मंगलवार, 8 जनवरी 2013

राष्ट्रिय एकता एवं स्वामी विवेकानन्द ('अन्तर्निहित एकात्मता की अनुभूति' - ही 'धर्म' ) [$$@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [60] (9.समाज और सेवा),

हाल के वर्षों में 'राष्ट्रिय एकता' पर बहुत जोर दिया जाने लगा है। इसके पूर्व 'राष्ट्र-चेतना ' या 'राष्ट्रनिर्माण'
जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया जाता था। राष्ट्रिय एकता की भावना को स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य, भारत की सधारण जनता के बहुआयामी विविधताओं में एकत्व की खोज करना है।  इसी प्रयत्न को इस समय ' national unity ' या ' nation building ' के बदले  ' national integration ' या ' राष्ट्रीय एकता ' के नाम से अभिहित किया जाता है ।
संभवतः यह परिवर्तन किसी विशिष्ट उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया गया है। कदाचित पूर्व में प्रयुक्त 

' विविधता में एकता ' जैसे आदर्श वाक्य का प्रभाव उतनी सघनता (compactness) के साथ परिलक्षित नहीं हो रहा था। और हाल के दिनों में ' राष्ट्रिय एकता ' को कमजोर करने वाली अपकेन्द्री विघटनकारी शक्तियों (centrifugal force) के सक्रीय होने के फलस्वरूप अलगाववादी शक्तियाँ समाज पर हावी होने लगीं थीं। यह अलगाववाद देशवासियों के भीतर फूट (division) पैदा करता है, इस आपसी फूट को रोकने के लिये जो चेष्टा की जाती है, उसे ' integrating force ' या एकीकरण की शक्ति कहा जाता है। इसीलिये वर्तमान परिवेश में यह विषय- ' National Integration ' और अधिक महत्वपूर्ण हो उठा है।
पहले यह समझने की चेष्टा करें, कि भारतवर्ष में 'राष्ट्र ' शब्द का प्रयोग की अर्थ में किया जाता है ? प्राचीन भारतवर्ष में पूरा राज्य अनेक छोटे-छोटे प्रांतों में विभक्त होता था , प्रत्येक प्रांत का राज्यपाल एक सैनिक होता था , जिसे महाक्षत्रप कहते थे। यहाँ अब भी भाषा या जाति-प्रजाति के आधार पर गठित छोटे छोटे कई सम्प्रदाय बड़ी आसानी से स्वयं को प्रान्त (nation-state) के रूप स्थापित कर सकते हैं। किन्तु भारतवर्ष की भौगिलिक परिसीमा में कभी केवल ही प्रजाति (race) का निवास-स्थान नहीं रहा है। इस देश में बहुत प्राचीन समय से ही विविध जाति एवं प्रजातियों के समुदाय आपस में मिलजुल कर एक साथ रहते चले आये हैं। जैसे आर्यों की निवास भूमि भारत थी, फिर आर्यों का समुदाय भी कई जातियां में विभक्त था। इसके अतिरिक्त अनेक जातियों और प्रजातियों के लोग सीमा पार से भारत में आते रहे हैं।
 किन्तु, फिर भी उत्तर में हिमालय की बुलंद चोटियाँ,एवं तीन ओर समुद्र से घिरे इस विशाल उपमहाद्वीप (जम्बुद्विपे भारत खण्डे) में देश-विदेशों के साथ समुचित संचार व्यवस्था न होते हुए भी या या बाहय जगत से अपर्याप्त सम्पर्क होने के बावजूद, - विविध भाषाओँ, वेशभूषा, रीती-रिवाज, एवं  अनेकों प्रकार की मुखाकृति और शारीरिक गठन होने के बावजूद, इसी भूखण्ड पर समस्त मानव-जाती के बीच एकत्व की भावना प्रतिष्ठित हुई थी।
इतनी विविधताओं के बीच ऐसा कौन सा रसायन था जिसने भारतीय जनता को एकता-सूत्र में बांधे रखा था?  विभिन्न रंग-रूप और सुगंध के पुषों द्वारा निर्मित किसी माला के जैसा भारत की आम जनता रूपी पुष्पों को गूंथने वाला वह सूत्र क्या था ? वह रसायन,उसका  वह सूत्र ' धर्म 'था। इस ' धर्म ' के बाह्य स्वरूपों में कई प्रकार की विविधताएँ रहीं, किन्तु उसके अंतस्तल में महान एकात्मता का निष्पाप स्वर माधुर्य निरंतर ध्वनित होता रहता था। 'अन्तर्निहित एकात्मता की अनुभूति' - ही वह 'धर्म' था जिसने सम्पूर्ण भारतवर्ष को सहस्त्रों वर्षों से एकता के सूत्र में बांधे रखा था। अन्य कोई भी शक्ति ऐसा करने में सक्षम नहीं थी। क्योंकि उस समय इस विशाल देश में सामाजिक, राजनैतिक या राष्ट्रियता आदि विचारों के आधार पर देश में एकत्व स्थापित करने का अवसर कभी नहीं मिला था। अन्य सभी दृष्टि से सम्पूर्ण देश अनेक प्रकार से विभाजित था।
लेकिन जैसे जैसे इस देश में विदेशी धर्म आते गये, और अपने प्रचार और प्रभाव फैलाने में लग गये, तब इस देश के प्राचीन धर्म के प्रभाव से जो ' राष्ट्रीय एकता ' निर्मित हुई थी, वह शिथिल होती चली गयी। मानवीय एकात्मता का वह सूत्र ही ढीला पड़ने लगा। सामूहिक शक्ति एवं  सामूहिक एकता के ह्रास होने से कमजोर देश को विदेशियों ने गुलाम बना लिया। खोयी हुई शक्ति एवं एकता को पुनः प्राप्त करने के उद्देश्य से अनेक सुझाव दिए गये, कई तरह के प्रयत्न किये जाने लगे। राष्ट्रिय शक्ति एवं एकता में इस ह्रास का सारा दोष प्रचलित धर्म पर ही आरोपित कर दिया गया और नये धार्मिक आन्दोलन प्रारंभ हुए। धर्म के अतिरिक्त अन्य विरोधी साधनों को भी प्रयुक्त करने का प्रयास हुआ।
 किन्तु जीवंत प्राचीन धर्म-वृक्ष के नवजात तना-टहनी-मंजरी की उपेक्षा कर इधर उधर से से इकट्ठे किये गये फुटकर मृतप्राय धार्मिक विचारों के संग्रह रूपी सूखे डंठल को स्थापित करने की चेष्टा भी राष्ट्रिय एकता को पुनर्प्रतिष्ठित करने में अक्षम सिद्ध हुई । उसी प्रकार जब मनुष्य को धार्मिकता विहीन केवल एक सामजिक-आर्थिक जीवमात्र समझ लेने वाली बुद्धियुक्त राजनैतिक तरीके (हथकंडे) आजमाए गये तो, वे भी राष्ट्र के एकीकरण एवं राष्ट्रीय एकता के आदर्श को प्राप्त करने में असमर्थ ही रहे। अब हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि ' राष्ट्रिय एकता ' जैसे महत्वपूर्ण विषय के उपर स्वामी विवेकानन्द ने क्या प्रकाश डाला है ?
 राष्ट्र,समाज या सभ्यता के विषय में स्वामी विवेकानन्द का मूल सूत्र है - " याद रखना होगा कि मानव-

सभ्यता का मूल धर्म पर टिका हुआ है। यह यदि अक्षुण बना रहता है, तभी समाज-शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंग स्वस्थ और सुन्दर दिखेंगे। " हम यह देख चुके है कि भारतीय राष्ट्रिय एकता मूल आधार धर्म ही था। क्योंकि वह एकता राजनैतिक, सामाजिक अथवा राज्य के प्रयासों का परिणाम नहीं  थी। भारतवर्ष में राष्ट्रिय एकता का प्राकट्य मुगल काल में हुआ था। ब्रिटिश शासन में राजनैतिक अथवा प्रशासकीय एकीकरण विकसित होकर भलीभांति स्थापित हो गयी थी। किन्तु भारतीय लोगों का ' धर्म ' जो समग्र मानव जाति में अन्तर्निहित एकात्मता के वास्तविक आधार पर टिका हुआ था, धर्म का वह मुख्य भाव जो भारतीय राष्ट्रिय एकता का मुख्य आधार था वह शनै: शनै: क्षय होता चला गया।
 स्वामीजी कहते हैं, " इस बात का हमारे पास क्या प्रमाण है कि यह अथवा कोई दूसरी सभ्यता, जब तक कि वह धर्म पर, मनुष्य के भीतर की नैतिकता या चरित्र पर आधारित न हो, स्थायी होगी ? कोई भी राष्ट्रीय व्यवस्था यदि मनुष्य की ईमानदारी के उपर, उसके धर्म के उपर प्रतिष्ठित न रहे तो वह अधिक दिनों तक टिकाऊ नहीं हो सकती है। "
 इसीलिये स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट निर्णय था- " भविष्य के भारत निर्माण का पहला कार्य, वह पहला सोपान जिसे युगों के महाचल पर खोद कर बनाना होगा, भारत की यह धार्मिक एकता  (सभी धर्मों में एकत्व-बोध की जाग्रति)  ही है। उसी मौलिक एकत्व की प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर अपने और राष्ट्र के कल्याण के लिये सभी प्रकार के आपसी मतभेदों और महत्वहीन कलह को वर्जन करने का समय आ गया है।अपनी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करना ही भारत में राष्ट्रिय एकता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। "
( इस देश में पर्याप्त पन्थ या संप्रदाय हुए हैं। आज भी ये पन्थ पर्याप्त संख्या में हैं और भविष्य में भी पर्याप्त संख्या में रहेंगे। ..अतः सम्प्रदायों का होना तो स्वाभाविक ही है, परन्तु जिसका होना आवश्यक नहीं है, वह है इन सम्प्रदायों के बीच के झगड़े-झमेले। संप्रदाय अवश्य रहें पर साम्प्रदायिकता दूर हो जाये। " 5/262 यह शिक्षा हम सबको मिलनी चाहिये कि हम हिन्दू अथवा दुसरे सम्प्रदाय के लोग भिन्न भिन्न मतों के होते हुए भी आपस में कुछ सामान्य भाव भी रखते हैं, और अब वह समय आ गया है कि अपने हित के लिये हम इन तुच्छ भेदों और विवादों को त्याग दें। 5/181)
अन्यान्य जातियों के साथ भारतीय जाती के पार्थक्य की तुलना करते हुए स्वामीजी ने कहा था-  " किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा भारत की समस्याएं अधिक जटिल और गुरुतर हैं। जाति, धर्म, भाषा, शासन-

प्रणाली - ये ही एक साथ मिलकर एक राष्ट्र की सृष्टि करते हैं। यदि एक एक जाति को लेकर हमारे राष्ट्र की तुलना की जाय तो हम देखेंगे कि जिन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र गठित हुए हैं, वे संख्या में यहाँ के उपादनों से कम हैं। यहाँ आर्य हैं, द्रविड़ हैं, तातार हैं, तुर्क हैं, मुगल हैं, यूरोपीय हैं, -मानो संसार की सभी जातियां इस भूमि में अपना खून मिला रही हैं। भाषा का यहाँ एक विचित्र ढंग का जमावड़ा है, आचार-व्यवहारों के सम्बन्ध में दो भारतीय जातियों में जितना अंतर है, उतना पूर्वी और यूरोपीय जातियों में नहीं है। " (5/180)
  इसी लिये यहाँ राष्ट्रिय एकता स्थापित करना एक दुष्कर कार्य है। इसीलिये यहाँ एकीकरण की प्रणालीयाँ दोषरहित होनी चाहिये। लेकिन परानुकरण-प्रेमी इस देश ने बिना विवेक-विचार किये अन्यान्य राष्ट्रों के दृष्टान्त का अनुकरण करना आरम्भ कर दिया है, जिसके परिणाम स्वरूप देश विखराव के पथ पर अग्रसर हो रहा है। स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से कहा है, " हमारे पास एकमात्र सम्मिलन भूमि है, हमारी  पवित्र परम्परा  (heritage), हमारा धर्म। एकमात्र सामान्य आधार वही है, और उसी बुनियाद पर हमलोगों को राष्ट्रिय जीवन गठित करना होगा। यूरोप में राजनैतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है। किन्तु एशिया में राष्ट्रिय ऐक्य का आधार धर्म ही है। " (5/180)
इस मूल विषय के उपर स्वामीजी के ये विचार अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं गहन विचारोत्तेजक हैं," सुधार  करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुंचना होता है। इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ। आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः उपर उठने दो एवं अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो। " (5/11)
अतीत में विविधताओं के बावजूद भारत की एकता सुदृढ़ थी। किन्तु राजनैतिक एकता की कमी अवश्य थी। मुगलकाल और अंग्रेजों के शासन काल में दुर्दैव एवं प्राकृतिक विपदाओं के बीच भी भारतियों ने अधिकतम सीमा तक राजनैतिक और प्रशासकीय एकता प्राप्त की थी। कालान्तर में विशाल भारतवर्ष धीरे धीरे बंटवारे के कारण सिकुड़ता गया, अंग्रेजी शासन के अंतर्गत भी जितना राष्ट्र शेष रह गया था, वह भी स्वतंत्रता के तुरन्त बाद दो भागों में विभाजित हो गया। इसका कारण था आपसी द्वेष, इर्ष्य, हिंसा, झगड़े-फसाद आदि। ततपश्चात यह भी तीन टुकड़ों में विभाजित हो गया। देश को बाँटने वाली शक्तियाँ आज भी सक्रीय हैं। वर्तमान में जिस भूखंड को भारत के नाम से जाना जाता है,वहां के निवासियों में भी हिंसा और संघर्ष कोई अन्त दिखाई नहीं देता।
राजनीती को धर्म से अधिक महत्व देने के कारण ही ' राष्ट्रीय एकता ' की स्थापना नहीं हो सकी है, यह तथ्य अब असंदिग्ध रूप से स्पष्ट है। प्रजातंत्र के नाम पर धर्म-निरपेक्षता की निकृष्टतम परिणति राजनितिक विवाद, दलगत एवं व्यक्तिगत स्वार्थ के रूप में दिखाई देती है। इसके परिणाम स्वरुप हमारे देश के सामान्य नागरिकों की यातनाओं एवं कष्टों में कमी के बजाय वृद्धि ही हुई है। इसीलिये एक ओर जहाँ देश-व्यापी हिंसा, शोषण, बलात्कार, अर्थ लोलुपता, भ्रष्टाचार, नाम,यश और पद की लोलुपता और धर्म निरपेक्ष शिक्षा के नाम पर अनैतिकता इत्यादि समस्त गंदगियों को जला ही डालना होगा, तो  दूसरी ओर धर्म के नाम पर (आशा राम बापू जैसे ढोंगी बाबाओं के के द्वारा फैलाये जाने वाले ) अन्धविश्वास, कुरीतियों,स्त्रियों के प्रति रुढ़िवादी मानसिकता, सामाजिक अत्याचार, घृणा एवं ऊँच-नीच के समस्त भेद-भाव को पूर्ण रूप से समाप्त करना होगा। इसीलिये समस्त समस्याओं की जड़ को खोज कर, उस " जड़ में आग रखना " आवशयक होगा। केवल तब ही वास्तविक 'राष्ट्रिय एकता' संभव हो सकेगी।स्वामीजी कहते हैं, "यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिये आवश्यकता है संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। ऋगवेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा मुझे याद आती है, जिसमें कहा गया है-
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥(6.64.1)
-' तुम सब लोग एक मन हो जाओ ' क्योंकि एक मन हो जाना ही समाज-गठन का रहस्य है। और यदि तुम आर्य और द्रविड़, ब्राह्मण और अब्राह्मण जैसे तुच्छ विषयों को लेकर तू तू मैं मैं करोगे, झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढाओगे -तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है। अब वह समय आ गया है कि अपने हित के लिये, अपनी जाति के हित के लिये हम इन तुच्छ भेदों और विवादों को त्याग दें। अपनी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करना ही भारत में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। इस बात को याद रखो कि भारत का भविष्य सम्पूर्णतया इसी पर निर्भर करता है। बस, इच्छा-शक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना-यही सारा रहस्य है। " (5/192)
किन्तु एक मन होना, अभिन्न हृदय होना और इच्छशक्ति का संचय करना जैसे कार्य राजनीती या लोकसभा में बिल पास करवाने से संभव नहीं है। " लोगों को संसद के कानून से पुण्यात्मा नहीं बनाया जा सकता। और इसीलिये धर्म -राजनीती की अपेक्षा अधिक गहरे महत्व की वस्तु है, वह जड़ तक पहुँचता है और आचरण के मूल से सम्बन्ध रखता है। "
किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर केवल यही (लोकपाल बिल पास करो आदि ) करने का प्रयास कर रहे हैं। और यही कारण है कि " राष्ट्रिय एकता " केवल वाद-विवाद का विषय बन कर रह गया है।  केवल सच्चे धर्म मार्ग पर चलने से ही (-चरित्र निर्माण करने और मनुष्य बनने के 'Be and Make ' के मार्ग पर चलने से ही ) मानव मात्र में अन्तर्निहित एकात्मता का विकास हो सकता है,और यही एकमात्र पथ है। भारत के नव-निर्माण का विचार राजा राममोहन राय के समय से प्रारंभ हुई थी। किन्तु इस आन्दोलन के अगुवा लोगों की दृष्टि समाज के उच्च वर्ग तक ही केन्द्रित थी। जबकि सबसे पहले स्वामीजी ने इस सत्य को उद्घाटित किया कि " कुछ उच्च शिक्षित और दौलतमन्द व्यक्तियों से राष्ट्र नहीं बनता, बल्कि राष्ट्र तो देश सामान्य जनता के द्वारा गठित होता है " स्वामीजी अत्यन्त खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं, "  जाती डूब रही है। देश की सामान्य जनता का अभिशाप हमलोगों के सिर पर है। भंगियों और चाण्डालों को उनकी वर्तमान हीन दशा में किसने पहुँचाया? हमारे आचरण में हृदयहीनता हो और साथ ही हम आश्चर्यजनक अद्वैतवाद के उपदेश भी दें- क्या यह कटे पर नमक छिड़कने जैसा नहीं है? तुम्हारे पास संसार का महानतम धर्म है और तुम जनसमुदाय को सारहीन और निरर्थक बातों पर पलते हो। तुम्हारे पास ज्ञान-अमृत की धारा प्रवाहित हो रही है, किन्तु तुम उन्हें गन्दी नाली का पानी पिलाते हो। देश में खाद्स्य सामग्रियों का भंडार रहने के उपरांत भी हम कई लोगो को भूख से मरने दे रहे हैं। मुख से अद्वैत की बातें करते हैं, दूसरों को सिखाते हैं कि सभी मनुष्य एक ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं, दूसरी ओर हम उनसे घृणा भी करते हैं।  "
 हमारे सुधारकों को यह नहीं दिखाई देता है कि बीमारी कहाँ है। वे नहीं जानते की राष्ट्र का भविष्य  जनसाधारण की दशा पर निर्भर करता है। याद रखना होगा की गरीब की झोपड़ियों में ही हमारा राष्ट्री जीवन स्पंदित होता है, किन्तु झोपड़ियों में रहने वाली यह जाती अपने व्यक्तित्व और मनुष्यत्व को भूल गयी है। " इसीलिये स्वामीजी कहते हैं- उन झोपड़ियों में बसने वाले वास्तविक देश के व्यक्तित्व  और पुरुषार्थ को फिर से विकसित करना होगा। " मेरा आदर्श है राष्ट्रिय सांस्कृतिक वैशिष्ट को अक्षुण रखते हुए भारतीय समाज को राष्ट्रीय स्तर पर पुष्ट और उन्नत करना। इसलिए जो व्यक्ति जहाँ खड़ा है, उसे उसके वर्तमान स्तर से एक सोपान उपर  उठाकर चरम पुरुषार्थ को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर कर दो।"
 सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें इन सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवरियाँ भेदकर, वनों को शून्यता से दूर लाकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीन कर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा। स्वयं को इस सम्मोहन से मुक्त करो। तुम अपने को और प्रत्येक व्यक्ति को उसके सच्चे स्वरूप की शिक्षा दो और घोरतम मोह-निद्रा में पड़ी हुई इस जीवात्मा को इस नींद से जगा दो।"
 " वे जो लोग किसान हैं, वे कोरी, जुलाहे जो भारत के नगण्य मनुष्य हैं, विजाती-विजित स्वजाति-निन्दित निन्दित छोटी छोटी जातियाँ हैं, वे ही लगातार चुपचाप काम करती जा रही है और अपने परिश्रम का फल भी नहीं पा रही हैं। यदि ये निम्न श्रेणियों के लोग अपना अपना काम बन्द कर दें, तो तुम लोगों को अन्न-वस्त्र मिलना कठिन हो जाये! यदि मेहतर लोग एक दिन के लिये काम करना बन्द कर देते हैं, तो कैसी 'हाय तोबा ' मच जाती है ? यदि वे तीन दिन काम बन्द कर दें तो संक्रामक रोगों से शहर बर्बाद हो जाये। इन्हें ही तुमलोग नीच समझ रहे हो और अपने को शिक्षित मान कर अभिमान कर रहे हो ? हम उनकी उन्नति के लिये क्या कर रहे हैं? उनके मुख में एक कौर अन्न देने के लिये क्या कर रहे हैं ? हम उन्हें छूते भी नहीं, और 'दुर ' 'दूर' कहकर भगा देते हैं। हमारे इस देश में, इस वेदान्त की जन्मभूमि में सैंकड़ो वर्षों से हमारे जनसाधारण को सम्मोहित करके इस हीन अवस्था में डाल दिया गया है। वे लगातार डूबते जा रहे हैं। ऐसा देश कहाँ है, जहाँ मनुष्यों को जानवरों के साथ एक ही जगह पर सोना पड़ता हो ?
 जिनके रुधिर-स्राव से मनुष्य जाति की यह जो कुछ उन्नति हुई है, उनके गुणगान कौन करता है ? लोकनायक, धर्मवीर, रणवीर, कवि-गुरु, आदि तो सबकी नजरों के सामने हैं, सबके पूज्य हैं; परन्तु जहाँ कोई नहीं देखता, जहाँ कोई एकबार 'वाह' 'वाह' भी नहीं करता, जहाँ सब लोग घृणा करते हैं, वहां वास करती है, अपार सहिष्णुता, अनन्य प्रीति और निर्भीक कार्यकारिता; हमारे गरीब, घर-द्वार पर दिन-रात मुँह बन्द करके कर्म करते जा रहे हैं, उसमें क्या वीरत्व नहीं है ? बड़ा काम आने पर बहुतेरे वीर हो जाते हैं, दस हजार आदमियों की वाहवाही के सामने कापुरुष भी सहज ही में प्राण दे देता है, घोर स्वार्थी भी निष्काम हो जाता है, परन्तु अत्यन्त छोटे से कार्य में भी सबके अज्ञात भाव से जो वैसी ही निःस्वार्थता , कर्तव्य परायणता दिखाते हैं, वे ही धन्य हैं- वे तुम लोग हो- भारत के हमेशा के पददलित श्रमजीवियों ! - मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। " 

जब तक करोड़ों भूखे ओर अशिक्षित रहेंगे तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूंगा,जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, परन्तु जो उनपर तनिक भी  ध्यान नहीं देता ! उसी को मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये रोता है, अन्यथा वह तो दुरात्मा है।
जनसाधारण का खोया हुआ व्यक्तित्व एवं पुरुषार्थ केवल धर्म के द्वारा ही वापस लौटाया जासकता है।
 स्वामीजी का कथन हैं - "धर्म का अर्थ है चरित्र !" उनके अनुसार धर्म का अर्थ अच्छा होना और अच्छा करने से है।यदि देश के सामान्य नागरिक चरित्रवान नहीं हैं, यदि उसमें स्वयं अच्छा बनने और दूसरों की भलाई करने की क्षमता नहीं अर्जित की है। तो राष्ट्रियता की भावना उत्पन्न नहीं हो सकती। केवल  मानवमात्र में अन्तर्निहित एकात्मता की अनुभूति करने वाले धर्म से अनुप्राणित व्यक्ति ही यह कह सकता ही यह कह सकता है और अनुभव कर सकता है ["मैं एक भारतीय हूँ, भारत में निवास करने वाला हर व्यक्ति मेरा भाई है, प्रत्येक भारतवासी मेरा प्राण है, भारत की मिटटी मेरे लिये सर्वोच्च धर्म है और भारत का कल्याण मेरा कल्याण है। '] "मैं भारतवासी हूँ, और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। भारत वासी मेरे प्राण हैं। भारत की मिटटी मेरा स्वर्ग है। भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है। " इसी एकात्मता की अनुभूति के आधार पर, इसी भावना के आधार पर भारतवर्ष की बहुआयामी जनता वास्तव में एकता के सूत्र में आबद्ध हो सकते है। देश के जनसाधारण का समग्र व्यक्तित्व ही एकीभूत होकर एक राष्ट्रीय- व्यक्तित्व या राष्ट्र-सत्ता का रूप धारण कर लेता है।
इटली के क्रान्तिदर्शी और देशभक्त, इटली के दिल की धड़कन, इतालवी स्वतंत्रता / एकीकरण के लिए कार्यकर्ता मैज्जिनी (Mazzini 1805-72) के समान ही स्वामीजी भी इस प्रकार के एक राष्ट्रीय -व्यक्तित्व (Personality ) में विश्वास करते थे, और यह मानते थे कि-   " Nationality is the personality of peoples " -अर्थात देश के सामान्य नागरिकों का एकीकृत व्यक्तित्व ही राष्ट्रीयता है।"
किन्तु स्वामीजी के अनुसार भारतवर्ष का वह ' राष्ट्रिय -व्यक्तित्व ' एक आध्यात्मिक सत्ता थी, और वह मातृ-सत्तात्मक भी थी। इसीलिए उनके इन शब्दों से कैसा उद्दात माधुर्य झंकृत होता है- " हे भारत ! मत भूलना कि तुम्हारी सामाजिक व्यवस्था अनन्त वैश्विक मातृत्व -महामाया -का प्रतिबिम्ब मात्र है। मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है।"

उनका यह सन्देश और अधिक स्पष्ट हो उठता है, जब वे कहते है- " आगामी 50 वर्षों तक हमारी गरीयसी भारत माता ही, हमारी एकमात्र आराध्य देवी हों, दुसरे व्यर्थ के देवताओं को बुल जाने से भी कोई हनी नहीं है। दुसरे सभी देवी देवता अभी सो रहे हैं। तुम्हारा देश nation एकमात्र यही देवता जाग्रत है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके कान हैं, वे सभी जगह व्याप्त हैं। " उनकी दृष्टि में अपने राष्ट्र का  कितना विस्मयकारी, आकर्षक और जीवन्त स्वरुप था!
 केवल वही व्यक्ति जिसका आत्मविकास सच्चे धर्म या आध्यात्मिकता के प्रभाव से हुआ हो, वही  सम्पूर्ण राष्ट्र को एक जीवंत एकीकृत सत्ता या व्यक्तित्व के रूप में देख सकता है। ऐसी दृष्टि प्राप्त हो जाने के बाद ही, देश की जो साधारण जनता के भिन्नत्व को नहीं देखते, जो अपने अस्तित्त्व को बनाये रखने में व्यस्त है, जो केवल अपने स्वार्थ-पूर्ति में मत्त है, और प्रतिस्पर्धाओं में व्यस्त है, उनको अलग अलग सत्ता के रूप में न देखकर समग्र राष्ट्र को - एक अखंड सत्ता, जिसके हजारों सिर हैं, हजारों नेत्र हैं, और हजारों हाथ है, ' सहस्र शीर्ष, सहस्र आक्षा, सहस्र पैर सहस्र पानी, पुरुष-सूक्त ' के जैसा समस्त भूमि को व्याप्त करके स्थित हैं, के रूप में देखा जा सकता है। जिस राष्ट्र में सच्चे धर्म के प्रभाव से ऐसे अन्तर्दृष्टि -संपन्न लोगों की संख्या में वृद्धि होती रहती है, वहीँ पर वास्तविक राष्ट्रिय एकता संभव है- अन्यत्र या अन्य किसी उपाय से कभी संभव नहीं है।
इस संदर्भ में स्वामीजी के विचारों का वैशिष्ट्य यह है कि जिस प्रकार राष्ट्रिय क्षेत्र में उसका प्रयोग सम्भव है,उसी प्रकार आवश्यक होने पर इनमें विश्व-शांति लाने की क्षमता भी है। किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय संघ या इस विचारधारा के अस्तित्व में आने से बहुत पहले  स्वामीजी ने कहा था- " अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय संघ, तथा अन्तर्रष्ट्रीय विधान - यही इस युग की प्रधान आवश्यकता है। " और स्वामीजी के राष्ट्रीय एकता के विचार और कुछ नहीं उसी वैश्विक-एकात्मता स्थापित करने की ओर उठने वाला पहला कदम है, या पहला सोपान है।
अब प्रश्न  यह है कि वह कौन सा धर्म होगा, जो समस्त जन साधारण को इस प्रकार एकत्व के सूत्र में बांध सकता है, या सभी धर्मों में समन्वय को स्थापित कर सकता है ? एक ऐसे देश में जहाँ भिन्न भिन्न धर्म, भिन्न भिन्न संप्रदाय एक साथ रह रहे हों, उस देश में किसी एक ही धर्म के उपर जोर देकर, सभी धर्म-मत के अनुयायियों में समन्वय स्थापित करना कभी संभव नहीं होगा। इसीलिये स्वामीजी कहते हैं, " भले ही इस सर्वजन-समन्वयकारी सिद्धान्त को हमलोग वेदान्तवाद कहें या अन्य किसी वाद से संबोधित करें, सत्य तो यह है की अद्वैतवाद ही किसी भी धर्म या विचारधारा का अंतिम समाधान है। एवं केवल अद्वैत की भूमि से ही मनुष्य समस्त धर्म और संप्रदाय को प्रेम पूर्ण नजरों से देख सकता है। मेरा विश्वास है की वेदांत ही भावी शिक्षित मनुष्यों का धर्म होगा। इसका श्रेय हिन्दूओं को मिल सकता है कि वे अन्य समुदायों से पूर्व इस स्थिति को प्राप्त करें। "इस देश में पुरुष और स्त्रियों के बीच इतना अंतर क्यों समझा जाता है, यह समझना कठिन है। वेदान्त में तो कहा है कि एक ही चैतन्य सत्ता सर्वभूतों में विद्यमान है। तुम लोग स्त्रियों की केवल निन्दा ही करते रहते हो। उनकी उन्नति के लिये तुमने क्या किया है, बोलो तो ? स्मृति आदि लिखकर, नियम-नीति में आबद्ध करके इस देश के पुरुषों ने स्त्रियों को एकदम ' बच्चा पैदा करने की मशीन' बना डाला है। महामाया की साक्षात् मुर्तिरूप इन स्त्रियों का उत्थान हुए बिना क्या तुम लोगों की उन्नति संभव है ? "
 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल हा, न कुरान है; परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय (अविरोध) से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्यजाति को यह शिक्षा देनी चाहिये कि सब धर्म उस धर्म के , उस एकमेवाद्वितीय के भिन्न भिन्न रूप है ,इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति उन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है। "
 इस समन्वय का अर्थ यह नहीं कि इधर उधर छिटके विभिन्न धार्मिक विचारों का निर्जीव संकलन होगा, जिसकी व्यर्थता पर चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। और न ही इस सर्वधर्म समन्वय के पीछे किसी धर्मावलम्बियों का किसी दूसरे धर्म में धर्मांतरण करने की कोई मंशा है। क्योंकि स्वामीजी अन्यत्र कई बार स्पष्ट रूप से घोषणा कर चुके हैं कि " एकीकरण के उद्देश्य की पूर्ति के लिये किसी हिन्दू का इस्लाम में धर्मान्तरण करना, किसी ईसाई या बौद्ध का हिन्दु में धर्मनान्तरण करना न केवल अनावश्यक है, बल्कि इस प्रकार का धर्मान्तरण व्यक्ति-विशेष के लिये हानिकारक तो है ही,  सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए भी ऐसा करना हानिकारक होगा। "
 परन्तु मनुष्य को यह कैसे सिखाया जाय कि " विभिन्न धर्म उस ' मानव-मात्र में अन्तर्निहित एकात्मता ' की अनुभूति करने वाले धर्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं ? स्वामीजी इसी बात पर प्रकाश डालते हुए अन्यत्र कहते हैं, " मैं तुमको विश्वास दिलाता हूँ कि विश्व के किसी भी देश में सार्वभौम धर्म एवं विभिन्न संप्रदायों में भ्रातृभाव के उठापित और पर्यालोपित होने के बहुत पहले ही इस नगर के (कोलकता) के पास एक ऐसे महापुरुष थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन एक आदर्श धर्म महासभा का स्वरूप था। ये थे श्रीरामकृष्णदेव। इसीलिए धर्मांतरण करने में अपनी शक्ति का क्षय और दूसरों का अनिष्ट किये बिना, एकात्मता के धर्म का प्रचार करने का सबसे सरल उपाय है- श्रीरामकृष्ण का जीवन-वृतान्त प्रत्येक के सम्मुख रख देना। क्योंकि " श्रीरामकृष्ण का जीवन उनके द्वारा प्रदत्त उपदेशों का एक जीता जगता नमूना है। " उनके जीवन को देखकर लोग यह स्वयं समझ जायेंगे कि धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर चलने वाले समस्त संघर्ष अवश्य समाप्त हो जाने चाहिए।
यद्दपि स्वामीजी ने अद्वैतवाद को या वेदान्त को भविष्य का धर्म कह कर पुकारा है, किन्तु  उसको कार्य में रूपांतरित करने के आभाव का पहलु भी,स्वामीजी की दृष्टि से बचा नहीं था।  इसी भाव को व्यक्त करते हुए वे कहते हैं-" परन्तु साथ ही व्यावहारिक वेदान्त  जो समस्त  मानव जाती को अपनी आत्मा का स्वरुप समझता है, एवं उसी के अनुकूल सभी मनुष्य के साथ व्यव्हार करता है- उस कर्म में परिणत वेदान्त का विकास हिन्दुओं में सार्वजनिक रूप से होना अभी भी शेष है। "
" इसके विपरीत मेरा अनुभव यह है कि यदि किसी धर्म के अनुयायि व्यावहारिक जगत के दैनिक कार्यों के क्षेत्र में , इस ' साम्य भाव ' को बहुत हद तक अपना सके हैं तो, वे इस्लाम और केवल इस्लाम के अनुयायी हैं। यद्दपि ऐसे आचरण के पीछे जिस ' एक्तामता या साम्य भाव ' के सिद्धान्त का जो गूढ़ अर्थ है,-इस्लाम के अनुयायी उससे अनभिज्ञ हैं, पर हिन्दु उसे साधारणतः स्पष्ट रूप से समझते हैं। क्योंकि   इसकी भित्ति स्वरूप जो सकल तत्व गीता आदि में विद्यमान है, उस सम्बन्ध में हिन्दुओं की धरना स्पष्ट है  एवं इस्लाम को मानने वाले उस सत्य से परिचित नहीं हैं। "
" इसलिए हमें दृढ विश्वास है कि वेदान्त के सिद्धान्त कितने ही उदार और विलक्षण क्यों न हो, व्यावहारिक इस्लाम की सहायता के बिना, मनुष्य जाति की बहुसंख्यक जन साधारण के लिये वे मूल्यहीन हैं।"
 स्वामी विवेकनन्द अपने विचारों, कार्यों और सत्यपरायणता को भी ऐसी ही निर्भयता के साथ व्यक्त कर सकते थे। 1898 में मोहम्मद सरफराज हुसैन को लिखे अपने पत्र में उनके साथ राष्ट्रीय एकता एवं विकास के उपाय पर चर्चा करते हुए स्वामीजी कहते हैं, " हमारी मातृभूमि के लिए इन दोनों विशाल मतों का सामंजस्य - हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म रूपी दो विशाल मतों का समन्वय - वेदान्तिक मस्तिष्क और इश्लामी शरीर -यही एक मात्र आशा है। " " मैं अपने मनस चक्षु से भावी भारत की पूर्ण अवस्था को देख सकता हूँ, वर्तमान विवाद और संघर्ष को समाप्त कराकर भविष्य के अजेय भारत भारत वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामी शरीर लेकर महिमामय और अपराजेय शक्ति से जग उठा है!"
वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामी शरीर पर किसी विशिष्ट हिन्दू या मुसलमान या किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का एकाधिकार नहीं होगा। इसका तात्पर्य है कि बहुसंख्यक लोगों का संगठित मस्तिष्क जो इस विशाल का्य राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करेगा, वह वेदांत के विचारों से ओतप्रोत होगा, और उस बिराट पुरुष का देह अर्थात राष्ट्र का सामाजिक जीवन का दैनिक व्यावहार इस्लाम की सामाजिक समानता लाने में जो व्यावहारिक क्षमता है, उसे वेदांत अद्वैत परक सिद्धांतों के आधार पर इस विशालकाय राष्ट्र की राजनैतिक संरचना में उसके राष्ट्रीय, सामाजिक एवं व्यष्टि के जीवन में कार्यरूप में परिणत करना होगा।  तब और केवल तभी राष्ट्रीय एकता संभव हो सकेगी- अन्य कोई मार्ग नहीं है! राष्ट्रिय एकता के विषय में स्वामीजी के यह विचार और सिद्धाम्त यही थे जिसे आज भी प्रयोग करने से भारत का कल्याण शिघ्त्रता से हो सकता है।

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  [जैसे शक-हूण, हूण मध्य एशिया की एक खानाबदोश जाति थी। यह जाति अपने समय की सबसे बर्बर जातियों में गिनी जाती थी। अनेक घुम्मकड़ और लड़ाकू क़बीलों का अस्तित्व था, जैसे 'नोमेड', 'वाइकिंग', 'नोर्मन', 'गोथ', 'कज़्ज़ाक़', 'शक' और 'हूण' आदि। रोमन साम्राज्य को तहस-नहस करने में हूणों का भी बहुत बड़ा हाथ था।
उत्तर-पश्चिम भारत में हूणों द्वारा तबाही और लूट के अनेक उल्लेख मिलते हैं। गुप्त काल में हूणों ने पंजाब तथा मालवा पर अधिकार कर लिया था। तक्षशिला को भी क्षति पहुँचायी। भारत में आक्रमण हूणों के नेता तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल के नेतृत्व में हुआ। मथुरा, उत्तर प्रदेश में हूणों ने मन्दिरों, बुद्ध और जैन स्तूपो को क्षति पहुँचायी और लूटमार की।
500 ई. के लगभग हूणों का नेता तोरमाण मालवा का स्वतंत्र शासक बन गया। उसके पुत्र ने पंजाब में सियालकोट को अपनी राजधानी बनाकर चारों ओर बड़ा आतंक फैलाया। अंत में मालवा के राजा यशोवर्मन और बालादित्य ने मिलकर 528 ई. में उसे पराजित कर दिया। लेकिन इस पराजय के बाद भी हूण वापस मध्य एशिया नहीं गए। वे भारत में ही बस गए और उन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया।
ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में उत्तर-पश्चिम भारत में यूनानी राज्य का अंत हो गया तथा उसके स्थान पर शक नामक एक अन्य विदेशी जाति ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।  शक शासक महाराजा एवं राजाधिराज जैसी गौरवपूर्ण उपाधियां धारण करते थे। बाद में शकों को कुषाण भी कहा जाने लगा। कुजूल कैडफाइसिस , जिसे कैडफाइसिस प्रथम कहा जाता है , पहले बड़ा शक शासक था। उसके बाद उसका पुत्र विम कैडफाइसिस (कैडफाइसिस द्वितीय) राजगद्दी पर बैठा। उसने कुषाण राज्य को पंजाब और गंगा-यमुना के दोआबे तक बढ़ा लिया। उसने सोने तथा तांबे के सिक्के चलाए। तथा इन सिक्कों में स्वयं का एक महान राजा एवं शिवभक्त के रूप में उल्लेख किया। उसके कुछ सिक्कों पर नंदी बैल के साथ त्रिशूलधारी शिव का चित्र अंकित है। इसी वंश का तीसरा महान शासक कनिष्क था।कनिष्क का राज्यारोहण 78 ईस्वी में हुआ। अपने राज्यारोहण के अवसर पर कनिष्क ने ' शक संवत ' चलाया। कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान , सिंध का भाग , बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के प्रदेश शामिल थे। अपने चरमोत्कर्ष के समय कनिष्क का साम्राज्य पश्चिमोत्तर में खोतान से पूर्व में बनारस तक एवं उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में सौराष्ट्र एवं मालवा तक फैला था। कनिष्क के इस विशाल साम्राज्य की राजधानी पुरुष पुर यानी आधुनिक पेशावर थी।]
        

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