स्वामी विवेकानन्द ने प्राचीन ग्रंथों (महाभारत, उपनिषद आदि) से- " चरित्र निर्माणकारी एवं मनुष्यत्व उन्मेषक " भावों को ढूंढ़ ढूंढ़ कर अपने जीवन में उतार लिया था| महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में चरित्र-निर्माण की वैज्ञानिक पद्धति बताई गयी है, इस बात को स्वामीजी भी पहले नहीं जानते थे, पहले पहल इस तथ्य को उन्होंने अपने गुरुदेव " श्रीरामकृष्ण परमहंस देव " से ही सुना था.
जिस प्रकार महावाक्यों (चार महावाक्य) का अर्थ केवल पढ़ लेने य़ा रट लेने से ही स्पष्ट नहीं होता, बल्कि उसके ऊपर अनुध्यान अर्थात दीर्घ काल तक चिन्तन-मनन करने य़ा मनः संयोग करने से ही उसका अर्थ स्पष्ट होता है. किसी विषय पर दीर्घ काल तक चिन्तन मनन करके उसका अर्थ समझने की पद्धति को " मनःसंयोग " कहते हैं. यह पद्धति भी आधुनिक युवाओं (स्वामीजी के समकालीन अंग्रेजी शिक्षा में पले-बढ़े युवओं को ) सबसे पहले श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त हुई थी.
ठाकुर ने प्राचीन ग्रंथों की बहुमूल्य शिक्षा को अत्यन्त सरल भाषा में और बिल्कुल संक्षिप्त करके (आधुनिक युग के महावाक्य में परिणत करके ) अपने निकट आये हुए युवकों को सिखाया था. (जैसे - " जितने मत उतने पथ " य़ा " " दया नहीं सेवा - शिवज्ञान से जीव सेवा " आदि ठाकुर द्वारा रचित" नये महावाक्य " हैं !)
ठाकुर ने प्राचीन ग्रंथों की बहुमूल्य शिक्षा को अत्यन्त सरल भाषा में और बिल्कुल संक्षिप्त करके (आधुनिक युग के महावाक्य में परिणत करके ) अपने निकट आये हुए युवकों को सिखाया था. (जैसे - " जितने मत उतने पथ " य़ा " " दया नहीं सेवा - शिवज्ञान से जीव सेवा " आदि ठाकुर द्वारा रचित" नये महावाक्य " हैं !)
उनके उपदेशों में जितने भी पुराने पुराने भाव थे उन सबको, उन्हीं प्राचीन सद्ग्रंथों से खोज-खोज कर स्वामीजी ने, तथा ठाकुर के निकट आये अन्य युवाओं ने भी अपने जीवन में उतार लिया था. किन्तु यह भी सत्य है कि, समस्त सदगुणों को अपने जीवन में धारण करने की शिक्षा (मनः संयोग की विधि आदि ) उन्होंने श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त कि थी. }
- ठीक वही शिक्षा परिकल्पना की थी; उस पताका में अंकित ' वज्र '-' दधिची ऋषि की हड्डियों से निर्मित वज्र के जैसा ठोस-चरित्र गठन की पद्धति ' जिसे श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने दक्षिणेश्वर में अपने निकट आये हुए युवकों को दिया था) अभी इस अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा आयोजित - युवा प्रशिक्षण शिविर, पाठचक्र आदि विभिन्न कार्यकर्मों के माध्यम से भारतवर्ष के १० राज्यों में महामण्डल के २८० केन्द्रों में वैसा ही- ' वज्र ' के जैसा ठोस चरित्र गठित करने कार्य चलाया जा रहा हैं ! एवं लगभग प्रत्येक महामण्डल केन्द्रों में कम से कम एक दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर तो आयोजित होता ही है. कुछ केन्द्रों को एक साथ मिला कर, भी एक दिवसीय शिविर भी किया जाता है. एक ' जिला स्तरीय शिविर ' होता है.
- ठीक वही शिक्षा परिकल्पना की थी; उस पताका में अंकित ' वज्र '-' दधिची ऋषि की हड्डियों से निर्मित वज्र के जैसा ठोस-चरित्र गठन की पद्धति ' जिसे श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने दक्षिणेश्वर में अपने निकट आये हुए युवकों को दिया था) अभी इस अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा आयोजित - युवा प्रशिक्षण शिविर, पाठचक्र आदि विभिन्न कार्यकर्मों के माध्यम से भारतवर्ष के १० राज्यों में महामण्डल के २८० केन्द्रों में वैसा ही- ' वज्र ' के जैसा ठोस चरित्र गठित करने कार्य चलाया जा रहा हैं ! एवं लगभग प्रत्येक महामण्डल केन्द्रों में कम से कम एक दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर तो आयोजित होता ही है. कुछ केन्द्रों को एक साथ मिला कर, भी एक दिवसीय शिविर भी किया जाता है. एक ' जिला स्तरीय शिविर ' होता है.
कुछ जिलों को मिला कर ' प्रमंडल के स्तर पर ' शिविर होता है. एक होता है, दो य़ा तीन राज्यों को मिला कर ' राज्य स्तरीय शिविर '; ' अंतर्राज्य स्तरीय शिविर ' (Intar State Camp) होता है. एक ' सर्व भारतीय शिविर ' ( All India Camp ) होता है. इस प्रकार लगभग १०० युवा प्रशिक्षण शिविर, प्रत्येक वर्ष आयोजित किये जाते हैं.
बिल्कुल नये नये जगहों पर शिविर आयोजित हो रहे हैं, और हमलोग लगभग विगत ४० वर्षों से देखते आ रहे हैं, उनमे से अनेकों शिविरार्थी बिल्कुल नये नये होते हैं. ऐसे-ऐसे किशोर और युवा आते हैं, जिन्होंने शायद कभी यह भी नहीं सुना हो कि,
चरित्र कहते किसे हैं ' What is Character '?
य़ा मन किसे कहते हैं - ' What is Mind ' ?
मन को एकाग्र करना ' Mental Concentration ' क्या है ?
क्या हमलोग अपने मन को वश में ला भी सकते हैं ?
मन को वश में लाने की पद्धति क्या है ?
(ये सभी विषय वे पहली बार इसी कैम्प सुनते है. )
ह्रदय को भी हम लोग स्वयं विशाल बना सकते हैं, दूसरों के सुख-दुःख को बिल्कुल अपने सुख-दुःख के जैसा (प्यार एहसास है - उसे ' रूह ' से महसूस करो ) अपनी आत्मा में अनुभव किया जा सकता है !
आदि बातों को तो उन्होंने कभी जीवन में सुना ही नहीं तो, जीवन में क्या उतार पायेंगे ? किन्तु जब यहाँ वे इन सब के बारे में सुनते हैं, तो वे इससे इतने अभिभूत हो जाते हैं कि, वे (विस्मय से भर कर ) इसके बारे में दूसरों से भी चर्चा करते हैं, जिसे सुनकर और प्रभावित होकर इनदिनों
' All India Camp ' (सर्व भारतीय शिविर) में १००० से भी अधिक युवक भाग लेते हैं. एग्यारह सौ, साढ़े एग्यारह सौ, बारह सौ, तेरह सौ से भी अधिक युवा आ रहे हैं. राज्य स्तरीय शिविर में भी ५००-६०० कि संख्या में किशोर और युवा लोग आते हैं. यह सब जो हो रहा है, तो इसकी छाप तो उनके ' मन ' पर पड़ ही रही है, वे इन भावों को ग्रहण भी कर रहे हैं.
किन्तु आज हमलोगों के समाज की जो अवस्था है, मन की ही धून पर नाचते-नाचते, हमलोगों ने समाज को जिस निम्न स्तर पर ला खड़ा किया है, और दिनोदिन उसे और भी नीचे ले जाने का विविध उपायों को सर्व-सुलभ बनाते जा रहे हैं, क्या हम कल्पना भी कर सकते है की यदि शीघ्रातिशीघ्र इस में परिवर्तन लाने का प्रयास नहीं किया गया तो समाज किस निम्नतर स्तर तक गिर सकता है ?
समाचार पत्रों में, रेडिओ -टीवी में अनेकों तरह की अच्छी अच्छी चीजें आती रहतीं है, किन्तु उनके साथ मन को नीचे गिराने वाली चीजें भी आ जातीं हैं. तो जैसा कि एक कहावत है न, बाल्टी भर दूध में यदि एक भी बून्द चूना डाल दिया जाया तो सारा दूध फट जाता है. उसी तरह अनेकों अच्छी चीजें हो रहीं हैं, कितु उसके साथ थोड़ा चूना भी मिला रहता है. चरित्र जिससे निम्नगति को प्राप्त हो, अधोमुखी हो जाये बहुत बड़े पैमाने पर इसकी व्यवस्था देखी जा सकती है. ऐसी विषम परिस्थिति में भी यदि दो-चार लोगों को भी बचा लिया जाये तो कितनी बड़ी बात होगी ! ऐसा होने से ही तो भारतवर्ष बच सकता है.
एवं यही भाव धीरे धीरे यदि अन्य स्थानों में भी पहुँच जाये, जहाँ भी जायेगा उस स्थान का मंगल होगा. जिस स्थान पर भी ठाकुर, माँ स्वामीजी का भाव जायेगा, वहीं का मंगल होगा. क्योंकि ठाकुर माँ स्वामीजी के भाव के भीतर, उनके जीवन और संदेष के भीतर जितने भी उच्चतम भाव हैं, जितने भी आध्यात्मिक और चरम उपलब्धि के जो विषय के जितने सारी वस्तुएँ इन त्रिदेवों से प्राप्त हो सकती हैं, पहले ही पहल प्रारंभिक अवस्था में ही वो सब सबों के लिये नहीं हैं. इसीलिये एक कहावत है- " जार पेटे जा सय "!
-" अर्थात जिसके पेट में जो पच सकने लायक हो वैसा ही भोजन उसे दो !"
इसीलिये आज यदि सभी युवाओं को बैठा कर (पात्रता का विचार किये बिना) यह कहा जाय कि, " तुम सभी लोगों को ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना होगा"- तो इससे कुछ बहुत अधिक लाभ नहीं होगा. य़ा यदि इस तरह कहा जाय कि, 'आज तुम लोगों को ध्यान करना सीखा देता हूँ , तुमलोगों को ध्यान करने की शिक्षा दे रहा हूँ, देखो तुमलोग इस तरह बैठ कर ध्यान करना ' - और बस उनलोगों का ध्यान हो जायेगा. ध्यान, इतना सहज नहीं है.
बहुत वर्ष पहले एक बार किसी आश्रम में ठाकुर का जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में गया था. वहाँ पर एक लाइब्रेरी कक्ष में एक चौकी पर बिछौना बिछा कर मेरे ठहरने की व्यवस्था की गयी थी. जो सज्जन ठहरने की व्यवस्था किये थे, वे आकर बोले- इस लाइब्रेरी की सभी अलमारियाँ मैंने खोल दी हैं, जिस पुस्तक को भी पढने की ईच्छा हो आप पढ़ सकते हैं. मैं मन ही मन सोंचा, मैं इस कमरे में रहूँगा ही कितनी देर, और इतनीं सारी आलमारियों में बन्द इन पुस्कों को खोल कर पढने का समय कहाँ है?
इसी बीच हमलोगों ( के महामण्डल ) का ही एक लड़का वहाँ आया और ' प्रबुद्ध भारत '(पत्रिका ) की अनेकों प्रतियों को वहाँ रख गया, कम से कम १४-१५ अंक तो अवश्य ही रहे होंगे. मैंने कहा, इन सब का क्या होगा ? ' मैंने सोंचा, शायद आप इनको पढना पसन्द करेंगे.' मैंने कहा- " मैं तो यहाँ यह सब पढने के लिये नहीं आया हूँ. एक लाइब्रेरी कक्ष में मुझे ठहरा दिया गया है, किन्तु मैं यहाँ पढाई लिखाई करने के लिये तो नहीं आया हूँ. सम्भव हुआ तो दोपहर में थोड़ा आराम करूँगा, य़ा रात्रि में सोऊंगा. "
फिर मन में विचार आया, इतना आयोजन कर दिया है एक भी अंक को हाथ में नहीं लूँगा ? यही सोंच कर उतने सारे ' प्रनुद्ध भारत ' में से जो अंक सबसे ऊपर रखा था, उसी को खोल कर देखने लगा, बहुत पुराना अंक था. इधर उधर के पन्नों को उलटने पलटने के बाद एक लेख पर दृष्टि पड़ी. किसी अमेरिकन द्वारा लिखा हुआ प्रबन्ध था. वे बाद में रामकृष्ण मठ मिशन में सन्यासी हुए थे. उस प्रबन्ध के ऊपर में उसके लेखक का एक परिचय भी छपा हुआ था, उसमे कहा गया था की वे एक अमेरिकन थे जिन्होंने सबकुछ छोड़ मठ में अपना योगदान दिया था.वे एक बार बेलुड़ मठ आये थे.
उनके वहाँ प्रवास करने के बीच में ही माँ की जन्मतिथी पड़ी थी. वे अमेरिका से आये थे, इसलिए उस अवसर पर वहाँ जो सम्मलेन हो रहा था, उसमे कुछ बोलने के लिये अन्य सन्यासियों ने उनसे भी अनुरोध किया. तब उन्होंने कहा - ' नहीं नहीं माँ के सम्बन्ध में मेरे द्वारा कुछ भी कहना सम्भव नहीं होगा, मैं बिल्कुल नहीं बोल पाउँगा. ' तब उनसे कहा गया, आप जो भी कहना चाहते हों वही कहिये. उस समय बेलुड मठ की उस सभा में माँ की जन्मतिथि पर खड़े होकर जो कुछ कहा था, उनका वही भाषण, 'प्रबुद्ध भारत ' में छपा था. उसको पढ़ कर देखा. मुझे तो वह प्रबन्ध बहुत उपयोगी प्रतीत हुआ.
हमलोग अक्सर कहते हैं- ' अमुक ' जगह पर जाने से ' यह ' सीखा जा सकता है, उस जगह पर जाने से ' ध्यान ' सीखा जा सकता है, अमुक जगह पर जाने से ही यह हो जाता है, वैसा होता है, वह हो जाता है; आदि आदि. वे कहते हैं, " मैं माँ के सम्बन्ध में कह नहीं पाउँगा, पर यदि आप मुझसे मेरे जीवन के अनुभव के बारे में कुछ सुनना चाहें तो मैं अपने अनुभव आपके साथ शेयर कर सकता हूँ. मैं अमेरिका के अमुक स्थान में रहता था, वहाँ जिस सड़क से होकर मुझे आना जाना पड़ता था, उसी सड़क पर रामकृष्ण मिशन का एक केन्द्र है. अक्सर उसके साईन बोर्ड पर मेरी दिर्ष्टि पड़ जाती थी. उसको देखते देखते एक बार मन में विचार उठा कि देखने से तो यह कोई भारतीय लोगों कि संस्था प्रतीत होती है, क्यों नहीं एक बार इसके भीतर चल कर देखा जाय कि इसमें क्या होता है?
भीतर चला गया. जाकर देखता हूँ कि कुछ लोग बेंच-कुर्सी पर बैठे हुए थे और एक गेरुआ धारी वृद्ध सन्यासी, जिनकी उम्र बहुत अधिक हो चुकी थी, वे उनलोगों से कुछ कह रहे थे. मैं भी पीछ की खाली कुर्सी पर जाकर बैठ गया. बैठे बैठे सुनने लगा. सुनने से, उनकी बातें बड़ी भली लगीं. वे ध्यान के सम्बन्ध में कह रहे थे. ध्यान के विषय में सुनने से मुझे अच्छा लगा. तब मैंने सोचा बीच बीच में मुझे यहाँ आना चाहिये. फिर पता लगा कर वे सप्ताह के जिन दो दिनों में अपना प्रवचन देते हैं, उन्ही दिनों में वहाँ गया. कुछ दिनों तक उनको सुनने के बाद मन में विचार उठा, उनके साथ थोड़ा परिचय किया जाय. उनसे मिलकर उनके साथ जान पहचान किया. परिचय होने के बाद उनसे कहा कि आपका प्रवचन मुझे बहुत अच्छा लगता है. मैं तो इसी रास्ते से अनेक दिनों से आया जाया करता था, कभी भीतर नहीं आया था.प्रथम दिन आया तब आपका प्रवचन सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा, इसीलिये लगातार कुछ दिनों तक सुना हूँ. किन्तु सुनने के बाद मुझे महसूस हो रहा है कि, केवल सुनलेने से क्या होगा ? यदि मैं स्वयं इसे नहीं कर सका.
केवल ध्यान पर प्रवचन सुनकर क्या लाभ यदि मैं खुद ध्यान नहीं कर पाया. आपने एकदिन यह बतलाया था कि ' ध्यान ' करने में सफल हो जाने से क्या होता है, मुझे तो वह सुनकर बहुत अच्छा लगा था. यदि यह (परमानन्द) पाया जा सकता है, तब तो करना उचित है. क्या आप मुझे ध्यान सिखाइएगा? उन्होंने प्रश्न किया, " तुम ध्यान (Meditation) क्यों सीखना चाहते हो ?"
" ध्यान करने से जो प्राप्त होता है, ध्यान की जो प्राप्ति है, मैं उसी वस्तु को पाना चाहता हूँ. "
" क्या सचमुच तुम उसे पाना चाहते हो ? "
" हाँ चाहता हूँ| ध्यान की जो अन्तिम प्राप्ति (उपलब्धी, समाधी य़ा आत्मसाक्षात्कार तक) होती है,मैं वहाँ तक जाना चाहता हूँ . "
उन्होंने कहा, " यदि ऐसी बात है, तो तुम अच्छी तरह से सोंच-विचार करके देख लो, सब कुछ भली भाँति देख लेने के बाद, मुझे बताओ. यदि सचमुच चाहते हो तो तुम्हें किन्तु कुछ शर्तें पूरी करनी होंगी." ' क्या हैं वे ? '
" तुमको अपना घर-परिवार छोड़ना होगा, तुमको अपनी नौकरी छोडनी पड़ेगी, तुम्हारे जितने सामान्य तौर से आवश्यक सामग्रियां और कपड़े-लत्ते हैं, केवल उतना ही लेकर आना होगा और यहीं पर वास करना होगा. मैं जिस प्रकार कहूँगा, तुमको सिखाऊंगा, ठीक उसी प्रकार प्रतिदिन अभ्यास करना होगा. अभ्यास करते करते तुम धीरे धीरे इस दिशा में अग्रसर हो सकोगे. " मैं उनके बताये अनुसार सबकुछ किया था. नौकरी छोड़ दिया, घर छोड़ दिया, और परिवार छोड़ कर कुछ सामान्य वस्तुओं को लेकर आया और आश्रम में रहने लगा.
वहाँ रहते हुए सुबह-शाम जिस प्रकार अभ्यास करने को कहे उसी तरह करने लगा. मैं ध्यान का अभ्यास करने लगा. इसी प्रकार अभ्यास करते करते कितने ही वर्ष बीत गये. कुछ वर्ष बीत जाने के बाद एक दिन मैंने उनसे कहा- " महाराज, आपने जैसा करने को कहा था, मैंने तो सब कुछ किया है. किन्तु कहाँ, अभी तक तो कुछ मिला नहीं है. ध्यान तो मेरा अभी तक हो नहीं सका है|"
तब वे सन्यासी बोले- " मैं तो विगत साठ वर्षों से ध्यान कर रहा हूँ. किन्तु इन साठ वर्षों में केवल कुछ ही बार, मानो कुछ सेकेण्ड के लिये ' ध्यान ' किसे कहते हैं, यह समझ सका हूँ. एवं केवल कुछ ही बार, मानो कुछ सेकेण्ड के लिये ही ' ध्यान ' क्या है- इस वस्तु को समझ पाने से जो आनन्द मिला है, उससे यह महसूस हो रहा है कि मेरा मनुष्य योनी में जन्म लेना लगता है, सार्थक हो गया है. यह इतना सहज प्राप्य वस्तु नहीं है. हम सभी लोग ऐसा सोचते हैं- ध्यान कौन सी बड़ी बात है, सीख लेने मात्र से ही होने लगता है |"
इसी लिये महामण्डल में ध्यान सिखाने की व्यवस्था नहीं है. महामण्डल में (ध्यान नहीं), ' मनः संयोग ' सिखाया जाता है. मनः संयोग का अर्थ है ' मन को लगाना '. हमलोग कोई भी कार्य तबतक नहीं कर सकते जबतक उस कार्य में हम मन को नियोजित न कर सकें. जैसे मान लीजिये जो भोजन बना रहे हैं, वे यदि भोजन बनाने में मन न लगायें, तो भोजन अच्छा नहीं बनेगा|
कोई पढ़ाई कर रहे हैं, यदि पढ़ाई में मन नहीं लगायें, तो जिस विषय को पढ़ रहे थे उसको ठीक से सीख नहीं पायेंगे. कोई यदि खेती-बाड़ी कर रहे हों, पर वे यदि खेती-बाड़ी भी मन लगा कर न करें तो अच्छे ढंग से खेती-बाड़ी भी नहीं हो पायेगी. बिजनेस- व्यापार करने जाएँ और उसमे सही ढंग से मन नहीं लगायें, तो बिजनेस-व्यापार भी नहीं होगा. जिस किसी भी कार्य को करना हो, तो उसमे मन को लगाने से ही सारे कार्य होते हैं. हमलोग बाहर में हाथ-पैर य़ा अन्यान्य वस्तुओं के द्वारा कार्य करते हैं. किन्तु मन का दायित्व, मन का कर्तव्य, मन की क्षमता य़ा सामर्थ्य सबसे अधिक होता है.
मन यदि हमारा सहायक नहीं बने, तो अन्य किसी भी इन्द्रियों की सहायता से हम कुछ भी नहीं कर सकते.इसीलिये मन को अपने वश में लाकर उसे अपना सहयोगी मित्र बना लेने की चेष्टा करनी होगी. मन को अपना सहयोगी बनाने का उपाय है, जिसे मन को संयोग करना कहते हैं, मन की इच्छा से नहीं, अपनी ईच्छा से, अपने लिये अत्यन्त उपयोगी समझ कर जो जो कार्य करने जा रहे हों ( जैसे पढ़ाई करना, व्यापार करना, खेती करना, खेलना...आदि आदि) उसमे मन को नियोजित रखना, इसीको मनः संयोग कहते हैं. इसके लिये मन को शान्त करना होगा. मन की जो चंचलता होती है,उसको पहले दूर करना जरुरी हो जाता है, उसको अनेक विषयों में जाने से वापस खींच कर किसी एक ही विषय पर एकाग्र करने की चेष्टा करनी होती है. इस कार्य को केवल बार बार अभ्यास करने से ही सीखा जा सकता है, ' रसरी आवत जात से सील पर पडत निशान '. एवं महामण्डल इन्ही सब चीजों की शिक्षा दी जाती है. उसी प्रकार शरीर को स्वस्थ और निरोग रखने की शिक्षा भी दी जाती है.
( दुनिया के सभी धर्म कहते हैं कि, भगवान, अल्ला य़ा ईश्वर एक ही है, पर आजकल तो ३०-४० लोग अपने को भगवान कहने लगे हैं , उनमे से आधे तो अमेरिका चले गये हैं, कुछ मार-खप गये हैं, फिर भी ३-४ भगवान तो आज भी जीवित होने का दावा करते हैं। साथ ही साथ ध्यान सिखाने का दावा भी करते हैं। - खुशवन्त सिंह पत्रकार) युवक लोग ध्यान किसका करेंगे !आज कल तो बहुत कुछ चल रहा है, हजार हजार लोग एक साथ बैठ कर ध्यान करते हैं. बहुत से लोग ध्यान करना सीख कर एक साथ ध्यान करते हैं.
' ध्यान ' भी क्या इकट्ठे मिलकर किया जाता है ? एक साथ बैठ कर ध्यान नहीं होता है. सामूहिक रूप से बैठ कर ध्यान करना कभी सम्भव नहीं है.
' ध्यान ' भी क्या इकट्ठे मिलकर किया जाता है ? एक साथ बैठ कर ध्यान नहीं होता है. सामूहिक रूप से बैठ कर ध्यान करना कभी सम्भव नहीं है.
काशीपुर उद्यान-बाड़ी में रहते समय एकदिन स्वामी विवेकानन्द और स्वामी अभेदानन्द दोनों आस-पास बैठ कर ध्यान कर रहे थे. किसी प्रकार स्वामीजी का हाथ अभेदानन्द के शरीर से छू गया था,तब ठाकुर ने स्वामीजी को बुलवाकर बहुत डांट लगाई थी-" कि रे,कि करली रे ! ओर गाये हात दिये दिली ? ओर भाव टा नष्ट करे दिली ? " - " क्यों रे, यह तुमने क्या कर डाला ! उसके शरीर पर हाथ रख दिय़ा? उसके भाव को नष्ट कर दिय़ा? "
ध्यान इतना सहज नहीं है. हमलोग ५० व्यक्ति, १०० जन, ५०० जन, एक साथ बैठ कर ध्यान किये- इस प्रकार से ध्यान होता है का मनगढ़ंत किस्सा जो सुनने को राजी है, वह हो जाये राजी.हम उसमे क्या कर सकते हैं ? परन्तु हमलोग इस तरह का बकवास सुनने को तैयार नहीं हैं. इस प्रकार से ध्यान नहीं होता.
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