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बुधवार, 28 नवंबर 2012

'शाश्वतजीवन की ओर ' सर्वे भवन्तु सुखिन:' स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [43] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

 प्रेम की शक्ति > घृणा की शक्ति !
हमलोगों का उद्देश्य, जो सबसे न्यारा (distant)है, जो सबसे मुख्य लक्ष्य है, वह है -मंगल (कल्याण welfare), भलाई (कुशल Good)। पर किसकी भलाई, किसका कल्याण ? सभी की भलाई, सारे विश्व का मंगल। क्योंकि हमलोगों के विचार की परिधि (Range of thought) धीरे धीर विस्तृत होती जाती है। यह विस्तार स्वाभाविक कारणों से ही होता है। जब हम अपना जीवन, समाज का जीवन, देश का जीवन, या मानव-जाति का जीवन, या इसी प्रकार के अन्य सीमित दायरे को देखते हैं, अपनी सोच की परिधियों को देखते हैं, इन सबके विषय में विचार करना प्रारम्भ करते हैं, तो कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि वे तो बिल्कुल स्वाभाविक हैं। 
 यह 'स्वभाव' शब्द बहुत सुन्दर है, किन्तु 'स्वाभाव' कहने से कई बार हमलोगों की धारणा बहुत स्पष्ट नहीं होती। उसका तो स्वभाव है ऐसा है - मानो किसी की बुराई दिखने के लिए अक्सर इस प्रकार से कह दिया जाता है। किन्तु किसी व्यक्ति भाव (spirit -सार मर्म ) को समझाने के लिये यदि स्वाभाव कहा जाय तो अच्छा होगा। स्व-भाव का अर्थ होता है-अपना भाव। किसी भी शब्द के प्रचलित हो जाने के फलस्वरूप उसके अर्थ को लेकर मनुष्यों में एक प्रकार की धारणा बन ही जाती है। किसी एक ही शब्द का प्रयोग बार बार करते रहने से, उस शब्द के सम्बन्ध में एक धारणा प्रचलित हो जाती है; और वही अधिक प्रभावी हो जाती हैं। उस शब्द को सुनने से वही धारणा, वही भाव सबों के मन में जाग उठता है। उसका तो स्वभाव ही ऐसा है - इस प्रकार कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस व्यक्ति को थोड़ा छोटा बनाने के लिये वैसा कहा जा रहा है। 
और यही हमलोगों का स्वभाव यह है- ऐसा कहने से इस कथन में , स्व-भाव क्या है, इसे समझने की एक चेष्टा रहती ही है। उसमें व्यक्ति के भीतर देखने की चेष्टा रहती है, एक आन्तरिक दृष्टि डालने की चेष्टा रहती है, विश्लेष्ण करके सब समझ लेने का एक भाव रहता है। हम देखेंगे कि जिसे 'स्व-भाव' कहते हैं, उसमें कोई संकीर्णता नहीं होती, उसमें कोई छोटी परिधि नहीं होती। जब हम किसी के स्व-भाव लेकर देखने की चेष्टा करें, तो पायेंगे कि इस प्रकार व्यक्तियों को छोटा छोटा बनाकर देखते रहते हैं, और यह उनको देखने का सही ढंग नहीं है। सच्चाई तो यह है कि हमलोगों के बीच कोई भिन्नता या अन्तर है ही नहीं।वास्तव में हमलोग भिन्न भिन्न व्यक्ति या अलग अलग मनुष्य नहीं हैं। सब लोग एक के ही बहुरूप हैं। जब हम इस स्व-भाव की ओर देखने चेष्टा करेंगे, तो पायेंगे कि यह सम्पूर्ण जगत एक और अभिन्न है। इसीलिये जब हम यह कहते हैं कि महामण्डल का उद्देश्य है-भारत का कल्याण; तब हमारे दृष्टि में सम्पूर्ण जगत का ही कल्याण होता है। 
 जब हम सबों के कल्याण के बदले छोटे छोटे समुदाय के मंगल की बात सोचें, तो वह बहुत स्वाभाविक नहीं होगा। 'सर्वे भवन्तु सुखिनः ' के बजाय केवल अपने अपने समुदाय का मंगल नहीं हो सकता। जहाँ ऐसी भावना हो कि अमुक का तो मंगल हो, किन्तु फलाने-ढिकाने के मंगल से मुझे क्या काम ? वहाँ किसी का मंगल होने से समझना पड़ेगा कि उसके आस-पास अमंगल अवश्य बना हुआ है। मंगल-अमंगल एक साथ रहने से ही एक विरोध उठेगा। और यह प्रश्न भी बना रहेगा कि इसमें से मंगल की विजय होगी या अमंगल ही जीत जायेगा? किन्तु यदि सभी के मंगल की चिंता की जाय तो फिर मंगल और अमंगल  के बीच संघर्ष का प्रश्न ही नहीं उठेगा। ऐसा मनोभाव रहने से ही वास्तव में सबों का कल्याण करना संभव होगा। 
 इसीलिये अपनी दृष्टि को संकुचित करके, सीमित दायरे में कल्याण की बात कभी नहीं सोचनी चाहिये, अबाध रूप से सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड के कल्याण का चिन्तन करना चाहिये। इसीलिये हमलोगों के देश की प्रार्थना में कहीं भी व्यक्तिगत या इक्के-दुक्के लोगों के कल्याण की बात नहीं की जाती। हमारी प्रार्थना है-विश्व का कल्याण हो, सबों का मंगल हो- इसी प्रकार की प्रार्थना हमारे देश के महाप्राण ऋषियों के हृदय में समस्त प्राणियों में एकत्व अनुभूति के बाद उनके कन्ठ से निसृत हुई है। अतः हमारे हृदय की प्रार्थना भी वैसी ही होनी चाहिये।
 [महामण्डल का उद्देश्य है - 'भारत का कल्याण !' - जो सबसे न्यारा है,भारत हमको जान से प्यारा है! किन्तु ऐसा कहने के पीछे जो हमारा मुख्य लक्ष्य है, वह है- सम्पूर्ण विश्व का मंगल (welbeing), भलाई! भारतीय दर्शन- पूर्णतया एकत्व का दर्शन है। भारत के प्राचीनतम धर्मग्रन्थ ऋग्वेद के अध्ययन से प्राय: यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि उसमें इन्द्र, मित्र, वरुण आदि विभिन्न देवताओं की स्तुति की गयी है । किन्तु बहुदेववाद की अवधारणा का खण्डन करते हुए ऋग्वेद (१-१६४-४६) स्वयं ही कहता है-
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।
     एकं  सद्  विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।

जिसे लोग इन्द्र, मित्र,वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं । वैश्वीकरण पर बल देते हुए कहा गया है :-
      अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
          उदारचरितानां  तु   वसुधैव  कुटुम्बकम् ।

-यह अपना है या यह पराया है, यह विचार छोटे मन वालों का है । उदार चरित्र वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही कुटुम्ब है। सामाजिक एकता का सन्देश देते हुए कहा गया है :- सह नाववतु सह नौ भुनुक्तु । सह वीर्य करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै । शान्ति: शान्ति: शान्ति: । प्रभु हम परस्पर रक्षा करें, साथ-साथ उपभोग करें, परस्पर सामर्थ्य बढ़ाकर तेजस्वी बनें । विद्या-बुद्धि बढ़ाकर विद्वेष से दूर रहें । इस प्रकार परम शान्ति का वरण करें । सार्वभौम भ्रातृत्व के साथ सार्वभौम कल्याण की कामना की गयी है :-
         सर्वे   भवन्तु   सुखिन:   सर्वे   सन्तु  निरामया: ।
           सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत् ।

सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी को शुभ दर्शन हों और कोई दु:ख से ग्रसित न हो । उपनिषदों में एकत्व की खोज के लिए विशेष प्रयत्न किया गया है और यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जीवात्मा और परमात्मा में अग्नि की लपट और उसकी चिनगारी जैसा सम्बन्ध है । ईश्वर अलग किसी स्थान पर नहीं बैठा है । उसका वास हमारे हृदय में है, सर्वत्र है । वही सत्य रूप में सर्वत्र प्रकाशित है । परमात्मा ही सब कुछ है; तभी तो उससे (यजुर्वेद १९-९) में प्रार्थना की जाती है :-
तेजो सि  तेजो  मयि  धेहि, वीर्यमसि  वीर्य  मयि  धेहि,
    बलमसि  बलं   मयि  धेहि, ओजोसि  ओजो मयि धेहि ।
(हे भगवन्! आप तेजस्वरूप हैं, मुझमें तेज स्थापित कीजिए; आप वीर्य रूप हैं, मुझे वीर्यवान् कीजिए; आप बल रूप हैं, मुझे बलवान बनाइए; आप ओज स्वरूप हैं, मुझे ओजस्वी बनाइए।)
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां, नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर टेढ़े-मेढ़े रास्ते को अपनाते हुए अंतत: समुद्र में एकाएक हो जाती हैं, उसी प्रकार विभिन्न विचारों व आस्थाओं को अपनानेवाले लोग विविध उपायों द्वारा सत्य के एकमात्र छोर तक पहुँचने का ही प्रयास करते हैं।] 
हमलोग यदि सम्पूर्ण मानवता के मंगल की चिंता न कर, मात्र अपने-अपने समूह (जातिगत कुनबे--ब्राहण-समाज,परशुराम समाज, क्षत्रीय समाज, चित्रगुप्त समाज, अग्रवाल समाज , माहेश्वरी समाज, जैन समाज, सिख समाज,ईसाई समाज, इस्लामी बिरादरी, या भाषाई कुनबा 'निखिल बोंगो बंगाली समिति' आदि आदि छोटे छोटे समुदाय ) के कुछ लोगों के कल्याण का चिन्तन करें, तो इसका अर्थ यह होगा कि हमलोग विश्व-ब्रह्माण्ड से अपने को अलग मानते हैं, उसके एकत्व को स्वीकार नहीं करते। सबों को, सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड को अपना समझने की आवश्यकता है। फिर हमलोग केवल (जातिगत कुनबा,साम्प्रदायिक कुनबा, भाषायी कबीला- जैसे) इक्के-दुक्के समूहों के मंगल की बात सोच ही नहीं पायेंगे। इस दृष्टि से जगत को देखने का अभ्यास नहीं किया जाये, तो अपने हृदय की परिधि को छोटा, छोटा और छोटा करते करते हमलोग अपने को एक क्षुद्र-अहं केन्द्रित व्यक्ति मान लेते हैं, और हर समय ' मेरा भला कैसे हो, मेरी भलाई किसमें है -यही सोचना सीख लेते हैं । और 'केवल मेरा भला' सोचते रहने से, दूसरों के मंगल  की ओर दृष्टि जाती ही नहीं है। हम अपने हृदय की परिधि को संकुचित बना लेते हैं, संकीर्ण हृदय रहने से हम कभी यथार्थ मनुष्य नहीं बन सकते। बल्कि एक स्वार्थी मनुष्य या (मानव-पशु) बन जाते हैं। और इसी प्रकार के सामाजिक परिवेश और परिवेश में पले-बढ़े होने के कारण, सभी देशों के समस्त मनुष्य अपने को इसी प्रकार के संकीर्ण-कबीले या समूहों में विभक्त करके केवल अपने समूह के मंगल की बात सोचते हैं, इसीलिये सम्प्पूर्ण जगत के मंगल की बात तो सोच भी नहीं पाते हैं। 
इसीलिये हमें आत्मविश्लेषण करके देखना चाहिये --केवल प्राणिमात्र का कल्याण हो, क्या ऐसी कामना हमारे हृदय की है ? ' सर्वे भवन्तु सुखिनः' -यही हमारा लक्ष्य हो, किन्तु यदि अभी हम सम्पूर्ण जगत के कल्याण की बात सोचने में असमर्थ हैं,और सिर्फ अपने देश के कल्याण की बात सोचने में ही लगे रहते हैं; यदि अब भी हमारी मानसिकता संकीर्ण बनी हुई है तो हमें इस संकीर्ण मानसिकता दायरे से बाहर निकलने की चेष्टा अवश्य करनी चाहिये।
केवल अपने कुनबे की मंगल की चिंता न कर, सबों के मंगल की चिंता करना हमलोग कैसे सीख सकते हैं? कैसे हमलोग सबों का मंगल सोचने में समर्थ मनुष्य बन सकते हैं ? किस पद्धति से अपने जीवन का वैसा गठन कर सकते हैं ? यही हमलोगों को सीखना होगा। परस्पर सद्भाव बनाये रखने के लिये विचारों का आदान-प्रदान करके, आपसी मेल-जोल को बढ़ाकर विभिन्न समुदायों में जन्में दस अन्य भाइयों के मुख को देख कर, आपस में एक दूसरे को पहचानने की चेष्टा करके, अपने समाज, परिवेश या परिवार में एक-दूसरे को अपने से छोटा मनुष्य के रूप में देखने की आदत जो आदत बन गयी है, उसे बिल्कुल भूल जाना होगा। हम एक नई बात सीखेंगे, अबसे हमलोग दूसरों को भाषाई, जातिगत, या स्थानगत आधार पर अपने से छोटा मानने की भूल कभी नहीं करेंगे। क्षुद्र स्वार्थ या व्यक्तिगत नाम-यश की ओर हमारी दृष्टि फिर कभी नहीं जाएगी। हमलोगों के भीतर एक ऐसी एकात्मता बोध, ऐक्य का भाव, एक ऐसा सर्वग्रासी-प्रेम जन्म लेगा जिसे तोड़ने में फिर हमको ही कष्ट होगा। इस एकात्म-बोध की आवश्यकता आज सारे समाज में, सारे देश में सर्वत्र है। अभी हमलोग अपने समाज के लोगों को, अपने देश-वासियों को इस प्रकार प्रेम नहीं कर पाते हैं, इसीलिये हम देश की उन्नति में अपना योगदान नहीं कर पाते हैं,या देश का यथार्थ कल्याण नहीं कर पाते हैं।
हमलोग प्रतिदिन देश के कल्याण की बातें करते हैं, इसके लिये नई नई योजनायें लोगों के सामने रखते हैं, नई नई कल्याण-पद्धतियों को कानून में बदल देते हैं, किन्तु यह कार्यरूप में नजर नहीं आता कि वास्तव में उनका उतना कल्याण हुआ है। क्यों हम उतना कल्याण नहीं कर पाते हैं? इसीलिये नहीं कर पाते कि हम अपने कुनबापरस्ती के क्षूद्र दायरे से बाहर नहीं निकल पाते हैं। हम अपने सम्पूर्ण देशवासियों के कल्याण की चिंता नहीं कर पा रहे हैं, इसीलिये सम्पूर्ण देशवासियों का कल्याण भी नहीं हो रहा है। इसीलिये तरह तरह के हथकंडों से अपने अपने कुनबे का स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं, हमलोग सम्पूर्ण भारत के कल्याण की बात नहीं करके अपनी जाति,धर्म, भाषा के नाम पर कहीं 27% तो कहीं 5% तो कही 33% कल्याण की बातें करते हैं।इसके लिये तरह तरह की चालबाजियाँ की जाती हैं,जिसका परिणाम हमारे सामने है। इन सबसे हम कितना सीख पायेंगे, यह निर्भर करेगा हमारी दृष्टि की उदारता के उपर, समस्त समस्याओं की जड़ को देखने के लिये हमारी जो विश्लेषण क्षमता है, उसके उपर। किन्तु इस प्रचलित शिक्षा-पद्धति के माध्यम से न तो देश का कुछ विशेष कल्याण हो पा रहा है, न हमलोग ही कुछ सीख पा रहे हैं। तो क्या अन्य कोई उपाय है?
जगत में दो शक्तियाँ प्रमुख रूप में क्रियाशील हैं-एक है प्रेम की शक्ति, दूसरी है घृणा की शक्ति। इनमें से किसकी शक्ति अधिक है, घृणा की या प्रेम की? इसी पर थोड़ा विचार कर के देखा जाये। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि - ' प्रेम की शक्ति, घृणा की शक्ति की अपेक्षा बहुत अधिक है।' हमलोग विभिन्न तरीकों से पहले अपने को छोटी छोटी परिधि में, विभिन्न समूहों में, बाँटने की चेष्टा करते हैं,फिर विभिन्न तरीके अपनाकर केवल अपने समूह के कल्याण की चिन्ता करते हैं। अपने को विभिन्न समूहों में बाँटे बिना, कुनबापरस्ती से उपर उठकर (जात के नहीं जमात के, सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की बात) समस्त देशवासियों को एक समूह मानकर, घृणा विद्वेष या ऐसे विघटनकारी मनोभाव को अधिक प्रश्रय न देकर, क्या हम एकबार प्रेम को प्रोत्साहन देकर नहीं आजमा सकते ? इसी के लिये प्रयास करना आवश्यक है।  क्या हमलोग सभी मनुष्यों को उतने ही प्यार से देखने में समर्थ नहीं हो सकते जितने प्यार से हम अपने सगे-संबन्धियों को देखते हैं ? क्या (उस माँ की दृष्टि से देखने की चेष्टा करें, जिसे अपने पुत्र का कूबड़ नहीं दीखता) इतने ही प्यार से सम्पूर्ण देशवासियों को अपना समझकर देखने की चेष्टा नहीं की जा सकती है ? हमलोग व्यक्तिगत रूप से, सामाजिक रूप से, समग्र देश को लेकर एक उन्नत राष्ट्र, क्यों नहीं बन सकते हैं ?क्या हमलोग एक उन्नत राष्ट्र बनाने के योग्य, उन्नत राष्ट्रिय-चरित्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं ? क्या इसके लिए हम अपना व्यक्तिगत चरित्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं? और क्या इसी प्रकार अपना और समाज का सर्वाधिक कल्याण नहीं हो सकता है? यह संभव है या नहीं, हमलोग अब इसी बात की विवेचना करेंगे। 

हमलोग सबों की भलाई किस प्रकार कर सकते हैं ? क्या इसके लिये हमें अपने प्रेम को नहीं बढ़ाना होगा ? अतः इस प्रेम को हम कैसे बढ़ा सकते हैं, उसी का प्रयत्न करना होगा। वैसा प्रेम कहाँ उत्पन्न होगा, और कहाँ उसमें वृद्धि होगी ? मनुष्य के मन में, मनुष्य के हृदय में ही उस सर्वग्रासी प्रेम का जन्म होता है।
(नमस्ते -नमस्ते क्यों कहते हैं ? यही कहकर, हँसते-हँसते दिल चुरा लिया जाता है ! पहले तो हो गयी नमस्ते नमस्ते! - फिर हो गया प्यार हँसते हँसते ! आते-जाते मिले गली में, दुनिया रह गयी जलते जलते -पहले तो हो गयी नमस्ते नमस्ते ! ) 
अभी हम मनुष्यों को अलग अलग सत्ता (हिन्दू-मुसलमान, मेल-फीमेल) के रूप में देखने के आदि हैं। इसलिये जहाँ जहाँ मनुष्य विभिन्न रूपों (अपने लोग और पराये लोग के रूप ) में है, (कोई अपनी बेटी के रूप में है, कोई उसकी गोतनी के रूप में है, तो कोई अपनी पुतोह के रूप में है।) वहाँ वहाँ मनुष्य के भीतर प्रेम को बढ़ाने की चेष्टा करनी होगी । क्योंकि व्यक्ति-मनुष्य के भीतर ही मनुष्य की यथार्थ सत्ता (आत्मा) , प्रकटित और प्रकाशित है।  इसीलिये उन व्यक्ति-मनुष्यों के प्रति अपने हृदय में प्रेम को बढ़ाना होगा। (इस गीत के मर्म को समझो - 'हे मईया, खोल न केंवड़ीया तनी भोला के जगा द !') इस प्रकार सम्पूर्ण मानव-जाति के लिये अपने हृदय में सर्वग्रासी- प्रेम को बढ़ा लेना ही- मनुष्यत्व अर्जित करना, चरित्र गठन करना, जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करना है ! इसीको -' Man-Making ', कहते हैं, स्वामी विवेकानन्द ने इसीकी शिक्षा सम्पूर्ण विश्व को दी है।
प्रत्येक मनुष्य का जीवन यदि सुन्दर रूप से गठित हो जाये, उसके भीत जो शक्ति है, प्रेम है, प्यार करने की क्षमता है, पवित्रता है, सम्पूर्णता है, दोष-शून्यता है, वह यदि इन गुणों में वृद्धि करा सके, तभी वह मनुष्यत्व अर्जित कर सकता है। हमलोग इसी के लिये प्रयत्न करेंगे। यह कोशिश कैसे की जाती है, इसे हम धीरे धीरे देखेंगे। 

हमलोग देखेंगे कि जीवन के किन किन पहलुओं की ओर नजर रखने से हमलोगों में ये गुण बढ़ सकते हैं? क्योंकि जब हमलोगों ने अच्छा बनने का संकल्प लिया है, तो हमें सभी प्रकार से अच्छा बनने की चेष्टा करनी होगी। अपने आचार-आचरण, बात-व्यवहार हर चीज में-प्रेम ही छलकता रहे, इसके प्रति सतर्क रहना होगा। किन्तु यह सब भीतर से आना चाहिये,  आंतरिक होना चाहिये, नेताओं वाला लोक-दिखावन प्रेम नहीं होना चाहिए। बलपूर्वक प्रेम नहीं होता, होने से भी टिकता नहीं है।
जैसे जबरदस्ती अनुशासन लगाने से, कोई अनुशासित नहीं होता। अनुशासन भीतर से आने वाली वस्तु है। भीतर से अनुशासन कब आएगा ? जब हमलोगों का उद्देश्य केवल 'कल्याण' होगा। जब हमलोग यह देखेंगे कि आत्मानुशासन नहीं सीखने से, अनुशासन का पालन नहीं करने से, हमारे भीतर जो शक्ति है, उसका सही रूप में हम उपयोग नहीं कर पाते हैं, तब बिना किसी के कहे हमलोग स्वतः अपने को अनुशासन के भीतर ले आयेंगे।
जीवन में जो एक प्रवाह है, उसकी दिशा पहले से यदि निश्चित नहीं रहे, उसके भीतर यदि एक सुसंहति (compactness) न रहे, अनुशासन का भाव नहीं हो, तो उस प्रवाह का कोई अर्थ नहीं होता। दिशाहीन गति विध्वंश का कारण होती है। क्योंकि उसका प्रवाह किस ओर मुड़ जायेगा, उसका कुछ पता नहीं चलता। व्यक्ति-जीवन में, सामाजिक-जीवन में इस प्रवाह की दिशा पहले से तय रहनी चाहिये। जिस समय व्यक्ति-जीवन का प्रवाह निर्धारित क्षेत्रों से प्रवाहित नहीं होता, जब समाज की गति  अस्त-व्यस्त रूप से (higgledy-piggledy) बहने लगती है, तब समाज की उन्नति नहीं होती, बल्कि पतन होता है। इसीलिये समाज के भीतर आत्मानुशासन की भावना को प्रतिष्ठित करना प्रथम आवश्यकता होगी। इसके लिये सबसे पहले हमलोग अपने जीवन में इसी आमनुशासन की भावना को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करेंगे। जीवन के प्रति अपना एक दृष्टिकोण बनाने की चेष्टा करेंगे। इस जीवन के प्रति हमारा जो दृष्टिकोण होता है, उसी को दूसरे रूप में जीवन-दर्शन कहा जाता है।
जीवन क्या है, जीवन का लक्ष्य क्या है ? इन बातों को स्पष्ट रूप से समझ लेने की चेष्टा करनी होगी। इसके लिये थोड़ा 'धीर'-बनना होगा। थोड़ा धीर-स्थिर न बन सके, तो जीवन के प्रवाह को देख कैसे पायेंगे ? यदि हमलोग हर समय चंचल बने रहें, तो हमलोग जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण कभी तय नहीं कर पाएंगे। जैसे किसी जलाशय में जल की उपरी सतह, हवा के कारण या अन्य किसी कारण से यदि निरन्तर चंचल रहती हो, तो उसमें अन्य किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से नहीं पड़ सकता  है।
उसी प्रकार जीवन की गति को देखने के लिए भी मन के उपर ही जीवन की छवि भी प्रत्यक्ष रूप में गोचर होती है। किन्तु हमारा मन यदि विषयों के द्वारा निरन्तर आड़ोलित होता रहता हो, तो हम अपने जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण नहीं बना सकते। हमलोग अपने व्यक्ति जीवन में अत्यन्त चंचल बने रहते हैं, इसीलिये हमें पारदर्शी दृष्टि, प्राप्त नहीं होती। इसीलिये युवाओं को धीर बनना होगा।

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