मेरे बारे में

मंगलवार, 14 मई 2024

$$परिच्छेद 131~*कालीपूजा तथा श्रीरामकृष्ण* 🕊🏹 [ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]🔱🕊सिद्धेश्वरी काली (ठनठनिया, झामापुकुर ?) -डाब (कच्चा नारियल), शक्कर और सन्देश चढ़ाकर पूजा🔱🕊तंत्र साधक रामप्रसाद और कमलाकान्त🔱🕊गिरीश के बुद्ध-चरित नाटक का वीणा-गीत और एजिल नाटक की अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट 🔱🕊माँ काली तत्व और श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द की काली साधना🔱🕊'शाक्त-अद्वैत' परम्परा क्या है ?🔱🕊क्या है पञ्च मकार ? 🏹क्या है तंत्र योग की साधना ?-2-क्या है आगम?-03 POINTS;-

परिच्छेद- 131 

*कालीपूजा तथा श्रीरामकृष्ण*

(1)

 [ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]🔱🕊

*कालीपूजा के दिन भक्तों के संग में*

श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुरवाले मकान के ऊपर दक्षिण के कमरे में खड़े हुए हैं । दिन के 9 बजे का समय होगा । आप शुद्ध वस्त्र पहने ललाट में चन्दन की बिन्दी लगाये हुए हैं । मास्टर आपकी आज्ञा पाकर सिद्धेश्वरी काली का प्रसाद ले आये हैं । प्रसाद को हाथ में ले, बड़े भक्ति-भाव से श्रीरामकृष्ण खड़े हुए उसका कुछ अंश ग्रहण कर रहे हैं और कुछ मस्तक पर धारण कर रहे हैं। प्रसाद ग्रहण करते समय आपने पादुकाओं को पैरों से उतार दिया । मास्टर से कह रहे हैं- "बहुत अच्छा प्रसाद है ।" आज शुक्रवार है, आश्विन की अमावस्या, 6 नवम्बर 1885 । आज कालीपूजा का दिन है

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर को आदेश दिया था ठनठनिया की सिद्धेश्वरी काली मूर्ति की पुष्प, डाब (कच्चा  नारियल), शक्कर और सन्देश चढ़ाकर पूजा करने के लिए । मास्टर स्नान करके नंगे पैर सबेरे पूजा समाप्त करके नंगे पैर ही श्रीरामकृष्ण के लिए प्रसाद लेकर आये हैं ।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर को रामप्रसाद और कमलाकान्त की संगीत-पुस्तकें खरीद लाने के लिए कहा था । वे डाक्टर सरकार को ये पुस्तकें देना चाहते थे । 

मास्टर कह रहे है - "ये पुस्तकें भी लाया हूँ - रामप्रसाद और कमलाकान्त के गाने की पुस्तकें ।"

[ रामप्रसाद सेन  (1718-1775)  और कमलाकांत भट्टाचार्य (1769-1821)]

श्रीरामकृष्ण ने कहा, “डाक्टर के भीतर इन गीतों का भाव संचारित कर देना होगा ।"

गाना - ऐ मेरे मन ! ईश्वर का स्वरूप जानने के लिए तुम यह कैसी चेष्टा कर रहे हो ?तुम तो मानो अँधेरे कमरे में बन्द पागल की तरह भटक रहे हो.....।     

गाना - कौन कह सकता है कि काली कैसी हैं ? षड्दर्शनों को भी जिसके दर्शन नहीं हो पाते..?  

  गाना - ऐ मन ! तू खेती करना नहीं जानता । यह मनुष्य-जन्म परती जमीन की तरह पड़ा रह गया ! अगर तू खेती करता तो इसमें सोना फल सकता था !......   

गाना - आ मन, चल, टहलने चलें । काली-कल्पतरु के नीचे तुझे चारों फल पड़े मिल जायेंगे ।.....

मास्टर ने कहा, 'जी हाँ ।' श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ कमरे में टहल रहे हैं - पैरों में चट्टी जूता है। इस तरह की कठिन बीमारी, परन्तु फिर भी श्रीरामकृष्ण सदा ही प्रसन्न रहते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - और वह गाना भी अच्छा है । 'यह संसार धोखे की टट्टी है ।'

मास्टर - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण एकाएक चौंक पड़े। पादुकाओं को निकालकर वे स्थिर भाव से खड़े हो गये और गम्भीर समाधि में मग्न हो गये । आज जगन्माता की पूजा का दिन है, शायद इसीलिए बारम्बार उन्हें रोमांच हो रहा है और समाधि में मग्न हो रहे हैं । बड़ी देर बाद एक लम्बी साँस छोड़ मानो बड़े कष्ट से उन्होंने अपना भाव संवरण किया ।

(२)

 [ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]🔱🕊

 🏹 भजनानन्द में 🏹

श्रीरामकृष्ण उसी ऊपरवाले कमरे में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के दस बजे का समय होगा। बिस्तरे पर तकिये के सहारे बैठे हुए हैं, चारों ओर भक्तगण हैं । राम, राखाल, निरंजन, कालीपद, मास्टर आदि बहुतसे भक्त हैं । श्रीरामकृष्ण के भाँजे हृदय मुखर्जी की बात चल रही है।

श्रीरामकृष्ण - (राम आदि से) - हृदय अभी भी जमीन जमीन रट रहा है ! जब वह दक्षिणेश्वर में था, तब उसने कहा था, 'दुशाला दो, नहीं तो मैं नालिश कर दूँगा ।'

"माँ ने उसे दक्षिणेश्वर से हटा दिया । आदमी जब आते थे, तब बस रुपया-रुपया करता था । वह अगर रहता तो ये सब आदमी न आते । इसीलिए माँ ने उसे हटा दिया । 

“गो०, भी पहले पहले उसी तरह किया करता था। नाकभौं सिकोड़ता था । मेरे साथ गाड़ी में कहीं जाना पड़ता था तो देर करने लगता था । दूसरे लड़के अगर मेरे पास आते, तो उसे रंज होता था । उन्हें देखने के लिए अगर मैं कलकत्ते जाता था, तो मुझसे कहता था, 'क्या वे संसार छोड़कर आयेंगे जो उन्हें देखने के लिए जाइयेगा ?' उन लड़कों को मिठाई आदि देने से पहले मैं उससे डरकर कहता था, 'तू भी खा और उन्हें भी दे।' अन्त में मालूम हो गया कि वह यहाँ न रहेगा ।

"तब मैंने माँ से कहा, 'माँ, उसे हृदय की तरह बिलकुल न हटा देना ।' फिर मैंने सुना वह वृन्दावन जायेगा ।

"गो. अगर रहता तो इन सब लड़कों का कुछ न होता । वह वृन्दावन चला गया, इसीलिए वे सब लड़के आने-जाने लगे ।"

गो. - (विनयपूर्वक) - पर वैसी कोई बात मेरे मन में नहीं थी, आप सच जानिये ।

राम दत्त - तुम्हारे मन के सम्बन्ध में वे जितना समझेंगे, उतना क्या तुम समझ सकोगे ?

गो. चुप हो रहे ।

श्रीरामकृष्ण - (गो. से) - तू क्यों ऐसा सोचता है ? मैं तुझे पुत्र से भी अधिक प्यार करता हूँ !...."अब तू चुप रह ।... अब तुझमें वह भाव नहीं रह गया ।"

भक्तों के साथ बातचीत होने के पश्चात्, उन लोगों के दूसरे कमरे में चले जाने पर श्रीरामकृष्ण ने गो. को बुलवाया और पूछा - 'तूने कुछ और तो नहीं सोच लिया ? गो. ने कहा - 'जी नहीं ।'

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा, 'आज कालीपूजा है, पूजा के लिए कुछ आयोजन किया जाय तो अच्छा हो । उन लोगों से एक बार कह आओ ।'

मास्टर ने बैठकखाने में जाकर भक्तों से कहा । कालीपद तथा दूसरे भक्त पूजा के लिए प्रबन्ध करने लगे ।

दिन के दो बजे के लगभग डाक्टर श्रीरामकृष्ण को देखने आये; साथ में अध्यापक नीलमणि भी हैं । श्रीरामकृष्ण के पास बहुत से भक्त बैठे हुए हैं । गिरीश, कालीपद, निरंजन, राखाल, खोखा (मणीन्द्र), लाटू, मास्टर, आदि बहुतसे भक्त हैं ।श्रीराम प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए हैं । डाक्टर से पहले बीमारी और दवा की बातें हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'तुम्हारे लिए ये पुस्तकें मँगवायी गयी हैं ।' डाक्टर को मास्टर ने दोनों पुस्तकें दे दीं । 

डाक्टर ने गाना सुनना चाहा । श्रीरामकृष्ण की आज्ञा पा मास्टर और एक भक्त रामप्रसाद का गाना गा रहे हैं –

गाना - ऐ मेरे मन ! ईश्वर का स्वरूप जानने के लिए तुम यह कैसी चेष्टा कर रहे हो ! तुम तो अँधेरे कमरे में बन्द पागल की तरह भटक रहे हो...।

गाना - कौन जानता है कि काली कैसी है ? षड्दर्शनों को भी जिनके दर्शन नहीं हो पाते । ....

गाना - ऐ मन, तू खेती करना नहीं जानता । .....

गाना - आ मन, चल घूमने चलें । ...

डाक्टर गिरीश से कह रहे हैं - 'तुम्हारा वह गाना बड़ा सुन्दर है - वीणावाला - बुद्धचरित का गाना ।' श्रीरामकृष्ण का इशारा पाकर गिरीश और काली दोनों मिलकर गाना सुना रहे हैं –    

गाना - मेरी यह बड़ी ही साध को वीणा है, बड़े यत्नपूर्वक इसके तारों का हार गूँथा गया है । ...

गाना - मैं शान्ति पाने के लिए व्याकुल हूँ, पर वह मिलती कहाँ है ? न जाने कहाँ से आकर कहाँ बहा जा रहा हूँ ।...

गाना - ऐ निताई, मुझे पकड़ो ! मेरे प्राणो में आज न जाने यह क्या हो रहा है !... 

गाना - आओ, आओ, ऐ जगाई माधाई, प्राण भरकर, आओ, हरि का नाम लो !...

गाना - यदि तुझे किशोरी राधा का प्रेम लेना है तो चला आ, प्रेम की ज्वार बही जा रही है ।...

गाना सुनते सुनते दो-तीन भक्तों को- (मणिंद्र और लाटू को ) भावावेश हो गया । गाना हो जाने पर श्रीरामकृष्ण के साथ डाक्टर फिर बातचीत करने लगे । कल डा. प्रताप मजूमदार ने श्रीरामकृष्ण को नक्स वोमिका (Nux Vomica) दी थी । डाक्टर सरकार को यह सुनकर क्षोभ हो रहा है ।

डाक्टर - मैं मर तो गया नहीं था ! फिर नक्स वोमिका कैसे दी गयी !

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - तुम क्यों मरोगे ? तुम्हारी अविद्या की मृत्यु हो !

डाक्टर - मेरे किसी समय अविद्या नहीं थी !

डाक्टर ने अविद्या का अर्थ भ्रष्ट-स्त्री समझ लिया था ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं जी, संन्यासी की अविद्या-माँ मर जाती है, और विवेक-पुत्र हो जाता हैअविद्या-मां के मर जाने पर अशौच होता है, इसीलिए कहते हैं - संन्यासी को छूना नहीं चाहिए।

हरिवल्लभ आये हुए हैं । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, ‘तुम्हें देखकर आनन्द होता है ।’ हरिवल्लभ बड़े विनयशील हैं । चटाई से अलग जमीन पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण को झल रहे हैं । हरिवल्लभ कटक के सब से बड़े वकील हैं । 

पास ही अध्यापक नीलमणि बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण उनकी मान-रक्षा करते हुए कह रहे हैं, 'आज मेरा शुभ दिन है ।' कुछ देर बाद डाक्टर और उनके मित्र नीलमणि बिदा हो गये । हरिवल्लभ भी उठे । चलते समय उन्होंने कहा, 'मैं फिर आऊँगा ।'

(३)

 [ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]

🔱🕊 श्रीकालीपूजा*🔱🕊

शरद ऋतु की अमावस्या है, - रात के आठ बजे होंगे । उसी ऊपर वाले कमरे में पूजा का सारा प्रबन्ध किया गया है । अनेक प्रकार के पुष्प, चन्दन, बिल्वपत्र, जवापुष्प, खीर तथा अनेक प्रकार की मिठाइयाँ भक्तगण ले आये हैं ।

श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । चारों ओर से भक्त-मण्डली घेरे हुए बैठी है । शरद, राम, गिरीश, चुन्नीलाल, मास्टर, राखाल, निरंजन, छोटे नरेन्द्र, बिहारी आदि बहुत से भक्त हैं । 

श्रीरामकृष्ण ने कहा - 'धूना ले आओ ।' कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने जगन्माता को सब कुछ निवेदित कर दिया । मास्टर पास बैठे हुए हैं । मास्टर की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - 'सब लोग थोड़ी देर ध्यान करो ।' भक्तगण ध्यान करने लगे । 

पहले गिरीश ने श्रीरामकृष्ण के श्रीचरणों में माला चढ़ायी, फिर मास्टर ने गन्ध-पुष्प चढ़ाये । तत्पश्चात् राखाल ने, फिर राम ने । इसी तरह सब भक्त श्रीचरणों में पुष्प-दल चढ़ाने लगे

श्रीचरणों में फूल चढ़ाकर निरंजन 'ब्रह्ममयी' कहकर भूमिष्ठ हो प्रणाम करने लगे । भक्तगण 'जय माँ, जय माँ' कह रहे हैं ।

देखते ही देखते श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भक्तों की आँखों के सामने ही श्रीरामकृष्ण में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया । उन लोगों ने उनके मुख-मण्डल पर दैवी ज्योति का अवलोकन किया । उनके दोनों हाथ इस प्रकार उठे हुए थे जैसे कि वे भक्तों को वरदान तथा अभय-दान दे रहे हों । उनका शरीर निश्चल है, बाह्य संसार का उन्हें बिलकुल ज्ञान नहीं । वे उत्तर की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । क्या श्रीरामकृष्ण के भीतर साक्षात् जगन्माता आविर्भूत हुई हैं ? सभी अवाक् हो, एकटक दृष्टि से इस अद्भुत वराभयदायिनी जगन्माता की जीवन्त मूर्ति का दर्शन कर रहे हैं । 

भक्तगण स्तुतिपाठ कर रहे हैं । पहले एक भक्त गाता है, उसके पीछे सब एक ही स्वर में उसी पद की आवृत्ति करते हैं ।

गिरीश गा रहे हैं –

(भावार्थ) - देवताओं के बीच वह कौन रमणी चमक रही है, जिसके घने काले केश मेघ-श्रेणी के समान जान पड़ते हैं ? वह कौन है, जिसके रक्तोत्पल युगलचरण शिव की छाती पर विराजमान हैं ? वह कौन है, जिसके नखों में रजनीकर का वास है और जिसके पैरों की दीप्ति सूर्य को भी मात कर रही है ? वह कौन है, जिसके मुख पर मधुर हास्य शोभायमान है ओर जिसका विकट अट्टाहास रह-रहकर दसों दिशाओं को गुँजा दे रहा है ?

उन्होंने फिर गाया –

 दीनतारिणी, दुरितहारिणी, सत्त्व-रजस्तम-त्रिगुणधारिणी ।

सृजन-पालन-निधन-कारिणी, सगुणा निर्गुण सर्वस्वरूपिणी । .....    

बिहारी गा रहे हैं -  

(भावार्थ) –"ऐ श्यामा ! शवारूढ़ा माँ सुनो, मैं तुम्हारे पास अपने हृदय की आन्तरिक कामना व्यक्त करता हूँ । जब मेरी अन्तिम साँस इस देह को छोड़ चलेगी तब, ऐ शिवे, तुम मेरे हृदय में प्रकाशित होना । उस समय, माँ, मैं मन-मन वन-वन घूमकर सुन्दर जवा-कुसुम चुनकर ले आऊँगा, और उसमे भक्ति-चन्दन मिलाकर तुम्हारे श्रीचरणों में पुष्पांजलि दूँगा ।"

भक्तों के साथ मणि गा रहे हैं -    

(भावार्थ) –“ओ माँ ! सब कुछ तुम्हारी ही इच्छा से होता है । ऐ तारा ! तुम इच्छामयी हो ! तुम अपने कर्म आप ही करती हो, पर लोग बोलते हैं 'मैं करता हूँ ।' माँ, तुम हाथी को कीचड़ में फँसा देती हो, पंगु को गिरि लाँघने में समर्थ कर देती हो, किसी को तुम इन्द्रत्वपद दे देती हो, तो किसी को अधोगामी बना देती हो । अम्बे ! मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो; मैं गृह हूँ, तुम गृहिणी हो; मैं रथ हूँ, तुम रथी हो । माँ, तुम मुझे जैसा चलाती हो, वैसा ही चलता हूँ ।"

पुनः –

"ऐ माँ, तुम्हारी करुणा से सभी कुछ सम्भव हो सकता है । अलंघ्य पर्वत के समान विघ्न-बाधा भी तुम्हारी कृपा से दूर हो जाती है । तुम मंगलनिधान हो, तुम सभी का मंगल करती हो - सभी को सुख और शान्ति प्रदान करती हो । तो फिर माँ, अपने फलाफल की चिन्ता करके मैं ही क्यों ही क्यों व्यर्थ जला जा रहा हूँ ?"

पुनः –

ओ माँ आनन्दमयी, मुझे निरानन्द न कर देना......"   

पुनः –

"निबिड़ अंधकार में, ऐ माँ, तेरी अरूप-राशि चमक उठती है ।...”

श्रीरामकृष्ण अब प्रकृतिस्थ हो गये हैं । उन्होंने इस गीत को गाने को कहा -  "ऐ श्यामा ! सुधातरंगिणी ! नहीं मालूम, तुम कब किस रंग में रहती हो ।"

इस गाने के समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण- 'शिव के साथ सदा ही रंग में रंगी हुई तुम आनन्द में मग्न हो' इस गीत को गाने के लिए आदेश कर रहे हैं ।

भक्तों के आनन्द के लिए श्रीरामकृष्ण कुछ खीर अपने मुख में लगा रहे हैं, परन्तु उसी समय भाव में विभोर हो बिलकुल बाह्य संज्ञाशून्य हो गये ।

कुछ देर बाद भक्तगण श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके प्रसाद लेकर बैठकखाने में चले गये । सब एक साथ आनन्दपूर्वक प्रसाद पाने लगे ।

रात के नौ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण ने कहला भेजा, ‘रात हो गयी है, सुरेन्द्र के यहाँ आज कालीपूजा है, तुम लोगों का न्योता है, तुम लोग जाओ ।’

भक्तगण आनन्द करते हुए सिमला में सुरेन्द्र के यहाँ पहुँचे । सुरेन्द्र ने आदरपूर्वक उन्हें ऊपरवाले बैठकखाने में ले जाकर बैठाया । घर में उत्सव है, सब लोग गीत और वाद्य के द्वारा आनन्द मना रहे हैं ।

सुरेन्द्र के यहाँ से प्रसाद पाकर लौटते हुए भक्तों को आधी रात से अधिक हो गयी ।

=======


शनिवार, 27 अप्रैल 2024

NAMASKAR $🕊🏹परिच्छेद 130~सर्वधर्म-समन्वय* 🕊🏹 [ (31 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-130 ]🔱“कारणानन्द के बाद है सच्चिदानन्द ! - कारण का कारण !"🕊“'शान्त वही है जो रामरस चखे ।' 🕊 'ऐ दिल, जिसने राम को नहीं पहचाना, उसने फिर पहचाना ही क्या ?’”🏹ज्ञान के बाद भक्ति है तो उसका अर्थ यह है कि>पहले ब्रह्मज्ञान (इन्द्रियातीत ज्ञान) और बाद में भक्ति; पहले अवतार वरिष्ठ का ज्ञान, फिर उनके प्रति प्रेम । आप लोगों के ज्ञान का अर्थ है, इन्द्रियजन्य ज्ञान । 🕊नमस्कार ईश्वर को ही किया जाता है, मनुष्य को नहीं ।🏹 🕊भीतर तो वे ही हैं, वे उन्हीं को प्रणाम कर रही हैं । इसी दृष्टि से मैं देखता हूँ🏹"ये (श्रीरामकृष्ण) अभी तो ऐसे दिखते हैं, पर ये साक्षात् ईश्वर हैं ।🏹हरिवल्लभ पैरों की धूलि लेने जा रहे हैं, श्रीरामकृष्ण ने पैर हटा लिये । परन्तु हरिवल्लभ ने छोड़ा नहीं, जबरदस्ती उन्होंने पैरों की धूलि ली। )🕊🏹 पहले इन्द्रियातीत सत्य का - 'भगवान का ज्ञान' होता है, बाद में भक्ति !🕊🏹🕊🏹अवतार वरिष्ठ के चरणरज 🕊🏹 (पहले अवतार-वरिष्ठ का तत्वज्ञान ज्ञान होता है बाद में भक्ति !)🕊🏹ईसाई भक्त मिश्र साहब - 'वही राम घट-घट में लेटा ।🕊🏹

 *परिच्छेद- 130

*सर्वधर्म-समन्वय*

(1)

 [ (31 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-130 ]

*बलराम के लिए चिन्ता । श्री हरिवल्लभ वसु*

श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुर वाले मकान में चिकित्सा के लिए भक्तों के साथ ठहरे हुए हैं । आज शनिवार है, आश्विन की कृष्णा अष्टमी, 31 अक्टूबर 1885 । दिन के नौ बजे का समय होगा । यहाँ दिन-रात भक्तगण रहा करते हैं, श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए। अभी किसी ने संसार का त्याग नहीं किया है 

बलराम सपरिवार श्रीरामकृष्ण के सेवक हैं । उन्होंने जिस वंश में जन्म लिया है, वह बड़ा ही भक्त-वंश है । इनके पिता वृद्ध होकर अब श्रीवृन्दावन में अपने ही प्रतिष्ठित श्रीश्यामसुन्दर कुँज में रहा करते हैं ।नके चचेरे भाई श्रीयुत हरिवल्लभ बसु और घर के दूसरे सब लोग वैष्णव हैं ।

 हरिवल्लभ कटक के सब से बड़े वकील हैं । उन्होंने जब यह सुना कि बलराम श्रीरामकृष्णदेव के पास आया-जाया करते हैं और विशेषकर स्त्रियों को ले जाते हैं, तब वे बहुत नाराज हुए । उनसे मिलने पर बलराम ने कहा था, ‘तुम पहले एक बार उनके दर्शन करो, फिर जो जी में आये मुझे कहना ।’

अतएव आज हरिवल्लभ आये हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को बड़े भक्तिभाव से प्रणाम किया ।

श्रीरामकृष्ण - किस तरह बीमारी अच्छी होगी ? आपकी राय में क्या यह कोई कठिन बीमारी है ?

हरिवल्लभ - जी, यह तो डाक्टर ही कह सकेंगे ।

श्रीरामकृष्ण – स्त्रियाँ जब मेरे पैरों की धूलि लेती हैं तब यही सोचता हूँ कि भीतर तो वे ही हैं, वे उन्हीं को प्रणाम कर रही हैं । इसी दृष्टि से मैं देखता हूँ

हरिवल्लभ - आप साधु हैं, आपको सब लोग प्रणाम करेंगे, इसमें दोष क्या है ?

श्रीरामकृष्ण - हाँ, वह हो सकता था अगर ध्रुव, प्रह्लाद, नारद, कपिल, ये कोई होते; पर मैं क्या हूँ? अच्छा आप फिर आइयेगा ।

हरिवल्लभ - जी, मैं तो आप के आकर्षण से स्वयं ही खिंचा चला आऊंगा, आपको मुझसे आने के लिए आग्रह करने की जरूरत नहीं है?

हरिवल्लभ बिदा होंगे, प्रणाम कर रहे हैं । पैरों की धूलि लेने जा रहे हैं, श्रीरामकृष्ण ने पैर हटा लिये । परन्तु हरिवल्लभ ने छोड़ा नहीं, जबरदस्ती उन्होंने पैरों की धूलि ली  

हरिवल्लभ उठे । उनके प्रति शिष्टाचार दिखाने के लिए (अवतार वरिष्ठ ? किन्तु एकदम सरल ) श्रीरामकृष्ण देव भी उठकर खड़े हो गये । कह रहे हैं, "इस बात से बलराम बहुत दुःख करता है कि उसके घर मैं नहीं जाता। मैंने सोचा, एक दिन जाऊँ, जाकर तुम लोगों से मिलूँ परन्तु भय भी होता है कि तुम लोग कहीं यह न कहो कि इसे कौन यहाँ लाया !"

हरिवल्लभ - इस तरह की बातें आपसे कौन कहता है ? कृपया आप इन बातों पर कुछ सोचियेगा नहीं ।

हरिवल्लभ चले गये ।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - उसमें भक्ति है; नहीं तो जबरदस्ती पैरों की धूलि क्यों लेता ? "वह बात जो तुमसे मैंने कही थी कि भाव समाधि में मैंने डाक्टर (डॉक्टर महेन्द्रलाल सरकार) को देखा था तथा एक आदमी और था - यह 'Hariballabh' वही है ! इसीलिए देखो आया !"

मास्टर - जी, सचमुच वह भक्त है ।

श्रीरामकृष्ण - कितना सरल है !

श्रीरामकृष्ण की बीमारी का हाल लेकर मास्टर डाक्टर सरकार के पास शाँकारिटोला आये हुए हैं । डाक्टर आज फिर श्रीरामकृष्ण को देखने जायेंगे । डाक्टर श्रीरामकृष्ण और महिमाचरण आदि की बातें कह रहे हैं ।

डाक्टर - महिमाचरण वह पुस्तक तो नहीं लाये जिसे उन्होंने दिखाने के लिए कहा था उन्होंने कहा, ‘भूल गया ।’ हो सकता है । मैं भी प्रायः इसी तरह भूल जाता हूँ ।

 [ (31 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-130 ]

 🕊🏹पहले ब्रह्मज्ञान (इन्द्रियातीत ज्ञान)  और बाद में भक्ति; 

पहले अवतार वरिष्ठ का ज्ञान, फिर उनके प्रति प्रेम । 

आप लोगों के ज्ञान का अर्थ है, इन्द्रियजन्य ज्ञान । 🕊🏹

मास्टर - उनका (महिमाचरण का) अध्ययन बहुत अच्छा है ।

डाक्टर - तो फिर उनकी ऐसी दशा क्यों है ?

श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में डाक्टर कह रहे हैं - "केवल भक्ति लेकर क्या होगा, अगर ज्ञान न रहा?    

मास्टर - श्रीरामकृष्ण तो कहते हैं, ज्ञान के बाद भक्ति है; परन्तु उनके ज्ञान और भक्ति से आप लोगों के ज्ञान और भक्ति में बड़ा अन्तर है

"वे जब कहते हैं, ज्ञान के बाद भक्ति है तो उसका अर्थ यह है कि पहले तत्त्वज्ञान होता है और बाद में भक्ति; पहले ब्रह्मज्ञान और बाद में भक्ति; पहले भगवान का ज्ञान, फिर उनके प्रति प्रेम आप लोगों के ज्ञान का अर्थ है, इन्द्रियजन्य ज्ञान । 

श्रीरामकृष्ण जिस ज्ञान (आत्मज्ञान) की चर्चा करते हैं, उसकी परख हमारे मापदण्ड द्वारा नहीं हो सकती । परन्तु आपका ज्ञान तो -इन्द्रियजन्य है, उसकी परख हो सकती है ।"

(इन्द्रियगोचर सत्य के ज्ञान को प्रयोगशाला में  'verified '-सत्यापित किया जा सकता है, लेकिन इन्द्रियातीत सत्य को गुरु-शिष्य परम्परा में केवल अपने अनुभव से सत्यापित किया जा सकता है।)    

डाक्टर कुछ देर चुप रहे, फिर अवतार के सम्बन्ध में बातचीत करने लगे ।

डाक्टर - अवतार क्या है ? और पैरों की धूलि लेना, वह क्या है ?

मास्टर – क्यों ? आपही तो कहते हैं कि अपनी साइन्स की प्रयोगशाला में अन्वेषण करते समय ईश्वर की सृष्टि के बारे में सोचने से आपको भावावस्था हो जाती है, और फिर आदमी को देखने से भी आपमें उसी भाव का उद्रेक होता है । अगर यह ठीक है तो ईश्वर को फिर हम सिर क्यों न झुकावें ? मनुष्य के हृदय में ईश्वर है

"हिन्दू धर्म के अनुसार सर्वभूतों में ईश्वर का वास है । यह विषय आपको अच्छी तरह मालूम नहीं है। सर्वभूतों में जब ईश्वर हैं तो मनुष्य को प्रणाम करने में क्या बुराई है ? 

"श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं किसी-किसी वस्तु में उनका प्रकाश अधिक है । सूर्य का प्रकाश पानी में, आईने में अधिक है । पानी सब जगह है, परन्तु नदी और सरोवर में अधिक है । नमस्कार ईश्वर को ही किया जाता है, मनुष्य को नहीं । God is God, not, man is God. (ईश्वर ही ईश्वर हैं, मनुष्य ईश्वर नहीं ।) "ईश्वर को कोई साधारण विचार द्वारा समझ ही नहीं सकता । सब विश्वास पर अवलम्बित है । ये ही सब बातें श्रीरामकृष्ण कहते हैं ।"

आज डाक्टर ने मास्टर को अपनी लिखी पुस्तक-'The Physiological Basis of Psychology' - अर्थात 'मनोविज्ञान का शारीरिक आधार ' की एक प्रति उपहार-स्वरूप दी ।

(२)

 [ (31 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-130 ]

🕊🏹 श्रीरामकृष्ण तथा ईशु 🕊🏹 

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के ग्यारह बजे का समय होगा । मिश्र (प्रभुदयाल मिश्र) - नाम के एक ईसाई भक्त के साथ बातचीत हो रही है । मिश्र की आयु 35 वर्ष की होगी। इनका जन्म ईसाई वंश में हुआ है।  बाहर से तो वे साहबी वेश-भूषा धारण किये हुए हैं, परन्तु भीतर गेरुआ वस्त्र पहने हैं । इस समय इन्होंने संसार का त्याग कर दिया है । इनका जन्मस्थान पश्चिम है। इनके एक भाई के विवाह के दिन इनके दूसरे दो भाइयों की मृत्यु हो गयी थी, तब से मिश्र ने संसार का त्याग कर दिया है।  ये Quaker(क्वेकर) सम्प्रदाय के हैं ।

मिश्र - 'वही राम घट-घट में लेटा ।'

श्रीरामकृष्ण छोटे नरेन्द्र से धीरे-धीरे कह रहे हैं, परन्तु इस ढंग से कि मिश्र भी सुनें – “राम एक ही हैं, परन्तु उनके नाम हजारों हैं । “ईसाई जिन्हें गाड(God) कहते हैं, हिन्दू उन्हें ही राम, कृष्ण और ईश्वर कहकर पुकारते हैं तालाब में बहुत से घाट हैं । हिन्दू एक घाट में पानी पीते हैं, कहते हैं ‘जल’; ईसाई दूसरे घाट में पानी पीते हैं, कहते हैं 'वाटर' (Water); मुसलमान तीसरे घाट में पानी पीते हैं, कहते हैं 'पानी'

 “इसी प्रकार जो ईसाइयों का 'गाड'(God) है, वही मुसलमानों का 'अल्ला' है ।”

मिश्र - ईशु मेरी का लड़का नहीं है, ईशु साक्षात् ईश्वर हैं । 

(भक्तों से) "ये (श्रीरामकृष्ण) अभी तो ऐसे दिखते हैं, पर ये साक्षात् ईश्वर हैं । आप लोगों ने इन्हें पहचाना नहीं । मैं पहले ही इनके दर्शन ध्यान में कर चुका हूँ - अब इस समय इन्हें साक्षात् देख रहा हूँ । मैंने देखा था, एक बगीचा है, ये ऊँचे आसन पर बैठे हुए हैं; जमीन पर एक व्यक्ति और बैठे हुए हैं, - वे उतने पहुँचे हुए नहीं थे

“इस देश में ईश्वर के चार द्वारपाल हैं । बम्बई प्रान्त में तुकाराम, काश्मीर में रॉबर्ट माइकेल (Robert Michael), यहाँ ये, और पूर्व बंगाल में एक और हैं ।"

श्रीरामकृष्ण - क्या तुम्हें कुछ दर्शन होता है ?

मिश्र – जी, जब मैं घर पर था, तब ज्योति-दर्शन होता था । इसके बाद ईशु को मैंने देखा । उस रूप की बात अब क्या कहूँ - उस सौन्दर्य के सामने स्त्री का सौन्दर्य खाक है !

कुछ देर बाद भक्तों के साथ बातचीत करते हुए मिश्र ने कोट और पतलून खोलकर भीतर गेरुए की कौपीन दिखलायी ।

श्रीरामकृष्ण बरामदे से आकर कह रहे हैं - "इसे (मिश्र को) देखा, वीर की तरह खड़ा है ।" 

यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण समाधिमान हो रहे हैं । पश्चिम की ओर मुँह करके खड़े हुए वे समाधिमग्न हो गये ।

कुछ प्रकृतिस्थ होने पर मिश्र पर दृष्टि लगाकर हँस रहे हैं । अब भी खड़े हैं । भावावेश में मिश्र से हाथ मिलाते हुए हँस रहे हैं । हाथ पकड़कर कह रहे हैं, 'तुम जो चाहते हो, वह प्राप्त हो जायगा।'

श्रीरामकृष्ण को ईशु का भाव हुआ है ! मिश्र - (हाथ जोड़कर) - उस दिन से मैंने अपना मन, अपने प्राण, अपना शरीर, सब कुछ आपको समर्पित कर दिया है ।

श्रीरामकृष्ण भावावस्था में अब भी हँस रहे हैं ।

 वे बैठे । मिश्र भक्तों से अपने सांसारिक जीवन का वर्णन कर रहे हैं । उन्होंने बताया कि किस प्रकार विवाह के समय शामियाना के नीचे गिर जाने से उनके दो भाइयों की मृत्यु हो गयी

श्रीरामकृष्ण ने भक्तों से मिश्र की खातिर करने को कहा ।

डाक्टर सरकार आये । डाक्टर को देखकर श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भाव का कुछ उपशम होने पर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – “कारणानन्द के बाद है सच्चिदानन्द ! - कारण का कारण !"

डाक्टर कह रहे हैं - "जी, हाँ ।”

श्रीरामकृष्ण - मैं बेहोश नहीं हूँ ।

डाक्टर समझ गये कि श्रीरामकृष्ण को ईश्वरावेश है । इसीलिए उत्तर में कहा - "हाँ, आप खूब होश में हैं !"

श्रीरामकृष्ण हँसकर गाने लगे - "मैं सुरा-पान नहीं करता, किन्तु 'जय काली' कह-कहकर सुधापान करता हूँ । इससे मेरा मन मतवाला हो जाता है, पर लोग बोलते हैं कि मैं सुरा-पान करके मत्त हो गया हूँ ! गुरुप्रदत्त रस को लेकर, उसमें प्रवृत्तिरूपी मसाला छोड़कर, ज्ञान-कलार शराब बनाकर भाँड़े में छान लेता है । मूलमन्त्ररूपी बोतल से ढालकर मैं 'तारा-तारा' कहकर उसे शुद्ध कर लेता हूँ;  और मेरा मन उसका पान कर मतवाला हो जाता है । प्रसाद कहता है, ऐसी सुरा का पान करने से चारों फलों की प्राप्ति होती है ।"

गाना सुनकर डाक्टर को भावावेश-सा हो गया । श्रीरामकृष्ण को भी पुनः भावावेश हो गया । उसी आवेश में उन्होंने डाक्टर की गोद में एक पैर बढ़ाकर रख दिया । कुछ देर बाद भाव का उपशम हुआ । तब पैर खींचकर उन्होंने डाक्टर से कहा - "अहा, तुमने कैसी सुन्दर बात कही है ! 'उन्हीं की गोद में बैठा हुआ हूँ । बीमारी की बात उनसे नहीं कहूँगा तो और किससे कहूँगा ?' - बुलाने की आवश्यकता होगी तो उन्हें ही बुलाऊँगा ।" 

यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण की आँखें आँसुओं से भर गयीं । वे फिर भावाविष्ट हो गये । उसी अवस्था में डाक्टर से कह रहे हैं - "तुम खूब शुद्ध हो । नहीं तो मैं पैर न रख सकता !" 

फिर कह रहे हैं – “'शान्त वही है जो रामरस चखे ।'

"इन्द्रिय विषयों में क्या रखा है? - तीन ऐषणाओं की आसक्ति में क्या है ? - रुपया, पैसा, मान, शरीर-सुख इनमें क्या रखा है ? 'ऐ दिल, जिसने राम को नहीं पहचाना, उसने फिर पहचाना ही क्या ?’”

बीमारी की इस अवस्था में श्रीरामकृष्ण को भावावेश में रहते देखकर भक्तों को चिन्ता हो रही है । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "उस गाने के हो जाने पर मैं रुक जाऊँगा - 'हरि-रस-मदिरा – ’।" नरेन्द्र एक दूसरे कमरे में थे, बुलाये गये ।

गन्धर्वोपम कण्ठ से नरेन्द्र गाने लगे - (भावार्थ) - "ऐ मेरे मन हरि-रस-मदिरा का पान करके तुम मस्त हो जाओ । मधुर हरिनाम करते हुए धरती पर लोटो और रोओ । हरि-नाम के गम्भीर निनाद से गगन को छा दो । 'हरि-हरि' कहते हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर नाचो, और सब में इस मधुर हरि-नाम का वितरण कर दो । ऐ मन, हरि के प्रेमानन्द-रसरूपी समुद्र में रात्रन्दिवा तैरते रहो । हरि का पावन नाम ले-लेकर नीच वासना का नाश कर दो और पूर्णकाम बन जाओ ।”

नरेन्द्र गा रहे हैं - 

(भावार्थ) - "चिदानन्द-सागर में आनन्द और प्रेम की तरंगें उठ रही हैं; उस महाभाव और रासलीला की कैसी सुन्दर माधुरी है ! ....”

 . . .डाक्टर सरकार ने गानों को ध्यानपूर्वक सुना । जब गाना समाप्त हो गया तो उन्होंने कहा, "यह गाना अच्छा है - 'चिदानन्द-सागर में ....’”

डाक्टर को इस प्रकार प्रसन्न देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "लड़के ने बाप से कहा, "पिताजी, आप थोड़ीसी शराब चख लीजिये और उसके बाद यदि मुझसे कहेंगे कि मैं शराब पीना छोड़ दूँ, तो छोड़ दूँगा ।' शराब चखने के बाद बाप ने कहा, 'बेटा, तुम चाहो तो शराब छोड़ दो, मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु मैं स्वयं तो अब निश्चय ही न छोडूँगा !'(डाक्टर तथा अन्य सब हँसते हैं)

"उस दिन माँ ने मुझे दो व्यक्ति दिखाये थे । उनमें से एक तुम (डाक्टर) थे । उन्होंने यह भी दिखाया कि तुम्हें बहुत ज्ञान होगा, पर वह शुष्क ज्ञान रहेगा । (डाक्टर के प्रति मुस्कराते हुए) पर धीरे-धीरे तुम नरम हो जाओगे ।"

डाक्टर सरकार चुप रहे ।

=====






गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

$🕊🏹परिच्छेद 129~~योग तथा पाण्डित्य*🕊🏹 [ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]🔱'मैं' अगर मिट जाय, तो फिर जो कुछ है, वही रहेगा; मुख से वह कहा नहीं जा सकता🕊🏹'तुम मेरी ज्ञानदात्री हो, तुम्हीं ने मुझे सिखलाया कि ईश्वर पर किस तरह अनुराग किया जाता है ।' वेश्या को माता कहकर उसने उसका त्याग किया था 🕊स्त्री को मातृरूप देखना तान्त्रिकों की एक उपासना है 🕊 ईश्वर ही वस्तु है और शेष सब – घर - द्वार, कुटुम्ब-परिवार, मान (नाम) और मर्यादा (यश) अवस्तु हैं 🏹विवेक और वैराग्य अगर किसी में हों तो उसकी बातें सुनी जा सकती हैं ।🕊 'संसारी होकर कोई क्या शिक्षा देगा ?'।🕊 गीता को पूरा पढ़ने की आवश्यकता नहीं । - त्यागी (कामिनी-कांचन में आसक्ति रहित ) बन सकने से ही हुआ ।”🏹 'त्यागी' और 'तागी' का अर्थ एक ही होता है ।"🕊'इस तरह का सदानन्द पुरुष हमने कभी देखा नहीं ।'🏹उसी राधाकृष्ण - परब्रह्म से महाविष्णु की सृष्टि हुई, महाविष्णु से पुरुष और प्रकृति, शिव और दुर्गा की ।🕊🏹"नित्य-राधाकृष्ण, और लीला-राधाकृष्ण - जैसे सूर्य और उसकी किरणें ।🕊राधाकृष्ण ही परब्रह्म हैं । वे ही ब्रह्म हैं और वे ही शक्ति । 🏹 वे ही निराकार हैं और वे ही साकार।🕊🏹🕊🏹🕊🏹🕊🏹

 [ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]

*परिच्छेद- १२९

योग तथा पाण्डित्य*

(१)

🔱🙏श्यामपुकुर में भक्तों के संग में🔱🙏

आज शुक्रवार है, आश्विन की सप्तमी, 30 अक्टूबर 1885, श्रीरामकृष्ण चिकित्सा के लिए श्यामपुकुर आये हुए हैं । दुमँजले के एक कमरे में बैठे हुए हैं, दिन के नौ बजे का समय होगा, मास्टर से एकान्त में बातचीत कर रहे हैं । मास्टर डाक्टर सरकार के यहाँ जाकर पीड़ा की खबर देंगे और उन्हें साथ ले आयेंगे । श्रीरामकृष्ण का शरीर इतना अस्वस्थ तो है, परन्तु इतने पर भी वे दिन-रात भक्तों की मंगल कामना और उनके लिए चिन्ता किया करते हैं

 

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से, सहास्य) - आज सबेरे पूर्ण आया था । बहुत अच्छा स्वभाव हो गया है । मणिन्द्र का प्रकृति-भाव है । कितने आश्चर्य की बात है ! चैतन्य-चरित पढ़कर मणिन्द्र के मन में गोपीभाव, सखीभाव की धारणा हो गयी है - यह भाव कि 'ईश्वर पुरुष हैं और मैं मानो प्रकृति ।'

मास्टर - जी हाँ ।

पूर्णचन्द्र स्कूल में पढ़ता है, उम्र १५-१६ साल की होगी । पूर्ण को देखने के लिए श्रीरामकृष्ण बहुत व्याकुल होते हैं । परन्तु घरवाले उसे आने नहीं देते । बीमारी शुरू होने के पहले एक रात को पूर्ण को देखने के लिए वे इतने व्याकुल हुए थे कि उसी समय वे दक्षिणेश्वर से एकाएक मास्टर के घर चले गये थे । मास्टर ने पूर्ण को घर से ले आकर साक्षात् करा दिया था । ईश्वर को किस तरह पुकारना चाहिए आदि बातें उसके साथ करने के पश्चात्  वे दक्षिणेश्वर लौटे थे । मनिन्द्र भी पूर्ण की उम्र का ही था। भक्तगण उसे "खोका" (बच्चा) कहकर पुकारते थे । वह "खोका" ईश्वर के नाम-संकीर्तन को सुनकर भावावेश में नाचने लगता था । 

(२)

*डाक्टर तथा मास्टर*

 [ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]

दिन के साढ़े दस बजे का समय है । मास्टर डाक्टर सरकार के घर आये हुए हैं । रास्ते पर दुमँजले के बैठकखाने का बरामदा है, वहीं वे डाक्टर के साथ बेंच पर बैठे हुए बातचीत कर रहे हैं। डाक्टर के सामने ग्लास-केस में (aquarium में ?) पानी है और उसमें लाल मछलियाँ क्रीड़ा कर रही हैं । डाक्टर रह-रहकर इलायची का छिलका पानी में डाल रहे हैं और मैदे की गोलियाँ बनाकर छत पर फेंक रहे हैं, गौरैयों को चुगाने के लिए । मास्टर बैठे हुए देख रहे हैं

डाक्टर - (मास्टर से, सहास्य) - यह देखो, ये (लाल मछलियाँ) मेरी ओर देख रही हैं, जैसे भक्त भगवान की ओर देख रहे हों; परन्तु इन्होंने यह नहीं देखा कि मैंने इधर इलायची का छिलका फेंका है । इसीलिए कहता हूँ; केवल भक्ति से क्या होगा ? ज्ञान चाहिए । (मास्टर हँस रहे हैं) और वह देखो, गौरैये उड़ गये; उधर मैंने मैदे की गोली फेंकी तो उन्हें इससे भय हो गयाउनमें भक्ति नहीं है, क्योंकि उनमें ज्ञान नहीं । वे जानती नहीं कि यह उनके खाने की चीज है

डाक्टर बैठकखाने में आकर बैठे । चारों ओर आलमारी में ढेरों पुस्तकें रखी हैं । डाक्टर जरा विश्राम कर रहे हैं । मास्टर पुस्तक देख रहे हैं और एक एक पुस्तक लेकर पढ़ रहे हैं । अन्त में कैनन फैरर की लिखी ईशु की जीवनी थोड़ी देर पढ़ते रहे । डाक्टर बीच-बीच में गप्पें भी लड़ा रहे हैं । डॉक्टर महेन्द्रलाल सरकार जैसे एलोपैथिक डाक्टर को भी तात्कालीन भारत की राजधानी कोलकाता में- होमियोपैथिक अस्पताल बनाने कितना कष्ट करना पड़ा था, इस सम्बन्ध की चिट्ठियाँ और दूसरे दूसरे कागजात मास्टर से पढ़ने के लिए कहा । और कहा, "ये सब चिट्ठियाँ 1876 के ‘कलकत्ता जनरल ऑफ मेडीसीन्’ में मिलेंगी ।" होमियोपैथी पर डाक्टर का बड़ा विश्वास है ।

मास्टर ने एक और पुस्तक उठायी, मुँगर कृत 'नया धर्म' (Munger's New Theology) । डाक्टर ने उसे देखा ।

डाक्टर – मुँगर के सिद्धान्त युक्तियों और तार्किक विचारों पर अवलम्बित हैं । इसमें ऐसा नहीं लिखा है कि चैतन्य, बुद्ध या ईशु ने अमुक बात कही है, अतएव इसे मानना चाहिए

मास्टर - (हँसकर) - चैतन्य और बुद्ध की बातें नहीं, परन्तु मुँगर ने कही, इसलिए बात माननीय है !

डाक्टर - तुम्हारी इच्छा, चाहे जो कहो ।

मास्टर - हाँ, किसी न किसी का नाम प्रमाण के लिए लेना ही पड़ता है, इसलिए मुँगर का ही नाम सही ! (डाक्टर जोर से हँसते हैं)

डाक्टर गाड़ी पर बैठे, साथ साथ मास्टर भी । गाड़ी श्यामपुकुर की ओर जा रही है । दोपहर का समय है । दोनों बातचीत करते हुए जा रहे हैं । डाक्टर भादुड़ी की चर्चा भी बीच-बीच में आती है, क्योंकि ये श्रीरामकृष्ण के पास कभी-कभी आते हैं

मास्टर - (सहास्य) - आपके लिए भादुड़ी ने कहा है कि ईंट और पत्थर से जन्म फिर शुरू करना होगा

डाक्टर - वह कैसा ?

मास्टर - आप महात्मा, सूक्ष्म शरीर आदि बातें तो मानते नहीं । भादुड़ी महाशय, जान पड़ता है, थियोसफिस्ट हैं; इसके अतिरिक्त आप अवतार-लीला भी नहीं मानते । इसीलिए उन्होंने शायद हँसी में कहा था कि अब की बार मरने पर आपका मनुष्य के घर जन्म तो होगा ही नहीं, कोई जीव-जन्तु, पेड़-पौधा भी आप न होंगे । आपको कंकड़-पत्थर से ही श्रीगणेश करना होगा ! फिर बहुत से जन्मों के बाद आदमी हों तो हो

डाक्टर - अरे बाप रे !

मास्टर - और यह भी कहा है कि साइन्स के सहारे आपका जो ज्ञान है, वह मिथ्या है; क्योंकि वह अभी अभी है और अभी अभी नहीं । उन्होंने उपमा भी दी है । जैसे दो कुएँ हैं । एक में नीचे स्त्रोत है, उसी से पानी आता है । दूसरे में स्रोत नहीं है, वह बरसात के पानी से भर गया है । वह पानी अधिक दिन रुक नहीं सकता । आपका साइन्स का ज्ञान भी बरसात के पानी की तरह है, वह सूख जायेगा ।

डाक्टर - (जरा हँसकर) - अच्छा, यह बात ! –

गाड़ी कार्नवालिस स्ट्रीट पर आयी । डाक्टर सरकारने डाक्टर प्रताप मुजुमदार को गाड़ी में बिठा लिया । डा. प्रताप कल श्रीरामकृष्ण को देखने गये थे । वे सब श्यामपुकुर आ पहुँचे ।

(३)

*ज्ञानी का ध्यान । जीवन का उद्देश्य

 [ (30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]

श्रीरामकृष्ण उसी दुमँजले के कमरे में बैठे हुए हैं । पास कोई भक्त भी हैं । डाक्टर और प्रताप के साथ बातचीत हो रही है ।

डाक्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - फिर खाँसी* हुई ? (सहास्य) काशी जाना अच्छा भी तो है ! (सब हँसते हैं) (*बंगला में खाँसी को ‘काशी’ कहते हैं, और काशी बनारस का भी नाम है ।)

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - उससे तो मुक्ति होती है । मैं मुक्ति नहीं चाहता, मैं तो भक्ति चाहता हूँ । (डाक्टर और भक्तगण हँस रहे हैं)

श्रीयुत प्रताप डाक्टर भादुड़ी के जामाता हैं । श्रीरामकृष्ण प्रताप को देखकर भादुड़ी के गुणों का वर्णन कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) – अहा ! वे कैसे सुन्दर आदमी हो गये हैं । ईश्वर- चिन्ता, शुद्धाचार और निराकार-साकार सब भावों को उन्होंने ग्रहण कर लिया है ।

मास्टर की बड़ी इच्छा है कि कंकड़ और पत्थरों की बात फिर हो । छोटे नरेन्द्र से धीरे धीरे कह रहे हैं, 'कंकड़-पत्थरों की कौनसी बात भादुड़ी ने कही थी, तुम्हें याद है?' मास्टर ने इस ढंग से कहा जिससे श्रीरामकृष्ण भी सुन सकें ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य, डाक्टर से) - और तुम्हारे लिए उन्होंने (डा. भादुड़ी ने) क्या कहा है, जानते हो ? उन्होंने कहा कि तुम यह सब विश्वास नहीं करते इसलिए अगले कल्प में कंकड़-पत्थर के रूप में जन्म लेकर तुम्हें आरम्भ करना होगा । (सब लोग हँसते हैं)

डाक्टर - (सहास्य) - अच्छा, मान लीजिये कि कंकड़-पत्थर से ही आरम्भ कर कितने ही जन्मों के बाद मैं मनुष्य हो जाऊँ, पर यहाँ (श्रीरामकृष्ण के पास) आने से तो मुझे फिर एक बार कंकड़-पत्थर से ही शुरू करना होगा ! (डाक्टर और सब लोग हँसते हैं)   

श्रीरामकृष्ण इतने अस्वस्थ हैं, फिर भी उन्हें ईश्वरीय भावों का आवेश होता है । वे सदा ईश्वरीय चर्चा किया करते हैं । इसी सम्बन्ध में बातचीत हो रही है

प्रताप - कल मैं देख गया, आपकी भाव की अवस्था थी ।

श्रीरामकृष्ण - वह आप ही आप हो गयी थी, प्रबल, नहीं थी

डाक्टर - बातचीत करना और भावावेश होना, ये इस समय आपके लिए अच्छे नहीं ।

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - कल जो भावावस्था हुई थी, उसमें मैंने तुम्हें देखा । देखा, कि तुम ज्ञान के खान हो, परन्तु भीतर एकदम सूखा हुआ - तुमने अभी तक आनन्द-रस (divine bliss) नहीं चखा है(प्रताप से) ये (डाक्टर सरकार ) यदि एक बार आनन्द पा जायें तो अधः -ऊर्ध्व सब आनन्द -रस से से पूर्ण देखेंगे फिर 'मैं जो कुछ कहता हूँ वही ठीक है, और दूसरे जो कुछ कहते हैं वह ठीक नहीं', आदि बातें फिर ये बिलकुल ही न कहेंगे- और फिर इनकी लट्ठमार बातें भी छूट जायेंगी   

भक्तगण चुप हैं । एकाएक श्रीरामकृष्ण भावावेश में डाक्टर सरकार से कह रहे हैं –“महीन्द्रबाबू, तुम क्या रुपया-रुपया कर रहे हो ! बीबी, बीबी  ! नाम -यश ! ये सब इस समय छोड़कर एकचित्त हो भक्ति के साथ ईश्वर में मन लगाओ और ईश्वर के आनन्द का उपभोग करो !”

डाक्टर सरकार चुप हैं । सब लोग चुप हैं ।


श्रीरामकृष्ण - न्यांगटा ज्ञानी के ध्यान की बात कहता था । पानी ही पानी है, अध: ऊर्ध्व उसी से पूर्ण है । जीव मानो मीन है, उस पानी में आनन्द से तैर रहा है यथार्थ ध्यान होने पर इसे प्रत्यक्ष रूप से देख सकोगे ।

"अनन्त समुद्र है, पानी का कहीं अन्त नहीं । उसके भीतर मानो एक घट है । उसके बाहर भी पानी है और भीतर भी । ज्ञानी देखता है, भीतर और बाहर वे ही परमात्मा हैं । तो फिर वह घट क्या वस्तु है ? घट के रहने के कारण पानी के दो भाग जान पड़ते हैं । अन्दर और बाहर का बोध हो रहा है । 'मैं' - रूपी घट के रहते ऐसा ही बोध होता है । वह 'मैं' अगर मिट जाय, तो फिर जो कुछ है, वही रहेगा; मुख से वह कहा नहीं जा सकता

श्रीरामकृष्ण - "ज्ञानी का ध्यान और किस तरह का है, जानते हो ? अनन्त आकाश है, उसमें आनन्द से पंख फैलाये हुए पक्षी उड़ रहा है । चिदाकाश में आत्मा-पक्षी इसी तरह विहार कर रहा है । वह पिंजड़े में नहीं है, चिदाकाश में उड़ रहा है । आनन्द इतना है कि समाता ही नहीं ।"

भक्तगण निर्वाक् होकर ध्यान-योग की बातें सुन रहे हैं । कुछ देर बाद प्रताप ने फिर बातचीत शुरू की ।

प्रताप - (डॉ. सरकार से) -  सोचा जाय तो सब छाया ही छाया जान पड़ती है ।

डाक्टर - छाया अगर कहते हो तो तीन चीजों की आवश्यकता है । सूर्य, वस्तु और छाया का अधिष्ठान।# बिना वस्तु के क्या छाया होती है ? इधर कह रहे हो, ईश्वर सत्य है, फिर सृष्टि को असत्य बतलाते हो ! नहीं, सृष्टि भी सत्य है

प्रताप - आईने में जैसे तुम प्रतिबिम्ब देखते हो उसी तरह मनरूपी आईने में यह संसार भासित हो रहा है ।

डाक्टर - लेकिन किसी वस्तु के अस्तित्व के बिना क्या कोई प्रतिबिम्ब हो सकता है ?

नरेन्द्र - क्यों, ईश्वर तो वस्तु हैं । (डाक्टर चुप हो रहे ।)

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - एक बात तुमने बहुत अच्छी कही । भावावस्था ईश्वर के साथ मन के संयोग से होती है, यह बात केवल तुमने ही कही और किसी ने नहीं कही  

“शिवनाव ने कहा था, ‘अधिक ईश्वर-चिन्तन करने पर मनुष्य का मस्तिष्क बिगड़ जाता है ।' कहता है, संसार में जो चेतनस्वरूप हैं, उनके चिन्तन से अचेतन हो जाता है ! जो बोधस्वरूप है, जिनके बोध से संसार को बोध हो रहा है, उनकी चिन्ता करके अबोध हो जाना !!

"और तुम्हारी साइन्स क्या कहती है ? बस यही न कि इससे यह मिल जाय या उससे वह मिल जाय तो "अमुक वस्तु " तैयार हो जाता है, आदि आदि । इन सब बातों की चिन्ता करके - जड़ वस्तुओं में पड़कर तो मनुष्य के और भी बोधहीन हो जाने की सम्भावना रहती है ।"

डाक्टर - उन जड़ वस्तुओं में मनुष्य ईश्वर का दर्शन कर सकता है ।

मणि - परन्तु मनुष्य में यह दर्शन और भी स्पष्ट हो सकता है, और महापुरुषों में और भी अधिक स्पष्ट । महापुरुषों में उनका प्रकाश अधिक है ।

डाक्टर – हाँ, मनुष्य में दर्शन अवश्य हो सकता है ।


श्रीरामकृष्ण - जिनके चैतन्य से जड़ भी चेतन हो रहे हैं, - हाथ, पैर और शरीर हिल रहे हैं, उनके चिन्तन से क्या कोई कभी अचेतन हो सकता है ? लोग कहते हैं, 'शरीर हिल रहा है', परन्तु वे हिला रहे हैं, यह ज्ञान नहीं है । लोग कहते हैं, ‘पानी से हाथ जल गया’, पर पानी से कभी कुछ नहीं जलता । पानी के भीतर जो ताप है, जो अग्नि है, उसी से हाथ जल गया

"हण्डी में चावल उबल रहे हैं । आलू और भंटे  उछल रहे हैं । छोटे लड़के कहते हैं, 'आलू और भंटे अपने आप उछल रहे हैं ।' वे यह नहीं जानते कि नीचे आग है । मनुष्य कहते हैं, 'इन्द्रियाँ आप ही आप काम कर रही हैं'; भीतर जो चैतन्यस्वरूप हैं, उनकी बात नहीं सोचते ।"

'डाक्टर सरकार उठे । अब बिदा होंगे । श्रीरामकृष्ण उठकर खड़े हो गये ।

डाक्टर - लोगों पर जब कष्ट पड़ता है तब वे ईश्वर का स्मरण करते हैं । और नहीं तो क्या लोग केवल साध ही साध में 'हे ईश्वर, तू ही, तू ही' करते रहते हैं ? गले में वह (घाव) हुआ है, इसलिए आप ईश्वर की चर्चा करते हैं । अब आप खुद धुनिये के हाथ में पड़ गये हैं, अब उसी से कहिये । यह मैं आप ही की कही हुई बात कह रहा हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - और क्या कहूँगा ! 

डाक्टर - क्यों, कहेंगे क्यों नहीं ? हम उनकी गोद में हैं, उनकी गोद में खाते-पीते हैं, बीमारी होने पर उनसे नहीं कहेंगे तो किससे कहेंगे ?

श्रीरामकृष्ण - ठीक है, कभी कभी कहता हूँ । परन्तु कहीं कुछ होता नहीं ।

डाक्टर - और कहना भी क्यों, क्या वे जानते नहीं ?

  [(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]

🕊🏹योगी के लक्षण। बिल्वमंगल 🕊🏹

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - एक मुसलमान नमाज पढ़ते समय 'हो अल्ला, हो अल्ला' कहकर अजान दे रहा था । उससे एक आदमी ने कहा, ‘तू अल्ला को पुकार रहा है तो इतना चिल्लाता क्यों है ? क्या तुझे नहीं मालूम कि उन्हें चींटी के पैरों के नूपुरों की भी आहट मिल जाती है ?’

"जब उनमें मन लीन हो जाता है, तब मनुष्य ईश्वर को बहुत समीप देखता है । हृदय में देखता है। परन्तु एक बात है । जितना ही यह योग उतना ही बाहर की चीजों से मन हटता जायगा

'भक्तमाल' में बिल्वमंगल नामक एक की बात लिखी हुई है । वह वेश्या के घर जाया करता था । एक दिन बहुत रात हो गयी थी, और वह वेश्या के घर जा रहा था । घर में माँ-बाप का श्राद्ध था, इसलिए देर हो गयी थीश्राद्ध की पूड़ियाँ वेश्या को खिलाने के लिए ले जा रहा था

वेश्या पर उसका मन इतना आसक्त था कि किसके ऊपर से और कहाँ से होकर वह जा रहा था, उसे कुछ भी ज्ञान न था, कुछ होश ही न था । रास्ते में एक योगी आँखें बन्द किये ईश्वर का ध्यान कर रहा था, उसे भी बेहोशी की हालत में  वह लात मारकर निकल गया

योगी गुस्से में आकर बोल उठा, 'क्या तू अँधा है , देखता नहीं ? ईश्वर-चिन्तन कर रहा हूँ और तू लात मारकर चला जा रहा है !" तब उस आदमी ने कहा ‘मुझे क्षमा कीजिये; परन्तु मैं आपसे एक बात पूछता हूँ, वेश्या की चिन्ता करके तो मुझे होश नहीं, और आप ईश्वर की चिन्ता कर रहे हैं, फिर भी आपको बाहरी दुनिया का होश है ! यह कैसी ईश्वरचिन्ता है ?’

वह भक्त अन्त में संसार का त्याग करके ईश्वर की आराधना करने चला गया । वेश्या से उसने कहा था, 'तुम मेरी ज्ञानदात्री हो, तुम्हीं ने मुझे सिखलाया कि ईश्वर पर किस तरह अनुराग किया जाता है ।' वेश्या को माता कहकर उसने उसका त्याग किया था ।"

डाक्टर - यह तान्त्रिक उपासना है, इसके अनुसार स्त्री को माता (जननी) कहकर सम्बोधन किया जाता है  

श्रीरामकृष्ण - देखो, एक कहानी सुनो । एक राजा था । एक पण्डित के पास वह नित्य भागवत सुनता था । रोज भागवतपाठ के बाद पण्डित राजा से कहता था, ‘राजा, तुम समझे ?’ राजा भी रोज कहता था, 'पहले तुम समझो ।'

भागवती पण्डित घर जाकर रोज सोचता था, 'राजा इस तरह क्यों कहता है ? मैं रोज इतना समझता हूँ और राजा उल्टा कहता है - तुम पहले समझो । यह क्या है ?’ पण्डित भजन-साधन भी करता था । कुछ दिनों बाद उसमें जागृति हुई, तब उसने समझा, ईश्वर ही वस्तु है और शेष सब – घर - द्वार, कुटुम्ब-परिवार, मान (नाम) और मर्यादा (यश) अवस्तु हैं

संसार में सब विषय मिथ्या प्रतीत होने के कारण उसने संसार छोड़ दिया जाते समय वह केवल एक आदमी से कह गया – ‘राजा से कहना, अब मैं समझ गया हूँ ।’

"एक कहानी और सुनो । एक आदमी को भागवत के एक पण्डित की जरुरत पड़ी, जो रोज जाकर उसे भागवत सुना सके । इधर भागवती पण्डित मिल नहीं रहा था । बहुत खोजने के बाद एक आदमी ने आकर कहा, 'भाई एक बहुत अच्छा भागवती पण्डित मिला है ।' उसने कहा, ‘फिर तो काम बन गया । उसे ले आओ ।’ आदमी ने कहा ‘परन्तु जरा कठिनाई है । उसके कुछ हल और बैल हैं; उन्हीं को लेकर वह दिन-रात काम में लगा रहता है, काश्तकारी सम्हालनी पड़ती है, उसे बिलकुल अवकाश नहीं मिलता ।’

तब जिसे पण्डित की जरूरत थी, उसने कहा, 'अजी, जिसे हल और बैलों के पीछे पड़ा रहना पड़ता है, उस तरह का पण्डित में नहीं चाहता । मैं तो ऐसा पण्डित चाहता हूँ जिसे अवकाश हो और जो मुझे भागवत सुना सके ।' (डाक्टर से) समझे? (डाक्टर चुप हैं)

" सच पूछो तो केवल पाण्डित्य से क्या होगा ? पण्डित लोग जानते तो बहुत हैं - वेदों, पुराणों और तन्त्र की बातें । परन्तु कोरे पाण्डित्य से होता क्या है ? विवेक और वैराग्य अगर किसी में हों तो उसकी बातें सुनी जा सकती हैं । पर जिसने संसार को ही सार समझ लिया है, उसकी बातों को सुनकर क्या होगा ?

"गीता के पाठ से क्या होता है ? - वही, जो दस बार 'गीता' 'गीता' उच्चारण करने से । 'गीता' 'गीता' कहते रहने से ‘तागी’(त्यागी) 'तागी'(त्यागी) निकलता है । संसार में जिसकी कामिनी और कांचन पर आसक्ति छूट गयी है, जो ईश्वर पर सोलहों आने भक्ति कर सका है, उसी ने गीता का मर्म समझा है । गीता को पूरा पढ़ने की आवश्यकता नहीं । 'त्यागी, त्यागी' कह सकने ही से हुआ - त्यागी बन सकने से ही हुआ

डाक्टर - 'त्यागी' कहने के लिए एक 'य' अधिक जोड़ना पड़ता है ।

मणि - परन्तु 'य' के बिना भी काम चल जाता है । जब ये (श्रीरामकृष्ण) टेनेटी में महोत्सव देखने गये थे, तब वहाँ नवद्वीप के गोस्वामी से इन्होंने गीता की यह बात कही थी । यह सुनकर गोस्वामी ने कहा था, "तग् धातु में घञ प्रत्यय के लगने से ‘ताग’ होता है; फिर उसमें 'इन्' लगाने से 'तागी' बनता है; इस तरह 'त्यागी' और 'तागी' का अर्थ एक ही होता है ।"

डाक्टर - मुझे एक ने राधा शब्द का अर्थ बतलाया था । कहा राधा का अर्थ क्या है, जानते हो ? इस शब्द को उलट लो, अर्थात् 'धारा-धारा' । (सब हँसते है-धारा केवल विषयान्तर के लिए कहा गया ) (सहास्य) आज 'धारा' तक ही रहा

(4)

  [(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]

🕊🏹ऐहिक ज्ञान अर्थात् साइन्स🕊🏹   

डाक्टर चले गये । श्रीरामकृष्ण के पास मास्टर बैठे हुए हैं । एकान्त में बातचीत हो रही है । मास्टर डाक्टर के यहाँ गये थे, वहीं सब बात हो रही है

मास्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - लाल मछलियों को इलायची का छिलका दिया जा रहा था, और गौरैयों को मैदे की गोलियाँ । डाक्टर ने मुझसे कहा - 'तुमने ध्यान दिया ? उन्होंने (मछलियों ने) इलायची का छिलका नहीं देखा, इसलिए चली गयीं ! पहले ज्ञान चाहिए, फिर भक्ति । दो-एक गौरियाँ भी मैदे की गोलियों को फेंकते हुए देखकर उड़ गयींउन्हें ज्ञान नहीं है, इसलिए भक्ति नहीं हुई ।'

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - उस ज्ञान का अर्थ है ऐहिक ज्ञान - साइन्स का ज्ञान । 

मास्टर - उन्होंने फिर कहा, ‘चैतन्य कह गये हैं, बुद्ध कह गये हैं या ईशु कह गये हैं, क्या इसलिए विश्वास करूँ ? – यह ठीक नहीं ।’ 

“उनके नाती (पोता)  हुआ है । नाती का मुँह देखकर वे अपनी पुत्रवधू की प्रशंसा करने लगे । कहा – ‘घर में इस तरह रहती है कि मुझे कहीं आहट भी नहीं मिलती । इतनी शान्त और लजीली है, - ’ ”

श्रीरामकृष्ण - यहाँ की बातें ज्यों ज्यों सोच रहा है, त्यों त्यों उसमें (यहाँ के प्रति) श्रद्धा आ रही है । एकदम क्या कभी अहंकार जाता है ? उसमें इतनी विद्या है, मान है, धन है, परन्तु यहाँ की (स्वयं को इंगित करके) बातों से अश्रद्धा नहीं करता

(५)

  [(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]

*श्रीरामकृष्ण की उच्च अवस्था *

दिन के पाँच बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण उसी दुमँजले के कमरे में बैठे हुए हैं । चारों ओर भक्तगण चुपचाप बैठे हैं । बहुत से बाहर के आदमी उन्हें देखने के लिए आये हैं । कोई बात नहीं हो रही है । 

मास्टर पास ही बैठे हुए हैं । उनके साथ एकान्त में बातचीत हो रही हैश्रीरामकृष्ण कुर्ता पहनेंगे । मास्टर ने कुर्ता पहना दिया ।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - देखो, अब विशेष ध्यान आदि मुझे नहीं करना पड़ता । अखण्ड का एकदम ही बोध हो जाता है । ब्रह्मदर्शन निरन्तर ही चलता रहता है । 

मास्टर चुप हैं । कमरा भी निस्तब्ध है ।

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण उनसे फिर एक बात कह रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण – अच्छा, ये सब लोग एक ही आसन जमाकर चुपचाप बैठे हुए हैं और मुझे देख रहे हैं - न बोलते हैं, न गाना होता है; इस तरह ये मुझमें क्या देखते हैं ?

श्रीरामकृष्ण क्या यह इंगित कर रहे हैं कि साक्षात् ईश्वर की शक्ति अवतीर्ण हुई है ! इसीलिए इतने लोगों का आकर्षण है, इसीलिए भक्त लोग अवाक् होकर उनकी ओर एकटक दृष्टि से निहारते रहते हैं । 

श्री म (मास्टर) ने कहा, “महाराज, ये लोग आपकी बात बहुत पहले ही सुन चुके हैं । ये लोग वह चीज देखते हैं जो कभी इन्हें देखने को नहीं मिल सकती । देखते हैं, सदा ही आनन्द में मग्न रहनेवाले, निरहंकार, बालस्वभाव, ईश्वर के प्रेम में मग्न रहनेवाले महापुरुष को । उस दिन आप ईशान मुखर्जी के यहाँ गये हुए थे । आप बाहर के कमरे में टहल रहे थे, हम लोग भी गये हुए थे । एक ने मुझसे आकर कहा, 'इस तरह का सदानन्द पुरुष हमने कभी देखा नहीं ।'

मास्टर फिर चुप हो रहे । कमरा फिर निस्तब्ध है । कुछ देर बाद धीमे स्वर में मास्टर से श्रीरामकृष्ण ने फिर कहा – अच्छा, डाक्टर का क्या हो रहा है ? क्या यहाँ की सब बातों को वह ग्रहण करता है ?”

मास्टर - यह अमोघ बीज कहाँ जायगा ? किसी न किसी तरफ से कभी न कभी निकलेगा ही । उस दिन की एक-एक बात पर हँसी आ रही है ।

श्रीरामकृष्ण - कौनसी बात ?

मास्टर - आपने उस दिन कहा था, यदु मल्लिक यह नहीं समझ सकता कि किस तरकारी में नमक अधिक है, कौन तरकारी कैसी हुई । वह इतना अन्यमनस्क रहता है ! जब कोई कह देता है कि अमुक व्यंजन में नमक नहीं पड़ा, तब 'आयँ आयँ' करके कहता है, 'हाँ, ठीक तो है, नमक नहीं पड़ा ।' डाक्टर को यह बात आप सुना रहे थे । उन्होंने कहा था न, कि वे बहुत ही अन्यमनस्क हो जाया करते हैं । आप समझा रहे थे कि वे (यदु मल्लिक) विषय की चिन्ता करके अन्यमनस्क होते हैं, ईश्वर की चिन्ता करके नहीं

श्रीरामकृष्ण - क्या इन बातो को वह न सोचेगा ?

मास्टर - सोचेंगे क्यों नहीं ? परन्तु उन्हें बहुत से काम रहते हैं, इसलिए भूल भी जाते हैं । आज भी उन्होंने क्या ही अच्छा कहा कि स्त्री को मातृरूप देखना तान्त्रिकों की एक उपासना है

श्रीरामकृष्ण – मैंने क्या कहा ?

मास्टर - आपने बैलोंवाले भागवती पण्डित की बात कही थी । (श्रीरामकृष्ण हँसते हैं) और आपने कही थी उस राजा की बात, जिसने कहा था, 'तुम पहले समझो ।' (श्रीरामकृष्ण हँसते हैं) "फिर आपने गीता की बात कही थीगीता का सार तत्त्व है कामिनी और कांचन का त्याग - कामिनी और कांचन पर आसक्ति का त्याग ।

आपने डाक्टर से कहा, 'संसारी होकर कोई क्या शिक्षा देगा ?' यह बात शायद वे समझ नहीं सके । अन्त में ‘धारा-धारा’ कहकर बात को दबा गये ।"

श्रीरामकृष्ण भक्तों के कल्याण के लिए सोच रहे हैं, - पूर्ण और मणीन्द्र दोनों उनके बालक भक्तों में से हैं । श्रीरामकृष्ण ने मणीन्द्र को पूर्ण से मिलने के लिए भेजा

(६)

  [(30 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-129 ]

🕊🏹राधाकृष्ण-तत्व।  नित्य -लीला !🕊🏹 

सन्ध्या हो गयी है । श्रीरामकृष्ण के कमरे में दीपक जल रहा है । कई भक्त जो श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं, उसी कमरे में कुछ दूर पर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण का मन अन्तर्मुख हो रहा है, इस समय बातचीत बन्द है । कमरे में जो लोग हैं, वे भी ईश्वर की चिन्ता करते हुए मौन हो रहे हैं

कुछ देर बाद नरेन्द्र अपने एक मित्र को साथ लेकर आये । नरेन्द्र ने कहा, "ये मेरे मित्र हैं, इन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की है । ये 'किरणमयी' लिख रहे हैं ।" किरणमयी के लेखक ने प्रणाम करके आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण के साथ बातचीत करेंगे

('किरणमयी' लेखक थे- राजकृष्ण राय।)   

नरेन्द्र - इन्होंने राधाकृष्ण के सम्बन्ध में भी लिखा है ।

श्रीरामकृष्ण - (लेखक से) - क्यों जी, क्या लिखा है ? जरा कहो तो ।

लेखक (किरणमयी के लेखक राजकृष्ण राय)  - राधाकृष्ण ही परब्रह्म हैं, ओंकार के बिन्दुस्वरूप हैं । उसी राधाकृष्ण - परब्रह्म से महाविष्णु की सृष्टि हुई, महाविष्णु से पुरुष और प्रकृति, शिव और दुर्गा की

श्रीरामकृष्ण – वाह ! नन्द घोष (कृष्ण के पालक पिता) ने नित्यराधा को देखा था । प्रेम-राधा ने वृन्दावन में लीलाएँ की थीं, काम-राधा चन्द्रावली हैं ।

 “काम-राधा और प्रेम-राधा। और भी बढ़ जाने पर हैं नित्य-राधा प्याज के छिलके निकालते रहने पर पहले लाल छिलका निकलता है, फिर जो छिलके निकलते हैं उनमें ललाई नाम मात्र की रहती है, फिर बिलकुल सफेद छिलके निकलते हैं । 

ऐसा ही नित्य-राधा, परम् राधा का स्वरूप है - वहाँ 'नेति नेति' का विचार रुक जाता है

"नित्य-राधाकृष्ण, और लीला-राधाकृष्ण - जैसे सूर्य और उसकी किरणें । नित्य की तुलना सूर्य से की जा सकती है और लीला की, रश्मियों से

"शुद्ध भक्त कभी 'नित्य' में रहता है और कभी 'लीला' में । जिनकी नित्यता है, लीला भी उन्हीं की है । वे केवल एक ही हैं - दो या अनेक नहीं ।"

लेखक - जी, वृन्दावन के कृष्ण और मथुरा के कृष्ण, इस तरह दो कृष्ण क्यों कहे जाते हैं ?

[^वृंदावन के कृष्ण, एक चरवाहा लड़का की भूमिका में थे और हमेशा राधा और गोपियों से जुड़े रहते थे।  लेकिन मथुरा और द्वारका के कृष्ण, राजा थे उनका गोपियों तथा ग्वाल बालकों से कोई  संबद्ध नहीं था। ^The Krishna of Vrindavan, where He was a cowherd boy, is always associated with Radha and the gopis; but the Krishna of Mathura and Dwaraka, where He was the king, is not associated with them.]

श्रीरामकृष्ण - वह गोस्वामियों का मत है । पश्चिम के पण्डित लोग ऐसा नहीं कहते । उनके मत में कृष्ण एक ही है, राधा है ही नहीं द्वारका के कृष्ण भी वैसे ही हैं ।

लेखक - जी, राधाकृष्ण ही परब्रह्म हैं ।

श्रीरामकृष्ण – वाह ! परन्तु उनके द्वारा सब कुछ सम्भव है । वे ही निराकार हैं और वे ही साकार। वे ही स्वराट् हैं और वे ही विराट् । वे ही ब्रह्म हैं और वे ही शक्ति । 

“उनकी इति नहीं हो सकती - उनका अन्त नहीं है, उनमें सब कुछ सम्भव है...

चील या गीध चाहे जितना ऊपर चढ़े, पर आकाश को उसकी पीठ कभी छू नहीं सकती । अगर पूछो कि ब्रह्म कैसा है, तो यह कहा नहीं जा सकता । साक्षात्कार होने पर भी मुख से नहीं कहा जाता । अगर कोई पूछे कि घी कैसा है, तो इसका उत्तर है कि घी घी के सदृश ही है । ब्रह्म की उपमा ब्रह्म ही है, और कोई उपमा नहीं

=========