श्री अन्नाहजारे के नेतृत्व में, हाल ही में जो आन्दोलन चलाया गया; भ्रष्टाचार के विरुद्ध चलाये गये उस आन्दोलन ने थोड़े समय के लिए ही सही, किन्तु जनता के मन पर जैसा महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है, उसका उल्लेख करते हुए, किसी अग्रणी सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा है ' उस आन्दोलन में जो जन-सैलाब उमड़ा था, वह किसी खास दल से जुड़े रेडीमेड-कैडर का झुण्ड नहीं था, वह स्वतः स्फूर्त था जिसमें सभी वर्ग, जाति और धर्म के लोग शामिल हुए थे। उसी मंच से कितनी ही कविताएँ और कितने ही नारे रचे गये थे, वास्तव में यह प्रजातंत्र का एक उत्सव था. ' इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आन्दोलन ने देश भर में, विशेष तौर से राजधानी में अगस्त माह के कुछ हफ़्तों तक बहुत उत्साह का सृजन किया था. इस समय पूर्व की तुलना में भ्रष्टाचार का अनुपात बहुत अधिक भीमकाय हो चुका है. आम जनता ही इससे पीड़ित है, किन्तु वह असंगठित है, और अपने क्षणिक यादास्त के लिए बदनाम भी है.
साधारण जनता वर्तमान शासन-व्यवस्था या कहें कि कू-शासन से अत्यन्त त्रस्त और नाराज तो है, किन्तु यह नहीं जानती कि इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए उसे क्या करना चाहिए? इतना ही नहीं, अब तो इस भ्रष्ट-व्यवस्था के कारण उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन में जो असुविधाएँ उठानी पड़ती हैं, उसकी वे आदि बन चुके हैं. किन्तु अन्ततोगत्वा जब धैर्य खो जाता है, और उन्हें अपने सामने यदि कोई विश्वसनीय नेता उन्हें खड़ा दिख जाता है, तब वे सामान्य हित के लिए एक साथ मिलकर सड़कों पर उतर आते हैं.
देश की राजधानी दिल्ली में हाल के दिनों में जो घटनाएँ हुईं हैं, उसमें कुछ इसी प्रकार के असंतोष के लक्ष्ण देखे जा सकते हैं.जनता को इस आन्दोलन के लिए जैसे ईमानदार नेतृत्व की लालसा थी, वह अत्यन्त दुर्लभ है बहुत मुश्किल से ही कहीं दिखाई देती है,निश्चित तौर से यहाँ भी उनको धोखा ही खाना पड़ा है. क्योंकि नेतृत्व में शिक्षा की कमी रहने के कारण,उनमें से अधिकांश को आशा के अनुरूप ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले कारणों या इसमें शामिल मुद्दों के बारे में कोई निश्चित और स्पष्ट धारणा नहीं थी.
किन्तु इससे यह भी सिद्ध हो गया कि आज भी ऐसे बहुत से अच्छे लोग हैं, जो सार्वजनिक जीवन में व्याप्त कदाचार पर नियन्त्रण रखने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन लाने, या उसके स्थान पर कोई बेहतर व्यवस्था स्थापित करने के लिए कार्य करना चाहते हैं. यह बात और है कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन या उपाय को लेकर उनके विचारों में, तथा भविष्य में कदाचार पर नियन्त्रण रखने के लिए जो संस्थाएं बनेगी, उसकी सूक्ष्म बारीकियों में कुछ मतभेद रह सकते हैं.
किन्तु फिर भी, उन सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच, इस बात को लेकर एक आम सहमती थी कि, पहले से विद्यमान किन्तु निष्पक्ष और प्रभावकारी ढंग से कार्य करने में अक्षम, निगरानी-प्रणाली के स्थान पर एक स्वतंत्र और निष्पक्ष निगरानी प्रणाली को स्थापित करना आवश्यक है. क्योंकि मीडिया (प्रचार-माध्यम) भी बहुत बड़े पैमाने पर इस आन्दोलन के साथ जुड़ चूका है, इसीलिए इन लोगों को व्यापक जन-समर्थन भी मिल रहा है. इनकी चिन्ता का विषय यह है कि- लोकतंत्र के तीन स्तम्भों- विधायीका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका को कैसे शुद्ध किया जाय? किन्तु कोई भी इसके चौथे स्तम्भ- मीडिया (समाचार माध्यम) के उपर चर्चा नहीं करता, जो की देशव्यापी स्तर पर (अश्लीलता परोस कर ) युवा मन को तहस नहस करने में लगा हुआ है.
यहाँ यह उल्लेख किया जा सकता है कि यदि हमलोग इस नई ' व्यवस्था को दुरुस्त रखने के लिए सच्चरित्र मनुष्यों का उत्पादन ' करने में असमर्थ हो जाते हैं, तो ( पूर्व के समान ही ) नई प्रणाली भी समान रूप से भ्रष्ट हो सकती है.क्योंकि,जब तक ' नागरिकों के नैतिक चरित्र ' के उपर हम लोग गंभीरता से ध्यान नही देंगे तबतक, कोई भी आन्दोलन या संगठन, चाहे वह कितना भी नेकनीयत और न्यायोचित क्यों न हो, देशवासियों की ' अनैतिक प्रवृत्तियों (tendencies) की समस्या ' को हल नहीं कर सकता. हमारे पास, असंख्य अधिनियमों और विनियमों से परिपूर्ण दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान,संस्थाएँ और प्रणालियाँ हैं; किन्तु क्या वे हमारी समस्याओं को हल करने में सक्षम हैं? स्वामी विवेकानन्द ने बहुत पहले ही कहा था - " सभी सामाजिक और राजनितिक व्यवस्थाएं मनुष्यों के सच्चरित्रता पर निर्भर करती हैं. कोई भी राष्ट्र इसलिए महान और अच्छा नहीं होता कि (उसके पास बहुत मोटा संविधान है और) उसके पार्लियामेन्ट ने यह या वह बिल पास कर दिया है, बल्कि इसलिए होता है कि, उसके मनुष्य महान और अच्छे हैं. "(४/२३४)
इस देश के लिए, इस प्रकार के लोकप्रिय आंदोलन नए नहीं हैं, यहाँ एक सदी से भी अधिक समय तक इसी प्रकार के अनेकों जन-प्रिय आन्दोलन चलाने के लिए (अर्ध-शिक्षित) लोगों के बीच होड़ मची रहती थी, जिसके परिणाम स्वरूप अधिकांश आन्दोलन कुछ ही दिनों बाद अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाया करते थे. क्योंकि हमारे लोगों में वैसी राजनीतिक शिक्षा नहीं है, जैसी राजनितिक शिक्षा यूरोप के लोगों को २५०० वर्षों से पारंपरिक रूप से प्राप्त है.
प्राचीन काल के कुछ छोटे गणराज्यों को छोड़कर, हमारे देशवासियों को " स्व-शासन " (Self-governance) का स्वाद चखने का सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ था. अत्यन्त प्राचीन समय से ही हमारे देशवासी अपना भाग्य राजाओं के, या किसी सर्वशक्तिमान सत्ता के हाथों छोड़ देते थे, जिनको वे भगवान कह कर बुलाया करते थे. वर्तमान युग में भी वे, पहले की तरह ही अपना भाग्य किसी न किसी राजनितिक आकाओं के हाथों में छोड़ कर निश्चिन्त रहना चाहते हैं, भले ही वे बदनाम या दागी भी क्यों न हों !
इस परिस्थिति को सचमुच कैसे बदला जा सकता है ? यह कार्य केवल शिक्षा और शिक्षा के द्वारा ही सम्भव हो सकता है. केवल सच्ची शिक्षा ही हमारी बन्द आँखों को खोल सकती है. सच्ची शिक्षा ही मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता को उन्मुक्त कर सकती है. यह उनको अपने यथार्थ स्वरूप के बारे में सोचने के लिए सक्षम बनाती है, वे अपने एवं जगत के- 'यथार्थ स्वरूप' के सम्बन्ध में पक्की राय बना सकते हैं, और दृढ विश्वासी बन कर अपनी समस्त समस्यायों का हल स्वयं निकाल सकते हैं. पाकिस्तान गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति इस्कन्दर मिर्ज़ा ने बिल्कुल सही ही फरमाया था कि,
' Democracy without education is hypocrisy without limitation.' - अर्थात
' शिक्षा के बिना लोकतंत्र एक सीमा हीन पाखण्ड है.'
पाश्चात्य देशों से १८९७ में स्वदेश लौटने के बाद, मद्रास(परमकुड़ी) में दिए गये एक भाषण में स्वामी विवेकानन्द ने इसी विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा था- " जिन राजनितिक पद्धतियों के लिए हम आज भारत में इतना प्रयत्न कर रहे हैं, वे यूरोप में सदियों से रही हैं तथा आजमाई भी जा चुकी हैं, परन्तु फिर भी वे नितान्त संतोषजनक नहीं पाई गयीं, उनमें भी कमी है. ...और आज यूरोप की दशा यह है कि वह बेचैन है, यह नहीं जानता कि अब किस प्रणाली की शरण लें.
वहाँ आर्थिक अत्याचार असह्य हो उठे हैं. देश का (काला) धन तथा शक्ति उन थोड़े से लोगों के हाथों में है, जो स्वयं तो कुछ काम नहीं करते; पर लाखों मनुष्यों को अपने लिए काम में लगाये रखने की चतुराई जरुर जानते हैं. इस क्षमता के द्वारा वे चाहें तो सारे संसार को खून से प्लावित कर दें. धर्म तथा अन्य सभी चीजों को उन्होंने पैरों तले कुचल रखा है, वे ही शासक हैं और सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं. आज पाश्चात्य संसार तो बस ऐसे ही इने गिने ' शायलाकों ' के द्वारा शासित है,' और यह जो तुम वहाँ की वैधानिक सरकार, स्वतंत्रता, आज़ादी, संसद, आदि की चर्चा सुना करते हो, वह सब मजाक है." (इसलिए भारत का यूरोपीयकरण एक असम्भव और मूर्खतापूर्ण कार्य है.४/२३९)
पुनः मद्रास के विक्टोरिया हॉल में दिए गये भाषण में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " इसके बाद एक और महत्वपूर्ण विषय पर हमें विचार करना है. भारतवर्ष में हमारे उपर सदैव राजाओं का ही शासन रहा है, राजाओं ने ही हमारे सब कानून बनाये हैं. अब वे राजा नहीं हैं, और इस विषय में अग्रसर होने के लिए हमें मार्ग दिखलाने वाला अब कोई नहीं रहा. सरकार साहस नहीं करती. वह तो जनमत की गति (वोट-बैंक) देख कर ही अपनी कार्य-प्रणाली निश्चित करती है. अपनी समस्यायों को हल कर लेने वाला एक कल्याणकारी और प्रबल लोकमत जाग्रत करने में समय लगता है- काफी लम्बा समय भी लग सकता है, और इस बीच हमें प्रतीक्षा करनी होगी.
और यही कारण है कि सामाजिक-सुधार के लिए चलाये जाने वाले सभी आंदोलनों का ऐसा ही (लोकपाल बिल जैसा) हस्र होता है; कहाँ हैं वे लोग जो सचमुच सुधार चाहते हैं ? पहले उन्हें तैयार करो. सुधार के नियमों को दृढ़ता के साथ लागु करने वाले लोग हैं कहाँ ?
(सत्ता में बैठे) कुछ थोड़े से लोग किसी बात को उचित समझते हैं और बस उसे अन्य सब पर जबरदस्ती लादना चाहते हैं. इन अल्पसंख्यक व्यक्तियों के अत्याचार के समान दुनिया में और कोई अत्याचार नहीं. मुट्ठी भर लोग, जो सोचते हैं कि कतिपय बातें दोषपूर्ण हैं, वे स्वयं भी राष्ट्र को प्रगति के पथ पर नहीं चला सकते.
राष्ट्र में आज प्रगति क्यों नहीं है ? क्यों वह जड़-भावापन्न है? पहले राष्ट्र को शिक्षित करो, अपनी खुद की (स्वतंत्र) नियामक संस्थाएँ बनाओ, फिर तो कानून आप ही आ जायेंगे. जिस जनमत की शक्ति से, जिसके अनुमोदन से कानून का गठन होगा, पहले उसकी सृष्टि करो. आज राजा नहीं रहे; जिस नयी शक्ति से, जिस नये (प्रबुद्ध-नागरिक) दल से नयी व्यवस्था गठित होगी, वह जन-चेतना कहाँ है, वह लोक-शक्ति कहाँ है?
पहले उस लोक-शक्ति को संगठित करो. अतएव समाज-सुधार के लिए भी प्रथम कर्तव्य है- लोगों को शिक्षित करना. और जब तक यह कार्य सम्पन्न नहीं होता, तब तक प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी. गत शताब्दी में सुधार के लिए जो भी आन्दोलन हुए हैं, उनमें से अधिकांश केवल उपरी दिखावा मात्र रहे हैं...सुधार करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुंचना होता है.
इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ. आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः उपर उठने दो एवं एक अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो. पर यह एक बड़ी भरी समस्या है, और इसका समाधान भी कोई सरल नहीं है. अतएव शीघ्रता करने की आवश्यकता नहीं. यह समस्या तो गत कई शताब्दियों से हमारे देश के महापुरुषों को ज्ञात थी." (५/११०-११)
स्वामीजी द्वारा कथित उपरोक्त पंक्तियाँ, देश की समस्त समस्यायों को संपुटित करते हुए,
उसका वास्तविक और स्थायी समाधान भी प्रस्तुत करती हैं. अगर हम गंभीरता से इस लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में संघर्ष करें, केवल तभी, इसी मौलिक सुधार के बल पर प्रत्येक वर्ष २६ जनवरी को मनाया जाने वाला ' प्रजातन्त्र दिवस ' अर्थात जिस दिन से इस देश की ' साधारण जनता का शासन ' शुरू होता है; को हमलोग ' प्रजातन्त्र का नित्योत्सव ' के रूप में धूमधाम से अनवरत मना सकेंगे.
(Vivek-Jivan September 2011 में प्रकाशित सम्पादकीय ' Rousing People's Power ' का हिन्दी अनुवाद.)
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