$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ १०.चित्तवृत्तिनिरोध का नुस्खा
(विवेक-दर्शन का अभ्यास और लालचत्याग -उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः)
(विवेक-दर्शन का अभ्यास और लालचत्याग -उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः)
मन ही हमलोगों का सबसे अनमोल संसाधन (Most Precious Human Resources) है, ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है। यदि हमारे पास मन ही नहीं होता, तो हमारे पास भला बचता ही क्या ? मन की शक्ति के द्वारा हमलोग सारे कर्म करते हैं, वस्तुओं और विषयों को जानते हैं तथा अनुभव करते हैं। लेकिन मन के स्वभाव में दो बातें ऐसी हैं जिसके कारण मन का उपयोग करके जीवन को सार्थक कर पाने में कठिनाई उत्पन्न होती है। वे दो कारण हैं - " चित्त की स्वाभाविक 'चंचलता' और विभिन्न विषयों में दौड़ने वाली 'बहिर्मुखी वृत्ति' (षडरिपु की 'बंडल ऑफ़ प्रोपेनसिटी।') लेकिन यह भी सत्य है कि इन्हीं दोनों शक्तियों (चंचलता और बहिर्मुखता) के कारण हम मन की सहायता से विभिन्न तरह के कार्य (सत्यान्वेषण,विवेक-प्रयोग आदि) कार्य भी कर पाते हैं। इस परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिये ?
हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि मन अपनी इच्छानुसार सदैव चंचल और बहिर्मुखी ही नहीं बना रहे, तथा मनमाने ढंग से अप्रयोजनीय विषयों की तरफ बेलगाम दौड़ता ही न रहे। इसका अर्थ यह हुआ कि सबसे हमें अपने मन की दोनों प्रबल शक्तियों को अनुशासित और नियंत्रित करना होगा, उसे अपने वश में लाना होगा; केवल तभी हमलोग मन को संघटित करके एकाग्र कर सकेंगे, तथा जिस वांछित कार्य कार्य में लगाना चाहेंगे उसमें लगा सकेंगे। हमारे लिये आवश्यक है, उसी में केन्द्रीभूत रख सकेंगे। अर्थात मनःसंयोग कर सकेंगे।
लेकिन यह सब किया कैसे जाता है ? यह संभव होता है- अभ्यास से। अभ्यास का अर्थ है पुनः पुनः चेष्टा करते रहना । खिलाड़िओं के मामले में जैसे हम देखते हैं कि उन्हें खेल-प्रतियोगिता (क्रिकेट मैच आदि) में उतरने से पहले उन्हें दीर्घकाल तक खेल और उनके नियमों का अभ्यास (Practice) करना पड़ता है, उसी तरह 'मनः संयोग' करने के लिये भी चित्त की स्वभाविक 'चंचलता' और 'बहिर्मुखी वृत्ति' को
विवेक-प्रयोग रूपी अंकुश द्वारा संयमित, नियंत्रित करने के लिये पूर्व में कहे गये ५ 'यम' और ५ 'नियम' रूपी विधि-निषेध (do's and don'ts) का निरंतर (24 x 7) अभ्यास करना होगा।
किन्तु केवल अभ्यास करना ही यथेष्ट नहीं है। इसके साथ-ही-साथ एक अन्य गुण (वैराग्य) भी रहना अनिवार्य है। अर्थात इस ओर सतर्क दृष्टि रखनी होगी की हमारा मन 'वासना और धन' (Lust and Lucre) के प्रति कहीं अत्यधिक आकृष्ट (सम्मोहित या हिप्नोटाइज्ड) तो नहीं हो गया है ?
यदि किसी एक के प्रति भी हमारे मन में बहुत अधिक लालच या अत्यधिक आसक्ति होगी, तो मन को विषयों से खींच कर वांछित कार्य में लगाना या एकाग्र करना संभव नहीं होगा।
इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः = इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः -अर्थात चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी वृत्ति (आँधी) पर नियंत्रण 'वासना और धन' के प्रति लालच का 'त्याग' (Renunciation) और विवेक-दर्शन (Discrimination) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है। अर्थात विवेक-प्रयोग शक्ति को ही अपनी सहज-वृत्ति [Instinct] बना लेने के अभ्यास पर निर्भर है। [अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।1.12।। भाष्य ।।1.12।। चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। ]
व्यासदेव [५००० वर्ष पहले ही मानो व्यासदेव जानते थे कि एक दिन स्वामी विवेकानन्द का एक मार्गदर्शक नेता आएगा !] कहते हैं - मनुष्य के चित्त-नदी का प्रवाह 'उभयतो वाहिनी' है, दोनों दिशाओं में होता रहता है। लेकिन मन में लालच के भाव को थोड़ा कम करते हुए 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास द्वारा एक दिशा में (आत्मोन्मुखी या उर्ध्वमुखी) जाने
से मन शान्त होता है, शक्तिशाली होता, असाध्य को भी साधने की शक्ति अर्जित
करता है और मनुष्य के जीवन को कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ करा देता है। जबकि दूसरी दिशा में (संसारोन्मुखी या निम्नोमुखी ) जाने से और अधिक चंचल हो जाता है, दुर्बल हो जाता है और निस्तेज होकर मनुष्य जीवन को नष्ट कर पशु तुल्य बना देता है। जैसे कि खाद्य-पदार्थ भी दो प्रकार के होते हैं- एक प्रकार का आहार लेने से शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है और शक्तिशाली बन जाता है। जबकि दुसरे प्रकार का आहार स्वादिष्ट होने पर शरीर को दुर्बल और रोगी बनाता है।
प्रयत्न के द्वारा (विवेक-दर्शन के अभ्यास के द्वारा) हम अपने मन के प्रवाह को कल्याण की दिशा में मोड़ सकते हैं। उसे शाश्वतसुख और नश्वरसुख, या श्रेय-प्रेय में अंतर समझाकर अच्छे रास्ते पर (ऊर्ध्वमुखी रखने) लाने से जीवन सुन्दर हो जाता है। लेकिन मन को मनमानी करने के लिये छोड़ देने से जीवन व्यर्थ हो जाता है। इसलिये 'वासना और धन ' (Lust and Lucre) के लालच या प्रलोभन से सम्मोहित न होकर 'मनः संयोग' का नियमित अभ्यास (विवेक-दर्शन का अभ्यास) करने से मन वश में हो जाता है। कहा भी गया है - 'करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात से सिल पर परत निसान॥' मनुष्य की सारी क्षमताएँ उसके अभ्यास का ही फल है। 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास द्वारा
शान्त और नियंत्रित मन के माध्यम से जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने से ही बहुमूल्य मनुष्य-जन्म को सार्थक बनाया जा सकता है।
अब हमलोग ' मनः संयोग ' के महत्व को जानकर मन ही मन निश्चित रूप से संकल्प ले रहे होंगे कि हम 'मनः संयोग ' अवश्य सीखेंगे और इसका अभ्यास किस तरह किया जाता है, इसकी भी जानकारी प्राप्त करेंगे। अपने जीवन को सम्पूर्ण रूप से गठित करके जीवन में सार्थकता लाभ करने के लिये, अपने संकल्प पर अटल रहते हुए धैर्यपूर्वक प्रयत्न और कठोर परिश्रम करने को तत्पर रहेंगे। नीतिशतक में कहा गया है -
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कुर्वाणो नावसीदति ॥
– अर्थात आलस्य ही मनुष्यके शरीरमें स्थित महा शत्रु है और उद्यम (प्रयत्न) से अच्छा कोई मित्र नहीं है, जो इसका अभ्यास करता है उसे कभी कष्ट नहीं होता। हम पाँचो यम (संयम) और पाँचो नियम को विवेक-सामर्थ्य द्वारा अपने आचरण में उतार लेंगे। इसके साथही साथ शरीर को स्वस्थ रखने के लिये नियमित रूप से बिना आलस्य किये थोड़ा व्यायाम भी अवश्य करेंगे। फिर मन में पवित्र और सुंदर भावों को धारण करने के लिये प्रतिदिन सन्मार्ग पर ले जाने वाली अच्छी पुस्तकों (विवेकानन्द-साहित्य) का अध्यन (स्वाध्याय) भी करेंगे, तथा स्वयं को सिर्फ सुसंगति (Good company) में रखेंगे।
इन सब के साथ 'मनः संयोग ' अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास नियमित रूप से प्रति दिन करना होगा, एक दिन भी अभ्यास छोड़ना नहीं होगा। पूर्व में कहे गये ५ 'यम' और ५ 'नियम' रूपी विधि-निषेध (do's and don'ts) का निरंतर (24 x 7) अभ्यास करना होगा। और 'मनःसंयोग' या 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास हेतु दिन में दो बार समय निकाल कर आसन पर बैठना होगा, एक बार प्रातः और एक बार सायंकाल में। यदि संध्या में देर हो जाय तो रात्रि में सोने से पहले। इसके लिये हाथ-मुँह धोकर, स्वच्छ होकर बैठना होगा। प्रातःकाल और सूर्यास्त (गोधुली बेला) के समय प्रकृति स्वतः शांत अवस्था में रहती है, जिससे मन भी स्वाभाविक रूप से (spontaneously, अनायास) कुछ- कुछ शान्त हो जाता है, इसलिए इस समय अभ्यास करने का फल अच्छा होता है।
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पतंजलि के सूत्र तो साधकों के लिए भेजे गए टेलीग्राम हैं। इनमें इधर- उधर का एक भी फालतू शब्द नहीं है। ये सूत्र ऐसे हैं, जैसे कोई तार करने जाय और वहाँ बेकार के अनावश्यक शब्द काट दे। तार का मतलब ही यही है, कम से कम शब्दों में सम्पूर्ण सन्देश कह दिया जाय। उसी प्रकार सन्त तुलसीदास का भी साधकों के लिये भेजा गया एक बड़ा ही प्रसिद्द टेलीग्राम है-'अली-मृग-मीन-पतंग-गज जरै एक ही आँच, तुलसी वे कैसे जियें जिन्हें जरावें पाँच ?
इसके उत्तर में महर्षि पतंजलि कहते हैं- अथ योगानुशासनम् ॥१॥ अब गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार योगविषयक शास्त्र आरम्भ करते हैं ।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥२॥
चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। वृत्तिशून्य मन - अर्थात इन्द्रिय-विषयों अनासक्त मन शुद्ध ही है। मन को विषय रहित करने से ही वह शान्त होता है। ईंधन (ऑक्सीजन) के अभाव में जिस प्रकार अग्नि बुझ जाती है उसी प्रकार विषय-वृत्ति (आँधी) न रहने से ही मन शान्त हो जाता है। तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥३॥ उस समय द्रष्टा की अपने रूप में स्थिति हो जाती है ।
[ अर्थात वृत्ति-बुद्धि -विवेक के अन्तर को जानकर विषयोन्मुखी 'आँधी'-योगः चित्त-वृत्ति निरोधः )'सही समय पर सही दाँव' चलने का हुनर या स्किल- 'बाउंसर बॉल पर हैलीकॉप्टर शॉट' मारने का हुनर भी अभ्यास से आता है ! [महाभारत (शान्तिपर्व ३१६/२) में चित्तवृत्ति निरोध या योग को सर्वश्रेष्ठ मानसिक बल कहा गया है- "नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलं"। ]
पतंजलि योगसूत्र (१.१२) अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥ को अधिक स्पष्ट करते हुए व्यास-भाष्य में कहा गया है - " चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। -मन (चित्त) की 'स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति ', चित्त-नदी के प्रवाह के नाम से जानी जाती है जो कि दोनों दिशाओं (ऊपर -नीचे उभयतः) में (वाहिनी) बहने वाली है। यह प्रवाह श्रेय (कल्याणाय) की दिशा में भी बहती है, और (च) अशुभ या पाप (पापाय) की ओर भी बहती है।' विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति' -- चित्तनदी की धारा जब विवेकविषय, विवेक के क्षेत्र (विषय) की ओर झुका (निम्ना) है,अर्थात विख्याति या विवेकशील ज्ञान, जो किसी व्यक्ति को बुद्धि (नश्वर) और पुरुष (शाश्वत) के बीच के अंतर को अनुभव करने की अनुमति देता है; वह धारा (सा) 'कैवल्यप्राग्भारा' कैवल्य (मुक्ति) की ओर ले जानेवाली है और कल्याण-वहा है। 'अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति'- दूसरी ओर यह धारा जब अविवेक के क्षेत्र में, अर्थात जब बुद्धि और पुरुष के बीच रहने वाले अंतर का अनुभव नहीं करने की दिशा में झुकी होती है, वह 'संसारप्राग्भारा' संसार या देहान्तर-गमन (Transmigration) की ओर ले जाने वाली धारा पाप-वहा है, जो बुराई की ओर बहती है। उस (तत्र) बाह्य वस्तुओं या विषयों की ओर बहने वाली धारा पर (वैराग्येण) वैराग्य (रिनन्सिएसन या परहेज) का फाटक लगाकर विषयस्रोत को मन्द बनाते हुए शक्तिहीन (खिलीक्रियते) किया जाता है; तथा विवेक-दर्शन का अभ्यास या विवेकशील ज्ञान (डिस्क्रिमिनेटीव-नॉलेज) पर चिंतन-मनन करते रहने के परिणामस्वरूप (एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध और) विवेकस्रोत उद्घाटित हो जाता है। इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः = इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः (चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति, अर्थात विषयों में दौड़ने वाली प्रॉपेनसिटीका दमन या संशोधन,) परहेज,निवृत्ति या "रिनन्सिशन" और विवेक-दर्शन अर्थात "डिस्क्रिमनेशन" अर्थात (बुद्धि-पुरुष विवेक या शास्वत-नश्वर को पहचानने की क्षमता) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है।
"विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-शक्ति' जो सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है; वह एक दिन (१२ जनवरी १८६३ को) स्वयं स्वामी विवेकानन्द की आकृति में आविर्भूत होगी ! और तब उस गुरु विवेकानन्द के मूर्त रूप पर पुनः पुनः मन को धारण करने के अभ्यास से ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा !
तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः॥ १/१३॥
शब्दार्थ- तत्र= उन दोनों (विवेक-दर्शन या विवेक-प्रयोग का अभ्यास बुद्धि और पुरुष के बीच अंतर को पहचानना डिस्क्रिमनेशन और रिनन्सिएसन वैराग्य या अनात्म जड़ इन्द्रिय-विषयों से परहेज ) में चित्त को प्रतिष्ठित रखने का प्रयास करना अभ्यास है।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र॥१/४॥
साक्षी होने के अलावा अन्य सभी अवस्थाओं में चित्त की वृत्तियों (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार) के साथ तादात्म्य हो जाता है। ये वृत्तियाँ साधक की अन्तर्चेतना को मनचाहा भटकाती हैं। सुख- दुख के सपने दिखाती हैं। कभी हँसाती हैं, कभी रुलाती हैं। इच्छाओं के कच्चे धागों से बाँधती हैं। कल्पनाओं और कामनाओं की मदिरा पिला कर बेहोश करती हैं।
या तो साक्षी भाव को उपलब्ध कर अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाओ या फिर वृत्तियों के साथ तादात्म्य करके भटकते रहो। इन दो के अलावा कोई तीसरी सच्चाई नहीं हो सकती। और चित्तवृत्तियों का निरोध तो अभ्यास और वैराग्य (परहेज) से ही होता है।
गीता ६/३४ में अर्जुन मन की इसी प्रबल चंचलता को देखकर भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं-
चज्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।34।।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।34।।
क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिये उसको वश में करना मैं वायु के रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ ।।34।।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्राते ।।35।।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्राते ।।35।।
श्रीभगवान् बोले- हे महाबाहो! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परंतु हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है ।।35।।
वैराग्य शब्द का अर्थ है अनात्म वस्तुओं (जड़ मन-बुद्धि) के साथ अपने तादात्म्य को या आसक्ति को त्याग देना। जड़ विषयों में अनासक्ति और आत्मा में अत्यन्त अनुरक्ति ही यथार्थ वैराग्य है। 'इहामुत्रार्थ-फलभोग' वैराग्य ही मन को आत्माभिमुख करता है। शरीर,
मन, वाणी से पुनः पुनः अभ्यास के द्वारा विषयों का दोष-दर्शन करा कर मन के
बहिर्मुखी विषयोन्मुख प्रवाह को आत्मा की ओर लौटा लिया जाता है। इस प्रकार
असार विषयों से वैराग्य उत्पन्न होता है।
यम-नियम का निरंतर अभ्यास (प्रैक्टिस)करना है, तो मन को राजसिक और तामसिक सुखों में दोष-दर्शन कराकर, विवेक-प्रयोग द्वारा सात्विक सुख प्राप्त करने के लिये इन्द्रिय सुखों से मुँह मोड़ना ही होगा। भोगियों की दृष्टि से कहें तो , एकदम रूखी- सूखी जिन्दगी जीनी होगी। यह तो बाद में पता चलता है कि इस रूखे- सूखे पन में आनन्द की अनन्तता समायी है। मनुष्य मात्र को यदि भटकन, उलझन, तनाव, चिन्ता, दुःख, पीड़ा, अवसाद से सम्पूर्ण रूप से मुक्ति पानी है, तोसाक्षी भाव को उपलब्ध होने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है।
क्योंकि
अन्य अवस्थाओं में तो
मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य बना ही रहेगा। मनुष्य की
प्रकृति ही ऐसी है। यह बात किसी एक पर, किसी व्यक्ति विशेष पर
लागू नहीं होती। बात तो सारे मनुष्यों के लिए कही गयी है। मानव
प्रकृति की बनावट व बुनावट की यही पहचान है। साक्षी के अतिरिक्त
दूसरी सभी अवस्थाओं में मन के साथ तादात्म्य बना रहता है।यम-नियम का निरंतर अभ्यास (प्रैक्टिस)करना है, तो मन को राजसिक और तामसिक सुखों में दोष-दर्शन कराकर, विवेक-प्रयोग द्वारा सात्विक सुख प्राप्त करने के लिये इन्द्रिय सुखों से मुँह मोड़ना ही होगा। भोगियों की दृष्टि से कहें तो , एकदम रूखी- सूखी जिन्दगी जीनी होगी। यह तो बाद में पता चलता है कि इस रूखे- सूखे पन में आनन्द की अनन्तता समायी है। मनुष्य मात्र को यदि भटकन, उलझन, तनाव, चिन्ता, दुःख, पीड़ा, अवसाद से सम्पूर्ण रूप से मुक्ति पानी है, तोसाक्षी भाव को उपलब्ध होने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है।
उपनिषद का उपदेश है - "आत्मानं वै विजानथ-अन्या वाचो विमुंचथ" -आत्मा को जानने की चेष्टा करो, अन्य बातें छोड़ो। इसके लिये अभ्यास और वैराग्य आवश्यक है। सबसे श्रेष्ठ उपाय है भगवान श्रीरामकृष्ण की कृपा। विवेक-दर्शन का बार बार अभ्यास से ही मन शान्त होता है और विषय अपने आप छूट जाते हैं। भगवान का नाम जपना बहुत सहायक होता है। बार बार आत्मचिंतन या विवेक-दर्शन के अभ्यास के फलस्वरूप मन आनन्दमय आत्मा में तन्मय हो जाता है। अतः इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य साधक के मन को अहं-शब्द के लक्ष्य आत्मा में संलग्न करके 'अहं ब्रह्म अस्मि' इस ज्ञान में प्रतिष्ठित करेंगे। मन को अनुशासित और नियंत्रित करने का शास्त्रविहित उपाय है-अभ्यास और वैराग्य। हमेशा सतर्क रहना होगा कि किसी भी विषय में मन अत्यधिक आसक्त न हो जाये ! इस सच्चाई को जान सको तो जानो, मान सको तो मानो।
अभ्यास की सामान्य महिमा से तो हममें से प्रायः सभी परिचित हैं। अभ्यास के बारे में एक
कहावत अक्सर सुनी जाती है- कुछ उसी तरह से जैसे निरन्तर रस्सी की रगड़ से पाषाण पर
भी निशान पड़ जाते हैं। मनुष्य की सारी क्षमताएँ उसके अभ्यास का ही फल है।
यहाँ- तक कि पशु- पक्षी भी अभ्यास के बलबूते ऐसे- ऐसे करतब दिखाने लगते
हैं, जिन्हें देखकर दाँतों तले उँगली दबाने का मन करता है।
बालकाण्ड : शिव-पार्वती संवाद में कहा गया है -
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥ (बा. का.११७)
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥ (बा. का.११७)
भावार्थ:-यह जगत (बुद्धि) प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी (पुरुष ) इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥4॥ जो जगत का द्रष्टा (साक्षी) है वही राम है; शिवजी कहते हैं - "सब कर परम प्रकाशक जोई। राम अनादि अवधपति सोई ॥ " - सारा जगत जिसके कारण प्रकाशित है वही राम अवधपति हैं।
रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥
भावार्थ:-जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए
भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस
भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥117॥
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥
भावार्थ:-इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है,
तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे
वह दुःख दूर नहीं होता॥1॥
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥
भावार्थ:-जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है॥1॥
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स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं " एकमात्र पुरुष (आत्मा) ही चेतन है। मन (वृत्ति, बुद्धि, विवेक) तो मानो आत्मा के हाथों एक यन्त्र है। उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को छान-बिन करने के बाद ग्रहण करती है। मन सतत परिवर्तनशील है, इधर से उधर दौड़ता रहता है, कभी समस्त इन्द्रियों से लगा रहता है, तो कभी केवल एक से, और हमारा मन कभी कभी तो किसी इन्द्रिय के सम्पर्क में नहीं रह जाता न जाने कहाँ खो जाता है ? मान लो, मैं मन लगाकर एक घड़ी की टिक टिक सुन रहा हूँ। ऐसी दशा में आँखें खुली रहने पर भी मैं कुछ देख न पाऊँगा। इससे यह स्पष्ट समझ में आ जाता कि-मन जब श्रवण इन्द्रिय से लगा था, तो दर्शन इन्द्रिय (अर्थात मस्तिष्क में स्थित उसका स्नायु केन्द्र optic- nerve) से उसका संयोग न था। परन्तु पूर्णता प्राप्त मन (विवेक-सामर्थ्य प्राप्त मन) को सभी स्नायु-केन्द्रों या इन्द्रियों से एक साथ लगाया जा सकता है। यह उसकी " अन्तर्दृष्टि " की शक्ति है, जिसके बल से मनुष्य अपने अन्तर के सबसे गहरे प्रदेश तक में नज़र डाल सकता है। इस अन्तर्दृष्टि को विकसित करना ही योगी का उद्देश्य है।" (१:४५)
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११. सम्यक आसन
[मनः संयोग करने या मन को आमने -सामने देख कर उसके साथ बातचीत करने के लिये, सम्यक आसन एवं स्वच्छ परिवेश का महत्व :]
मन सदैव हमारे साथ ही रहता है। उसे ढूँढ़ने के लिये किसी पहाड़ पर या गुफ़ा में नहीं जाना पड़ता। फिर भी शान्त और एकान्त वातावरण में मौन होकर बैठने से मन की गहराइयों में उतरना सहज हो जाता है। किसी भी ढंग से बैठकर मन की स्थिति देखी जा सकती है। लेकिन हमारे बैठने का ढंग (आसान) यदि ऐसा हो कि कुछ ही समय के बाद शरीर में इधर-उधर दर्द न होने लगे, यदि ऐसा होगा तो हमारा मन बार- बार उसी कष्ट की ओर चला जायगा। इसीलिये यथोचित आसन (Proper Posture) में बैठना आवश्यक हो जाता है। बैठने का ढंग ऐसा होना चाहिये कि बैठने के बाद शरीर में किसी पीड़ा का अनुभव नहीं हो, और कुछ समय तक स्थिर होकर सुखपूर्वक बैठा जा सके।
बैठने का स्थान शान्त और परिवेश स्वच्छ होना चाहिये। स्वयं भी हाथ- मुँह धोकर, या स्वच्छ होकर शान्त भाव से बैठना चाहिये। बाबू की भाँति पालथी मारकर सुखासन में बैठा जा सकता है। अथवा उसी प्रकार तनाव-मुक्त होकर बैठे हुए एक पैर के तलुए को दूसरे पैर के जाँघों पर रखकर बैठने से थोड़ी देर तक सुकून के साथ बैठा जा सकता है। इसको ही 'पद्मासन' कहते हैं। लेकिन जिनको इस प्रकार बैठने अभ्यास नहीं है, उन्हें दोनों पैरों को इस प्रकार रखने से कष्ट हो सकता है। इसलिए वे अगर एक ही पैर को दूसरे पैर की जंघा पर रख 'जेन्टिल मैन' की तरह सुखासन में बैठें तो आराम मिलता है और कुछ देर तक, निश्चिन्त होकर बैठना सहज हो जाता है। इस मुद्रा में बैठने को 'अर्धपद्मासन' कहते हैं।इस आसन में बैठने से एक सुविधा और होता है कि कमर, मेरुदण्ड और ग्रीवा (गर्दन) को एक सीध में रहता है। कमर और रीढ़ की हड्डी (मेरुदण्ड ) को सीधा रख कर बैठने से श्वास-प्रश्वास सहज रूप में चलता रहता है। ऐसा न होने पर कुछ ही देर में थकावट का अनुभव होगा, और मन उसी ओर चला जायेगा। इस प्रकार अर्ध-पद्मासन में बैठकर धीरे-धीरे लंबा स्वांस लेना और छोड़ना यथेष्ट होता है। (रेचक-पूरक-कुम्भक-प्राणायाम न करके केवल कपालभाँति और अनुलोम-विलोम कर लेना यथेष्ट होता है।)
हमें तो स्वाभाविक रूप से चंचल और विभिन्न विषयों में दौड़ने वाले मन को पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करना है। इसीलिये शरीर, साँस-प्रस्वांस या अन्य किसी बात की तरफ मन को जाने देना उचित नहीं होगा। गर्दन को सीधा रखते हुए दृष्टि को जमीन के सामानांतर (Parallel to the ground) रखना अच्छा होता है। नहीं तो कुछ ही समय बाद गर्दन में भी दर्द हो सकता है। फिर दोनों हाथों को एक दूसरे पर फैला कर, इस प्रकार .... धीरे से गोद में रख लेना चाहिये।
इस तरह अर्ध-पद्मासन की मुद्रा में बैठ जाने यह तो निश्चित हो गया कि अब शरीर के चलते मन को विचलित नहीं होना पड़ेगा, लेकिन अन्य बाहरी विषय मन को प्रभावित कर सकते हैं। इस प्रकार बैठ जाने से स्वाद एवं स्पर्श इन्द्रिय की तरफ मन के खिंच जाने की सम्भावना तो नहीं रह जाती, लेकिन कहीं से अचानक कोई अप्रिय गंध आ जाये, तो मन विचलित हो सकता है। इसीलिये किसी सुगन्धित-फूल या धूपबत्ती कि भीनी-भीनी सुगन्ध यदि नासिका तक आती रहे तो अच्छा है। क्योंकि मन भीनी- भीनी सुगंध से प्रसन्न रहता है। किन्तु दोनों कान तो खुले हैं, उनमे विभिन्न प्रकार के शब्द, गीत या बातचीत आदि सुनाई पड़ सकती है। इन्हें रोकने का कोई उपाय तो नहीं है, फिर मैं इतना कर सकता हूँ कि उस ओर मन को नहीं जाने दूंगा ! अंत में आँखों को बन्द कर लेने से अन्य कोई वाह्य 'रूप' भी मन को प्रभावित नहीं कर सकेगा। इसलिए एक बार अपने आदर्श (युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द) कि छवि को ध्यान से निहार कर नेत्रों को मूंद लेना अच्छा है। यही है -सम्यक आसन। एकाग्रता का अभ्यास या 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास प्रारम्भ करने से पूर्व सम्यक आसन और स्वच्छ परिवेश का यही महत्व है।
मन सदैव हमारे साथ ही रहता है। उसे ढूँढ़ने के लिये किसी पहाड़ पर या गुफ़ा में नहीं जाना पड़ता। फिर भी शान्त और एकान्त वातावरण में मौन होकर बैठने से मन की गहराइयों में उतरना सहज हो जाता है। किसी भी ढंग से बैठकर मन की स्थिति देखी जा सकती है। लेकिन हमारे बैठने का ढंग (आसान) यदि ऐसा हो कि कुछ ही समय के बाद शरीर में इधर-उधर दर्द न होने लगे, यदि ऐसा होगा तो हमारा मन बार- बार उसी कष्ट की ओर चला जायगा। इसीलिये यथोचित आसन (Proper Posture) में बैठना आवश्यक हो जाता है। बैठने का ढंग ऐसा होना चाहिये कि बैठने के बाद शरीर में किसी पीड़ा का अनुभव नहीं हो, और कुछ समय तक स्थिर होकर सुखपूर्वक बैठा जा सके।
बैठने का स्थान शान्त और परिवेश स्वच्छ होना चाहिये। स्वयं भी हाथ- मुँह धोकर, या स्वच्छ होकर शान्त भाव से बैठना चाहिये। बाबू की भाँति पालथी मारकर सुखासन में बैठा जा सकता है। अथवा उसी प्रकार तनाव-मुक्त होकर बैठे हुए एक पैर के तलुए को दूसरे पैर के जाँघों पर रखकर बैठने से थोड़ी देर तक सुकून के साथ बैठा जा सकता है। इसको ही 'पद्मासन' कहते हैं। लेकिन जिनको इस प्रकार बैठने अभ्यास नहीं है, उन्हें दोनों पैरों को इस प्रकार रखने से कष्ट हो सकता है। इसलिए वे अगर एक ही पैर को दूसरे पैर की जंघा पर रख 'जेन्टिल मैन' की तरह सुखासन में बैठें तो आराम मिलता है और कुछ देर तक, निश्चिन्त होकर बैठना सहज हो जाता है। इस मुद्रा में बैठने को 'अर्धपद्मासन' कहते हैं।इस आसन में बैठने से एक सुविधा और होता है कि कमर, मेरुदण्ड और ग्रीवा (गर्दन) को एक सीध में रहता है। कमर और रीढ़ की हड्डी (मेरुदण्ड ) को सीधा रख कर बैठने से श्वास-प्रश्वास सहज रूप में चलता रहता है। ऐसा न होने पर कुछ ही देर में थकावट का अनुभव होगा, और मन उसी ओर चला जायेगा। इस प्रकार अर्ध-पद्मासन में बैठकर धीरे-धीरे लंबा स्वांस लेना और छोड़ना यथेष्ट होता है। (रेचक-पूरक-कुम्भक-प्राणायाम न करके केवल कपालभाँति और अनुलोम-विलोम कर लेना यथेष्ट होता है।)
हमें तो स्वाभाविक रूप से चंचल और विभिन्न विषयों में दौड़ने वाले मन को पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करना है। इसीलिये शरीर, साँस-प्रस्वांस या अन्य किसी बात की तरफ मन को जाने देना उचित नहीं होगा। गर्दन को सीधा रखते हुए दृष्टि को जमीन के सामानांतर (Parallel to the ground) रखना अच्छा होता है। नहीं तो कुछ ही समय बाद गर्दन में भी दर्द हो सकता है। फिर दोनों हाथों को एक दूसरे पर फैला कर, इस प्रकार .... धीरे से गोद में रख लेना चाहिये।
इस तरह अर्ध-पद्मासन की मुद्रा में बैठ जाने यह तो निश्चित हो गया कि अब शरीर के चलते मन को विचलित नहीं होना पड़ेगा, लेकिन अन्य बाहरी विषय मन को प्रभावित कर सकते हैं। इस प्रकार बैठ जाने से स्वाद एवं स्पर्श इन्द्रिय की तरफ मन के खिंच जाने की सम्भावना तो नहीं रह जाती, लेकिन कहीं से अचानक कोई अप्रिय गंध आ जाये, तो मन विचलित हो सकता है। इसीलिये किसी सुगन्धित-फूल या धूपबत्ती कि भीनी-भीनी सुगन्ध यदि नासिका तक आती रहे तो अच्छा है। क्योंकि मन भीनी- भीनी सुगंध से प्रसन्न रहता है। किन्तु दोनों कान तो खुले हैं, उनमे विभिन्न प्रकार के शब्द, गीत या बातचीत आदि सुनाई पड़ सकती है। इन्हें रोकने का कोई उपाय तो नहीं है, फिर मैं इतना कर सकता हूँ कि उस ओर मन को नहीं जाने दूंगा ! अंत में आँखों को बन्द कर लेने से अन्य कोई वाह्य 'रूप' भी मन को प्रभावित नहीं कर सकेगा। इसलिए एक बार अपने आदर्श (युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द) कि छवि को ध्यान से निहार कर नेत्रों को मूंद लेना अच्छा है। यही है -सम्यक आसन। एकाग्रता का अभ्यास या 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास प्रारम्भ करने से पूर्व सम्यक आसन और स्वच्छ परिवेश का यही महत्व है।
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