' एक-बग्गा मनुष्य चार योगों में समन्वय से देव-मानव में रूपान्तरित होगा'
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " समाज में हमलोग अधिकतर एक-बग्गा आदमी (one sided या एक पक्षीय) लोगों को ही देखते हैं। उनका अपना रुझान जिस दिशा में होता है, वे उसी पथ को श्रेष्ठ समझते हैं। अन्य मार्ग पर चलने वालों के बारे में उनकी धारणा अच्छी नहीं होती। उनके मतानुसार, उनके द्वारा निर्वाचित मार्ग ही एकमात्र अनुसरण करने योग्य होता है। कभी कभी वे लोग ऐसा दावा भी करते हैं, कि अन्य मार्ग पर चलने वाले गलत हैं।" स्वामी विवेकानन्द बार बार कहते हैं, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और राजयोग-इन चार मार्गों में से कोई एक, दो, तीन या सभी की सहायता से यदि हमलोग अपनी अन्तःप्रकृति और बाह्यप्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकें, तो वही हमलोगों के लिये विकास का सर्वश्रेष्ठ उपाय होगा।
सबसे पहले हमें अपने अन्तर्जगत को प्रशिक्षित करना होगा। उसके उपर प्रभुत्व विस्तार करने में सक्षम होने से ही हमलोग अपने बाह्य प्रकृति के उपर भी प्रभुत्व विस्तार करने में समर्थ हो जायेंगे। तभी हमलोग जिस किसी भी कार्य में युक्त होने की योग्यता अर्जित कर पायेंगे। स्वामीजी ने कहा है, इन चारों योग का जो श्रेष्ठ भाव है, वह परिपूर्ण रूप में और समान रूप में जिसके भीतर विकसित होता है, उन्हीं को आदर्श मनुष्य कहते हैं। स्वामीजी इस प्रकार के मनुष्य को देखना चाहते थे।
इसीलिये हमलोग यदि स्वामीजी के आदर्श साँचे में ढला हुआ मनुष्य बनने की चेष्टा कर रहे हों, तो अपने देह-मन-हृदय के परिपूर्ण विकास के उपाय के रूप में यदि इन चार योग मार्गों का समन्वित प्रयोग कर सकें, तभी सबसे अच्छा परिणाम प्राप्त हो सकता है। मनुष्य के देह-मन-हृदय (3H) के सन्तुलित प्रवर्धन के फलस्वरूप ही मनुष्य का पशुभाव दब जाता है, और दिव्य भाव विकसित हो जाता है।
इसीलिये हमलोग यदि स्वामीजी के आदर्श साँचे में ढला हुआ मनुष्य बनने की चेष्टा कर रहे हों, तो अपने देह-मन-हृदय के परिपूर्ण विकास के उपाय के रूप में यदि इन चार योग मार्गों का समन्वित प्रयोग कर सकें, तभी सबसे अच्छा परिणाम प्राप्त हो सकता है। मनुष्य के देह-मन-हृदय (3H) के सन्तुलित प्रवर्धन के फलस्वरूप ही मनुष्य का पशुभाव दब जाता है, और दिव्य भाव विकसित हो जाता है।
ज्ञानयोगी - ज्ञानी सदसत ( नित्य-अनित्य या खरा-खोटा) का निर्णय करके असत्य का अपवर्जन करके सत्य में अवस्थित हो जाते हैं। नेति-नेति विवेक प्रयोग करके बहुत्व में एकत्व को देखने का पथ, विवेक-विचार करके कौन सा चिरस्थायी होगा, इसका निर्णय करके समस्त क्षणभंगुर वस्तुओं के प्रति मोह का त्याग करके, जो चिरस्थायी, सनातन, शाश्वत,सत्य, हो उसे प्राप्त करने के पथ का अनुसरण करता है।राजयोगी कहते हैं, मन ही समस्त शक्ति का आधार है। मन के उपर पूर्ण अधिकार स्थापित करके, मन की चंचलता को यदि पूर्ण रूप से दूर कर सकें, तो उस अचंचल समाहित मन मन में सत्य स्वयं ही प्रतिफलित होगा।
भक्तियोगी कहते हैं, नेति-नेति करके ज्ञान-विचार करने की जरूरत नहीं है, प्राणायाम आदि जैसे मन को प्रशिक्षित करने वाले कठोर नियमों की प्रक्रिया का अभ्यास करने की भी आवश्यकता नहीं है। मैं तो केवल उस परम प्रेममय के स्वरूप का अनुभव करने के लिये अपने हृदय को उन्मुक्त रखूँगा, जिसे विभिन्न सम्प्रदाय के लोग कृष्ण, काली, अल्ला, गॉड आदि विभिन्न नामों से पुकारते और उपासना करते हैं। जो मेरे हृदय में प्रियजनों के प्रति प्रेम संचारित कर रहे हैं, मैं उनको सर्वत्र सभी जीवों के भीतर अनुभव करना चाहता हूँ। अपने हृदय को विशाल बनाकर उनके प्रति सर्वग्रासी प्रेम की बाढ़ में मैं डूब जाना चाहता हूँ। उन प्रेममय की प्रसन्नता को प्राप्त करके, मेरा सीमित प्रेम असीम होकर अनन्त में मिल जायेगा। विश्व के समस्त मनुष्यों का आलिंगन करके जीवन की परिपूर्णता का अनुभव करके उसी सत्य में प्रतिष्ठित हो जाऊंगा। प्रेम के सहज मार्ग से सत्यस्वरूप को प्राप्त करूँगा। कर्मयोगी और एक दूसरे प्रकार के मनुष्यों का दल है, जो यह कहता है कि इनमें से किसी पथ का अवलम्बन हम नहीं करना चाहते, इनमें से कोई मार्ग हमें अच्छा नहीं लगता है। नेति-नेति विचार, मन को प्रशिक्षित करने की जटिल प्रक्रिया, या हृदय की वृत्ति को चरम तक प्रसारित करने का मार्ग, इनमें से कोई भी मार्ग हमारी अभिरुचि से मेल नहीं खाता।
हमलोगों के भीतर स्वाभाविक रूप से जो कर्म करने की प्रवृत्ति है, उसी के द्वारा हमलोग सत्य की प्राप्ति करेंगे। क्योंकि हमलोगों के भीतर जो कर्मशक्ति है, उसका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य है। हमलोग इसके द्वारा भी तो जीवन की सार्थकता या परिपूर्णता प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार जब यह अन्वेषण करने की चेष्टा की गयी कि कर्म के द्वारा परमानन्द की प्राप्ति कैसे होगी ?
तब यह पाया गया कि अपने भोग-सुख के लिये, धन-संपत्ति में वृद्धि करने के लिये जो कर्म किये जाते हैं, उससे मनुष्य को वास्तविक संतोष नहीं मिलता है। बल्कि दूसरों के कल्याण के लिये, दूसरों के हित के लिये अपने स्वार्थ की बली चढ़ा कर जो कर्म किये जाते हैं, उससे अपार आनन्द की प्राप्ति होती है, सार्वभौमिक एकात्मता की अनुभूति होने से असीम आनन्द की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार जब यह अन्वेषण करने की चेष्टा की गयी कि कर्म के द्वारा परमानन्द की प्राप्ति कैसे होगी ?
तब यह पाया गया कि अपने भोग-सुख के लिये, धन-संपत्ति में वृद्धि करने के लिये जो कर्म किये जाते हैं, उससे मनुष्य को वास्तविक संतोष नहीं मिलता है। बल्कि दूसरों के कल्याण के लिये, दूसरों के हित के लिये अपने स्वार्थ की बली चढ़ा कर जो कर्म किये जाते हैं, उससे अपार आनन्द की प्राप्ति होती है, सार्वभौमिक एकात्मता की अनुभूति होने से असीम आनन्द की प्राप्ति होती है।
भगवान श्री कृष्ण ने कहा है, ' समस्त कर्म ज्ञान में समाप्ति या परिणति को प्राप्त होते हैं। ' निःस्वार्थ कर्म में अत्मनियोग करके कर्म-योगी भी उसी सत्य की उपलब्धी करते हैं, जिस सत्य का आस्वादन प्रेमी-भक्त लोग भगवत-प्रेम के मार्ग पर चल कर प्राप्त करते हैं। नेति-नेति का विवेक-प्रयोग करके शाश्वत और क्षणभंगुर में से नित्य वस्तु का चयन करने वाले, विचारशील साधक भी ज्ञान-विचार के पथ से उसी सत्य में उपनीत हो जाते हैं। राज-योगी मन को साधने या मनःसंयम की प्रक्रिया का अवलम्बन करके अपने हृदय की गुफा में उसी सत्यस्वरूप का आविष्कार करते हैं।
स्वामीजी कहते हैं, सत्य का अन्वेषण करने के इन चारों मार्गों का जो व्यक्ति एक समान रूचि रखते हुए अनुसरण कर सकता है, जो सभी मार्गों से चल कर उसी परम सत्य का आस्वादन करने में समर्थ है, वही आदर्श पुरुष है। इसी बात को श्रीरामकृष्ण देव विभिन्न प्रकार से मछली पकाने की कला का उदाहरण देकर, या चीनी से बने विभिन्न आकार के मिठाइयों की उपमा देकर कहते थे-सत्य की मिठास का अस्वादन एक प्रकार से क्यों करूँगा ? सभी प्रकार से उनका अस्वादन करूँगा। रस-स्वरूप का आस्वादन-विविधता के प्रसंग में उन्होंने सहनाई के विविध स्वर-तरंगों का स्मरण भी किया था।
अपने जीवन के इस छोटे से दायरे में, हमलोग स्वामीजी के निर्देशानुसार बहुत्व में एकत्व का दर्शन करने या विवेक-प्रयोग (ज्ञान-विचार या नेति-नेति विचार ) करने, राजयोग या मनःसंयम की प्रक्रिया का अभ्यास करने, प्रेम या हृदय-वृत्ति का प्रसार करने तथा कर्मयोग के बीच एक प्रकार का समन्वय स्थापित करने की चेष्टा करेंगे। केवल किसी एक मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति की अपेक्षा, जीवन के समग्र पहलुओं के विकास का मार्ग निश्चित रूप से श्रेष्ठ है।
मैं एक हृदयवान मनुष्य हूँ, भले-बुरे सभी मनुष्यों के प्रति सहानुभूति रखता हूँ, सबों से प्रेम कर सकता हूँ। किन्तु यदि कर्म के विषय में पारदर्शी सोच नहीं रखता, अपने स्वार्थ की बली नहीं चढ़ा सकता, तो जब इसकी आवश्यकता होगी, तब मनुष्यों के दुःख को दूर करने के लिये मैं जो प्रयत्न करूँगा उसमें सफलता नहीं मिलेगी। यदि मेरा मन अशान्त बना रहता हो, तब मेरा निर्णय पारदर्शी नहीं हो सकता, और मैं किसी आर्त मनुष्य की सेवा सच्चे अर्थों में सेवा भी नहीं कर सकता। इसीलिये मन को संयमित करने, एकाग्र करने और मन की शक्ति के द्वारा समस्त बातों का सही रूप से विश्लेषण करके देखने की क्षमता को बढ़ाना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा होने से ही मनुष्यों के दुःख में कमी लाने के लिये मेरे द्वारा किया जाने वाला प्रयत्न बेहतर हो सकेगा। उसी प्रकार कुछ भी सोचने,बोलने या करने के पहले विवेक-प्रयोग के द्वारा यह निश्चित नहीं कर लूँगा कि वे श्रेय हैं या प्रेय हैं ? मेरे चरित्र के गुणों में उन्नति के द्वारा मुझे अपना जीवन-गठित करने में सहायता देंगे या नहीं ? इसे समझने के लिये और अपनी तर्कशक्ति बढ़ाने के लिये ज्ञान का अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है।
हमलोग अपने ज्ञान या विवेक-शक्ति को बढ़ाने के लिये कठोर वेदान्तीयों के जैसा नाले का जल और गंगा के जल को एक मानने की चेष्टा भी नहीं करेंगे। हमलोग जिस सहज मार्ग को ग्रहण करेंगे, वह है अध्यन करना। हमलोग स्वामी विवेकानन्द के सन्देश और साहित्य का अध्यन और विवेचना करने को अपने जीवन में सर्वोच्च स्थान देंगे। विवेकानन्द साहित्य का लगातार अध्यन करते रहने से विवेक-प्रयोग करने की क्षमता में वृद्धि होती है। यही है ज्ञान मार्ग। स्वामीजी की जीवनी और सन्देश की विवेचना करने के हमलोग विवेक-प्रयोग की क्षमता या बहुत्व में एकत्व का दर्शन करने की क्षमता को बढ़ाते रहेंगे। हमलोग मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा मन में उसी प्रशान्ति को लाने की चेष्टा करेंगे, नहीं तो हमलोगों का निर्णय-क्षमता या विवेक-प्रयोग में गलती भी हो सकती है। विवेक क्षमता के अभाव में हमलोगों के हृदय से प्रेम उत्सर्जित होने पर भी उसको कर्म में परिणत नहीं कर पाएंगे।
निरन्तर यम-नियम का पालन और प्रतिदिन दो बार मनःसंयोग का अभ्यास करके अपनी इच्छशक्ति को प्रबल बना लेंगे। ताकि दूसरों के प्रति जिस सहानुभूति का अनुभव करता हूँ, वह मेरे हृदय को विशाल बना दे। हमलोग नाना प्रकार के समाज-कल्याणकारी कार्यों में आत्मनियोग करेंगे। नाम,यश या अन्य किसी तात्कालिक लक्ष्य को मन में छुपाकर समाज-सेवा का कार्य नहीं करेंगे। हमलोगों द्वारा किये जाने वाले सेवा-कार्यों का उद्देश्य होगा समाज के कल्याण के साथ ही साथ अपने भीतर मनुष्यत्व की जागृति, चरित्र की ऊंचाई; देह, मन और हृदय के विकास के द्वारा पशुत्व को दबाकर देवत्व प्राप्ति के पथ पर अग्रसर होना। इसी प्रकार सहज रूप में चारों योग का समन्वय किया जा सकता है।
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