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Thursday, January 5, 2012

मानव जाति का मार्गदर्शक ' नेता ' बनने और बनाने में पतंजली ऋषि की भूमिका(बीरेन दा )

शिक्षा का उद्देश्य है पशु-मानव से देव-मानव में उन्नत होना या मन को अपने वश में रखने का उपाय सीख कर सच्चा मनुष्य बनना। किन्तु वर्तमान शिक्षा प्रणाली में मनः संयोग या मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने की कोई व्यवस्था नहीं है. इसीलिए स्वामी विवेकानन्द  वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बदहजमी का शिकार बनाने वाली शिक्षा कहते थे. अतः महामण्डल के प्रशिक्षण शिविरों में स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित शिक्षा प्रणाली को ही व्यव्हार में लाया जाता है.
पारम्परिक शिक्षा प्रणाली के अनुसार नर्सरी से एम्.एस. सी. या एम्.ए. तक की शिक्षा पाने के लिए, वार्षिक परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद अगली कक्षा में जाते हैं. माध्यमिक परीक्षा की तैयारी करने के लिए सभी विषयों को बहुत बार पढ़ते रहते हैं, और दिमाग में विभिन्न विषयों के इतने तथ्य एकत्र हो जाते हैं कि परीक्षा के पहले दिन मन बहुत बेचैन रहता है, फिर एक-एक विषय की परीक्षा देते हुए मन धीरे धीरे हल्का होता जाता है, और परीक्षा के अन्तिम दिन यह बिल्कुल निश्चिन्त और हल्का हो जाता है. तब हमलोग सोचते हैं - आज जा कर शांति मिली; आज मैं अपना समय अपने रूचि के अनुरूप कार्यों में व्यतीत कर पाउँगा.
क्यों ऐसा अनुभव होता है ? पुस्तक के ज्ञान को मन पचा नहीं पाया था, अन्तिम परीक्षा में जब समस्त अनपचा ज्ञान को ( वामटिंग ) उल्टी कर दिया तब मन हल्का हो गया. यदि पुस्तकों में दिए गए ज्ञान का, उसमें अन्तर्निहित भावों का आत्मसातीकरण नहीं हुआ, तो हम उसको शिक्षित नहीं कह सकते.
स्वामीजी कहते हैं, " जो शिक्षा तुम अभी पा रहे हो, उसमें कुछ अच्छा अंश भी है और बुराइयाँ बहुत हैं, इसलिए ये बुराइयाँ उसके भले अंश को दबा देतीं हैं. सबसे पहली बात यह है यह शिक्षा ' मनुष्य बनाने वाली ' नहीं कही जा सकती. शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूंस दी जायें कि मन में अन्तर्द्वन्द्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग उसे जीवन भर पचा न सके. जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और विचारों को आत्मसात कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है. यदि तुम पाँच ही भावों को पचा कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सकते हो, तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कंठस्थ कर रखा है. " (५/१९५) 
बंगाला- पाठ्यक्रम ( Syllabus ) में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की पुस्तक से पढ़ाई की सुरुआत की जाती है, उसका पहला पाठ है- ' सदा सत्य बोलो '. इस बात को रट कर लिख देने से पूरा नम्बर तो मिल जायेगा, किन्तु यदि इस शिक्षा को मैंने आत्मसात नहीं किया, जीवन में प्रायः झूठ ही बोलता रहता हूँ, तो क्या मुझे शिक्षित कहा जा सकता है? यदि मैं इस ज्ञान को जीवन में धारण कर लेता अर्थात आत्मसात कर लेता तो मैं एक 
' सत्यवादी ' मनुष्य बन सकता था.
कॉलेज में नागरिक-शास्त्र ( Civics ) पढ़ता हूँ, उसमें प्रबुद्ध नागरिक में कौन कौन से गुण रहने चाहिए यह सब लिखा रहता है, उसको रट कर लिख दिया, योग्य-नागरिक बनने के लिए हमें इस प्रकार जीवन यापन करना चाहिए जिससे अपना शौक पूरा करते समय दूसरों को कष्ट न हो. परन्तु स्वयं गाना सुनते समय मैं रेडिओ का वोलुम इतना तेज रखता हूँ कि यदि कोई परीक्षा कि तैयारी कर रहा है, कोई रोगी है यह सब याद भी नहीं आता. प्रबुद्ध नागरिक जल के स्तर को नीचे जाते देख कर कभी जल को बर्बाद नहीं होने देगा. डस्टबिन में कचरा न फेंक कर कहीं भी फेंकता रहता हूँ पर नागरिक-शास्त्र में फर्स्ट क्लास फर्स्ट हो गया तो भी मुझे अशिक्षित ही कहा जायेगा.
किसी भी पुस्तकीय ज्ञान को आत्मसात करने के लिए मन को एकाग्र करने, उसे अपने नियन्त्रण रखने की पद्धति को सीखना आवश्यक हो जाता है.किन्तु पारम्परिक शिक्षा प्रणाली में इस विषय को सिखलाने की कोई व्यवस्था नहीं है, इसीलिए स्वामी विवेकानन्द, पारम्परिक शिक्षा प्रणाली की केवल भर्त्सना करके ही चुप नहीं हो जाते, वे एक प्रतिपूरक या वैकल्पिक शिक्षा-प्रणाली का उल्लेख करते हुए कहते हैं- ' यदि मुझे फिर से शिक्षा का प्रारंभ करना पड़े तो मैं पहले मन को एकाग्र करने की विद्या ही सीखूंगा. मैं मन का यंत्र नहीं हूँ, मन मेरा यंत्र है, अतः मन को मेरे वश में रहना ही होगा, उसको मैं जब चाहूँ किसी विषय से खींच कर, अपने जिस प्रयोजनिय विषय में लगाना चाहूँ, मन को उसी विषय पर एकाग्र हो जाना होगा, मन मेरी आज्ञा का पालन करेगा.'
स्वामी विवेकानन्द भावों के आत्मसातीकरण को ही सच्ची शिक्षा कहते हैं, और किसी भाव पर मन को एकाग्र करने से ही उसे अपने जीवन में उतरा जा सकता है या आत्मसात किया जा सकता है.
२१वीं शताब्दी के वैज्ञानिक प्रगति को देख कर हमें गर्व होता है. मात्र २०० वर्ष पूर्व भी विज्ञान ने इतनी उचाईयों को नहीं छुआ था. अभी हम यहाँ से बोल रहे हैं, १६०० लडके इसे सुन रहे हैं, इस माइक, बल्ब, कम्प्यूटर, आदि को किसने बनाया ? मन की सहायता से ही समस्त आविष्कार हुए हैं. वैज्ञानिक आविष्कारों का रहस्य क्या है? न्यूटन ने गुरुत्वाकर्ष्ण की शक्ति का अविष्कार कैसे किया ? न्यूटन ने देखा कि पका हुआ सेव नीचे गिरा, सारे फल पक जाने पर टूट कर नीचे ही क्यों गिरते हैं? प्रकृति के किस नियम के अनुसार ऐसा होता है, इसी प्रश्न पर न्यूटन ने अपने मन को एकाग्र किया, और उसने गुरुत्वाकर्ष्ण के नियम का आविष्कार कर लिया. मन लगा कर पढ़ाई करने से हम प्रथम श्रेणी में पास हो जाते हैं. पर हमलोग यह नहीं जानते कि हमारा मन परीक्षा में अधिक अंक लाने से भी ज्यादा शक्तिशाली है.
मानव सभ्यता की प्रगति प्रकृति के नियमों के वैज्ञानिक आविष्कार के साथ ही प्रारम्भ होती है. अभी जिनेवा स्थित सर्न-प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों ने God-Particle या ईश्वरीय-कण को आविष्कृत कर लेने का दावा किया है, जिससे सृष्टि के रहस्य को उद्घाटित करने में सहायता मिलेगी, स्वामी विवेकानन्द कहते हैं इक्कीसवीं सदी में विज्ञान और आध्यात्म हाथ मिला लेंगे. मानव सभ्यता ने जितनी भी प्रगति की है वह सब मन की शक्ति के द्वारा ही हुई है. अभी से ही वैज्ञानिकों को यह चिन्ता कोल-उर्जा या पेट्रोलियम समाप्त हो जायेगा तो कल-कारखाने और हवाई जहाज आदि कैसे चलेंगे ? अभी वैज्ञानिक लोग सौर उर्जा पर अधिक अन्वेषण कर रहे हैं, जिससे कल-कारखाने भी चलाये जा सकेंगे.
हमारा मन ज्ञान और शक्ति का अनंत भंडार है, किन्तु अक्सर हमलोग इसकी शक्ति से अपरिचित ही क्यों रह जाते हैं? ऐसा इसीलिए होता है कि हमारा मन स्वभाव से ही चंचल है, किन्तु इसकी स्वाभाविक चंचलता को मन में छुपे कुछ अन्य शत्रु,  इसे अतिरिक्त रूप से चंचल बना देते हैं. इसकी अतिरिक्त चंचलता के कारण ही हमलोग इसकी अनन्त शक्ति को ठीक से नहीं जान पाते हैं, तथा अपने प्रयोजन को सिद्ध करने में इसका उपयोग नहीं कर पाते हैं. अतिरक्त चंचल होने के कारण मन पर नियन्त्रण रखना थोड़ा कठिन हो जाता है. किन्तु इसकी पद्धति को जान लेने से हमलोग इस कठिन कार्य को भी आसानी से कर सकते हैं.
मन पर नियन्त्रण लाने के पहले मन के स्वभाव को ठीक से समझना पड़ेगा. अभी हमलोग यहाँ बैठ कर सुन रहे हैं, पर किसी किसी का मन घर में चला जाता हैं, वहाँ अभी क्या बन रहा होगा, क्रिकेट के मैदान में चला जाता है, चाँद पर चला जाता है,मन हमेशा चंचल ही बना रहता है, तथा बिना मेरी अनुमति लिए ही एक विचार से दुसरे विचारों में भागता रहता है.
मन की तुलना मदमस्त हाथी या वनों में विचरने वाले बाघ आदि जन्तुओं से की जाती है. जिस प्रकार सर्कस का रिंग मास्टर किसी जानवर को वश में करने के पहले उसका स्वभाव को पूरी तरह से जान लेता है, उसी प्रकार हमें भी अपने मन को वश में करने के पहले उसके स्वभाव को अच्छी तरह से जान लेना होगा. क्योंकि मन की चंचलता के कारण हम उसे अपने प्रयोजनीय विषय पर अपनी ईच्छा के अनुसार एकाग्र नहीं कर पाते हैं. अतिरक्त चंचल होने के कारण मन पर नियन्त्रण रखना कठिन हो जाता है. किन्तु इसकी पद्धति को जान लेने से हमलोग इस कठिन कार्य को भी आसानी से कर सकते हैं.
मन की तुलना बन्दर से करते हुए स्वामी विवेकानन्द एक कहानी कहते हैं- " मन को संयत करना कितना कठिन है ! इसकी एक सुसंगत उपमा उन्मत्त बंदर से दी गयी है. कहीं एक वानर था. वह स्वभावतः चंचल था, जैसे कि सभी वानर होते हैं. लेकिन उतने से संतुष्ट न हो, एक आदमी ने उसे काफी शराब पिला दी. इससे वह और भी चंचल हो गया. इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मर दिया. तुम जानते हो, किसी को बिच्छू डंक मार दे, तो वह दिन भर इधर उधर कितना तड़पता रहता है. सो उस प्रमत्त अवस्था के उपर बिच्छू का डंक !! इससे वह बन्दर बहुत अस्थिर हो गया. तत्पश्चात मानो उसके दुःख की मात्रा को पूर्ण करने के लिए एक भूत भी उस पर सवार हो जाता है. यह सब मिला कर सोचो, बन्दर कितना चंचल हो गया होगा. यह भाषा द्वारा व्यक्त करना असम्भव है. बस, मनुष्य का मन उसी वानर के जैसा चंचल हो गया है. मन तो स्वभावतः ही सतत चंचल है, फिर वह कामना-वासना रूपी मदिरा से मत्त है, इससे उसकी अस्थिरता बढ़ गयी है. किसी की प्रत्येक कामना तो पूर्ण नहीं हो सकती, तब सुखी लोगों को देख कर ईर्ष्या रूप बिच्छू उसे डंक मारता रहता है. उसके उपर जब अहंकार का भूत भी उस पर सवार हो जाता है, तब तो वह अपने आगे किसीको नहीं गिनता. ऐसी तो हमारे मन की अवस्था है ! सोचो तो, इसका संयम करना कितना कठिन है !" (१/८६)
अतः ऐसे चंचल मन को यदि वश में लाना है, तो पहले जो शत्रु मन की स्वाभाविक चंचलता को और अधिक बढ़ा देते हैं, उन शत्रुओं को मन से निकाल बाहर करना हमारा पहला कार्य होना चाहिए. हमारे पूर्वज ऋषियों ने मनुष्य की इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए आठ-चरणों में मन को वश में करने की एक वैज्ञानिक पद्धति का अविष्कार किया है, जिसे ' अष्टांग-योग ' या ' पतंजली योग-सूत्र ' भी कहा जाता है. ये आठ चरण हैं; यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि. इन आठ सोपानों का अभ्यास करने से हम अपने मन को पूरी तरह से वश में ला सकते हैं.
किन्तु बिना गुरु के सानिध्य में रहकर प्राणायाम का अभ्यास करना हानिकारक भी हो सकता है, इससे शरीर अस्वस्थ होने के साथ साथ दिमाग भी बिगड़ सकता है, इसलिए यह हमारे लिए आवश्यक नहीं है. स्वामी विवेकानन्द स्वयं भी एक बार अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के निकट निर्विकल्प-समाधि में रहने की ईच्छा व्यक्त किये थे, किन्तु उनके गुरु ने इसके लिए उनकी भर्त्सना करते हुए कहा था, तुझे तो मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बन कर लोगों को मन को एकाग्र रखना सिखाना है, और तू केवल अपनी मुक्ति चाहता है ? ध्यान ही गहरा होने पर समाधि में बदल जाता है, इसीलिए- ' प्राणायाम, ध्यान और समाधि ' का अभ्यास विद्यार्थियों के लिए आवश्यक नहीं है.
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " परिवर्तनशील होने पर भी शरीर को स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी. यही हमारे पास सर्वोत्तम साधन है. सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है. मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से-यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है. मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं. देवताओं को भी ज्ञान-लाभ के लिए मनुष्य-देह धारण करनी पड़ती है. एकमात्र मनुष्य ही ज्ञान-लाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं. यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत और समुदय सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि की. और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने सभी देवदूतों को बुलाकर मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन करने को कहा. इबलीस को छोड़ कर बाकि सब ने मनुष्य के आगे अपने सिर को झुकाया. अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया. इससे वह शैतान बन गया. " (१/५३)इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है.  भागवत में भी कहा गया है- ' ब्रह्म अवलोक धीषणम पुरुषम विधाय मुदमाप देवा. ' निम्नतर सृष्टि - पशु आदि मन्दबुद्धि की है, इसलिए मनः संयोग का अभ्यास नहीं कर सकते. इसीलिए स्वामीजी ने विद्यार्थियों को अपना शरीर स्वस्थ और बलिष्ठ रखते हुए, मन को एकाग्र करने का परामर्श दिया है.
अतः महामण्डल के प्रशिक्षण शिविर में, मन को एकाग्र करने प्रशिक्षण देने के लिये ऋषि पतंजली कृत ' अष्टांग-योग ' को और सरल करते हुए इसके ५ चरणों को भी दो वर्ग में बाँट दिया है- ' यम-नियम ' तथा ' आसन-प्रत्याहार-धारणा '. निरन्तर जाग्रत विवेक की सहायता से पहला वर्ग ' यम-नियम ' का पालन जीवन भर प्रति मुहूर्त करना है. यम और नियम का पालन करने से मन में जो शत्रु छुपे रहते हैं- कामिनी-कांचन की भोगाकंक्षा, लोभ, ईर्ष्या, अहंकार रूपी भूत जो मन की स्वाभाविक चंचलता को और अधिक बढ़ा देते हैं, वे क्रमशः पराजित होने लगते हैं.स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ' यम और नियम चरित्र-निर्माण के साधन हैं. इनको नीव बनाये बिना किसी तरह की योग-साधना सिद्ध न होगी. ' (१/४८)
' यम ' का अर्थ है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह. इस यम से चित्तशुद्धि होती है. अहिंसा (Non Injury ) - ईर्ष्या के वशीभूत होकर, शरीर ,मन, वचन के द्वारा कभी किसी प्राणी की हिंसा न करना या उन्हें कष्ट न पहुँचाना-यह अहिंसा कहलाता है. अहिंसा से बढ़ कर, कोई दूसरा धर्म नहीं है. सत्य- सत्य के द्वारा हम कर्म-फल के भागी होते हैं; सत्य से सब कुछ निकला है; सत्य में सब कुछ प्रतिष्ठित है. यथार्थ कथन को ही सत्य कहते हैं.अस्तेय (Non Stealing) चोरी से या बलपूर्वक दूसरे की चीज न लेने का नाम अस्तेय है. चोरी करने के मनोभाव का आभाव ब्रह्मचर्य - पवित्र जीवन हमें अपने मन वचन कर्म से सदैव पवित्र रहना चाहिए, और अपरिग्रह- अत्यन्त कष्ट के समय में भी किसी मनुष्य से कोई उपहार ग्रहण न करने को अपरिग्रह कहते हैं.किसी का काम करने के बदले उपहार में कोई भी वस्तु (रिश्वत आदि) लेने का लालच मत रखो, किसीसे कुछ लेने से हृदय अपवित्र हो जाता है, लेने वाला हीन हो जाता है, वह अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है और बद्ध एवं आसक्त हो जाता है.
दूसरा है ' नियम ' अर्थात नियमित अभ्यास और व्रत-परिपालन. शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान- इन्हें नियम कहते हैं. शौच (Cleanliness) वाह्य स्वच्छता का ध्यान रखने के साथ साथ आंतरिक स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखना है, कोई भी अपवित्र विचार मन के अंदर प्रविष्ट नहीं होने देना है. संतोष जो कुछ प्राप्त हो जाय उसमें संतुष्ट रहना, तपस्या कष्ट सह कर भी समस्याओं का समाधान ढूंढ़ निकालने में लगे रहना,और सत्य वैज्ञानिकों के मानस चक्षुओं के सामने आविष्कृत हो उठेगा, किन्तु भगवान बुद्ध के जैसा शरीर को बिल्कुल सुखा नहीं देना है, कि जिससे सुजाता का खीर खा कर प्राणों को बचाने की चेष्टा करनी पड़े, बुद्ध ने कहा है- ' वीणा के तार को इतना मत कसो कि वह टूट जाय, मध्यम-मार्ग सबसे अच्छा है. तपस्या भी सीमा के अंदर ही करनी चाहिए, अति से बचना चाहिए.स्वाध्याय (आध्यात्म-शास्त्रपाठ ) या मानव-जाति के मार्गदर्शक नेताओं की जीवनी पढ़ना, नेताजी की पुस्तक ' तरुणों का स्वप्न ' भी उसी स्तर का है. और ईश्वर-प्रणिधान - पतंजली ऋषि आदिगुरु के रूप में एक सगुण ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, तथा मन को सर्वव्यापी मानते हैं.' (१/३३)  अर्थात ईश्वर की पूजा मात्र ही नहीं करना बल्कि- यह सृष्टि कैसे बनी ? इसका स्रष्टा कौन है ? पवित्र जीवन जीते हुए परम सत्य को जानने की चेष्टा में अध्यवसाय के साथ लगे रहना, या अपने देह में स्थित ' देही ' को जानने का प्रयास करते रहना, साँस-प्रस्वास कौन ले रहा है, इसी चिन्तन में लगे रहना या ईश्वर को आत्मसमर्पण करना ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता है.
यम और नियम का अभ्यास सतत, जीवन के हर क्षण में  करते रहना होगा, ऐसा नहीं कि केवल पूजा-घर में ही यम-नियम का पालन करना है पर ऑफिस या स्कुल या अन्य किसी कार्य क्षेत्र में नहीं करना है. अब दूसरा वर्ग ' आसन-प्रत्याहार-धारणा ' का " अभ्यास प्रतिदिन कम से कम दो बार करना चाहिए, और उस अभ्यास का उपयुक्त समय है प्रातः और सायं. जब रात बीतती है और पौ फटती है तथा जब दिन बीतता है और रात आती है, इन दो समयों में प्रकृति अपेक्षाकृत शान्त होती है. ब्राह्ममुहूर्त तथा गोधूली वेला, ये दो समय मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने के लिए अनुकूल है. इस समय साधना करने से प्रकृति हमारी काफी सहायता करेगी. यह नियम बना लो कि साधना समाप्त किये बिना भोजन नहीं करोगे.ऐसा नियम बना लेने से भूख का प्रबल वेग ही तुम्हारा आलस्य नष्ट कर देगा." (१/५६)
 आसन (Posture) - अर्थात मन के साथ बातचीत करने या मन को देखने के लिए किसी शान्त और पवित्र परिवेश में थोड़ी देर तक बिना हिले-डुले बैठने का अभ्यास. " तुममें से जिनको सुभीता हो, वे साधना के लिए यदि विशिष्ट कमरा रख सकें तो अच्छा हो. इस कमरे को सोने के काम में न लाओ. इसे पवित्र रखो. बिना स्नान किये और शरीर-मन को बिना शुद्ध किये इस कमरे में प्रवेश न करो. सुबह और शाम वहाँ धूप और चन्दन-चूर्ण आदि जलाओ. उस कमरे में किसी प्रकार का क्रोध, कलह, और अपवित्र चिन्तन न किया जाय. तुम्हारे साथ जिनके भाव मिलते हैं, केवल उन्हीं को उस कमरे में प्रवेश करने दो.
ऐसा करने से शीघ्र वह कमरा सत्वगुण से पूर्ण हो जायेगा; यहाँ तक कि, जब किसी प्रकार का दुःख या संशय आये अथवा मन बेचैन हो रहा हो, तो उस समय उस कमरे में प्रवेश करते ही तुम्हारा मन शान्त हो जायेगा. चारों ओर पवित्र चिन्तन के परमाणु सदा स्पन्दित होते रहने के कारन वह स्थान पवित्र ज्योति से परिपूर्ण रहता है. जिनके पास इस तरह कमरे की सुविधा नहीं है, वे जहाँ इच्छा हो, वहीँ बैठकर साधना कर सकते हैं. ' आसन के बारे में इतना ही समझ लेना चाहिए कि वक्षस्थल, ग्रीवा और सिर को सीधे रखकर शरीर को स्वछन्द भाव से रखना होगा.' (१/१०२)  पद्मासन में बैठने से शरीर में कष्ट हो सकता है, इसलिए सुखासन में बाबु होकर बैठने से भी मन को देखने का अभ्यास किया जा सकता है, परन्तु रीढ़ कि हड्डी और गर्दन एक सीध में तथा ठुड्डी फर्श के सामानांतर रखना चाहिए, इसके लिए अर्ध-पद्मासन में बैठना सबसे अच्छा है. मन ही मन संसार के सभी मनुष्यों के मंगल की प्रार्थना करो. इसके बाद भावना करनी होगी, ' मेरा शरीर वज्रवत दृढ, स्वस्थ और शक्तिशाली है. मेरा मन प्रबल ईच्छा-शक्ति सम्पन्न है, मैं इसी शरीर और मन की सहयता से ' तुम्हारा ' (परमसत्य का ) दर्शन कर लूँगा.'(१/५६)   
आसन में बैठने के बाद प्रत्याहार की साधना करनी पड़ती है, प्रत्याहार क्या है ? इन्द्रियों की प्रवृत्ति सदैव बहिर्मुखी बनी रहती है, हम उसको थोड़ी देर तक अन्तर्मुखी रखने का अभ्यास करेंगे. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " अतएव मन के संयम का पहला सोपान यह है कि कुछ समय के लिए आँखों को मूंद कर, चुप्पी साधे बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो. मन सतत चंचल है. वह बन्दर की तरह सदा कूद-फांद कर रहा है. यह मन-मरकट जितनी इच्छा हो, उछल-कूद मचाये, कोई हानी नहीं; धीर भाव से प्रतीक्षा करो और मन की गति देखते जाओ." (१/८७)
" चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फिर से प्राप्त करने के लिए सतत चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रखती हैं. उसका दमन करना, उसकी इस बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे लौटाकर अंतर्मुखी करना, हृदय में विराजित गुरु (विवेकानन्द) के पास ले जाने वाले मार्ग पर लाना- यही योग का पहला सोपान है, जिसे प्रत्याहार कहते हैं. " (१/११८)
आसन में बैठ कर, अपनी आँखे मूंद कर मन की गति-विधियों को देखने की चेष्टा करेंगे. आँखे खुली रखने से बाह्य वस्तुएँ भी दिखाई देंगी, पर मन तो आंतरिक इन्द्रिय है, उसको इन आँखों से नहीं देखा जा सकता है. " हमें मालूम है कि मन में एक ऐसी शक्ति है, जिससे वह अपने अन्दर जो कुछ हो रहा है, उसे देख सकता है- इसको अन्तःपर्यवेक्ष्ण-शक्ति कह सकते हैं. मन का ही एक अंश ' द्रष्टा '  बन कर ' दृश्य ' मन को देखता रहेगा. ' जब तक मन की क्रियाओं पर नजर न रखोगे, उसका संयम न कर सकोगे. सम्भव है, बहुत बुरी बुरी भावनाएँ तुम्हारे मन में आयें. तुम्हारे मन में इतनी असत भावनाएँ आ सकती हैं कि तुम देख कर आश्चर्यचकित हो जाओगे. पहले कुछ महीने देखोगे, तुम्हारे मन में हजारों विचार आयेंगे, क्रमशः वह संख्या घटकर सैकड़ों तक रह जाएगी. फिर कुछ और महीने बाद वह और भी घट जायगी, और अन्त में मन पूर्ण रूप से अपने वश में आ जायेगा.
इस प्रकार मन का संयम करना और उसे मनमाने ढंग से विभिन्न इन्द्रियों के साथ संयुक्त न होने देना ही प्रत्याहार है. यह एक-दो दिन का काम नहीं, बहुत दिनों तक लगातार अभ्यास करना होगा. धीर भाव से लगातार बहुत वर्षों तक अभ्यास करने पर तब कहीं इस विषय में सफलता मिल पाती है." (१/८७)
ऐसा इसलिए होता है कि सामान्यतः हमलोग अपने चेतन मन के प्रति ही जागरूक रहते हैं, पर आँखों को मूंद लेने के बाद मन को देखने की चेष्टा करने से, हमारे अवचेतन मन ( चित्त या मन-वस्तु मन के चार भाग हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार.) में छुपे हुए विचार सामने आने लगते हैं इसीलिए मन को किसी एक विषय पर टिकाये रखने में कठिनाई होने लगती है. "कभी कभी ऐसा होता है कि रास्ते से गाड़ियाँ दौड़ती हुई निकल जाती है, पर तुम उन्हें सुन नहीं पाते. क्यों ? इसलिए की तब तुम्हारा मन श्रवण-इन्द्रिय के साथ संयुक्त नहीं रहता. अतएव, प्रत्येक अनुभव-क्रिया के लिए पहले तो बाहर का यंत्र, उसके बाद मस्तिष्क में स्थित उसके स्नायु-केंद्र या इन्द्रिय, और इन दोनों के साथ मन का योग चाहिए. मन, विषय के आघात से उत्पन्न हुई संवेदना को और भी अन्दर ले जाकर निश्चयात्मिका बुद्धि के सामने पेश करता है, तब बुद्धि से प्रतिक्रिया होती है. इस प्रतिक्रिया के साथ अहं-भाव जाग उठता है. फिर क्रिया और प्रतिक्रिया का यह मिश्रण आत्मा के सामने लाया जाता है. तब वे पुरुष इस मिश्रण को एक ससीम वस्तु के रूप में अनुभव करते हैं. पाँचो इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को मिलाकर अन्तःकरण कहते हैं. ये सब मन के उपादान स्वरुप चित्त के भीतर होने वाली भिन्न भिन्न प्रक्रियाएँ हैं. मनुष्य का जो असल स्वरुप है, वह मन के अतीत है. मन तो उसके हाथों एक यन्त्र स्वरूप है. उसी का चैतन्य इस मन के माध्यम से अनुस्रवित हो रहा है. जब तुम इस मन के पीछे द्रष्टा रूप से स्थित हो जाते हो, तभी वह चैतन्यमय होता है." (१/११५-१७)

" जो इच्छा मात्र से अपने मन को मस्तिष्क में स्थित स्नायु केन्द्रों (इन्द्रियों) में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है, उसीका प्रत्याहार सिद्ध हुआ है. प्रत्याहार का अर्थ है, एक ओर आहरण करना अर्थात खींचना- मन की बहिर्गती को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना. इसमें कृतकार्य होने पर ही हम यथार्थ चरित्रवान होंगे; तभी और तभी समझेंगे कि हम मुक्ति के मार्ग में बहुत दूर बढ़ गये हैं. इससे पहले तो हम मशीन मात्र हैं. " (१/८६) 
 ' मन को एकाग्र कर के केवल किसी एक इन्द्रिय से संयुक्त कर रखना बहुत कठिन है, क्योंकि मन विषयों का दास है. इच्छापूर्वक या अनिच्छापूर्वक मनुष्य अपने मन को भिन्न भिन्न इन्द्रिय नामक स्नायु-केन्द्रों में संलग्न करने को बाध्य होता है. इसीलिए मनुष्य अनेक प्रकार के दुष्कर्म करता है और बाद में कष्ट पाता है. कोई उसे यह शिक्षा नहीं देता कि वह इन अशुभ कर्मों से किस प्रकार बचे. यदि उसे मनःसंयम का उपाय सिखाया जाय, तभी वह यथार्थ में शिक्षा प्राप्त कर सकता है, और वही उसकी सच्ची सहायता और उपकार है. ' '(१/८३)
मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उनका प्रयोग करना होगा. जैसे सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अंधकारमय स्थान भी अपने गुप्त तथ्य खोल देते हैं, उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अन्तरतम रहस्य प्रकट कर देगा. तभी, आत्मा है या नहीं, जीवन केवल इस सामान्य जीवितकाल तक ही सीमित है अथवा अनन्तकाल व्यापी है और संसार में कोई कोई ईश्वर है या नहीं, यह सब हमारे ज्ञान चक्षुओं के सामने उद्भासित हो उठेगा. " (१/४१)
अब हम किसी चंचल-बालक के समान अपने मन को भी शांत रहने का अनुरोध करेंगे, तथा अपनी ईच्छा-शक्ति का प्रयोग कर उसको बाह्य विषयों में जाने से रोक कर अन्तर्मुखी करेंगे. अतः कुछ काल तक प्रत्याहार की साधना करने के बाद, धारणा का अभ्यास करने का प्रयत्न करना होगा. मन भी प्रकृति का अंश है, उसे कभी शून्य नहीं किया जा सकता, इसलिए अन्तर्मुखी करने के बाद उसे किसी बिन्दु पर या दीपक की ज्वलन्त शिखा पर धारण किया जा सकता है.
किन्तु मन का गठन इस प्रकार हुआ है कि वह निर्गुण-निराकार वस्तु की अपेक्षा सगुण-साकार वस्तु पर आसानी से एकाग्र हो जाता है.धारणा का अर्थ है- मन को देह के भीतर हृदय-कमल पर विराजित अपने गुरु या आदर्श स्वामी विवेकानन्द की जीवन्त मूर्ति पर बलपूर्वक एकाग्र रखना. जब चित्त अर्थात मनोवृत्ति किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध होती है, तब उसे धारणा कहते हैं.
एक बार खूब गहरी दृष्टि से टकटकी लगा कर स्वमीजी की छवि को देख लेंगे, आँखों को मूंद लेने के बाद भी वही छवि जीवन्त और जाग्रत दिखाई देगी, मानो साक्षात् सामने बैठ कर स्वामीजी हमसे बात-चीत कर रहे हों. किन्तु शुरू शुरू में एक सेकण्ड के लिए भी मन उनकी छवि पर स्थिर नहीं रह पायेगा. पर मन से हार नहीं मानना है, उसके साथ संघर्ष करके, कामिनी-कांचन के विचार को दूर हटा कर,उसे बलपूर्वक गुरु विवेकानन्द पर आबद्ध रखने का अभ्यास करना है. यदि थकान का अनुभव होने लगे तो आँखे खोल कर पुनः उस छवि को या ज्वलन्त दीप-शिखा को देख कर आँखों को मूंद कर एकदम जीवन्त देखने का अभ्यास करना है.
आँखें मूंद लेने के बाद भी दीप-शिखा जलती हुई क्यों दिखाई देती है, या स्वामी विवेकानन्द जीवन्त क्यों दिखाई पड़ते हैं? एकाग्र मन में अनन्त शक्ति रहने के कारण. जैसे कॉन्वेक्स लेन्स पर सूर्य की बिखरी हुई किरणों को एकाग्र करने से उसकी शक्ति बढ़ जाती है, और उसके केंद्र-बिन्दु पर रखा कागज जलने लगता है.
अब प्रश्न उठ सकता है कि हमारा मन भी इतना एकाग्र होने में कितना समय लगेगा? आजकल टीवी पर दिखने वाले कुछ ' श्री श्री ' लोग ३ दिन का तो कोई एक सप्ताह का कोर्स बतलाते हैं, किन्तु यह सब बकवास है. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " पूरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ- फिर मृत्यु भी आये तो क्या ! ' मंत्रम व साधयामि शरीरं व पातयामि '- काम सधे या प्राण ही जायें. फल की ओर आँख रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ.सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए, मन में अपरिमित बल चाहिए. अध्यवसायशील साधक कहता है, ' मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा. मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर-चूर हो जायेंगे.' इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ संकल्प लेकर कठोर साधना करो और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्तकरोगे." 
वे एक कहानी कहते हैं- " नारद नामक एक महान देवर्षि थे. जैसे मनुष्यों में ऋषि या बड़े बड़े योगी रहते हैं, वैसे ही देवताओं में भी बड़े बड़े योगी हैं.नारद भी वैसे ही एक अच्छे और अत्यन्त महान योगी थे. वे सर्वत्र भ्रमण किया करते थे. एक दिन एक वन में से जाते हुए उनहोंने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है और इतने दिनों से एक ही आसन पर बैठा है कि उसके चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है. उसने नारद से पूछा,' प्रभो, आप कहाँ जा रहे हैं? नारदजी ने उत्तर दिया, ' मैं बैकुण्ठ जा रहा हूँ.' तब उसने कहा, ' अच्छा, आप भगवान से पूछते आयें, वे मुझ पर कब कृपा करेंगे, मैं कब मुक्ति प्राप्त करूँगा.'
फिर कुछ दूर और आगे जाने पर नारदजी ने एक दूसरे मनुष्य को देखा. वह नाच-कूद कर, कीर्तन कर रहा था. उसने भी नारदजी से वही प्रश्न किया. उस व्यक्ति का कंठस्वर, वग्भंगी आदि सभी उन्मत्त के समान थे. नारदजी ने उसे पहले के समान उत्तर दिया. वह बोला,'अच्छा, तो भगवान से पूछते आयें, मैं कब मुक्त होऊंगा.' लौटते समय नारदजी ने दीमक के ढेर के अन्दर रहने वाले उस ध्यानस्थ योगी को देखा. उस योगी ने पूछा,'देवर्षे, क्या आपने मेरी बात पूछी थी?
नारदजी बोले, ' हाँ, पूछी थी.' योगी ने पूछा,'तो उन्होंने क्या कहा?' नारदजी ने उत्तर दिया, ' भगवान ने कहा, ' मुझको पाने के लिए उसे और चार जन्म लगेंगे.' तब तो वह योगी घोर विलाप करते हुए कहने लगा, ' मैंने इतना ध्यान किया है कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया, फिर भी मुझे और चार जन्म लेने पड़ेंगे !' नारदजी तब दूसरे व्यक्ति के पास गये. उसने भी पूछा, ' क्या आपने मेरी बात भगवान से पूछी थी? नारदजी बोले, ' हाँ, भगवान ने कहा है, ' उसके सामने जो इमली का पेड़ है, उसके जितने पत्ते हैं, उतनी बार उसको जन्म ग्रहण करना पड़ेगा'.
यह बात सुनकर वह व्यक्ति आनंद से नृत्य करने लगा और बोला, ' मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त करूँगा !' तब एक देववाणी हुई, ' मेरे बच्चे, तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे.' वह दूसरा व्यक्ति इतना अध्यवसाय सम्पन्न था! इसीलिए उसे वह पुरष्कार मिला. वह इतने जन्म साधना करने को तैयार था. कुछ भी उसे उद्द्य्म से रोक न सका. परन्तु वह प्रथ्मोक्त व्यक्ति चार जन्मों की ही बात सुनकर घबड़ा गया. जो व्यक्ति मुक्ति के लिए सैकड़ों युग तक बाट जोहने को तैयार था, उसके समान अध्यवसाय-सम्पन्न होने पर ही उच्चतम फल प्राप्त होता है. (१/१०५)
हमलोग भी यदि धैर्य और अध्यवसाय के साथ अभ्यास करते रहें तो इस जन्म में या अगले जन्म में भी मैं अभ्यास जारी रखूँगा, ऐसा दृढ संकल्प रहे, तब मैं अवश्य सफल हो जाऊंगा. कीमती वस्तु बिना कष्ट उठाय प्राप्त नहीं होता है. यदि किशोरावस्था से ही विद्यार्थियों को अष्टांग योग के उपरोक्त पाँच सोपानों से परिचित कराकर उन्हें मन को वश में रखने की शिक्षा दी जाय तो वे निश्चित रूप से भविष्य में चरित्रवान नागरिक बन सकेंगे, और दूसरों को भी चरित्रवान नागरिक बनाने वाले नेता बन सकेंगे.