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शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

[50] युवाओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती:सम्पूर्ण पृथ्वी को आर्य बनाओ !

' सम्पूर्ण पृथ्वी को आर्य बनाओ ! ' आर्य बनाओ ' कहने का तात्पर्य क्या है ? इसीको स्वामीजी कहते हैं- पशु मानव को देव मानव में उन्नत करो ! ' कृण्वन्तो विश्वं आर्यं !' -- वैश्वीकरण के इस महत आदर्श का जन्म भारतवर्ष में ही हुआ था। भारतवर्ष के वेदों का जयघोष था- सम्पूर्ण पृथ्वी को आर्य बनाओ ! ' सुसंस्कृत बनाओ.अर्थात उनके जीवन और आचरण में शुभ संस्कारों को भरो. भारतवर्ष का यही संदेष था. सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों को सुसंस्कृत बनाना होगा, उन्हें सभ्य बनाना होगा.' 
सुसंस्कृत ' करो अर्थात - ' पृथ्वी के समस्त मनुष्यों के मन पर शुभ-संस्कारों की छाप डाल कर उन्हें एक सभ्य मनुष्य में परिणत करो ! 'सम्पूर्ण पृथ्वी पर शुभ-संस्कारों की छाप डालना भारत का ही उत्तरदायित्व था.किन्तु आज क्या हो रहा है ? आज अर्थनैतिक वैश्वीकरण (इकनोमिक ग्लोबलाइजेशन) हो रहा है. इसके माध्यम से हो क्या रहा है ? 'आर्य' बनने के बजाय धनी लोग और भी ज्यादा धनी बन रहे हैं.
स्वामीजी ने अमेरिका के पार्लियामेंट ऑफ़ रिलिजन में भाषण दिया था. हमलोग कहते नहीं अघाते कि, स्वामीजी ने भाषण का प्रारम्भ हठात - " सिस्टर्स ऐंड ब्रदर्स ऑफ़ अमेरिका "  कह कर किया जिसे सुनकर, अमेरिका मतवाला हो उठा था. किन्तु उस स्थान पर भाषण देने के पहले भी स्वामीजी और भी कई भाषण दे चुके थे. उनमे से उनका एक भाषण अत्यन्त महत्वपूर्ण है.एकबार अमेरिका के
'सोशल साइंस एसोसिएशन ' में उनको भाषण देने के लिये कहा गया था. वहाँ पर इकोनॉमिक्स -के उपर चर्चा हो रही थी. उनको मोनेटरी इकोनॉमिक्स के विषय में भाषण देना था. किसी अर्थशास्त्री के लिये भी यह विषय अत्यन्त कठिन है. वहाँ पर स्वामीजी को इसी विषय पर बोलने के लिये कहा गया था, एवं स्वामीजी ने इस पर भाषण देते हुए कहा था-" दी यूज ऑफ़ सिल्वर इन इंडिया " - ' भारतवर्ष में चाँदी का व्यवहार |'  
उस समय वहाँ पर ' गोल्ड स्टैण्डर्ड , सिल्वर स्टैण्डर्ड ' को लेकर चर्चा चल रही थी. यह भाषण उन्होंने १८९३ ई० में दिया था. और अमेरिका के पार्लियामेंट में वर्ष १८९१ - १८९५ तक के लिये निर्वाचित एक सदस्य भी उसी सभा में उपस्थित थे जिन्होंने एक भाषण भी दिया था. वे उत्तर अमेरिका के एक छोटे से राज्य के प्रतिनिधि थे. वे एक नामी ' वक्ता ' थे. जिस प्रकार इंगलैंड के प्रसिद्ध वक्ता थे ' वार्क 'महोदय - एक विश्वविख्यात वक्ता थे, जिनके विख्यात भाषणों को कलकाता यूनीवर्सिटी में भी बहुत दिनों तक पढाया जाता था. उन्ही  के स्तर के एक वक्ता वहाँ भी थे जिनका नाम था ' ब्रायन '. वे उसी वक्ता के द्वारा कथित उक्ति को अपने भाषण में कोट करते हुए कहते हैं- " ब्रायन वाज़ राइट व्हेन हे सेड , दैट  दिस गोल्ड स्टैण्डर्ड इज मेकिंग दी पुअर पुअरर. दी रिच रिचर. "  - अर्थात ब्रायन ने बिल्कुल खरी बात कही थी कि-  बैंकिंग प्रणाली में स्वर्ण को मानक बना कर किसी देश की मुद्रा का मूल्य निर्धारित करने का कूफल यह हो रहा है कि, इसके द्वारा दरिद्र दिन पर दिन और ज्यादा दरिद्र होते जा रहे हैं और, जो पहले से धनी देश हैं वे और भी ज्यादा धनी हो रहे हैं | " आज भी क्या हो रहा है ? 
गरीब और भी गरीब बनते जा रहे हैं, बड़े आदमी और भी ज्यादा बड़े (धनी ) होते जा रहे हैं. यही तो है आज के ग्लोबलाइजेशन का फल! किन्तु हमारे देश एवं विदेश के यथेष्ट बड़े बड़े अर्थशास्त्री हैं जो इस प्रकार के ' वैश्वीकरण ' को पूरी तरह से गलत मानते हैं. किन्तु हमलोग उनकी चेतावनी की ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं दे रहे हैं.
अभी हाल में ही वर्ष २००१ ई० में नोबेल प्राइज़ प्राप्त एक अर्थनीतिविद कलकाता आये थे. वे कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में Economics के प्राध्यापक हैं. अभी हाल में ही कलकाता में एक  नया यूनिवर्सिटी स्थापित हुआ है- " West Bengal National University of Juridical Science . " वहाँ पर आयोजित एक सम्मेलन में भाषण देते हुए उन्होंने बतलाया है कि, यह जो वैश्वीकरण चला हुआ है, उसका कुपरिणाम क्या होगा ? " उसका सबसे बड़ा कुपरिणाम तो यही होगा कि गरीबों का (गरीब देशों का) पैसा बड़े लोगों (अमीर देशों ) के हाथ में चला जायेगा."  
आज के युग में (वेदान्ता के लिये उड़ीसा में जमीन लेने य़ा जमुना एक्सप्रेस वे के लिये यूपी में जमीन लेने के युग में ) साधारण मनुष्यों ( कर्ज की बोझ में दब कर आत्महत्या कर लेने वाले किसानों ) का स्थान कहाँ है ? साधारण मनुष्यों ( पिपली लाइव के ' नत्था ') की तरफ देखने की फुर्सत भी किसको है ? गरीबों की उन्नति के लिये बड़ी बड़ी योजनायें चलायी जा रहीं हैं. ('नरेगा' का नाम बदल कर ' मनरेगा ' कर दिया गया है !)
इसमें दावा तो है कि प्रत्येक गरीब को १०० दिनों के रोजगार की गारन्टी है ! पर कई जगह की रिपोर्ट है कि केवल पाँच दिनों का काम मिला है, उससे अधिक काम नहीं मिल सका. काम (रोजगार ) है कहाँ ? कौन देगा काम ? गरीबों के लिये राशन देने की व्यवस्था भी की जा रही है. BPL कार्ड पर मुफ्त राशन य़ा सस्ती दर पर राशन उपलब्ध कराने का दावा किया जाता है. पर उस तालिका में कितने गरीबों के नाम दर्ज हैं ? उनलोगों का राशन चुरा लिया जाता है, य़ा बरसात में भींग कर करोड़ो टन सरकारी अनाज सड़ जा रहे हैं, इन सबको कौन देख रहा है ?  
भ्रष्टाचार से देश भरा हुआ है, यह भ्रष्टाचार, बहुत दिनों से, भारतवर्ष के स्वाधीन होने के समय से ही चला आ रहा है, एवं पार्लियामेन्ट में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि -  " जे खाने अनेक टाका खरच हय सेखाने एकटू चुरी हयेई थाके | "
 " - जहाँ पर ( जिस पंच वर्षीय योजनाओं में ) करोड़ो- करोड़ रुपये खर्च होते हैं, वहाँ थोड़ी बहुत चोरी (य़ा घपला ) तो चलता ही रहता है ! "   
  जो लोग देश के कर्णधारहैं, जिनके हाथों में देश की बागडोर है, जो लोग प्रधान सेवक हैं देश के - ' वही ' लोग यदि (भ्रष्टाचार को बिल्कुल हलके से लें और ) यह कहना शुरू कर दें कि-" चुरी एकटू हयई थाके !" " - थोड़ी बहुत चोरी तो होती ही रहती है !"
तो देश से भ्रष्टाचार दूर कैसे होगा ? क्या उपाय है इस भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने का ? यदि मनुष्य का चरित्र गठन हो जाये तो वह भ्रष्ट-आचरण (भ्रष्टाचार) कभी कर ही नहीं सकता. मनुष्य यदि ' मनुष्य ' ( T के शब्दों में जिसको अपने मान का होश हो- मानहुश !) बन जाये तो भर्ष्टाचार स्वतः मिट जायेगा. मनुष्य अभी तक मनुष्य नहीं बन सका है, इसी लिये तो भ्रष्टाचार चल रहा है.
(N -दादा कहते हैं- बाकी सब पशु पक्षी पूर्ण हो कर आये हैं, उनको कुछ बनना नहीं पड़ता है- स्कूल जाना नहीं पड़ता है, किसी गुरु के पास जाना नहीं पड़ता है. पर मनुष्य अधुरा है उसको मनुष्य बनने की साधना - मन को अपने वश में रखने साधना , " मनः संयोग " ही सीखना पड़ता है. जो व्यक्ति मन को वश में करके मनुष्य बन जाने की चेष्टा नहीं करता वह नीचे गिर कर केवल पशु ही नहीं राक्षस बन जाता है ! )
मनुष्य यदि " मनुष्य " बन जाता तो दुर्नीति (बेईमानी) कहीं दिखाई भी नहीं पडती ! स्वाधीन भारत की शिक्षानीति में - " मनुष्य " बनने (चरित्रवान मनुष्य बनने की शिक्षा ) की शिक्षा देने का प्रयास कभी किया ही नहीं गया है. इसीलिये स्वामीजी ने कहा था - 

" तोदेर देशे मानूष कोथाय रे ? "
 " - तुमलोगों के देश में मनुष्य कहलाने योग्य मनुष्य कहाँ हैं रे ? "मनुष्यों का निर्माण करने से क्या होगा ? उन सज्जन ने स्वामीजी से यही जानना चाह था, की क्या करने क्या हो सकता है ? उन्होंने उत्तर में कहा था-"मेक मैन फर्स्ट"- पहले मनुष्यों का निर्माण करो ! "
क्या मनुष्यों का निर्माण कर लेने से सब कुछ ठीक हो जायेगा ? हाँ, जब यथेष्ट संख्यक मनुष्य निर्मित हो जायेंगे तो सेष सब कुछ अपने आप हो जायेगा ! क्योंकि हमारे देश आभाव केवल चरित्रवान मनुष्यों का ही है. ( बाकी तो शश्यश्यामला रत्नगर्भा भारत भूमि पहले से ही है !) स्वामीजी ने यह बात १००  वर्ष पहले कहा था, वह आज तक नहीं किया गया है. आज तक सरकारी प्रयास के द्वारा देशव्यापी स्तर पर " मनुष्य निर्माण करने की कोई पञ्च वर्षीय योजना ",  नहीं ही बनाई जा सकी है ! 
विश्वविद्यालय की तो देश में भरमार है, अभी भारतवर्ष में ३५० विश्वविद्यालय हैं, और नये नये खुलते भी जा रहे हैं. इतना ही नहीं विदेश के विश्वविद्यालय भारत में अपनी शाखायें खोल रहे हैं. अपने देश के विश्वविद्यालय को दूसरे देशो में ले जाने का प्रयास चल रहा है. तर्क है कि इस प्रकार करने से ' विद्या ' का आदान प्रदान होगा. कौन सी ' विद्या ' ली और दी जाएगी ? 
" अर्थकरी- विद्या " इस विद्या में मनुष्य के द्वारा ' मनुष्यत्व ' अर्जित करने की ओर कोई ध्यान नहीं रखा जाता है.इसमें बस यही सिखया जाता है कि किस उपाय से और भी अधिक धन उपार्जित किया जा सकता है ? 
विश्व को  इस अवस्था से (आर्थिक वैश्वीकरण के कुपरिणाम से ) यदि कोई विचारधारा रक्षा कर सकती है, तो वह केवल स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा ही है ! स्वामीजी की विचारधारा कहने का अर्थ श्री रामकृष्ण परमहंस देव ( ठाकुर ) की विचारधारा ही है, और ठाकुर की विचारधारा का अर्थ ही है श्री श्री माँ सारदा देवी की विचारधारा ! इन तीनों में एक ही भाव का मिलन है, पूर्ण स्वीकृति है ! 
शायद इसीलिये मुझ से कुछ दिनों पहले एक स्थान पर, अर्थात महामण्डल चलते हुए बहुत वर्ष बीत जाने के बाद, किसी जगह यह प्रश्न पूछा गया कि, इस महामण्डल कि स्थापना किस प्रकार हुई ? प्रश्न को सुनने के साथ ही साथ मेरे मन में जो विचार उठते हैं, उसीको तत्काल मुझे कह देना पड़ता है. बहुत सोंच विचार करके कुछ बोलने कि क्षमता भी मुझमे नहीं है. इसीलिये बरबस मुख से निकल पड़ा था-
" The will of Sri Ramakrishna, the blessings of the Holy Mother, and enthusiasm of Swami Vivekananda mingled to form this organization ."  
" - ठाकुर की इच्छा,  माँ का आशीर्वाद और स्वामीजी का उत्साह-  इन तीन भावों  के सम्मलित होने से ही इस संगठन ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' की सृष्टि हुई है ! " 
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बुधवार, 25 अगस्त 2010

परिव्राजक लीडरशिप [49] महामण्डल का " प्रतीक-चिन्ह "

" चरैवेति चरैवेति "

महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद, सोंच-विचार कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह " (Emblem) निर्धारित किया गया. उसमे जो गोलाई है, वह पृथ्वी है, पृथ्वी के भीतर, कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है, भारतवर्ष के भीतर दण्डधारी स्वामी विवेकानन्द खड़े हैं. उस गोलाई के दोनों ओर दो वाक्य लिखे हुए है-  " Be and Make " स्वामीजी के द्वारा कही गयी यह वाणी एक मन्त्र के सदृश्य है,  " बनो और बनाओ " (Be and Make ) - का यह आह्वान  उपनिषदों में कहे गये " महावाक्यों " के जैसा अत्यन्त सारगर्भित है.(दादा कहते हैं- इस मन्त्र में इतनी शक्ति है जो भी इस काम से निष्ठा पूर्वक जुड़ा रहेगा उसे  मोक्ष तक प्राप्त हो जायेगा, अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ) इसका अर्थ है :-" स्वयं मनुष्य बनो दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो ! " इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर की ओर लिखा है-" चरैवेति चरैवेति !" अर्थात "चलते रहो - चलते रहो !" 

महामण्डल का यह ध्येय वाक्य वैदिक साहित्य (ऐतरेय ब्राह्मण ७.१५) के सुप्रसिद्ध संचरण गीत "चरैवेति-चरैवेति।" से लिया गया है; इस वैदिक गीत में जीवन एवं समाज के विकास के केन्द्र में मनुष्य के श्रम या पुरुषार्थ के महत्व को उजागर किया गया है।

 यहाँ इस मंत्र के द्रष्टा : (ऋषि कवि महीदास ऐतरेय ) कहते हैं - जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है,  जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे चलना शुरू कर देता है , उसका भाग्य भी आगे आगे चलने लगता है, इसीलिये- " हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! "चलते रहो - चलते रहो!" (साभार Pt. Chhavinath Mishra / प. छविनाथ मिश्र ने इस रचना का सुन्दर हिन्दी अनुवाद किया है - ) 
संचरण गीत "चरैवेति-चरैवेति।"
  "चलते रहो - चलते रहो"
१-ॐ नाना श्रान्ताय श्रीरस्ति, इति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जन, इन्द्र इच्चरतः सखा । चरैवेति चरैवेति॥

सुनो रोहित --
सुना हमने
अथक श्रम ही श्रीमुखी

कर्मरत यदि हों नहीं तो श्रेष्ठ जन भी सब दुखी
नित्य जो गतिशील है बस इन्द्रता तो है उसीकी
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …


२- पुष्पिण्यौ चरतो जंघे, भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सवेर् पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हताः । चरैवेति चरैवेति॥

फूल उनकी पिण्डलियाँ हैं जो हमेशा चला करते
वर्धमाना चेतना की टहनियों पर फला करते
सुप्त रहते हैं सभी अपकर्म भी उसके सखे हे !
किन्तु श्रम से पंथ पर ही नष्ट होते नित दिखे वे
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …


३- आस्ते भग आसीनस्य, ऊध्वर्स्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य, चराति चरतो भगः । चरैवेति चरैवेति॥

बैठने वाले पथिक का भाग्य बैठा अड़ा होता
और उठने की क्रिया में वही ऊँचे खड़ा होता
जो यहाँ सोया रहा वह हाथ मलता ही रहा है
भाग्य उसका ही चला है जो सदा चलता रहा है
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …


४- कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । 
चरैवेति चरैवेति॥

 सदा ही सोता हुआ - सा
यहाँ कलियुग हुआ करता
नींद टूटी, जागरण ही, यहाँ द्वापर हुआ करता
और उठता हुआ मानुष
खड़ा त्रेता -सा स्वयम्भर
यहाँ चलता हुआ पथ पर सत्ययुग होता निरन्तर
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …

५- चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूयर्स्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
 
 कर्मरत गतिशील जो
मधुपान करता है सुनिश्चित
कर्मशीला अस्मिता को ही सदा मिलता फलामृत
देख लो तुम सूर्य की श्रमशीलता यह सृजनधर्मी
जो न पल भर श्रम-विमुख है
श्रम-मुखी शाश्वत सुकर्मी
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
सोये रहने का तात्पर्य है, जो मनुष्य सोया हुआ है वह अभी ' कलिकाल में वास 'कर रहा है, (स्वामीजी की ललकार - उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्नी बोधत ! सुनने से ) जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, वह द्वापर युग में वास कर रहा है. 
" उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति |"
- जो उठ कर के खड़ा हो जाता है- जो पुरुषार्थ करने के लिये कमर कस कर उठ खड़ा होता है, वह त्रेता युग में वास कर रहा है, 
" कृतं संपद्यते चरन् । "
और अपनी मंजिल की ओर जिसने चलना शुरू कर दिया है, वह मानो सत्य युग में वास कर रहा होता है. इसीलिये स्वामीजी युवाओं से आह्वान करते हैं - 'चरैवेति चरैवेति ' - आगे बढो, आगे बढो ' इसके साथ ही साथ उन्हें परम-पुरषार्थ करने के लिये पुकार रहे हैं  " Be and Make !  "  उनके दोनों महावाक्यों को महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह में उकेरा गया है ! परिव्राजक का काम है चलते रहना । " नदिया चले चले रे धारा चन्दा चले चले रे तारा तुझको चलना होगा तुझको चलना होगा |
 ( Why do we rush through our lives, as if we were in a hurry to get somewhere? Take me anywhere, just not to here! Why so? Sure, I am the first to admit that goals are important in life, but if we don’t take time to look around and enjoy the journey our goals will loose their effect; they are to make us happy now. Today. That is why I like this simple Chinese proverb:

“The Journey is the Reward”
If we enjoy our journey our lives gain meaning. It’s as simple as that. Let’s not think that the only important thing is that celestial glory which awaits us some time faaaaar in the future. Seeing how wonderful this life is, here and now, lets us experience the sparking of that celestial flame in a hearts already today.!Enjoy your day! -by Louis Herrey)}

...." जो हमलोगों का संघ-मन्त्र है, वह ऋग्वेद में भी है और अथर्ववेद में भी है -
 

संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।
समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।
(ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ )
हिन्दी भाव -एक साथ चलेंगे ,एक बात कहेंगे । हम सबके मन को एक भाव से भरेंगे ।देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं ,हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।। हम अपने सारे निर्णय एक मन हो कर ही करेंगे ,क्योंकि देवता लोग एक मन रहने के कारण ही असुरों पर विजय प्राप्त कर सके थे । अर्थात एक मन बन जाना ही समाज-गठन का रहस्य है ......कैसा अनोखा मन्त्र है.' संजयान ' हो उठना का तात्पर्य है जाग उठना ! इस मन्त्र को स्वामीजी ने भी उद्धृत किया था. विवेकानन्द साहित्य में जहाँ इस मन्त्र का उल्लेख स्वामीजी ने किया है, वहाँ कहा गया है की यह मन्त्र अथर्ववेद से लिया गया है; किन्तु यही मन्त्र ऋग्वेद में भी है.
ये सारे कार्यक्रम भारत के १० राज्यों में २८० केन्द्रों के माध्यम से चल रहा है. क्या यही कम बड़ी उपलब्धी है! यही तो है स्वामीजी का कार्य.इसके साथ साथ महामण्डल के लिये एक पताका की भी आवश्यकता महसूस हुई. पताका के बारे में विचार करते करते मन में विचार आया कि (भगिनी) निवेदिता ने तो स्वाधीन भारत के लिये एक पताका का निर्माण किया था. उसके पीछे भी स्वामीजी कि एक उक्ति का स्मरण हो उठता है. इसीलिये  महामण्डल का जय-घोष बना : " निवेदिता वज्र हो अक्षय ! उनकी उसी उक्ति से प्रेरणा प्राप्त करके निवेदिता ने उस पताका की रुपरेखा तैयार की थी य़ा नहीं, यह मुझे नहीं पता है.एक बार स्वामीजी से किसी ने प्रश्न किया था- स्वामीजी, आपने इतना कुछ किया है, किन्तु भारत की स्वाधीनता के लिये आपने क्या किया है ? स्वामीजी कहते हैं- " भारतवर्षेर स्वाधीनता आमी  तीन दिनेर मध्येई एने फेलते पारि| किन्तु भारते मानुष कोथाय रे ?
से स्वाधीनता राखबे के ? " - " भारतवर्ष को मैं तिन दिनों के भीतर ही स्वाधीनता दिला सकता हूँ| किन्तु चरित्रवान मनुष्य भारत में कहाँ हैं रे ?  उस स्वाधीनता को अक्षुण कौन रखेगा ? "
 भारत  की वर्तमान अवस्था तो शायद पहले से भी ज्यादा बिगड़ चुकी है, यदि चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण नहीं किया गया, तो भारत के गांवों में रहने वाले गरीब लोगों को भूख-भय- भ्रष्टाचार से मुक्ति कैसे मिलेगी ? हो सकता है कि इस समय विदेशी आक्रमण का उतना खतरा नहीं हो, किन्तु उसका वास्तविक कारण " Balance of Power " ( शक्ति का सन्तुलन ) है. विश्व के बड़े बड़े देशो के बीच ऐसा कोई अलिखित करार है कि कोई भी बड़ा देश (जिसके पास वीटो पावर है ) वह अन्य किसी बड़े देश पर आक्रमण नहीं कर सकेगा. किन्तु देश की स्वाधीनता की रक्षा करने का क्या अर्थ है ? आज के भारतवर्ष में स्वाधीनता प्राप्त कर लेने के बाद क्या हुआ है ? स्वाधीनता प्राप्ति के ६४ वर्षों बाद भी भारत के " सैंकड़े ३४ व्यक्ति " गरीबी की सीमा-रेखा के नीचे वास करते हैं. स्वाधीनता किसे प्राप्त हुई है? स्वाधीनता प्राप्त हुई उनको जो अर्थवान हैं. उनका अर्थ और किस तरह बढ़ जाये इसके लिये दरवाजे खोल दिये गये हैं. आजकल globalization का, वैश्विकरण का, उदारीकरण का शोर है. किन्तु वैश्वीकरण की महत्ता का जन्म भी भारतवर्ष में ही हुआ था.  
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{ मनुष्य का शरीर पुरुषार्थ करने के लिये ही प्राप्त हुआ है.हमारे शास्त्रों में चार प्रकार के पुरुषार्थ कहे गये हैं- " धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष ." इन चारों की प्रेरणा से ही मनुष्य पुरुषार्थ करने के लिये अग्रसर होता है. और अपने अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है.पारिवारिक जिम्मेदारियाँ जैसी ही हल्की होने लगें, घर को चलाने के लिए बड़े बच्चे समर्थ होने लगें और अपने छोटे भाई-बहिनों की देखभाल करने लगें, तब वयोवृद्ध आदमियों का एक मात्र कर्त्तव्य यही रह जाता है कि वे पारिवारिक जिम्मेदारियों से धीरे-धीरे हाथ खींचे और क्रमशः वह भार समर्थ लड़कों के कन्धों पर बढ़ाते चलें । ममता को परिवार की ओर से शिथिल कर समाज की ओर विकसित करते चलें । सारा समय घर के ही लोगों के लिए खर्च न कर दें, वरन् उसका कुछ अंश क्रमशः अधिक बढ़ाते हुए समाज के लिए समर्पित करते चलें । धर्म और संस्कृति का प्राण- वानप्रस्थ संस्कार भारतीय धर्म और संस्कृति का प्राण है । जीवन को ठीक तरह जीने की समस्या उसी से हल हो जाती है । युवावस्था के कुसंस्कारों का शमन एवं प्रायश्चित इसी साधना द्वारा होता है । जिस देश, धर्म जाति तथा समाज में उत्पन्न हुए हैं, उनकी सेवा करने का, ऋण मुक्त होने का अवसर भी इसी स्थिति में मिलता है । इसलिए जिन नर-नारियों की स्थिति इसके लिए उपयुक्त हो, उन्हें वानप्रस्थ ले लेना चाहिए । एक प्रतिज्ञा बन्धन में बँध जाने पर व्यक्ति अपने जीवनक्रम को तदनुरूप ढालने में अधिक सफल होता है, बिना संस्कार कराये मनोभूमि पर वैसी छाप गहराई तक नहीं पड़ती । इसलिए कदम कभी आगे बढ़ते, कभी पीछे हटते रहते हैं ।
प्राचीनकाल में लोक निर्माण की सारी गतिविधियों एवं प्रवृत्तियों के संचालन का उत्तरदायित्व साधु-ब्राह्मण, वानप्रस्थों पर ही था, वे अपनी सारी शक्तियाँ परमार्थ भावना से प्रेरित होकर जनमानस को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त किये रहने में लगाये रहते थे । फलस्वरूप चारों ओर धर्म, कर्त्तव्य, सदाचार का ही वातावरण बना रहता था । वयोवृद्ध अनुभवी परमार्थ-परायण लोकसेवियों का प्रभाव जन साधारण पर स्वभावतः बहुत गहरा पड़ता है, वह टिकाऊ भी होता है । ऐसे लोग जन नेतृत्व करने के लिए जब धमर्तन्त्र का उचित उपयोग करते थे, तो सारे समाज में सत्प्रवृत्तियों के लिए उत्साह उमड़ पड़ता था ।
शिक्षा, स्वास्थ्य, सदाचार, न्याय, विवेक, वैभव, शासन, विज्ञान, सुरक्षा, व्यवस्था आदि सभी क्षेत्रों में वे वयोवृद्ध लोग ही नेतृत्व करते थे । इतने अधिक अनुभवी और धर्म् परायण व्यक्तियों की निःशुल्क सेवा जिस देश या समाज को उपलब्ध होती हो, व उसको संसार का मुकुटमणि होना ही चाहिए, प्राचीनकाल में ऐसी ही स्थिति थी। आज वानप्रस्थ की परम्परा नष्ट हुई, बूढ़े लोगों को लोभ-मोह के बन्धनों में ही ग्रसित रहना प्रिय लगा, तो फिर देश का पतन अवश्यम्भावी हुआ भी, हो भी रहा है । विशेष व्यवस्था- वानप्रस्थ संस्कार जितने व्यक्तियों का हो, उनके लिए समुचित आसन तैयार रखे जाएँ । वानप्रस्थ परम्परा को महत्त्व देने की दृष्टि से उनके लिए सुसज्जित मंच बनाया जा सके, तो बनाना चाहिए ।
अभिसिञ्चन के उपरान्त वानप्रस्थ लेने वालों के हाथों में धमर्दण्ड और मेखला-कोपीन का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है । कोपीन धारण करने का अर्थ है- इन्द्रिय संयम बरतना । वानप्रस्थी को सन्तानोत्पादन बन्द कर देना चाहिए । अब तक की उत्पन्न हुई सन्तान का ही पालन-पोषण, विकास-निमार्ण ठीक तरह हो जाए, यही बहुत है। पचास वर्ष की आयु के बाद बच्चे पैदा करते रहना, तो एक लज्जा की बात है, इससे कठिनाई बढ़ती है । बच्चे दुबले पैदा होते हैं, अनाथ रह जाते हैं तथा उनकी जिम्मेदारी मरते समय तक बनी रहने से समाजसेवा, परमार्थ साधना जैसे जीवन को साथर्क बनाने वाले प्रयोजनों के लिए अवसर ही नहीं मिलता । 
कमर में मेखला (रस्सी) बाँधना कोपीन धारण के लिए तो आवश्यक है ही, साथ ही वह सैनिकों की तरह कमर कसकर, पेटी बाँधकर परमार्थ के मोर्चे पर आगे बढ़ने की मानसिक स्थिति का भी प्रतीक है । कमर कसना, मुस्तैदी, सतकर्ता, तत्परता निरालस्यता जैसी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति बनाये रखने का प्रतीक है । निमार्ण के दो मोर्चो पर एक साथ लड़ने वाले सैनिक को जिस सतकर्ता से कार्य करना होता है, वैसा ही उसे भी करना चाहिए ।
वानप्रस्थी को हाथ में लाठी दी जाती है । गुरुकुलों में विद्याध्ययन करने वालों को वन्य प्रदेश की आवश्यकता के अनुरूप लाठी सुविधा की दृष्टि से आवश्यक भी होती थी । इसके अतिरिक्त यह धमर्दण्ड इस मन्तव्य का भी प्रतीक है कि राजा जिस प्रकार राज्याभिषेक के समय शासन सत्ता का प्रतीक राजदण्ड छोटा लकड़ी का डण्डा हाथ में विधिवत् समारोह के साथ ग्रहण करता है, उसी प्रकार वानप्रस्थी संसार में धर्म व्यवस्था कायम रखने की अपनी जिम्मेदारी को हर घड़ी स्मरण रखे रहे और तदनुरूप अपना जीवनक्रम बनाये रहे, इसलिए भी यह धमर्दण्ड है । 
 महानता की मंजिल पर मनुष्य एकाएक नहीं पहुँच जाता, उसके लिए एक-एक करके सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं । श्रेष्ठ प्रवृत्तियाँ, आचरण एवं स्वभाव बनाने के लिए व्रतशील होकर चलना पड़ता है । छोटे ही सही, व्रत लेने, उन्हें पूरा करने, फिर नये व्रत लेने का क्रम विकास के लिए अनिवार्य है । व्रतशीलता के लिए कुछ देवशक्तियों को साक्षी करके व्रतशील बनने की घोषणा की जाती है । इन्हें अपना प्रेरक, निरीक्षक और नियंत्रक बनाना पड़ता है । सम्बन्धित देवशक्तियों की प्रेरणाएँ इस प्रकार हैं-अग्निदेव- ऊर्जा के प्रतीक । ऊर्जा, स्फुरणा, गर्मी, प्रकाश से भरे-पूरे रहने, अन्यों तक उसे फैलाने, दूसरों को अपना जैसा बनाने, ऊध्वर्गामी-आदशर्निष्ठ रहने, यज्ञीय चेतना के वाहन बनने की प्रेरणा के स्रोत । वायुदेव- स्वयं प्राणरूप, किन्तु बिना अहंकार सबके पास स्वयं पहुँचते हैं । कोई स्थान खाली नहीं छोड़ते, निरन्तर गतिशील । सुगन्धित और मेघों जैसे परोपकारी तत्त्वों के विस्तारक सहायक ।सूयर्देव- जीवनी शक्ति के निझर्र, तमोनिवारक, जागृति के प्रतीक, पृथ्वी को सन्तुलन और प्राण-अनुदान देने वाले, स्वयं प्रकाशित, सविता देवता ।चन्द्रदेव- स्वप्रकाशित नहीं, पर सूर्य का ताप स्वयं सहन करके निमर्ल प्रकाश जगती पर फैलाने वाले, तप अपने हिस्से में-उपलब्धियाँ सबके लिए । इन्द्रदेव- व्रतपति देवों में प्रमुख, देव प्रवृत्तियों-शक्तियों को संगठित-सशक्त बनाये रखने के लिए सतत जागरूक, हजार आँखों से सतर्क रहने की प्रेरणा देने वाले ।
रुके नहीं , लक्ष्य की ओर बराबर चलता रहे, एक सीमा में न बँधे, जन-जन तक अपने अपनत्व और पुरुषार्थ- " Be and Make "  को फैलाए । जो परिव्राजक लोकमंगल के लिए संकीणर्ता के सीमा बन्धन तोड़कर गतिशील नहीं होता, सुख-सुविधा छोड़कर तपस्वी जीवन नहीं अपनाता, वह पाप का भागीदार होता है ।}
Do u Know?........
The first serious attempt at flag making came from Sister Nivedita (Margaret Nobel, 1867-1911) an Irish disciple of Swamy Vivekananda.  She conceived the idea of the flag, while on a  visit to Bodh Gaya in 1904, in the company of J.C. Bose and Rabindranath Tagore. She was inspired by the Vajra sign, symbol of Budha - the selfless man. 
It was the weapon of Lord Indra and is a symbol of strength (and also associated with the Goddess Durga).Legend goes that Vajra (Thunder bolt) was made from the bones of Rishi Dadhichi.  It is a symbol of supreme sacrifice.
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhaPAsRbEjdnApONPkj9XpaJszqONsq0k_qqmf7vKC3yEJr9fUAGGSeIEa7xWhEnXRsUNRc4z54vYNbhAdV0u-GNzjLceboSJNMP3uiU14YZ2T9k_DNchMPLR8aNbBYZVlKw1wCR_foOLk/s1600/scan0012.jpg

Sister Nivedita’s flag, 
prepared by the students of her Girls' School at Calcutta  was displayed for public view at the Congress exhibition in December 1906. The flag was square in shape, it had the symbols of Vajra (Thunder bolt) in the centre. On both sides of the Vajra was written‘Vande’ and ‘Mataram’ and 108 Jyotis (flames) in the outer periphery.
Sister Nivedita (using R.S. as nom de plume) in an article titled ‘The Vajra as a National Flag’ published in the Modern Review in 1909, strongly suggested Vajra as a National flag for whole of India. The opening sentences of the article goes, I quote   "The question of the invention of a flag for India is beginning to be discussed in the press.Those who contemplate the desirability of such a symbol, seem to be unaware that already a great many people have taken up, and are using, the ancient Indian Vajra or Thunderbolt, in this way....",unquote.  Below are some of the draft sketches prepared by Sister Nivedita herself for illustrations of the said article.

Nivedita’s Vajra, has been adopted as the logo of the Bose Institute, Kolkata .Crest of North Bengal University has also the Vajra symbol in the centre .]


सोमवार, 23 अगस्त 2010

[48] हृदय को कैसे विकसित करें ?

आध्यात्मिक शक्ति  को विकसित करने के  उपाय  पर  पाठ चक्र में विशेष चर्चा करें ! 
(2 H )- विकास अर्थात शारीरिक शक्ति (य़ा बाहू बल ) को विकसित करने का उपाय- ' व्यायाम ',  और मानसिक शक्ति (य़ा मनोबल) को विकसित करने के उपाय- " मनः संयोग " करना भी हमने सीख लिया; अब प्रश्न उठता है की अपने (3rd H या ह्रदय Heart) का विस्तार आत्म-बल का विकास  किस प्रकार करूंगा?
ह्रदय का विस्तार करना चाहते हों, तो उसके लिये सबसे कारगर उपाय के तौर पर जिसे हमलोगों ने जाना है, जिसे आप महामण्डल द्वारा एक ' परीक्षित सत्य ' भी कह सकते हैं - वह है, ' मन ' को केवल ' मैं ' और' मेरा ' के स्वार्थपूर्ण सीमित दायरे में नहीं रखना। 
अर्थात अपने ह्रदय को केवल अपने व्यक्तिगत कल्याण-कामना से जोड़े न रख कर थोड़ा दूसरों के ह्रदय से भी जोड़ने की चेष्टा करना. दूसरों के ह्रदय के साथ अपने ह्रदय को जोड़ लेने से क्या होगा?" अन्येर व्यथाटा आमार बूके गिये लागबे | " - दूसरों के मन की व्यथा का अनुभव कर मेरी छाती धडकने लगेगी . दूसरों का दुःख-कष्ट देख कर मेरा ह्रदय द्रवीभूत होने लगेगा; ठीक उसी प्रकार दूसरों का आनन्द भी मेरे मन में संचारित होने लगेगा ! "
यह सब किन्तु हमलोग अभी भी करते ही जा रहे हैं. हर समय ऐसा होता रहता है, केवल हमलोग उसकी तरफ ध्यान नहीं देते हैं, यह समझ नहीं पाते हैं कि, हाँ ऐसा होता है. इसीलिये यदि वही काम हमलोग ज्ञानतः (होश पूर्वक) करें, सोंच-विचार करके समझ-बुझ कर करें - ' कि नहीं मुझे अपने मन से केवल अपने व्यक्तिगत लाभ के बारे में न सोंच कर दूसरों का हित भी सोंचना होगा.' " कारन सकलेर मध्ये आमि आछि "  - एटा आसबे परे अनेक परे आसबे |  " - कारण सबों के भीतर मैं हूँ ' (सिर्फ़ ' मैं ' हूँ सिर्फ़ ' मैं '!) - ऐसा ज्ञान बाद में आयेगा, यह बोध बहुत आगे चल कर होगा ! मैं केवल इसी साढ़े-तीन हाथ के शरीर के भीतर ही आबद्ध नहीं हूँ, मैं केवल यहीं पर नहीं हूँ - मैं ही वह विश्वव्यापी ( आत्मा)हूँ (I am He )-  यह बोध बहुत बाद में आयेगा. चार महावाक्य में जो हमलोगों ने सुना था- " सर्वम खल्विदं ब्रह्म ! ""- सबों के भीतर मैं ही हूँ ! "
मैं ही तो वह ब्रह्म हूँ , अभी इस नाम-रूप में हूँ - आत्मा ने ही यह रूप धारण किया है.इस प्रकार का एक मूर्तिमान -   देह, एक मन, एक ह्रदय लेकर यह जो ' मैं ' (स्त्री य़ा पुरुष का) बन गया हूँ, कोई खास नाम-रूप धारण किया हूँ - यह भी तो ' वही ' हैं !
इसीलिये मन को विस्तृत करना होगा ( इसे विश्व-व्यापक समझना होगा )!इन सब गूढ़ तत्वों को आसानी समझने के लिये ही विभिन्न केन्द्रों में ' पाठचक्र ' कि व्यवस्था है. पाठचक्र  का अर्थ - यह नहीं कि एक व्यक्ति बैठे बैठे  पुस्तक य़ा कोई ग्रन्थ पढता रहेगा, और बाकी लोग केवल आँखें मूंद कर- य़ा आखों को खोलकर उसे सुनते रहेंगे |  
जिन पुस्तकों को पढने से और जान लेने हमारा यह विश्वास पुष्ट होता हो, कि चारों महावाक्य सत्य हैं ! उसी प्रकार के अंशों को महामण्डल पुस्तिकाओं से चुन चुन कर पढना होगा.स्वामीजी के जीवन एवं उनके संदेषों में समाहित विभिन्न दृष्टिकोण को समझने के लिये, स्वामीजी के भावों को ठीक से आत्मसात कर लेने के लिये- उसके कुछ कुछ अंशों को पहले पढ़ना चाहिये, फिर उन विषयों को आपस में चर्चा करके भलीभांति समझ लेने की चेष्टा करनी चाहिये. केवल इतना ही काफी नहीं है कि अमुक पुस्तिका से इतने पन्नों तक पढ़ लिया गया है, य़ा उस कहानी को पढ़ा गया था. 
पाठचक्र का तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है, बल्कि तथ्यों को बार बार चर्चा करके सुनना है और सुन कर समझ लेना है. तथा  प्रत्येक सदस्य को वहाँ पर बोलना भी होगा, बार बार बोलना होगा, कि उसने उन तथ्यों के बारे में क्या जाना है! पाठचक्र में बारी बारी से प्रत्येक सदस्य इन विषयों पर अपने अपने विचार रखेंगे. 
एवं साप्ताहिक पाठचक्र के दिन सभी सदस्यों से व्यक्तिगत जानकारी भी प्राप्त करना चाहिये कि विगत सप्ताह में तुमने महामण्डल के किन किन नियमों का कितना कितना पालन किया है ? नियमों का पालन करना - अर्थात प्रतिदिन सुबह में उठ कर हाथ-मुँह धो लेने के बाद जिसको जिस प्रकार की दिनचर्या का पालन करना पड़ता हो, उसे करना. निश्चित रूप से कई प्रकार की असुविधाएं रह सकतीं हैं, किन्तु उसके बावजूद भी यह देखना होगा कि कमसे कम ' व्यायाम ' हुआ है य़ा नहीं, सबों के मंगल के लिये ' प्रार्थना ' और ' मनःसंयोग ' का अभ्यास किया हूँ य़ा नहीं, सारे दिन में एक बार भी ' विवेकानन्द साहित्य ' में से कुछ न कुछ पढ़ा हूँ य़ा नहीं? ( सर्वाधिक महत्वपूर्ण - कोई भी कार्य करने के पहले मैंने ' विवेक-प्रयोग ' का अभ्यास किया है य़ा नहीं ?)
अपने ह्रदय का विस्तार करने के लिये स्वामीजी को प्रतिदिन पढना अत्यन्त आवश्यक है. मैं एक-दो व्यक्ति के बारे में जानता हूँ जो नौकरी करते हैं, वे लोग ऑफिस में जाने के बाद पहले ड्रावर  खोल कर स्वामीजी की एक पुस्तक निकालते हैं, और उसके कुछ अंश को पढने के बाद ही काम करना प्रारम्भ करते हैं. रात्रि में सोते समय उसको अक्सर एक, डेढ़, दो तक सोना पड़ता है, किन्तु चाहे जितनी रात हो जाये, रात में सोने से पहले कमसे कम और एकबार स्वामीजी की पुस्तकों को पढ़ता है. ऐसी आदत प्रत्येक में रहनी चाहिये. स्वामीजी की पुस्तकों में से रोज कुछ न कुछ पढूंगा, उसके बाद अनुसांगिक पुस्तकों को भी पढना है.महामण्डल की पुस्तिकाएँ हैं.
जब महामण्डल अपने अस्तित्व में आया-  तो सर्वप्रथम एक " लीफलेट " लिखा गया, उसके बाद एक बुकलेट आया" Aims and Objects of the Mahamandal " इसका हिन्दी अनुवाद - " महामण्डल का आदर्श एवं उद्देश्य " भी उपलब्ध है. ' मनः संयोग ' के ऊपर किताब हुआ है,  " चरित्र-गठन " के ऊपर किताब निकला है, ' चरित्र के गुण ' के ऊपर पुस्तिका निकली है, जो गुण बुरे हैं, उन दुर्गुणों का भी अपने आचरण से निकाल बाहर करना होगा, वे १२ दुर्गुण कौन कौन हैं उन्हें किस प्रकार बाहर किया जाता है हिन्दी में इसका नाम है - " नेति से ईति " , इस प्रकार की अनेक पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं.
एक छोटी सी पुस्तिका संस्कृत भाषा में भी उपलब्ध है, इसके अतिरिक्त अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला, उड़िया, तेलगु, मराठी, असमिया आदि आठ भाषाओँ में महामण्डल की पुस्तिकाएँ उपलब्ध हैं.इस प्रकार जो जिस स्थान में रहते हों, वे वहीं पर अपने यहाँ की भाषा में इन पुस्तकों को पढ़ सकते हैं, इसके अतिरिक्त हिन्दी भाषा में १० खण्डों में उपलब्ध ' विवेकानन्द साहित्य ' का नियमित अध्यन करना चाहिये, (प्रारम्भ में विशेष तौर पर पंचम  खंड) और स्वामीजी की जीवनी आदि का अध्यन भी प्रत्येक (भारत प्रेमी ) युवा को करना चाहिये.
हो सकता हैं कि प्रत्येक नवागंतुक सदस्य के मन में स्वामीजी के अदभुत प्रेरणादायी जीवन के सम्बन्ध में पहले से ही कोई धारणा नहीं रहे, किन्तु उनकी जीवनी को पढ़ते रहने से धीरे धीरे उनका जीवन प्रभावित करेगा और हमारा ह्रदय भी क्रमशः विस्तृत होने लगेगा.
यदि हमलोग अभी तक उनके जीवन को अपनी ' ध्येय-वस्तु ' के रूप में परिणत न कर सके हों, तो फिर महामण्डल से जुड़ने का लाभ ही क्या हुआ? यह ठीक है कि हमलोग प्रतिदिन बैठ कर स्वामीजी के चित्र य़ा मूर्ति पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते हैं, य़ा कोई कोई ध्यान भी करते हैं, किन्तु स्वामीजी कि जीवनी ( सत्येन्द्रनाथ मजुमदार लिखित- " विवेकानन्द चरित ")  को पढ़ते समय स्वामीजी का जो ध्यान होगा वह बिल्कुल (अनोखा) अपूर्व ध्यान होगा- उनके साथ एकात्मता का अनुभव होने लगेगा. 
ऐसा लगेगा हम मानो साक्षात् परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द को कन्याकुमारी की ' विवेकानन्द रॉक ' तक तैर कर जाते हुए और वहाँ बैठ कर ध्यान करते जुए बिल्कुल लाइव टेलीकास्ट देख रहे हों ! कन्याकुमारी की उस शीला पर बैठ कर स्वामी विवेकानन्द ने किसका ध्यान किया था ?
१८९२ ई० में कुमारी अम्मन यानी " कुमारी देवी के मन्दिर " में बैठ कर स्वामी विवेकानन्द ने  " भारतमाता " का ध्यान किया था, भारतवर्ष के असंख्य दरिद्रों, दुःख-कष्टों में गिरे हुए मनुष्यों की मुक्ति के पथ को आविष्कृत करने की चेष्टा किये थे, प्रार्थना किये थे.
स्वामीजी जिस समय परिव्राजक अवस्था में भारतमाता की परिक्रमा कर रहे थे, उस समय तो भिक्षा मांग कर ही भोजन का प्रबन्ध करना पड़ता था, भिक्षा मांगते मांगते एकदिन किसी गरीब की कुटिया में जा पहुँचे हैं. उस घर की गृहणी भिक्षा लेकर आने लगतीं हैं, उसी समय स्वामीजी की दृष्टि घर के आँगन में घूमते उसके बच्चों पर जा पड़ती है; किसी के तन पर कपड़ा नहीं है, शरीर भी मैला-कुचैला है, सिर के केस इतने रूखे रूखे हैं मानो इन लोगों ने वर्षों से उनमे तेल नहीं डाले हैं. उन बच्चों को देख कर मन में इतना अवसाद हुआ, कि उन्होंने तय कर लिया कि अब और भिक्षा लेने कहीं नहीं जाऊंगा. वे सोंचने लगे, इन दरिद्र बालको के मुख से भी एक निवाला अन्न छीन लेने का मुझे क्या अधिकार है ?
ऐसा विचार करके स्वामीजी वहां से चले गये. चलते चलते वे विचारों में इतने खो गये कि अनमनस्क हो कर एक घने जंगल में जा पहुँचे. शरीर बिल्कुल थक चुका था, सारे दिन से कुछ भोजन नहीं मिला था, क्लान्त हो कर एक स्थान पर बैठ गये. चुप चाप बैठे हुए थे. बैठे- बैठे निश्चय कर लिये- " अब यहाँ से उठना नहीं हैं ! " हठात उनकी दृष्टि थोड़ी दूरी पर किसी दो वस्तु पर जा पड़ी अँधेरे में भी चम् चम् कर रहे थे ! जब ठीक से नजरों को गड़ा कर देखे तो पाया कि वहाँ तो एक बाघ बैठा था !
बाद में अपने गुरुभाईयों के पास इस घटना का उल्लेख करते हुए कहे थे- कि बाघ भी भूखा था और वह मुझे खा कर अपनी भूख मिटा सकता था, उधर मैं भी भूखा था, किन्तु मैं बाघ को नहीं खा सकता था; इसीलिये अच्छा होगा कि बाघ ही मुझे खा कर अपनी क्षुधा कि निवृत्ति कर ले. कम से कम किसी एक जीव कि क्षुधा की निविरित्ति तो हो जाएगी.
स्वामीजी की जीवनी को पढ़ते समय यदि हमलोग उनकी इन मूर्तियों को अपने ध्यान का विषय बना सकें- तो हमलोग स्वयं भी कितने विशाल ह्रदय वाले मनुष्य बन जायेंगे!
" यदि एक भूखे बाघ की भूख मुझे खाने से मिट जाती हो, तो फिर वैसा ही हो- "
स्वामी विवेकानन्द की बुद्धि के इस निर्णय पर विचार करने मात्र से ही, हमलोगों का ह्रदय भी कितना विस्तृत हो उठेगा ! स्वामीजी का जीवन इसी प्रकार की असंख्य घटनाओं से भ्रा हुआ है, जिनके ऊपर चिन्तन-मनन करने से हमारा ह्रदय भी अपूर्व एकात्मबोध के आनन्द से भर उठता है! 
इसप्रकार हमलोग घूमते फिरते भी ध्यान कर सकते हैं. जागते समय ध्यान होगा, सोते समय भी ध्यान होगा. स्वामीजी के जीवन पर निरन्तर चिन्तन मनन करते रहने से हमलोगों के मस्तिष्क में उनके भारी भावों के भीतर प्रविष्ट होते ही अन्य सभी हल्के भाव स्वतः बाहर निकल जायेंगे.  अपने भीतर स्वामीजी का जन्म कैसे होगा ? जिस प्रकार किसी पात्र में पहले से जल भरा हो और उसमे कुछ भारी वस्तु डाल दें तो पहले वाला हल्का जल बाहर निकल जाता है, उसी तरह हमलोगों के मन में स्वामीजी के भाव भर जाएँ और अन्य सारे हल्के विचार बाहर निकल जाएँ. यदि ऐसा हो जाये तो हमलोगों का जीवन कितना आनन्दमय हो उठेगा.
इसप्रकार का अनुचिंतन करने से जैसे पत्थर के ऊपर खुदाई कर कर के एक मूर्ति गढ़ ली जाती है, उसी तरह हमलोगों के भीतर भी विवेकानन्द जन्म लेंगे. युवाओं के मन में दिन-रात चलते फिरते यदि सिर्फ़ स्वामीजी के जीवन का ही  ध्यान बना रहे, तो भारतवर्ष में कितनी विपुल शक्ति का निर्माण होगा! और तब भारत के असंख्य मनुष्यों के अनगिनत  दुःख-कष्टों को दूर करने के लिये हमलोग कातर हो कर अन्य किसी की ओर नहीं देखेंगे. यहाँ तक कि स्वामीजी की ही तरह हमलोग भी अपने भविष्य य़ा अन्य किसी बात की चिन्ता भी न कर, यथासाध्य उनलोगों के लिये ही कार्य करते चले जायेंगे. इससे भी अधिक क्या जीवन की सार्थकता हो सकती है! स्वामीजी की उस प्रसिद्ध उक्ति को तो हममें से कई लोग जानते हैं- 
" He only lives who lives for other "
" केवल वही मनुष्य जीवित है, जो दूसरों के लिये जीता है ! "
यदि ऐसा नहीं हुआ, तो केवल उदरपूर्ति, खाना-सोना डरना और वंश विस्तार करना, य़ा अन्यान्य शरीरों का भोग,  एक सांसारिक बंधन- तो यही सब करने से भी हाथ क्या लगेगा? उसके बाद जिस दिन समय (काल ) आयेगा, उस दिन तो आँखों को मूंदना ही पड़ेगा. यहाँ क्या रख कर गये ? स्वामीजी तुलसीदास के दोहे को उद्धृत किया करते थे न ?
" तुलसी जब पैदा हुए, जग हँसे तुम रोये | 
ऐसी करनी कर चलो, तुम हँसो जग रोये || "
" - तुमने जब जन्म ग्रहण किया था तो तुम रो रहे थे और जगत हँस रहा था. अब तुम ऐसे कार्य करते रहो जिससे, तुम जब यहाँ से जाओगे तो हँसते हँसते जाओगे, और तुम्हारे लिये, तुम्हें याद करके - दूसरे लोग आखों से जल बहाया करेंगे | "
उनकी यह उक्ति क्या प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सार्थक नहीं हो सकती ? हाँ, हो सकती है.यदि स्वामीजी का भाव ग्रहण करके उन्हीं के अनुसार हम भी अपने जीवन को गठित करने की चेष्टा करें, तो हममे से प्रत्येक का जीवन सार्थक हो सकता है !   
 
         
 स्वामी विवेकानंद रॉक मेमोरियल, कन्याकुमारी 
Vivekananda Rock Memorial, Kanyakumari
( भारत के मस्तक पर मुकुट के समान सजे हिमालय के धवल शिखरों को निकट से देखने के बाद हर सैलानी के मन में भारतभूमि के अंतिम छोर को देखने की इच्छा भी उभरने लगती है। समुद्र में उभरी दूसरी चट्टान पर दूर से ही एक मंडप नजर आता है। यह मंडप दरअसल विवेकानंद रॉक मेमोरियल है। 1892 में स्वामी विवेकानंद कन्याकुमारी आए थे। एक दिन वे तैर कर इस विशाल शिला पर पहुंच गए। इस निर्जन स्थान पर साधना के बाद उन्हें जीवन का लक्ष्य एवं लक्ष्य प्राप्ति हेतु मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ। 
विवेकानंद के उस अनुभव का लाभ पूरे विश्व को हुआ, क्योंकि इसके कुछ समय बाद ही वे शिकागो सम्मेलन में भाग लेने गए थे। इस सम्मेलन में भाग लेकर उन्होंने भारत का नाम ऊंचा किया था। उनके अमर संदेशों को साकार रूप देने के लिए 1970 में उस विशाल शिला पर एक भव्य स्मृति भवन का निर्माण किया गया। 
समुद्र की लहरों से घिरी इस शिला तक पहुंचना भी एक अलग अनुभव है। स्मारक भवन का मुख्य द्वार अत्यंत सुंदर है।  लाल पत्थर से निर्मित स्मारक पर 70 फुट ऊंचा गुंबद है। भवन के अंदर चार फुट से ऊंचे प्लेटफॉर्म पर परिव्राजक संत स्वामी विवेकानंद की प्रभावशाली मूर्ति है। यह मूर्ति कांसे की बनी है जिसकी ऊंचाई साढ़े आठ फुट है। यह मूर्ति इतनी प्रभावशाली है कि इसमें स्वामी जी का व्यक्तित्व एकदम सजीव प्रतीत होता है।
 
यह स्थान एक खाड़ी, एक सागर और एक महासागर का मिलन बिंदु है। अपार जलराशि से घिरे इस स्थल के पूर्व में बंगाल की खाड़ी, पश्चिम में अरब सागर एवं दक्षिण में हिंद महासागर है। यहां आकर हर व्यक्ति को प्रकृति के अनंत स्वरूप के दर्शन होते हैं। सागर-त्रय के संगम की इस दिव्यभूमि पर मां भगवती देवी कुमारी के रूप में विद्यमान हैं।
इस पवित्र स्थान को एलेक्जेंड्रिया ऑफ ईस्ट की उपमा से विदेशी सैलानियों ने नवाजा है। यहां पहुंच कर लगता है मानो पूर्व में सभ्यता की शुरुआत यहीं से हुई होगी। अंग्रेजों ने इस स्थल को केप कोमोरिन कहा था। तिरुअनंतपुरम के बेहद निकट होने के कारण सामान्यत: समझा जाता है कि यह शहर केरल राज्य में स्थित है, लेकिन कन्याकुमारी वास्तव में तमिलनाडु राज्य का एक खास पर्यटन स्थल है।
कुमारी अम्मन मंदिर समुद्र तट पर स्थित है।तब देवी ने एक कन्या के रूप में अवतार लिया। कन्या युवावस्था को प्राप्त हुई तो सुचिन्द्रम में उपस्थित शिव से उनका विवाह होना निश्चित हुआ क्योंकि देवी तो पार्वती का ही रूप थीं। लेकिन नारदजी के गुप्त प्रयासों से उनका विवाह संपन्न न हो सका तथा उन्होंने आजीवन कुंवारी रहने का व्रत ले लिया। नारद जी को ज्ञात था कि देवी के अवतार का उद्देश्य वाणासुर को समाप्त करना है। यह उद्देश्य वे एक कुंवारी कन्या के रूप में ही पूरा कर सकेंगी। फिर वह समय भी आ गया।
वाणासुर ने जब देवी कुंवारी के सौंदर्य के विषय में सुना तो वह उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव ले कर पहुंचा। देवी क्रोधित हो गई तो वाणासुर ने उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। उस समय उन्होंने कन्या कुंवारी के रूप में अपने चक्र आयुध से वाणासुर का अंत किया। तब देवताओं ने समुद्र तट पर पराशक्ति के कन्याकुमारी स्वरूप का मंदिर स्थापित किया। इसी आधार पर यह स्थान भी कन्याकुमारी कहलाया तथा मंदिर को कुमारी अम्मन यानी " कुमारी देवी का मंदिर " कहा जाने लगा। 
माना जाता है कि चैतन्य महाप्रभु कुमारी अम्मन मंदिर में जलयात्रा पर्व पर आए थे। यहाँ मंदिर में पुरुषों को ऊपरी वस्त्र यानी शर्ट एवं बनियान उतार कर जाना होता है। सागर तट से कुछ दूरी पर मध्य में दो चट्टानें नजर आती हैं। दक्षिण पूर्व में स्थित इन चट्टानों में से एक चट्टान पर विशाल प्रतिमा पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करती है। 
वह प्रतिमा प्रसिद्ध तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर की है। वह आधुनिक मूर्तिशिल्प 5000 शिल्पकारों की मेहनत से बन कर तैयार हुआ था। इसकी ऊंचाई 133 फुट है, जो कि तिरुवल्लुवर द्वारा रचित काव्य ग्रंथ तिरुवकुरल के 133 अध्यायों का प्रतीक है.)

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

[47] मनःसंयोग का अर्थ है - मन को देखना'

सामूहिक रूप से बैठकर ध्यान का अभ्यास करना ठीक नहीं है। क्योंकि ध्यान करते समय, जब सभी मनुष्य एक साथ मन को नियोजित करना चाहेंगे तो आस-पास जितने भी सिर होंगे, उनसे जो विचार-प्रवाह निःसृत होंगे, वे मेरे मन के विचार-प्रवाह पर अवश्य आघात करेंगे. यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि आस पास रहने वाले लोगों के मस्तिष्क से निकलने वाली विचार तरंगें एक दूसरे के मन की विचार तरंगों को अवश्य प्रभावित करते हैं।  इस वैज्ञानिक सत्य को प्रमाणित करने वाला सबसे बड़ा उदहारण हमलोग द्वितीय विश्वयुद्ध (2nd World War ) के समाप्त होने पर, न्यूयार्क की एक घटना में लिपिबद्ध देख पाते हैं.
हठात बहुत गहरी रात्रि के समय, बहुमंजली ईमारत के एक फ़्लैट में सो रहे व्यक्ति की नींद टूट गयी. वह एक मल्टीस्टोरिड फ़्लैट था, जिसमे बहुत से घर होते हैं, उसके किसी एक फ़्लैट में रहने वाले व्यक्ति की नींद मध्य रात्री में अचानक टूट गयी। नींद टूट जाने पर उसे ऐसा लगा, मानो कहीं से कुछ आवाजें आ रही हैं. नींद से उठ कर वह खिड़की से झांक कर नीचे की ओर देखा, कि सड़क पर बहुत से लोग खड़े हैं, सभी क्या हुआ, क्या हुआ, कर रहे हैं और कई तरह की बातें कह रहे हैं. मानो एक आवाज उठ रही है, कहीं से हो हो करती आवाज हो रही है. उस आवाज को सुन कर उसने सोंचा आखिर बात क्या है?
वह नीचे उतर गया. इसी प्रकार एक एक करके,एक एक सड़क पर ढेर सारे लोग एकत्रित हो गए. सभी लोग एक दूसरे से पूछ रहे हैं, " What is the matter ? " क्या हुआ है ? कैसी घटना घट गयी है ? कोई बतला नहीं पा रहा है. सभी केवल सभी से पूछ रहे हैं. उसके बाद धीरे धीरे सभी लोग, अपने अपने घरों में चले गए.सुबह हुआ. दूसरे दिन सुबह में समाचार मिला कि रात्रि में जिस समय सभी लोग सड़क पर निकल कर जमा हो गए थे, ठीक उसी समय विश्व-युद्ध की मीमांसा करते हुए एक संधि-पत्र पर हस्ताक्षर किया गया था।
यह घटना वैज्ञानिक सत्य है। 
 जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द के साथ भी हुआ था.बेलुड मठ बन गया है, एक दिन रात के समय उनके कमरे से रोने जैसी आवाज आ रही थी. एक गुरुभाई पास वाले कमरे से आकर पूछते हैं, "क्या हुआ है, क्यों रो रहे हैं ? " उन्होंने कहा " अरे, मुझे तो कुछ नहीं हुआ है, किन्तु कहीं पर बहुत से लोग मारे गए हैं !"  ऐसी घटनाएँ कैसे होतीं हैं ? मनुष्य के मन की भावनाएं, उसके मन में उठने वाली विचारों की अदृश्य तरंगें सर्वदा सपूर्ण विश्व में संचारित हो रही हैं. आज कल हमलोग विज्ञान की सहायता से रेडिओ देखते हैं, टीवी देखते हैं, सेल फोन देखते हैं. यह सब किस प्रकार कार्य करते हैं ? यह सब भी तो अदृश्य तरंगों को पकड़ने की प्रणाली पर आधारित हैं.
पर अब विज्ञान के इन आविष्कारों को देख कर हमलोग आश्चर्यचकित नहीं होते हैं, अब हमलोग जानते हैं कि ऐसा तो होता ही रहता है. किन्तु इसी तरह की अदृश्य विचार तरंगों का संचरण और सम्प्रेषण तो चिरकाल से होता चला आ रहा है.
इसीलिये मैं यदि अपने मन को एकाग्र करने में सक्षम हो जाऊं, अपनी प्रयोजनीयता एवं  ईच्छा के अनुसार मन को किसी भी  विषय में नियोजित रखने में समर्थ हो जाऊं; तो मैं चाहे जिस विषय का ज्ञान भी प्राप्त कर सकता हूँ. ' मनः संयोग ' करने का अर्थ है-  " मन को अपने सामने लेकर बैठना | " यह जो मन की एकाग्रता को बढ़ाने की अत्यन्त सहज पद्धति है, उसका हमे अभ्यास करना होगा. बैठने का तरीका कैसा होगा ? विशेष ढंग से बैठने के पीछे एक उद्देश्य है. गर्दन को सीधी रखते हुए बाबू होकर बैठना चाहिये. इस तरह बैठने से निःस्वास-प्रस्वास सब स्वाभाविक रूप से धीरे धीरे होने लगता है, जिसके कारण निःस्वास-प्रस्वास लेने में, य़ा शारीरिक अन्य किसी चीज के चलते, शरीर में किसी प्रकार का तनाव य़ा कष्ट का अनुभव नहीं होता है.
अतः अपने लिये सबसे अधिक स्वाभाविक ढंग से जिस प्रकार बैठना अच्छा लगता हो, उसी ढंग से बैठ कर, किन्तु हमलोग एक विषय में मन को रखने की चेष्टा करेंगे.
 किस विषय पर मन को रखने की चेष्टा करेंगे ? हमलोगों ने स्वामी विवेकानन्द को ही अपने जीवन के आदर्श के रूप में चुन लिया है. किन्तु यदि इच्छा हो तो उन स्वामी विवेकानन्द के ऊपर मन को न रखकर, चिन्तन के विषय के रूप में माँ सारदा को रख सकते हैं, य़ा ठाकुर श्रीरामकृष्ण को रख सकते हैं. कोई कृष्ण-भक्त यदि चाहे तो वह अपने सामने कृष्ण की मूर्ति य़ा छवि को भी रख सकता है. कोई यदि शिव-भक्त है, तो वह अपने सामने शिव को रख सकता है. कोई चाहे तो इनमे से किसी को भी न रखकर, एक ' ॐ कार ' को अथवा जिस किसी भी पवित्र वस्तु को सामने रख सकता है.
किन्तु मन को उसके चिन्तन का विषय बनाने के लिये एक ध्येय वस्तु अवश्य होनी चाहिये. क्योंकि मन को एक स्थान पर तो लगा कर रखना ही पड़ेगा. जो पवित्र वस्तु अपने मनको अच्छी लगती हो, उसी स्थान में मन को रखना होगा.(" क्रमागत मनेर दिके आमरा ' चेये ' देखी, मनेर दिके ' चेये ' देखा जाय ") - अर्थात क्रमशः आदर्श के उपर मन को नियोजित करने का अभ्यास करते रहने से हमलोगों की दृष्टि मन के ऊपर पड़ने लगती है,मन की ओर नजर उठा कर देखा जा सकता है.! ' अपनी इच्छा के अनुसार मन को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - एक ' द्रष्टा ' मन और एक ' दृष्ट ' मन !  जब चाहें तब किया जा सकता है; और सभी मनुष्य इस प्रकार अपने मन को द्रष्टा और दृश्य में विभक्त कर सकते हैं.(अपनी इच्छा के अनुसार हम जब चाहें अपने मन को दो भागों में बाँट सकते हैं - मन का ही एक हिस्सा ' द्रष्टा मन ' बन जायेगा और एक ' दृष्ट मन ' बन जायेगा.)
हमसभी लोग तो प्रतिदिन ऐसा कई बार किया करते हैं, बस तब यह याद नहीं रहता कि हम स्वयं ही यह क्रिया कर रहे हैं." - बैठा हुआ हूँ अन्यमनस्क हो गया (मन कहीं चला गया य़ा खो गया ) कुछ देर बाद याद आया अरे (बैठे बैठे ) मैं न जाने क्या सोंच रहा था ! " उस समय विचार करते करते,  मैं मानो किसी अन्य कल्पना में खो सा गया था, तल्लीन हो गया था. नहीं होता है ?
{ " घट द्रष्टा घटात भिन्नः " घड़े को देखने वाला ( कृपा-कटाक्ष करने वाला- द्रष्टा ) घड़े से भिन्न होता है !}
कल्पना कहाँ हो रही है ? मन ही कल्पना कर रहा है, और मन की कल्पना को मन ही देख रहा है. इसीलिये मन के द्वारा किसी ऐसी वस्तु को देखने की चेष्टा करूँगा, जो शुद्ध है, जो अच्छी वस्तु है, जो कल्याणमय है, जो सभी का मंगल करता है. इसी को तो, किसी विषय में मन को रखने की चेष्टा करना कहते हैं !
यह अभ्यास करने के साथ साथ क्या होता है ? जिस प्रकार मन की शक्ति बढती है, उसी प्रकार मन की धारण करने क्षमता (स्मरण-शक्ति) भी बढती है. बुद्धिशक्ति विकसित होती है, कोई भी विषय आसानी से समझ में आने लगता है.जो सुनते हैं, जो समझ में आ जाता है,और वह विषय स्मृति में संग्रहित भी रह जाता है.क्योंकि मन के चार अंग हैं- " मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार " इन चारों को एक साथ मिलकर भी मन कहा जा सकता है.
' बुद्धि ' क्या है ? बुद्धि वह वस्तु है जो निर्णय करती है. मन का कार्य है संशय करना, मन को आमतौर पर संशयात्मक ही कहा जाता है. बुद्धि के द्वारा निर्णय लेकर वह एक निश्चय पर पहुँच जाता है. चित्त को मन-वस्तु कहते हैं, य़ा जिसके द्वारा मन निर्मित होता है वह पदार्थ ( The stuff of the mind ), उसे ही चित्त कहते हैं. इस चित्त में ही हमलोगों की स्मृतियाँ संचित रहती हैं.  
और अहंकार, अहंकार क्या है ? हमलोग साधारण तौर पर किसी व्यक्ति को अहंकारी (घमण्डी) कहते है, वह अहंकार नहीं. अहंकार का अर्थ है, यह जो मैं कार्य कर रहा हूँ (भाषण दे रहा हूँ य़ा टाइप कर रहा हूँ ) , इसको करने के लिये एक कर्ता तो रहेगा ही न ? उसी कर्ता का नाम होता है - ' अहंकार ' ! कुछ भी कार्य करने के लिये किसी कर्ता की आवश्यकता तो रहती ही है. इसी अहंकार के विषय में ठाकुर कितनी सहज भाषा में, कितनी सुन्दर बात कह गए हैं! " जिस नारियल के गाँछ से जब डाली-पत्ते इत्यादि झड़ जाते हैं,तो उसके तने पर थोड़ा थोड़ा तो दाग रह जाता है ना ? उसी तरह थोड़ा सा भी अहंकार का भाव यदि न रखा जाय तो मेरे द्वारा कोई भी कार्य होना सम्भव नहीं होता. इसीलिये थोड़ा सा अहंकार तो रहना ही चाहिये. उस अहंकार को रखने में कोई दोष नहीं है."  किन्तु यदि उससे अधिक अहंकार रखा जाय, मैं तो इतना जानता हूँ. मैं एक विद्वान् मनुष्य हूँ, मेरे पास इतना अर्थ है, मेरे पास यह है, वह है- - इस बात पर गर्व किया जाय कि,ऐसा अहंकार मनुष्य की क्षति करता है। इसीलिये मन में वैसे अहंकार को उठने से रोक कर, यदि  अपने चित्त को शान्त रखते हुए हमलोग चित्त की बुद्धि ( विवेक ?) को विकसित करने में समर्थ होकर मन को देख सकें तो हमे अपने इसी जीवन में बहुत बड़ा लाभ प्राप्त होगा!                  
                          

बुधवार, 18 अगस्त 2010

[46]विद्यार्थियों के लिये ध्यान नहीं एकाग्रता (मनःसंयोग) सीखना लाभप्रद है !

स्वामी विवेकानन्द ने प्राचीन ग्रंथों (महाभारत, उपनिषद आदि) से-  " चरित्र निर्माणकारी एवं मनुष्यत्व उन्मेषक " भावों को ढूंढ़ ढूंढ़ कर अपने जीवन में उतार लिया था| महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में चरित्र-निर्माण की वैज्ञानिक पद्धति बताई गयी है, इस बात को स्वामीजी भी पहले नहीं जानते थे, पहले पहल इस तथ्य को उन्होंने अपने गुरुदेव " श्रीरामकृष्ण परमहंस देव " से ही सुना था.
जिस प्रकार महावाक्यों (चार महावाक्य) का अर्थ केवल पढ़ लेने य़ा रट लेने से ही स्पष्ट नहीं होता, बल्कि उसके ऊपर अनुध्यान अर्थात दीर्घ काल तक चिन्तन-मनन करने य़ा मनः संयोग करने से ही उसका अर्थ स्पष्ट होता है. किसी विषय पर दीर्घ काल तक चिन्तन मनन करके उसका अर्थ समझने की पद्धति को " मनःसंयोग " कहते हैं. यह पद्धति भी आधुनिक युवाओं (स्वामीजी के समकालीन अंग्रेजी शिक्षा में पले-बढ़े युवओं को ) सबसे पहले श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त हुई थी.
ठाकुर ने प्राचीन ग्रंथों की बहुमूल्य शिक्षा को अत्यन्त सरल भाषा में और बिल्कुल संक्षिप्त करके  (आधुनिक युग के महावाक्य में परिणत करके ) अपने निकट आये हुए युवकों को सिखाया था.  (जैसे - " जितने मत उतने पथ " य़ा " " दया नहीं सेवा - शिवज्ञान से जीव सेवा " आदि ठाकुर द्वारा रचित" नये महावाक्य " हैं !) 

उनके उपदेशों में जितने भी पुराने पुराने भाव थे उन सबको, उन्हीं प्राचीन सद्ग्रंथों से खोज-खोज कर स्वामीजी ने, तथा ठाकुर के निकट आये अन्य युवाओं ने भी अपने जीवन में उतार लिया था. किन्तु यह भी सत्य है कि, समस्त सदगुणों को अपने जीवन में धारण करने की शिक्षा (मनः संयोग की विधि आदि ) उन्होंने श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त कि थी. } 
- ठीक वही शिक्षा परिकल्पना की थी; उस पताका में अंकित ' वज्र '-' दधिची ऋषि की हड्डियों से निर्मित वज्र  के जैसा ठोस-चरित्र गठन की पद्धति ' जिसे श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने दक्षिणेश्वर में अपने निकट आये हुए युवकों को दिया था) अभी इस अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा आयोजित - युवा प्रशिक्षण शिविर, पाठचक्र  आदि विभिन्न कार्यकर्मों के माध्यम से भारतवर्ष के १० राज्यों में महामण्डल के २८० केन्द्रों  में वैसा ही- ' वज्र ' के जैसा ठोस चरित्र गठित करने कार्य चलाया जा रहा हैं !  एवं लगभग प्रत्येक महामण्डल केन्द्रों में कम से कम एक दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर तो आयोजित होता ही है. कुछ केन्द्रों को एक साथ मिला कर, भी एक दिवसीय शिविर भी किया जाता है. एक ' जिला स्तरीय  शिविर ' होता है.
कुछ जिलों को मिला कर ' प्रमंडल के स्तर पर ' शिविर होता है. एक होता है, दो य़ा तीन राज्यों को मिला कर ' राज्य स्तरीय शिविर '; ' अंतर्राज्य स्तरीय शिविर ' (Intar State Camp) होता है. एक ' सर्व भारतीय  शिविर ' ( All India Camp ) होता है. इस प्रकार लगभग १०० युवा प्रशिक्षण शिविर, प्रत्येक वर्ष आयोजित किये जाते हैं.
बिल्कुल नये नये जगहों पर शिविर आयोजित हो रहे हैं, और हमलोग लगभग विगत ४० वर्षों से देखते आ रहे हैं, उनमे से अनेकों  शिविरार्थी बिल्कुल नये नये होते हैं. ऐसे-ऐसे किशोर और युवा आते हैं, जिन्होंने शायद कभी यह भी  नहीं सुना हो कि,
चरित्र कहते किसे हैं ' What is Character '? 
य़ा मन किसे कहते हैं - ' What is Mind ' ? 
मन को एकाग्र करना ' Mental Concentration ' क्या है ? 
क्या हमलोग अपने मन को वश में ला भी सकते हैं ?
मन को वश में लाने की पद्धति क्या है ?
(ये सभी विषय वे पहली बार इसी कैम्प सुनते है. ) 
ह्रदय को भी हम लोग स्वयं विशाल बना सकते हैं, दूसरों के सुख-दुःख को बिल्कुल अपने सुख-दुःख के जैसा (प्यार एहसास है - उसे ' रूह ' से महसूस करो ) अपनी आत्मा में अनुभव किया जा सकता है ! 
आदि बातों को तो उन्होंने कभी जीवन में सुना ही नहीं तो, जीवन में क्या उतार पायेंगे ? किन्तु जब यहाँ वे इन सब के बारे में सुनते हैं, तो वे इससे इतने अभिभूत हो जाते हैं कि, वे (विस्मय से भर कर ) इसके बारे में दूसरों से भी चर्चा करते हैं, जिसे सुनकर और प्रभावित होकर इनदिनों 
' All India Camp ' (सर्व भारतीय शिविर) में १००० से भी अधिक युवक भाग लेते हैं. एग्यारह सौ, साढ़े एग्यारह सौ, बारह सौ, तेरह सौ से भी अधिक युवा आ रहे हैं. राज्य स्तरीय शिविर में भी ५००-६०० कि संख्या में किशोर और युवा लोग आते हैं. यह सब जो हो रहा है, तो इसकी छाप तो उनके ' मन ' पर पड़ ही रही है, वे इन भावों को ग्रहण भी कर रहे हैं.
किन्तु आज हमलोगों के समाज की जो अवस्था है, मन की ही धून पर नाचते-नाचते, हमलोगों ने समाज को जिस निम्न स्तर पर ला खड़ा किया है, और दिनोदिन उसे और भी नीचे ले जाने का विविध उपायों को सर्व-सुलभ बनाते जा रहे हैं, क्या हम कल्पना भी कर सकते है की यदि शीघ्रातिशीघ्र इस में परिवर्तन लाने का प्रयास नहीं किया गया तो समाज किस निम्नतर स्तर तक गिर सकता है ?
समाचार पत्रों में, रेडिओ -टीवी में अनेकों तरह की अच्छी अच्छी चीजें आती रहतीं है, किन्तु उनके साथ मन को नीचे गिराने वाली चीजें भी आ जातीं हैं. तो जैसा कि एक कहावत है न, बाल्टी भर दूध में यदि एक भी बून्द चूना डाल दिया जाया तो सारा दूध फट जाता है. उसी तरह अनेकों अच्छी चीजें हो रहीं हैं, कितु उसके साथ थोड़ा चूना भी मिला रहता है. चरित्र जिससे निम्नगति को प्राप्त हो, अधोमुखी हो जाये बहुत बड़े पैमाने पर इसकी व्यवस्था देखी जा सकती है. ऐसी विषम परिस्थिति में भी यदि दो-चार लोगों को भी बचा लिया जाये तो कितनी बड़ी बात होगी ! ऐसा होने से ही तो भारतवर्ष बच सकता है. 
एवं यही भाव धीरे धीरे यदि अन्य स्थानों में भी पहुँच जाये, जहाँ भी जायेगा उस स्थान का मंगल होगा. जिस स्थान पर भी ठाकुर, माँ स्वामीजी का भाव जायेगा, वहीं का मंगल होगा. क्योंकि ठाकुर माँ स्वामीजी के भाव के भीतर, उनके जीवन और संदेष के भीतर जितने भी उच्चतम भाव हैं, जितने भी आध्यात्मिक और चरम उपलब्धि के जो विषय के जितने सारी वस्तुएँ इन त्रिदेवों से प्राप्त हो सकती हैं, पहले ही पहल प्रारंभिक अवस्था में ही वो सब सबों के लिये नहीं हैं. इसीलिये एक कहावत है- " जार पेटे जा सय "! 
-" अर्थात जिसके पेट में जो पच सकने लायक हो वैसा ही भोजन उसे दो !"
इसीलिये आज यदि सभी युवाओं को बैठा कर (पात्रता का विचार किये बिना) यह कहा जाय कि, " तुम सभी लोगों को ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना होगा"-  तो इससे कुछ बहुत अधिक लाभ नहीं होगा. य़ा यदि इस तरह कहा जाय कि, 'आज तुम लोगों को ध्यान करना सीखा देता हूँ , तुमलोगों को ध्यान करने की शिक्षा दे रहा हूँ, देखो तुमलोग इस तरह बैठ कर ध्यान करना ' - और बस उनलोगों का ध्यान हो जायेगा. ध्यान, इतना सहज नहीं है.  
बहुत वर्ष पहले एक बार किसी आश्रम में ठाकुर का जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में गया था. वहाँ पर एक लाइब्रेरी कक्ष में एक चौकी पर बिछौना बिछा कर मेरे ठहरने की व्यवस्था की गयी थी. जो सज्जन ठहरने की व्यवस्था किये थे, वे आकर बोले- इस लाइब्रेरी की सभी अलमारियाँ मैंने खोल दी हैं, जिस पुस्तक को भी पढने की ईच्छा हो आप पढ़ सकते हैं. मैं मन ही मन सोंचा, मैं इस कमरे में रहूँगा ही कितनी देर, और इतनीं सारी आलमारियों में बन्द इन पुस्कों को खोल कर पढने का समय कहाँ है?
इसी बीच हमलोगों ( के महामण्डल ) का ही एक लड़का वहाँ आया और ' प्रबुद्ध भारत '(पत्रिका ) की अनेकों प्रतियों को वहाँ रख गया, कम से कम १४-१५ अंक तो अवश्य ही रहे होंगे. मैंने कहा, इन सब का क्या होगा ? ' मैंने सोंचा, शायद आप इनको पढना पसन्द करेंगे.' मैंने कहा- " मैं तो यहाँ यह सब पढने के लिये नहीं आया हूँ. एक लाइब्रेरी कक्ष में मुझे ठहरा दिया गया है, किन्तु मैं यहाँ पढाई लिखाई करने के लिये तो नहीं आया हूँ. सम्भव हुआ तो दोपहर में थोड़ा आराम करूँगा, य़ा रात्रि में सोऊंगा. "
  फिर मन में विचार आया, इतना आयोजन कर दिया है एक भी अंक को हाथ में नहीं लूँगा ? यही सोंच कर उतने सारे ' प्रनुद्ध भारत ' में से जो अंक सबसे ऊपर रखा था, उसी को खोल कर देखने लगा, बहुत पुराना अंक था. इधर उधर के पन्नों को उलटने पलटने के बाद एक लेख पर दृष्टि पड़ी. किसी अमेरिकन द्वारा लिखा हुआ प्रबन्ध था. वे बाद में रामकृष्ण मठ मिशन में सन्यासी हुए थे. उस प्रबन्ध के ऊपर में उसके लेखक का एक परिचय भी छपा हुआ था, उसमे कहा गया था की वे एक अमेरिकन थे जिन्होंने सबकुछ छोड़ मठ में अपना योगदान दिया था.वे एक बार बेलुड़ मठ आये थे. 
उनके वहाँ प्रवास करने के बीच में ही माँ की जन्मतिथी पड़ी थी. वे अमेरिका से आये थे, इसलिए उस अवसर पर वहाँ जो सम्मलेन हो रहा था, उसमे कुछ बोलने के लिये अन्य सन्यासियों ने उनसे भी अनुरोध किया. तब उन्होंने कहा - ' नहीं नहीं माँ के सम्बन्ध में मेरे द्वारा कुछ भी कहना सम्भव नहीं होगा, मैं बिल्कुल नहीं बोल पाउँगा. ' तब उनसे कहा गया, आप जो भी कहना चाहते हों वही कहिये. उस समय बेलुड मठ की उस सभा में माँ की जन्मतिथि पर खड़े होकर जो कुछ कहा था, उनका वही भाषण, 'प्रबुद्ध भारत ' में छपा था. उसको पढ़ कर देखा. मुझे तो वह प्रबन्ध बहुत उपयोगी प्रतीत हुआ.
हमलोग अक्सर कहते हैं- ' अमुक ' जगह पर जाने से ' यह ' सीखा जा सकता है, उस जगह पर जाने से ' ध्यान ' सीखा जा सकता  है, अमुक जगह पर जाने से ही यह हो जाता है, वैसा होता है, वह हो जाता है; आदि आदि. वे कहते हैं, " मैं माँ के सम्बन्ध में कह नहीं पाउँगा, पर यदि आप मुझसे मेरे जीवन के अनुभव के बारे में कुछ सुनना चाहें तो मैं अपने अनुभव आपके साथ शेयर कर सकता हूँ. मैं अमेरिका के अमुक स्थान में रहता था, वहाँ जिस सड़क से होकर मुझे आना जाना पड़ता था, उसी सड़क पर रामकृष्ण मिशन का एक केन्द्र है. अक्सर उसके साईन बोर्ड पर मेरी दिर्ष्टि पड़ जाती थी. उसको देखते देखते एक बार मन में विचार उठा कि देखने से तो यह कोई भारतीय लोगों कि संस्था प्रतीत होती है, क्यों नहीं एक बार इसके भीतर चल कर देखा जाय कि इसमें क्या होता है? 
भीतर चला गया. जाकर देखता हूँ कि कुछ लोग बेंच-कुर्सी पर बैठे हुए थे और एक गेरुआ धारी वृद्ध सन्यासी, जिनकी उम्र बहुत अधिक हो चुकी थी, वे उनलोगों से कुछ कह रहे थे. मैं भी पीछ की खाली कुर्सी पर जाकर बैठ गया. बैठे बैठे सुनने लगा. सुनने से, उनकी बातें बड़ी भली लगीं. वे ध्यान के सम्बन्ध में कह रहे थे. ध्यान के विषय में सुनने से मुझे अच्छा लगा. तब मैंने सोचा बीच बीच में मुझे यहाँ आना चाहिये. फिर पता लगा कर वे सप्ताह के जिन दो दिनों में अपना प्रवचन देते हैं, उन्ही दिनों में वहाँ गया. कुछ दिनों तक उनको सुनने के बाद मन में विचार उठा, उनके साथ थोड़ा परिचय किया जाय. उनसे मिलकर उनके साथ जान पहचान किया. परिचय होने के बाद उनसे कहा कि आपका प्रवचन मुझे बहुत अच्छा लगता है. मैं तो इसी रास्ते से अनेक दिनों से आया जाया करता था, कभी भीतर नहीं आया था.प्रथम दिन आया तब आपका प्रवचन सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा, इसीलिये लगातार कुछ दिनों तक सुना हूँ. किन्तु सुनने के बाद मुझे महसूस हो रहा है कि, केवल सुनलेने से क्या होगा ? यदि मैं स्वयं इसे नहीं कर सका. 
केवल ध्यान पर प्रवचन सुनकर क्या लाभ यदि मैं खुद ध्यान नहीं कर पाया. आपने एकदिन यह बतलाया था कि ' ध्यान ' करने में सफल हो जाने से क्या होता है, मुझे तो वह सुनकर बहुत अच्छा लगा था. यदि यह (परमानन्द) पाया जा सकता है, तब तो करना उचित है. क्या आप मुझे ध्यान सिखाइएगा?  उन्होंने प्रश्न किया, " तुम ध्यान (Meditation) क्यों सीखना चाहते हो ?"
" ध्यान करने से जो प्राप्त होता है, ध्यान की जो प्राप्ति है, मैं उसी वस्तु को पाना चाहता हूँ. "
" क्या सचमुच तुम उसे पाना चाहते हो ? "
" हाँ चाहता हूँ| ध्यान की जो अन्तिम प्राप्ति (उपलब्धी, समाधी य़ा आत्मसाक्षात्कार तक) होती है,मैं वहाँ तक जाना चाहता हूँ . "
उन्होंने कहा, " यदि ऐसी बात है, तो तुम अच्छी तरह से सोंच-विचार करके देख लो, सब कुछ भली भाँति देख लेने के बाद, मुझे बताओ. यदि सचमुच चाहते हो तो तुम्हें किन्तु कुछ शर्तें पूरी करनी होंगी." ' क्या हैं वे ? '
" तुमको अपना घर-परिवार छोड़ना होगा, तुमको अपनी नौकरी छोडनी पड़ेगी, तुम्हारे जितने सामान्य तौर से आवश्यक सामग्रियां और कपड़े-लत्ते हैं, केवल उतना ही लेकर आना होगा और यहीं पर वास करना होगा. मैं जिस प्रकार कहूँगा, तुमको सिखाऊंगा, ठीक उसी प्रकार प्रतिदिन अभ्यास करना होगा. अभ्यास करते करते तुम धीरे धीरे इस दिशा में अग्रसर हो सकोगे. " मैं उनके बताये अनुसार सबकुछ किया था. नौकरी छोड़ दिया, घर छोड़ दिया, और परिवार छोड़ कर कुछ सामान्य वस्तुओं को लेकर आया और आश्रम में रहने लगा. 
वहाँ रहते हुए सुबह-शाम जिस प्रकार अभ्यास करने को कहे उसी तरह करने लगा. मैं ध्यान का अभ्यास करने लगा. इसी प्रकार अभ्यास करते करते कितने ही वर्ष बीत गये. कुछ वर्ष बीत जाने के बाद एक दिन मैंने उनसे कहा- " महाराज, आपने जैसा करने को कहा था, मैंने तो सब कुछ किया है. किन्तु कहाँ, अभी तक तो कुछ मिला नहीं है. ध्यान तो मेरा अभी तक हो नहीं सका है|"
तब वे सन्यासी बोले- " मैं तो विगत साठ वर्षों से ध्यान कर रहा हूँ. किन्तु इन साठ वर्षों में केवल कुछ ही बार, मानो कुछ सेकेण्ड के लिये ' ध्यान ' किसे कहते हैं, यह समझ सका हूँ. एवं केवल कुछ ही बार, मानो कुछ सेकेण्ड के लिये ही ' ध्यान ' क्या है- इस वस्तु को समझ पाने से जो आनन्द मिला है, उससे यह महसूस हो रहा है कि मेरा मनुष्य योनी में जन्म लेना लगता है, सार्थक हो गया है. यह इतना सहज प्राप्य वस्तु नहीं है. हम सभी लोग ऐसा सोचते हैं- ध्यान कौन सी बड़ी बात है, सीख लेने मात्र से ही होने लगता है |" 
इसी लिये महामण्डल में ध्यान सिखाने की व्यवस्था नहीं है. महामण्डल में (ध्यान नहीं), ' मनः संयोग ' सिखाया जाता है. मनः संयोग का अर्थ है ' मन को लगाना '. हमलोग कोई भी कार्य तबतक नहीं कर सकते जबतक उस कार्य में हम मन को नियोजित न कर सकें. जैसे मान लीजिये जो भोजन बना रहे हैं, वे यदि भोजन बनाने में मन न लगायें, तो भोजन अच्छा नहीं बनेगा|
कोई पढ़ाई कर रहे हैं, यदि पढ़ाई में मन नहीं लगायें, तो जिस विषय को पढ़ रहे थे उसको ठीक से सीख नहीं पायेंगे. कोई यदि खेती-बाड़ी  कर रहे हों, पर वे यदि खेती-बाड़ी भी मन लगा कर न करें तो अच्छे ढंग से खेती-बाड़ी भी नहीं हो पायेगी. बिजनेस- व्यापार करने जाएँ और उसमे सही ढंग से मन नहीं लगायें, तो बिजनेस-व्यापार भी नहीं होगा. जिस किसी भी कार्य को करना हो, तो उसमे मन को लगाने से ही सारे कार्य होते हैं. हमलोग बाहर में हाथ-पैर य़ा अन्यान्य वस्तुओं के द्वारा कार्य करते हैं. किन्तु मन का दायित्व, मन का कर्तव्य, मन की क्षमता य़ा सामर्थ्य सबसे अधिक होता है. 
मन यदि हमारा सहायक नहीं बने, तो अन्य किसी भी इन्द्रियों की सहायता से हम कुछ भी नहीं कर सकते.इसीलिये मन को अपने वश में लाकर उसे अपना सहयोगी मित्र बना लेने की चेष्टा करनी होगी. मन को अपना सहयोगी बनाने का उपाय है, जिसे मन को संयोग करना कहते हैं, मन की इच्छा से नहीं, अपनी ईच्छा से, अपने लिये अत्यन्त उपयोगी समझ कर जो जो कार्य करने जा रहे हों ( जैसे पढ़ाई करना, व्यापार करना, खेती करना, खेलना...आदि आदि) उसमे मन को नियोजित रखना, इसीको मनः संयोग कहते हैं. इसके लिये मन को शान्त करना होगा. मन की जो चंचलता होती है,उसको पहले दूर करना जरुरी हो जाता है, उसको अनेक विषयों में जाने से वापस खींच कर किसी एक ही विषय पर एकाग्र करने की चेष्टा करनी होती है. इस कार्य को केवल बार बार अभ्यास करने से ही सीखा जा सकता है, ' रसरी आवत जात से सील पर पडत निशान '. एवं महामण्डल इन्ही सब चीजों की शिक्षा दी जाती है. उसी प्रकार शरीर को स्वस्थ और निरोग रखने की शिक्षा भी दी जाती है.
( दुनिया के सभी धर्म कहते हैं कि, भगवान, अल्ला य़ा ईश्वर एक ही है, पर आजकल तो ३०-४० लोग अपने को भगवान कहने लगे हैं , उनमे से आधे तो अमेरिका चले गये हैं, कुछ मार-खप गये हैं, फिर भी ३-४ भगवान तो आज भी जीवित होने का दावा करते हैं। साथ ही साथ ध्यान सिखाने का दावा भी करते हैं। - खुशवन्त सिंह पत्रकार) युवक लोग ध्यान किसका करेंगे !आज कल तो बहुत कुछ चल रहा है, हजार हजार लोग एक साथ बैठ कर ध्यान करते हैं. बहुत से लोग ध्यान करना सीख कर एक साथ ध्यान करते हैं.
 ' ध्यान ' भी क्या इकट्ठे मिलकर किया जाता है ? एक साथ बैठ कर ध्यान नहीं होता है. सामूहिक रूप से  बैठ कर ध्यान करना कभी सम्भव नहीं है. 
काशीपुर उद्यान-बाड़ी में रहते समय एकदिन स्वामी विवेकानन्द और स्वामी अभेदानन्द दोनों आस-पास बैठ कर ध्यान कर रहे थे. किसी प्रकार स्वामीजी का हाथ अभेदानन्द के शरीर से छू गया था,तब ठाकुर ने स्वामीजी को बुलवाकर बहुत डांट लगाई थी-" कि रे,कि करली रे ! ओर गाये हात दिये दिली ? ओर भाव टा नष्ट करे दिली ? " - " क्यों रे, यह तुमने क्या कर डाला ! उसके शरीर पर हाथ रख दिय़ा? उसके भाव को नष्ट कर दिय़ा? "  

ध्यान इतना सहज नहीं है. हमलोग ५० व्यक्ति, १०० जन, ५०० जन, एक साथ बैठ कर ध्यान किये- इस प्रकार से ध्यान होता है का मनगढ़ंत किस्सा जो सुनने को राजी है, वह हो जाये राजी.हम उसमे क्या कर सकते हैं ? परन्तु हमलोग इस तरह का बकवास सुनने को तैयार नहीं  हैं. इस प्रकार से ध्यान नहीं होता.
     

बुधवार, 11 अगस्त 2010

[45] " मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र गठन "

 " " न कृतः शीलविलयः : अपने चरित्र को कभी नष्ट न होने देना"
भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में 'मनुष्य निर्माण और चरित्र गठन' का प्रशिक्षण देने के कौशल को विवेकानन्द ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण (ठाकुर) से ही सीखा था ! कोई साधारण मनुष्य एक ' चरित्रवान- मनुष्य ' के रूप में कैसे रूपान्तरित हो जाता है ? 
इस कौशल को महाभारत में बड़े ही सुन्दर ढंग से समझा कर  बताया गया है ! मनुष्य जो कुछ भी विचार करता है, जो भी कुछ बोलता है, जो कुछ भी करता है उसकी एक छाप (कार्बन कॉपी की तरह ) उसके मन (चित्त) पर पड़ जाती है. 
सदैव सद्चिन्तन करते रहने से, सदवचन कहते रहने से, सदैव सद्कर्म  करते रहने से - मनुष्य के मन की गहराई (य़ा चित्त) में एकत्रित इन समस्त छापों के समुच्य (agglomeration य़ा ढेर) को ही मनुष्य का चरित्र कहते हैं. इसीलिये स्वामीजी ने कहा है की हमलोगों को सदैव सत-चिन्तन करने ,सत-वचन बोलने और केवल सत-कर्म करते रहने का बार बार अभ्यास करते रहना चाहिये.इस प्रकार बार बार सत-कर्म ही करते रहने से, निरन्तर सत-चिन्तन और सत-वचन कहने का अभ्यास करते करते हमें उसकी आदत पड़ जाती है. आदत जब प्रगाढ़ हो जाती है, पक्की हो जाती है तो वह एक अन्य वस्तु में बदल जाती है, जिसे propensity - प्रवृत्ति (य़ा झोंक) कहते हैं. 
वही आदतें मनुष्य के स्वाभाविक झुकाव में परिणत हो जातीं हैं. अब मनुष्य को कार्य करने के पहले विवेक-प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं रह जाती, अर्थात सद्प्रवृत्तियों के झोंक य़ा स्वाभाविक-झुकाव के अनुसार उसके द्वारा केवल सत-कर्म ही होते हैं- उसे यह उचित है यह अनुचित है इस प्रकार का विवेक-विचार करना आवश्यक नही रह जाता; उसमे सत-कर्म करने की एक स्वाभाविक प्रवणता आ जाती है. इस प्रवणता को ही propensity कहते हैं.
पहले मन में इच्छा उठती है, मन में केवल ' सत-इच्छा ' को उठने देने का अभ्यास करने से, उसी इच्छा के अनुसार ' सतकर्म ' करने का अभ्यास (habit )हो जाता है, habit प्रगाढ़ हो जाने से propensity और जब अनेकों प्रकार की propensity को एक साथ मिला दिया जाय, तो उसी से मनुष्य का सद्-चरित्र निर्मित हो जाता है. अतः महामण्डल के प्रशिक्षण शिविर का उद्देश्य- इसी लक्ष्य को प्राप्त करना होगा.
मनुष्य का शरीर जिस प्रकार स्वस्थ, सबल, कर्मठ, निरोग रह सके इसके लिये व्यायाम आदि करना. विभिन्न विषयों के बारेमे अध्यन करना, चिन्तन-मनन करना एवं स्वाभाविक रूप से सर्वाधिक प्रयोजनीय अध्यन होगा- स्वामीजी के द्वारा लिखे एवं कहे उपदेशों को पढना. स्वामीजी के उपदेशों को पढने का अर्थ स्वामीजीने जो कहा है उसको केवल पढ़ लेना ही नहीं है, उसपर मनन करना है. मनन करते रहने से स्वामीजी के विचार, उनकी वाणी - बिल्कुल हमारे ह्रदय के भीतर बैठ जायेंगे. साथ ही साथ स्वामीजी का जीवन के ऊपर भी चिन्तन मनन करते रहना चाहिये.
उसके बाद यदि कुछ लोग थोड़ा और भी आगे जाना चाहते हों तो उन्हें ' माँ सारदा ' का जीवन, उनकी वाणी, ठाकुर का जीवन और ' श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' आदि का भी अध्यन करना चाहिये. यहाँ तक कि स्वामीजी ने अपने जीवन में जो कुछ भी किया है, जो कुछ भी कहा है- यदि उन सबका गहराई से विश्लेषण किया जाय तो, यह स्पष्ट हो जायेगा कि स्वामीजी ने सारी शिक्षा, समस्त ज्ञान ठाकुर से ही (सीखा) प्राप्त किया था.
तत्पश्चात स्वामीजी ने उन्हीं कि शिक्षाओं को, उस समय के मनुष्यों के लिये बोधगम्य भाषा में अभिव्यक्त किया था. मनुष्य कैसे बना जाता है ? इस सम्बन्ध में अभी हमारी धारणा स्पष्ट न रहने के कारण, हो सकता है कि हममें से कुछ लोगों को ठाकुर के उपदेश और स्वामीजी के उपदेश में थोड़ी सी विभिन्नता दृष्टिगोचर हो, हमें ऐसा प्रतीत हो सकता है कि ठाकुर ने तो ऐसा कहा था, स्वामीजी इस प्रकार क्यों बोले ? ऐसा हमारी समझ के भ्रम के कारण लगता है, किन्तु वास्तव में स्वामीजी और ठाकुर की शिक्षाओं में कहीं भी भिन्नता नहीं है.
चाहे वेदान्त- तत्व (नव वेदान्त ) के विषय में हों य़ा अन्य किसी भी प्रकार के जीवन के- विषय में हो, गृहस्थ-जीवन, सामाजिक-जीवन, आर्थिक-जीवन, मनुष्य के य़ा ईश्वर के विषय में हो, ठाकुर ने जो कहा है, स्वामीजी ने ठीक वही कहा है, हमलोग ही कई बार उसे ठीक से समझ नहीं पाते हैं.
जिस में वे दक्षिणेश्वर में रहते थे, क्या एक दिन अपने कमरे की छत पर खड़े होकर, व्यथित ह्रदय से यह कहते हुए बिल्कुल रो नहीं पड़े थे-  " माँ, बलेछिले युवकदेर एने देबे, कई, युवकरा तो आसछे ना ? "" - माँ, तुमने तो कहा था, युवाओं को यहाँ ले आओगी,पर कहाँ, युवा लोग तो आ नहीं रहे हैं ? "
श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था- " अरे तुम लोग कौन कहाँ हो, शिघ्रातीशीघ्र मेरे पास चले आओ ! " और कुछ युवक उनके पास आये थे. उन युवकों को इस प्रकार तैयार कर दिये कि, वे लोग, सम्पूर्ण जगत में एक नवीन विचार-धारा का संचार करने में समर्थ हो गये थे. उन मुट्ठी भर युवकों ने ' श्रीरामकृष्ण भावान्दोलन ' को सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैला दिया था, एवं उसके फलस्वरूप एक " संघ " स्थापित हो गया था. यह कितनी अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी. ऐसा दृष्टान्त किसी अन्य पुराण में है, हमें नहीं मालूम, किसी दूसरे देश के इतिहास में है, पता नहीं |
दुनिया के कई देशों में विभिन प्रकार की घटनाएँ घटीं हैं, नये नये धर्मों की उत्पत्ति हुई है. किन्तु श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने किसी नये धर्म का प्रवर्तन नही किया है. पर जो कार्य उनके द्वारा हुआ है, वह कार्य उनके पहले कभी किसी के द्वारा नहीं किया गया है. कई महापुरुषों ने, इस पृथ्वी पर- एक के बाद दूसरा कई धर्म चलाये हैं, एवं एक धर्म के साथ दूसरे धर्म के साथ संघर्ष, होते रहे हैं. धर्म के नाम पर मनुष्यों का कितना रक्त बहाया गया है! पहले जितने सारे धर्मयुद्ध हुए थे, उसमे अनगिनत लोग मारे गये थे. इस धर्म के लोग उस धर्म के लोगों की हत्या करते थे, उस धर्म के लोग इस धर्म के लोगों की हत्या करते थे. आज भी थोड़ा बहुत वैसा ही संघर्ष, लड़ाई-झगड़ा आदि दिखायी देता है. 
जिस शिक्षा के आभाव में आज समस्त विश्व के मनुष्य जिस दुःख-कष्ट में पड़े हुए हैं, सम्पूर्ण पृथ्वी पर मनुष्य जाती जिस दुर्गति को भोग रही है- उस दुरावस्था में परिवर्तन लाने के लिये क्या करना होगा ? सर्वप्रथम तो
" ' मनुष्य ' -( के 3H ) की ओर दृष्टि डालनी होगी ! " 
हमलोग बाहर की ओर, प्रकृति  की ओर (चन्द्रमा और मंगल) देख रहे हैं, धन-दौलत की ओर देख रहे हैं, भोगों की आकांक्षा की ओर देख रहे हैं, किन्तु इन समस्त कार्यों के मूल में पहले जिस मनुष्यत्व को अर्जित करना जरुरी होता है, उसकी कोई चेष्टा हमलोगों ने नहीं की है. अपने चरित्र को सही ढंग से गठित नहीं किया है. चरित्र कितनी अनुपम वस्तु है, उसका कितना महत्व है, इसे हम ठीक से नहीं समझते; योगी कवि भर्तृहरि कहते हैं- 
" वरं तुंगात श्रृंगात गुरुशिखरिणः  क्वापि विषमे 
   पतित्वायं कायः कठिनदृषदन्तर्विदलितः |
वरं न्यस्तो हस्तः फणिपतिमुखे तीक्ष्णदंशने
         वरं वह्नौ पातास्तदपि न कृतः शीलविलयः || "
- भले ही ऊँचे पर्वत-शिखर से कूद पड़ने के कारण तुम्हारा अंग भंग क्यों न हो जाय, काले नाग के मुख में हाँथों को डाल देने पर सर्प के दंश से तुम्हारे प्राण क्यों न छूट जाएँ, अग्नि में गिर पड़ने से तुम्हारा शरीर भी जल कर खाक क्यों न होता हो, लेकिन - " न कृतः शीलविलयः !! " अपने चरित्र को कभी नष्ट न होने देना|
कैसी अदभूत शिक्षा थी- भर्तृहरि की ! कैसा आह्वान था ! यदि तुम्हारे किसी कृत्य से, तुम्हारे चरित्र के गिरने की सम्भावना हो; तब तुम्हारे लिये यही अच्छा होगा कि तुम किसी ऊँचे पहाड़ से कूद कर अपनी अपनी हड्डियाँ तुडवा लो, य़ा किसी विषधर सर्प के मुख में हाथ डाल दो और उसके काटने से प्राण निकल जाएँ, य़ा फिर अग्नि में कूद कर अपने शरीर को जल कर राख हो जाने दो, किन्तु किसी भी परिस्थिति में अपने चरित्र को नष्ट नहीं होने दो !
 - ये सब वाणियाँ हजारो वर्ष पूर्व भारत में गुंजायमान हुई थीं| इन प्राचीन सद्ग्रंथों में दिये गये उपदेशों को अपने जीवन में उतार लेने से भारत के युवाओं का चरित्र इतना ठोस होगा कि कोई भी प्रलोभन (कामिनी-कान्चन) उसको नष्ट नहीं कर पायेगा! पर वैसा चरित्र अभी किसी भी व्यक्ति में (नेता, आईएस, शिक्षक, किसान, व्यापारी...आदि में)कहाँ दिखायी देता है? इस तरह के चरित्र का निर्माण करने की चेष्टा भी हमलोग कहाँ कर रहे हैं?
 शंकराचार्य ने भी इसी बात को समझाते हुए कहा था-( " त्रये दुर्लभं " ), उसमे वे भी चरित्र के महत्व को ही समझा रहे हैं !हमने दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त किया है, मनुष्य के दुर्लभ (विवेक-सम्पन्न) मन को प्राप्त किया है, किन्तु इनकी सहायता से हमलोग जो कर सकते थे, उसे हमने अभी तक नहीं किया है. हमलोग बाकी सबकुछ  (२०१० में Common  Wealth Games ) कर रहे हैं,किन्तु जिसके होने से सबकुछ होता है,
' चरित्र-निर्माण ' वही पीछे छूट गया है ! 
 स्वामी विवेकानन्द ने उन्हीं प्राचीन ग्रंथों (महाभारत, उपनिषद आदि) से- " चरित्र निर्माणकारी एवं मनुष्यत्व उन्मेषक " भावों को ढूंढ़ ढूंढ़ कर अपने जीवन में उतार लिया था|
{ महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में चरित्र-निर्माण की वैज्ञानिक पद्धति बताई गयी है, इस बात को स्वामीजी भी पहले नहीं जानते थे, पहले पहल इस तथ्य को उन्होंने अपने गुरुदेव " श्रीरामकृष्ण परमहंस देव " से ही सुना था. जिस प्रकार महावाक्यों (चार महावाक्य) का अर्थ केवल पढ़ लेने य़ा रट लेने से ही स्पष्ट नहीं होता, बल्कि उसके ऊपर अनुध्यान अर्थात दीर्घ काल तक चिन्तन-मनन करने य़ा मनः संयोग करने से ही उसका अर्थ स्पष्ट होता है.
 किसी विषय पर दीर्घ काल तक चिन्तन मनन करके उसका अर्थ समझने की पद्धति को " मनःसंयोग " कहते हैं. यह पद्धति भी आधुनिक युवाओं (स्वामीजी के समकालीन अंग्रेजी शिक्षा में पले-बढ़े युवओं को ) सबसे पहले श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त हुई थी.
ठाकुर ने प्राचीन ग्रंथों की बहुमूल्य शिक्षा को अत्यन्त सरल भाषा में और बिल्कुल संक्षिप्त करके  (आधुनिक युग के महावाक्य में परिणत करके ) अपने निकट आये हुए युवकों को सिखाया था. 
( जैसे - " जितने मत उतने पथ " य़ा " " दया नहीं सेवा - शिवज्ञान से जीव सेवा " आदि ठाकुर द्वारा रचित" नये महावाक्य " हैं !}

उनके उपदेशों में जितने भी पुराने पुराने भाव समाहित थे उन सबको, उन्हीं प्राचीन सद्ग्रंथों से खोज-खोज कर स्वामीजी ने, तथा ठाकुर के निकट आये अन्य युवाओं ने भी अपने जीवन में उतार लिया था. किन्तु यह भी सत्य है कि, समस्त सदगुणों को अपने जीवन में धारण करने की शिक्षा (मनः संयोग आदि)उन्होंने श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त कि थी