पर गृहस्थ जीवन में रहा जा सकता है-लेकिन)   

🔆🙏पहली अवस्था में 3H विकास के 5 अभ्यास सीखने के लिये निर्जन में रहना जरुरी🔆🙏

 [প্রথমাবস্থায় নির্জনে থাকা বড় দরকার।  

At the beginning the aspirant should go into solitude now and then.]

“ज्ञान हो जाने पर संसार में (गृहस्थ जीवन में) रहा जा सकता है, परन्तु पहले तो ज्ञानलाभ करना चाहिए । संसार-रूपी जल में मन-रूपी दूध रखने पर दोनों मिल जाएँगे । इसलिए मन-रूपी दूध का दही बनाकर निर्जन में उसे मथकर, उससे मक्खन निकालकर, तब उसे संसार-रूपी पानी में रखना चाहिए । इससे यह स्पष्ट है कि पहले साधना चाहिए । पहली अवस्था में निर्जन में रहना जरुरी हैं ।  पीपल का पेड़ जब छोटा रहता है, तब उसके चारों ओर घेरा लगाना पड़ता हैं; नहीं तो बकरे और गौएँ उसे चर जाती हैं । परन्तु उसकी पेड़ी मोटी हो जाने पर घेरा खोल दिया जा सकता है । तब तो हाथी बाँध देने पर भी उस पेड़ का कुछ नहीं बिगड़ता ।

 [इससे यह स्पष्ट है कि पहली अवस्था में (अर्थात युवावस्था में) ही 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा-Be and Make में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त आचार्य, नेता /CINC नवनीदा' के साथ निर्जन में अर्थात महामण्डल द्वारा आयोजित  छः दिवसीय वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर रूपी 'गुरुगृह-वास' करना जरुरी है ! ]

{“জ্ঞানের পর সংসারে থাকা যায়। কিন্তু আগে তো জ্ঞানলাভ করতে হবে। সংসার-রূপ জলে মন-রূপ দুধ রাখলে মিশে যাবে, তাই মন-রূপ দুধকে দই পেতে নির্জনে মন্থন করে — মাখন তুলে — সংসার-রূপ জলে রাখতে হয়।

“তা হলেই হল, সাধনের দরকার। প্রথমাবস্থায় নির্জনে থাকা বড় দরকার। অশ্বত্থগাছ যখন চারা থাকে তখন বেড়া দিতে হয়, তা না হলে ছাগল গরুতে খেয়ে ফেলে, কিন্তু গুঁড়ি মোটা হলে বেড়া খুলে দেওয়া যায়। এমন কি হাতি বেঁধে দিলেও গাছের কিছু হয় না।

"A man may lead the life of a householder after attaining Knowledge. But he must attain Knowledge first. If the milk of the mind is kept in the water of the world, they get mixed. Therefore he should turn the milk into curd and extract butter from it by churning it in solitude; then he may keep the butter in the water of the world. Therefore, you see, spiritual discipline is necessary. When the aswattha tree is a mere sapling, it must be enclosed by a fence; otherwise the cattle will eat it. But the fence may be taken away when the trunk grows thick and strong. Then even an elephant tied to the tree cannot harm it.}

“इसीलिए प्रथम अवस्था में कभी कभी निर्जन में जाना पड़ता है । साधना आवश्यक है । भात खाओगे – बैठे बैठे कह रहे हो लकड़ी में आग है और उसी आग से चावल पकता है । इस तरह कहने से ही क्या भात तैयार हो जाएगा ? एक और लकड़ी ले आकर दोनों को रगड़ना चाहिए; आग तभी तैयार होगी ।

“भंग खाने से नशा होता है, आनन्द होता है । न तुमने खाया, न कुछ किया – बैठे बैठे केवल ‘भंग भंग’ कर रहे हो ! क्या इससे कभी नशा या आनंद होता है ?

[“তাই প্রথমাবস্থায় মাঝে মাঝে নির্জনে যেতে হয়। সাধনের দরকার। ভাত খাবে; বসে বসে বলছ, কাঠে অগ্নি আছে, ওই আগুনে ভাত রাঁধা হয়; তা বললে কি ভাত তৈয়ার হয়? আর-একখানা কাঠ এনে কাঠে কাঠে ঘষতে হয়, তবে আগুন বেরোয়। “সিদ্ধি খেলে নেশা হয়, আনন্দ হয়। খেলে না, কিছুই করলে না, বসে বসে বলছ, ‘সিদ্ধি সিদ্ধিঞ্চ! তাহলে কি নেশা হয়, আনন্দ হয়?”

Therefore at the beginning the aspirant should go into solitude now and then. Spiritual discipline is necessary. You want to eat rice; suppose you sit down somewhere and say, 'Wood contains fire and fire cooks rice.' Can saying it cook the rice? You must get two pieces of wood and by rubbing them together bring out the fire. "By eating siddhi one becomes intoxicated and feels happy. But suppose you haven't eaten the stuff or done anything else with it; you simply sit down somewhere and mutter, 'Siddhi! siddhi!' Will that intoxicate you or make you happy?

[(27 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ]

🔆🙏अवतार वरिष्ठ के प्रति भक्ति हुए बिना वैराग्य नहीं होता , गिद्धदृष्टि बनी रहती है 🔆🙏 

“पढ़ना-लिखना चाहे लाख सीखो, ईश्वर पर भक्ति हुए बिना – उन्हें प्राप्त करने की इच्छा हुए बिना – सब मिथ्या है । केवल पण्डित है, परन्तु यदि विवेक-वैराग्य नहीं है, तो उसकी दृष्टि कामिनी-कांचन पर अवश्य रहेगी । गीध बहुत ऊँचे उड़ते हैं, परन्तु उनकी दृष्टि मरघट पर ही रहती है ।

“जिस विद्या के प्राप्त करने पर मनुष्य उन्हें पा सकता है, वही यथार्थ विद्या है, और सब मिथ्या है । 

[“হাজার লেখাপড়া শেখ, ঈশ্বরে ভক্তি না থাকলে, তাঁকে লাভ করবার ইচ্ছা না থাকলে — সব মিছে। শুধু পণ্ডিত, বিবেক-বৈরাগ্য নাই — তার কামিনী-কাঞ্চনে নজর থাকে। শকুনি খুব উঁচুতে উঠে, কিন্তু ভাগাড়ের দিকে নজর। যে বিদ্যা লাভ করলে তাঁকে জানা যায়, সে-ই বিদ্যা; আর সব মিছে।

"You may learn a great deal from books; but it is all futile if you have no love for God and no desire to realize Him. A mere pundit, without discrimination and renunciation, has his attention fixed on 'woman and gold'. The vulture soars very high but its eyes are fixed on the charnel pit."That alone is Knowledge through which one is able to know God. All else is futile. ] 

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, ईश्वर के सम्बन्ध में तुम्हारी क्या धारणा है ?”

[“আচ্ছা, তোমার ঈশ্বর বিষয়ে কি ধারণা?”

Well, what is your idea about God?"

श्रीशजी, इतना बोध हुआ है कि कोई एक ज्ञानमय पुरुष हैंउनकी सृष्टि देखने पर उनके ज्ञान का परिचय मिलता है । उदाहरणार्थ एक बात कहता हूँ – जिन देशों में ठंढ अधिक पड़ती है, वहाँ मछलियों और दूसरे जल-जन्तुओं को बचा रखने के लिए ईश्वर ने यह कुशलता दिखायी है कि जितना ही अधिक जाड़ा पड़ता है उतना ही पानी सिमटता जाता है।  परन्तु आश्चर्य यह है कि बर्फ बनने से पहले ही पानी कुछ हलका हो जाता है, और उस समय पानी का फैलाव ज्यादा हो जाता है । तालाब के पानी में वहाँ जाड़े में मछलियाँ अनायास ही रह सकती हैं । पानी के ऊपरी हिस्से में बर्फ जम गयी है, परन्तु नीचे के हिस्से में ज्यों का त्यों पानी बना रहता है । अगर खूब ठण्डी हवा चलती है, तो वह हवा बर्फ पर ही लगती है, नीचे का पानी गरम रहता है । 

[শ্রীশ — আজ্ঞা, এইটুকু বোধ হয়েছে — একজন জ্ঞানময় পুরুষ আছেন, তাঁর সৃষ্টি দেখলে তাঁর জ্ঞানের পরিচয় পাওয়া যায়। এই একটা কথা বলছি — শীতপ্রধান দেশে মাছ ও অন্যান্য জলজন্তু বাঁচিয়ে রাখবার জন্য তাঁর কৌশল। যত ঠাণ্ডা পড়ে তত জলের আয়তনের সঙ্কোচ হয়। কিন্তু আশ্চর্য, বরফ হবার একটু আগে থেকে জল হালকা হয় ও জলের আয়তন বৃদ্ধি হয়! পুকুরের জলে অনায়াসে খুব শীতে মাছ থাকতে পারে। জলের উপরিভাগে সমস্ত বরফ হয়ে গেছে, কিন্তু নিচে যেমন জল তেমনি জল। যদি খুব ঠাণ্ডা হাওয়া বয়, সে হাওয়া বরফের উপর লাগে। নিচের জল গরম থাকে।

SHRISH: "Sir, I feel that there is an All-knowing Person. We get an indication of His Knowledge by looking at His creation. Let me give an illustration. God has made devices to keep fish and other aquatic animals alive in cold regions. As water grows colder, it gradually shrinks. But the amazing thing is that, just before turning into ice, the water becomes light and expands. In the freezing cold, fish can easily live in the water of a lake: the surface of the lake may be frozen, but the water below is all liquid. If a very cold breeze blows, it is obstructed by the ice. The water below remains warm."

श्रीरामकृष्ण – वे हैं यह बात संसार देखने से ही मालुम हो जाती है । परन्तु उनके सम्बन्ध में कुछ सुनना एक बात है, उन्हें देखना और बात, और उनसे वार्तालाप करना और बात है । किसी ने दूध की बात सुनी है, किसी ने दूध देखा है, और किसी ने दूध पिया है । आनन्द तो देखने से होगा, पर पीने से देह सबल होगी, तभी तो लोग हृष्टपुष्ट होंगे । ईश्वर के दर्शन जब होंगे, तभी तो शान्ति होगी । जब उनसे वार्तालाप होगा, तभी तो आनन्द होगा और शक्ति बढ़ेगी

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনি আছেন, জগৎ দেখলে বোঝা যায়। কিন্তু তাঁর বিষয় শোনা এক, তাঁকে দেখা এক, তাঁর সঙ্গে আলাপ করা আর এক। কেউ দুধের কথা শুনেছে, কেউ দুধ দেখেছে, কেউ বা দুধ খেয়েছে। দেখলে তবে তো আনন্দ হবে, খেলে তবে তো বল হবে, — লোক হৃষ্টপুষ্ট হবে। ভগবানকে দর্শন করলে তবে তো শান্তি হবে, তাঁর সঙ্গে আলাপ করলে তবেই তো আনন্দলাভ হবে, শক্তি বাড়বে।

MASTER: "That God exists may be known by looking at the universe. But it is one thing to hear of God, another thing to see God, and still another thing to talk to God. Some have heard of milk, some have seen it, and some, again, have tasted it. You feel happy when you see milk; you are nourished and strengthened when you drink it. You will get peace of mind only when you have seen God. You will enjoy bliss and gain strength only when you have talked to Him."

 [(27 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ] 

🔆🙏मुमुक्षुत्वं या ईश्वर (परम् सत्य)  को देखने की व्याकुलता -पूर्वजन्म सापेक्ष 🔆🙏

श्रीश – उन्हें पुकारने का अवसर मिलता ही नहीं ।

[শ্রীশ — তাঁকে ডাকবার অবসর পাওয়া যায় না।

SHRISH: "We do not have time to pray to God.'

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) – यह ठीक है; समय हुए बिना कुछ नहीं होता । किसी लड़के ने सोने के पहले अपनी माँ से कहा था, ‘माँ, जब मुझे टट्टी की इच्छा हो, तब उठा देना ।’ उसकी माँ ने कहा, ‘बेटा, टट्टी की इच्छा तुम्हें स्वयं उठाएगी, मुझे उठाना न होगा ।’

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তা বটে; সময় না হলে কিছু হয় না। একটি ছেলে শুতে যাবার সময় মাকে বলেছিল, মা আমার যখন হাগা পাবে আমাকে তুলিও। মা বললেন, বাবা, হাগাতেই তোমাকে তোলাবে, আমায় তুলতে হবে না।

MASTER (with a smile): "That is true. Nothing comes to pass except at the right time. Going to bed, a child said to his mother, 'Mother, please wake me up when I feel the call of nature.' 'My son,' said the mother, 'that urge itself will wake you up. I don't have to wake you.'] 

जिसे जो कुछ देना चाहिए, यह पहले से ही ठीक किया हुआ है । घर की एक पुरखिन अपनी बहुओं को एक बर्तन से नापकर चावल बनाने के लिए देती थी, पर उतना चावल उन लोगों के लिए कम पड़ता था । एक दिन वह नापनेवाला बर्तन फूट गया; इससे बहुएँ बहुत खुश हुई । पर उस पुरखिन ने कहा, ‘तुम्हारे नाचने-कूदने या ख़ुशी मनाने से क्या हुआ; मैं चावल अपनी मुट्ठी से नाप सकती हूँ, मुझे अन्दाज मालुम है !’

(कौन एथेंस का सत्यार्थी होगा या परम् सत्य का खोजी होगा - यह पूर्वजन्म से ही तय किया हुआ है ! )

[“যাকে যা দেবার তাঁর সব ঠিক করা আছে।  সরার মাপে শাশুড়ী বউদের ভাত দিত। তাতে কিছু ভাত কম হত। একদিন সরাখানি ভেঙে যাইয়াতে বউরা আহ্লাদ করছিল। তখন শাশুড়ী বললেন, ‘নাচ কোঁদ বউমা, আমার হাতের আটকেল (আন্দাজ) আছে’।”

"It is all decided beforehand by God what each one shall receive. A mother-in-law used to measure rice with a dish for her daughters-in-law. But it was not enough for them. One day the dish was broken and that made the girls happy. But the mother-in-law said to them, 'Children, you may shout and dance, but I can measure the rice with the palm of my hand.']

[(27 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ]  

🔆🙏 अपने गुरु (नेता/CINC- नवनीदा) को आम मुखतारी (Power of Attorney) दे दो 🔆🙏  

(श्रीश से) – “क्या करोगे, पूछते हो ? उनके श्रीचरणों में सब कुछ समर्पित कर दो, उन्हें आम मुखतारी दे दो ! वे जो कुछ अच्छा समझें, करें । बड़े आदमी (गुरु/नेता /C-IN-C जीवन्मुक्त शिक्षक)  पर अगर भार दे दिया जाय, तो वह कभी बुराई नहीं कर सकता

[(শ্রীশের প্রতি) — কি করবে? তাঁর পদে সব সমর্পণ কর; তাঁকে আমমোক্তারি দাও। তিনি যা ভাল হয় করুন। বড়লোকের উপর যদি ভার দেওয়া যায়, সে লোক কখনও মন্দ করবে না।

(To Shrish): "Surrender everything at the feet of God. What else can you do? Give Him the power of attorney. Let Him do whatever He thinks best. If you rely on a great man, he will never injure you.]

 [(27 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ] 

🔆🙏 दो प्रकार के साधक - बन्दर का बच्चा और बिल्ली का बच्चा 🔆🙏  

“साधना की भी आवश्यकता है । परन्तु साधक दो तरह के होते हैं । एक तरह के साधकों का स्वभाव बन्दर के बच्चे जैसा होता है, दूसरे तरह के साधक का बिल्ली के बच्चे जैसा । बन्दर का बच्चा किसी तरह खुद अपनी माँ को पकड़े रहता है । इसी तरह कोई साधक सोचते हैं, हमें इतना जप करना चाहिए, इतनी देर तक ध्यान करना चाहिए, इतनी तपस्या करनी चाहिए, तब कहीं ईश्वर मिलेंगे । इस तरह के साधक अपने प्रयत्न से ईश्वर-प्राप्ति की आशा रखते हैं ।

“परन्तु बिल्ली का बच्चा खुद अपनी माँ को नहीं पकड़ सकता । वह पड़ा हुआ बस “मीऊँ मीऊँ’ करके पुकारता है । उसकी माँ चाहे जो करे । उसकी माँ कभी बिस्तर पर ले जाती है, कभी छत पर लकड़ी की आड़ में रख देती है, और कभी उसे मुँह में दबाकर यहाँ-वहाँ रखती फिरती है । वह स्वयं अपनी माँ को पकड़ना नहीं जानता । इसी तरह कोई कोई साधक स्वयं हिसाब करके साधन-भजन नहीं कर सकते कि इतना जप करूँगा, इतना ध्यान करूँगा । वह केवल व्याकुल होकर रो-रोकर उन्हें पुकारता है । उसका रोना सुनकर वे फिर रह नहीं सकते । आकर दर्शन देते हैं ।

[“সাধনার প্রয়োজন বটে; কিন্তু দুরকম সাধক আছে; — একরকম সাধকের বানরের ছার স্বভাব, আর-একরকম সাধকের বিড়ালের ছার স্বভাব। বানরের ছা নিজে জো-সো করে মাকে আঁকড়িয়ে ধরে। সেইরূপ কোন কোন সাধক মনে করে, এত জপ করতে হবে, এত ধ্যান করতে হবে, এত তপস্যা করতে হবে, তবে ভগবানকে পাওয়া যাবে। এ-সাধক নিজে চেষ্টা করে ভগবানকে ধরতে যায়। 

“বিড়ালের ছা কিন্তু নিজে মাকে ধরতে পারে না। সে পড়ে কেবল মিউ মিউ করে ডাকে! মা যা করে। মা কখনও বিছানার উপর, কখনও ছাদের উপর কাঠের আড়ালে রেখে দিচ্ছে; মা তাকে মুখে করে এখানে ওখানে লয়ে রাখে, সে নিজে মাকে ধরতে জানে না। সেইরূপ কোন কোন সাধক নিজে হিসাব করে কোন সাধন করতে পারে না, — এত জপ করব, এত ধ্যান করব ইত্যাদি। সে কেবল ব্যাকুল হয়ে কেঁদে কেঁদে তাঁকে ডাকে। তিনি তার কান্না শুনে আর থাকতে পারেন না, এসে দেখা দেন।”

"It is no doubt necessary to practise spiritual discipline; but there are two kinds of aspirants. The nature of the one kind is like that of the young monkey, and the nature of the other kind is like that of the kitten. The young monkey, with great exertion, somehow clings to its mother. Likewise, there are some aspirants who think that in order to realize God they must repeat His name a certain number of times, meditate on Him for a certain period, and practise a certain amount of austerity. An aspirant of this kind makes his own efforts to catch hold of God. 

But the kitten, of itself, cannot cling to its mother. It lies on the ground and cries, 'Mew, mew!' It leaves everything to its mother. The mother cat sometimes puts it on a bed, sometimes on the roof behind a pile of wood. She carries the kitten in her mouth hither and thither. The kitten doesn't know how to cling to the mother. Likewise, there are some aspirants who cannot practise spiritual discipline by calculating about japa or the period of meditation. All that they do is cry to God with yearning hearts. God hears their cry and cannot keep Himself away. He reveals Himself to them."] 

(२)

[(27 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ]  

🔆🙏ईश्वर कर्ता अवश्य हैं, तथापि कर्मों (विवेक-प्रयोग) के लिए जीव उत्तरदायी है 🔆🙏

 “ত্বয়া হৃষীকেশ হৃদিস্থিতেন যথা নিযুক্তোঽস্মি তথা করোমি।”

दिन चढ़ आया है । घर के मालिक ने भोजन के लिए घर में कच्ची रसोई का समान तैयार कराया है । वे बड़े व्यस्त हैं । वे घर के भीतर जाकर भोजन का प्रबन्ध कर रहे हैं ।

दिन बहुत हो गया है, इसीलिए श्रीरामकृष्ण भोजन के लिए जल्दी कर रहे हैं । वे उसी कमरे में टहल रहे हैं । मुख पर प्रसन्नता झलक रही है । कभी कभी केशव कीर्तनिया से वार्तालाप कर रहे हैं ।

[বেলা হইয়াছে, গৃহস্বামী অন্নব্যঞ্জন করাইয়া ঠাকুরকে খাওয়াইবেন। তাই বড় ব্যস্ত। তিনি ভিতর-বাড়িতে গিয়াছেন, খাবার উদ্যোগ ও তত্ত্বাবধান করিতেছেন।বেলা হইয়াছে, তাই ঠাকুর ব্যস্ত হইয়াছেন। তিনি ঘরের ভিতর একটু পাদচারণ করিতেছেন। কিন্তু সহাস্যবদন। কেশব কীর্তনিয়ার সঙ্গে মাঝে মাঝে কথা কহিতেছেন।

At noon the host wished to feed the Master and the devotees. Sri Ramakrishna was smilingly pacing the room. Now and then he exchanged a few words with the musician.

केशव कीर्तनिया – वही 'करण'  'instrument'और वही 'कारण'  'cause' हैं; दुर्योधन ने कहा था, ‘त्वया हृषिकेश हृदिस्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।’

[কেশব (কীর্তনীয়া) — তা তিনিই ‘করণ’, ‘কারণ’। দুর্যোধন বলেছিলেন, “ত্বয়া হৃষীকেশ হৃদিস্থিতেন যথা নিযুক্তোঽস্মি তথা করোমি।”

MUSICIAN: "It is God alone who is both the 'instrument' and the 'cause'. Duryodhana said to Krishna: 'O Lord, Thou art seated in my heart. I act as Thou makest me act.'"

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) – हाँ, वही सब कराते हैं; यह ठीक है । कर्ता वही हैं, मनुष्य तो यन्त्र-स्वरूप है ।

“और यह भी ठीक है कि कर्मफल भी है । मिर्च खाने पर पेट जलता रहेगा । पाप करने से उसका फल अवश्य भोगना होगा ।

“जिसे सिद्धि हो गयी है, जिसने ईश्वर को पा लिया है, वह फिर पाप नहीं कर सकता । उसके पैर बेताल नहीं पड़ते । जिसका सधा हुआ गला है, उसके स्वर में सा रे ग म बिगड़ने नहीं पाता ।”

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাঁ, তিনিই সব করাচ্ছেন বটে; তিনিই কর্তা, মানুষ যন্ত্রের স্বরূপ। “আবার এও ঠিক যে কর্মফল আছেই আছে। লঙ্কামরিচ খেলেই পেট জ্বালা করবে; তিনিই বলে দিয়েছেন যে, খেলে পেট জ্বালা করবে। পাপ করলেই তার ফলটি পেতে হবে।“যে ব্যক্তি সিদ্ধিলাভ করেছে, যে ঈশ্বরদর্শন করেছে, সে কিন্তু পাপ করতে পারে না। সাধা-লোকের বেতালে পা পড়ে না। যার সাধা গলা, তার সুরেতে সা, রে, গা, মা’-ই এসে পড়ে।”

MASTER (with a smile): "Yes, that is true. It is God alone who acts through us. He is the Doer, undoubtedly, and man is His instrument. But it is also true that an action cannot fail to produce its result. Your stomach will certainly burn if you eat hot chilli. It is God who has ordained that chilli will burn your stomach. If you commit a sin, you must bear its fruit. But one who has attained perfection, realized God, cannot commit sin. An expert singer cannot sing a false note. A man with a trained voice sings the notes correctly: sa, re, ga, ma, pa, dha, ni."

[(27 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ]  

🔆🙏गृहस्थ शिक्षक (नेता) के लिये दासोऽहं का भाव रखना अच्छा है 🔆🙏 

भोजन तैयार है । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ मकान के भीतर गए और उन्होंने आसन ग्रहण किया । ब्राह्मण का मकान है व्यंजन कई तरह के तैयार कराये गए हैं, ऊपर से अनेक प्रकार की मिठाइयाँ भी लायी गयी हैं ।

[অন্ন প্রস্তুত। ঠাকুর ভক্তদের সঙ্গে ভিতর-বাড়িতে গেলেন ও আসন গ্রহণ করিলেন। ব্রাহ্মণের বাড়ি ব্যঞ্জনাদি অনেকরকম হইয়াছিল, আর নানবিধ উপাদেয় মিষ্টান্নাদি আয়োজন হইয়াছিল।

The meal was ready. The Master and the devotees went to the inner court, where they were treated to a generous feast.

दिन के तीन बजे का समय होगा । भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण ईशान के बैठकखाने में आकर बैठे । पास में श्रीश और मास्टर बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण श्रीश के साथ फिर बातचीत करने लगे ।

[বেলা ৩টা বাজিয়াছে। আহারান্তে শ্রীরামকৃষ্ণ ঈশানের বৈঠকখানায় আসিয়া বসিয়াছেন। কাছে শ্রীশ ও মাস্টার বসিয়া আছেন। ঠাকুর শ্রীশের সঙ্গে আবার কথা কহিতেছেন।

About three o'clock in the afternoon the Master was seated again in Ishan's drawing-room with M. and Shrish. He resumed his conversation with Shrish.

श्रीरामकृष्ण – तुम्हारा क्या भाव है ? सोऽहं या सेव्य-सेवक ?

“संसारियों के लिए सेव्य-सेवक का भाव बहुत अच्छा है । सब सांसारिक काम तो कर रहे हैं, ऐसी अवस्था में ‘मैं वही हूँ’ यह भाव कैसे आ सकता है ? जो कहता है, ‘मैं वही हूँ’, उसके लिए तो संसार स्वप्नवत् है; उसका अपना शरीर और मन भी स्वप्नवत् है, उसका ‘मैं’ भी स्वप्नवत् है; अतएव संसार का काम वह नहीं कर सकता । इसीलिए सेव्य-सेवक भाव, दास-भाव बहुत अच्छा है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার কি ভাব? সোঽহম্‌ না সেব্য-সেবক?“সংসারীর পক্ষে সেব্য-সেবকভাব খুব ভাল। সব করা যাচ্ছে, সে অবস্থায় ‘আমিই সেই’ এ-ভাব কেমন করে আসে। যে বলে আমিই সেই, তার পক্ষে জগৎ স্বপ্নবৎ, তার নিজের দেহ-মনও স্বপ্নবৎ, তার আমিটা পর্যন্ত স্বপ্নবৎ, কাজে কাজেই সংসারের কাজ সে করতে পারে না। তাই সেবকভাব, দাসভাব খুব ভাল।

MASTER: "What is your attitude toward God? 'I am He', or 'Master and servant'? For the householder it is very good to look on God as the Master. The householder is conscious of doing the duties of life himself. Under such conditions how can he say, 'I am He'? To him who says, 'I am He' the world appears to be a dream. His mind, his body, even his ego, are dreams to him. Therefore he cannot perform worldly duties. So it is very good for the householder to look on himself as the servant and on God as the Master.]

“दास-भाव हनुमान का था । श्रीराम से हनुमान ने कहा था ‘राम, कभी तो मैं सोचता हूँ, तुम पूर्ण हो – मैं अंश हूँ, तुम प्रभु हो – मैं दास हूँ, और जब तत्त्व का ज्ञान हो जाता है, तब देखता हूँ, मैं ही तुम हूँ, और तुम ही मैं हो ।

[“হনুমানের দাসভাব ছিল। রামকে হনুমান বলেছিলেন, ‘রাম, কখন ভাবি তুমি পূর্ণ, আমি অংশ; তুমি প্রভু, আমি দাস; আর যখন তত্ত্বজ্ঞান হয়, তখন দেখি তুমিই আমি, আমিই তুমি।’

"Hanuman had the attitude of a servant. He said to Rama: 'O Rama, sometimes I meditate on You as the whole and on myself as the part. Sometimes I feel that You are the Master and I am the servant. But when I have the Knowledge of Reality, I see that I am You and You are I.'

“तत्त्वज्ञान के समय सोऽहम् हो सकता है, परन्तु वह दूर की बात है ।”

[“তত্ত্বজ্ঞানের সময় সোঽহম্‌ হতে পারে, কিন্তু সে দূরের কথা।”

"In the state of Perfect Knowledge one may feel, 'I am He'; but that is far beyond the ordinary man's experience."] 

श्रीश – जी हाँ, दास-भाव से आदमी निश्चिन्त हो सकता है । प्रभु पर सब कुछ निर्भर है । कुत्ता बड़ा स्वामिभक्त है, इसीलिए स्वामी पर सब भार देकर वह निश्चिन्त रहता है ।

[শ্রীশ — আজ্ঞে হাঁ, দাসভাবে মানুষ নিশ্চিন্ত। প্রভুর উপর সকলই নির্ভর। কুকুর ভারী প্রভুভক্ত, তাই প্রভুর উপর নির্ভর করে নিশ্চিন্ত।

SHRISH: "That is true, sir. The attitude of a servant relieves a man of all his worries. The servant depends entirely upon his master. A dog is devoted to its master. It depends upon him and is at peace."

  [(27 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ] 

 🔆🙏जो साकार (अवतार वरिष्ठ) हैं , वे ही निराकार हैं !!  नाम-महात्म्य 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण – अच्छा, तुम्हें साकार ज्यादा पसन्द है या निराकार ? बात यह है कि जो निराकार है, वही साकार भी है । भक्त की आँखों को वे साकार रूप से दर्शन देते हैं । जैसे अनन्त जलराशि, महासमुद्र, जिसका न ओर है न छोर; उसी जल में कहीं कहीं बर्फ जम गयी है; ज्यादा ठण्डक पहुँचने पर पानी जमकर बर्फ हो जाता है । उसी तरह भक्ति-हिम द्वारा साकार रूप के दर्शन होते हैं ।

फिर जिस तरह सूर्योदय होने पर बर्फ गल जाती है – ज्यों का त्यों पानी हो जाता है, उसी तरह ज्ञानमार्ग या विचार-मार्ग से होकर जाने पर साकार रूप के दर्शन नहीं होते, फिर तो सब निराकार ही निराकार दीख पड़ता है । ज्ञान-सूर्योदय होने पर साकार बर्फ गल जाती है ।

“परन्तु देखो, जिसकी निराकार सत्ता है, उसी की साकार भी है ।”

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, তোমার সাকার না নিরাকার ভাল লাগে? কি জান যিনিই নিরাকার, তিনিই সাকার। ভক্তের চক্ষে তিনি সাকাররূপে দর্শন দেন। যেমন অনন্ত জলরাশি। মহাসমুদ্র। কূল-কিনারা নাই, সেই জলের কোন কোন স্থানে বরফ হয়েছে; বেশি ঠাণ্ডাতে বরফ হয়। ঠিক সেইরূপ ভক্তি-হিমে সাকাররূপ দর্শন হয়। আবার যেমন সূর্য উঠলে বরফ গলে যায় — যেমন জল তেমনি জল, ঠিক সেইরূপ জ্ঞানপথ — বিচারপথ — দিয়ে গেলে সাকাররূপ আর দেখা যায় না; আবার সব নিরাকার। জ্ঞানসূর্য উদয় হওয়াতে সাকার বরফ গলে গেল।“কিন্তু দেখ, যারই নিরাকার, তারই সাকার।”

MASTER: "Well, what suits your taste — God with form or the formless. Reality? But to tell you the truth, He who is formless is also endowed with form. To His bhaktas He reveals Himself as having a form. It is like a great ocean, an infinite expanse of water, without any trace of shore. Here and there some of the water has been frozen. Intense cold has turned it into ice. Just so, under the cooling influence, so to speak, of the bhakta's love, the Infinite appears to take a form. Again, the ice melts when the sun rises; it becomes water as before. Just so, one who follows the path of knowledge — the path of discrimination — does not see the form of God any more. To him everything is formless. The ice melts into formless water with the rise of the Sun of Knowledge. But mark this: form and formlessness belong to one and the same Reality."

शाम होने को है । श्रीरामकृष्ण उठे । अब दक्षिणेश्वर को लौटनेवाले हैं । बैठकखाने के दक्षिण ओर जो बरामदा है, उसी पर खड़े होकर ईशान से बातचीत कर रहे हैं । वहीँ कोई कह रहे हैं, “यह तो मैं नहीं देखता कि ईश्वर का नाम लेने से प्रत्येक समय फल होता है ।”

ईशान ने कहा “यह क्या ? बट का बीज कितना छोटा होता है, परन्तु उसके भीतर कितना बड़ा पेड़ छिपा रहता है पर वह पेड़ देर से दिखायी देता है ।

[সন্ধ্যা হয় হয়, ঠাকুর গাত্রোত্থান করিয়াছেন; এইবার দক্ষিণেশ্বরে প্রত্যাবর্তন করিবেন। বৈঠকখানাঘরের দক্ষিণে যে রক আছে তাহারই উপর দাঁড়াইয়া ঠাকুর ঈশানের সহিত কথা কহিতেছেন। সেইখানে একজন বলিতেছেন যে, ভগবানের নাম নিলেই যে সকল সময় ফল হবে, এমন তো দেখা যায় না। ঈশান বলিলেন, সে কি! অশ্বত্থের বীজ অত ক্ষুদ্র বটে, কিন্তু উহারই ভিতরে বড় বড় গাছ আছে। দেরিতে সে গাছ দেখা যায়।

At dusk the Master was ready to start for Dakshineswar. He stood on the south porch of the drawing-room, talking to Ishan. Someone remarked that the chanting of God's holy name did not always produce results. Ishan said: "How can you say that? The seeds of an aswattha tree are no doubt tiny, but in them lie the germs of big trees. It may take a very long time for them to grow."

श्रीरामकृष्ण - हाँ हाँ, फल देर से होता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ হাঁ, দেরিতে ফল হয়।

"Yes, yes!" said the Master. "It takes a long time to see the effect."

  [(27 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ] 

🔆🙏ईशान चन्द्र मुखर्जी  - क्षेत्रनाथ चटर्जी मकान के बीच परमहंस मार्ग 🔆🙏

ईशान का मकान उनके ससुर स्वर्गीय श्री क्षेत्रनाथ चटर्जी के मकान के पूर्व ओर है । दोनों मकानों में आने-जाने का रास्ता है । श्रीरामकृष्ण चटर्जी महाशय के मकान के फाटक के पास आकर खड़े हुए । ईशान अपने बन्धु-बान्धवों को साथ लेकर श्रीरामकृष्ण को गाड़ी पर चढ़ाने के लिए आए हैं ।

[ईशानचंद्र मुखर्जी *(মুখোপাধ্যায়)- श्री रामकृष्णदेव की विशेष-कृपाप्राप्त गृही भक्त थे । उनका घर नंबर 19, केशवचन्द्र स्ट्रीट, कोलकाता में था। उनका मूल निवास 24 परगना जिले का हरिनाभी ग्राम में था। A. G. Bengal के सुपरिन्टेन्डेन्ट थे। दक्षिणेश्वर में नियमित रूप से श्री रामकृष्ण के सानिध्य में अपना समय बिताया करते थे; परिणामस्वरूप, ईशान चंद्र उनके भक्त बन गए थे। अपने निजी जीवन में, ईशान चंद्र परम् दयालु, दानवीर और ठाकुरदेव के एक समर्पित भक्त के रूप में जाने जाते थे।ठाकुरदेव ने ईशान चंद्र के घर पर कई बार पधार कर उनकी सेवाओं को स्वीकार किया था। ईशान चंद्र ने अपना अंतिम जीवन भाटपारा में साधना-भजन में बीताया था। 1898 में, 73 वर्ष की आयु में, भाटपारा में उनका निधन हो गया। उनके पुत्र श्रीशचंद्र, सतीशचंद्र आदि सभी स्वनाम धन्य थे। श्रीशचन्द्र , विश्वविद्यालय में श्री 'म ' के सहपाठी, मित्र और मेधावी छात्र थे। अपने परिव्राजक जीवन में स्वामी विवेकानन्द गाजीपुर में कुछ दिनों तक इन्हीं सतीश चंद्र के घर पर ठहरे थे।]

श्रीरामकृष्ण ईशान से कह रहे हैं, “तुम संसार में ठीक ‘पाँकाल’ मछली की तरह हो । वह रहती तो है तालाब के बीच में, पर उसकी देह में कीच छू नहीं जाती ।

[ঈশানের বাড়ি, ঈশানের শ্বশুর ৺ক্ষেত্রনাথ চাটুজ্যের বাড়ির পূর্বগায়ে। দুই বাড়ির মধ্যে আনাগোনার পথ আছে। চাটুয্যে মহাশয়ের বাড়ির ফটকে ঠাকুর আসিয়া দাঁড়াইলেন। ঈশান সবান্ধবে ঠাকুরকে গাড়িতে তুলিয়া দিতে আসিয়াছেন। ঠাকুর ঈশানকে বলিতেছেন, 

“তুমি যে সংসারে আছ, ঠিক পাঁকাল মাছের মতো। পুকুরের পাঁকে সে থাকে, কিন্তু গায়ে পাঁক লাগে না। 

​Next to Ishan's was his father-in-law's house. Sri Ramakrishna stood at the door of this house, ready to get into the carriage. Ishan and his friends stood around to bid him adieu. Sri Ramakrishna said to Ishan: "You are living in the world as a mudfish lives in the mud. It lives in the mud but its body is not stained.

“माया के इस संसार में विद्या और अविद्या दोनों ही हैं । परमहंस वह है, जो हंस की तरह दूध और पानी के एक साथ रहने पर भी पानी छोड़कर दूध निकाल लेता है; चींटी की तरह बालू और चीनी के मिले रहने पर भी बालू में से चीनी निकाल ले सकता है ।”

[“এই মায়ার সংসারে বিদ্যা, অবিদ্যা দুই-ই আছে। পরমহংস কাকে বলি? যিনি হাঁসের মতো দুধে-জলে একসঙ্গে থাকলেও জলটি ছেড়ে দুধটি নিতে পারেন। পিঁপড়ের ন্যায় বালিতে চিনিতে একসঙ্গে থাকলেও বালি ছেড়ে চিনিটুকু গ্রহণ করতে পারেন।”

There are both vidya and avidya in this world of maya. Who may be called a paramahamsa? He who, like a swan, can take the milk from a mixture of milk and water, leaving aside the water. He who, like an ant, can take the sugar from a mixture of sugar and sand, leaving aside the sand."

(३)

  [(27 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ] 

🔆🙏 सच्चा वैष्णव, शैव -शाक्त किसी भी मार्ग की निन्दा नहीं करता  🔆🙏

शाम हो गयी है । श्रीरामकृष्ण भक्त रामचन्द्र के घर आए हुए हैं । यहाँ से होकर दक्षिणेश्वर जाएँगे ।

रामचन्द्र के बैठकखाने को आलोकित करते हुए भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । श्री महेन्द्र गोस्वामी से बातचीत कर रहे हैं । गोस्वामीजी उसी मोहल्ले में रहते हैं । श्रीरामकृष्ण इन्हें प्यार करते हैं। जब श्रीरामकृष्ण रामचन्द्र के यहाँ आते हैं तब गोस्वामीजी आकर इनसे मिल जाया करते हैं ।

[महेंद्र गोस्वामी - वैष्णव सम्प्रदाय के साथ युक्त , श्री रामकृष्ण के भक्त थे। रामचंद्र दत्त और सुरेंद्र के पड़ोसी थे। चूँकि वे धर्म के बारे में रूढ़िवादी नहीं थे, वे श्री रामकृष्ण के विचारों और उनके उपदेशों में रुचि रखते थे। जब कभी श्रीरामकृष्ण रामचंद्र दत्त के घर पर पधारते थे, तब वे ठाकुर से मिलते रहते थे। दक्षिणेश्वर में कुछ दिनों तक ठाकुर के सानिध्य में रहे थे , और उनके भावों को ग्रहण कर उदार वैष्णव बन गए थे। ] 

[সন্ধ্যা হইয়াছে। ভক্ত শ্রীযুক্ত রামচন্দ্র দত্তের বাড়িতে ঠাকুর আসিয়াছেন। এখান হইতে তবে দক্ষিণেশ্বরে যাইবেন।রামের বৈঠকখানা ঘরটি আলো করিয়া ঠাকুর ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। শ্রীযুক্ত মহেন্দ্র গোস্বামীর সঙ্গে কথা কহিতেছেন। গোস্বামীর বাড়ি ওই পাড়াতেই। ঠাকুর তাঁহাকে ভালবাসেন। তিনি রামের বাড়িতে এলেই গোস্বামী আসিয়া প্রায়ই দেখা করেন।

It was evening. The Master stopped at Ram's house on his way to Dakshineswar. He was taken to the drawing-room and there he engaged in conversation with Mahendra Goswami. Mahendra belonged to the Vaishnava sect and was Ram's neighbour. Sri Ramakrishna was fond of him.

श्रीरामकृष्ण - वैष्णव, शाक्त सब के पहुँचने की जगह एक है; परन्तु मार्ग और और हैं । जो सच्चे वैष्णव हैं, वे शक्ति की निन्दा नहीं करते

[শ্রীরামকৃষ্ণ — বৈষ্ণব, শাক্ত সকলেরই পৌঁছিবার স্থান এক; তবে পথ আলাদা। ঠিক ঠিক বৈষ্ণবেরা শক্তির নিন্দা করে না।

MASTER: 'The worshippers of Vishnu and the worshippers of Sakti will all ultimately reach one and the same goal; the ways may be different. The true Vaishnavas do not criticize the Saktas."

गोस्वामी(सहास्य) – हर-पार्वती हमारे माँ बाप हैं ।

[গোস্বামী (সহাস্যে) — হর-পার্বতী আমাদের বাপ-মা।

GOSWAMI (smiling): "Siva and Parvati are our Father and Mother."

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - Thank You (थैंक यू) – माँ बाप हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — Thank you; ‘বাপ-মা’।

Sri Ramakrishna, out of his stock of a dozen English words, said sweetly, "Thank you!" Then he added, "Yes, Father and Mother!"

  [(27 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-71 ] 

 🔆🙏ईश्वर-कोटि (नेता -जीवनमुक्त शिक्षक) से अपराध नहीं होता 🔆🙏

गोस्वामी इसके सिवाय किसी की निन्दा करने से, खास कर वैष्णवों की निन्दा से, अपराध होता है – वैष्णवापराध । सब अपराधों की क्षमा है, परन्तु वैष्णवापराध की क्षमा नहीं है ।

[গোস্বামী — তা ছাড়া কারুকে নিন্দা করা, বিশেষতঃ বৈষ্ণবের নিন্দা করায়, অপরাধ হয়। বৈষ্ণবাপরাধ। সব অপরাধের মাফ আছে, বৈষ্ণবাপরাধের মাফ নাই।

GOSWAMI: "Besides, it is a sin to criticize anyone, especially a devotee of God. All sins may be forgiven, but not the sin of criticizing a devotee."

श्रीरामकृष्ण – अपराध सब को नहीं होता । जो ईश्वरकोटि हैं, उनको अपराध नहीं होता । जैसे श्रीचैतन्यसदृश अवतारी पुरुषों को ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — অপরাধ সকলের হয় না। ঈশ্বরকোটির অপরাধ হয় না। যেমন চৈতন্যদেবের ন্যায় অবতারের।

MASTER: "But this idea of sin does not by any means affect all. For instance, the Isvarakotis, such as Incarnations of God, are above sin. Sri Chaitanya is an example.

“बच्चा अगर बाप का हाथ पकड़कर चलता हो, तो वह गड्ढे में गिर सकता है, परन्तु अगर बाप बच्चे का हाथ पकड़े हुए हो तो बच्चा कभी नहीं गिर सकता ।

[“ছেলে যদি বাপকে ধরে আলের উপর দিয়ে চলে, তাহলে বরং খানায় পড়তে পারে। কিন্তু বাপ যদি ছেলের হাত ধরে, সে ছেলে কখনও পড়ে না।"

A child, walking on a narrow ridge and holding to his father, may slip into the ditch. But that can never happen if the father holds the child by the hand.

“सुनो, मैंने माँ से शुद्धा-भक्ति की प्रार्थना की थी । माँ से कहा था, ‘यह लो अपना धर्म, यह लो अपना अधर्म; मुझे शुद्धा-भक्ति दो । यह लो अपनी शुचि, यह लो अपनी अशुचि, मुझे शुद्धा-भक्ति दो । माँ, यह लो अपना पाप यह लो अपना पुण्य, मुझे शुद्धा-भक्ति दो ।”

[“শোন, আমি মার কাছে শুদ্ধাভক্তি চেয়েছিলাম। মাকে বলেছিলাম, এই লও তোমার ধর্ম, এই লও তোমার অধর্ম; আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও। এই লও তোমার শুচি, এই লও তোমার অশুচি; আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও। মা, এই লও তোমার পাপ, এই লও তোমার পুণ্য; আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও।”

"Listen. I prayed to the Divine Mother for pure love. I said to Her: 'Here is Thy righteousness, here is Thy unrighteousness. Take them both and give me pure love for Thee. Here is Thy purity, here is Thy impurity. Take them both and give me pure love for Thee. O Mother, here is Thy virtue, here is Thy vice. Take them both and give me pure love for Thee.'] 

गोस्वामी – जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण – सब भक्तों को नमस्कार करना । परन्तु ‘निष्ठाभक्ति’ भी है । सब को प्रणाम तो करना, परन्तु हृदय का उमड़ता हुआ प्यार एक ही पर हो । इसी का नाम निष्ठा है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সব মতকে নমস্কার করবে, তবে একটি আছে নিষ্ঠাভক্তি। সবাইকে প্রণাম করবে বটে, কিন্তু একটির উপরে প্রাণ-ঢালা ভালবাসার নাম নিষ্ঠা।

MASTER: "You should undoubtedly bow before all views. But there is a thing called unswerving devotion to one ideal. True, you should salute everyone. But you must love one ideal with your whole soul. That is unswerving devotion.

“राम-रूप के सिवाय और कोई रूप हनुमान को न भाता था । गोपियों की इतनी निष्ठा थी कि उन्होंने द्वारका में पगड़ीवाले श्रीकृष्ण को देखना ही न चाहा ।

[“রাম রূপ বই আর কোনও রূপ হনুমানের ভাল লাগতো না। “গোপীদের এত নিষ্ঠা যে, তারা দ্বারকায় পাগড়িবাঁধা শ্রীকৃষ্ণকে দেখতে চাইলে না।

 "Hanuman could not take delight in any other form than that of Rama. The gopis had such single-minded love for the cowherd Krishna of Vrindavan that they did not care to see the turbaned Krishna of Dwaraka.

“स्त्री अपने देवर-जेठ आदि को पैर धोने के लिए पानी और बैठने को आसन आदि देकर सेवा करती है; परन्तु पति की जैसी सेवा करती है, वैसी वह किसी दूसरे की नहीं करती । पति के साथ उसका सम्बन्ध कुछ दूसरा है ।”

[“পত্নী, দেওর-ভাশুর ইত্যাদিকে পা ধোয়ার জল আসনাদির দ্বারা সেবা করে, কিন্তু পতিকে যেরূপ সেবা করে, সেরূপ সেবা আর কাহাকেও করে না। পতির সঙ্গে সম্বন্ধ আলাদা।”

"A wife may serve her husband's brothers by fetching water, or in other ways, but she cannot serve them in the way she does her husband. With him she has a special relationship."

रामचन्द्र ने कुछ मिठाइयाँ देकर श्रीरामकृष्ण की पूजा की ।

अब वे दक्षिणेश्वर जानेवाले हैं । मणि से उन्होंने बनात (ऊनि शॉल) लेकर शरीर ढक लिया और टोपी पहन ली । अब भक्तों के साथ वे गाड़ी पर चढ़ने लगे । रामचन्द्र आदि भक्त उन्हें चढ़ा रहा हैं, मणि भी गाड़ी पर बैठे, वे भी दक्षिणेश्वर लौट जाएँगे ।

[রাম ঠাকুরকে কিছু মিষ্টান্নাদি দিয়া পূজা করিলেন।ঠাকুর এইবার দক্ষিণেশ্বরে যাত্রা করিবেন। মণির কাছ থেকে গায়ের বনাত ও টুপি লইয়া পরিলেন। বনাতের কানঢাকা টুপি। ঠাকুর ভক্তসঙ্গে গাড়িতে উঠিতেছেন। রামাদি ভক্তেরা তাঁহাকে তুলিয়া দিতেছেন। মণিও গাড়িতে উঠিলেন, দক্ষিণেশ্বরে ফিরিয়া যাইবেন।

Ram treated the Master to sweets. Sri Ramakrishna was ready to start for Dakshineswar. He put on his woolen shawl and cap, and got into the carriage with M. and the other devotees. Ram and his friends saluted the Master.

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अभ्यास-योग (yoga of practice-3H विकास के 5 अभ्यास) और निर्जन में साधना*मनुष्य जीवन का उद्देश्य है - ईश्वर प्राप्ति — परा और अपरा विद्या —विज्ञानी दूध पिता है !दादा के बाद (2016 के बाद) के महामण्डल नेता का काम है, अपनी जादुई क्षमता या व्यक्तिगत गुणों के आधार पर संगठन का नेतृत्व करना तथा -'CS को DS' तक ले जाना ! अर्थात  संगठन की वर्तमान ताकत (Current Strength) को वांछित ताकत ( Desired Strength) तक ले जाना/ *मुमुक्षुत्वं या ईश्वर को देखने की व्याकुलता -समय सापेक्ष*(कौन एथेंस का सत्यार्थी होगा या परम् सत्य का खोजी होगा - यह पूर्वजन्म से ही तय किया हुआ है ! )/[अपने गुरु (नेता/CINC- नवनीदा) को आम मुखतारी (Power of Attorney) दे दो ! ईश्वर जब मनुष्य बनतें हैं, तब ठीक मनुष्य की तरह व्यवहार करते हैं । /[शिष्य दो प्रकार के होते हैं - बन्दर का बच्चा और बिल्ली का बच्चा]/  *ईश्वर कर्ता हैं, तथापि कर्मों के लिए जीव उत्तरदायी है*/*गृहस्थों (प्रवृत्ति मार्ग) के लिए- ज्ञानयोग या भक्तियोग अच्छा ? */[ कामिनी-कांचन में अनासक्त गृहस्थ की -परमहंस की अवस्था !]/* सच्चा वैष्णव, शैव-शाक्त मार्ग की निन्दा नहीं करता* /*ईश्वर-कोटि से अन्य धर्मों के लिए निंदा-अपराध नहीं होता * परन्तु ‘निष्ठाभक्ति’ भी है । / *कर्मयोग । क्या चिरकाल तक कर्म करना पड़ेगा ? */ कर्मबन्धन की महाऔषधि -ईश्वर को जानकर उनकी शरण में जाने से पाप -पुण्य से परे जाना कर्मयोग ]

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