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मंगलवार, 10 जनवरी 2012

स्वप्न की कहानी

हमलोगों में, ऐसा कौन होगा, जो स्वप्न नहीं देखता हो? कोई अपवाद नहीं होंगे, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता. किन्तु अक्सर नीन्द टूट जाने के बाद स्वप्न की कहानी याद नहीं रहती. कभी कभी ऐसा स्वप्न भी आता है, जिसका प्रभाव बहुत देर तक हमलोगों पर बना रहता है. यह भी सुनने में आता है कि, स्वप्न में देखी गयी कुछ कुछ घटनाएँ बाद में सच्चाई का पूर्वाभास साबित हुई हैं.
श्रीरामकृष्ण के जन्म के पहले उनके पिताजी गया तीर्थ में एक स्वप्न देखे थे- नारायण स्वयं उनकी सन्तान बन कर आविर्भूत होना चाहते हैं. स्वामी विवेकानन्द की माँ भूवनेश्वरी देवी प्रतिदिन बहुत देर तक भगवान शिव की आरधना में तन्मय हो कर अपना समय व्यतीत करती थीं, एवं उनसे एक पुत्र सन्तान पाने की मन्नत मांगती थी. एकदिन पूजा-घर में ही उनको नीन्द आ गयी, उस समय स्वप्न में देखती हैं कि जटाजूटधारी  शिव उनके सामने आविर्भूत होकर शिशु का रूप धारण कर लेते हैं, मानों वे उनकी ही सन्तान हों. इसीके कुछ दिनों बाद स्वामीजी का जन्म हुआ था.
मन के जिस क्रियाकलाप को हमलोग थोड़ा जान पाते हैं, उसे मन का चेतन स्तर कहा जाता है. किन्तु मन केवल उतना ही नहीं है, उसका अधिकांश हिस्सा हमलोगों के सामान्य चेतना के स्तर से देख नहीं पाते हैं. इसीलिए उसको मन का अवचेतन स्तर कहा जाता है. मनोवैज्ञानिक लोग कहते हैं कि, अवचेतन मन में जो कुछ चलता रहता है, उसीका कुछ अंश स्वप्न में दिखने लगता है.
  हमलोग सचेतन होकर जो कुछ सोचते हैं, मन में जो कामनाएँ दबी रह जाती हैं, मन रूपी कैमरा उसका एक फोटो खींच लेता है, और वही सब फोटो या कार्बन कॉपी अवचेतन मन में संचित रह जाता है. इसीलिए जो विचार, जो अनुभूति या तजुर्बा हमारे मन के उपर गहरी लकीरें डाल देते हैं, वे ही सब कई बार किसी न किसी तरीके से स्वप्न में दिखाई पड़ने लगते हैं.
रेन्द्रनाथ जब तरुणाई में पदार्पण किये थे, तब कुछ समय तक रोज रात में एक ही स्वप्न देखते थे. पहले देखते कि वे राज-ऐश्वर्य और प्रभावशाली व्यक्तित्व के अधिकारी हैं, बाद में देखते कि वे एक महावैराग्यवान परिव्राजक सन्यासी हैं. सम्भव है, उन दिनों उनके सामने ' बड़ा ' (बृहत) बनने के दो विकल्प खुले हुए थे, और मन चाहता हो कि इन दोनों में जो श्रेष्ठ मार्ग हो उसी को सारे जीवन के लिए चुन लिया जाय.
अत्यन्त प्राचीन काल से मानव समाज में स्वप्न को बहुत अधिक महत्व दिया गया है. मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यता के बारे में सुमेर के लिखित कहानी से महाराज गिल्गामेश के जीवन में स्वप्न का कितना महत्वपूर्ण स्थान था, उसका पता चलता है.
[ मेसोपोटामिया का अर्थ होता है-दो नदियोँ के बीच की भूमि। दजला (टिगरिस) और फ़ुरात (इयुफ़्रेट्स) नदियों के बीच के क्षेत्र को कहते हैं । इसमें आधुनिक इराक़, उत्तरपूर्वी सीरिया, दक्षिणपूर्वी तुर्की तथा ईरान का क़ुज़ेस्तान प्रांत के क्षेत्र शामिल हैं । यह ताम्रकांस्ययुगीन सभ्यता का पालना रहा है ।
यहाँ सुमेर, अक्कदी सभ्यता, बेबीलोन तथा असीरिया के साम्राज्य शामिल हैं । सुमेरियन सभ्यता के प्रमुख शहर उर,किश,निपुर,एरेक,एरिडि,लारसा,लगाश,निसीन,निनिवेह आदि थे। निपुर इस सभ्यता का सर्वप्रमुख नगर था जिसका काल लगभग 5262ई. पू. बताया जाता है।
इस नगर का प्रमुख देवता एनलिल समस्त देश में पूजनीय माना जाता था। सुमेर सभ्यता मेँ परोहित वर्ग ही मुख्यतः राजा होता था।अक्कादियन साम्राज्य की राजधानी बेबीलोन थी,अतः इसे बेबीलोनियन सभ्यता भी कहा जाता है। बेबीलोनियन सभ्यता की प्रमुख विशेषता हमूराबी की(2123-2080 ई. पू.)विधि संहिता है।बेबीलोनियन सभ्यता का प्रमुख ग्रन्थ्र गिल्गामेश महाकाव्य था।
महाकाव्य गिल्गामेश एक वास्तविक सुमेरियन राजा गिल्गामेश के शासन के जीवन पर आधारित है जो २६०० ईसा पूर्व मेसोपोटामिया पर राज करता था. पुस्तक को पढने से शुरुआत में यह महसूस होता है कि गिल्गामेश एक अभिमानी व्यक्ति है. वह एक अहंकारी राजा के रूप में अपने अधिकारों की सीमा का उलंघन करता है. वह अपने शहर की कुंवारीयों के साथ नाजायज संबंध स्थापित करता है. आगे चल कर उसके जीवन में कई ऐसी घटनाएँ घटती हैं, जो उसकी मानसिकता को बदल देती हैं, और उसे एक बेहतर मनुष्य के रूप में परिणत कर देती है. पहले वह अपने आप को ही पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ मनुष्य समझता था. 
यह कहानी पशु, मनुष्य, और देवता के बीच की सीमा रेखा के महत्व पर प्रकाश डालने साथ साथ; मनुष्य के द्वारा अमरत्व की खोज के सम्बन्ध में भी है. इस काव्य में समाज में स्त्रियों के महत्व पूर्ण सीमाओं का निर्धारण भी किया गया है. इन सीमाओं वेश्या शम्हत, इश्तर, सिदुरी, सराय की मालकिन, और उतानापिश्तिम की पत्नी निंसून के द्वारा निर्धारित किया गया हैं. महिलाओं को ज्ञान-दात्री तथा पशु से, मनुष्य,और देवता की सीमा तक उठा देने में समर्थ-ज्ञान-दात्री महिलाओं की भूमिका देकर, गिल्गामेश महाकाव्य यह दर्शाता है कि कैसे मेसोपोटेमिया समाज में महिलाओं को भी वास्तव में महत्वपूर्ण स्थान प्रप्त था है.
  यह एक वैसे व्यक्ति के जीवन की कहानी है, जो भयभीत है और सम्मानित भी है, एक व्यक्ति जो प्यार करता है और नफरत भी करता है, एक व्यक्ति है जो जीतता है और खो देता है.
 गिल्गामेश के माध्यम से, मानव जाति के भाग्य परिवर्तन की अनिवार्य कारक का भी वर्णन किया गया है.  
गिल्गामेश महाकाव्य में जीवन लक्ष्य चुनने का अधिकार और तदनुसार परिणाम की अनिवार्यता को भी दिखलाया गया है . हमारे द्वारा आज किए गए निर्णय का परिणाम, वर्ष तक तो क्या पूरे जीवन भर भुगतना पद सकता है. गिल्गामेश और एन्किडू दोनों ने जो विकल्प चूने उसने उनके जीवन को ही हमेशा के लिए बदल दिया
हमारे पास दो विकल्पों (श्रेय और प्रेय) में से एक का चयन करने का अधिकार तो है, किन्तु उसका परिणाम सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकते हैं, और यह परिणाम समान रूप से लम्बे समय तक भोगना पड़ता है. गिल्गामेश की कहानी में इसी बात को दर्शाया गया है.
 क्योंकि गिल्गामेश, बहुत अभिमानी और दमनकारी था, वह एक अच्छा राजा होने में सक्षम नहीं था, इसीलिए एन्किडू को बनाया गया था. अपने दोस्त एन्किडू की मौत के बाद गिल्गामेश पाता है कि वह खुद भी मरने से डर रहा है. यह डर ही गिल्गामेश को अमरत्व कि खोज में लगा देता है. उस समय लोग ऐसा मानते थे कि अमरत्व की शक्ति किसी स्त्री से ही प्राप्त हो सकती है, क्योंकि यह भी एक तथ्य है कि केवल वे ही जननी बन सकती हैं, और पुन: संसार में ला सकती हैं. यह संकल्प ही उसे एक एक लंबे और थकाऊ यात्रा के बाद उस भूमि पर ले जाता है,जहां कोई नश्वर प्राणी उसके पहले नहीं गया था. 
मुख्य पात्र
गिल्गामेश :२७००ई.पू. प्राचीन उरुक (वर्तमान इराक में) जन्म एक युवा राजा था. सदियों से, इस राजा के बारे में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, जिसमें यह वर्णन मिलता है कि उसके पास कुछ अलौकिक शक्तियाँ भी थीं. उसके बारे यह मान्यता है कि वह दो - तिहाई परमात्मा (असीम- Head and Heart) और एक तिहाई मानव (ससीम-Hand) था. हालांकि, वह एक मनुष्य ही था, इसीलिए जैसा कि सभी मनुष्यों के भाग्य में अंत में मरना ही लिखा होता है, उसको भी मरना पड़ा था. इस महाकाव्य का युवा नायक ' गिल्गामेश ' एक अड़ियल शासक है, जो अपनी प्रजा का शोषण करता है, अपने शक्ति का प्रदर्शन करने तथा अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए चुनौतियों और रोमांचक कारनामों में लगा रहता था.
.इस संबंध में, उसकी तुलना बाद के सदियों में होने वाले, सिकंदर महान, नेपोलियन बोनापार्ट, और जनरल जॉर्ज पैटन आदि सैन्य नेताओं के साथ की जा सकती है, जिन्होंने युद्ध के मैदान में शौर्य प्रदर्शित किया था. उसकी तुलना उन वर्तमान राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, और तानाशाहों से भी की जा सकती है जो सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए, बिना परिणाम पर विचार किये दुसरे देशों को बेतहाशा युद्ध करने के लिए मजबूर कर देते हैं.अंततः. गिल्गामेश, उसके दोस्त, एनकिंडू, की मौत के बाद, गहरे अवसाद के दौर से गुजर कर, अपनी पाशविक-प्रवृत्तियों पालतू बना लेता है, या उन्हें वश में कर लेता है.
  एन्किडू : एक दूसरा शक्तिशाली नायक है, जिसे ग्लिगामेश की निरंकुश सत्ता को संतुलित करने के लिए देवताओं ने गढ़ा था. वह पहले ( दुसरे भेंड़ों या जानवरों के समान घांस चरते हुए जंगलों में ही रहा करता था) क्योंकि उसे मनुष्य और मनुष्य के रहन-सहन के बारे में कुछ भी पता नहीं था. ग्लिगामेश के स्वप्न में मिले पूर्वाभास को सुन कर, बाद में उसकी माँ ने, प्रेम की देवी के मंदिर से,शम्हत नामक एक वेश्या को उसे लुभाने के लिए भेजा, फिर  वह शम्हत की मदद से मनुष्यों के रहन-सहन का तरीका सिख लिया, तब पशुओं ने उसे अपने साथ रखने से इंकार कर दिया. खुद को  गिल्गामेश से भी बड़ा योद्धा समझ कर वह उससे युद्ध करने उरुक पहुँच गया. बहुत देर तक घनघोर युद्ध करने के बाद, दोनों एक दुसरे के अविभाज्य मित्र बन गये. 
और बाद में गिल्गामेश तथा एनकिंडू ने मिल कर, देवदार के जंगलों का राक्षसी संरक्षक,और स्वर्ग के सांढ़ हम्बबा को मार डाला, तब गुस्सा से भरे देवताओं ने आदेश दिया इनमें से एक मनुष्य-एन्किडू को मरना ही होगा.
अनु: देवताओं के पिता. वे मूर्तमान स्वर्ग हैं.
अरुरु: सृजन की देवी. जिसने मिट्टी से एन्किडू तैयार किया था. 
निंसून : एक देवी तथा गिल्गामेश की माँ.
लुगुल्बंदा: उरुक का दिवंगत राजा और गिल्गामेश का पिता.
इश्तर : प्रेम की देवी, गिल्गामेश ने उसके शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया.
एन्लिल : पृथ्वी और वायु के देवता. इसीने हुम्बाबा को देवदार जंगल का संरक्षक बनाया था.    
 तम्मुज़ : प्रजनन और वनस्पति के भगवान. वह एक इश्तर के कई प्रेमियों में से एक था, जिसे उसने सज़ा दिया और अस्वीकार कर दिया था.
निनुर्ता : युद्ध के देवता
शम्हत : इश्तर मंदिर की वेश्या जो एन्किडू को लुभाने के लिए भेजी गयी थी.
हुम्बाबा : एक दानव है जो देवदार वन का संरक्षक है.
शमाश : सूर्य देवता. वह गिल्गामेश को देवदार के जंगल में प्रवेश करने और हुम्बाबा को मारने की योजना को मंजूरी देता है .
बिच्छू मैन: आधा आदमी और आधा बिच्छू. वह देवदार वन का गार्ड है.
उत्नापिश्तिम the Faraway : जो देवताओं के द्वारा भेजे गये महान बाढ़ के बाद भी जीवित रहता है. गिल्गामेश उससे ही अनन्त जीवन के रहस्य को जानने की आशा रखता है.
उत्नापिश्तिम की पत्नी: उसने भी महान बाढ़ के बाद अमरत्व का वरदान पाया था.वह गिल्गामेश के उपर दया करती है, और अपने पति से प्रार्थना करती है कि वह उसे एक गुप्त लता की जानकारी देदे जिसके खाने से अमरत्व प्राप्त हो सकता है.
सिदुरी: देवताओं के लिए शराब बनाती है: वह समुद्र के निकट एक खूबसूरत बगीचे में रहती है. हालांकि वह गिल्गामेश को सलाह देती है कि उसका अनन्त जीवन की खोज असफल हो जायेगी, फिर भी वह उसे उत्नापिश्तिम के निवास का पता बता देती है, जो गिल्गामेश को उसके खोज का उत्तर दे सकता है.
उर्शनाबी : एक केवट जो गिल्गामेश को उस घाट पर पहुंचा देता है, जहाँ उत्नापिश्तिम का निवास था. 
मुख्य कहानी
गिल्गामेश, उरुक के युवा राजा के रूप में, अपनी प्रजा का रक्षक है.लेकिन कभी कभी वह अपनी शक्तियों का लाभ उठाता है, लोगों को और अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए खुले आम जोर जबरदस्ती किसी भी औरत का उपयोग करने के लिए, लोगों पर अत्याचार भी करता है. इसपर उसकी प्रजा स्वर्ग के देवताओं से शिकायत करती है. जवाब में, देवी माँ अरुरु एक नया मनुष्य, एन्किडू को उत्पन्न करती है, जो डील-डौल और आकृति से गिल्गामेश का प्रतिद्वंद्वी प्रतीत होता है. 
 निनुर्ता, युद्ध के देवता, उसको महान शक्ति का उपहार देता है.पृथ्वी और उसके जीव के बारे में एन्किडू को कोई ज्ञान नहीं रहने के कारण, वह अन्य जंगली जानवरों के समान और उनके ही साथ साथ घास खाता है और पानी पिता है. वह शिकारियों के लगाये गये जाल को कट कर पशुओं को मुक्त करता है, उनकी रक्षा करता है.उसके विशाल आकार को देख कर शिकारी घबड़ा जाते थे. उधर उरुक में गिल्गामेश भी एक सपना देखता है, जिसमें एन्किडू के आने का पूर्वाभास मिलता है. उसकी माँ, देवी निन्सून, उसके द्वारा देखे गये सपने की व्याख्या करते हुए, एन्किडू का वर्णन करते हुए बताती है कि गिल्गामेश और एन्किडू आगे चल कर अविभाज्य मित्र बन जायेंगे.
इस बीच, उरुक जाने के रास्ते पर, एक वेश्या उसे तथा अन्य चरवाहों को रोटी और शराब प्रदान करती है.वह कुछ समय तक उनके साथ रहता है, जंगली पशुओं से उनकी रक्षा करके अपने रहन-सहन में सुधार कर लेता है.जब एन्किडू उरुक में आता है, तो उसके आसपास लोगों का झुण्ड इकट्ठा हो जाता है, और उसकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि वह निश्चित रूप से गिल्गामेश के बराबर है. 
 इस समय, गिल्गामेश एक नई दुल्हन के,पति से मिलने के पहले ही उसके बिस्तर पर आक्रमण करने  की योजना बना रहा होता है.रात में, जब वह अपने पति के लिए इंतजार कर रही होती है, गिल्गामेश उसके घर पहुँच जाता है. हालांकि, एन्किडू उसे गली में देख लेता है,और खुद को उसके समकक्ष साबित करने के लिए, उस घर के गेट तक पहुँचने के पहले ही रोक लेता है. दोनों हिंसक पशुओं की तरह लड़ने लगते हैं.एक दुसरे पर जीत हासिल करने के संघर्ष में घर के दरवाजे टूट जाते हैं, दीवारें हिलने लगती हैं.अंत में, गिल्गामेश एन्किडू को जमीन पर पटक देता है. लेकिन बजाय लड़ाई जारी रखने के, एन्किडू गिल्गामेश के ताकत की प्रशंसा करता हुआ कहता है कि उसकी बराबरी का पृथ्वी पर अन्य कोई नहीं है. वे एक-दुसरे से गले मिलते हैं, और अन्तरंग मित्र बन जाते हैं. 
अमरत्व प्राप्ति की लालसा : गिल्गामेश अमरत्व पाने व्याकुल हो जाता है. अपने कर्मों से वीरत्व प्रदर्शित करके, उरुक की दीवार के निर्माण के साथ अन्य अच्छे अच्छे कामों को करता है, और अनन्त प्रसिद्धि हासिल करता है. लेकिन एक चीज, जिसे वह सबसे अधिक पाना चाहता है, वह पृथ्वी पर शाश्वत काल तक जीवित रहना चाहता है, वह उसे कभी प्राप्त नहीं हो सकता है.इस संबंध में, वह हम सब के मनुष्य की तरह ही है. हम सभी लोग पृथ्वी पर हमेशा के लिए जीना चाहते हैं, और अपने नश्वर जीवन को जितना अधिक हो सके लम्बा करना चाहते हैं. हालांकि, अंत में केवल हमारी अच्छाईयाँ और उपलब्धियों के किस्से ही जीवित रहते हैं, मनुष्य को मरना ही पड़ता है. 


.. प्रकृति के लिए आदर: प्रकृति के लिए सम्मान की दृष्टि से देखने पर मेसोपोटेमिया भी वर्तमान  विश्वदृष्टि का ही अंश लगता है. उदाहरण के लिएहुम्बाबा दानव देवदार के जंगल में मनुष्यों को नहीं पहुँचने के लिए नजरदारी करता है, और उसका साथी एक बिच्छू आदमी है जो जुड़वां नुकीला पहाड़ माशू की गेट पर गार्ड के रूप उगते और डूबते सूरज की रक्षा के लिए खड़ा रहता है. सिदुरी, देवताओं के लिए शराब बनाती है, वह अपने अंगूर के बाग पर चौकस दृष्टि रखती है, और जब गिल्गामेश पहली बार उससे मिलने पहुँचता है तो, उसके लिए दरवाजा बन्द कर देती है.
उत्नापिश्तिम से जब गिल्गामेश मिलता है तो वह उससे कहते हैं, तुमको को अनन्त जीवन के योग्य साबित करने के लिए एक परीक्षण से गुजरना होगा. इसके लिए तुमको लगातार सात रातों तक पूरी तरह से जाग कर ही रहना होगा. लेकिन गिल्गामेश इस परीक्षण विफल रहता है. उत्नापिश्तिम अपनी पत्नी के अनुरोध पर, जो गिल्गामेश पर करुणा करती है; उत्नापिश्तिम राजा को एक दूसरा मौका देता है, वह उसको पानी के भीतर रहने वाली एक कांटेदार लता के बारे बतलाता है, जो उसको प्राप्त कर लेता है, वह सदा युवा रहता है. 
 समुद्र की गहराई में गोता लगाकर गिल्गामेश उस लता को खोज तो लेता है, इसे तुरंत खा नहीं पाता है. वह खुद खाने के बजाय, इसे वापस उरुक ले जाने का फैसला करता है, ताकि किसी उम्रदराज उरुक को पहले इसे खिला कर इसका तासीर जाँच लिया जाय.(यह यहाँ स्पष्ट नहीं है कि वह खुद को इस लता के सम्भावित बुरे प्रभावों से बचाना चाहता था या अपनी प्रजा को भी अपने सौभाग्य में शामिल करना चाहता था.) दुर्भाग्य से, उरुक करने के लिए वापस लौटते समय वह एक जगह स्नान करने के लिए रुकता है, और लता को किनारे पर रख देता है, एक सांप इसे चुरा कर खा लेता है, और फिर से युवा हो जाता है.
  इस प्रकार गिल्गामेश,उरुक बिना अनन्त जीवन प्राप्त किये ही उरुक लौट आता है. लेकिन जिस समय वह शहर छोड़ कर गया था, उस समय से अब वह बहुत समझदार हो चूका है. वह मृत्यु की अनिवार्यता को स्वीकार करता है, और यह जान कर आराम से जीवन बिताने लगता है कि उसने जो सुंदर शहर बसाया है, तथा दूसरों के कल्याण के लिए जितने महान कार्य किये हैं, उनके माध्यम से ही उसका नाम अमर रहेगा. और, इस प्रकार वह अपने लोगों के लिए एक महान राजा बन गया.जिसका नाम आज भी अमर है.
उस समय तक विज्ञान की कुछ विशेष प्रगति नहीं हुई थी. इसीलिए उन दिनों कूसंस्कार से निकली हुई अलौकिक व्याख्या का बहुत आदर होता था. युगों युगों से इन अंधविश्वासों ने मनुष्यों के मन पर ऐसा छाप लगा दिया है कि, आज के इस युक्तिवादी युग में भी बहुत से व्यक्ति इससे बाहर नहीं निकल पाए हैं. 
इसी विषय के उपर रविन्द्रनाथ टैगोर ने ' हिंग  टिंग छट् ' नामक कविता में अद्भुत हास्यरस का परिचय दिया है.
স্বপ্ন দেখেছেন রাত্রে হবুচন্দ্র ভূপ
অর্থ তার ভাবি ভাবি গবুচন্দ্র চুপ।


কহিলেন হতাশ্বাস হবুচন্দ্ররাজ,
ম্লেচ্ছদেশে আছে নাকি পন্ডিত সমাজ–
তাহাদের ডেকে আন যে যেখানে আছে,
অর্থ যদি ধরা পড়ে তাহাদের কাছে।‘
কটা-চুল নীলচক্ষু কপিশকপোল
যবন পন্ডিত আসে , বাজে ঢাক ঢোল ॥
গায়ে কলো মোটা মোটা ছাঁটাছোঁটা কুর্তি-
গ্রীষ্ম তাপে উষ্মা বাড়ে, ভারি উগ্রমূর্তি।
ভূমিকা না করি কিছু ঘড়ি খুলি কয়,
‘সতেরো মিনিট মাত্র রয়েছে সময়—-
কথা যদি থাকে কিছু বলো চট্পট্।‘
সভাসুদ্ধ বলি উঠে - হিং টিং ছট্।
স্বপ্ন মঙ্গলের কথা অমৃতসমান ।।

শুনিয়া সভাস্থ সবে করে ধিক্-ধিক ,
কোথাকার গন্ডমূ�র্খ পাষন্ড নাস্তিক!
স্বপ্ন শুধু স্বপ্ন মাত্র মস্তিষ্ক বিকার
এ কথা কেমন করে করিব স্বীকার !
জগৎ বিখ্যাত মোরা ‘ধর্মপ্রাণ‘ জাতি–
স্বপ্ন উড়াইয়ে দিবে! দুপুরে ডাকাতি!

হবুচন্দ্র রাজা কহে পাকালিয়া চোখে,
‘গবুচন্দ্র, এদের উচিত শিক্ষা হোক ।
হেঁটোয় কন্টক দাও , উপরে কন্টক,
ডালকুত্তাদের মাঝে করহ বন্টক‘।
সতেরো মিনিট—কাল না হইতে শেষ
ম্লেচ্ছ পন্ডিতের আর না মিলে উদ্দেশ।
সভাস্থ সবাই ভাসে আনন্দাশ্রুনীরে,
ধর্মরাজ্যে পুনর্বার শান্তি� এল ফিরে।
পন্ডিতেরা মুখচক্ষু করিয়া বিকট
পুনর্বার উচ্চারিল —- হিং টিং ছট্
স্বপ্ন মঙ্গলের কথা অমৃতসমান,
গৌড়ানন্দ কবি ভনে, শুনে পুণ্যবান।।
हाबुचन्द्र राजा ने एक अद्भुत सपना देखा था, उसकी व्याख्या करने की व्यर्थ चेष्टा करने में देश के लोग हैरान-परेशान हो गये, तब यूरोपीय विद्वान लोगों ने आकर कहा- यह तो निरा सपना है- इसकी विवेचना या स्पष्टीकरण की क्या जरूत है ? तब सभा में उपस्थित लोगों को बहुत क्रोध हुआ, और वे कहने लगे - हमलोग अपनी धर्म-परायणता के लिए विश्व विख्यात राष्ट्र हैं, क्या सपना को भी सत्य नहीं मानें ? सपना समझ कर भूल जाएँ ? ये लोग भरी दोपहरी में क्या डकैती डालना चाहते हैं ?  
इस प्रकार के कूसंस्कारों से बिलकुल दूर ही रहना चाहिए. स्पष्ट विचार, तार्किक निर्णय, वैज्ञानिक मनोभाव अर्जित करना होगा. स्वामी विवेकानन्द स्वयं इसके उदहारण स्वरूप थे. उनकी दृष्टि में कोई भी घटना अलौकिक  नहीं हो सकता था. फिर युक्ति-तर्क की कसौटी पर कसे बिना किसी घटना को झूठा या भ्रामक कह कर उड़ा देना भी वैज्ञानिक-मानसिकता में रोड़ा है. स्वामीजी प्रत्येक घटना को तर्क की कसौटी पर कस कर ही लेने के पक्षधर थे. 
एक बार  स्वामी विवेकानन्द ने पानी के जहाज से भूमध्य सागर पार करते समय एक अद्भुत स्वप्न देखा था, जिसका वर्णन वे इस प्रकार करते हैं- " स्वप्नावस्था में मैंने देखा कि सफेद दाढ़ी वाला  ऋषितुल्य एक वृद्ध सन्यासी मेरे पास आकर खड़ा हो गया और बोला- ' यह क्रीट द्वीप है, तुम आओ हमको पुनः प्रतिष्ठित कर दो. मैं ' थेरापुत्तस ' के प्राचीन पन्थ का अनुयायी हूँ, जो प्राचीन भारतीय ऋषियों की शिक्षाओं पर आधारित है. 
यहाँ हमारे थेरापुत्तस सन्यासी सम्प्रदाय से ' अससिनी ' सम्प्रदाय के लोगों ने उच्च विचारों को ग्रहण किये थे. जिस सत्य और जिन आदर्शों का हमने प्रचार किया, ईसाई लोग उनका ईसा मसीह द्वारा प्रचलित किया जाना बताते हैं; पर सच तो यह है कि ईसा मसीह नाम का कोई व्यक्ति कभी जन्मा ही नहीं. इस बात को सिद्ध करने के लिए यदि यहाँ खुदाई की जाय, तो कई प्रमाण मिल जायेंगे.'
  मैंने पूछा - ' कौन सी जगह खुदाई करने पर वे अवशेष और प्रमाण मिलेंगे ? उस श्वेतकेशी वृद्ध सन्यासी ने तुर्की के पास का एक स्थान बताकर कहा- ' वहाँ '. इतने में ही मैं जाग गया और तत्काल भागकर डेक पर मैंने जहाज के कप्तान से पूछा कि जहाज इस समय कहाँ है?
जहाज के कप्तान ने हाथ से दिखाते हुए कहा-''देखो, वह तुर्किस्तान है, और ' यह स्थान क्रीट द्वीप से मात्र ५० नौटिकल माईल की दुरी पर है" क्या यह एक स्वप्न मात्र ही था या उस स्वप्न में कोई सत्य छिपा था ? कौन जनता है ! (८/२८२)
' थेरापीउट ', अससिनी, मानिकी आदि सम्प्रदायों के बारे में, जिनसे वर्तमान ईसाई धर्म का उद्भव हुआ है, जिक्र करते हुए स्वामीजी कहते हैं- " यह लालसागर का किनारा प्राचीन सभ्यता का महान केंद्र है. वह उस पार अरब की मरुभूमि है; इस पार मिस्र. हिक्स वंश, फेरो वंश, ईरानी बादशाही, सिकन्दर टालेमी वंश, और रोमन एवं अरबी वीरों की रंगभूमि यही मिस्र है. उतने प्राचीन युग में भी ये लोग अपना वृतान्त पापिरस पत्रों में, पत्थर पर, मिट्टी के बर्तनों पर, चित्राक्षरों से खूब सावधानी से लिख गये हैं... इसी मिस्र में टलेमी बादशाह के वक्त सम्राट अशोक ने धर्म प्रचारक भेजे थे. वे लोग धर्म प्रचार करते थे, रोग अच्छा करते थे, निरामिषी होते थे, विवाह नहीं करते थे, सन्यासी शिष्य करते थे. उन्हीं लोगों ने अनेक सम्प्रदायों की सृष्टि की - थेरापीउट, अससिनी, मानकी आदि आदि- जिनसे वर्तमान ईसाई धर्म का उद्भव हुआ. यही मिस्र, टलेमियों के राज्यकाल में, सर्व विद्याओं का केंद्र हो गया था." (८/१८१)        
' थेरापुट्टी ' शब्द प्राचीन बौद्ध सन्यासी सम्प्रदाय ' थेरापूत्त ' ( स्थिवीरपुत्र) से निकला है. दो हजार वर्ष पहले बौद्ध सन्यासी लोग भूमध्य सागर क्षेत्र में धर्म के उपदेशों का प्रचार करने के लिए गये थे. ' अससिनी ' शब्द को उन्होंने सपने में सुना था या नहीं, यह स्वामीजी को ठीक से याद नहीं था, अनुमान से कहे थे. ' अससिनी ' लोग युहिदी धर्म के एक सम्प्रदाय थे, जो त्याग के उपर अधिक जोर देते थे.जिस समय ईसामसीह का जन्म हुआ था, ऐसा विश्वास किया जाता है, अर्थात आज २००० वर्ष पहले, उस समय भारतीय विचार का प्रभाव थेरापूत्त प्रचारकों के माध्यम से एसिनियों के उपर पड़ना असम्भव तो नहीं है, पर यह बात निश्चय से कहना भी मुश्किल है. 
 किन्तु स्वामीजी के शरीर त्याग करने के बहुत वर्षों बाद डेड सी के निकट एक गुफा में ( अलखल्ला झुलाये, पश्मीने लच्छों का एक बड़ा सा मोटा रुमाल सर से कसे हुए ८/१८२) ' बेडाईन ' अरब  व्यापारी लोगों ने बहुत से बड़े बड़े जार में पाए थे, जिसके भीतर बहुत सी बातों को पापिरस ( छालपत्र ) पर लिख कर  लपेट कर रखे गये थे, उनलोगों ने इसका महत्व नहीं समझा, फिर भी यह एक हाथ से दुसरे हाथ होते होते जब यूरोप के विद्वानों के पास जा पहुंचे, तब लोगों ने यह जाना कि - यह २००० वर्ष प्राचीन अससिनी सम्प्रदाय के उपदेश हैं.

The Dead Sea Scrolls were found in caves shown on this map
 The Dead Sea Scrolls were found in caves shown on this map.
 Definition:
Bedouin shepherds accidentally stumbled upon one of the most important religious discoveries of all time -- The Dead Sea Scrolls.
Seven ancient scrolls, written in Aramaic, Hebrew, and Greek, discovered by Bedouin shepherds in 1947, 13 miles east of Jerusalem, turned out to be from the period between 200 B.C. and A.D. 68. The scrolls held information about the Old Testament, including material never seen before in modern times.
The Dead Sea ("Sea of the Arabah," according to Dead Sea, from Bible Places) is a shrinking inland lake, fed by the Jordan River, that is so saline as to be lifeless. It is the lowest place on earth. Jewish Virtual Library approximates its dimensions as 1,300 feet (400 meters) below sea level, 34 miles (55 km.) long and between 11 miles (18 km.) and 2 miles (3 km.) in width, and 1,400 feet (430 m.) deep.
The Dead Sea is located between modern Jordan and Israel, and in the ancient world served as a barrier to Judah partially blocking entry from the east.
  Nobody knows for sure who wrote the Dead Sea Scrolls.
The origin of the Dead Sea Scrolls, which were written between 150 B.C. and 70 A.D., remains the subject of scholarly debate to this day. According to the prevailing theory, they are the work of a Jewish population that inhabited Qumran until Roman troops destroyed the settlement around 70 A.D. These Jews are thought to have belonged to a devout, ascetic and communal sect called the Essenes, one of four distinct Jewish groups living in Judaea before and during the Roman era. Proponents of this hypothesis note similarities between the traditions outlined in the Community Rule—a scroll detailing the laws of an unnamed Jewish sect—and the Roman historian Flavius Josephus’ description of Essene rituals. Archeological evidence from Qumran, including the ruins of Jewish ritual baths, also suggests the site was once home to observant Jews. Some scholars have credited other groups with producing the scrolls, including early Christians and Jews from Jerusalem who passed through Qumran while fleeing the Romans.
Qumran
One of the caves near Qumran in which fragments of the Dead Sea Scrolls were discovered.
Almost all of the Hebrew Bible is represented in the Dead Sea Scrolls.
The Dead Sea Scrolls include fragments from every book of the Old Testament except for the Book of Esther. Scholars have speculated that traces of this missing book, which recounts the story of the eponymous Jewish queen of Persia, either disintegrated over time or have yet to be uncovered. Others have proposed that Esther was not part of the Essenes’ canon or that the sect did not celebrate Purim, the festive holiday based on the book. The only complete book of the Hebrew Bible preserved among the manuscripts from Qumran is Isaiah; this copy, dated to the first century B.C., is considered the earliest Old Testament manuscript still in existence. Along with biblical texts, the scrolls include documents about sectarian regulations, such as the Community Rule,
The Nazarene Way of Essenic Studies
~ Incarnation and Reincarnation ~
The Re-Generation and Purification of the Soul




 
"Blessed are they who suffer many experiences, for they shall be made perfect: They shall be as the angels in Heaven and shall die no more, and neither shall they be reborn, for death and birth will no longer have dominion over them." Jesus, Gospel of the Holy Twelve
Jesus answered and said unto him, "Verily, verily, I say unto thee, Except a man be born again, he cannot see the kingdom of God. Marvel not that I said unto thee, Ye must be born again."
And his disciples asked him, saying, Master, who did sin, this man, or his parents, that he was born blind? John 9:2

When Jesus came into the coasts of Caesarea Philippi, he asked his disciples, saying, Whom do men say that I am? And they said, Some say that thou art John the Baptist: some, Elias; and others, Jeremias, or one of the prophets. Matthew 16:13-14
  • Incarnation and Reincarnation An incarnation is the process whereby the non-physical essence of a fragment-spirit is invested with bodily nature and form. It is a union of the physical plane of existence with the non-physical plane. Reincarnation is the re-cycling of the essence of the fragment-spirit into different physical forms, in different time periods, in different roles, as an experiencing arm of the Source.
  • Biblical References to Reincarnation The following citations from the Holy Bible must be considered when referenced in the context of reincarnation.
  • Regeneration of the Soul  And Iesus said unto them, Blessed are they who suffer many experiences, for they shall be made perfect through suffering: they shall be as the angels of God in Heaven and shall die no more, neither shall they be born any more, for death and birth shall have no more dominion over them.
  • Reincarnational Experiences We each consists of the sum total of all past experiences, from various perspectives, over eons of existence.
  • Karma is the physical manifestation of the law of balance and harmony. You are bound karmically to anything that you accept until you understand it. 
  • Cause and Effect The Principles of Karma. "Every Cause has its Effect; every Effect has its Cause; everything happens according to Law; Chance is but a name for Law not recognized; there are many planes of causation, but nothing escapes the Law."
   ' पड़ोसियों से प्रेम करो ' जैसे उपदेश ईसामसीह के उपदेशों के साथ तुलना करने योग्य हैं. ये सभी पन्ने ' Dead Sea Scroll ' के नाम से प्रसिद्द हैं. 
ये सब तो नीन्द में सपना देखने पर चर्चा हुई. जाग्रत अवस्था को भी कुछ लोग एक प्रकार का स्वप्न कहते हैं. अर्थात, जितना जाग्रत अभी हमलोग हैं, उससे भी अधिक जाग उठाना सम्भव है- और जब किसी किसी के जीवन में, वैसा जागरण घटित हो जाता है, तभी वह समझ पाता है कि - सामान्य तौर पर जिसको हमलोग जगे रहना कहते हैं, वह भी मानों एक सपनों का ही महल था, जिसमें रहकर कभी हम सुखद सपने देख रहे थे, तो कभी दुखद स्वप्न देखते थे.
जिस हमलोग नीन्द में स्वप्न देख रहे होते हैं, उस समय भी तो ऐसा प्रतीत होता है, मानों जगे हुए ही हों. पर जब सचमुच जाग उठते हैं, तभी तुलना करके समझ पाते हैं कि - पहले वाला तो सपना था. इस प्रकार हम समझ सकते है कि जाग्रत अवस्था के विभिन्न स्तर होते हैं. मनुष्य जिस समय जिस अवस्था में रहता है, उस समय वह केवल उसी के विषय में सचेतन रहता है, और उसी को जागरण की एकमात्र अवस्था समझने की भूल करता है.
  ' Neuro scientist ' स्नायु वैज्ञानिक कहते हैं कि, अलग अलग अवस्था में हमारा मस्तिष्क अलग अलग तरीके से विचार कर सकता है. सामान्य तौर पर हमलोग जिसको जाग्रत अवस्था कहते हैं, थोड़ा सा चिन्तन-मनन करने पर ही, हम देख पाएंगे कि वहाँ भी स्वप्न के जैसा ही मानों एक बाद एक पर्दा हटता जा रहा है.
स्वामी विवेकानन्द,१४ अगस्त, १९०० को पेरिस से भगिनी क्रिश्चिन को लिखित, ' हे स्वर्गीय स्वप्न ' नामक कविता में कहते हैं- 
' हे स्वप्न, तू धन्य है !' 
( Thou Blessed Dream)
 If things go ill or well —
If joy rebounding spreads the face,
Or sea of sorrow swells —
A play — we each have part,
Each one to weep or laugh as may;
Each one his dress to don —
Its scenes, alternative shine and rain.
 अच्छा या बुरा, समय बीतता ही जाता है-
कभी हर्षातिरेक से चेहरा चमक उठता है,
और कभी दुखों के सागर लहराने लगते हैं,
यहीं, हम सभी सुख-दुःख से प्रभावित हो,
कभी रोते और कभी हँसते हैं.
हम अपने अपने रंग में होते हैं,
और ये दृश्य अदल-बदलकर आते रहते हैं-
चाहे सुख चमके या दुःख बरसे.
Thou dream, O blessed dream!
Spread far and near thy veil of haze,
Tone down the lines so sharp,
Make smooth what roughness seems.
हे स्वप्न, तू धन्य है - स्वप्न !
यह कुहर-जाल फैलाकर सब कुछ ढक दो,
इन तीखी रेखाओं को कुछ और मधुर करो 
और जो खुरदरापन अनुभव हो, उसे और कोमल कर दो. 
No magic but in thee!
Thy touch make desert bloom to life.
Harsh thunder, sweetest song,
Fell death, the sweet release.
हे स्वप्न !


Swami Vivekananda
केवल तुम्हींमें जादू है, 
तुम्हारे स्पर्श से रेगिस्तान उपवन बनकर लहराते हैं,
कड़कती बिजलियों का भीषण घोष 
मधुर संगीत में बदल जाता है 
और मृत्यु एक सुखद मुक्ति बनकर आती है. 
 - Swami Vivekananda   
अपने छोटे छोटे इच्छाओं की पूर्ति होने और नहीं होने से जो आनंद और वेदना होती है, उन दोनों के साथ उठता-गिरता रहता हूँ. जिसका यह सपने का महल कट चूका है, वे कहते हैं, ' तुम व्यर्थ में ही अपने को लघु बना रखा है, तुम लघु नहीं हो, क्षूद्र शरीर मात्र नहीं हो, तुम बृहत हो, तुम महान हो, तुम तो अनन्त के अधिकारी हो.
अगस्त १८९८ में ' प्रबुद्ध भारत ' ( Awakened India ) पत्रिका के मद्रास से अल्मोड़ा में स्थानांतरित होने के अवसर पर लिखित ' प्रबुद्ध भारत - के प्रति ' अपनी कविता में कहते में हैं-
TO THE AWAKENED INDIA 
( ' प्रबुद्ध भारत ' - के प्रति ! )
 Once more awake!

    For sleep it was, not death, to bring thee life
    Anew, and rest to lotus-eyes for visions
    Daring yet. The world in need awaits, O Truth!
    No death for thee!
जागो फिर एक बार !
यह तो केवल निद्रा थी, मृत्यु नहीं थी,
नवजीवन पाने के लिए,
कमल नयनों के विराम के लिए  उन्मुक्त साक्षत्कार के लिए.
एक बार फिर जागो !
आकुल विश्व तुम्हें निहार रहा है,
हे सत्य ! तुम अमर हो !

Resume thy march,

    With gentle feet that would not break the
    Peaceful rest even of the roadside dust
    That lies so low. Yet strong and steady,
    Blissful, bold, and free. Awakener, ever
    Forward! Speak thy stirring words.
फिर से बढ़ो !
कोमल चरण ऐसे धरो कि एक रज-कण की भी शान्ति भंग न हो 
जो सड़क पर, नीचे पड़ा है. 
सबल, सुदृढ़, आनन्दमय, निर्भय, और मुक्त 
जागो, बढ़े चलो और उद्दत स्वर में बोलो -
Thy home is gone,

    Where loving hearts had brought thee up and
    Watched with joy thy growth. But Fate is strong—
    This is the law—all things come back to the source
    They sprung, their strength to renew.
तेरा घर छूट गया, जहाँ प्यारभरे हृदयों ने तुम्हारा पोषण किया 
और बड़े प्रेम से तुमको विकसित होते हुए भी देखा,
किन्तु, भाग्य प्रबल है- यही नियम है-सभी वस्तुएँ उद्गम को लौटती हैं,
वहीँ, जहाँ से निकली थीं और नव शक्ति लेकर फिर निकल पडती हैं.
Then start afresh

    From the land of thy birth, where vast cloud-belted
    Snows do bless and put their strength in thee,
    For working wonders new. The heavenly
    River tune thy voice to her own immortal song ;
    Deodar shades give thee eternal peace.
नये सिरे से आरम्भ करो, अपनी जननी-जन्मभूमि से ही,
जहाँ, विशाल मेघराशि से बद्धकटि, हिमशिखर तुममें नव शक्ति का संचार कर 
चमत्कारों की क्षमता देता है, जहाँ स्वर्गिक सरिताओं का स्वर 
तुम्हारे संगीत को अमरत्व प्रदान करता है,
जहाँ देवदारु की शीतल छाया में तुम्हें अपूर्व शान्ति मिलती है.

And all above,

    Himala's daughter Umâ, gentle, pure,
    The Mother that resides in all as Power
    And Life, who works all works and
    Makes of One the world, whose mercy
    Opens the gate to Truth and shows
    The One in All, give thee untiring
    Strength, which is Infinite Love.
 और सर्वोपरी ! जहाँ शैल-बाला उमा, कोमल और पावन- विराजती हैं !
जो देवी, ' सर्वभूते शक्ति रूपेण संस्थिता ' होकर - 
सभी प्राणियों की शक्ति और जीवन हैं,
जो सृष्टि के समस्त क्रिया-कलापों की मूलाधार हैं,
 जिनकी कृपा से सत्य के द्वार खुलते हैं 
और जो अनन्त करुणा और प्रेम की मूर्ति हैं;
जो अजस्र शक्ति की स्रोत हैं
और जिनकी अनुकम्पा से सर्वत्र एक ही सत्ता के दर्शन होते हैं.
They bless thee all,

    The seers great, whom age nor clime
    Can claim their own, the fathers of the
    Race, who felt the heart of Truth the same,
    And bravely taught to man ill-voiced or
    Well. Their servant, thou hast got
    The secret—'tis but One.
तुम्हें उन सबका आशीर्वाद मिला है, 
जो महान द्रष्टा रहे है, जो किसी एक युग अथवा प्रदेश के नहीं रहे हैं, 
जिन्होंने जाति को जन्म दिया,
सत्य की अनुभूति की,
साहस के साथ भले-बुरे सबको ज्ञान दिया.
हे ' उनके ' दासों के दास !
तुमने '  उनके ' एकमात्र रहस्य को पा लिया है.
Then speak, O Love!

    Before thy gentle voice serene, behold how
    Visions melt and fold on fold of dreams
    Departs to void, till Truth and Truth alone
    In all its glory shines—
 तब, हे मेरे प्यारे ! उनकी वाणी में बोलो-
तुम्हारा कोमल और पावन स्वर !
देखो, ये दृश्य कैसे ओझल होते हैं,
ये तह पर तह सपने कैसे उड़ जाते हैं,
और सत्य की महिमामयी आत्मा 
किस प्रकार विकीर्ण होती है !

And tell the world—

    Awake, arise, and dream no more!
    This is the land of dreams, where Karma
    Weaves unthreaded garlands with our thoughts
    Of flowers sweet or noxious, and none
    Has root or stem, being born in naught, which
    The softest breath of Truth drives back to
    Primal nothingness. Be bold, and face
    The Truth! Be one with it! Let visions cease,
    Or, if you cannot, dream but truer dreams,
    Which are Eternal Love and Service Free.
 और संसार से कहो- 
( सपने से ) जागो, उठो,  सपनों में मत खोये रहो !
यह सपनों की धरती है, जहाँ कर्म विचारों की सूत्रहीन मालाएँ गूंथता है,
वे फूल, जो मधुर होते हैं अथवा विषाक्त,
जिनकी न जड़ें हैं, न तने, जो शून्य में उपजते हैं,
जिन्हें सत्य पुनः प्रारम्भिक शून्य में ही विलीन कर देता है.
साहसी बनो और सत्य के दर्शन करो,
छायाभासों को शांत होने दो;
यदि सपने ही देखना चाहो तो-
' शाश्वत-प्रेम ' और ' निष्काम- सेवा ' के ही सपने देखो !


हमलोगों के पास भी  केवल वैसे  ही स्वप्न रहें, जो हमें स्वप्नों के संसार से परे, उच्चतर जागरण, उच्चतर सत्य की धारणा कर सकने की क्षमता प्रदान कर सकते हों.वे सपने हैं - निःस्वार्थ सेवा और सीमाहीन प्रेम के सपने. उन्हीं सपनों में  विभोर रहते हुए  हम सभी लोगों का जीवन मंगलमय हो!     
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( Vivek-Jivan August, 2011 স্বপ্নের কথা  का हिन्दी अनुसंधान अनुवाद            
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सोमवार, 9 जनवरी 2012

महामण्डल संवाद : ' विशाखापतनम शाखा व् विलासपुर शाखा से '

महामण्डल संवाद : आंध्रप्रदेश के ' विशाखापत्तनम विवेकानन्द युवा महामण्डल ' द्वारा विगत २१ अगस्त २००११ को युवा सम्मेलन आयोजित किया गया. इस सम्मेलन में चर्चा का विषय था- ' जीवन लक्ष्य का निर्धारण '. दीप प्रज्वलन, संघ गान और स्वदेश मन्त्र के माध्यम से सभा का प्रारम्भ हुआ. इस केंद्र के सहायक सचिव ने स्वागत भाषण में बताया कि, विवेकानन्द द्वारा प्रदर्शित मार्ग के अनुसार जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना, तथा उस दिशा में अग्रसर होने का उपाय जान लेना ' ही इस सम्मेलन का उद्देश्य है. युवाओं के समक्ष कुछ विशिष्ट व्यक्तियों ने इसी विषय के उपर  संक्षेप में अपने विचार प्रस्तुत किये. इसके बाद केंद्र के प्रथम सचिव श्री पी. रवि शंकर ने ' Power Point ' प्रदर्शनी की सहायता से इस विषय के उपर प्रकाश डाला. सम्मेलन में आये हुए युवाओं ने इस परिचर्चा में सक्रिय योगदान किया. यह सम्मेलन लगभग साढ़े तीन घंटे तक चला. विशाखापतनम एवं विजयनगरम के विभिन्न इंजीयरिंग कॉलेज तथा विश्वविद्यालय ( अनिल नेरुकोंडा कॉलेज ऑफ़ इंजीयरिंग, वराह लक्ष्मी कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, आंध्र यूनिवर्सिटी, तथा JNTU University College of Engineering, Vizinagram ) के ११५ छात्रों ने इस सम्मेलन में भाग लिया. उनलोगों के बीच स्वामी विवेकानन्द का संदेश तथा महामण्डल की भावधारा से सम्बन्धित कुछ पुस्तिकाओं का वितरण किया गया. सभा के अंत में एक ' Mobile Bookstall ' या ' घुमन्तु पुस्तक विक्रय केंद्र - ' जाग्रुथी ' का उद्घाटन भी किया गया.
छत्तीसगढ़ के विलासपुर विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा ९ जुलाई को एक दिन का युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया गया.  रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम ( रायपुर ) के अध्यक्ष श्रीमत स्वामी सत्यरुपानन्द, एवं वेदान्त ट्रस्ट (अंबिकापुर) के अध्यक्ष श्रीमत स्वामी तन्मयानन्द तथा महामण्डल के श्री श्याम कुमार पाढ़ी ने स्वामी विवेकानन्द का जीवन और संदेश तथा जीवन गठन की पद्धति के विषय में विभिन परिचर्चा में भाग लिया. प्रशिक्षनार्थियों के बीच ' मातृदेवो भव पितृदेवो भव ' नामक पुस्तिका का वितरण किया गया. २३ जुलाई को केंद्र के द्वारा वस्त्र वितरण कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि भारतीय रेल के एक विशिष्ट अधिकारी श्री नवीन सिंह थे. केंद्र के शिशु विभाग ' विवेक वाहिनी ' के ४० बच्चों को स्कूल का पोषाक और अभ्यास पुस्तिका वितरण किया गया.यहाँ जीवन गठन के साथ साथ स्कूल की परीक्षा में भी अच्छा करने के लिए बच्चों को उत्साहित किया जाता है. कुछ बच्चों ने भी ' विवेक वाहिनी ' से मिलने वाले लाभ के विषय में अपने अनुभव सुनाये.       

शनिवार, 7 जनवरी 2012

' लोक- शक्ति जागरण का आन्दोलन : स्वामी विवेकानन्द का मार्गदर्शन '

श्री अन्नाहजारे के नेतृत्व में, हाल ही में जो आन्दोलन चलाया गया; भ्रष्टाचार के विरुद्ध चलाये गये उस आन्दोलन ने थोड़े समय के लिए ही सही, किन्तु जनता के मन पर जैसा महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है, उसका उल्लेख करते हुए, किसी अग्रणी सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा है ' उस आन्दोलन में जो जन-सैलाब उमड़ा था, वह किसी खास दल से जुड़े रेडीमेड-कैडर का झुण्ड नहीं था, वह स्वतः स्फूर्त था जिसमें सभी वर्ग, जाति और धर्म के लोग शामिल हुए थे। उसी मंच से कितनी ही कविताएँ और कितने ही नारे रचे गये थे, वास्तव में यह प्रजातंत्र का एक उत्सव था. ' इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आन्दोलन ने देश भर में, विशेष तौर से राजधानी में अगस्त माह के कुछ हफ़्तों तक बहुत उत्साह का सृजन किया था. इस समय पूर्व की तुलना में भ्रष्टाचार का अनुपात बहुत अधिक भीमकाय हो चुका है. आम जनता ही इससे पीड़ित है, किन्तु वह असंगठित है, और अपने क्षणिक यादास्त के लिए बदनाम भी है. 
साधारण जनता वर्तमान शासन-व्यवस्था या कहें कि कू-शासन से अत्यन्त त्रस्त और नाराज तो है, किन्तु यह नहीं जानती कि इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए उसे क्या करना चाहिए? इतना ही नहीं, अब तो  इस भ्रष्ट-व्यवस्था के कारण उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन में जो असुविधाएँ उठानी पड़ती हैं, उसकी वे आदि बन चुके हैं. किन्तु अन्ततोगत्वा जब धैर्य खो जाता है, और उन्हें अपने सामने यदि कोई विश्वसनीय नेता उन्हें खड़ा दिख  जाता है, तब वे सामान्य हित के लिए एक साथ मिलकर सड़कों पर उतर आते हैं.
देश की राजधानी दिल्ली में हाल के दिनों में जो घटनाएँ हुईं हैं, उसमें कुछ इसी प्रकार के असंतोष के लक्ष्ण देखे जा सकते हैं.जनता को इस आन्दोलन के लिए जैसे ईमानदार नेतृत्व की लालसा थी, वह अत्यन्त दुर्लभ है बहुत मुश्किल से ही कहीं दिखाई देती है,निश्चित तौर से यहाँ भी उनको धोखा ही खाना पड़ा है. क्योंकि नेतृत्व में शिक्षा की  कमी रहने के कारण,उनमें से अधिकांश को आशा के अनुरूप ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले कारणों या इसमें शामिल मुद्दों के बारे में कोई निश्चित और स्पष्ट धारणा नहीं थी.
किन्तु इससे यह भी सिद्ध हो गया कि आज भी ऐसे बहुत से अच्छे लोग हैं, जो सार्वजनिक जीवन में व्याप्त कदाचार पर नियन्त्रण रखने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन लाने, या उसके स्थान पर कोई बेहतर व्यवस्था स्थापित करने के लिए कार्य करना चाहते हैं. यह बात और है कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन या उपाय को लेकर उनके विचारों में, तथा भविष्य में कदाचार पर नियन्त्रण रखने के लिए जो संस्थाएं बनेगी, उसकी सूक्ष्म बारीकियों में कुछ मतभेद रह सकते हैं.
किन्तु फिर भी, उन सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच, इस बात को लेकर एक आम सहमती थी कि, पहले से विद्यमान किन्तु निष्पक्ष और प्रभावकारी ढंग से कार्य करने में अक्षम, निगरानी-प्रणाली के स्थान पर एक स्वतंत्र और निष्पक्ष निगरानी प्रणाली को स्थापित करना आवश्यक है. क्योंकि मीडिया (प्रचार-माध्यम) भी बहुत बड़े पैमाने पर इस आन्दोलन के साथ जुड़ चूका है, इसीलिए इन लोगों को व्यापक जन-समर्थन भी मिल रहा है. इनकी चिन्ता का विषय यह है कि- लोकतंत्र के तीन स्तम्भों- विधायीका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका को कैसे शुद्ध किया जाय? किन्तु कोई भी इसके चौथे स्तम्भ- मीडिया (समाचार माध्यम) के उपर चर्चा नहीं करता, जो की देशव्यापी स्तर पर (अश्लीलता परोस कर ) युवा मन को तहस नहस करने में लगा हुआ है.
यहाँ यह उल्लेख किया जा सकता है कि यदि हमलोग इस नई ' व्यवस्था को दुरुस्त रखने के लिए सच्चरित्र मनुष्यों का उत्पादन ' करने में असमर्थ हो जाते हैं, तो ( पूर्व के समान ही ) नई प्रणाली भी समान रूप से भ्रष्ट हो सकती है.क्योंकि,जब तक ' नागरिकों के नैतिक चरित्र ' के उपर हम लोग गंभीरता से ध्यान नही देंगे तबतक, कोई भी आन्दोलन या संगठन, चाहे वह कितना भी नेकनीयत और न्यायोचित क्यों न हो, देशवासियों की ' अनैतिक प्रवृत्तियों (tendencies) की समस्या ' को हल नहीं कर सकता. हमारे पास, असंख्य अधिनियमों और विनियमों से परिपूर्ण दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान,संस्थाएँ और प्रणालियाँ हैं; किन्तु क्या वे हमारी समस्याओं को हल करने में सक्षम हैं? स्वामी विवेकानन्द ने बहुत पहले ही कहा था - " सभी सामाजिक और राजनितिक व्यवस्थाएं मनुष्यों के सच्चरित्रता पर निर्भर करती हैं. कोई भी राष्ट्र इसलिए महान और अच्छा नहीं होता कि (उसके पास बहुत मोटा संविधान है और) उसके पार्लियामेन्ट ने यह या वह बिल पास कर दिया है, बल्कि इसलिए होता है कि, उसके मनुष्य महान और अच्छे हैं. "(४/२३४)
इस देश के लिए, इस प्रकार के लोकप्रिय आंदोलन नए नहीं हैं, यहाँ एक सदी से भी अधिक समय तक इसी प्रकार के अनेकों जन-प्रिय आन्दोलन चलाने के लिए (अर्ध-शिक्षित) लोगों के बीच होड़ मची रहती थी, जिसके परिणाम स्वरूप अधिकांश आन्दोलन कुछ ही दिनों बाद अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाया करते थे. क्योंकि हमारे लोगों में वैसी राजनीतिक शिक्षा नहीं है, जैसी राजनितिक शिक्षा यूरोप के लोगों को २५०० वर्षों से पारंपरिक रूप से प्राप्त है.
प्राचीन काल के कुछ छोटे गणराज्यों को छोड़कर, हमारे देशवासियों को " स्व-शासन " (Self-governance) का स्वाद चखने का सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ था. अत्यन्त प्राचीन समय से ही हमारे देशवासी अपना भाग्य राजाओं के, या किसी सर्वशक्तिमान सत्ता के हाथों छोड़ देते थे, जिनको वे भगवान कह कर बुलाया करते थे. वर्तमान युग में भी वे, पहले की तरह ही अपना भाग्य किसी न किसी राजनितिक आकाओं के हाथों में छोड़ कर निश्चिन्त रहना चाहते हैं, भले ही वे बदनाम या दागी भी क्यों न हों ! 
इस परिस्थिति को सचमुच कैसे बदला जा सकता है ? यह कार्य केवल शिक्षा और शिक्षा के द्वारा ही सम्भव हो सकता है. केवल सच्ची शिक्षा ही हमारी बन्द आँखों को खोल सकती है. सच्ची शिक्षा ही मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता को उन्मुक्त कर सकती है. यह उनको अपने यथार्थ स्वरूप के बारे में सोचने के लिए सक्षम बनाती है, वे अपने एवं जगत के- 'यथार्थ स्वरूप' के सम्बन्ध में पक्की राय बना सकते हैं, और दृढ विश्वासी बन कर अपनी समस्त समस्यायों का हल स्वयं निकाल सकते हैं. पाकिस्तान गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति इस्कन्दर मिर्ज़ा ने बिल्कुल सही ही फरमाया था कि, 
' Democracy without education is hypocrisy without limitation.' - अर्थात
' शिक्षा के बिना लोकतंत्र एक सीमा हीन पाखण्ड है.' 
पाश्चात्य देशों से १८९७ में स्वदेश लौटने के बाद, मद्रास(परमकुड़ी) में दिए गये एक भाषण में स्वामी विवेकानन्द ने इसी विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा था- " जिन राजनितिक पद्धतियों के लिए हम आज भारत में इतना प्रयत्न कर रहे हैं, वे यूरोप में सदियों से रही हैं तथा आजमाई भी जा चुकी हैं, परन्तु फिर भी वे नितान्त संतोषजनक नहीं पाई गयीं, उनमें भी कमी है. ...और आज यूरोप की दशा यह है कि वह बेचैन है, यह नहीं जानता कि अब किस प्रणाली की शरण लें.
वहाँ आर्थिक अत्याचार असह्य हो उठे हैं. देश का (काला) धन तथा शक्ति उन थोड़े से लोगों के हाथों में है, जो स्वयं तो कुछ काम नहीं करते; पर लाखों मनुष्यों को अपने लिए काम में लगाये रखने की चतुराई जरुर जानते हैं. इस क्षमता के द्वारा वे चाहें तो सारे संसार को खून से प्लावित कर दें. धर्म तथा अन्य सभी चीजों को उन्होंने पैरों तले कुचल रखा है, वे ही शासक हैं और सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं. आज पाश्चात्य संसार तो बस ऐसे ही इने गिने ' शायलाकों ' के द्वारा शासित है,' और यह जो तुम वहाँ की वैधानिक सरकार, स्वतंत्रता, आज़ादी, संसद, आदि की चर्चा सुना करते हो, वह सब मजाक है." (इसलिए भारत का यूरोपीयकरण एक असम्भव और मूर्खतापूर्ण कार्य है.४/२३९)
पुनः मद्रास के विक्टोरिया हॉल में दिए गये भाषण में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " इसके बाद एक और महत्वपूर्ण विषय पर हमें विचार करना है. भारतवर्ष में हमारे उपर सदैव राजाओं का ही शासन रहा है, राजाओं ने ही हमारे सब कानून बनाये हैं. अब वे राजा नहीं हैं, और इस विषय में अग्रसर होने के लिए हमें मार्ग दिखलाने वाला अब कोई नहीं रहा. सरकार साहस नहीं करती. वह तो जनमत की गति (वोट-बैंक) देख कर ही अपनी कार्य-प्रणाली निश्चित करती है. अपनी समस्यायों को हल कर लेने वाला एक कल्याणकारी और प्रबल लोकमत जाग्रत करने में समय लगता है- काफी लम्बा समय भी लग सकता है, और इस बीच हमें प्रतीक्षा करनी होगी.
और यही कारण है कि सामाजिक-सुधार के लिए चलाये जाने वाले सभी आंदोलनों का ऐसा ही (लोकपाल बिल जैसा) हस्र होता है; कहाँ हैं वे लोग जो सचमुच सुधार चाहते हैं ? पहले उन्हें तैयार  करो. सुधार के नियमों को दृढ़ता के साथ लागु करने वाले लोग हैं कहाँ ?
(सत्ता में बैठे) कुछ थोड़े से लोग किसी बात को उचित समझते हैं और बस उसे अन्य सब पर जबरदस्ती लादना चाहते हैं. इन अल्पसंख्यक व्यक्तियों के अत्याचार के समान दुनिया में और कोई अत्याचार नहीं. मुट्ठी भर लोग, जो सोचते हैं कि कतिपय बातें दोषपूर्ण हैं, वे स्वयं भी राष्ट्र को प्रगति के पथ पर नहीं चला सकते. 
राष्ट्र में आज प्रगति क्यों नहीं है ? क्यों वह जड़-भावापन्न है? पहले राष्ट्र को शिक्षित करो, अपनी खुद की (स्वतंत्र) नियामक संस्थाएँ बनाओ, फिर तो कानून आप ही आ जायेंगे. जिस जनमत की शक्ति से, जिसके अनुमोदन से कानून का गठन होगा, पहले उसकी सृष्टि करो. आज राजा नहीं रहे; जिस नयी शक्ति से, जिस नये (प्रबुद्ध-नागरिक) दल से नयी व्यवस्था गठित होगी, वह जन-चेतना कहाँ है, वह लोक-शक्ति कहाँ है? 
पहले उस लोक-शक्ति को संगठित करो. अतएव समाज-सुधार के लिए भी प्रथम कर्तव्य है- लोगों को शिक्षित करना. और जब तक यह कार्य सम्पन्न नहीं होता, तब तक प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी. गत शताब्दी में सुधार के लिए जो भी आन्दोलन हुए हैं, उनमें से अधिकांश केवल उपरी दिखावा मात्र रहे हैं...सुधार करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुंचना होता है.
इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ. आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः उपर उठने दो एवं एक अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो. पर यह एक बड़ी भरी समस्या है, और इसका समाधान भी कोई सरल नहीं है. अतएव शीघ्रता करने की आवश्यकता नहीं. यह समस्या तो गत कई शताब्दियों से हमारे देश के महापुरुषों को ज्ञात थी." (५/११०-११) 
स्वामीजी द्वारा कथित उपरोक्त पंक्तियाँ, देश की समस्त समस्यायों को संपुटित करते हुए,
उसका वास्तविक और स्थायी समाधान भी प्रस्तुत करती हैं. अगर हम गंभीरता से इस लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में संघर्ष करें, केवल तभी, इसी मौलिक सुधार के बल पर प्रत्येक वर्ष २६ जनवरी को मनाया जाने वाला ' प्रजातन्त्र दिवस ' अर्थात जिस दिन से इस देश की ' साधारण जनता का शासन ' शुरू होता है; को हमलोग ' प्रजातन्त्र का नित्योत्सव ' के रूप में धूमधाम से अनवरत मना सकेंगे.   
(Vivek-Jivan September 2011 में प्रकाशित सम्पादकीय ' Rousing People's Power ' का हिन्दी अनुवाद.)   

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

मानव जाति का मार्गदर्शक ' नेता ' बनने और बनाने में पतंजली ऋषि की भूमिका(बीरेन दा )

शिक्षा का उद्देश्य है पशु-मानव से देव-मानव में उन्नत होना या मन को अपने वश में रखने का उपाय सीख कर सच्चा मनुष्य बनना। किन्तु वर्तमान शिक्षा प्रणाली में मनः संयोग या मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने की कोई व्यवस्था नहीं है. इसीलिए स्वामी विवेकानन्द  वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बदहजमी का शिकार बनाने वाली शिक्षा कहते थे. अतः महामण्डल के प्रशिक्षण शिविरों में स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित शिक्षा प्रणाली को ही व्यव्हार में लाया जाता है.
पारम्परिक शिक्षा प्रणाली के अनुसार नर्सरी से एम्.एस. सी. या एम्.ए. तक की शिक्षा पाने के लिए, वार्षिक परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद अगली कक्षा में जाते हैं. माध्यमिक परीक्षा की तैयारी करने के लिए सभी विषयों को बहुत बार पढ़ते रहते हैं, और दिमाग में विभिन्न विषयों के इतने तथ्य एकत्र हो जाते हैं कि परीक्षा के पहले दिन मन बहुत बेचैन रहता है, फिर एक-एक विषय की परीक्षा देते हुए मन धीरे धीरे हल्का होता जाता है, और परीक्षा के अन्तिम दिन यह बिल्कुल निश्चिन्त और हल्का हो जाता है. तब हमलोग सोचते हैं - आज जा कर शांति मिली; आज मैं अपना समय अपने रूचि के अनुरूप कार्यों में व्यतीत कर पाउँगा.
क्यों ऐसा अनुभव होता है ? पुस्तक के ज्ञान को मन पचा नहीं पाया था, अन्तिम परीक्षा में जब समस्त अनपचा ज्ञान को ( वामटिंग ) उल्टी कर दिया तब मन हल्का हो गया. यदि पुस्तकों में दिए गए ज्ञान का, उसमें अन्तर्निहित भावों का आत्मसातीकरण नहीं हुआ, तो हम उसको शिक्षित नहीं कह सकते.
स्वामीजी कहते हैं, " जो शिक्षा तुम अभी पा रहे हो, उसमें कुछ अच्छा अंश भी है और बुराइयाँ बहुत हैं, इसलिए ये बुराइयाँ उसके भले अंश को दबा देतीं हैं. सबसे पहली बात यह है यह शिक्षा ' मनुष्य बनाने वाली ' नहीं कही जा सकती. शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूंस दी जायें कि मन में अन्तर्द्वन्द्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग उसे जीवन भर पचा न सके. जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और विचारों को आत्मसात कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है. यदि तुम पाँच ही भावों को पचा कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सकते हो, तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कंठस्थ कर रखा है. " (५/१९५) 
बंगाला- पाठ्यक्रम ( Syllabus ) में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की पुस्तक से पढ़ाई की सुरुआत की जाती है, उसका पहला पाठ है- ' सदा सत्य बोलो '. इस बात को रट कर लिख देने से पूरा नम्बर तो मिल जायेगा, किन्तु यदि इस शिक्षा को मैंने आत्मसात नहीं किया, जीवन में प्रायः झूठ ही बोलता रहता हूँ, तो क्या मुझे शिक्षित कहा जा सकता है? यदि मैं इस ज्ञान को जीवन में धारण कर लेता अर्थात आत्मसात कर लेता तो मैं एक 
' सत्यवादी ' मनुष्य बन सकता था.
कॉलेज में नागरिक-शास्त्र ( Civics ) पढ़ता हूँ, उसमें प्रबुद्ध नागरिक में कौन कौन से गुण रहने चाहिए यह सब लिखा रहता है, उसको रट कर लिख दिया, योग्य-नागरिक बनने के लिए हमें इस प्रकार जीवन यापन करना चाहिए जिससे अपना शौक पूरा करते समय दूसरों को कष्ट न हो. परन्तु स्वयं गाना सुनते समय मैं रेडिओ का वोलुम इतना तेज रखता हूँ कि यदि कोई परीक्षा कि तैयारी कर रहा है, कोई रोगी है यह सब याद भी नहीं आता. प्रबुद्ध नागरिक जल के स्तर को नीचे जाते देख कर कभी जल को बर्बाद नहीं होने देगा. डस्टबिन में कचरा न फेंक कर कहीं भी फेंकता रहता हूँ पर नागरिक-शास्त्र में फर्स्ट क्लास फर्स्ट हो गया तो भी मुझे अशिक्षित ही कहा जायेगा.
किसी भी पुस्तकीय ज्ञान को आत्मसात करने के लिए मन को एकाग्र करने, उसे अपने नियन्त्रण रखने की पद्धति को सीखना आवश्यक हो जाता है.किन्तु पारम्परिक शिक्षा प्रणाली में इस विषय को सिखलाने की कोई व्यवस्था नहीं है, इसीलिए स्वामी विवेकानन्द, पारम्परिक शिक्षा प्रणाली की केवल भर्त्सना करके ही चुप नहीं हो जाते, वे एक प्रतिपूरक या वैकल्पिक शिक्षा-प्रणाली का उल्लेख करते हुए कहते हैं- ' यदि मुझे फिर से शिक्षा का प्रारंभ करना पड़े तो मैं पहले मन को एकाग्र करने की विद्या ही सीखूंगा. मैं मन का यंत्र नहीं हूँ, मन मेरा यंत्र है, अतः मन को मेरे वश में रहना ही होगा, उसको मैं जब चाहूँ किसी विषय से खींच कर, अपने जिस प्रयोजनिय विषय में लगाना चाहूँ, मन को उसी विषय पर एकाग्र हो जाना होगा, मन मेरी आज्ञा का पालन करेगा.'
स्वामी विवेकानन्द भावों के आत्मसातीकरण को ही सच्ची शिक्षा कहते हैं, और किसी भाव पर मन को एकाग्र करने से ही उसे अपने जीवन में उतरा जा सकता है या आत्मसात किया जा सकता है.
२१वीं शताब्दी के वैज्ञानिक प्रगति को देख कर हमें गर्व होता है. मात्र २०० वर्ष पूर्व भी विज्ञान ने इतनी उचाईयों को नहीं छुआ था. अभी हम यहाँ से बोल रहे हैं, १६०० लडके इसे सुन रहे हैं, इस माइक, बल्ब, कम्प्यूटर, आदि को किसने बनाया ? मन की सहायता से ही समस्त आविष्कार हुए हैं. वैज्ञानिक आविष्कारों का रहस्य क्या है? न्यूटन ने गुरुत्वाकर्ष्ण की शक्ति का अविष्कार कैसे किया ? न्यूटन ने देखा कि पका हुआ सेव नीचे गिरा, सारे फल पक जाने पर टूट कर नीचे ही क्यों गिरते हैं? प्रकृति के किस नियम के अनुसार ऐसा होता है, इसी प्रश्न पर न्यूटन ने अपने मन को एकाग्र किया, और उसने गुरुत्वाकर्ष्ण के नियम का आविष्कार कर लिया. मन लगा कर पढ़ाई करने से हम प्रथम श्रेणी में पास हो जाते हैं. पर हमलोग यह नहीं जानते कि हमारा मन परीक्षा में अधिक अंक लाने से भी ज्यादा शक्तिशाली है.
मानव सभ्यता की प्रगति प्रकृति के नियमों के वैज्ञानिक आविष्कार के साथ ही प्रारम्भ होती है. अभी जिनेवा स्थित सर्न-प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों ने God-Particle या ईश्वरीय-कण को आविष्कृत कर लेने का दावा किया है, जिससे सृष्टि के रहस्य को उद्घाटित करने में सहायता मिलेगी, स्वामी विवेकानन्द कहते हैं इक्कीसवीं सदी में विज्ञान और आध्यात्म हाथ मिला लेंगे. मानव सभ्यता ने जितनी भी प्रगति की है वह सब मन की शक्ति के द्वारा ही हुई है. अभी से ही वैज्ञानिकों को यह चिन्ता कोल-उर्जा या पेट्रोलियम समाप्त हो जायेगा तो कल-कारखाने और हवाई जहाज आदि कैसे चलेंगे ? अभी वैज्ञानिक लोग सौर उर्जा पर अधिक अन्वेषण कर रहे हैं, जिससे कल-कारखाने भी चलाये जा सकेंगे.
हमारा मन ज्ञान और शक्ति का अनंत भंडार है, किन्तु अक्सर हमलोग इसकी शक्ति से अपरिचित ही क्यों रह जाते हैं? ऐसा इसीलिए होता है कि हमारा मन स्वभाव से ही चंचल है, किन्तु इसकी स्वाभाविक चंचलता को मन में छुपे कुछ अन्य शत्रु,  इसे अतिरिक्त रूप से चंचल बना देते हैं. इसकी अतिरिक्त चंचलता के कारण ही हमलोग इसकी अनन्त शक्ति को ठीक से नहीं जान पाते हैं, तथा अपने प्रयोजन को सिद्ध करने में इसका उपयोग नहीं कर पाते हैं. अतिरक्त चंचल होने के कारण मन पर नियन्त्रण रखना थोड़ा कठिन हो जाता है. किन्तु इसकी पद्धति को जान लेने से हमलोग इस कठिन कार्य को भी आसानी से कर सकते हैं.
मन पर नियन्त्रण लाने के पहले मन के स्वभाव को ठीक से समझना पड़ेगा. अभी हमलोग यहाँ बैठ कर सुन रहे हैं, पर किसी किसी का मन घर में चला जाता हैं, वहाँ अभी क्या बन रहा होगा, क्रिकेट के मैदान में चला जाता है, चाँद पर चला जाता है,मन हमेशा चंचल ही बना रहता है, तथा बिना मेरी अनुमति लिए ही एक विचार से दुसरे विचारों में भागता रहता है.
मन की तुलना मदमस्त हाथी या वनों में विचरने वाले बाघ आदि जन्तुओं से की जाती है. जिस प्रकार सर्कस का रिंग मास्टर किसी जानवर को वश में करने के पहले उसका स्वभाव को पूरी तरह से जान लेता है, उसी प्रकार हमें भी अपने मन को वश में करने के पहले उसके स्वभाव को अच्छी तरह से जान लेना होगा. क्योंकि मन की चंचलता के कारण हम उसे अपने प्रयोजनीय विषय पर अपनी ईच्छा के अनुसार एकाग्र नहीं कर पाते हैं. अतिरक्त चंचल होने के कारण मन पर नियन्त्रण रखना कठिन हो जाता है. किन्तु इसकी पद्धति को जान लेने से हमलोग इस कठिन कार्य को भी आसानी से कर सकते हैं.
मन की तुलना बन्दर से करते हुए स्वामी विवेकानन्द एक कहानी कहते हैं- " मन को संयत करना कितना कठिन है ! इसकी एक सुसंगत उपमा उन्मत्त बंदर से दी गयी है. कहीं एक वानर था. वह स्वभावतः चंचल था, जैसे कि सभी वानर होते हैं. लेकिन उतने से संतुष्ट न हो, एक आदमी ने उसे काफी शराब पिला दी. इससे वह और भी चंचल हो गया. इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मर दिया. तुम जानते हो, किसी को बिच्छू डंक मार दे, तो वह दिन भर इधर उधर कितना तड़पता रहता है. सो उस प्रमत्त अवस्था के उपर बिच्छू का डंक !! इससे वह बन्दर बहुत अस्थिर हो गया. तत्पश्चात मानो उसके दुःख की मात्रा को पूर्ण करने के लिए एक भूत भी उस पर सवार हो जाता है. यह सब मिला कर सोचो, बन्दर कितना चंचल हो गया होगा. यह भाषा द्वारा व्यक्त करना असम्भव है. बस, मनुष्य का मन उसी वानर के जैसा चंचल हो गया है. मन तो स्वभावतः ही सतत चंचल है, फिर वह कामना-वासना रूपी मदिरा से मत्त है, इससे उसकी अस्थिरता बढ़ गयी है. किसी की प्रत्येक कामना तो पूर्ण नहीं हो सकती, तब सुखी लोगों को देख कर ईर्ष्या रूप बिच्छू उसे डंक मारता रहता है. उसके उपर जब अहंकार का भूत भी उस पर सवार हो जाता है, तब तो वह अपने आगे किसीको नहीं गिनता. ऐसी तो हमारे मन की अवस्था है ! सोचो तो, इसका संयम करना कितना कठिन है !" (१/८६)
अतः ऐसे चंचल मन को यदि वश में लाना है, तो पहले जो शत्रु मन की स्वाभाविक चंचलता को और अधिक बढ़ा देते हैं, उन शत्रुओं को मन से निकाल बाहर करना हमारा पहला कार्य होना चाहिए. हमारे पूर्वज ऋषियों ने मनुष्य की इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए आठ-चरणों में मन को वश में करने की एक वैज्ञानिक पद्धति का अविष्कार किया है, जिसे ' अष्टांग-योग ' या ' पतंजली योग-सूत्र ' भी कहा जाता है. ये आठ चरण हैं; यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि. इन आठ सोपानों का अभ्यास करने से हम अपने मन को पूरी तरह से वश में ला सकते हैं.
किन्तु बिना गुरु के सानिध्य में रहकर प्राणायाम का अभ्यास करना हानिकारक भी हो सकता है, इससे शरीर अस्वस्थ होने के साथ साथ दिमाग भी बिगड़ सकता है, इसलिए यह हमारे लिए आवश्यक नहीं है. स्वामी विवेकानन्द स्वयं भी एक बार अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के निकट निर्विकल्प-समाधि में रहने की ईच्छा व्यक्त किये थे, किन्तु उनके गुरु ने इसके लिए उनकी भर्त्सना करते हुए कहा था, तुझे तो मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बन कर लोगों को मन को एकाग्र रखना सिखाना है, और तू केवल अपनी मुक्ति चाहता है ? ध्यान ही गहरा होने पर समाधि में बदल जाता है, इसीलिए- ' प्राणायाम, ध्यान और समाधि ' का अभ्यास विद्यार्थियों के लिए आवश्यक नहीं है.
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " परिवर्तनशील होने पर भी शरीर को स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी. यही हमारे पास सर्वोत्तम साधन है. सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है. मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से-यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है. मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं. देवताओं को भी ज्ञान-लाभ के लिए मनुष्य-देह धारण करनी पड़ती है. एकमात्र मनुष्य ही ज्ञान-लाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं. यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत और समुदय सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि की. और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने सभी देवदूतों को बुलाकर मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन करने को कहा. इबलीस को छोड़ कर बाकि सब ने मनुष्य के आगे अपने सिर को झुकाया. अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया. इससे वह शैतान बन गया. " (१/५३)इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है.  भागवत में भी कहा गया है- ' ब्रह्म अवलोक धीषणम पुरुषम विधाय मुदमाप देवा. ' निम्नतर सृष्टि - पशु आदि मन्दबुद्धि की है, इसलिए मनः संयोग का अभ्यास नहीं कर सकते. इसीलिए स्वामीजी ने विद्यार्थियों को अपना शरीर स्वस्थ और बलिष्ठ रखते हुए, मन को एकाग्र करने का परामर्श दिया है.
अतः महामण्डल के प्रशिक्षण शिविर में, मन को एकाग्र करने प्रशिक्षण देने के लिये ऋषि पतंजली कृत ' अष्टांग-योग ' को और सरल करते हुए इसके ५ चरणों को भी दो वर्ग में बाँट दिया है- ' यम-नियम ' तथा ' आसन-प्रत्याहार-धारणा '. निरन्तर जाग्रत विवेक की सहायता से पहला वर्ग ' यम-नियम ' का पालन जीवन भर प्रति मुहूर्त करना है. यम और नियम का पालन करने से मन में जो शत्रु छुपे रहते हैं- कामिनी-कांचन की भोगाकंक्षा, लोभ, ईर्ष्या, अहंकार रूपी भूत जो मन की स्वाभाविक चंचलता को और अधिक बढ़ा देते हैं, वे क्रमशः पराजित होने लगते हैं.स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ' यम और नियम चरित्र-निर्माण के साधन हैं. इनको नीव बनाये बिना किसी तरह की योग-साधना सिद्ध न होगी. ' (१/४८)
' यम ' का अर्थ है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह. इस यम से चित्तशुद्धि होती है. अहिंसा (Non Injury ) - ईर्ष्या के वशीभूत होकर, शरीर ,मन, वचन के द्वारा कभी किसी प्राणी की हिंसा न करना या उन्हें कष्ट न पहुँचाना-यह अहिंसा कहलाता है. अहिंसा से बढ़ कर, कोई दूसरा धर्म नहीं है. सत्य- सत्य के द्वारा हम कर्म-फल के भागी होते हैं; सत्य से सब कुछ निकला है; सत्य में सब कुछ प्रतिष्ठित है. यथार्थ कथन को ही सत्य कहते हैं.अस्तेय (Non Stealing) चोरी से या बलपूर्वक दूसरे की चीज न लेने का नाम अस्तेय है. चोरी करने के मनोभाव का आभाव ब्रह्मचर्य - पवित्र जीवन हमें अपने मन वचन कर्म से सदैव पवित्र रहना चाहिए, और अपरिग्रह- अत्यन्त कष्ट के समय में भी किसी मनुष्य से कोई उपहार ग्रहण न करने को अपरिग्रह कहते हैं.किसी का काम करने के बदले उपहार में कोई भी वस्तु (रिश्वत आदि) लेने का लालच मत रखो, किसीसे कुछ लेने से हृदय अपवित्र हो जाता है, लेने वाला हीन हो जाता है, वह अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है और बद्ध एवं आसक्त हो जाता है.
दूसरा है ' नियम ' अर्थात नियमित अभ्यास और व्रत-परिपालन. शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान- इन्हें नियम कहते हैं. शौच (Cleanliness) वाह्य स्वच्छता का ध्यान रखने के साथ साथ आंतरिक स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखना है, कोई भी अपवित्र विचार मन के अंदर प्रविष्ट नहीं होने देना है. संतोष जो कुछ प्राप्त हो जाय उसमें संतुष्ट रहना, तपस्या कष्ट सह कर भी समस्याओं का समाधान ढूंढ़ निकालने में लगे रहना,और सत्य वैज्ञानिकों के मानस चक्षुओं के सामने आविष्कृत हो उठेगा, किन्तु भगवान बुद्ध के जैसा शरीर को बिल्कुल सुखा नहीं देना है, कि जिससे सुजाता का खीर खा कर प्राणों को बचाने की चेष्टा करनी पड़े, बुद्ध ने कहा है- ' वीणा के तार को इतना मत कसो कि वह टूट जाय, मध्यम-मार्ग सबसे अच्छा है. तपस्या भी सीमा के अंदर ही करनी चाहिए, अति से बचना चाहिए.स्वाध्याय (आध्यात्म-शास्त्रपाठ ) या मानव-जाति के मार्गदर्शक नेताओं की जीवनी पढ़ना, नेताजी की पुस्तक ' तरुणों का स्वप्न ' भी उसी स्तर का है. और ईश्वर-प्रणिधान - पतंजली ऋषि आदिगुरु के रूप में एक सगुण ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, तथा मन को सर्वव्यापी मानते हैं.' (१/३३)  अर्थात ईश्वर की पूजा मात्र ही नहीं करना बल्कि- यह सृष्टि कैसे बनी ? इसका स्रष्टा कौन है ? पवित्र जीवन जीते हुए परम सत्य को जानने की चेष्टा में अध्यवसाय के साथ लगे रहना, या अपने देह में स्थित ' देही ' को जानने का प्रयास करते रहना, साँस-प्रस्वास कौन ले रहा है, इसी चिन्तन में लगे रहना या ईश्वर को आत्मसमर्पण करना ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता है.
यम और नियम का अभ्यास सतत, जीवन के हर क्षण में  करते रहना होगा, ऐसा नहीं कि केवल पूजा-घर में ही यम-नियम का पालन करना है पर ऑफिस या स्कुल या अन्य किसी कार्य क्षेत्र में नहीं करना है. अब दूसरा वर्ग ' आसन-प्रत्याहार-धारणा ' का " अभ्यास प्रतिदिन कम से कम दो बार करना चाहिए, और उस अभ्यास का उपयुक्त समय है प्रातः और सायं. जब रात बीतती है और पौ फटती है तथा जब दिन बीतता है और रात आती है, इन दो समयों में प्रकृति अपेक्षाकृत शान्त होती है. ब्राह्ममुहूर्त तथा गोधूली वेला, ये दो समय मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने के लिए अनुकूल है. इस समय साधना करने से प्रकृति हमारी काफी सहायता करेगी. यह नियम बना लो कि साधना समाप्त किये बिना भोजन नहीं करोगे.ऐसा नियम बना लेने से भूख का प्रबल वेग ही तुम्हारा आलस्य नष्ट कर देगा." (१/५६)
 आसन (Posture) - अर्थात मन के साथ बातचीत करने या मन को देखने के लिए किसी शान्त और पवित्र परिवेश में थोड़ी देर तक बिना हिले-डुले बैठने का अभ्यास. " तुममें से जिनको सुभीता हो, वे साधना के लिए यदि विशिष्ट कमरा रख सकें तो अच्छा हो. इस कमरे को सोने के काम में न लाओ. इसे पवित्र रखो. बिना स्नान किये और शरीर-मन को बिना शुद्ध किये इस कमरे में प्रवेश न करो. सुबह और शाम वहाँ धूप और चन्दन-चूर्ण आदि जलाओ. उस कमरे में किसी प्रकार का क्रोध, कलह, और अपवित्र चिन्तन न किया जाय. तुम्हारे साथ जिनके भाव मिलते हैं, केवल उन्हीं को उस कमरे में प्रवेश करने दो.
ऐसा करने से शीघ्र वह कमरा सत्वगुण से पूर्ण हो जायेगा; यहाँ तक कि, जब किसी प्रकार का दुःख या संशय आये अथवा मन बेचैन हो रहा हो, तो उस समय उस कमरे में प्रवेश करते ही तुम्हारा मन शान्त हो जायेगा. चारों ओर पवित्र चिन्तन के परमाणु सदा स्पन्दित होते रहने के कारन वह स्थान पवित्र ज्योति से परिपूर्ण रहता है. जिनके पास इस तरह कमरे की सुविधा नहीं है, वे जहाँ इच्छा हो, वहीँ बैठकर साधना कर सकते हैं. ' आसन के बारे में इतना ही समझ लेना चाहिए कि वक्षस्थल, ग्रीवा और सिर को सीधे रखकर शरीर को स्वछन्द भाव से रखना होगा.' (१/१०२)  पद्मासन में बैठने से शरीर में कष्ट हो सकता है, इसलिए सुखासन में बाबु होकर बैठने से भी मन को देखने का अभ्यास किया जा सकता है, परन्तु रीढ़ कि हड्डी और गर्दन एक सीध में तथा ठुड्डी फर्श के सामानांतर रखना चाहिए, इसके लिए अर्ध-पद्मासन में बैठना सबसे अच्छा है. मन ही मन संसार के सभी मनुष्यों के मंगल की प्रार्थना करो. इसके बाद भावना करनी होगी, ' मेरा शरीर वज्रवत दृढ, स्वस्थ और शक्तिशाली है. मेरा मन प्रबल ईच्छा-शक्ति सम्पन्न है, मैं इसी शरीर और मन की सहयता से ' तुम्हारा ' (परमसत्य का ) दर्शन कर लूँगा.'(१/५६)   
आसन में बैठने के बाद प्रत्याहार की साधना करनी पड़ती है, प्रत्याहार क्या है ? इन्द्रियों की प्रवृत्ति सदैव बहिर्मुखी बनी रहती है, हम उसको थोड़ी देर तक अन्तर्मुखी रखने का अभ्यास करेंगे. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " अतएव मन के संयम का पहला सोपान यह है कि कुछ समय के लिए आँखों को मूंद कर, चुप्पी साधे बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो. मन सतत चंचल है. वह बन्दर की तरह सदा कूद-फांद कर रहा है. यह मन-मरकट जितनी इच्छा हो, उछल-कूद मचाये, कोई हानी नहीं; धीर भाव से प्रतीक्षा करो और मन की गति देखते जाओ." (१/८७)
" चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फिर से प्राप्त करने के लिए सतत चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रखती हैं. उसका दमन करना, उसकी इस बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे लौटाकर अंतर्मुखी करना, हृदय में विराजित गुरु (विवेकानन्द) के पास ले जाने वाले मार्ग पर लाना- यही योग का पहला सोपान है, जिसे प्रत्याहार कहते हैं. " (१/११८)
आसन में बैठ कर, अपनी आँखे मूंद कर मन की गति-विधियों को देखने की चेष्टा करेंगे. आँखे खुली रखने से बाह्य वस्तुएँ भी दिखाई देंगी, पर मन तो आंतरिक इन्द्रिय है, उसको इन आँखों से नहीं देखा जा सकता है. " हमें मालूम है कि मन में एक ऐसी शक्ति है, जिससे वह अपने अन्दर जो कुछ हो रहा है, उसे देख सकता है- इसको अन्तःपर्यवेक्ष्ण-शक्ति कह सकते हैं. मन का ही एक अंश ' द्रष्टा '  बन कर ' दृश्य ' मन को देखता रहेगा. ' जब तक मन की क्रियाओं पर नजर न रखोगे, उसका संयम न कर सकोगे. सम्भव है, बहुत बुरी बुरी भावनाएँ तुम्हारे मन में आयें. तुम्हारे मन में इतनी असत भावनाएँ आ सकती हैं कि तुम देख कर आश्चर्यचकित हो जाओगे. पहले कुछ महीने देखोगे, तुम्हारे मन में हजारों विचार आयेंगे, क्रमशः वह संख्या घटकर सैकड़ों तक रह जाएगी. फिर कुछ और महीने बाद वह और भी घट जायगी, और अन्त में मन पूर्ण रूप से अपने वश में आ जायेगा.
इस प्रकार मन का संयम करना और उसे मनमाने ढंग से विभिन्न इन्द्रियों के साथ संयुक्त न होने देना ही प्रत्याहार है. यह एक-दो दिन का काम नहीं, बहुत दिनों तक लगातार अभ्यास करना होगा. धीर भाव से लगातार बहुत वर्षों तक अभ्यास करने पर तब कहीं इस विषय में सफलता मिल पाती है." (१/८७)
ऐसा इसलिए होता है कि सामान्यतः हमलोग अपने चेतन मन के प्रति ही जागरूक रहते हैं, पर आँखों को मूंद लेने के बाद मन को देखने की चेष्टा करने से, हमारे अवचेतन मन ( चित्त या मन-वस्तु मन के चार भाग हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार.) में छुपे हुए विचार सामने आने लगते हैं इसीलिए मन को किसी एक विषय पर टिकाये रखने में कठिनाई होने लगती है. "कभी कभी ऐसा होता है कि रास्ते से गाड़ियाँ दौड़ती हुई निकल जाती है, पर तुम उन्हें सुन नहीं पाते. क्यों ? इसलिए की तब तुम्हारा मन श्रवण-इन्द्रिय के साथ संयुक्त नहीं रहता. अतएव, प्रत्येक अनुभव-क्रिया के लिए पहले तो बाहर का यंत्र, उसके बाद मस्तिष्क में स्थित उसके स्नायु-केंद्र या इन्द्रिय, और इन दोनों के साथ मन का योग चाहिए. मन, विषय के आघात से उत्पन्न हुई संवेदना को और भी अन्दर ले जाकर निश्चयात्मिका बुद्धि के सामने पेश करता है, तब बुद्धि से प्रतिक्रिया होती है. इस प्रतिक्रिया के साथ अहं-भाव जाग उठता है. फिर क्रिया और प्रतिक्रिया का यह मिश्रण आत्मा के सामने लाया जाता है. तब वे पुरुष इस मिश्रण को एक ससीम वस्तु के रूप में अनुभव करते हैं. पाँचो इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को मिलाकर अन्तःकरण कहते हैं. ये सब मन के उपादान स्वरुप चित्त के भीतर होने वाली भिन्न भिन्न प्रक्रियाएँ हैं. मनुष्य का जो असल स्वरुप है, वह मन के अतीत है. मन तो उसके हाथों एक यन्त्र स्वरूप है. उसी का चैतन्य इस मन के माध्यम से अनुस्रवित हो रहा है. जब तुम इस मन के पीछे द्रष्टा रूप से स्थित हो जाते हो, तभी वह चैतन्यमय होता है." (१/११५-१७)

" जो इच्छा मात्र से अपने मन को मस्तिष्क में स्थित स्नायु केन्द्रों (इन्द्रियों) में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है, उसीका प्रत्याहार सिद्ध हुआ है. प्रत्याहार का अर्थ है, एक ओर आहरण करना अर्थात खींचना- मन की बहिर्गती को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना. इसमें कृतकार्य होने पर ही हम यथार्थ चरित्रवान होंगे; तभी और तभी समझेंगे कि हम मुक्ति के मार्ग में बहुत दूर बढ़ गये हैं. इससे पहले तो हम मशीन मात्र हैं. " (१/८६) 
 ' मन को एकाग्र कर के केवल किसी एक इन्द्रिय से संयुक्त कर रखना बहुत कठिन है, क्योंकि मन विषयों का दास है. इच्छापूर्वक या अनिच्छापूर्वक मनुष्य अपने मन को भिन्न भिन्न इन्द्रिय नामक स्नायु-केन्द्रों में संलग्न करने को बाध्य होता है. इसीलिए मनुष्य अनेक प्रकार के दुष्कर्म करता है और बाद में कष्ट पाता है. कोई उसे यह शिक्षा नहीं देता कि वह इन अशुभ कर्मों से किस प्रकार बचे. यदि उसे मनःसंयम का उपाय सिखाया जाय, तभी वह यथार्थ में शिक्षा प्राप्त कर सकता है, और वही उसकी सच्ची सहायता और उपकार है. ' '(१/८३)
मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उनका प्रयोग करना होगा. जैसे सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अंधकारमय स्थान भी अपने गुप्त तथ्य खोल देते हैं, उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अन्तरतम रहस्य प्रकट कर देगा. तभी, आत्मा है या नहीं, जीवन केवल इस सामान्य जीवितकाल तक ही सीमित है अथवा अनन्तकाल व्यापी है और संसार में कोई कोई ईश्वर है या नहीं, यह सब हमारे ज्ञान चक्षुओं के सामने उद्भासित हो उठेगा. " (१/४१)
अब हम किसी चंचल-बालक के समान अपने मन को भी शांत रहने का अनुरोध करेंगे, तथा अपनी ईच्छा-शक्ति का प्रयोग कर उसको बाह्य विषयों में जाने से रोक कर अन्तर्मुखी करेंगे. अतः कुछ काल तक प्रत्याहार की साधना करने के बाद, धारणा का अभ्यास करने का प्रयत्न करना होगा. मन भी प्रकृति का अंश है, उसे कभी शून्य नहीं किया जा सकता, इसलिए अन्तर्मुखी करने के बाद उसे किसी बिन्दु पर या दीपक की ज्वलन्त शिखा पर धारण किया जा सकता है.
किन्तु मन का गठन इस प्रकार हुआ है कि वह निर्गुण-निराकार वस्तु की अपेक्षा सगुण-साकार वस्तु पर आसानी से एकाग्र हो जाता है.धारणा का अर्थ है- मन को देह के भीतर हृदय-कमल पर विराजित अपने गुरु या आदर्श स्वामी विवेकानन्द की जीवन्त मूर्ति पर बलपूर्वक एकाग्र रखना. जब चित्त अर्थात मनोवृत्ति किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध होती है, तब उसे धारणा कहते हैं.
एक बार खूब गहरी दृष्टि से टकटकी लगा कर स्वमीजी की छवि को देख लेंगे, आँखों को मूंद लेने के बाद भी वही छवि जीवन्त और जाग्रत दिखाई देगी, मानो साक्षात् सामने बैठ कर स्वामीजी हमसे बात-चीत कर रहे हों. किन्तु शुरू शुरू में एक सेकण्ड के लिए भी मन उनकी छवि पर स्थिर नहीं रह पायेगा. पर मन से हार नहीं मानना है, उसके साथ संघर्ष करके, कामिनी-कांचन के विचार को दूर हटा कर,उसे बलपूर्वक गुरु विवेकानन्द पर आबद्ध रखने का अभ्यास करना है. यदि थकान का अनुभव होने लगे तो आँखे खोल कर पुनः उस छवि को या ज्वलन्त दीप-शिखा को देख कर आँखों को मूंद कर एकदम जीवन्त देखने का अभ्यास करना है.
आँखें मूंद लेने के बाद भी दीप-शिखा जलती हुई क्यों दिखाई देती है, या स्वामी विवेकानन्द जीवन्त क्यों दिखाई पड़ते हैं? एकाग्र मन में अनन्त शक्ति रहने के कारण. जैसे कॉन्वेक्स लेन्स पर सूर्य की बिखरी हुई किरणों को एकाग्र करने से उसकी शक्ति बढ़ जाती है, और उसके केंद्र-बिन्दु पर रखा कागज जलने लगता है.
अब प्रश्न उठ सकता है कि हमारा मन भी इतना एकाग्र होने में कितना समय लगेगा? आजकल टीवी पर दिखने वाले कुछ ' श्री श्री ' लोग ३ दिन का तो कोई एक सप्ताह का कोर्स बतलाते हैं, किन्तु यह सब बकवास है. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " पूरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ- फिर मृत्यु भी आये तो क्या ! ' मंत्रम व साधयामि शरीरं व पातयामि '- काम सधे या प्राण ही जायें. फल की ओर आँख रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ.सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए, मन में अपरिमित बल चाहिए. अध्यवसायशील साधक कहता है, ' मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा. मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर-चूर हो जायेंगे.' इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ संकल्प लेकर कठोर साधना करो और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्तकरोगे." 
वे एक कहानी कहते हैं- " नारद नामक एक महान देवर्षि थे. जैसे मनुष्यों में ऋषि या बड़े बड़े योगी रहते हैं, वैसे ही देवताओं में भी बड़े बड़े योगी हैं.नारद भी वैसे ही एक अच्छे और अत्यन्त महान योगी थे. वे सर्वत्र भ्रमण किया करते थे. एक दिन एक वन में से जाते हुए उनहोंने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है और इतने दिनों से एक ही आसन पर बैठा है कि उसके चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है. उसने नारद से पूछा,' प्रभो, आप कहाँ जा रहे हैं? नारदजी ने उत्तर दिया, ' मैं बैकुण्ठ जा रहा हूँ.' तब उसने कहा, ' अच्छा, आप भगवान से पूछते आयें, वे मुझ पर कब कृपा करेंगे, मैं कब मुक्ति प्राप्त करूँगा.'
फिर कुछ दूर और आगे जाने पर नारदजी ने एक दूसरे मनुष्य को देखा. वह नाच-कूद कर, कीर्तन कर रहा था. उसने भी नारदजी से वही प्रश्न किया. उस व्यक्ति का कंठस्वर, वग्भंगी आदि सभी उन्मत्त के समान थे. नारदजी ने उसे पहले के समान उत्तर दिया. वह बोला,'अच्छा, तो भगवान से पूछते आयें, मैं कब मुक्त होऊंगा.' लौटते समय नारदजी ने दीमक के ढेर के अन्दर रहने वाले उस ध्यानस्थ योगी को देखा. उस योगी ने पूछा,'देवर्षे, क्या आपने मेरी बात पूछी थी?
नारदजी बोले, ' हाँ, पूछी थी.' योगी ने पूछा,'तो उन्होंने क्या कहा?' नारदजी ने उत्तर दिया, ' भगवान ने कहा, ' मुझको पाने के लिए उसे और चार जन्म लगेंगे.' तब तो वह योगी घोर विलाप करते हुए कहने लगा, ' मैंने इतना ध्यान किया है कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया, फिर भी मुझे और चार जन्म लेने पड़ेंगे !' नारदजी तब दूसरे व्यक्ति के पास गये. उसने भी पूछा, ' क्या आपने मेरी बात भगवान से पूछी थी? नारदजी बोले, ' हाँ, भगवान ने कहा है, ' उसके सामने जो इमली का पेड़ है, उसके जितने पत्ते हैं, उतनी बार उसको जन्म ग्रहण करना पड़ेगा'.
यह बात सुनकर वह व्यक्ति आनंद से नृत्य करने लगा और बोला, ' मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त करूँगा !' तब एक देववाणी हुई, ' मेरे बच्चे, तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे.' वह दूसरा व्यक्ति इतना अध्यवसाय सम्पन्न था! इसीलिए उसे वह पुरष्कार मिला. वह इतने जन्म साधना करने को तैयार था. कुछ भी उसे उद्द्य्म से रोक न सका. परन्तु वह प्रथ्मोक्त व्यक्ति चार जन्मों की ही बात सुनकर घबड़ा गया. जो व्यक्ति मुक्ति के लिए सैकड़ों युग तक बाट जोहने को तैयार था, उसके समान अध्यवसाय-सम्पन्न होने पर ही उच्चतम फल प्राप्त होता है. (१/१०५)
हमलोग भी यदि धैर्य और अध्यवसाय के साथ अभ्यास करते रहें तो इस जन्म में या अगले जन्म में भी मैं अभ्यास जारी रखूँगा, ऐसा दृढ संकल्प रहे, तब मैं अवश्य सफल हो जाऊंगा. कीमती वस्तु बिना कष्ट उठाय प्राप्त नहीं होता है. यदि किशोरावस्था से ही विद्यार्थियों को अष्टांग योग के उपरोक्त पाँच सोपानों से परिचित कराकर उन्हें मन को वश में रखने की शिक्षा दी जाय तो वे निश्चित रूप से भविष्य में चरित्रवान नागरिक बन सकेंगे, और दूसरों को भी चरित्रवान नागरिक बनाने वाले नेता बन सकेंगे.