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रविवार, 31 मार्च 2024

$⚜️ 🔱⚜️ 🔱🔆🙏 परिच्छेद ~ 89, [(7 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -89 ] 🙏[श्रीरामकृष्ण की आत्मकथा (autobiography) -घोष पाड़ा और कर्ताभजा सम्प्रदाय] माँ सरस्वती स्तुति : वीणा वाद्य-विनोदिनी 🙏 🔆प्रवृत्ति (कर्म योग) से होकर भी निवृत्ति (ज्ञान या भक्ति ?)में स्थित रहना श्रेष्ठ है🔆🔆🙏 परमहंस, बाउल और साईं- हवा (कुण्डलिनी) की खबर जानते हैं ! 🔆🙏Kartabhaja of Ghosh Para*नौकरी की निन्दा* माँ, यहीं से मन को मोड़ दो ! महिमाचरण ~*प्रवृत्ति से निवृत्ति ही बेहतर * ( महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीदा का जन्म इन्हीं के घर, 100 न ० काशीपुर रोड में हुआ था। "बाउल लोग मूर्तिपूजा नहीं करते – जीता-जागता आदमी चाहते हैं । वे लोग सिद्धावस्था को सहज अवस्था कहते हैं । सहज अवस्था के दो लक्षण - (1) " कृष्ण की गन्ध भी न रहेगी " (2) "पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा-जितेन्द्रियता "इसीलिए 'कर्ताभजा' ~ अर्थात् गुरु नेता (C-IN-C) को ईश्वर समझते और इसी भाव से उनकी पूजा करते हैं ।""*बाउल-साधना , the task of "refining the syrup" का अन्त कब होता है* 'भोजन-मंत्र ' ~ स्वयं खाते हो या किसी को खिलाते हो *कामारपुकुर की ' बाउल साधिका-'सरी' के घर ढेरों तुलसी के पौधे लगे थे और दादा के घर के तालाब में दो लाख तुलसी के पौधे उनके प्रमातामही ने लगवाये थे ?*असंख्य मत हैं और असंख्य पथ हैं।* अच्छा, मैं किस मार्ग का हूँ ?* ज्वार-भाटा क्यों होते हैं ? * एक बात देखो, समुद्र के पास ही नदियों में ज्वार-भाटा होते हैं । परन्तु समुद्र से बहुत दूर होने पर उसी नदी में ज्वार-भाटा नहीं होता, बल्कि एक ही ओर बहाव रहता है । इसका क्या अर्थ?* ~किसी किसी को ईश्वरकोटि को महाभाव, प्रेम, यह सब होता है*"मन ! आदरणीया श्यामा माँ को यत्नपूर्वक हृदय में रखना । तू देख और मैं देखूँ, कोई दूसरा उन्हें न देखने पाये ।”*महानिर्वाण तन्त्र (Mahanirvana Tantra ) *जो बिल्कुल निःस्वार्थी है उसका सारा भार ईश्वर लेते हैं - 'अनन्याश्चिन्तयन्तो'*

परिच्छेद ~ 89 (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

 ⚜️⚜️ 🔱 प्रवृत्ति या निवृत्ति ? ⚜️ ⚜️ 🔱

[पात्रता के अनुसार प्रवृत्ति (कर्म योग) से होकर निवृत्ति (भक्ति) में स्थित रहना श्रेष्ठ है]

(१)

[श्रीरामकृष्ण की आत्मकथा (autobiography) -घोष पाड़ा और कर्ताभजा सम्प्रदाय]  

[শ্রীমুখ-কথিত চরিতামৃত — ঘোষপাড়া ও কর্তাভজাদের মত ]

* दक्षिणेश्वर में राम, बाबूराम आदि भक्तों के संग में *

आज रविवार है, 7 सितम्बर, 1884 । श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में, अपने उसी कमरे में छोटी खाट पर भक्तों के साथ बैठे हैं । दिन के ग्यारह बजे होंगे, अभी उन्होंने भोजन नहीं किया । कल शनिवार को श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ श्रीयुत अधर सेन के यहाँ गये थे नाम-संकीर्तन के महोत्सव द्वारा भक्तों का जीवन सफल कर आये थे आज यहाँ श्यामदास का कीर्तन होगा । श्रीरामकृष्ण को कीर्तनानन्द में देखने के लिए बहुत से भक्तों का समागम हो रहा है । पहले बाबूराम, मास्टर, श्रीरामपुर के ब्राह्मण, मनोमोहन, भवनाथ, किशोरीलाल आये,फिर चुनीलाल, हरिपद, दोनों मुखर्जी भ्राता, राम, सुरेन्द्र, तारक, अधर और निरंजन आये । लाटू, हरीश और हाजरा तो आजकल दक्षिणेश्वर में ही रहते हैं । श्रीयुत रामलाल काली की पूजा करते हैं और श्रीरामकृष्ण की भी देख रेख रखते हैं । श्रीयुत राम चक्रवर्ती पर विष्णुमन्दिर की पूजा का भार है । लाटू और हरीश, दोनों श्रीरामकृष्ण की सेवा करते हैं । 

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে সেই ঘরে নিজের আসনে ছোট খাটটিতে ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। বেলা এগারটা হইবে, এখনও তাঁহার সেবা হয় নাই। গতকল্য শনিবার ঠাকুর শ্রীযুক্ত অধর সেনের বাটীতে ভক্তসঙ্গে শুভাগমন করিয়াছিলেন। হরিনাম-কীর্তন মহোৎসব করিয়া সকলকে ধন্য করিয়াছিলেন। আজ এখানে শ্যামদাসের কীর্তন হইবে। ঠাকুরের কীর্তনানন্দ দেখিবার জন্য অনেক ভক্তের সমাগম হইতেছে।

প্রথমে বাবুরাম, মাস্টার, শ্রীরামপুরের ব্রাহ্মণ, মনোমোহন, ভবনাথ, কিশোরী। তৎপরে চুনিলাল, হরিপদ প্রভৃতি; ক্রমে মুখুজ্জে ভ্রাতৃদ্বয়, রাম, সুরেন্দ্র, তারক, অধর, নিরঞ্জন। লাটু, হরিশ ও হাজরা আজকাল দক্ষিণেশ্বরেই থাকেন। শ্রীযুক্ত রাম চক্রবর্তী বিষ্ণুঘরে সেবা করেন। তিনিও মাঝে মাঝে আসিয়া ঠাকুরের তত্ত্বাবধান করেন। লাটু, হরিশ ঠাকুরের সেবা করেন। আজ রবিবার, ভাদ্র কৃষ্ণা দ্বিতীয়া তিথি, ২৩শে ভাদ্র, ১২৯১। ৭ই সেপ্টেম্বর, ১৮৮৪।

IT WAS ABOUT ELEVEN O'CLOCK. The Master was sitting in his room at Dakshineswar. He had not yet taken his midday meal. Arrangements had been made with the musician Shyamdas to entertain the Master and the devotees with his kirtan. Baburam, M., Manomohan, Bhavanath, Kishori, Chunilal, Haripada, the Mukherji brothers, Ram, Surendra, Tarak, Niranjan, and others arrived at the temple garden. Latu, Harish, and Hazra were staying with the Master.

मास्टर के आकर प्रणाम करने पर श्रीरामकृष्ण ने पूछा, नरेन्द्र नहीं आया ? उस दिन नरेन्द्र नहीं आ सके । श्रीरामपुर के ब्राह्मण, रामप्रसाद के गाने की किताब लेते आये हैं और उसी पुस्तक से गाने पढ़-पढ़कर श्रीरामकृष्ण को सुना रहे हैं ।

মাস্টার আসিয়া প্রণাম করিলে পর ঠাকুর বলিতেছেন, “কই নরেন্দ্র এলো না?”নরেন্দ্র সেদিন আসিতে পারেন নাই। শ্রীরামপুরের ব্রাহ্মণটি রামপ্রসাদের গানের বই আনিয়াছেন ও সেই পুস্তক হইতে মাঝে মাঝে গান পড়িয়া ঠাকুরকে শুনাইতেছেন।

When M. saluted Sri Ramakrishna, the Master asked: "Where is Narendra? Isn't he coming?" M. told him that Narendra could not come.

A brahmin devotee was reading to the Master from a book of devotional songs by Ramprasad. Sri Ramakrishna asked him to continue. 

श्रीरामकृष्ण - हाँ पढ़ो । ब्राह्मण एक गीत पढ़कर सुनाने लगे । उसमें लिखा था - माँ वस्त्र धारण करो ।

শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্রাহ্মণের প্রতি) — কই পড় না? ব্রাহ্মণ — বসন পরো, মা বসন পরো, মা বসন পরো।

The brahmin read a song, the first line of which was: "O Mother, put on Thy clothes."

श्रीरामकृष्ण – यह सब रहने दो, विकट गीत । ऐसा कोई गीत पढ़ो जिसमें भक्ति हो ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — ও-সব রাখো, আকাট বিকাট! এমন পড় যাতে ভক্তি হয়।

MASTER: "Stop, please! These ideas are outlandish and bizarre.'अजीब और विचित्र' Read something that will awaken bhakti."

ब्राह्मण -

 'के जाने काली केमन , षड्दर्शने ना पाय दर्शन।' 

कौन कहे कि काली कैसी है, षड्दर्शनों को भी जिसके दर्शन नहीं होते ।

ব্রাহ্মণ — কে জানে কালী কেমন ষড়্‌দর্শনে না পায় দর্শন

The brahmin read: Who is there that can understand what Mother Kali is? Even the six darsanas are powerless to reveal Her. . . .

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏ठाकुर के प्रति 'सदय' थे बाबूराम 🔆🙏

[ঠাকুরের ‘দরদী’ — পরমহংস, বাউল ও সাঁই ]

श्रीरामकृष्ण - ( मास्टर से) - कल अधर सेन के यहाँ भावावस्था में एक ही तरह बैठे रहने के कारण पैरों में दर्द होने लगा था । इसीलिए बाबूराम को ले जाया करता हूँ । सह्रदय है । यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे – 

"मनेर कथा कोइबो कि सेइ कोईते माना।

दरदी नोइले प्राण बाँचे ना।।

मनेर मानुष होय जे -जना, नयने तार जाय जो चेना,  

से दू-एक जना; से जे रसे भासे प्रेमे डोबे ,

कच्छे रसेर बेचा-केना। (भाबेर मानुष) 

मनेर मानुष मिलबे कोथा, बगले तार छेंड़ा काँथा; 

ओ से कोय ना गो कथा; भाबेर मानुष ऊजान पथे, करे आनागोना।  

(मनेर मानुष , ऊजान पथे करे आनागोना )  

"ऐ सखि री, मैं अपना हृदय किसके पास खोलूँ - मुझे बोलना मना जो है । बिना किसी ऐसे को पाये जो मेरी व्यथा समझ सके, मैं तो मरी जा रही हूँ । केवल उसकी आँखों में आँखें डालकर मुझे अपने हृदय के प्रेमी का मिलन प्राप्त हो जायगा - परन्तु ऐसा तो कोई विरला ही होता है जो आनन्दसागर में निरन्तर बहता रहे ।  

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — কাল অধর সেনের ভাবাবস্থায় একপাশে থেকে পায়ে ব্যথা হয়েছিল। তাই তো বাবুরামকে নিয়ে যাই। দরদী!

এই বলিয়া ঠাকুর গান গাইতেছেন:

মনের কথা কইবো কি সই কইতে মানা। দরদী নইলে প্রাণ বাঁচে না ৷৷

মনের মানুষ হয় যে-জনা, নয়নে তার যায় গো চেনা,

সে দু-এক জনা; সে যে রসে ভাসে প্রেমে ডোবে,

কচ্ছে রসের বেচাকেনা। (ভাবের মানুষ)

মনের মানুষ মিলবে কোথা, বগলে তার ছেঁড়া কাঁথা;

ও সে কয় না গো কথা; ভাবের মানুষ উজান পথে, করে আনাগোনা।

       (মনের মানুষ, উজান পথে করে আনাগোনা)।

MASTER (to M.): "I got a pain because I lay too long on one side while in samadhi yesterday at Adhar's house; so now I'll take Baburam with me when I visit the houses of the devotees. He is a sympathetic soul."

With these words the Master sang:

How shall I open my heart, O friend? It is forbidden me to speak. I am about to die, for lack of a kindred soul . To understand my misery.  Simply by looking in his eyes, I find the beloved of my heart; But rare is such a soul, who swims in ecstatic bliss .On the high tide of heavenly love.' 

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏 परमहंस, बाउल और साईं- हवा (कुण्डलिनी) की खबर जानते हैं ! 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण - "ये सब बाउलों (एक सम्प्रदाय) के गीत हैं । "शाक्त मत में सिद्ध को कौल कहते हैं, वेदान्त के मत से परमहंस कहते हैं । बाउल-वैष्णवों के मत में साई कहते हैं - साई अन्तिम सीमा है

["According to the Sakti cult the Siddha is called a Koul, and according to the Vedanta, a Paramahamsa. The Bauls call him a sai. They say, 'No one is greater than a sai.'

“শাক্তমতের সিদ্ধকে বলে কৌল। বেদান্তমতে বলে পরমহংস। বাউল বৈষ্ণবদের মতে বলে সাঁই। ‘সাঁইয়ের পর আর নাই!’

"बाउल जब सिद्ध हो जाता है तब साई होता है । तब सब अभेद हो जाता है। आधी माला गौ के हाड़ों की और आधी तुलसी की पहनता है । 'हिन्दुओं का नीर और मुसलमानों का पीर' बन जाता है । 

The sai is a man of supreme perfection. He doesn't see any differentiation in the world. He wears a necklace, one half made of cow bones and the other of the sacred tulsi-plant.]

“বাউল সিদ্ধ হলে সাঁই হয়। তখন সব অভেদ। অর্ধেক মালা গোহাড়, অর্ধেক মালা তুলসীর। ‘হিন্দুর নীর — মুসলমানের পীর’।”

"बाउल लोगों में जो साई होते हैं, वे लोग परम् सत्य को अलख अबोध-गम्य कहते हैं। वैदिक मत से उसी अलख को (इन्द्रियातीत सत्य या transcendental truth को) ब्रह्म  कहते हैं जीवों के सम्बन्ध में बाउल कहते हैं, "वे अलख (अव्यक्त)  से आते हैं और अलख (अव्यक्त) में जाते हैं । अर्थात् जीवात्मा अव्यक्त  से आता है और अव्यक्त (Unmanifest) में ही लीन हो जाता है

[ He (Sai) calls the Ultimate Truth 'Alekh', the 'Incomprehensible One'. The Vedas call It 'Brahman'. About the jivas the Bauls say, 'They come from Alekh and they go unto Alekh.' That is to say, the individual soul has come from the Unmanifest and goes back to the Unmanifest

“সাঁইয়েরা বলে — আলেখ! আলেখ! বেদমতে বলে ব্রহ্ম; ওরা বলে আলেখ। জীবদের বলে — ‘আলেখে আসে আলেখে যায়’; অর্থাৎ জীবাত্মা অব্যক্ত থেকে এসে তাইতে লয় হয়!

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🙏निराकार श्री 'सच्चिदानन्द' का दर्शन🙏   

श्रीरामकृष्ण - "बाउल तुमसे पूछेंगे,'हवा' की खबर जानते हो ? हवा से तात्पर्य है वह महावायु  जो किसी व्यक्ति की कुण्डलिनी जागृत होने पर -उस व्यक्ति को अपनी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना आदि सूक्ष्म तंत्रिकाओं में महसूस होती है।  

 The Bauls will ask you, 'Do you know about the wind?' The 'wind' means the great current that one feels in the subtle nerves, Ida, Pingala, and Sushumna, when the Kundalini is awakened

“তারা বলে, হাওয়ার খবর জান? “অর্থাৎ কুলকুণ্ডলিনী জাগরণ হলে ইড়া, পিঙ্গলা, সুষুম্না — এদের ভিতর দিয়ে যে মহাবায়ু উঠে, তাহার খবর!

बाउल आगे पूछते हैं, "किस पैठ में हो ? - छः पैठ - यानि छहों चक्र हैं । उनके अनुसार, योग (समाधि) के छह मानसिक केंद्रों के अनुरूप छह 'भूमियाँ ' हैं।

They will ask you further, 'In which station are you dwelling?' According to them, there are 'stations', corresponding to the six psychic centers of Yoga.] 

“জিজ্ঞাসা করে, কোন্‌ পইঠেতে আছ? — ছটা পইঠে — ষট্‌চক্র

"अगर कोई कहे कि पांचवें में है, तो समझना चाहिए कि विशुद्ध चक्र तक मन की पहुँच है। (मास्टर से) “तब निराकार के दर्शन होते हैं, जैसा गीत में है ।" यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण ने कुछ स्वर करके गाया - 

"तद-ऊर्ध्वते आछे माँ' गो नाम कण्ठस्थल,

धूम्रवर्णेर पद्म आछे होय षोड्शदल। 

सेई पद्म मध्ये आछे अम्बुजे आकाश ,

से आकाश रुद्ध होले सकलि आकाश।" 

 इसके ऊपर (अनाहत चक्र के ऊपर) कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडश-दल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में एक सूक्ष्म आकाश छुपा हुआ है,  उस आकाश को पार करते ही (transcend करते ही ) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आकाश में  विलीन होते हुए देख कर मनुष्य आश्चर्यचकित हो जाता है!"  

“যদি বলে পঞ্চমে আছে, তার মানে যে, বিশুদ্ধ চক্রে মন উঠেছে। (মাস্টারের প্রতি) — “তখন নিরাকার দর্শন। যেমন গানে আছে।” এই বলিয়া ঠাকুর একটু সুর করিয়া বলিতেছেন —

“তদূর্ধ্বেতে আছে মাগো নাম কণ্ঠস্থল,

ধূম্রবর্ণের পদ্ম আছে হয়ে ষোড়শদল।

সেই পদ্ম মধ্যে আছে অম্বুজে আকাশ,

সে আকাশ রুদ্ধ হলে সকলি আকাশ।”

If they say that a man dwells in 'the fifth station', it means that his mind has climbed to the fifth center, known as the Visuddha chakra.(To M.) At that time he sees the Formless."

 Saying this the Master sang: "Above this is a smoke-coloured sixteen-petalled lotus in the Vishuddha Chakra situated in the throat. If the sky in the middle of this lotus gets transcended, one sees at length the universe in Space dissolve, only the sky remains everywhere.

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

[पृष्ठभूमि -बाउल एवं कर्ताभजा मत के लोगों का आगमन]

[পূর্বকথা — বাউল ও ঘোষপাড়ার কর্তাভজাদের আগমন ]

🔆🙏*बाउल -साधना का अन्त कब होता है*🔆🙏   

श्री रामकृष्ण - "एक बाउल आया था । मैंने उससे पूछा, 'क्या तुम्हारा रस का काम हो गया ? - कड़ाही उतर  गयी ?' रस को जितना ही जलाओगे, उतना ही Refine (साफ) होगा । पहले रहता है ईख का रस - फिर होती है राब - फिर उसे जलाओ - तो होती है चीनी - और फिर मिश्री । धीरे धीरे और भी साफ हो रहा है ।

{“একজন বাউল এসেছিল। তা আমি বললাম, ‘তোমার রসের কাজ সব হয়ে গেছে? — খোলা নেমেছে?’ যত রস জ্বাল দেবে, তত রেফাইন (refine) হবে। প্রথম, আকের রস — তারপর গুড় — তারপর দোলো — তারপর চিনি — তারপর মিছরি, ওলা এই সব। ক্রমে ক্রমে আরও রেফাইন হচ্ছে।} 

"Once a Baul came here. I asked him, 'Have you finished the task of "refining the syrup"? Have you taken the pot off the stove?' The more you boil the juice of sugar-cane, the more it is refined. In the first stage of boiling it is simply the juice of the sugar-cane. Next it is molasses, then sugar, then sugar candy, and so on. As it goes on boiling, the substances you get are more and more refined.

"गन्ने से गुड़ बनाने वाला का किसान चूल्हे से कड़ाही कब उतारता है ? अर्थात्, साधक के साधना की समाप्ति कब होती है ? किसी साधक की साधना का अन्त तब होता है , जब वह अपनी पाँचो इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेता है ! जैसे जोंक पर नमक छोड़ने से वे आप ही छूटकर गिर जाती हैं वैसे ही इन्द्रियाँ भी शिथिल हो जायेंगी । उस अवस्था में कोई सिद्ध पुरुष (साईं) स्त्री के साथ रहता है, लेकिन उसके मन में उसके प्रति कोई वासना नहीं होती।  

খোলা নামবে কখন? অর্থাৎ সাধন শেষ হবে কবে? — যখন ইন্দ্রিয় জয় হবে — যেমন জোঁকের উপর চুন দিলে জোঁক আপনি খুলে পড়ে যাবে — ইন্দ্রিয় তেমনি শিথিল হয়ে যাবে। রমনীর সঙ্গে থাকে না করে রমণ।}

"When does a man take the pot off the stove? That is, when does a man come to the end of his sadhana? He comes to the end when he has acquired complete mastery over his sense organs. His sense-organs become loosened and powerless, as the leech is loosened from the body when you put lime in its mouth. In that state, a man may live with a woman, but he does not feel any lust for her.

"उनमें बहुत से लोग राधातन्त्र के मत से चलते हैं । पाँचों तत्त्व लेकर साधना करते हैं - पृथ्वीतत्त्व, जलतत्त्व, अग्नितत्त्व, वायुतत्त्व, आकाशतत्त्व, मल, मूत्र, रज, वीर्य, ये सब तत्त्व ही हैं । ये साधनाएँ बड़ी घृणित हैं; जैसे पाखाने के भीतर से घर में प्रवेश करना ।

{“ওরা অনেকে রাধাতন্ত্রের মতে চলে। পঞ্চতত্ত্ব নিয়ে সাধন করে পৃথিবীতত্ত্ব, জলতত্ত্ব, অগ্নিতত্ত্ব, বায়ুতত্ত্ব, আকাশতত্ত্ব, — মল, মূত্র, রজ, বীজ — এই সব তত্ত্ব! এ-সব সাধন বড় নোংরা সাধন; যেমন পায়খানার ভিতর দিয়ে বাড়ির মধ্যে ঢোকা!}

"Many of the Bauls follow a 'dirty' method of spiritual discipline. It is like entering a house through the back door by which the scavengers come.

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🙏*'भोजन-मंत्र ' ~ स्वयं खाते हो या किसी को खिलाते हो *🙏  

“एक दिन मैं दालान में भोजन कर रहा था । घोषपाड़ा के मत का एक आदमी आया । आकर कहने लगा - 'तुम स्वयं खाते हो या किसी को खिलाते हो ?' इसका यह अर्थ है जो सिद्ध होता है, वह अन्तर में ईश्वर देखता है ।

“একদিন আমি দালানে খাচ্ছি। একজন ঘোষপাড়ার মতের লোক এলো। এসে বলছে, ‘তুমি খাচ্ছ, না কারুকে খাওয়াচ্ছ?’ অর্থাৎ যে সিদ্ধ হয় সে দেখে যে, অন্তরে ভগবান আছেন! 

"One day I was taking my meal when a Baul devotee arrived. He asked me, 'Are you yourself eating, or are you feeding someone else?' The meaning of his words was that the siddha sees God dwelling within a man. 

"जो लोग इस मत से सिद्ध होते हैं, वे दूसरे मत के लोगों को 'जीव' कहते हैं । विजातीय मनुष्यों के सामने बातचीत नहीं करते । कहते हैं, यहाँ 'जीव' हैं !

যারা এ মতে সিদ্ধ হয়, তারা অন্য মতের লোকদের বলে ‘জীব’। বিজাতীয় লোক থাকলে কথা কবে না। বলে, এখানে ‘জীব’ আছে। 

The siddhas among the Bauls will not talk to persons of another sect; they call them 'strangers'.

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏 ' बाउल साधिका-'सरी' के घर हृदय के संग🔆🙏

कृष्ण की गन्ध भी न रहेगी- पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा-जितेन्द्रियता ]

"उस देश में मैंने इस मत को माननेवाली (बाउल मत को मानने वाली)  एक स्त्री देखी है । उसका नाम सरी (सरस्वती) पाथर है। इस मत के लोग आपस में एक दूसरे के यहाँ तो भोजन करते हैं, परन्तु दूसरे मत वालों के यहाँ नहीं खाते । मल्लिक घरानेवालों ने सरी पाथर के यहाँ तो भोजन किया, परन्तु हृदय के यहाँ नहीं खाया । कहते हैं, ये सब 'जीव' हैं ! (सब हँसते हैं ।)

“ও-দেশে এই মতের লোক একজন দেখেছি। সরী (সরস্বতী) পাথর — মেয়েমানুষ। এ মতের লোকে পরস্পরের বাড়িতে খায়, কিন্তু অন্য মতের লোকের বাড়ি খাবে না। মল্লিকরা সরী পাথরের বাড়িতে গিয়ে খেলে তবু হৃদের বাড়িতে খেলে না। বলে ওরা ‘জীব’। (হাস্য)

"मैं एक दिन उसके यहाँ हृदय के साथ घूमने गया था । तुलसी के पौधे खूब लगाये हैं । उसने चना-चिउड़ा दिया, मैंने थोड़ा सा खाया, हृदय तो बहुत सा खा गया - फिर बीमार भी पड़ा ।

[“আমি একদিন তার বাড়িতে হৃদের সঙ্গে বেড়াতে গিছলাম। বেশ তুলসী বন করেছে। কড়াই মুড়ি দিলে, দুটি খেলুম। হৃদে অনেক খেয়ে ফেললে, — তারপর অসুখ!] 

"वे (बाउल मत वाले ) लोग सिद्धावस्था को सहज अवस्था कहते हैं । एक दर्जे के आदमी हैं । वे 'सहज 'सहज' चिल्लाते फिरते हैं । वे सहज अवस्था के दो लक्षण बतलाते हैं । एक यह कि देह में कृष्ण की गन्ध भी न रहेगीर दूसरा यह कि पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा । कृष्ण की गन्ध भी न रह जायगी, इसका अर्थ यह है कि ईश्वर के भाव सब अन्तर में ही रहेंगे, बाहर कोई लक्षण प्रकट न होगा - नाम का जप भी न करेगा । दूसरे का अर्थ है, कामिनी और कांचन की आसक्ति का त्याग – जितेन्द्रियता ।  

"The Bauls designate the state of perfection as the 'sahaja', the 'natural' state. There are two signs of this state. First, a perfect man will not 'smell of Krishna'. Second, he is like the bee that sits on the lotus but does not sip the honeyThe first means that he keeps all his spiritual feelings within himself. He doesn't show outwardly any sign of spirituality. He doesn't even utter the name of Hari. The second means that he is not attached to woman. He has completely mastered his senses.

“ওরা সিদ্ধাবস্থাকে বলে সহজ অবস্থা। একথাকের লোক আছে, তারা ‘সহজ’ ‘সহজ’ করে চ্যাঁচায়। সহজাবস্থার দুটি লক্ষণ বলে। প্রথম — কৃষ্ণগন্ধ গায়ে থাকবে না। দ্বিতীয় — পদ্মের উপর অলি বসবে, কিন্তু মধু পান করবে না। ‘কৃষ্ণগন্ধ’ নাই, — এর মানে ঈশ্বরের ভাব সমস্ত অন্তরে, — বাহিরে কোন চিহ্ন নাই, — হরিনাম পর্যন্ত মুখে নাই। আর একটির মানে, কামিনীতে আসক্তি নাই — জিতেন্দ্রিয়। 

"वे लोग ठाकुर-पूजन, मूर्तिपूजन, यह सब पसन्द नहीं करते – जीता-जागता आदमी चाहते हैं । इसीलिए उनके दर्जे के आदमियों को कर्ताभजा कहते हैं । 'कर्ताभजा' ~ अर्थात् जो लोग कर्ता को – गुरु को ईश्वर समझते और इसी भाव से उनकी पूजा करते हैं ।"

"The Bauls do not like the worship of an image. They want a living man. That is why one of their sects is called the Kartabhaja. They worship the karta, that is to say, the guru, as God. "- in the sense of God.] 

“ওরা ঠাকুরপূজা, প্রতিমাপূজা — এ-সব লাইক করে না, জীবন্ত মানুষ চায়। তাই তো ওদের একথাকের লোককে বলে কর্তাভজা, অর্থাৎ যারা কর্তাকে — গুরুকে )— ঈশ্বরবোধে ভজনা করে — পূজা করে।”

(२)

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

*श्रीरामकृष्ण और सर्वधर्मसमन्वय*

[Why all scriptures — all Religions — are true]

श्रीरामकृष्ण - देखा, कितने तरह के मत हैं । जितने मत उतने पथ । असंख्य मत हैं और असंख्य पथ हैं।

"You see how many opinions there are about God. Each opinion is a path. There are innumerable opinions and innumerable paths leading to God."

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখছো কত রকম মত! মত, পথ। অনন্ত মত অনন্ত পথ!} 

भवनाथ- अब उपाय क्या है ?

 "Then what should we do?

"ভবনাথ — এখন উপায়! 

श्रीरामकृष्ण - एक को बलपूर्वक पकड़ना पड़ता है । छत पर जाने की चाह है, तो जीने से भी चढ़ सकते हो; बाँस की सीढ़ी लगाकर भी चढ़ सकते हो; रस्सी की सीढ़ी लगाकर, सिर्फ रस्सी पकड़कर या केवल एक बाँस के सहारे, किसी भी तरह से छत पर पहुँच सकते हो, परन्तु एक पैर इसमें और दूसरा उसमें रखने से नहीं होता । एक को दृढ़ भाव से पकड़े रहना चाहिए ।   [चार योग में मनःसंयोग कॉमन है - इसीको दृढ़ भाव से  पकड़ना अच्छा है !] ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो एक ही रास्ते पर चलना चाहिए ।

 "You must stick to one path with all your strength. A man can reach the roof of a house by stone stairs or a ladder or a rope-ladder or a rope or even by a bamboo pole. But he cannot reach the roof if he sets foot now on one and now on another. He should firmly follow one path. Likewise, in order to realize God a man must follow one path with all his strength.

শ্রীরামকৃষ্ণ — একটা জোর করে ধরতে হয়। ছাদে গেলে পাকা সিঁড়িতে উঠা যায়, একখানা মইয়ে উঠা যায়, দড়ির সিঁড়িতে উঠা যায়; একগাছা দড়ি দিয়ে, একগাছা বাঁশ দিয়ে উঠা যায়। কিন্তু এতে খানিকটা পা, ওতে খানিকটা পা দিলে হয় না। একটা দৃঢ় করে ধরতে হয়। ঈশ্বরলাভ করতে হলে, একটা পথ জোর করে ধরে যেতে হয়।

ईश्वर एक ही है किन्तु उनके विषय में असंख्य मत हैं ,  और ईश्वर तक पहुँचने के असंख्य पथ हैं ! ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो एक ही रास्ते पर चलना चाहिए । "और दूसरे मतों को भी एक एक मार्ग समझना । यह भाव न हो कि मेरा ही मार्ग ठीक है, और सब झूठ हैं; द्वेष न हो ।

"But you must regard other views as so many paths leading to God. You should not feel that your path is the only right path and that other paths are wrong. You mustn't bear malice toward others.

“আর সব মতকে এক-একটি পথ বলে জানবে। আমার ঠিক পথ, আর সকলের মিথ্যা — এরূপ বোধ না হয়। বিদ্বেষভাব না হয়।” 

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🙏"मैं किस मार्ग का साधक हूँ?" 🙏

[केशव, शशधर और विजय में से किसके सम्प्रदाय का ?]

[“আমি কোন্‌ পথের?” কেশব, শশধর ও বিজয়ের মত ]

"अच्छा, मैं किस मार्ग का हूँ ? केशव सेन कहता था, आप हमारे मत के हैं - निराकार में आ रहे हैं । शशधर कहता है, ये हमारे हैं; विजय भी कहता है, ये हमारे मत के हैं ।"

[ "Well, to what path do I belong? Keshab Sen, used to say to me: 'You belong to our path. You are gradually accepting the ideal of the formless God.' Shashadhar says that I belong to his path. Vijay, too, says that I belong to his — Vijay's — path."

“আচ্ছা, আমি কোন্‌ পথের? কেশব সেন বলত, আপনি আমাদেরই মতের, — নিরাকারে আসছেন। শশধর বলে, ইনি আমাদের। বিজয়ও (গোস্বামী) বলে, ইনি আমাদের মতের লোক।” 

श्रीरामकृष्ण सभी मार्गों से साधना करके ईश्वर के निकट पहुँचे थे; इसलिए सब लोग उन्हें अपने ही मत का आदर्श मानते थे ।

{ঠাকুর কি বলিতেছেন যে, আমি সব পথ দিয়াই ভগবানের নিকট পৌঁছিয়াছি — তাই সব পথের খবর জানি? আর সকল ধর্মের লোক আমার কাছে এসে শান্তি পাবে?

श्रीरामकृष्ण मास्टर आदि दो-एक भक्तों के साथ पंचवटी की ओर जा रहे हैं - हाथ मुँह धोयेंगे । दिन के बारह बजे का समय है । अब ज्वार आनेवाली है । देखने के लिए श्रीरामकृष्ण पंचवटी के रास्ते पर प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

{Sri Ramakrishna walked toward the Panchavati with M. and a few other devotees. It was midday and time for the flood-tide in the Ganges.They waited in the Panchavati to see the bore of the tide.

ঠাকুর পঞ্চবটীর দিকে মাস্টার প্রভৃতি দু-একটি ভক্তের সঙ্গে যাইতেছেন — মুখ ধুইবেন। বেলা বারটা, এইবার বান আসিবে। তাই শুনিয়া ঠাকুর পঞ্চবটীর পথে একটু অপেক্ষা করিতেছেন।} 

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏भाव -महाभाव का रहस्यमय सिद्धांत - गंगा के ज्वार-भाटा का दर्शन 🔆🙏

[ভাব মহাভাবের গূঢ় তত্ত্ব — গঙ্গার জোয়ার-ভাটা দর্শন ]

भक्तों से कह रहे हैं - “ज्वार और भाटा कितने आश्चर्य के विषय हैं । "परन्तु एक बात देखो, समुद्र के पास ही नदियों में ज्वार-भाटा होते हैं । परन्तु समुद्र से बहुत दूर होने पर उसी नदी में ज्वार-भाटा नहीं होता, बल्कि एक ही ओर बहाव रहता है । इसका क्या अर्थ? -इस भाव का अपने आध्यात्मिक जीवन पर आरोप करो । जो लोग ईश्वर के बहुत पास पहुँच जाते हैं, उन्हीं में भक्ति और भाव होता है । और, किसी किसी को ईश्वरकोटि को महाभाव, प्रेम, यह सब होता है ।

{"The ebb-tide and flood-tide are indeed amazing. But notice one thing. Near the sea you see ebb-tide and flood-tide in a river, but far away from the sea the river flows in one direction only. What does this mean? Try to apply its significance to your spiritual life. Those who live very near God feel within them the currents of bhakti, bhava, and the like. In the case of a few — the Isvarakotis, for instance — one sees even mahabhava and prema.

ভক্তদের বলিতেছেন — “জোয়ার-ভাটা কি আশ্চর্য! “কিন্তু একটি দেখো, — সমুদ্রের কাছে নদীর ভিতর জোয়ার-ভাটা খেলে। সমুদ্র থেকে অনেক দূর হলে একটানা হয়ে যায়। এর মানে কি? — ওই ভাবটা আরোপ কর। যারা ঈশ্বরের খুব কাছে, তাদের ভিতরই ভক্তি, ভাব — এই সব হয়; আবার দু-একজনের (ঈশ্বরকোটির) মহাভাব, প্রেম — এ-সব হয়।

(मास्टर से) “अच्छा, ज्वार-भाटा क्यों होते हैं ?" 

मास्टर - अंग्रेजी ज्योतिष - शास्त्र (astronomy) में लिखा है, सूर्य और चन्द्र के आकर्षण से ऐसा होता है । यह कहकर मास्टर मिट्टी में रेखाएँ खींचकर सूर्य और चन्द्र की गति बतलाने लगे । थोड़ी देर तक देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा - बस रहने दो, मेरा माथा घूमने लगा ।

"According to Western astronomy, they are due to the attraction of the sun and the moon. In order to explain it, M. drew figures on the earth and began to show the Master the movement of the earth, the sun, and the moon. The Master looked at the figures for a minute and said: "Stop, please! It gives me a headache."

মাস্টার — ইংরেজী জ্যোতিষ শাস্ত্রে বলে যে, সূর্য ও চন্দ্রের আকর্ষণে ওইরূপ হয়। এই বলিয়া মাস্টার মাটিতে অঙ্ক পাতিয়া পৃথিবী, চন্দ্র ও সূর্যের গতি দেখাইতেছেন। ঠাকুর একটু দেখিয়াই বলিতেছেন, “থাক, ওতে আমার মাথা ঝনঝন করে!” 

बात हो ही रही थी कि ज्वार आने की आवाज होने लगी । देखते ही देखते जलोच्छ्वास का घोर शब्द होने लगा । ठाकुरमन्दिर की तटभूमि में टकराता हुआ बड़े वेग से पानी उत्तर की ओर चला गया । श्रीरामकृष्ण एक नजर से देख रहे हैं । दूर की नाव देखकर बालक की तरह कहने लगे, 'देखो देखो - अब उस नाव की क्या हालत होती है !

श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत करते हुए पंचवटी के बिलकुल नीचे पहुँच गये । उनके हाथ में एक छाता था, उसे पंचवटी के चबूतरे पर रख दिया । नारायण को वे साक्षात् नारायण देखते हैं इसीलिए बहुत प्यार करते हैं । नारायण स्कूल में पढ़ता है । इस समय श्रीरामकृष्ण उसी की बातचीत कर रहे हैं।

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

[मास्टर की शिक्षा, धन का सदुपयोग - नारायण की सरलता]

[মাস্টারের শিক্ষা, টাকার সদ্ব্যবহার — নারাণের জন্য চিন্তা ]

श्रीरामकृष्ण - नारायण को देखा है तुमने ? कैसा स्वभाव है ! क्या लड़के, बच्चे, बूढ़े सब से मिलता है । विशेष शक्ति के बिना यह बात नहीं होती । और सब लोग उसे प्यार करते हैं । अच्छा, क्या वह यथार्थ ही सरल है ।

मास्टर - जी हाँ, जान तो ऐसा ही पड़ता है ।

श्रीरामकृष्ण - सुना, तुम्हारे यहाँ जाता है ।

मास्टर - जी हाँ, दो एक बार आया था ।

श्रीरामकृष्ण - क्या एक रुपया तुम उसे दोगे या काली से कहूँ ?

मास्टर - अच्छा तो है, मैं ही दे दूंगा ।

श्रीरामकृष्ण - बड़ा अच्छा है । जो ईश्वर के अनुरागी हैं उन्हें देना अच्छा है । इससे धन का सदुपयोग होता है । सब रुपये संसार को सौंपने से क्या होगा ?

{ "That's fine. It is good to help those who yearn for God. Thus one makes good use of one's money. What will you gain by spending everything on your family?

"শ্রীরামকৃষ্ণ — বেশ তো — ঈশ্বরে যাদের অনুরাগ আছে, তাদের দেওয়া ভাল। টাকার সদ্ব্যবহার হয়। সব সংসারে দিলে কি হবে? 

किशोरीलाल के लड़के-बच्चे हो गये हैं । वेतन कम पाता है इससे पूरा नहीं पड़ता । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं - "नारायण कहता था, किशोरीलाल के लिए एक नौकरी ठीक कर दूंगा । नारायण को यह बात याद दिलाना ।"

मास्टर पंचवटी में खड़े हुए हैं । श्रीरामकृष्ण कुछ देर बाद झाऊतल्ले से लौटे । मास्टर से कह रहे हैं - जरा बाहर एक चटाई बिछाने के लिए कहो, मैं थोड़ी देर बाद जाता हूँ, लेटूँगा ।

श्रीरामकृष्ण कमरे में पहुँचकर कह रहे हैं - तुममें से किसी को छाता ले आने की बात याद नहीं रही । (सब हँसते हैं ।) जल्दबाज आदमी पास की चीज भी नहीं देखते । एक आदमी एक दूसरे के यहाँ कोयले में आग सुलगाने के लिए गया था, और इधर उसके हाथ में लालटेन जल रही थी ।

"एक आदमी अंगौछा खोज रहा था, अन्त में वह उसी के कन्धे पर पड़ा हुआ मिला !"

{When the Master returned to his room, he could not find his umbrella and exclaimed: "You have all forgotten the umbrella! The busybody doesn't see a thing even when it is very near him. A man went to a friend's house to light the charcoal for his smoke, though all the time he had a lighted lantern in his hand. Another man looked everywhere for his towel. Finally he discovered that it had been on his shoulder all the time.

ঠাকুর ঘরে পৌঁছিয়া বলিতেছেন, “তোমাদের কারুরই ছাতাটা আনতে মনে নাই। (সকলের হাস্য) ব্যস্তবাগীশ লোক নিজের কাছের জিনিসও দেখতে পায় না! একজন আর-একটি লোকের বাড়িতে টিকে ধরাতে গিছল, কিন্তু হাতে লণ্ঠন জ্বলছে!“একজন গামছা খুঁজে খুঁজে তারপর দেখে, কাঁধেতেই রয়েছে!”} 

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 
[ठाकुर की मध्याह्न सेवा और बाबूराम आदि के संग में ]
[ঠাকুরের মধ্যাহ্ন-সেবা ও বাবুরামাদি সাঙ্গোপাঙ্গ ]

श्रीरामकृष्ण के लिए काली का अन्न-भोग लाया गया । श्रीरामकृष्ण प्रसाद पायेंगे । दिन के एक बजे का समय होगा । वे भोजन करके जरा विश्राम करेंगे । भक्तगण कमरे में बैठे ही रहे । समझाने पर वे बाहर जाकर बैठे । हरीश, निरंजन और हरिपद पाकशाला में प्रसाद पायेंगे । श्रीरामकृष्ण हरीश से कह रहे हैं, अपने लिए थोड़ा सा अमरस लेते जाना ।

श्रीरामकृष्ण विश्राम करने लगे । बाबूराम से कहा, "बाबूराम, जरा मेरे पास आ ।” बाबूराम पान लगा रहे थे, कहा, "मैं पान लगा रहा हूँ ।"

श्रीरामकृष्ण - रख उधर, फिर पान लगाना ।

श्रीरामकृष्ण विश्राम कर रहे हैं । इधर पंचवटी में और बकुल के पेड़ के नीचे कुछ भक्त बैठे हुए हैं - दोनों मुखर्जी भाई, चुनीलाल, हरिपद, भवनाथ और तारक । तारक वृन्दावन से अभी अभी लौटे हैं । भक्तगण उनसे वृन्दावन की बातें सुन रहे हैं । तारक नित्यगोपाल के साथ अब तक वृन्दावन में थे ।

(7 सितंबर,1884)]

(३) 

*कीर्तनानन्द में*

श्रीरामकृष्ण जरा विश्राम कर रहे हैं । श्यामदास माथुर अपने आदमियों को लेकर कीर्तन गा रहे हैं 
'सुखमय सायर (सागर) मरुभूमि भइल,जलद निहारइ चातकि मरि गइल ।' श्रीराधा का यह विरह-वर्णन हो रहा है । सुनकर श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है । वे छोटी खाट पर बैठे हुए हैं । बाबूराम, निरंजन, राम, मनोमोहन, मास्टर, सुरेन्द्र, भवनाथ आदि भक्त जमीन पर बैठे हैं । गाना जम नहीं रहा है ।
कोन्नगर के नवाई चैतन्य से श्रीरामकृष्ण कीर्तन करने के लिए कह रहे हैं । नवाई मनोमोहन के चाचा हैं। पेन्शन लेकर कोन्नगर में श्रीगंगाजी के तट पर भजन-साधन करते हैं । श्रीरामकृष्ण का प्रायः दर्शन करने आते हैं । नवाई उच्च कण्ठ से संकीर्तन कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण आसन छोड़कर नृत्य करने लगे। साथ ही नवाई और भक्तगण उन्हें घेरकर नृत्य करने लगे । कीर्तन खूब जम गया । महिमाचरण भी श्रीरामकृष्ण के साथ नृत्य कर रहे हैं
कीर्तन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे । हरिनाम के बाद अब आनन्दमयी का नाम ले रहे हैं । श्रीरामकृष्ण भावपूर्ण हैं । नाम लेते हुए ऊर्ध्वदृष्टि हो रहे हैं । गाना -

 "माँ, आनन्दमयी होकर मुझे निरानन्द न करना ।
गो आनंदमयी होये आमाय निरानंद कोरो ना,
गो आनंदमयी होये आमाय निरानंद कोरो ना। 

ओ दुटी चरण बिना आमार मन, अन्य किछु आर जाने ना,
तपन तनय आमाय मंद कय, कि दोष ता तो जानी ना। 

भवानी बोलिये, भबे जाबो चले, मने छिलो एई वासना,
अकूलपाथारे डूबाबे आमारे, स्वपने ओ ता जानि ना। 

अहर्निशि श्रीदूर्गानामे भासि, तोबु दुखराशि गेलो ना,
एबार जोदि मोरे, ओ हरसुंदरी, (तोर) दूर्गानाम केहु आर लोबे ना।
 
गाना - भाविले भावेर उदय होय - 
ভাবিলে ভাবের উদয় হয়!
যেমন ভাব, তেমনি লাভ, মূল সে প্রত্যয়।
যে-জন কালীর ভক্ত জীবন্মুক্ত নিত্যানন্দময় ৷৷
কালীপদ সুদাহ্রদে চিত্ত যদি রয়।
পূজা হোম জপ বলি কিছুই কিছু নয় ৷৷
गाना - “उसका चिन्तन करने पर भाव का उदय होता है । जैसा भाव होता है, फल भी वैसा ही मिलता है । इसकी जड़ विश्वास है । जो काली का भक्त है, उसे तो जीवन्मुक्त कहना चाहिए । वह सदा ही आनन्द में रहता है । अगर उनके चरणरूपी सुधा-सरोवर में चित्त लगा रहा तो समझना चाहिए, उसके लिए पूजा, जप, होम, बलि, ये सब कुछ भी नहीं है ।"
.
श्रीरामकृष्ण ने तीन-चार गाने और गाये -  
गाना - तोदेर खेपार (क्षेपार) हाट-बाजार मा (तारा)।   
कब गुणेर कथा कार मा तोदेर।। 
गज बिने गो आरोहणे फिरिश कदाचार। 
मणि- मुक्ता फेले पोरिस गले नरशिर हार॥ 
श्मशाने- मशाने फिरिश कार बा धारिश धार। 
एबार रामप्रसादके भवघोरे करते हबे पार ॥

गाना - गया गंगा प्रभासादि काशी कांची केबा चाय। 
काली काली काली बोले अजपा जोदि फूराय।। 

त्रिसंध्या जे बोले काली, पूजा संध्या से की चाय। 
संध्या तार संध्याने फेरे, कोभू संधी नाई पाय।।

जप यज्ञ पूजा होम आर किछु ना मने लोय। 
मदनेर याग यज्ञ, ब्रह्ममयीर रांगा पाय।।

कालीनामेर एतो गुण, केबा जानते पारे ताय। 
देवादिदेव महादेव, जार पंचमुखे गुण गाय।।


গান - তোদের খ্যাপার হাট বাজার মা (তারা)।
কব গুণের কথা কার মা তোদের ৷৷
গজ বিনে গো আরোহণে ফিরিস কদাচার।
মণি-মুক্তা ফেলে পরিস গলে নরশির হার ৷৷
শ্মশানে-মশানে ফিরিস কার বা ধারিস ধার।
রামপ্রসাদকে ভবঘোরে করতে হবে পার ৷৷

গান - গয়া গঙ্গা প্রভাসাদি কাশী কাঞ্চী কেবা চায়।
কালী কালী বলে আমার অজপা যদি ফুরায় ৷৷


গান - আপনাতে আপনি থেকো মন, যেও নাকো কারু ঘরে।
যা চাবি তাই বসে পাবি, খোঁজ নিজ অন্তঃপুরে ৷৷

गाना - आपनाते आपनि थेको मन जेओ नाको कारू घरे। 
जा चाबि ता बोशे पाबि, खोंज निज अंत:पूरे ॥

परम धन ओई परश मणि, जा चाबि ता दिते पारे। 
कतो मणि पडे आछे चिन्तामणिर नाच दुआरे॥

तीर्थ-गमन दु:ख भ्रमण मन उचाटन करो ना रे। 
(तुमि) आनन्द-त्रिवेणीर स्नाने शीतल होओ ना मूलाधारे।।

की देख कमलाकांत मिछे बाजी ए संसारे॥
(तुमि) बाजीकरे चिनले नारे, (शे जे) तोमाय घटे विराज करे॥

গান - মজলো আমার মনভ্রমরা শ্যামাপদ নীলকমলে।

गाना - मजलो आमार मन भ्रमरा कालिपद नीलकमले। 
(श्यामापद नीलकमले, कालीपद नीलकमले)

(जतो) विषयमधू तूच्छ होलो कामादि कुसूम सकले l
चरण कालो भ्रमर कालो, कालोय कालो मिशे गेलो।।

पंचतत्व प्रधान मत्त, रंग देखे भंग दिले। 
कमलाकांतेर मने आशा पूर्ण एतो दिने।। 
ताय सुख दुःख समान होलो आनंद-सागर उथले। 

গান - যতনে হৃদয়ে রেখো আদরিণি শ্যামা মাকে।
মন তুই দেখ, আর আমি দেখি, আর যেন কেউ নাহি দেখে ৷৷

गाना -जतने हृदये रेखो आदरिणी श्यामा मा के। 
मन तुई देख आर आमि देखि, आर जेनो केउ नाहि देखे।। 

कामादिरे दिये फाँकी, आय मन विरले देखि। 
रसनारे संगे राखि, से जेनो मा बोले डाके।
(माझे माझे से जेनो मा मा बोले डाके)

कुरुचि कुमंत्री जतो, निकट होते दिओ नाको। 
ज्ञाननयनके प्रहरी रेखो, शे जेनो सावधाने थाके।। 
खुब जेनो सावधाने थाके।   

" Cherish my precious Mother Syama
Tenderly within, O mind;
May you and I alone behold Her,
Letting no one else intrude. . . .

अन्त में जो पद उन्होंने गाया, उसका भाव यह है - "मन ! आदरणीया श्यामा माँ को यत्नपूर्वक हृदय में रखना । तू देख और मैं देखूँ, कोई दूसरा उन्हें न देखने पाये ।” यह गाना गाते हुए श्रीरामकृष्ण जैसे खड़े हो गये । माता के प्रेम में पागल हो गये । 'आदरणीया श्यामा माँ को हृदय में रखना’ यह इतना अंश बार बार भक्तों को गाकर सुना रहे हैं ।

{As the Master sang this last song he stood up. He was almost intoxicated with divine love. Again and again he said to the devotees, "Cherish my precious Mother Syama tenderly within."

ঠাকুর এই গানটি গাইতে গাইতে দণ্ডায়মান হইলেন। মার প্রেমে উন্মত্তপ্রায়! ‘আদরিণী শ্যামা মাকে হৃদয়ে রেখো।’ — এ-কথাটি যেন ভক্তদের বারবার বলিতেছেন।} 

शराब पीकर मतवाले हुए की तरह सब को गाकर सुना रहे हैं -
श्यामा मा कि आमार कालो रे। 
कालो रूप दिगम्बरी , हृदिपद्म करे आलो रे।।   
लोके बोले काली कालो, आमार मन तो बोले ना कालो रे ॥

कखोनो श्वेत कोखोनो पीत कखोनो नील लोहित रे। 
(आमि) आगे नाहि जानि केमोन जननी, भाबिये जनम गेलो रे॥

कखोनो पूरुष कखोनो प्रकृति कखोनो शून्यरूपा रे। 
(मायेर) ए भाब भाबिये कमलाकांत सहजे पागल होलो रे॥


" মা কি আমার কালো রে।
কালোরূপ দিগম্বরী, হৃদিপদ্ম করে আলো রে!


Is Kali, my Mother, really black?
The Naked One, of blackest hue,
Lights the Lotus of the Heart. . . .

 श्रीरामकृष्ण गाते हुए बहुत झूम रहे हैं । यह देख निरंजन उन्हें पकड़ने के लिए बढ़े । श्रीरामकृष्ण ने मधुर स्वरों में कहा – ‘मत छू ।’ श्रीरामकृष्ण को नाचते हुए देखकर भक्तगण उठकर खड़े हो गये । श्रीरामकृष्ण मास्टर का हाथ पकड़कर कहते हैं – ‘नाच ।’

{The Master reeled as he sang. Niranjan came forward to hold him. The Master said to him softly, "Don't touch me, you rascal!" Seeing the Master dance, the devotees stood up. He caught hold of M.'s hand and said: "Don't be foolish! Dance!"
ঠাকুর গাইতে গাইতে বড় টলিতেছেন দেখিয়া নিরঞ্জন তাঁহাকে ধারণ করিতে গেলেন। ঠাকুর মৃদুস্বরে “য়্যাই! শালা ছুঁসনে” বলিয়া বারণ করিতেছেন। ঠাকুর নাচিতেছেন দেখিয়া ভক্তেরা দাঁড়াইলেন। ঠাকুর মাস্টারের হস্ত ধারণ করিয়া বলিতেছেন, “য়্যাই শালা নাচ।”} 

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 
🔆🙏वेदान्तवादी महिमा का भगवान के साथ संकीर्तन और ठाकुर का आनन्द🔆🙏 

[বেদান্তবাদী মহিমার প্রভুসঙ্গে সংকীর্তনে নৃত্য ও ঠাকুরের আনন্দ ]
 
श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे हुए हैं । भाव की पूर्ण मात्रा है – बिलकुल मतवाले हैं ।
भाव का कुछ उपशम होने पर कह रहे हैं - ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ  काली ! भक्तों में से कितने ही खड़े हैं। महिमाचरण खड़े हुए श्रीरामकृष्ण को पंखा झुल रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (महिमाचरण से) - आप लोग बैठिये ।
"आप वेद से जरा कुछ सुनाइये ।"
{“আপনি বেদ থেকে একটু কিছু শুনাও।}

महिमाचरण सुना रहे हैं - जय यज्वमान आदि: 
फिर वे महानिर्वाण तन्त्र (Mahanirvana Tantra ) की स्तुति का पाठ करने लगे –

"ॐ नमस्ते सते ते जगत्कारणाय नमस्ते चिते सर्वलोकाश्रयाय ॥
नमोऽद्वैततत्वाय मुक्तिप्रदाय, नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय ॥
[हे सत्य सनातन जगत् के कारणरूप जगदीश्वर ! तथा सभी लोकों के एकमात्र आश्रय चेतनस्वरूप परमात्मन् ! आपके लिए बार बार मेरा नमस्कार है एवं मुक्ति प्रदान करने वाले अद्वैततत्त्व, नित्य, व्यापक, ब्रह्म आपके लिये मैं नमस्ते करता हूँ।]
त्वमेकं शरण्यं त्वमेकं वरेण्यम् त्वमेकं जगत्पालकं स्वप्रकाशम् ॥
त्वमेकं जगत्कर्तुपातृप्रहर्तृ त्वमेकं परं निश्चलं निर्विकल्पम् ॥
भावार्थ – हे प्रभो ! आप ही हमारे एकमात्र आश्रय हैं, आप ही एकमात्र प्राप्त करने योग्य हैं।आप ही एकमात्र जगत् के पालक हैं।आप स्वयं प्रकाशमान् हैं।आप ही जगत् के उत्पन्नकर्त्ता, पालनकर्त्ता और नाशकर्त्ता हैं।आप महान् हैं, स्थिर हैं और निर्विकार हैं।
भयानां भयं भीषणं भीषणानाम् गतिः प्राणिनां पावनं पावनानाम् ॥
महोच्चैः पदानां नियन्तृ त्वमेकम् परेषां परं रक्षणं रक्षणानाम् ॥
भावार्थ – हे प्रभो ! आप भयों को भय देने वाले हैं।आप ही भीषण से भी भीषण हैं।आप ही सभी प्राणियों की गति हैं।पवित्रों के पवित्रकर्त्ता आप हैं।आप महाराजाओं के महाराज हैं, परे से भी परे हैं और रक्षा करने वालों के भी रक्षक हैं।
वयं त्वां स्मरामो वयं त्वां भजामो वयं त्वां जगत्साक्षिरूपं नमामः ॥
सदेकं निधानं निरालम्बमीशम् भवाम्भोधिपोतं शरण्यं व्रजामः ॥
भावार्थ – हे प्रभो ! हम आपका स्मरण करते हैं, आपकी ही भक्ति करते हैं।जगत् के साक्षी रूप आपको हम नमस्कार करते हैं।हे सर्वाधार प्रभो ! आप किसी की सहायता के बिना स्वयं स्थित हैं।आप इस संसार समुद्र से पार लगाने वाली नाव हैं।हम आपकी शरण में आते हैं।

[Om. I bow to Thee, the Everlasting Cause of the world; I bow to Thee, Pure Consciousness, the Soul that sustains the whole universe. I bow to Thee, who art One without duality, who dost bestow liberation; I bow to Thee, Brahman, the all-pervading  Attributeless Reality. Thou alone art the Refuge, the only Object of adoration; Thou art the only Cause of the universe, the Soul of everything that is; Thou alone art the world's Creator, Thou its Preserver and Destroyer; Thou art the immutable Supreme Lord, the Absolute; Thou art unchanging Consciousness. Dread of the dreadful! Terror of the terrible! Refuge of all beings! Purity of purifiers! Thou alone dost rule over those in the high places, Supreme over the supreme, the Protector of protectors. Almighty Lord, who art made manifest as the Form of all, yet art Thyself unmanifest and indestructible; Thou who art imperceptible to the senses, yet art the very Truth; Incomprehensible, imperishable, all-pervading, hidden, and without form; O Lord! O Light of the Universe! Protect us from harm. On that One alone we meditate; that One is the sole object of our worship; To That alone, the non-dual Witness of the Universe, we bow. In that One who alone exists and who is our sole eternal Support, we seek refuge, The self-dependent Lord, the Vessel of Safety in the ocean of existence.] 
श्रीरामकृष्ण ने हाथ जोड़कर स्तुति सुनी । पाठ हो जाने पर हाथ जोड़कर उन्होंने प्रणाम किया । भक्तों ने भी प्रणाम किया । कलकत्ते से अधर आये । श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - आज खूब आनन्द रहा । महिम चक्रवर्ती भी इधर झुक रहा है । कीर्तन में खूब आनन्द रहा - क्यों ?
मास्टर - जी हाँ ।
महिमाचरण ज्ञानचर्चा करते हैं । महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीदा का जन्म इन्हीं के घर, 100 न ० काशीपुर रोड में हुआ था। ) आज उन्होंने कीर्तन किया है, और नाचे भी हैं । श्रीरामकृष्ण इस बात पर आनन्द प्रकट कर रहे हैं । शाम हो रही है । भक्तों में से बहुतेरे श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर बिदा हुए ।

(४)

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

[প্রবৃত্তি না নিবৃত্তি — অধরের কর্ম]

[Indulgence or cessation - Work of the Adhar ]

🔆🙏*प्रवृत्ति (कर्म योग) या निवृत्ति ? अधर का कर्म *🔆🙏


शाम हो गयी है । दक्षिणवाले लम्बे बरामदे में और पश्चिम के गोल बरामदे में बत्ती जला दी गयी । कुछ देर बाद चन्द्रोदय हुआ । मन्दिर का आँगन, बगीचे के रास्ते, गंगातट, पंचवटी, पेड़ों का ऊपरी हिस्सा, सब कुछ चाँदनी में हँस रहे थे । श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे हुए भावावेश में माता का स्मरण कर रहे हैं । 

अधर आकर बैठे । कमरे में मास्टर और निरंजन भी हैं । श्रीरामकृष्ण अधर के साथ बातचीत कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण-- अजी, तुम अब आये ! कितना कीर्तन और नृत्य हो गया । श्यामदास का कीर्तन था - राम के उस्ताद का । परन्तु मुझे बहुत अच्छा न लगा । उठने की इच्छा भी नहीं हुई । उस आदमी की बात फिर पीछे से मालूम हुई । गोपीदास के साथवाले ने कहा, मेरे सिर पर जितने बाल हैं, उतनी उसकी रखेलियाँ है ! (सब हँसते हैं ।) क्या तुम्हारा काम हुआ ?

अधर डिप्टी हैं । तीन सौ तनख्वाह पाते हैं । उन्होंने कलकत्ता म्यूनिसिपल्टी के वाइस चेअरमैन के लिए अर्जी दी थी । वहाँ हजार रुपये महीने की तनख्वाह है । इसके लिए अधर कलकत्ते के बहुत बड़े-बड़े आदमियों से मिले थे ।
[Adhar held the post of deputy magistrate, a government post that carried with it great prestige. He earned three hundred rupees a month. He had applied for the office of vice-chairman of the Calcutta Municipality. The salary attached to this office was one thousand rupees. In order to secure it, Adhar had interviewed many influential people in Calcutta.] 

(7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏प्रवृत्ति (कर्म योग) से निवृत्ति ही अच्छी है 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर और निरंजन से) - हाजरा ने कहा था, अधर का काम हो जायगा, तुम जरा माँ से कहो । अधर ने भी कहा था । मैंने माँ से कहा था, 'माँ, यह तुम्हारे यहाँ आया-जाया करता है, अगर उसे जगह मिलनी हो तो दे दो - परन्तु इसके साथ ही माँ से मैंने यह भी कहा था कि माँ, इसकी बुद्धि कितनी हीन है ? ज्ञान और भक्ति की प्रार्थना न करके तुम्हारे पास यह सब चाहता है ।
{MASTER (to M. and Niranjan): "Hazra said to me, 'Please pray to the Divine Mother for Adhar, that he may secure the job.' Adhar made the same request to me. I said to the Mother: 'O Mother, Adhar has been visiting You. May he get the job if it pleases You.' But at the same time I said to Her: 'How small-minded he is! He is praying to You for things like that and not for Knowledge and Devotion.'
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টার ও নিরঞ্জনের প্রতি) — হাজরা বলেছিল — অধরের কর্ম হবে, তুমি একটু মাকে বল। অধরও বলেছিল। আমি মাকে একটু বলেছিলাম — ‘মা, এ তোমার কাছে আনাগোনা কচ্ছে, যদি হয় তো হোক না।’ কিন্তু সেই সঙ্গে মাকে বলেছিলাম — ‘মা, কি হীনবুদ্ধি! জ্ঞান, ভক্তি না চেয়ে তোমার কাছে এই সব চাচ্ছে!’

(अधर से) "क्यों नीच प्रकृति के आदमियों के यहाँ इतना चक्कर मारते फिरे ? इतना देखा और समझा, सातों काण्ड रामायण पढ़कर सीता किसकी भार्या थी, इतना भी नहीं समझे ?"
{(অধরের প্রতি) — “কেন হীনবুদ্ধি লোকগুনোর কাছে অত আনাগোনা করলে? এত দেখলে শুনলে! — সাতকাণ্ড রামায়ণ, সীতা কার ভার্যে! অমুক মল্লিক হীনবুদ্ধি। আমার মাহেশে যাবার কথায় চলতি নৌকা বন্দোবস্ত করেছিল, — আর বাড়িতে গেলেই হৃদুকে বলত — হৃদু, গাড়ি রেখেছ?”} 

अधर - संसार में रहने पर इन सब के बिना किये काम भी नहीं चलता । आपने तो मना भी नहीं किया था ।
{ "A man cannot but do these things if he wants to lead a house-holder's life. You haven't forbidden us to, have you?
"অধর — সংসার করতে গেলে এ-সব না করলে চলে না। আপনি তো বারণ করেন নাই?}
 
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 
                                
🔆🙏  "माँ, यहीं से मन को मोड़ दो !🔆🙏  

[श्रीरामकृष्ण की अनूठी प्रार्थना ~ "मा, ओइखानेई मोड़ फिरिये दाओ !

श्रीरामकृष्ण - निवृत्ति ही अच्छी है, प्रवृत्ति अच्छी नहीं । इस अवस्था के बाद मुझे तनख्वाह के बिल पर दस्तखत करने के लिए कहा था ! मैंने कहा, 'यह मुझसे न होगा । मैं तो कुछ चाहता नहीं । तुम्हारी इच्छा हो तो किसी दूसरे को दे दो ।
एकमात्र ईश्वर का दास हूँ - और किसका दास बनूँ ? “मुझे खाने की देर होती थी, इसलिए मल्लिक ने भोजन पकाने के लिए एक ब्राह्मण नौकर रख दिया था। एक महीने में एक रुपया दिया था । तब मुझे लज्जा हुई, उसके बुलाने से ही दौड़ना पड़ता था ! - खुद जाऊँ वह बात दूसरी है ।

. "Nivritti alone is good, and not pravritti. Once, when I was in a God-intoxicated state, I was asked to go to the manager of the Kali temple to sign the receipt for my salary.3 They all do it here. But I said to the manager: 'I cannot do that. I am not asking for any salary. You may give it to someone else if you want.' I am the servant of God alone. Whom else shall I serve? Mallick noticed the late hours of my meals and arranged for a cook. He gave me one rupee for a month's expenses. That embarrassed me. I had to run to him whenever he sent for me. It would have been quite a different thing if I had gone to him of my own accord.

শ্রীরামকৃষ্ণ — নিবৃত্তিই ভাল — প্রবৃত্তি ভাল নয়। এই অবস্থার পর আমার মাইনে সই করাতে ডেকেছিল — যেমন সবাই খাজাঞ্চীর কাছে সই করে। আমি বললাম — তা আমি পারব না। আমি তো চাচ্ছি না। তোমাদের ইচ্ছা হয় আর কারুকে দাও।“এক ঈশ্বরের দাস। আবার কার দাস হব?“ — মল্লিক, আমার খেতে বেলা হয় বলে, রাঁধবার বামুন ঠিক করে দিছল। একমাস একটাকা দিছল। তখন লজ্জা হল। ডেকে পাঠালেই ছুটতে হত। — আপনি যাই, সে এক। “হীনবুদ্ধি লোকের উপাসনা। সংসারে এই সব — আরও কত কি?”} 
"सांसारिक जीवन व्यतीत करने में मनुष्य को न जाने कितने नीच आदमियों को खुश करना पड़ता है, और उसके अतिरिक्त और भी न जाने क्या क्या करना पड़ता है ।
"ऊँची अवस्था प्राप्त होने के पश्चात् तरह तरह के दृश्य मुझे दीख पड़ने लगे । तब माँ से कहा, ‘माँ यहीं से मन को मोड़ दो जिससे मुझे धनी लोगों की खुशामद न करनी पड़े ।
{"In leading the worldly life one has to humour mean-minded people and do many such things. After the attainment of my exalted state, I noticed how things were around me and said to the Divine Mother, 'O Mother, please change the direction of my mind right now, so that I may not have to flatter rich people.'
“এই অবস্থা যাই হলো, রকম-সকম দেখে অমনি মাকে বললাম — মা, ওইখানেই মোড় ফিরিয়ে দাও! — সুধামুখীর রান্না — আর না, আর না — খেয়ে পায় কান্না!” ('सुधामुखीर रान्ना~आर ना , आर ना ~  खेये पाए कान्ना' ~ সকলের হাস্য)

[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 
[बाल्यकाल - कामारपुकुर में ईश्वर घोषाल डिप्टी मजिस्ट्रेट का रुतबा ]
[বাল্য — কামারপুকুরে ঈশ্বর ঘোষাল ডিপুটি দর্শন কথা ]

"जिसका काम कर रहे हो, उसी का करो । लोग सौ पचास रुपये के लिए जी देते हैं, तुम तो तीन सौ महीना पाते हो । उस देश में मैंने डिप्टी देखा था, ईश्वर घोषाल को । सिर पर टोपी - गुस्सा नाक पर; मैंने लड़कपन में उसे देखा था; डिप्टी कुछ कम थोड़े ही होता है ! "जिसका काम कर रहे हो, उसी का करते रहो । एक ही आदमी की नौकरी से जी ऊब जाता है, फिर पाँच आदमियों की नौकरी ?

{(To Adhar) "Be satisfied with the job you have. People hanker after a post paying fifty or a hundred rupees, and you are earning three hundred rupees! You are a deputy magistrate. I saw a deputy magistrate at Kamarpukur. His name was Ishwar Ghoshal. He had a turban on his head. Men's very bones trembled before him. I remember having seen him during my boyhood. Is a deputy magistrate a person to be trifled with? "Serve him whom you are already serving. The mind becomes soiled by serving but one master. And to serve five masters!

“যার কর্ম কচ্ছ, তারই করো। লোকে পঞ্চাশ টাকা একশ টাকা মাইনের জন্য লালায়িত! তুমি তিনশ টাকা পাচ্ছ। ও-দেশে ডিপুটি আমি দেখেছিলাম। ঈশ্বর ঘোষাল। মাথায় তাজ — সব হাড়ে কাঁপে! ছেলেবেলায় দেখেছিলাম। ডিপুটি কি কম গা! যার কর্ম কচ্ছ, তারই করো। একজনের চাকরি কল্লেই মন খারাপ হয়ে যায়, আবার পাঁচজনের।”

"एक स्त्री किसी मुसलमान को देखकर मुग्ध हो गयी थी, उसने उसे मिलने के लिए बुलाया । मुसलमान आदमी अच्छा था, प्रकृति का साधु था । उसने कहा- 'मैं पेशाब करूँगा, अपनी हण्डी ले आऊँ ।' उस स्त्री ने कहा – ‘हण्डी तुम्हें यहीं मिल जायगी, मैं दूंगी तुम्हें हण्डी ।’ उसने कहा - 'ना, सो बात नहीं होगी! जिस हण्डी के पास मैंने एक दफे शर्म खोई, इस्तेमाल तो मैं उसी का करूंगा - नयी हण्डी के पास दोबारा बेईमान न हो सकूँगा ।’ यह कहकर वह चला गया । औरत की भी अक्ल दुरुस्त हो गयी; हण्डी का मतलब वह समझ गयी ।"

{"Once a woman became attached to a Mussalman and invited him to her room. But he was a righteous person; he said to her that he wanted to use the toilet and must go home to get his water-jar for water. The woman offered him her own, but he said: 'No, that will not do. I shall use the jar to which I have already exposed myself. I cannot expose myself before a new one.' With these words he went away. That brought the woman to her senses. She understood that a new water-jar, in her case, signified a paramour."

“একজন স্ত্রীলোক একজন মুছলমানের উপর আসক্ত হয়ে, তার সঙ্গে আলাপ করবার জন্য ডেকেছিল। মুছলমানটি সাধুলোক ছিল, সে বললে — আমি প্রস্রাব করব, আমার বদনা আনতে যাই। স্ত্রীলোকটি বললে — তা এইখানেই হবে, আমি বদনা দিব এখন। সে বললে — তা হবে না। আমি যে বদনার কাছে একবার লজ্জা ত্যাগ করেছি, সেই বদনাই ব্যবহার করব, — আবার নূতন বদনার কাছে নির্লজ্জ হব না। এই বলে সে চলে গেল। মাগীটারও আক্কেল হল। সে বদনার মানে বুঝলে উপপতি।”} 


[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]

🔆🙏पिता की मृत्यु के बाद नरेन्द्र कोई काम करेगा या नहीं 🔆🙏 
[চাকরির নিন্দা, শম্ভু ও মথুরের আদর — নরেন্দ্র হেডমাস্টার ]
[ हंसेश्वरी देवी का भक्त] 

पिता का वियोग हो जाने पर नरेन्द्र को बड़ी तकलीफ हो रही है । माता और भाइयों के भोजन-वस्त्र के लिए वे नौकरी की तलाश कर रहे हैं । विद्यासागर के बहूबाजार वाले स्कूल में कुछ दिनों तक उन्होंने प्रधान शिक्षक (headmaster) का काम किया था ।
अधर - अच्छा, नरेन्द्र कोई काम करेगा या नहीं ?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, वह करेगा । माँ और भाई जो हैं ।
अधर - अच्छा, नरेन्द्र की जरूरत पचास रुपये से भी पूरी हो सकती है और सौ रुपये से भी उसका काम चल सकता है । अब अगर उसे सौ रुपये मिलें तो वह काम करेगा या नहीं ?
श्रीरामकृष्ण - विषयी लोग ही धन का आदर करते हैं । वे सोचते हैं, ऐसी चीज और दूसरी न होगी शम्भू ने कहा - 'यह सारी सम्पत्ति ईश्वर के श्रीचरणों में सौंप जाऊँ, मेरी बड़ी इच्छा है ।' वे (ईश्वर) विषय थोड़े ही चाहते हैं ? वे तो ज्ञान, भक्ति, विवेक, वैराग्य यह सब चाहते हैं । 
"जब श्री राधाकान्त-मन्दिर से गहने चोरी चले गये, तब सेजो बाबू ने कहा - 'क्यों महाराज ! तुम अपने गहने न बचा सके ! हंसेश्वरी देवी # को देखो, किस तरह अपने गहने बचा लिये थे !’

MASTER: "Worldly people think highly of their wealth. They feel that there is nothing like it. Sambhu said, 'It is my desire to leave all my property at the Lotus Feet of God.' But does God care for money? He wants from His devotees knowledge, devotion, discrimination, and renunciation." After the theft of the jewelry from the temple of Radhakanta, Mathur Babu said: 'O God, You could not protect Your own jewelry! What a shame!' How Hanseswari saved!”

{শ্রীরামকৃষ্ণ — বিষয়ীরা ধনের আদর করে, মনে করে, এমন জিনিস আর হবে না।শম্ভু বললে — ‘এই সমস্ত বিষয় তাঁর পাদপদ্মে দিয়ে যাব, এইটি ইচ্ছা’ তিনি কি বিষয় চান? তিনি চান ভক্তি, বিবেক, বৈরাগ্য।“গয়না চুরির সময় সেজোবাবু বললে — ‘ও ঠাকুর! তুমি গয়না রক্ষা করতে পারলে না? হংসেশ্বরী কেমন রক্ষা করেছিল!”

[ माँ हंसेश्वरी देवी #  हंगशेश्वरी - "हँ" शब्द का उच्चारण सांस छोड़ते समय किया जाता है जबकि "सः" शब्द का उच्चारण सांस अंदर लेते समय किया जाता है। "हँ (होंग)" शब्द "शिव" को दर्शाता है और "सः" शब्द "मां शक्ति" को दर्शाता है।  श्चिम बंगाल में हुगली जिले के 
बंडेल- त्रिवेणी अंचल के प्राचीन बाँसबेरिया नामक  शहर में स्थित मां हंसेश्वरी मंदिर एक शानदार सौंदर्य पूर्ण मन्दिर है। प्रसिद्ध माता हंसेश्वरी मंदिर में शिव एवं माता हंसेश्वरी की प्रतिमा संयुक्त रूप से विराजमान हैं। गंगा नदी के किनारे स्थित इस मंदिर में शक्ति स्वरूपा माता हंसेश्वरी काली के रूप में पूजी जाती हैं। 
एक किंवदंती के अनुसार राजा नृसिंह देव राय ने वर्ष 1792 से 1798 के दौरान वाराणसी में रहते हुए मानव प्रणाली में "कुंडलिनी" और "छह चक्रीय केंद्रों (छह चक्रों)" को गहराई से सीखा। ब्रिटेन जाने की अपनी योजना रद्द करके उन्होंने बंसबेरिया में "कुंडलिनी और योग अवधारणाओं" पर आधारित एक मंदिर बनाने का प्रयास किया।  जो  हंसेश्वरी देवी (माता काली का एक रूप) को समर्पित है।  19 वीं सदी में निर्मित यह मंदिर 21 मीटर ऊंचा है और इसमें 13 मीनारें हैं। प्रत्येक मीनार का शिखर कमल के फूल के आकार का है। तांत्रिक सिद्धांतों के अनुसार निर्मित, यह पांच मंजिला मंदिर मानव शरीर की संरचना का अनुसरण करता है - इरा, पिंगला, बजरक्ष, सुषुम्ना और चित्रिणी।]

[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆संन्यासी के लिए कठोर नियम - मथुर के  जागीर 
(estate-भूसम्पत्ति ) लिखने का प्रसंग🔆

"सेजो बाबू ने मेरे नाम एक ताल्लुका लिख देने के लिए कहा था । मैंने काली-मन्दिर से उनकी बात सुनी। सेजो बाबू और हृदय एक साथ सलाह कर रहे थे । मैंने सेजो बाबू से जाकर कहा, 'देखो, ऐसा विचार मत करो । इसमें मेरा बड़ा नुकसान है ।'
{“একখানা তালুক আমার নামে লিখে দেবে (সেজোবাবু) বলেছিল। আমি কালীঘর থেকে শুনলাম। সেজোবাবু আর হৃদে একসঙ্গে পরামর্শ কচ্ছিল। আমি এসে সেজোবাবুকে বললাম, — দেখো, অমন বুদ্ধি করো না! — এতে আমার ভারী হানি হবে!”
 Once he wanted to give me an estate and consulted Hriday about it. I overheard the whole thing from the Kali temple and said to him: 'Please don't harbour any such thought. It will injure me greatly.'}
अधर - जैसी बात आप कह रहे हैं, सृष्टि के आरम्भ से अब तक ज्यादा से ज्यादा छः ही सात ऐसे हुए होंगे ।
श्रीरामकृष्ण - क्यों, त्यागी हैं क्यों नहीं ? ऐश्वर्य का त्याग करने से ही लोग उन्हें समझ जाते हैं । फिर ऐसे भी त्यागी पुरुष हैं, जिन्हें लोग नहीं जानते । क्या उत्तर भारत में ऐसे पवित्र पुरुष नहीं हैं ?
अधर - कलकत्ते में एक को जानता हूँ, वे देवेन्द्र ठाकुर हैं ।
श्रीरामकृष्ण - कहते क्या हो ! - उसने जैसा भोग किया वैसा बहुत कम आदमियों को नसीब हुआ होगा। जब सेजो बाबू के साथ मैं उसके वहाँ गया, तब देखा छोटे छोटे उसके कितने ही लड़के थे - डाक्टर आया हुआ था, नुस्खा लिख रहा था । जिसके आठ लड़के और ऊपर से लड़कियों है, वह ईश्वर की चिन्ता न करे तो और कौन करेगा ? इतने ऐश्वर्य का भोग करके भी अगर वह ईश्वर की चिन्ता न करता तो लोग कितना धिक्कारते !
निरंजन - द्वारकानाथ ठाकुर का सब कर्ज उन्होंने चुका दिया था ।

श्रीरामकृष्ण - चल, रख ये सब बातें । अब जला मत । शक्ति के रहते भी जो बाप का किया हुआ कर्ज नहीं चुकाता, वह भी कोई आदमी है ?
"हाँ, बात यह है कि संसारी लोग बिलकुल डूबे रहते हैं, उनकी तुलना में वह बहुत अच्छा था - उन्हें शिक्षा मिलेगी ।

>>"यथार्थ त्यागी भक्त और संसारी भक्त में बड़ा अन्तर है । यथार्थ संन्यासी - सच्चा त्यागी भक्त - मधुमक्खी की तरह है । मधुमक्खी फूल को छोड़ और किसी चीज पर नहीं बैठती । मधु को छोड़ और किसी चीज का ग्रहण नहीं करती । संसारी भक्त दूसरी मक्खियों के समान होते हैं जो बर्फियों पर भी बैठती हैं और सड़े घावों पर भी । अभी देखो तो वे ईश्वरी भावों में मग्न हैं, थोड़ी देर में देखो तो कामिनी और कांचन को लेकर मतवाले हो जाते हैं ।
{“ঠিক ঠিক ত্যাগীভক্ত আর সংসারীভক্ত অনেক তফাত। ঠিক ঠিক সন্ন্যাসী — ঠিক ঠিক ত্যাগীভক্ত — মৌমাছির মতো। মৌমাছি ফুল বই আর কিছুতে বসবে না। মধুপান বই আর কিছু পান করবে না। সংসারীভক্ত অন্য মাছির মতো, সন্দেশেও বসছে, আবার পচা ঘায়েও বসছে। বেশ ঈশ্বরের ভাবেতে রয়েছে, আবার কামিনী-কাঞ্চন লয়ে মত্ত হয়।
"There is an ocean of difference between a real all-renouncing devotee of God and a householder devotee. A real sannyasi, a real devotee who has renounced the world, is like a bee. The bee will not light on anything but a flower. It will not drink anything but honey. But a devotee leading the worldly life is like a fly. The fly sits on a festering sore as well as on a sweet-meat. One moment he enjoys a spiritual mood, and the next moment he is beside himself with the pleasure of 'woman and gold'.} 
"सच्चा त्यागी भक्त चातक के समान होता है । चातक स्वाति नक्षत्र के जल को छोड़ और पानी नहीं पीता, सात समुद्र और तेरह नदियाँ भले ही भरी रहें । वह दूसरा पानी हरगिज नहीं पी सकता । सच्चा भक्त कामिनी और कांचन को छू भी नहीं सकता, पास भी नहीं रख सकता, क्योंकि कहीं आसक्ति न आ जाय ।"
{“ঠিক ঠিক ত্যাগীভক্ত চাতকের মতো। চাতক স্বাতী নক্ষত্রের মেঘের জল বই আর কিছু খাবে না! সাত সমুদ্র নদী ভরপুর! সে অন্য জল খাবে না! কামিনী-কাঞ্চন স্পর্শ করবে না! কামিনী-কাঞ্চন কাছে রাখবে না, পাছে আসক্তি হয়।”
"A devotee who has really and truly renounced all for God is like the chatak bird. It will drink only the rain-water that falls when the star Svati is in the ascendant. It will rather die of thirst than touch any other water, though all around there may lie seven oceans and rivers full to the brim with water. An all-renouncing devotee will not touch 'woman and gold'. He will not keep 'woman and gold' near him lest he should feel attached."} 

(५) 

[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ]
 
🔆🙏चैतन्यदेव, श्रीरामकृष्ण और लोकमान्यता🔆🙏

अधर - चैतन्य ने भी भोग किया था ।
श्रीरामकृष्ण – (चौंककर) – क्या भोग किया था ?
अधर - उतने बड़े पण्डित थे, कितना मान था !
श्रीरामकृष्ण - दूसरों की दृष्टि में वह मान था, उनकी दृष्टि में कुछ भी नहीं था ।
"मुझे तुम जैसा डिप्टी माने अथवा यह छोटा निरंजन, मेरे लिए दोनों एक हैं, सच कहता हूँ । एक धनी आदमी मेरे वश में रहे ऐसा भाव मेरे मन में नहीं पैदा होता । मनोमोहन ने कहा , 'सुरेन्द्र कहता था, (नाबालिग) राखाल इनके (श्रीरामकृष्ण के) पास रहता है, इसका (अदालत में ) दावा हो सकता है' मैंने कहा, कौन है रे सुरेन्द्र ? जिसकी दरी और तकिया यहाँ है, और जो दस रुपया महीना देता है, उसकी इतनी हिम्मत कि वह ऐसी बातें कहे ?"
{“তুমি আমায় মানো আর নিরঞ্জন মানে, আমার পক্ষে এক — সত্য করে বলছি। একজন টাকাওয়ালা লোক হাতে থাকবে, এ মনে হয় না। মনোমোহন বললে, ‘সুরেন্দ্র বলেছে, রাখাল এঁর কাছে থাকে — নালিশ চলে।’ আমি বললাম, ‘কে রে সুরেন্দ্র? তার সতরঞ্চ আর বালিশ এখানে আছে। আর সে টাকা দেয়’?
MASTER: "It was honour in the sight of others, but nothing to him. Whether you — a deputy magistrate — or this youngster Niranjan honours me, it is all the same to me. And I tell you this truthfully: the idea of controlling a wealthy man never enters my mind. Surendra once said, rather condescendingly (एहसान जताते हुए)  , that Rakhal's father could sue me for letting Rakhal (Rakhal then was a minor.) stay with me. When I heard this from Manomohan, I said: 'Who is this Surendra? How does he dare make a remark like that? He keeps a carpet and pillow here and gives me some money. Is that his excuse for daring to make such an impudent remark?'"
अधर - क्या दस रुपये प्रति महिना देते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - दस रुपये में दो महीने का खर्च चलता है । कुछ भक्त यहाँ रहते हैं, वह भक्तों की सेवा के लिए खर्च देता है । यह उसी के लिए पुण्य है, इसमें मेरा क्या है ? मैं राखाल और नरेन्द्र आदि को प्यार करता हूँ तो क्या किसी अपने लाभ के लिए ?
{শ্রীরামকৃষ্ণ — দশ টাকায় দু মাস হয়। ভক্তেরা এখানে থাকে — সে ভক্তসেবার জন্য দেয়। সে তার পুণ্য, আমার কি? আমি যে রাখাল, নরেন্দ্র এদের ভালবাসি, সে কি কোন নিজের লাভের জন্য?
MASTER: "That covers two months' expenses. The devotees stay here and he gives the money for their service. It is he who earns the merit. What is that to me? Is it for my personal gain that I love Narendra, Rakhal, and the others?"} 
मास्टर - यह प्यार माँ के प्यार की तरह है ।
श्रीरामकृष्ण - माँ फिर भी इस आशा से बहुत कुछ करती है कि नौकरी करके खिलायेगा । मैं जो इन्हें प्यार करता हूँ, इसका कारण यह है कि मैं इन्हें साक्षात् नारायण देखता हूँ - यह बात की बात नहीं है ।
MASTER: "But even behind the mother's love lies her hope that the children will support her later on. But I love these youngsters because I see in them Narayana Himself. These are not mere words.
{শ্রীরামকৃষ্ণ — মা তবু চাকরি করে খাওয়াবে বলে অনেকটা করে। আমি এদের যে ভালবাসি, সাক্ষাৎ নারায়ণ দেখি! — কথায় নয়।

[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

🔆🙏'अनन्याश्चिन्तयन्तो'-जो बिल्कुल निःस्वार्थ है उसका सारा भार ईश्वर लेते हैं 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण (अधर से) --- “सुनो, दिया जलाने पर कीड़ों की कमी नहीं रहती । उन्हें पा लेने पर फिर वे सब बन्दोबस्त कर देते हैं, कोई कमी नहीं रह जाती । वे जब हृदय में आ जाते हैं, तब सेवा करनेवाले बहुत इकट्ठे हो जाते हैं ।
(To Adhar) "Listen. There is no scarcity of moths when the lamp is lighted. When God is realized, He Himself provides everything for His devotees. He sees that they do not lack anything. When God is enshrined in the heart, many people come forward to offer their services.} 
{শ্রীরামকৃষ্ণ (অধরের প্রতি) — শোনো! আলো জ্বাললে বাদুলে পোকার অভাব হয় না! তাঁকে লাভ কল্লে তিনি সব জোগাড় করে দেন — কোন অভাব রাখেন না। তিনি হৃদয়মধ্যে এলে সেবা করবার লোক অনেক এসে জোটে। 
"एक कम उम्र का संन्यासी किसी गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए गया । वह जन्म से ही संन्यासी था । संसार की बातें कुछ न जानता था । गृहस्थ की एक युवती लड़की ने आकर भिक्षा दी । संन्यासी ने कहा, 'माँ, इसकी छाती पर कितने बड़े-बड़े फोड़े हुए हैं ?' उस लड़की की माँ ने कहा, 'नहीं महाराज, इसके पेट से बच्चा होगा, बच्चे को दूध पिलाने के लिए ईश्वर ने इसे स्तन दिये हैं - उन्हीं स्तनों का दूध बच्चा पीयेगा ।' तब संन्यासी ने कहा, "फिर सोच किस बात की है ? मैं अब क्यों भिक्षा माँगू ? जिन्होंने मेरी सृष्टि की है, वे ही मुझे खाने को भी देंगे ।'
Once a young sannyasi went to a householder to beg his food. He had lived as a monk from his very birth; he knew nothing of worldly matters. A young daughter of the householder came out to give him alms. He turned to her mother and said, Mother, has this girl abscesses on her chest?' The mother said: 'No, my child. God has given her breasts to nurse her child when she becomes a mother. Thereupon the sannyasi said: "Then why should I worry about myself? Why should I beg my food? He who has created me will certainly feed me.} 
{“একটি ছোকরা সন্ন্যাসী গৃহস্থবাড়ি ভিক্ষা করতে গিছিল। সে আজন্ম সন্ন্যাসী। সংসারের বিষয় কিছু জানে না। গৃহস্থের একটি যুবতী মেয়ে এসে ভিক্ষা দিলে। সন্ন্যাসী বললে, মা এর বুকে কি ফোঁড়া হয়েছে? মেয়েটির মা বললে, না বাবা! ওর পেটে ছেলে হবে বলে ঈশ্বর স্তন করে দিয়েছেন — ওই স্তনের দুধ ছেলে খাবে। সন্ন্যাসী তখন বললে, তবে আর ভাবনা কি? আমি আর কেন ভিক্ষা করব? যিনি আমায় সৃষ্টি করেছেন তিনি আমায় খেতে দেবেন।
"सुनो, जिस यार के लिए सब कुछ छोड़कर स्त्री चली आयी है, उससे मौका आने पर वह अवश्य कह सकती है कि तेरी छाती पर चढ़कर भोजन-वस्त्र लूँगी ।
"Listen If a woman renounces everything for her paramour, she can say to him, if need be, You wretch! I shall sit on your chest and devour you.' 
{“শোনো! যে উপপতির জন্য সব ত্যাগ করে এল, সে বলবে না; শ্যালা, তোর বুকে বসব আর খাব।”
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 

[तोतापुरी की कहनी - राजा की साधुसेवाकाशी के दुर्गामन्दिर के निकट 
नानकपन्थी मठ के महन्त के साथ 1868 ई ० में ठाकुर का साक्षात्कार ] 
তোতাপুরীর গল্প — রাজার সাধুসেবা — ৺কাশীর দুর্গাবাড়ির নিকট নানকপন্থীর মঠে
ঠাকুরের মোহন্তদর্শন ১৮৬৮ খ্রীঃ ]

"न्यांगटा कहता था कि एक राजा ने सोने की थाली और सोने के गिलास में साधुओं को भोजन कराया था । काशी में मैंने देखा, बड़े-बड़े महन्तों का बड़ा मान है - कितने ही पश्चिम के अमीर हाथ जोड़े हुए उनके सामने खड़े थे और कह रहे थे - कुछ आज्ञा हो ।
“परन्तु जो सच्चा साधु है - यथार्थ त्यागी है, वह न तो सोने की चाली चाहता है और न मान । परन्तु यह भी है कि ईश्वर उनके लिए किसी बात की कमी नहीं रखते । उन्हें पाने के लिए प्रयत्न करते हुए जिसे जिस चीज की जरूरत होती है, वे पूरी कर देते हैं ।
Nangta told me of a certain king who gave a feast to the sadhus, using plates and tumblers of gold. I noticed in the monasteries at Benares with what great respect the abbots were treated. Many wealthy up-country people stood before them with folded hands, ready to obey their commands. But a true sadhu, a man who has really renounced everything, seeks neither a gold plate nor honour. God sees that he lacks nothing. God gives the devotee everything that is needed for realizing Him.} 
{“ন্যাংটা বললে, কোন রাজা সোনার থালা, সোনার গেলাস দিয়ে সাধুদের খাওয়ালে। কাশীতে মঠে দেখলাম, মোহন্তর কত মান — বড় বড় খোট্টারা হাত জোড় করে দাঁড়িয়ে আছে, আর বলছে, কি আজ্ঞা!“ঠিক ঠিক সাধু — ঠিক ঠিক ত্যাগী সোনার থালও চায় না, মানও চায় না। তবে ঈশ্বর তাদের কোন অভাব রাখেন না! তাঁকে পেতে গেলে যা যা দরকার, সব জোগাড় করে দেন। (সকলে নিঃশব্দ)
"आप हाकिम हैं - क्या कहूँ - जो कुछ अच्छा समझो, वही करो । मैं तो मूर्ख हूँ ।”
\(To Adhar) "You are an executive officer. What shall I say to you? Do whatever you think best. I am an illiterate person."}
{“আপনি হাকিম — কি বলবো! — যা ভালো বোঝ তাই করো। আমি মূর্খ।
अधर - (हँसते हुए, भक्तों से) - क्या ये मेरी परीक्षा ले रहे हैं ?
Adhar (smiling, to the devotees): "Now he is examining me."}
{অধর (সহাস্যে, ভক্তদিগকে) — উনি আমাকে এগজামিন কচ্ছেন। 
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - निवृत्ति  ही अच्छी है । (वैराग्य, अनासक्ति या  विकाररहित स्थिति dispassion, Detachment or non-attachment, ही अच्छी है ।) देखो न, मैंने दस्तखत नहीं किये । ईश्वर ही वस्तु है और सब अवस्तु ।
MASTER (smiling). "Dispassion alone is good. Do you see, I didn't sign the receipt tor my salary? God alone is real and all else is illusory."}
{শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — নিবৃত্তিই ভাল। দেখ না আমি সই কল্লাম না। ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু!
हाजरा भक्तों के पास जमीन पर आकर बैठे । हाजरा कभी कभी 'सोऽहम-सोऽहम्' किया करते हैं। वे लाटू आदि भक्तों से कहते है - 'उनकी पूजा करके क्या होता है ? उन्हीं की वस्तु उन्हें दी जाती है ।’ एक दिन उन्होंने नरेन्द्र से भी यही बात कही थी ।
{Hazra entered the room and sat with the devotees on the floor. Hazra repeated now and then, "Soham! Soham!, I am He! I am He!" To Latu and other devotees he often said: "What does one gain by worshipping God with offerings? That is merely giving Him things that are His already." He had said this once to Narendra.
হাজরা আসিয়া ভক্তদের কাছে মেঝেতে বসিলেন। হাজরা কখন কখন সোঽহং সোঽহম্‌ করেন! লাটু প্রভৃতি ভক্তদের বলেন, তাঁকে পূজা করে কি হয়! — তাঁরই জিনিস তাঁকে দেওয়া। একদিন নরেন্দ্রকেও তিনি ওই কথা বলিয়াছিলেন। ঠাকুর হাজরাকে বলিতেছেন।}
 श्रीरामकृष्ण हाजरा से कह रहे हैं –“लाटू से मैंने कहा था, कौन किसकी भक्ति करता है ।”
हाजरा - भक्त आप ही अपने को पुकारता है ।
The Master spoke to him. MASTER: "I explained to Latu who the object of the devotee's worship is." 
HAZRA: "The devotee really prays to his own Self."
শ্রীরামকৃষ্ণ (হাজরার প্রতি) — লাটুকে বলেছিলাম, কে কারে ভক্তি করে।
হাজরা — ভক্ত আপনি আপনাকেই ডাকে।
श्रीरामकृष्ण - यह तो बड़ी ऊँची बात है । महाराज बलि से वृन्धावलि ने कहा था, तुम ब्रह्मण्य देव को क्या धन दोगे ?"तुम जो कुछ कहते हो, उसी के लिए साधन-भजन तथा उनके नाम और गुणों का कीर्तन है ।
{MASTER: "What you say is a very lofty thought. The aim of spiritual discipline, of chanting Gods name and glories, is to realize just that. 
শ্রীরামকৃষ্ণ — এ তো খুব উঁচু কথা। বলি রাজাকে বৃন্ধাবলী বলেছিলেন, তুমি ব্রহ্মণ্যদেবকে কি ধন দেবে? “তুমি যা বলছ, ওইটুকুর জন্যই সাধন-ভজন — তাঁর নামগুণগান।
"अपने भीतर अगर दर्शन हो जायँ तब तो सब हो गया । उसके देखने के लिए ही साधना की जाती है । और उसी साधना के लिए शरीर है । जब तक सोने की मूर्ति नहीं ढल जाती तब तक मिट्टी के साँचे की जरूरत रहती है । सोने की मूर्ति के बन जाने पर मिट्टी का साँचा फेंक दिया जाता है । ईश्वर के दर्शन हो जाने पर शरीर का त्याग किया जा सकता है ।
A man attains everything when he discovers his true Self in himself. The object of sadhana is to realize that. That also is the purpose of assuming a human body. One needs the clay mould as long as the gold image has not been cast; but when the image is made, the mould is thrown away. The body may be given up after the realization of God.} 
“আপনার ভিতর আপনাকে দেখতে পেলে তো সব হয়ে গেল! ওইটি দেখতে পাবার জন্যই সাধনা। আর ওই সাধনার জন্যই শরীর। যতক্ষণ না স্বর্ণপ্রতিমা ঢালাই হয়, ততক্ষণ মাটির ছাঁচের দরকার হয়। হয়ে গেলে মাটির ছাঁচটা ফেলে দেওয়া যায়। ঈশ্বরদর্শন হলে শরীরত্যাগ করা যায়।
“वे केवल अन्तर में ही नहीं है, बाहर भी हैं । काली मन्दिर में माँ ने मुझे दिखाया, सब कुछ चिन्मय है । माँ स्वयं सब कुछ बनी हैं - प्रतिमा, मैं, पूजा की चीजें, पत्थर - सब चिन्मय हैं ।
"इसका साक्षात्कार करने के लिए ही साधन-भजन, नाम-गुण-कीर्तन आदि सब हैं ।
"God is not only inside us; He is both inside and outside. The Divine Mother showed me in the Kali temple that everything is Chinmaya, the Embodiment of Spirit; that it is She who has become all this — the image, myself, the utensils of worship, the door-sill, the marble floor. Everything is indeed Chinmaya.
“তিনি শুধু অন্তরে নয়। অন্তরে বাহিরে! কালীঘরে মা আমাকে দেখালেন সবই চিন্ময়! — মা-ই সব হয়েছেন! — প্রতিমা, আমি, কোশা, চুমকি, চৌকাট, মার্বেল পাথর, — সব চিন্ময়!
 इसके लिए ही उनकी भक्ति करना है । वे लोग (लाटू आदि) अभी साधारण भावों को लेकर हैं - अभी उतनी ऊँची अवस्था नहीं हुई । वे लोग भक्ति लेकर हैं । और उनसे 'सोऽहम्' आदि बातें मत कहना ।"
{"The aim of prayer, of spiritual discipline, of chanting the name and glories of God, is to realize just that. For that alone a devotee loves God. These youngsters (Referring to Latu and the others.) are on a lower level; they haven't reached a high spiritual state. They are following the path of bhakti. Please don't tell them such things as 'I am He'. 
“এইটি সাক্ষাৎকার করবার জন্যই তাঁকে ডাকা — সাধন-ভজন — তাঁর নামগুন-কীর্তন। এইটির জন্যই তাঁকে ভক্তি করা। ওরা (লাটু প্রভৃতি) এমনি আছে — এখনও অত উচ্চ অবস্থা হয় নাই। ওরা ভক্তি নিয়ে আছে। আর ওদের (সোঽহম্‌ ইত্যাদি) কিছু বলো না।”
"जैसे माँ पक्षी अपने बच्चों के बारे में सोचती है, श्री रामकृष्ण अपने भक्तों की रक्षा के लिए सतर्क थे।
"Like the mother bird brooding over her chicks, Sri Ramakrishna was alert to protect his devotees.} 
পাখি যেমন শাবকদের পক্ষাচ্ছাদন করিয়া রক্ষা করে, দয়াময় গুরুদেব ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ সেই রূপে ভক্তদের রক্ষা করিতেছেন!
अधर और निरंजन जलपान करने के लिए बरामदे में गये । मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास जमीन पर बैठे हुए हैं ।
Adhar and Niranjan went out on the porch to take refreshments. Presently they returned to the room.
অধর ও নিরঞ্জন জলযোগ করিতে বারান্দায় গেলেন। জল খাইয়া ঘরে ফিরিলেন। মাস্টার ঠাকুরের কাছে মেঝেতে বসিয়া আছেন।
[ (7 सितंबर, 1884) :श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 89 ] 
[चार पास (four university degrees ) ब्राह्म लड़के की कहानी
 - "उसके साथ फिर से बहस करना"]
अधर - (सहास्य) - हम लोगों की इतनी बातें हो गयीं, ये (मास्टर) तो कुछ भी न बोले ।
ADHAR (smiling): "We talked about so many things. (Pointing to M.) But he didn't utter a word."
অধর (সহাস্যে) — আমাদের এত কথা হল, ইনি (মাস্টার) একটিও কথা কন নাই।
श्रीरामकृष्ण - केशव के दल का एक लड़का - वह चार परीक्षाएँ पास कर चुका था - सब को मेरे साथ तर्क करते हुए देखकर बस मुस्कराता था और कहता था, इनसे भी तर्क ! मैंने केशव सेन के यहाँ एक बार और उसे देखा था, परन्तु तब उसका वह चेहरा न रह गया था ।
MASTER: "In Keshab's organization there was a young man with four university degrees. He laughed when he saw people arguing with me. He said: 'To argue with him! How silly!' I saw him again, later on, at one of Keshab's meetings. But then he did not have the same bright complexion."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশবের দলের একটি চারটে পাস করা ছোকরা (বরদা?), সব্বাই আমার সঙ্গে তর্ক করছে, দেখে — কেবল হাসে। আর বলে, এঁর সঙ্গে আবার তর্ক! কেশব সেনের ওখানে আর-একবার তাকে দেখলাম — কিন্তু তেমন চেহারা নাই।
विष्णुमन्दिर के पुजारी राम चक्रवर्ती श्रीरामकृष्ण के कमरे में आये । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "देखो राम ! तुमने क्या दयाल से मिश्री की बात कही है ? नहीं-नहीं, इसके कहने की जरूरत नहीं है । बड़ी बड़ी बातें हो गयी हैं ।"
রাম চক্রবর্তী, বিষ্ণুঘরের পূজারী, ঠাকুরের ঘরে আসিলেন। ঠাকুর বলিতেছেন — “দেখো রাম! তুমি কি দয়ালকে বলেছ মিছরির কথা? না, না, ও আর বলে কাজ নাই। অনেক কথা হয়ে গেছে।
[ठाकुर के रात का भोजन - "मैं सब लोगों की चीजें नहीं खा सकता"]
रात में श्रीरामकृष्ण काली के प्रसाद की दो-एक पूड़ियों तथा सूजी की खीर खाते हैं । श्रीरामकृष्ण जमीन पर, आसन पर प्रसाद पाने के लिए बैठे । पास ही मास्टर बैठे हुए हैं, लाटू भी कमरे में हैं । भक्तगण सन्देश तथा कुछ मिठाइयाँ ले आये थे  एक सन्देश लेते ही श्रीरामकृष्ण ने कहा, यह किसका सन्देश है? इतना कहकर खीरवाले कटोरे से निकालकर उन्होंने वह नीचे डाल दिया । (मास्टर और लाटू से) - "यह मैं सब जानता हूँ । आनन्द चैटर्जी का लड़का ले आया है जो घोषपाड़ा-वाली औरत के पास जाता है ।"
Sri Ramakrishna sat on the floor for his supper. It was a light meal of a little farina pudding and one or two luchis that had been offered in the Kali temple. M. and Latu were in the room. The devotees had brought various sweets for the Master. He touched a sandesh and asked Latu, "Who is the rascal that brought this?" He took it out of the cup and left it on the ground. He said to Latu and M.: "I know all about him. He is immoral."
রাত্রে ঠাকুরের আহার একখানি-দুখানি মা-কালীর প্রসাদী লুচি ও একটু সুজির পায়েস। ঠাকুর মেঝেতে আসনে সেবা করিতে বসিয়াছেন। কাছে মাস্টার বসিয়া আছেন, লাটুও ঘরে আছেন। ভক্তেরা সন্দেশাদি মিষ্টান্ন আনিয়াছিলেন। সন্দেশ একটি স্পর্শ করিয়া ঠাকুর লাটুকে বলিতেছেন — ‘এ কোন্‌ শালার সন্দেশ?’ — বলিয়াই সুজির পায়েসের বাটি হইতে নিচে ফেলিয়া দিলেন। (মাস্টার ও লাটুর প্রতি) ‘ও আমি সব জানি। ওই আনন্দ চাটুজ্যেদের ছোকরা এনেছে — যে ঘোষপাড়ার মাগীর কাছে যায়।
 लाटू ने एक दूसरी बर्फी देने के लिए पूछा ।
LATU: "Shall I give you this sweet?"
লাটু — এ গজা দিব?
श्रीरामकृष्ण - किशोरी लाया है ।
MASTER: "Kishori brought it."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কিশোরী এনেছে।
लाटू - क्या इसे दूँ ?
LATU: "Will it suit you?"}
লাটু — এ আপনার চলবে?
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) – हाँ ।
MASTER (smiling): "Yes."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাঁ।
मास्टर अंग्रेजी पढ़े हुए हैं । श्रीरामकृष्ण उनसे कहने लगे –"सब लोगों की चीजें नहीं खा सकता । क्या यह सब तुम मानते हो ?"
{M. had received an English education. Sri Ramakrishna said to him: "It is not possible for me to eat things offered by anyone and everyone. Do you believe this?"}
মাস্টার ইংরেজী পড়া লোক। — ঠাকুর তাঁহাকে বলিতেছেন — “সকলের জিনিস খেতে পারি না! তুমি এ-সব মানো?”
मास्टर - देखता हूँ, सब धीरे धीरे मानना पड़ेगा ।
M: "Gradually I shall have to believe all these things."
মাস্টার — আজ্ঞা, ক্রমে সব মানতে হবে।
MASTER: "Yes, that is so."
श्रीरामकृष्ण पश्चिमवाले गोल बरामदे में हाथ धोने के लिए गये । मास्टर हाथ पर पानी छोड़ रहे हैं ।
शरत्काल है । चाँद निकला हुआ है । आकाश निर्मल है । भागीरथी का हृदय स्वच्छ दर्पण के समान झलक रहा है; भाटे का समय है, भागीरथी दक्षिण की ओर बह रही हैंमुँह धोते हुए श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं - 'तो नारायण को रुपया दोगे न ?' मास्टर - 'जी हाँ, जैसी आज्ञा, जरूर दूंगा ।
After finishing the meal Sri Ramakrishna washed his mouth. He said to M., "Then will you give the rupee to Naran?" "Yes," said M., "certainly I will."
ঠাকুর পশ্চিমদিকের গোল বারান্দাটিতে হাত ধুইতে গেলেন। মাস্টার হাতে জল ঢালিয়া দিতেছেন।শরৎকাল। চন্দ্র উদয় হওয়াতে নির্মল আকাশ ও ভাগীরথীবক্ষ ঝকমক করিতেছে। ভাটা পড়িয়াছে — ভাগীরথী দক্ষিণবাহিনী। মুখ ধুইতে ধুইতে মাস্টারকে বলিতেছেন, তবে নারাণকে টাকাটি দেবে?
মাস্টার — যে আজ্ঞা, দেব বইকি?
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सोमवार, 18 मार्च 2024

$🕊🏹परिच्छेद 128~संसारी लोगों के प्रति उपदेश* 🕊🏹 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]🔱हम लोग संसार में इसलिए आये हैं कि ईश्वर के पादपद्मों में भक्ति हो । 🙏 सेव्य और सेवक भाव ही अच्छा है । 'मैं वही हूँ' इस तरह की बुद्धि अच्छी नहीं 🙏किसी किसी मनुष्य में उनका प्रकाश अधिक है 🙏 ईश्वर के साथ आलाप, उनमें आत्मीयों जैसा भाव अगर हो तो वह विज्ञान है ।🙏अज्ञान-नाश के बाद फिर ज्ञान और अज्ञान दोनों को फेंक देना होता है । तब विज्ञान की अवस्था आती है 🙏 ईश्वर ही सत्य हैं, और सब दो दिन के लिए है । 🙏संसार में है क्या ? बस अमड़ा की गुठली चाटना ही है।🙏 पहले ईश्वर को प्राप्त करो, फिर जो कुछ जानने की तुम्हारी इच्छा होगी, वे तुम्हें बतला देंगे । 🙏🙏 🙏 ।

  *परिच्छेद -128 *

*संसारी लोगों के प्रति उपदेश*

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

(१)

🔱🙏‘ आम खाओ ’🔱🙏

आज बृहस्पतिवार है । आश्विन की कृष्णा षष्ठी, 29 अक्टूबर, 1885 । श्रीरामकृष्ण बीमार हैं । श्यामपुकुर में हैं । डाक्टर सरकार चिकित्सा कर रहे हैं । उनका मकान शाँखारिटोला में है । श्रीरामकृष्ण की हालत प्रति दिन कैसी रहती है, इसकी खबर लेकर डाक्टर के यहाँ रोज आदमी भेजा जाता है । दिन के दस बजे का समय होगा, कलकते में डा. सरकार के मकान पर मास्टर श्रीरामकृष्ण की हालत बताने के लिए आ पहुँचे । 

डाक्टर - देखो, डा. बिहारी भादुड़ी की एक धुन है ! कहता है, गटे (एक विख्यात जर्मन लेखक) की 'स्पिरिट'(सूक्ष्म शरीर) निकल गयी और गटे स्वयं उसे देख रहा था ! कितने आश्चर्य की बात है!

मास्टर - श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं, इन सब बातों से हमें क्या मतलब ? हम लोग संसार में इसलिए आये हैं कि ईश्वर के पादपद्मों में भक्ति हो । वे कहते हैं, एक आदमी एक बगीचे में आम खाने के लिए गया था । वह एक कागज और पेन्सिल लेकर कितने पेड़ हैं, कितनी डालियाँ हैं, कितने पत्ते हैं, गिन-गिनकर लिखने लगा ।

बगीचे के एक आदमी से उसकी भेंट हुई । उस आदमी ने पूछा, 'यह तुम क्या कर रहे हो ? - और यहाँ तुम आये भी क्यों ?' तब उसने कहा, 'यहाँ कितने पेड़ हैं, कितनी डालियाँ हैं, कितने पत्ते हैं, यही गिन रहा हूँ । यहाँ आम खाने के लिए आया हूँ ।' बगीचे के आदमी ने कहा, ‘आम खाने आये हो तो आम खा जाओ, - कितने पत्ते हैं, कितनी डालियाँ हैं, इन सब बातों से तुम्हें क्या काम ?’

डाक्टर - देखता हूँ , परमहंस ने सार पदार्थ ग्रहण किया है ।

फिर डाक्टर अपने होमिओपैथिक अस्पताल के सम्बन्ध में बहुतसी बातें कहने लगे । कितने रोगी रोज आते हैं उनकी तालिका दिखलायी, और कहा, 'पहले पहल डाक्टरों ने मुझे निरुत्साहित कर दिया था । वे लोग अनेक मासिक पत्रों में भी मेरे विरोध में लिखते थे’ – आदि ।

डाक्टर गाड़ी पर बैठे । साथ मास्टर भी चढ़े । डाक्टर रोगियों को देखते हुए जाने लगे । पहले चोरबागान, फिर माथाघसा गली, फिर पथरियाघट्टा, सब जगह के रोगियों को देखकर श्रीरामकृष्ण को देखने जायेंगे । डाक्टर पथरियाघट्टा में ठाकुरों के एक मकान में गये । वहाँ कुछ देर हो गयी । गाड़ी में आकर फिर गप्प लड़ाने लगे ।

डाक्टर - इस बाबू के साथ मेरी श्रीरामकृष्णदेव के बारे में बातचीत हुई, थियॉसफी की बातचीत हुई और फिर कर्नल अलकट की । इस बाबू से श्रीरामकृष्णदेव नाराज रहते हैं । इसका कारण जानते हो ? यह बाबू कहता है, ‘मैं सब जानता हूँ ।’

मास्टर - नहीं, नाराज क्यों होंगे ? परन्तु इतना मैंने भी सुना है कि एक बार भेंट हुई थी । श्रीरामकृष्णदेव ईश्वर की बातचीत कर रहे थे । तब इन्होंने कहा था, 'हाँ, यह सब मैं जानता हूँ ।' 

डाक्टर - इस बाबू ने विज्ञान परिषद को 32,500 रुपये का दान दिया है ।

गाड़ी चलने लगी । बड़ाबाजार होकर लौट रही है । डाक्टर श्रीरामकृष्ण की सेवा के सम्बन्ध में बातचीत करने लगे ।

डाक्टर - तुम लोगों की क्या यह इच्छा है कि इन्हें दक्षिणेश्वर भेज दिया जाय ?

मास्टर - नहीं, इससे भक्तों को बड़ी असुविधा होगी । कलकत्ते में रहने से हर समय आना-जाना लगा रह सकता है - देखने में सुविधा होती ।

डाक्टर - यहाँ खर्च तो बहुत हो रहा होगा ।

मास्टर - इसके लिए भक्तों को कोई कष्ट नहीं है । वे लोग जिस प्रकार भी सवा हो सके यही चेष्टा कर रहे हैं । खर्च तो यहाँ भी है, वहाँ भी है । वहाँ जाने पर हम लोग हमेशा देख नहीं सकेंगे, यही एक चिन्ता की बात है ।

*(२)

 [ (29 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-128 ]

🔱🙏संसार का स्वरूप तथा ईश्वरलाभ का उपाय🔱🙏

डाक्टर और मास्टर श्यामपुकुर के दुमँजले मकान में गये । उस मकान के ऊपर बाहरवाले बारामदे में दो कमरे हैं । एक की लम्बाई पूर्व और पश्चिम की ओर है, दूसरे की उत्तर और दक्षिण की ओर । इनमें से पहलेवाले कमरे में जाकर उन्होंने देखा, श्रीरामकृष्ण प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए हैं । पास में डाक्टर भादुड़ी तथा दूसरे भक्त हैं ।

डाक्टर ने नाड़ी देखी । पीड़ा का सब हाल उन्होंने पूछकर मालूम किया । क्रमशः ईश्वर के सम्बन्ध में बातचीत होने लगी ।
भादुड़ी - बात जानते हो, क्या है ? सब स्वप्नवत् ।

डाक्टर - सब कुछ भ्रम है । परन्तु किसको भ्रम है और क्यों भ्रम है ? और सब लोग भ्रम जानकर भी फिर बातचीत क्यों करते हैं ? ‘ईश्वर सत्य है और उसकी सृष्टि मिथ्या है’ इसमें में विश्वास नहीं कर सकता

श्रीरामकृष्ण - 'तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ’ यह बड़ा सुन्दर भाव है । जब तक यह बोध है कि देह सत्य है, जब तक 'मैं' और 'तुम' का भाव बना हुआ है, तब तक सेव्य और सेवक भाव ही अच्छा है । 'मैं वही हूँ' इस तरह की बुद्धि अच्छी नहीं 

अच्छा, मैं तुम्हें एक और बात बताऊँ ? किसी कमरे को चाहे तुम एक किनारे से देखो या कमरे के भीतर से देखो, कमरा वही है ।"

भादुड़ी - (डाक्टर से) - ये सब बातें वेदान्त में हैं । शास्त्र पढ़ो, तब समझोगे ।

डाक्टर – क्यों ? क्या ये शास्त्रों को पढ़कर विद्वान् हुए हैं ? और यही बात तो ये भी कहते हैं । क्या बिना शास्त्रों को पढ़े हो नहीं सकता ?

श्रीरामकृष्ण - अजी, पर मैंने कितने शास्त्र सुने हैं !

डाक्टर - केवल सुनने से बहुतसी भूलें रह सकती हैं । आपने केवल सुना ही नहीं ! फिर दूसरी बातचीत होने लगी ।

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - मैंने सुना है, तुम कहते हो कि मैं (श्रीरामकृष्ण) पागल हूँ । इसी से ये लोग (मास्टर आदि की ओर इशारा करके) तुम्हारे पास नहीं जाना चाहते ।

डाक्टर - (मास्टर की ओर देखकर) - मैं इन्हें पागल क्यों कहने लगा ? "परन्तु हाँ इनके अहंकार की बात अवश्य कही थी । भला ये आदमियों को पैरों की धूल क्यों लेने देते हैं ?"

मास्टर - नहीं तो लोग रोने लगते हैं ।

डाक्टर - वह उनकी भूल है, उन्हें समझना चाहिए ।

मास्टर – उनके चरणों की धूल क्यों न ली जाए ? सर्वभूतों में क्या नारायण नहीं हैं ?

डाक्टर - इसके लिए मुझे कोई आपत्ति नहीं । तो फिर तुम्हें सब के पैरों की धूल लेनी चाहिए ।

मास्टर - किसी किसी मनुष्य में उनका प्रकाश अधिक है । पानी सब जगह है, परन्तु तालाब में, नदी में, समुद्र में वह अधिक है । आप फैराडे को जितना मानियेगा, उतना ही क्या किसी नये 'बैचलर ऑफ साइन्स' (Bachelor of Science) को भी मानियेगा ?

डाक्टर - हाँ, यह मैं मानता हूँ । परन्तु ईश्वर को बीच में क्यों लाते हो ?

मास्टर - हम लोग एक दूसरे को नमस्कार इसलिए करते हैं कि सब के हृदय में ईश्वर का वास है । इन विषयों को आपने न तो अधिक पढ़ा है और न इन पर विचार ही किया है ।

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - किस किसी वस्तु में उनका प्रकाश अधिक है । तुमसे तो मैंने कहा, सूर्य की किरणें मिट्टी में गिरती हैं तो प्रकाश एक तरह का होता है, पेड़ों में और तरह का, फिर आईने में एक दूसरा ही प्रकाश देखने को मिलता है । देखो न, प्रह्लाद आदि और ये लोग क्या बराबर हैं ? प्रह्लाद का जीवन और मन, सर्वस्व ही ईश्वर को अर्पित हो चुका था ।

डाक्टर चुप हो रहे । सब लोग चुप हैं । 

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - देखो, यहाँ के लिए (स्वयं को इंगित करके) तुम्हारे हृदय में कुछ प्रेम का आकर्षण है । तुमने मुझसे कहा था कि तुम मुझे चाहते हो ।

डाक्टर - तुम प्रकृति के शिशु हो, इसीलिए इतना कहता हूँ । लोग पैरों पर हाथ रखकर नमस्कार करते हैं, इससे मुझे कष्ट होता है । मैं सोचता हूँ, ऐसे भले आदमी को भी ये लोग बिगाड़ रहे हैं । केशव सेन को उसके चेलों ने ऐसे ही बिगाड़ा था । तुम्हें यह बतलाता हूँ, सुनो –

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारी बात मैं क्या सुनूँ ? तुम 'लोभी, कामी और अहंकारी' हो ! 

भादुड़ी - (डाक्टर से) - अर्थात् तुममें जीवत्व है । जीवों का धर्म यही है – रुपया-पैसा, मान-मर्यादा का लोभ, काम और अहंकार । सब जीवों (embodied beings) का यही धर्म-लक्षण है

डाक्टर - ऐसा अगर कहो तो बस तुम्हारे गले की बीमारी देखकर चला जाया करूँगा । दूसरी बातों की आवश्यकता न रह जायगी । तर्क अगर करना होगा तो ठीक ही ठीक कहूँगा । 

 सब चुप हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर भादुड़ी से बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - बात यह है कि ये (डा. सरकार) इस समय नेति-नेति करके अनुलोम में जा रहे हैं । जब विलोम में आएंगे तब सब मानेंगे ।

"केले के खोल निकालते रहने से उसका माझा मिलता है । 

"खोल एक अलग चीज है और माझा एक अलग चीज । न माझा को कोई खोल कह सकता है और न खोल को माझा, परन्तु अन्त में आदमी देखता है, खोल का ही माझा है और माझे का ही खोल । चौबीसों तत्त्व वे ही हुए हैं और मनुष्य भी वे ही हुए हैं

(डाक्टर से) भक्त तीन तरह के हैं - अधम भक्त, मध्यम भक्त और उत्तम भक्त । अधम भक्त कहता है, 'ईश्वर वहाँ दूर हैं ; सृष्टि अलग है, ईश्वर अलग है ।' मध्यम भक्त कहता है, 'वे अन्तर्यामी हैं, वे हृदय में हैं ।' वह हृदय के भीतर ईश्वर को देखता है । उत्तम भक्त देखता है, वे ही यह सब हुए हैं, चौबीसों तत्त्व वे ही हुए हैं । वह देखता है, ईश्वर ऊर्ध्व और अधोभाग में पूर्ण रूप से विराजमान हैं

"तुम गीता, भागवत, वेदान्त आदि पढ़ो तो सब समझ सकोगे ।

"क्या ईश्वर इस सृष्टि में नहीं हैं ?"

डाक्टर - नहीं, वे सब जगह हैं, और इसीलिए उनकी खोज हो नहीं सकती ।

कुछ देर बाद दूसरी बातें होने लगीं । श्रीरामकृष्ण को सदा ही ईश्वरभाव हुआ करता है, इससे बीमारी के बढ़ने की सम्भावना है ।

डाक्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - भाव को दबा रखिये । मुझे भी बहुत भाव होता है । तुमसे भी अधिक नाच सकता हूँ ।

छोटे नरेन्द्र - (हँसकर) - भाव अगर कुछ और बढ़ जाय तब आप क्या करेंगे ?

डाक्टर - उसके दबाने की मेरी शक्ति भी साथ ही बढ़ती जायगी ।

श्रीरामकृष्ण तथा मास्टर - अभी आप वैसा कह सकते हैं ।

मास्टर - भाव होने पर क्या आप कह सकते हैं ?

कुछ देर बाद रुपये-पैसे की बातचीत होने लगी ।

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - मैं तो इसके बारे में सोचता ही नहीं हूँ; और यह बात तुम भी जानते हो । क्यों ठीक है न ? यह ढोंग नहीं है ।

डाक्टर - मेरा भी यही हाल है । आपकी बात तो अलग । मेरा रुपयों का सन्दूक तो खुला ही पड़ा रहता है ।

श्रीरामकृष्ण - यदु मल्लिक भी इसी तरह दूसरे ख्याल में पड़ा रहता है । जब भोजन करने बैठता है, उस समय भी इतना अन्यमनस्क रहता है कि भला-बुरा जो कुछ सामने आया वही खा लेता है।किसी ने अगर कहा, ‘इसे मत खाना, यह अच्छी नहीं लगती’, तब कहता है, 'क्या ? यह तरकारी अच्छी नहीं ? हाँ, सच ही तो है ।'

क्या श्रीरामकृष्ण यह सूचित कर रहे हैं कि ईश्वर-चिन्तन से होनेवाली अन्यमनस्कता तथा विषय- चिन्तन से होनेवाली अन्यमनस्कता में बहुत अन्तर है ?

फिर भक्तों की ओर देख श्रीरामकृष्ण डाक्टर की ओर इशारा करके कह रहे हैं - "देखो, सिद्ध होने पर चीज नरम हो जाती है । पहले ये बड़े कड़े थे, अभी भीतर से नरम हो रहे हैं ।"

डाक्टर - सिद्ध होने पर चीज ऊपर से ही नरम होती है, परन्तु इस जीवन में मेरे लिए यह बात नहीं होने की ! (सब हँसते हैं)

डाक्टर बिदा होनेवाले हैं । श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं –“पैरों की धूल लोग लेते हैं, उन्हें क्या तुम मना नहीं कर सकते ?”

श्रीरामकृष्ण - क्या सब लोग अखण्ड सच्चिदानन्द को पकड़ सकते हैं ?

डाक्टर - इसलिए क्या जो मत ठीक है वह आप लोगों को नहीं बतलायेंगे ?

श्रीरामकृष्ण - लोगों की अलग अलग रुचि होती है । और फिर आध्यात्मिक जीवन के लिए सब लोग एक समान अधिकारी नहीं होते ।

डाक्टर - वह किस प्रकार ?

श्रीरामकृष्ण - रुचि भेद किस तरह का है, जानते हो ? जिसे जो भोजन रुचता है तथा सह्य है, उसी प्रकार का भोजन वह करता है । कोई मछली का शोरवा पसन्द करता है, तो किसी को तली हुई मछलियाँ अच्छी लगती है, कोई उनकी तरकारी बनाकर खाता है, तो कोई पुलावा बनाकर । उसी तरह अधिकारी-भेद भी है । मैं कहता हूँ, पहले केले के पेड़ में निशाना साधो, फिर दीपक की लौ पर, बाद में उड़ती हुई चिड़िया पर 

शाम हो गयी । श्रीरामकृष्ण ईश्वर-चिन्तन में मग्न हुए । इतनी पीड़ा है, परन्तु वह मानो एक ओर पड़ी रही । दो-चार अन्तरंग भक्त पास बैठे हुए सब देख रहे हैं श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक इसी अवस्था में रहे । श्रीरामकृष्ण प्राकृत अवस्था में आये । मणि पास बैठे हुए हैं । उनसे एकान्त में कह रहे हैं - "देखो, अखण्ड में मन लीन हो गया था । इसके बाद जो कुछ देखा, उसके सम्बन्ध में बहुतसी बातें हैं ।" 

"डाक्टर को देखा, उसकी बन जायगी - कुछ दिन बाद अब मुझे डॉक्टर से अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं एक आदमी को और देखा । मन में यह उठा कि उसे भी ले लूँ । उसकी बात तुम्हें बाद में बताऊँगा ।"

श्रीयुत श्याम बसु, डा. दोकड़ी तथा और भी दो-एक आदमी आये हुए हैं । अब श्रीरामकृष्ण उन लोगों के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

श्याम बसु – अहा ! उस दिन वह बात जो आपने कही थी कितनी सुन्दर है !

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - वह कौनसी बात है ?

श्याम बसु - वहीं, ज्ञान और अज्ञान से पार हो जाने पर क्या रहता है, इसके सम्बन्ध में आपने जो कुछ कहा था ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - वह विज्ञान है । और अनेक प्रकार के ज्ञान का नाम अज्ञान है । सर्वभूतों में ईश्वर का वास है, इसका नाम है ज्ञान । विशेष रूप से जानने का नाम है विज्ञान । ईश्वर के साथ आलाप, उनमें आत्मीयों जैसा भाव अगर हो तो वह विज्ञान है ।

"लकड़ी में आग है, अग्नितत्त्व है, इस बोध का नाम है ज्ञान । लकड़ी जलाकर रोटियाँ सेंक कर खाना और खाकर हृष्ट-पुष्ट होना यह है विज्ञान

श्याम बसु - (सहास्य) - और वह काँटों की बात !

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - हाँ, जैसे पैर में काँटा लग जाने से उसे निकालने के लिए एक और काँटा ले आया जाता है । फिर पैर में गड़े हुए काँटे को निकालकर दोनों ही काँटे फेंक दिये जाते हैं । उसी तरह अज्ञान-काँटे को निकालने के लिए ज्ञानकाँटे की खोज की जाती है । अज्ञान-नाश के बाद फिर ज्ञान और अज्ञान दोनों को फेंक देना होता है । तब विज्ञान की अवस्था आती है ।

श्रीरामकृष्ण श्याम बसु पर प्रसन्न हुए हैं । श्याम बसु की उम्र अधिक हो गयी है, अब उनकी इच्छा है, कुछ दिन ईश्वर-चिन्तन करें । श्रीरामकृष्णदेव का नाम सुनकर यहाँ आये हुए हैं । इसके पहले वे एक दिन और आये थे ।

श्रीरामकृष्ण - (श्याम बसु से) – विषय-चर्चा बिलकुल छोड़ देना । ईश्वरीय बातचीत छोड़ और किसी विषय की बातचीत न करना । विषयी आदमी को देखकर धीरे धीरे वहाँ से हट जाना इतने दिन संसार करके तुमने देखा तो, सब खोखलापन है । ईश्वर ही वस्तु है, और सब अवस्तु । ईश्वर ही सत्य हैं, और सब दो दिन के लिए है । संसार में है क्या ? बस अमड़ा की गुठली चाटना ही है। उसे चाटने की इच्छा तो होती है, परन्तु अमड़ा की गुठली में है क्या ?

श्याम बसु - जी हाँ, आप सच कहते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - बहुत दिनों तक लगातार तुम विषय-कार्य करते रहे हो, अतएव इस समय इस गुल-गपाड़े में ध्यान और ईश्वर की चिन्ता न होगी । जरा निर्जन में रहना चाहिए । निर्जन के बिना मन स्थिर न होगा, इसीलिए घर से कुछ दूर पर ध्यान करने का स्थान तैयार करना चाहिए

श्यामबाबू कुछ देर के लिए चुप हो रहे, जैसे कुछ सोचते हों ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - और देखो, तुम्हारे दाँत भी सब गिर गये हैं, अब दुर्गा-पूजा के लिए इतना उत्साह क्यों ? (सब हँसते हैं) “एक ने एक से पूछा, 'क्यों जी, तुम दुर्गा-पूजा अब क्यों नहीं करते ?’ उस आदमी ने उत्तर देते हुए कहा, 'भाई, अब दाँत नहीं रह गये, माँस खाने की शक्ति अब नहीं रह गयी ।’”

श्याम बसु – अहा ! बातों में मानो मिश्री घुली हुई है !

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - इस संसार में बालू और शक्कर एक साथ मिले हुए हैं । चींटी की तरह बालू का त्याग करके चीनी को निकाल लेना चाहिए । जो चीनी ले सकता है, वही चतुर है । उनकी चिन्ता करने के लिए एक निर्जन स्थान ठीक करो - ध्यान करने की जगह तुम एक बार करो तो । मैं भी आऊँगा । सब लोग कुछ देर के लिए चुप हैं ।

श्याम वसु – महाराज, क्या जन्मान्तर है ? क्या फिर जन्म लेना होगा ?

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर से कहो, अन्तर से उन्हें पुकारो, वे सुझा देते हैं, सुझा देंगे । यदु मल्लिक से बातचीत करो तो वह बता देगा कि उसके कितने मकान हैं और कितने रुपयों के कम्पनी के कागज हैं । पहले से इन सब बातों को जानने की चेष्टा करना ठीक नहीं । पहले ईश्वर को प्राप्त करो, फिर जो कुछ जानने की तुम्हारी इच्छा होगी, वे तुम्हें बतला देंगे

श्याम बसु - महाराज, मनुष्य संसार में रहकर न जाने कितने अन्याय, कितने पापकर्म करता है । क्या वह मनुष्य ईश्वर को पा सकता है ?

श्रीरामकृष्ण – देह-त्याग से पहले अगर कोई ईश्वर दर्शन के लिए साधना करे और साधना करते हुए, ईश्वर को पुकारते हुए यदि देह का त्याग हो, तो पाप उसे कब स्पर्श कर सकेगा ? हाथी का स्वभाव है कि नहला देने के बाद भी वह देह पर धूल डालने लगता है, परन्तु महावत अगर नहलाकर उसे फीलखाने में बाँध दे, तो फिर हाथी देह पर धूल नहीं डाल सकता ।

खुद को कठिन पीड़ा होते हुए भी अहैतुक कृपासिन्धु श्रीरामकृष्ण जीवों के दुःख से कातर हो उठा करते हैं; दिवानिशि जीवों की मंगल-कामना किया करते हैं । यह देखकर भक्तगण निर्वाक् हैं । श्रीरामकृष्ण श्याम बसु को हिम्मत बँधा रहे हैं - "ईश्वर को पुकारते हुए अगर देह का नाश हो तो फिर पाप स्पर्श नहीं कर सकता ।"

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>>Dr Mahendralal Sarkar (Physician of Sri Sri Ramakrishna Dev) :(2.11 1833-23.2.1904) >(Birthplace: Paikpara village, Howrah district, Bengal, India)

In October 1885, the seriousness of Sri Ramakrishna's illness became clear. He was shifted to Calcutta for the best possible medical care. Dr. Sarkar was chosen to treat Sri Ramakrishna. He was very honest and sincere person who loved truthfulness. He was the founder and president of 'The Association for the Cultivation of Science' and was a rationalist with a scientific outlook. He did not much believe in traditional religion but held the view that God could be comprehended more clearly through the truths of the natural sciences.

On seeing the devotion and sacrifice of the disciples, Dr. Sarkar treated Sri Ramakrishna free of charge. He used to make two or three visits per day. Sometimes the doctor remained spellbound for hours listening to Sri Ramakrishna on the subject of spirituality. He frequently observed Sri Ramakrishna in the state of Samadhi and examined him medically with a stethoscope and other means. He was surprised to find that his heartbeat and other vital signs had completely disappeared during that state.

Vision of Sri Ramakrishna about the Doctor . In one of his visions, the Mother showed Sri Ramakrishna that Dr. Sarkar would come to him; he would have much knowledge but would be dry and worldly. Later, Sri Ramakrishna told the doctor he would not remain like that -a dry intellectual type, but would soften on account of spiritual consciousness. In this connection the following incident is worth mentioning:

" Dr. Sarkar arrived. At the sight of him, Sri Ramakrishna went into samadhi. Soon, on listening to the song, the doctor himself became almost ecstatic. In the high spiritual mood, Sri Ramakrishna placed his foot on the lap of the doctor. He was pleased and his eyes were filled with tears. In this state, Sri Ramakrishna said to the doctor, 'You are very pure; otherwise I could not have put my foot on your lap', and continued, 'He alone has peace who has tasted the Bliss of Rama. What is this world? What is there in it? What is there in money, wealth, honor, or creature comforts? O mind; know Rama! Who else should you know? "

Well-known physician and scientist, celebrated physician-devotee of the Master. Born in Paikpara village of Jagatvallabhpur of Howrah district, lost father in childhood, brought up and educated in maternal uncle’s home in Calcutta. Attended Hare School, entered Medical College (1854) with senior scholarship from Hindu College. Passing L.M.S. (1860) ranked first in M.D. examination (the second M.D. in the country). Giving up allopathy practised homoeopathy. Publisher of the Calcutta Journal of Medicine and its Manager until death. Founded “The Indian Association for the Cultivation of Science” (presently located at Jadavpur). Held a number of high positions, honoured by various titles, died on 23.2.1904.


He was influenced by reading William Morgan's The Philosophy of Homeopathy, and by interaction with Rajendralal Dutt, a leading homoeopathic practitioner of Calcutta. In a meeting of the Bengal branch of the British Medical Association, he proclaimed homoeopathy to be superior to the "Western medicine" of the time. Consequently, he was ostracised by the British doctors, and had to undergo loss in practice for some time. However, soon he regained his practice and went on to become a leading homoeopathic practitioner in Calcutta, as well as India. 

The Statesman: Thursday, 7 March, 2024 >Remembering a pioneer of scientific research . 

Mahendralal Sarkar the renowned physician who had the privilege of treating Sri Ramakrishna was not only a brilliant homeopath but was also a social reformer and an ardent propagator of science education and research. His colourful life is an illustration of the many dimensions of his personality and achievements. He became a spiritualist after coming into contact with Sri Ramakrishna. But he was also a propagator of the scientific view of life. He was the founder of the Indian Association for the Cultivation of Science where Nobel Laureate CV Raman and many other scientists started their scientific experiments.

Mahendralal secured admission in Hare School as a free student in 1840. He passed the junior scholarship examination and joined Hindu College(Presidency College) in 1849 where he studied up to 1854. He was transferred to Calcutta Medical College since Hindu College didn’t have a science department. He passed the final examination in 1860 in medicine, surgery and midwifery. In 1863, he got the degree of MD. He and Jagabandhu Bose were the second MDs of the Calcutta University after Chandrakumar De (1862).

Mahendralal within a short period turned into a reputed doctor. He was so well regarded that other physicians used to send their patients to him for consultation. He was selected as the secretary of the Bengal branch of the British Medical Association in 1863. During this time, he criticized homeopathy as the practice of quacks. But soon some events brought a drastic change in his outlook towards homeopathic treatment which Mahendralal had described in the July issue of his journal, Calcutta Journal of Medicine.

He was given a copy of Morgan’s Philosophy Of Homeopathy for review in the journal, the Indian Field. Mahendralal took it as an opportunity to criticize homeopathy but later changed his mind as he realized that without knowing anything about homeopathy it would be unfair to write such a review. Mahendralal went to Rajendralal Datta, an eminent physician who was also a homeopathic practitioner.

Mahendralal started verifying the results of Rajendralal’s homeopathic treatment. Besides, he himself prepared some homeopathic medicines and observed their effect on patients. He was soon convinced that homeopathic treatment was scientific and he started homeopathic treatments (which were less costly than allopathy).

On 16 February 1867, during the fourth annual meeting of the Medical Association, of which Mahendralal was the Vice-President, he gave a lecture on “The uncertainties in medical sciences and the relationship between diseases and their remedial agents.” In this lecture, he spoke in favor of homeopathic treatment which created an uproar among the audience. As a result, he was ousted from the British Medical Association.

In January 1868 Mahendralal founded a journal called Calcutta Journal of Medicine, with himself as editor. The main aim of this journal was to popularise homeopathic treatment. In the beginning, Mahendralal had no patients but reading of Materia Medica of Homeopathy changed things. He was also inspired by the philosophy of Samuel Hahnemann who abandoned the existing practices of medicine which caused bloodletting and discovered the homeopathic system on purely humanitarian grounds. Eventually, Sarkar became one of the top homeopaths. The celebrated homeopath of Calcutta, Dr. Berigny, while leaving the city, compared himself with the upcoming Mahendralal and said, “Now the moon is to set because we are seeing the rising sun on the horizon.

Dr. Sarkar was a humanist who believed that science could add to the prosperity of humanity and the cultivation of modern science was required to remove poverty and ignorance of Indians. During those days only government organizations like the Geological survey of India facilitated scientific research work and universities were only degree-awarding authorities. Mahendralal wrote an article in the Calcutta Journal of Medicine on the need to establish a national institution for the cultivation of sciences by his countrymen. He wrote that this institution would be run on the lines of London’s Royal Institution and the British Association for the Advancement of science.

Regarding the institution’s main intention Mahendralal said: “We want a different institution altogether. We want an institution which shall be for the instruction of the masses, where lectures on scientific subjects will be systematically delivered and not only illustrative experiments performed by the lecturer, but the audience should be invited and taught to perform themselves. And we wish that this institution be entirely under native management and control.”

Supporting Mahendralal’s work, Bankim Chandra wrote a lengthy article in the Bhadra issue (August-September issue) of his journal Bangadarshan (1873) where he appealed for generous public financial support for his work. He wrote:“….The rich people of Bengal… some of them spend a lakh of rupees in a single day and waste lakhs during the marriage of their sons and daughters. The Bengali society is apathetic towards the cultivation of science. The rich people of Bengal should be generous and assist the Youth and industries of Bengal.”

Good response came from many eminent citizens of Calcutta. These included Justice Dwarakanath Mitra, Krishnadas Pal, Father Lafont, Ishwar Chandra Vidyasagar, Dr.Rajendralal Mitra, Keshab Chandra Sen, Jatindramohan Tagore, Abdul Latif, Jaykrishna Mukherjee, Pyarimohan Mukherjee, Ramesh Chandra Banerjee, and Gurudas Banerjee. Sir Richard Temple, the Lieutenant Governor of Bengal, also assured his help. Donations started flowing in.

The first contribution of Rs. 1,000 came from Jaykrishna Mukherjee and a subscription book was started on 24 January 1870. Others who contributed money were the Maharaja of Patiala , Maharani Swarnamayi, Maharaja of Cassimbazar , Kalikrishna Tagore, Raja Kamal Krishna Deb and Sri Rameshchandra Mitra. It was Ishwar Chandra Vidyasagar who collected Rs. 2500 from zamindar Kalikrishna Tagore. With the help of Keshab Chandra Sen, Mahendralal received much financial help from the Maharaja of Cooch Behar. And in 1873, Mahendralal himself donated Rs. 1,000 for the noble cause.

On 29 July 1876 the Indian Association for the Cultivation of Science was inaugurated in a house taken on lease from the Government. It was situated at the junction of College Street and Bowbazar Street. The name “The Indian Association for the Cultivation of Science” was accepted at a meeting held earlier, on 15 January 1876. Dr. Mahendralal Sarkar was its Secretary from the beginning till his death. He gave regular lectures on subjects like electricity, magnetism, heat, light and sound.

Between 1878 and 1883 he delivered about 154 lectures on different subjects. Mahendralal continued to enlist support for the Association, especially from rich patients whom he cured. One such was the Maharajkumar of Vizianagram, and with his donation of Rs. 40,000, the Vizianagram Laboratory was established.

From the very beginning many renowned scientists were either speakers or research scholars in the Association. For instance Acharya Jagadish Chandra Bose, Acharya Prafulla Chandra Ray, Dr. Chunilal Basu, Sri Ashutosh Mukhopadhyaya and others gave lectures on their respective subjects. Acharya Jagadish Chandra Bose used to conduct practical classes also.

The Science Association developed further after the death of Mahendralal. In 1907 a high-ranking officer in the finance department of the government of India, Chandrashekhar Venkataraman, working at Calcutta , became a member of the Association and pursued scientific research during his leisure time. In 1917 the vice-chancellor of Calcutta University, Sir Ashutosh Mukhopadhyaya, made him “Fellow Professor” in the Science College.

Since the required equipment for research was not available in the Science College, Venkataraman continued his research in the Science Association. In 1930 he discovered new facts about the diffusion of light rays, for which he was awarded the Nobel Prize. In 1950-51 Professor Meghnad Saha shifted the The Science Association to a new building constructed on a land measuring 29 bighas.

Thus we see that Mahendralal Sarkar, a great philanthropist devoted his life to establish and promote scientific research and in spreading the homeopathic system of medicine. In all his efforts, service to humanity was the driving force. (The writers are, respectively, Senior Faculty and Faculty of Neotia Institute of Technology, Management and Sciences.)

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