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शुक्रवार, 28 मई 2021

🌝🌞🔆🙏परिच्छेद ~ 66, [(19 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]God with form is required *रावण-वध के उद्देश्य से राम गृहस्थ बने *केवल नेता (ईश्वरकोटि ) के आधार में ज्ञान और भक्ति दोनों होते हैं * *'डुबकी लगाओ '*भीष्मदेव की कथा । योग कब सिद्ध होता है**निराकार साधना-अमूर्त सत्य की खोज , बहुत कठिन है **जीवकोटि की स्थित-समाधि में देह छूट जाती है, नेता की उन्मनी-समाधि * *वृन्दावन में कृष्ण-लीला की आध्यात्मिक व्याख्या*

*परिच्छेद ~६६*   

(१)
 [(19 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]
 🔆🙏पंचवटी में बेल-पेड़ के नीचे श्रीरामकृष्ण-श्रीम वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा 🔆🙏
 
श्रीरामकृष्ण बेल के पेड़ के पास खड़े हुए मणि से बातचीत कर रहे हैं । दिन के नौ बजे होंगे । आज बुध वार है, 19 दिसम्बर 1883 अगहन की कृष्णापंचमी है । इसी  बेल के पेड़ के नीचे श्रीरामकृष्ण ने साधना की थी । यह स्थान अत्यन्त निर्जन है । इसके उत्तर तरफ बारूदखाना और चारदीवार है । 

पश्चिम तरफ झाऊ (देवदार -pine) के पेड़, जो हवा के झोकों से हृदय में वैराग्य भर देनेवाली सनसनाहट पैदा करते हैं। आगे हैं भागीरथी । दक्षिण की ओर पंचवटी दिखायी पड़ रही है । चारों ओर इतने पेड़-पत्ते हैं कि देवालय पूर्ण तरह से दिखायी नहीं आते ।
[বিল্বতল ঠাকুরের সাধনভূমি। অতি নির্জন স্থান। উত্তরে বারুদখানা ও প্রাচীর। পশ্চিমে ঝাউগাছগুলি সর্বদাই প্রাণ-উদাসকারী সোঁ-সোঁ শব্দ করিতেছে, পরেই ভাগীরথী। দক্ষিণে পঞ্চবটী দেখা যাইতেছে। চতুর্দিকে এত গাছপালা, দেবালয়গুলি দেখা যাইতেছে না
।It was nine o'clock in the morning. Sri Ramakrishna was talking to M. near the bel-tree at Dakshineswar. This tree, under which the Master had practised the most austere sadhana, stood in the northern end of the temple garden. Farther north ran a high wall, and just outside was the government Magazine. West of the bel-tree was a row of tall pines that rustled in the wind. Below the trees flowed the Ganges, and to the south could be seen the sacred grove of the Panchavati. The dense trees and underbrush hid the temples. No noise of the outside world reached the bel-tree.
 [(19 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]
🔆🙏राम- विवाह का उद्देश्य था -रावणवध 🔆🙏
श्रीरामकृष्ण (मणि से) – पर कामिनी-कांचन का त्याग किये बिना कुछ होने का नहीं । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ না করলে কিন্তু হবে না।
"But one cannot realize God without renouncing 'woman and gold'."
मणि क्यों ? वशिष्ठदेव ने तो श्रीरामचन्द्र से कहा था – राम, संसार अगर ईश्वर से अलग हो तो संसार का त्याग कर सकते हो ।’
[মণি — কেন? বশিষ্ঠদেব তো রামচন্দ্রকে বলেছিলেন, রাম, সংসার যদি ঈশ্বরছাড়া হয়, তাহলে সংসারত্যাগ করো।
M: "Why? Did not Vasishtha say to Rama, 'O Rama, You may renounce the world if the world is outside God'?"
श्रीरामकृष्ण (जरा हँसकर) - वह रावणवध के लिए कहा था । इसीलिए राम को संसार में रहना पड़ा और विवाह भी करना पड़ा ।
["শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈষৎ হাসিয়া) — সে রাবণবধের জন্য! তাই রাম সংসারে রইলেন — বিবাহ করলেন।
He said that to Rama so that Rama might destroy Ravana. Rama accepted the life of a householder and married to fulfil that mission."
मणि काठ की मूर्ति की तरह चुपचाप खड़े रहे । श्रीरामकृष्ण यह कहकर अपने कमरे में लौट जाने के लिए पंचवटी की ओर जाने लगे ।
[মণি নির্বাক্‌ হইয়া কাষ্ঠের ন্যায় দাঁড়াইয়া রহিলেন।
M. stood there like a log, stunned and speechless.

 [(19 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]
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🙏 चन्द्र (भक्ति)  और सूर्य (ज्ञान) का सम्मिलित प्रकाश - ईश्वरकोटि (अवतार-CINC) में🙏
[অবতারাদির  ভক্তিচন্দ্র জ্ঞানসূর্য একাধারে দেখা যায় ]
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 [Leadrship of C-IN-C: combined light of the sun and the moon.]
   
मणि – साधना करने पर  क्या (एक ही आधार में) ज्ञान और भक्ति दोनों ही नहीं हो सकते ?
[মণি (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — জ্ঞান ভক্তি দুই-ই কি হয় না?
M: "Isn't it possible to develop both jnana and bhakti by the practice of spiritual discipline?"
श्रीरामकृष्ण – भक्ति लेकर रहने पर दोनों ही होते हैं । जरूरत होने पर वही ब्रह्मज्ञान देते हैं । खूब ऊँचा आधार हुआ तो एक साथ दोनों हो सकते हैं ईश्वर-कोटियों का होता है, - जैसे चैतन्यदेव का । जीव-कोटियों की अलग बात है ।
]শ্রীরামকৃষ্ণ— খুব উঁচু ঘরের হয়। ঈশ্বরকোটির হয় — যেমন চৈতন্যদেবের। জীবকোটিদের আলাদা কথা।
MASTER: "Through the path of bhakti a man may attain them both. If it is necessary, God gives him the Knowledge of Brahman. But a highly qualified aspirant may develop both jnana and bhakti at the same time. Such is the case with the Isvarakotis Chaitanya for example. But the case of ordinary devotees is different.
“आलोक(ज्योति) पाँच प्रकार के हैं । दीपक का प्रकाश, भिन्न भिन्न प्रकार की अग्नि का प्रकाश, चन्द्रमा का प्रकाश, सूर्य का प्रकाश तथा एक ही आधार में चन्द्र और सूर्य का सम्मिलित प्रकाश । भक्ति है चन्द्रमा और ज्ञान है सूर्य ।
“कभी कभी आकाश में सूर्यास्त होने से पहले ही चन्द्र का उदय हो जाता है, अवतार आदि में भक्ति-रूपी चन्द्रमा तथा ज्ञान-रुपी सूर्य एकाधार में देखे जाते हैं ।

[“আলো (জ্যোতিঃ) পাঁচপ্রকার। দীপ আলোক, অন্যান্য অগ্নির আলো, চান্দ্র আলো, সৌর আলো ও চান্দ্র সৌর একাধারে। ভক্তি চন্দ্র; জ্ঞান সূর্য।
[“কখনও কখনও আকাশে সূর্য অস্ত না যেতে যেতে চন্দ্রোদয় দেখা যায়। অবতারাদির (नेता ,पैगम्बर , जीवनमुक्त लोकशिक्षक या ईश्वरकोटि आदि में )  ভক্তিচন্দ্র জ্ঞানসূর্য একাধারে দেখা যায়।
"There are five kinds of light: the light of a lamp, the light of various kinds of fire, the light of the moon, the light of the sun, and lastly the combined light of the sun and the moon. Bhakti is the light of the moon, and jnana the light of the sun. 
"Sometimes it is seen that the sun has hardly set when the moon rises in the sky. In an Incarnation of God one sees, at the same time, the sun of Knowledge and the moon of Love.

  [(19 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]

🔆🙏आधारों की भी विशेषता है -मलय पवन लगने से सभी पेड़ चन्दन नहीं होते 🔆🙏
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“क्या इच्छा करने से ही सभी को एक ही आधार में ज्ञान और भक्ति दोनों प्राप्त होते हैं ? आधारों की भी विशेषता है । कोई बाँस अधिक पोला रहता है और कोई कम पोला । सभी आधारों में ईश्वर की धारणा थोड़े हो होती है । सेर भर के लोटे में क्या दो सेर दूध आ सकता है ?

[“মনে করলেই কি সকলের জ্ঞান ভক্তি একাধারে দুই হয়? আধার বিশেষ। কোন বাঁশের ফুটো বেশি, কোন বাঁশের খুব সরু ফুটো। ঈশ্বর বস্তু ধারণা কি সকল আধারে হয়। একসের ঘটিতে কি দুসের দুধ ধরে!”
"Can everyone, by the mere wish, develop Knowledge and Love at the same time? It depends on the person. One bamboo is more hollow than another. Is it possible for all to comprehend the nature of God? Can a one-seer pot hold five seers of milk?"
मणि – क्यों, उनकी कृपा से यदि वे कृपा करें तब तो सूई के छेद से ऊँट भी पार हो सकता है ?
[মণি — কেন, তাঁর কৃপায়? তিনি কৃপা করলে তো ছুঁচের ভিতর উট যেতে পারে।
M: "But what about the grace of God? Through His grace a camel can pass through the eye of a needle."
श्रीरामकृष्ण परन्तु (गुरु विवेकानन्द की) कृपा क्या यों ही होती है ? भिखारी यदि एक पैसा माँगे तो दिया जा सकता है । परन्तु एकदम यदि रेल का पूरा भाड़ा ही माँग बैठे तो ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কিন্তু কৃপা কি অমনি হয়? ভিখারি যদি পয়সা চায়, দেওয়া যায়। কিন্তু একেবারে যদি রেলভাড়া চেয়ে বসে?
MASTER: "But is it possible to obtain God's grace just like that? A beggar may get a penny, if he asks for it. But suppose he asks you right off for his train fare. How about that?"
मणि चुपचाप खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण भी मौन हैं। अचानक वे कहते हैं " हां, अवश्य , किसी-किसी पर उनकी कृपा होने से हो सकता है , दोनों बातें हो सकती हैं ! " 
[अर्थात पूर्व जन्म की कमाई जिसके पास है ,  गुरु विवेकानन्द की कृपा से कैप्टन सेवियर को 'C-IN-C' नवनीदा का देह धारण करने पर यह ज्ञान और भक्ति दोनों ही - प्राप्त हो सकता है। "] 
[মণি নিঃশব্দে দণ্ডায়মান। শ্রীরামকৃষ্ণও চুপ করিয়া আছেন। হঠাৎ বলিতেছেন, হাঁ বটে, কারু কারু আধারে তাঁর কৃপা হলে হতে পারে; দুই-ই হতে পারে।
M. stood silent. The Master, too, remained silent. Suddenly he said: "Yes, it is true. Through the grace of God some may get both jnana and bhakti."
 [(19 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]
🔆🙏देहात्मबोध रखने वालों के लिए निराकार साधना बहुत कठिन है 🔆🙏
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[‘Formless pursuit is very difficult’
ठाकुरदेव (श्री रामकृष्ण) सुबह के करीब 10 बजे पंचबटी के नीचे मणि  के साथ बात-चित  कर रहे हैं।
मणि – अच्छा, क्या निराकार की साधना नहीं होती ?
[মণি — আজ্ঞা, নিরাকার সাধন কি হয় না?
"Sir, is there no spiritual discipline leading to realization of the Impersonal God?"
श्रीरामकृष्ण होती क्यों नहीं ? वह रास्ता बड़ा कठिन ^  है । पहले के ऋषि कठिन तपस्या करके तब कहीं ब्रह्मवस्तु का अनुभव कर पाते थे । ऋषियों को कितनी मेहनत करनी पड़ती थी – अपनी कुटिया से सुबह को निकल जाते थे । दिनभर तपस्या करके सन्ध्या के बाद लौटते थे । तब आकर कुछ फल-मूल खाते थे । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হবে না কেন? ও-পথ বড় কঠিন ^*। আগেকার ঋষিরা অনেক তপস্যার দ্বারা বোধে বোধ করত, — ব্রহ্ম কি বস্তু অনুভব করত। ঋষিদের খাটুনি কত ছিল। — নিজেদের কুটির থেকে সকালবেলা বেরিয়া যেত, — সমস্ত দিন তপস্যা করে সন্ধ্যার পর আবার ফিরত। তারপর এসে একটু ফলমূল খেত।
"Yes, there is. But the path is extremely difficult. After intense austerities the rishis of olden times realized God as their innermost consciousness and experienced the real nature of Brahman. But how hard they had to work! They went out of their dwellings in the early morning and all day practised austerities and meditation. Returning home at nightfall, they took a light supper of fruit and roots.

“इस साधना में विषयबुद्धि का लेशमात्र रहते सफलता न होगी । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श – ये सब विषय बुद्धि मन में जब बिलकुल न रह जाएँ, तब मन शुद्ध होता है । वह शुद्ध मन जो कुछ है, शुद्ध आत्मा भी वही है । मन में कामिनी-कांचन बिलकुल न रह जाएँ ।

“तब (चित्त शुद्धि के बाद) एक और अवस्था होती है – ‘ईश्वर ही कर्ता हैं, मैं अकर्ता हूँ ।’ मेरे बिना काम नहीं चल सकता’ ऐसा भाव तब बिलकुल नहीं रहता सुख में भी और दुःख में भी ।
[“এ-সাধনে একেবারে বিষয়বুদ্ধির লেশমাত্র থাকলে হবে না। রূপ, রস, গন্ধ, স্পর্শ, শব্দ — এসব বিষয় মনে আদপে থাকবে না। তবে শুদ্ধমন হবে। সেই শুদ্ধমনও যা শুদ্ধ আত্মাও তা। মনেতে কামিনী-কাঞ্চন একেবারে থাকবে না —“তখন আর-একটি অবস্থা হয়। ‘ঈশ্বরই কর্তা আমি অকর্তা’। আমি না হলে চলবে না এরুপ জ্ঞান থাকবে না — সুখে দুঃখে।
"But an aspirant cannot succeed in this form of spiritual discipline if his mind is stained with worldliness even in the slightest degree. The mind must withdraw totally from all objects of form, taste, smell, touch, and sound. Only thus does it become pure. The Pure Mind is the same as the Pure Atman. But such a mind must be altogether free from 'woman and gold'. When it becomes pure, one has another experience. One realizes: 'God alone is the Doer, and I am His instrument.' One does not feel oneself to be absolutely necessary to others either in their misery or in their happiness.
“किसी मठ के साधु को दुष्टों ने मारा था । मार खाकर वह बेहोश हो गया । चेतना आने पर जब उससे पूछा गया, ‘तुम्हें कौन दूध पिला रहा है ?’ तब उसने कहा था, ‘जिन्होंने मुझे मारा था वे ही मुझे दूध पिला रहे हैं ।’
[“একটি মঠের সাধুকে দুষ্টলোকে মেরেছিল, — সে অজ্ঞান হয়ে গিছল। চৈতন্য হলে যখন জিজ্ঞাসা করলে কে তোমায় দুধ খাওয়াচ্ছে। সে বলেছিল, যিনি আমায় মেরেছেন তিনিই দুধ খাওয়াচ্ছেন।”
"Once a wicked man beat into unconsciousness a monk who lived in a monastery. On regaining consciousness he was asked by his friends, 'Who is feeding you milk?' The monk said, 'He who beat me is now feeding me.'"]

मणि – जी हाँ, यह कहानी मैं जानता हूँ । 
[মণি — আজ্ঞা হাঁ, জানি।
M: "Yes, sir. I know that story."

[(19 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]
🔆🙏स्थित समाधि और उन्मना समाधि में जो फर्क है उसकी धारणा भी होनी चाहिए🔆🙏
 [स्थित समाधि :‘ईश्वर ही कर्ता हैं, मैं अकर्ता हूँ ।’ सुख में भी और दुःख में भी ~
  ‘जिन्होंने मुझे मारा था वे ही मुझे दूध पिला रहे हैं ।’
'उन्मना-समाधि' ~ विषयों में बिखरे हुए मन को एकाएक समेट लेना'
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 শুধু জানলে হবে না; ধারণা করা চাই।
 [To know Brahman is not enough, One must assimilate its meaning.] 
श्रीरामकृष्ण – नहीं,  सिर्फ जानने से ही न होगा, -धारणा भी होनी चाहिए ।
(जिन्होंने मुझे मारा था वे ही मुझे दूध पिला रहे हैं -इसकी धारणा भी होनी चाहिए।) 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — না, শুধু জানলে হবে না; ধারণা করা চাই।
"It is not enough to know it. One must assimilate its meaning. 
“विषयचिन्तन मन को समाधिस्थ नहीं होने देता विषयबुद्धि का पूरी तरह त्याग होने पर स्थित-समाधि हो जाती है । मेरी देह स्थित-समाधि में छूट सकती है, परन्तु मुझमें भक्ति और भक्तों के साथ कुछ रहने की वासना है । इसीलिए देह पर भी कुछ दृष्टि है ।
[“বিষয়চিন্তা মনকে সমাধিস্থ হতে দেয় না।”একেবারে বিষয়বুদ্ধি ত্যাগ হলে স্থিতসমাধি হয়। স্থিতসমাধিতে দেহত্যাগ হতে পারে, কিন্তু ভক্তি-ভক্ত নিয়ে একটু থাকবার বাসনা আছে। তাই দেহের উপরেও মন আছে।
 It is the thought of worldly objects that prevents the mind from going into samadhi. One becomes established in samadhi when one is completely rid of worldliness. It is possible for me to give up the body in samadhi; but I have a slight desire to enjoy the love of God and the company of His devotees. Therefore I pay a little attention to my body.
“एक और है – 'उन्मना-समाधि' ~ विषयों में बिखरे हुए मन को एकाएक समेट लेना'- यह तुम समझे?”
[“আর এক আছে উন্মনাসমাধি। ছড়ানো মন হঠাৎ কুড়িয়ে আনা। ওটা তুমি বুঝেছ?”
"There is another kind of samadhi, called Unmana Samadhi. One attains it by suddenly gathering the dispersed mind. You understand what that is, don't you?"
मणि – जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण – फैले हुए मन को एकाएक समेट लेना, यह (उन्मना) समाधि देर तक नहीं रहती । विषय-वासनाएँ आकर समाधिभंग कर देती हैं – योगी का योग भंग हो जाता है । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ছড়ানো মন হঠাৎ কুড়িয়ে আনা। বেশিক্ষণ এ-সমাধি থাকে না, বিষয়চিন্তা এসে ভঙ্গ হয় — যোগীর যোগ ভঙ্গ হয়।
"Yes. It is the sudden withdrawal of the dispersed mind to the Ideal. But that samadhi does not last long. Worldly thoughts intrude and destroy it. The yogi slips down from his yoga.
“उस देश में दीवार के भीतर बिल में नेवला रहता है । बिल में जब रहता है, खूब आराम से रहता है । कोई कोई उसकी पूँछ में ईंट बाँध देते हैं; तब ईंट के कारण वह बिल से निकल पड़ता है। जब जब वह बिल के भीतर जाकर आराम से बैठने की चेष्टा करता है, तब तब ईंट के प्रभाव से बिल से निकल आना पड़ता है । विषयवासना भी ऐसी ही है, योगी को योगभ्रष्ट कर देती है।
[“ও-দেশে দেয়ালের ভিতর গর্তে নেউল থাকে। গর্তে যখন থাকে বেশ আরামে থাকে। কেউ কেউ ন্যাজে ইট বেঁধে দেয় — তখন ইটের জোরে গর্ত থেকে বেরিয়ে পড়ে। যতবার গর্তের ভিতর গিয়ে আরামে বসবার চেষ্টা করে — ততবারই ইটের জোরে বাইরে এসে পড়ে। বিষয়চিন্তা এমনি — যোগীকে যোগভ্রষ্ট করে।
"At Kamarpukur I have seen the mongoose living in its hole up in the wall. It feels snug there. Sometimes people tie a brick to its tail; then the pull of the brick makes it come but of its hole. Every time the mongoose tries to be comfortable inside the hole, it has to come out because of the pull of the brick. Such is the effect of brooding on worldly objects that it makes the yogi stray from the path of yoga.]
“विषयी मनुष्यों की कभी कभी समाधि की अवस्था हो सकती है । सूर्योदय होने पर कमल खिल जाता है, परन्तु सूर्य मेघों से ढक जाने पर फिर वह मूँद जाता है । विषय मेघ है ।”
[“বিষয়ী লোকদের এক-একবার সমাধির অবস্থা হতে পারে। সূর্যোদয়ে পদ্ম ফোটে, কিন্তু সূর্য মেঘেতে ঢাকা পড়লে আবার পদ্ম মুদিত হয়ে যায়। বিষয় মেঘ।”
"Worldly people may now and then experience samadhi. The lotus blooms, no doubt, when the sun is up; but its petals close, again when the sun is covered by a cloud. Worldly thought is the cloud."
[(19 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]
🔆🙏साधक शिष्य श्री `म ' के प्रति करुणाशील श्री रामकृष्ण🔆🙏 
प्रणाम करके मणि बेलतला की ओर जा रहे हैं । बेलतला से लौटने में दोपहर हो गयी । विलम्ब देखकर श्रीरामकृष्ण बेलतला की ओर आ रहे हैं । मणि दरी, आसन, जल का लोटा लेकर लौट रहे हैं । 
[প্রণামপূর্বক মণি বেলতলার দিকে যাইতেছেন।বেলতলা হইতে ফিরিতে দুপ্রহর হইয়া গিয়াছে। দেরি দেখিয়া শ্রীরামকৃষ্ণ বেলতলার দিকে আসিতেছেন। মণি, সতরঞ্চি, আসন, জলের ঘটি লইয়া ফিরিতেছেন, পঞ্চবটীর কাছে ঠাকুরের সহিত দেখা হইল। তিনি অমনি ভূমিষ্ঠ হইয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিতেছেন।
At midday, finding that M. had not yet returned, Sri Ramakrishna started toward the bel-tree; but on reaching the Panchavati he met M. carrying his prayer carpet and water-jug. M. saluted the Master.
पंचवटी के पास श्रीरामकृष्ण (मणि के प्रति) – मैं जा रहा था, तुम्हें खोजने के लिए । सोचा दिन इतना चढ़ आया, कहीं दीवार फाँदकर भाग तो नहीं गया ! तुम्हारी आँखें उस समय जिस प्रकार देखी थीं उससे सोचा, कहीं नारायण शास्त्री ^ *की तरह भाग तो नहीं गया ! उसके बाद फिर सोचा, नहीं, वह भागेगा नहीं, वह काफी सोच-समझकर काम करता है। 
{আমি যাচ্ছিলাম তোমায় খুঁজতে। ভাবলাম এত বেলা, বুঝি পাঁচিল ডিঙিয়ে পালালো! তোমার চোখ তখন যা দেখেছিলাম — ভাবলাম বুঝি নারাণ শাস্ত্রীর মতো পালালো। তারপর আবার ভাবলাম, না সে পালাবে না; সে অনেক ভেবে-চিন্তে কাজ করে।\
Sri Ramakrishna said to M: "I was coming to look for you. Because of your delay I thought you might have scaled the wall and run away. I watched your eyes this morning and felt apprehensive lest you should go away like Narayan Shastri. Then I said to myself: 'No, he won't run away. He thinks a great deal before doing anything.']
[नारायण शास्त्री - राजस्थान के निवासी। दार्शनिक, विद्वान और ठाकुर के भक्त। श्रीरामकृष्ण की साधना के दौरान उन्होंने ठाकुर देव  की दिव्यता देखी थी । बाद में नवद्वीप से 'नवीन न्याय की व्युत्पत्ति ' लाभ करके लौटते समय ठाकुर की भावमुख अवस्था और समाधि का दर्शन करके उनकी तरफ आकृष्ट हुए थे। उन्होंने श्रीठाकुर देव के जीवन-चरित्र में शास्त्र-वर्णित अवतार तत्व की सूक्ष्मताओं को उपलब्ध किया था। ठाकुरदेव की भावमुख अवस्था से आकर्षित होकर वे दक्षिणेश्वर में ही रहने लगे थे। बाद में उन्होंने ठाकुर देव से ही संन्यास ग्रहण किया और वशिष्ठाश्रम ^  में तपस्या करने चले गए। 1875 ई. में ठाकुरदेव के साथ केशवसेन का घनिष्ट सम्पर्क में होने  से पहले , ठाकुर के निर्देशानुसार उन्होंने ही पहले केशवसेन के साथ परिचय प्रपात करके ठाकुर को बतलाया था कि केशव जप में सिद्ध हैं। दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण की माइकल मधुसूदन के साथ जब मुलाकात हुई थी , तब उस मुलाकात के दौरान भी , शास्त्रीजी उपस्थित थे और उन्होंने माइकल से संस्कृत में बात की थी।

(२)

[(19 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]
🔆🙏वृन्दावन में कृष्ण-लीला की आध्यात्मिक व्याख्या🔆🙏
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[`ब्रह्मज्ञान होने पर - ब्रह्म और शक्ति दनों एक ही जान पड़ते हैं ~ ‘एकमेवाद्वितीयम् ।’]
ব্রহ্মজ্ঞান হলে ব্রহ্ম আর শক্তি এক বোধ হয় ! 
 After Brahmajnana, a man realizes  Brahman and Its Power 
is the One that has no two."]

फिर रात को श्रीरामकृष्ण मणि के साथ बातें कर रहे हैं । राखाल, लाटू, हरीश आदि हैं ।

श्रीरामकृष्ण(मणि के प्रति) – अच्छा कोई कोई वृन्दावन में कृष्ण-लीला की आध्यात्मिक व्याख्या करते हैं । तुम्हारी क्या राय है ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — আচ্ছা, কেহ কেহ কৃষ্ণলীলার অধ্যাত্ম ব্যাখ্যা করে; তুমি কি বল?
 "Some people give a metaphysical, interpretation of the Vrindavan episode of Sri Krishna's life. What do you say about it?"]

मणि – विभिन्न मतों के रहने से भी क्या हानि है ? भीष्मदेव की कहानी आपने कही है । शरशय्या पर देहत्याग के समय उन्होंने कहा था, ‘मैं रो क्यों रहा हूँ ? वेदना के लिए नहीं । पर जब सोचता हूँ कि साक्षात् नारायण अर्जुन के सारथि बने थे, परन्तु फिर भी पाण्डवों को इतनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं, तब लगता है कि उनकी लीला कुछ भी समझ नहीं सका, इसीलिए रो रहा हूँ ।’
[মণি — নানা মত, তা হলেই বা। ভীষ্মদেবের কথা আপনি বলেছেন — শরশয্যায় দেহত্যাগের সময় বলেছিলেন, ‘কেন কাঁদছি? যন্ত্রণার জন্য নয়। যখন ভাবছি যে, সাক্ষাৎ নারায়ণ অর্জুনের সারথি হয়েছিলেন অথচ পাণ্ডবদের এত বিপদ, তখন তাঁর লীলা কিছুই বুঝতে পারলাম না — তাই কাঁদছি।’
M: "There are various opinions. What if there are? You have told us the story of Bhishmadeva's weeping, on his bed of arrows, because he could not understand anything of God's ways.
“फिर हनुमान की कथा आपने सुनायी है । हनुमान कहा करते थे, ‘मैं वार, तिथि, नक्षत्र आदि कुछ भी नहीं जानता, मैं केवल एक राम का चिन्तन करता हूँ ।’
[“আবার হনুমানের কথা আপনি বলেছিলেন — হনুমান বলতেন, ‘আমি বার, তিথি, নক্ষত্র — এ-সব জানি না, আমি কেবল এক রামচিন্তা করি।’
"Again, you have told us that Hanuman used to say: 'I don't know any thing about the day of the week, the position of the stars, and so forth. I only meditate on Rama.'
“आपने तो कहा है, दो चीजों के सिवाय और कुछ भी नहीं है, ब्रह्म और शक्ति । और आपने यह भी कहा है, ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) होने पर वे दोनों एक ही जान पड़ते हैं । ‘एकमेवाद्वितीयम् ।
[“আপনি তো বলেছেন, দুটি জিনিস বই তো আর কিছু নাই — ব্রহ্ম আর শক্তি। আর বলেছেন, জ্ঞান (ব্রহ্মজ্ঞান) হলে ওই দুইটি এক বোধ হয়; যে একের দুই নাই।”
"Further, you have said to us that in the last analysis there are two things only: Brahman and Its Power. You have also said that, after the attainment of Brahmajnana, a man realizes these two to be One, the One that has no two."
श्रीरामकृष्ण – हाँ, ठीक ! वस्तु प्राप्त करना है सौ काँटेदार जंगल में से जाकर लो या अच्छे रास्ते से जाकर लो ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ বটে; চীজ নেবে ?  তা কাঁটাবন দিয়েই হউক আর ভাল রাস্তা দিয়ে চলে গিয়েই হউক।
"Yes, that is true. Your ideal is to reach the goal. You may reach it by going either through a thorny forest or along a good road.
“अनेकानेक मत अवश्य हैं । नागा (तोतापुरी) कहा करता था, मत मतान्तर के कारण साधुसेवा न हुई । एक स्थान पर भण्डारा हो रहा था । अनेक साधु-सम्प्रदाय थे ! सभी कहते हैं हमारी सेवा पहले हो, उसके बाद दूसरे सम्प्रदायों की । कुछ भी निश्चित न हो सका । अन्त में सभी चले गए और वेश्याओं को खिलाया गया !”
[“নানা মত বটে। ন্যাংটা বলত, মতের জন্য সাধুসেবা হল না। এক জায়গায় ভাণ্ডারা হচ্ছিল। অনেক সাধু সম্প্রদায়; সবাই বলে আমাদের সেবা আগে, তারপর অন্য সম্প্রদায়। কিছুই মিমাংসা হল না; শেষে সকলে চলে গেল! আর বেশ্যাদের খাওয়ানো হল!”
"Diverse opinions, certainly exist. Nangta used to say that the monks could not be feasted because of the diversity of their views. Once a feast was arranged for the sannyasis. Monks belonging to many sects were invited. Everyone claimed that his sect should be fed first, but no conclusion could be arrived at. At last they all went away and the food had to be given to the prostitutes."
मणि – तोतापुरी महान् व्यक्ति थे ।
[মণি — তোতাপুরী খুব লোক।
M: "Totapuri was indeed a great soul."
श्रीरामकृष्ण – हाजरा कहते हैं, मामूली । नहीं भाई, वादविवाद से कोई काम नहीं, सभी कहते हैं, ‘मेरी घड़ी ठीक चल रही है ।’
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাজরা বলে অমনি (সামান্য)। না বাবু, কথায় কাজ নাই — সবাই বলে আমার ঘড়ি ঠিক চলছে।
"But Hazra says he was an ordinary man. There's no use in discussing these things. Everyone says that his watch alone gives the correct time.
“देखो, नारायण शास्त्री को प्रबल वैराग्य हुआ था । उतना बड़ा पण्डित – स्त्री को छोड़कर लापता हो गया । मन से कामिनी-कांचन का सम्पूर्ण त्याग करने से तब योग सिद्ध होता है । किसी किसी में योगी के लक्षण दिखते हैं ।
[“দেখ, নারাণ শাস্ত্রীর খুব বৈরাগ্য হয়েছিল। অত বড় পণ্ডিত — স্ত্রী ত্যাগ করে নিরুদ্দেশ হয়ে গেল। মন থেকে একেবারে কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ করলে তবে যোগ হয়। কারু কারু যোগীর লক্ষণ দেখা যায়।
"You see, Naravan Shastri developed a spirit of intense renunciation. He was a great scholar. He gave up his wife and went away. A man attains yoga when he completely effaces 'woman and gold' from his mind. With some, the characteristics of the yogi are well marked.
 [(19 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]
🔆🙏 षट्चक्र क्या है : पंचवटी के कमरे में श्री `म' का निर्जनवास 🔆🙏
“तुम्हें षट्चक्र के बारे में कुछ बता दूँ । योगी षट्चक्र को भेद कर उनकी कृपा से उनका दर्शन करते हैं। षट्चक्र सुना है न ?”
[“তোমায় ষট্‌চক্রের বিষয় কিছু বলে দিতে হবে। যোগীরা ষট্‌চক্র ভেদ করে তাঁর কৃপায় তাকে দর্শন করে। ষট্‌চক্র শুনেছ?”
"I shall have to tell you something of the six centres. The mind of the yogi passes through these, and he realizes God through His grace. Have you heard of the six centres?"
मणि – वेदान्त मत में सप्तभूमि ।
[“মণি — বেদান্তমতে সপ্তভূমি।
M: "These are the 'seven planes' of the Vedanta."
श्रीरामकृष्ण – वेदान्त-मत नहीं, वेद-मत ! षट्चक्र क्या है जानते हो ? सूक्ष्म देह के भीतर ये सब पद्म हैं – योगीगण उन्हें देख सकते हैं । जैसे मोम के बने वृक्ष के फल, पत्ते ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — বেদান্ত নয়, বেদ মত। ষট্‌চক্র কিরকম জান? সূক্ষ্মদেহের ভিতর সব পদ্ম আছে — যোগীরা দেখতে পায়। যেমন মোমের গাছের ফলপাতা।
 "Not the Vedanta, but the Vedas. Do you know what the six centres are like? They are the 'lotuses' in the subtle body. The yogis see them. They are like the fruits and leaves of a wax tree.(1986 kumbh mela ) "
मणि – जी हाँ, योगीगण देख सकते हैं । एक पुस्तक में लिखा है – एक प्रकार की काँच (magnifier-आतशी शीशा)  होती है, जिसके भीतर से देखने पर बहुत छोटी चीजें भी बड़ी दिखती हैं । इसी प्रकार योग द्वारा वे सब सूक्ष्म पद्म देखे जाते हैं ।
[মণি — আজ্ঞা হাঁ, যোগীরা দেখতে পায়। একটা বইয়ে আছে, একরকম কাচ (Magnifier) আছে, তার ভিতর দিয়ে দেখলে খুব ছোট জিনিস বড় দেখায়। সেইরূপ যোগের দ্বারা ওই সব সূক্ষ্মপদ্ম দেখা যায়।
M: "Yes, sir. The yogis can perceive them. I have read that there is a kind of glass through which a tiny object looks very big. Likewise, through yoga one can see those subtle lotuses.'
श्रीरामकृष्ण ने पंचवटी के कमरे में रहने के लिए कहा है । मणि उसी कमरे में रात बिताते हैं । प्रातःकाल मणि उस कमरे में अकेले गा रहे हैं-
गौर हे आमि साधन-भजन हीन , 
परशे पवित्र कोरो आमि दीनहीन। 
चरण पाबो , पाबो बोले हे ,
(चरण तो आर पेलाम ना , गौर !) 
आमार आशाय आशाय गेलो दिन !  

(भावार्थ) – “हे गौर, मैं साधन-भजनहीन हूँ । मैं हीन-दीन हूँ, मुझे छूकर पवित्र कर दो ! हे गौर, तुम्हारे श्रीचरणों का लाभ होगा, इसी आशा में मेरे दिन बीत गये । हे गौर, तुम्हारे श्रीचरण तो अभी तक नहीं पा सका !” 
[শ্রীরামকৃষ্ণ পঞ্চবটীর ঘরে থাকিতে বলিয়াছেন। মণি ওই ঘরে রাত্রিবাস করিতেছেন।প্রত্যূষে ওই ঘরে একাকী গান গাহিতেছেন:
গৌর হে আমি সাধন-ভজনহীন
পরশে পবিত্র করো আমি দীনহীন ৷৷
চরণ পাবো পাবো বলে হে,
(চরণ তো আর পেলাম না, গৌর!)
আমার আশায় আশায় গেল দিন!
Following Sri Ramakrishna's direction, M. spent the night in the hut at the Panchavati. In the early hours of the morning he was singing alone:I am without the least benefit of prayer and austerity, O Lord!I am the lowliest of the lowly; make me pure with His hallowed touch.One by one I pass my days in hope of reaching Thy Lotus Feet,But Thee, alas, I have not found. . . .
एकाएक खिड़की की ओर ताककर देखते हैं, श्रीरामकृष्ण खड़े हैं । “मैं हीन-दीन हूँ, मुझे छूकर पवित्र कर दो” यह वाक्य सुनकर श्रीरामकृष्ण की आँखों में आँसू आ गए । 
[হঠাৎ জানালার দিকে দৃষ্টিপাত করিয়া দেখেন, শ্রীরামকৃষ্ণ দণ্ডায়মান। “পরশে পবিত্র করো আমি দীনহীন!” — এই কথা শুনিয়া তাঁহার চক্ষু, কি আশ্চর্য, অশ্রুপূর্ণ হইয়াছে।
Suddenly M. glanced toward the window and saw the Master standing there. Sri Ramakrishna's eyes became heavy with tears as M. sang the line:
फिर दुसरा गाना हो रहा है –
आमि गेरुआ वसन अंगेते पोरीबो ,
शंखेर कुण्डल पोरी। 
आमि योगिनीर वेशे जाबो सेइ देशे। 
जेखाने निठुर हरि।। 

(भावार्थ) – “मैं शंख का कुण्डल पहनकर गेरुआ वस्त्र पहनूँगी । मैं योगिनी के वेष में उसी देश में जाऊँगी जहाँ मेरे निर्दय हरि हैं ।”
[আবার একটি গান হইতেছে:
আমি গেরুয়া বসন অঙ্গেতে পরিব
      শঙ্খের কুণ্ডল পরি।
আমি যোগিনীর বেশে যাব সেই দেশে,
      যেখানে নিঠুর হরি ৷৷
M. sang again:I shall put on the ochre robe and ear-rings made of conch-shell;Thus, in the garb of a yogini, from place to place I shall wander,Till I have found my cruel Hari. . . .

श्रीरामकृष्ण राखाल के साथ घूम रहे हैं । 
[শ্রীরামকৃষ্ণের সঙ্গে রাখাল বেড়াইতেছেন।
M. saw that the Master was walking with Rakhal.

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[19 दिसंबर 1883 के बाद , 21 दिसंबर 1883 की एक घटना भी संलग्न है।]
(३ )
 [(19 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-66 ]
🔆🙏पहले साकार में डुबकी लगाओ, फिर निराकार का चिंतन🔆🙏
🌝🌞🌝🌞🌝🌞🌝🌞

[चिट्ठी को पढ़ने के बाद उसको फेंको और तद-निर्देशानुसार काम करो ] 
 
সাকার চিন্তা - শীঘ্র ভক্তি- তখন আবার নিরাকার চিন্তা।
 [Throw letter after learning its contents then follow its instructions.]
 
शुक्रवार , 21 दिसंबर 1883 . प्रातःकाल श्रीरामकृष्ण अकेले बेल के पेड़ के नीचे मणि के साथ वार्तालाप कर रहे हैं। साधना के सम्बन्ध में अनेक गुप्त बातें तथा कामिनी-कांचन के त्याग की बातें हो रही हैं। फिर कभी कभी मन ही गुरु कैसे बन जाता है --ये सब बातें विस्तार से समझा रहे हैं। 
[পরদিন শুক্রবার, ২১শে ডিসেম্বর (৭ই পৌষ, কৃষ্ণা অষ্টমী)। সকালবেলা শ্রীরামকৃষ্ণ একাকী বেলতলায় মণির সঙ্গে অনেক কথা কহিতেছেন। সাধনের নানা গুহ্যকথা, কামিনী-কাঞ্চনত্যাগের কথা। আর কখনও কখনও মনই গুরু হয় — এ-সব কথা বলিতেছেন।
In the morning the Master and M. were conversing alone under the bel-tree. The Master told him many secrets of spiritual discipline, exhorting him to renounce "woman and gold". He further said that the mind at times becomes one's guru.
भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण पंचवटी में आये हैं -वे सुंदर पीताम्बर धारण किये हुए हैं। पंचवटी में दो-तीन वैष्णव बाबाजी आये हैं , एक बाउल साधु भी हैं। एक नानकपंथी साधु निराकारवादी हैं। श्रीरामकृष्ण उन्हें साकार का भी चिंतन करने के लिए कह रहे हैं। 
[আহারের পর পঞ্চবটীতে আসিয়াছেন — মনোহর পীতাম্বরধারী! পঞ্চবটীতে দু-তিনজন বাবাজী বৈষ্ণব আসিয়াছেন — একজন বাউল। তিনি বৈষ্ণবকে বলছেন, তোর ডোরকৌপীনের স্বরূপ বল দেখি!
After his midday meal the Master went to the Panchavati wearing a beautiful yellow robe. Two or three Vaishnava monks were there, clad in the dress of their sect.

श्रीरामकृष्ण साधु से कह रहे हैं , " डुबकी लगाओ ; ऊपर ऊपर तैरने से रत्न नहीं मिलते। ईश्वर निराकार हैं तथा साकार भी। साकार का चिंतन करने से शीघ्र भक्ति प्राप्त होती है। तब फिर निराकार का चिंतन भी किया जा सकता है। -जिस प्रकार चिट्ठी को पढ़कर फेंक देते हैं , और उसके बाद उसमें लिखे अनुसार काम करते हैं। "  
[অপরাহ্নে নানকপন্থী সাধু আসিয়াছেন। হরিশ, রাখালও আছেন। সাধু নিরাকারবাদী। ঠাকুর তাঁহাকে সাকারও চিন্তা করিতে বলিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ সাধুকে বলিতেছেন, ডুব দাও; উপর উপর ভাসলে রত্ন পাওয়া যায় না। আর ঈশ্বর নিরাকারও বটেন আবার সাকার। সাকার চিন্তা করলে শীঘ্র ভক্তি হয়। তখন আবার নিরাকার চিন্তা। যেমন পত্র পড়ে নিয়ে সে পত্র ফেলে দেয়। তারপর লেখা অনুসারে কাজ করে।
In the afternoon a monk belonging to the sect of Nanak arrived. He was a worshipper of the formless God. Sri Ramakrishna asked him to meditate as well on God with form. The Master said to him: "Dive deep; one does not get the precious gems by merely floating on the surface. God is without form, no doubt; but He also has form. By meditating on God with form one speedily acquires devotion; then one can meditate on the formless God. It is like throwing a letter away, after learning its contents, and then setting out to follow its instructions."
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[ও-পথ বড় কঠিন ^* क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।गीता 12.5।।
[क्लेशः अधिकतरः तेषाम् अव्यक्त-आसक्त-चेतसाम् ॥ अव्यक्ता हि गतिः दुःखम् देहवद्भिः (dehavadbhih, by the embodied ones, by those who identify themselves with the body)अवाप्यते ॥ १२-५॥ अव्यक्त-आसक्त-चेतसाम् तेषाम् अधिकतरः क्लेशः (अस्ति तैः)देहवद्भिः अव्यक्ता गतिः दुःखम् अवाप्यते हि ।
अव्यक्तमें आसक्त चित्तवाले उन साधकों को (अपने साधनमें) कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त-विषयक गति कठिनता से प्राप्त की जाती है। तात्पर्य यह है कि स्वयं अव्यक्तोपासना में कष्ट नहीं है,  वरन् देहाभिमानियों के लिए वह कष्टप्रद प्रतीत होती है। यदि मनुष्य जगत् की सेवा को ही ईश्वर की पूजा समझकर करे, तो शनैशनै उसकी देहासक्ति तथा विषयोपभोग की तृष्णा समाप्त हो जाती है।  और मन इतना शुद्ध और सूक्ष्म हो जाता है कि फिर वह निराकार, अव्यक्त और अविनाशी तत्त्व का ध्यान करने में समर्थ हो जाता है। संक्षेप में बहुसंख्यक साधकों के लिए विश्व में व्यक्त 'भगवान् नरसिंह ' के सगुण साकार रूप का ध्यान करना अधिक सरल और लाभदायक है।]
[🌼उन्मनी मुद्रा उन्मनी-मुद्रा शब्द का अर्थ ‘अन्यमनस्क’ या ‘नहीं सोचना’ होता है। इसका अर्थ ‘निर्विचार वृत्ति’ या ‘ध्यान’ के रूप में भी किया जा सकता है। उन्मनी उस अवस्था की घोतक है जो विचार के परे है, जहाँ विषय जगत (कामिनी-कांचन )  की सभी आसक्तियाँ लुप्त हो जाती है। इस अवस्था में मन कार्यशील रहता है और कार्य होती भी है, किन्तु द्वन्द्वात्मक विचारों और विश्लेषण का व्यवधान वहाँ नहीं रहता। यही उन्मनी अवस्था है।
सहस्त्रार (जो सर की चोटी वाला स्थान है-ब्रह्मरंध्रस्थ मीन (मछली, लक्ष्य तत्व) निश्चय बिंध गया। ) में पूर्ण एकाग्रता के साथ मन को लगाने का अभ्यास करने से आत्मा परमात्मा की ओर गमन करने लगती है और व्यक्ति ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ने लगता है। समाधि पाद: पतंजलि योग सूत्र के चार पादों में पहला पाद है समाधिपाद। इस प्रथम पाद में मुख्य रूप से समाधि तथा उसके विभिन्न भेदों का वर्णन किया गया है।  गुरु के बताये हुए मार्ग पर चलने और 'उद्योग' करने को ही 'अभ्यास' कहते हैं। जैसा कि योग सूत्र लिखता है -- तत्र स्थितौ यत्नोभ्यास: (समाधिपाद १. १३)  तत्र , स्थितौ , यत्न: , अभ्यास:॥ तत्र - उन (दोनों - अभ्यास और वैराग्य, में से) स्थितौ - (चित्तकी) स्थिरता के लिए ,यत्न: - (जो) प्रयत्न (करना है, वह)अभ्यासः - अभ्यास (है) ।उन दोनों - अभ्यास और वैराग्य, में से चित्तकी स्थिरता के लिए जो प्रयत्न करना है, वह अभ्यास है।  वृत्तियों को रोकने की चेष्टा करना, अथवा चित्त की तरंगों को रोक के उसे शांत करने का यत्न करना ही 'अभ्यास' कहलाता है।  इसी अभ्यास से आगे चलके ऐसा स्वभाव बन जाता है कि व्यव्हार करते हुए, सारे  संसारी काम-काजों में जुटे हुए भी मन, रूप रस पीता रहता है, उस अपूर्व आनंद में डुबकी लगाता रहता है,इसी का नाम 'सहज-समाधि'  है। 
 जो चीज़ जन्म से  साथ आवे, जो हमारे स्वभाव में हो, वह 'सहज' कहलाती है। किसी काम के करते करते, चाहे वह अच्छा काम हो या बुरा, मनुष्य अपना स्वभाव बनाता है। ऐसा स्वभाव जन्मान्तर से संग आता है और इस जीवन में भी बनाया जाता है। स्वभाव के बनाने और बिगाड़ने का अधिकार भी मनुष्य को है। समाधि की अवस्था में प्रवेश होने के लिए आरम्भ में थोड़ा मन को कसना पड़ता है , उसे बाहर से रोक के, अंतर में ले जाना होता है, आगे अभ्यास करते करते वही स्वभाव हो जाता है और बड़ी सरलता से उसकी समाधि  चलने लगती है। अनुभवी गुरु यदि भाग्य से मिल जाये तब तो और भी आसानी हो जाती है और थोड़े यत्न करने पर ही यह अवस्थाएं प्राप्त हो रहती हैं। 
 योगी को अपनी इन्द्रियों पर संयम करना और अभ्यास द्वारा उस परम स्थिति को प्राप्त करना होता है जहाँ अपने-पराये का अन्तर समाप्त हो जाता है, सुख-दुख में समभाव हो जाता है। इन सारे लक्षणों के निरूपण के पश्चात् योग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन योगी बनोः - तपस्विभ्यो अधिको योगी, ज्ञानिभ्योऽपि मतोधिकः।कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवार्जुन।। (गीता ६/४६) हजारों साल पहले ऋषि उस ब्रह्म को, उस परम सत्ता को कहता है: द फोर्थ, चौथा, तुरीय। एक तो तीन गुणों के जो पार है, वह चौथा।  मनुष्य के चित्त की तीन दशाएं हैं--जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति। जागते हैं, स्वप्न देखते हैं, सोते हैं। अगर इन तीनों में ही मनुष्य समाप्त है, तो वह कौन है जो जागता है! वह कौन है जो सोता है! वह कौन है जो स्वप्न देखता है!निश्चित ही चौथा भी होना चाहिए, जिस पर जागरण का प्रकाश आता है, जिस पर निद्रा का अंधकार आता है, जिस पर स्वप्नों का जाल बुन जाता है। वह द फोर्थ, चौथा होना चाहिए, वह तीन में नहीं हो सकता। अगर मैं तीन में से एक हूं, तो बाकी दो मेरे ऊपर नहीं आ सकते। अगर मैं जाग्रत ही हूं, तो निद्रा मुझ पर कैसे उतरेगी? अगर मैं निद्रा ही हूं, तो मुझ पर स्वप्नों की तरंगें कैसी बनेंगी? ये तीन अवस्थाएं हैं, और जो मैं हूं, वह निश्चित ही चौथा होना चाहिए। उपनिषद उसे तुरीय कहते हैं, वह जो चौथा है।"चेतना के दो तल हैं। पहला तल व्यक्तित्व या अहंकार का है। दूसरा तल आत्मा का तल है। जहां तक व्यक्तित्व या अहंकार है, जहाँ मैं-पन है, अपने होने का भाव है; वहां आनंद नहीं है। दूसरी बात, आनंद हमारा स्वभाव है। व्यक्तित्व नहीं, निजता हमारी प्रकृति है। व्यक्तित्व है परिधि, मगर निजता केंद्रीय तत्व है। आनंद अंतर्यात्रा है। जब भी मिलेगा, भीतर से ही मिलेगा।आनंद प्राप्ति का दूसरा कदम है-स्वीकार भाव। हर स्थिति को स्वीकार करना। तीसरा कदम है, सद्गुरु का साथ चाहिए। सद्गुरु क्या करता है? सद्गुरु आपको परम तत्व की दिशा की ओर उन्मुख करता है। सद्गुरु के मार्गदर्शन से ही आनंद की असली यात्रा शुरू होती है।चौथी बात-आनंद उन्मनी दशा है। जहां मन नहीं है, विचार नहीं है, वहीं आनंद है। संत कबीर इसी आनंद को सहज समाधि कहते हैं। विराट के साथ एक हो जाना आनंद है। जब तक हम अकेले हैं, जब तक हम द्वैत में हैं, तब तक आनंद नहीं है। जब हम विराट के साथ एकाकार होते हैं, जहां हमारी अलग सत्ता समाप्त हो जाती है-वहां आनंद है। फिर बारी आती है-प्रभु के सुमिरन की। सुमिरन ही एक दिन समाधि तक पहुंचा देता है। समाधि का अर्थ है-प्रभु से मिलन के आनंद का गहरा जाना। समाधि अहंकार, मन, विचार-इन सभी को मिटा देती है और रह जाती है केवल शुद्ध चेतना। विराट के साथ जब हम एक होते हैं, उस समाधि का नाम ही आनंद है। समाधि में गए बगैर कोई आनंद का अहसास नहीं कर सकता। वह आनंद अस्थायी नहीं है। सुख की मनोदशा में भौतिक स्थितियों को भी विशेष महत्व दिया जाता है, लेकिन आनंद मानसिक शांति की सर्वोच्च मनोदशा है।साक्षी और स्वीकार भाव तो हम स्वयं भी साध सकते हैं, लेकिन आगे की अंतर्यात्रा अगर अकेले की, तो भटकने की संभावना ज्यादा रहेगी।आनंद की स्थिति में मानसिक शांति को विशेष महत्व दिया जाता है। आनंद के बारे में बताया नहीं जा सकता, बल्कि इसकी अनुभूति की जा सकती है। इस संदर्भ में यह जानना महत्वपूर्ण है कि आनंद अहंकार-शून्य अवस्था है।आनंद के अनुभव के लिए अपने भीतर लौटना होगा। अंतस की यात्रा शुरू होती है साक्षी से, ध्यान से। साक्षीभाव का मतलब है किसी वस्तु या विषय को साक्षी बनकर देखना। ] 



गुरुवार, 27 मई 2021

🔆🙏परिच्छेद ~ 65, [(18 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]Flatterer - Jackal & Bullock * गायत्री मन्त्र हिन्दू ब्राह्मणों का मूल मंत्र है, विशेषकर उनका जो जनेऊ धारण करते हैं। इस मंत्र के द्वारा वे देवी का आह्वान करते हैं। *गायत्री मन्त्र के द्वारा भक्त जगतजननी का आह्वान करते हैं*

[साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ] 

*परिच्छेद ~ ६५* 

(१) 

[(18 दिसंबर, 1883) , श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]

🔆🙏जो किशोरावस्था (adolescence-कौमार अवस्थामें वैराग्यवान् हैं -वे धन्य हैं !🔆🙏

[যারা সংসারে না ঢুকিয়া ,  কৌমার বৈরাগ্যবান, তারা ধন্য!]

[Recluse adolescence is blessed.]

[Expecting to be detached in old age like Devendranath Tagore; 

Blessed is Narendranath, a recluse since adolescence!]

[देवेन्द्रनाथ टैगोर की अपेक्षा/

किशोरावस्था से ही वैराग्यवान नरेन्द्रनाथ, राखाल आदि धन्य हैं !]

श्रीरामकृष्ण सदा ही समाधिमग्न रहते हैं; केवल राखाल आदि भक्तों की शिक्षा के लिए उन्हें लेकर व्यस्त रहते हैं – जिससे उन्हें चैतन्य प्राप्त हो । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ সর্বদাই সমাধিস্থ; কেবল রাখালাদি ভক্তদের শিক্ষার জন্য তাঁহাদের লইয়া ব্যস্ত — কিসে চৈতন্য হয়।

वे अपने कमरे के पश्चिमवाले बरामदे में बैठे हैं । प्रातःकाल का समय, मंगलवार, 18 दिसम्बर 1883 ई.। स्वर्गीय देवेन्द्रनाथ ठाकुर (দেবেন্দ্রনাথ ঠাকুরের) की भक्ति और वैराग्य की बात पर वे उनकी प्रशंसा कर रहे हैं । राखाल आदि किशोर भक्तों से वे कह रहे हैं, - “वे सज्जन व्यक्ति हैं । परन्तु जो गृहस्थाश्रम में प्रवेश न कर बचपन से ही शुकदेव आदि की तरह दिनरात ईश्वर का चिन्तन करते हैं, कौमार अवस्था में वैराग्यवान् हैं, वे धन्य हैं । 

[ দেবেন্দ্রনাথ ঠাকুরের ভক্তি ও বৈরাগ্যের কথায় তিনি তাঁহার প্রশংসা করিতেছেন। রাখালাদি ছোকরা ভক্তদের দেখিয়া বলিতেছেন, তিনি ভাল লোক; কিন্তু যারা সংসারে না ঢুকিয়া ছেলেবেলা থেকে শুকদেবাদির মতো অহর্নিশ ঈশ্বরের চিন্তা করে, কৌমার বৈরাগ্যবান, তারা ধন্য!

SRI RAMAKRISHNA was seated in his room with his devotees. He spoke highly of Devendranath Tagore's love of God and renunciation, and then said, pointing to Rakhal and the other young devotees, "Devendra is a good man; but blessed indeed are those young aspirants who, like Sukadeva, practise renunciation from their very boyhood and think of God day and night without being involved in worldly life.

“गृहस्थ की कोई न कोई कामना-वासना रहती है, यद्यपि उसमें कभी कभी भक्ति – अच्छी भक्ति – दिखायी देती है । मथुरबाबू न जाने किस एक मुकदमे में फँस गए थे; मन्दिर में माँ काली के पास आकर मुझसे कहता हैं, ‘बाबा, आप माँ को यह अर्घ्य दीजिए (यह फूल चढ़ा दीजिये) न !’ मैंने उदार मन से माँ के चरणों में फूल चढ़ा दिया । परन्तु कैसा विश्वास है कि मेरे देने से ही ठीक होगा । 

[“সংসারী লোকদের একটা না একটা কামনা বাসনা থাকে। এদিকে ভক্তিও বেশ দেখা যায়। সেজোবাবু কি একটা মোকদ্দমায় পড়েছিল — মা-কালীর কাছে, আমায় বলছে, বাবা, এই অর্ঘ্যটি মাকে দাও তো — আমি উদার মনে দিলাম।“কিন্তু কেমন বিশ্বাস যে আমি দিলেই হবে।

"The worldly man always has some desire or other, though at times he shows much devotion to God. Once Mathur Babu was entangled in a lawsuit. He said to me in the shrine of Kali, 'Sir, please offer this flower to the Divine Mother.' I offered it unsuspectingly, but he firmly believed that he would attain his objective if I offered the flower.

[(18 दिसंबर, 1883) , श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]

🔆🙏 वैष्णव या शाक्त के प्रति एकांगी दृष्टिकोण नहीं ; गायत्रीमंत्र की सार्थकता 🔆🙏 

रति की माँ की इधर कितनी भक्ति है ! अक्सर आकर कितनी सेवा-टहल करती है ! रति की माँ वैष्णव है । कुछ दिनों के बाद ज्योंही देखा कि मैं माँ काली का प्रसाद खाता (शाक्त) हूँ – त्योंही उसने आना बन्द कर दिया । कैसा एकांगी दृष्टिकोण है । लोगों को पहले-पहल देखने से पहचाना नहीं जाता।” 

[“রতির মার এদিকে কত ভক্তি! প্রায় এসে কত সেবা। রতির মা বৈষ্ণবী। কিছুদিন পরে যাই দেখলে আমি মা-কালীর প্রসাদ খাই — অমনি আর এলো না! একঘেয়ে! লোককে দেখলে প্রথম প্রথম চেনা যায় না।”

"What devotion Rati's mother had! How often she used to come here and how much she served me! She was a Vaishnava. One day she noticed that I ate the food offered at the Kali temple, and that stopped her coming. Her devotion to God was one-sided. It isn't possible to understand a person right away."

श्रीरामकृष्ण कमरे के भीतर पूर्व की ओर के दरवाजे के पास बैठे हैं । जाड़े का समय । बदन पर एक ऊनी चद्दर है । एकाएक सूर्य देखते ही समाधिमग्न हो गये । आँखें स्थिर ! बाहर का कुछ भी ज्ञान नहीं।बहुत देर बाद समाधि भंग हुई । राखाल, हाजरा, मास्टर आदि पास बैठे हैं । 

क्या यही गायत्रीमन्त्र की सार्थकता है – “तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि’ ? 

{गायत्री मन्त्र हिन्दू ब्राह्मणों का मूल मंत्र है, विशेषकर उनका जो जनेऊ धारण करते हैं। इस मंत्र के द्वारा वे देवी का आह्वान करते हैं। यह मंत्र सूर्य भगवान को समर्पित है। इसलिए इस मंत्र को सूर्योदय और सूर्यास्त के समय पढ़ा जाता है। वैदिक शिक्षा लेने वाले युवकों के उपनयन (जनेऊ) संस्कार के समय भी इस मंत्र का उच्चारण किया जाता है। ऐसी शिक्षा को 'गायत्री दीक्षा' कहा जाता है। 'गायत्री', 'सावित्री' और 'सरस्वती' एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं। इस संसार में सत-असत जो कुछ हैं, वह सब ब्रह्मस्वरूपा गायत्री ही हैं। भगवान व्यास कहते हैं- "जिस प्रकार पुष्पों का सार मधु, दूध का सार घृत और रसों का सार पय है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है। गायत्री वेदों की जननी और पाप-विनाशिनी हैं, गायत्री मन्त्र से बढ़कर अन्य कोई पवित्र मन्त्र पृथ्वी पर नहीं है। गायत्री मन्त्र ऋक्, यजु, साम, काण्व, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय आदि सभी वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है, किन्तु सर्वत्र एक ही मिलता है। इसमें चौबीस अक्षर हैं। मन्त्र का मूल स्वरूप इस प्रकार है-ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। (ऋग्वेद ३.६२.१० यजुर्वेद ३.३५,२२.  सामवेद १४६२) अर्थात् हम भूलोक (पृथ्वीलोक) , भुवर्लोक (अंतरिक्ष)  और स्वर्लोक (द्युलोक)में व्याप्त उस सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के तेज का ध्यान करते हैं। परमात्मा का तेज हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की तरफ चलने के लिए  प्रेरित करे।साभार bhartdiscovery.org]  

[শ্রীরামকৃষ্ণ ঘরের ভিতর পূর্বদিকের দরজার নিকট বসিয়া আছেন। শীতকাল, গায়ে মোলস্কিনের র‌্যাপার। হঠাৎ সূর্যদর্শন ও সমাধিস্থ। নিমেষশূন্য! বাহ্যশূন্য! এই কি গায়ত্রী মন্ত্রের সার্থকতা — “তৎ সবিতুর্বরেণ্যং ভর্গো দেবস্য ধীমহি”?

It was a winter morning, and the Master was sitting near the east door of his room, wrapped in his moleskin shawl. He looked at the sun and suddenly went into samadhi. His eyes stopped blinking and he lost all consciousness of the outer world. After a long time he came down to the plane of the sense world. Rakhal, Hazra, M., and other devotees were seated near him.] 

[(18 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]

[` रे संगिनिया, से बन कोतो दूर ! जेखाने आमार श्यामसुन्दर ?' ]

[अरी सखी , वह वन और कितनी दूर है , जहाँ मेंरे  श्यामसुन्दर हैं ? ]   

🌼गोपियों जैसी श्रीकृष्णभक्ति🌼

श्रीरामकृष्ण (हाजरा के प्रति) – समाधि या भाव-अवस्था की प्रेरणा प्रेम से ही होती है । श्यामबाजार में नटवर गोस्वामी के मकान पर कीर्तन हो रहा था – श्रीकृष्ण और गोपियों का दर्शन कर मैं समाधिमग्न हो गया ! ऐसा लगा कि मेरा लिंग शरीर (सूक्ष्म शरीर) श्रीकृष्ण के पैरों के पीछे पीछे जा रहा है । (ऐसा लगा मानो मेरा सूक्ष्म शरीर श्रीकृष्ण के पदचिन्हों पर चल रहा हो। )

[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাজরার প্রতি) — সমাধি, ভাব, প্রেমের বটে। ও-দেশে (শ্যামবাজারে) নটবর গোস্বামীর বাড়িতে কীর্তন হচ্ছিল — শ্রীকৃষ্ণ ও গোপীগণ দর্শন করে সমাধিস্থ হলাম! বোধ হল আমার লিঙ্গ শরীর (সূক্ষ্ম শরীর) শ্রীকৃষ্ণের পায় পায় বেড়াচ্ছে!

MASTER (to Hazra): "The state of samadhi is certainly inspired by love. Once, at Syambazar, they arranged a kirtan at Natavar Goswami's house. There I had a vision of Krishna and the gopis of Vrindavan. I felt that my subtle body was walking at Krishna's heels.] 

जोड़ासाँकू हरिसभा में उसी प्रकार कीर्तन के समय समाधिस्थ होकर बाह्यशून्य हो गया था । उस दिन तो  देहत्याग की सम्भावना थी !” 

[“জোড়াসাঁকো হরিসভায় ওইরূপ কীর্তনের সময় সমাধি হয়ে বাহ্যশূন্য! সেদিন দেহত্যাগের সম্ভাবনা ছিল।”

"I went into samadhi when similar devotional songs were sung at the Hari Sabha in Jorashanko in Calcutta. That day they feared I might give up the body."

श्रीरामकृष्ण स्नान करने गए । स्नान के बाद उसी गोपी-प्रेम की ही बात कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण (मणि आदि के प्रति) – गोपियों के केवल उस आकर्षण को लेना चाहिए । इस प्रकार के गाने गाया करो –

[শ্রীরামকৃষ্ণ স্নান করিতে গেলেন। স্নানান্তর ওই গোপী প্রেমের কথা বলিতেছেন।(মণি প্রভৃতির প্রতি) — “গোপীদের ওই টানটুকু নিতে হয়!“এই সব গান গাইবে:

After the Master had finished his bath, he again spoke of the ecstatic love of the gopis. He said to M. and the other devotees: "One should accept, the fervent attachment of the gopis to their beloved Krishna. Sing songs like this:

गाना १-  सखी , से वन कतदूर ! (जेखाने आमार श्यामसुन्दर ?) (आर चलते जे नारि ! )

(भावार्थ) – “सखि, वह वन कितनी दूर है, जहाँ मेरे श्यामसुन्दर हैं । मैं तो और चल नहीं सकती ।”

[সখি, সে বন কতদূর!(যেখানে আমার শ্যামসুন্দর)(আর চলিতে যে নারি!) 

" Tell me, friend, how far is the grove, Where Krishna, my Beloved, dwells?  His fragrance reaches me even here; But I am tired and can walk no farther." 

गाना २ - घरे जाबोइ जे ना गो ! जे घरे कृष्ण नामटी कोरा दाय। (रे संगिनिया)  

(भावार्थ) –   “री सखि, जिस घर में कृष्णनाम लेना कठिन है उस घर में तो मैं किसी भी तरह नहीं जाऊँगी!” (रे संगिनिया)  

ঘরে যাবই যে না গো!যে ঘরে কৃষ্ণ নামটি করা দায়। (সঙ্গিনীয়া)”

"I am not going home, O friend, For there it is hard for me to chant my Krishna's name. . . .

(२)

[(18 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]

🌼 कालीमन्दिर में ईश्वर चिन्तन या ताशखेल  ?  ~ नेतृत्व का उद्गम !  🌼

 [কালীমন্দিরে তাস খেলা! এখানে ঈশ্বরচিন্তা করতে হয় -নেতৃত্বের উত্স]

[ God contemplating or playing cards in Kalimandir? 

~ The Genesis of Leadership!]

श्रीरामकृष्ण ने राखाल के लिए सिद्धेश्वरी के नाम पर कच्चे नारियल और चीनी की मन्नत की है । मणि से कह रहे हैं, “तुम नारियल और चीनी का दाम दोगे ।”

[শ্রীরামকৃষ্ণ রাখালের জন্য ৺সিদ্ধেশ্বরীকে ডাব-চিনি মানিয়াছেন। মণিকে বলিতেছেন, “তুমি ডাব, চিনির দাম দিবে।

”Sri Ramakrishna had vowed to offer green coconut and sugar to Siddhesvari, the Divine Mother, for Rakhal's welfare. He asked M. whether he would pay for the offerings.

दोपहर के बाद श्रीरामकृष्ण राखाल, मणि आदि के साथ कलकत्ते के श्री सिद्धेश्वरी मन्दिर की ओर गाड़ी पर सवार होकर आ रहे हैं । रास्ते में सिमुलियाबाजार से कच्चे नारियल और चीनी खरीदी गयी ।

मन्दिर में आकर भक्तों से कह रहे हैं, “एक नारियल फोड़कर चीनी मिलाकर माँ को अर्पण करो ।”

जिस समय मन्दिर में आ पहुँचे, उस समय पुजारी लोग मित्रों के साथ माँ काली के सामने ताश खेल रहे थे । यह देखकर श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं, “देखो, ऐसे स्थानों में भी ताश ! यहाँ पर तो ईश्वर का चिन्तन करना चाहिए !”

[যখন মন্দিরে আসিয়া পৌঁছিলেন, তখন পূজারীরা বন্ধু লইয়া মা-কালীর সম্মুখে তাস খেলিতেছিলেন। ঠাকুর দেখিয়া ভক্তদের বলিতেছেন, দেখেছ, এ-সব স্থানে তাস খেলা! এখানে ঈশ্বরচিন্তা করতে হয়।

They saw the priests and their friends playing cards in the temple. Sri Ramakrishna said: "To play cards in a temple! One should think of God here."

अब श्रीरामकृष्ण यदु मल्लिक के घर पर पधारे हैं । उनके पास अनेक बाबू लोग बैठे हुए हैं । 

यदुबाबू कह रहे हैं, “पधारिए, पधारिए ।” आपस में कुशल प्रश्न के बाद श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं।

[(18 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-65 ]

🌼चमचा लोग (flatterers) धनवान के पीछे- पीछे चलते हैं -बैल और सियार की कथा 🌼

[চাটুকাররা ধনীদের অনুসরণ করে - বলদ ও শৃগালের গল্প ] 

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) – तुम इतने चापलूसों (चमचों-flatterers को अपने साथ क्यों रखते हो ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তুমি অত ভাঁড়, মোসাহেব রাখ কেন?

MASTER (with a smile): "Why do you keep so many clowns and flatterers with you?"

यदु(हँसते हुए) – इसलिए कि आप उनका उद्धार करें । (सभी हँसने लगे) 

[JADU (smiling): "That you may liberate them." (Laughter.)

श्रीरामकृष्ण – चापलूस लोग समझते हैं कि बाबू उन्हें खुले हाथ धन दे देंगे; परन्तु बाबू से धन निकालना बड़ा कठिन काम है । 

एक सियार एक बैल को देख उसका फिर साथ न छोड़े । बैल चरता फिरता, सियार भी साथ साथ है । सियार ने समझा कि बैल का जो अण्डकोष लटक रहा है, वह कभी न कभी गिरेगा और उसे वह खायेगा ! बैल कभी सोता है तो वह भी उसके पास ही लेटकर सो जाता है और जब बैल उठकर घूम-फिरकर चरता है तो वह भी साथ साथ रहता है । कितने ही दिन इसी प्रकार बीते परन्तु वह कोष न गिरा, तब सियार निराश होकर चला गया ! (सभी हँसने लगे ।) इन चापलूसों की ऐसी ही दशा है !

[ শ্রীরামকৃষ্ণ — মোসাহেবরা মনে করে বাবু তাদের টাকা ঢেলে দেবে। কিন্তু বাবুর কাছে আদায় করা বড় কঠিন। একটা শৃগাল একটা বলদকে দেখে তার সঙ্গ আর ছাড়ে না। সে চরে বেড়ায়, ওটাও সঙ্গে সঙ্গে। শৃগালটা মনে করেছে ওর অণ্ডের কোষ ঝুলছে সেইটে কখন না কখন পড়ে যাবে আর আমি খাব। বলদটা কখন ঘুমোয়, সেও কাছে ঘুমোয়; আর যখন উঠে চড়ে বেড়ায়, সেও সঙ্গে সঙ্গে থাকে। কতদিন এইরূপে যায়, কিন্তু কোষটা পড়ল না; তখন সে নিরাশ হয়ে চলে গেল। (সকলের হাস্য) মোসাহেবের এইরূপই অবস্থা।

"Flatterers think that the rich man will loosen his purse-strings for them. But it is very difficult to get anything from him. Once a jackal saw a bullock and would not give up his company. The bullock roamed about and the jackal followed him. The jackal thought: 'There hang the bullock's testicles. Some time or other they will drop to the ground and I shall eat them.' When the bullock slept on the ground, the jackal lay down too, and when the bullock moved about, the jackal followed him. Many days passed in this way, but the bullock's testicles still clung to his body. The jackal went away disappointed. (All laugh.) That also happens to flatterers."

यदुबाबू और उनकी माँ ने श्रीरामकृष्ण तथा भक्तों को जलपान कराया । 

[যদু ও তাঁহার মাতাঠাকুরানী শ্রীরামকৃষ্ণ ও ভক্তদের জলসেবা করাইলেন।

Jadu and his mother served refreshments to Sri Ramakrishna and the devotees.

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🌼परिच्छेद ~ 64, [(17 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-64 ]*🌼*राम (पुरुष) को जानने के लिए सीता (प्रकृति भाव) का आश्रय लेना पड़ता है 🌼 पूर्णज्ञान होने पर वासना चली जाती है । 🌼 *त्रिगुणातीत भक्ति, अर्थात् भक्त किसी गुण के वश नहीं । * Aim of Life - Ishvaradarshan, Remedy - Ecstatic love ** जीवन का उद्देश्य - ईश्वरदर्शन, उपाय - उन्मत्त प्रेम (ecstatic love)* [गुरु /मार्गदर्शक नेता पूर्ण-ज्ञानी होंगे *चिन्मय श्याम, चिन्मय धाम

  [(17 दिसंबर, 1883)*परिच्छेद ~ 64, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

[साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)/ साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]

[(17 दिसंबर, 1883), श्रीरामकृष्ण वचनामृत-64]

 🌼राम (पुरुष)  को जानने के लिए सीता (प्रकृति भाव) का आश्रय लेना पड़ता है  🌼

दूसरे दिन सोमवार, 17 दिसम्बर 1883 , सबेरे आठ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण उसी कमरे में बैठे हुए हैं । राखाल, लाटू आदि भक्त भी हैं । मणि फर्श पर बैठे हैं । मधु डाक्टर भी आये हुए हैं । वे श्रीरामकृष्ण के पास उसी छोटी खाट पर बैठे हैं । मधु डाक्टर वयोवृद्ध हैं – श्रीरामकृष्ण को कोई बीमारी होने पर प्रायः ये आकर देख जाया करते हैं । स्वभाव के बड़े रसिक हैं । 

श्रीरामकृष्ण – बात है सच्चिदानन्द पर प्रेम । कैसा प्रेम ? – ईश्वर को किस तरह प्यार करना चाहिए ? 

गौरी पण्डित कहता था, राम को जानना हो तो सीता की तरह होना चाहिए । भगवान् को जानने के लिए भगवती की तरह होना चाहिए । भगवती ने शिव के लिए जैसी कठोर तपस्या की थी, वैसी ही तपस्या करनी चाहिए । पुरुष को जानने का अभिप्राय हो तो प्रकृति-भाव का आश्रय लेना पड़ता है – सखीभाव, दासीभाव, मातृभाव । 

শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — কথাটা এই — সচ্চিদানন্দ প্রেম। “কিরূপ প্রেম? ঈশ্বরকে কিরূপ ভালবাসতে হবে? গৌরী বলত রামকে জানতে গেলে সীতার মতো হতে হয়; ভগবানকে জানতে ভগবতীর মতো হতে হয়, — ভগবতী যেমন শিবের জন্য কঠোর তপস্যা করেছিলেন সেইরূপ তপস্যা করতে হয়; পুরুষকে জানতে গেলে প্রকৃতভাবে আশ্রয় করতে হয় — সখীভাব, দাসীভাব, মাতৃভাব।

 MASTER: "The whole thing in a nutshell is that one must develop ecstatic love for Satchidananda. What kind of love? How should one love God? Gauri used to say that one must become like Sita to understand Rama; like Bhagavati, the Divine Mother, to understand Bhagavan, Siva. One must practise austerity, as Bhagavati did, in order to attain Siva. One must cultivate the attitude of Prakriti in order to realize Purusha — the attitude of a friend, a handmaid, or a mother.] 

“मैंने सीतामूर्ति के दर्शन किए थे । देखा, सब मन राम में ही लगा हुआ है । योनि, हाथ, पैर, कपड़े-लत्ते, किसी पर दृष्टि नहीं है । मानो जीवन ही राममय है – राम के बिना रहे, राम को बिना पाए, जी नहीं सकती ।” 

[“আমি সীতামূর্তি দর্শন করেছিলাম। দেখলাম সব মনটা রামেতেই রয়েছে। যোনি, হাত, পা, বসন-ভূষণ কিছুতেই দৃষ্টি নাই। যেন জীবনটা রামময় — রাম না থাকলে, রামকে না পেলে, প্রাণে বাঁচবে না!”

"I saw Sita in a vision. I found that her entire mind was concentrated on Rama. She was totally indifferent to everything — her hands, her feet, her clothes, her jewels. It seemed that Rama had filled every bit of her life and she could not remain alive without Rama."

मणि – जी हाँ, जैसे पगली ! 

[মণি — আজ্ঞা হাঁ, — যেন পাগলিনী।\

M: "Yes, sir. She was mad with love for Rama."]

श्रीरामकृष्ण – उन्मादिनी ! – अहा ! ईश्वर को प्राप्त करना हो तो पागल होना पड़ता है । 

“कामिनी-कांचन पर मन के रहने से नहीं होता । कामिनी के साथ रमण – इसमें क्या सुख है? ईश्वरदर्शन होने पर रमण सुख से करोड़ गुना आनन्द होता है । गौरी कहता था, महाभाव होने पर शरीर के सब छिद्र – रोमकूप भी – महायोनि हो जाते हैं । एक-एक छिद्र में आत्मा के साथ आत्मा का रमण-सुख होता है ! 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — উন্মাদিনী! — ইয়া। ঈশ্বরকে লাভ করতে গেলে পাগল হতে হয়।“কামিনী-কাঞ্চনে মন থাকলে হয় না। কামিনীর সঙ্গে রমণ, — তাতে কি সুখ! ঈশ্বরদর্শন হলে রমণসুখের কোটিগুণ আনন্দ হয়। গৌরী বলত, মহাভাব হলে শরীরের সব ছিদ্র — লোমকূপ পর্যন্ত — মহাযোনি হয়ে যায়। এক-একটি ছিদ্রে আত্মার সহিত রমণসুখ বোধ হয়।”

 "Mad! That's the word. One must become mad with love in order to realize God. But that love is not possible if the mind dwells on 'woman and gold'. Sex-life with a woman! What happiness is there in that? The realization of God gives ten million times more happiness. Gauri used to say that when a man attains ecstatic love of God all the pores of the skin, even the roots of the hair, become like so many sexual organs, and in every pore the aspirant enjoys the happiness of communion with the Atman.] 

[(17 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-64 ]

 🌼 पूर्णज्ञान होने पर वासना चली जाती है । 🌼

“व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । गुरु के श्रीमुख से सुन लेना चाहिए कि वे क्या करने से मिलेंगे  

“गुरु तभी मार्ग बतला सकेंगे जब वे स्वयं पूर्णज्ञानी होंगे । पूर्णज्ञान होने पर वासना चली जाती है । पाँच वर्ष के बालक का-सा स्वभाव हो जाता है । दत्तात्रेय और जड़भरत, ये बालस्वभाव के थे ।” 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ব্যাকুল হয়ে তাঁকে ডাকতে হয়। গুরুর মুখে শুনে নিতে হয় — কি করলে তাঁকে পাওয়া যায়।“গুরু নিজে পূর্ণজ্ঞানী হলে তবে পথ দেখিয়ে দিতে পারে।“পূর্ণজ্ঞান হলে বাসনা যায়, — পাঁচ বছরের বালকের স্বভাব হয়। দত্তাত্রেয় আর জড়ভরত — এদের বালকের স্বভাব হয়েছিল।”

"One must call on God with a longing heart. One must learn from the guru how God can be realized. Only if the guru himself has attained Perfect Knowledge can he show the way. 

"A man gets rid of all desires when he has Perfect Knowledge. He becomes like a child five years old. Sages like Dattatreya and Jadabharata had the nature of a child."

मणि – जी हाँ, इनके बारे में लोगों को ज्ञात है, पर इनके अलावा और भी कितने ही ज्ञानी इनकी तरह के हो गए होंगे । 

[মণি — আজ্ঞে, এদের খপর আছে; — আরও এদের মতো কত জ্ঞানী লোক হয়ে গেছে।

M: "One hears about them. But there were many others like them that the world doesn't hear about."

श्रीरामकृष्ण – हाँ, ज्ञानी की सब वासना चली जाती है । - जो कुछ रह जाती है, उसमें कोई हानि नहीं होती । पारस पत्थर के छू जाने पर तलवार सोने की हो जाती है, फिर उस तलवार से हिंसा का काम नहीं होता । इसी तरह ज्ञानी में कामक्रोध का आकार मात्र रहता है, - नाममात्र – उससे कोई अनर्थ नहीं होता । 

[ শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ! জ্ঞানীর সব বাসনা যায়, — যা থাকে তাতে কোন হানি হয় না। পরশমণিকে ছুঁলে তরবার সোনা হয়ে যায়, — তখন আর সে তরবারে হিংসার কাজ হয় না। সেইরূপ জ্ঞানীর কাম-ক্রোধের কেবল ভঙ্গীটুকু থাকে। নামমাত্র। তাতে কোন অনিষ্ট হয় না।

MASTER: "Yes. The jnani gets rid of all desire. If any is left, it does not hurt him. At the touch of the philosopher's stone the sword is transformed into gold. Then that sword cannot do any killing. Just so, the jnani keeps only a semblance of anger and passion. They are anger and passion only in name and cannot injure him.]"

[(17 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-64 ]

🌼माया को जीत न पाया तो केवल संन्यासी होकर क्या होगा ? 🌼

मणि – आप जैसा कहा करते हैं, ज्ञानी तीनों गुणों से परे हो जाता है । सत्त्व, रज, और तम – किसी गुण के वश में वह नहीं रहता । ये तीनों गुण डकैत हैं ।

[মণি — আপনি যেমন বলেন, জ্ঞানী তিনগুণের অতীত হয়। সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ — কোন গুণেরই বশ নন। এরা তিনজনেই ডাকাত

M: "Yes, sir. The jnani goes beyond the three gunas, as you say. He is not under the control of any of the gunas — sattva, rajas, or tamas. All these three are so many robbers, as it were."

श्रीरामकृष्ण – इस बात की धारणा करनी चाहिए । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওইগুলি ধারণা করা চাই।

MASTER: "Yes, one must assimilate that."

मणि – पूर्णज्ञानी संसार में शायद तीन-चार मनुष्यों से अधिक न होंगे । 

[মণি — পূর্ণজ্ঞানী পৃথিবীতে বোধ হয় তিন-চারজনের বেশি নাই।

M: "In this world there are perhaps not more than three or four men of Perfect Knowledge."

श्रीरामकृष्ण – क्यों ? पश्चिम के मठों में तो बहुत से साधुसंन्यासी दीख पड़ते हैं । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন, পশ্চিমের মঠে অনেক সাধু-সন্ন্যাসী দেখা যায়।

MASTER: "Why do you say that? One sees many holy men and sannyasis in the monasteries of upper India."

मणि – जी, इस तरह का संन्यासी तो मैं भी हो जाऊँ ! 

[মণি — আজ্ঞা, সে সন্ন্যাসী আমিও হতে পারি!

M: "Well, I too can become a sannyasi like one of those."

इस बात पर श्रीरामकृष्ण कुछ देर तक मणि की ओर देखते रहे । 

श्रीरामकृष्ण(मणि से) – क्या ? सब त्यागकर ? 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — কি, সব ছেড়ে?

The Master fixed his gaze on M. and said, "By renouncing everything?"

मणि – माया के बिना गए क्या होगा ? माया को जीत न पाया तो केवल संन्यासी होकर क्या होगा ? 

[মণি — মায়া না গেলে কি হবে? মায়াকে যদি জয় না করতে পারে শুধু সন্ন্যাসী হয়ে কি হবে?

M: "What can a man achieve unless he gets rid of maya? What will a man gain by merely being a sannyasi, if he cannot subdue maya?"

सब लोग कुछ समय तक चुप रहे । 

 [(17 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत  ]

🌼त्रिगुणातीत भक्त बालक के समान सब कुछ चिन्मय देखता है 🌼

मणि – अच्छा त्रिगुणातीत भक्ति किसे कहते हैं ?

[মণি — আজ্ঞা, ত্রিগুণাতীত ভক্তি কাকে বলে?

M: "Sir, what is the nature of the divine love transcending the three gunas?"]

श्रीरामकृष्ण– उस भक्ति के होने पर भक्त सब चिन्मय देखता है । चिन्मय श्याम, चिन्मय धाम – भक्त भी चिन्मय – सब चिन्मय ! ऐसी भक्ति कम लोगों की होती है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে ভক্তি হলে সব চিন্ময় দেখে। চিন্ময় শ্যাম। চিন্ময় ধাম। ভক্তও চিন্ময়। সব চিন্ময়। এ-ভক্তি কম লোকের হয়।

MASTER: "Attaining that love, the devotee sees everything full of Spirit and Consciousness. To him 'Krishna is Consciousness, and His sacred Abode is also Consciousness'. The devotee, too, is Consciousness. Everything is Consciousness. Very few people attain such love."] 

डाक्टर मधु (सहास्य) – त्रिगुणातीत भक्ति, अर्थात् भक्त किसी गुण के वश नहीं । 

[ডাক্তার মধু (সহাস্যে) — ত্রিগুণাতীত ভক্তি — অর্থাৎ ভক্ত কোন গুণের বশীভূত নয়।

DR. MADHU: "The love transcending the three gunas means, in other words, that the devotee is not under the control of any of the gunas."

श्रीरामकृष्ण(सहास्य) – हाँ, जैसे पाँच साल का लड़का – किसी गुण के वश नहीं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ইয়া! যেমন পাঁচ বছরের বালক — কোন গুণের বশ নয়।

MASTER (smiling): "Yes, that's it. He becomes like a child five years old, not under the control of any of the gunas."

दोपहर को, भोजन के बाद, श्रीरामकृष्ण थोड़ा विश्राम कर रहे हैं । श्री मणिलाल मल्लिक ने आकर प्रणाम किया; फिर जमीन पर बैठ गए । मणि भी जमीन पर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण लेटे लेटे ही मणि मल्लिक के साथ बीच बीच में एक एक बात कह रहे हैं ।

मणि मल्लिक – आप केशव सेन को देखने गए थे ?

श्रीरामकृष्ण – हाँ, अब वे कैसे हैं ? 

मणि मल्लिक – रोग कुछ घटता हुआ नहीं दीख पड़ता ।

श्रीरामकृष्ण – मैंने देखा, बड़ा राजसिक हैं । मुझे बड़ी देर तक बैठा रखा, तब भेंट हुई ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখলাম বড় রাজসিক, — অনেকক্ষণ বসিয়েছিল, — তারপর দেখা হল।

MASTER: "I found him to be very rajasic. I had to wait a long time before I could see him."]

श्रीरामकृष्ण उठकर बैठ गए और भक्तों के साथ बातचीत करने लगे ।

श्रीरामकृष्ण(मणि से)- मैं ‘राम राम’ कहकर पागल हो गया था । संन्यासी के देवता रामलला को लेकर घूमता फिरता था – उसे नहलाता था, खिलाता था, सुलाता था । जहाँ कहीं जाता, साथ ले जाता था । ‘रामलला’ ‘रामलला’ कहकर पागल हो गया था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — আমি ‘রাম’ ‘রাম’ করে পাগল হয়েছিলাম। সন্ন্যাসীর ঠাকুর রামলালকে লয়ে লয়ে বেড়াতাম। তাকে নাওয়াতাম, খাওয়াতাম, শোয়াতাম। যেখানে যাব, — সঙ্গে করে লয়ে যেতাম। “রামলালা রামলালা” করে পাগল হয়ে গেলাম।

MASTER (to M.): "I became mad for Rama. I used to walk about carrying an image of Ramlala (A brass image of the Boy Rama.) given to me by a monk. I bathed it, fed it, and laid it down to sleep. I carried it wherever I went. I became mad for Ramlala."]

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