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गुरुवार, 1 सितंबर 2022

$$$🙏卐 परिच्छेद ~109 , [( 7 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-109 ] 🙏राखाल की असाधारण अवस्था -नींद, जागृत अवस्था से भिन्न 'समाधि' अवस्था🙏🙏卐 'ज्ञान -अज्ञान' के परे होकर 'ज्ञान और कर्म 'दोनों ओर सम्भालने का उपदेश🙏卐 🙏卐श्रीरामकृष्ण कामिनी कांचन-त्यागी (संन्यासी) खोज रहे हैं !🙏卐 [श्रीरामकृष्ण ऐसा गृहस्थ खोज रहे हैं जिसने धन और वासना में आसक्ति का त्याग कर दिया हो।] [কামিনী কাঞ্চন-ত্যাগীকে খুঁজছেন শ্রীরামকৃষ্ণ!] [Sri Ramakrishna is looking for a householder who has given up attachment to money and lust.] 🙏卐जो किसी अवतार को एक बार भी प्रणाम करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।🙏卐🙏पाश्चत्य सभ्यता या औद्योगिक सभ्यता का भारतीय संस्कृति पर दुष्प्रभाव🙏 🙏卐 आह्निक जप ^ और गंगा स्नान के समय सांसारिक बातें🙏卐 🙏नेता के प्रति स्वतःस्फूर्त भक्ति और तर्क आधार पर भक्ति🙏卐🙏ब्रह्मज्ञान के बाद भागवत पण्डित को लोकशिक्षा के लिए माँ पुनः शरीर में रख देती हैं 🙏 🙏卐गुरुगृह वास का तीसरा दिन- ब्रह्मज्ञानी की अवस्था और जीवनमुक्त 🙏卐🙏卐शुद्ध आत्मा में विद्या और अविद्या दोनों है किन्तु वह उनसे निर्लिप्त है🙏🙏गुरु-शिष्य परम्परा में समाधि जन्य ब्रह्मज्ञान और ईसा के इल्हाम का अन्तर🙏 🙏卐 सिंह-शावक का अज्ञान और भ्रम गुरुदेव की पदसेवा करने से दूर हो जाता है🙏卐 🙏卐 सच्चिदानन्द को हर युग में अवतार लेकर शक्ति की पूजा करनी पड़ती है🙏卐 🙏शेर (CINC) की मांद में जाने वालों के पदचिन्ह मिलते हैं लौटने वालों के नहीं- क्यों ?🙏 🙏किशोर विवेक -वाहिनी का पाठचक्र 🙏🙏विशालाक्षी नदी का भँवर-'धन और वासना (कामिनी)' से 'साधु सावधान'🙏🙏केवल भगवान के लिए गुरु-वाक्य (पासवर्ड) का उल्लंघन🙏

परिच्छेद -१०९

 (१)

*भक्तों के प्रति उपदेश*

[राखाल, भवनाथ, नरेन्द्र, बाबूराम]

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आनन्दपूर्वक बैठे हुए हैं । बाबूराम, छोटे नरेन्द्र, पल्टू, हरिपद, मोहिनीमोहन आदि भक्त जमीन पर बैठे हुए हैं । एक ब्राह्मण युवक दो-तीन दिन से श्रीरामकृष्ण के पास हैं, वे भी बैठे हुए हैं । आज शनिवार है, ७ मार्च १८८५ दिन के तीन बजे का समय होगा । चैत की कृष्णा सप्तमी है ।

श्रीमाताजी* भी आजकल नौबतखाने में रहती हैं । श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए वे कभी कभी यहाँ आया करती हैं । मोहिनीमोहन के साथ उनकी स्त्री और नवीनबाबू की माँ, गाड़ी पर आयी हुई हैं। (*श्री सारदादेवी – श्रीरामकृष्ण की लीलासहधर्मिणी

औरतें नौबतखाने में श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर वहीं पर रह गयीं । भक्तों के जरा हट जाने पर वे आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करेंगी । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए भक्त बालकों को देख रहे हैं और आनन्द में मग्न हो रहे हैं ।

राखाल इस समय दक्षिणेश्वर में नहीं रहते । कुछ महीने बलराम के साथ वृन्दावन में थे; वहाँ से लौटकर इस समय घर पर रहते हैं ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - राखाल इस समय पेन्शन ले रहा है । वृन्दावन से लौटकर घर पर रहता है। घर में उसकी स्त्री है । परन्तु उसने कहा है, 'हजार रुपया तनख्वाह देने पर भी नौकरी न करूंगा ।’

"यहाँ लेटा हुआ कहता था, तुम्हारी भी संगत अब अच्छी नहीं लगती उसकी ऐसी एक असाधारण अवस्था हुई थी ।

"भवनाथ ने विवाह किया है, परन्तु रात भर स्त्री के साथ धर्म की ही चर्चा करता है । दोनों ईश्वरी प्रसंग लेकर रहते हैं । मैंने कहा, 'अपनी स्त्री से कुछ आमोद-प्रमोद भी किया कर', तब गुस्से में आकर उसने कहा था, 'क्या ! हम लोग भी आमोद-प्रमोद लेकर रहेंगे?"

श्रीरामकृष्ण अब नरेन्द्र के बारे में कह रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - परन्तु नरेन्द्र के लिए मुझे जितनी व्याकुलता हुई थी, उतनी उसके(छोटे नरेन्द्र के) लिए नहीं हुई ।

(हरिपद से) - "क्या तू गिरीश घोष के यहाँ जाया करता है ?"

हरिपद - हमारे घर के पास ही उनका घर है । प्रायः जाया करता हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - क्या नरेन्द्र भी जाता है ?

हरिपद - हाँ, कभी कभी तो देखता हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - गिरीश जो कुछ (मेरे अवतारत्व के सम्बन्ध में) कहता है, उस पर उसकी (?) क्या राय है ?

हरिपद - नरेन्द्र तर्क में हार गये हैं ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, उसने(नरेन्द्र ने) कहा, 'गिरीश घोष को जब इतना विश्वास है, तो उस पर मैं कुछ क्यों कहूँ ?'

जज अनुकूल मुखोपाध्याय के जामाता के भाई आये हुए हैं । 

श्रीरामकृष्ण - तुम नरेन्द्र को जानते हो?

जामाता के भाई - जी हाँ, नरेन्द्र एक बुद्धिमान युवक है ।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - ये अच्छे आदमी हैं, जब इन्होंने नरेन्द्र की तारीफ की । उस दिन नरेन्द्र आया था । त्रैलोक्य के साथ उस दिन उसने गाया भी; परन्तु उस दिन का गाना अलोना लगा । 

[বাবুরাম ও ‘দুদিক রাখা’ — জ্ঞান-অজ্ঞানের পার হও ]

श्रीरामकृष्ण बाबूराम की ओर देखकर बातचीत कर रहे हैं । मास्टर जिस स्कूल में पढ़ाते हैं, बाबूराम उसी स्कूल की प्रवेशिका कक्षा में पढ़ते हैं ।

[बाबूराम घोष - स्वामी प्रेमानन्द (1861 - 1918)] - हुगली जिले के आंटपुर गांव में अपने नाना के घर में पैदा हुए थे । पिता का नाम तारापद घोष, माता का नाम मातंगिनी देवी था.   बाद में श्री रामकृष्ण संघ में बाबूराम को स्वामी प्रेमानंद के नाम से जाना गया। ] 

श्रीरामकृष्ण (बाबूराम से) - तेरी पुस्तकें कहाँ हैं ? तू लिखे-पढ़ेगा या नहीं ? (मास्टर से) वह दोनों ओर सँभालना चाहता है ।

"बड़ा कठिन मार्ग है । उन्हें जरा सा समझ लेने से क्या होगा ? वशिष्ठ कितने बड़े थे, उन्हें भी पुत्रों के लिए शोक हुआ था । लक्ष्मण ने उन्हें शोक करते हुए देख आश्चर्य में आकर राम से पूछा । राम ने कहा, 'भाई, इसमें आश्चर्य क्या है ? जिसे ज्ञान है, उसे अज्ञान भी है । भाई, तुम ज्ञान और अज्ञान दोनों को पार कर जाओ ।' पैर में काँटा लगता है, तो एक और काँटा खोज लाना पड़ता है; उस काँटे से पहला काँटा निकाला जाता है; फिर दोनों ही काँटे फेंक दिये जाते हैं । इसीलिए अज्ञानरूपी काँटे को निकालने के लिए ज्ञानरूपी काँटा संग्रह करना पड़ता है; फिर ज्ञान और अज्ञान के पार जाया जाता है ।

बाबूराम (हँसकर) - मैं यही चाहता हूँ ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - अरे, दोनों ओर रक्षा करने से क्या वह बात होती है ? उसे अगर तू चाहता है, तो चला आ निकलकर !

बाबूराम (हँसकर) - आप ले आइये ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - राखाल रहता था, वह बात और थी – उसमें उसके बाप की भी स्वीकृति थी । पर इन लड़कों के रहने पर तो गड़बड़ होगा ।

(बाबूराम से) - "तू कमजोर है । तुझ में हिम्मत कम है । देख तो छोटा नरेन्द्र कैसे कहता है, 'मैं जब आऊँगा, तब एकदम चला आऊँगा ।"

अब श्रीरामकृष्ण भक्त-बालकों के बीच में चटाई पर आकर बैठे । मास्टर उनके पास बैठे हुए हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मै कामिनी कांचन-त्यागी खोज रहा हूँ । सोचता हूँ, यह शायद यहाँ रह जायेगा । पर सब के सब कोई न कोई अड़ंगा लगा देते हैं ।

"एक भूत अपना साथी खोज रहा था । शनि या मंगलवार को अपघात मृत्यु होने पर मनुष्य भूत होता है । इसलिए वह भूत जब कभी देखता कि कोई छत पर से गिरकर बेसुध हो गया है, तब वहाँ वह यह सोचकर दौड़ा हुआ जाता कि इसकी अपघात-मृत्यु हुई, अब यह भूत होकर मेरा साथी होगा । परन्तु उसका ऐसा दुर्भाग्य कि सब के सब बच जाते ! उसे कोई साथी नहीं मिलता

"इसी तरह देखो न, राखाल भी 'बीबी-बीबी' करता है, कहता है, 'मेरी बीबी का क्या होगा । नरेन्द्र की छाती पर मैंने हाथ रखा तो बेहोश हो गया और चिल्लाया, 'अजी, यह तुम क्या कर रहे हो ? मेरे बाप-माँ जो हैं !'

"मुझे उन्होंने इस अवस्था में क्यों रखा है ? चैतन्यदेव ने संन्यास धारण किया, इसलिए कि सब लोग प्रणाम करेंगे, जो लोग अवतार को एक बार प्रणाम करेंगे; उनका उद्धार हो जायेगा ।"

श्रीरामकृष्ण के लिए मोहिनीमोहन बाँस की टोकरी में सन्देश लाये हैं ।

श्रीरामकृष्ण - ये सन्देश कौन लाया है ?

बाबूराम ने मोहिनीमोहन की ओर उँगली उठाकर इशारा किया ।

श्रीरामकृष्ण ने प्रणव का उच्चारण करके सन्देशों को छुआ और उसमें से थोड़ासा ग्रहण करके प्रसाद कर दिया । फिर भक्तों को थोड़ा बाँटने लगे । छोटे नरेन्द्र को, और भी दो एक भक्त-बालकों को खुद खिला रहे हैं !

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - इसका एक अर्थ है । शुद्धात्माओं के भीतर नारायण का प्रकाश अधिक है । कामारपुर में जब मैं जाता था, तब वहाँ किसी किसी लड़के को खुद खिला देता था । चीने शाँखारी कहता था, 'ये हमें क्यों नहीं खिलाते ?" मैं किस तरह खिलाता ? वे दुराचारी जो थे । भला उन्हें कौन खिलायेगा ?

[( 7 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-109 ]

(२)

✅ज्ञान तथा भक्ति

शुद्धात्मा भक्तों को प्राप्त कर श्रीरामकृष्ण आनन्द में मग्न हो रहे हैं । अपने छोटे तखत पर बैठे हुए कीर्तन गानेवाली के नाज-नखरे दिखा दिखाकर उन्हें हँसा रहे हैं । कीर्तन गानेवाली सजधजकर अपने साथियों के साथ गा रही है । वह हाथ में रंगीन रूमाल लिए हुए खड़ी है; बीच बीच में खाँसने का ढोंग कर रही है और नथ उठाकर थूक रही है

गाते समय अगर किसी विशिष्ट मनुष्य का आना होता है, तो वह गाते हुए ही उसकी अभ्यर्थना के लिए, 'आइये, बैठिये' आदि शब्दों का प्रयोग करती है । फिर कभी कभी हाथ का कपड़ा हटाकर बाजूबन्द, अनन्त आदि गहने दिखाती है ।

उनका यह अभिनय देखकर भक्तगण ठहाका मारकर हँस रहे हैं । पल्टू तो हँसते हँसते लोटपोट हो रहे हैं । श्रीरामकृष्ण पल्टू की ओर देखकर मास्टर से कह रहे हैं, "बच्चा है न, इसीलिए लोटपोट हुआ जा रहा है । (पल्टू से, हँसकर) ये सब बातें अपने बाप से न कहना । तो फिर जो कुछ लगन (मेरे पास आने के लिए) है, वह भी न रह जायेगी । एक तो ऐसे ही वे लोग इंग्लिशमैन हैं ।

(भक्तों से ) - “बहुतेरे तो सन्ध्योपासना करते हुए ही दुनिया भर की बातें करते हैं; परन्तु बातचीत करने की मनाही है, इसलिए ओठ दबाये हुए ही हर तरह का इशारा करते हैं । यह ले आओ - वह ले आओ – ऊ – हूँ – हूँ - यही सब किया करते हैं । (सब हँसते हैं ।)

"और कोई कोई ऐसे हैं कि माला जपते हुए ही मछलीवाली से मछली का मोल-तोल करते हैं । जप करते हुए कभी ऊँगली से इशारा करके बतला देते हैं कि वह मछली निकाल । जितना हिसाब है, सब उसी समय होता है । (सब हँसते हैं ।)

"स्त्रियाँ गंगा नहाने के लिए आती हैं, तो उस समय ईश्वर का चिन्तन करना तो दूर रहा, उसी समय दुनिया भर की बातें करने लग जाती हैं । पूछती हैं, 'तुम्हारे लड़के का विवाह हुआ, तुमने कौन-कौन से गहने दिये ?'; 'अमुक को कठिन बीमारी हैं'; 'अमुक की बेटी अपनी ससुराल से आयी या नहीं';'अमुक आदमी लड़की देखने गया था, वह खूब देगा और खर्च भी खूब करेगा'; 'हमारा हरीश मुझसे इतना हिला हुआ है कि मुझे छोड़कर एक क्षण भी नहीं रह सकता'; 'माँ, मैं इतने दिनों तक इसीलिए नहीं आ सकी कि अमुक की लड़की के 'देखुआ' आये थे - अब की बार विवाह पक्का होनेवाला था, इसलिए मुझे फुरसत नहीं मिली ।'

“देखो न, कहाँ तो गंगा नहाने के लिए आयी हैं, और कहाँ दुनिया भर की बातें !"

श्रीरामकृष्ण छोटे नरेन्द्र को एकदृष्टि से देख रहे हैं । देखते ही देखते समाधिमग्न हो गये । क्या आप शुद्धात्मा भक्तों के भीतर नारायण के दर्शन कर रहे हैं ?

भक्तगण निर्निमेष नयनों से वह समाधिचित्र देख रहे हैं । इतना हँसी-मजाक हो रहा था, सब बन्द हो गया, जैसे कमरे में एक भी आदमी न हो । श्रीरामकृष्ण का शरीर निःस्पन्द है, दृष्टि स्थिर है, हाथ जोड़कर चित्रवत् बैठे हुए हैं ।

कुछ देर बाद समाधि छूटी । श्रीरामकृष्ण की वायु स्थिर हो गयी थी । अब उन्होंने एक लम्बी साँस छोड़ी । क्रमशः मन बाह्य संसार में आ रहा है । भक्तों की ओर वे देख रहे हैं ।अब भी भावमग्न हैं । अब भक्तों को सम्बोधित करके, किसे क्या होगा, किसकी कैसी अवस्था है, संक्षेप में कह रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण (छोटे नरेन्द्र से) - तुझे देखने के लिए मैं व्याकुल हो रहा था । तेरी बन जायेगी । कभी कभी आया कर । अच्छा, तू क्या चाहता है - ज्ञान या भक्ति ?

छोटे नरेन्द्र - केवल भक्ति ।

श्रीरामकृष्ण - बिना जाने तू किसकी भक्ति करेगा ? (मास्टर को दिखाकर, सहास्य) इन्हें अगर तू जाने ही नहीं, तो इनकी भक्ति कैसे कर सकेगा ? (मास्टर से) परन्तु शुद्धात्मा ने जब कहा है कि केवल भक्ति चाहिए तो इसका अर्थ भी अवश्य है । 

“आप ही आप भक्ति का आना संस्कार के बिना नहीं होता । यह प्रेमाभक्ति का लक्षण है । ज्ञान-भक्ति है विचार के बाद होनेवाली भक्ति ।

(छोटे नरेन्द्र से) – “देखूँ तेरी देह, कुर्ता उतार तो जरा । छाती खूब चौड़ी है - तो काम सिद्ध है । कभी कभी आना ।"

श्रीरामकृष्ण अब भी भावस्थ हैं । दूसरे भक्तों में हरएक को सम्बोधित करके, उनके भविष्य के विषय में स्नेहपूर्वक कह रहे हैं।

(पल्टू से) – “तेरी भी मनोकामना सिद्ध होगी; परन्तु कुछ समय लगेगा ।

(बाबूराम से) - “तुझे इसलिए नहीं खींचता हूँ कि अन्त में कहीं गुलगपाड़ा न मच जाय । 

(मोहिनीमोहन से) – “और तुम्हारे बारे में सब कुछ ठीक ही है । केवल थोड़ी कसर बाकी है । जब वह भी पूर्ण हो जायेगी तब कुछ शेष न रह जायेगा - न कर्तव्य, न कर्म, और न खुद संसार ही क्यों, सभी कुछ छूट जाना क्या अच्छा है !” 

यह कहकर उनकी ओर सस्नेह एक निगाह से देख रहे हैं, जैसे उनके अन्तरतम प्रदेश के सब भाव देख रहे हों । क्या मोहिनीमोहन यही सोच रहे हैं कि ईश्वर के लिए सब कुछ छूट जाना ही अच्छा हैकुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने फिर कहा, “भागवत पण्डित को एक पाश देकर ईश्वर संसार में रख देते हैं, - नहीं तो भागवत फिर कौन सुनाये ! रख देते हैं लोकशिक्षा के लिए, माता ने तुम्हें इसीलिए संसार में रखा है ।"

[জ্ঞানযোগ ও ভক্তিযোগ — ব্রহ্মজ্ঞানীর অবস্থা ও ‘জীবন্মুক্ত’ ]

अब ब्राह्मण युवक से बातें कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (युवक से) - तुम ज्ञान की चर्चा छोड़ो; भक्ति लो - भक्ति ही सार है । आज क्या तुम्हें तीन दिन हो गये ?

ब्राह्मण युवक (हाथ जोड़कर) - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण – विश्वास करो - उन पर निर्भरता लाओ - तो तुम्हें कुछ भी न करना होगा । माँ काली सब कुछ कर लेंगी ।

“ज्ञान की पहुँच सदर दरवाजे तक ही है । भक्ति घर के भीतर भी जाती है । शुद्ध आत्मा निर्लिप्त है । उसमें विद्या और अविद्या दोनों हैं परन्तु वह निर्लिप्त है । वायु में कभी सुगन्ध मिलती है, कभी दुर्गन्ध; परन्तु वायु निर्लिप्त है । 

व्यासदेव यमुना पार कर रहे थे । वहाँ गोपियाँ भी थीं । वे भी पार जाना चाहती थीं, - दही, दूध और मक्खन बेचने के लिए पर वहाँ नाव न थी, सब सोच रही थीं, कैसे पार जायँ । इसी समय व्यासदेव ने कहा, 'मुझे बड़ी भूख लगी है ।" तब गोपियाँ उन्हें दही, दूध, मक्खन, रबड़ी, सब खिलाने लगीं । व्यासदेव लगभग सब साफ कर गये ।

"फिर व्यासदेव ने यमुना से कहा, 'यमुने, अगर मैंने कुछ भी नहीं खाया, तो तुम्हारा जल दो भागों में बँट जाय, बीच से राह हो जाय और हम लोग निकल जायँ ।' ऐसा ही हुआ । यमुना के दो भाग हो गये, बीच से उस पार जाने की राह बन गयी । उसी रास्ते से गोपियों के साथ व्यासदेव पार हो गये ।

"मैंने नहीं खाया, इसका अर्थ यह है । मैं वही शुद्ध आत्मा हूँ, शुद्ध आत्मा निर्लिप्त है, प्रकृति के परे है । उसे न भूख है, न प्यास; न जन्म है, न मृत्यु; वह अजर, अमर और सुमेरुवत् है !

"जिसे यह ब्रह्मज्ञान हुआ हो, वह जीवन्मुक्त है । वह ठीक समझता है कि आत्मा अलग है और देह अलग । ईश्वर के दर्शन करने पर फिर देहात्मबुद्धि नहीं रह जाती । दोनों अलग अलग हैं । जैसे नारियल का पानी सूख जाने पर भीतर का गोला और ऊपर का खोपड़ा अलग अलग हो जाते हैं । आत्मा भी उसी गोले की तरह मानो देह के भीतर खड़खड़ाती हो । उसी तरह विषयबुद्धिरूपी पानी के सूख जाने पर आत्मज्ञान होता है । तब आत्मा एक अलग चीज जान पड़ती है और देह एक अलग चीज । कच्ची सुपारी या कच्चे बादाम के भीतर का गूदा छिलके से अलग नहीं किया जा सकता ।

 “परन्तु जब पक्की अवस्था होती है, तब सुपारी और बादाम छिलके से अलग हो जाते हैं । पक्की अवस्था में रस सूख जाता है । ब्रह्मज्ञान के होने पर विषय-रस सूख जाता है

“परन्तु वह ज्ञान होना बड़ा कठिन है । कहने से ही किसी को ब्रह्मज्ञान नहीं हो जाता । कोई ज्ञान होने का ढोंग करता है । (हँसकर) एक आदमी बहुत झूठ बोलता था । इघर यह भी कहता था कि मुझे ब्रह्मज्ञान हो गया है । किसी दूसरे के तिरस्कार करने पर उसने कहा, 'क्यों जी, संसार तो स्वप्नवत् है ही, अतएव सब अगर मिथ्या हो तो सच बात ही कहाँ से सही होगी ? झूठ भी झूठ है और सच भी झूठ ही है ।" (सब हँसते हैं ।).

 [( 7 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-109 ]

(३)

*अवतारलीला तथा योगमाया आद्या-शक्ति*

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ जमीन पर चटाई पर बैठे हुए हैं । प्रसन्नमुख हैं । भक्तों से कह रहे हैं, "मेरे पैरों पर जरा हाथ तो फेर दो ।" भक्तगण उनके पैर दाब रहे हैं । मास्टर से हँसकर कहते हैं, "इसके (पैर दाबने के) बहुत अर्थ हैं ।"

 फिर अपने हृदय पर हाथ रखकर कह रहे हैं, "यदि इसके भीतर कुछ है तो (सेवा करने पर) अज्ञान, अविद्या सब दूर हो जायेंगे ।"

एकाएक श्रीरामकृष्ण गम्भीर हो गये, जैसे कोई गूढ़ विषय कहनेवाले हों ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - यहाँ दूसरा कोई आदमी नहीं है । उस दिन यहाँ हरीश था - मैंने देखा - गिलाफ को (देह* को) छोड़कर सच्चिदानन्द बाहर हो आया; निकलकर उसने कहा, 'हरएक युग में मैं ही अवतार लेता हूँ ।' तब मैंने सोचा, यह मेरी ही कोई कल्पना होगी । फिर चुपचाप देखने लगा - तब मैंने देखा, वह स्वयं कह रहा है, "शक्ति की आराधना चैतन्य को भी करनी पड़ी थी ।’ (*श्रीरामकृष्ण की देह)

सब भक्त आश्चर्यचकित होकर सुन रहे हैं । कोई कोई सोच रहे हैं, क्या सच्चिदानन्द भगवान् ही श्रीरामकृष्ण का रूप धारण कर हमारे पास बैठे है ? भगवान् क्या फिर अवतीर्ण हुए हैं ?

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से फिर कहा, "मैंने देखा, इस समय पूर्ण आविर्भाव है, परन्तु ऐश्वर्य सत्त्व गुण का है ।" भक्तगण विस्मित होकर सुन रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - "अभी अभी मैं माँ से कह रहा था, माँ, अब मुझसे बका नहीं जाता और कह रहा था, एक बार छू देने पर ही आदमी को चैतन्य हो । योगमाया की महिमा भी ऐसी है कि वह गोरखधन्धे में डाल देती है वृन्दावन की लीला के समय योगमाया ने वैसा ही किया । और उसी के बल से सुबल ने श्रीकृष्ण से श्रीमती को मिला दिया था । जो आद्याशक्ति हैं, उस योगमाया में एक आकर्षण शक्ति है । मैंने उसी शक्ति का आरोप किया था ।

“अच्छा जो लोग आते हैं, उन्हें कुछ होता है ?"

मास्टर - जी हाँ, होता क्यों नहीं ?

श्रीरामकृष्ण - तुम्हें मालूम कैसे हुआ ?

मास्टर (सहास्य) - सब कहते हैं, उनके पास जो जाते हैं, वे लौटते नहीं

श्रीरामकृष्ण (सहास्य ) - एक बड़ा मेढक पनियां साँप के पाले पड़ा था । साँप न उसे निगल सकता था, न छोड़ सकता था ! मेंढक भी आफत में पड़ा था; लगातार टें टें कर रहा था और साँप की भी जान आफत में थी । परन्तु वह मेढक अगर गोखुरे साँप के पाले पड़ता तो दो ही एक पुकार में उसे ठण्डा हो जाना पड़ता ! (सब हँसते हैं ।)

(किशोर भक्तों से) - “तुम लोग त्रैलोक्य की वह पुस्तक - 'भक्ति चैतन्यचन्द्रिका’ – पढ़ना । उससे एक किताब माँग लेना । उसमें चैतन्यदेव की बड़ी अच्छी बातें लिखी हैं ।"

एक भक्त - क्या वे देंगे ?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - क्यों, खेत में अगर बहुत सी ककड़िया हुई हों, तो मालिक दो तीन मुफ्त ही दे सकता है । (सब हँसते हैं ।) क्या मुफ्त नहीं देगा – तू क्या कहता है ?

(पल्टू से) - "यहाँ एक बार आना ।"

पल्टू - हो सका तो आऊँगा ।

श्रीरामकृष्ण - मैं कलकत्ते में जहाँ जाऊँ, वहाँ तू जायेगा या नहीं ?

पल्टू - जाऊँगा; कोशिश करूँगा ।

श्रीरामकृष्ण - यह पटवारी बुद्धि है ।

पल्टू - 'कोशिश करूँगा' यह अगर न कहूँ तो बात झूठ हो सकती है ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - इनकी बातों को मैं झूठ में शामिल नहीं करता, क्योंकि वे स्वाधीन नहीं हैं ।

(हरिपद से) - "महेन्द्र मुखर्जी क्यों नहीं आता ?”

हरिपद - मैं ठीक ठीक नहीं कह सकता ।

मास्टर - (सहास्य) - वे ज्ञानयोग कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, उस दिन प्रह्लाद-चरित्र दिखाने के लिए उसने गाड़ी भेजने के लिए कहा था, परन्तु फिर भेज नहीं सका, शायद इसीलिए आता भी नहीं ।

मास्टर - एक दिन महिम चक्रवर्ती से मुलाकात हुई थी, बातचीत भी हुई थी । जान पड़ता है, वे (महेन्द्र) उनके पास आया-जाया करते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - क्यों, महिम तो भक्ति की बातें भी करता है । वह तो कहता भी है खूब – ‘आराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।'

मास्टर (हँसकर) - आप कहलाते हैं, इसीलिए वह कहता है । श्री गिरीश घोष श्रीरामकृष्ण के पास पहले-पहल आने-जाने लगे हैं । आजकल वे सदा श्रीरामकृष्ण की ही बातों में रहते हैं ।

हरि - गिरीश घोष आजकल कितनी ही तरह के दर्शन करते हैं । यहाँ से लौटने पर सर्वदा ईश्वरी भाव में रहते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - यह हो सकता है, गंगा के पास जाओ तो कितनी ही तरह की चीजें दीख पड़ती हैं - नाव, जहाज - कितनी चीजें ।

हरि - गिरीश घोष कहते हैं, 'अब सिर्फ कर्म लेकर रहूँगा, सुबह को घड़ी देखकर दवात-कलम लेकर बैठूँगा और दिन भर वही काम (पुस्तकें लिखना) किया करूँगा ।' इस तरह कहते हैं, पर कर नहीं सकते । हम लोग जाते हैं तो बस यहीं की बातें किया करते हैं । आपने नरेन्द्र को भेजने के लिए कहा था; गिरीश बाबू ने कहा, 'नरेन्द्र को किराये की गाड़ी कर दूंगा ।’

पाँच बजे हैं, छोटे नरेन्द्र घर जा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उत्तरपूर्ववाले लम्बे बरामदे में खड़े हुए एकान्त में उन्हें अनेक प्रकार के उपदेश दे रहे हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर वे बिदा हुए; और भी कितने ही भक्तों ने बिदाई ली ।

श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए मोहिनीमोहन से बातचीत कर रहे हैं । लड़के के गुजर जाने पर उनकी स्त्री एक तरह से पागल सी हो गयी है । कभी रोती है, कभी हँसती है । श्रीरामकृष्ण के पास आकर बहुत कुछ शान्त हो जाती है ।

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारी स्त्री इस समय कैसी है ?

मोहिनी - यहाँ आने ही से शान्त हो जाती है, वहाँ तो कभी-कभी बड़ा उत्पात मचाती है । अभी उस दिन मरने पर तुली हुई थी ।

श्रीरामकृष्ण सुनकर कुछ देर सोचते रहे । मोहिनीमोहन ने विनयपूर्वक कहा, "आप दो-एक बातें बता दीजिये ।"

श्रीरामकृष्ण - उससे भोजन न पकवाना । इससे सिर और भी गरम हो जाता है । और साथ-साथ आदमी रखे रहना ।

 [( 7 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-109 ]

(४)

*श्रीरामकृष्ण की अद्भुत संन्यासावस्था*

शाम हो गयी, श्रीठाकुरबाड़ी में आरती के लिए तैयारी हो रही है । श्रीरामकृष्ण के कमरे में दिया जला दिया गया और धूनी भी दी जा चुकी । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए जगन्माता को प्रणाम कर मधुर स्वर से उनका नाम ले रहे हैं । कमरे में और कोई नहीं है, सिर्फ मास्टर बैठे हुए हैं । 

श्रीरामकृष्ण उठे । मास्टर भी खड़े हो गये । श्रीरामकृष्ण ने कमरे के पश्चिम और उत्तर के दरवाजों को दिखाकर उन्हें बन्द कर देने के लिए कहा । मास्टर दरवाजे बन्द कर बरामदे में श्रीरामकृष्ण के पास आकर खड़े हुए ।

श्रीरामकृष्ण ने कहा, "अब मैं कालीमन्दिर जाऊँगा ।" यह कहकर मास्टर का हाथ पकड़ उनके सहारे कालीमन्दिर के सामने मन्दिर के चबूतरे पर जाकर बैठे । बैठने के पहले कह रहे हैं, "तुम उसे बुला तो लो ।" मास्टर ने बाबूराम को बुला दिया ।

श्रीरामकृष्ण काली के दर्शन कर उस बड़े आँगन से होकर अपने कमरे की ओर लौट रहे हैं । मुख से "माँ ! माँ ! राज राजेश्वरी !" कहते जा रहे हैं । कमरें में आकर अपने छोटे तखत पर बैठ गये । श्रीरामकृष्ण की एक अद्भुत अवस्था है । किसी धातु की वस्तु को छू नहीं सकते ।

उन्होंने कहा था, "माँ अब ऐश्वर्य की बातें शायद मन से बिलकुल हटा दे रही हैं ।” अब वे केले के पत्ते में भोजन करते हैं । मिट्टी के बर्तन में पानी पीते हैं । गडुआ नहीं छू सकते । 

इसीलिए भक्तों से मिट्टी के बर्तन ले आने के लिए कहा था । गडुए या थाली में हाथ लगाने से हाथ में झुनझुनी-सी चढ़ जाती है, दर्द होने लगता है, - जैसे सिंगी मछली का काँटा चुभ गया हो ।

प्रसन्न कुछ मिट्टी के बर्तन ले आये हैं, परन्तु वे बहुत छोटे हैं । श्रीरामकृष्ण हँसकर कह रहे हैं, "ये बर्तन बहुत छोटे हैं । पर यह लड़का बड़ा अच्छा है । मेरे कहने पर मेरे सामने नंगा होकर खड़ा हो गया ! कैसा लड़कपन है !"

बेलघर के तारक एक मित्र के साथ आये । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं, कमरे में दिया जल रहा है । मास्टर तथा दो एक और भक्त बैठे हुए हैं ।

 तारक ने विवाह किया है । उनके माँ-बाप उन्हें श्रीरामकृष्ण के पास आने नहीं देते । कलकत्ते के बहूबाजार के पास एक मकान है, आजकल तारक वहीं रहा करते हैं । तारक को श्रीरामकृष्ण चाहते भी बहुत हैं । उनके साथ का लड़का जरा तमोगुणी जान पड़ता है । धर्म-विषय और श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में उसका कुछ व्यंगाभाव-सा है । तारक की उम्र लगभग बीस साल की होगी । तारक ने आकर भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।

श्रीरामकृष्ण (तारक के मित्र से) - जरा ये मन्दिर देख आओ न ।

मित्र - यह सब देखा हुआ है ।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, तारक यहाँ आता है । क्या यह बुरा है ?

मित्र - यह तो आप ही जानें ।

श्रीरामकृष्ण - ये(मास्टर) हेडमास्टर हैं ।

मित्र - ओह ।

श्रीरामकृष्ण तारक से कुशल-प्रश्न पूछ रहे हैं और उनसे बहुत-सी बातें कर रहे हैं । अनेक प्रकार की बातें करके तारक ने बिदा होना चाहा । श्रीरामकृष्ण उन्हें अनेक विषयों में सावधान कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण (तारक से) - साधो सावधान रहो ! कामिनी और कांचन से सावधान रहो । स्त्री की माया में एक बार भी डूब गये तो बाहर आने की सम्भावना नहीं है । वह विशालाक्षी नदी का भँवर है, जो एक बार भी फँसा वह फिर नहीं निकल सकता । और यहाँ कभी-कभी आना ।

तारक - घरवाले नहीं आने देते ।

एक भक्त - अगर किसी की माँ कहे कि तू दक्षिणेश्वर न जाया कर, और कसम खाये कि जो तू वहाँ जाय, तो तू मेरा खून पिये, तो ? –

श्रीरामकृष्ण - जो माँ ऐसी बात कहे, वह माँ नहीं है, वह अविद्या की मूर्ति है । उस माँ की बात अगर न मानी जाय तो कोई दोष नहीं । वह माँ ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में विघ्न डालती है । ईश्वर के लिए गुरुजनों की बात का उल्लंघन किया जाय तो इसमें कोई दोष नहीं होता । भरत ने राम के लिए कैकेयी की बात नहीं मानी । गोपियों ने श्रीकृष्ण-दर्शन के लिए पति की मनाई नहीं सुनी । प्रह्लाद ने ईश्वर के लिए बाप (हिरण्यकशिपु) की बात पर ध्यान नहीं दिया । बलि ने ईश्वर की प्रीति के लिए अपने गुरु शुक्राचार्य की बात नहीं सुनी । विभीषण ने राम को पाने के लिए अपने बड़े भाई रावण की बातों पर ध्यान नहीं दिया ।

"परन्तु 'ईश्वर के मार्ग पर न जाना’ इस बात को छोड़ और सब बातें मानो ।" "देखूँ तो तेरा हाथ" यह कहकर श्रीरामकृष्ण तारक के हाथ का वजन परख रहे हैं । 

कुछ देर बाद कह रहे हैं, “कुछ (बाधा) है, परन्तु वह न रह जायेगी । उनसे जरा प्रार्थना करना, और यहाँ कभी-कभी आना - वह दूर हो जायेगी । क्या कलकत्ते के बहूबाजार में तूने मकान किराये से लिया है ?"

तारक - जी, मैंने नहीं लिया, उन्हीं लोगों ने लिया है ।

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - उन लोगों ने लिया है या तूने ? बाघ के डर से न ? श्रीरामकृष्ण कामिनी को बाघ कह रहे हैं । तारक प्रणाम करके बिदा हुए ।

श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर लेटे हुए हैं, - तारक के लिए सोच रहे हों ।एकाएक मास्टर से कहने लगे, "इन लोगों के लिए मैं इतना व्याकुल क्यों होता हूँ ?" मास्टर चुपचाप बैठे हुए हैं, जैसे उत्तर सोच रहे हों । श्रीरामकृष्ण फिर पूछते हैं, और कहते हैं, "कहो न ।"

इघर मोहिनीमोहन की स्त्री श्रीरामकृष्ण के कमरे में आकर उन्हें प्रणाम करके एक ओर बैठी हुई हैं । श्रीरामकृष्ण तारक के साथी की बात मास्टर से कह रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - तारक क्यों उसे अपने साथ ले आया ?

मास्टर - रास्ते में साथ के विचार से ले आया होगा । दूर तक चलना पड़ता है । इस बात के बीच में श्रीरामकृष्ण एकाएक मोहिनीमोहन की स्त्री से कहने लगे, "अपघात-मृत्यु के होने पर स्त्री प्रेतनी होती है । सावधान रहना ! मन को समझाना । इतना देख-सुनकर भी अन्त में क्या यही चाहती हो?”

मोहनीमोहन अब बिदा होने लगे । श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ होकर प्रणाम कर रहे हैं । उनकी स्त्री ने भी प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के उत्तर तरफवाले दरवाजे के पास आकर खड़े हुए । मोहिनीमोहन की पत्नी आँचल से सिर ढाँककर श्रीरामकृष्ण से कुछ कह रही हैं

श्रीरामकृष्ण - यहाँ रहोगी ?

पत्नी - कुछ दिन यहाँ आकर रहूँगी । नौबतखाने में माँ हैं, उनके पास ।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा तो है, परन्तु तुम मरने की बात जो कहती हो, इसी से भय होता है । फिर गंगाजी भी पास ही हैं !

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सोमवार, 15 अगस्त 2022

✅✅🙏भक्ति योग 🙏 परिच्छेद- 108, [ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ] 🙏 भक्ति न लें तो क्या लेकर (शरीर में) रहें ? 🙏 ईश्वरकोटि (कथावाचक -शुकदेव ) को निर्विकल्प समाधि के पश्चात् फिर रूप के दर्शन भी हुए 🙏वे नित्य से लीला में और लीला से नित्य में चढ़ना उतरना जारी रख सकते थे । 🙏जब तक कुम्भ है, तब तक 'मैं' और 'तुम' है

 परिच्छेद-108 

*दक्षिणेश्वर में भक्तों के संग में

(१)

 [ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]

🙏भक्ति योग🙏  

श्रीरामकृष्ण कमरे में छोटे तखत पर समाधिमग्न बैठे हुए हैं । सब भक्त जमीन पर बैठे हुए टकटकी लगाये उन्हें देख रहे हैं । महिमाचरण, रामदत्त, मनोमोहन, नवाई चैतन्य, नरेन्द्र, मास्टर आदि कितने ही लोग बैठे हुए हैं । आज दोलयात्रा (अबीर की होली) होती है, फाल्गुन पूर्णिमा, महाप्रभु (अवतार) श्रीचैतन्यदेव का जन्मदिन है । रविवार, 1 मार्च 1885 ई. ।

भक्तगण एकटक देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी । इस समय भी भाव पूर्ण मात्रा में है । श्रीरामकृष्ण महिमाचरण से कह रहे हैं - "बाबू, हरिभक्ति की कोई कथा – ”

महिमाचरण -

"आराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।

नाराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥

अन्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।

नान्तर्बहियदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥

विरम विरम ब्रह्मन् किं तपस्यासु वत्स ।

व्रज व्रज द्विज शीघ्र शंकरं ज्ञानसिन्धुम् ॥

लभ लभ हरिभक्तिं वैष्णवोक्तां सुपक्वाम् ॥

भवनिगड निबन्धच्छेदनीं कर्तरीं च ॥  

“'नारद-पंचरात्र' में है कि नारद जब तपस्या कर रहे थे, उस समय यह दैववाणी हुई - 'यदि हरि की आराधना की जाय तो फिर तपस्या की क्या आवश्यकता ? और यदि हरि की आराधना न की जाय तो भी तपस्या की क्या आवश्यकता ? अन्दर बाहर यदि हरि ही हो तो फिर तपस्या का क्या प्रयोजन ? और अन्दर -बाहर यदि हरि न हों तो भी तपस्या का क्या प्रयोजन ? अतएव हे ब्रह्मन्, तपस्या से विरत होओ । वत्स, तपस्या की क्या आवश्यकता है ? हे द्विज, शीघ्र ही ज्ञानसिन्धु शंकर  के पास जाओ । वैष्णवों ने जिस हरिभक्ति की महिमा गायी है उस सुपक्व भक्ति का लाभ करो । इस भक्तिरूपी कटार से भवबंधन कट जायेंगे"

श्रीरामकृष्ण - जीवकोटि और ईश्वरकोटि, दो हैं । जीवकोटि की भक्ति वैधी भक्ति है - इतने उपचार से पूजा की जायेगी, इतना जप और इतना पुरश्चरण किया जायेगा । इस वैधी भक्ति के बाद है ज्ञान । इसके बाद है लय । इस लय के बाद फिर जीव नहीं लौटता

"ईश्वरकोटि की और बात है - जैसे अनुलोम और विलोम । 'नेति नेति' करके वह छत पर पहुँचकर जब देखता है, कि छत जिन चीजों की - चूना, सुरखी और ईंटों की - बनी हुई है – सीढ़ी भी उन्हीं चीजों की बनी हुई है, तब वह चाहे तो छत में रह जाय, चाहे चढ़ना-उतरना जारी रखे । वह दोनों ही कर सकता है । 

"शुकदेव समाधिस्थ थे । निर्विकल्प समाधि - जड़ समाधि हो गयी थी । भगवान् ने नारद को भेजा - परीक्षित् को भागवत सुनाना था । उधर नारद ने देखा कि शुकदेव जड़ की तरह बाह्य चेतना से रहित बैठे हुए हैं । तब नारद वीणा बजाते हुए चार श्लोकों में श्रीभगवान् के रूप का वर्णन गाने लगे । जब वे पहला श्लोक गा रहे थे, तब शुकदेव को रोमांच हुआ । क्रमश: आँसू बहने लगे । भीतर - हृदय में चिन्मयस्वरूप के दर्शन होने लगे । जड़ समाधि के पश्चात् फिर रूप के दर्शन भी हुए । शुकदेव ईश्वरकोटि के थे

"हनुमान ने साकार और निराकार दोनों के दर्शन कर लेने के पश्चात् श्रीराम की मूर्ति पर अपनी निष्ठा रखी थी । चिद्घन आनन्द की मूर्ति वही श्रीराम मूर्ति है ।

"प्रह्लाद कभी तो 'सोऽहम्' देखते थे और कभी दासभाव में रहते थे । भक्ति न लें तो क्या लेकर रहें ? इसीलिए सेव्य और सेवक का भाव लेना पड़ता है, - तुम प्रभु हो, मैं दास - यह भाव हरि-रसास्वादन के लिए । रस-रसिक का यह भाव है - हे ईश्वर, तुम रस हो, मैं रसिक हूँ

‘भक्ति के मैं' में, 'विद्या के मैं' में तथा 'बालक के मैं' में दोष नहीं । शंकराचार्य ने विद्या का 'मैं' रखा था - लोकशिक्षा के लिए । बालक के 'मैं' में दृढ़ता नहीं है । बालक गुणातीत है - वह किसी गुण के वश नहीं । अभी अभी वह गुस्सा हो गया । थोड़ी देर में कहीं कुछ नहीं । देखते ही देखते उसने खेलने के लिए घरौंदा बनाया, फिर तुरन्त ही उसे भूल भी गया । अभी तो खेलनेवाले साथियों को वह प्यार कर रहा है, फिर कुछ दिनों के लिए अगर उन्हें न देखा तो सब भूल भी गया । बालक सत्त्व, रज और तम किसी गुण के वश नहीं है

“तुम भगवान् हो, मैं भक्त हूँ, यह भक्तों का भाव है, - यह 'मैं' 'भक्ति का मैं' है । लोग 'भक्ति का मैं' क्यों रखते हैं ? इसका कुछ अर्थ है । 'मैं' मिटने का तो है ही नहीं, तो फिर वह पड़ा रहे - 'दास का मैं', 'भक्त का मैं' होकर । "लाख विचार करो, पर 'मैं’ नहीं जाता

'मैं' मानो कुम्भ स्वरूप है, और ब्रह्म है समुद्र, चारों ओर जल राशि । कुम्भ के भीतर भी जल है, बाहर भी जल । पर कुम्भ तो है ही । यही 'भक्त के मैं' का स्वरूप है । जब तक कुम्भ है, तब तक 'मैं' और 'तुम' है; तुम भगवान् हो, मैं भक्त हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; यह भी है । विचार चाहे लाख करो, परन्तु इसे छोड़ने का उपाय नहीं कुम्भ अगर न रहे, तो और बात है ।"

[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ] 

(२)

 🙏 नरेन्द्र के प्रति संन्यास का उपदेश 🙏 

नरेन्द्र आये और उन्होंने प्रणाम करके आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से बातचीत कर रहे हैं । बातचीत करते हुए जमीन पर आकर बैठे । जमीन पर चटाई बिछी हुई है । अब कमरा भी आदमियों से भर गया । भक्तगण भी हैं और बाहर के आदमी भी आये हुए हैं ।

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - तेरी तबीयत अच्छी है न ? सुना है, तू गिरीश घोष के यहाँ प्राय: जाया करता है ?

नरेन्द्र - जी हाँ, कभी कभी जाया करता हूँ ।

इधर कुछ महीनों से श्रीरामकृष्ण के पास गिरीश आया-जाया करते हैं । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, गिरीश का विश्वास इतना जबरदस्त है कि पकड़ में नहीं आता । उन्हें जैसा विश्वास है, वैसा ही अनुराग भी है । घर में सदा ही श्रीरामकृष्ण के चिन्तन में मस्त रहा करते हैं।  नरेन्द्र प्राय: उनके वहाँ जाते हैं । हरिपद, देवेन्द्र तथा और भी कई भक्त प्रायः उनके यहाँ जाया करते हैं । गिरीश उनके साथ श्रीरामकृष्ण की ही चर्चा किया करते हैं । गिरीश संसारी है; इधर श्रीरामकृष्ण देखते हैं, नरेन्द्र संसार में न रहेंगे, - वे कामिनी-कांचन त्यागी होंगे; अतएव नरेन्द्र से कह रहे हैं –

"तू गिरीश घोष के यहाँ क्या बहुत जाया करता है ? "परन्तु लहसुन के कटोरे को चाहे जितना धोओ, कुछ न कुछ बू तो रहेगी ही । लड़के शुद्ध आधार हैं; कामिनी और कांचन का स्पर्श अभी उन्होंने नहीं किया बहुत दिनों तक कामिनी और कांचन का उपभोग करने पर लहसुन की तरह बू आने लगती है

 "जैसे कौए का काटा हुआ आम । देवता पर चढ़ ही नहीं सकता, अपने खाने में भी सन्देह है । जैसे नयी हण्डी और दही जमायी हण्डी - दही जमायी हण्डी में दूध रखते हुए डर लगता है । अक्सर दूध खराब हो जाता है ।

"गिरीश जैसे गृहस्थ एक दूसरी श्रेणी के हैं । वे योग भी चाहते हैं और भोग भी । जैसा भाव रावण का था - नागकन्याओं और देवकन्याओं को हथियाना चाहता था, उधर राम की प्राप्ति की भी आशा रखता था । 

"असुर लोग अनेक प्रकार के भोग भी करते हैं और नारायण के पाने की भी इच्छा रखते हैं ।  

नरेन्द्र - गिरीश घोष ने पहले का संग छोड़ दिया है ।

श्रीरामकृष्ण - बूढ़ा बैल बधिया बनाया गया है । मैंने बर्दवान में देखा था, एक बधिया एक गाय के पीछे लगा हुआ था । देखकर मैंने पूछा, 'यह कैसा ? - यह तो बधिया है !' तब गाड़ीवान ने कहा, 'महाराज, बड़ा हो जाने पर यह बधिया किया गया था । इसीलिए पहले के संस्कार नहीं गये ।'

"एक जगह अनेक संन्यासी बैठे हुए थे । उधर से एक औरत निकली । सब के सब ईश्वर-चिन्तन कर रहे थे । उनमें से एक ने जरा नजर तिरछी करके उसे देख लिया । तीन लड़के हो जाने के बाद उसने संन्यास लिया था ।

"एक कटोरे में अगर लहसुन पीसकर घोल दिया जाय, तो क्या लहसुन की बू जाती है ? इमली के पेड में क्या कभी आम फलते हैं ? अगर वैसा विभूती का बल किसी को हो तो यह हो सकता है - वह इमली में भी आम लगा देता है । परन्तु क्या वैसी विभूती सभी के पास रहती है ?

"संसारी आदमियों को अवसर कहाँ ? एक ने एक भागवतपाठी पण्डित चाहा था । उसके मित्र ने कहा, 'एक बड़ा अच्छा भागवती पण्डित है, परन्तु कुछ अड़चन है । वह यह कि उसे खुद अपने घर की खेती का काम संभालना पड़ता है, उसके चार हल चलते हैं और आठ बैल हैं । सदा उसे अपने काम की देखरेख करनी पड़ती है; इसलिए अवकाश नहीं है । जिसे पण्डित की जरूरत थी, उसने कहा, 'मुझे इस तरह के भागवती पण्डित की जरूरत नहीं है, जिसे अवकाश ही न हो। हल और बैल वाले भागवती पण्डित की तलाश मैं नहीं करता, मैं तो ऐसा पण्डित चाहता हूँ जो मुझे भागवत सुना सके ।'

"एक राजा प्रतिदिन भागवत सुनता था, पाठ समाप्त करके पण्डितजी रोज कहते थे, 'महाराज, आप समझे ?' राजा भी रोज कहता, 'पहले तुम खुद समझो ।’ पण्डित घर जाकर रोज सोचता था, 'राजा ऐसी बात क्यों कहता है कि पहले तुम खुद समझो ?" वह पण्डित भजन-पूजन भी करता था, क्रमशः उसे होश (चैतन्य) हुआ । तब उसने देखा, ईश्वर का पादपद्म ही सार वस्तु है और सब मिथ्या । संसार से विरक्त होकर वह निकल गया । एक आदमी को उसने राजा के पास इतना कहने के लिए भेज दिया कि 'राजा, अब वह समझ गया है ।'

"परन्तु क्या मैं इन्हें घृणा करता हूँ ? नहीं, मैं उन्हें ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से देखता हूँ । वे ही सब कुछ हुए हैं - सब नारायण हैं । सब योनियों को मातृयोनि मानता -हूँ, तब वेश्या और सती लक्ष्मी में कोई भेद नहीं दीख पड़ता । 

"क्या कहूँ , देखता हूँ, सब के सब मटर की दाल के ग्राहक हैं । कामिनी और कांचन नहीं छोड़ना चाहते । आदमी स्त्रियों के रूप पर मुग्ध हो जाते हैं, रुपये और ऐश्वर्य देखकर सब कुछ भूल जाते हैं, परन्तु यह नहीं जानते कि ईश्वर के रूप का दर्शन करने पर ब्रह्मपद भी तुच्छ हो जाता है

"रावण से किसी ने कहा था, तुम इतने रूप बदलकर तो सीता के पास जाते हो; परन्तु श्रीरामचन्द्र का रूप क्यों नहीं धारण करते ? रावण ने कहा, 'राम का रूप हृदय में एक बार भी देख लेने पर रम्भा और तिलोत्तमा चिता की खाक जान पड़ती हैं । ब्रह्मपद भी तुच्छ हो जाता है - पराई स्त्री की तो बात ही दूर रही ।'

"सब के सब मटर की दाल के ग्राहक हैं । शुद्ध आधार के हुए बिना ईश्वर पर शुद्धा भक्ति नहीं होती - एक लक्ष्य नहीं रहता, कितनी ही ओर मन दौड़ता फिरता है ।

(मनोमोहन से) - “तुम गुस्सा करो और चाहे जो करो, राखाल से मैंने कहा, तू अगर ईश्वर के लिए गंगा में डूबकर मर जाय, तो यह बात मैं सुन लूँगा; परन्तु तू किसी की गुलामी करता है, ऐसी बात न सुनूँ ।

"नेपाल से एक लड़की आयी थी । इसराज बजाकर उसने बहुत अच्छा गाया । भजन गाती थी । किसी ने पूछा, 'क्या तुम्हारा विवाह हो गया है ? उसने कहा, 'अब और किसकी दासी बनूँ ? - एक ईश्वर की दासी हूँ ।'

"कामिनी और कांचन के भीतर रहकर कैसे कोई सिद्ध हो ? वहाँ अनासक्त होना बहुत ही मुश्किल है । एक ओर बीबी का गुलाम, दूसरी ओर रुपये का गुलाम, तीसरी ओर मालिक का गुलाम - उनकी नौकरी बजानी पड़ती है ।

"एक फकीर जंगल में कुटी बनाकर रहता था । तब अकबर शाह दिल्ली के बादशाह थे । फकीर के पास बहुत से आदमी आयाजाया करते थे । अतिथि-सत्कार की उसे बड़ी इच्छा हुई । एक दिन उसने सोचा, 'बिना रुपये-पैसे के अतिथि सत्कार कैसे हो सकता है ? इसलिए एक बार अकबर शाह के दरबार में चलूँ ।' साधु-फकीर के लिए सब जगह द्वार खुला रहता है । जब फकीर वहाँ पहुँचा, तब अकबर शाह नमाज पढ़ रहे थे । फकीर मसजिद में उसी जगह पर जाकर बैठ गया । उसने सुना कि नमाज पूरी करके अकबर शाह खुदा से कह रहे थे, 'ऐ खुदा, मुझे तू दौलत मन्द कर खुश रख तथा और भी इसी तरह की कितनी ही इच्छाएँ पूरी करने के लिए खुदा से दुआएँ माँगते थे ।

       उसी समय फकीर ने वहाँ से उठ जाना चाहा । अकबर शाह ने बैठने के लिए इशारा किया। नमाज पूरी करके बादशाह ने आकर पूछा, 'आप बैठे थे, फिर चले कैसे ?' फकीर ने कहा, "यह शाहंशाह के सुनने लायक बात नहीं है, मैं जाता हूँ ।'बादशाह के जिद करने पर फकीर ने कहा, 'मेरे यहाँ बहुत से आदमी आया करते हैं, इसीलिए मैं कुछ रुपये माँगने आया था ।' अकबर ने पूछा, 'तो आप चले क्यों जा रहे हैं ?' फकीर ने कहा, 'मैंने देखा, तुम भी दौलत के कंगाल हो, और सोचा कि यह भी फकीर ही है, फकीर से क्या माँगू ? माँगना ही है तो खुदा से ही माँगूँगा ।”

नरेन्द्र - गिरीश घोष इस समय बस ऐसी ही चिन्ताएँ (आध्यात्मिक चिंतन)करते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - यह तो बहुत ही अच्छा है, परन्तु इतनी गालियाँ क्यों दिया करता है ? मेरी वह अवस्था नहीं है । जब बिजली गिरती है, तब भारी चीजें उतनी नहीं हिलती, परन्तु झरोखे की झंझरियाँ हिल जाती है । मेरी वह अवस्था नहीं है । सतोगुण की अवस्था में शोर-गुल नहीं सहा जाता । हृदय इसीलिए चला गया, - माँ ने उसे नहीं रखा । पिछले दिनों में बड़ी बढ़ा-चढ़ी करने लगा था । मुझे गालियाँ देता था, हल्ला मचाता था । 

(नरेन्द्र के प्रति ) "गिरीश घोष जो कुछ कहता है, वह तेरे साथ कहीं कुछ मिला भी ?"

नरेन्द्र - मैंने कुछ कहा नहीं, वे ही कहा करते हैं उनका विश्वास है कि आप अवतार हैं । मैंने कुछ कहा नहीं ।

श्रीरामकृष्ण - परन्तु खूब विश्वास है, देखा है न ?

भक्तगण एकदृष्टि से देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण नीचे ही चटाई पर बैठे हैं । पास मास्टर है, सामने नरेन्द्र, चारों ओर भक्तमण्डली ।

श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहकर प्रेमपूर्ण दृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं ।

कुछ देर बाद नरेन्द्र से कहा, "भैया, कामिनी और कांचन के बिना छूटे कुछ न होगा ।" कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण भावमग्न हो गये । करुणा से भरी हुई सस्नेह दृष्टि है । साथ ही भाव में मस्त होकर गाने लगे –       

(भावार्थ) - "बात करते हुए भी मुझे भय होता है, और कुछ नहीं बोलता तो भी भय होता है । मेरे हृदय में यह सन्देह है कि कहीं तुम्हारे जैसे धन को मैं खो न बैठूँ । हम जो मन्त्र जानते हैं, वही मंत्र तुझे देंगे । फिर तो तेरा मन तेरे पास है ही । हम लोग जिस मन्त्र के बल से विपत्तियों से त्राण पाते हैं, उसी मन्त्र से दूसरों को भी उत्तीर्ण कर देते हैं ।"

श्रीरामकृष्ण को जैसे भय हो रहा हो कि नरेन्द्र किसी दूसरे का हो गया । नरेन्द्र आँखों में आँसू भरे हुए देख रहे हैं ।

बाहर के एक भक्त श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए आये हुए थे । वे भी पास बैठे हुए सब कुछ देख-सुन रहे थे । 

भक्त - महाराज, कामिनी और कांचन का अगर त्याग ही करना है तो गृहस्थ फिर कहाँ जाय ?

श्रीरामकृष्ण - तुम गृहस्थी करो न ! हम लोगों के बीच में एक ऐसी ही बात हो गयी ।

महिमाचरण चुपचाप बैठे हुए हैं ।

श्रीरामकृष्ण (महिमा से) - बढ़ जाओ, और भी आगे बढ़ जाओ । चन्दन की लकड़ी मिलेगी; और भी आगे बढ़ जाओ, चाँदी की खान मिलेगी; और भी आगे बढ़ जाओ, सोने की खान पाओगे; और भी आगे बढ़ो तो हीरे और मणि मिलेंगे; बढ़े जाओ ।

महिमा – पर जी खींचता रहता है, आगे बढ़ने देता ही नहीं ।

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) – क्यों लगाम काट दो । उनके नाम के प्रभाव से काट डालो । उनके नाम के प्रभाव से कालपाश भी छिन्न हो जाता है ।

पिता के निधन के बाद से संसार में नरेन्द्र को बड़ा कष्ट हो रहा है । उन पर कई आफतें गुजर चुकीं । बीच-बीच में श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, "तू चिकित्सक तो नहीं बना ?

-"शतमारी भवेद्वैद्यः सहस्रमारी चिकित्सकः ।" (सब हँसते हैं ।)

श्रीरामकृष्ण का शायद यह अर्थ है कि नरेन्द्र इतनी ही उम्र में बहुत-कुछ देख चुका - सुख और दुःख के साथ उसका बहुत परिचय हो चुका ।

नरेन्द्र जरा मुस्कराकर रह गये ।

 [(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108] 

(३)

 🙏 गृहस्थों के प्रति अभयदान 🙏  

नवाई चैतन्य गा रहे हैं । भक्तगण बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । एकाएक उठे । कमरे के बाहर गये । भक्त सब बैठे ही रहे । गाना हो रहा है ।

मास्टर श्रीरामकृष्ण के साथ-साथ गये । श्रीरामकृष्ण पक्के आँगन से होकर कालीमन्दिर की ओर जा रहे हैं । पहले श्रीराधाकान्त के मन्दिर में गये । भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । उन्हें प्रणाम करते हुए देख मास्टर ने भी प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण के सामनेवाली थाली में अबीर रखा हुआ था । आज होली है, श्रीरामकृष्ण भूले नहीं थाली से अबीर लेकर श्रीश्री राधाश्यामजी  पर चढ़ाया फिर उन्हें प्रणाम किया ।

अब कालीमन्दिर जा रहे हैं । पहले सातों सीढ़ियों पर चढ़कर चबूतरे पर खड़े हुए, माता को प्रणाम किया, फिर मन्दिर में गये । माता पर अबीर चढ़ाया । प्रणाम करके कालीमन्दिर से लौट रहे हैं । कालीमन्दिर के सामने चबूतरे पर खड़े होकर मास्टर से उन्होंने कहा, "बाबूराम को तुम क्यों नहीं ले आये ?"

श्रीरामकृष्ण फिर आँगन से कमरे की ओर जा रहे हैं । साथ में मास्टर हैं तथा और एक जन अबीर की थाली हाथ में लिये हुए आ रहे हैं । कमरे में आकर श्रीरामकृष्ण ने सब चित्रों पर अबीर चढ़ाया – दो-एक चित्रों को छोड़कर, - उनमें एक उनका अपना चित्र था और दूसरी येशु की तसबीर । अब आप बरामदे में आये । कमरे में प्रवेश करते समय बरामदे का जो भाग आता है, वहीं नरेन्द्र बैठे हुए हैं । किसी-किसी भक्त के साथ उनकी बातचीत हो रही है । श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र पर अबीर छोड़ा । आप कमरे में प्रवेश कर रहे हैं, मास्टर भी साथ जा रहे हैं, आपने मास्टर पर भी अबीर छोड़ा । कमरे में जितने भक्त थे, सब पर आपने अबीर डाला । सब के सब प्रणाम करने लगे ।

दिन का पिछला पहर हो चला । भक्तगण इधर-उधर घूमने लगे । श्रीरामकृष्ण मास्टर से धीरे-धीरे बातचीत करने लगे । पास कोई नहीं है । बालक-भक्तों की बात कह रहे हैं । कह रहे हैं, "अच्छा, सब तो कहते है कि ध्यान खूब होता है, परन्तु पल्टू का ध्यान क्यों नहीं होता ?

"नरेन्द्र के बारे में तुम्हारी क्या राय है ? बड़ा सरल है; परन्तु उस पर संसार की बड़ी बड़ी आफतें गुजर चुकी हैं, इसीलिए कुछ दबा हुआ है । यह भाव रहेगा भी नहीं ।"

श्रीरामकृष्ण रह-रहकर बरामदे में चले जाते हैं । नरेन्द्र एक वेदान्तवादी से विचार कर रहे हैं ।

   क्रमशः भक्तगण फिर इकट्ठे हो रहे हैं । महिमाचरण से अब स्तव पाठ करने के लिए कहा गया। वे महानिर्वाण-तन्त्र के तृतीय उल्लास में लिखी हुई ब्रह्म की स्तुति कह रहे हैं –

“हृदयकमलमध्ये निर्विशेषं निरीहं

हरिहरविधिवेद्यं योगिभिर्ध्यानगम्यम् ।

जननमरणभीतिभ्रंशिसच्चित्स्वरूपं

सकलभुवनबीजं ब्रह्मचैतन्यमीडे ॥" 

और भी दो एक स्तुतियाँ कहकर महिमाचरण श्रीशंकराचार्य की रची हुई स्तुति कह रहे हैं । उसमें संसार-कूप और संसार-गहनता की बात है । महिमाचरण स्वयं संसारी भक्त हैं

श्रीशिवनामावल्यष्टकम् 

" हे चन्द्रचूड मदनान्तक शूलपाणे

स्थाणो गिरीश गिरिजेश महेश शम्भो ।

भूतेश भीतभयसूदन मामनाथं

संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ १॥

हे पार्वतीहृदयवल्लभ चन्द्रमौले

भूताधिप प्रमथनाथ गिरीशजाप ।

हे वामदेव भव रुद्र पिनाकपाणे,

संसार-दुःखगहनाज्जगदीश रक्ष....."✅

श्रीरामकृष्ण (महिमा से) -श्रीरामकृष्ण (महिमा से) - संसार कूप है, संसार गहन है यह सब क्यों कहते हो ? पहले-पहल इस तरह कहा जाता है । उन्हें पकड़ने पर फिर क्या भय है ? तब यह संसार मौज की कुटिया हो जाता है । मैं खाता-पीता हूँ और आनन्द करता हूँ ।...’

"भय क्या है ? उन्हें पकड़ो । यदि संसार काँटों का जंगल है, तो क्या हुआ ? जूते पहन लो और काँटों को पार कर जाओ । भय क्या है ? जो पाला छू लेता है, क्या वह भी कभी चोर हो सकता है ?

“राजा जनक दो तलवारें चलाते थे । एक ज्ञान की और दूसरी कर्म की । पक्के खिलाड़ी को किसी का डर नहीं रहता ।"

इसी तरह की ईश्वरी बातें हो रही हैं । श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी चारपाई पर बैठे हुए हैं । चारपाई की बगल में मास्टर बैठे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - उसने जैसा कहा, उसी ने उसे खींच रखा है ।

श्रीरामकृष्ण महिमाचरण की बातें कह रहे हैं । नवाई चैतन्य तथा अन्य भक्त फिर गाने लगे । अब श्रीरामकृष्ण उनमें मिल गये और भावमग्न होकर संकीर्तन की मण्डली में नृत्य करने लगे । कीर्तन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "यही इतना काम हुआ और सब मिथ्या था । प्रेम और भक्ति, यही वस्तु है और सब अवस्तु ।"

 [(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108] 

(४)

*गुह्य बातें*

दिन का पिछला पहर हो गया । श्रीरामकृष्ण पंचवटी गये हुए हैं । मास्टर से विनोद की बातें पूछते हैं । विनोद मास्टर के स्कूल में पढ़ते हैं । ईश्वर का चिन्तन करते हुए कभी-कभी विनोद को भावावेश हो जाता है । इसीलिए श्रीरामकृष्ण उन्हें प्यार करते हैं

अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत करते हुए कमरे की ओर लौट रहे हैं । बकुलतल्ले के घाट के पास आकर उन्होंने कहा, “अच्छा, यह जो कोई कोई (मुझे) अवतार कहते हैं, इस पर तुम्हारा क्या विचार है ?"

बातचीत करते हुए श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आ गये । चट्टी उतारकर उसी छोटे तखत पर बैठ गये । तखत के पूर्व की ओर एक पाँवपोश रखा हुआ है । मास्टर उसी पर बैठे हुए बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने वही बात फिर पूछी । दूसरे भक्त कुछ दूर बैठे हुए हैं । ये सब बातें उनकी समझ में नहीं आयीं ।

श्रीरामकृष्ण - तुम क्या कहते हो ?

मास्टर - जी, मुझे भी यही जान पड़ता है, जैसे चैतन्यदेव थे ।

श्रीरामकृष्ण - पूर्ण या अंश या कला ? - तौल कहो न ।

मास्टर - जी, तौल मेरी समझ में नहीं आती । इतना कह सकता हूँ, भगवान् की शक्ति अवतीर्ण हुई है । वे तो आप में हैं ही ।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, चैतन्यदेव ने शक्ति के लिए प्रार्थना की थी ।

श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहे । फिर कहा, "परन्तु वे षट्भुज हुए थे ।"

मास्टर सोच रहे हैं, चैतन्यदेव को षड्भुज रूप में उनके भक्तों ने देखा था जरूर, परन्तु श्रीरामकृष्ण ने किस उद्देश्य से इसका उल्लेख किया ?

भक्तगण पास ही कमरे में बैठे हुए हैं । नरेन्द्र विचार कर रहे हैं । राम (दत्त) बीमारी से उठकर ही आये हैं, वे भी नरेन्द्र के साथ घोर तर्क कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण देख रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मुझे ये सब विचार अच्छे नहीं लगते । (राम से) बन्द करो - एक तो तुम बीमार थे । अच्छा, धीरे-धीरे (मास्टर से) मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता । मैं रोता था और कहता था, 'माँ, एक कहता है - ऐसा नहीं, ऐसा है; दूसरा कुछ और बतलाता है । सत्य क्या है, तू मुझे बतला दे ।'

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गुरुवार, 11 अगस्त 2022

$$$卐 🙏 परिच्छेद- 107, [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ] 🙏मुक्त-अभिमानी मुक्त ही हो जाता है ! 🙏सम्पूर्ण विश्व एक रंगमंच (थिएटर) है !🙏कहीं विद्या का खेल है, कहीं अविद्या का !🙏भक्त के लिए दोनो ही हैं, विद्यामाया और अविद्यामाया !🙏मैं उनका काम कर रहा हूँ, मुझे फिर पाप कैसा ?🙏अकस्मात सिद्ध, जिन्होंने एकाएक प्राप्त कर लिया है🙏 “तीव्र वैराग्य चाहिए - जैसी नंगी तलवार !🙏 'लहसुन की गन्ध क्या जायेगी ??'कटोरी को उसमें तपा लेने पर फिर गन्ध नहीं रह जाती; बर्तन मानो नया बन जाता है ।卐🙏 ठाकुर देव का उत्तर -`या मतिः सा गतिर्भवेत'! 卐🙏 भक्ति और ज्ञान का समन्वय 卐🙏भक्त का आदर्श- अपने इष्टदेव का दर्शन] 卐उनकी की कृपा से जड़ समाधि होने के बाद,नेता, पैगम्बर आदि भक्ति लेकर रहते हैं卐 卐🙏'मैं' तो शरीर रहने तक जायेगा नहीं, तो रहे साला 'दास' बनकर, 'भक्त' बनकर卐🙏卐🙏The Knowledge of Oneness-'भृंगी साधना शिविर' 卐🙏卐मृत्यु स्वरूपा माता की अलग-अलग भाव से पूजा और गिरीश - "मेरा मातृभाव "卐卐🙏संन्यास के कड़े नियम - गृहस्थों के नियम और गिरीश 卐🙏卐🙏स्त्रियों में कौन विद्याशक्ति हैं और कौन अविद्याशक्ति ?卐🙏[ ईश्वरत्व का मार्ग - भक्ति ही सार है ]卐🙏 अकस्मात सिद्ध, जिन्होंने उन्मनासमाधि एकाएक प्राप्त कर लिया है 卐🙏卐🙏विद्यार्थीयों का कर्तव्य परीक्षाओं में पास करना ही नहीं है - पाशमुक्त होना है卐🙏卐🙏गृहस्थ हैं तो दोनों करें- अपना सांसारिक कर्तव्य निभाते हुए अवतार से प्रेम भी करें卐🙏 卐🙏शरीर से ब्राह्मण होने पर अहंकार मत करो 卐🙏卐🙏मन को ईश्वर (या अवतार) में कैसे लगाया जाता है-अभ्यासयोग 卐🙏 (अष्टांग योग को ही ठाकुर देव अभ्यासयोग कहते थे। ) 卐🙏नरेन्द्र आदि के साथ श्रीरामकृष्ण का स्टार थिएटर में 'वृषकेतु' नाटक देखना卐🙏 卐🙏 अवतार कहते हैं - “मैं आया हूँ"; भक्त कहेगा -मैं खुद नहीं आया, लाया गया हूँ 卐🙏卐🙏 इस विश्व-रंगमंच पर "मैं खुद आया हूँ -कहना ठीक नहीं, और "मेरा" का ज्ञान卐🙏 卐🙏सम्पूर्ण विश्व ही एक थिएटर है- नरेन्द्र 卐🙏 [ परन्तु कहीं विद्या का खेल है, कहीं अविद्या का -श्रीरामकृष्ण ] 卐🙏सर्वोत्कृष्ट समागम, महाऐक्य में जब सब एकाकार हो गए -तब सब विद्या है卐🙏 卐🙏अवतार को पहचान लेने पर श्रद्धा होती है- क्या श्री रामकृष्ण अवतार हैं?卐🙏

 *परिच्छेद १०७.

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

गिरीश के मकान पर

(१)

ज्ञान-भक्ति-समन्वय का प्रसंग

श्रीरामकृष्ण गिरीश घोष के बसुपाड़ावाले मकान में भक्तों के साथ बैठकर ईश्वर सम्बन्धी वार्तालाप कर रहे हैं । दिन के तीन बजे का समय है । मास्टर ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । आज बुधवार है - फाल्गुन शुक्ला एकादशी - 25 फरवरी 1885 ई.। पिछले रविवार को दक्षिणेश्वर मन्दिर में श्रीरामकृष्ण का जन्म महोत्सव हो गया है । श्रीरामकृष्ण गिरीश के घर होकर स्टार थिएटर में 'वृषकेतु' नाटक देखने जायेंगे ।

श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर पहले ही पधारे हैं । कामकाज समाप्त करके आने में मास्टर को थोड़ा विलम्ब हुआ । उन्होंने आकर ही देखा, श्रीरामकृष्ण उत्साह के साथ ब्रह्मज्ञान और भक्तितत्त्व के समन्वय की चर्चा कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण (गिरीश आदि भक्तों के प्रति) - जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति जीव की ये तीन स्थितियाँ होती हैं "जो लोग ज्ञान का विचार करते हैं वे तीनों स्थितियों को उड़ा देते हैं, अर्थात ठीक-ठीक समझा सकते हैं वे कहते हैं कि ब्रह्म तीनों स्थितियों से परे है - स्थूल, सूक्ष्म, कारण तीनों शरीरों से परे है; सत्त्व, रज, तम - तीनों गुणों से परे है । सभी माया है, जैसे दर्पण में परछाई पड़ती है । प्रतिबिम्ब कोई वस्तु नहीं है । ब्रह्म ही वस्तु है, बाकी सब अवस्तु।

"ब्रह्मज्ञानी और भी कहते हैं, देहात्मबुद्धि रहने से ही दो दिखते हैं । परछाई भी सत्य प्रतीत होती है। वह बुद्धि लुप्त होने पर 'सोऽहम्' - 'मैं ही वह ब्रह्म हूँ' - यह अनुभूति होती है ।"

एक भक्त - तो फिर क्या हम सब बुद्धि-विचार का मार्ग ग्रहण करें ?

श्रीरामकृष्ण : युक्ति- विचार पथ भी है - वेदान्तवादियों का पथ । और एक पथ है भक्तिपथ । भक्त यदि ब्रह्मज्ञान के लिए व्याकुल होकर रोता है, तो वह उसे भी प्राप्त कर लेता है । ज्ञानयोग और भक्तियोग

"दोनों पथों से ब्रह्मज्ञान हो सकता है । कोई कोई ब्रह्मज्ञान के बाद भी भक्ति लेकर रहते हैं - लोकशिक्षा के लिए; जैसे अवतार आदि ।

"देहात्मबुद्धि, ‘मैं’ - बुद्धि आसानी से नहीं जाती । उनकी कृपा से समाधिस्थ होने पर जाती है - निर्विकल्प समाधि, जड़ समाधि ।

“समाधि के बाद अवतार आदि का 'मैं’ फिर लौट आता है - 'विद्या का मैं', 'भक्त' का ‘मैं’ । इस ‘विद्या के मैं’ से लोकशिक्षा होती है । शंकराचार्य ने ‘विद्या के मैं’ को रखा था ।

"चैतन्यदेव इसी ‘मैं’ द्वारा भक्ति का आस्वादन करते थे, भक्ति-भक्त लेकर रहते थे, ईश्वर की बातें करते थे, नाम संकीर्तन करते थे ।

" ‘मैं’ तो सरलता से नहीं जाता, इसीलिए भक्त जाग्रत्, स्वप्न आदि स्थितियों को उड़ा नहीं देता । वह सभी स्थितियों को मानता है, सत्व-रज-तम तीन गुण भी मानता है । भक्त देखता है, वे ही चौबीस तत्व बने हुए हैं । जीव-जगत् बने हुए हैं । फिर वह देखता है कि वे साकार चिन्मय रूप में दर्शन देते है

"भक्त विद्यामाया की शरण लेता है । साधुसंग, तीर्थ, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य - इन सब की शरण लेकर रहता है । वह कहता है, यदि 'मैं' सरलता से चला न जाय, तो रहे साला 'दास' बनकर, 'भक्त' बनकर ।

"भक्त का भी एकाकार ज्ञान होता है । वह देखता है, ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । स्वप्न की तरह नहीं कहता, परन्तु कहता है, वे ही ये सब बने हुए हैं । मोम के बगीचे में सभी कुछ मोम का है । परन्तु है अनेक रूप में। 

"परन्तु पक्की भक्ति होने पर इस प्रकार बोध होता है । अधिक पित्त जमने पर पीला रोग होता है। तब मनुष्य देखता है कि सभी पीले हैं । श्रीमती राधा ने श्यामसुन्दर का चिन्तन करते करते सभी श्याममय देखा और अपने को भी श्याम समझने लगीं । सीसा यदि अधिक दिन तक पारे के तालाब में रहे तो वह भी पारा बन जाता है । 'कुमुड़' कीड़े को सोचते सोचते झींगुर निश्चल हो जाता है, हिलता नहीं, अन्त में 'कुमुड़' कीड़ा ही बन जाता है । भक्त भी उनका चिन्तन करते करते अहंशून्य बन जाता है । फिर देखता है "वह ही मैं हूँ, मैं ही वह हूँ ।"झींगुर जब 'कुमुड़' कीड़ा बन जाता है, तब सब कुछ हो गया । तभी मुक्ति होती है ।

"जब तक उन्होंने मैं-पन को रखा, तब तक एक भाव का सहारा लेकर उन्हें पुकारना पड़ता है - शान्त, दास्य, वात्सल्य - ये सब ।

 "मैं दासीभाव में एक वर्ष तक था - ब्रह्ममयी की दासी औरतों का कपड़ा, ओढ़ना - यह सब पहना करता था, फिर नथ भी पहनता था । औरतों के भाव में रहने से काम पर विजय प्राप्त होती है ।

 “उस आद्यशक्ति की पूजा करनी होती है, उन्हें प्रसन्न करना होता है । वे ही औरतों का रूप धारण करके वर्तमान हैं; इसीलिए मेरा मातृभाव है ।

"मातृभाव अति शुद्ध भाव है । तन्त्र में वामाचार की बात भी है, परन्तु यह ठीक नहीं, उससे पतन होता है । भोग रखने से ही भय है ।

"मातृभाव मानो निर्जला एकादशी है; किसी भोग की गन्ध नहीं है । दूसरी है फल-मूल खाकर एकादशी; और तीसरी, पूरी मिठाई खाकर एकादशी । मेरी निर्जला एकादशी है, मैंने मातृभाव से सोलह वर्ष की कुमारी की पूजा की थी । देखा, स्तन मातृस्तन हैं, योनि मातृयोनि है । "यह मातृभाव - साधना की अन्तिम बात है । ‘तुम माँ हो, मैं तुम्हारा बालक हूँ ।' यही अन्तिम बात है ।

"संन्यासी की निर्जला एकादशी है; यदि संन्यासी भोग रखता है; तभी भय है । कामिनी-कांचन भोग हैं । जैसे थूककर फिर उसी थूक को चाट लेना । रुपये-पैसे, मान इज्जत, इन्द्रियसुख - ये सब भोग हैं । संन्यासी का स्त्रीभक्त के साथ बैठना या वार्तालाप करना भी ठीक नहीं हैं - इसमें अपनी भी हानि और दूसरों की भी हानि है । इससे दूसरे लोगों को शिक्षा नहीं मिलती, लोकशिक्षा नहीं होती । संन्यासी का शरीर-धारण लोकशिक्षा के लिए है ।

"औरतों के साथ बैठना या अधिक देर तक वार्तालाप करना - इसे भी रमण कहा है । रमण आठ प्रकार के हैं । कोई औरतों की बातें सुन रहा है; सुनते सुनते आनन्द हो रहा है, - यह एक प्रकार का रमण है । औरतों की बात कह रहा है (कीर्तन में) - यह एक प्रकार का रमण है ।औरतों के साथ एकान्त में गुपचुप बातचीत कर रहा है यह एक प्रकार का रमण है । औरतों की कोई चीज पास रख ली है, आनन्द हो रहा है - यह प्रकार है । स्पर्श करना भी एक प्रकार का रमण है; इसीलिए गुरुपत्नी यदि युवती हो तो पादस्पर्श नहीं करना चाहिए । संन्यासियों के लिए ये सब नियम है ।

"संसारियों की अलग बात है । वे दो-एक पुत्र होने पर भाईबहन की तरह रहें । उनके लिए अन्य सात प्रकार के रमण से उतना दोष नहीं है ।

"गृहस्थ के ऋण हैं । देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण; फिर स्त्रीऋण भी है – एक दो बच्चे होना और सती हो तो उसका प्रतिपालन करना ।

“संसारी लोग समझ नहीं सकते कि कौन अच्छी स्त्री है और कौन बुरी स्त्री; कौन विद्याशक्ति और कौन अविद्याशक्ति जो अच्छी स्त्री है, विद्याशक्ति है, उसमें काम, क्रोध आदि कम होता है, नींद कम होती है । वह पति के मस्तक को दूर ठेल देती है । जो विद्याशक्ति है उसमें स्नेह, दया, भक्ति, लज्जा आदि होते हैं । वह सभी की सेवा करती है, वात्सल्य भाव से; और पति की भगवान् में भक्ति बढ़ाने का यत्न करती है। अधिक खर्च नहीं करती, कहीं पति को अधिक श्रम न करना पड़े, कहीं ईश्वर के चिन्तन में विघ्न न हो ।

"फिर मर्दानी स्त्रियों के भी लक्षण हैं । खराब लक्षण - टेढ़ी धँसी हुई आँखें, बिल्ली जैसी आँखें, हड्डियाँ उभरी हुई, बछड़े जैसे गाल ।"

गिरीश - हमारे उद्धार का उपाय क्या है ? 

श्रीरामकृष्ण - भक्ति ही सार है । फिर भक्ति का सत्त्व, भक्ति का रज, भक्ति का तम भी है । “भक्ति का सत्त्व है दीन-हीन भाव; भक्ति का तम मानो डाका पड़ने का भाव है - मैं उनका काम कर रहा हूँ, मुझे फिर पाप कैसा ? तुम मेरी अपनी माँ हो, दर्शन देना ही होगा ।"

गिरीश (हँसते हुए) - भक्ति का तम आप ही तो सिखाते हैं ।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - परन्तु उनके दर्शन होने का लक्षण है । समाधी होती है । समाधि पाँच प्रकार की होती है । (१) चींटी की गति - महावायु चींटी की तरह उठती है । (२) मछली की गति। (३) तिर्यक् गति । (४) पक्षी को गति - जिस प्रकार पक्षी एक शाखा से दूसरी शाखा पर जाता है । (५) कपिवत् या बन्दर की गति - मानो महावायु  कूदकर माथे पर उठ गयी और समाधि हो गयी ।

"और भी दो प्रकार की समाधि है । एक - स्थित समाधि, एकदम बाह्यशून्य; बहुत देर तक, सम्भव है, कई दिनों तक रहे । और दूसरी - उन्मना समाधि, एकाएक मन को समस्त इन्द्रियविषयों की ओर से समेट कर ईश्वर में लगा देना ।

(मास्टर के प्रति) “तुमने यह समझा है ?"

मास्टर - जी हाँ ।

गिरीश - क्या साधना द्वारा उन्हें प्राप्त किया जा सकता है ?

श्रीरामकृष्ण - लोगों ने अनेक प्रकार से उन्हें प्राप्त किया है । किसी ने अनेक तपस्या, साधन-भजन करके प्राप्त किया है, ये हैं साधनसिद्ध कोई जन्म से सिद्ध हैं, जैसे नारद शुकदेव आदि; इन्हें कहते हैं नित्यसिद्ध । दूसरे हैं अकस्मात सिद्ध, जिन्होंने एकाएक प्राप्त कर लिया है; जैसे कोई आशा न थी । पर एकाएक नन्द बसू की तरह धन मिल गया ।

"और कुछ लोग हैं स्वप्नसिद्ध और कृपासिद्ध । यह कहकर श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर होकर गाना गा रहे हैं ।

(भावार्थ) - "क्या श्यामारूपी धन को सभी लोग प्राप्त करते है ! अबोध मन नहीं समझता है, यह क्या बात है !"

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ]

(२)

卐🙏गिरीश का शान्तभाव । कलि में शुद्र की भक्ति और मुक्ति卐🙏

श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर भावाविष्ट हैं । गिरीश आदि भक्तगण सामने बैठे हैं । कुछ दिन पहले स्टार थिएटर में गिरीश ने अनेक अशिष्ट बातें सुनाई थीं, इस समय शान्त भाव है ।

श्रीरामकृष्ण(गिरीश के प्रति) - तुम्हारा यह भाव बहुत अच्छा है – शान्तभाव । माँ से इसीलिए कहा था, 'माँ', उसे शान्त कर दो, मुझे ऐसा-वैसा न कहे ।'

गिरीश(मास्टर के प्रति) - न जाने किसने मेरी जीभ को दबाकर पकड़ लिया है, मुझे बात करने नहीं दे रहा है ।

श्रीरामकृष्ण अभी भी भावमग्न हैं, अन्तर्मुख । बाहर के व्यक्ति, वस्तु, धीरे-धीरे मानो सभी को भूलते जा रहे हैं । जरा स्वस्थ होकर मन को उतार रहे हैं । भक्तों को फिर देख रहे हैं ।श्रीरामकृष्ण(मास्टर को देखकर) - ये सब वहाँ पर (दक्षिणेश्वर में) जाते हैं, - जाते हैं तो जायँ, माँ सब कुछ जानती हैं ।

(पड़ोसी बालक के प्रति) - क्यों जी, तुम क्या समझते हो ? मनुष्य का क्या कर्तव्य है ?

सभी चुप हैं । क्या श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं कि ईश्वर की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है ?

श्रीरामकृष्ण(नारायण के प्रति) - क्या तू पास होना नहीं चाहता ? अरे सुन, जो पाशमुक्त हो जाता है वह शिव बन जाता है और जो पाशबद्ध रहता है वह जीव है ।"* (*बंगला में 'पास' और 'पाश' दोनों का उच्चारण एक जैसा किया जाता है ।)

श्रीरामकृष्ण अभी भावमग्न हैं । पास ही ग्लास में जल रखा था, उन्होंने उसका पान किया । वे अपने आप कह रहे हैं, “कहाँ, भाव में तो मैंने जल पी लिया !"

अभी सायंकाल नहीं हुआ । श्रीरामकृष्ण गिरीश के भाई अतुल के साथ बातचीत कर रहे हैं । अतुल भक्तों के साथ सामने ही बैठे हैं । एक ब्राह्मण पड़ोसी भी बैठे हैं । अतुल हाईकोर्ट में वकील हैं ।

श्रीरामकृष्ण (अतुल के प्रति) - आप लोगों से यही कहता हूँ, आप दोनों करें, संसार धर्म भी करें और जिससे भक्ति हो वह भी करें ।

ब्राह्मण पड़ोसी - क्या ब्राह्मण न होने पर मनुष्य सिद्ध होता है, (पूर्णता प्राप्त कर सकता है) ?

श्रीरामकृष्ण - क्यों ? कलियुग में शूद्र की भक्ति की कथाएँ हैं । शबरी, रैदास, गुहक चण्डाल, - ये सब उदाहरण हैं ।

नारायण - (हँसते हुए )- ब्राह्मण, शूद्र सब एक हैं ।

ब्राह्मण - क्या एक जन्म में होता है ? 

श्रीरामकृष्ण - उनकी दया होने पर क्या नहीं होता ! हजार वर्ष के अन्धकारपूर्ण कमरे में बत्ती लाने पर क्या थोड़ा थोड़ा करके अन्धकार जाता है ? एकदम रोशनी हो जाती है ! (अतुल के प्रति) – “तीव्र वैराग्य चाहिए - जैसी नंगी तलवार ! ऐसा वैराग्य होने पर स्वजन काले साँप जैसे लगते हैं, घर कुआँ-सा प्रतीत होता है ।

"और अन्तर से व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । अन्तर की पुकार वे अवश्य सुनेंगे ।”

सब चुपचाप हैं । श्रीरामकृष्ण ने जो कुछ कहा, एकाग्र चित्त से सुनकर सभी उस पर चिन्तन कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (अतुल के प्रति) - क्यों, वैसी दृढ़ता – व्याकुलता - नहीं होती ? 

अतुल - मन कहाँ ईश्वर में रह पाता है ?

श्रीरामकृष्ण - अभ्यासयोग ! प्रतिदिन उन्हें पुकारने का अभ्यास करना चाहिए । एक दिन में नहीं होता । रोज पुकारते पुकारते व्याकुलता आ जाती है ।

"रात-दिन केवल विषय-कर्म करने पर व्याकुलता कैसे आयेगी ? यदु मल्लिक शुरू शुरू में ईश्वर की बातें अच्छी तरह सुनता था, स्वयं भी कहता था । आजकल अब उतना नहीं कहता । हमेशा चापलूसों को लेकर बैठा रहता है, और रात-दिन केवल विषय की बातें करता है !"

सायंकाल हुआ । कमरे में बत्ती जलायी गयी है । श्रीरामकृष्ण देवताओं के नाम ले रहे हैं, गाना गा रहे हैं और प्रार्थना कर रहे हैं । कह रहे हैं, "हरि बोल, हरि बोल, हरि बोल"; फिर "राम, राम, राम" ! "नित्यलीलामयी, ओ माँ! उपाय बता दे, माँ ; हम तुम्हारे शरण में हैं ! हमें एक तुम्हारा ही आश्रय है !" "शरणागत, शरणागत, शरणागत" ।

गिरीश को व्यस्त देखकर श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर चुप रहे । तेजचन्द्र से कह रहे हैं, "तू जरा पास आकर बैठ ।" 

तेजचन्द्र पास बैठे । थोड़ी देर बाद मास्टर से कान में कह रहे हैं, "मुझे जाना है ।"श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति ) - क्या कह रहा है ? मास्टर - घर जाना है - यही कह रहा है ।

श्रीरामकृष्ण - मैं इन्हें इतना क्यों चाहता हूँ ? ये निर्मल पात्र हैं - विषयबुद्धि प्रविष्ट नहीं हुई है । विषयबुद्धि रहने पर उपदेशों को धारण नहीं कर सकते । नये बर्तन में दूध रखा जा सकता है, दही के बर्तन में दूध रखने से खराब हो जाता है ।

"जिस कटोरी में लहसुन घोला हो, उस कटोरी को चाहे हजार बार धो डालो, लहसुन की गन्ध नहीं जाती ।"

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत, 107 ]

(३)

卐🙏श्रीरामकृष्ण का स्टार थिएटर में 'वृषकेतु' नाटक देखना卐🙏 

श्रीरामकृष्ण 'वृषकेतु' (कर्ण का पुत्र) नाटक देखेंगे । बीडन स्ट्रीट पर जहाँ बाद में मनोमोहन थिएटर हुआ, पहले वहाँ स्टार थिएटर था । श्रीरामकृष्ण थिएटर में आकर बाक्स में दक्षिण की ओर मुँह करके बैठे । मास्टर आदि भक्तगण पास ही बैठे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - नरेन्द्र आया है ?

मास्टर - जी हाँ ।

अभिनय हो रहा है । कर्ण और पद्मावती ने आरी को दोनों ओर से पकड़कर वृषकेतु का बलिदान किया । पद्मावती ने रोते रोते मांस को पकाया । वृद्ध ब्राह्मण अतिथि आनन्द मनाते हुए कर्ण से कह रहे हैं, “अब आओ, हम एक साथ बैठकर पका हुआ मांस खायें ।” कर्ण कह रहे हैं, "यह मुझसे न होगा । पुत्र का मांस खा न सकूँगा ।”

एक भक्त ने सहानुभूति प्रकट करके धीरे से आर्तनाद किया । साथ ही श्रीरामकृष्ण ने भी दुःख प्रकट किया ।

खेल (वृषकेतु नाटक) समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण रंगमंच के विश्रामगृह में आकर उपस्थित हुए । गिरीश, नरेन्द्र आदि भक्तगण बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण कमरे में जाकर नरेन्द्र के पास खड़े हुए और बोले, “मैं आया हूँ ।"

श्रीरामकृष्ण बैठे । अभी भी वृन्द वाद्यों (orchestra) का संगीत सुनायी दे रहा है । श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) - यह सहगान (Concert) सुनकर मुझे आनन्द हो रहा है । वहाँ पर (दक्षिणेश्वर में) शहनाई बजती थी, मैं भावमग्न हो जाता था । एक साधु मेरी स्थिति देखकर कहा करता था, 'ये सब ब्रह्मज्ञान के लक्षण हैं।'

वाद्य बन्द होने पर श्रीरामकृष्ण फिर बात कर रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - यह तुम्हारा थिएटर है या तुम लोगों का ?

गिरीश - जी, हम लोगों का ।

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत, 107 ]

🙏सम्पूर्ण विश्व एक रंगमंच (थिएटर) है !🙏

श्रीरामकृष्ण - 'हम लोगों का' शब्द ही अच्छा है । 'मेरा' कहना ठीक नहीं । कोई कोई कहता है 'मैं खुद आया हूँ ।' ये सब बातें हीनबुद्धि अहंकारी लोग कहते हैं ।

नरेन्द्र - सभी कुछ थिएटर है । 

NARENDRA: "The whole world is a theatre."

श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, ठीक । परन्तु कहीं विद्या का खेल है, कहीं अविद्या का ।

नरेन्द्र - सभी विद्या के खेल है ।

NARENDRA: "Everything is the play of vidya."

श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, परन्तु यह तो ब्रह्मज्ञान से होता है । भक्ति और भक्त के लिए दोनो ही हैं, विद्यामाया और अविद्यामाया

MASTER: "True, true. But a man realizes that when he has the Knowledge of Brahman. But for a bhakta, who follows the path of divine love, both exist — vidyamaya and avidyamaya.

 तू जरा गाना गा । नरेन्द्र गाना गा रहे हैं –

(भावार्थ) - "चिदानन्द समुद्र के जल में प्रेमानन्द की लहरें हैं । अहा ! महाभाव में रासलीला की क्या ही माधुरी है । नाना प्रकार के विलास, आनन्द-प्रसंग कितनी ही नयी नयी भाव तरंगें नये नये रूप धारण कर डूब रही हैं, उठ रही हैं और तरह तरह के खेल कर रही हैं । महायोग में सभी एकाकार हो गये । देश-काल की पृथक्ता तथा भेदाभेद मिट गये और मेरी आशा पूर्ण हुई । मेरी सभी आकांक्षाएँ मिट गयीं । अब हे मन, आनन्द में मस्त होकर दोनों हाथ उठाकर 'हरि हरि' बोल' ।

नरेन्द्र जब गा रहे थे, “महायोग में सब एकाकार हो गये", - तो श्रीरामकृष्ण ने कहा, "यह ब्रह्मज्ञान से होता है । तू जो कह रहा था, - सभी विद्या हैं ।"

नरेन्द्र जब गाने लगे, "हे मन ! आनन्द में मस्त होकर दोनों हाथ उठाकर ‘रे मन हरि हरि’ बोल" - तो श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र से कहा "इसे दो बार कहो।”

गीत समाप्त होने पर भक्तों के साथ वार्तालाप हो रहा है ।

गिरीश - देवेन्द्रबाबू नहीं आये हैं । वे अभिमान करके कहते हैं, ‘हमारे अन्दर तो कुछ सार नहीं है, हम आकर क्या करेंगे !"

श्रीरामकृष्ण (विस्मित होकर) - कहाँ, पहले तो वे वैसी बातें नहीं करते थे ? श्रीरामकृष्ण जलपान कर रहे हैं, नरेन्द्र को भी कुछ खाने को दिया ।

यतीन देव (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आप ‘नरेन्द्र खाओ' 'नरेन्द्र खाओ' कह रहे हैं, और हम लोग क्या कहीं से बहकर आये हैं ।
यतीन को श्रीरामकृष्ण बहुत चाहते हैं । वे दक्षिणेश्वर में जाकर बीच-बीच में दर्शन करते हैं । कभी कभी रात भी वहीं बिताते हैं । वह शोभाबाजार के राजाओं के घर का (राधाकान्त देव के घर का) लड़का है । 
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र के प्रति हँसते हुए) - देख, यतीन तेरी ही बात कर रहा है ।

श्रीरामकृष्ण ने हँसते हँसते यतीन की ठुड्डी पकड़कर प्यार करते हुए कहा, "वहाँ जाना, जाकर खाना ।” अर्थात् 'दक्षिणेश्वर में जाना ।' श्रीरामकृष्ण फिर ‘विवाहविभ्राट’ नाटक का अभिनय देखेंगे। बाक्स में जाकर बैठे । नौकरानी की बात सुनकर हँसने लगे ।
 थोड़ी देर सुनकर उनका मन दूसरी ओर गया । मास्टर के साथ धीरे-धीरे बात कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - अच्छा, गिरीश जो कह रहा है (अर्थात् अवतार) क्या वह सत्य है?

मास्टर - जी, ठीक बात है । नहीं तो सभी के मन में क्यों लग रही है ?

श्रीरामकृष्ण - देखो, अब एक स्थिति आ रही है, पहले की स्थिति उलट गयी है । अब धातु की चीजें छू नहीं सकता हूँ ।

मास्टर विस्मित होकर सुन रहे हैं । श्रीरामकृष्ण - यह जो नवीन स्थिति है, इसका एक बहुत ही गूढ़ अर्थ है । श्रीरामकृष्ण धातु छू नहीं सक रहे हैं । सम्भव है, अवतार माया के ऐश्वर्य का कुछ भी भोग नहीं करते, क्या इसीलिए श्रीरामकृष्ण ये सब बातें कह रहे हैं ?

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - अच्छा, मेरी स्थिति कुछ बदल रही है, देखते हो ?

मास्टर - जी, कहाँ ?
श्रीरामकृष्ण - कर्म में ?
मास्टर - अब कर्म बढ़ रहा है - अनेक लोग जान रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - देख रहे हो ! पहले जो कुछ कहता था, अब सफल हो रहा है ।

श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर चुप रहकर एकाएक कह रहे हैं - "अच्छा, पल्टू का अच्छा ध्यान क्यों नहीं होता ?"
अब श्रीरामकृष्ण के दक्षिणेश्वर जाने की व्यवस्था हो रही है ।

श्रीरामकृष्ण ने किसी भक्त के पास गिरीश के सम्बन्ध में कहा था, "पीसे हुए लहसुन की कटोरी को हजार बार धोओ, पर लहसुन की गन्ध क्या सम्पूर्ण रूप से जाती है ?"

गिरीश ने भी इसीलिए मन ही मन प्रेम-कोप किया है । जाते समय गिरीश श्रीरामकृष्ण से कुछ कह रहे हैं ।

गिरीश (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - लहसुन की गन्ध क्या जायेगी ?

श्रीरामकृष्ण – जायेगी ।

गिरीश - तो आप कह रहे हैं – जायेगी ?

श्रीरामकृष्ण - खूब आग जलाकर लहसुन की कटोरी को उसमें तपा लेने पर फिर गन्ध नहीं रह जाती; बर्तन मानो नया बन जाता है ।

‘‘जो कहता है 'मेरा नहीं होगा', उसका नहीं होता । मुक्त-अभिमानी मुक्त ही हो जाता है और बद्ध-अभिमानी बद्ध ही रह जाता है । जो जोर से कहता है 'मैं मुक्त हूँ', वह मुक्त ही हो जाता है । पर जो दिनरात कहता है, 'मैं बद्ध हूँ' वह बद्ध ही हो जाता है ।"
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^एक ही जन्म में दूसरी बार जीवित होने वाले कर्ण के पुत्र वृषकेतु की कथा :  कहते हैं मृत्यु जीवन का सत्य है जो एक बार मर जाता है वह फिर जीवित नहीं हो सकता। लेकिन कई बार ऐसे भी चमत्कार होते हैं कि मरने के बाद लोग जीवित हो उठते हैं। महाभारत में भी कुछ ऐसी ही कथाएं हैं। कथा इस प्रकार है - कर्ण के द्वार से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता था।  यदि एक बार वह किसी वस्तु को देने की स्वीकृति दे देता तो उसे अवश्य देता।  एक दिन महाराज कर्ण दोपहर के भोजन के लिए निकलने लगे तो एक ब्राह्मण पधारे. द्वारपाल ने उन्हें महल में जाने की आज्ञा दे दी।  महाराज ने पूछा –“कहिए विप्रवर ! मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ?” --कल एकादशी का व्रत था आज उपवास खोलना है।  किन्तु आपसे इच्छित भोजन चाहता हूँ। ” 

महात्मन ! आज्ञा दें, जैसे आज्ञा देंगे वही भोजन परोसा जाएगा। ” उस क्षद्मवेशी ने कर्ण के पुत्र का मांस खाने की इच्छा प्रकट की। “ब्राह्मण को नरमांस का लोभ ! प्रभु कहीं आप मेरी परीक्षा तो नहीं ले रहे ? मैं एक माँ होकर अपने ही बच्चे का मांस कैसे पकाऊ ? उसने विचार किया – “धर्म व व्रत के पालन के लिए सन्तान का बलिदान भी करना पड़े तो नि:संकोच कर देना चाहिए, हो सकता है ईश्वर ने वृषकेतु के भाग्य में यही लिखा हो। 

पद्मावती ने ध्यान लगा कर चित्त को शांत किया व समस्त मोह त्याग कर पुत्र वध के लिए प्रस्तुत हुई।  वृषकेतु के शरीर  के टुकड़े-टुकड़े कर दिए ब्राह्मण के आगे भोजन परोसा तो वह बोला –“ वाह ! क्या बढिया सुगंध आ रही है।  जाओ, बाहर से किसी बालक को बुला लाओ, पहला कौर उसे खिलाऊंगा। ”कर्ण बालक की खोज में बाहर गए तो देखा कि वृषकेतु बच्चों के साथ खेल रहा है।  उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। ब्राह्मण के वेश में स्वयं नारायण कर्ण व उसकी पत्नी की परीक्षा लेने आए थे।  पद्मावती ने पति-पत्नी की मर्यादा के पालन के लिए मातृत्व की सभी मर्यादाएँ तोड़ दीं व अपने अप्रतिम त्याग के बल पर संसार में अमर  हो गई।]