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शनिवार, 15 नवंबर 2014

७.'क्या करना आवश्यक है ?' ८.' जीवन के खेल में हार-जीत ' ९ .'प्रारंभिक कार्य' ["मनःसंयोग " - लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

७. अत्यन्त आवश्यक कार्य  
अब हमलोगों ने समझ लिया है कि 'मनः संयोग' किये बिना किसी भी कार्य को समुचित तरीके से करना, या किसी विषय का सम्यक ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं है। और इसी तरह मनः संयोग के बिना  जीवन को  सुंदर तरीके से गठित करना और सार्थक करना भी सम्भव नहीं है।  हमने यह भी जान लिया कि यदि  मन को अपनी इच्छा या आकांक्षा के अनुरूप किसी कार्य में नियोजित करना सीख लें, तो ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो हम नहीं कर सकें। 
मन की शक्ति असीम है, किन्तु मन स्वभावतः चंचल है। इसीलिये वह अपने आप ही जगत के विभिन्न विषयों की ओर सर्वदा दौड़ता रहता है। इसी कारण हमलोग बहुधा स्वयं को असहाय सा महसूस करते हैं और बहुत से कार्यों को करने में असमर्थ हो जाते हैं। हमारी पसंद के ढेरों ज्ञातव्य विषय हमारे लिये अज्ञात बने  रह जाते हैं और हम अपने जीवन को सफल और सार्थक नहीं कर पाते। इस परिस्थिति में हमें  क्या करना चाहिए ?
अपनी इच्छा और प्रयत्न (उद्यम) के द्वारा केवल अपने प्रयोजनीय या वांछित विषय में मन को लगा सकने का कौशल सीखना चाहिये। यदि हम इस कौशल को सीख लें, तो चंचल मन को शांत कर, उसे विभिन्न विषयों से खींचकर अपनी इच्छानुसार किसी भी कार्य या विषय पर एकाग्र रख सकते हैं। इसे ही 'मनः संयोग' कहते हैं, या सरल शब्दों में मनोयोग भी कहते हैं। इस कौशल को सीख लेने से,हम किसी भी कार्य को श्रेष्ठतर तरीके से कर सकेंगे, तथा इच्छित विषय का सम्यक ज्ञान भी प्राप्त कर सकेंगे। जो सीखेंगे उसे याद भी रख सकेंगे,फिर  उस ज्ञान को उपयोग में लाकर दूसरे कार्यों को भी  श्रेष्ठतर तरीके से कर सकेंगे, और अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर लेंगे।
                किसी स्थान में एक दीपक जलाने से जिस प्रकार प्रकाश की किरणें चारों ओर फ़ैल जाती हैं,  उसी प्रकार मन की शक्ति सर्वदा चारों ओर प्रसारित होती रहती है। और जिस विषय पर पड़ती हैं, उसको हमारे सामने स्पष्ट रूप से प्रकट कर देती है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश चारों ओर पड़ता है और सब कुछ को प्रकाशित कर उन्हें स्पष्ट रूप से प्रकट करता है। तुमलोगों ने उत्तल लेंस (Convex lens) के बारे में अवश्य सुना होगा अथवा देखा भी होगा। सूर्य की किरणों को जब इस लेंस से गुजारा जाता है, तो वे अपनी वक्रता के अनुसार नजदीक या दूर के किसी बिन्दु पर केन्द्रीभूत हो जाती हैं; इसके  फलस्वरूप उस बिन्दु पर जो कुछ रहता है वह अधिक प्रकाशित हो जाता है। चूँकि सूर्य के प्रकाश की किरणों में ताप (Heat) भी रहता है, इसलिये वहाँ गरमी भी उत्पन्न होने लगती है। अगर वहाँ कागज का टुकड़ा रख दिया जाय, तो उसमें से धुआँ उठने लगता है और फिर आग भी पकड़ लेता है। उसी प्रकार मन की शक्ति की रश्मियों को अगर मनःसंयोग के द्वारा किसी विषय पर एकाग्र किया जाय, तो वह विषय  मन के सामने अधिक प्रकाशित हो जाता है। उसका सम्पूर्ण रहस्य या सभी जानने योग्य बातें बिल्कुल सही और विशुद्ध रूप में ज्ञात हो जाती हैं। किसी भी कार्य के मामले में भी मन की शक्तियों को इसी प्रकार एकाग्र अथवा एकमुखी (unidirectional) करने से वह श्रेष्ठतर तरीके से सम्पन्न हो जाता है।
             मन की शक्ति की अदृश्य रश्मियों को अकारण चारों ओर बिखर कर नष्ट नहीं होने देकर, अर्थात विभिन्न विषयों में जाने से रोक कर (खींचकर-प्रत्याहार) उन्हें एकीकृत या संघटित करके आवश्यक विषय में नियोजित करना ही 'मनः संयोग' है। अर्थात मन की शक्ति का अपव्यय न करके उसके अधिकांश, हो सके तो सम्पूर्ण उर्जा-रश्मियों को एकाग्र तथा एकमुखी बनाकर ज्ञातव्य विषय या प्रयोजनीय कार्य मे नियोजित करने को 'मनः संयोग' कहते हैं। और हमें यही करना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मन की शक्तियाँ इधर-उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान हैं। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है, तब वे सब कुछ आलोकित कर देती हैं।" (१:३९)




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[स्वामी विवेकानन्द कहते है- " बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सिखा है, अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी। इसीकारण हममें से अधिकांश मनुष्य अपने मन की क्रिया-विधि का निरिक्षण करने की शक्ति को खो बैठे हैं। मन को अन्तर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर, उस मन के ऊपर उनका प्रयोग करना, तांकि वह स्वयं अपने ही स्वभाव को समझ सके, (अन्य वस्तुओं का विश्लेषण करने के बजाय) अपने आपको विश्लेषण करके देख सके- एक अत्यन्त कठिन कार्य है।...इसके लिए काफ़ी अभ्यास आवश्यक है। पर वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार मन के विषय में जानने के लिए अग्रसर होने का यही एकमात्र उपाय है। " (वि० सा० ख० १ :४०)] 
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८ ." जीवन के खेल में हार-जीत "
किसी भी खेल के अन्तिम क्षणों में जब हार-जीत का फैसला होना होता है तो उद्वेग और उत्तेजना अपने चरम पर होती है। फिर अन्त में विजयी होने पर मन उल्लास और आनन्द से भर उठता है। किन्तु जीत उसी की होती है जो खेलते समय मन को स्थिर करके अपना पूरा ध्यान खेल के ऊपर ही केंद्रित रख सकता है; जो बड़े धैर्य के साथ खेल में अनवरत लगा रहता है। अर्थात एकाग्रता से मन को लगाये रखता है, जो खेल के नियमों और जीतने के कौशल को अच्छी तरह से जानता है, तथा सही समय पर सही दाँव चलता है। जो विजयी होता है उसे खेल जीतने की तकनीक में महारत हासिल करने के लिये, बहुत लम्बे समय तक कठोर परिश्रम के साथ अभ्यास करना पड़ता है। निपुणता से खेल सकने एवं निशंक होकर खेल की तकनीक का प्रयोग करने के लिये भी उसे लगातार अभ्यास (Practice) भी करना पड़ता है। जो कुशल खिलाड़ी खेल में श्रेष्ठ प्रदर्शन कर लोगों की वाहवाही लूटता है और लक्ष्य-स्तम्भ छूने के गर्व का अधिकारी बनता है, उसे खेल को जीतने की तकनीक तथा खेल-नियमों का अनुपालन अवश्य करना पड़ता है।
                    हमारा पूरा जीवन भी एक महान खेल की तरह ही है। इस खेल में हार-जीत के ऊपर ही  निर्भर करता है कि हमारा मनुष्य-जीवन सार्थक हुआ, या यूँ ही व्यर्थ  में  नष्ट हो गया। जीवन के इस खेल में विजयी होने से जिस आनन्द और गर्व की अनुभूति होती है, वैसा आनन्द क्या अन्यत्र कहीं उपलब्ध है ? लेकिन इस खेल में पराजित हो जाने पर जिस गहरी पीड़ा और निराशा की अनुभूति होती है, उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है।  फ़िर भी हममें से अधिकांश  का जीवन व्यर्थ हो जाता है। 
                 किन्तु जो लोग इस जीवन-संग्राम में विजयी होते हैं, उन्हें ही मानव-जाति हमेशा-हमेशा के लए याद रखती है। उनके प्रति श्रद्धा रखती है, तथा उनको ही अपना नेता मानकर उनका अनुसरण करने की अभिलाषा रखती है। इसलिए इस बात का निर्णय हमें आज ही कर लेना होगा कि जीवन के खेल में पराजय हमें कदापि स्वीकार नहीं है। और जितनी कम उम्र में इस निर्णय पर पहुँचा जाय उतना ही श्रेयस्कर होगा, क्योंकि ऐसा होने से खेल अथवा जीवन-संग्राम के लिये पर्याप्त समय मिल जाता है। इस खेल में जीतने की तकनीक को कम उम्र में ही सीख लेने से इसमें विजय सुनिश्चित हो जाती है। यह निर्णय हमें स्वयं करना है कि क्या हम जीवन को व्यर्थ में (आहार,निद्रा,भय, मैथुन में) नष्ट होने देंगे ? बोलो - तुम क्या कहते हो?
                             लेकिन इस जीवन-संग्राम रूप खेल में विजयी होने का वास्तविक कौशल क्या है? इसका वास्तविक कौशल है- मन को अपनी इच्छा और प्रयोजनीयता के अनुसार कार्य या विषय पर केन्द्रीभूत करने की पद्धति सीखना,उसे  संयमित और संघटित करके एकाग्र बनाने की तकनीक सीखना,और उस तकनीक का प्रयोग करके अपने मन को पूरी तरह से वशीभूत कर लेना। मनमाने ढंग से मन को इधर-उधर भागने न देकर पूरी तरह से अपने वश में रखने को ही मन का संयम (mortification) कहते हैं। मन की शक्ति इच्छानुसार (Ad lib) बहिर्मुखी होकर इन्द्रिय विषयों में बिखरी हुई है, मन को बच्चे जैसा समझा-बुझाकर उसको इन्द्रिय विषयों से खींचकर, उसे मन के ऊपर ही एकाग्र रखने की क्षमता को ही मन को संघटित करना या संयत करना कहते हैं। मन की अदृश्य शक्ति-रश्मियों को एकोन्मुखी (Unidirectional)कर लेने को ही मन की एकाग्रता (Concentration of Mind) कहते हैं। और इस प्रकार से एकाग्र मन को कुछ समय तक किसी एक ही विषय में संलग्न रख पाने को मनःसंयोग कहते हैं। इसे ही मनोयोग या मन को लगाना भी कहते हैं।
                    किसी भी प्रयास में सफलता या विजय इसी मनोनिवेश के परिमाण पर निर्भर करती है। हमें आजीवन कितने ही प्रयत्न या कार्य निरंतर करने पड़ते हैं। उन कार्यों को हर समय मनोयोग पूर्वक करते रहने में सक्षम होने से जीवन में विजय अवश्यम्भावी है। इसलिए हमें अपने मन को वश में लाना ही होगा। हम जानते हैं कि यह कार्य बहुत कठिन है, किन्तु असम्भव नहीं है। मनुष्य के लिये कुछ भी करना असंभव  नहीं है, क्योंकि मनुष्य अनन्त शक्ति का अधिकारी है। और वह अनन्त शक्ति उसके इसी मन कि गहराई में छुपी हुई है। अतः  उस शक्ति को प्राप्त करके जीवन को सार्थक बनाने के लिये जितना भी जितना भी जोर लगाना पड़े, जितना भी परिश्रम करना पड़े, मैं करूँगा, तथा उत्साह और धैर्य का साथ कभी नहीं छोड़ूँगा !इस प्रकार मन को अपने वश में लाकर जीवन-संग्राम में अपनी विजय सुनिश्चित कर लूँगा, प्रशंषा या वाहवाही की लालसा नहीं रखूँगा। जब मनुष्य बनकर जन्म लिया है, तो विज्ञानी बनकर (जगत को कारण सहित जानकर) इस जीवन को अवश्य सार्थक करूँगा। कहिये, यह सब सोचते हुए भी कितना आनन्द मिलता है !
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिए- अविराम चेष्टा कर रही है, और बाह्य परिवेश या परिस्थितियाँ उसको दबाये  रखने के लिए प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जाने के इस प्रयत्न (महान-खेल) का नाम ही जीवन है। " (विवेकानन्द-चरित पृष्ठ -१०८) "  
" यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फ़िर से प्राप्त करने के लिये सतत चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रखती हैं। उसका दमन करना, उसकी बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे उलट कर, अन्तर्मुखी करके आत्मा के ओर जाने वाले मार्ग में ही एकाग्र रखने का अभ्यास करना,  मनः संयोग है।"(१:११८) 
"आगे बढो ! सैकडों युगों तक संघर्ष करने से एक चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ ! ... मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोर चेले नहीं चाहिए।" (३:३४४) 
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 ९ .प्रारंभिक कार्य 
       आओ अब हम यह देखें कि मनःसंयोग किया कैसे जाता है ? हमने यह समझ लिया है कि मुख्य कार्य मन को संयमित करना है, अर्थात उसे अपना अर्दली (orderly) या अनुशासित आदेशपाल बना लेना है।  लेकिन यदि हमारे दैनिक जीवन में संयम नहीं हो, तो किसी भी उपाय से स्वभावतः चंचल मन को संयमित करना सम्भव नहीं है। इसलिये कार्य का प्रारंभ दैनंदिन जीवन को संयम में रखने की चेष्टा से ही करना होगा। जीवन में संयम रखने का तात्पर्य है कि हमारी सोच (thinking) वाणी (utterance) एवं कर्म (action) सभी पर हमारा नियंत्रण हो। 
           यदि हमारा जीवन ही असंयत (extravagant) हो, तो मन को अनुशासित (disciplined) बनाना या उस पर शासन करना अथवा मनःसंयोग या मन की एकाग्रता (कॉन्सनट्रेशन ऑफ़ माइंड) प्राप्त करना असम्भव है । जीवन को संयमित करने के लिये आवश्यक है -संकल्प, मन की दृढ़ता, उत्साह, धैर्य और कर्मठतापूर्वक किया जाने वाला प्रयास, उद्यम या अभ्यास। लेकिन यदि हम जीवन में कुछ नियमों का पालन नहीं करें, तो इन गुणों को अर्जित नहीं किया जा सकता। अतएव  मनःसंयोग सीखकर यदि जीवन को सुंदर और सार्थक करना चाहते हों, तो सबसे पहले हमें अपनी इच्छाओं के ऊपर लगाम लगाना सीखना होगा। विचार करते समय, बोलते समय और कुछ भी करते समय- हमेशा अनुशासित रहना होगा तथा कुछ नियमों का पालन भी करना होगा। तभी हम मनःसंयोग की वैज्ञानिक पद्धति सीखने में कामयाब हो सकते हैं। 
                 जीवन को संयमित और अनुशासित रखने के लिये कुछ गुणों (यम-नियम) को जानकर उन्हें सदैव याद रखना, तथा उन्हें अपने जीवन में धारण करने का अभ्यास निरंतर करते रहना आवश्यक है। जिन गुणों को धारण किये रहने का अभ्यास निरंतर करते रहना है, वे हैं - अहिंसा, सत्य, आस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह। मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्राणी को कभी कष्ट न पहुँचाना 'अहिंसा' कहलाती है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "मैं किसी भी व्यक्ति या जीव को विचार,वचन या कर्मों से आहत नहीं करूँगा ! एक बार इस प्रकार का दृढ़-मनोभाव बना लेने से ह्रदय में जिस आनन्द कि उपलब्धि होती है, उससे अधिक आनन्द अन्य किसी चीज़ से प्राप्त नहीं होती! "
              उसके बाद है 'सत्य' के ऊपर आरूढ़ रहना। जो सत्य है, सर्वदा वही बोलना। यह भी एक बड़ा गुण है। दूसरों की वस्तुओं को छुपाकर, बिना पूछे या बलपूर्वक ले लेना बहुत बुरी बात है।  ऐसा करना उचित नहीं है। दूसरे की वस्तु को चोरी करने की इस भावना का आभाव-'अस्तेय ' कहलाता है। एक अन्य  महत्वपूर्ण गुण है 'ब्रह्मचर्य'! मन, वचन और शरीर की शक्ति को किसी प्रकार से नष्ट नहीं होने देना 'ब्रह्मचर्य' कहलाता है। अर्थात मन, वचन और शरीर से पवित्र रहने की चेष्टा को ही 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं।  जिस प्रकार का चिन्तन करने, बोलने या कर्म करने के बाद मन में ग्लानी या अवसाद की भावना आती है,  उसे तत्काल विष के समान त्याग देना ही ब्रह्मचर्य का मुख्य सिद्धान्त है। दूसरों से कोई अच्छी वस्तु पाने की इच्छा, कहीं से कोई उपहार, भेंट या चढावा मिलते ही उसे उठा लेना- इन सबसे भी मन में दुर्बलता  और अपवित्रता आती है। मुफ्त में कुछ भी लेने से बचना -'अपरिग्रह' कहलाता है । ये पाँच सद्गुण मन को पवित्र बना देते हैं और इन्हें सम्मिलित रूप से 'यम' कहा जाता है। जीवन को संयमित और मन को पवित्र किये बिना 'मनः संयोग' ठीक-ठीक नहीं होता।
                          फिर कुछ 'नियम' भी हैं जिन्हें आदत में अवश्य शामिल कर लेना चाहिये! जीवन रूपी खेल में विजय को सुनिश्चित करने के लिये किसी कुशल खिलाड़ी की तरह नियम-पालन में महरात तो हासिल करनी ही होगी। ये पाँच नियम हैं- शौच, संतोष, तपः, स्वाध्याय और ईश्वर- प्रणिधान। 
              पहला है शौच यानि स्वच्छता।  शरीर और मन दोनों को स्वच्छ रखना होगा। इतना ही नहीं, अपने उपयोग में आने वाली हर वस्तु, निवास- स्थान, बिछावन, कपड़े, पढाई का टेबल, आलमीरा, खाने का स्थान और भोजन करते समय जूठन छोड़े बिना की थाली आदि  को सदैव स्वच्छ रखने की आदत डाल लेनी होगी। इसके साथ ही साथ मन को भी सर्वदा स्वच्छ,शुद्ध और पवित्र रखना होगा, अर्थात मन में केवल शुभ-संकल्प ही रखने की आदत डालनी होगी। 
                         दूसरा नियम है -संतोष या संतुष्टि का भाव। जो कुछ जितना मिला है, उतने से संतुष्ट नहीं रहकर मन में सर्वदा 'और चाहिये' 'और चाहिये' का विचार ही चलता रहे, तो उस मन को नियंत्रित करके किसी कार्य में नियोजित करना सम्भव नहीं होता। इसलिये मन को संयमित रखने के जीवन में संतोष रहना परमावश्यक है। तीसरा नियम है तपः। जीवन में सभी प्रकार के दुःख-कष्ट (शारीरिक और मानसिक)  को सहन करने की क्षमता भी होनी चाहिए। कुछ कठिनाई या दुःख-तकलीफ (Hardships) को तो जान-बूझकर उठाने की आदत रहनी चाहिये। जीवन-गठन करने में तो कई दुःख-कष्ट उठाने ही होंगे। इसीलिये सुकुमार बनने से, या हर समय बहुत सुख में रहने की इच्छा करने से जीवन में सार्थकता या सिद्धि प्राप्त करना कठिन हो जाता है। उत्तम वस्तु को प्राप्त करने के लिए, कुछ कष्ट तो उठाना ही पड़ता है। इसी को 'तप' कहते हैं। कहा भी गया है- " सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्" - अर्थात सुखार्थी विद्या कहाँ ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ ?
                        चौथा नियम है- 'स्वाध्याय' अर्थात नियमित रूप से विशेष अध्यन करना । हम पाठ्यक्रम की पढाई तो करते ही हैं, किन्तु जीवन-गठन का कौशल सीखने के लिये भी हमें निरन्तर विशेष-अध्यन करते रहना चाहिये। ऐसी पुस्तकों का अध्यन करना चाहिए, जिससे मनुष्य- जीवन को सुंदर ढंग से गढ़ने की प्रेरणा प्राप्त हो और उसका उपाय भी सीखा जा सके। जितना भी सम्भव हो सके -जीवन क्या है, जीवन का उद्देश्य क्या है, मनुष्य जीवन को सार्थक कैसे किया जाता है -इन विषयों के संबन्ध में अवश्य पढ़ना चाहिये।  इस तरह के अध्यन के लिए महापुरुषों द्वारा लिखित कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। कई महापुरुषों के जीवन और सन्देश पुस्तकालय या बाजार में मिलते हैं, लेकिन  युवाओं के लिए स्वामी विवेकानन्द की जीवनी और वाणी का नियमित रूप से स्वाध्याय सर्वाधिक उपयोगी और लाभदायक है। जैसे हम प्रतिदिन बिना भोजन किये और बिना सोये नहीं रह सकते, उसी प्रकार स्वाध्याय किए बिना एक भी दिन नहीं रहना  चाहिए। 
इसके आलावा एक अन्य नियम ऐसा है जो मनःसंयोग में विशेष रूप में सहायक है,वह है -' ईश्वर-प्रणिधान' ब्रह्म या ईश्वर  में विश्वास रखते हुए ईश्वर-स्मरण करने से मन सहजता से शांत और संयत हो जाता है। किन्तु अधिकांश लोगों को ईश्वर (निराकार ब्रह्म) की सर्वव्यापकता का चिंतन करना कठिन मालूम पड़ता है, इसीलिये उनके अवतार या संदेशवाहक (दूत या पैगम्बर) जैसे- राम, कृष्ण, बुद्ध, यीशु, मोहम्मद, चैतन्य और श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द में से किसी को भी अपना आदर्श मान कर चिन्तन-मनन या प्रणिधान करने से जीवन और मन का संयम सुगम हो जाता है। 
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[' ईश्वर-प्रणिधान '-***या सत्यान्वेषी भगिनी निवेदिता :जो विकार मन को अतिरिक्त चंचल बना देते हैं उन्हें षडरिपू कहा जाता है.वेप्रमुख शत्रु हैं- काम(Desire), लोभ और अहंकार, क्रोध, मोह, ईर्ष्या; इनको पहले नियन्त्रण में लाना अनिवार्य है. वरना ये हमें खा डालते हैं।  तात्पर्य यह कि जो भगवान का भक्त नहीं है,या किसी आदर्श के प्रति समर्पित नहीं है, उसमें महापुरुषों के जैसे गुण आ ही कहां से सकते हैं? वह तो तरह तरह के संकल्प करके निरंतर तुच्छ बाहरी विषयों की ओर ही दौड़ता रहता है। अतः मन रूपी इस भूत को निश्चय ही वश में रखने का कौशल सीखना अनिवार्य  है।]
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