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गुरुवार, 19 अगस्त 2010

[47] मनःसंयोग का अर्थ है - मन को देखना'

सामूहिक रूप से बैठकर ध्यान का अभ्यास करना ठीक नहीं है। क्योंकि ध्यान करते समय, जब सभी मनुष्य एक साथ मन को नियोजित करना चाहेंगे तो आस-पास जितने भी सिर होंगे, उनसे जो विचार-प्रवाह निःसृत होंगे, वे मेरे मन के विचार-प्रवाह पर अवश्य आघात करेंगे. यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि आस पास रहने वाले लोगों के मस्तिष्क से निकलने वाली विचार तरंगें एक दूसरे के मन की विचार तरंगों को अवश्य प्रभावित करते हैं।  इस वैज्ञानिक सत्य को प्रमाणित करने वाला सबसे बड़ा उदहारण हमलोग द्वितीय विश्वयुद्ध (2nd World War ) के समाप्त होने पर, न्यूयार्क की एक घटना में लिपिबद्ध देख पाते हैं.
हठात बहुत गहरी रात्रि के समय, बहुमंजली ईमारत के एक फ़्लैट में सो रहे व्यक्ति की नींद टूट गयी. वह एक मल्टीस्टोरिड फ़्लैट था, जिसमे बहुत से घर होते हैं, उसके किसी एक फ़्लैट में रहने वाले व्यक्ति की नींद मध्य रात्री में अचानक टूट गयी। नींद टूट जाने पर उसे ऐसा लगा, मानो कहीं से कुछ आवाजें आ रही हैं. नींद से उठ कर वह खिड़की से झांक कर नीचे की ओर देखा, कि सड़क पर बहुत से लोग खड़े हैं, सभी क्या हुआ, क्या हुआ, कर रहे हैं और कई तरह की बातें कह रहे हैं. मानो एक आवाज उठ रही है, कहीं से हो हो करती आवाज हो रही है. उस आवाज को सुन कर उसने सोंचा आखिर बात क्या है?
वह नीचे उतर गया. इसी प्रकार एक एक करके,एक एक सड़क पर ढेर सारे लोग एकत्रित हो गए. सभी लोग एक दूसरे से पूछ रहे हैं, " What is the matter ? " क्या हुआ है ? कैसी घटना घट गयी है ? कोई बतला नहीं पा रहा है. सभी केवल सभी से पूछ रहे हैं. उसके बाद धीरे धीरे सभी लोग, अपने अपने घरों में चले गए.सुबह हुआ. दूसरे दिन सुबह में समाचार मिला कि रात्रि में जिस समय सभी लोग सड़क पर निकल कर जमा हो गए थे, ठीक उसी समय विश्व-युद्ध की मीमांसा करते हुए एक संधि-पत्र पर हस्ताक्षर किया गया था।
यह घटना वैज्ञानिक सत्य है। 
 जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द के साथ भी हुआ था.बेलुड मठ बन गया है, एक दिन रात के समय उनके कमरे से रोने जैसी आवाज आ रही थी. एक गुरुभाई पास वाले कमरे से आकर पूछते हैं, "क्या हुआ है, क्यों रो रहे हैं ? " उन्होंने कहा " अरे, मुझे तो कुछ नहीं हुआ है, किन्तु कहीं पर बहुत से लोग मारे गए हैं !"  ऐसी घटनाएँ कैसे होतीं हैं ? मनुष्य के मन की भावनाएं, उसके मन में उठने वाली विचारों की अदृश्य तरंगें सर्वदा सपूर्ण विश्व में संचारित हो रही हैं. आज कल हमलोग विज्ञान की सहायता से रेडिओ देखते हैं, टीवी देखते हैं, सेल फोन देखते हैं. यह सब किस प्रकार कार्य करते हैं ? यह सब भी तो अदृश्य तरंगों को पकड़ने की प्रणाली पर आधारित हैं.
पर अब विज्ञान के इन आविष्कारों को देख कर हमलोग आश्चर्यचकित नहीं होते हैं, अब हमलोग जानते हैं कि ऐसा तो होता ही रहता है. किन्तु इसी तरह की अदृश्य विचार तरंगों का संचरण और सम्प्रेषण तो चिरकाल से होता चला आ रहा है.
इसीलिये मैं यदि अपने मन को एकाग्र करने में सक्षम हो जाऊं, अपनी प्रयोजनीयता एवं  ईच्छा के अनुसार मन को किसी भी  विषय में नियोजित रखने में समर्थ हो जाऊं; तो मैं चाहे जिस विषय का ज्ञान भी प्राप्त कर सकता हूँ. ' मनः संयोग ' करने का अर्थ है-  " मन को अपने सामने लेकर बैठना | " यह जो मन की एकाग्रता को बढ़ाने की अत्यन्त सहज पद्धति है, उसका हमे अभ्यास करना होगा. बैठने का तरीका कैसा होगा ? विशेष ढंग से बैठने के पीछे एक उद्देश्य है. गर्दन को सीधी रखते हुए बाबू होकर बैठना चाहिये. इस तरह बैठने से निःस्वास-प्रस्वास सब स्वाभाविक रूप से धीरे धीरे होने लगता है, जिसके कारण निःस्वास-प्रस्वास लेने में, य़ा शारीरिक अन्य किसी चीज के चलते, शरीर में किसी प्रकार का तनाव य़ा कष्ट का अनुभव नहीं होता है.
अतः अपने लिये सबसे अधिक स्वाभाविक ढंग से जिस प्रकार बैठना अच्छा लगता हो, उसी ढंग से बैठ कर, किन्तु हमलोग एक विषय में मन को रखने की चेष्टा करेंगे.
 किस विषय पर मन को रखने की चेष्टा करेंगे ? हमलोगों ने स्वामी विवेकानन्द को ही अपने जीवन के आदर्श के रूप में चुन लिया है. किन्तु यदि इच्छा हो तो उन स्वामी विवेकानन्द के ऊपर मन को न रखकर, चिन्तन के विषय के रूप में माँ सारदा को रख सकते हैं, य़ा ठाकुर श्रीरामकृष्ण को रख सकते हैं. कोई कृष्ण-भक्त यदि चाहे तो वह अपने सामने कृष्ण की मूर्ति य़ा छवि को भी रख सकता है. कोई यदि शिव-भक्त है, तो वह अपने सामने शिव को रख सकता है. कोई चाहे तो इनमे से किसी को भी न रखकर, एक ' ॐ कार ' को अथवा जिस किसी भी पवित्र वस्तु को सामने रख सकता है.
किन्तु मन को उसके चिन्तन का विषय बनाने के लिये एक ध्येय वस्तु अवश्य होनी चाहिये. क्योंकि मन को एक स्थान पर तो लगा कर रखना ही पड़ेगा. जो पवित्र वस्तु अपने मनको अच्छी लगती हो, उसी स्थान में मन को रखना होगा.(" क्रमागत मनेर दिके आमरा ' चेये ' देखी, मनेर दिके ' चेये ' देखा जाय ") - अर्थात क्रमशः आदर्श के उपर मन को नियोजित करने का अभ्यास करते रहने से हमलोगों की दृष्टि मन के ऊपर पड़ने लगती है,मन की ओर नजर उठा कर देखा जा सकता है.! ' अपनी इच्छा के अनुसार मन को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - एक ' द्रष्टा ' मन और एक ' दृष्ट ' मन !  जब चाहें तब किया जा सकता है; और सभी मनुष्य इस प्रकार अपने मन को द्रष्टा और दृश्य में विभक्त कर सकते हैं.(अपनी इच्छा के अनुसार हम जब चाहें अपने मन को दो भागों में बाँट सकते हैं - मन का ही एक हिस्सा ' द्रष्टा मन ' बन जायेगा और एक ' दृष्ट मन ' बन जायेगा.)
हमसभी लोग तो प्रतिदिन ऐसा कई बार किया करते हैं, बस तब यह याद नहीं रहता कि हम स्वयं ही यह क्रिया कर रहे हैं." - बैठा हुआ हूँ अन्यमनस्क हो गया (मन कहीं चला गया य़ा खो गया ) कुछ देर बाद याद आया अरे (बैठे बैठे ) मैं न जाने क्या सोंच रहा था ! " उस समय विचार करते करते,  मैं मानो किसी अन्य कल्पना में खो सा गया था, तल्लीन हो गया था. नहीं होता है ?
{ " घट द्रष्टा घटात भिन्नः " घड़े को देखने वाला ( कृपा-कटाक्ष करने वाला- द्रष्टा ) घड़े से भिन्न होता है !}
कल्पना कहाँ हो रही है ? मन ही कल्पना कर रहा है, और मन की कल्पना को मन ही देख रहा है. इसीलिये मन के द्वारा किसी ऐसी वस्तु को देखने की चेष्टा करूँगा, जो शुद्ध है, जो अच्छी वस्तु है, जो कल्याणमय है, जो सभी का मंगल करता है. इसी को तो, किसी विषय में मन को रखने की चेष्टा करना कहते हैं !
यह अभ्यास करने के साथ साथ क्या होता है ? जिस प्रकार मन की शक्ति बढती है, उसी प्रकार मन की धारण करने क्षमता (स्मरण-शक्ति) भी बढती है. बुद्धिशक्ति विकसित होती है, कोई भी विषय आसानी से समझ में आने लगता है.जो सुनते हैं, जो समझ में आ जाता है,और वह विषय स्मृति में संग्रहित भी रह जाता है.क्योंकि मन के चार अंग हैं- " मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार " इन चारों को एक साथ मिलकर भी मन कहा जा सकता है.
' बुद्धि ' क्या है ? बुद्धि वह वस्तु है जो निर्णय करती है. मन का कार्य है संशय करना, मन को आमतौर पर संशयात्मक ही कहा जाता है. बुद्धि के द्वारा निर्णय लेकर वह एक निश्चय पर पहुँच जाता है. चित्त को मन-वस्तु कहते हैं, य़ा जिसके द्वारा मन निर्मित होता है वह पदार्थ ( The stuff of the mind ), उसे ही चित्त कहते हैं. इस चित्त में ही हमलोगों की स्मृतियाँ संचित रहती हैं.  
और अहंकार, अहंकार क्या है ? हमलोग साधारण तौर पर किसी व्यक्ति को अहंकारी (घमण्डी) कहते है, वह अहंकार नहीं. अहंकार का अर्थ है, यह जो मैं कार्य कर रहा हूँ (भाषण दे रहा हूँ य़ा टाइप कर रहा हूँ ) , इसको करने के लिये एक कर्ता तो रहेगा ही न ? उसी कर्ता का नाम होता है - ' अहंकार ' ! कुछ भी कार्य करने के लिये किसी कर्ता की आवश्यकता तो रहती ही है. इसी अहंकार के विषय में ठाकुर कितनी सहज भाषा में, कितनी सुन्दर बात कह गए हैं! " जिस नारियल के गाँछ से जब डाली-पत्ते इत्यादि झड़ जाते हैं,तो उसके तने पर थोड़ा थोड़ा तो दाग रह जाता है ना ? उसी तरह थोड़ा सा भी अहंकार का भाव यदि न रखा जाय तो मेरे द्वारा कोई भी कार्य होना सम्भव नहीं होता. इसीलिये थोड़ा सा अहंकार तो रहना ही चाहिये. उस अहंकार को रखने में कोई दोष नहीं है."  किन्तु यदि उससे अधिक अहंकार रखा जाय, मैं तो इतना जानता हूँ. मैं एक विद्वान् मनुष्य हूँ, मेरे पास इतना अर्थ है, मेरे पास यह है, वह है- - इस बात पर गर्व किया जाय कि,ऐसा अहंकार मनुष्य की क्षति करता है। इसीलिये मन में वैसे अहंकार को उठने से रोक कर, यदि  अपने चित्त को शान्त रखते हुए हमलोग चित्त की बुद्धि ( विवेक ?) को विकसित करने में समर्थ होकर मन को देख सकें तो हमे अपने इसी जीवन में बहुत बड़ा लाभ प्राप्त होगा!                  
                          

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