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बुधवार, 7 जून 2023

$🔱🙏परिच्छेद~120 [ ( 27 अगस्त 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-120] 🔱🙏'गुरो, चैतन्यं देहि'🔱🙏

 *परिच्छेद- १२०*

दक्षिणेश्वर मन्दिर में*

(१)

*पण्डित श्यामपद पर कृपा*

Grace to Pandit Shyamapad

 পণ্ডিত শ্যামাপদের প্রতি কৃপা

श्रीरामकृष्ण दो-एक भक्तों के साथ कमरे में बैठे हुए हैं । शाम के पाँच बजे का समय है । श्रावण कृष्णा द्वितीया, २७ अगस्त १८८५ । श्रीरामकृष्ण की बीमारी का सूत्रपात्र हो चुका है । फिर भी भक्तों के आने पर वे शरीर पर ध्यान नहीं देते, उनके साथ दिन भर बातचीत करते रहते हैं, - कभी गाना गाते हैं ।

Sri Ramakrishna was sitting in his room at Dakshineswar. It was five o'clock in the afternoon. There were two or three devotees with him. While with the devotees he never gave a thought to his physical illness, often spending the whole day with them talking and singing.

শ্রীরামকৃষ্ণ দু-একটি ভক্তসঙ্গে ঘরে বসিয়া আছেন। অপরাহ্ন, পাঁচটা; বৃসস্পতিবার, ২৭শে অগস্ট ১৮৮৫; ১২ই ভাদ্র, শ্রাবণ কৃষ্ণা দ্বিতীয়া। ঠাকুরের অসুখের সূত্রপাত হইয়াছে। তথাপি ভক্তেরা কেহ আসিলে শরীরকে শরীর জ্ঞান করেন না। হয়তো সমস্ত দিন তাঁহাদের লইয়া কথা কহিতেছেন — কখনও বা গান করিতেছেন।

श्रीयुत मधु डाक्टर प्रायः नाव पर चढ़कर आया करते हैं - श्रीरामकृष्ण की चिकित्सा के लिए । भक्तगण बहुत ही चिन्तित हो रहे हैं, उनकी इच्छा है, मधु डाक्टर रोज देख जाया करें । मास्टर श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं, ‘ये अनुभवी हैं, ये अगर रोज देखें तो अच्छा हो ।’

Doctor Madhu was treating Sri Ramakrishna. He frequently visited the Master at Dakshineswar, coming by country boat from Calcutta. The devotees were very much worried about the Master; it was their secret desire that the physician should see him daily. M. said to the Master, "Doctor Madhu is an experienced physician. It will be nice if he sees you every day."

শ্রীযুক্ত মধু ডাক্তার প্রায় নৌকা করিয়া আসেন — ঠাকুরের চিকিৎসার জন্য ভক্তেরা বড়ই চিন্তিত হইয়াছেন। মধু ডাক্তার যাহাতে প্রত্যহ আসিয়া দেখেন, এই তাঁহাদের ইচ্ছা। মাস্টার ঠাকুরকে বলিতেছেন, ‘উনি বহুদর্শী লোক, উনি রোজ দেখলে ভাল হয়।’

पण्डित श्यामापद भट्टाचार्य ने आकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन किये । ये आँटपुर मौजे में रहते हैं । सन्ध्या हो गयी, अतएव ‘सन्ध्या कर लूँ’ कहकर पण्डित श्यामापदजी गंगा की ओर - चाँदनीघाट चले गये । सन्ध्या करते करते पण्डितजी को एक बड़ा अद्भुत दर्शन हुआ ।

Pundit Shyamapada of Antpur arrived. It was dusk. The pundit went to the bank of the Ganges to perform his evening worship; he had some amazing visions during the worship. 

পণ্ডিত শ্যামাপদ ভট্টাচার্য আসিয়া ঠাকুরকে দর্শন করিলেন। ইঁহার নিবাস আঁটপুর গ্রামে। সন্ধ্যা আগতপ্রায় দেখিয়া পণ্ডিত ‘সন্ধ্যা করিতে যাই’, বলিয়া গঙ্গাতীরে চাঁদনীর ঘাটে গমন করিলেন।সন্ধ্যা করিতে করিতে পণ্ডিত কি আশ্চর্য দর্শন করিলেন।

 सन्ध्या समाप्त कर वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण माता का नाम-स्मरण समाप्त करके तखत पर बैठे हुए हैं । पाँवपोश पर मास्टर बैठे हैं, राखाल और लाटू आदि कमरे में आ-जा रहे हैं ।
[पंडित श्यामापद भट्टाचार्य 'न्याय-वागीश' (Pandit Shyamapada Bhattacharya Nyayabagish) - वे श्री रामकृष्ण की कृपा से धन्यता को प्राप्त एक भक्त थे । हुगली जिले के 'आंटपुर' में उनका पैतृक निवास स्थान था। ठाकुर देव इस आडम्बरहीन (unassuming या सरल) विद्वान (scholar-पण्डित) से विशेष स्नेह करते थे । 27 अगस्त, 1885 को दक्षिणेश्वर में श्यामापद भट्टाचार्य द्वारा नारायण स्तव, गीता के आत्मसुधार का वैज्ञानिक सूत्र और श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध से यमलार्जुन मोक्ष पाठ सुनकर ठाकुर देव समाधि में चले गए थे। और उसी समाधि के आवेश में उन्होंने पण्डित श्यामापद की छाती पर अपने श्रीचरण को रखकर उनपर विशेष कृपा की थी। ]

'He' (Pandit Shyamapada Bhattacharya Nyayabagish) returned to the Master's room and sat on the floor. Sri Ramakrishna had just finished meditation and the chanting of the holy names. He was sitting on the small couch and M. on the foot-rug. Rakhal, Latu, and the others were in and out of the room.

 সন্ধ্যা সমাপ্ত হইলে ঠাকুরের ঘরে আসিয়া মেঝেতে বসিলেন। ঠাকুর মার নাম ও চিন্তার পর নিজের আসনেই বসিয়া আছেন। পাপোশের উপর মাস্টার। রাখাল, লাটু প্রভৃতি ঘরে যাতায়াত করিতেছেন।

 [ ( 27 अगस्त 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-120]

🔱🙏ब्रह्म कहाँ हैं ?🔱🙏

श्रीरामकृष्ण – (मास्टर से, पण्डितजी को इशारे से बताकर) - ये बड़े अच्छे आदमी हैं । (पण्डितजी से) 'नेति नेति' करके जहाँ मन को विराम मिलता है, वहाँ वे (ब्रह्म) हैं ।

MASTER (to M., pointing to the pundit): "He is very nice. (To the pundit) Where the mind attains peace by practicing the discipline of 'Neti, neti', there Brahman is.

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি, পণ্ডিতকে দেখাইয়া) — ইনি একজন বেশ লোক। (পণ্ডিতের প্রতি) ‘নেতি’ ‘নেতি’ করে যেখানে মনের শান্তি হয়, সেইখানেই তিনি।

“राजा सात ड्योढ़ियों के पार रहते हैं । पहली ड्योढ़ी में किसी ने जाकर देखा, एक धनी मनुष्य बहुत से आदमियों को लेकर बैठा हुआ है, बड़े ठाट-बाट से । राजा को देखने के लिए जो मनुष्य गया हुआ था, उसने अपने साथवाले से पूछा, ‘क्या राजा यही है ?’ साथवाले ने जरा मुस्कराकर कहा, ‘नहीं’ ।

"The king dwells in the innermost room of the palace, which has seven gates. The visitor comes to the first gate. There he sees a lordly person with a large retinue, surrounded on all sides by pomp and grandeur. The visitor asks his companion, 'Is he the king?' 'No', says his friend with a smile.

“সাত দেউড়ির পর রাজা আছেন। প্রথম দেউড়িতে গিয়ে দেখে যে একজন ঐশ্বর্যবান পুরুষ অনেক লোকজন নিয়ে বসে আছেন; খুব জাঁকজমক। রাজাকে যে দেখতে গিয়েছে, সে সঙ্গীকে জিজ্ঞাসা করলে, ‘এই কি রাজা?’ সঙ্গী ঈষৎ হেসে বললে, ‘না’।

“दूसरी ड्योढ़ी तथा अन्य ड्योढ़ियों में भी उसने इसी तरह कहा । वह जितना ही बढ़ता था, उसे उतना ही ऐश्वर्य दीख पड़ता था, उतनी ही तड़क-भड़क । जब वह सातों ड्योढ़ियों को पार कर गया तब उसने अपने साथवाले से फिर नहीं पूछा, राजा के अतुल ऐश्वर्य को देखकर अवाक् होकर खड़ा रह गया - समझ गया राजा यही है, इसमें कोई सन्देह नहीं ।”

"At the second and the other gates, he repeats the same question to his friend. He finds that the nearer he comes to the inmost part of the palace, the greater the glory, pomp, and grandeur. When he passes the seventh gate he does not ask his companion whether it is the king; he stands speechless at the king's immeasurable glory. He realizes that he is face-to-face with the king. He hasn't the slightest doubt about it." 

“দ্বিতীয় দেউড়ি আর অন্যান্য দেউড়িতেও ওইরূপ বললে। দেখে, যত এগিয়ে যায়, ততই ঐশ্বর্য! আর জাঁকজমক! সাত দেউড়ি পার হয়ে যখন দেখলে তখন আর সঙ্গীকে জিজ্ঞাসা করলে না! রাজার অতুল ঐশ্বর্য দর্শন করে অবাক্‌ হয়ে দাঁড়িয়ে রইল। — বুঝলে এই রাজা। — এ-বিষয়ে আর কোন সন্দেহ নাই।”

पण्डितजी - माया के राज्य [देश-काल-निमित्त] को पार कर जाने से उनके दर्शन होते हैं ।

PUNDIT: "One sees God beyond the realm of Maya."

পণ্ডিত — মায়ার রাজ্য ছাড়িয়ে গেলে তাঁকে দেখা যায়।

श्रीरामकृष्ण - उनके दर्शन हो जाने के बाद दिखता है कि यह माया और जीव-जगत् वे ही हुए हैं । यह संसार 'धोखे की टट्टी' है - स्वप्नवत् है । यह बोध तभी होता है जब साधक 'नेति नेति' का विचार करता है । उनके दर्शन हो जाने पर यही संसार 'मौज की कुटिया' हो जाता है  

MASTER: "But after realizing God one finds that He alone has become maya, the universe, and all living beings. This world is no doubt a 'frame-work of illusion', unreal as a dream. One feels that way when one discriminates following the process of 'Not this, not this'. But after the vision of God this very world becomes 'a mansion of mirth'.

শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর সাক্ষাৎকারের পর আবার দেখে, এই মায়া-জীবজগৎ তিনিই হয়েছেন। এই সংসার ধোকার টাটি — স্বপ্নবৎ, — এই বোধ হয়, যখন ‘নেতি’, ‘নেতি’ বিচার করে। তাঁর দর্শনের পর আবার ‘এই সংসার মজার কুটি।’

 [ ( 27 अगस्त 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-120]

🔱🙏'गुरो, चैतन्यं देहि'🔱🙏

🙏आत्म-विकास के विज्ञान को ही धर्म कहते हैं🙏 

The science of self-improvement is called religion.

আত্মোন্নয়নের বিজ্ঞানকে ধর্ম বলা হয়। 

श्रीरामकृष्ण - “केवल शास्त्रों के पाठ से क्या होगा ? पण्डित लोग सिर्फ विचार किया करते हैं ।”

"What will you gain by the mere study of scriptures? The pundits merely indulge in reasoning."

“শুধু শাস্ত্র পড়লে কি হবে? পণ্ডিতেরা কেবল বিচার করে।”

पण्डितजी - जब मुझे कोई 'पण्डित' (न्याय-वागीश) के नाम से पुकारता है, तो घृणा होती है ।

PUNDIT: "I hate the idea of being called a 'pundit'."

পণ্ডিত — আমায় কেউ 'পণ্ডিত' বললে ঘৃণা করে।”

श्रीरामकृष्ण - यह उनकी कृपा है । पण्डित लोग केवल तर्क-वितर्क में लगे रहते हैं । परन्तु किसी ने दूध का नाम मात्र सुना है और किसी ने दूध देखा है । दर्शन हो जाने पर सब को नारायण देखोगे - देखोगे, नारायण ही सब कुछ हुए हैं ।

MASTER: "That is due to the grace of God. The pundits merely indulge in reasoning. Some have heard of milk and some have drunk milk. After you have the vision of God you will find that everything is Narayana. It is Narayana Himself who has become everything."

শ্রীরামকৃষ্ণ — ওইটি তাঁর কৃপা! পণ্ডিতেরা কেবল বিচার করে। কিন্তু কেউ দুধ শুনেছে, কেউ দুধ দেখেছে। সাক্ষাৎকারের পর সব নারায়ণ দেখবে — নারায়ণই সব হয়েছেন।

पण्डितजी नारायण का स्तव सुना रहे हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्द में मग्न हैं ।

The pundit recited a hymn to Narayana. Sri Ramakrishna was overwhelmed with joy.

পণ্ডিত নারায়ণের স্তব শুনাইতেছেন। ঠাকুর আনন্দে বিভোর।

नारायण स्तव हो जाने पर अब पण्डितजी गीता (6.29) में दिये गए, 'आत्म-विकास' या '3H' -विकास का वैज्ञानिक सूत्र' [Scientific formula of self-development or ('3H'-development)] को उद्धृत कर रहे हैं  -

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्रसमदर्शनः ॥

 गीता ६.२९।। 

[शब्दार्थ : - सर्वभूतस्थम् = सर्वभूतस्थितं या निखिलभूतस्थितम्-; आत्मानं= स्वम्-खुद को; सर्वभूतानि = सकलभूतानि (all beings-सभी प्राणियों को); आत्मनि च = स्वस्मिन् च- अपने आप में (in his own); ईक्षते = अवलोकते-(observes-सिर्फ देखता नहीं , ध्यानपूर्वक देखता है) योगयुक्तात्मा = समाहितचित्तः, एकाग्र ह्रदय वाला (integrated heart) योगी; सर्वत्र = सर्वेषु- ऊँच और नीच, (high and low-सभी लोगों में) समदर्शनः = तुल्यदृष्टि (equal vision) ॥

अन्वय- योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः आत्मानम् सर्वभूतस्थम् आत्मनि च सर्वभूतानि ईक्षते ।

।।6.29।। योगयुक्त अन्त:करण (concentrated consciousness) वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी, आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।

[व्याख्या :विश्व के सभी धर्म महान हैं ,परन्तु धर्म शब्द का अर्थ यदि -'science of self-improvement' आत्मोन्नति (या आत्म-सुधार) का विज्ञान है, तो कोई भी धर्म वेदान्त के समान पूर्ण नहीं है। गीता के प्राय सभी अध्यायों में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि नाम-रूपमय यह  जगत इन्द्रियातीत सत्य की ही अभिव्यक्ति है, तथा यह सृष्टि उसी सत्य पर अध्यस्त (कल्पित) है।

हम अपने शरीर मन और बुद्धि के द्वारा क्रमश भौतिक पदार्थ दूसरों की भावनाएँ और विचारों को देख और समझ पाते हैं। जिसने इन उपाधियों से परे आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लिया वह पुरुष उस आध्यात्मिक दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) से जब जगत् को देखता है तब उसे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का ही अनुभव होता है। वह योगी स्वयं आत्मस्वरूप बन जाता है।

मिट्टी की दृष्टि से घट नहीं है और न सुवर्ण की दृष्टि से आभूषण। उसी प्रकार आत्मदृष्टि से आत्मा ही विद्यमान है और उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण नामरूपों का अधिष्ठान यह देशकालातीत आत्मतत्व ही है। जैसे मिट्टी समस्त मिट्टी के बने पात्रों में सुवर्ण समस्त आभूषणों में जल समस्त तरंगों में वैसे ही आत्मा समस्त नामरूपों में अधिष्ठान के रूप में स्थित है। 

'अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव'  ही पूर्णत्व का द्योतक है जिसे ऋषियों ने सदैव अपना लक्ष्य बनाया है। इसी अनुभव को इस श्लोक में अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है। किन्तु, केवल वह पुरुष आत्मज्ञानी या ईश्वर का साक्षात्कारकर्ता नहीं कहा जा सकता जिसने मात्र स्वयं को ही शुद्ध दिव्य स्वरूप में अनुभव किया हो। वह पुरुष जिसने कि सम्पूर्ण भूतों में विराजमान एक ही आत्मतत्त्व के दर्शन किये हों आत्मज्ञानी कहा जायेगा। 

अपने हृदय में स्थित चैतन्य आत्मा ही सर्वत्र सभी नाम रूपों में स्थित है और यही चैतन्य सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। अत हृदयस्थ चैतन्य के अनुभव का अर्थ ही सर्वत्र व्याप्त नित्य तत्व को अनुभव करना है। ]

PUNDIT (quoting from the Gita-6.29): "'With the heart concentrated by yoga, with the eye of evenness for all things, he beholds the Self in all beings and all beings in the Self.'"

পণ্ডিত — সর্বভূতস্থমাত্মানং সর্বভূতানি চাত্মনি।

                ঈক্ষতে যোগযুক্তাত্মা সর্বত্র সমদর্শনঃ ॥১

[১ গীতা- ৬।২৯]

श्रीरामकृष्ण - आपने अध्यात्म-रामायण * देखी है ?

[अध्यात्मरामायण *: श्रीराम के भक्तों के लिए (प्रभु श्रीरामकृष्ण के भक्तों के लिए भी)  अध्यात्मरामायण को अत्यंत महत्वपूर्ण कहा गया है। इसमें प्रभु श्री राम (ठाकुर देव) को विष्णु के अवतार होने के साथ ही, 'परब्रह्म' या 'निर्गुण ब्रह्म' भी माना गया  है और सीता (माँ सारदा) को 'योगमाया' कहा गया है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'रामचरितमानस' अध्यात्मरामायण से बहुत प्रभावित है। इस ग्रंथ पर 'अद्वैतमत' के अतिरिक्त योगसाधना एवं तंत्रों का भी प्रभाव लक्षित होता है।] 

MASTER: "Have you read the Adhyatma Ramayana?

শ্রীরামকৃষ্ণ — আপনার অধ্যাত্ম (রামায়ণ) দেখা আছে?

पण्डितजी - जी हाँ, कुछ-कुछ देखी है ।

PUNDIT: "Yes, sir, a little."

পণ্ডিত — আজ্ঞে হাঁ, একটু দেখা আছে।

श्रीरामकृष्ण - ज्ञान और भक्ति से वह पूर्ण है । 'शबरी' का उपाख्यान, 'अहिल्या' की स्तुति, सब भक्ति से पूर्ण हैं ।

MASTER: "The book is filled with ideas of knowledge and devotion. The life of Savari and the hymn by Ahalya are filled with bhakti.

শ্রীরামকৃষ্ণ — ওতে জ্ঞান-ভক্তি পরিপূর্ণ। শবরীর উপাখ্যান, অহল্যার স্তব, সব ভক্তিতে পরিপূর্ণ।

“परन्तु एक बात है । वे विषय-बुद्धि से बहुत दूर हैं ।”

"But you must remember one thing: God is very far away from the mind tainted with worldliness."

“তবে একটি কথা আছে। তিনি বিষয়বুদ্ধি থেকে অনেক দূর।”

पण्डितजी - जहाँ विषय बुद्धि है, वे वहाँ से 'सुदूरम्' हैं । और जहाँ वह बात नहीं है, वहाँ वे 'अदूरम्' हैं । उत्तरपाड़ा के एक जमींदार मुखर्जी को मैने देखा, उम्र पूरी हो गयी है और वह बैठा हुआ उपन्यास सुन रहा था ।

PUNDIT: "Yes, sir. God is far, far away from worldly intelligence. And God is very near, where that does not exist. I visited a certain zemindar, one Mukherji of Uttarpara. He is now an elderly man, but he listens only to stories and novels."

পণ্ডিত — যেখানে বিষয়বুদ্ধি, তিনি ‘সুদূরম্‌’, — আর যেখানে তা নাই, সেখানে তিনি ‘অদূরম্‌’। উত্তরপাড়ার এক জমিদার মুখুজ্জেকে দেখে এলাম বয়স হয়েছে — কেবল নভেলের গল্প শুনছেন!

श्रीरामकृष्ण - अध्यात्म रामायण में एक बात और लिखी हुई है, वह यह कि जीव-जगत् (मूर्ख और पण्डित भी) वे ही हुए हैं ।

MASTER: "It is further said in the Adhyatma Ramayana that God alone has become the universe and its living beings."

শ্রীরামকৃষ্ণ — অধ্যাত্মে রামায়নে আর একটি বলেছে যে, তিনিই জীবজগৎ!

पण्डितजी आनन्दित होकर, यमलार्जुन* के द्वारा की गयी इसी भाव की स्तुति की आवृत्ति कर रहे हैं,

[यमलार्जुन मोक्ष *बचपन में एक बार भगवान् श्री कृष्ण को यशोदा जी ने ऊखल में बाँध दिया और आप अन्य कार्य में लग गयीं। उसी स्थान पर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्द अर्जुन के दो वृक्ष एक दूसरे के अत्यंत समीप खड़े थे। भगवान ने उनके बीच में प्रवेश किया, किन्तु वह ओखली आड़ी पड़ गयी, उस समय उन्होंने जो जोर किया, तो पेंड़ उखड़ गए;  और दो दिव्य पुरुष प्रकट हुए। वृक्षयोनि में जन्म लेने से पूर्व, ये कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव थे।  अत्यधिक दौलतमन्द होने के कारण ये मदान्ध हो गये थे। एक बार उन्हें नग्न होकर जलक्रीड़ा करते देख नारद जी ने उनको उपकार करने के लिए वृक्षयोनि भोगने का शाप दिया।  फिर जब उन्होंने बहुत अनुनय-विनय की तो उन पर दया करके वह वर दिया कि श्रीकृष्ण भगवान की समीपता पाकर तुम फिर देवयोनि को प्राप्त होगे। यमलार्जुन के उखड़ने पर वे नलकूबर और मणिग्रीव भगवान के समीप आये और नतमस्तक से प्रणाम करके हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे- श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध से (श्लोक 10.10.29-31 )--

कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्यः पुरुषः परः।

व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मण विदुः।। 

[शब्दार्थ कृष्ण कृष्ण—हे कृष्ण, हे कृष्ण; महा-योगिन्—हे योगेश्वर; त्वम्—तुम; आद्य:—मूल कारण; पुरुष:—परम पुरुष; पर:—इस सृष्टि से परे; व्यक्त-अव्यक्तम्—यह विराट जगत जो कार्य-कारण अथवा स्थूल-सूक्ष्म रूपों से बना है; इदम्—यह; विश्वम्— सारा जगत; रूपम्—रूप; ते—तुम्हारा; ब्राह्मणा:—विद्वान ब्राह्मण; विदु:—जानते हैं ।.

अनुवाद - हे कृष्ण, हे कृष्ण ! आपकी योगशक्ति अचिन्त्य है। आप सर्वोच्च आदि-पुरुष हैं, आप समस्त कारणों के कारण हैं, आप पास रह कर भी दूर हैं और इस भौतिक सृष्टि से परे हैं। विद्वान ब्राह्मण जानते हैं (सर्वं खल्विदं ब्रह्म—इस महवाक्य के आधार पर) कि आप सर्वेसर्वा हैं और यह विराट विश्व अपने स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों में आपका ही स्वरूप है।

 नलकूवर तथा मणिग्रीव नामक दोनों देवता अपनी निरन्तर स्मृति के कारण नारद की कृपा से कृष्ण की श्रेष्ठता को समझ सके। अब उन्होंने स्वीकार किया, “यह आपकी योजना थी कि नारदमुनि के आशीर्वाद से हमारा उद्धार हो। अत: आप परम योगी हैं। आप भूत, वर्तमान तथा भविष्य—सबके जानने वाले हैं। आपने ऐसी सुन्दर योजना बनाई थी कि यद्यपि हम यहाँ पर जुड़वाँ अर्जुन वृक्ष के रूप में खड़े रहे किन्तु हमारे उद्धार के लिए छोटे बालक के रूप में आप प्रकट हुए हैं। यह आपकी ही अचिन्त्य योजना थी। आप परम पुरुष होने के कारण कुछ भी कर सकते हैं।”

हे कृष्ण! (आप निपट गोपाल नहीं हैं।) आपका स्वभाव अचिन्त्य है। आप परम पुरुष हैं क्योंकि आप सबके कारण (आद्य) हैं। (केवल निमित्त कारण ही नहीं किन्तु आप उपादान कारण भी हैं) क्योंकि स्थूल-सूक्ष्मरूप यह जगत् आपका ही स्वरूप है, ऐसा ब्रह्मज्ञानी जानते हैं।।29।।

त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः।

त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः।।30।।

शब्दार्थ : त्वम्—आप; एक:—एक; सर्व-भूतानाम्—सारे जीवों के; देह—शरीर के; असु—प्राण के; आत्म—आत्मा के; इन्द्रिय— इन्द्रियों के; ईश्वर:—परमात्मा, नियंत्रक; त्वम्—आप; एव—निस्सन्देह; काल:—काल; भगवान्—भगवान्; विष्णु:— सर्वव्यापी; अव्यय:—अनश्वर; ईश्वर:—नियन्ता। 

आप हर वस्तु के नियन्ता भगवान् हैं। आप ही हर जीव का शरीर, प्राण, अहंकार तथा इन्द्रियाँ हैं। आप काल, परम पुरुष,अक्षय नियन्ता विष्णु हैं। 

(आप जगत् के नियन्ता भी हैं क्योंकि) आप सकल जीवों के देह, प्राण, अहंकार और इन्द्रियों के (अंतर्यामीरूप से) ईश्वर हैं। (शंका होती है कि इस संसार का निमित्त कारण यदि 'काल ' है, तथा प्रकृति जगत का उपादान कारण है और प्रकृति से उत्पन्न हुआ महत् ही जगत् के आकार में परिणत होता है तो कर्ता तथा नियन्ता पुरुष ही सिद्ध होता है। इसका समाधान डेढ़ श्लोक से करते हैं, आप तो अविकारी हैं और पुरुष आपका अंश है, महत से तृणपर्यन्त सब कार्य ही हैं, इस कारण) हे भगवान! आप ही काल हैं। (काल ही आपकी लीला है) आप ही विष्णु हैं और आप ही ह्रास और वृद्धि से शून्य (अव्यय) ईश्वर हैं।।30।।

त्वं महान्प्रकृतिः साक्षाद्रजः सत्त्वतमोमयी। 

त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविकारवित्।।31।। 

शब्दार्थ : त्वम्—आप; महान्—सबसे बड़े; प्रकृति:—भौतिक जगत; सूक्ष्मा—सूक्ष्म; रज:-सत्त्व-तम:-मयी—प्रकृति के तीन गुणों (रजो, सतो तथा तमो (गुणों) से युक्त; त्वम् एव—आप सचमुच हैं; पुरुष:— परम पुरुष; अध्यक्ष:—स्वामी; सर्व-क्षेत्र—सारे जीवों के; विकार-वित्—चंचल मन को जानने वाले ।

आप तात्कालिक कारण और तीन गुणों—सतो, रजो तथा तमो गुणों—वाली भौतिक प्रकृति हैं। आप इस भौतिक जगत के आदि कारण हैं। आप परमात्मा हैं। अतएव आप हर एक जीव के हृदय की बात को जानने वाले हैं।

रजः- सत्त्व तमोगुणमयी प्रकृति (शक्ति) आप ही हैं; (यह ऊपर कहा गया है कि प्रकृति के क्षोभक काल भी आप ही हैं) प्रकृति का कार्य महत भी आप ही हैं; प्रकृति के प्रवर्तक पुरुष भी आप ही हैं, क्योंकि वह भी आपका ही अंश है। सबके साक्षी भी आप ही हैं। अर्थात् देह, इंद्रिय, अंतःकरण के रोग, राग, प्रीति आदि विकारों को जानने वाले आप ही हैं।।31।।] 

The pundit was delighted. He recited a hymn to that effect from the tenth chapter of the Bhagavata: " O Krishna! Krishna! Mighty Yogi! Thou art the Primal Supreme Purusha: This universe, manifest and unmanifest, is Thy form, as the sages declare. Thou alone art the soul, the sense-organs, the Lord dwelling in the bodies of all; Thou art the subtle Great Prakriti, made of sattva, rajas, and tamas; Thou alone art the Purusha, the Lord dwelling in the bodies of all."

পণ্ডিত আনন্দিত হইয়া যমলার্জ্জুনের এই ভাবের স্তব শ্রীমদ্‌ভাগবত দশম স্কন্ধ হইতে আবৃত্তি করিতেছেন —

কৃষ্ণ কৃষ্ণ মহাযোগিংস্ত্বমাদ্যঃ পুরুষঃ পরঃ।

ব্যক্তাব্যক্তমিদং বিশ্বং রূপং তে ব্রাহ্মণা বিদুঃ  ॥

ত্বমেকঃ সর্বভূতানাং দেহস্বাত্মেনিদ্রয়েশ্বরঃ।

ত্বমেব কালো ভগবান্‌ বিষ্ণুরব্যয় ঈশ্বরঃ ॥

ত্বং মহান্‌ প্রকৃতিঃ সূক্ষ্মা রজঃসত্ত্বতমোময়ী।

ত্বমেব পুরুষোঽধ্যক্ষঃ সর্বক্ষেত্রবিকারবিৎ  ॥

सम्पूर्ण स्तुति सुनकर श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । खड़े हुए हैं । पण्डितजी बैठे हैं । पण्डितजी की गोद और छाती पर एक पैर रखकर श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।

As Sri Ramakrishna listened to the hymn he went into samadhi. He remained standing. The pundit was seated. The Master placed his foot on the pundit's lap and chest and smiled.

ঠাকুর স্তব শুনিয়া সমাধিস্থ! দাঁড়াইয়াছেন। পণ্ডিত বসিয়া। পণ্ডিতের কোলে ও বক্ষে একটি চরণ রাখিয়া ঠাকুর হাসিতেছেন।

पण्डितजी चरण धारण करके कह रहे हैं, ‘गुरो, चैतन्यं देहि ।’ श्रीरामकृष्ण छोटे तखत के पास पूर्वास्य खड़े हुए हैं ।

The pundit clung to his feet and said, "O Guru! Please give me God-Consciousness."

পণ্ডিত চরণ ধারণ করিয়া বলিতেছেন, ‘গুরো চৈতন্যং দেহি।’ ঠাকুর ছোট তক্তার কাছে পূর্বাস্য হইয়া দাঁড়াইয়াছেন।

कमरे से पंडितजी के चले जाने पर श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, “मैं जो कुछ कहता हूँ, वह पूरा उतर रहा है न ? जो लोग अन्तर से उन्हें पुकारेंगे, उन्हें यहाँ आना होगा।”

After the pundit had left the room Sri Ramakrishna said to M.: "Don't you see that what I have said is coming to pass? Those who have sincerely practiced meditation and japa must come here."

পণ্ডিত ঘর হইতে চলিয়া গেলে ঠাকুর মাস্টারকে বলিতেছেন, আমি যা বলি মিলছে? যারা আন্তরিক ধ্যান-জপ করেছে তাদের এখানে আসতেই হবে।

रात के दस बजे सूजी की थोड़ीसी खीर खाकर श्रीरामकृष्ण ने शयन किया । मणि से कहा, ‘पैरों में जरा हाथ तो फेर दो ।’कुछ देर बाद उन्होंने देह और छाती में भी हाथ फेर देने के लिए कहा ।एक झपकी के बाद उन्होंने मणि से कहा, ‘तुम आओ – सोओ । देखूँ, अगर अकेले में आँख लगे ।’ फिर रामलाल से कहा, 'कमरे के भीतर ये (मणि) और राखाल चाहे तो सो सकते हैं

It was ten o'clock. Sri Ramakrishna ate a little farina pudding and lay down. He asked M. to stroke his feet. A few minutes later he asked the disciple to massage his body and chest gently. He enjoyed a short nap. Then he said to M.: "Now go to sleep. Let me see if I can sleep better when I am alone." He said to Ramlal, "He [meaning M.] and Rakhal may sleep in the room."

রাত দশটা হইল। ঠাকুর একটু সামান্য সুজির পায়স খাইয়া শয়ন করিয়াছেন।মণিকে বলিতেছেন, “পায়ে হাতটা বুলিয়ে দাও তো।” কিয়ৎক্ষণ পরে গায়ে ও বক্ষঃস্থলে হাত বুলাইয়া দিতে বলিতেছেন।সামান্য নিদ্রার পর মণিকে বলিতেছেন, “তুমি শোওগে; — দেখি একলা থাকলে যদি ঘুম হয়।” ঠাকুর রামলালকে বলিতেছেন, “ঘরের ভিতরে ইনি (মণি) আর রাখাল শুলে হয়।”

(२)

[शुक्रवार, 28 अगस्त, 1885-श्री रामकृष्ण वचनामृत-120] 

*श्रीरामकृष्ण तथा ईशू (Jesus Christ)*

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ও যীশুখ্রীষ্ট (Jesus Christ)

🔱🙏पंचभूतों के जाल में फँसकर ब्रह्म को भी आँसू बहाना पड़ता है🔱🙏

'Even Brahman weeps, entangled in the snare of the five elements.'

'পঞ্চভূতের ফাঁদে ব্রহ্ম পড়ে কাঁদে'

सबेरा हुआ । श्रीरामकृष्ण उठकर 'काली माता' का स्मरण कर रहे हैं । शरीर अस्वस्थ रहने के कारण भक्तों को वह मधुर नाम सुनायी न पड़ा । प्रातःकृत्य समाप्त करके श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे । श्री रामकृष्ण मणि से पूछ रहे हैं, ‘अच्छा, रोग क्यों हुआ ?’

It was dawn. Sri Ramakrishna was awake and meditating on the Divine Mother. On account of his illness, the devotees were deprived of his sweet chanting of the Mother's name. Sri Ramakrishna was seated on the small couch. He asked M., "Well, why have I this illness?"

প্রত্যূষ (২৮শে অগস্ট) হইল। ঠাকুর গাত্রোত্থান করিয়া মার চিন্তা করিতেছেন। অসুস্থ হওয়াতে ভক্তেরা শ্রীমুখ হইতে সেই মধুর নাম শুনিতে পাইলেন না। ঠাকুর প্রাতঃকৃত্য সমাপন করিয়া নিজের আসনে আসিয়া বসিয়াছেন। মণিকে বলিতেছেন, আচ্ছা, রোগ কেন হল?

मणि - जी, साधारण मनुष्यों की तरह अगर आपकी भी सब बातें न होंगी तो जीवों में आपके निकट आने का साहस फिर कैसे होगा ? वे देखते हैं, इस देह में इतनी बीमारी है, फिर भी आप ईश्वर को छोड़ और कुछ भी नहीं जानते ।

M: "People will not have the courage to approach you unless you resemble them in all respects. But they are amazed to find that in spite of such illness, you don't know anything but God."

মণি — আজ্ঞা, মানুষের মতন সব না হলে জীবের সাহস হবে না। তারা দেখেছে যে, এই দেহের এত অসুখ, তবুও আপনি ঈশ্বর বই আর কিছুই জানেন না।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - बलराम ने भी कहा, ‘आप ही को अगर यह है तो हमें फिर क्यों नहीं होगा ?’ सीता के शोक से जब राम धनुष्य न उठा सके तब लक्ष्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ । परन्तु "पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी आँसू बहाना पड़ता है ।”

MASTER (smiling): "Balaram also said, 'If even you can be ill, then why should we wonder about our illnesses?' Lakshmana was amazed to see that Rama could not lift His bow on account of His grief for Sita. 'Even Brahman weeps, entangled in the snare of the five elements.'"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — বলরামও বললে, ‘আপনারই এই, তাহলে আমাদের আর হবে না কেন?’ সীতার শোকে রাম ধনুক তুলতে না পারাতে লক্ষ্মণ আশ্চর্য হয়ে গেল। কিন্তু "পঞ্চভূতের ফাঁদে ব্রহ্ম পরে কাঁদে।" 

मणि - भक्तों का दुःख देखकर ईशू भी साधारण मनुष्यों की तरह रोये थे ।

M: "Jesus Christ, too, wept like an ordinary man at the suffering of His devotees."

মণি — ভক্তের দুঃখ দেখে যীশুখ্রীষ্টও অন্য লোকের মতো কেঁদেছিলেন।

श्रीरामकृष्ण - क्या हुआ था ?

MASTER: "How was that?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি হয়েছিল?

मणि - जी, मार्था और मेरी दो बहनें थीं । उनके एक भाई थे – लैजेरसये तीनों ईशू के भक्त थे। लैजेरस का देहान्त हो गया । ईशू उनके घर जा रहे थे । रास्ते में एक बहन, मेरी, दौड़ी हुई गयी और उनके पैरों पर गिरकर रोने लगी और कहा, ‘प्रभो, तुम अगर आ जाते तो वह न मरता ।’ उसका रोना देखकर ईशू भी रोये थे ।

M: "There were two sisters, Mary and Martha. Lazarus was their brother. All three were devoted to Jesus. Lazarus died. Jesus was on His way to their house. One of the sisters, Mary, ran out to meet Him. She fell at His feet and said weeping, 'Lord, if You had been here, my brother would not have died!' Jesus wept to see her cry.

মণি — মার্থা, মেরী দুই ভগ্নী, আর ল্যাজেরাস ভাই — তিনজনই যীশুখ্রীষ্টের ভক্ত। ল্যাজেরাসের মৃত্যু হয়। যীশু তাদের বাড়িতে আসছিলেন। পথে একজন ভগ্নী (মেরী), দৌড়ে গিয়ে পদতলে পড়ে কাঁদতে কাঁদতে বললে, ‘প্রভু, তুমি যদি আসতে, তাহলে সে মরতো না।’ যীশু তার কান্না দেখে কেঁদেছিলেন

[शुक्रवार, 28 अगस्त, 1885-श्री रामकृष्ण वचनामृत-120] 

[श्री रामकृष्ण और सिद्धाई - चमत्कार]

[Sri Ramakrishna and Siddhai — Miracles]

[শ্রীরামকৃষ্ণ ও সিদ্ধাই — Miracles]

“फिर ईशु लेजारस की कब्र के पास जाकर उसका नाम ले-लेकर पुकारने लगे, उठो लैजेरस !  लैजेरस तुरन्त जी उठा और कब्र में से निकलकर उनके पास आ गया ।”

"Then Jesus went to the tomb of Lazarus and called him by name. Immediately Lazarus came back to life and walked out of the tomb."

“তারপর তিনি গোরের [লাজারাসের সমাধি] কাছে গিয়ে নাম ধরে ডাকতে লাগলেন, অমনি ল্যাজেরাস প্রাণ পেয়ে উঠে এল।”

श्रीरामकृष्ण - मैं ये सब बातें नहीं कर सकता ।

MASTER: "But I cannot do those things."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার কিন্তু উগোনো হয় না।

मणि - आप खुद नहीं करते, क्योंकि आपकी इच्छा नहीं होती । ये सब सिद्धियाँ हैं, इसीलिए आप नहीं करते । उनका प्रयोग करने पर आदमी का मन देह की ओर चला जाता है, शुद्धा भक्ति की ओर नहीं । इसीलिए आप नहीं करते । “आपके साथ ईशू का बहुत कुछ मेल होता है ।”

M: "That is because you don't want to. These are miracles; therefore you aren't interested in them. These things draw people's attention to their bodies. Then they do not think of genuine devotion. That is why you don't perform miracles. But there are many similarities between you and Jesus Christ."

মণি — সে আপনি করেন না — ইচ্ছা করে। ও-সব সিদ্ধাই, Miracle তাই আপনি করেন না। ও-সব করলে লোকদের দেহেতেই মন যাবে — শুদ্ধাভক্তির দিকে মন যাবে না। তাই আপনি করেন না। “আপনার সঙ্গে যীশুখ্রীষ্টের অনেক মেলে!

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - और क्या क्या मिलता है ?

MASTER (smiling): "What else?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আর কি কি মেলে?

मणि - आप भक्तों से न तो व्रत करने के लिए कहते हैं, न किसी दूसरी कठोर साधना के लिए । खाने-पीने के लिए भी कोई कठोर नियम नहीं है । ईशू के शिष्यों ने रविवार (विश्राम दिवस-Sabbath) को नियमानुकूल उपवास नहीं किया, इसलिए जो घमण्डी लोग (Pharisees) शास्त्र मानकर चलते थे, उन लोगों ने उनका तिरस्कार किया । ईशू ने कहा, ‘वे लोग खायेंगे और खूब खायेंगे । जब तक वर (अवतार वरिष्ठ) के साथ हैं तब तक तो बाराती (भक्त) लोग आनन्द करेंगे ही ।’

M: "You don't ask your devotees to fast or practice other austerities. You don't prescribe hard and fast rules about food. Christ's disciples did not observe the sabbath; so the Pharisees took them to task. Thereupon Jesus said: 'They have done well to eat. As long as they are with the bridegroom, they must make merry.'"

মণি — আপনি ভক্তদের উপবাস করতে কি অন্য কোন কঠোর করতে বলেন না — খাওয়া-দাওয়া সম্বন্ধেও কোন কঠিন নাই। যীশুখ্রীষ্টের শিষ্যেরা রবিবারে নিয়ম না করে খেয়েছিল, তাই যারা শাস্ত্র মেনে চলত তারা তিরস্কার করেছিল। যীশু বললেন, ‘ওরা খাবে, খুব করবে; যতদিন বরের সঙ্গে আছে, বরযাত্রীরা আনন্দই করবে।’

श्रीरामकृष्ण - इसका क्या अर्थ है ?

MASTER: "What does that mean?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — এর মানে কি?

मणि - अर्थात् जब तक अवतारी पुरुष (नवनी दा) के साथ हैं तब तक अन्तरंग शिष्य सब आनन्द में ही रहेंगे। - क्यों वे निरानन्द का भाव लायें ? जब वे निजधाम चले जायेंगे (2016?), तब उनके (अन्तरंग शिष्यों के) निरानन्द के दिन आयेंगे ।

M: "Christ meant that as long as the disciples live with the Incarnation of God, they should only make merry. Why should they be sorrowful? But when He returns to His own abode in heaven, then will come the days of their sorrow and suffering."

মণি — অর্থাৎ যতদিন অবতারের সঙ্গে সঙ্গে আছে, সাঙ্গোপাঙ্গগণ কেবল আনন্দই করবে — কেন নিরানন্দ হবে? তিনি যখন স্বধামে চলে যাবেন, তখন তাদের নিরানন্দের দিন আসবে।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - और भी कुछ मिलता है ?

MASTER (smiling): "Do you find anything else in me that is similar to Christ?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আর কিছু মেলে?

मणि - जी, आप जिस तरह कहते हैं, ‘लड़कों में कामिनी और कांचन का प्रवेश नहीं हुआ; वे उपदेशों की धारणा कर सकेंगे, - जैसे नयी हण्डी में दूध रखना; दही जमायी हण्डी में रखने से दूध बिगड़ सकता हैं’; ईशू भी इसी तरह कहते थे ।

M: "Yes, sir. You say: 'The youngsters are not yet touched by "woman and gold"; they will be able to assimilate instruction. It is like keeping milk in a new pot: the milk may turn sour if it is kept in a pot in which curd has been made.' Christ also spoke like that."

মণি — আজ্ঞা, আপনি যেমন বলেন — ‘ছোকরাদের ভিতর কামিনী-কাঞ্চন ঢুকে নাই; ওরা উপদেশ ধারণা করতে পারবে, — যেমন নূতন হাঁড়িতে দুধ রাখা যায়। দই পাতা হাঁড়িতে রাখলে নষ্ট হতে পারে’; তিনিও সেইরূপ বলতেন।

श्रीरामकृष्ण - क्या कहते थे ?

MASTER: "What did He say?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি বলতেন?

मणि – ‘पुरानी बोतल में शराब रखने से बोतल फूट सकती है । पुराने कपड़े में नया पेवन लगाने पर कपड़ा जल्दी फट जाता है ।’

M: "'If new wine is kept in an old bottle, the bottle may crack. If an old cloth is patched with new cloth, the old cloth tears away.'

মণি — ‘পুরানো বোতলে নূতন মদ রাখলে বোতল ফেটে যেতে পারে।’ আর ‘পুরানো কাপড়ে নূতন তালি দিলে শীঘ্র ছিঁড়ে যায়।’

“आप जैसा कहते हैं, ‘माँ और आप एक है’, उसी तरह वे भी कहते थे, ‘पिता और मैं एक हूँ’ ।”

"Further, you tell us that you and the Mother are one. Likewise, Christ said, 'I and My Father are one.'"

“আপনি যেমন বলেন, ‘মা আর আপনি এক’ তিনিও তেমনি বলতেন, ‘বাবা আর আমি এক’।” (I and my father are one.)

Bijoy is Knocking at the Door 

चारदीवार में एक गोल छेद

পাঁচিলের মধ্যে গোল ফাঁক

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - और कुछ ?

MASTER (smiling): "Anything else?"

मणि - आप जैसा कहते हैं, ‘व्याकुल होकर पुकारने से वे सुनेंगे ।’ वे भी कहते थे, 'व्याकुल होकर द्वार पर धक्का मारो, द्वार खुल जायेगा ।’

M: "You say to us, 'God will surely listen to you if you call on Him earnestly.' So also Christ said, 'Knock and it shall be opened unto you.'"

মণি — আপনি যেমন বলেন, ‘ব্যাকুল হয়ে ডাকলে তিনি শুনবেনই শুনবেন।” তিনিও বলতেন, ‘ব্যাকুল হয়ে দোরে ঘা মারো দোর খোলা পাবে!’ (Knock and it shall be opened unto you.)

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, यदि ईश्वर फिर अवतार के रूप में प्रकट हुए हैं तो वे पूर्ण रूप में हैं, अथवा अंश रूप में अथवा कला रूप में ?

MASTER: "Well, if God has incarnated Himself again, is it a fractional or a partial or a complete manifestation of God? Some say it is a complete manifestation."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, অবতার যদি হয়, তা পূর্ণ, না অংশ, না কলা? কেউ কেউ বলে পূর্ণ।

मणि - जी, मैं तो पूर्ण, अंश और कला, यह अच्छी तरह समझता ही नहीं, परन्तु जैसा आपने कहा था, चारदीवार में एक गोल छेद, यह खूब समझ गया हूँ ।

M: "Sir, I don't quite understand the meaning of complete or partial of fractional Incarnation. But I have understood, as you explained it, the idea of a round hole in a wall."

মণি — আজ্ঞা, পূর্ণ, অংশ, কলা, ও-সব ভাল বুঝতে পারি না। তবে যেমন বলেছিলেন ওইটে বেশ বুঝেছি। পাঁচিলের মধ্যে গোল ফাঁক।

श्रीरामकृष्ण - क्या, बताओ तो जरा ?

MASTER: "Tell me about it."

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি বল দেখি?

मणि - चारदीवार के भीतर एक गोल छेद है । उस छेद से चारदीवार के उस तरफ के मैदान का कुछ अंश दीख पड़ता है । उसी तरह आप के भीतर से उस अनन्त ईश्वर का कुछ अंश दीख पड़ता है ।

M: "There is a round hole in the wall. Through it, one is able to see part of the meadow on the other side of the wall. Likewise, through you one sees part of the Infinite God."

মণি — প্রাচীরের ভিতর একটি গোল ফাঁক — সেই ফাঁকের ভিতর দিয়ে প্রাচিরের ওধারের মাঠ খানিকটা দেখা যাচ্ছে। সেইরূপ আপনার ভিতর দিয়ে সেই অনন্ত ঈশ্বর খানিকটা দেখা যায়।

श्रीरामकृष्ण- हाँ, दो-तीन कोस तक बराबर दीख पड़ता है ।

MASTER: "True. You can see five or six miles of the meadow at a stretch."

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, দুই-তিন ক্রোশ একেবারে দেখা যাচ্ছে।

श्री जगन्नाथजी का प्रसाद है सीत (भात)   

चाँदनी घाट में गंगास्नान कर मणि फिर श्रीरामकृष्ण के पास आये । दिन के आठ बजे होंगे । मणि लाटू से श्रीजगन्नाथजी के सीत (भात) माँग रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण मणि के पास आकर कह रहे हैं – ‘इसका (भात -प्रसाद खाने का) नियमपूर्वक पालन करते रहना । जो लोग भक्त हैं, प्रसाद बिना पाये वे कुछ खा नहीं सकते ।’

M. finished his bath in the Ganges and went to the Master's room. It was eight o'clock in the morning. He asked Latu to give him the rice prasad of Jagannath. The Master stood near him and said: "Take this prasad regularly. Those who are devotees of God do not eat anything before taking the prasad."

মণি চাঁদনির ঘাটে গঙ্গাস্নান করিয়া ঠাকুরের কাছে ঘরে উপনীত হইলেন। বেলা আটটা হইয়াছে। মণি লাটুর কাছে আটকে চাইছেন — শ্রীশ্রীজগন্নাথদেবের আটকে। শ্রীরামকৃষ্ণ কাছে আসিয়া মণিকে বলিতেছেন, “তুমি ওটা (প্রসাদ খাওয়া) করো — যারা ভক্ত হয়, প্রসাদ না হলে খেতে পারে না।”

मणि- मैं बलरामबाबू के यहाँ से सीत ले आया हूँ, कल से रोज दो-एक सीत पा लिया करता हूँ ।

M: "Yesterday I got some prasad of Jagannath from Balaram Babu's house. I take one or two grains daily."

মণি — আজ্ঞা, আমি কাল অবধি বলরামবাবুর বাড়ি থেকে জগন্নাথের আটকে এনেছি — তাই রোজ একটি দুটি খাই

मणि भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर रहे हैं । फिर बिदा होने लगे । श्रीरामकृष्ण सस्नेह कह रहे हैं – ‘तुम कुछ सबेरे आ जाया करो, भादों की धूप बड़ी खराब होती है ।’

M. saluted the Master and took his leave, Sri Ramakrishna said to him tenderly: "Come early in the morning tomorrow. The hot sun of the rainy season is bad for the health."

মণি ভূমিষ্ঠ হইয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিতেছেন ও বিদায় গ্রহণ করিতেছেন। ঠাকুর সস্নেহে বলিতেছেন, তবে তুমি সকাল সকাল এসো — আবার ভাদ্র মাসের রৌদ্র — বড় খারাপ

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मंगलवार, 30 मई 2023

$🔱🙏परिच्छेद~119 [ ( 9-10-11-16 अगस्त 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 🔱🙏चैतन्य प्राप्त करके संसार में रहो 🙏"कुण्डलिनी के जागृत हुए बिना चैतन्य नहीं होता । 🙏काटने ही के लिए मना किया था, फुफकारने के लिए नहीं 🙏उत्तर-पश्चिम दिशा में एक बार और (मुझे) देह धारण करना होगा 🙏हृदय से जो ईश्वर को पुकारेगा, उसे यहाँ आना होगा

 परिच्छेद- ११९.

*श्रीरामकृष्ण के आध्यात्मिक अनुभव*

(१)

[ ( 9 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏द्विज तथा द्विज के पिताजी । मातृऋण तथा पितृऋण🔱🙏

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में अपने उसी कमरे में राखाल, मास्टर आदि भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के ३-४ बजे का समय होगा ।

श्रीरामकृष्ण के गले की बीमारी की जड़ जमने लगी है । तथापि दिन भर वे भक्तों की मंगलकामना करते रहते हैं । किस तरह वे संसार में बद्ध न हो, किस तरह उनमें ज्ञान और भक्ति हों - ईश्वर की प्राप्ति हो, इसी की चिन्ता किया करते हैं । 

श्रीयुत राखाल वृन्दावन से आकर कुछ दिन घर पर थे । आजकल वे श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं । लाटू, हरीश और रामलाल भी श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं ।

श्रीमाताजी (श्रीरामकृष्ण की धर्मपत्नी) भी कई महीने हुए श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए देश से आयी हुई हैं । नौबतखाने में रहती हैं । शोकातुरा ब्राह्मणी कई रोज से उनके पास रहती है

द्विज की उम्र सोलह साल की होगी । उनकी माता के निधन के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया है । द्विज मास्टर के साथ प्राय: श्रीरामकृष्ण के पास आया करते हैं । परन्तु उनके पिता को इससे बड़ा असन्तोष है ।

श्रीरामकृष्ण के पास द्विज, द्विज के पिता और भाई, मास्टर आदि बैठे हुए हैं । आज ९ अगस्त है, १८८५ ।

द्विज के पिता श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए आयेंगे, यह बात उन्होंने बहुत दिन पहले ही कही थी। आज इसीलिए आये भी हैं । वे कलकत्ते के किसी विदेशी बनिये के ऑफिस के मैनेजर हैं ।

श्रीरामकृष्ण (द्विज के पिता से) - आपका लड़का यहाँ आता है, इससे आप कुछ और न सोचियेगा। 

"मैं तो कहता हूँ, चैतन्य प्राप्त करके संसार में रहो । बड़ी मेहनत के बाद अगर कोई सोना पा ले, तो वह उसे चाहे मिट्टी में गाड़ रखे, सन्दूक में बन्द कर रखे, अथवा पानी में रखे, सोने का इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं ।

"मैं कहता हूँ, अनासक्त होकर संसार करो । हाथों में तेल लगाकर कटहल काटो, तो हाथ में दूध न चिपकेगा ।

"कच्चे 'मैं' को संसार में रखने पर मन मलिन हो जाता है । ज्ञानलाभ करके संसार में रहना चाहिए।

"पानी में दूध को डाल रखने पर दूध नष्ट हो जाता है । परन्तु उसी का मक्खन निकालकर पानी में डालने पर फिर कोई झंझट नहीं रह जाती ।"

द्विज के पिता - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - आप जो इन्हें डाँटते हैं, इसका मतलब मैं समझता हूँ । आप इन्हें डरवाते हैं । ब्रह्मचारी ने साँप से कहा, 'तू तो बड़ा मूर्ख है ! मैंने तुझे बस काटने ही के लिए मना किया था, फुफकारने के लिए नहीं । तूने अगर फुफकारा होता तो तेरे शत्रु तुझे मार न सकते ।' इसी तरह आप जो लड़कों को डाँटते हैं, वह केवल फुफकारना ही है । (द्विज के पिता हँस रहे हैं)

 "लड़के का अच्छा होना  पिता के पुण्य के लक्षण हैं । अगर कुएँ का पानी अच्छा निकला तो वह कुएँ के मालिक के पुण्य का चिह्न है ।

"बच्चे को आत्मज कहते हैं, तुममें और बच्चे में कोई भेद नहीं है। एक रूप से बच्चा तुम ही हुए हो। एक रूप से तुम विषयी हो, ऑफिस का काम करते हो, संसार का भोग करते हो, एक दूसरे रूप से तुम्हीं भक्त हुए हो - अपने सन्तान के रूप से। मैंने सुना था , तुम घोर विषयी हो। परन्तु बात ऐसी तो नहीं है। (सहास्य) यह सब तो तुम जानते ही हो। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि शायद तुम बहुत अधिक सतर्क हो, इसीलिए मैं जो कुछ कहता हूँ, उस पर तुम सिर हिला-हिलाकर अपनी राय देते हो। (द्विज के पिता मुसकराते हैं)  

" यहाँ आने पर तुम क्या हो, यह ये लोग समझ सकेंगे। पिता का स्थान कितना ऊँचा है ! माता-पिता को धोखा देकर जो धर्म करना चाहता है उसे क्या खाक हो सकता है ? 

आदमी के बहुत से ऋण हैं , पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण ; इसके अतिरिक्त मातृऋण भी है। फिर स्त्री के ऋण का भी उल्लेख है - इसे भी मानना चाहिये। अगर वह सती है तो पति को अपनी मृत्यु के बाद उसके भरण-पोषण के लिए व्यवस्था कर जानी चाहिए। 

" मैं अपनी माँ के कारण वृन्दावन में न रह सका। ज्योंही याद आया कि माँ दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर में है, फिर वृन्दावन में मन न लगा।     

"मैं इन लोगों से कहता हूँ, संसार भी करो और ईश्वर में भी मन रखो। संसार छोड़ने के लिए मैं नहीं कहता, यह करो और वह भी करो। "     

पिता -मैं उससे यही कहता हूँ कि वह लिखना पढ़ना भी करे, आपके यहाँ आने से मैं मनाही तो नहीं करता। परन्तु लड़कों के साथ हँसी -मजाक में समय नष्ट न किया करे - 

श्रीरामकृष्ण -इसमें अवश्य ही संस्कार था। इसके दूसरे भाइयों में वह बात न होकर इसी में यह क्यों पैदा हुई ? " जबरदस्ती क्या तुम मना कर सकोगे ? जिसमें जो कुछ है , वह होकर ही रहेगा। "

पिता -हाँ , यह तो है। 

श्री रामकृष्ण द्विज के पिता पास चटाई पर आकर बैठे। बातचीत करते हुए एक बार उनकी देह पर हाथ लगा रहे हैं। 

सन्ध्या हो आयी। श्रीरामकृष्ण मास्टर आदि से कह रहे हैं , ' इन्हें सब देवता दिखा ले आओ- अच्छा रहता तो मैं भी साथ चलता। '

 लड़कों को सन्देश देने के लिए कहा। द्विज के पिता से कह रहे हैं - ' ये कुछ जलपान करेंगे, कुछ जलपान करना चाहिए। ' द्विज के पिता देवालय देखकर बगीचे में जरा टहल रहे हैं।

 श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में भूपेन , द्विज और मास्टर आदि के साथ आनंद-पूर्वक वार्तालाप कर रहे हैं। कौतुक करते हुए भूपेन और मास्टर की पीठ में मीठी चपत मार रहे हैं। द्विज से हँसते हुए कह रहे हैं , 'कैसा कहा मैंने तेरे बाप से ? " 

सन्ध्या के बाद द्विज के पिता श्रीरामकृष्ण के कमरे में फिर आये। कुछ देर में विदा होने वाले हैं। द्विज के पिता को गर्मी लग रही है। श्रीरामकृष्ण अपने हाथों से पंखा झल रहे हैं। द्विज के पिता बिदा हुए। श्रीरामकृष्ण उठकर खड़े हो गए।   

(२)

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

*समाधि के प्रकार*

रात के आठ बजे हैं । श्रीरामकृष्ण महिमाचरण से बातचीत कर रहे हैं । कमरे में राखाल, मास्टर और महिमाचरण के दो-एक मित्र बैठे हैं । महिमाचरण (जिनके घर में नवनी दा का जन्म हुआ था) आज रात को यहीं रहेंगे

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, केदार को कैसा देख रहे हो ? - उसने दूध देखा ही है या पिया भी है ?

महिमा - हाँ, वे परमानन्द का आनंद ले रहे हैं ।" (आनन्द पा रहे हैं ।)

श्रीरामकृष्ण - और नृत्यगोपाल ?

महिमा - सुन्दर अच्छी अवस्था है, वह मन की उच्चावस्था में है।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, अच्छा गिरीश घोष कैसा हुआ है ?

महिमा - अच्छा हुआ है, परन्तु लड़कों का दर्जा और है ।

श्रीरामकृष्ण - और नरेन्द्र ?

महिमा - मैं पन्द्रह साल पहले जैसा था, यह वैसा ही है ।

श्रीरामकृष्ण - और छोटा नरेन्द्र ? कैसा सरल है !

महिमा - जी हाँ, खूब सरल है । 

श्रीरामकृष्ण - तुमने ठीक कहा है । (सोचते हुए) और कौन है ?

"जो सब लड़के यहाँ आ रहे हैं, उन्हें बस दो बातों को जानने से ही हुआ ऐसा होने से फिर अधिक साधन-भजन न करना होगा । पहली बात - मैं कौन हूँ, दूसरी - वे कौन हैं । इन लड़कों में बहुतेरे अन्तरंग हैं । 

"जो अन्तरंग हैं, उनकी मुक्ति न होगी । वायव्य दिशा में (उत्तर-पश्चिम दिशा में) एक बार और (मुझे) देह धारण करना होगा ।

"बच्चों को देखकर मेरे प्राण शीतल हो जाते हैं । और जो लोग बच्चे पैदा कर रहे हैं, मुकदमा और मामलेबाजी कर रहे हैं, उन्हें देखकर कैसे आनन्द हो सकता है ? शुद्ध आत्मा को बिना देखे रहूँ कैसे ?"

महिमाचरण शास्त्रों से श्लोकों की आवृत्ति करके सुना रहे हैं, और तन्त्रों से भूचरी, खेचरी और शाम्भवी, कितनी ही मुद्राओं की बातें कह रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, समाधि के बाद मेरी आत्मा महाकाश में पक्षी की तरह उड़ती हुई घूमती है, ऐसी बात कोई कोई कहते हैं ।

"हृषीकेश का साधु आया था । उसने कहा, 'समाधियाँ पाँच प्रकार की होती हैं, - देखता हूँ तुम्हें तो सभी समाधियाँ होती हैं । पिपीलिकावत् (ant), मीनवत् (fish), कपिवत् (monkey), पक्षीवत् (bird), तिर्यग्वत् ( serpent)।’

“कभी वायु चढ़कर चींटी की तरह सुरसुराया करती है ।  कभी समाधि-अवस्था में भाव समुद्र के भीतर आत्मारूपी मीन आनन्द से क्रीड़ा करता है ।

“कभी करवट बदलकर पड़ा हुआ है, देखा, महावायु बन्दर की तरह मुझे ठेलकर आनन्द करती है । मैं चुपचाप पड़ा रहता हूँ । वही वायु एकाएक बन्दर की तरह उछलकर सहस्त्रार में चढ़ जाती है । इसीलिए तो मैं उछलकर खड़ा हो जाता हूँ ।

"फिर कभी पक्षी की तरह इस डाल से उस डाल पर, उस डाल से इस डाल पर महावायु चढ़ती रहती है । जिस डाल पर बैठती है वह स्थान आग की तरह जान पड़ता है । कभी मूलाधार से स्वाधिष्ठान, स्वाधिष्ठान से हृदय, और इस तरह क्रमश: सिर में चढ़ती है ।

"कभी महावायु की तिर्यक्-गति होती है - टेढ़ी-मेढ़ी चाल । उसी तरह चलकर अन्त में जब सिर में आती है तब समाधि होती है ।

"कुण्डलिनी के जागृत हुए बिना चैतन्य नहीं होता ।

"कुण्डलिनी मूलाधार में रहती है । चैतन्य होने पर वह सुषुम्ना नाड़ी के भीतर से स्वाधिष्ठान, मणिपुर, इन सब का भेद करके अन्त में मस्तक में पहुँचती है, इसे ही महावायु की गति कहते हैं। अन्त में समाधि होती है ।

"केवल पुस्तक पढ़ने से चैतन्य नहीं होता । उन्हें पुकारना चाहिए । व्याकुल होने पर  कुलकुण्डलिनी जागृत होती है सुनकर या किताबें पढ़कर जो ज्ञान होता है उससे क्या होगा ?

"जब यह अवस्था हुई, उससे ठीक पहले मुझे दिखलाया गया । किस तरह कुलकुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने पर क्रमशः सब पद्म खिलने लगे, और फिर समाधि हुई । यही बड़ी गुप्त बात है । मैंने देखा बिलकुल मेरी तरह का २२-२३ साल का एक युवक सुषुम्ना नाड़ी के भीतर जाकर, जिव्हा के द्वारा योनिरूप पद्मों के साथ रमण कर रहा है । पहले गुह्य, लिंग और नाभि - चतुर्दल, षड्दल और दशदल पद्म, पहले ये सब अधोमुख थे, फिर वे ऊर्ध्वमुख हो गये

“जब वह हृदय में आया, मुझे खूब याद है, जीभ से रमण करने के बाद द्वादशलदल अधोमुख पद्म ऊर्ध्वमुख होकर खिल गया, फिर कण्ठ में षोड़षदल और कपाल में द्विदल पद्म के खुलने के बाद सिर में सहस्रदल पद्म प्रस्फुटित हो गया । तभी से मेरी यह अवस्था है ।"

*(३)

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

*श्रीरामकृष्ण के आध्यात्मिक अनुभव*   

श्रीरामकृष्ण यह बात (कुलकुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने की बात) कहते हुए उतरकर महिमाचरण के पास जमीन पर बैठे । पास मास्टर हैं, तथा दो-एक भक्त और । कमरे में राखाल भी हैं ।

श्रीरामकृष्ण (महिमा से) - आपसे कहने की इच्छा बहुत दिनों से थी, पर कह नहीं सका, आज कहने की इच्छा हो रही है ।

"मेरी जो अवस्था आप बतलाते हैं, साधना करने ही से ऐसा नहीं हुआ करता । इसमें (मुझमें) कुछ विशेषता है ।

श्रीरामकृष्ण : "ईश्वर ने मुझसे बातचीत की ! - केवल दर्शन ही नहीं, बातचीत की ! बट के नीचे मैंने देखा, गंगाजी के भीतर से निकलकर कितनी हँसी - कितना मजाक किया । हँसी ही हँसी में मेरी उँगली मरोड़ दी गयी ! फिर बातचीत हुई, वे (भगवान्) बोले !

"तीन दिन लगातार मैं रोया, उन्होंने वेदों, पुराणों और तन्त्रों में क्या है, सब दिखला दिया !      

"महामाया की माया क्या है, यह भी एक दिन दिखला दिया । कमरे के भीतर छोटी सी ज्योति क्रमश: बढ़ने लगी और संसार को आच्छन्न करने लगी ।

"फिर उन्होंने दिखलाया - मानो बहुत बड़ा तालाब काई से भरा हुआ है । हवा से काई कुछ हट गयी और पानी जरा दीख पड़ा, परन्तु देखते ही देखते चारों ओर से नाचती हुई काई फिर आ गयी और पानी को ढक लिया । दिखलाया, वह जल सच्चिदानन्द है और काई माया माया के कारण सच्चिदानन्द को कोई देख नहीं सकता । अगर कोई एक बार देखता भी है तो पल भर के लिए, फिर माया उसे ढक लेती है

"किस तरह का आदमी यहाँ आ रहा है, उसके आने से पहले ही वे मुझे दिखा देते हैं । बट के नीचे से बकुल के पेड़ तक उन्होंने चैतन्यदेव के संकीर्तन का दल दिखलाया । उसमें मैंने बलराम को देखा था - नहीं तो भला मिश्री और यह सब मुझे कौन देता ? और इन्हें (मास्टर को) भी देखा था ।

"केशव सेन से मुलाकात होने के पहले उसे मैंने देखा ! समाधि-अवस्था में मैंने देखा केशव सेन और उसके दल को । कमरे में ठसाठस भरे हुए आदमी मेरे सामने बैठे हुए थे । केशव को मैंने देखा, उन लोगों में मोर की तरह अपने पंख फैलाये बैठा हुआ था । पंख अर्थात् दल-बल । केशव के सिर में, देखा, एक लाल मणि थी । वह रजोगुण का लक्षण है

केशव अपने चेलों से कह रहा था - 'ये (श्रीरामकृष्ण) क्या कह रहे हैं, तुम लोग सुनो ।' माँ से मैंने कहा, 'माँ, इन लोगों का अंग्रेजी मत है , इनसे क्या कहना है ? फिर 'माँ ने समझाया, कलिकाल में ऐसा ही होता है।' तब यहाँ से (मेरे पास से) वे लोग हरिनाम तथा माता का नाम ले गये । इसीलिए माता (माँ काली) ने विजय को केशव के दल से अलग कर लिया । परन्तु विजय (विजय कृष्ण गोस्वामी) आदि-समाज में सम्मिलित नहीं हुआ।

(अपने को दिखाकर) “इसके भीतर कोई एक हैं । गोपाल सेन नाम का एक लड़का आया करता था, बहुत दिन हो गये । इसके भीतर जो हैं, उन्होंने गोपाल की छाती पर पैर रख दिया । वह भावावेश में कहने लगा, 'अभी तुम्हें देर है; परन्तु मैं संसारी आदमियों के बीच में नहीं रह सकता ।' - फिर 'अब जाता हूँ' कहकर वह घर चला गया । बाद में मैंने सुना, उसने देह छोड़ दी है । जान पड़ता है, वही नित्यगोपाल है !

"सब बड़े आश्चर्यपूर्ण दर्शन हुए हैं । अखण्ड सच्चिदानन्द-दर्शन भी हो चुका है । उसके भीतर मैंने देखा है, बीच में घेरा लगाकर उसके दो हिस्से कर दिये गये हैं । एक हिस्से में केदार, चुन्नी तथा अन्य साकारवादी भक्त हैं; घेरे के दूसरी ओर खूब लाल सुर्खी की ढेरी की तरह प्रकाश है, उसके बीच में समाधिमग्न नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) बैठा हुआ है ।

"ध्यानस्थ देखकर मैंने पुकारा – नरेन्द्र !', उसने जरा आँख खोली । मैं समझ गया, वही एक रूप में, सिमला (कलकत्ता) में, कायस्थ के यहाँ पैदा होकर रह रहा है । तब मैंने कहा, ‘माँ, उसे माया में बाँध लो, नहीं तो समाधि में वह देह छोड़ देगा ।' केदार साकारवादी है, उसने झाँककर देखा, उसे रोमांच हो आया और वह भागा ।

यही सोचता हूँ, इस शरीर के भीतर माँ स्वयं हैं, भक्तों को लेकर लीला कर रही हैं । जब पहले-पहल यह अवस्था हुई, तब ज्योति से देह दमका करती थी । छाती लाल हो जाती थी । तब मैंने कहा, 'माँ, बाहर प्रकाशित न होओ - भीतर समा जाओ ।’ इसीलिए अब यह देह मलिन हो रही है।

"नहीं तो आदमी जला डालते । आदमियों की भीड़ लग जाती अगर वैसी ज्योतिर्मय देह बनी रहती। अब बाहर प्रकाश नहीं है । इससे तमाशबीन भाग जाते हैं - जो शुद्ध भक्त हैं, वे ही रहेंगे । यह बीमारी क्यों हुई, इसका अर्थ यही है । जिनकी भक्ति सकाम है, वे बीमारी देखकर भाग जायेंगे ।

"मेरी एक इच्छा थी । मैंने माँ से कहा था - 'माँ, मैं भक्तों का राजा होऊँगा ।’

"फिर मेरे मन में यह बात उठी कि हृदय से जो ईश्वर को पुकारेगा, उसे यहाँ आना होगा - आना ही होगा । देखो, वही हो रहा है, वे ही सब लोग आते हैं ।

"इसके भीतर कौन हैं, यह मेरे माता -पिता जानते थे । पिताजी ने गया में स्वप्न देखा था । स्वप्न में आकर 'रघुवीर' ने कहा था, 'मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूँगा।"

[Letter of Swami Vivekananda To Swami Brahmananda, from ALMORA, dated 20th May, 1898." MY DEAR RAKHAL,....  For the present buy a plot of ground for Ramlal in the name of Raghuvir (The family deity of Shri Ramakrishna’s birthplace, Kamarpukur, Ramlal being his nephew.) after careful consideration. . . . Holy Mother will be the Sebâit (worshipper-in-charge); after her will come Ramlal, and Shibu will succeed them as Sebait; or make any other arrangement that seems best."]

"इसके भीतर वे ही हैं । कामिनी और कांचन का त्याग ! यह क्या मेरा कर्म है ? स्त्री-सम्भोग स्वप्न में भी नहीं हुआ

"नागे ने वेदान्त का उपदेश दिया । तीन ही दिन में समाधि हो गयी । माधवीलता के नीचे उस समाधि-अवस्था को देखकर उसने कहा - 'अरे ! ये क्या है रे !’ फिर उसने (श्री तोतापुरी जी ने) समझा था, इसके भीतर कौन हैं । तब उसने मुझसे कहा, 'मुझे तुम छोड़ दो ।' यह बात सुनकर मेरी भावावस्था हो गयी । उसी अवस्था में मैंने कहा, 'वेदान्त का बोध हुए बिना तुम यहाँ से नहीं जा सकते ।

 "तब मैं दिन-रात उसी के पास रहता था । केवल वेदान्त की चर्चा होती थी । ब्राह्मणी (श्रीरामकृष्ण की तन्त्र-साधना की आचार्या) कहती थी, 'बच्चा, वेदान्त पर ध्यान न दो, इससे भक्ति की हानि होती है ।’

"माँ से मैंने कहा, ‘माँ, इस देह की रक्षा किस तरह होगी ? - और साधुओं तथा भक्तों को लेकर भी किस तरह रह सकूँगा ? - एक बड़ा आदमी ला दो ।' इसीलिए मथूरबाबू ने चौदह वर्ष तक सेवा की ।

"इसके भीतर जो हैं, वे पहले से ही बतला देते हैं, किस श्रेणी का भक्त आनेवाला है । ज्योंही देखता हूँ गौरांग का रूप सामने आया कि समझ जाता हूँ, कोई गौरांग-भक्त आ रहा है । अगर कोई शाक्त आता है तो शक्तिरूप - कालीरूप दीख पड़ता है

"कोठी की छत पर से आरती के समय में चिल्लाया करता था, 'अरे, तुम सब लोग कहाँ हो ? - आओ ! देखो, अब क्रम क्रम से सब आ गये हैं ।

"इसके भीतर वे खुद हैं - स्वयं ही मानो इन सब भक्तों को लेकर काम कर रहे हैं ।

“एक-एक भक्त की अवस्था कितने आश्चर्य की है ! छोटा नरेन्द्र - इसे कुम्भक आप ही आप होता है और फिर समाधि भी ! एक-एक बार कभी-कभी ढाई घण्टे तक ! कभी और देर तक ! - कैसे आश्चर्य की बात है !

"यहाँ सब तरह की साधनाएँ हो चुकी हैं - ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग । उम्र बढ़ाने के लिए हठयोग भी किया जा चुका है ।

 इस शरीर के भीतर कोई और (ईश्वर) वास कर रहा है, नहीं तो समाधि के बाद फिर मैं भक्तों के साथ कैसे रह सकता तथा ईश्वर-प्रेम का आनन्द कैसे उठा सकता ? कुँवरसिंह कहता था, 'समाधि के बाद लौटा हुआ आदमी कभी मैंने नहीं देखा - तुम नानक हो ।

"चारों ओर संसारी आदमी हैं - चारों ओर कामिनी-कांचन - इस तरह की परिस्थिति के भीतर यह अवस्था है ! - समाधि और भाव लगे ही रहते हैं । इसी पर प्रताप ने (ब्राह्मसमाज के प्रतापचन्द्र मुजुमदार) - कुक साहब जब आया था - जहाज में मेरी अवस्था देखकर कहा, 'बाप रे ! जैसे भूत लगा ही रहता हो !’ "

राखाल, मास्टर आदि अवाक् होकर  ये सब बातें सुन रहे हैं ।

 क्या महिमाचरण ने श्रीरामकृष्ण के इस इशारे को समझा ? इन सब बातों को सुनकर भी वे कह रहे हैं - 'जी, आपके प्रारब्ध के कारण यह सब हुआ है ।’  श्रीरामकृष्ण उनकी बात पर अपनी सम्मति देते हुए कह रहे हैं - 'हाँ, प्रारब्ध - जैसे बाबू के बहुत से बैठकखाने हों, यहाँ भी उनका एक बैठकखाना है । भक्त उनका बैठकखाना है ।’

(४)

*स्वप्न-दर्शन*

 [(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

रात के नौ बजे हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । महिमाचरण की इच्छा है - श्रीरामकृष्ण की उपस्थिति में वे ब्रह्मचक्र की रचना कमरे में करें ।  राखाल, मास्टर, किशोरी तथा और दो-एक भक्तों को साथ लेकर जमीन पर उन्होंने चक्र बनाया । सब लोगों से उन्होंने ध्यान करने के लिए कहा । राखाल को भावावस्था हो गयी । श्रीरामकृष्ण उतरकर उनकी छाती में हाथ लगाकर माता का नाम लेने लगे । राखाल का भाव संवरण हो गया ।   

रात के एक बजे का समय होगा । आज कृष्णपक्ष की चतुर्दशी है । चारों ओर घोर अन्धकार है । दो-एक भक्त गंगा के तट पर अकेले टहल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उठे । वे बाहर आये । भक्तों से कहा, "नागा कहा करता था, ‘इस समय - गम्भीर रात्रि की इस निस्तब्धता में - अनाहत शब्द सुन पड़ता है’"

रात के पिछले पहर में महिमाचरण और मास्टर श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर ही लेट गये कैम्पखाट पर राखाल थे ।

श्रीरामकृष्ण पाँच वर्ष के बच्चे की तरह दिगम्बर होकर कभी कभी कमरे के भीतर टहल रहे हैं ।

(सोमवार, 10 अगस्त) सबेरा हुआ । श्रीरामकृष्ण माता का नाम ले रहे हैं । पश्चिम के गोल बरामदे में जाकर उन्होंने गंगादर्शन किया । कमरे के भीतर जितने देव-देवियों के चित्र थे, सब के पास जा-जाकर प्रणाम किया । भक्तगण शय्या से उठकर प्रणाम आदि करके, प्रातः क्रिया करने के लिए गये ।

श्रीरामकृष्ण पंचवटी में एक भक्त के साथ बातचीत कर रहे हैं । उन्होंने स्वप्न में चैतन्यदेव को देखा था ।

श्रीरामकृष्ण (भावावेश में) – आहा ! आहा !

भक्त - जी स्वप्न में - ।

श्रीरामकृष्ण - स्वप्न क्या कम है ?.... श्रीरामकृष्ण की आँखों में आँसू आ गये । स्वर गद्गद है ।

जागृत अवस्था में  एक भक्त के दर्शन की बात सुनकर कह रहे हैं, 'इसमें आश्चर्य क्या है ? आजकल नरेन्द्र भी ईश्वरी रूप देखता है ।'

प्रात: क्रिया समाप्त करके महिमाचरण ठाकुर-मन्दिर के उत्तर-पश्चिम ओर के शिवमन्दिर में जाकर निर्जन में वेद-मन्त्रों का उच्चारण कर रहे हैं

दिन के आठ बजे का समय है । मणि गंगा नहाकर श्रीरामकृष्ण के पास आये । सन्तप्त ब्राह्मणी भी श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए आयी है ।

श्रीरामकृष्ण (ब्राह्मणी से) - इन्हें (मास्टर को) कुछ प्रसाद देना, पूड़ी-मिठाई - ताक पर रखा है ।

ब्राह्मणी - पहले आप पाइये । फिर वे भी पा लेंगे ।

श्रीरामकृष्ण - तुम पहले जगन्नाथजी का भात खाओ, फिर प्रसाद पाना ।

प्रसाद पाकर मणि शिवमन्दिर में शिवदर्शन करके श्रीरामकृष्ण के पास लौट आये । और प्रणाम करके विदा हो रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (सस्नेह) - तुम चलो । तुम्हें काम पर जाना है ।

(५)

 [(मंगलवार, 11 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🙏*मौनधारी श्रीरामकृष्ण और माया का दर्शन*🙏

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में प्रात: आठ बजे से दिन के तीन बजे तक मौन व्रत धारण किये हुए हैं । आज मंगलवार है, ११ अगस्त १८८५ ई. । कल अमावस्या थी ।

श्रीरामकृष्ण कुछ अस्वस्थ हैं । क्या उन्होंने जान लिया है कि शीघ्र ही वे इस धाम को छोड़ जायेंगे? क्या इसीलिए मौन धारण किये हुए हैं ? उन्हें बात न करते देख श्री माँ रो रही हैं । राखाल और लाटू रो रहे हैं । बागबाजार की ब्राह्मणी भी इस समय आयी थी । वह भी रो रही है । भक्तगण बीच बीच में पूछ रहे हैं, "क्या आप हमेशा के लिए चुप रहेंगे ?"

श्रीरामकृष्ण इशारे से कह रहे हैं, 'नहीं ।' नारायण आये हैं - दिन के तीन बजे के समय ।श्रीरामकृष्ण नारायण से कह रहे हैं, "माँ तेरा कल्याण करेंगी ।"

नारायण ने आनन्द के साथ भक्तों को समाचार दिया । श्रीरामकृष्ण ने अब बात की है । राखाल आदि भक्तों की छाती पर से मानो एक पत्थर उतर गया । वे सभी श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे।  

श्रीरामकृष्ण (राखाल आदि भक्तों के प्रति) - माँ दिखा रही थीं कि सभी माया है । वे ही सत्य हैं और शेष सभी माया का ऐश्वर्य है ।

"और एक बात देखी, भक्तों में से किसका कितना हुआ है ।"

नारायण आदि भक्त - अच्छा, किसका कितना हुआ है ?

श्रीरामकृष्ण - इन सभी को देखा - नित्यगोपाल , राखाल, नारायण, पूर्ण, महिमा चक्रवर्ती आदि ।

(६)

 [(9 अगस्त से 16 अगस्त,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

*श्रीरामकृष्ण गिरीश, शशधर पण्डित आदि भक्तों के साथ*

श्रीरामकृष्ण की बीमारी का समाचार कलकत्ते के भक्तों को प्राप्त हुआ, उन्होंने सोचा कि शायद वह उनके गले में एक प्रकार का घाव मात्र है । रविवार, १६ अगस्त । अनेक भक्त उनके दर्शन के लिए आये हैं - गिरीश, राम, नित्यगोपाल, महिमा चक्रवर्ती, किशोरी (गुप्त), पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि आदि ।

श्रीरामकृष्ण पहले जैसे ही आनन्दमय हैं तथा भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - रोग की बात माँ से कह नहीं सकता, कहने में लाज लगती है ।

गिरीश - मेरे नारायण अच्छा करेंगे ।

राम - ठीक हो जायेगा ।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - हाँ यही आशीर्वाद दो । (सभी की हँसी)

गिरीश आजकल नये नये आ रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उनसे कह रहे हैं, “तुम्हें अनेक झमेलों में रहना होता है, तुम्हें अनेक काम रहते हैं । तुम और तीन बार आओ ।" अब शशधर के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (शशधर के प्रति) - तुम शक्ति की बात कुछ कहो ।

शशधर - मैं क्या जानता हूँ ?

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - एक आदमी एक व्यक्ति की बहुत भक्ति करता था । उसने उस भक्त से तम्बाकू भर लाने के लिए कहा । इस पर भक्त ने विनम्रतापूर्वक कहा, 'क्या मैं आपकी आग लाने के योग्य हूँ?' फिर आग भी नहीं लाया ! (सभी हँसे)

शशधर - जी, वे ही निमित्त कारण हैं, वे ही उपादान कारण हैं । उन्होंने ही जीव और जगत् को पैदा किया, और फिर वे ही जीव तथा जगत् बने हुए हैं, जैसे मकड़ी ने स्वयं जाला तैयार किया (निमित्त-कारण) और उस जाले को अपने ही अन्दर से निकाला (उपादान-कारण)

श्रीरामकृष्ण - फिर यह भी है कि जो पुरुष हैं, वे ही प्रकृति हैं; जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं । जिस समय निष्क्रिय हैं, सृष्टि, स्थिति, प्रलय नहीं कर रहे हैं, उस समय उन्हें हम ब्रह्म कहते हैं, पुरुष कहते हैं । और जब वे उन सब कामों को करते हैं, उस समय उन्हें शक्ति कहते हैं, प्रकृति कहते हैं । परन्तु जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं । जो पुरुष हैं, वे ही प्रकृति बने हुए हैं ।जल स्थिर रहने पर भी जल है और हिलने पर भी जल है साँप टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलने पर भी साँप है और फिर चुपचाप कुण्डलाकार रहने पर भी साँप है ।

[(16 अगस्त,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119 ]

🔱🙏*भोग और कर्म*🔱🙏

"ब्रह्म क्या है ? यह मुख से नहीं कहा जा सकता, मुख बन्द हो जाता है । कीर्तनिया लोग कीर्तन के प्रारम्भ में गाते हैं, ‘मेरे निताई मतवाले हाथी जैसा नृत्य करते है' गाते -गाते जब वे भावविभोर हो जाते हैं, तब कीर्तनीये पूरे वाक्य का उच्चारण भी नहीं कर पाते;  केवल कहते हैं 'हाथी-हाथी।' फिर 'हाथी-हाथी' कहते कहते केवल 'हा-हा' कहते हैं, और अन्त में वह भी नहीं कह सकते - बिल्कुल बाह्यज्ञान शून्य हो जाते हैं।"

ऐसा कहते कहते श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । खड़े-खड़े ही समाधिमग्न ! समाधि-भंग होने के थोड़ी देर बाद कह रहे हैं – “ 'क्षर' व 'अक्षर' से परे क्या है मुँह से कहा नहीं जाता ।"

सभी चुप हैं; श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, "जब तक कुछ भोग बाकी रहता है या कर्म बाकी है तब तक समाधि नहीं होती ।

(शशधर के प्रति) "इस समय ईश्वर तुमसे कर्म करा रहे हैं, व्याख्यान देना आदि । अब तुम्हें वही सब करना होगा ।" कर्म समाप्त हो जाने पर ही तुम्हे शान्ति प्राप्त होगी । घरवाली घर का काम-काज समाप्त करके जब नहाने जाती है तो फिर बुलाने पर भी नहीं लौटती ।”

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[100 नंबर काशीपुर रोड निवासी 'महिमाचरण जी' जिनके मकान में नवनीदा का जन्म हुआ था उनका मनोभाव यह है कि 'श्रीरामकृष्ण माँ काली के अवतार नहीं केवल एक साधु या भक्त हैं। अर्थात महिमाचरण जी को ठाकुर द्वारा कथित -" कुँवरसिंह कहता था, 'समाधि के बाद लौटा हुआ आदमी कभी मैंने नहीं देखा - तुम नानक हो " का मर्म समझ में नहीं  आया। इसीलिए उन्होंने ठाकुर देव से कहा "आपके पिछले जन्मों में आपके पुण्य कार्यों के कारण ये चीजें आपके साथ हुई हैं।"  जैसे महामण्डल के कुछ पुराने लोग भी नवनीदा के कथन "पूर्वजन्म में वे कैप्टन सेवियर थे" के मर्म को नहीं समझने के कारण -उन्हें पैगम्बर ,ईश्वरकोटि या समाधि से लौटने में समर्थ नेता नहीं, सिर्फ एक ब्राह्मण महापुरुष या भक्त समझते है ???]

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