परिच्छेद -१०९
(१)
*भक्तों के प्रति उपदेश*
[राखाल, भवनाथ, नरेन्द्र, बाबूराम]
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आनन्दपूर्वक बैठे हुए हैं । बाबूराम, छोटे नरेन्द्र, पल्टू, हरिपद, मोहिनीमोहन आदि भक्त जमीन पर बैठे हुए हैं । एक ब्राह्मण युवक दो-तीन दिन से श्रीरामकृष्ण के पास हैं, वे भी बैठे हुए हैं । आज शनिवार है, ७ मार्च १८८५ दिन के तीन बजे का समय होगा । चैत की कृष्णा सप्तमी है ।
श्रीमाताजी* भी आजकल नौबतखाने में रहती हैं । श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए वे कभी कभी यहाँ आया करती हैं । मोहिनीमोहन के साथ उनकी स्त्री और नवीनबाबू की माँ, गाड़ी पर आयी हुई हैं। (*श्री सारदादेवी – श्रीरामकृष्ण की लीलासहधर्मिणी)
औरतें नौबतखाने में श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर वहीं पर रह गयीं । भक्तों के जरा हट जाने पर वे आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करेंगी । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए भक्त बालकों को देख रहे हैं और आनन्द में मग्न हो रहे हैं ।
राखाल इस समय दक्षिणेश्वर में नहीं रहते । कुछ महीने बलराम के साथ वृन्दावन में थे; वहाँ से लौटकर इस समय घर पर रहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - राखाल इस समय पेन्शन ले रहा है । वृन्दावन से लौटकर घर पर रहता है। घर में उसकी स्त्री है । परन्तु उसने कहा है, 'हजार रुपया तनख्वाह देने पर भी नौकरी न करूंगा ।’
"यहाँ लेटा हुआ कहता था, तुम्हारी भी संगत अब अच्छी नहीं लगती उसकी ऐसी एक असाधारण अवस्था हुई थी ।
"भवनाथ ने विवाह किया है, परन्तु रात भर स्त्री के साथ धर्म की ही चर्चा करता है । दोनों ईश्वरी प्रसंग लेकर रहते हैं । मैंने कहा, 'अपनी स्त्री से कुछ आमोद-प्रमोद भी किया कर', तब गुस्से में आकर उसने कहा था, 'क्या ! हम लोग भी आमोद-प्रमोद लेकर रहेंगे?"
श्रीरामकृष्ण अब नरेन्द्र के बारे में कह रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - परन्तु नरेन्द्र के लिए मुझे जितनी व्याकुलता हुई थी, उतनी उसके(छोटे नरेन्द्र के) लिए नहीं हुई ।
(हरिपद से) - "क्या तू गिरीश घोष के यहाँ जाया करता है ?"
हरिपद - हमारे घर के पास ही उनका घर है । प्रायः जाया करता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - क्या नरेन्द्र भी जाता है ?
हरिपद - हाँ, कभी कभी तो देखता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - गिरीश जो कुछ (मेरे अवतारत्व के सम्बन्ध में) कहता है, उस पर उसकी (?) क्या राय है ?
हरिपद - नरेन्द्र तर्क में हार गये हैं ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, उसने(नरेन्द्र ने) कहा, 'गिरीश घोष को जब इतना विश्वास है, तो उस पर मैं कुछ क्यों कहूँ ?'
जज अनुकूल मुखोपाध्याय के जामाता के भाई आये हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण - तुम नरेन्द्र को जानते हो?
जामाता के भाई - जी हाँ, नरेन्द्र एक बुद्धिमान युवक है ।
श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - ये अच्छे आदमी हैं, जब इन्होंने नरेन्द्र की तारीफ की । उस दिन नरेन्द्र आया था । त्रैलोक्य के साथ उस दिन उसने गाया भी; परन्तु उस दिन का गाना अलोना लगा ।
[বাবুরাম ও ‘দুদিক রাখা’ — জ্ঞান-অজ্ঞানের পার হও ]
श्रीरामकृष्ण बाबूराम की ओर देखकर बातचीत कर रहे हैं । मास्टर जिस स्कूल में पढ़ाते हैं, बाबूराम उसी स्कूल की प्रवेशिका कक्षा में पढ़ते हैं ।
[बाबूराम घोष - स्वामी प्रेमानन्द (1861 - 1918)] - हुगली जिले के आंटपुर गांव में अपने नाना के घर में पैदा हुए थे । पिता का नाम तारापद घोष, माता का नाम मातंगिनी देवी था. बाद में श्री रामकृष्ण संघ में बाबूराम को स्वामी प्रेमानंद के नाम से जाना गया। ]
श्रीरामकृष्ण (बाबूराम से) - तेरी पुस्तकें कहाँ हैं ? तू लिखे-पढ़ेगा या नहीं ? (मास्टर से) वह दोनों ओर सँभालना चाहता है ।
"बड़ा कठिन मार्ग है । उन्हें जरा सा समझ लेने से क्या होगा ? वशिष्ठ कितने बड़े थे, उन्हें भी पुत्रों के लिए शोक हुआ था । लक्ष्मण ने उन्हें शोक करते हुए देख आश्चर्य में आकर राम से पूछा । राम ने कहा, 'भाई, इसमें आश्चर्य क्या है ? जिसे ज्ञान है, उसे अज्ञान भी है । भाई, तुम ज्ञान और अज्ञान दोनों को पार कर जाओ ।' पैर में काँटा लगता है, तो एक और काँटा खोज लाना पड़ता है; उस काँटे से पहला काँटा निकाला जाता है; फिर दोनों ही काँटे फेंक दिये जाते हैं । इसीलिए अज्ञानरूपी काँटे को निकालने के लिए ज्ञानरूपी काँटा संग्रह करना पड़ता है; फिर ज्ञान और अज्ञान के पार जाया जाता है ।
बाबूराम (हँसकर) - मैं यही चाहता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - अरे, दोनों ओर रक्षा करने से क्या वह बात होती है ? उसे अगर तू चाहता है, तो चला आ निकलकर !
बाबूराम (हँसकर) - आप ले आइये ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - राखाल रहता था, वह बात और थी – उसमें उसके बाप की भी स्वीकृति थी । पर इन लड़कों के रहने पर तो गड़बड़ होगा ।
(बाबूराम से) - "तू कमजोर है । तुझ में हिम्मत कम है । देख तो छोटा नरेन्द्र कैसे कहता है, 'मैं जब आऊँगा, तब एकदम चला आऊँगा ।"
अब श्रीरामकृष्ण भक्त-बालकों के बीच में चटाई पर आकर बैठे । मास्टर उनके पास बैठे हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मै कामिनी कांचन-त्यागी खोज रहा हूँ । सोचता हूँ, यह शायद यहाँ रह जायेगा । पर सब के सब कोई न कोई अड़ंगा लगा देते हैं ।
"एक भूत अपना साथी खोज रहा था । शनि या मंगलवार को अपघात मृत्यु होने पर मनुष्य भूत होता है । इसलिए वह भूत जब कभी देखता कि कोई छत पर से गिरकर बेसुध हो गया है, तब वहाँ वह यह सोचकर दौड़ा हुआ जाता कि इसकी अपघात-मृत्यु हुई, अब यह भूत होकर मेरा साथी होगा । परन्तु उसका ऐसा दुर्भाग्य कि सब के सब बच जाते ! उसे कोई साथी नहीं मिलता ।
"इसी तरह देखो न, राखाल भी 'बीबी-बीबी' करता है, कहता है, 'मेरी बीबी का क्या होगा । नरेन्द्र की छाती पर मैंने हाथ रखा तो बेहोश हो गया और चिल्लाया, 'अजी, यह तुम क्या कर रहे हो ? मेरे बाप-माँ जो हैं !'
"मुझे उन्होंने इस अवस्था में क्यों रखा है ? चैतन्यदेव ने संन्यास धारण किया, इसलिए कि सब लोग प्रणाम करेंगे, जो लोग अवतार को एक बार प्रणाम करेंगे; उनका उद्धार हो जायेगा ।"
श्रीरामकृष्ण के लिए मोहिनीमोहन बाँस की टोकरी में सन्देश लाये हैं ।
श्रीरामकृष्ण - ये सन्देश कौन लाया है ?
बाबूराम ने मोहिनीमोहन की ओर उँगली उठाकर इशारा किया ।
श्रीरामकृष्ण ने प्रणव का उच्चारण करके सन्देशों को छुआ और उसमें से थोड़ासा ग्रहण करके प्रसाद कर दिया । फिर भक्तों को थोड़ा बाँटने लगे । छोटे नरेन्द्र को, और भी दो एक भक्त-बालकों को खुद खिला रहे हैं !
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - इसका एक अर्थ है । शुद्धात्माओं के भीतर नारायण का प्रकाश अधिक है । कामारपुर में जब मैं जाता था, तब वहाँ किसी किसी लड़के को खुद खिला देता था । चीने शाँखारी कहता था, 'ये हमें क्यों नहीं खिलाते ?" मैं किस तरह खिलाता ? वे दुराचारी जो थे । भला उन्हें कौन खिलायेगा ?
[( 7 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-109 ]
(२)
✅ज्ञान तथा भक्ति✅
शुद्धात्मा भक्तों को प्राप्त कर श्रीरामकृष्ण आनन्द में मग्न हो रहे हैं । अपने छोटे तखत पर बैठे हुए कीर्तन गानेवाली के नाज-नखरे दिखा दिखाकर उन्हें हँसा रहे हैं । कीर्तन गानेवाली सजधजकर अपने साथियों के साथ गा रही है । वह हाथ में रंगीन रूमाल लिए हुए खड़ी है; बीच बीच में खाँसने का ढोंग कर रही है और नथ उठाकर थूक रही है ।
गाते समय अगर किसी विशिष्ट मनुष्य का आना होता है, तो वह गाते हुए ही उसकी अभ्यर्थना के लिए, 'आइये, बैठिये' आदि शब्दों का प्रयोग करती है । फिर कभी कभी हाथ का कपड़ा हटाकर बाजूबन्द, अनन्त आदि गहने दिखाती है ।
उनका यह अभिनय देखकर भक्तगण ठहाका मारकर हँस रहे हैं । पल्टू तो हँसते हँसते लोटपोट हो रहे हैं । श्रीरामकृष्ण पल्टू की ओर देखकर मास्टर से कह रहे हैं, "बच्चा है न, इसीलिए लोटपोट हुआ जा रहा है । (पल्टू से, हँसकर) ये सब बातें अपने बाप से न कहना । तो फिर जो कुछ लगन (मेरे पास आने के लिए) है, वह भी न रह जायेगी । एक तो ऐसे ही वे लोग इंग्लिशमैन हैं ।
(भक्तों से ) - “बहुतेरे तो सन्ध्योपासना करते हुए ही दुनिया भर की बातें करते हैं; परन्तु बातचीत करने की मनाही है, इसलिए ओठ दबाये हुए ही हर तरह का इशारा करते हैं । यह ले आओ - वह ले आओ – ऊ – हूँ – हूँ - यही सब किया करते हैं । (सब हँसते हैं ।)
"और कोई कोई ऐसे हैं कि माला जपते हुए ही मछलीवाली से मछली का मोल-तोल करते हैं । जप करते हुए कभी ऊँगली से इशारा करके बतला देते हैं कि वह मछली निकाल । जितना हिसाब है, सब उसी समय होता है । (सब हँसते हैं ।)
"स्त्रियाँ गंगा नहाने के लिए आती हैं, तो उस समय ईश्वर का चिन्तन करना तो दूर रहा, उसी समय दुनिया भर की बातें करने लग जाती हैं । पूछती हैं, 'तुम्हारे लड़के का विवाह हुआ, तुमने कौन-कौन से गहने दिये ?'; 'अमुक को कठिन बीमारी हैं'; 'अमुक की बेटी अपनी ससुराल से आयी या नहीं';'अमुक आदमी लड़की देखने गया था, वह खूब देगा और खर्च भी खूब करेगा'; 'हमारा हरीश मुझसे इतना हिला हुआ है कि मुझे छोड़कर एक क्षण भी नहीं रह सकता'; 'माँ, मैं इतने दिनों तक इसीलिए नहीं आ सकी कि अमुक की लड़की के 'देखुआ' आये थे - अब की बार विवाह पक्का होनेवाला था, इसलिए मुझे फुरसत नहीं मिली ।'
“देखो न, कहाँ तो गंगा नहाने के लिए आयी हैं, और कहाँ दुनिया भर की बातें !"
श्रीरामकृष्ण छोटे नरेन्द्र को एकदृष्टि से देख रहे हैं । देखते ही देखते समाधिमग्न हो गये । क्या आप शुद्धात्मा भक्तों के भीतर नारायण के दर्शन कर रहे हैं ?
भक्तगण निर्निमेष नयनों से वह समाधिचित्र देख रहे हैं । इतना हँसी-मजाक हो रहा था, सब बन्द हो गया, जैसे कमरे में एक भी आदमी न हो । श्रीरामकृष्ण का शरीर निःस्पन्द है, दृष्टि स्थिर है, हाथ जोड़कर चित्रवत् बैठे हुए हैं ।
कुछ देर बाद समाधि छूटी । श्रीरामकृष्ण की वायु स्थिर हो गयी थी । अब उन्होंने एक लम्बी साँस छोड़ी । क्रमशः मन बाह्य संसार में आ रहा है । भक्तों की ओर वे देख रहे हैं ।अब भी भावमग्न हैं । अब भक्तों को सम्बोधित करके, किसे क्या होगा, किसकी कैसी अवस्था है, संक्षेप में कह रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण (छोटे नरेन्द्र से) - तुझे देखने के लिए मैं व्याकुल हो रहा था । तेरी बन जायेगी । कभी कभी आया कर । अच्छा, तू क्या चाहता है - ज्ञान या भक्ति ?
छोटे नरेन्द्र - केवल भक्ति ।
श्रीरामकृष्ण - बिना जाने तू किसकी भक्ति करेगा ? (मास्टर को दिखाकर, सहास्य) इन्हें अगर तू जाने ही नहीं, तो इनकी भक्ति कैसे कर सकेगा ? (मास्टर से) परन्तु शुद्धात्मा ने जब कहा है कि केवल भक्ति चाहिए तो इसका अर्थ भी अवश्य है ।
“आप ही आप भक्ति का आना संस्कार के बिना नहीं होता । यह प्रेमाभक्ति का लक्षण है । ज्ञान-भक्ति है विचार के बाद होनेवाली भक्ति ।
(छोटे नरेन्द्र से) – “देखूँ तेरी देह, कुर्ता उतार तो जरा । छाती खूब चौड़ी है - तो काम सिद्ध है । कभी कभी आना ।"
श्रीरामकृष्ण अब भी भावस्थ हैं । दूसरे भक्तों में हरएक को सम्बोधित करके, उनके भविष्य के विषय में स्नेहपूर्वक कह रहे हैं।
(पल्टू से) – “तेरी भी मनोकामना सिद्ध होगी; परन्तु कुछ समय लगेगा ।
(बाबूराम से) - “तुझे इसलिए नहीं खींचता हूँ कि अन्त में कहीं गुलगपाड़ा न मच जाय ।
(मोहिनीमोहन से) – “और तुम्हारे बारे में सब कुछ ठीक ही है । केवल थोड़ी कसर बाकी है । जब वह भी पूर्ण हो जायेगी तब कुछ शेष न रह जायेगा - न कर्तव्य, न कर्म, और न खुद संसार ही क्यों, सभी कुछ छूट जाना क्या अच्छा है !”
यह कहकर उनकी ओर सस्नेह एक निगाह से देख रहे हैं, जैसे उनके अन्तरतम प्रदेश के सब भाव देख रहे हों । क्या मोहिनीमोहन यही सोच रहे हैं कि ईश्वर के लिए सब कुछ छूट जाना ही अच्छा है। कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने फिर कहा, “भागवत पण्डित को एक पाश देकर ईश्वर संसार में रख देते हैं, - नहीं तो भागवत फिर कौन सुनाये ! रख देते हैं लोकशिक्षा के लिए, माता ने तुम्हें इसीलिए संसार में रखा है ।"
[জ্ঞানযোগ ও ভক্তিযোগ — ব্রহ্মজ্ঞানীর অবস্থা ও ‘জীবন্মুক্ত’ ]
अब ब्राह्मण युवक से बातें कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (युवक से) - तुम ज्ञान की चर्चा छोड़ो; भक्ति लो - भक्ति ही सार है । आज क्या तुम्हें तीन दिन हो गये ?
ब्राह्मण युवक (हाथ जोड़कर) - जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण – विश्वास करो - उन पर निर्भरता लाओ - तो तुम्हें कुछ भी न करना होगा । माँ काली सब कुछ कर लेंगी ।
“ज्ञान की पहुँच सदर दरवाजे तक ही है । भक्ति घर के भीतर भी जाती है । “शुद्ध आत्मा निर्लिप्त है । उसमें विद्या और अविद्या दोनों हैं परन्तु वह निर्लिप्त है । वायु में कभी सुगन्ध मिलती है, कभी दुर्गन्ध; परन्तु वायु निर्लिप्त है ।
व्यासदेव यमुना पार कर रहे थे । वहाँ गोपियाँ भी थीं । वे भी पार जाना चाहती थीं, - दही, दूध और मक्खन बेचने के लिए पर वहाँ नाव न थी, सब सोच रही थीं, कैसे पार जायँ । इसी समय व्यासदेव ने कहा, 'मुझे बड़ी भूख लगी है ।" तब गोपियाँ उन्हें दही, दूध, मक्खन, रबड़ी, सब खिलाने लगीं । व्यासदेव लगभग सब साफ कर गये ।
"फिर व्यासदेव ने यमुना से कहा, 'यमुने, अगर मैंने कुछ भी नहीं खाया, तो तुम्हारा जल दो भागों में बँट जाय, बीच से राह हो जाय और हम लोग निकल जायँ ।' ऐसा ही हुआ । यमुना के दो भाग हो गये, बीच से उस पार जाने की राह बन गयी । उसी रास्ते से गोपियों के साथ व्यासदेव पार हो गये ।
"मैंने नहीं खाया, इसका अर्थ यह है । मैं वही शुद्ध आत्मा हूँ, शुद्ध आत्मा निर्लिप्त है, प्रकृति के परे है । उसे न भूख है, न प्यास; न जन्म है, न मृत्यु; वह अजर, अमर और सुमेरुवत् है !
"जिसे यह ब्रह्मज्ञान हुआ हो, वह जीवन्मुक्त है । वह ठीक समझता है कि आत्मा अलग है और देह अलग । ईश्वर के दर्शन करने पर फिर देहात्मबुद्धि नहीं रह जाती । दोनों अलग अलग हैं । जैसे नारियल का पानी सूख जाने पर भीतर का गोला और ऊपर का खोपड़ा अलग अलग हो जाते हैं । आत्मा भी उसी गोले की तरह मानो देह के भीतर खड़खड़ाती हो । उसी तरह विषयबुद्धिरूपी पानी के सूख जाने पर आत्मज्ञान होता है । तब आत्मा एक अलग चीज जान पड़ती है और देह एक अलग चीज । कच्ची सुपारी या कच्चे बादाम के भीतर का गूदा छिलके से अलग नहीं किया जा सकता ।
“परन्तु जब पक्की अवस्था होती है, तब सुपारी और बादाम छिलके से अलग हो जाते हैं । पक्की अवस्था में रस सूख जाता है । ब्रह्मज्ञान के होने पर विषय-रस सूख जाता है ।
“परन्तु वह ज्ञान होना बड़ा कठिन है । कहने से ही किसी को ब्रह्मज्ञान नहीं हो जाता । कोई ज्ञान होने का ढोंग करता है । (हँसकर) एक आदमी बहुत झूठ बोलता था । इघर यह भी कहता था कि मुझे ब्रह्मज्ञान हो गया है । किसी दूसरे के तिरस्कार करने पर उसने कहा, 'क्यों जी, संसार तो स्वप्नवत् है ही, अतएव सब अगर मिथ्या हो तो सच बात ही कहाँ से सही होगी ? झूठ भी झूठ है और सच भी झूठ ही है ।" (सब हँसते हैं ।).
[( 7 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-109 ]
(३)
*अवतारलीला तथा योगमाया आद्या-शक्ति*
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ जमीन पर चटाई पर बैठे हुए हैं । प्रसन्नमुख हैं । भक्तों से कह रहे हैं, "मेरे पैरों पर जरा हाथ तो फेर दो ।" भक्तगण उनके पैर दाब रहे हैं । मास्टर से हँसकर कहते हैं, "इसके (पैर दाबने के) बहुत अर्थ हैं ।"
फिर अपने हृदय पर हाथ रखकर कह रहे हैं, "यदि इसके भीतर कुछ है तो (सेवा करने पर) अज्ञान, अविद्या सब दूर हो जायेंगे ।"
एकाएक श्रीरामकृष्ण गम्भीर हो गये, जैसे कोई गूढ़ विषय कहनेवाले हों ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - यहाँ दूसरा कोई आदमी नहीं है । उस दिन यहाँ हरीश था - मैंने देखा - गिलाफ को (देह* को) छोड़कर सच्चिदानन्द बाहर हो आया; निकलकर उसने कहा, 'हरएक युग में मैं ही अवतार लेता हूँ ।' तब मैंने सोचा, यह मेरी ही कोई कल्पना होगी । फिर चुपचाप देखने लगा - तब मैंने देखा, वह स्वयं कह रहा है, "शक्ति की आराधना चैतन्य को भी करनी पड़ी थी ।’ (*श्रीरामकृष्ण की देह)
सब भक्त आश्चर्यचकित होकर सुन रहे हैं । कोई कोई सोच रहे हैं, क्या सच्चिदानन्द भगवान् ही श्रीरामकृष्ण का रूप धारण कर हमारे पास बैठे है ? भगवान् क्या फिर अवतीर्ण हुए हैं ?
श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से फिर कहा, "मैंने देखा, इस समय पूर्ण आविर्भाव है, परन्तु ऐश्वर्य सत्त्व गुण का है ।" भक्तगण विस्मित होकर सुन रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - "अभी अभी मैं माँ से कह रहा था, माँ, अब मुझसे बका नहीं जाता और कह रहा था, एक बार छू देने पर ही आदमी को चैतन्य हो । योगमाया की महिमा भी ऐसी है कि वह गोरखधन्धे में डाल देती है । वृन्दावन की लीला के समय योगमाया ने वैसा ही किया । और उसी के बल से सुबल ने श्रीकृष्ण से श्रीमती को मिला दिया था । जो आद्याशक्ति हैं, उस योगमाया में एक आकर्षण शक्ति है । मैंने उसी शक्ति का आरोप किया था ।
“अच्छा जो लोग आते हैं, उन्हें कुछ होता है ?"
मास्टर - जी हाँ, होता क्यों नहीं ?
श्रीरामकृष्ण - तुम्हें मालूम कैसे हुआ ?
मास्टर (सहास्य) - सब कहते हैं, उनके पास जो जाते हैं, वे लौटते नहीं ।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य ) - एक बड़ा मेढक पनियां साँप के पाले पड़ा था । साँप न उसे निगल सकता था, न छोड़ सकता था ! मेंढक भी आफत में पड़ा था; लगातार टें टें कर रहा था और साँप की भी जान आफत में थी । परन्तु वह मेढक अगर गोखुरे साँप के पाले पड़ता तो दो ही एक पुकार में उसे ठण्डा हो जाना पड़ता ! (सब हँसते हैं ।)
(किशोर भक्तों से) - “तुम लोग त्रैलोक्य की वह पुस्तक - 'भक्ति चैतन्यचन्द्रिका’ – पढ़ना । उससे एक किताब माँग लेना । उसमें चैतन्यदेव की बड़ी अच्छी बातें लिखी हैं ।"
एक भक्त - क्या वे देंगे ?
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - क्यों, खेत में अगर बहुत सी ककड़िया हुई हों, तो मालिक दो तीन मुफ्त ही दे सकता है । (सब हँसते हैं ।) क्या मुफ्त नहीं देगा – तू क्या कहता है ?
(पल्टू से) - "यहाँ एक बार आना ।"
पल्टू - हो सका तो आऊँगा ।
श्रीरामकृष्ण - मैं कलकत्ते में जहाँ जाऊँ, वहाँ तू जायेगा या नहीं ?
पल्टू - जाऊँगा; कोशिश करूँगा ।
श्रीरामकृष्ण - यह पटवारी बुद्धि है ।
पल्टू - 'कोशिश करूँगा' यह अगर न कहूँ तो बात झूठ हो सकती है ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - इनकी बातों को मैं झूठ में शामिल नहीं करता, क्योंकि वे स्वाधीन नहीं हैं ।
(हरिपद से) - "महेन्द्र मुखर्जी क्यों नहीं आता ?”
हरिपद - मैं ठीक ठीक नहीं कह सकता ।
मास्टर - (सहास्य) - वे ज्ञानयोग कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, उस दिन प्रह्लाद-चरित्र दिखाने के लिए उसने गाड़ी भेजने के लिए कहा था, परन्तु फिर भेज नहीं सका, शायद इसीलिए आता भी नहीं ।
मास्टर - एक दिन महिम चक्रवर्ती से मुलाकात हुई थी, बातचीत भी हुई थी । जान पड़ता है, वे (महेन्द्र) उनके पास आया-जाया करते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - क्यों, महिम तो भक्ति की बातें भी करता है । वह तो कहता भी है खूब – ‘आराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।'
मास्टर (हँसकर) - आप कहलाते हैं, इसीलिए वह कहता है । श्री गिरीश घोष श्रीरामकृष्ण के पास पहले-पहल आने-जाने लगे हैं । आजकल वे सदा श्रीरामकृष्ण की ही बातों में रहते हैं ।
हरि - गिरीश घोष आजकल कितनी ही तरह के दर्शन करते हैं । यहाँ से लौटने पर सर्वदा ईश्वरी भाव में रहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - यह हो सकता है, गंगा के पास जाओ तो कितनी ही तरह की चीजें दीख पड़ती हैं - नाव, जहाज - कितनी चीजें ।
हरि - गिरीश घोष कहते हैं, 'अब सिर्फ कर्म लेकर रहूँगा, सुबह को घड़ी देखकर दवात-कलम लेकर बैठूँगा और दिन भर वही काम (पुस्तकें लिखना) किया करूँगा ।' इस तरह कहते हैं, पर कर नहीं सकते । हम लोग जाते हैं तो बस यहीं की बातें किया करते हैं । आपने नरेन्द्र को भेजने के लिए कहा था; गिरीश बाबू ने कहा, 'नरेन्द्र को किराये की गाड़ी कर दूंगा ।’
पाँच बजे हैं, छोटे नरेन्द्र घर जा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उत्तरपूर्ववाले लम्बे बरामदे में खड़े हुए एकान्त में उन्हें अनेक प्रकार के उपदेश दे रहे हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर वे बिदा हुए; और भी कितने ही भक्तों ने बिदाई ली ।
श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए मोहिनीमोहन से बातचीत कर रहे हैं । लड़के के गुजर जाने पर उनकी स्त्री एक तरह से पागल सी हो गयी है । कभी रोती है, कभी हँसती है । श्रीरामकृष्ण के पास आकर बहुत कुछ शान्त हो जाती है ।
श्रीरामकृष्ण - तुम्हारी स्त्री इस समय कैसी है ?
मोहिनी - यहाँ आने ही से शान्त हो जाती है, वहाँ तो कभी-कभी बड़ा उत्पात मचाती है । अभी उस दिन मरने पर तुली हुई थी ।
श्रीरामकृष्ण सुनकर कुछ देर सोचते रहे । मोहिनीमोहन ने विनयपूर्वक कहा, "आप दो-एक बातें बता दीजिये ।"
श्रीरामकृष्ण - उससे भोजन न पकवाना । इससे सिर और भी गरम हो जाता है । और साथ-साथ आदमी रखे रहना ।
[( 7 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-109 ]
(४)
*श्रीरामकृष्ण की अद्भुत संन्यासावस्था*
शाम हो गयी, श्रीठाकुरबाड़ी में आरती के लिए तैयारी हो रही है । श्रीरामकृष्ण के कमरे में दिया जला दिया गया और धूनी भी दी जा चुकी । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए जगन्माता को प्रणाम कर मधुर स्वर से उनका नाम ले रहे हैं । कमरे में और कोई नहीं है, सिर्फ मास्टर बैठे हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण उठे । मास्टर भी खड़े हो गये । श्रीरामकृष्ण ने कमरे के पश्चिम और उत्तर के दरवाजों को दिखाकर उन्हें बन्द कर देने के लिए कहा । मास्टर दरवाजे बन्द कर बरामदे में श्रीरामकृष्ण के पास आकर खड़े हुए ।
श्रीरामकृष्ण ने कहा, "अब मैं कालीमन्दिर जाऊँगा ।" यह कहकर मास्टर का हाथ पकड़ उनके सहारे कालीमन्दिर के सामने मन्दिर के चबूतरे पर जाकर बैठे । बैठने के पहले कह रहे हैं, "तुम उसे बुला तो लो ।" मास्टर ने बाबूराम को बुला दिया ।
श्रीरामकृष्ण काली के दर्शन कर उस बड़े आँगन से होकर अपने कमरे की ओर लौट रहे हैं । मुख से "माँ ! माँ ! राज राजेश्वरी !" कहते जा रहे हैं । कमरें में आकर अपने छोटे तखत पर बैठ गये । श्रीरामकृष्ण की एक अद्भुत अवस्था है । किसी धातु की वस्तु को छू नहीं सकते ।
उन्होंने कहा था, "माँ अब ऐश्वर्य की बातें शायद मन से बिलकुल हटा दे रही हैं ।” अब वे केले के पत्ते में भोजन करते हैं । मिट्टी के बर्तन में पानी पीते हैं । गडुआ नहीं छू सकते ।
इसीलिए भक्तों से मिट्टी के बर्तन ले आने के लिए कहा था । गडुए या थाली में हाथ लगाने से हाथ में झुनझुनी-सी चढ़ जाती है, दर्द होने लगता है, - जैसे सिंगी मछली का काँटा चुभ गया हो ।
प्रसन्न कुछ मिट्टी के बर्तन ले आये हैं, परन्तु वे बहुत छोटे हैं । श्रीरामकृष्ण हँसकर कह रहे हैं, "ये बर्तन बहुत छोटे हैं । पर यह लड़का बड़ा अच्छा है । मेरे कहने पर मेरे सामने नंगा होकर खड़ा हो गया ! कैसा लड़कपन है !"
बेलघर के तारक एक मित्र के साथ आये । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं, कमरे में दिया जल रहा है । मास्टर तथा दो एक और भक्त बैठे हुए हैं ।
तारक ने विवाह किया है । उनके माँ-बाप उन्हें श्रीरामकृष्ण के पास आने नहीं देते । कलकत्ते के बहूबाजार के पास एक मकान है, आजकल तारक वहीं रहा करते हैं । तारक को श्रीरामकृष्ण चाहते भी बहुत हैं । उनके साथ का लड़का जरा तमोगुणी जान पड़ता है । धर्म-विषय और श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में उसका कुछ व्यंगाभाव-सा है । तारक की उम्र लगभग बीस साल की होगी । तारक ने आकर भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
श्रीरामकृष्ण (तारक के मित्र से) - जरा ये मन्दिर देख आओ न ।
मित्र - यह सब देखा हुआ है ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, तारक यहाँ आता है । क्या यह बुरा है ?
मित्र - यह तो आप ही जानें ।
श्रीरामकृष्ण - ये(मास्टर) हेडमास्टर हैं ।
मित्र - ओह ।
श्रीरामकृष्ण तारक से कुशल-प्रश्न पूछ रहे हैं और उनसे बहुत-सी बातें कर रहे हैं । अनेक प्रकार की बातें करके तारक ने बिदा होना चाहा । श्रीरामकृष्ण उन्हें अनेक विषयों में सावधान कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण (तारक से) - साधो सावधान रहो ! कामिनी और कांचन से सावधान रहो । स्त्री की माया में एक बार भी डूब गये तो बाहर आने की सम्भावना नहीं है । वह विशालाक्षी नदी का भँवर है, जो एक बार भी फँसा वह फिर नहीं निकल सकता । और यहाँ कभी-कभी आना ।
तारक - घरवाले नहीं आने देते ।
एक भक्त - अगर किसी की माँ कहे कि तू दक्षिणेश्वर न जाया कर, और कसम खाये कि जो तू वहाँ जाय, तो तू मेरा खून पिये, तो ? –
श्रीरामकृष्ण - जो माँ ऐसी बात कहे, वह माँ नहीं है, वह अविद्या की मूर्ति है । उस माँ की बात अगर न मानी जाय तो कोई दोष नहीं । वह माँ ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में विघ्न डालती है । ईश्वर के लिए गुरुजनों की बात का उल्लंघन किया जाय तो इसमें कोई दोष नहीं होता । भरत ने राम के लिए कैकेयी की बात नहीं मानी । गोपियों ने श्रीकृष्ण-दर्शन के लिए पति की मनाई नहीं सुनी । प्रह्लाद ने ईश्वर के लिए बाप (हिरण्यकशिपु) की बात पर ध्यान नहीं दिया । बलि ने ईश्वर की प्रीति के लिए अपने गुरु शुक्राचार्य की बात नहीं सुनी । विभीषण ने राम को पाने के लिए अपने बड़े भाई रावण की बातों पर ध्यान नहीं दिया ।
"परन्तु 'ईश्वर के मार्ग पर न जाना’ इस बात को छोड़ और सब बातें मानो ।" "देखूँ तो तेरा हाथ" यह कहकर श्रीरामकृष्ण तारक के हाथ का वजन परख रहे हैं ।
कुछ देर बाद कह रहे हैं, “कुछ (बाधा) है, परन्तु वह न रह जायेगी । उनसे जरा प्रार्थना करना, और यहाँ कभी-कभी आना - वह दूर हो जायेगी । क्या कलकत्ते के बहूबाजार में तूने मकान किराये से लिया है ?"
तारक - जी, मैंने नहीं लिया, उन्हीं लोगों ने लिया है ।
श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - उन लोगों ने लिया है या तूने ? बाघ के डर से न ? श्रीरामकृष्ण कामिनी को बाघ कह रहे हैं । तारक प्रणाम करके बिदा हुए ।
श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर लेटे हुए हैं, - तारक के लिए सोच रहे हों ।एकाएक मास्टर से कहने लगे, "इन लोगों के लिए मैं इतना व्याकुल क्यों होता हूँ ?" मास्टर चुपचाप बैठे हुए हैं, जैसे उत्तर सोच रहे हों । श्रीरामकृष्ण फिर पूछते हैं, और कहते हैं, "कहो न ।"
इघर मोहिनीमोहन की स्त्री श्रीरामकृष्ण के कमरे में आकर उन्हें प्रणाम करके एक ओर बैठी हुई हैं । श्रीरामकृष्ण तारक के साथी की बात मास्टर से कह रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - तारक क्यों उसे अपने साथ ले आया ?
मास्टर - रास्ते में साथ के विचार से ले आया होगा । दूर तक चलना पड़ता है । इस बात के बीच में श्रीरामकृष्ण एकाएक मोहिनीमोहन की स्त्री से कहने लगे, "अपघात-मृत्यु के होने पर स्त्री प्रेतनी होती है । सावधान रहना ! मन को समझाना । इतना देख-सुनकर भी अन्त में क्या यही चाहती हो?”
मोहनीमोहन अब बिदा होने लगे । श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ होकर प्रणाम कर रहे हैं । उनकी स्त्री ने भी प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के उत्तर तरफवाले दरवाजे के पास आकर खड़े हुए । मोहिनीमोहन की पत्नी आँचल से सिर ढाँककर श्रीरामकृष्ण से कुछ कह रही हैं ।
श्रीरामकृष्ण - यहाँ रहोगी ?
पत्नी - कुछ दिन यहाँ आकर रहूँगी । नौबतखाने में माँ हैं, उनके पास ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा तो है, परन्तु तुम मरने की बात जो कहती हो, इसी से भय होता है । फिर गंगाजी भी पास ही हैं !
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