(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(18)
* गृहस्थ जीवन का आदर्श *
*Be moral. Be brave. Be a heart-whole man.*
(और इसके लिए 'प्रवृत्ति मार्ग' सबसे सरल और सुरक्षित है, 'निवृत्ति मार्ग' खतरनाक !)
184 लड़ना किला की आड़ सरल , कठिन खुले मैदान।
291 तस साधन जग बीच सरल , कठिन त्याग पथ जान।।
जो संसार में रहते हुए साधना करते हैं , वे किले की ओट से युद्ध करनेवाले सैनिकों की तरह होते हैं , और जो भगवान के लिए संसार को त्यागकर चले जाते हैं , वे खुले मैदान में लड़नेवाले सैनिकों की तरह होते हैं। किले के भीतर रहकर लड़ना खुले मैदान में लड़ने से काफी सरल और सुरक्षित है।
[स्वामी जी अपने 5 जनवरी, 1890 को लिखे पत्र में कहते हैं - 'Be moral. Be brave. Be a heart-whole man.' "पूर्ण नीतिपरायण और साहसी बनो ! एक पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बनो ! दृढ़ चरित्रसम्पन्न, अटल साहसी और निर्भीक ! धार्मिक मत-मतान्तरों को लेकर व्यर्थ में माथापच्ची न करना। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते- यहाँ तक कि वे अपने मन में भी कभी पापचिन्ता का उदय नहीं होने देते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो।"
Be moral. Be brave. Be a heart-whole man. Strictly moral, brave unto desperation. Don't bother your head with religious theories. Cowards only sin, brave men never, no, not even in mind. Try to love anybody and everybody. Be a man and try to make those immediately under your care, namely Ram, Krishnamayi, and Indu, brave, moral, and sympathising. No religion for you, my children, but morality and bravery. No cowardice, no sin, no crime, no weakness — the rest will come of itself. . .
दादा का प्रियभजन :
साधन करना - चाहि रे मनवा, भजन करना चाहि।।
मीरा कहे बिना प्रेम से, नहीं मिली हे नंदलाला।
प्रीत करना चाहि, प्रेम लगाना चाहि, भजन करना चाहि,
प्रीत करना चाहि, साधन करना, चाहि रे मनवा, भजन करना चाहि।
तुलसी पूजन से हरि मिलें तो, पूजूँ तुलसी ताड़।
तुलसी पूजन से हरि मिलें तो, मैं पूजूँ तुलसी ताड़।
पत्थर पूछजान से हरी मिलें तो, मैं पूजूँ पहाड़।
मैं पूजूँ पहाड़।
दूध पीने से हरि मिलें, दूध पीने से हरि मिलें तो।
बहुत वत्स बाला, बहुत वत्स बाला।
नारी छोड़न से हरि मिले तो , बहुत रहे हैं खोजा,
मीरा कहे बिना प्रेम से, मीरा कहे बिना प्रेम से; नहीं मिलें नंदलाला,
नहीं मिलें नंदलाला, नहीं मिलें नंदलाला।
183 सिर पर जो जग बोझ रख , सुमर सके भगवान।
290 रामकृष्ण कह तेहि सम , साधक वीर न आन।।
संसार में रहकर सब कर्तव्यों को करते हुए , जो मन को ईश्वर में स्थिर रखकर साधन कर सकता है , वह यथार्थ में वीर साधक है। शक्तिवान पुरुष ही सिर पर दो मन भारी बोझ लादकर चलते हुए , गर्दन मोड़कर राह से गुजरती हुई बारात की ओर देख सकता है !!
(अमृतवाणी~ 293) वह मनुष्य धन्य है जिसका देह, मन और हृदय तीनों (3H) ही समान रूप से विकसित हुए हैं। सभी परिश्थितियों में वह सरलता के साथ उत्तीर्ण हो जाता है। भगवान श्रीरामकृष्ण देव के प्रति उसमें सरल विश्वास और दृढ़ श्रद्धा-भक्ति होती है , साथ ही उसमें आचार -व्यवहार में भी कोई कमी नहीं होती। सांसारिक व्यवहार के समय वह पूरा -पूरा व्यवसायी होता है , विद्वान् पण्डितों की सभा में वह सर्वश्रेष्ठ विद्वान् सिद्ध होता है; वाद-विवाद में अकाट्य युक्तियों के द्वारा वह अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का परिचय देता है। मातापिता-गुरु के सम्मुख वह विनयी, आज्ञाकारी होता है , आत्मीय-स्वजन और मित्रों को वह अतिशय प्रिय प्रतीत होता है , पड़ोसियों के प्रति वह दया और सहानुभूति रखता है और सदा उनकी मदद के लिए तैयार रहता है , पत्नी के सामने वह मानो साक्षात् मदनदेवता होता है। इस तरह का मनुष्य वास्तव में सर्वगुण -सम्पन्न होता है।
178 चार घड़ा भर सिर रखे , जल इक छलकत नाहिं।
284 तस हरि सुमिरत काज कर , पग बेताल न जाहिं।।
179 दस घड़ा सिर रख चले, साधे सब सध जाये।
284 तस साधन ते मन सधे , क्षणमपि हरि न भुलाय।।
उत्तर भारत (राजस्थान ) की ग्रामीण स्त्रियाँ सिर पर एक साथ चार-पाँच घड़े लेकर आपस में सुख-दुख की बातें करती हुई रास्ते से चली जाती हैं , घड़े से एक बून्द भी पानी नहीं गिरता। धर्मपथ के पथिक को भी ऐसा ही होना चाहिए। सभी अवस्थाओं में उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि मन ईश्वर के पथ से दूर न हट जाये।
[ स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मनःसंयम का अभ्यास करने से , या " विवेकदर्शन का अभ्यास" करने से उभयतो वाहिनी चित्तनदी का विवेक-श्रोत उद्घाटित हो जाता है; और उसके फलस्वरूप एक क्षण भी वे हरि--जिन्होंने नारद को माया-दर्शन करवा देने के बाद ," सन्तुलन (Poise)" में लाने के लिये पूछा था पानी ले आये नारद ? विस्मृत नहीं होते ! अर्थात भगवान विष्णु के अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण, विस्मृत नहीं होते !]
175 छू हरिचरण जो जग करे , माया बांध न पाहिं।
279 जस ढाई छू खेल करे , पकड़न भय कछु नाहिं।।
जैसे लुकी -लुकउअल के खेल में अगर कोई ढाई को छू ले तो उसे चोर नहीं बनना पड़ता , वैसे ही मनुष्य यदि एक बार भगवान के चरण कमलों को छू ले , तो वह संसार बंधन में आबद्ध नहीं होता। जैसे ढाई को छू लेने पर खेल में पकड़े जाने या दाँव देने का डर नहीं रह जाता , वैसे ही भगवान के चरणों को छू लेने पर , उनका आश्रय लेने पर ; संसाररूपी खेल के मैदान में बद्ध होने का भय नहीं रह जाता। [ जो भगवान दिखाई नहीं पड़ते , उन भगवान के चरण कमलों को छूने की पद्धति क्या है ?]
176 धान कूटे सौदा करे , रख मन मूसल माहिं।
282 तस मनवा जग करम करो , रख मन प्रभु पद पाहिं।।
संसार और ईश्वर दोनों बातें एक साथ होना कैसे सम्भव है ? -चिउड़ा कुटनेवाली स्त्री एक हाथ से ढेंकी की ओखली के भीतर चिउड़ा डालती जाती है , दूसरे हाथ से बच्चे को गोद लेकर दूध पिलाती है , साथ ही ग्राहकों से लेनदेन का हिसाब करती जाती है।
इस तरह वह एक ही साथ अनेकों काम करती रहती है , पर उसका मन सदा ढेंकी के मुसल की ओर लगा रहता है; कि कहीं वह हाथ पर नहीं आ गिरे ! इसी प्रकार तुम संसार में रहते हुए सब काम करो , किन्तु सतत ध्यान रखो कि कहीं ईश्वर के पथ से दूर न चले जाओ।
173 दूध मिले नवनीत नहिं , रहहि जलद उपलाई।
277 तिमि नर जग कारज करहु , जग ते मन बिगलाई।।
174 जस कटहल चिपके नहिं, काटो तेल लगाय।
277 पा दरसन तस जगत करो , माया बाँध न पाय।।
दूध को यदि पानी में डालें तो वह पानी के साथ घूलमिल जायेगा। लेकिन यदि दूध का दही जमाकर उसका मक्खन निकाल लें ; और उसे पानी में छोड़ें तब मक्खन जल के ऊपर तैरता रहेगा। उसी तरह मनुष्य को पहले मनःसंयोग (विवेकदर्शन) की पद्धति सीखकर , मन को ठाकुर के चरणों में नियोजित रखते हुए जगत के कार्य करना चाहिए।
" यदि तुम हाथ में तेल लगाकर कच्चे कटहल को काटो तो तुम्हारे हाथ में उसका दूध नहीं चिपकेगा। इसी तरह यदि ब्रह्मज्ञान लाभ कर लेने के बाद संसार में रहो , तो तुम्हें कामिनी -कांचन की बाधा नहीं होगी। "
180 बंचक औरत काज करे , सुमिरे मन से यार।
285 तस मनुवा जग काज करो , सुमिरत हरि उदार।।
बदचलन औरत संसार में रहती हुई गृहस्थी के काम-काज में मग्न रहती है , पर उसका मन सदा अपने यार की ओर ही पड़ा रहता है। हे संसारी जीव , तुम भी संसार में अपने कर्तव्यों को करते रहो , पर मन सदा ईश्वर में लगाए रखो।
181 रहो सदा संसार में , इक दासी की नाइ।
286 मालिक घर सब काम करे , बिन मंमता उपजाइ।।
जिस प्रकार धनिकों के घर की दासी मालिक के बच्चे को अपने ही बच्चों की तरह प्रेम से पालती -पोसती है,पर मन ही मन निश्चित जानती है कि इन पर मेरा कोई अधिकार नहीं। उसी प्रकार , तूम भी अपने बच्चों का प्रेम से पालन-पोषण करो, परन्तु मन ही मन यह जान रखो कि उन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं, भगवान ही उनके यथार्थ पिता हैं।
[ठाकुर -माँ उनके भी माता-पिता हैं और स्वामीजी बड़े भाई हैं !]
182 हाथ बजावे एक तारा , मुख से बाउल गान।
287 तस कर से जग काज करो , मुख ते प्रभु गुणगान।।
'बाउल ' सम्प्रदाय के फ़क़ीर जैसे एक हाथ से इकतारा और दूसरे हाथ से डफली बजाते हैं; और मुँह से भजन भी गाते जाते हैं। वैसे ही, हे संसारी जीव , तुम भी हाथों से संसार के काम-काज करते रहो , परन्तु मुँह से ईश्वर का नाम जपना न भूलो।
171 परम आत्मीय नाथ मम , तव बिन नहिं मम कोई।
275 का विधि पावहुँ दरस अब , सोचहु निशि दिन खोई।।
तुम यदि संसार में निर्लिप्त भाव से रहना चाहो तो पहले तुम्हें निर्जन रहकर साधना करनी चाहिये। निर्जन में जाना जाना जरुरी है - एक साल के लिए , छह महीने के लिये , एक महीने के लिए , या कम से कम बारह ही दिनों के लिए सही। एकान्त रहते हुए ईश्वर का आन्तरिकता के साथ ध्यान-चिंतन करना चाहिये , ज्ञान-भक्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिये।
मन ही मन विचार करना (मनन करना - यानि doubt clear कर लेना चाहिए, कि हमारे सर्वस्व कौन हैं ?), चाहिए - " इस संसार में मेरा कोई नहीं है। जिन्हें मैं अपना समझता हूँ, वे दो दिन के लिये हैं - सब चले जाने वाले हैं। भगवान ही मेरे आत्मीयजन हैं। वे मेरे सर्वस्व हैं। हाय , उन्हें मैं कैसे पाऊँ ? यही सब चिंतन करते रहना चाहिए। "
172 विधर्मी निन्दहिं धरम , और करहि उपहास।
276 कह ठाकुर साधन समय , जाहु न रखहु पास।।
जो लोग किसी को पूजा -उपासना करते देख उसकी खिल्ली उड़ाते हैं , धर्म की या धार्मिक व्यक्तियों की निन्दा करते हैं , साधना की अवस्था में ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिये।
177 खम्भा धर बालक घूमे , जस गिरन डर नाहिं।
283 तस धर हरि सब काज कर , विपद सकल छूट जाहिं।।
जिस प्रकार बालक एक हाथ से खम्भा पकड़कर जोरों से गोल-गोल घूमता है - उसे गिर पड़ने का डर नहीं होता। उसी प्रकार ईश्वर को पक्का पकड़कर संसार के सभी काम करो, इससे तुम विपत्ति से मुक्त रहोगे।
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