५. मन का स्वाभाव
मन का स्वभाव अत्यन्त चंचल है। मन की गति भी प्रचण्ड है। अभी हमारा मन यहाँ है तो दुसरे ही क्षण धरती के दूसरे छोर तक चला जाता है या सुदूर आकाश के किसी कोने में जा पहुँचता है। हमारा यह मन ध्वनि ही नहीं प्रकाश की गति से भी अधिक वेगवान है। सभी दिशाओं से असंख्य सूचनाएं और संवाद पंचेन्द्रिय के माध्यम से मन को हर क्षण प्राप्त होते रहते हैं, इसलिए यह सर्वदा विभिन्न प्रकार के विचारों, भावनाओ या कल्पनाओं के उधेड़-बुन में डूबा ही रहता है। यहाँ तक की कि स्वप्न में भी हमारा मन कितने ही प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करता रहता है, देखता रहता है और आस्वादन भी करता है।
मन (चित्त) की तुलना प्रायः किसी शान्त सरोवर से की जाती है। जैसे मंद गति के वायु प्रवाह से भी जल की सतह पर छोटी-छोटी लहरें या उठती रहती हैं, उसी प्रकार जगत के नाना विषयों के संवादों से मन में भी सदैव विचार-तरंगें उठती रहती हैं। हमारे शांत चित्त-सरोवर में पंचेंद्रियों के विषय रूपी कंकड़ गिरते रहते हैं,इसीसे वह सदैव उद्वेलित और दोलायमान बना रहता है। इन्द्रियाँ मन को सदैव बाह्य विषयों की ओर खींचते रहती हैं। निरंतर ऐसा होते रहने से वह इसका अभ्यस्त हो जाता है, इसीलिये विभिन्न वस्तुओं या विषयों की ओर हमेशा दौड़ते रहना मन का स्वभाव बन जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने मन के स्वभाव की व्याख्या बन्दर के एक रूपक के द्वारा समझाया है - " कहीं एक बन्दर था। वह स्वभावतः चंचल था, जैसे कि सभी बन्दर होते हैं। लेकिन उतने से संतुष्ट न हो, एक आदमी ने उसे काफ़ी शराब पिला दी। इससे वह और भी चंचल हो गया। इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मार दिया। तुम जानते हो, किसीको बिच्छू डंक मार दे, तो वह दिन भर इधर-उधर कितना तड़पता रहता है। सो उस प्रमत्त अवस्था के ऊपर बिच्छू का डंक ! इससे वह बन्दर बहुत अस्थिर हो गया। तत्पश्चात् मानो उसके दुःख की मात्रा को पूरी करने के लिए एक भूत उस पर सवार हो गया। यह सब मिलकर, सोचो, बन्दर कितना चंचल हो गया होगा। यह भाषा द्वारा व्यक्त करना असंभव है।
बस मनुष्य का मन उस बन्दर के ही सदृश्य है। मन तो स्वभावतः सतत चंचल है ही, फ़िर वह वासनारूप मदिरा से मत्त है। इससे उसकी अथिरता बढ़ गयी है। जब वासना आकर मन पर अधिकार कर लेती है, तब सुखी लोगों को देखने पर इर्ष्या रूपी बिच्छू डंक मारता ही है, जिससे मन और तड़पने लगता है। (वह अतिरिक्त चंचल हो जाता है) उसके ऊपर भी जब अहंकार रूपी भूत मन पर सवार हो जाता है, तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता। ऐसी तो हमारे मन की अवस्था है ! सोचो तो इसका संयम करना कितना कठिन है ! "(विवेकानन्द साहित्य ख ० -१: ८६)
मनुष्य का मन स्वभाव से ही चंचल बना रहता है। क्योंकि चित्त (Mind Stuff) में कई प्रकार के विषय-संवाद रूपी कंकड़ गिरते रहते हैं, जो उसे सर्वदा तरंगायित किये रहते हैं, और मन सदैव 'यह क्या है', 'वह क्या है' करता ही रहता है। फिर तरह- तरह की वस्तुओं को देख-सुनकर, नाना प्रकार के भोगों की कामना -वासना उसे मदिरा की तरह नशे में धुत् किये रहता है। फिर दूसरों के सुख-ऐश्वर्य को सहन न कर पाने से अकारण ही वह सर्वदा ईर्ष्या-द्वेष रूपी बिच्छू के डंक से छटपट करता रहता है। और इन सबके उपर अहंकाररूपी भूत का क्या कहना, जो सर्वदा उस पर सवार रहता है। (मैं क्या कम हूँ? दिखा दूंगा) जरा विचार तो करो, इस प्रकार के मन वाले मनुष्य की दशा कैसी होती होगी ? और ऐसे मन को नियंत्रित करना कितना कठिन होगा ?
तथापि इसी मन की शक्ति से हमें समस्त कार्य करने होंगे और सभी प्रकार के ज्ञान प्राप्त करने होंगे। साधारण ढंग से जीवन- निर्वाह करने के लिये भी हमें मन की शक्ति की आवश्यकता होती है। फ़िर यदि अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर दूसरे मनुष्यों का कल्याण करना हमारा उद्देश्य हो, तब तो मन की शक्ति की आवश्यकता और अधिक बढ़ जाती है। जीवन को सुंदर ढंग से गठित करने के लिये ज्ञान अर्जित करना होगा तथा पारदर्शी विचार-क्षमता या विवेक-सामर्थ्य की सहायता से अच्छा-बुरा अर्थात शाश्वत -नश्वर का विवेक धारण कर अपना जीवन लक्ष्य निश्चित करना होगा।
मन में केवल कल्याणकारी विचार (मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माणकारी विचार) भरने होंगे। पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय (अटलता) (3P -'Purity, Patience, Perseverance ) ये सभी मन के गुण हैं, और सर्वोपरि है- हृदय - विकसित या 'मातृहृदय-स्थित 'प्रेम' (Love) ! हम इन गुणों की उपेक्षा करके अपने जीवन को सार्थक नहीं कर सकते हैं। इन सदगुणों को धारण करने के लिये, पहले मन की अतिरिक्त चंचलता और अनुशासनहीनता (असंयम) को नियंत्रित करना अनिवार्य है। मन को शांत करना होगा,उसके ऊपर प्रभुत्व रखना होगा, उसको संयमित, धैर्यवान बनाकर लक्ष्य के ऊपर केन्द्रीभूत करना होगा, तभी हम अपने जीवन को सुंदर रूप से गठित कर अपने निर्धारित लक्ष्य -'मनुष्य बनो और बनाओ' (BE AND MAKE ) को पा सकेंगे।
किन्तु मन के स्वभाव के सम्बन्ध में जान लेने के बाद मन में थोड़ी हताशा उतपन्न हो जाती है कि जब मन का स्वभाव इतना चंचल है, तो हम उसे कैसे संयमित करेंगे ? और मनःसंयोग करके कैसे जीवन- लक्ष्य तक पहुँच पायेंगे? किन्तु हताश होने जैसी कोई बात नहीं है। कठिन होने पर भी मन को संयत करना सम्भव है। मन के सदैव चंचल बने रहने के कारणों को ठीक से समझ लेने पर, उसको पूरी तरह से अपने वश में रखने का उपाय भी सीखा जा सकता है। लेकिन मन के ऊपर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न नहीं करने से जीवन को सार्थक करना सम्भव नहीं है। अतः मन को अपने वश में रखने की विधि - (मनः संयोग की पद्धति) को सीख कर उसका अभ्यास करने से ही, जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर अपने जीवन को सार्थक और आनंदमय बनाया जा सकता है।
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[मोहजनित मल : स्वर्ण-मृग (कामिनी -कांचन की घोर आसक्ति) के ऊपर विवेक-प्रयोग नहीं करने वाला
भ्रमित या हिप्नोटाइज्ड मनुष्य दौड़ लगाते-लगाते अपने बहुमूल्य मानव-जीवन को नष्ट कर लेता है। सन्त
तुलसी दास जी महाराज विनय पत्रिका (८२) में कहते
भ्रमित या हिप्नोटाइज्ड मनुष्य दौड़ लगाते-लगाते अपने बहुमूल्य मानव-जीवन को नष्ट कर लेता है। सन्त
तुलसी दास जी महाराज विनय पत्रिका (८२) में कहते
मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई।।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई।।
मोहसे उत्पन्न जो अनेक प्रकारका (पापरूपी
कचरा ) मल लगा हुआ है, वह करोडों उपयोंसे भी नहीं छुटता। अनेक जन्मोंसे यह
मन पापमें लगे रहनेका अभ्यासी हो रहा है, इसीलिये यह मल अधिकाधिक लिपटता ही
चला जाता है।।]
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$$$$$६. मन की स्वाभाविक चंचलता और द्रुत-गतिशीलता दोष नहीं गुण !
मन को दोष देते हुए कहा जाता है कि, यह मन बन्दर के समान चंचल है, किन्तु मनुष्यों का मन यदि चंचल नहीं होता, सर्वदा स्थिर ही रहता, तो उसे भले और कुछ संज्ञा दी जा सकती थी पर उसे मन नहीं कहा जाता। जैसे कोई सोचे कि यदि पारा ठोस होता तो अच्छा होता, लेकिन तब थर्मामीटर और बैरोमीटर जैसे यन्त्र कैसे काम कर पाते ? पारा में यह गुण उसके आपेक्षिक गुरुत्व (Specific gravity) तथा सांद्रता या गाढ़ापन (viscosity) के कारण ही विद्यमान रहता है। पारा में इन गुणों के रहने के कारण ही उससे जो कार्य किए जाते हैं, वे किसी अन्य पदार्थ से नहीं किये जा सकते।
उसी प्रकार मन के भी कई स्वाभाविक गुण (चंचलता और तीव्र गतिमान आदि) हैं। और इन्हीं गुणों के रहने के कारण इतने महत्वपूर्ण कार्यों में (आविष्कार करने, ब्रह्म को भी जानने में) मन का ऐसा उपयोग हम कर पा रहे हैं। क्योंकि मन की संज्ञा वाला कोई बिल्कुल ठोस वस्तु यदि तुम्हारे सिर के किसी भाग में, या छाती के किसी कोने में प्रत्यारोपित कर दिया गया होता, तुम भी एक जड़ पदार्थ सदृश्य ही होते। क्योंकि मन के चंचल नहीं होने से, तुम्हारे मन में कोई विचार ही नहीं उठता। तुम अशुभ तो क्या शुभ चिंतन भी नहीं कर पाते। मनुष्य का पूरा जीवन ही दूसरे प्रकार का (बनस्पति जगत के प्राणी जैसा) हो गया होता। तुम्हारे मन में न कोई प्रश्न उठता न ही तुम उन प्रश्नों के उत्तर पाने की चेष्टा करते। मन यदि सदा चंचल नहीं बना रहता तो, मन की शक्ति से जितने कार्य किये जाते हैं (प्राकृतिक नियमों का आविष्कार आदि कार्य), उन्हें करना भी सम्भव नहीं होता। मन कैसा-कैसा कार्य कर लेता है? वह चंचल है, तभी तो नित्य-नूतन वैज्ञानिक आविष्कार सम्भव हो रहे हैं। इतना ही नहीं यथोचित प्रयास करने पर वह, इसी के द्वारा अपने बनाने वाले अथवा -ब्रह्माण्ड के नियन्ता ब्रह्म को भी जानने का सामर्थ्य रखता है!
किन्तु मन तो स्वभावतः चंचल है, यदि हम मन को नियंत्रित करना नहीं सीखें तो उसकी सहायता किया जाने वाला आवश्यक या प्रयोजनीय कार्य करना सम्भव नहीं होगा। अति-सामर्थ्यवान् किन्तु उदण्ड मन रूपी भूत यदि हमें ही खाने के लिये दौड़े, अर्थात जिस मन को हमें शासित रखना चाहिये वह हमें ही शासित करने लगे, तब तो बिल्कुल विपरीत परिणाम होंगे। अतः मन-रूपी बंदर पर चढ़ा अहंकार का भूत हमें खा नहीं जाय,इसके लिये कोई अन्य शिक्षा लेने के पहले मन को अपने वश में करने की विद्या अर्थात विवेक-दर्शन की पद्धति ***अवश्य सीखनी होगी।
क्योंकि मन का स्वाभाविक तौर से चंचल होना बहुत अच्छी बात है, परन्तु 'उभयतो-वाहिनी चित्त-नदी के प्रवाह' का अनियंत्रित होना चिन्तनीय है ! अतः सिर्फ चंचल होने से मन को दुष्ट या शैतान नहीं समझना चाहिये। यदि वह हमारे द्वारा शासित नहीं है,तभी वह हमारे साथ शत्रुओं के जैसा व्यवहार करेगा। इसके विपरीत यदि वह हमारे द्वारा शासित है तब तो वह हमारा सबसे बड़ा मित्र भी है। (कहा गया है -मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥ मन ही मानव के बंध और मोक्षका कारण है, जो वह विषयासक्त हो तो बंधन कराता है और निर्विषय हो तो मुक्ति दिलाता है। (अर्थात सिंह-शावक को भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड कर देता है।
मन के चंचल होने का या अहंकार के बढ़ जाने का मूल कारण है 'चित्त-नदी का उभयतो-वाहिनी प्रवाह। मन यदि दोलायमान नहीं हो पाता, तो इसमें किसी भी प्रकार के विचारों का उठना सम्भव ही नहीं था। मन के अनवरत दोलायमान रहने के फलस्वरूप ही मन में विचारों का अविच्छिन्न प्रवाह चलता रहता है। किन्तु यदि मन अपनी इच्छानुसार मनमाने ढंग से दोलायमान या उद्वेलित होता रहे, तथा उसपर हमारा थोड़ा भी नियंत्रण नहीं हो, तो हमारी अवस्था भी उसी मदमस्त बन्दर के सामान हो जायेगी। और लगभग प्रत्येक व्यक्ति की वर्तमान अवस्था कमोबेश वैसी ही है।
चंचलता ही मन का धर्म है। मनःस्थिति कब कैसी है, यह समझ पाना हर समय सम्भव नहीं होता। फ़िर भी मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो मन कि समस्त चंचलता को शांत कर सकता है। जो मन को जीत सकता है-वही वीर है (माँ का भक्त या हीरो है),विश्वविजयी है ! वही यथार्थ 'मनुष्य' या 'मनुष्य' जैसा 'मनुष्य' या (Man with Capital 'M') है। ऐसे मनुष्य से ही समाज और देश कुछ आशा रख सकता है। जिसने अपने मन को वशीभूत कर लिया है, वही समाज को सही नेतृत्व भी दे सकता है। सिर्फ़ मन ही क्यों, इस जगत में सब कुछ चंचल है। सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड ही असाधारण चंचलता की 'खुली खदान' (quarry) है; चंचलता से ही जगत की सृष्टि हुई है। इस असाधारण चंचलता के मध्य रहते हुए भी, मैं 'निर्वातनिष्कम्पमिव प्रदीपम्' - हवा से रहित स्थान में किसी 'निष्कंप प्रदीप' के समान अन्तःकरण का अधिकारी बन सकता हूँ। समस्त चंचलता के मध्य भी मैं (अपने यथार्थ स्वरुप को जान लेने के बाद) बिल्कुल शांत या स्थिर होकर रह सकता हूँ। यही मनुष्य की बहादुरी है ! यही मनुष्य की महिमा है ! इसी सामर्थ्य के कारण मनुष्य को 'मनुष्य' कहा जाता है।
लेकिन जो लोग कहते हैं कि मन की चंचलता या मतवालेपन के साथ 'मैं भी मतवाला बन जाऊंगा', ऐसे उन्मादी लोगों को कुछ समय के लिये तो क्षणिक सुख प्राप्त हो सकता है, किन्तु थोड़े दिनों के बाद उन्हें असहनीय पीड़ा झेलनी पड़ेगी। इसीलिये जो विद्वान् (विवेकी) जन हैं वे जगत के समस्त वस्तुओं की चंचलता या नर्तन देखकर स्वयं ही नहीं नाचने लगते। क्योंकि वे जानते हैं कि इसका परिणाम क्या होगा? वे जानते हैं कि समस्त चंचलता के मध्य शांत और स्थिर कैसे रहा जा सकता है ! और जो लोग यह कर पाते हैं, उनके लिये वैसा कुछ भी शेष नहीं रहता जिसे वे नहीं कर सकते हों! अब यह पूरी तरह से हमारे विवेक पर ही निर्भर करता है कि इन दोनों तरह की संभावनाओं (शाश्वतसुख -नश्वरसुख) में से हम
किसका चयन करेंगे ? और भविष्य में हम कैसा मनुष्य बनेंगे; यह हमारे इसी विवेक-प्रयोग क्षमता पर निर्भर करता है। फिर विवेक-सामर्थ्य युक्त और चरित्रवान मनुष्यों की संख्या पर यह निर्भर करता है, कि भविष्य में हमारा परिवार, समाज अथवा राष्ट्र कैसा बनेगा ? (या भारत विश्वगुरु बनेगा या नहीं )?
सुख-प्राप्ति की इच्छा सभी मनुष्यों में पायी जाती है। मनुष्य धन कमाने के लिए जितनी भाग-दौड़ करता है, चेष्टा और श्रम करता है, उस सब के पीछे केवल सुख भोगने की इच्छा ही होती है। किन्तु मोहित या अचेत मनुष्य (हिप्नोटाइज्ड-भेंड़) विवेक-सामर्थ्य से रहित होने के कारण गलत जगह में सुख की खोज करता है। और इन्द्रिय-विषयों से मिलने सुख के पीछे दौड़ते हुए अपने जीवन को ही व्यर्थ में गँवा देता है। आज का मनुष्य संसार के भौतिक संसाधनों में सुख खोज रहा है, सुख की प्रत्याशा में ही वह कर्म करता है, तथा आशा करता है की उसे सुख अवश्य मिलेगा। पर ऐसा होता नहीं है।
क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि आज भी हमारे देश में असंख्य ऐसे मनुष्य हैं, जिन्हें जी-तोड़ मेहनत करने पर भी दो जून की रोटी नसीब नहीं होती ? वे अज्ञान के अंधेरे में रहने को विवश हैं। यदि
हम इन स्थितियों में परिवर्तन लाना चाहते हों, तो पाश्चात्य-भोगवादी संस्कृति प्रदत्त इस उन्मादी और चंचलतापूर्ण जीवन के मध्य भी स्वयं को स्थिर या अविचल रखने कि शिक्षा
ग्रहण
करनी होगी।'मनःसंयोग' अर्थात मन की एकाग्रता की विधि सीखनी होगी। फिर शांत और स्थिर मन से सबकुछ देखने पर सबका अर्थ समझ में आने लगेगा। देश की समस्त समस्याओं की जड़ और उन समस्त समस्याओं का समाधान सबकुछ स्पष्ट रूप से
उद्भासित हो जाएगा।
हम अच्छी तरह से जान जायेंगे कि आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, भयशून्यता, त्याग और सेवापरायणता ही हममें चारित्रिक दृढ़ता और वह शक्ति उत्पन्न करेंगे जिसके बल पर हम संकल्प ले सकेंगे कि स्वयं को मन की उन्मादी एवं पागल तरंगों में नहीं बहने देंगे, बिना विवेक-प्रयोग किए कोई भी कार्य नहीं करेंगे तथा मन की क्षणिक दुर्बलताओं के आवेग से स्वयं को मुक्त कर लेंगे। फिर अपनी अन्तर्निहित शक्ति (दिव्य-प्रेम) को प्रकट करेंगे और अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित कर उसे मनुष्य के कल्याण में न्योछावर कर देंगे। इस प्रकार स्वभावतः चंचल मन को अपने वश में लाकर, उसे उपयोगी कार्यों में नियोजित करने की पद्धति सीखने से ही स्वयं में एवं विश्व में वांछित परिवर्तन लाया जा सकता है।
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[ सुख की विभिन्न संभावनाओं*** आम विषयी लोग
जिसे ( इन्द्रिय विषय भोगों को ) सुख समझते हैं, उसकी तुलना दाद-खाज से
करते हुए आचार्य नरहरि ने कहा है-' कंडूयनेन यत कंडू सुखं तत किं
भवेत सुखम । पाश्चादत्र महापीड़ा तथा वैषेयिकं सुखं ।।'अर्थात दाद-खाज
खुजलाते समय जिस क्षणिक सुख का अनुभव होता है, क्या उसे सच्चा सुख समझना
कोई बुद्धिमानी है ? खुजला देने के बाद वहाँ जिस प्रकार के तीव्र जलन का
अनुभव होता है, इन्द्रिय-विषय भोगों से मिलने वाले सुख को भी वैसा ही समझना
चाहिए.गीता (१८/३७-३९) में भगवान ने कहा है - " इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होने वाला सुख प्रारम्भ में तो अमृत के समान मालूम पड़ता है, किन्तु (कंडू सुखं की भाँति) उसका परिणाम में विष के समान होता है. इस प्रकार से प्राप्त होने वाले सुख को राजसिक सुख कहा गया है. अतिभोगी और विलासी लोगों को विवेकहीन होने के कारण (शराबियों आदि को) जिस सुख का अनुभव होता है,वह भोगने के प्रारंभ एवं परिणाम में भी मनुष्य को मोहित (अचेत) कर देता है, उसे तामसिक सुख कहा गया है. एवं जो सुख प्रारम्भ में
तो कष्टकर प्रतीत होता है (प्रत्याहार का अभ्यास और वैराग्य ), किन्तु
परिणाम में (परिपक्व ज्ञान-वैराग्य) अमृत जैसा प्रीतिकर लगता हो, उसे सात्विक सुख कहा जाता है.श्रेय (Good) अर्थात शाश्वत,और प्रेय (Pleasant)अर्थात नश्वर?
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, यह
कहानी हिंदू, मुस्लमान, इसाई सभी धर्म के पुराणों में पायी जाती है। " सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है;
मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है. मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से-यहाँ तक कि
देवादि से भी श्रेष्ठ है. मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं. देवताओं को भी
ज्ञान-लाभ के लिए मनुष्य-देह धारण करनी पड़ती है. एकमात्र मनुष्य ही ज्ञान-लाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं.
यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत और समुदय सृष्टियों के
बाद मनुष्य की सृष्टि की. और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने सभी देवदूतों
को बुलाकर मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन करने को कहा. इबलीस को छोड़ कर बाकि
सब ने मनुष्य के आगे अपने सिर को झुकाया. अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप
दे दिया. इससे वह शैतान बन गया. " (१/५३)
मन कैसे कैसे अद्भुत कार्य नहीं कर लेता ? ***श्रीमद्भागवत पुराण (११-९-२८) में इस बात के इस प्रकार वर्णन आता है- सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है...
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया
वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान्।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय
व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥
वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान्।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय
व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥
- अर्थात ब्रह्माण्ड की मूलभूत शक्ति ने (माँ जगदम्बा या महत् तत्व ने ) स्वयं को सृष्टि के रूप में क्रमविकसित किया ....और,
इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप-रेंग कर चलने वाले, पशु, पक्षी, डंक मारने वाले
कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ। परन्तु ,उस सृजन से विधाता को सन्तुष्टि नहीं हुई, क्योंकि उन प्राणियों में उस परमचैतन्य की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो सकी थी। अत: अन्त में विधाता ने मनुष्य का निर्माण किया, उसकी चेतना इतनी विकसित थी कि वह उस मूल तत्व का साक्षात्कार कर सकता था;अर्थात जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता था !और अपने इस रचना को देखकर ब्रह्म अत्यन्त प्रसन्न हो गये! (पुरुषं विधाय व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवा !) मनुष्य ही एकमात्र
ऐसा जीव है जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता है !
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