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सोमवार, 28 मई 2012

व्यक्तित्व है जीवन-ध्येय में पहुँच जाना [39]परिप्रश्नेन

३९. प्रश्न : Personality -या व्यक्तित्व किसे कहते हैं ?
उत्तर : अंग्रेजी भाषा के शब्द Personality और व्यक्तित्व ( Individuality.) में थोडा सा अंतर है। व्यक्तित्व के लिए सही अंग्रेजी शब्द है - Individuality. हिन्दी में दो अलग अलग शब्द नहीं हैं, इसलिए बातचीत के क्रम में या लिखते समय ' Personality Development ' को कई बार हमलोग ' व्यक्तित्व-विकास ' के अर्थ में भी प्रयोग करते हैं। क्योंकि हिंदी में  व्यक्तित्व कहने से ही  Personality -भी समझा जाता है, और Individuality.- भी समझा जाता है। किन्तु अंग्रेजी दो अलग अलग शब्द हैं-एक है Individuality. और दूसरा है  Personality.  किन्तु Personality.शब्द का सही अर्थ थोड़ा भिन्न होता है.
यह शब्द लैटिन के शब्द ' Persona ' से निकला है. जैसे कोई अभिनेता जब स्टेज पर किसी मेकप में खड़ा होता है- तो उसको देखने से ही अनुमान हो जाता है कि वह किसी ऐतिहासिक चरित्र को निभा रहा है, या अन्य किसी काल्पनिक घटना का कोई किरदार सामने खड़ा है. इसी वेश-भूषा को Persona, बनावटी चेहरा, (मुखौटा या Mask) कहा जाता था.
 जैसे अभिनेता के पूरे पोशाक और वेश-भूषा को देखने से ही उसकी भूमिका के सम्बन्ध में जो अनुमान होता है, उसको Personality. कहा जाता है. अर्थात उपर उपर से देखकर जिसके सम्बन्ध में जो धारणा होती है, उसको ही Personality. कहा जाता है. उसका आचार-आचरण, चेहरा, सौन्दर्य, कपड़ा-लत्ता, उसकी भाव-भंगिमा, चलने-फिरने का ढंग इन सबको मिला-जुला करवह जिस पात्र का अभिनय करता सा दीखता है, उसे Personality. कहते हैं, जिसको उपर से देखकर ही समझा जा सकता है।
किन्तु उसको देखने से उसके भीतर का भी संवाद मिल जाता हो, सो नहीं होता. जिस व्यक्ति या वस्तु को देखने से उसके भीतर का संवाद मिल जाता है, उसको Individuality.-कहा जाता है। वही किसी मनुष्य
 [ प्रसिद्द वैज्ञानिक हाकिंस महोदय भी कृत्रिम यंत्रों के सहारे सुनते, पढ़ते है, लेकिन आज वह भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया के सबसे श्रेष्ठ वैज्ञानिक माने जाते है.]
 का यथार्थ व्यक्तित्व होता है। Individuality. या प्रत्येक व्यक्ति जीवन-ध्येय, या किसी खास व्यक्ति का खास वैशिष्ट या पृथकत्व (जैसे सचिन तेंदुलकर-में क्रिकेट, लता मंगेशकर-संगीत, अमिताभ-अभिनय, न्यूटन में सच जानने की जिज्ञाषा, आदि अ..)  प्रत्येक मनुष्य का Individuality अलग-अलग होता है, अर्थात उनके व्यक्तित्व में कुछ विशिष्टता या पृथकत्व रहता है।

  कहने को हम सभी लोग मनुष्य हैं- काफी हद तक हमारे हाथ-पैर एक जैसे होते हैं. किन्तु प्रत्येक मनुष्य के भीतर अपना अलग अलग वैशिष्ट रहता है, जो और किसी के भीतर नहीं पा सकते.
 एक व्यक्ति का जो अपना वैशिष्ट है, वैसा अन्य दस लोगो में नहीं मिलता है, जो किसी व्यक्ति-विशेष का विशिष्ट-चरित्र होता है- उसको ही Individuality.कहा जाता है. तथा किसी व्यक्ति को उपर उपर से देखकर उसके बारे में जो सामान्य धारणा होती है, उसे उस व्यक्ति का Personality. कहते हैं. 

जो स्वयं मुक्त है,वही दूसरों के बंधन खोल सकता है' [36-38] परिप्रश्नेन

३६.प्रश्न : ' सामान्य बुद्धि ' और ' उपयोग-बुद्धि ' में क्या अतर है ?
उत्तर : ' सामान्य बुद्धि ' का अर्थ है- Common Sense या साधारण समझ। जैसे रास्ते में जा रहे हो, कहीं ईंट पड़ा हुआ है, या गड्ढा है, समझ नहीं पाने से गड्ढे में पैर चला गया तो चोट लग सकता 
है।
इसीलिए सड़क पर चलते समय अपनी आँखों को, तथा कान खुला रख कर सड़क पर चलना, या चलती 
गाड़ी से उतरते समय गाड़ी की दिशा में उसी गति से न दौड़ा जय तो गिर सकता हूँ, इस प्रकार हर समय बुद्धि को जाग्रत रखना (सतर्क रहना), सचेत रहना- यह सब सामान्य बुद्धि का उपयोग है। 
और उपयोग बुद्धि का तात्पर्य है व्यवहारिक बुद्धि, जो कुछ है, उसको काम में लगाना, व्यवहार में लाना। बहुत से छोटे छोटे लड़के, जब कुछ भी पाते हैं, जैसे बैटरी, पुराने बल्ब, लोहा के छर्रे, बेअरिंग आदि, तो सबको एक जगह एकत्र करके, उससे कुछ करने की चेष्टा करते हैं। 
 हमलोगों के पास ज्ञान है, बुद्धि है, किन्तु उसको व्यवहार में नहीं ला सके, या समय आने पर मूर्ख की तरह कार्य किये। अर्थात मुझमें उपयोग बुद्धि नहीं है. जीवन को किस प्रकार कार्य में लगाया जाय ? स्वामीजी यही बात कहते  हैं। उपयोग माने प्रयोग में लाना, जो कुछ भी जानते हैं,- उसका लाभ उठाना।
 मैं यदि निःस्वार्थ न होऊं, तो अपने स्वार्थ को पहले पूरा करने का मनोभाव लेकर चलने से, दूसरों के स्वार्थ की हानि होगी, उनको नुकसान पहुंचेगा। चूंकि मैं और दूसरा वास्तव में एक ही हैं, मैं भी मनुष्य हूँ, वह भी मनुष्य है. जो सत्ता मुझमें हैं, वही सत्ता उसके भीतर भी हैं। इस दार्शनिक आधार पर विचार किये बिना यदि मैं यह सोचूं कि केवल मेरा ही भला हो, दूसरों का भला न भी हो तो मुझे क्या फर्क पड़ेगा ?  सब चलता है- इसप्रकार से सोचना, (दार्शनिक आधार पर) बिना सोचे समझे ही कुछ कर डालना- गलती (mistake) नहीं; ' Blunder ' है; एक बहुत बड़ी भूल करने के समान है।
 यदि ' एक ही अनेक बने हैं ' इसको जानते हुए भी मेरे कार्य से दूसरों को क्षति होती हो, तो यह स्पष्ट
 हो  जायेगा कि मुझमे उपयोगी बुद्धि नहीं है, तात्विक दृष्टि से उसका आभाव है।  इस दार्शनिक आधार पर मुझे ऐसा प्रयास करना चाहिए कि मेरी भलाई होने से दूसरों का नुकसान न हो, दूसरों का भी भला हो, उसकी चेष्टा करनी चाहिए. स्वामीजी ने इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझा दिया है-  जो कार्य केवल अपने स्वार्थ को ध्यान में रख कर करोगे, वह अनैतिक कार्य होगा। और जिस कार्य में मेरा क्षुद्र स्वार्थ नहीं होगा, वही नैतिक कार्य होगा। 
३७.प्रश्न : श्रमशीलता का अर्थ क्या है ?
उत्तर :  श्रमशीलता का अर्थ होता है, श्रम करने की क्षमता, कार्य कर सकने की क्षमता. कार्य को सम्मान करना, उससे लगाव रखना, दक्षता पूर्वक कार्य करने की क्षमता, कार्य के प्रति आग्रह रहना. प्रत्येक कार्य को अच्छे ढंग से सम्पन्न करना, यह सब श्रमशीलता के गुण के लक्षण है।
३८. प्रश्न : सज्जनता (बंगला में सौजन्य ) का क्या अर्थ है ? 
उत्तर : सज्जनता का अर्थ होता है, गंवार-पन नहीं बल्कि, भद्रता या शिष्टता का भाव (urbanity ).
' सज्जन ' कहने से तात्पर्य निकलता है- ' सू-जन ' होने का परिचय। अर्थात  सज्जन-ता, माने जो दूर्जन नहीं है। जन का अर्थ होता है-मनुष्य।
 मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- सज्जन और दुर्जन। सज्जन माने अच्छा मनुष्य, और सू-जन होने के भाव को  सज्जनता भी कहते हैं।  प्राचीन युग में प्रार्थना होती थी-


दूर्जनः सज्जनो भूयात, सज्जनः शान्तिम आप्नुयात ।
शान्तो मूच्यात बन्धेभ्यो, मूक्ताश्चान्यान विमोचयेत ।।
 ' दूर्जन लोग पहले सज्जन बन जाएँ, क्योंकि जो सज्जन हैं, वे ही शान्ति प्राप्त कर सकते  हैं। फिर जो शान्त हो चुके हैं वे समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेंगे। जो स्वयं मुक्त हो चुके हों, वे दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा करते हैं। 
 जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द स्वयं समस्त बन्धनों से मुक्त हो गये थे, इसीलिए वे दूसरों को मुक्ति का सन्देश देकर, उन्हें भी मुक्ति के आनन्द को समझा सके थे। 
 भागवत में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है- 
 सूजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ।।
 ' आहा, देखो-इन वृक्षों का जीवन ही सार्थक है, मानो ये सभी प्राणियों के हित के लिए ही जीवन धारण करते हैं, ये अपना सर्वस्व न्योछावर करके भी मनुष्यों के काम में आते हैं। जो भी इनसे कुछ पाने की अपेक्षा करता है, ये उसे कभी निराश नहीं करते।' सज्जन लोग भी ऐसे ही होते हैं. उनके पास से कोई असंतुष्ट होकर नहीं लौटता। 
दूर्जन किसी का उपकार नहीं करना चाहते, फिर भी दूर्जनों से घृणा करना ठीक नहीं है। उसके बुद्धि का बन्धन खोल देना होगा, या अज्ञान की गाँठ (Knot of Ignorance) काट देनी होगी, तब वह भी सज्जन बन जायेगा।  बोलचाल की भाषा में ' सज्जनता ' कहने से हमलोग भद्रता समझते हैं. किन्तु यथार्थ भद्रता तभी आती है, जब मनुष्य वास्तव में अच्छा बन जाता है, सूजन बन जाता है. भर्तृहरि ने कहा है-
 ' ऐश्वर्श्य विभूषण्म सूजनता ' 
अर्थात ऐश्वर्य का आभूषण है, सुजन-ता या सज्जनता ।

चरित्रवान मनुष्य बनने की शिक्षा कैसे दी जाती है? [***35] परिप्रश्नेन

३५. प्रश्न : कोई शिक्षक या नेता को अपने सहकर्मिओं को चरित्रवान मनुष्य बनने के लिये कैसे प्रेरित कर सकता है ? अपने भाई, मित्र या किसी दूसरे व्यक्ति को चरित्रवान मनुष्य बनने की शिक्षा कैसे दी जाती है?
उत्तर : यथार्थ शिक्षा प्रदान करने का उपाय जानने के लिए पहले शिक्षक या नेता को यह जानना होगा, कि ' प्रत्येक मनुष्य के भीतर ज्ञान पहले से ही अन्तर्निहित है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब 
अन्दर ही है। कोई भी ज्ञान बाहर से किसी के भीतर, नहीं प्रविष्ट कराया जा सकता है। जो ज्ञान-स्वरूप होकर भीतर में जो पहले से ही विद्यमान हैं, उनको बाहर से केवल जाग्रत किया जा सकता है।
 किन्तु कोई शिक्षक (या नेता) यदि बाहर से (क्रोध कर के बोले- अरे, चरित्रहीन ! तू कब सुधरेगा ?) आदेश दें- ' मैं शिक्षक हूँ, तुम मेरे छात्र (अनुयायी) हो, मैं तुमको आदेश करता हूँ, तुमको निर्देश दे रहा हूँ, तुम जाग जाओ ! ' तो ऐसे उपदेश का भी कोई लाभ नहीं होता है। जो ज्ञानस्वरूप पहले से ही सबके हृदय में विद्यमान हैं, उनको पूर्ण श्रद्धा और प्रेम के बल पर ही जाग्रत किया जा सकता है, क्रोध से या अपशब्द से कभी नहीं। किन्तु शिक्षक यदि छात्र को [कोई गुरु (नेता) अपने शिष्य को नहीं भावी गुरु (नेता) को ] हृदय से प्यार करते हों, इस प्यार भरे पुकार से जो आवाज गूंजती है- वह हृदय के दरवाजे को खोल देती है। 
 किन्तु अक्सर हम शिक्षक गण अपने विद्यार्थियों या अनुयायिओं को अपने तुच्छ समझते हैं- उन्हें अज्ञ या मुर्ख समझते हैं, तथा यह सोचते हैं, कि हम तो उन्हें सिखा रहे है। तो अक्सर ऐसे मूर्ख  
शिक्षकों की आवाज विद्यर्थियों के कानों तक नहीं पहुँच पाती है, और गुरु की वह पुकार, विद्यार्थी के हृदय -कपाट को उन्मुक्त नहीं कर पाती है। 
गुरु के लिए यह आवश्यक है, कि वह अपने शिष्य को सर्वदा श्रद्धा की दृष्टि से देखे, उसको भीतर से - अपना अंतरधन समझ कर भीतर से प्रेम करे. मुझमें और उसमें कोई भिन्नता नहीं है, यही भाव ( प्रज्ञा या सच्ची-समझ या Uptake) मन के भीतर सतत जाग्रत रखनी चाहिए. (भेद-दृष्टि को दूर करके) इसी बोध के साथ जब किसी को शिक्षा दी जाती है, तब उस शिष्य के अन्तस्थ सत्ता की नींद जल्द टूट जाती है, और वह तीव्र गति से प्रगति करने लगता है।
सर्वदा ऐसा मनोभाव ( अभेद-दृष्टि की प्रज्ञा या सच्ची-समझ ) जाग्रत रखने के लिए मुझे पवित्र बनना होगा, मुझको ब्रह्मचर्य का पालन करना होगा. हमलोगों के शास्त्रों ( तैत्रियोपनिषद 1/3 ) में यह सब कहा गया है-
' सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम। '
अर्थात हम (आचार्य और शिष्य ) दोनों का यश और ब्रह्मतेज एक साथ बढ़े। इस अनुवाक में 
पहले सम-भाव में स्थित - ' समदर्शी आचार्य ' के द्वारा अपने लिए और अपने शिष्य के लिए भी यश 
और ब्रह्म-तेज की वृद्धि के उद्देश्य से शुभ-कामना की जा रही है। आचार्य की अभिलाषा यह है, कि मुझे तथा मेरे श्रद्धालु और विनयी शिष्य को साथ-साथ ज्ञान और अभ्यास से उपलब्ध होने वाले यश और 
ब्रह्मतेज की प्राप्ति हो।   
इसीलिए आचार्य पहले स्वयं पवित्र जीवन जीते हुए, ब्रह्मचर्य पालन करते हुए- शिक्षार्थी में भी यश और
 ब्रह्मतेज जाग्रत होने की कामना करते हैं। सच्ची शिक्षा देने के लिए ऐसे ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है. अर्थात आचार्य को अपने मन, वचन तथा कर्मों में पवित्रता रखनी होगी. यदि मेरा जीवन स्वच्छ या उज्ज्वल नहीं है, पवित्र न हो, तो वैसे गुरु के हजार बार पुकारने से भी विद्यार्थी की नींद नहीं टूट सकेगी। 
आज की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था क्यों फलदायी नहीं हो पा रही है ? क्यों यह बात कहनी पड़ रही है, कि  स्कूल-कॉलेज या विश्वविद्यालयों में मनुष्य तैयार नहीं हो रहे हैं, विद्यार्थियों का चरित्र निर्माण क्यों नहीं हो पा रहा है ? कारण शिक्षा नीति में परिवर्तन का अर्थ हमने 10+2 हो या 3 हो - या एक ही जगह टेस्ट होता हो - नहीं है। 
अभी हाल में ही अमेरिका के १९ प्रख्यात शिक्षाविद ने अमेरिका की शिक्षा-व्यवस्था के उपर एक रिपोर्ट 
दिया है। वह रिपोर्ट अत्यधिक सनसनी खेज है। अमेरिका में विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षा का कैसा अधोपतन हो गया है, उस विषय में विशेष रूप से विश्लेष्ण करने के बाद वे कहते हैं, कि यह शिक्षा विद्यार्थियों के मन को सही रूप से गढ़ने, या अच्छा चरित्र निर्माण करने के विषय में कोई सहायता नही कर पा रही है। वैसी शिक्षा देने के लिए क्या करना होगा ? उनका मन्तव्य है, कि शिक्षकों को अपना मन ठीक तरह से गढना होगा। 
स्वामीजी कहते हैं, यथार्थ शिक्षा क्या है ?  ' मन की शक्ति तथा उसके प्रवाह को थोड़ा संयम में रखने तथा उसको लाभप्रद बना लेने की क्षमता को ही शिक्षा कहते है। ' स्वामीजी ने शिक्षा को कई प्रकार परिभाषित किया है, किन्तु एक स्थान पर जिस ढंग से परिभाषित किया है, वह बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है, वे कहते हैं- 
" शिक्षा क्या है? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी 
नहीं। जिस संयम (या मनः संयोग के अभ्यास) के द्वारा, ईच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है वह फलदायक होता है, - उसे शिक्षा कहते हैं।" 
ऐसी शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद- मनुष्य जो कुछ भी चाहे उसे प्राप्त कर सकता है, अथवा जब जी चाहे वह किसी वस्तु का त्याग भी कर सकता है। ऐसी ईच्छा हो रही है, कि यह कार्य करूँगा, उसे कारगर बना लेने से, वह हो सकेगा- इस प्रकार से निश्चय करके वह सब कुछ पर विजय प्राप्त कर सकता है। 
 मन की ईच्छाओं को परिष्कृत कर, उसे प्रभावी बना लेने से उसके द्वारा- अति सामान्य कार्य से लेकर बहुत बड़े बड़े कार्यों को भी बड़े सुंदर ढंग से सम्पन्न किया जा सकता है। अगर ऐसा संभव हो जाता है, तो उसका आधार क्या है? यही ईच्छाशक्ति !
किन्तु यदि शिक्षक के भीतर ही ऐसी दृढ इच्छा-शक्ति न हो, तो इसका कार्य नहीं हो सकेगा, छात्रों को भी वैसी शिक्षा नहीं दे सकेगा। यदि गुरु का जीवन स्वयं पवित्र न हो, प्रभावशाली या आकर्षक न हो, वे स्वयं यदि उत्तम चरित्र के अधिकारी न हों, तो छात्रों के जीवन में भी ये सारे भाव संचारित नहीं हो सकते हैं।अभी शिक्षा के विषय में भीतर से निकलने वाले जिस आह्वान के उपर चर्चा हो रही थी, वैसा प्रभाव केवल लेक्चर देने से नहीं पड़ता, बल्कि शिक्षक (या नेता) के जीवन का प्रभाव पड़ता है।
 शुद्ध जीवन ही किसी अन्य के जीवन में उस जीवन के सौन्दर्य को प्रस्फुटित कर सकता है।
 अतः शिक्षा प्रदान करने का उपाय है, शिक्षा के अर्थ को हृदयंगम करके अपने जीवन को उत्कृष्ट बना लेना, तथा अपने जीवन से एक अन्य जीवन के दीप को प्रज्ज्वलित कर देना। मेरे जीवन की ऊष्मा ही किसी अन्य के जीवन में ऊष्मा का संचार कर सकती है। इसीलिए पहले मेरे जीवन में उस ऊष्मा (उद्दीपन -fervor) की उत्पति होनी चाहिए, जिसे मैं दूसरों में संचारित करूँगा, वैसा नहीं होने से शिक्षा नहीं दी जा सकती है. 
हमलोग कभी कभी कहते हैं- श्रीरामकृष्ण के जैसे शिक्षक इस जगत में नहीं हैं, स्वामी विवेकानन्द जैसे शिक्षक जगत में नहीं हैं, थोड़ा विचार करके देखने से पाएंगे कि यह बिल्कुल सच्ची बात है. उन्होंने मनुष्यों को वास्तविक शिक्षा दी है. वे शिक्षा कैसे देते थे ? उनका जीवन पवित्रता की अग्नि से उष्ण हो चूका था, इसीलिए वे अपनी उष्णता को दूसरों के जीवन में संचारित कर सकते थे। इस प्रकार सच्ची शिक्षा प्रदान करने के उपाय के विषय में मूल सिद्धान्त यही है. 
(जो शिक्षा देंगे उनका अपना जीवन किसी आदर्श-गुरु के साँचे में गठित होना चाहिये। उनको अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान रहना चाहिए। उनमें इतनी समझ होनी चाहिये कि माँ अन्नपूर्णा ने इस जगत को शिक्षा देने के लिये ही बनाया है।  शिव तो शव हैं, माँ ही विभिन्न रूपों में प्रकट होकर आचार्य शंकर को शक्ति के राज्य की महिमा बतलाती रहती थीं।  यथार्थ गुरु तो माँ ही हैं, बाकी के मनुष्य-शरीर धारी गुरु उनके केवल यंत्र मात्र हैं। माँ ही एक मात्र गुरु हैं, वे यदि मेरी जिह्वा पर बैठकर दूसरों को जगा दें तभी कोई जाग सकता है।   स्वयं को (अपने नाम-रूप को ) कभी गुरु समझने के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये; सबसे बड़ा अज्ञान या बंधन यही है। इस ' तारा-माँ के पुत्र को, दूसरे तारा-माँ के पुत्रों ' का बंधन काटने का अवसर महामण्डल कर्मियों को प्रदान करके केवल अपने हृदय को विस्तृत करने का अवसर मिलना हमारा सौभाग्य है। जब तक यह शरीर है, हमलोग दोनों शिक्षा देने वाले गुरु और ग्रहण करने वाले शिष्य जगदम्बा के राज्य में हैं, इसलिये जो ग्रहण करने वाला है, वही श्रेष्ठ है, गुरु को शिक्षा देने का सौभाग्य माँ ने इसीलिये दया है कि शिक्षा दाता गुरु का आसन ग्रहण कर अपने स्वरुप में स्थित रहकर सदैव जगत को ब्रह्मरूप में दर्शन कर सके। 
क्योंकि ब्रह्म ही जगत बने हैं, वास्तव में शिष्य नहीं बने हैं, शिष्य बन कर मुझे अपना हृदय विस्तार करने का अवसर दिये हैं।  
 किसी ' अव्यक्त ब्रह्म ' को  अपना भाई या रिश्तेदार समझने वाला, तो स्वयं मोहग्रस्त है, वह दूसरे का बंधन कैसे खोल सकता है ? मेरा कौन है ? सबकुछ और सबकोई माँ का है, फिर मुझे किसी को अपना और दूसरे को पराया समझने का क्या अधिकार है ? ईश्वर ने (माँ ने) ही उस गुरु को जिन नाते रिश्तेदारों के साथ एक ही छत के नीचे रख दिया हो, उनको भी भाई,बहन या पत्नी की दृष्टि से न देखकर साक्षात् ' शिव-पार्वती ' के रूप में देखना होगा; जो उस गुरु को पूर्णता प्रदान करने के लिये स्वयं अज्ञानी या चरित्र-हीन होने का नाटक कर रहे हैं। )   

सर्वोच्च देश-सेवा क्या है ?[***34] परिप्रश्नेन

३४.प्रश्न : देश की सेवा हमलोग किस प्रकार से कर सकते हैं ?
उत्तर : देश के नागरिकों में, विशेषरूप से युवा-वर्ग में ' Correct-Outlook ' या सही-दृष्टिकोण 
संचारित कर देने से बढ़कर अन्य कोई देश-सेवा नहीं हो सकती है। उनको यह समझा देना होगा, कि देखो तुम लोग किन परिस्थितियों से घिरे हुए हो? देखो, तुम्हारे भीतर कितनी अमूल्य सत्ता है ! और वह अनमोल वस्तु प्रकार धुल-कीचड़ से सनी हुई है ! उसके रहते हुए भी, तुमलोग कैसे ठगे जा रहे हो ! देखो, तुमलोग कैसे सताये जा रहे हो !
देखो भाईयों, जिस प्रकार तुम महामण्डल से जुड़ने के बाद, स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मानकर और उनकी छवी (Image) के उपर अपने मन को एकाग्र करना सीखकर,अपने सच्चे स्वरूप को  समझ गये हो, उसी प्रकार जो भाई अभीतक मनःसंयोग करना नहीं सीखे हैं, वे भी स्वरूपतः
आत्मा ही हैं; किन्तु उनको अभी तक इस सच्चाई का बोध नहीं है।
 क्योंकि वर्तमान शिक्षा-पद्धति में मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव (3H)- ' शरीर-मन और हृदय ' को विकसित कर यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा नहीं दी जाती है, इसीलिये वे तुम्हारी तरह अपने सच्चे स्वरूप को नहीं समझ सके हैं।
इसीलिये पढ़-लिख कर उच्च पदों पर आसीन होने से भी, वे चरित्र-भ्रष्ट होकर अपने देशवासियों को ही लूट रहे हैं। क्योंकि वे नहीं जानते कि प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! मनुष्य ही जाग्रत देवता है, यह मानव-शरीर ही देवालय है, इसमें बैठे शिव को अनदेखा करके वे, हर सावन में जल चढ़ाने देवघर तो जाते हैं, किन्तु जिन भाइयों को पीने के लिए स्वच्छ पानी भी नहीं मिलता उसके बारे में सोचकर उनका हृदय द्रवित नहीं होता है।
 वे उनको आइसक्रीम खाने और पन्द्रह रूपये बोतल पानी पीने की सलाह देते हैं, जिनके पास दाल-सब्जी खरीदने की भी ताकत नहीं है। हमारे नेता इतने हृदयहीन कैसे बन गये हैं? क्योंकि उन बेचारों के पास स्वामी विवेकानन्द को जानने समझने का समय ही नहीं है। जैसा विवेकानन्द कहते थे- ' जब सिर ही नहीं है, तो सिर-दर्द कैसा ? समझदार जनता कहाँ है ? इसीलिये कल की आशा युवावर्ग के बीच कार्य करो, उनको ही संगठित करके - हृदय का विस्तार करने वाली शिक्षा प्रदान करो।   
उसी सर्वव्यापी सत्ता को सर्वत्र देखते हुए- किसी के साथ दुश्मनी मत रखो, किसी के प्रति दुर्भावना मत रखो, किसी की भी हिंसा मत करो, किसी को नुकसान पहुँचाने की बात भी मत सोचो, तुम्हें अपनी उन्नति के लिए किसी के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना होगा।
अपनी उन्नति के लिए तुम्हें किसी के विरुद्ध हथियार उठाने की जरुरत नहीं है, कोई हिंसा नहीं करनी है, कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखानी है।तुम्हें स्वयं क्रिया करनी होगी, प्रतिक्रिया दिखाने से कोई लाभ नहीं होगा। अपनी ओर से कार्य करो,तुम अपनी सत्ता को विकसित करने की चेष्टा करो।  स्वयं 
क्रियाशील होने की आवश्यकता है, आत्म-विकास के लिए प्रयत्न करने की जरूरत है। 
 तथा एकमात्र श्रेष्ठ कार्य है- अपने मनुष्यत्व को, निद्रित मनुष्यत्व को जाग्रत कर लेना।  इसी से देश का कल्याण हो सकता है। प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो ' मनुष्यत्व ' सोया हुआ है, उसको जाग्रत करने के कार्य में जुट जाओ ! इससे भी बढ़ कर और कोई देश-सेवा नहीं हो सकती है.
इसके बाद इसे करते समय कई कार्य आँखों के सामने दिखाई पड़ने लगेंगे, जितना तुमसे संभव होगा, दूसरों की उतनी ही सेवा करोगे। किसी व्यक्ति को खाने के लिए कुछ भी नहीं है, उसको एक दीन का भोजन करा देना।किसी के बदन पर एक वस्त्र भी नहीं है, उसको एक वस्त्र दे देना। कोई गरीब व्यक्ति अस्पताल में जाकर अपना इलाज नहीं करा पा रहा है, उसको कम से कम होमियोपैथी की दवा दे देना।  इसी तरह के कार्य कर सकते हो। 
किन्तु यह सब सेवा नहीं- सेवा के खेल हैं, यह कोई सच्ची सेवा नहीं है। क्योंकि उस समाज-सेवा का  अंततोगत्वा कोई विशेष मूल्य नहीं रह जाता, यदि वह प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सत्ता अन्तर्निहित है, उस दिव्यता को, अंतरस्थ मनुष्य को, उसके ' पाका आमी ' या यथार्थ ' मैं ' को जाग्रत न करा सके। इस प्रकार की छोटी छोटी सेवाओं के द्वारा मनुष्यों के दुःख को कभी दूर नहीं किया जा सकता है।  इस सच्चाई को स्मरण रखते हुए भी, जब ऐसी सेवा का खेल अपने-आप कभी किसी के सिर पर थोप दिया जाये, तो उस समय वह सेवा-सेवा का खेल, खेल भी सकते है, उससे कोई हर्ज नहीं होगा।
किन्तु ' सेवा का खेल ' दिखाते रहने से देश का यथार्थ कल्याण नहीं हो सकता है। ऐसी सेवा से बहुत घुमा-फिरा कर एक दूसरे प्रकार का कार्य जरुर सिद्ध हो जाता है। ऐसी सेवा में लगे बहुत से लोग यह सोचेंगे-हमलोगों ने तो देश-सेवा में कमाल कर दिया है, देखो हमने ५०० कम्बल या १००० मच्छड़दानी बाँट दिया है, १०० गरीबों को मोतियाबिंद का आपरेशन करवा दिया है ! (या आजकल के 'बाबा-उद्द्योग ' में बुला कर मोटी मोटी सेठानियों को राधे-राधे का फूहड़ डांस करवा दिया है ! वाह रे मैं ! )
किन्तु इन सब कार्यों के द्वारा वास्तविक सेवा नहीं हो सकती है।उनके भीतर जो मनुष्यत्व है, उसको जाग्रत करने की चेष्टा नहीं करने से, जो मनुष्य अपनी अन्तर्निहित सत्ता के प्रति अचेत हैं, वे उसी बेहोशी की दशा में पड़े रह जायेंगे।
इसीलिए यदि आवश्यक प्रतीत हो, तो हमें अभी इस प्रकार की सेवा के खेल की उपेक्षा करके, मनुष्यों 
की  वास्तविक सेवा की ओर ध्यान देना उचित है। वही सेवा यथार्थ देश-सेवा है, जिससे मनुष्य के भीतर की अंतरात्मा, उसका सच्चा ' मैं ' जाग उठे, ताकि वह अपनी सत्ता को और अधिक विकसित कर सके, अपने हृदय को और अधिक विशाल बना सके। जिस सेवा को प्राप्त करके उसका शरीर और मन स्वस्थ-सबल हो जाये, वह आत्मनिर्भर बन जाये. वह सेवा ही करनीय है।
यही सबसे बड़ी देश-सेवा है। और हममें से प्रत्येक व्यक्ति को, विशेष तौर से जिनकी उम्र अभी कम है, जो छात्र हैं, इस सेवा का प्रारंभ- अपने से ही करना है।  अपने जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ लेना- सबसे बड़ी समाज-सेवा है!
 ऐसा नहीं सोचना चाहिए, कि मैं तो एक छोटा सा छात्र हूँ, किशोर या युवा हूँ- मैं अभी ही देश की कितनी सेवा कर सकता हूँ ? हमलोगों को यही सोचना चाहिए, कि मैं भी अपने देश का ' एक बटा एक सौ कड़ोड़वाँ ' हिस्सा हूँ, मैं आत्म-विकास करके अपने देश की सेवा अवश्य कर सकता हूँ।
मैं अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित कर रहा हूँ, मेरे अपने भोग के लिए नहीं, बल्कि अपने सुन्दर देश के लिए, अपनी सुन्दर मातृभूमि को और सुन्दर बनाने के लिए मैं अपने चरित्र को सुन्दर ढंग से गढ़ रहा हूँ। उस देश के एक सुन्दर नागरिक को मैं अपने हाथों से इस प्रकार गढ़ लिया हूँ, जिस प्रकार कोई मूर्तिकार अपने हाथों से मूर्ति गढ़ते समय, मिट्टी को धीरे धीरे एक सुन्दर आकर में ढाल कर एक शानदार, विस्मयकारी मूर्ति बना लेता है। उसी प्रकार मैं भी अपने आप को यदि धीरे धीरे एक सुन्दर मनुष्य के रूप में गढ़ लिया हो, तो उससे बड़ी देश-सेवा और कुछ भी नहीं हो सकती है।

अपना सुंदर चरित्र गठन कर लेना ही सबसे बड़ी समाज सेवा है।[33] परिप्रश्नेन

३३.प्रश्न : हम जैसे युवाओं के लिए समाज कल्याण-मूलक बहुत से कार्यों को करने की जरूरत है। इन 
कार्य को हम सभी युवा संघबद्ध होकर कर सकते हैं, किन्तु इन सब कार्यों को करने के लिए धन की भी आवश्यकता है। अभी देश की जो आर्थिक स्थिति है, उसमें रहते हुए हम धन कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
उत्तर : समाज के कल्याण के लिए अनेको कार्य किये जा सकते हैं, किन्तु इस विषय के उपर हमलोग ज्यादा माथापच्ची नहीं करते हैं। समाज कल्याण-मूलक कार्य कहने से तुम क्या समझते हो, पता नहीं चलता है। 
' समाज कल्याण-मूलक ' कार्य करने का अर्थ आमतौर पर हमलोग - सड़क की सफाई करना, कोई दातव्य औषधालय खोलना, या निःशुल्क कोचिंग क्लास चलाना, कोई स्कूल खोल देना, कहीं बाढ़ आ गया, या कहीं भूकम्प से जान-माल की क्षति हो गयी हो तो वहाँ पहुँच कर रिलीफ वर्क में हिस्सा लेना इत्यादि कार्यों को हमलोग समाज कल्याण-मूलक कार्य समझते हैं। ये सभी अच्छे कार्य हैं, मौका पड़ने से हमलोग भी इन कार्यों को करते हैं। किन्तु इन्हीं कार्यों को सबसे मूल्यवान समाज कल्याण-मूलक कार्य समझ कर नहीं करते हैं। 
स्वामीजी की शिक्षा के अनुसार हमलोग भी यह मानते हैं, कि सर्वाधिक मूल्यवान समाज-सेवा है- मनुष्य के जीवन का निर्माण करना। इसी कार्य को हमलोग सबसे विलक्ष्ण और सर्वाधिक आवश्यक समाज-सेवा का कार्य समझते हैं, जिससे उनका जीवन, उनका चरित्र सही रूप में गठित हो सके।
युवाओं का चरित्र यदि सुन्दर रूप में गठित हो जाये, उनका जीवन यदि एक योग्य नागरिक के रूप में गठित हो जाये, तो वे लोग स्वाभाविक रूप से ही देश से प्रेम करेंगे, देशवासियों को प्रेम करेगें, देश के मनुष्यों के दुःख को देखने से उनके हृदय में सहानुभूति जाग्रत होगी, तब वे स्वाभाविक रूप से देश के मनुष्यों के दुःख को दूर करने के लिए अपनी सीमित क्षमता के अनुरूप जितना संभव होगा उतना प्रयत्न करेंगे।
इसीलिए, सबसे पहले से रुपया इकट्ठा करना होगा, उसके बाद समाज कल्याण-मूलक कार्य करना चाहिए - इस बात को हमलोग स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा के आलोक में, बिलकुल गलत समझते हैं। हमलोग यह मानते हैं,कि हमारा प्रथम कर्तव्य है- अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित करना, अपने चरित्र का 
निर्माण करना। और इसके लिए रूपये की कोई समस्या अभी दिखाई नहीं देती है। अपना जीवन गठित कर लेने के बाद हमलोगों का जितना सामर्थ्य होगा, मनुष्य के यथार्थ कल्याण के लिए उतना कार्य हम अवश्य कर सकते हैं। 
क्योंकि सबों का कल्याण इस बात पर निर्भर करता है, कि मैंने स्वयं अपने चरित्र को या अपने जीवन को कितना गठित कर लिया है ? यदि अपने चरित्र को गठित किये बिना ही, मैं समाज कल्याण के कार्य करने लगूँ, फिर जैसा आज हजारों-हजार सामाजिक संगठन कर भी रहे हैं- ढेर सारा धन एकत्र कर लूँ, तो वैसा करना केवल राख़ में घी डालने जैसी समाज-सेवा बन कर रह जाएगी। उससे देश को हानी भी उठानी पड़ेगी। इसका कारण यह है, कि जिस संगठन में सदस्यों का चरित्र-निर्माण होने के पहले ही बहुत धन प्राप्त हो जाता है, वहाँ सामान्यतः चरित्र-भ्रष्ट होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
 उस प्रकार की समाज सेवा से बहुत से लोगों में अहंकार सीमा से बहुत अधिक बढ़ जाता है, तथा भ्रष्ट तरीके अपनाने से इनके चरित्र में भी गिरावट आ जाती है। इसीलिए बहुत सा धन इकट्ठा करके समाज-कल्याण करने का अर्थ ही अच्छा कार्य हो, ऐसी कोई बात नहीं है। स्वामीजी भी वैसा नहीं करना चाहते थे. हमारा प्रथम कार्य है, जीवन गठन- अपना सुंदर चरित्र गठन कर लेना ही सबसे बड़ी समाज सेवा है। 

उर्जा का सदुपयोग कैसे करें?[32]परिप्रश्नेन

३२.प्रश्न : हमलोग अपनी अन्तर्निहित असीम शक्ति को अपने दैनंदिन जीवन में किस प्रकार प्रयुक्त कर सकते हैं ?
उत्तर : उसी प्रकार प्रयोग करेंगे, जिस प्रकार हमलोग सर्वदा उसे अपने समस्त क्रिया-कलाप में प्रयोग कर रहे हैं. क्या हमलोग अपनी शक्ति को प्रयुक्त किये बिना एक क्षण भी जीवित रह सकते हैं ? हमलोग सो रहे हैं, जागे हुए हैं, विभिन्न प्रकार के कार्यों को कर रहे हैं, विद्या अर्जित कर रहे हैं, अर्थ उपार्जन कर रहे हैं, विभिन्न प्रकार के भोगों को भोग रहे हैं,जीवन में जो कुछ भी कर रहे हैं, वह सब हम अपनी शक्ति 
का व्यवहार करके ही कर रहे हैं। क्योंकि बिना शक्ति को खर्च किये कोई कार्य नहीं किया जा सकता है; विज्ञान के छात्र इस बात को आसानी से समझ सकते हैं।
इसी लिए हमलोग अपने जीवन में जो कुछ भी कर रहे हैं, उसमें किसी न किसी प्रकार से शक्ति खर्च हो ही 
रही है, किसी शक्ति का क्षय हो रहा है।शक्ति को सर्वदा ही हमलोग किसी न किसी क्रिया-कलाप में खर्च करते ही रहते हैं। तो कुछ लोग सोच सकते हैं, कि हमलोगों के लिये इसमें सीखने जैसी की क्या बात है ?  

हमें यही सीखना है, कि हमें अपनी शक्ति किस कार्य में खर्च करनी चाहिए, और किस कार्य में कितनी शक्ति खर्च करनी चाहिए? इसी औचित्य-बोध या विवेक-विचार का प्रयोग कैसे किया जाता है, इसी को सीखना 
होगा। इसके साथ साथ यह कौशल भी सीखना होगा कि कैसे मैं अपनी शक्ति को और अधिक प्रकट कर सकता हूँ, तथा शक्ति को और अधिक कैसे बढ़ा सकता हूँ ? 
 [ " दाद को खुजलाने समय तो आराम मालूम होता है पर बाद में उस जगह असह्य जलन होने लगती है। संसार के भोग भी ऐसे ही हैं, शुरू-शुरू में तो वे बड़े ही सुखप्रद मालूम होते हैं परन्तु बाद में उनका परिणाम अत्यन्त भयंकर और दुःख मय होता है। " ॐ तत सत ]
शक्ति को वास्तव में बढ़ाया नहीं जा सकता है। इसका रूपांतरण हो जाता है। हमलोग जो बीच बीच में कहते हैं- विदुत का निर्माण हो रहा है. क्या विद्युत् का निर्माण किया जाता है ? नहीं, इसका निर्माण नहीं किया जाता. किसी पहाड़ी झरने के मुख को खोल देने जैसा. झरने का स्रोत है, उसका प्रवाह कहीं से भी फूट सकता है, केवल उसके मुख को खोल देने की जरूरत है। 
उसी तरह हमारी शक्ति बाँधा नहीं जा सकता, हमारे भीतर में अनन्त शक्ति का स्रोत है, केवल उसके प्रस्रवण के द्वार को खोल देना है। जैसे ही हम उस द्वार को ( अहम् को) खोल देंगे, शक्ति का झरना फूट पड़ेगा. 
शक्ति को कैसे बढ़ाया जा सकता है, का अर्थ हुआ यह जान लेना कि उस प्रवाह के द्वार को किस प्रकार चौड़ा करके खोला जा सकता है? 
फिर भी यह ध्यान रखना होगा, कि उसको खोल देने पर वह कहीं अपनी इच्छा से सबकुछ को बहाती हुई न निकल जाये? इसीलिए उस शक्ति को खीँच कर बाहर प्रवाहित कराने के साथ साथ, उसको नष्ट होने से बचा कर रखना, तथा उसको औचित्य-बोध की सहायता से विवेक-विचार करके किसी विशिष्ट कार्य में कैसे नियोजित किया जाय? उर्जा का सदुपयोग कैसे करें,यही सीखने की आवश्यकता है। परिप्रश्नेन 

शनिवार, 26 मई 2012

जीवन में कोई बहुत बड़ा आदर्श अवश्य रखो ! [31] परिप्रश्नेन

३१.प्रश्न : ' सच्ची-शिक्षा ' किस प्रकार अर्जित की जा सकती है ?
उत्तर : चिन्तन-मनन के द्वारा पहले यह समझने की चेष्टा करनी होगी, कि शिक्षा कहते किसे हैं ? (क्या डिग्री लेने को ?) स्कुल -कॉलेज में दी जाने वाली शिक्षा तथा सच्ची शिक्षा या चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा में अंतर को समझने के बाद, सच्ची शिक्षा प्राप्त करने के उपाय (अपने भीतर से ज्ञान को प्रकट करने की विधि) को जान लेना चाहिए।
फिर दृढ संकल्प एवं धैर्य के साथ अध्यवसायपूर्वक उसको प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिए सर्वप्रथम जीवन में पवित्रता  (मन की पवित्रता और दृष्टि की पवित्रता ) होनी चाहिए, यदि हमलोगों का जीवन पवित्र न बन सके, तो सूक्ष्म वस्तुओं को समझा नहीं जा सकता, तृप्त नहीं हुआ जा सकता है, किसी भी कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है। फिर उसके साथ साथ धैर्य और अध्यवसाय भी जरुरी है।
""""""धैर्य, अध्यवसाय एवं उसके साथ पवित्र जीवन (3P) " की सहायता से हमलोग जो कुछ भी पाने का प्रयत्न करेंगे- उसमें हमलोग अवश्य ही सफल होंगे. सच्ची शिक्षा का अर्थ क्या है ?

[ " जो व्यक्ति, सब की दृष्टि से दूर एकान्त में भी ' भगवान देख रहे हैं ! ' - इस भय से कोई अधर्म-आचरण नहीं करता, वही यथार्थ धार्मिक है। निर्जन वन में सुन्दर नवयुवती को अकेली देखकर भी जो धर्म के भय से भीत होकर उस पर कुदृष्टि नहीं डालता, वही यथार्थ धार्मिक है।...जो केवल लोगों को दिखने के लिये या ' लोग क्या कहेंगे ' इस भय से सिर्फ लोगों के सामने धर्म का अनुष्ठान करता है, उसे ठीक-ठीक धार्मिक नहीं कहा जा सकता। निर्जन,नीरव में अनुष्ठित होने वाला धर्म ही यथार्थ धर्म है, भीड़-भाड़ और कोलाहल में अनुष्ठित होनेवाला धर्म- ' धर्म ' नहीं।" ॐ तत सत {सच्ची शिक्षा और धर्म में कोई अंतर नहीं है- गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण के बाद, दक्षिणा देने के के लिये गुरु ने सभी शिष्यों को एक--एक कबूतर देकर कहा था, ' निर्जन में जाकर इसका गला काट कर ले आना। एक शिष्य ने आ कर कहा, निर्जन मिला ही नहीं हर जगह भगवान देख रहे थे। '  } ]
 जिस शिक्षा को प्राप्त करके जीवन सही रूप में विकसित हो, जीवन सुन्दर रूप में गठित हो जाये- इसे जान लेना ही वास्तविक शिक्षा है।  सच्ची शिक्षा वह शिक्षा है, जिससे जीवन सर्वोत्कृष्ट रूप में निर्मित हो जाये, जीवन पूर्ण हो जाये। जैसे श्रीरामकृष्ण के जीवन को देखो- वहाँ शिक्षा की सम्पूर्ण पराकाष्ठ है ! ओहो, कैसा सुन्दर जीवन है ! अपनी कल्पना में ऐसे पूर्ण जीवन को आदर्श के रूप में सामने रखो। 
तुम बहुत अधिक पढ़-लिख लिए, कई पुस्तकों को कंठस्थ कर लिए,- प्रकृत शिक्षा या वास्तविक शिक्षा के उपर प्रश्न पूछा गया, लिख कर पास हो गये, किन्तु वास्तविक शिक्षा क्या है ? उससे थोडा भी परिचय नहीं हो सका। किन्तु भगवान श्रीरामकृष्ण देव के चित्र को देख कर, ठाकुर-देव के जीवन की बातों पर चिन्तन करो. कैसा असाधारण जीवन था-इसी को कहते हैं, शिक्षा !अच्छा सोचो, वास्तविक शिक्षा प्राप्त हो जाने पर कोई व्यक्ति कैसा हो जाता है ?
 मैक्स मुलर ने कहा था, स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है - " इनके (श्रीरामकृष्ण के ) भीतर केवल भगवान ही हैं, मनुष्य सम्पूर्ण रूप से मर चूका है ! "  किंतनी अनुपम उक्ति है. ' मनुष्य मर चूका  है।'- इसका अर्थ क्या हुआ ? सामान्य मनुष्यों में जो संकीर्णता, दीनता और दरिद्रता रहती है, उसका पूर्ण अवसान हो चूका है।  
 सामान्य मनुष्य कितना दीन होता है ! कितना बेवश होता है. केवल आर्थिक रूप से गरीब व्यक्ति को ही दीन नहीं कहते, मन से भी कोई व्यक्ति अति दीन होता है, यदि उसका मन अति संकीर्ण हो, केवल कामना-वासना का दास हो, केवल बाहरी-आन्तरिक प्रकृति का दासत्व करता हो, जगत का दास हो, यह भी दीनता है, दरीद्रता है।
स्वामीजी ने कहा है न - ' हमलोग जगत के दास हैं, प्रकृति के दास हैं, जीवन के दास हैं, एक मधुर वाणी के दास  हैं, एक अपशब्द के गुलाम हैं, हमलोग अति हीन हो चुके हैं। इस हीन अवस्था को त्याग कर अपनी महिमा में उन्नत हो जाना होगा। ' वह क्या है ? यही कि समस्त प्रकार की गुलामी के बन्धनों से अपने को मुक्त कर लेना होगा। मैं किसी भी बाहरी व्यक्ति या परिस्थिति के द्वारा संचालित नहीं होता हूँ, मैं 
अपने ' स्वभाव ' के अनुसार चलता हूँ, मेरे भीतर जो मेरा भाव है, ' स्व-भाव '- जिसको ठाकुर देव
 ' पाका आमी ' या वास्तविक ' मैं ' कहते थे, उस ' मैं ' को मैंने प्रस्फुटित कर लिया है। 
 वैसा हो जाने से ही हमलोग सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं. ठाकुर-माँ- स्वामीजी का जीवन और उपदेश, अर्थात हमारा वही सनातन आदर्श, हमारी अपनी सनातन संस्कृति की जो भावधारा है- उसी चिरन्तन प्रवाह में स्नान कर लेना होगा। वैसा करने में सक्षम होने से ही हमलोग वास्तविक शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। हमें ठाकुर-माँ-स्वामीजी के रूप को ही हमेशा ध्यान में रखना होगा, उन्हीं के जैसा बनना होगा, उन्हीं के साँचे में अपने को ढालना होगा- वे ही हमारे आदर्श हैं !
 " The ideal if reached or not- makes great the life. "  
कोई बहुत बड़ा आदर्श (या लक्ष्य) अपने सामने रखना चाहिए-हो सकता है, या मान लो मैं वहाँ तक पहुँच नहीं सका, और जीवन की शाम हो आई- किन्तु किसी आदर्श-जीवन को अपने सामने रखने से क्या होता है ? हमलोग क्रमशः थोड़ा आगे तो अवश्य बढ़ जाते हैं। जीवन में कोई बहुत बड़ा आदर्श अवश्य रखो !
 सच्ची शिक्षा को प्राप्त करके जिस सुन्दर जीवन को गठित करने की बात कह रहे हो, उस वास्तविक शिक्षा को प्राप्त करने के लिए, पहले अपने जीवन्त आदर्श के रूप में ठाकुर-माँ-स्वामीजी को अपने सामने रखो। उसके बाद हमलोगों में से जो जितना आगे बढ़ सकता हो, उसके लिए प्रयत्न करता रहे !  
सच्ची शिक्षा मनुष्य को श्रीरामकृष्णदेव बना सकती है।परिप्रश्नेन  

चरित्र के गुणों का आत्मसातीकरण कैसे करें ? [30] परिप्रश्नेन

३०.प्रश्न : यदि यह बात सत्य है, कि सभी मनुष्यों में अच्छे-बुरे गुण सम-भाव से विद्यमान रहते हैं;  तो अच्छे-बुरे गुणों की अभ्व्यक्ति में तारतम्य क्यों रहता है ?
उत्तर :  तुमने यह बात कैसे सोचा या कहाँ पढ़ा है, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. सभी मनुष्यों में अच्छे और बुरे गुण सम-भाव में तो विद्यमान नहीं रहते हैं। किसी व्यक्ति में अच्छे गुण अधिक होते हैं, किसी व्यक्ति में बुरे गुण अधिक होते हैं। यह हो सकता है कि किसी व्यक्ति में जैसे अच्छे गुण हों, वैसे ही उसमें कुछ बुरे गुण भी स्पष्ट दिख सकते है। किन्तु यह स्वाभाविक नहीं है। हाँ स्वाभाविक रूप से गुणों में तारतम्य तो रहता ही है। 
अभिव्यक्ति में तारतम्य क्यों होता है ?
 वह इसीलिए होता है, कि तुम जिस गुण को अधिक प्रश्रय दोगे, वही गुण तुम्हारे भीतर से अधिक अभिव्यक्त होगा। यदि तुम अच्छे गुणों (पवित्रता--धैर्य--अध्यवसाय ) से अधिक प्रेम करो, एवं अभ्यास द्वारा जीवन में 
उतारने की चेष्टा करते रहो, तो उन्हीं गुणों की अभिव्यक्ति अधिक होगी। उसी प्रकार यदि तुम्हारे भीतर जो बुरे गुण हैं, उनको यदि अधिक प्रश्रय दो, तथा उसी गुण के द्वारा संचालित होकर बीच बीच में वैसे कार्य करते रहोगे तो उसकी अधिक अभिव्यक्ति होगी।  इसीलिए गुणों की अभिव्यक्ति तुम्हारे व्यक्तिगत विवेक-प्रयोग क्षमता के उपर निर्भर करती है। 
तुम अपनी बुद्धि से भले-बुरे में अन्तर के औचित्य-बोध को कितना व्यवहार में ला पाते हो, उस पर निर्भर 
करता है, कि तुम अपने भीतर अच्छे गुणों को बढ़ा पाओगे, या तुम्हारे भीतर बुरे गुण ही बढ़ते जायेंगे ? यह तुम्हारे व्यक्तिगत-विवेक के उपर निर्भर करता है।चरित्र के गुणों का आत्मसातीकरण विवेक-प्रयोग पर निर्भर है।  

परीक्षा की घड़ी में मानसिक संतुलन कैसे बनाये रखें ?[***29] परिप्रश्नेन

२९.प्रश्न : प्रचण्ड जीवन संग्राम के भीतर रहते हुए भी कैसे कोई मानसिक साम्य बनाये रख सकता है? 
उत्तर : वास्तविकता तो यह है कि मानसिक संतुलन खो देने से, या मानसिक-साम्य नहीं रख पाने से
जीवन-संग्राम को सफलतापुर्वक चला पाना ही संभव नहीं होता; अर्थात उसमें पराजय स्वीकार करनी पड़ती है. जिसके फलस्वरूप जीवन की अनन्त संभावनाएं प्रस्फुटित ही नहीं हो पाती, और जीवन विफल हो जाता है। किन्तु उससे भी अधिक हानिकारक बात यह होती है, कि जीवन के संबन्ध में एक भ्रान्त धारणा मन में बैठ जाती है। हमारे मन में स्थायी रूप से इस ' जगत एवं जीवन ' को लेकर - नैराश्य का एक काल्पनिक विषादपूर्ण और अन्धकारमय चित्र बैठ जाता है। 
यहाँ पर साधारण बोलचाल की भाषा में ' मानसिक साम्य ' कहने से जो समझते हैं, उसी अर्थ में इसके उपर चर्चा हो रही है. जब बिल्कुल अशांत परिवेश हो, या जान का जोखिम हो, या जब सबकुछ दाव पर लगा हुआ हो, उस समय भी, विवेक-विचार तथा तत्क्षण-करनीय निर्णय की क्षमता एवं तदानुसार कार्य कर पाने की शक्ति को प्रचलित भाषा में ' मानसिक साम्य ' कहते हैं। प्रचलित भाषा में इसीको अविचलता, मानसिक भार का संतुलन या ' मानसिक भारसाम्य (Load balance )' भी कहा जाता है। जब सबकुछ दाव पर लगा हो, उस समय भी मानसिक संतुलन बनाये रखते हुए उचित निर्णय लेने की क्षमता ही यथार्थ शिक्षा है।

किसी विशेष परिस्थिति में, जब अल्प सुचना के आधार पर, तेजी से,तत्क्षण कोई निर्णय लेना हो- 
उस समय यदि यह निर्णय न ले सकें, कि क्या करना है ? अथवा जब ऐसी परिस्थिति सामने उपस्थित
हो जिसमें-ऐसे कई महत्वपूर्ण कार्य सामने दिख रहे हों, जिन्हें तत्काल करना आवश्यक लगता हो, किन्तु यह सोच-विचार करके निश्चित करने का समय न हो,कि सबसे प्रथम किस कार्य को हाथ में
 लेने से अच्छा होगा, या तत्काल  क्या करने से अच्छा होगा ? 
जब अपना सबकुछ दाव पर लगा हो, उस समय भी अपना भला सोचने के साथ-साथ दूसरों के मंगल का भी ध्यान रखते हुए तत्क्षण उचित निर्णय लेने की क्षमता ही हमें अविचल रखती है।अथवा ऐसे असमंजस की 
स्थिति में जब हम कुछ भी तय नहीं कर पा रहे हों, कि किसी कार्य को अभी तुरन्त ही न करके, भविष्य पर छोड़ कर आगे बढ़ा जाये या नहीं ? तत्काल ही ऐसा निर्णय लेना हो,उस अवस्था में हमारे
 निर्णय-क्षमता का पलड़ा एक बार इस ओर झुकता है, किन्तु तुरन्त फिर मानो उस ओर झुकना चाहता है।
 इसीको 'किंकर्तव्यविमूढ़ ' अवस्था कहते हैं। 
(जैसे एकबार नारद जी अचानक बाढ़ में फंस कर तय नहीं कर पा रहे थे कि पहले बच्चे को बचाऊं या बीबी को ?) उस समय कहते हैं- मेरा मानसिक साम्य खो गया था।
किन्तु उस समय भी पुरे धैर्य के साथ, अपने यथार्थ मंगल के साथ-साथ दूसरों के मंगल की सम्भावना को 
भी  सूनिश्चित करते हुए- स्पष्टचिन्तन क्षमता की सहायता से, प्रत्येक परिस्थिति को ध्यान से समझकर एवं विश्लेष्ण करके, अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में तत्क्षण कोई दोषरहित निर्णय ले लेने की क्षमता रखना  आवश्यक है। 

यह नहीं रहने से जीवन-संग्राम में पराजय मिलना अनिवार्य है. इसीलिए जीवन-संग्राम में विजय को सुनिश्चित करने के लिए सदैव अपना मानसिक साम्य बनाये रखना बहुत आवश्यक है।
किन्तु,हर अवस्था में इस तत्काल-निर्णय लेने की क्षमता को हमलोग कैसे बनाये रख सकते हैं?
 जब तक जीवन में सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है - मोटे तौर पर जो कुछ पाना चाहता हूँ, वह सब जब तक मिलता रहता है, खाने-पहनने-रहने में जबतक कोई व्यवधान  नहीं हो रहा है, पारिवारिक सम्बन्धों में कोई जटिलता उत्पन्न नहीं हुई हो, किसी सदस्य को कोई खतरनाक बीमारी, या कोई आकस्मिक दुर्घटना से जब तक पाला नहीं पड़ा हो, तब तक हमारा मानसिक साम्य बना रहता है, - इस बात कोई विशेष मूल्य नहीं है। ऐसी अवस्था में मानसिक साम्य को जाँचने का अवसर आया ही नहीं है, इसीलिए वह गुण मुझमें है, या नहीं- क्या इसे सही रूप से बता नहीं सकते हैं।
 परीक्षा की घड़ी उपस्थित होते हुए भी यदि साम्य बना रहे तभी कहा जा सकता है,कि-मानसिक संतुलन 
बनाये रखने की क्षमता है, या भंग हो गयी है ?
यदि भंग हो गयी है, तो पुनः उसे कैसे बहाल किया जा 
सकता है ? किन्तु यदि पहले से ही यथोचित अभ्यास द्वारा - हमने अपने मन को धीर, एकाग्र, शांत, वशीभूत रखना नहीं सीख लिया हो, तो वैसे असमंजस की परिस्थिति में लाख उपाय करने से भी मन को साम्य की अवस्था रख पाना संभव नहीं होता है। परीक्षा की घड़ी में मानसिक संतुलन कैसे बनाये  रखें ?
यदि पहले से ही मुझे चप्पू चलाने का अभ्यास नहीं हो, और जब अचानक नदी में ज्वार आ जाय, उस समय यदि मैं अपने हाथों में पतवार संभाल लूँ, तो यात्री और नाव दोनों के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है।  जीवन-संग्राम में भी ठीक ऐसा ही होता है। इसीलिए जीवन-नौका में चढ़ने के पहले से ही यह समझ लेना होगा, कि नदी में तूफान कभी भी आ सकता है, ऊँची ऊँची लहरें उठ सकती हैं, नदी का प्रवाह अचानक तीव्र हो सकता है, नौका भँवर में फंस भी सकती है।  उस अवस्था में क्या करना होगा- कैसे उस भँवर से बचा कर नौका को बाहर निकला जा सकता है ? यह सब कौशल समय रहते सीख लेना हमारा कर्तव्य है, वरना जीवन नदी के बीच भँवर में डूब मरने की आशंका बनी रहती है।
हम इस कौशल को कैसे सीख सकते हैं ? यदि हमलोग जीवन-संग्राम में विजयी होना चाहते हों, अर्थात प्रकृति या परिवेश के उपर विजय प्राप्त करने के इच्छुक हों, तथा अपने जीवन-पूष्प को प्रस्फुटित करके अपने चारों दिशाओं को भी आनंदित रखना चाहते हों, तो हमें युवाकाल में ही जीवन को सुंदर रूप में गढ़ने की तकनीक सीख लेनी चाहिये। 
ताकि अचानक किसी तूफान में पड़ने से हमारी जीवन-नौका एकतरफा झुक ही न सके, इसके लिए सबसे पहले जीवन में पवित्रता आनी चाहिये। काम वासना की प्रचण्डता एवं भोग-इच्छाओं  को पूर्ण करने के उतावलेपन को क्रमशः नियंत्रित करते रहना चाहिये। हिंसा-द्वेष-घृणा को दूर से ही त्याग देना चाहिए एवं भोगों को एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ने देना चाहिए। 
इसके लिए -मन की गति को ध्यान से देखते रहना होगा, एवं नियमित अभ्यास के द्वारा उसको नियन्त्रण में रखते हुए, धीरे धीरे उसको अपने पूर्ण नियंत्रण में ले आना होगा। महामंडल द्वारा प्रकाशित
 पुस्तिका ' मनः संयोग ' इस विषय में सहायक हो सकती है. मन के उपर जैसे जैसे नियन्त्रण बढ़ता जायेगा, क्रमशः मन उतना ही धीर, शान्त और बलिष्ठ बनता जायेगा।  तब वह बाहरी पेरिवेश के दबाव में आकर बात बात पर विचलित नहीं हो सकेगा। 
 उसी वशीभूत मन रूपी सुदृढ़ पतवार के द्वारा, जीवन-नदी की  उत्ताल तरंगों को चीरते हुए, आँधी-तूफान
 के भँवर में जीवन-नौका को फंसने से बचते-बचाते, दूसरे किनारे के ठोस धरातल पर उतरा जा सकता है।  उस समय नदी में  तैरते हुए, ऊँची ऊँची लहरों को काबू में रखना एक मनोरंजक खेल में परिणत हो जाता 
है। मानसिक सन्तुल या साम्य बनाये रखने की क्षमता या अपनी ' यथार्थ-शिक्षा ' को परखने का अवसर, 
उसी समय  मिलता है, जिस समय जीवन-नदी में उत्ताल तरंगे उठ रही होती है।  यह बात ' मानसिक साम्य ' 
के किस अर्थ को सामने रख कर कही जा रही हैं, उसके सम्बन्ध में पहले ही,चर्चा हो चुकी है।  
 किन्तु ' मानसिक साम्य ' का वास्तविक अर्थ इससे कुछ अलग किस्म का होता है। किसी भी कार्य को 
हमलोग जिस प्रकार मन के माध्यम से करते हैं, उसी प्रकार उसी के माध्यम से देखते भी हैं। सामान्यतः  
हमलोग भेद-दृष्टि को लेकर ही जगत की हर वस्तु को देखते हैं, क्योंकि हम यहाँ' एक ' को न देखकर 'अनेक ' को देखते हैं।

हमलोग अभी तक यह नहीं जानते कि ' एक ' ही ' अनेक ' बन कर विद्यमान हैं (The One has become Many), इसीलिए सभी को अपने से भिन्न समझते हैं।इसीलिए यहाँ सबको भिन्न-भिन्न दृष्टि 
से देखते हैं। छोटा-बड़ा,गोरा-काला, अपना-पराया के भेद-दृष्टि से देखते हैं। किन्तु जब हमलोग प्रत्येक वस्तु के भीतर जो सत्ता अनुस्यूत है, उस सर्वव्याप्त सत्ता की अनुभूति कर लेते हैं- तब फिर अनेक नहीं रह जाता- सभी को उस ' एक ' के ही बहिरूप में स्वीकार करने लगते हैं, सभी एक हैं- ऐसा देखते हैं। भिन्नता या असामनता कहीं नहीं है, सभी एक समान हैं. इसीको साम्य-दृष्टि कहते है।
 जब हमलोग इस सार्वभौमिक -साम्य में प्रतिष्ठित हो जायेंगे, उसी को ' मानसिक-साम्य ' कहते हैं। वैसा होने पर कोई पराया नहीं रह जायेगा, किसी के प्रति मन में विद्वेष नहीं होगा, किसी के अमंगल का विचार भी  मन में नहीं उठेगा। जब कोई व्यक्ति इसी प्रकार के ' सम-दृष्टि ' से सम्पन्न हो जाता है, केवल तभी वह यथार्थ सुख का अधिकारी होता है. सार्वभौमिक साम्य में प्रतिष्ठित रहना ही मानसिक-संतुलन है।
 भागवत में कहा गया है-
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु-मंगलम ।
समदृष्टि: तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः ।।
श्रीमदभगवत गीता (5/19) में कहा गया है- 
           इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: ।
                                                  निर्दोषं हि समं ब्रह्रा तस्माद् ब्रह्राणि ते स्थिता: ।
जिनका मन सम-भाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है।  क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे भी सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं। जिसका मन ऐसे साम्य में स्थित हो, उसे फिर संसार-सागर के दोनों किनारों को पार करने की आवश्यकता नहीं होती.

दूसरों के दुःख से दुःखी होना श्रेयस्कर है।[28]परिप्रश्नेन

२८. प्रश्न : जब परिवार में घोर दरिद्रता के साथ युद्ध करके सबों का भरण-पोषण करना पड़ता हो, वहाँ स्वामीजी के विचारों को कार्यान्वित करके अपना जीवन-गठन करना, क्या कभी  संभव हो सकता है ? यदि संभव हो, तो ऐसा किस प्रकार हो सकता है ? क्या परिवार के अन्य सभी सदस्यों को इसी भावधारा में लाये बिना, अकेले ही इस आदर्श के अनुसार जीवन -गठन किया जा सकता है ?

उत्तर : हमलोग तो यह मानते हैं, कि यह बिल्कुल सम्भव है. परिवार के प्रत्येक सदस्य को इस भावधारा में ला सकने से अच्छा ही है, किन्तु यदि सभी नहीं आ सकें तो मैं भी नहीं करूँगा, इसके पीछे कोई तर्क नहीं मिलता है. परिवार में केवल दरिद्रता ही क्यों, और भी कितने ही प्रकार के संघर्ष करने पड़ते हैं. किन्तु इन समस्त संघर्षों के बीच यदि हमलोग जीवन-गठन के संग्राम से मुख मोड़ लें, तो पारिवारिक दुःख-कष्ट, गृहस्ती के कई झंझटों से निज़ात तो नहीं ही मिलेगा, उल्टे उसमें वृद्धि भी हो सकती है.

 इसीलिए विभिन्न प्रकार की समस्याओं से जूझते हुए ही, यदि हम जीवन-गठन का संग्राम भी लड़ते रहें, तो वे सब दुःख तो रह सकते हैं, किन्तु वे अब हमको दुःखी नहीं कर सकेंगे.घरेलू-जीवन जैसा है, वैसा ही रहेगा. किन्तु उसमें अपने को फंसा देखकर, जैसे अभी निराश-हताश हो जाता हूँ, यदि अपने अभ्यन्तर को सक्षम तरीके से गठित कर लूँ, तो फिर वैसी हताशा कभी नहीं होगी. उसी की तो आवश्यकता है. 

घर-परिवार का संसारी जीवन तो हमेशा दुःखमय ही है. संसार के दुःख कभी दूर न हो सकेंगे. किन्तु क्या दूर हो सकता है ? हमलोग तब हम उन दुःखों को दुःख के रूप में देखना छोड़ देंगे. अब वह हमें कष्ट दे ही नहीं सकेंगे. हमलोग जान जायेंगे कि समाज की प्रकृति ही इस प्रकार की है. संसार का नियम ही ऐसा है.
संसार में दुःख तो है. किन्तु यदि हम अपने अभ्यन्तर को मजबूती से गठित कर लें, तो हमलोगों का कष्ट कम हो सकता है, और यदि दूसरों को भी यह समझा सकें, और दुसरे भी इस सत्य को समझ जाएँ, तो उनका भी दुःख दूर हो सकता है. किन्तु यदि इस बात को वे समझने को भी तैयार न हों, तो उनको थोडा अधिक कष्ट झेलना पड़ेगा; अन्य कोई उपाय ही नहीं है.
यह हो सकता है, कि मैं अपने अभ्यंतर को कठोर रूप से गठित कर, उनके समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकूँ. हो सकता है, वे मुझे देख देख कर सीख जाएँ. तो उनका कष्ट कम हो जायेगा. नहीं हो सका,तो उनके कष्ट में गिरा देखने से मुझे कुछ कष्ट अवश्य होगा, बचने का कोई उपाय नहीं है.घर-परिवार के बीच रहने, या जगत में रहने से कष्ट तो स्वीकार करना ही होगा. एक प्रकार का कष्ट होता है, अपने दुःख के लिए स्वयं कष्ट भोगना. और एक प्रकार का कष्ट होता है, दूसरों को कष्ट में पड़ा देख कर अपने हृदय में दुःख महसूस करना. 
अपने दुःख से दुखित होने की अपेक्षा, दूसरों के लिए कष्ट पाना बहुत अच्छा है.

 स्वामीजी ने कहा है न - " जत उच्च तोमार हृदय, तत दुःख जानीय निश्चय ।" -अर्थात ' जितना ही विस्तृत तुम्हारा हृदय होगा, निश्चित जानना कि उतना ही अधिक दुःख भी भोगना होगा !' तुम यदि यह सोचते हो कि बहुत महान हृदयवत्सल व्यक्ति बन जाओगे, तो तुम्हारा दुःख दूर भाग गया है, वैसा नहीं हो सकता. दूसरों को दुःख में गिरा देखने से अपने हृदय में जिस दुःख का अनुभव होता है, वह स्वीकार्य और उत्कृष्ट होता है. यह दुःख हमारे अभ्यन्तर को कष्ट नहीं देता. अपने दुःख से दुखी होकर मुँह लटकाये रहने की अपेक्षा दूसरों के दुःख से दुःखी होना श्रेयस्कर है।

बहार में कष्ट है, उसके प्रति हृदय में सहानुभूति है. किन्तु मेरी अन्तरात्मा को उससे कष्ट का अनुभव नहीं होता. मेरा अभ्यान्तर उससे पथभ्रष्ट नहीं होता, कभी निरानन्द नहीं होता. भीतर से कभी थकावट का अनुभव नहीं होता है. संसार में सामान्यतः दुःख-कष्ट मेरे भीतर एक प्रकार की थकान पैदा करती है, किन्तु दूसरों के दुःख से दुःखबोध रहने से वह दुःख अभ्यन्तर में किसी थकान या निरानन्द का संचार नहीं कर पाता. यही अंतर रहता है।