'मनुष्य' बनाने की चेष्टा करते करते हम स्वयं 'मनुष्य' बन जाते हैं !
जो वस्तु हमलोगों की अन्तर्निहित शक्ति को उन्मोचित कर देती है, जो मनुष्य को पशु-स्तर से मनुष्य के स्तर पर तथा मनुष्य से देवता के स्तर पर उन्नत कर देती है, उसी को धर्म कहते हैं। वर्तमान युग की आवश्यकता अनुष्ठानिक-धर्म पालन (शतकुण्डी-सहस्रकुण्डी यज्ञ अनुष्ठान) करने की नहीं है। बल्कि इस समय हमें इसी सच्चे धर्म, सेवा-धर्म का अनुशरण करने चेष्टा करनी होगी। जिस प्रकार की सेवा करने से अपनी उन्नति होने के साथ साथ दूसरों की भी उन्नति हो सकती हो, उसी प्रकार की सेवा कार्य करने की आवश्यकता है। (जिसके द्वारा मनुष्य अद्वैत आनन्द की अनुभूति करके, पशु-मानव से देव-मानव या यथार्थ मनुष्य बनने के लिये बाध्य हो जाता है) युवाओं के समक्ष जो पहला कर्तव्य है, वह है, अपने देह-मन और हृदय के सुमन्वित (अनुपातिक well-proportioned) विकास के लिये प्रयत्न करना। यदि मन को उन्नत करना चाहते हों, तो उसे नियन्त्रित और एकाग्र करना होगा। शरीर और मन की शक्ति को समाज के सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में तब तक नहीं लगाया जा सकता, जब तक शरीर और मन को उन्नत बनाने के साथ साथ हृदय का विस्तार करने की भी चेष्टा न की जाये।
प्रत्येक जीव को साक्षात् देवता (शिवजी) समझकर ही, समाज-सेवा का कार्य करना होगा। आमतौर से जैसी समाज सेवा चलती है वैसी सेवा द्वारा, शायद पूर्णतया निःस्वार्थ रूप में अपनी दैहिक, मानसिक और अध्यात्मिक उन्नति हम नहीं कर पायेंगे। किन्तु अपने देह, मन की उन्नति करने का उद्देश्य यदि सार्वभौमिक मंगल की कामना है, यह समझ यदि निरन्तर जाग्रत रहे, तो हमलोग दूसरों की सेवा करने के योग्य बन जायेंगे, और तब हमारी समाज-सेवा अपने क्षूद्र स्वार्थ (नाम-यश ) को पूर्ण करने कार्य में ही परिणत नहीं होगी।
हमलोग अभ्यास-योग के द्वारा अपने देह, मन और आत्मा की उन्नति कर सकते हैं। ज्ञानयोग में विवेक-प्रयोग करके या नेति-नेति विचार करके, समस्त क्षणभंगुर या मिथ्या वस्तुओं को त्याग किया जाता है। राजयोग हमलोगों के मन के उपर पूर्ण अधिकार प्राप्त करने का उपाय बताता है। भक्तियोग कहता है-'मुझे ज्ञान-विचार या विवेक-प्रयोग' करने की क्या जरूरत है ? मेरा कार्य है, अपने हृदय का विस्तार करना; उस प्रेमस्वरूप के समक्ष अपने हृदय को उन्मुक्त कर देना, ताकि मैं समस्त जगत के साथ एकात्म बन जाऊँ। कर्मयोगी कहते हैं, हमलोग तो कर्म के माध्यम से ही अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं, किन्तु यह कर्म हम अपने सुख या भोग के लिये नहीं करेंगे, हम परार्थ कर्म करेंगे, दूसरों के कल्याण के लिये करेंगे। इसी प्रकार निःस्वार्थ कर्म करते हुए, कर्मयोगी अपने मन को नियंत्रित करके सबों के साथ एकात्मता का अनुभव करते हुए अपने जीवन को सार्थक बना लेंगे।
इन चार योगों का एक साथ अभ्यास करके, या इनमें से किसी एक योग-मार्ग का अलग से अभ्यास करके हमलोग मनुष्यत्व अर्जित कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द के विचार में समस्त उपलब्ध योग-मार्गों की सहायता से अपने मनुष्यत्व ( या इंसानियत ) को अभिव्यक्त करना श्रेष्ठ-उपाय है। स्वामीजी के सार-गर्भित सन्देशों की विवेचना करके हमलोग नित्य-अनित्य वस्तुओं में विवेक-प्रयोग करने की शक्ति प्राप्त कर सकते हैं। इसको ज्ञानयोग का अभ्यास कहते हैं। राजयोग की सहयता से मन को को एकाग्र करने में सफलता पायी जा सकती है। दूसरे मनुष्यों के कल्याण करने के माध्यम से हमलोग कर्मयोग का अभ्यास कर सकते हैं। दूसरों के प्रति प्यार और प्रेम-पूर्ण सम्बन्ध को प्रगाढ़ करते हुए हमलोग भक्तियोग का अभ्यास कर सकते हैं।
समाज-सेवा का लक्ष्य है, इन चारो योग-मार्गों का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने की अवसर प्रदान करना, तथा इनके समन्वय से संतुलित व्यक्तित्व विकास के मार्ग को प्रसस्त बना देना। यदि इस व्यापक धारणा के अनुसार समाज-सेवा न की जाय तो उसका कोई विशेष फल नहीं होता है। उल्टा इस समाज-सेवा का दुष्प्रभाव भी हो सकता है।
समाज-सेवा के प्रति सही दृष्टिकोण या मानक निर्धारित किये बिना ही समाज-सेवा के कार्य में उतर जाने पर अपना अहंकार बहुत बढ़ जाता है। नाम-यश पाने की इच्छा ही सेवा के पीछे मुख्य उद्देश्य बन सकता है। समाज-सेवा करते समय विभिन्न प्रकार के प्रलोभन या लालच के चक्कर में फंस सकते हैं। ईमानदारी और सत्य को कभी कभी बली भी चढ़ाना पड़ सकता है। इसीलिये समाज-सेवा करते समय हमलोगों को बहुत सतर्क रहना चाहिये। दूसरों का भला करने में अपने को नीचे गिरा लेना, या अपना ही अकल्याण कर बैठना अच्छा नहीं है।
समाज-सेवा करते समय मैं अपने स्वार्थ को त्याग दूंगा, कठोर परिश्रम करूँगा, किन्तु अपना अकल्याण क्यों करूँगा ? दूसरों का कल्याण करने के लिये कोई अनैतिक कार्य करके मैं स्वयं को नीचे गिराकर,चरित्रहीन मनुष्य की श्रेणी में क्यों गिरने दूंगा ?
इसीलिये समाज-सेवा सुनते ही कार्य में कूद पड़ने के पहले, समाज-सेवा का उद्देश्य क्या है ? इस तथ्य को-पहले समझ लेना आवश्यक है। अपने फायदे के लिये या नाम-यश पाने के लिये तो समाज-सेवा नहीं करनी चाहिये, किन्तु अपने हित-अहित, भले-बुरे विचार करने के बाद ही समाज-सेवा करना उचित होगा। क्योंकि समाज-सेवा के द्वारा जिसकी सेवा करता हूँ, उसको बहुत लाभ नहीं होता है, उसकी अपेक्षा मुझे अधिक फायदा पहुँचता है। समाज-सेवा का सही उद्देश्य और कसौटी का निर्धारण करके, सेवा करने से मेरा हृदय उन्नत होता है, मेरा चरित्र-बल बढ़ जायेगा। मानवता की दृष्टि से भी हम उच्च कोटि के मनुष्य बन जाते हैं।
स्वामी विवेकानन्द इन संदेशों को ठीक से याद रखना चाहिये -" गरम बर्फ या अँधेरा प्रकाश कहने से जो समझ में आता है, ' सामाजिक उन्नति ' कहने से भी बहुत कुछ वैसा ही समझ में आता है। अन्ततोगत्वा बहुत खोजने से भी 'सामाजिक उन्नति' नामक कोई वस्तु दिखाई नहीं देती है।"
" बाहर में कोई उन्नति नहीं होती, जगत की उन्नति करने में योगदान करने से वास्तव हमलोग स्वयं उन्नत होते हैं। " 'मनुष्य बनाने की चेष्टा करते करते हम स्वयं मनुष्य बन जाते हैं !
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