[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
(१)
🔱🕊नरेन्द्र (भावी नेता) को ज्ञानयोग तथा भक्तियोग में समन्वय का उपदेश 🔱🕊
[নরেন্দ্রকে জ্ঞানযোগ ও ভক্তিযোগের সমন্বয় উপদেশ]
श्रीरामकृष्ण काशीपुर के बगीचे में भक्तों के साथ बड़े कमरे में रहते हैं । रात के आठ बजे का समय होगा । कमरे में नरेन्द्र, शशि, मास्टर, बूढ़े गोपाल और शरद हैं । आज बृहस्पतिवार है, फाल्गुन की शुक्ला षष्ठी, 11 मार्च, 1886 ।
श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, जरा लेटे हुए हैं । पास ही भक्तगण बैठे हैं । शरद खड़े हुए पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण बीमारी की बातें कह रहे हैं ।
It was eight o'clock in the evening. Sri Ramakrishna was in the big hall on the second floor. Narendra, Sashi, M., Sarat, and the elder Gopal were in the room. Sri Ramakrishna was lying down. Sarat stood by his bed and fanned him. The Master was speaking about his illness.
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কাশীপুরের বাগানে হলঘরে ভক্তসঙ্গে অবস্থান করিতেছেন। রাত্রি প্রায় আটটা। ঘরে নরেন্দ্র, শশী, মাস্টার, বুড়োগোপাল শরৎ। আজ বৃসস্পতিবার — ২৮শে ফাল্গুন, ১২৯২ সাল; ফাল্গুন মাসের শুক্লা ষষ্ঠী তিথি; ১১ই মার্চ, ১৮৮৬ খ্রীষ্টাব্দ। ঠাকুর অসুস্থ — একটু শুইয়া আছেন। ভক্তেরা কাছে বসিয়া। শরৎ দাঁড়াইয়া পাখা করিতেছেন। ঠাকুর অসুখের কথা বলিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - दक्षिणेश्वर में भोलानाथ के पास जाना, वह तेल देगा; और किस तरह लगाया जाय, यह भी बतला देगा ।
MASTER: "If some of you go to Dakshineswar and see Bholanath, he will give you a medicinal oil and also tell you how to apply it."
শ্রীরামকৃষ্ণ — ভোলানাথের কাছে গেলে তেল দেবে। আর সে বলে দেবে, কি-রকম করে লাগাতে হবে।
बूढ़े गोपाल - तो कल सबेरे हम लोग जाकर ले आयेंगे ।
THE ELDER GOPAL: "Then we shall go for the oil tomorrow morning."
বুড়োগোপাল — তাহলে কাল সকালে আমরা গিয়ে আনব।
मास्टर - यदि कोई आज शाम को जाय तो वही ले आयगा ।
M: "If someone goes this evening he can bring the oil."
মাস্টার — আজ কেউ গেলে বলে দিতে পারে।
शशि - मैं जा सकता हूँ ।
[शशि (शशिभूषण चक्तवर्ती ) - स्वामी रामकृष्णानन्द (1863 - 1911) - हुगली जिले के मयाल-इच्छापुर गांव में पैदा हुए। पिता ईश्वरचंद्र एक तांत्रिक साधक और पाइकपारा के राजा इंद्रनारायण सिंह के राजपण्डित थे। अपने छात्र जीवन के दौरान, वह ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित हुए और केशव सेन से मिलने जाते थे। लेकिन श्री रामकृष्ण का नाम सुनने के बाद, बड़े चचेरे भाई शरत के साथ दक्षिणेश्वर गए और श्री रामकृष्ण के दर्शन किए।]
SASHI: "I can go."
শশী — আমি যেতে পারি।
श्रीरामकृष्ण - (शरद की ओर दिखाकर ) - वह जा सकता है ।
[शरत (शरतचंद्र चक्रवर्ती) - स्वामी सारदानन्द : (1865 - 1927) - शरतचंद्र का जन्म एमहर्स्ट स्ट्रीट, कलकत्ता में हुआ था। पिता का नाम गिरीशचंद्र और माता का नीलमणि देवी था । छात्र जीवन में केशव चन्द्र के प्रभाव से वे ब्रह्म समाज के सदस्य बन गये। लेकिन छोटे भाई शशिभूषण (बाद में स्वामी रामकृष्णानंद) अन्य लोगों के साथ श्री रामकृष्ण के दर्शन के लिए दक्षिणेश्वर गए। ]
MASTER (pointing to Sarat): "He may go."
শ্রীরামকৃষ্ণ (শরৎকে দেখাইয়া) — ও যেতে পারে।
शरद कुछ देर बाद दक्षिणेश्वर काली मन्दिर के मुहर्रिर (बड़ाबाबू ?) श्रीयुत भोलानाथ मुखोपाध्याय के पास से तेल लाने के लिए गये ।
[भोलानाथ मुखोपाध्याय - बाद में कालीबाड़ी के खजांची बने। वह ठाकुरदेव के बहुत बड़े भक्त थे। बीच-बीच में ठाकुरदेव उनसे महाभारत का पाठ सुना करते थे।]
After a time Sarat set out for Dakshineswar to get the oil from Bholanath.
শরৎ কিয়ৎক্ষণ পরে দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে মুহুরী শ্রীযুক্ত ভোলানাথ মুখোপাধ্যায়ের নিকট হইতে তেল আনিতে যাত্রা করিলেন।
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
🔱🕊'आत्मा' 🕊शरीर और मन (सूक्ष्म शरीर) से निर्लिप्त है🔱🕊
श्रीरामकृष्ण लेटे हुए हैं । भक्तगण चुपचाप बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण एकाएक उठकर बैठे गये । नरेन्द्र के साथ वार्तालाप करने लगे ।
The devotees, sitting around Sri Ramakrishna's bed, were silent. Suddenly the Master sat up. He spoke to Narendranath.
ঠাকুর শুইয়া আছেন। ভক্তেরা নিঃসব্দে বসিয়া আছেন। ঠাকুর হঠাৎ উঠিয়া বসিলেন। নরেন্দ্রকে সম্বোধন করিয়া কথা কহিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - ब्रह्म अलेप हैं । उनमें तीनों गुण विद्यमान हैं; किन्तु फिर भी वे उन गुणों से निर्लिप्त हैं ।
MASTER: "Brahman is without taint. The three gunas are in Brahman, but It is Itself untainted by them.
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — ব্রহ্ম অলেপ। তিন গুণ তাঁতে আছে, কিন্তু তিনি নির্লিপ্ত।
"जैसे वायु में सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों मिलती हैं, परन्तु वायु निर्लिप्त है ।
"You may find both good and bad smells in the air; but the air itself is unaffected.
“যেমন বায়ুতে সুগন্ধ-দুর্গন্ধ দুই-ই পাওয়া যায়, কিন্তু বায়ু নির্লিপ্ত।
"काशी में रास्ते से शंकराचार्य जा रहे थे । उधर से माँस का भार लेकर चाण्डाल आया और एकाएक उसने इन्हें छू लिया । शंकर ने कहा, 'छू लिया !' चाण्डाल ने कहा,‘ भगवन्, न आपने मुझे छुआ और न मैंने आपको। आत्मा निर्लिप्त है। आप वही शुद्ध आत्मा हैं ।’
"Sankaracharya was going along a street in Benares. An outcaste carrying a load of meat suddenly touched him. 'What!' said Sankara. 'You have touched me!' 'Revered sir,' said the outcaste, 'I have not touched you nor have you touched me. The Atman is above all contamination, and you are that Pure Atman.'
কাশীতে শঙ্করাচার্য পথ দিয়ে যাচ্ছিলেন! চণ্ডাল মাংসের ভার নিয়ে যাচ্ছিল — হঠাৎ ছুঁয়ে ফেললে। শঙ্কর বললেন — ছুঁয়ে ফেললি! চণ্ডাল বললে, — ঠাকুর, তুমিও আমায় ছোঁও নাই! আমিও তোমায় ছুঁই নাই! আত্মা নির্লিপ্ত। তুমি সেই শুদ্ধ আত্মা।
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
🔱🕊शरीर रहने तक 'मैं' नहीं जायेगा-माँ दुर्गा (महामाया) की शरण लो 🔱🕊
“ 'ब्रह्म' और 'माया' । ज्ञानी माया को अलग कर देता है ।
"Of Brahman and maya , the jnani rejects maya.
“ব্রহ্ম আর মায়া। জ্ঞানী মায়া ফেলে দেয়।
"माया पर्दे की तरह है । यह देखो, इस अँगौछे की आड़ कर देता हूँ । अब तुम दीपक की लौ नहीं देख सकते ।"
"Maya is like a veil. You see, I hold this towel between you and the lamp. You no longer see the light of the lamp."
“মায়া আবরণস্বরূপ। এই দেখ, এই গামছা আড়াল করলাম — আর প্রদীপের আলো দেখা যাচ্ছে না।
श्रीरामकृष्ण ने अपने तथा भक्तों के बीच अंगौछे की आड़ करके कहा, "यह देखो, अब तुम मेरा मुँह नहीं देख सकते । "रामप्रसाद सेन (कवी रंजन) ने जैसा कहा है, 'मसहरी उठाकर देखो –’
["रामप्रसाद बोले मशारि तुले देख रे आपनार मुख- ('पर्दा है पर्दा), मसहरी (मच्छरदानी) उठाकर अपना ही मुख देखो –’
मायार ऐ परम कौतूक।
मायाबद्ध जने धावति, अबद्ध जने लूटे सुख।।
आमि एई आमार एई, एभावे भावे मूर्ख सेई।
मनरे, ओरे मिछामिछि सार भेवे, साहस बाँधिछो बूक,
आमि केवा आमार केवा, आमि भिन्न आछे केवा।
मनरे, ओरे के करे काहार सेवा, मिछा भावो दुःख सुख,
दीप ज्वले आँधार घरे, द्रव्य यदि पाय करे।
मनरे, ओरे तखनि निर्वाण करे, ना राखे रे एकटूक।।
प्राज्ञ अट्टालिकाय थाको, आपनि आपन देख।
रामप्रसाद बोले मशारि तुले देख रे आपनार मुख।।
Sri Ramakrishna put the towel between himself and the devotees.
MASTER: "Now you cannot see my face any more. As Ramprasad said, 'Raise the curtain, and behold!'
ঠাকুর গামছাটি আপনার ও ভক্তদের মাঝখানে ধরিলেন। বলিতেছেন, “এই দেখ, আমার মুখ আর দেখা যাচ্ছে না।“রামপ্রসাদ যেমন বলেছে — ‘মশারি তুলিয়া দেখ —’
[মায়ার এ পরম কৌতুক।
মায়াবদ্ধ জনে ধাবতি, অবদ্ধ জনে লুটে সুখ॥
আমি এই আমার এই, এভাব ভাবে মূর্খ সেই।
মনরে, ওরে মিছামিছি সার ভেবে, সাহসে বাঁধিছ বুক
আমি কেবা আমার কেবা, আমি ভিন্ন আছে কেবা।
মনরে, ওরে কে করে কাহার সেবা, মিছা ভাব দুখ সুখ
দীপ জ্বেলে আঁধার ঘরে, দ্রব্য যদি পায় করে।
মনরে, ওরে তখনি নির্বাণ করে, না রাখে রে একটুক্॥
প্রাজ্ঞ অট্টালিকায় থাক, আপনি আপন দেখ।
রামপ্রসাদ বলে মশারি তুলে দেখ রে আপনার মুখ॥
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
🕊🏹ज्ञानी (सिद्धार्थ गौतम ?) जग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति को अस्तित्वहीन ? कहके हटा देते हैं,
भक्त (गौतम बुद्ध-जागृत मनुष्य ?) जानता है चाण्डाल भी वे ही बने हैं ! 🕊🏹
(The foolishness of the wise)
[ जब तक भक्त का 'मैं' है, तब तक भक्त माँ दुर्गा के राज्य में है ! मातृजाति की पूजा करना सीखना ही होगा (माँ काली -महामाया-जिसके भय से सूर्य, तपता है) सीखकर, अर्थात सिर्फ विद्या-माया का 'मैं ' (दासोऽहं) का भाव रखते हुए ही कामिनी-कांचन से निरासक्त हुआ जा सकता है ?]
"परन्तु भक्त माया को नहीं छोड़ता । वह महामाया की पूजा करता है । शरणागत होकर कहता है, 'माँ, रास्ता छोड़ दो, तुम जब रास्ता छोड़ोगी, तभी मुझे ब्रह्मज्ञान होगा !' जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति - इन तीनों अवस्थाओं को ज्ञानी अस्तित्वहीन कहकर हटा देते हैं । भक्त इन सब अवस्थाओं को लेते हैं - जब तक 'मैं' है, तब तक ये सब हैं । " जब तक 'मैं' है, तब तक भक्त देखता है, जीव-जगत्, माया और चौबीस तत्त्व, सब कुछ वे ही हुए हैं ।"
"The bhakta, however, does not ignore maya. He worships Mahamaya. Taking refuge in Her, he says: 'O Mother, please stand aside from my path. Only if You step out of my way shall I have the Knowledge of Brahman.' The jnanis explain away all three states — waking, dream, and deep sleep. But the bhaktas accept them all. As long as there is the ego, everything else exists. So long as the 'I' exists, the bhakta sees that it is God who has become maya, the universe, the living beings, and the twenty-four cosmic principles."
“ভক্ত কিন্তু মায়া ছেড়ে দেয় না। মহামায়ার পূজা করে। শরণাগত হয়ে বলে, ‘মা, পথ ছেড়ে দাও! তুমি পথ ছেড়ে দিলে তবে ব্রহ্মজ্ঞান হবে।’ জাগ্রৎ, স্বপ্ন, সুষুপ্তি, — এই তিন অবস্থা জ্ঞানীরা উড়িয়ে দেয় ! ভক্তেরা এ-সব অবস্থাই লয় — যতক্ষণ আমি আছে ততক্ষণ সবই আছে। “ যতক্ষণ আমি আছে, ততক্ষণ দেখে যে, তিনিই মায়া, জীব-জগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব, সব হয়েছেন!
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
🕊🏹नरेन्द्र बाहर से ज्ञानी भीतर से भक्त हैं 🕊🏹
नरेन्द्र तथा अन्य भक्त चुपचाप सुन रहे हैं ।
Narendra and the other devotees sat silently listening.
[নরেন্দ্র প্রভৃতি চুপ করিয়া আছেন।]
श्रीरामकृष्ण - "पर मायावाद (माया का सिद्धांत) शुष्क है ।" (नरेन्द्र से) मैंने क्या कहा, बतलाओ।
MASTER: "But the theory of maya is dry. (To Narendra) Repeat what I said."
“মায়াবাদ শুকনো। কি বললাম, বল দেখি।”
नरेन्द्र - माया शुष्क है ।
NARENDRA: "Maya is dry."
নরেন্দ্র — শুকনো।
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के हाथ और मुख का स्पर्श करके कहने लगे - "ये सब भक्तों के लक्षण हैं। ज्ञानियों के लक्षण और हैं - मुखाकृति में रूखापन रहता है ।
Sri Ramakrishna affectionately stroked Narendra's face and hands, and said: "Your face and hands show that you are a bhakta. But the jnani has different features; they are dry.
ঠাকুর নরেন্দ্রের হাত-মুখ স্পর্শ করিতে লাগিলেন। আবার কথা কহিতেছেন — “এ-সব (নরেন্দ্রের সব) ভক্তের লক্ষণ। জ্ঞানীর সে আলাদা লক্ষণ, — মুখ, চেহারা শুকনো হয়।
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
🔱राजर्षि जनक जैसा ज्ञानी- भक्त अनासक्त होकर परिवार में भी रह सकता है 🔱
"ज्ञान लाभ करने के बाद भी ज्ञानी विद्या-माया को लेकर रह सकता है - भक्ति, दया, वैराग्य, इन सब को लेकर रह सकता है । इसके दो उद्देश्य हैं । पहला, इससे लोक-शिक्षा होती है; दूसरा, रसास्वादन के लिए ।
[अर्थात 'दादा के पितामह श्री श्रीशचन्द्र मुखोपाध्याय ' जैसा 'ज्ञानि-भक्त' अभिभावक (नेता) कामिनी-कांचन में अनासक्त होकर घर-परिवार के बीच भी रह सकता है।]
"Even after attaining jnana, the jnani can live in the world, retaining vidyamaya, that is to say, bhakti, compassion, renunciation, and such virtues. This serves him two purposes: first, the teaching of men, and second, the enjoyment of divine bliss.
“জ্ঞানী জ্ঞানলাভ করবার পরও বিদ্যামায়া নিয়ে থাকতে পারে — ভক্তি, দয়া, বৈরাগ্য — এই সব নিয়ে থাকতে পারে। এর দুটি উদ্দেশ্য। প্রথম, লোকশিক্ষা হয়, তারপর রসাস্বাদনের জন্য।
"ज्ञानी अगर समाधि लगाकर चुप हो जाय (चित्तवृत्ति निरोध योग के बाद चुप हो जाये), तो लोक-शिक्षा नहीं होती । इसीलिए शंकराचार्य ने ‘विद्या का मैं’ रखा था ।
If a jnani remains silent, merged in samadhi, then men's hearts will not be illumined. Therefore Sankaracharya kept the 'ego of Knowledge'.
“জ্ঞানী যদি সমাধিস্থ হয়ে চুপ করে থাকে, তাহলে লোকশিক্ষা হয় না। তাই শঙ্করাচার্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিলেন।
और ईश्वरानन्द का भोग करने के लिए, (ज्ञानी भी) भगवान के भक्त- भक्ति को लेकर रहता है ।
And further, a jnani lives as a devotee, in the company of bhaktas, in order to enjoy and drink deep of the Bliss of God.
“আর ঈশ্বরের আনন্দ ভোগ করবার জন্য — সম্ভোগ করবার জন্য — ভক্তি-ভক্ত নিয়ে থাকে!
[There is no flaw in the 'I' of the child, like the reflection of the face in the mirror. He cannot abuse people. अर्थात "इसके अलावा, 'ज्ञानी' भी भगवान के आनन्द (जगतगुरु -युग अवतार वरिष्ठ-ठाकुरदेव के आनन्द) का रसपान करने के लिए, पाठचक्र और Be and Make आंदोलन में उनके भक्तों (ठाकुर देव के भक्त -माँ सारदा और स्वामीजी) की संगति में स्वयं एक भक्त बनकर रहता है !]
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
8 🔱'विद्या के मैं' और 'भक्ति का मैं' में दोष नहीं; दोष 'बदमाश मैं' में है 🔱
'इस 'विद्या के मैं' में या 'भक्ति के मैं' में दोष नहीं है । दोष तो 'बदमाश मैं' में है । उनके दर्शन करने के बाद बालक-जैसा स्वभाव हो जाता है । 'बालक के मैं' में कोई दोष नहीं है, जैसे दर्पण में चेहरे का प्रतिबिम्ब । वह लोगों को गालियाँ नहीं दे सकता । जली रस्सी देखने ही में रस्सी की तरह है । फूँकने से वह उड़ जाती है । इसी तरह ज्ञानी और भक्त का अहंकार ज्ञानाग्नि में जल गया है । अब वह किसी की क्षति नहीं कर सकता । वह 'मैं' नाममात्र के लिए है ।
"The 'ego of Knowledge' and the 'ego of Devotion' can do no harm; it is the 'wicked I' that is harmful. After realizing God a man becomes like a child. There is no harm in the 'ego of a child'. It is like the reflection of a face in a mirror: the reflection cannot call names. Or it is like a burnt rope, which appears to be a rope but disappears at the slightest puff. The ego that has been burnt in the fire of Knowledge cannot injure anybody. It is an ego only in name.
“এই ‘বিদ্যার আমি’, ‘ভক্তের আমি’ — এতে দোষ নাই। ‘বজ্জাৎ আমি’তে দোষ হয়। তাঁকে দর্শন করবার পর বালকের স্বভাব হয়। ‘বালকের আমি’তে কোন দোষ নাই। যেমন আরশির মুখ — লোককে গালাগাল দেয় না। পোড়া দড়ি দেখতেই দড়ির আকার, ফুঁ দিলে উড়ে যায়। জ্ঞানাগ্নিতে অহংকার পুড়ে গেছে। এখন আর কারও অনিষ্ট করে না। নামমাত্র ‘আমি’।
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
9 🏹नेता को नित्य में 'उस पार' पहुँचकर, लीला में 'इस पार' लौटना ही पड़ता है ! 🕊🏹
"नित्य में पहुँचकर फिर लीला में रहना । जैसे 'उस पार' जाकर फिर 'इस पार' लौटना । लोक-शिक्षा और विलास के लिए - उनकी लीला में सहयोग देने के लिए ।"
"Returning to the relative plane after reaching the Absolute is like coming back to this shore of a river after going to the other side. Such a return to the relative plane is for the teaching of men and for enjoyment — participation in the divine sport in the world."
“নিত্যতে পৌঁছে আবার লীলায় থাকা। যেমন ওপারে গিয়ে আবার এপারে আসা। লোকশিক্ষা আর বিলাসের জন্য — আমোদের জন্য।”
श्रीरामकृष्ण बड़े धीमे स्वर में वार्तालाप कर रहे हैं । वे कुछ देर चुप ही रहे । भक्तों से फिर कहने लगे –" शरीर को यह रोग है, परन्तु उसने (माता ने) अविद्यामाया नहीं रखी । देखो न, रामलाल, घर या स्त्री, इनकी मुझे याद भी नहीं आती । हाँ, यदि कोई चिन्ता है तो उसी पूर्ण नामक कायस्थ बालक की - उसी के लिए सोच रहा हूँ । औरों के बारे में तो मुझे कोई चिन्ता नहीं।
Sri Ramakrishna was talking in a very low voice. Addressing the devotees, he said: " The body is so ill, but the mind is free from avidyamaya (मैं -M/F ?). Let me tell you, there is no thought in my mind of Ramlal or home or wife. But I have been worrying about Purna, that kayastha boy. I am not in the least anxious about the others.
ঠাকুর অতি মৃদুস্বরে কথা কহিতেছেন। একটু চুপ করিলেন। আবার ভক্তদের বলিতেছেন — “শরীরের এই রোগ — কিন্তু অবিদ্যা মায়া রাখে না! এই দেখো, রামলাল, কি বাড়ি, কি পরিবার, আমার মনে নাই! — কে না পূর্ণ কায়েত তার জন্য ভাবছি। — ওদের জন্য তো ভাবনা হয় না!
[Panacea: महामाया, योगमाया और अविद्या माया में क्या अंतर है ? माँ सारदा की कृपा से योग, चित्तवृत्ति निरोध या समाधी हो जाने के बाद भी पुनः शरीर में क्यों लौटना पड़ाता है ?🕊🏹दादा ने कहा था -तुम्हारी ही इच्छा रही होगी। एकदम ठाकुर के शरीर में कैंसर रोग है, परन्तु 'उसने'- माँ भवतारिणी (महामाया/ योगमाया) ने ठाकुर में 'अविद्यामाया' नहीं रखी है। मेरे साजन हैं 'उस पार ' नित्य में ; मैं मन मार, हूँ 'इस पार' लीला में ( तुरीयावस्था- इन्द्रियातीत सत्य और - सापेक्षिक सत्य।) में हूँ। ]
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
10.🔱🕊🏹ज्ञानियों का लक्ष्य मुक्ति है ;
अवतार और भक्त (प्रह्लाद-नरेंद्र-दादा) अपनी मुक्ति नहीं चाहते🔱🕊🏹
"विद्या-माया उन्हीं ने रख दी है - लोगों के लिए, भक्तों के लिए ।
"It is God alone who has kept this vidyamaya in me, for the good of men, for the welfare of the devotees.
“তিনিই বিদ্যামায়া রেখে দিয়েছেন — লোকের জন্য — ভক্তের জন্য।
"परन्तु विद्या-माया के रहते फिर आना पड़ता है । अवतार आदि विद्या-माया रख छोड़ते हैं । जरासी वासना के रहने पर फिर आना पड़ता है - बार बार आना पड़ता है । सब वासनाओं के मिट जाने पर मुक्ति होती है । भक्त मुक्ति नहीं चाहता ।
"But if one retains vidyamaya one comes back to this world. The Avatars keep this vidyamaya. So long as a man has even the slightest desire, he must be born again and again. When he gets rid of all desires, then he is liberated. But the bhaktas do not seek liberation.
“কিন্তু বিদ্যমায়া থাকলে আবার আসতে হবে। অবতারাদি বিদ্যামায়া রাখে! একটু বাসনা থাকলেই আসতে হয়, ফিরে ফিরে আসতে হয়। সব বাসনা গেলে মুক্তি। ভক্তরা কিন্তু মুক্তি চায় না।
"यदि काशी में किसी का देहान्त हो तो मुक्ति होती है; फिर उसे आना नहीं पड़ता । ज्ञानियों का लक्ष्य मुक्ति है ।"
"If a person dies in Benares he attains liberation; he is not born again. Liberation is the goal of the jnanis."
“যদি কাশীতে কারু দেহত্যাগ হয় তাহলে মুক্তি হয় — আর আসতে হয় না। জ্ঞানীদের মুক্তি।”
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
[🔱नरेन्द्रनाथ द्वारा स्थापित बेलूरमठ और स्वामी अभेदानन्द का वेदान्तमठ?]
11.🔱🕊🏹 शुष्क ज्ञानी महिमाचरण चक्रवर्ती का घर 100 न ० काशीपुर रोड🔱🕊🏹
नरेन्द्र - उस दिन हम लोग महिम चक्रवर्ती के यहाँ गये थे ।
NARENDRA: "The other day we went to visit Mahimacharan."
নরেন্দ্র — সেদিন মহিম চক্রবর্তীর বাড়িতে আমরা গিছলাম।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) – फिर ?
MASTER (smiling): "Well?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তারপর?
नरेन्द्र - उसकी तरह का शुष्क ज्ञानी मैंने नहीं देखा ।
NARENDRA: "I have never before met such a dry jnani."
নরেন্দ্র — ওর মতো এমন শুষ্ক জ্ঞানী দেখি নাই!
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - क्या हुआ ?
MASTER (smiling): "What was the matter?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি হয়েছিল?
नरेन्द्र - हम लोगों से गाने के लिए कहा । गंगाधर ने गाया - कृष्णगीत (तमाल वृक्ष या काले कृष्ण (माँ काली) का श्यामा संगीत)...
"श्याम नामे प्राण पेये इति उती चाय,
सम्मुखे तमालवृक्ष देखिबारे पाय।
अर्थात "कृष्ण का नाम सुनकर राधा के मन में पुनः चेतना आ जाती है। वह इधर-उधर देखती है; उसके सामने एक तमाल वृक्ष दिखाई देता है।"।
NARENDRA: "He asked us to sing. Gangadhar sang: "Radha is restored to life by hearing her Krishna's name. She looks about; in front of her she sees a tamala tree."
নরেন্দ্র — আমাদের গান গাইতে বললে। গঙ্গাধর গাইলে —শ্যামনামে প্রাণ পেয়ে ইতি উতি চায়,সম্মুখে তমালবৃক্ষ দেখিবারে পায়।
गाना सुनकर उसने ('शुष्क ज्ञानी' महिमाचरण जिनके घर में दादा का जन्म हुआ था ?) कहा, ‘इस तरह का गाना क्यों गाते हो ? प्रेम-प्रेम अच्छा नहीं लगता। इसके अलावा बीबी-बच्चों को लेकर यहाँ रहता हूँ, यहाँ इस तरह के गाने क्यों ?’
"On hearing this song, Mahimacharan said: 'Why such songs here? I don't care for love and all that nonsense. Besides, I live here with my wife and children. Why all these songs here?'"
“গান শুনে বললে — ও-সব গান কেন? প্রেম-ট্রেম ভাল লাগে না। তা ছাড়া, মাগছেলে নিয়ে থাকি, এ-সব গান এখানে কেন?”
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - देखा, उसे कितना भय है !
MASTER (to M.): "Do you see how afraid he is?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — ভয় দেখেছ!
[🏹🔱"द्वितीयाद् वै भयं भवति । "(बृहदारण्यक, उ-1/4/2) अभयं =अद्वैत आत्मज्ञान होने से निर्भय हो जाना- जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, सब कुछ आत्मीय है। "तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् " (तै.उ. 2।6) , इस संसार की रचना करके,वह परमात्मा सभी जड-चेतन प्राणियों में प्रवेश कर गया। ये संसार भगवान् ने बनाया। और फिर, इस संसार में सर्वव्यापक भी हो गया—इसका मतलब है कि,इस हमारे पिण्डभूत शरीर में और इसके बाहर भी सब दृश्यमान जगत् परमात्मा में परमात्मा का और परममात्मभाव से विद्यमान है। अतः हमें किसी को अपने से भिन्न नहीं मानना चाहिए। यदि हम अपने से भिन्न दृष्टि रखते हैं, तब नाना सांसारिक भयों में रहेंगे ही। जब सभी में वही है, तब भय कैसा? और क्यों? भेद देखना मनुष्य की दुर्बलता और सारी समस्या,की जड़ है। 'तत्र को मोहः को शोकः एकत्वम् अनुपश्यतः। (ईशोपनिषद् -7) जिस अवस्था में किसी व्यक्ति को ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है - कि आत्मा (या परमात्मा-भगवान श्रीरामकृष्णदेव) ही सभी प्राणियों के रूप में प्रकटित हुए हैं; तब सर्वत्र एकत्व देख रहे उस व्यक्ति के लिए न कोई मोह और न ही शोक रह जाता है॥७॥ तब फंला प्राणी से घृणा, परहेज या विद्वेष कैसा? घृणा करना अपने आप से घृणा करना नहीं हो जाएगा?” इस प्रकार का चिंतन - 'मोक्षार्थी' मोक्ष की दिशा में बढ़ रहे व्यक्ति के आचरण का हिस्सा बन जाता है। सभी में अपना आत्मस्वरूप वह एक ही परमात्मा देख लेने पर कोई अज्ञान नहीं,कोई दुःख नहीं और कोई भय नहीं। इसीलिये परमात्मद्रष्टा ऋषियों ने इस मन्त्र का दर्शन किया-“द्वितीयाद् वै भयं भवति।”इस देववाणी और वेदवाणी का सार समझो। जीवन धन्यधन्य होगा। "विश्व-प्रपंचलीन सर्वाधिष्ठान परात्पर प्रभु के अनुसन्धान में प्रवृत्त होने पर क्रमशः अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोष का अनुभव होता है। आनन्दमय कोष में ही सर्वाधिष्ठान, सच्चिदानन्दघन, स्वप्रकाश, शुद्ध ब्रह्म प्रतिष्ठित है। जगत् के सम्पूर्ण आनन्द, मोद-प्रमोद सविशेष हैं अतः उनमें वैषम्य है, वैविध्य है तथापि उन सबका अधिष्ठान एकमात्र स्वप्रकाश, विशुद्ध परब्रह्म ही है। ]
(२)
Sunday, March 14, 1886
[ (रविवार, 14 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
12.🔱🕊🏹श्रीरामकृष्ण के देह-धारण का अर्थ🔱🕊🏹
[श्री रामकृष्ण का अवतार भक्तों के लिए]
श्रीरामकृष्ण काशीपुर के बगीचे में हैं । शाम हो गयी है, वे अस्वस्थ हैं । ऊपरवाले बड़े कमरे में उत्तर की ओर मुँह किये बैठे हैं । नरेन्द्र और राखाल दोनों पैर दबा रहे हैं । पास ही मणि बैठे हैं। श्रीरामकृष्ण ने इशारे से उन्हें पैर दबाने के लिए कहा । मणि चरण सेवा करने लगे ।
Sri Ramakrishna sat facing the north in the large room upstairs. It was evening. He was very ill. Narendra and Rakhal were gently massaging his feet. M; sat near by. The Master, by a sign, asked him, too, to stroke his feet. M. obeyed.
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কাশীপুরের বাগানে রহিয়াছেন। সন্ধ্যা হইয়া গিয়াছে। ঠাকুর অসুস্থ। উপরের হলঘরে উত্তরাস্য হইয়া বসিয়া আছেন। নরেন্দ্র ও রাখাল দুইজনে পদসেবা করিতেছেন, মণি কাছে বসিয়া আছেন। ঠাকুর ইঙ্গিত করিয়া তাহাকে পদসেবা করিতে বলিলেন। মণি পদসেবা করিতেছেন।
आज रविवार है, 14 मार्च, 1886 फागुन की शुक्ला नवमी। गत रविवार को श्रीरामकृष्ण की जन्म-तिथि की पूजा बगीचे में हो गयी है। गत वर्ष दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में बड़े समारोह के साथ जन्म-महोत्सव मनाया गया था । इस वर्ष वे अस्वस्थ हैं। भक्तों के हृदय में विषाद छाया है। इसलिए (फाल्गुन शुक्ल द्वितीया को) पूजा और उत्सव नाममात्र के लिए हुए ।
The previous Sunday the devotees had observed Sri Ramakrishna's birthday with worship and prayer. His birthday the year before had been observed at Dakshineswar with great pomp; but this year, on account of his illness, the devotees were very sad and there was no festivity at all.
আজ রবিবার, ১৪ই মার্চ, ১৮৮৬; ২রা চৈত্র, ফাল্গুন শুক্লা নবমী। গত রবিবারে ঠাকুরের জন্মতিথি উপলক্ষে বাগানে পূজা হইয়া গিয়াছে। গত বর্ষে জন্মমহোৎসব দক্ষিণেশ্বর-কালীবাড়িতে খুব ঘটা করিয়া হইয়াছিল। এবার তিনি অসুস্থ। ভক্তেরা বিষাদসাগরে ডুবিয়া আছেন। পূজা হইল। নামমাত্র উৎসব হইল।
भक्तगण सदा ही बगीचे में उपस्थित रहकर श्रीरामकृष्ण की सेवा किया करते हैं । श्रीमाताजी दिनरात उनकी सेवा में लगी रहती हैं । किशोर भक्तों में से बहुतेरे सदा ही वहाँ उपस्थित रहते हैं - नरेन्द्र, राखाल, निरंजन, शरद, शशि, बाबूराम, योगीन, काली, लाटू आदि । जो कुछ अधिक उम्रवाले भक्त हैं, वे प्राय: नित्य आकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर जाते हैं । कभी कभी वे रह भी जाते हैं । तारक, सींती के गोपाल भी वहाँ हर समय रहते हैं तथा छोटे गोपाल भी।
The Holy Mother busied herself day and night in the Master's service. Among the young disciples, Narendra, Rakhal, Niranjan, Sarat, Sashi, Baburam, Jogin, Latu, and Kali had been staying with him at the garden house. The older devotees visited him daily, and some of them occasionally spent the night there.
ভক্তেরা সর্বদাই বাগানে উপস্থিত আছেন ও ঠাকুরের সেবা করিতেছেন। শ্রীশ্রীমা ওই সেবায় নিশিদিন নিযুক্ত। ছোকরা ভক্তেরা অনেকেই সর্বদা থাকেন, নরেন্দ্র, রাখাল, নিরঞ্জন, শরৎ, বাবুরাম, যোগীন, কালী, লাটু প্রভৃতি।বয়স্ক ভক্তেরা মাঝে মাঝে থাকেন ও প্রায় প্রত্যহ আসিয়া ঠাকুরকে দর্শন করেন বা তাঁহাঁর সংবাদ লইয়া যান। তারক, সিঁথির গোপাল, ইঁহারা সর্বদা থাকেন। ছোট গোপালও থাকেন।
श्रीरामकृष्ण आज बहुत अस्वस्थ हैं । आधी रात का समय है । ( चांदनी बगीचे में छिटकी हुई है, लेकिन भक्तों के दिलों में कोई प्रतिक्रिया नहीं जगा सकी। वे दुःख के सागर में डूबे हुए थे। उन्हें लग रहा था कि वे एक ऐसे खूबसूरत शहर में रह रहे हैं, जो एक शत्रु सेना से घिरा हुआ है। हर जगह एकदम शांति छाई हुई थी। प्रकृति शांत थी, केवल दक्षिणी हवा के स्पर्श से पत्तों की हल्की सरसराहट की आवाज़ आ रही थी। ऊपर के हाल में श्रीरामकृष्ण लेटे हुए हैं ।
तबीयत बहुत खराब है - आँख नहीं लगती । दो-एक भक्त चुपचाप पास बैठे हुए हैं - इसलिए कि कब कैसी जरूरत हो । एक आध बार झपकी आती है, और श्रीरामकृष्ण सोते हुए से जान पड़ते हैं। ये नींद है या महायोग की अवस्था ?
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।"
जिस लाभ की प्राप्ति होने पर (निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति होने पर-26 जनवरी, 2024 की अवस्था।) उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता, और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है।।" यह क्या योग की वही अवस्था है ?
That day Sri Ramakrishna was feeling very ill. At midnight the moonlight flooded the garden, but it could wake no response in the devotees' hearts. They were drowned in a sea of grief. They felt that they were living in a beautiful city besieged by a hostile army. Perfect silence reigned everywhere. Nature was still, except for the gentle rustling of the leaves at the touch of the south wind. Sri Ramakrishna lay awake. One or two devotees sat near him in silence. At times he seemed to doze.
ঠাকুর আজও বিশেষ অসুস্থ। রাত্রি দুই প্রহর। আজ শুক্ল পক্ষের নবমী তিথি, চাঁদের আলোয় উদ্যানভূমি যেন আনন্দময় হইয়া রহিয়াছে। ঠাকুরের কঠিন পীড়া, — চন্দ্রের বিমলকিরণ দর্শনে ভক্তহৃদয়ে আনন্দ নাই। যেমন একটি নগরীর মধ্যে সকলই সুন্দর, কিন্তু শত্রুসৈন্য অবরোধ করিয়াছে। চতুর্দিক নিস্তব্ধ, কেবল বসন্তানিলস্পর্শে বৃক্ষপত্রের শব্দ হইতেছে। উপরের হলঘরে ঠাকুর শুইয়া আছেন। ভারী অসুস্থ, — নিদ্রা নাই। দু-একটি ভক্ত নিঃশব্দে কাছে বসিয়া আছেন — কখন কি প্রয়োজন হয়। এক-একবার তন্দ্রা আসিতেছে ও ঠাকুরকে নিদ্রাগতপ্রায় বোধ হইতেছে। এ কি নিদ্রা না মহাযোগ? ‘যস্মিন্ স্থিতো ন দুঃখেন গুরুণাপি বিচাল্যতে!’ এ কি সেই যোগাবস্থা?
मास्टर पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण इशारा करके और भी पास आने के लिए कह रहे हैं । उन्हें इतना कष्ट है कि पत्थर का हृदय भी पानी-पानी हो जाय । वे धीरे धीरे बड़े कष्ट के साथ मास्टर से कह रहे हैं - "तुम लोग रोओगे, इसलिए इतना दुःख भोग कर रहा हूँ । सब लोग अगर कहो कि इतने कष्ट से तो देह का नाश हो जाना ही अच्छा है, तो देह नष्ट हो जाय ।"
M. was seated by his side. Sri Ramakrishna asked him by a sign to come nearer. The sight of his suffering was unbearable. In a very soft voice and with, great difficulty he said to M.: "I have gone on suffering so much for fear of making you all weep. But if you all say: 'Oh, there is so much suffering! Let the body die', then I may give up the body."
মাস্টার কাছে বসিয়া আছেন। ঠাকুর ইঙ্গিত করিয়া আরও কাছে আসিতে বলিতেছেন। ঠাকুরের কষ্ট দেখিলে পাষাণ বিগলিত হয়! মাস্টারকে আস্তে আস্তে অতি কষ্টে বলিতেছেন — “তোমরা কাঁদবে বলে এত ভোগ করছি — সব্বাই যদি বল যে — ‘এত কষ্ট, তবে দেহ যাক’ — তাহলে দেহ যায়!”
श्रीरामकृष्ण की इन बातों को सुनकर भक्तों का हृदय टूकटूक हो रहा है । वे भक्तों के माता-पिता और रक्षक हैं । वे ऐसी बातें कह रहे हैं ! सब लोग चुप हो रहे । कुछ लोगों ने सोचा, "क्या यह एक दूसरा क्रूसीकरण है (ईसा का सूली पर चढ़ना है?) - भक्तों के लिए शरीर का बलिदान?"
These words pierced the devotees' hearts. And he who was their father, mother, and protector had uttered these words! What could they say? All sat in silence. Some thought, "Is this another crucifixion — the sacrifice of the body for the sake of the devotees?"
কথা শুনিয়া ভক্তদের হৃদয় বিদীর্ণ হইতেছে। যিনি তাঁহাদের পিতা মাতা রক্ষাকর্তা তিনি এই কথা বলিতেছেন! — সকলে চুপ করিয়া আছেন। কেহ ভাবিতেছেন, এরই নাম কি Crucifixation! ভক্তের জন্য দেহ বিসর্জন!
गम्भीर रात्रि है । श्रीरामकृष्ण की बीमारी मानो और बढ़ रही है । अब क्या किया जाय ? बहुत सोचकर, भक्तों ने एक आदमी को कलकत्ता भेजा । उसी गम्भीर रात्रि में श्रीयुत उपेन्द्र डाक्टर तथा श्रीयुत नवगोपाल कविराज को लेकर गिरीश काशीपुर के घर में आये ।
It was the dead of night. Sri Ramakrishna's illness was taking a turn for the worse. The devotees wondered what was to be done. One of them left for Calcutta. That very night Girish came to the garden house with two physicians, Upendra and Navagopal.
গভীর রাত্রি। ঠাকুরের অসুখ আরও যেন বাড়িতেছে! কি উপায় করা যায়? কলিকাতায় লোক পাঠানো হইল। শ্রীযুক্ত উপেন্দ্র ডাক্তার আর শ্রীযুক্ত নবগোপাল কবিরাজকে সঙ্গে করিয়া গিরিশ সেই গভীর রাত্রে আসিলেন।
भक्तगण पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण जरा स्वस्थ हो रहे हैं - कह रहे हैं - "देह अस्वस्थ है, पंचभूतों से बना शरीर, - ऐसा तो होगा ही !"
The devotees sat near the Master. He felt a little better and said to them: "The illness is of the body. That is as it should be; I see that the body is made of the five elements."
ভক্তেরা কাছে বসিয়া আছেন। ঠাকুর একটু সুস্থ হইতেছেন। বলিতেছেন, “দেহের অসুখ, তা হবে, দেখছি পঞ্চভূতের দেহ!”
गिरीश की ओर देखकर कह रहे हैं, "बहुत से ईश्वरीय रूपों को देख रहा हूँ । उनमें एक यह रूप भी (अपने रूप को) देख रहा हूँ ।"
Turning to Girish, he said: "I am seeing many forms of God. Among them I find this one also [meaning his own form]."
গিরিশের দিকে তাকাইয়া বলিতেছেন, “অনেক ঈশ্বরীয় রূপ দেখেছি! তার মধ্যে এই রূপটিও (নিজের মূর্তি) দেখছি!”
(३)
Monday, March 15, 1886
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
13.🏹श्रीरामकृष्ण के दर्शन- ईश्वर, जीव, जगत ~ मोम का बना है ?🏹🔱
आज चैत्र तृतीया है, सोमवार, 15 मार्च 1886। सबेरे 7-8 बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण कुछ अच्छे हैं, भक्तों के साथ धीरे-धीरे, कभी इशारे से, बातचीत कर रहे हैं । पास में नरेन्द्र, राखाल, मास्टर, लाटू, सींती के गोपाल आदि बैठे हुए हैं । भक्तमण्डली मौन है । पिछली रात की अवस्था सोचकर भक्तों के चेहरे पर विषाद की गम्भीरता छायी हुई है । सब चुपचाप बैठे हैं ।
About seven o'clock in the morning Sri Ramakrishna felt a little better. He talked to the devotees, sometimes in a whisper, sometimes by signs. Narendra, Rakhal, Latu, M., Gopal of Sinthi, and others were in the room. They sat speechless and looked grave, thinking of the Master's suffering of the previous night.
পরদিন সকাল বেলা। আজ সোমবার, ৩রা চৈত্র; ১৫ই মার্চ, (১৮৮৬)। বেলা ৭টা-৮টা হইবে। ঠাকুর একটু সামলাইয়াছেন ও ভক্তদের সহিত আস্তে আস্তে, কখনও ইশারা করিয়া কথা কহিতেছেন। কাছে নরেন্দ্র, রাখাল, মাস্টার, লাটু, সিঁথির গোপাল প্রভৃতি। ভক্তদের মুখে কথা নাই, ঠাকুরের পূর্বরাত্রির দেহের অবস্থা স্মরণ করিয়া তাঁহারা বিষাদগম্ভীর মুখে চুপ করিয়া বসিয়া আছেন।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर की ओर देखकर, भक्तों से) - क्या देख रहा हूँ ? - सुनो, ईश्वर ही सब कुछ बने हुए हैं । मनुष्य और जिस-जिस जीव को मैं देख रहा हूँ, मानो सब चमड़े के बने हुए हैं, उनके भीतर से वे ही हाथ, पैर और सिर हिला रहे हैं । जैसा एक बार मैंने देखा था - मोम का मकान, बगीचा, रास्ता, आदमी, बैल - सब मोम के - सब एक ही चीज के बने हुए थे ।(कुम्भ मेला 14 अप्रैल,1986?)
MASTER (to the devotees): "Do you know what I see right now? I see that it is God Himself who has become all this. It seems to me that men and other living beings are made of leather, and that it is God Himself who, dwelling inside these leather cases, moves the hands, the feet, the heads. I had a similar vision once before, when I saw houses, gardens, roads, men, cattle — all made of One Substance; it was as if they were all made of wax.
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের দিকে তাকাইয়া, ভক্তদের প্রতি) — কি দেখছি জানো? তিনি সব হয়েছেন! মানুষ আর যা জীব দেখছি, যেন চামড়ার সব তয়েরি — তার ভিতর থেকে তিনিই হাত পা মাথা নাড়ছেন! যেমন একবার দেখেছিলাম — মোমের বাড়ি, বাগান, রাস্তা, মানুষ গরু সব মোমের — সব এক জিনিসে তয়েরি।
"देखता हूँ, वे ही बलि (sacrifice) हैं, वे हो बलि देनेवाले (executioner) हैं तथा वे ही बलि का खम्भा (block) हैं ।"
"I see that it is God Himself who has become the block, the executioner, and the victim for the sacrifice."
“দেখছি — সে-ই কামার, সে-ই বলি, সে-ই হাড়িকাট হয়েছে!”
यह कहते कहते श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर हो रहे हैं । वे ईश्वर की उस व्यापकता का अनुभव करते हुए कह रहे हैं - 'अहा ! अहा !'
As he describes this staggering experience, in which he realizes in full the identity of all within the One Being, he is overwhelmed with emotion and exclaims, "Ah! What a vision!"
ঈশ্বরই কামার, বলি, হাড়িকাট হইয়াছেন। এই কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর ভাবে বিভোর হইয়া বলিতেছেন — “আহা! আহা!”
फिर वही भावावस्था हो गयी । श्रीरामकृष्ण का बाह्यज्ञान चला जा रहा है । भक्तगण किंकर्तव्य-विमूढ़ हो चुपचाप बैठे हुए हैं ।
Immediately Sri Ramakrishna goes into samadhi. He completely forgets his body and the outer world. The devotees are bewildered. Not knowing what to do, they sit still.
श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ होकर कह रहे हैं - "अब मुझे कोई कष्ट नहीं है । बिलकुल पहले जैसी अवस्था है। "
Presently the Master regains partial consciousness of the world and says: "Now I have no pain at all. I am my old self again."
ঠাকুর একটু প্রকৃতিস্থ হইয়া বলিতেছেন — “এখন আমার কোনও কষ্ট নাই, ঠিক পূর্বাবস্থা।”
श्रीरामकृष्ण की इस दुःख और सुख से अतीत अवस्था को देखकर भक्तों को आश्चर्य हो रहा है ।लाटू की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "यह लाटू है । सिर पर हाथ रखे बैठा है । मैं देख रहा हूँ, वे ही (ईश्वर ही) सिर पर हाथ रखे बैठे हुए हैं ।"
The devotees are amazed to watch this state of the Master, beyond pleasure and pain, weal and woe. He casts his glance on Latu and says: "There is Loto. He bends his head, resting it on the palm of his hand. I see that it is God Himself who rests His head on His hand."
ঠাকুরের এই সুখ-দুঃখের অতীত অবস্থা দেখিয়া ভক্তেরা অবাক্ হইয়া রহিয়াছেন। লাটুর দিকে তাকাইয়া আবার বলিতেছেন —“ওই লোটো — মাথায় হাত দিয়ে বসে রয়েছে, — তিনিই (ঈশ্বরই) মাথায় হাত দিয়ে যেন রয়েছেন!”
श्रीरामकृष्ण भक्तों की ओर देख रहे हैं और स्नेहाद्र हो रहे हैं । शिशु को जिस तरह प्यार किया जाता है, उसी तरह वे राखाल और नरेन्द्र के प्रति स्नेह-भाव दिखला रहे हैं - उनके मुख पर हाथ फेर रहे हैं ।
Sri Ramakrishna looks at the devotees and his love for them wells up in a thousand streams. Like a mother showing her tenderness to her children he touches the faces and chins of Rakhal and Narendra.
ঠাকুর ভক্তদের দেখিতেছেন ও স্নেহে যেন বিগলিত হইতেছেন। যেমন শিশুকে আদর করে, সেইরূপ রাখাল ও নরেন্দ্রকে আদর করিতেছেন! তাঁহাদের মুখে হাত বুলাইয়া আদর করিতেছেন!
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
लीला संवरण क्यों ?
14. 🏹🔱🕊गौरांग रूप में मैं (कृष्ण) और माँ (राधा-सारदा) एक हो गए हैं।🏹🔱🕊
[I and the Mother have become one.]
कुछ देर बार मास्टर से कहते हैं - "शरीर अगर कुछ दिन और रहता तो बहुत से लोगों को चैतन्य हो जाता ; उनकी आध्यात्मिकता की जागृति हो जाती ।” इतना कहकर वे चुपचाप हो रहे ।
A few minutes later he says to M., "If the body were to be preserved a few days more, many people would have their spirituality awakened." He pauses a few minutes.
কিয়ৎপরে মাস্টারকে বলিতেছেন, “শরীরটা কিছুদিন থাকত, লোকদের চৈতন্য হত।” ঠাকুর আবার চুপ করিয়া আছেন।
श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं - "पर अब यह न होगा - अब यह शरीर नहीं रहेगा ।" भक्त सोच रहे हैं कि श्रीरामकृष्ण और क्या कहेंगे ।
"But this is not to be. This time the body will not be preserved." The devotees eagerly await the Master's next words.
ঠাকুর আবার বলিতেছেন — “তা রাখবে না।” ভক্তেরা ভাবিতেছেন, ঠাকুর আবার কি বলিবেন।
श्रीरामकृष्ण - इस शरीर को अब वे (ईश्वर) न रहने देंगे, इसलिए कि मुझे सरल और मूर्ख समझकर कहीं सब लोग घेर न ले, और मैं सरल और मूर्ख कहीं सभी को सब कुछ दे न डालूँ ।कलिकाल में लोग तो ध्यान और जप से घृणा करते हैं ।
"Such is not the will of God. This time the body will not be preserved, lest, finding me guileless and foolish, people should take advantage of me, and lest I, guileless and foolish as I am, should give away everything to everybody. In this Kaliyuga, you see, people are averse to meditation and japa."
— সরল মূর্খ দেখে পাছে লোকে সব ধরে পড়ে। সরল মূর্খ পাছে সব দিয়ে ফেলে! একে কলিতে ধ্যান-জপ নাই।”
राखाल - (सस्नेह) - आप उनसे कहिये जिससे आपका शरीर रहे ।
RAKHAL (tenderly): "Please speak to God that He may preserve your body some time more."
রাখাল (সস্নেহে) — আপনি বলুন — যাতে আপনার দেহ থাকে।
श्रीरामकृष्ण - वह ईश्वर की इच्छा ।
MASTER: "That depends on God's will."
শ্রীরামকৃষ্ণ — সে ঈশ্বরের ইচ্ছা।
नरेन्द्र - आपकी इच्छा और ईश्वर की इच्छा दोनों एक हो गयी है ।
NARENDRA: "Your will and God's will have become one."
নরেন্দ্র — আপনার ইচ্ছা আর ঈশ্বরের ইচ্ছা এক হয়ে গেছে।
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप हैं, मानो कुछ सोच रहे हैं ।
Sri Ramakrishna remains silent. He appears to be thinking about something.
ঠাকুর একটু চুপ করিয়া আছেন — যেন কি ভাবিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र और राखाल आदि से) - और कहने से भी क्या होगा ? "अब देखता हूँ, एक हो गया है । ननद के भय से राधिका ने श्रीकृष्ण से कहा, 'तुम हृदय के भीतर रहो ।'^ जब फिर व्याकुल होकर श्रीकृष्ण को उन्होंने देखना चाहा – ऐसी व्याकुलता कि कलेजे में जैसे बिल्ली खरोंच रही हो - तब श्रीकृष्ण हृदय से बाहर निकले ही नहीं !"
[^वैष्णव धर्म के बंगाली शाखा के अनुसार श्री कृष्ण राधा की तरह अपनी मधुरता का आनन्द और स्वाद स्वयं चखकर देखना चाहते थे। लेकिन यह तब तक पूरी तरह से संभव नहीं था जब तक कि कृष्ण स्वयं राधा की तरह खुद पर मोहित न हो जाएं। तदनुसार उन्होंने एक ऐसा रूप धारण किया जिसमें वृंदावन के कृष्ण और राधा के सभी पहलू एक साथ मौजूद थे; और इस रूप में कृष्ण ने अपने आकर्षण और मधुरता का आनंद लिया। इस रूप को श्री गौरांग के नाम से जाना जाता है, जो राधा और कृष्ण का मिश्रण था।
‘गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर।
‘हरि हरि’बलिते नयने ब’बे नीर॥
वह दिन कब आयेगा कि केवल ‘श्रीगौरांङ्ग’ नाम के उच्चारण मात्र से मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? कब, ‘हरि हरि’ के उच्चारण से मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकलेंगे?
[^According to the Bengal school of Vaishnavism Sri Krishna wanted to taste and enjoy His own sweetness as Radha did. But this could not be done to the fullest extent unless Krishna were infatuated with Himself, as Radha had been. Accordingly He assumed a form in which all the aspects of the Krishna of Vrindavan and those of Radha coexisted; and in this aspect Krishna enjoyed His own charm and sweetness. This form is known as Sri Gauranga, who was a blending of Radha and Krishna.]
MASTER (to Narendra, Rakhal, and the others): "And nothing will happen if I speak to God. Now I see that I and the Mother have become one. For fear of her sister-in-law, Radha said to Krishna, 'Please dwell in my heart.' But when, later on; she became very eager for a vision of Krishna — so eager that her heart pined and panted for her Beloved — He would not come out."
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্র, রাখালাদি ভক্তের প্রতি) — আর বললে কই হয়? “এখন দেখছি এক হয়ে গেছে। ননদিনীর ভয়ে কৃষ্ণকে শ্রীমতী বললেন, ‘তুমি হৃদয়ের ভিতর থাকো’। যখন আবার ব্যাকুল হয়ে কৃষ্ণকে দর্শন করিতে চাইলেন; — এমনি ব্যাকুলতা — খেমন বেড়াল আঁচড় পাঁচড় করে, — তখন কিন্তু আর বেরয় না!”
राखाल - (भक्तों से, धीमे स्वर से) - यह बात इन्होंने श्रीगौरांगवतार के सम्बन्ध में कही है ।
RAKHAL (in a low voice, to the devotees): "He is referring to God's Incarnation as Gauranga."5
রাখাল (ভক্তদের প্রতি, মৃদুস্বরে) — গৌর অবতারের কথা বলছেন।
(४)
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
15.🏹🔱🕊दिव्य चरित्र (Legend) : श्रीरामकृष्ण कौन हैं 🏹🔱🕊
"द्वा सुपर्णा -भक्त और भगवान "
[परमहंसदेव और उनके लीलापार्षद]
[जीव (भक्त-SV) और ईश्वर (भगवान-'T') दोनों एक ही वृक्ष पर साथ-साथ रहने वाले सखा और सुपर्ण-पक्षी हैं। उनमें एक तो-जीव स्वादिष्ट पिप्पल-कर्मफल का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है।]
भक्तगण चुपचाप बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण भक्तों को स्नेहभरी दृष्टि से देख रहे हैं । कुछ कहने के लिए उन्होंने अपनी छाती पर हाथ रखा ।
The devotees sit silently in the room. Sri Ramakrishna looks at them tenderly. Then he places his hand on his heart. He is about to speak.
ভক্তেরা নিস্তব্ধ হইয়া বসিয়া আছেন। ঠাকুর ভক্তদের সস্নেহে দেখিতেছেন, নিজের হৃদয়ে হাত রাখিলেন — কি বলিবেন —
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्रादि से) - इसके भीतर दो व्यक्ति हैं । एक हैं जगन्माता-भक्त उनकी ओर उत्सुक होकर देख रहे हैं, सोच रहे हैं, अब वे क्या कहेंगे .......? श्रीरामकृष्ण - हाँ एक वे हैं, और दूसरा है उनका भक्त, जिसका हाथ टूट गया था । वही अब बीमार है । समझते हो भाई?
MASTER (to Narendra and the others): "There are two persons in this. One, the Divine Mother—"He pauses. The devotees eagerly look at him to hear what he will say next...... ? MASTER: "Yes, one is She. And the other is Her devotee. It is the devotee who broke his arm, and it is the devotee who is now ill. Do you understand?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রাদিকে) — এর ভিতর দুটি আছেন। একটি তিনি।ভক্তেরা অপেক্ষা করিতেছেন আবার কি বলেন....? শ্রীরামকৃষ্ণ — একটি তিনি — আর একটি ভক্ত হয়ে আছে। তারই হাত ভেঙে ছিল — তারই এই অসুখ করেছে। বুঝেছ?
भक्तगण चुपचाप सुन रहे हैं ।
The devotees sit without uttering a word.
ভক্তেরা চুপ করিয়া আছেন।
श्रीरामकृष्ण - किससे कहूँ, और समझेगा भी कौन ?
MASTER: "Alas! To whom shall I say all this? Who will understand me?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কারেই বা বলব কেই বা বুঝবে।
कुछ देर बाद फिर बोले –
"वे मनुष्य का आकार धारण करके, अवतार लेकर, भक्तों के साथ आया करते हैं । उन्हीं के साथ फिर भक्तगण चले भी जाते हैं ।"
Pausing a few moments, He says: "God becomes man, an Avatar, and comes to earth with His devotees. And the devotees leave the world with Him."
কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর আবার কথা কহিতেছেন —“তিনি মানুষ হয়ে — অবতার হয়ে — ভক্তদের সঙ্গে আসেন। ভক্তেরা তাঁরই সঙ্গে আবার চলে যায়।”
राखाल - इसीलिए कहता हूँ आप हम लोगों को छोड़कर चले मत जाइयेगा ।
RAKHAL: "Therefore we pray that you may not go away and leave us behind."
রাখাল — তাই আমাদের আপনি যেন ফেলে না যান।
श्रीरामकृष्ण मुस्करा रहे हैं, कहते हैं - "बाउल गवैयों का दल एकाएक आया, नाच-कूदकर गाया-बजाया और एकाएक चला गया । आया और गया, परन्तु किसी ने पहचाना नहीं।" श्री रामकृष्ण और दूसरे भक्त मन्द मन्द मुस्करा रहे हैं ।
Sri Ramakrishna smiles and says: "A band of minstrels suddenly appears, dances, and sings, and it departs in the same sudden manner. They come and they return, but none recognizes them."
ঠাকুর মৃদু মৃদু হাসিতেছেন। বলিতেছেন, “বাউলের দল হঠাৎ এল, — নাচলে, গান গাইলে; আবার হঠাৎ চলে গেল! এল — গেল, কেউ চিনলে না। (ঠাকুরের ও সকলের ঈষৎ হাস্য)
कुछ देर चुप रहकर श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं –"देह धारण करने पर कष्ट तो है ही ।"कभी कभी कहता हूँ, अब जैसे इस संसार में न आना पड़े ।"परन्तु एक बात है - निमन्त्रण में भोजन करते करते अब घर की बनी मटर की दाल अच्छी नहीं लगती, न घर के चावल ही अच्छे लगते हैं।"और देह-धारण भक्तों के लिए है ।"
[यहाँ ठाकुर/नवनीदा क्या अपने भक्तों को नैवेद्य (offering)-रूप से आने का निमंत्रण दे रहे हैं -क्या अपने भक्तों के साथ विहार करना, बार-बार आना उन्हें पसन्द है -यही कहना चाह रहे है ?]
After a few minutes, he says: "Suffering is inevitable when one assumes a human body. "Every now and then I say to myself, 'May I not have to come back to earth again!' But there is something else. After enjoying sumptuous feasts outside, one does not relish cheap home cooking."
Besides, this assuming of a human body is for the sake of the devotees."
কিয়ৎক্ষণ চুপ করিয়া ঠাকুর আবার বলিতেছেন, —“দেহধারণ করলে কষ্ট আছেই।“এক-একবার বলি, আর যেন আসতে না হয়। “তবে কি, — একটা কথা আছে। নিমন্ত্রণ খেয়ে খেয়ে আর বাড়ির কড়াই-এর ডাল-ভাত ভাল লাগে না।“আর যে দেহধারণ করা, — এটি ভক্তের জন্য।”
[ঠাকুর ভক্তের নৈবেদ্য — ভক্তের নিমন্ত্রণ — ভক্তসঙ্গে বিহার ভালবাসেন, এই কথা কি বলিতেছেন?]
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
[नरेंद्र की ज्ञान-भक्ति - नरेंद्र और परिवार का त्याग]
[নরেন্দ্রের জ্ঞান-ভক্তি — নরেন্দ্র ও সংসারত্যাগ ]
16.🔱🕊विचार करो तुम क्या हो ? देह हो, मन हो या बुद्धि हो ?🔱🕊
[Think about what you are? Are you body, mind or intellect?]
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को स्नेह-भरी दृष्टि से देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - चाण्डाल माँस का भार लिये हुए जा रहा था । उधर से नहा-धोकर शंकराचार्य आ रहे थे, वे उसके पास से होकर निकले । एकाएक चाण्डाल ने उन्हें छू लिया । शंकर ने विरक्ति-भाव से कहा - 'तूने मुझे छू लिया!' उसने कहा, 'भगवन्, न मैंने आपको छुआ और न आपने मुझे । विचार कीजिये, विचार कीजिये, क्या आप देह हैं, मन हैं या बुद्धि हैं ? आप क्या हैं - विचार कीजिये । शुद्ध आत्मा निर्लिप्त है - सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों में से किसी में लिप्त नहीं है ।'
Sri Ramakrishna looks at Narendra very tenderly. MASTER (to Narendra): "An outcaste was carrying a load of meat. Sankaracharya, after bathing in the Ganges, was passing by. Suddenly the outcaste touched him. Sankara said sharply: 'What! You touched me!' 'Revered sir,' he replied, 'I have not touched you nor have you touched me. Reason with me: Are you the body, the mind, or the buddhi? Analyze what you are. You are the Pure Atman, unattached and free, unaffected by the three gunas — sattva, rajas, and tamas.'
ঠাকুর নরেন্দ্রকে সস্নেহে দেখিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — চণ্ডাল মাংসের ভার নিয়ে যাচ্ছিল। শঙ্করাচার্য গঙ্গা নেয়ে কাছ দিয়ে যাচ্ছিলেন। চণ্ডাল হঠাৎ তাঁকে ছুঁয়ে ফেলেছিল। শঙ্কর বিরক্ত হয়ে বললেন, তুই আমায় ছুঁয়ে ফেললি! সে বললে, ‘ঠাকুর তুমিও আমায় ছোঁও নাই, আমিও তোমায় ছুঁই নাই! তুমি বিচার-কর! তুমি কি দেহ, তুমি কি মন, তুমি কি বুদ্ধি; কি তুমি, বিচার কর! শুদ্ধ আত্মা নির্লিপ্ত — সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ; তিনগুণ; — কোন গুণে লিপ্ত নয়।’
"ब्रह्म कैसा है, जानता है ? - जैसे वायु । वायु में सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों है, परन्तु वायु निर्लिप्त है।"
"Do you know what Brahman is like? It is like air. Good and bad smells are carried by the air, but the air itself is unaffected."
“ব্রহ্ম কিরূপ জানিস। যেমন বায়ু। দুর্গন্ধ, ভাল গন্ধ — সব বায়ুতে আসছে, কিন্তু বায়ু নির্লিপ্ত।”
नरेन्द्र - जी हाँ ।
NARENDRA: "Yes, sir."
নরেন্দ্র — আজ্ঞা হাঁ।
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
16.🔱🕊ठाकुर के देह के बारे में सोचना एकाग्रता का अभ्यास करना विद्या माया है🔱🕊
श्रीरामकृष्ण - वे गुणातीत हैं, माया से परे हैं । अविद्या-माया और विद्या-माया इन दोनों से परे हैं । कामिनी और कांचन अविद्या है; ज्ञान, भक्ति, वैराग्य ये सब विद्या के ऐश्वर्य हैं । शंकराचार्य ने विद्या का ऐश्वर्य रखा था । तुम सब लोग जो मेरे लिए सोच रहे हो, यह चिन्ता विद्या-माया है ।
MASTER: "He is beyond the gunas and maya — beyond both the 'maya of knowledge' and the 'maya of ignorance'. 'Woman and gold' is the 'maya of ignorance'. Knowledge, renunciation, devotion, and other spiritual qualities are the splendors of the 'maya of knowledge'. Sankaracharya kept this 'maya of knowledge'; and that you and these others feel concerned about me is also due to this 'maya of knowledge'.
শ্রীরামকৃষ্ণ — গুণাতীত। মায়াতীত। অবিদ্যামায়া বিদ্যামায়া দুয়েরই আতীত। কামিনী-কাঞ্চন অবিদ্যা। জ্ঞান বৈরাগ্য ভক্তি — এ-সব বিদ্যার ঐশ্বর্য। শঙ্করাচার্য বিদ্যামায়া রেখেছিলেন। তুমি আর এরা যে আমার জন্যে ভাবছ, এই ভাবনা বিদ্যামায়া!
“विद्या-माया के सहारे (Be and Make-कैम्प के सहारे) चलते रहने पर ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है । जैसे ऊपरवाली सीढ़ी, उसके बाद ही छत । कोई कोई छत पर पहुँचने के बाद भी सीढ़ियों से चढ़ते-उतरते रहते हैं - ज्ञानप्राप्ति के बाद भी 'विद्या का मैं' रख छोड़ते हैं - लोकशिक्षा के लिए और भक्ति का स्वाद लेने तथा भक्तों के साथ विलास करने के लिए भी ।”
[नरेंद्र आदि भक्त चुप हैं, सोच रहे हैं क्या ठाकुर इन बातों से अपनी अवस्था का उल्लेख कर रहे हैं ? ]
"Following the 'maya of knowledge' step by step, one attains the Knowledge of Brahman. This 'maya of knowledge' may be likened to the last few steps of the stairs. Next is the roof. Some, even after reaching the roof, go up and down the stairs; that is to say, some, even after realizing God, retain the 'ego of Knowledge'. They retain this in order to teach others, taste divine bliss, and sport with the devotees of God."
“বিদ্যামায়া ধরে ধরে সেই ব্রহ্মজ্ঞান লাভ হয়। যেমন সিঁড়ির উপরের পইটে — তারপরে ছাদ। কেউ কেউ ছাদে পৌঁছানোর পরও সিঁড়িতে আনাগোনা করে — জ্ঞানলাভের পরও বিদ্যার আমি রাখে। লোকশিক্ষার জন্য। আবার ভক্তি আস্বাদ করবার জন্য — ভক্তের সঙ্গে বিলাস করবার জন্য।”
নরেন্দ্রাদি ভক্তেরা চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর কি এ-সমস্ত নিজের অবস্থা বলিতেছেন?
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
नरेन्द्र - त्याग करने की बात चलाने से कोई कोई मुझसे नाराज हो जाते हैं ।
NARENDRA: "Some people get angry with me when I speak of renunciation."
নরেন্দ্র — কেউ কেউ রাগে আমার উপর, ত্যাগ করবার কথায়।
श्रीरामकृष्ण - (धीमे स्वर से) - त्याग आवश्यक है ।
MASTER (in a whisper): "Renunciation is necessary.
শ্রীরামকৃষ্ণ (মৃদুস্বরে) — ত্যাগ দরকার।
श्रीरामकृष्ण अपने शरीर के अंगों को दिखलाकर कह रहे हैं - " एक वस्तु के ऊपर अगर दूसरी वस्तु हो, तो एक को बिना हटाये दूसरी वस्तु कैसे मिल सकती है ?"
[आत्मा पर देह और मन आरोपित है ? एक को हटाए बिना, दूसरा कैसे पाया जा सकता है ?]
(Pointing to his different limbs) "If one thing is placed upon another, you must remove the one to get the other. Can you get the second thing without removing the first?"
ঠাকুর নিজের শরীরের অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ দেখাইয়া বলিতেছেন, “একটা জিনিসের পার যদি আর-একটা জিনিস থাকে, প্রথম জিনিসটা (ब्रह्म) পেতে গেলে, ও জিনিসটা (जगत) সরাতে হবে না? একটা না সরালে আর একটা কি পাওয়া যায়?”
नरेन्द्र - जी हाँ ।
NARENDRA: "True, sir."
নরেন্দ্র — আজ্ঞা হাঁ।
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
19.🔱🕊सर्वं ब्रह्ममयं रे रे🔱🕊
(Sarvam seE myam rE rE)
['सेई' मय देखले आर किछु कि देखा जाय ?]
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से, धीमे स्वर में) - ईश्वरमय देखते रहने पर क्या फिर कोई दूसरी चीज दिखलायी पड़ सकती है ?
MASTER (in a whisper, to Narendra): "When one sees everything filled with God alone, does one see anything else?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রকে, মৃদুস্বরে) — সেই-ময় দেখলে আর কিছু কি দেখা যায়?
नरेन्द्र - संसार का त्याग करना ही होगा ?
NARENDRA: "Must one renounce the world?"
নরেন্দ্র — সংসারত্যাগ করতে হবেই?
श्रीरामकृष्ण - जैसा मैंने अभी कहा, ईश्वरमय देखते रहने पर फिर क्या दूसरी वस्तु दीख पड़ती है? संसार आदि क्या कुछ दिखलायी पड़ सकता है ?
MASTER: "Didn't I say just now: 'When one sees everything filled with God alone, does one see anything else?' Does one then see any such thing as the world?
শ্রীরামকৃষ্ণ — যা বললুম সেই-ময় দেখলে কি আর কিছু দেখা যায়? সংসার-ফংসার আর কিছু দেখা যায়?
“परन्तु त्याग मन से होना चाहिए । यहाँ जो लोग आते हैं, उनमें संसारी कोई नहीं है । किसी किसी की इच्छा थी – स्त्री के साथ रहने की - (राखाल और मास्टर का हँसना) वह भी पूरी हो गयी ।"
"I mean mental renunciation. Not one of those who have come here is a worldly person. Some of them had a slight desire — for instance, a fancy for women. (Rakhal and M. smile.) And that desire has been fulfilled."
“তবে মনে ত্যাগ। এখানে যারা আসে, কেউ সংসারী নয়। কারু কারু একটু ইচ্ছা ছিল — মেয়েমানুষের সঙ্গে থাকা। (রাখাল, মাস্টার প্রভৃতির ঈষৎ হাস্য) সেই ইচ্ছাটুকু হয়ে গেল।
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
20.🔱🕊 नरेंद्र और वीरभाव-Attitude of a hero! Be Heros 🔱🕊
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को स्नेहपूर्ण दृष्टि से देख रहे हैं । देखते ही देखते मानो आनन्द से पूर्ण हो गये । भक्तों की ओर देखकर कहने लगे - "खूब हुआ ।" नरेन्द्र ने हँसकर पूछा - "क्या खूब हुआ ?"
The Master looks at Narendra tenderly and becomes filled with love. Looking, at the devotees, he says, "Grand!" With a smile Narendra asks the Master, "What is grand?"
ঠাকুর নরেন্দ্রকে সস্নেহে দেখিতেছেন। দেখিতে দেখিতে যেন আনন্দে পরিপূর্ণ হইতেছেন। ভক্তদের দিকে তাকাইয়া বলিতেছেন — ‘খুব’! নরেন্দ্র ঠাকুরকে সহাস্যে বলিতেছেন, ‘খুব’ কি?
श्रीरामकृष्ण - (मुस्कराते हुए) - मैं देख रहा हूँ कि महान् त्याग के लिए तैयारी हो रही है ।
MASTER (smiling): "I see that preparations are going on for a grand renunciation."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — খুব ত্যাগ আসছে।
नरेन्द्र और भक्तगण चुप हैं। सब के सब श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं।
अब राखाल बातचीत करने लगे।
Narendra and the devotees look silently at the Master. Rakhal resumes the conversation.
নরেন্দ্র ও ভক্তেরা চুপ করিয়া আছেন ও ঠাকুরকে দেখিতেছেন। এইবার রাখাল কথা কহিতেছেন।
राखाल -(श्री रामकृष्ण से, सहास्य) -नरेन्द्र ने आपको खूब समझ लिया है।
RAKHAL (smiling, to the Master): "Narendra is now beginning to understand you rather well."
রাখাল (ঠাকুরকে, সহাস্যে) — নরেন্দ্র আপনাকে খুব বুঝছে।
श्रीरामकृष्ण हँसकर कह रहे हैं - " हाँ। और देखता हूँ , बहुतों ने समझ लिया है। (मास्टर से) क्यों जी?
Sri Ramakrishna laughs and says: "Yes, that is so. I see that many others, too, are beginning to understand. (To M.) Isn't that so?"
ঠাকুর হাসিতেছেন ও বলিতেছেন, “হাঁ, আবার দেখছি অনেকে বুঝেছে! (মাস্টারের প্রতি) — না গা?”
मास्टर - जी हाँ।
M: "Yes, sir."
মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ।
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र और मणि को देख रहे हैं और हाथ के इशारे से राखाल आदि भक्तों को दिखा रहे हैं। पहले नरेन्द्र की ओर इशारा करके दिखलाया, फिर मास्टर की ओर। राखाल श्रीरामकृष्ण का इशारा समझ गए। उन्होंने कहा - " आप कहते हैं, नरेन्द्र का वीर -भाव (attitude of a hero) है और इनका (मास्टर का) सखी -भाव। " (श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं )
Sri Ramakrishna turns his eyes to Narendra and M. and by a sign of his finger draws the attention of the devotees to them. He first points out Narendra and then M. Rakhal understands the Master's hint and says to him with a smile, "Don't you mean that Narendra has the attitude of a hero, and he [meaning M.] that of a handmaid (दासी) of God?" Sri Ramakrishna laughs.
ঠাকুর নরেন্দ্র ও মণিকে দেখিতেছেন ও হস্তের দ্বারা ইঙ্গিত করিয়া রাখালাদি ভক্তদিগকে দেখাইতেছেন। প্রথন ইঙ্গিত করিয়া নরেন্দ্রকে দেখাইলেন — তারপর মণিকে দেখাইলেন! রাখাল ইঙ্গিত বুঝিয়াছেন ও কথা কহিতেছেন।রাখাল (সহাস্যে, শ্রীরামকৃষ্ণর প্রতি) — আপনি বলছেন নরেন্দ্রের বীরভাব? আর এঁর সখীভাব? [ঠাকুর হাসিতেছেন]
नरेन्द्र - (सहास्य) - ये अधिक बोलते नहीं, और स्वभाव के लजीले हैं। शायद इसीलिए आप ऐसा कहते हैं।
NARENDRA (smiling, to Rakhal): "He [meaning M.] doesn't talk much and is bashful. Is that why you say he is a handmaid of God?"
নরেন্দ্র (সহাস্যে) — ইনি বেশি কথা কন না, আর লাজুক; তাই বুঝি বলছেন।
[ (11 /15 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
(सोमवार, 15 मार्च, 1886)
21.🏹🔱🕊हमारा 3'H's क्या ठाकुरदेव के भीतर से आया है ?🏹🔱🕊
[ Thakur Sri Ramakrishna — Who is he? ]
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ — কে তিনি? ]
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से, हँसकर) - अच्छा, मेरा क्या भाव है ?
MASTER (smiling, to Narendra): "Well, what do you think of me?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে নরেন্দ্রকে) — আচ্ছা, আমার কি ভাব?
नरेन्द्र - वीरभाव, सखीभाव -सब भाव।
NARENDRA: "You are a hero, a handmaid of God, and everything else."
নরেন্দ্র — বীরভাব, সখীভাব, — সবভাব।
यह सुनकर मानो श्रीरामकृष्ण को 'भावावेश ' (divine emotion-दिव्य भाव) हो गया । हृदय पर हाथ रखकर कुछ कहने वाले हैं ।
These words fill Sri Ramakrishna with divine emotion. He places his hand on his heart and is about to say something.
ঠাকুর এই কথা শুনিয়া যেন ভাবে পূর্ণ হইলেন, হৃদয়ে হাত রাখিয়া কি বলিতেছেন!
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्रादि भक्तों से) - देखता हूँ, जो कुछ है (3H's?), सब इसी के भीतर से आया है ।
He says to Narendra and the other devotees: "I see that all things — everything that exists —(3H's?) have come from this."
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রাদি ভক্তদিগকে) — দেখছি এর ভিতর থেকেই যা কিছু (3H's?)।
नरेन्द्र से इशारा करके श्रीरामकृष्ण पूछ रहे हैं, “क्या समझे ?”
He asks Narendra by a sign, "What did you understand?"
নরেন্দ্রকে ইঙ্গিত করিয়া জিজ্ঞাসা করিতেছেন, “কি বুঝলি?”
नरेन्द्र - जो कुछ है, अर्थात् सृष्टि में जो कुछ पदार्थ हैं (3H's?), सब आपके भीतर से आया है ।ऑ॥॥
NARENDRA: "All created objects (3H's?) have come from you."
श्रीरामकृष्ण - (राखाल से, आनन्दपूर्वक) – देखा ?
The Master's face beams with joy. He says to Rakhal, "Did you hear what" he said?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (রাখালের প্রতি, আনন্দে) — দেখছিস!
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से जरा गाने के लिए कह रहे हैं । नरेन्द्र स्वर अलापकर गा रहे हैं । नरेन्द्र का त्याग-भाव है । वे गा रहे हैं –
"नलिनीदलगतजलमतितरलम् ।तद्वज्जीवनमतिशयचपलम् ॥
क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका । भवति भवार्णवतरणे नौका ॥”
....अर्थात "जिस प्रकार कमल की पंखुड़ी पर पानी की बूँदें क्षणभंगुर हैं ; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है। साधु (गुरुदेव-नेता-जीवनमुक्त शिक्षक) के साथ (सत्संग) में बिताया गया एक भी पल वह 'नाव' है जो, मनुष्य को इस संसार सागर से (जन्म-मृत्यु के चक्र से) पार ले जाती है"।
Oh deluded man ! Why do you worry about your wealth and wife? Is there no one to take care of them? Only the company of saints can act as a boat in three worlds to take you out from this ocean of rebirths. ॥13॥]
Sri Ramakrishna asks Narendra to sing. Narendra intones a hymn. His mind is full of renunciation. He sings: "Unsteady is water on the lotus petal; Just as unsteady is the life of man. One moment with a sadhu is the boat That takes one across the ocean of this world". . . .
ঠাকুর নরেন্দ্রকে একটু গান গাইতে বলিতেছেন। নরেন্দ্র সুর করিয়া গাহিতেছেন। নরেন্দ্রের ত্যাগের ভাব, — গাহিতেছেন: “নলিনীদলগতজলমতিতরলম্ তদ্বজ্জীবনমতিশয়চপলম্, ক্ষণমিহ সজ্জনসঙ্গতিরেকা, ভবতি ভবার্ণবতরণে নৌকা।”
दो-एक पद गाने के बाद ही श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से इशारे से कह रहे हैं, "यह क्या है ? यह तो बहुत छोटा भाव है !"
Narendra has hardly finished one or two lines, when Sri Ramakrishna says to him by a sign: "What are you singing? That is a very insignificant attitude, a very commonplace thing."
দুই-এক চরণ গানের পরই ঠাকুর নরেন্দ্রকে ইঙ্গিত করিয়া বলিতেছেন, “ও কি! ও-সব ভাব অতি সামান্য!”
नरेन्द्र अब सखी-भाव का एक सुन्दर गीत गा रहे हैं –
काहे सई, जियत मरत कि विधान !
व्रजकि किशोर सई, काँहा गेल भागई, वज्रजन टूटल परान।।
मिलि सई नागरी, भूली गेयी माधव, रूपविहीन गोपकुगांरी।
को जाने पिय सई, रसमय प्रेमिक, हेन बन्धु रूप कि भिखारी।।
आगे नाही बूझूनू, रूप हरि भूलनू , हृदि केनू चरण यूगल।
यमूना सलिले सई, अब तनू डारब, आनो सखि भखिबो गरल।।
(किवा) कानन वल्लरी, गल बेढ़ी बाँधई, नवीन तमाल दिव फाँस।
नहे श्याम श्याम श्याम श्याम श्याम श्याम नाम -जपई, छार तनू करिबो बिनाश।।
(भावार्थ) - "अरी सखि ! जीवन और मृत्यु का यह कैसा विधान है ! व्रज-किशोर कहाँ भाग गये ? इस ब्रज-गोपी के तो प्राणों पर आ गयी है । सखि, माधव तो सुन्दर कन्याओं के प्रेम में बँधे हुए हैं । हाय ! इस रूपविहीन गोप-कन्या को उन्होंने भुला दिया है । अरी, कौन जानता था कि वे रसमय प्रेमिक रूप के भिखारी होंगे ?
मैं मूर्ख थी जो पहले मैंने यह नहीं समझा; रूप देखकर भूल गयी, और उनके युगलचरणों को हृदय में स्थापित किया । री सखि, अब तो जी यह चाहता है कि यमुना में डूबकर मर जाऊँ या जहर लाकर खा लूँ, अथवा कुंजों की लताओं से गला फाँसकर किसी नये तमाल में लटककर प्राण दे दूँ, या श्याम-श्याम जपते-जपते इस अधम शरीर का नाश कर डालूँ ।"
Now Narendra sings about the love of Krishna, impersonating one of His handmaids:
"How strange, O friend, are the rules of life and death! The Youth of Braja has fled away, And this poor maid of Braja soon will die. Madhava is in love with other maids More beautiful than I. Alas! He has forgotten the milkman's artless daughter. Who would ever have guessed, dear friend, that He, A Lover so tender, so divine, Could be a beggar simply for outward charm! I was a fool not to have seen it before; But carried away by His beauty, I yearned alone to hold His two feet to my breast. Now I shall drown myself in the Jamuna's stream, Or take a draught of poison, friend! Or I shall bind a creeper round my neck, Or hang myself from a young tamala tree; Or, failing all of these, Destroy my wretched self by chanting Krishna's name.
নরেন্দ্র এইবার সখী ভাবের গান গাহিতেছেন:
কাহে সই, জিয়ত মরত কি বিধান!
ব্রজকি কিশোর সই, কাঁহা গেল ভাগই, ব্রজজন টুটায়ল পরাণ ॥
মিলি সই নাগরী, ভুলিগেই মাধব, রূপবিহীন গোপকুঙারী।
কো জানে পিয় সই, রসময় প্রেমিক, হেন বঁধু রূপ কি ভিখারি ॥
আগে নাহি বুঝুনু, রূপ হেরি ভুলনু, হৃদি কৈনু চরণ যুগল।
যমুনা সলিলে সই, অব তনু ডারব, আন সখি ভখিব গরল ॥
(কিবা) কানন বল্লরী, গল বেঢ়ি বাঁধই, নবীন তমালে দিব ফাঁস।
নহে শ্যাম শ্যাম শ্যাম শ্যাম শ্যাম নাম-জপই, ছার তনু করিব বিনাশ ॥
गाना सुनकर श्रीरामकृष्ण और भक्तगण मुग्ध हो गये । श्रीरामकृष्ण और राखाल की आँखों से आँसू बह चले । नरेन्द्र व्रज की गोपियों के भाव में मस्त होकर फिर गा रहे हैं -
तुमि आमार, आमार बँधु, कि बोली (कि बोली तोमाय बोलि नाथ),
(कि जानि कि बोली आमि अभागिनी नारीजाति)।
तुमि हातो कि दर्पण, माखोकि फूल,
(तोमाय फूल करे केशे पोरबो बँधु। )
(तोमाय कबरीर सने लुकाये लूकाये राखबो बँधु)।
(श्यामफूल परिले केउ नखते नारबे)।
तुमि नयनेर अंजन, बयानेर ताम्बूल,
(तोमाय श्याम अंजन करे आँखे परबो बन्धु)
(श्याम अंजन परेछि बले केउ नखते नारबे)।
तुमि अङ्गकी मृगमद गिमकी हार।
(श्यामचन्दन माखि शीतल होबो बँधु)
तोमार हार कण्ठे परबो बँधु। तुमि देहकि सर्वस्व गेहकि सार।।
पाखिको पाख मीनको पानि। तेयसे हम बन्धू तुया मानि।।
(भावार्थ) –
“हे कृष्ण ! प्रियतम ! तुम मेरे हो । तुमसे मैं क्या कहूँ, मेरे नाथ, तुमसे मैं क्या बोलूँ ? मैं नारी हूँ, अभागिनी हूँ, समझ नहीं पा रही हूँ कि मैं तुमसे क्या कहूँ । तुम मेरे हाथ के दर्पण हो, सिर के फूल हो । सखे, मैं तुम्हें फूल बनाकर केशों में खोंच लूँगी और खोपे में छिपा रखूँगी । श्याम-फूल खोंचने से तुम्हें कोई देख न पायेगा । तुम मेरी आँखों के अंजन हो, मुख के ताम्बूल हो ।
हे श्याम ! हे कृष्ण ! तुम्हें अंजन बनाकर आँखों में लगा लूँगी । श्याम-अंजन होने के कारण तुम्हें वहाँ कोई देख न सकेगा । तुम अंग की कस्तूरी हो, गले के हार हो । सखे, शरीर में श्यामचन्दन लेपकर मैं अपने प्राण शीतल करूँगी । प्रियतम, तुम्हें मैं हार बनाकर कण्ठ में पहनूँगी । तुम देह के सर्वस्व हो, गेह के सार हो । पक्षी के लिए जिस तरह पंख हैं, और मछली के लिए जिस तरह पानी है, उसी तरह, हे नाथ, तुम मेरे लिए हो ।"
Sri Ramakrishna and the devotees are greatly moved by the song. The Master and Rakhal shed tears of love. Narendra is intoxicated with the love of the gopis of Braja for their Sweetheart, Sri Krishna, and sings:
"O Krishna! Beloved! You are mine. What shall I say to You, O Lord? What shall I ever say to You? Only a woman am I, And never fortune's favourite; I do not know what to say. You are the mirror for the hand, And You are the flower for the hair. O Friend, I shall make a flower of You , And wear You in my hair; Under my braids I shall hide You, Friend! No one will see You there . You are the betel-leaf for the lips, The sweet collyrium for the eyes; O Friend, with You I shall stain my lips, With You I shall paint my eyes. You are the sandal-paste for the body; You are the necklace for the neck. I shall anoint myself with You, My fragrant Sandal-paste, And soothe my body and my soul. I shall wear You, my lovely Necklace, Here about my neck, And You will lie upon my bosom, Close to my throbbing heart. You are the Treasure in my body; You are the Dweller in my house. You are to me, O Lord, What wings are to the flying bird, What water is to the fish.
গান শুনিয়া ঠাকুর ও ভক্তেরা মুগ্ধ হইয়াছেন। ঠাকুর ও রাখালের নয়ন দিয়ে প্রেমাশ্রু পড়িতেছে। নরেন্দ্র আবার ব্রজগোপীর ভাবে মাতোয়ারা হইয়া কীর্তনের সুরে গাহিতেছেন:
তুমি আমার, আমার বঁধু, কি বলি (কি বলি তোমায় বলি নাথ)।
(কি জানি কি বলি আমি অভাগিনী নারীজাতি)।
তুমি হাতোকি দর্পণ, মাথোকি ফুল
(তোমায় ফুল করে কেশে পরব বঁধু)।
(তোমায় কবরীর সনে লুকায়ে লুকায়ে রাখব বঁধু)
(শ্যামফুল পরিলে কেউ নখতে নারবে)।
তুমি নয়নের অঞ্জন, বয়ানের তাম্বুল
(তোমায় শ্যাম অঞ্জন করে এঁখে পরবো বঁধু)
(শ্যাম অঞ্জন পরেছি বলে কেউ নখতে নারবে)
তুমি অঙ্গকি মৃগমদ গিমকি হার।
(শ্যামচন্দন মাখি শীতল হব বঁধু)
তোমার হার কণ্ঠে পরব বঁধু। তুমি দেহকি সর্বস্ব গেহকি সার ॥
পাখিকো পাখ মীনকো পানি। তেয়সে হাম বঁধু তুয়া মানি ॥
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