'जिसका मन (mind-stuff) वज्र के उपादानों से निर्मित हो !'
यदि हमलोग सचमुच अपने देशवासियों का कल्याण करना चाहते हों, तो हमें हृद्यवत्ता, सहानुभूति आदि गुणों को अर्जित करना ही पड़ेगा। दूसरों के प्रति सहानुभूति, मेरे हृदय को इस प्रकार स्पर्श करेगी, कि मैं स्वयं को भी भूल जाऊंगा। स्वयं को भूल जाने का अर्थ है- अपने अपने घर-परिवार, स्त्री-पुत्र, स्वयं के शरीर, नाम, यश, इत्यादि क्षुद्र स्वार्थ या भोग-सुख की चाह की भावना को को तुच्छ और जीवन उपांग समझकर, अपने सम्पूर्ण जीवन का गठन इस प्रकार करूँगा ताकि उसे दूसरों की सेवा में उत्सर्ग करने योग्य बना सकूँ।
स्वामी विवेकानन्द ने इतना अवश्य कहा है कि ' जो व्यक्ति शुरुआत में ही वैसी सहानुभूति जाग्रत नहीं कर सकते हों, वे नाम-यश कमाने के लिए भी सद्कर्म करना प्रारम्भ तो करें, बाद में धीरे धीरे उनके भीतर भी कर्म के प्रति सही दृष्टिकोण स्वतः जाग्रत हो जायगा।'जिस व्यक्ति का हृदय दूसरे मनुष्यों के लिये द्रवित होता हो, जो व्यक्ति अपने भीतर मनुष्यों के दुःख-कष्ट को दूर करने के लिये एक तकाज़ा का अनुभव करता रहता हो, वह यदि उनके दुःख-कष्ट को दूर करने के मार्ग को भी आविष्कृत कर सके, और उसके लिये यदि एक दृढ़ संकल्प भी हो, तब वह अपने द्वारा आविष्कृत पद्धति का प्रयोग करके, अपने संकल्प को रूपायित करने का प्रयत्न करगा, और तभी उसके लिये सच्चे अर्थों में मनुष्यों का कल्याण करना संभव होगा। इस प्रकार क्रमशः समस्त प्रकार की बाधाओं का अतिक्रमण करके, उससे उपर उठकर, असम्भव को भी संभव किया जा सकता है।
युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामीजी कहते हैं, " हे साहसी, वीर, दृढ़ युवक-गण कार्य करते रहो। नाम, यश या व्यर्थ के चीजों के लिये वापस मुड़ कर मत देखो। ' मैं मैं ' -के विचार को एकदम दूर फेंक दो, तथा कार्य करते रहो। मुझे अनन्त साहस, अनन्त धैर्य, अनन्त शान्ति अनन्त उत्साह से भरपूर युवा चाहिये। तभी बड़े बड़े कार्य पुरे हो सकेंगे। "
ऐसे युवाओं (कर्मियों) का 'मन' किस उपादान (Mind stuff) से निर्मित होगा ? स्वामीजी कहते हैं, इन युवकों का मन बज्र के उपादानों से गठित रहेगा। क्योंकि कार्यकर्ताओं का मन यदि बहुत कोमल और नरम होगा, तो जो भी वस्तु सामने आयेगी उन सभी वस्तुओं की छाप उस मन के ऊपर पड़ती रहेगी।और कठोर मन से तात्पर्य है- अविचल, स्थिर मन- अर्थात उस मन को उद्विग्न बना देना, विकृत बना देना कभी संभव नहीं होगा। तथा उस मन में आत्मविश्वास, संकल्प, निश्चय -आदि भाव बिल्कुल ध्रुव की भाँति अटल रहेंगे। बज्र का नाम सुनते ही महर्षि दधिची की कथा याद हो आती हैं। सच्चे कार्यकर्ताओं का मन भी दधिची की जैसा होगा। अर्थात उस मन में अपने स्वार्थ की चिंता नहीं होगी, उस मन में केवल दूसरों के कल्याण की चिन्ता होती है, वह मन अपने कच्चे मैं के प्रति कठोर होगा, और कच्चे मैं की कामना-वासना को जड़ से उखाड़ फेंकने में समर्थ होगा, स्वामीजी वैसा ही मन अपने कार्यकर्ताओं में भी देखना चाहते थे।
सच्चे कार्यकर्ताओं का मन दूसरों के प्रति कठोर नहीं होगा, बल्कि अपने दोषों के प्रति कठोर होगा। दूसरों के प्रति कोमल होगा, दूसरों के प्रति सहानुभूति सम्पन्न होगा। किन्तु मन की मर्जी के अनुसार जो छोटे छोटे अनित्य, क्षणभंगुर सुखों को भोगने की चाह उठती है, उन विचारों को उठते ही नष्ट कर देने के लिये मन को कठोर बना लेना होगा। इसीलिये जो मन किसी भी प्रलोभन (Temptation ) या भय के सामने पड़ कर भी अपने सत-संकल्प से विच्युत नहीं होगा, जिस मन में निरंतर विवेक-प्रयोग करने का सामर्थ्य होगा, उसे तो बज्र के जैसा कठोर होना ही चाहिये।
उसके बाद स्वामीजी के भीतर जैसा ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य था, उसके महत्व की अनुभूति करनी भी आवश्यक होगी। वेदों में कहा गया है, जहाँ क्षात्र-वीर्य और ब्रह्म-तेज एक एक साथ रहते हैं, वहाँ देवता लोग अग्नि के सहित निवास करते हैं। ब्रह्मतेज का अर्थ है -वह तेज जो ब्रह्मदृष्टि से उत्पन्न होती है। अर्थात सभी एक (ईश्वर) है, इस साम्य दृष्टि से जो तेज या शक्ति उत्पन्न होती है, उसे ब्रह्मतेज कहते हैं। जिस किसी व्यक्ति को समदर्शन की उपलब्धि हो जाती है, जो मनुष्य समदर्शी (even-minded) बन जाता है, उसका भय सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है।
बृहदारण्यक उप० १. ४. २ में कहा गया है- " द्वितीयाद वै भयं भवति " भय का जन्म भिन्नता के बोध से होता है, दो व्यक्ति यदि अपने को अलग अलग नहीं मानें तो भय की उत्पत्ति भी नहीं होगी। जिसमें समदृष्टि होती है, अर्थात अभिन्न दृष्टि होती है, उसके लिये दो के (मैं और तुम या वे अलग अलग हैं) ऐसा कोई भेद-भाव नहीं होता है, इसीलिये उसको किसी का भय भी नहीं होता है। और जो किसी भी चीज भयभीत नहीं होगा, उसका तेज भी अवश्य अधिक होगा।
इसीलिये जो लोग सच्चे हृदय से देश के कल्याण का कार्य करना चाहते हैं, उनको समदर्शी भी अवश्य होना होगा। तभी वे लोग ब्रह्मतेज के स्पर्श का अनुभव कर सकेंगे। इसके साथ साथ कार्य करने के लिये जिस
रजोगुण की भी आवश्यकता होती है, उसी को क्षात्रवीर्य कहा जाता है। इस विषय के महत्व पर गीता के अन्तिम श्लोक (१८. ७८) में कहा गया है-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
-हे राजन् ! जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है ।
जिस व्यक्ति के मन में सबों के प्रति एकत्व का बोध रहता है, समदृष्टि रहती है, उसी को योगी कहते हैं। श्रीकृष्ण योग के मूर्त रूप हैं। जो कर्म (अपने-पराये का भेद छोड़ कर ) समग्र-कल्याण की दृष्टि से किया जाता है, उसी को योग की अवस्था में समदृष्टि के साथ कर्म करना कहते हैं।
'ईशावास्योपनिषद' के प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत को ईश्वर का आवास कहा गया है। 'यह
किसका धन है?' प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार का
त्याग करने का सूत्र दिया है।यहाँ जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो कुछ भी है-सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है-
ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥1॥
जो मनुष्य इस प्रकार त्याग की भावना के साथ कर्म करता है, वह कर्म कभी बन्धन का कारण नहीं होता; अर्थात इस दृष्टि के साथ को कर्म करता है, उसके उपर कर्म-फल का कोई प्रभाव नहीं होता। इसी प्रसंग में श्रीरामकृष्ण ने कहा था-" कर्म के विष-दन्त को तोड़ देना चाहिये।" यदि दूसरे के प्रति प्रेम के कारण, उसके कल्याण के लिये कुछ करने की प्रेरणा आये, अर्थात रजो मिश्रित सतोगुण के साथ कर्म किया जाये, तभी सबसे उत्कृष्ट कर्म होता है।
इस प्रकार के कार्य के लिये उपयुक्त युवाओं की आवश्यकता है। वर्तमान युग में श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन का उत्सर्ग करके, इस निष्काम कर्म की विचार-धारा को पुनर्प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने अपने जीवन के द्वारा यह दिखला दिया है कि, त्याग पूर्वक कर्म करने या कर्म-त्याग का अर्थ आलसी व्यक्ति बन कर बैठे रहना बिल्कुल नहीं है। इसका तात्पर्य है-कर्म के फल को त्याग देना, अर्थात ' मैं जो कार्य कर रहा हूँ, उसका फल मुझे प्राप्त हो-इस आकांक्षा का त्याग। इस प्रकार कर्म करने से जीवन आनन्द से भर जाता है।
जिन मनुष्यों के वचन और कर्मों में, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमेशा आनन्द की धारा बहती रहती हो, वे क्या कभी " ठूँठा जगन्नाथ " बनकर बैठे रह सकते हैं ? नहीं, वे तो ' तीनों भुवन ' को अनुग्रह की श्रेणी देकर तृप्त करते रहते हैं। वे ही आदर्श कार्यकर्ता हैं- वास्तव में उनको तो नैष्कर्म-सिद्धि प्राप्त हो चुकी है। वास्तव में वे कोई कर्म नहीं करते, जबकि बाहरी दृष्टि से देखने पर, वे बहुत बड़े कार्यकर्ता दीखते हैं। वे कर्म में अ-कर्म और अ-कर्म में कर्म देखते हैं। इसलिये कर्म के फल का उनके उपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, (लौकिक और अध्यात्मिक कर्म का भेद उनकी दृष्टि में समाप्त हो जाता है) इसीलिये कर्म का फल उनको रत्ती भर भी विचलित नहीं कर पाता।
जो युवा अपने को देश के कल्याण में उत्सर्ग कर देना चाहते हैं, उन्हें आदर्श कार्यकर्ता बन जाने के संकल्प को सफल करने के लिये- हृद्यवत्ता, सहानुभूति, 'कठोर-कोमल' मन, समदर्शिता, कर्मशीलता आदि गुणों को अर्जित करना होगा। युवाओं के इसे स्पष्ट रूप से समझ लेने की चेष्टा करनी चाहिये।
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