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शनिवार, 3 अगस्त 2024

😇🔱🕊 🏹 🙋परिच्छेद ~136 श्रीरामकृष्ण तथा कर्मफल 🏹 [ (12 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136] ॐ नमो भगवते सम्बुद्धाय 🏹🔱 Om, I salute the Lord, the awakened. " No One is To Blame "🔱"🏹मैं ही अपना साकार अतीत हूँ ! ("अपने अतीत के अनुरूप मैं एक देहधारी- 'embodied' आत्मा हूँ ! " ) 🔱 जिन्हें पहले काली का पागल पुजारी कहते थे आज उनके पादुका की पूजा होती है🔱 🏹🔱भगवान के नाम का जप करने से बहुत से कर्मपाश कट जाते हैं🏹 🙋देखा जाय तो दूध का धोया कोई नहीं है । 🙋🔱 🏹🔱ईश्वर-कोटि तथा जीव-कोटि का अन्तर 🏹🏹परिवर्तनशील होने के कारण शरीर नश्वर है🏹 🏹जबतक शरीर है माँ जगदम्बा (भारत माता-Mother India) के शरण में रहना पड़ेगा🏹 😇'सब स्वप्नवत् है'-गृहस्थ को ऐसा नहीं कहना चाहिए 😇 🔱🙋पहले कामजयी होना होगा : दृष्टान्त सुनकर ठाकुर देव का रोमांचित होना 🙋🙋जहाँ कोई वासना नहीं है, वहाँ भगवान स्वयं प्रकट होते हैं।🙋 No One is To Blame " " किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है " 🙋कारो दोष देखो ना !~ श्री माँ सारदा देवी 🙋 🕊🔱🙏

 🔱🕊 🏹 🙋परिच्छेद १३६~श्रीरामकृष्ण तथा कर्मफल*🔱🕊 🏹 🙋

(१)

 [ (12 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136] 

भक्तों के संग में

श्रीरामकृष्ण काशीपुर के उद्यान-भवन के उसी ऊपरवाले कमरे में बैठे हुए हैं । भीतर शशि और मणि हैं । श्रीरामकृष्ण मणि को इशारे से पंखा झलने के लिए कह रहे हैं । मणि पंखा झलने लगे । शाम के पाँच-छः बजे का समय होगा । सोमवार, शुक्ल अष्टमी, १२ अप्रैल १८८६ उस मुहल्ले में संक्रान्ति का मेला भरा हुआ है । श्रीरामकृष्ण ने एक भक्त को मेले से कुछ चीजें खरीद लाने के लिए भेजा है । भक्त के लौटने पर श्रीरामकृष्ण ने उससे सामान के बारे में पूछा कि वह क्या क्या लाया । 

Monday, April 12, 1886: At about five o'clock in the afternoon Sri Ramakrishna was sitting on the bed in his room in the Cossipore garden house. Sashi and M. were with him. He asked M., by a sign, to fan him. The neighborhood had a fair celebrating the last day of the Bengali year. A devotee, whom Sri Ramakrishna had sent to the fair to buy a few articles, returned. "What have you bought?" the Master asked him.

শ্রীরামকৃষ্ণ কাশীপুরের বাগানে সেই উপরের ঘরে শয্যার উপর বসিয়া আছেন। ঘরে শশী ও মণি। ঠাকুর মণিকে ইশারা করিতেছেন — পাখা করিতে। তিনি পাখা করিতেছেন। বৈকাল বেলা ৫টা-৬টা। সোমবার চড়কসংক্রান্তি, বাসন্তী মহাষ্টমী পূজা। চৈত্র শুক্লাষ্টমী, ৩১শে চৈত্র, ১২ই এপ্রিল, ১৮৮৬। পাড়াতেই চড়ক হইতেছে। ঠাকুর একজন ভক্তকে চড়কের কিছু কিছু জিনিস কিনিতে পাঠাইয়াছিলেন। ভক্তটি ফিরিয়া আসিয়াছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ — কি কি আনলি?

भक्त - पाँच पैसे के बताशे, दो पैसे का एक चम्मच और दो पैसे का एक तरकारी काटनेवाला चाकू ।

DEVOTEE: "Candy for five pice, a spoon for two pice, and a vegetable-knife for two pice."

ভক্ত — বাতাসা একপয়সা, বঁটি — দুপয়সা, হাতা — দুপয়সা।

श्रीरामकृष्ण - और कलम बनानेवाला चाकू ?

MASTER: "What about the penknife?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — ছুরি কই?

भक्त - वह दो पैसे में नहीं मिला ।

DEVOTEE: "I couldn't get one for two pice."

ভক্ত — দুপয়সায় দিলে না।

श्रीरामकृष्ण - (जल्दी से)- नहीं, नहीं, जा ले आ ।

MASTER (eagerly): "Go quickly and get one!'

শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্যাগ্র হইয়া) — যা যা, ছুরি আন। 

मास्टर नीचे बगीचे में टहल रहे हैं । नरेन्द्र और तारक कलकत्ते से लौटे । वे गिरीश घोष के यहाँ तथा कुछ अन्य जगह भी गये थे ।

M. was pacing the garden. Narendra and Tarak returned from Calcutta. They had visited Girish Ghosh's house and other places.

মাস্টার নিচে বেড়াইতেছেন। নরেন্দ্র ও তারক কলিকাতা হইতে ফিরিলেন। গিরিশ ঘোষের বাড়ি ও অন্যান্য স্থানে গিয়াছিলেন।

तारक - आज तो भोजन बहुत हुआ ।

TARAK: "We have eaten much meat and other heavy stuff today."

তারক — আজ আমরা মাংস-টাংস অনেক খেলুম।

नरेन्द्र - हाँ, हम लोगों का मन बहुत कुछ नीचे आ गया है । आओ, अब हम तपस्या करें ।(मास्टर से) "क्या शरीर और मन की दासता की जाय ? बिलकुल जैसे गुलाम की-सी अवस्था हो रही है, शरीर और मन मानो हमारे नहीं, किसी और के हैं ।"

NARENDRA: "Yes, our minds have come down a great deal. Let us practise tapasya. (To M.) What slavery to body and mind! We are just like coolies — as if this body and mind were not ours but belonged to someone else."

নরেন্দ্র — আজ মন অনেকটা নেমে গেছে। তপস্যা লাগাও।(মাস্টারের প্রতি) — “কি Slavery (দাসত্ব) of body, — of mind! (শরীরের দাসত্ব — মনের দাসত্ব!) ঠিক যেন মুটের অবস্থা! শরীর-মন যেন আমার নয়, আর কারু।”

शाम हो गयी है । ऊपर के कमरे में और अन्य स्थानों में दीये जलाये गये । श्रीरामकृष्ण बिस्तर पर उत्तरास्य बैठे हुए हैं । जगन्माता की चिन्ता कर रहे हैं । कुछ देर बाद फकीर उनके सामने माँ काली अपराध-भंजन स्तव पढ़ने लगे । फकीर बलराम के पुरोहित-वंश के हैं

“प्राग्देहस्थो यदासं तव चरणयुगं नाश्रितो नार्चितोऽहम् ।

तेनाद्येऽकीर्तिवर्गेर्जठरजदहनैर्बाध्यामानो बलिष्ठैः ॥

स्थित्वा जन्मान्तरे नो पुनरिह भविता क्वाश्रयः क्वापि सेवा ।

क्षन्तव्यो मेऽअपराधः प्रकटितरदने कामरूपे कराले ॥" [इत्यादि~ श्रीकालीक्षमाऽपराधस्तोत्रम् ।] 

In the evening lamps were lighted in the house. Sri Ramakrishna sat on his bed, facing the north. He was absorbed in contemplation of the Mother of the Universe. A few minutes later Fakir, who belonged to the priestly family of Balaram, recited the Hymn of Forgiveness addressed to the Divine Mother. 

সন্ধ্যা হইয়াছে; উপরের ঘরে ও অন্যান্য স্থানে আলো জ্বালা হইল। ঠাকুর বিছানায় উত্তরাস্য হইয়া বসিয়া আছেন; জগন্মাতার চিন্তা করিতেছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ফকির ঠাকুরের সম্মুখে অপরাধভঞ্জন স্তব পাঠ করিতেছেন। ফকির বলরামের পুরোহিতবংশীয়।

প্রাগ্‌দেহস্থো যদাসং তব চরণযুগং নাশ্রিতো নার্চিতোঽহং, তেনাদ্যেঽকীর্তিবর্গৈর্জঠরজদহনৈর্বধ্যমানো বলিষ্ঠৈঃ,স্থিত্বা জন্মান্তরে নো পুনরিহ ভবিতা ক্বাশ্রয়ঃ ক্বাপি সেবা,ক্ষন্তব্যে মেঽপরাধঃ প্রকটিতবদনে কামরূপে করালে! ইত্যদি।

कमरे में शशि, मणि तथा दो-एक भक्त और हैं । स्तवपाठ समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण बड़े भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे हैं । मणि पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण इशारा करके उनसे कह रहे हैं, “एक कूँड़ी (stone cup-कटोरी) ले आना । (यह कहकर कूँड़ी की गढ़न उँगलियों से लकीर खींचकर बता रहे हैं ।) इसमें क्या एक पाव दूध आ जायगा ? पत्थर सफेद हो ।"

M. was fanning Sri Ramakrishna. The Master said to him by signs, "Get a stone cup for me that will hold a quarter of a seer of milk-white stone." He drew the shape of the cup with his finger.

ঘরে শশী, মণি, আরও দু-একটি ভক্ত আছেন। স্তবপাঠ সমাপ্ত হইল। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ অতি ভক্তিভাবে হাতজোড় করিয়া নমস্কার করিতেছেন। মণি পাখা করিতেছেন। ঠাকুর ঈশারা করিয়া তাঁহাকে বলিতেছেন “একটি পাথরবাটি আনবে। (এই বলিয়া পাথরবাটির গঠন অঙ্গুলি দিয়া আঁকিয়া দেখাইলেন।) একপো, অত দুধ ধরবে? সাদা পাথর।”

मणि - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण : "जब मैं अन्य कटोरी से दूध पीता हूँ तो मुझे मछली की गंध आती है।"

MASTER: "When eating from other cups I get the smell of fish."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আর সব বাটিতে ঝোল খেতে আঁষটে লাগে।

(२)

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🏹🔱ईश्वर-कोटि तथा जीव-कोटि का अन्तर 🏹🔱

दूसरे दिन मंगलवार है, रामनवमी?, 13 अप्रैल, 1886 (1ला वैशाख) । सुबह का समय है; श्रीरामकृष्ण ऊपरवाले कमरे में छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । दिन के आठ-नौ बजे का समय हुआ होगा । मणि रात को यहीं थे । सबेरे गंगा-स्नान करके आये और श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया

राम दत्त भी आज सुबह आ गये हैं, उन्होंने भी श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया । राम फूलों की एक माला ले आये हैं, श्रीरामकृष्ण की सेवा में उसका समर्पण कर दिया । अधिकांश भक्त नीचे के कमरे में बैठे हुए हैं, श्रीरामकृष्ण के कमरे में दो ही एक हैं । राम श्रीरामकृष्णदेव से वार्तालाप कर रहे हैं

श्रीरामकृष्ण - (राम से) - किस तरह देख रहे हो ?"

It was about eight o'clock in the morning. M. had spent the night at the garden house. After taking his bath in the Ganges he prostrated himself before Sri Ramakrishna. Ram had just come. He saluted the Master and took a seat. He had brought a garland of flowers, which he offered to the Master. Most of the devotees were downstairs; only one or two were in the Master's room. Sri Ramakrishna was talking to Ram.

MASTER: "How do you find me?"

পরদিন মঙ্গলবার, রামনবমী; ১লা বৈশাখ, ১৩ই এপ্রিল, ১৮৮৬ খ্রীষ্টাব্দ। প্রাতঃকাল, — ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ উপরের ঘরে শয্যায় বসিয়া আছেন। বেলা ৮টা-৯টা হইবে। মণি রাত্রে ছিলেন, প্রাতে গঙ্গা স্নান করিয়া আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিতেছেন। রাম (দত্ত) সকালে আসিয়াছেন ও প্রণাম করিয়া উপবেশন করিলেন। রাম ফুলের মালা আনিয়াছেন ও ঠাকুরকে নিবেদন করিলেন। ভক্তেরা অনেকেই নিচে বসিয়া আছেন। দুই-একজন ঠাকুরের ঘরে আছেন। রাম ঠাকুরের সহিত কথা কহিতেছেন

শ্রীরামকৃষ্ণ (রামের প্রতি) — কিরকম দেখছ?

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🔱 जिन्हें पहले काली का पागल पुजारी कहते थे आज उनके पादुका की पूजा होती है🔱 

राम - आप में सब कुछ है । अब आपके रोग की चर्चा उठने ही वाली है ।

RAM: "In you one finds everything. Presently there will be a discussion about your illness."

রাম — আপনার সবই আছে। এখনই রোগের সব কথা উঠবে।

श्रीरामकृष्ण जरा मुस्कराये । फिर राम ही से उन्होंने संकेत करके पूछा - "क्या रोग की बात भी उठेगी ?"

The Master smiled and asked Ram by a sign, "Will there really be a discussion about my illness?"

শ্রীরামকৃষ্ণ ঈষৎ হাস্য করিলেন ও সঙ্কেত করিয়া রামকেই জিজ্ঞাসা করিতেছেন — “রোগের কথাও উঠবে?”

श्रीरामकृष्ण के जो जूते हैं, वे अब पैरों में गड़ने लगे हैं । डाक्टर राजेन्द्र दत्त ने पैर की नाप माँगी है - आर्डर देकर वे जूते बनवा देना चाहते हैं । पैर की नाप ली गयी । (इस समय बेलुड़ मठ में इन्हीं पादुकाओं की पूजा हो रही है।) श्रीरामकृष्ण मणि से संकेत से पूछ रहे हैं कि कूँड़ी (सफ़ेद कटोरी ?) कहाँ है ।

Sri Ramakrishna's slippers were not comfortable. Dr. Rajendra Dutta intended to buy a new pair1 and had asked for the measurement of his feet. The measurement was taken

ঠাকুরের চটিজুতা আছে, পায়ে লাগে। ডাক্তার রাজেন্দ্র দত্ত মাপ দিতে বলিয়াছেন, — তিনি ফরমাশ দিয়া আনিবেন। ঠাকুরের পায়ের মাপ লওয়া হইল। এই পাদুকা এখন বেলুড় মঠে পূজা হয়

मणि कलकत्ते से कूँड़ी ले आने के लिए उसी समय उठकर खड़े हो गये । 

Sri Ramakrishna asked M., by a sign, about the stone cup. M. at once stood up. He wanted to go to Calcutta for the cup.

শ্রীরামকৃষ্ণ মণিকে সঙ্কেত করিতেছেন, “কই, পাথরবাটি?” মণি তৎক্ষণাৎ উঠিয়া দাঁড়াইলেন, — কলিকাতায় পাথরবাটি আনিতে যাইবেন।

श्रीरामकृष्ण ने उस समय उन्हें रोका ।

MASTER: "Don't bother about it now."

শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “থাক্‌ থাক্‌ এখন।”

मणि - जी नहीं, ये लोग जा रहे हैं, इनके साथ मैं भी चला जाऊँगा ।

M: "Sir, these devotees are going to Calcutta. I will go with them."

মণি — আজ্ঞা না, এঁরা সব যাচ্ছেন, এই সঙ্গেই যাই।

मणि ने जोड़ासाखों की एक दूकान से एक सफेद कूँड़ी (सफ़ेद कटोरी) खरीदी । दोपहर के समय वे काशीपुर लौट आये और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके कूँड़ी (सफ़ेद कटोरी) उनके सामने रखी ।

M. bought the cup in Calcutta and returned to Cossipore at noon. He saluted the Master and placed the cup near him. 

মণি নূতন বাজারের জোড়াসাঁকোর চৌমাথায় একটি দোকান হইতে একটি সাদা পাথরবাটি কিনিলেন। বেলা দ্বিপ্রহর হইয়াছে, এমন সময়ে কাশীপুরে ফিরিয়া আসিলেন ও ঠাকুরের কাছে আসিয়া প্রণাম করিয়া বাটিটি রাখিলেন।

श्रीरामकृष्ण सफेद कूँड़ी हाथ में लेकर देख रहे हैं । डाक्टर राजेन्द्र दत्त, हाथ में गीता लिए हुए डाक्टर श्रीनाथ, श्रीयुत राखाल हालदार तथा अन्य भी कई सज्जन आये हैं । कमरे में राखाल, शशि आदि कई भक्त हैं । डाक्टरों ने श्रीरामकृष्ण से पीड़ा के सम्बन्ध की कुल बातें सुनीं

Sri Ramakrishna took the cup in his hands and looked at it. Dr. Rajendra Dutta, Dr. Sreenath, Rakhal Haldar, and several others came in. Rakhal, Sashi, and the younger Naren were in the room. The physicians heard the report of the Master's illness. Dr. Sreenath had a copy of the Gita in his hand.

ঠাকুর সাদা বাটিটি হাতে করিয়া দেখিতেছেন। ডাক্তার রাজেন্দ্র দত্ত, গীতাহস্তে শ্রীনাথ ডাক্তার, শ্রীযুক্ত রাখাল হালদার, আরও কয়েজন আসিয়া উপস্থিত হইলেন। ঘরে রাখাল, শশী, ছোট নরেন প্রভৃতি ভক্তেরা আছেন। ডাক্তারেরা ঠাকুরের পীড়া সম্বন্ধে সমস্ত সংবাদ লইলেন।

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🏹परिवर्तनशील होने के कारण शरीर नश्वर है🏹  

डाक्टर श्रीनाथ - (मित्रों का) - सब लोग प्रकृति के अधीन हैं । कर्मफल से किसी का छुटकारा नहीं है । प्रारब्ध (तो भोग कर ही क्षय होता) है ।

DR. SREENATH (to his friends): "Everything is under the control of Prakriti. Nobody can escape the fruit of past action. This is called prarabdha."

শ্রীনাথ ডাক্তার (বন্ধুদের প্রতি) — সকলেই প্রকৃতির অধীন। কর্মফল কেউ এড়াতে পারে না! প্রারব্ধ!

श्रीरामकृष्ण - क्यों, उनका नाम लेने पर, उनकी चिन्ता करने पर, उनकी शरण में जाने पर, -

MASTER: "Why, if one chants the name of God, meditates on Him, and takes refuge in Him —"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন, — তাঁর নাম করলে, তাঁকে চিন্তা করলে, তাঁর শরণাগ্য হলে —

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🏹🔱भगवान के नाम का जप करने से बहुत से कर्मपाश कट जाते हैं🏹🔱 

श्रीनाथ - जी, प्रारब्ध कहाँ जायेगा ? - पिछले जन्मों के कर्म ?

DR. SREENATH (to his friends): "But, sir, how can one escape prarabdha, the effect of action performed in previous births?"

শ্রীনাথ — আজ্ঞে, প্রারব্ধ কোথা যাবে? — পূর্ব পূর্ব জন্মের কর্ম।

श्रीरामकृष्ण - कुछ कर्म भोग होता तो है, परन्तु उनके नाम के गुण से बहुतसा कर्मपाश कट जाता है । एक मनुष्य को पिछले जन्म के कर्मों के लिए सात बार अन्धा /काना होना पड़ता, परन्तु उसने गंगास्नान किया । गंगास्नान से मुक्ति होती है । इसलिए उस जन्म के लिए तो वह जैसे का वैसा ही अन्धा बना रहा, परन्तु अगले छः जन्मों के लिए न तो उसे जन्म लेना पड़ा और न अन्धा होना पड़ा।

MASTER: "No doubt a man experiences a little of the effect; but much of it is canceled by the power of God's name. A man was born blind of an eye. This was his punishment for a certain misdeed he had committed in his past birth, and the punishment was to remain with him for six more births. He, however, took a bath in the Ganges, which gives one liberation. This meritorious action could not cure his blindness, but it saved him from his future births."

শ্রীরামকৃষ্ণ — খানিকটা কর্ম ভোগ হয়। কিন্তু তাঁর নামের গুণে অনেক কর্মপাশ কেটে যায়। একজন পূর্বজন্মের কর্মের দরুন সাত জন্ম কানা হত; কিন্তু সে গঙ্গাস্নান করলে। গঙ্গাস্নানে মুক্তি হয়। সে ব্যক্তির চক্ষু যেমন কানা সেইরকমই রইল, কিন্তু আর যে ছজন্ম সেটা হল না।

श्रीनाथ - जी, शास्त्रों में तो है कि कर्मफल से किसी का छुटकारा नहीं हो सकता । डाक्टर श्रीनाथ तर्क करने के लिए तुल गये ।

DR. SREENATH (to his friends): "But, sir, the scriptures say that nobody can escape the fruit of karma."Dr. Sreenath was ready to argue with the Master.

শ্রীনাথ — আজ্ঞে, শাস্ত্রে তো আছে, কর্মফল কারুরই এড়াবার জো নাই। [শ্রীনাথ ডাক্তার তর্ক করিতে উদ্যত।]

श्रीरामकृष्ण - (मणि से) - कहो न जरा, ईश्वर-कोटि और जीव-कोटि में बड़ा अन्तर हैईश्वर-कोटि कभी पाप नहीं कर सकते - कहो

MASTER (to M.): "Why don't you tell him that there is a great difference between the Isvarakoti and an ordinary man? An Isvarakoti cannot commit sin. Why don't you tell him that?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — বল না, ঈশ্বরকোটির আর জীবকোটির অনেক তফাত। ঈশ্বরকোটির অপরাধ হয় না; বল না।

मणि चुप हैं । वे राखाल से कह रहे हैं - तुम कहो ।

M. remained silent and then said to Rakhal, "You tell him."

মণি চুপ করিয়া আছেন; মণি রাখলাকে বলিতেছেন, “তুমি বল।”

कुछ देर बाद डाक्टर चले गये । श्रीरामकृष्ण श्रीयुत राखाल हालदार के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

After a few minutes, the physicians left the room. Sri Ramakrishna was talking to Rakhal Haldar.

কিয়ৎক্ষণ পরে ডাক্তারেরা চলিয়া গেলেন। ঠাকুর শ্রীযুক্ত রাখাল হালদারের সহিত কথা কহিতেছেন।

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

As long as we are alive, we will have to stay in 

 the shelter of 

Mother Jagadamba (Mother India)!

🏹जबतक शरीर है माँ जगदम्बा (भारत माता-Mother India) के शरण में रहना पड़ेगा🏹  

😇'सब स्वप्नवत् है'-गृहस्थ को ऐसा नहीं कहना चाहिए 😇

हालदार - डाक्टर श्रीनाथ वेदान्तचर्चा किया करता है - योगवाशिष्ठ पढ़ता है ।

HALDAR: "Dr. Sreenath studies Vedanta. He is a student of the Yoga-vasishtha."

হালদার — শ্রীনাথ ডা: বেদান্ত চর্চা করেন — যোগবাশিষ্ঠ পড়েন।

श्रीरामकृष्ण - संसारी होकर 'सब स्वप्नवत् है' यह मत अच्छा नहीं ।

MASTER: "A householder should not hold the view that everything is illusory, like a dream."

শ্রীরামকৃষ্ণ — সংসারী হয়ে, ‘সব স্বপ্নবৎ’ — এ-সব মত ভাল নয়।

एक भक्त - कालिदास नाम का वह जो आदमी है, वह भी वेदान्तचर्चा किया करता है । परन्तु मुकदमेबाजी में घर की लुटिया तक उसने बेच डाली !

Referring to a man named Kalidas, a devotee said, "He too discusses Vedanta, hut he has lost all his money in lawsuits."

একজন ভক্ত — কালিদাস বলে সেই লোকটি — তিনিও বেদান্ত চর্চা করেন; কিন্তু মোকদ্দমা করে সর্বস্বান্ত।

श्रीरामकृष्ण - (😇😇सहास्य) - सब माया भी है और उधर मुकदमेबाजी भी होती है ! (राखाल से) जनाईवाले मुकर्जियों ने पहले बड़ी लम्बी-लम्बी बातें की थी, फिर अन्त में खूब समझ गये । मैं अगर अच्छा रहता तो उनसे कुछ देर और बातचीत करता । क्या 'ज्ञान-ज्ञान' की डींग मारने से ही ज्ञान हो जाता है ? 

[क्या बिना गुरु-शिष्य परम्परा का प्रशिक्षण लिए, केवल राजयोग किताब पढ़ने से ही योग या समाधि की अनुभूति की जा सकती है? या पहले सद्गुरु के मार्गदर्शन में  वैराग्यपूर्वक पञ्चाङ्ग योग की साधना के साथ-साथ निःस्वार्थ कर्म करके, यानि प्रेस और टेण्डर के साथ-साथ महामण्डल करके चित्त को शुद्ध करना जरुरी है !]   

MASTER (smiling): "Yes, one proclaims everything to be Maya, and still one goes to court! (To Rakhal) Mukherji of Janai, too, talked big. But at last, he came to his senses. If I were well I should have talked a little more with Dr. Sreenath. Can one obtain jnana just by talking about it?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — সব মায়া — আবার মোকদ্দমা! (রাখালের প্রতি) জনাইয়ের মুখুজ্জে প্রথমে লম্বা লম্বা কথা বলছিল; তারপর শেষকালে বেশ বুঝে গেল! আমি যদি ভাল থাকতুম ওদের সঙ্গে আর খানিকটা কথা কইতাম। জ্ঞান জ্ঞান কি করলেই হয়?

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🙋पहले कामजयी होना होगा : दृष्टान्त सुनकर ठाकुर देव का रोमांचित होना 🙋 

हालदार - ज्ञान बहुत देखा है । कुछ भक्ति हो तो जी में जी आये । उस दिन मैं एक बात सोचकर आया था । उसकी आपने मीमांसा कर दी ।

HALDAR: "You are right, sir. I have seen enough of jnana. Now all I need in order to live in the world is a little bhakti. The other day I came to you with a problem on my mind, and you solved it."

হালদার — অনেক জ্ঞান দেখা গেছে। একটু ভক্তি হলে বাঁচি। সেদিন একটা কথা মনে করে এসেছিলাম। তা আপনি মীমাংসা করে দিলেন।

श्रीरामकृष्ण - (आग्रह से) - वह क्या है ?

MASTER (eagerly): "What was it?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্যগ্র হইয়া) — কি কি?

हालदार - जी, यह बच्चा आया तो आपने कहा कि यह जितेन्द्रिय (Complete control over orgasm) है ।

[यानि कामोन्माद या काम प्रवृत्ति (lust) पर पूरा नियंत्रण है। ]

HALDAR: "Sir, when that boy (pointing to the younger Naren) came in, you said he had controlled his passions."

হালদার — আজ্ঞে, এই ছেলেটি এলে বললেন যে — জিতেন্দ্রিয়।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, उसके (छोटे नरेन्द्र के) भीतर विषयबुद्धि (काम प्रवृत्ति -lust) का लेशमात्र भी नहीं है । वह कहता है, 'मुझे नहीं मालूम कि काम किसे कहते हैं ।'(मणि से) "हाथ लगाकर देखो, मुझे रोमांच हो रहा है ।" 

MASTER: "Yes, it is true. He is totally unaffected by worldliness. He says he doesn't know what lust is. (To M.) Just feel my body. All the hair is standing on end."

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ গো, ওর (ছোট নরেনের) ভিতর বিষয়বুদ্ধি আদপে ঢোকে নাই! ও বলে কাম কাকে বলে তা জানি না।(মণির প্রতি) “হাত দিয়ে দেখ আমার রোমাঞ্চ হচ্চে!”

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

🙋जहाँ कोई वासना नहीं है, वहाँ भगवान स्वयं प्रकट होते हैं।🙋

God is present where there is no desire.

যেখানে কাম নাই সেখানে ঈশ্বর বর্তমান। 

जहाँ काम-प्रवृत्ति (या lust में आसक्ति) बिल्कुल नहीं है-वहीँ भगवान प्रकट होते हैं ! इस शुद्ध अवस्था की याद करके श्रीरामकृष्ण को रोमांच हो रहा है ।

The Master's hair actually stood on end at the thought of a pure mind totally devoid of lust. He always said that God manifests Himself where there is no lust.****

কাম নাই, এই শুদ্ধ অবস্থা মনে করিয়া ঠাকুরের রোমাঞ্চ হইতেছে। যেখানে কাম নাই সেখানে ঈশ্বর বর্তমান। এই কথা মনে করিয়া কি ঠাকুরের ঈশ্বরের উদ্দিপন হইতেছে? * * 

[राखाल हालदार - श्री रामकृष्ण देव की कृपा प्राप्त चिकित्सक। ठाकुर के डॉक्टरों में से एक।बहुबाजार, कलकत्ता के निवासी। राखाल हालदार समय-समय पर काशीपुर में श्रीरामकृष्ण देव  से मिलने जाते थे। ठाकुर उनका मार्गदर्शन करते थे। ]

রাখাল হালদার — শ্রীরামকৃষ্ণের স্নেহধন্য ডাক্তার। নিবাস কলিকাতার বহুবাজারে। ঠাকুরের অন্যতম চিকিৎসক। রাখাল হালদার মাঝে মাঝেই কাশীপুরে ঠাকুরের কাছে যাতায়াত করিতেন। ঠাকুর নানাবিধ উপদেশ দানে তাঁহাকে কৃপা করিয়াছিলেন।]

राखाल हालदार बिदा हो गये । 

Rakhal Haldar took his leave.

রাখাল হালদার বিদায় লইলেন।

[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

 🏹ॐ नमो भगवते सम्बुद्धाय  🏹🔱

Om, I salute the Lord, the awakened.

" No One is To Blame "

 ॐ नमः जागृत प्रभु, तत्त्वमसि !--'वह ब्रह्म तुम्हीं हो। ' 🔱

মদ্‌গুরু শ্রীজগৎ গুরু! 

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अब भी बैठे हुए हैं । एक पगली उन्हें देखने के लिए बड़ा उपद्रव मचाया करती है । वह मधुरभाव की उपासना करती है । बगीचे में प्रायः आया करती है । आकर एकाएक श्रीरामकृष्ण के कमरे में घुस आती है, वह ठाकुर देव के प्रति प्रेमिका का भाव रखती है। भक्तगण मारते भी हैं, परन्तु इससे भी वह मौका नहीं चूकती ।

Sri Ramakrishna was seated with the devotees. A crazy woman had been troubling everybody to see the Master. She had assumed toward him the attitude of a lover and often ran into the garden house and burst into the Master's room. She had even been beaten by the devotees; but that did not stop her.

শ্রীরামকৃষ্ণ এখনও ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। পাগলী তাঁহাকে দেখিবার জন্য বড়ই উপদ্রব করে। পাগলীর মধুর ভাব। বাগানে প্রায় আসে ও দৌড়ে দৌড়ে ঠাকুরের ঘরে এসে পড়ে। ভক্তেরা প্রহারও করেন, — কিন্তু তাহাতেও নিবৃত্ত হয় না

शशि - अबकी बार अगर पगली दीख पड़ी तो धक्के मारकर हटा दूँगा ।

SASHI: "If she comes again I shall shove her out of the place!"

শশী — পাগলী এবার এলে ধাক্কা মেরে তাড়াব।

श्रीरामकृष्ण - (करुणापूर्ण स्वर से) - नहीं, नहीं, आयगी तो फिर चली जायगी ।

MASTER (tenderly): "No, no! Let her come and go away."

শ্রীরামকৃষ্ণ (করুণামাখা স্বরে) — না, না। আসবে চলে যাবে।

राखाल - पहले-पहल इनके पास अगर और पाँच आदमी आते थे तो मुझे एक तरह की ईर्ष्या होती थी । उन्होंने कृपा करके अब मुझे समझा दिया है कि वे मेरे भी गुरु हैं और संसार के भी गुरु हैं । वे केवल हमारे लिए थोड़े ही आये हुए हैं ?

RAKHAL: "At the beginning, I too used to feel jealous of others when they visited the Master. But he graciously revealed to me that my guru is also the Guru of the Universe. Has he taken this birth only for a few of us?"

রাখাল — আগে আগে অপর পাঁচজন ওঁর কাছে এলে আমার হিংসে হত। তারপর উনি কৃপা করে আমায় জানিয়ে দিয়েছেন, — মদ্‌গুরু শ্রীজগৎ গুরু! — উনি কি কেবল আমাদের জন্য এসেছেন?

 [ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

" No One is To Blame "

" किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है "

🙋कारो दोष देखो ना !~ श्री माँ सारदा देवी 🙋 

" ॐ नमः भगवते सम्बुद्धाय "

'Om Namo Bhagavate Sambuddhay' 

Om, I salute the Lord, the awakened.

ॐ, प्रबुद्धाय भगवन्तं नमामि।

किं वयं सर्वे सिद्धिं प्राप्य तस्य समीपम् आगताः?

Did we all come to him after attaining perfection? 

🏹कोई भी साधक पूर्ण होने के बाद अपने गुरु (आदर्श) के निकट नहीं जाता 🏹 

शशि - माना कि हमारे लिए ही नहीं आये, परन्तु बीमारी के समय आकर उपद्रव मचाना, यह क्या बात है ?

SASHI: "I don't mean that. But why should she trouble him when he is ill? And she is such a nuisance!"

শশী — তা নয় বটে, কিন্তু অসুখের সময় কেন? আর ও-রকম উপদ্রব।

राखाल - उपद्रव तो सभी करते हैं । क्या सभी उनके पास सच्चे भाव से आये हुए हैं ? क्या हम लोगों ने उन्हें कष्ट नहीं दिया ? नरेन्द्र आदि, सब पहले कैसे थे ? - कितना तर्क करते थे ?

RAKHAL: "We all give him trouble. Did we all come to him after attaining perfection? Haven't we caused him suffering? How Narendra and some of the others behaved in the beginning! How they argued with him!"

রাখাল — উপদ্রব সব্বাই করে। সকলেই কি খাঁটি হয়ে ওঁর কাছে এসেছে? ওঁকে আমরা কষ্ট দিই নাই? নরেন্দ্র-টরেন্দ্র আগে কিরকম ছিল, কত তর্ক করত?

 [ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

 🙋देखा जाय तो दूध का धोया कोई नहीं है । 🙋

If you look closely, no one is as innocent as he appears.

यदि त्वं सम्यक् पश्यसि तर्हि क्षीरं प्रक्षालितः कोऽपि नास्ति।

शशि - नरेन्द्र मुख से जो कुछ कहता था, उसे कार्य द्वारा पूरा भी उतार देता था ।

SASHI: 'Whatever Narendra expressed in words he carried out in his actions."

শশী — নরেন্দ্র যা মুখে বলত, কাজেও তা করত।

राखाल - डाक्टर सरकार ने उन्हें न जाने कितनी बातें कही हैं ! - देखा जाय तो दूध का धोया कोई नहीं है ।

 RAKHAL: "How rude Dr. Sarkar has been to him! No one is guiltless if it comes to that."

রাখাল — ডাক্তার সরকার কত কি ওঁকে বলছে! ধরতে গেলে কেহই নির্দোষ নয়।

श्रीरामकृष्ण - (राखाल से सस्नेह) - तू कुछ खायगा ?

MASTER (to Rakhal, tenderly): "Will you eat something?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (রাখালের প্রতি, সস্নেহে) — কিছু খাবি?

राखाल - नहीं, फिर खा लूँगा ।

RAKHAL: "Not now. Later on."

রাখাল — না; — খাবো এখন।

श्रीरामकृष्ण मणि की ओर संकेत कर रहे हैं कि वे आज यहीं प्रसाद पायें ।

Sri Ramakrishna asked M., by a sign, whether he was going to have his meal there.

শ্রীরামকৃষ্ণ মণিকে সঙ্কেত করিতেছেন, তুমি আজ এখানে খাবে?

राखाल - पाइये न, जब वे कह रहे हैं ।

RAKHAL (to M.): "Please take your meal here. He is asking you to."

রাখাল — খান না, উনি বলছেন।

श्रीरामकृष्ण पंचवर्षीय बालक की तरह दिगम्बर होकर भक्तों के बीच में बैठे हुए हैं ठीक इसी समय पगली जीने से ऊपर चढ़कर कमरे के द्वार के पास आकर खड़ी हो गयी

Sri Ramakrishna was seated completely naked. He looked like a five-year-old boy. Just then the crazy woman climbed the stairs and stood near the door.

ঠাকুর পঞ্চম বর্ষীয় বালকের ন্যায় দিগম্বর হইয়া ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন এমন সময়ে পাগলী সিঁড়ি দিয়া উঠিয়া ঘরের দরজার কাছে দাঁড়াইয়াছে।

मणि - (शशि से, धीरे-धीरे) - उसको ठाकुरदेव को नमस्कार करके जाने के लिए कहो, कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है

M. (in a low voice, to Sashi); "Ask her to salute him and go away. Don't make any fuss."

মণি (শশীকে আস্তে আস্তে) — নমস্কার করে যেতে বল, কিছু বলে কাজ নাই। শশী পাগলীকে নামাইয়া দিলেন।

शशि ने पगली [?] को नीचे उतारकर दिया । आज नये वर्ष का पहला दिन है । बहुत सी भक्त स्त्रियाँ आयी हुई हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण और माताजी को प्रणाम कर आशीर्वाद ग्रहण किया । श्रीयुत बलराम की स्त्री, मणिमोहन की स्त्री, बागबाजार की ब्राह्मणी तथा अन्य बहुत सी स्त्रियाँ आयी हुई हैं ।

Sashi took her downstairs. It was the first day of the Bengali year. Many woman devotees arrived. They saluted Sri Ramakrishna and the Holy Mother. Among them were the wives of Balaram and Manomohan, and the brahmani of Baghbazar. Several of them had brought their children along.

 শশী পাগলীকে নামাইয়া দিলেন। আজ নব বর্ষারম্ভ, মেয়ে ভক্তেরা অনেকে আসিয়াছেন। ঠাকুরকে ও শ্রীশ্রীমাকে প্রণাম করিলেন ও তাঁহাদের আশীর্বাদ লইলেন। শ্রীযুক্ত বলরামের পরিবার, মণিমোহনের পরিবার, বাগবাজারের ব্রাহ্মণী ও অন্যান্য অনেক স্ত্রীলোক ভক্তেরা আসিয়াছেন। কেহ কেহ সন্তানাদি লইয়া আসিয়াছেন।

वे सब की सब श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करने के लिए ऊपरवाले कमरे में गयीं । किसी किसी ने श्रीरामकृष्ण के पादपद्मों में अबीर और पुष्प चढ़ाये । भक्तों की दो लड़कियाँ - नौ-नौ दस-दस साल की - श्रीरामकृष्ण को गाना सुना रही हैं

Some of the women offered flowers at the Master's feet. Two young girls, nine or ten years of age, sang a few songs.

তাঁহারা ঠাকুরকে প্রণাম করিতে উপরের ঘরে আসিলেন। কেহ কেহ ঠাকুরকে পাদপদ্মে পুষ্প ও আবির দিলেন। ভক্তদের দুইটি ৯।১০ বর্ষের মেয়ে ঠাকুরকে গান শুনাইতেছেন:

জুড়াইতে চাই, কোথায় জুড়াই,

        কোথা হতে আসি, কোথা ভেসে যাই।

ফিরে ফিরে আসি, কত কাঁদি হাসি,

        কোথা যাই সদা ভাবি গো তাই ॥

लड़कियों ने दो-तीन गाने सुनाये । 

पहले उन्होंने गाया:

जुड़ाईते चाई, कोथाय जुड़ाई,

कोथा होते आसि, कोथा भेसे जाई।

फिरे फिरे आसि, कोतो काँदी हासी,

कोथा जाई सदा भाबी गो ताई।।

"हम जगत में सुख-शान्ति पाने के लिए छटपटाते हैं, लेकिन अफसोस! वह सुख-चैन कहीं मिलता नहीं है। हम यह नहीं जानते कि हम कहाँ से आते हैं, न ही यह कि हम बहते हुए कहाँ चले जाते हैं। हमें बार-बार मुस्कुराहट और आँसुओं के इस दौर से गुजरना पड़ता है; हम  यह जानने की व्यर्थ लालसा करते हैं कि हमारा मार्ग हमें लक्ष्य तक ले जाता है या नहीं ? तथापि हमें नहीं मालूम कि यह खोखला नाटक हमें खेलना क्यों पड़ता है ?..... 

First they sang: "We moan for rest, alas! but rest can never be found; We know not whence we come, nor where we float away. Time and again we tread this round of smiles and tears; In vain we pine to know whether our pathway leads, And why we play this empty play. . . ."

२. गीत - हरि हरि बोल रे वीणा।

গান   —   হরি হরি বলরে বীণে।

३. गीत -आसछे किशोरी , ओई देखो एलो ; तोर नयन बाँका वंशीधारी। 

वहाँ राधा आती है, और वहाँ अपने कृष्ण को देखती है, उनकी आँखें झुकी हुई हैं और होठों पर बांसुरी है। 

গান  —   ওই আসছে কিশোরী, ওই দেখ এলো;  তোর নয়ন বাঁকা বংশীধারী।

Then: There comes Radha, and there see your Krishna, With arching eyes and the flute at His lips. . . .

4. गीत - दुर्गानाम जपो सदा रसना आमार , दुर्गमे श्रीदुर्गा बीने के कोरे उद्धार ?  

গান   —   দুর্গানাম জপ সদা রসনা আমার,দুর্গমে শ্রীদুর্গা বিনে কে করে উদ্ধার? 

And finally: O tongue, always repeat the name of Mother Durga! Who but your Mother Durga will save you in distress? . . .

श्रीरामकृष्ण ने संकेत द्वारा उन्हें बधाई दी ।-अच्छा है इन्होंने माँ की महिमा का सुन्दर गीत सुनाया है। 

শ্রীরামকৃষ্ণ সঙ্কেত করিয়া বলিতেছেন, “বেশ মা মা বলছে!”

Sri Ramakrishna said by a sign: "That's good! They are singing of the Divine Mother."

ब्राह्मणी का स्वभाव बच्चों जैसा है । श्रीरामकृष्ण हँसकर राखाल की ओर संकेत कर रहे हैं । तात्पर्य यह कि वह उसे भी कुछ गाने के लिए कहे । ब्राह्मणी गा रही हैं -

'हरि खेलबो आज तोमार सने,

एकला पेयेछी तोमाय निधु बने। '   

गीत - अर्थात हे कृष्ण, आज तुम्हारे साथ खेलने को जी चाहता है, आज तुम मधुवन में अकेले मिल गये हो ।....

The brahmani of Baghbazar had the nature of a child. Sri Ramakrishna told Rakhal, by a sign, to ask her to sing. The devotees smiled as the brahmani sang: O Hari, I shall sport with You today; For I have found You alone in the nidhu wood. . . .

ব্রাহ্মণীর ছেলেমান্‌সের স্বভাব। ঠাকুর হাসিয়া রাখালকে ইঙ্গিত করিতেছেন, “ওকে গান গাইতে বল না।” ব্রাহ্মণী গান গাইতেছেন। ভক্তেরা হাসিতেছেন।

‘হরি খেলব আজ তোমার সনে,

        একলা পেয়েছি তোমায় নিধুবনে।’

स्त्रियाँ ऊपरवाले कमरे से नीचे चली आयीं । दिन का पिछला पहर है । श्रीरामकृष्ण के पास मणि तथा दो-एक और भक्त बैठे हुए हैं । नरेन्द्र भी कमरे में आये । श्रीरामकृष्ण ठीक ही कहते हैं कि नरेन्द्र मानो म्यान से तलवार निकालकर घूम रहा है ।

The woman devotees went downstairs. It was afternoon. M. and a few other devotees were seated near the Master. Narendra came in. He looked, as the Master used to say, like an unsheathed sword.

মেয়েরা উপরের ঘর হইতে নিচে চলিয়া গেলেন।বৈকাল বেলা। ঠাকুরের কাছে মণি ও দু-একটি ভক্ত বসিয়া আছেন। নরেন্দ্র ঘরে প্রবেশ করিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ ঠিকই বলেন, নরেন্দ্র যেন খাপখোলা তলোয়ার লইয়া বেড়াইতেছেন।

 [ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]

 🏹 🙋संन्यासी के कठिन नियम तथा नरेन्द्र 🏹 🙋

नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण को सुनाकर स्त्रियों के सम्बन्ध में नरेन्द्र बहुत ही विरक्ति-भाव प्रकाशित कर रहे हैं । कहते हैं, 'स्त्रियों के साथ रहकर ईश्वर की प्राप्ति में घोर विघ्न है ।'

Narendra sat down near the Master and within his hearing expressed his utter annoyance with women. He told the devotees what an obstacle women were in the path of God-realization.

নরেন্দ্র আসিয়া ঠাকুরের কাছে বসিলেন। ঠাকুরকে শুনাইয়া নরেন্দ্র মেয়েদের সম্বন্ধে যৎপরোনাস্তি বিরক্তিভাব প্রকাশ করিতেছেন। মেয়েদের সঙ্গ ঈশ্বরলাভের ভয়ানক বিঘ্ন, — বলিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण कुछ कहते नहीं, केवल सुन रहे हैं ।

Sri Ramakrishna made no response. He listened to Narendra.

শ্রীরামকৃষ্ণ কোন কথা কহিতেছেন না, সকলি শুনিতেছেন।

नरेन्द्र फिर कह रहे हैं, 'मैं शान्ति चाहता हूँ, मैं ईश्वर को भी नहीं चाहता ।'

Narendra said again: "I want peace. I do not care even for God."

নরেন্দ্র আবার বলিতেছেন, আমি চাই শান্তি, আমি ইশ্বর পর্যন্ত চাই না। 

श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं । मुख में कोई शब्द नहीं है । नरेन्द्र बीच बीच में स्वर के साथ कह रहे हैं, 'सत्यं ज्ञानमनन्तम् ब्रह्म।' (तै० उ० 2।1।1)

Sri Ramakrishna looked at him intently without uttering a word. Now and then Narendra chanted, "Brahman is Truth, Knowledge, the Infinite."

শ্রীরামকৃষ্ণ নরেন্দ্রকে একদৃষ্টে দেখিতেছেন। মুখে কোন কথা নাই। নরেন্দ্র মাঝে মাঝে সুর করিয়া বলিতেছেন — সত্যং জ্ঞানমনন্তম্‌।

रात के आठ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । सामने दो-एक भक्त भी बैठे हैं । ऑफिस का काम समाप्त करके सुरेन्द्र श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं । हाथ में चार सन्तरे हैं और फूल की दो मालाएँ । सुरेन्द्र एक-एक बार भक्तों की ओर तथा एक-एक बार श्रीरामकृष्ण की ओर देख रहे हैं, और अपने हृदय की सारी बातें कहते जा रहे हैं

It was eight o'clock in the evening. Sri Ramakrishna sat on his bed. A few devotees sat on the floor in front of him. Surendra arrived from his office. He carried in his hands four oranges and two garlands of flowers. Now he looked at the Master and now at the devotees. He unburdened his heart to Sri Ramakrishna.

রাত্রি আটটা। ঠাকুর শয্যাতে বসিয়া আছেন, দু-একটি ভক্তও সম্মুখে বসিয়া। সুরেন্দ্র আফিসের কার্য সারিয়া ঠাকুরকে দেখিতে আসিয়াছেন, হস্তে চারিটি কমলালেবু ও দুইছড়া ফুলের মালা। সুরেন্দ্র ভক্তদের দিকে এক-একবার ও ঠাকুরের দিকে এক-একবার তাকাইতেছেন; আর হৃদয়ের কথা সমস্ত বলিতেছেন।

सुरेन्द्र - (मणि आदि की ओर देखकर) - ऑफिस का कुल काम समाप्त करके आया । मैंने सोचा, दो नावों पर पैर रखकर क्या होगा ? अतएव काम समाप्त करके जाना ही ठीक है । आज एक तो पहला वैशाख है, दूसरे, मंगल का दिन । कालीघाट जाना नहीं हुआ । मैंने सोचा, काली की चिन्ता करके स्वयं ही जो काली बन गये हैं, (और जिसने काली को ठीक से समझ लिया है।') अब चलकर उन्हीं के दर्शन करूँ; इसी से हो जायगा

SURENDRA (looking at M. and the others): "I have come after finishing my office work. I thought, 'What is the good of standing on two boats at the same time?' So I finished my duties first and then came here. Today is the first day of the year; it is also Tuesday, an auspicious day to worship the Divine Mother. But I didn't go to Kalighat. I said to myself, 'It will be enough if I see him who is Kali Herself, and who has rightly understood Kali (घनीभूत भारत माता?) .'

সুরেন্দ্র (মণি প্রভৃতির দিকে তাকাইয়া) — আফিসের কাজ সব সেরে এলাম। ভাবলাম, দুই নৌকায় পা দিয়ে কি হবে, কাজ সেরে আসাই ভাল। আজ ১লা বৈশাখ, আবার মঙ্গলবার; কালীঘাটে যাওয়া হল না। ভাবলাম যিনি কালী — যিনি কালী ঠিক চিনেছেন, তাঁকে দর্শন করলেই হবে

श्रीरामकृष्ण मुस्करा रहे हैं ।

Sri Ramakrishna smiled.

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ঈষৎ হাস্য করিতেছেন।

सुरेन्द्र - मैंने सुना है, गुरु और साधु के दर्शन करने के लिए कोई जाय तो उसे कुछ फल-फूल लेकर जाना चाहिए । इसीलिए फल-फूल मैं ले आया । (श्रीरामकृष्ण से) आपके लिए यह सब खर्च, - ईश्वर ही मेरा मन जानते हैं । किसी को एक पैसा खर्च करते हुए भी कष्ट होता है, पर कुछ लोग लाखों रुपये बिना किसी हिचकिचाहट के खर्च कर डालते हैं । ईश्वर तो हृदय की भक्ति देखते हैं, तब ग्रहण करते हैं

SURENDRA: "It is said that a man should bring fruit and flowers when visiting his guru or a holy man. So I have brought these. . . . (To the Master) I am spending all this money for you. God alone knows my heart. Some people feel grieved to give away a penny; and there are people who spend a thousand rupees without feeling any hesitation. God sees the inner love of a devotee and accepts his offering."

সুরেন্দ্র — গুরুদর্শনে, সাধুদর্শনে শুনেছি ফুল-ফল নিয়ে আসতে হয়। তাই এগুলি আনলাম। আপনার জন্যে টাকা খরচ, তা ভগবান মন দেখেন। কেউ একটি পয়সা দিতে কাতর, আবার কেউ বা হাজার টাকা খরচ করতে কিছুই বোধ করে না। ভগবান মনের ভক্তি দেখেন তবে গ্রহণ করেন।

श्रीरामकृष्ण सिर हिलाकर संकेत कर रहे हैं कि तुमने ठीक ही कहा । सुरेन्द्र फिर कह रहे हैं – “कल संक्रांन्ति थी, मैं यहाँ तो नहीं आ सका, परन्तु घर में फूलों से आपके चित्र को खूब सुसज्जित किया ।"

Sri Ramakrishna said to Surendra, by a nod, that he was right. SURENDRA: "I couldn't come here yesterday. It was the last day of the year. But I decorated your picture with flowers."

ঠাকুর মাথা নাড়িয়া সঙ্কেত করিয়া বলিতেছেন, “তুমি ঠিক বলছ।” সুরেন্দ্র আবার বলিতেছেন, “কাল আসতে পারি নাই, সংক্রান্তি। আপনার ছবিকে ফুল দিয়ে সাজালুম।”

श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र की भक्ति की बात मणि को संकेत करके सूचित कर रहे हैं ।

Sri Ramakrishna said to M., by a sign, "Ah, what devotion!"

শ্রীরামকৃষ্ণ মণিকে সঙ্কেত করিয়া বলিতেছেন, “আহা কি ভক্তি!”

सुरेन्द्र - आते हुए ये दो मालाएं ले लीं, चार आने की ।

SURENDRA: "As I was coming here I bought these two garlands for four annas."

সুরেন্দ্র — আসছিলাম, এই দুগাছা মালা আনলাম, চার আনা দাম।

अधिकांश भक्त चले गये । श्रीरामकृष्ण मणि से पैरों पर हाथ फेरने और पंखा झलने के लिए कह रहे हैं ।

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गुरुवार, 1 अगस्त 2024

🔱🕊🏹"समाधि : एकात्मता - Oneness " 🔱🕊🏹 [भोपाल : शंकर व्याख्यान माला ~ Swami Sarvapriyananda |Hindi | 27th Feb, 2024, Bhopal |

    [https://www.youtube.com/watch?v=IGd1P94qKD4/

    इसका हिन्दी अनुवाद करने से मैं अपने को रोक नहीं पाया -त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ ! 

स्वामी सर्वप्रियानंद जी, श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा -में प्रशिक्षित एक जीवनमुक्त शिक्षक, मानवजाति के विख्यात आध्यात्मिक नेता (spiritual leader पैगम्बर) हैं और 'न्यूयॉर्क वेदान्त सोसाइटी' के स्थानिक आचार्य (Resident Minister) हैं।  1994 ई.  में उन्होंने रामकृष्ण मठ में योगदान किया और 2004 में उनकी संन्यास दीक्षा हुई। अपने कार्यकाल के दौरान, सर्वप्रियानन्द जी ने भारत के बेलूड़ मठ के " भावी आध्यात्मिक नेता  प्रशिक्षण केंद्र में (monastic probationer केंद्र) एक चपरास प्राप्त आचार्य के रूप में कार्य किया। भारत में रामकृष्ण मिशन के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में प्रमुख भूमिकाएँ निभाते हुए, वे दक्षिणी कैलिफोर्निया के वेदांत सोसाइटी के सहायक मंत्री बने।

    मध्य प्रदेश सरकार के सांस्कृतिक विभाग (Dept. of Culture) द्वारा संचालित "आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास"आचार्य शंकर के जीवन और शिक्षाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए न्यास शंकर व्याख्यानमाला नामक मासिक व्याख्यान का आयोजन करता है, जो इस ट्रस्ट की प्रमुख गतिविधियों में से एक है।

भारत के एक राज्य मध्य प्रदेश में स्थित ओंकारेश्वर एकात्म धामआदि शंकराचार्य की विरासत और सनातन धर्म के उत्सव के माध्यम से सम्पूर्ण अस्तित्व की एकता का संदेश प्रसारित करता है। यहाँ ओंकारेश्वर में अवस्थित 108 फीट ऊंची अस्तित्व के एकात्मकता की प्रतिमा (Statue of Oneness) आध्यात्मिक ज्ञान का एक विशाल स्मारक है। जिसे 27 फीट ऊंचे कमल की पंखुड़ियों के आधार वाले 54 फीट ऊंचे पेडस्टल पर खड़ा किया गया है, जो देखने में एक भव्य  दृश्य प्रस्तुत करता है। 26-27 फरवरी, 2024 को भोपाल, मध्य प्रदेश में 64 वीं शंकर व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया। स्वामी सर्वप्रियानंद जी ने "समाधि : एकात्मता - Oneness " (एकत्व) पर दो व्याख्यान दिए।.....] पहला व्याख्यान इस प्रकार है -


ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । 

मृत्योर्मा अमृतं गमय । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

(– बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28)

 ॐ'- हे ईश्वर! हमें (श्रोता और वक्ता दोनों को) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।

आदरणीय शिवशेखर शुक्ल जी, सभा में उपस्थित सभी श्रद्धेय संन्यासी वृन्द को मेरा प्रणाम मुझे -इनके सामने बोलने में संकोच होता है, थोड़ा डर लगता है कि इन सबके सामने हम तो कनिष्ठ हैं, ये सभी मुझसे श्रेष्ठ हैं -उनको वक्ता होना चाहिए और मुझे श्रोता होना चाहिए था। लेकिन मुझे फिर यह भी अनुभव होता है कि उनके सामने खड़े होकर बोलने का अवसर मिलना भी बहुत बड़ा आशीर्वाद है, वे आशीर्वाद दे रहे हैं, उनकी उपस्थिति से मुझे साहस मिलता है। 

     आदरणीय गणमान्य अतिथि वृन्द को प्रणाम, उपस्थित प्रशिक्षणार्थी भाइयों का- शंकर दूतों का स्वागत -अभिनंदन। आज की शाम आप सबके बीच यहाँ खड़े होकर बोलना -मेरे लिए बहुत खुशी और सम्मान की बात है। मुझे सभा में उपस्थित मनीष पाण्डेय जी - most persistent gentleman 'को भी धन्यवाद देना चाहिए था -सबसे दृढ़ निश्चयी व्यक्ति हैं , उनके कारण ही आज हम सभी को यहाँ एकत्र होने का अवसर मिला है। उनका आग्रह था कि हम हिन्दी में बोलें - और मैं हिन्दी में बोलूँगा भी। मैं अंग्रेजी -हिन्दी मिलीजुली भाषा में बोलूंगा। अमेरिका में मुझे हिन्दी बोलने का मौका नहीं मिलता। आज मैं कोशिश करूँगा कि वक्ता और श्रोता को समझने में कोई असुविधा नहीं हो। सांस्कृतिक एकता ट्रस्ट (Cultural Unity Trust-सांस्कृतिक एकता न्यास) की परियोजना के अन्तर्गत चलाये जाने वाले ओंकारेश्वर स्थित एकात्म धाम और एकात्म-वाद (onenessकी मूर्ति (Statue of Oneness) के बारे में सुनकर मैं बहुत प्रभावित हुआ था। किन्तु इस विकासोन्मुख परियोजना को अपनी आँखों से पुष्पित और पल्ल्वित होते देखना मुझे बहुत अधिक  प्रभावित कर रहा है।

      स्वामी विवेकानन्द ने 10 जून, 1898 को मुहम्मद सरफराज हुसैन को लिखित एक पत्र में कहा था - " मैं अपने मानस -चक्षु से  भावी भारत की उस तेजस्वी और अजेय पूर्णावस्था को देख पा रहा हूँ, जिसका वर्तमान के परस्पर द्वेष और कलह से परे इस्लामी शरीर (Islamic body) और अद्वैतवादी बुद्धि के संयोजन द्वारा -उत्थान होगा। " (I see in my mind's eye the future perfect India rising out of this chaos and strife, glorious and invincible, with Vedanta brain and Islam body. )

 " अद्वैत (Oneness) को आप चाहे वेदान्तवाद (Vedantism) कहें या अन्य किसी वाद (ism) के नाम से पुकारें , परन्तु सत्य तो यह है कि धर्म और विचारणा की दृष्टि से अद्वैत ही अन्तिम शब्द और अवस्था है, जहाँ पहुँचकर सभी धर्मों और संप्रदायों को प्रेम की दृष्टि से देखा जा सकता है। फिर भी वह व्यावहारिक वेदान्त (practical Advaitism) जो समस्त मनुष्य- जाति को अपनी ही आत्मा का स्वरुप समझता है और उसीके अनुकूल सबों के साथ व्यवहार करता है, सार्वभौमिक रूप से हिंदुओं में अभी तक  विकसित होना शेष है।  'my experience is that if ever any religion approached this equality appreciably, it is Islam and Islam alone.' दूसरी ओर, मेरा अनुभव यह है कि यदि कभी किसी धर्म ने इस एकात्मकता (Oneness) को सराहनीय ढंग से अपनाया है तो वह केवल इस्लाम ही है। इसलिए मेरा दृढ़ विश्वास है कि व्यावहारिक इस्लाम (practical Islam) की सहायता के बिना, अद्वैत वेदान्तवाद (Oneness of existence) के सिद्धांत, चाहे वे कितने भी अच्छे और अद्भुत क्यों न हों, विशाल मनुष्य -जाति के लिए पूरी तरह से मूल्यहीन हैं

      "Mankind ought to be taught that religions are but the varied expressions of THE RELIGION, which is Oneness, so that each may choose that path that suits him best. " मनुष्य - जाति को यह शिक्षा देनी चाहिए कि सभी धर्म उस -'अद्वैत ' धर्म  'Oneness' (समाधि या योग की अवस्था में अनुभूत एकात्मकता) के ही भिन्न भिन्न रूप हैं , इसलिए प्रत्येक व्यक्ति इन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है। विशेषकर हमारी मातृभूमि के लिए दो महान प्रणालियों, व्यावहारिक हिन्दुत्व और व्यावहारिक इस्लाम - एकात्मकतावादी बुद्धि (monistic intelligence) और इस्लामी शरीर - का संयोजन (junction) ही एकमात्र आशा है। 

 उन्होंने ऐसा नहीं कहा कि मैं कल्पना करता हूँ या चाहता हूँ कि वैसा होगा - बल्कि  मैं अपने मानस -चक्षु से भावी भारत की उस पूर्णावस्था को देख रहा हूँ।  और यह बात उन्होंने कब कहा था ? उस पूर्णावस्था को उन्होंने कब देखा था ? 126 साल पहले 1898 ई.में जब हमलोग अंग्रेजों के गुलाम थे। अकाल और भुखमरी से मौत हो जाती थी। एक रोचक घटना है जब स्वामीजी स्वदेश लौट रहे थे तब उनके साथ सिस्टर निवेदिता भी थीं , वे पहली बार भारत आ रही थीं। उन्होंने स्वामीजी से भारत के बारे में सुन रखा था।  भारत को जहाज से देखकर कहती हैं -स्वामीजी भारत में कितनी शांति है ! भारत बड़ा ही सौम्य -शान्त देश है। लेकिन विवेकानन्द उनको डाँटते हुए कहते हैं - नहीं ये सच्ची शांति नहीं ये तो मरघट वाली -कब्रिस्तान की शांति है। 

     हमारा देश तब अंग्रेजों का गुलाम था। इस हॉल का नाम भी पहले मिन्टो हॉल था ! [मिन्टो हॉल भोपाल, मध्य प्रदेश की ऐतिहासिक इमारतों में से एक है। 12 नवम्बर सन 1909 में सुल्तान जहाँ बेगम ने राज्य में आने वाले विशेष अतिथियों के लिए वायसराय लॉर्ड मिन्टो से इस भवन की आधारशिला रखवाई थी। इस भवन का आकार जॉर्ज पंचम के मुकुट के समान था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उस हॉल का नाम बदल कर कुशाभाऊ ठाकरे हॉल किया। हमलोग विदेशी शक्ति के गुलाम थे। अंधविश्वास वाली शांति का कोई मतलब नहीं है।  

      आज का जो भारतवर्ष आप देख रहे हैं - बहुत सारे लोग कहते रहते हैं कि यहाँ बहुत सी समस्यायें हैं। 5.04/ मैं सोचता हूँ यदि स्वामीजी यदि आज शरीर में होते तो वर्तमान भारत को देखकर गौरवान्वित हो रहे होते। स्वामीजी जैसा भारत देखना चाहते थे, हमलोग सही रास्ते पर हैं, हमलोग स्वामीजी के सपनों के उसी भारत की ओर सही दिशा में अग्रसर हैं - we are on the track-towards that India ! क्योंकि स्वामीजी के लिए देश के उत्थान का अर्थ था - देश की साधारण जनता का तमो गुण से रजो गुण, फिर रजोगुण से सतोगुण में उन्नत होना था आप जब अमेरिका हर 5 साल में जायेंगे , तो आपको वहां ज्यादा कुछ परिवर्तन नजर नहीं आएगा। किन्तु जब आप हर 5 वर्ष में इस भारत में आएंगे -विगत 10 वर्षों के बाद जब इंडिया नहीं भारत है, यह एक नया भारत है। there is a tremendous change- एक बहुत बड़ा परिवर्तन आ चुका है ! वहाँ एक जबरदस्त ऊर्जा है, -there is a tremendous upward movement - वहाँ हमारे देश में एक जबरदस्त ऊर्जा उर्ध्व गति के रूप में क्रियाशील है ! उसीका एक प्रधान कारण और लक्षण के रूप में आज का यह युवा सेमिनार भी आयोजित हो रहा है ! (5.51)

    जब कोई राष्ट्र अपनी गौरवपूर्ण प्राचीन संस्कृति और सभ्यता  को पूरे आत्मविश्वास के साथ अपना लेता है, वही हमें भविष्य के विकास के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करता है। और वही यहाँ हो रहा है जो इस एकात्मज्ञान ट्रस्ट (न्यास) का महत्व है , इसका प्रमुख आधार है। इस प्रकार का संगठन और  youth seminar हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति को पुनर्जागृत और पुनरुज्जीवित करने में प्रमुख भूमिका निभाता है। 

     लेकिन ऐसी अवस्था सिर्फ भारत में ही नहीं है। हम अभी जहाँ पोस्टेड हैं - न्यूयॉर्क में। अमेरिका में स्वामीजी 1893 के विश्व -धर्म महासभा में तब गए थे।  फिर 1894 में न्यूयॉर्क गए थे जहाँ उन्होंने प्रथम वेदान्त सोसाइटी की स्थापना किया था। उनका एक उद्देश्य यह था कि आचार्य शंकर का यह जो अद्वैत भाव है -उसको विश्व भर में - सभी देशों में फैला देना। क्यों ? सबके भलाई के लिए, सबके मंगल के लिए। सबको अपना स्वरुप समझकर प्रेम से देखने की बात हो रही है। ये अद्वैत या Oneness का विषय कोई साम्प्रदायिक बात नहीं है , ये कोई एक विशेष धर्म को प्रचारित करने की बात नहीं है। यह सेमिनार सभी प्रकार के धर्मों के लिए खुला है - जो भी धर्म आपका हो , उसके लिए खुला हुआ है। या आप नास्तिक भी हों तब भी वो यहाँ आ सकते हैं। सभी मतवादों के लिए , विश्व के सभी देशों के लिए यह खुला हुआ है। 

        अभी -अभी जो लघु-फिल्म हमने देखा उसमें पृथ्वी भर के विद्वान् अब मानवता को एकात्मभाव से देखने की बात, अद्वैत की बात कर रहे हैं। ये सिर्फ भारत की बात नहीं है समूची मानवता के कल्याण की बात है। आज जो युवा लोग यहाँ उपस्थित हैं वे भविष्य के बरगद के छोटे से बीज में छिपे विराट बरगद रूपी भावी नेता, पैगम्बर या जीवनमुक्त शिक्षक बनने वाले हैं। भारत में इस जबरदस्त बदलाओ को लाने में एक छोटा सा यंत्र बनकर मुझे भी बड़े गर्व का अनुभव हो रहा है। जितना समय आज बचा है , उसमें अद्वैत वेदान्त और एकात्मवाद के विषय में आज कुछ सुनाऊँगा, शेष कल कहूंगा। 

      उस आध्यात्मिक 'Oneness' या एकात्म की अनुभूति तक पहुँचने के लिए सभी धर्मों में  अलग-अलग उपाय या मार्ग बताया गया है। जैसे सनातन धर्म के विस्तार को हम Full spectrum religion' कहते हैं। इसमें हर तरह के मतवाद हैं, हर तरह के दर्शन हैं - द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत को एक ही धर्म के विभिन्न सोपान के रूप में  स्वीकार किया जाता है। अतएव हर तरह के दर्शन को यहाँ मान्यता प्राप्त है।  कभी-कभी हमको यूएसए में  स्कूल्स में  बुलाया जा जाता हैदुइज्म के विषय में कुछ कहने के लिए। तो वहाँ कई धर्मों की पृष्ठभूमि से आये बच्चे श्रोता के रूप में रहते हैं। सनातन के विस्तार को समझाने के लिए उनको  कहता हूँ कि यूएसए में जितने भी चर्च हैं सबको मिला दो तो एक  मेगा क्रिश्चन चर्च हो जायेगा। और जितने इस्लामिक संप्रदाय हैं जो वहां पर परंपराएं हैं सबको मिलाकर एक एक मेगा अब्राहम रिलीजन बनाओ तो सोचो इतनी विविधताओं से भरा वह धर्म कैसा होगा? और अब सुनो अभी जो भारत में  हिंदुइज्म या सनातन धर्म है उसके अंदर उससे भी अधिक विविधता हैं। तो बच्चों की आंख तो एकदम गोल गोल हो जाती है - वे आश्चर्य से सोचते हैं कि ऐसा होंने से उस धर्म में कितनी अधिक विविधता (Diversity) होगी ? और बहुत से सिद्धान्त तो  भारत से ही अमेरिका  गया है, यहाँ से अमेरिका गया है जिसके बारे में उनको पता नहीं है कि। लॉसएंजेल्स में इस विषय पर मैं बोल रहा था , क्लास में खड़ा हो कर हम जब बताए योग के बारे में जो योग वहाँ बहुत प्रसिद्ध है। शायद रामदेव बाबा के आने से पहले ही  यह योग वहां और ज्यादा प्रसिद्ध था और यहां से अमेरिका जाके योगा बन गया था। लेकिन वह वास्तव में योग ही है तो मैंने उसके बारे में बताया की भारत में योग बहुत ज्यादा मशहूर है। तो एक छोटा सा लड़का खड़ा होकर  पूछता है- ओ !क्या भारत में भी योगा है?  Do you have Yoga in India also? 

 तो आध्यात्मिक एकत्व की अनुभूति तक पहुँचने का मार्ग विविध प्रकार का होता है। जैसे एक मार्ग है -भक्ति का मार्ग। वह विश्वास करने का मार्ग है। हमारे धार्मिक ग्रंथ में कहा गया है , या हमारे गुरु ने बता दिया है -हमारे सम्प्रदाय में बता दिया गया है कि स्वर्ग में ईश्वर हैं, Father in heaven हैं , अल्ला हैं , या यहोवा है। आपको केवल उसपर विश्वास करना है , भक्ति करनी है, आपको आत्मसमर्पण करना है। इससे आपको  -ईश्वरलाभ हो जायेगा। यह भक्ति मार्ग बिल्कुल ठीक बात है, समीचीन बात एकदम एकदम सही मार्ग है। लेकिन इस मार्ग में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि ये विश्वास पर टिका है, श्रद्धा पर खड़ा है। लेकिन आजके विज्ञान युग में श्रद्धा को विश्वास का सहारा मिलना बहुत कठिन है। सभी लोग यह जानते हैं कि पृथ्वी पर ईश्वरवादी जितने भी धर्म हैं सब विश्वास पर ही टिके हैं। और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन आजकल मुश्किल ये हो गया है कि आप किसी के भी विश्वास पर सन्देह कर सकते हैं। कोई कह सकता है - मैं नास्तिक हूँ , किसी ईश्वर पर विश्वास नहीं करता। तो फिर आप क्या कर सकते हैं ? इस मार्ग पर चलने के प्रारम्भ में ही आप प्रश्न नहीं कर सकते हैं। यह श्रद्धा और विश्वास के ऊपर टिका एक बहुत सुन्दर और सही मार्ग है। 

           लेकिन अमेरिका में आजकल सैम हैरिस (Sam Harris), डैनियल डेनेट, रिचर्ड डॉकिन्स  जैसे बड़े -बड़े American neuroscientist तंत्रिका वैज्ञानिक, लेखक और अनीश्वरवादी हो गए हैंजो आपकी भक्ति-विश्वास पर संदेह कर सकते हैं। आप उनका प्रतिदिन आधा घंटा लेक्चर सुन लिए तो आपका ईश्वर पर जितना विश्वास हो सब खत्म हो जायेगा। और जो जो प्रसिद्द दार्शनिक, या साइंटिस्ट हैं ज्यादातर इस भक्ति-मार्ग और ग्रन्थ में लिखी बातों पर विश्वास नहीं करते। उनके पास आप जाओगे तो ये सब बात सुनने के लिए राजी नहीं होंगे। आप न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में जाओगे और बोलोगे अपने राम के बारे में, कृष्ण के बारे में, कन्हैया के बारे में तो कोई उसको सुनने के लिए तैयार नहीं होगा- मुझे इनमे कोई दिलचस्पी नहीं है -Not interested । 

       तब भारतीय अध्यात्म के पास इससे अलग और एक और मार्ग है जिसे हम अनुभव का मार्ग, योग या समाधि का मार्ग कह सकते हैं। (13.05) एक तरह का कृत्रिम भेद Artificial Distinction मैं बना रहा हूं इसके बाद बताऊंगा क्यों बना रहा हूं ?  ये जो शंकर का अद्वैत सिद्धांत- 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ' का सिद्धांत ~ [ एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, ब्रह्मांड मिथ्या है, क्योंकि इसे सत्य या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। Oneness का सिद्धान्त - जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। है इसकी विशेषता समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि आज की दुनिया में यह किस प्रकार अनूठा (Unique), अन्य सभी मतों से भिन्न (Different) है और आज भी प्रासंगिक है। तो यह एक दूसरा मार्ग है - इसमें आपको किसी के सिद्धान्त पर विश्वास नहीं करना पड़ेगा, बल्कि उस पद्धति "Be and Make"  का अनुसरण करने से आप खुद अनुभव करेंगे।  इस तरह के अध्यात्म पर जोर देने वाले, इस प्रकार एकात्मवाद का अमेरिका में सर्वप्रथम प्रचारक विवेकानन्द ही थे। उन्होंने कहा - ईश्वर की (अपने यथार्थ स्वरुप की) अनुभूति करना ही धर्म है। 'Religion is realization' -If God Exists We Should Be Able to See God- यदि ईश्वर का अस्तित्व होता है, तो हमें ईश्वर को देखने में अवश्य सक्षम होना चाहिए ! यदि ईश्वर वास्तव में हैं, तो उनको हम अवश्य देख सकेंगे , हम क्यों उन्हें नहीं देख देख सकेंगे ? यदि मैं सचमुच अविनाशी आत्मा हूँ, नश्वर शरीर नहीं हूँ , तो मुझे इसकी अनुभूति अवश्य होनी चाहिए।     

नरेंद्रनाथ विवेकानंद कैसे बन जाते हैं ? (14.06) वे 19 वीं शताब्दी के अंतिम भाग देश की तात्कालीन राजधानी कोलकाता के बड़े-बड़े धार्मिक गुरुओं से पूछते फिरते थे, कि महाशय क्या आपने भगवान को देखा है? अर्थात उनका अनुभव किया जा सकता है या नहीं, या सिर्फ एक विश्वास है यह ? आगे की कहानी हम सब जानते हैं कि श्री राम कृष्ण परमहंस कैसे उनसे कहते हैं कि हां मैंने ईश्वर को देखा है और तुम भी देख सकते हो। तुम को जैसे देख रहा हूं उससे भी स्पष्ट रूप से उनको देखा है। तो यही है अनुभव का मार्ग; स्वामी विवेकानंद ने इसी मार्ग पर सबसे अधिक जोर दिया था।  वास्तव में पतंजलि योग सूत्र या राजयोग ही वह पहली पुस्तक है-  जिसका उन्होंने पहली बार अंग्रेजी में भाष्य लिखा था, और अनुवाद किया था। वह पुस्तक न्यूयॉर्क से प्रकाशित हुई थी। और 'राजयोग' या अष्टांयोग अनुभव का मार्ग है। आप ऐसे बैठो, ऐसे आसन लगाओ, ऐसे प्राणायाम करो, प्रत्याहार, धारणा का अभ्यास करो, ऐसे ध्यान और समाधि लगाओ। तो आठ चरणों में आपको खुद अपना  अनुभव, अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव हो जाएगा। आत्मा है कि नहीं ? ईश्वर है कि नहीं ? यह आप अपने अनुभव से बोल सकेंगे। 

 एक और मार्ग है, Mystical Experience या रहस्यमय अनुभव का मार्ग ; जिसमें आपको एक विशेष प्रकार का अनुभव होगा। जैसे श्री राम कृष्ण परमहंस को माँ काली के दर्शन होते थे। यह किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का बहुत समीचीन यानि उचित मार्ग है। ये बहुत प्राचीन मार्ग है, हमारे देश में इसी मार्ग से कितने बड़े-बड़े महानुभव, कितने बड़े-बड़े संत हुए हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस तो उनमें से एक हैं ही। इस रहस्यमय अनुभव के बारे में मैं कह रहा हूं एक कारण से यह दिखाने के लिए इसमें भी एक समस्या है। वह यह कि कोई इस मार्ग पर - के मार्ग पर संदेह कर सकता है। (15.49) / संदेह इसलिए कर सकता है कि यह तो सर्वसाधारण के अनुभव आने वाली अनुभूति नहीं है। आप देखोगे श्री राम कृष्ण परमहंस को जब माँ  काली की अनुभूति हो रही है,माँ काली के दर्शन हो रहे हैं, तब वहां पर जो खड़े हैं उनको वैसी कोई अनुभूति नहीं हो रही है। श्रीरामकृष्ण वचनामृत में कई जगह, इस बात का उल्लेख उसके लेखक ने लिखा है कि  श्री रामकृष्ण माँ काली को देख रहे हैं, लेकिन वहाँ उपस्थित अन्य कोई व्यक्ति माँ काली के दर्शन नहीं कर रहा है। बाकी सब नहीं देख रहे हैं, it's a special experience - यह किसी खास व्यक्ति का अपना अनुभव है। क्योंकि यह कोई आम अनुभव नहीं है, यह किसी एक व्यक्ति को होने वाली विशेष अनुभूति है , जो साधना सापेक्ष है, ध्यान सापेक्ष है, समाधि सापेक्ष है। क्योंकि यह कोई common experience नहीं है , इसलिए कोई व्यक्ति इस मार्ग पर संदेह कर सकता है। 

    जिन सन्तों, महात्माओं, योगियों को ऐसा अनुभव होता है, उनके बारे में साधारण जनता क्या सोचती है ? उनके बारे में - पहला रिएक्शन, पहली प्रतिक्रिया क्या होती है ?  बाद में तो कहते हैं कि अरे वे तो बड़े पहुँचे हुए महात्मा हैं, या कोई अवतारी पुरुष हैं। ये सब बाद में कहते हैं -  पहले कहते हैं ये पागल है। ये एकदम पागल है ;और श्रीरामकृष्ण को भी वही कहते थे। वो जो दक्षिणेश्वर का पागल पुजारी है।  तो लगता तो ऐसा ही है साधारण लोगों को तो यही लगता कि यह पागल है। 

        हाँ अमेरिका में आजकल के Neuroscientist दिमाग का स्कैन करने के बाद, पागल नहीं कहेंगे।  ब्रेन को स्कैन करके परीक्षा करके कहेंगे, कि आपको माँ काली का अनुभव हो रहा है, सो तो ठीक है लेकिन आपके ब्रेन में कहीं पर स्ट्रोक हो गया है। आजकल के  न्यूरोसाइंटिस्ट कहेंगे आपके ब्रेन में कहीं पर स्ट्रोक हो गया है, उसके चलते आपको हैलुसिनेशन हो रहा है। हाँ आजकल के सबसे प्रसिद्द TED Talk शो में, You-tube में आप देखेंगे कि एक महिला खुद न्यूरोसाइंटिस्ट थी, उनको स्ट्रोक हुआ था। फिर उनको एक तरह का एक The Mystical Experience of Oneness ' उनको एकत्व के अनुभूति की रहस्मय अनुभव होने लगा था। लेकिन वो स्ट्रोक की वजह से हुआ था कोई आध्यात्मिक अनुभूति उनको नहीं हुई थी। अब साधारण आदमी के लिए यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि एकत्व-एकत्मकता की अनुभूति सच्ची है या उसको कुछ अन्य विशेष कारण तो नहीं है ? जब मैं वहां बैठा था तो यही सोच रहा था कि ये सब बात बोलूं या नहीं ? पर अभी अमेरिका में और एक कारण से सबको एकत्व की अनुभूति होती रहती है वह है ड्रग्स खाने से अभी न्यूयॉर्क में ड्रग खाने को कानूनन वैध बना दिया है, उसको Legalize कर दिया है। तो शाम को 5 बजे आश्रम से सेंट्रल पार्क की तरफ बाहर निकलोगे न्यूयॉर्क में तो देखोगे वो सबको बैठे-बैठे आध्यात्मिक अनुभूति हो रही है। तो ये सब जो इधर बैठा है वो पागल है क्या कोई दिमागी खराबी है या कोई ड्रग खाकर बैठा हुआ है ; लेकिन वो सही है या नहीं इस पर सन्देह किया जा सकता है। 

       वास्तव में रहस्यमय एकत्व या समाधि का अनुभव होना दुर्लभ वस्तु है, लेकिन यह होता अवश्य है। निश्चित रूप से दुनिया के हर धर्म में कुछ भूलें रहती हैं ,लेकिन  वास्तव में सभी धर्मों के मूल संस्थापक ही वे लोग हैं जिन्हें यह एकत्व का सबसे मूल्यवान रहस्यमय अनुभव प्राप्त हुआ था, लेकिन इसमें भी संदेह किया जा सकता है।

    अच्छा ये सब बोलने का कारण ये है - अब असली मुद्दे पर आते हैं। और एक तरीका है - अध्यात्म का और एक Paradigm या आदर्श मार्ग है जो ज्ञान का मार्ग है।  जो आदि शंकर पहली बार लेकर आये , गौड़ पाद आचार्य तो थे, यह मार्ग तो बहुत प्राचीन मार्ग है। लेकिन व्यापक रूप से अपने भाष्य से, अपने प्रकरण ग्रंथों से इसको और सुस्पष्ट एक हाईवे बना दिया था। यह एक ऐसा मार्ग है जो विश्वास पर खड़ा नहीं है  !  एक ऐसा मार्ग है जो आपको कोई खास तरह का अनुभूति- जो हो सकती है; लेकिन उस पर निर्भर नहीं है।  आप देखिए अद्वैत वेदांत में क्या कह दिया ? यही की आप अगर द्रष्टा हैं और यह सब दृश्य है। तो द्रष्टा दृश्य से अलग है , इस बात का अनुभव हर किसी को हर समय होता ही है। जगत और यह सब दृश्य है इतना अनुभव सबको है सब्जेक्ट ऑब्जेक्ट से भिन्न है, इसका अनुभव हम सभी लोग हर समय करते हैं। इतना समझ आपको यदि है तो आप अद्वैत वेदान्त के मार्ग पर आगे अवश्य बढ़ सकते हैं। इसके बाद आपको स्टेप-बाई स्टेप चरण बद्ध तरीके से आपको एकत्व की अनुभूति तक पहुँचा देंगे। (19:36)/ निर्विवाद तर्क का यह अनुभव हर किसी के पास है। 

   एक न्यूरोसाइंटिस्ट ब्रिटिश लेडी ने मेरे गैरिक वस्त्र को देखकर मुझसे कहा कि आप बताइये कि आपका धर्म क्या है ? आप क्या विश्वास करते हैं हमको बताइए ? हम बोले यह विश्वास (belief) की बात नहीं है यह समझ (understanding) की बात है। और फिर मैंने उन्हें अद्वैत के बारे में बताया , उन्हें समझाया मैंने अपना तर्क दिया, मैं विमान में उनके बगल में बैठा था। बाद में  फ्रैंकफर्ट में विमान से उतरने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि वास्तव मैं विमान में मुझे डर लगता है, इसीलिए उसने मुझसे बात करना शुरू कर दिया था। मैंने लगभग एक घंटे तक उनसे अद्वैत वेदान्त पर चर्चा की थी। बाद में उसने कहा कि वास्तव में आप जो बोल रहे थे उससे मैं यकीन नहीं करती हूँ , लेकिन महत्वपूर्ण बात यह रही कि आपने जो -जो तर्क प्रस्तुत किये , उसमें कहीं कुछ गलत नहीं था। और यही अद्वैत वेदान्त की विशेषता है -खूबी है। जिसके कारण सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था कि अद्वैत वेदान्त  It is the fairest flower of Indian philosophy ' यह अद्वैत वेदांत भारतीय दर्शन का सबसे सुन्दर फूल है। जगना, सोना और स्वप्न देखने का अनुभव किसको नहीं होता है ? सबको होता है।  अद्वैत वेदांत शुरू करने के लिए बस इतना ही चाहिए।  अच्छा शरीर, प्राण और मन बुद्धि किसको नहीं है ? सबके पास है ;  पंचकोष विचार शुरू करने के लिए बस इतना ही चाहिए। किसी विशेष विश्वास के लिए किसी विशेष अनुभव की आवश्यकता नहीं होती, अर्थात रहस्यमय अनुभव से ही सब कुछ हो सकता है, और जो साधना के रूप में आवश्यक भी है। लेकिन मूलतः यह तर्क पर आधारित है यह वास्तविकता को अपील करता है। इसीलिए सार्वभौमिक अनुभव के कारण कई वैज्ञानिक अपने गुणों के आधार पर अद्वैत वेदांत को पसंद करते हैं।  

    हाल ही में आप ओपेनहाइमर (J. Robert Oppenheimer) को जानते हैं जो परमाणु बम परियोजना के प्रमुख थे, जिनको "father of the atomic bomb" भी कहा है।  उन्होंने जब पहला अणुबम विस्फोट देखा था, तब उन्होंने भगवद गीता को उद्धृत किया था। सिर्फ ओपेन-हाइमर ही नहीं और भी कई वैज्ञानिक थे -हमारे इरविन श्रोडिंगर थे। कई दार्शनिक थे जैसे डेविड चाल्मर्स (David Chalmers, New York University) आदि जो अमेरिका के न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में -Mind Brain Consciousness unit, जो मन मस्तिष्क चेतना इकाई के प्रमुख हैं। उनके द्वारा चेतना के सिद्धांत "Theories of Consciousness " पर लिखी नई पुस्तक का नाम है Reality Plus। उस पुस्तक में यह पहली बार दिख रहा है कि यह डेविड चाल्मर्स द्वारा चेतना का अध्ययन पर लिखी गई पहली मुख्यधारा की पुस्तक है। आमतौर पर पश्चिमी दार्शनिक भारतीय दर्शन को नकारते रहते हैं, उसकी उपेक्षा करते हैं। लेकिन इस पुस्तक मैं पहली बार देख रहा हूँ कि इसमें उन्होंने उपनिषद की कथाओ का उल्लेख किया है। पुस्तक के पहले ही अध्याय में नारद और विष्णु का चित्रण है, नारद पूछते हैं की माया क्या है? हमको समझाइए वो जो कहानी है ना ~ नारद का माया दर्शन। जिसमें कृष्ण या विष्णु ? या कृष्णा श्री कृष्ण कहते हैं। फिर वे उन्हें माया दिखाते हैं, वह पूरी कहानी क्या है, वे उसका एक कार्टून बनाते हैं और वहीं से~ 'Virtual Reality (VR)' या आभासी वास्तविकता क्या है से अपनी पुस्तक का प्रारम्भ करते हैं।   [Virtual reality (VR) एक कंप्यूटर द्वारा निर्मित वातावरण है जिसमें दृश्य और वस्तुएं वास्तविक लगती हैं, जिससे उपयोगकर्ता को लगता है कि वे अपने आस-पास के वातावरण में डूबे हुए हैं। इस वातावरण को virtual reality headset or helmet  या हेलमेट नामक डिवाइस के माध्यम से देखा जाता है।] तो उससे (VR) से शुरू करते हैं। तो इस प्रकार से शंकराचार्य की बातें इसमें आ गई हैं, सांख्य की बातें इसमें आ गई हैं, महान बौद्ध आचार्य रहे हैं - वसुबन्धु उनकी बातें इसमें आ गई हैं। पाश्चत्य जगत में इस प्रकार की पहली पुस्तक है, जिसमें भारतीय दर्शन का खुलकर समर्थन किया गया है ।  

इवान थॉम्पसन, (Evan Thompson) जो ब्रिटिश कोलंबिया वैंकूवर विश्वविद्यालय में दर्शन-शास्त्र के प्रोफेसर हैं, द्वारा लिखित पुस्तक-   "Waking Dreaming and Being" (वेकिंग ड्रीमिंग and बीइंग में एक प्रविष्टि है।  उन्होंने शुरुआत करते हुए कहा कि चेतना का अध्ययन कोई नया विषय नहीं है। 24. 09/ भारत में इसकी शुरुआत 5000 साल पहले उपनिषद नामक ग्रंथ में हुई थी। अपनी किताब में प्रोफेसर थॉमसन ने उन्होंने यहाँ तक कहा है कहा है कि ये उपनिषद मानव चिंतन में इतना अधिक महत्व रखते हैं, मानव चिंतन में इनका महत्व महत्वपूर्ण है,  कि मनुष्यजाति का वैश्विक इतिहास ईस्वी और ईसा पूर्व के हिसाब से नहीं बल्कि उपनिषदों से पहले और उपनिषदों के बाद का होना चाहिए। हमारे देश के उपनिषदों का इतना महत्व है, आमतौर पर वे उपनिषदों से उद्धरण देते हैं। लेकिन हममें अपने उपनिषद में कथित कहानियों पर गर्व करने की हिम्मत नहीं है। हमें ये सब कहने में शर्म आती है। तो ठीक रहेगा जब सर गोरे साहब लोग ऐसा कहेंगे, तो हमलोग भी शुरू कर देंगे। 

      तो चलिए मैं आपको उसका एक नमूना देता हूँ।  अद्वैत वेदांत में यह बहुत विस्तृत है, ऐसी बहुत सी प्रक्रियाएँ हैं, मेरा एक पसंदीदा खंड तैत्तरीय उपनिषद से यह है, इसमें शंकर भाष्य भी है, चलिए इस पर थोड़ी बात करते हैं।  उसके बाद आता है लघु प्रश्न उत्तर, तैत्तरीय  उपनिषद में अद्वैत वेदांत क्या है ब्रह्मानंद वल्ली में इसका एक छोटा सा उदाहरण है। अद्वैत वेदांत की एक और विशेषता ये है कि एक शब्द 'ॐ ' में पूरा अद्वैत वेदांत समाहित हो जाता है। एक वाक्य 'तत्त्वमसि ' में पूरा अद्वैत वेदांत समाहित हो जाता है। यहां पर इतनी स्पष्टता है कि आप अपने सामने कह सकते हैं कि मुझे  बौद्ध धर्म के मध्यमक बुद्धिज्म (Madhyamaka Buddhism)  जिसे शून्यवाद भी कहते हैं, इस विषय में मेरी बहुत रुचि है । और मैंने इसका लंबे समय तक अध्ययन किया है। मैंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दो कोर्स भी किए हैं।  लेकिन मुझे ये कहने में कोई शर्म नहीं है कि अभी तक मैं ठीक से समझ नहीं पाया हूं, कि वो लोग क्या कहना चाहते हैं ? लेकिन अद्वैत वेदांत को देखिये - जो कहना चाहता है वो बहुत स्पष्ट है, उसमें किसी को कोई संदेह नहीं है। ये एक दम  सीधी बात है- तत्वमसि !  तैत्तरीय उपनिषद में  ब्रह्मानंद बल्ली का जो पहला वाक्य है -

'ब्रह्मविद आप्नोति परम् '- तद एशाभ्यक्त -

सत्यम् ज्ञानम् अनंत ब्रह्म '

-यो वेद निहितम् गुहयाम् - परमे व्योमन् 

-सो 'श्नुते सर्वान् कामान सः - ब्राह्मण विपश्चितेति।' 

अर्थात "जो कोई भी इस ब्रह्म को जान लेता है, वह परम सत्य को प्राप्त कर लेता है।" ऐसा इसलिए है क्योंकि जब कोई व्यक्ति शुद्ध अस्तित्व से संपर्क करता है, तो वह संपर्क सभी चीजों के संपर्क के बराबर होता है। यह वास्तविकता के समुद्र की तलहटी को छूने जैसा है। (26.11) Ultimate Reality क्या है ? something that is the supreme, final, and fundamental power in all reality. वह वस्तु जो समस्त वास्तविकता में सर्वोच्च, अंतिम और मौलिक शक्ति है। परम सत्य या वास्तविकता ( ultimate reality) की विशेषताएँ क्या हैं?सत्तामूलक परम वास्तविकता ईश्वरत्व, सार, ताओ, ब्रह्म, ऊर्जा, चेतना या अन्य इसके कई वर्णक  है। इसमें गुण होते हैं और कोई गुण नहीं होता। गुणों के बारे में, यह अवैयक्तिक, अभौतिक और समय और स्थान के दायरे से बाहर है।  हमको करना क्या है ? पाना क्या है ? ब्रह्मविद - बनना है , ब्रह्म को जान लेना है।  लेकिन वह ब्रह्म है क्या? ये कौन सी बला है और इसको जाना कैसे जाए ? कोई एक वास्तविकता है और इसको जानने से- ब्रह्मविद को परम की प्राप्ति होगी, तो हमें इससे क्या मिलेगा ?  इसका उद्देश्य क्या है? और उसके बाद, देखिए तीनों को ये कैसा क्रम है, मूल उपनिषद में, भाष्य बाद की बात है, ये कैसा क्रम है। सबसे पहले हम ब्रह्म की परिभाषा देते हैं, सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म, ब्रह्म ये अनंत है, असीम अस्तित्व और चेतना है-Infinite, existence ,consciousness । अनंत सत्य और ज्ञान है, इसका क्या मतलब है?  आज हम थोड़ा देखेंगे फिर प्रश्नोत्तर पर जाएंगे। अच्छा ये हम कैसे जानेंगे ? -यो वेद निहितम् गुहयाम् - परमे व्योमन्'  ये कवित्व पूर्ण उपनिषद की भाषा में कही गयी है, सीधी सी बात है। कि जो इस ब्रह्म को अपना स्वरूप जैसा जान लेता है, कि' मैं ब्रह्म हूँ।'  ब्रह्म को इस प्रकार से जान लेना है। वो ब्रह्म मैं ही है, यह नहीं कि मेरी मान्यता है कि वहां ऊपर, सातवें आसमान में कहीं ब्रह्म है। वो सब भी सही है, लेकिन सबसे पहले ये जानना है कि मैं ब्रह्म हूँ ! ऐसा जानना है। ऐसा जान लेने मुझे लाभ क्या होगा ? -सो 'श्नुते सर्वान् कामान सः - ब्राह्मण विपश्चितेति।' जो उस  परमसत्ता को ,ब्रह्म को अपने यथार्थ स्वरुप जैसा पहचान लेता है - उसकी सभी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। ऐसा नहीं है जैसा आजकल कहते हैं, अमेज़न प्राइम, आप उसमें ऑर्डर कर दो और सभी इच्छाएँ पूरी हो जाएँगी, ऐसा नहीं है। लेकिन जिसके लिए हम इतनी सारी इच्छाएँ पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं।  जिस संतुष्टि के लिए, जिस गहन स्थायी शांति के लिए, जिस तृप्ति के लिए, या मोक्ष या मुक्ति वह भी प्राप्ति हो जाती है। जब आप ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद बन जाते हैं , तभी आपको मानव-जीवन का लक्ष्य प्राप्त सकता है। तो इस ब्रह्मानन्द वल्ली में इतनी सारी बातें कही गई हैं। अब देखिए,reason, experience और logic की बात है, कही जा रही है। ये ब्रह्म है क्या ? यहाँ कहा गया है, सत्यम ज्ञानम अनंतम ब्रह्म।  मैं यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आज का विषय और इस पूरे अभियान का विषय एकात्मकता है, तो इतनी विविधता में वह एकता- Oneness' स्थापित कैसे की जाती है?  सत्यम् ज्ञानम् अनंतम् का ब्रह्म क्या है? सबसे पहले इससे शुरू करें, सबसे पहले हमें इसे ध्यान से सुनना होगा।  (29.08)

      कुछ दिन पहले हम न्यूयॉर्क में थे और सेंट्रल पार्क में टहल रहे थे। किसी ने हमसे पूछा कि सात्विक सुख, राजसिक सुख और तामसिक सुख में अंतर क्या है? तो हमने इसे इस तरह से समझाया कि अगर आप रॉक संगीत सुनेंगे, तो आपके पैर हिलने लगेंगे, आपके हाथ हिलने लगेंगे, आप नाचने लगेंगे। और किसी चीज की जरूरत नहीं है, यह स्वचालित है।  इसलिए यह राजसिक है, पहले तो यह अमृत जैसा लगता है, लेकिन बाद में विष के जैसा हो जाता है।  लेकिन सात्विक सुख क्या है? जैसे शास्त्रीय संगीत के लिए आपको कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, पहले मेहनत करो, तभी आपको उसका आनंद आएगा और उसका आनंद लोकप्रिय संगीत की तुलना में अधिक गहरा और स्थायी होता है, इसलिए वह सात्विक सुख है। 

       उसी प्रकार शास्त्रों में, दर्शन में, अद्वैत में जो भी है, वह कठिन नहीं है, लेकिन आपको थोड़ा ध्यान देना होगा, थोड़ा विचार करना होगा।  देखना होगा कि ब्रह्म क्या है, तो ब्रह्म अनन्त की तरह है।  अनंतता बिलकुल गणित की तरह है। ब्रह्म को अनंत कहते हैं जिसका कोई अंत नहीं है लेकिन अंत का क्या मतलब है? अंत का मतलब है एक खंड जो एक कटाव  या ससीम की तरह है। वेदांत में हम कहते हैं कि अंत तीन तरह के होते हैं। एक समय का अंत, समय का अंत, एक देश का अंत और एक वस्तु का अंत, सुनने में मुश्किल लगता है लेकिन यह बहुत आम बात  है।

      भाव बहुत सीधी सी बात है, देश का अंत, देश में जो सीमा है जिसे देश परिच्छेद जिसे कहते हैं, उसका मतलब बस इतना है कि आज अगर आप यहाँ हॉल में बैठे हैं तो आप बाहर नहीं हो सकते।  और अगर आप बाहर हैं तो आप हॉल के अंदर नहीं हो सकते। अगर आप भोपाल में हैं तो आप दिल्ली में नहीं हो सकते, हमारे पास जो भी है वो एक लोकेशन में है, अगर वो एक जगह है तो वो दूसरी जगह नहीं है। इसका आरंभ और अंत अंतरिक्ष, आकाश में एक स्थान तक सीमित है। इसे देश परिच्छेद कहते हैं। यह एक तरह का अंत है, सीमा है ।

        और दूसरा अंत क्या है, काल परिच्छेद, आरंभ और अंत। सब का जन्म होता है और सब मरते हैं, तो वह परिच्छेद समय में सीमित है।  वह एक समय पर शुरू हुआ, एक समय पर समाप्त होता है, यह व्याख्यान भी एक सामान्य गारंटी है कि वह समाप्त होगा, चिंता न करें।  तो इसकी एक सीमा है, समय की सीमा है, इसकी एक शुरुआत है, इसका एक अंत है, हर चीज का जन्म होता है और विनाश होता है। काल में अन्त - शुरुआत और अंत इसे समय में सीमा कहा जाता है  समय में अंत। 

  और तीसरा है वस्तु में अंत।  यह एक बहुत ही दिलचस्प तरह का विचार है ;  कि हर वस्तु अपने आप में अनोखी है।  और बाकी से अलग है इसे वस्तु परिच्छेद कहा जाता है। यह एक मेज है इसलिए यह कुर्सी नहीं हो सकती। यह घोड़ा नहीं हो सकता यह गाय नहीं हो सकती।  यह कार नहीं हो सकती यह हवाई जहाज नहीं हो सकता यह सिर्फ एक मेज है यह एक पोडियम है। हर व्यक्ति सिर्फ वही है -अपनेआप जैसा है ! अपने जैसा है और यह बाकी से अलग है अब चारों ओर देखें इसे ऑब्जेक्ट में ऑब्जेक्ट की सीमा कहा जाता है। इसे अंत क्यों कहा जाता है, इसे सीमा क्यों कहा जाता है, क्योंकि यह आपको बाकी सभी से अलग करता है, आप केवल एक चीज हैं, बाकी सब कुछ नहीं, ब्रह्मांड में बाकी सभी लोग आपसे अलग हैं, भिन्न हैं। 

      अगर अलग-अलग भेद हैं तो ये -देश,काल और वस्तु तीन तरह के अंत हैं, तो इस दुनिया में इतने भेद हैं, आप और मैं एकता की एकात्मकता की, एक आत्मा की बात कर रहे हैं, ये कहां है ? तो देखिए यहां 100 लोग बैठे हैं, सब एक दूसरे से अलग हैं और आप जिस कुर्सी पर बैठे हैं, वो कुर्सी आपसे अलग है, ये हॉल बाहर से अलग है, भोपाल दिल्ली से अलग है, भारत अमेरिका से अलग है।  पुरुष और महिला अलग हैं।  फिर एक अन्य बात मन में आती है, जिसे हम कहें या न कहें ? बोल ही देते हैं।  

       हम न्यूयॉर्क वाले कहते हैं। यहाँ  पर सभी लोग व्याकरणविद हैं, आप जानते हैं कि लिंग तीन प्रकार के होते हैं पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग, लेकिन न्यू यॉर्क में, जहाँ से हम आ रहे हैं, आप सुनकर हैरान हो जाएँगे कि लिंग कितने प्रकार के होते हैं। मुझे याद था कि वहाँ 23 प्रकार के Gender थे, लेकिन आज सुबह मैंने दिल से चेक किया, नहीं, अब यह 31 हो गए हैं। लिंग के 31 प्रकार के Gender हैं, आप सुनकर हैरान हो जाएँगे। और यह बढ़ रहा है, बढ़ रहा है, जिसका मन करता है, वह अपना लिंग बना लेता है। और कानूनी है , कानून में उसे पारित कर दिया जाता है। तो यहीं पर भेद है, कहाँ एकता है, सब में भेद है। 

     तो अब अनंत क्या है? अनंत यह है कि अगर देश में कोई चीज ससीम  नहीं है, अगर देश में कोई चीज देश में पिच्छेद नहीं है, तो उसका क्या होगा, ऐसा कोई देश नहीं होगा जिसमें वह नहीं है। अगर वह सभी देश में रहेगा तो वह सर्वव्यापी हो जाएगा, जिसका देश में कोई अंत नहीं है। ब्रह्म को अनंत कहा जाता है, इसलिए ब्रह्म की देश में कोई सीमा नहीं है, इसलिए वह सर्वव्यापी है। अगर समय में किसी चीज का अंत नहीं है, तो क्या होगा? ऐसा कोई समय नहीं होगा जब वह न हो। उसका कोई जन्म नहीं था, उससे पहले उसका अस्तित्व नहीं था, उसकी मृत्यु होगी, उसके बाद वह नहीं रहेगा, ऐसा नहीं है।  ब्रह्म तो सदा से था, अब भी है, भविष्य में भी रहेगा।  वह त्रिकाल से अबाधित रहता है। तो इसको कहेंगे कि ब्रह्म नित्य है -अविनाशी है। ब्रह्म यदि काल की दृष्टि से अनंत है तो वो नित्य है। 

 और वस्तु में अनंत है, यह बहुत रोचक बात है, वस्तु में अनंत का क्या अर्थ है ? वस्तु का वस्तु में पृथक होना अर्थात वह सबसे पृथक है।  और वस्तु में कोई पृथकता नहीं है, यदि वस्तु अनंत है तो ऐसी कोई वस्तु नहीं जो ब्रह्म से अलग हो, ऐसी कोई वस्तु नहीं जो ब्रह्म से जुदा हो।  यदि ब्रह्म से किसी वस्तु का भेद नहीं है तो कोई दूसरी वस्तु नहीं है, ब्रह्म से अलग कुछ भी नहीं है। तो ब्रह्म के अतिरिक्त द्वितीय वस्तु नहीं होती है। तो यहाँ अद्वितीय होने से अद्वैत आ जाता है। 

     तो एक शब्द देखिये -'अनंत' उससे तीन निष्कर्ष निकलते हैं। ब्रह्म सर्वव्यापी है, स्थान या देश की सीमा नहीं है, स्थान की सीमा शून्य है। काल परिच्छेद नहीं है - ब्रह्म शाश्वत है, समय की सीमा नहीं है।  समय की सीमा शून्य है।  ब्रह्म अद्वितीय है , अनोखा अद्वैत है, वस्तु की सीमा शून्य है, अनंत है।  तो ब्रह्म ऐसी चीज है जो हर जगह और हर समय है और उसके अलावा दूसरा कुछ है ही नहीं।  इसका मतलब है कि हर वस्तु किसी न किसी तरह से, ब्रह्म ही है। 

      अब देखिए, समस्या खड़ी होगी, लॉजिकल प्रश्न उठेगा।  तार्किक सवाल खड़ा होगा, ये सब तो बहुत अच्छा है महात्मा जी, लेकिन क्या ये सच है ? क्या ब्रह्म नाम की कोई है भी या ये सिर्फ़ जुबानी खर्च है, या सिर्फ कहने की बात है ? आप केवल मुख से ब्रह्म के विषय बोल रहे हैं, किन्तु क्या इसमें कोई वास्तविक वास्तविकता भी है या नहीं? अब देखिए, अनंत ने इसके साथ जोड़ दिया 'सत्यम ज्ञानम। ' ये ब्रह्म क्या है, सत्यम क्या वास्तविक है? 

     अब देखिए हम किसको वास्तविक मानते हैं, अब जरा कॉमन सेंस, ये आदमी और इतने सारे लोग यहाँ बैठे हैं, ये सत्य है, हम खुद बैठे हैं, हम सत्य  हैं।  यहाँ कुर्सी, टेबल, हॉल वास्तविक है, बाहर आसमान, हवा, ये सब वास्तविक है, ये सब वास्तविक है, ये सब सत्यम है।  अब देखिए सत्यम, हमें लगता है कि ये सब सत्यम है।  लेकिन इसके साथ-साथ मैंने ये भी कहा है अनंतम।  ऐसा सत्य जो सर्वव्यापी है, जो नित्य है शाश्वत है, जो अद्वैत है।  अब देखिए हम किसको सत्य मानते हैं, ये टेबल, ये मोबाइल फ़ोन, ये कपड़ा, क्या ये सर्वव्यापी है ? कभी नहीं। आप कितने भी मोटे आदमी क्यों न हो, आप एक कुर्सी पर बैठेंगे, ज़्यादातर दो कुर्सियों पर। वो सर्वव्यापी नहीं है। वो इसी हॉल में कहीं बैठा होगा।

      नित्य है  यहाँ कुछ ऐसा है जो शाश्वत है, जो कभी पैदा नहीं हुआ ? जिसका कोई अंत नहीं है। ऐसा लगता ही नहीं कि ऐसा कुछ है भी। और कहा जाता है कि कुछ अनोखा है, वो सत्य है, जिसके अलावा कोई दूसरी चीज़ नहीं है। ऐसा लगता ही नहीं कि ऐसी कोई चीज़ है भी। सारे भेद यहीं हैं।  तो अब देखिए अद्वैत वेदांत में क्या कहा गया है, कि जिसे हम सत्य मानते हैं, वो सब समाहित है, देश, काल और वस्तु में सीमित है। लेकिन क्या उसमें कोई ऐसी चीज़ है जो सर्वव्यापी है, शाश्वत है और अद्वैत है। (38.09)/ 

        अब अगर हम थोड़ा विचार करके देखें, तो हम जिसको भी सत्य मानते हैं, वो सब ससीम है। परिच्छेद है छोटा है। देश, काल , वस्तु से सीमित-limited  है। लेकिन क्या उसमे कोई ऐसी चीज भी अनुस्यूत है जो सर्वव्यापी, नित्य और अद्वैत है ? अब अगर हम विचार करके देखने जिसको हम सत्य मानते हैं , उसका एक अनुभव हम सभी को है - कि  ये मेज़ है ! ये मनुष्य है! ये हॉल है, ये आसमान है , ये हवा है , ये शहर है , ये धरती है , ये प्राणी है , ये जो है , होना या अस्ति ; 'हैपन'  वो वस्तु में अनुस्यूत है।  इसे ऐसे समझें कि सागर में लहरें हैं, बुलबुले हैं, झाग है। लहरें हैं, बुलबुले हैं, झाग है, लेकिन ये सब पानी है । 

        अगर आप ये न सोचें कि लहर ही पानी है, बल्कि ये सोचें कि पानी ही लहरों के रूप में दिख रहा है।  ये सच है, पानी ही लहरों के रूप में दिख रहा है, पानी ही बुदबुदों के रूप में दिख रहा है।  अब इसी तरह से सोचें, ये जो अस्तित्व है यहाँ चारों तरफ हम अनुभव कर रहे हैं कि ये अस्तित्व यहाँ है, वही अस्तित्व 100-100 लोगों के रूप में वही अस्तित्व दिख रहा है।   कुर्सी, टेबल, आसमान, हवा, हर चीज के रूप में वही अस्तित्व दिख रहा है। और इस अस्तित्व के बारे में अगर आप सोचें तो इसकी किसी भी देश में कोई सीमा नहीं है।  जहाँ भी कोई देश है, वहाँ अस्तित्व है। आप मान लीजिए लाखों प्रकाश वर्ष में दूर में Empty space -खाली स्थान तो है, अंतरिक्ष तो है। आकाश तो है, तो अस्तित्व सर्वत्र है हर जगह में है। ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ अस्तित्व नहीं है । अच्छा यह अस्तित्व तो नित्य है, वस्तु यानि नाम-रूप (दृश्य) आती-जाती है, लेकिन सत वस्तु -पर्दा रह जाता हैभगवद् गीता के दूसरे अध्याय का जो 16 वां श्लोक है- 'नासतो विद्यते भावो ' और इस पर जो  शंकर भाष्य है वो बिल्कुल अद्वैत वेदांत का सार , अद्वैत वेदान्त दार्शनिक हृदय है।

       उसमें वे दिखाते हैं कि ये सब विभिन्न नाम-रूप टेबल, चेयर , मनुष्य आते और जाते रहते हैं। उसमें दिखा रहे हैं कि नाम-रूप बदलते रहते हैं; किन्तु सत वस्तु रह जाती है। सब नाम रूप खत्म हो गये, ये जो विश्व-ब्रह्माण्ड है उसका प्रलय हो गयातब भी 'सत' वस्तु तो है लेकिन प्रकाशित नहीं है।

      तो यह अस्तित्व ही, स्वयं होना ही -this existence itself , being itself  - जिसको वेदान्त के संस्कृत में सत और तैत्तरीय उपनिषद में सत्यं कहा है। इसको समझने की अद्वैत वेदांत में एक प्रक्रिया है - सीधी वृत्ति से अर्थ नहीं समझ में आता तो उसको लक्षणा वृत्ति से कहा गया कि सत्यं का अर्थ चेयर-टेबल -आदमी नाम-रूप जो समझते हो वह नहीं है। जो सत यानि Pure existence शुद्ध अस्तित्व हैं, वो अनंत है।  जो देश में ससीम नहीं है, काल में ससीम नहीं है , वस्तु में ससीम नहीं है, वस्तु में वो अद्वैत है ।

       तो इसका अध्यन करना आपका होमवर्क है कि देश, काल , वस्तु के जैसा चित् ज्ञानम् ब्रह्म, तो ज्ञान कैसे अनन्त हो सकता है ? जैसे ये गृहकार्य है  तो ज्ञान स्थान, समय और वस्तु में अनंत कैसे हो सकता है? या गृहकार्य के तरीके से कर सकते हैं। तो देखिए यहाँ तार्किक रूप से कहा गया है कि कोई ऐसी वस्तु अवश्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता, which fulfills the category of infinite' जिसको अनंत की श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है। उसी अस्तित्व को कहा जाता है कि -वह तुम हो ! छान्दोग्य उपनिषद में इसी को कहा गया - तत्त्वमसि ! वह (ब्रह्म) तुम स्वयं हो ! वह सत वस्तु जो चारों ओर है जो सब जगह है , वह हमारा अपना आपा है, वह हम ही हैं ! (41.47)   ऐसा नहीं है कि मेरा अस्तित्व है, बल्कि मैं ही अस्तित्व (पर्दा) हूँ; और ये नाम-रूप ये सब बदलते रहते हैं। 'तत्त्वमसि' महावाक्य का यही अर्थ है - तुम ही ब्रह्म हो ! 

      और ये कोई सैद्धांतिक बात theoretical बात नहीं है। ये हमें बाद में समझ आया कि अद्वैत दर्शन तो है , लेकिन दर्शन से भी कुछ आगे बढ़कर है। in fact, actually, it's a statement of fact - दरअसल यह एक तथ्य का वर्णन है। कि अभी जो सीधा सत्य है -मेरे सामने हैं, हमारे पीछे है, ऊपर है, निचे है, सर्वत्र है - एकदम सीधा सत्य है , लेकिन हमको दिखाई नहीं देता है। बस समझ में नहीं आता है , पकड़ में नहीं आता है, तथापि यह पहले से ही परम् सत्य है। यह प्रत्यक्ष है , ये अपरोक्ष है। ये साक्षात् अपरोक्ष है ! एक दम सरल सत्य है। हम कहते है जिसको आप से सत्य मानते है, कहते हैं कि -ये जगत वास्तविक है ! किन्तु वस्तुतः संसार का तथ्य ब्रह्म की तुलना में एक सिद्धांत के समान है, जो अधिक तथ्य है, सभी कारक इसी पर निर्भर करते हैं। in fact the fact of the world is like a theory compared to brahmn . which is more of a fact,  all facts depend upon this .

      जगत का तथ्य ब्रह्म की तुलना में एक सिद्धांत की तरह है जो कि अधिक तथ्य है, सभी तथ्य इसी पर निर्भर करते हैं।  जैसे कोई पूछता है कि यदि हम वास्तव में चैतन्य हैं तो इसका अनुभव कैसे करें? (42.59)  तो हमारे पास जो भी अनुभव हो रहे हैं, वे सभी उसी चैतन्य पर निर्भर करते हैं। हम इसे कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? इससे पहले कि हमारे पास जितने भी प्रमाण हैं, वह सब पहले उस ब्रह्म को प्रमाण मानकर ही कार्य करते हैं। तो इस तरह से देखा जा सकता है कि अद्वैत दर्शन है पूरी तरह से तर्क और अनुभव पर आधारित है, Completely based on reason and experience, यह एक ऐसा अध्यात्म है जिसे हर कोई ग्रहण कर सकता है।

     सभी धर्मों के मानने वाले तो इसे ग्रहण कर ही सकते हैं, लेकिन जो धर्म को नहीं मानते वे भी इसे ग्रहण कर सकते हैं। अभी अमेरिका में सबसे बड़ा बढ़ता हुआ युवा वर्ग ये कहता है कि वो किसी धर्म को नहीं मानता, 'SBNR' नया शब्द है-Spiritual but not religious '   उनका कहना है कि हम आध्यात्मिक तो हैं ,लेकिन धार्मिक नहीं हैं। कोई उनसे पूछता है कि आप किस धर्म को मानते हैं ? तो वे कहते हैं हम किसी धर्म को नहीं मानते। तो आप अध्यात्म को भी नहीं मानते होंगे ? नहीं अध्यात्म को तो हमलोग मानते हैं। लेकिन कैसा अध्यात्म? आध्यात्मिक हूँ लेकिन धार्मिक नहीं। Spiritual but not religious ' SBNR'|  और इस साल के आँकड़े बताते हैं कि अमेरिकी युवाओं में सबसे बड़ा समूह ऐसे ही युवाओं का है।तो ये एकात्मकतावाद या Oneness एक ऐसा अध्यात्म है जो सबको स्वीकार्य है।

      मैं वास्तव में बहुत खुश हूँ कि ये जो एकात्म का प्रकल्प मध्यप्रदेश सरकार के द्वारा लिया गया है , वो, और आपकी सहायता से , हम सब के सहयोग से जो चल रहा है , इसका सबसे बड़ा लाभ पहले हमलोगों को मिलने वाला है -जो इस पर चर्चा कर रहे हैं। और इस प्रकार के आयोजन से पहले सम्पूर्ण भारत का कल्याण होगा, फिर उसका लाभ सम्पूर्ण विश्व को मिलेगा - जिससे पूरी मानवजाति का कल्याण होगा।  आज के लिए बस इतना ही। मैं कल आपको कुछ और बताऊंगा और आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

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शब्द तथा अर्थ के संबंध को शक्ति या शब्दशक्ति कहते हैं। शब्दशक्ति के बिना शब्द के अर्थ का ज्ञान संभव नहीं है। शब्द की तीन शक्तियाँ हैं - अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। (वाक्य-sentence में) संकेतित यानि कि मुख्य अर्थ का बोध कराने वाली वृत्ति (tendency)  या शक्ति (power) को अभिधा कहते हैं। 

 चार प्रकार के शब्द होते हैं- जातिवाचक, गुणवाचक,द्रव्यवाचक और क्रियावाचक। इन शब्दों के अर्थ का बोध कराने में जहां किसी अन्य दूसरी शक्ति की आवश्यकता नहीं होती , वहाँ मुख्य अर्थ का व्यवधान रहित बोध कराने वाली शब्द की शक्ति अभिधा कहलाती है। जैसे अश्व , क्रीड़ा, मुख आदि । 

लक्षणा : अभिधा शक्ति से निरूपित मुख्य अर्थ को बाधित करके रूढ़ि(प्रसिद्धि) या प्रयोजन (उद्देश्य) के कारण जिस वृत्ति या शक्ति से अन्य अर्थ की प्रतीति होती है, शब्द के अर्थ का बोध कराने वाली उस शक्ति को लक्षणा शक्ति कहते हैं। जैसे कुशल अर्थात् कुश को लाने वाला। लेकिन यहाँ पर कुशल का अर्थ कार्य में दक्षता प्राप्त व्यक्ति से है। वैसे ही 'कलिंग साहसिक होता है।' यहाँ कलिंग से देश का अर्थ न लेकर कलिंग का निवासी कहना अभिप्रेत है।

आर्थी व्यंजना: जहाँ अर्थ से व्यंग्य की प्रतीति होती है वहाँ आर्थी व्यंजना। जैसे:- कागज की आजादी मिलती ले लो दो दो आने में।

अभिधामूलक व्यंजना: जिसमें वाच्यार्थ व्यंग्यार्थ तक पहुँचाता है। वहां अभिधामूलक व्यंजना होता है। जैसे:- मैं द्रोणाचार्य हो कर भील शिष्य रखूँ! यहाँ द्रोणाचार्य व्यंग्यार्थ में स्वयं को श्रेष्ठ कह रहे हैं।

लक्षणामूलक व्यंजना : जहाँ लक्षणा से व्यंग्यार्थ का प्रतीति हो वहाँ लक्षणामूलक व्यंजना होती है। जैसे:- वियोग में नायिका हवा में उड़ने लगी। यहाँ नायिका सच में हवा में नहीं उड़ रही अपितु उसके वियोग के हाल का वर्णन मिलता है।

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