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बुधवार, 5 दिसंबर 2012

आदर्श कार्यकर्ता कौन ?(7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता), (ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [48]

'जिसका मन (mind-stuff) वज्र के उपादानों से निर्मित हो !'
यदि हमलोग सचमुच अपने देशवासियों का कल्याण करना चाहते हों, तो हमें हृद्यवत्ता, सहानुभूति आदि गुणों को अर्जित करना ही पड़ेगा। दूसरों के प्रति सहानुभूति, मेरे हृदय को इस प्रकार स्पर्श करेगी, कि मैं स्वयं को भी भूल जाऊंगा। स्वयं को भूल जाने का अर्थ है- अपने अपने घर-परिवार, स्त्री-पुत्र, स्वयं के शरीर, नाम, यश, इत्यादि क्षुद्र स्वार्थ या भोग-सुख की चाह की भावना को को तुच्छ और जीवन उपांग समझकर, अपने सम्पूर्ण जीवन का गठन इस प्रकार करूँगा ताकि उसे दूसरों की सेवा में उत्सर्ग करने योग्य बना सकूँ।
स्वामी विवेकानन्द ने इतना अवश्य कहा है कि ' जो व्यक्ति शुरुआत में ही वैसी सहानुभूति जाग्रत नहीं कर सकते हों, वे नाम-यश कमाने के लिए भी सद्कर्म करना प्रारम्भ तो करें, बाद में धीरे धीरे उनके भीतर भी कर्म के प्रति सही दृष्टिकोण स्वतः जाग्रत हो जायगा।'जिस व्यक्ति का हृदय दूसरे मनुष्यों के लिये द्रवित होता हो, जो व्यक्ति अपने भीतर मनुष्यों के दुःख-कष्ट को दूर करने के लिये एक तकाज़ा का अनुभव करता रहता हो, वह यदि उनके दुःख-कष्ट को दूर करने के मार्ग को भी आविष्कृत कर सके, और उसके लिये यदि एक दृढ़ संकल्प भी हो, तब वह अपने द्वारा आविष्कृत पद्धति का प्रयोग करके, अपने संकल्प को रूपायित करने का प्रयत्न करगा, और तभी उसके लिये सच्चे अर्थों में मनुष्यों का कल्याण करना संभव होगा। इस प्रकार क्रमशः समस्त प्रकार की बाधाओं का अतिक्रमण करके, उससे उपर उठकर, असम्भव को भी संभव किया जा सकता है।
युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामीजी कहते हैं, " हे साहसी, वीर, दृढ़ युवक-गण कार्य करते रहो। नाम, यश या व्यर्थ के चीजों के लिये वापस मुड़ कर मत देखो। ' मैं मैं ' -के विचार को एकदम दूर फेंक दो, तथा कार्य करते रहो। मुझे अनन्त साहस, अनन्त धैर्य, अनन्त शान्ति अनन्त उत्साह से भरपूर युवा चाहिये। तभी बड़े बड़े कार्य पुरे हो सकेंगे। "
ऐसे युवाओं (कर्मियों) का 'मन' किस उपादान (Mind stuff) से निर्मित होगा ? स्वामीजी कहते हैं, इन युवकों का मन बज्र के उपादानों से गठित रहेगा। क्योंकि कार्यकर्ताओं का मन यदि बहुत कोमल और नरम होगा, तो जो भी वस्तु सामने आयेगी उन सभी वस्तुओं की छाप उस मन के ऊपर पड़ती रहेगी।और कठोर मन से  तात्पर्य है- अविचल, स्थिर मन- अर्थात उस मन को उद्विग्न बना देना, विकृत बना देना कभी संभव नहीं होगा। तथा उस मन में आत्मविश्वास, संकल्प, निश्चय -आदि भाव बिल्कुल ध्रुव की भाँति अटल रहेंगे। बज्र का नाम सुनते ही महर्षि दधिची की कथा याद हो आती हैं। सच्चे कार्यकर्ताओं का मन भी दधिची की जैसा होगा। अर्थात उस मन में अपने स्वार्थ की चिंता नहीं होगी, उस मन में केवल दूसरों के कल्याण की चिन्ता होती है, वह मन अपने कच्चे मैं  के प्रति कठोर होगा, और  कच्चे मैं की कामना-वासना को जड़ से उखाड़ फेंकने में समर्थ होगा, स्वामीजी वैसा ही मन अपने कार्यकर्ताओं में भी देखना चाहते थे।
सच्चे कार्यकर्ताओं का मन दूसरों के प्रति कठोर नहीं होगा, बल्कि अपने दोषों के प्रति कठोर होगा। दूसरों के प्रति कोमल होगा, दूसरों के प्रति सहानुभूति सम्पन्न होगा।  किन्तु मन की मर्जी के अनुसार जो छोटे छोटे अनित्य, क्षणभंगुर सुखों को भोगने की चाह उठती है, उन विचारों को उठते ही नष्ट कर देने के लिये मन को कठोर बना लेना होगा। इसीलिये जो मन किसी भी प्रलोभन (Temptation ) या भय के सामने पड़ कर भी अपने सत-संकल्प से विच्युत नहीं होगा, जिस मन में निरंतर विवेक-प्रयोग करने का सामर्थ्य होगा, उसे तो  बज्र के जैसा कठोर होना ही चाहिये।
उसके बाद स्वामीजी के भीतर जैसा ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य था, उसके महत्व की अनुभूति करनी भी आवश्यक होगी। वेदों में कहा गया है, जहाँ क्षात्र-वीर्य और ब्रह्म-तेज एक एक साथ रहते हैं, वहाँ देवता लोग अग्नि के सहित निवास करते हैं। ब्रह्मतेज का अर्थ है -वह तेज जो ब्रह्मदृष्टि से उत्पन्न होती है। अर्थात सभी एक (ईश्वर) है, इस साम्य दृष्टि से जो तेज या शक्ति उत्पन्न होती है, उसे ब्रह्मतेज कहते हैं। जिस किसी व्यक्ति को समदर्शन की उपलब्धि हो जाती है, जो मनुष्य समदर्शी (even-minded) बन जाता है, उसका भय सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है। 
बृहदारण्यक उप०  १. ४. २ में कहा गया है- " द्वितीयाद वै भयं भवति " भय का जन्म भिन्नता के बोध से होता है, दो व्यक्ति यदि अपने को अलग अलग नहीं मानें तो भय की उत्पत्ति भी नहीं होगी। जिसमें समदृष्टि होती है, अर्थात अभिन्न दृष्टि होती है, उसके लिये दो के (मैं और तुम या वे अलग अलग हैं) ऐसा कोई भेद-भाव नहीं होता है, इसीलिये उसको किसी का भय भी नहीं होता है।  और जो किसी भी चीज भयभीत नहीं होगा, उसका तेज भी अवश्य अधिक होगा।
इसीलिये जो लोग सच्चे हृदय से देश के कल्याण का कार्य करना चाहते हैं, उनको समदर्शी भी अवश्य होना होगा। तभी वे लोग ब्रह्मतेज के स्पर्श का अनुभव कर सकेंगे। इसके साथ साथ कार्य करने के लिये जिस
रजोगुण की भी आवश्यकता होती है, उसी को क्षात्रवीर्य कहा जाता है। इस विषय के महत्व पर गीता के अन्तिम श्लोक (१८. ७८) में कहा गया है-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
-हे राजन् ! जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है । 
जिस व्यक्ति के मन में सबों के प्रति एकत्व का बोध रहता है, समदृष्टि रहती है, उसी को योगी कहते हैं। श्रीकृष्ण योग के मूर्त रूप हैं। जो कर्म (अपने-पराये का भेद छोड़ कर ) समग्र-कल्याण की दृष्टि से किया जाता है, उसी को योग की अवस्था में समदृष्टि के साथ कर्म करना कहते हैं।
'ईशावास्योपनिषद' के प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत को ईश्वर का आवास कहा गया है। 'यह किसका धन है?' प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार का त्याग करने का सूत्र दिया है।यहाँ जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो कुछ भी है-सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है-
 ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। 
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥1॥
जो मनुष्य इस प्रकार त्याग की भावना के साथ कर्म करता है, वह कर्म कभी बन्धन का कारण नहीं होता; अर्थात इस दृष्टि के साथ को कर्म करता है, उसके उपर कर्म-फल का कोई प्रभाव नहीं होता। इसी प्रसंग में श्रीरामकृष्ण ने कहा था-" कर्म के विष-दन्त को तोड़ देना चाहिये।" यदि दूसरे के प्रति प्रेम के कारण, उसके कल्याण के लिये कुछ करने की प्रेरणा आये, अर्थात रजो मिश्रित सतोगुण के साथ कर्म किया जाये, तभी सबसे उत्कृष्ट कर्म होता है। 
इस प्रकार के कार्य के लिये उपयुक्त युवाओं की आवश्यकता है। वर्तमान युग में श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन का उत्सर्ग करके, इस निष्काम कर्म की विचार-धारा को पुनर्प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने अपने जीवन के द्वारा यह दिखला दिया है कि, त्याग पूर्वक कर्म करने या कर्म-त्याग का अर्थ आलसी व्यक्ति बन कर बैठे रहना बिल्कुल नहीं है। इसका तात्पर्य है-कर्म के फल को त्याग देना, अर्थात ' मैं जो कार्य कर रहा हूँ, उसका फल मुझे प्राप्त हो-इस आकांक्षा का त्याग। इस प्रकार कर्म करने से जीवन आनन्द से भर जाता है। 
जिन मनुष्यों के वचन और कर्मों में, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमेशा आनन्द की धारा बहती रहती हो, वे क्या कभी " ठूँठा जगन्नाथ " बनकर बैठे रह सकते हैं ? नहीं, वे तो ' तीनों भुवन ' को अनुग्रह की श्रेणी देकर तृप्त करते रहते हैं। वे ही आदर्श कार्यकर्ता हैं- वास्तव में उनको तो नैष्कर्म-सिद्धि प्राप्त हो चुकी है। वास्तव में वे कोई कर्म नहीं करते, जबकि बाहरी दृष्टि से देखने पर, वे बहुत बड़े कार्यकर्ता दीखते हैं। वे कर्म में अ-कर्म और अ-कर्म में कर्म देखते हैं। इसलिये कर्म के फल का उनके उपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, (लौकिक और  अध्यात्मिक कर्म  का भेद उनकी दृष्टि में समाप्त हो जाता है) इसीलिये कर्म का फल उनको रत्ती भर भी विचलित नहीं कर पाता। 
जो युवा अपने को देश के कल्याण में उत्सर्ग कर देना चाहते हैं, उन्हें आदर्श कार्यकर्ता बन जाने के संकल्प को सफल करने के लिये- हृद्यवत्ता, सहानुभूति, 'कठोर-कोमल' मन, समदर्शिता, कर्मशीलता आदि गुणों को अर्जित करना होगा। युवाओं के इसे स्पष्ट रूप से समझ लेने की चेष्टा करनी चाहिये।
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मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

'प्रत्येक कार्य महान है ' (योगः कर्मसु कौशलम्) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [47] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

कोई भी कर्म छोटा नहीं है !
जो व्यक्ति जैसा कर्म अधिक पसन्द करता हो, उसे वही कार्य सौंप दिया जाय तो, वह उस कार्य को बहुत आसानी से और बहुत आनन्द पूर्वक पूरा कर सकता है। हो सकता है, उस कार्य में मानव-शक्ति का सर्वोत्तम व्यवहार भी देखने को मिले। किन्तु जिस व्यक्ति को इस प्रकार उसके मन-मुताबिक कार्य सौंपा जायेगा, वह सही रूप से अपने जीवन को गठित नहीं कर पायेगा। इसीलिये हमलोगों का उद्देश्य रहना चाहिये -कर्म की रूचि जिस दिशा में हो, उसमें परिवर्तन करना, - ताकि मौका पड़ने से कोई भी कार्य नीरस या मुश्किल नहीं प्रतीत हो। हमलोगों को किसी बुद्धिमान मनुष्य जैसा समस्त कर्मों को ही,अपने पसन्द के कार्य में रूपान्तरित कर लेने का कौशल सीखना होगा।
जिस कार्य को हमें करना पड़ रहा है, उसके साथ हमें अपने कर्म करने के उद्देश्य के योग को भी आविष्कृत करना होगा। गीता २. ५० में कहा गया है -
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
 तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।। 
 - अर्थात समत्वबुद्धि-युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों (में कर्तापन के अभिमान) को त्याग देता है। इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। र्म में कौशल को योग कहते हैं।कर्मों में कुशलता योग है।।
 कर्म में कौशल का तात्पर्य क्या है ? यही कि सामने आ गये कर्म को मैं किस दृष्टि से देखूँगा ? यदि सामने आ गये कर्म को बोझ, भार या सजा समझ लें, तो कर्म में कौशल नहीं होगा। यदि उसी कर्म को मनचाहा या दिलपसन्द मान कर किया जाये तो वही कर्म आनन्द बन जायेगा। उस प्रकार कर्म करने से कोई भी कार्य नीरस या बोझिल नहीं प्रतीत होगा। इस बात को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। 
मैं एक अच्छा चरित्रवान मनुष्य बनना चाहता हूँ। इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये मुझे कई कार्य करने पड़ सकते हैं। और हो सकता है, शुरू शुरू में वे सभी कार्य (विवेक-प्रयोग, मनःसंयोग, व्यायाम।..आदि), मुझे रुचिकर न लगें। किन्तु यदि हम ऐसा सोचें कि उन्हीं कार्यों को करने से मेरा और साथ-साथ अन्य चार मनुष्यों का भी मंगल हो जायेगा, तो उन कार्यों के प्रति हमारी दृष्टि बदल जाएगी। धीरे धीरे उन कार्यों में मेरी निष्ठा हो जाएगी, और उन्हें करने में आनन्द मिलने लगेगा। 
छात्रों को पढ़ाने का कार्य हो, या खेत में कुदाल चलाना हो, या किसी ऑफिस-अदालत का कोई कार्य क्यों न हो, उसे सही तरीके से करने पर आत्मोन्नति अवश्य होगी- यह तो हम कार्य के फल को देखकर ही समझ लेंगे! 'कार्य को अच्छे ढंग से पूरा करने पर उसका फल लोगों के कल्याण में लगेगा'- इसी मनोभाव से कर्म करने से उसका लाभ हमलोग पायेंगे। 'कार्य का सीधा फल दूसरे लोगों को मिलेगा' --इसी उद्देश्य को सामने रखकर कार्य करने से, हमलोगों को उस कार्य के बदले एक दूसरा फल अवश्य प्राप्त होगा। और वह अद्भुत फल है- आनन्द, तृप्ति, आत्मोन्नति। यह जान कर कार्य करने से कि हमारे द्वारा किये गये कार्य का फल अन्य मनुष्यों को मिलेगा, तो हमारा कर्म त्याग बन जायेगा। ऐसा होने से ही हमलोग कुछ उच्चतर वस्तु प्राप्त करेंगे-वह है तृप्ति या आनन्द।
जो व्यक्ति कर्म में कौशल का प्रयोग कर सकता है, अर्थात जो व्यक्ति लौकिक कर्म भी आध्यात्मिक दृष्टि से  कर सकता हो, (१६ जनवरी सरस्वतीपूजा) सचमुच में वही बुद्धिमान है- क्योंकि उसके कार्यों के द्वारा बंधन की उत्पत्ति नहीं होती। इसीलिए, कर्म के फल को स्वयं अपने को अर्पित न करके दूसरे मनुष्यों के सुख के लिये करना पड़ेगा। ऐसा होने से ही वह कर्म अध्यात्मिक कर्म बन जायेगा, तथा उस कर्म के द्वारा मेरी आत्मोन्नति होगी।
इसीलिये कोई भी कर्म छोटा नहीं हो सकता है। हो सकता है कि बाहर से देखने पर कार्य छोटा प्रतीत हो सके, और उसको पूरा करने में कम समय भी लग सकता है। किन्तु कर्म के पीछे उद्देश्य ठीक रहने से उसीके द्वारा परम-पद की प्राप्ति हो सकती है। बरगद के वृक्ष का बीज बहुत छोटा होता है, किन्तु उसीके भीतर बरगद का विराट वृक्ष सुप्त रहता है। यदि उसको ठीक तरीके से जाग्रत किया जाय, तो कौशल का फल देखा जा सकेगा। इसीलिये बुद्धिमान के लिये समस्त कर्म एक समान महान हैं, और महत्वपूर्ण हैं। 
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सोमवार, 3 दिसंबर 2012

' समस्त कर्म अध्यात्मिक ही हैं' (मानव की सेवा ही ईश्वर की पूजा है) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [46] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

 ' कर्म-योग  ज्ञान और भक्ति से भिन्न मार्ग नहीं है'
सामान्यतः कार्य को दो भागों में विभक्त किया जाता है --पवित्र,धार्मिक या आध्यात्मिक (sacred), एवं साधारण लौकिक कार्य (Secular) सांसारिक कार्य। इस प्रकार साधारण लौकिक कार्यों (पढाई-लिखाई, नौकरी,परिवार का पालनपोषण इत्यादि) को करते करते हमलोग में इसकी इतनी गहरी आदत पड़ जाती है कि हमलोग आजीवन मुख्य रूप से साधारण लौकिक कार्यों को ही करते रहते हैं। - बहुत से लोग ऐसा भी सोचते हैं -कि उसके साथ साथ कभी-कभार धर्म की ओर देख लेने में भी कोई हानि नहीं है ! किन्तु यह मनोभाव बिल्कुल ठीक नहीं है। क्योंकि इस ढर्रे से जीवन-यापन करने से, समग्र जीवन की प्राप्ति नहीं होती। जबकि हमारा लक्ष्य समग्र-जीवन को पाना है। क्योंकि वस्तुतः (actually) हमलोगों का जीवन एक ही है, जबकि हम लोग अक्सर कहते रहते हैं कि हमारे जीवन के दो हिस्से हैं- एक लौकिक,सांसारिक जीवन; और दूसरा धार्मिक जीवन; जिसके बारे में बहुत से लोगों कि धारणा है कि, परलोक का मंगल विधान का अनुष्ठान करते रहने से इहलोक में भी थोड़ा लाभ ही मिलता है।
यदि हम अपने का उत्तर जीवन को -लौकिक और अध्यात्मिक दो भागों में न बाँट कर एक और अखण्ड रूप में देखना चाहें, तो हमें क्या करना होगा ? इस प्रश्न का उत्तर गीता में बहुत स्पष्ट रूप से बताया गया है- ' समस्त कर्मों को यज्ञ में परिणत करना होगा।' किन्तु यज्ञ का अर्थ अग्नि-कुण्ड में घी ढालना नहीं है, यज्ञ का वास्तविक अर्थ है- त्याग (Sacrifice)। अग्नि-कुण्ड में घी डालने का कारण यही है कि घी पौष्टिक होने के साथ साथ एक महंगी वस्तु भी है। इसीलिये चार्वाक ने भी कहा था- ' ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत '- घी जरुर खाना, भले ही उधार में लेकर क्यों न खाना पड़े।  
घी का मूल्य अच्छे-चावल के मूल्य की अपेक्षा, हमेशा लगभग १२ गुना अधिक रहता है। जिस समय कौटिल्य का अर्थशास्त्र लिखा जा रहा था, उस समय एक मन चावल का दाम ५ पण था, और एक मन घी का दाम ६० पण था। आज भी  एक किलो चावल का दाम यदि १० रुपया हो, तो एक किलो घी १५०  रुपये में बिकता है। इसीलिये जीवन में त्याग के भाव को लाने ले उद्देश्य से कहा गया था-यह घी जिसे तुम इतना प्रिय और कीमती समझते हो, इस घी को विभिन्न देवी-देवताओं के नाम से अग्नि में हवन कर दो।
किन्तु समय बीतने के साथ धीरे धीरे क्या हुआ ? केवल आग में घी डालना एक प्रथा बन गया,और  यज्ञ से त्याग का भाव तो समाप्त ही हो गया। घी की आहुति देते समय वास्तव में यह देखना चाहिये कि त्याग का भाव मन में है या नहीं ? त्याग के कानून को समझना ही मुख्य बात है। किसी बड़ी वस्तु को पाने के लिये, छोटी वस्तु को त्याग देना पड़ता है। किन्तु 'त्याग' का नाम सुनते ही, यह एक नकारात्मक (negative) वस्तु प्रतीत होती है- मानो जो पहले मेरा था, उसे छोड़ देने के लिये कहा जा रहा है, या जो मेरा था वह चला गया।
किन्तु स्वामी विवेकानन्द जिस त्याग को जीवन में अपनाने की बात कहते हैं, वह सकारात्मक (Positive) है, इस त्याग द्वारा हमलोग कुछ खोते नहीं हैं, बल्कि प्राप्त करते हैं। क्योंकि कुछ उच्चतर वस्तु को पाने के लिये किसी निम्नतर वस्तु को त्यागना पड़ता है। आमतौर से हमलोग इस भौतिक-जगत की सभी वस्तुओं से चिपके रहते हैं, किन्तु अध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने के लिये इनमें से कुछ सांसारिक वस्तुओं में आसक्ति को छोड़ना पड़ेगा। महाभारत (आदिपर्व ८० /१७) का एक सुन्दर श्लोक है-
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥
अर्थात् कुल का  कल्याण के लिये यदि एक व्यक्ति का त्याग करना पड़े तो कर देना चाहिए। इसी प्रकार ग्राम के हित को लिये कुल का, जनपद (जिला) के कल्याण के लिये ग्राम का, और आत्म कल्याण के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी का त्याग करना चाहिए । ठीक उसी प्रकार एक के लिये अन्य का त्याग का करना पड़ेगा।(उच्च कल्याण को पाने के लिये निम्न को छोड़ना होगा।) जो व्यक्ति आत्मलाभ करना चाहता हो, (जो ' स्व ' को यथार्थ मैं को, जो दृश्य का द्रष्टा या आत्मा को प्राप्त करना चाहता है), उसे भौतिक जगत की सभी वस्तुओं में आसक्ति का त्याग कर देना होगा। इसको ही संन्यास कहा जाता है। अर्थात आत्म-साक्षात्कार करने के लिये सभी जड़ वस्तुओं को (उसके प्रति आसक्ति को ) त्याग देना पड़ता है। किसी भी लौकिक वस्तु को सीने से चिपकाये नहीं रखना होगा। जैसे स्वामीजी दूसरी बार अमेरिका जाने से पहले बेलुड़ मठ के विदाई-भाषण में त्याग के उपर बोलते हुए कहे थे- ' सामान्य मनुष्य या गृहस्थ लोग जीवन को प्यार करते हैं, और संन्यासी लोग मृत्यु को।' किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे आत्महत्या करने की बात कह रहे थे।
[३० जुलाई १८९७ को स्वामी अखण्डानन्द जी को लिखे पत्र में कहते हैं- " शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है, फिर उसे आलस्य में क्यों नष्ट किया जाय ? 'जंग लगकर मरने से घिस घिस कर मरना कहीं अधिक अच्छा है।' १० वर्ष के अन्दर सम्पूर्ण भारत में छा जाना होगा- ' इससे कम में नशा नहीं होगा।' रूपये-पैसे सब कुछ अपने आप आते रहेंगे, मनुष्य चाहिये, रुपयों की आवश्यकता नहीं है। " ६/३६४ ] उनके कहने का तात्पर्य है कि तुमलोग सबों के कल्याण के लिए, विश्व के प्रत्येक मनुष्य की भलाई के लिये कार्य करते हुए,  तिल-तिल करके घिस-घिस करके मृत्यु की ओर बढ़ते जाना। यही है सच्चा त्याग, यही है सच्चा संन्यास।
इसीलिये अपने सामान्य जीवन में हमलोगों को भी प्रतीयमानतः सुखद वस्तु प्रतीत होती हो, उन्हें धीरे धीरे छोड़ना होगा। विवेक-प्रयोग करके 'प्रेय' (अल्प-सुख)के प्रति अपनी आसक्ति को धीरे धीरे कम करते जाना होगा,  और वृहत्तर वस्तु 'श्रेय ' (भूमा-आनन्द) की तरफ बढ़ते जाना होगा। ( 'नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ? ' -आनन्द या ईश्वर हमारे भीतर है बाहर नहीं) इस प्रकार से आगे बढ़ते जाने से क्या होगा ? यही होगा कि ' sacred and secular work ' -अर्थात लौकिक और अध्यात्मिक कर्म के बीच का अन्तर (द्वैत भाव) भी धीरे धीरे कम होता जायेगा। इसको ही उन्नति (progress) कहते हैं।
जो व्यक्ति अपने जीवन को इस प्रकार दो अलग अलग भागों ' sacred and secular ' में बँटा हुआ देखता है, उसका जीवन कभी सम्पूर्ण नहीं हो सकता है। अतः हमलोगों को अपने जीवन से इस द्वैत भाव (लौकिक-आध्यात्मिक) को घटाते-घटाते समस्त कर्मों को ही sacred या अध्यात्मिक बना लेना होगा। इस प्रकार कर्म करने से, हमारे समस्त लौकिक कर्म 'यज्ञ' में अर्थात त्याग में परिणत हो जायेंगे; हमारे सांसारिक-कर्म भी स्वार्थ के लिये न होकर, परार्थ कर्म बन जायेंगे। जो भी कर्म करूँगा, उसे दूसरों के कल्याण के लिये ही करूँगा। मैं शरीर को स्वस्थ और सबल रखने के लिये पौष्टिक आहार लूँगा और नियमित व्यायाम करूँगा, पूरी मिहनत से पढाई-लिखाई करूँगा, पूरी तन्मयता के साथ व्यवसाय करूँगा-  यह सब अपना शक्ति-सामर्थ्य बढ़ाने के लिये करूँगा। किन्तु मैं अपना सामर्थ्य मैं क्यों बढ़ाना चाहूँगा ? इसीलिये कि उस नये अर्जित शक्ति-सामर्थ्य की सहायता से मनुष्यों का कल्याण करूँगा। खा-पी कर, व्यायाम करके स्वस्थ-सबल शरीर और मन को लेकर मनुष्यों की सेवा करूँगा। विद्या (सच्ची शिक्षा) अर्जित कर के, उस विद्या का दान करूँगा, या उसी विद्या द्वारा मनुष्यों का अधिकाधिक कल्याण करूँगा। अर्थ उपार्जन करके,उसी अर्थ के द्वारा मनुष्यों का कल्याण करूँगा। इस प्रकार सार्व-भौमिक कल्याण के लक्ष्य को ध्यान में रखकर सांसारिक कर्म करते रहने से, धीरे धीरे समस्त  कर्म यज्ञ में परिणत हो जायेंगे। क्योंकि परार्थ किये जाने वाले समस्त कर्म, अन्त में त्याग का ही  रूप धारण कर लेंगे; इस प्रकार सभी कर्म मूलतः अध्यात्मिक 'sacred' कर्म बन जायेंगे।
जिस प्रकार व्यक्ति जीवन को गठित करने के कार्य को पूरे मनोयोग से करना होगा, उसी प्रकार पारिवारिक जीवन के और सामाजिक जीवन के समस्त कर्मों को अध्यात्मिक-कार्य में परिणत करने की चेष्टा करना- एक अत्यन्त उत्कृष्ट अध्यात्मिक साधना है। क्योंकि इसमें कोई भी कार्य निजी स्वार्थ के लिये नहीं होगा। हमलोग जो भी कार्य करेंगे, उसे अपने निजी सुख के लिये नहीं करेंगे, अपने भोग और संग्रह के लिये नहीं करेंगे, यहाँ तक कि नाम-यश पाने की इच्छा से भी कुछ नहीं करेंगे। हमारे समस्त कर्मों का लक्ष्य होगा- दूसरों का कल्याण, दूसरों का मंगल।
किसी को शायद भय हो, कि ऐसे करने से तो-मेरा सबकुछ चला जायेगा ! हाँ, जायेगा, किन्तु जो व्यर्थ के कूड़ा-करकट जमा हो गया था, वही सब जायगा । और उसके बदले में प्राप्त होगी- आत्मोन्नति, हृदय की विशालता, जगत के समस्त मनुष्यों के प्रति प्रेम, सहानुभूति, तथा हमेशा ' त्याग और सेवा ' में लगे रहने की प्रवृत्ति जाग्रत हो जाएगी। सबकुछ खोकर(जगत के समस्त पदार्थों पर से अपना ममत्व खो कर ) हमलोग अपने यथार्थ स्वरूप को, अपने स्वराज्य को वापस प्राप्त कर लेंगे ! उसीमें तो यथार्थ सुख और सच्चा आनन्द है।
 यदि कोई व्यक्ति समस्त लौकिक कर्मों को छोड़ कर, केवल आध्यात्मिकता को लेकर रहने की चेष्टा करेगा, तो लौकिक जगत उसके लिये एक अशांति का कारण बन जायेगा, वह जगत के भौतिक सुखों को देख-देख कर दुखी होता रहेगा। किन्तु जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को (लौकिक प्रेम को भी )
आध्यात्मिकता में रूपान्तरित करने में समर्थ हो जाता है, उसके लिये फिर जगत की कोई भी वस्तु या परिस्थिति पीड़ादायक नहीं रहती। केवल इतना ही नहीं, लौकिक जगत को भी उससे बहुत कुछ मिलता है, लौकिक जगत के प्रति उसकी उदासीनता भी सामान्य लोगों के लिये कष्टदायक नहीं होती। इसीलिये तो स्वामी विवेकानन्द समस्त कर्मों को ही अध्यात्मिक कर्म में रूपान्तरित कर लेने का उपदेश दिया है। वे कहते हैं, ' कोई भी कर्म पूर्णतया लौकिक नहीं है ! ' सभी कर्मों की अन्तिम परिणति पूजा और उपासना ही है। इसीलिये उनके हृदय की अध्यात्मिक अनुभूति त्रुटिरहित संगीत-माधुर्य को लेकर इस रूप में अभिव्यक्त हुई है-
बहूरुपे सम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खुँजीछो ईश्वर ? 
जीवे प्रेम करे जेई जन, सेई जन सेविछे ईश्वर ।  
- अर्थात तुम्हारे सामने ही तो विभिन्न रूपों में ईश्वर खड़े हैं, इन्हें छोड़ कर उन्हें ढूँढने और कहाँ जाते हो ?
जो व्यक्ति समस्त जीवों से प्रेम करता है, उसीने ईश्वर की सेवा की है। 
विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में स्वामीजी के भावों को बहुत सुन्दर रूप से हमलोगों के समक्ष रखते हुए, भगिनी निवेदिता कहती हैं - "इफ द  मेनी एंड द वन बी  इनडीड द सेम रियलिटी,देन  इट इज नॉट ऑल मोड्स ऑफ़ वरशिप अलोन,बट ईक्वली ऑल मोड्स ऑफ वर्क, आल मोड्स ऑफ़ स्ट्रगल, आल मोड्स क्रिएशन, व्हिच आर पाथ्स ऑफ़ रियलाइजेशन। नो डिस्टिंक्शन, हेन्सेफोर्थ, बिटवीन सेक्रेड एंड सेक्युलर। "
- अर्थात " यदि 'एक' और 'अनेक' सचमुच एक ही सत्य हैं, (वेदान्त की दृष्टि से " One has become- many ") तो उपासना के केवल विविध पद्धतियाँ ही नहीं, वरन् सामान्य रुप से किये जाने वाले समस्त कर्म, जीवन में आने वाले सभी प्रकार के संघर्ष(struggle), सृजन (creation) की समस्त विधियाँ भी सत्य-साक्षात्कार के ही मार्ग हैं। अतः अब लौकिक 'secular 'और अध्यात्मिक ' sacred 'कर्म में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा, इस समय से कर्म करने का अर्थ ही उपासना करना है। विजयी होना और त्याग कर देना एक समान है। स्वयं जीवन ही धर्म है। ' योग और क्षेम '- अर्थात प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना उतना ही निर्मम कार्य है, जितना की त्याग करना और उदासीन रहना। "      
" स्वामी विवेकानन्द की यही अनुभूति (-बहुरूप में एक को देखने की क्षमता)  उनको उस ' कर्म-योग '  का सर्वतोकृष्ट उपदेष्टा सिद्ध कर देता है, जो ज्ञान और भक्ति-मार्ग से भिन्न मार्ग नहीं है, बल्कि उनकी व्याख्या करता है। उनके लिये मानव की सेवा और ईश्वर की पूजा, पौरुष तथा श्रद्धा (अस्तिति ध्रुवतः कहते रहने में) , सच्चे ' नैतिक बल और आध्यात्मिकता '  में कोई अन्तर नहीं है। "  
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शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

'शक्ति हमलोगों के भीतर है!' ('तत् अस्ति '- इति ब्रुवतः) [ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' [45] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

  " स्वयं को सुनाते रहो -अस्तिति ध्रुवतः"
मनुष्य-मात्र  के भीतर अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता विद्यमान है, और यही हमलोगों का यथार्थ स्वरूप, दैवत्व या ब्रह्मत्व है। जिस व्यक्ति को हमलोग अत्यन्त नीच, दुष्ट या घोर-पापी समझते हैं, उसके भीतर भी वही  'अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता' ठीक उतने ही परिमाण में विद्यमान है। किसी महापुरुष तथा किसी दुराचारी व्यक्ति में मात्र इतना ही अन्तर है कि महापुरुष के भीतर का देवत्व, आवरण को चीर कर पूर्ण रूप में प्रकाशित हो गया है, और दूसरे के भीतर वह घने आवरण में आवृत है।
 यह आवरण चाहे जितना भी घना हो, मनुष्य ने कितना भी नीच कर्म क्यों न किया हो, कितना भी गन्दे विचारों वाला हो, उससे उसकी अन्तर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व कभी विलुप्त नहीं होता, बल्कि अधिकतर आवृत हो जाता है। जगत में ऐसा कोई नीच कर्म नहीं है, जिसे कर बैठने से मनुष्य हमेशा के लिये नष्ट हो जाता हो। जिस क्षण मनुष्य अपने अन्तर्निहित देवत्व के प्रति सचेत हो जायेगा, परिचित हो जायेगा कि ' ओह ! यह 'देवत्व' ही मेरा यथार्थ स्वरूप है ' - ऐसा बोध जिस क्षण जाग्रत हो जायेगा, उसी क्षण से उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति होने लगेगी।
स्वामी विवेकानन्द के समग्र सन्देशों का प्रधान राग है - ' हे मानव, अपने अन्तर्निहित देवस्वरूप के प्रति सचेत हो जाओ, उसे अभिव्यक्त करने के मार्ग पर अभी से ही चलना प्रारंभ कर दो, और उसको पूर्ण रूप से विकसित करने से पहले विश्राम मत लो !' हमलोगों के प्रत्येक वचन में, कार्य में और विचार में यदि इस देवत्व की अभिव्यक्ति होने लगे तभी यह कहा जा सकता है कि हमने देवत्व के भाव को चरित्रगत कर लिया है।  इस अन्तर्निहित दिव्यता को विकसित करने के लिये विभिन्न परिवेश, विभिन्न परिस्थितियों  में अवस्थित व्यक्तियों के लिये जैसा मार्ग उपयोगी हो सकता है, स्वामी विवेकानन्द ने उसी मार्ग का उपदेश दिया है।

स्वामी विवेकानन्द के मार्गदर्शन का प्रधान स्वर,  चाहे परिवार या समाज में परस्पर सौहार्द्य पूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने का क्षेत्र में उनका मार्गदर्शन हो, अथवा  समाज और देश-सेवा का कोई क्षेत्र हो, शिक्षा के क्षेत्र हो , या जीवन का कोई भी कार्यक्षेत्र हो , सर्वत्र उनका एक ही उद्घोष सुनाई पड़ता है - ' तुम्हारे और दूसरों के भीतर  एक ही ईश्वरत्व या दिव्यता (Divinity) समान रूप से अन्तर्निहित है- इस ज्ञान को जाग्रत रखते हुए,  समस्त व्यव्हार करना होगा। 
स्वामी जी ने कहा है , " होश में रहकर कर्म करो।"  दूसरों के साथ (परिवार के विभन्न सदस्यों या समाज के लोगों के साथ) व्यवहार करते समय, हमलोग मन-वचन-कर्म से  प्रत्येक चेष्टा इस प्रकार करेंगे  मानो हम अभी और इसी समय उनके अन्तर्निहित दैत्व को हम साक्षात् देख रहे हों- दूसरों में अन्तर्निहित दैवत्व के प्रति सदैव सचेत होकर व्यहार करने से -अपना दैवत्व अभिव्यक्त होने लगता है। (सदैव श्रीकृष्ण के समान मुस्कुराते हुए बोलने का अभ्यास करने से हमारा अंतर्हित कृष्णवत्व अभिव्यक्त होने लगता है ! ) विवेकानन्द ने के कई छोटे छोटे महावाक्यों में अपना उपदेश दिया है, जैसे -- ' कर्म को पूजा में रूपान्तरित करो।', 'अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति (manifestation) का नाम शिक्षा है ' , अन्तर्निहित ईश्वरत्व (कृष्णत्व या Divinity) की अभिव्यक्ति का नाम धर्म है ', ' शिवज्ञान से जीव की सेवा करो', ' बनो और बनाओ ' --आदि आदि ! किन्तु उनके समस्त महावाक्यों का लक्ष्य एक ही है।  उनकी दृष्टि में-'सच्ची शिक्षा और सच्चे धर्म में कोई अन्तर नहीं '।  क्योंकि पूर्णता (Perfection) और ईश्वर  ( Divinity) एक ही वस्तु है। 
 'मनुष्य स्वरूपतः अनन्त शक्ति-ज्ञान-पवित्रता की मूर्ति है' - इसी दृष्टि से देखकर ही उन्होंने मानव-मात्र को "अमृतस्य पुत्राः  -- हे, अमृत के सन्तान !" -कहकर पुकारा था। उन्होंने कहा था- यदि जगत में पाप नामक कोई चीज है, तो मनुष्य को ' को कमजोर, छोटा, मूर्ख, बेईमान, भ्रष्ट या पापी कहना  ही सबसे बड़ा पाप है।
जो भी क्षणिक मानवीय दुर्बलता मनुष्य को,
उसकी देवस्वरूपता, शक्ति-ज्ञान-पवित्रता  को,  ' मैं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव-आत्मा हूँ !, इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ नहीं है जिसका भय मुझे हो, यहाँ ऐसा कुछ नहीं है-जो मुझ अजर-अमर आत्मा को डरा सके ' -- इस बोध से मनुष्य को दूर हटा देती हैं - वह दुर्बलता ही पाप है।
 [पाप = मानवीय दुर्बलता=भेंड़त्व, 'चित्त' में संचित जन्म-जन्मान्तर के पाशविक कर्म-संस्कार को, चित्त-वृत्ति को 'स्वयं '(सिंहत्व -स्वरूप) से बड़ा समझ लेने के भ्रम से, देह को ही 'मैं ' मान लेने के कारण मनुष्य में जो इन्द्रिय-परायणता और स्वार्थपरता आ जाती है]
अन्तर्निहित दिव्यता की, पवित्रता की, ज्ञान और विवेक-प्रयोग के शक्ति  की अभिव्यक्ति जितनी अधिक होने लगेगी, हमलोग अपने स्वरूप के प्रति जितना अधिक सचेत रहने लगेंगे, उतना ही हमलोग एक मनुष्य, एक इंसान के रूप में क्रमशः अधिक से अधिक उन्नततर (उत्कृष्टतर) होते जायेंगे। इसी दृष्टिकोण को अपनाने से कोई छात्र एक उत्तम कोटि का छात्र बन सकता है, कोई शिक्षक और अधिक अच्छा शिक्षक बन सकता है, कोई समाजसेवी और अधिक अच्छे समाजसेवी बन सकते हैं, कोई मछुआरा (fisherman) और अधिक कौशल से मछली पकड़ सकता है। विभिन्न व्यवसायों में लगा प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने व्यवसाय को और अधिक कौशल के साथ संचालित करने की योग्यता अर्जित कर सकता है, और इसी प्रकार घर-गृहस्थी में रहते हुए भी मनुष्य शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक रूप से उत्कृष्टतर मनुष्य बन सकता है। इसीलिये, स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, देश में कोई भी नया सामाजिक और राजनैतिक आन्दोलन प्रारंभ करने के पहले, सम्पूर्ण देश को अध्यात्मिकता के ज्वार से  प्लावित करा देना होगा। भारत की राष्ट्रिय संरचना आध्यात्मिकता पर ही आधारित है, इसीलिये वह इसी के बुनियाद पर अपनी समाजिक और आर्थिक व्यवस्था भी संचालित कर सकता है। देश के बुनियादी ढाँचे को विलुप्त करके, अन्य किसी भाव (साम्यवाद, धर्मनिरपेक्षवाद ....) की बुनियाद पर जनकल्याण की चेष्टा करने से, उसका कोई विशेष फल नहीं होगा। क्यों नहीं होगा? आइये इसी बात पर गौर किया जाय।
स्वामीजी ने जिस आध्यात्मिकता की बाढ़ में भारत को प्लावित कर देने का आह्वान किया है, जिसे हमारे राष्ट्र की प्राण-शक्ति कहा है, वह आध्यात्मिकता वास्तव में है क्या चीज? इस बात पर विश्वास करना कि- 'प्रत्येक मनुष्य का स्वरूप आत्मिक है'- इस सत्य को अपने अनुभव से जान लेना तथा इसी दृढ़ आत्मविश्वास के चलना-बोलना समस्त व्यवहार करना। हमलोगों का स्वरूप आत्मिक है-इसका अर्थ हुआ, हमलोग   केवल शरीर मात्र नहीं हैं,और 
ऐसा भी नहीं है कि हमलोगों का मन भी शरीर का ही एक विकसित अंश नहीं है। किन्तु आमतौर से सभी पढ़े-लिखे लोग भी अपने को 'शरीर और मन ' का एक संयोजन मात्र 
('Body and Mind' complex) ही समझते हैं। फिर यदि इसके साथ साथ यह धारणा भी घर कर गयी हो कि मन तो केवल देह का ही विकास मात्र है; तब तो देह के नितान्त क्षणभंगुर होने के कारण हमलोगों का सम्पूर्ण अस्तित्व और स्थायित्व बहुत सीमित (ससीम) हो जाता है। 
किन्तु जब हम अपने को 'आध्यात्मिक' (आत्मिक या स्पिरिचूअल) कहते हैं, तब उसका अर्थ होता है, देह-मन नश्वर (मरणाधीन) होने से भी, हमारे भीतर कोई ऐसी वस्तु अवश्य है, जो नश्वर नहीं है, और जो सच्चिदानन्द (शक्ति-ज्ञान-पवित्रता ) स्वरूप है। इस बात को एक बार भी अपने अनुभव से जान लेने के बाद, हमलोग फिर अपने को कभी छोटा, दुर्बल, असहाय नहीं समझ सकते हैं। तथा, शक्ति-ज्ञान-पवित्रता जो हमारी निजी सम्पत्ति है, उन्हें प्रकाशित करने का प्रयत्न करते ही हमलोग महान, शक्तिशाली, साहसी और निर्भीक बन जाते हैं। 
जो ब्यक्ति अपने शक्तिमान स्वरूप को एकबार भी पहचान लेता है, जान लेता है, देख लेता है- वह सभी कुछ करने, जानने और सभी बाधा-विघ्नों का अतिक्रमण करने, और समस्त भय को पैरों के नीचे कुचल देने का साहस प्राप्त कर लेता है। ऐसा ही मनुष्य जीवन-संग्राम में विजयी हो सकता है, हताशा के अँधकार से आशा के उजाले में उत्तीर्ण हो सकता है, दुःख-दुर्दशा, गरीबी-अज्ञानता, शोषण से अपने को मुक्त कर सकता है। 
और जो मनुष्य स्वयं को ससीम क्षणभंगुर-'देह-मन ' की समष्टि मात्र समझता है, वह हमेशा अपने को कमजोर समझता है, इसीलिये परमुखापेक्षी बन जाता है। और  हर समय विभिन्न प्रकार के भय से आशंकित रहता है, अपने को कमजोर समझकर दूसरों से घृणा करता है, सन्देह करता है, हिंसा करता है, दूसरों का अस्तित्व मेरे अस्तित्व को बाधित कर सकता है, ऐसा सोंच कर हर दूसरे व्यक्ति, अन्य सभी को अपना प्रतिद्वन्द्वी और शत्रू समझता है। ऐसे व्यक्ति का दुःख-कष्ट कभी दूर नहीं होता।
और ऐसे हो मनुष्यों से निर्मित समाज का चेहरा कैसा हो सकता है ? थोड़ी कल्पना करने से ही स्पष्ट रूप में समझा जा सकता है। ऐसे समाज के जो लोग अगुआ या नेता होते हैं, वे भी मनुष्य की अन्तर्निहित शक्ति में विश्वासी नहीं होने के कारण, बाहर में शक्ति का अनुसन्धान करते हैं। विज्ञान में प्रगति के द्वारा मनुष्य के दुःख-कष्ट को दूर करने की चेष्टा के साथ ही साथ विध्वंशकारी हथियारों का जखीरा भी तैयार हो रहा है। इसीलिये आज 50,000 परमाणु बम इकट्ठा किये गये हैं, जिसकी शक्ति समग्र रूस और अमेरिका को 250 बार विनाश कर सकता है।
 किन्तु क्या ऐसी वैज्ञानिक प्रगति से मनुष्य के विवेक-शक्ति को भी जाग्रत कराया जा  सकता है ? यह क्या मनुष्य को असीम शक्ति का स्रोत, अनन्त ज्ञान का भण्डार बना सकता है ? रंग-भेद या छुआछुत को मिटा कर उन्हें पवित्र बना सकता है ? किन्तु प्रत्येक मनुष्य के भीतर वैसा बन जाने की सम्भावना है। और
यदि वह चेष्टा करे तो वैसा बन जाना, मनुष्य-मात्र के लिये संभव है। जब मनुष्य वैसा बन जायेगा, तो घृणा के बदले प्यार, सन्देह के बदले विश्वास, हिंसा के बदल में सौहार्द के बल पर वह सभी को भ्रातृत्व के बन्धन में संगठित कर सकता है; प्रतिद्वन्द्विता करने के बदले मनुष्य एक दूसरे का सहयोगी बन सकता है, जो पहले शत्रुता का भाव रखता था, उसे मित्र में परिणत किया जा सकता है। ऐसा अध्यात्मिक-बुद्धि सम्पन्न मनुष्य स्वार्थ की अपेक्षा परार्थ को, भोग की अपेक्षा त्याग को बड़ा समझता है, तथा शोषण करने की अपेक्षा सेवा करने में उसकी रूचि अधिक होती है। किसी दुर्बल व्यक्ति के उपर वह अघात नहीं करता, बल्कि उसे बलवान बनने के लिये उत्साहित करता है।
यदि हमलोग अपने देश के दुःख-कष्ट को दूर हटाना चाहते हों, तो सम्पूर्ण देश में ऐसी अध्यात्मिकता को जाग्रत करने वाले आन्दोलन को फैला देना होगा, इसका अर्थ है, सच्चे अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति के भीतर आत्मिक-बुद्धि (मैं केवल शरीर मन नहीं, आत्मा हूँ !) को जागृत करना होगा। मनुष्य में आस्तिक्य-बुद्धि का उन्मेष करना होगा। मैं केवल 'देह-मन ' की समष्टि मात्र नहीं हूँ, मेरे भीतर अनन्त शक्ति, ज्ञान और पवित्रता है- इस बोध को ही सच्ची आस्तिकता या आस्तिक्य-बुद्धि सम्पन्न मनुष्य बनना कहते हैं।  इसको ही श्रद्धा कहते हैं; इस श्रद्धा या आस्तिक्य-बुद्धि को जागृत करना ही आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है। जब तक मनुष्य में यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता का पुनरुत्थान (awakening) नहीं किया जाय,वह मनुष्य मोहनिद्रा से जाग नहीं सकता, और उसका कोई विकास होना भी संभव नहीं है। 

यदि सांसारिक उन्नति करने की इच्छा हो, तो उसके लिए भी इसी आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। इसीलिये स्वामीजी ने सम्पूर्ण देश को आध्यात्मिकता के ज्वार से प्लावित कर देने का आह्वान किया है।
किन्तु यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता-कोई ऐसी वस्तु नहीं है,जिसे किसी व्यक्ति को दे दी जा सकती हो। केवल इसका सन्देश सुनाया जा सकता है, स्वामीजी ने इसीलिये इस सन्देश को सुनाया है। 

वे कहते हैं- " अपने आप से कहते रहो, मैं वह हूँ-I am He ! I am He! ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़े-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति निहित है, वह व्यक्त हो उठेगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव से विद्यमान है, वह जग जाएगी। " (6/297) हममें से पत्येक व्यक्ति को स्वयं अपने भीतर इसी श्रद्धा, विश्वास और आस्तिक्य-बुद्धि को जगाना होगा। जो कोई भी व्यक्ति इस बात पर विश्वास कर लेगा कि मेरे भीतर अनन्त शक्ति है !! और जैसे ही डंके की चोट पर दूसरों को भी सुनाने लगेगा, वैसे ही उसकी अन्तर्निहित शक्ति जाग्रत हो उठेगी ! 
कठोपनिषद में यमराज-नचिकेता से यही बात कह रहे हैं- ' एतत् वै तत् नचिकेता ! यहि है वह तत्व, जिसके सम्बन्ध में तुमने पूछा था।'
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ।।कठोपनिषद/2/3/12 ।। 

'तत् अस्ति '= वह अवश्य है; इति ब्रुवतः  =इस प्रकार जो अन्तार्न्हित आत्मा की  घोषणा डंके की चोट पर करता है, अन्यत्र कथं उपलभ्यते = उसके अतिरिक्त दूसरे को (जो हमेशा म्याऊं म्याऊं करता रहता हो); -वह कैसे प्राप्त हो सकता है?
जो इस बात को डंके की चोट पर कहता है कि -'अस्तिति ध्रुवतः '- मेरे पास निश्चित रूप से है, उसी के पास यह शक्ति रहती है। जो व्यक्ति ऐसा कभी कहता ही नहीं, ' अन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ' - उसको यह उपलब्धी कहाँ से होगी ?
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा । वही।
अपनी उस अन्तर्निहित  दैवत्व (आस्तिक्य-बुद्धि) को वाणी से, न मन से, न चक्षु से ही प्राप्त किया जा सकता है, ‘वह अवश्य है ! और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखनेवाले को वह अवश्य मिलता है ! ' इस बात को जो नहीं कहता, अर्थात जिसका दृढ़ विश्वास नहीं है, उसको वह कैसे मिल सकता है ? ऐसा कहनेवाले के (कथन के) अतिरिक्त उसे अन्य किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? और जैसे ही किसी व्यक्ति को इसकी उपलब्धी हो जाएगी, उस अनुभूति के बाद- उसके आँखों और चेहरे की रंगत बदल जाएगी, देह-मन में चैतन्य (consciousness) में विकसित होता रहेगा, शक्ति आएगी, और वह सभी बाधाओं का अतिक्रमण करके अपनी दुर्दशा का अन्त कर देगा। अपने जीवन को गढने के लिये, या देश का निर्माण करने के लिये दूसरा कोई उपाय नहीं है। शक्ति बाहर में नहीं है। समस्त शक्ति हमलोगों के भीतर ही है। 
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गुरुवार, 29 नवंबर 2012

समाज-सेवा का उद्देश्य क्या है ? सेवा-धर्म " [ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [44] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

'मनुष्य' बनाने की चेष्टा करते करते हम स्वयं 'मनुष्य' बन जाते हैं ! 
जो वस्तु हमलोगों की अन्तर्निहित शक्ति को उन्मोचित कर देती है, जो मनुष्य को पशु-स्तर से मनुष्य के स्तर पर तथा मनुष्य से देवता के स्तर पर उन्नत कर देती है, उसी को धर्म कहते हैं। वर्तमान युग की आवश्यकता अनुष्ठानिक-धर्म पालन (शतकुण्डी-सहस्रकुण्डी यज्ञ अनुष्ठान) करने की नहीं है। बल्कि इस समय हमें इसी सच्चे धर्म, सेवा-धर्म का अनुशरण करने चेष्टा करनी होगी। जिस प्रकार की सेवा करने से अपनी उन्नति होने के साथ साथ दूसरों की भी उन्नति हो सकती हो, उसी प्रकार की सेवा कार्य करने की आवश्यकता है। (जिसके द्वारा मनुष्य अद्वैत आनन्द की अनुभूति करके, पशु-मानव से देव-मानव या यथार्थ मनुष्य बनने के लिये बाध्य हो जाता है) 
युवाओं के समक्ष जो पहला कर्तव्य है, वह है, अपने देह-मन और हृदय के सुमन्वित (अनुपातिक well-proportioned) विकास के लिये प्रयत्न करना। यदि मन को उन्नत करना चाहते हों, तो उसे नियन्त्रित और एकाग्र करना होगा। शरीर और मन की शक्ति को समाज के सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में तब तक नहीं लगाया जा सकता, जब तक शरीर और मन को उन्नत बनाने के साथ साथ हृदय का विस्तार करने की भी चेष्टा न की जाये। 
प्रत्येक जीव को साक्षात् देवता (शिवजी) समझकर ही, समाज-सेवा का कार्य करना होगा। आमतौर से जैसी समाज सेवा चलती है वैसी सेवा द्वारा, शायद पूर्णतया निःस्वार्थ रूप में अपनी दैहिक, मानसिक और अध्यात्मिक उन्नति हम नहीं कर पायेंगे। किन्तु अपने देह, मन की उन्नति करने का उद्देश्य यदि सार्वभौमिक मंगल की कामना है, यह समझ यदि निरन्तर जाग्रत रहे, तो हमलोग दूसरों की सेवा करने के योग्य बन जायेंगे, और तब हमारी समाज-सेवा अपने क्षूद्र स्वार्थ (नाम-यश ) को पूर्ण करने कार्य में ही परिणत नहीं होगी। 
हमलोग अभ्यास-योग के द्वारा अपने देह, मन और आत्मा की उन्नति कर सकते हैं। ज्ञानयोग में विवेक-प्रयोग करके या नेति-नेति विचार करके, समस्त क्षणभंगुर या मिथ्या वस्तुओं को त्याग किया जाता है। राजयोग हमलोगों के मन के उपर पूर्ण अधिकार प्राप्त करने का उपाय बताता है। भक्तियोग कहता है-'मुझे ज्ञान-विचार या विवेक-प्रयोग' करने की क्या जरूरत है ? मेरा कार्य है, अपने हृदय का विस्तार करना; उस प्रेमस्वरूप के समक्ष अपने हृदय को उन्मुक्त कर देना, ताकि मैं समस्त जगत के साथ एकात्म बन जाऊँ। कर्मयोगी कहते हैं, हमलोग तो कर्म के माध्यम से ही अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं, किन्तु यह कर्म हम अपने सुख या भोग के लिये नहीं करेंगे, हम परार्थ कर्म करेंगे, दूसरों के कल्याण के लिये करेंगे। इसी प्रकार निःस्वार्थ कर्म करते हुए, कर्मयोगी अपने मन को नियंत्रित करके सबों के साथ एकात्मता का अनुभव करते हुए अपने जीवन को सार्थक बना लेंगे।
इन चार योगों का एक साथ अभ्यास करके, या इनमें से किसी एक योग-मार्ग का अलग से अभ्यास करके हमलोग मनुष्यत्व अर्जित कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द के विचार में समस्त उपलब्ध योग-मार्गों की सहायता से अपने मनुष्यत्व ( या इंसानियत ) को अभिव्यक्त करना श्रेष्ठ-उपाय है। स्वामीजी के सार-गर्भित सन्देशों की विवेचना करके हमलोग नित्य-अनित्य वस्तुओं में विवेक-प्रयोग करने की शक्ति प्राप्त कर सकते हैं। इसको ज्ञानयोग का अभ्यास कहते हैं। राजयोग की सहयता से मन को को एकाग्र करने में सफलता पायी जा सकती है। दूसरे मनुष्यों के कल्याण करने के माध्यम से हमलोग कर्मयोग का अभ्यास कर सकते हैं। दूसरों के प्रति प्यार और प्रेम-पूर्ण सम्बन्ध को प्रगाढ़ करते हुए हमलोग भक्तियोग का अभ्यास कर सकते हैं।
समाज-सेवा का लक्ष्य है, इन चारो योग-मार्गों का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने की अवसर प्रदान करना, तथा इनके समन्वय से संतुलित व्यक्तित्व विकास के मार्ग को प्रसस्त बना देना। यदि इस व्यापक धारणा के अनुसार समाज-सेवा न की जाय तो उसका कोई विशेष फल नहीं होता है।  उल्टा इस समाज-सेवा का दुष्प्रभाव भी हो सकता है।
 समाज-सेवा के प्रति सही दृष्टिकोण या मानक निर्धारित किये बिना ही समाज-सेवा के कार्य में उतर जाने पर अपना अहंकार बहुत बढ़ जाता है। नाम-यश पाने की इच्छा ही सेवा के पीछे मुख्य उद्देश्य बन सकता है। समाज-सेवा करते समय विभिन्न प्रकार के प्रलोभन या लालच के चक्कर में फंस सकते हैं। ईमानदारी और सत्य को कभी कभी बली भी चढ़ाना पड़ सकता है। इसीलिये समाज-सेवा करते समय हमलोगों को बहुत सतर्क रहना चाहिये। दूसरों का भला करने में अपने को नीचे गिरा लेना, या अपना ही अकल्याण कर बैठना अच्छा नहीं है।
समाज-सेवा करते समय मैं अपने स्वार्थ को त्याग दूंगा, कठोर परिश्रम करूँगा, किन्तु अपना अकल्याण क्यों करूँगा ? दूसरों का कल्याण करने के लिये कोई अनैतिक कार्य करके मैं स्वयं को नीचे गिराकर,चरित्रहीन मनुष्य की श्रेणी में क्यों गिरने दूंगा ?
इसीलिये समाज-सेवा सुनते ही कार्य में कूद पड़ने के पहले, समाज-सेवा का उद्देश्य क्या है ? इस तथ्य को-पहले समझ लेना आवश्यक है। अपने फायदे के लिये या नाम-यश पाने के लिये तो समाज-सेवा नहीं करनी चाहिये, किन्तु अपने हित-अहित, भले-बुरे विचार करने के बाद ही समाज-सेवा करना उचित होगा। क्योंकि समाज-सेवा के द्वारा जिसकी सेवा करता हूँ, उसको बहुत लाभ नहीं होता है, उसकी अपेक्षा मुझे अधिक फायदा पहुँचता है। समाज-सेवा का सही उद्देश्य और कसौटी का निर्धारण करके, सेवा करने से मेरा हृदय उन्नत होता है, मेरा चरित्र-बल बढ़ जायेगा। मानवता की दृष्टि से भी हम उच्च कोटि के मनुष्य बन जाते हैं।
स्वामी विवेकानन्द इन संदेशों को ठीक से याद रखना चाहिये -" गरम बर्फ या अँधेरा प्रकाश कहने से जो समझ में आता है, ' सामाजिक उन्नति ' कहने से भी बहुत कुछ वैसा ही समझ में आता है। अन्ततोगत्वा बहुत खोजने से भी 'सामाजिक उन्नति' नामक कोई वस्तु दिखाई नहीं देती है।"
" बाहर में कोई उन्नति नहीं होती, जगत की उन्नति करने में योगदान करने से वास्तव हमलोग स्वयं उन्नत होते हैं। " 'मनुष्य बनाने की चेष्टा करते करते हम स्वयं मनुष्य बन जाते हैं ! 
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बुधवार, 28 नवंबर 2012

'शाश्वतजीवन की ओर ' सर्वे भवन्तु सुखिन:' स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [43] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

 प्रेम की शक्ति > घृणा की शक्ति !
हमलोगों का उद्देश्य, जो सबसे न्यारा (distant)है, जो सबसे मुख्य लक्ष्य है, वह है -मंगल (कल्याण welfare), भलाई (कुशल Good)। पर किसकी भलाई, किसका कल्याण ? सभी की भलाई, सारे विश्व का मंगल। क्योंकि हमलोगों के विचार की परिधि (Range of thought) धीरे धीर विस्तृत होती जाती है। यह विस्तार स्वाभाविक कारणों से ही होता है। जब हम अपना जीवन, समाज का जीवन, देश का जीवन, या मानव-जाति का जीवन, या इसी प्रकार के अन्य सीमित दायरे को देखते हैं, अपनी सोच की परिधियों को देखते हैं, इन सबके विषय में विचार करना प्रारम्भ करते हैं, तो कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि वे तो बिल्कुल स्वाभाविक हैं। 
 यह 'स्वभाव' शब्द बहुत सुन्दर है, किन्तु 'स्वाभाव' कहने से कई बार हमलोगों की धारणा बहुत स्पष्ट नहीं होती। उसका तो स्वभाव है ऐसा है - मानो किसी की बुराई दिखने के लिए अक्सर इस प्रकार से कह दिया जाता है। किन्तु किसी व्यक्ति भाव (spirit -सार मर्म ) को समझाने के लिये यदि स्वाभाव कहा जाय तो अच्छा होगा। स्व-भाव का अर्थ होता है-अपना भाव। किसी भी शब्द के प्रचलित हो जाने के फलस्वरूप उसके अर्थ को लेकर मनुष्यों में एक प्रकार की धारणा बन ही जाती है। किसी एक ही शब्द का प्रयोग बार बार करते रहने से, उस शब्द के सम्बन्ध में एक धारणा प्रचलित हो जाती है; और वही अधिक प्रभावी हो जाती हैं। उस शब्द को सुनने से वही धारणा, वही भाव सबों के मन में जाग उठता है। उसका तो स्वभाव ही ऐसा है - इस प्रकार कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस व्यक्ति को थोड़ा छोटा बनाने के लिये वैसा कहा जा रहा है। 
और यही हमलोगों का स्वभाव यह है- ऐसा कहने से इस कथन में , स्व-भाव क्या है, इसे समझने की एक चेष्टा रहती ही है। उसमें व्यक्ति के भीतर देखने की चेष्टा रहती है, एक आन्तरिक दृष्टि डालने की चेष्टा रहती है, विश्लेष्ण करके सब समझ लेने का एक भाव रहता है। हम देखेंगे कि जिसे 'स्व-भाव' कहते हैं, उसमें कोई संकीर्णता नहीं होती, उसमें कोई छोटी परिधि नहीं होती। जब हम किसी के स्व-भाव लेकर देखने की चेष्टा करें, तो पायेंगे कि इस प्रकार व्यक्तियों को छोटा छोटा बनाकर देखते रहते हैं, और यह उनको देखने का सही ढंग नहीं है। सच्चाई तो यह है कि हमलोगों के बीच कोई भिन्नता या अन्तर है ही नहीं।वास्तव में हमलोग भिन्न भिन्न व्यक्ति या अलग अलग मनुष्य नहीं हैं। सब लोग एक के ही बहुरूप हैं। जब हम इस स्व-भाव की ओर देखने चेष्टा करेंगे, तो पायेंगे कि यह सम्पूर्ण जगत एक और अभिन्न है। इसीलिये जब हम यह कहते हैं कि महामण्डल का उद्देश्य है-भारत का कल्याण; तब हमारे दृष्टि में सम्पूर्ण जगत का ही कल्याण होता है। 
 जब हम सबों के कल्याण के बदले छोटे छोटे समुदाय के मंगल की बात सोचें, तो वह बहुत स्वाभाविक नहीं होगा। 'सर्वे भवन्तु सुखिनः ' के बजाय केवल अपने अपने समुदाय का मंगल नहीं हो सकता। जहाँ ऐसी भावना हो कि अमुक का तो मंगल हो, किन्तु फलाने-ढिकाने के मंगल से मुझे क्या काम ? वहाँ किसी का मंगल होने से समझना पड़ेगा कि उसके आस-पास अमंगल अवश्य बना हुआ है। मंगल-अमंगल एक साथ रहने से ही एक विरोध उठेगा। और यह प्रश्न भी बना रहेगा कि इसमें से मंगल की विजय होगी या अमंगल ही जीत जायेगा? किन्तु यदि सभी के मंगल की चिंता की जाय तो फिर मंगल और अमंगल  के बीच संघर्ष का प्रश्न ही नहीं उठेगा। ऐसा मनोभाव रहने से ही वास्तव में सबों का कल्याण करना संभव होगा। 
 इसीलिये अपनी दृष्टि को संकुचित करके, सीमित दायरे में कल्याण की बात कभी नहीं सोचनी चाहिये, अबाध रूप से सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड के कल्याण का चिन्तन करना चाहिये। इसीलिये हमलोगों के देश की प्रार्थना में कहीं भी व्यक्तिगत या इक्के-दुक्के लोगों के कल्याण की बात नहीं की जाती। हमारी प्रार्थना है-विश्व का कल्याण हो, सबों का मंगल हो- इसी प्रकार की प्रार्थना हमारे देश के महाप्राण ऋषियों के हृदय में समस्त प्राणियों में एकत्व अनुभूति के बाद उनके कन्ठ से निसृत हुई है। अतः हमारे हृदय की प्रार्थना भी वैसी ही होनी चाहिये।
 [महामण्डल का उद्देश्य है - 'भारत का कल्याण !' - जो सबसे न्यारा है,भारत हमको जान से प्यारा है! किन्तु ऐसा कहने के पीछे जो हमारा मुख्य लक्ष्य है, वह है- सम्पूर्ण विश्व का मंगल (welbeing), भलाई! भारतीय दर्शन- पूर्णतया एकत्व का दर्शन है। भारत के प्राचीनतम धर्मग्रन्थ ऋग्वेद के अध्ययन से प्राय: यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि उसमें इन्द्र, मित्र, वरुण आदि विभिन्न देवताओं की स्तुति की गयी है । किन्तु बहुदेववाद की अवधारणा का खण्डन करते हुए ऋग्वेद (१-१६४-४६) स्वयं ही कहता है-
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।
     एकं  सद्  विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।

जिसे लोग इन्द्र, मित्र,वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं । वैश्वीकरण पर बल देते हुए कहा गया है :-
      अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
          उदारचरितानां  तु   वसुधैव  कुटुम्बकम् ।

-यह अपना है या यह पराया है, यह विचार छोटे मन वालों का है । उदार चरित्र वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही कुटुम्ब है। सामाजिक एकता का सन्देश देते हुए कहा गया है :- सह नाववतु सह नौ भुनुक्तु । सह वीर्य करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै । शान्ति: शान्ति: शान्ति: । प्रभु हम परस्पर रक्षा करें, साथ-साथ उपभोग करें, परस्पर सामर्थ्य बढ़ाकर तेजस्वी बनें । विद्या-बुद्धि बढ़ाकर विद्वेष से दूर रहें । इस प्रकार परम शान्ति का वरण करें । सार्वभौम भ्रातृत्व के साथ सार्वभौम कल्याण की कामना की गयी है :-
         सर्वे   भवन्तु   सुखिन:   सर्वे   सन्तु  निरामया: ।
           सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत् ।

सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी को शुभ दर्शन हों और कोई दु:ख से ग्रसित न हो । उपनिषदों में एकत्व की खोज के लिए विशेष प्रयत्न किया गया है और यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जीवात्मा और परमात्मा में अग्नि की लपट और उसकी चिनगारी जैसा सम्बन्ध है । ईश्वर अलग किसी स्थान पर नहीं बैठा है । उसका वास हमारे हृदय में है, सर्वत्र है । वही सत्य रूप में सर्वत्र प्रकाशित है । परमात्मा ही सब कुछ है; तभी तो उससे (यजुर्वेद १९-९) में प्रार्थना की जाती है :-
तेजो सि  तेजो  मयि  धेहि, वीर्यमसि  वीर्य  मयि  धेहि,
    बलमसि  बलं   मयि  धेहि, ओजोसि  ओजो मयि धेहि ।
(हे भगवन्! आप तेजस्वरूप हैं, मुझमें तेज स्थापित कीजिए; आप वीर्य रूप हैं, मुझे वीर्यवान् कीजिए; आप बल रूप हैं, मुझे बलवान बनाइए; आप ओज स्वरूप हैं, मुझे ओजस्वी बनाइए।)
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां, नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर टेढ़े-मेढ़े रास्ते को अपनाते हुए अंतत: समुद्र में एकाएक हो जाती हैं, उसी प्रकार विभिन्न विचारों व आस्थाओं को अपनानेवाले लोग विविध उपायों द्वारा सत्य के एकमात्र छोर तक पहुँचने का ही प्रयास करते हैं।] 
हमलोग यदि सम्पूर्ण मानवता के मंगल की चिंता न कर, मात्र अपने-अपने समूह (जातिगत कुनबे--ब्राहण-समाज,परशुराम समाज, क्षत्रीय समाज, चित्रगुप्त समाज, अग्रवाल समाज , माहेश्वरी समाज, जैन समाज, सिख समाज,ईसाई समाज, इस्लामी बिरादरी, या भाषाई कुनबा 'निखिल बोंगो बंगाली समिति' आदि आदि छोटे छोटे समुदाय ) के कुछ लोगों के कल्याण का चिन्तन करें, तो इसका अर्थ यह होगा कि हमलोग विश्व-ब्रह्माण्ड से अपने को अलग मानते हैं, उसके एकत्व को स्वीकार नहीं करते। सबों को, सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड को अपना समझने की आवश्यकता है। फिर हमलोग केवल (जातिगत कुनबा,साम्प्रदायिक कुनबा, भाषायी कबीला- जैसे) इक्के-दुक्के समूहों के मंगल की बात सोच ही नहीं पायेंगे। इस दृष्टि से जगत को देखने का अभ्यास नहीं किया जाये, तो अपने हृदय की परिधि को छोटा, छोटा और छोटा करते करते हमलोग अपने को एक क्षुद्र-अहं केन्द्रित व्यक्ति मान लेते हैं, और हर समय ' मेरा भला कैसे हो, मेरी भलाई किसमें है -यही सोचना सीख लेते हैं । और 'केवल मेरा भला' सोचते रहने से, दूसरों के मंगल  की ओर दृष्टि जाती ही नहीं है। हम अपने हृदय की परिधि को संकुचित बना लेते हैं, संकीर्ण हृदय रहने से हम कभी यथार्थ मनुष्य नहीं बन सकते। बल्कि एक स्वार्थी मनुष्य या (मानव-पशु) बन जाते हैं। और इसी प्रकार के सामाजिक परिवेश और परिवेश में पले-बढ़े होने के कारण, सभी देशों के समस्त मनुष्य अपने को इसी प्रकार के संकीर्ण-कबीले या समूहों में विभक्त करके केवल अपने समूह के मंगल की बात सोचते हैं, इसीलिये सम्प्पूर्ण जगत के मंगल की बात तो सोच भी नहीं पाते हैं। 
इसीलिये हमें आत्मविश्लेषण करके देखना चाहिये --केवल प्राणिमात्र का कल्याण हो, क्या ऐसी कामना हमारे हृदय की है ? ' सर्वे भवन्तु सुखिनः' -यही हमारा लक्ष्य हो, किन्तु यदि अभी हम सम्पूर्ण जगत के कल्याण की बात सोचने में असमर्थ हैं,और सिर्फ अपने देश के कल्याण की बात सोचने में ही लगे रहते हैं; यदि अब भी हमारी मानसिकता संकीर्ण बनी हुई है तो हमें इस संकीर्ण मानसिकता दायरे से बाहर निकलने की चेष्टा अवश्य करनी चाहिये।
केवल अपने कुनबे की मंगल की चिंता न कर, सबों के मंगल की चिंता करना हमलोग कैसे सीख सकते हैं? कैसे हमलोग सबों का मंगल सोचने में समर्थ मनुष्य बन सकते हैं ? किस पद्धति से अपने जीवन का वैसा गठन कर सकते हैं ? यही हमलोगों को सीखना होगा। परस्पर सद्भाव बनाये रखने के लिये विचारों का आदान-प्रदान करके, आपसी मेल-जोल को बढ़ाकर विभिन्न समुदायों में जन्में दस अन्य भाइयों के मुख को देख कर, आपस में एक दूसरे को पहचानने की चेष्टा करके, अपने समाज, परिवेश या परिवार में एक-दूसरे को अपने से छोटा मनुष्य के रूप में देखने की आदत जो आदत बन गयी है, उसे बिल्कुल भूल जाना होगा। हम एक नई बात सीखेंगे, अबसे हमलोग दूसरों को भाषाई, जातिगत, या स्थानगत आधार पर अपने से छोटा मानने की भूल कभी नहीं करेंगे। क्षुद्र स्वार्थ या व्यक्तिगत नाम-यश की ओर हमारी दृष्टि फिर कभी नहीं जाएगी। हमलोगों के भीतर एक ऐसी एकात्मता बोध, ऐक्य का भाव, एक ऐसा सर्वग्रासी-प्रेम जन्म लेगा जिसे तोड़ने में फिर हमको ही कष्ट होगा। इस एकात्म-बोध की आवश्यकता आज सारे समाज में, सारे देश में सर्वत्र है। अभी हमलोग अपने समाज के लोगों को, अपने देश-वासियों को इस प्रकार प्रेम नहीं कर पाते हैं, इसीलिये हम देश की उन्नति में अपना योगदान नहीं कर पाते हैं,या देश का यथार्थ कल्याण नहीं कर पाते हैं।
हमलोग प्रतिदिन देश के कल्याण की बातें करते हैं, इसके लिये नई नई योजनायें लोगों के सामने रखते हैं, नई नई कल्याण-पद्धतियों को कानून में बदल देते हैं, किन्तु यह कार्यरूप में नजर नहीं आता कि वास्तव में उनका उतना कल्याण हुआ है। क्यों हम उतना कल्याण नहीं कर पाते हैं? इसीलिये नहीं कर पाते कि हम अपने कुनबापरस्ती के क्षूद्र दायरे से बाहर नहीं निकल पाते हैं। हम अपने सम्पूर्ण देशवासियों के कल्याण की चिंता नहीं कर पा रहे हैं, इसीलिये सम्पूर्ण देशवासियों का कल्याण भी नहीं हो रहा है। इसीलिये तरह तरह के हथकंडों से अपने अपने कुनबे का स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं, हमलोग सम्पूर्ण भारत के कल्याण की बात नहीं करके अपनी जाति,धर्म, भाषा के नाम पर कहीं 27% तो कहीं 5% तो कही 33% कल्याण की बातें करते हैं।इसके लिये तरह तरह की चालबाजियाँ की जाती हैं,जिसका परिणाम हमारे सामने है। इन सबसे हम कितना सीख पायेंगे, यह निर्भर करेगा हमारी दृष्टि की उदारता के उपर, समस्त समस्याओं की जड़ को देखने के लिये हमारी जो विश्लेषण क्षमता है, उसके उपर। किन्तु इस प्रचलित शिक्षा-पद्धति के माध्यम से न तो देश का कुछ विशेष कल्याण हो पा रहा है, न हमलोग ही कुछ सीख पा रहे हैं। तो क्या अन्य कोई उपाय है?
जगत में दो शक्तियाँ प्रमुख रूप में क्रियाशील हैं-एक है प्रेम की शक्ति, दूसरी है घृणा की शक्ति। इनमें से किसकी शक्ति अधिक है, घृणा की या प्रेम की? इसी पर थोड़ा विचार कर के देखा जाये। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि - ' प्रेम की शक्ति, घृणा की शक्ति की अपेक्षा बहुत अधिक है।' हमलोग विभिन्न तरीकों से पहले अपने को छोटी छोटी परिधि में, विभिन्न समूहों में, बाँटने की चेष्टा करते हैं,फिर विभिन्न तरीके अपनाकर केवल अपने समूह के कल्याण की चिन्ता करते हैं। अपने को विभिन्न समूहों में बाँटे बिना, कुनबापरस्ती से उपर उठकर (जात के नहीं जमात के, सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की बात) समस्त देशवासियों को एक समूह मानकर, घृणा विद्वेष या ऐसे विघटनकारी मनोभाव को अधिक प्रश्रय न देकर, क्या हम एकबार प्रेम को प्रोत्साहन देकर नहीं आजमा सकते ? इसी के लिये प्रयास करना आवश्यक है।  क्या हमलोग सभी मनुष्यों को उतने ही प्यार से देखने में समर्थ नहीं हो सकते जितने प्यार से हम अपने सगे-संबन्धियों को देखते हैं ? क्या (उस माँ की दृष्टि से देखने की चेष्टा करें, जिसे अपने पुत्र का कूबड़ नहीं दीखता) इतने ही प्यार से सम्पूर्ण देशवासियों को अपना समझकर देखने की चेष्टा नहीं की जा सकती है ? हमलोग व्यक्तिगत रूप से, सामाजिक रूप से, समग्र देश को लेकर एक उन्नत राष्ट्र, क्यों नहीं बन सकते हैं ?क्या हमलोग एक उन्नत राष्ट्र बनाने के योग्य, उन्नत राष्ट्रिय-चरित्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं ? क्या इसके लिए हम अपना व्यक्तिगत चरित्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं? और क्या इसी प्रकार अपना और समाज का सर्वाधिक कल्याण नहीं हो सकता है? यह संभव है या नहीं, हमलोग अब इसी बात की विवेचना करेंगे। 

हमलोग सबों की भलाई किस प्रकार कर सकते हैं ? क्या इसके लिये हमें अपने प्रेम को नहीं बढ़ाना होगा ? अतः इस प्रेम को हम कैसे बढ़ा सकते हैं, उसी का प्रयत्न करना होगा। वैसा प्रेम कहाँ उत्पन्न होगा, और कहाँ उसमें वृद्धि होगी ? मनुष्य के मन में, मनुष्य के हृदय में ही उस सर्वग्रासी प्रेम का जन्म होता है।
(नमस्ते -नमस्ते क्यों कहते हैं ? यही कहकर, हँसते-हँसते दिल चुरा लिया जाता है ! पहले तो हो गयी नमस्ते नमस्ते! - फिर हो गया प्यार हँसते हँसते ! आते-जाते मिले गली में, दुनिया रह गयी जलते जलते -पहले तो हो गयी नमस्ते नमस्ते ! ) 
अभी हम मनुष्यों को अलग अलग सत्ता (हिन्दू-मुसलमान, मेल-फीमेल) के रूप में देखने के आदि हैं। इसलिये जहाँ जहाँ मनुष्य विभिन्न रूपों (अपने लोग और पराये लोग के रूप ) में है, (कोई अपनी बेटी के रूप में है, कोई उसकी गोतनी के रूप में है, तो कोई अपनी पुतोह के रूप में है।) वहाँ वहाँ मनुष्य के भीतर प्रेम को बढ़ाने की चेष्टा करनी होगी । क्योंकि व्यक्ति-मनुष्य के भीतर ही मनुष्य की यथार्थ सत्ता (आत्मा) , प्रकटित और प्रकाशित है।  इसीलिये उन व्यक्ति-मनुष्यों के प्रति अपने हृदय में प्रेम को बढ़ाना होगा। (इस गीत के मर्म को समझो - 'हे मईया, खोल न केंवड़ीया तनी भोला के जगा द !') इस प्रकार सम्पूर्ण मानव-जाति के लिये अपने हृदय में सर्वग्रासी- प्रेम को बढ़ा लेना ही- मनुष्यत्व अर्जित करना, चरित्र गठन करना, जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करना है ! इसीको -' Man-Making ', कहते हैं, स्वामी विवेकानन्द ने इसीकी शिक्षा सम्पूर्ण विश्व को दी है।
प्रत्येक मनुष्य का जीवन यदि सुन्दर रूप से गठित हो जाये, उसके भीत जो शक्ति है, प्रेम है, प्यार करने की क्षमता है, पवित्रता है, सम्पूर्णता है, दोष-शून्यता है, वह यदि इन गुणों में वृद्धि करा सके, तभी वह मनुष्यत्व अर्जित कर सकता है। हमलोग इसी के लिये प्रयत्न करेंगे। यह कोशिश कैसे की जाती है, इसे हम धीरे धीरे देखेंगे। 

हमलोग देखेंगे कि जीवन के किन किन पहलुओं की ओर नजर रखने से हमलोगों में ये गुण बढ़ सकते हैं? क्योंकि जब हमलोगों ने अच्छा बनने का संकल्प लिया है, तो हमें सभी प्रकार से अच्छा बनने की चेष्टा करनी होगी। अपने आचार-आचरण, बात-व्यवहार हर चीज में-प्रेम ही छलकता रहे, इसके प्रति सतर्क रहना होगा। किन्तु यह सब भीतर से आना चाहिये,  आंतरिक होना चाहिये, नेताओं वाला लोक-दिखावन प्रेम नहीं होना चाहिए। बलपूर्वक प्रेम नहीं होता, होने से भी टिकता नहीं है।
जैसे जबरदस्ती अनुशासन लगाने से, कोई अनुशासित नहीं होता। अनुशासन भीतर से आने वाली वस्तु है। भीतर से अनुशासन कब आएगा ? जब हमलोगों का उद्देश्य केवल 'कल्याण' होगा। जब हमलोग यह देखेंगे कि आत्मानुशासन नहीं सीखने से, अनुशासन का पालन नहीं करने से, हमारे भीतर जो शक्ति है, उसका सही रूप में हम उपयोग नहीं कर पाते हैं, तब बिना किसी के कहे हमलोग स्वतः अपने को अनुशासन के भीतर ले आयेंगे।
जीवन में जो एक प्रवाह है, उसकी दिशा पहले से यदि निश्चित नहीं रहे, उसके भीतर यदि एक सुसंहति (compactness) न रहे, अनुशासन का भाव नहीं हो, तो उस प्रवाह का कोई अर्थ नहीं होता। दिशाहीन गति विध्वंश का कारण होती है। क्योंकि उसका प्रवाह किस ओर मुड़ जायेगा, उसका कुछ पता नहीं चलता। व्यक्ति-जीवन में, सामाजिक-जीवन में इस प्रवाह की दिशा पहले से तय रहनी चाहिये। जिस समय व्यक्ति-जीवन का प्रवाह निर्धारित क्षेत्रों से प्रवाहित नहीं होता, जब समाज की गति  अस्त-व्यस्त रूप से (higgledy-piggledy) बहने लगती है, तब समाज की उन्नति नहीं होती, बल्कि पतन होता है। इसीलिये समाज के भीतर आत्मानुशासन की भावना को प्रतिष्ठित करना प्रथम आवश्यकता होगी। इसके लिये सबसे पहले हमलोग अपने जीवन में इसी आमनुशासन की भावना को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करेंगे। जीवन के प्रति अपना एक दृष्टिकोण बनाने की चेष्टा करेंगे। इस जीवन के प्रति हमारा जो दृष्टिकोण होता है, उसी को दूसरे रूप में जीवन-दर्शन कहा जाता है।
जीवन क्या है, जीवन का लक्ष्य क्या है ? इन बातों को स्पष्ट रूप से समझ लेने की चेष्टा करनी होगी। इसके लिये थोड़ा 'धीर'-बनना होगा। थोड़ा धीर-स्थिर न बन सके, तो जीवन के प्रवाह को देख कैसे पायेंगे ? यदि हमलोग हर समय चंचल बने रहें, तो हमलोग जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण कभी तय नहीं कर पाएंगे। जैसे किसी जलाशय में जल की उपरी सतह, हवा के कारण या अन्य किसी कारण से यदि निरन्तर चंचल रहती हो, तो उसमें अन्य किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से नहीं पड़ सकता  है।
उसी प्रकार जीवन की गति को देखने के लिए भी मन के उपर ही जीवन की छवि भी प्रत्यक्ष रूप में गोचर होती है। किन्तु हमारा मन यदि विषयों के द्वारा निरन्तर आड़ोलित होता रहता हो, तो हम अपने जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण नहीं बना सकते। हमलोग अपने व्यक्ति जीवन में अत्यन्त चंचल बने रहते हैं, इसीलिये हमें पारदर्शी दृष्टि, प्राप्त नहीं होती। इसीलिये युवाओं को धीर बनना होगा।

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मंगलवार, 27 नवंबर 2012

' शक्ति सामर्थ्य ' (विलपॉवर) [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [42] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

' इच्छा-शक्ति को मोड़ने और ब्रेक कसने की तकनीक'
मनुष्य के पास मन नामक एक वस्तु है। हमारे पास संकल्प जैसी एक वस्तु है। यह संकल्प भी मन की ही एक क्रिया है। हमलोग किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा कर सकते हैं, फिर दृढ़ संकल्प के द्वारा इच्छा को ईच्छाशक्ति में परिणत भी कर सकते । स्वामी विवेकानन्द इसका एक छोटा सा उदहारण देते हुए कहते हैं, " मानलो एक इंजन आ रहा है, और एक छोटा सा कीड़ा लाइन पर खड़ा है। इंजन में इतनी शक्ति है,किन्तु वह जड़ है, यदि ड्राइवर ब्रेक नहीं लगाये तो वह चलता जायेगा। किन्तु जो एक छोटा सा कीड़ा है, उसमें अपने प्राणों की रक्षा करने की प्रवृत्ति है। इसीलिये वह इतने बड़े इंजन के आने पर वह केवल लाइन से उतर कर, स्वतः नीचे सरक जायेगा। "
युवाओं का कार्य केवल इसी इच्छाशक्ति को बढ़ा लेना है। हमलोग इच्छाशक्ति के प्रवाह के वेग को स्वतः घटा-बढ़ा सकते हैं, उसके प्रवाह की दिशा को परिवर्तित कर सकते हैं, या मोड़ दे सकते है। मलोग यदि खड़े हैं, तो चल सकते हैं; यदि चल रहे हों, तो जब चाहें तभी खड़े भी हो सकते हैं। अर्थात हमलोग अपने 'विल-पॉवर' (willpower- इच्छाशक्ति, संकल्प शक्ति,आत्मसंयम) को कार्य में लगा सकते हैं।
स्वामीजी का एक अन्य सन्देश है- उन्होंने कहा है, हमें अपने विवेक को जाग्रत करना होगा, तथा विवेक के साथ अपनी शक्ति का प्रयोग करना सीखना होगा। इच्छशक्ति को यदि विवेक के साथ प्रयोग करें, तो यह समझ पाएंगे कि उसके प्रवाह की गति को किस दिशा में मोड़ना अच्छा होगा? इच्छशक्ति के प्रवाह और विकास की दिशा-परिवर्तन करने, और वेग को घटाने या बढ़ाने की आवश्यकता है या नहीं.…? यह विचार यदि युवाओं के मन में उठने लगे, तभी हमलोग अपनी जीवनी-शक्ति (प्राण) के प्रयोग के विषय में विचार कर सकेंगे। युवाओं के लिये यह आवश्यक है कि वे अपने शक्ति के मूल स्रोत को अच्छी तरह से जान लें,कि हमारे पास कितनी शक्ति है? जिस प्रकार बाह्य जगत में, हमारी मिट्टी के नीचे पेट्रोलियम, कोयला, गैस आदि प्राकृतिक सन्साधन होते हैं, उसी प्रकार हममे से प्रत्येक के अन्तर जगत में भी अनन्त शक्ति है। इस मिट्टी की काया में
 ('प्रत्यक् आत्मन्' या भीतर की ओर गयी हुई ) अनन्त शक्ति है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति इसके अधिकारी हैं। हमे केवल यह जानना होगा कि हमारे भीतर में ही कहाँ क्या क्या छुपा हुआ है ? प्रत्येक युवकों के लिये यह आवश्यक है कि वह अपनी अन्तर्निहित शक्ति की ओर देखना सीखे। हममें से कोई भी व्यक्ति कमजोर, नीच, निर्बल या मामूली जीव नहीं हैं, हममें से प्रत्येक के भीतर अनन्त शक्ति विद्यमान है। हमलोगों को केवल यही सीखना है कि हम इस शक्ति को जाग्रत कैसे कर सकते हैं ?
स्वामीजी ने शिक्षा के विषय में एक अद्भुत सन्देश दिया है ! शिक्षा के द्वारा हम अपनी इच्छाशक्ति को संग्रहित कर सकते हैं, उसकी रोक-थाम कर सकते हैं, उसे उपयोगी और कार्यकारी बना सकते हैं- स्वामीजी शिक्षा को तीन प्रकार की अद्भुतपदवी से विभूषित करते हैं ! यह जो अदभुत इच्छाशक्ति हमारे भीतर है, उसके सम्बन्ध में जानना होगा। दूसरे प्राणियों में यह शक्ति मनुष्यों के तुलना में कम है।  तथा इसी इच्छाशक्ति की सहायता से हम अपनी अपनी अन्तर्निहित शक्ति को बाहर निकाल सकते हैं। एक स्थान पर स्वामीजी कहते हैं, " विश्व का इतिहास कुछ थोड़े से आत्मविश्वासी मनुष्यों का इतिहास है। यदि तुम कभी किसी कार्य में असफल हो जाओ, तो -यह समझ लेना कि यह अन्य किसी कारण के चलते नहीं हुई है-एकमात्र तुमने अपने भीतर की अनन्त शक्ति को प्रकट करने के लिये जितनी मात्रा में प्रयत्न करना चाहिए था, उतनी मात्रा में प्रयत्न नहीं कर सके हो, इसीलिये तुमको यह असफलता मिली है।"
आधुनिक मनोविज्ञान भी यही कहता है, कि प्रयत्न में कमी के आलावा विफलता का कोई दूसरा कारण नहीं है। आज पाश्चात्य देशों में मनोविज्ञान को एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में मान्यता मिल चुकी है। वे लोग अभी मन के उपर अनुसन्धान करने में लगे हुए हैं। वे भी ठीक यही बात कह रहे हैं कि मनुष्य के भीतर अनन्त शक्ति है। 
एक मनोवैज्ञानिक कहते हैं, " हमलोगों के अवचेतन मन के भीतरी दरवाजे के चौखट से ठीक पीछे ही अनन्त शक्ति का भण्डार है। " और स्वामीजी कहते हैं, इस अनन्त शक्ति को अभिव्यक्त किया जा सकता है। किन्तु, कैसे ? हमलोग अपने अन्तर्निहित इस अनन्त शक्ति को अध्यवसाय, इच्छाशक्ति, पवित्रता, और आत्मविश्वास के द्वारा अभिव्यक्त कर सकते हैं। युवा शक्ति ही देश की विभिन्न समस्याओं का समाधान कर सकती है। कैसे, किस उपाय से ? वे लोग आत्मविश्वासी बनेंगे और विभिन्न पद्धति से उन उपायों का प्रयोग करके पहले अपने जीवन को परिवर्तित करेंगे। अपने शक्ति को अभिव्यक्त करेंगे। तथा उसी शक्ति की सहायता से वे समस्त समस्याओं का समाधान करेंगे। मनुष्य यदि मनःशक्ति-सम्पन्न हो जाये, तो वह किसी भी समस्या की जड़ को देख सकता है, तथा पारदर्शी सोच (स्पष्ट-चिन्तन) और अभिव्यक्ति की सहायता से समाज की समस्त दोषों को दूर कर सकता है। इसीलिये स्वामीजी ने 'पूर्ण रूप से मनुष्य '- गढ़ने के सन्देश को कई प्रकार से दिया है। 
स्वामीजी के सिद्धान्तों का व्यवहार में अपनाया जाय, तो यह देखा जा सकता है कि जिस प्रकार वैज्ञानिक सत्यों का कभी भी प्रयोग करें तो उसका फल हर समय एक ही प्राप्त होता है, उसी प्रकार उनके सिद्धान्तों को जीवन में प्रयोग करने से वे ठीक उसी प्रकार फलदायी होते हैं। स्वामीजी कहते हैं, एक 'पूर्ण-मनुष्य'  सा 'मनुष्य' - गढने के लिये, उसके तीन पहलुओं (पक्ष) - देह, मन, हृदय 'Body, mind, heart' को ठीक रूप में गढ़ना होगा। यदि तुम्हारा देह-मन स्वस्थ और सबल है, और हृदय उदार हो तभी तुम 'पूर्ण-मनुष्य ' जैसे मनुष्य  हो। यदि समाज में इसी प्रकार के मनुष्यों की संख्या अधिक हो जाय तो समाज की समस्त समस्याओं का समाधान होना संभव है। अपने तीनो पहलु को ठीक रूप में कैसे गढ़ूंगा ? देह को स्वस्थ रखने के लिये जितना पौष्टिक आहार लेना सम्भव हो, उतना पौष्टिक आहार लेने की चेष्टा करेंगे। उसके साथ साथ शारीरिक व्यायाम के द्वारा शरीर को बलवान बनाने की चेष्टा करूँगा। उसी प्रका मन को भी स्वस्थ और बलवान बनाने के लिये मन को भी पौष्टिक आहार और व्यायाम की आवश्यकता होती है। मन को खेलाना (प्रत्याहार-धारणा), काम में लगाना मन का व्यायाम है। हमलोगों का मन स्वतः (बहिर्मुखी होकर) अन्न-वस्त्र, स्वार्थपरता इत्यादि की ओर चला जाता है; किन्तु इसको वहाँ से खींच कर दूसरी ओर भी खेलाया जा सकता है(अन्तर्मुखी करके-हृदय में विद्यमान श्रीरामकृष्ण पर एकाग्र किया जा सकता है।) जब अपने अंतर में (हृदय में उस एक को देखने का अभ्यास किया जाता है -जिससे सब निकला है, तब हृदय विशाल हो जाता है, और ) जगत को नाना रूप में नहीं 'एक' रूप में देखा जा सकता है। दूसरों के दुःख में दुःखी हुआ जा सकता है।
 ( दिल में रहती है तस्वीरे यार, जब जरा गर्दन झुकाई देखली !) अपने भीतर झाँक-झाँक कर आनन्द पाया जा सकता है। इस शक्ति को जगाकर अपनी इच्छशक्ति को बढ़ाया जा सकता है। ऐसा नहीं करने से विचारण-क्षमता, पारदर्शी सोच कमजोर हो जाती है। इसीलिये विचारण-क्षमता (बहुत्व में एक को देखने की शक्ति) को हमें काम में लाना होगा। यही है मन का व्यायाम। और मन का आहार क्या है ? अच्छे विचार, अच्छी सोच। यह मन को पौष्टिकता प्रदान कर सकता है, पहले चेतन मन पुष्ट होता है, बाद में अवचेतन मन भी पुष्ट हो जाता है। मन के लिये पौष्टिक आहार या अच्छे विचारों को आसानी से पाने का सबसे अच्छा श्रोत है, स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा, उनके जीवन और सन्देश का अध्यन, उनकी विवेचना करना, इनका प्रतिदिन अभ्यास करना, और उन सिद्धान्तों को मन की गहरी परतों बसा लेना। यही है मन का आहार।
उसी प्रकार दुखी मनुष्यों के दुःख को देखकर उनके प्रति सहानुभूतिशील बन कर हमलोग अपने हृदय को बहुत बड़ा, व्यापक और विशाल बना सकते हैं। यह है, हृदय का व्यायाम। तथा इसी प्रकार के हृदयवान व्यक्तियों की जीवनी और संदेशों का अध्यन करके, उनके सिद्धान्तों से अनुप्रेरित होकर हृदयवान बना जा सकता है। युवाओं के लिये यही करनीय है।
 उन्हें मन की शक्ति को, अर्थात इच्छाशक्ति के प्रवाह को संयत करने की क्षमता अर्जित करनी होगी। मानलो मैंने साईकिल चलाना सीख तो लिया,पर मेरी साईकिल में ब्रेक नहीं हो, और रोड पर अचानक गड्ढा आ जाने पर, सायकिल की हैंडल को मोड़ना और अचानक ब्रेक कसने का तरीका (पहले पिछला चक्का बाद में अगला कसना है) मुझे नहीं मालूम हो; तो शीघ्र ही दुर्घटना हो सकती है। यदि हमलोग मन को विषयों में जाने से या बहिर्मुखी होने से रोकना नहीं सीखें तो बहुत बड़ा खतरा हो सकता है। हमें यह सीखना होगा कि इच्छशक्ति को कैसे प्रभावकारी बनाया जाता है ? 
स्वामीजी कहते हैं, जो अपनी इच्छाशक्ति को प्रभावकारी बनाना जनता है, उसीको को शिक्षित मनुष्य कहा जा सकता है। युवाओं के लिये इस शिक्षा को प्राप्त करना ही आवश्यक है। स्वार्थपरता और केवल सुख भोग करने की इच्छा को त्याग कर, महान सिद्धांतों को अपने जीवन में ग्रहण करना ही हमलोगों का कर्तव्य है। निर्भयता, निःस्वार्थता, आत्मविश्वास के, त्याग के भाव को अर्जित करना होगा। युवाओं के इस प्रकार निर्मित होने से सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। भारत में व्यापक रूप से युवाओ को ऐसी शिक्षा देने का प्रयास नहीं हुआ है, इसीलिये समस्याओं का समाधान भी नहीं हो रहा है। रोज नया नया घोटाला सामने आता जा रहा है।
क्योंकि हमलोगों की शिक्षा व्यवस्था में सच्ची शिक्षा नहीं दी जा रही है। किन्तु अब क्या किया जा सकता है ? हमारे रहनुमाओं ने दो लोग को आदेश दे दिया, तुमलोग एक नई शिक्षा व्यवस्था की योजना बनाओ। और इसके उपर आवाज उठाने वाले दो पण्डितों से कह दिया गया कि, शिक्षा के उपर एक कमिशन गठित कर दिया गया है, आपलोग उसके आधार पर अपना रिपोर्ट दीजिये। किन्तु जो रिपोर्ट आया उसको हमने ग्रहण ही नहीं किया। इस प्रकार क्या शिक्षा में परिवर्तन आ सकता है ?
नहीं आ सकता, इसीलिये हमारा कार्य है, भगवान के ओर, सरकार की ओर, राजनैतिक दलों की ओर नहीं देखकर, अपने भीतर की ओर दृष्टिपात करना। मेरे देह-मन में शक्ति है, उसे मैं बढ़ा सकता हूँ; हृदय अभी संकीर्ण है, उसे उदार और विशाल बना सकता हूँ। दूसरों के दुःख का अनुभव करके मैं अपनी समस्त शक्तियों को देश के कल्याण में नियोजित कर सकता हूँ। इस काम के लिये भगवान या राष्ट्र के आगे प्रार्थना नहीं करके, अपनी अन्तर्निहित शक्ति से विनती करूँगा। हमलोग अपने अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का अपमान नहीं करेंगे। हम अपनी अनन्त शक्ति को धूल-कीचड़ में गिराकर गंदगी से मलीन नहीं होने देंगे। हमलोगों की जीवनी शक्ति को आकृष्ट करके, स्वामीजी ने जो शास्वत पथ दिखलाया है, उसी पथ पर चलना होगा। हमें ऐसी चेष्टा करनी होगी कि उस पथ का सन्देश प्रत्येक युवक के कानों में में ही नहीं, उसके हृदय तक भी पहुँच जाये। यह सन्देश उनकी शक्ति उनकी शक्ति को बढ़ा सके, और उसके बाद वे उस अपरिमित शक्ति को देश के कल्याण में खर्च कर सकें।
जिस समय इस प्रकार के युवकों का दल गाँव गाँव में गठित हो जायेगा, तब इस समय जो (विदेशी) यह समझ बैठे हैं, कि यह देश (भारतवर्ष) उनकी मल्कियत है, और वे युवा शक्ति की वास्तविक उर्जा को निचोड़ कर, उनकी शक्ति को विभिन्न दिशा में (आईपीएल -चीयर गर्ल्स ) लगाकर उनकी उस शक्ति को, जीवन को, देश को भी नष्ट करके; उनकी जैसी इच्छा होगी वे उसी ढंग से देश को चलायेंगे-  उस समय वे कायर और डरपोक की तरह एक कोने में दुबक कर बैठ जायेंगे। उनके उपर शासन का डण्डा (लोकपाल) नहीं चलाना होगा, वे तो देश के हर क्षेत्र में देशभक्त और चरित्रवान  युवाओं को प्रतिष्ठित देखकर डर के मारे अपनी दुकान समेट कर भाग जायेंगे। मनुष्य की आत्मा में अनन्त शक्ति है। हममें से प्रत्येक युवा, भारत की युवा शक्ति का केवल एक प्रतिशत भी यदि, इस शक्ति को लेकर अपना जीवन गठित कर लें, तो उनके डर से अन्य समस्त शक्तियाँ दुम दबाकर भाग खड़ी होंगी। 
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[ जगत को हिला-दुला देने वाले तीव्र इच्छा-शक्तिसम्पन्न महापुरुष अपने प्राण के कम्पन को इतनी उच्च अवस्था में ला सकते हैं कि हजारों मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं, सभी पैगम्बरों का प्राण पर अद्भुत संयम था। जिसके बल से वे प्रबल इच्छा-शक्ति सम्पन्न हो गये थे। जब कोई मनःसंयोग (ध्यान-जप) कर रहा हो, तो भी समझना चाहिये कि वह प्राण का ही संयम कर रहा है।(1/58-67)
" हमें मालूम है कि हमारे स्नायुओं के भीतर दो प्रकार के प्रवाह हैं, उनमें से एक को अन्तरमुखी और दूसरे को बहिर्मुखी, एक को ज्ञानात्मक और दूसरे को कर्मात्मक, एक को केन्द्र-गामी और दूसरे को केन्द्रापसारी कहा जा सकता है। एक मस्तिष्क की ओर सम्वाद ले जाता है, और दुसरा मस्तिष्क से बाहर, समुदय अंगों में। मेरुदण्ड के भीतर बाएं इड़ा और दायें पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्ति-प्रवाह और मेरुम्ज्जा के ठीक बीच में जो शून्य नली गयी है वही सुषुम्णा है। यह मेरुमज्जा मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के 'बल्ब' में medulla (मज्जा) नामक एक अंडाकार पदार्थ में अंत हो जाती है, जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है, वरन मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है, उसमें तैरता रहता है। यदि सिर पर कोई आघात लगे तो उस अघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में विखर जाती है, और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती।
विद्युत् क्या है, यह किसी को नहीं मालूम; हमलोग इतना ही जानते हैं कि विद्युत् एक प्रकार की गति है। समस्त परमाणु यदि एक ओर गतिशील हों, तो उसीको वैद्युत  गति कहते हैं। इस कमरे में जो वायु है, उसके सारे परमाणुओं को यदि लगातार एक ओर चलाया जाय, तो यह कमरा एक महान बैटरी के रूप में परिणत हो जायेगा। यदि श्वास-प्रश्वास की गति नियमित की जाय, तो शरीर के सारे परमाणु एक ही दिशा में गतिशील होने का प्रयत्न करेंगे। 
जब विभिन्न  में दिशाओं में दौड़ने वाला मन एकमुखी होकर एक दृढ इच्छा-शक्ति के रूप में परिणत होता है, तब सारे स्नायु-प्रवाह भी एक प्रकार के विद्युत् का आकार धारण कर लेती है। जब शरीर की सारी गतियाँ सम्पूर्ण रूप से एकाभिमुखी होती हैं, तब वह शरीर मानो इच्छा-शक्ति का एक प्रबल विद्युत्-आधार या डायनेमो बन जाता है। (1/73)
' प्राण का अर्थ है शक्ति। तो भी हम  इसे शक्ति नाम नहीं दे सकते, क्योंकि शक्ति तो इस प्राण की अभिव्यक्ति मात्र है। मनुष्य देह में तीन मुख्य प्राण-प्रवाह अर्थात नाड़ियाँ है। यदि मेरुदण्ड मध्यस्थ सुषुम्णा के भीतर से स्नायु प्रवाह चलाया जा सके तो देह का बंधन फिर न रह जायेगा, सारा ज्ञान हमारे अधिकार में आ जायेगा। मूलाधार चक्र में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार-समिष्टि मानो संचित सी रहती है। और उस कुण्डलीकृत क्रियाशक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्वज्ञान, अतिचेतन अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार का एकमात्र उपाय है। चार योगों में से किसी की सहायता से कुण्डलिनी को जाग्रत किया जा सकता है। 1/77
' इस सुषुम्णा को खोलना ही योगी का एकमात्र उद्देश्य है। सबसे नीचे वाला चक्र ही समस्त शक्ति का अधिष्ठान है। उस शक्ति को उस जगह से उठाकर मस्तिष्कस्थ  'बल्ब' तक ले जाना होगा। तब वह कामशक्ति ओज शक्ति में परिणत हो जाती है। ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है, मस्तिष्क बिगड़ भी सकता है। तन-मन-वचन से सर्वदा सब अवस्थाओं में मैथुन का त्याग ही ब्रहचर्य है। 1/101' अपवित्र-जीवन जीने वाला योगी नहीं बन सकता है। 1/82] 
[साईकिल चलना सीखने जैसा -'इच्छाशक्ति के प्रवाह वेग को घटाने-बढ़ाने और उसकी प्रवाह की दिशा को मोड़ने की तकनीक से हृदयवान बना जा सकता है। युवाओं के लिये यही करनीय है। ']