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बुधवार, 25 अगस्त 2010

परिव्राजक लीडरशिप [49] महामण्डल का " प्रतीक-चिन्ह "

" चरैवेति चरैवेति "

महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद, सोंच-विचार कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह " (Emblem) निर्धारित किया गया. उसमे जो गोलाई है, वह पृथ्वी है, पृथ्वी के भीतर, कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है, भारतवर्ष के भीतर दण्डधारी स्वामी विवेकानन्द खड़े हैं. उस गोलाई के दोनों ओर दो वाक्य लिखे हुए है-  " Be and Make " स्वामीजी के द्वारा कही गयी यह वाणी एक मन्त्र के सदृश्य है,  " बनो और बनाओ " (Be and Make ) - का यह आह्वान  उपनिषदों में कहे गये " महावाक्यों " के जैसा अत्यन्त सारगर्भित है.(दादा कहते हैं- इस मन्त्र में इतनी शक्ति है जो भी इस काम से निष्ठा पूर्वक जुड़ा रहेगा उसे  मोक्ष तक प्राप्त हो जायेगा, अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ) इसका अर्थ है :-" स्वयं मनुष्य बनो दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो ! " इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर की ओर लिखा है-" चरैवेति चरैवेति !" अर्थात "चलते रहो - चलते रहो !" 

महामण्डल का यह ध्येय वाक्य वैदिक साहित्य (ऐतरेय ब्राह्मण ७.१५) के सुप्रसिद्ध संचरण गीत "चरैवेति-चरैवेति।" से लिया गया है; इस वैदिक गीत में जीवन एवं समाज के विकास के केन्द्र में मनुष्य के श्रम या पुरुषार्थ के महत्व को उजागर किया गया है।

 यहाँ इस मंत्र के द्रष्टा : (ऋषि कवि महीदास ऐतरेय ) कहते हैं - जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है,  जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे चलना शुरू कर देता है , उसका भाग्य भी आगे आगे चलने लगता है, इसीलिये- " हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! "चलते रहो - चलते रहो!" (साभार Pt. Chhavinath Mishra / प. छविनाथ मिश्र ने इस रचना का सुन्दर हिन्दी अनुवाद किया है - ) 
संचरण गीत "चरैवेति-चरैवेति।"
  "चलते रहो - चलते रहो"
१-ॐ नाना श्रान्ताय श्रीरस्ति, इति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जन, इन्द्र इच्चरतः सखा । चरैवेति चरैवेति॥

सुनो रोहित --
सुना हमने
अथक श्रम ही श्रीमुखी

कर्मरत यदि हों नहीं तो श्रेष्ठ जन भी सब दुखी
नित्य जो गतिशील है बस इन्द्रता तो है उसीकी
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …


२- पुष्पिण्यौ चरतो जंघे, भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सवेर् पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हताः । चरैवेति चरैवेति॥

फूल उनकी पिण्डलियाँ हैं जो हमेशा चला करते
वर्धमाना चेतना की टहनियों पर फला करते
सुप्त रहते हैं सभी अपकर्म भी उसके सखे हे !
किन्तु श्रम से पंथ पर ही नष्ट होते नित दिखे वे
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …


३- आस्ते भग आसीनस्य, ऊध्वर्स्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य, चराति चरतो भगः । चरैवेति चरैवेति॥

बैठने वाले पथिक का भाग्य बैठा अड़ा होता
और उठने की क्रिया में वही ऊँचे खड़ा होता
जो यहाँ सोया रहा वह हाथ मलता ही रहा है
भाग्य उसका ही चला है जो सदा चलता रहा है
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …


४- कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । 
चरैवेति चरैवेति॥

 सदा ही सोता हुआ - सा
यहाँ कलियुग हुआ करता
नींद टूटी, जागरण ही, यहाँ द्वापर हुआ करता
और उठता हुआ मानुष
खड़ा त्रेता -सा स्वयम्भर
यहाँ चलता हुआ पथ पर सत्ययुग होता निरन्तर
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …

५- चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूयर्स्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
 
 कर्मरत गतिशील जो
मधुपान करता है सुनिश्चित
कर्मशीला अस्मिता को ही सदा मिलता फलामृत
देख लो तुम सूर्य की श्रमशीलता यह सृजनधर्मी
जो न पल भर श्रम-विमुख है
श्रम-मुखी शाश्वत सुकर्मी
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
सोये रहने का तात्पर्य है, जो मनुष्य सोया हुआ है वह अभी ' कलिकाल में वास 'कर रहा है, (स्वामीजी की ललकार - उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्नी बोधत ! सुनने से ) जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, वह द्वापर युग में वास कर रहा है. 
" उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति |"
- जो उठ कर के खड़ा हो जाता है- जो पुरुषार्थ करने के लिये कमर कस कर उठ खड़ा होता है, वह त्रेता युग में वास कर रहा है, 
" कृतं संपद्यते चरन् । "
और अपनी मंजिल की ओर जिसने चलना शुरू कर दिया है, वह मानो सत्य युग में वास कर रहा होता है. इसीलिये स्वामीजी युवाओं से आह्वान करते हैं - 'चरैवेति चरैवेति ' - आगे बढो, आगे बढो ' इसके साथ ही साथ उन्हें परम-पुरषार्थ करने के लिये पुकार रहे हैं  " Be and Make !  "  उनके दोनों महावाक्यों को महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह में उकेरा गया है ! परिव्राजक का काम है चलते रहना । " नदिया चले चले रे धारा चन्दा चले चले रे तारा तुझको चलना होगा तुझको चलना होगा |
 ( Why do we rush through our lives, as if we were in a hurry to get somewhere? Take me anywhere, just not to here! Why so? Sure, I am the first to admit that goals are important in life, but if we don’t take time to look around and enjoy the journey our goals will loose their effect; they are to make us happy now. Today. That is why I like this simple Chinese proverb:

“The Journey is the Reward”
If we enjoy our journey our lives gain meaning. It’s as simple as that. Let’s not think that the only important thing is that celestial glory which awaits us some time faaaaar in the future. Seeing how wonderful this life is, here and now, lets us experience the sparking of that celestial flame in a hearts already today.!Enjoy your day! -by Louis Herrey)}

...." जो हमलोगों का संघ-मन्त्र है, वह ऋग्वेद में भी है और अथर्ववेद में भी है -
 

संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।
समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।
(ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ )
हिन्दी भाव -एक साथ चलेंगे ,एक बात कहेंगे । हम सबके मन को एक भाव से भरेंगे ।देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं ,हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।। हम अपने सारे निर्णय एक मन हो कर ही करेंगे ,क्योंकि देवता लोग एक मन रहने के कारण ही असुरों पर विजय प्राप्त कर सके थे । अर्थात एक मन बन जाना ही समाज-गठन का रहस्य है ......कैसा अनोखा मन्त्र है.' संजयान ' हो उठना का तात्पर्य है जाग उठना ! इस मन्त्र को स्वामीजी ने भी उद्धृत किया था. विवेकानन्द साहित्य में जहाँ इस मन्त्र का उल्लेख स्वामीजी ने किया है, वहाँ कहा गया है की यह मन्त्र अथर्ववेद से लिया गया है; किन्तु यही मन्त्र ऋग्वेद में भी है.
ये सारे कार्यक्रम भारत के १० राज्यों में २८० केन्द्रों के माध्यम से चल रहा है. क्या यही कम बड़ी उपलब्धी है! यही तो है स्वामीजी का कार्य.इसके साथ साथ महामण्डल के लिये एक पताका की भी आवश्यकता महसूस हुई. पताका के बारे में विचार करते करते मन में विचार आया कि (भगिनी) निवेदिता ने तो स्वाधीन भारत के लिये एक पताका का निर्माण किया था. उसके पीछे भी स्वामीजी कि एक उक्ति का स्मरण हो उठता है. इसीलिये  महामण्डल का जय-घोष बना : " निवेदिता वज्र हो अक्षय ! उनकी उसी उक्ति से प्रेरणा प्राप्त करके निवेदिता ने उस पताका की रुपरेखा तैयार की थी य़ा नहीं, यह मुझे नहीं पता है.एक बार स्वामीजी से किसी ने प्रश्न किया था- स्वामीजी, आपने इतना कुछ किया है, किन्तु भारत की स्वाधीनता के लिये आपने क्या किया है ? स्वामीजी कहते हैं- " भारतवर्षेर स्वाधीनता आमी  तीन दिनेर मध्येई एने फेलते पारि| किन्तु भारते मानुष कोथाय रे ?
से स्वाधीनता राखबे के ? " - " भारतवर्ष को मैं तिन दिनों के भीतर ही स्वाधीनता दिला सकता हूँ| किन्तु चरित्रवान मनुष्य भारत में कहाँ हैं रे ?  उस स्वाधीनता को अक्षुण कौन रखेगा ? "
 भारत  की वर्तमान अवस्था तो शायद पहले से भी ज्यादा बिगड़ चुकी है, यदि चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण नहीं किया गया, तो भारत के गांवों में रहने वाले गरीब लोगों को भूख-भय- भ्रष्टाचार से मुक्ति कैसे मिलेगी ? हो सकता है कि इस समय विदेशी आक्रमण का उतना खतरा नहीं हो, किन्तु उसका वास्तविक कारण " Balance of Power " ( शक्ति का सन्तुलन ) है. विश्व के बड़े बड़े देशो के बीच ऐसा कोई अलिखित करार है कि कोई भी बड़ा देश (जिसके पास वीटो पावर है ) वह अन्य किसी बड़े देश पर आक्रमण नहीं कर सकेगा. किन्तु देश की स्वाधीनता की रक्षा करने का क्या अर्थ है ? आज के भारतवर्ष में स्वाधीनता प्राप्त कर लेने के बाद क्या हुआ है ? स्वाधीनता प्राप्ति के ६४ वर्षों बाद भी भारत के " सैंकड़े ३४ व्यक्ति " गरीबी की सीमा-रेखा के नीचे वास करते हैं. स्वाधीनता किसे प्राप्त हुई है? स्वाधीनता प्राप्त हुई उनको जो अर्थवान हैं. उनका अर्थ और किस तरह बढ़ जाये इसके लिये दरवाजे खोल दिये गये हैं. आजकल globalization का, वैश्विकरण का, उदारीकरण का शोर है. किन्तु वैश्वीकरण की महत्ता का जन्म भी भारतवर्ष में ही हुआ था.  
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{ मनुष्य का शरीर पुरुषार्थ करने के लिये ही प्राप्त हुआ है.हमारे शास्त्रों में चार प्रकार के पुरुषार्थ कहे गये हैं- " धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष ." इन चारों की प्रेरणा से ही मनुष्य पुरुषार्थ करने के लिये अग्रसर होता है. और अपने अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है.पारिवारिक जिम्मेदारियाँ जैसी ही हल्की होने लगें, घर को चलाने के लिए बड़े बच्चे समर्थ होने लगें और अपने छोटे भाई-बहिनों की देखभाल करने लगें, तब वयोवृद्ध आदमियों का एक मात्र कर्त्तव्य यही रह जाता है कि वे पारिवारिक जिम्मेदारियों से धीरे-धीरे हाथ खींचे और क्रमशः वह भार समर्थ लड़कों के कन्धों पर बढ़ाते चलें । ममता को परिवार की ओर से शिथिल कर समाज की ओर विकसित करते चलें । सारा समय घर के ही लोगों के लिए खर्च न कर दें, वरन् उसका कुछ अंश क्रमशः अधिक बढ़ाते हुए समाज के लिए समर्पित करते चलें । धर्म और संस्कृति का प्राण- वानप्रस्थ संस्कार भारतीय धर्म और संस्कृति का प्राण है । जीवन को ठीक तरह जीने की समस्या उसी से हल हो जाती है । युवावस्था के कुसंस्कारों का शमन एवं प्रायश्चित इसी साधना द्वारा होता है । जिस देश, धर्म जाति तथा समाज में उत्पन्न हुए हैं, उनकी सेवा करने का, ऋण मुक्त होने का अवसर भी इसी स्थिति में मिलता है । इसलिए जिन नर-नारियों की स्थिति इसके लिए उपयुक्त हो, उन्हें वानप्रस्थ ले लेना चाहिए । एक प्रतिज्ञा बन्धन में बँध जाने पर व्यक्ति अपने जीवनक्रम को तदनुरूप ढालने में अधिक सफल होता है, बिना संस्कार कराये मनोभूमि पर वैसी छाप गहराई तक नहीं पड़ती । इसलिए कदम कभी आगे बढ़ते, कभी पीछे हटते रहते हैं ।
प्राचीनकाल में लोक निर्माण की सारी गतिविधियों एवं प्रवृत्तियों के संचालन का उत्तरदायित्व साधु-ब्राह्मण, वानप्रस्थों पर ही था, वे अपनी सारी शक्तियाँ परमार्थ भावना से प्रेरित होकर जनमानस को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त किये रहने में लगाये रहते थे । फलस्वरूप चारों ओर धर्म, कर्त्तव्य, सदाचार का ही वातावरण बना रहता था । वयोवृद्ध अनुभवी परमार्थ-परायण लोकसेवियों का प्रभाव जन साधारण पर स्वभावतः बहुत गहरा पड़ता है, वह टिकाऊ भी होता है । ऐसे लोग जन नेतृत्व करने के लिए जब धमर्तन्त्र का उचित उपयोग करते थे, तो सारे समाज में सत्प्रवृत्तियों के लिए उत्साह उमड़ पड़ता था ।
शिक्षा, स्वास्थ्य, सदाचार, न्याय, विवेक, वैभव, शासन, विज्ञान, सुरक्षा, व्यवस्था आदि सभी क्षेत्रों में वे वयोवृद्ध लोग ही नेतृत्व करते थे । इतने अधिक अनुभवी और धर्म् परायण व्यक्तियों की निःशुल्क सेवा जिस देश या समाज को उपलब्ध होती हो, व उसको संसार का मुकुटमणि होना ही चाहिए, प्राचीनकाल में ऐसी ही स्थिति थी। आज वानप्रस्थ की परम्परा नष्ट हुई, बूढ़े लोगों को लोभ-मोह के बन्धनों में ही ग्रसित रहना प्रिय लगा, तो फिर देश का पतन अवश्यम्भावी हुआ भी, हो भी रहा है । विशेष व्यवस्था- वानप्रस्थ संस्कार जितने व्यक्तियों का हो, उनके लिए समुचित आसन तैयार रखे जाएँ । वानप्रस्थ परम्परा को महत्त्व देने की दृष्टि से उनके लिए सुसज्जित मंच बनाया जा सके, तो बनाना चाहिए ।
अभिसिञ्चन के उपरान्त वानप्रस्थ लेने वालों के हाथों में धमर्दण्ड और मेखला-कोपीन का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है । कोपीन धारण करने का अर्थ है- इन्द्रिय संयम बरतना । वानप्रस्थी को सन्तानोत्पादन बन्द कर देना चाहिए । अब तक की उत्पन्न हुई सन्तान का ही पालन-पोषण, विकास-निमार्ण ठीक तरह हो जाए, यही बहुत है। पचास वर्ष की आयु के बाद बच्चे पैदा करते रहना, तो एक लज्जा की बात है, इससे कठिनाई बढ़ती है । बच्चे दुबले पैदा होते हैं, अनाथ रह जाते हैं तथा उनकी जिम्मेदारी मरते समय तक बनी रहने से समाजसेवा, परमार्थ साधना जैसे जीवन को साथर्क बनाने वाले प्रयोजनों के लिए अवसर ही नहीं मिलता । 
कमर में मेखला (रस्सी) बाँधना कोपीन धारण के लिए तो आवश्यक है ही, साथ ही वह सैनिकों की तरह कमर कसकर, पेटी बाँधकर परमार्थ के मोर्चे पर आगे बढ़ने की मानसिक स्थिति का भी प्रतीक है । कमर कसना, मुस्तैदी, सतकर्ता, तत्परता निरालस्यता जैसी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति बनाये रखने का प्रतीक है । निमार्ण के दो मोर्चो पर एक साथ लड़ने वाले सैनिक को जिस सतकर्ता से कार्य करना होता है, वैसा ही उसे भी करना चाहिए ।
वानप्रस्थी को हाथ में लाठी दी जाती है । गुरुकुलों में विद्याध्ययन करने वालों को वन्य प्रदेश की आवश्यकता के अनुरूप लाठी सुविधा की दृष्टि से आवश्यक भी होती थी । इसके अतिरिक्त यह धमर्दण्ड इस मन्तव्य का भी प्रतीक है कि राजा जिस प्रकार राज्याभिषेक के समय शासन सत्ता का प्रतीक राजदण्ड छोटा लकड़ी का डण्डा हाथ में विधिवत् समारोह के साथ ग्रहण करता है, उसी प्रकार वानप्रस्थी संसार में धर्म व्यवस्था कायम रखने की अपनी जिम्मेदारी को हर घड़ी स्मरण रखे रहे और तदनुरूप अपना जीवनक्रम बनाये रहे, इसलिए भी यह धमर्दण्ड है । 
 महानता की मंजिल पर मनुष्य एकाएक नहीं पहुँच जाता, उसके लिए एक-एक करके सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं । श्रेष्ठ प्रवृत्तियाँ, आचरण एवं स्वभाव बनाने के लिए व्रतशील होकर चलना पड़ता है । छोटे ही सही, व्रत लेने, उन्हें पूरा करने, फिर नये व्रत लेने का क्रम विकास के लिए अनिवार्य है । व्रतशीलता के लिए कुछ देवशक्तियों को साक्षी करके व्रतशील बनने की घोषणा की जाती है । इन्हें अपना प्रेरक, निरीक्षक और नियंत्रक बनाना पड़ता है । सम्बन्धित देवशक्तियों की प्रेरणाएँ इस प्रकार हैं-अग्निदेव- ऊर्जा के प्रतीक । ऊर्जा, स्फुरणा, गर्मी, प्रकाश से भरे-पूरे रहने, अन्यों तक उसे फैलाने, दूसरों को अपना जैसा बनाने, ऊध्वर्गामी-आदशर्निष्ठ रहने, यज्ञीय चेतना के वाहन बनने की प्रेरणा के स्रोत । वायुदेव- स्वयं प्राणरूप, किन्तु बिना अहंकार सबके पास स्वयं पहुँचते हैं । कोई स्थान खाली नहीं छोड़ते, निरन्तर गतिशील । सुगन्धित और मेघों जैसे परोपकारी तत्त्वों के विस्तारक सहायक ।सूयर्देव- जीवनी शक्ति के निझर्र, तमोनिवारक, जागृति के प्रतीक, पृथ्वी को सन्तुलन और प्राण-अनुदान देने वाले, स्वयं प्रकाशित, सविता देवता ।चन्द्रदेव- स्वप्रकाशित नहीं, पर सूर्य का ताप स्वयं सहन करके निमर्ल प्रकाश जगती पर फैलाने वाले, तप अपने हिस्से में-उपलब्धियाँ सबके लिए । इन्द्रदेव- व्रतपति देवों में प्रमुख, देव प्रवृत्तियों-शक्तियों को संगठित-सशक्त बनाये रखने के लिए सतत जागरूक, हजार आँखों से सतर्क रहने की प्रेरणा देने वाले ।
रुके नहीं , लक्ष्य की ओर बराबर चलता रहे, एक सीमा में न बँधे, जन-जन तक अपने अपनत्व और पुरुषार्थ- " Be and Make "  को फैलाए । जो परिव्राजक लोकमंगल के लिए संकीणर्ता के सीमा बन्धन तोड़कर गतिशील नहीं होता, सुख-सुविधा छोड़कर तपस्वी जीवन नहीं अपनाता, वह पाप का भागीदार होता है ।}
Do u Know?........
The first serious attempt at flag making came from Sister Nivedita (Margaret Nobel, 1867-1911) an Irish disciple of Swamy Vivekananda.  She conceived the idea of the flag, while on a  visit to Bodh Gaya in 1904, in the company of J.C. Bose and Rabindranath Tagore. She was inspired by the Vajra sign, symbol of Budha - the selfless man. 
It was the weapon of Lord Indra and is a symbol of strength (and also associated with the Goddess Durga).Legend goes that Vajra (Thunder bolt) was made from the bones of Rishi Dadhichi.  It is a symbol of supreme sacrifice.
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhaPAsRbEjdnApONPkj9XpaJszqONsq0k_qqmf7vKC3yEJr9fUAGGSeIEa7xWhEnXRsUNRc4z54vYNbhAdV0u-GNzjLceboSJNMP3uiU14YZ2T9k_DNchMPLR8aNbBYZVlKw1wCR_foOLk/s1600/scan0012.jpg

Sister Nivedita’s flag, 
prepared by the students of her Girls' School at Calcutta  was displayed for public view at the Congress exhibition in December 1906. The flag was square in shape, it had the symbols of Vajra (Thunder bolt) in the centre. On both sides of the Vajra was written‘Vande’ and ‘Mataram’ and 108 Jyotis (flames) in the outer periphery.
Sister Nivedita (using R.S. as nom de plume) in an article titled ‘The Vajra as a National Flag’ published in the Modern Review in 1909, strongly suggested Vajra as a National flag for whole of India. The opening sentences of the article goes, I quote   "The question of the invention of a flag for India is beginning to be discussed in the press.Those who contemplate the desirability of such a symbol, seem to be unaware that already a great many people have taken up, and are using, the ancient Indian Vajra or Thunderbolt, in this way....",unquote.  Below are some of the draft sketches prepared by Sister Nivedita herself for illustrations of the said article.

Nivedita’s Vajra, has been adopted as the logo of the Bose Institute, Kolkata .Crest of North Bengal University has also the Vajra symbol in the centre .]