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सोमवार, 22 नवंबर 2010

'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' के लिए - महामण्डल का साप्ताहिक पाठचक्र -' Study Circles'


(महामण्डल का साप्ताहिक "शैक्षिक-सत्र ")
जिस किसी भी स्थान में महामण्डल का एक केन्द्र होता है, वहाँ पर सप्ताह में कम से कम एक पाठचक्र तो अवश्य ही होता है. भले ही हम इसको एक ' पाठचक्र ' की संज्ञा देते हों, किन्तु यह केवल एक चिन्तन गोष्ठी ही नहीं है;बल्कि यह उन समस्त स्थानीय युवाओं की मिलन-स्थली भी है जो महामण्डल के सिद्धान्तों (चरित्र-निर्माण आन्दोलन के प्रचार प्रसार ) में उत्कट अभिरुचि रखते हैं| क्योंकि इसका मूख्य उद्देश्य केवल पढ़ाकू बनना और बनाना ही नहीं है.
जब वे अनूठे देश-प्रेमी युवा (जो भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में गाल पर तिरंगे का चित्र बनवाने को ही देश भक्ति नहीं समझते ) बल्कि - जो स्वामी विवेकानन्द के भारत पुनर्निर्माण मन्त्र -'तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में साहायता करो'  को ही अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य निर्धारित कर चुके हैं; एक साथ इकट्ठे होते हैं, तो उनको यह अनुभव होता है कि महामण्डल के सिद्धान्तों (Be and Make आदि) को अपने जीवन में धारण करने के अभियान में वे बिल्कुल एकाकी नहीं हैं | 
वे यहाँ आकर अपने जैसे दूसरे युवा भाइयों के साथ मित्रता के इस अनूठे बन्धन को भी ह्रदय से महसूस करते हैं. प्रत्येक सप्ताह यहाँ पहुँच कर वे अपने नेता स्वामी विवेकानन्द के उत्साह-अग्नि से अपने ह्रदय को फिर से चार्ज कर लेते हैं.
महामण्डल वैसे लोगों की संस्था नहीं है- जो सन्यासी बन चुके हों य़ा जिन लोगों ने जगत का परित्याग कर दिया हो;बल्कि यह उन साधारण युवाओं के लिये है जो समाज के अन्य साधारण गृहस्थ लोगों के जैसा ही अपने घर-परिवार के बीच निवास करते हैं.
किन्तु एक अन्तर अवश्य है- वे लोग (अन्य साधारण कैरियरिस्ट युवाओं की तरह केवल अपने ही बारे में नहीं सोंचते बल्कि) मनुष्य-जीवन का अर्थ एवं अपने समाज की ज्वलंत आवश्यकताओं को समझने के लिये प्रयासरत रहते हैं, तथा उसी समझ के आलोक में अपना जीवन गठित करने के लिये कठोर परिश्रम भी करते हैं.
वे लोग भी दूसरे सामान्य युवाओं की तरह ही विद्यालय तथा महाविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करते हैं, तत्पश्चात अपनी जीविका चलाने के लिये किसी न किसी व्यवसाय से जुड़ जाते हैं. बावजूद इसके वे उन साधारण किस्म के युवाओं (जो महामण्डल को नहीं जानते ) की तरह नहीं होते, क्योंकि वे सामान्य कोटि के युवाओं की अपेक्षा कुछ हद तक कठिन जीवन शैली को चुनना पसन्द करते हैं. 
अपने जीवन की - ' प्रत्येक गतिविधि ' में उनको एक आदर्श का अनुसरण करना पड़ता है.अतः स्वाभाविक रूप से उनको ज़माने के प्रवाह के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता है.
इसीलिये उनको अपनी जीवन-यात्रा का प्रारम्भ अपने जीवन लक्ष्य (निशाना)  की स्पष्ट धारणा बनाने के बाद ही करनी चाहिये. भारत के पुनर्निर्माण के लिये राष्ट्र-व्यापी स्तर पर जैसा युवा-आन्दोलन चलाने का स्वप्न स्वामी विवेकानन्द ने देखा था, उनके उसी सपने को महामण्डल कार्यान्वित करना चाहता है- वही स्वप्न क्रमशः इन युवाओं के मन में भी बस जाना चाहिये.
यह साप्ताहिक पाठचक्र, विवेकानन्द साहित्य के अध्यन एवं बोधगम्य परिचर्चा के माध्यम से उनलोगों में  ऐसे मनोभाव को विकसित करने में सहायता करता है. साप्ताहिक पाठचक्र में क्या अध्यन करना अच्छा रहेगा, इसका चुनाव युवाओं को खुद से करना उतना आसान नहीं भी हो सकता है.इसीलिये महामण्डल पाठचक्र के लिये छोटी छोटी चुनिन्दा पुस्तिकाओं (महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम, एक युवा आन्दोलन, नेतृत्व का अर्थ एवं गुण, जीवन-गठन, चरित्र गठन, मनः संयोग आदि ) से अध्यन करने का परामर्श देता है.
ये पुस्तिकाएँ ही हमारे उद्देश्य तक ले जाने के लिये यथेस्ट हैं. हमलोगों को इन पुस्तिकाओं का गहराई से बार बार अध्यन करना चाहिये, एवं उनके मूल-विषय पर चिन्तन-मनन भी करना चाहिये. इसप्रकार उन सिद्धान्तों को हम समझ जाते हैं, तथा तब हम उनको अपने जीवन में उतार भी सकते हैं. 
इस प्रकार वे समस्त श्रेष्ठ सिद्धान्त जो स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुष (सदगुरु ) के मुख से निःसृत हुई हैं,इन महामण्डल पुस्तिकाओं के माध्यम से  हमारे समक्ष सहज रूप में उपलब्ध हो जातीं हैं.किसी भी महान और कल्याणकारी ज्ञान को तीन चरणों में आत्मसात (य़ा जीवन में धारण किया) जा सकता है।
  पहला है - " श्रवण "(य़ा Study Seriously), 
दूसरा है-   " मनन "(य़ा Think deeply and freely), 
एवं तत्पश्चात " निदिध्यासन " (य़ा Apply - 'put them into practice ') 
केवल साहित्यिक ज्ञान तुमको एक पण्डित तो बना सकता है, किन्तु न तो यह तुम्हारे जीवन को बदल सकता है, और न ही किसी विशिष्ट विषय की स्पष्ट अवधारणा ही प्रदान कर सकता है. यदि हम सभी लोग, खास तौर पर वे जो पाठचक्र का नेतृत्व करना चाहते हैं, यदि स्वयं अपने दैनन्दिन जीवन में स्वामीजी की वाणी को उपरोक्त विधि (तीन चरणों में ) से आत्मसात करने के लिये गंभीरता के साथ प्रयासरत रहते हों,केवल तभी हमारा पाठचक्र पर्याप्त उत्साह एवं जीवन्त अंदाज के साथ जारी रह सकता है.
केवल इतना ही नहीं, हमारे अन्दर विकसित मनुष्योचित गुणों से प्रभावित होकर, तब बहुत से नवागन्तुक भी इस ओर आकर्षित होंगे, उनमे भी यथोचित समझदारी का विकास होगा तथा वे स्वयं भी इस कार्य (मनुष्य-निर्माण आन्दोलन) में योगदान करने के लिये स्वेच्छा से जुट जायेंगे.
पाठचक्र में चलने वाली परिचर्चा इतनी स्पष्ट होनी चाहिये कि वहाँ उपस्थित सारे युवा उसको पकड़ सकें. वहाँ पर जो कोई भी सिद्धान्त/ज्ञान/ य़ा जानकारी युवाओं के समक्ष प्रस्तुत किये जाएँ, उनका स्तर आवश्यकता से अधिक ऊँचा य़ा उनके जगत से बहुत ज्यादा अलग हट कर नहीं होना चाहिये. जो युवा पाठचक्र में आ रहे हैं, उनको यहाँ प्राप्त होने वाली नई नई जानकारियाँ इस ढंग से दी जानी चाहिये कि को वे इन नवीन विचारों ( 'मन', 'विवेक', 'श्रद्धा',अथवा अन्तर्यामी " सत्ता " सम्बन्धित ज्ञान) को अपने जीवन के अनुभवों के साथ सम्बद्ध करके समझने में सक्षम हो सकें. 
हम जानते हैं कि किसी विषय का तजुर्बा करके जो ज्ञान होता है- वही सर्वोत्तम शिक्षक है.
( Experience is the great teacher). जब वे लोग यहाँ से सीखे हुए नई नई जानकारियों (सिद्धान्तों) को प्रयोग में लायेंगे, उनको नये नये अनुभव प्राप्त होने लगेंगे;तथा वे स्वयं ही इन सिद्धान्तों कि सच्चाई के कायल हो जायेंगे. 
हमलोगों को यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि हमलोगों का सारा फोकस (मूख्य-मुद्दा)- अपने सामान्य व्यवसाय,य़ा घर-परिवार का त्याग किये बिना,अपना सारा ध्यान अपने व्यवहारिक जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने पर ही केन्द्रित रखना है. समाज को आज इसी बात की आवश्यकता है, क्योंकि ज्ञान के साथ जीवन में व्यवहारिक तालमेल ही, हमें यथार्थ मनुष्य में परिणत कर देता है. 
हमें अपने सभी सदस्यों को,घर से ही अध्यन करके आने के लिये एवं परिचर्चा में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये. हमें अपने किसी भी सदस्य के विचारों की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, बल्कि उनके समझ को बहुत ही दोस्ताना तथा सकारात्मक ढंग से क्रमशः बेहतर य़ा उत्कृष्ट बनाने का प्रयास करना चाहिये. तुम यह कभी मत भूलो कि तुम कोई ' गुरु '- नहीं हो, पाठचक्र/परिचर्चा में ' गुरु-गिरी ' करने के लिये नहीं आये हो, बल्कि तुम भी वैसे ही एक ' विद्यार्थी ' हो जैसा कोई अन्य सहभागी है.
हमारे पाठचक्र में कोई- ' सदन के नेता ' य़ा " Leader of the House " की अवधारणा नहीं है. इसीलिये पाठचक्र में किसी भी योजना का अनुशरण तो पूरी ईमानदारी के साथ करना चाहिये, किन्तु जबरन थोपे गये अनुशासन की अधिक मात्रा देकर इसे एक यांत्रिक (मशीनी) समारोह में परिणत करने से भी बचना चाहिये.नवयुवकों को ताजगी और उत्साह से भरपूर एक खिले हुए पुष्प के जैसा ह्रदय को लेकर ही अपने 'युवा नेता' विवेकानन्द के समक्ष आने एवं उनके ह्रदय के निष्काम प्रेम के स्पर्श के स्पन्दन को महसूस करने के लिये भी अनुप्रेरित करना चाहिये.
जो लोग 'शैक्षिक सत्र ' को सन्चालित करते हैं,उन्हें महामण्डल पुस्तिकाओं का गहन अध्यन न केवल इसके अभिनव विचारों को आत्मसात करने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर करना चाहिये, वरण युवा मन के समीप पहुँचने के लिये महामण्डल के अनूठे पद्धति का भी अनुसरण करना चाहिये. हमें उनलोगों से उसी भाषा में बात करनी चाहिये जिसे वे आसानी से समझ सकते हों.' धर्म ', 'आध्यात्मिकता', 'योग','भक्ति','अद्वैत वेदान्त ' जैसे कठिन -कठिन शब्दों का अत्यधिक प्रयोग करके नवयुवकों के मन को बोझिल करने से कोई विशेष लाभ नहीं होता है.
 क्योंकि अक्सर इन सभी शब्दों का अर्थ समाज में कुछ का कुछ निकाल लिया जाता है, इसीलिये ऐसे युवाओं की संख्या बहुत ज्यादा है, जो इन बातों में तनिक भी दिलचस्पी नहीं रख सकते हैं. इनमे से कोई भी शब्द - ' यह य़ा वह ' उनकी आसन्न जरूरतें भी नहीं हैं. स्वामीजी ने एक पत्र में अपने कुछ युवा मित्रों को सम्बोधित करते हुए लिखा था- 
" Be moral , Be brave - keep your heart completely pure . 
Be strictly moral, brave unto desperation. Do not bother  
your heads with religious theories. " 
- " मेरे युवा मित्रों, तुम वीर (बहादुर और निडर ) बनो, 
नीति-परायण बनो, 
अपने ह्रदय को संपूर्णतः पवित्र रखने के लिये पाँच सदाचार 
(सत्य,अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय, अपरिग्रह यम-नियम आदि) 
का पालन पूरी कठोरता के साथ करो,
(यदि इस काम में कभी नैराश्य आ जाय तो- इस) 
नैराश्य का सामना पूरी निडरता के साथ करो. 
तथा अन्य प्रकार धार्मिक सिद्धान्तों (मतवादों) से -
              अपने मन को बिल्कुल ही व्याकुल य़ा परेशान मत होने दो!  "  
हमें इसी पत्र की भावना को ध्यान में रखते हुए ' शैक्षिक सत्र ' का सञ्चालन करना चाहिये.आज के युवाओं में सही दृष्टिकोण को क्रमशः विकसित होने दो. नवागन्तुक भाइयों को तुम अपनी सनक य़ा धुन दिखला कर उसको डराने य़ा चौंका देने की चेष्टा मत करो. उनलोगों की जरूरतें, योग्यता (पात्रता), और अभिरुचियों को समझने की चेष्टा करो. 
उनलोगों को पहले यह समझने दो कि वे लोग अपने " 3H " (Hand,head और heart ) अर्थात शरीर,मन और ह्रदय को कैसे विकसित कर सकते हैं. उनलोगों को मनुष्य जीवन के उद्देश्य को जानने वाला - ' एक सिद्धान्ती और (निडर) आत्मविश्वासी ' पूरी तरह से एक नीतिपरायण एवं चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करो. उनलोगों को अपने देशवासियों की अकथनीय, दारुण दुर्दशा को समझ कर, उसे दूर करने के उपाय, ' त्याग और सेवा ' के प्रति समर्पित कार्यकर्ता बनने के लिये अपने जीवन से अनुप्रेरित करो.
इस प्रकार की प्रचेष्टा के द्वारा स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में युवाओं का एक ऐसा राष्ट्रव्यापी बलिदानी-जत्था निर्मित हो जायेगा- जो भारत में आमूलचूल परिवर्तन ला देगा, जिसके आविर्भूत होने की भविष्यवाणी स्वामीजी ने स्वयं की थी. किन्तु जो अभी तक साकार रूप नहीं ले सका है.
(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की द्विभाषी सम्वाद पत्रिका " Vivek-Jivan" के नवम्बर २०१० में अंग्रेजी में प्रकाशित सम्पादकीय का हिन्दी संस्करण.)  

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