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सोमवार, 26 नवंबर 2012

' चार योगों का सहज प्रयोग (एक-बग्गा मनुष्य) [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [41] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री )

' एक-बग्गा मनुष्य चार योगों में समन्वय से देव-मानव में रूपान्तरित होगा'
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " समाज में हमलोग अधिकतर एक-बग्गा आदमी (one sided या एक पक्षीय) लोगों को ही देखते हैं। उनका अपना रुझान जिस दिशा में होता है, वे उसी पथ को श्रेष्ठ समझते हैं। अन्य मार्ग पर चलने वालों के बारे में उनकी धारणा अच्छी नहीं होती। उनके मतानुसार, उनके द्वारा निर्वाचित मार्ग ही एकमात्र अनुसरण करने योग्य होता है। कभी कभी वे लोग ऐसा दावा भी करते हैं, कि अन्य मार्ग पर चलने वाले गलत हैं।" स्वामी विवेकानन्द बार बार कहते हैं, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और राजयोग-इन चार मार्गों में से कोई एक, दो, तीन या सभी की सहायता से यदि हमलोग अपनी अन्तःप्रकृति और बाह्यप्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकें, तो वही हमलोगों के लिये विकास का सर्वश्रेष्ठ उपाय होगा।
सबसे पहले हमें अपने अन्तर्जगत को प्रशिक्षित करना होगा। उसके उपर प्रभुत्व विस्तार करने में सक्षम होने से ही हमलोग अपने बाह्य प्रकृति के उपर भी प्रभुत्व विस्तार करने में समर्थ हो जायेंगे। तभी हमलोग जिस किसी भी कार्य में युक्त होने की योग्यता अर्जित कर पायेंगे। स्वामीजी ने कहा है, इन चारों योग का जो श्रेष्ठ भाव है, वह परिपूर्ण रूप में और समान रूप में जिसके भीतर विकसित होता है, उन्हीं को आदर्श मनुष्य कहते हैं। स्वामीजी इस प्रकार के मनुष्य को देखना चाहते थे।
इसीलिये हमलोग यदि स्वामीजी के आदर्श साँचे में ढला हुआ मनुष्य बनने की चेष्टा कर रहे हों, तो अपने देह-मन-हृदय के परिपूर्ण विकास के उपाय के रूप में यदि इन चार योग मार्गों का समन्वित प्रयोग कर सकें, तभी सबसे अच्छा परिणाम प्राप्त हो सकता है। मनुष्य के देह-मन-हृदय (3H) के सन्तुलित प्रवर्धन के फलस्वरूप ही मनुष्य का पशुभाव दब जाता है, और दिव्य भाव विकसित हो जाता है।
ज्ञानयोगी - ज्ञानी सदसत ( नित्य-अनित्य या खरा-खोटा) का निर्णय करके असत्य का अपवर्जन करके सत्य में अवस्थित हो जाते हैं। नेति-नेति विवेक प्रयोग करके बहुत्व में एकत्व को देखने का पथ, विवेक-विचार करके कौन सा चिरस्थायी होगा, इसका निर्णय करके समस्त क्षणभंगुर वस्तुओं के प्रति मोह का त्याग करके, जो चिरस्थायी, सनातन, शाश्वत,सत्य, हो उसे प्राप्त करने के पथ का अनुसरण करता है।राजयोगी कहते हैं, मन ही समस्त शक्ति का आधार है। मन के उपर पूर्ण अधिकार स्थापित करके, मन की चंचलता को यदि पूर्ण रूप से दूर कर सकें, तो उस अचंचल समाहित मन मन में सत्य स्वयं ही प्रतिफलित होगा।
भक्तियोगी कहते हैं, नेति-नेति करके ज्ञान-विचार करने की जरूरत नहीं है, प्राणायाम आदि जैसे मन को प्रशिक्षित  करने वाले कठोर नियमों की प्रक्रिया का अभ्यास करने की भी आवश्यकता नहीं है। मैं तो केवल उस परम प्रेममय  के स्वरूप का अनुभव करने के लिये अपने हृदय को उन्मुक्त रखूँगा, जिसे विभिन्न सम्प्रदाय के लोग कृष्ण, काली, अल्ला, गॉड आदि विभिन्न नामों से पुकारते और उपासना करते हैं। जो मेरे हृदय में प्रियजनों के प्रति प्रेम संचारित कर रहे हैं, मैं उनको सर्वत्र सभी जीवों के भीतर अनुभव करना चाहता हूँ। अपने हृदय को विशाल बनाकर उनके प्रति सर्वग्रासी प्रेम की बाढ़ में मैं डूब जाना चाहता हूँ। उन प्रेममय की प्रसन्नता को प्राप्त करके, मेरा सीमित प्रेम असीम होकर अनन्त में मिल जायेगा। विश्व के समस्त मनुष्यों का आलिंगन करके जीवन की परिपूर्णता का अनुभव करके उसी सत्य में प्रतिष्ठित हो जाऊंगा। प्रेम के सहज मार्ग से सत्यस्वरूप को प्राप्त करूँगा। कर्मयोगी और एक दूसरे प्रकार के मनुष्यों का दल है, जो यह कहता है कि इनमें से किसी पथ का अवलम्बन हम नहीं करना चाहते, इनमें से कोई मार्ग हमें अच्छा नहीं लगता है। नेति-नेति विचार, मन को प्रशिक्षित करने की जटिल प्रक्रिया, या हृदय की वृत्ति को चरम तक प्रसारित करने का मार्ग, इनमें से कोई भी मार्ग हमारी  अभिरुचि से मेल नहीं खाता।
हमलोगों के भीतर स्वाभाविक रूप से जो कर्म करने की प्रवृत्ति है, उसी के द्वारा हमलोग सत्य की प्राप्ति करेंगे। क्योंकि हमलोगों के भीतर जो कर्मशक्ति है, उसका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य है। हमलोग इसके द्वारा भी तो जीवन की सार्थकता या परिपूर्णता प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार जब यह अन्वेषण करने की चेष्टा की गयी कि कर्म के द्वारा परमानन्द की प्राप्ति कैसे होगी ? 
तब यह पाया गया कि अपने भोग-सुख के लिये, धन-संपत्ति में वृद्धि करने के लिये जो कर्म किये जाते हैं, उससे मनुष्य को वास्तविक संतोष नहीं मिलता है। बल्कि दूसरों के कल्याण के लिये, दूसरों के हित के लिये अपने स्वार्थ की बली चढ़ा कर जो कर्म किये जाते हैं, उससे अपार आनन्द की प्राप्ति होती है, सार्वभौमिक एकात्मता की अनुभूति होने से असीम आनन्द की प्राप्ति होती है।
 भगवान श्री कृष्ण ने कहा है, ' समस्त कर्म ज्ञान में समाप्ति या परिणति को प्राप्त होते हैं। ' निःस्वार्थ कर्म में अत्मनियोग करके कर्म-योगी भी उसी सत्य की उपलब्धी करते हैं, जिस सत्य का आस्वादन प्रेमी-भक्त  लोग भगवत-प्रेम के मार्ग पर चल कर प्राप्त करते हैं। नेति-नेति का विवेक-प्रयोग करके शाश्वत और क्षणभंगुर में से नित्य वस्तु का चयन करने वाले, विचारशील साधक भी ज्ञान-विचार के पथ से उसी सत्य में उपनीत हो जाते हैं। राज-योगी मन को साधने या मनःसंयम की प्रक्रिया का अवलम्बन करके अपने हृदय की गुफा में उसी सत्यस्वरूप का आविष्कार करते हैं।
स्वामीजी कहते हैं, सत्य का अन्वेषण करने के इन चारों मार्गों का जो व्यक्ति एक समान रूचि रखते हुए अनुसरण कर सकता है, जो सभी मार्गों से चल कर उसी परम सत्य का आस्वादन करने में समर्थ है, वही आदर्श पुरुष है। इसी बात को श्रीरामकृष्ण देव विभिन्न प्रकार से मछली पकाने की कला का उदाहरण देकर, या चीनी से बने विभिन्न आकार के मिठाइयों की उपमा देकर कहते थे-सत्य की मिठास का अस्वादन एक प्रकार से क्यों करूँगा ? सभी प्रकार से उनका अस्वादन करूँगा। रस-स्वरूप का आस्वादन-विविधता के प्रसंग में उन्होंने सहनाई के विविध स्वर-तरंगों का स्मरण भी किया था।
अपने जीवन के इस छोटे से दायरे में, हमलोग स्वामीजी के निर्देशानुसार बहुत्व में एकत्व का दर्शन करने या विवेक-प्रयोग (ज्ञान-विचार या नेति-नेति विचार ) करने, राजयोग या मनःसंयम की प्रक्रिया का अभ्यास करने, प्रेम या हृदय-वृत्ति का प्रसार करने तथा कर्मयोग के बीच एक प्रकार का समन्वय स्थापित करने की चेष्टा करेंगे।  केवल किसी एक मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति की अपेक्षा, जीवन के समग्र पहलुओं के विकास का मार्ग निश्चित रूप से श्रेष्ठ है।
मैं एक हृदयवान मनुष्य हूँ, भले-बुरे सभी मनुष्यों के प्रति सहानुभूति रखता हूँ, सबों से प्रेम कर सकता हूँ। किन्तु यदि कर्म के विषय में पारदर्शी सोच नहीं रखता, अपने स्वार्थ की बली नहीं चढ़ा सकता, तो जब इसकी आवश्यकता होगी, तब मनुष्यों के दुःख को दूर करने के लिये मैं जो प्रयत्न करूँगा उसमें सफलता नहीं मिलेगी। यदि मेरा मन अशान्त बना रहता हो, तब मेरा निर्णय पारदर्शी नहीं हो सकता, और मैं किसी आर्त मनुष्य की सेवा सच्चे अर्थों में सेवा भी नहीं कर सकता। इसीलिये मन को संयमित करने, एकाग्र करने और मन की शक्ति के द्वारा समस्त बातों का सही रूप से विश्लेषण करके देखने की क्षमता को बढ़ाना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा होने से ही मनुष्यों के दुःख में कमी लाने के लिये मेरे द्वारा किया जाने वाला प्रयत्न बेहतर हो सकेगा। उसी प्रकार कुछ भी सोचने,बोलने या करने के पहले विवेक-प्रयोग के द्वारा यह निश्चित नहीं कर लूँगा कि वे श्रेय हैं या प्रेय हैं ? मेरे चरित्र के गुणों में उन्नति के द्वारा मुझे अपना जीवन-गठित करने में सहायता देंगे या नहीं ? इसे समझने के लिये और अपनी तर्कशक्ति बढ़ाने के लिये ज्ञान का अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है।
हमलोग अपने ज्ञान या विवेक-शक्ति को बढ़ाने के लिये कठोर वेदान्तीयों के जैसा नाले का जल और गंगा के जल को एक मानने की चेष्टा भी नहीं करेंगे। हमलोग जिस सहज मार्ग को ग्रहण करेंगे, वह है अध्यन करना। हमलोग स्वामी विवेकानन्द के सन्देश और साहित्य का अध्यन और विवेचना करने को अपने जीवन में सर्वोच्च स्थान देंगे। विवेकानन्द साहित्य का लगातार अध्यन करते रहने से विवेक-प्रयोग करने की क्षमता में वृद्धि होती है। यही है ज्ञान मार्ग। स्वामीजी की जीवनी और सन्देश की विवेचना करने के हमलोग विवेक-प्रयोग की क्षमता या बहुत्व में एकत्व का दर्शन करने की क्षमता को बढ़ाते रहेंगे। हमलोग मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा मन में उसी प्रशान्ति को लाने की चेष्टा करेंगे, नहीं तो हमलोगों का निर्णय-क्षमता या विवेक-प्रयोग में गलती भी हो सकती है। विवेक क्षमता के अभाव में हमलोगों के हृदय से प्रेम उत्सर्जित होने पर भी उसको कर्म में परिणत नहीं कर पाएंगे।
 निरन्तर यम-नियम का पालन और प्रतिदिन दो बार मनःसंयोग का अभ्यास करके अपनी इच्छशक्ति को प्रबल बना लेंगे। ताकि दूसरों के प्रति जिस सहानुभूति का अनुभव करता हूँ, वह मेरे हृदय को विशाल बना दे। हमलोग नाना प्रकार के समाज-कल्याणकारी कार्यों में आत्मनियोग करेंगे। नाम,यश या अन्य किसी तात्कालिक लक्ष्य को मन में छुपाकर समाज-सेवा का कार्य नहीं करेंगे। हमलोगों द्वारा किये जाने वाले सेवा-कार्यों का उद्देश्य होगा समाज के कल्याण के साथ ही साथ अपने भीतर मनुष्यत्व की जागृति, चरित्र की ऊंचाई; देह, मन और हृदय के विकास के द्वारा पशुत्व को दबाकर देवत्व प्राप्ति के पथ पर अग्रसर होना। इसी प्रकार सहज रूप में चारों योग का समन्वय किया जा सकता है। 
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रविवार, 25 नवंबर 2012

'जिसे करना आवश्यक है'- शुक्ति के समान बनो ! [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [40] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

'तीव्र संवेगानाम् आसन्नः ।'
पहले तो मनः संयोग का अभ्यास नियमित समय से (दो बार प्रातः और संध्या) कर पाना अत्यन्त कठिन  है। फिर मन के उपर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेना, उसे पूर्णतः अपने वश में रखना सबसे कठिन कार्य है। किन्तु [मनुष्य शरीर प्राप्त कर लेने के बाद ] मनुष्य का सबसे पहला कर्तव्य क्या है, उस प्रथम ड्यटी  (धर्म या फ़र्ज) को पहचान लेना (re-cognizant) होगा ! 'मनःसंयोग की पद्धति' के विषय में सचेत होना होगा। मनःसंयोग की पद्धति को स्पष्ट रूप में समझना होगा,और उसे सही तरीके से प्राप्त करने की चेष्टा करनी होगी। यदि हम इस बात को ठीक से समझ लें (विवेक-विचार करने के बाद) कि ' मेन्टल-कन्सट्रेशन' या मन की एकाग्रता अथवा मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना ही प्रत्येक मनुष्य का प्रथम ड्यूटी (धर्म या फ़र्ज) है ; तो निश्चित रूप से मनःसंयोग का अभ्यास करने के प्रति हमारा संकल्प और अधिक दृढ़ हो जायेगा। तथा हम इसका स्थायी-अभ्यास करने लगेंगे, और यदि हम अध्यवसाय के साथ इसका अभ्यास करते रहें, तो इस बात में कोई सन्देह नहीं कि धीरे धीरे अपने मन के उपर हमारा प्रभुत्व भी क्रमशः बढ़ता ही जायेगा। 
हमलोग अपने आप पर (मन के उपर) जितना अधिक प्रभुत्व बढ़ा सकेंगे, उसी अनुपात में सभी विषयों को गहराई से समझ सकेंगे, उनको जान पाएंगे। एकाग्र मन की शक्ति के द्वारा ही हमलोगों की विवेक-दृष्टि खुल जाएगी, आत्मबोध जाग्रत होगा और हमलोग सब कुछ समझने में सक्षम हो जायेंगे। तथा प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी- जीवन और सामाजिक-जीवन में अपने अपने कर्तव्य (धर्म या फ़र्ज ) के प्रति सचेत और प्रयत्नशील (मनुष्यजीवन का प्रथम पुरुषार्थ, धर्म-लाभ के लिए सक्रीय) हो जायेगा। केवल इतना ही समझ कर हमलोग यदि मनः संयोग का अभ्यास करते रहें, तो यथेष्ट होगा।
अब हमलोग मन के विषय में स्वामीजी के एक अन्य कथन को एकाग्र-मन होकर श्रवण करेंगे, तथा उसपर मनन करेंगे, " महासागर की ओर यदि देखो, तो प्रतीत होगा कि वहाँ पर्वताकाय बड़ी बड़ी तरंगें हैं, फिर छोटी छोटी तरंगें भी हैं, और छोटे छोटे बुलबुले भी। पर इन सबके पीछे वही अनन्त महासमुद्र है। एक ओर जहाँ वह छोटा सा बुलबुला अनन्त समुद्र से युक्त है, वहीँ दूसरी ओर वह बड़ी तरंग भी उसी महासमुद्र से युक्त है। 
इसी प्रकार, संसार में कोई महापुरुष हो सकता है, और कोई छोटा बुलबुला जैसा सामान्य व्यक्ति, परन्तु सभी उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त हैं, जो सभी जीवों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जहाँ भी जीवनी-शक्ति का प्रकाश देखो, वहाँ समझना कि उसके पीछे अनन्त शक्ति का भण्डार है। एक छोटा सा फफूँदी (fungus) है; वह, सम्भव है, इतना छोटा, इतना सूक्ष्म हो कि उसे अनुवीक्षण यन्त्र द्वारा देखना पड़े; उससे आरम्भ करो। देखोगे कि वह अनन्त शक्ति के भण्डार से क्रमशः शक्ति संग्रह करके एक अन्य रूप धारण कर रहा है। कालान्तर में वह उदभिद के रूप में परिणत होता है, वही फिर एक पशु का आकार ग्रहण करता है, फिर मनुष्य का रूप लेकर वही अन्त में ईश्वर-रूप में परिणत हो जाता है।  
हाँ, इतना अवश्य है कि प्राकृतिक नियम से इस व्यापर के घटते घटते लाखों वर्ष (कई कल्प aeons) पार हो जायें। परन्तु यह 'समय' है क्या ? [ ऐन इंक्रीज ऑफ़ स्पीड, ऐन  इंक्रीज ऑफ़ स्ट्रगल, इज एबल टु ब्रिज द गल्फ ऑफ़ टाइम.] 'वेग' ----साधना का वेग बढ़ा देकर समय काफी घटाया जा सकता है। योगियों का कहना है कि साधारण प्रयत्न से जिस काम को अधिक समय लगता है, वही, वेग बढ़ा देने पर, बहुत थोड़े समय में सध सकता है। 
हो सकता है, कोई मनुष्य इस संसार की अनन्त शक्ति भण्डार में से बहुत थोड़ी शक्ति लेकर चले। इस प्रकार चलने पर उसे (अपना पशुत्व त्याग कर ) देवत्व प्राप्त करने में सम्भव है, एक लाख वर्ष लग जायें, फिर और भी ऊँची अवस्था प्राप्त करने में शायद पाँच लाख वर्ष लगें। पर उन्नति का वेग बढ़ा देने पर यह समय कम हो जाता है। पर्याप्त प्रयत्न करने पर छः वर्ष या छः महीने में ही यह सिद्धि-लाभ क्यों न हो सकेगा ? (हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान, वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे?)  युक्ति तो बताती है कि इसमें कोई निर्दिष्ट सीमाबद्ध समय नहीं है।
सोचो, कोई स्टीम-इंजन, किसी निश्चित परिमाण में कोयला (फ्यूल या ईंधन) झोंकने से, प्रति घंटा दो मील ही चल पाता हो, किन्तु यदि कोयला (या फ्यूल) झोंकने के परिमाण को अधिकाधिक बढ़ाते रहा जाय तो उसी अनुपात में उस इंजन की स्पीड भी बढ़ती जाएगी। इसी प्रकार यदि हमलोग भी तीव्र वेगसम्पन्न हों, तो इसी जन्म में मुक्ति-लाभ क्यों न कर सकेंगे ? हाँ, हम यह जानते अवश्य हैं कि अन्त में सभी मुक्ति पायेंगे। पर इस प्रकार हम युग युग तक मन की गुलामी से मुक्त होने की प्रतीक्षा क्यों करें ? इसी क्षण, इस शरीर में ही, इस मनुष्य-देह में ही हम मन की गुलामी से मुक्ति-लाभ करने में समर्थ क्यों न होंगे? हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान, वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे ? (१ /६८)"
[महर्षि पतंजलि ने भी समाधिपाद १/२१ में कहा है -तीव्रसम्वेगानामासन्नः ॥ योगी अपने मन के एकाग्र करने की गति को कार का गियर बदलने जैसा घटा-बढ़ा सकता है। 

 तीव्र संवेगानाम् आसन्नः ।
 तथस्ट   --> मृदु --> मध्य --> तीव्र 
neutral ---> soft --> middle --> fast 

१. तटस्थ होकर द्रष्टामन द्वारा दृश्य मन को देखने के लिये आसन पर बैठना। 
२.मृदु स्पीड का प्रत्याहार -मन के साथ मृदु संघर्ष का प्रारम्भ - मन को पूरी ढील दे-देना उसे जहाँ जाना हो, जाने देना केवल उस पर नजर बनाये रखना।
३. मध्यम स्पीड की धारणा - मन को विवेक-प्रयोग करने के लिये मीठे भाव से बच्चा ऐसा समझाना-और समझा-बुझाकर अपने हृदय में विद्यमान इष्टदेव में कुछ देर तक धारण करना।
४. तीव्र स्पीड का मनःसंयोग - मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से बिल्कुल रोक देना।(सधापद 54/ प्रत्याहार का अर्थ है जो मन इन्द्रिय बन गया था, वह वास्तव में चित्त ही था, जब वे पुनः चित्त का स्वरुप ग्रहण करने लगती हैं तो उसे प्रत्याहार कहा जाता है। ) तीव्र सम्वेगवालों ( अति जोशीले व लग्नशील लोगों) का ( समाधि लाभ ) समीप - शीघ्र ( होता है ) । समाधि लाभ शीघ्र प्राप्त करने के लिये योगी में उसके लिये तीव्र व दृढ़ इच्छा और अतिक्रियाशीलता होना आवश्यक है।
प्रकृति के अनन्त शक्ति भण्डार में से शक्ति ग्रहण करने की शक्ति बढ़ाकर किस प्रकार शीघ्र मुक्ति-लाभ किया जा सकता है ? योगियों ने इसका उपाय खोज निकाला है। वे दूसरी कोई चिन्ता नहीं करते, दूसरी बातों के लिये एक क्षण भी समय नहीं देते। उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता। एकाग्रता का अर्थ ही है, शक्ति-संचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना। राजयोग इसी एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त करने का विज्ञान है। (1/69)  
संसार में जो कोई वस्तु कुछ वस्तुओं के मिश्रण से बनी है, वह इस आकाश से ही उत्पन्न हुई है, यह आकाश ही वायु में परिणत होता है, यही अग्नि और तरल पदार्थ का रूप धारण करता है, यही फिर ठोस आकर को प्राप्त होता है। आकाश इस जगत का कारणस्वरूप अनन्त सर्वव्यापी भौतिक पदार्थ है, प्राण भी उसी तरह जगत की उत्पत्ति का कारण स्वरूप अनन्त सर्वव्यापी विक्षेपकारी शक्ति है। यह प्राण ही गतिरूप में अभिव्यक्त हुआ है-यही गुरुत्वाकर्षण या चुम्बकीय शक्ति के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। बाह्य और अन्तर्जगत की समस्त शक्तियाँ जब अपनी मूल अवस्था में पहुँचती हैं, तब उसीको प्राण कहते हैं। यह प्राण भी दृश्यमान नाना प्रकार की शक्तियों में परिणत होता है।
जिन्होंने प्राण को जीता है, उन्होंने अपने मन को ही नहीं, वरन सबके मन को भी जीत लिया है। संसार की सारी वस्तुओं में देह हमारे सबसे निकट है और मन उससे भी निकटतर है। जो क्षुद्र प्राण तरंग हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों के रूप से क्रियाशील है, वह अनन्त प्राण-समुद्र में हमारे सबसे निकटतम तरंग है। यदि हम उस क्षुद्र तरंग पर विजय पा लें, तभी हम समस्त प्राण-समुद्र को जीतने की आशा कर सकते हैं। 
यह प्राण ही समस्त प्राणियों के भीतर जीवनी-शक्ति के रूप में विद्यमान है। जन्मजात प्रवृत्ति या मन की अचेतन भूमि से मच्छर ने जहाँ काटा हाथ स्वतः वहाँ चला जाता है, यह विचारणा शक्ति भी प्राण की ही अभिव्यक्ति है। मन की चेतन भूमि में हम युक्ति-तर्क करते हैं, विचार करते हैं, सब विषयों के पक्षापक्ष सोचते हैं, किन्तु यह सज्ञान या चेतन भूमि ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा नहीं है। जब मन समाधि नामक पूर्ण एकाग्र अवस्था में पहुँच जाता है, तब वह युक्ति-तर्क की सीमा के परे चला जाता है और ऐसे तथ्यों का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है, जो जन्मजात-प्रवृत्ति और युक्ति-तर्क द्वारा कभी प्राप्त नहीं है। यह जगत सतत परिवर्तनशील एक जड़ राशि मात्र है और ये सारे नाम-रूप उसके भीतर मानो छोटे छोटे भँवर हैं। जो अपने मन में अति सूक्ष्म कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं, वे देखते हैं कि सारा जगत सूक्ष्मातिसुक्ष्म कम्पनों की समष्टि मात्र है।
आधुनिक भौतिक विज्ञान ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि शक्ति-समष्टि सदैव समान है। वह अनन्त काल से कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त भाव धारण करती आ रही है। इस शक्ति रूपी प्राण की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है-फेफड़े की गति। यह गति ही, पम्प की भाँति, वायु को भीतर खींचती है। हमें यह सीखना है कि फेफड़े की गति रुक जाने पर भी शरीर के भीतर दुबारा कैसे लौट आया जाय?  प्राणायाम का यथार्थ अर्थ है, फेफड़े की इस गति का रोध करना।
जगत को हिला-दुला देने वाले तीव्र इच्छा-शक्तिसम्पन्न महापुरुष अपने प्राण के कम्पन को इतनी उच्च अवस्था में ला सकते हैं कि हजारों मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं, सभी पैगम्बरों का प्राण पर अद्भुत संयम था। जिसके बल से वे प्रबल इच्छा-शक्ति सम्पन्न हो गये थे। जब कोई ध्यान-जप कर रहा हो, तो भी समझना चाहिये कि वह प्राण का ही संयम कर रहा है।(1/58-67)
 महासागर की ओर यदि देखो .......हम पंचेन्द्रियविशिष्ट प्राणी हैं, हमारे प्राणों का कम्पन एक विशेष प्रकार का है। ..समझो, इसी कमरे में ऐसे बहुत से प्राणी हैं, जिन्हें हम नहीं देख पाते। वे सब प्राण के एक प्रकार के स्पन्दन के फल हैं, और हम एक दूसरे प्रकार के। किन्तु हम भी प्राण रूप मूल वस्तु से गढ़े हैं, और वे भी वही हैं। सभी एक ही समुद्र के भिन्न भिन्न अंश मात्र हैं, विभिन्नता केवल स्पन्दन की मात्रा में है। यदि (फेफड़े की गति को रोक कर?)  मन को मैं अधिक स्पन्दन विशिष्ट कर सका तो मैं फिर इस देह के स्तर पर न रहूँगा, पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड मेरी दृष्टि से ओझल हो जायेगा। मन को इस प्रकार स्पन्दन की उच्चतर भूमि में लाना ही समाधि है। समाधि की सर्वोच्च अवस्था में हमें सत्यस्वरूप ब्रह्म के दर्शन होते हैं। तब हम उस मूल उपादान को (शाश्वत चैतन्य कम्पन-सच्चिदानन्द!) को जान लेते हैं, जिससे इन सब बहुविध जीवों की उत्पत्ति हुई है, जैसे मिट्टी के एक ढेले का ज्ञान होने से समस्त मिट्टी का ज्ञान हो जाता है। 1/70'
हमें मालूम है कि हमारे स्नायुओं के भीतर दो प्रकार के प्रवाह हैं, उनमें से एक को अन्तरमुखी और दूसरे को बहिर्मुखी, एक को ज्ञानात्मक और दूसरे को कर्मात्मक, एक को केन्द्र-गामी और दूसरे को केन्द्रापसारी कहा जा सकता है। एक मस्तिष्क की ओर सम्वाद ले जाता है, और दुसरा मस्तिष्क से बाहर, समुदय अंगों में।
मेरुदण्ड के भीतर बाएं इड़ा और दायें पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्ति-प्रवाह और मेरुम्ज्जा के ठीक बीच में जो शून्य नली गयी है वही सुषुम्णा है। यह मेरुमज्जा मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के 'बल्ब' में medulla (मज्जा) नामक एक अंडाकार पदार्थ में अंत हो जाती है, जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है, वरन मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है, उसमें तैरता रहता है। यदि सिर पर कोई आघात लगे तो उस अघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में विखर जाती है, और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती।
विद्युत् क्या है, यह किसी को नहीं मालूम; हमलोग इतना ही जानते हैं कि विद्युत् एक प्रकार की गति है। समस्त परमाणु यदि एक ओर गतिशील हों, तो उसीको वैद्युत  गति कहते हैं। इस कमरे में जो वायु है, उसके सारे परमाणुओं को यदि लगातार एक ओर चलाया जाय, तो यह कमरा एक महान बैटरी के रूप में परिणत हो जायेगा।यदि श्वास-प्रश्वास की गति नियमित की जाय, तो शरीर के सारे परमाणु एक ही दिशा में गतिशील होने का प्रयत्न करेंगे। जब विभिन्न  में दिशाओं में दौड़ने वाला मन एकमुखी होकर एक दृढ इच्छा-शक्ति के रूप में परिणत होता है, तब सारे स्नायु-प्रवाह भी एक प्रकार के विद्युत् का आकार धारण कर लेती है। जब शरीर की सारी गतियाँ सम्पूर्ण रूप से एकाभिमुखी होती हैं, तब वह शरीर मानो इच्छा-शक्ति का एक प्रबल विद्युत्-आधार या डायनेमो बन जाता है। (1/73)
' प्राण का अर्थ है शक्ति। तो भी हम  इसे शक्ति नाम नहीं दे सकते, क्योंकि शक्ति तो इस प्राण की अभिव्यक्ति मात्र है। मनुष्य देह में तीन मुख्य प्राण-प्रवाह अर्थात नाड़ियाँ है। यदि मेरुदण्ड मध्यस्थ सुषुम्णा के भीतर से स्नायु प्रवाह चलाया जा सके तो देह का बंधन फिर न रह जायेगा, सारा ज्ञान हमारे अधिकार में आ जायेगा। मूलाधार चक्र में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार-समिष्टि मानो संचित सी रहती है। और उस कुण्डलीकृत क्रियाशक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्वज्ञान, अतिचेतन अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार का एकमात्र उपाय है। चार योगों में से किसी की सहायता से कुण्डलिनी को जाग्रत किया जा सकता है। 1/77
' इस सुषुम्णा को खोलना ही योगी का एकमात्र उद्देश्य है। सबसे निचे वाला चक्र ही समस्त शक्ति का अधिष्ठान है। उस शक्ति को उस जगह से उठाकर मस्तिष्कस्थ  'बल्ब' तक ले जाना होगा। तब वह कामशक्ति ओज शक्ति में परिणत हो जाती है। ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है, मस्तिष्क बिगड़ भी सकता है। तन-मन-वचन से सर्वदा सब अवस्थाओं में मैथुन का त्याग ही ब्रहचर्य है। 1/101' अपवित्र-जीवन जीने वाला योगी नहीं बन सकता है। 1/82
' जो शीघ्र उन्नति करने की इच्छा करते हैं, वे यदि कुछ महीने केवल दूध और अन्न आदि निरामिष भोजन पर रह सकें, तो उन्हें साधना में बड़ी सहायता मिल सकेगी। 1/88 यह अहं भाव केवल बीच की अवस्था में रहता है। जब मन इस रेखा के उपर या नीचे विचरण करता है, तब किसी प्रकार का अहं-ज्ञान नहीं रहता, किन्तु तब भी मन की क्रिया चलती रहती है।
जब कोई मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है। वह स्पष्ट देख पाता है, ' कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन सारा संसार शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था !' पुरुष भी बस, इसी प्रकार प्रकृति के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरुप है। (1/164) 
' हमारे दुःख या सुख का कारण है-शरीर के साथ अपना संयोग कर लेना। (1/172) यह अतीन्द्रिय अवस्था कभी कभी ऐसे व्यक्ति को अचानक प्राप्त हो जाती है, जो उसका विज्ञान नहीं जानता। वह मानो उस ज्ञानातीत राज्य में ढकेल दिया जाता है। अचानक जा पड़ने से दिमाग बिगड़ जाने की संभवना रहती है। मुहम्मद कोई सिद्ध योगी न थे। उनको अनजाने में ही अचानक अन्तः प्रेरणा मिल गयी थी। ...कितने ही देशों का सर्वनाश हो गया। 1/96.
' विद्युत्-शक्ति के बारे में आधुनिक मत यह है कि वह डाइनेमो से बाहर निकल, घूमकर फिर से उसी यन्त्र में लौट आती है। प्रेम और घृणा के बारे में भी यही नियम लागु होता है।'(1/110) हमारा यह जीवन उस इन्द्रियातीत अनंतस्वरूप में पहुँचने के लिये रास्ते में केवल एक क्षूद्र अवस्था है। 1/113
' पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर सकता है। ' अभ्यास किसे कहते हैं ? 
तत्र स्थितौ यत्नो अभ्यासः।। समाधिपाद 13।।
मन को दमन करने की चेष्टा, अर्थात प्रवाह-रूप में उसकी बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकने की चेष्टा ही अभ्यास है। '(1/123)  (1/139) सधापद 54/ प्रत्याहार का अर्थ है जो मन इन्द्रिय बन गया था, वह वास्तव में चित्त ही था, जब वे पुनः चित्त का स्वरुप ग्रहण करने लगती हैं तो उसे प्रत्याहार कहा जाता है।
(1/160)साधनपाद 24/25/26 बार बार पढो। मन एकाग्र हुआ है, यह कैसे जाना जाय ? मन के एकाग्र हो जाने पर समय का कोई ज्ञान न रहेगा। जितना ही समय का ज्ञान जाने लगता है, हम उतने ही एकाग्र होते जाते हैं। ' (1/188)'पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बन्द हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है। .....पशु के भीतर मनुष्य गूढ़ भाव से निहित है; ज्यों ही किवाड़ खोल दिया जाता है, अर्थात ज्यों ही बाधा हट जाती है, त्यों ही वह मनुष्य प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य के भीतर भी देवत्व अव्यक्त भाव से विद्यमान है, केवल अज्ञान का आवरण उसे प्रकाशित नहीं होने देता। जब ज्ञान इस आवरण को चीर डालता है, तब वह भीतर का देवता प्रकाशित हो जाता है।' (1/207)(1/184)]
यही स्वामीजी की शिक्षाओं का सार है, जिसे स्वामीजी बार बार समझाने का प्रयत्न किये हैं। यह अत्यन्त कठिन कार्य है, लगभग असम्भव ही है। हमलोग मनःसंयोग के द्वारा,अभ्यास के द्वारा, अध्यवसाय के द्वारा, संकल्प की दृढ़ता के द्वारा, सक्रिय प्रयत्न के द्वारा, लाखों-लाख वर्ष की सम्भावना को अत्यन्त शीघ्र सम्भव कर सकते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति, महासागर के बुलबुले जैसा होकर भी, महासागर के साथ, उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त है, हमलोगों में यही बोध जाग्रत होने की आवश्यकता है। हमलोग मनःसंयोग कर सकते हैं। हमलोगों के हृदय की अदृश्य अस्पष्ट अनुभूति से परे अवस्थित, इस महाशक्ति के विषय में मनको एकाग्र कर सकते हैं।
दूसरी बातों को जानने की अभी आवश्यकता नहीं है, स्वामीजी की कुछ और बातों को सुना जाय-
 " शुक्ति के समान बनो। भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बून्द किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की उपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बून्द की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्यों ही एक बून्द पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं। 
हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फिर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि बिल्कुल हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्व के विकास के लिये प्रयत्न करना होगा। एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके, उसकी नवीनता चली जाने पर फिर एक दूसरे नये भाव का आश्रय लेना -इस प्रकार बारम्बार करने से तो हमारी शक्ति ही इधर-उधर बिखर जायगी।
एक भाव को पकड़ो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रह सकते हैं, उन्हीं के हृदय में सत्य-तत्व का उन्मेष होता है। और जो यहाँ का कुछ, वहाँ का कुछ, इस तरह खटाई चखने के समान सब विषयों को मानो थोड़ा थोड़ा चखते जाते हैं, वे कभी कोई चीज पा सकते। कुछ देर के लिये नसों की उत्तेजना से उन्हें एक प्रकार का आनन्द भले ही मिल जाता हो, किन्तु इससे और कुछ फल नहीं होता। वे चिरकाल प्रकृति के दास बने रहेंगे, कभी अतीन्द्रिय राज्य में विचरण न कर सकेंगे। "
" एक विचार को लो; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ-उसी का चिन्तन करो, उसीका स्वप्न देखो, और उसी में जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क,स्नायु, शरीर के सर्वांग उसीके विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है। ...यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमें गहराई तक जाना होगा। इसे कार्य में परिणत करने का पहला सोपान यह है कि मन किसी तरह चंचल न किया जाय। जिनके साथ बातचीत करने पर मन चंचल हो जाता हो, उनका साथ छोड़ दो। तुम सबको मालूम है कि तुममें से प्रत्येक का किसी स्थानविशेष, व्यक्तिविशेष और खाद्यविशेष के प्रति एक विरक्ति का भाव रहता है। उन सबका परित्याग कर देना।
 ...जो लोग तमोगुण से पूर्ण हैं, अज्ञानी और आलसी हैं, जिनका मन कभी किसी वस्तु पर स्थिर नहीं रहता, जो केवल थोड़े से मजे के अन्वेषण में हैं, उनके लिये धर्म और दर्शन केवल मनोरंजन के विषय हैं, उनके लिये धर्म और दर्शन केवल मनोरंजन के विषय हैं। जो सिर्फ थोड़े से आमोद-प्रमोद के लिये धर्म करने आते हैं, वे साधना में अध्यवसाय हीन हैं। वे धर्म की बातें सुनकर सोचते हैं, 'वाह ! ये तो बड़ी अच्छी बातें हैं'; पर इसके बाद घर पहुँचते ही सारी बातें  भूल जाते हैं। सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिये, मन का अपरिमित बल चाहिये। अध्यवसायशील साधक कहता है, " मैं चुल्लू में समुद्र पी जाऊंगा। मेरी इच्छामात्र से पर्वत चूर चूर हो जायेंगे। " इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त कर सकोगे। " (1/89-90)
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शनिवार, 24 नवंबर 2012

' अप्रियस्य तू पथस्य 'सुबह-शाम स्वपरामर्श क्यों करें ? [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [39] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया -२ 
मनःसंयोग का अभ्यास करने के साथ ही साथ हमलोग निरन्तर अपना चरित्र गठन करने का प्रयत्न करते रहेंगे। प्रतिदिन हमलोग अपने मन को चरित्र के गुणों के विषय में सुनाते रहेंगे। हमलोगों की 'आत्म मूल्यांकन तालिका ' में चरित्र के २४ गुणों के नाम लिखे हुए हैं। कम से कम उन सभी गुणों के नाम को दिन में एक बार जरुर पढेंगे, तथा रात में सोने से पहले अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिये अपने मन को कहेंगे- हमलोग बलवान हैं, दुर्बल नहीं है। 
अपना चरित्र गठित करने के लिये हमने दृढ़ संकल्प लिया है, क्योंकि चरित्र गठित नहीं करने से जिस प्रकार हमारा अपना जीवन विफल हो जायेगा, उसी तरह हमलोग जनकल्याण करने योग्य भी नहीं बन पाएंगे। (क्योकि बिना (निःस्वार्थपर बने या ) अपना चरित्र गढ़े ही कोई व्यक्ति यदि राजनीती या समाज-सेवा के किसी भी क्षेत्र में कार्य करने लगे तो वह भी अवश्य भ्रष्टाचारी बन जायेगा।) इसीलिये हम स्वयं से निरन्तर कहते रहेंगे, " मेरा शरीर स्वस्थ,शक्तिशाली और मन प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न है। मैं इसी शरीर और इसी मन द्वारा, इसी जीवन में अपना सुन्दर चरित्र गठित कर लूँगा। मैं जानता हूँ कि मेरे भीतर अनन्त शक्ति विद्यमान है,वह मुझे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में मेरी सहायता करे।" यह बात हमलोग अपने आप को दिन भर में कम से कम दो बार अवश्य सुनायेंगे। 
प्रातःकाल नीन्द से जगने के बाद हमलोगों का मन स्वभावतः ही शान्त रहता है, उस समय उसमें अन्य कोई विचार नहीं रहता है। इसीलिये उस अवसर पर हमें अपने मन के कोटर में (गहरी परतों या चित्त में) पवित्र विचारों को प्रविष्ट कराना होगा। उसी प्रकार रात में सोने से ठीक पहले भी करना होगा। इस अभ्यास के बारे में जिस प्रकार हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने कहा है, उसी प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान का भी यह एक परीक्षित सत्य है।
नीन्द से उठने के बाद हमलोगों का मन अत्यन्त सौम्य (कोमल) रहता है। उस समय उसमें किसी विचार की छाप आसानी से पड़ती है। वह समय, मन में किसी पवित्र विचार को प्रविष्ट कराने का सबसे उपयुक्त समय होता है। नीन्द से उठने के बाद यदि कुछ पवित्र भावों के विषय में मन को सुनाया जाय, तो मन उसको आसानी से ग्रहण कर लेता है, और यदि वे विचार मन की गहराईयों तक खुद जाएँ तो फिर आसानी से भूलती नहीं। उसी प्रकार सोने से ठीक पहले हमलोग अपने मन को कहेंगे, " मैं चरित्रवान मनुष्य बनूंगा। क्योंकि चरित्रवान बन जाने में ही मेरा सबसे अधिक मंगल है, और केवल तभी दूसरों का मंगल करने में भी मैं समर्थ हो सकूँगा।" स्वयं अपने मन को यह सब कहना कोई खेल नहीं है, किन्तु इसको यदि एक खेल के जैसा बना लिया जाय, तो सचमुच यह खेल बहुत लाभदायक होगा। यदि हमलोग अपने जीवन को सत्य नहीं समझें, और जगत हमारे लिये एक खेल के जैसा प्रतीत होता हो, तो इसे सत्य समझ कर खेलना ही उचित होगा। 
हो सकता है कि हमें अपने ही मन को यह सब सुनाने में थोड़ा संकोच लगे। क्योंकि इतना उमर तो बीत गया, अब अचानक यह कहने लगूँ कि मैं चरित्रवान बनूंगा, मैं मनुष्य बनूंगा; और कहूँगा, मेरे भीतर जो अनन्त शक्ति है, वह जाग उठे, मैं निश्चय ही सफल होऊंगा, क्योंकि मुझमें प्रबल आत्मविश्वास है ? हो सकता है, यह सब कहने में संकोच लगे। किन्तु यदि हमलोग यह सब कह सकें, तो ये विचार मन में इस प्रकार छप जायेंगे, कि फिर कभी वहाँ से बाहर ही नहीं निकलेंगे। उसके बाद हम अपने जीवन के विभिन्न सामान्य कार्य करेंगे, उस समय मन में यही सब विचार उठने लगेंगे,क्योंकि ये विचार मन की गहराई तक भर चुके हैं। 
इसीलिये अब यदि कोई अपवित्र विचार मन में प्रविष्ट करना भी चाहेगा, तो ये विचार उस समय उससे युद्ध करने पर उतारू हो जायेंगे, और गन्दे विचारों को मन में घुसने से रोक देंगे। यही है चरित्र-गठन का उपाय। यह बिल्कुल सच है कि कोई भी मनुष्य अपना सुंदर चरित्र गढ़ सकता है। किन्तु आज तक तो यह किसी ने नहीं बताया कि कैसे सुन्दर चरित्र गढ़ा कैसे जाता है ? सभी लोग यही कहते हैं कि अच्छा बनना होगा, अभी तक हमलोग केवल यही सुनते आये हैं कि अच्छा बनना होगा। आत्मविश्वासी, ईमानदार,साहसी, सत्यवादी बनना होगा, यह सब तो लोग कहते ही थे, किन्तु जैसा स्वामी विज्ञानानन्दजी ने विद्यासागर के शब्दों को उद्धृत करते हुए कहा था- ' सदा सत्य बोलो ', यह तो लिखा हुआ है, पर क्या तुम सत्य बोलते हो ? उसी प्रकार सभी कहते हैं, यह करना होगा, वह करना होगा, उसे करना होगा, किन्तु करूँगा किस प्रकार ? यह बात तो कोई बताता नहीं है। चरित्र-निर्माण करना होगा, देश का उद्धार करना होगा, किन्तु उसकी व्यावहारिक पद्धति क्या है, यह कौन बतायेगा ? 
[महामण्डल के कर्मियों को बहुत निष्ठां के साथ महामण्डल के वार्षिक शिविर में लीडरशिप ट्रेनिंग लेना होगा, मानवजाति के किसी सच्चे मार्गदर्श नेता के रूप में कई आवश्यक बातें अपने भावी नेताओं से कहनी होगी! किन्तु अपनी विद्वता प्रदर्शन करने की जरुरत नहीं अपने जीवन को सुंदर रूप में गठित करना होगा।]  
उपदेश देने के समय स्वयं सही पद्धति ज्ञात नहीं हो, तो हमलोग इधर-उधर की बातें करते रहेंगे। किन्तु वैसा करने से महामण्डल का कार्य नहीं हो सकता है। हमें तो सही ढंग से कार्य करना होगा, कठोर परिश्रम करना होगा। महाभारत में महात्मा विदुर धृत्रराष्ट्रसे कहते हैं -    

सुलभा: पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य तू पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।

“ हे राजन, प्रिय बोलनेवाले व्यक्ति आपको सुलभतासे प्राप्त हो जाएँगे; परंतु ऐसा वक्ता जो ऐसा सत्य बोलता हो जो कटु हो और सामनेवालेके हितमें हो वह बोलनेवाला और उसकी बातको सुननेवाला दुर्लभ ही मिलता है” |
[“O, king! Men who forever speak pleasing words are easy to be obtained. But one who speaks of (पथस्य या हितकारी वचन) useful but unpleasing words as also the one who listens to them, are rare to be obtained”]
महात्मा बिदुरजी कह रहे हैं, हमेशा अच्छी अच्छी बातें कहने वाले मनुष्य जगत में बहुत से पाये जाते हैं, किन्तु क्या किसी व्यक्ति को अप्रिय सुनना अच्छा लग सकता है ? स्वामी विवेकानन्द बार बार कहते हैं - " मन का संयम करो,अपने हृदय को उखाड़ कर रक्त बहाते हुए भी साधारण मनुष्यों का कल्याण करो" - ये सब कैसी बातें हैं ? किन्तु सुनने में अच्छी न लगने पर भी ये बातें पथ्य जैसी हित करने वाली हैं, इसमें हमलोगों का सच्चा हित छुपा हुआ है। इस तरह की बातों को कहने वाले लोग तो बहुत कम होते ही हैं, सुनने वाले लोग भी कम होते हैं। 
हमलोगों को आवश्यक बातें कहनी होंगी, और उसी तरह से कार्य भी करने होंगे। बहुत से बड़े बड़े कोटेशन को रट लेने की जरूरत नहीं है। हमें अपने मन में पवित्र विचारों का आरोपण करना होगा, तथा जीवन में निरन्तर विवेक-प्रयोग की सहायता से मन,वाणी और कर्म द्वारा  जो अच्छा हो वही करना होगा।
क्या अच्छा है, क्या बुरा है -इसे कैसे समझेंगे ? जिस में अपना कोई स्वार्थ नहीं हो, वही अच्छा है, जिससे मेरा मनुष्यत्व बढ़े, उसी को अच्छा समझना चाहिये। जिस कार्य द्वारा अन्य मनुष्यों का, जीवों का हित होता हो, उसी कार्य को अच्छा समझना होगा। अच्छे-बुरे विचारों की यही पहचान है। उसी तरह के पवित्र विचार मन में रखने होंगे। बुरे विचार यदि उठने लगें, अर्थात जिस विचार के मन में उठने से हम अपने को कमजोर महसूस करें, या ऐसा लगे कि वैसा विचार करने से मेरे चरित्र-गठन में कोई सहायता नहीं मिलेगी, जिस विचार से दूसरे मनुष्यों का अकल्याण होता हो, जिस विचार का परिणाम मुझे स्वार्थी बना देता हो, उस प्रकार के विचारों को मैं आने नहीं दूंगा। 
सभी कर्मों, सभी बातों जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यदि हमलोग इसी प्रकार करते रहें, तथा हमलोगों के आचरण में अच्छे गुणों में वृद्धि हो जाये -ऐसी चेष्टा करें, यदि हमेशा सत्य बोलें, यदि कभी झूठी बातें कहने का प्रलोभन मन में जगे, तो मनः संयम के अभ्यास से जिस प्रबल इच्छाशक्ति को हमने अर्जित किया है, उसी शक्ति की सहायता से झूठ कहने से बच जाएँ, इसी प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में -भय के क्षेत्र में भी इसी शान्त (सचेत) मन से किसी भय को भी यदि जीत सकें, तथा एक बार उस भय को जीत लेने के बाद, जिस साहस, आनन्द, शान्ति को प्राप्त करूँगा, वह मुझे इससे भी बड़े बड़े भय को जीतने में सहायता करेगा। इसी प्रकार विवेक-प्रयोग की सहायता से आत्म मूल्यांकन तालिका में उल्लिखित प्रत्येक गुण को बढ़ाने में सक्षम हो जाऊँगा। यह कार्य करूँगा कैसे ? मनः संयम को सीख कर।
[रामायण के युद्धकाण्ड का सोलहवाँ सर्ग भी द्रष्टव्य है। जहाँ रावण ने प्रकारान्तर से विभीषण को कृतघ्न बताया। जिस में विभीषण को अनार्य कहा गया है। न्यायवादी विभीषण को स्वभावत: क्रोध आया और हाथ में गदा लिए हुए चार राक्षसों के साथ लङ्का का परित्याग करते हुए रावण को पितृसम कहा और यह भी बताया कि तुम्हारा परुष वाक्य मैं क्षमा नहीं कर सकता। अन्तत: विभीषण ने जो नीतिवाक्य कहा, वह आज तक लोकोक्तियों में प्रचलित है -
सुलभा: पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य च पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।
 – रामायण / युद्ध / 16.21]

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शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

' उपयोगी बातें '(मेरे भीतर जो आग जल रही है, वही तुम्हारे भीतर जल उठे) स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [38] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

" प्रभु हमेशा मेरे साथ हैं !"- इस बात को स्वामीजी ने किस भाव में कहा है, इसे समझना बहुत कठिन है। किन्तु यदि उस मार्ग को थोड़ा भी समझ सकें, तो हमारा हृदय अनन्त बल, साहस, आशा, और उद्यम से परिपूर्ण हो जायेगा। यह अनुभव करने की चीज है, इसे बोल कर नहीं समझाया जा सकता है।
११,जनवरी १८९५ के पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " सिद्धान्त और पुस्तकों की बातें बहुत बहुत हो चुकीं। 'जीवन' ही उच्चतम वस्तु है और साधारण मनुष्यों के हृदय को पिघलाने का यही एक मार्ग है। क्योंकि इसमें व्यक्तिगत आकर्षण होता है। ...मुझे चुपचाप शान्ति से काम करना अच्छा लगता है और प्रभु हमेशा मेरे साथ है। यदि तुम मेरा अनुसरण करना चाहते हो, तो सम्पूर्ण निष्कपट होओ, पूर्ण रूप से स्वार्थ त्याग करो, और सबसे बड़ी बात है कि पूर्ण रूप से पवित्र बनो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। इस अल्पायु में परस्पर प्रशंसा का समय नहीं है। युद्ध समाप्त हो जाने के बाद किसने क्या किया, हम इसकी तुलना और एक दूसरे की यथेष्ट प्रशंसा कर लेंगे। लेकिन अभी बातें न करो; काम करो, काम करो, काम करो ! ..आग में कूद पड़ो और लोगों को परमात्मा की ओर ले जाओ। मेरे भीतर जो आग जल रही है, वही तुम्हारे भीतर जल उठे, तुम अत्यन्त निष्कपट बनो, संसार के रणक्षेत्र में तुम्हें वीरगति प्राप्त हो-यही मेरी निरन्तर प्रार्थना है।" (3/370)
 स्वामीजी कह रहे हैं कि प्रभु हर समय स्वामीजी के साथ हैं। हमलोग प्रभु कहने का अर्थ समझते हैं-ठाकुर (श्रीरामकृष्ण)! पुनः कहते हैं," अगर चाहो तो मेरा अनुसरण करो।" उनकी यह उक्ति मानो इस अंग्रेजी कहावत का स्मरण करा देती है- " If you love me, love my dog first. " (If you love someone, you should accept everything and everyone that the person loves.) यदि तुम मुझसे प्रेम करना चाहते हो, तो पहले उससे प्रेम करो, जिसे मैं पसन्द करता हूँ, या जिससे मैं प्रेम करता हूँ। यदि कोई मुझसे प्रेम करना चाहता हो, तो उसे पहले मेरे कुत्ते को प्रेम करना होगा। यहाँ पर स्वामीजी का कथन प्रभु ईसा मसीह के जीवन की इस घटना (निम्नोक्त) का भी स्मरण करा देती है।
 ["So when they had eaten breakfast Jesus said to Simon Peter, 'Simon, son of Jonah, do you love Me more than these?'  And he said to Him, 'Yes Lord, You know that I love You.'  And He said to him, 'Feed My lambs.'  And He said to him again a second time 'Si, do you love Me?'  and Peter was grieved because He said this to him a thmon, son of Jonah, do you love Me?'  And he said to Him 'Yes Lord, You know that I love You.'  And He said to him 'Tend My sheep.'  And He said to him a third time 'Simon, son of Jonahird time, 'Do you love Me?'  And he said to Him 'Lord, You know all things, You know that I love You.'  And Jesus said to him, 'Feed My sheep.'  John 21:15-17] 
यदि हमलोग इस जीवन में ' ठाकुर देव ' के दास के दास के दास का दासत्व भी प्राप्त कर सकें, तो हमारा जीवन धन्य हो जायेगा। प्रार्थना की जाती है- " तद् दासदासदासानां दासत्वं देहि मे प्रभो !" अर्थात हे प्रभु, तुम अपने दास के दास के दास का दासत्व करने की शक्ति मुझे दो ! स्वामीजी बिल्कुल इसी बात को यहाँ कह रहे हैं। वे स्वयं को मानो ठाकुर के पालतू (अधीन रहने वाला) कुत्ता जैसा समझ रहे हैं। इसीलिये यदि ठाकुर से प्रेम करना चाहते हो, तो मुझे प्रेम करो। क्योंकि,प्रभु सभी समय मेरे साथ हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है, कि वे यहाँ अपने को बड़ा सिद्ध करना चाह रहे हैं। 
बल्कि वे कह रहे हैं, मैं उनके दास के दास के दास के दास का दासत्व की मांग करने वाला भिखारी हूँ, मेरे साथ प्रभु सभी समय हैं। इसीलिये, "यदि चाहते हो, तो मेरा अनुसरण करो।" 'यदि चाहते हो'- का तात्पर्य है, यदि तुम भी प्रभु के कार्य को आगे ले जाना चाहते हो, तो मेरे पास आओ, अर्थात मेरा अनुसरण करो। 
और यदि हमलोग स्वामीजी का अनुसरण करना चाहते हों, तो हमें क्या करना होगा? तीन चीजों का पालन करना होगा। उनके पास बिल्कुल एकनिष्ठता की पराकाष्ठा को लेकर आना पड़ेगा। यदि मुझको पकड़ना चाहते हो, अर्थात मेरे साथ जो प्रभु सभी समय हैं- उनको पकड़ना चाहते हो; उनको पकड़ने से तात्पर्य है, उनके भाव को पकड़ना चाहते हो। अर्थात प्रभु के भाव को ग्रहण करना चाहते हो, तो प्रभु का भाव ग्रहण करने के लिये, निष्ठा की पराकाष्ठा रहनी चाहिये। अर्थात उनके प्रति भक्ति में टुकड़ी भर भी खोट नहीं रहनी चाहिए। 
 उनके प्रति विशुद्ध भक्ति को लेकर आना पड़ेगा। दृढ़ निष्ठा,और पूर्ण निःस्वार्थता अनिवार्य है -टुकड़ी भर भी स्वार्थपरता रहने से कोई मेरा अनुसरण नहीं कर सकता है-अर्थात उनके पास नहीं पहुँच सकता है। यह सब भी मानो छोटी बातें हैं। इन सबसे परे, या इनके उपर पवित्र होना होगा। अपवित्रता का लेशमात्र रहने से कुछ भी नहीं प्राप्त होगा। " मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है।" या वर्षित हो रहा है, या वर्षित हो। " इस छोटे से जीवन में परस्पर परस्पर को शब्बासी देने या शिकायत करने के लिये हमलोगों के पास समय नहीं है।" इसका अर्थ यह हुआ कि - 'मैं-पन' के भाव को लेकर बैठे रहने का थोड़ा भी समय नहीं होगा। आत्मतुष्टि के लिये कोई समय नहीं होगा। युद्ध समाप्त हो जाने के बाद हमलोग जी भरकर, यथा संभव एक दूसरे की प्रशंसा कर सकते हैं, वाहवाही का आदान-प्रदान कर सकते हैं। अभी बातें बनाना बन्द करो। केवल काम,काम, काम। वाहवाही की बात या अन्य समस्त अप्रसांगिक बातें बन्द करनी होंगी। बकवास सुनने का समय नहीं है। जो इस कार्य को सिद्ध नहीं करता है, या नहीं कर सकता है, वह कार्य का जिक्र भी नहीं करे। जिस बात को तुम स्वयं नहीं समझ सकते, उस बात को दूसरों को समझाने का प्रयत्न नहीं करो। इस प्रकार की बातों को बन्द करने के लिये कहे हैं। एक कच्चे कार्य का मूल्य भी बीस मन बातों के समान है। उसी प्रकार, केवल कार्य होने से वह लड़खड़ाता कर गिर पड़ेगा। कार्य के भीतर ज्ञान-भक्ति रहेगी, पूरे मनोयोग के साथ कार्य करना होगा।
 अर्थात चारो योग का समन्वय करके कार्य करने की बात स्वामीजी बार बार कहते हैं-उसी प्रकार से कर्म करने की आवश्यकता भी है। 
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गुरुवार, 22 नवंबर 2012

'बहुत्व देखना ही पाप है ! ' स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [37] [earth is zero potential (0 V)](जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

" अपने मिथ्या अहंकार को भी '0 V' (zero potentiality तक ले जाओ! "
 [नहीं तो गतिज (kinetic-पुनर्जन्म)  होने की प्रवणता बनी रहती है।] 
स्वामी विवेकानन्द की इस उक्ति- " समस्त जगत का सबसे बड़ा महापाप है- बहुत्व के अस्तित्व सच समझना,  अथवा अपने-पराये का भेद देखना। सभी को अपने ही जैसा देखो और सभी से प्रेम करो, भिन्नत्व के समस्त विचार लुप्त हो जाएँ।"  का तात्पर्य हमें अनासक्ति के भीतर ही ढूँढना पड़ेगा। हमलोग समस्त कार्यों को अनासक्त होकर करेंगे। सभी कर्मों को भगवान को अर्पित करेंगे। किस प्रकार, किस बुद्धि से अर्पित करते हैं ? हमें इस प्रकार विवेक-विचार करना होगा कि वे ही समस्त घटनाओं के निदेशक (director) हैं। वे अन्तर्यामी हैं, वे हमारे ही भीतर अवस्थित रहकर हमलोगों को चला रहे हैं। 
स्रष्टा का अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने ही सब कुछ का निर्माण किया है, या उन्होंने इस जगत की रचना की है। जो लोग ऐसा सोचते हैं, उनमे ऐसे विचार द्वैत बुद्धि से उत्पन्न होते हैं। हमलोग की मान्यता है कि परब्रह्म परमेश्वर ही इस जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत के निमित्त और उपादान कारण हैं। वे ही efficient cause  हुए हैं, फिर 'material cause' भी वे ही बने हैं, - निमित्त कारण या efficient cause का तात्पर्य है जिस कारण के रहने से कोई कार्य सिद्ध होता है, तथा material cause या उपादान कारण का अर्थ है जिस उपादान से कोई वस्तु निर्मित होती है। अर्थात जिस प्रकार वे विश्वब्रह्माण्ड, जगत के स्रष्टा हैं, उसी प्रकार उन्होंने स्वयं के द्वारा ही उसे गढ़ा भी है।
" यथोर्णाभिः सृजते गृहणते च ...
                             तथा अक्षरात् सम्भवति इह विश्वम् ।। (मुण्डकोपनिषद1/7) " 
 जिस प्रकार मकड़ी अपने पेट में स्थित जाले को बाहर निकाल कर फैलाती है और फिर उस जाले को निगल जाती है, उसी प्रकार वह परब्रह्म परमेश्वर अपने अन्दर सूक्ष्मरूप से लीन हुए जड़-चेतनरूप जगत को सृष्टि के आरम्भ में नाना प्रकार से उत्पन्न करके फैलाते हैं, और प्रलयकाल में पुनः उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं। (गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
                    कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यह्म्।।  (गीता 9/7 )
-हे अर्जुन, कल्पक्षये यानि प्रलय के समय समस्त भूत मेरी सत्व,रज,तम गुणात्मिका प्रकृति (कारणता)  में विलीन हो जाते हैं। पुनः कल्प के आरम्भ में - मैं योगमाया की सहायता से स्थूल-सूक्ष्म आदि रूप से समस्त भूतों की  सृष्टि करता हूँ।)
समस्त सृष्टि उन्हीं की रचना है, उन्हीं का विस्तार है, या उन्हीं की अभिव्यक्ति है; फिर वे ही उसका संकुचन (संघार) कर लेते हैं। वे ही जगत बने हैं, फिर उनके ही भीतर सब कुछ लय हो रहा है।अर्थात वे एक और आद्वितीय हैं, एक ही अनेक के रूप में दिख रहा है। इसीलिये समस्त कार्य उन्हीं के कार्य हैं; यदि कोई कर्तव्य है, तो वह भी उन्हीं का है।
[यह जो एक का अनेक नाम-रूपों में दिखना है-क्या सचमुच एक वस्तु दूसरी वस्तु बन गयी है? जैसे दूध का दही बन जाता है ? दूध उपादान कारण है, जोरन निमित्त कारण तो दही (जगत) क्या है ? आचार्य शंकर कहते हैं, जगत ब्रह्म का परिणाम नहीं है विवर्त हैरज्जू में सर्प दिख रहा है। ब्रह्म ही जगत बने हैं, किन्तु हम जब जगत (सर्प) देखते हैं, तब ब्रह्म (रज्जू) नहीं दीखता। ब्रह्म और जगत का युगपत दर्शन करना हो - तो शिव ज्ञान से जीव सेवा करना होगा। ]
जगत में जैसे ही ' कॉज़ैलिटी' (Causality) कारण-कार्य सम्बन्ध (योगमाया-जोरन) को जोड़ दिया गया, उसी समय यह सृष्टि अस्तित्व में आ गयी ! किन्तु वे (ब्रह्म) किसी causality-के भीतर नहीं हैं, [अर्थात ब्रह्म कारणता के परे हैं] किन्तु यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड इन्हीं तीनों - Space (देश), time (काल) और causality निमित्त (कारण-कार्य सिद्धान्त) की सीमा के भीतर है, इसके बाहर कुछ भी नहीं है। इन्हीं तीनों के भीतर वह relative world (सम्बंधयुक्त जगत या सापेक्षिक जगत) है, जिसे सब कुछ के साथ तुलना (मिलान comparison) कर के समझना पड़ता है।  जिस प्रकार सादा का अर्थ काला नहीं है, लाल नहीं है - उसी प्रकार 'नानात्व' जैसा कुछ नहीं है। पुनः जिस प्रकार प्रकाश के कई विविध रंगों (सात रंग) का योगफल है सादा। जैसे सोझा (straight) का अर्थ यह हुआ कि वह वक्र (बंका curved) नहीं है। ठीक उसी प्रकार एक के साथ और एक (दूसरा) लिप्त (फँसा involve) है, या एक के उपर और एक (दूसरे) का अस्तित्व निर्भर करता है। किन्तु वह परब्रह्म परमेश्वर, सत्य या भगवान, उनको हम चाहे जिस नाम से भी क्यों न पुकारें, वे सदैव इस causality -के बाहर रहते हैं। जैसा की स्वामी विवेकानन्द ने एक कविता में गाया है - ''देशरहित कालरहित नेति नेति विराम जहाँ ! ' (एक ऐसी सत्ता जिसका नाम, रूप वर्ण कुछ भी नहीं है, जो देश-काल निमित्त से परे है, जिस अवस्था में 'नेति नेति ' का विचार (विवेक-प्रयोग) समाप्त हो जाता है, এক সত্তা, যাঁহার নাম রূপ বর্ণ কিছুই নাই, যিনি দেশকালের অতীত, যেখানে 'নেতি নেতি' বিচার শেষ হইয়াছে।)
सृष्टि 
एक रूप, अरूप-नाम-बरन, अतीत-आगामी-कालहीन,
देशहीन, सर्वहीन, 'नेति नेति' विराम जहाँ।
वहीं से होकर बहे कारण-धारा,
धार की वासना वेश उजाला,
गरज गरज उठता है उसका वारि,
'अहमहमिति' सर्वमिति सर्वक्षण।।

उसी अपार इच्छा-सागर माँझे 
अयुत अनन्त तरंगराजे 
कितने रूप, कितनी शक्ति,
कितनी गति-स्थिति किसने की गणना।।

कोटि चन्द्र, कोटि तपन 
पाते उसी सागर में जन्म,
महाघोर रोर गगन में छाया 
किया दश दिक् ज्योति-गगन।।

उसीमें बसे कई जड़-जीव-प्राणी,
सुख-दुःख, जरा, जनम-मरण,
वही सूर्य जिसकी किरण, जो है सूर्य वही किरण।।
[একরূপ, অ-রূপ-নাম-বরণ, অতীত-আগামি-কাল-হীন,
দেশহীন, সর্বহীন, 'নেতি নেতি' বিরাম যথায় !!১
সেথা হ'তে বহে কারণ-ধারা
ধরিয়ে বাসনা বেশ উজালা,
গরজি গরজি উঠে তার বারি,
'অহমহমিতি' সর্বক্ষণ ।।
इसीलिये जो व्यक्ति इस सृष्टि रहस्य को जान लेगा वह इस जगत में 'मुक्त-पुरुष' बन कर कार्य करेगा- अर्थात अब वह जो कुछ भी कार्य करेगा उस कार्य को स्वाधीन (unattached) या अनासक्त होकर कार्य करेगा। मुक्त पुरुष वह है, जिसे इसी जीवन में ईश्वर और जगत के साथ एकात्मबोध हो चुका है; उसके लिये अब वैयक्तिक-अस्तित्व (क्षुद्र मैं) जैसा कुछ नहीं रह जाता है। उसको सारे नाम-रूप उसी एक परब्रह्म परमेश्वर के ही विविध नाम-रूप अनुभव होंगे,अब उसमें 'मेरा ' कहने लायक कुछ नहीं बचेगा। इसीलिये अब वह जगत के समस्त कर्मों को अनासक्त होकर करने में समर्थ बन जायेगा। सबकुछ 'तूँ और तेरा ' है, सभी कर्म ' तेरे' कर्म हैं- ऐसी बुद्धि से कार्य कर सकेगा। इस प्रकार अनासक्त होकर कर्म करने से समस्त कर्म स्वतः उनमें समर्पित हो जायेंगे। क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का तो अस्तित्व है ही नहीं !
पृथ्वी की potentiality (अन्तः शक्ति या विभव) शून्य या 'zero' है,[Why the earth,In electrical point; is zero potential (0 V)? ] इसीलिये वज्र (Thunderbolt) की समस्त विद्युत् को पृथ्वी अपने भीतर सोख लेती है। किसी वस्तु में potentiality (स्थितिज उर्जा या विभव) यदि अधिक होगी तो वह हर समय कम विभव की तरफ जाने की चेष्टा करेगी। किन्तु पृथ्वी शून्य विभव-विशिष्ट है, इसीलिये यहाँ से कहीं और जाने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इसके विभव में घटना-बढ़ना नहीं होता। उसी प्रकार भगवान (माँ काली ) समस्त कर्म, शक्ति, वस्तु, समय (काल) को भी अपने भीतर खींच (निगल) सकते हैं। इसलिये समस्त कर्मों को उसी बुद्धि से करना होगा। क्योंकि भगवान को देने योग्य हमलोगों के पास कुछ भी नहीं है। भगवान क्या इतने गरीब हैं, कि कर्म करके उनको देंगे ? ' To give unto God '- (भगवान को समर्पित करो ) ऐसा कहना केवल कहने भर के लिये है। वे सभी कुछ के ग्राही (स्वीकारकर्ता) हैं ! इसीलिये समस्त कर्म उन्हीं में चले जाते हैं। 
जैसे किसी टंकी में पम्प लगाकर जल भर दिया जाय, और समस्त नलों को बन्द रखा जाय तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो जल अब नीचे नहीं उतरेगा। किन्तु यदि कहीं का एक भी नल थोड़ा ढीला रह गया तो पानी अपने आप गिरने लगता है। इसीलिए जबतक वह 'गतिजमें'  या कार्य में परिणत नहीं होता, या जबतक शक्ति (ऊर्जा) समाप्त नहीं होती, उसके नीचे उतरने, चलने या प्रवाहित होने की सम्भावना या रुझान (प्रवृत्ति) बनी रहेगी। जैसे जल को यदि सबसे निचले स्थान में संचित कर लिया जाय तो उसके फिर और नीचे गिरने की सम्भावना नहीं रहती है। उसी तरह जब तक वह (हमारा अहं) zero potentiality तक नहीं पहुँच जाता, तब तक उसके भीतर kinetic या गतिज होने की प्रवणता बनी रहती है।
 [ Potential Energy-किसी वस्तु में उसकी अवस्था या स्थिति के कारण कार्य करने की क्षमता को स्थितिज ऊर्जा कहते हैं। जैसे- बाँध बना कर इकट्ठा किए गए पानी की ऊर्जा, घड़ी की चाभी में संचित ऊर्जा, तनी हुई स्प्रिंग या कमानी की ऊर्जा। Kinetic Energy- किसी वस्तु में कार्य करने से गति के कारण जो ऊर्जा आ जाती है, उसे उस वस्तु की गतिज ऊर्जा कहते हैं।]
मनुष्य भी हर समय उसी ओर जाने की चेष्टा कर रहा है। वह जाने-अनजाने एक ऐसे स्थान पर जाने की चेष्टा कर रहा है, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़े। इसी को मुक्ति कहते हैं। वहाँ पहुँच जाने के बाद और चलना नहीं पड़ेगा, फिर से जन्म लेना नहीं पड़ेगा। समस्त व्यक्ति या वस्तु हर समय उसी अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़ेगा, जहाँ उसके लिये फिर से कर्म करने की सम्भावना नहीं रहती, जहाँ वह बिल्कुल निष्कर्म हो जाता है।  
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में matter (वस्तु) एवं energy (शक्ति) में कोई अंतर नहीं है। पदार्थ का रूपांतरण उर्जा में हो सकता है, उसी तरह उर्जा energy को भी matter या पदार्थ में रूपान्तरित किया जा सकता है। वस्तु की अवस्था में रहने से 'सृष्टि' कहते हैं, उसी समय नानात्व या अनेकता दृष्टिगोचर होती है; और शक्ति (उर्जा) की अवस्था में रहने को 'लय' कहते हैं, उस अवस्था में बहुत्व या नानात्व नहीं रह जाता, सबकुछ एकाकार हो जाता है। समस्त व्यक्ति या वस्तु जब चलते चलते उस परम सत्ता या भगवत वस्तु के साथ एकीभूत हो जाता है, उसी समय मुक्ति या लय होता है।
उपरी तौर से जो विभिन्न प्रकार के मनोरम रूप और दृश्य दिखाई पड़ते हैं, हमलोग उन्हीं को लेकर मदहोश  रहते हैं। किन्तु वास्तव में वे अलग अलग (M/F नाना) नाम-रूप नहीं हैं, सब एक का ही बहुरूप है, तथा सभी क्रमशः लय की ओर भागे चले जा रहे हैं। कालान्तर में कोई भी रूप मन को मदहोश बना देने वाला नहीं रहेगा, नानात्व नहीं रहेगा, सब एक हो जायेगा। इसीलिये जो वस्तु अनेक नहीं बना है, जिसमें नानात्व नहीं है, उसको उस प्रकार से देखना पापकर्म (Sin) या अपराध है। और अपराध करने से क्या होता है ? मुक्ति नहीं मिलती, सजा मिलती है, दण्ड भोगना पड़ता है। कैसी सजा मिलती है? उसे बार बार मृत्यु से मृत्यु में जाना पड़ता है। यदि हमलोग इस मृत्युदण्ड से बचना चाहते हों, सजा से मुक्ति पाना चाहते हों, तो उसका उपाय है - एक को देखना ! [ कठोपनिषद: २ /१ /१०-११ में कहा गया है, 
 यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।। 
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
                  मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। 
जो परब्रह्म यहाँ है, वही वहाँ (दूसरे के शरीर में भी) है, एक ही परमात्मा अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। जो यहाँ नाना रूप देखते हैं, वे बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं। जो उन एक ही परब्रह्म को विभिन्न नाम-रूपों में प्रकाशित देखकर मोहवश उनमें नानात्व की कल्पना करता है, उसे पुनः पुनः मृत्यु के अधीन होना पड़ता है।]
सभी मनुष्यों के नाम-रूप अलग अलग हैं, तो रहें ! किन्तु हमें प्रत्येक मनुष्य को -'अनेक' को अपनी आत्मा के रूप में देखना होगा। अलग अलग रूप में (अपना-पराया) नहीं देखना होगा। सभी को आत्मा के रूप में देखना होगा। ऐसा करने से क्या होगा ? सभी को प्रेम किया जा सकेगा। हमलोग तो स्वयं को ही प्यार करते हैं। इसीलिए, सभी को अपनी ही आत्मा के रूप में नहीं देखेंगे, तो किसी से ठीक ठीक प्यार भी नहीं कर पाएंगे। और ठीक ठीक प्यार नहीं कर सकेंगे, तो अनेक को आत्मवस्तु के रूप में देखना भी संभव नहीं होगा। इसलिये खण्डित-प्रेम अर्थात अपने-पराये में बाँट कर प्रेम करने की आदत का त्याग करना होगा। जब तक खण्डित-प्रेम बना रहेगा, तब तक यह मानना होगा कि हम अनेक को एक के रूप में नहीं देख पा रहे हैं। जब तक हमारा प्रेम सार्वभौमिक नहीं हो जाता है, तब तक हम सभी को अपनी आत्मा के रूप में नहीं देख सकेंगे। अतः आध्यात्मिकता के पथ पर हमलोग कितनी दूरी तक आगे बढ़ सके हैं, उसकी कसौटी या test है - सार्वभौमिक (Universal) प्रेम। इसीलिये खण्डित प्रेम को त्याग देना होगा। आज सार्वभौमिक प्रेम की ही सर्वाधिक जरूरत है।
इसीलिये, सत्य, पवित्रता आदि गुण उसी अद्या-शक्ति के static या स्थैतिक पक्ष (aspect) हैं;और जब यही गतिशील या dynamic बन जाते है, तभी प्रेम या love होता है। जिस समय यह अवस्था होगी, अर्थात जब हम सत्य और पवित्रता में स्थित हो जायेंगे, उसी समय भेद-ज्ञान चला जायेगा। इसके फल स्वरूप नानात्व या अनेकता नहीं रहेगी - नहीं, सो नहीं होगा।  नानात्व या अनेकता तो वैसे ही बनी रहेगी- किन्तु हमारी दृष्टि बदल जाएगी। -अर्थात सीमायें टूट जायेंगी (अपने-पराय का भेद चला जायेगा) सबों के प्रति प्रेम या अनन्त प्रेम से हृदय भर उठेगा ! 
[व्युत्थान के बाद विभिन्न नाम-रूपों वाला जगत पुनः सत्य जैसा भासने लगेगा, किन्तु उसके विष के दाँत टूट जायेंगे, क्योंकि हमारी दृष्टि बदल जाएगी-अर्थात उसमें सार्वभौमिक प्रेम या अनन्त प्रेम छलकने लगेगा। इसीलिये मृत्यु के दहलीज पर खड़े होकर, घोरतर विपद में, रणक्षेत्र में, समुद्रतल में उच्चतम पर्वत शिखर में, गम्भीरतर अरण्य में, चाहे जिस परिस्थिति और परिवेश में क्यों न पड़ जाओ, सर्वदा अपने से कहते रहो, ' मैं वह हूँ, मैं वह हूँ ', दिन-रात बोलते रहो, ' मैं वह हूँ।' ...ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़ा-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति अवस्थित है, वह प्रकाशित हो जाएगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव में विद्द्यमान है, वह जग जायेगी। ' (6/296-97)
                          अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ।।कठोपनिषद/2/3/12 ।।
'तत् अस्ति '= वह अवश्य है; इति ब्रुवतः  =इस प्रकार जो अन्तार्न्हित आत्मा की  घोषणा डंके की चोट पर करता है, अन्यत्र कथं उपलभ्यते = उसके अतिरिक्त दूसरे को (जो हमेशा म्याऊं म्याऊं करता रहता हो); -वह कैसे प्राप्त हो सकता है?
]
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*" इस तुच्छ पृथक अहंता को नष्ट होना चाहिये। तभी हम देखेंगे कि हम सत्य में हैं; वह सत्य ही ईश्वर है, वही हमारा सच्चा स्वरूप है-वह सर्वदा हमारे साथ रहता है, वह हममें रहता है। उसीमें सर्वदा वास करो, उसीमें स्थित रहो। वही एकमात्र आनन्दपूर्ण अवस्था है। केवल आत्मसंस्थ-जीवन ही जीवन है-और आओ हम सब उस आत्मोपलब्धि के निमित्त प्रयास करें। " (2/177)
*  रेलगाड़ी में चढ़कर यात्रा करते समय जैसे पृथ्वी गतिशील प्रतीत होती है, यह भी ठीक उसी प्रकार है। एक स्वप्न के पश्चात् और एक स्वप्न आ रहा है-उनमें परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। ..किन्तु स्वप्न की अवस्था में हमें वह कभी असम्बद्ध अथवा असंगत नहीं लगता-...जब हम इस जगतरूपी स्वप्न-दर्शन से जाग उठ कर, इस स्वप्न की सत्य के साथ तुलना करके देखेंगे, तब वह असम्बद्ध और निरर्थक प्रतीत होगा। ..जब तुम उस अपरिणामी सत्ता को बाहर से देखते हो, तब उसे तुम ईश्वर कहते हो, और भीतर से देखने पर उसे तुम निज की आत्मा अथवा स्वरूप कहते हो। ..तुमसे - यथार्थतः जो तुम हो-उससे श्रेष्ठतर ईश्वर नहीं है- सब ईश्वर या देवता ही तुम्हारी तुलना में क्षुद्रतर हैं; मनुष्य ही निज के प्रतिबिम्ब के अनुसार ईश्वर की सृष्टि करता है। '(6/294-95)

*
 'हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं। प्रत्येक आत्मा मानो अज्ञान के बादल से ढके हुये सूर्य के समान है और एक मनुष्य से दूसरे का अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य के उपर बादलों का घना आवरण है, और कहीं कुछ पतला। ...हर एक मनुष्य को चाहिये कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह, अर्थात भगवत-दृष्टि से देखे और उसके साथ उसी प्रकार से बर्ताव करे, उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे, और न उसकी निन्दा ही करे। किसी भी तरह से उसे हानि पहुँचाने की चेष्टा भी न करे। यह केवल संन्यासी का ही नहीं, वरन सभी नर-नारियों का कर्तव्य है। 
...धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। और शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। (2/327-28) "
* हमने देखा- समग्र जगत में केवल एक ही सत्ता विद्द्यमान है,' यह कहना ठीक नहीं है कि मनुष्य के भीतर एक आत्मा है, यद्दपि समझाने के लिये पहले हमें इस प्रकार मान लेना पड़ता है। वास्तव में केवल एक सत्ता विद्द्यमान है एवं वह सत्ता आत्मा है-और जब वह अविनाशी सत्ता इन्द्रियों और 'इन्द्रिय-प्रतिबिम्ब नियम' के माध्यम से दिखाई देता है, तब उसे ही देह कहते हैं; जब वह विचार के द्वारा अनुभूत होती है, तब उसे ही मन कहते है।
अतएव ऐसा नहीं है कि देह,मन और आत्मा-इन तीन अलग अलग वस्तुओं की समष्टि-एक स्थान में विद्द्यमान है- किन्तु '3H ' इस प्रकार की व्याख्या करके समझाना सुविधाजनक था- किन्तु सब वही आत्मा है तथा वह एक सत ही विभिन्न दृष्टियों के अनुसार कभी देह, कभी मन अथवा कभी आत्मा के रूप में अभिहित हुआ करता है। 
सत तो केवल मात्र एक है, अज्ञानी लोग उसे ही जगत कहा करते हैं। ..जब पूर्ण ज्ञान का उदय होता है तो सारा भ्रम उड़ जाता है और तब मनुष्य देखता है कि यह सब आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 'मैं वही एक सत्ता हूँ ' - यही अन्तिम निष्कर्ष है। 
वह एक सत्ता माया के प्रभाव से बहु रूप में दिखाई पड़ रही है, जिस प्रकार अज्ञान वश रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है। ...हम सब जन्म से ही अद्वैत-वादी हैं, इस बात से भागने का उपाय नहीं है। जब हम रस्सी को देखते हैं, तब साँप बिलकुल नहीं देखते- जब तुमको भ्रम का दर्शन हो रहा होता है, उस समय तुम सत्य को नहीं देख सकते। 
जब तुम अपने को देहरूप में देखते हो, तब तुम देह मात्र हो, और कुछ नहीं हो, तथा जगत के अधिकांश मनुष्यों को ही इसी प्रकार की उपलब्धी होती है। वे आत्मा, मन आदि बातें मुँह से कह सकते हैं, किन्तु देखते हैं, यह स्थूल भौतिक आकृति ही-स्पर्श,दर्शन, आस्वाद इत्यादि। (6/291-92)'
' दूसरे की देह कौन देखता है ? जो अपने को देह समझता है। जिस क्षण तुम देहभाव-रहित होगे, उसी क्षण फिर तुम जगत नहीं देख पाओगे। वह चिर काल के लिये अन्तर्हित हो जायेगा। भला-बुरा कौन देखता है ? वही जिसके निज के भीतर भला-बुरा बना हुआ रहता है। ज्ञानी केवल बौद्धिक विचार स्वीकृति के बल से इस जड़-बन्धन से 'चिज्जड़-ग्रन्थि ' से अपने को विच्छिन्न करते हैं। यही नेति-नेति मार्ग है। '(6/299)
*" एक दिन ऐसा आयेगा, जब राष्ट्र नामक कोई वस्तु नहीं रह जायगी -राष्ट्र राष्ट्र का भेद दूर हो जायेगा। वास्तव में, हम सबके बीच भ्रातृ-सम्बन्ध स्वाभाविक ही है, पर हम सब इस समय पृथक हो गये हैं। ऐसा समय अवश्य आएगा, जब ये सब भेद-भाव लुप्त हो जायेंगे, प्रत्येक व्यक्ति वैज्ञानिक तथ्यों के ही समान अध्यात्मिक तथ्यों में भी तीव्र रूप से व्यवहार-कुशल हो जायेगा। और तब वह एकत्व, वह समन्वय समस्त जगत में व्याप्त हो जायेगा। तब सारी मानवता जीवन्मुक्त हो जाएगी। अपनी इर्ष्या,घृणा, मेल और विरोध में से होते हुए हम उसी एक लक्ष्य की ओर संघर्ष कर रहे हैं। " (2/146) ]
' अब प्रश्न यह कि -'यह स्वप्न किस प्रकार भंग हो कि हम क्षुद्र क्षुद्र नर-नारी इत्यादि हैं ? यह जो स्वप्न है-इससे किस प्रकार हम जागेंगे ? मन और इन्द्रियों की यह गुलामी हटेगी कैसे ? -सत्य को पहले (गुरु-मुख से ) सुनना होगा,  फिर उसपर मनन करना होगा, उसके पश्चात् उसका निदिध्यासन अर्थात ध्यान करना होगा। अर्थात उसके (गुरु-मन्त्र के) तात्पर्य को निरन्तर दृढ़ करते रहना होगा। हमेशा सोचो-' हम ब्रह्म हैं - I am He '   अन्य  सब विचारों को दुर्बलता जनक मानकर, दूर कर देना होगा। जिस किसी विचार से तुमको अपने नर-नारी होने का ज्ञान होता है, उसे दूर कर दो। हमारे अतिरिक्त जब और कुछ भी नहीं है, तब हमें भय दिखायेगा कौन ?
 " अच्छे और बुरे के पीछे एक ऐसी वस्तु है, जो वास्तव में तुम्हारी अपनी है, जो वास्तव में तुम्हीं हो, जो सब प्रकार के शुभ और सब प्रकार के अशुभ के अतीत है- और वही वस्तु शुभ और अशुभ के रूप से प्रकाशित हो रही है। पहले इसे जान लो, तभी तुम पूर्ण आशावादी हो सकते हो, इससे पूर्व नहीं। ऐसा होने पर ही तुम सब पर विजय प्राप्त कर सकोगे। ...तब तुम्हारी सारी दृष्टि एकदम परिवर्तित हो जाएगी, और तुम खड़े होकर कह सकोगे, 'मंगल कितना सुन्दर है, और अमंगल कितना अद्भुत है !' अतः वास्तविक शक्ति एक है, केवल माया में पड़ कर अनेक हो गयी है। अनेक के पीछे मत दौड़ो बस, उसी एक की ओर अग्रसर होओ। " (2/139-40)  
 " जिन लोगों ने राजयोग सम्बन्धी मेरे व्याख्यान पिछली गर्मियों में सुने हैं, उनसे मैं कहता हूँ कि वह योग (राजयोग) ज्ञानयोग से कुछ भिन्न प्रकार का है। जिस योग पर हम अब विचार कर रहे हैं, वह मुख्यतः इन्द्रियों के उपर पूर्ण नियन्त्रण हो जाने के बाद की स्थिति है। 
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।।
 कठ /2-3/10 
-जब मन सहित पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ आत्मा के वश में रहने लगती है, जब बुद्धि भी सुगन्ध-दुर्गन्ध या शुभ-अशुभ का निर्णय करने की और चेष्टा नहीं कर सकती, तभी योगी चरम गति (ज्ञानयोग) को प्रप्त होता है। ]