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शनिवार, 5 जून 2021

$$$$श्री रामकृष्ण दोहावली (32)*आध्यात्मिक जीवन के लिए आवश्यक बातें * विवेकप्रयोग ~ चावल पका है या नहीं , एक ही सीथ को दबाकर जान लेते हो ,सभी सीथों को एक-एक करके परखकर नहीं देखते, जो भी वस्तु 'नाम' और 'रूप ' से युक्त है --उसकी यही गति है। पृथ्वी, सूर्यलोक, चन्द्रलोक - सभी के नाम और रूप हैं *प्रश्न - क्या संसार मिथ्या है ? * ज्ञानी के लिए संसार मिथ्या है , विज्ञानी के लिए 'आनन्द की हवेली '(mansion of mirth)* सत्यनिष्ठा =ह्रदय के भीतर भक्तिभाव रखो , कपट चतुराई छोड़ दो* बारह वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य~मेधानाड़ी खुलहि अरु, बाढ़-हि 'विवेक'- प्रचण्ड*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(32)  

*आध्यात्मिक जीवन के लिए आवश्यक बातें *

 *विवेक-प्रयोग * 

291 जग अनित्य हरि नित्य है , अस मति जिन्हके एक। 

545 तिन्हके हिय हरि के कृपा , जानहु उदित विवेक।।

मान लो हण्डी में चावल पक रहा है। चावल पका है या नहीं , यह देखने के लिए तुम उसमें से एक ही सीथ लेकर उसे दबाकर देखते हो , और उसी पर से समझ लेते हो कि चावल पक गया है या नहीं। तुम चावल के सभी सीथों को एक-एक करके परखकर नहीं देखते, फिर भी यह समझ लेते हो ! 

यहाँ जिस प्रकार पूरा चावल पक चुका है या कच्चा है, यह एक सीथ को देखकर तुम समझ लेते हो, उसी प्रकार यह संसार सत है या असत, नित्य है या अनित्य ? --यह भी तुम संसार की दो-चार वस्तुओं को ही परखकर जान सकते हो ! 

मनुष्य जन्मता है ,कुछ दिन जीता है , फिर मर जाता है। पशु का भी यही हाल होता है , और वृक्ष का भी। विवेक-प्रयोग करके देखने पर तुम्हारी समझ में आ जाता है कि जो भी वस्तु 'नाम' और 'रूप ' से युक्त है --उसकी यही गति है। पृथ्वी, सूर्यलोक, चन्द्रलोक - सभी के नाम और रूप हैं , अतएव उनकी भी यही गति है। 

इस प्रकार जब तुम जान लेते हो कि सारे संसार का यही स्वभाव है , तब तुम्हें संसार की सभी वस्तुओं का स्वभाव ज्ञात हो जाता है या नहीं ? इसी तरह जब तुम संसार को सचमुच ही अनित्य , असत अनुभव करोगे , तब तुम उस पर प्यार नहीं कर सकोगे। तब तुम उसे मन से त्याग कर वासनारहित बन जाओगे। 

और जब तुम इस प्रकार पूर्ण त्याग करने में समर्थ होओगे तभी तुम जगत्कारण परमेश्वर के दर्शन पाओगे। इस तरह से जिसने ईश्वर-दर्शन  प्राप्त कर लिया है , वह व्यक्ति यदि सर्वज्ञ नहीं हुआ फिर वह क्या हुआ ?    

292 मिथ्या है यह जग सकल , सत्य केवल भगवान। 

543 बिनु हरि कृपा दरस बिनु, पाहि न नर अस जान।। 

प्रश्न - क्या संसार मिथ्या है ? 

उत्तर - जब तक ईश्वर का ज्ञान नहीं होता तब तक मिथ्या है। तब तक मनुष्य उन्हें भूलकर 'मैं, मेरा ' करते हुए माया में बद्ध होकर , कामिनी-कांचन के मोह में मुग्ध होकर संसार में और भी डूबता जाता है। माया के कारण मनुष्य इतना अन्धा हो जाता है कि जाल में से ही भागने का रास्ता रहने पर भी भाग नहीं पाता। 

तुम लोग तो स्वयं ही देखते हो कि संसार कैसा अनित्य है ? देखो न , यहाँ कितने लोग आये और चले गए। कितने पैदा हुए और कितने मर मिटे ? संसार इस क्षण है तो दूसरे क्षण नहीं ! यह अनित्य है ! जिन्हें तू 'मेरा, मेरा ' कह रहे हो , तुम्हारे ऑंखें बन्द करते ही वे कोई नहीं रहेंगे। 

संसार में 'मेरा' कहके 'कुछ' नहीं है , 'कोई' नहीं है ; फिर भी इतनी आसक्ति है कि नाती-पोते के लिए काशीयात्रा नहीं हो पाती। कहते हैं कि - 'मेरे पोते हरि का क्या होगा ? जाल में से निकलने की राह खुली है , फिर भी मछली भाग नहीं सकती। रेशम का कीड़ा अपनी ही लार से बने कोष बनाकर उसमें फंसकर जान गँवा देता है। इस प्रकार संसार मिथ्या है , अनित्य है। 

290 ईश्वर ही बस नित्य है, शाश्वत सत्य अनन्त। 

541 बाकी जग अनित्य है , पावत इक दिन अन्त।।

इस प्रकार विवेक-विचार किया करो -कामिनी और कांचन  अनित्य हैं , एकमात्र ईश्वर ही नित्य हैं। रूपये से क्या मिलता है ? दाल-रोटी , कपड़े और रहने के लिए जगह -बस इतना ही , और कुछ नहीं। रूपये से निश्चित ही ईश्वर नहीं मिलते। रुपया हरगिज जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता। इसीको विवेक-विचार कहा जाता है। 

रुपये में क्या रखा है , सुन्दर स्त्री की देह में भी क्या है ? विचार करके देखो, सुन्दरी की देह में सिर्फ हाड़ , मांस , चमड़ी, चर्बी ,खून , मल , मूत्र -यही सब  है। पर आश्चर्य है कि मनुष्य ईश्वर को छोड़ इन्हीं चीजों में मन लगाता है !    

सत्यनिष्ठा 

286 सत्य वचन कलिलाल तप , तप ले तज चतुराई। 

530 सत्य स्वरुप हरि प्रगटहहिं, जिनके सत्य दृढ़ाई।।

ह्रदय के भीतर भक्तिभाव रखो , कपट चतुराई छोड़ दो। जो सांसारिक कर्म करते हैं , सरकारी -दफ्तर में काम या बिजनेस -व्यापार करते हैं , उन्हें भी सत्यनिष्ठ होना चाहिये। सच बोलना ही कलियुग की तपस्या है। 

287 झूठ वचन नहीं नहि बोलिये , धरिये न झूठा वेष। 

533 जो बोले पाखण्डी बने, पावे अनरथ क्लेश।। 

मिथ्या का कोई भी रूप अच्छा नहीं। मिथ्या वेष धारण करना भी अच्छा नहीं। यदि तुम्हारा मन तुम्हारे वेष के अनुकूल गठित नहीं नहीं हुआ हो तो उस मिथ्या वेष से महान अनर्थ हो जाता है। झूठ बोलते बोलते या बुरे काम करते करते धीरे -धीरे मनुष्य का भय चला जाता है और वह पाखण्डी बन बैठता है।

ब्रह्मचर्य 

289 जो पालहि ब्रह्मचर्य व्रत , बारह बरष अखण्ड।

538 मेधानाड़ी खुलहि अरु, बाढ़-हि 'विवेक'- प्रचण्ड।।

 बारह वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करने पर मनुष्य की मेधानाड़ी खुल जाती है। तब उसकी बुद्धि अत्यंत तीक्ष्ण  , कुशाग्र तथा अतिसूक्ष्म तत्वों को भी धारण करने में समर्थ हो जाती है। इस प्रकार की सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा ही ईश्वर के दर्शन होते हैं। शुकदेव आदि ऊर्ध्वरेता थे , उनका रेतः पात कभी नहीं हुआ। 

कुछ लोग धैर्यरेता भी होते हैं। इनका पहले रेतःपात हुआ है परन्तु बाद में इन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन कर वीर्यधारण किया है। यदि कोई बारह वर्ष तक धैर्यरेता  रहे , तो उसमें एक विशेष शक्ति उत्पन्न होती है। भीतर एक नयी नाड़ी पैदा होती है -उसे मेधानाड़ी कहते हैं। वह नाड़ी पैदा होने से मनुष्य सब बातें स्मरण में रख सकता है, सब कुछ जान सकता है।

288 जो चाहत हरि पद दरस , जो चाहत ब्रह्मज्ञान। 

536 बिना वीर्य धारण किये , नहिं संभव सत जान।।

जैसे काँच में यदि पारा लगा हुआ हो तो उसमें चेहरा दिखाई देता है। वैसे ही ब्रह्मचर्यपालन के द्वारा वीर्यधारण करने से ब्रह्मदर्शन हो सकता है।  

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श्री रामकृष्ण दोहावली (31)~ अपने इष्टदेवता पर एकनिष्ट भक्ति हो तो ईश्वरदर्शन होता है।

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(31) 

*इष्टदेवता पर एकनिष्ट भक्ति हो तो ईश्वरदर्शन होता है*   

285 जस जल की चाहत अगर , खोदो कूप एक ठौर। 
528 तस दरसन की आस में , भज निज इष्ट न और।।

एक आदमी कुआँ खोदने गया। थोड़ा सा खोदने के बाद ही पानी नहीं आते देख उसने वह जगह छोड़ दी और दूसरी जगह खोदना शुरू किया। पर जब बहुत सी जमीन खोद चुकने के बाद वहाँ भी पानी नहीं मिला तब उसने वह जगह भी छोड़ दी और तीसरी जगह कुआँ खोदने लगा पर फिर वही हाल हुआ। इस प्रकार आखिर तक वह कुआँ नहीं खोद पाया। पहले ही स्थान पर यदि वह धीरज के साथ खोदते रहता तो उसे इतनी मेहनत भी नहीं करनी पड़ती और पानी भी मिल जाता। धर्ममार्ग पर भी इसी तरह करते हुए बहुत से लोग हताश होकर सारा विश्वास गँवा बैठते हैं। 

282 दो बकलमा नाथ को , ताको दो सब भार। 
519 एहि सम सीधा राह नहिं , सहज सरल उद्धार।।

ईश्वर को ब-कलमा दे देना, 'मैं '-पन बिलकुल न रखते हुए ईश्वर की ही इच्छा पर अपना सब कुछ सौंप देना - इससे बढ़कर सरल और सीधा रास्ता और नहीं है। 

281 कर अर्पण प्रभु चरण सब , सहित भगति विश्वास। 
515 शीघ्रहि दरसन पाहिं नर ,भजहि जे तज सब आस।।

 जो व्यक्ति सरल भक्ति-विश्वास के साथ प्रभु के चरणों में सर्वस्व समर्पण कर देता है , उसे बहुत जल्दी ईश्वरप्राप्ति होती है।  
  
283 ईश्वर निर्भर होइए , जस बिल्ली कै लाल। 
520 नहिं व्यापत भव ब्याधि है , करे हरि देखभाल।।

बन्दर का बच्चा अपनी माँ को कसकर पकड़े हुए उससे लिपटा रहता है , परन्तु बिल्ली का बच्चा पड़े-पड़े सिर्फ 'म्याऊं म्याऊं ' किया करता है ; बिल्ली स्वयं ही उसे मुंह में पकड़कर उठा ले जाती है। बन्दर का बच्चा यदि हाथ छोड़ दे तो नीचे गिर पड़ेगा। क्योंकि उसने स्वयं अपनी माँ को पकड़ रखा है। परन्तु बिल्ली के बच्चे को गिरने का भय नहीं है , क्योंकि उसे उसकी माँ ने पकड़ रखा है। पुरुषकार और ईश्वरनिर्भरता में यही अन्तर है।   
284 रहो सदा संसार में , जूठी पत्तल नाइ। 
524 एक भरोसे राम के , उड़हि जहाँ उड़ाई।।

संसार में आँधी में उड़नेवाली जूठी पत्तल की तरह रहा करो। जूठी पत्तल आँधी के निर्भर रहती है। आँधी उसे जहाँ उड़ा ले जाती है , वहीँ जाती है। कभी -कभी किसी घर के भीतर तो कभी कूड़े-कचरे में। इसी तरह , प्रभु ने तुम्हें संसार में रख छोड़ा है , तो अभी संसार में रहो ; फिर जब वे तुम्हें इससे अच्छी जगह पर ले जायेंगे तब उनके भरोसे वहीं रहना।  उन पर निर्भर होकर निर्लिप्त रूप से पड़े रहना।
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शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (30)- * भ्रमर-कीट न्याय *विश्वास की डोर को प्रभु संग बाँधें ! *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(30) 

विश्वास की डोर को प्रभु संग बाँधें !  

274 जिन्हके हिय विश्वास दृढ़ , जैसे बाल समान। 

503 तिन्हके हिय प्रगटत प्रभु , करत कृपा कै दान।। 

बालक की तरह सरल विश्वास हुए बिना ईश्वर नहीं मिलते। माँ ने कह दिया वह तेरा 'भैया' है , बस उसको सोलह आना विश्वास हो गया कि यह मेरा भैया है। माँ ने कह दिया उस कमरे में 'हौआ ' रहता है, बालक ने पूरा विश्वास कर लिया कि उस कमरे में 'हौआ ' रहता है। इस तरह बालक के जैसा विश्वास देखने पर भगवान को दया आती है। सांसारिक विषय-बुद्धि के द्वारा वे नहीं मिलते। 

273 जो चाहत हरि दरस तो , मन धर दृढ़ विश्वास। 

502 जप ले हरि के नाम तु , सहित विवेक अरु आस।।

अगर तुम्हें ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो दृढ़ विश्वास के साथ उनका नाम लेते जाओ और सत -असत का विवेक किया करो।

275 गुरु वचन विश्वास कर , चेला उतरे पार। 

507 बिन विश्वास गुरुवर अपि , डूबत है मझधार।।

एक शिष्य को गुरु पर इतना विश्वास था कि वह 'गुरु , गुरु ' कहते हुए विश्वास के बल पर नदी पार हो गया। यह देखकर गुरु ने सोचा , ' तो सचमुच ही मुझमें इतनी शक्ति है ! मुझे तो अब तक यह पता ही नहीं था ! 'दूसरे दिन गुरु 'मैं , मैं ' कहते हुए नदी पार होने गए परन्तु पानी पर पैर रखते ही वे गिर पड़े और अपने को सम्हाल न पाकर डूब मरे ! विश्वास का परिणाम अद्भुत होता है। परन्तु अहंकार से विनाश ही होता है।  

279 जाको जैसी भावना , ताको तैसी रूप। 

514 जीव सोच जीव रहे , सोचत शिव शिव रूप।।

जो सोचता है 'मैं जीव हूँ ' [भेंड़ -मरणधर्मा शरीर हूँ '] वह जीव [भेंड़ ] ही रह जाता है ; जो सोचता है 'मैं शिव हूँ ' [सिंह शावक हूँ ! अजर -अमर अविनाशी आत्मा हूँ !] वह 'शिव' [बड़ा सिंह -मार्गदर्शक नेता ] बन जाता है। मनुष्य जैसी भावना करता है वैसा ही बन जाता है।  

276 सेतु बांध श्री राम जी , उतरे सागर पार। 

508 विश्वास बल हनुमान जी , उड़यो वारिधि पार। 

स्वयं रामचन्द्रजी को समुद्र पार करने के लिए सेतु बाँधना पड़ा , परन्तु हनुमानजी केवल 'जय राम ' कहकर एक हीछलाँग में अनायास समुद्र लाँघ गए। विश्वास में कितनी सामर्थ्य है ! 

277 जिन्हके हिय विश्वास बल , जिन्हके प्रभु पर आस। 

510 दुःख कोटि पथ सहज सहे , होत न मन हताश।।

पत्थर हजारों साल तक पानी में पड़ा रहे तो भी उसके भीतर एक बून्द पानी नहीं घुसता , परन्तु मिट्टी के ढेले में पानी लगते ही वह घुल जाता है। जिसके हृदय में विश्वास का बल है , वह हजारों बाधा-विघ्न की परीक्षा में से गुजकर भी हताश नहीं होता , परन्तु अविश्वासी व्यक्ति छोटी सी बात ही विचलित हो जाता है। 

278 भ्रमर बने झींगुर कीट , सोच भ्रमर की बात। 

511 तस मनवा आनन्द घन , सुमिरहु हरि दिन रात। 

जो व्यक्ति जैसा चिन्तन करता है , वह वैसा ही बन जाता है। भ्र्मर का चिन्तन करते करते झींगुर भी भ्रमर ही बन जाता है। वेदान्त के इसी भ्रमर-कीट न्याय के अनुसार, निरन्तर सच्चिदानन्द (ब्रह्म) का चिन्तन करते रहने से मनुष्य सच्चिदानन्द (ब्रह्म) -स्वरूप ही हो जाता है

 यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया । स्‍नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥ (भागवत 11.9.22 ) 

280 जाको जैसी भावना , पावै फल अनुरूप। 

512 पाप सोच पापी बने , आत्मा आत्मस्वरूप।।

जिन्दगी भर पाप और नरक की बात क्यों करते रहते हो ? भगवान का नाम लो [ अर्थात अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का नाम लो !!] एक बार कहो - (बोल्ड्ली कहो) , " हे माँ, हे ठाकुरदेव , मुझे जो करना चाहिए था वह मैंने नहीं किया , जो नहीं करना चाहिए था , भूलवश वही काम किये हैं; मुझे क्षमा करो ! " पूरे विश्वास के साथ उनसे प्रार्थना करो , तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो जायेंगे।  
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$$श्री रामकृष्ण दोहावली (29)-ज्ञानलाभ के लिए कुछ शर्तें -- *मन और उसका स्वभाव*[एकाग्रता (विवेक-दर्शन) का अभ्यास और अनासक्ति (dispassion)

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(29) 

*ज्ञानलाभ के लिए कुछ शर्तें*  

[एकाग्रता (विवेक-दर्शन)  का अभ्यास और अनासक्ति  (dispassion) ]

271 मन में मुक्ति बीज है , मन में बंधन डोर। 

493 जो जस सोचहि होही तस , अंधियारी अंजोर।।

मन में ही बंधन है और मन में ही मुक्ति। अगर तुम कहो , " मैं मुक्त हूँ।  मैं ईश्वर की सन्तान हूँ ! मुझे कौन बाँध सकता है ! " तो तुम मुक्त हो जाओगे। जिस आदमी को साँप ने काटा है वह अगर पूरे विश्वास और दृढ़ता के साथ कहे कि 'मुझ पर विष नहीं चढ़ा , विष नहीं चढ़ा ! ' तो अवश्य ही उसपर विष का परिणाम नहीं होता। 

270 ज्ञान अगन से जलत मन , त्यागत बंधक भाव। 

490 जस कोयला  जल तजत है , निज काला स्वभाव।।

एक ने कहा था , 'वस्तु का मूल स्वभाव कभी नहीं बदल सकता।' इस पर दूसरे ने उत्तर दिया था , 'जब कोयले में आग प्रवेश कर जाती है , तब उसका स्वभावसिद्ध कालापन भी दूर हो जाता है। ' इसी तरह जब मन भी ज्ञानाग्नि में जल जाता है तो उसका मूल बंधनकारक स्वभाव नष्ट हो जाता है।  

[कौन कहता है कि "Nature and Signature "  कभी बदलता नही ? बस एक चोट की ज़रूरत हैं, अगर ऊँगली पे लगी तो सिग्नेचर बदल जाता है, और दिल पे लगी तो नेचर बदल जाता है। ]  

269 धर विश्वास अरु सरल मन , भज तज संशय भाव। 

489 हिय प्रगटहि आनन्द घन , निज गुण निज स्वभाव।।

जो अपने भावों के राज्य में चोरी - धोखेबाजी नहीं करता वही परमधाम को पहुँच सकता है। अर्थात सरल विश्वास और निष्कपट भाव से ही सच्चिदानन्द की प्राप्ति होती है। 

268 जानतहि माया भगे ,  जस भागत है भूत। 

488 कर विवेक तू जान ले , माया माया दूत।।

जिस आदमी को भूत ने पकड़ा है वह अगर समझ जाये कि उस पर भूत सवार हुआ है तो तुरन्त उसे छोड़ देता है। इसी प्रकार , मायाग्रस्त जीव यदि समझ जाये कि वह मायापाश में बँधा हुआ है तो वह शीघ्र ही उससे मुक्त हो सकता है। 

 272 'मैं मेरा ' अज्ञान है , 'तू तेरा ' है ज्ञान। 

494 तज मैं पन को राम जी , भज ले श्रीभगवान।।

प्रश्न - मैं मुक्त कब होऊँगा ? 

उत्तर - जब 'मैं ' नहीं रहेगा।  ' 'मैं मेरा ' अज्ञान है , 'तू तेरा '  ज्ञान। 

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श्री रामकृष्ण दोहावली - (28 -A)*धर्मान्धता का कारण तथा उसे दूर करने का उपाय * ( 28 -B) *विभिन्न धर्मों के प्रति उचित मनोभाव*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(28 -A)  

*धर्मान्धता का कारण तथा उसे दूर करने का उपाय *  

262 जो जस देखत गिरगिटहि, तस तस करहि बखान। 
471 ते जानहि सत रंग सब , जे घर तरु धर ध्यान।।

263 जो देखत जस जस प्रभु , तस तस करत बखान। 
471 सत सब रूप ते जानहि , जिन्हके उदित ज्ञान।।

दो आदमियों के बीच घोर विवाद छिड़ गया। एक ने कहा , ' उस खजूर के पेड़ पर एक सुन्दर लाल रंग का गिरगिट रहता है। ' दूसरा बोला , ' तुम भूल करते हो , वह गिरगिट लाल नहीं, नीला है।' विवाद करते हुए कुछ निश्चय न कर पाने के कारण अन्त में दोनों जन उस खजूर के पेड़ के नीचे जाकर वहाँ रहने वाले आदमी से मिले। उनमें से एक ने उससे पूछा , ' क्यों जी , तुम्हारे इस पेड़ पर लाल रंग का गिरगिट रहता है न ? वह आदमी बोला, ' जी हाँ।' 
तब दूसरे ने कहा , 'अजी, क्या कहते हो ? वह गिरगिट लाल नहीं, नीला है। ' वह आदमी बोला, 'जी हाँ।' वह जानता था कि गिरगिट बहुरूपी होता है , सदा रंग बदलता रहता है। इसीलिये उसने दोनों की बात में हामी भरी।
 सच्चिदानन्द भगवान के भी अनेक रूप हैं। जिस साधक ने जिस रूप का दर्शन किया है , वह उसी रूप को जानता है। परन्तु जिसने उनके बहुविध रूपों को देखा है , वही कह सकता है कि  विविध रूप उस एक ही प्रभु के हैं। वे साकार हैं , निराकार हैं , तथा उनके और भी कितने प्रकार हैं -यह कोई नहीं जानता।

(B)

*विभिन्न धर्मों के प्रति उचित मनोभाव*  
            
264 टेढ़ी सीधी खाइये , मिश्री सदा मिठास। 
476 रीत अतीत तस हरिभजन , हरि को प्रिय हरिदास।।

भगवान का नाम और चिंतन तुम चाहे जिस रीति से करो , उससे कल्याण ही होगा। जैसे मिश्री की डली सीधी खाओ या टेढ़ी करके खाओ , वह मीठी ही लगेगी। 

265 रूचि जान माँ परसहहि , भिन्न भिन्न आहार। 
478 तस तस हरि प्रगटहिं रूप बहु , जिन्हके जस आधार।।

जिस प्रकार माँ अपने बच्चों के स्वास्थ्य के अनुसार किसी के लिए दालभात तो किसी के लिए साबूदाने की व्यवस्था करती है ; उसी प्रकार भगवान ने भी प्रत्येक मनुष्य के लिए उसके स्वभाव के अनुसार उपयुक्त साधना की व्यवस्था कर रखी है।  
266 जस जानत निज धरमहि, सत्य प्राप्ति कर राह। 
483 अपर धरम तस जानिए , रख श्रद्धा अथाह।।

267 बिन निंदा घृणा बिना , बिना तर्क विवाद। 
483 निज धरम सम जान सब , भज रह निज मरजाद।। 
 
यथार्थ साधक को यही भावना रखनी चाहिए कि दूसरों के धर्म भी सत्यप्राप्ति के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। दूसरे धर्मों के प्रति श्रद्धा का भाव रखना चाहिए। 
(लेकिन ) हर एक व्यक्ति को अपने -अपने स्वधर्म का ही पालन करना चाहिए। ईसाई को ईसाई धर्म का , मुसलमान को मुस्लिम धर्म का पालन करना चाहिए। हिन्दुओं के लिए प्राचीन वैदिक ऋषियों का  सनातन मार्ग ही श्रेयस्कर है !  
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श्री रामकृष्ण दोहावली (27-A) *सभी धर्मों का ईश्वर एक ही है ~एक राम उनके हजार नाम* (27-B) *विभिन्न धर्म ईश्वरप्राप्ति के विभिन्न पथ हैं *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
 
(27-A) 
 सभी धर्मों का ईश्वर एक ही है > " जैसे एकवा, वाटर, वारि ~वैसे अल्ला, गॉड, मुरारि"  

256 जस जल के बहु नाम हैं , एकवा वाटर वारि। 
457 तस सतचित आनन्द के , अल्ला गॉड मुरारि।।

जिस प्रकार एक ही जल को कोई 'वारि ' कहता है और कोई 'पानी ' , कोई 'वाटर ' कहता है तो कोई 'एक्वा', उसी प्रकार एक ही सच्चिदानन्द को देशभेद के अनुसार कोई 'हरि ' - या मुरारी भी कहता है, तो कोई 'अल्लाह ' , कोई 'गॉड ' कहता है तो कोई 'ब्रह्म'। 
श्रीरामकृष्ण वचनामृत 
( 5 अप्रैल, 1884)   
“ ब्राह्मसमाजी निराकार-निराकार कहा करते हैं । ख़ैर, कहें । उन्हें अन्दर से पुकारने ही से हुआ । अगर अन्तर की बात हो तो वे तो अन्तर्यामी हैं, वे अवश्य समझा देंगे, उनका स्वरूप क्या है ।
      “परन्तु यह कहना अच्छा नहीं – कि हम लोगों ने जो कुछ समझा है, वही ठीक है, और दूसरे जो कुछ करते हैं, सब गलत । हम लोग निराकार कह रहे हैं, अतएव वे साकार नहीं, निराकार हैं; हम लोग साकार कह रहे हैं, अतएव वे साकार हैं, निराकार नहीं ! मनुष्य क्या कभी उनकी इति कर सकता है ?  
        “इसी तरह वैष्णवों और शाक्तों में भी विरोध है । वैष्णव कहता है ‘हमारे केशव ही एकमात्र उद्धारकर्ता हैं’ और शाक्त कहता है, ‘बस हमारी भगवती एकमात्र उद्धार करनेवाली है ।’
       “मैं वैष्णवचरण को सेजो बाबू* के पास ले गया था । वैष्णवचरण वैरागी है, बड़ा पण्डित है, परन्तु कट्टर वैष्णव है । इधर सेजो बाबू भगवती के भक्त हैं । अच्छी बातें हो रही थीं, इसी समय वैष्णवचरण ने कह डाला, ‘मुक्ति देनेवाले तो एक केशव ही हैं ।’
     केशव का नाम लेते ही सेजो बाबू का मुँह लाल हो गया और वे बोले, ‘तू साला ।’ (सब हँस पड़े।) मथुर बाबू शाक्त जो थे ! उनके लिए यह कहना स्वाभाविक ही था । मैंने इधर वैष्णवचरण को खींच लिया ।
     “जितने आदमियों को देखता हूँ, धर्म-धर्म करके एक दूसरे से झगड़ा किया करते हैं । हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मसमाजी, शाक्त, वैष्णव, शैव, सब एक दूसरे से लड़ाई-झगड़ा करते हैं यह बुद्धिमानी नहीं है । जिन्हें कृष्ण कहते हो, वे ही शिव, वे ही आद्याशक्ति हैं, वे ही ईसा हैं और वे ही अल्लाह हैं । एक राम उनके हजार नाम ।
        “वस्तु एक ही है, केवल उसके नाम अलग अलग हैं । सब लोग एक ही वस्तु की चाह कर रहे हैं । अन्तर इतना ही है की देश अलग है, पात्र अलग और नाम अलग । एक तालाब में बहुत से घाट हैं । हिन्दू एक घाट से पानी ले रहे हैं, घड़े में भरकर कहते हैं, ‘जल’ । मुसलमान एक दूसरे घाट से पानी भर रहे हैं, चमड़े के बैग में – कहते हैं, ‘पानी’ । क्रिस्तान तीसरे घाट से पानी ले रहे हैं – वे कहते हैं ‘वाटर’ (Water) । (सब हँसते हैं।)
      “अगर कोई कहें, नहीं यह चीज जल नहीं है, यह पानी है या वाटर नहीं जल है, तो यह हँसी की ही बात होगी । इसीलिए दल, मतान्तर और झगड़े होते हैं । धर्म के नाम पर लट्ठम-लट्ठा , मार-काट ? यह सब अच्छी नहीं है । सब उन्हीं के पथ पर जा रहे हैं । आन्तरिकता होने पर, व्याकुलता आने पर – उन्हें मनुष्य प्राप्त करेगा ही।
         (मणि से) तुम यह सुनते जाओ – वेद, पुराण, तन्त्र-शास्त्र उन्हींको चाहते हैं; वे किसी दूसरे को नहीं चाहते । सच्चिदानन्द बस एक ही हैं । जिन्हें वेदों में ‘सच्चिदानन्द ब्रह्म’ कहा है, तन्त्र में उन्हींको ‘सच्चिदानन्द शिव’ कहा है, उन्हींको उधर पुराणों में ‘सच्चिदानन्द कृष्ण’ कहा है ।”
(To M.) "This is for you. All scriptures — the Vedas, the Puranas, the Tantras — seek Him alone and no one else, only that one Satchidananda. That which is called Satchidananda Brahman in the Vedas is called Satchidananda Siva in the Tantra. Again it is He alone who is called Satchidananda Krishna in the Puranas."
(মণির প্রতি) — “তুমি এইটে শুনে যাও —“বেদ, পুরাণ, তন্ত্র — সব শাস্ত্রে তাঁকেই চায়, আর কারুকে চায় না — সেই এক সচ্চিদানন্দ। যাকে বেদে ‘সচ্চিদানন্দ ব্রহ্ম’ বলেছে, তন্ত্রে তাঁকেই ‘সচ্চিদানন্দ শিবঃ’ বলেছে, তাঁকেই আবার পুরাণে ‘সচ্চিদানন্দ কৃষ্ণঃ’ বলেছে।”

“ব্রহ্মজ্ঞানীরা নিরাকার নিরাকার বলছে, তা হলেই বা; আন্তরিক তাঁকে ডাকলেই হল। যদি আন্তরিক হয়, তিনি তো অন্তর্যামী, তিনি অবশ্য জানিয়ে দেবেন, তাঁর স্বরূপ কি।
“তবে এটা ভাল না — এই বলা যে আমরা যা বুঝেছি তাই ঠিক, আর যে যা বলছে সব ভুল। আমরা নিরাকার বলছি, অতএব তিনি নিরাকার, তিনি সাকার নন। আমরা সাকার বলছি, অতএব তিনি সাকার, তিনি নিরাকার নন। মানুষ কি তাঁর ইতি করতে পারে?
“এইরকম বৈষ্ণব শাক্তদের ভিতর রেষারেষি। বৈষ্ণব বলে, আমার কেশব, — শাক্ত বলে, আমার ভগবতী, একমাত্র উদ্ধারকর্তা।
“আমি বৈষ্ণবচরণকে সেজোবাবুর কাছে নিয়ে গিছলাম। বৈষ্ণবচরণ বৈরাগী খুব পণ্ডিত কিন্তু গোঁড়া বৈষ্ণব। এদিকে সেজোবাবু ভগবতীর ভক্ত। বেশ কথা হচ্ছিল, বৈষ্ণবচরণ বলে ফেললে, মুক্তি দেবার একমাত্র কর্তা কেশব। বলতেই সেজোবাবুর মুখ লাল হয়ে গেল। বলেছিল, ‘শালা আমার!’ (সকলের হাস্য) শাক্ত কিনা। বলবে না? আমি আবার বৈষ্ণবচরণের গা টিপি।
“যত লোক দেখি, ধর্ম ধর্ম করে — এ ওর সঙ্গে ঝগড়া করছে, ও ওর সঙ্গে ঝগড়া করছে। হিন্দু, মুসলমান, ব্রহ্মজ্ঞানী, শাক্ত, বৈষ্ণব, শৈব — সব পরস্পর ঝগড়া। এ বুদ্ধি নাই যে, যাঁকে কৃষ্ণ বলছো, তাঁকেই শিব, তাঁকেই আদ্যাশক্তি বলা হয়; তাঁকেই যীশু, তাঁহাকেই আল্লা বলা হয়। এক রাম তাঁর হাজার নাম।
“বস্তু এক, নাম আলাদা। সকলেই এক জিনিসকে চাচ্ছে। তবে আলাদা জায়গা, আলাদা পাত্র, আলাদা নাম। একটা পুকুরে অনেকগুলি ঘাট আছে; হিন্দুরা একঘাট থেকে জল নিচ্ছে, কলসী করে — বলছে ‘জল’। মুসলমানরা আর একঘাটে জল নিচ্ছে, চামড়ার ডোলে করে — তারা বলছে ‘পানী।’ খ্রীষ্টানরা আর-একঘাটে জল নিচ্ছে — তারা বলছে ‘ওয়াটার।’ (সকলের হাস্য)
“যদি কেউ বলে, না এ জিনিসটা জল নয়, পানী; কি পানী নয়, ওয়াটার; কি ওয়াটার নয়, জল; তাহলে হাসির কথা হয়। তাই দলাদলি, মনান্তর, ঝগড়া, ধর্ম নিয়ে লাটালাটি, মারামারি, কাটাকাটি — এ-সব ভাল নয়। সকলেই তাঁর পথে যাচ্ছে, আন্তরিক হলেই ব্যাকুল হলেই তাঁকে লাভ করবে।
"The Brahmos insist that God is formless. Suppose they do. It is enough to call on Him with sincerity of heart. If the devotee is sincere, then God, who is the Inner Guide of all, will certainly reveal to the devotee His true nature."But it is not good to say that what we ourselves think of God is the only truth and what others think is false, that because we think of God as formless, therefore He is formless and cannot have any form; that because we think of God as having form, therefore He has form and cannot be formless. Can a man really fathom God's nature?"This kind of friction exists between the Vaishnavas and the Saktas; The Vaishnava says, 'My Kesava is the only Saviour', whereas the Sakta insists, 'My Bhagavati is the only Saviour.'"Once I took Vaishnavcharan to Mathur Babu. Now, Vaishnavcharan was a very learned Vaishnava and an orthodox devotee of his sect. Mathur, on the other hand, was a devotee of the Divine Mother. They were engaged in a friendly discussion when suddenly Vaishnavcharan said, 'Kesava is the only Saviour.' No sooner did Mathur hear this than his ,face became red with anger and he blurted out, 'You rascal!' (All laugh.) He was a Sakta. Wasn't it natural for him to say that? I gave Vaishnavcharan a nudge."I see people who talk about religion constantly quarrelling with one another. Hindus, Mussalmans, Brahmos, Saktas, Vaishnavas, Saivas, all quarrel with one another. They haven't the intelligence to understand that He who is called Krishna is also Siva and the Primal Sakti, and that it is He, again, who is called Jesus and Allah. There is only one Rama and He has a thousand names.'"Truth is one; only It is called by different names. All people are seeking the same Truth; the variance is due to climate, temperament, and name. A lake has many ghats. From one ghat the Hindus take water in jars and call it 'jal'. From another ghat the Mussalmans take water in leather bags and call it 'pani'. From a third the Christians take the same thing and call it 'water'. (All laugh.) Suppose someone says that the thing is not 'jal' but 'pani', or that it is not 'pani' but 'water', or that it is not 'water' but 'jal', It would indeed be ridiculous. But this very thing is at the root of the friction among sects, their misunderstandings and quarrels. This is why people injure and kill one another, and shed blood, in the name of religion. But this is not good. Everyone is going toward God. They will all realize Him if they have sincerity and longing of heart.
 { [5 अप्रैल 1884, श्रीरामकृष्ण वचनामृत (सम्पूर्ण, द्वितीय मुद्रण -4 . 11 . 2014/ परिच्छेद~ 79 पृष्ठ -485) ब्रह्मसमाजी , वैष्णव और शाक्त साम्प्रदायिकता  के सम्बन्ध में उपदेश "]

(27-B)

*विभिन्न धर्म ईश्वरप्राप्ति के विभिन्न पथ हैं *

257 जस माटी के भेद बहु , गमला हण्डी सुराही। 
458 तस हरि धर धर भेष बहु जग में जगहित आहि।। 

जिस प्रकार कुम्हार के यहाँ हण्डी , गमले , सुराही ,संकोरे आदि भिन्न -भिन्न वस्तुएँ होती हैं ; परन्तु सभी एक ही मिट्टी की बनी होती हैं , उसी प्रकार ईश्वर एक होते हुए भी देश-काल आदि के भेदानुसार भिन्न-भिन्न रूपों और भावों में प्रकट होते हैं।

258 एक प्रभु के नाम अनन्त , रूप अनन्त है जान। 
463 भज ले कोई इक नाम रूप , मिलेंगे श्री भगवान।।

ईश्वर के अनंत नाम और अनन्त रूप हैं। जिस नाम और जिस रूप में तुम्हारी रूचि हो उसी नाम से और उसी रूप में तुम उन्हें पुकारो , तुम्हें उनके  दर्शन मिलेंगे। 
 
259 काली धाम है एक पर , ताको अनेक राह। 
454 भगवन एक बहु राह तस , जाकर जैसी चाह।।

जैसे कालीघाट के कालीमंदिर में जाने के बहुतसे रास्ते हैं , वैसे ही भगवान के घर जाने के लिये भी बहुतसे रास्ते हैं। हरएक धर्म एक एक राह है। 

श्रीरामकृष्ण वचनामृत

 (7 सितंबर,1884, पृष्ठ -512 )

*श्रीरामकृष्ण और सर्वधर्म- समन्वय* 

"वे (बाउल मत) लोग सिद्धावस्था को सहज अवस्था कहते हैं । एक दर्जे के आदमी हैं । वे 'सहज, सहज' का हुंकार करते  फिरते हैं । वे सहज अवस्था के दो लक्षण बतलाते हैं । एक यह कि देह में कृष्ण की गन्ध भी न रहेगी और दूसरा यह कि पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा । कृष्ण की गन्ध भी न रह जायगी, इसका अर्थ यह है कि ईश्वर के भाव सब अन्तर में ही रहेंगे, बाहर कोई लक्षण प्रकट न होगा - नाम का जप भी न करेगा । दूसरे का अर्थ है, कामिनी और कांचन की आसक्ति का त्याग – जितेन्द्रियता ।

"वे लोग ठाकुर-पूजन, मूर्तिपूजन, यह सब पसन्द नहीं करते – जीता-जागता आदमी चाहते हैं । इसीलिए उनके दर्जे के आदमियों को  कर्ताभजा कहते हैं। 'कर्ताभजा' ~ अर्थात् जो लोग कर्ता को – गुरु को ईश्वर समझते और इसी भाव से उनकी पूजा करते हैं ।"
{ सिद्ध बाउल की सहज अवस्था के दो लक्षण - (1) " कृष्ण की गन्ध भी न रहेगी "= ईश्वर के भाव सब अन्तर में ही रहेंगे। आध्यात्मिकता का कोई लक्षण बाहर प्रकट न होंगे,  'सोऽहं' कभी न निकलेगा,  नाम-जप भी नहीं करेगा। (2) "पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा "   =का अर्थ है, कामिनी और कांचन की आसक्ति का त्याग – जितेन्द्रियता। कर्ताभजा - मत के बाउल, अपने संघ के कर्ता को - गुरु [ (C-IN-C) श्रीनवनीदा जैसा नेता ?] को ईश्वर समझते हैं और इसी भाव से उनकी पूजा करते हैं! }
श्रीरामकृष्ण - देखा, कितने तरह के मत हैं । जितने मत उतने पथ । असंख्य मत हैं और असंख्य पथ हैं।
भवनाथ- अब उपाय क्या है ?
श्रीरामकृष्ण - एक को बलपूर्वक पकड़ना पड़ता है ।  छत पर जाने की चाह है, तो जीने से भी चढ़ सकते हो; बाँस की सीढ़ी लगाकर भी चढ़ सकते हो; रस्सी की सीढ़ी लगाकर, सिर्फ रस्सी पकड़कर या केवल एक बाँस के सहारे, किसी भी तरह से छत पर पहुँच सकते हो, परन्तु एक पैर इसमें और दूसरा उसमें रखने से नहीं होता । एक को दृढ़ भाव से पकड़े रहना चाहिए ।  ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो एक ही रास्ते पर चलना चाहिए ।

[ईश्वर एक ही है किन्तु उनके विषय में असंख्य मत (innumerable opinions ) हैं ,  और ईश्वर तक पहुँचने के असंख्य पथ (innumerable paths) हैं ! ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो एक ही रास्ते पर चलना चाहिए । चारो योगों में मनःसंयोग (Mental Concentration) कॉमन है - इसी को दृढ़ भाव से पकड़ना अच्छा है ! } 

"और दूसरे मतों को भी एक एक मार्ग समझना । यह भाव न हो कि मेरा ही मार्ग ठीक है, और सब झूठ हैं; द्वेष न हो । 

{"The Bauls designate the state of perfection as the 'sahaja', the 'natural' state. There are two signs of this state. First, a perfect man will not 'smell of Krishna'. Second, he is like the bee that sits on the lotus but does not sip the honey. The first means that he keeps all his spiritual feelings within himself. He doesn't show outwardly any sign of spirituality. He doesn't even utter the name of Hari. The second means that he is not attached to woman. He has completely mastered his senses.

"The Bauls do not like the worship of an image. They want a living man. That is why one of their sects is called the Kartabhaja. They worship the karta, that is to say, the guru, as God.

[Mahamandal's Kartabhaja, i.e. the Karta - the Guru (the leader, 'C-IN-C' Navnida?)]

"You see how many opinions there are about God. Each opinion is a path. There are innumerable opinions and innumerable paths leading to God."

BHAVANATH: "Then what should we do?"

"You must stick to one path with all your strength. A man can reach the roof of a house by stone stairs or a ladder or a rope-ladder or a rope or even by a bamboo pole. But he cannot reach the roof if he sets foot now on one and now on another. He should firmly follow one path. Likewise, in order to realize God a man must follow one path with all his strength.

"But you must regard other views as so many paths leading to God. You should not feel that your path is the only right path and that other paths are wrong. You mustn't bear malice toward others

"Well, to what path do I belong? Keshab Sen, used to say to me: 'You belong to our path. You are gradually accepting the ideal of the formless God.' Shashadhar says that I belong to his path. Vijay, too, says that I belong to his — Vijay's — path."

“ওরা সিদ্ধাবস্থাকে বলে সহজ অবস্থা। একথাকের লোক আছে, তারা ‘সহজ’ ‘সহজ’ করে চ্যাঁচায়। সহজাবস্থার দুটি লক্ষণ বলে। প্রথম — কৃষ্ণগন্ধ গায়ে থাকবে না। দ্বিতীয় — পদ্মের উপর অলি বসবে, কিন্তু মধু পান করবে না। ‘কৃষ্ণগন্ধ’ নাই, — এর মানে ঈশ্বরের ভাব সমস্ত অন্তরে, — বাহিরে কোন চিহ্ন নাই, — হরিনাম পর্যন্ত মুখে নাই। আর একটির মানে, কামিনীতে আসক্তি নাই — জিতেন্দ্রিয়।

“ওরা ঠাকুরপূজা, প্রতিমাপূজা — এ-সব লাইক করে না, জীবন্ত মানুষ চায়। তাই তো ওদের একথাকের লোককে বলে কর্তাভজা, অর্থাৎ যারা কর্তাকে — গুরুকে — ঈশ্বরবোধে ভজনা করে — পূজা করে।”

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখছো কত রকম মত! মত, পথ। অনন্ত মত অনন্ত পথ!

ভবনাথ — এখন উপায়!

শ্রীরামকৃষ্ণ — একটা জোর করে ধরতে হয়। ছাদে গেলে পাকা সিঁড়িতে উঠা যায়, একখানা মইয়ে উঠা যায়, দড়ির সিঁড়িতে উঠা যায়; একগাছা দড়ি দিয়ে, একগাছা বাঁশ দিয়ে উঠা যায়। কিন্তু এতে খানিকটা পা, ওতে খানিকটা পা দিলে হয় না। একটা দৃঢ় করে ধরতে হয়। ঈশ্বরলাভ করতে হলে, একটা পথ জোর করে ধরে যেতে হয়।

“আর সব মতকে এক-একটি পথ বলে জানবে। আমার ঠিক পথ, আর সকলের মিথ্যা — এরূপ বোধ না হয়। বিদ্বেষভাব না হয়।”

“আচ্ছা, আমি কোন্‌ পথের? কেশব সেন বলত, আপনি আমাদেরই মতের, — নিরাকারে আসছেন। শশধর বলে, ইনি আমাদের। বিজয়ও (গোস্বামী) বলে, ইনি আমাদের মতের লোক।”

261 एक तालाब है घाट बहु , पर पानी है एक।
467 धरम धरम तस पंथ बहु , ब्रह्म वारि पर एक।।

जिस प्रकार छत पर चढ़ने के लिये निसैनी , बाँस , रस्सा , सीढ़ी आदि अनेक उपाय हैं, उसी प्रकार ईश्वर के निकट पहुँचने के लिए भी अनेक उपाय हैं - प्रत्येक धर्म ही एक-एक उपाय बताता है।  

260 शहनाई जस एक है, बाजत धुन अनेक। 
466 तस ईश्वर तो एक है, होवत पथ अनेक।।

किसी ब्राह्म सज्जन के द्वारा पूछे जाने पर कि ब्राह्म धर्म और हिन्दू धर्म में क्या भेद है , श्री रामकृष्ण ने कहा था -शहनाई में एक ही स्वर अलापने और अलग अलग धुनें बजाने में जो अन्तर है वही। ब्राह्म धर्म मानो ब्रह्म का एक ही स्वर लगाकर बैठा है , जबकि हिन्दू धर्म उनमें से अलग-अलग सुर -तान -लय निकालते हुए तरह -तरह की राग-रागिनियाँ बजा रहा है। 
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[ प्रश्न - भगवान श्रीकृष्ण का 'मुरारी' नाम कैसे पड़ा ? 

          वामन पुराण के अनुसार प्राचीन काल में कश्यप ऋषि का औरस पुत्र 'मुर' नाम का एक असुर था। असुरों का स्वभाव होता है देवताओं से लड़ना । असुरों ने कई बार देवताओं से युद्ध किया, परन्तु जीत सदैव देवताओं की हुई; क्योंकि जहां भगवान का आश्रय हो, जीत वहीं होती है । बार-बार हारने से असुर बलहीन हो गए । मुर दैत्य ने सोचा कि कहीं देवता हमें मार ही न दें; इसलिए मरने के डर से भयभीत होकर उसने बहुत काल तक ब्रह्माजी की तपस्या की । उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने को कहा । मुर ने कहा- ' मैं जो कुछ भी वर  मांगूं, उसे आप दें तब मैं अपनी बात कहूँगा ।'
ब्रह्माजी ने कहा-'तुम्हारी तपस्या से मैं कृतज्ञ हूँ, तुम जो मांगोगे, वह मैं दूंगा ।'
        मुर दैत्य ने कहा-'मैं युद्धक्षेत्र में या कहीं भी अपनी हथेली जिसके शरीर पर रख दूँ, वह मर जाए; चाहे वह अमर ही क्यों न हो ?'
देवता अमर होते हैं; इसलिए यह बात मुर ने देवताओं के लिए कही थी । असुरों की बुद्धि माया से मोहित होती है, इसलिए वे विनाश ही मांगते हैं । ब्रह्माजी ने 'तथाऽस्तु' कह दिया । मुर दैत्य वर पाकर त्रिभुवन में घूमा; परन्तु किसी की भी हिम्मत उससे युद्ध करने की नहीं हुई ।मुर दैत्य ने सोचा-यमराज ही सबको मारने वाला है, अतएव सबसे पहले उसी को मारना चाहिए । सो वह यमराज के पास पहुंचा।
यमराज ने बुद्धिमानी से काम लेते हुए कहा-'मैं तो निर्बल हूँ, मुझसे तुम क्या लड़ोगे ? तुम्हें लड़ना ही है तो मैंने सुन रखा है कि वैकुण्ठ में जो नारायण है, वह बहुत बलवान है । देवताओं को सारा बल वहीं से प्राप्त होता है । उनको तुम समाप्त कर दो, तो तुम्हारी जीत सदा के लिए हो जाएगी ।'मुर दैत्य को बात समझ आ गई । वह तुरंत वैकुण्ठ लोक पहुंच गया और भगवान नारायण के पास जाकर खड़ा हो गया ।
भगवान ने उससे कहा-'तुम यहां किस काम से आए हो ?' 
मुर दैत्य ने कहा- 'मैं तुमसे युद्ध करने आया हूँ ।'
मुर की बात सुनकर भगवान नारायण ने कहा- 'तुम आए हो मुझसे लड़ने के लिए, परन्तु जैसे किसी को ज्वर हो जाए तो उसका कलेजा कांपता है; उसी प्रकार तुम्हारा कलेजा क्यों कांप रहा है? मैं तुम्हारे जैसे डरपोक से नहीं लड़ता ।'
मुर दैत्य ने कहा- 'तुम मुझे कैसे डरपोक कहते हो, मेरा कलेजा कहां कांप रहा है ?'
भगवान ने कहा- 'तुम हाथ लगाकर देखो, कांप रहा है या नहीं ?'
मुर ने जैसे ही कलेजे पर हाथ रखा, वह जैसे केले की जड़ कट कर गिर जाती है, वैसे ही पृथ्वी पर गिर पड़ा । गिरते ही भगवान ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया । सभी देवता वहां आकर भगवान की जय-जयकार कर कहने लगे-'आपने सबको बचा लिया, नहीं तो यह दैत्य किसी को छोड़ता नहीं ।'उस दिन से भगवान का नाम 'मुरारी' (मुरारि) हो गया-'मुरारि' अर्थात् मुर के शत्रु, मुर को मारने वाले।
लेकिन भगवान श्रीकृष्ण को 'मुरारी' क्यों कहते हैं ? यहां यह शंका होनी स्वाभाविक है कि मुरारी तो भगवान नारायण थे; फिर श्रीमद्भागवत के 'वेणुगीत' में गोपियों ने श्रीकृष्ण को 'मुरारी' क्यों कहा है?  
      इसके कई कारण हैं-▪️श्रीकृष्ण के नामकरण संस्कार में गर्गाचार्यजी ने यशोदा माता और नंदबाबा से कहा था कि-'यह बालक नारायण ही है और यह युग-युग में रंग-रूप परिवर्तित करके आता रहता है। सत्य युग में यह श्वेत वर्ण का और त्रेता युग में रक्त वर्ण का था; किंतु इस समय द्वापर युग में यह मेघश्याम रूप धारण करके आया है । अत: इसका नाम अब 'कृष्ण' होगा ।' 
   यशोदा माता ने  यह बात गोपियों को बता दी थी; इसलिए गोपियां वेणुगीत में श्रीकृष्ण को मुरारी नाम से सम्बोधित करती हैं; क्योंकि जिस प्रकार नारायण ने मुर दैत्य का नाश कर देवताओं को निश्चिन्त किया; उसी प्रकार श्रीकृष्ण हमारे मुरों-क्लेश, संताप, कर्मफलभोग आदि का नाश करने वाले हैं । गोपियां कहती हैं-हमारी जो संसार की कामना है जिसके कारण आज हम यहां बंधी हैं; श्रीकृष्ण हमारी उन वासनाओं को, हमारे क्लेश, संताप और विरह-ताप को मिटा दीजिए और अपने 'मुरारी' नाम को सार्थक कीजिए ।
▪️भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन को गोपनीय रहस्य बताते हुए कहा-'हे अर्जुन ! समस्त सृष्टि का आदि कारण मैं ही हूँ । संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मुझसे रहित हो । जगत में जहां-जहां वैभव, तेज, लक्ष्मी दीखती है, वह सब मेरी विभूति का अंश समझो । समस्त ब्रह्माण्ड को मेरे एक अंश ने घेर रखा है (गीता १०। ३९-४१-४२)।'
'मैं चार स्वरूप धारण करके सदैव समस्त लोकों की रक्षा करता रहता हूँ-
-मेरी एक मूर्ति इस भूमण्डल पर बदरिकाश्रम में नर-नारायणरूप में तपस्या में लीन रहती है ।
-दूसरी परमात्मारूप मूर्ति अच्छे-बुरे कर्म करने वाले जगत को साक्षीरूप में देखती रहती है ।
-तीसरी मूर्ति मनुष्यलोक में अवतरित होकर नाना प्रकार के कर्म करती है ।
-चौथी मूर्ति (विष्णु) सहस्त्रों युगों तक एकार्णव (क्षीरसागर) के जल में शयन करती है । जब मेरा चौथा स्वरूप योग-निद्रा से उठता है, तब भक्तों को अनेक प्रकार के वर प्रदान करता है ।
इन सब कारणों से भगवान नारायण और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है; इसलिए दोनों को ही मुरारी कहा जाता है । ]
(साभार https://m.dailyhunt.in/news/india/hindi)

श्री रामकृष्ण दोहावली (26) (A) प्रार्थना तथा भक्तिभाव (B)भक्त का परिवार * "कृतार्थता की आकांक्षा और भागवत"

 श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(26)

(A) 

" प्रार्थना तथा भक्तिभाव "

[श्रीरामकृष्ण वचनामृत (7 सितंबर,1884)]  

श्रीरामकृष्ण की अनूठी प्रार्थना 

(Unique prayer of Sri Ramakrishna)

 *माँ, यहीं से मन को मोड़ दो ! *

'सुधामुखीर रान्ना (cooking) आर ना , आर ना ~खेये पाए कान्ना (blubber-बिलखना)'

 *মা, ওইখানেই মোড় ফিরিয়ে দাও!*

 সুধামুখীর রান্না — আর না, আর না — খেয়ে পায় কান্না!”] 

 *O Mother, please change the direction of my mind right now *

so that I may not have to flatter rich people.'

[  'Sudhamukhi cooking - no more, no more' --सन्तोष — Contentment 

254 मुख से कहत सब  तोर प्रभु , मन मन कहहि मोर। 

447 सुनहि न प्रभु तिन्ह के विनय , कपटी कुटिला चोर।।

तुम्हारे भीतर जो भाव हो , बाहर तुम्हारी वाणी भी उसी के अनुसार होनी चाहिए। मन और मुख एक होना चाहिए। यदि तुम केवल मुख से कहो कि- 'भगवान' मेरे सर्वस्व हैं " पर मन ही मन संसार को सर्वस्व मानो तो इससे तुम्हें कुछ लाभ नहीं होगा। 

श्रीरामकृष्ण (डिप्टी मजिस्ट्रेट अधर के प्रति)  - " निवृत्ति  ही अच्छी है, प्रवृत्ति *अच्छी नहीं । 
[ * Nivritti and Pravritti mean, respectively~  'inwardness of the mind and its inclination to outer enjoyment.
'निवृत्ति और प्रवृत्ति का अर्थ क्रमशः~ 'मन का अन्तर्मुखी प्रवाह (cessation-निरोध) तथा बाहरी भोग (Indulgence-विलासिता) की ओर उसका झुकाव।'

" इस अवस्था के बाद मुझे तनख्वाह * के बिल पर दस्तखत करने के लिए कहा था ! (*Metaphysics या परम् तत्व का ज्ञान होने पश्चात् श्री रामकृष्ण उस समय काली मंदिर के वेतनभोगी पुजारी के रूप में कार्य कर रहे थे।) मैंने कहा, 'यह मुझसे न होगा । मैं तो कुछ चाहता नहीं । तुम्हारी इच्छा हो तो किसी दूसरे को दे दो । 
एकमात्र ईश्वर का दास हूँ - और किसका दास बनूँ ?
“मुझे खाने की देर होती थी, इसलिए मल्लिक ने भोजन पकाने के लिए एक ब्राह्मण नौकर रख दिया था। एक महीने में एक रुपया दिया था । तब मुझे लज्जा हुई, उसके बुलाने से ही दौड़ना पड़ता था ! - खुद जाऊँ वह बात दूसरी है ।
"सांसारिक जीवन व्यतीत करने में मनुष्य को न जाने कितने नीच आदमियों को खुश करना पड़ता है, और उसके अतिरिक्त और भी न जाने क्या क्या करना पड़ता है ।

"ऊँची अवस्था प्राप्त होने के पश्चात् तरह तरह के दृश्य मुझे दीख पड़ने लगे । तब माँ से कहा, ‘माँ यहीं से मन को मोड़ दो ताकि मुझे धनी लोगों की खुशामद न करनी पड़े । 

'सुधामुखीर रान्ना~आर ना , आर ना ~  खेये पाए कान्ना' ~ (सुधामुखी का खाना ~ और नहीं , और नहीं ~खाने से रोना पड़ता है ! '   सभी हँसते हैं) 

{শ্রীরামকৃষ্ণ — নিবৃত্তিই ভাল — প্রবৃত্তি ভাল নয়। এই অবস্থার পর আমার মাইনে সই করাতে ডেকেছিল — যেমন সবাই খাজাঞ্চীর কাছে সই করে। আমি বললাম — তা আমি পারব না। আমি তো চাচ্ছি না। তোমাদের ইচ্ছা হয় আর কারুকে দাও।
“এক ঈশ্বরের দাস। আবার কার দাস হব?
“ — মল্লিক, আমার খেতে বেলা হয় বলে, রাঁধবার বামুন ঠিক করে দিছল। একমাস একটাকা দিছল। তখন লজ্জা হল। ডেকে পাঠালেই ছুটতে হত। — আপনি যাই, সে এক।
“হীনবুদ্ধি লোকের উপাসনা। সংসারে এই সব — আরও কত কি?”

“এই অবস্থা যাই হলো, রকম-সকম দেখে অমনি মাকে বললাম — মা, ওইখানেই মোড় ফিরিয়ে দাও! — সুধামুখীর রান্না — আর না, আর না — খেয়ে পায় কান্না!” (সকলের হাস্য)}
 
[MASTER: "Nivritti alone is good, and not pravritti. Once, when I was in a God-intoxicated state, I was asked to go to the manager of the Kali temple to sign the receipt for my salary. They all do it here. But I said to the manager: 'I cannot do that. I am not asking for any salary. You may give it to someone else if you want.' I am the servant of God alone. Whom else shall I serve? Mallick noticed the late hours of my meals and arranged for a cook. He gave me one rupee for a month's expenses. That embarrassed me. I had to run to him whenever he sent for me. It would have been quite a different thing if I had gone to him of my own accord.
"In leading the worldly life one has to humour mean-minded people and do many such things. After the attainment of my exalted state, I noticed how things were around me and said to the Divine Mother, 'O Mother, please change the direction of my mind right now, so that I may not have to flatter rich people.' }

(God always Hear the prayers of the devout heart.)

252 भक्त हृदय की प्रार्थना सुनत सदा भगवान। 

446 जोर करो या धीर करो, या मन मन इंसान।।

प्रश्न -क्या भगवान से प्रार्थना जोर से करनी चाहिए ? 

उत्तर - उनसे चाहे जिस प्रकार प्रार्थना करो वे अवश्य ही सुनेंगे। वे चींटी के पग की आवाज तक सुन सकते हैं। 

253 हो व्याकुल प्रार्थना करो , कर मन मुख दुइ एक। 

447 करहि सफल भगवान सदा , मन धर धीर विवेक।।

प्रश्न -क्या सचमुच ही वे प्रार्थना सुनते हैं ?

उत्तर -हाँ , यदि मन और मुख एक करके किसी वस्तु के लिए व्याकुल होकर प्रार्थना की जाती है तो वह प्रार्थना सफल हुआ करती है। पर जो मुँह से तो कहता है कि 'प्रभो , यह सब कुछ तुम्हारा है ' -पर मन ही मन सोचता है कि 'यह सब मेरा है' उसकी प्रार्थना का कोई फल नहीं होता।  

 255 तज छल मन मुख एक कर , सरल हृदय जे गांहि। 

448 तिन्हके विनय सुनत हरि , निश्चय संसय नाही।।

तुम्हारे भावों में किसी प्रकार का छल-कपट न हो। सच्चे,निष्कपट बनो , मन- मुख एक करो , तुम्हें अवश्य ही फल मिलेगा। सरल , आन्तरिक भाव प्रार्थना करो , वे तुम्हारी प्रार्थना अवश्य ही सुनेंगे। 

[क्या है भक्ति और किसकी भक्ति करें ? सत्य, शील, सौन्दर्य और शक्ति के पर्याय का नाम है- श्री रामकृष्ण (काली) । अतएव श्रीरामकृष्ण  के चारित्रिक गुणों का गान है- भक्ति।  सब धर्मों-प्रपंचों का पूर्ण विराम है भक्ति।

 परोपकार, दया, विद्या -दान (गुरु-शिष्य परम्परा) आदि धर्म के समस्त मान मूल्यों का आचरण ही भक्ति की वह शक्ति है जो व्यक्ति को टूटने से बचाती है, धरती को बैकुंठ बनाती है, जीवन जीने में रस प्रदान करती है। मनुष्य को ~  * Be and Make  वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण -पद्धति * में प्रशिक्षित कर  उसे बेहतर (चरित्रवान) मनुष्य बनने और बनाने; अथवा उसे  नर से नारायण बनाने के लिए  स्वयं नारायण ही विविध रूपों ( काली -श्री रामकृष्ण ,स्वामी विवेकानन्द -Captain James Henry Sevier, a disciple of Swami Vivekananda..... C-IN-C श्रीनवनीदा आदि के गुरु-शिष्य परम्परा ) में अवतरित होते रहते हैं।  वरना, क्या जरूरत है उस अनादि अनन्त अजन्मा श्रीरामकृष्ण को  यहाँ अवतरित होने की? ] 

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श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(26)

 (B) 

" भक्त का परिवार " 

246 जा हिय भक्ति अनन्य अति , जा को प्रिय भगवान। 

442 ताके वश नारी दुरजन , और नरेश महान।।

247 हरि पथ बाधक जो नारी , अरि सम तिनको जान। 

442 मरे जिए कुछ भी करे , तजहु विष समान।।

प्रश्न - अगर साधक से उसकी स्त्री कहे कि तुम मेरा ठीक तरह से देखभाल नहीं करते , मैं आत्महत्या करुँगी , तो क्या करना चाहिए ? 

उत्तर - ऐसी स्त्री को जो ईश्वर के मार्ग में विघ्न डालती हो , त्याग देना चाहिए -चाहे वह आत्महत्या करे या कुछ भी करे। जो स्त्री ईश्वर के मार्ग में विघ्न डालती है वह अविद्या -रूपिणी स्त्री है।  परन्तु जिसकी ईश्वर पर आन्तरिक भक्ति है, सभी उसके वश में आ जाते हैं - राजा , दुर्जन व्यक्ति , स्त्री -सब।  स्वयं के भीतर यदि सच्ची आंतरिक भक्ति हो तो स्त्री भी धीरे धीरे ईश्वर की राह पर आ सकती है।  स्वयं भले होने पर ईश्वर की इच्छा से वह भी अच्छी बन सकती है।

248 मातु पितु ऋषि देवगण , अरु नारी ऋण पांच। 

443 बिना चुकाए सकल नर , जीवन सफल न सांच।।

" माता-पिता क्या कम हैं ? उनके प्रसन्न हुए बिना धर्म-कर्म कुछ नहीं हो पाता। श्री चैतन्यदेव को ही लो। वे तो प्रेम में उन्मत्त हो गए थे (लज्जा, घृणा ,भय तीनों को त्याग चुके थे !) , परन्तु फिर भी संन्यास लेने के पहले वे कितने ही दिनों तक अपनी माता को मनाते रहे ! उन्होंने कहा था , " माँ! मैं बीच बीच में आकर तुम्हें देख जाया करूँगा। 

    मनुष्य के कुछ ऋण होते हैं -देवऋण , ऋषिऋण , फिर मातृऋण , पितृऋण , स्त्रीऋण। माता-पिता के ऋण को चुकाए बिना कोई कार्य सफल नहीं हो पाता। स्त्री के प्रति भी ऋण होता है। हरीश अपनी पत्नी को त्याग कर यहाँ आकर रहता है। अगर उसकी स्त्री के गुजर -बसर की व्यवस्था न होती तो मैं कहता कि साला ढोंगी है

 “ज्ञान के पश्चात उसी पत्नी को तुम साक्षात् भगवती देखोगे ! सप्तशती में है, ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता ।’ वे ही माँ हुई हैं ! “जितनी स्त्रियाँ देखते हो, सब वे ही हैं; इसीलिए मैं वृन्दा (नौकरानी) को कुछ कह नहीं सकता । कोई-कोई लोग श्लोक झाड़ते हैं – लम्बी-लम्बी बातें बघारते हैं, परन्तु उनका व्यवहार कुछ और  ही होता है । 

    उस हठयोगी के लिए अफीम और दूध का बन्दोबस्त कैसे हो इसी फ़िक्र में रामप्रसन्न सदा मारा मारा फिरता है। कहता है मनु ने साधुसेवा का विधान दिया है। इधर बूढी माँ को खाने नहीं मिलता , वह खुद सौदा लेने हाट-बाजार जाया करती है। यह सब देखकर ऐसा गुस्सा आता है कि क्या कहूं !  

 [5 अप्रैल 1884, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~परिच्छेद 79]

249 प्रभु पद जाको प्रीत अति , जाको नहि तन भान। 

444 ताके नहि कछु ऋण कहे , रामकृष्ण भगवान।।

परन्तु एक बात है। यदि किसी की प्रेमोन्माद अवस्था हो जाये , तो फिर कौन बाप, कौन माँ और कौन स्त्री ! ईश्वर पर इतना प्रेम हो कि दीवाना बन जाये ! फिर उसके लिए कुछ कर्तव्य नहीं रह जाता। वह सभी ऋणों से मुक्त हो जाता है। यह प्रेमोन्माद की अवस्था आने पर मनुष्य को संसार का विस्मरण हो जाता है , अपनी देह जो इतनी प्यारी होती है , उसकी भी सुध नहीं रह जाती।   

250 मातु पितु है परम् गुरु , करो जतन सह प्रीत। 

445 देह गये श्रद्धा सहित , श्राद्ध करम सब रीत।। 

संसार में माता-पिता परम् गुरु हैं। वे जब तक जीवित रहें तब तक यथाशक्ति उनकी सेवा करनी चाहिए और उनकी मृत्यु के बाद यथासाध्य उनका श्राद्ध करना चाहिए।  जो पुत्र अत्यन्त निर्धन है, जिसमें श्रद्धादि करवाने की सामर्थ्य नहीं है , उसे भी वन में जाकर उनका स्मरण करते हुए रोना चाहिए , तभी उनके ऋण का चुकता होता है। 

251 मातु पितु आदेश नर , धरहु शीस अम्लान। 

445 जो हरि पथ बाधा बने , सुनहु न तिन्हके ज्ञान।।  

केवल ईश्वर के लिए माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन किया जा सकता है। जैसे, प्रह्लाद ने पिता के मना करने पर भी कृष्णनाम लेना नहीं छोड़ा। माँ के मना करने पर भी ध्रुव तपस्या करने वन में गया।  इससे उन्हें कोई दोष नहीं लगा।  

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