[ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
*परिच्छेद १२९~योग तथा पाण्डित्य*
(१)
श्यामपुकुर में भक्तों के संग में
🔱🙏श्रीरामकृष्ण के दो किशोरभक्त पूर्णचन्द्र घोष और मणिन्द्रकृष्ण गुप्ता🔱🙏
आज शुक्रवार है, आश्विन की सप्तमी, 30 अक्टूबर 1885, श्रीरामकृष्ण चिकित्सा के लिए श्यामपुकुर आये हुए हैं । दुमँजले के एक कमरे में बैठे हुए हैं, दिन के नौ बजे का समय होगा, मास्टर से एकान्त में बातचीत कर रहे हैं । मास्टर डाक्टर सरकार के यहाँ जाकर पीड़ा की खबर देंगे और उन्हें साथ ले आयेंगे । श्रीरामकृष्ण का शरीर इतना अस्वस्थ तो है, परन्तु इतने पर भी वे दिन-रात भक्तों की मंगल कामना और उनके लिए चिन्ता किया करते हैं ।
Friday, October 30, 1885-It was nine o'clock in the morning. Sri Ramakrishna was talking with M. in his room. No one else was present. M. was going to Dr. Sarkar to report his condition and bring him to examine the Master.
শুক্রবার আশ্বিনের কৃষ্ণপক্ষের সপ্তমী; ১৫ই কার্তিক; ৩০শে অক্টোবর, ১৮৮৫। শ্রীরামকৃষ্ণ শ্যামপুকুরে চিকিৎসার্থ আসিয়াছেন। দোতলার ঘরে আছেন; বেলা ৯টা; মাস্টারের সহিত একাকী কথা কহিতেছেন; মাস্টার ডাক্তার সরকারের কাছে গিয়া পীড়ার খবর দিবেন ও তাঁহাকে সঙ্গে করিয়া আনিবেন। ঠাকুরের শরীর এত অসুস্থ; — কিন্তু কেবল ভক্তদের জন্য চিন্তা!
[ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🕊🏹ईश्वर पुरुष है और जीव ["The pot (M/F)or 'I'-consciousness"] प्रकृति है🕊🏹
[God is Purusha (चैतन्य-शाश्वत) and man is Prakriti (मिथ्या अहं बोध जड़-नश्वर) ]
(গোপীভাব, সখীভাব; ঈশ্বর পুরুষ আর আমি যেন প্রকৃতি।)
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से, सहास्य) - आज सबेरे पूर्ण *#आया था । बहुत अच्छा स्वभाव हो गया है । मणिन्द्र [मणिन्द्रकृष्ण गुप्ता (1871 - 1939)] का प्रकृति-भाव है । कितने आश्चर्य की बात है ! चैतन्य-चरित पढ़कर मणिन्द्र के मन में गोपीभाव, सखीभाव (handmaid-दासी) की धारणा हो गयी है - यह भाव कि 'ईश्वर पुरुष हैं और मैं मानो प्रकृति ।'
MASTER (to M., smiling): "Purna came this morning. He has such a nice nature! Manindra has an element of Prakriti, of womanliness. He has read the life of Chaitanya and understood the attitude of the gopis. He has also realized that God is Purusha and man is Prakriti, and that man should worship God as His handmaid. How remarkable!"
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি, সহাস্যে) — আজ সকালে পূর্ণ এসেছিল। বেশ স্বভাব। মণীন্দ্রের প্রকৃতিভাব। কি আশ্চর্য! চৈতন্যচরিত পড়ে ওইটি মনে ধারণা হয়েছে — গোপীভাব, সখীভাব; ঈশ্বর পুরুষ আর আমি যেন প্রকৃতি।
मास्टर - जी हाँ ।
M: "It is true, sir."
মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ।
[#पूर्ण [श्री पूर्णचंद्र घोष (1871 - 1913)] -उनका जन्म भी कलकत्ता के सिमुलिया मुहल्ले में ही हुआ था। ठाकुरदेव का प्रथम दर्शन उन्हें बीमारी होने से कुछ महीने पहले मार्च 1885 ई. में प्राप्त हुआ था । श्री श्री ठाकुर ने अपने समस्त गृहस्थ भक्तों में पूर्ण की पहचान ईश्वरकोटि के रूप में की थी । (जो चहार दिवारी के उस पार नहीं फाँदता वापस लौट आता है ?) उनके पिता रॉय बहादुर दीनानाथ घोष - उच्च पदस्थ सरकारी कर्मचारी थे। मास्टर महाशय की सलाह पर किशोरावस्था में ही वे दक्षिणेश्वर जाकर उनके सम्पर्क में आये। ठाकुर देव ने पूर्ण से कह रखा था कि जब भी उसे उनके पास आना सुविधाजनक लगे, वह ठाकुर के पास आ सकते हैं । यद्यपि राज्य से बाहर सरकारी कार्यों में वे लगे रहते थे, फिर भी श्रीश्री ठाकुर के चिंतन-मनन मे लीन रहते थे। स्वामीजी के प्रति उनका गहरा स्नेह था। जब स्वामीजी की भक्त मैडम काल्वे कलकत्ता आईं तो विवेकानन्द सोसायटी के सचिव के रूप में उनका स्वागत पूर्ण ने ही किया था। 42 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। श्री श्री ठाकुर ने कहा था कि पूर्णचंद्र 'विष्णु' (नेता) के अंश से पैदा हुए थे ; और उनके आगमन के बाद उस ईश्वरकोटि (नेता श्रेणी, पैगम्बर श्रेणी) के भक्तों की संख्या पूरी हो गयी है । শ্রীশ্রীঠাকুর বলিয়াছিলেন পূর্ণচন্দ্রের ‘বিষ্ণুর অংশে জন্ম’ এবং তাঁহার আগমনে ওই শ্রেণীর ভক্তদের আগমন পূর্ণ হইল। ]
[ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🏹 श्री रामकृष्ण ने स्वयं अपने किशोर भक्त पूर्णचन्द्र के घर पहुँचकर दीक्षा दी थी 🏹
पूर्णचन्द्र स्कूल में पढ़ता है, उम्र १५-१६ साल की होगी । पूर्ण को देखने के लिए श्रीरामकृष्ण बहुत व्याकुल होते हैं । परन्तु घरवाले उसे आने नहीं देते । बीमारी शुरू होने के पहले एक रात को पूर्ण को देखने के लिए वे इतने व्याकुल हुए थे कि उसी समय वे दक्षिणेश्वर से एकाएक मास्टर के घर चले गये थे । मास्टर ने पूर्ण को घर से ले आकर साक्षात् करा दिया था । ईश्वर को किस तरह पुकारना चाहिए आदि बातें उसके साथ करने के पश्चात् (अर्थात प्रभु-नाम के बीजमंत्र की दीक्षा देने के बाद ?) वे दक्षिणेश्वर लौटे थे । मनिन्द्र भी पूर्ण की उम्र का ही था। भक्तगण उसे "खोका" (बच्चा) कहकर पुकारते थे । वह "खोका" ईश्वर के नाम-संकीर्तन को सुनकर भावावेश में नाचने लगता था ।
Purna was then fifteen or sixteen years old. Sri Ramakrishna always longed to see him. But his relatives did not allow him to visit the Master. One night, before his illness, Sri Ramakrishna had been so eager to see Purna that he had suddenly left Dakshineswar and arrived at M.'s house in Calcutta. M. had brought Purna from his home to see Sri Ramakrishna. The Master had given the boy many instructions about prayer and had afterwards returned to Dakshineswar. Manindra was about the same age as Purna. The devotees addressed him as "khoka". (Baby.) He used to dance in ecstasy when he heard the chanting of God's name.
পূর্ণচন্দ্র স্কুলের ছেলে, বয়স ১৫।১৬। পূর্ণকে দেখিবার জন্য ঠাকুর বড় ব্যাকুল হন, কিন্তু বাড়িতে তাহাকে আসিতে দেয় না। দেখিবার জন্য প্রথম প্রথম এত ব্যাকুল হইয়াছিলেন যে, একদিন রাত্রে তিনি দক্ষিণেশ্বর হইতে হঠাৎ মাস্টারের বাড়িতে উপস্থিত। মাস্টার পূর্ণকে বাড়ি হইতে সঙ্গে করিয়া আনিয়া দেখা করাইয়া দিয়াছিলেন। ঈশ্বরকে কিরূপে ডাকিতে হয়, — তাহার সহিত এইরূপ অনেক কথাবার্তার পর — ঠাকুর দক্ষিণেশ্বরে ফিরিয়া যান।মণীন্দ্রের বয়সও ১৫।১৬ হইবে। ভক্তেরা তাঁহাকে খোকা বলিয়া ডাকিতেন, এখনও ডাকেন। ছেলেটি ভগবানের নামগুণগান শুনিলে ভাবে বিভোর হইয়া নৃত্য করিত।
{'मणिंद्र खोका' [मणिंद्रकृष्ण गुप्ता (1871 - 1939)] - मणिंद्र (खोका) ने ग्यारह साल की उम्र में पहली बार दक्षिणेश्वर में ठाकुरदेव से मुलाकात की थी। वह अपने बड़े भाई उपेन्द्रकिशोर और ब्रह्मबांधव उपाध्याय के साथ आए थे। वे ठाकुर के प्रेमपूर्ण व्यवहार से उनकी ओर आकर्षित हुए थे। उस समय वह अपने पिता के साथ उनकी कर्मस्थली भागलपुर में रहा करते थे। फिर जब बीमारी के समय ठाकुर श्यामपुकुर, कलकत्ता में रहने लगे। तब 15 साल की उम्र में सारदा प्रसन्ना के साथ 1885 में वे पुनः ठाकुर से मिलने आये। ठाकुर ने उन्हें पहचान लिया और उनसे फिर मिलने के लिए कहा। अगले दिन जब ठाकुर से मिलने पहुँचे तब देखते ही स्नेह से भरकर समाधिस्थ हो गए थे। इसके बाद उनसे मिलने के लिए वे प्रतिदिन जाने लगे, और उन्हें अपने गुरु रूप में स्वीकार कर लिया। वे काशीपुर उद्यान भवन में बीमार ठाकुर देव को पंखा झला करते थे। 1886 ई. में दोल यात्रा (दोल पूर्णिमा चैतन्य महाप्रभु का जन्मदिन) के दिन ठाकुर ने उन्हें अपने मित्रों के साथ होली खेलने के लिए घर जाने का निर्देश दिया, किन्तु ठाकुर को अकेले छोड़कर जाने से सहमत नहीं हुए। उस दिन ठाकुरदेव ने आंसू भरी आंखों से उन्हें देखते हुए अपना 'राम-लला' कह कर उल्लेख किया था। बाद के जीवन में विवाह करने के बाद भी, श्रीरामकृष्ण देव के शिष्यों के साथ उनका घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहा। और रामकृष्ण मिशन के आदर्शों में उनकी श्रद्धा आजीवन अविचल बनी रही थी। }
(२)
*डाक्टर तथा मास्टर*
[ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🕊🏹गुरु बिना श्रद्धा नहीं, श्रद्धा बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान बिना भक्ति नहीं 🕊🏹
[#टेक:- गुरु बिना ज्ञान, ज्ञान बिना भक्ति ,भक्ति बिना कल्याण नहीं। श्रद्धा और विश्वास बिना कहीं मिलते हैं भगवान नहीं ।। ज्ञानी बन्दर का बच्चा, भक्त बिल्ली का बच्चा।]
दिन के साढ़े दस बजे का समय है । मास्टर डाक्टर सरकार के घर आये हुए हैं । रास्ते पर दुमँजले के बैठकखाने का बरामदा है, वहीं वे डाक्टर के साथ बेंच पर बैठे हुए बातचीत कर रहे हैं। डाक्टर के सामने ग्लास-केस में (aquarium में ?) पानी है और उसमें लाल मछलियाँ क्रीड़ा कर रही हैं । डाक्टर रह-रहकर इलायची का छिलका पानी में डाल रहे हैं और मैदे की गोलियाँ बनाकर छत पर फेंक रहे हैं, गौरैयों को चुगाने के लिए । मास्टर बैठे हुए देख रहे हैं ।
About half past ten M. arrived at Dr. Sarkar's house. He went up to the second floor and sat in a chair on the porch adjacent to the drawing room. In front of Dr. Sarkar was a glass bowl in which some goldfish were kept. Now and then Dr. Sarkar threw some cardamom shells into the bowl. Again, he threw pellets of flour to the sparrows. M. watched him.
বেলা ১০টা-১০৷৷টা। ডাক্তার সরকারের বাড়ি মাস্টার গিয়াছেন। রাস্তার উপর দোতলার বৈঠকখানার ঘরের বারান্দা, সেইখানে ডাক্তারের সঙ্গে কাষ্ঠাসনে বসিয়া কথা কহিতেছেন। ডাক্তারের সম্মুখে কাঁচের আধারে জল, তাহাতে লাল মাছ খেলা করিতেছে। ডাক্তার মাঝে মাঝে এলাচের খোসা জলে ফেলিয়া দিতেছেন। এক-একবার ময়দার গুলি পাকাইয়া খোলা ছাদের দিকে চড়ুই পাখিদের আহারের জন্য ফেলিয়া দিতেছেন। মাস্টার দেখিতেছেন।
डाक्टर - (मास्टर से, सहास्य) - यह देखो, ये (लाल मछलियाँ) मेरी ओर देख रही हैं, जैसे भक्त भगवान की ओर देख रहे हों; परन्तु इन्होंने यह नहीं देखा कि मैंने इधर इलायची का छिलका फेंका है । इसीलिए कहता हूँ; केवल भक्ति से क्या होगा ? ज्ञान चाहिए । (मास्टर हँस रहे हैं) और वह देखो, गौरैये उड़ गये; उधर मैंने मैदे की गोली फेंकी तो उन्हें इससे भय हो गया । उनमें भक्ति नहीं है, क्योंकि उनमें ज्ञान नहीं । वे जानती नहीं कि यह उनके खाने की चीज है ।
DOCTOR (smiling, to M.): "You see, these goldfish are staring at me like devotees staring at God. They haven't noticed the food I have thrown into the water. Therefore I say, what will you gain by mere bhakti? You need knowledge too. (M. smiles.) Look there at the sparrows! They flew away when I threw flour pellets to them. They were frightened. They have no bhakti because they are without knowledge. They don't know that flour is their food."
ডাক্তার (মাস্টারের প্রতি সহাস্যে) — এই দেখ, এরা (লাল মাছ) আমার দিকে চেয়ে আছে, কিন্তু উদিকে যে এলাচের খোসা ফেলে দিইছি তা দেখে নাই, তাই বলি, শুধু ভক্তিতে কি হবে, জ্ঞান চাই। (মাস্টারের হাস্য)। ওই দেখ, চড়ুই পাখি উড়ে গেল; ময়দার গুলি ফেললুম, ওর দেখে ভয় হল। ওর ভক্তি হল না, জ্ঞান নাই বলে। জানে না যে খাবার জিনিস।
डाक्टर बैठकखाने में आकर बैठे । चारों ओर आलमारी में ढेरों पुस्तकें रखी हैं । डाक्टर जरा विश्राम कर रहे हैं । मास्टर पुस्तक देख रहे हैं और एक एक पुस्तक लेकर पढ़ रहे हैं । अन्त में कैनन फैरर की लिखी ईशु की जीवनी थोड़ी देर पढ़ते रहे । डाक्टर बीच-बीच में गप्पें भी लड़ा रहे हैं । डॉक्टर महेन्द्रलाल सरकार जैसे एलोपैथिक डाक्टर को भी तात्कालीन भारत की राजधानी कोलकाता में- होमियोपैथिक अस्पताल बनाने कितना कष्ट करना पड़ा था, इस सम्बन्ध की चिट्ठियाँ और दूसरे दूसरे कागजात मास्टर से पढ़ने के लिए कहा । और कहा, "ये सब चिट्ठियाँ 1876 के ‘कलकत्ता जनरल ऑफ मेडीसीन्’ में मिलेंगी ।" होमियोपैथी पर डाक्टर का बड़ा विश्वास है ।
Dr. Sarkar and M. entered the drawing-room. There were shelves all around filled with books. The doctor rested a little. M. looked at the books. He picked up Canon Farrar's Life of Jesus and read a few pages. Dr. Sarkar told M. how the first homeopathic hospital was started in the teeth of great opposition. He asked M. to read the letters relating to it, which had been published in the "Calcutta Journal of Medicine" in 1876. Dr. Sarkar was much devoted to homeopathy.
ডাক্তার বৈঠকখানার মধ্যে আসিয়া বসিলেন। চতুর্দিকে আলমারিতে স্তুপাকার বই। ডাক্তার একটু বিশ্রাম করিতেছেন। মাস্টার বই দেখিতেছেন ও একখানি লইয়া পড়িতেছেন। শেষে কিয়ৎক্ষণ পড়িতেছেন — Canon Farrar's Life of Jesus.ডাক্তার মাঝে মাঝে গল্প করিতেছেন। কত কষ্টে হোমিওপ্যাথিক হস্পিট্যাল্ হইয়াছিল, সেই সকল ব্যাপার সম্বন্ধীয় চিঠিপত্র পড়িতে বলিলেন, আর বলিলেন যে, “ওই সকল চিঠিপত্র ১৮৭৬ খ্রীষ্টাব্দের “ক্যালকাটা জার্ণাল্ অব মেডিসিন’-এ পাওয়া যাইবে।” ডাক্তারের হোমিওপ্যাথির উপর খুব অনুরাগ।
मास्टर ने एक और पुस्तक उठायी, मुँगर कृत 'नया धर्म' (Munger's New Theology) । डाक्टर ने उसे देखा ।
M. picked up another book, Munger's New Theology. Dr. Sarkar noticed it.
মাস্টার আর একখানি বই বাহির করিয়াছেন, Munger's New Theology। ডাক্তার দেখিলেন।
डाक्टर – मुँगर के सिद्धान्त युक्तियों और तार्किक विचारों पर अवलम्बित हैं । इसमें ऐसा नहीं लिखा है कि चैतन्य, बुद्ध या ईशु ने अमुक बात कही है, अतएव इसे मानना चाहिए ।
DOCTOR: "Munger has based his conclusions on nice argument and reasoning. It is not like your believing a thing simply because a Chaitanya or a Buddha or a Jesus Christ has said so."
ডাক্তার — Munger বেশ যুক্তি বিচারের উপর সিদ্ধান্ত করেছে। এ তোমার চৈতন্য অমুক কথা বলেছে, কি বুদ্ধ বলেছে, কি যীশুখ্রীষ্ট বলেছে, — তাই বিশ্বাস করতে হবে, — তা নয়।
मास्टर - (हँसकर) - चैतन्य और बुद्ध की बातें नहीं, परन्तु मुँगर ने कही, इसलिए बात माननीय है !
M. (smiling): "Yes, we should not believe Chaitanya or Buddha; but we must believe Munger!"
মাস্টার (সহাস্যে) — চৈতন্য, বুদ্ধ, নয়; তবে ইনি (Munger)।
डाक्टर - तुम्हारी इच्छा, चाहे जो कहो ।
DOCTOR: "Whatever you say."
ডাক্তার — তা তুমি যা বল।
मास्टर - हाँ, किसी न किसी का नाम प्रमाण के लिए लेना ही पड़ता है, इसलिए मुँगर का ही नाम सही ! (डाक्टर जोर से हँसते हैं)
M: "We must quote someone as our authority; so it is Munger." (The doctor smiles.)
মাস্টার — একজন তো কেউ বলছে। তাহলে দাঁড়ালো ইনি। (ডাক্তারের হাস্য)
डाक्टर गाड़ी पर बैठे, साथ साथ मास्टर भी । गाड़ी श्यामपुकुर की ओर जा रही है । दोपहर का समय है । दोनों बातचीत करते हुए जा रहे हैं । डाक्टर भादुड़ी की चर्चा भी बीच-बीच में आती है, क्योंकि ये श्रीरामकृष्ण के पास कभी-कभी आते हैं ।
Dr. Sarkar got into his carriage accompanied by M. The carriage proceeded toward Syampukur. It was midday. They gossiped together. The conversation turned to Dr. Bhaduri, who had also been visiting the Master now and then.
ডাক্তার গাড়িতে উঠিয়াছেন, মাস্টার সঙ্গে সঙ্গে উঠিয়াছেন। গাড়ি শ্যামপুকুর অভিমুখে যাইতেছে, বেলা দুই প্রহর হইয়াছে। দুইজনে গল্প করিতে করিতে যাইতেছেন। ডাক্তার ভাদুড়ীও মাঝে মাঝে ঠাকুরকে দেখিতে আসেন; তাঁহারই কথা পড়িল।
मास्टर - (सहास्य) - आपके लिए भादुड़ी ने कहा है कि ईंट और पत्थर से जन्म फिर शुरू करना होगा ।
M. (smiling): "Bhaduri said about you that you must begin all over again from the stone and brick-bat."
মাস্টার (সহাস্যে) — আপনাকে ভাদুড়ী বলেছেন, ইটপাটকেল থেকে আরম্ভ করতে হবে।
डाक्टर - वह कैसा ?
DR. SARKAR: "How is that?"
ডাক্তার — সে কিরকম?
मास्टर - आप महात्मा (महापुरुष, नेता , पैगम्बर, जीवनमुक्त शिक्षक) या सूक्ष्म शरीर आदि बातें तो मानते नहीं । भादुड़ी महाशय, जान पड़ता है, थियोसफिस्ट हैं; इसके अतिरिक्त आप अवतार-लीला भी नहीं मानते । इसीलिए उन्होंने शायद हँसी में कहा था कि अब की बार मरने पर आपका मनुष्य के घर जन्म तो होगा ही नहीं, कोई जीव-जन्तु, पेड़-पौधा भी आप न होंगे । आपको कंकड़-पत्थर से ही श्रीगणेश करना होगा ! फिर बहुत से जन्मों के बाद आदमी हों तो हो ।
M: "Because you don't believe in the mahatmas, astral bodies, and so forth. Perhaps Bhaduri is a Theosophist. Further, you don't believe in the Incarnation of God. That is why he teased you, saying that when you died this time you would certainly not be reborn as a human being. That would be far off. You wouldn't be born even as an animal or bird, or even as a tree or a plant. You would have to begin all over again, from stone and brick-bat. Then, after many, many births, you might assume a human body."
মাস্টার — মহাত্মা, সূক্ষ্ম শরীর, এসব আপনি মানেন না। ভাদুড়ী মহাশয় বোধ হয় থিয়সফিস্ট্। তা ছাড়া, আপনি অবতারলীলা মানেন না। তাই তিনি বুঝি ঠাট্টা করে বলেছেন, এবার মলে মানুষ জন্ম তো হবেই না; কোনও জীবজন্তু, গাছপালা কিছুই হতে পারবেন না! ইটপাটকেল থেকে আরম্ভ করতে হবে, তারপর অনেক জন্মের পর যদি কখনও মানুষ হন!
डाक्टर - अरे बाप रे !
DR. SARKAR: "Goodness gracious!"
ডাক্তার — ও বাবা!
मास्टर - और यह भी कहा है कि साइन्स के सहारे आपका जो ज्ञान है, वह मिथ्या है; क्योंकि वह अभी अभी है और अभी अभी नहीं । उन्होंने उपमा भी दी है । जैसे दो कुएँ हैं । एक में नीचे स्त्रोत है, उसी से पानी आता है । दूसरे में स्रोत नहीं है, वह बरसात के पानी से भर गया है । वह पानी अधिक दिन रुक नहीं सकता । आपका साइन्स का ज्ञान भी बरसात के पानी की तरह है, वह सूख जायेगा ।
M: "Bhaduri further said that the knowledge of your physical science was a false knowledge. Such knowledge is momentary. He gave an analogy. Suppose there are two wells. The one gets its water from an underground spring. The other has no such spring and is filled with rain-water. But the water of the second well does not last a long time. The knowledge of your science is like the rain-water. It dries up."
মাস্টার — আর বলছেন, আপনাদের যে Science নিয়ে জ্ঞান সে মিথ্যা জ্ঞান। এই আছে, এই নাই। তিনি উপমাও দিয়েছেন। যেমন দুটি পাতকুয়া আছে। একটি পাতকুয়ার জল নিচের Spring থেকে আসছে; দ্বিতীয় পাতকুয়ার Spring নাই, তবে বর্ষার জলে পরিপূর্ণ হয়েছে। সে জল কিন্তু বেশিদিন থাকবার নয়। আপনার Science-এর জ্ঞানও বর্ষার পাতকুয়ার জলের মতো শুকিয়ে যাবে।
डाक्टर - (जरा हँसकर) - अच्छा, यह बात ! –
DR. SARKAR (with a smile): "I see!"
ডাক্তার (ঈষৎ হাসিয়া) — বটে।
गाड़ी कार्नवालिस स्ट्रीट पर आयी । डाक्टर सरकारने डाक्टर प्रताप मुजुमदार को गाड़ी में बिठा लिया । डा. प्रताप कल श्रीरामकृष्ण को देखने गये थे । वे सब श्यामपुकुर आ पहुँचे ।
The carriage arrived at Cornwallis Street. Dr. Sarkar picked up Dr. Pratap Mazumdar. Pratap had visited Sri Ramakrishna the previous day. They soon arrived at Syampukur.
গাড়ি কর্ণওয়ালিস্ স্ট্রীটে আসিয়া উপস্থিত হইল। ডাক্তার সরকার শ্রীযুক্ত প্রতাপ ডাক্তারকে তুলিয়া লইলেন। তিনি গতকল্য ঠাকুরকে দেখিতে গিয়াছিলেন।
(३)
*ज्ञानी का ध्यान । जीवन का उद्देश्य। मुक्ति नहीं भक्ति।*
[ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🏹भक्त ईश्वर के निराकार और साकार दोनों भावों को ग्रहण करता है🏹
श्रीरामकृष्ण उसी दुमँजले के कमरे में बैठे हुए हैं । पास कोई भक्त भी हैं । डाक्टर और प्रताप के साथ बातचीत हो रही है ।
Sri Ramakrishna was sitting in his room, on the second floor, with several devotees.
ঠাকুর সেই দোতলার ঘরে বসিয়া আছেন, — কয়েকটি ভক্তসঙ্গে। ডাক্তার এবং প্রতাপের সঙ্গে কথা কহিতেছেন।
डाक्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - फिर खाँसी* हुई ? (सहास्य) काशी जाना अच्छा भी तो है ! (सब हँसते हैं) (*बंगला में खाँसी को ‘काशी’ कहते हैं, और काशी बनारस का भी नाम है ।)
DR. SARKAR (to the Master): "I see you are coughing.1 (Smiling) But it is good to go to Kasi." (All laugh..)
ডাক্তার (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — আবার কাশি হয়েছে? (সহাস্যে) তা কশীতে যাওয়া তো ভাল। (সকলের হাস্য)
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - उससे तो मुक्ति होती है । मैं मुक्ति नहीं चाहता, मैं तो भक्ति चाहता हूँ । (डाक्टर और भक्तगण हँस रहे हैं)
MASTER (smiling): "But that will give me liberation. I don't want liberation; I want love of God!" (All laugh.)
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তাতে তো মুক্তি গো! আমি মুক্তি চাই না, ভক্তি চাই। (ডাক্তার ও ভক্তেরা হাসিতেছেন)
श्रीयुत प्रताप डाक्टर भादुड़ी के जामाता हैं । श्रीरामकृष्ण प्रताप को देखकर भादुड़ी के गुणों का वर्णन कर रहे हैं ।
Pratap was Dr. Bhaduri's son-in-law. Sri Ramakrishna was speaking to Pratap in praise of his father-in-law.
শ্রীযুক্ত প্রতাপ, ডাক্তার ভাদুড়ির জামাতা। ঠাকুর প্রতাপকে দেখিয়া ভাদুড়ীর গুণগান করিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) – अहा ! वे कैसे सुन्दर आदमी हो गये हैं । ईश्वर- चिन्ता, शुद्धाचार और निराकार-साकार सब भावों को उन्होंने ग्रहण कर लिया है ।
MASTER (to Pratap): "Ah, what a grand person he has become! He contemplates God and observes purity in his conduct. Further, he accepts both aspects of God — personal and impersonal."
শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রতাপকে) — আহা, তিনি কি লোক হয়েছেন! ঈশ্বরচিন্তা, শুদ্ধাচার, আর নিরাকার-সাকার সব ভাব নিয়েছেন।
मास्टर की बड़ी इच्छा है कि कंकड़ और पत्थरों की बात फिर हो । छोटे नरेन्द्र से धीरे धीरे कह रहे हैं, 'कंकड़-पत्थरों की कौनसी बात भादुड़ी ने कही थी, तुम्हें याद है?' मास्टर ने इस ढंग से कहा जिससे श्रीरामकृष्ण भी सुन सकें ।
M. was very eager to mention Dr. Bhaduri's remarks about Dr. Sarkar's being born again as a stone or brick-bat. He asked the younger Naren very softly whether he remembered those remarks of Dr. Bhaduri. Sri Ramakrishna overheard this.
মাস্টারের বড় ইচ্ছা যে ইটপাটকেলের কথাটি আর একবার হয়। তিনি ছোট নরেনকে আস্তে আস্তে — অথচ ঠাকুর যাহাতে শুনিতে পান — এমন ভাবে বলিতেছেন, “ইটপাটকেলের কথাটি ভাদুড়ী কি বলেছেন মনে আছে?”
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य, डाक्टर से) - और तुम्हारे लिए उन्होंने (डा. भादुड़ी ने) क्या कहा है, जानते हो ? उन्होंने कहा कि तुम यह सब विश्वास नहीं करते इसलिए अगले कल्प में कंकड़-पत्थर के रूप में जन्म लेकर तुम्हें आरम्भ करना होगा । (सब लोग हँसते हैं)
MASTER (to Dr. Sarkar): "Do you know what Dr. Bhaduri said about you? He said that, because you didn't believe these things, in the next cycle you would have to begin your earthly life from a stone or brick-bat." (All laugh.)
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে, ডাক্তারের প্রতি) — আর তোমায় কি বলেছেন জানো? তুমি এ-সব বিশ্বাস কর না, মন্বন্তরের পর তোমার ইটপাটকেল থেকে আরম্ভ করতে হবে। (সকলের হাস্য)
डाक्टर - (सहास्य) - अच्छा, मान लीजिये कि कंकड़-पत्थर से ही आरम्भ कर कितने ही जन्मों के बाद मैं मनुष्य हो जाऊँ, पर यहाँ (श्रीरामकृष्ण के पास) आने से तो मुझे फिर एक बार कंकड़-पत्थर से ही शुरू करना होगा ! (डाक्टर और सब लोग हँसते हैं)
DR. SARKAR (smiling): "Suppose I begin from a stone or brick-bat, and after many births obtain a human body; but as soon as I come back to this place I shall have to begin over again from a stone or brick-bat." (The doctor and all laugh.)
ডাক্তার (সহাস্যে) — ইটপাটকেল থেকে আরম্ভ করে অনেক জন্মের পর যদি মানুষ হই, আবার এখানে এলেই তো ইটপাটকেল থেকে আবার আরম্ভ। (ডাক্তারের ও সকলের হাস্য)
[ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🏹जिस व्यक्ति ने आनन्द -रस चख लिया, उसके मुख लट्ठमार बातें नहीं निकलेंगी🏹
श्रीरामकृष्ण इतने अस्वस्थ हैं, फिर भी उन्हें ईश्वरीय भावों का आवेश होता है । वे सदा ईश्वरीय चर्चा किया करते हैं । इसी सम्बन्ध में बातचीत हो रही है ।
The conversation turned to the Master's ecstasy in spite of his illness.
ঠাকুর একটু অসুস্থ, তবুও তাঁহার ঈশ্বরীয় ভাব হয় ও তিনি ঈশ্বরের কথা সর্বদা কন, এই কথা হইতেছে।
प्रताप - कल मैं देख गया, आपकी भाव की अवस्था थी ।
PRATAP: "Yesterday I saw you in an ecstatic mood."
প্রতাপ — কাল দেখে গেলাম ভাবাবস্থা।
श्रीरामकृष्ण - वह आप ही आप हो गयी थी, प्रबल, नहीं थी ।
MASTER: "It happened of itself; but it was not intense."
শ্রীরামকৃষ্ণ — সে আপনি আপনি হয়ে গিয়েছিল; বেশি নয়।
डाक्टर - बातचीत करना और भावावेश होना, ये इस समय आपके लिए अच्छे नहीं ।
DR. SARKAR: "Ecstasy and talking are not good for you now."
ডাক্তার — কথা আর ভাব এখন ভাল নয়।
श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - कल जो भावावस्था हुई थी, उसमें मैंने तुम्हें देखा । देखा, कि तुम ज्ञान के खान हो, परन्तु भीतर एकदम सूखा हुआ - तुमने अभी तक आनन्द-रस (divine bliss) नहीं चखा है। (प्रताप से) ये (डाक्टर सरकार ) यदि एक बार आनन्द पा जायें तो अधः -ऊर्ध्व सब आनन्द -रस से से पूर्ण देखेंगे । फिर 'मैं जो कुछ कहता हूँ वही ठीक है, और दूसरे जो कुछ कहते हैं वह ठीक नहीं', आदि बातें फिर ये बिलकुल ही न कहेंगे- और फिर इनकी लट्ठमार बातें भी छूट जायेंगी ।
MASTER (to Dr. Sarkar): "I saw you yesterday in my samadhi. I found that you are a mine of knowledge; but it is all dry knowledge. You have not tasted divine bliss. (To Pratap, referring to Dr. Sarkar) If he ever tastes divine bliss, he will see everything, above and below, filled with it. Then he will not say that whatever he says is right and what others say is wrong. Then he will not utter sharp, strong, pointed words."
শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — কাল যে ভাবাবস্থা হয়েছিল, তাতে তোমাকে দেখলাম। দেখলাম, জ্ঞানের আকার — কিন্তু মজক একেবারে শুষ্ক, আনন্দরস পায় নাই। (প্রতাপের প্রতি) ইনি (ডাক্তার) যদি একবার আনন্দ পান, অধঃ ঊর্ধ্ব পরিপূর্ণ দেখেন। আর ‘আমি যা বলছি তাই ঠিক, আর অন্যেরা যা বলে তা ঠিক নয়,’ — এ-সব কথা তাহলে আর বলেন না — আর হ্যাঁক-ম্যাঁক লাঠিমারা কথাগোলো আর ওঁর মুখ দিয়ে বেরোয় না!
[ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🙏रुपया-बीबी, नाम-यश में आसक्ति छोड़कर आनन्द-रस का उपभोग करो🙏
भक्तगण चुप हैं । एकाएक श्रीरामकृष्ण भावावेश में डाक्टर सरकार से कह रहे हैं –“महीन्द्रबाबू, तुम क्या रुपया-रुपया कर रहे हो ! बीबी, बीबी ! नाम -यश ! ये सब इस समय छोड़कर एकचित्त हो भक्ति के साथ ईश्वर में मन लगाओ और ईश्वर के आनन्द का उपभोग करो !”
The devotees remained silent. Suddenly Sri Ramakrishna went into a spiritual mood and said to Dr. Sarkar: "Mahindra Babu, what is this madness of yours about money? Why such attachment to wife? Why such longing for name and fame? Give up all these, now, and direct your mind to God with whole-souled devotion. Enjoy the Bliss of God."
ভক্তেরা সকলে চুপ করিয়া আছেন, হঠাৎ ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ভাবাবিষ্ট হইয়া ডাক্তার সরকারকে বলিতেছেন —“মহীন্দ্রবাবু — কি টাকা টাকা করছো! মাগ, মাগ! — মান, মান! করছো! ও-সব এখন ছেড়ে দিয়ে, একচিত্ত হয়ে ঈশ্বরেতে মন দাও! — ওই আনন্দ ভোগ করো।”
डाक्टर सरकार चुप हैं । सब लोग चुप हैं ।
Dr. Sarkar sat still without uttering a word. The devotees also remained silent.
ডাক্তার সরকার চুপ করিয়া আছেন। সকলেই চুপ।
[ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
[ज्ञानी के ध्यान-योग का तरीका]
🏹ज्ञानी के ध्यान का पहला तरीका -जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है 🏹
[The Pot is 'I'-consciousness, when this 'I' disappears what is remains ?]
[ ‘আমি’ ঘট থাকলে -জল দুই ভাগ দেখাচ্ছে,
অন্তরে ( inside) বাহিরে (outside) বোধ হচ্ছে।
ওই ‘আমিটি’ যদি যায়, তাহলে যা আছে তাই, মুখে বলবার কিছু নাই।]
श्रीरामकृष्ण - न्यांगटा ज्ञानी के ध्यान की बात कहता था । पानी ही पानी है, अध: ऊर्ध्व उसी से पूर्ण है । जीव मानो मीन है, उस पानी में आनन्द से तैर रहा है । यथार्थ ध्यान होने पर इसे प्रत्यक्ष रूप से देख सकोगे ।
MASTER: "Nangta used to tell me how a jnani meditates: Everywhere is water; all the regions above and below are filled with water; man, like a fish, is swimming joyously in that water. In real meditation, you will actually see all this.
শ্রীরামকৃষ্ণ — জ্ঞানীর ধ্যানের কথা ন্যাংটা বলত। জলে জল, অধঃ ঊর্ধ্বে পরিপূর্ণ! জীব যেন মীন, জলে আনন্দে সে সাঁতার দিচ্ছে। ঠিক ধ্যান হলে এইটি সত্য সত্য দেখবে।
"अनन्त समुद्र है, पानी का कहीं अन्त नहीं । उसके भीतर मानो एक घट है । उसके बाहर भी पानी है और भीतर भी । ज्ञानी देखता है, भीतर और बाहर वे ही परमात्मा हैं । तो फिर वह घट क्या वस्तु है ? घट के रहने के कारण पानी के दो भाग जान पड़ते हैं । अन्दर और बाहर का बोध हो रहा है । 'मैं' - रूपी घट के रहते ऐसा ही बोध होता है । वह 'मैं' अगर मिट जाय, तो फिर जो कुछ है, वही रहेगा; मुख से वह कहा नहीं जा सकता ।
"Take the case of the infinite ocean. There is no limit to its water. Suppose a pot is immersed in it: there is water both inside and outside the pot. The jnani sees that both inside and outside there is nothing but Paramatman. Then what is this pot? It is 'I-consciousness'. Because of the pot the water appears to be divided into two parts; because of the pot you seem to perceive an inside and an outside. One feels that way as long as this pot of 'I' exists. When the 'I' disappears, what is remains. That cannot be described in words.
“অনন্ত সমুদ্র, জলেরও অবধি নাই। তার ভিতরে যেন একটি ঘট রয়েছে। বাহিরে ভিতরে জল। জ্ঞানী দেখে, — অন্তরে বাহিরে সেই পরমাত্মা। তবে ঘটটি কি? ঘট আছে বলে জল দুই ভাগ দেখাচ্ছে, অন্তরে বাহিরে বোধ হচ্ছে। ‘আমি’ ঘট থাকলে এই বোধ হয়। ওই ‘আমিটি’ যদি যায়, তাহলে যা আছে তাই, মুখে বলবার কিছু নাই।
[ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129]
*ज्ञानी के ध्यान का दूसरा तरीका*
🕊आत्मा-पक्षी (Skylark-चातक) चिदाकाश में विहार कर रहा है🕊
🕊The bird is not in the cage, but Flying in the air! Can't hold the joy.🕊
🕊🏹পাখি খাঁচায় নাই, চিদাকাশে উড়ছে ! আনন্দ ধরে না।🕊🏹
श्रीरामकृष्ण - "ज्ञानी का ध्यान और किस तरह का है, जानते हो ? अनन्त आकाश है, उसमें आनन्द से पंख फैलाये हुए पक्षी उड़ रहा है । चिदाकाश में आत्मा-पक्षी इसी तरह विहार कर रहा है । वह पिंजड़े में नहीं है, चिदाकाश में उड़ रहा है । # आनन्द इतना है कि समाता ही नहीं ।"
[# शैली (पर्सी बिशे शैली) ने 1820 में इटली के बंदरगाह शहर लिवोर्नो से गुजरते समय चातक पक्षी (Skylark) की विशिष्ट आवाज़ सुनने के बाद एक कविता “To a Skylark” (टू ए स्काईलार्क) लिखा था। जो आत्मपक्षी (Skylark-चातक पक्षी ) अब पिंजड़े में नहीं है, चिदाकाश में उड़ रहा है। अर्थात जब कोई जीवनमुक्त शिक्षक (नेता, पैगम्बर) मानवजाति और परमात्मा के बीच पुल - बन जाता है, तब उसका आनन्द इतना है कि समाता ही नहीं !]
"Do you know another way a jnani meditates? Think of infinite akasa and a bird flying there, joyfully spreading its wings. There is the Chidakasa, and Atman is the bird. The bird is not imprisoned in a cage; it flies in the Chidakasa. Its joy is limitless."
“জ্ঞানীর ধ্যান আর কিরকম জানো? অনন্ত আকাশ, তাতে পাখি আনন্দে উড়ছে, পাখা বিস্তার করে। চিদাকাশ, আত্মা পাখি। পাখি খাঁচায় নাই, চিদাকাশে উড়ছে! আনন্দ ধরে না।”১(১ cf. Shelley's Skylark)
भक्तगण निर्वाक् होकर ध्यान-योग की बातें सुन रहे हैं । कुछ देर बाद प्रताप ने फिर बातचीत शुरू की ।
The devotees listened with great attention to these words about meditation. After a time Pratap resumed the conversation.
ভক্তেরা অবাক্ হইয়া এই ধ্যানযোগ কথা শুনিতেছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে প্রতাপ আবার কথা আরম্ভ করিলেন।
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🕊🏹छाया के निर्माण के लिए तीन शर्तें-सूर्य, वस्तु, और छाया का आधार 🕊🏹
[বলছো God real আবার Creation unreal!? Creation-ও real)
Do you want to say that God is real and Creation is unreal!?
No, Creation is also real! ]
व्यापक ही सही सबमें, वो रहता मगर कहाँ;
रहने को अगर जिस्म का आधार नहीं होता ?
प्रताप - (डॉ. सरकार से) - सोचा जाय तो सब छाया ही छाया जान पड़ती है ।
[अर्थात जब कोई गहराई से विचार करता है, उसे यह संसार महामाया की छाया के रूप में दिखाई देती है।]
PRATAP (to Dr. Sarkar): "When one thinks seriously, one undoubtedly sees everything as a mere shadow."
প্রতাপ (সরকারের প্রতি) — ভাবতে গেলে সব ছায়া।
डाक्टर - छाया अगर कहते हो तो तीन चीजों की आवश्यकता है । सूर्य, वस्तु और छाया का अधिष्ठान।# बिना वस्तु के क्या छाया होती है ? इधर कह रहे हो, ईश्वर सत्य है, फिर सृष्टि को असत्य बतलाते हो ! नहीं, सृष्टि भी सत्य है ।
[किसी प्रकार की छाया उत्पन्न करने के लिए तीन शर्तें अनिवार्य हैं। पहली शर्त है आपके पास एक प्रकाश स्रोत (सूर्य-टोर्च) होना चाहिए। दूसरा यह कि प्रकाश स्रोत से आने वाले प्रकाश को रोकने के लिए आपके पास कोई वस्तु होनी चाहिए (लेकिन वस्तु को पारदर्शी नहीं होनी चाहिए, वस्तु को अपारदर्शी या कम से कम पारभासी होना चाहिए)।)। अंतिम शर्त यह है कि आपके पास एक सतह (अधिष्ठान) होनी चाहिए जिस पर छाया प्रक्षेपित होगी। यदि यह आपके पास नहीं है, तो आप छाया का निर्माण नहीं देख पाएंगे। जब कोई वस्तु प्रकाश के स्रोत और प्रक्षेपित सतह के बीच आती है तो एक छाया बनती है, इस प्रकार स्रोत द्वारा उत्सर्जित प्रकाश का कुछ भाग अवरुद्ध हो जाता है और सतह पर एक काला धब्बा बन जाता है। [व्यापक ही सही सबमें, वो रहता मगर कहाँ ?..... रहने को अगर जिस्म का आधार नहीं होता।]
DR. SARKAR: "If you speak of a shadow, then you need three things: the sun, the object, and the shadow. How can there be any shadow without an object? And you say that God is real and the creation unreal. I say that the creation is real too."
ডাক্তার — ছায়া যদি বললে, তবে তিনটি চাই। সূর্য, বস্তু আর ছায়া। বস্তু না হলে ছায়া কি! এদিকে বলছো God real আবার Creation unreal!? Creation-ও real।
प्रताप - आईने में जैसे तुम प्रतिबिम्ब देखते हो उसी तरह मनरूपी आईने में यह संसार भासित हो रहा है ।
PRATAP: "Very well. As you see a reflection in a mirror, so you see this universe in the mirror of your mind."
প্রতাপ — আচ্ছা, আরশিতে যেমন প্রতিবিম্ব, তেমনি মনরূপ আরশিতে এই জগৎ দেখা যাচ্ছে।
डाक्टर - लेकिन किसी वस्तु के अस्तित्व के बिना क्या कोई प्रतिबिम्ब हो सकता है ?
DR. SARKAR: "But how can there be a reflection without an object?"
ডাক্তার — একটা বস্তু না থাকলে কি প্রতিবিম্ব?
नरेन्द्र - क्यों, ईश्वर तो वस्तु हैं । (डाक्टर चुप हो रहे ।)
NARENDRA: "Why, God is the object." (Dr. Sarkar remained silent.)
নরেন — কেন, ঈশ্বর বস্তু। [ডাক্তার চুপ করিয়া রহিলেন].
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🕊🏹ईश्वर के साथ मन के एकत्व का परिणाम है - समाधि ! 🕊🏹
ईश्वर चिंतन करने से कोई 'बिना हेड का' (headless) नहीं होता !
[The result of unity of mind with God is - Samadhi!]
श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - एक बात तुमने बहुत अच्छी कही । भावावस्था ईश्वर के साथ मन के संयोग से होती है, यह बात केवल तुमने ही कही और किसी ने नहीं कही ।
“शिवनाव ने कहा था, ‘अधिक ईश्वर-चिन्तन करने पर मनुष्य का मस्तिष्क बिगड़ जाता है ।' कहता है, संसार में जो चेतनस्वरूप हैं, उनके चिन्तन से अचेतन हो जाता है ! जो बोधस्वरूप है, जिनके बोध से संसार को बोध हो रहा है, उनकी चिन्ता करके अबोध हो जाना !!
MASTER (to Dr. Sarkar): "You said a very fine thing. No one else has said before that samadhi is the result of the union of the mind with God. You alone have said that.
"Shivanath said that one lost one's head by too much thinking of God. In other words, one becomes unconscious by meditating on the Universal Consciousness. Think of it! Becoming unconscious by contemplating Him who is of the very nature of Consciousness, and whose Consciousness endows the world with consciousness!
শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — একটা কথা তুমি বেশ বলেছো। ভাবাবস্থা যে মনের যোগে হয় এটি আর কেউ বলেনি। তুমিই বলেছো।
“শিবনাথ বলেছিল, বেশি ঈশ্বরচিন্তা করলে বেহেড হয়ে যায়। বলে জগৎ-চৈতন্যকে চিন্তা করে অচৈতন্য হয়। বোধস্বরূপ, যাঁর বোধে জগৎ বোধ করছে, তাঁকে চিন্তা করে অবোধ!
"और तुम्हारी साइन्स क्या कहती है ? बस यही न कि इससे यह मिल जाय या उससे वह मिल जाय तो "अमुक वस्तु " तैयार हो जाता है, आदि आदि । इन सब बातों की चिन्ता करके - जड़ वस्तुओं में पड़कर तो मनुष्य के और भी बोधहीन हो जाने की सम्भावना रहती है ।"
"And what does your 'science' say? This combined with this produces that; that combined with that produces this. One is more likely to lose consciousness by contemplating those things — by handling material things too much."
“আর তোমার Science — এটা মিশলে ওটা হয়; ওটা মিশলে এটা হয়; ওগুলো চিন্তা করলে বরং বোধশূন্য হতে পারে, কেবল জড়গুলো ঘেঁটে!”
डाक्टर - उन जड़ वस्तुओं में मनुष्य ईश्वर का दर्शन कर सकता है ।
DR. SARKAR: "One can see God in those things."
ডাক্তার — ওতে ঈশ্বরকে দেখা যায়।
मणि - परन्तु मनुष्य में यह दर्शन और भी स्पष्ट हो सकता है, और महापुरुषों में और भी अधिक स्पष्ट । महापुरुषों में (ईसा और बुद्ध जैसे महापुरुषों में ) उनका प्रकाश अधिक है ।
M: "If so, one sees God more clearly in man, and still better in a great soul. In a great soul, there is a greater manifestation of God."
মণি — তবে মানুষে আরও স্পষ্ট দেখা যায়। আর মহাপুরুষে আরও বেশি দেখা যায়। মহাপুরুষে বেশি প্রকাশ।
डाक्टर – हाँ, मनुष्य में दर्शन अवश्य हो सकता है ।
DR. SARKAR: "Yes, in man, no doubt."
ডাক্তার — হাঁ, মানুষেতে বটে।
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🕊🏹 'शरीर हिल रहा' है, लेकिन हिला वे रहे हैं - कर्ता 'मैं' नहीं भगवान ही हैं !🕊🏹
(लोग कहते हैं पानी से हाथ जल गया - लेकिन पानी के भीतर ताप से हाथ जलता है।)
[জগৎ-চৈতন্য ও Science — ঈশ্বরই কর্তা ]
श्रीरामकृष्ण - जिनके चैतन्य से जड़ भी चेतन हो रहे हैं, - हाथ, पैर और शरीर हिल रहे हैं, उनके चिन्तन से क्या कोई कभी अचेतन हो सकता है ? लोग कहते हैं, 'शरीर हिल रहा है', परन्तु वे हिला रहे हैं, यह ज्ञान नहीं है । लोग कहते हैं, ‘पानी से हाथ जल गया’, पर पानी से कभी कुछ नहीं जलता । पानी के भीतर जो ताप है, जो अग्नि है, उसी से हाथ जल गया ।
MASTER: "Losing consciousness by contemplating God — through whose Consciousness even inert matter appears to be conscious, and hands, feet, and body move! People say that the body moves itself, but they do not know that it is God who moves it. They say that water scalds the hand. But water can by no means scald the hand; it is the heat in the water, the fire in the water, that scalds.
শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁকে চিন্তা করলে অচৈতন্য! যে চৈতন্য জড় পর্যন্ত চেতন হয়েছে, হাত-পা-শরীর নড়ছে! বলে শরীর নড়ছে, কিন্তু তিনি নড়ছেন, জানে না। বলে, জলে হাত পুড়ে গেল! জলে কিছু পোড়ে না। জলের ভিতর যে উত্তাপ, জলের ভিতর যে অগ্নি তাতেই হাত পুড়ে গেল!
"हण्डी में चावल उबल रहे हैं । आलू और भंटे उछल रहे हैं । छोटे लड़के कहते हैं, 'आलू और भंटे अपने आप उछल रहे हैं ।' वे यह नहीं जानते कि नीचे आग है । मनुष्य कहते हैं, 'इन्द्रियाँ आप ही आप काम कर रही हैं'; भीतर जो चैतन्यस्वरूप हैं, उनकी बात नहीं सोचते ।"
"Rice is boiling in a pot. Potatoes and egg-plant are also jumping about in the pot. The children say that the potatoes and egg-plant jump of themselves; they do not know that there is fire underneath. Man says that the sense-organs do their work of themselves; but he does not know that inside dwells He whose very nature is Consciousness."
“হাঁড়িতে ভাত ফুটছে। আলু-বেগুন লাফাচ্ছে। ছোট ছেলে বলে আলু-বেগুনগুলো আপনি নাচছে। জানে না যে, নিচে আগুন আছে! মানুষ বলে, ইন্দ্রিয়েরা আপনা-আপনি কাজ করছে! ভিতরে যে সেই চৈতন্যস্বরূপ আছে তা ভাবে না!”
'डाक्टर सरकार उठे । अब बिदा होंगे । श्रीरामकृष्ण उठकर खड़े हो गये ।
Dr. Sarkar stood up. He was about to take his leave. Sri Ramakrishna also stood up.
ডাক্তার সরকার গাত্রোত্থান করিলেন। এইবার বিদায় গ্রহণ করিবেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণও দাঁড়াইলেন।
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🏹 माईक पर क्यों पुकारना ?वे चींटी के पैरों में पड़ी पायल की आवाज भी सुन लेते हैं 🏹
কষ্ট পেলে মধুসূদনের কথা মনে পড়ে
डाक्टर - लोगों पर जब कष्ट पड़ता है तब वे ईश्वर का स्मरण करते हैं । और नहीं तो क्या लोग केवल साध ही साध में 'हे ईश्वर, तू ही, तू ही' करते रहते हैं ? गले में वह (घाव) हुआ है, इसलिए आप ईश्वर की चर्चा करते हैं । अब आप खुद धुनिये के हाथ में पड़ गये हैं, अब उसी से कहिये । यह मैं आप ही की कही हुई बात कह रहा हूँ ।
DR. SARKAR: "People call on God when they are faced with a crisis. Is it for the mere fun of it that they say, 'O Lord! Thou, Thou!'? You speak of God because of that trouble in your throat. You have now fallen into the clutches of the cotton-carder. You had better speak to the carder. I am just quoting your own words."
ডাক্তার — বিপদে মধুসূদন। সাধে ‘তুঁহু তুঁহু’ বলায়। গলায় ওইটি হয়েছে তাই। তুমি নিজে যেমন বলো, এখন ধুনুরীর হাতে পড়েছো, ধুনুরীকে বলো। তোমারই কথা।
श्रीरामकृष्ण - और क्या कहूँगा !
MASTER: "There is nothing for me to say."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি আর বলব।
डाक्टर - क्यों, कहेंगे क्यों नहीं ? हम उनकी गोद में हैं, उनकी गोद में खाते-पीते हैं, बीमारी होने पर उनसे नहीं कहेंगे तो किससे कहेंगे ?
DR. SARKAR: "Why not? We lie in the lap of God. We feel free with Him. To whom should we speak about our illness if not to Him?"
ডাক্তার — কেন বলবে না? তাঁর কোলে রয়েছি, কোলে হাগছি আর ব্যায়রাম হলে তাঁকে বলব না তবে কাকে বলব?
श्रीरामकृष्ण - ठीक है, कभी कभी कहता हूँ । परन्तु कहीं कुछ होता नहीं ।
MASTER: "Right you are. Once in a while, I try to speak to Him about it, but I do not succeed."
শ্রীরামকৃষ্ণ — ঠিক ঠিক। এক-একবার বলি। তা — হয় না।
डाक्टर - और कहना भी क्यों, क्या वे जानते नहीं ?
DR. SARKAR: "Why should you even speak to Him? Does He not know of it?"
ডাক্তার — আর বলতেই বা হবে কেন, তিনি কি জানছেন না?
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
(योगी के लक्षण~ अन्तर्मुख योगी~ बिल्वमंगल)
🕊🏹तंत्र में रमणी (अर्थात युवती और सुन्दर स्त्री) को माता (जननी) कहते हैं🕊🏹
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - एक मुसलमान नमाज पढ़ते समय 'हो अल्ला, हो अल्ला' कहकर अजान दे रहा था । उससे एक आदमी ने कहा, ‘तू अल्ला को पुकार रहा है तो इतना चिल्लाता क्यों है ? क्या तुझे नहीं मालूम कि उन्हें चींटी के पैरों के नूपुरों की भी आहट मिल जाती है ?’
MASTER (smiling): "A Mussalman, while saying his prayers, shouted: 'O Allah! O Allah!' Another person said to him: 'You are calling on Allah. That's all right. But why are you shouting like that? Don't you know that He hears the sound of the anklets on the feet of an ant?'
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — একজন মুসলমান নমাজ করতে করতে ‘হো আল্লা’ ‘হো আল্লা’ বলে চিৎকার করে ডাকছিল। তাকে একজন লোক বললে, তুই আল্লাকে ডাকছিস তা অতো চেঁচাচ্ছিস কেন? তিনি যে পিঁপড়ের পায়ের নূপুর শুনতে পান! [मूं कहाँ चंचाची माँ मोर पुट्टी ]
"जब उनमें मन लीन हो जाता है, तब मनुष्य ईश्वर को बहुत समीप देखता है । हृदय में देखता है। परन्तु एक बात है । जितना ही यह योग (ईश्वर के साथ मन का एकत्व) होगा, उतना ही बाहर की चीजों से मन हटता जायगा ।
"When the mind is united with God, one sees Him very near, in one's own heart. But you must remember one thing. The more you realize this unity, the farther your mind is withdrawn from worldly things.
শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁতে যখন মনের যোগ হয়, তখন ঈশ্বরকে খুব কাছে দেখে। হৃদয়ের মধ্যে দেখে। কিন্তু একটি কথা আছে, যত এই যোগ হবে ততই বাহিরের জিনিস থেকে মন সরে আসবে।
'भक्तमाल' में बिल्वमंगल नामक एक की बात लिखी हुई है । वह वेश्या के घर जाया करता था । एक दिन बहुत रात हो गयी थी, और वह वेश्या के घर जा रहा था । घर में माँ-बाप का श्राद्ध था, इसलिए देर हो गयी थी । श्राद्ध की पूड़ियाँ वेश्या को खिलाने के लिए ले जा रहा था ।
There is the story of Vilwamangal in the Bhaktamala. He used to visit a prostitute. One night he was very late in going to her house. He had been detained at home by the sraddha ceremony of his father and mother. In his hands he was carrying the food offered in the ceremony, to feed his mistress.
ভক্তমালে এক ভক্তের (বিশ্বমঙ্গলের) কথা আছে। সে বেশ্যালয়ে যেত। একদিন অনেক রাত্রে যাচ্ছে। বাড়িতে বাপ-মায়ের শ্রাদ্ধ হয়েছিল তাই দেরি হয়েছে। শ্রাদ্ধের খাবার বেশ্যাকে দেবে বলে হাতে করে লয়ে যাচ্ছে।
वेश्या पर उसका मन इतना आसक्त था कि किसके ऊपर से और कहाँ से होकर वह जा रहा था, उसे कुछ भी ज्ञान न था, कुछ होश ही न था । रास्ते में एक योगी आँखें बन्द किये ईश्वर का ध्यान कर रहा था, उसे भी बेहोशी की हालत में (बेखुदी में) वह लात मारकर निकल गया ।
His whole soul was so set upon the woman that he was not at all conscious of his movements. He didn't even know how he was walking. There was a yogi seated on the path, meditating on God with eyes closed. Vilwamangal stepped on him.
তার বেশ্যার দিকে এত একাগ্র মন যে কিসের উপর দিয়ে যাচ্ছে, কোন্খান দিয়ে যাচ্ছে, এ-সব কিছু হুঁশ নাই। পথে এক যোগী চক্ষু বুজে ঈশ্বরচিন্তা কচ্ছিল, তাঁর গায়ে পা দিয়ে চলে যাচ্ছে।
योगी गुस्से में आकर बोल उठा, 'क्या तू अँधा है , देखता नहीं ? ईश्वर-चिन्तन कर रहा हूँ और तू लात मारकर चला जा रहा है !" तब उस आदमी ने कहा ‘मुझे क्षमा कीजिये; परन्तु मैं आपसे एक बात पूछता हूँ, वेश्या की चिन्ता करके तो मुझे होश नहीं, और आप ईश्वर की चिन्ता कर रहे हैं, फिर भी आपको बाहरी दुनिया का होश है ! यह कैसी ईश्वरचिन्ता है ?’
The yogi became angry, and cried out: 'What? Are you blind? I have been thinking of God, and you step on my body!' 'I beg your pardon,' said Vilwamangal, 'but may I ask you something? I have been unconscious, thinking of a prostitute, and you are conscious of the outer world though thinking of God. What kind of meditation is that?'
যোগী রাগ করে বলে উঠল, ‘কি তুই দেখতে পাচ্ছিস না? আমি ঈশ্বরকে চিন্তা করছি, তুই গায়ের উপর পা দিয়ে চলে যাচ্ছিস?’ তখন সে লোকটি বললে, আমায় মাপ করবেন, কিন্তু একটা কথা জিজ্ঞাসা করি, বেশ্যাকে চিন্তা করে আমার হুঁশ নাই, আর আপনি ঈশ্বরচিন্তা কচ্ছেন, আপনার সব বাহিরের হুঁশ আছে! এ কিরকম ঈশ্বরচিন্তা!
वह भक्त अन्त में संसार का त्याग करके ईश्वर की आराधना करने चला गया । वेश्या से उसने कहा था, 'तुम मेरी ज्ञानदात्री हो, तुम्हीं ने मुझे सिखलाया कि ईश्वर पर किस तरह अनुराग किया जाता है ।' वेश्या को माता कहकर उसने उसका त्याग किया था ।"
In the end Vilwamangal renounced the world and went away in order to worship God. He said to the prostitute: 'You are my guru. You have taught me how one should yearn for God.' He addressed the prostitute as his mother and gave her up."
সে ভক্ত শেষে সংসারত্যাগ করে ঈশ্বরের আরাধনায় চলে গিয়েছিল। বেশ্যাকে বলেছিল, তুমি আমার গুরু, তুমিই শিখিয়েছ কিরকম ঈশ্বরে অনুরাগ করতে হয়। বেশ্যাকে মা বলে ত্যাগ করেছিল।”
डाक्टर - यह तान्त्रिक उपासना है, इसके अनुसार स्त्री (रमणी अर्थात युवती और सुन्दर स्त्री) को माता (जननी) कहकर सम्बोधन किया जाता है ।
DR. SARKAR: "To address a woman as mother is the Tantrik form of worship."
ডাক্তার — এ তান্ত্রিক উপাসনা। জননী রমনী।
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
किस गृहस्थ को लोकशिक्षा देने का अधिकार है ?
[লোকশিক্ষা দিবার সংসারীর অনধিকার ]
🕊🏹केवल ईश्वर ही सत्य है और बाकी सब कुछ -
घर, परिवार, धन, मित्र, नाम और प्रसिद्धि - मिथ्या है!🕊🏹
God alone is real and everything else —
house, family, wealth, friends, name, and fame — illusory
ঈশ্বরই বস্তু, আর সব — গৃহ পরিবার, ধন, জন, মানসম্ভ্রম সব অবস্তু।
श्रीरामकृष्ण - देखो, एक कहानी सुनो । एक राजा था । एक पण्डित के पास वह नित्य भागवत सुनता था । रोज भागवतपाठ के बाद पण्डित राजा से कहता था, ‘राजा, तुम समझे ?’ राजा भी रोज कहता था, 'पहले तुम समझो ।'
MASTER: "Listen to a story. There was a king who used daily to hear the Bhagavata recited by a pundit. Every day, after explaining the sacred book, the pundit would say to the king, 'O King, have you understood what I have said?' And every day the king would reply, 'You had better understand it first yourself.'
শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, একটা গল্প শোন। একজন রাজা ছিল। একটি পণ্ডিতের কাছে রাজা রোজ ভাগবত শুনত। প্রত্যহ ভাগবত পড়ার পর পণ্ডিত রাজাকে বলত, রাজা বুঝেছ? রাজাও রোজ বলত, তুমি আগে বোঝ!
भागवती पण्डित घर जाकर रोज सोचता था, 'राजा इस तरह क्यों कहता है ? मैं रोज इतना समझता हूँ और राजा उल्टा कहता है - तुम पहले समझो । यह क्या है ?’ पण्डित भजन-साधन भी करता था । कुछ दिनों बाद उसमें जागृति हुई, तब उसने समझा, ईश्वर ही वस्तु है और शेष सब – घर - द्वार, कुटुम्ब-परिवार, मान (नाम) और मर्यादा (यश) अवस्तु हैं ।
What does he mean?' The pundit used to practice spiritual discipline. A few days later he came to realize that God alone is real and everything else — house, family, wealth, friends, name, and fame — illusory.
ভাগবতের পণ্ডিত বাড়ি গিয়ে রোজ ভাবে যে, রাজা রোজ এমন কথা বলে কেন! আমি রোজ এত করে বোঝাই আর রাজা উলটে বলে, তুমি আগে বোঝ! পণ্ডিতটি সাধন-ভজন করত। কিছুদিন পরে তাঁর হুঁশ হল যে ঈশ্বরই বস্তু, আর সব — গৃহ পরিবার, ধন, জন, মানসম্ভ্রম সব অবস্তু।
संसार में सब विषय मिथ्या प्रतीत होने के कारण उसने संसार छोड़ दिया । जाते समय वह केवल एक आदमी से कह गया – ‘राजा से कहना, अब मैं समझ गया हूँ ।’
Convinced of the unreality of the world, he renounced it. As he left home he asked a man to take this message to the king: 'O King, I now understand.'
সংসারে সব মিথ্যা বোধ হওয়াতে সে সংসারত্যাগ করলে। যাবার সময় কেবল একজনকে বলে গেল যে, রাজাকে বলো যে এখন আমি বুঝেছি।
"एक कहानी और सुनो । एक आदमी को भागवत के एक पण्डित की जरुरत पड़ी, जो रोज जाकर उसे भागवत सुना सके । इधर भागवती पण्डित मिल नहीं रहा था । बहुत खोजने के बाद एक आदमी ने आकर कहा, 'भाई एक बहुत अच्छा भागवती पण्डित मिला है ।' उसने कहा, ‘फिर तो काम बन गया । उसे ले आओ ।’ आदमी ने कहा ‘परन्तु जरा कठिनाई है । उसके कुछ हल और बैल हैं; उन्हीं को लेकर वह दिन-रात काम में लगा रहता है, काश्तकारी सम्हालनी पड़ती है, उसे बिलकुल अवकाश नहीं मिलता ।’
"Here is another story. A man needed a scholar of the Bhagavata to expound the sacred text to him every day. But it was very difficult to procure such a scholar. After he had searched a great deal, another man came to him and said, 'Sir, I have found an excellent scholar of the Bhagavata.' 'Very well,' said the man, 'bring him here.' The other man replied: 'But there is a little hitch. The scholar has a few ploughs and bullocks; he is busy with them all day. He must look after the cultivation of his land. He hasn't a moment's leisure.'
“আর একটি গল্প শোন। একজনের একটি ভাগবতের পণ্ডিত দরকার হয়েছিল, — পণ্ডিত এসে রোজ শ্রীমদ্ভাগবতের কথা বলবে। এখন ভাগবতের পণ্ডিত পাওয়া যাচ্ছে না। অনেক খোঁজার পর একটি লোক এসে বললে, মহাশয়, একটি উৎকৃষ্ট ভাগবতের পণ্ডিত পেয়েছি। সে বললে, তবে বেশ হয়েছে, — তাঁকে আন। লোকটি বললে, একটু কিন্তু গোল আছে। তার কয়খানা লাঙ্গল আর কয়টা হেলে গরু আছে — তাদের নিয়ে সমস্ত দিন থাকতে হয়, চাষ দেখতে হয়, একটুও অবসর নাই।
तब जिसे पण्डित की जरूरत थी, उसने कहा, 'अजी, जिसे हल और बैलों के पीछे पड़ा रहना पड़ता है, उस तरह का पण्डित में नहीं चाहता । मैं तो ऐसा पण्डित चाहता हूँ जिसे अवकाश हो और जो मुझे भागवत सुना सके ।' (डाक्टर से) समझे? (डाक्टर चुप हैं)
Thereupon the man who required the scholar said: 'I don't want a Bhagavata scholar who is burdened with ploughs and bullocks. I want a man who has leisure and can tell me about God.' (To Dr. Sarkar) Do you understand?" Dr. Sarkar remained silent.
তখন যার ভাগবতের পণ্ডিতের দরকার সে বললে ওহে, যার লাঙ্গল আর হেলে গরু আছে, এমন ভাগবতের পণ্ডিত আমি চাচ্ছি না, — আমি চাচ্ছি এমন লোক যার অবসর আছে, আর আমাকে হরিকথা শুনাতে পারেন। (ডাক্তারের প্রতি) বুঝলে?” ডাক্তার চুপ করিয়া রহিলেন।
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
" सच पूछो तो केवल पाण्डित्य से क्या होगा ? पण्डित लोग जानते तो बहुत हैं - वेदों, पुराणों और तन्त्र की बातें । परन्तु कोरे पाण्डित्य से होता क्या है ? विवेक और वैराग्य अगर किसी में हों तो उसकी बातें सुनी जा सकती हैं । पर जिसने संसार को ही सार समझ लिया है, उसकी बातों को सुनकर क्या होगा ?
MASTER: "Shall I tell you the truth? What will you gain by mere scholarship? The pundits hear many things and know many things — the Vedas, the Puranas, the Tantras. But of what avail is mere scholarship? Discrimination and renunciation are necessary. If a man has discrimination and renunciation, then one can listen to him. But of what use are the words of a man who looks on the world as the essential thing?
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি জানো, শুধু পাণ্ডিত্যে কি হবে? পন্ডিতেরা অনেক জানে-শোনে — বেদ, পুরাণ, তন্ত্র। কিন্তু শুধু পাণ্ডিত্যে কি হবে? বিবেক-বৈরাগ্য চাই। বিবেক-বৈরাগ্য যদি থাকে, তবে তার কথা শুনতে পারা যায়। যারা সংসারকে সার করেছে, তাদের কথা নিয়ে কি হবে!
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🏹जो सोलहों आने ईश्वर पर भक्ति कर सका उसीने गीता (= त्याग) के मर्म को समझा🏹
(पूरी गीता कण्ठस्थ करने की जरूरत नहीं 'ऐषणा -त्यागी' बन सकने से ही हुआ)
"गीता के पाठ से क्या होता है ? - वही, जो दस बार 'गीता' 'गीता' उच्चारण करने से । 'गीता' 'गीता' कहते रहने से ‘तागी’(त्यागी) 'तागी'(त्यागी) निकलता है । संसार में जिसकी कामिनी और कांचन पर आसक्ति छूट गयी है, जो ईश्वर पर सोलहों आने भक्ति कर सका है, उसी ने गीता का मर्म समझा है । गीता को पूरा पढ़ने की आवश्यकता नहीं । 'त्यागी, त्यागी' कह सकने ही से हुआ - त्यागी (=ऐषणा त्यागी) बन सकने से ही हुआ ।”[ #गीता के कर्म रहस्य को वही समझ पाया है जिसने तीनों ऐषणाओं ('स्त्री, स्वर्ण' और नाम-यश) के प्रति अपना मोह त्यागकर अपना सारा प्रेम भगवान में लगा दिया है।]
"What is the lesson of the Gita? It is what you get by repeating the word ten times. As you repeat 'Gita', 'Gita', the word becomes reversed into 'tagi', 'tagi' — which implies renunciation. He alone has understood the secret of the Gita who has renounced his attachment to 'woman and gold' (name and fame?) and has directed his entire love to God. It isn't necessary to read the whole of the Gita. The purpose of reading the book is served if one practises renunciation."
“গীতা পড়লে কি হয়? দশবার ‘গীতা গীতা’ বললে যা হয়। ‘গীতা গীতা’ বলতে বলতে ‘ত্যাগী’ হয়ে যায়। সংসারে কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি যা ত্যাগ হয়ে গেছে, যে ঈশ্বরেতে ষোল আনা ভক্তি দিতে পেরেছে, সেই গীতার মর্ম বুঝেছে। গীতা সব বইটা পড়বার দরকার নাই। ‘ত্যাগী’ বলতে পারলেই হল।”
डाक्टर - 'त्यागी' कहने के लिए एक 'य' अधिक जोड़ना पड़ता है ।
[Doctor - To pronounce 'tyagi' one more 'y' has to be added in the word Gita.]
ডাক্তার — ‘ত্যাগী’ বলতে গেলেই একটা য-ফলা আনতে হয়।
मणि - परन्तु 'य' के बिना भी काम चल जाता है । जब ये (श्रीरामकृष्ण) टेनेटी में महोत्सव देखने गये थे, तब वहाँ नवद्वीप के गोस्वामी से इन्होंने गीता की यह बात कही थी । यह सुनकर गोस्वामी ने कहा था, "तग् धातु में घञ प्रत्यय के लगने से ‘ताग’ होता है; फिर उसमें 'इन्' लगाने से 'तागी' बनता है; इस तरह 'त्यागी' और 'तागी' का अर्थ एक ही होता है ।"
মণি — তা য-ফলা না আনলেও হয়, নবদ্বীপ গোস্বামী ঠাকুরকে বলেছিলেন। ঠাকুর পেনেটিতে মহোৎসব দেখতে গিয়েছিলেন, সেখানে নবদ্বীপ গোস্বামীকে এই গীতার কথা বলেছিলেন। তখন গোস্বামী বললেন, তগ্ ধাতু ঘঙ্ ‘তাগ’ হয়, তার উত্তর ইন্ প্রত্যয় করলে ত্যাগী হয়, ত্যাগী ও তাগী এক মানে।
डाक्टर - मुझे एक ने राधा शब्द का अर्थ बतलाया था । कहा राधा का अर्थ क्या है, जानते हो ? इस शब्द को उलट लो, अर्थात् 'धारा-धारा' । (सब हँसते है-धारा केवल विषयान्तर के लिए कहा गया ) (सहास्य) आज 'धारा' तक ही रहा ।
DR. SARKAR: "A man once explained the meaning of Radha to me. He said to me: 'Do you know the meaning of Radha? Reverse the word and it becomes "dhara."2 That's the meaning.' (All laugh.) Well, let us stop here for today."
ডাক্তার — আমায় একজন রাধা মানে বলেছিল। বললে, রাধা মানে কি জানো? কথাটা উল্টে নাও অর্থাৎ ‘ধারা, ধারা’। (সকলের হাস্য)(সহাস্যে) – “আজ ‘ধারা’ পর্যন্তই রহিল।”
(4)
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🕊🏹ऐहिक ज्ञान अर्थात् साइन्स🕊🏹
[ 'I' Consciousness is secular knowledge i.e. science*]
🕊🏹शरीर रहने तक जीव (pot) का अहंकार (M/F शरीर के प्रति मैं बोध) नहीं जाता🕊🏹
डाक्टर चले गये । श्रीरामकृष्ण के पास मास्टर बैठे हुए हैं । एकान्त में बातचीत हो रही है । मास्टर डाक्टर के यहाँ गये थे, वहीं सब बात हो रही है ।
Dr. Sarkar left. M. sat near Sri Ramakrishna and repeated the conversation he had had at Dr. Sarkar's house.
ডাক্তার চলিয়া গেলেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের কাছে মাস্টার বসিয়া আছেন ও একান্তে কথা হইতেছে। মাস্টার ডাক্তারের বাড়িতে গিয়াছিলেন, সেই সব কথা হইতেছিল।
मास्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - लाल मछलियों को इलायची का छिलका दिया जा रहा था, और गौरैयों को मैदे की गोलियाँ ।
M: "Dr. Sarkar was feeding the goldfish with cardamom shells and the sparrows with flour pellets.
মাস্টার (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — লাল মাছকে এলাচের খোসা দেওয়া হচ্ছিল, আর চড়ুই পাখীদের ময়দার গুলি।
डाक्टर ने मुझसे कहा - 'तुमने ध्यान दिया ? उन्होंने (मछलियों ने) इलायची का छिलका नहीं देखा, इसलिए चली गयीं ! पहले ज्ञान चाहिए, फिर भक्ति । दो-एक गौरियाँ भी मैदे की गोलियों को फेंकते हुए देखकर उड़ गयीं । उन्हें ज्ञान नहीं है, इसलिए भक्ति नहीं हुई ।'
He said to me: 'Did you notice? The fish didn't see the cardamom shells and therefore went away. First of all we want knowledge, and then bhakti. Did you notice those sparrows? They too flew away when I threw the pellets of flour. They have no jnana; therefore they have no bhakti.'"
তা বলেন, ‘দেখলে, ওরা এলাচের খোসা দেখেনি, তাই চলে গেল! আগে জ্ঞান তাই তবে ভক্তি। দুই-একটা চড়ুইও ময়দার ডেলা ছোড়া দেখে পালিয়ে গেল। ওদের জ্ঞান নাই, তাই ভক্তি হল না।’
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - उस ज्ञान का अर्थ है ऐहिक ज्ञान - साइन्स का ज्ञान ।
MASTER (smiling): "That knowledge means the knowledge of the physical world, the knowledge of 'science'."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ও জ্ঞানের মানে ঐহিক জ্ঞান — ওদের Science-এর জ্ঞান।
मास्टर - उन्होंने फिर कहा, ‘चैतन्य कह गये हैं, बुद्ध कह गये हैं या ईशु कह गये हैं, क्या इसलिए विश्वास करूँ ? – यह ठीक नहीं ।’ “उनके नाती (पोता) हुआ है । नाती का मुँह देखकर वे अपनी पुत्रवधू की प्रशंसा करने लगे । कहा – ‘घर में इस तरह रहती है कि मुझे कहीं आहट भी नहीं मिलती । इतनी शान्त और लजीली है, - ’ ”
M: "He said further: 'Must I believe a thing simply because a Chaitanya or a Buddha or a Christ has said it? That would not be proper.' A grandson has been born to him. He praised his daughter-in-law highly. He said, 'I don't notice her at all in the house; she is so quiet and bashful.'
মাস্টার — আবার বললেন, ‘চৈতন্য বলে গেছে, কি বুদ্ধ বলে গেছে, কি যীশুখ্রীষ্ট বলে গেছে, তবে বিশ্বাস করব! তা নয়!’ “এক নাতি হয়েছে, — তা বউমার সুখ্যাতি করলেন। বললেন, একদিনও বাড়িতে দেখতে পাই না, এমনি শান্ত আর লজ্জাশীলা —”
श्रीरामकृष्ण - यहाँ की बातें ज्यों ज्यों सोच रहा है, त्यों त्यों उसमें (यहाँ के प्रति) श्रद्धा आ रही है । एकदम क्या कभी अहंकार जाता है ? उसमें इतनी विद्या है, मान है, धन है, परन्तु यहाँ की (स्वयं को इंगित करके) बातों से अश्रद्धा नहीं करता ।
MASTER: "He has been thinking of this place [meaning himself]. His faith is growing. Is it possible to get rid of egotism altogether? Such scholarship! Such fame! And he has so much money! But he doesn't show disrespect for what I say."
শ্রীরামকৃষ্ণ — এখানকার কথা ভাবছে। ক্রমে শ্রদ্ধা হচ্ছে। একেবারে অহংকার কি যায় গা! অত বিদ্যা, মান! টাকা হয়েছে! কিন্তু এখানকার কথাতে অশ্রদ্ধা নেই।
(५)
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
*श्रीरामकृष्ण की उच्च अवस्था : निरन्तर ब्रह्मदर्शन*
दिन के पाँच बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण उसी दुमँजले के कमरे में बैठे हुए हैं । चारों ओर भक्तगण चुपचाप बैठे हैं । बहुत से बाहर के आदमी उन्हें देखने के लिए आये हैं । कोई बात नहीं हो रही है । मास्टर पास ही बैठे हुए हैं । उनके साथ एकान्त में बातचीत हो रही है ।
It was about five o'clock in the afternoon. The devotees were sitting quietly in the room. Many outsiders also were present. All sat in silence.
বেলা ৫টা। শ্রীরামকৃষ্ণ সেই দোতলার ঘরে বসিয়া আছেন। চতুর্দিকে ভক্তেরা চুপ করিয়া বসিয়া আছেন। তন্মধ্যে অনেকগুলি বাহিরের লোক তাঁহাকে দেখিতে আসিয়াছেন। কোন কথা নাই।
श्रीरामकृष्ण कुर्ता पहनेंगे । मास्टर ने कुर्ता पहना दिया ।
M. was seated very near Sri Ramakrishna. Now and then they exchanged a word or two in a low voice. The Master wanted to put on his coat. M. helped him.
মাস্টার কাছে বসিয়া আছেন। তাঁহার সঙ্গে নিভৃতে এক-একটি কথা হইতেছে। ঠাকুর জামা পরিবেন — মাস্টার জামা পরাইয়া দিলেন।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - देखो, अब विशेष ध्यान आदि मुझे नहीं करना पड़ता । अखण्ड का एकदम ही बोध हो जाता है । ब्रह्मदर्शन निरन्तर ही चलता रहता है । मास्टर चुप हैं । कमरा भी निस्तब्ध है ।
MASTER (to M.): "You see, nowadays I don't need to meditate much. All at once I become aware of the Indivisible Brahman. Nowadays the vision of the Absolute is continuous with me." M. did not reply. The room was full of men, all silent.
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — দেখো, এখন আর বড় ধ্যান-ট্যান করতে হয় না। অখণ্ড একবারে বোধ হয়ে যায়। এখন কেবল দর্শন। মাস্টার চুপ করিয়া আছেন। ঘরও নিস্তব্ধ।
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण उनसे फिर एक बात कह रहे हैं ।
Presently Sri Ramakrishna spoke.
কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর তাহাকে আবার একটি কথা বলিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण – अच्छा, ये सब लोग एक ही आसन जमाकर चुपचाप बैठे हुए हैं और मुझे देख रहे हैं - न बोलते हैं, न गाना होता है; इस तरह ये मुझमें क्या देखते हैं ?
MASTER: " Well, all these people are sitting here without uttering a word. Their eyes are fixed on me. They are neither talking nor singing. What do they see in me? "
শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, এরা যে সব একাসনে চুপ করে বসে আছে, আর আমায় দেখে — কথা নাই, গান নাই; এতে কি দেখে?
श्रीरामकृष्ण क्या यह इंगित कर रहे हैं कि साक्षात् ईश्वर की शक्ति अवतीर्ण हुई है ! इसीलिए इतने लोगों का आकर्षण है, इसीलिए भक्त लोग अवाक् होकर उनकी ओर एकटक दृष्टि से निहारते रहते हैं ।
श्री म (मास्टर) ने कहा, “महाराज, ये लोग आपकी बात बहुत पहले ही सुन चुके हैं । ये लोग वह चीज देखते हैं जो कभी इन्हें देखने को नहीं मिल सकती । देखते हैं, सदा ही आनन्द में मग्न रहनेवाले, निरहंकार, बालस्वभाव, ईश्वर के प्रेम में मग्न रहनेवाले महापुरुष को । उस दिन आप ईशान मुखर्जी के यहाँ गये हुए थे । आप बाहर के कमरे में टहल रहे थे, हम लोग भी गये हुए थे । एक ने मुझसे आकर कहा, 'इस तरह का सदानन्द पुरुष हमने कभी देखा नहीं ।' ”
M. said to the Master: "Sir, they have already heard many things you have said. Now they are seeing what they can never see anywhere else — a man always blissful, of childlike nature, free from egotism, and intoxicated with divine love. The other day you were pacing the outer room of Ishan's house. We too were with you. A man came to me and said that he had never before seen such a happy person as you."
ঠাকুর কি ইঙ্গিত বরিতেছেন যে, সাক্ষাৎ ঈশ্বরের শক্তি অবতীর্ণ — তাই এত লোকের আকর্ষণ, তাই ভক্তেরা অবাক্ হইয়া তাঁহার দিকে তাকাইয়া থাকে!
মাস্টার উত্তর করিলেন — আজ্ঞে, এরা সব আপনার কথা অনেক আগে শুনেছে, আর দেখে — যা কখনও ওরা দেখতে পায় না — সদানন্দ বালকস্বভাব, নিরহংকার, ঈশ্বরের পেমে মাতোয়ারা! সেদিন ঈশান মুখুজ্জের বাড়ি আপনি গিছিলেন; সেই বাহিরের ঘরে পায়চারি কচ্ছিলেন; আমরাও ছিলাম, একজন আপনাকে এসে বললে, এমন ‘সদানন্দ পুরুষ’ কোথাও দেখি নাই।
मास्टर फिर चुप हो रहे । कमरा फिर निस्तब्ध है । कुछ देर बाद धीमे स्वर में मास्टर से श्रीरामकृष्ण ने फिर कहा –“ अच्छा, डाक्टर का क्या हो रहा है ? क्या यहाँ की सब बातों को वह ग्रहण करता है ?”
M. became silent. The room was still. A few minutes later Sri Ramakrishna spoke to M. in a whisper. MASTER: "Well, how is the doctor coming along? Does he now receive well the ideas of this place?"
মাস্টার আবার চুপ করিয়া রহিলেন। ঘর আবার নিস্তব্ধ! কিয়ৎকাল পরে ঠাকুর আবার মৃদুস্বরে মাস্টারকে কি বলিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, ডাক্তারের কিরকম হচ্ছে? এখানকার কথা সব কি বেশ নিচ্ছে?
मास्टर - यह अमोघ बीज कहाँ जायगा ? किसी न किसी तरफ से कभी न कभी निकलेगा ही । उस दिन की एक-एक बात पर हँसी आ रही है ।
M: "How can an effective seed fail to sprout? It must germinate somehow or other. I feel like laughing when I remember what you said the other day."
মাস্টার — এ অমোঘ বীজ কোথায় যাবে, একবার না একবার একদিক দিয়ে বেরোবে। সেদিনকার একটা কথায় হাসি পাচ্ছে।
श्रीरामकृष्ण - कौनसी बात ?
MASTER: "What was that?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি কথা?
मास्टर - आपने उस दिन कहा था, यदु मल्लिक यह नहीं समझ सकता कि किस तरकारी में नमक अधिक है, कौन तरकारी कैसी हुई । वह इतना अन्यमनस्क रहता है ! जब कोई कह देता है कि अमुक व्यंजन में नमक नहीं पड़ा, तब 'आयँ आयँ' करके कहता है, 'हाँ, ठीक तो है, नमक नहीं पड़ा ।' डाक्टर को यह बात आप सुना रहे थे । उन्होंने कहा था न, कि वे बहुत ही अन्यमनस्क हो जाया करते हैं । आप समझा रहे थे कि वे (यदु मल्लिक) विषय की चिन्ता करके अन्यमनस्क होते हैं, ईश्वर की चिन्ता करके नहीं ।
M: "You said that Jadu Mallick was so absent-minded that while taking his meals he didn't know whether a particular dish was seasoned with salt or not. If anyone pointed out to him that a dish was not salted, he would say, in a surprised voice: 'Yes? Yes? I see it is not salted.' You told this to the doctor because he had said to you that he was always absent-minded. You meant that he became absent-minded thinking of worldly things and not because of contemplation of God."
মাস্টার — সেদিন বলেছিলেন, যদু মল্লিকের খাবার সময় কোন্ ব্যঞ্জনে নুন হয়েছে, কোন্ ব্যঞ্জনে হয়নি এ বুঝতে পারে না; এত অন্যমনস্ক! কেউ যদি বলে দেয় এ ব্যঞ্জনে নুন হয় নাই, তখন এ্যাঁ এ্যাঁ করে বলে, ‘নুন হয় নাই?’ ডাক্তারকে এই কথাটি শোনাচ্ছিলেন। তিনি বলছিলেন কিনা যে, আমি এত অন্যমনস্ক, হয়ে যাই। আপনি বুঝিয়ে দিচ্ছিলেন যে, সে বিষয়চিন্তা করে অন্যমনস্ক ঈশ্বরচিন্তা করে নয়।
श्रीरामकृष्ण - क्या इन बातो को वह न सोचेगा ?
MASTER: "Will he not pay attention to what I say?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — ওগুলো কি ভাববে না?
मास्टर - सोचेंगे क्यों नहीं ? परन्तु उन्हें बहुत से काम रहते हैं, इसलिए भूल भी जाते हैं । आज भी उन्होंने क्या ही अच्छा कहा कि स्त्री को मातृरूप देखना तान्त्रिकों की एक उपासना है ।
M: "Of course he will. But he forgets many of your instructions because of his numerous duties. Today, too, he made a nice remark when he said, 'To look on a woman as mother is a spiritual discipline of the Tantra.'"
মাস্টার — ভাববেন বইকি। তবে নানা কাজ, অনেককথা ভুলে যায়। আজকেও বেশ বললেন, তিনি যখন বললেন, ‘ও তান্ত্রিকের উপাসনা। — জননী রমণী।’
श्रीरामकृष्ण – मैंने क्या कहा ?
MASTER: "What did I say to that?
मास्टर - आपने बैलोंवाले भागवती पण्डित की बात कही थी । (श्रीरामकृष्ण हँसते हैं) और आपने कही थी उस राजा की बात, जिसने कहा था, 'तुम पहले समझो ।' (श्रीरामकृष्ण हँसते हैं) "फिर आपने गीता की बात कही थी । गीता का सार तत्त्व है कामिनी और कांचन का त्याग - कामिनी और कांचन पर आसक्ति का त्याग ।
आपने डाक्टर से कहा, 'संसारी होकर कोई क्या शिक्षा देगा ?' यह बात शायद वे समझ नहीं सके । अन्त में ‘धारा-धारा’ कहकर बात को दबा गये ।"
श्रीरामकृष्ण भक्तों के कल्याण के लिए सोच रहे हैं, - पूर्ण और मणीन्द्र दोनों उनके बालक भक्तों में से हैं । श्रीरामकृष्ण ने मणीन्द्र को पूर्ण से मिलने के लिए भेजा ।
মাস্টার — আপনি বললেন, হেলে গরুওয়ালা ভাগবত পণ্ডিতের কথা। (শ্রীরামকৃষ্ণের হাস্য) আর বললেন, সেই রাজার কথা যে বলেছিল, ‘তুমি আগে বোঝ!’ (শ্রীরামকৃষ্ণের হাস্য)“আর বললেন, গীতার কথা। গীতার সার কথা কামিনী-কাঞ্চনত্যাগ, — কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি ত্যাগ। ডাক্তারকে আপনি বললেন যে সংসারী হয় (ত্যাগী না হয়ে) ও আবার কি শিক্ষা দেবে? তাতে তিনি বুঝতে বোধ হয় পারেন নাই। শেষে ‘ধারা’ ‘ধারা’ বলে চাপা দিয়ে গেলেন।”
ঠাকুর ভক্তের জন্য চিন্তা করিতেছেন; — পূর্ণ বালক ভক্ত, তাঁহার জন্য। মণীন্দ্রও বালক ভক্ত; ঠাকুর তাঁহাকে পূর্ণের সঙ্গে আলাপ করিতে পাঠাইলেন।
(६)
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
राधा और कृष्ण का आध्यात्मिक अभिप्राय : नित्य -लीला 'सब कुछ संभव है'
শ্রী রাধাকৃষ্ণ তত্ত্বের প্রসঙ্গে - 'সবই সম্ভব' নিত্যলীলা
🕊🏹संधि बेला में आत्म-निरीक्षण (introspection-अन्तरावलोकन ) करें🕊🏹
सन्ध्या हो गयी है । श्रीरामकृष्ण के कमरे में दीपक जल रहा है । कई भक्त जो श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं, उसी कमरे में कुछ दूर पर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण का मन अन्तर्मुख हो रहा है, इस समय बातचीत बन्द है । कमरे में जो लोग हैं, वे भी ईश्वर की चिन्ता करते हुए मौन हो रहे हैं ।
It was evening. A lamp was burning in Sri Ramakrishna's room. The devotees and visitors were sitting at a distance. The Master was introspective. Those in the room were also thinking of God and sat in silence.
সন্ধ্যা হইয়া গিয়াছে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঘরে আলো জ্বলিতেছে। কয়েকটি ভক্ত ও যাঁহারা ঠাকুরকে দেখিতে আসিয়াছেন, তাঁহারা সেই ঘরে একটু দূরে বসিয়া আছেন। ঠাকুর অন্তর্মুখ — কথা কহিতেছেন না। ঘরের মধ্যে যাঁহারা আছেন, তাঁহারাও ঈশ্বরকে চিন্তা করিতে করিতে মৌনাবলম্বন করিয়া আছেন।
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🕊🏹नित्य-राधाकृष्ण, और लीला-राधाकृष्ण🕊🏹
[The metaphysical significance of Radha and Krishna.]
[রাধা ও কৃষ্ণের আধিভৌতিক তাৎপর্য।]
कुछ देर बाद नरेन्द्र अपने एक मित्र को साथ लेकर आये । नरेन्द्र ने कहा, "ये मेरे मित्र हैं, इन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की है । ये 'किरणमयी' लिख रहे हैं ।" किरणमयी के लेखक ने प्रणाम करके आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण के साथ बातचीत करेंगे ।
('किरणमयी' लेखक थे- राजकृष्ण राय।)
কিয়ৎক্ষণ পরে নরেন্দ্র একটি বন্ধুকে সঙ্গে করিয়া আনিলেন। নরেন্দ্র বলিলেন, ইনি আমার বন্ধু, ইনি কয়েকখানি গ্রন্থ রচনা করিয়াছেন, ইনি ‘কিরণ্ময়ী’ লিখেন। ‘কিরণ্ময়ী’ লেখক প্রণাম করিয়া আসন গ্রহণ করিলেন। ঠাকুরের সঙ্গে কথা কহিবেন।
नरेन्द्र - इन्होंने राधाकृष्ण के सम्बन्ध में भी लिखा है ।
নরেন্দ্র — ইনি রাধাকৃষ্ণের বিষয় লিখেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (लेखक से) - क्यों जी, क्या लिखा है ? जरा कहो तो ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (লেখকের প্রতি) — কি লিখেছো গো, বল দেখি।
लेखक (किरणमयी के लेखक राजकृष्ण राय) - राधाकृष्ण ही परब्रह्म हैं, ओंकार के बिन्दुस्वरूप हैं । उसी राधाकृष्ण - परब्रह्म से महाविष्णु की सृष्टि हुई, महाविष्णु से पुरुष और प्रकृति, शिव और दुर्गा की ।
A few minutes afterwards Narendra entered the room with a friend, whom he introduced to the Master as an author. Sri Ramakrishna talked with him about the metaphysical significance of Radha and Krishna. The author said that Radha and Krishna were the Supreme Brahman. Vishnu, Siva, Durga, and the other deities had sprung from them.
श्रीरामकृष्ण – वाह ! नन्द घोष (कृष्ण के पालक पिता) ने नित्यराधा को देखा था । प्रेम-राधा ने वृन्दावन में लीलाएँ की थीं, काम-राधा चन्द्रावली हैं ।
MASTER: "That is good. There are different aspects of Radha. In Her seductive aspect (मोहक पहलू) She was Chandravali. In Her aspect of love (प्रेम के पहलू) She participated in Sri Krishna's lila at Vrindavan. Nanda Ghosh, Krishna's foster-father ( नंदबाबा कृष्ण के पालक- पिता), had the vision of the Eternal Radha.
শ্রীরামকৃষ্ণ — বেশ! নিত্যরাধা নন্দ ঘোষ দেখেছিলেন। প্রেমরাধা বৃন্দাবনে লীলা করেছিলেন, কামরাধা চন্দ্রাবলী।
“काम-राधा (seductive Radha) और प्रेम-राधा (Radha of love)। और भी बढ़ जाने पर हैं नित्य-राधा (the Eternal Radha) । प्याज के छिलके निकालते रहने पर पहले लाल छिलका निकलता है, फिर जो छिलके निकलते हैं उनमें ललाई नाम मात्र की रहती है, फिर बिलकुल सफेद छिलके निकलते हैं । [बाद में आपको कोई और परत नहीं मिलेंगी।] ऐसा ही नित्य-राधा, परम् राधा का स्वरूप है - वहाँ 'नेति नेति' का विचार रुक जाता है ।
"First is the seductive Radha, then the Radha of love. If you go farther, you will see the Eternal Radha. It is like taking off the layers of an onion one by one. First the red layers, then the pink, then the white. Afterwards you don't find any more layers. Such is the nature of the Eternal Radha, Radha the Absolute. There the discrimination following the process of 'Not this, not this' comes to an end.
“কামরাধা, প্রেমরাধা। আরও এগিয়ে গেলে নিত্যরাধা। প্যাঁজ ছাড়িয়ে গেলে প্রথমে লাল খোসা, তারপরে ঈসৎ লাল, তারপরে সাদা, তারপরে আর খোসা পাওয়া যায় না। ওইটি নিত্যরাধার স্বরূপ — যেখানে নেতি নেতি বিচার বন্ধ হয়ে যায়!
"राधा-कृष्ण के दो पहलू हैं: निरपेक्ष और सापेक्ष। "नित्य-राधाकृष्ण, और लीला-राधाकृष्ण - जैसे सूर्य और उसकी किरणें । नित्य की तुलना सूर्य से की जा सकती है और लीला की, रश्मियों से ।
"There are two aspects of Radha-Krishna: the Absolute and the Relative. They are like the sun and its rays. The Absolute may be likened to the sun, and the Relative to the rays.
“নিত্য রাধাকৃষ্ণ, আর লীলা রাধাকৃষ্ণ। যেমন সূর্য আর রশ্মি। নিত্য সূর্যের স্বরূপ, লীলা রশ্মির স্বরূপ।
[(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]
🕊🏹जो अविनाशी है (वृन्दावन के कृष्ण) वही नश्वर (द्वारकाधीश) बना है !🕊🏹
"शुद्ध भक्त कभी 'नित्य' में रहता है और कभी 'लीला' में । जिनकी नित्यता है, लीला भी उन्हीं की है । वे केवल एक ही हैं - दो या अनेक नहीं ।"
"A genuine bhakta dwells sometimes on the Absolute and sometimes on the Relative. Both the Absolute and the Relative belong to one and the same Reality. It is all one — neither two nor many."
“শুদ্ধভক্ত কখনও নিত্যে থাকে, কখন লীলায়। “যাঁরই নিত্য তাঁরই লীলা। দুই কিংবা বহু নয়।”
लेखक - जी, वृन्दावन के कृष्ण और मथुरा के कृष्ण, इस तरह दो कृष्ण क्यों कहे जाते हैं ?
AUTHOR: "Sir, why do they speak of the 'Krishna of Vrindavan' and the 'Krishna of Mathura'?"3
লেখক — আজ্ঞে, ‘বৃন্দাবনের কৃষ্ণ’ আর ‘মথুরার কৃষ্ণ’ বলে কেন?
[^वृंदावन के कृष्ण, एक चरवाहा लड़का की भूमिका में थे और हमेशा राधा और गोपियों से जुड़े रहते थे। लेकिन मथुरा और द्वारका के कृष्ण, राजा थे उनका गोपियों तथा ग्वाल बालकों से कोई संबद्ध नहीं था। ^The Krishna of Vrindavan, where He was a cowherd boy, is always associated with Radha and the gopis; but the Krishna of Mathura and Dwaraka, where He was the king, is not associated with them.]
श्रीरामकृष्ण - वह गोस्वामियों का मत है । पश्चिम के पण्डित लोग ऐसा नहीं कहते । उनके मत में कृष्ण एक ही है, राधा है ही नहीं । द्वारका के कृष्ण भी वैसे ही हैं ।
MASTER: "That is the view of the goswamis. But the scholars of upper India think differently. According to these scholars there is only Krishna, and no Radha. The Krishna of Dwaraka is not associated with Radha."
শ্রীরামকৃষ্ণ — ও গোস্বামীদের মত। পশ্চিমে পণ্ডিতেরা তা বলে না। তাদের কৃষ্ণ এক, রাধা নাই। দ্বারিকার কৃষ্ণ ওইরকম।
लेखक - जी, राधाकृष्ण ही परब्रह्म हैं ।
AUTHOR: "Sir, Radha and Krishna are themselves the Supreme Brahman."
লেখক — আজ্ঞে, রাধাকৃষ্ণই পরব্রহ্ম।
श्रीरामकृष्ण – वाह ! परन्तु उनके द्वारा सब कुछ सम्भव है । वे ही निराकार हैं और वे ही साकार। वे ही स्वराट् हैं और वे ही विराट् । वे ही ब्रह्म हैं और वे ही शक्ति । “उनकी इति नहीं हो सकती - उनका अन्त नहीं है, उनमें सब कुछ सम्भव है...
MASTER: "That is good. But you must remember that everything is possible for God. He is formless, and again He assumes forms. He is the individual and He is the universe. He is Brahman and He is Sakti. There is no end to Him, no limit. Nothing is impossible for Him.
শ্রীরামকৃষ্ণ — বেশ! কিন্তু তাঁতে সব সম্ভবে! সেই তিনিই নিরাকার সাকার। তিনিই স্বরাট বিরাট! তিনিই ব্রহ্ম, তিনিই শক্তি! “তাঁর ইতি নাই, — শেষ নাই; তাঁতে সব সম্ভবে।
चील या गीध चाहे जितना ऊपर चढ़े, पर आकाश को उसकी पीठ कभी छू नहीं सकती । अगर पूछो कि ब्रह्म कैसा है, तो यह कहा नहीं जा सकता । साक्षात्कार होने पर भी मुख से नहीं कहा जाता । अगर कोई पूछे कि घी कैसा है, तो इसका उत्तर है कि घी घी के सदृश ही है । ब्रह्म की उपमा ब्रह्म ही है, और कोई उपमा नहीं ।
No matter how high the kites and vultures soar, they can never strike against the ceiling of the sky. If you ask me what Brahman is like, all I can say is that It cannot be described in words. Even when one has realized Brahman, one cannot describe It. If someone asks you what ghee is like, your answer will be, 'Ghee is like ghee.' The only analogy for Brahman is Brahman. Nothing exists besides It."
চিল-শকুনি যত উপরে উঠুক না কেন, আকাশ গায়ে ঠেকে না। যদি জিজ্ঞাসা কর ব্রহ্ম কেমন — তা বলা যায় না। সাক্ষাৎকার হলেও মুখে বলা যায় না। যদি জিজ্ঞাসা কেউ করে, কেমন ঘি? তার উত্তর, — কেমন ঘি, না যেমন ঘি। ব্রহ্মের উপমা ব্রহ্ম। আর কিছুই নাই।”
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आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक - 1
--जिस प्रकार पशुओं के लिए जीवन का उद्देश्य, अर्थ और प्रेरणा आहार, निद्रा, भय (सुरक्षा / असुरक्षा) और मैथुन (वंशविस्तार करना या संतति उत्पन्न करना) ये चार घटक (factor) ही होते हैं। उसी प्रकार प्रायः हर मनुष्य का जीवन भी इन्हीं चार आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के प्रयास में संलग्न रहा करता है । इसे आधिभौतिक कह सकते हैं । अर्थात् शुद्धतः इन्द्रिय-संवेदनाओं से जुड़े भौतिक अनुभवों और भोगों की तृप्ति करते रहना ।
किन्तु जब किसी मनुष्य की भावनात्मक अनुभूति का क्षेत्र विचार या कल्पना द्वारा विकसित होता है, तब वह जाने-अनजाने कुछ अमूर्त धारणाओं को ,उनकी सत्यता और औचित्य पर प्रश्न तक न उठाते हुए यूँ ही स्वीकार कर लेता है; और उनके तारतम्य में पूर्वोक्त चार कारकों (आहार, निद्रा, भय और संतति उत्पन्न करना) को समायोजित करने की चेष्टा करता है । इन अमूर्त धारणाओं में से दो - ’परिवार’ और ’समाज’ की अवधारणा मुख्य हैं। फिर उनके ही परिणामस्वरूप भाषा, संस्कृति, और रीति-रिवाज जिसे ’व्यवस्था’ भी कह सकते हैं, अपना आकार-प्रकार तय करती है ।इसके पश्चात् ’व्यक्ति’ को अपने जीवन में दो परिस्थितियों से तालमेल बैठाना होता है- - पहला है स्वयं के लिए आहार, निद्रा तथा भय (सुरक्षा / असुरक्षा) से जुड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति में अधिकतम संतोष पाना। और दूसरा है परिवारिक और सामाजिक सन्दर्भ को ध्यान में रखकर - इन्हीं का आहार (अन्न, भोजन) निद्रा और भयजनित (सुरक्षा -असुरक्षा) आवश्यकताएँ पूर्ण करने में प्रायः व्यक्ति और समाज के बीच सामञ्जस्य बनाना। स्वयं की आवश्यकता पूर्ण होने के बाद पारिवारिक और सामाजिक अवश्यकताओं की ओर ध्यान देना -लगभग आसान होता है क्योंकि सभी के हित समान और परस्पर पूरक होते हैं । जैसे खेती करना या ’घर’ बनाना, पशु-पालन आदि । हाँ अन्न (भोजन) की कमी होने पर व्यक्तियों या समूहों के बीच वैमनस्य और शत्रुता पनप सकती है।
किन्तु काम-भावना की तुष्टि में अर्थात संतति उत्पन्न करने (या वंशविस्तार करने) की अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति को तृप्त करने में द्वन्द्व या संघर्ष एक स्थायी स्थिति है । पशु-पक्षियों में मादा पर अधिकार पाने के लिए नर का दूसरे नर से शक्ति-परीक्षण ही एकमात्र कसौटी होता है, इसे तय करने से ’द्वन्द्व’ शीघ्र ही दूर हो जाता है । किन्तु पशु-पक्षियों का परिवार और समाज एक तात्कालिक स्थिति होता है, इसीलिए पशुओं की जीवन-चर्या में बहुत अधिक विरोधाभास नहीं हुआ करते ।
>> काम-भावना से आधिदैविक (अशरीरी) क्षेत्र का प्रारम्भ : किन्तु मनुष्य का आधिभौतिक के क्षेत्र से आधिदैविक क्षेत्र में प्रवेश 'काम-भावना’ से होता है । या तो मनुष्य इतना दुर्बल अथवा वृद्ध हो जाता है कि उसकी काम-भावना बहुत क्षीण हो जाती है, या उसकी बुद्धि इतनी परिपक्व हो जाती है कि वह अपनी काम-भावना की तुष्टि के लिए कोई समुचित व्यवस्था निर्मित कर लेता है, ताकि समाज में इससे अनावश्यक संघर्ष न पैदा हो । इस प्रकार से ’विवाह’ नामक संस्था का जन्म हुआ । स्पष्ट है कि 'विवाह ' एक ओर जहाँ एक ’विचार’ है, वहीं दूसरी ओर ’वर्ण’, ’कुल’, या ’वंश’ की शुद्धता को नष्ट न होने देना भी इस विचार के लिए एक प्रेरक तत्व है । अतएव अपरिवार और सामाजिक तानेबाने को पुष्ट करने की दृष्टि से भी ’विवाह’ की अपनी व्यावहारिक उपयोगिता और आवश्यकता है। वंश-परम्परा के अनुरूप विवाह करने से परिवार और समाज अधिक सशक्त और सुस्थिर होता है। तथापि बहुत थोड़े से युवा ही -25 वर्ष की उम्र में इतने परिपक्व (चरित्रवान) बन पाते हैं कि अपने काम-उपभोग की इच्छा को केवल संतति उत्पन्न करने के लिए एक कर्तव्य, दायित्व या अधिकार तक मर्यादित रख सकें । इसके दो कारण हो सकते हैं : पहला यह कि प्रकृति ने ही काम-भावना को प्राणिमात्र में इस प्रकार से नियोजित कर रखी है कि प्रत्येक प्राणी को या देहधारी को ही इस कार्य में चरम सुख की अनुभूति होती है । यद्यपि कोई भी प्राणी, चाहे वह नर (male-पुरुष)हो या मादा (female -स्त्री) शायद ही जानता हो कि काम-व्यवहार ही वंश-विस्तार का एकमात्र कारण होता है, फिर भी वह इसके चरम सुख के आकर्षण से वशीभूत हुआ, चित्त (इन्द्रिय-उत्तेजना के आवेश से लुब्ध चित्त) इस भावना को कठिनाई से ही नियंत्रण में रख पाता है । आहार, निद्रा, तथा भय (असुरक्षा) की तरह वंशविस्तार की अचेतन कामना ही मनुष्य को चेतन मन के स्तर पर काम-व्यवहार में संलग्न होने के लिए बाध्य करती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि आहार, निद्रा तथा भय (असुरक्षा की समाप्ति) से भी कहीं बढ़कर ’काम’ एक ऐसी आवश्यकता है जिसका मनुष्य के अचेतन मन से (unconscious mind) अत्यन्त गहरा संबंध है। ’धर्म’ और अर्थ’, के बाद ’काम’ वह तीसरा सोपान है जिस पर मनुष्य अनंतकाल तक रुके रहना चाहता है। किन्तु मृत्यु के बाद ’क्या होता है?’ इसका अनुमान न होने से वह अपनी उस तथाकथित मृत्यु के बाद (जिसे उसने स्वयं पर घटित होते हुए कभी नहीं देखा होता, और जिसकी न शायद संभावना ही है), किसी न किसी रूप में अस्तित्व में बने रहने की कल्पना या आशा कर लेता है। और जब स्वप्न में या स्वप्न जैसी किन्हीं जागृत स्थितियों में, उन व्यक्तियों से ’संपर्क’ हुआ सा प्रतीत होता है, जिनकी मृत्यु वह देख चुका होता है; तो वह सोचने लगता है कि इस इन्द्रियगोचर भौतिक अस्तित्व से परे भी कोई ’लोक’ अवश्य है/ हैं, जहाँ मनुष्य मृत्यु के बाद जा सकता है ।
ईजिप्ट की ’ममी’-संस्कृति में मनुष्य को केवल भौतिक शरीर मात्र समझते थे, और जब तक देह ’है’ वह भी ’है’, इस भावना से ही प्रेरित होकर ही यद्यपि मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर वे उसके शरीर को विभिन्न पदार्थों से ’संरक्षित’ कर भूमि में गहराई में दबा भी देते थे। किन्तु उसके साथ उस ’कक्ष’ में उसके रोज काम में आनेवाली अनेक वस्तुएँ, यहाँ तक की विलास की सामग्री और दास-दासी आदि को भी साथ रख देते थे । सभी सेमेटिक धर्म पर आधारित संस्कृतियाँ (विश्वास ) जो इस साकार भौतिक शरीर को ही मनुष्य की आत्मा मानते हैं, मृतक के शरीर को भूमि में दफ़ना देते हैं। और आशा करते हैं कि ’डे ऑफ़ जज्मेन्ट’ या ’क़यामत’ के दिन -अर्थात ’संसार’ के समाप्त होने के दिन उनका पैग़म्बर और उनका ’ईश्वर’ उनके अच्छे कर्मों के अनुसार उन्हें अनंत काल तक के लिए स्वर्ग (पैराडॉइज़ या जन्नत) बख्शेगा या शाश्वत नर्क (इटर्नल हेल ) में भेज देगा जहाँ वे हमेशा के लिए सुखों का (72 हूरों और शराब की नदी का) उपभोग करेंगे या हमेशा के लिए कष्टों का सामना करेंगे । ऐसे विश्वास या संस्कृति के अनुयायी अपने मृतक संबंधियों के कब्र ( मज़ार या ग्रेव) पर निरंतर प्रार्थनाएँ करते रहते हैं जो या तो उनके लिए या स्वयं अपने भौतिक / साँसारिक लक्ष्यों कामनाओं के ध्येय से उन्हें फिर प्रेरित करती हैं । इस प्रकार उन विश्वासों (संस्कृतियों) को माननेवाले उन मृतकों को ’स्पिरिट’ या कोई और नाम देकर संसार में उनका स्थायित्व सुनिश्चित करते हैं ।
जिन संस्कृतियों में मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके शरीर को जला देने का, या जल में प्रवाहित करने का प्रचलन था / है, वे मनुष्य की आत्मा को निराकार और अविनाशी मानते हैं। और उन्हें विश्वास होता है कि मृत्यु के पश्चात् उस मृतक की आत्मा अपने अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार नए शरीर धारण करती हुई परम तत्व से एकीभूत होकर अंततः शाश्वत शान्ति की भागी होगी। सनातन वैदिक धर्म से भिन्न मान्यताएँ रखनेवाली संस्कृतियाँ जैसे जैन या बौद्ध भी किसी न किसी ईश्वर को मानते हैं फिर वह तीर्थङ्कर हो या बुद्ध । उन्हें ’भगवान्’ कहा जाता है और उनकी उपासना करने के लिए अनेक प्रयोजन स्वीकार किए जाते हैं ।
संक्षेप में जो कोई भी मनुष्य आस्तिक है, अर्थात मृत्यु के बाद भी किसी न किसी रूप में ’मनुष्य’ के ’अस्तित्व’ में बने रहने की संभावना को सत्य मानते हैं वे ’अशरीरी’ अर्थात आधिदैविक शक्ति और उसके ’लोक’ को भी सत्य मानते हैं । जो शुद्धतः नास्तिक हैं और अनुमान करते हैं कि इस शरीर के नष्ट होने पर सब समाप्त हो जाता है, किन्तु वे भी मृत्यु से डरते हैं इससे यही संकेत मिलता है कि उन्हें अपने-आपके शरीर-मात्र होने की धारणा पर पूरा विश्वास नहीं है । वे चाहे कितना भी प्रयास करें मृत्यु के बाद भी जो होना सत्य है उससे वे बच नहीं सकते । 'It is such a 'truth' which is governed by the subtle but extremely powerful 'entities' of nature.' वह ’सत्यता’ है जिसे प्रकृति की सूक्ष्म किन्तु अत्यन्त शक्तिशाली ’सत्ताएँ’ संचालित करती हैं । इसलिए जैसे आकाश, अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी एक ओर भौतिक रूप में ग्रहण किए जाते हैं, वैसे ही उनकी ’आधिदैविक’ सत्ता भी है जो मनुष्य और जगत् के जीवन को सुश्चित और निर्धारित करती हैं ।
यह केवल अनुमान नहीं है बल्कि इस धारणा का समृद्ध रूप है कि सृष्टि को बनाने, संरक्षित करने, और संहार (अर्थात् पुनः अपने भीतर संकुचन) करने वाली एक ही परम सत्ता (राधाकृष्ण) विभिन्न रूपों में विविध प्रकार से इस प्रक्रिया को पूर्ण करती है । सनातन / वैदिक धर्म इन शक्तियों को जो चेतन, प्राणयुक्त विराट सत्ताएँ हैं, ’अधिदेवता’ या 'अधिदेवी' # कहता है । इस प्रकार से सोम, वरुण, यम, आदित्य, आदि भी ’अधिदेवता’ हैं और उनका अपना कार्यक्षेत्र और अपनी भूमिका है। [#अधिदेवता या अधिदेवी ऐसे देवता या देवी को कहते हैं। जो किसी स्थान, परिवार, गाँव, शहर, व्यक्ति, राष्ट्र, व्यवसाय या अन्य चीज़ का रक्षक होने के लिए विशेष मान्यता रखता हो। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म में ज्ञान की अधिदेवी सरस्वती हैं। गाँवों के अधिदेवों को 'ग्राम देवता' भी कहा जाता है। परिवारों के अधिदेवों को 'कुलदेवता' (ब्रह्म बाबा) और अधिदेवी को कुलदेवी (बन्दी मईया-माँ बिंध्यवासिनी देवी) 'इष्टदेवता' कहा जाता है। किसी प्रान्त या समुदाय के देवता को 'लोकदेवता' कहा जाता है। अंग्रेज़ी में अधिदेवता या अधिदेवी को 'ट्यूटेलरी' (tutelary angel) कहा जाता है। प्राचीन रोम की सभ्यता में भी अधिदेव हुआ करते थे। मसलन लानूवियम (Lanuvium) शहर की कुलदेवी जूनो (Juno) थीं।]
साँख्य या योग भी ’ईश्वर’ के ’एक’ या ’अनेक’ होने के संबंध में कुछ नहीं कहते किंतु जो उसे ’एक’ की तरह ग्रहण करते हैं उन्हें भी सम्मान देता है। क्योंकि वस्तुतः वह परम सत्ता जिसे ’ईश्वर’ (ईशिता सर्वभूतानाम) कह सकते हैं ऐसी अद्वितीय (यूनिक) शक्ति है जिसे परिभाषित तक नहीं किया जा सकता । चूँकि वह अपने विस्तार और अभिव्यक्ति से पृथक् भी नहीं है, इसलिए उसकी उपासना तक नहीं की जा सकती । किन्तु इसलिए वह ’नहीं है’, यह तो नहीं सिद्ध हो जाता । उसका अस्तित्व तो स्वतःप्रमाणित है ।
जब तक ’जीव’ और ’जगत्’ हैं’, उनके ’अधिष्ठाता देवता’ जिसमें उन जीव तथा जगत् का अधिष्ठान है, के अस्तित्व को नकारने का अर्थ हुआ अपने ही अस्तित्व को अस्वीकार कर देना । जो स्पष्ट ही है कि हास्यास्पद होगा । इस प्रकार ’आधिदैविक’ को स्वीकार करने से कोई बच नहीं सकता । उस विषय पर अधिक खोज करने और उन ’अधिदेवताओं’ से यज्ञ के माध्यम से संपर्क होने पर ऋषियों ने विवेचना द्वारा उनका महत्व और अस्तित्व में उनकी भूमिका सुनिश्चित की जो सनातन-धर्म की नींव है । किन्तु जिन्हें यह सब कोरी कल्पना या ब्राह्मणों द्वारा रचा गया जाल प्रतीत होता है, सनातन धर्म उन्हें अपनी विवेचना स्वीकार करने के लिए न तो आग्रह करता है, न इसके प्रति उसमें कोई रुचि या उत्सुकता दिखाता है । सनातन-धर्म तो एक क़दम और आगे बढ़कर कहता है कि जो इस धर्म का पालन नहीं करना चाहते यदि यह उन्हें परंपरा या कुल से प्राप्त हुआ भी हो तो वे इसे त्यागने के लिए स्वतंत्र हैं । न तो भय दिखाकर, न प्रलोभन दिखाकर, सनातन-धर्म अनधिकारी (अपात्र, अश्रद्धावान्) को कोई शिक्षा नहीं देता ।
’धर्म’ ’अर्थ’ और ’काम’ के पश्चात् ’मोक्ष’ की आवश्यकता, उपयोगिता और प्रासंगिकता के विचार ने ऐसे ’ईश्वर’ की अवधारणा (अवतार वरिष्ठ या सगुण ईश्वर की इष्टदेव कीअवधारणा) को बल दिया। जो उस भय अथवा लोभ से उपजे ’ईश्वर’ की उस अवधारणा का ही सशक्त रूप था, जिसका मनुष्य ने अपनी कल्पना के सहारे सृजन किया था ।
>>’धर्म’ : अस्तित्व या प्रकृति के समस्त स्वाभाविक क्रिया-कलापों और गतिविधियों को धर्म कहा जाता है, यानि प्रत्येक ’वस्तु’ के स्वभाव (गुण) को ही धर्म कहा जाता है। ’जिसका’ भी जन्म हुआ है, वह अपने ’धर्म’ से परिचालित होता है । एक ’जैव-प्रणाली’ का उद्भिज्ज, वारिज, अंडज और स्वेदज इन चार वर्गों में से किसी एक वर्ग में सर्वप्रथम ’जन्म’ होता है। जिसमें पुनः कुछ समय के बाद ’जीव-भाव’ का अर्थात् अपने-आप के एक शरीर-विशेष (M/F) होने के बोध का ’जन्म’ होता है । ये दोनों ’जन्म’ उस ’जैव-प्रणाली’ की संरचना में ही सुप्त रूप में अंतर्निहित (built-in-program) किन्तु निष्क्रिय से रहते हैं। परन्तु ’जैव-प्रणाली’ (organism-ऐन्द्रिक रचना) के अस्तित्व में आने पर क्रमशः सक्रिय हो उठते हैं ।
इसलिए विचारणीय यह है कि ’जन्म’ किसका होता है ? क्या यह पूरा कार्य - 'जन्मान्तर प्रक्रिया ' किसी अद्भुत विधान (लॉ) के ही नियंत्रण में नहीं होता? क्या वह विधान भी ’जड-तत्व’ है? इस ’सृष्टि’ की अभिव्यक्ति, संचालन तथा संहार के ’विधान’ में भी पुनः दो तत्वों, प्राण तथा चेतना ही पर ही सारा उत्तरदायित्व होता है। सामान्यतः ’संहार’ शब्द को नाश के अर्थ में ग्रहण किया जाता है, इसी प्रकार ’सृष्टि’ को ’बनाने’ के अर्थ में किन्तु वह अनुवाद की गंभीर भूल है । क्योंकि जब ’संसार’ को ’बनाए जाने’ या ’मिटाए जाने’ को सत्य स्वीकार कर लिया जाता है तो एक निरर्थक-सातत्य का प्रश्न (absurd-infinitum till , अनन्त काल तक निरर्थक आना और जाना ?) हमारे सामने आता है। तब ’कहाँ’ और ’कब’ इससे जुड़ जाते हैं । तब ’बनानेवाले’ या ’मिटानेवाले’ को किसने ’बनाया’/ ’मिटाया’ यह प्रश्न भी उत्तर की अपेक्षा करता है ।
सनातन-धर्म इस प्रश्न की व्यर्थता जानकर इस पूरे प्रकरण को दूसरे तरीके से स्पष्ट करता है । सत्ता केवल एक ही है जो भिन्न-भिन्न और असंख्य रूपों में स्वयं को ’जीव’ तथा ’जीव’ के सन्दर्भ में ’जगत्’ को व्यक्त करती है, जब तक जीव-भाव है, वे दोनों सत्य प्रतीत होते हैं । पुनः वही सत्ता पूरे आयोजन को अपने में ’विलीन’, ’विलुप्त’ ’संहरित’ करती है जिसे प्रलय या संहार कहा जाता है। इस नाटक का सूत्रधार इस नाटक से अविच्छिन्न होने से उसे अपने से ’पृथक्’ की तरह नहीं देखा जा सकता । इसलिए ’सृष्टि’ के प्रारंभ और उसे गतिशील बनाये रखने, तथा पुनः समाप्ति को नियंत्रित करनेवाली विभिन्न आधिदैविक शक्तियाँ इसके लिए कारण, उपादान तथा उत्तरदायी हैं ।
चूँकि ’ध्वनि-ग्राम’ (phoneme-गुरुमंत्र का जप ?) के द्वारा इन ’देवताओं’ के स्वरूप को स्पष्टतः समझा और समझाया जा सकता है। और चूँकि उनसे ’संपर्क’ भी स्थापित किया जा सकता है, इसलिए उनका अस्तित्व अनुमान या कल्पना से बढ़कर एक ठोस यथार्थ है । इसी प्रकार ये शक्तियाँ भी पुनः मनुष्य की ही तरह और उससे अनंतगुनी श्रेष्टतर ’चेतन-प्राणमय’ सत्ताएँ हैं । उन ’देवताओं’ के अपने ’लोक’ हैं और वे भी मनुष्य और अन्य सभी प्राणियों की तरह उस परम-सत्ता की ’उपाधि’ मात्र हैं । इस पूरे तथ्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि बहुदेववाद ’polytheism’ नहीं है बल्कि उस एक ही सत्ता को उसके विविध रूपों में समझने की चेष्टा है ।
>>>कामदेव : जिस देवता से ’काम’ अर्थात् अपने जैसे जीवों की उत्पत्ति के लिए प्रेरणा प्राप्त होती है उसे कामदेव कहा जाता है । दूसरी ओर इसे चार ’पुरुषार्थों’ में से एक कहा गया है । जब जीव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति (धर्म) से परिचालित हुआ, जीवन के प्रयोजन को पूर्ण करने की चेष्टा में ’अर्थ’ उपार्जन के लिए संलग्न होता है, तो अपने पीछे अपने प्रतिरूप अपनी संतति को उत्पन्न करना नैसर्गिक क्षमता की ही अभिव्यक्ति है- जो जीवमात्र में होती ही है । किंतु स्त्री और पुरुष (M/F) के शरीर की बनावट के अनुसार यह वृत्ति व्यावहारिक रूप से परस्पर कुछ भिन्न रूप लेती है । यह वृत्ति भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में उनकी रुचि और उनकी मानसिक परिपक्वता के अनुसार अनेक तरह की हो सकती है । कुछ लोग इस काम को ’भोग’ के दृष्टिकोण से देखते हैं तो कुछ इसे संतानोत्पत्ति के लिए प्रदत्त नैसर्गिक वरदान की तरह भी देख सकते हैं । जिस प्रकार वृक्ष अपनी आयु बीतने पर फल-फूल-बीज देकर अंततः सूख जाते हैं, उसी प्रकार इसे ’भोग’ की तरह देखने वाले या अन्य किसी दृष्टि से देखनेवाले मनुष्य स्त्री हो या पुरुष,आयु बीत जाने पर वृद्ध हो जाता है। ’भोग’ एक मानसिक कल्पना है जिसे भोग के विषय के चिन्तन द्वारा बहुत सशक्त तो किया जा सकता है, किन्तु उसका अन्त हताशा या निरर्थकता की अनुभूति में होता है । जबकि ’काम’ को देवता की तरह स्वीकार कर, उसके प्रति आदर और कृतज्ञता होने पर वह जीवन में सुख, शान्ति और उल्लास की सृष्टि करता है । उसका उपहास कर या उस प्रवृत्ति का बलपूर्वक दमन कर मनुष्य बस अपने अन्तर्द्वन्द्व में फँसा ही रहता है ।
>>>भगवान का नाम [=अवतार वरिष्ठ का नाम] : गुरु स्वामी विवेकानन्द के अनुसार अवतार वरिष्ठ का नाम [ठाकुर और माँ नाम ] ही आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों प्रकार के ताप का नाश करनेके लिये तथा आवागमन-रूपी रोग को जड़ से मिटाने के लिये एकमात्र अचूक औषध है । यदि संतोंसे कुछ माँगो तो यही माँगो कि ‘जिनके नाममें ऐसी शक्ति है, वे दयालु भगवान् [=त्रिदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस देव, माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द] हमपर सदा प्रसन्न रहें।'आधिदैविक आधिभौतिक और आध्यात्मिक त्रिविध ताप एवं अनेक कष्ट, पाप-संताप की निवृत्ति भगवन्नाम स्मरण में है। अतः जीवन में अखण्ड-प्रचण्ड पुरुषार्थ और अविच्छिन्न ईश्वरीय स्मृति निरंतर बनी रहे ! यह हुआ ’आधिदैविक’ का महत्व ।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।8.4।।
।।8.4।। ।।8.4।। हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! क्षरभाव अर्थात् नश्वर वस्तु (पंचमहाभूत) को अधिभूत कहते हैं, पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी अधिदैव हैं और इस देह में अन्तर्यामीरूप से मैं ही अधियज्ञ हूँ।
अधिभूतं क्षर: भाव: - अधिभूत (पञ्चमहाभूतों को आधिपत्य करके) उत्पन्न हुए सभी भाव जरा-मरण (क्षर) स्वभाव के होते हैं । पुरुष: च अधिदैवतम् - प्रज्ञा वा प्रकृति को विक्षेपित करने वाला (पुरुष) ही अधिदेवता हैं । अधियज्ञ: अहम् एव अत्र - अधियज्ञ मैं ही हूँ, यहाँ हूँ । देहे देहभृतां वर - काया में काया को व्याप्त कर के जो बसे है, उनमे से सब से उत्तम । श्री शंकाचार्य इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- यज्ञ शरीर से ही सिद्ध होता है अतः यज्ञ का शरीर से नित्य सम्बन्ध है इसलिये वह शरीर में रहनेवाला माना जाता है।
परम अक्षर तत्त्व ब्रह्म है। ब्रह्म शब्द उस अपरिवर्तनशील और अविनाशी तत्त्व का संकेत करता है जो इस दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। वही आत्मरूप से शरीर मन और बुद्धि को चैतन्य प्रदान कर उनके जन्म से लेकर मरण तक के असंख्य परिवर्तनों को प्रकाशित करता है। ब्रह्म का ही प्रतिदेह में आत्मभाव अध्यात्म कहलाता है। यद्यपि परमात्मा स्वयं निराकार और सूक्ष्म होने के कारण सर्वव्यापी है तथापि उसकी सार्मथ्य और कृपा का अनुभव प्रत्येक भौतिक शरीर में स्पष्ट होता है। देह उपाधि से मानो परिच्छिन्न हुआ ब्रह्म जब उस देह में व्यक्त होता है तब उसे अध्यात्म कहते हैं। नश्वर भाव अधिभूत है अक्षर तत्त्व के विपरीत क्षर प्राकृतिक जगत् है जिसके माध्यम से आत्मा की चेतनता व्यक्त होने से सर्वत्र शक्ति और वैभव के दर्शन होते हैं। क्षर और अक्षर में उतना ही भेद है जितना इंजिन और वाष्प में, या रेडियो और विद्युत् में।
संक्षेप में सम्पूर्ण दृश्यमान जड़ जगत् क्षर अधिभूत है। अध्यात्म दृष्टि से क्षर उपाधियाँ हैं ---शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि। पुरुष अधिदैव है। पुरुष का अर्थ है पुरी में शयन करने वाला अर्थात् देह में वास करने वाला। वेदान्तशास्त्र के अनुसार प्रत्येक इन्द्रिय मन और बुद्धि का अधिष्ठाता देवता है उनमें इन उपाधियों के स्वविषय ग्रहण करने की सार्मथ्य है। समष्टि की दृष्टि से शास्त्रीय भाषा में इसे हिरण्यगर्भ कहते हैं। 'इस देह में अधियज्ञ मैं हूँ।' वेदों के अनुसार देवताओं के उद्देश्य से अग्नि में आहुति दी जाने की क्रिया यज्ञ कहलाती है। अध्यात्म (अर्थात व्यक्ति !) की दृष्टि से यज्ञ का अर्थ है विषय भावनाएं एवं विचारों का ग्रहण। बाह्य यज्ञ के समान यहाँ भी जब विषय रूपी आहुतियाँ इन्द्रियरूपी अग्नि में अर्पण की जाती हैं, तब इन्द्रियों का अधिष्ठाता देवता (ग्रहण सार्मथ्य) प्रसन्न होता है। जिसके अनुग्रह स्वरूप हमें फल प्राप्त होकर अर्थात् तत्सम्बन्धित विषय का ज्ञान होता है। इस यज्ञ का सम्पादन चैतन्य आत्मा की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। अत वही देह में अधियज्ञ कहलाता है।
भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ दी गयी परिभाषाओं का सूक्ष्म अभिप्राय या लक्ष्यार्थ यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र पारमार्थिक सत्य है और शेष सब कुछ उस पर भ्रान्तिजन्य अध्यास है। अतः आत्मा को जानने का अर्थ है सम्पूर्ण जगत् को जानना। एक बार अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने के पश्चात् वह ज्ञानी पुरुष कर्तव्य- अकर्तव्य और विधि-निषेध के समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है। कर्म करने अथवा न करने में वह पूर्ण स्वतन्त्र होता है। जो पुरुष इस ज्ञान में स्थित होकर अपने व्यक्तित्व के शारीरिक मानसिक एवं बौद्धिक स्तरों पर क्रीड़ा करते हुए आत्मा को देखता है वह स्वाभाविक ही स्वयं को उस दिव्य साक्षी के रूप में अनुभव करता है जो स्वइच्छित अनात्म बन्धनों की तिलतिल हो रही मृत्यु का भी अवलोकन करता रहता है। ।।8.5।।और जो पुरुष अन्तकाल में -- मरणकाल में मुझ परमेश्वर -- विष्णु का ही स्मरण करता हुआ शरीर,छोड़कर जाता है वह मेरे भाव को अर्थात् विष्णु के परम तत्त्व को प्राप्त होता है। इस विषय में प्राप्त होता है या नहीं ऐसा कोई संशय नहीं है।
>>>आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक -2.
[Corporeal / sacred / spiritual]
दुःखानुशयी द्वेष: ।। (2.8)
(योगसूत्र : साधन पाद : 8 )
शब्दार्थ :- दुःख, (कष्ट अथवा तकलीफ) अनुशयी, (को भोगने के बाद उस दुःख अथवा कष्ट के प्रति क्रोध या उसके नाश की इच्छा का होना ही) द्वेष, (द्वेष नामक क्लेश कहलाता है।)
सूत्रार्थ :- दुःख या किसी कष्ट को भोगने के बाद उस दुःख के के प्रति उत्पन्न होने वाले आक्रोश को द्वेष नामक क्लेश कहते हैं ।
व्याख्या :- इस सूत्र में द्वेष नामक क्लेश का स्वरूप बताया गया है । किसी भी प्रकार के दुःख अथवा तकलीफ को महसूस करने के बाद, उस दुःख व उसके कारण के प्रति क्रोध उत्पन्न होना ही द्वेष नामक क्लेश है ।
दुःख मुख्य रूप से तीन प्रकार के माने गए हैं –
आध्यात्मिक (spiritual) दुःख
आधिभौतिक (Corporeal) दुःख
आधिदैविक (sacred) दुःख ।
आध्यात्मिक दुःख ( दैहिक ) :- आध्यात्मिक दुःख वह दुःख होते हैं जो हमें शारीरिक व मानसिक रूप से कष्ट पहुँचाते हैं । इनको दैहिक दुःख इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह हमारी देह अर्थात शरीर में होते हैं । जैसे – बुखार, सरदर्द, उल्टी- दस्त लगना, बी.पी., मधुमेह आदि रोग होना शारीरिक दुःख हैं । इसी प्रकार मानसिक दुःख भी होते हैं जैसे – चिन्ता, तनाव, अनिद्रा व अवसाद आदि ।
आधिभौतिक दुःख :- वह कष्ट या दुःख जो हमें भौतिक पदार्थों से प्राप्त होते हैं आधिभौतिक दुःख कहलाते हैं । जैसे – हिंसक पशुओं या जानवरों द्वारा कष्ट मिलना, सड़क दुर्घटना से मिलने वाला कष्ट आदि ।
आधिदैविक दुःख :- वह दुःख या कष्ट जो हमें अलौकिक कारणों से मिलता है आधिदैविक दुःख कहलाता है । जैसे- सब्जी काटते समय ऊँगली कट जाना , कार का फाटक बन्द करते समय अँगूठा दब जाना। सर्दी- गर्मी से मिलने वाला कष्ट, अकाल व अत्यधिक वर्षा से मिलने वाला कष्ट, व भूकम्प आदि से मिलने वाला दुःख ।
ऊपर वर्णित सभी दुःखों में से जब किसी भी प्रकार का दुःख या कष्ट हमें होता है । तो उस दुःख व उस दुःख के कारण के प्रति क्रोधित होकर उसका नाश करने की कोशिश करते रहते हैं । या उसके नाश की भावना रखते हैं ।
उदाहरण स्वरूप :- कई बार ज्यादा तला- भूना या बाहर का भोजन ग्रहण करने के कारण हमें उल्टी व दस्त लग जाते हैं । जिससे हमें कष्ट होता है । उस कष्ट या तकलीफ से पीड़ित होने से हमें हमारा ध्यान उसके कारण पर जाता है । कि यह रोग हमें किस कारण से हुआ है ? उसके पीछे जो भी कारण होता है, हम उसके प्रति क्रोधित हो उठते हैं । और उस कारण का नाश करने का पूरा प्रयास करते हैं । उसके नाश की भावना करना ही द्वेष कहलाता है ।
दूसरा हम इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि जब हम अपनी गाड़ी से यातायात ( ट्रैफिक ) के नियमों का पालन करते हुए कहीं जा रहे होते हैं । तभी अचानक से कोई दूसरा वाहन गलत दिशा से आकर आपको टक्कर मार देता है । तब आपको उसकी गलती पर बहुत गुस्सा आता है । और आप गुस्से में आकर उसको बुरा- भला कहने लगते हो । या फिर उसके ऊपर हिंसा अर्थात उसको चोट पहुँचाने की कोशिश करते हो । यह गुस्से अथवा क्रोध का भाव ही द्वेष होता है । या कोई व्यक्ति हमें बिना किसी कारण के प्रताड़ित कर रहा होता है, तो उस व्यक्ति के प्रति भी हम क्रोध का भाव रखते हैं । और अवसर ( मौका ) मिलते ही उसको नुकसान पहुँचाने का भी प्रयास करते हैं । यही द्वेष नामक क्लेश होता है ।
यह भी सर्वविदित है कि सबके जीवन में अलग अलग दुख आते रहते हैं, जब दुख भोग लिया जाता है या आकर चला जाता है; तो उसके बाद दुख और जिनके कारण से दुख मिला था उन्हें दूर करने की इच्छा, संस्कार रूप में चित्त में अंकित रह जाती है, जिसे द्वेष नामक क्लेश कहते हैं।
जब कोई व्यक्ति किसी दुःख (अचानक सोडियम घट गया ?) से ग्रसित होता है तो चिंतन करता है कि दुःख क्यों आया, किन साधनों के कारण आया तो यह दुःख का अनुभव संस्कार रूप में चित्त पर चिपक जाता है। चित्त पर चिपके ये संस्कार कोई भी अनुकूल वातावरण उत्पन्न होने पर स्मृति को उत्पन्न कर देते हैं। फिर इस स्मृति से द्वेष पैदा होता है। यही द्वेष के उत्पन्न होने का क्रम एवं प्रक्रिया है।
द्वेष नामक क्लेश से अनेक दुर्भाव जैसे मानसिक एवं प्रकट क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या, उत्पन्न होते हैं। द्वेष नामक क्लेश जब जीवन में अधिक बढ़ जाता है तो निरंतर संशय की स्थिति बना देता है। जिसके कारण से व्यक्ति किसी पर भी, अपने सगे -सम्बन्धियों पर भी सहजता से विश्वास नहीं कर पाता है। यदि कोई व्यक्ति निरंतर संशय की स्थिति में जीता है तो वह अपनी आत्मा से दूर होता चला जाता है। एक प्रकार से वह केवल शरीर भाव से ही जी रहा होता है। फलस्वरूप जीवन के असली तत्त्व जो वह स्वयं आत्मस्वरूप है उससे बहुत अधिक बिछड़ने लग जाता है। यह स्थिति अत्यंत भयावह है। द्वेष क्लेश बढ़ने से, लगातार नकारात्मक भाव से भरने लग जाता है। स्वभाव से चिढचिढा और शिकायती होने लग जाता है- शिवकुमार भइया जैसा रोता है -हमको गोली मार देगा।
राग और द्वेष दो विपरीत क्लेश हैं लेकिन दोनों की उत्पत्ति के क्रम एवं प्रक्रिया में एक जैसी समानता है। राग अलग तरह से व्यक्ति को दुखी करता है और द्वेष अलग तरह से। द्वेष, व्यक्ति को पाप और हिंसा में प्रवृत्त करता है। बुरे कर्माशयों की ओर लेकर जाता है और फिर पूरे मानव जीवन को जन्मजन्मांतरों में भटकाता है।
इसलिए दैनिक जीवन में राग और द्वेष को ठीक ठीक समझकर इनका प्रयोग केवल स्वयं के जीवन के उत्थान में लगाना चाहिए।
गीता में भगवान कहते हैं -
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।7.27।।
।।7.27।। हे परन्तप भारत ! इच्छा (राग) और द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्वमोह से मोहित सम्पूर्ण प्राणी उत्पत्ति काल में ही (जन्म लेते ही) संमोह ( अविवेक) को अर्थात् जन्म-मरण को प्राप्त हो रहे हैं।
क्यों और कैसे यह जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप को नहीं जान पाता है भगवान् श्रीकृष्ण उन मूलभूत सिद्धांतों को बताते हैं जो आधुनिक जीवशास्त्रियों ने जीव के विकास के सम्बन्ध में शोध करके प्रस्तुत किये हैं।
आहार, निद्रा और भय अर्थात आत्मसुरक्षा की स्वाभाविक और सर्वाधिक प्रबल प्रवृत्ति के वशीभूत मनुष्य जगत् में जीने का प्रयत्न करता है। सुरक्षा की यह प्रवृत्ति बुद्धि में उन वस्तुओं की इच्छाओं के रूप में व्यक्त होती है, जिनके द्वारा मनुष्य अपने सांसारिक जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने की अपेक्षा रखता है। प्रिय वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा को इच्छा (राग) कहते हैं। यदि कोई वस्तु या व्यक्ति इस इच्छापूर्ति में बाधक बनता है तो मन की प्रतिक्रिया उसकी ओर द्वेष या क्रोध के रूप में व्यक्त होती है। इच्छा (राग) और द्वेष की दो शक्तियों के बीच होने वाले शक्ति परीक्षण में दुर्भाग्यशाली जीव छिन्न-भिन्न होकर मरणासन्न व्यक्ति की असह्य पीड़ा को भोगता है।
स्वाभाविक ही है कि ऐसा व्यक्ति प्रिय की प्रति प्रवृत्ति और द्वेष की ओर से निवृत्ति में सदा में व्यस्त रहता है। शीघ्र ही वह व्यक्ति अत्याधिक व्यस्त और पूर्णतया भ्रमित होकर थक जाता है। मन में उत्पन्न होने वाले विक्षेप दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए अशान्ति की वृद्धि करते हैं। इन्हीं विक्षेपों के आवरण के फलस्वरूप मनुष्य को अपने सत्यस्वरूप का दर्शन नहीं हो पाता। अतः आत्मा की अपरोक्षानुभूति का एकमात्र उपाय है - मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा या मन को एकाग्र और संयमित करके - उसके विक्षेपों पर पूर्ण विजय प्राप्त करना। विश्व के सभी धर्मों में जो भी आध्यात्मिक साधनाएं बतायी जाती हैं उन सबका प्रयोजन केवल मन को पूर्णतया शान्त और वशीभूत करने का ही है। परम शान्ति का क्षण ही आत्मानुभूति, आत्मसाक्षात्कार और आत्ममिलन का क्षण होता है। दैवी करुणा से भरे स्वर में भगवान् श्रीकृष्ण कहते है - परन्तु दुर्भाग्य है कि प्राणीमात्र उत्पत्ति काल में ही सम्मोह को प्राप्त हो जाते हैं । यह दुखपूर्ण प्रारब्ध मनुष्य का कोई नैराश्यपूर्ण समर्पण नहीं है कि जिससे मुक्ति पाने में वह जन्म से ही अशक्त बना दिया गया हो।
कृष्ण का धर्म किसी व्यक्ति को ईसाई धर्म के समान पाप का पुत्र नहीं मानता। वे कहते हैं - कोई भी व्यक्ति अपनी अतृप्त वासनाओं और प्रच्छन्न कामनाओं की परितृप्ति के लिए स्वयं ही किसी देह विशेष (M/F) और उपलब्ध वातावरण में जन्म लेने की त्रासदी निर्माण करता है। इस मोह जाल से (भ्रमजाल से या हिप्नोटाइज्ड अवस्था से) मुक्ति (मोक्ष) पाना और सम्यक् ज्ञान (विवेकज ज्ञान) को प्राप्त करना जीवन का पावन लक्ष्य है। गीता भगवान् द्वारा विरचित काव्य है जो विपरीत ज्ञान में फंसे लोगों को भ्रमजाल से निकालकर पूर्णानन्द में विहार कराता है।
जिसका ’जन्म’ हुआ है वह एक ओर तो शरीर है, दूसरी ओर शरीर से संबद्ध ’चेतना’ है। जिसके अन्तर्गत इच्छाएँ, भय और द्वन्द्व, स्मृति, निश्चय-अनिश्चय, अचेतन और चेतन दोनों स्तरों पर कार्य करते हैं । ’स्मृति’ (Memory) पहचान है और ’पहचान’ (identity) ही स्मृति (Memory) इसलिए एक के न होने पर दूसरा भी नहीं होता । इस पहचान और स्मृति के आधार पर ’अपनी’ यानि ’मैं’ और संसार की ’पहचान’और ’स्मृति’ बनती-बिगड़ती रहती है। जबकि उनका आधारभूत अधिष्ठान (चेतना) अखंडित तथा अविच्छिन्न रहते हुए व्यक्ति और संसार के जीवन को संभव और सुचारु बनाए रखता है । यह अधिष्ठान (चेतना) वैयक्तिक न होते हुए भी ’व्यक्ति’ के मन में संसार में ’अपने’ एक स्वतंत्र-सत्ता होने की भावना को जन्म देती है ।
जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है यह भावना अपनी निरंतर उपस्थिति से सुदृढ़ विश्वास बन जाती है । यह भावना निरंतर ’संसार’ में अपने को अकेले समझने और उस अकेलेपन को समाप्त करने या उससे दूर भागने की चेष्टा पैदा करती है । इस प्रकार जो नहीं है उस व्यक्ति की सत्ता को मन स्वीकार कर बैठता है । दूसरे शब्दों में यही ’अविद्या’ है - जो विद्यमान नहीं है उसे सत्य समझ बैठना । जैसे भावनाएँ चित्त (हृदय) में उठती हैं वैसे ही बुद्धि (विचार) मस्तिष्क में । किन्तु इन मानसिक कल्पनाओं की प्रतिक्रियास्वरूप ’मैं’ को इनका स्वामी समझ लिया जाता है । प्रायः हर कोई कहता है - "मैं सोचता हूँ , या मैं नहीं सोचता हूँ ..." इसी प्रकार यह भी कहता है "मैं प्रेम करता हूँ, मैं घृणा करता हूँ , क्रोध, ईर्ष्या और इच्छा करता हूँ ... या, "मैं प्रेम, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, इच्छा नहीं करता... "किन्तु थोड़ा ध्यान से देखें तो ’सोचना’, ’न सोचना’ अपने-आप परिस्थितियों और स्मृति के मिले-जुले प्रभाव से घटित होता है और यह ’मस्तिष्क’ में होता है । जिसकी स्मृति नहीं उस बारे में ’सोचना’ नहीं हो सकता । वैसे ही कभी कभी हम कहते हैं - "मैं सोच नहीं पा रहा। ... हमें यह भी अनुभव होता है और हम ऐसा कहते भी हैं तात्पर्य यह कि ’मैं’ नामक ऐसे किसी ’विचारकर्ता’का अस्तित्व ही नहीं है जिसे ’मन’ ’विचार’ के स्वामी की तरह मान्य कर लेता है ।
इसी तरह भावनाएँ प्रेम, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, इच्छा, भय ( असुरक्षा या सुरक्षा) आदि भी अपने-आप परिस्थितियों और स्मृति के मिले-जुले प्रभाव से घटित होते हैं और हमें ऐसा प्रतीत होता है कि ’मैं’ ही उनके उठने या समाप्त होने को नियंत्रित करता हूँ। इस प्रकार विचार तथा भावनाओं से अपने को मिला लेना (इन्डल्जेन्स) ही अविद्या है।मुझे प्रेम , घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, इच्छा, भय आदि वैसे ही ’होते’ हैं, जैसे मुझे भूख, प्यास, नींद आदि ’होते’ हैं । किन्तु पहले तो भूलवश अपने-आपको उनसे जोड़कर मैं कहता हूँ ’मैं प्रेम करता हूँ। ’ और फिर यह भी कहता हूँ, ’मुझे उससे प्रेम है’ ।इस सब के दौरान निर्वैयक्तिक चेतना जिसके प्रकाश में यह सब घटता है यथावत् सुस्थिर आधार की तरह अप्रभावित और अपरिवर्तित रहते हुए इनसे असंलग्न रहती है । किन्तु ’जीव-भाव’ (M/F) के जन्म के बाद ’व्यक्ति’ और ’व्यक्तित्व’ इतने दृढ़ हो जाते हैं कि मनुष्य यह भी कह बैठता है कि मैं मुक्त होना चाहता हूँ । जो ’नहीं है’, वह ’मुक्त’ कैसे होगा? वह बंधन में था ही कहाँ ? जब यह स्पष्ट हो जाता है कि ’जन्म’ और ’जीव-भाव’ वस्तुतः इस बारे में विचार (थॉट) होने से ही सत्य लगने लगता है,तो ’मुक्ति’ या ’बंधन’ का प्रश्न ही नहीं पैदा होता ।
इस प्रकार आधिभौतिक और आध्यात्मिक के मध्य आधिदैविक एक पड़ाव है या कड़ी है, क्योंकि ’अविद्या’ ’काम’ और ’कर्म’ इस प्रश्न को उठने ही नहीं देते कि ’अविद्या’ ’किसे’ हुआ है । जब तक मनुष्य ’काम’ को उपभोग की दृष्टि से देखता है या उसका उपहास करता है, तब तक ’काम’ कुपित होकर और विकृत रूप लेकर मनुष्य के मन पर हावी रहता है । और ’कामवृत्ति’ सर्वाधिक प्रबल वृत्ति की तरह उसे ’कर्म’ में संलग्न रखती है । यह ’काम’ केवल शारीरिक वासना हो यह आवश्यक नहीं, यह ’कामना’ बनकर एक कल्पित ’भविष्य’ को प्रक्षेपित करता है। किन्तु विवेक न होने से मनुष्य यह नहीं समझता कि सभी वृत्तियाँ पुनरावर्ती होती हैं और उनके साथ लिप्त होना आत्मवंचना ही है । ’काम’ और ’अविद्या’ से प्रेरित कर्म ’संस्कार’ जब अभ्यास (आदत और प्रवृत्ति) बन जाता है तब उससे छूटना क्रमशः और कठिन होने लगता है । कभी-कभी मनुष्य इस यातना से घबराकर आत्महत्या तक कर लेता है या इसका प्रयास करता है।
मृत्यु भी आधिदैविक सत्ता है जिसे ’यम’ कहा जाता है । यमराज को ही धर्मराज भी कहा जाता है, क्योंकि उनका विधान अटल होता है । इस प्रकार ’धर्म’ मनुष्य को कभी त्यागता नहीं । जब ’धर्म’ को विधान की तरह देखकर उसका अनुष्ठान (आचरण) किया जाता है तो मनुष्य को मृत्यु भी भयभीत नहीं करती, तथा उसे क्लेश न्यूनतम और सुख अधिकतं होता है । अविद्या है तमोगुण जबकि कर्म है रजोगुण, और धर्म सतोगुण के रूप में मनुष्य को उन दोनों में संतुलन बनाने में सहायक होता है । है तो यह भी गुण ही किन्तु इसकी वृद्धि होने पर मनुष्य में अनायास दृष्टि की स्पष्टता आती है । अविद्या काम और कर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने पर इस प्रश्न का पटाक्षेप हो जाता है कि ’जन्म’ किसका हुआ? इसे मोक्ष का नाम दिया गया है किन्तु केवल औपचारिक रूप से क्योंकि ....।
[*****साभार/https://swaadhyaaya.blogspot.com/2016/04/1.html
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मंगलवार, 16 अप्रैल, 2024 >
[प्रार्थना : श्री गणपति अथर्वशीर्ष पाठ हिंदी अर्थ सहित :
गणपति अथर्वशीर्ष संस्कृत में रचित एक लघु उपनिषद है। इस उपनिषद में गणेश को परम ब्रह्म बताया गया है। यह अथर्ववेद का भाग है। अथर्वशीर्ष में दस ऋचाएं हैं।
अथर्वशीर्ष स्तोत्र के पाठ से मनुष्य के जीवन में सर्वांगीण उन्नति होती है। इसके पाठ से सभी प्रकार के विघ्न-बाधाएं दूर होती है। विचारों से नकारात्मकता खत्म होती है और पवित्रता आती है।
गणपति अथर्वशीर्ष
अर्थ:
ॐकार पति भगवान गणपति को नमस्कार है। हे गणेश ! तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्व हो। तुम्हीं केवल कर्ता हो। तुम्हीं केवल धर्ता हो। तुम्हीं केवल हर्ता हो। निश्चयपूर्वक तुम्हीं इन सब रूपों में विराजमान ब्रह्म हो। तुम साक्षात नित्य आत्मस्वरूप हो।
स्वरूप तत्त्व
ऋतं वच्मि | सत्यं वच्मि || २||
अर्थ
मैं ऋत न्याययुक्त बात कहता हूँ। सत्य कहता हूँ।
अव त्वं माम् | अव वक्तारम् | अव श्रोतारम् | अव दातारम् |
अव धातारम् | अवानूचानमव शिष्यम् | अव पश्चात्तात् | अव पुरस्तात् |
अवोत्तरात्तात् | अव दक्षिणात्तात् | अव चोर्ध्वात्तात् | अवाधरात्तात् |
सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् || ३ ||
अर्थ - हे पार्वतीनंदन! तुम मेरी (मुझ शिष्य की) रक्षा करो। वक्ता (आचार्य) की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। व्याख्या करने वाले आचार्य की रक्षा करो। शिष्य की रक्षा करो। पश्चिम से रक्षा। पूर्व से रक्षा करो। उत्तर से रक्षा करो। दक्षिण से रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे से रक्षा करो। सब ओर से मेरी रक्षा करो। चारों ओर से मेरी रक्षा करो।
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मय: | त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः ||
त्व सच्चिदानंदाद्द्वितीयोऽसि | त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि |
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि || ४||
अर्थ 👉 तुम वाङ्मय हो, चिन्मय हो। तुम आनंदमय हो। तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानंद अद्वितीय हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम ज्ञानमय हो विज्ञानमय हो।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते | सर्वं जगदिदं तत्त्वस्तिष्ठति |
सर्वं जगदिद त्वयि लयमेष्यति | सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति |
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ: | त्वं चत्वारि वाक्पदानि || ५ ||
अर्थ 👉 यह जगत तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत तुममें लय को प्राप्त होगा। इस सारे जगत की तुममें प्रतीति हो रही है। तुम भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो। परा, पश्चंती, बैखरी और मध्यमा वाणी के ये विभाग तुम्हीं हो।
त्वं गुणत्रयातीत: | त्वं देहत्रयातीत: |
त्वं कालत्रयातीत: | त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् ||
त्वं शक्तित्रयात्मक: | त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् |
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं | रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं |
वायुस्त्वं सूर्यंस्त्वं चंद्रमास्त्वं | ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ||
अर्थ 👉 तुम सत्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हो। तुम जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म औ वर्तमान तीनों देहों से परे हो। तुम भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों से परे हो। तुम मूलाधार चक्र में नित्य स्थित रहते हो। इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीन प्रकार की शक्तियाँ तुम्हीं हो। तुम्हारा योगीजन नित्य ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो, तुम विष्णु हो, तुम रुद्र हो, तुम इन्द्र हो, तुम अग्नि हो, तुम वायु हो, तुम सूर्य हो, तुम चंद्रमा हो, तुम ब्रह्म हो, भू:, र्भूव:, स्व: ये तीनों लोक तथा ॐकार वाच्य पर ब्रह्म भी तुम हो।
गणेश मंत्र
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरम् |
अनुस्वार: परतर: |
अर्धेंदुलसितम् | तारेण ऋद्धम् |
एतत्तव मनुस्वरूपम् | गकार: पूर्वरूपम् | अकारो मध्यमरूपम् |
अनुस्वारश्चान्त्यरूपम् | बिंदुरुत्तररूपम् | नाद: संधानम् | संहिता संधि: | सैषा गणेशविद्या |
गणकऋषि: | निचृद्गायत्रीच्छंद: | गणपतिर्देवता | ॐ गँ गणपतये नम: ||७||
अर्थ 👉 गण के आदि अर्थात 'ग्' कर पहले उच्चारण करें। उसके बाद वर्णों के आदि अर्थात 'अ' उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार उच्चारित होता है। इस प्रकार अर्धचंद्र से सुशोभित 'गं' ॐकार से अवरुद्ध होने पर तुम्हारे बीज मंत्र का स्वरूप (ॐ गं) है। गकार इसका पूर्वरूप है।बिन्दु उत्तर रूप है। नाद संधान है। संहिता संविध है। ऐसी यह गणेश विद्या है। इस महामंत्र के गणक ऋषि हैं। निचृंग्दाय छंद है श्री मद्महागणपति देवता हैं। वह महामंत्र है- ॐ गं गणपतये नम:।
गणेश गायत्री
एकदंताय विद्महे | वक्रतुंडाय धीमहि | तन्नो दंती प्रचोदयात् || ८ ||
अर्थ 👉 एक दंत को हम जानते हैं। वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। वह दन्ती (गजानन) हमें प्रेरणा प्रदान करें। यह गणेश गायत्री है।
गणेश रूप
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम् |
रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ||
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् |
रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपूजितम् ||
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् |
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ | प्रकृते: पुरुषात्परम् ||
एवं ध्यायति यो नित्यं | स योगीं योगिनां वर: || ९ ||
अर्थ 👉 एकदंत चतुर्भज चारों हाथों में पाक्ष, अंकुश, अभय और वरदान की मुद्रा धारण किए तथा मूषक चिह्न की ध्वजा लिए हुए, रक्तवर्ण लंबोदर वाले सूप जैसे बड़े-बड़े कानों वाले रक्त वस्त्रधारी शरीर प रक्त चंदन का लेप किए हुए रक्तपुष्पों से भलिभाँति पूजित। भक्त पर अनुकम्पा करने वाले देवता, जगत के कारण अच्युत, सृष्टि के आदि में आविर्भूत प्रकृति और पुरुष से परे श्रीगणेशजी का जो नित्य ध्यान करता है, वह योगी सब योगियों में श्रेष्ठ है।
अष्ट नाम गणपती
नमो व्रातपतये | नमो गणपतये | नम: प्रमथपतये | नमस्तेSस्तु लंबोदरायैकदंताय |
विघ्ननाशिने शिवसुताय | श्रीवरदमूर्तये नमो नम: || १० ||
अर्थ 👉 व्रात (देव समूह) के नायक को नमस्कार। गणपति को नमस्कार। प्रथमपति (शिवजी के गणों के अधिनायक) के लिए नमस्कार। लंबोदर को, एकदंत को, शिवजी के पुत्र को तथा श्रीवरदमूर्ति को नमस्कार-नमस्कार।
फलश्रुति
एतदर्थवशीर्षं योSधीते | स ब्रह्मभूयाय कल्पते | स सर्वत: सुखमेधते |
ससर्वविघ्नैर्न बाध्यते | स पंञ्चमहापापात्प्रमुच्यते | सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति |
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति | सायंप्रात: प्रयुञ्जानो अपापो भवति |
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति | धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ||
इदमथर्वशीर्षंमशिष्याय न देयम् | यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति |
सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् || ११ ||
अर्थ 👉 यह अथर्वशीर्ष (अथर्ववेद का उपनिषद) है। इसका पाठ जो करता है, ब्रह्म को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। सब प्रकार के विघ्न उसके लिए बाधक नहीं होते। वह सब जगह सुख पाता है। वह पाँचों प्रकार के महान पातकों तथा उपपातकों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल पाठ करने वाला दिन के पापों का नाश करता है। प्रात:काल पाठ करने वाला रात्रि के पापों का नाश करता है। जो प्रात:- सायं दोनों समय इस पाठ का प्रयोग करता है वह निष्पाप हो जाता है। वह सर्वत्र विघ्नों का नाश करता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है। इस अथर्वशीर्ष को जो शिष्य न हो उसे नहीं देना चाहिए। जो मोह के कारण देता है वह पातकी हो जाता है। सहस्र (हजार) बार पाठ करने से जिन-जिन कामों-कामनाओं का उच्चारण करता है, उनकी सिद्धि इसके द्वारा ही मनुष्य कर सकता है।
अनेन गणपतिमभिषिंचति | स वाग्मी भवती |
चतुर्थ्यामनश्नन् जपति | स विद्यावान भवति |
इत्यथर्वणवाक्यम् |
ब्रह्माद्याचरणं विद्यात् | न बिभेति कदाचनेति || १२ ||
अर्थ 👉 इसके द्वारा जो गणपति को स्नान कराता है, वह वक्ता बन जाता है। जो चतुर्थी तिथि को उपवास करके जपता है वह विद्यावान हो जाता है, यह अथर्व वाक्य है जो इस मंत्र के द्वारा तपश्चरण करना जानता है वह कदापि भय को प्राप्त नहीं होता।
यो दुर्वांकुरैर्यजति | स वैश्रवणोपमो भवति |
यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति | स मेधावान् भवति |
यो मोदकसह्स्रेण यजति | स वाञ्छितफलमवाप्नोति |
यः साज्यसमिद्भिर्यजति | स सर्वं लभते स सर्वं लभते || १३ ||
अर्थ 👉 जो दूर्वांकुर के द्वारा भगवान गणपति का यजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजो (धानी-लाई) के द्वारा यजन करता है वह यशस्वी होता है, मेधावी होता है। जो सहस्र (हजार) लड्डुओं (मोदकों) द्वारा यजन करता है, वह वांछित फल को प्राप्त करता है। जो घृत के सहित समिधा से यजन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है।
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति |
सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति |
महाविघ्नात्प्रमुच्यते | महादोषात्प्रमुच्यते |
महापापात्प्रमुच्यते | स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति |
य एवं वेद इत्युपनिषद् || १४ ||
अर्थ 👉 आठ ब्राह्मणों को सम्यक रीति से ग्राह कराने पर सूर्य के समान तेजस्वी होता है। सूर्य ग्रहण में महानदी में या प्रतिमा के समीप जपने से मंत्र सिद्धि होती है। वह महाविघ्न से मुक्त हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है।
शांतिमंत्र
ॐ सहनाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||
शांतिमंत्र
ॐ भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा: | भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: ||
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभि: | व्यशेम देवहितं यदायु: ||१||
ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवा: | स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा: |
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमि: | स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ||२||
ॐ शांति: शांति: शांति: ||
ॐ तन्मा अवतु
तद्वक्तारमवतु
अवतु माम्
अवतु वक्तारम्
ॐ शांति: शांति: शांति: ||
|| श्रीगणेशार्पणमस्तु ||
आचार्य और छात्र की इस संयुक्त प्रार्थना में दोनों यह समझते की शिक्षा का कार्य हमें मिलकर करना है। दोनों का अध्ययन तेजस्वी होना चाहिए। और दोनों आपस में ईर्ष्या न करें। जब द्वेष भाव से शिक्षा कार्य होता है, तब विद्या दूषित होती है और सबको हानि पहुँचाती है। विद्या को शुद्ध और पवित्र बनाये रखने के लिए आचार्य और छात्र के अन्त:करण और व्यवहार शुद्ध होने चाहिए।
[ वैदिक मंत्र: हरि ॐ तत् सत् का सार > यह है कि रचनाकार ने सृष्टि की रचना नहीं की है बल्कि स्वयं को प्रकट या रचना में रूपांतरित किया है। ये सभी सत्य 'हरि ॐ तत् सत्' मंत्र में निरूपित हैं। जब मैं 'हरि ओम तत् सत्' कहता हूं, तो मैं स्वयं को यह याद दिलाता हूँ कि दृश्य और अदृश्य, दोनों एक हैं। यह स्थूल ब्रह्माण्ड उस अस्तित्व की अभिव्यक्ति है, अस्तित्व की रचना नहीं। सृजन और अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में अंतर है। तुम कपास लेकर सूत बनाओ और फिर एक कमीज बनाओ। कपास से कमीज बनी है, कमीज से कपास नहीं बनी है। कपास ने खुद को शर्ट में बदल लिया है। उसी प्रकार एक बड़ी अदृश्य शक्ति भी है। तो, 'हरि ओम तत् सत्' का अर्थ है 'वह सत्य है'। जो मैं अपनी आंखों से देखता हूं और जो मेरी आंखों से परे है, वे दोनों एक ही हैं, अलग नहीं। स्रष्टा और सृष्टि दो नहीं हैं। (सौजन्य: बिहार स्कूल ऑफ योगा )]
>>हरि का अर्थ है जो आपको अपनी ओर खींचता है। ॐ शाश्वत नाद-प्रणव है। हरि ओम संबोधन का एक पवित्र रूप है जिसका उपयोग सन्यासियों और भक्तों द्वारा समान रूप से किया जाता है। 'तत्' का अर्थ है अनिर्वचनीय ब्रह्म। कोई उसको अनिर्वचनीय सर्वोच्च शक्ति भी कह सकता है। 'सत्' का अर्थ है परम् या तुरीय सत्य, अथवा इन्द्रियातीत सत्य। सरल शब्दों में, हरि ओम तत् सत् का अर्थ है - भगवान हरि श्रीविष्णु , जो सर्वोच्च सत्य हैं। यह सरल मंत्र एक स्मरण है, जिसका जप सभी कर सकते हैं। इसका अभ्यास भक्ति और प्रेम से करें!
[प्रार्थना के अर्थ का चिंतन : 17 अप्रैल -रामनवमी 2024 / राम पाइयाँ चलो मैं निहारु तुम्हें, तुम्हरी मातायें तीन तुम्हरे भाई भी तीन -कुटिल सृष्टि तुम्हारी रक्षा करुं। भजन lyrics/चिंतन-जिसकी फितरत हमेशा बदलने की हो, वो किसी का नहीं होता -चाहे वो समय हो या इंसान ! Whose nature is always changing,It doesn't belong to anyone - be it time or human being! )]
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संसार के करतार का साकार न होता / ('मोहन मोहनी ' के रचयिता -बिन्दु जी)
संसार के करतार का साकार न होता,
तो उसका ये संसार भी साकार न होता।
साकार से जाहिर है निराकार की हस्ती,
साकार न होता तो निराकार न होता।
हम मान भी लेते कि वो दृष्टि से परे है,
आँखों में उसका अगर चमत्कार न होता।
व्यापक ही सही सबमें वो रहता मगर कहाँ,
रहने को अगर जिस्म का आधार नहीं होता।
आँखों से कभी निकलते नहीं ‘बिन्दु’ के मोती,
निर्गुण से सगुण का बँधा तार न होता॥
[जीवन परिचय बिन्दुजी (1893- 1964) वृंदावन स्थित प्रेम धाम आश्रम के संस्थापक: जन्म स्थान -अयोध्या, उत्तर प्रदेश। कुछ प्रमुख कृतियाँ- मोहन मोहनी, मानस माधुरी, राम राज्य, कीर्तन मंजरी, राम गीता, विविध। ]
प्रभु तेरी महिमा किस विध गाऊं
प्रभु तेरी महिमा किस विध गाऊँ,
तेरो अंत कहीं नहीं पाऊँ ॥ टेक ॥
अलख निरंजन रूप तिहारो, किस विधि ध्यान लगाऊँ,
वृक्ष बगीचे रचना तेरी, किस विधि पुष्प चढ़ाऊँ ॥
प्रभु तेरी महिमा . . .
पांच भूत की देह ना तुम्हरी, चन्दन किम लिपटाऊँ,
सकल जगत के पालन कर्ता, किस विधि भोग लगाऊँ ॥
प्रभु तेरी महिमा . . .
सकल जगत के पालन कर्ता किस बिध भोग लगाऊं ॥
हाथ जोड़कर अरज करूँ मैं, बार बार शीश नवाऊँ,
ब्रह्मानंद हटा दे पर्दा, घट घट दर्शन पाऊँ ॥
[साभार @@https://www.ibiblio.org/ram/bcd00007.htm]
भगवान के सच्चे भक्तों को पग पग पे सहारा मिलता है :
भगवान के सच्चे भक्तों को पग पग पे सहारा मिलता है,
इस ओर बचो उस ओर चलो ~ यह आप इशारा मिलता है॥
तूफान हो लहरों में हलचल, पल पल डूबेंगे यह भय हो,
मन कल-कल में बेकल होवे, निर्बल जन निज पर संशय हो,
पर ‘राम नाम’ पर निश्चय हो, तो सहज किनारा मिलता है ॥
भगवान के सच्चे भक्तों को . . .
न हाथ में जग की माया हो, ना साथ में संगी साथी हो,
जन जन ही दुश्मन बन जाये, न हिम्मत बंधने पाती हो,
तब राम कृपा से ही जन को, संतोष उभारा मिलता है ॥
भगवान के सच्चे भक्तों को . . .
दु:ख हो सिर बिपता भारी हो, और सभी तरह लाचारी हो,
मन चिंतित, संशित हो जाये, निर्दोष जो नित-नित हारी हो,
जब सब द्वारों पर 'नां ' होवे, तब हरि का द्वारा मिलता है ॥
भगवान के सच्चे भक्तों को . . .
[‘अलक्ष’ शब्द का अपभ्रंश है ‘अलख’। तो ‘अलख निरंजन’ का भाव हुआ, ज्ञान का ऐसा प्रकाशमान तेज, जिसे देख पाना संभव न होते हुए भी उसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है। अंजन से तात्पर्य अज्ञान से लिया जाता है। अज्ञान का नष्ट होना यानी निरंजन होना इसलिए निरंजन का अर्थ है अज्ञान की कालिमा से मुक्त होकर ज्ञान में प्रवेश करना।अलख का अर्थ है अगोचर; जो देखा न जा सके। निरंजन परमात्मा को कहते हैं। 'अलख निरंजन' का अर्थ यह भी हुआ- "परमात्मा जिन्हें देखा न जा सके पर सब जगह व्याप्त हैं।" "अलख-निरंजन" गुरू गोरखनाथ द्वारा प्रचारित ईश्वर को स्मरण करने के शब्द हैं।]
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केन्द्रीय होम्योपैथी अनुसंधान परिषद (CCRH), आयुष मंत्रालय, भारत सरकार :
(Central Council for Research in Homeopathy (CCRH), Ministry of AYUSH, Government of India)
[होम्योपैथी: 'समः समं, शमयति' अर्थात एक तत्व जिस रोग को पैदा करता है, वही उस रोग को दूर करने की क्षमता भी रखता है। ]
होम्योपैथी की खोज मूल रूप से ऐलोपैथिक (एम.बी.बी.एस./एम.डी.)जर्मन चिकित्सक डा0 सैमुअल हैनिमैन (1755-1843) द्वारा की गयी थी। होम्योपैथी: 'समः समं, शमयति' या समरूपता’’ सिद्वान्त - "अर्थात एक तत्व जिस रोग को पैदा करता है, वही उस रोग को दूर करने की क्षमता भी रखता है" पर अधारित एक चिकित्सा प्रणाली है। यह ‘‘समः’’, समम्, शमयति’’ यह दवाओं द्वारा रोगी का उपचार करने की एक ऐसी विधि है जिसमें किसी स्वस्थ्य व्यक्ति में प्राकृतिक रोग को अनुरूपण करके समान लक्षण उत्पन्न किया जाता है। जिससे रोगग्रस्त व्यक्ति का उपचार किया जा सकता है।
होम्योपैथी दुनिया में सबसे ज्यादा भारत में विकसित है। होम्योपैथी ने भारत में 1839 में उस समय अपनी जड़ पकड़ी, जब स्वर-तंत्रों के पक्षाघात के लिए पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह का सफल इलाज होम्योपैथिक चिकित्सक डॉ. जॉन मार्टिन हाॅनवर्गर द्वारा किया गया था। डॉ. होनिगबर्गर कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में बस गये और हैजा-चिकित्सक के रूप में लोकप्रिय हो गये। बंगाल में फैली हैजा की महामारी के रोकथाम में होम्योपैथिक मेडिसिन की अहम भूमिका के कारण बंगाल में होम्योपैथी फलने-फूलने लग गयी थी।
बाद में, डॉ. एम.एल. सरकार, जो अपने समय में कलकत्ता के एक ख्यातिप्राप्त एलोपैथिक चिकित्सक थे, किन्तु होम्योपैथी में प्रैक्टिस करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने वर्ष 1868 में प्रथम होम्योपैथिक पत्रिका “कलकत्ता जर्नल ऑफ़ मेडिसिन” का संपादन किया। वर्ष 1881 में, डॉ. पी.सी मजूमदार और डॉ. डी.एन रॉय सहित अनेक प्रसिद्ध चिकित्सकों ने प्रथम होम्योपैथिक कॉलेज - 'कलकत्ता होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज' को स्थापित किया। 1885 में डॉक्टर सरकार ने ही स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस के गले का कैंसर इलाज करने का भार अपने ऊपर लिया। डॉ. लाहिड़ी, डॉ. भादुड़ी और अनेक अन्य चिकित्सकों ने एक व्यवसाय के रूप में होम्योपैथी स्थापित करने में व्यक्तिगत प्रयास किए। वे, केवल पश्चिम बंगाल में ही नहीं बल्कि पूरे देश में, होम्योपैथी की प्रगति के लिए अपने योगदान के लिए प्रसिद्द हैं।
होम्योपैथिक दवाओं का निर्माण पौंधों, पशुओं, खनिज और अन्य प्राकृतिक पदार्थों से उर्जाकरण या अंतः शक्तिकरण नामक एक मानक विधि के माध्यम से किया जाता है। आज होम्योपैथी 85 से अधिक देशों में प्रचलित है और 100 करोड़ से अधिक लोगों के विश्वास का प्रतीक है।और आज भारत में लगभग तीन लाख से अधिक रजिस्टर्ड होम्योपैथिक चिकित्सक, 285 से अधिक होम्योपैथिक महाविद्यालय एवं 300 से अधिक होम्योपैथिक औषधि निर्माता कम्पनी उपलब्ध हैं।
HOMEOPATHY : ‘like cures like’ [“ सम: समम् शमयति ” ]
It was founded by Samuel Hahnemann (1755-1843), who grew up in Meissen in Germany, received his medical degree in Erlangen in 1779, and died a millionaire in Paris in 1843. During his first fifteen years as a physician, Hahnemann struggled desperately to make a living. One day, however, he made a discovery. He started to take regular doses of cinchona or ‘the bark’ (i.e. quinine).
This, he said, produced all the symptoms of intermittent fever (malaria) but to a mild degree and without the characteristic rigors of that disease. This led Hahnemann to an idea which was published in 1796 as Essay on a New Principle for Ascertaining the Curative Power of Drugs, which was followed in 1810 by his famous work The Organon of the Healing Art.1
Hahnemann believed that if a patient had an illness, it could be cured by giving a medicine which, if given to a healthy person, would produce similar symptoms of that same illness but to a slighter degree. Thus, if a patient was suffering from severe nausea, he was given a medicine which in a healthy person would provoke mild nausea. By a process he called ‘proving’, Hahnemann claimed to be able to compile a selection of appropriate remedies. This led to his famous aphorism, ‘like cures like’, which is often called the ‘principle of similars’; and he cited Jenner's use of cowpox vaccination to prevent smallpox as an example.
পূর্ণ [শ্রী পূর্ণচন্দ্র ঘোষ (১৮৭১ - ১৯১৩)] — কলিকাতার সিমুলিয়ায় জন্ম। ঠাকুরের সহিত প্রথম সাক্ষাৎ ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দের মার্চ মাসে। গৃহীভক্তদের মধ্যে শ্রীশ্রীঠাকুর তাঁহাকেই ঈশ্বরকোটি বলিয়া নির্দিষ্ট করিয়াছিলেন। ছাত্রাবস্থায় অতি শৈশবেই মাস্টার মহাশয়ের পরামর্শে দক্ষিণেশ্বরে ঠাকুরের সংস্পর্শে আসেন। পিতা রায় বাহাদুর দীননাথ ঘোষ — উচ্চপদস্থ রাজকর্মচারী। ঠাকুর পূর্ণকে বলিয়াছিলেন যে যখনই তাহার সুবিধা হইবে তখনই যেন সে ঠাকুরের নিকট আসে। শ্রীশ্রীঠাকুর বলিয়াছিলেন পূর্ণচন্দ্রের ‘বিষ্ণুর অংশে জন্ম’ এবং তাঁহার আগমনে ওই শ্রেণীর ভক্তদের আগমন পূর্ণ হইল। বাহিরে সরকারীকাজে নিযুক্ত থাকিলেও অন্তরে তিনি শ্রীশ্রীঠাকুরের ভাবে ও চিন্তায় মগ্ন থাকিতেন। স্বামীজীর প্রতি তাঁহার গভীর অনুরাগ ছিল। স্বামীজীর মহিলাভক্ত মাদাম কালভে কলিকাতায় যখন আসেন, সে সময় তিনি তাঁহাকে বিবেকানন্দ সোসাইটির সম্পাদক হিসাবে উক্ত সোসাইটির পক্ষ হইতে অভিনন্দিত করেন। মাত্র ৪২ বৎসর বয়সে দেহত্যাগ করেন।
মণীন্দ্র গুপ্ত [মণীন্দ্রকৃষ্ণ গুপ্ত] (১৮৭১ - ১৯৩৯) — মণীন্দ্র (খোকা) একাদশ বৎসর বয়সে দক্ষিণেশ্বরে প্রথম ঠাকুরকে দর্শন করেন। তিনি তাঁহার জ্যেষ্ঠ ভ্রাতা উপেন্দ্রকিশোর ও ব্রহ্মবান্ধব উপাধ্যায়ের সহিত আসিয়াছিলেন। ঠাকুরের স্নেহপূর্ণ ব্যবহারে তিনি তাঁহার প্রতি আকৃষ্ট হন। সেই সময়ে তিনি তাঁহার পিতার কর্মস্থল ভাগলপুরে থাকিতেন। তারপর কলিকাতায় যখন ফিরিয়া আসিলেন ঠাকুর তখন শ্যামপুকুরে অসুস্থ অবস্থায় ছিলেন। ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দে সারদাপ্রসন্নর সহিত ১৫ বৎসর বয়সে তিনি ঠাকুরকে দেখিতে যান। ঠাকুর তাঁহাকে চিনিতে পারেন এবং আবার আসিতে বলেন। পরদিন গেলে ঠাকুর তাঁহাকে স্নেহভরে ক্রোড়ে লইয়া সমাধিস্থ হন। ইহার পর তিনি সেখানে নিত্য যাইতে থাকেন এবং ঠাকুরকে গুরুরূপে বরণ করেন। কাশীপুরে অসুস্থ ঠাকুরকে তিনি পাখার হাওয়া করলতেন। ১৮৮৬ খ্রীষ্টাব্দের দোলযাত্রার দিনে ঠাকুর তাঁহাকে হোলিখেলার জন্য যাইতে নির্দেশ দিলেও তিনি ঠাকুরকে একা রাখিয়া যাইতে সম্মত হইলেন না। ঠাকুর অশ্রু ভারাক্রান্ত নয়নে তাঁহাকে তাঁহার সেই ‘রামলালা’ বলিয়া উল্লেখ করিয়াছিলেন। পরবর্তী কালে বিবাহ করলেও শ্রীরামকৃষ্ণদের শিষ্যদের সহিত তাঁহার ঘনিষ্ঠ সম্পর্ক ছিল এবং রামকৃষ্ণ মিশনের আদর্শের প্রতি তাঁহার শ্রদ্ধা ছিল অবিচল।
Theodore Thornton Munger (March 5, 1830 - January 11, 1910) Munger was an advocate of theistic evolution. He argued that "evolution not only perfects our conception of the unity of God, but... strengthens the argument from design".[2] However, Munger rejected the concept of survival of the fittest.[3] Munger promoted liberal theology and maintained that revelation was a product of evolution and that there are no a priori scriptural truths.[4] Munger was an early proponent of animal rights. He authored the book The Rights of Dumb Animals, published by the Connecticut Humane Society in 1896.
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🕊🏹सुखदुःख विवेक🕊🏹
हमारे शास्त्रकारों को यह सिद्धांत मान्य है कि प्रत्येक मनुष्य सुख- प्राप्ति के लिये, प्राप्त- सुख की वृद्धि के लिये, दुःख को टालने या कम करने के लिये ही सदैव प्रयत्न/कर्म किया करता है।इस लोक तथा परलोक में सारी प्रवृति/ (तीन पुरुषार्थ) केवल सुख के लिये है और धर्म, अर्थ एवं काम का इसके अतिरिक्त कोई अन्य फल नहीं है। परन्तु सन्तों -शास्त्रकारों का कथन है कि मनुष्य, यह न समझ कर कि सच्चा सुख किसमें है, मिथ्या सुख ही को सत्य सुख मान बैठता है; और इस आशा से कि आज नही तो कल सुख अवश्य मिलेगा, वह अपनी आयु के दिन व्यतीत किया करता हैंं। इतने में, एक दिन मृत्यु के झपेटे में पड़ कर वह इस संसार को छोड़ कर चल बसता है। परन्तु उसके उदाहरण से अन्य लोग सावधान होने के बदले उसी का अनुकरण करते रहते हैंं। इस प्रकार यह भव-चक्र चल रहा है, और कोई मनुष्य सच्चे और नित्य सुख का विचार नहीं करता।
सभी को यह बात मान्य है, कि भारत का कल्याण या मनुष्य का कल्याण दुःख का अत्यन्त निवारण करके अत्यन्त सुख-प्राप्ति करने ही में है। “यदिष्टं तत्सुखं प्राहुः द्वेश्य दुःखमिहेष्यते’’- जो कुछ हमें इष्ट है वही सुख है और जिसका हम द्वेष करते हैं अर्थात जो हमें नहीं चाहिये वही दुःख है।' इस व्याख्या को शास्त्र की दृष्टि से पूर्ण निर्दोष नहीं कह सकते; क्योंकि इस व्याख्या के अनुसार ‘इष्ट’ शब्द का अर्थ कोई इष्ट वस्तु या भौतिक पदार्थ भी हो सकता है; और, इस अर्थ को मानने से इष्ट पदार्थ को भी सुख कहना पड़ेगा। उदाहरणार्थ, प्यास लगने पर पानी इष्ट होता है, परन्तु इस बाह्य पदार्थ ‘पानी’ को ‘सुख’ नहीं कह सकते। यदि ऐसा होगा तो नदी के पानी में डूबने वाले के बारे में कहना पड़ेगा कि वह सुख में डूबा हुआ है। सच बात यह है कि पानी पीने से जो इन्द्रिय की तृप्ति होती है उसे सुख कहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य इस इन्द्रिय-तृप्ति या सुख को चाहता है; परन्तु इससे यह व्यापक सिद्धांत नहीं बताया जा सकता, कि जिस जिसकी चाह होती है वह सब (Bh भी) सुख ही है। इसीलिये नैय्यायिकों ने सुख-दुःख को वेदना कह कर उनकी व्याख्या इस तरह से की है"अनुकूलवेदनीयं सुखं" जो वेदना हमारे अनुकूल है वह सुख है और “प्रतिकूलवेदनीयं दुःखं’’ जो वेदना हमारे प्रतिकूल है वह दुःख है।
कोई यह कहे कि ये वेदनारूप सुख-दुःख केवल मनुष्य के कर्मों से ही उत्पन्न होते हैं, तो यह बात भी ठीक नहीं है; क्योंकि कभी कभी देवताओं के कोप से भी बड़े बड़े रोग और दुःख उत्पन्न हुआ करते हैं। जिन्हें मनुष्य को अवश्य भोगना पड़ता है। इसीलिये वेदान्त-ग्रंथों में सामान्यतः इन सुख-दुःखों के तीन भेद- आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक- किये गये हैे।देवताओं की कृपा या कोप से जो सुख-दुःख मिलते हैं उन्हें ‘आधिदैविक’ कहते हैं। बाह्य सृष्टि के, पृथ्वी आदि पंचमहाभूतात्मक, पदार्थो का मनुष्य की इन्द्रियों से संयोग होने पर, शीतोष्ण आदि के कारण जो सुख-दुःख हुआ करते हैं उन्हें ‘आधिभौतिक’ कहते हैं। और, ऐसे बाह्य संयोग के बिना ही होने वाले अन्य सब सुख-दुःखों को ‘आध्यात्मिक’ कहते हैं। तिलक महाराज - कहते हैं यह तो स्पष्ट ही है कि, देवताओं की कृपा अथवा क्रोध से होने वाले सुख-दुःखों को भी आखिर मनुष्य अपने ही शरीर या मन के द्वारा भोगता है। इसीलिए हमने इस ग्रंथ में वेदान्त ग्रंथों में जैसा तीसरा वर्ग ‘आधिदैविक’ दिया गया है वैसा हमने नहीं किया हैं; सब प्रकार के शारीरिक सुख-दुःखों को “आधिभौतिक’’ और सब प्रकार के मानसिक सुख-दुःखों को ‘आध्यात्मिक’ कहा है।
सुख-दुःखों को चाहे आप द्विविध मानिये अथवा विविध; इसमें सन्देह नहीं कि दुःख की चाह किसी मनुष्य को नहीं होती। इसीलिये गीता में कहा गया है कि, सब प्रकार के दुःखों की अत्यन्त निवृति करना और आत्यन्तिक तथा नित्य सुख की प्राप्ति करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है। जब यह बात निश्चित हो चुकी, कि मनुष्य का परम साध्य या उद्देश आत्यन्तिक सुख ही है, तब ये प्रश्न मन में सहज ही उत्पन्न होते हैं कि अत्यन्त, सत्य और नित्य सुख किसको कहना चाहिये, उसकी प्राप्ति होना संभव है या नहीं? यदि संभव है तो कब और कैसे ?
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनाऽऽत्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।6.20।।
इस प्रकार मनःसंयोग के अभ्यास से या योगाभ्यास के बल से जिस अवस्था में वायु रहित स्थान में रखे हुए दीपक की लौ की भाँति एकाग्र किया हुआ , सब ओरसे चञ्चलतारहित किया हुआ निरुद्ध चित्त जिस समय उपरत होता है या उपरति को प्राप्त होता है। उसी काल में समाधि द्वारा अति निर्मल ( स्वच्छ ) हुए अन्तःकरण से परम चैतन्य ज्योतिःस्वरूप आत्मा का साक्षात् करता हुआ वह अपने आप में ही संतुष्ट हो जाता है तृप्ति लाभ कर लेता है।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।।6.21।।
जो सुख आत्यन्तिक है - यानी अन्त से रहित अर्थात अनन्त है , जो सुख अतीन्द्रिय है अर्थात इन्द्रियों की पहुँच से अतीत है, जो विषयजनित सुख नहीं है, केवल बुद्धि से ही ग्रहण किया जाने योग्य है ; कोई योगी जिस काल में ऐसे सुख का अनुभव कर लेता है, अपने स्वरूप में स्थित हुआ यह ध्यानयोगी (ब्रह्मज्ञानी) फिर कभी उस तत्त्व से, अपने वास्तविक स्वरुप से विचलित नहीं होता।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।
जिस आत्म-प्राप्तिरूप लाभ को प्राप्ति होकर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ है-ऐसा नहीं मानता, उससे भिन्न लाभ का स्मरण भी नहीं करता। उस आत्मतत्त्व में स्थित हुए योगी को शस्त्राघात/ (सोडियम कमी) आदि बड़े भारी दुःखों {life risk} द्वारा भी विचलित नहीं किया जा सकता।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।6.23।।
-यत्रोपरमते (6.20)से लेकर यहाँ (6.23) तक इन चार श्लोकों में समस्त विशेषणों से विशिष्ट आत्मा का अवस्था विशेष रूप जो योग कहा गया है उस योग नामक अवस्था को दुःखों के संयोग का वियोग समझना चाहिये। जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसी को 'योग' नाम से जानना चाहिये। ( जिस ध्यानयोग का लक्ष्य वह योग है) उस ध्यानयोग का अभ्यास न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिये।
इन चार श्लोकों में योग की स्थिति का सम्पूर्ण वर्णन करते हुये भगवान् सब का आह्वान करते हैं कि इस योग का अभ्यास निश्चयपूर्वक करना चाहिये। इस मार्ग पर चलने के लिये सबको उत्साहित करने के लिए भगवान् योगी को प्राप्त सर्वोत्तम लक्ष्य का वर्णन भी करते हैं। पूर्व उपदिष्ट साधनों के अभ्यास के फलस्वरूप जब चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है तब उस शान्त चित्त में आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में नहीं वरन् अपने आत्मस्वरूप से। मन की अपने ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप की अनुभूति की यह स्थिति परम आनन्द स्वरूप है। परन्तु यह साक्षात्कार तभी संभव है जब जीव शरीर मन और बुद्धि इन परिच्छेदक उपाधियों के साथ के अपने तादात्म्य को पूर्णतया त्याग देता है।
इस सुख को अतीन्द्रिय कहने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विषयोपभोग के सुख के समान यह क्षणभंगुर सुख नहीं है। सामान्यत हमारे सभी सुख या दुःख के अनुभव इन्द्रियों के द्वारा ही होते हैं। इसलिए जब आचार्यगण आत्मसाक्षात्कार को आनन्द की स्थिति के रूप में वर्णन करते हैं, तब हम उसे बाह्य और स्वयं से भिन्न कोई लक्ष्य समझते हैं। परन्तु जब उसे अतीन्द्रिय कहा जाता है तो साधकों को उसके अस्तित्व और सत्यत्व के प्रति शंका होती है कि कहीं यह मिथ्या आश्वासन तो नहीं ? इस शंका का निवारण करने लिए इस श्लोक में भगवान स्पष्ट करते हैं कि यह आत्मानन्द केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा ही ग्रहण करने योग्य है।
यहाँ एक शंका मन में उठ सकती है कि लगभग अतिमानवीय प्रयत्न करने के पश्चात् इस अनन्त आनन्द की जो अनुभूति होगी , वह भी कहीं इन्द्रिय विषयों से प्राप्त सुख के जैसा क्षणभंगुर तो नहीं होगी? जिसके लुप्त हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए पुन उतना ही परिश्रम करना पड़े ? नहीं, भगवान् का स्पष्ट कथन है कि यह शाश्वत सुख है जिसे प्राप्त कर लेने पर साधक पुन दुःख रूप संसार को प्राप्त नहीं होता। जिसमें स्थित होने पर योगी तत्त्व से कभी दूर नहीं होता। तो क्या उस योगी को सामान्य जनों को अनुभव होने वाले दुख कभी नहीं होंगे ? क्या उसमें संसारी मनुष्यों के समान अधिकसेअधिक वस्तुओं को संग्रह करने की इच्छा नहीं होगी ? क्या वह लोगों से प्रेम करने के साथ उनसे उसकी अपेक्षा नहीं रखेगा ? इस प्रकार की उत्तेजनाएं केवल अज्ञानी पुरुष के लिए ही कष्टप्रद हो सकती हैं ज्ञानी के लिए नहीं। यहाँ छठे अध्याय के बाइस वें श्लोक में उस परमसत्य को उद्घाटित करते हैं जिसे प्राप्त कर लेने पर योगी इससे अधिक अन्य कोई भी लाभ नहीं मानता है।
इतने अधिक स्पष्टीकरण के पश्चात् भी केवल बौद्धिक स्तर पर वेदान्त को समझने का प्रयत्न करने वाले लोगों के मन में शंका आ सकती है; कि क्या इस आनन्द के अनुभव को जीवन की तनाव दुख कष्ट और शोकपूर्ण परिस्थितियों में भी निश्चल रखा जा सकता है ? दूसरे शब्दों में क्या धर्म क्या है ? कार्य धर्म धनवान् और समर्थ लोगों के लिए के लिए केवल मनोरंजन और विलास तथा दुर्बल एवं असहाय लोगों के लिए अन्धविश्वासजन्य सन्तोष और पलायनवादियों के लिए काल्पनिक स्वर्गमात्र नहीं है ? क्या जीवन में आनेवाली कठिन परिस्थितियों में जैसे किसी प्रिय का वियोग, हानि, रुग्णता, दरिद्रता, भुखमरी आदि में धर्म के द्वारा आश्वासित पूर्णत्व अविचलित रह सकता है ? लोगों के मन में उठने वाली इस शंका का असंदिग्ध उत्तर देते हुए यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जिसमें स्थित हो जाने पर पर्वताकार दुखों से भी वह योगी विचलित नहीं होता।
उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में सार यह है योगाभ्यास से मन के एकाग्र होने पर योगी को अपने उस परम आनन्दस्वरूप की अनुभूति होती है जो अतीन्द्रिय तथा केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा ग्राह्य है। उस अनुभव में फिर मिथ्या अहं बुद्धि भी लीन हो जाती है। इस स्थिति में न संसार में पुनरागमन होता है न इससे श्रेष्ठतर कोई अन्य लाभ ही है। इसमें स्थित पुरुष गुरुतम दुखों से भी विचलित नहीं होता।
गीता में इस अद्भुत सत्य या इन्द्रियातीत सत्य का आत्मस्वरूप से निर्देश किया गया है और जो सभी विवेकी साधकों का परम लक्ष्य है। इस आत्मा को जानना चाहिए। आत्मज्ञान तथा आत्मानुभूति के साधन को गीता में योग कहा गया है और इस अध्याय में योग की बहुत सुन्दर परिभाषा दी गई है। भगवान् कहते हैं दुख के संयोग से वियोग की स्थिति योग है। योग की यह पुर्नव्याख्या इस प्रकार विरोधाभास की भाषा में गुंथी हुई है कि प्रत्येक पाठक का ध्यान सहसा उसकी ओर आकर्षित होता है। और वह उस पर विचार करने के लिए बाध्य सा हो सकता है। योग शब्द का अर्थ है संबंध। अज्ञान दशा में मनुष्य का संबंध केवल अनित्य परिच्छिन्न विषयों के साथ ही होने के कारण उसे जीवन में सदैव अनित्य सुख ही मिलते हैं। इन विषयों का अनुभव शरीर मन और बुद्धि के द्वारा होता है। एक सुख का अन्त ही दुख का प्रारम्भ है। इसलिए उपाधियों के साथ तादात्म्य किया हुआ जीवन दुःख- संयुक्त जीवन तो होगा ही । स्पष्ट है कि योग अभ्यास करते समय हमारा प्रयत्न यह होगा कि इन उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग दें अर्थात् उनसे ध्यान दूर कर लें। जब तक इनका उपयोग हम करते रहेंगे तब तक जगत् से हमारा सम्पूर्ण अथवा आंशिक वियोग नहीं होगा। अत शरीर मन और बुद्धि से वियुक्त होकर आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही दुख-संयोग वियोग योग है।
इन्द्रिय विषयों में आसक्ति के कारण ही मन (जीवभाव M/F) का अस्तित्व बना रहता है। किसी एक वस्तु से वियुक्त करने के लिए उसे अन्य श्रेष्ठतर वस्तु का आलम्बन देना पड़ता है। अत पारमार्थिक/ इन्द्रियातीत सत्य के आनन्द में स्थित होने का आलम्बन देने से ही दुख-संयोग से वियोग हो सकता है। परन्तु इसके लिए प्रारम्भ में मन को प्रयत्नपूर्वक बाह्य विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर करना होगा। भगवान् कहते हैं कि इस योग का अभ्यास उत्साहपूर्ण और निश्चयात्मक बुद्धि से करना चाहिए। निश्चय और उत्साह ही योग की सफलता के लिए आवश्यक गुण हैं क्योंकि मिथ्या से वियोग और सत्य से संयोग ही योग है। यदि अग्नि की उष्णता असह्य लग रही हो तो हमें केवल इतना ही करना होगा कि उससे दूर हटकर किसी शीतल स्थान पर पहुँच जायें। इसी प्रकार यदि परिच्छिन्नता का जीवन दुखदायक है तो उससे मुक्ति पाने के लिए आनन्दस्वरूप आत्मा में स्थित होने की आवश्यकता है। यही है दुखसंयोगवियोग योग।
साभार गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक/ https://hi.krishnakosh.org/
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