" अपने मिथ्या अहंकार को भी '0 V' (zero potentiality तक ले जाओ! "
[नहीं तो गतिज (kinetic-पुनर्जन्म) होने की प्रवणता बनी रहती है।]
स्वामी विवेकानन्द की इस उक्ति- " समस्त जगत का सबसे बड़ा महापाप है- बहुत्व के अस्तित्व सच समझना, अथवा अपने-पराये का भेद देखना। सभी को अपने ही जैसा देखो और सभी से प्रेम करो, भिन्नत्व के समस्त विचार लुप्त हो जाएँ।" का तात्पर्य हमें अनासक्ति के भीतर ही ढूँढना पड़ेगा। हमलोग समस्त कार्यों को अनासक्त होकर करेंगे। सभी कर्मों को भगवान को अर्पित करेंगे। किस प्रकार, किस बुद्धि से अर्पित करते हैं ? हमें इस प्रकार विवेक-विचार करना होगा कि वे ही समस्त घटनाओं के निदेशक (director) हैं। वे अन्तर्यामी हैं, वे हमारे ही भीतर अवस्थित रहकर हमलोगों को चला रहे हैं। स्रष्टा का अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने ही सब कुछ का निर्माण किया है, या उन्होंने इस जगत की रचना की है। जो लोग ऐसा सोचते हैं, उनमे ऐसे विचार द्वैत बुद्धि से उत्पन्न होते हैं। हमलोग की मान्यता है कि परब्रह्म परमेश्वर ही इस जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत के निमित्त और उपादान कारण हैं। वे ही efficient cause हुए हैं, फिर 'material cause' भी वे ही बने हैं, - निमित्त कारण या efficient cause का तात्पर्य है जिस कारण के रहने से कोई कार्य सिद्ध होता है, तथा material cause या उपादान कारण का अर्थ है जिस उपादान से कोई वस्तु निर्मित होती है। अर्थात जिस प्रकार वे विश्वब्रह्माण्ड, जगत के स्रष्टा हैं, उसी प्रकार उन्होंने स्वयं के द्वारा ही उसे गढ़ा भी है।
" यथोर्णाभिः सृजते गृहणते च ...
तथा अक्षरात् सम्भवति इह विश्वम् ।। (मुण्डकोपनिषद1/7) "
जिस प्रकार मकड़ी अपने पेट में स्थित जाले को बाहर निकाल कर फैलाती है और फिर उस जाले को निगल जाती है, उसी प्रकार वह परब्रह्म परमेश्वर अपने अन्दर सूक्ष्मरूप से लीन हुए जड़-चेतनरूप जगत को सृष्टि के आरम्भ में नाना प्रकार से उत्पन्न करके फैलाते हैं, और प्रलयकाल में पुनः उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं। (गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यह्म्।। (गीता 9/7 )
-हे अर्जुन, कल्पक्षये यानि प्रलय के समय समस्त भूत मेरी सत्व,रज,तम गुणात्मिका प्रकृति (कारणता) में विलीन हो जाते हैं। पुनः कल्प के आरम्भ में - मैं योगमाया की सहायता से स्थूल-सूक्ष्म आदि रूप से समस्त भूतों की सृष्टि करता हूँ।)
समस्त सृष्टि उन्हीं की रचना है, उन्हीं का विस्तार है, या उन्हीं की अभिव्यक्ति है; फिर वे ही उसका संकुचन (संघार) कर लेते हैं। वे ही जगत बने हैं, फिर उनके ही भीतर सब कुछ लय हो रहा है।अर्थात वे एक और आद्वितीय हैं, एक ही अनेक के रूप में दिख रहा है। इसीलिये समस्त कार्य उन्हीं के कार्य हैं; यदि कोई कर्तव्य है, तो वह भी उन्हीं का है।
[यह जो एक का अनेक नाम-रूपों में दिखना है-क्या सचमुच एक वस्तु दूसरी वस्तु बन गयी है? जैसे दूध का दही बन जाता है ? दूध उपादान कारण है, जोरन निमित्त कारण तो दही (जगत) क्या है ? आचार्य शंकर कहते हैं, जगत ब्रह्म का परिणाम नहीं है विवर्त है। रज्जू में सर्प दिख रहा है। ब्रह्म ही जगत बने हैं, किन्तु हम जब जगत (सर्प) देखते हैं, तब ब्रह्म (रज्जू) नहीं दीखता। ब्रह्म और जगत का युगपत दर्शन करना हो - तो शिव ज्ञान से जीव सेवा करना होगा। ]
जगत में जैसे ही ' कॉज़ैलिटी' (Causality) कारण-कार्य सम्बन्ध (योगमाया-जोरन)
को जोड़ दिया गया, उसी समय यह सृष्टि अस्तित्व में आ गयी ! किन्तु वे
(ब्रह्म) किसी causality-के भीतर नहीं हैं, [अर्थात ब्रह्म कारणता के परे
हैं] किन्तु यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड इन्हीं तीनों - Space (देश),
time (काल) और causality निमित्त (कारण-कार्य सिद्धान्त) की सीमा के
भीतर है, इसके बाहर कुछ भी नहीं है। इन्हीं तीनों के भीतर वह relative
world (सम्बंधयुक्त जगत या सापेक्षिक जगत) है, जिसे सब कुछ के साथ तुलना
(मिलान comparison) कर के समझना पड़ता है। जिस प्रकार सादा का अर्थ काला नहीं है, लाल नहीं है - उसी प्रकार 'नानात्व' जैसा कुछ नहीं है। पुनः जिस प्रकार प्रकाश के कई विविध रंगों (सात रंग) का योगफल है सादा। जैसे सोझा (straight) का अर्थ यह हुआ कि वह वक्र (बंका
curved) नहीं है। ठीक उसी प्रकार एक के साथ और एक (दूसरा) लिप्त (फँसा
involve) है, या एक के उपर और एक (दूसरे) का अस्तित्व निर्भर करता है।
किन्तु वह परब्रह्म परमेश्वर, सत्य या भगवान, उनको हम चाहे जिस नाम से भी
क्यों न पुकारें, वे सदैव इस causality -के बाहर रहते हैं। जैसा की स्वामी विवेकानन्द ने एक कविता में गाया है - ''देशरहित कालरहित नेति नेति विराम जहाँ ! ' (एक ऐसी सत्ता जिसका नाम, रूप वर्ण कुछ भी नहीं है, जो देश-काल निमित्त से परे है, जिस अवस्था में 'नेति नेति ' का विचार (विवेक-प्रयोग) समाप्त हो जाता है, এক সত্তা, যাঁহার নাম রূপ বর্ণ কিছুই নাই, যিনি দেশকালের অতীত, যেখানে 'নেতি নেতি' বিচার শেষ হইয়াছে।)
सृष्टि
एक रूप, अरूप-नाम-बरन, अतीत-आगामी-कालहीन,
देशहीन, सर्वहीन, 'नेति नेति' विराम जहाँ।
वहीं से होकर बहे कारण-धारा,
धार की वासना वेश उजाला,
गरज गरज उठता है उसका वारि,
'अहमहमिति' सर्वमिति सर्वक्षण।।
उसी अपार इच्छा-सागर माँझे
अयुत अनन्त तरंगराजे
कितने रूप, कितनी शक्ति,
कितनी गति-स्थिति किसने की गणना।।
कोटि चन्द्र, कोटि तपन
पाते उसी सागर में जन्म,
महाघोर रोर गगन में छाया
किया दश दिक् ज्योति-गगन।।
उसीमें बसे कई जड़-जीव-प्राणी,
सुख-दुःख, जरा, जनम-मरण,
वही सूर्य जिसकी किरण, जो है सूर्य वही किरण।।
[একরূপ, অ-রূপ-নাম-বরণ, অতীত-আগামি-কাল-হীন,
দেশহীন, সর্বহীন, 'নেতি নেতি' বিরাম যথায় !!১
সেথা হ'তে বহে কারণ-ধারা
ধরিয়ে বাসনা বেশ উজালা,
গরজি গরজি উঠে তার বারি,
'অহমহমিতি' সর্বক্ষণ ।। ]
দেশহীন, সর্বহীন, 'নেতি নেতি' বিরাম যথায় !!১
সেথা হ'তে বহে কারণ-ধারা
ধরিয়ে বাসনা বেশ উজালা,
গরজি গরজি উঠে তার বারি,
'অহমহমিতি' সর্বক্ষণ ।। ]
इसीलिये जो व्यक्ति इस सृष्टि रहस्य को जान लेगा वह इस जगत में 'मुक्त-पुरुष' बन कर कार्य करेगा- अर्थात अब वह जो कुछ भी कार्य करेगा उस कार्य को स्वाधीन (unattached) या अनासक्त होकर कार्य करेगा। मुक्त पुरुष वह है, जिसे इसी जीवन में ईश्वर और जगत के साथ एकात्मबोध हो चुका है; उसके लिये अब वैयक्तिक-अस्तित्व (क्षुद्र मैं) जैसा कुछ नहीं रह जाता है। उसको सारे नाम-रूप उसी एक परब्रह्म परमेश्वर के ही विविध नाम-रूप अनुभव होंगे,अब उसमें 'मेरा ' कहने लायक कुछ नहीं बचेगा। इसीलिये अब वह जगत के समस्त कर्मों को अनासक्त होकर करने में समर्थ बन जायेगा। सबकुछ 'तूँ और तेरा ' है, सभी कर्म ' तेरे' कर्म हैं- ऐसी बुद्धि से कार्य कर सकेगा। इस प्रकार अनासक्त होकर कर्म करने से समस्त कर्म स्वतः उनमें समर्पित हो जायेंगे। क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का तो अस्तित्व है ही नहीं !
पृथ्वी
की potentiality (अन्तः शक्ति या विभव) शून्य या 'zero' है,[Why the
earth,In electrical point; is zero potential (0 V)? ] इसीलिये वज्र
(Thunderbolt) की समस्त विद्युत् को पृथ्वी अपने भीतर सोख लेती है। किसी
वस्तु में potentiality (स्थितिज उर्जा या विभव) यदि अधिक होगी तो वह हर
समय कम विभव की तरफ जाने की चेष्टा करेगी। किन्तु पृथ्वी शून्य
विभव-विशिष्ट है, इसीलिये यहाँ से कहीं और जाने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
इसके विभव में घटना-बढ़ना नहीं होता। उसी प्रकार भगवान (माँ काली ) समस्त
कर्म, शक्ति, वस्तु, समय (काल) को भी अपने भीतर खींच (निगल) सकते हैं।
इसलिये समस्त कर्मों को उसी बुद्धि से करना होगा। क्योंकि भगवान को देने
योग्य हमलोगों के पास कुछ भी नहीं है। भगवान क्या इतने गरीब हैं, कि कर्म
करके उनको देंगे ? ' To give unto God '- (भगवान को समर्पित करो ) ऐसा कहना
केवल कहने भर के लिये है। वे सभी कुछ के ग्राही (स्वीकारकर्ता) हैं !
इसीलिये समस्त कर्म उन्हीं में चले जाते हैं।
जैसे किसी टंकी में पम्प
लगाकर जल भर दिया जाय, और समस्त नलों को बन्द रखा जाय तो ऐसा प्रतीत होता
है, मानो जल अब नीचे नहीं उतरेगा। किन्तु यदि कहीं का एक भी नल थोड़ा ढीला
रह गया तो पानी अपने आप गिरने लगता है। इसीलिए जबतक वह 'गतिजमें' या कार्य
में परिणत नहीं होता, या जबतक शक्ति (ऊर्जा) समाप्त नहीं होती, उसके नीचे
उतरने, चलने या प्रवाहित होने की सम्भावना या रुझान (प्रवृत्ति) बनी रहेगी।
जैसे जल को यदि सबसे निचले स्थान में संचित कर लिया जाय तो उसके फिर और
नीचे गिरने की सम्भावना नहीं रहती है। उसी तरह जब तक वह (हमारा अहं) zero potentiality तक नहीं पहुँच जाता, तब तक उसके
भीतर kinetic या गतिज होने की प्रवणता बनी रहती है।
सत तो केवल मात्र एक है, अज्ञानी लोग उसे ही जगत कहा करते हैं। ..जब पूर्ण ज्ञान का उदय होता है तो सारा भ्रम उड़ जाता है और तब मनुष्य देखता है कि यह सब आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 'मैं वही एक सत्ता हूँ ' - यही अन्तिम निष्कर्ष है।
वह एक सत्ता माया के प्रभाव से बहु रूप में दिखाई पड़ रही है, जिस प्रकार अज्ञान वश रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है। ...हम सब जन्म से ही अद्वैत-वादी हैं, इस बात से भागने का उपाय नहीं है। जब हम रस्सी को देखते हैं, तब साँप बिलकुल नहीं देखते- जब तुमको भ्रम का दर्शन हो रहा होता है, उस समय तुम सत्य को नहीं देख सकते।
जब तुम अपने को देहरूप में देखते हो, तब तुम देह मात्र हो, और कुछ नहीं हो, तथा जगत के अधिकांश मनुष्यों को ही इसी प्रकार की उपलब्धी होती है। वे आत्मा, मन आदि बातें मुँह से कह सकते हैं, किन्तु देखते हैं, यह स्थूल भौतिक आकृति ही-स्पर्श,दर्शन, आस्वाद इत्यादि। (6/291-92)'
' दूसरे की देह कौन देखता है ? जो अपने को देह समझता है। जिस क्षण तुम देहभाव-रहित होगे, उसी क्षण फिर तुम जगत नहीं देख पाओगे। वह चिर काल के लिये अन्तर्हित हो जायेगा। भला-बुरा कौन देखता है ? वही जिसके निज के भीतर भला-बुरा बना हुआ रहता है। ज्ञानी केवल बौद्धिक विचार स्वीकृति के बल से इस जड़-बन्धन से 'चिज्जड़-ग्रन्थि ' से अपने को विच्छिन्न करते हैं। यही नेति-नेति मार्ग है। '(6/299)
*" एक दिन ऐसा आयेगा, जब राष्ट्र नामक कोई वस्तु नहीं रह जायगी -राष्ट्र राष्ट्र का भेद दूर हो जायेगा। वास्तव में, हम सबके बीच भ्रातृ-सम्बन्ध स्वाभाविक ही है, पर हम सब इस समय पृथक हो गये हैं। ऐसा समय अवश्य आएगा, जब ये सब भेद-भाव लुप्त हो जायेंगे, प्रत्येक व्यक्ति वैज्ञानिक तथ्यों के ही समान अध्यात्मिक तथ्यों में भी तीव्र रूप से व्यवहार-कुशल हो जायेगा। और तब वह एकत्व, वह समन्वय समस्त जगत में व्याप्त हो जायेगा। तब सारी मानवता जीवन्मुक्त हो जाएगी। अपनी इर्ष्या,घृणा, मेल और विरोध में से होते हुए हम उसी एक लक्ष्य की ओर संघर्ष कर रहे हैं। " (2/146) ]
' अब प्रश्न यह कि -'यह स्वप्न किस प्रकार भंग हो कि हम क्षुद्र क्षुद्र नर-नारी इत्यादि हैं ? यह जो स्वप्न है-इससे किस प्रकार हम जागेंगे ? मन और इन्द्रियों की यह गुलामी हटेगी कैसे ? -सत्य को पहले (गुरु-मुख से ) सुनना होगा, फिर उसपर मनन करना होगा, उसके पश्चात् उसका निदिध्यासन अर्थात ध्यान करना होगा। अर्थात उसके (गुरु-मन्त्र के) तात्पर्य को निरन्तर दृढ़ करते रहना होगा। हमेशा सोचो-' हम ब्रह्म हैं - I am He ' अन्य सब विचारों को दुर्बलता जनक मानकर, दूर कर देना होगा। जिस किसी विचार से तुमको अपने नर-नारी होने का ज्ञान होता है, उसे दूर कर दो। हमारे अतिरिक्त जब और कुछ भी नहीं है, तब हमें भय दिखायेगा कौन ?
[
Potential Energy-किसी वस्तु में उसकी अवस्था या स्थिति के कारण कार्य
करने की क्षमता को स्थितिज ऊर्जा कहते हैं। जैसे- बाँध बना कर इकट्ठा किए
गए पानी की ऊर्जा, घड़ी की चाभी में संचित ऊर्जा, तनी हुई स्प्रिंग या
कमानी की ऊर्जा। Kinetic Energy- किसी वस्तु में कार्य करने से गति के कारण
जो ऊर्जा आ जाती है, उसे उस वस्तु की गतिज ऊर्जा कहते हैं।]
मनुष्य भी हर समय उसी ओर जाने की चेष्टा कर रहा है। वह जाने-अनजाने एक ऐसे स्थान पर जाने की चेष्टा कर रहा है, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़े। इसी को मुक्ति कहते हैं। वहाँ पहुँच जाने के बाद और चलना नहीं पड़ेगा, फिर से जन्म लेना नहीं पड़ेगा। समस्त व्यक्ति या वस्तु हर समय उसी अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़ेगा, जहाँ उसके लिये फिर से कर्म करने की सम्भावना नहीं रहती, जहाँ वह बिल्कुल निष्कर्म हो जाता है।
अतएव ऐसा नहीं है कि देह,मन और आत्मा-इन तीन अलग अलग वस्तुओं की समष्टि-एक
स्थान में विद्द्यमान है- किन्तु '3H ' इस प्रकार की व्याख्या करके समझाना
सुविधाजनक था- किन्तु सब वही आत्मा है तथा वह एक सत ही विभिन्न दृष्टियों
के अनुसार कभी देह, कभी मन अथवा कभी आत्मा के रूप में अभिहित हुआ करता है।
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में matter (वस्तु) एवं energy (शक्ति)
में कोई अंतर नहीं है। पदार्थ का रूपांतरण उर्जा में हो सकता है, उसी तरह
उर्जा energy को भी matter या पदार्थ में रूपान्तरित किया जा सकता है। वस्तु की अवस्था में रहने से 'सृष्टि' कहते हैं, उसी समय नानात्व या अनेकता दृष्टिगोचर होती है; और शक्ति (उर्जा) की अवस्था में रहने को 'लय' कहते हैं, उस अवस्था में बहुत्व या नानात्व नहीं रह जाता, सबकुछ एकाकार हो जाता है। समस्त व्यक्ति या वस्तु जब चलते चलते उस परम सत्ता या भगवत वस्तु के साथ एकीभूत हो जाता है, उसी समय मुक्ति या लय होता है।
उपरी तौर से जो विभिन्न प्रकार के मनोरम रूप और दृश्य दिखाई पड़ते हैं, हमलोग उन्हीं को लेकर मदहोश रहते हैं। किन्तु वास्तव में वे अलग अलग (M/F नाना) नाम-रूप नहीं हैं, सब एक का ही बहुरूप है, तथा सभी क्रमशः लय की ओर भागे चले जा रहे हैं। कालान्तर में कोई भी रूप मन को मदहोश बना देने वाला नहीं रहेगा, नानात्व नहीं रहेगा, सब एक हो जायेगा। इसीलिये जो वस्तु अनेक नहीं बना है, जिसमें नानात्व नहीं है, उसको उस प्रकार से देखना पापकर्म (Sin) या अपराध है। और अपराध करने से क्या होता है ? मुक्ति नहीं मिलती, सजा मिलती है, दण्ड भोगना पड़ता है। कैसी सजा मिलती है? उसे बार बार मृत्यु से मृत्यु में जाना पड़ता है। यदि हमलोग इस मृत्युदण्ड से बचना चाहते हों, सजा से मुक्ति पाना चाहते हों, तो उसका उपाय है - एक को देखना ! [ कठोपनिषद: २ /१ /१०-११ में कहा गया है,
उपरी तौर से जो विभिन्न प्रकार के मनोरम रूप और दृश्य दिखाई पड़ते हैं, हमलोग उन्हीं को लेकर मदहोश रहते हैं। किन्तु वास्तव में वे अलग अलग (M/F नाना) नाम-रूप नहीं हैं, सब एक का ही बहुरूप है, तथा सभी क्रमशः लय की ओर भागे चले जा रहे हैं। कालान्तर में कोई भी रूप मन को मदहोश बना देने वाला नहीं रहेगा, नानात्व नहीं रहेगा, सब एक हो जायेगा। इसीलिये जो वस्तु अनेक नहीं बना है, जिसमें नानात्व नहीं है, उसको उस प्रकार से देखना पापकर्म (Sin) या अपराध है। और अपराध करने से क्या होता है ? मुक्ति नहीं मिलती, सजा मिलती है, दण्ड भोगना पड़ता है। कैसी सजा मिलती है? उसे बार बार मृत्यु से मृत्यु में जाना पड़ता है। यदि हमलोग इस मृत्युदण्ड से बचना चाहते हों, सजा से मुक्ति पाना चाहते हों, तो उसका उपाय है - एक को देखना ! [ कठोपनिषद: २ /१ /१०-११ में कहा गया है,
यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।।
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।।
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।।
जो
परब्रह्म यहाँ है, वही वहाँ (दूसरे के शरीर में भी) है, एक ही परमात्मा
अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। जो यहाँ नाना रूप देखते हैं, वे बारम्बार
मृत्यु को प्राप्त होते हैं। जो उन एक ही परब्रह्म को विभिन्न नाम-रूपों
में प्रकाशित देखकर मोहवश उनमें नानात्व की कल्पना करता है, उसे पुनः पुनः
मृत्यु के अधीन होना पड़ता है।]
सभी मनुष्यों के नाम-रूप अलग अलग हैं, तो रहें ! किन्तु हमें प्रत्येक मनुष्य को -'अनेक' को अपनी
आत्मा के रूप में देखना होगा। अलग अलग रूप में (अपना-पराया) नहीं देखना
होगा। सभी को आत्मा के रूप में देखना होगा। ऐसा करने से क्या होगा ? सभी को
प्रेम किया जा सकेगा। हमलोग तो स्वयं को ही प्यार करते हैं। इसीलिए, सभी
को अपनी ही आत्मा के रूप में नहीं देखेंगे, तो किसी से ठीक ठीक प्यार भी
नहीं कर पाएंगे। और ठीक ठीक प्यार नहीं कर सकेंगे, तो अनेक को आत्मवस्तु के
रूप में देखना भी संभव नहीं होगा। इसलिये खण्डित-प्रेम अर्थात अपने-पराये
में बाँट कर प्रेम करने की आदत का त्याग करना होगा। जब तक खण्डित-प्रेम बना
रहेगा, तब तक यह मानना होगा कि हम अनेक को एक के रूप में नहीं देख पा रहे
हैं। जब तक हमारा प्रेम सार्वभौमिक नहीं हो जाता है, तब तक हम सभी को अपनी
आत्मा के रूप में नहीं देख सकेंगे। अतः आध्यात्मिकता के पथ पर हमलोग कितनी
दूरी तक आगे बढ़ सके हैं, उसकी कसौटी या test है - सार्वभौमिक (Universal)
प्रेम। इसीलिये खण्डित प्रेम को त्याग देना होगा। आज सार्वभौमिक प्रेम की
ही सर्वाधिक जरूरत है।
इसीलिये,
सत्य, पवित्रता आदि गुण उसी अद्या-शक्ति के static या स्थैतिक पक्ष
(aspect) हैं;और जब यही गतिशील या dynamic बन जाते है, तभी प्रेम या love
होता है। जिस समय यह अवस्था होगी, अर्थात जब हम सत्य और पवित्रता में स्थित
हो जायेंगे, उसी समय भेद-ज्ञान चला जायेगा। इसके फल स्वरूप नानात्व या
अनेकता नहीं रहेगी - नहीं, सो नहीं होगा। नानात्व या अनेकता तो वैसे ही
बनी रहेगी- किन्तु हमारी दृष्टि बदल जाएगी। -अर्थात सीमायें टूट जायेंगी
(अपने-पराय का भेद चला जायेगा) सबों के प्रति प्रेम या अनन्त प्रेम से हृदय
भर उठेगा !
[व्युत्थान
के बाद विभिन्न नाम-रूपों वाला जगत पुनः सत्य जैसा भासने लगेगा, किन्तु
उसके विष के दाँत टूट जायेंगे, क्योंकि हमारी दृष्टि बदल जाएगी-अर्थात
उसमें सार्वभौमिक प्रेम या अनन्त प्रेम छलकने लगेगा। इसीलिये
मृत्यु के दहलीज पर खड़े होकर, घोरतर विपद में, रणक्षेत्र में, समुद्रतल
में उच्चतम पर्वत शिखर में, गम्भीरतर अरण्य में, चाहे जिस परिस्थिति और
परिवेश में क्यों न पड़ जाओ, सर्वदा अपने से कहते रहो, ' मैं वह हूँ, मैं वह
हूँ ', दिन-रात बोलते रहो, ' मैं वह हूँ।' ...ये शब्द तुम्हारे मन के
कूड़ा-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति
अवस्थित है, वह प्रकाशित हो जाएगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त
शक्ति सुप्त भाव में विद्द्यमान है, वह जग जायेगी। ' (6/296-97)
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ।।कठोपनिषद/2/3/12 ।।
'तत् अस्ति '= वह अवश्य है; इति ब्रुवतः =इस प्रकार जो अन्तार्न्हित आत्मा की घोषणा डंके की चोट पर करता है, अन्यत्र कथं उपलभ्यते = उसके अतिरिक्त दूसरे को (जो हमेशा म्याऊं म्याऊं करता रहता हो); -वह कैसे प्राप्त हो सकता है?]
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ।।कठोपनिषद/2/3/12 ।।
'तत् अस्ति '= वह अवश्य है; इति ब्रुवतः =इस प्रकार जो अन्तार्न्हित आत्मा की घोषणा डंके की चोट पर करता है, अन्यत्र कथं उपलभ्यते = उसके अतिरिक्त दूसरे को (जो हमेशा म्याऊं म्याऊं करता रहता हो); -वह कैसे प्राप्त हो सकता है?]
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*" इस तुच्छ पृथक अहंता को नष्ट होना चाहिये। तभी हम
देखेंगे कि हम सत्य में हैं; वह सत्य ही ईश्वर है, वही हमारा सच्चा स्वरूप
है-वह सर्वदा हमारे साथ रहता है, वह हममें रहता है। उसीमें सर्वदा वास करो,
उसीमें स्थित रहो। वही एकमात्र आनन्दपूर्ण अवस्था है। केवल आत्मसंस्थ-जीवन ही जीवन है-और आओ हम सब उस आत्मोपलब्धि के निमित्त प्रयास करें। " (2/177)
* रेलगाड़ी में चढ़कर यात्रा करते समय जैसे पृथ्वी गतिशील प्रतीत होती है, यह भी ठीक उसी प्रकार है। एक स्वप्न के पश्चात् और एक स्वप्न आ रहा है-उनमें परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। ..किन्तु स्वप्न की अवस्था में हमें वह कभी असम्बद्ध अथवा असंगत नहीं लगता-...जब हम इस जगतरूपी स्वप्न-दर्शन से जाग उठ कर, इस स्वप्न की सत्य के साथ तुलना करके देखेंगे, तब वह असम्बद्ध और निरर्थक प्रतीत होगा। ..जब तुम उस अपरिणामी सत्ता को बाहर से देखते हो, तब उसे तुम ईश्वर कहते हो, और भीतर से देखने पर उसे तुम निज की आत्मा अथवा स्वरूप कहते हो। ..तुमसे - यथार्थतः जो तुम हो-उससे श्रेष्ठतर ईश्वर नहीं है- सब ईश्वर या देवता ही तुम्हारी तुलना में क्षुद्रतर हैं; मनुष्य ही निज के प्रतिबिम्ब के अनुसार ईश्वर की सृष्टि करता है। '(6/294-95)
*
'हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं। प्रत्येक आत्मा मानो अज्ञान के बादल से ढके हुये सूर्य के समान है और एक मनुष्य से दूसरे का अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य के उपर बादलों का घना आवरण है, और कहीं कुछ पतला। ...हर एक मनुष्य को चाहिये कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह, अर्थात भगवत-दृष्टि से देखे और उसके साथ उसी प्रकार से बर्ताव करे, उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे, और न उसकी निन्दा ही करे। किसी भी तरह से उसे हानि पहुँचाने की चेष्टा भी न करे। यह केवल संन्यासी का ही नहीं, वरन सभी नर-नारियों का कर्तव्य है।
...धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। और शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। (2/327-28) "
* हमने देखा- समग्र जगत में केवल एक ही सत्ता विद्द्यमान है,' यह कहना ठीक नहीं है कि मनुष्य के भीतर एक आत्मा है, यद्दपि समझाने के लिये पहले हमें इस प्रकार मान लेना पड़ता है। वास्तव में केवल एक सत्ता विद्द्यमान है एवं वह सत्ता आत्मा है-और जब वह अविनाशी सत्ता इन्द्रियों और 'इन्द्रिय-प्रतिबिम्ब नियम' के माध्यम से दिखाई देता है, तब उसे ही देह कहते हैं; जब वह विचार के द्वारा अनुभूत होती है, तब उसे ही मन कहते है।
* रेलगाड़ी में चढ़कर यात्रा करते समय जैसे पृथ्वी गतिशील प्रतीत होती है, यह भी ठीक उसी प्रकार है। एक स्वप्न के पश्चात् और एक स्वप्न आ रहा है-उनमें परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। ..किन्तु स्वप्न की अवस्था में हमें वह कभी असम्बद्ध अथवा असंगत नहीं लगता-...जब हम इस जगतरूपी स्वप्न-दर्शन से जाग उठ कर, इस स्वप्न की सत्य के साथ तुलना करके देखेंगे, तब वह असम्बद्ध और निरर्थक प्रतीत होगा। ..जब तुम उस अपरिणामी सत्ता को बाहर से देखते हो, तब उसे तुम ईश्वर कहते हो, और भीतर से देखने पर उसे तुम निज की आत्मा अथवा स्वरूप कहते हो। ..तुमसे - यथार्थतः जो तुम हो-उससे श्रेष्ठतर ईश्वर नहीं है- सब ईश्वर या देवता ही तुम्हारी तुलना में क्षुद्रतर हैं; मनुष्य ही निज के प्रतिबिम्ब के अनुसार ईश्वर की सृष्टि करता है। '(6/294-95)
*
'हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं। प्रत्येक आत्मा मानो अज्ञान के बादल से ढके हुये सूर्य के समान है और एक मनुष्य से दूसरे का अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य के उपर बादलों का घना आवरण है, और कहीं कुछ पतला। ...हर एक मनुष्य को चाहिये कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह, अर्थात भगवत-दृष्टि से देखे और उसके साथ उसी प्रकार से बर्ताव करे, उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे, और न उसकी निन्दा ही करे। किसी भी तरह से उसे हानि पहुँचाने की चेष्टा भी न करे। यह केवल संन्यासी का ही नहीं, वरन सभी नर-नारियों का कर्तव्य है।
...धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। और शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। (2/327-28) "
* हमने देखा- समग्र जगत में केवल एक ही सत्ता विद्द्यमान है,' यह कहना ठीक नहीं है कि मनुष्य के भीतर एक आत्मा है, यद्दपि समझाने के लिये पहले हमें इस प्रकार मान लेना पड़ता है। वास्तव में केवल एक सत्ता विद्द्यमान है एवं वह सत्ता आत्मा है-और जब वह अविनाशी सत्ता इन्द्रियों और 'इन्द्रिय-प्रतिबिम्ब नियम' के माध्यम से दिखाई देता है, तब उसे ही देह कहते हैं; जब वह विचार के द्वारा अनुभूत होती है, तब उसे ही मन कहते है।
सत तो केवल मात्र एक है, अज्ञानी लोग उसे ही जगत कहा करते हैं। ..जब पूर्ण ज्ञान का उदय होता है तो सारा भ्रम उड़ जाता है और तब मनुष्य देखता है कि यह सब आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 'मैं वही एक सत्ता हूँ ' - यही अन्तिम निष्कर्ष है।
वह एक सत्ता माया के प्रभाव से बहु रूप में दिखाई पड़ रही है, जिस प्रकार अज्ञान वश रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है। ...हम सब जन्म से ही अद्वैत-वादी हैं, इस बात से भागने का उपाय नहीं है। जब हम रस्सी को देखते हैं, तब साँप बिलकुल नहीं देखते- जब तुमको भ्रम का दर्शन हो रहा होता है, उस समय तुम सत्य को नहीं देख सकते।
जब तुम अपने को देहरूप में देखते हो, तब तुम देह मात्र हो, और कुछ नहीं हो, तथा जगत के अधिकांश मनुष्यों को ही इसी प्रकार की उपलब्धी होती है। वे आत्मा, मन आदि बातें मुँह से कह सकते हैं, किन्तु देखते हैं, यह स्थूल भौतिक आकृति ही-स्पर्श,दर्शन, आस्वाद इत्यादि। (6/291-92)'
' दूसरे की देह कौन देखता है ? जो अपने को देह समझता है। जिस क्षण तुम देहभाव-रहित होगे, उसी क्षण फिर तुम जगत नहीं देख पाओगे। वह चिर काल के लिये अन्तर्हित हो जायेगा। भला-बुरा कौन देखता है ? वही जिसके निज के भीतर भला-बुरा बना हुआ रहता है। ज्ञानी केवल बौद्धिक विचार स्वीकृति के बल से इस जड़-बन्धन से 'चिज्जड़-ग्रन्थि ' से अपने को विच्छिन्न करते हैं। यही नेति-नेति मार्ग है। '(6/299)
*" एक दिन ऐसा आयेगा, जब राष्ट्र नामक कोई वस्तु नहीं रह जायगी -राष्ट्र राष्ट्र का भेद दूर हो जायेगा। वास्तव में, हम सबके बीच भ्रातृ-सम्बन्ध स्वाभाविक ही है, पर हम सब इस समय पृथक हो गये हैं। ऐसा समय अवश्य आएगा, जब ये सब भेद-भाव लुप्त हो जायेंगे, प्रत्येक व्यक्ति वैज्ञानिक तथ्यों के ही समान अध्यात्मिक तथ्यों में भी तीव्र रूप से व्यवहार-कुशल हो जायेगा। और तब वह एकत्व, वह समन्वय समस्त जगत में व्याप्त हो जायेगा। तब सारी मानवता जीवन्मुक्त हो जाएगी। अपनी इर्ष्या,घृणा, मेल और विरोध में से होते हुए हम उसी एक लक्ष्य की ओर संघर्ष कर रहे हैं। " (2/146) ]
' अब प्रश्न यह कि -'यह स्वप्न किस प्रकार भंग हो कि हम क्षुद्र क्षुद्र नर-नारी इत्यादि हैं ? यह जो स्वप्न है-इससे किस प्रकार हम जागेंगे ? मन और इन्द्रियों की यह गुलामी हटेगी कैसे ? -सत्य को पहले (गुरु-मुख से ) सुनना होगा, फिर उसपर मनन करना होगा, उसके पश्चात् उसका निदिध्यासन अर्थात ध्यान करना होगा। अर्थात उसके (गुरु-मन्त्र के) तात्पर्य को निरन्तर दृढ़ करते रहना होगा। हमेशा सोचो-' हम ब्रह्म हैं - I am He ' अन्य सब विचारों को दुर्बलता जनक मानकर, दूर कर देना होगा। जिस किसी विचार से तुमको अपने नर-नारी होने का ज्ञान होता है, उसे दूर कर दो। हमारे अतिरिक्त जब और कुछ भी नहीं है, तब हमें भय दिखायेगा कौन ?
" अच्छे और बुरे के पीछे एक ऐसी वस्तु है, जो
वास्तव में तुम्हारी अपनी है, जो वास्तव में तुम्हीं हो, जो सब प्रकार के
शुभ और सब प्रकार के अशुभ के अतीत है- और वही वस्तु शुभ और अशुभ के रूप से
प्रकाशित हो रही है। पहले इसे जान लो, तभी तुम पूर्ण आशावादी हो सकते हो,
इससे पूर्व नहीं। ऐसा होने पर ही तुम सब पर विजय प्राप्त कर सकोगे। ...तब
तुम्हारी सारी दृष्टि एकदम परिवर्तित हो जाएगी, और तुम खड़े होकर कह सकोगे,
'मंगल कितना सुन्दर है, और अमंगल कितना अद्भुत है !' अतः वास्तविक शक्ति एक
है, केवल माया में पड़ कर अनेक हो गयी है। अनेक के पीछे मत दौड़ो बस, उसी एक
की ओर अग्रसर होओ। " (2/139-40)
" जिन लोगों ने राजयोग सम्बन्धी मेरे व्याख्यान पिछली गर्मियों में सुने हैं, उनसे मैं कहता हूँ कि वह योग (राजयोग) ज्ञानयोग से कुछ भिन्न प्रकार का है। जिस योग पर हम अब विचार कर रहे हैं, वह मुख्यतः इन्द्रियों के उपर पूर्ण नियन्त्रण हो जाने के बाद की स्थिति है।
" जिन लोगों ने राजयोग सम्बन्धी मेरे व्याख्यान पिछली गर्मियों में सुने हैं, उनसे मैं कहता हूँ कि वह योग (राजयोग) ज्ञानयोग से कुछ भिन्न प्रकार का है। जिस योग पर हम अब विचार कर रहे हैं, वह मुख्यतः इन्द्रियों के उपर पूर्ण नियन्त्रण हो जाने के बाद की स्थिति है।
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।।
कठ /2-3/10
-जब मन सहित पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ आत्मा के वश में रहने लगती है, जब बुद्धि भी सुगन्ध-दुर्गन्ध या शुभ-अशुभ का निर्णय करने की और चेष्टा नहीं कर सकती, तभी योगी चरम गति (ज्ञानयोग) को प्रप्त होता है। ]
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