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शनिवार, 3 अगस्त 2024

$🔱🕊 🏹 परिच्छेद ~136 श्रीरामकृष्ण तथा कर्मफल 🏹 [ (12 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136] ॐ नमो भगवते सम्बुद्धाय 🏹🔱 Om, I salute the Lord, the awakened. " No One is To Blame "🔱"🏹मैं ही अपना साकार अतीत हूँ ! ("अपने अतीत के अनुरूप मैं एक देहधारी- 'embodied' आत्मा हूँ ! " ) 🔱 जिन्हें पहले काली का पागल पुजारी कहते थे आज उनके पादुका की पूजा होती है🔱 🏹🔱भगवान के नाम का जप करने से बहुत से कर्मपाश कट जाते हैं🏹 🙋देखा जाय तो दूध का धोया कोई नहीं है । 🙋🔱 🏹🔱ईश्वर-कोटि तथा जीव-कोटि का अन्तर 🏹🏹परिवर्तनशील होने के कारण शरीर नश्वर है🏹 🏹जबतक शरीर है माँ जगदम्बा (भारत माता-Mother India) के शरण में रहना पड़ेगा🏹 😇'सब स्वप्नवत् है'-गृहस्थ को ऐसा नहीं कहना चाहिए 😇 🔱🙋पहले कामजयी होना होगा : दृष्टान्त सुनकर ठाकुर देव का रोमांचित होना 🙋🙋जहाँ कोई वासना नहीं है, वहाँ भगवान स्वयं प्रकट होते हैं।🙋 No One is To Blame " " किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है " 🙋कारो दोष देखो ना !~ श्री माँ सारदा देवी 🙋 🕊🔱🙏

 🔱🕊 🏹 🙋परिच्छेद १३६~श्रीरामकृष्ण तथा कर्मफल*🔱🕊 🏹 🙋

(१)

 [ (12 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136] 

भक्तों के संग में

श्रीरामकृष्ण काशीपुर के उद्यान-भवन के उसी ऊपरवाले कमरे में बैठे हुए हैं । भीतर शशि और मणि हैं । श्रीरामकृष्ण मणि को इशारे से पंखा झलने के लिए कह रहे हैं । मणि पंखा झलने लगे । शाम के पाँच-छः बजे का समय होगा । सोमवार, शुक्ल अष्टमी, १२ अप्रैल १८८६ उस मुहल्ले में संक्रान्ति का मेला भरा हुआ है । श्रीरामकृष्ण ने एक भक्त को मेले से कुछ चीजें खरीद लाने के लिए भेजा है । भक्त के लौटने पर श्रीरामकृष्ण ने उससे सामान के बारे में पूछा कि वह क्या क्या लाया । 

Monday, April 12, 1886: At about five o'clock in the afternoon Sri Ramakrishna was sitting on the bed in his room in the Cossipore garden house. Sashi and M. were with him. He asked M., by a sign, to fan him. The neighborhood had a fair celebrating the last day of the Bengali year. A devotee, whom Sri Ramakrishna had sent to the fair to buy a few articles, returned. "What have you bought?" the Master asked him.

শ্রীরামকৃষ্ণ কাশীপুরের বাগানে সেই উপরের ঘরে শয্যার উপর বসিয়া আছেন। ঘরে শশী ও মণি। ঠাকুর মণিকে ইশারা করিতেছেন — পাখা করিতে। তিনি পাখা করিতেছেন। বৈকাল বেলা ৫টা-৬টা। সোমবার চড়কসংক্রান্তি, বাসন্তী মহাষ্টমী পূজা। চৈত্র শুক্লাষ্টমী, ৩১শে চৈত্র, ১২ই এপ্রিল, ১৮৮৬। পাড়াতেই চড়ক হইতেছে। ঠাকুর একজন ভক্তকে চড়কের কিছু কিছু জিনিস কিনিতে পাঠাইয়াছিলেন। ভক্তটি ফিরিয়া আসিয়াছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ — কি কি আনলি?

भक्त - पाँच पैसे के बताशे, दो पैसे का एक चम्मच और दो पैसे का एक तरकारी काटनेवाला चाकू ।

DEVOTEE: "Candy for five pice, a spoon for two pice, and a vegetable-knife for two pice."

ভক্ত — বাতাসা একপয়সা, বঁটি — দুপয়সা, হাতা — দুপয়সা।

श्रीरामकृष्ण - और कलम बनानेवाला चाकू ?

MASTER: "What about the penknife?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — ছুরি কই?

भक्त - वह दो पैसे में नहीं मिला ।

DEVOTEE: "I couldn't get one for two pice."

ভক্ত — দুপয়সায় দিলে না।

श्रीरामकृष्ण - (जल्दी से)- नहीं, नहीं, जा ले आ ।

MASTER (eagerly): "Go quickly and get one!'

শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্যাগ্র হইয়া) — যা যা, ছুরি আন। 

मास्टर नीचे बगीचे में टहल रहे हैं । नरेन्द्र और तारक कलकत्ते से लौटे । वे गिरीश घोष के यहाँ तथा कुछ अन्य जगह भी गये थे ।

M. was pacing the garden. Narendra and Tarak returned from Calcutta. They had visited Girish Ghosh's house and other places.

মাস্টার নিচে বেড়াইতেছেন। নরেন্দ্র ও তারক কলিকাতা হইতে ফিরিলেন। গিরিশ ঘোষের বাড়ি ও অন্যান্য স্থানে গিয়াছিলেন।

तारक - आज तो भोजन बहुत हुआ ।

TARAK: "We have eaten much meat and other heavy stuff today."

তারক — আজ আমরা মাংস-টাংস অনেক খেলুম।

नरेन्द्र - हाँ, हम लोगों का मन बहुत कुछ नीचे आ गया है । आओ, अब हम तपस्या करें ।(मास्टर से) "क्या शरीर और मन की दासता की जाय ? बिलकुल जैसे गुलाम की-सी अवस्था हो रही है, शरीर और मन मानो हमारे नहीं, किसी और के हैं ।"

NARENDRA: "Yes, our minds have come down a great deal. Let us practise tapasya. (To M.) What slavery to body and mind! We are just like coolies — as if this body and mind were not ours but belonged to someone else."

নরেন্দ্র — আজ মন অনেকটা নেমে গেছে। তপস্যা লাগাও।(মাস্টারের প্রতি) — “কি Slavery (দাসত্ব) of body, — of mind! (শরীরের দাসত্ব — মনের দাসত্ব!) ঠিক যেন মুটের অবস্থা! শরীর-মন যেন আমার নয়, আর কারু।”

शाम हो गयी है । ऊपर के कमरे में और अन्य स्थानों में दीये जलाये गये । श्रीरामकृष्ण बिस्तर पर उत्तरास्य बैठे हुए हैं । जगन्माता की चिन्ता कर रहे हैं । कुछ देर बाद फकीर उनके सामने माँ काली अपराध-भंजन स्तव पढ़ने लगे । फकीर बलराम के पुरोहित-वंश के हैं

“प्राग्देहस्थो यदासं तव चरणयुगं नाश्रितो नार्चितोऽहम् ।

तेनाद्येऽकीर्तिवर्गेर्जठरजदहनैर्बाध्यामानो बलिष्ठैः ॥

स्थित्वा जन्मान्तरे नो पुनरिह भविता क्वाश्रयः क्वापि सेवा ।

क्षन्तव्यो मेऽअपराधः प्रकटितरदने कामरूपे कराले ॥" [इत्यादि~ श्रीकालीक्षमाऽपराधस्तोत्रम् ।] 

In the evening lamps were lighted in the house. Sri Ramakrishna sat on his bed, facing the north. He was absorbed in contemplation of the Mother of the Universe. A few minutes later Fakir, who belonged to the priestly family of Balaram, recited the Hymn of Forgiveness addressed to the Divine Mother. 

সন্ধ্যা হইয়াছে; উপরের ঘরে ও অন্যান্য স্থানে আলো জ্বালা হইল। ঠাকুর বিছানায় উত্তরাস্য হইয়া বসিয়া আছেন; জগন্মাতার চিন্তা করিতেছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ফকির ঠাকুরের সম্মুখে অপরাধভঞ্জন স্তব পাঠ করিতেছেন। ফকির বলরামের পুরোহিতবংশীয়।

প্রাগ্‌দেহস্থো যদাসং তব চরণযুগং নাশ্রিতো নার্চিতোঽহং, তেনাদ্যেঽকীর্তিবর্গৈর্জঠরজদহনৈর্বধ্যমানো বলিষ্ঠৈঃ,স্থিত্বা জন্মান্তরে নো পুনরিহ ভবিতা ক্বাশ্রয়ঃ ক্বাপি সেবা,ক্ষন্তব্যে মেঽপরাধঃ প্রকটিতবদনে কামরূপে করালে! ইত্যদি।

कमरे में शशि, मणि तथा दो-एक भक्त और हैं । स्तवपाठ समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण बड़े भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे हैं । मणि पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण इशारा करके उनसे कह रहे हैं, “एक कूँड़ी (stone cup-कटोरी) ले आना । (यह कहकर कूँड़ी की गढ़न उँगलियों से लकीर खींचकर बता रहे हैं ।) इसमें क्या एक पाव दूध आ जायगा ? पत्थर सफेद हो ।"

M. was fanning Sri Ramakrishna. The Master said to him by signs, "Get a stone cup for me that will hold a quarter of a seer of milk-white stone." He drew the shape of the cup with his finger.

ঘরে শশী, মণি, আরও দু-একটি ভক্ত আছেন। স্তবপাঠ সমাপ্ত হইল। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ অতি ভক্তিভাবে হাতজোড় করিয়া নমস্কার করিতেছেন। মণি পাখা করিতেছেন। ঠাকুর ঈশারা করিয়া তাঁহাকে বলিতেছেন “একটি পাথরবাটি আনবে। (এই বলিয়া পাথরবাটির গঠন অঙ্গুলি দিয়া আঁকিয়া দেখাইলেন।) একপো, অত দুধ ধরবে? সাদা পাথর।”

मणि - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण : "जब मैं अन्य कटोरी से दूध पीता हूँ तो मुझे मछली की गंध आती है।"

MASTER: "When eating from other cups I get the smell of fish."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আর সব বাটিতে ঝোল খেতে আঁষটে লাগে।

(२)

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🏹🔱ईश्वर-कोटि तथा जीव-कोटि का अन्तर 🏹🔱

दूसरे दिन मंगलवार है, रामनवमी?, 13 अप्रैल, 1886 (1ला वैशाख) । सुबह का समय है; श्रीरामकृष्ण ऊपरवाले कमरे में छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । दिन के आठ-नौ बजे का समय हुआ होगा । मणि रात को यहीं थे । सबेरे गंगा-स्नान करके आये और श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया

राम दत्त भी आज सुबह आ गये हैं, उन्होंने भी श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया । राम फूलों की एक माला ले आये हैं, श्रीरामकृष्ण की सेवा में उसका समर्पण कर दिया । अधिकांश भक्त नीचे के कमरे में बैठे हुए हैं, श्रीरामकृष्ण के कमरे में दो ही एक हैं । राम श्रीरामकृष्णदेव से वार्तालाप कर रहे हैं

श्रीरामकृष्ण - (राम से) - किस तरह देख रहे हो ?"

It was about eight o'clock in the morning. M. had spent the night at the garden house. After taking his bath in the Ganges he prostrated himself before Sri Ramakrishna. Ram had just come. He saluted the Master and took a seat. He had brought a garland of flowers, which he offered to the Master. Most of the devotees were downstairs; only one or two were in the Master's room. Sri Ramakrishna was talking to Ram.

MASTER: "How do you find me?"

পরদিন মঙ্গলবার, রামনবমী; ১লা বৈশাখ, ১৩ই এপ্রিল, ১৮৮৬ খ্রীষ্টাব্দ। প্রাতঃকাল, — ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ উপরের ঘরে শয্যায় বসিয়া আছেন। বেলা ৮টা-৯টা হইবে। মণি রাত্রে ছিলেন, প্রাতে গঙ্গা স্নান করিয়া আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিতেছেন। রাম (দত্ত) সকালে আসিয়াছেন ও প্রণাম করিয়া উপবেশন করিলেন। রাম ফুলের মালা আনিয়াছেন ও ঠাকুরকে নিবেদন করিলেন। ভক্তেরা অনেকেই নিচে বসিয়া আছেন। দুই-একজন ঠাকুরের ঘরে আছেন। রাম ঠাকুরের সহিত কথা কহিতেছেন

শ্রীরামকৃষ্ণ (রামের প্রতি) — কিরকম দেখছ?

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🔱 जिन्हें पहले काली का पागल पुजारी कहते थे आज उनके पादुका की पूजा होती है🔱 

राम - आप में सब कुछ है । अब आपके रोग की चर्चा उठने ही वाली है ।

RAM: "In you one finds everything. Presently there will be a discussion about your illness."

রাম — আপনার সবই আছে। এখনই রোগের সব কথা উঠবে।

श्रीरामकृष्ण जरा मुस्कराये । फिर राम ही से उन्होंने संकेत करके पूछा - "क्या रोग की बात भी उठेगी ?"

The Master smiled and asked Ram by a sign, "Will there really be a discussion about my illness?"

শ্রীরামকৃষ্ণ ঈষৎ হাস্য করিলেন ও সঙ্কেত করিয়া রামকেই জিজ্ঞাসা করিতেছেন — “রোগের কথাও উঠবে?”

श्रीरामकृष्ण के जो जूते हैं, वे अब पैरों में गड़ने लगे हैं । डाक्टर राजेन्द्र दत्त ने पैर की नाप माँगी है - आर्डर देकर वे जूते बनवा देना चाहते हैं । पैर की नाप ली गयी । (इस समय बेलुड़ मठ में इन्हीं पादुकाओं की पूजा हो रही है।) श्रीरामकृष्ण मणि से संकेत से पूछ रहे हैं कि कूँड़ी (सफ़ेद कटोरी ?) कहाँ है ।

Sri Ramakrishna's slippers were not comfortable. Dr. Rajendra Dutta intended to buy a new pair1 and had asked for the measurement of his feet. The measurement was taken

ঠাকুরের চটিজুতা আছে, পায়ে লাগে। ডাক্তার রাজেন্দ্র দত্ত মাপ দিতে বলিয়াছেন, — তিনি ফরমাশ দিয়া আনিবেন। ঠাকুরের পায়ের মাপ লওয়া হইল। এই পাদুকা এখন বেলুড় মঠে পূজা হয়

मणि कलकत्ते से कूँड़ी ले आने के लिए उसी समय उठकर खड़े हो गये । 

Sri Ramakrishna asked M., by a sign, about the stone cup. M. at once stood up. He wanted to go to Calcutta for the cup.

শ্রীরামকৃষ্ণ মণিকে সঙ্কেত করিতেছেন, “কই, পাথরবাটি?” মণি তৎক্ষণাৎ উঠিয়া দাঁড়াইলেন, — কলিকাতায় পাথরবাটি আনিতে যাইবেন।

श्रीरामकृष्ण ने उस समय उन्हें रोका ।

MASTER: "Don't bother about it now."

শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “থাক্‌ থাক্‌ এখন।”

मणि - जी नहीं, ये लोग जा रहे हैं, इनके साथ मैं भी चला जाऊँगा ।

M: "Sir, these devotees are going to Calcutta. I will go with them."

মণি — আজ্ঞা না, এঁরা সব যাচ্ছেন, এই সঙ্গেই যাই।

मणि ने जोड़ासाखों की एक दूकान से एक सफेद कूँड़ी (सफ़ेद कटोरी) खरीदी । दोपहर के समय वे काशीपुर लौट आये और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके कूँड़ी (सफ़ेद कटोरी) उनके सामने रखी ।

M. bought the cup in Calcutta and returned to Cossipore at noon. He saluted the Master and placed the cup near him. 

মণি নূতন বাজারের জোড়াসাঁকোর চৌমাথায় একটি দোকান হইতে একটি সাদা পাথরবাটি কিনিলেন। বেলা দ্বিপ্রহর হইয়াছে, এমন সময়ে কাশীপুরে ফিরিয়া আসিলেন ও ঠাকুরের কাছে আসিয়া প্রণাম করিয়া বাটিটি রাখিলেন।

श्रीरामकृष्ण सफेद कूँड़ी हाथ में लेकर देख रहे हैं । डाक्टर राजेन्द्र दत्त, हाथ में गीता लिए हुए डाक्टर श्रीनाथ, श्रीयुत राखाल हालदार तथा अन्य भी कई सज्जन आये हैं । कमरे में राखाल, शशि आदि कई भक्त हैं । डाक्टरों ने श्रीरामकृष्ण से पीड़ा के सम्बन्ध की कुल बातें सुनीं

Sri Ramakrishna took the cup in his hands and looked at it. Dr. Rajendra Dutta, Dr. Sreenath, Rakhal Haldar, and several others came in. Rakhal, Sashi, and the younger Naren were in the room. The physicians heard the report of the Master's illness. Dr. Sreenath had a copy of the Gita in his hand.

ঠাকুর সাদা বাটিটি হাতে করিয়া দেখিতেছেন। ডাক্তার রাজেন্দ্র দত্ত, গীতাহস্তে শ্রীনাথ ডাক্তার, শ্রীযুক্ত রাখাল হালদার, আরও কয়েজন আসিয়া উপস্থিত হইলেন। ঘরে রাখাল, শশী, ছোট নরেন প্রভৃতি ভক্তেরা আছেন। ডাক্তারেরা ঠাকুরের পীড়া সম্বন্ধে সমস্ত সংবাদ লইলেন।

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🏹परिवर्तनशील होने के कारण शरीर नश्वर है🏹  

डाक्टर श्रीनाथ - (मित्रों को ) - सब लोग प्रकृति के अधीन हैं । कर्मफल से किसी का छुटकारा नहीं है । प्रारब्ध है ।

DR. SREENATH (to his friends): "Everything is under the control of Prakriti. Nobody can escape the fruit of past action. This is called prarabdha."

শ্রীনাথ ডাক্তার (বন্ধুদের প্রতি) — সকলেই প্রকৃতির অধীন। কর্মফল কেউ এড়াতে পারে না! প্রারব্ধ!

श्रीरामकृष्ण - क्यों, उनका नाम लेने पर, उनकी चिन्ता करने पर, उनकी शरण में जाने पर, -

MASTER: "Why, if one chants the name of God, meditates on Him, and takes refuge in Him —"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন, — তাঁর নাম করলে, তাঁকে চিন্তা করলে, তাঁর শরণাগ্য হলে —

श्रीनाथ - जी, प्रारब्ध कहाँ जायेगा ? - पिछले जन्मों के कर्म ?

DR. SREENATH (to his friends): "But, sir, how can one escape prarabdha, the effect of action performed in previous births?"

শ্রীনাথ — আজ্ঞে, প্রারব্ধ কোথা যাবে? — পূর্ব পূর্ব জন্মের কর্ম।

श्रीरामकृष्ण - कुछ कर्म भोग होता तो है, परन्तु उनके नाम के जप के गुण से बहुत सा कर्मपाश कट जाता है । एक मनुष्य को पिछले जन्म के कर्मों के लिए सात बार अन्धा /काना होना पड़ता, परन्तु उसने गंगास्नान किया । गंगास्नान से मुक्ति होती है । इसलिए उस जन्म के लिए तो वह जैसे का वैसा ही अन्धा बना रहा, परन्तु अगले छः जन्मों के लिए न तो उसे जन्म लेना पड़ा और न अन्धा होना पड़ा।

MASTER: "No doubt a man experiences a little of the effect; but much of it is canceled by the power of God's name. A man was born blind of an eye. This was his punishment for a certain misdeed he had committed in his past birth, and the punishment was to remain with him for six more births. He, however, took a bath in the Ganges, which gives one liberation. This meritorious action could not cure his blindness, but it saved him from his future births."

শ্রীরামকৃষ্ণ — খানিকটা কর্ম ভোগ হয়। কিন্তু তাঁর নামের গুণে অনেক কর্মপাশ কেটে যায়। একজন পূর্বজন্মের কর্মের দরুন সাত জন্ম কানা হত; কিন্তু সে গঙ্গাস্নান করলে। গঙ্গাস্নানে মুক্তি হয়। সে ব্যক্তির চক্ষু যেমন কানা সেইরকমই রইল, কিন্তু আর যে ছজন্ম সেটা হল না।

श्रीनाथ - जी, शास्त्रों में तो है कि कर्मफल से किसी का छुटकारा नहीं हो सकता । डाक्टर श्रीनाथ तर्क करने के लिए तुल गये ।

DR. SREENATH (to his friends): "But, sir, the scriptures say that nobody can escape the fruit of karma."Dr. Sreenath was ready to argue with the Master.

শ্রীনাথ — আজ্ঞে, শাস্ত্রে তো আছে, কর্মফল কারুরই এড়াবার জো নাই। [শ্রীনাথ ডাক্তার তর্ক করিতে উদ্যত।]

[ (12 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136] 

🔱🕊 🏹ईश्वरकोटि से पाप हो ही नहीं सकता🔱🕊 🏹   

श्रीरामकृष्ण - (मणि से) - कहो न जरा, ईश्वर-कोटि और जीव-कोटि में बड़ा अन्तर है । ईश्वर-कोटि कभी पाप नहीं कर सकते - कहो

MASTER (to M.): "Why don't you tell him that there is a great difference between the Isvarakoti and an ordinary man? An Isvarakoti cannot commit sin. Why don't you tell him that?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — বল না, ঈশ্বরকোটির আর জীবকোটির অনেক তফাত। ঈশ্বরকোটির অপরাধ হয় না; বল না।

मणि चुप हैं । वे राखाल से कह रहे हैं - तुम कहो ।

M. remained silent and then said to Rakhal, "You tell him."

মণি চুপ করিয়া আছেন; মণি রাখলাকে বলিতেছেন, “তুমি বল।”

कुछ देर बाद डाक्टर चले गये । श्रीरामकृष्ण श्रीयुत राखाल हालदार के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

After a few minutes, the physicians left the room. Sri Ramakrishna was talking to Rakhal Haldar.

কিয়ৎক্ষণ পরে ডাক্তারেরা চলিয়া গেলেন। ঠাকুর শ্রীযুক্ত রাখাল হালদারের সহিত কথা কহিতেছেন।

As long as we are alive, we will have to stay in 

 the shelter of 

Mother Jagadamba (Mother India)!

🏹जबतक शरीर है माँ जगदम्बा (भारत माता-Mother India) के शरण में रहना पड़ेगा🏹  

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🔱🕊 🏹'सब स्वप्नवत् है'-गृहस्थ को ऐसा नहीं कहना चाहिए🔱🕊 🏹

हालदार - डाक्टर श्रीनाथ वेदान्तचर्चा किया करता है - योगवाशिष्ठ पढ़ता है ।

HALDAR: "Dr. Sreenath studies Vedanta. He is a student of the Yoga-vasishtha."

হালদার — শ্রীনাথ ডা: বেদান্ত চর্চা করেন — যোগবাশিষ্ঠ পড়েন।

श्रीरामकृष्ण - संसारी होकर 'सब स्वप्नवत् है' यह मत अच्छा नहीं ।

MASTER: "A householder should not hold the view that everything is illusory, like a dream."

শ্রীরামকৃষ্ণ — সংসারী হয়ে, ‘সব স্বপ্নবৎ’ — এ-সব মত ভাল নয়।

एक भक्त - कालिदास नाम का वह जो आदमी है, वह भी वेदान्तचर्चा किया करता है । परन्तु मुकदमेबाजी में घर की लुटिया तक उसने बेच डाली !

Referring to a man named Kalidas, a devotee said, "He too discusses Vedanta, hut he has lost all his money in lawsuits."

একজন ভক্ত — কালিদাস বলে সেই লোকটি — তিনিও বেদান্ত চর্চা করেন; কিন্তু মোকদ্দমা করে সর্বস্বান্ত।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - सब माया भी है और उधर मुकदमेबाजी भी होती है ! (राखाल से) जनाईवाले मुकर्जियों ने पहले बड़ी लम्बी-लम्बी बातें की थी, फिर अन्त में खूब समझ गये । मैं अगर अच्छा रहता तो उनसे कुछ देर और बातचीत करता । क्या 'ज्ञान-ज्ञान' की डींग मारने से ही ज्ञान हो जाता है ? 

MASTER (smiling): "Yes, one proclaims everything to be Maya, and still one goes to court! (To Rakhal) Mukherji of Janai, too, talked big. But at last, he came to his senses. If I were well I should have talked a little more with Dr. Sreenath. Can one obtain jnana just by talking about it?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — সব মায়া — আবার মোকদ্দমা! (রাখালের প্রতি) জনাইয়ের মুখুজ্জে প্রথমে লম্বা লম্বা কথা বলছিল; তারপর শেষকালে বেশ বুঝে গেল! আমি যদি ভাল থাকতুম ওদের সঙ্গে আর খানিকটা কথা কইতাম। জ্ঞান জ্ঞান কি করলেই হয়?

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🙋पहले कामजयी होना होगा : दृष्टान्त सुनकर ठाकुर देव का रोमांचित होना 🙋 

हालदार - ज्ञान बहुत देखा है । कुछ भक्ति हो तो जी में जी आये । उस दिन मैं एक बात सोचकर आया था । उसकी आपने मीमांसा कर दी ।

HALDAR: "You are right, sir. I have seen enough of jnana. Now all I need in order to live in the world is a little bhakti. The other day I came to you with a problem on my mind, and you solved it."

হালদার — অনেক জ্ঞান দেখা গেছে। একটু ভক্তি হলে বাঁচি। সেদিন একটা কথা মনে করে এসেছিলাম। তা আপনি মীমাংসা করে দিলেন।

श्रीरामकृष्ण - (आग्रह से) - वह क्या है ?

MASTER (eagerly): "What was it?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্যগ্র হইয়া) — কি কি?

हालदार - जी, यह बच्चा आया तो आपने कहा कि यह जितेन्द्रिय (Complete control over orgasm) है ।

HALDAR: "Sir, when that boy (pointing to the younger Naren) came in, you said he had controlled his passions."

হালদার — আজ্ঞে, এই ছেলেটি এলে বললেন যে — জিতেন্দ্রিয়।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, उसके (छोटे नरेन्द्र के) भीतर विषयबुद्धि (काम प्रवृत्ति -lust) का लेशमात्र भी नहीं है । वह कहता है, 'मुझे नहीं मालूम कि काम किसे कहते हैं ।'

(मणि से) "हाथ लगाकर देखो, मुझे रोमांच हो रहा है ।" 

MASTER: "Yes, it is true. He is totally unaffected by worldliness. He says he doesn't know what lust is. (To M.) Just feel my body. All the hair is standing on end."

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ গো, ওর (ছোট নরেনের) ভিতর বিষয়বুদ্ধি আদপে ঢোকে নাই! ও বলে কাম কাকে বলে তা জানি না।(মণির প্রতি) “হাত দিয়ে দেখ আমার রোমাঞ্চ হচ্চে!”

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🙋जहाँ कोई वासना नहीं है, वहाँ भगवान स्वयं प्रकट होते हैं।🙋

God is present where there is no desire.

যেখানে কাম নাই সেখানে ঈশ্বর বর্তমান। 

जहाँ काम-प्रवृत्ति (या lust में आसक्ति) बिल्कुल नहीं है-वहीँ भगवान प्रकट होते हैं ! इस शुद्ध अवस्था की याद करके श्रीरामकृष्ण को रोमांच हो रहा है ।

The Master's hair actually stood on end at the thought of a pure mind totally devoid of lust. He always said that God manifests Himself where there is no lust.****

কাম নাই, এই শুদ্ধ অবস্থা মনে করিয়া ঠাকুরের রোমাঞ্চ হইতেছে। যেখানে কাম নাই সেখানে ঈশ্বর বর্তমান। এই কথা মনে করিয়া কি ঠাকুরের ঈশ্বরের উদ্দিপন হইতেছে? * * 

[राखाल हालदार - श्री रामकृष्ण देव की कृपा प्राप्त चिकित्सक। ठाकुर के डॉक्टरों में से एक।बहुबाजार, कलकत्ता के निवासी। राखाल हालदार समय-समय पर काशीपुर में श्रीरामकृष्ण देव  से मिलने जाते थे। ठाकुर उनका मार्गदर्शन करते थे। ]

রাখাল হালদার — শ্রীরামকৃষ্ণের স্নেহধন্য ডাক্তার। নিবাস কলিকাতার বহুবাজারে। ঠাকুরের অন্যতম চিকিৎসক। রাখাল হালদার মাঝে মাঝেই কাশীপুরে ঠাকুরের কাছে যাতায়াত করিতেন। ঠাকুর নানাবিধ উপদেশ দানে তাঁহাকে কৃপা করিয়াছিলেন।]

राखाल हालदार बिदा हो गये । 

Rakhal Haldar took his leave.

রাখাল হালদার বিদায় লইলেন।

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

 🏹ॐ नमो भगवते सम्बुद्धाय  🏹🔱

Om, I salute the Lord, the awakened.

" No One is To Blame "

 ॐ नमः जागृत प्रभु, तत्त्वमसि !--'वह ब्रह्म तुम्हीं हो। ' 🔱

মদ্‌গুরু শ্রীজগৎ গুরু! 

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अब भी बैठे हुए हैं । एक पगली उन्हें देखने के लिए बड़ा उपद्रव मचाया करती है । वह मधुरभाव की उपासना करती है । बगीचे में प्रायः आया करती है । आकर एकाएक श्रीरामकृष्ण के कमरे में घुस आती है, वह ठाकुर देव के प्रति प्रेमिका का भाव रखती है। भक्तगण मारते भी हैं, परन्तु इससे भी वह मौका नहीं चूकती ।

Sri Ramakrishna was seated with the devotees. A crazy woman had been troubling everybody to see the Master. She had assumed toward him the attitude of a lover and often ran into the garden house and burst into the Master's room. She had even been beaten by the devotees; but that did not stop her.

শ্রীরামকৃষ্ণ এখনও ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। পাগলী তাঁহাকে দেখিবার জন্য বড়ই উপদ্রব করে। পাগলীর মধুর ভাব। বাগানে প্রায় আসে ও দৌড়ে দৌড়ে ঠাকুরের ঘরে এসে পড়ে। ভক্তেরা প্রহারও করেন, — কিন্তু তাহাতেও নিবৃত্ত হয় না

शशि - अबकी बार अगर पगली दीख पड़ी तो धक्के मारकर हटा दूँगा ।

SASHI: "If she comes again I shall shove her out of the place!"

শশী — পাগলী এবার এলে ধাক্কা মেরে তাড়াব।

श्रीरामकृष्ण - (करुणापूर्ण स्वर से) - नहीं, नहीं, आयगी तो फिर चली जायगी ।

MASTER (tenderly): "No, no! Let her come and go away."

শ্রীরামকৃষ্ণ (করুণামাখা স্বরে) — না, না। আসবে চলে যাবে।

राखाल - पहले-पहल इनके पास अगर और पाँच आदमी आते थे तो मुझे एक तरह की ईर्ष्या होती थी । उन्होंने कृपा करके अब मुझे समझा दिया है कि वे मेरे भी गुरु हैं और संसार के भी गुरु हैं । वे केवल हमारे लिए थोड़े ही आये हुए हैं ?

RAKHAL: "At the beginning, I too used to feel jealous of others when they visited the Master. But he graciously revealed to me that my guru is also the Guru of the Universe. Has he taken this birth only for a few of us?"

রাখাল — আগে আগে অপর পাঁচজন ওঁর কাছে এলে আমার হিংসে হত। তারপর উনি কৃপা করে আমায় জানিয়ে দিয়েছেন, — মদ্‌গুরু শ্রীজগৎ গুরু! — উনি কি কেবল আমাদের জন্য এসেছেন?

 [ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

" No One is To Blame "

" किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है "

🙋कारो दोष देखो ना !~ श्री माँ सारदा देवी 🙋 

" ॐ नमः भगवते सम्बुद्धाय "

'Om Namo Bhagavate Sambuddhay' 

Om, I salute the Lord, the awakened.

ॐ, प्रबुद्धाय भगवन्तं नमामि।

किं वयं सर्वे सिद्धिं प्राप्य तस्य समीपम् आगताः?

Did we all come to him after attaining perfection? 

🏹कोई भी साधक पूर्ण होने के बाद अपने गुरु (आदर्श) के निकट नहीं जाता 🏹 

शशि - माना कि हमारे लिए ही नहीं आये, परन्तु बीमारी के समय आकर उपद्रव मचाना, यह क्या बात है ?

SASHI: "I don't mean that. But why should she trouble him when he is ill? And she is such a nuisance!"

শশী — তা নয় বটে, কিন্তু অসুখের সময় কেন? আর ও-রকম উপদ্রব।

राखाल - उपद्रव तो सभी करते हैं । क्या सभी उनके पास सच्चे भाव से आये हुए हैं ? क्या हम लोगों ने उन्हें कष्ट नहीं दिया ? नरेन्द्र आदि, सब पहले कैसे थे ? - कितना तर्क करते थे ?

RAKHAL: "We all give him trouble. Did we all come to him after attaining perfection? Haven't we caused him suffering? How Narendra and some of the others behaved in the beginning! How they argued with him!"

রাখাল — উপদ্রব সব্বাই করে। সকলেই কি খাঁটি হয়ে ওঁর কাছে এসেছে? ওঁকে আমরা কষ্ট দিই নাই? নরেন্দ্র-টরেন্দ্র আগে কিরকম ছিল, কত তর্ক করত?

 [ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

 🙋देखा जाय तो दूध का धोया कोई नहीं है । 🙋

If you look closely, no one is as innocent as he appears.

यदि त्वं सम्यक् पश्यसि तर्हि क्षीरं प्रक्षालितः कोऽपि नास्ति।

शशि - नरेन्द्र मुख से जो कुछ कहता था, उसे कार्य द्वारा पूरा भी उतार देता था ।

SASHI: 'Whatever Narendra expressed in words he carried out in his actions."

শশী — নরেন্দ্র যা মুখে বলত, কাজেও তা করত।

राखाल - डाक्टर सरकार ने उन्हें न जाने कितनी बातें कही हैं ! - देखा जाय तो दूध का धोया कोई नहीं है ।

 RAKHAL: "How rude Dr. Sarkar has been to him! No one is guiltless if it comes to that."

রাখাল — ডাক্তার সরকার কত কি ওঁকে বলছে! ধরতে গেলে কেহই নির্দোষ নয়।

श्रीरामकृष्ण - (राखाल से सस्नेह) - तू कुछ खायगा ?

MASTER (to Rakhal, tenderly): "Will you eat something?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (রাখালের প্রতি, সস্নেহে) — কিছু খাবি?

राखाल - नहीं, फिर खा लूँगा ।

RAKHAL: "Not now. Later on."

রাখাল — না; — খাবো এখন।

श्रीरामकृष्ण मणि की ओर संकेत कर रहे हैं कि वे आज यहीं प्रसाद पायें ।

Sri Ramakrishna asked M., by a sign, whether he was going to have his meal there.

শ্রীরামকৃষ্ণ মণিকে সঙ্কেত করিতেছেন, তুমি আজ এখানে খাবে?

राखाल - पाइये न, जब वे कह रहे हैं ।

RAKHAL (to M.): "Please take your meal here. He is asking you to."

রাখাল — খান না, উনি বলছেন।

श्रीरामकृष्ण पंचवर्षीय बालक की तरह दिगम्बर होकर भक्तों के बीच में बैठे हुए हैं ठीक इसी समय पगली जीने से ऊपर चढ़कर कमरे के द्वार के पास आकर खड़ी हो गयी

Sri Ramakrishna was seated completely naked. He looked like a five-year-old boy. Just then the crazy woman climbed the stairs and stood near the door.

ঠাকুর পঞ্চম বর্ষীয় বালকের ন্যায় দিগম্বর হইয়া ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন এমন সময়ে পাগলী সিঁড়ি দিয়া উঠিয়া ঘরের দরজার কাছে দাঁড়াইয়াছে।

मणि - (शशि से, धीरे-धीरे) - उसको ठाकुरदेव को नमस्कार करके जाने के लिए कहो, कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है

M. (in a low voice, to Sashi); "Ask her to salute him and go away. Don't make any fuss."

মণি (শশীকে আস্তে আস্তে) — নমস্কার করে যেতে বল, কিছু বলে কাজ নাই। শশী পাগলীকে নামাইয়া দিলেন।

शशि ने पगली [?] को नीचे उतारकर दिया । आज नये वर्ष का पहला दिन है । बहुत सी भक्त स्त्रियाँ आयी हुई हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण और माताजी को प्रणाम कर आशीर्वाद ग्रहण किया । श्रीयुत बलराम की स्त्री, मणिमोहन की स्त्री, बागबाजार की ब्राह्मणी तथा अन्य बहुत सी स्त्रियाँ आयी हुई हैं ।

Sashi took her downstairs. It was the first day of the Bengali year. Many woman devotees arrived. They saluted Sri Ramakrishna and the Holy Mother. Among them were the wives of Balaram and Manomohan, and the brahmani of Baghbazar. Several of them had brought their children along.

 শশী পাগলীকে নামাইয়া দিলেন। আজ নব বর্ষারম্ভ, মেয়ে ভক্তেরা অনেকে আসিয়াছেন। ঠাকুরকে ও শ্রীশ্রীমাকে প্রণাম করিলেন ও তাঁহাদের আশীর্বাদ লইলেন। শ্রীযুক্ত বলরামের পরিবার, মণিমোহনের পরিবার, বাগবাজারের ব্রাহ্মণী ও অন্যান্য অনেক স্ত্রীলোক ভক্তেরা আসিয়াছেন। কেহ কেহ সন্তানাদি লইয়া আসিয়াছেন।

वे सब की सब श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करने के लिए ऊपरवाले कमरे में गयीं । किसी किसी ने श्रीरामकृष्ण के पादपद्मों में अबीर और पुष्प चढ़ाये । भक्तों की दो लड़कियाँ - नौ-नौ दस-दस साल की - श्रीरामकृष्ण को गाना सुना रही हैं

Some of the women offered flowers at the Master's feet. Two young girls, nine or ten years of age, sang a few songs.

তাঁহারা ঠাকুরকে প্রণাম করিতে উপরের ঘরে আসিলেন। কেহ কেহ ঠাকুরকে পাদপদ্মে পুষ্প ও আবির দিলেন। ভক্তদের দুইটি ৯।১০ বর্ষের মেয়ে ঠাকুরকে গান শুনাইতেছেন:

জুড়াইতে চাই, কোথায় জুড়াই,

        কোথা হতে আসি, কোথা ভেসে যাই।

ফিরে ফিরে আসি, কত কাঁদি হাসি,

        কোথা যাই সদা ভাবি গো তাই ॥

लड़कियों ने दो-तीन गाने सुनाये । 

पहले उन्होंने गाया:

जुड़ाईते चाई, कोथाय जुड़ाई,

कोथा होते आसि, कोथा भेसे जाई।

फिरे फिरे आसि, कोतो काँदी हासी,

कोथा जाई सदा भाबी गो ताई।।

"हम जगत में सुख-शान्ति पाने के लिए छटपटाते हैं, लेकिन अफसोस! वह सुख-चैन कहीं मिलता नहीं है। हम यह नहीं जानते कि हम कहाँ से आते हैं, न ही यह कि हम बहते हुए कहाँ चले जाते हैं। हमें बार-बार मुस्कुराहट और आँसुओं के इस दौर से गुजरना पड़ता है; हम  यह जानने की व्यर्थ लालसा करते हैं कि हमारा मार्ग हमें लक्ष्य तक ले जाता है या नहीं ? तथापि हमें नहीं मालूम कि यह खोखला नाटक हमें खेलना क्यों पड़ता है ?..... 

First they sang: "We moan for rest, alas! but rest can never be found; We know not whence we come, nor where we float away. Time and again we tread this round of smiles and tears; In vain we pine to know whether our pathway leads, And why we play this empty play. . . ."

२. गीत - हरि हरि बोल रे वीणा।

গান   —   হরি হরি বলরে বীণে।

३. गीत -आसछे किशोरी , ओई देखो एलो ; तोर नयन बाँका वंशीधारी। 

वहाँ राधा आती है, और वहाँ अपने कृष्ण को देखती है, उनकी आँखें झुकी हुई हैं और होठों पर बांसुरी है। 

গান  —   ওই আসছে কিশোরী, ওই দেখ এলো;  তোর নয়ন বাঁকা বংশীধারী।

Then: There comes Radha, and there see your Krishna, With arching eyes and the flute at His lips. . . .

4. गीत - दुर्गानाम जपो सदा रसना आमार , दुर्गमे श्रीदुर्गा बीने के कोरे उद्धार ?  

গান   —   দুর্গানাম জপ সদা রসনা আমার,দুর্গমে শ্রীদুর্গা বিনে কে করে উদ্ধার? 

And finally: O tongue, always repeat the name of Mother Durga! Who but your Mother Durga will save you in distress? . . .

श्रीरामकृष्ण ने संकेत द्वारा उन्हें बधाई दी ।-अच्छा है इन्होंने माँ की महिमा का सुन्दर गीत सुनाया है। 

শ্রীরামকৃষ্ণ সঙ্কেত করিয়া বলিতেছেন, “বেশ মা মা বলছে!”

Sri Ramakrishna said by a sign: "That's good! They are singing of the Divine Mother."

ब्राह्मणी का स्वभाव बच्चों जैसा है । श्रीरामकृष्ण हँसकर राखाल की ओर संकेत कर रहे हैं । तात्पर्य यह कि वह उसे भी कुछ गाने के लिए कहे । ब्राह्मणी गा रही हैं -

'हरि खेलबो आज तोमार सने,

एकला पेयेछी तोमाय निधु बने। '   

गीत - अर्थात हे कृष्ण, आज तुम्हारे साथ खेलने को जी चाहता है, आज तुम मधुवन में अकेले मिल गये हो ।....

The brahmani of Baghbazar had the nature of a child. Sri Ramakrishna told Rakhal, by a sign, to ask her to sing. The devotees smiled as the brahmani sang: O Hari, I shall sport with You today; For I have found You alone in the nidhu wood. . . .

ব্রাহ্মণীর ছেলেমান্‌সের স্বভাব। ঠাকুর হাসিয়া রাখালকে ইঙ্গিত করিতেছেন, “ওকে গান গাইতে বল না।” ব্রাহ্মণী গান গাইতেছেন। ভক্তেরা হাসিতেছেন।

‘হরি খেলব আজ তোমার সনে,

        একলা পেয়েছি তোমায় নিধুবনে।’

स्त्रियाँ ऊपरवाले कमरे से नीचे चली आयीं । दिन का पिछला पहर है । श्रीरामकृष्ण के पास मणि तथा दो-एक और भक्त बैठे हुए हैं । नरेन्द्र भी कमरे में आये । श्रीरामकृष्ण ठीक ही कहते हैं कि नरेन्द्र मानो म्यान से तलवार निकालकर घूम रहा है ।

The woman devotees went downstairs. It was afternoon. M. and a few other devotees were seated near the Master. Narendra came in. He looked, as the Master used to say, like an unsheathed sword.

মেয়েরা উপরের ঘর হইতে নিচে চলিয়া গেলেন।বৈকাল বেলা। ঠাকুরের কাছে মণি ও দু-একটি ভক্ত বসিয়া আছেন। নরেন্দ্র ঘরে প্রবেশ করিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ ঠিকই বলেন, নরেন্দ্র যেন খাপখোলা তলোয়ার লইয়া বেড়াইতেছেন।

 [ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

 🏹 🙋संन्यासी के कठिन नियम तथा नरेन्द्र 🏹 🙋

नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण को सुनाकर स्त्रियों के सम्बन्ध में नरेन्द्र बहुत ही विरक्ति-भाव प्रकाशित कर रहे हैं । कहते हैं, 'स्त्रियों के साथ रहकर ईश्वर की प्राप्ति में घोर विघ्न है ।'

Narendra sat down near the Master and within his hearing expressed his utter annoyance with women. He told the devotees what an obstacle women were in the path of God-realization.

নরেন্দ্র আসিয়া ঠাকুরের কাছে বসিলেন। ঠাকুরকে শুনাইয়া নরেন্দ্র মেয়েদের সম্বন্ধে যৎপরোনাস্তি বিরক্তিভাব প্রকাশ করিতেছেন। মেয়েদের সঙ্গ ঈশ্বরলাভের ভয়ানক বিঘ্ন, — বলিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण कुछ कहते नहीं, केवल सुन रहे हैं ।

Sri Ramakrishna made no response. He listened to Narendra.

শ্রীরামকৃষ্ণ কোন কথা কহিতেছেন না, সকলি শুনিতেছেন।

नरेन्द्र फिर कह रहे हैं, 'मैं शान्ति चाहता हूँ, मैं ईश्वर को भी नहीं चाहता ।'

Narendra said again: "I want peace. I do not care even for God."

নরেন্দ্র আবার বলিতেছেন, আমি চাই শান্তি, আমি ইশ্বর পর্যন্ত চাই না। 

श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं । मुख में कोई शब्द नहीं है । नरेन्द्र बीच बीच में स्वर के साथ कह रहे हैं, 'सत्यं ज्ञानमनन्तम् ब्रह्म।' (तै० उ० 2।1।1)

Sri Ramakrishna looked at him intently without uttering a word. Now and then Narendra chanted, "Brahman is Truth, Knowledge, the Infinite."

শ্রীরামকৃষ্ণ নরেন্দ্রকে একদৃষ্টে দেখিতেছেন। মুখে কোন কথা নাই। নরেন্দ্র মাঝে মাঝে সুর করিয়া বলিতেছেন — সত্যং জ্ঞানমনন্তম্‌।

रात के आठ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । सामने दो-एक भक्त भी बैठे हैं । ऑफिस का काम समाप्त करके सुरेन्द्र श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं । हाथ में चार सन्तरे हैं और फूल की दो मालाएँ । सुरेन्द्र एक-एक बार भक्तों की ओर तथा एक-एक बार श्रीरामकृष्ण की ओर देख रहे हैं, और अपने हृदय की सारी बातें कहते जा रहे हैं

It was eight o'clock in the evening. Sri Ramakrishna sat on his bed. A few devotees sat on the floor in front of him. Surendra arrived from his office. He carried in his hands four oranges and two garlands of flowers. Now he looked at the Master and now at the devotees. He unburdened his heart to Sri Ramakrishna.

রাত্রি আটটা। ঠাকুর শয্যাতে বসিয়া আছেন, দু-একটি ভক্তও সম্মুখে বসিয়া। সুরেন্দ্র আফিসের কার্য সারিয়া ঠাকুরকে দেখিতে আসিয়াছেন, হস্তে চারিটি কমলালেবু ও দুইছড়া ফুলের মালা। সুরেন্দ্র ভক্তদের দিকে এক-একবার ও ঠাকুরের দিকে এক-একবার তাকাইতেছেন; আর হৃদয়ের কথা সমস্ত বলিতেছেন।

सुरेन्द्र - (मणि आदि की ओर देखकर) - ऑफिस का कुल काम समाप्त करके आया । मैंने सोचा, दो नावों पर पैर रखकर क्या होगा ? अतएव काम समाप्त करके जाना ही ठीक है । आज एक तो पहला वैशाख है, दूसरे, मंगल का दिन । कालीघाट जाना नहीं हुआ । मैंने सोचा, काली की चिन्ता करके स्वयं ही जो काली बन गये हैं, (और जिसने काली को ठीक से समझ लिया है।') अब चलकर उन्हीं के दर्शन करूँ; इसी से हो जायगा

SURENDRA (looking at M. and the others): "I have come after finishing my office work. I thought, 'What is the good of standing on two boats at the same time?' So I finished my duties first and then came here. Today is the first day of the year; it is also Tuesday, an auspicious day to worship the Divine Mother. But I didn't go to Kalighat. I said to myself, 'It will be enough if I see him who is Kali Herself, and who has rightly understood Kali (घनीभूत भारत माता?) .'

সুরেন্দ্র (মণি প্রভৃতির দিকে তাকাইয়া) — আফিসের কাজ সব সেরে এলাম। ভাবলাম, দুই নৌকায় পা দিয়ে কি হবে, কাজ সেরে আসাই ভাল। আজ ১লা বৈশাখ, আবার মঙ্গলবার; কালীঘাটে যাওয়া হল না। ভাবলাম যিনি কালী — যিনি কালী ঠিক চিনেছেন, তাঁকে দর্শন করলেই হবে

श्रीरामकृष्ण मुस्करा रहे हैं ।

Sri Ramakrishna smiled.

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ঈষৎ হাস্য করিতেছেন।

सुरेन्द्र - मैंने सुना है, गुरु और साधु के दर्शन करने के लिए कोई जाय तो उसे कुछ फल-फूल लेकर जाना चाहिए । इसीलिए फल-फूल मैं ले आया । (श्रीरामकृष्ण से) आपके लिए यह सब खर्च, - ईश्वर ही मेरा मन जानते हैं । किसी को एक पैसा खर्च करते हुए भी कष्ट होता है, पर कुछ लोग लाखों रुपये बिना किसी हिचकिचाहट के खर्च कर डालते हैं । ईश्वर तो हृदय की भक्ति देखते हैं, तब ग्रहण करते हैं

SURENDRA: "It is said that a man should bring fruit and flowers when visiting his guru or a holy man. So I have brought these. . . . (To the Master) I am spending all this money for you. God alone knows my heart. Some people feel grieved to give away a penny; and there are people who spend a thousand rupees without feeling any hesitation. God sees the inner love of a devotee and accepts his offering."

সুরেন্দ্র — গুরুদর্শনে, সাধুদর্শনে শুনেছি ফুল-ফল নিয়ে আসতে হয়। তাই এগুলি আনলাম। আপনার জন্যে টাকা খরচ, তা ভগবান মন দেখেন। কেউ একটি পয়সা দিতে কাতর, আবার কেউ বা হাজার টাকা খরচ করতে কিছুই বোধ করে না। ভগবান মনের ভক্তি দেখেন তবে গ্রহণ করেন।

श्रीरामकृष्ण सिर हिलाकर संकेत कर रहे हैं कि तुमने ठीक ही कहा । सुरेन्द्र फिर कह रहे हैं – “कल संक्रांन्ति थी, मैं यहाँ तो नहीं आ सका, परन्तु घर में फूलों से आपके चित्र को खूब सुसज्जित किया ।"

Sri Ramakrishna said to Surendra, by a nod, that he was right. SURENDRA: "I couldn't come here yesterday. It was the last day of the year. But I decorated your picture with flowers."

ঠাকুর মাথা নাড়িয়া সঙ্কেত করিয়া বলিতেছেন, “তুমি ঠিক বলছ।” সুরেন্দ্র আবার বলিতেছেন, “কাল আসতে পারি নাই, সংক্রান্তি। আপনার ছবিকে ফুল দিয়ে সাজালুম।”

श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र की भक्ति की बात मणि को संकेत करके सूचित कर रहे हैं ।

Sri Ramakrishna said to M., by a sign, "Ah, what devotion!"

শ্রীরামকৃষ্ণ মণিকে সঙ্কেত করিয়া বলিতেছেন, “আহা কি ভক্তি!”

सुरेन्द्र - आते हुए ये दो मालाएं ले लीं, चार आने की ।

SURENDRA: "As I was coming here I bought these two garlands for four annas."

সুরেন্দ্র — আসছিলাম, এই দুগাছা মালা আনলাম, চার আনা দাম।

अधिकांश भक्त चले गये । श्रीरामकृष्ण मणि से पैरों पर हाथ फेरने और पंखा झलने के लिए कह रहे हैं ।

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सोमवार, 15 जुलाई 2024

$🕊 🏹 Subject : "Character Building and Man-Making Education of Swami Vivekananda " YOUTH SEMINAR : 'BE AND MAKE' 🙋हमें नैतिक क्यों होना चाहिए ? 🔱Relevance of Oneness of Existence 🔱 🔱🕊🏹सत्य को जाँचने की तीन कसौटी 🔱🕊🏹 Three criteria to test the Truth" : स्वामी विवेकानन्द की चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा। " महामंडल सांसारिक और आध्यात्मिक आदर्शों का मिश्रण है🕊 🔱The Mahamandal is A blend of worldly and spiritual ideals🏹 🔱 अद्वैत, विशिष्टाद्वैत , द्वैत का अभिप्राय -(The Idea of Advaita) हम क्या हैं ? 🔱 योगाङ्ग अनुष्ठानात् अशुद्धि क्षये ज्ञानदीप्ति: आविवेकख्यातेः। (साधनपाद :28) 🔱क्या यह धर्म- 'मनुष्य बनो और बनाओ' व्यावहारिक है? (Is Religion - 'Be and Make' Practical?) : अगला प्रश्न उपयोगिता का आता है। 3.🔱🕊 पूर्णता (3H विकास) का मार्ग (The Path to Perfection) : स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित : समाधि स्तोत्र (THE HYMN OF SAMADHI) :हिन्दी वि ० साहित्य-6 -पेज 98-102/ शरत चंद्र चक्रवर्ती, शिष्य से वार्तालाप: वर्ष -1898, स्थान - बेलूड़ किराये का मठ):

BE AND MAKE

Youth Seminar

Subject : Character Building and Man-Making Education of 

Swami Vivekananda 

Organized by

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal

(H.O.- Kolkata, W.B.)

Local Office

Vadodara Vivekananda Yuva Mahamandal

C/O Amul Medical 3/A, Kiran Ngar Society;

 Opp. Vrindavan Bus Stop, Waghodia Road, Vadodara. 

Mobile :  9924873446

Venue : Faculty of Social Work, Parul University, Vadodara 

Date : 18th July, 2024 

(Timing : 9:30 am-11:30 am)

Hosted by : Faculty of Social Work, Parul University (Vadodara) 

 

Time

Duration

Topic

Speaker

 

 

5 Minus

Inaugural Song

 Apurba Das,

Principal,  Ramkrishna Mission School, Jamsedpur


 

5 Minus

Swadesh Mantra

 Rasbehari Sahoo, 

Engineer (IOCL) 

Vadodara, Gujrat  

 

 

5 Minus

Keynote Address

 K J N Singh,

Founder Secretary of

Vadodara Vivekananda Yuva

Mahamandal


 

10 Minus

Inaugural Address

M N Parmar (Dean)  

 (Faculty of Social Work) 

Parul University

 (Vadodara)

Dipak Makvana

(professor) 

Secretary

Vadodara Vivekanand Yuva Mahamandal


 

5 Minus

Song

Apurba Das

 

 

30 Minus

Solving Youth Problems through Swami Vivekananda’s Ideas of Education 

Sri Jugal Pradhan

Principal

Dashagram Govt. High School, 

(W.B) 

(Central representative ABVYM)

 

5 Minus

Song

Apurba Das

 

 

30 Minus

Mind and Its Control

Anup Dutta 

Electrical Engineer

(W.B)

(Central Representative ABVYM) 


 

20 Minus

Todays Take Aways

Apurva Das

Principal,  Ramkrishna Mission School, Jamsedpur,

Jharkhand 

(Central Representative

ABVYM)

 

 

5 Mins

Closing Address

Sri P R Das,

Senior member,

of

 The Mahamandal 

(Central Representative of ABVYM) 

 



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BE AND MAKE

Youth Seminar

Organized by

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal

VenueFaculty of EngineeringSigma University, Vadodara, Gujrat

Date : 18th July, 2024  

(Timing : 12:00 pm -2:00 pm)  

Hosted by : Faculty of Social Work, Sigma University, Vadodara


Time

Duration

Topic

Speaker

 

 

5 Minus

Inaugural Song

Apurba Das

Principal, Ramakrishna-Mission High School, Jamshedpur 


 

5 Minus

Swadesh Mantra

Rasbehari Sahoo

Engineer 

(IOCL)

Vadodara , Gujrat  


 

5 Minus

Keynote Address

(मुख्य भाषण) 

KJN Singh,

 Founder Secretary 

of

Vadodara Vivekananda Yuva Mahamandal


 

10 Minus

Inaugural Address

Jagdish Solanki

Dean

(संकायाध्यक्ष)  

Faculty of Social Work,

Sigma University

Vadodara


 

5 Minus

Song

Apurba Das

Principal, 

Ramkrishna Mission High School, Jamshedpur 

 

 

30 Minus

Solving Youth Problems through Swami Vivekananda’s Ideas of Education

 

Jugal Pradhan,

Principal 

Dashgram Govt. High School, (W.B.)

(central representative of ABVYM)


 

5 Minus

Song

Apurba Das

 

 

30 Minus

Mind and Its Control

Anup Dutta

Electric Engineer, Kolakata  (W.B)

Central Representative

ABVYM


 

20 Minus

Today’s Take Aways


Apurba Das

(Central Representative ABVYM)


 

5 Minus

Closing  Address

(समापन भाषण) 

Sri P R Das,

Senior member of the Mahamandal  

(Central Representative-ABVYM)




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BE AND MAKE

Youth Seminar

Organized by

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal

Venue: Dr B R Ambedkar Hall, M S University, Vadodara, Gujrat

Date : 19th July, 2024  (Timing : 12:00 pm -2:00 pm)  

Hosted by : Faculty of Social Work, M S University, Vadodara


Time

Duration

Topic

Speaker

 

 

5 Minus

Inaugural Song

Apurba Das

Principal, Ramakrishna-Mission High School, Jamshedpur 


 

5 Minus

Swadesh Mantra

Rasbehari Sahoo

प्रोडक्शन Engineer 

(IOCL)

Vadodara , Gujrat  


 

 

5 Minus

Keynote Address

KJN Singh, Founder Secretary 

of 

Vadodara Vivekananda Yuva Mahamandal 


 

10 Minus

Inaugural Address

 

 

 

 

5 Minus

Song

Apurba Das

 

 

30 Minus

Solving Youth Problems through 

Swami Vivekananda’s Ideas of Education   


Apurba Das,

Principal, Ramakrishna-Mission High School, Jamshedpur 

(Central Representative ABVYM)   

 

 

5 Minus

Song

Apurba Das

(Central Representative ABVYM)


 

30 Minus

Mind And Its Control

Jugal Pradhan

Principal 

Dashgram Govt. High School 

(W.B.)

(central representative of ABVYM)


 

20 Minus

Today’s Take Away 

[A conclusion drawn based on the facts or information presented. 

(पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन के माध्यम से प्रस्तुत तथ्यों या जानकारी के आधार पर निकाला जाने वाला निष्कर्ष। ) 


The main point or key message to be learned or understood from something experienced or observed.

PowerPoint presentations are often used to support an oral presentation.  

(अनुभव या देखी गई किसी चीज़ से सीखा या समझा जाने वाला मुख्य बिंदु या मुख्य संदेश।)

पावरपॉइंट प्रस्तुतियों का उपयोग 

अक्सर मौखिक प्रस्तुति को समर्थन देने के लिए किया जाता है।


Anup Dutta 

Electrical Engineer, Kolkata (W.B)

 Central Representative.  Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal

 

 

5 Minus

Closing Address

Bijay Kumar Singh, 

Vice President,

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal 


Total Duration  

120 Minus

 

 


Youth Seminar 

Venue: Faculty of Social Work, Parul University, 

 Vadodara, Gujrat. 

[Subject: Character Building and Man-making Education of
 Swami Vivekananda.]
  
organized by 

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal 

Local Address : Amul Medical . 

[3/A Kiran Nagar Society, Opp- Vrindavan Bus Stop,
 Waghodia Road, Vadodara, 

Mobile : 9924873446 ]

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युवा संगोष्ठी 

विषय: स्वामी विवेकानन्द की चरित्र निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा 

आयोजक: अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल 

[स्थानीय कार्यालय : वडोदरा विवेकानन्द युवा महामण्डल, अमूल मेडिकल, [3/ए किरण नगर सोसाइटी, वृंदावन बस स्टॉप के सामने,
वाघोडिया रोड, वडोदरा|]  

आतिथेय (Host) : पारुल विश्वविद्यालय, वडोदरा, गुजरात   
      
स्थान: समाज कार्य संकाय, पारुल विश्वविद्यालय, वडोदरा, गुजरात।

दिनांक: 18 जुलाई, 2024

समय: 2 घंटे (सुबह 10:00 बजे से 12:00 बजे तक)

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 [“असतो मा सद्गमय” का अर्थ है “हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो।” यहाँ ‘असत्य’ का तात्पर्य , भ्रान्ति, या सम्मोहित अवस्था (hypnotized state-अवास्तविकता) से है, और ‘सत्य’ का अर्थ है -समाधि में उपलब्ध एकत्व (ईश्वर ,जीव और जगत के Oneness) का वास्तविक ज्ञान, इन्द्रियातीत सत्य या उच्च सत्य (4 महावाक्य) की अनुभूति।

“तमसो मा ज्योतिर्गमय” का अर्थ है “मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।” 
यहाँ ‘अंधकार’ अज्ञान, अविद्या, या मोह का प्रतीक है, और ‘प्रकाश’ ज्ञान, जागरूकता, और सच्चाई का।
“मृत्योर्मामृतं गमय” का अर्थ है “ मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।” 
यहाँ ‘मृत्यु’ शारीरिक और आत्मिक मृत्यु, संघर्ष, या अंत का प्रतीक है, जबकि ‘अमरता’ आत्मिक मुक्ति, स्थायित्व, या अनन्त जीवन को दर्शाता है।

“ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः” का आह्वान तीन प्रकार की शांति- आध्यात्मिक, आधिभौतिक, और आधिदैविक के लिए किया गया है। यह मंत्र यह प्रार्थना करता है कि हम सभी प्रकार के दुःख और विघ्नों से मुक्त होकर शांति को प्राप्त करें| 
  अंधकार यानी अविद्या आदि पंचक्लेशों कि बुराई और बुरी आदतों को त्यागकर, प्रकाश यानी कि सत्य के पथ पर उन्मुख होना ही वास्तविक साधना और आध्यात्म है। लेकिन सांसारिकता से भरा हुआ मनुष्य (या तीन प्रकार की ऐषणाओं में आसक्त मनुष्य) अक्सर भौतिकता और भौतिक चीजों को एकत्र करने की जोड़-तोड़ में ही जीवन गुजार देता है; और इस श्लोक के वास्तविक मर्म को समझ नहीं पाता है। 
 यह श्लोक मनुष्य को इसी बात के लिए प्रेरित करता है कि वह अपने अंतस में व्याप्त अंधकार से बाहर निकलकर प्रकाश के मार्ग पर चले ! इस प्रकार, यह मंत्र आध्यात्मिक जागृति, आत्मज्ञान की प्राप्ति और आंतरिक शांति की खोज में मार्गदर्शन करने के लिए एक गहन प्रार्थना है। इसे अक्सर मेडिटेशन, योगाभ्यास, और आध्यात्मिक चर्चा का प्रारम्भ - करने से पहले  पाठ किया जाता है। https://www.youtube.com/watch?v=b756kRSQdMo&t=186s]


(1)

🕊🙋🏹 हमें नैतिक क्यों होना चाहिए ?🕊 🏹 🙋

[वेदान्त में कथित -अस्तित्व के एकत्व  तथा अन्तर्निहित दिव्यता की प्रासंगिकता। 

Relevance of Oneness of Existence and Inherent Divinity]  

ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । 

मृत्योर्मा अमृतं गमय । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

(– बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28)

सभा में उपस्थित परम श्रद्धेय सन्त -महात्मा जन,  अतिथिगण हैं, शंकरदूत जो यहाँ उपस्थित हैं आप;  सबको प्रणाम करता हूँ और शिक्षार्थियों भाइयों का स्वागत है। आज का विषय, थीम है - एकात्मता या एकत्व की जो प्रासंगिकता है, उसके विषय कुछ कहना चाहते हैं।   मूल विषय पर आने से पहले थोड़ा हम थोड़ा इस बात पर विचार करेंगे कि " स्वामी विवेकानन्द की चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा " का पालन करते हुए हमें नैतिक क्यों बनना चाहिए ?  
      >>वेदान्त का मूल सिद्धान्त एकात्मता या अखण्ड भाव है -Central idea of Vedanta is Oneness.स्वामी विवेकानन्द कहते थे कि वेदान्त- में नैतिक होने के दो कारण कहे गए हैं। एक तो है हमारा अन्तर्निहित देवत्व -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! और दूसरी बात है, समस्त अस्तित्व का एकत्व- 'Oneness of all existence'। अतएव वेदान्त का (Central idea) -मूल सिद्धात है समस्त अस्तित्व का एकत्व (Oneness of all existence) और हमारी अंतर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity)। 

     सत्य की जांच के तीन मानदंड (Three criteria to test the Truth) : स्वामी विवेकानन्द ने सत्य को जाँचने की तीन कसौटी दिये हैं।  हमलोग असत्य से सत्य की ओर हम जा रहे हैं या नहीं ? कोई बात सत्य है या असत्य, इसका परीक्षण कैसे करें? How to test whether something is true or not ? 
 एक जगह वे कहते हैं - " जिसे हम विवेक (scientific thinking,या सत्-असत-मिथ्या का फर्क करना) कहते हैं, उसका अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में एवं प्रत्येक कार्य में प्रयोग करने की क्षमता अर्जित करने के लिए हमें सत्य को जाँचने की कसौटी के विषय में जान लेना चाहिए-          
 1. " जिससे एकत्व (Oneness) की प्राप्ति हो, वही सत्य है। प्रेम सत्य है; घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है।" (Everything that makes for oneness is truth. Love is truth and hatred is false, because hatred makes for multiplicity. It is hatred that separates man from man; therefore it is wrong and false.) जो विचार Oneness लाता है, एकत्व की ओर ले जाता है, वह सत्य है। जो बांटता है (जो मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है) वह सत्य नहीं है। तो जो एकत्व की और ले जाता है, वो बात सत्य है और जो भेद सृष्टि करता है -वो सत्य नहीं है, यह बात जान लो !" 
" माया के आवरण से बाहर निकलने का एकमात्र मार्ग है  'सत्य का अनुभव करना।' और सभी उपनिषद, यह सत्यानुभव (समाधि) किसे कहते हैं, यही समझाते हैं। (व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-8/15-27)      

      दूसरे जगह में कहा है-The second criterion of truth is unselfishness,  सत्य की दूसरी कसौटी है निःस्वार्थपरता  -Unselfishness is true, निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है, जो स्वार्थ-परता है वह सत्य नहीं है।
सत्य की तीसरी कसौटी है - जो शक्तिप्रद है, जो तुमको बल प्रदान करता है,वो सत्य है -उसको लो। जो कुछ भी शक्ति-प्रद है, जो तुमको बल प्रदान करता है,वो सत्य है -उसको ग्रहण करो। और जो तुमको दुर्बल बनाता है, उसको विष की तरह दूर से ही त्याग दो।  Whatever gives you Energy,  whatever gives you strength, that is the truth – take it. And whatever weakens you, avoid it like poison.
    तो सत्य (ईश्वर) को जानने के तीन कसौटी हैं - पहली कसौटी एकत्व (Oneness- प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म) है। सत्य की दूसरी कसौटी Unselfishness- जो हमे निःस्वार्थ बनाता है -वो सत्य है। तीसरी कसौटी है -शक्ति। Strength जो शक्तिप्रद या बलप्रद है, वो सत्य है। जो हमें दुर्बल बनाता है, वो असत्य है , उसे विष की तरह दूर से ही त्याग दो। 
     " वेदान्त सबसे पहले मनुष्य को अपने आप पर विश्वास करने के लिए कहता है। जिस प्रकार पुराना धर्म कहता था कि जो व्यक्ति अपने से बाहर किसी सगुण ईश्वर पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है, इसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। वेदान्त केवल यही घोषणा नहीं करता कि -" आदर्श को कार्यान्वित किया जा सकता है, अपितु यह भी कहता है कि आदर्श तो हमलोगों को पहले से ही प्राप्त है। और जिसे हम आदर्श कहते हैं वही हमारी प्रकृत सत्ता है -वही हमलोगों का स्वरुप है। एक शब्द में अद्वैत वेदान्त का उपदेश है -'तत्त्वमसि' - तुम्हीं वह ब्रह्म हो ! (8/5,6,7) 

        🔱अद्वैत वेदान्त की Oneness की उपयोगिता क्या है ? यह हमें खुली आँखों से ध्यान करना सिखाता है। - हर धर्म में एक Common Principle है, जिसको Golden rule कहा जाता है। हर धर्म में है -  यही सुनहरा नियम है -"दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा आप उनसे अपेक्षा रखते हो।" जो हमारे शास्त्रों में कई जगह कहा गया है। "To treat others as you would have them treat you."  - [पैगम्बर मोहम्मद ने बताया -सच्चा मुसलमान कौन है ? जो इस नियम पर चलता है।] वेदान्त में ये बात कई जगह में है , आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः । जो सब प्राणी को स्वयं की भाँति (आत्मवत्) देखता है वही पंडित है । उपनिषदों में है, गीता में है- जिसको 'परमयोगी' कहा जाता है (स्वामी विवेकानन्द या C-IN-C नवनीदा जैसा योगी)  वह जगत को कैसे देखता है ? गीता [आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।6.32।। ] में श्रीकृष्ण कहते हैं -
"आत्मौपम्येन सर्वत्र ":  Oneness की अनुभूति करके , समाधि से लौटा हुआ योगी  सर्वत्र - सब में, हर किसी में अपने आप को देखता है। सुखं वा यदि वा दुःखं- जो हमको सुख देता है , वह उसको भी सुख देगा। हमको जिससे कष्ट होता है, उसको भी उसीसे कष्ट होता है। जैसे हम अपने कष्ट के निवारण की चेष्टा करते हैं , वैसे ही हमें दूसरों के कष्ट-निवारण की चेष्टा करनी चाहिए। जैसे अपने सुख के लिए हम काम करते हैं, वैसे ही दूसरों के सुख के लिए भी काम करना चाहिए। जो ऐसा करता है , वही सबसे उत्कृष्ट परम योगी है। -So this is the golden rule-इस बात को हमारे शास्त्रों में कई स्थानों पर कहा गया है। 
   लेकिन यहाँ प्रश्न उठता है कि मैं दूसरों के सुख-दुःख को अपने जैसा क्यों देखूं ? हम चाहते हैं कि सब हमसे अच्छा व्यवहार करें, पर मैं सब किसी से अच्छा व्यवहार क्यों करूँ ? मेरे मतलब की बात नहीं हो तो हम दूसरों से दुर्व्यवहार क्यों न करें ? विवेकानन्द पूछते हैं -यदि इससे मुझे लाभ पहुँचता हो तो मैं किसी अन्य व्यक्ति को क्यों चोट न पहुँचाऊँ या उसे वंचित न करूँ? इसके पीछे तर्क क्या है ? इसका लॉजिक क्या है ?-What is the logic of Golden rule ? Why should I not hurt or deprive another person, if it is to my advantage? what is the logic of this golden rule ? -इसके पीछे का तर्क Oneness है, एकत्व की अनुभूति है जो आपको सिर्फ वेदान्त में मिलेगा। क्योंकि हम सब एक हैं। एक ही सत्ता में ये सारी दुनिया भास रही है। यदि किसी दूसरे को हम नुकसान पहुँचाते हैं, तो गहरे अस्तित्वगत अर्थ में, हम स्वयं अपने को भी हानि पहुँचाते हैं। हमलोगों को पता नहीं चलता हैं , हमलोग सोचते हैं कि दूसरों को ठग कर Exploit करके हम अपना फायदा उठा रहे हैं। जिसको लगता है कि वो दूसरा है।  वास्तव में वो दूसरा है नहीं। (5.38)/ वो अपना आपा ही है, लेकिन प्रतीत होता है कि वो अलग है।  
स्वप्न का दृष्टान्त लीजिये। जैसे स्वप्न में जिसको भी हम देखते हैं , वो हमसे अलग नहीं है। हम ही उस रूप में दिखाई दे रहे हैं। वेदान्त कहता है एक ही आत्मा सब में है , इसीलिए सबसे सुन्दर व्यवहार, सबसे नैतिक व्यवहार, सबसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।  क्योंकि मेरी ही आत्मा उस रूप में दिखाई दे रही है। समस्त प्रकार की नैतिकता का आधार यही है।  विवेकानन्द कहते हैं -किसी व्यक्ति को नैतिक क्यों होना चाहिए ? नैतिकता का आधार क्या है ? -इसका आधार सिर्फ अद्वैत वेदान्त में बतलाया गया है। Metaphysically -आध्यात्मिक दृष्टि से हम सभी एक हैं! इसलिए नैतिकता आवश्यक हो जाती है। यह बहुत बड़ी समस्या है, दर्शनशास्त्र में आजतक इस पर बहस चल रहा है। उत्तर है अद्वैत के एकत्व में।  "दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा आप उनसे अपेक्षा रखते हो।" 'It is the foundation of all ethics' यह एकत्व की अनुभूति ही -यह सभी नैतिकता का आधार है! 
मूल समस्या यही है कि हमें नैतिक क्यों होना चाहिए ? और उसका उत्तर केवल अद्वैत वेदान्त से ही प्राप्त होता है। उसका कारण है -अस्तित्व का एकत्व, Oneness of all existence ! एकत्व की अनुभूति से ही नैतिकता की बुनियाद प्राप्त होती है। 

{मूल विषय पर अब आएंगे - अभी अभी मैं सोंच रहा था -आज का विषय है Oneness की प्रासंगिकता। लेकिन हमलोगों एकत्व और दो लेक्चर सुनने को मिल रहा है। विषय है एकत्व लेकिन भाषण होगा दो।   
   मतलब आप जब तक शरीर में हैं , द्वैत से (मिथ्या अहं से ?) पीछा छुड़ा नहीं सकते हैं। आप एकत्व की और बढ़ेंगे लेकिन द्वैत आपका पीछा करता ही रहेगा ! आप द्वैत से ही अद्वैत की ओर बढ़ेंगे। अब हम यह विचार करेंगे कि कैसे हम द्वैत से अद्वैत में पहुँचते हैं ? मेरे भाषण का आधार है आचार्य शंकर का प्रसिद्ध प्रकरण ग्रंथ -अपरोक्ष अनुभूति ! उस ग्रंथ से कुछ विचार हम आपके सामने रखेंगे , फिर प्रश्नोत्तरी होगी। हमारे समक्ष आज का Menu (व्यंजन-सूचि, या भोजन सूचि) यही है। तो अपरोक्ष अनुभूति ; यह शब्द भी अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। अद्वैत वेदान्त का Subject Matter , विषय - वस्तु क्या है ? एक होता है - प्रत्यक्ष';  जैसे अभी मैं आप लोगों को देख रहा हूँ, आप लोग भी मुझको देख रहे हैं। हमलोग पांचों इन्द्रियों से रूप-रस-गंध -शब्द और स्पर्श आदि समस्त विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। इसको प्रत्यक्ष कहा जाता है -जिसका ज्ञान हमको प्रत्यक्ष धारणा से , Direct perception से प्राप्त होता है। यर प्रत्यक्ष है। लेकिन हमारे पंचेन्द्रियों से भी जो परे है - उसका ज्ञान , उसकी धारणा भी हमलोगों को होती है। उसको कहते हैं परोक्ष -जिसका ज्ञान हमें पुस्तकों या शास्त्रों द्वारा प्राप्त होता है। जिसके बारे में स्कूल में या कॉलेज की पुस्तकों पढ़ते हैं। हम विज्ञान की प्रक्रिया से सौर मण्डल के घूर्णन पथ का अनुमान लगाते हैं। अलग-अलग प्रकार का विज्ञान सीखते हैं। शास्त्र धर्म का भी ज्ञान होता है। लेकिन ये प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं , परोक्ष है। क्योंकि ये इन्द्रियग्राह्य नहीं है। इसकी धारणा प्रत्यक्ष रूप से नहीं परोक्ष रूप से होती है। तो एक प्रत्यक्ष ज्ञान है , और दूसरा परोक्ष ज्ञान है। और एक ज्ञान है जिसकी धारणा अपरोक्ष रूप में होती है। ये जो अभी देख रहे हैं , सुन रहे हैं, सोंच रहे हैं , ये सब हमारे सामने उद्भासित हो रहा है। हमें सभी चीजों की लगातार अनुभूति हो रही है। We are having the first person experience, हमारे मन में जितनी वृत्तियाँ उठ रही हैं , वो जो साक्षी है, चैतन्य है -consciousness है, उससे हम लोगों को अनुभव हो रहा है। इसको कहते हैं अपरोक्ष। इससे भी आगे बढ़कर वो है ब्रह्म , जो चैतन्य खुद है। उसके लिए उपनिषद में कहा गया है 'साक्षात् अपरोक्ष' यहाँ, शंकराचार्य जी दो अर्थ में अपरोक्ष शब्द का व्यवहार कर रहे हैं। एक साक्षी भाव है , जिसका अनुभव हम चैतन्य से करते हैं। और consciousness खुद भी अपरोक्ष है। 
ये अपरोक्ष अनुभूति जो ग्रन्थ है ,उसमें आदि शंकराचार्य कुछ विचार रखते हैं। विचार किसके बारे में ?

        हम क्या हैं? Who am I ? हम कौन हैं ? ये विचार भी ठीक नहीं है - ये तो हम अपने resume [बायोडाटा -CV -शैक्षणिक कार्यानुभव में (M/F)] नाम आदि लिखते हैं। वह सब Who am I ? में आ जाता है लेकिन What am I ? (10.54)  क्या हम केवल रक्त-मांस-हड्डी से निर्मित एक शरीर हैं ? क्या हम एक विचार, स्मृति या कोई कहानी (narrative) हैं? क्या हम शरीर-और मन का समुच्य (combination) हैं ? क्या हम यह व्यक्ति हैं ? या इससे परे कुछ हैं ? यही प्रश्न है - हम क्या हैं ? यह एक अनुसन्धान (enquiry) का विषय हैउपनिषद तो सीधे शब्दों में कहता है - आप वह नहीं हैं , आप शिव हैं - चिदानन्द रूपः शिवोहं ! इतना सुंदर chanting हमलोग अभी सुन रहे थे। 
    
दूसरा पर्दा और फिल्म का उदाहरण : जैसे कोई बच्चा यह नहीं जानता हो कि सिनेमा क्या है ? (17. 43) वैसे आज कोई वैसा बच्चा मिलना मुश्किल है। जाने के पहले पिता उसे समझा देते हैं कि बाबू देखो, वहाँ एक पर्दा होगा, उस पर चित्र- छवि चलेगा। उसको सिनेमा कहते हैं। अंदर जाते है तो -फिल्म शुरू हो गयी होती है। मुश्किल तो यही है। जब हम जन्म लेते हैं - तब फिल्म शुरू हो गयी होती है। बीच में आते हैं हमलोग। शुरू से आते तो पकड़ आ जाता। लेकिन हमारा जब जन्म होता है - तब माता -पिता हैं। स्कूल -कॉलेज है - सब दुनिया चल रही है। बीच में हम हाजिर हो जाते हैं। सभी लोग सिनेमा देखने में मग्न हो जाता है। कुछ देर बाद बच्चे के मन में जिज्ञासा होती है। पिताजी आप कह रहे थे कि पर्दा है वहाँ। कहाँ हैं पर्दा आप दिखाइए। (19.11) कल्कि -के पीछे, अश्वस्थामा के पीछे पर्दा है। सभी दृश्य को हटा दो। समझायें कैसे? दीवाल पर कोई पिक्चर है - ये हैं ब्रह्म ! अच्छा ये शरीर ब्रह्म है। मैं परब्रह्म हूँ ? ये मुश्किल रह जाती है। इसकेलिए 'अध्यारोप अपवाद का टेक्निक' लगाया जाता है। पहले श्रुति या उपनिषद को सुना जाता है, फिर युक्ति से लॉजिक से -बुद्धि से समझना है। तर्क करके ब्रह्मज्ञान नहीं होता है पर युक्ति से पहले हमको समझाया जाता है। तर्क करने से हमारा जो अज्ञान है , जो भ्रम है -जो कन्फ्यूजन है - वह दूर हो जाता है।  विवेकानंद कहते हैं बुद्धि युक्ति एक सफाईकर्मी की तरह है -Vivekananda says Intellect is like a sweeper - वह सारा कचड़ा साफ कर देती है। 
        हम क्या हैं ?  What am I ? के जवाब में तीन युक्तियाँ। हम ये शरीर हैं ? लेकिन यह तो परिवर्तनशील है। जन्म जब हुआ था , नन्हे थे तब प्राइमरी स्कूल, हाई स्कूल में गए , कॉलेज का फोटो -कितना अन्तर है ? वजन , लम्बाई , चेहरे में शरीर कितना बदलता गया ? शरीर विकारी है , हर समय इसमें विकार हो रहा है। जो इसका द्रष्टा है, साक्षी है वो भी हम ही हैं। द्रष्टा और दृश्य दोनों कभी एक नहीं हो सकते हैं। घट-द्रष्टा घटात भिन्नः - शरीर निरंतर परिवर्तनशील है, लेकिन मैं एक साक्षी के रूप में अनुभव करता हूँ कि मैं अपरिवर्तनीय हूँ ! तो हम निर्विकार हैं - और यह शरीर सवीकार है - दोनों कभी एक नहीं हो सकते हैं। subject और object कभी एक नहीं होता है। आँख किसको देख सकता है ? जो आँख से अलग है -कुछ हट कर है। आँख कभी अपने आप को नहीं देख सकती है। पंचइन्द्रिय ही शरीर को दृश्य बना देते हैं।          स्वीकार-निर्विकार,  द्रष्टा-दृश्य एक अलग युक्ति है, और चेतन -जड़ अलग युक्त है। पुष्प चेतन है या जड़ है। जिसको आप ऑब्जेक्ट बना सकते हैं , शरीर जड़ है। हम शरीर को जानते हैं , शरीर हमको नहीं जान सकता है।
मन -भी हम नहीं है। क्योंकि सबसे ज्यादा यही बदलता है। मन के परिवर्तन को भी मैं देख रहा हूँ। दुःख -सुख मन में है। मन का आधुनिक फिलॉसफी अभी शिशु रूप में है। मन और चेतन का फर्क अभी तक नहीं समझा है। consciousness तो अंग्रेजी शब्द है, चैतन्य -चित -बोधि -संवित ये संस्कृत शब्द हैं। अंग्रेजी जो हम देख रहे हैं , सुन रहे हैं उसको भी वे consciousness कहते हैं। consciousness और मन में क्या अन्तर है ? अभी गाय के विषय में सोचें - ये तो मन की एक वृत्ति है -जो अ , आ, गाय बोल रही है। हमने उसको जाना , लेकिन वो गाय या अक्षर भी हमको जान रही है ? नहीं। 
     तो हम क्या हैं ? (33.31) हम शरीर और मन के द्रष्टा हैं-चेतन हैं , निर्विकार हैं ; इसीको कहते हैं आत्मा, इसीको कहते हैं -चैतन्य , इसको ही पुरुष -बहुत सारे पारिभाषिक शब्द हैं। देहात्मभेद में दो को अलग कर देंगे तो -फिर से द्वैत में फंस जायेंगे। इसमें एकत्व कहाँ है ? इसका फायदा यह समझना है कि द्रष्टा -दृश्य से अलग होता है। 
      एक और सूक्ष्म बात द्रष्टा तो दृश्य से अलग है - किन्तु क्या दृश्य द्रष्टा से अलग है? (36.13एक उदाहरण : स्वप्न-दृष्टान्त - स्वप्न चल रहा है , और मुझे पता नहीं है कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ। 

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई।।

जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई।।

भावार्थ-
इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता।

स्वप्न में हमने बहुत से लोगों को देखा-हॉल को देखा -कुछ घटनाओं को देखा। जब स्वप्न से हम जाग गए तो हमें पता चल गया कि हम उस कल्पना से अलग हैं। जो कुछ मैं देख रहा था , वह मेरी कल्पना थी। हमें पता चल गया कि हम स्वप्न के द्रष्टा हैं। स्वप्न के व्यक्तियों से, स्वप्न की वस्तुओं से , स्वप्न के देश -काल से हम अलग हैं ! लेकिन वो देश-काल वो वस्तु जो हमने स्वप्न में देखा - वो हमसे अलग है ? नहीं, स्वप्न का देश-काल-वस्तु हमसे अलग नहीं हैहमारा ही मन , हम खुद उसको project कर रहे हैं। व्यक्त कर रहे हैं, प्रक्षिप्त कर रहे हैं। 
ये देखिये - यहाँ पीछे ये पिक्चर है -यह पर्दा है; इस स्क्रीन पर यह पिक्चर projected हैस्क्रीन तो पिक्चर से अलग है ! पर्दा -पिक्चर से अलग है , क्यों अलग है ? आप पिक्चर हटा दीजिये - फिर भी स्क्रीन रह जायेगा। आप वहाँ कोई दूसरा पिक्चर लगा दीजिये - स्क्रीन वही का रह जायेगा। लेकिन पिक्चर क्या पर्दा से अलग है ? नहीं , पिक्चर स्क्रीन से अलग नहीं रह सकता है। हवा में पिक्चर नहीं रह सकता। आजकल 3D पिक्चर आगये हैं ; लेकिन हवा में ऐसे पिक्चर को नहीं टांगा जा सकता। पिक्चर का आधार है स्क्रीन। पिक्चर का आधार पिक्चर से अलग है , लेकिन पिक्चर अपने आधार से अलग नहीं है।
एक दूसरा उदाहरण - ये पोडियम ! हमारे सामने है , जो काठ की बनी हुई है। ये काठ टेबल से अलग है। टेबल का जो उपादान है काठ -वो टेबल से अलग है। क्योंकि इसके पहले ये वृक्ष था , उसकी लकड़ी से टेबल बना। टेबल टूट जाये तो फिर काठ का टुकड़ा हो जायेगा। टेबल नहीं रहेगा। लेकिन ये टेबल क्या काठ से अलग है ? नहीं -काठ हटा लीजिये कोई टेबल नहीं रहेगा। उसी तरह ये जो दृश्य जगत है , सवीकार जगत है, जड़जगत है , परिवर्तनशील जगत है,   उसको हमने अपने से अलग किया। ये जो दृश्य -सवीकार देह है, जड़ -परिवर्तनशील शरीर है। सवीकार मन है -इन सबको अपने से अलग किया। क्योंकि हम इसके द्रष्टा, निर्विकार -चेतन (Consciousness) हैं - ये बात ठीक है। लेकिन जिसको हमने अलग किया वो वास्तव में अलग है ही नहीं। आचार्य शंकर ने अपरोक्षानुभूति ग्रन्थ में कहा है - 

कार्ये हि कारणं पश्येत्, पश्चात् कार्यं विसर्जयेत् ।
कारणत्वं ततः गच्छेत्, अवशिष्टं भवेत्-मुनिः ॥

(अपरोक्षानुभूति : 139)   

पहले कार्य  को देखकर (मन या अन्तःकरण को देखकर) उसके कारण (मन वस्तु -चित्त) का निश्चय करो,  उसके बाद कार्य का (मन,बुद्धि ,चित्त और मिथ्या अहंकार M/F भाव का ) त्याग कर दो।  कार्य का त्याग कर देने पर ( M/F भाव का या मिथ्या अहं के नाम-रूप का त्याग कर देने पर) देखोगे कि कारण (शाश्वत चैतन्य) आप ही अवशिष्ट रह जाता है।  इसी प्रकार कार्य (मिथ्या अहंकार) के वर्जित होने से मुनिगण स्वयं चिन्मय स्वरूप (सच्चिदानन्द स्वरुप) हो जाते हैं ॥ १३९ ॥

(39.09) जगत कार्य है - इसमें पहले कारण को देखो। पहले कार्य में कारण को देखो , जिससे ये बना है , इसके उपादान को - इसके reality को  देखो, जिससे ये बनी है उसको देखो।  बाद में कार्य (नाम-रूप) को विसर्जित कर दो।  घट दृष्टा घटात भिन्नः -वो घड़े का उदाहरण देते हैं - घड़ा कार्य है, घट effect है। उसका कारण क्या है ? उसका उपादान क्या है ? वो मिट्टी से बनी है। तो पहले घड़े में आप मिट्टी देखिये, कार्य में कारण देखिये , घट में मिट्टी देखिये। देख लिया। टेबल में काठ देखिये। (40.08) लहर में पानी देखिये, आभूषण -जेवर में सोना देखिये। देख लिया ? अब उसके बाद - पश्चात्  कार्यं  विसर्जयेत्
उसके बाद कार्य को (घड़े के नाम -रूप को) विसर्जित कर दीजिये । घड़ा को मन से हटा दीजिये। कैसे ? घड़ा को जब हम नजदीक से देखेंगे तो क्या देखेंगे ? यही कि वो मिट्टी से बना है। घड़े में मिट्टी उसके कण कण में व्याप्त है -अनुस्यूत है घड़े में। ओतप्रोत है मिट्टी। इस कपड़ा में सूत कहाँ हैं ? ओतप्रोत है उसमें। लहर में पानी कहाँ है ? ये लहर पानी से बना है। पानी कारण है - कार्य लहर है। लहर में नाम-रूप है -उसका व्यवहार है -लहर में केवल पानी ही पानी है। कार्य को विसर्जित करने पर क्या बचेगा ?  घट नाम की कोई ठोस वस्तु है ही नहीं , ठोस वस्तु केवल मिट्टी है। इसको कहेंगे - पश्चात्  कार्यं  विसर्जयेत् ! आप देखेंगे घट नाम की कोई वस्तु है नहीं। ठोस वस्तु तो मिट्टी है।   

     जब कार्य को विसर्जित कर दिया , कार्य ही नहीं रहा तब  कारण फिर किसका कारण है ? जब कारण का कोई कारणत्व ही नहीं रहा।    कारणत्वं ततो गच्छेत्- तो क्या रह गया ? हम कहेंगे मिट्टी रह गयी ! आचार्य कहते हैं -नहीं रे मूर्ख ! मिट्टी नहीं रह गयी। (42.20) तो क्या रह गया ? आचार्य कहते हैं - मुनि  रह गया। अवशिष्टं भवेत्  मुनिः 
यहाँ घट ,मिट्टी, लहर , पानी, सोना और आभूषण की बात नहीं हो रही है; ये अपने अनुभव की बात हो रही है। सीधा-सीधी ब्रह्मज्ञान - वेदान्त कैम्प के सबसे लास्ट में अंतिम वक्ता बोलने के लिए उठा तो सभी ऊब कर जा रहे थे। ये कपड़ा तो है -लेकिन जो आप देख रहे हैं -वो सर्वव्याप्त प्रकाश है ! जो कपड़े से reflect होके आपके आँखों में जा रही है। कपड़ा थोड़े आपके आँखों में जा रही है। आप जो कुछ भी देख रहे हैं -वो सिर्फ लाईट  को ही देख रहे हैं। उसी तरह सुबह से शाम तक , रात में स्वप्न में , गंभीर निद्रा में-फिर जाग्रत अवस्था में  हमें जो भी अनुभव हो रहा है-जिसको हम संसार कहते हैं।  जिसको हम जन्म कहते हैं। बढ़ना -बुढ़ाना हमारा पूरा जीवन जिसको कहते हैं। वो सब केवल अनुभूति मात्र है। और अनुभूति क्या है ? चैतन्य मात्र है। उसी अनुभूति मात्र ब्रह्म में ये सारा जीवन का अनुभव हो रहा है। ये शरीर , हमारा अपना व्यक्तित्व -जो इधर खड़ा होकर बोल रहा है - मेरा जो स्मृति है कि हम ये हैं (M/F) हैं। जो दिख रहा है -वो देखने की क्रिया से अलग कुछ नहीं है। (45.08) देखने की प्रक्रिया : वेदान्त की टेक्निकल प्रक्रिया है। वो दिख रहा है , मैं देख रहा हूँ। मन में जो वृत्ति उठ रही है। लेकिन देखने की प्रक्रिया से अलग कोई वस्तु की सिद्धि नहीं होती है। और देखना चित्तवृत्ति से अलग कुछ नहीं है। और चित्तवृत्ति क्या है ? जो चैतन्य में ही उद्भासित हो रही है। 
तो केवल चेतना -consciousness, या शाश्वत चैतन्य -सच्चिदानन्द का ही एक मात्र अस्तित्व है।जैसे आप घड़े को नजदीक से एग्जामिन करेंगे तो पाएंगे की घड़े में मिट्टी के सिवाय और कुछ नहीं है। आप कहेंगे नहीं वो तो घड़ा है - नामरूप को आप हटा दो , तो मिट्टी के सिवा वह और कुछ नहीं है। अगर रूप आकार ही नहीं रहा तो घट नाम ही निरर्थक हो जाता है - घट कहाँ है ? जिसको हम जीवन कहते है वो चैतन्य के सिवा कुछ है ही नहीं। वो चैतन्य आप हो - तत्वमसि ! अहंब्रह्मास्मि उसी का अर्थ है ! ये विचार ही हमें एकत्व में ले जाता है। जो हम दृश्य देख रहे थे कि विश्व-जगत हमसे अलग है। वास्तव में वो हम ही हैं ! स्वप्न में जिसको देखा था -वो लग रहा था हमसे अलग है , वो वास्तव में हम ही हैं। हमारा ही कल्पना है। दृश्य जितना है, जो कुछ भी जड़ है , जो कुछ भी सवीकार है , जड़ जितना है वो जड़ नहीं है -चेतन का ही प्रकाश है। वो आपका ही प्रकाश है।  "अवशिष्टं भवेत्  मुनिः "--- शिव केवलो अहं ! अवशिष्ट शिव रह जाता है। यदि शिव अवशिष्ट रह जाता है , तो उससे हमें क्या ? वो आप ही हैं ! वो खुद आप हैं , वो अवशिष्ट भी नहीं है- वही है , उसके सिवा कुछ है ही नहीं ! अभी वही है - उसी का एकत्व है। 
जगत को साधारण दृष्टि से देखिये और फिर दार्शनिक दृष्टि से देखिये - साधारण दृष्टि आप सत्य किसको मानते हैं ? यह जो मन-बुद्धि और पंच ज्ञान इन्द्रियों से हम जिस इन्द्रियगोचर जगत का अनुभव करते है, देखते हैं , सुनते है - मन-बुद्धि से परीक्षा ,निरीक्षा करके जो मिलता है उसीको हम सत्य मानते हैं। मन ,बुद्धि और पंच ज्ञानिन्द्रियों से जगत को जिस रूप में  हम अनुभव करते हैं, साधारण मनुष्य के लिए वही सत्य है। 
   अब एक स्टेप आगे बढिये - ये जगत, मन-बुद्धि, चित्त अहंकार, पंच ज्ञान इन्द्रिय ये सबकुछ चैतन्य में अनुभव हो रहे हैं। हम इसके द्रष्टा हैं। सांख्य के मत में ये हुआ तत्वज्ञान-सत्य । किन्तु अभी भी द्वैत बना हुआ है। अंतिम रूप से अद्वैत वह है  - उसी चैतन्य में, यह समस्त जगत-प्रपंच , उसी द्रष्टा में यह पंच ज्ञानेन्द्रिय-मन, बुद्धि सब उसीमें भास रहे हैं। उससे अलग कोई दूसरा अस्तित्व है ही नहीं। ये अद्वैत तत्व है तो यहाँ एकत्व हो जाता है।.... ये तो चलता ही रहेगा

भावितं तीव्रवेगेन यदस्तु निश्चयात्मना ॥
पुमांस्तद्विभवेच्छीघ्रं ज्ञेयंभ्रमरकीटवत् #॥१४०॥

140. A person who meditates upon a thing with great assiduity (पूरी एकाग्रता) and firm conviction (दृढ़ विश्वास के साथ) , becomes that very thing. This may be understood (1) from the illustration of the wasp and the worm.
140. जो व्यक्ति किसी वस्तु पर (सूर्य की किरणों में अन्तर्निहित ऊष्मा/दिव्यता पर) पूरी एकाग्रता और दृढ़ विश्वास के साथ ध्यान करता है, वह वही वस्तु बन जाता है। इसे (#) भ्रमर (ततैया या हड्डा) और झींगुर कीड़े के दृष्टांत से समझा जा सकता है।
(#)..... यह एक प्रचलित मान्यता है कि जब भ्रमर या हड्डा अपने घर में एक झींगुर को पकड़ ले आता है और उसकी पिटाई करके या डंक मारने के बाद वहीं छोड़ देता है, और घर के मुख को मिट्टी से भर कर उसके चारों ओर घूमता रहता है।  तो अपहृत करके लाया गया झींगुर फिर से डंक मारने के डर से लगातार अपने हमलावर के बारे में सोचता रहता है, जब तक कि वह एक पूर्ण विकसित भ्र्मर ततैया में रूपांतरित नहीं हो जाता। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति पूरे मन से ब्रह्म का ध्यान करता है, तो वह समय के साथ ब्रह्म बन जाता है।

निश्वयात्मा पुरुष की तीव्र एकाग्रता भावना करके जो मनुष्य जिस वस्तु का चिन्तन करता है, वह ततैया कीड़ा (या झींगुर)  की तरह शीघ्र ही भँवरे  की तरह तद्रूप हो जाता है।  जैसे यह किंवदंती प्रसिद्द है कि भँवरा अपने मिट्टी से बने खोह में किसी ततैया कीड़े को पकड़ कर ले आता है , और भरदम उसकी पिटाई करता है। और खोह के मुख को बन्द करके उसके चारों ओर गुनगुन करके चक्कर काटता है।  अपहरण करके  लाया हुआ वह कीट मारे भय के उसी मारने वाले भ्रमर कीट का चिन्तन करते करते तद्रूप धारण कर लेता है, जगत में यह किंवदंती प्रसिद्द है। इसी प्रकार पुरुष (सच्चिदानंदं ब्रह्म) का चिन्तन करते करते  तद्रूप हो जाता है ॥ १४०॥

निश्वयात्मना  पुरुषेण- किसी दृढ़ विश्वासी  व्यक्ति (सच्चिदानंदं ब्रह्म के चारो महावाक्यों में दृढ़ विश्वासी व्यक्ति ) द्वारा जब "तीव्र वेगेन"  - सबसे (energetically-प्रभावशाली ढंग से या)  ऊर्जावान रूप से यत् उस वस्तु  भवितां का ध्यान पुमान व्यक्ति पर किया जाता है तत् वह शीघ्रं शीघ्र ही वास्तव में भवेत् बन जाता है (एतत् यह) ततैया (झींगुर ) और भंवरा कीड़ा ज्ञेयं के चित्रण से भ्रमर-कीटवत् को समझना चाहिए .
  
       वेदान्त का मूल सिद्धांत 'आत्मा' का विचार है। शास्त्रों में कहा गया है कि हमारी निर्मिति तीन चीजों से हुई है - 3'H' शरीर, मन और आत्मा। इनमें से आत्मा ही सर्व शक्तिशाली है। नश्वर शरीर और मन से परे जो शाश्वत/अविनाशी आत्मा है, जो सभी शक्तियों का भण्डार है। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि अपनी कमजोरी के बारे में (शरीर की नश्वरता पर) सोचते रहना कमजोरी का समाधान नहीं है।  इसलिए, उन्होंने सकारात्मक सत्य - अविनाशी आत्मा की महिमा पर ध्यान केंद्रित करना सिखाया। 
          स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - " आत्मविशास का आदर्श ही हमारी सबसे अधिक सहायता कर सकता है।  यदि इस आत्मविश्वास का - [स्वयं  को (M/F) नश्वर शरीर (भेंड़) के बजाय, अविनाशी आत्मा (सिंह -शावक पद्धति 'Be and Make' का] विस्तृत रूप से प्रचार होता,और यह कार्यरूप में परिणत हो जाता, तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि जगत में जितना दुःख और अशुभ है , उसका अधिकांश गायब हो जाता। मानवजाति के समग्र इतिहास में सभी महान स्त्री -पुरुषों में यदि कोई महान प्रेरणा सबसे अधिक सशक्त रही है तो वह यही आत्मविश्वास है। वे इस ज्ञान के साथ पैदा हुए थे कि वे महान बनेंगे (ईसा और बुद्ध जैसे प्रबल-इच्छाशक्ति सम्पन्न बनेंगे) और वे महान बने भी। मनुष्य कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाये , एक ऐसा समय अवश्य आता है, जब वह उस घटना से बेहद आर्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ लेता है - और अपने में विश्वास करना सीखता है। किन्तु इस पद्धति को शुरू से या बचपन से ही (विवेक-वाहिनी के सिंह-शावक Be and Make' प्रशिक्षण शिविर में) सीख लेना अच्छा है। आत्मविश्वास सीखने के लिए हमें इतने कटु अनुभव से होकर क्यों गुजरना चाहिए ? " (8/12) 
        "हम में से प्रत्येक के भीतर अनन्त शक्ति है" - यह विश्वास ही हमें जबरदस्त ऊर्जा से भर देता है।  स्वयं पर विश्वास या आत्मविश्वास का संवर्धन करने वाली कृषि (cultivation of faith) करने की पद्धति सीखने से - हमारी दुर्बलतायें क्रमशः दूर हो जाएगी और हम दिन-ब-दिन बलिष्ठ होते जाएंगे। (মন রে কৃষিকাজ জানো না-मन रे तुमि कृषिकाज जानो ना। एमोन मानव जमीन रोयिलो पतित, आबाद करले फोलतो सोना।-रामप्रसाद सेन, श्यामा संगीत) जो इतना डरपोक, मुर्दा और निर्बल है कि  किसी की हिम्मत तोड़ने वाली, हतोत्साहित करने वाली इधर-उधर की क्या बातें सुनकर उसको इस बात से अंतर पड़ने लग जाए, या अपना B.P. ऊपर-नीचे होने लग जाये कि दस लोग कैसी-कैसी बातें कर रहे हैं ? तब तक आत्मा की प्राप्ति करना और उसकी महिमा में स्थिर रहना- ये सब बातें 'उसके' बस की नहीं हैं। क्योंकि - नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः (मुण्डकोपनिषद – 3/2/4)आत्मा को प्राप्त करने के लिये बल को प्राप्त करना आवश्यक है।  जो बलहीन है वो कभी भी अपने स्वरुप के करीब नहीं पहुँच सकता।जिसको भी आत्मज्ञान पैदा न हुआ हो वो दरिद्र है - उस पर करुणा करो और उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करो। जीवन का सबसे बड़ा उपयोग यही है कि, इसे सभी प्राणियों की सेवा में न्योछावर कर दिया जाय।"
     "स्वामी विवेकानंद 6 मई, 1895 को श्री पेरुमल को लिखित पत्र में कहते हैं - ‘ अब मैं तुम्हें अपने आविष्कार के बारे में बताता हूँ। सारा धर्म वेदान्त में ही समाहित है, वेदांत दर्शन में द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत; एक के बाद एक क्रमशः जो तीन चरण आते हैं, वे वास्तव में मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के तीन सोपान हैं। प्रत्येक सोपान से होकर गुजरना आवश्यक है। क्योंकि धर्म का आधारभूत तत्व यही है, अब तो धर्म का अर्थ ही अद्वैत है।’ और मायावती का अद्वैत आश्रम इस सर्वोच्च धर्म -'Vedanta' के प्रचार के प्रति समर्पित है।
      
    वेदांत की तीन प्रमुख शाखाओं में से एक 'द्वैतवाद', उपरोक्त तीनों सत्ताओं- ईश्वर, जीव और जगत को सत्य, शाश्वत (eternal) और एक दूसरे से अलग मानता है। विशिष्टाद्वैतवाद- इस मत के अनुसार, यद्यपि जगत् और जीवात्मा दोनों ब्रह्म से भिन्न हैं, तथापि वे ब्रह्म से ही उद्भूत हैं और वे ब्रह्म से उसी प्रकार संबद्ध हैं, जैसे सूर्य से उसकी किरणें संबद्ध होती हैं। अतः ब्रह्म एक होने पर भी अनेक है। और अद्वैतवाद (अद्वैत वेदान्त ) के अनुसार, जीव और जगत दोनों ही मिथ्या  हैं। केवल ब्रह्म ही वास्तविक और शाश्वत है। इस प्रकार, जैसा कि श्री रामकृष्ण बार-बार कहते थे, अद्वैत का अर्थ है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और बाकी सब कुछ- (परिवर्तनशील होने के कारण?)  मिथ्या है।  इस मत के अनुसार केवल एक ही सत्ता है- ईश्वर या ब्रह्म। आत्मा ब्रह्म से अलग नहीं है। अपने मूल रूप में  ब्रह्म ही आत्मा है , लेकिन अज्ञान (अविद्या) इन्हें दो बनाए रहता है। ज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा अपने मूल स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेती है। 

 "दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत्।"
 
 देहबुद्धया तु दासोऽहं, जीवबुद्धया त्वदंशकः।

आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः।। 

ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए/ देहबुद्धि से तो मैं आपका दास हूँ, जीवबुद्धि से मैं आपका अंश ही हूँ, और आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥ (चतुर्थ पाद में पाठभेद हैः ‘इति वेदान्तडिण्डिमः’।)

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बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
भावार्थ-
वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिह्वा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना वाणी के बहुत योग्य वक्ता है।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
भावार्थ-
वह बिना शरीर (त्वचा) के ही स्पर्श करता है, आँखों के बिना ही देखता है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।
[एक बार तुलसीदास अपने ईष्ट श्री राम के दर्शन की इच्छा लिए जगन्नाथ पुरी की ओर चल पड़े। वहां पहुंचने के बाद लोगों की भीड़ को देखकर वह बहुत खुश हुए और मंदिर के अंदर दर्शन करने के लिए चले गए। लेकिन जैसे ही उन्होंने श्री जगन्नाथ जी को देखा (बिना हाथ के जगन्नाथ ?) और अचानक ही उनके चेहरे पर निराशा छा गई और वह बाहर आकर मन में सोचने लगे कि इतनी दूर आना भी मेरा बेकार हुआ, क्योंकि यह बिना हाथों के मेरे ईष्ट नहीं हो सकते हैं। रात काफी हो गई थी तो वह थके-हारे, भूखे-प्यासे एक जगह पर आराम करने के लिए बैठ गए।
    कुछ समय के बाद वहां आहट होने लगी और तुलसीदास को एक बालक की आवाज़ सुनाई दी जो उनका ही नाम पुकार रहा था। उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और कहा कि मैं ही तुलसीदास हूं। उस बच्चे के हाथ में एक थाली थी जो उसने तुलसीदास की ओर करके कहा कि ‘लीजिए, जगन्नाथ जी ने आपके लिए प्रसाद भेजा है।’
तुलसीदास बोले ‘कृपा करके इसे वापस ले जाएं।’ बालक ने कहा, ‘जगन्नाथ का भात-जगत पसारे हाथ’ और वह भी स्वयं महाप्रभु ने भेजा और आप स्वीकार नहीं कर रहे हैं। कारण क्या है?’ तुलसीदास ने कहा कि, ‘मैं अपने ईष्ट को भोग लगाएं बिना कुछ भी ग्रहण नहीं करता और फिर यह जगन्नाथ का जूठा प्रसाद जिसे मैं अपने ईष्ट को नहीं खिला सकता, ये मेरे किसी काम का नहीं हैं।’ बालक ने मुस्कराते हुए कहा कि यह आपके ईष्ट ने ही तो भेजा है।तुलसीदास बोले- यह बिना हाथों वाला मेरा ईष्ट नहीं हो सकता। बालक ने कहा कि आपने श्रीरामचरितमानस में तो इसी रूप का वर्णन किया है-

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु कर्म करइ बिधि नाना ।।
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।

यह सुनकर तुलसीदास का चेहरा देखने लायक था। आंखों में आंसू, मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। थाल रखकर वह बालक बोला कि मैं ही राम हूं। मेरे मंदिर के चारों द्वारों पर हनुमान का पहरा है। विभीषण नित्य मेरे दर्शन को आता है। कल प्रातः तुम भी आकर दर्शन  कर लेना। यह कहकर वह बच्चा अदृश्य हो गया।

इसके बाद तुलसीदास ने बड़े प्रेम से प्रसाद खाया। सुबह होने पर मंदिर पहुंचने पर उन्हें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के स्थान पर श्री राम, लक्ष्मण और माता जानकी के भव्य दर्शन हुए। भगवान ऐसे भक्तवत्सल हैं कि उन्होंने अपने भक्त की इच्छा पूरी की। जिस स्थान पर तुलसीदास रात के समय रुके थे, उस जगह का नाम ‘तुलसी चौरा’ रखा गया। आज के समय में वहां पर तुलसीदास जी की पीठ ‘बड़छता मठ’ के रूप में विख्यात है। ( पंजाब केसरी एवम गूगल से लिया गया)

श्याम बन घनश्याम बरसो -आज श्रद्धा को सहारा है नहीं विश्वास का !

🔱महामंडल सांसारिक और आध्यात्मिक आदर्शों का मिश्रण है🕊

🕊The Mahamandal is A blend of worldly and spiritual ideals🏹 

[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 93/ 'अमुक नाम' वाले और 'तुमुक नाम' वाले सम्प्रदाय में द्वेष ठीक नहीं🔆🙏बिना ईश्वर का साक्षात्कार किये उनका स्वरूप समझ में नहीं आता🔆🙏]   
"मैं कहता हूँ, उनको सभी पुकार रहे हैं । द्वेष की क्या जरूरत है ? कोई साकार कहता है और कोई निराकार । मैं कहता हूँ, जिसका विश्वास साकार पर है, वह साकार की ही चिन्ता करे और जिसका विश्वास निराकार पर है, वह निराकार की चिन्ता करे । तात्पर्य यह कि इस कट्टरता /हठधर्मिता की कोई आवश्यकता नहीं कि मेरा ही धर्म ठीक है, तथा अन्य सब वाहियात है ।'मेरा धर्म ठीक है, पर दूसरों के धर्म में सचाई है या वह गलत है, यह मेरी समझ में नहीं आता', ऐसा भाव अच्छा है, क्योंकि बिना ईश्वर का साक्षात्कार किये उनका स्वरूप समझ में नहीं आता । कबीर कहते थे - 
निर्गुण है सो पिता हमारा, सगुन है महतारी। 
 काको निन्दौ काको बन्दौ, दोनों पल्ला भारी।।

[एक (सगुण) माँ है दूसरा (निर्गुण ) बाप है l 'बाप -बेटे के संबंध में'  बुद्धि (Head) प्रधान है और 'माँ -बेटे के संबंध में ' हृदय (Heart) प्रधान है l निर्गुण हमारा पिता है और सगुण हमारी माँ है अतः हम किसका वंदन करें आप किसकी निंदा करें क्योंकि दोनों ही पलड़े भारी है l जो निर्गुण (ब्रह्म) है वही सगुण (शक्ति) है। और जो सगुण (माँ काली) है वही निर्गुण (ब्रह्म) है।
 (सृजन शक्ति, प्रक्षेपण शक्ति या वंशविस्तार शक्ति है ? creation or projection ?)]  
🙏गिरगिट के रंग को लेकर हठधर्मिता (dogmatism) अच्छी नहीं होती ।🙏 
"हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, शाक्त, वैष्णव, शैव, ऋषियों के समय के ब्रह्मज्ञानी और आजकल के ब्राह्मसमाज वाले तुम लोग, सब एक ही वस्तु की चाह रखते हो । अन्तर इतना ही है कि जिससे जिसका हाजमा नहीं बिगड़ता, उसी की व्यवस्था उसके लिए माँ ने की है ।
"बात यह है कि देश, काल और पात्र के भेद से ईश्वर ने अनेक धर्मों की सृष्टि की है । "All doctrines are only so many paths, but a path is not God Himself."  परन्तु सब मत ही उनके रास्ते हैं, पर मत कभी ईश्वर नहीं है । सभी प्रकार के मत केवल उन तक पहुँचने के रास्ते हैं, लेकिन कोई भी मत (रास्ता) स्वयं ईश्वर नहीं है।
 बात यह है कि आन्तरिक भक्ति के द्वारा एक मत का आश्रय लेने पर उनके पास तक पहुँचा जाता है । अगर किसी मत का आश्रय लेने पर कोई भूल उसमें रहती है, तो आन्तरिकता के होने पर वे भूल सुधार देते हैं ।
अगर कोई आन्तरिक भक्ति के साथ जगन्नाथजी के दर्शनों के लिए निकलता है और भूलकर दक्षिण की ओर न जाकर उत्तर की ओर चला जाता है, तो रास्ते में उसे कोई अवश्य ही कह देता है, 'क्यों भाई, उस तरफ कहाँ जाते हो, दक्षिण की ओर जाओ ।' वह आदमी कभी न कभी जगन्नाथजी के दर्शन अवश्य ही करेगा
"परन्तु इस बात की आलोचना हमारे लिए निष्प्रयोजन है कि दूसरों का मत गलत है । जिनका यह संसार हैं, वे सोच रहे हैं । हमारा तो यह कर्तव्य है कि किसी तरह जगन्नाथजी के दर्शन करें । और तुम्हारा मत (ब्रह्मसमाज और आर्यसमाज वालों का मत भी ) अच्छा तो है । उन्हें निराकार (formless) कह रहे हो, यह अच्छा तो है । मिश्री की रोटी सीधी तरह से खाओ या टेढ़ी करके खाओ, मीठी जरूर लगेगी ।  
--लेकिन धर्मान्धता (कट्टरता-dogmatism) अच्छी नहीं होती । तुम लोगों ने बहुरुपी  गिरगिट (chameleon) की कहानी सुनी होगी । आदमी ने जाकर पेड़ पर एक गिरगिट देखा । मित्रों के पास लौटकर उसने कहा, मैंने एक लाल गिरगिट देखा । उसको विश्वास था कि वह बिलकुल लाल है । एक आदमी और उस पेड़ के नीचे से लौटकर आया और उसने आकर कहा, मैं एक हरा गिरगिट देख आया हूँ । उसका विश्वास था कि वह बिलकुल हरा है । परन्तु जो मनुष्य इस पेड़ के ही नीचे रहता था, उसने आकर कहा, तुम लोग जो कुछ कहते हो, सब ठीक है, क्योंकि वह कभी लाल होता है, कभी पीला और कभी उसके कोई रंग नहीं रह जाता
"वेदों में ईश्वर को निर्गुण, सगुण दोनों कहा है । #तुम लोग केवल निराकार कह रहे हो, यह एक खास ढरें का है, परन्तु इससे कोई हर्ज नहीं । एक का यथार्थ ज्ञान हो जाय तो दूसरे का भी हो जाता है । वे ही समझा देते हैं । तुम्हारे यहाँ जो आता है, वह इन्हें भी पहचानता है और उन्हें भी ।" (यह कहकर उन्होंने दो-एक ब्राह्मभक्तों की ओर उँगली उठाकर बताया ।)
>>>दिव्य दृष्टि से देखने पर - जगत ही ब्रह्म है ! -अर्थात विश्व ही परमात्मा है ! किसी तत्वदर्शी सद्गुरु से दिव्यदृष्टि प्राप्त होते ही अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) की विवेकमय निर्मल दृष्टि: "द्रष्टा-दृश्य विवेक"  खुलती है, तभी गुप्त (निराकार) प्रगट (साकार) मय सर्वव्यापी सर्व रूप राम सूझते अर्थात् दिखने लगते हैं। (गुरु वंदना-बालकाण्ड)] 
श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥
 उघरहिं बिमल बिलोचन हिय के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥
भावार्थ:-उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त (निर्गुण)  और प्रकट (सगुण) जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं
भगवान श्रीकृष्ण  ने भी गीता अ. 4 श्लोक 1-3 तक दिव्यदृष्टि की गुरु-शिष्य परंपरा निरूपित की है। भगवान और जीवात्मा दोनों सनातन हैं और इसलिए भगवान और आत्मा को एकीकृत करने वाला योग विज्ञान भी शाश्वत है। अतः इसके लिए नये सिद्धान्त की कल्पना और रचना करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। इसकी सिद्धता का अनूठा अनुमोदन स्वयं भगवद्गीता है जो आज से 50वीं शताब्दी पहले सुनायी जाने के पश्चात वर्तमान में भी हमारे दैनिक जीवन के लिए प्रासंगिक है, इसके चिरस्थायी ज्ञान की विलक्षणता के साथ लोगों को निरंतर चकित करती है। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि योग का जो ज्ञान वे अर्जुन को दे रहे हैं वह शाश्वत है और प्राचीन काल से गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा एक-दूसरे तक पहुँचता रहा है।
"इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान अहमव्ययम ।
 विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वावेsब्रवीत ।।
BG 4.1: परम भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-मैने इस शाश्वत ज्ञानयोग का उपदेश पहले सूर्यदेव, विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनु और फिर इसके बाद मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया। 
इस योग का फल अविनाशी है इसलिये यह अव्यय है क्योंकि इस सम्यक् ज्ञाननिष्ठा रूप योग का मोक्ष-रूप फल कभी नष्ट नहीं होता। उस सूर्य ने यह योग अपने पुत्र मनु से कहा और मनु ने इसका उपदेश अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को दिया जो सूर्यवंश के पूर्वज थे। इस वंश के राजाओं ने दीर्घकाल तक अयोध्या पर शासन किया। वेद शब्द संस्कृत के विद् धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। अत वेद का अर्थ है ज्ञान अथवा ज्ञान का साधन (प्रमाण)। वेदों का प्रतिपाद्य विषय है जीव और ईश्वर के शुद्ध ज्ञान स्वरूप तथा उसकी अभिव्यक्ति के साधनों का बोध। जैसे विद्युत् शक्ति को हम नित्य कह सकते हैं क्योंकि उसके प्रथम बार आविष्कृत होने के पूर्व भी वह थी और यदि हमें उसका विस्मरण भी हो जाता है तब भी विद्युत् शक्ति का अस्तित्व बना रहेगा।
वेदों का विषय आत्मानुभूति होने के कारण वाणी उसका वर्णन करने में सर्वथा असमर्थ है। कोई भी गम्भीर अनुभव शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। अत स्वयं की बुद्धि से ही शास्त्रों का अध्ययन करने से उनका सम्यक् ज्ञान तो दूर रहा विपरीत ज्ञान होने की ही सम्भावना अधिक रहती है। इसलिये भारत में यह प्राचीन परम्परा रही है कि अध्यात्म ज्ञान के उपदेश को आत्मानुभव में स्थित गुरु के मुख से ही श्रवण किया जाता है। गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा Be and Make से यह ज्ञान दिया जाता रहा है। यहाँ इस ब्रह्मविद्या के पूर्वकाल के विद्यार्थियों का परिचय कराया गया है।
   एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । 
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।
BG 4.2: हे शत्रुओं के दमन कर्ता! इस प्रकार राजर्षियों ने सतत गुरु परम्परा पद्धति [Be and Make] द्वारा ज्ञान योग की विद्या प्राप्त की किन्तु अनन्त युगों के साथ यह विज्ञान संसार से लुप्त हो गया प्रतीत होता है।
इस परम्परा का आरम्भ स्वयं भगवान ने किया जो इस संसार के प्रथम गुरु हैं। इसी परम्परा के अंतर्गत निमी और जनक जैसे राजर्षियों ने ज्ञानयोग की विद्या प्राप्त की। इस प्रकार क्षत्रिय राजर्षियों की परम्परा से प्राप्त हुए इस योग को राजा जनक जैसे राजर्षियों ने जो कि राजा और ऋषि दोनों थे जाना। हे परंतप ( अब ) वह योग इस मनुष्य-लोक में बहुत काल से नष्ट हो गया है। अर्थात् उसकी सम्प्रदाय-परम्परा टूट गयी है। 
वेदों में प्रवृत्ति (साकार) और निवृत्ति (निराकार) दोनों मार्गों का उपदेश है। इस Be and Make रूपी कर्मयोग का परम्परागत रूप से राजर्षियों को ज्ञान था ; परन्तु लगता है इस योग का भी अपना दुर्भाग्य और सौभाग्य है।  इतिहास के किसी काल में मानव मात्र की सेवा के लिये यह ज्ञान उपलब्ध होता है और किसी अन्य समय अनुपयोगी सा बनकर निरर्थक हो जाता है।  तब अध्यात्म का स्वर्ण युग समाप्त होकर भोगप्रधान आसुरी जीवन का अन्धा युग प्रारम्भ होता है।  
          किन्तु आसुरी भौतिकवाद से ग्रस्त काल में भी वह पीढ़ी अपने ही अवगुणों से पीड़ित होने के लिये उपेक्षित नहीं रखी जाती। क्योंकि उस समय कोई महान् गुरु परम्परा (श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा-Be and Make में आधारित संगठन) अध्यात्म क्षितिज पर अवतीर्ण होकर तत्कालीन पीढ़ी को प्रेरणा साहस उत्साह और आवश्यक नेतृत्व प्रदान करके दुख पूर्ण पगडंडी से बाहर सांस्कृतिक पुनरुत्थान के राजमार्ग पर ले आता है। 
स एवायं मयातेअद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोअसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।" 
BG 4.3: उसी प्राचीन गूढ़ योगज्ञान को आज मैं तुम्हारे सम्मुख प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे मित्र एवं मेरे भक्त हो इसलिए तुम इस दिव्य ज्ञान को समझ सकते हो।
            अजितेन्द्रिय और दुर्बल मनुष्यों के हाथ में पड़कर यह योग नष्ट हो गया है।  यह देखकर और साथ ही लोगों को पुरुषार्थ -रहित हुए देखकर वही यह पुराना योग यह सोचकर कि तू मेरा भक्त और मित्र है, अब मैंने तुझसे कहा है। क्योंकि यह ज्ञान-रूप योग बड़ा ही उत्तम रहस्य है।
शिष्य के प्रति पुत्रवत स्नेह का भाव होने पर ही कोई गुरु उत्साह और कुशलता पूर्वक उपदेश दे सकता है। श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच [श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द के बीच-.... नवनीदा और 'अमुक' के बीच] ऐसा ही सम्बन्ध था और भगवान् (ठाकुरदेव) को यह विश्वास था कि अर्जुन (विवेकानन्द) भी उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का वह अनुसरण करेगा।
      वेतनभोगी साधारण शिक्षक और आध्यात्मिक  गुरु और शिष्य के बीच इस प्रकार की व्यापारिक व्यवस्था न हो कि तुम शुल्क दो और मैं पढ़ाऊँगा। गुरु-शिष्य के बीच निःस्वार्थ प्रेम, स्वातंत्र्य, मित्रता और आपसी समझ के वातावरण में ही शिष्य का मन, बुद्धि और ह्रदय विकसित होकर खिल उठते हैं। 
आत्मानुभूति का ज्ञान प्रदान करने के लिए आवश्यक गुणों को अर्जुन में देखकर ही श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने इस  Be and Make रूपी सार्वभौमिक योग का ज्ञान उसे दिया। यहाँ इस ज्ञान को रहस्य कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो  (नरेन्द्रनाथ जैसा विद्वान् भी क्यों न हो) फिर भी अनुभवी तत्वदर्शी पुरुष (C-IN-C नवनीदा)  के उपदेश के बिना वह अविनाशी आत्मा के अस्तित्व का कभी आभास भी नहीं पा सकता। 
      समस्त बुद्धि वृत्तियों (मन,बुद्धि, चित्त और अंहकार या अन्तःकरण) को प्रकाशित करने वाली आत्मा स्वयं बुद्धि के परे होती है। इसलिये मनुष्य की द्रष्टा-दृश्य विवेक सार्मथ्य भी गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का पालन किये बिना , स्वयं कभी नित्य अविकारी आत्मा को विषय रूप में नहीं जान सकती। यही कारण है कि सत्य के विज्ञान को यहाँ उत्तम रहस्य कहा गया है।(गीता अ. 4 श्लोक 1-3)]

वह ब्रह्म माया कृत दोषों से रहित होने के कारण पवित्र है । उसकी पवित्रता का मुख से कोई वर्णन नहीं कर सकता । सत्व, रज, तम इन तीनों गुणों से रहित होने से वह निर्गुण कहलाता है । सत्पुरुषों का तो वह परम धन है । माया रहित होने से निरन्जन कहलाता है । अपरिवर्तनीय होने से शाश्वत है । ब्रह्म सर्वरूप है, सर्वगत है अतः उसका कोई एकरूप नहीं होने से कोई भी ‘ऐसा ब्रह्म है’ नहीं कह सकता । अनादि होने से उत्पत्ति-नाश से रहित है । सर्वरूप और सर्वगत होने से उसका कोई आकार विशेष नहीं कह सकते, न उसका प्राण और शरीर है।  क्योंकि वेद में ऐसा ही कहा है कि वह स्थिर न रहने वाले प्राणियों के शरीर में शरीर-रहित होता हुआ अविचल भाव से स्थित है । *(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.९५)*

दादा कहते थे (यानि महामण्डल के संस्थापक सचिव, C-IN-C नवनीदा कहते थे ) महामण्डल आन्दोलन के प्रचार-प्रसार का कार्य करते रहो,अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी, ऐसे ही मुक्त हो जाओगे (जीवनमुक्त-भेंड़त्व के भ्रम से डिहिपनोटाईज़ड हो जाओगे।) 

मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
 जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥ 

मोह से उत्पन्न जो अनेक प्रकार का (पापरूपी कचरा ) मल लगा हुआ है, वह करोडों उपयों से भी नहीं छुटता। अनेक जन्मों से यह मन पाप में लगे रहने का अभ्यासी हो रहा है, इसीलिये यह मल अधिकाधिक लिपटता ही चला जाता है।।
उस अशुद्ध मन को शुद्ध और पवित्र बनाने का उपाय बतलाते हुए महर्षि पतंजलि [योगसूत्र 2.2/या (साधन पाद :2) में] कहते हैं - 

समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ।। साधनपाद:2 ।। 

शब्दार्थ :  समाधि - (वह क्रियायोग) समाधि (oneness) की/भावना (cultivate) - सिद्धि/अर्थ: - के लिए/च - और/क्लेश - ( cause of suffering , अविद्यादि) पंचक्लेशों को/तनू - करण ( minimize)  - क्षीण करने/अर्थ: (for the purpose of) - के लिए (है) । 

English: (It is for) the practice of Samadhi (oneness) and minimizing obstacles.

सुत्रार्थ : समाधि (oneness) की सिद्धि के लिए और अविद्यादि पंचक्लेशों को क्षीण करने (minimize) के लिए-इस क्रियायोग की आवश्यकता है।

व्याख्या : हममें से अनेकों ने अपने मन को अत्यधिक लाड़-प्यार से बिगड़े हुए बालक के समान बना दिया है। वह जो कुछ चाहता है , उसे वही दे दिया करते हैं। इसीलिए क्रियायोग का निरंतर अभ्यास करना आवश्यक है। जिससे मन को संयमित करके -विषयों में जाने से रोककर, अपने वश में लाया जा सके। इस मनःसंयम के अभाव में ही योग (समाधि या Oneness प्राप्ति) के सारे विघ्न उपस्थित होते हैं ; उसी के कारण उनसे फिर क्लेशों की उत्पत्ति होती है। उन्हें दूर करने का उपाय है -क्रियायोग द्वारा मन को वशीभूत कर लेना, उसे अपना कार्य न करने देना। (राजयोग/साधनपाद -2/वि ० सा ० खंड 1/पेज 153  )           

इस सूत्र में क्रियायोग के फल का प्रतिपादन ( वर्णन ) किया गया है । जब कोई साधक वैराग्यपूर्वक निरंतर क्रियायोग अर्थात साधना-त्रय पद्धति -" तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान" का अभ्यास करता है, तो उसके मन में समाधि की भावना (Cultivation of Oneness) प्रबल होती है (मन रे तुमि कृषिकाज जानो ना ?); और उसके सभी अविद्या आदि पंच क्लेश पूरी तरह से क्षीण ( अर्थात न के बराबर ) हो जाते हैं ।
यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब तक साधक के अविद्या आदि पंच-क्लेश दूर नहीं होंगें तब तक उसे समाधि की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए सबसे पहले क्लेशों को निर्बल बनना आवश्यक है । 
जब कोई साधक वैराग्यपूर्वक स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान का निरंतर (24X 7) अभ्यास करता है तब उसके भीतर विवेकख्याति नाम की अग्नि उत्पन्न होने लगती है जो पंच-क्लेशों को दग्धबीज जैसी अवस्था में ले आती है। जैसे ही साधक के क्लेश कमजोर हो जाएंगे वैसे ही वह विवेकख्याति उन कमजोर या निर्बल हुए क्लेशों को दग्ध बीज कर देगी । योग की भाषा में कहें तो प्रकृति और पुरुष के भेद को जनाने वाली सूक्ष्म बुद्धि प्रकृति में लीन हो जाती है। इस प्रकार जब साधक के क्लेश निर्बल हो जाते हैं तब वह विवेकख्याति के द्वारा उनको दग्ध बीज कर देता है । उस समय साधक की सत्त्व बुद्धि  (सत्त्व बुद्धि-ऋतम्भरा प्रज्ञा) प्रकृति में लीन होने के लिए समर्थ (योग्य ) हो जाती है ।
अतः क्रियायोग का अभ्यास करने से साधक समाधि (Oneness) की अनुभूति प्राप्त करने के योग्य हो जाता है । क्रियायोग साधक के सभी कलेशों को दूर करके विवेकख्याति को उत्पन्न करता है । और उस विवेकख्याति के उत्पन्न होने से ही साधक अपने जीवन के परम लक्ष्य अर्थात समाधि को प्राप्त करता है ।

[ऋतम्भरा प्रज्ञा और दग्ध बीज के विषय में विस्तार से पढ़ने के लिए समाधिपाद के अन्तिम सूत्र अर्थात सूत्र संख्या 51 की व्याख्या में वर्णित उदाहरण को देखें ।]

वैराग्यपूर्ण क्रियायोग के अभ्यास से पञ्च क्लेश निर्बल कैसे हो जाते हैं ? शिष्यों के मन की सहज जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि कहते हैं कि-  वैराग्यपूर्वक तप करने से साधक के शरीर (Hand) के साथ साथ मन (Head) की अशुद्धि भी मिटने लगती है।  वहीं स्वाध्याय करने से (अर्थात विवेक-प्रयोग और आत्ममूल्यांकन तालिका भरने) से मन और हृदय (2H) की शुद्धि होने लग जाती है।    
 'ईश्वर प्रणिधान' अर्थात श्रद्धा को विश्वास का सहारा मिल जाने से या श्रीगुरुदेव के चरणों में समर्पण की भावना के अतिरेक होने से  हृदय (Heart) पूर्ण रूप से स्वच्छ एवं उदात्त हो जाता है।इस प्रकार क्रियायोग का अनुष्ठान साधक को पञ्च क्लेशों से रहित करता हुआ शुद्ध अंतःकरण प्रदान करता है । शुद्ध अंतःकरण से साधक की आगे की यात्रा और अधिक आनंददायक एवं गतिशील हो जाती है।
वैराग्यपूर्वक इन्द्रिय, मन, बुद्धि, हृदय की शुद्धता के अभ्यास से ही योग (समाधि या Oneness) का मार्ग आगे बढ़ता है। इसलिए प्रारंभ में ही क्रियायोग का अभ्यास आवश्यक है।
जब तप करने से द्वंद्व सहन करने की शक्ति आ जायेगी तब अविचलन की स्थिति में अधर्माचरण नहीं होगा। सत्य, असत्य और मिथ्या का बोध ठीक प्रकार से हो पायेगामैं और मेरा रूपी अहंकार से साधक दूर होने लग जायेगा। राग, द्वेष और अभिनिवेश रूपी क्लेशों का बल भी क्षीण होता चला जाएगा।
कायिक, मानसिक और वाचिक तप से, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान से जीवन के विभिन्न आयामों पर विस्तृत रूप से प्रभाव पड़ेगा और योगी निर्भार (free of burdens) होता चला जायेगा।
अतः क्रियायोग के फलस्वरूप साधक के मन में समाधि (Oneness) के प्रति भावना (Cultivation-कृषिकाज की पद्धति)  प्रगाढ़ होती चली जायेगी और साथ ही जिन पञ्च क्लेशों से उसका जीवन नारकीय हुआ पड़ा है, उनके बंधनो से भी वह मुक्त होता चला जायेगा।
वैराग्य पूर्वक प्रत्येक व्रत एवं अनुष्ठान का निरंतर अभ्यास करना ही, योग मार्ग (समाधि) में सफलता है अन्यथा बीच मंझधार की स्थिति बनी रहेगी।
 [गुरु-शिष्य परम्परा- में राम नाम की चादर ओढ़ने के निरंतर अभ्यास से "जो राम जो कृष्ण वही रामकृष्ण, इस बार दोनों एक साथ पर तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं !" बुधवार, 17 जून 2009/"रामकृष्णावतारस्य जन्मतिथितः सत्ययुगस्य आरम्भः अभवत्!" विवेकानन्द > ज्ञान मन्दिर> युवा महामण्डल>विवेक-अंजन त्रैमासिक पत्रिका रूपी श्रद्धा को विश्वास का सहारा मिल जाने से समर्पण की भावना के अतिरेक होने से  हृदय (Heart) पूर्ण रूप से स्वच्छ एवं उदात्त हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरुभाई (दक्षिण भारत में काम करने वाले भावी नेता) स्वामी रामकृष्णानन्द [पूर्व नाम शशि भूषण चक्रवर्ती (1863 -1911) वे मद्रास और बैंगलोर में स्थित रामकृष्ण मठ के संस्थापक थे।] को बंगला भाषा में लिखित 1895 में एक पत्र में कहा था - " यह पत्र विशेष रूप से तुम्हारे लिए है। कृपया नीचे लिखे विचारणीय बिन्दुओं को [15 में से 9 अत्यन्त महत्वपूर्ण को] प्रतिदिन एक बार पढ़ना और इसे व्यवहार में लाना। (Please read the below mentioned points of consideration once every day and put them into practice.) अब हमें 'organization' संगठन बनाकर (संघबद्ध होकर) कार्य करने की आवश्यकता है। 
1. सभी शास्त्रों का निष्कर्ष यही कि संसार में जो त्रिविध दुःख #हैं , वे नैसर्गिक (natural-असली)-नहीं हैं। इसलिए इन्हें दूर किया जा सकता है। 
 All the Shâstras hold that the threefold misery in this world is not natural, hence it is removable.
 এ জগতে যে ত্রিবিধ দুঃখ আছে, সর্বশাস্ত্রের সিদ্ধান্ত এই যে, তাহা নৈসর্গিক (natural) নহে, অতএব অপনেয়।
# (अविद्या -अस्मिता-राग -द्वेष -अभिनिवेश' आदि पंचक्लेश असली या natural नहीं हैं ?) आधिभौतिक (अर्थात भौतिक कारणों से प्राप्त दुःख)- तो जो कष्ट भौतिक जगत के बाह्य कारणों से होता है उसे आधिभौतिक या भौतिक ताप कहा जाता है। अपने आप को सही और दूसरों को गलत  सिद्ध करने के चक्कर में मनुष्य नाना प्रकार के कष्टों को सहन करने के लिए विवश हो जाता है। शत्रु आदि स्वयं से परे वस्तुओं या जीवों के कारण ऐसा कष्ट उपस्थित होता है। आधिदैविक (अर्थात दैवीय कारणों से प्राप्त दुःख) आधिदैविक ताप दैवी शक्तियों द्वारा दिये गये या पूर्वजन्मों में स्वयं के किए गये कर्मों से प्राप्त कष्ट कहलाता है।आध्यात्मिक (अर्थात अज्ञानता के फलस्वरूप प्राप्त दुःख) आध्यात्मिक ताप दूर करने के लिए मनुष्य को ईश्वर के समीप जाना चाहिए। और ईश्वरप्राप्ति या समाधी  (Oneness) के लिए क्रियायोग का अभ्यास करने के लिए  निरंतर प्रयत्नशील रहना  चाहिए। 
2. बुद्ध अवतार में भगवान कहते हैं कि इस अधिभौतिक दुःख का कारण भेद ही है ; अर्थात जन्मगत, गुणगत या धनगत - सब तरह का वर्ग-भेद इन दुखों का कारण है। आत्मा में लिंग (M/F), चार-वर्ण या चार-आश्रम इस इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता , और जैसे कीचड़ के द्वारा कीचड़ नहीं धोया जाता , इसी तरह से भेदभाव से (नानत्व देखने से) एकत्व की प्राप्ति होनी असम्भव है।  


       योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञान दीप्तिराविवेकख्याते: ।। साधनपाद :28 ।। 

"योगाङ्ग अनुष्ठानात् अशुद्धि-क्षये ज्ञानदीप्ति: आविवेकख्यातेः। "

(साधनपाद :28) 

शब्दार्थ :- योगाङ्ग अनुष्ठानात् (योग के अंगों का पालन करने से ) अशुद्धि क्षये (पंचक्लेश रूपी अपवित्रता का नाश होने से) ज्ञानदीप्ति: ( ज्ञान प्रदीप्त हो उठता है) आविवेकख्याते: ( विवेकज-ज्ञान की प्राप्ति तक होता है।)
सूत्रार्थ 28 :-  साधनपाद के अगले सूत्र- 29 में कहे गए, यम-नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार-धारणा आदि योग के अंगों का अनुष्ठान करते करते जब साधक के चित्त की अशुद्धि का नाश [अर्थात पंचक्लेश का नाश] हो जाता है, तब ज्ञान (आत्मज्ञान ?) प्रदीप्त हो उठता है, उसकी अन्तिम सीमा है विवेक-ख्याति।   
 विवेक-ख्याति : "ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्मांड मिथ्या है" का बोधक्योंकि जगत को सत्य (वास्तविक) या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।  "असत्य" का अर्थ होता है जो वास्तव मेँ झूठ है। जैसे आकाशकुसुम , बंध्यापुत्र , "खरगोश के सींग होना" असत्य है।  निरन्तर परिवर्तनशील होने के कारण  इस जगत को भी सत्य या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।  यम, नियम इत्यादि -योग के  अंगों का अनुष्ठान, आचरण या अभ्यास करते करते अशुद्धि-क्षये- जब चित्तगत सभी अपवित्रता या मोहजनित मल का नाश हो जाता है -यानि अविद्या, स्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश इत्यादि पंच क्लेशों या दुःख के 5 कारणों का अभाव हो जाता है।  इति अर्थः = इन आठ योग-अङ्गों के अनुष्ठान या आचरण से सभी अशुद्धियों या क्लेशों का क्षय (मोहजनित मल का क्षय) हो जाता है। यह अभिप्राय है ॥ २८ ॥ तब -ज्ञानदीप्तिः, ज्ञान का आलोक प्रदीप्त हो उठता है; आविवेक-ख्यातेः - उसकी अन्तिम सीमा विवेकख्याति (विवेकज -ज्ञान की प्राप्ति तक) है। 
 अब साधन की बात कही जा रही है। अभीतक जो कुछ कहा गया उच्चतर 'आदर्श' है। वह अभी हमसे बहुत दूर है ; किन्तु वही हमारा आदर्श है, हमारा एकमात्र लक्ष्य है। उस लक्ष्य-स्थल पर पहुँचने के लिए पहले शरीर और मन को संयत करना आवश्यक है। तभी उस आदर्श में हमारी अनुभूति स्थायी हो सकेगी। हमारा लक्ष्य क्या है , यह हमने जान लिया है, अब उसे प्राप्त करने के लिए साधन आवश्यक है। 
        जैसे ही कोई साधक योग अर्थात समाधि के इन आठ अंगों  में से कम से कम पाँच अंग, यम-नियम, आसन, प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास  पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ लम्बे समय तक, निरन्तरता के साथ करता है । तब अभ्यास करते करते उसकी चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाता है जिसके फलस्वरूप अविद्या-अस्मिता इत्यादि पंच - क्लेशों की निवृत्ति हो जाने से ज्ञान प्रदीप्त हो उठता है। और विवेकजज्ञान, प्रकृतिपुरुष-भेद ज्ञान यानि ब्रह्मसत्यं जगत-मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः का बोध- या जीव ही **ब्रह्म** है और भिन्न नहीं ' के ज्ञान उदय पर्यन्त (4 महावाक्यों का मर्म उदय पर्यन्त)- विवेकख्याति - ज्ञानलोक की अंतिम सीमा है।
ईश्वर (ब्रह्म), जीव (the living being) और जगत (universe, ब्रह्मांड) और - ये तीन सत्ताएँ हैं, जिनपर आध्यात्मिक अनुसन्धान करने की आवश्यकता है। विश्व के सारे दर्शन इन्हीं  तीन सत्ताओं की सत्यता या असत्यता, उनके आपसी सम्बन्ध, उन्हें जानने की पद्धति इत्यादि बातों पर केंद्रित हैं। वेदान्त की तीन मुख्य धारायें हैं और कई उप धारायें हैं, जो उपरोक्त तीन सत्ताओं की सत्यता और मिथ्यात्व बारे में मतभेद पर आधारित हैं। 

महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में मनुष्य के पूर्ण कल्याण तथा 3H विकास या शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग  का मार्ग विस्तार से बताया है। योग के जो  आठ अंग हैं, उन सबों का पालन करने से पशु- मानव भी देवमानव में उन्नत हो जाता है।  समाधि योग की अन्तिम अवस्था है। उन्होंने योग को समाधि का पर्यायवाची शब्द कहा है। पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना ही योग है। उन्होंने 'योगः चित्तवृत्ति निरोधः'- योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में परिभाषित किया है। चित्त की समस्त वृत्तियों के निरोध होने पर चित्त की स्थिर एवं उत्कृष्ट अवस्था होती है। यही समाधि की अवस्था कहलाती है। अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें विद्यार्थियों के लिए/ कम से कम 5  का अभ्यास एक साथ किया जाता है।
 
1. यम : पांच सामाजिक नैतिकता

(i) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना। इन पञ्चविध यमों में शरीर से प्राण को वियुक्त, पृथक् करने के उद्देश्य से किया गया कार्य या चेष्टा हिंसा है और वहीं हिंसा सभी अनर्थों का मूल कारण है। उसी हिंसा का अभाव अहिंसा है। सभी प्रकार से ही हिंसा का परित्याग के योग्य, हिंसा के त्याज्य होने के कारण सबसे पहले उस हिंसा के अभावरूपी अहिंसा का उल्लेख किया गया है।
(ii) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना। वाणी तथा मन का अर्थ के अनुरूप रहना अर्थात् अर्थ का जैसे स्वरूप है उसी के अनुसार वाणी से कहना तथा मन से वैसा मनन करना ही सत्य है।
(iii) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना। दूसरे के धन का अपहरण करना ही स्तेय या चोरी हैं। उस स्तेय का अभाव, दूसरे के धन, सत्त्व का अपहरण न करना ही अस्तेय है।
(iv) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं: पहला  चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना, और दूसरा सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। मुख्यतः उपस्थ इन्द्रिय के संयम को ब्रह्मचर्य कहते हैं।
(v) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। भोग के साधनों का स्वीकार न करना, ग्रहण न करना ही अपरिग्रह है। 
       यम शब्द के द्वारा कह जाने वाले ये अहिंसा इत्यादि (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह- पाँच) योग सिद्धि (समाधि -प्राप्ति) में अङ्ग या सहायक रूप से वर्णन किये गये हैं। 
2. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता

(i) शौच - शरीर और मन की शुद्धि। अर्थात् पवित्रता दो प्रकार की होती है:- बाहरी पवित्रता और आन्तरिक शौच (अन्तःकरण की पवित्रता/शुद्धता)। मिट्टी, जल इत्यादि से शरीर इत्यादि के अङ्गों का धोना, स्वच्छ करना बाह्य स्वच्छता, पवित्रता है। 
      मैत्री इत्यादि अर्थात् मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षा के द्वारा चित्त में रहने वाले राग-द्वेष, क्रोध-द्रोह-ईर्ष्या-असूया-मद-मोह-मत्सर-लोभ इत्यादि मलों, कलुषों, अशुद्धियों का निराकरण करना ही आन्तरिक स्वच्छता, पवित्रता है।

(ii) सन्तोष - सन्तुष्ट और प्रसन्न रहना। तुष्टि ही सन्तोष है। अर्थात् स्वकर्तव्य का पालन करते हुये, प्रबन्ध के ही अनुसार प्राप्त फल से सन्तुष्ट हो जाना, किसी प्रकार की तृष्णा का न होना ही सन्तोष है।

(iii) तपः -  सुख- दुःख, मान- अपमान, व लाभ- हानि आदि द्वन्द्वों को सहना। 
  
(iv) स्वाध्याय -  गायत्री मन्त्र आदि का जप एवं मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना। 
 
(v) ईश्वरप्रणिधान -   ईश्वर (आदर्श -महापुरुष ) में अत्यंत श्रद्धा और भक्ति रखना; तथा बिना किसी फल की इच्छा के अपने समस्त कर्मो के फलों को उन्हें (अवतार वरिष्ठ को पहचानकर उन्हें) समर्पित करना।

3. आसन: - योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रण। शरीर की वह स्थिति जिसमें शरीर बिना हिले- डुले स्थिर व सुखपूर्वक अवस्था में रहता है । इसके द्वारा स्थिरभाव से तथा सुखपूर्वक बैठा जाता है इसलिये इसे आसन कहते हैं। यथा- पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, दण्डासन, स्वस्तिकासन इत्यादि।

4.प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण। 

5. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना। 

6. धारणा: एकाग्रचित्त होना। 

7. ध्यान: निरंतर ध्यान

8. समाधि: आत्मा से जुड़ना, मन और वाणी (शब्दों) से परे परम-चैतन्य की अवस्था की अनुभूति। 

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स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित : समाधि स्तोत्र (THE HYMN OF SAMADHI) :
 
नाहि सूर्य नाहि ज्योतिः नाहि शशांक सुन्दर।
भासे व्योमे छाया -सम छवि विश्व -चराचर।। 

अस्फुट मन आकाशे , जगत संसार भासे। 
उठे भासे डूबे पुनः अहं-स्रोते निरन्तरे।।  

धीरे धीरे छाया-दल, महालये प्रवेशिलो।  
बहे मात्र 'आमि आमि' - एई धारा अनुक्षण।। 

से धाराउ बद्ध होलो, शून्ये शून्य मिलाइलो। 
'अवांग मनो सगोचरं', बोझे - प्राण बोझे जार।।    

  (बंगाली से अनुवादित)

वह जो 'अवांग मनो सगोचरं' है ~ जो मन और वाणी से परे है, उसे ध्यान से जाना जाता है। वाणी और मन से परे जो कुछ भी है, उसका अनुभव ह्रदय करता है! जिसका हृदय समझता है, वह सचमुच समझता है। एक और जगह पर स्वामी विवेकानन्द ने शिष्य से वार्तालाप करते समय निर्विकल्प समाधि का वर्णन इस प्रकार किया है ....
शिष्य - महाराज, बहुत जन्मों की तपस्या से आपका सत्संग मुझे मिला है। अब कृपया ऐसा उपाय कीजिये जिससे मैं फिर माया-मोहजनित [तीनो ऐषणाओं की आसक्ति वश पंचक्लेशों में] न फँसूँ। अब प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए मन कभी -कभी बड़ा व्याकुल हो उठता है। 
स्वामीजी -मेरी भी अवस्था ऐसी ही हुई थी। काशीपुर के उद्यान में एक दिन श्री गुरुदेव से बड़ी व्याकुलता से अपनी प्रार्थना प्रकट की थी।    
 उस दिन सन्ध्या के समय ध्यान करते करते अपने शरीर को खोजा तो नहीं पाया। ऐसा प्रतीत हुआ कि शरीर बिल्कुल है ही नहीं। चंद्र,सूर्य, देश-काल,आकाश, सब मानो एकाकार होकर कहीं लय हो गये हैं। देहादि बुद्धि का प्रायः अभाव हो गया था और 'मैं ' भी बस लय सा ही हो रहा था। परन्तु मुझमें कुछ/कि बहुत ?  'अहं ' था, इसीलिए उस समाधि अवस्था से लौट आया था। इस प्रकार समाधि -काल में ही 'मैं' और 'ब्रह्म' में भेद नहीं रहता , सब एक हो जाता है ; मानो महासमुद्र है -जल ही जल और कुछ नहीं। भाव और भाषा का अंत हो जाता है। 'अवांगमन-सगोचरं' की उपलब्धि इसी समय होती है। नहीं तो जब साधक - 'अहंब्रह्मास्मि'- 'मैं ब्रह्म हूँ ' ऐसा विचार करता है या कहता है , तब भी 'मैं' और 'ब्रह्म' ये दो पदार्थ पृथक रहते हैं अर्थात द्वैतबोध रहता है। उसी अवस्था को दुबारा प्राप्त करने की मैंने बारम्बार चेष्टा की , परन्तु पा न सका। श्री रामकृष्णदेव को सूचित करने पर काने लगे , " उस अवस्था में दिन-रात रहने से माँ भगवती का कार्य तुमसे पूरा न हो सकेगा। इस लिए उस अवस्था को फिर प्राप्त न कर सकोगे ; कार्य का अन्त होने पर वह अवस्था फिर आ जाएगी।" 
 
शिष्य - तो क्या निर्विकल्प समाधि के बाद फिर कोई अहं बोध का आश्रय लेकर, द्वैतभाव के राज्य में -इस संसार में -नहीं लौट सकता ?  

स्वामी जी - श्री रामकृष्ण कहा करते थे कि एकमात्र ईश्वरकोटि (अवतारी पुरुष) ही जीव की मंगल कर उस समाधि से वापस शरीर में लौट सकते हैं। साधारण जीवों का फिर व्युत्थान नहीं होता। केवल 21 दिन जीवित अवस्था में रहने के बाद उनका शरीर सूखे पत्ते के समान संसार रूपी वृक्ष से झड़कर गिर पड़ता है।  

 शिष्य - शास्त्रों में कहा गया है - ब्रह्म से सृष्टि का विकास मरुस्थल में मृगजल के समान दिखाई देता है, परन्तु वास्तव में सृष्टि आदि कुछ भी नहीं है। भाव-वस्तु ब्रह्म में अभाव मिथ्यारूप माया के कारण ऐसा भ्रम दिखाई देता है। 
   
स्वामी विवेकानन्द - " यदि सृष्टि ही मिथ्या है तो तुम जीव की निर्विकल्प समाधि और समाधि से व्युत्थान को भी मिथ्या कहकर मान सकते हो। जीव स्वतः ही ब्रह्मस्वरूप है। उसको फिर बन्धन की अनुभूति कैसी? 'मैं आत्मा हूँ ' ऐसा जो तुम अनुभव करना चाहते हो, वह भी तो भ्रम ही हुआ। क्योंकि शास्त्र कहते हैं- 'तत्त्वमसि' कि तुम तो पहले से ही ब्रह्म हो !'-You are already that !" अतएव  "अयम् एव हि ते बन्धः समाधिम् अनुतिष्ठसि ?"-अर्थात समाधि लाभ करने की तुम्हारी यह चाह ही तुम्हारा बन्धन है। (अष्टावक्र गीता/श्लोक 1.15)  " 

  [ जिस को सिद्धि लाभ अर्थात् आत्मज्ञान हो गया है उस को फिर योग के आठो अंगों के अनुष्ठान से क्या प्रयोजन है ? इस कारण ही राजा जनक के प्रति अष्टावक वर्णन करते हैं कि, तू जो समाधि का अनुष्ठान करता है य ही तेरा बंधन है, परंतु आत्मज्ञानविहीन पुरुष को ज्ञानप्राप्ति के निमित्त समाधि का अनुष्ठान करना आवश्यक है ॥ १५॥]

स्वामीजी - यदि 'मैं -तुम ' के द्वैतमूलक चेतन स्तर पर इस बात का अनुभव करना हो तो एक करण (instrumentality साधन) की आवश्यकता है। मन ही हमारा यंत्र है। परन्तु मन स्वयं जड़ पदार्थ (non - intelligent substance) है। उसके पीछे जो आत्मा है, उसकी प्रभा से मन केवल चैतन्यवत प्रतीत होता है। 

इसलिए पंचदशी कार ने कहा है -  "चिच्छायावेशतः शक्तिश्चेतनेव विभाति सा --अर्थात चित- स्वरुप आत्मा की प्रतिबिम्ब के कारण शक्ति चैतन्यमयी लगती है , और इसलिए मन भी चेतन पदार्थ कहकर माना जाता है। 

अतः यह निश्चित है कि मन के द्वारा शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को नहीं जान सकते। मन के चारदीवारी के परे पहुँचना है। मन के परे अन्य कोई साधन तो है नहीं - एक आत्मा ही है। अतएव जिसको जानना चाहते हो , वही फिर करणस्थानीय हो जाता है। 
[वहाँ ज्ञान का विषय और ज्ञान का साधन एक ही हो जाते हैं।] इसीलिए श्रुति कहती  है, "विज्ञातारमरे केन विजानीयात् -- इसका निचोड़ यह है कि द्वैतमूलक चेतन के ऊपर एक ऐसी अवस्था है - जहाँ ज्ञाता , ज्ञेय, ज्ञान का साधन (मन) आदि कुछ नहीं है। इसीको "Transcendent Perception"  अपरोक्षानुभूति कहते हैं।
 ऐसी अपरोक्षानुभूति होने के बाद ईश्वरकोटि के अवतारी लोग (नेता CINC नवनीदा) नीचे द्वैत भूमि पर लौटकर अपने व्यवहार से उस अवस्था की कुछ झलक दिखा देते हैं। साधारण जीवों की अवस्था उस नमक के पुतले के समान है, जो समुद्र की गहराई नापने गया था, पर स्वयं उसमें घुल गया। समझते हो भाई ?
         तात्पर्य यह कि तुम्हें इतना ही जानना होगा कि तुम वही अविनाशी आत्मा हो। तुम पहले से ब्रह्म हो , केवल एक जड़ मन (जिसको शास्त्र में माया कहा है) बीच में पड़कर तुम्हें इसको समझने नहीं देतामन रूपी सूक्ष्म शरीर जड़ उपादानों [मन-वस्तु चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार] से निर्मित है, जब यह शान्त रहना सीख जायेगा , तब आत्मा अपनी ज्योति से से आप ही उद्भासित हो जाएगी। जब इसको समझ जाओगे तो एक अखण्ड शाश्वत चैतन्य में मन लय हो जायेगा।  तभी- this Atman is Brahman- 'अयमात्मा ब्रह्म' की अनुभूति होगी ! ( हिन्दी वि ० साहित्य-6 -पेज 98-102/ शरत चंद्र चक्रवर्ती, शिष्य से वार्तालाप: वर्ष -1898, स्थान - बेलूड़ किराये का मठ):  
        
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2.🔱क्या यह धर्म- 'मनुष्य बनो और बनाओ'  व्यावहारिक है? (Is Religion - 'Be and Make' Practical?) : अगला प्रश्न उपयोगिता का आता है।  "हमें यह देखना कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में , ग्राम्य जीवन में , राष्ट्रीय जीवन में और प्रत्येक राष्ट्र के घरेलू जीवन में परिणत किया जा सकता है ? कारण, यदि धर्म (अर्थात वेदान्त ) यदि मनुष्य को जहाँ भी और जिस अवस्था में भी वह है, सहायता नहीं दे सकता, तो उसकी उपयोगिता अधिक नहीं -तब वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त होकर रह जायेगा। धर्म यदि मानवता का कल्याण करना चाहता है, तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह मनुष्य की सहायता उसकी प्रत्येक दशा में कर सकने में तत्पर और सक्षम हो। चाहे वह (मन-इन्द्रियों की) गुलाम हो या आजाद , मनुष्य का घोर पतन हो चुका हो या अत्यन्त पवित्रता का जीवन जीता हो, उसे सर्वत्र मानव की सहायता कर सकने में समर्थ होना चाहिए। केवल तभी वेदान्त के सिद्धान्त अथवा धर्म के आदर्श - उन्हें तुम किसी भी नाम से पुकारो - कृतार्थ हो सकेंगे।  "  (8.12)  

यदि धर्म का अर्थ ही अद्वैतवाद है, या वेदान्त ही धर्म का उच्चतम प्रकार है -तो इसका उपयोग क्या है ? विवेकानन्द कहते हैं - " अद्वैतवाद यदि सार्वभौमिक धर्म (universal religion) के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है, तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक होना चाहिए। हमें अपने जीवन की सभी अवस्थाओं में उसे कार्यरूप में परिणत कर सकना चाहिए। केवल यही नहीं , अपितु आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है , उसे भी मिट जाना चाहिए। क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु ( oneness) के सम्बन्ध में उपदेश देता है - वेदान्त कहता है कि एक ही प्राण (one life) सर्वत्र विद्यमान है। " (८/३) ["The Vedanta, therefore, as a religion must be intensely practical. We must be able to carry it out in every part of our lives. And not only this, the fictitious differentiation between religion and the life of the world must vanish, for the Vedanta teaches oneness — one life throughout." (C.W.2/291 'PRACTICAL VEDANTA/ PART -I') 

विवाहित जीवन में रहकर साधना करते समय -आध्यात्मिक साधक : 'Be and Make' मार्ग या कर्मयोग के गृहस्थ साधक को आम तौर पर विरोध (conflict- मतभिन्नता) और व्याकुलता (confusion-घबड़ाहट) का सामना करते ही रहना पड़ता है। परस्पर विरोधी मानसिक स्थिति से पार पाने तथा परमानन्द की अवस्था (साम्यभाव की अवस्था) में निरंतर अवस्थित रहने की तीव्र इच्छा से  साधक विवेकानन्द द्वारा निर्देशित एक विशेष मार्ग [Be and Make] का अनुसरण करने का अभ्यास करता है। 
         लेकिन जब शांति और साम्यभाव के अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अपने संगठन के ही कई भ्रातृतुल्य -और वरिष्ठ सदस्य भी अलग-अलग रास्ते अपनाते हैं। यह देखकर जब साधक उहापोह की स्थिति से बाहर निकलने का उपाय खोजने लगते हैं। तब आचार्य शंकर का वह प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक सामने आता है जो हमें एक रास्ता बताता है और कहता है - "अपनी दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर इस जगत को ही 'ब्रह्म' के रूप में देखो।"
           लेकिन जब प्रभु का काम [Be and Make] करते समय किसी अंगुलीमाल/या रावण की सेवा करनी हो तो कैसे करें ? भगवान राम हनुमान से पूछते हैं कि वे उन्हें किस रूप में देखते हैं। तब हनुमानजी कहते हैं -  " हे प्रभु, जब मैं अपने शरीर के साथ अपनी पहचान करता हूँ, तो मैं आपका सेवक (द्वैत) हूँ। जब मैं अपने आप को व्यक्तिगत आत्मा (जीव - M/F conscious individual, Jiva) के रूप में मानता हूँ, तो मैं आपका अंश (विशिष्टाद्वैत) हूँ। लेकिन जब मैं अपने आप को आत्मा (शाश्वत चैतन्य Eternal consciousness) के रूप में देखता हूँ, तो मैं आपके (ईश्वर के) साथ एक हो जाता हूँ (अद्वैत)। यह मेरा निश्चित मत है।"
       [In this world conflict and confusion are regular companions of a spiritual aspirant. The seeker practices following a particular path with an uttermost desire to surpass the conflicting mindset and reach a peaceful realm of absolute bliss.  But many brotherly communities spread different ways to the ultimate goal of tranquility and peace. Hence we are at a loss, and seek way out from this whole confused and distracted situation. Here comes this famous Sanskrit verse which gives us a way out and speaks - Keep your vision enlightening and see this world as Brahman. When you are aware of your body then know that you are the slave, when you are the conscious individual ( Jiva) then know you are the part of the Supreme Being, and when you are the consciousness then know that- thou art that. This is my sure thought.]

3.🔱🕊 पूर्णता (3H विकास) का मार्ग (The Path to Perfection) : 
                स्वामीजी कहते हैं, " पूर्णता का मार्ग यही है कि अपनी सभी सीमाओं को (ऐषणाओं में आसक्ति, या घोर स्वार्थपरता  रूपी रुकावटों को) पीछे छोड़ देना और यह समझना कि हम सिर्फ आत्मा (100 निःस्वार्थपरता) हैं " --की और अग्रसर होते रहना ! " आत्मविश्वास के आदर्श पर चलते हुए हम अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।- आत्मा की जो अनन्त शक्ति हमारे भीतर है,  उसे अगर पदार्थ (matter-देह) पर लगाया जाए तो भौतिक विकास होता है। यदि उसी शक्ति को मन (mind) पर लगा दिया जाये तो बौद्धिक विकास (intellectual development) होता है। परन्तु, इसी शक्ति को यदि स्वयं अपने ऊपर ही घुमा दिया जाए तो यह हमें ईश्वर में (100 % निःस्वार्थपर देव-मानव में) रूपान्तरित कर देगी ! पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे - बनो और बनाओ ! यही हमारा मूल-मन्त्र रहे।" (9/379) बस यही स्वामी विवेकानंद की शिक्षा है- 'Be and Make! ' 
    " Each soul is potentially divine " हममें से प्रत्येक व्यक्ति - आत्मा है; अनन्त ऊर्जा, प्रेम और पवित्रता का भण्डार (repository) है , इस बात को जान लेना और उसे अभिव्यक्त करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। धर्म का मूलतत्व भी यही है। लेकिन इस जन्मजात दिव्यता ( innate divinity) को अभिव्यक्त कैसे किया जाए? " There are four faculties in human beings: thinking, feeling, willing and action.- मनुष्य में चार प्रकार की आन्तरिक शक्तियाँ (four faculties-क्षमता) हैं: सोचना, महसूस करना, इच्छा करना और कार्य करना। आत्मविश्वास को (या आत्मा को the inner Self को) जगाने के लिए इन चारों शक्तियों-ज्ञान, भक्ति, राजयोग और कर्म, में से अपनी-अपनी रूचि के अनुसार किसी एक का, दो का या तीन का या चारों का एकसाथ उपयोग किया जा सकता है। जिसकी रूचि चिन्तन क्षमता (thinking faculty) को विकसित करने में हो , वह ज्ञान-योग का मार्ग चुन सकता है। जिसकी रूचि महसूस करने की क्षमता (Feeling faculty-भावना संकाय) को विकसित करने में हो, वह भक्तियोग का मार्ग चुन सकता है। जिसकी रूचि  इच्छाशक्ति Willing को दृढ़ बनाने के मार्ग पर चलने की हो वह राजयोग का मार्ग चुन सकता है। और सबसे सरल उपाय action कर्मयोग या निःस्वार्थ भाव से कार्य करने : Be and Make आन्दोलन के प्रचार -प्रसार का मार्ग आता है। स्वामी विवेकानन्द ने इस युग के लिए, इसी अंतिम मार्ग- 'कर्मयोग' पर विशेष जोर दिया है क्योंकि यह जनसाधारण का धर्म हो सकता है।  " For this age, this last path has been specially stressed by Swamiji as this could be the religion of the masses." 
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"No matter how great a disciple a woman is, she cannot become a Guru."~ 
          To dispel this ancient misconception, Swami Vivekananda's Guru Sri Ramakrishna Paramhans Dev accepted Bhairavi Brahmani as his first Guru for Tantra Sadhana.
He felt that it was only by the order of Shri Jaganmata (Maa Bhavatarini Kali) that he got the opportunity to meet Shri Jaganmata through Bhairavi Brahmani by following the classical system of "Guru-disciple Vedanta teacher-training tradition ~ Be and Make". Because where is that detachment and concentration of mind in our hearts when we are involved in various worldly things (i.e. deeply involved in the desires of women, wealth and name and fame)? Where do we have the immense courage to immerse ourselves or dive deep into the mind's ocean (ocean of heart) by abandoning everything (by abandoning attachment to name and form) in order to touch the bottom of the strange and strong attractive colourful waves of the ocean? -- Just as Sri Ramakrishnadev used to encourage us repeatedly by saying, 'Drown completely', 'Drown within yourself', where do we have the strength to merge into the soul by abandoning all the material things of the world and the illusion and attachment of our body?
[There is no gender difference in the soul - but] Sri Jaganmata actually exists, and if we call out to her in a desperate manner by abandoning everything, we certainly get to see her - do we believe in this as simply as Sri Ramakrishna ? (Sri Ramakrishnadev's Tantra Sadhana, Sri Ramakrishna Leela Prasanga - page 286-289)    

" स्त्री कितनी ही बड़ी शिष्या हो जाए, वह गुरु नहीं बन सकती। "~ इसी  भ्रमपूर्ण दकियानूसी मान्यता (delusional beliefs)  को दूर करने के लिए स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ने तंत्रसाधना के लिए भैरवी ब्राह्मणी  को अपने प्रथम गुरु के रूप में  ग्रहण किया था। 
  श्रीरामकृष्ण ने यह अनुभव किया कि श्रीजगन्माता (माँ भवतारिणी काली ) की आज्ञा से ही भैरवी ब्राह्मणी को गुरु मानकर "गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ~Be and Make " की शास्त्रीय प्रणाली का अवलंबन कर श्रीजगन्माता का साक्षात्कार करने का अवसर प्राप्त हुआ है।           क्योंकि पार्थिव विभिन्न विषयों में संलग्न ( अर्थात कामिनी -कांचन और नाम- यश की ऐषणाओं में घोर रूप से आसक्त) हमारे ह्रदय के भीतर वह उपरति (detachment) तथा एकाग्रता (concentration of Mind) कहाँ है ? मानस समुद्र (हृदय सागर) के विचित्र और प्रबल आकर्षक रंग-रसपूर्ण तरंगों में न तैरकर उसके तली को स्पर्श करने के उद्देश्य से सर्वस्य त्यागकर (नामरूप में आसक्ति को त्यागकर)  निमग्न होने या गोता मारकर डूब जाने का असीम साहस हममें कहाँ है ? 
      --'एकदम डूब जाओ ', 'स्वयं अपने अन्दर डूब जाओ ' कहकर श्रीरामकृष्णदेव बारम्बार जैसे हमें प्रोत्साहित किया करते थे , ठीक वैसे ही  संसार के समस्त पदार्थ तथा अपने शरीर की माया-ममता का परित्यागकर कर आत्मस्वरूप में विलीन हो जाने का सामर्थ्य हममें कहाँ है ? 
       [आत्मा में कोई लिंगभेद नहीं है - किन्तु ....... ] श्रीजगन्माता वास्तव में हैं , तथा सर्वस्व त्यागकर व्याकुल हो पुकारने पर अवश्य ही उनका दर्शन मिलता है - क्या हम इस बात पर श्री राकृष्णदेव की तरह सरल रूप से विश्वास करते हैं ? (श्रीरामकृष्णदेव की तन्त्रसाधना, श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग -पृष्ठ २८६ -२८९
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