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Tuesday, May 14, 2024

$$परिच्छेद 131~*कालीपूजा तथा श्रीरामकृष्ण* 🕊🏹 [ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]🔱🕊सिद्धेश्वरी काली (ठनठनिया, झामापुकुर ?) -डाब (कच्चा नारियल), शक्कर और सन्देश चढ़ाकर पूजा🔱🕊तंत्र साधक रामप्रसाद और कमलाकान्त🔱🕊गिरीश के बुद्ध-चरित नाटक का वीणा-गीत और एजिल नाटक की अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट 🔱🕊माँ काली तत्व और श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द की काली साधना🔱🕊'शाक्त-अद्वैत' परम्परा क्या है ?🔱🕊क्या है पञ्च मकार ? 🏹क्या है तंत्र योग की साधना ?-2-क्या है आगम?-03 POINTS;-

परिच्छेद- 131 

*कालीपूजा तथा श्रीरामकृष्ण*

(1)

 [ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]🔱🕊

*कालीपूजा के दिन भक्तों के संग में*

श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुरवाले मकान के ऊपर दक्षिण के कमरे में खड़े हुए हैं । दिन के 9 बजे का समय होगा । आप शुद्ध वस्त्र पहने ललाट में चन्दन की बिन्दी लगाये हुए हैं । मास्टर आपकी आज्ञा पाकर सिद्धेश्वरी काली का प्रसाद ले आये हैं । प्रसाद को हाथ में ले, बड़े भक्ति-भाव से श्रीरामकृष्ण खड़े हुए उसका कुछ अंश ग्रहण कर रहे हैं और कुछ मस्तक पर धारण कर रहे हैं। प्रसाद ग्रहण करते समय आपने पादुकाओं को पैरों से उतार दिया । मास्टर से कह रहे हैं- "बहुत अच्छा प्रसाद है ।" आज शुक्रवार है, आश्विन की अमावस्या, 6 नवम्बर 1885 । आज कालीपूजा का दिन है

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर को आदेश दिया था ठनठनिया की सिद्धेश्वरी काली मूर्ति की पुष्प, डाब (कच्चा  नारियल), शक्कर और सन्देश चढ़ाकर पूजा करने के लिए । मास्टर स्नान करके नंगे पैर सबेरे पूजा समाप्त करके नंगे पैर ही श्रीरामकृष्ण के लिए प्रसाद लेकर आये हैं ।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर को रामप्रसाद और कमलाकान्त की संगीत-पुस्तकें खरीद लाने के लिए कहा था । वे डाक्टर सरकार को ये पुस्तकें देना चाहते थे । 

मास्टर कह रहे है - "ये पुस्तकें भी लाया हूँ - रामप्रसाद और कमलाकान्त के गाने की पुस्तकें ।"

[ रामप्रसाद सेन  (1718-1775)  और कमलाकांत भट्टाचार्य (1769-1821)]

श्रीरामकृष्ण ने कहा, “डाक्टर के भीतर इन गीतों का भाव संचारित कर देना होगा ।"

गाना - ऐ मेरे मन ! ईश्वर का स्वरूप जानने के लिए तुम यह कैसी चेष्टा कर रहे हो ?तुम तो मानो अँधेरे कमरे में बन्द पागल की तरह भटक रहे हो.....।     

गाना - कौन कह सकता है कि काली कैसी हैं ? षड्दर्शनों को भी जिसके दर्शन नहीं हो पाते..?  

  गाना - ऐ मन ! तू खेती करना नहीं जानता । यह मनुष्य-जन्म परती जमीन की तरह पड़ा रह गया ! अगर तू खेती करता तो इसमें सोना फल सकता था !......   

गाना - आ मन, चल, टहलने चलें । काली-कल्पतरु के नीचे तुझे चारों फल पड़े मिल जायेंगे ।.....

मास्टर ने कहा, 'जी हाँ ।' श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ कमरे में टहल रहे हैं - पैरों में चट्टी जूता है। इस तरह की कठिन बीमारी, परन्तु फिर भी श्रीरामकृष्ण सदा ही प्रसन्न रहते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - और वह गाना भी अच्छा है । 'यह संसार धोखे की टट्टी है ।'

मास्टर - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण एकाएक चौंक पड़े। पादुकाओं को निकालकर वे स्थिर भाव से खड़े हो गये और गम्भीर समाधि में मग्न हो गये । आज जगन्माता की पूजा का दिन है, शायद इसीलिए बारम्बार उन्हें रोमांच हो रहा है और समाधि में मग्न हो रहे हैं । बड़ी देर बाद एक लम्बी साँस छोड़ मानो बड़े कष्ट से उन्होंने अपना भाव संवरण किया ।

(२)

 [ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]🔱🕊

 🏹 भजनानन्द में 🏹

श्रीरामकृष्ण उसी ऊपरवाले कमरे में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के दस बजे का समय होगा। बिस्तरे पर तकिये के सहारे बैठे हुए हैं, चारों ओर भक्तगण हैं । राम, राखाल, निरंजन, कालीपद, मास्टर आदि बहुतसे भक्त हैं । श्रीरामकृष्ण के भाँजे हृदय मुखर्जी की बात चल रही है।

श्रीरामकृष्ण - (राम आदि से) - हृदय अभी भी जमीन जमीन रट रहा है ! जब वह दक्षिणेश्वर में था, तब उसने कहा था, 'दुशाला दो, नहीं तो मैं नालिश कर दूँगा ।'

"माँ ने उसे दक्षिणेश्वर से हटा दिया । आदमी जब आते थे, तब बस रुपया-रुपया करता था । वह अगर रहता तो ये सब आदमी न आते । इसीलिए माँ ने उसे हटा दिया । 

“गो०, भी पहले पहले उसी तरह किया करता था। नाकभौं सिकोड़ता था । मेरे साथ गाड़ी में कहीं जाना पड़ता था तो देर करने लगता था । दूसरे लड़के अगर मेरे पास आते, तो उसे रंज होता था । उन्हें देखने के लिए अगर मैं कलकत्ते जाता था, तो मुझसे कहता था, 'क्या वे संसार छोड़कर आयेंगे जो उन्हें देखने के लिए जाइयेगा ?' उन लड़कों को मिठाई आदि देने से पहले मैं उससे डरकर कहता था, 'तू भी खा और उन्हें भी दे।' अन्त में मालूम हो गया कि वह यहाँ न रहेगा ।

"तब मैंने माँ से कहा, 'माँ, उसे हृदय की तरह बिलकुल न हटा देना ।' फिर मैंने सुना वह वृन्दावन जायेगा ।

"गो. अगर रहता तो इन सब लड़कों का कुछ न होता । वह वृन्दावन चला गया, इसीलिए वे सब लड़के आने-जाने लगे ।"

गो. - (विनयपूर्वक) - पर वैसी कोई बात मेरे मन में नहीं थी, आप सच जानिये ।

राम दत्त - तुम्हारे मन के सम्बन्ध में वे जितना समझेंगे, उतना क्या तुम समझ सकोगे ?

गो. चुप हो रहे ।

श्रीरामकृष्ण - (गो. से) - तू क्यों ऐसा सोचता है ? मैं तुझे पुत्र से भी अधिक प्यार करता हूँ !...."अब तू चुप रह ।... अब तुझमें वह भाव नहीं रह गया ।"

भक्तों के साथ बातचीत होने के पश्चात्, उन लोगों के दूसरे कमरे में चले जाने पर श्रीरामकृष्ण ने गो. को बुलवाया और पूछा - 'तूने कुछ और तो नहीं सोच लिया ? गो. ने कहा - 'जी नहीं ।'

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा, 'आज कालीपूजा है, पूजा के लिए कुछ आयोजन किया जाय तो अच्छा हो । उन लोगों से एक बार कह आओ ।'

मास्टर ने बैठकखाने में जाकर भक्तों से कहा । कालीपद तथा दूसरे भक्त पूजा के लिए प्रबन्ध करने लगे ।

दिन के दो बजे के लगभग डाक्टर श्रीरामकृष्ण को देखने आये; साथ में अध्यापक नीलमणि भी हैं । श्रीरामकृष्ण के पास बहुत से भक्त बैठे हुए हैं । गिरीश, कालीपद, निरंजन, राखाल, खोखा (मणीन्द्र), लाटू, मास्टर, आदि बहुतसे भक्त हैं ।श्रीराम प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए हैं । डाक्टर से पहले बीमारी और दवा की बातें हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'तुम्हारे लिए ये पुस्तकें मँगवायी गयी हैं ।' डाक्टर को मास्टर ने दोनों पुस्तकें दे दीं । 

डाक्टर ने गाना सुनना चाहा । श्रीरामकृष्ण की आज्ञा पा मास्टर और एक भक्त रामप्रसाद का गाना गा रहे हैं –

गाना - ऐ मेरे मन ! ईश्वर का स्वरूप जानने के लिए तुम यह कैसी चेष्टा कर रहे हो ! तुम तो अँधेरे कमरे में बन्द पागल की तरह भटक रहे हो...।

गाना - कौन जानता है कि काली कैसी है ? षड्दर्शनों को भी जिनके दर्शन नहीं हो पाते । ....

गाना - ऐ मन, तू खेती करना नहीं जानता । .....

गाना - आ मन, चल घूमने चलें । ...

डाक्टर गिरीश से कह रहे हैं - 'तुम्हारा वह गाना बड़ा सुन्दर है - वीणावाला - बुद्धचरित का गाना ।' श्रीरामकृष्ण का इशारा पाकर गिरीश और काली दोनों मिलकर गाना सुना रहे हैं –    

गाना - मेरी यह बड़ी ही साध को वीणा है, बड़े यत्नपूर्वक इसके तारों का हार गूँथा गया है । ...

गाना - मैं शान्ति पाने के लिए व्याकुल हूँ, पर वह मिलती कहाँ है ? न जाने कहाँ से आकर कहाँ बहा जा रहा हूँ ।...

गाना - ऐ निताई, मुझे पकड़ो ! मेरे प्राणो में आज न जाने यह क्या हो रहा है !... 

गाना - आओ, आओ, ऐ जगाई माधाई, प्राण भरकर, आओ, हरि का नाम लो !...

गाना - यदि तुझे किशोरी राधा का प्रेम लेना है तो चला आ, प्रेम की ज्वार बही जा रही है ।...

गाना सुनते सुनते दो-तीन भक्तों को- (मणिंद्र और लाटू को ) भावावेश हो गया । गाना हो जाने पर श्रीरामकृष्ण के साथ डाक्टर फिर बातचीत करने लगे । कल डा. प्रताप मजूमदार ने श्रीरामकृष्ण को नक्स वोमिका (Nux Vomica) दी थी । डाक्टर सरकार को यह सुनकर क्षोभ हो रहा है ।

डाक्टर - मैं मर तो गया नहीं था ! फिर नक्स वोमिका कैसे दी गयी !

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - तुम क्यों मरोगे ? तुम्हारी अविद्या की मृत्यु हो !

डाक्टर - मेरे किसी समय अविद्या नहीं थी !

डाक्टर ने अविद्या का अर्थ भ्रष्ट-स्त्री समझ लिया था ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं जी, संन्यासी की अविद्या-माँ मर जाती है, और विवेक-पुत्र हो जाता हैअविद्या-मां के मर जाने पर अशौच होता है, इसीलिए कहते हैं - संन्यासी को छूना नहीं चाहिए।

हरिवल्लभ आये हुए हैं । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, ‘तुम्हें देखकर आनन्द होता है ।’ हरिवल्लभ बड़े विनयशील हैं । चटाई से अलग जमीन पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण को झल रहे हैं । हरिवल्लभ कटक के सब से बड़े वकील हैं । 

पास ही अध्यापक नीलमणि बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण उनकी मान-रक्षा करते हुए कह रहे हैं, 'आज मेरा शुभ दिन है ।' कुछ देर बाद डाक्टर और उनके मित्र नीलमणि बिदा हो गये । हरिवल्लभ भी उठे । चलते समय उन्होंने कहा, 'मैं फिर आऊँगा ।'

(३)

 [ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]

🔱🕊 श्रीकालीपूजा*🔱🕊

शरद ऋतु की अमावस्या है, - रात के आठ बजे होंगे । उसी ऊपर वाले कमरे में पूजा का सारा प्रबन्ध किया गया है । अनेक प्रकार के पुष्प, चन्दन, बिल्वपत्र, जवापुष्प, खीर तथा अनेक प्रकार की मिठाइयाँ भक्तगण ले आये हैं ।

श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । चारों ओर से भक्त-मण्डली घेरे हुए बैठी है । शरद, राम, गिरीश, चुन्नीलाल, मास्टर, राखाल, निरंजन, छोटे नरेन्द्र, बिहारी आदि बहुत से भक्त हैं । 

श्रीरामकृष्ण ने कहा - 'धूना ले आओ ।' कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने जगन्माता को सब कुछ निवेदित कर दिया । मास्टर पास बैठे हुए हैं । मास्टर की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - 'सब लोग थोड़ी देर ध्यान करो ।' भक्तगण ध्यान करने लगे । 

पहले गिरीश ने श्रीरामकृष्ण के श्रीचरणों में माला चढ़ायी, फिर मास्टर ने गन्ध-पुष्प चढ़ाये । तत्पश्चात् राखाल ने, फिर राम ने । इसी तरह सब भक्त श्रीचरणों में पुष्प-दल चढ़ाने लगे

श्रीचरणों में फूल चढ़ाकर निरंजन 'ब्रह्ममयी' कहकर भूमिष्ठ हो प्रणाम करने लगे । भक्तगण 'जय माँ, जय माँ' कह रहे हैं ।

देखते ही देखते श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भक्तों की आँखों के सामने ही श्रीरामकृष्ण में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया । उन लोगों ने उनके मुख-मण्डल पर दैवी ज्योति का अवलोकन किया । उनके दोनों हाथ इस प्रकार उठे हुए थे जैसे कि वे भक्तों को वरदान तथा अभय-दान दे रहे हों । उनका शरीर निश्चल है, बाह्य संसार का उन्हें बिलकुल ज्ञान नहीं । वे उत्तर की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । क्या श्रीरामकृष्ण के भीतर साक्षात् जगन्माता आविर्भूत हुई हैं ? सभी अवाक् हो, एकटक दृष्टि से इस अद्भुत वराभयदायिनी जगन्माता की जीवन्त मूर्ति का दर्शन कर रहे हैं । 

भक्तगण स्तुतिपाठ कर रहे हैं । पहले एक भक्त गाता है, उसके पीछे सब एक ही स्वर में उसी पद की आवृत्ति करते हैं ।

गिरीश गा रहे हैं –

(भावार्थ) - देवताओं के बीच वह कौन रमणी चमक रही है, जिसके घने काले केश मेघ-श्रेणी के समान जान पड़ते हैं ? वह कौन है, जिसके रक्तोत्पल युगलचरण शिव की छाती पर विराजमान हैं ? वह कौन है, जिसके नखों में रजनीकर का वास है और जिसके पैरों की दीप्ति सूर्य को भी मात कर रही है ? वह कौन है, जिसके मुख पर मधुर हास्य शोभायमान है ओर जिसका विकट अट्टाहास रह-रहकर दसों दिशाओं को गुँजा दे रहा है ?

उन्होंने फिर गाया –

 दीनतारिणी, दुरितहारिणी, सत्त्व-रजस्तम-त्रिगुणधारिणी ।

सृजन-पालन-निधन-कारिणी, सगुणा निर्गुण सर्वस्वरूपिणी । .....    

बिहारी गा रहे हैं -  

(भावार्थ) –"ऐ श्यामा ! शवारूढ़ा माँ सुनो, मैं तुम्हारे पास अपने हृदय की आन्तरिक कामना व्यक्त करता हूँ । जब मेरी अन्तिम साँस इस देह को छोड़ चलेगी तब, ऐ शिवे, तुम मेरे हृदय में प्रकाशित होना । उस समय, माँ, मैं मन-मन वन-वन घूमकर सुन्दर जवा-कुसुम चुनकर ले आऊँगा, और उसमे भक्ति-चन्दन मिलाकर तुम्हारे श्रीचरणों में पुष्पांजलि दूँगा ।"

भक्तों के साथ मणि गा रहे हैं -    

(भावार्थ) –“ओ माँ ! सब कुछ तुम्हारी ही इच्छा से होता है । ऐ तारा ! तुम इच्छामयी हो ! तुम अपने कर्म आप ही करती हो, पर लोग बोलते हैं 'मैं करता हूँ ।' माँ, तुम हाथी को कीचड़ में फँसा देती हो, पंगु को गिरि लाँघने में समर्थ कर देती हो, किसी को तुम इन्द्रत्वपद दे देती हो, तो किसी को अधोगामी बना देती हो । अम्बे ! मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो; मैं गृह हूँ, तुम गृहिणी हो; मैं रथ हूँ, तुम रथी हो । माँ, तुम मुझे जैसा चलाती हो, वैसा ही चलता हूँ ।"

पुनः –

"ऐ माँ, तुम्हारी करुणा से सभी कुछ सम्भव हो सकता है । अलंघ्य पर्वत के समान विघ्न-बाधा भी तुम्हारी कृपा से दूर हो जाती है । तुम मंगलनिधान हो, तुम सभी का मंगल करती हो - सभी को सुख और शान्ति प्रदान करती हो । तो फिर माँ, अपने फलाफल की चिन्ता करके मैं ही क्यों ही क्यों व्यर्थ जला जा रहा हूँ ?"

पुनः –

ओ माँ आनन्दमयी, मुझे निरानन्द न कर देना......"   

पुनः –

"निबिड़ अंधकार में, ऐ माँ, तेरी अरूप-राशि चमक उठती है ।...”

श्रीरामकृष्ण अब प्रकृतिस्थ हो गये हैं । उन्होंने इस गीत को गाने को कहा -  "ऐ श्यामा ! सुधातरंगिणी ! नहीं मालूम, तुम कब किस रंग में रहती हो ।"

इस गाने के समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण- 'शिव के साथ सदा ही रंग में रंगी हुई तुम आनन्द में मग्न हो' इस गीत को गाने के लिए आदेश कर रहे हैं ।

भक्तों के आनन्द के लिए श्रीरामकृष्ण कुछ खीर अपने मुख में लगा रहे हैं, परन्तु उसी समय भाव में विभोर हो बिलकुल बाह्य संज्ञाशून्य हो गये ।

कुछ देर बाद भक्तगण श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके प्रसाद लेकर बैठकखाने में चले गये । सब एक साथ आनन्दपूर्वक प्रसाद पाने लगे ।

रात के नौ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण ने कहला भेजा, ‘रात हो गयी है, सुरेन्द्र के यहाँ आज कालीपूजा है, तुम लोगों का न्योता है, तुम लोग जाओ ।’

भक्तगण आनन्द करते हुए सिमला में सुरेन्द्र के यहाँ पहुँचे । सुरेन्द्र ने आदरपूर्वक उन्हें ऊपरवाले बैठकखाने में ले जाकर बैठाया । घर में उत्सव है, सब लोग गीत और वाद्य के द्वारा आनन्द मना रहे हैं ।

सुरेन्द्र के यहाँ से प्रसाद पाकर लौटते हुए भक्तों को आधी रात से अधिक हो गयी ।

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