" प्रभु हमेशा मेरे साथ हैं !"- इस बात को स्वामीजी ने किस भाव में कहा है, इसे समझना बहुत कठिन है। किन्तु यदि उस मार्ग को थोड़ा भी समझ सकें, तो हमारा हृदय अनन्त बल, साहस, आशा, और उद्यम से परिपूर्ण हो जायेगा। यह अनुभव करने की चीज है, इसे बोल कर नहीं समझाया जा सकता है।
११,जनवरी १८९५ के पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " सिद्धान्त और पुस्तकों की बातें बहुत बहुत हो चुकीं। 'जीवन' ही उच्चतम वस्तु है और साधारण मनुष्यों के हृदय को पिघलाने का यही एक मार्ग है। क्योंकि इसमें व्यक्तिगत आकर्षण होता है। ...मुझे चुपचाप शान्ति से काम करना अच्छा लगता है और प्रभु हमेशा मेरे साथ है। यदि तुम मेरा अनुसरण करना चाहते हो, तो सम्पूर्ण निष्कपट होओ, पूर्ण रूप से स्वार्थ त्याग करो, और सबसे बड़ी बात है कि पूर्ण रूप से पवित्र बनो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। इस अल्पायु में परस्पर प्रशंसा का समय नहीं है। युद्ध समाप्त हो जाने के बाद किसने क्या किया, हम इसकी तुलना और एक दूसरे की यथेष्ट प्रशंसा कर लेंगे। लेकिन अभी बातें न करो; काम करो, काम करो, काम करो ! ..आग में कूद पड़ो और लोगों को परमात्मा की ओर ले जाओ। मेरे भीतर जो आग जल रही है, वही तुम्हारे भीतर जल उठे, तुम अत्यन्त निष्कपट बनो, संसार के रणक्षेत्र में तुम्हें वीरगति प्राप्त हो-यही मेरी निरन्तर प्रार्थना है।" (3/370)
स्वामीजी कह रहे हैं कि प्रभु हर समय स्वामीजी के साथ हैं। हमलोग प्रभु कहने का अर्थ समझते हैं-ठाकुर (श्रीरामकृष्ण)! पुनः कहते हैं," अगर चाहो तो मेरा अनुसरण करो।" उनकी यह उक्ति मानो इस अंग्रेजी कहावत का स्मरण करा देती है- " If you love me, love my dog first. " (If you love someone, you should accept everything and everyone that the person loves.) यदि तुम मुझसे प्रेम करना चाहते हो, तो पहले उससे प्रेम करो, जिसे मैं पसन्द करता हूँ, या जिससे मैं प्रेम करता हूँ। यदि कोई मुझसे प्रेम करना चाहता हो, तो उसे पहले मेरे कुत्ते को प्रेम करना होगा। यहाँ पर स्वामीजी का कथन प्रभु ईसा मसीह के जीवन की इस घटना (निम्नोक्त) का भी स्मरण करा देती है।
११,जनवरी १८९५ के पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " सिद्धान्त और पुस्तकों की बातें बहुत बहुत हो चुकीं। 'जीवन' ही उच्चतम वस्तु है और साधारण मनुष्यों के हृदय को पिघलाने का यही एक मार्ग है। क्योंकि इसमें व्यक्तिगत आकर्षण होता है। ...मुझे चुपचाप शान्ति से काम करना अच्छा लगता है और प्रभु हमेशा मेरे साथ है। यदि तुम मेरा अनुसरण करना चाहते हो, तो सम्पूर्ण निष्कपट होओ, पूर्ण रूप से स्वार्थ त्याग करो, और सबसे बड़ी बात है कि पूर्ण रूप से पवित्र बनो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। इस अल्पायु में परस्पर प्रशंसा का समय नहीं है। युद्ध समाप्त हो जाने के बाद किसने क्या किया, हम इसकी तुलना और एक दूसरे की यथेष्ट प्रशंसा कर लेंगे। लेकिन अभी बातें न करो; काम करो, काम करो, काम करो ! ..आग में कूद पड़ो और लोगों को परमात्मा की ओर ले जाओ। मेरे भीतर जो आग जल रही है, वही तुम्हारे भीतर जल उठे, तुम अत्यन्त निष्कपट बनो, संसार के रणक्षेत्र में तुम्हें वीरगति प्राप्त हो-यही मेरी निरन्तर प्रार्थना है।" (3/370)
स्वामीजी कह रहे हैं कि प्रभु हर समय स्वामीजी के साथ हैं। हमलोग प्रभु कहने का अर्थ समझते हैं-ठाकुर (श्रीरामकृष्ण)! पुनः कहते हैं," अगर चाहो तो मेरा अनुसरण करो।" उनकी यह उक्ति मानो इस अंग्रेजी कहावत का स्मरण करा देती है- " If you love me, love my dog first. " (If you love someone, you should accept everything and everyone that the person loves.) यदि तुम मुझसे प्रेम करना चाहते हो, तो पहले उससे प्रेम करो, जिसे मैं पसन्द करता हूँ, या जिससे मैं प्रेम करता हूँ। यदि कोई मुझसे प्रेम करना चाहता हो, तो उसे पहले मेरे कुत्ते को प्रेम करना होगा। यहाँ पर स्वामीजी का कथन प्रभु ईसा मसीह के जीवन की इस घटना (निम्नोक्त) का भी स्मरण करा देती है।
["So
when they had eaten breakfast Jesus said to Simon Peter, 'Simon, son of Jonah,
do you love Me more than these?' And he said to Him, 'Yes Lord, You know that
I love You.'
And He said to him, 'Feed My lambs.'
And He said to him again a second time 'Si, do you love Me?' and Peter was grieved
because He said this to him a thmon, son of Jonah, do you love
Me?' And he
said to Him 'Yes Lord, You know that I love You.' And He said to him 'Tend My sheep.' And He said to him a third time 'Simon, son
of Jonahird time, 'Do you love Me?' And he said to Him 'Lord, You know all
things, You know that I love You.' And Jesus said to him, 'Feed My sheep.' John 21:15-17]
यदि हमलोग इस जीवन में ' ठाकुर देव ' के दास के दास के दास का दासत्व भी प्राप्त कर सकें, तो हमारा जीवन धन्य हो जायेगा। प्रार्थना की जाती है- " तद् दासदासदासानां दासत्वं देहि मे प्रभो !" अर्थात हे प्रभु, तुम अपने दास के दास के दास का दासत्व करने की शक्ति मुझे दो ! स्वामीजी बिल्कुल इसी बात को यहाँ कह रहे हैं। वे स्वयं को मानो ठाकुर के पालतू (अधीन रहने वाला) कुत्ता जैसा समझ रहे हैं। इसीलिये यदि ठाकुर से प्रेम करना चाहते हो, तो मुझे प्रेम करो। क्योंकि,प्रभु सभी समय मेरे साथ हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है, कि वे यहाँ अपने को बड़ा सिद्ध करना चाह रहे हैं।
बल्कि वे कह रहे हैं, मैं उनके दास के दास के दास के दास का दासत्व की मांग करने वाला भिखारी हूँ, मेरे साथ प्रभु सभी समय हैं। इसीलिये, "यदि चाहते हो, तो मेरा अनुसरण करो।" 'यदि चाहते हो'- का तात्पर्य है, यदि तुम भी प्रभु के कार्य को आगे ले जाना चाहते हो, तो मेरे पास आओ, अर्थात मेरा अनुसरण करो।
बल्कि वे कह रहे हैं, मैं उनके दास के दास के दास के दास का दासत्व की मांग करने वाला भिखारी हूँ, मेरे साथ प्रभु सभी समय हैं। इसीलिये, "यदि चाहते हो, तो मेरा अनुसरण करो।" 'यदि चाहते हो'- का तात्पर्य है, यदि तुम भी प्रभु के कार्य को आगे ले जाना चाहते हो, तो मेरे पास आओ, अर्थात मेरा अनुसरण करो।
और यदि हमलोग स्वामीजी का अनुसरण करना चाहते हों, तो हमें क्या करना होगा? तीन चीजों का पालन करना होगा। उनके पास बिल्कुल एकनिष्ठता की पराकाष्ठा को लेकर आना पड़ेगा। यदि मुझको पकड़ना चाहते हो, अर्थात मेरे साथ जो प्रभु सभी समय हैं- उनको पकड़ना चाहते हो; उनको पकड़ने से तात्पर्य है, उनके भाव को पकड़ना चाहते हो। अर्थात प्रभु के भाव को ग्रहण करना चाहते हो, तो प्रभु का भाव ग्रहण करने के लिये, निष्ठा की पराकाष्ठा रहनी चाहिये। अर्थात उनके प्रति भक्ति में टुकड़ी भर भी खोट नहीं रहनी चाहिए।
उनके प्रति विशुद्ध भक्ति को लेकर आना पड़ेगा। दृढ़ निष्ठा,और पूर्ण निःस्वार्थता अनिवार्य है -टुकड़ी भर भी स्वार्थपरता रहने से कोई मेरा अनुसरण नहीं कर सकता है-अर्थात उनके पास नहीं पहुँच सकता है। यह सब भी मानो छोटी बातें हैं। इन सबसे परे, या इनके उपर पवित्र होना होगा। अपवित्रता का लेशमात्र रहने से कुछ भी नहीं प्राप्त होगा। " मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है।" या वर्षित हो रहा है, या वर्षित हो। " इस छोटे से जीवन में परस्पर परस्पर को शब्बासी देने या शिकायत करने के लिये हमलोगों के पास समय नहीं है।" इसका अर्थ यह हुआ कि - 'मैं-पन' के भाव को लेकर बैठे रहने का थोड़ा भी समय नहीं होगा। आत्मतुष्टि के लिये कोई समय नहीं होगा। युद्ध समाप्त हो जाने के बाद हमलोग जी भरकर, यथा संभव एक दूसरे की प्रशंसा कर सकते हैं, वाहवाही का आदान-प्रदान कर सकते हैं। अभी बातें बनाना बन्द करो। केवल काम,काम, काम। वाहवाही की बात या अन्य समस्त अप्रसांगिक बातें बन्द करनी होंगी। बकवास सुनने का समय नहीं है। जो इस कार्य को सिद्ध नहीं करता है, या नहीं कर सकता है, वह कार्य का जिक्र भी नहीं करे। जिस बात को तुम स्वयं नहीं समझ सकते, उस बात को दूसरों को समझाने का प्रयत्न नहीं करो। इस प्रकार की बातों को बन्द करने के लिये कहे हैं। एक कच्चे कार्य का मूल्य भी बीस मन बातों के समान है। उसी प्रकार, केवल कार्य होने से वह लड़खड़ाता कर गिर पड़ेगा। कार्य के भीतर ज्ञान-भक्ति रहेगी, पूरे मनोयोग के साथ कार्य करना होगा।
उनके प्रति विशुद्ध भक्ति को लेकर आना पड़ेगा। दृढ़ निष्ठा,और पूर्ण निःस्वार्थता अनिवार्य है -टुकड़ी भर भी स्वार्थपरता रहने से कोई मेरा अनुसरण नहीं कर सकता है-अर्थात उनके पास नहीं पहुँच सकता है। यह सब भी मानो छोटी बातें हैं। इन सबसे परे, या इनके उपर पवित्र होना होगा। अपवित्रता का लेशमात्र रहने से कुछ भी नहीं प्राप्त होगा। " मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है।" या वर्षित हो रहा है, या वर्षित हो। " इस छोटे से जीवन में परस्पर परस्पर को शब्बासी देने या शिकायत करने के लिये हमलोगों के पास समय नहीं है।" इसका अर्थ यह हुआ कि - 'मैं-पन' के भाव को लेकर बैठे रहने का थोड़ा भी समय नहीं होगा। आत्मतुष्टि के लिये कोई समय नहीं होगा। युद्ध समाप्त हो जाने के बाद हमलोग जी भरकर, यथा संभव एक दूसरे की प्रशंसा कर सकते हैं, वाहवाही का आदान-प्रदान कर सकते हैं। अभी बातें बनाना बन्द करो। केवल काम,काम, काम। वाहवाही की बात या अन्य समस्त अप्रसांगिक बातें बन्द करनी होंगी। बकवास सुनने का समय नहीं है। जो इस कार्य को सिद्ध नहीं करता है, या नहीं कर सकता है, वह कार्य का जिक्र भी नहीं करे। जिस बात को तुम स्वयं नहीं समझ सकते, उस बात को दूसरों को समझाने का प्रयत्न नहीं करो। इस प्रकार की बातों को बन्द करने के लिये कहे हैं। एक कच्चे कार्य का मूल्य भी बीस मन बातों के समान है। उसी प्रकार, केवल कार्य होने से वह लड़खड़ाता कर गिर पड़ेगा। कार्य के भीतर ज्ञान-भक्ति रहेगी, पूरे मनोयोग के साथ कार्य करना होगा।
अर्थात चारो योग का समन्वय करके कार्य करने की बात स्वामीजी बार बार कहते हैं-उसी प्रकार से कर्म करने की आवश्यकता भी है।
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