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बुधवार, 7 जून 2023

$🔱🙏परिच्छेद~120 [ ( 27 अगस्त 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-120] 🔱🙏'गुरो, चैतन्यं देहि'🔱🙏

 *परिच्छेद- १२०*

दक्षिणेश्वर मन्दिर में*

 [ ( 27 अगस्त 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-120] (१)

*पण्डित श्यामपद पर कृपा*

श्रीरामकृष्ण दो-एक भक्तों के साथ कमरे में बैठे हुए हैं । शाम के पाँच बजे का समय है । श्रावण कृष्णा द्वितीया, २७ अगस्त १८८५ । 

श्रीरामकृष्ण की बीमारी का सूत्रपात्र हो चुका है । फिर भी भक्तों के आने पर वे शरीर पर ध्यान नहीं देते, उनके साथ दिन भर बातचीत करते रहते हैं, - कभी गाना गाते हैं ।

श्रीयुत मधु डाक्टर प्रायः नाव पर चढ़कर आया करते हैं - श्रीरामकृष्ण की चिकित्सा के लिए । भक्तगण बहुत ही चिन्तित हो रहे हैं, उनकी इच्छा है, मधु डाक्टर रोज देख जाया करें । मास्टर श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं, ‘ये अनुभवी हैं, ये अगर रोज देखें तो अच्छा हो ।’

पण्डित श्यामापद भट्टाचार्य ने आकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन किये । ये आँटपुर मौजे में रहते हैं । सन्ध्या हो गयी, अतएव ‘सन्ध्या कर लूँ’ कहकर पण्डित श्यामापदजी गंगा की ओर - चाँदनीघाट चले गये । सन्ध्या करते करते पण्डितजी को एक बड़ा अद्भुत दर्शन हुआ ।

 सन्ध्या समाप्त कर वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण माता का नाम-स्मरण समाप्त करके तखत पर बैठे हुए हैं । पाँवपोश पर मास्टर बैठे हैं, राखाल और लाटू आदि कमरे में आ-जा रहे हैं ।


श्रीरामकृष्ण – (मास्टर से, पण्डितजी को इशारे से बताकर) - ये बड़े अच्छे आदमी हैं । (पण्डितजी से) 'नेति नेति' करके जहाँ मन को विराम मिलता है, वहीं वे हैं ।

“राजा सात ड्योढ़ियों के पार रहते हैं । पहली ड्योढ़ी में किसी ने जाकर देखा, एक धनी मनुष्य बहुत से आदमियों को लेकर बैठा हुआ है, बड़े ठाट-बाट से । राजा को देखने के लिए जो मनुष्य गया हुआ था, उसने अपने साथवाले से पूछा, ‘क्या राजा यही है ?’ साथवाले ने जरा मुस्कराकर कहा, ‘नहीं’ ।

“दूसरी ड्योढ़ी तथा अन्य ड्योढ़ियों में भी उसने इसी तरह कहा । वह जितना ही बढ़ता था, उसे उतना ही ऐश्वर्य दीख पड़ता था, उतनी ही तड़क-भड़क । जब वह सातों ड्योढ़ियों को पार कर गया तब उसने अपने साथवाले से फिर नहीं पूछा, राजा के अतुल ऐश्वर्य को देखकर अवाक् होकर खड़ा रह गया - समझ गया राजा यही है, इसमें कोई सन्देह नहीं ।”

पण्डितजी - माया के राज्य [मन की चहारदीवारी] को पार कर जाने से उनके दर्शन होते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - उनके दर्शन हो जाने के बाद दिखता है कि यह माया और जीव-जगत् वे ही हुए हैं । यह संसार 'धोखे की टट्टी' है - स्वप्नवत् है । यह बोध तभी होता है जब साधक 'नेति नेति' का विचार करता है । उनके दर्शन हो जाने पर यही संसार 'मौज की कुटिया' हो जाता है  

श्रीरामकृष्ण - “केवल शास्त्रों के पाठ से क्या होगा ? पण्डित लोग सिर्फ विचार किया करते हैं ।”

पण्डितजी - जब मुझे कोई 'पण्डित' कहता है, तो घृणा होती है ।

श्रीरामकृष्ण - यह उनकी कृपा है । पण्डित लोग केवल तर्क-वितर्क में लगे रहते हैं । परन्तु किसी ने दूध का नाम मात्र सुना है और किसी ने दूध देखा है । दर्शन हो जाने पर सब को नारायण देखोगे - देखोगे, नारायण ही सब कुछ हुए हैं ।

पण्डितजी नारायण का स्तव सुना रहे हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्द में मग्न हैं ।

पण्डितजी - सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्रसमदर्शनः ॥

[।।6.29।। योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी, आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।। ]

श्रीरामकृष्ण - आपने अध्यात्म-रामायण देखी है ?

पण्डितजी - जी हाँ, कुछ-कुछ देखी है ।

श्रीरामकृष्ण - ज्ञान और भक्ति से वह पूर्ण है । 'शबरी' का उपाख्यान, 'अहिल्या' की स्तुति, सब भक्ति से पूर्ण हैं ।

“परन्तु एक बात है । वे विषय-बुद्धि से बहुत दूर हैं ।”

पण्डितजी - जहाँ विषय बुद्धि है, वे वहाँ से 'सुदूरम्' हैं । और जहाँ वह बात नहीं है, वहाँ वे 'अदूरम्' हैं । उत्तरपाड़ा के एक जमींदार मुखर्जी को मैने देखा, उम्र पूरी हो गयी है और वह बैठा हुआ उपन्यास सुन रहा था ।

श्रीरामकृष्ण - अध्यात्म रामायण में एक बात और लिखी हुई है, वह यह कि जीव-जगत् वे ही हुए हैं ।

पण्डितजी आनन्दित होकर, यमलार्जुन के द्वारा की गयी इसी भाव की स्तुति की आवृत्ति कर रहे हैं, श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध से (श्लोक 10.10.29-31 )--

कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्यः पुरुषः परः।

व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मण विदुः।। 

त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः।

त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः।।30।।

त्वं महान्प्रकृतिः साक्षाद्रजः सत्त्वतमोमयी। 

त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविचारवित्।।31।। 

सम्पूर्ण स्तुति सुनकर श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । खड़े हुए हैं । पण्डितजी बैठे हैं । पण्डितजी की गोद और छाती पर एक पैर रखकर श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।

पण्डितजी चरण धारण करके कह रहे हैं, ‘गुरो, चैतन्यं देहि ।’ श्रीरामकृष्ण छोटे तखत के पास पूर्वास्य खड़े हुए हैं ।

कमरे से पंडितजी के चले जाने पर श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, “मैं जो कुछ कहता हूँ, वह पूरा उतर रहा है न ? जो लोग अन्तर से उन्हें पुकारेंगे, उन्हें यहाँ आना होगा।”

रात के दस बजे सूजी की थोड़ीसी खीर खाकर श्रीरामकृष्ण ने शयन किया । मणि से कहा, ‘पैरों में जरा हाथ तो फेर दो ।’

कुछ देर बाद उन्होंने देह और छाती में भी हाथ फेर देने के लिए कहा ।

एक झपकी के बाद उन्होंने मणि से कहा, ‘तुम आओ – सोओ । देखूँ, अगर अकेले में आँख लगे ।’ फिर रामलाल से कहा, 'कमरे के भीतर ये (मणि) और राखाल चाहे तो सो सकते हैं

(२)

[शुक्रवार, 28 अगस्त, 1885-श्री रामकृष्ण वचनामृत-120] 

*श्रीरामकृष्ण तथा ईशू *

सबेरा हुआ । श्रीरामकृष्ण उठकर 'काली माता' का स्मरण कर रहे हैं । शरीर अस्वस्थ रहने के कारण भक्तों को वह मधुर नाम सुनायी न पड़ा । प्रातःकृत्य समाप्त करके श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे । श्री रामकृष्ण मणि से पूछ रहे हैं, ‘अच्छा, रोग क्यों हुआ ?’

मणि - जी, साधारण मनुष्यों की तरह अगर आपकी भी सब बातें न होंगी तो जीवों में आपके निकट आने का साहस फिर कैसे होगा ? वे देखते हैं, इस देह में इतनी बीमारी है, फिर भी आप ईश्वर को छोड़ और कुछ भी नहीं जानते ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - बलराम ने भी कहा, ‘आप ही को अगर यह है तो हमें फिर क्यों नहीं होगा ?’ सीता के शोक से जब राम धनुष्य न उठा सके तब लक्ष्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ । परन्तु "पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी आँसू बहाना पड़ता है ।”

मणि - भक्तों का दुःख देखकर ईशू भी साधारण मनुष्यों की तरह रोये थे ।

श्रीरामकृष्ण - क्या हुआ था ?

मणि - जी, मार्था और मेरी दो बहनें थीं । उनके एक भाई थे – लैजेरसये तीनों ईशू के भक्त थे। लैजेरस का देहान्त हो गया । ईशू उनके घर जा रहे थे । रास्ते में एक बहन, मेरी, दौड़ी हुई गयी और उनके पैरों पर गिरकर रोने लगी और कहा, ‘प्रभो, तुम अगर आ जाते तो वह न मरता ।’ उसका रोना देखकर ईशू भी रोये थे ।

“फिर ईशु लेजारस की कब्र के पास जाकर उसका नाम ले-लेकर पुकारने लगे, उठो लैजेरस !  लैजेरस तुरन्त जी उठा और कब्र में से निकलकर उनके पास आ गया ।”

श्रीरामकृष्ण - मैं ये सब बातें नहीं कर सकता ।

मणि - आप खुद नहीं करते, क्योंकि आपकी इच्छा नहीं होती । ये सब सिद्धियाँ हैं, इसीलिए आप नहीं करते । उनका प्रयोग करने पर आदमी का मन देह की ओर चला जाता है, शुद्धा भक्ति की ओर नहीं । इसीलिए आप नहीं करते । 

“आपके साथ ईशू का बहुत कुछ मेल होता है ।”

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - और क्या क्या मिलता है ?

मणि - आप भक्तों से न तो व्रत करने के लिए कहते हैं, न किसी दूसरी कठोर साधना के लिए । खाने-पीने के लिए भी कोई कठोर नियम नहीं है । ईशू के शिष्यों ने रविवार (विश्राम दिवस-Sabbath) को नियमानुकूल उपवास नहीं किया, इसलिए जो  लोग  शास्त्र मानकर चलते थे(Pharisees), उन लोगों ने उनका तिरस्कार किया । ईशू ने कहा, ‘वे लोग खायेंगे और खूब खायेंगे । जब तक वर के साथ हैं तब तक तो बाराती लोग आनन्द करेंगे ही ।’

श्रीरामकृष्ण - इसका क्या अर्थ है ?

मणि - अर्थात् जब तक अवतारी पुरुष के साथ हैं तब तक अन्तरंग शिष्य सब आनन्द में ही रहेंगे। - क्यों वे निरानन्द का भाव लायें ? जब वे निजधाम चले जायेंगे , तब उनके (अन्तरंग शिष्यों के) निरानन्द के दिन आयेंगे ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - और भी कुछ मिलता है ?

मणि - जी, आप जिस तरह कहते हैं, ‘लड़कों में कामिनी और कांचन का प्रवेश नहीं हुआ; वे उपदेशों की धारणा कर सकेंगे, - जैसे नयी हण्डी में दूध रखना; दही जमायी हण्डी में रखने से दूध बिगड़ सकता हैं’; ईशू भी इसी तरह कहते थे ।

श्रीरामकृष्ण - क्या कहते थे ?

मणि – ‘पुरानी बोतल में शराब रखने से बोतल फूट सकती है । पुराने कपड़े में नया पेवन लगाने पर कपड़ा जल्दी फट जाता है ।’

“आप जैसा कहते हैं, ‘माँ और आप एक है’, उसी तरह वे भी कहते थे, ‘पिता और मैं एक हूँ’ ।”

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - और कुछ ?

मणि - आप जैसा कहते हैं, ‘व्याकुल होकर पुकारने से वे सुनेंगे ।’ वे भी कहते थे, 'व्याकुल होकर द्वार पर धक्का मारो, द्वार खुल जायेगा ।’

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, यदि ईश्वर फिर अवतार के रूप में प्रकट हुए हैं तो वे पूर्ण रूप में हैं, अथवा अंश रूप में अथवा कला रूप में ?

मणि - जी, मैं तो पूर्ण, अंश और कला, यह अच्छी तरह समझता ही नहीं, परन्तु जैसा आपने कहा था, चारदीवार में एक गोल छेद, यह खूब समझ गया हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - क्या, बताओ तो जरा ?

मणि - चारदीवार के भीतर एक गोल छेद है । उस छेद से चारदीवार के उस तरफ के मैदान का कुछ अंश दीख पड़ता है । उसी तरह आप के भीतर से उस अनन्त ईश्वर का कुछ अंश दीख पड़ता है ।

श्रीरामकृष्ण- हाँ, दो-तीन कोस तक बराबर दीख पड़ता है ।

चाँदनी घाट में गंगास्नान कर मणि फिर श्रीरामकृष्ण के पास आये । दिन के आठ बजे होंगे । मणि लाटू से श्रीजगन्नाथजी के सीत (भात) माँग रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण मणि के पास आकर कह रहे हैं – ‘इसका (भात -प्रसाद खाने का) नियमपूर्वक पालन करते रहना । जो लोग भक्त हैं, प्रसाद बिना पाये वे कुछ खा नहीं सकते ।’

मणि- मैं बलरामबाबू के यहाँ से सीत ले आया हूँ, कल से रोज दो-एक सीत पा लिया करता हूँ ।

मणि भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर रहे हैं । फिर बिदा होने लगे । श्रीरामकृष्ण सस्नेह कह रहे हैं – ‘तुम कुछ सबेरे आ जाया करो, भादों की धूप बड़ी खराब होती है ।’

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[यमलार्जुन मोक्ष *बचपन में एक बार भगवान् श्री कृष्ण को यशोदा जी ने ऊखल में बाँध दिया और आप अन्य कार्य में लग गयीं। उसी स्थान पर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्द अर्जुन के दो वृक्ष एक दूसरे के अत्यंत समीप खड़े थे। भगवान ने उनके बीच में प्रवेश किया, किन्तु वह ओखली आड़ी पड़ गयी, उस समय उन्होंने जो जोर किया, तो पेंड़ उखड़ गए;  और दो दिव्य पुरुष प्रकट हुए। वृक्षयोनि में जन्म लेने से पूर्व, ये कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव थे।  अत्यधिक दौलतमन्द होने के कारण ये मदान्ध हो गये थे। एक बार उन्हें नग्न होकर जलक्रीड़ा करते देख नारद जी ने उनको उपकार करने के लिए वृक्षयोनि भोगने का शाप दिया।  फिर जब उन्होंने बहुत अनुनय-विनय की तो उन पर दया करके वह वर दिया कि श्रीकृष्ण भगवान की समीपता पाकर तुम फिर देवयोनि को प्राप्त होगे। यमलार्जुन के उखड़ने पर वे नलकूबर और मणिग्रीव भगवान के समीप आये और नतमस्तक से प्रणाम करके हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे- श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध से (श्लोक 10.10.29-31 )--

कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्यः पुरुषः परः।

व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मण विदुः।। 

अनुवाद - हे कृष्ण, हे कृष्ण ! आपकी योगशक्ति अचिन्त्य है। आप सर्वोच्च आदि-पुरुष हैं, आप समस्त कारणों के कारण हैं, आप पास रह कर भी दूर हैं और इस भौतिक सृष्टि से परे हैं। विद्वान ब्राह्मण जानते हैं (सर्वं खल्विदं ब्रह्म—इस महवाक्य के आधार पर) कि आप सर्वेसर्वा हैं और यह विराट विश्व अपने स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों में आपका ही स्वरूप है।

 नलकूवर तथा मणिग्रीव नामक दोनों देवता अपनी निरन्तर स्मृति के कारण नारद की कृपा से कृष्ण की श्रेष्ठता को समझ सके। अब उन्होंने स्वीकार किया, “यह आपकी योजना थी कि नारदमुनि के आशीर्वाद से हमारा उद्धार हो। अत: आप परम योगी हैं। आप भूत, वर्तमान तथा भविष्य—सबके जानने वाले हैं। आपने ऐसी सुन्दर योजना बनाई थी कि यद्यपि हम यहाँ पर जुड़वाँ अर्जुन वृक्ष के रूप में खड़े रहे किन्तु हमारे उद्धार के लिए छोटे बालक के रूप में आप प्रकट हुए हैं। यह आपकी ही अचिन्त्य योजना थी। आप परम पुरुष होने के कारण कुछ भी कर सकते हैं।”

हे कृष्ण! (आप निपट गोपाल नहीं हैं।) आपका स्वभाव अचिन्त्य है। आप परम पुरुष हैं क्योंकि आप सबके कारण (आद्य) हैं। (केवल निमित्त कारण ही नहीं किन्तु आप उपादान कारण भी हैं) क्योंकि स्थूल-सूक्ष्मरूप यह जगत् आपका ही स्वरूप है, ऐसा ब्रह्मज्ञानी जानते हैं।।29।।

त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः।

त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः।।30।।

आप हर वस्तु के नियन्ता भगवान् हैं। आप ही हर जीव का शरीर, प्राण, अहंकार तथा इन्द्रियाँ हैं। आप काल, परम पुरुष,अक्षय नियन्ता विष्णु हैं। 

(आप जगत् के नियन्ता भी हैं क्योंकि) आप सकल जीवों के देह, प्राण, अहंकार और इन्द्रियों के (अंतर्यामीरूप से) ईश्वर हैं। (शंका होती है कि इस संसार का निमित्त कारण यदि 'काल ' है, तथा प्रकृति जगत का उपादान कारण है और प्रकृति से उत्पन्न हुआ महत् ही जगत् के आकार में परिणत होता है तो कर्ता तथा नियन्ता पुरुष ही सिद्ध होता है। इसका समाधान डेढ़ श्लोक से करते हैं, आप तो अविकारी हैं और पुरुष आपका अंश है, महत से तृणपर्यन्त सब कार्य ही हैं, इस कारण) हे भगवान! आप ही काल हैं। (काल ही आपकी लीला है) आप ही विष्णु हैं और आप ही ह्रास और वृद्धि से शून्य (अव्यय) ईश्वर हैं।।30।।

त्वं महान्प्रकृतिः साक्षाद्रजः सत्त्वतमोमयी। 

त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविचारवित्।।31।। 

आप तात्कालिक कारण और तीन गुणों—सतो, रजो तथा तमो गुणों—वाली भौतिक प्रकृति हैं। आप इस भौतिक जगत के आदि कारण हैं। आप परमात्मा हैं। अतएव आप हर एक जीव के हृदय की बात को जानने वाले हैं।

रजः- सत्त्व तमोगुणमयी प्रकृति (शक्ति) आप ही हैं; (यह ऊपर कहा गया है कि प्रकृति के क्षोभक काल भी आप ही हैं) प्रकृति का कार्य महत भी आप ही हैं; प्रकृति के प्रवर्तक पुरुष भी आप ही हैं, क्योंकि वह भी आपका ही अंश है। सबके साक्षी भी आप ही हैं। अर्थात् देह, इंद्रिय, अंतःकरण के रोग, राग, प्रीति आदि विकारों को जानने वाले आप ही हैं।।31।।] 

[पंडित श्यामापद भट्टाचार्य 'न्याय-वागीश' (Pandit Shyamapada Bhattacharya Nyayabagish) - वे श्री रामकृष्ण की कृपा से धन्यता को प्राप्त एक भक्त थे । हुगली जिले के 'आंटपुर' में उनका पैतृक निवास स्थान था। ठाकुर देव इस आडम्बरहीन (unassuming या सरल) विद्वान (scholar-पण्डित) से विशेष स्नेह करते थे । 27 अगस्त, 1885 को दक्षिणेश्वर में श्यामापद भट्टाचार्य द्वारा नारायण स्तव, गीता के आत्मसुधार का वैज्ञानिक सूत्र और श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध से यमलार्जुन मोक्ष पाठ सुनकर ठाकुर देव समाधि में चले गए थे। और उसी समाधि के आवेश में उन्होंने पण्डित श्यामापद की छाती पर अपने श्रीचरण को रखकर उनपर विशेष कृपा की थी। ]

'He' (Pandit Shyamapada Bhattacharya Nyayabagish) returned to the Master's room and sat on the floor. Sri Ramakrishna had just finished meditation and the chanting of the holy names. He was sitting on the small couch and M. on the foot-rug. Rakhal, Latu, and the others were in and out of the room.

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मंगलवार, 30 मई 2023

$🔱🙏परिच्छेद~119 [ ( 9-10-11-16 अगस्त 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 🔱🙏चैतन्य प्राप्त करके संसार में रहो 🙏"कुण्डलिनी के जागृत हुए बिना चैतन्य नहीं होता । 🙏काटने ही के लिए मना किया था, फुफकारने के लिए नहीं 🙏उत्तर-पश्चिम दिशा में एक बार और (मुझे) देह धारण करना होगा 🙏हृदय से जो ईश्वर को पुकारेगा, उसे यहाँ आना होगा

 परिच्छेद- ११९.

*श्रीरामकृष्ण के आध्यात्मिक अनुभव*

(१)

[ ( 9 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏द्विज तथा द्विज के पिताजी । मातृऋण तथा पितृऋण🔱🙏

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में अपने उसी कमरे में राखाल, मास्टर आदि भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के ३-४ बजे का समय होगा ।

श्रीरामकृष्ण के गले की बीमारी की जड़ जमने लगी है । तथापि दिन भर वे भक्तों की मंगलकामना करते रहते हैं । किस तरह वे संसार में बद्ध न हो, किस तरह उनमें ज्ञान और भक्ति हों - ईश्वर की प्राप्ति हो, इसी की चिन्ता किया करते हैं । 

श्रीयुत राखाल वृन्दावन से आकर कुछ दिन घर पर थे । आजकल वे श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं । लाटू, हरीश और रामलाल भी श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं ।

श्रीमाताजी (श्रीरामकृष्ण की धर्मपत्नी) भी कई महीने हुए श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए देश से आयी हुई हैं । नौबतखाने में रहती हैं । शोकातुरा ब्राह्मणी कई रोज से उनके पास रहती है

द्विज की उम्र सोलह साल की होगी । उनकी माता के निधन के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया है । द्विज मास्टर के साथ प्राय: श्रीरामकृष्ण के पास आया करते हैं । परन्तु उनके पिता को इससे बड़ा असन्तोष है ।

श्रीरामकृष्ण के पास द्विज, द्विज के पिता और भाई, मास्टर आदि बैठे हुए हैं । आज ९ अगस्त है, १८८५ ।

द्विज के पिता श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए आयेंगे, यह बात उन्होंने बहुत दिन पहले ही कही थी। आज इसीलिए आये भी हैं । वे कलकत्ते के किसी विदेशी बनिये के ऑफिस के मैनेजर हैं ।

श्रीरामकृष्ण (द्विज के पिता से) - आपका लड़का यहाँ आता है, इससे आप कुछ और न सोचियेगा। 

"मैं तो कहता हूँ, चैतन्य प्राप्त करके संसार में रहो । बड़ी मेहनत के बाद अगर कोई सोना पा ले, तो वह उसे चाहे मिट्टी में गाड़ रखे, सन्दूक में बन्द कर रखे, अथवा पानी में रखे, सोने का इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं ।

"मैं कहता हूँ, अनासक्त होकर संसार करो । हाथों में तेल लगाकर कटहल काटो, तो हाथ में दूध न चिपकेगा ।

"कच्चे 'मैं' को संसार में रखने पर मन मलिन हो जाता है । ज्ञानलाभ करके संसार में रहना चाहिए।

"पानी में दूध को डाल रखने पर दूध नष्ट हो जाता है । परन्तु उसी का मक्खन निकालकर पानी में डालने पर फिर कोई झंझट नहीं रह जाती ।"

द्विज के पिता - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - आप जो इन्हें डाँटते हैं, इसका मतलब मैं समझता हूँ । आप इन्हें डरवाते हैं । ब्रह्मचारी ने साँप से कहा, 'तू तो बड़ा मूर्ख है ! मैंने तुझे बस काटने ही के लिए मना किया था, फुफकारने के लिए नहीं । तूने अगर फुफकारा होता तो तेरे शत्रु तुझे मार न सकते ।' इसी तरह आप जो लड़कों को डाँटते हैं, वह केवल फुफकारना ही है । (द्विज के पिता हँस रहे हैं)

 "लड़के का अच्छा होना  पिता के पुण्य के लक्षण हैं । अगर कुएँ का पानी अच्छा निकला तो वह कुएँ के मालिक के पुण्य का चिह्न है ।

"बच्चे को आत्मज कहते हैं, तुममें और बच्चे में कोई भेद नहीं है। एक रूप से बच्चा तुम ही हुए हो। एक रूप से तुम विषयी हो, ऑफिस का काम करते हो, संसार का भोग करते हो, एक दूसरे रूप से तुम्हीं भक्त हुए हो - अपने सन्तान के रूप से। मैंने सुना था , तुम घोर विषयी हो। परन्तु बात ऐसी तो नहीं है। (सहास्य) यह सब तो तुम जानते ही हो। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि शायद तुम बहुत अधिक सतर्क हो, इसीलिए मैं जो कुछ कहता हूँ, उस पर तुम सिर हिला-हिलाकर अपनी राय देते हो। (द्विज के पिता मुसकराते हैं)  

" यहाँ आने पर तुम क्या हो, यह ये लोग समझ सकेंगे। पिता का स्थान कितना ऊँचा है ! माता-पिता को धोखा देकर जो धर्म करना चाहता है उसे क्या खाक हो सकता है ? 

आदमी के बहुत से ऋण हैं , पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण ; इसके अतिरिक्त मातृऋण भी है। फिर स्त्री के ऋण का भी उल्लेख है - इसे भी मानना चाहिये। अगर वह सती है तो पति को अपनी मृत्यु के बाद उसके भरण-पोषण के लिए व्यवस्था कर जानी चाहिए। 

" मैं अपनी माँ के कारण वृन्दावन में न रह सका। ज्योंही याद आया कि माँ दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर में है, फिर वृन्दावन में मन न लगा।     

"मैं इन लोगों से कहता हूँ, संसार भी करो और ईश्वर में भी मन रखो। संसार छोड़ने के लिए मैं नहीं कहता, यह करो और वह भी करो। "     

पिता -मैं उससे यही कहता हूँ कि वह लिखना पढ़ना भी करे, आपके यहाँ आने से मैं मनाही तो नहीं करता। परन्तु लड़कों के साथ हँसी -मजाक में समय नष्ट न किया करे - 

श्रीरामकृष्ण -इसमें अवश्य ही संस्कार था। इसके दूसरे भाइयों में वह बात न होकर इसी में यह क्यों पैदा हुई ? " जबरदस्ती क्या तुम मना कर सकोगे ? जिसमें जो कुछ है , वह होकर ही रहेगा। "

पिता -हाँ , यह तो है। 

श्री रामकृष्ण द्विज के पिता पास चटाई पर आकर बैठे। बातचीत करते हुए एक बार उनकी देह पर हाथ लगा रहे हैं। 

सन्ध्या हो आयी। श्रीरामकृष्ण मास्टर आदि से कह रहे हैं , ' इन्हें सब देवता दिखा ले आओ- अच्छा रहता तो मैं भी साथ चलता। '

 लड़कों को सन्देश देने के लिए कहा। द्विज के पिता से कह रहे हैं - ' ये कुछ जलपान करेंगे, कुछ जलपान करना चाहिए। ' द्विज के पिता देवालय देखकर बगीचे में जरा टहल रहे हैं।

 श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में भूपेन , द्विज और मास्टर आदि के साथ आनंद-पूर्वक वार्तालाप कर रहे हैं। कौतुक करते हुए भूपेन और मास्टर की पीठ में मीठी चपत मार रहे हैं। द्विज से हँसते हुए कह रहे हैं , 'कैसा कहा मैंने तेरे बाप से ? " 

सन्ध्या के बाद द्विज के पिता श्रीरामकृष्ण के कमरे में फिर आये। कुछ देर में विदा होने वाले हैं। द्विज के पिता को गर्मी लग रही है। श्रीरामकृष्ण अपने हाथों से पंखा झल रहे हैं। द्विज के पिता बिदा हुए। श्रीरामकृष्ण उठकर खड़े हो गए।   

(२)

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

*समाधि के प्रकार*

रात के आठ बजे हैं । श्रीरामकृष्ण महिमाचरण से बातचीत कर रहे हैं । कमरे में राखाल, मास्टर और महिमाचरण के दो-एक मित्र बैठे हैं । महिमाचरण (जिनके घर में नवनी दा का जन्म हुआ था) आज रात को यहीं रहेंगे

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, केदार को कैसा देख रहे हो ? - उसने दूध देखा ही है या पिया भी है ?

महिमा - हाँ, वे परमानन्द का आनंद ले रहे हैं ।" (आनन्द पा रहे हैं ।)

श्रीरामकृष्ण - और नृत्यगोपाल ?

महिमा - सुन्दर अच्छी अवस्था है, वह मन की उच्चावस्था में है।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, अच्छा गिरीश घोष कैसा हुआ है ?

महिमा - अच्छा हुआ है, परन्तु लड़कों का दर्जा और है ।

श्रीरामकृष्ण - और नरेन्द्र ?

महिमा - मैं पन्द्रह साल पहले जैसा था, यह वैसा ही है ।

श्रीरामकृष्ण - और छोटा नरेन्द्र ? कैसा सरल है !

महिमा - जी हाँ, खूब सरल है । 

श्रीरामकृष्ण - तुमने ठीक कहा है । (सोचते हुए) और कौन है ?

"जो सब लड़के यहाँ आ रहे हैं, उन्हें बस दो बातों को जानने से ही हुआ ऐसा होने से फिर अधिक साधन-भजन न करना होगा । पहली बात - मैं कौन हूँ, दूसरी - वे कौन हैं । इन लड़कों में बहुतेरे अन्तरंग हैं । 

"जो अन्तरंग हैं, उनकी मुक्ति न होगी । वायव्य दिशा में (उत्तर-पश्चिम दिशा में) एक बार और (मुझे) देह धारण करना होगा ।

"बच्चों को देखकर मेरे प्राण शीतल हो जाते हैं । और जो लोग बच्चे पैदा कर रहे हैं, मुकदमा और मामलेबाजी कर रहे हैं, उन्हें देखकर कैसे आनन्द हो सकता है ? शुद्ध आत्मा को बिना देखे रहूँ कैसे ?"

महिमाचरण शास्त्रों से श्लोकों की आवृत्ति करके सुना रहे हैं, और तन्त्रों से भूचरी, खेचरी और शाम्भवी, कितनी ही मुद्राओं की बातें कह रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, समाधि के बाद मेरी आत्मा महाकाश में पक्षी की तरह उड़ती हुई घूमती है, ऐसी बात कोई कोई कहते हैं ।

"हृषीकेश का साधु आया था । उसने कहा, 'समाधियाँ पाँच प्रकार की होती हैं, - देखता हूँ तुम्हें तो सभी समाधियाँ होती हैं । पिपीलिकावत् (ant), मीनवत् (fish), कपिवत् (monkey), पक्षीवत् (bird), तिर्यग्वत् ( serpent)।’

“कभी वायु चढ़कर चींटी की तरह सुरसुराया करती है ।  कभी समाधि-अवस्था में भाव समुद्र के भीतर आत्मारूपी मीन आनन्द से क्रीड़ा करता है ।

“कभी करवट बदलकर पड़ा हुआ है, देखा, महावायु बन्दर की तरह मुझे ठेलकर आनन्द करती है । मैं चुपचाप पड़ा रहता हूँ । वही वायु एकाएक बन्दर की तरह उछलकर सहस्त्रार में चढ़ जाती है । इसीलिए तो मैं उछलकर खड़ा हो जाता हूँ ।

"फिर कभी पक्षी की तरह इस डाल से उस डाल पर, उस डाल से इस डाल पर महावायु चढ़ती रहती है । जिस डाल पर बैठती है वह स्थान आग की तरह जान पड़ता है । कभी मूलाधार से स्वाधिष्ठान, स्वाधिष्ठान से हृदय, और इस तरह क्रमश: सिर में चढ़ती है ।

"कभी महावायु की तिर्यक्-गति होती है - टेढ़ी-मेढ़ी चाल । उसी तरह चलकर अन्त में जब सिर में आती है तब समाधि होती है ।

"कुण्डलिनी के जागृत हुए बिना चैतन्य नहीं होता ।

"कुण्डलिनी मूलाधार में रहती है । चैतन्य होने पर वह सुषुम्ना नाड़ी के भीतर से स्वाधिष्ठान, मणिपुर, इन सब का भेद करके अन्त में मस्तक में पहुँचती है, इसे ही महावायु की गति कहते हैं। अन्त में समाधि होती है ।

"केवल पुस्तक पढ़ने से चैतन्य नहीं होता । उन्हें पुकारना चाहिए । व्याकुल होने पर  कुलकुण्डलिनी जागृत होती है सुनकर या किताबें पढ़कर जो ज्ञान होता है उससे क्या होगा ?

"जब यह अवस्था हुई, उससे ठीक पहले मुझे दिखलाया गया । किस तरह कुलकुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने पर क्रमशः सब पद्म खिलने लगे, और फिर समाधि हुई । यही बड़ी गुप्त बात है । मैंने देखा बिलकुल मेरी तरह का २२-२३ साल का एक युवक सुषुम्ना नाड़ी के भीतर जाकर, जिव्हा के द्वारा योनिरूप पद्मों के साथ रमण कर रहा है । पहले गुह्य, लिंग और नाभि - चतुर्दल, षड्दल और दशदल पद्म, पहले ये सब अधोमुख थे, फिर वे ऊर्ध्वमुख हो गये

“जब वह हृदय में आया, मुझे खूब याद है, जीभ से रमण करने के बाद द्वादशलदल अधोमुख पद्म ऊर्ध्वमुख होकर खिल गया, फिर कण्ठ में षोड़षदल और कपाल में द्विदल पद्म के खुलने के बाद सिर में सहस्रदल पद्म प्रस्फुटित हो गया । तभी से मेरी यह अवस्था है ।"

*(३)

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

*श्रीरामकृष्ण के आध्यात्मिक अनुभव*   

श्रीरामकृष्ण यह बात (कुलकुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने की बात) कहते हुए उतरकर महिमाचरण के पास जमीन पर बैठे । पास मास्टर हैं, तथा दो-एक भक्त और । कमरे में राखाल भी हैं ।

श्रीरामकृष्ण (महिमा से) - आपसे कहने की इच्छा बहुत दिनों से थी, पर कह नहीं सका, आज कहने की इच्छा हो रही है ।

"मेरी जो अवस्था आप बतलाते हैं, साधना करने ही से ऐसा नहीं हुआ करता । इसमें (मुझमें) कुछ विशेषता है ।

श्रीरामकृष्ण : "ईश्वर ने मुझसे बातचीत की ! - केवल दर्शन ही नहीं, बातचीत की ! बट के नीचे मैंने देखा, गंगाजी के भीतर से निकलकर कितनी हँसी - कितना मजाक किया । हँसी ही हँसी में मेरी उँगली मरोड़ दी गयी ! फिर बातचीत हुई, वे (भगवान्) बोले !

"तीन दिन लगातार मैं रोया, उन्होंने वेदों, पुराणों और तन्त्रों में क्या है, सब दिखला दिया !      

"महामाया की माया क्या है, यह भी एक दिन दिखला दिया । कमरे के भीतर छोटी सी ज्योति क्रमश: बढ़ने लगी और संसार को आच्छन्न करने लगी ।

"फिर उन्होंने दिखलाया - मानो बहुत बड़ा तालाब काई से भरा हुआ है । हवा से काई कुछ हट गयी और पानी जरा दीख पड़ा, परन्तु देखते ही देखते चारों ओर से नाचती हुई काई फिर आ गयी और पानी को ढक लिया । दिखलाया, वह जल सच्चिदानन्द है और काई माया माया के कारण सच्चिदानन्द को कोई देख नहीं सकता । अगर कोई एक बार देखता भी है तो पल भर के लिए, फिर माया उसे ढक लेती है

"किस तरह का आदमी यहाँ आ रहा है, उसके आने से पहले ही वे मुझे दिखा देते हैं । बट के नीचे से बकुल के पेड़ तक उन्होंने चैतन्यदेव के संकीर्तन का दल दिखलाया । उसमें मैंने बलराम को देखा था - नहीं तो भला मिश्री और यह सब मुझे कौन देता ? और इन्हें (मास्टर को) भी देखा था ।

"केशव सेन से मुलाकात होने के पहले उसे मैंने देखा ! समाधि-अवस्था में मैंने देखा केशव सेन और उसके दल को । कमरे में ठसाठस भरे हुए आदमी मेरे सामने बैठे हुए थे । केशव को मैंने देखा, उन लोगों में मोर की तरह अपने पंख फैलाये बैठा हुआ था । पंख अर्थात् दल-बल । केशव के सिर में, देखा, एक लाल मणि थी । वह रजोगुण का लक्षण है

केशव अपने चेलों से कह रहा था - 'ये (श्रीरामकृष्ण) क्या कह रहे हैं, तुम लोग सुनो ।' माँ से मैंने कहा, 'माँ, इन लोगों का अंग्रेजी मत है , इनसे क्या कहना है ? फिर 'माँ ने समझाया, कलिकाल में ऐसा ही होता है।' तब यहाँ से (मेरे पास से) वे लोग हरिनाम तथा माता का नाम ले गये । इसीलिए माता (माँ काली) ने विजय को केशव के दल से अलग कर लिया । परन्तु विजय (विजय कृष्ण गोस्वामी) आदि-समाज में सम्मिलित नहीं हुआ।

(अपने को दिखाकर) “इसके भीतर कोई एक हैं । गोपाल सेन नाम का एक लड़का आया करता था, बहुत दिन हो गये । इसके भीतर जो हैं, उन्होंने गोपाल की छाती पर पैर रख दिया । वह भावावेश में कहने लगा, 'अभी तुम्हें देर है; परन्तु मैं संसारी आदमियों के बीच में नहीं रह सकता ।' - फिर 'अब जाता हूँ' कहकर वह घर चला गया । बाद में मैंने सुना, उसने देह छोड़ दी है । जान पड़ता है, वही नित्यगोपाल है !

"सब बड़े आश्चर्यपूर्ण दर्शन हुए हैं । अखण्ड सच्चिदानन्द-दर्शन भी हो चुका है । उसके भीतर मैंने देखा है, बीच में घेरा लगाकर उसके दो हिस्से कर दिये गये हैं । एक हिस्से में केदार, चुन्नी तथा अन्य साकारवादी भक्त हैं; घेरे के दूसरी ओर खूब लाल सुर्खी की ढेरी की तरह प्रकाश है, उसके बीच में समाधिमग्न नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) बैठा हुआ है ।

"ध्यानस्थ देखकर मैंने पुकारा – नरेन्द्र !', उसने जरा आँख खोली । मैं समझ गया, वही एक रूप में, सिमला (कलकत्ता) में, कायस्थ के यहाँ पैदा होकर रह रहा है । तब मैंने कहा, ‘माँ, उसे माया में बाँध लो, नहीं तो समाधि में वह देह छोड़ देगा ।' केदार साकारवादी है, उसने झाँककर देखा, उसे रोमांच हो आया और वह भागा ।

यही सोचता हूँ, इस शरीर के भीतर माँ स्वयं हैं, भक्तों को लेकर लीला कर रही हैं । जब पहले-पहल यह अवस्था हुई, तब ज्योति से देह दमका करती थी । छाती लाल हो जाती थी । तब मैंने कहा, 'माँ, बाहर प्रकाशित न होओ - भीतर समा जाओ ।’ इसीलिए अब यह देह मलिन हो रही है।

"नहीं तो आदमी जला डालते । आदमियों की भीड़ लग जाती अगर वैसी ज्योतिर्मय देह बनी रहती। अब बाहर प्रकाश नहीं है । इससे तमाशबीन भाग जाते हैं - जो शुद्ध भक्त हैं, वे ही रहेंगे । यह बीमारी क्यों हुई, इसका अर्थ यही है । जिनकी भक्ति सकाम है, वे बीमारी देखकर भाग जायेंगे ।

"मेरी एक इच्छा थी । मैंने माँ से कहा था - 'माँ, मैं भक्तों का राजा होऊँगा ।’

"फिर मेरे मन में यह बात उठी कि हृदय से जो ईश्वर को पुकारेगा, उसे यहाँ आना होगा - आना ही होगा । देखो, वही हो रहा है, वे ही सब लोग आते हैं ।

"इसके भीतर कौन हैं, यह मेरे माता -पिता जानते थे । पिताजी ने गया में स्वप्न देखा था । स्वप्न में आकर 'रघुवीर' ने कहा था, 'मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूँगा।"

[Letter of Swami Vivekananda To Swami Brahmananda, from ALMORA, dated 20th May, 1898." MY DEAR RAKHAL,....  For the present buy a plot of ground for Ramlal in the name of Raghuvir (The family deity of Shri Ramakrishna’s birthplace, Kamarpukur, Ramlal being his nephew.) after careful consideration. . . . Holy Mother will be the Sebâit (worshipper-in-charge); after her will come Ramlal, and Shibu will succeed them as Sebait; or make any other arrangement that seems best."]

"इसके भीतर वे ही हैं । कामिनी और कांचन का त्याग ! यह क्या मेरा कर्म है ? स्त्री-सम्भोग स्वप्न में भी नहीं हुआ

"नागे ने वेदान्त का उपदेश दिया । तीन ही दिन में समाधि हो गयी । माधवीलता के नीचे उस समाधि-अवस्था को देखकर उसने कहा - 'अरे ! ये क्या है रे !’ फिर उसने (श्री तोतापुरी जी ने) समझा था, इसके भीतर कौन हैं । तब उसने मुझसे कहा, 'मुझे तुम छोड़ दो ।' यह बात सुनकर मेरी भावावस्था हो गयी । उसी अवस्था में मैंने कहा, 'वेदान्त का बोध हुए बिना तुम यहाँ से नहीं जा सकते ।

 "तब मैं दिन-रात उसी के पास रहता था । केवल वेदान्त की चर्चा होती थी । ब्राह्मणी (श्रीरामकृष्ण की तन्त्र-साधना की आचार्या) कहती थी, 'बच्चा, वेदान्त पर ध्यान न दो, इससे भक्ति की हानि होती है ।’

"माँ से मैंने कहा, ‘माँ, इस देह की रक्षा किस तरह होगी ? - और साधुओं तथा भक्तों को लेकर भी किस तरह रह सकूँगा ? - एक बड़ा आदमी ला दो ।' इसीलिए मथूरबाबू ने चौदह वर्ष तक सेवा की ।

"इसके भीतर जो हैं, वे पहले से ही बतला देते हैं, किस श्रेणी का भक्त आनेवाला है । ज्योंही देखता हूँ गौरांग का रूप सामने आया कि समझ जाता हूँ, कोई गौरांग-भक्त आ रहा है । अगर कोई शाक्त आता है तो शक्तिरूप - कालीरूप दीख पड़ता है

"कोठी की छत पर से आरती के समय में चिल्लाया करता था, 'अरे, तुम सब लोग कहाँ हो ? - आओ ! देखो, अब क्रम क्रम से सब आ गये हैं ।

"इसके भीतर वे खुद हैं - स्वयं ही मानो इन सब भक्तों को लेकर काम कर रहे हैं ।

“एक-एक भक्त की अवस्था कितने आश्चर्य की है ! छोटा नरेन्द्र - इसे कुम्भक आप ही आप होता है और फिर समाधि भी ! एक-एक बार कभी-कभी ढाई घण्टे तक ! कभी और देर तक ! - कैसे आश्चर्य की बात है !

"यहाँ सब तरह की साधनाएँ हो चुकी हैं - ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग । उम्र बढ़ाने के लिए हठयोग भी किया जा चुका है ।

 इस शरीर के भीतर कोई और (ईश्वर) वास कर रहा है, नहीं तो समाधि के बाद फिर मैं भक्तों के साथ कैसे रह सकता तथा ईश्वर-प्रेम का आनन्द कैसे उठा सकता ? कुँवरसिंह कहता था, 'समाधि के बाद लौटा हुआ आदमी कभी मैंने नहीं देखा - तुम नानक हो ।

"चारों ओर संसारी आदमी हैं - चारों ओर कामिनी-कांचन - इस तरह की परिस्थिति के भीतर यह अवस्था है ! - समाधि और भाव लगे ही रहते हैं । इसी पर प्रताप ने (ब्राह्मसमाज के प्रतापचन्द्र मुजुमदार) - कुक साहब जब आया था - जहाज में मेरी अवस्था देखकर कहा, 'बाप रे ! जैसे भूत लगा ही रहता हो !’ "

राखाल, मास्टर आदि अवाक् होकर  ये सब बातें सुन रहे हैं ।

 क्या महिमाचरण ने श्रीरामकृष्ण के इस इशारे को समझा ? इन सब बातों को सुनकर भी वे कह रहे हैं - 'जी, आपके प्रारब्ध के कारण यह सब हुआ है ।’  श्रीरामकृष्ण उनकी बात पर अपनी सम्मति देते हुए कह रहे हैं - 'हाँ, प्रारब्ध - जैसे बाबू के बहुत से बैठकखाने हों, यहाँ भी उनका एक बैठकखाना है । भक्त उनका बैठकखाना है ।’

(४)

*स्वप्न-दर्शन*

 [(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

रात के नौ बजे हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । महिमाचरण की इच्छा है - श्रीरामकृष्ण की उपस्थिति में वे ब्रह्मचक्र की रचना कमरे में करें ।  राखाल, मास्टर, किशोरी तथा और दो-एक भक्तों को साथ लेकर जमीन पर उन्होंने चक्र बनाया । सब लोगों से उन्होंने ध्यान करने के लिए कहा । राखाल को भावावस्था हो गयी । श्रीरामकृष्ण उतरकर उनकी छाती में हाथ लगाकर माता का नाम लेने लगे । राखाल का भाव संवरण हो गया ।   

रात के एक बजे का समय होगा । आज कृष्णपक्ष की चतुर्दशी है । चारों ओर घोर अन्धकार है । दो-एक भक्त गंगा के तट पर अकेले टहल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उठे । वे बाहर आये । भक्तों से कहा, "नागा कहा करता था, ‘इस समय - गम्भीर रात्रि की इस निस्तब्धता में - अनाहत शब्द सुन पड़ता है’"

रात के पिछले पहर में महिमाचरण और मास्टर श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर ही लेट गये कैम्पखाट पर राखाल थे ।

श्रीरामकृष्ण पाँच वर्ष के बच्चे की तरह दिगम्बर होकर कभी कभी कमरे के भीतर टहल रहे हैं ।

(सोमवार, 10 अगस्त) सबेरा हुआ । श्रीरामकृष्ण माता का नाम ले रहे हैं । पश्चिम के गोल बरामदे में जाकर उन्होंने गंगादर्शन किया । कमरे के भीतर जितने देव-देवियों के चित्र थे, सब के पास जा-जाकर प्रणाम किया । भक्तगण शय्या से उठकर प्रणाम आदि करके, प्रातः क्रिया करने के लिए गये ।

श्रीरामकृष्ण पंचवटी में एक भक्त के साथ बातचीत कर रहे हैं । उन्होंने स्वप्न में चैतन्यदेव को देखा था ।

श्रीरामकृष्ण (भावावेश में) – आहा ! आहा !

भक्त - जी स्वप्न में - ।

श्रीरामकृष्ण - स्वप्न क्या कम है ?.... श्रीरामकृष्ण की आँखों में आँसू आ गये । स्वर गद्गद है ।

जागृत अवस्था में  एक भक्त के दर्शन की बात सुनकर कह रहे हैं, 'इसमें आश्चर्य क्या है ? आजकल नरेन्द्र भी ईश्वरी रूप देखता है ।'

प्रात: क्रिया समाप्त करके महिमाचरण ठाकुर-मन्दिर के उत्तर-पश्चिम ओर के शिवमन्दिर में जाकर निर्जन में वेद-मन्त्रों का उच्चारण कर रहे हैं

दिन के आठ बजे का समय है । मणि गंगा नहाकर श्रीरामकृष्ण के पास आये । सन्तप्त ब्राह्मणी भी श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए आयी है ।

श्रीरामकृष्ण (ब्राह्मणी से) - इन्हें (मास्टर को) कुछ प्रसाद देना, पूड़ी-मिठाई - ताक पर रखा है ।

ब्राह्मणी - पहले आप पाइये । फिर वे भी पा लेंगे ।

श्रीरामकृष्ण - तुम पहले जगन्नाथजी का भात खाओ, फिर प्रसाद पाना ।

प्रसाद पाकर मणि शिवमन्दिर में शिवदर्शन करके श्रीरामकृष्ण के पास लौट आये । और प्रणाम करके विदा हो रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (सस्नेह) - तुम चलो । तुम्हें काम पर जाना है ।

(५)

 [(मंगलवार, 11 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🙏*मौनधारी श्रीरामकृष्ण और माया का दर्शन*🙏

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में प्रात: आठ बजे से दिन के तीन बजे तक मौन व्रत धारण किये हुए हैं । आज मंगलवार है, ११ अगस्त १८८५ ई. । कल अमावस्या थी ।

श्रीरामकृष्ण कुछ अस्वस्थ हैं । क्या उन्होंने जान लिया है कि शीघ्र ही वे इस धाम को छोड़ जायेंगे? क्या इसीलिए मौन धारण किये हुए हैं ? उन्हें बात न करते देख श्री माँ रो रही हैं । राखाल और लाटू रो रहे हैं । बागबाजार की ब्राह्मणी भी इस समय आयी थी । वह भी रो रही है । भक्तगण बीच बीच में पूछ रहे हैं, "क्या आप हमेशा के लिए चुप रहेंगे ?"

श्रीरामकृष्ण इशारे से कह रहे हैं, 'नहीं ।' नारायण आये हैं - दिन के तीन बजे के समय ।श्रीरामकृष्ण नारायण से कह रहे हैं, "माँ तेरा कल्याण करेंगी ।"

नारायण ने आनन्द के साथ भक्तों को समाचार दिया । श्रीरामकृष्ण ने अब बात की है । राखाल आदि भक्तों की छाती पर से मानो एक पत्थर उतर गया । वे सभी श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे।  

श्रीरामकृष्ण (राखाल आदि भक्तों के प्रति) - माँ दिखा रही थीं कि सभी माया है । वे ही सत्य हैं और शेष सभी माया का ऐश्वर्य है ।

"और एक बात देखी, भक्तों में से किसका कितना हुआ है ।"

नारायण आदि भक्त - अच्छा, किसका कितना हुआ है ?

श्रीरामकृष्ण - इन सभी को देखा - नित्यगोपाल , राखाल, नारायण, पूर्ण, महिमा चक्रवर्ती आदि ।

(६)

 [(9 अगस्त से 16 अगस्त,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

*श्रीरामकृष्ण गिरीश, शशधर पण्डित आदि भक्तों के साथ*

श्रीरामकृष्ण की बीमारी का समाचार कलकत्ते के भक्तों को प्राप्त हुआ, उन्होंने सोचा कि शायद वह उनके गले में एक प्रकार का घाव मात्र है । रविवार, १६ अगस्त । अनेक भक्त उनके दर्शन के लिए आये हैं - गिरीश, राम, नित्यगोपाल, महिमा चक्रवर्ती, किशोरी (गुप्त), पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि आदि ।

श्रीरामकृष्ण पहले जैसे ही आनन्दमय हैं तथा भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - रोग की बात माँ से कह नहीं सकता, कहने में लाज लगती है ।

गिरीश - मेरे नारायण अच्छा करेंगे ।

राम - ठीक हो जायेगा ।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - हाँ यही आशीर्वाद दो । (सभी की हँसी)

गिरीश आजकल नये नये आ रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उनसे कह रहे हैं, “तुम्हें अनेक झमेलों में रहना होता है, तुम्हें अनेक काम रहते हैं । तुम और तीन बार आओ ।" अब शशधर के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (शशधर के प्रति) - तुम शक्ति की बात कुछ कहो ।

शशधर - मैं क्या जानता हूँ ?

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - एक आदमी एक व्यक्ति की बहुत भक्ति करता था । उसने उस भक्त से तम्बाकू भर लाने के लिए कहा । इस पर भक्त ने विनम्रतापूर्वक कहा, 'क्या मैं आपकी आग लाने के योग्य हूँ?' फिर आग भी नहीं लाया ! (सभी हँसे)

शशधर - जी, वे ही निमित्त कारण हैं, वे ही उपादान कारण हैं । उन्होंने ही जीव और जगत् को पैदा किया, और फिर वे ही जीव तथा जगत् बने हुए हैं, जैसे मकड़ी ने स्वयं जाला तैयार किया (निमित्त-कारण) और उस जाले को अपने ही अन्दर से निकाला (उपादान-कारण)

श्रीरामकृष्ण - फिर यह भी है कि जो पुरुष हैं, वे ही प्रकृति हैं; जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं । जिस समय निष्क्रिय हैं, सृष्टि, स्थिति, प्रलय नहीं कर रहे हैं, उस समय उन्हें हम ब्रह्म कहते हैं, पुरुष कहते हैं । और जब वे उन सब कामों को करते हैं, उस समय उन्हें शक्ति कहते हैं, प्रकृति कहते हैं । परन्तु जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं । जो पुरुष हैं, वे ही प्रकृति बने हुए हैं ।जल स्थिर रहने पर भी जल है और हिलने पर भी जल है साँप टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलने पर भी साँप है और फिर चुपचाप कुण्डलाकार रहने पर भी साँप है ।

[(16 अगस्त,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119 ]

🔱🙏*भोग और कर्म*🔱🙏

"ब्रह्म क्या है ? यह मुख से नहीं कहा जा सकता, मुख बन्द हो जाता है । कीर्तनिया लोग कीर्तन के प्रारम्भ में गाते हैं, ‘मेरे निताई मतवाले हाथी जैसा नृत्य करते है' गाते -गाते जब वे भावविभोर हो जाते हैं, तब कीर्तनीये पूरे वाक्य का उच्चारण भी नहीं कर पाते;  केवल कहते हैं 'हाथी-हाथी।' फिर 'हाथी-हाथी' कहते कहते केवल 'हा-हा' कहते हैं, और अन्त में वह भी नहीं कह सकते - बिल्कुल बाह्यज्ञान शून्य हो जाते हैं।"

ऐसा कहते कहते श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । खड़े-खड़े ही समाधिमग्न ! समाधि-भंग होने के थोड़ी देर बाद कह रहे हैं – “ 'क्षर' व 'अक्षर' से परे क्या है मुँह से कहा नहीं जाता ।"

सभी चुप हैं; श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, "जब तक कुछ भोग बाकी रहता है या कर्म बाकी है तब तक समाधि नहीं होती ।

(शशधर के प्रति) "इस समय ईश्वर तुमसे कर्म करा रहे हैं, व्याख्यान देना आदि । अब तुम्हें वही सब करना होगा ।" कर्म समाप्त हो जाने पर ही तुम्हे शान्ति प्राप्त होगी । घरवाली घर का काम-काज समाप्त करके जब नहाने जाती है तो फिर बुलाने पर भी नहीं लौटती ।”

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[100 नंबर काशीपुर रोड निवासी 'महिमाचरण जी' जिनके मकान में नवनीदा का जन्म हुआ था उनका मनोभाव यह है कि 'श्रीरामकृष्ण माँ काली के अवतार नहीं केवल एक साधु या भक्त हैं। अर्थात महिमाचरण जी को ठाकुर द्वारा कथित -" कुँवरसिंह कहता था, 'समाधि के बाद लौटा हुआ आदमी कभी मैंने नहीं देखा - तुम नानक हो " का मर्म समझ में नहीं  आया। इसीलिए उन्होंने ठाकुर देव से कहा "आपके पिछले जन्मों में आपके पुण्य कार्यों के कारण ये चीजें आपके साथ हुई हैं।"  जैसे महामण्डल के कुछ पुराने लोग भी नवनीदा के कथन "पूर्वजन्म में वे कैप्टन सेवियर थे" के मर्म को नहीं समझने के कारण -उन्हें पैगम्बर ,ईश्वरकोटि या समाधि से लौटने में समर्थ नेता नहीं, सिर्फ एक ब्राह्मण महापुरुष या भक्त समझते है ???]

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