🔱🕊 🏹 🙋परिच्छेद १३६~श्रीरामकृष्ण तथा कर्मफल*🔱🕊 🏹 🙋
(१)
[ (12 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]
भक्तों के संग में
श्रीरामकृष्ण काशीपुर के उद्यान-भवन के उसी ऊपरवाले कमरे में बैठे हुए हैं । भीतर शशि और मणि हैं । श्रीरामकृष्ण मणि को इशारे से पंखा झलने के लिए कह रहे हैं । मणि पंखा झलने लगे । शाम के पाँच-छः बजे का समय होगा । सोमवार, शुक्ल अष्टमी, १२ अप्रैल १८८६ । उस मुहल्ले में संक्रान्ति का मेला भरा हुआ है । श्रीरामकृष्ण ने एक भक्त को मेले से कुछ चीजें खरीद लाने के लिए भेजा है । भक्त के लौटने पर श्रीरामकृष्ण ने उससे सामान के बारे में पूछा कि वह क्या क्या लाया ।
भक्त - पाँच पैसे के बताशे, दो पैसे का एक चम्मच और दो पैसे का एक तरकारी काटनेवाला चाकू ।
श्रीरामकृष्ण - और कलम बनानेवाला चाकू ?
भक्त - वह दो पैसे में नहीं मिला ।
श्रीरामकृष्ण - (जल्दी से)- नहीं, नहीं, जा ले आ ।
मास्टर नीचे बगीचे में टहल रहे हैं । नरेन्द्र और तारक कलकत्ते से लौटे । वे गिरीश घोष के यहाँ तथा कुछ अन्य जगह भी गये थे ।
तारक - आज तो भोजन बहुत हुआ ।
नरेन्द्र - हाँ, हम लोगों का मन बहुत कुछ नीचे आ गया है । आओ, अब हम तपस्या करें ।(मास्टर से) "क्या शरीर और मन की दासता की जाय ? बिलकुल जैसे गुलाम की-सी अवस्था हो रही है, शरीर और मन मानो हमारे नहीं, किसी और के हैं ।"
शाम हो गयी है । ऊपर के कमरे में और अन्य स्थानों में दीये जलाये गये । श्रीरामकृष्ण बिस्तर पर उत्तरास्य बैठे हुए हैं । जगन्माता की चिन्ता कर रहे हैं । कुछ देर बाद फकीर उनके सामने माँ काली अपराध-भंजन स्तव पढ़ने लगे । फकीर बलराम के पुरोहित-वंश के हैं ।
“प्राग्देहस्थो यदासं तव चरणयुगं नाश्रितो नार्चितोऽहम् ।
तेनाद्येऽकीर्तिवर्गेर्जठरजदहनैर्बाध्यामानो बलिष्ठैः ॥
स्थित्वा जन्मान्तरे नो पुनरिह भविता क्वाश्रयः क्वापि सेवा ।
क्षन्तव्यो मेऽअपराधः प्रकटितरदने कामरूपे कराले ॥"
[इत्यादि]
कमरे में शशि, मणि तथा दो-एक भक्त और हैं । स्तवपाठ समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण बड़े भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे हैं ।
मणि पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण इशारा करके उनसे कह रहे हैं, “एक कूँड़ी (stone cup-कटोरी) ले आना । (यह कहकर कूँड़ी की गढ़न उँगलियों से लकीर खींचकर बता रहे हैं ।) इसमें क्या एक पाव दूध आ जायगा ? पत्थर सफेद हो ।"
मणि - जी हाँ ।
(२)
[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]
🏹🔱ईश्वर-कोटि तथा जीव-कोटि 🏹🔱
दूसरे दिन मंगलवार है, रामनवमी?, 13 अप्रैल, 1886 (1ला वैशाख) । सुबह का समय है; श्रीरामकृष्ण ऊपरवाले कमरे में छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । दिन के आठ-नौ बजे का समय हुआ होगा । मणि रात को यहीं थे । सबेरे गंगा-स्नान करके आये और श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । राम दत्त भी आज सुबह आ गये हैं, उन्होंने भी श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया । राम फूलों की एक माला ले आये हैं, श्रीरामकृष्ण की सेवा में उसका समर्पण कर दिया । अधिकांश भक्त नीचे के कमरे में बैठे हुए हैं, श्रीरामकृष्ण के कमरे में दो ही एक हैं । राम श्रीरामकृष्णदेव से वार्तालाप कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (राम से) - किस तरह देख रहे हो ?"
राम - आप में सब कुछ है । अब आपके रोग की चर्चा उठने ही वाली है ।
श्रीरामकृष्ण जरा मुस्कराये । फिर राम ही से उन्होंने संकेत करके पूछा - "क्या रोग की बात भी उठेगी ?"
श्रीरामकृष्ण के जो जूते हैं, वे अब पैरों में गड़ने लगे हैं । डाक्टर राजेन्द्र दत्त ने पैर की नाप माँगी है - आर्डर देकर वे जूते बनवा देना चाहते हैं । पैर की नाप ली गयी । (इस समय बेलुड़ मठ में इन्हीं पादुकाओं की पूजा हो रही है।) श्रीरामकृष्ण मणि से संकेत से पूछ रहे हैं कि कूँड़ी (सफ़ेद कटोरी ?) कहाँ है । मणि कलकत्ते से कूँड़ी ले आने के लिए उसी समय उठकर खड़े हो गये । श्रीरामकृष्ण ने उस समय उन्हें रोका ।
मणि ने जोड़ासाखों की एक दूकान से एक सफेद कूँड़ी खरीदी । दोपहर के समय वे काशीपुर लौट आये और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके कूँड़ी उनके सामने रखी । श्रीरामकृष्ण सफेद कूँड़ी हाथ में लेकर देख रहे हैं । डाक्टर राजेन्द्र दत्त, हाथ में गीता लिए हुए डाक्टर श्रीनाथ, श्रीयुत राखाल हालदार तथा अन्य भी कई सज्जन आये हैं । कमरे में राखाल, शशि आदि कई भक्त हैं । डाक्टरों ने श्रीरामकृष्ण से पीड़ा के सम्बन्ध की कुल बातें सुनीं ।
डाक्टर श्रीनाथ - (मित्रों को ) - सब लोग प्रकृति के अधीन हैं । कर्मफल से किसी का छुटकारा नहीं है । प्रारब्ध है ।
श्रीरामकृष्ण - क्यों, उनका नाम लेने पर, उनकी चिन्ता करने पर, उनकी शरण में जाने पर, -
श्रीनाथ - जी, प्रारब्ध कहाँ जायेगा ? - पिछले जन्मों के कर्म ?
श्रीरामकृष्ण - कुछ कर्म भोग होता तो है, परन्तु उनके नाम के जप के गुण से बहुत सा कर्मपाश कट जाता है । एक मनुष्य को पिछले जन्म के कर्मों के लिए सात बार अन्धा /काना होना पड़ता, परन्तु उसने गंगास्नान किया । गंगास्नान से मुक्ति होती है । इसलिए उस जन्म के लिए तो वह जैसे का वैसा ही अन्धा बना रहा, परन्तु अगले छः जन्मों के लिए न तो उसे जन्म लेना पड़ा और न अन्धा होना पड़ा।
श्रीनाथ - जी, शास्त्रों में तो है कि कर्मफल से किसी का छुटकारा नहीं हो सकता । डाक्टर श्रीनाथ तर्क करने के लिए तुल गये ।
[ (12 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]
🔱🕊 🏹ईश्वर-कोटि कभी पाप नहीं कर सकते 🔱🕊 🏹
श्रीरामकृष्ण - (मणि से) - कहो न जरा, ईश्वर-कोटि और जीव-कोटि में बड़ा अन्तर है । ईश्वर-कोटि कभी पाप नहीं कर सकते - कहो ।
मणि चुप हैं । वे राखाल से कह रहे हैं - तुम कहो ।
कुछ देर बाद डाक्टर चले गये । श्रीरामकृष्ण श्रीयुत राखाल हालदार के साथ बातचीत कर रहे हैं ।
[राखाल हालदार - श्री रामकृष्ण देव की कृपा प्राप्त चिकित्सक। ठाकुर के डॉक्टरों में से एक।बहुबाजार, कलकत्ता के निवासी। राखाल हालदार समय-समय पर काशीपुर में श्रीरामकृष्ण देव से मिलने जाते थे। ठाकुर उनका मार्गदर्शन करते थे। ]
हालदार - डाक्टर श्रीनाथ वेदान्तचर्चा किया करता है - योगवाशिष्ठ पढ़ता है ।
श्रीरामकृष्ण - संसारी होकर 'सब स्वप्नवत् है' यह मत अच्छा नहीं ।
एक भक्त - कालिदास नाम का वह जो आदमी है, वह भी वेदान्तचर्चा किया करता है । परन्तु मुकदमेबाजी में घर की लुटिया तक उसने बेच डाली !
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - सब माया भी है और उधर मुकदमेबाजी भी होती है ! (राखाल से) जनाईवाले मुकर्जियों ने पहले बड़ी लम्बी-लम्बी बातें की थी, फिर अन्त में खूब समझ गये । मैं अगर अच्छा रहता तो उनसे कुछ देर और बातचीत करता । क्या 'ज्ञान-ज्ञान' की डींग मारने से ही ज्ञान हो जाता है ?
हालदार - ज्ञान बहुत देखा है । कुछ भक्ति हो तो जी में जी आये । उस दिन मैं एक बात सोचकर आया था । उसकी आपने मीमांसा कर दी ।
श्रीरामकृष्ण - (आग्रह से) - वह क्या है ?
हालदार - जी, यह बच्चा आया तो आपने कहा कि यह जितेन्द्रिय है ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, उसके (छोटे नरेन्द्र के) भीतर विषयबुद्धि का लेशमात्र भी नहीं है । वह कहता है, 'मुझे नहीं मालूम कि काम किसे कहते हैं ।'
(मणि से) "हाथ लगाकर देखो, मुझे रोमांच हो रहा है ।"
काम नहीं है, इस शुद्ध अवस्था की याद करके श्रीरामकृष्ण को रोमांच हो रहा है ।
राखाल हालदार बिदा हो गये । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अब भी बैठे हुए हैं । एक पगली उन्हें देखने के लिए बड़ा उपद्रव मचाया करती है । वह मधुरभाव की उपासना करती है । बगीचे में प्रायः आया करती है । आकर एकाएक श्रीरामकृष्ण के कमरे में घुस आती है, वह ठाकुर देव के प्रति प्रेमिका का भाव रखती है। भक्तगण मारते भी हैं, परन्तु इससे भी वह मौका नहीं चूकती ।
शशि - अबकी बार अगर पगली दीख पड़ी तो धक्के मारकर हटा दूँगा ।
श्रीरामकृष्ण - (करुणापूर्ण स्वर से) - नहीं, नहीं, आयगी तो फिर चली जायगी ।
राखाल - पहले-पहल इनके पास अगर और पाँच आदमी आते थे तो मुझे एक तरह की ईर्ष्या होती थी । उन्होंने कृपा करके अब मुझे समझा दिया है कि वे मेरे भी गुरु हैं और संसार के भी गुरु हैं । वे केवल हमारे लिए थोड़े ही आये हुए हैं ?
शशि - माना कि हमारे लिए ही नहीं आये, परन्तु बीमारी के समय आकर उपद्रव मचाना, यह क्या बात है ?
राखाल - उपद्रव तो सभी करते हैं । क्या सभी उनके पास सच्चे भाव से आये हुए हैं ? क्या हम लोगों ने उन्हें कष्ट नहीं दिया ? नरेन्द्र आदि, सब पहले कैसे थे ? - कितना तर्क करते थे ?
शशि - नरेन्द्र मुख से जो कुछ कहता था, उसे कार्य द्वारा पूरा भी उतार देता था ।
राखाल - डाक्टर सरकार ने उन्हें न जाने कितनी बातें कही हैं ! - देखा जाय तो दूध का धोया कोई नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण - (राखाल से सस्नेह) - तू कुछ खायगा ?
राखाल - नहीं, फिर खा लूँगा ।
श्रीरामकृष्ण मणि की ओर संकेत कर रहे हैं कि वे आज यहीं प्रसाद पायें ।
राखाल - पाइये न, जब वे कह रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण पंचवर्षीय बालक की तरह दिगम्बर होकर भक्तों के बीच में बैठे हुए हैं । ठीक इसी समय पगली जीने से ऊपर चढ़कर कमरे के द्वार के पास आकर खड़ी हो गयी ।
मणि - (शशि से, धीरे-धीरे) - उसको ठाकुरदेव को नमस्कार करके जाने के लिए कहो, कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है ।
शशि ने पगली को नीचे उतारकर दिया । आज नये वर्ष का पहला दिन है । बहुत सी भक्त स्त्रियाँ आयी हुई हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण और माताजी को प्रणाम कर आशीर्वाद ग्रहण किया । श्रीयुत बलराम की स्त्री, मणिमोहन की स्त्री, बागबाजार की ब्राह्मणी तथा अन्य बहुत सी स्त्रियाँ आयी हुई हैं ।
वे सब की सब श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करने के लिए ऊपरवाले कमरे में गयीं । किसी किसी ने श्रीरामकृष्ण के पादपद्मों में अबीर और पुष्प चढ़ाये । भक्तों की दो लड़कियाँ - नौ-नौ दस-दस साल की - श्रीरामकृष्ण को गाना सुना रही हैं ।
लड़कियों ने दो-तीन गाने सुनाये । श्रीरामकृष्ण ने संकेत द्वारा उन्हें बधाई दी ।
ब्राह्मणी का स्वभाव बच्चों जैसा है । श्रीरामकृष्ण हँसकर राखाल की ओर संकेत कर रहे हैं । तात्पर्य यह कि वह उसे भी कुछ गाने के लिए कहे । ब्राह्मणी गा रही हैं -
गाना - अर्थात हे कृष्ण, आज तुम्हारे साथ खेलने को जी चाहता है, आज तुम मधुवन में अकेले मिल गये हो ।....
स्त्रियाँ ऊपरवाले कमरे से नीचे चली आयीं । दिन का पिछला पहर है । श्रीरामकृष्ण के पास मणि तथा दो-एक और भक्त बैठे हुए हैं । नरेन्द्र भी कमरे में आये । श्रीरामकृष्ण ठीक ही कहते हैं कि नरेन्द्र मानो म्यान से तलवार निकालकर घूम रहा है ।
[ (13 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-136]
🏹 🙋संन्यासी के कठिन नियम तथा नरेन्द्र 🏹 🙋
नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण को सुनाकर स्त्रियों के सम्बन्ध में नरेन्द्र बहुत ही विरक्ति-भाव प्रकाशित कर रहे हैं । कहते हैं, 'स्त्रियों के साथ रहकर ईश्वर की प्राप्ति में घोर विघ्न है ।'
श्रीरामकृष्ण कुछ कहते नहीं, केवल सुन रहे हैं ।
नरेन्द्र फिर कह रहे हैं, 'मैं शान्ति चाहता हूँ, मैं ईश्वर को भी नहीं चाहता ।'
श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं । मुख में कोई शब्द नहीं है । नरेन्द्र बीच बीच में स्वर के साथ कह रहे हैं, 'सत्यं ज्ञानमनन्तम् ब्रह्म।' (ब्रह्म के अलावा कोई दूसरी वस्तु नहीं है। ब्रह्म अद्वैत है।तै० उ० 2।1।1)
रात के आठ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । सामने दो-एक भक्त भी बैठे हैं । ऑफिस का काम समाप्त करके सुरेन्द्र श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं । हाथ में चार सन्तरे हैं और फूल की दो मालाएँ । सुरेन्द्र एक-एक बार भक्तों की ओर तथा एक-एक बार श्रीरामकृष्ण की ओर देख रहे हैं, और अपने हृदय की सारी बातें कहते जा रहे हैं ।
सुरेन्द्र - (मणि आदि की ओर देखकर) - ऑफिस का कुल काम समाप्त करके आया । मैंने सोचा, दो नावों पर पैर रखकर क्या होगा ? अतएव काम समाप्त करके जाना ही ठीक है । आज एक तो पहला वैशाख है, दूसरे, मंगल का दिन । कालीघाट जाना नहीं हुआ । मैंने सोचा, काली की चिन्ता करके स्वयं ही जो काली बन गये हैं,अब चलकर उन्हीं के दर्शन करूँ; इसी से हो जायगा ।
श्रीरामकृष्ण मुस्करा रहे हैं ।
सुरेन्द्र - मैंने सुना है, गुरु और साधु के दर्शन करने के लिए कोई जाय तो उसे कुछ फल-फूल लेकर जाना चाहिए । इसीलिए फल-फूल मैं ले आया । (श्रीरामकृष्ण से) आपके लिए यह सब खर्च, - ईश्वर ही मेरा मन जानते हैं । किसी को एक पैसा खर्च करते हुए भी कष्ट होता है, पर कुछ लोग लाखों रुपये बिना किसी हिचकिचाहट के खर्च कर डालते हैं । ईश्वर तो हृदय की भक्ति देखते हैं, तब ग्रहण करते हैं ।
श्रीरामकृष्ण सिर हिलाकर संकेत कर रहे हैं कि तुमने ठीक ही कहा । सुरेन्द्र फिर कह रहे हैं – “कल संक्रांन्ति थी, मैं यहाँ तो नहीं आ सका, परन्तु घर में फूलों से आपके चित्र को खूब सुसज्जित किया ।"
श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र की भक्ति की बात मणि को संकेत करके सूचित कर रहे हैं ।
सुरेन्द्र - आते हुए ये दो मालाएं ले लीं, चार आने की ।
अधिकांश भक्त चले गये । श्रीरामकृष्ण मणि से पैरों पर हाथ फेरने और पंखा झलने के लिए कह रहे हैं ।
==========