*परिच्छेद ~६६*
No idea here is an out-flow of any particular individual human brain.Every idea is borrowed from Swami Vivekananda and their linking has only one purpose:Regeneration or ushering in a new India.If use of a new coinage is allowed,it may be said:Here is an attempt to study "Applied Vivekananda" in the national context. "If you like something, leave a comment!" --Bijay Kumar Singh, Jhumritelaiya Vivekananda Yuva Mahamandal .
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शुक्रवार, 28 मई 2021
🌝🌞🔆🙏परिच्छेद ~ 66, [(19 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]God with form is required *रावण-वध के उद्देश्य से राम गृहस्थ बने *केवल नेता (ईश्वरकोटि ) के आधार में ज्ञान और भक्ति दोनों होते हैं * *'डुबकी लगाओ '*भीष्मदेव की कथा । योग कब सिद्ध होता है**निराकार साधना-अमूर्त सत्य की खोज , बहुत कठिन है **जीवकोटि की स्थित-समाधि में देह छूट जाती है, नेता की उन्मनी-समाधि * *वृन्दावन में कृष्ण-लीला की आध्यात्मिक व्याख्या*
गुरुवार, 27 मई 2021
🔆🙏परिच्छेद ~ 65, [(18 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]Flatterer - Jackal & Bullock * गायत्री मन्त्र हिन्दू ब्राह्मणों का मूल मंत्र है, विशेषकर उनका जो जनेऊ धारण करते हैं। इस मंत्र के द्वारा वे देवी का आह्वान करते हैं। *गायत्री मन्त्र के द्वारा भक्त जगतजननी का आह्वान करते हैं*
[साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]
*परिच्छेद ~ ६५*
(१)
[(18 दिसंबर, 1883) , श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]
🔆🙏जो किशोरावस्था (adolescence-कौमार अवस्था) में वैराग्यवान् हैं -वे धन्य हैं !🔆🙏
[যারা সংসারে না ঢুকিয়া , কৌমার বৈরাগ্যবান, তারা ধন্য!]
[Recluse adolescence is blessed.]
[Expecting to be detached in old age like Devendranath Tagore;
Blessed is Narendranath, a recluse since adolescence!]
[देवेन्द्रनाथ टैगोर की अपेक्षा/
किशोरावस्था से ही वैराग्यवान नरेन्द्रनाथ, राखाल आदि धन्य हैं !]
श्रीरामकृष्ण सदा ही समाधिमग्न रहते हैं; केवल राखाल आदि भक्तों की शिक्षा के लिए उन्हें लेकर व्यस्त रहते हैं – जिससे उन्हें चैतन्य प्राप्त हो ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ সর্বদাই সমাধিস্থ; কেবল রাখালাদি ভক্তদের শিক্ষার জন্য তাঁহাদের লইয়া ব্যস্ত — কিসে চৈতন্য হয়।
वे अपने कमरे के पश्चिमवाले बरामदे में बैठे हैं । प्रातःकाल का समय, मंगलवार, 18 दिसम्बर 1883 ई.। स्वर्गीय देवेन्द्रनाथ ठाकुर (৺দেবেন্দ্রনাথ ঠাকুরের) की भक्ति और वैराग्य की बात पर वे उनकी प्रशंसा कर रहे हैं । राखाल आदि किशोर भक्तों से वे कह रहे हैं, - “वे सज्जन व्यक्ति हैं । परन्तु जो गृहस्थाश्रम में प्रवेश न कर बचपन से ही शुकदेव आदि की तरह दिनरात ईश्वर का चिन्तन करते हैं, कौमार अवस्था में वैराग्यवान् हैं, वे धन्य हैं ।
[ ৺দেবেন্দ্রনাথ ঠাকুরের ভক্তি ও বৈরাগ্যের কথায় তিনি তাঁহার প্রশংসা করিতেছেন। রাখালাদি ছোকরা ভক্তদের দেখিয়া বলিতেছেন, তিনি ভাল লোক; কিন্তু যারা সংসারে না ঢুকিয়া ছেলেবেলা থেকে শুকদেবাদির মতো অহর্নিশ ঈশ্বরের চিন্তা করে, কৌমার বৈরাগ্যবান, তারা ধন্য!
SRI RAMAKRISHNA was seated in his room with his devotees. He spoke highly of Devendranath Tagore's love of God and renunciation, and then said, pointing to Rakhal and the other young devotees, "Devendra is a good man; but blessed indeed are those young aspirants who, like Sukadeva, practise renunciation from their very boyhood and think of God day and night without being involved in worldly life.
“गृहस्थ की कोई न कोई कामना-वासना रहती है, यद्यपि उसमें कभी कभी भक्ति – अच्छी भक्ति – दिखायी देती है । मथुरबाबू न जाने किस एक मुकदमे में फँस गए थे; मन्दिर में माँ काली के पास आकर मुझसे कहता हैं, ‘बाबा, आप माँ को यह अर्घ्य दीजिए (यह फूल चढ़ा दीजिये) न !’ मैंने उदार मन से माँ के चरणों में फूल चढ़ा दिया । परन्तु कैसा विश्वास है कि मेरे देने से ही ठीक होगा ।
[“সংসারী লোকদের একটা না একটা কামনা বাসনা থাকে। এদিকে ভক্তিও বেশ দেখা যায়। সেজোবাবু কি একটা মোকদ্দমায় পড়েছিল — মা-কালীর কাছে, আমায় বলছে, বাবা, এই অর্ঘ্যটি মাকে দাও তো — আমি উদার মনে দিলাম।“কিন্তু কেমন বিশ্বাস যে আমি দিলেই হবে।
"The worldly man always has some desire or other, though at times he shows much devotion to God. Once Mathur Babu was entangled in a lawsuit. He said to me in the shrine of Kali, 'Sir, please offer this flower to the Divine Mother.' I offered it unsuspectingly, but he firmly believed that he would attain his objective if I offered the flower.
[(18 दिसंबर, 1883) , श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]
🔆🙏 वैष्णव या शाक्त के प्रति एकांगी दृष्टिकोण नहीं ; गायत्रीमंत्र की सार्थकता 🔆🙏
“रति की माँ की इधर कितनी भक्ति है ! अक्सर आकर कितनी सेवा-टहल करती है ! रति की माँ वैष्णव है । कुछ दिनों के बाद ज्योंही देखा कि मैं माँ काली का प्रसाद खाता (शाक्त) हूँ – त्योंही उसने आना बन्द कर दिया । कैसा एकांगी दृष्टिकोण है । लोगों को पहले-पहल देखने से पहचाना नहीं जाता।”
[“রতির মার এদিকে কত ভক্তি! প্রায় এসে কত সেবা। রতির মা বৈষ্ণবী। কিছুদিন পরে যাই দেখলে আমি মা-কালীর প্রসাদ খাই — অমনি আর এলো না! একঘেয়ে! লোককে দেখলে প্রথম প্রথম চেনা যায় না।”
"What devotion Rati's mother had! How often she used to come here and how much she served me! She was a Vaishnava. One day she noticed that I ate the food offered at the Kali temple, and that stopped her coming. Her devotion to God was one-sided. It isn't possible to understand a person right away."
श्रीरामकृष्ण कमरे के भीतर पूर्व की ओर के दरवाजे के पास बैठे हैं । जाड़े का समय । बदन पर एक ऊनी चद्दर है । एकाएक सूर्य देखते ही समाधिमग्न हो गये । आँखें स्थिर ! बाहर का कुछ भी ज्ञान नहीं।बहुत देर बाद समाधि भंग हुई । राखाल, हाजरा, मास्टर आदि पास बैठे हैं ।
क्या यही गायत्रीमन्त्र की सार्थकता है – “तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि’ ?
{गायत्री मन्त्र हिन्दू ब्राह्मणों का मूल मंत्र है, विशेषकर उनका जो जनेऊ धारण करते हैं। इस मंत्र के द्वारा वे देवी का आह्वान करते हैं। यह मंत्र सूर्य भगवान को समर्पित है। इसलिए इस मंत्र को सूर्योदय और सूर्यास्त के समय पढ़ा जाता है। वैदिक शिक्षा लेने वाले युवकों के उपनयन (जनेऊ) संस्कार के समय भी इस मंत्र का उच्चारण किया जाता है। ऐसी शिक्षा को 'गायत्री दीक्षा' कहा जाता है। 'गायत्री', 'सावित्री' और 'सरस्वती' एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं। इस संसार में सत-असत जो कुछ हैं, वह सब ब्रह्मस्वरूपा गायत्री ही हैं। भगवान व्यास कहते हैं- "जिस प्रकार पुष्पों का सार मधु, दूध का सार घृत और रसों का सार पय है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है। गायत्री वेदों की जननी और पाप-विनाशिनी हैं, गायत्री मन्त्र से बढ़कर अन्य कोई पवित्र मन्त्र पृथ्वी पर नहीं है। गायत्री मन्त्र ऋक्, यजु, साम, काण्व, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय आदि सभी वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है, किन्तु सर्वत्र एक ही मिलता है। इसमें चौबीस अक्षर हैं। मन्त्र का मूल स्वरूप इस प्रकार है-ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। (ऋग्वेद ३.६२.१० यजुर्वेद ३.३५,२२. सामवेद १४६२) अर्थात् हम भूलोक (पृथ्वीलोक) , भुवर्लोक (अंतरिक्ष) और स्वर्लोक (द्युलोक)में व्याप्त उस सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के तेज का ध्यान करते हैं। परमात्मा का तेज हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की तरफ चलने के लिए प्रेरित करे।साभार bhartdiscovery.org]
[শ্রীরামকৃষ্ণ ঘরের ভিতর পূর্বদিকের দরজার নিকট বসিয়া আছেন। শীতকাল, গায়ে মোলস্কিনের র্যাপার। হঠাৎ সূর্যদর্শন ও সমাধিস্থ। নিমেষশূন্য! বাহ্যশূন্য! এই কি গায়ত্রী মন্ত্রের সার্থকতা — “তৎ সবিতুর্বরেণ্যং ভর্গো দেবস্য ধীমহি”?
It was a winter morning, and the Master was sitting near the east door of his room, wrapped in his moleskin shawl. He looked at the sun and suddenly went into samadhi. His eyes stopped blinking and he lost all consciousness of the outer world. After a long time he came down to the plane of the sense world. Rakhal, Hazra, M., and other devotees were seated near him.]
[(18 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]
[` रे संगिनिया, से बन कोतो दूर ! जेखाने आमार श्यामसुन्दर ?' ]
[अरी सखी , वह वन और कितनी दूर है , जहाँ मेंरे श्यामसुन्दर हैं ? ]
🌼गोपियों जैसी श्रीकृष्णभक्ति🌼
श्रीरामकृष्ण (हाजरा के प्रति) – समाधि या भाव-अवस्था की प्रेरणा प्रेम से ही होती है । श्यामबाजार में नटवर गोस्वामी के मकान पर कीर्तन हो रहा था – श्रीकृष्ण और गोपियों का दर्शन कर मैं समाधिमग्न हो गया ! ऐसा लगा कि मेरा लिंग शरीर (सूक्ष्म शरीर) श्रीकृष्ण के पैरों के पीछे पीछे जा रहा है । (ऐसा लगा मानो मेरा सूक्ष्म शरीर श्रीकृष्ण के पदचिन्हों पर चल रहा हो। )
[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাজরার প্রতি) — সমাধি, ভাব, প্রেমের বটে। ও-দেশে (শ্যামবাজারে) নটবর গোস্বামীর বাড়িতে কীর্তন হচ্ছিল — শ্রীকৃষ্ণ ও গোপীগণ দর্শন করে সমাধিস্থ হলাম! বোধ হল আমার লিঙ্গ শরীর (সূক্ষ্ম শরীর) শ্রীকৃষ্ণের পায় পায় বেড়াচ্ছে!
MASTER (to Hazra): "The state of samadhi is certainly inspired by love. Once, at Syambazar, they arranged a kirtan at Natavar Goswami's house. There I had a vision of Krishna and the gopis of Vrindavan. I felt that my subtle body was walking at Krishna's heels.]
“जोड़ासाँकू हरिसभा में उसी प्रकार कीर्तन के समय समाधिस्थ होकर बाह्यशून्य हो गया था । उस दिन तो देहत्याग की सम्भावना थी !”
[“জোড়াসাঁকো হরিসভায় ওইরূপ কীর্তনের সময় সমাধি হয়ে বাহ্যশূন্য! সেদিন দেহত্যাগের সম্ভাবনা ছিল।”
"I went into samadhi when similar devotional songs were sung at the Hari Sabha in Jorashanko in Calcutta. That day they feared I might give up the body."
श्रीरामकृष्ण स्नान करने गए । स्नान के बाद उसी गोपी-प्रेम की ही बात कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण (मणि आदि के प्रति) – गोपियों के केवल उस आकर्षण को लेना चाहिए । इस प्रकार के गाने गाया करो –
[শ্রীরামকৃষ্ণ স্নান করিতে গেলেন। স্নানান্তর ওই গোপী প্রেমের কথা বলিতেছেন।(মণি প্রভৃতির প্রতি) — “গোপীদের ওই টানটুকু নিতে হয়!“এই সব গান গাইবে:
After the Master had finished his bath, he again spoke of the ecstatic love of the gopis. He said to M. and the other devotees: "One should accept, the fervent attachment of the gopis to their beloved Krishna. Sing songs like this:
गाना १- " सखी , से वन कतदूर ! (जेखाने आमार श्यामसुन्दर ?) (आर चलते जे नारि ! )
(भावार्थ) – “सखि, वह वन कितनी दूर है, जहाँ मेरे श्यामसुन्दर हैं । मैं तो और चल नहीं सकती ।”
[সখি, সে বন কতদূর!(যেখানে আমার শ্যামসুন্দর)(আর চলিতে যে নারি!)
" Tell me, friend, how far is the grove, Where Krishna, my Beloved, dwells? His fragrance reaches me even here; But I am tired and can walk no farther."
गाना २ - घरे जाबोइ जे ना गो ! जे घरे कृष्ण नामटी कोरा दाय। (रे संगिनिया)
(भावार्थ) – “री सखि, जिस घर में कृष्णनाम लेना कठिन है उस घर में तो मैं किसी भी तरह नहीं जाऊँगी!” (रे संगिनिया)
ঘরে যাবই যে না গো!যে ঘরে কৃষ্ণ নামটি করা দায়। (সঙ্গিনীয়া)”
"I am not going home, O friend, For there it is hard for me to chant my Krishna's name. . . .
(२)
[(18 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]
🌼 कालीमन्दिर में ईश्वर चिन्तन या ताशखेल ? ~ नेतृत्व का उद्गम ! 🌼
[কালীমন্দিরে তাস খেলা! এখানে ঈশ্বরচিন্তা করতে হয় -নেতৃত্বের উত্স]
[ God contemplating or playing cards in Kalimandir?
~ The Genesis of Leadership!]
श्रीरामकृष्ण ने राखाल के लिए सिद्धेश्वरी के नाम पर कच्चे नारियल और चीनी की मन्नत की है । मणि से कह रहे हैं, “तुम नारियल और चीनी का दाम दोगे ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ রাখালের জন্য ৺সিদ্ধেশ্বরীকে ডাব-চিনি মানিয়াছেন। মণিকে বলিতেছেন, “তুমি ডাব, চিনির দাম দিবে।
”Sri Ramakrishna had vowed to offer green coconut and sugar to Siddhesvari, the Divine Mother, for Rakhal's welfare. He asked M. whether he would pay for the offerings.
दोपहर के बाद श्रीरामकृष्ण राखाल, मणि आदि के साथ कलकत्ते के श्री सिद्धेश्वरी मन्दिर की ओर गाड़ी पर सवार होकर आ रहे हैं । रास्ते में सिमुलियाबाजार से कच्चे नारियल और चीनी खरीदी गयी ।
मन्दिर में आकर भक्तों से कह रहे हैं, “एक नारियल फोड़कर चीनी मिलाकर माँ को अर्पण करो ।”
जिस समय मन्दिर में आ पहुँचे, उस समय पुजारी लोग मित्रों के साथ माँ काली के सामने ताश खेल रहे थे । यह देखकर श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं, “देखो, ऐसे स्थानों में भी ताश ! यहाँ पर तो ईश्वर का चिन्तन करना चाहिए !”
[যখন মন্দিরে আসিয়া পৌঁছিলেন, তখন পূজারীরা বন্ধু লইয়া মা-কালীর সম্মুখে তাস খেলিতেছিলেন। ঠাকুর দেখিয়া ভক্তদের বলিতেছেন, দেখেছ, এ-সব স্থানে তাস খেলা! এখানে ঈশ্বরচিন্তা করতে হয়।
They saw the priests and their friends playing cards in the temple. Sri Ramakrishna said: "To play cards in a temple! One should think of God here."
अब श्रीरामकृष्ण यदु मल्लिक के घर पर पधारे हैं । उनके पास अनेक बाबू लोग बैठे हुए हैं ।
यदुबाबू कह रहे हैं, “पधारिए, पधारिए ।” आपस में कुशल प्रश्न के बाद श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं।
[(18 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]
🌼चमचा लोग (flatterers) धनवान के पीछे- पीछे चलते हैं -बैल और सियार की कथा 🌼
[চাটুকাররা ধনীদের অনুসরণ করে - বলদ ও শৃগালের গল্প ]
श्रीरामकृष्ण (हँसकर) – तुम इतने चापलूसों (चमचों-flatterers) को अपने साथ क्यों रखते हो ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তুমি অত ভাঁড়, মোসাহেব রাখ কেন?
MASTER (with a smile): "Why do you keep so many clowns and flatterers with you?"
यदु(हँसते हुए) – इसलिए कि आप उनका उद्धार करें । (सभी हँसने लगे)
[JADU (smiling): "That you may liberate them." (Laughter.)
श्रीरामकृष्ण – चापलूस लोग समझते हैं कि बाबू उन्हें खुले हाथ धन दे देंगे; परन्तु बाबू से धन निकालना बड़ा कठिन काम है ।
एक सियार एक बैल को देख उसका फिर साथ न छोड़े । बैल चरता फिरता, सियार भी साथ साथ है । सियार ने समझा कि बैल का जो अण्डकोष लटक रहा है, वह कभी न कभी गिरेगा और उसे वह खायेगा ! बैल कभी सोता है तो वह भी उसके पास ही लेटकर सो जाता है और जब बैल उठकर घूम-फिरकर चरता है तो वह भी साथ साथ रहता है । कितने ही दिन इसी प्रकार बीते परन्तु वह कोष न गिरा, तब सियार निराश होकर चला गया ! (सभी हँसने लगे ।) इन चापलूसों की ऐसी ही दशा है !
[ শ্রীরামকৃষ্ণ — মোসাহেবরা মনে করে বাবু তাদের টাকা ঢেলে দেবে। কিন্তু বাবুর কাছে আদায় করা বড় কঠিন। একটা শৃগাল একটা বলদকে দেখে তার সঙ্গ আর ছাড়ে না। সে চরে বেড়ায়, ওটাও সঙ্গে সঙ্গে। শৃগালটা মনে করেছে ওর অণ্ডের কোষ ঝুলছে সেইটে কখন না কখন পড়ে যাবে আর আমি খাব। বলদটা কখন ঘুমোয়, সেও কাছে ঘুমোয়; আর যখন উঠে চড়ে বেড়ায়, সেও সঙ্গে সঙ্গে থাকে। কতদিন এইরূপে যায়, কিন্তু কোষটা পড়ল না; তখন সে নিরাশ হয়ে চলে গেল। (সকলের হাস্য) মোসাহেবের এইরূপই অবস্থা।
"Flatterers think that the rich man will loosen his purse-strings for them. But it is very difficult to get anything from him. Once a jackal saw a bullock and would not give up his company. The bullock roamed about and the jackal followed him. The jackal thought: 'There hang the bullock's testicles. Some time or other they will drop to the ground and I shall eat them.' When the bullock slept on the ground, the jackal lay down too, and when the bullock moved about, the jackal followed him. Many days passed in this way, but the bullock's testicles still clung to his body. The jackal went away disappointed. (All laugh.) That also happens to flatterers."
यदुबाबू और उनकी माँ ने श्रीरामकृष्ण तथा भक्तों को जलपान कराया ।
[যদু ও তাঁহার মাতাঠাকুরানী শ্রীরামকৃষ্ণ ও ভক্তদের জলসেবা করাইলেন।
Jadu and his mother served refreshments to Sri Ramakrishna and the devotees.
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🌼परिच्छेद ~ 64, [(17 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-64 ]*🌼*राम (पुरुष) को जानने के लिए सीता (प्रकृति भाव) का आश्रय लेना पड़ता है 🌼 पूर्णज्ञान होने पर वासना चली जाती है । 🌼 *त्रिगुणातीत भक्ति, अर्थात् भक्त किसी गुण के वश नहीं । * Aim of Life - Ishvaradarshan, Remedy - Ecstatic love ** जीवन का उद्देश्य - ईश्वरदर्शन, उपाय - उन्मत्त प्रेम (ecstatic love)* [गुरु /मार्गदर्शक नेता पूर्ण-ज्ञानी होंगे *चिन्मय श्याम, चिन्मय धाम
[(17 दिसंबर, 1883)*परिच्छेद ~ 64, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
[साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)/ साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]
[(17 दिसंबर, 1883), श्रीरामकृष्ण वचनामृत-64]
🌼राम (पुरुष) को जानने के लिए सीता (प्रकृति भाव) का आश्रय लेना पड़ता है 🌼
दूसरे दिन सोमवार, 17 दिसम्बर 1883 , सबेरे आठ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण उसी कमरे में बैठे हुए हैं । राखाल, लाटू आदि भक्त भी हैं । मणि फर्श पर बैठे हैं । मधु डाक्टर भी आये हुए हैं । वे श्रीरामकृष्ण के पास उसी छोटी खाट पर बैठे हैं । मधु डाक्टर वयोवृद्ध हैं – श्रीरामकृष्ण को कोई बीमारी होने पर प्रायः ये आकर देख जाया करते हैं । स्वभाव के बड़े रसिक हैं ।
श्रीरामकृष्ण – बात है सच्चिदानन्द पर प्रेम । कैसा प्रेम ? – ईश्वर को किस तरह प्यार करना चाहिए ?
गौरी पण्डित कहता था, राम को जानना हो तो सीता की तरह होना चाहिए । भगवान् को जानने के लिए भगवती की तरह होना चाहिए । भगवती ने शिव के लिए जैसी कठोर तपस्या की थी, वैसी ही तपस्या करनी चाहिए । पुरुष को जानने का अभिप्राय हो तो प्रकृति-भाव का आश्रय लेना पड़ता है – सखीभाव, दासीभाव, मातृभाव ।
[ শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — কথাটা এই — সচ্চিদানন্দ প্রেম। “কিরূপ প্রেম? ঈশ্বরকে কিরূপ ভালবাসতে হবে? গৌরী বলত রামকে জানতে গেলে সীতার মতো হতে হয়; ভগবানকে জানতে ভগবতীর মতো হতে হয়, — ভগবতী যেমন শিবের জন্য কঠোর তপস্যা করেছিলেন সেইরূপ তপস্যা করতে হয়; পুরুষকে জানতে গেলে প্রকৃতভাবে আশ্রয় করতে হয় — সখীভাব, দাসীভাব, মাতৃভাব।
MASTER: "The whole thing in a nutshell is that one must develop ecstatic love for Satchidananda. What kind of love? How should one love God? Gauri used to say that one must become like Sita to understand Rama; like Bhagavati, the Divine Mother, to understand Bhagavan, Siva. One must practise austerity, as Bhagavati did, in order to attain Siva. One must cultivate the attitude of Prakriti in order to realize Purusha — the attitude of a friend, a handmaid, or a mother.]
“मैंने सीतामूर्ति के दर्शन किए थे । देखा, सब मन राम में ही लगा हुआ है । योनि, हाथ, पैर, कपड़े-लत्ते, किसी पर दृष्टि नहीं है । मानो जीवन ही राममय है – राम के बिना रहे, राम को बिना पाए, जी नहीं सकती ।”
[“আমি সীতামূর্তি দর্শন করেছিলাম। দেখলাম সব মনটা রামেতেই রয়েছে। যোনি, হাত, পা, বসন-ভূষণ কিছুতেই দৃষ্টি নাই। যেন জীবনটা রামময় — রাম না থাকলে, রামকে না পেলে, প্রাণে বাঁচবে না!”
"I saw Sita in a vision. I found that her entire mind was concentrated on Rama. She was totally indifferent to everything — her hands, her feet, her clothes, her jewels. It seemed that Rama had filled every bit of her life and she could not remain alive without Rama."
मणि – जी हाँ, जैसे पगली !
[মণি — আজ্ঞা হাঁ, — যেন পাগলিনী।\
M: "Yes, sir. She was mad with love for Rama."]
श्रीरामकृष्ण – उन्मादिनी ! – अहा ! ईश्वर को प्राप्त करना हो तो पागल होना पड़ता है ।
“कामिनी-कांचन पर मन के रहने से नहीं होता । कामिनी के साथ रमण – इसमें क्या सुख है? ईश्वरदर्शन होने पर रमण सुख से करोड़ गुना आनन्द होता है । गौरी कहता था, महाभाव होने पर शरीर के सब छिद्र – रोमकूप भी – महायोनि हो जाते हैं । एक-एक छिद्र में आत्मा के साथ आत्मा का रमण-सुख होता है !
[শ্রীরামকৃষ্ণ — উন্মাদিনী! — ইয়া। ঈশ্বরকে লাভ করতে গেলে পাগল হতে হয়।“কামিনী-কাঞ্চনে মন থাকলে হয় না। কামিনীর সঙ্গে রমণ, — তাতে কি সুখ! ঈশ্বরদর্শন হলে রমণসুখের কোটিগুণ আনন্দ হয়। গৌরী বলত, মহাভাব হলে শরীরের সব ছিদ্র — লোমকূপ পর্যন্ত — মহাযোনি হয়ে যায়। এক-একটি ছিদ্রে আত্মার সহিত রমণসুখ বোধ হয়।”
"Mad! That's the word. One must become mad with love in order to realize God. But that love is not possible if the mind dwells on 'woman and gold'. Sex-life with a woman! What happiness is there in that? The realization of God gives ten million times more happiness. Gauri used to say that when a man attains ecstatic love of God all the pores of the skin, even the roots of the hair, become like so many sexual organs, and in every pore the aspirant enjoys the happiness of communion with the Atman.]
[(17 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-64 ]
🌼 पूर्णज्ञान होने पर वासना चली जाती है । 🌼
“व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । गुरु के श्रीमुख से सुन लेना चाहिए कि वे क्या करने से मिलेंगे
“गुरु तभी मार्ग बतला सकेंगे जब वे स्वयं पूर्णज्ञानी होंगे । पूर्णज्ञान होने पर वासना चली जाती है । पाँच वर्ष के बालक का-सा स्वभाव हो जाता है । दत्तात्रेय और जड़भरत, ये बालस्वभाव के थे ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ব্যাকুল হয়ে তাঁকে ডাকতে হয়। গুরুর মুখে শুনে নিতে হয় — কি করলে তাঁকে পাওয়া যায়।“গুরু নিজে পূর্ণজ্ঞানী হলে তবে পথ দেখিয়ে দিতে পারে।“পূর্ণজ্ঞান হলে বাসনা যায়, — পাঁচ বছরের বালকের স্বভাব হয়। দত্তাত্রেয় আর জড়ভরত — এদের বালকের স্বভাব হয়েছিল।”
"One must call on God with a longing heart. One must learn from the guru how God can be realized. Only if the guru himself has attained Perfect Knowledge can he show the way.
"A man gets rid of all desires when he has Perfect Knowledge. He becomes like a child five years old. Sages like Dattatreya and Jadabharata had the nature of a child."
मणि – जी हाँ, इनके बारे में लोगों को ज्ञात है, पर इनके अलावा और भी कितने ही ज्ञानी इनकी तरह के हो गए होंगे ।
[মণি — আজ্ঞে, এদের খপর আছে; — আরও এদের মতো কত জ্ঞানী লোক হয়ে গেছে।
M: "One hears about them. But there were many others like them that the world doesn't hear about."
श्रीरामकृष्ण – हाँ, ज्ञानी की सब वासना चली जाती है । - जो कुछ रह जाती है, उसमें कोई हानि नहीं होती । पारस पत्थर के छू जाने पर तलवार सोने की हो जाती है, फिर उस तलवार से हिंसा का काम नहीं होता । इसी तरह ज्ञानी में कामक्रोध का आकार मात्र रहता है, - नाममात्र – उससे कोई अनर्थ नहीं होता ।
[ শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ! জ্ঞানীর সব বাসনা যায়, — যা থাকে তাতে কোন হানি হয় না। পরশমণিকে ছুঁলে তরবার সোনা হয়ে যায়, — তখন আর সে তরবারে হিংসার কাজ হয় না। সেইরূপ জ্ঞানীর কাম-ক্রোধের কেবল ভঙ্গীটুকু থাকে। নামমাত্র। তাতে কোন অনিষ্ট হয় না।
MASTER: "Yes. The jnani gets rid of all desire. If any is left, it does not hurt him. At the touch of the philosopher's stone the sword is transformed into gold. Then that sword cannot do any killing. Just so, the jnani keeps only a semblance of anger and passion. They are anger and passion only in name and cannot injure him.]"
[(17 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-64 ]
🌼माया को जीत न पाया तो केवल संन्यासी होकर क्या होगा ? 🌼
मणि – आप जैसा कहा करते हैं, ज्ञानी तीनों गुणों से परे हो जाता है । सत्त्व, रज, और तम – किसी गुण के वश में वह नहीं रहता । ये तीनों गुण डकैत हैं ।
[মণি — আপনি যেমন বলেন, জ্ঞানী তিনগুণের অতীত হয়। সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ — কোন গুণেরই বশ নন। এরা তিনজনেই ডাকাত।
M: "Yes, sir. The jnani goes beyond the three gunas, as you say. He is not under the control of any of the gunas — sattva, rajas, or tamas. All these three are so many robbers, as it were."
श्रीरामकृष्ण – इस बात की धारणा करनी चाहिए ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওইগুলি ধারণা করা চাই।
MASTER: "Yes, one must assimilate that."
मणि – पूर्णज्ञानी संसार में शायद तीन-चार मनुष्यों से अधिक न होंगे ।
[মণি — পূর্ণজ্ঞানী পৃথিবীতে বোধ হয় তিন-চারজনের বেশি নাই।
M: "In this world there are perhaps not more than three or four men of Perfect Knowledge."
श्रीरामकृष्ण – क्यों ? पश्चिम के मठों में तो बहुत से साधुसंन्यासी दीख पड़ते हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন, পশ্চিমের মঠে অনেক সাধু-সন্ন্যাসী দেখা যায়।
MASTER: "Why do you say that? One sees many holy men and sannyasis in the monasteries of upper India."
मणि – जी, इस तरह का संन्यासी तो मैं भी हो जाऊँ !
[মণি — আজ্ঞা, সে সন্ন্যাসী আমিও হতে পারি!
M: "Well, I too can become a sannyasi like one of those."
इस बात पर श्रीरामकृष्ण कुछ देर तक मणि की ओर देखते रहे ।
श्रीरामकृष्ण(मणि से) – क्या ? सब त्यागकर ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — কি, সব ছেড়ে?
The Master fixed his gaze on M. and said, "By renouncing everything?"
मणि – माया के बिना गए क्या होगा ? माया को जीत न पाया तो केवल संन्यासी होकर क्या होगा ?
[মণি — মায়া না গেলে কি হবে? মায়াকে যদি জয় না করতে পারে শুধু সন্ন্যাসী হয়ে কি হবে?
M: "What can a man achieve unless he gets rid of maya? What will a man gain by merely being a sannyasi, if he cannot subdue maya?"
सब लोग कुछ समय तक चुप रहे ।
[(17 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🌼त्रिगुणातीत भक्त बालक के समान सब कुछ चिन्मय देखता है 🌼
मणि – अच्छा त्रिगुणातीत भक्ति किसे कहते हैं ?
[মণি — আজ্ঞা, ত্রিগুণাতীত ভক্তি কাকে বলে?
M: "Sir, what is the nature of the divine love transcending the three gunas?"]
श्रीरामकृष्ण– उस भक्ति के होने पर भक्त सब चिन्मय देखता है । चिन्मय श्याम, चिन्मय धाम – भक्त भी चिन्मय – सब चिन्मय ! ऐसी भक्ति कम लोगों की होती है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে ভক্তি হলে সব চিন্ময় দেখে। চিন্ময় শ্যাম। চিন্ময় ধাম। ভক্তও চিন্ময়। সব চিন্ময়। এ-ভক্তি কম লোকের হয়।
MASTER: "Attaining that love, the devotee sees everything full of Spirit and Consciousness. To him 'Krishna is Consciousness, and His sacred Abode is also Consciousness'. The devotee, too, is Consciousness. Everything is Consciousness. Very few people attain such love."]
डाक्टर मधु (सहास्य) – त्रिगुणातीत भक्ति, अर्थात् भक्त किसी गुण के वश नहीं ।
[ডাক্তার মধু (সহাস্যে) — ত্রিগুণাতীত ভক্তি — অর্থাৎ ভক্ত কোন গুণের বশীভূত নয়।
DR. MADHU: "The love transcending the three gunas means, in other words, that the devotee is not under the control of any of the gunas."
श्रीरामकृष्ण(सहास्य) – हाँ, जैसे पाँच साल का लड़का – किसी गुण के वश नहीं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ইয়া! যেমন পাঁচ বছরের বালক — কোন গুণের বশ নয়।
MASTER (smiling): "Yes, that's it. He becomes like a child five years old, not under the control of any of the gunas."
दोपहर को, भोजन के बाद, श्रीरामकृष्ण थोड़ा विश्राम कर रहे हैं । श्री मणिलाल मल्लिक ने आकर प्रणाम किया; फिर जमीन पर बैठ गए । मणि भी जमीन पर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण लेटे लेटे ही मणि मल्लिक के साथ बीच बीच में एक एक बात कह रहे हैं ।
मणि मल्लिक – आप केशव सेन को देखने गए थे ?
श्रीरामकृष्ण – हाँ, अब वे कैसे हैं ?
मणि मल्लिक – रोग कुछ घटता हुआ नहीं दीख पड़ता ।
श्रीरामकृष्ण – मैंने देखा, बड़ा राजसिक हैं । मुझे बड़ी देर तक बैठा रखा, तब भेंट हुई ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখলাম বড় রাজসিক, — অনেকক্ষণ বসিয়েছিল, — তারপর দেখা হল।
MASTER: "I found him to be very rajasic. I had to wait a long time before I could see him."]
श्रीरामकृष्ण उठकर बैठ गए और भक्तों के साथ बातचीत करने लगे ।
श्रीरामकृष्ण(मणि से)- मैं ‘राम राम’ कहकर पागल हो गया था । संन्यासी के देवता रामलला को लेकर घूमता फिरता था – उसे नहलाता था, खिलाता था, सुलाता था । जहाँ कहीं जाता, साथ ले जाता था । ‘रामलला’ ‘रामलला’ कहकर पागल हो गया था ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — আমি ‘রাম’ ‘রাম’ করে পাগল হয়েছিলাম। সন্ন্যাসীর ঠাকুর রামলালকে লয়ে লয়ে বেড়াতাম। তাকে নাওয়াতাম, খাওয়াতাম, শোয়াতাম। যেখানে যাব, — সঙ্গে করে লয়ে যেতাম। “রামলালা রামলালা” করে পাগল হয়ে গেলাম।
MASTER (to M.): "I became mad for Rama. I used to walk about carrying an image of Ramlala (A brass image of the Boy Rama.) given to me by a monk. I bathed it, fed it, and laid it down to sleep. I carried it wherever I went. I became mad for Ramlala."]
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