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सोमवार, 18 मार्च 2024

🕊🏹परिच्छेद 128~संसारी लोगों के प्रति उपदेश* 🕊🏹 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]🔱🙏कर्म का प्रभाव चरित्र पर पड़ता है🔱🙏 क्या आपकी इच्छा आपको, विकारों के वशीभूत हो कर* *उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है ?"*यदि इच्छा अभी भी विकारों में बह जाने के लिए प्रेरित करती हो - तो स्कन्दमाता की पूजा अवश्य करें !

  *परिच्छेद -128 *

*संसारी लोगों के प्रति उपदेश*

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

(१)

🔱🙏 परमहंस का नीर-क्षीर विवेक : ‘ आम खाओ ’🔱🙏

[🙏डॉक्टर और मास्टर - सार क्या है?  हम लोग संसार में इसलिए आये हैं कि - ' ईश्वर ' को जानकर (अर्थात ब्रह्म-शक्ति -भगवान अर्थात गुरु मुख से अवतार वरिष्ठ का नाम सुनकर) उनके पादपद्मों में शुद्धा भक्ति हो! 🙏]

आज बृहस्पतिवार है । आश्विन की कृष्णा षष्ठी, 29 अक्टूबर, 1885 । श्रीरामकृष्ण बीमार हैं । श्यामपुकुर में हैं । डाक्टर सरकार चिकित्सा कर रहे हैं । उनका मकान शाँखारिटोला में है । श्रीरामकृष्ण की हालत प्रति दिन कैसी रहती है, इसकी खबर लेकर डाक्टर के यहाँ रोज आदमी भेजा जाता है । दिन के दस बजे का समय होगा, कलकते में डा. सरकार के मकान पर मास्टर श्रीरामकृष्ण की हालत बताने के लिए आ पहुँचे । 

আজ বৃহস্পতিবার, আশ্বিন কৃষ্ণা ষষ্ঠী, ২৯শে অক্টোবর, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ। বেলা দশটা। ঠাকুর পীড়িত। কলিকাতার অন্তর্গত শ্যামপুকুরে রহিয়াছেন। ডাক্তার তাঁহাকে চিকিৎসা করিতেছেন, ডাক্তারের বাড়ি শাঁখারিটোলা। ডাক্তারের সঙ্গে এখানে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের একটি সেবক কথা কহিতেছেন। ঠাকুর রোজ রোজ কেমন থাকেন, সেই সংবাদ লইয়া তাঁহাকে প্রত্যহ আসিতে হয়।

IT WAS ABOUT TEN O'CLOCK in the morning when M. arrived at Dr. Sarkar's house in Sankharitola, Calcutta, to report Sri Ramakrishna's condition. M. and Dr. Sarkar became engaged in conversation.

डाक्टर - देखो, डा. बिहारी भादुड़ी की एक धुन है ! कहता है,  गोएथे  (एक विख्यात जर्मन लेखक) की 'स्पिरिट'(सूक्ष्म शरीर) निकल गयी और गोएथे स्वयं उसे देख रहा था ! कितने आश्चर्य की बात है!

[Johann Wolfgang (von) Goethe (28 August 1749 – 22 March 1832) जोहान वोल्फगैंग (वॉन) गोएथे एक प्रसिद्द जर्मन लेखक, दार्शनिक‎ और विचारक थे]

DOCTOR: "You see, Dr. Behari Bhaduri always harps on the same thing. He says that Goethe's spirit came out of his body and that Goethe himself saw it. It must have been very amazing."

ডাক্তার — দেখ, বিহারীর (ভাদুরীর) এক কথা! বলে Goethe's spirit (সূক্ষ্মশরীর) বেরিয়ে গেল, আবার Goethe তাই দেখছে! কি আশ্চর্য কথা!

मास्टर - श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं, इन सब बातों से हमें क्या मतलब ? हम लोग संसार में इसलिए आये हैं कि ईश्वर के पादपद्मों में भक्ति हो । वे कहते हैं, एक आदमी एक बगीचे में आम खाने के लिए गया था । वह एक कागज और पेन्सिल लेकर कितने पेड़ हैं, कितनी डालियाँ हैं, कितने पत्ते हैं, गिन-गिनकर लिखने लगा ।

M: "As Sri Ramakrishna says, what shall we gain from these discussions? We have been born in this world in order to cultivate devotion to the Lotus Feet of God. He tells us the story of a man who entered an orchard to eat mangoes. But instead of eating the fruit, he took out pencil and paper and began to jot down the number of trees, branches, and leaves in the orchard. 

মাস্টার — পরমহংসদেব বলেন, ও-সব কথায় আমাদের কি দরকার? আমরা পৃথিবীতে এসেছি, যাতে ঈশ্বরের পাদপদ্মে ভক্তি হয়। তিনি বলেন, একজন একটা বাগানে আম খেতে গিছল। সে একটা কাগজ আর পেন্সিল নিয়ে কত গাছ, কত ডাল, কত পাতা তাই গুণছি — 

बगीचे के एक आदमी से उसकी भेंट हुई । उस आदमी ने पूछा, 'यह तुम क्या कर रहे हो ? - और यहाँ तुम आये भी क्यों ?' तब उसने कहा, 'यहाँ कितने पेड़ हैं, कितनी डालियाँ हैं, कितने पत्ते हैं, यही गिन रहा हूँ । यहाँ आम खाने के लिए आया हूँ ।' बगीचे के आदमी ने कहा, ‘आम खाने आये हो तो आम खा जाओ, - कितने पत्ते हैं, कितनी डालियाँ हैं, इन सब बातों से तुम्हें क्या काम ?’

A servant saw him and asked: 'What are you doing? Why have you come here?' The man said: 'I have come here to eat mangoes. I am now counting the trees, branches, and leaves in the orchard.' Thereupon the servant replied: 'If you have come here to eat mangoes, then enjoy them. What will you gain by counting the trees, branches, and leaves?'"

বাগানের লোকটি বললে, আম খেতে এসেছ তো আম খেয়ে যাও, তোমার অত শত, কত পাতা, কত ডাল এ-সব কাজ কি?

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏होम्योपैथिक चिकित्सा : उपहास, विरोध  के बाद स्वीकृति🔱🙏 

डाक्टर - देखता हूँ , परमहंस ने सार पदार्थ ग्रहण किया है ।

DOCTOR: "I see that the Paramahamsa has been able to extract the essence."

ডাক্তার — পরমহংস সারটা নিয়েছে দেখছি।

फिर डाक्टर अपने होमिओपैथिक अस्पताल के सम्बन्ध में बहुतसी बातें कहने लगे । कितने रोगी रोज आते हैं उनकी तालिका दिखलायी, और कहा, 'पहले पहल डाक्टरों ने मुझे निरुत्साहित कर दिया था । वे लोग अनेक मासिक पत्रों में भी मेरे विरोध में लिखते थे’ – आदि ।

অতঃপর ডাক্তার তাঁহার হোমিওপ্যাথিক হাসপাতাল সম্বন্ধে অনেক গল্প করিতে লাগিলেন — কত রোগী রোজ আসে, তাদের ফর্দ দেখালেন; বললেন, ডাক্তার সাল্‌জার এবং অন্যন্য অনেকে তাঁহাকে প্রথমে নিরুৎসাহ করিয়াছিলেন। তাঁহারা অনেক মাসিক পত্রিকায় তাঁহার বিরুদ্ধে লিখিতেন ইত্যাদি।

Then Dr. Sarkar told M. many stories about his homeopathic hospital. He showed M. the list of the patients who visited the hospital every day. He further remarked that at the beginning many medical practitioners had discouraged him about homeopathy and had even written against him in magazines.

डाक्टर गाड़ी पर बैठे । साथ मास्टर भी चढ़े । डाक्टर रोगियों को देखते हुए जाने लगे । पहले चोरबागान, फिर माथाघसा गली, फिर पथरियाघट्टा, सब जगह के रोगियों को देखकर श्रीरामकृष्ण को देखने जायेंगे । डाक्टर पथरियाघट्टा में ठाकुरों के एक मकान में गये । वहाँ कुछ देर हो गयी । गाड़ी में आकर फिर गप्प लड़ाने लगे ।

M. and Dr. Sarkar got into the doctor's carriage. The doctor visited many patients. He entered a house of the Tagore family at Pathuriaghata and was detained there by the head of the family. Returning to the carriage, he began to talk to M.

ডাক্তার গাড়িতে উঠিলেন, মাস্টারও সঙ্গে উঠিলেন। ডাক্তার নানা রোগী দেখিয়া বেড়াইতে লাগিলেন। প্রথমে চোরবাগান, তারপর মাথাঘষার গলি, তারপর পাথুরিয়াঘাটা। সব রোগী দেখা হইলে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে দেখিতে যাইবেন। ডাক্তার পাথুরিয়াঘাটার ঠাকুরদের একটি বাড়িতে গেলেন। সেখানে কিছু বিলম্ব হইল। গাড়িতে ফিরিয়া আসিয়া আবার গল্প করিতে লাগিলেন

डाक्टर - इस बाबू के साथ मेरी श्रीरामकृष्णदेव के बारे में बातचीत हुई, थियॉसफी की बातचीत हुई और फिर कर्नल अलकट की । इस बाबू से श्रीरामकृष्णदेव नाराज रहते हैं । इसका कारण जानते हो ? यह बाबू कहता है, ‘मैं सब जानता हूँ ।’

DOCTOR: "I was talking to that gentleman about the Paramahamsa. We also talked about Theosophy and Colonel Olcott. The Paramahamsa is angry with the gentleman. Do you know why? Because he says he knows everything."

ডাক্তার — এই বাবুটির সঙ্গে পরমহংসের কথা হল। থিয়সফির কথা — কর্ণেল অল্‌কটের কথা হল। পরমহংস ওই বাবুটির উপর চটা! কেন জান? এ বলে, আমি সব জানি

मास्टर - नहीं, नाराज क्यों होंगे ? परन्तु इतना मैंने भी सुना है कि एक बार भेंट हुई थी । श्रीरामकृष्णदेव ईश्वर की बातचीत कर रहे थे । तब इन्होंने कहा था, 'हाँ, यह सब मैं जानता हूँ ।'

M: "No, why should the Master be angry? I heard that they once met each other. Paramahamsadeva was talking about God. The gentleman said, 'Oh, yes! I know all that!'"

মাস্টার — না, চটা হবেন কেন? তবে শুনেছি, একবার দেখা হয়েছিল। তা পরমহংসদেব ঈশ্বরের কথা বলছিলেন। তখন ইনি বলেছিলেন বটে যে ‘হাঁ ও-সব জানি’

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏 डॉ सरकार के Science Association.को 32,500 रुपये का दान 🔱🙏 

डाक्टर - इस बाबू ने विज्ञान परिषद को 32,500 रुपये का दान दिया है ।

DOCTOR: "He has donated thirty-two thousand five hundred rupees to the Science Association."

ডাক্তার — এ বাবুটি সায়েন্স এসোসিয়েশনে ৩২,৫০০ টাকা দিয়াছেন

गाड़ी चलने लगी । बड़ाबाजार होकर लौट रही है । डाक्टर श्रीरामकृष्ण की सेवा के सम्बन्ध में बातचीत करने लगे ।

They drove on, talking about Sri Ramakrishna's illness and the care that should be taken of him.

গাড়ি চলিতে লাগিল। বড়বাজার হইয়া ফিরিতেছে। ডাক্তার ঠাকুরের সেবা সম্বন্ধে কথা কহিতে লাগিলেন।

डाक्टर - तुम लोगों की क्या यह इच्छा है कि इन्हें दक्षिणेश्वर भेज दिया जाय ?

DOCTOR: "Do you intend to send him back to Dakshineswar?"

ডাক্তার — তোমাদের কি ইচ্ছা এঁকে দক্ষিণেশ্বরে পাঠানো?

मास्टर - नहीं, इससे भक्तों को बड़ी असुविधा होगी । कलकत्ते में रहने से हर समय आना-जाना लगा रह सकता है - देखने में सुविधा होती ।

M: "No, sir. That would greatly inconvenience the devotees. They can always visit him if he is in Calcutta."

মাস্টার — না, তাতে ভক্তদের বড় অসুবিধা। কলকাতায় থাকলে সর্বদা যাওয়া আসা যায় — দেখতে পারা যায়।

डाक्टर - यहाँ खर्च तो बहुत हो रहा होगा ।

DOCTOR: "But it is very expensive here."

ডাক্তার — এতে তো অনেক খরচ হচ্ছে।

मास्टर - इसके लिए भक्तों को कोई कष्ट नहीं है । वे लोग जिस प्रकार भी सवा हो सके यही चेष्टा कर रहे हैं । खर्च तो यहाँ भी है, वहाँ भी है । वहाँ जाने पर हम लोग हमेशा देख नहीं सकेंगे, यही एक चिन्ता की बात है ।

M: "The devotees don't mind that. All they want is to be able to serve him. As regards the expense, it must be borne whether he lives in Calcutta or at Dakshineswar. But if he goes back to Dakshineswar, the devotees won't always be able to visit him, and that will cause them great worry."

মাস্টার — ভক্তদের সে জন্য কোন কষ্ট নাই। তাঁরা যাতে সেবা করতে পারেন, এই চেষ্টা করছেন। খরচ তো এখানেও আছে। সেখানে গেলে সর্বদা দেখতে পাবেন না, এই ভাবনা।

*(२)

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏संसार का स्वरूप तथा ईश्वरलाभ का उपाय🔱🙏

[बेहतर चिकित्सा के लिए डॉक्टरों ने उन्हें कोलकाता जाने का सुझाव दिया। इसलिए, श्री रामकृष्ण 2 अक्टूबर 1885 को  श्यामपुकुर स्ट्रीट के एक दुमंजिले मकान में आ गए। श्यापुकुर में वे 70 दिनों तक रहे।  11 दिसंबर, 1885 को श्री रामकृष्ण काशीपुर के गार्डन हाउस में स्थानांतरित हो गये। यहां वे अपनी महासमाधि तक आठ महीने तक रहे। [अंतिम सांस तक] मनुष्य को उसका शरीर वास्तविक लगता है। तब तक दासो अहं कहना होगा ! ]

डाक्टर और मास्टर श्यामपुकुर के दुमँजले मकान में गये । उस मकान के ऊपर बाहरवाले बारामदे में दो कमरे हैं । एक की लम्बाई पूर्व और पश्चिम की ओर है, दूसरे की उत्तर और दक्षिण की ओर । इनमें से पहलेवाले कमरे में जाकर उन्होंने देखा, श्रीरामकृष्ण प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए हैं । पास में डाक्टर भादुड़ी तथा दूसरे भक्त हैं ।

Dr. Sarkar and M. arrived at Syampukur and found the Master sitting with the devotees in his room. Dr. Bhaduri also was there.

ডাক্তার ও মাস্টার শ্যামপুকুরে আসিয়া দ্বিতল গৃহে উপস্থিত হইলেন। সেই গৃহের বাহিরের উপরে বারান্দাওয়ালা দুটি ঘর আছে। একটি পূর্ব-পশ্চিমে ও অপরটি উত্তর-দক্ষিণে দীর্ঘ। তাহার প্রথম ঘরটিতে গিয়া দেখেন, ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বসিয়া আছেন। ঠাকুর সহাস্য। কাছে ডাক্তার ভাদুড়ী ও অনেকগুলি ভক্ত

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏जब ईश्वर सत्य है तब उनकी सृष्टि मिथ्या कैसे है ?🔱🙏

डाक्टर ने नाड़ी देखी । पीड़ा का सब हाल उन्होंने पूछकर मालूम किया । क्रमशः ईश्वर के सम्बन्ध में बातचीत होने लगी ।
Dr. Sarkar examined the Master's pulse and inquired about his condition. The conversation turned to God.
ডাক্তার হাত দেখিলেন ও পীড়ার অবস্থা সমস্ত অবগত হইলেন। ক্রমে ঈশ্বর সম্বন্ধীয় কথা হইতে লাগিল।

भादुड़ी - बात जानते हो, क्या है ? सब स्वप्नवत् ।

DR. BHADURI: "Shall I tell you the truth? All this is unreal, like a dream."

ভাদুড়ী — কথাটা কি জান? সব স্বপ্নবৎ।

डाक्टर - सब कुछ भ्रम है । परन्तु किसको भ्रम है और क्यों भ्रम है ? और सब लोग भ्रम जानकर भी फिर बातचीत क्यों करते हैं ? ‘ईश्वर सत्य है और उसकी सृष्टि मिथ्या है’ इसमें में विश्वास नहीं कर सकता

DR. SARKAR: "Is everything delusion? Then whose is this delusion? And why this delusion? If all know it to be delusion, then why do they talk? I cannot believe that God is real and His creation unreal."

ডাক্তার — সবই ডিলিউসন্‌(ভ্রম)? তবে কার ডিলিউসন্‌আর কেন ডিলিউন্‌? আর সব্বাই কথাই বা কয় কেন, ডিলিউসন্‌ জেনেও? I cannot believe that God is real and creation is unreal. (ঈশ্বর সত্য, আর তাঁর সৃষ্টি মিথ্যা, এ বিশ্বাস করিতে পারি না।)

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏सोहम् और दासभाव   - ज्ञान और भक्ति🔱🙏

(ज्ञान और भक्ति शास्त्र पढ़ने से नहीं अनुभव से होगा) 

[সোঽহম্‌ ও দাসভাব — জ্ঞান ও ভক্তি ]

श्रीरामकृष्ण - 'तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ’ यह बड़ा सुन्दर भाव है । जब तक यह बोध है कि देह सत्य है, जब तक 'मैं' और 'तुम' का भाव बना हुआ है, तब तक सेव्य और सेवक भाव ही अच्छा है । 'मैं वही हूँ' इस तरह की बुद्धि अच्छी नहीं 

MASTER: "That is a good attitude. It is good to look on God as the Master and oneself as His servant. As long as [till last breath]  a man feels the body to be real, as long as he is conscious of 'I' and 'you', it is good to keep the relationship of master and servant; it is not good to cherish the idea of 'I am He'.

শ্রীরামকৃষ্ণ — এ বেশ ভাব — তুমি প্রভু, আমি দাস। যতক্ষণ দেহ সত্য বলে বোধ আছে, আমি তুমি আছে, ততক্ষণ সেব্য সেবকভাবই ভাল; আমি সেই, এ-বুদ্ধি ভাল নয়।"

अच्छा, मैं तुम्हें एक और बात बताऊँ ? किसी कमरे को चाहे तुम एक किनारे से देखो या कमरे के भीतर से देखो, कमरा वही है ।"

"Let me tell you something else. You see the same room whether you look at it from one side or from the middle of the room."

“আর কি জান? একপাশ থেকে ঘরকে দেখছি, এও যা, আর ঘরের মধ্যে থেকে ঘরকে দেখছি, সেও তাই।”

भादुड़ी - (डाक्टर से) - ये सब बातें वेदान्त में हैं । शास्त्र पढ़ो, तब समझोगे ।

DR. BHADURI (to Dr. Sarkar): "What I have just said you will find in the Vedanta. You must study the scriptures. Then you will understand."

ভাদুড়ী (ডাক্তারের প্রতি) — এ-সব কথা যা বললুম, বেদান্তে আছে। শাস্ত্র-টাস্ত্র দেখ, তবে তো।

डाक्टर – क्यों ? क्या ये शास्त्रों को पढ़कर विद्वान् हुए हैं ? और यही बात तो ये भी कहते हैं । क्या बिना शास्त्रों को पढ़े हो नहीं सकता ?

DR. SARKAR: "Why so? Has he [meaning the Master] acquired all this wisdom by studying the scriptures? He too supports my view. Can't one be wise without reading the scriptures?"

ডাক্তার — কেন, ইনি কি শাস্ত্র দেখে বিদ্বান হয়েছেন? আর ইনিও তো ওই কথা বলেন। শাস্ত্র না পড়লে হবে না?

श्रीरामकृष्ण - अजी, पर मैंने कितने शास्त्र सुने हैं !

MASTER: "But how many scriptures I have heard!"

শ্রীরামকৃষ্ণ — ওগো, আমি শুনেছি কত?

डाक्टर - केवल सुनने से बहुतसी भूलें रह सकती हैं । आपने केवल सुना ही नहीं ! फिर दूसरी बातचीत होने लगी ।

DR. SARKAR: "A man may mistake the meaning if he only hears. In your case it is not mere hearing."

ডাক্তার — শুধু শুনলে কত ভুল থাকতে পারে। তুমি শুধু শোন নাই।আবার অন্য কথা চলিতে লাগিল।

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏सोहम् और दासभाव   - ज्ञान और भक्ति🔱🙏

🔱🙏'इनी पागल' - ठाकुरदेव के चरणों की धूल माथे लेना 🔱🙏

[‘ইনি পাগল’ — ঠাকুরের পায়ের ধুলা দেওয়া ]

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - मैंने सुना है, तुम कहते हो कि मैं (श्रीरामकृष्ण) पागल हूँ । इसी से ये लोग (मास्टर आदि की ओर इशारा करके) तुम्हारे पास नहीं जाना चाहते ।

MASTER (to Dr. Sarkar): "I understand that you spoke of me as insane. That is why they (pointing to M. and the others) don't want to go to you."

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — আপনি নাকি বলেছো, ‘ইনি পাগল’? তাই এরা (মাস্টার ইত্যাদির দিকে দেখাইয়া) তোমার কাছে যেতে চায় না।

डाक्टर - (मास्टर की ओर देखकर) - मैं इन्हें पागल क्यों कहने लगा ? "परन्तु हाँ इनके अहंकार की बात अवश्य कही थी । भला ये आदमियों को पैरों की धूल क्यों लेने देते हैं ?"

DR. SARKAR (looking at M.): "Why should I call you [meaning the Master] insane? But I mentioned your egotism. Why do you allow people to take the dust of your feet?"

ডাক্তার (মাস্টারের দিকে দৃষ্টিপাত করিয়া) — কই? তবে অহংকার বলেছি। তুমি লোককে পায়ের ধুলা নিতে দাও কেন?

मास्टर - नहीं तो लोग रोने लगते हैं ।

M: "Otherwise they weep."

মাস্টার — তা না হলে লোকে কাঁদে।

डाक्टर - वह उनकी भूल है, उन्हें समझना चाहिए ।

DR. SARKAR: "That is their mistake. They should be told about it."

ডাক্তার — তাদের ভুল — বুঝিয়ে দেওয়া উচিত।

मास्टर – उनके चरणों की धूल क्यों न ली जाए ? सर्वभूतों में क्या नारायण नहीं हैं ?

M: "Why should you object to their taking the dust of his feet? Doesn't God dwell in all beings?"

মাস্টার — কেন, সর্বভূতে নারায়ণ?

डाक्टर - इसके लिए मुझे कोई आपत्ति नहीं । तो फिर तुम्हें सब के पैरों की धूल लेनी चाहिए ।

DR. SARKAR: "I don't object to that. Then you must take the dust of everyone's feet."

ডাক্তার — তাতে আমার আপত্তি নাই। সব্বাইকে কর।

मास्टर - किसी किसी मनुष्य में उनका प्रकाश अधिक है । पानी सब जगह है, परन्तु तालाब में, नदी में, समुद्र में वह अधिक है । आप फैराडे को जितना मानियेगा, उतना ही क्या किसी नये 'बैचलर ऑफ साइन्स' (Bachelor of Science) को भी मानियेगा ?

M: "But there is a greater manifestation of God in some men than in others. There is water everywhere; but you see more of it in a lake, a river, or an ocean. Will you show the same respect to a new Bachelor of Science as you do to Faraday?"

মাস্টার — কোন কোন মানুষে বেশি প্রকাশ! জল সব জায়গায় আছে, কিন্তু পুকুরে, নদীতে, সমুদ্রে, — প্রকাশ। আপনি Faraday-কে যত মানবেন, নূতন Bachelor of Science-কে কি তত মানবেন?

डाक्टर - हाँ, यह मैं मानता हूँ । परन्तु ईश्वर को बीच में क्यों लाते हो ?

DR. SARKAR: "I agree with that. But why do you call him God?"

ডাক্তার — তাতে আমি রাজী আছি। তবে গড্‌ (God) বল কেন?

मास्टर - हम लोग एक दूसरे को [राम-राम कहकर]  नमस्कार इसलिए करते हैं कि सब के हृदय में ईश्वर का वास है । इन विषयों को आपने न तो अधिक पढ़ा है और न इन पर विचार ही किया है ।

M: "Why do we salute each other? It is because God dwells in everybody's heart. You haven't given much thought to this subject."

মাস্টার — আমরা পরস্পর নমস্কার করি কেন? সকলের হৃদয়মধ্যে নারায়ণ আছেন। আপনি ও-সব বিষয় বেশি দেখেন নাই, ভাবেন নাই।

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏ठाकुर देव को जीवन और मन ही नहीं सर्वस्व समर्पित करो !🔱🙏

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - किस किसी वस्तु में उनका प्रकाश अधिक है । तुमसे तो मैंने कहा, सूर्य की किरणें मिट्टी में गिरती हैं तो प्रकाश एक तरह का होता है, पेड़ों में और तरह का, फिर आईने में एक दूसरा ही प्रकाश देखने को मिलता है । देखो न, प्रह्लाद आदि और ये लोग क्या बराबर हैं ? प्रह्लाद का जीवन और मन, सर्वस्व ही ईश्वर को अर्पित हो चुका था ।

MASTER (to Dr. Sarkar): "I have already told you that some people reveal more of God than others. Earth reflects the sun's rays in one way, a tree in another way, and a mirror in still another way. You see a better reflection in a mirror than in other objects. Don't you see that these devotees here are not on the same level with Prahlada and others of his kind? Prahlada's whole heart and soul were dedicated to God."

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — কোন কোন জিনিসে বেশি প্রকাশ। আপনাকে তো বলেছি, সূর্যের রশ্মি মাটিতে একরকম পড়ে, গাছে একরকম পড়ে, আবার আরশিতে আর একরকম। আরশিতে কিছু বেশি প্রকাশ। এই দেখ না, প্রহ্লাদাদি আর এরা কি সমান? প্রহ্লাদের মন প্রাণ সব তাঁতে সমর্পণ হয়েছিল!

डाक्टर चुप हो रहे । सब लोग चुप हैं । 

Dr. Sarkar did not reply. All were silent.

ডাক্তার চুপ করিয়া রহিলেন। সকলে চুপ করিয়া আছেন।

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏श्री रामकृष्ण और  साधारण गृहस्थ - "तुम  लालची, कामी और अहंकारी🔱🙏

[শ্রীরামকৃষ্ণ ও সংসারী জীব — “তুমি লোভী, কামী, অহংকারী” ]

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - देखो, यहाँ के लिए (स्वयं को इंगित करके) तुम्हारे हृदय में कुछ प्रेम का आकर्षण है । तुमने मुझसे कहा था कि तुम मुझे चाहते हो ।

MASTER (to Dr. Sarkar): "You see, you have love for this [meaning himself]. You told me that you loved me."

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — দেখ, তোমার এখানের উপর টান আছে। তুমি আমাকে বলেছো, তোমায় ভালবাসি।

डाक्टर - तुम प्रकृति के शिशु हो, इसीलिए इतना कहता हूँ । लोग पैरों पर हाथ रखकर नमस्कार करते हैं, इससे मुझे कष्ट होता है । मैं सोचता हूँ, ऐसे भले आदमी को भी ये लोग बिगाड़ रहे हैं । केशव सेन को उसके चेलों ने ऐसे ही बिगाड़ा थातुम्हें यह बतलाता हूँ, सुनो –

DR. SARKAR: "You are a child of nature. That is why I tell you all this. It hurts me to see people salute you by touching your feet. I say to myself, 'They are spoiling such a good man.' Keshab Sen, too, was spoiled that way by his devotees. Listen to me —"

ডাক্তার — তুমি Child of Nature, তাই অত বলি। লোক পায়ে হাত দিয়ে নমস্কার করে, এতে আমার কষ্ট হয়। মনে করি এমন ভাল লোকটাকে খারাপ করে দিচ্ছে। কেশব সেনকে তার চেলারা ওইরকম করেছিল। তোমায় বলি শোন —

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारी बात मैं क्या सुनूँ ? तुम 'लोभी, कामी और अहंकारी' हो ! (~ जब तक अपने को M/F सोचोगे 3 ऐषणा देह में रहेगी ही ?-ठाकुर दास बनकर रहो !) । 

MASTER: "Listen to you? You are greedy, lustful, and egotistic."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার কথা কি শুনব? তুমি  লোভী, কামী, অহংকারী।

भादुड़ी - (डाक्टर से) - अर्थात् तुममें जीवत्व है । जीवों का धर्म यही है – रुपया-पैसा, मान-मर्यादा का लोभ, काम और अहंकार । सब जीवों (embodied beings) का यही धर्म-लक्षण है

DR. BHADURI (to Dr. Sarkar): "That is to say, you have the traits of a jiva, an embodied being. These are his traits: lust, egotism, greed for wealth, and a hankering after name and fame. All embodied beings have these traits."

ভাদুড়ী (ডাক্তারের প্রতি) — অর্থাৎ তোমার জীবত্ব আছে। জীবের ধর্মই ওই, টাকা-কড়ি, মান-সম্ভ্রমেতে লোভ, কাম, অহংকার। সকল জীবেরই এই ধর্ম।

डाक्टर - ऐसा अगर कहो तो बस तुम्हारे गले की बीमारी देखकर चला जाया करूँगा । दूसरी बातों की आवश्यकता न रह जायगी । तर्क अगर करना होगा तो ठीक ही ठीक कहूँगा ।  सब चुप हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर भादुड़ी से बातचीत कर रहे हैं ।

DR. SARKAR (to the Master): "If you talk that way, I shall only examine your throat and go away. Perhaps that is what you want. In that case we should not talk about anything else. But if you want discussion, then I shall say what I think to be right."All remained silent.  After a while the Master became engaged in conversation with Dr. Bhaduri.

ডাক্তার — তা বল তো তোমার গলার অসুখটি কেবল দেখে যাব। অন্য কোন কথায় কাজ নাই। তর্ক করতে তো সব ঠিকঠাক বলব। সকলে চুপ করিয়া রহিলেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর আবার ভাদুড়ীর সহিত কথা কহিতেছেন।

  [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🙏अनुलोम (इंकार-नेति)और बिलोम (स्वीकारइति)- क्रम-संकोच और क्रम -विकास 🙏

[অনুলোম ও বিলোম — Involution and Evolution — তিন ভক্ত ]

श्रीरामकृष्ण - बात यह है कि ये (डा. सरकार) इस समय नेति-नेति करके अनुलोम (इंकार या अस्वीकार के मार्ग) में जा रहे हैं । जब विलोम में (स्वीकरण के मार्ग में) आएंगे तब सब मानेंगे । [अर्थात डॉ सरकार इस समय ब्रह्म (भगवान) ये नहीं--भगवान जीवित प्राणी नहीं हैं; भगवान ब्रह्मांड नहीं है; वे सृष्टि के बाहर कहीं है----करते हुए -- सीढ़ी से छत पर जा रहे हैं - और जाते समय- ये छत नहीं है - छत से लौटते समय देखेंगे जिससे छत बना है उसी से सीढ़ी भी बनी है - तब अस्वीकरण के मार्ग से स्वीकरण के मार्ग में आयेंगे तब सब मानेंगे।] 

MASTER: "Let me tell you the truth. He [meaning Dr. Sarkar] is now following the path of negation. Therefore he discriminates, following the process of 'Neti, neti', and reasons in this way: God is not the living beings; He is not the universe; He is outside the creation. But later he will follow the path of affirmation and accept everything as the manifestation of God.

"केले के खोल निकालते रहने से उसका माझा मिलता है । "खोल एक अलग चीज है और माझा एक अलग चीज । न माझा को कोई खोल कह सकता है और न खोल को माझा, परन्तु अन्त में आदमी देखता है, खोल का ही माझा है और माझे का ही खोल । चौबीसों तत्त्व वे ही हुए हैं और मनुष्य भी वे ही हुए हैं

"By taking off, one by one, the sheaths of a banana tree, one obtains the pith. The sheaths are one thing, and the pith is another. The sheaths are not the pith, and the pith is not the sheaths. But in the end, one realizes that the pith cannot exist apart from the sheaths, and the sheaths cannot exist apart from the pith; they are part and parcel of the same banana tree. Likewise, it is God who has become the twenty-four cosmic principles; it is He who has become man.

“কলাগাছের খোলা ছাড়িয়ে ছাড়িয়ে গেলে, মাঝ পাওয়া যায়।“খোলা একটি আলাদা জিনিস, মাঝ একটি আলাদা জিনিস। মাঝ কিছু খোলা নয়, খোলাও মাঝ নয়। কিন্তু শেষে মানুষ দেখে যে খোলেরই মাঝ, মাঝেরই খোল। তিনি চতুর্বিংশতি তত্ত্ব হয়েছেন, তিনিই মানুষ হয়েছেন। 

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏तीन प्रकार के भक्त होते हैं 🔱🙏

(डाक्टर से) भक्त तीन तरह के हैं - अधम भक्त, मध्यम भक्त और उत्तम भक्त । अधम भक्त कहता है, 'ईश्वर वहाँ दूर हैं ; सृष्टि अलग है, ईश्वर अलग है ।' मध्यम भक्त कहता है, 'वे अन्तर्यामी हैं, वे हृदय में हैं ।' वह हृदय के भीतर ईश्वर को देखता है । उत्तम भक्त देखता है, वे ही यह सब हुए हैं, चौबीसों तत्त्व वे ही हुए हैं । वह देखता है, ईश्वर ऊर्ध्व और अधोभाग में पूर्ण रूप से विराजमान हैं

(To Dr. Sarkar) "There are three kinds of devotees: superior, mediocre, and inferior. The inferior devotee says, 'God is out there.' According to him God is different from His creation. The mediocre devotee says: 'God is the Antaryami, the Inner Guide. God dwells in everyone's heart.' The mediocre devotee sees God in the heart. But the superior devotee sees that God alone has become everything; He alone has become the twenty-four cosmic principles. He finds that everything, above and below, is filled with God.

(ডাক্তারের প্রতি) — ভক্ত তিনরকম। অধম ভক্ত, মধ্যম ভক্ত, উত্তম ভক্ত। অধম ভক্ত বলে, ওই ঈশ্বর। তারা বলে সৃষ্টি আলাদা, ঈশ্বর আলাদা। মধ্যম ভক্ত বলে, ঈশ্বর অন্তর্যামী। তিনি হৃদয়মধ্যে আছেন। সে হৃদয়মধ্যে ঈশ্বরকে দেখে। উত্তম ভক্ত দেখে, তিনি এই সব হয়েছেন। তিনিই চতুর্বিংশতি তত্ত্ব হয়েছেন। সে দেখে ঈশ্বর অধঃ ঊর্ধ্বে পরিপূর্ণ

"तुम गीता, भागवत, वेदान्त आदि पढ़ो तो सब समझ सकोगे ।"क्या ईश्वर इस सृष्टि में नहीं हैं ?"

"Read the Gita, the Bhagavata, and the Vedanta, and you will understand all this. Is not God in His creation?"

“তুমি গীতা, ভাগবত, বেদান্ত এ-সব পড়, — তবে এ-সব বুঝতে পারবে!“ঈশ্বর কি সৃষ্টিমধ্যে নাই?”

डाक्टर - नहीं, वे सब जगह हैं, और इसीलिए उनकी खोज हो नहीं सकती ।

DR. SARKAR: "Not in any particular object. He is everywhere. And because He is everywhere, He cannot be sought after."

ডাক্তার — না, সব জায়গায় আছেন, আর আছেন বলেই খোঁজা যায় না।

कुछ देर बाद दूसरी बातें होने लगीं । श्रीरामकृष्ण को सदा ही ईश्वरभाव हुआ करता है, इससे बीमारी के बढ़ने की सम्भावना है ।

The conversation turned to other things. Sri Ramakrishna was always experiencing ecstatic moods, which the doctor said might aggravate his illness. 

কিয়ৎক্ষণ পরে অন্য কথা পড়িল। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঈশ্বরীয় ভাব সর্বদা হয়, তাহাতে অসুখ বাড়িবার সম্ভাবনা।

डाक्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - भाव को दबा रखिये । मुझे भी बहुत भाव होता है । तुमसे भी अधिक नाच सकता हूँ ।

Dr. Sarkar said to him: "You must suppress your emotion. My feelings, too, are greatly stirred up. I can dance much more than you."

ডাক্তার (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — ভাব চাপবে। আমার খুব ভাব হয়। তোমাদের চেয়ে নাচতে পারি।

छोटे नरेन्द्र - (हँसकर) - भाव अगर कुछ और बढ़ जाय तब आप क्या करेंगे ?

THE YOUNGER NAREN (smiling): "What would you do if your emotion increased a little more?"

ছোট নরেন (সহাস্যে) — ভাব যদি আর একটু বাড়ে, কি করবেন?

डाक्टर - उसके दबाने की मेरी शक्ति भी साथ ही बढ़ती जायगी ।

DR. SARKAR: "My power of control would also increase."

ডাক্তার — Controlling Power-ও (চাপবার শক্তি) বাড়বে।

श्रीरामकृष्ण तथा मास्टर - अभी आप वैसा कह सकते हैं ।

MASTER AND M: "You may say that now!"

শ্রীরামকৃষ্ণ ও মাস্টার — সে আপনি বলছো (বলছেন।)

मास्टर - भाव होने पर क्या आप कह सकते हैं ?

M: "Can you tell us what you would do if you went into an ecstatic mood?"

মাস্টার — ভাব হলে কি হবে, আপনি বলতে পারেন?

कुछ देर बाद रुपये-पैसे की बातचीत होने लगी ।

The conversation turned to money.

কিয়ৎক্ষণ পরে টাকা-কড়ির কথা পড়িল।

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - मैं तो इसके बारे में सोचता ही नहीं हूँ; और यह बात तुम भी जानते हो । क्यों ठीक है न ? यह ढोंग नहीं है ।

MASTER (to Dr. Sarkar): "I don't think about it at all. You know that very well, don't you? This is not a pretence."

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — আমার তাতে ইচ্ছা নাই, তা তো জান? — কি ঢঙ্‌ নয়!

डाक्टर - मेरा भी यही हाल है । आपकी बात तो अलग । मेरा रुपयों का सन्दूक तो खुला ही पड़ा रहता है ।

DR. SARKAR: "Even I have no desire for money — not to speak of yourself! My cash-box lies open."

ডাক্তার — আমারই তাতে ইচ্ছা নাই — তা আবার তুমি! বাক্স খোলা টাকা পড়ে থাকে —

श्रीरामकृष्ण - यदु मल्लिक भी इसी तरह दूसरे ख्याल में पड़ा रहता है । जब भोजन करने बैठता है, उस समय भी इतना अन्यमनस्क रहता है कि भला-बुरा जो कुछ सामने आया वही खा लेता है।किसी ने अगर कहा, ‘इसे मत खाना, यह अच्छी नहीं लगती’, तब कहता है, 'क्या ? यह तरकारी अच्छी नहीं ? हाँ, सच ही तो है ।'

MASTER: "Jadu Mallick, too, is absent-minded. When he takes his meals he sometimes becomes so absent-minded that he doesn't know whether the food is good or bad. When someone says to him, 'Don't eat that; it doesn't taste good', Jadu says: 'Eh? Is this food bad? Why, that's so!'"

শ্রীরামকৃষ্ণ — যদু মল্লিকও ওইরকম অন্যমনস্ক, — যখন খেতে বসে, এত অন্যমনস্ক যে, যা তা ব্যান্নুন, ভাল মন্দ খেয়ে যাচ্ছে। কেউ হয়তো বললে, ‘ওটা খেও না, ওটা খারাপ হয়েছে’। তখন বলে, ‘অ্যাঁ, এ ব্যান্নুনটা খারাপ? হাঁ, সত্যই তো!’

क्या श्रीरामकृष्ण यह सूचित कर रहे हैं कि ईश्वर-चिन्तन से होनेवाली अन्यमनस्कता तथा विषय- चिन्तन से होनेवाली अन्यमनस्कता में बहुत अन्तर है ?

Was the Master hinting that there was an ocean of difference between absent-mindedness due to the contemplation of God, and absent-mindedness due to preoccupation with worldly thoughts?

ঠাকুর কি ইঙ্গিতে বলিতেছেন, ঈশ্বরচিন্ত্য করে অন্যমনস্ক, আর বিষয় চিন্তা করে অ্যমনস্ক, অনেক প্রভেদ?

फिर भक्तों की ओर देख श्रीरामकृष्ण डाक्टर की ओर इशारा करके कह रहे हैं - "देखो, सिद्ध होने पर चीज नरम हो जाती है । पहले ये बड़े कड़े थे, अभी भीतर से नरम हो रहे हैं ।"

Pointing to Dr. Sarkar, Sri Ramakrishna said to the devotees, with a smile: "When a thing is boiled, it becomes soft. At first he was very hard. Now he is softening from inside."

আবার ভক্তদিগের দিকে দৃষ্টিপাত করিয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ডাক্তারকে দেখাইয়া সহাস্যে বলিতেছেন, “দেখ, সিদ্ধ হলে জিনিস নরম হয় — ইনি (ডাক্তার) খুব শক্ত ছিলেন, এখন ভিতর থেকে একটু নরম হচ্চেন।

डाक्टर - सिद्ध होने पर चीज ऊपर से ही नरम होती है, परन्तु इस जीवन में मेरे लिए यह बात नहीं होने की ! (सब हँसते हैं)

DR. SARKAR: "When a thing is boiled, it begins to soften from the outside. I am afraid that won't happen to me in this birth." (All laugh.)

ডাক্তার — সিদ্ধ হলে উপর থেকেই নরম হয়, কিন্তু আমার এ যাত্রায় তা হল না। (সকলের হাস্য)

डाक्टर बिदा होनेवाले हैं । श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं –“पैरों की धूल लोग लेते हैं, उन्हें क्या तुम मना नहीं कर सकते ?”

Dr. Sarkar was about to take his leave. He was talking to Sri Ramakrishna. DOCTOR: "Can't you forbid people to salute you by touching your feet?"

ডাক্তার বিদায় লইবেন, আবার ঠাকুরের সহিত কথা কহিতেছেন। ডাক্তার — লোকে পায়ের ধুলা লয়, বারণ করতে পার না?

श्रीरामकृष्ण - क्या सब लोग अखण्ड सच्चिदानन्द को पकड़ सकते हैं ?

MASTER: "Can all comprehend the Indivisible Satchidananda?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — সব্বাই কি অখণ্ড সচ্চিদানন্দকে ধরতে পারে?

डाक्टर - इसलिए क्या जो मत ठीक है वह आप लोगों को नहीं बतलायेंगे ?

DR. SARKAR: "But shouldn't you tell people what is right?"

ডাক্তার — তা বলে যা ঠিক মত, তা বলবে না?

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏रूचि के अनुरूप अलग-अलग मार्ग होते हैं🔱🙏 

श्रीरामकृष्ण - लोगों की अलग अलग रुचि होती है । और फिर आध्यात्मिक जीवन के लिए सब लोग एक समान अधिकारी नहीं होते ।

MASTER: "People have different tastes. Besides, all have not the same fitness for spiritual life."

শ্রীরামকৃষ্ণ — রুচিভেদ আর অধিকারীভেদ আছে।

डाक्टर - वह किस प्रकार ?

DR. SARKAR: "How is that?"

ডাক্তার — সে আবার কি?

श्रीरामकृष्ण - रुचि भेद किस तरह का है, जानते हो ? जिसे जो भोजन रुचता है तथा सह्य है, उसी प्रकार का भोजन वह करता है । कोई मछली का शोरवा पसन्द करता है, तो किसी को तली हुई मछलियाँ अच्छी लगती है, कोई उनकी तरकारी बनाकर खाता है, तो कोई पुलावा बनाकर । उसी तरह अधिकारी-भेद भी है । मैं कहता हूँ, पहले केले के पेड़ में निशाना साधो, फिर दीपक की लौ पर, बाद में उड़ती हुई चिड़िया पर

MASTER: "Don't you know what difference in taste is? Some enjoy fish curry; some, fried fish; some, pickled fish; and again, some, the rich dish of fish pilau. Then too, there is difference in fitness. I ask people to learn to shoot at a banana tree first, then at the wick of a lamp, and then at a flying bird."

শ্রীরামকৃষ্ণ — রুচিভেদ, কিরকম জানো? কেউ মাছটা ঝোলে খায়, কেউ ভাজা খায়, কেউ মাছের অম্বল খায়, কেউ মাছের পোলাও খায়। আর অধিকারীভেদ। আমি বলি আগে কলাগাছ বিঁধতে শেখ, তারপর শলতে, তারপর পাখি উড়ে যাচ্ছে, তাকে বেঁধ

  [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

अखंड का दर्शन - डॉ. सरकार और हरिबल्लभ के दर्शन

[অখণ্ডদর্শন — ডাক্তার সরকার ও হরিবল্লভকে দর্শন ]

🔱🙏श्री रामकृष्ण का मन जब अखण्ड के दर्शन में लीन था -उन्होंने क्या देखा ?🔱🙏 

शाम हो गयी । श्रीरामकृष्ण ईश्वर-चिन्तन में मग्न हुए । इतनी पीड़ा है, परन्तु वह मानो एक ओर पड़ी रही । दो-चार अन्तरंग भक्त पास बैठे हुए सब देख रहे हैं श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक इसी अवस्था में रहे । श्रीरामकृष्ण प्राकृत अवस्था में आये । मणि पास बैठे हुए हैं । उनसे एकान्त में कह रहे हैं - "देखो, अखण्ड में मन लीन हो गया था । इसके बाद जो कुछ देखा, उसके सम्बन्ध में बहुतसी बातें हैं ।" 

It was dusk. Sri Ramakrishna became absorbed in contemplation of God. For the time being he forgot all about his painful disease. Several intimate disciples sat near him and looked at him intently. After a long time he became aware of the outer world and said to M. in a whisper:---"You see, my mind was completely merged in the Indivisible Brahman.-After that, 'I' saw ? many things. "

সন্ধ্যা হইল। ঠাকুর ঈশ্বরচিন্তায় মগ্ন হইলেন। এত অসুখ; কিন্তু অসুখ একধারে পড়িয়া রহিল। দুই-চারজন অন্তরঙ্গ ভক্ত কাছে বসিয়া একদৃষ্টে দেখিতেছেন। ঠাকুর অনেকক্ষণ এই অবস্থায় আছেন। ঠাকুর প্রকৃতিস্থ হইয়াছেন। মণি কাছে বসিয়া আছেন, তাঁহাকে একান্তে বলিতেছেন — “দেখ, অখণ্ডে মন লীন হয়ে গিছিল! তারপর দেখলাম — সে অনেক কথা। " 

"डाक्टर को देखा, उसकी बन जायगी - कुछ दिन बाद (डॉक्टर में आध्यात्मिक जागृति होगी) अब मुझे डॉक्टर से अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं एक आदमी को और देखा । मन में यह उठा कि उसे भी ले लूँ । उसकी बात तुम्हें बाद में बताऊँगा ।"

I found that the doctor will have a spiritual awakening. But it will take some time. I won't have to tell him much. I saw another person while in that mood. My mind said to me, 'Attract him too.' I shall tell you about him  later."

ডাক্তারকে দেখলাম, ওর হবে — কিছুদিন পরে; — আর বেশি ওকে বলতে টলতে হবে না। আর-একজনকে দেখলাম। মন থেকে উঠল ‘তাকেও নাও’। তার কথা পরে তোমাকে বলব।"

  [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🏹 जीवों को क्रमसंकुचित 'ब्रह्म दृष्टि' देखते हुए विविध उपदेश उच्चस्तर की समाज सेवा🏹

"या देवी सारभूतेषु की दृष्टि " 

🕊🏹 जीवों को विविध उपदेश: ज्ञान -अज्ञान -विज्ञान🕊🏹

[সংসারী জীবকে নানা উপদেশ ]

श्रीयुत श्याम बसु, डा. दोकड़ी तथा और भी दो-एक आदमी आये हुए हैं । अब श्रीरामकृष्ण उन लोगों के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

Shyam Basu, Dr. Dukari, and a few other devotees arrived. Sri Ramakrishna talked to them.

শ্রীযুক্ত শ্যাম বসু ও দোকড়ি ডাক্তার ও আরও দু-একটি লোক আসিয়াছেন। এইবার তাঁহাদের সহিত কথা কহিতেছেন।

[ डॉक्टर दोकौड़ी - जब श्री श्री ठाकुर श्यामपुकुर में रह रहे थे और गले के कैंसर (goiter) से पीड़ित थे तब उनको देखने के लिए डॉक्टर दोकौड़ी आये थे। राजेन्द्रनाथ मित्रा के घर पर जब ठाकुर समाधिस्थ हुए थे तब -इन्होंने ही उनकी आँखों में अपनी ऊँगली डालकर उनके समाधि अवस्था की जाँच की थी। 

 When Sri Sri Thakur was suffering from goiter (throat cancer) and was living in Shyampukur, Doctor Dokaudi came to see him. When Thakur was in samadhi at Rajendranath Mitra's house, it was he who checked his samadhi state by putting his finger in his eyes. 

দুকড়ি ডাক্তার — শ্যামপুকুরে শ্রীশ্রীঠাকুরকে গলরোগের সময় দেখিতে আসিয়াছিলেন। রাজেন্দ্রনাথ মিত্রের বাড়িতে সমাধিস্থ ঠাকুরের চোখে অঙ্গুলি দিয়া তিনি ঠাকুরের সমাধি পরীক্ষা করিয়াছিলেন।]

श्याम बसु – अहा ! उस दिन वह बात जो आपने कही थी कितनी सुन्दर है !

SHYAM: "Ah, what a fine thing you said to us the other day!"

শ্যাম বসু — আহা, সেদিন সেই কথাটি যা বলেছিলেন, কি চমৎকার।

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - वह कौनसी बात है ?

MASTER (smiling): "What was that?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি কথাটি গা?

श्याम बसु - वहीं, ज्ञान (विद्या) और अज्ञान (अविद्या ) से पार हो जाने पर क्या रहता है, इसके सम्बन्ध में आपने जो कुछ कहा था ।

SHYAM: "What remains with a man when he goes beyond jnana and ajnana, knowledge (विद्या) and ignorance (अविद्या)."

শ্যাম বসু — সেই যে বললেন, জ্ঞান-অজ্ঞানের পারে গেলে কি থাকে।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - वह विज्ञान है । और अनेक प्रकार के ज्ञान का नाम अज्ञान है । सर्वभूतों में ईश्वर का वास है, इसका नाम है ज्ञान । विशेष रूप से जानने का नाम है विज्ञान । ईश्वर के साथ आलाप, उनमें आत्मीयों जैसा भाव अगर हो तो वह विज्ञान है ।

MASTER (smiling): "It is vijnana, special Knowledge of God. To know many things is ignorance. To know that God dwells in all beings is knowledge. And what is vijnana? It is to know God in a special manner, to converse with Him and feel Him to be one's own relative.

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — বিজ্ঞান। নানা জ্ঞানের নাম অজ্ঞান। সর্বভূতে ঈশ্বর আছেন, এর নাম জ্ঞান। বিশেষরূপে জানার নাম বিজ্ঞান। ঈশ্বরের সহিত আলাপ, তাতে আত্মীয়বোধ, এর নাম বিজ্ঞান।

"लकड़ी में आग है, अग्नितत्त्व है, इस बोध का नाम है ज्ञान । लकड़ी जलाकर रोटियाँ सेंक कर खाना और खाकर हृष्ट-पुष्ट होना यह है विज्ञान

"To know that there is fire in wood is knowledge. But to make a fire with that wood, cook food with that fire, and become healthy and strong from that food is vijnana."

“কাঠে আগুন আছে, অগ্নিতত্ত্ব আছে; এর নাম জ্ঞান। সেই কাঠ জ্বালিয়ে ভাত রেঁধে খাওয়া ও খেয়ে হৃষ্টপুষ্ট হওয়ার নাম বিজ্ঞান।”

श्याम बसु - (सहास्य) - और वह काँटों की बात !

SHYAM (smiling): "And about the thorn?"

শ্যাম বসু (সহাস্যে) — আর সেই কাঁটার কথা!

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - हाँ, जैसे पैर में काँटा लग जाने से उसे निकालने के लिए एक और काँटा ले आया जाता है । फिर पैर में गड़े हुए काँटे को निकालकर दोनों ही काँटे फेंक दिये जाते हैं । उसी तरह अज्ञान-काँटे को निकालने के लिए ज्ञानकाँटे की खोज की जाती है । अज्ञान-नाश के बाद फिर ज्ञान और अज्ञान दोनों को फेंक देना होता है । तब विज्ञान की अवस्था आती है ।

MASTER (smiling): "Yes. When a thorn gets into the sole of your foot, you procure a second thorn. After taking out the first thorn with the help of the second, you throw both thorns away. Likewise, you should procure the thorn of knowledge in order to remove the thorn  of ignorance. After destroying ignorance, you should discard both knowledge and ignorance. Then you attain vijnana."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাঁ, যেমন পায়ে কাঁটা ফুটলে আর-একটি কাঁটা আহরণ করতে হয়; তারপর পায়ের কাঁটাটি তুলে দুটি কাঁটা ফেলে দেয়। তেমনি অজ্ঞানকাঁটা তুলবার জন্য জ্ঞানকাঁটা জোগাড় করতে হয়। অজ্ঞান নাশের পর জ্ঞান-অজ্ঞান দুই-ই ফেলে দিতে হয়। তখন বিজ্ঞান।

श्रीरामकृष्ण श्याम बसु पर प्रसन्न हुए हैं । श्याम बसु की उम्र अधिक हो गयी है, अब उनकी इच्छा है, कुछ दिन ईश्वर-चिन्तन करें । श्रीरामकृष्णदेव का नाम सुनकर यहाँ आये हुए हैं । इसके पहले वे एक दिन और आये थे ।

Sri Ramakrishna was pleased with Shyam Basu. He was quite an elderly person and wanted to devote his time to contemplation. This was his second visit to the Master.

ঠাকুর শ্যাম বসুর উপর প্রসন্ন হইয়াছেন। শ্যাম বসুর বয়স হইয়াছে, এখন ইচ্ছা — কিছুদিন ঈশ্বরচিন্তা করেন। পরমহংসদেবের নাম শুনিয়া এখানে আসিয়াছেন। ইতিপূর্বে আর একদিন আসিয়াছিলেন।

  [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🕊🏹युवा प्रशिक्षण शिविर के निर्जनवास में विषय-चर्चा छूट जाता है 🕊🏹

श्रीरामकृष्ण - (श्याम बसु से) – विषय-चर्चा बिलकुल छोड़ देना । ईश्वरीय बातचीत छोड़ और किसी विषय की बातचीत न करना । विषयी आदमी को देखकर धीरे धीरे वहाँ से हट जाना इतने दिन संसार करके तुमने देखा तो, सब खोखलापन है । ईश्वर ही वस्तु है, और सब अवस्तु । ईश्वर ही सत्य हैं, और सब दो दिन के लिए है । संसार में है क्या ? बस अमड़ा की गुठली चाटना ही हैउसे चाटने की इच्छा तो होती है, परन्तु अमड़ा की गुठली में है क्या ?

MASTER (to Shyam Basu): "Give up worldly talk altogether. Don't talk about anything whatever but God. If you see a worldly person coming near you, leave the place before he arrives. You have spent your whole life in the world. You have seen that it is all hollow. Isn't that so? God alone is Substance, and all else is illusory. God alone is real, and all else has only a two-days existence. What is there in the world? The world is like a pickled hog plum: one craves for it. But what is there in a hog plum? Only skin and pit. And if you eat it you will have colic."

শ্রীরামকৃষ্ণ (শ্যাম বসুর প্রতি) — বিষয়ের কথা একবারে ছেড়ে দেবে। ঈশ্বরীয় কথা বই অন্য কোনও কথা বলো না। বিষয়ী লোক দেখলে আসতে আসতে সরে যাবে। এতদিন সংসার করে তো দেখলে সব ফক্কিবাজি! ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু। ঈশ্বরই সত্য, আর সব দুদিনের জন্য। সংসারে আছে কি? আমড়ার অম্বল; খেতে ইচ্ছা হয়, কিন্তু আমড়াতে আছে কি? আঁটি আর চামড়া খেলে অম্লশূল হয়।

[#*Doesn't your desire keep motivating you to get carried away by the vices or adopt them?*

*क्या आपकी इच्छा, आपको, विकारों के वशीभूत हो कर* *उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है ?"*

श्याम बसु - जी हाँ, आप सच कहते हैं ।

SHYAM: "Yes, sir. Everything you have said is true."

শ্যাম বসু — আজ্ঞা হাঁ; যা বলছেন সবই সত্য।

श्रीरामकृष्ण - बहुत दिनों तक लगातार तुम विषय-कार्य करते रहे हो, अतएव इस समय इस गुल-गपाड़े में ध्यान और ईश्वर की चिन्ता न होगी । जरा निर्जन में रहना चाहिए । निर्जन के बिना मन स्थिर न होगा, इसीलिए घर से कुछ दूर पर ध्यान करने का स्थान तैयार करना चाहिए

श्यामबाबू कुछ देर के लिए चुप हो रहे, जैसे कुछ सोचते हों ।

MASTER: "For many years you have devoted yourself to various worldly things. You will not be able to think of God and meditate on Him in this confusion of the world. A little solitude is necessary for you; otherwise your mind will not be steady. Therefore you must fix a place for meditation at least half a mile away from your house." Shyam Basu remained silent a few moments. He appeared absorbed in thought.

শ্রীরামকৃষ্ণ — অনেকদিন ধরে অনেক বিষয়কর্ম করেছ, এখন গোলমালে ধ্যান ঈশ্বরচিন্তা হবে না। একটু নির্জন দরকার। নির্জন না হলে মন স্থির হবে না। তাই বাড়ি থেকে আধপো অন্তরে ধ্যানের জায়গা করতে হয়। শ্যামবাবু একটু চুপ করিয়া রহিলেন, যেন কি চিন্তা করিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - और देखो, तुम्हारे दाँत भी सब गिर गये हैं, अब दुर्गा-पूजा के लिए इतना उत्साह क्यों ? (सब हँसते हैं) “एक ने एक से पूछा, 'क्यों जी, तुम दुर्गा-पूजा अब क्यों नहीं करते ?’ उस आदमी ने उत्तर देते हुए कहा, 'भाई, अब दाँत नहीं रह गये, माँस खाने की शक्ति अब नहीं रह गयी ।’”

MASTER (smiling): "Besides, all your teeth are gone. Why should you bother so much about the Durga Puja? (All laugh.) A man used to celebrate the worship of Durga with the sacrifice of goats and with other ceremonies. He continued the worship many years and then stopped it. A friend asked him, 'Why don't you perform the Durga Puja any more?' 'Brother,' replied the man, 'my teeth are all gone. I have lost the power to chew goat-meat.'"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আর দেখ, দাঁতও সব পড়ে গেছে, আর দুর্গাপূজা কেন? (সকলের হাস্য) একজন বলেছিল, আর দুর্গাপূজা কর না কেন? সে ব্যক্তি উত্তর দিলে, আর দাঁত নাই ভাই। পাঁঠা খাবার শক্তি গেছে

श्याम बसु – अहा ! बातों में मानो मिश्री घुली हुई है !

SHYAM: "Ah! How sweet these words are!"

শ্যাম বসু — আহা, চিনিমাখা কথা!

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - इस संसार में बालू और शक्कर एक साथ मिले हुए हैं । चींटी की तरह बालू का त्याग करके चीनी को निकाल लेना चाहिए । जो चीनी ले सकता है, वही चतुर है । उनकी चिन्ता करने के लिए एक निर्जन स्थान ठीक करो - ध्यान करने की जगह तुम एक बार करो तो । मैं भी आऊँगा । सब लोग कुछ देर के लिए चुप हैं ।

MASTER (smiling): "This world is a mixture of sand and sugar. Like the ant, one should discard the sand and eat the sugar. He who can eat the sugar is clever indeed. Build a quiet place for thinking of God — a place for your meditation. Have it ready. I shall visit it."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — এই সংসারে বলি আর চিনি মিশেল আছে। পিঁপড়ের মতো বালি ত্যাগ করে করে চিনিটুকু নিতে হয়। যে চিনিটুকু নিতে পারে সেই চতুর। তাঁর চিন্তা করবার জন্য একটু নির্জন স্থান কর। ধ্যানের স্থান। তুমি একবার কর না। আমিও একবার যাব।সকলে কিয়ৎকাল চুপ করিয়া আছেন।

श्याम वसु – महाराज, क्या जन्मान्तर है ? क्या फिर जन्म लेना होगा ?

SHYAM: "Sir, is there such a thing as reincarnation? Shall we be born again?"

শ্যাম বসু — মহাশয়, জন্মান্তর কি আছে? আবার জন্মাতে হবে?

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर से कहो, अन्तर से उन्हें पुकारो, वे सुझा देते हैं, सुझा देंगे । यदु मल्लिक से बातचीत करो तो वह बता देगा कि उसके कितने मकान हैं और कितने रुपयों के कम्पनी के कागज हैं । पहले से इन सब बातों को जानने की चेष्टा करना ठीक नहीं । पहले ईश्वर को प्राप्त करो, फिर जो कुछ जानने की तुम्हारी इच्छा होगी, वे तुम्हें बतला देंगे

MASTER: "Ask God about it. Pray to Him sincerely. He-will tell you everything. Speak to Jadu Mallick, and he himself will tell you how many houses he has, and how many government bonds. It is not right to try to know these things at the beginning. First of all realize God; then He Himself will let you know whatever you desire."

শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরকে বল, আন্তরিক ডাক; তিনি জানিয়ে দেন, দেবেন। যদু মল্লিকের সঙ্গে আলাপ কর, যদু মল্লিকই বলে দেবে, তার কখানা বাড়ি, কত টাকার কোম্পানির কাগজ। আগে সে-সব জানবার চেষ্টা করা ঠিক নয়। আগে ঈশ্বরকে লাভ কর, তারপর যা ইচ্ছা, তিনিই জানিয়ে দেবেন।

श्याम बसु - महाराज, मनुष्य संसार में रहकर न जाने कितने अन्याय, कितने पापकर्म करता है । क्या वह मनुष्य ईश्वर को पा सकता है ?

SHYAM: "Sir, how much wrong, how many sinful things a man does in this world! Can he ever realize God?"

শ্যাম বসু — মহাশয়, মানুষ সংসারে থেকে কত অন্যায় করে, পাপকর্ম করে। সে মানুষ কি ঈশ্বরকে লাভ করতে পারে?

श्रीरामकृष्ण – देह-त्याग से पहले अगर कोई ईश्वर दर्शन के लिए साधना करे और साधना करते हुए, ईश्वर को पुकारते हुए यदि देह का त्याग हो, तो पाप उसे कब स्पर्श कर सकेगा ? हाथी का स्वभाव है कि नहला देने के बाद भी वह देह पर धूल डालने लगता है, परन्तु महावत अगर नहलाकर उसे फीलखाने में बाँध दे, तो फिर हाथी देह पर धूल नहीं डाल सकता ।

MASTER: "If a man practises spiritual discipline before his death and if he gives up his body praying to God and meditating on Him, when will sin touch him? It is no doubt the elephant's nature to smear his body with dust and mud, even after his bath. But he cannot do so if the mahut takes him into the stable immediately after his bath."

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেহত্যাগের আগে যদি কেউ ঈশ্বরের সাধন করে, আর সাধন করতে করতে ঈশ্বরকে ডাকতে ডাকতে, যদি দেহত্যাগ হয়, তাকে আর পাপ কখন স্পর্শ করবে? হাতির স্বভাব বটে, নাইয়ে দেওয়ার পরেও আবার ধুলো-কাদা মাখে; কিন্তু মাহুত নাইয়ে দিয়ে যদি আস্তাবলে তাকে ঢুকিয়ে দিতে পারে, তাহলে আর ধুলো-কাদা মাখতে পায় না।

खुद को कठिन पीड़ा होते हुए भी अहैतुक कृपासिन्धु श्रीरामकृष्ण जीवों के दुःख से कातर हो उठा करते हैं; दिवानिशि जीवों की मंगल-कामना किया करते हैं । यह देखकर भक्तगण निर्वाक् हैं । श्रीरामकृष्ण श्याम बसु को हिम्मत बँधा रहे हैं - "ईश्वर को पुकारते हुए अगर देह का नाश हो तो फिर पाप स्पर्श नहीं कर सकता ।"

In spite of his serious illness the Master keenly felt the sorrow and suffering of men. Day and night he thought about their welfare. The devotees wondered at his compassion. The assurance of Sri Ramakrishna that no sin can touch a man if he gives up his body while praying to God was deeply impressed on their minds.

ঠাকুরের কঠিন পীড়া! ভক্তেরা অবাক্‌, অহেতুক-কৃপাসিন্ধু দয়াল ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ জীবের দুঃখে কাতর; অহর্নিশ জীবের মঙ্গলচিন্তা করিতেছেন। শ্যাম বসুকে সাহস দিতেছেন — অভয় দিতেছেন; “ঈশ্বরকে ডাকতে ডাকতে যদি দেহত্যগ হয়, আর পাপ স্পর্শ করবে না।”

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 🕊🏹Happiness acquired through Work🕊🏹

कर्म का प्रभाव चरित्र पर पड़ता है

[KARMA IN ITS EFFECT ON CHARACTER] 

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " Karma in its effect on character is the most tremendous power that man has to deal with.  Man is, as it were, a centre, and is attracting all the powers of the universe towards himself, and in this centre is fusing them all and again sending them off in a big current.... Good and bad, misery and happiness, all are running towards him and clinging round him; and out of them he fashions the mighty stream of tendency called character and throws it outwards. As he has the power of drawing in anything, so has he the power of throwing it out."  

जितनी भी शक्तियाँ मनुष्य के चरित्र को प्रभावित करती हैं, उन सबमें 'कर्म की शक्ति' (विवेक-प्रयोग शक्ति) सबसे अधिक प्रबल होती है; जिसे मनुष्य को स्वयं सम्भालना (manage करना) पड़ता है। मनुष्य, मानो एक प्रकार के केंद्र जैसा है, जो ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियों को अपनी ओर खींचता है, तथा इस केन्द्र में उन सबों को संयुक्त कर एक बड़ी तरंग (निःस्वार्थ प्रेम-तरंग) के रूप में बाहर भेजता है। शुभ-अशुभ, सुख-दुःख, मान-अपमान सब उसकी ओर दौड़े जा रहे हैं, और उससे लिपटे जा रहे हैं। और वह श्रेय-प्रेय विवेक द्वारा -अच्छे विचार- अच्छे कर्म -अच्छी आदत द्वारा सद्प्रवृत्ति की उस प्रबल धारा का निर्माण करता है, जिसे चरित्र कहते हैं, और उसी चरित्र को बाहर प्रेषित करता है। जिस प्रकार किसी चीज को [प्रेम या घृणा, स्वार्थपरता या निःस्वार्थपरता  को ब्लैक होल जैसा ?] अपनी ओर खींच लेने की शक्ति मनुष्य में है, उसी प्रकार उसे बाहर भेजने की शक्ति भी मनुष्य में है।"   

 "संसार के सारे क्रियाकलाप,  मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रकाश मात्र है। इस युग में विज्ञान के जो विभिन्न चमत्कार दिख पड़ रहे हैं, जिन वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण मनुष्य का जीवन उन्नत और सुखी हुआ है, चिकित्सा के क्षेत्र में जिन औषधियों के आविष्कारों से मनुष्य रोग-मुक्त हुआ है, उन सबके पीछे किसी एक या एकाधिक व्यक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति अवश्य रही है। जिस व्यक्ति ने अपने मन में यह दृढ़ संकल्प कर लिया था कि किसी खास रोग को दूर करने का उपाय वह अवश्य खोज निकालेगा। अनेक प्रकार के यंत्र, युद्धपोत आदि सभी मनुष्य की इच्छा शक्ति के विकास मात्र हैं। " and this will is caused by character, and character is manufactured by Karma.मनुष्य की यह इच्छाशक्ति चरित्र से उत्पन्न होती है और वह चरित्र कर्मों से गठित होता है। अतएव कर्म (श्रेय-प्रेय विवेक-प्रयोग के बाद) जैसा होगा, इच्छा- शक्ति का विकास भी वैसा ही होगा। संसार में प्रबल इच्छा शक्ति संपन्न जितने महापुरुष हुए हैं, वे सभी उत्कृष्ट कर्मी थे। उनकी इच्छाशक्ति ऐसी थी कि वे संसार को भी उलट-पुलट कर सकते थे। यह शक्ति उन्हें युग-युगांतर तक निरंतर कर्म करते रहने से प्राप्त हुई थी।

बुद्ध एवं ईसा मसीह में जैसी प्रबल इच्छाशक्ति थी, वह एक जन्म में प्राप्त नहीं की जा सकती और उसे हम आनुवंशिक शक्तिसंचार भी नहीं कह सकते, क्योंकि हमें ज्ञात है कि उनके पिता कौन थे। हम नहीं कह सकते कि उनके पिता के मुंह से मनुष्य जाति की भलाई के लिए शायद कभी एक शब्द भी निकला हो। जोसेफ (ईसा मसीह के पिता) के समान तो असंख्य बढ़ई आज भी हैं, बुद्ध के पिता के सदृश लाखों छोटे-छोटे राजा हो चुके हैं। अत: यदि वह बात केवल आनुवंशिक शक्तिसंचार के कारण हुई हो, तो इसका स्पष्टीकरण कैसे कर सकते हैं कि इस छोटे से राजा को, जिसकी आज्ञा का पालन शायद उसके स्वयं के नौकर भी नहीं करते थे। ऐसा एक सुंदर पुत्र-रत्न लाभ हुआ, जिसकी उपासना लगभग आधा संसार करता है?

इसी प्रकार जोसेफ नामक बढ़ई (काष्ठशिल्पी) तथा संसार में लाखों लोगों द्वारा ईश्वर के समान पूजे जाने वाले उसके पुत्र ईसा मसीह के बीच जो अंतर है, उसका स्पष्टीकरण क्या हो सकता है ? आनुवंशिक शक्तिसंचार के सिद्धांत द्वारा तो इसका स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। बुद्ध और ईसा इस विश्व में जिस महाशक्ति का संचार कर गए, वह आई कहां से? उसका उद्भव कहां से हुआ? इतनी दृढ़ इच्छाशक्ति का संचय कैसे हुआ ? अवश्य युग-युगांतरों से वह उस स्थान में ही रही होगी और क्रमश: प्रबलतर होते-होते अंत में वही दृढ़ इच्छाशक्ति बुद्ध तथा ईसा मसीह के रूप में समाज में प्रकट हो गई और आज तक चली आ रही है। यह सब कर्म द्वारा ही नियमित होता है। यह सनातन नियम है कि जब तक कोई मनुष्य किसी वस्तु का उपार्जन न करे, तब तक वह उसे प्राप्त नहीं हो सकती।

संभव है, कभी-कभी हम इस बात को न मानें, परंतु आगे चलकर हमें इसका दृढ़ विश्वास हो जाता है। एक मनुष्य चाहे समस्त जीवन भर धनी होने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करता रहे, हजारों मनुष्यों को धोखा दे, परंतु अंत में वह देखता है कि वह संपत्तिशाली होने का अधिकारी नहीं था। तब जीवन उसके लिए दुखमय और दूभर हो उठता है। हम अपने भौतिक सुखों के लिए भिन्न-भिन्न चीजों को भले ही इकट्ठा करते जाएं, परंतु वास्तव में जिसका उपार्जन हम अपने कर्मों द्वारा करते हैं, वही हमारा होता है। स्वामी जी कहते हैं - "With regard to Karma-Yoga, the Gita says that it is doing work with cleverness and as a science; by knowing how to work, one can obtain the greatest results." 

        गीता का कथन है - " योग: कर्मसु कौशलम्" -(2.50) ‘कर्मयोग का अर्थ है- कुशलता से अर्थात वैज्ञानिक प्रणाली से कर्म करना।’ समस्त कर्मों का उद्देश्य है मन के भीतर पहले से ही स्थित अनन्त शक्ति को प्रकट कर देना- आत्मा को जाग्रत कर देना। प्रत्येक मनुष्य के भीतर पूर्ण शक्ति और पूर्ण ज्ञान विद्यमान है। भिन्न-भिन्न कर्म इन महान शक्तियों को जाग्रत करने तथा बाहर प्रकट कर देने में साधन मात्र बनते हैं। "Man works with various motives. There cannot be work without motive." अपनी-अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य नाना प्रकार के कार्य करता है। कुछ लोग नाम-यश चाहते हैं, तो कुछ पैसा चाहते हैं। कुछ लोग अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, तो कुछ अपने बाद अपना नाम छोड़ जाने के लिए यत्न करते रहते हैं। कुछ लोग प्रायश्चित करने के लिए कर्म करते हैं। अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुष्ट कर्म कर चुकने के बाद - प्रायश्चित के रूप में एक मन्दिर बनवा देते हैं या स्वर्ग प्राप्ति के लिए- पुरोहितों को धन देते हैं। 

कुछ ऐसे नर -रत्न (salt of the earth) होते हैं जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम- यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते। वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उनके कर्म से दूसरों की भलाई होती है। कुछ लोग उच्चतर उद्देश्य लेकर गरीबों के प्रति भलाई , तथा मानव-जाति की सहायता के लिए अग्रसर होते हैं , क्योंकि वे शुभ में विश्वास करते हैं और उससे प्रेम करते हैं, वैसे लोग मानव जाति की (ज्ञान -चक्षु खोलने में?) सहायता करते हैं। नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य [भीष्म परमार DAV स्कूल और K.RAI शिशु मन्दिर] बहुत शीघ्र फलित नहीं होता है। ये चीजें तब प्राप्त होती हैं जब हम जिंदगी की आखरी घड़ियाँ गिन रहे होते हैं।          >>>यदि कोई मनुष्य नि:स्वार्थ भाव से काम करे, तो क्या उसे कोई फलप्राप्ति नहीं होती? असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल (जीवनमुक्ति-आत्मसाक्षात्कार) की प्राप्ति  होती है। और सच पूछा जाए, तो नि:स्वार्थता अधिक फलदायी होती है, पर इसका अभ्यास करने का धैर्य बहुत थोड़े से लोगों में होता है ! [ Love, truth, and unselfishness are not merely moral figures of speech, but they form our highest ideal, because in them lies such a manifestation of power..... It is hard to do it, but in the heart of our hearts we know its value, and the good it brings.जो जन्मजात पैगम्बर, अवतार वरिष्ठ या नेता होते हैं ?]

" प्रेम, सत्य तथा नि:स्वार्थता  नैतिकतासम्बन्धी सिर्फ आलंकारिक वर्णन मात्र नहीं हैं, बल्कि अंतर्निहित शक्ति (पूर्णता -दिव्यता) की महान अभिव्यक्ति होने के कारण वे हमारे सर्वोच्च आदर्श हैं। यदि मनुष्य पांच मिनट भी बिना भविष्य का चिंतन किये , नि:स्वार्थ भाव से काम कर सके, तो वह एक 'महापुरुष' [ जीवनमुक्त शिक्षक, नेता या पैगम्बर]  बन सकने की क्षमता है। यद्यपि इसे कार्यरूप में परिणत करना कठिन है , फिरभी अपने ह्रदय के अन्तस्तल [ठाकुर, माँ, स्वामीजी -नवनीदा को देखकर] हम इसका महत्व समझते हैं - और जानते हैं कि इससे क्या मंगल होता है। यह आत्मसंयम (self-restraint, आत्मनिग्रहशक्ति की अत्यन्त महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। इसके लिए प्रबल संयम की जरूरत पड़ती है। सभी बर्हिमुखी कर्मों की अपेक्षा इस आत्मसंयम में बहुत अधिक शक्ति खर्च हो जाती है। हमारी सभी इन्द्रियाँ - कर्म करने साधन, बहिर्मुखी हैं  इसीलिए मन की सारी बहिर्मुखी गति  किसी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य [इन्द्रिय भोग की दिशा में] की ओर दौड़ती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है।  

  >>'Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' के प्रशिक्षण द्वारा : यदि मन और इन्द्रियों की इस बहिर्मुखी गति के संयमित करना सीख लिया, तो इससे शक्ति की वृद्धि हो सकती है। इस आत्मसंयम से [(self-restraint- 24 X 7 यम, नियम का पालन करने से)] एक महान इच्छाशक्ति का प्रादुर्भाव हो सकता है। इससे एक ऐसे चरित्र का निर्माण हो सकता है, जो अपने ज्ञान से बुद्ध या ईसा (नवनीदा जैसा) संपूर्ण जगत को  रोशन कर सकता है। मूर्खों को इस रहस्य का पता नहीं रहता , परन्तु फिर भी वे मनुष्य -जाति पर शासन करने के इच्छुक रहते हैं।....जिस प्रकार कुछ पशु अपने से दो-चार कदम आगे कुछ नहीं देख सकते, इसी प्रकार हममें से ज्यादातर लोग दो-चार वर्ष के आगे भविष्य नहीं सकते। भविष्य की कल्पना के बारे में अधिकांश लोग नितांत अदूरदर्शी होते हैं। हम सभी में दूरदर्शिता के लिए धैर्य नहीं रहता और इसीलिए हम अनैतिक और नकारात्मक कर्म करने लगते हैं। यह हमारी कमजोरी है। शक्तिहीनता है। 

     समाज-सेवा के अत्यंत निम्नतम या सामान्य कर्मों को भी हमें कभी तिरस्कार या घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। जो मनुष्य किसी श्रेष्ठ आदर्श को नहीं जानता (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा और SV जैसे किसी श्रेष्ठ आदर्श को नहीं जानता) उसे स्वार्थदृष्टि से ही, नाम-यश (या गुरुगिरि करने) के लिए ही - काम (रिलीफ वर्क या अन्नदान-वस्त्रदान आदि) करने दो। प्रत्येक मनुष्य को उच्चतर स्तर की समाज-सेवा की ओर बढ़ने तथा उन्हें समझने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। 'हमें कर्म करने का अधिकार है, कर्मफल में हमारा कोई अधिकार नहीं।" (गीता-2.47)   यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता सचमुच करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिंता न करो कि उस व्यक्ति का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा होना चाहिए। यदि तुम कोई श्रेष्ठ और उत्तम कार्य करना चाहते हो, तो यह कभी मत सोचो कि उसका फल क्या होगा? कर्मयोगी को सदैव कर्म करते रहना चाहिए। आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो परम शांति व निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म करते रहने तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल जैसी शान्ति एवं निस्तब्धता  का अनुभव करते हैं। ऐसे व्यक्ति आत्मसंयम (24 X 7 यम -नियम और दोबार मनःसंयोग) का रहस्य जान कर अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके होते हैं

परन्तु हमें आरम्भ से ही आरम्भ करना पड़ेगा , जो कार्य हमारे सामने आये , उसे अपने हाथ में लें और क्रमशः अपने को प्रतिदिन निःस्वार्थ बनाने का यत्न करें। हमें कर्म करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारी प्रेरक शक्ति क्या है ? ऐसा होने पर हम देखेंगे कि आरम्भिक वर्षों में प्रायः हमारे सभी कार्यों के पीछे का हेतु या प्रेरक शक्ति (motives) स्वार्थपूर्ण रहता है। किन्तु अध्यवसाय के साथ कर्म में लगे रहने से यह स्वार्थपरायणता क्रमशः नष्ट हो जाएगी। और अन्त में वह समय आ जायेगा - जब हम वास्तव में स्वार्थरहित होकर -  होकर कार्य करने योग्य हो सकेंगे। [ घोर स्वार्थपरता या पशुता से मनुष्य बने और मनुष्य देवत्व अर्थात पूर्णतः निःस्वार्थ बनने का प्रयत्न करते रहें।] हम सभी यह आशा कर सकते हैं कि जीवन-पथ में संघर्ष करते करते किसी न किसी दिन वह समय अवश्य आएगा , जब हम पूर्ण रूप से निःस्वार्थ (100 % निःस्वार्थ) बन जायेंगे ; और ज्योंही हम उस अवस्था को प्राप्त कर लेंगे , हमारी समस्त शक्तियाँ केन्द्रीभूत हो जाएँगी तथा हमारा आभ्यन्तरिक ज्ञान (दिव्यत्व-ब्रह्मत्व) प्रकट हो जायेगा।   

 कोई भी व्यक्ति यदि पूर्ण रूप से नि:स्वार्थ होकर कर्म करेे, तो वह एक महापुरुष बन सकता है-अर्थात मानवजाति का मार्गदर्शक नेता- जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर बन सकता है !

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>>>*साभार ~ *卐~卐 *श्री दादूवाणी दर्शन* 卐~卐* 卐*Shri Daduvani Darshan*卐परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी/बुधवार, 13 मार्च 2024@Bijay Krishna Pandey*

शास्त्र कहते हैं .... कि अठारह दिनों के महाभारत युद्ध में उस समय की पुरुष जनसंख्या का 80% सफाया हो गया था। युद्ध के अंत में, संजय कुरुक्षेत्र के उस स्थान पर गए जहां सबसे महानतम युद्ध हुआ था। उसने इधर-उधर देखा और सोचने लगा कि क्या वास्तव में यहीं युद्ध हुआ था...? यदि युद्ध हुआ था तो जहां वो खड़ा है ... उसके नीचे की जमीन रक्त से सराबोर होनी चाहिए.., क्या वो आज उसी जगह पर खड़ा है ... जहां महान पांडव और कृष्ण खड़े थे ..? 

तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने नरम और शांत स्वर में कहा "आप उस बारे में सच्चाई कभी नहीं जान पाएंगे !" संजय ने धूल के बड़े से गुबार के बीच में से दिखाई देने वाले भगवा वस्त्र पहने एक वृद्ध व्यक्ति को देखने के लिए उस ओर सिर को घुमाया। "मुझे पता है कि आप कुरुक्षेत्र युद्ध के बारे में पता लगाने के लिए यहां आये हैं, लेकिन आप उस महाभारत युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते .. जब तक आप ये नहीं जानते हैं कि असली युद्ध है क्या ।" बूढ़े आदमी ने रहस्यमय ढंग से कहा। 

"तुम महाभारत का क्या अर्थ है - जानते हो ?" महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, एक वास्तविकता भी है,लेकिन निश्चित रूप से एक दर्शन भी है। वृद्ध व्यक्ति संजय को और अधिक सवालों के चक्कर में फसा कर मुस्कुरा रहा था। 

"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि इस ग्रन्थ में दर्शन क्या है ?" संजय ने निवेदन किया। ज़रूर, बूढ़े आदमी ने कहना शुरू किया। पांडव कुछ और नहीं, बल्कि आपकी पाँच इंद्रियाँ हैं !दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण ..., और क्या आप जानते हैं .. कि कौरव क्या हैं ? उसने अपनी आँखें संकीर्ण करते हुए पूछा।

कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं ... जो आपकी इंद्रियों पर प्रतिदिन हमला करते हैं। लेकिन आप उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं। ...पर क्या आप जानते हैं कैसे ? संजय ने फिर से ना में सर हिला दिया। "जब कृष्ण आपके रथ की सवारी करते हैं !" 

यह कह वह वृद्ध व्यक्ति बड़े प्यार से मुस्कुराया और संजय अंतर्दृष्टि खुलने पर जो नवीन रत्न प्राप्त हुआ उस पर विचार करने लगा। .. कृष्ण (गुरु विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण) आपकी आंतरिक आवाज, आपकी आत्मा, आपका मार्गदर्शक प्रकाश है और यदि आप अपने जीवन को उसके हाथों में सौंप देते हैं ... तो आपको चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है । संजय लगभग चेतन अवस्था में पहुंच गया था, लेकिन जल्दी से एक और सवाल लेकर आया। 

"फिर" कौरवों के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म क्यों लड़ रहे हैं, अगर विकार रूपी कौरव अधर्मी एवम् दुष्ट प्रकृति के हैं ?" वृद्ध आदमी ने दुःखी भाव के साथ सिर हिलाया और कहा। "जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, अपने बड़ों के प्रति (अपने तथाकथित शुभचिन्तकों के प्रति) आपकी धारणा बदलती जाती है। जिन बुजुर्गों के बारे में आपने सोचा था ... कि आपके बढ़ते वर्षों में वे संपूर्ण थे.... अब आपको लगता है वे सभी परिपूर्ण नहीं हैं। उनमें दोष हैं 

और एक दिन आपको यह तय करना होगा कि उनका व्यवहार आपके लिए अच्छा या बुरा है। तब आपको यह भी एहसास हो सकता है कि आपको अपनी भलाई के लिए उनका विरोध करना या लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़े होने का (बुद्ध और ईसा जैसा महापुरुष बनने का) सबसे कठिन हिस्सा है .. और यही वजह है कि गीता महत्वपूर्ण है

संजय धरती पर बैठ गया, इसलिए नहीं कि वह थका हुआ था बल्कि इसलिए कि वह जो समझ ले कर यहां आया था वो एक एक करके धराशाई हो रही थी। लेकिन फिर भी उसने लगभग फुसफुसाते हुए एक और प्रश्न पूछा -"इस कर्ण के बारे में आपका क्या कहना है ? "आह!" वृद्ध ने कहा। "आपने अंत के लिए सबसे अच्छा प्रश्न बचा के रखा हुआ है।

कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है,वह इच्छा है, वह आप का ही एक हिस्सा है। ....लेकिन वो अपने प्रति अन्याय महसूस करता है,और आपके विरोधी विकारों के साथ खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई ना कोई कारण और बहाना बनाता रहता है। क्या आपकी इच्छा, आपको, विकारों के वशीभूत हो कर उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है ?" संजय ने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया और भूमि की तरफ सिर करके सारे विचार श्रंखलाओं को क्रमबद्ध कर मस्तिष्क में बैठने का प्रयास करने लगा।

 और जब उसने अपने सिर को ऊपर उठाया वो वृद्ध व्यक्ति कहीं धूल के गुबारों के मध्य विलीन हो चुका था। लेकिन जाने से पहले वो जीवन का वो दिशा एवम् दर्शन दे गया था जिसे आत्मसात करने के अतिरिक्त अब कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।

#साभार #Rakesh_Saxena

>>>महाभारत का कर्ण कौन है ? : महाभारत के कर्ण को समझने के लिए पहले यह समझना होगा कि महाभारत के पाण्डव कौन हैं ? पाण्डव और कुछ नहीं हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं। पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय हैं - रूप (दृष्टि या sight), रस (स्वाद या taste), गन्ध (smell), शब्द (श्रवण या hearing) और स्पर्श (touch) |  कर्ण कौन है ? (Who is Karna of Mahabharata?*Karna is the brother of your senses,* *He is the desire,* *He is a part of you...* *But he feels injustice towards himself* *And seems to be standing with your opposing vices* * And all the time he keeps making some reason or the other to stand with the thoughts of vices.**Doesn't your desire keep motivating you to get carried away by the vices or adopt them?*) 

*कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है,* *वह इच्छा है,* *वह आप का ही एक हिस्सा है....*कर्ण हमारे मन में छुपे हमारी पाँच इन्द्रिय विषयों- दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, स्वाद और गन्ध  को भोगने की इच्छा का नाम है। अर्थात कर्ण हमारी इन्द्रियों का छठा भाई (मन) या इच्छा का नाम है - यह मन हमारा ही हिस्सा है (आत्मा का यंत्र है। ) लेकिन कर्ण (अर्थात अपनी बड़ाई सुनने की इच्छा मन को चंचल बनाये रखती है) इसलिए कर्ण हमेशा अपने प्रति अन्याय महसूस करता है। और हमारे विरोधी विकारों के साथ (रिपुओं के साथ) खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई ना कोई कारण और बहाना बनाता रहता है। *क्या आपकी इच्छा, आपको, विकारों के वशीभूत हो कर* *उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है ?"

और कौरव क्या हैं ? कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं ... जो हमारी इंद्रियों को भोग के लिए उकसाते रहते हैं, उन पर निरंतर हमला करते रहते हैं। **लेकिन हम उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं...* "जब कृष्ण हमारे शरीर रूपी रथ के सारथि बनते हैं !"

 कृष्ण (अर्थात गुरु विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस) ही हमारी आंतरिक आवाज, हमारी आत्मा, हमारे मार्गदर्शक नेता हैं। और यदि  अपने जीवन को हम उनके हाथों में सौंप देते हैं ... तो मुझे (स्वामी जी के दास को) चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है । क्योंकि विवेकानन्द ही स्कन्द है और स्वयं माँ सारदा देवी स्कन्दमाता हैं ! 

यदि इच्छा अब भी विकारों में बह जाने के लिए प्रेरित करती हो - तो विवेक-प्रयोग अधिकार द्वारा दृढ़ इच्छा शक्ति प्राप्त करने के लिए माँ सारदा के 'स्कन्दमाता' रूप की पूजा अवश्य करें ! 

 

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

 हे माँ! सर्वत्र विराजमान और स्कंदमाता के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। इस दिन साधक का मन 'विशुद्ध' चक्र में अवस्थित होता है। इनके विग्रह में भगवान स्कंदजी बालरूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं।

नवरात्रि का पाँचवाँ दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं। यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है।

सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया | शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ||

भगवान स्कंद 'कुमार कार्तिकेय' नाम से भी जाने जाते हैं। ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।

माँ स्कंदमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इस मृत्युलोक में ही उसे परम शांति और सुख का अनुभव होने लगता है। उसके लिए मोक्ष का द्वार स्वमेव सुलभ हो जाता है। स्कंदमाता की उपासना से बालरूप स्कंद भगवान की उपासना भी स्वमेव हो जाती है। यह विशेषता केवल इन्हीं को प्राप्त है, अतः साधक को स्कंदमाता की उपासना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।

सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कांति से संपन्न हो जाता है। हमें एकाग्रभाव से मन को पवित्र रखकर माँ की शरण में आने का प्रयत्न करना चाहिए। इस घोर भवसागर के दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ बनाने का इससे उत्तम उपाय दूसरा नहीं है।

** सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥ 

हे नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगल मयी हो। कल्याण दायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को) सिद्ध करने वाली हो। शरणागत वत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। हे नारायणी, तुम्हें नमस्कार है।

🕊🏹"मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ-Be and Make ! 🕊🏹  

 अपने जीवन की सार्थकता एवं सफलता के लिए मनुष्य (बुद्ध या ईसा जैसा महापुरुष या 100 % निःस्वार्थी ) बनने और बनाने के लिए  जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र चुन लेना चाहिए, जो सर्वहितकारी हो - भारत माता के कल्याण के लिए मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा -Be and Make के प्रचार-प्रसार करना तथा उस कार्य के सम्पादन में अपनी इच्छाशक्ति को दृढ़तापूर्वक नियोजन कर देना चाहिए।  यदि हम नियमित रूप से जीवन के अंतिम साँस तक इसका अभ्यास करेंगे, तो हमारा जीवन निश्चित रूप से सार्थक एवं आनन्दमय होगा।

मनुष्य के जीवन में विभिन्न प्रकार की इच्छाएं होती हैं। इनमें शुभ (नैतिक) और अशुभ (अनैतिक) दोनों प्रकार की इच्छाएं होती हैं। अशुभ इच्छाओं को हम सामान्यत: वासना (ऐषणा) कहते हैं। ये वासनाएं मानव-मन की शुभ एवं नैतिक भावनाओं को दुर्बल कर देती है, जिससे मनुष्य के मन में स्थिति अशुभ या पशुवृत्तियां (कामिनी -कांचन में घोर स्वार्थ की प्रवृत्ति)  प्रबल हो जाती हैं तथा मनुष्य दुश्चरित्र होकर पतित हो -बदनामी का महादु:ख पाता है। इस बदनामी और दु:ख से मुक्ति का एक मात्र उपाय है- शुभ इच्छा को प्रबल और दृढ़ कर अशुभ भावनाओं एवं इच्छाओं को अपने मन में उखाड़ फेंकना। हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।

 'इसका' - अपने नैतिक प्रकृति को उन्नत करने का एक सरल उपाय है चरित्रवान तथा दृढ़ इच्छाशक्ति सम्पन्न व्यक्तियों [C-IN-C नवनीदा] का संग करना तथा 3H विकास के 5 अभ्यास के साथ-साथ सद्ग्रंथों का अध्ययन एवं मनन करना। इन उपायों के द्वारा मनुष्य अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन कर सकता है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि ये सब चमत्कार मनुष्य की दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन तथा अध्यवसाय के ही परिणाम है। दृढ़ इच्छाशक्ति ईश्वर द्वारा मनुष्य को ही दी गई एक महान दिव्य शक्ति है। इस शक्ति के समुचित प्रयोग से मनुष्य अपने जीवन का सर्वांगीण विकास कर सकता है।

विभिन्न विद्याओं और कलाओं में मनुष्य जैसे दीर्घकाल के निरंतर अभ्यास के द्वारा ही निपुणता प्राप्त करता है, उसी प्रकार इच्छा-शक्ति को भी दृढ़ एवं बलशाली करने के लिए - 3H विकास के 5 अभ्यास के निरंतर अभ्यास (निर्जनवास -प्रशिक्षण) की आवश्यकता होती है।

>>Secret source of success : strong will power (दृढ़ इच्छा शक्ति) -  मनुष्य जीवन में शक्ति का बहुत बड़ा हाथ रहा है। शक्ति के बिना वह एक पग भी नहीं चल सकता, बसे अपने हर कार्य में शक्ति से काम लेना पड़ता है। यदि शक्ति उसका साथ छोड़ दे तो वह किसी काम का नहीं रहता। बलवान व्यक्ति भी शक्ति का उपासक हैं और निर्बल भी।

मनुष्य की वह शक्ति कौन सी है? इसे जानने के लिए यह समझना होगा कि मनुष्य जीवन कर्म-प्रधान है। कर्म के बिना वह निरर्थक है। परन्तु इच्छा के बिना कर्म की उत्पत्ति नहीं हो सकती। मनुष्य का मन चाहे तभी उसमें कार्य की प्रवृत्ति होती है, इसलिए मनीषियों ने इच्छा अथवा मन को कर्म की शक्ति माना है

जिस व्यक्ति में इच्छा शक्ति की जितनी प्रबलता हैं, वह उतना ही अधिक कार्यक्षम होता है। वरना देह पर इच्छा शक्ति का ही शासन है क्योंकि इच्छा द्वारा ही सब इन्द्रियाँ अपने कार्य में लगती है। अत्यन्त निर्बल मनुष्य भी इसके बल से बलवान बन जाते हैं।

>>दृढ़ इच्छाशक्ति सम्पन्न होने का उपाय है - Autosuggestion :यह अपने विवेक-प्रयोग अधिकार (discretion) की बात है कि हम इस शक्ति को अच्छे कार्य में लगाते है अथवा बुरे में। संसार में जितनी भी बुरे कार्य होते हैं वे सब इसी के द्वारा। रक्तपात, अपहरण, चोरी, द्यूत आदि सभी कर्म इच्छा शक्ति के गलत प्रयोग का ही परिणाम है। इसके बल पर श्रेष्ठ कार्य भी होते हैं, जिनमें सत्यवादिता, परोपकार, और भगवत्प्राप्ति के विभिन्न साधन भी सम्मिलित हैं।  आप इस दृढ़ इच्छाशक्ति को जिस कार्य में लगावेंगे, वह उसी में लग जायेगी। उसी को पूर्ण करने का प्रयत्न करेगी। अग्नि में जो दाहक शक्ति है उसका उपयोग जन-कल्याण के लिए भी हो सकता है और विनाश के लिए भी। जैसे अग्नि का प्रयोग भोजन पकाने के  कार्य के लिए हो सकता है, या घर में आग लगाने के लिए भी हो सकता है।  वैसे ही इच्छाशक्ति का प्रयोग भी दोनों प्रकार से हो सकता है। इच्छा शक्ति के बल पर मनुष्य में बड़े बड़े आश्चर्य- जनक कार्य कर डाले।

3H' विकास> शरीर (Hand) , मन (Head) और ह्रदय (Heart -आत्मा ) की निरोगता :  एक मनुष्य मोटा तगड़ा या पहलवान तो दिखाई देता है परन्तु अगर उसमें चरित्र, मधुर भाषण, पवित्रता, विनय, क्षमा, त्याग और सेवा इत्यादि मानसिक तन्दुरुस्ती के गुणों का अभाव है तो उसे पूर्ण तन्दुरुस्त नहीं कहा जा सकता। जिसके शरीर, मन व आत्मा (3H) में किसी तरह का कोई भी रोग न हो, वह स्वस्थ है, निरोग है व तन्दुरुस्त है। एकाग्र, निर्मल और शांत मन के जरिये ही अच्छी भूख, अच्छी नींद, ठीक शौच, चौड़ी छाती, सीधी कमर, बिना थके लिखाई पढ़ाई कर सकने की शक्ति, बुखार, खाँसी, जुकाम, कब्जी वगैरह कभी न होकर शारीरिक तन्दुरुस्ती के श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति हो सकती है। जब शारीरिक व मानसिक तन्दुरुस्ती प्राप्त हो गई तो फिर, आत्मिक उन्नति तो अत्यन्त ही सहज है। इसीलिए पूर्ण तन्दुरुस्ती प्राप्त करने से पहले हमें अपने शरीर और मन को स्वस्थ और निरोग बनाने की सर्वप्रथम कोशिश करनी चाहिए। शारीरिक व आत्मिक उन्नति की जड़ ‘तन्दुरुस्त मन -या एकाग्र मन ’ ही पर अवलम्बित है

 यदि आप किसी प्रतिज्ञा की पूर्ति - "मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूँगा " जैसे श्रेष्ठ प्रतिज्ञा की पूर्ति  में कटिबद्ध हो जायें, तथा मनुष्य बनो और बनाओ (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make आन्दोलन) के नेता नवनीदा जैसे (जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर ) बन जाएँ; तो यह भी आपकी दृढ़ इच्छा शक्ति की ही प्रेरणा होगी। इसी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर निर्धन ब्राह्मण चाणक्य ने भगधाधिपति महानन्द का राज्य उलट दिया था। इस प्रकार के अन्य अनगिनत उदाहरण प्राचीन और नवीन इतिहास में प्राप्त हो सकते हैं। (Countless other such examples can be found in ancient and modern history.)

[साभार>http://hindi.awgp.org/spiritual_wisdom/blissful_life/holistic_life_style/the_measure_of_success]

>>> भारतेंदु हरिश्चंद्र (9 सितंबर, 1850 - 6 जनवरी, 1885)  :  इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी। आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म  काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ। उनके पिता गोपालचंद्र एक अच्छे कवि थे और 'गिरधरदास' उपनाम से कविता लिखा करते थे। 1857 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय उनकी आयु 7 वर्ष की होगी। ये दिन उनकी आँख खुलने के थे। भारतेन्दु का कृतित्व साक्ष्य है कि उनकी आँखें एक बार खुलीं तो बन्द नहीं हुईं। 

      उनके पूर्वज अंग्रेज-भक्त थे, उनकी ही कृपा से धनवान हुये थे। हरिश्चंद्र पाँच वर्ष के थे तो माता की मृत्यु और दस वर्ष के थे तो पिता की मृत्यु हो गयी। इस प्रकार बचपन में ही माता-पिता के सुख से वंचित हो गये। विमाता ने खूब सताया। बचपन का सुख नहीं मिला। शिक्षा की व्यवस्था प्रथापालन के लिए होती रही। संवेदनशील व्यक्ति के नाते उनमें स्वतन्त्र रूप से देखने-सोचने-समझने की आदत का विकास होने लगा।  भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया।

 "सत्य हरिश्चंद्र (नाटक-1875) : चौथा अंक  - lekhny.com/

चौथा अंक > स्थान: दक्षिण, स्मशान, नदी, पीपल का बड़ा पेड़, चिता, मुरदे, कौए, सियार, कुत्ते, हड्डी, इत्यादि। 

कंबल ओढ़े और एक मोटा लट्ठ लिए हुए राजा हरिश्चन्द्र फिरते दिखाई पड़ते हैं।

ह. : (लम्बी सांस लेकर) हाय! अब जन्म भर यही दुख भोगना पड़ेगा।

जाति दास चंडाल की, घर घनघोर मसान।

कफन खसोटी को करम, सबही एक समान ।।

न जाने विधाता का क्रोध इतने पर भी शांत हुआ कि नहीं। बड़ों ने सच कहा है कि दुःख से दुःख जाता है। दक्षिणा का ऋण चुका तो यह कर्म करना पड़ा। हम क्या सोचें। अपनी अनथ प्रजा क्या को, या दीन नातेदारों को या अशरश नौकरों को, या रोती हुई दासियों को, या सूनी अयोध्या को, या दासी बनी महारानी को, या उस अनजान बालक को, या अपने ही इस चंडालपने को। हा! बटुक के धक्के से गिरकर रोहिताश्व ने क्रोधभरी और रानी ने जाती समय करुणाभरी दृष्टि से जो मेरी ओर देखा था वह अब तक नहीं भूलती। (घबड़ा कर) हा देवी! सूर्यकुल की बहू और चंद्रकुल की बेटी होकर तुम बेची गईं और दासी बनीं। हा! तुम अपने जिन सुकुमार हाथों से फूल की माला भी नहीं गुथ सकती थीं उनसे बरतन कैसे मांजोगी! (मोह प्राप्त होने चाहता है पर सम्हल कर) अथवा क्या हुआ? यह तो कोई न कहेगा कि हरिश्चन्द्र ने सत्य छोड़ा

बेचि देह दारा सुअन होई दासहू मन्द।

राख्यौ निज बच सत्य करि अभिमानी हरिचन्द ।।

(आकाश से पुष्पवृष्टि होती है)

अरे! यह असमय में पुष्पवृष्टि कैसी? कोई पुन्यात्मा का मुरदा आया होगा। तो हम सावधान हो जायं। (लट्ठ कंधे पर रखकर फिरता हुआ) खबरदार खबरदार बिना हम से कहे और बिना हमें आधा कफन दिये कोई संस्कार न करे। (यही कहता हुआ निर्भय मुद्रा से इधर उधर देखता फिरता है) (नेपथ्य में कोलाहल सुनकर) हाय हाय! कैसा भयंकर समशान है! दूर से मंडल बांध बांध कर चोंच बाए, डैना फैलाए, कंगालों की तरह मुरदों पर गिद्ध कैसे गिरते हैं, और कैसा मांस नोंच नोंच कर आपुस में लड़ते और चिल्लाते हैं। इधर अत्यंत कर्णकटु अमंगल के नगाड़े की भांति एक के शब्द की लाग से दूसरे सियार कैसे रोते हैं। उधर चिराईन फैलाती हुई चट चट करती चिता कैसी जल रही हैं, जिन में कहीं से मांस के टुकड़े उड़ते हैं, कहीं लोहू बा चरबी बहती है। आग का रंग मांस के संबंध से नीला पीला हो रहा है। ज्वाला घूम घूम कर निकलती है। आग कभी एक साथ धधक उठती है कभी मन्द हो जाती है। धुआँ चारों ओर छा रहा है। (आगे देखकर आदर से) अहा! यह वीभत्स व्यापार भी बड़ाई के योग्य है। शव! तुम धन्य हो कि इन पशुओं के इतने काम आते हो। अएतएव कहा है- 

‘मरनो भलो विदेश को जहाँ न अपुनो कोय।

माटी खायं जनावरा महा महोच्छव होय ।।’

अहा! देखो

सिर पर बैठ्यो काग आंख दोउ खात निकारत।

खींचत जीभहि स्यार अतिहि आनन्द उर धारत ।।

गिद्ध जांघ कहं खोदि खोदि कै मांस उचारत।

स्वान आँगुरिन काटि काटि कै खान बिचारत ।।

बहु चील नोचि लै जात तुच मोद बढ्यौ सबको हियो

मनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ आजु भिखारिन कहँ दियो ।।

सोई मुख सोई उदर सोई कर पद दोय।

भयो आजु कछु और ही परसत जेहि नहिं कोय ।।

हाड़ माँस लाला रकत बसा तुचा सब सोय।

छिन्न भिन्न दुरगन्धमय मरे मनुस के होय ।।

कादर जेहि लखि कै डरत पंडित पावत लाज।

अहो! व्यर्थ संसार को विषय वासना साज ।।

(अहा! शरीर भी कैसी निस्सार वस्तु है।)

हा! मरना भी क्या वस्तु है।

सोई मुख जेहि चन्द बखान्यौ।

सोई अंग जेहि प्रिय करि जान्यौ ।।

सोई भुज जे पिय गर डारे।

सोई भुज जिन रन बिक्रम पारे ।।

सोई पद जिहि सेवक बन्दत।

सोई छबि जेहि देखि आनन्दत ।।

सोई रसना जहं अमृत बानी।

सोई सुनि कै हिय नारि जुड़ानी ।।

सोई हृदय जहं भाव अनेका।

सोई सिर जहं निज बच टेका ।।

सोई छबिमय अंग सुबाए।

आजु जीव बिनु धरनि सुहाए ।।

कहां गई वह सुंदर सोभा।

जीवत जेहि लखि सब मन लोभा ।।

प्रानहुं ते बढ़िजा कहं चाहत।

ता कहं आजु सबै मिलि दाहत ।।

फूल बोझ हू जिन न सहारे।

तिन पै बोझ काठ बहु डारे ।।

सिर पीड़ा जिन की नहिं हेरी।

करत कपाल क्रिया तिनकेरी ।।

छिनहूं जे न भए कहुं न्यारे।

ते हू बन्धुन छोड़ि सिधारे ।।

जो दृग कोर महीप निहारत।

आजु काक तेहि भोज बिचारत ।।

भुज बल जे नहिं भुवन समाए।

ते लखियत मुख कफन छिपाए ।।

नरपति प्रजा भेद बिनु देखे।

गनें काल सब एकहि लेखे ।।

सुभग कुरूप अमृत बिख साने।

आजु सबै इक भाव बिकाने ।।

पुरू दधीच कोऊ अब नाहीं।

रहे नावं हीं ग्रन्थन मांही ।।

अहा! देखो वही सिर जिस पर मंत्र से अभिषेक होता था, कभी नवरत्न का मुकुट रक्खा जाता था, जिसमें इतना अभिमान था कि इन्द्र को भी तुच्छ गिनता था, और जिसमें बड़े-बड़े राज जीतने के मनोरथ भरे थे, आज पिशाचों का गेंद बना है और लोग उसे पैर से छूने में भी घिन करते हैं। (आगे देखकर) अरे यह स्मशान देवी हैं। अहा कात्यायनी को भी कैसा वीभत्स उपचार प्यारा है। यह देखो डोम लोगों ने सूखे गले सड़े फूलों की माला गंगा में से पकड़ पकड़ कर देवी को पहिना दी है और कफन की ध्वजा लगा दी है। मरे बैल और भैसों के गले के घंटे पीपल की डार में लटक रहे हैं जिन में लोलक की जगह नली की हड्डी लगी है। घंट के पानी से चारों ओर से देवी का अभिषेक होता है और पेड़ के खंभे में लोहू के थापे लगे हैं। नीचे जो उतारों की बलि दी गई है उसके खाने को कुत्ते और सियार लड़ लड़कर कोलाहल मचा रहे हैं। (हाथ जोड़कर) ‘भगवति! चंडि! प्रेते! प्रेत विमाने! लसत्प्रेते। प्रेतास्थि रौद्ररूपे! प्रेताशनि। भैरवि! नमस्ते’।

(नेपथ्य में) राजन् हम केवल चंडालों के प्रणाम के योग्य हैं। तुम्हारे प्रणाम से हमें लज्जा आती है। मांगो, क्या वर मांगते हो

इस समय ये चिता भी कैसी भयंकर मालूम पड़ती हैं। किसी का सिर चिता के नीचे लटक रहा है, कहीं आंच से हाथ पैर जलकर गिर पड़े हैं, कहीं शरीर आधा जला है, कहीं बिल्कुल कच्चा है, किसी को वैसे ही पानी में बहा दिया है, किसी को किनारे छोड़ दिया है, किसी का मुंह जल जाने से दांत निकला हुआ भयंकर हो रहा है, और कोई दहकती आग में ऐसा जल गया है कि कहीं पता भी नहीं है। बाहरे शरीर! तेरी क्या क्या गति होती है!!!

 सचमुच मरने पर इस शरीर को चटपट जला ही देना योग्य है क्योंकि ऐसे रूप और गुण जिस शरीर में थे उसको कीड़ों या मछलियों से नुचवाना और सड़ा कर दुर्गंधमय करना बहुत ही बुरा है। न कुछ शेष रहेगा न दुर्गति होगी। हाय! चलो आगे चलें। (खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर उधर घूमता है) (कौतुक से देखकर) पिशाचों का क्रीड़ा कुतूहल भी देखने के योग्य है। अहा! यह कैसे काले काले झाड़ई से सिर के बाल खड़े किये लम्बे-लम्बे हाथ पैर बिकराल दांत लम्बी जीभ निकाले इधर-उधर दौड़ते और परस्पर किलकारी मारते हैं मानों भयानक रस की सेना मूर्तिमान होकर यहाँ स्वच्छंद विहार कर रही है। हाय हाय! इन का खेल और सहज व्योहार भी कैसा भयंकर है।

 कोई कटाकट हड्डी चबा रहा है, कोई खोपड़ियों में लोहू भर भर के पीता है, कोई सिर का गेंद बनाकर खेलता है, कोई अंतड़ी निकालकर गले में डाले है और चंदन की भांति चरबी और लोहू शरीर में पोत रहा है, एक दूसरे से माँस छीनकर ले भागता है, एक जलता मांस मारे तृष्णा के मुंह में रख लेता है पर जब गरम मालूम पड़ता है तो थू थू करके थूक देता है, और दूसरा उसी को फिर झट से खा जाता है। हा! देखो यह चुड़ैल एक स्त्री की नाक नथ समेत नोच लाई है जिसे सत्य हरिश्चंद्र के परवर्ती संस्करणों में बढ़ाया गया अंश,(पिशाच और डाकिणी गण परस्पर आमोद करते और गाते बजाते आते हैं।)

पि. और डा. : हैं भूत प्रेत हम, डाइन हैं छमाछम,

हम सेवैं मसान, शिव को भजैं, बोलैं बम बम बम।

पि. : हम कड़ कड़ कड़ कड़ कड़ कड़ हड्डी को तोड़ेंगे।

हम भड़ भड़ धड़ धड़ पड़ पड़ सिर सबका फोड़ेंगे।

डा. : हम घुट घुट घुट घुट घुट घुट लोहू पिलावेंगी।

हम चट चट चट चट चट चट ताली बाजवेंगी।।

सब : हम नाचें मिलकर थेई थेई थेई थेई कूदें धम् धम् धम्

हैं भूत प्रेत हम, डाइन हैं छमा छम।।

पि. : हम काट काट कर सिर को गेंदा उछालेंगे।

हम खींच खींच कर चर्बी पंशाखा बालेंगे।।

डा. : हम माँग में लाल लाल लोहू का सिंदूर लगावेंगी।

हम नस के तागे चमड़े का लहँगा बनावेंगी।।

सब : हम धज से सज के बज के चलेंगे चमकेंगे चम चम चम।

पि. : लोहू का मुँह से फर्र फर्र फुहारा छोड़ेंगे।

माला गले पहिरने को अँतड़ी को जोडे़गें।।

डा. : हम लाद के औंधे मुरदे चैकी बनावैंगी।

कफन बिछा के लड़कों को उस पर सुलावेंगी।।

सब : हम सुख से गावेंगे ढोल बजावेंगे ढम ढम ढम ढम ढम।

(वैसे ही कूदते हुए एक ओर चले जाते हैं।)

देखने को चारों ओर से सब भूतने एकत्रा हो रहे हैं और सभों को इसका बड़ा कौतुक हो गया है। हंसी में परस्पर लोहू का कुल्ला करते हैं और जलती लकड़ी और मुरदों के अंगों में लड़ते हैं और उनको ले ले कर नाचते हैं। यदि तनिक भी क्रोध में आते हैं तो स्मशान के कुत्तों को पकड़-पकड़ कर खा जाते हैं। अहा! भगवान भूतनाथ ने बड़े कठिन स्थान पर योग साधना की है। 

(खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिरता है) (ऊपर देखकर) आधी रात हो गई, वर्षा के कारण अंधेरी बहुत ही छा रही है, हाथ से नाक नहीं सूझता। चांडाल कुल की भांत स्मशान पर तम का भी आज राज हो रहा है। (स्मरण करके) हा। इस दुःख की दशा में भी हमसे प्रिया अलग पड़ी है। कैसी भी हीन अवस्था हो पर अपना प्यारा जो पास रहे तो कुछ कष्ट नहीं मालूम पड़ता। सच है-”टूट टाट घर टपकत खटियौ टूट। पिय कै बांह उसिसवां सुख कै लुट“। बिधना ने इस दुःख पर भी बियोग दिया हा! यह वर्षा और यह दुःख! हरिश्चन्द्र का तो ऐसा कठिन कलेजा है कि सब सहेगा पर जिस ने सपने में भी दुख नहीं देखा वह महारानी किस दशा में होगी। हा देवि! धीरज धरो धीरज धरो। तुम ने ऐसे ही भाग्यहीन से स्नेह किया है जिसके साथ सदा दुख ही दुख है। (ऊपर देखकर) अरे पानी बरसने लगा! (घोघी भली भांति ओढ़ कर) हमको तो यह वर्षा और स्मशान दोनों एकही से दिखाई पड़ते हैं। देखो।

चपला की चमक चहूंघा सों लगाई चिता चिनगी चिलक पटबीजना चलायो है। हेती बग माल स्याम बादर सु भूमिकारी बीर बधूबूंद भव लपटायो है ।। हरीचन्द नीर धार आंसू सी परत जहाँ दादुर को सोर रोर दुखिन मचायो है। दाहन बियोगी दुखियान को मरे हूं यह देखो पापी पाव मसान बनि आयो है।

(कुछ देर तक चुप रह कर) कौन है? (खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिर कर)

इन्द्रकालहू सरिस जो आयसु लांघै कोय।

यह प्रचंड भुज दंड मम प्रति भट ताको होय ।।

अरे कोई नहीं बोलता। (कुछ आगे बढ़कर) कौन है?

(नेपथ्य में) हम हैं।

ह. : अरे हमारी बात का उत्तर कौन देता है? चले जहाँ से आवाज आई है वहाँ चल कर देखें। (आगे बढ़ कर नेपथ्य की ओर देख कर) अरे यह कौन है?

चिता भस्म सब अंग लगाए।

अस्थि अभूषन बिबिध बनाए ।।

हाथ मसान कपाल जगावत।

को यह चल्यो रुद्र सम आवत ।।

(कापालिक के वेष में धर्म आता है)

धर्म. : अरे हम हैं।

वृत्ति अयाचित आत्म रति करि जग के सुख त्याग।

फिरहिं मसान-मसान हम धारि अनन्द बिराग ।।

आगे बढ़कर महाराज हरिश्चन्द्र को देखकर आप ही आप,

हम प्रतच्छ हरि रूप जगत हमरे बल चालत।

जल थल नभ थिर मम प्रभाव मरजाद न टालत ।।

हम हीं नर के मीत सदा सांचे हितकारी।

हम ही इक संग जात तजत जब पितु सुत नारी ।।

सो हम नित थित इक सत्य में जाके बल सब जग जियो।

सोइ सत्य परिच्छन नृपति को आजु भेष हम यह कियो ।।

कुछ सोचकर, राजर्षि हरिश्चन्द्र की दुःख परंपरा अत्यंत शोचनीय और इनके चरित्रा अत्यन्त आश्चर्य के हैं! अथवा महात्माओं का यह स्वभाव ही होता है।

सहत बिविध दुख मरि मिटत भोगत लाखन सोग।

पै निज सतय न छाड़हीं जे जग सांचे लोग ।।

बरु सूरज पच्छिम उगैं विन्ध्य तरै जल मांहिं।

सत्य बीर जन पै कबहुं निज बच टारत नाहिं ।।

अथवा उनके मन इतने बड़े हैं कि दुख को दुख, सुख को दुख गिनते ही नहीं। चलें उनके पास चलें। (आगे बढ़कर और देखकर) अरे यही महात्मा हरिश्चन्द्र हैं? (प्रगट) महाराज! कल्याण हो।

ह. : (प्रणाम करके) आइये योगिराज।

ध. : महाराज! हम अर्थी हैं।

ह. : (लज्जा और विकलता नाट्य करता है)

ध. : महाराज आप लज्जा मत कीजिए। हम लोग योग बल से सब कुछ जानते हैं। आप इस दशा पर भी हमारा अर्थ पूर्ण करने को बहुत हैं। चन्द्रमा राहु से ग्रसा रहता है तब भी दान दिलवा कर भिक्षुओं का कल्याण करता है।

ह. : आज्ञा। हमारे योग्य जो कुछ हो आज्ञा कीजिए।

ध. : अंजन गुटिका पादुका धातुभेद बैताल। वज्र रसायन जोगिनी मोहि सिद्ध इहि काल।

ह. : तो मुझे आज्ञा हो वह करूं।

ध. : आज्ञा यही है कि यह सब मुझे सिद्ध हो गए हैं पर विघ्न इस में बाधक होते हैं सो आप विघ्नों का निवारण कर दीजिए।

ह. : आप जानते ही हैं कि मैं पराया दास हूँ, इससे जिनमें मेरा धर्म न जाय वह मैं करने को तैयार हूं।

ध. : (आप ही आप) राजन्, जिस दिन तुम्हारा धर्म जाएगा उस दिन पृथ्वी किसके बल से ठहरेगी (प्रत्यक्ष) महाराज इसमें धर्म न जायगा क्योंकि स्वामी की आज्ञा तो आप उल्लंघन करते ही नहीं। सिद्धि का आकर इसी स्मशान के निकट ही है और मैं अब पुरश्चरण करने जाता हूँ, आप बिघ्नों का निषेध कर दीजिए।

(जाता है)

ह. : (ललकार कर) हटो रे हटो विघ्नो चारों ओर से तुम्हारा प्रचार हम ने रोक दिया।

(नेपथ्य में) महाराजाधिराज जो आज्ञा। आप से सत्य वीर की आज्ञा कौन लांघ सकता है।

खुल्यौ द्वारा कल्यान को सिद्ध जोग तप आज।

निधि सिधि विद्या सब करहिं अपुने मन को काज ।।

ह. : (हर्ष से) बड़े आनन्द की बात है कि विघ्नों ने हमारा कहना मान लिया। (विमान पर बैठी हुई तीनों महाविद्या आती है)

म. वि. : महाराज हरिश्चन्द्र! बधाई है। हमीं लोगों को सिद्ध करने को विश्वामित्र ने बड़ा परिश्रम किया था तब देवताओं ने माया से आपको स्वप्न में हमारा रोना सुनाकर हमारा प्राण बचाया।

ह. : (आप ही आप) अरे यही सृष्टि की उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली महाविद्या हैं जिन्हें विश्वामित्र भी न सिद्ध कर सके। (प्रगट हाथ जोड़कर) त्रिलोकविजयिनी महाविद्याओं को नमस्कार है।

म. वि. : महाराज हम लोग आप के बस में हैं। हमारा ग्रहण कीजिए।

ह. : देवियो! यदि हम पर प्रसन्न हो तो विश्वामित्र मुनि का वशवत्र्तिनी हो क्योंकि उन्होंने आप लोगों के वास्ते बड़ा परिश्रम किया है।

म. वि. : (परस्पर आश्चर्य से देखकर) धन्य महाराज धन्य! जो आज्ञा।

(जाती हैं)

धर्म एक बैताल के सिर पर पिटारा रखवाए हुए आता है।

ध. : महाराज का कल्याण हो। आप की कृपा से महानिधान सिद्ध हुआ। आपको बधाई है अब लीजिए इस रसेन्द्र को

याही के परभाव सों अमरदेव सम होइ।

जोगी जन बिहरहिं सदा मेरु शिखर भय खोइ ।।

ह. : (प्रणाम करके) महाराज दास धर्म के यह विरुद्ध है। इस समय स्वामी से कहे बिना मेरा कुछ भी लेना स्वामी को धोखा देना है।

ध. : (आश्चर्य से आप ही आप) वाह रे महानुभावता! (प्रगट) तो इसके स्वर्ण बना कर आप अपना दास्य छुड़ा लें।

ह. : यह ठीक है पर मैंने तो बिनती किया न कि जब मैं दूसरे का दास हो चुका तो इस अवस्था में मुझे जो कुछ मिले सब स्वामी का है। क्योंकि मैं तो देह के साथ ही अपना सत्व मात्रा बेच चुका इससे आप मेरे बदले कृपा करके मेरे स्वामी ही को यह रसेन्द्र दीजिए।

ध. : (आश्चर्य से आप ही आप) धन्य हरिश्चन्द्र! धन्य तुम्हारा धैर्य! धन्य तुम्हारा विवेक! और धन्य तुम्हारी महानुभावता! या

चलै मेरु बरु प्रलय जल पवन झकोरन पाय।

पै बीरन कें मन कबहूं चलहिं नाहिं ललचाय ।।

तो हमें भी इसमें कौन हठ है। (प्रत्यक्ष) बैताल! जाओ, जो महाराज की आज्ञा है, वह करो।

बै. : जो रावल जी की आज्ञा। (जाता है)

ध. : महाराज ब्राह्म मुहूर्त निकट आया अब हम को भी आज्ञा हो।

ह. : जोगिराज! हम को भूल न जाइएगा, कभी कभी स्मरण कीजिएगा।

ध. : महाराज! बड़े बडे़ देवता आप का स्मरण करते हैं और करेंगे मैं क्या हूँ।

(जाता है)

ह. : क्या रात बीत गई! आज तो कोई भी मुरदा नया नहीं आया। रात के साथ ही स्मशान भी शांत हो चला। भगवान् नित्य ही ऐसा करें।

(नेपथ्य मे घंटानूपुरादि का शब्द सुनकर) अरे यह बड़ा कोलाहल कैसा हुआ?

(विमान पर अष्ट महासिद्धि नव निधि और बारहो प्रयोग आदि देवता आते हैं)।

ह. : (आश्चर्य से) अरे यह कौन देवता बड़े प्रसन्न होकर स्मशान पर एकत्रा हो रहे हैं।

दे. : महाराज हरिश्चन्द्र की जय हो। आप के अनुग्रह से हम लोग विघ्नों से छूटकर स्वतंत्रा हो गए। अब हम आपके वश में हैं जो आज्ञा हो करें। हम लोग अष्ट महा सिद्धि नव निधि और बारह प्रयोग सब आप के हाथ में है।

ह. : (प्रणाम करके) यदि हम पर आप लोग प्रसन्न हो तो महासिद्धि योगियों के, निधि सज्जन के, और प्रयोग साधकों के पास जाओ।

दे. : (आश्चर्य से) धन्य राजर्षि हरिश्चन्द्र! तुम्हारे बिना और ऐसा कौन होगा जो घर आई लक्ष्मी का त्याग करे। हमीं लोगों की सिद्धि को बड़े-बड़े योगी मुनि पच मरते हैं पर तुमने तृण की भांति हमारा त्याग करके जगत का कल्याण किया।

ह. : आप लोग मेरे सिर आँखों पर हैं पर मैं क्या करूं, क्योंकि मैं पराधीन हूं। एक बात और भी निवेदन है। वह यह कि छह अच्छे प्रयोग की तो हमारे समय में सद्यः सिद्धि होय पर बुरे प्रयोगों की सिद्धि विलंब से हो।

दे. : महाराज! जो आज्ञा। हम लोग जाते हैं। आज आप के सत्य ने शिव जी के कीलन को भी शिथिल कर दिया। महाराज का कल्याण हो।

(जाते हैं)

(नेपथ्य में इस भांति मानो राजा हरिश्चन्द्र नहीं सुनता)

(एक स्वर से) तो अब अप्सरा को भेजें?

(दूसरे स्वर से) छिः मूर्ख! जिस को अष्ट सिद्धि नव निधियों ने नहीं डिगाया उसको अप्सरा क्या डिगावेंगी?

(एक स्वर से) तो अब अन्तिम उपाय किया जाय।

(दूसरे स्वर से) हाँ तक्षक को आज्ञा दे। अब और कोई उपाय नहीं है।

ह. : अहा अरुण का उदय हुआ चाहता है। पूर्व दिशा ने अपना मुँह  लाल किया। (साँस ले कर) ”वा चकई को भयो चित चीतो चियोति चहूँ दिसि चाय सों नाची। ह्वै गई छीन कलाधर की कला जामिनी जोति मनो जम जांची। बोलत बैरी बिहंगम देव संजोगिन की भई संपत्ति काची। लोहू पियो जो बियोगिन को सो कियो मुख लाल पिशाचिन प्राची।“ हा! प्रिये इन बरसातों की रात को तुम रो रो के बिताती होगी! हा! वत्स रोहिताश्व, भला हम लोगों ने तो अपना शरीर बेचा तब दास हुए तुम बिना बिके ही क्यों दास बन गए!

जेहि सहसन परिचायिका राखत हाथहि हाथ। सो तुम लोटत धूर मैं दास बालकन साथ! जाकी आयसु जग नृपति सुनतहि धारत सीस! तेहि द्विज बटु अज्ञा करत अहह कठिन अति इस। बिनु तन बेचे बिनु जग ज्ञान विवेक। दैव सर्प दंशित भए भोगत कष्ट अनेक।

(घबड़ा कर) नारायण! नारायण! मेरे मुख से क्या निकल गया। देवता उस की रक्षा करें। (बांई आँख का फड़कना दिखाकर) इसी समय में यह महा अपशकुन क्यों हुआ? (दाहिनी भुजा का फड़कना दिखाकर) अरे और साथ ही यह मंगल शकुन भी! न जाने क्या होनहार है, वा अब क्या होनहार है जो होना था सो हो चुका। अब इससे बढ़कर और कौन दशा होगी? अब केवल मरण मात्रा बाकी है। इच्छा तो यही है कि सत्य छूटने और दीन होने के पहिले ही शरीर छूटे क्योंकि इस दुष्ट चित्त का क्या ठिकाना है पर बश क्या है।

(नेपथ्य में)

हाय! कैसी भई! हाय बेटा हमें रोती छोड़ के कहाँ चले गए! हाय! हाय रे!

ह. : अहह! किसी दीन स्त्री का शब्द है, और शोक भी इस पुत्र का है। हाय हाय! हम को भी भाग्य ने क्या ही निर्दय और वीभत्स कर्म सौंपा है! इससे भी वस्त्रा मांगना पड़ेगा।

(रोती हुई शैव्या रोहिताश्व का मुरदा लिये आती है)

शै. : (रोती हुई) हाय! बेटा जब बाप ने छोड़ दिया तब तुम भी छोड़ चले! हाय हमारी बिपत और बुढ़ौती की ओर भी तुम ने न देखा! हाय! हाय रे! अब हमारी कौन गति होगी! (रोती है)

ह. : हाय हाय! इसके पति ने भी इसको छोड़ दिया है। हा! इस तपस्विनी को निष्करुण विधि ने बड़ा ही दुख दिया है।

शै. : (रोती हुई) हाय बेटा! अरे आज मुझे किसने लूट लिया! हाय मेरी बोलती चिड़िया कहाँ उड़ गई! हाय अब मैं किसका मुंह देख के जीऊंगी! हाय मेरी अंधी की लकड़ी कौन छीन ले गया! हाय मेरा ऐसा सुंदर खिलौना किसने तोड़ डाला! अरे बेटा तै तो मरे पर भी सुंदर लगता है! हाय रे! अरे बोलता क्यों नहीं! बेटा जल्दी बोल, देख माँ कब की पुकार रही है! बच्चा तू तो एक दफे पुकारने में दौड़कर गले से लपट जाता था, आज क्यों नहीं बोलता!

(शव को बारंबार गले लगाती, देखती और चूमती है)

ह. : हाय! हाय! इस दुखिया के पास तो खड़ा नहीं हुआ जाता।

शै. : पागल की भांति यह क्या हो रहा है। बेटा कहाँ गए हौ आओ जल्दी! अरे अकेले इस मसान में मुझे डर लगती है। यहाँ मुझ को कौन ले आया है रे! बेटा जल्दी आओ। क्या कहते हौ, मैं गुरू को फूल लेने गया था वहाँ काले सांप ने मुझे काट लिया! हाय हाय रे! अरे कहाँ काट लिया? अरे कोई दौड़ के किसी गुनी को बुलाओ जो जिलावै बच्चे को। अरे वह साँप कहाँ गया! हम को क्यों नहीं काटता? काट रे काट; क्या उस सुकुंआर बच्चे ही पर बल दिखाना था? हमें काट। हाय हम को नहीं काटता। अरे हिंयां तो कोई सांप वांप नही है, मेरे लाल झूठ बोलना कब से सीखे? हाय हाय मैं इतना पुकारती हूँ और तुम खेलना नहीं छोड़ते? बेटा गुरु जी पुकार रहे हैं उनके होम की बेला निकली जाती है। देखो बड़ी देर से वह तुम्हारे आसरे बैठै हैं। दो जल्दी इनको दूब और बेलपत्रा। हाय हमने इतना पुकारा तुम कुछ नहीं बोलते! ख्जोर से, बेटा सांझ भई, सब विद्यार्थी लोग घर फिर आए, तुम अब तक क्यों नहीं आए? आगे शव देखकर, हाय हाय रे! अरे मेरे लाल को सांप ने सचमुच डंस लिया! हाय लाल! हाय मेरे आँखों के उजियाले को कौन ले गया! हाय! मेरा बोलता हुआ सुग्गा कहाँ उड़ गया! बेटा अभी तो बोल रहे थे अभी क्या हो गया! हाय मेरा बसा घर आज किसने उजाड़ दिया! हाय मेरी कोख में किस ने आग लगा दी! हाय मेरा कलेजा किसने निकाल लिया! ख्चिल्ला-चिल्ला कर रोती है, हाय लाल कहां गए! अरे अब मैं किसका मुंह देख के जीउं$गी रे! हाय अब मां कहके मुझको कौन पुकारेगा! अरे आज किस बैरी की छाती ठंडी भई रे! अरे तेरे सुकुंआर अंगों पर भी काल को तनिक दया न आई! अरे बेटा आंख खोलो! हाय मैं सब विपत तुम्हारा ही मुंह देखकर सहती थी तो अब कैसे जीती रहूंगी! अरे लाल एक बेर तो बोलो! (रोती है)

ह. : न जाने क्यों इसके रोने पर मेरा कलेजा फटा जाता है।

शै. : (रोती हुई) हा नाथ! अरे अपने गोद के खेलाए बच्चे की यह दशा क्यों नहीं देखते! हाय! अरे तुम ने तो इसको हमें सौंपा था कि इसे अच्छी तरह पालना सो हमने इसकी यह दशा कर दी! हाय! अरे ऐसे समय में भी आकर नहीं सहाय होते! भला एक बेर लड़के का मुंह तो देख जाओ! अरे मैं किस के भरोसे अब जीऊंगी?

ह. : हाय हाय! इसकी बातों से तो प्राण मुंह को चले आते हैं और मालूम होता है कि संसार उलटा जाता है। यहां से हट चलें (कुछ दूर हटकर उसकी ओर देखता खड़ा हो जाता है)।

शै. : (रोती हुई) हाय! यह बिपत का समुद्र कहां से उमड़ पड़ा! अरे छलिया मुझे छलकर कहां भाग गया! ख्देख कर, अरे आयुस की रेखा तो इतनी लम्बी है फिर अभी से यह बज्र कहां से टूट पड़ा! अरे ऐसा सुंदर मुह, बड़ी-बड़ी आंख, लम्बी-लम्बी भुजा, चैड़ी छाती, गुलाब सा रंग! हाय मरने के तुझ में कौन से लच्छन थे जो भगवान ने तुझे मार डाला! हाय लाल! अरे बड़े-बड़े जोतसी गुनी लोग तो कहते थे कि तुम्हारा बेटा बड़ा प्रतापी चक्रवर्ती राजा होगा, बहुत दिन जीयेगा, सो सब झूठ निकला! हाय! पोथी, पत्रा, पूजा, पाठ, दान, जप होम, कुछ भी काम न आया! हाय तुम्हारे बाप का कठिन पुत्र भी तुम्हारा सहाय न भया और तुम चल बसे! हाय!

ह. : अरे इन बातों से तो मुझे बड़ी शंका होती है (शव को भली भांति देखकर) अरे इस लड़के में तो सब लक्षण चक्रवर्ती के से दिखाई पड़ते हैं। हाय! न जाने किस बड़े कुल का दीपक आज इस ने बुझाया है, और न जाने किस नगर को आज इसने अनाथ किया है। हाय! रोहिताश्व भी इतना बड़ा भया होगा (बड़े सोच से) हाय हाय! मेरे मुंह से क्या अमंगल निकल गया। नारायण (सोचता है)

शै. : भगवान विश्वामित्र! आज तुम्हारे सब मनोरथ पूरे भए। हाय!

ह. : (घबड़ाकर) हाय हाय यह क्या? (भली भांत देखकर रोता हुआ) हाय अब तक मैं संदेह ही में पड़ा हूं? अरे मेरी आँखें कहां गई थीं जिन ने अब तक पुत्र रोहिताश्व को न पहिचाना, और कान कहां गये थे जिन ने अब तक महारानी की बोली न सुनी! हा पुत्र! हा लाल! हा सूर्यवंश के अंकुर! हा हरिश्चन्द्र की विपत्ति के एक मात्रा अवलम्ब! हाय! तुम ऐसे कठिन समय में दुखिया माँ को छोड़कर कहाँ गए। अरे तुम्हारे कोमल अंगों को क्या हो गया! तुम ने क्या खेला, क्या खाया, क्या सुख भोगा, कि अभी से चल बसे। पुत्र स्वर्ग ऐसा ही प्यारा था तो मुझ से कहते, मैं बाहुबल से तुम को इसी शरीर से स्वर्ग पहुंचा देता। अथवा अब इस अभिमान से क्या? भगवान इसी अभिमान का फल यह सब दे रहा है। हाय पुत्र! (रोता है)

आह! मुझसे बढ़कर और कौन मन्दभाग्य होगा! राज्य गया, धन, जन, कुटुम्ब सब छूटा, उस पर भी यह दारुण पुत्रशोक उपस्थित हुआ। भला अब मैं रानी को क्या मुंह दिखाऊं। निस्संदेह मुझसे अधिक अभागा और कौन होगा। न जाने हमारे जन्म के पाप उदय हुए हैं जो कुछ हमने आज तक किया वह यदि पुण्य होता तो हमें यह दुख न देखना पड़ता। हमारा धर्म का अभिमान सब झूठा था, क्योंकि कलियुग नहीं है कि अच्छा करते बुरा फल मिले, निस्संदेह मैं महा अभागा और बड़ा पापी हूं। (रंगभूमि की पृथ्वी हिलती है और नेपथ्य में शब्द होता है) क्या प्रलयकाल आ गया? नहीं। यह बड़ा भारी असगुन हुआ है। इसका फल कुछ अच्छा नहीं, वा अब बुरा होना ही क्या बाकी रह गया है जो होगा। हा। न जाने किस अपराध से दैव इतना रूठा है (रोता है) हा सूर्यकुल आलवालप्रवाल। हा हरिश्चन्द्र हृदयानन्दन! हा शैव्याबलम्ब! हा वत्सरोहिताश्व! हा मातृ पितृ विपत्ति सहचर! तुम हम लोगों को इस दशा में छोड़कर कहां गए! आज हम सचमुच चांडाल हुए। लोग कहेंगे कि इस ने न जाने कौन दुष्कर्म किया था कि पुत्रशोक देखा। हाय हम संसार को क्या मंुह दिखावेंगे। (रोता है) वा संसार में इस बात के प्रगट होने के पहले ही हम भी प्राण त्याग करें। हा निर्लज्ज प्राण तुम अब भी क्यों नहीं निकलते। हा बज्र हृदय इतने पर भी तू क्यों नहीं फटता। नेत्रो, अब और क्या देखना बाकी है कि तुम अब तक खुले हो। या इस व्यर्थ प्रलाप का फल ही क्या है समय बीता जाता है, इसके पूर्व कि किसी से साम्हना हो प्राण त्याग करना ही उत्तम बात है (पेड़ के पास जाकर फांसी देने के योग्य डाल खोजकर उसमें दुपट्टा बांधता है) धर्म! मैंने अपने जान सब अच्छा ही किया परंतु न जाने किस कारण मेरा सब आचरण तुम्हारे विरुद्ध पड़ा सो मुझे क्षमा करना। (दुपट्टे की फांसी गले में लगाना चाहता है कि एक साथ चैंक कर) गोविन्द गोविन्द! यह मैंने क्या अनर्थ अधर्म विचारा। भला मुझ दास को अपने शरीर पर क्या अधिकार था कि मैंने प्राण त्याग करना चाहा। भगवान् सूर्य इसी क्षण के हेतु अनुशासन करते थे। नारायण नारायण! इस इच्छाकृत मानसिक पाप से कैसे उद्धार होगा! हे सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर क्षमा करना, दुख से मनुष्य की बुद्धि ठिकाने नहीं रहती; अब तो मैं चांडालकुल का दास हूं, न अब शैव्या मेरी स्त्री है और न रोहिताश्व मेरा पुत्र। चलूं अपने स्वामी के काम पर सावधान हो जाऊं, वा देखूं अब दुक्खिनी शैव्या क्या करती है (शैव्या के पीछे जाकर खड़ा होता है)

शै. : (पहली तरह बहुत रोकर) हाय! अब मैं क्या करूं। अब मैं किसका मुंह देखकर संसार में जीऊंगी। हाय मैं आज से निपूती भई! पुत्रवती स्त्री अपने बालकों पर अब मेरी छाया न पड़ने देंगी। हा नित्य सवेरे उठकर अब मैं किसकी चिन्ता करूंगी। खाने के समय मेरी गोद में बैठकर और मुझ से मांग मांग पर अब कौन खाएगा! मैं परोसी थाली सूनी देखकर कैसे प्रान रक्खूंगी। (रोती है) हाय खेलता खेलता आकर मेरे गले से कौन लपट जायगा, और माँ माँ कहकर तनक तनक बातों पर कौन हठ करेगा। हाय मैं अब किसको अपने आंचल से मुंह की धूल पोंछकर गले लगाऊंगी और किसके अभिमान से बिपत में भी फूली फूली फिरूंगी। (रोती है) या जब रोहिताश्व नहीं तो मैं ही जी के क्या करूंगी। (छाती पीटकर) हाय प्रान, तुम अभी क्यों नही निकले। (हाय मैं ऐसी स्वारथी हूं कि आत्महत्या के नरक के भय से अब भी अपने को नहीं मार डालती। नहीं नहीं अब मैं न जीऊंगी। या तो इस पेड़ में फांसी लगाकर मर जाऊंगी या गंगा में कूद पड़ंईगी) (उन्मत्त की भांति उठकर दौड़ना चाहती है)।

ह. : (आड़ में से) तनहिं बेंचि दासी कहवाई।

मरत स्वामि आयसु बिन पाई

करु न अधर्म सोचु जिय माहीं।

‘पराधीन सपने सुख नाहीं ।।

शै. : (चैकन्नी होकर) अहा! यह किसने इस कठिन समय में धर्म का उपदेश किया। सच है मैं अब इस देह की कौन हूं जो मर सकूं। हा दैव! तुझसे यह भी न देखा गया कि मैं मरकर भी सुख पाऊं। (कुछ धीरज धरके) तो चलूं छाती पर वज्र धरके अब लोकरीति करूं। रोती और लकड़ी चुनकर चिता बनाती हुई) हाय! जिन हाथों से ठोंक ठोंक कर रोज सुलाती थी उन्हीं हाथों से आज चिता पर कैसे रक्खूंगी, जिसके मुंह में छाला पड़ने के भय से कभी मैंने गरम दूध भी नहीं पिलाया उसे-(बहुत ही रोती है)।

ह. : धन्य देवी, आखिर तो चंद्र सूर्यकुल की स्त्री हो। तुम न धीरज करोगी तो और कौन करेगा।

शै. : (चिता बनाकर पुत्र के पास आकर उठाना चाहती है और रोती है)।

ह. : तो अब चलें उस से आधा कफन मांगे (आगे बढ़कर और बलपूर्वक आंसुओं को रोककर शैव्या से) महाभागे! स्मशान पति की आज्ञा है कि आधा कफन दिए बिना कोई मुरदा फूंकने न पावे सो तुम भी पहले हमें कपड़ा दे लो तब क्रिया करो (कफन मांगने को हाथ फैलाता है, आकाश से पुष्पवृष्टि होती है)।

(नेपथ्य में)

अहो धैर्यमहो सत्यमहो दानमहो बलं। त्वया राजन् हरिश्चन्द्र सब्र्वं लोकोत्तरं कृतं।

(दोनों आश्चर्य से ऊपर देखते हैं)

शै. : हाय। इस कुसमय में आर्यपुत्र की यह कौन स्तुति करता है? वा इस स्तुति ही से क्या है, शास्त्रा सब असत्य हैं नहीं तो आर्यपुत्र से धर्मी की यह गति हो! यह केवल देवताओं और ब्राह्मणों का पाषंड है।

ह. : (दोनों कानों पर हाथ रखकर) नारायण नारायण! महाभागे ऐसा मत कहो; शास्त्रा, ब्राह्मण और देवता त्रिकाल में सत्य हैं। ऐसा कहोगी तो प्रायश्चित होगा। अपना धर्म बिचारो। लाओ मृतकंबल हमें दो और अपना काम आरंभ करो (हाथ फैलाता है)

शै. : (महाराज हरिश्चन्द्र के हाथ में चक्रवर्ती का चिद्द देखकर और कुछ स्वर कुछ आकृति से अपने पति को पहचान कर) हा आर्यपुत्र, इतने दिन तक कहाँ छिपे थे! देखो अपने गोद के खेलाए दुलारे पुत्र की दशा! तुम्हारा प्यारा रोहिताश्व देखो अब अनाथ की भांति मसान में पड़ा है। (रोती है।)

ह. : प्रिये धीरज धरो। यह रोने का समय नहीं है। देखो सबेरा हुआ चाहता है, ऐसा न हो कि कोई आ जाय और हम लोगों की जान ले, और एक लज्जा मात्रा बच गई है वह भी जाय। चलो कलेजे पर सिल रखकर अब रोहिताश्व की क्रिया करो और आधा कंबल हमको दो।

शै. : (रोती हुई) नाथ! मेरे पास तो एक भी कपड़ा नहीं था, अपना आंचल फाड़कर इसे लपेट लाई हूं, उसमें से भी जो आधा दे दूंगी तो यह खुला ही रह जायगा। हाय! चक्रवर्ती के पुत्र को आज कफन नहीं मिलता! (बहुत रोती है)

ह. : (बलपूर्वक आंसुओं को रोककर और बहुत धीरज धर कर) प्यारी, रोओ मत। ऐसे ही समय में तो धीरज और धरम रखना काम है। मैं जिस का दास हूं उस की आज्ञा है कि बिना आधा कफन लिए क्रिया मत करने दो। इससे मैं यदि अपनी स्त्री और अपना पुत्र समझकर तुम से इसका आधा कफन न लूं तो बड़ा अधर्म हो। जिस हरिश्चन्द्र ने उदय से अस्त तक की पृथ्वी के लिए धर्म न छोड़ा उसका धर्म आध गज कपड़े के वास्ते मत छुड़ाओ और कफन से जल्दी आधा कपड़ा फाड़ दो। देखो सबेरा हुआ चाहता है ऐसा न हो कि कुलगुरु भगवान् सूर्य अपने वंश की यह दुर्दशा देखकर चित् में उदास हों। (हाथ फैलाता है)

शै. : (रोती हुई) नाथ जो आज्ञा। (रोहिताश्व का मृतकंबल फाड़ा चाहती है कि रंगभूमि की पृथ्वी हिलती है, तोप छूटने का सा बड़ा शब्द और बिजली का सा उजाला होता है। नेपथ्य में बाजे की ओर बस धन्य और जय-जय की ध्वनि होती है, फूल बरसते हैं और भगवान् नारायण प्रकट होकर राजा हरिश्चन्द्र का हाथ पकड़ लेते हैं।)

भ. : बस महाराज बस (धर्म और सत्य सब की परमावधि हो गई। देखो तुम्हारे पुण्य भय से पृथ्वी बारम्बार कांपती है, अब त्रौलोक्य की रक्षा करो। (नेत्रों से आंसू बहते हैं)

ह. : (साष्टांग दंडवत् करके रोता हुआ गद्गद् स्वर से) भगवान्! मेरे वास्ते आपने परिश्रम किया! कहाँ यह श्मशान भूमि, कहाँ यह मत्र्यलोक, कहाँ मेरा मनुष्य शरीर, और कहां पूर्ण परब्रह्म सच्चिदानंदघन साक्षात् आप! (प्रेम के आंसुओं से गद्गद् कंठ होने से कुछ कहा नहीं जाता)

भ. : (शैव्या से) पुत्री अब शोच मत कर! धन्य तेरा सौभाग्य कि तुझे राजर्षि हरिश्चन्द्र ऐसा पति मिला है (रोहिताश्व की ओर देखकर वत्स ब्रेरेट बंद रोहिताश्व उठो, देखो तुम्हारे माता पिता देर से तुम्हारे मिलने को व्याकुल हो रहे हैं।) (रोहिताश्व उठ खड़ा होता है और आश्चर्य से भवगान् को प्रणाम कर के माता पिता का मुंह देखने लगता है, आकाश से फिर पुष्पवृष्टि होती है)

ह. और शै.: (आश्चर्य, आनंद, करुणा और प्रेम से कुछ कह नहीं सकते, आंखों से आंसू बहते हैं और एकटक भगवान् के मुखारविंद की ओर देखते हैं)

(श्री महादेव, पार्वती, भैरव, धर्म, सत्य, इंद्र और विश्वामित्र आते हैं)

सब : धन्य महाराज हरिश्चन्द्र धन्य! जो आपने किया, सो किसी ने न किया न करेगा।

(राजा हरिश्चन्द्र शैव्या और रोहिताश्व सबको प्रणाम करते हैं)

बि. : महाराज यह केवल चन्द्र सूर्य तक आप की  त्तस्थिर रहने के हेतु मैंने छल किया था सो क्षमा कीजिए और अपना राज्य लीजिए।

(हरिश्चन्द्र भगवान और धर्म का मुंह देखते हैं)

धर्म : महाराज राज आप का है इसका मैं साक्षी हूं आप निस्संदेह लीजिए।

सत्य : ठीक है जिसने हमारा अस्तित्व संसार में प्रत्यक्ष कर दिखाया उसी का पृथ्वी का राज्य है।

श्रीमहादेव : पुत्र हरिश्चन्द्र, भगवान नारायण के अनुग्रह से ब्रह्मलोक पर्यंत तुम ने पाया तथापि मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी कीर्ति, जब तक पृथ्वी है तब तक स्थिर रहे, और रोहिताश्व दीर्घायु, प्रतापी और चक्रवर्ती होय।

पा. : पुत्री शैव्या! तुम्हारे पति के साथ तुम्हारी कीर्ति स्वर्ग की स्त्रियाँ गावें, तुम्हारी पुत्रवधू सौभाग्यवती हो और लक्ष्मी तुम्हारे घर का कभी त्याग न करे।

(हरिश्चन्द्र और शैव्या प्रणाम करते हैं)

भै. : और जो तुम्हारी की£त्त कहे सुने और उसका अनुसरण करे उस की भैरवी यातना न हो।

इन्द्र : (राजा को आलिंगन करके और हाथ जोड़ के) महाराज ,मुझे क्षमा कीजिये। यह सब मेरी दुष्टता थी परंतु इस बात से आप का तो कल्याण ही हुआ। स्वर्ग कौन कहे आप ने अपने सत्यबल से ब्रह्मपद पाया। देखिये आप की रक्षा के हेतु श्रीशिव जी ने भैरवनाथ को आज्ञा दी थी, आप उपाध्यक्ष बने थे, नारद जी बटु बने थे, साक्षात् धर्म ने आप के हेतु चांडाल और कापालिक का भेष लिया, और सत्य ने आप ही के कारण चांडाल के अनुचर और बैताल का रूप धारण किया। न आप बिके, न दास हुए, यह सब चरित्रा भगवान नारायण की इच्छा से केवल आप के सुयश के हेतु किया गया।

ह. : (गद्गद स्वर से) अपने दासों का यश बढ़ाने वाला और कौन है।

भ. : महाराज। और जो भी इच्छा हो मांगो।

ह. : (प्रणाम करके गद्गद स्वर से) प्रभु! आप के दर्शन से सब इच्छा पूर्ण हो गई, तथापि आप की आज्ञानुसार यह वर मांगता हूं कि मेरी प्रजा भी मेरे साथ बैकुंठ जाय और सत्य सदा पृथ्वी पर स्थिर रहे।

भ. : एवमस्तु, तुम ऐसे ही पुण्यात्मा हो कि तुम्हारे कारण अयोध्या के कीट पतंग जीव मात्रा सब परमधाम जायंगे, और कलियुग में धर्म के सब चरण टूट जायंगे तब भी वह तुम्हारी इच्छानुसार सत्य मात्रा एक पद से स्थित रहेगा। इतना ही देकर मुझे सन्तोष नहीं हुआ कुछ और भी मांगो। मैं तुम्हें क्या-क्या दूं क्योंकि मैं तो अपने ही को तुम्हें दे चुका। तथापि मेरी इच्छा यही है कि तुम को कुछ और वर दूं। तुम्हें वर देने में मुझे सन्तोष नहीं होता।

ह. : (हाथ जोड़कर) भगवान मुझे अब कौन इच्छा है। मैं और क्या वर मांगूं तथापि भरत का यह वाक्य सुफल हो-

खल गनन सो सज्जन दुखी मति होइ, हरिपद रति रहे।

उपधर्म छूटैं सत्व निज भारत गहै, कर दुख बहै ।।

बुध तजहिं मत्सर, नारि नर सम होहिं, सबजगसुखल है।

तजि ग्रामकविता सुकविजन की अमृत बानी सब कहै ।।

(पुष्पवृष्टि और बाजे की धुनि के साथ जवनिका गिरती है)

इति श्री सत्य हरिश्चन्द्र नाटक सम्पूर्ण हुआ ।।

सत्य हरिश्चन्द्र नाटक चार अंक में समाप्त हो गया है। इस नाटक का प्रधान रस वीर है। इसके सत्यवीर, दानवीर, कर्मवीर तथा युद्धवीर चार भेद होते हैं, जिनमें दो का राजा हरिश्चन्द्र में और तीसरे का विश्वामित्र जी में परिपाक हुआ है। इसके सिवा इसमें करुण, वीभत्स, हास्य तथा अद्भुत रस का भी समावेश है। इसके प्रधान नायक राजा हरिश्चन्द्र धीरोदात्त प्रतापी राजर्षि हैं। विश्वामित्र का राजा हरिश्चन्द्र को सत्यभ्रष्ट करने की प्रतिज्ञा करना बीज है। स्वप्न में पृथ्वी दान लेकर तथा सशरीर पहुँच कर उसपर अधिकार करना और दक्षिणा के बहाने राजा हरिश्चन्द्र को राज्यभ्रष्ट तथा शारीरिक स्वातंत्र्य-भ्रष्ट करना विंदु (=जानने योग्य) है। विश्वामित्र के प्रयत्नों का निष्फल होना पताका (=राजा या संस्था का खास चिह्न) है। रोहिताश्व का दंशित होकर स्मशान में लाया जाना प्रकरी (=अंतर्कथा या नाटक में एक कथा के भीतर चलने वाली दूसरी छोटी कथा)हैसत्य की परीक्षा में उत्तीर्ण होना कार्य है। (कार्य = भौतिकी में कार्य का होना तभी कहा जाता है जब बल लगाने पर बल की दिशा में विस्थापन होता है।) 

कथावस्तु का आरंभ, मध्य तथा अंत सुचारु रूप से हुआ है। इन्द्र, नारद तथा विश्वामित्र के संवाद से नाटक के उद्देश्य और घटनाक्रम का पूरा ज्ञान कराते हुए नाटक का आरंभ होता है। दूसरे अंक में रवप्न में किए गए दान को सत्य मान कर विश्वामित्र के आते ही राज्य दे देना प्रयत्न है। दक्षिणा चुकाने को काशी में सस्त्रीक बिकना प्राप्त्याशा है (=जहाँ फल की प्राप्ति में उपाय और अपाय (विघ्न) दोनों दृष्टिगोचर होते हों तथा कुछ आशंका के साथ फलप्राप्ति की आशा अथवा सम्भावना होने लगे तो वहाँ पर प्राप्त्याशा नामक कार्यावस्था होती है।) चौथे अंक में स्वामि-कार्य करते हुए सत्य पथ से न डिगना नियताप्ति है (अपाय के दूर हो जाने से जो फल की प्राप्ति सुनिश्चित हो जाती है, उसे नियताप्ति नामक अवस्था कहते हैं ।) और भगवान का आकर उन्हें परीक्षोत्तीर्ण होना कहना फलागम है। (=सम्पूर्ण फल की प्राप्ति हो जाने को फलागम नामक कार्यावस्था कहते हैं ।) पूर्वोक्त विचारों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सत्यहरिश्चन्द्र नाटक के प्रायः सभी लक्षणों से युक्त हैं।

नाटक के पात्रों का चरित्र-चित्रण भी बहुत अच्छा किया  गया है। इस नाटक के नायक राजा हरिश्चन्द्र और प्रतिनायक विश्वामित्र हैं। पहिले का आदर्श है---

चन्द्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार।

पै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्य विचार॥

और दूसरा -खलनायक विश्वामित्र उसे इस सत्यवीरत्व से च्युत करने में दत्तचित्त है। उसके प्रयत्न से वह राज्यभ्रष्ट होता है और स्त्री तथा अपने को बेंचकर शारीरिक स्वतंत्रता से भी भ्रष्ट हो जाता है पर अपना सत्यब्रत नहीं त्यागता।

ब्राह्मण बने हुए क्षत्रिय में क्रोध की प्रचु-रता है पर उसके विपरीत सच्चे क्षत्रिय में ब्राह्मणो के प्रति जो उदारता थी वह उसे अंत तक सौम्य बनाए रखती है। एक अकारण दूसरे से द्वेष रखता है, उसे अनेक प्रकार से कष्ट देता है पर सच्चे गुण का असर उसके हृदय पर भी दिखलाकर नाटककार उसकी कृति को अस्वाभाविक नहीं होने देता। नायक के प्रति आरंभ ही से दर्शकों की समवेदना आकर्षित करने के लिए इन्द्र की 'देखि न सकहिं पराइ विभूति' वाली नीति दिखलाकर नारद जी से उसकी शासना कराई गई है तथा विश्वामित्र का इंद्र की बात सुनते ही झट उत्तेजित होना भी दिखलाया गया है। 

 ज्यों ज्यो प्रतिनायक की कुटिलता बढ़ती गई त्यों त्यों नायक की सौम्यता तथा दृढ़ता का बढ़ना दिखलाकर यह समवेदना बढ़ाई गई, यहाँ तक कि अंत में इस नाटक का कोई भी पाठक आखें डबडबाए बिना इसे समाप्त नहीं कर सकता। प्रतिनायक के प्रति दर्शकों को घृणा तक हो जाती है। नायक की दान-धीरता तथा सत्य-वीरता दोनों ही एक से एक बढ़कर हैं। जिस प्रकार स्वप्न के दान को भी देने से न हिचकना पहिले की वैसे ही मृत पुत्र के शव के कफन में से आधा माँग कर उसे अधखुला छोड़ने को तैयार होना दूसरे की पराकाष्ठा है। नायक अपने गौरव तथा आत्माभिमान को कहीं नहीं भूला है। उसे अपने वंश का, सहज क्षत्रियत्व का तथा सत्य प्रतिज्ञ होने का दर्प था। ब्राह्मणों का उसके हृदय में कैसा आदर था, यह उसके आचरण से स्पष्ट है। विश्वामित्र के प्रति तथा पुत्र रोहिताश्व को ऐसे कष्ट के समय ढकेलने वाले बटु के प्रति उनका जो व्यवहार था वह आदर्श है और प्रत्येक पाठक का हृदय उनके प्रति श्रद्धा से भर उठता है। हरिश्चन्द्र ही महाजन थे। इतने प्रसिद्ध इक्ष्वाकु-वंशीय सम्राट् की ऐसी कठोरतम परीक्षा हुई, पर उसमें भी उसकी नम्रता तथा ईश्वर पर उसका विश्वास अंत तक बना रहा। यही कारण है कि आजतक सत्यवीरों की सूची में पहिला नाम इन्हीं महाराज का लिया जाता है।

"...... लाग से दूसरे सियार कैसे रोते हैं। उधर चिर्राइन फैलाती हुई चट-चट करती चिताएँ कैसी जल रही हैं, जिनमें कहीं से मांस के टुकडे उड़ते हैं, कहीं लोहू वा चरबी बहती है। आग का रंग मांस के संबंध से नीला-पीला हो रहा है, ज्वाला घूम-घूमकर निकलती है, कभी एक साथ धधक उठती है, कभी मंद हो जाती है। धुआँ चारो ओर छा रहा है। 

[ आगे देखकर आदर से ] अहा ! यह वीभत्स व्यापार भी बड़ाई के योग्य है। शव! तुम धन्य हो कि इन सियार आदि पशुओं के इतने काम आते हो; अतएव कहा है---अहा! देखो।

सिर पै बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।

खींचत जीभहि स्यार अतिहि आनँद उर धारत॥

गिद्ध जाँघ कहँ खोदि खोदि कै मांस उचारत।

स्वान आँगुरिन काटि काटि के खान बिचारत॥

बहु चील नोचि लै जात तुच माद मढ़यो सबको हियो।

मनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ आजु भिखारिन कहँ दियो॥

अहा! शरीर भी कैसी निस्सार वस्तु है! शव! तुम धन्य हो कि इन सियार आदि पशुओं के इतने काम आते हो; अतएव कहा है---

"मरनो भलो विदेश को, जहाँ न अपुनो कोय।

माटी खॉय जनावरॉ, महा महोच्छव होय॥"

अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण - "देखो, मेरा मन जब पूरी तरह से अखण्ड सच्चिदानन्द (Indivisible Brahman) में विलीन हो गया था। उसके बाद, 'मैंने' बहुत कुछ देखा।" --- 'उस अवस्था में' ---उसी मूड में -उसी मनःस्थिति में मैंने और एक व्यक्ति को देखा। My mind said to me, 'Attract him too.' मेरे मन ने मुझसे कहा, 'उसे भी खींच लो !'....मैं तुम्हें उसके बारे में बाद में बताऊंगा।" उस मनःस्थिति में देखने वाला (M/F) कैसे बचा रहा ? ---अवतार वरिष्ठ थे इसीलिए ?....... ?....... ? 

ऊपर थैं बरकत रहै, मांही राजस रोग ।

कहि जगजीवन हरि भगत, तिन कै हरष न सोग ॥२१॥

संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारे मन में उपरी दिखावा तो धर्म (* बरकत=धर्मवृद्धि, धर्मलाभ) का होता है व अन्तर में संसारिक भोग विषय  (** राजस रोग=सांसारिक भोग विलास) रहते हैं । और जो सच्चे हरि भक्त हैं वे न तो दुखी होते हैं न ही खुश रहते हैं समभाव रहते हैं । 

तिमिर हरण * त्रिभुवन धंणी **, सतगुरु साच्छी भूत ।

कहि जगजीवन सकल हरि, अगम रांम अवधूत *** ॥

संतजगजीवन जी कहते हैं कि  (** त्रिभुवनधणीं=जगत के स्वामी) परमात्मा (* तिमिरहरण= अज्ञान के नाशक हैं ) सब अज्ञान रुपी अंधकार को दूर करते हैं । और गुरु महाराज इसके साक्षी हैं । संत कहते हैं कि सर्वत्र परमात्मा हैं जिन्हें अगम होते हुये भी संत (*** अवधूत=उच्च भूमि का सन्त) पाते हैं ।

वह पंणि देखिय हम पंणि देखी, और दिखावै रांम ।

कहि जगजीवन देखी सुणीं, रसना हरि हरि नांम ॥२४॥

संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो प्रभु हमें दिखाते हैं वह ही हम देखते हैं । और प्रभु ही सब दिखाते हैं । संत कहते कुछ भी देखना सुनना अलग है जीव हर समय राम राम हरि नाम रटता रहे ।

जीवन मूरी मेरे आतम राम, भाग बड़े पायो निज ठाम ॥

शब्द अनाहद उपजै जहाँ, सुषमन रंग लगावै तहाँ ।

तहँ रंग लागे निर्मल होइ, ये तत उपजे जानै सोइ ॥१॥*

आत्मस्वरूप भगवान् श्रीराम ही मेरे जीवन की औषधि हैं । मैं बड़ा ही भाग्यशाली हूँ कि मुझे भगवान् के दर्शन हो गये, क्योंकि श्रुति ने उनके दर्शन दुर्लभ बतलाये हैं । जैसे-यह आत्मतत्त्व बहुतों को तो सुनने में लिये भी नहीं मिलता । जिसको बहुत से लोग सुनकर भी नहीं समझ सकते, ऐसे इस गूढ आत्मतत्त्व का वर्णन करने वाला आचार्य दुर्लभ ही है । उसे प्राप्त करने वाला भी बड़ा कुशल (सफल जीवन) कोई के ही हैं और जिसे इस तत्त्व की उपलब्धि हो गई ऐसे ज्ञानी महापुरुष के द्वारा शिक्षा प्राप्त किया हुआ आत्म तत्त्वव का ज्ञान परम दुर्लभ है । अतः मैं भाग्यशाली हूँ ।जिस हृदय प्रदेश में अनाहतनाद उत्पन्न होता हैं वहीँ पर सुषुम्ना के द्वारा मैं उनसे प्रेम करता हूँ । क्योंकि प्रभु के साथ प्रेम करने से जीव निर्मल हो जाता हैं । प्रेम तत्त्व को तो प्रेमी भक्त ही जान सकता हैं ।

सरवर तहाँ हंसा रहे, कर स्नान सबै सुख लहै ।

सुखदाई को नैनहुँ जोइ, त्यों त्यों मन अति आनन्द होइ ॥२॥

 उसी हृदय सरोवर में मनरूपी हंस अपनी वृत्ति के द्वारा ब्रह्म चिन्तन रूप जल में निमग्नता रूप स्नान करके सुखी होता हैं । जैसे-जैसे अपने ज्ञान नेत्रों से उस आत्मज्योति का दर्शन करता हैं वैसे-वैसे उसका आनन्द बढ़ता रहता हैं । जहां अष्टदलकमल में सर्वसिद्धियुक्त जगद्गुरु परमात्मा विराजते हैं ।

सो हंसा शरणागति जाइ, सुन्दरि तहाँ पखाले पाइ ।

पीवै अमृत नीझर नीर, बैठे तहाँ जगत गुरु पीर ॥३॥

 वहां परजीवरूप हंस यदि शरण में जाता हैं तो उस उस जीवहंस की बुद्धि सुन्दरी उस प्रभु के चरण कमलों को प्रेम जल से धोती हैं और अमृत के स्त्रोतरूप प्रभु के दर्शनजल (विवेक-दर्शन) को पीती हैं और वहाँ पर श्रद्धा से और प्रेम से ही पूजा होती हैं ।

तहँ भाव प्रेम की पूजा होइ, जा पर किरपा जानै सोइ ।

कृपा करि हरि देइ उमंग, तहँ जन पायो निर्भय संग ॥४॥

तब हंसा मन आनंद होइ, वस्तु अगोचर लखै रे सोइ ।

जा को हरि लखावै आप, ताहि न लिपैं पुन्य न पाप ॥५॥

जिस साधक पर प्रभु की कृपा होती हैं वह साधक ही उस पूजा पद्धति को जान सकता हैं । प्रेम भी प्रभु कृपा से ही प्राप्त होता हैं । मुझे दास को भी उनकी कृपा से ही उनका संग प्राप्त हुआ है । जब जीवरुपी हंस वाणी मन से अगोचर ब्रह्मवस्तु को जानता हैं तब उस जीव हंस को बड़ा ही आनन्द प्राप्त होता हैं । प्रभुकृपा से जिसे उसका साक्षात्कार हो गया उसको पुण्य पाप नहीं लगते ।

तहँ अनहद बाजै अद्भुत खेल, दीपक जलै बाती बिन तेल ।

अखंड ज्योति तहँ भयो प्रकास, फाग बसंत ज्यों बारह मास ॥६॥

त्रय स्थान निरंतर निरधार, तहँ प्रभु बैठे समर्थ सार ।

नैनहुँ निरखूं तो सुख होइ, ताहि पुरुष को लखै न कोइ ॥७॥

वहां पर अनाहतनाद की ध्वनिरूप अद्भुतरूप क्रीड़ा निरन्तर होती रहती हैं । तेल और बत्ति के बिना ही आत्मा ज्योति का दीपक जलता रहता हैं । वसन्त ऋतु की तरह वहां पर फाग का उत्सव होता रहता हैं । और बारहमास ही साधक आनन्द रस को पीता रहता हैं । जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में विश्व के सार सर्वसमर्थ प्रभु विराजते हैं । जब मैं अपने ज्ञान नेत्रों से देखता हूँ तो बड़ा आनन्द मिलता हैं । उस प्रभु को बहिर्मुख वृत्ति वाल नहीं देख सकता हैं । 

ऐसा है हरि दीनदयाल, सेवक की जानैं प्रतिपाल ।

चलु हंसा तहँ चरण समान, तहँ दादू पहुँचे परिवान ॥८॥

वह दीनदयालु प्रभु अपने सेवक की परिस्थिति और इच्छा को जानकर उसकी इच्छा को पूर्ण करते हैं और उसकी रक्षा भी वे ही करते हैं  हे जीव हंस ! तूं प्रभु के चरण कमलों की शरण ग्रहण कर जिससे तेरा मानव जन्म सफल हो जाय ।

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>>Dr Mahendralal Sarkar (Physician of Sri Sri Ramakrishna Dev) :(2.11 1833-23.2.1904) >(Birthplace: Paikpara village, Howrah district, Bengal, India)

In October 1885, the seriousness of Sri Ramakrishna's illness became clear. He was shifted to Calcutta for the best possible medical care. Dr. Sarkar was chosen to treat Sri Ramakrishna. He was very honest and sincere person who loved truthfulness. He was the founder and president of 'The Association for the Cultivation of Science' and was a rationalist with a scientific outlook. He did not much believe in traditional religion but held the view that God could be comprehended more clearly through the truths of the natural sciences.

On seeing the devotion and sacrifice of the disciples, Dr. Sarkar treated Sri Ramakrishna free of charge. He used to make two or three visits per day. Sometimes the doctor remained spellbound for hours listening to Sri Ramakrishna on the subject of spirituality. He frequently observed Sri Ramakrishna in the state of Samadhi and examined him medically with a stethoscope and other means. He was surprised to find that his heartbeat and other vital signs had completely disappeared during that state.

Vision of Sri Ramakrishna about the Doctor . In one of his visions, the Mother showed Sri Ramakrishna that Dr. Sarkar would come to him; he would have much knowledge but would be dry and worldly. Later, Sri Ramakrishna told the doctor he would not remain like that -a dry intellectual type, but would soften on account of spiritual consciousness. In this connection the following incident is worth mentioning:

" Dr. Sarkar arrived. At the sight of him, Sri Ramakrishna went into samadhi. Soon, on listening to the song, the doctor himself became almost ecstatic. In the high spiritual mood, Sri Ramakrishna placed his foot on the lap of the doctor. He was pleased and his eyes were filled with tears. In this state, Sri Ramakrishna said to the doctor, 'You are very pure; otherwise I could not have put my foot on your lap', and continued, 'He alone has peace who has tasted the Bliss of Rama. What is this world? What is there in it? What is there in money, wealth, honor, or creature comforts? O mind; know Rama! Who else should you know? "

Well-known physician and scientist, celebrated physician-devotee of the Master. Born in Paikpara village of Jagatvallabhpur of Howrah district, lost father in childhood, brought up and educated in maternal uncle’s home in Calcutta. Attended Hare School, entered Medical College (1854) with senior scholarship from Hindu College. Passing L.M.S. (1860) ranked first in M.D. examination (the second M.D. in the country). Giving up allopathy practised homoeopathy. Publisher of the Calcutta Journal of Medicine and its Manager until death. Founded “The Indian Association for the Cultivation of Science” (presently located at Jadavpur). Held a number of high positions, honoured by various titles, died on 23.2.1904.


He was influenced by reading William Morgan's The Philosophy of Homeopathy, and by interaction with Rajendralal Dutt, a leading homoeopathic practitioner of Calcutta. In a meeting of the Bengal branch of the British Medical Association, he proclaimed homoeopathy to be superior to the "Western medicine" of the time. Consequently, he was ostracised by the British doctors, and had to undergo loss in practice for some time. However, soon he regained his practice and went on to become a leading homoeopathic practitioner in Calcutta, as well as India. 

The Statesman: Thursday, 7 March, 2024 >Remembering a pioneer of scientific research . 

Mahendralal Sarkar the renowned physician who had the privilege of treating Sri Ramakrishna was not only a brilliant homeopath but was also a social reformer and an ardent propagator of science education and research. His colourful life is an illustration of the many dimensions of his personality and achievements. He became a spiritualist after coming into contact with Sri Ramakrishna. But he was also a propagator of the scientific view of life. He was the founder of the Indian Association for the Cultivation of Science where Nobel Laureate CV Raman and many other scientists started their scientific experiments.

Mahendralal secured admission in Hare School as a free student in 1840. He passed the junior scholarship examination and joined Hindu College(Presidency College) in 1849 where he studied up to 1854. He was transferred to Calcutta Medical College since Hindu College didn’t have a science department. He passed the final examination in 1860 in medicine, surgery and midwifery. In 1863, he got the degree of MD. He and Jagabandhu Bose were the second MDs of the Calcutta University after Chandrakumar De (1862).

Mahendralal within a short period turned into a reputed doctor. He was so well regarded that other physicians used to send their patients to him for consultation. He was selected as the secretary of the Bengal branch of the British Medical Association in 1863. During this time, he criticized homeopathy as the practice of quacks. But soon some events brought a drastic change in his outlook towards homeopathic treatment which Mahendralal had described in the July issue of his journal, Calcutta Journal of Medicine.

He was given a copy of Morgan’s Philosophy Of Homeopathy for review in the journal, the Indian Field. Mahendralal took it as an opportunity to criticize homeopathy but later changed his mind as he realized that without knowing anything about homeopathy it would be unfair to write such a review. Mahendralal went to Rajendralal Datta, an eminent physician who was also a homeopathic practitioner.

Mahendralal started verifying the results of Rajendralal’s homeopathic treatment. Besides, he himself prepared some homeopathic medicines and observed their effect on patients. He was soon convinced that homeopathic treatment was scientific and he started homeopathic treatments (which were less costly than allopathy).

On 16 February 1867, during the fourth annual meeting of the Medical Association, of which Mahendralal was the Vice-President, he gave a lecture on “The uncertainties in medical sciences and the relationship between diseases and their remedial agents.” In this lecture, he spoke in favor of homeopathic treatment which created an uproar among the audience. As a result, he was ousted from the British Medical Association.

In January 1868 Mahendralal founded a journal called Calcutta Journal of Medicine, with himself as editor. The main aim of this journal was to popularise homeopathic treatment. In the beginning, Mahendralal had no patients but reading of Materia Medica of Homeopathy changed things. He was also inspired by the philosophy of Samuel Hahnemann who abandoned the existing practices of medicine which caused bloodletting and discovered the homeopathic system on purely humanitarian grounds. Eventually, Sarkar became one of the top homeopaths. The celebrated homeopath of Calcutta, Dr. Berigny, while leaving the city, compared himself with the upcoming Mahendralal and said, “Now the moon is to set because we are seeing the rising sun on the horizon.

Dr. Sarkar was a humanist who believed that science could add to the prosperity of humanity and the cultivation of modern science was required to remove poverty and ignorance of Indians. During those days only government organizations like the Geological survey of India facilitated scientific research work and universities were only degree-awarding authorities. Mahendralal wrote an article in the Calcutta Journal of Medicine on the need to establish a national institution for the cultivation of sciences by his countrymen. He wrote that this institution would be run on the lines of London’s Royal Institution and the British Association for the Advancement of science.

Regarding the institution’s main intention Mahendralal said: “We want a different institution altogether. We want an institution which shall be for the instruction of the masses, where lectures on scientific subjects will be systematically delivered and not only illustrative experiments performed by the lecturer, but the audience should be invited and taught to perform themselves. And we wish that this institution be entirely under native management and control.”

Supporting Mahendralal’s work, Bankim Chandra wrote a lengthy article in the Bhadra issue (August-September issue) of his journal Bangadarshan (1873) where he appealed for generous public financial support for his work. He wrote:“….The rich people of Bengal… some of them spend a lakh of rupees in a single day and waste lakhs during the marriage of their sons and daughters. The Bengali society is apathetic towards the cultivation of science. The rich people of Bengal should be generous and assist the Youth and industries of Bengal.”

Good response came from many eminent citizens of Calcutta. These included Justice Dwarakanath Mitra, Krishnadas Pal, Father Lafont, Ishwar Chandra Vidyasagar, Dr.Rajendralal Mitra, Keshab Chandra Sen, Jatindramohan Tagore, Abdul Latif, Jaykrishna Mukherjee, Pyarimohan Mukherjee, Ramesh Chandra Banerjee, and Gurudas Banerjee. Sir Richard Temple, the Lieutenant Governor of Bengal, also assured his help. Donations started flowing in.

The first contribution of Rs. 1,000 came from Jaykrishna Mukherjee and a subscription book was started on 24 January 1870. Others who contributed money were the Maharaja of Patiala , Maharani Swarnamayi, Maharaja of Cassimbazar , Kalikrishna Tagore, Raja Kamal Krishna Deb and Sri Rameshchandra Mitra. It was Ishwar Chandra Vidyasagar who collected Rs. 2500 from zamindar Kalikrishna Tagore. With the help of Keshab Chandra Sen, Mahendralal received much financial help from the Maharaja of Cooch Behar. And in 1873, Mahendralal himself donated Rs. 1,000 for the noble cause.

On 29 July 1876 the Indian Association for the Cultivation of Science was inaugurated in a house taken on lease from the Government. It was situated at the junction of College Street and Bowbazar Street. The name “The Indian Association for the Cultivation of Science” was accepted at a meeting held earlier, on 15 January 1876. Dr. Mahendralal Sarkar was its Secretary from the beginning till his death. He gave regular lectures on subjects like electricity, magnetism, heat, light and sound.

Between 1878 and 1883 he delivered about 154 lectures on different subjects. Mahendralal continued to enlist support for the Association, especially from rich patients whom he cured. One such was the Maharajkumar of Vizianagram, and with his donation of Rs. 40,000, the Vizianagram Laboratory was established.

From the very beginning many renowned scientists were either speakers or research scholars in the Association. For instance Acharya Jagadish Chandra Bose, Acharya Prafulla Chandra Ray, Dr. Chunilal Basu, Sri Ashutosh Mukhopadhyaya and others gave lectures on their respective subjects. Acharya Jagadish Chandra Bose used to conduct practical classes also.

The Science Association developed further after the death of Mahendralal. In 1907 a high-ranking officer in the finance department of the government of India, Chandrashekhar Venkataraman, working at Calcutta , became a member of the Association and pursued scientific research during his leisure time. In 1917 the vice-chancellor of Calcutta University, Sir Ashutosh Mukhopadhyaya, made him “Fellow Professor” in the Science College.

Since the required equipment for research was not available in the Science College, Venkataraman continued his research in the Science Association. In 1930 he discovered new facts about the diffusion of light rays, for which he was awarded the Nobel Prize. In 1950-51 Professor Meghnad Saha shifted the The Science Association to a new building constructed on a land measuring 29 bighas.

Thus we see that Mahendralal Sarkar, a great philanthropist devoted his life to establish and promote scientific research and in spreading the homeopathic system of medicine. In all his efforts, service to humanity was the driving force. (The writers are, respectively, Senior Faculty and Faculty of Neotia Institute of Technology, Management and Sciences.)

>>>ज्ञान-अज्ञान - विज्ञान स्वामी विवेकानन्द बड़े भैया है, अवतार वरिष्ठ मेरे बाबूजी हैं, माँ सारदा देवी मेरी माँ तारा हैं और पूरे जगत को उनके व्यक्त रूप में देखकर 'हाथी नारायण पगला गए थे ' और 'महावत नारायण बता रहे थे ' दोनों को अपने रिश्तेदार जैसा समझकर अपने डकैत पिता -माता से माँ सारदा के मधुर-वचन और व्यवहार को याद करते हुए आप भी व्यवहार करें -या बचकर निकल आएं।     

काशीपुर उद्यान बाटी में फाल्गुनी शिवरात्रि : इन्द्रियातीत सत्य ब्रह्म की शक्ति -माँ काली, जगदम्बाश्राम कोआलपाड़ा, की माँ सारदा देवी, लालमुख-वाली माँ, गर्म चादर माँगने वाली माँ?...  आचार्य शंकर के सामने भगवान शिव ही चाण्डाल और शिव-पार्वती रूप में आती रहती हैं ? काशीपुर उद्यान बाटी में फाल्गुनी शिवरात्रि का दिन था।  स्वामी जी के भीतर अकस्मात..... रात्रि के 10 बजे दूसरों को स्पर्शकर धर्मशक्ति -संचार करने का सामर्थ्य (विभूति) के तीव्र अनुभव का उदय हुआ। तथा तत्काल उसकी परीक्षा करने के उद्देश्य से स्वामी जी ने ध्यान में बैठकर स्वामी अभेदानन्द से कहा -" मुझे कुछ समय तक के लिए स्पर्श किये रहो। "  “Do touch me for a while”.  एक-दो मिनट बाद स्वामीजी ने आँख खोलकर कहा -" बस हो चुका, तुझे क्या अनुभव हुआ ? क्या मुझे स्पर्श करने पर तुझे बिजली के झटका जैसा अनुभव हुआ था ?अभेदानन्द जी ने कहा " बिजली की बैटरी ( electric battery)से जुड़े तार को पकड़ने से जैसा अनुभव होता है, वैसा ही अनुभव उस समय तुमको स्पर्श करने से भी हो रहा था।  उसके बाद अभेदानन्द भी ध्यान करने लगे तब -उनका शरीर निश्चल होकर गर्दन तथा मस्तक झुक गया और कुछ काल के लिए उनकी बाह्य चेतना एकदम विलुप्त हो गयी। “Exactly like something entering into one when one holds an electric battery, one’s hand trembling all the while.”]......  थोड़ी देर बाद स्वामी रामकृष्णानन्द जी आकर स्वामी जी को बोले -" ठाकुर आपको बुला रहे हैं। " स्वामी जी को देखते ही श्रीरामकृष्णदेव बोले - " जमा होते न होते ही खर्च ? पहले अपने अन्दर अच्छी तरह जमा तो होने दे, फिर कहाँ किस प्रकार से खर्च करना है, यह स्वयं ही समझ में आ जायेगा-माँ ही सब समझा देंगी। उसके अंदर अपना भाव प्रविष्ट कराकर तुमने उसकी कितनी क्षति की है, .. मानो छः महीने का गर्भ नष्ट हो गया। खैर, जो होना था हो चुका, अबसे कभी ऐसा परीक्षण किसी पर सहसा मत करना। -जो भी हो, लड़के का भाग्य अच्छा है; अद्वैत भाव (निर्विकल्प समाधि) को ठीक ठीक धारण करना तथा समझना तो समय- सापेक्ष है और ईश्वर की कृपा से सम्भव होता है।" ....फल यह हुआ कि अभेदानन्द जी इस बात को  न समझकर यदाकदा वेदान्त की दुहाई देकर सदाचार -विरुद्ध कार्यों (शास्त्र निषिद्ध कर्मों) को भी करने लगे।...अभेदानन्द के लिए अपनी भूल-त्रुटियों को सुधारकर पुनः यथार्थ अद्वैत भाव में प्रतिष्ठित होना, श्रीरामकृष्णदेव के शरीर त्याग बहुत दिनों बाद  सम्भव हो सका था। एक दिन मैंने नवनी दा से पूछा था,कि काली महाराज तो स्वामी जी के प्रिय गुरुभाई थे, फिर उन्होंने रामकृष्ण मठ और मिशन से अलग रामकृष्ण-वेदान्त मठ की स्थापना क्यों की ? तब उन्होंने कहा था कि " अभेदानन्द जी ने लीलाप्रसंग पुस्तक से इस घटना के उल्लेख को  निकाल देने का आग्रह किया था; किन्तु उनकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी। शायद इसी कारण उन्होंने अलग से रामकृष्ण वेदान्त मठ की स्थापना की थी। " उस घटना के कुछ दिनों बाद  पूज्य नवनीदा ने  सारदा प्रज्ञाधाम ' C- 27  बाघायतिन पल्ली, कोलकाता - 700092, द्वारा प्रकाशित स्वामी अभेदानन्द जी महाराज की बंगला भाषा में लिखित जीवनी- 'प्रचारक अभेदानन्द'  की 10 प्रतियाँ Thursday, July 28,  2011 को  मुझे, आलोक मास्टर, अरुणाभ, समीर आदि में वितरित किया था। 

>> ज्ञान शतपथी और भुवनेश्वर स्थित ' सारदा- धाम ' के प्राणपुरुष श्रद्धेय नगेन्द्रनाथ चक्रवर्ती ( तदानीस्तन वेदान्त सोसाईटी) नेभुवनेश्वर स्थित 'सारदा- धाम' और कोलकाता स्थित नगेन्द्र प्रज्ञा मन्दिर (वर्तमान में ' सारदा प्रज्ञाधाम ') के साथ परमपूज्य श्रीमत स्वामी अभेदानन्दजी का बहुत पुराना सम्बन्ध रहा है।' और जब स्वामी अभेदानान्दजी 1922 ई० में अमेरिका से भारत वापस आ गए, तब से लेकर अंतिम समय 1939 तक उनके स्नेहपात्र और सारदाधाम के प्रमुख सेवक बने रहे थे।  स्वामी अभेदानान्दजी के साथ, रामकृष्ण वेदान्त मठ के पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में, घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करने का सुयोग प्राप्त किया था।

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>>*साभार ~ @Subhash Jain*सृष्टि और प्रलय का वर्तुल/वृत्त (जन्म और मृत्यु का चक्र : Circle of Life and Death) :

🏹🕊🏹शपथ ग्रहण (Oath taking) : There was a Sufi fakir, Bayazid. A rich man was after him. Every day, he presses his feet and says, 'Tell me the secret'. Tell me the secret !..... Swear that you will keep the secret (of Mahavakya) a secret and not tell it to anyone? 

 कसम खाओ कि क्या तुम (महावाक्य के) राज को राज रखोगे और किसी को बताओगे नहीं ? उस आदमी ने कहा, "I swear on God that I will keep the secret a secret and will not tell it to anyone." कसम परमात्मा की कि राज को राज रखूंगा और किसी को बताऊंगा नहीं।  The meaning of secret is that which I will not tell you. If the 'secret' is revealed, then how  will it remain  secret? जो 'राज' है, अगर वह बता दिया जाए, तो राज कैसे रहेगा ? सीक्रेट का मतलब ही यह है कि जिसे मैं तुझे बताऊंगा नहीं। जिसे मैंने कभी किसी को नहीं बताया। तभी तो वह राज है, अन्यथा फिर राज कैसे रहेगा ? 

तो जो 'बीज ' (बरगद) प्रकट हो जाए, only for the name's sake. -वह अप्रकट (बीज) नाम मात्र को था। The 'seed' is invisible in name only. बीज नाम मात्र को अप्रकट है। इतनी तो तैयारी दिखा रहा है प्रकट होने की। ऐसा आतुर है। नाम मात्र को अव्यक्त है। तो जिस अदृश्य (invisible-ईश्वर-माँ-मृत्यु) में दृश्य (जगत-जन्म-अहं) छिपा हो, वह बहुत अदृश्य हो नहीं सकता। Whether we can't see it is a different matter. जगत (अहं) हमें ब्रह्म के रूप में दिखाई न पड़ता हो, यह और बात है। हमारी आंखें कमजोर होंगी, हमारी आंखें न पकड़ पाती होंगी, लेकिन वह बिलकुल अव्यक्त नहीं कहा जा सकता। इन दोनों के पार, इस अव्यक्त के भी पार, और अव्यक्त (unmanifest) के भी पार वह ब्रह्म है।

वह अव्यक्त (unmanifested) से भी अति परे है-  Beyond the beyond,अव्यक्त से भी अति परे। transcending even the transcendence is Brahma, उसके भी पार, पार के भी पार, वह ब्रह्म है, जो सनातन अव्यक्त (eternally unmanifest)है। यह जगत (जन्म-मृत्यु चक्र) तो टेंपररी अनमैनिफेस्ट है, अस्थायी रूप से अव्यक्त है, फिर व्यक्त (जन्म)  हो जाता है, फिर अव्यक्त हो जाता है। 

लेकिन, एक ऐसा अव्यक्त अस्तित्व भी है, जो कभी व्यक्त न हुआ है, न होगा, न हो सकता है।वह अव्यक्त के भी परे है। वही ईश्वर, वही ब्रह्म, वही परमात्मा (Supreme Soul), वही मोक्ष–या जो भी नाम हम देना चाहें, दें–वही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है।

क्यों ? सूर्य (आत्मा) ने कभी रात्रि (मृत्यु) नहीं देखी ! क्यों ?  क्योंकि उसका कभी कोई सृजन नहीं हुआ, वह नष्ट नहीं हो सकता। उसकी कभी सुबह नहीं हुई, उसकी सांझ नहीं हो सकती। उसकी कभी सृष्टि नहीं हुई, तो उसकी कभी प्रलय नहीं हो सकती है। अगर तू जानना ही चाहता है अमृत को और अगर तू जानना ही चाहता है कि कैसे मैं (मिथ्या अहं ) लोगों की मृत्यु से बचूं और कैसे मैं मृत्यु से बचूं, विनाश से बचूं, तो अर्जुन से कृष्ण ने कहा, तू उसे जान ले, जो अव्यक्त के भी पार है।"

[आचार्य श्री रजनीश/गीता दर्शनअ.8.प्र.7/95:https://oshoworld.com/geeta-darshan-vol-1-2-by-osho-1-18/