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बुधवार, 8 सितंबर 2021

$$$$$ ( Volume -2 : 91 से 139 परिच्छेदों की सामग्री : CONTENTS) [(19 सितम्बर, 1884 से 22 अप्रैल, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत]

 श्रीरामकृष्ण वचनामृत- खण्ड (2)  

* [(19 सितम्बर, 1884 से 22 अप्रैल, 1886) ] > कुल 49 परिच्छेदों की सामग्री * 

$$$$ परिच्छेद ~ 91,[(19 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] Leavings from a jackal's meal * ~ तंत्र साधना में शिवानी का जूठन क्यों खाया जाता है ?*सर्व विष्णुमयं जगत् *The three stages —शास्त्र , गुरुमुख होना , साधना > Goal !* अब लौं नसानी, अब न नसैहों* (Be and Make) का संकल्प -ग्रहण ( प्रतिज्ञा-पत्र,Autosuggestion -form पर हस्ताक्षर *शंखचील (सफेद परवाली चील- या ब्राह्मण ) को देखकर लोग प्रणाम क्यों करते हैं *लोमश मुनि और काकभुशुण्डि~ प्रार्थना करोगे कभी मुझसे दूसरे की निन्दा न हो* Origin of Language-Philosophy of Prayer* मनुष्य बनने के लिए संस्कार (sacraments) और तपस्या (penance) की आवश्यकता * (Be and Make)/संस्कार (जन्मजात प्रवृति -inherent tendencies) को अभ्यास योग से बदलने) की बात। का संकल्प -ग्रहण ( प्रतिज्ञा-पत्र,Autosuggestion -form पर हस्ताक्षर* विजय कृष्ण गोस्वामी* मनुष्य बनने के लिए संस्कार (sacraments) और तपस्या (penance) की आवश्यकता * संन्यासियों का कठिन नियम~ लोकशिक्षार्थ त्याग* यहाँ आदमी क्यों आते हैं ? - वैसा पढ़ा लिखा भी तो नहीं हूँ ।*अवतार का आकर्षण* ईश्वर की लीला में योगमाया की सहायता से आकर्षण होता है, एक तरह का जादू-सा चल जाता है ।* गोपियों का प्यार क्या है, परकीया रति है *कृष्ण लीला में ~ 'गोपी प्रेम और वस्त्र हरण' ~ की व्याख्या *आधारों (special souls) की विशेषता* मलय-पर्वत की हवा के लगने पर भी बाँस चन्दन नहीं बनता * 1987 में झुमरीतिलैया से 10 लोगों ने नाम भेजे थे, उनमें से केवल तुम ही बेलघड़िया कैम्प कैसे पहुँचे ?* मनुष्य क्यों योगभ्रष्ट होता है ?*परकीया भोग (Bh) करने की लालसा*मन ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का कारण है* जन्मजात प्रवृति -inherent tendencies) को अभ्यास योग से बदलने की प्रक्रिया(अनासक्ति पूर्वक मनःसंयोग का -अभ्यास करो)*श्री राधिका गोस्वामी को सर्वधर्म -समन्वय का उपदेश *धार्मिक मेले में (Baroari या सार्वजनिक पूजोत्सव) अनेक तरह की मूर्तियाँ पायी जाती हैं*क्या ईश्वर प्रार्थना सुनते हैं ? साधना- लोमस मुनि जैसा मुझसे कभी दूसरे की निंदा न हो ! *गुरु (नेता-CINC नवनीदा ) और ईश्वर (माँ काली) के अवतार में अद्वैत बोध * गुरु पादुका और शालग्राम की पूजा* * श्री रामकृष्णदेव और नित्य-लिला योग की अवस्था *

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$$ परिच्छेद ~ 92, [(21 सितंबर,1884), श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] (VIBHU-Omnipresent ) Brahman =Sakti *स्टार थियेटर में चैतन्यलीला-दर्शन *आर घुमाइओ न मन। -Sleep no more! O mind, unclose your eyes at last And wake yourself from evil dreams*साहस और दुस्साहस के बीच अंतर* (Difference between Courage and Audacity)*ब्रह्म (दिव्यता-चैतन्य) बिभूरुप से सर्वभूतों में हैं - Each soul is potentially divine: *गुरुगिरि करने वाले ही नाम-यश चाहते हैं, शुद्ध भक्त कभी षडैश्वर्य नहीं चाहता (A pure devotee never wants Supernatural Powers )* *वैश्या-अभिनेत्रीयों में माँ आनन्दमयी का रूप दर्शन*अष्ट सिद्धियाँ ईश्वर-लाभ में विघ्नरूप हैं* Love to all~ सर्वग्रासी प्रेम ~ तब हृदय में माँ काली प्रकट होती है*चीने शंखारी के साथ समदर्शी भाव*गृहस्थ गुप्त योगी हो सकता है- उसे बाहर से नहीं, मन से अनासक्त होना है *संसारी मनुष्य जब शिक्षा देता है तब, परिवार और ईश्वर दोनों से समझौता करने के लिए कहता है*गृहस्थ भी अन्त में विज्ञानी हो सकता है, पर जबरन संसार छोड़ना अच्छा नहीं *हाजरा कहता है, 'तुम धनी लोगों को बड़ा प्यार करते हो, जिनके रुपया-पैसा, मान-मर्यादा खूब है *गौरांगप्रेम के नशे में मतवाले श्री रामकृष्ण**जीवन धन्य (सार्थक blessed) होता है ~ अवतार या नेता पर भक्ति होने से* प्रेम के अंकुर के बिना उगते ही तीर्थ जाओगे, सब सूख न जायेगा ?

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$$$$$ परिच्छेद ~ 93 [(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]  *(consciousness) शाश्वत चैतन्य  के चार स्तर *  आशीर्वाद गुरु/नेता (C-IN-C) बिल्लाधारी व्यक्ति नहीं ईश्वर ही देते हैं * * चरणामृत और पंचामृत का अन्तर * ठाकुरदेव खुद प्रार्थना करके सीखा रहे हैं --How to Pray ?**शराब की लत छुड़ाने के उपाय**‘मंत्रं साधयामि-शरीरं वा पातयामि’*(" एबार काली तोमाय खाबो। (खाबो खाबो, गो दीन दयामयी)। *आहार-शुद्धि के विषय में तंत्र का मत, वेद, पुराण के मत से भिन्न है* *मूर्तमान ज्ञान (घनीभूत चैतन्य) को नित्यसिद्ध कहते हैं * * ईश्वरकोटि और जीवकोटि ** सच्चिदानन्द और कारणानन्दमयी * God impersonal ,(अवैक्तिक ईश्वर) and personal (माँ काली )] *Open-eyed Meditation and concentration *आहार-शुद्धि के विषय वेद, पुराण से तंत्र का मत भिन्न है* *राजपूत (नेता) को चैतन्य की चारो अवस्थाओं का ज्ञान होता है * ईश्वरकोटि और जीवकोटि * अनुलोम और विलोम (negation and affirmation. नेति से इति ) ^ *मूर्तमान ज्ञान (घनीभूत चैतन्य) को नित्यसिद्ध कहते हैं * राजर्षि जनक और ब्रह्मर्षि शुकदेव **ज्ञानी तथा भक्त की अवस्था का भोजन -विचार * * चंद्रमास -पंचांग - और तन्त्रसाधना में महाष्टमी ^ के दिन का महत्व*चरणामृत और पंचामृत का अन्तर * Dogmatism is not good *साधारण ब्रह्म समाज और मूर्तिपूजकों का प्रवेश-निषेध साइनबोर्ड *ऐसा भाव अच्छा है~~'मेरा धर्म ठीक है, पर दूसरों के धर्म में सचाई है या वह गलत है, यह मेरी समझ में नहीं आता All have not the same power of digestion'*वेदों में ईश्वर को निर्गुण, सगुण दोनों कहा है*दोनों पल्ला भारी*वेतनभोगी प्रचारक-नेता (Salaried Preacher) विजय गोस्वामी के प्रति उपदेश (rda,dsrkr,pda,orsa)* प्रभावशाली हस्ती , कुत्ता , सांढ़(calm it with a gentle Voice) , शराबी से सावधान , कहना पड़ता है - क्यों चाचा कैसे हो ?* सत्संग (pda)की बड़ी आवश्यकता *The companionship of a holy man is greatly needed* आशीर्वाद ईश्वर ^ देंगे * गृहस्थाश्रम और संन्यास*गृही ब्राह्मभक्त (भावी राजर्षि) को उपदेश* [महामण्डल आन्दोलन सांसारिक (गृही-CINC ) और आध्यात्मिक (संन्यासी) आदर्शों का मिश्रण है] [महामण्डल में 'राब ' ('गुड़ का रवा'-ऋषित्व) भी है और शीरा ('गुड़रस' -राजत्व ) भी]* *गृहस्थ लोग को कामिनी -कांचन में अनासक्त होकर परिवार में रहना चाहिए* खुली आंखों से ध्यान (दृष्टा -दृश्य विवेक) और मूंदी आँखों से एकाग्रता का अभ्यास * [गीता-चण्डी के मत से शिवनाथ के भीतर ईश्वर की शक्ति है -एवं श्री केदार चट्टोपाध्याय* [God impersonal and personal — सच्चिदानन्द और करणानन्दमयी - राजर्षि और ब्रह्मर्षि!] *ईश्वरकोटि और जीवकोटि - मूर्तिमान ज्ञान है -नित्यसिद्ध **श्रीरामकृष्ण ने मुर्शिद (गुरु, मार्गदर्शक नेता) गोविन्द राय से अल्लाह मंत्र लिया*

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$$$$$$ परिच्छेद ~ 94 [(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *(आदि पुरुष -Primal Purusha,) की स्तुति -विवेकानन्द के  चेहरे पर टकटकी लगाओ और धन्य हो जाओ !  "Gaze on His face and be blest!" *नेता के जीवन में माँ का स्थान कितना ऊँचा है !क्या उनके आदेश को हल्के में लें ?*जन्मदात्री माता के प्रति श्रीरामकृष्ण मातृभक्ति । संकीर्तनानन्द**:"Can't God fulfil a devotee's desire?"*क्या भगवान अपने भक्त की मनोरथ पूर्ण नहीं कर सकते ?* आराध्यदेव ही हमारे अभिभावक हैं  **दृष्टांत कथा – एक अथार्थी भक्त* One boon covered many things* — मैं सोने की थाली में अपने पोते के साथ भोजन करूँ ^  मामेकं शरणं व्रज : भगवत् पूजा में मुख्य हेतु भाव ही है । अवस्था, वस्तुएं और आचार आदि सब गौण हैं ।*नेता में पटवारी बुद्धि (व्यापरियों की चतुर- टैक्स बचाने वाली गणना)अनिवार्य * *किसी से मतान्तर होने पर उसके साथ कैसा व्यवहार करें ?*सर्वमंगल प्रार्थना  *श्री रामकृष्ण द्वारा स्वमुख कथित जीवनी*   [Alleged biography by Sri Ramakrishna] [सम्पूर्ण मानवता के लिए ~ अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण का प्रेम ~ Love of Mankind] *दिव्यभाव या मातृभाव से साधना* स्त्रीभाव या वीरभाव बड़ा कठिन*महिलाओं को साथ लेकर वामाचार पद्धति से साधना करने की मनाही*  *तमोगुणी नारायण को हाथ जोड़कर प्रसन्न करो * * "आर भूलाले भूलबो ना माँ , देखेछि तोमार रांगा चरण !" *अच्छा, नरेन्द्र तथा मेरे लिए यहीं प्रसाद की व्यवस्था हो ।”*श्री रामकृष्ण और गोलोक-धाम खेल - "सही (सरल-निष्कपट) व्यक्ति हर जगह जीतता है !" *  *सच्चे आदमी की हार कहीं नहीं होती*He said to M., aside, "Don't play any more."* पहले कारणानन्द होगा, फिर भजनानन्द^ *तुम्ही दस महाविद्याएँ *^ हो माँ और तुम्हीं दस अवतार ।  अबकी बार किसी तरह, माँ, मुझे पार करो ।*माण्डूक्य उपनिषद,गौड़पादीय कारिका   सोमवार, 20 जुलाई 2020/ *ठाकुर श्री रामकृष्ण  तथा मेडिसिन में विश्वास* It is God who, as the doctor, prescribes the medicine. *ज्ञान और अज्ञान क्या है ?* ईश्वर दूर है तब तक अज्ञान है और जब यह बोध है कि ईश्वर यहीं तथा सर्वत्र है, तभी ज्ञान है **यथार्थ ज्ञानी किसी शिशु जैसे विश्वास के साथ - जगत को चैतन्यमय देखता है * श्री रामकृष्ण नवमी पूजा के दिन दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ *जीव-कोटि के साधक संशयात्मा (Sceptic) ईश्वर-कोटि का विश्वास स्वयंसिद्ध*शक्ति और शक्तिमान दोनों अभेद*विभु (सर्वव्याप्त शाश्वत चैतन्य) सब जगह हैं ।*

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 [परिच्छेद ~ 95, (1 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]   *जगत्कारण  परब्रह्म आनंदमय श्रीरामकृष्ण देव -हेडीज़  बर्स्ट शिवा~ पाताल फोड़ शिव हैं ! * जगत्कारण आनन्दमयी माँ काली और श्रीरामकृष्ण अभिन्न हैं*  ["परम्  सत्य "^ = श्रीठाकुरदेव की कृपा के बिना कोई व्यक्ति इन्द्रियातीत सत्य , जगत्कारण आनन्दमय परब्रह्म को , (अर्थात मनुष्य के तीसरे पहलु -शारीरिक,मानसिक > आध्यात्मिक पहलु) को नहीं जान सकता अर्थात विकसित नहीं कर सकता। *आन्तरिक भक्ति से जातिभेद समाप्त होता है - तस्मिन् तुष्टे जगत् तुष्टम्* *सकार-निराकर जैसे बहुरूपी (chameleon,गिरगिट) कभी लाल दीखता है~ कभी हरा ** चीनी का पहाड़ उठाने का दुस्साहस करने वाली मूर्ख चींटी * 

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 [परिच्छेद ~ 95 (A) (2 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *तालिबानी सोंच ~ धर्मान्धता (Dogmatism) का त्याग करें*"मनुष्य, प्रतिमा, शालग्राम सब में एक ही सत्ता है* I do not see two. I see only one. *मानसिक नमस्कार करना अच्छा है *It is good to do mental salutations* हार और जीत ईश्वर के हाथ में हैं *  [Defeat and victory are in the hands of God]*गोलकधाम-खेल में, बहुत कुछ बढ़ गया, परन्तु फिर पौ (छक्का) न पड़ा ।*"Look at the man's body. The head, which is the root, has gone up.""मनुष्य के (3H) पर विचार करो -  पहले शरीर (Hand) को देखो । सिर (Head) जो जड़ है, ऊपर चला गया ।  हृदय (Heart-अविनाशीआत्मा ) और भी सूक्ष्म है।* कर्मयोग तथा मनोयोग* *तुम्हारा कर्तव्य क्या है -'3H ' विकास के '5 अभ्यास' करना। *कर्मयोग -विश्वास और प्रेम से पूजा (शिवज्ञान से जीवसेवा) करने पर भगवत् का साक्षात्कार हो जाता है * 12 वर्ष बीत जाने पर दंडी अपना दंड फेंक कर परमहंस हो जाता था। **भक्तियोग में योग के समस्त साधन होते हैं >भक्तियोग में कुम्भक स्वतः होता है* * प्राणवायु रुक जाने पर -मन एकाग्र , केवली कुम्भक , विवेकज-ज्ञान या मृत्युंजयी ज्ञान होने से विवेक-बुद्धि स्थिर होने से भी (विवेकजज्ञान ?) !* गृहस्थ लोग कामिनी-कांचन को माया कहकर उड़ा नहीं सकते * * चैतन्य देव के अनुसार गृहस्थों का कर्तव्य >जीवे दया ~ वैष्णव-सेवा ~ नामसंकीर्तन*   *जो आचार्य/नेता /(C-IN-C) हैं उन्हें कामिनी-कांचन त्याग करना होगा , फिर लोकशिक्षा का अधिकार**श्री रामकृष्ण का कांचन (बाघंबरी अखाड़ा -महन्तगिरी) - परित्याग * गृहस्थ लोकशिक्षक /नेता के लिये सत्संग और श्रद्धा दोनों अनिवार्य है* सरलता तथा ईश्वर-प्राप्ति *पवित्र मन जल्द एकाग्र होता है **श्री 'म' को उपदेश  *शुद्ध आत्मा में ही, अविद्या, माया, तीन गुण हैं , लेकिन वे उससे निर्लिप्त हैं ! *जैसे साँप के मुख में ही विष है , पर वह उससे निर्लिप्त है।*$$$$$$$$*जो शुद्ध आत्मा (व्यष्टि-समष्टि अहं से भ्रममुक्त आत्मा)  हैं, वही महाकारण - कारण का कारण हैं ।* 

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🔆🙏$$$$$$🔆🙏परिच्छेद- 96, [ (5 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆🙏अहेतुकी भक्ति-हाजरा महाशय - मुक्ति तथा षडैश्वर्य/🔆🙏हाजरा महाशय और तत्त्वज्ञान / 🔆🙏हाजरा अपने को कसौटी का पत्थर (touchstone) समझते थे खरा-खोटा परखते थे/ 🔆🙏'कसौटी के पत्थर'- हाजरा महाशय 'षडरिपु' को भी 24 तत्व में गिनते थे/ 🔆🙏नेता/गुरु  तत्वज्ञान का अर्थ बतलाते है -आत्मज्ञान; जीवात्मा परमात्मा के एकत्व ज्ञान/   तत् अर्थात् परमात्मा, त्वं अर्थात् जीवात्मा-तत्वमसि/ 🔆🙏 बंशी से मछली पकड़ने वाला नेता (The Angler) तर्क में नहीं उलझते / मुक्ति और षडऐश्वर्य  - हाजरा की मलिन और निःस्वार्थ भक्ति/ 🔆🙏सिर्फ निःस्वार्थ भक्ति के बल पर -'अब्राह्मण -शबरी और रैदास ' की मुक्ति हुई/🔆🙏हाजरा नहीं मानता कि -'ईश्वरलाभ के लिए निष्काम भक्ति आवश्यक है'/🔆🙏मिलावटी -भक्ति और शुद्धा भक्ति/ 🔆🙏किसी की निन्दा न किया करो; सब नामरूप नारायण ही धारण किये हुए हैं/ 🔆🙏भक्त ईश्वर का बैठकखाना है ।ভক্ত ঈশ্বরের বৈঠকখানা।The devotee is His parlour./ 🔆🙏निष्काम कर्म । संसारी तथा ‘सोऽहं’/ 🔆🙏साधु और निष्कामकर्म - भक्ति की कामना - वेदांत - गृहस्थ और सोऽहं '/ 🔆🙏सद्गुरु मंत्रदीक्षा के पहले शिष्य के सारे पाप क्यों माँग लेते हैं ?/ 🔆🙏जप-ध्यान करते समय समय, ज्ञान ,भक्ति,विवेक,वैराग्य की कामना अच्छी है/ 🔆🙏षड्दर्शन का सार - ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या; और मैं ब्रह्म (इन्द्रियातीत सत्य) हूँ !/  🔆🙏 जिनमें देहबुद्धि है (अपने को M/F शरीर समझते हैं) उनके लिये 'सोऽहं ' ठीक नहीं/ 🔆🙏कामिनी-त्याग/ 🔆🙏'M' की धर्मपत्नी केशव सेन की चचेरी बहन थीं ?/ 🔆🙏CINC नवनीदा और पालकी में बैठकर " जानिबीघा " जाने का आनन्द/ 🔆🙏जिसका हाथ  स्वामी जी ने पकड़ लिया है , उसके गिरने का भय नहीं/ बाप रे, बाघ जैसे आदमी को पकड़ता है, वैसे ही ईश्वर इन्हें पकड़े हुए हैं ?/ 🔆🙏माँ काली के भक्तों के लिए  सभी स्त्रियाँ माँ आनन्दमयी की एक मूर्ति हैं/ 🔆🙏 हरिबाबू, निरंजन, पांडे खोट्टा, जयनारायण/ 🔆🙏बूढ़े दरबान (चनेशरबाबू) की दूसरी पत्नी 14 साल की थी -मियाँ भगा ले गया/ 🔆🙏सभी विवाहित पुरुष अपनी बीबी की तारीफ करने को बाध्य हैं -उनके वश में हैं !/ 🔆🙏ठाकुर देव की 'प्रेमोन्माद' के साथ साथ 'सहज' (natural) इत्यादि विभिन्न अवस्थायें /🔆🙏तत्वज्ञान का उपदेश देते समय युवा अवस्था हो जाती है !/🔆🙏नारायण ने कम उम्र में ही  पहचान लिया था कि ठाकुर अवतार वरिष्ठ है ! / 🔆🙏कामिनी-कांचन त्याग ही एक साधु की कठिन साधना है।/ 🔆🙏साधना की अवस्था में कामिनी दावाग्नि-सी है - कालनागिनी-सी !/ 🔆🙏भक्त (नेता) को साधनावस्था में स्त्रीयों  से 8 हाथ दूर रहना चाहिये/ 🔆🙏निरंजन और नरेन्द्र कितने निष्कपट हैं ? नरेन्द्र तो अग्रसोची-बुद्धि का भी है !/

घर में हो या बाहर - हमेशा वही -निश्छल,निष्कपट ! always the same — without guile.!/  🔆🙏नीलकंठ की जात्रा नाटक देखने -श्री रामकृष्ण का नवीन नियोगी के घर पर जाना/ 🔆🙏श्री रामकृष्ण, केशव और ब्रह्म समाज - सर्वधर्म समन्वय का उपदेश/ 🔆🙏श्री रामकृष्ण, केशव और ब्रह्म समाज /🔆🙏 श्रीरामकृष्ण देव से आध्यात्मिकता की जो बाढ़ निकलेगी ,उस प्लावन में निराकारवादी -साकारवादी सभी बह जायेंगे ! केशव सेन के पास केवल भौतिकवादी गृहस्थ लोग ही जाते थे, भक्त नहीं !/ 🔆🙏श्री रामकृष्ण और हिंदू, मुस्लिम, ईसाई - वैष्णव और ब्रह्मज्ञानी /यह मत कहो कि हमारा ही मार्ग सत्य है और बाकी सब मिथ्या - भ्रम है ।/🔆🙏रुचिभेद ,अधिकारि- भेद के अनुसार एक ही वस्तु नाना रूपों में दिखाई देती है /उसी तरह देश, काल और पात्र के भेद से ईश्वर तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग बने हैं/ 🔆🙏शरीर के लक्षण से छली-कपटी  या भाग्यवान निष्कपट व्यक्तित्व की पहचान /🔆🙏भक्त मुखर्जी भाई नौकरी नहीं करते थे उनकी अपनी आटा -चक्की थी !/ 🔆 शरीर के लक्षण से ईश्वर-दर्शन होगी या नहीं की पहचान - पंडित महेश न्याय-रत्न के छात्र/ 🔆🙏बिल्ली जैसे भूरी आँखों वाले नास्तिक होते हैं !ज्योतिष खोजते हैं / 🔆🙏श्री रामकृष्ण, मणि और गोपनीय विचार - "ईश्वर की इच्छा" - नारायण के प्रति विचार/ 🔆🙏नीलकंठ आदि भक्तों के साथ कीर्तनानन्द में / 🔆🙏मैं दुनियादारी में उलझा हुआ हूँ; मुझे भी अच्छा कर लीजिये !/तुम तो पहले से ही अच्छे हो !'का' पर एक और आकार लगाने से 'का' का 'का' ही रहता है ! আমায়ও ভাল করুন।"Make me all right too."/ 🔆🙏माँ जगदम्बा ने अपनी समस्त संतानों के कल्याण के लिए तुम्हें संसार में रखा है/ 🔆उनका नाम लेते हुए जब तुम्हारे नेत्र भर आयें तो समझना तुम्हें ठाकुर से प्रेम हो गया है !/ 🔆ईश्वर की अनुभूति हो जाने के बाद, विभिन्न तरीकों से ईश्वर से प्रेम करने का नाम है विज्ञान/ 🔆🙏जब तुम लीला से नित्य में जाकर फिर वहाँ से लीला में लौट सके -तब भक्ति पक्की/ 🔆🙏यहाँ लेकिन केवल सम्मानानार्थ (honorary) है !/ 🔆🙏जिनको चैतन्य हो गया है (अर्थात आत्मानुभूति हो गयी है), वे ही 'मान हूंस' हैं/ 🔆🙏ठाकुर कौन है? 'मैं' को खोजने से भी नहीं मिलता  - "मैं चंडी को घर लाऊंगा"/ 

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🔆🙏 $$$ 🔆🙏 परिच्छेद~ 97 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 'उत्तिष्ठत , जाग्रत '- ईशान को उपदेश ! 🔆🙏दक्षिणेश्वर में वेदान्त बागीश-ईशान आदि भक्तों के साथ / 🔆🙏ज्यादा पैसा होने का दिखावा -जमीन दलाल से दोस्ती / 🔆🙏घोषपाड़ा की स्त्रियों का  हरिपद के लिए गोपाल भाव  - कौमार्य - वैराग्य और स्त्रियाँ / 🔆🙏जितेन्द्रिय होने का उपाय - प्रकृतिभाव-साधना / 🔆🙏शिवलिंग की पूजा मातृस्थान और पितृस्थान की पूजा है ।/  🔆🙏स्त्रियों को साथ लेकर साधना कभी मत करो ! - श्री रामकृष्ण का बार-बार निषेध / 🔆🙏कृष्ण का मोरपंख योनि का प्रतिक -अर्थात श्रीकृष्ण ने प्रकृति को सिर पर रखते थे / रास-मण्डल में श्रीकृष्ण का स्त्री-वेश धारण क्यों हुआ ?/जब तक कोई पुरुष स्वयं स्त्री का स्वभाव धारण नहीं कर लेता, वह स्त्रियों के साहचर्य में रहने का अधिकारी नहीं होता ! /নিজে প্রকৃতিভাব না হলে প্রকৃতির সঙ্গের অধিকারী হয় না। /Unless a man assumes the nature of a woman, he is not entitled to her company. / 🔆🙏 श्री रामकृष्ण और मनःसंयोग अर्थात बहिर्मुखी मन को अन्तर्मुखी बनाना / 🔆🙏प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास यहीं तक है। ध्यान - खुली आँख से भी होता है। पूर्ववृत्त  - 1864 ई तक केशव ने एकाग्रता की शक्ति से/ और ईश्वर की इच्छा से नाम-यश जो चाहा उन्हें प्राप्त हो गया। / 🔆🙏[पूर्ववृत्त  - सिक्ख भक्त और श्री कृष्णदास के साथ बातचीत]/ 🔆🙏लालाबाबू और रानी भवानी का वैराग्य  - पूर्वजन्म का संस्कार रहने से सत्वगुण/ 🔆🙏कृष्णदास का रजोगुण - जगत का कल्याण करने वाले तुम कौन हो ?/ 🔆🙏घोषपाड़ा मतानुसार स्त्रियों के साथ बैठकर साधना करने से ठाकुर का बार-बार निषेध/हरिपदेर सेइ पातानो माँ एसे छिलो ! क्या तुमने अपना आदमी ठीक कर लिया है ?/স্ত্রীলোক লয়ে সাধন ঠাকুরের বারবার নিষেধ — ঘোষপাড়ার মত /“হরিপদের সেই পাতানো মা এসেছিল।"🔆🙏पुरुषप्रकृति-विवेक योग, राधा-कृष्ण कौन हैं? आद्याशक्ति / वेदान्त वागीश , दयानंद सरस्वती, कर्नल अलकट्ट, सुरेंद्र, नारायण / 🔆🙏श्रीरामकृष्ण के कमरे की सज्जा -  परिवेश के दोष तथा गुण , चित्र, पेड़, लड़के /🔆🙏 'दयानन्द ने मूर्तिपूजा के विषय में जो कुछ भी कहा है वह शास्त्र सम्मत नहीं है !'/ 🔆🙏श्री रामकृष्ण और थियोसॉफी - क्या वे व्याकुलता पूर्वक ईश्वर को खोजते हैं ?/ 🔆🙏अवतार भी साधना करते हैं – लोकशिक्षार्थ/ 🔆🙏राधा ही आद्यशक्ति या प्रकृति हैं - पुरुष और प्रकृति, ब्रह्म और शक्ति अभेद/ 🔆🙏नाम और रूप; प्रकृति (चित्-शक्ति) का ऐश्वर्य है/ 🔆🙏साधुसंग -पाठचक्र -कैम्प से संसार-रोग बहुत हद तक घट जाता है / 🔆वेदांत वागीश को उपदेश - साधुसंग करो; 'मेरा' -कहकर कुछ नहीं है; मैं उनका दास हूँ / 🔆🙏तुम्हारे अपने बस एक ही आदमी हैं – ईश्वर ।/ 🔆गृहस्थ सब कुछ त्याग नहीं सकता - ज्ञान अन्तःपुर में नहीं जाता - भक्ति जा सकती है/ 🔆🙏गुरुगृहवास या कैम्प का महत्व / 🔆🙏आदर्श (नेता -विवेकानन्द) के लिए व्याकुल होओ , उन्हें प्यार करना सीखो / 🔆🙏ईशान को उपदेश - भक्ति योग और कर्मकाण्डीय पुरश्चरण - ज्ञान के लक्षण/ 🔆🙏ज्ञान के दो लक्षण -ईश्वर में अनुराग और जाग्रत कुण्डलिनी शक्ति/ 🔆🙏ईश्वरानुराग में कुण्डलिनी शक्ति का जाग्रत हो जाना ही भक्ति योग है/ 🔆🙏श्रीरामकृष्ण और षट्पद्मों में आदि-शक्ति (काम-उर्जा?) का ध्यान/ निवृत्तिमार्ग । वासना का मूल – महामाया/[ निवृत्ति मार्ग - ईश्वरत्व प्राप्ति के बाद कर्मत्याग ]/[নিবৃত্তিমার্গ — ঈশ্বরলাভের পর কর্মত্যাগ][ईशान को उपदेश - 'उत्तिष्ठत , जाग्रत '- कर्मकाण्डी अनुष्ठान  बहुत कठिन है]/ 🔆तीव्र वैराग्य चाहिए -माँ जगदम्बा के गुण गाते हुए उनमें पादपद्मों में अनुराग पैदा करना चाहिए/उठो , जागो , कमर कसो और लक्ष्य (ईश्वरत्व या 100 %निःस्वार्थपरता ) मिलने तक रुको नहीं !'उत्तिष्ठत , जाग्रत ' --उठे पड़े लागो। कोमर बाँधो ! / 🔆[श्री रामकृष्ण और योग सिद्धांत - कामिनी-कांचन में आसक्ति ही योग के विघ्न हैं ! / 🔆🙏बाँस से बने 'षट्काकल जुगाड़' द्वारा मछली पकड़ना / 🔆 देहु शिवा बर मोहे इहै" -  जब आव की अउध निदान बनै; अति ही रन मै तब जूझ मरों/🔆🙏जब मैं भी जगतजननी काली के कुल /"काली -ठाकुर परम्परा, विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर-परम्परा"  में पैदा हुआ हूँ/तो माँ जगदम्बा की भक्ति पर मेरा भी अधिकार अवश्य है !🔆🙏 त्रैलोक्य विश्वास का जोर -আমার হিস্যে আছে।I have a share in the estate! निष्काम कर्म - अधिकार से पुकारो "मेरी माँ" !}[ত্রৈলোক্য বিশ্বাসের জোর — নিষ্কামকর্ম কর — জোর করে বল “আমার মা”/ 🔆🙏तुम जिसके अंश होते हो, उसके प्रति तुममें एक स्वाभाविक आकर्षण रहता है/ 🔆🙏भक्त को पंचैती, मुखियागिरी, गुरुगिरि नहीं करनी चाहिए /  🔆🙏ईश्वर के दर्शन क्यों नहीं होते ? /[जबतक  कामिनी-कांचन में ही आसक्त है, ईश्वरत्व की प्राप्ति नहीं होती] 🔆🙏ऐषणाओं में आसक्ति  का मूल हैं ~  'महामाया' इसलिए पहले कर्मकाण्ड से चित्तशुद्धि/ 🔆🙏उर्जिता भक्ति 🔆🙏श्रीरामकृष्ण का सर्ववासना-त्याग । केवल भक्ति-कामना*🔆🙏ईशान को उपदेश - चाटुकार लोगों  से सावधान, जगत का कल्याण और नाचीज मनुष्य/ 🔆🙏 सलाह लेनी हो तो संन्यासी से लो , गृहस्थ से नहीं /[और  (नेतागिरी करने)  मुखियाई और सरपंची आदि की क्या जरूरत है ?/ 🔆🙏'ईशान नाम ' सार्थक करो , माँ ने ही यह उपदेश दिया / 🔆🙏हजार साल से बन्द  कमरे का अंधकार  जाने में हजार साल नहीं  लगते -दीपक जलाते ही सारा अंधकार एक क्षण में मिट जाता है।/ 🔆🙏आद्याशक्ति के प्रसन्न होने पर ही विष्णु की योगनिद्रा छूटती है/ 🔆🙏 कर्मकाण्ड कठिन है - 'काली ही एकमात्र मर्म हैं ' इसीलिए भक्तियोग*/ 🔆🙏 वैधी धर्म को कर्मकाण्ड कहते हैं -निष्काम कर्म कठिन इसलिए भक्ति मार्ग सरल/ 🔆🙏पुश्चरण का फल (निवृत्ति) ईशान को  क्यों नहीं मिला ? योग और भोग दोनों ? 🔆🙏 [शिवसंहिता :🔆🙏 

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🔆🙏परिच्छेद ~ 98 [ (18 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] "आत्मानन्द में "- बाबूराम (स्वामी प्रेमानन्द) श्री रामलाल और हरिपद के साथ/🔆 श्री रामकृष्ण काली पूजा की महानिशा में दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के संग🔆🔆🙏कालीपूजा की महानिशा और कीर्तनानन्द में श्रीरामकृष्ण / 🔆कालीपूजा की रात्रि और समाधि में श्रीरामकृष्ण-अन्तरंग पार्षदों के विषय में भविष्यवाणी🔆 

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🔆🙏 $$$$$$$ 🔆🙏 परिच्छेद~ 99 [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 🔆🙏अभ्यास योग 🔆🙏 शरीर (Hand) ,मन (Head) और हृदय (Heart-अक्षरब्रह्म) विकास शिक्षा🔆🙏सींती ब्राह्मसमाज के शरदोत्सव (autumn festival) में🔆🙏 गीता के आठवें अध्याय का 'अक्षरब्रह्म योग '/ [इस प्रकरण में सगुण-निराकार परमात्मा की उपासना का वर्णन है।🔆🙏 अच्युत की चर्चा में सर्व तीर्थों का समागम🔆🙏श्रीरामकृष्ण की समाधि और महाभारत के बाद श्रीकृष्ण की अन्तिम समाधि / 🔆🙏माँ, मुझे कारणानन्द (दिव्य मद्यपान का नशा) नहीं चाहिए, मै सिद्धि पीऊँगा ! /प्रवर्तक, साधक, सिद्ध, सिद्ध का सिद्ध ।“আমি সিদ্ধি খাব” — গীতা ও অষ্টসিদ্ধি — ঈশ্বরলাভ কি? ] [“I will drink / eat Siddhi” - Gita and Ashtasiddhi /हरिकथा-प्रसंग : ब्राह्मसमाज में निराकारवाद/What is the meaning of God-realization ? ]🔆🙏 ज्ञानी और विज्ञानी 🔆🙏सगुण ईश्वर (Dynamic) और निराकार सच्चिदानन्द (Static) दोनों अभिन्न हैं / 🔆🙏भोगासक्त लोगों में ईश्वर को पाने की व्याकुलता नहीं होती / 🔆🙏इन्द्रियातीत सत्य को देखने की व्याकुलता ही ईश्वर तक पहुँचा देगी/(ব্যাকুলতা ও ঈশ্বরলাভ — দৃঢ় হও )/  🔆🙏 ब्रह्मसमाज में 'ईश्वर' को छोड़कर उनके ऐश्वर्य का इतना वर्णन क्यों ?/ 🔆🙏जगत्जननी की कृपा के बिना आत्मसाक्षात्कार नहीं होता/ The Law of Revelation, श्रुति-प्रकाश का सिद्धान्त~  শাস্ত্র না প্রত্যক্ষ ]🔆🙏🔆🙏क्या ईश्वर की कृपा किसी पर अधिक किसी पर कम होती है ?🔆🙏बिना विश्वास के किसी की बात मान लेना पाखण्ड है -पाखण्डी न बनो/ [The difference is not in kind, but in degree.]🔆🙏🔆राजा जनक जैसा  Be unattached (भ्रममुक्त या विसम्मोहित बनो) and stay in the family ] राजर्षि जनक (अनासक्त गृहस्थ) बनना है~ तो पहले निर्जन वास🔆🙏धाराप्रवाह (fluently) अंग्रेजी लिखना हो तो पहले अभ्यास करो🔆🙏केशव को शिक्षा -पुरुष के लिए स्त्री जैसे इमली का अँचार / प्रथम अवस्था में प्रतिवर्ष छः दिनों का निर्जन(=गुरुगृह) वास आवश्यक /🔆🙏[ मन रूपी दूध से ज्ञान और भक्ति रूपी मक्खन निकालो /  मन को निर्लिप्त अवस्था (de-hypnotized भ्रममुक्त अवस्था ) में रखने का उपाय🔆/ 🔆🙏अविद्या माया और विद्यामाया , दोनों को पार करने के बाद छुट्टी   🔆🙏गृहस्थ जीवन में रहकर भी ईश्वर-लाभ सम्भव है /🔆🙏 ज्ञान-भक्ति रूपी मक्खन निकालने के बाद ह्रदय में भगवान का दर्शन होता है🔆🙏ब्राह्मसमाज, [ব্রাহ্মসমাজ — কেশব ও নির্লিপ্ত সংসার — সংসারত্যাগ]/ईसाई धर्म तथा पापवाद: नाम -माहात्म्य पर विश्वास🔆🙏*आम-मुखत्यारी दे दो — गृहस्थ को अपना कर्तव्य कब तक निभाना पड़ता है ?[আমমোক্তারী দাও — গৃহস্থের কর্তব্য কতদিন?/ 🔆🙏'न दैन्यं न पलायनम ~न ढूँढ़ो , न टालो ~ आम-मुखत्यारी दे दो'🔆🙏[Neither seek nor avoid ~Give power of attorney to God!]    निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥"🔆🙏जो ईश्वर के प्रेम में मतवाले जाते हैं - उनका भार ईश्वर स्वयं ढोते हैं ! Ah! Priceless words!/আহা! আহা! কি কথা!/ 🔆🙏 गृहस्थ ज्ञानी के लक्षण ~ ईश्वर-प्राप्ति की पहचान -जीवनमुक्त के लक्षण /[সংসারে জ্ঞানীর লক্ষণ — ঈশ্ব্বরলাভের লক্ষণ — জীবন্মুক্ত 🔆🙏काली के भक्त जीवनमुक्त नित्यानंदमय हो जाते हैं/ ‘কালীর ভক্ত জীবন্মুক্ত নিত্যানন্দময়।’🔆🙏[উপায় ব্যাকুলতা — তিনি যে আপনার মা ]सिक्खों को उपदेश -विषयरस सुखाने की जिद करो - काली तुम्हारी अपनी माँ है🔆🙏'परम आत्मीय ईश्वर' ~ किस सीमा तक अपने हैं ?🔆🙏 ''All troubles come to an end when the ego dies.'अहंकार ही आवरण है' जिसके कारण सब-जज भी ईश्वर को नहीं देख पाते/अहंकार और सब-जज*অহংকার ও সদরওয়ালা/[विचार करो - अहंकार 'ज्ञान' के कारण होता है या 'अज्ञान' के कारण ?/“আমি মলে ঘুচিবে জঞ্জাল।”/🔆🙏दुर्गा -पूजा के बाद मूर्ति-विसर्जन की मरीचिका🔆🙏 सत्त्व, रज और तम देह के उपादान हैं -गुण नहीं हैं, तभी मनुष्यों में विविधता है/🔆 ब्रह्म समाज और साम्यभाव - मनुष्य का स्वभाव भिन्न-भिन्न क्यों हैं*/[ব্রাহ্মসমাজ ও সাম্য — লোক ভিন্ন প্রকৃতি /🔆🙏 Qualities and Characteristics of Leader /`मानव प्रकृति की बहुत सारी विविधताएँ (Varieties-किस्में ) हैं '   [মানব প্রকৃতির বিভিন্নতা।][Varieties of Human Nature.] 🙏🔆🙏नित्यमुक्तजीव ~विवेकानन्द, मुक्तजीव ~ नवनीदा, एवं मुमुक्षुजीव  ~ कैप्टन सेवियर 🔆🔆🙏[ओह ! ब्रह्म को भी पंचभूतों के चक्कर में फंस कर रोना पड़ता है !] ` सन्निपात (delirium-चित्तभ्रम, भेंड़त्व या ) मनोक्षेप की अवस्था~ बद्ध जीवों के लक्षण--मरने के समय भी भगवान का नाम नहीं लेते 🔆🙏अभ्यास योग 🔆विवेकदर्शन का अभ्यास-स्वामी विवेकानन्द की छवि पर प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास) 🔆🙏*श्रीरामकृष्ण का प्रेमोन्मत्त नृत्य */ 🔆🙏एक अवर्णनीय दृश्य।/[An indescribable scene./ Steam boat 'कलवाला जहाज' को (नेता या जीवनमुक्त शिक्षक C-IN-C नवनीदा को) -अविद्या माया (illusion of ignorance) और विद्या माया - (illusion of knowledge) दोनों के पार जाना पड़ता है! ] 🔆🙏 विजय के प्रति उपदेश/[ব্রাহ্মসমাজে লেকচার — আচার্যের কার্য — ঈশ্বরই গুরু /[ब्राह्मसमाज में लेक्चर और गुरु परम्परा में प्रशिक्षित आचार्य का कार्य - ईश्वर ही गुरु हैं ।]🔆🙏🔆🙏`गुरुगिरि ' करना स्वयं के लिए हानिकारक (injurious) है / सच्चिदानंद ही भवसागर के एकमात्र गुरु ,केवट, 'नेता' हैं। -भवसागर के जहाज का मांझी (oarsman) होने का ढोंग करना, स्वयं के लिए बहुत हानिकारक (injurious) है। সচ্চিদানন্দই একমাত্র ভবসাগরের কাণ্ডারী।He alone is the Ferryman to take one across the ocean of he world./ 🔆🙏'मैं' (देहाभिमानी-अमुकजी ) लेक्चर दे रहा हूँ,' ऐसा विचार न लाना/Never cherish the attitude,'I am preaching. ‘আমি বলছি’ এ-জ্ঞান করো না।🔆🙏चन्दामामा सभी के मामा हैं-[He belongs to all, even as 'Uncle Moon' ] डाइरेक्ट 'माँ ' से आज्ञा लेकर बोलने जाओ🔆🙏 पूर्ण ज्ञान -काली ही ब्रह्म, के बाद अभेद । ईश्वर का मातृभाव । आद्याशक्ति🔆🙏ब्रह्मसमाज में भगवान का मातृभाव -'Motherhood of God'/[द्वे वाव ब्रह्मणों रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च (बृहदारण्यकोपनिषद २. ३.१.)]🔆🙏ब्रह्म समाज और वेदांत में प्रतिपादित ब्रह्म - आद्यशक्ति🔆हरि ॐ तत्सत्🙏nabni da : Formless versus Personal Form of God : /निराकार के विपरीत ईश्वर का व्यक्तिगत रूप ~   हरि ॐ तत्सत्/  🔆🙏भक्तिमार्ग /आद्याशक्ति (Primal Energy) के दर्शन और ब्रह्मज्ञान🔆🙏[  इतना शुद्ध अर्थात निर्भीक, माँ तारा के बेटे जैसा निर्भीक मन होना चाहिए ? यदि आत्मा ही ब्रह्म है , तो आज मैं ' -देखता= हूँ कि मरता कौन है ? 🔆🙏`काली द मदर' `काली माता' शीर्षक कविता भी लिखी ~ " KALI THE MOTHER "  `Who dares misery- love, And hug the form of Death,Dance in Destruction's dance, To him the Mother comes !`साहसी, जो चाहता है ~ दुःख; मिल जाना मरण से !नाश की गति नाचता है, माँ उसीके पास आयी ।-- Swami Vivekananda🔆ज्ञानमार्ग🙏जो शक्ति (Dynamic) हैं, वे ही ब्रह्म (Static) भी हैं।🔆🙏ब्रह्म समाज में विद्वेष (envy, ईर्ष्या)🔆🙏 🔆🙏संन्यासी संचय नहीं करते - लेकिन गृहस्थ संचित धन का सदुपयोग करेंगे 🔆🙏সন্ন্যাসে সঞ্চয় করিতে নাই — শ্রীযুক্ত বেণী পালের অর্থের সদ্ব্যবহার ] 🙏'अर्थ' मनुष्य का प्रभु नहीं-दास है, वैसे ही जो 'मन' के प्रभु नहीं वे पशु के समान--- `Where the mind is without fear,  and the head is held high ' 🙏 

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 🔆🙏$$$$$ परिच्छेद~ 100 [ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 🔆🙏अन्नकूट -गोवर्धन पूजा के अवसर पर बड़ा बाजार, कोलकाता में श्रीरामकृष्ण 🔆🙏महामण्डल (नरसिंह, वामन,.... अवतार) के आविर्भूत होने का प्रायोजन🔆🙏[श्री रामकृष्ण की इच्छा, माँ का आशीर्वाद, स्वामीजी का उत्साह (दीवानापन-infatuation, प्रेम -भावावेग, भावातिरेक का तात्पर्य)🔆🙏Thawing of Ice (हिमद्रवण) किसे कहते हैं ? भाव किसे कहते हैं,भक्ति किसे कहते हैं, प्रेम (दीवानापन-mellowness,drunken) किसे कहते हैं ?🔆🙏 किसी को भक्ति होती है किसी को नहीं, क्यों ? ' श्रीरामकृष्ण देव हिन्दी -बंगला इंटरप्रेटर के रूप में.🔆🙏 समाधितत्त्व- नारद और शुकदेव की चेतन समाधि है 🔆🙏सांख्य दर्शन द्वारा श्रीमद्भागवत (के महारास ) को समझने की पात्रता अर्जित करो🔆🙏 अवतारी पुरुष को सब लोग नहीं पहचान पाते, तब भक्ति का उपाय क्या है ? 🔆🙏आत्मनिरीक्षण करो -संसारे मन कत आछे ? आठ आना ?🔆🙏नदी की ही तरंगें हैं, तरंगों की नदी थोड़े ही है ? (does the river belong to the waves?)🔆🙏तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि, इस समय अवतार नहीं है ?🔆🙏 बड़ा बाजार का अन्नकूट-महोत्सव -श्री मोर मुकुट धारी की पूजा 🔆🙏बड़ाबाजार से राजपथ तक - 'दीवाली' का दृश्य, कांचन-बद्ध जीवों का स्वभाव 🔆🙏“और भी बढ़कर देखो - और भी बढ़कर, जीवन का सिंहावलोकन करो ।"  आरो एगिए देखो , आरो एगिए ! আরও এগিয়ে দেখ, আরও এগিয়ে!, "Go forward! Move on!" [ विवाह 6 मई , 1971 : में आटा चक्की > मलाड बॉम्बे > इंडस्ट्रियल एरिया चिंचवाड़, पूना>  दिल्ली का सदरबाजार> कोलकाता का बड़ाबाजार> राँची का जिमखाना क्लब>झुमरी तिलैया जिमखाना क्लब -16 मार्च,2022 ]🔆🙏“और भी बढ़कर देखो - और भी बढ़कर, जीवन का सिंहावलोकन करो ।"  आरो एगिए देखो , आरो एगिए ! আরও এগিয়ে দেখ, আরও এগিয়ে!, "Go forward! Move on!"  [विवाह 6 मई , 1971 : में आटा चक्की > मलाड बॉम्बे > इंडस्ट्रियल एरिया चिंचवाड़, पूना>  दिल्ली का सदरबाजार> कोलकाता का बड़ाबाजार> राँची का जिमखाना क्लब>झुमरी तिलैया जिमखाना क्लब -16 मार्च,2022 ] अपनी वर्तमान अवस्था से संतुष्ट न हों🔆🙏गुरुगिरि करने में इंट्रेस्टेड व्यक्ति एसपीटीसी में जाने का हिसाब जोड़ता है🔆🙏 हिन्दू धर्म पहले से है और सदा रहेगा भी/[हिंदू-भाव (हिन्दुत्व) ही सनातन धर्म है/ [Hinduism is a eternal religion] হিন্দুভাব (হিন্দুত্ব)  - এই সনাতন ধর্ম।

🔆🙏>>>>>>>अनुलग्नक : 'वह', जो 'नहीं' है ?##मन का विघटित होना परमेश्वर का विधान है।##प्रभु दास (नेता,जनता-जनार्दन का दास), फिर क्यों उदास ? ## कामनाशून्य ज्ञानी ?(^*):  भगवान् श्रीकृष्ण गीता 4 /8 में अर्जुन को अपने अवतार होने के  विषय में इतने विस्तार से जानकारी क्यों दे रहे हैं?##श्री दशावतार स्तुति ##श्री भृगु-संहिता (मूल)##कौन राम ? :> 👉garudajee ke saat prashn tatha kaakabhushundi ke uttar: ##प्रभु श्री राम के द्वारा `रामेश्वर महादेव ' की स्थापना:> श्रीरामचरितमानस– लंकाकाण्ड #### धर्म रूपी वृक्ष के मूल हैं- भगवान शंकर!  राम से बड़ा राम का नाम !!!:> `रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।' ####बिंदु राम का सकल पसारा । $$$$$$ barha peedam natavara vapu : [श्रीमयूर-मुकुटधारी श्री कृष्ण नाम की महिमा ^* `वेणु गीत की कथा' :`रास का  मर्म'-  श्रीकृष्ण के गुँजामाला धारण करने का रहस्य 👉 श्रीकृष्ण का शरीर ऐसा है कि देखने में लगता है कि मानो लावण्य दौड़ रहा है।बर्हापीड 👉barha peedam natavara vapu : जीव और ब्रह्म का मिलन ... महारास :-🔆🙏भारतीय धरोहर : नाद-बिन्दु (Sound -Light)^*👉उत्पत्ति का क्रम (evolution)🔆🙏:`शीक्षा '  की वैदिक दृष्टि-तैत्तरीय उपनिषद  👉मारवाड़ी -भजन :मारवाड़ और मेवाड़ 1. 👉 vivaah sanskaar : “क्यों जी, पैसा है ?"^ विवाह करोगे ?love, passion and lust : प्रेम, उन्माद और काम : हातिम ताई🔆🙏हातिम ताई की आरुरुक्ष / योगरूढ/ स्थितप्रज्ञ-दशा : 🔆🙏हातिम-ताई का यज्ञोपवीत संस्कार : [भृगुवल्ली / The Bridge-Valley/ कृष्ण-यजुर्वेद,  तैत्तिरीय उपनिषद 

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🔆🙏 🔆🙏 🔆🙏 परिच्छेद~ 101 [ (26 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-101 ]🙏श्रीरामकृष्ण के चेहरे से माँ जगदम्बा के निश्चिन्त बालक की दिव्यता विकीर्ण होती है🙏[अद्वैत द्वार श्री रामकृष्ण दक्षिणेश्वर के कालीबाड़ी में श्रीरामकृष्ण हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं 🔆🙏🔆🙏अव्यक्त (साम्य-Undifferentiated) और व्यक्त (विविधता-Differentiated)🔆🙏श्री रामकृष्ण के सत्य की टेक और संचय में बाधा🔆🙏[শ্রীরামকৃষ্ণের সত্যে আঁট ও সঞ্চয়ে বিঘ্ন ]🔆🙏हृदय का आगमन[সেবক সন্নিকটে — হৃদয় দণ্ডায়মান]🔆🙏सेवा-धर्म और ह्रदय के व्यंगबाण🔆🙏भाव, महाभाव (ecstasy -परमानन्द की अनुभूति) का गूढ़ तत्व🔆🙏ईश्वर का अनुभव हुए बिना भाव या महाभाव नहीं होता🔆🙏अधिक देर तक भाव में रहना ठीक नहीं -लोग पागल कहेंगे🔆🙏  कर्म अथवा साधना  किये बिना ईश्वर का दर्शन नहीं होता🔆🙏किताब पढ़कर क्या समझोगे ? किसी और चीज से पहले ईश्वर-दर्शन आवश्यक 🔆🙏 [আগে বিদ্যা (জ্ঞানবিচার) — না আগে ঈশ্বরলাভ? ]नवनीदा के कैम्प (निर्जनवास) में अमजद- माँ सारदा का दर्शन होता है🔆🙏[अमजद -माँ सारदा के दर्शनों के बाद शास्त्र और साइन्स (विज्ञान) सब तिनके-जैसे][তাঁকে দর্শনের পর বই, শাস্ত্র, সায়েন্স সব খড়কুটো বোধ হয়।]🔆🙏छः दिवसीय कैम्प में जाकर चपरास प्राप्त (C-IN-C) से भेंट करो ! 🔆🙏यदि आस्तिक हो तो ईश्वर का दर्शन करने की चेष्टा क्यों नहीं करते ?🔆🙏 [ঈশ্বরকে দেখিয়ে দাও, আর উনি চুপ করে বসে থাকবেন।](Simply saying that God exists and doing nothing about it?) 🔆🙏 ईश्वर दर्शन का उपाय - व्याकुलता 🔆🙏The vision of God depends on His grace.]ईश्वर का दर्शन मिलना उनकी कृपा पर निर्भर है।)🔆🙏ईश्वर की कृपा से शुभ संयोग के मिलने पर सब काम बन जाता है 🔆🙏संन्यास तथा गृहस्थाश्रम । ईश्वर-लाभ और त्याग🔆🙏 वजन का समान वितरण तराजू के निचले काँटे (मन)  को ऊपरी काँटे (विवेक)🔆🙏क्या संसार का त्याग करना आवश्यक है-मैं जहाँ रहता हूँ, वह राम की अयोध्या है🔆🙏संसार (प्रवृत्ति) करना, संन्यास (निवृत्ति), यह सब राम की इच्छा से होता है🔆🙏 पारिवारिक जीवन में -जीवनमुक्त (ब्रह्मज्ञानी) कैसे रहता है 🔆🙏सृष्टि से लेकर अभी-तक की समस्त समस्याओं का उत्तर देंगे श्रीरामकृष्ण 🔆🙏श्री देवेन्द्रनाथ टैगोर (रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता) का योग और भोग🔆🙏 अहम्मन्यता की जो लकीर (streak) चित्त में पड़ जाती है वह ज्ञान से या अज्ञान से ?🙏[Streak of vanity on Chitta ] 🔆🙏 विवेक-वैराग्य-भक्ति से रहित ज्ञानी गिद्ध समान, उंचि उड़ान नजर मुर्दे पर🔆🙏 🔆🙏गीता का विभूति योग 🔆🙏🔆ब्रह्म समाज में 'असभ्यता' -गृहस्थ भक्त (राजर्षि?) कप्तान🔆🔆🙏वेदान्त के विचार से ~ जाग्रत अवस्था भी स्वप्न के जितनी सत्य है🔆🙏 श्रीरामकृष्ण का मायावाद- `तुरीय का पूरा वजन' लो !🔆🙏जबतक अहं बुद्धि है -तब तक हाथी नारायण है तो महावत भी नारायण है🔆🙏🔆🙏उत्तम भक्त सर्वत्र आत्मा का (अद्वैत का) अनुभव करता है🔆🙏 [मायावाद और विशिष्टाद्वैतवाद - ज्ञान योग और भक्ति योग]🔆🙏 ओंकार रूपी टंकार `ट - अ –अ - म्' से नित्य-लीला योग 🔆🙏[ওঁকার ও নিত্য-লীলা যোগ ]🔆🙏'तुच्छं ब्रह्मपदं, परवधूसंगः कुतः विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से, मोक्ष (अमरपद) भी तुच्छ जान पड़ता है 🔆🙏[फतिंगा (moth) अगर एक बार उजाला देख लेता है, तो फिर अँधेरे में नहीं जाता ]🔆🙏 अवतार वरिष्ठ की भक्ति से संसारासक्ति कम होती है~ नवनीदा निर्लिप्त गृहस्थ 🔆🙏ज्ञानी कवि (ब्रह्मविद-शंकर ) और भक्त कवि (विवेकानन्द) का अन्तर🔆🙏 पत्थर की अभिलाषा : Stone Desire:तू जो तराशेगा तो पूजेगा जमाना मुझको ,रास्ते में पड़ा पत्थल हूँ उठा ले मुझको ' 🔆🙏मातृभक्ति पुत्र को आत्म-अनुशासन (discretionary knowledgeविवेकज ज्ञान) में रखती है🔆🙏 विवेकज ज्ञान हो जाने पर परिवार में रहने से भी कोई भय नहीं🔆🙏मेरी मामी अब पूर्ण स्वस्थ हैं, वे केवल थोड़ी सी बीमार हैं!🔆🙏निरुपम की लीला हाजरा (जटिला -कुटिला) को प्रणाम किये बिना पुष्ट नहीं होती 🔆🙏 चुंबक शुद्धआत्मा स्थिर है, सुई रूपी (मन की तीनों अवस्थाओं) का साक्षी है🔆🙏 सन्ध्या-संगीत और ईशान से संवाद🔆🙏ईश्वर पर विश्वास से ईश्वर की प्राप्ति - ईशान को कर्मयोग का उपदेश🔆🙏 वैधि भक्ति और राग-भक्ति, वैधी-अनुष्ठान (सन्ध्या,पुश्चरण) कब छूट जाते है?🔆🙏 🔆🙏सेवक (मणि) का विचार मंथन🔆🙏जब तक मैं यंत्र हूँ ऐसा बोध नहीं होता, विवेक-प्रयोग करना होगा🔆🙏  सनातन धर्म की वैश्विक अवधारणा ~ अंतिम विजय भक्ति की ही होती है🔆🙏 भक्ति-वेदान्त: ब्रह्म, जीव और जगत तीनों सत्य हैं- (रामानुजाचार्य)🔆🙏'हाथी नारायण-माहुत नारायण' का दृष्टांत है🔆🙏 भगवद्गीता में कुल अठारह अध्याय हैं। इन्हें तीन खंडों में संयोजित किया जा सकता  है।🔆🙏जब कुछ नहीं था—तब क्या था? 🔆🙏 ' सांख्य दर्शन का एक अध्यन ' (यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे- वि ० साहित्य ० खण्ड 4 पेज 201) : 🔆🙏 'मधुमत् पार्थिवं रजः’ ^*:– ऋग्वेद में मधुमय जीवन की प्रार्थना :


  

 





 












  










  




 [অদ্বারিত দ্বার শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বরের কালীবাড়িতে আমাদের জন্য অপেক্ষা করছেন। (श्रीरामकृष्ण का मायावाद -जीव , जगत और ईश्वर तीनों को सत्य मानता है।) 







 
















 








   


 


 


 







   




 










  












सोमवार, 6 सितंबर 2021

🔆🙏$$$$$🔆🙏 [परिच्छेद ~ 93, [(26 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -93] 🔆 'God with form is my Mother, the Formless is my Father. 🙏ब्रह्म के सगुण और निर्गुण रूपों में 'समन्वय' 🔆🙏* प्रार्थना-रहस्य* 🙏🔆जो पीना हो , उसे जगदम्बा को निवेदित करके पीना; **शाश्वत चैतन्य (consciousness) के चार स्तर * *आशीर्वाद गुरु/नेता (C-IN-C) बिल्लाधारी व्यक्ति नहीं ईश्वर ही देते हैं * * चरणामृत और पंचामृत का अन्तर * ठाकुरदेव खुद प्रार्थना करके सीखा रहे हैं --How to Pray ?**शराब की लत छुड़ाने के उपाय**‘मंत्रं साधयामि-शरीरं वा पातयामि’*(" एबार काली तोमाय खाबो। (खाबो खाबो, गो दीन दयामयी)। *आहार-शुद्धि के विषय में तंत्र का मत, वेद, पुराण के मत से भिन्न है* *मूर्तमान ज्ञान (घनीभूत चैतन्य) को नित्यसिद्ध कहते हैं * * ईश्वरकोटि और जीवकोटि ** सच्चिदानन्द और कारणानन्दमयी * God impersonal ,(अवैक्तिक ईश्वर) and personal (माँ काली )] *Open-eyed Meditation and concentration *आहार-शुद्धि के विषय वेद, पुराण से तंत्र का मत भिन्न है* *राजपूत (नेता) को चैतन्य की चारो अवस्थाओं का ज्ञान होता है * ईश्वरकोटि और जीवकोटि * अनुलोम और विलोम (negation and affirmation. नेति से इति ) ^ *मूर्तमान ज्ञान (घनीभूत चैतन्य) को नित्यसिद्ध कहते हैं * राजर्षि जनक और ब्रह्मर्षि शुकदेव **ज्ञानी तथा भक्त की अवस्था का भोजन -विचार * * चंद्रमास -पंचांग - और तन्त्रसाधना में महाष्टमी ^ के दिन का महत्व*चरणामृत और पंचामृत का अन्तर * Dogmatism is not good *साधारण ब्रह्म समाज और मूर्तिपूजकों का प्रवेश-निषेध साइनबोर्ड *ऐसा भाव अच्छा है~~'मेरा धर्म ठीक है, पर दूसरों के धर्म में सचाई है या वह गलत है, यह मेरी समझ में नहीं आता All have not the same power of digestion'*वेदों में ईश्वर को निर्गुण, सगुण दोनों कहा है*दोनों पल्ला भारी*वेतनभोगी प्रचारक-नेता (Salaried Preacher) विजय गोस्वामी के प्रति उपदेश (rda,dsrkr,pda,orsa)* प्रभावशाली हस्ती , कुत्ता , सांढ़(calm it with a gentle Voice) , शराबी से सावधान , कहना पड़ता है - क्यों चाचा कैसे हो ?* सत्संग (pda)की बड़ी आवश्यकता *The companionship of a holy man is greatly needed* आशीर्वाद ईश्वर ^ देंगे * गृहस्थाश्रम और संन्यास*गृही ब्राह्मभक्त (भावी राजर्षि) को उपदेश* [महामण्डल आन्दोलन सांसारिक (गृही-CINC ) और आध्यात्मिक (संन्यासी) आदर्शों का मिश्रण है] [महामण्डल में 'राब ' ('गुड़ का रवा'-ऋषित्व) भी है और शीरा ('गुड़रस' -राजत्व ) भी]* *गृहस्थ लोग को कामिनी -कांचन में अनासक्त होकर परिवार में रहना चाहिए* खुली आंखों से ध्यान (दृष्टा -दृश्य विवेक) और मूंदी आँखों से एकाग्रता का अभ्यास * [गीता-चण्डी के मत से शिवनाथ के भीतर ईश्वर की शक्ति है -एवं श्री केदार चट्टोपाध्याय* [God impersonal and personal — सच्चिदानन्द और करणानन्दमयी - राजर्षि और ब्रह्मर्षि!] *ईश्वरकोटि और जीवकोटि - मूर्तिमान ज्ञान है -नित्यसिद्ध **श्रीरामकृष्ण ने मुर्शिद (गुरु, मार्गदर्शक नेता) गोविन्द राय से अल्लाह मंत्र लिया*


परिच्छेद~ 93

* प्रार्थना-रहस्य*

(१) 

[(26 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -93]

🔆🙏ब्रह्म के सगुण और निर्गुण रूपों में 'समन्वय' 🔆🙏

आज श्रीरामकृष्ण कलकत्ता आये हुए हैं । आज नवरात्रि की सप्तमी-पूजा है । शुक्रवार, 26 सितम्बर, 1884  । श्रीरामकृष्ण को बहुत से काम हैं । शारदीय महोत्सव है - हिन्दुओं के यहाँ आज प्रायः घर-घर में यह महोत्सव मनाया जा रहा है, फिर राजधानी कलकत्ते की बात ही क्या है। श्रीरामकृष्ण अधर के यहाँ जाकर प्रतिमा-पूजन देखेंगे और आनन्दमयी के आनन्दोत्सव में भाग लेंगे। उनकी एक इच्छा और है । वे श्रीयुत शिवनाथ शास्त्री (एक ब्राह्म भक्त) के दर्शन भी करेंगे

SRI RAMAKRISHNA had come to Calcutta. It was the first day of the Durga Puja, the great religious festival, and the Hindus of the metropolis were celebrating it. The Master intended to visit the image of the Divine Mother at Adhar's house. He also wanted to see Shivanath, the Brahmo devotee.

[শ্রীরামকৃষ্ণ কলিকাতা নগরীতে আগমন করিয়াছেন। সপ্তমীপূজা, শুক্রবার, ২৬শে সেপ্টেম্বর, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ। ঠাকুরের অনেকগুলি কাজ। শারদীয় মহোৎসব — রাজধানীমধ্যে হিন্দুর প্রায় ঘরে ঘরে আজ মায়ের সপ্তমী পূজা আরম্ভ। ঠাকুর অধরের বাড়ি প্রতিমাদর্শন করিবেন ও আনন্দময়ীর আনন্দোৎসবে যোগদান করিবেন। আর একটি সাধ, শ্রীযুক্ত শিবনাথকে দর্শন করিবেন।

दिन के दोपहर से साधारण ब्राह्मसमाज के फुटपाथ पर हाथ में छाता लिये प्रतीक्षा में मास्टर टहल रहे हैं। एक बजा, दो बजे, श्रीरामकृष्ण न आये । डॉ. महलानोबिस औषधालय की सीढ़ी पर बैठकर कभी पूजा के उत्सव में आबाल-वृद्ध नरनारियों को आनन्द करते हुए देखते हैं ।

It was about midday. Umbrella in hand, M. was pacing the foot-path in front of the Brahmo Samaj temple. Two hours had passed but the Master had not yet appeared. Now and then M. sat down on the steps of Dr. Mahalnavish's dispensary and watched the joy and mirth of the people, young and old, who were celebrating the Puja.

[বেলা আন্দাজ দুই প্রহর হইতে সাধারণ ব্রাহ্মসমাজের ফুটপাথের উপর একটি ছাতি হাতে করিয়া মাস্টার পাদচারণ করিতেছেন। একটা বাজিল, দুইটা বাজিল, ঠাকুর আসিলেন না। শ্রীযুক্ত মহলানবিশের ডিস্পেনসারির ধাপে মাঝে মাঝে বসিতেছেন; দুর্গাপূজা উপলক্ষে ছেলেদের আনন্দ ও আবালবৃদ্ধ সকলের ব্যস্তভাব দেখিতেছেন।

तीन बज गये । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण की गाड़ी आकर पहुँच गयी । साथ में हाजरा तथा दो-एक भक्त और हैं । मास्टर को श्रीरामकृष्ण के दर्शनों से अपार आनन्द हुआ है । उन्होंने श्रीरामकृष्ण की चरणवन्दना की । श्रीरामकृष्ण ने कहा, मैं शिवनाथ के घर जाऊँगा । श्रीरामकृष्ण के आने की बात सुनकर कई ब्राह्मभक्त वहाँ आ पहुँचे ।

A little after three the Master's carriage drove up. As soon as Sri Ramakrishna stepped out he saluted the temple of the Brahmo Samaj with folded hands. Hazra and a few other devotees were with him.

[বেলা তিনটা বাজিল। কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুরের গাড়ি আসিয়া উপস্থিত। গাড়ি হইতে অবতরণ করিয়াই সমাজমন্দির দৃষ্টে ঠাকুর করজোড়ে প্রণাম করিলেন। সঙ্গে হাজরা ও আর দুই-একটি ভক্ত। মাস্টার ঠাকুরের দর্শন লাভ করিয়া তাঁহার চরণবন্দনা করিলেন। ঠাকুর বলিলেন, “আমি শিবনাথের বাড়ি যাইব।” ঠাকুরের আগমনবার্তা শুনিয়া দেখিতে দেখিতে কয়েকটি ব্রাহ্মভক্ত আসিয়া জুটিলেন। 

[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 93 ]

 🔆🙏निर्गुण है सो पिता हमारा, सगुन है महतारी.... दोनों पल्ला भारी  🔆🙏

श्रीरामकृष्ण को अपने साथ वे ब्राह्ममुहल्ले के भीतर शिवनाथ के यहाँ ले आये । शिवनाथ घर में न थे । अब क्या किया जाय ? देखते ही देखते श्रीयुत विजय (गोस्वामी) डॉ. महलानोबिस आदि ब्राह्मसमाज के संचालक आ गये । वे श्रीरामकृष्ण का स्वागत करके उन्हें समाज-मन्दिर के अन्दर ले गये । श्रीरामकृष्ण जरा देर के लिए बैठ गये, यह आशा थी कि तब तक शिवनाथ भी आयेंगे ।

A little after three the Master's carriage drove up. As soon as Sri Ramakrishna stepped out he saluted the temple of the Brahmo Samaj with folded hands. Hazra and a few other devotees were with him. M. bowed before the Master and took the dust of his feet. The Master told him that he was going to Shivanath's house. A few minutes later several members of the Brahmo Samaj came and took him to Shivanath's. But Shivanath was not at home. Shortly afterwards Vijay Goswami, Mahalnavish, and several other Brahmo leaders greeted the Master and took him inside the Brahmo temple.

[তাঁহারা ঠাকুরকে সঙ্গে করিয়া ব্রাহ্মপাড়ার মধ্যে শিবনাথের বাড়ির দ্বারদেশে তাঁহাকে লইয়া গেলেন। শিবনাথ বাড়িতে নাই। কি হইবে? দেখিতে দেখিতে শ্রীযুক্ত বিজয় (গোস্বামী), শ্রীযুক্ত মহলানবিশ ইত্যাদি ব্রাহ্মসমাজের কর্তৃপক্ষেরা উপস্থিত হইলেন ও ঠাকুরকে অভ্যর্থনা করিয়া সমাজমন্দিরমধ্যে লইয়া গেলেন। ঠাকুর একটু বসুন — ইতিমধ্যে শিবনাথ আসিয়া পড়িলেও পড়িতে পারেন।

श्रीरामकृष्ण सदा ही आनन्दमय बने रहते हैं । हँसकर उन्होंने आसन ग्रहण किया । वेदी के नीचे जिस जगह संकीर्तन होता है, वहीं बैठने का आसन कर दिया गया । विजय आदि बहुतेरे ब्राह्मभक्त सामने बैठे ।

[ঠাকুর আনন্দময়, সহাস্যবদনে আসন গ্রহণ করিলেন। বেদীর নিচে যে স্থানে সংকীর্তন হয়ে সেই স্থানে বসিবার আসন করিয়া দেওয়া হইল। বিজয়াদি অনেকগুলি ব্রাহ্মভক্ত সম্মুখে বসিলেন।

Sri Ramakrishna was in a happy mood. He was given a seat below the altar. There the Brahmo devotees sang their devotional music. Vijay and the Brahmo devotees sat in front of the Master.

श्रीरामकृष्ण - (विजय से, हँसते हुए) - मैंने सुना है कि यहाँ कोई साइनबोर्ड है । दूसरे मतों के आदमी यहाँ नहीं आने पाते । नरेन्द्र ने कहा, समाज में जाने की जरूरत नहीं, आप शिवनाथ के यहाँ जाइयेगा ।

"I was told that you had put up a 'signboard' here that people belonging to other faiths are not allowed to come in. Narendra, too, said to me: 'You shouldn't go to the Brahmo Samaj. You had better visit Shivanath's house.'

{শ্রীরামকৃষ্ণে (বিজয়কে, সহাস্যে) — শুনলাম, এখানে নাকি সাইনবোর্ড আছে। অন্য মতের লোক নাকি এখানে আসবার জো নাই! নরেন্দ্র বললে, সমাজে গিয়ে কাজ নাই, শিবনাথের বাড়িতে যেও।

 'अमुक नाम' वाले और 'तुमुक नाम' वाले सम्प्रदाय में द्वेष ठीक नहीं

[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 93 ]

🔆🙏बिना ईश्वर का साक्षात्कार किये उनका स्वरूप समझ में नहीं आता🔆🙏  

"मैं कहता हूँ, उनको सभी पुकार रहे हैं । द्वेष की क्या जरूरत है ? कोई साकार कहता है और कोई निराकार । मैं कहता हूँ, जिसका विश्वास साकार पर है, वह साकार की ही चिन्ता करे और जिसका विश्वास निराकार पर है, वह निराकार की चिन्ता करे । तात्पर्य यह कि इस कट्टरता /हठधर्मिता की कोई आवश्यकता नहीं कि मेरा ही धर्म ठीक है, तथा अन्य सब वाहियात है ।

'मेरा धर्म ठीक है, पर दूसरों के धर्म में सचाई है या वह गलत है, यह मेरी समझ में नहीं आता', ऐसा भाव अच्छा है, क्योंकि बिना ईश्वर का साक्षात्कार किये उनका स्वरूप समझ में नहीं आता कबीर कहते थे - 

निर्गुण है सो पिता हमारा, सगुन है महतारी। 

 काको निन्दौ काको बन्दौ, दोनों पल्ला भारी।।

[एक (सगुण) माँ है दूसरा (निर्गुण ) बाप है l 'बाप -बेटे के संबंध में'  बुद्धि (Head) प्रधान है और 'माँ -बेटे के संबंध में ' हृदय (Heart) प्रधान है l निर्गुण हमारा पिता है और सगुण हमारी माँ है अतः हम किसका वंदन करें आप किसकी निंदा करें क्योंकि दोनों ही पलड़े भारी है l जो निर्गुण (ब्रह्म) है वही सगुण (शक्ति) है। और जो सगुण (माँ काली) है वही निर्गुण (ब्रह्म) है।

 (सृजन शक्ति, प्रक्षेपण शक्ति या वंशविस्तार शक्ति है ? creation or projection ?) 

 "But I say that we are all calling on the same God. Jealousy and malice need not be. Some say that God is formless, and some that God has form. I say, let one man meditate on God with form if he believes in form, and let another meditate on the formless Deity if he does not believe in form. What I mean is that dogmatism is not good. It is not good to feel that my religion alone is true and other religions are false. The correct attitude is this: My religion is right, but I do not know whether other religions are right or wrong, true or false. I say this because one cannot know the true-nature of God unless one realizes Him. Kabir used to say: 'God with form is my Mother, the Formless is my Father. Which shall I blame? Which shall I praise? The two pans of the scales are equally heavy.'] 

“আমি বলি সকলেই তাঁকে ডাকছে। দ্বেষাদ্বেষীর দরকার নাই। কেউ বলছে সাকার, কেউ বলছে নিরাকার। আমি বলি, যার সাকারে বিশ্বাস, সে সাকারই চিন্তা করুক। যার নিরাকারে বিশ্বাস, সে নিরাকারেই চিন্তা করুক। তবে এই লা যে, মতুয়ার বুদ্ধি (Dogmatism) ভাল নয়, অর্থাৎ আমার ধর্ম ঠিক আর সকলের ভুল। আমার ধর্ম ঠিক; আর ওদের ধর্ম ঠিক কি ভুল, সত্য কি মিথ্যা; এ আমি বুঝতে পাচ্ছিনে — এ-সব ভাল। কেননা ঈশ্বরের সাক্ষাৎকার না করলে তাঁর স্বরূপ বুঝা যায় না। কবীর বলত, ‘সাকার আমার মা, নিরাকার আমার বাপ। কাকো নিন্দো, কাকো বন্দো, দোনো পাল্লা ভারী।

[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 93 ]

🙏सब मत ही उनके रास्ते (पथ) हैं, पर मत कभी ईश्वर (जगन्नाथ जी) नहीं है ।🙏

All doctrines are only so many paths, but a path is not God Himself.  

"हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, शाक्त, वैष्णव, शैव, ऋषियों के समय के ब्रह्मज्ञानी और आजकल के ब्राह्मसमाज वाले तुम लोग, सब एक ही वस्तु की चाह रखते हो । अन्तर इतना ही है कि जिससे जिसका हाजमा नहीं बिगड़ता, उसी की व्यवस्था उसके लिए माँ ने की है

"Hindus, Mussalmans, Christians, Saktas, Saivas, Vaishnavas, the Brahmajnanis of the time of the rishis, and you, the Brahmajnanis of modern times, all seek the same object. A mother prepares dishes to suit the stomachs of her children. Suppose a mother has five children and a fish is bought for the family. She doesn't cook pilau or kalia for all of them. All have not the same power of digestion; so she prepares a simple stew for some. But she loves all her children equally.

[“হিন্দু, মুসলামান, খ্রীষ্টান, শাক্ত, শৈব, বৈষ্ণব, ঋষিদের কালের ব্রহ্মজ্ঞানী ও ইদানীং ব্রহ্মজ্ঞানী তোমরা — সকলেই এক বস্তুকে চাহিছো। তবে যার যা পেটে সয়, মা সেইরূপ ব্যবস্থা করেছেন। মা যদি বাড়িতে মাছ আনেন, আর পাঁচটি ছেলে থাকে, সকলকেই পোলাও কালিয়া করে দেন না। সকলের পেট সমান নয়। কারু জন্য মাছের ঝোলের ব্যবস্থা করেন। কিন্তু মা সকলকেই সমান ভালবাসেন।

"बात यह है कि देश, काल और पात्र के भेद से ईश्वर ने अनेक धर्मों की सृष्टि की है । परन्तु सब मत ही उनके रास्ते हैं, पर मत कभी ईश्वर नहीं है । बात यह है कि आन्तरिक भक्ति के द्वारा एक मत का आश्रय लेने पर उनके पास तक पहुँचा जाता है । अगर किसी मत का आश्रय लेने पर कोई भूल उसमें रहती है, तो आन्तरिकता के होने पर वे भूल सुधार देते हैं ।

अगर कोई आन्तरिक भक्ति के साथ जगन्नाथजी के दर्शनों के लिए निकलता है और भूलकर दक्षिण की ओर न जाकर उत्तर की ओर चला जाता है, तो रास्ते में उसे कोई अवश्य ही कह देता है, 'क्यों भाई, उस तरफ कहाँ जाते हो, दक्षिण की ओर जाओ ।' वह आदमी कभी न कभी जगन्नाथजी के दर्शन अवश्य ही करेगा ।

Do you know what the truth is? God has made different religions to suit different aspirants, times, and countries. All doctrines are only so many paths; but a path is by no means God Himself. Indeed, one can reach God if one follows any of the paths with whole-hearted devotion. Suppose there are errors in the religion that one has accepted; if one is sincere and earnest, then God Himself will correct those errors. Suppose a man has set out with a, sincere desire to visit Jagannath at Puri and by mistake has gone north instead of south; then certainly someone meeting him on the way will tell him: 'My good fellow, don't go that way. Go to the south.' And the man will reach Jagannath sooner or later.

[“আমার ভাব কি জানো? আমি মাছ সবরকম খেতে ভালবাসি। আমার মেয়েলি স্বভাব! (সকলের হাস্য) আমি মাছ ভাজা, হলুদ দিয়ে মাছ, টকের মাছ, বাটি-চচ্চড়ি — এ-সব তাতেই আছি। আবার মুড়িঘন্টোতেও আছে, কালিয়া পোলোয়াতেও আছি। (সকলের হাস্য)“কি জানো? দেশ-কাল-পাত্র ভেদে ঈশ্বর নানা ধর্ম করেছেন। কিন্তু সব মতই পথ, মত কিছু ঈশ্বর নয়। তবে আন্তরিক ভক্তি করে একটা মত আশ্রয় কল্লে তাঁর কাছে পোঁছানো যায়। যদি কোন মত আশ্রয় করে তাতে ভুল থাকে আন্তরিক হলে তিনি সে ভুল শুধরিয়ে দেন। যদি কেউ আন্তরিক জগন্নাথদর্শনে বেরোয়, আর ভুলে দক্ষিণদিকে না গিয়ে উত্তরদিকে যায়, তাহলে অবশ্য পথে কেউ বলে দেয় ওহে, ওদিকে যেও না — দক্ষিণদিকে যাও। সে ব্যক্তি কখনও না কখনও জগন্নাথদর্শন করবে।"

"परन्तु इस बात की आलोचना हमारे लिए निष्प्रयोजन है कि दूसरों का मत गलत है । जिनका यह संसार हैं, वे सोच रहे हैं । हमारा तो यह कर्तव्य है कि किसी तरह जगन्नाथजी के दर्शन करें । और तुम्हारा मत (ब्रह्मसमाज और आर्यसमाज वालों का मत भी ) अच्छा तो है । उन्हें निराकार (formless) कह रहे हो, यह अच्छा तो है । मिश्री की रोटी सीधी तरह से खाओ या टेढ़ी करके खाओ, मीठी जरूर लगेगी ।  

"If there are errors in other religions, that is none of our business. God, to whom the world belongs, takes care of that. Our duty is somehow to visit Jagannath. (To the Brahmos) The view you hold is good indeed. You describe God as formless. That is fine. One may eat a cake with icing, either straight or sidewise. It will taste sweet either way.

[“তবে অন্যের মত ভুল হয়েছে, এ-কথা আমাদের দরকার নাই। যাঁর জগৎ, তিনি ভাবছেন। আমাদের কর্তব্য, কিসে জো সো করে জগন্নাথদর্শন হয়। তা তোমাদের মতটি বেশ তো। তাঁকে নিরাকার বলছ, এ তো বেশ। মিছরির রুটি সিধে করে খাও, আর আড় করে খাই, মিষ্টি লাগবে।

         🙏गिरगिट के रंग को लेकर हठधर्मिता (dogmatism) अच्छी नहीं होती🙏

--लेकिन धर्मान्धता (कट्टरता-dogmatism) अच्छी नहीं होती । तुम लोगों ने बहुरुपी  गिरगिट (chameleon) की कहानी सुनी होगी । आदमी ने जाकर पेड़ पर एक गिरगिट देखा । मित्रों के पास लौटकर उसने कहा, मैंने एक लाल गिरगिट देखा । उसको विश्वास था कि वह बिलकुल लाल है । एक आदमी और उस पेड़ के नीचे से लौटकर आया और उसने आकर कहा, मैं एक हरा गिरगिट देख आया हूँ । उसका विश्वास था कि वह बिलकुल हरा है । परन्तु जो मनुष्य इस पेड़ के ही नीचे रहता था, उसने आकर कहा, तुम लोग जो कुछ कहते हो, सब ठीक है, क्योंकि वह कभी लाल होता है, कभी पीला और कभी उसके कोई रंग नहीं रह जाता

"But dogmatism is not good. You have no doubt heard the story of the chameleon. A man entered a wood and saw a chameleon on a tree. He reported to his friends, 'I have seen a red lizard.' He was firmly convinced that it was nothing but red. Another person, after visiting the tree, said, 'I have seen a green lizard.' He was firmly convinced that it was nothing but green. But the man who lived under the tree said: 'What both of you have said is true. But the fact is that the creature is sometimes red, sometimes green, sometimes yellow, and sometimes has no colour at all.'

[“তবে মতুয়ার বুদ্ধি ভাল নয়। তুমি বহুরূপির গল্প শুনেছ। একজন বাহ্যে কত্তে গিয়ে গাছের উপর বহুরূপী দেখেছিল, বন্ধুদের কাছে এসে বললে, আমি একটি লাল গিরগিটি দেখে এলুম। তার বিশ্বাস, একবারে পাকা লাল। আর-একজন সেই গাছতলা থেকে এসে বললে যে আমি একটি সবুজ গিরগিটি দেখে এলুম। তার বিশ্বাস একেবারে পাকা সবুজ। কিন্তু যে গাছতলায় বাস কত্তো, সে এসে বললে, তোমরা যা বলছো সব ঠিক তবে জানোয়ারটি কখন লাল কখন সবুজ, কখন হলদে, আবার কখন কোন রঙ থাকে না।

"वेदों में ईश्वर को निर्गुण, सगुण दोनों कहा है । #तुम लोग केवल निराकार कह रहे हो, यह एक खास ढरें का है, परन्तु इससे कोई हर्ज नहीं । एक का यथार्थ ज्ञान हो जाय तो दूसरे का भी हो जाता है । वे ही समझा देते हैं । तुम्हारे यहाँ जो आता है, वह इन्हें भी पहचानता है और उन्हें भी ।" (यह कहकर उन्होंने दो-एक ब्राह्मभक्तों की ओर उँगली उठाकर बताया ।)

"God has been described in the Vedas as both with attributes and without. You describe Him as without form only. That is one-sided. But never mind. If you know one of His aspects truly, you will be able to know His other aspects too. God Himself will tell you all about them. (Pointing to two or three Brahmo devotees) Those who come to your Samaj know both this gentleman and that."

[“বেদে তাঁকে সগুণ নির্গুণ দুই বলা হয়েছে। তোমরা নিরাকার বলছো। একঘেয়ে। তা হোক। একটা ঠিক জানলে, অন্যটাও জানা যায়। তিনিই জানিয়ে দেন। তোমাদের এখানে যে আসে, সে এঁকেও জানে ওঁকেও জানে। ” (দুই-একজন ব্রাহ্মভক্তের প্রতি অঙ্গুলি নির্দেশ)

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#"वेदों में ईश्वर को निर्गुण, सगुण दोनों कहा है । आचार्य शंकर ने अपरोक्षानुभूति ग्रन्थ (139) में कहा है : जगत कार्य है - इसमें पहले कारण को देखो। 

कार्ये  कारणं हि  पश्येत् पश्चात्  कार्यं  विसर्जयेत्। 

ततः  कारणत्वं  गच्छेत्  अवशिष्टं  मुनिः  भवेत्।।

पहले कार्य में कारण को देखो , जिससे ये बना है , इसके उपादान को - इसके reality को  देखो, जिससे ये बनी है उसको देखो।  बाद में कार्य (नाम-रूप) को विसर्जित कर दो।  घट दृष्टा घटात भिन्नः -वो घड़े का उदाहरण देते हैं - घड़ा कार्य है, घट effect है। उसका कारण क्या है ? उसका उपादान क्या है ? वो मिट्टी से बनी है। तो पहले घड़े में आप मिट्टी देखिये, कार्य में कारण देखिये , घट में मिट्टी देखिये। देख लिया। टेबल में काठ देखिये। (40.08) लहर में पानी देखिये, आभूषण -जेवर में सोना देखिये। देख लिया ? अब उसके बाद - पश्चात्  कार्यं  विसर्जयेत् ! 

उसके बाद कार्य को (घड़े के नाम -रूप को) विसर्जित कर दीजिये । घड़ा को मन से हटा दीजिये। कैसे ? घड़ा को जब हम नजदीक से देखेंगे तो क्या देखेंगे ? यही कि वो मिट्टी से बना है। घड़े में मिट्टी उसके कण कण में व्याप्त है -अनुस्यूत है घड़े में। ओतप्रोत है मिट्टी। इस कपड़ा में सूत कहाँ हैं ? ओतप्रोत है उसमें। लहर में पानी कहाँ है ? ये लहर पानी से बना है। पानी कारण है - कार्य लहर है। लहर में नाम-रूप है -उसका व्यवहार है -लहर में केवल पानी ही पानी है। कार्य को विसर्जित करने पर क्या बचेगा ?  घट नाम की कोई ठोस वस्तु है ही नहीं , ठोस वस्तु केवल मिट्टी है। इसको कहेंगे - पश्चात्  कार्यं  विसर्जयेत् ! आप देखेंगे घट नाम की कोई वस्तु है नहीं। ठोस वस्तु तो मिट्टी है।   

     जब कार्य को विसर्जित कर दिया , कार्य ही नहीं रहा तब  कारण फिर किसका कारण है ? जब कारण का कोई कारणत्व ही नहीं रहा।    कारणत्वं ततो गच्छेत्- तो क्या रह गया ? हम कहेंगे मिट्टी रह गयी ! आचार्य कहते हैं -नहीं रे मूर्ख ! मिट्टी नहीं रह गयी। (42.20) तो क्या रह गया ? आचार्य कहते हैं - मुनि  रह गया। अवशिष्टं भवेत्  मुनिः 

     यहाँ घट ,मिट्टी, लहर , पानी, सोना और आभूषण की बात नहीं हो रही है; ये अपने अनुभव की बात हो रही है। आद्यशंकराचार्य ज्ञानमय दृष्टि से जगत ही ब्रह्म है देखने को कहते हैं।

दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत।

सा दृष्टि परमो दारा न नासाग्रवलोकिनी।।

(अपरोक्ष अनु. 116)

वह ब्रह्म माया कृत दोषों से रहित होने के कारण निर्मल है । उसकी निर्मलता का मुख से कोई वर्णन नहीं कर सकता । सत्व, रज, तम इन तीनों गुणों से रहित होने से वह निर्गुण कहलाता है । सत्पुरुषों का तो वह परम धन है । माया रहित होने से निरन्जन कहलाता है । अपरिवर्तनीय होने से शाश्वत है । ब्रह्म सर्वरूप है, सर्वगत है अतः उसका कोई एकरूप नहीं होने से कोई भी ‘ऐसा ब्रह्म है’ नहीं कह सकता । अनादि होने से उत्पत्ति-नाश से रहित है । सर्वरूप और सर्वगत होने से उसका कोई आकार विशेष नहीं कह सकते, न उसका प्राण और शरीर है।  क्योंकि वेद में ऐसा ही कहा है कि वह स्थिर न रहने वाले प्राणियों के शरीर में शरीर-रहित होता हुआ अविचल भाव से स्थित है । *(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.९५)*

दिव्य दृष्टि से देखने पर - जगत ही ब्रह्म है ! -अर्थात विश्व ही परमात्मा है ! 

श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥

भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥

 उघरहिं बिमल बिलोचन हिय के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥

सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥

भावार्थ:-उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त (निर्गुण)  और प्रकट (सगुण) जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥

तत्वदर्शी सद्गुरु से दिव्यदृष्टि प्राप्त होते ही अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) की विवेकमय निर्मल दृष्टि: "द्रष्टा-दृश्य विवेक"  खुलती है, तभी गुप्त (निराकार) प्रगट (साकार) मय सर्वव्यापी सर्व रूप राम सूझते अर्थात् दिखने लगते हैं। (गुरु वंदना-बालकाण्ड)] 

भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी गीता अ. 4 श्लोक 1-3 तक दिव्यदृष्टि की गुरु-शिष्य परंपरा निरूपित की है। भगवान और जीवात्मा दोनों सनातन हैं और इसलिए भगवान और आत्मा को एकीकृत करने वाला योग विज्ञान भी शाश्वत है। अतः इसके लिए नये सिद्धान्त की कल्पना और रचना करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। इसकी सिद्धता का अनूठा अनुमोदन स्वयं भगवद्गीता है जो चिरस्थायी ज्ञान की विलक्षणता के साथ लोगों को निरंतर चकित करती है और जो आज से 50वीं शताब्दी पहले सुनायी जाने के पश्चात वर्तमान में भी हमारे दैनिक जीवन के लिए प्रासंगिक है। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि योग का जो ज्ञान वे अर्जुन को दे रहे हैं वह शाश्वत है और प्राचीन काल से गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा एक-दूसरे तक पहुँचता रहा है

 "इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान अहमव्ययम ।

 विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वावेsब्रवीत ।।

BG 4.1: परम भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-मैने इस शाश्वत ज्ञानयोग का उपदेश पहले सूर्यदेव, विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनु और फिर इसके बाद मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया।

श्री भगवान् बोले जगत्प्रतिपालक क्षत्रियों में बल स्थापन करने के लिये मैंने दूसरे और तीसरे अध्यायों में कहे हुए इस योग को पहले सृष्टि के आदिकाल में सूर्य से कहा था ( क्योंकि ) उस योगबल से युक्त हुए क्षत्रिय ब्रह्मत्व की रक्षा करनेमें समर्थ होते हैं।  तथा ब्राह्मण और क्षत्रियों का पालन ठीक तरह हो जाने पर ये दोनों सब जगत का  पालन अनायास कर सकते हैं। 

इस योग का फल अविनाशी है इसलिये यह अव्यय है क्योंकि इस सम्यक् ज्ञाननिष्ठा रूप योग का मोक्ष-रूप फल कभी नष्ट नहीं होता। उस सूर्य ने यह योग अपने पुत्र मनु से कहा और मनु ने इसका उपदेश अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को दिया जो सूर्यवंश के पूर्वज थे इस वंश के राजाओं ने दीर्घकाल तक अयोध्या पर शासन किया। वेद शब्द संस्कृत के विद् धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। अत वेद का अर्थ है ज्ञान अथवा ज्ञान का साधन (प्रमाण)। वेदों का प्रतिपाद्य विषय है जीव के शुद्ध ज्ञान स्वरूप तथा उसकी अभिव्यक्ति के साधनों का बोध। जैसे विद्युत् शक्ति को हम नित्य कह सकते हैं क्योंकि उसके प्रथम बार आविष्कृत होने के पूर्व भी वह थी और यदि हमें उसका विस्मरण भी हो जाता है तब भी विद्युत् शक्ति का अस्तित्व बना रहेगा

     इसी प्रकार हमारे नहीं जानने से भी दिव्य चैतन्य स्वरूप आत्मा का कभी नाश नहीं होता। इस अविनाशी आत्मा का ज्ञान वास्तव में अव्यय है। आधुनिक विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि विश्व का निर्माण सूर्य के साथ प्रारम्भ होना चाहिये। शक्ति के स्रोत के रूप में सर्वप्रथम सूर्य की उत्पत्ति हुई और उसकी उत्पत्ति के साथ ही यह महान् आत्मज्ञान विश्व को दिया गया।  वेदों का विषय आत्मानुभूति होने के कारण वाणी उसका वर्णन करने में सर्वथा असमर्थ है। कोई भी गम्भीर अनुभव शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। अत स्वयं की बुद्धि से ही शास्त्रों का अध्ययन करने से उनका सम्यक् ज्ञान तो दूर रहा विपरीत ज्ञान होने की ही सम्भावना अधिक रहती है। इसलिये भारत में यह प्राचीन परम्परा रही है कि अध्यात्म ज्ञान के उपदेश को आत्मानुभव में स्थित गुरु के मुख से ही श्रवण किया जाता है। गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा Be and Make से यह ज्ञान दिया जाता रहा है। यहाँ इस ब्रह्मविद्या के पूर्वकाल के विद्यार्थियों का परिचय कराया गया है।

   एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।

BG 4.2: हे शत्रुओं के दमन कर्ता! इस प्रकार राजर्षियों ने सतत गुरु परम्परा पद्धति [Be and Make] द्वारा ज्ञान योग की विद्या प्राप्त की किन्तु अनन्त युगों के साथ यह विज्ञान संसार से लुप्त हो गया प्रतीत होता है।

इस परम्परा का आरम्भ स्वयं भगवान ने किया जो इस संसार के प्रथम गुरु हैं। इसी परम्परा के अंतर्गत निमी और जनक जैसे राजर्षियों ने ज्ञानयोग की विद्या प्राप्त की। इस प्रकार क्षत्रिय राजर्षियों की परम्परा से प्राप्त हुए इस योग को राजा जनक जैसे राजर्षियों ने जो कि राजा और ऋषि दोनों थे जाना। हे परंतप ( अब ) वह योग इस मनुष्य-लोक में बहुत काल से नष्ट हो गया है। अर्थात् उसकी सम्प्रदाय-परम्परा टूट गयी है। 

 वेदों में प्रवृत्ति (साकार) और निवृत्ति (निराकार) दोनों मार्गों का उपदेश है। इस Be and Make रूपी कर्मयोग का परम्परागत रूप से राजर्षियों को ज्ञान था ; परन्तु लगता है इस योग का भी अपना दुर्भाग्य और सौभाग्य है।  इतिहास के किसी काल में मानव मात्र की सेवा के लिये यह ज्ञान उपलब्ध होता है और किसी अन्य समय अनुपयोगी सा बनकर निरर्थक हो जाता है।  तब अध्यात्म का स्वर्ण युग समाप्त होकर भोगप्रधान आसुरी जीवन का अन्धा युग प्रारम्भ होता है।  

      किन्तु आसुरी भौतिकवाद से ग्रस्त काल में भी वह पीढ़ी अपने ही अवगुणों से पीड़ित होने के लिये उपेक्षित नहीं रखी जाती। क्योंकि उस समय कोई महान् गुरु परम्परा (श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) अध्यात्म क्षितिज पर अवतीर्ण होकर तत्कालीन पीढ़ी को प्रेरणा साहस उत्साह और आवश्यक नेतृत्व प्रदान करके दुख पूर्ण पगडंडी से बाहर सांस्कृतिक पुनरुत्थान के राजमार्ग पर ले आता है। 

स एवायं मयातेअद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।

भक्तोअसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।" 

BG 4.3: उसी प्राचीन गूढ़ योगज्ञान को आज मैं तुम्हारे सम्मुख प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे मित्र एवं मेरे भक्त हो इसलिए तुम इस दिव्य ज्ञान को समझ सकते हो

अजितेन्द्रिय और दुर्बल मनुष्यों के हाथ में पड़कर यह योग नष्ट हो गया है।  यह देखकर और साथ ही लोगों को पुरुषार्थ -रहित हुए देखकर वही यह पुराना योग यह सोचकर कि तू मेरा भक्त और मित्र है, अब मैंने तुझसे कहा है। क्योंकि यह ज्ञान-रूप योग बड़ा ही उत्तम रहस्य है।

शिष्य के प्रति पुत्रवत स्नेह का भाव होने पर ही कोई गुरु उत्साह और कुशलता पूर्वक उपदेश दे सकता है। श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच [श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द के बीच-.... नवनीदा और 'अमुक' के बीच] ऐसा ही सम्बन्ध था और भगवान् (ठाकुरदेव) को यह विश्वास था कि अर्जुन (विवेकानन्द) भी उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का वह अनुसरण करेगा।

 वेतनभोगी साधारण शिक्षक और आध्यात्मिक  गुरु और शिष्य के बीच इस प्रकार की व्यापारिक व्यवस्था न हो कि तुम शुल्क दो और मैं पढ़ाऊँगागुरु-शिष्य के बीच निःस्वार्थ प्रेम, स्वातंत्र्य, मित्रता और आपसी समझ के वातावरण में ही शिष्य का मन, बुद्धि और ह्रदय विकसित होकर खिल उठते हैं। 

आत्मानुभूति का ज्ञान प्रदान करने के लिए आवश्यक गुणों को अर्जुन में देखकर ही श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने इस  Be and Make रूपी सार्वभौमिक योग का ज्ञान उसे दिया। यहाँ इस ज्ञान को रहस्य कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो  (नरेन्द्रनाथ जैसा विद्वान् भी क्यों न हो) फिर भी अनुभवी तत्वदर्शी पुरुष (C-IN-C नवनीदा)  के उपदेश के बिना वह अविनाशी आत्मा के अस्तित्व का कभी आभास भी नहीं पा सकता। 

      समस्त बुद्धि वृत्तियों (मन,बुद्धि, चित्त और अंहकार या अन्तःकरण) को प्रकाशित करने वाली आत्मा स्वयं बुद्धि के परे होती है। इसलिये मनुष्य की द्रष्टा-दृश्य विवेक सार्मथ्य भी गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का पालन किये बिना , स्वयं कभी नित्य अविकारी आत्मा को विषय रूप में नहीं जान सकती। यही कारण है कि सत्य के विज्ञान को यहाँ उत्तम रहस्य कहा गया है।(गीता अ. 4 श्लोक 1-3)]

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(२)

[वेतनभोगी प्रचारक-नेता (Salaried Preacher) विजय गोस्वामी के प्रति उपदेश] 

[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~ 93]

🔆🙏जगत को ब्रह्ममय देखने के लिए सत्संग अनिवार्य है 🔆🙏

विजय तब भी साधारण ब्राह्मसमाज में थे । उसी ब्राह्मसमाज में वे तनख्वाह लेकर आचार्य का काम करते थे । आजकल वे ब्राह्मसमाज के सब नियमों को मानकर चलने में असमर्थ हो रहे हैं । वे साकारवादियों के साथ भी मिल रहे हैं । इन सब बातों को लेकर साधारण ब्राह्मसमाज के संचालकों के साथ उनका मतान्तर हो रहा है । समाज के ब्राह्मभक्तों में कितने ही उनसे असन्तुष्ट हो रहे हैं । श्रीरामकृष्ण एकाएक विजय को लक्ष्य करके कह रहे हैं ।

[বিজয় তখনও সাধারণ ব্রাহ্মসমাজভুক্ত, ওই ব্রাহ্মসমাজে একজন বেতনভোগী আচার্য। আজকাল তিনি ব্রাহ্মসমাজের সব নিয়ম মানিয়া চলিতে পারিতেছেন না। সাকারবাদীদের সঙ্গেও মিশিতেছেন। এই সকল লইয়া সাধারণ ব্রাহ্মসমাজের কর্তৃপক্ষীয়দের সঙ্গে তাঁহার মনান্তর হইতেছে। সমাজের ব্রাহ্মভক্তদের অনেকেই তাঁহার উপর অসন্তুষ্ট হইয়াছেন। ঠাকুর হঠাৎ বিজয়কে লক্ষ্য করিয়া আবার বলিতেছেন।

Vijay still belonged to the Sadharan Brahmo Samaj. He was a salaried preacher of that organization but could not obey all its rules and regulations. He mixed with those who believed in God with form. This was creating a misunderstanding between him and the Brahmo authorities. Many Brahmos disapproved of his conduct. The Master suddenly looked at Vijay and began to talk to him.

श्रीरामकृष्ण - (विजय से, हँसकर) - तुम साकारवादियों से मिलते हो, इसलिए मैंने सुना, तुम्हारी बड़ी निन्दा हो रही है । जो ईश्वर का भक्त है, उसकी बुद्धि कूटस्थ होती है, जैसे लोहार के यहाँ की निहाई । हथौड़े की अनगिनती चोटें लगातार पड़ रही हैं, फिर भी निर्विकार है । बुरे आदमी तुम्हें बहुत कुछ कहेंगे, तुम्हारी निन्दा करेंगे । अगर तुम हृदय से परमात्मा को चाहते हो, तो तुम्हें सब सहना होगा । दुष्टों के बीच में रहकर क्या ईश्वर की चिन्ता नहीं हो सकती ? देखो न, ऋषि लोग वन में ईश्वर की चिन्ता करते थे । चारों ओर बाघ, रीछ, अनेक प्रकार के हिंसक पशु रहते थे। बुरे आदमियों का स्वभाव बाघों और रीछों जैसा ही है । वे धावा कर अनर्थ करते हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিজয়ের প্রতি সহাস্যে) — তুমি সাকারবাদীদের সঙ্গে মেশো বলে তোমার নাকি বড় নিন্দা হয়েছে? যে ভগবানের ভক্ত তার কূটস্থ বুদ্ধি হওয়া চাই। যেমন কামারশালের নাই। হাতুড়ির ঘা অনবরত পড়ছে, তবু নির্বিকার। অসৎ লোকে তোমাকে কত কি বলবে, নিন্দা করবে! তুমি যদি আন্তরিক ভগবানকে চাও, তুমি সব সহ্য করবে। দুষ্টলোকের মধ্যে থেকে কি আর ঈশ্বরচিন্তা হয় না? দেখ না, ঋষিরা বনের মধ্যে ঈশ্বরকে চিন্তা করতো। চারিদিকে বাঘ, ভাল্লুক, নানা হিংস্র জন্তু। অসৎ লোকের, বাঘ ভাল্লুকের স্বভাব; তেড়ে এসে অনিষ্ট করবে।

MASTER (to Vijay, smiling): "I understand that they have been finding fault with you for mixing with those who believe in God with form. Is that true? He who is a devotee of God must have an understanding that cannot be shaken under any conditions. He must be like the anvil in a blacksmith's shop. It is constantly being struck by the hammer; still it is unshaken. Bad people may abuse you very much and speak ill of you; but you must bear with them all if you sincerely seek God. Isn't it possible to think of God in the midst of the wicked? Just think of the rishis of ancient times. They used to meditate on God in the forest, surrounded on all sides by tigers, bears, and other ferocious beasts. Wicked men have the nature of tigers and bears. They will pursue you to do you an injury.

[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆  सत्संग करने पर ही सत्- असत् और मिथ्या का विवेक आता है🔆 

"इन कई जीवों के पास सावधान रहना पड़ता है । प्रथम है बड़े आदमी । धन और जन, दोनों ही उनके पास यथेष्ट हैं, वे चाहें तो तुम्हारा अनर्थ कर सकते हैं । बहुत संभलकर उनसे बातचीत करनी चाहिए । वे जो कहें, उसमें हाँ मिलाते जाना पड़ता है । इसके बाद है कुत्ता । जब कुत्ता खदेड़ लेता है या भौंकता है, तब खड़े होकर मुँह से पुचकारकर उसे ठण्डा करना पड़ता है ।

फिर है साँड़ मारने आये तो उसे भी पुचकारकर ठण्डा करना पड़ता है । इसके पश्चात् है शराबी । अगर चिढ़ा दो तो कहेगा, तेरी चौदह पीढ़ी की ऐसी-तैसी, तुझे फिर क्या कहूँ - इस तरह कितनी ही गालियाँ देता है । उससे कहना पड़ता है, क्यों चचा कैसे हो ? तो वह खूब प्रसन्न हो जायगा कहो तो तुम्हारे पास ही बैठकर तम्बाकू पीने लगे ।

.[“এই কয়েকটির কাছ থেকে সাবধান হতে হয়! প্রথম, বড়মানুষ। টাকা লোকজন অনেক, মনে করলে তোমার অনিষ্ট করতে পারে; তাদের কাছে সাবধানে কথা কইতে হয়। হয়তো যা বলে, সায় দিয়ে যেতে হয়! তারপর কুকুর। যখন কুকুর তেড়ে আসে কি ঘেউ ঘেউ করে, তখন দাঁড়িয়ে মুখের আওয়াজ করে তাকে ঠাণ্ডা করতে হয়। তারপর ষাঁড়। গুঁতুতে এলে, তাকেও মুখের আওয়াজ করে ঠাণ্ডা করতে হয়। তারপর মাতাল। যদি রাগিয়ে দাও, তাহলে বলবে, তোর চৌদ্দপুরুষ, তোর হেন তেন, — বলে গালাগালি দিবে। তাকে বলতে হয়, কি খুড়ো কেমন আছ? তাহলে খুব খুশি হয়ে তোমার কাছে বসে তামাক খাবে।

"One must be careful about these few things. First, an influential man who has much money and many men under his control. He can injure you if he wants; you must be careful while talking to him; perhaps you may have to approve what he says. Second, a dog. When it chases you or barks at you, you must stand still, talk to it gently, and pacify it. Third, a bull. If it runs after you with lowered horns, you must calm it with a gentle Voice. Fourth, a drunkard. If you arouse his anger, he will abuse you, naming fourteen generations of your family. You should say to him; 'Hello uncle! How are you?' Then he will be mightily pleased and sit by you and smoke.

"बुरे आदमी को देखते ही मैं सावधान हो जाता हूँ । अगर कोई आकर पूछता है, क्या हुक्का-सुक्का है ? तो मैं कहता हूँ, हाँ है ।

"किसी (ब्रह्म का ?) का स्वभाव साँप के समान होता है । तुम्हारे बिना जाने ही कहो वह तुम्हें काट खाय । उसकी चोट से बचने के लिए बहुत विवेक-विचार करना पड़ता है । नहीं तो तुम्हें ही ऐसा क्रोध आ जायगा कि उल्टे उसी के नाश करने की चिन्ता में पड़ जाओगे । इतने पर भी कभी कभी सत्संग की बड़ी आवश्यकता है । सत्संग करने पर ही सत्- असत् का विचार आता है ।"

[“অসৎ লোক দেখলে আমি সাবধান হয়ে যাই। যদি কেউ এসে বলে, ওহে হুঁকোটুকো আছে? আমি বলি আছে।“কেউ কেউ সাপের স্বভাব। তুমি জান না, তোমায় ছোবল দেবে। ছোবল সামলাতে অনেক বিচার আনতে হয়। তা না হলে হয়তো তোমার এমন রাগ হয়ে গেল যে, তার আবার উলটে অনিষ্ট করতে ইচ্ছা হয়। তবে মাঝে মাঝে সৎসঙ্গ বড় দরকার। সৎসঙ্গ কল্লে তবে সদসৎ বিচার আসে।”

"In the presence of a wicked person I become alert. If such a man asks me whether I have a pipe for smoking, I say, 'Yes, I have.' Some people have the nature of a snake: they will bite you without warning. You have to discriminate a great deal in order to avoid the bite; otherwise your passion will be stirred up to such an extent that you will feel like doing injury in return. The companionship of a holy man is greatly needed now and then. It enables one to discriminate between the Real and the unreal."

[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-93 ]

🔆🙏नेता या पैगम्बर (C-IN-C) को छुट्टी क्यों नहीं मिलती ? 🔆🙏

विजय - अवकाश नहीं है, यहाँ काम में फँसा रहता हूँ ।

[বিজয় — অবসর নাই, এখানে কাজে আবদ্ধ থাকি।

VIJAY: "I have no time, sir. I am entangled in my duties here."

श्रीरामकृष्ण - तुम लोग आचार्य (जीवनमुक्त शिक्षक) हो, दूसरों को छुट्टी भी मिलती है, परन्तु आचार्य (मार्गदर्शक नेता- पैगम्बर) को छुट्टी नहीं मिलती, नायब जब एक हल्के का अच्छा इन्तजाम कर लेता है, तब जमींदार उसे दूसरे महाल के इन्तजाम के लिए भेजता है । इसीलिए तुम्हें छुट्टी नहीं मिलती । (सब हँसते हैं ।)

শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমরা আচার্য; অন্যের ছুটি হয়, কিন্তু আচার্যের ছুটি নাই। নায়েব একধার শাসিত কল্লে পর, কমিদার আর-একধার শাসন করতে তাকে পাঠান। তাই তোমার ছুটি নাই। (সকলের হাস্য)

"You are a religious teacher. Others have holidays, but not so a religious teacher. When the manager of an estate brings order to one part of it, the landlord sends him to another part. So you have no leisure." (All laugh.)

विजय - (हाथ जोड़कर) - आप जरा आशीर्वाद दीजिये ।

বিজয় (কৃতাঞ্জলি হইয়া) — আপনি একটু আশীর্বাদ করুন।

VIJAY (with folded hands): "Sir, please give me your blessing."

श्रीरामकृष्ण - ये सब अज्ञान की बातें हैं । आशीर्वाद ईश्वर ^ देंगे ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — ও-সব অজ্ঞানের কথা। আশীর্বাদ ঈশ্বর করবেন।

MASTER: "Now you are talking like an ignorant person. It is God alone who blesses."

[ ^ आशीर्वाद मेरे मार्गदर्शक नेता /गुरु के हृदय में बैठे माँ काली ,सच्चिदानन्द -जो गुरु हैं वे ही देते हैं - अमुक नाम धारी व्यक्ति नहीं ! ]

[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 93 ] 

🔆महामण्डल में ब्रह्मसमाज की तरह राब (crystal) भी है और शीरा (molasses) भी 🔆

महामण्डल सांसारिक और आध्यात्मिक आदर्शों का मिश्रण है 

[The Mahamandal is A blend of worldly and spiritual ideals]

[ गृहस्थाश्रम और संन्यास]

विजय - जी, आप कुछ उपदेश दीजिये ।

[বিজয় — আজ্ঞা, আপনি কিছু উপদেশ দিন।

VIJAY: "Revered sir, please give us some instruction."]

श्रीरामकृष्ण - (समाज-गृह के चारों ओर नजर डालकर सहास्य) - यह (ब्राह्मसमाज) एक तरह से अच्छा है । इसमें राब भी है और शीरा ^  भी । (सब हँसते हैं ।) नक्श खेल जानते हो ? सत्रह से अधिक होने पर बाजी बरबाद हो जाती है । यह एक प्रकार का ताशों का खेल है । जो लोग सत्रह नुक्ताओं से कम में रह जाते हैं - जो लोग पाँच में रहते हैं, सात या दस में, वे होशियार हैं । मैं अधिक चढ़कर जल गया हूँ ।

The Master glanced around the Brahmo temple and said with a smile, "This is nice too — a mixture of crystals and syrup.1 There are crystals, and there is syrup too.

"I have scored too many points and am therefore out of the game. (All laugh.) Do you know the game called 'nax'? It is a game of cards, and anyone scoring above seventeen is out of the game. Those who score fewer points — say five, seven, or ten — are clever. I have scored too many and am out of the game.

শ্রীরামকৃষ্ণ (সমাজগৃহের চতুর্দিকে দৃষ্টি নিক্ষেপ করিয়া, সহাস্যে) — এ এরকম বেশ! সারে মাতে সারও আছে, মাতও আছে। (সকলের হাস্য) আমি বেশ কাটিয়ে জ্বলে গেছি। (সকলের হাস্য) নক্স খেলা জান? সতের ফোঁটার বেশি হলে জ্বলে যায়। একরকম তাস খেলা। যারা সতের ফোঁটার কমে থাকে, যারা পাঁচে থাকে, সাত থাকে, দশে থাকে, তারা সেয়ানা। আমি বেশি কাটিয়ে জ্বলে গেছি।

[^राब (crystal) और शीरा (molasses) : गुड़ का राब  यानि गुड़ का ढेला और गुड़रस का उदाहरण (allusion) देने का तात्पर्य। गुड़रस (शीरा-molasses) से गुड़ का रवा (crystal) बनाते समय शीरा को मिट्टी के घड़े में रखा जाता है , जिसके तलहटी में एक छोटा सा छेद कर दिया जाता है; जिससे उसका पानीवाला हिस्सा धीरे-धीरे बाहर निकल जाता है और अंदर गुड़ का रवा तैयार हो जाता है। यह ब्रह्मसमाज (या महामण्डल का धर्म Be and Make) सांसारिक और आध्यात्मिक आदर्शों का मिश्रण है। 

[महामण्डल आन्दोलन : राजर्षि =राजा + ऋषि बनने और बनाने (Be and Make) का  सांसारिक (गृही-CINC ) और आध्यात्मिक (संन्यासी) आदर्शों का मिश्रण है। महामण्डल में  'राब ' ('गुड़ का रवा'-ऋषित्व) भी है और शीरा ('गुड़रस' -राजत्व) भी। ]  

^That is to say, a mixture of worldly and spiritual ideals. The allusion is to the practice of keeping molasses in an earthen jar with a small hole at the bottom; the watery part slowly leaks out and crystals are formed inside] 

 [(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-93  ]

🔆🙏गृहस्थ लोग को  कामिनी -कांचन में अनासक्त होकर परिवार में रहना चाहिए🔆🙏  

"केशव सेन ने घर में लेक्चर दिया था । मैंने सुना था । बहुत से आदमी बैठे थे । चिक के भीतर औरतें भी थीं । केशव ने कहा, 'हे ईश्वर, तुम आशीर्वाद दो कि हम लोग भक्ति की नदी में बिलकुल डूब जांय ।' मैंने हँसकर केशव से कहा, 'भक्ति की नदी में अगर बिलकुल ही डूब जाओगे, तो चिक के भीतर जो बैठी हुई हैं, उनकी दशा क्या होगी ? इसलिए एक काम याद रखना, जब डूबना है, तब कभी-कभी तट पर लग जाया करना । बिलकुल ही तलस्पर्श न कर लेना ।' यह बात सुनकर केशव तथा दूसरे लोग हँसने लगे ।

[“কেশব সেন বাড়িতে লেকচার দিলে। আমি শুনেছিলুম। অনেক লোক বসে ছিল। চিকের ভিতরে মেয়েরা ছিল। কেশব বললে, ‘হে ঈশ্বর, তুমি আশীর্বাদ কর, যেন আমরা ভক্তি-নদীতে একেবারে ডুবে যাই।’ আমি হেসে কেশবকে বললুম, ভক্তি-নদীতে যদি একেবারে ডুবে যাবে তাহলে চিকের ভিতর যাঁরা রয়েছেন, ওঁদের দশা কি হবে? তবে এক কর্ম করো, ডুব দেবে, আর মাঝে মাঝে আড়ায় উঠবে। একেবারে ডুবে তলিয়ে যেও না। এই কথা শুনে কেশব আর সকলে হো-হো করে হাসতে লাগল।

"Once Keshab Sen gave a lecture at his house. I was present. Many people were there. The ladies were seated behind the screen. Keshab, in the course of his talk, said, 'O God, please bless us that we may dive and disappear altogether in the river of bhakti.' I said to Keshab with a smile: 'If you disappear altogether in the river of bhakti, then what will be the fate of those behind the screen? By all means dive into the river, but you had better come back to dry land now and then. Don't disappear in the river altogether.' At these words Keshab and the others burst out laughing.

"खैर, आन्तरिकता के रहने पर संसार में भी ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है । 'मैं' और 'मेरा' यही अज्ञान है। हे 'ईश्वर, तुम और तुम्हारा’ यह ज्ञान है ।

[“তা হোক। আন্তরিক হলে সংসারেও ঈশ্বরলাভ করা যায়। ‘আমি ও আমার’ — এইটি অজ্ঞান। হে ঈশ্বর, তুমি ও তোমার — এইটি জ্ঞান।"

Never mind. One can realize God in the world, too, if only one is sincere. 'I' and 'mine' — that is ignorance. But, 'O God! Thou and Thine' — that is knowledge.

"संसार में इस तरह रहो जैसे बड़े आदमियों के घर की दासी । सब काम करती है, बाबू के बच्चे की सेवा करके उसे बड़ा कर देती है, उसका नाम लेकर कहती है, यह मेरा हरि है । परन्तु मन ही मन खूब जानती है कि न यह घर मेरा है और न यह लड़का । वह सब काम तो करती है, परन्तु उसका मन उसके देश में लगा रहता है । उसी तरह संसार का सब काम करो, परन्तु मन ईश्वर पर रखो और समझो कि घर, परिवार, पुत्र सब ईश्वर के हैं । मेरा यहाँ कुछ भी नहीं है । मैं केवल उनका दास हूँ ।

"मैं मन से त्याग करने के लिए कहता हूँ । संसार छोड़ने के लिए मैं नहीं कहता । अनासक्त होकर, संसार में रहकर, अन्तर से उनकी प्राप्ति की इच्छा रखने पर, उन्हें मनुष्य पा सकता है ।

Live in the world like a maidservant in a rich man's house. She performs all the household duties, brings up her master's child, and speaks of him as 'my Hari'. But in her heart she knows quite well that neither the house nor the child belongs to her. She performs all her duties, but just the same her mind dwells on her native place. Likewise, do your worldly duties but fix your mind on God. And know that house, family, and son do not belong to you; they are God's. You are only His servant."I ask people to renounce mentally. I do not ask them to give up the world. If one lives in the world unattached and seeks God with sincerity, then one is able to attain Him.

[“সংসারে থাকো, যেমন বড়মানুষের বাড়ির ঝি। সব কাজ করে, ছেলে মানুষ করে, বাবুর ছেলেকে বলে আমার হরি কিন্তু তার মন দেশে পড়ে থাকে। তেমনি সংসারে সব কর্ম কর কিন্তু ঈশ্বরের দিকে মন রেখো। আর জেনো যে, গৃহ, পরিবার পুত্র — এ-সব আমার নয়, এ-সব তাঁর। আমি কেবল তাঁর দাস।" “আমি মনে ত্যাগ করতে বলি। সংসারত্যাগ বলি না। অনাসক্ত হয়ে সংসারে থেকে, আন্তরিক চাইলে, তাঁকে পাওয়া যায়।”


[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

  🔆🙏खुली आंखों से ध्यान (दृष्टा -दृश्य विवेक) और मूंदी आँखों से एकाग्रता का अभ्यास🔆🙏

[Open-eyed Meditation and concentration ] 

[ब्राह्मसमाज और ध्यानयोग ?— Subjective and Objective]

(विजय से) “पहले मैं भी आँखें मूंदकर ध्यान ^ करता था । उसके बाद सोचा, क्या इस तरह करने पर (आँखें मूँदने पर) ईश्वर रहते हैं और इस तरह करने पर (आँखें खोलने पर) ईश्वर नहीं रहते ? आँखें खोलकर भी मैंने देखा, सब भूतों में ईश्वर विराजमान हैं । मनुष्य, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, सूर्य-चन्द्र, जल-स्थल और अन्य सब भूतों में वे हैं । 

[(বিজয়ের প্রতি) — “আমিও চক্ষু বুজে ধ্যান কত্তুম। তারপর ভাবলুম। এমন কল্‌লে (চক্ষু বুজলে) ঈশ্বর আছেন, আর এমন কল্‌ লে (চক্ষু খুললে) কি ঈশ্বর নাই, চক্ষু খুলেও দেখছি, ঈশ্বর সর্বভূতে রয়েছেন। মানুষ, জীবজন্তু, গা ছপালা, চন্দ্রসূর্যমধ্যে, জলে, স্থলে — সর্বভূতে তিনি আছেন।”

(To Vijay) "There was a time when I too would meditate on God with my eyes closed.^  Then I said to myself: 'Does God exist only when I think of Him with my eyes closed? Doesn't He exist when I look around with my eyes open?' Now, when I look around with my eyes open, I see that God dwells in all beings. He is the Indwelling Spirit of all — men, animals and other living beings, trees and plants, sun and moon, land and water.

[^ दृष्टा -दृश्य विवेक :   An allusion to the Brahmo way of meditating on God. ब्रह्म समाज की पद्धति से ऑंखें मूँदकर ईश्वर का  ध्यान नहीं करना चाहिए -उसका संकेत करते हैं । महामण्डल घराना या 'रामकृष्ण-विवेकानन्द शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में नित्य से लीला में आने के बाद ऑंखें खोल कर ध्यान किया जाता है ! ऑंखें खोलकर ध्यान, अर्थात (Subjective and Objective) द्रष्टा-दृश्य विवेक के अनुसार ईश्वर सर्वभूतों में विद्यमान हैं। ऑंखें मूँदकर मनःसंयोग (प्रत्याहार और धारणा तक) का अभ्यास होता है; लेकिन ध्यान-समाधि का अभ्यास नहीं किया नहीं जाता, वह हो जाता है। ]  

🔆🙏गीता-चण्डी के मत से शिवनाथ के भीतर ईश्वर की शक्ति है -एवं  श्री केदार चट्टोपाध्याय🔆🙏

"मैं क्यों शिवनाथ को चाहता हूँ ? जो बहुत दिनों तक ईश्वर की चिन्ता करता है, उसके भीतर सार पदार्थ रहता है । उसके भीतर ईश्वर की शक्ति रहती है । जो अच्छा गाता और बजाता है, कोई एक विद्या बहुत अच्छी तरह जानता है, उसके भीतर भी सार पदार्थ है, ईश्वर की शक्ति है । यह गीता का मत है । चण्डी में है, जो बहुत सुन्दर हैं, उसके भीतर भी सार पदार्थ है, ईश्वर की शक्ति है ।

(विजय से) अहा ! केदार का कैसा स्वभाव हो गया है; आते ही रोने लगता है । दोनों आँखें सदा ही फूली हुई-सी दीख पड़ती हैं ।”

[“কেন শিবনাথকে চাই? যে অনেকদিন ঈশ্বরচিন্তা করে, তার ভিতর সার আছে। তার ভিতর ঈশ্বরের শক্তি আছে। আবার যে ভাল গায়, ভাল বাজায়, কোন একটা বিদ্যা খুব ভালরকম জানে, তার ভিতরেও সার আছে। ঈশ্বরের শক্তি আছে। এটি গীতার মত। চন্ডীতে আছে, যে খুব সুন্দর, তার ভিতরও সার আছে, ঈশ্বরের শক্তি আছে। (বিজয়ের প্রতি) আহা! কেদারের কি স্বভাব হয়েছে! এসেই কাঁদে! চোখ দুটি সর্বদাই যেন ছানাবড়া হয়ে আছে।”

"Why do I seek Shivanath? He who meditates on God for many days has substance in him, has divine power in him. Further, he who sings well, plays well on a musical instrument, or has mastered any one art, has in him real substance and the power of God. This is the view of the Gita. It is said in the Chandi that he who is endowed with physical beauty has in him substance and the power of God. (To Vijay) Ah, what a beautiful nature Kedar has! No sooner does he come to me than he bursts into tears. His eyes are always red and swim in tears, like a chanabara in syrup."

विजय - वहाँ (ढाका में) केवल आप ही की बातें होती हैं और वे आपके पास आने के लिए व्याकुल हो रहे हैं ।

[“বিজয় — সেখানে কেবল আপনার কথা, আর তিনি আপনার কাছে আসবার জন্য ব্যাকুল!

VIJAY: "At Dacca he is constantly talking about you. He is always eager to see you."

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण उठे । ब्राह्मभक्तों ने नमस्कार किया । उन्होंने भी नमस्कार किया । श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर बैठे । अधर के यहाँ श्री दुर्गा के दर्शन करने के लिए जा रहे हैं

[কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর গাত্রোত্থান করিলেন। ব্রাহ্মভক্তেরা নমস্কার করিলেন। তিনিও তাঁহাদিগকে নমস্কার করিলেন। ঠাকুর গাড়িতে উঠিলেন। অধরের বাড়িতে প্রতিমাদর্শন করিতে যাইতেছেন।

Sri Ramakrishna was about to depart. The Brahmo devotees bowed low before him and he returned their salute. Then, getting into the carriage, he set out for Adhar's house to see the image of the Divine Mother.]

(३)

ॐ ॐ ॐ (28 सितम्बर, 1884) 

🔆🙏 तन्त्रसाधना में महाष्टमीका महत्व , चंद्रमास -सौरमास और पंचांग 🔆🙏

 *श्री ठाकुर के मन में चार वासनाएँ *

[ महाष्टमी ^  के दिन राम के घर पर श्रीरामकृष्ण]

आज रविवार, महाष्टमी है, 28 सितम्बर, 1884 । श्रीरामकृष्ण देवी-प्रतिमा के दर्शन के लिए कलकत्ता आये हुए हैं । अधर के यहाँ शारदीय दुर्गोत्सव हो रहा है । श्रीरामकृष्ण का तीनों दिन न्योता है अधर के यहाँ प्रतिमादर्शन करने के पहले आप राम के घर जा रहे हैं । विजय, केदार, राम, सुरेन्द्र, चुनीलाल, नरेन्द्र, निरंजन, नारायण, हरीश, बाबूराम, मास्टर आदि बहुत भक्त साथ में हैं; बलराम और राखाल अभी वृन्दावन में हैं ।

[আজ রবিবার, মহাষ্টমী, ২৮শে সেপ্টেম্বর, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কলিকাতায় প্রতিমাদর্শন করিতে আসিয়াছেন। অধরের বাড়ি শারদীয় দুর্গোৎসব হইতেছে। ঠাকুরের তিনদিন নিমন্ত্রণ। অধরের বাড়ি প্রতিমাদর্শন করিবার পূর্বে রামের বাড়ি হইয়া যাইতেছেন। বিজয়, কেদার, রাম, সুরেন্দ্র, চুনিলাল, নরেন্দ্র, নিরঞ্জন, নারাণ, হরিশ, বাবুরাম, মাস্টার ইত্যাদি অনেক উপস্থিত আছেন। বলরাম, রাখাল এখন বৃন্দাবনধামে বাস করিতেছেন।

It was the day of the Mahashtami, the most auspicious day of the worship of Durga, the Divine Mother. At Adhar's invitation Sri Ramakrishna had come to Calcutta to see the holy image at his house. Before going there he went to Ram's. Many devotees, including Narendra, Baburam, M., Niranjan, Vijay, Kedar, Ram, and Surendra, were present. Balaram and Rakhal were still at Vrindavan.

श्रीरामकृष्ण - (विजय और केदार को देखकर, सहास्य) - आज अच्छा मेल है । दोनों एक ही भाव के भावुक हैं ! (विजय से) क्यों जी शिवनाथ की क्या खबर है ? क्या तुमने –

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিজয় ও কেদার দৃষ্টে, সহাস্যে) — আজ বেশ মিলেছে। দুজনেই একভাবের ভাবী। বিজয়ের প্রতি) হ্যাঁগা, শিবনাথ? আপনি —

MASTER (looking at Vijay and Kedar, with a smile): "This is a nice reunion today. You two have the same spiritual mood. (To Vijay) Well, what about Shivanath? Did you — ?"

विजय - जी हाँ, उन्होंने सुना है । मेरे साथ तो मुलाकात नहीं हुई परन्तु मैने खबर भेजी थी और उन्होंने सुना भी है ।

[বিজয় — আজ্ঞা হাঁ, তিনি শুনেছেন। আমার সঙ্গে দেখা হয়নি। তবে আমি সংবাদ পাঠিয়েছিলুম, আর তিনি শুনেওছেন।

VIJAY: "Yes, sir, he heard that you had been to his house. I haven't seen him, but I sent him word. He knows about it."

श्रीरामकृष्ण शिवनाथ के यहाँ गये थे, उनसे मुलाकात करने के लिए, परन्तु मुलाकात नहीं हुई । बाद में विजय ने खबर भेजी थी, परन्तु शिवनाथ को काम से फुरसत नहीं मिली, इसलिए आज भी नहीं मिल सके ।

[ঠাকুর শিবনাথের বাড়ি গিয়াছিলেন, তাঁহার সহিত দেখা করিবার জন্য কিন্তু দেখা হয় না। পরে বিজয় সংবাদ দিয়াছিলেন, কিন্তু শিবনাথ কাজের ভিড়ে আজও দেখা করিতে পারেন নাই।

श्रीरामकृष्ण - (विजय आदि से) – मन में चार वासनाएँ उठी हैं ।

"बैंगन की रसदार तरकारी खाऊँगा । शिवनाथ से मिलूँगा । हरिनाम की माला लाकर भक्तगण जप करें, मैं देखूँगा और  अष्टमी ^ के दिन तान्त्रिक साधक आठ आने का कारण (शराब) पीयेगा, और मैं उन्हें देखकर प्रणाम करूंगा ।"

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিজয়াদির প্রতি) — মনে চারিটি সাধ উঠেছে।“বেগুন দিয়ে মাছের ঝোল খাব। শিবনাথের সঙ্গে দেখা করব। হরিনামের মালা এনে ভক্তেরা জপবে, দেখব। আর আটআনার কারণ অষ্টমীর দিনে তন্ত্রের সাধকেরা পান করবে, তাই দেখব আর প্রণাম করব।”

MASTER (to Vijay and the others): "Four desires have come into my mind. I shall eat fish curry cooked with egg-plant (बैंगन) . I shall visit Shivanath. The devotees will repeat the name of Hari over their beads, and I shall watch them. And the Tantrik devotees will drink consecrated wine, eight annas' worth, on the ashtami ^  day, and I shall watch them and salute them."

[^ चंद्र मास के शुक्ल या कृष्ण - किसी भी पक्ष के आधे के आठवें दिन को (अष्टमी तिथि को)  , तंत्र-मार्ग  के अनुयायियों के लिए शुभ दिन माना जाता है । चंद्र मास में ३० तिथियाँ होती हैं, जो दो पक्षों में बँटी हैं। शुक्ल पक्ष में चंद्र की कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्ण पक्ष में घटती हैं।शुक्ल पक्ष में एक से चौदह और फिर पूर्णिमा आती है। पूर्णिमा सहित कुल मिलाकर पंद्रह तिथि। कृष्ण पक्ष में एक से चौदह और फिर अमावस्या आती है। अमावस्या सहित पंद्रह तिथि।^The eighth day of either half of the lunar month, an auspicious day for the followers of Tantra.] 

🔆🙏सच्चिदानन्द और कारणानन्दमयी🔆🙏 

 [God impersonal ,(अवैक्तिक ईश्वर) and personal (माँ काली )

नरेन्द्र सामने बैठे हुए थे । उनकी उम्र २२-२३ की होगी । ये बातें कहते कहते श्रीरामकृष्ण की नरेन्द्र पर दृष्टि पड़ी । श्रीरामकृष्ण खड़े होकर समाधिमग्न हो गये । नरेन्द्र के घुटने पर एक पैर बढ़ाकर उसी भाव से खड़े हैं । बाहर का कुछ भी ज्ञान नहीं है, आँखों की पलक नहीं गिर रही है ।

बड़ी देर बाद समाधि भंग हुई अब भी आनन्द का नशा नहीं उतरा है । श्रीरामकृष्ण आप ही आप बातचीत कर रहे हैं । भावस्थ होकर नाम जप रहे हैं । कहते हैं –

“क्या आज भी ' सच्चिदानन्द ! सच्चिदानन्द !' ~  कहूँ ? नहीं, आज तू कारणानन्ददायिनी है – कारणानन्दमयी माँ दुर्गा  (दिव्य मद्यपान का आनन्द देने वाली, दुर्गतिहारिणी अम्बे तेरी जयजय कार हो !) । 'सा रे ग म प ध नि ' । 'नि ' में रहना अच्छा नहीं । बड़ी देर तक रहा नहीं जाता । एक स्वर नीचे रहूँगा ।

[নরেন্দ্র সম্মুখে বসিয়া। এখন বয়স ২২/২৩। কথাগুলি বলিতে বলিতে ঠাকুরের দৃষ্টি নরেন্দ্রের উপর পড়িল। ঠাকুর দাঁড়াইয়া পড়িলেন ও সমাধিস্থ হইলেন। নরেন্দ্রের হাঁটুতে একটি পা বাড়াইয়া দিয়া ওইভাবে দাঁড়াইয়া আছেন। সম্পূর্ণ বাহ্যশূন্য, চক্ষু স্পন্দহীন!অনেকক্ষণ পরে সমাধি ভঙ্গ হইল। এখনও আনন্দের নেশা ছুটিয়া যায় নাই। ঠাকুর আপনা-আপনি কথা কহিতেছেন, ভাবস্থ হইয়া নাম করিতেছেন। বলিতেছেন — সচ্চিদানন্দ! সচ্চিদানন্দ! সচ্চিদানন্দ! বলব? না, আজ কারণানন্দময়ী! কারণানন্দময়ী! সা রে গা মা পা ধা নি। নি-তে থাকা ভাল নয় — অনেকক্ষণ থাকা যায় না। এক গ্রাম নিচে থাকব।

Narendra was seated in front of the Master. He was about twenty-two years old. While Sri Ramakrishna was talking thus his eyes fell upon his beloved disciple. At once the Master stood up and went into samadhi. He placed one foot on Narendra's knee. He was in a deep spiritual mood, his eyes unblinking, his mind completely unconscious of the outer world. After a long time he came down to the relative plane of consciousness; but he still appeared dazed, for the intoxication of divine bliss had not altogether left him. 

Speaking to himself in that ecstatic state, he repeated the name of God He said: "Satchidananda! Satchidananda! Satchidananda! Shall I repeat that? No, it is the day of the Divine Mother, the Giver of the bliss of divine inebriation. O Mother, full of the bliss of divine inebriation! Sa, re, ga, ma, pa, dha, ni. It is not good to keep the voice on 'ni'. It is not possible to keep it there very long. I shall keep it on the next lower note.

 [(28 सितम्बर, 1884) ~ श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆🙏 ईश्वरकोटि और जीवकोटि -शाश्वत चैतन्य (consciousness) के चार स्तर🔆🙏  

[ईश्वरकोटि को चैतन्य के चारो स्तर का ज्ञान ^होता है]  

" चेतना (होश -consciousness-चैतन्य  या बोध)  के विभिन्न स्तर हैं  :  स्थूल, सूक्ष्म, कारण-शरीर  (causal body ) और महाकारण (the Great Cause)  महाकारण में जाने पर चुप है । वहाँ बातचीत नहीं हो सकती ।

[“স্থূল, সূক্ষ্ম, কারণ, মহাকারণ! মহাকারণে গেলে চুপ। সেখানে কথা চলে না!"

"There are different planes of consciousness: the gross, the subtle, the causal (वह जो सूक्ष्‍म शरीर (कॉज़ल बॉडी) है, वही नए स्‍थूल शरीर ग्रहण करता है।), and the Great Cause. Entering the Mahakarana, the Great Cause, one becomes silent; one cannot utter a word.

"ईश्वर कोटि (नेता)  महाकारण में पहुँचकर लौट सकते हैं । वे ऊपर चढ़ते हैं, फिर नीचे भी आ सकते हैं । अवतार आदि ईश्वर कोटि हैं । वे ऊपर भी चढ़ते हैं और नीचे भी आ सकते हैं । छत के ऊपर चढ़कर, फिर सीढ़ी से उतरकर नीचे चल-फिर सकते हैं । अनुलोम और विलोम (negation and affirmation. नेति से इति  ) ^ । सात मंजला मकान है, किसी की पहुँच बाहर के फाटक तक ही होती है, और जो राजा का लड़का है (यानि राजपूत है -दादा ने कहा तुम यदि राजपूत हो , तो क्या मैं राजा नहीं हूँ ? ), उसका तो वह अपना ही मकान है, वह सातों मंजिल पर घूम-फिर सकता है ।

[“ঈশ্বরকোটি মহাকারণে গিয়ে ফিরে আসতে পারে। অবতারাদি ঈশ্বরকোটি। তারা উপরে উঠে, আবার নিচেও আসতে পারে। ছাদের উপরে উঠে, আবার সিঁড়ি দিয়ে নেমে নিচে আনাগোনা করতে পারে। অনুলোম, বিলোম। সাততোলা বাড়ি, কেউ বারবাড়ি পর্যন্ত যেতে পারে। রাজার ছেলে, আপনার বাড়ি সাততোলায় যাওয়া আসা করতে পারে।

"But an Isvarakoti, after attaining the Great Cause, can come down again to the lower planes. Incarnations of God, and others  like them (Leaders CINC-नवनीदा of Mahamandal -जीवनमुक्त लोकशिक्षक, belong to the class of the Isvarakotis. They climb up, and they can also come down. They climb to the roof, and they can come down again by the stairs and move about on a lower floor. It is a case of negation and affirmation. ^ [There is, for instance, the Seven-storey Palace of a King. Strangers have access only to the lower apartments; but the prince, who knows the palace to be his own, can move up and down from floor to floor. 

[^*नेति से इति *  (negation and affirmation. ) ^अर्थात्, साधक सबसे पहले 'नेति नेति ' करके ईश्वर न होने के कारण - जगत को  नकारता है; लेकिन ईश्वर की प्राप्ति के बाद 'इति इति ' करके वह उसी जगत को स्वयं माँ जगदम्बा की अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार करता है।^That is to say, the aspirant at first negates the world on account of its not being God; but after divine realization he accepts the same world as the manifestation of God Himself.]

एक एक तरह के अनार है । एक खास प्रकार हैं, जिसमें थोड़ी देर तो एक तरह की फुलझड़ियाँ होती हैं, फिर कुछ देर बन्द रहकर दूसरे तरह के फूल निकलने लगते हैं, फिर और किसी तरह के फूल, मानो फुलझड़ियों का छूटना बन्द ही नहीं होता ।

[“এক একরকম তুবড়ি আছে, একবার একরকম ফুল কেটে গেল, তারপর খানিকক্ষণ আর-একরকম ফুল কাটছে তারপর আবার আর-একরকম। তার নানারকম ফুলকাটা ফুরোয় না।

There is a kind of rocket that throws out sparks in one pattern and then seems to go out. After a moment it makes another pattern, and then still another. There is no end to the patterns it can make. ]

“एक तरह के अनार और हैं । आग लगाने से थोड़ी ही देर के बाद वह भुस्स से फूट जाते हैं । उसी तरह बहुत प्रयत्न करके साधारण आदमी अगर ऊपर चला भी जाता है तो फिर वह लौटकर खबर नहीं देता। जीवकोटि के जो हैं, बहुत प्रयत्न करने पर उन्हें समाधि हो सकती है, परन्तु समाधि के बाद न वे नीचे उतर सकते हैं और न उतरकर खबर ही दे सकते हैं

[“আর একরকম তুবড়ি আছে, আগুন দেওয়ার একটু পরেই ভস্‌ করে উঠে ভেঙে যায়! যদি সাধ্য-সাধনা করে উপরে যায়, তো আর এসে খপর দেয় না। জীবকোটির সাধ্য-সাধনা করে সমাধি হতে পারে। কিন্তু সমাধির পর নিচে আসতে বা এসে খপর দিতে পারে না।

But there is another kind of rocket that, when it is lighted, makes only a dull sound, throws out a few sparks, and then goes out altogether. Like this second kind, an ordinary jiva, after much spiritual effort, can go to a higher plane; but he cannot come down to tell others his experiences. After much effort he may go into samadhi; but he cannot climb down from that state or tell others what he has seen there.

[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏मूर्तमान ज्ञान (घनीभूत चैतन्य) को नित्यसिद्ध कहते हैं🔆🙏 

“एक हैं नित्यसिद्ध की तरह । वे जन्म से ही ईश्वर की चाह रखते हैं, संसार की कोई चीज उन्हें अच्छी नहीं लगती । वेदों में होमापक्षी की कथा है । यह चिड़िया आकाश में बहुत ऊँचे पर रहती हैं । वहीं वह अण्डे भी देती है । इतनी ऊँचाई पर रहती है कि अण्डा बहुत दिनों तक लगातार गिरता रहता है । गिरते गिरते अण्डा फूट जाता है । तब बच्चा गिरता रहता है ।

बहुत दिनों तक लगातार गिरता रहता है । गिरते ही गिरते उसकी आँखें भी खुल जाती हैं । जब मिट्टी के समीप पहुँच जाता है, तब उसे ज्ञान होता है । तब वह समझ लेता है कि देह में मिट्टी के छू जाने से ही जान जायगी । तब वह चीख मारकर अपनी माँ की ओर उड़ने लगता है । मिट्टी का अर्थ है मृत्यु , इसीलिए मिट्टी देखकर भय हुआ है । अब अपनी माँ को चाहता है । माँ उस ऊँचे आकाश में है । उसी ओर बेतहाशा उड़ने लगता है, फिर दूसरी ओर दृष्टि नहीं जाती ।

[একটি আছে, নিত্যসিদ্ধের থাক্‌। তারা জন্মাবধি ঈশ্বরকে চায়, সংসারে কোন জিনিস তাদের ভাল লাগে না। বেদে আছে, হোমাপাখির কথা। এই পাখি খুব উঁচু আকাশে থাকে। ওই আকাশেই ডিম পাড়ে। এত উঁচুতে থাকে যে ডিম অনেকদিন ধরে পড়তে থাকে। পড়তে পড়তে ডিম ফুটে যায়। তখন ছানাটি পড়তে থাকে। অনেকদিন ধরে পড়ে। পড়তে পড়তে চোখ ফুটে যায়। যখন মাটির কাছে এসে পড়ে, তখন তার চৈতন্য হয়। তখন বুঝতে পারে যে, মাটি গায়ে ঠেকলেই মৃত্যু। পাখি চিৎকার করে মার দিকে চোঁচা দৌড়। মাটিতে মৃত্যু, মাটি দেখে ভয় হয়েছে! এখন মাকে চায়! মা সেই উঁচু আকাশে আছে। সেই দিকে চোঁচা দৌড়! আর কোন দিকে দৃষ্টি নাই।

"There is a class of devotees, the nityasiddhas, the ever-perfect. From their very birth they seek God. They do not enjoy anything of the world. The Vedas speak of the homa bird. It lives very high in the sky. There the mother bird lays her egg. She lives so high that the egg falls for many days. While falling it is hatched. The chick continues to fall. That also goes on for many days. In the mean time the chick develops eyes. Coming near the earth, it becomes conscious of the world. It realizes it will meet certain death if it hits the ground. Then it gives a shrill cry and shoots up toward its mother. The earth means death, and it frightens the young bird; it then seeks its mother. She dwells high up in the sky, and the young bird shoots straight up in that direction. It doesn't look anywhere else.]

"अवतारों के साथ जो  (लीलापार्षद-companions of an Incarnation of God) आते हैं, वे नित्यसिद्ध होते हैं, कोई अन्तिम जन्मवाले होते हैं ।

[“অবতারে সঙ্গে যারা আসে, তারা নিত্যসিদ্ধ, কারু বা শেষ জন্ম।

"Those who are born as the companions of an Incarnation of God are eternally perfect. For some of them that birth is the last.

 [(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏राजर्षि जनक और ब्रह्मर्षि शुकदेव🔆🙏

(विजय से) “तुम लोगों को दोनों ही है, योग भी है और भोग भी । जनक राजा को योग भी था और भोग भी था । इसीलिए उन्हें लोग राजर्षि कहते हैं । राजा और ऋषि दोनों ही । नारद देवर्षि हैं, और शुकदेव ब्रह्मर्षि ।

“शुकदेव ब्रह्मर्षि हैं, शुकदेव ज्ञानी नही, पुञ्जीकृत ज्ञान की मूर्ति हैं । ज्ञानी किसे कहते हैं ? जिसे प्रयत्न करके ज्ञान हुआ है । शुकदेव ज्ञान की मूर्ति हैं, अर्थात् घनीभूत ज्ञान हैं (ज्ञान की जमायी हुई राशि है) । उन्हें ब्रह्मज्ञान ऐसे ही हुआ है (अनायास -spontaneously हुआ है, बिना किसी पूर्वतैयारी के हुआ है) , साधना करके नहीं ।”

[(বিজয়ের প্রতি) — “তোমাদের দুই-ই আছে। যোগ ও ভোগ। জনক রাজার যোগও ছিল, ভোগও ছিল। তাই জনক রাজর্ষি, রাজা ঋষি, দুই-ই। নারদ দেবর্ষি। শুকদেব ব্রহ্মর্ষি।“শুকদেব ব্রহ্মর্ষি, শুকদেব জ্ঞানী নন, জ্ঞানের ঘনমূর্তি। জ্ঞানী কাকে বলে? জ্ঞান হয়েছে যার — সাধ্য-সাধনা করে জ্ঞান হয়েছে। শুকদেব জ্ঞানের মূর্তি অর্থাৎ জ্ঞানের জমাটবাঁধা। এমনি হয়েছে সাধ্য-সাধনা করে নয়।”

(To Vijay) "You have both — yoga and bhoga. King Janaka also had yoga and bhoga. Therefore he is called a rajarshi, both king and seer. Narada was a devarshi, and Sukadeva a brahmarshi. Yes, Sukadeva was a brahmarshi. He was not a mere jnani; he was the very embodiment of Jnana, Divine Knowledge. Whom do I call a jnani? A man who has attained Knowledge and has done so after much effort. Sukadeva was the very image of Knowledge, in other words, a form of concentrated Knowledge. He attained Knowledge spontaneously, without any labour."

बातें कहते हुए श्रीरामकृष्ण की साधारण दशा हो गयी है । अब भक्तों से बातचीत कर सकेंगे ।

केदार से उन्होंने संगीत गाने के लिए कहा । केदार गा रहे हैं । उन्होंने कई गाने गाये । एक का भाव नीचे दिया जाता है –

गौर प्रेमेर ढेऊ लेगेछे गाय,

तार हिल्लोले पाषण्ड दलन, ए ब्रम्हाण्ड तलिए जाय। 

मने कोरि डुबे तोलिए रोई,

गौरचांदेर प्रेम-कूमीरे गिलेछे गो सई। 

एमोन ब्यथार ब्यथा के आर आछे,

हात धरे टेने तोलाय। 

“देह में गौरांग के प्रेम की तरंगें लग रही हैं । उनकी हिलोरों में दुष्टों की दुष्टता बह जाती है । यह ब्रह्माण्ड तलातल को पहुँच जाता है । जी में आता है, डुबकर नीचे बैठा रहूँ परन्तु वहाँ भी गौरांग-प्रेम-रूपी घड़ियाल से जी नहीं बचता, वह निगल जाता है । ऐसा सहानुभूतिपूर्ण और कौन है, जो हाथ पकड़कर खींच ले जाय ?"

[কথাগুলি বলিতে বলিতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ প্রকৃতিস্থ হইলেন। এখন ভক্তদের সহিত কথা কহিতে পারিবেন। কেদারকে গান করিতে বলিলেন। কেদার গাইতেছেন:২) - গৌর প্রেমের ঢেউ লেগেছে গায়।তার হিল্লোলে পাষণ্ড-দলন এ-ব্রহ্মাণ্ড তলিয়ে যায় ৷৷মনে করি ডুবে তলিয়ে রই,গৌরচাঁদের প্রেম-কুমিরে গিলেছে গো সই।এমন ব্যথার ব্যথী কে আর আছে হাত ধরে টেনে তোলায় ৷৷

Saying this, Sri Ramakrishna came down to the normal mood. Then he talked freely with the devotees. The Master asked Kedar to sing.

गाना हो जाने पर श्रीरामकृष्ण फिर भक्तों से बातचीत कर रहे हैं । श्रीयुत केशव सेन के भतीजे नन्दलाल वहाँ मौजूद थे । वे अपने दो-एक ब्राह्मभक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण के पास ही बैठे हुए हैं ।

[গানের পর আবার ঠাকুর ভক্তদের সহিত কথা কহিতেছেন। শ্রীযুক্ত কেশব সেনের ভাইপো নন্দলাল উপস্থিত ছিলেন। তিনি ও তাঁর দুই-একটি ব্রাহ্মবন্ধু ঠাকুরের কাছেই বসিয়াছিলেন।

Kedar sang several other songs. After the music the Master again talked to the devotees. Nandalal, Keshab's nephew, was also present with a few Brahmo friends. They were sitting near the Master.

श्रीरामकृष्ण - (विजय आदि भक्तों से) - कारण (शराब) की बोतल एक आदमी ले आया था, मैं छूने गया, पर मुझसे छुई न गयी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিজয়াদি ভক্তদের প্রতি) — কারণের বোতল একজন এনেছিল, আমি ছুঁতে গিয়ে আর পারলুম না।

MASTER (to Vijay and the other devotees): "A man brought a bottle of consecrated wine for me; but I couldn't even touch it."

विजय – अहा !বিজয় — আহা!VIJAY: "Ah!"

श्रीरामकृष्ण - सहजानन्द के होने पर यों ही नशा हो जाता है । शराब पीनी नहीं पड़ती । माँ का चरणामृत ^  देखकर मुझे नशा हो जाता है, ठीक उतना जितना पाँच बोतल शराब पीने से होता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সহজানন্দ হলে অমনি নেশা হয়ে যায়! মদ খেতে হয় না। মার চরণামৃত দেখে আমার নেশা হয়ে যায়। ঠিক যেন পাঁচ বোতল মদ খেলে হয়!

MASTER: "I become intoxicated at the mere thought of God. I don't have to take any wine. I feel drunk at the very sight of the charanamrita.^  I feel as if I had drunk five bottles of liquor.[^चरणामृत : वह जल जिसमें भगवान विष्णु की प्रतिमा (शालिग्राम) को स्नान कराया जाता है; इसे बहुत पवित्र माना जाता है। ^The water in which the image of the Deity is bathed; it is considered very sacred.]

"इस अवस्था में सब समय सब तरह का भोजन नहीं खाया जाता ।”

 [“এ অবস্থায় সব সময় সবরকম খাওয়া চলে না।”

When a person attains such a state he cannot help discriminating about food."

🔆🙏ज्ञानी तथा भक्त की अवस्था का भोजन -विचार 🔆🙏

नरेन्द्र - खाने-पीने के लिए जो कुछ मिला, वही बिना विचार के खाना अच्छा है ।

[নরেন্দ্র — খাওয়া-দাওয়া সম্বন্ধে যদৃচ্ছালাভই ভাল।

NARENDRA: "As regards food, one should take whatever comes."

श्रीरामकृष्ण - यह बात एक विशेष अवस्था के लिए है । ज्ञानी के लिए किसी में दोष नहीं । गीता के मत से ज्ञानी खुद नहीं खाता, वह कुण्डलिनी को आहुति देता है ।

"यह बात भक्त के लिए नहीं है । मेरी इस समय की अवस्था यह है कि ब्राह्मण का लगाया भोग न हो तो मैं नहीं खा सकता । पहले ऐसी अवस्था थी कि दक्षिणेश्वर के उस पार से मुर्दों के जलने की जो बू आती थी, उसे मैं नाक से खींच लेता था - वह बड़ी मीठी लगती थी । पर अब सब के हाथ का नहीं खा सकता।

"और सचमुच नहीं खा सकता, यद्यपि कभी कभी खा भी लेता हूँ । केशव सेन के यहाँ मुझे नववृन्दावन नाटक दिखाने ले गये थे । पूड़ियाँ और पकौड़ियाँ ले आये । न मालूम धोबी ले आया था या नाई । (सब हँसते हैं ।) मैंने खूब खाया । राखाल ने कहा, जरा और खाओ ।

(नरेन्द्र से) “तुम्हारे लिए इस समय यह चल सकता है । तुम 'इधर' भी और 'उधर' ^ भी हो । इस समय तुम सब खा सकते हो ।

[अर्थात नरेन्द्र संसार (परिवर्तनशील-जीवन ) और आध्यात्मिक (अविनाशी-जीवन ) जीवन दोनों के प्रति सतर्क  थे।^That is to say, Narendra was attentive both to the world and to the spiritual life.]

(भक्तों से) ‘‘शूकर-मांस खाकर भी अगर किसी का ईश्वर की ओर झुकाव हो, तो वह धन्य है और निरामिष-भोजन करने पर भी अगर किसी का मन कामिनी और कांचन पर लगा रहे, तो उसे धिक्कार है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — অবস্থা বিশেষে উটি হয়। জ্ঞানীর পক্ষে কিছুতেই দোষ নাই। গীতার মতে জ্ঞানী আপনি খায় না, কুণ্ডলিনীকে আহুতি দেয়।“ভক্তের পক্ষে উটি নয়। আমার এখনকার অবস্থা, — বামুনের দেওয়া ভোগ না হলে খেতে পারি না! আগে এমন অবস্থা ছিল, দক্ষিণেশ্বরের ওপার থেকে মড়াপোড়ার যে গন্ধ আসতো, সেই গন্ধ নাক দিয়ে টেনে নিতাম এত মিষ্ট লাগতো। এখন সব্বাইয়ের খেতে পারি না।“পারি না বটে, আবার এক-একবার হয়ও। কেশব সেনের ওখানে (নববৃন্দাবন) থিয়েটারে আমায় নিয়ে গিয়েছিল। লুচি, ছক্কা আনলে। তা ধোবা কি নাপিত আনলে, জানি না। (সকলের হাস্য) বেশ খেলুম। রাখাল বললে, একটু খাও।(নরেন্দ্রের প্রতি) — “তোমার এখন হবে। তুমি এতেও আছ, আবার ওতেও আছ! তুমি এখন সব খেতে পারবে।(ভক্তদের প্রতি) — “শূকর মাংস খেয়ে যদি ঈশ্বরে টান থাকে, সে লোক ধন্য! আর হবিষ্য করে যদি কামিনী-কাঞ্চনে মন তাকে তাহলে সে ধিক্‌।”

MASTER: "What you say applies only to a particular state of the aspirant's mind. No food can harm a jnani. According to the Gita, the jnani himself does not eat; his eating is an offering to the Kundalini. But that does not apply to a bhakta. The present state of my mind is such that I cannot eat any food unless it is first offered to God by a brahmin priest. Formerly my state of mind was such that I would enjoy inhaling the smell of burning corpses, carried by the wind from the other side of the Ganges. It tasted very sweet to me. But nowadays I cannot eat food touched by anybody and everybody. No, I cannot. But once in a while I do. One day I was taken to see a performance of a play at Keshab's house. They gave me luchi and curries to eat. I didn't know whether the food was handed to me by a washerman or a barber; but I ate quite a little. (All laugh.) Rakhal had asked me to eat. (To Narendra) "With you it is all right. You are in 'this' as well as in 'that'.6 You can eat everything now. (To the devotees) Blessed is he who feels longing for God, though he eats pork. But shame on him whose mind dwells on 'woman and gold', though he eats the purest food — boiled vegetables, rice, and ghee.]

"मेरी इच्छा थी कि लोहारों के यहाँ की दाल खाऊँ बचपन की बात है । लोहार कहते थे, ब्राह्मण क्या खाना पकाना जाने ? खैर, मैने खाया, परन्तु उसमें लोहारी बू मिल रही थी । (सब हँसते है ।)

[“আমার কামারবাড়ির দাল খেতে ইচ্ছা ছিল; ছেলেবেলা থেকে কামাররা বলত বামুনরা কি রাঁধতে যানে? তাই খেলুম, কিন্তু, কামারে কামারে গন্ধ। (সকলের হাস্য)"

Once I had a desire to eat dal cooked in a blacksmith's house. From my childhood I had heard the blacksmiths say, 'Do the brahmins know how to cook?' I ate the dal, but it smelt of the blacksmith. (All laugh.)

[(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

 🔆🙏श्रीरामकृष्ण ने मुर्शिद (गुरु, मार्गदर्शक नेता) गोविन्द राय से अल्लाह मंत्र लिया 🔆🙏 

"गोविन्द राय के पास मैने अल्ला मन्त्र ^ लिया । कोठी में प्याज ^ डालकर भात (बिरयानी) पकाया गया। मणि मल्लिक के बगीचे में मैंने तरकारी खायी, परन्तु उससे एक तरह की घृणा हो गयी ।

[“গোবিন্দ রায়ের কাছে আল্লামন্ত্র নিলাম। কুঠিতে প্যাঁজ দিয়ে রান্না ভাত হল। খানিক খেলুম। মণি মল্লিকের (বরাহনগরের) বাগানে ব্যান্নুন রান্না খেলুম, কিন্তু কেমন একটা ঘেন্না হল।

"I received the Allah mantra ^  from Govinda Rai. Rice was cooked for me with onions ^  in the kuthi. I ate some. I ate curry in Mani Mallick's garden house, but I felt a kind of repulsion to it.[^ श्रीरामकृष्ण इस्लाम-मत में अपनी दीक्षा की बात कर रहे थे।^The Master was referring to his initiation into Islam. ^प्याज खाना धर्मनिष्ठ  ब्राह्मणों को मना है , जबकि मुसलमान लोग  आम तौर पर प्याज पसंद करते हैं। ^The Mussalmans generally relish onions, which are forbidden to orthodox brahmins.] 

"मैं देश(कामारपुकुर) गया, तब रामलाल का बाप* डरा । उसने सोचा कि यह तो इधर-उधर किसी के यहाँ भी खा लेता है । कहीं ऐसा न हो कि जाति से च्युत कर दिया जाऊँ; इसीलिए मैं अधिक दिन वहाँ न रह सका, वहाँ से चला आया । (*श्रीरामकृष्ण के बड़े भाई रामेश्वर ।)

[“দেশে গেলুম; রামলালের বাপ ভয় পেলে। ভাবলে, যার তার বাড়িতে খাবে। ভয় পেলে, পাছে তাদের জাতে বার করে দেয়। আমি তাই বেশি দিন থাকতে পারলুম না; চলে এলুম।”

"When I went to Kamarpukur, Ramlal's father was frightened. He thought I might eat at any and every house. He was frightened to think I might be expelled from the caste; so I couldn't stay long. I came away.

 [(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏आहार-शुद्धि के विषय में तंत्र का मत, वेद, पुराण के मत से भिन्न है🔆🙏

"वेदों और पुराणों में शुद्धाचार की बात लिखी है । वेदों और पुराणों में जिसके लिए कहा है कि यह न करो, इनसे अनाचार होता है, तन्त्रों में उसी को अच्छा कहा है ।

[“বেদ পুরাণে বলেছে শুদ্ধাচার। বেদ পুরাণে যা বলে গেছে — ‘করো না, অনাচার হবে’ — তন্ত্রে আবার তাই ভাল বলেছে।

"Both the Vedas and the Puranas describe pure food and conduct. But what the Vedas and the Puranas ask people to shun as impure is extolled by the Tantra as good.] 

"मेरी कैसी कैसी अवस्थाएँ बीत गयी हैं । मुख आकाश और पाताल तक फैलाता था और तब मैं माँ कहता था, मानो माँ को पकड़े लिये आ रहा हूँ जैसे जाल डालकर जबरदस्ती मछली पकड़कर खींचना।

[“কি অবস্থাই গেছে! মুখ করতুম আকাশ-পাতাল জোড়া, আর ‘মা’ বলতুম। যেন, মাকে পাকড়ে আনছি। যেন জাল ফেলে মাছ হড়হড় করে টেনে আনা।

 গানে আছে: এবার কালী তোমায় খাব। (খাব খাব গো দীন দয়াময়ী)।(তারা গণ্ডযোগে জন্ম আমার)গণ্ডযোগে জনমিলে সে হয় মা-খোকা ছেলে।এবার তুমি খাও কি আমি খাই মা, দুটার একটা করে যাব ৷৷হাতে কালী মুখে কালী, সর্বাঙ্গে কালী মাখিব।যখন আসবে শমন বাঁধবে কসে, সেই কালী তার মুখে দিব ৷৷খাব খাব বলি মা গো উদরস্থ করিব।এই হৃদিপদ্মে বসাইয়ে, মনোমানসে পূজিব ৷৷যদি বল কালী খেলে, কালের হাতে ঠেকা যাব।আমার ভয় কি তাতে, কালী ব’লে কালেরে কলা দেখাব ৷৷ডাকিনী যোগিনী দিয়ে, তরকারী বানায়ে খাব।মুণ্ডমালা কেড়ে নিয়ে অম্বল সম্বরা চড়াব ৷৷কালীর বেটা শ্রীরামপ্রসাদ, ভালমতে তাই জানাব।তাতে মন্ত্রের সাধন, শরীর পতন, যা হবার তাই ঘটাইব ৷৷


"Oh, what a state of mind I passed through! I would open my mouth, touching, as it were, heaven and the nether world with my jaws, and utter the word 'Ma'. I felt that I had seized the Mother, like a fisherman dragging fish in his net. Let me recite a song:

एक रामप्रसादि गाने में है –

" एबार काली तोमाय खाबो। (खाबो खाबो, गो दीन दयामयी)। 

(माँ तारा,  गण्डयोगे जन्म आमार )......  

गण्डयोगे जनमिले से होय माँ -खोका छेले। 

एबार तुमि खाओ कि आमि खाई माँ , दूटार एकटा कोरे जाबो।। 

हाते काली मुखे काली , सर्वांग काली माखिबो। 

जखन आसबे शमन बाँधबे कसे , सेई काली तार मुखे दिबो।।

खाबो खाबो बोली माँ गो, उदरस्थ कोरीबो। 

एई हृदिपद्मे बोसाइये , मनोमानसे पूजिबो।।

जोदि बोलो काली खेले , कालेर हाते ठेका खाबो। 

आमार भय कि ताते , काली बोले कालेर कला देखाबो।। 

डाकिनी योगिनी दिये , तरकारी बानाये खाबो। 

मुण्डमाला केड़े निये अंबल संबरा चड़ाबो।।

कालीर बेटा श्रीरामप्रसाद , भालोमोते ताई जानाबो !   

ताते मन्त्रेर साधन , शरीर पतन , जा होबार ताई घोटाइबो।। 

"अबकी बार, ऐ काली, तुम्हे ही मैं खा जाऊँगा । तारा, गण्डयोग में मेरा जन्म हुआ है । इस योग में पैदा होने पर बच्चा अपनी माँ को खा जाता है । अबकी बार, माँ, या तो तुम्ही मुझे खा जाओगी या मैं ही तुम्हें खाऊंगा, दो में एक तो होगा ही । मैं हाथों में, पैरों में, सर्वांग में कालिख# पोत लूँगा । (बंगला शब्द 'काली' से दो अर्थ निकलते हैं - स्याही और कालिका देवी । यहाँ उसी श्लेष से मतलब है ।) जब यमराज आकर मुझे बाँधने लगेंगे तब वही कालिख उसके मुँह में लगाऊँगा । मैं यह तो कहता हूँ कि तुझे खा जाऊँगा परन्तु माँ, यह समझ ले कि खाकर भी मैं तुझे उदरस्थ न करूँगा, हृदय-पद्म में तुझे बैठा लूँगा और तब अपनी मौज से तेरी पूजा करूँगा । अगर यह कहो कि काली को खा जाओगे तो फिर काल के हाथ से कैसे बचोगे, तो कहना यह है कि मैं काली कहकर काल से पिण्ड छुड़ाऊँगा ।

'मैं उसे अच्छी तरह जना दूँगा कि " श्रीरामप्रसाद काली (तारा ) का बेटा" है । उससे या तो "मन्त्र की सिद्धि ही होगी या मेरा यह शरीर ही न रह जायगा ।"  

[This time I shall devour Thee utterly. Mother Kali! For I was born under an evil star, And one so born becomes, they say, the eater of his mother. Thou must devour me first, or I myself shall eat Thee up; One or the other it must be. I shall besmear my hands with black,^  and with black my face; (^ काली स्याही माँ काली के शरीर का रंग है।^Black is the colour of Kali's complexion.With black I shall besmear the whole of my body. And when Death seizes me, with black I shall besmear his face. O Mother, I shall eat Thee up but not digest Thee; I shall install Thee in my heart And make Thee offerings with my mind. You may say that by eating Kali I shall embroil (झगड़ना) myself With Kala, ^ (परम् सत्य -शिव ) Her Husband, but I am not afraid; Braving His anger, I shall chant my Mother's name. To show the world that Ramprasad is Kali's (TARA'S)  rightful son, Come what may, I shall eat Thee up — Thee and Thy retinue —Or lose my life attempting it.

 # वीर-भाव की साधना के लिए सुरक्षित देह का निर्माण करना : तंत्र-शास्त्र में मॉं काली तथा मॉं तारा की सिद्धि हेतु वीर साधना (चिता, मुन्ड तथा शवसाधना) को त्वरित फलदाई बताया गया है। वीर साधक इस साधना की सफलता के लिए यह संकल्प लेकर चलता है-‘मंत्रं साधयामि-शरीरं वा पातयामि’(या तो मंत्र सिद्ध करूंगा या प्राण ही त्याग दूंगा ।)वीर- साधना अत्यन्त भयावह होती है। साधनाकाल में तनिक चूक हो जाने पर प्राण संकट में पड़ सकते हैं तथा साधक का मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है। दीर्घकाल तक न्यासों का अभ्यास करके न्यास-जाल रूपी अभेद्य कवच धारण किया हुआ साधक ही ऐसी साधना करने का साहस कर सकता है।])

"पागल की अवस्था हो गयी थी - यह व्याकुलता है !”

[“উন্মাদের মতন অবস্থা হয়েছিল। এই ব্যাকুলতা!”

"I almost became mad — such was my longing for God."

नरेन्द्र गा रहे हैं - 

आमाय दे माँ पागल करे , आर काज नाइ ज्ञान-विचारे।  

আমায় দে মা পাগল করে, আর কাজ নাই জ্ঞানবিচারে।

"माँ, मुझे पागल कर दे, ज्ञान के विचार से मुझे काम नहीं ।"

गाना सुनते ही श्रीरामकृष्ण समाधिस्थ हो गये ।

समाधि के छूटने पर पार्वती की माता (राजा हिमवान की रानी मैना) का भाव अपने पर आरोपित करके श्रीरामकृष्ण 'आगमनी' (देवी के आगमन के समय का संगीत जो बंगाल में गाया जाता है) गा रहे हैं ।

गाने के बाद श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं, आज महाष्टमी है न, माँ आई हुई हैं । इसीलिए इतनी उद्दिपना हो रही है ।

[সমাধিভঙ্গের পর ঠাকুর গিরিরানীর ভাব আরোপ করিয়া আগমনী গাইতেছেন। গিরিরানী বলছেন, পুরবাসীরে! আমার কি উমা এসেছে? ঠাকুর প্রেমোন্মত্ত হইয়া গান গাইতেছেন।

He said to the devotees, "Today is the Mahashtami. The Mother has come; that is why I feel such an awakening of spiritual emotion."

केदार -- हे प्रभु ! आप स्वयं ही आविर्भूत हुए हैं ! माँ दुर्गा क्या आपसे भिन्न हैं ?  

[কেদার — প্রভু! আপনিই এসেছেন। মা কি আপনি ছাড়া?

KEDAR: "Lord, you are here. Are you different from the Divine Mother?"

श्रीरामकृष्ण गा रहे हैं –

तारे कोई पेलूम सई , होलाम जार जोन्ने पागल। 

ब्रह्मा पागल , विष्णु पागल , आर पागल शिव। 

तीन पागल युक्ति कोरे भांगलो नवद्वीप।।  

आर एक पागल देखे एलाम वृन्दावन माझे। 

राईके राजा साजाये आपनी कोटाल साजे।। 

आर एक पागल देखे एलाम नवद्वीपेर पथे। 

राधारप्रेम बोले , करोया किस्ती होते।    

তারে কই পেলুম সই, হলাম যার জন্য পাগল।

ব্রহ্মা পাগল, বিষ্ণু পাগল, আর পাগল শিব।

তিন পাগলে যুক্তি করে ভাঙল নবদ্বীপ ৷৷

আর এক পাগল দেখে এলাম বৃন্দাবন মাঝে।

রাইকে রাজা সাজায়ে আপনি কোটাল সাজে ৷৷

আর এক পাগল দেখে এলাম নবদ্বীপের পথে।

রাধাপ্রেম সুধা বলে, করোয়া কীস্তি হাতে।

"सखी री ! जिसके लिए मैं पागल हो गयी उसे अभी कहाँ पाया ?"

श्रीरामकृष्ण गा रहे हैं, एकाएक 'हरिबोल' 'हरिबोल' कहकर विजय खड़े हो गये । श्रीरामकृष्ण भी भावोन्मत्त होकर विजय आदि भक्तों के साथ नृत्य करने लगे ।

(४)

 🔆🙏किस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए🔆🙏

कीर्तन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण, विजय, नरेन्द्र तथा दूसरे भक्तों ने आसन ग्रहण किया । सब की दृष्टि श्रीरामकृष्ण पर लगी हुई है । सन्ध्या होने में अभी कुछ देर है । श्रीरामकृष्ण भक्तों से बातचीत कर रहे हैं । उनसे कुशल-प्रश्न पूछ रहे हैं । केदार बड़े ही विनीत भाव से हाथ जोड़कर बहुत ही मृदु तथा मधुर शब्दों में श्रीरामकृष्ण से निवेदन कर रहे हैं । पास हैं नरेन्द्र, चुनी, सुरेन्द्र, राम, मास्टर और हरीश

[কীর্তনান্তে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ, বিজয় নরেন্দ্র ও অন্যান্য ভক্তেরা আসন গ্রহণ করিলেন। সকলের দৃষ্টি ঠাকুরের দিকে। সন্ধ্যার কিছু বিলম্ব আছে। ঠাকুর ভক্তদের সহিত কথা কহিতেচেন। তাঁহাদের কুশল প্রশ্ন করিতেছেন। কেদার অতি বিনীতভাবে হাতজোড় করিয়া অতি মৃদু ও মিষ্ট কথায় ঠাকুরের কাছে কি নিবেদন করিতেছেন। কাছে নরেন্দ্র, চুনি, সুরেন্দ্র, রাম, মাস্টার ও হরিশ।

The music was over. The Master, Vijay, Narendra, and the other devotees sat down. All eyes were fixed on Sri Ramakrishna, who began conversing with the devotees. He asked about their health. Kedar spoke to him humbly in a soft, sweet voice. Narendra, Chunilal, Ram, M., and Harish were sitting by the Master.

केदार - (श्रीरामकृष्ण से, विनयपूर्वक) - सिर का चक्कर खाना किस तरह अच्छा होगा ?

[কেদার (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি, বিনীতভাবে) — মাথাঘোরাটা কিসে সেরে যাবে?

KEDAR (humbly): "How can I get rid of my dizziness?"

श्रीरामकृष्ण - (सस्नेह) - ऐसा होता है, मुझे भी हुआ था । थोड़ा थोड़ा बादाम का तेल सिर में लगाकर मालिश कर लिया कीजिये । सुना है, इस तरह यह बीमारी अच्छी हो जाती है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সস্ন্নেহে) — ও হয়; আমার হয়েছিল! একটু একটু বাদামের তেল দিবেন। শুনেছি, দিলে সারে।

MASTER (tenderly): "One gets that. I have had it myself. Use a little almond oil. I have heard that it cures dizziness."

केदार - जो आज्ञा ।

[কেদার — যে আজ্ঞা।

KEDAR: "I shall, sir."

श्रीरामकृष्ण - (चुनी से) - क्यों जी, तुम सब कैसे हो ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (চুনির প্রতি) — কিগো, তোমরা সব কেমন আছ?

MASTER (to Chunilal): "Hello! How is everything?"

चुनी – जी, इस समय तो सब कुशल है । वृन्दावन में बलराम बाबू और राखाल अच्छी तरह हैं ।

[চুনি — আজ্ঞা, এখন সব মঙ্গল। বৃন্দাবনে বলরামবাবু, রাখাল এঁরা সব ভাল আছেন।

CHUNILAL: "Everything is all right with us now. Balaram Babu and Rakhal are well at Vrindavan."

श्रीरामकृष्ण – तुमने इतनी मिठाई क्यों भेज दी ?

चुनी - जी, वृन्दावन से आ रहा हूँ ।

चुनीलाल बलराम के साथ वृन्दावन गये हुए थे और कई महीने तक वहीं ठहरे थे । छुट्टी पूरी हो रही है, इसलिए अब कलकत्ता लौट आये हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (हरीश से) - तू दो-एक दिन बाद जाना । अभी बीमारी की हालत है, जाने पर वहाँ फिर बीमार पड़ जायगा ।

(नारायण से, सस्नेह) “बैठ, आ मेरे पास आकर बैठ । कल जाना और वहीं खाना भी । (मास्टर की ओर इशारा करके) इनके साथ जाना । (मास्टर से) क्यों जी ?"

मास्टर की इच्छा थी, वे उसी दिन श्रीरामकृष्ण के साथ दक्षिणेश्वर जायँ, अतएव वे सोचने लगे । सुरेन्द्र बड़ी देर तक थे । बीच में एक बार घर गये थे । घर से लौटकर श्रीरामकृष्ण के पास खड़े हुए ।

[মাস্টারের সেই দিনই ঠাকুরের সঙ্গে যাইবার ইচ্ছা। তাই চিন্তা করিতেছেন। সুরেন্দ্র অনেকক্ষণ ছিলেন, মাঝে একবার বাড়ি গিয়াছিলেন। বাড়ি হইতে আসিয়া ঠাকুরের কাছে দাঁড়াইলেন।

M. wanted to accompany Sri Ramakrishna to Dakshineswar that very day. He became thoughtful.

 [(26, 28- सितंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏शराब की लत छुड़ाने के उपाय🔆🙏

सुरेन्द्र कारण (शराब) पीते हैं । और अक्सर हद से ज्यादा चढ़ जाती थी।  सुरेन्द्र की हालत देखकर श्रीरामकृष्ण को चिन्ता हो गयी थी । बिलकुल ही पीना छोड़ देने के लिए नहीं कहा, उन्होंने कहा, “सुरेन्द्र, देखो, जो पीना हो , उसे जगदम्बा को निवेदित करके पीना;  और उतना ही पीना जिससे सिर न चकराए , पाँव न लड़खड़ाये। उनका (जगतजननी माँ काली / सारदा का ?) चिन्तन करते- करते फिर तुम्हें पीना अच्छा न लगेगा --वे कारणानन्ददायिनी हैं । उन्हें पा लेने पर सहजानन्द होता है । पहले कारणानन्द होगा, फिर भजनानन्द। " 

[সুরেন্দ্র কারণ পান করেন। আগে বড় বাড়াবাড়ি ছিল। ঠাকুর সুরেন্দ্রের অবস্থা দেখিয়া চিন্তিত হইয়াছিলেন। একেবারে পানত্যাগ করিতে বলিলেন না। বলিলেন, সুরেন্দ্র! দেখ, যা খাবে, ঠাকুরকে নিবেদন করে দিবে। আর যেন মাথা টলে না ও পা টলে না। তাঁকে চিন্তা করতে করতে তোমার আর পান করতে ভাল লাগবে না। তিনি কারণানন্দদায়িনী। তাঁকে লাভ করলে সহজানন্দ হয় 

Surendra stood near Sri Ramakrishna. He was in the habit of drinking and often went to excess. This had worried the Master greatly, but he had not asked Surendra to give up drinking altogether. He had said to him: '.'Look here, Surendra! Whenever you drink wine, offer it beforehand to the Divine Mother. See that your brain doesn't become clouded and that you don't reel. The more you think of the Divine Mother, the less you will like to drink. The Mother is the Giver of the bliss of divine inebriation. Realizing Her, one feels a natural bliss."

[ तबसे सुरेन्द्र वैसा ही करने लगे।  संध्या के समय वे सभी कर्म से निवृत होकर थोड़ी-सी  मदिरा माँ काली को निवेदित करते और उसी प्रसाद को पा लेते थे। परन्तु इससे कारणानन्द न होकर उनमें भजनानन्द का ही उदय होता था। उस समय उनके दोनों नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह निकलती , तथा मुख से बीच-बीच  में मर्मस्पर्शी करुण स्वर में 'माँ , माँ ' की ध्वनि निकलती।  साथ ही बीचबीच में उनकी निस्पन्द ध्यानमग्न अवस्था हो जाती।  जिसे देखकर नास्तिक तक के हृदय में भगवद्भाव का संचार होता।  उस समय वे ईश्वरीय प्रसंग को छोड़कर और कोई भी बात कहना और सुनना पसन्द नहीं करते थे।  ----"श्रीरामकृष्ण : एक जीवनी" स्वामी निखिलानन्द ]  

*How to get rid of drinking habit* 

[.'Look here, Surendra! Whenever you drink wine, offer it beforehand to the Divine Mother. See that your brain doesn't become clouded and that you don't reel. The more you think of the Divine Mother, the less you will like to drink. The Mother is the Giver of the bliss of divine inebriation. Realizing Her, one feels a natural bliss."

सुरेन्द्र पास खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण ने उनकी ओर दृष्टि करके कहा, तुमने कारण पान किया है । यह कहकर ही भाव में तन्मय हो गये ।

[সুরেন্দ্র কাছে দাঁড়াইয়া আছেন। ঠাকুর তাঁর দিকে দৃষ্টিপাত করিয়া বলিয়া উঠিলেন, তুমি কারণ খেয়েছ? বলিয়াই ভাবে আবিষ্ট।

The Master looked at Surendra and said, "You have had a drink." With these words he went into samadhi.

शाम हो गयी । कुछ बहिर्मुख होकर श्रीरामकृष्ण माता का नाम लेकर आनन्दपूर्वक गाने लगे -

शिव संगे सदा रंगे आनंद मगना,

सूधा पाने ढल ढल ढले किन्तु पोड़े ना॥

विपरित रतातूरा पदभरे कांपे धरा,

उभये पागलेर पारा लज्जा भय आर माने ना॥

[সন্ধ্যা হইল। কিঞ্চিৎ বাহ্য লাভ করিয়া ঠাকুর মার নাম করিয়া আনন্দে গান ধরিলেন:

It was dusk. Regaining partial consciousness, the Master sang:শিব সঙ্গে সদা রঙ্গে আনন্দে মগনা,সুধাপানে ঢল ঢল ঢলে কিন্তু পড়ে না (মা)।বিপরীত রতাতুরা, পদভরে কাঁপে ধরা,উভয়ে পাগলের পারা, লজ্জা ভয় আর মানে না।

Behold my Mother playing with Siva, lost in an ecstasy of joy! Drunk with a draught of celestial wine. She reels, and yet She does not fall. . . .

 बीच बीच में तालियाँ बजा रहे हैं । स्वर करके कह रहे हैं - "हरि बोल, हरि बोल, हरिमय हरि बोल, हरि हरि हरि बोला ।”

फिर कहने लगे - "राम, राम, राम, राम, राम, राम, राम, राम, राम ।”

ठाकुरदेव खुद प्रार्थना करके सीखा रहे हैं --How to Pray ?*

श्रीरामकृष्ण अब प्रार्थना कर रहे हैं - "ऐ राम ! हे राम ! मैं भजन हीन हूँ, साधन हीन हूँ, ज्ञान हीन हूँ, भक्ति हीन हूँ, क्रिया हीन हूँ, राम शरणागत हूँ । मैं देह-सुख नहीं चाहता । अष्ट सिद्धि तो क्या, शत सिद्धियाँ भी नहीं चाहता । मैं शरणागत हूँ, शरणागत । बस वही करो, जिससे तुम्हारे पादपद्मों में शुद्धा भक्ति हो, और तुम्हारी भुवनमोहिनी माया से मैं मुग्ध न होऊँ । राम ! मैं शरणागत हूँ ।"

[ঠাকুর এইবার প্রার্থনা করিতেছেন — “ও রাম! ও রাম! আমি ভজনহীন, সাধনহীন, জ্ঞানহীন, ভক্তিহীন — আমি ক্রিয়াহীন! রাম শরণাগত! ও রাম শরণাগত! দেহসুখ চাইনে রাম! লোকমান্য চাইনে রাম! অষ্টসিদ্ধি চাইনে রাম! শতসিদ্ধি চাইনে রাম! শরণাগত, শরণাগত! কেবল এই করো — যেন তোমার শ্রীপাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি হয় রাম! আর যেন তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ হই না, রাম! ও রাম, শরণাগত!”

"O Rama! O Rama! I am without devotion and austerity, without knowledge and love; I have not performed any religious rites. O Rama, I have taken refuge in Thee; I have taken shelter at Thy feet. I do not want creature comforts; I do not seek name and fame. O Rama, I do not crave the eight occult powers; I do not care for a hundred occult powers! I am Thy servant. I have taken refuge in Thee. Grant, O Rama, that I may have pure love for Thy Lotus Feet; that I may not be deluded by Thy world-bewitching maya! O Rama, I have taken refuge in Thee."

श्रीरामकृष्ण प्रार्थना कर रहे हैं और सब लोग टकटकी लगाये देख रहे हैं । उनका करुणामय स्वर सुनकर भक्त आँसू रोक नहीं सकते । श्रीयुत राम पास आकर खड़े हुए हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (राम के प्रति) - राम, तुम कहाँ थे ?

राम - जी ऊपर था ।

श्रीरामकृष्ण तथा भक्तों की सेवा के लिए राम ऊपर प्रबन्ध करने के लिए गये थे ।

श्रीरामकृष्ण - (राम से, सहास्य) - ऊपर रहने की अपेक्षा क्या नीचे रहना अच्छा नहीं ? नीची जमीन में ही पानी ठहरता है । ऊँची जमीन से पानी बह जाता है ।

राम - (हँसते हुए)- जी हाँ ।

छत पर पत्तलें पड़ चुकी हैं । श्रीरामकृष्ण और भक्तों को लेकर राम ऊपर गये और उन्हें आनन्द से भोजन कराया । उत्सव हो जाने पर, श्रीरामकृष्ण निरंजन, मास्टर भक्तों को साथ लेकर अधर के यहाँ गये । वहाँ माँ आयी हुई हैं । आज महाष्टमी है । अधर की विशेष प्रार्थना है, श्रीरामकृष्ण उपस्थित रहें, जिससे उनकी पूजा सार्थक हो जाये ।

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**चैतन्य की चारो अवस्थाओं का ज्ञान ^**

आज की युवा पीढ़ी केवल दिखाई देने वाले शरीर को ही ‘मैं’ या ‘स्वयं’ समझती है और यही मानती है कि 4 से 6 फुट का जो शरीर उसे मिला है, वही वह है, जबकि वास्तविकता यह नहीं है। आपको जान कर आश्चर्य होगा कि आपको ईश्वर ने इस पृथ्वी पर एक नहीं, अपितु चार शरीरों के साथ भेजा है। इनमें स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर और महाकारण शरीर। एक उदाहरण से समझिए कि कैसे ये चारों शरीर अलग-अलग हैं। एक सूती कुर्ता लीजिए। यह कुर्ता धागे से बना होता है और धागा रुई से बनता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस कुर्ते में हर जगह-जगह रुई विद्यमान है, जो इसके निर्माण का मुख्य कारण है। यह रुई ही इस कुर्ते का कारण शरीर है। अब धागे की बात करते हैं। धागा रुई से बनता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस कुर्ते में रुई (कारण शरीर) सूक्ष्म धागे के रूप में विद्यमान है। यदि रुई न होती, तो धागा न बनता अर्थात् इस कुर्ते का सूक्ष्म शरीर धागा हुआ। अब जो कुर्ता आपके हाथ में है, वह रुई (कारण शरीर) और धागे (सूक्ष्म शरीर) से तैयार हुआ है। कुर्ता तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, परंतु उसमें व्याप्त रुई और धागे पर हमारी दृष्टि नहीं जाती। यह कुर्ता स्थूल शरीर है। इसी प्रकार मानव को लीजिए। दृश्यमान देह स्थूल शरीर है। उसे सक्रिय करते हैं हमारे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। इन चारों से मिल कर बनी देह को सूक्ष्म शरीर कहते हैं।  सूक्ष्म शरीर स्थूल देह में ही होता है, परंतु दिखाई नहीं देता। अब यह तो आप भी अच्छी तरह समझते होंगे कि मन दिखाई नहीं देता, जबकि हम हर कर्म मन में उत्पन्न इच्छाओं की प्रेरणा से ही तो करते हैं।

मन में इच्छा उत्पन्न होते ही बुद्धि उस इच्छा को पूर्ण करने की दिशा में काम करती है। वह इच्छा हमारे चित्त में इस तरह घर कर जाती है कि हम अहंकार रूपी ‘मैं’ भाव से , स्वयं को कर्ता समझकर , उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए कर्म करते हैं। यह ‘मैं’ भाव ही हमें हर कर्म (अच्छे या बुरे) का कर्ता बनाता है और उसी कारण हमें हर कर्म के (अच्छे या बुरे) परिणाम भुगतने पड़ते हैं। 

 परंतु हमारे वेद-पुराणों, उपनिषदों और श्रीमद् भगवद् गीता में इस अच्छे या बुरे परिणाम से बचने और स्वस्थ यानी "स्व " में स्थित रहने के उपाय बताए गए हैं। इस सू्क्ष्म शरीर को स्वस्थ रखने का अर्थ है मन को एकाग्र करने का अभ्यास, या विवेक-दर्शन का अभ्यास करके, निरंतर विवेक-प्रयोग करते हुए, बुद्धि में कुशाग्रता व सूक्ष्मता-तीव्रता लाकर, मन में केवल विकारमुक्त विचारों को प्रविष्ट होने की अनुमति देना। विवेकपूर्ण-विवेकशील बनाना, चित्त में पड़े सभी द्वंद्वों-भेदों को दूर करना और व्यष्टि अहंकार से ‘देहरूपी मैं’ भाव हटा कर आत्मा रूपी ‘स्वयं’ या ‘मैं’ (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट मैं -बोध) में स्थित होना। 

हर व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को सबसे पहले तो उसके शारीरिक मुख-आकार से पहचानता है, परंतु यह किसी भी व्यक्ति की मूल पहचान नहीं हो सकती।  क्योंकि ऊपर से दिखाई देने वाला भौतिक शरीर ही मनुष्य का मूल स्वरूप या मूल पहचान नहीं है। किसी भी व्यक्ति को अच्छी तरह से पहचानने के लिए , कुछ दिनों तक उसके संगत में रहकर और , शारीरिक रूप-आकार से ऊपर उठ कर, उसके  गुणों और कर्मों पर या उसके चरित्र पर दृष्टि डालनी पड़ती है।किंवदन्ती है कि श्रीराम ने  पम्पासरोवर में एक बगुले को " विचरण करते समय भी ध्यानमग्न" देखकर लक्ष्मण जी से कहा--

" पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकः परमधार्मिकः ।

मन्दं मन्दं पदं धत्ते जीवानां वधशंकया ।।

"हे लक्ष्मण ! पम्पा सरोवर पर इस परमधार्मिक बगुले को देखो, जीवों की हिंसा न हो, अतः कैसे धीरे-धीरे अपने पैरों को रख रहा है । लक्ष्मण कुछ उत्तर देते, उससे पूर्व ही एक मछली बोल उठी---

"अहो बकः प्रशंसते राम, येनाहं निष्कुली कृता ।

सहवासी विजानीयात् चरित्रं सहवासिनाम् ।।"

 अहो !  अहो ! रामजी ! आप बगुले की प्रशंसा कर रहे हैं, जिसने मुझे कुलहीन बना डाला ।  सह-वासियों के चरित्र को तो सहवासी ही जान सकता है[ किसी व्यक्ति के चरित्र से , या उसके आचरण से ही किसी व्यक्ति के अच्छे या बुरे होने की पहचान होती है। जैसे गुरुगृहवास के समय गुरु के सानिध्य में रहकर छः दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर में रहकर ही  उन्हें और अन्य कर्मियों के चरित्र को कोई सहवासी ही जान सकता है।]

 शारीरिक रूप-रंग  व आकार से परे, उसके गुण और कर्म - को किसी भी व्यक्ति के आचरण में, या चरित्र में ही देखे जा सकते हैं।  परंतु वास्तव में ये होते कहाँ हैं ? इस प्रश्न का उत्तर है वही अदृश्य सूक्ष्म-शरीर में , जो दिखाई नहीं देता।  

यदि व्यक्ति नियमित रूप से मनःसंयोग का अभ्यास करे (3H विकास के 5 अभ्यास करे )  विवेक को जागृत करे तथा सद्गुरु (महामण्डल पाठचक्र और कैम्प )  की शरण ले, तो यही सूक्ष्म शरीर उसके लिए मोक्ष का सबसे बड़ा साधन बन सकता है। सूक्ष्म शरीर की शुद्धता के बाद ही व्यक्ति महाकारण शरीर की ओर प्रयाण करता है और उसे जान सकता है। वहां आत्मा "परापरम गुरू" के सानिध्य मे परम ब्रह्म कि भक्ति करती है।

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।

गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।। गीता 15.8।।

[शरीरं यत् अवाप्नोति यत् च अपि उत्क्रामति ईश्वरः गृहीत्वा एतानि संयाति वायुः गन्धान् इव आशयात् ॥ गीता  १५/ ८ ॥ (ईश्वरः = जीवः/अवाप्नोति = लभते, उत्क्रामति = निर्गच्छति,आशयात् = आधारात् कुसुमादेः, गन्धान् इव = सौरभम् इव, गृहीत्वा = स्वीकृत्य, संयाति = गच्छति ।)  

Here is a description of how the subtle body leaves the gross body. When the Jiva,  the Lord of the aggregate of the body and the rest takes up this body he brings in with him the mind and the senses when he leavs the body at its dissolution he takes with him the senses and the mind . just as the wind carries with it the fragrance from the flowers. Wherever he goes and whatever form he assumes he again operates through these senses and the mind.Lord Jiva the Lord of the aggregate of the body and the rest.The Self appears to be an agent or an enjoyer only when he possesses or assumes a body. ] 

 जब  ईश्वर (शरीरादिका स्वामी बना हुआ जीवात्मा या जीव) एक शरीर से  उत्क्रमण करता है, तब इन (इन्द्रियों और मन) को ग्रहण कर अन्य शरीर में इस प्रकार ले जाता है, जैसे गन्ध के आश्रय (फूलादि) से गन्ध को वायु ले जाता है।।

देहेन्द्रियादि का ईश्वर अर्थात् स्वामी है जीव। जब तक वह किसी एक देह मे रहता है , तब तक सूक्ष्म शरीर (इन्द्रियाँ और अन्तःकरण ) को धारण किये रहता है,  और असंख्य प्रकार के कर्म करता है। अपनी वासनाओं के अनुसार वह कर्म करता है और फिर कर्मो के नियमानुसार विविध फलों को भोगने के लिये उसे अन्यान्य शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं। 

तब एक स्थूल शरीर का त्याग करते समय वह स्थूल ,सूक्ष्म और कारण शरीर को समेट लेता है और अन्य शरीर में जा कर पुन उसके द्वारा पूर्ववत् व्यवहार करता है। सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से सदा के लिये वियोग स्थूल शरीर के लिये मृत्यु है। मृत देह का आकार पूर्ववत् दिखाई देता है , किन्तु विषय ग्रहण , अनुभव तथा विचार ग्रहण करने की क्षमता उसमे नहीं होती।  क्योंकि ये समस्त कार्य सूक्ष्म शरीर के होते हैं

जीव की उपस्थिति से ही स्थूल शरीर  को एक व्यक्ति के रूप में स्थान प्राप्त होता है।जिस प्रकार प्रवाहित किया हुआ वायु पुष्प, चन्दन,  इत्र आदि सुगन्धित वस्तुओं की सुगन्ध को एक स्थान से अन्य स्थान बहा कर ले जाता है; उसी प्रकार जीव समस्त इन्द्रियादि को लेकर जाता है। वायु और सुगन्ध दृष्टिगोचर नहीं होते।  उसी प्रकार देह को त्यागते हुये सूक्ष्म जीव को भी नेत्रों से नहीं देखा जा सकता है।

जीव की समस्त वासनाएं भी उसी के साथ रहती हैं। इस श्लोक में जीव को देहादि संघात का ईश्वर कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि उसी की उपस्थिति में विषय ग्रहण, विचार आदि का व्यवहार सुचारु रूप से चलता रहता है। वह इन उपाधियों का शासक और नियामक है।

 जिस प्रकार, किसी शासकीय अधिकारी का स्थानान्तर होने पर वह अपने घर की समस्त वस्तुओं को सन्दूकों में रखकर अपने नये स्थान पर पहुँचता है। तत्पश्चात् , वहाँ पुन अपने सामान को खोलकर नये गृह को सजाता है। ठीक इसी प्रकार जीवात्मा भी एक स्थूल शरीर को त्यागते समय समस्त इन्द्रियादि को एकत्रित कर शरीर को त्याग देता है।  और फिर नवीन शरीर को धारण कर पुन सूक्ष्म शरीर के द्वारा समस्त व्यवहार करने लगता है। वेदान्त मे शरीर को भोगायतन कहते हैं। 

[स्थूल शरीर हड्डी और मांस का बना है। उसके भीतर सूक्ष्म शरीर है, जो अन्तःकारण चतुष्टय (मन, बुद्धि,चित  , अहंकार) से बना है।  इसी में हमारे प्रारब्ध कर्म का भी वास है।  उसके भीतर कारण देह है, जिसमे अतृप्त वासना तथा संचित कर्मों का निवास है। वस्तुतः वासना (अर्थात कामिनी -कांचन में आसक्ति) ही जन्म-मृत्यु के निरंतर चक्र का कारण है।  यदि यह वासना अपवित्र है, राजसी अथवा तामसी है तो जन्म पाप योनी या पशु योनी में होगा।  यदि वासना शुद्ध है, पवित्र है, सात्विक है, तो जन्म पावन योनी में होगा (जैसे की धार्मिक मनुष्य के घर में। ) यदि इस जन्म को केवल सत्य की खोज में तथा इश्वर भक्ति में लगाया जाये, यदि यह जीवन एक मुमुक्षु (मोक्ष को चाहने वाला) साधक बनकर व्यतीत किया जाये, और मृत्यु के समय केवल मोक्ष की अभिलाषा हो तो मोक्ष भी मिल सकता है। जीवनमुक्ति    (भ्रममुक्त अवस्था का जीवन ) भी संभव है। परन्तु अंत में इस मोक्ष की वासना रखने वाले व्यष्टि अहं को भी साधना की श्मशान-अग्नि में जला देना आवश्यक है। ठीक उसी प्रकार जैसे किसी के अंत्यसंस्कार के समय अग्नि प्रदान करने वाली लकड़ी को भी चिता में जलाया जाता है। 

 पूर्व जन्‍म में कि‍ये गये कर्म संचि‍त कर्म कहे जाते हैं। पूर्व जन्‍म के कर्मों में जि‍न कर्मों का फल इस जन्‍म में भोगना पड़ता है वे प्रारब्‍ध कर्म कहे जाते हैं।  इसी कारण शरीर के चलते जीव का जन्म होता है। इसीलिए इसका नाम है "कारण" शरीर , वह शरीर जो जन्म तथा मृत्यु का कारण हो। अंततः उसके परे जो है वह महाकारण देह है।  यह  माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी, विराट 'मैं '-बोध का चैतन्यमय शरीर है।  इन सबमे से यदि हम स्थूल देह को निकाल दे, तो जो बचता है वह जीवात्मा है।  उस जीवात्मा से यदि सूक्ष्म देह मुक्त हो गया (योग साधना से जब साधक उन्मनी अवस्था तक पहुंचता है, तब उसका मन  नाश  हो जाता है और कैवल्य समाधी में केवल महाकारण देह का अस्तित्व होता है, जिसे ब्रह्म-साक्षात्कार कहते हैं। इस महाकारण शरीर से अविद्या का आवरण अब मिट चूका है, वह परब्रह्म स्वरुप है।  येही ईश्वर भी है। यह महाकारण शरीर हम सभी में एक ही है, क्यूँ की यह ईश्वर है।  और इसी को ज्ञानी जन सबमे इश्वर का निवास है के भाव से कहते है। इन सबमें केवल महाकारण शरीर अथवा ब्रह्म ही स्थायी है, बाकी  समस्त  शरीर  नश्वर हैं।   वह कारण देह है जो स्थूल देह धारण कर जीवात्मा बन जाता है।  इस  कारण शरीर से जब वासनाएं नष्ट हो जाती है, तो (जीव का ब्रह्म में लय). वह कारण देह महाकारण में विलीन हो जाता है।  इसीलिए उपनिषदों में यह भी कहा गया है --- "ब्रह्मा सत्यम, जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" -- अर्थात, "ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, तथा जीव-ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। "  

मनुष्य योनि ईश्वर की सबसे अनुपम रचना है, क्योंकि 83 लाख 99 हजार 999 योनियों के पास वह विवेक नहीं है, जो केवल और केवल मनुष्य के पास है, जिसके ज़रिए वह अपनी आगामी यात्रा का निर्धारण कर सकता है। इन अगली यात्राओं में (1) सत्कर्म कर पुन: मनुष्य के रूप में जन्म लेना (2) दुष्कर्म कर इतर योनि में जन्म लेना और (3) निष्काम कर्म कर मोक्ष पाते हुए जन्म-मृत्यु के चक्र से निकल जाना शामिल है। 

इन यात्राओं में सूक्ष्म शरीर की सर्वाधिक भूमिका होती है, क्योंकि हर व्यक्ति से जुड़े सत्कर्म-दुष्कर्म, इच्छाएँ, वासनाएँ, सुख-दु:ख, लाभालाभ, अभिमान, अहंकार, मान-सम्मान, यश-अपयश आदि का संग्रह इसी सूक्ष्म शरीर में रहता है। जब कोई व्यक्ति (मोक्ष पद की प्राप्ति किए बिना) देह त्याग करता है, तो उसका स्थूल शरीर निष्प्राण हो जाता है, परंतु वासनाओं से भरा हुआ सूक्ष्म शरीर नहीं मरता। स्थूल देह की मौत होती है, परंतु मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार से बना सूक्ष्म शरीर पूर्व जन्म और वर्तमान जीवनकाल की शेष-अधूरी रह गई इच्छाओं-वासनाओं को पूरा करने के लिए प्रारब्ध के अनुसार नई योनि में पुनर्जन्म लेकर नया शरीर धारण करता है। 

^^^^ *कारण शरीर* ------->(विज्ञानमय व आन्दमय कोष} {शुक्ष्मत्तर , कारण जगत और शरीर}-------> चित्त, अहंकार, तथा जीव के योग से कारण शरीर बना। इसकी अवस्था सुषुप्ति है। कर्तत्व, भोतृत्व, सु:खदु:ख आदि अंहकार विशिष्ट पुरुष के संसार का कारण...... कारण शरीर है, जिसमे अतृप्त वासना तथा संचित कर्मों का निवास है...... इसी कारण देह के चलते जीव का जन्म होता है...... स्वर्ग, मुक्ति, शान्ति से लेकर आत्म साक्षात्कार और ईश्वर दर्शन तक की दिव्य विभूतियाँ इस कारण शरीर की समर्थता पर ही निर्भर हैं...... इसमें आत्मा के संस्कार, भाव, विचार, कामनाऍ, वासनाऍ, इच्‍छाऍ, अनुभव, ज्ञानबीज रूप में रहते हैं। यह विचार, भाव और स्मृतियों का बीज रूप में संग्रह कर लेता है।

 यदि व्यक्ति नियमित रूप से मनःसंयोग का अभ्यास करे (3H विकास के 5 अभ्यास करे )  विवेक को जागृत करे तथा सद्गुरु (महामण्डल पाठचक्र और कैम्प )  की शरण ले, तो यही सूक्ष्म शरीर उसके लिए मोक्ष का सबसे बड़ा साधन बन सकता है। सूक्ष्म शरीर की शुद्धता के बाद ही व्यक्ति महाकारण शरीर की ओर प्रयाण करता है और उसे जान सकता है। 

 महाकारण शरीर* -------> {महाकारण, शुक्ष्मातिशुक्ष्म, गुप्त जगत और शरीर}जब जीव आत्मा कारण शरीर से भी ऊपर उठ जाती है तो उस पर महाकारण शरीर रूपि भार ही शेष रहता है।  इनका जगत महाकारण जगत कहलाता है (अती शुक्ष्म और गुप्त ) यहाँ महान जीवात्माऔं का निवास है जिनकें जीव मे भार ( अशुद्धी ) अति अल्प ही शेष रहता है।  यहाँ "परातपरम गुरू" के सानिध्य मे रहकर जीव बन्धन मुक्त हो जाता है..... अहंकार और जीव के योग से महाकारण देह बना..... यह तुरीया अवस्था में है...... । वहां आत्मा "परापरम गुरू" के सानिध्य मे परम ब्रह्म कि भक्ति करती है।

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चरणामृत और  पंचामृत का अन्तर  : घर पर जब सत्यनारायण की कथा होती है तो चरणामृत या पंचामृत दिया जाता हैं। मगर हम में से ऐसे कई लोग इसकी महिमा और इसके बनने की प्रक्रिया को नहीं जानते होंगे। चरणामृत का अर्थ होता है भगवान के चरणों का अमृत और पंचामृत का अर्थ पांच अमृत यानि पांच पवित्र वस्तुओं से बना। दोनों को ही पीने से व्यक्ति के भीतर जहां सकारात्मक भावों की उत्पत्ति होती है, वहीं यह सेहत से जुड़ा मामला भी है।

अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।

विष्णो पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।

अर्थात-भगवान विष्णु के चरणों का अमृतरूपी जल सभी तरह के पापों का नाश करने वाला है। यह औषधि के समान है। जो चरणामृत का सेवन करता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता है।

तांबे के बर्तन में चरणामृत रूपी जल रखने से उसमें तांबे के औषधीय गुण आ जाते हैं। चरणामृत में तुलसी पत्ता, तिल और दूसरे औषधीय तत्व मिले होते हैं। मंदिर या घर में हमेशा तांबे के लोटे में तुलसी मिला जल रखा ही रहता है। 

चरणामृत और पंचामृत में अंतर

पंचामृत :'पांच अमृत'। दूध, दही, घी, शहद, शक्कर को मिलाकर पंचामृत बनाया जाता है। पंचामृत  से भगवान का अभिषेक किया जाता है। पांचों प्रकार के मिश्रण से बनने वाला पंचामृत कई रोगों में लाभ- दायक और मन को शांति प्रदान करने वाला होता है। 

'पञ्चाङ' का शाब्दिक अर्थ है, 'पाँच अङ्ग' (पञ्च + अङ्ग)। अर्थात पञ्चाङ्ग में वार, तिथि, नक्षत्र, करण, योग - इन पाँच चीजों का उल्लेख मुख्य रूप से होता है। इसके अलावा पञ्चाङ से प्रमुख त्यौहारों, घटनाओं (ग्रहण आदि) और शुभ मुहुर्त का भी जानकारी होती है।  चंद्र मास में ३० तिथियाँ होती हैं, जो दो पक्षों में बँटी हैं। शुक्ल पक्ष में चंद्र की कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्ण पक्ष में घटती हैं।शुक्ल पक्ष में एक से चौदह और फिर पूर्णिमा आती है। पूर्णिमा सहित कुल मिलाकर पंद्रह तिथि। कृष्ण पक्ष में एक से चौदह और फिर अमावस्या आती है। अमावस्या सहित पंद्रह तिथि। वार अर्थात दिन -एक सप्ताह में सात दिन होते हैं:-सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार और रविवार। नक्षत्र या तारे : आकाश में तारामंडल के विभिन्न रूपों में दिखाई देने वाले आकार को नक्षत्र कहते हैं। मूलत: नक्षत्र 27 माने गए हैं। ज्योतिषियों द्वारा एक अन्य अभिजित नक्षत्र भी माना जाता है। चंद्रमा उक्त सत्ताईस नक्षत्रों में भ्रमण करता है। नक्षत्रों के नाम नीचे चंद्रमास में दिए गए हैं-योग :-योग 27 प्रकार के होते हैं। सूर्य-चंद्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहते हैं। दूरियों के आधार पर बनने वाले 27 योगों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं:- विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यातीपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इन्द्र और वैधृति। 27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये अशुभ योग हैं: विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतीपात, परिघ और वैधृति। करण -एक तिथि में दो करण होते हैं- एक पूर्वार्ध में तथा एक उत्तरार्ध में। कुल 11 करण होते हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद, अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है। विष्टि करण को भद्रा कहते हैं। भद्रा में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं।

महीनों के नाम: इन  आकाशमण्डल के नक्षत्रों में से १२ नक्षत्रों के नामों पर बारह मासों के नाम रखे गये हैं। जिस मास की पूर्णमासी को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी के नाम पर उस मास का नाम रखा गया है। चित्रा नक्षत्र के नाम पर चैत्र मास (मार्च-अप्रैल), विशाखा नक्षत्र के नाम पर वैशाख मास (अप्रैल-मई), ज्येष्ठा नक्षत्र के नाम पर ज्येष्ठ मास (मई-जून), आषाढ़ा नक्षत्र के नाम पर आषाढ़ मास (जून-जुलाई), श्रवण नक्षत्र के नाम पर श्रावण मास (जुलाई-अगस्त), भाद्रपद (भाद्रा) नक्षत्र के नाम पर भाद्रपद मास (अगस्त-सितम्बर), अश्विनी के नाम पर आश्विन मास (सितम्बर-अक्टूबर), कृत्तिका के नाम पर कार्तिक मास (अक्टूबर-नवम्बर), मृगशीर्ष के नाम पर मार्गशीर्ष (नवम्बर-दिसम्बर), पुष्य के नाम पर पौष (दिसम्बर-जनवरी), मघा के नाम पर माघ (जनवरी-फरवरी) तथा फाल्गुनी नक्षत्र के नाम पर फाल्गुन मास (फरवरी-मार्च) का नामकरण हुआ है। 

सौरमास :  का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है। सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय सौरमास कहलाता है। यह मास प्राय: तीस, इकतीस दिन का होता है। कभी-कभी अट्ठाईस और उन्तीस दिन का भी होता है। मूलत: सौरमास (सौर-वर्ष) 365 दिन का होता है। 12 राशियों को बारह सौरमास माना जाता है। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है।  सौर-वर्ष के दो भाग हैं- उत्तरायण छह माह का और दक्षिणायन भी छह मास का। जब सूर्य उत्तरायण होता है तब हिंदू धर्म अनुसार यह तीर्थ यात्रा व उत्सवों का समय होता है। पुराणों अनुसार अश्विन, कार्तिक मास में तीर्थ का महत्व बताया गया है। उत्तरायण के समय पौष-माघ मास चल रहा होता है।

 सौर-वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा है चंद्र-वर्ष इसीलिए हर 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है। सौर-वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा है चंद्र-वर्ष इसीलिए हर 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है।सौरमास 365 दिन का और चंद्रमास 355 दिन का होने से प्रतिवर्ष 10 दिन का अंतर आ जाता है। इन दस दिनों को चंद्रमास ही माना जाता है। फिर भी ऐसे बड़े हुए दिनों को 'मलमास' या 'अधिमास' कहते हैं

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