बुधवार, 23 जनवरी 2013

'मन ही सबकुछ है' [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [66- 51 A] (8.मनुष्य का मन),

हमारे दो जगत हैं - आंतरिक जगत एवं  बाह्य जगत। बाह्य जगत स्थूल होने के कारण दीखता है, किन्तु भीतरी जगत सूक्ष्म है, वह इन्द्रियों से नहीं दीखता किन्तु उसका अनुभव किया किया जा सकता है। सभी ज्ञानी कहते हैं, जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसने सम्पूर्ण सृष्टि (अन्तः प्रकृति और वाह्य प्रकृति दोनों) को ही जीत लिया है। कोई भी कार्य करना हो, या ज्ञान अर्जित करना हो --सब कुछ मन से ही होता है। मन ही करने वाला है।
विज्ञान में हम पढ़ते हैं कि पदार्थ (सृष्ट वस्तु) की तीन अवस्थाएं हैं-Solid-Liquid-Gas, या ठोस,तरल और गैस। गैस या हवा को हम देख नहीं सकते हैं, किन्तु अनुभव कर सकते हैं। उसकी क्रियाओं को देखकर हम समझ सकते हैं,या अनुभव कर सकते हैं, कि हवा बह रही है। उसी प्रकार हमारा मन भी सूक्ष्म वस्तु है, उसे हम देख नहीं सकते किन्तु उसका अनुभव कर सकते हैं।इस बात से तो कोई इनकार नहीं करता कि हमारा मन है। अनुभव कैसे होता है ? अनुभूति हृदय में होती है; हमसे जब कोई भूल हो जाती है तो हमारा दिल धक-धक करने लगता है।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव या Components हैं, शरीर-मन-हृदय इसको वे '3H ' (Hand-Head-Heart), 'शारीरिक-बल, बुद्धि-बल और आत्म-बल ' तीनों शक्तियों का  'विकास और प्रकाश' के लिये प्रशिक्षण देने को ही वे शिक्षा कहते थे। स्वामी विवेकानन्द सूक्ष्म जगत का अनुसन्धान करने के लिये एकाग्रता सीखने को ही शिक्षा का मुख्य अंग बनाना चाहते थे। न्यूटन ने सेव के नीचे गिरने की क्रिया पर मन को एकाग्र करके ही 'गुरुत्वाकर्षण के नियम ' का आविष्कार किया था।
जिन लोगों का मन हमेशा बहिर्मुखी रहता है, वे सृष्टि की विभिन्नता में एकता को नहीं देख सकते हैं। इसीलिये मन को अन्तर्मुखी बनाकर, एकाग्रता का अभ्यास करके जिन लोगों ने अन्तः-प्रकृति या भीतर जगत का साक्षात्कार नहीं किया है वे बाहर में लडे़ंगे, दूसरों से लडेंगे, हिंसा फैलाएंगे। जिन लोगों को आंतरिक जगत का भान होने लगा है, वे युद्ध तो लडेंगे पर यह युद्ध अपनी ही दुर्बलताओं से होगा। यह युद्ध होगा - काम, क्रोध, लोभ, मात्सर्य आदि दुष्प्रवृत्तियों से। यह युद्ध होगा अपने मन के साथ, अपनी बुद्धि एवं अहंकार के साथ। इस आंतरिक युद्ध में विजय वास्तव में विश्व विजय है। हमारे शास्त्र कहते हैं ‘मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः।' हमारे बंधन एवं मुक्ति का कारण हमारा यह मन ही है। इस मन ने ही हमें दुःखों से बांध रखा है। यह मन ही हमें सब दुःखों से मुक्ति दिला सकता है। मन पर जीत हमारी अंतिम जीत है।

मन का विश्लेषण : यही हमारा अंतःकरण है। मन एक कर्मचारी है, करने वाला मन है, हमलोग (आत्मा) इसके स्वामी हैं; और इसका काम है स्वामी के निर्देशों का पालन करना। मन न अच्छा करता है और न बुरा। अच्छे या बुरे का सारा दायित्व स्वामी का होता है। मन तो चित्त (हृदय में बैठे मूढ़ अहंकार या आलोकित ठाकुर-विवेक) के निर्देश का पालन करता है। मन (अन्तःकरण) की चार परतें हैं- चित्त,मन, बुद्धि एवं अहंकार। चित्त मन वस्तु को कहते हैं, अर्थात जिससे मन बना है। चित्त जन्म-जन्मान्तर में भोगे गये अनुभवों का भण्डार घर है। हमलोग जो कुछ भी कार्य करते हैं, उसकी एक कार्बन कॉपी, एक छाप चित्त में संचित हो जाता है।  चित्त की तुलना शान्त सरोवर से की गयी है। उसमें विषयों का ढेला पड़ने से वह तरंगायित होने लगता है, और मन बन जाता है। मन का कार्य है - संकल्प-विकल्प करना, संशय करना, या क्या है, क्या है, करना। मन का कार्य है - स्मृति और चिंतन। मन तीन कालों में बंटा हुआ है। जो अतीत की स्मृति करता है। भविष्य की कल्पना करता है और जो वर्तमान का चिंतन करता है उसका नाम है-मन।] स्वामीजी कहते थे- " या मतिः सगातिर्भवेत; You become what you think."
- जिसकी जैसी मति उसकी वैसी गति होती है। जिसकी मति मन या प्रवृत्ति या प्रबल-इच्छा) जैसी होती है, उसकी वैसी गति होती है। भावों की प्रबलता का नाम ही इच्छा शक्ति है। भावों को इच्छा शक्ति के रूप में बदलने का साधन है- स्व-परामर्श या  (Auto Suggestion) इस प्रक्रिया में व्यक्ति सदैव यह चिंतन करता रहता है- में इन्द्रियां नहीं हूं, में मन नहीं हूं, में क्रोध नहीं हूं, में लोभ या मान नहीं हूं। नेति-नेति करते चले जाएं। नेति-नेति करते-करते शेष रहेगा-केवल चैतन्य। में चैतन्य हूं, केवल चैतन्य हूं और कुछ नहीं।
मन मनुष्य का मित्र हो सकता है, फिर मन ही उसका शत्रु भी हो सकता है। जो व्यक्ति मन का प्रभु बन जाता है, मन उसका मित्र बन जाता है, उसका दास बन जाता है; किन्तु जो (कच्चा मैं ) मन का दास बना रहता है, मन उसके साथ शत्रुता कर सकता है। अष्टावक्र संहिता में कहा गया है -

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि। 
किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥१-११॥
स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है ।।११।।
 माँ सारदा कहती थीं न, 'मन ही बंधन में पड़ता है, मन ही मुक्त होता है।'  (आत्मा तो नित्य मुक्त है!) मन ही मनुष्य के बंधन में रहने का कारण है, फिर मन ही उसके मोक्ष या मुक्ति कारण भी है। गीता ६. ५ में कहा गया है-

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । 
आत्मैव ह्रात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ।।गीता 6/5।।

मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध पतन नहीं करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।। मनुष्य आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है। अब उसी को स्पष्ट करने के लिये बतलाते हैं कि अनासक्त मन सच्चे मित्र की तरह मनुष्य का हित करता है, वहीं आसक्त मन मनुष्य का शत्रु बन कर उसे बंधन में डाल देता है। दुःख का कारण बन जाता है। इसीलिये भगवान उपदेश देते हैं कि विवेकयुक्त मन की सहायता से अपने द्वारा अपना उद्धार करे और कभी अपने मन को अवसादग्रस्त या अधोगामी न होने दे। पातंजल योगसूत्र के भाष्य में व्यासदेव ने 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१. १२॥' अथासां निरोधे क उपाय इति । सूत्र की व्याख्या करते हुए मन के विषय बहुत सुन्दर वर्णन किया है।
चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय वहति पापय च ।
 या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा ।
 संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा । 
तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन 
विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत इत्युभयाघीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१२॥

मन नदी की तेज प्रवाह की मानो दो मुख्य धारायें हैं। एक धारा मनुष्य को कल्याण की ओर ले जाती है। और दूसरी धारा पाप की ओर ले जाती है। जो धारा कैवल्य या परम कल्याण की ओर ले जाती है उस धारा की तली विवेक के फर्श से जुड़ी हुई होती है। और जो प्रवाह संसार की ओर बंधन की ओर ले जाता है उसकी तली अविवेक से भरी हुई होती है। इसीलिये इस प्रवाह को वैराज्ञ या आसक्ति-त्याग रूपी फाटक से बन्द कर देने की जरूरत है। एवं सतत-जाग्रत विवेक-दृष्टि की सहायता से मन को निरन्तर कल्याण-मुखी धारा में प्रवाहित रखना उचित है। ऐसा होने से ही मन की अनिष्टकारी प्रवृत्ति संयत हो जाती है।
 [ एक बार मनः संयोग के क्लास में दादा ने कहा था, शायद व्यासदेव जानते थे कि भविष्य में विवेकननन्द आयेंगे और " विवेकदर्शनाभ्यासेन " उनके उपर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से हमलोगों की विवेक-दृष्टि 'विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत' उद्घाटित हो जाएगी। तब हमारा मन अवसादग्रस्त नहीं होगा और निम्नगामी भी नहीं होगा, उसका प्रवाह उत्तरायण बन रहेगा जैसे कि वाराणसी में गंगाजी उत्तरायण बहती है।]
श्रीरामकृष्ण देव कहते थे, " सब कुछ मन पर ही निर्भर करता है। मन धोबी के घर का कपड़ा है, वह उसे जिस रंग में रंगेगा, उसी रंग में रंग जायेगा। कोई मन से ही ज्ञानी (अपने स्वरुप के प्रति जाग्रत ) और कोई मन से ही अचेत रहता है। जब हम कहते हैं, अमुक व्यक्ति खराब बन गया है, तब उसका अर्थ होता है, अमुक व्यक्ति के मन पर खराब रंग चढ़ गया है। " महाभारत विदुर नीति (उद्योगपर्व) में कहा गया है -मन,वचन, कर्म से जिस विषय में व्यस्त रहोगे, वह विषय तुम्हारे मन हरण कर लेगा, अर्थात प्रभावित करेगा। इसलिये जो कल्याणकारी कार्य हों, उसी के साथ युक्त रहना उचित है। महाभारत में ही कहा गया है-

अविजित्य य आत्मानममात्यान्विजिगीषते।
अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते।।५४।।
आत्मानमेव प्रथमं देशरूपेण यो जयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते।।५५।।

-जो राजा अपने मन को जीते बिना (अविजित्य) ( अमात्यान् ) मन्त्रियों को (विजिगीषते) जीतना चाहता है, अथवा (अजितामात्यः) मन्त्रियों को वश में कीये बिना (अमित्रान्) शत्रुओं को जीतना चाहता है, ( सः) वैसा (अवशः) अजितेन्द्रिय राजा (परीहीयते) पराजित एवं नष्ट हो जाता है। जो (आत्मानम् एव ) अपने विषयासक्त मन को ही (द्वेष्यरूपेण) शत्रु समझकर (प्रथमं ) सबसे पहले (जयेत्) जीत लेता है, (ततः) तत्पश्चात (अमात्यान्) मन्त्रियों और (अमित्रान्) शत्रुओं को जीतना चाहता है, वह (मोघं) निष्फल (न  विजिगीषते) जय की इच्छा नहीं करता। अर्थात उसे निश्चित विजयश्री प्राप्त होती है।
भावार्थ- जो राजा (नेता ) अपने चंचल मन को वशीभूत किये बिना अपने मन्त्रियों को जीतना चाहता है, और मन्त्रियों को जीते बिना शत्रुओं पर विजय पाना चाहता है, वह अजितेन्द्रिय राजा (नेता) निश्चय ही पराजित होता है।
जो राजा अपनी (आत्मा को )अर्थात अवशीभूत मन को सबसे पहला शत्रु समझकर सर्वप्रथम उससे लड़ कर जीत लेता है, तत्पश्चात मन्त्रियों और शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसे अवश्य विजय प्राप्त होती है। इसीलिये कामना-वासना की पूर्ति करने में ही मन की समस्त उर्जा खत्म कर देने से मन को वश में नहीं लाया जा सकता है। विवेक-प्रयोग करके त्याग का भाव ग्रहण करने तथा निरन्तर अभ्यास करने से मन नियन्त्रण में आता है, उसको वशीभूत और शान्त किया जा सकता है। मन के शान्त हो जाने हमलोग यह चिन्तन कर सकते हैं कि जीवन क्या है ? जीवन कैसे सार्थक होता है ? अर्थात जीवन का लक्ष्य क्या है, और उस लक्ष्य को प्राप्त कैसे किया जा सकता है ? किस कार्य में सफलता प्राप्त करने से जीवन सार्थक हो जाता है? मन के साथ अपने को इतना अलग बना लेना होगा कि -"यह मन है, और यह मैं हूँ !"
 मन को अपने इसप्रकार अलग मान कर उसे अपना दास बन लेना होगा। मैं जो चाहूँगा मन को वही करना होगा। ऐसा हो जाने के बाद जो मन ' आत्मा का दिव्य चक्षु है' या 'मन-दर्पण है ' वह मन - निःसंकोच अपना चेहरा मुझे दिखायेगा। हो सकता है, मैं यह देखूं कि मन अच्छे विचार भी हैं, कुछ बुरे विचार भी हैं। फिर हमें विवेक-प्रयोग करना होगा, अर्थात यह विचार करना होगा, कि यदि मैं मन में उठने वाले अच्छे विचारों को पुष्ट करूँगा, तो उसका फल कैसा होगा ? और यदि बुरे विचारों को पुष्ट करूँगा तो उसका परिणाम कैसा होगा ?
 हो सकता कुछ विचार ऐसे भी हो सकते हैं, जिनको पहचाना नहीं जा सके कि वे अच्छे हैं, या बुरे हैं ? हो सकता है, इसमें बुरा क्या है ? ठीक तो है ! अब यह देखना होगा कि जो इच्छा अभी अच्छी लग रही है, उस इच्छा को पूर्ण कर लेने पर उसका परिणाम तुरन्त क्या होगा, और बाद में क्या होगा ?
तीन प्रकार के परिणाम हो सकते हैं। पहले पहल तो सुखकर बाद में हानिकारक या बहुत बुरा परिणाम दे सकता है। या जो पहले भी खराब और बाद में भी खराब फल देता है। या ऐसा भी हो सकता है, कि पहले स्वादिष्ट नहीं लगता किन्तु उसका फल बाद में बहुत अच्छा मिलता है। जिसका परिणाम अन्त में सुखद होता है, वैसे ही विचारों को पुष्ट करने की चेष्टा करनी चाहिये। इस प्रकार के चिन्तन को हमलोग विवेक-प्रयोग कहते हैं। मन के भीतर पहले इच्छा का जन्म होता है, फिर उस इच्छा को पूर्ण करने का संकल्प मन में उठता है।फिर संकल्प को हमलोग प्रयत्न के द्वारा कार्य में रूपांतरित कर लेते हैं। इसलिये मन में उठने वाले विचारों एवं इच्छाओं को बहुत सावधानी के साथ विवेक-प्रयोग करके केवल उन्हीं इच्छाओं को प्रश्रय देना उचित होगा जो आपात मधुर फल देने वाले न हो, क्योंकि उसका परिणाम बाद में बुरा भी हो सकता है।
शान्त मन से जीवन क्या है? किस लिये यह मनुष्य शरीर मिला है? मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है?  जीवन सार्थक कैसे होता है? इन सब प्रश्नों पर चिन्तन करने से यह स्पष्ट समझ में आ जायेगा कि भोग परायण व्यक्ति का जीवन सार्थक नहीं हो सकता है। दूसरों का हित करने, सहानुभूति रखने, निःस्वार्थ प्रेम करने में ही यथार्थ आनन्द है- जो जीवन को सार्थक बना सकता है। किन्तु इसमें सबसे बड़ी बाधा है, स्वार्थ-केवल अपने भोग-आनंद के खोज में लगे रहना। इसीलिये स्वार्थपरता को कम करना होगा, अपने से अधिक दूसरों की सुख-सुविधा का ध्यान रखना चाहिये। यह सब मन को नियंत्रित रखने से ही संभव हो सकता है। वशीभूत मन के द्वारा हमलोग अपना सर्वाधिक कल्याण कर सकते हैं, जीवन को सार्थक बना सकते हैं। इसी को कहते हैं-अपने द्वारा अपना उद्धार करना।
कामना-वासना का अधिक्य, अधिक भोग करने की इच्छा, स्वार्थपरता आदि दुर्गुण जिस प्रकार जीवन को सार्थक करने बाधक हैं, उसी प्रकार कुछ अन्य विचार भी हैं जो जीवन को संकुचित कर देते हैं, सार्थक नहीं होने देते हैं। जैसे किसी के प्रति बदले की भावना, वैरभाव, ईर्ष्या हिंसा का विचार आदि। क्योंकि ये सभी भाव प्रेम, सहानुभूति, परोपकार की इच्छा के विपरीत भाव हैं। ऐसे भाव जीवन के लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होने में बाधक, हृदय के विकास या विस्तृत होने में प्रतिबन्धक हैं। इसीलिये इन सब भावों को मन में प्रविष्ट होने का अवसर भी नहीं देना चाहिये। 

अपने मनोभावों का विश्लेष्ण करने पर हम पाएंगे कि हमलोग अपनी कामनाओं को संतुष्ट करने के लिये विषय-भोगो में मत्त रहना चाहते हैं, इसीलिये अभी हम जिसको अपना स्वार्थ समझ रहे हैं, उसमें जो विघ्न उत्पन्न करे, उसके प्रति अपने मन में हिंसा, शत्रुता, ईर्ष्या पालने लगते हैं। और ऐसा करके दूसरों की क्षति कर सकें या नहीं, अपना सबसे अधिक नुकसान तो कर ही लेते हैं। क्रोध करने से भी ठीक वही होता है, दूसरों को क्षति पहुँचाने से अपना ही नुकसान अधिक होता है। इसीलिये यदि निरंतर विवेक-दर्शन का अभ्यास कर के विवेकवान होकर यदि बुद्धि को सद्बुद्धि में परिणत कर सकें तो हम अपने जीवन किगती को लक्ष्य की ओर, सार्थकता की दिशा में, यथार्थ आनंद प्राप्त करने की दिशा में ले जा सकते हैं। हमलोगों की भावना जैसी होगी, अर्थात जिस प्रकार की वस्तु या भाव में हम अपने मन को रखेंगे, हमलोगों की सिद्धि या लाभ भी वैसी ही होगी। कहा गया है -
मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ । 
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥

अर्थात तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, दवा तथा गुरू में जिस प्रकार की जिसकी भावना या 'श्रद्धा'  होती है, उसके अनुसार ही उसे सिद्धि प्राप्त होती है। किसी आदर्श के उपर यदि हम अपने मन को पुर्णतः नियोजित कर सकें तो उस आदर्श में निहित समस्त भाव हमारे अपने हो जाते हैं। यदि किसी आदर्श में मन को पूर्णतया एकाग्र कर सकें तो हम 'तदाकाराकारित' हो जाते हैं, या उस आदर्श के साथ मिलकर एकाकार हो सकते हैं।
 श्रीरामकृष्ण देव कहते थे न " सुना नहीं ? भौंरे की चिन्ता करते करते झींगुर भौंरा ही बन जाता है? वह अनुभव कैसा होता है जानते हो ? मानो हण्डी की मछली को गंगा में छोड़ दिया हो।"(सविकल्प)
[अमृत - क्या जरा भी अहंकार नहीं रह जाता ? श्रीरामकृष्ण - ...'मैं' और 'तुम ' इन दोनों के रहने ही से स्वाद मिलता है।कभी कभी इस 'अहं' को भी वे मिटा देते हैं।  ...तब क्या अवस्था होती है, यह कहा नहीं जा सकता ! नमक का पुतला समुद्र नापने गया था। ज्योंही समुद्र में उतरा कि गल गया। ' तदाकाराकारित  ' हो गया ! अब लौटकर कौन बतलाये कि समुद्र कितना गहरा है ! (निर्विकल्प) (29 मार्च 1883 समाधितत्व-सविकल्प और निर्विकल्प ]"
स्मृति एक चंचलता है, कल्पना एक चंचलता है और चिंतन एक चंचलता है। मन का कार्य है - स्मृतियों को सतत बदलते रहना। वह एक स्मृति पर नहीं टिकता। किसी स्मृति पर लंबे समय तक टिके रहने से अपने आप ही विस्मृति आ जाती है। जब स्मृति, कल्पना एवं चिंतन नहीं होते, तब मन भी नहीं होता। बुद्धि एवम् अहंकार का स्वरूप समझ में आने लगता है। स्वामीजी की छवि के समक्ष बैठकर दीर्घ समय तक केवल स्वामीजी का स्मरण करते रहने से मन पूर्ण विस्मृति में अर्थात शून्य में चला जाता हैं। स्मृति की शून्यता, कल्पना एवं विचार की शून्यता है। मन को एकाग्र तो किया जा सकता है, किन्तु स्थिर करने की बात केवल एक भ्रान्ति है। मन को मिटाना आवश्यक है। मन के मरने के बाद भी अहंकार जिंदा रहता है। अहंकार समाप्त होने के साथ ही शरीर भी गिर जाता है, पर वह स्थिति पूर्ण ज्ञान की स्थिति होती है।]
आचार्य शंकर ने (अपरोक्षानुभूति में) भी कहा है-

 भावितं तीव्रवेगेन यद्वस्तु निश्चयात्मना |
       पुमांस्तद्धि भवेच्छीघ्रं ज्ञेयं भ्रमरकीटवत् ||१४०||

दृढ विश्वास के साथ तीव्र वेग से मनुष्य जिस वस्तु के बारे चिन्तन करने पर अपने मन को एकाग्र कर लेता है, वह शीघ्र ही उस वस्तु में परिणत हो जाता है,जैसेझींगुर भ्रमर में परिणत हो जाता है।भारत में एक किम्वदंती प्रचलित है कि भौंरा किसी विशेष कीड़े (झींगुर) को पकड कर अपने घर में ले आता है, और उसे बंद करके बहुत पिटाई करता है। फिर दरवाजा बंद करके घर के चारो और गुण-गुण करके चक्कर काटता रहता है। घर में बंद झींगुर डर के मारे तीव्रवेग से भौंरे के बारे में सोचता रहता है, और अंत में स्वयं भौंरा बन जाता है। श्रीमद् भागवत में भी कहा है-
यत्र तत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया,
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् भयाद् वापि याति तत्तत् स्वरूप ताम्।

व्यक्ति अपने सम्पूर्ण मन को स्नेहवश, या शत्रुतावश या भये से जहाँ जहाँ या जिस किसी आदर्श पर एकाग्र किये रहता है, उसका मन वैसा ही आकार धारण कर लेता है, वह उसीको स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इसीलिये आदर्श के चयन में बहुत सतर्क रहना चाहिये। हमारी चेष्टा यह होनी चाहिये कि भय और शत्रुता से नहीं,बल्कि अपने मंगल और सभी मनुष्यों के कल्याण के शुभ संकल्प के साथ अपने आदर्श में हमारा मन निरन्तर नियोजित रहे।
 यह मन ही है जिससे प्रेरित होकर कर्मेन्द्रिय कर्म करने को उद्यत होते हैं । मानवशरीर की सक्रियता के पीछे मन ही कारण है।  चरित्र का निर्माण मन पर नियंत्रण से होता हैं | इसीलिए यजुर्वेद के शिव संकल्प सूत्र
(शुक्लयजुर्वेद, ३४, ३) में प्रार्थना की गयी है कि मेरे मन में केवल शिव-संकल्प ही रहें, अर्थात मेरे मन के सभी संकल्प केवल कल्याणकर हों।
 यस्मान्न ऋते किंच न कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
जिसके अभाव में कोई भी कर्म कर पाना सम्भव नहीं, वह मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे । इस प्रकार किसी शुभ संकल्प से भरे आदर्श पर अपने मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से ही, हम अपने जीवन का अर्थ प्राप्त कर सकते हैं, जीवन को सार्थक कर सकते हैं। मेरा जीवन भी मंगलमय हो सकता है, और वह जीवन देश के कल्याण में व्यतीत हो सकता है। ऐसा करने से जीवन पर किसी नैराश्य की छाया नहीं पड़ेगी।
 किसी असफलता के आघात से दुःख नहीं भोगना होगा। किसी पराजय की ग्लानी से हमारा मन कभी मलीन नहीं होगा। हमारा मन अपने ही अस्तित्व के आलोक, प्रेम के सुगंध,आनन्द के हिल्लोल में जगत को पुलकित कर सकेगा। इसीलिये याद रखना चाहिये कि'मन ही सब कुछ है!' और " मन को पकड़ना मुश्किल तो है, किन्तु नामुमकिन नहीं है !
आसन : ऐसा अभ्यास प्रतिदिन किसी नियत एवं निश्चित समय पर कीजिए।मन को देखने के लिये सावधान होकर बैठना होता है। सावधान होकर बैठने के तरीके को आसन कहते हैं। पद्मासन में बैठना विद्यार्थियों के लिये कठिन है, इसीलिये अर्ध-पद्मासन में बैठने का प्रशिक्षण दिया जाता है। स-अवधान में अवधान का अर्थ होता है (Attention)- सावधान हो जाओ!  अवधान जैसे बाह्य वस्तुओं के साथ होता है। वैसे ही कभी-कभी अपने मूल स्वरूप के प्रति भी होता है। अपने प्रति मन का अवधान होना एक विशेष प्रकार की स्थिति है।मन को जानना एक अर्थ में स्वयं को जाना जाता है। स्वयं को जानने के लिये आँखों को मुन्द कर आसन में बैठना होता है। इसका मतलब है एक कार्य-'मनः संयोग' या एकाग्रता के प्रति दत्त चित्त हो जाओ।  किन्तु मन भी प्रकृति का अंश है, खाली नहीं रहना चाहता। उसको विषयों से खीँच कर लाने के पहले जिस आदर्श पर उसे एकाग्र करना है, उसका चयन पहले से करके, उसकी छवि को अपने सामने रख कर, उसे टकटकी लगा कर देखने के बाद उस छवि को मन में बसा लेने के लिये आँखें को मूंद लिया जाता है।
प्रत्याहार: इस स्थिति में मन के दो भाग हो जाते हैं - एक विश्लेषक दूसरा विश्लेषित। यह विश्लेषक उन अनके खण्डों में से एक है जिनसे मिलकर हम बने हैं। विश्लेषक ही विश्लेषित वस्तु है तथा विश्लेषक व विश्लेषित के बीच अलगाव में ही द्वन्द्व की पूरी प्रकिया मौजूद है। मन तो चंचल है ही, पर साधना की प्रारम्भिक अवस्था में भी मन खूब चंचल हो जाता है। मन की इस स्थिति को चंचलता की स्थिति कहा जाता है। विकल्पों की उपेक्षा - आपके मन में जो विकल्प उठते हैं, उनकी उपेक्षा कीजिए। मन के ढेर सारे प्रश्नों का जवाब मत दीजिए। मन की ढेर सारी समस्याओं का कोई हल मत सुझाइए। ध्यान में आई चंचलता को देखते जाओ। साथ में मिलकर क्रिया न करो। मन को खुला छोड़ दो। थोडी देर की चंचलता के बाद मन अपने आप ठहरने लगेगा। विश्लेषक या द्रष्टा की स्थिति- मन की चंचलता को रोकने की चेष्टा मत  कीजिए। वह जैसे जाता है, उसे देखते रहिए। मन की कल्पना एवं दौड़ के साथ सहकार मत कीजिए, कोई क्रियात्मक सहयोग मन को मत दीजिए। कुछ मिनटों बाद ही आप देखेंगे कि मन के संकल्प-विकल्प कम होने लगे हैं।  

धारणा (Concentration) इसे एकाग्रता भी कहा जाता है। और एक बिन्दु ऐसा आता है कि मन निष्क्रिय हो जाता है। यह तटस्थ अवलोकन की क्रिया है। मन की निष्क्रियता के साथ ही चित्त का अनुभव होने लगता है। हमें महसूस होने लगता है कि बेचारा मन तो निर्दोष है। मन की उछल कूद तो चित्त की शक्ति एवं प्रेरणा से है। यह अवधान से अगली अवस्था है। जहां जिस पदार्थ या अन्तर की किसी विशेष स्थिति में जब मन का अवधान किया जाता है तो विभिन्न दिशाओं में दौड़ने वाले मन को उसी एक बिन्दु पर ठहराया जाता है।
आकृति आलंबन- अपने आराध्य की आकृति का मानसिक चित्र बनाइए या अपने आराध्य के चित्र को कभी खुली आंखों से या कभी बंद आंखों से कल्पना के द्वारा देखते जाइए। जब मन एक ही स्थिति में कई देर ठहरने लगता है, उस स्थिति को धारणा कहते है।
एकाग्रता में मन ध्येय के साथ चिपक जाता है, पर यह चिपकना यंत्रवत होता है। एक ही बिन्दु पर लम्बे समय तक धारणा करते रहने से मन में ठहराव आ जाता है। दर्जी कपडे सीता है या ड्राईवर गाडी चलाता है - दोनों का मन एकाग्र होता है।चंचलता मन की प्रवृत्ति है। मन की तुलना पारे से की जा सकती है। इस चंचलता के कारण मन की शक्ति कमजोर रहती है। सूर्य की बिखरी किरणों में वह शक्ति नहीं होती जो केन्द्रित किरणों में होती है। मन के प्रवाह को भी यदि विभिन्न आलंबनों से हटाकर एक ही आलंबन की ओर प्रवाहित किया जाए तो मन में अकल्पनीय शक्ति आ जाती है। इस अभ्यास के साथ लालच को भी थोड़ा थोड़ा कम करते जाना चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि ' अभ्यास और वैराज्ञ ' से मन को वश में लाया जा सकता है।
प्रचण्ड वैराग्य भाव का विकास- वैराग्य भाव के लिए मृत्यु-दर्शन परम आवश्यक है। सोते, उठते, बैठते यह स्मरण रखना कि - " जो मिट रहा है, उसी को शरीर कहते हैं। " न तो यह शरीर रहेगा, न इन्द्रियां रहेगी और न यह मन रहेगा। सब अनित्य हैं, क्षण भंगुर है। नित्य एवं शाश्वत तो केवल एक आत्मा है। आत्मा ही मेरा मूल स्वरूप है। उस आत्मा को ही मुझे पाना है। ये परिजन, यह सत्ता, संपत्ति, यश-वैभव सब कुछ काल कवलित हो जाएंगे, बचेगा केवल मेरा चैतन्य स्वरूप। वैराग्य-वृत्ति का अर्थ होता है- संसार के प्रति अनासक्ति तथा अपने स्वयं के मूल स्वरूप अर्थात् आत्मा के प्रति अनुराग।
  अपेक्षा है- "दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेवितः।" दीर्घ काल, निरन्तरता एवं श्रद्धा ये तीन आधार हैं हर साधना के। यदि इन तीनों आधारों पर साधना की जाए तो कोई कारण नहीं कि मन नियंत्रण में न आए।]
   
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[विद्यार्थियों के लिये एकाग्रता का अभ्यास करना परम हितकारी है। इससे उनकी एकाग्रता शक्ति बढ़ जाती है। वे चार घंटे की पढाई को एक घंटे में पूरी कर सकते हैं। बाकि बचे समय को अपनी रूचि के अनुसार किसी नयी विधा को सीखने में व्यतीत कर सकते हैं। और अपने युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने अभ्यास करने से मनोविज्ञान के नियम Law of Association या 'साहचर्य का नियम ' के अनुसार उनके सद्गुण छात्रों युवाओं के चरित्र में आने लगते हैं। अनायास उनका चरित्र भी सुन्दर बन जाता है। ऐसे युवा जब पढ़-लिख कर उच्च पद पर जायेंगे तो भ्रष्टाचार स्वतः समाप्त हो जायेगा।
छात्रों-युवाओं को भारत के योग्य नागरिक बनाने के उद्देश्य से ऋषि पतंजली ने योग-सूत्र या अष्टांग-" यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि " की पद्धति का आविष्कार किया था। किन्तु श्रीरामकृष्णदेव ने युवा-आदर्श विवेकानन्द को समाधि में जाने की इच्छा जताने पर उनकी भर्त्सना की थी।इसीलिए महामण्डल में 'ध्यान और समाधि'  का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है।और स्वामीजी ने कहा था कि बिना किसी योग्य गुरु के सानिध्य में प्राणायाम करने से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है, इसीलिये अष्टांग के तीन अंगों- ' प्राणायाम-ध्यान-समाधी ' का प्रशिक्षण  महामण्डल द्वारा नहीं दिया जाता है।
अष्टांग के शेष पाँच अंग 'यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा 'को भी दो भाग में बाँट कर, यम-नियम का पालन आजीवन करना है। बाकी बचे 'योग-सूत्र'-जिनके द्वारा मन पर नियंत्रण किया जा सकता है, 'आसन -प्रत्याहार-धारणा' का अभ्यास दिन में दो बार निश्चित और नियत समय पर करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि चरित्र-वान मनुष्य बनने के लिये आजीवन यम-नियम का अभ्यास करते हुए 'आसन-प्रत्याहार-धारणा' का अभ्यास करना मनःसंयोग या एकाग्रता (Concentration) की साधना की प्रथम सीढ़ी है।]



 










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