गुरुवार, 11 अगस्त 2022

卐🙏卐🙏 परिच्छेद- 107, [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ] 卐🙏गिरीश का प्रश्न - 'लहसुन की गन्ध क्या जायेगी ??' 卐🙏 ठाकुर देव का उत्तर -`या मतिः सा गतिर्भवेत'! Vedanta Leadership Training /卐🙏अवतार (नेता,पैगम्बर) आदि उत्साह के साथ भक्ति और ज्ञान का समन्वय करते है 卐🙏[आमतौर से भक्त का आदर्श होता है - अपने इष्टदेव (माँ काली) का दर्शन] 卐उनकी की कृपा से जड़ समाधि होने के बाद,नेता, पैगम्बर आदि भक्ति लेकर रहते हैं卐 卐🙏'मैं' तो शरीर रहने तक जायेगा नहीं, तो रहे साला 'दास' बनकर, 'भक्त' बनकर卐🙏卐🙏The Knowledge of Oneness-'भृंगी साधना शिविर' 卐🙏卐मृत्यु स्वरूपा माता की अलग-अलग भाव से पूजा और गिरीश - "मेरा मातृभाव "卐卐🙏संन्यास के कड़े नियम - गृहस्थों के नियम और गिरीश 卐🙏卐🙏स्त्रियों में कौन विद्याशक्ति हैं और कौन अविद्याशक्ति ?卐🙏[ ईश्वरत्व का मार्ग - भक्ति ही सार है ]卐🙏 अकस्मात सिद्ध, जिन्होंने उन्मनासमाधि एकाएक प्राप्त कर लिया है 卐🙏卐🙏विद्यार्थीयों का कर्तव्य परीक्षाओं में पास करना ही नहीं है - पाशमुक्त होना है卐🙏卐🙏गृहस्थ हैं तो दोनों करें- अपना सांसारिक कर्तव्य निभाते हुए अवतार से प्रेम भी करें卐🙏 卐🙏शरीर से ब्राह्मण होने पर अहंकार मत करो 卐🙏卐🙏मन को ईश्वर (या अवतार) में कैसे लगाया जाता है-अभ्यासयोग 卐🙏 (अष्टांग योग को ही ठाकुर देव अभ्यासयोग कहते थे। ) 卐🙏नरेन्द्र आदि के साथ श्रीरामकृष्ण का स्टार थिएटर में 'वृषकेतु' नाटक देखना卐🙏 卐🙏 अवतार कहते हैं - “मैं आया हूँ"; भक्त कहेगा -मैं खुद नहीं आया, लाया गया हूँ 卐🙏卐🙏 इस विश्व-रंगमंच पर "मैं खुद आया हूँ -कहना ठीक नहीं, और "मेरा" का ज्ञान卐🙏 卐🙏सम्पूर्ण विश्व ही एक थिएटर है- नरेन्द्र 卐🙏 [ परन्तु कहीं विद्या का खेल है, कहीं अविद्या का -श्रीरामकृष्ण ] 卐🙏सर्वोत्कृष्ट समागम, महाऐक्य में जब सब एकाकार हो गए -तब सब विद्या है卐🙏 卐🙏अवतार को पहचान लेने पर श्रद्धा होती है- क्या श्री रामकृष्ण अवतार हैं?卐🙏

 *परिच्छेद १०७.

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

गिरीश के मकान पर

(१)

ज्ञान-भक्ति-समन्वय का प्रसंग

श्रीरामकृष्ण गिरीश घोष के बसुपाड़ावाले मकान में भक्तों के साथ बैठकर ईश्वर सम्बन्धी वार्तालाप कर रहे हैं । दिन के तीन बजे का समय है । मास्टर ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । आज बुधवार है - फाल्गुन शुक्ला एकादशी - 25 फरवरी 1885 ई.। पिछले रविवार को दक्षिणेश्वर मन्दिर में श्रीरामकृष्ण का जन्म महोत्सव हो गया है । श्रीरामकृष्ण गिरीश के घर होकर स्टार थिएटर में 'वृषकेतु' नाटक देखने जायेंगे ।

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ গিরিশ ঘোষের বসুপাড়ার বাটীতে ভক্তসঙ্গে বসিয়া ঈশ্বরীয় কথা কহিতেছেন। বেলা ৩টা বাজিয়াছে। মাস্টার আসিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। আজ বুধবার, ১৫ই ফাল্গুন, শুক্লা একাদশী — ২৫শে ফেব্রুয়ারি, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ। গত রবিবার দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে শ্রীরামকৃষ্ণের জন্মমহোৎসব হইয়া গিয়াছে। আজ ঠাকুর গিরিশের বাড়ি হইয়া স্টার থিয়েটারে বৃষকেতুর অভিনয় দর্শন করিতে যাইবেন

Sri Ramakrishna was at the house of Girish Ghosh in Bosepara Lane, Calcutta. It was about three o'clock when M. arrived and prostrated himself before him. The Master was going to see a play at the Star Theatre. He was talking with the devotees about the Knowledge of Brahman.

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

[Vedanta Leadership Training]

[explain the last day of 3 day camp, solid-liquid-gas:  

 the gross, the subtle, and the causal bodies-are Maya !] 

卐🙏अवतार (नेता,पैगम्बर) आदि उत्साह के साथ भक्ति और ज्ञान का समन्वय करते है 卐🙏

श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर पहले ही पधारे हैं । कामकाज समाप्त करके आने में मास्टर को थोड़ा विलम्ब हुआ । उन्होंने आकर ही देखा, श्रीरामकृष्ण उत्साह के साथ ब्रह्मज्ञान और भक्तितत्त्व के समन्वय की चर्चा कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण (गिरीश आदि भक्तों के प्रति) - जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति जीव की ये तीन स्थितियाँ होती हैं । "जो लोग ज्ञान का विचार करते हैं वे तीनों स्थितियों को उड़ा देते हैं, अर्थात ठीक-ठीक समझा सकते हैं वे कहते हैं कि ब्रह्म तीनों स्थितियों से परे है - स्थूल, सूक्ष्म, कारण तीनों शरीरों से परे है; सत्त्व, रज, तम - तीनों गुणों से परे है । सभी माया है, जैसे दर्पण में परछाई पड़ती है । प्रतिबिम्ब कोई वस्तु नहीं है । ब्रह्म ही वस्तु है, बाकी सब अवस्तु। [माण्डूक्य उपनिषद] 

শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশ প্রভৃতি ভক্তদের প্রতি) — জাগ্রত, স্বপ্ন, সুষুপ্তি, জীবের এই তিন অবস্থা।“যারা জ্ঞানবিচার করে তারা তিন অবস্থাই উড়িয়ে দেয়। তারা বলে যে ব্রহ্ম তিন অবস্থারই পার, স্থূল, সূক্ষ্ম, কারণ — তিনদেহের পার; সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ তিনগুণের পার: সমস্তই মায়া, যেমন আয়নাতে প্রতিবিম্ব পড়েছে; প্রতিবিম্ব কিছু বস্তু নয়; ব্রহ্মই বস্তু আর সব অবস্তু।১

MASTER: "Man experiences three states of consciousness: waking, dream, and deep sleep. Those who follow the path of knowledge explain away the three states. According to them, Brahman is beyond the three states. It is also beyond the gross, the subtle, and the causal bodies, and beyond the three gunas — sattva, rajas, and tamas. All these are maya, like a reflection in a mirror. The reflection is by no means the real substance. Brahman alone is the Substance and all else is illusory.

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

卐🙏आमतौर से भक्त का आदर्श होता है - अपने इष्टदेव (माँ काली) का दर्शन卐🙏  

[Usually the ideal of a bhakta is the vision of the Personal God.]

[केवल अवतार ही कह सकते हैं - 'सोऽहम्'-'मैं ही वह ब्रह्म हूँ'] 

"ब्रह्मज्ञानी और भी कहते हैं, देहात्मबुद्धि रहने से ही दो दिखते हैं । परछाई भी सत्य प्रतीत होती है। वह बुद्धि लुप्त होने पर 'सोऽहम्' - 'मैं ही वह ब्रह्म हूँ' - यह अनुभूति होती है ।"

[“ব্রহ্মজ্ঞানীরা আরও বলে, দেহাত্মবুদ্ধি থাকলেই দুটো দেখায়। প্রতিবিম্বটাও সত্য বলে বোধ হয়। ওই বুদ্ধি চলেগেলে, সোঽহম্‌ ‘আমিই সেই ব্রহ্ম’ এই অনুভূতি হয়।”

"The knowers of Brahman say, further, that it is the identification of the soul with the body that creates the notion of duality. In that state of identification the reflection appears real. When this identification disappears, a man realizes, 'I am He'; I am Brahman. 

एक भक्त - तो फिर क्या हम सब बुद्धि-विचार का मार्ग (ज्ञान मार्ग) ग्रहण करें ?

একজন ভক্ত — তাহলে কি আমরা সব বিচার করব?

A DEVOTEE: "Then shall we all follow the path of reasoning?"

श्रीरामकृष्ण : युक्ति- विचार पथ भी है - वेदान्तवादियों का पथ । और एक पथ है भक्तिपथ । भक्त यदि ब्रह्मज्ञान के लिए व्याकुल होकर रोता है, तो वह उसे भी प्राप्त कर लेता है । ज्ञानयोग और भक्तियोग ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — বিচারপথও আছে, বেদান্তবাদীদের পথ। আর-একটি পথা আছে ভক্তিপথ। ভক্ত যদি ব্যাকুল হয়ে কাঁদে ব্রহ্মজ্ঞানের জন্য, সে তাও পায়। জ্ঞানযোগ ও ভক্তিযোগ।

[MASTER: "Reasoning is one of the paths; it is the path of the Vedantists. But there is another path, the path of bhakti. If a bhakta weeps longingly for the Knowledge of Brahman, he receives that as well. These are the two paths: jnana and bhakti.

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

उनकी की कृपा से जड़ समाधि होने के बाद,नेता, पैगम्बर आदि भक्ति लेकर रहते हैं 

"दोनों पथों से ब्रह्मज्ञान हो सकता है । कोई कोई ब्रह्मज्ञान के बाद भी भक्ति लेकर रहते हैं - लोकशिक्षा के लिए; जैसे अवतार आदि ।

[“দুই পথ দিয়াই ব্রহ্মজ্ঞান হতে পারে। কেউ কেউ ব্রহ্মজ্ঞানের পরও ভক্তি নিয়ে থাকে লোকশিক্ষার জন্য; যেমন অবতারাদি।

"One may attain the Knowledge of Brahman by either path. Some retain bhakti even after realizing Brahman, in order to teach humanity. An Incarnation of God is one of these.

"देहात्मबुद्धि, ‘मैं’ - बुद्धि आसानी से नहीं जाती । उनकी कृपा से समाधिस्थ होने पर जाती है - निर्विकल्प समाधि, जड़ समाधि ।

“দেহাত্মবুদ্ধি, ‘আমি’ বুদ্ধি কিন্তু সহজে যায় না; তাঁর কৃপায় সমাধিস্থ হলে যায় — নির্বিকল্পসমাধি, জড়সমাধি।

"A man cannot easily get rid of the ego and the consciousness that the body is the soul. It becomes possible only when, through the grace of God, he attains samadhi — nirvikalpa samadhi, jada samadhi.

“समाधि के बाद अवतार आदि का 'मैं’ फिर लौट आता है - 'विद्या का मैं', 'भक्त' का ‘मैं’ । इस ‘विद्या के मैं’ से लोकशिक्षा होती है । शंकराचार्य ने ‘विद्या के मैं’ को रखा था ।

“সমাধির পর অবতারাদির ‘আমি’ আবার ফিরে আসে — বিদ্যার আমি, ভক্তের আমি এই ‘বিদ্যার আমি’ দিয়ে লোকশিক্ষা হয়। শঙ্করাচার্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিল।

"The ego of the Incarnations returns to them when they come down from the plane of samadhi; but then it is the 'ego of Knowledge' or the 'ego of Devotion'. Through the 'ego of Knowledge' they teach men. Sankaracharya kept the 'ego of Knowledge'.

"चैतन्यदेव इसी ‘मैं’ द्वारा भक्ति का आस्वादन करते थे, भक्ति-भक्त लेकर रहते थे, ईश्वर की बातें करते थे, नाम संकीर्तन करते थे ।

[“চৈতন্যদেব এই ‘আমি’ দিয়ে ভক্তি আস্বাদন করতেন, ভক্তি-ভক্ত নিয়ে থাকতেন; ঈশ্বরীয় কথা কইতেন; নামসংকীর্তন করতেন।

"Through the 'ego of Devotion' Chaitanyadeva tasted divine love and enjoyed the company of the devotees. He talked about God and chanted His name.

" ‘मैं’ तो सरलता से नहीं जाता, इसीलिए भक्त जाग्रत्, स्वप्न आदि स्थितियों को उड़ा नहीं देता । वह सभी स्थितियों को मानता है, सत्व-रज-तम तीन गुण भी मानता है । भक्त देखता है, वे ही चौबीस तत्व बने हुए हैं । जीव-जगत् बने हुए हैं । फिर वह देखता है कि वे साकार चिन्मय रूप में दर्शन देते है

“আমি তো সহজে যায় না, তাই ভক্ত জাগ্রত স্বপ্ন প্রভৃতি অবস্থা উড়িয়ে দেয় না। ভক্ত সব অবস্থাই লয়; সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ, তিনগুণও লয়; ভক্ত দেখে তিনিই চর্তুবিংশতি তত্ত্ব হয়ে রয়েছেন, জীবজগৎ হয়ে রয়েছেন; আবার দেকে সাকার চিন্ময়রূপে তিনি দর্শন দেন।

"Since one cannot easily get rid of the ego, a bhakta does not explain away the states of waking, dream, and deep sleep. He accepts all the states. Further, he accepts the three gunas — sattva, rajas, and tamas. A bhakta sees that God alone has become the twenty-four cosmic principles, the universe, and all living beings. He also sees that God reveals Himself to His devotees in a tangible form, which is the embodiment of Spirit.

 [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

卐🙏'मैं' तो शरीर रहने तक जायेगा नहीं, तो रहे साला 'दास' बनकर, 'भक्त' बनकर卐🙏

"भक्त विद्यामाया की शरण लेता है । साधुसंग, तीर्थ, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य - इन सब की शरण लेकर रहता है । वह कहता है, यदि 'मैं' सरलता से चला न जाय, तो रहे साला 'दास' बनकर, 'भक्त' बनकर ।

“ভক্ত বিদ্যামায়া আশ্রয় করে থাকে। সাধুসঙ্গ, তীর্থ, জ্ঞান, ভক্তি, বৈরাগ্য — এই সব আশ্রয় করে থাকে। সে বলে যদি ‘আমি’ সহজে চলে না যায়, তবে থাক্‌ শালা ‘দাস’ হয়ে, ‘ভক্ত’ হয়ে।

"The bhakta takes shelter under vidyamaya. He seeks holy company, goes on pilgrimage, and practises discrimination, devotion, and renunciation. He says that, since a man cannot easily get rid of his ego, he should let the rascal remain as the servant of God, the devotee of God.

 [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

卐🙏The Knowledge of Oneness-'भृंगी साधना शिविर' 卐🙏

[भक्त का ज्ञान -जगत स्वप्न की तरह नहीं है,वे ही ये सब बने हुए हैं-  

मोम के बगीचे में सभी कुछ मोम का है, परन्तु है अनेक रूप में।]

"भक्त का भी एकाकार ज्ञान होता है । वह देखता है, ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । स्वप्न की तरह नहीं कहता, परन्तु कहता है, वे ही ये सब बने हुए हैं । मोम के बगीचे में सभी कुछ मोम का है । परन्तु है अनेक रूप में। (कुम्भ मेला 14 अप्रैल 1986)  

“ভক্তেরও একাকার জ্ঞান হয়; সে দেখে ঈশ্বর ছাড়া আর কিছুই নাই। ‘স্বপ্নবৎ’ বলে না, তবে বলে তিনিই এই সব হয়েছেন; মোমের বাগানে সবই মোম, তবে নানা রূপ।

"But a bhakta also attains the Knowledge of Oneness; he sees that nothing exists but God. He does not regard the world as a dream, but says that it is God Himself who has become everything. In a wax garden you may see various objects, but everything is made of wax.

"परन्तु पक्की भक्ति होने पर इस प्रकार बोध होता है । अधिक पित्त जमने पर पीला रोग होता है। तब मनुष्य देखता है कि सभी पीले हैं । श्रीमती राधा ने श्यामसुन्दर का चिन्तन करते करते सभी श्याममय देखा और अपने को भी श्याम समझने लगीं । सीसा यदि अधिक दिन तक पारे के तालाब में रहे तो वह भी पारा बन जाता है । 'कुमुड़' (भृंगी-Beetle) कीड़े को सोचते सोचते झींगुर निश्चल हो जाता है, हिलता नहीं, अन्त में 'कुमुड़' (भृंगी) कीड़ा ही बन जाता है । भक्त भी उनका चिन्तन करते करते अहंशून्य बन जाता है । फिर देखता है "वह ही मैं हूँ, मैं ही वह हूँ ।' "झींगुर जब 'कुमुड़' कीड़ा बन जाता है, तब सब कुछ हो गया । तभी मुक्ति होती है ।

[सभी प्रकार की साधनाओं में केवल एक 'भृंगी साधना' ऐसी साधना है जो अति शीघ्र फल देती है।भृंगी एक कीट का नाम है जो हमारे घर के आस-पास उड़कर अपने भोजन के लिये नाली इत्यादि से एक रेंगने वाला कीड़ा पकड़ कर लाता है और उसको दीवार या कहीं किसी कोने में मिट्टी का घर बना कर उसको उस घर में बन्द कर देता है... उस मिट्टी के घर में ऊपर की ओर एक छोटा छिद्र बना देता है जिससे कीड़ा जीवित और ताजा रहे लेकिन बाहर नहीं निकल पाये...भृंगी कीट अपने बनाये हुऐ उस घर के आस-पास इधर-उधर ही रहता है और बार-बार अपने उस घर पर आ कर अपने भोजन को देखता रहता है कि वह सुरक्षित है कि नहीं...भृंगी कीट द्वारा कीड़े को बार-बार देखने पर कीड़ा इतना भयभीत हो जाता है कि इस डर से वह चौबीस घण्टे भृंगी कीट की उस शक्ल को याद रखता है...इसका परिणाम यह होता है कि उस नाली में रेंगने वाले कीड़े के शरीर में उड़ने वाले भृंगी कीट जैसे ही पैर व पंख निकल आते है और वह बिल्कुल भृंगी कीट बन कर उस मिट्टी के घर को तोड़ कर उड़ जाता है। ...इसी आधार पर हमारे महापुरुषों ने इस साधना को भृंगी साधना परम्परा (स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा -Be and Make) का नाम दिया है...“हमारे गुरु महाराज जी (C-IN-C, नवनीदा) ने भी यही साधना करते हुए दादा गुरु (स्वामी विवेकानन्द) की आन्तरिक समस्त शक्तियों को पा लिया था और बाहरी स्थूल रूप से देखने पर भी उनमें तनिक भेद नहीं था।” इसके लिये मुमुक्षु को चाहिये कि एक 'वीतराग' पुरुष तलाश कर उससे सम्बन्ध जोड़ कर उसका चिंतन करे... इससे अति शीघ्र लाभदायक साधना कोई नहीं है... जैसे-जैसे चिंतन बढ़ता जायेगा उतना लाभ भी बढ़ता जायेगा... और एक दिन पूर्णता को प्राप्त कर जाओगे।हाँ ! इस प्रकार के चिंतन में एक बड़ा खतरा भी है...इसका ज्ञान अति आवश्यक है...जिस व्यक्ति का आप चिंतन कर रहे हैं... अगर वह व्यक्ति 'वीतराग' पुरुष नहीं है अभी उसके अन्दर वासनायें शेष हैं तो वही अवगुण ज्यों के त्यों आप के अन्दर भी उतर आयेंगे...यही इस साधना की बड़ी खामी है। परन्तु यह पृथ्वी ऐसे पूर्ण महापुरुषों से कभी रिक्त नहीं रहती... आर्त भाव द्वारा हृदय से निकली प्रार्थना सत्-चित्-आनन्द तक अवश्य पहुँती है और वह मुमुक्षु को ऐसे 'वीतराग' पुरुष (अवतार ,नेता, जीवनमुक्त शिक्षक ) से अवश्य ही मिलाते हैं। 

साभार / https://www.facebook.com/ramashramsatsang.mathuraa/ ] 

“তবে পাকা ভক্তি হলে এইরূপ বোধ হয়। অনেক পিত্ত জমলে ন্যাবা লাগে; তখন দেখে যে সবই হলদে। শ্রীমতী শ্যামকে ভেবে ভেবে সমস্ত শ্যামময় দেখলে; আর নিজেকেও শ্যাম বোধ হল। পারার হ্রদে সীসে অনেকদিন থাকলে সেটাও পারা হয়ে যায়। কুমুরেপোকা ভেবে ভেবে আরশুলা নিশ্চল হয়ে যায়। নড়ে না; শেষে কুমুরেপোকাই হয়ে যায়। ভক্তও তাঁকে ভেবে ভেবে অহংশূন্য হয়ে যায়। আবার দেখে ‘তিনিই আমি’, ‘আমিই তিনি’।

[সকল প্রকার সাধনার মধ্যে একটি মাত্র 'ভৃঙ্গী সাধনা' আছে যা খুব দ্রুত ফল দেয়। ভৃঙ্গি হল একটি পোকার নাম যেটি আমাদের বাড়ির চারপাশে উড়ে বেড়ায় এবং ড্রেন ইত্যাদি থেকে একটি হামাগুড়ি পোকা ধরে খাবার নিয়ে আসে। সে দেয়ালে বা কোন কোণে একটি মাটির ঘর তৈরি করে এবং সেই বাড়িতে তালা দেয়... একটি ছোট গর্ত করে সেই মাটির ঘরের উপরে যাতে কীট বেঁচে থাকে এবং তাজা থাকে কিন্তু বের হতে না পারে। ... পোকা পোকা তার তৈরি বাড়ির আশেপাশে এখানে-সেখানে বাস করে এবং তার খাবার নিরাপদ কি না তা দেখার জন্য বারবার সেই বাড়িতে আসতে থাকে ... বারবার দেখার পরে, কীট হয়ে যায়। ভীত হয়ে পড়ে যে এই ভয়ের কারণে, সেই পোকা পোকার রূপটি চব্বিশ ঘন্টা মনে রাখে ... ফলাফল এই যে পোকাটি সেই ড্রেনে হামাগুড়ি দিচ্ছে, তার শরীরে উড়ন্ত পোকা।]

"But a man realizes this only when his devotion to God has matured. One gets jaundice when too much bile accumulates. Then one sees everything as yellow. From constantly meditating on Krishna, Radhika saw everything as Krishna; moreover, she even felt that she herself had become Krishna. If a piece of lead is kept in a lake of mercury a long time, it turns into mercury. The cockroach becomes motionless by constantly meditating on the kumira worm; it loses the power to move. At last it is transformed into a kumira. Similarly, by constantly meditating on God the bhakta loses his ego; he realizes that God is he and he is God. When the cockroach becomes the kumira everything is achieved. Instantly one obtains liberation.

[Among all types of sadhna, there is only one 'Bhringi Sadhna' which gives very quick results. Bhringi is the name of an insect which fly around our house and fetch its food by catching a crawling insect from the drain etc. He makes a mud house in the wall or some corner and locks it in that house... Makes a small hole in the top of that earthen house so that the worm remains alive and fresh but cannot come out. ... the beetle insect lives here and there around the house he has made and keeps on coming to that house again and again to see his food whether it is safe or not... After seeing it again and again, the worm becomes so frightened that because of this fear, it remembers that form of beetle insect for twenty-four hours... the result is that the insect crawling in that drain, like a flying beetle in its body.] 

 [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

卐मृत्यु स्वरूपा  माता की अलग-अलग भाव से पूजा और गिरीश - "मेरा मातृभाव "卐

[নানা ভাবে পূজা ও গিরিশ — “আমার মাতৃভাব” ]

"जब तक उन्होंने मैं-पन को रखा, तब तक एक भाव का सहारा लेकर उन्हें पुकारना पड़ता है - शान्त, दास्य, वात्सल्य - ये सब । "मैं दासीभाव में एक वर्ष तक था - ब्रह्ममयी की दासी औरतों का कपड़ा, ओढ़ना - यह सब पहना करता था, फिर नथ भी पहनता था । औरतों के भाव में रहने से काम पर विजय प्राप्त होती है । “उस आद्यशक्ति की पूजा करनी होती है, उन्हें प्रसन्न करना होता है । वे ही औरतों का रूप धारण करके वर्तमान हैं; इसीलिए मेरा मातृभाव है ।"मातृभाव अति शुद्ध भाव है । तन्त्र में वामाचार ^  की बात भी है, परन्तु यह ठीक नहीं, उससे पतन होता है । भोग रखने से ही भय है ।

(^अर्थात "वाम पंथी" मार्ग । इस दृष्टिकोण के अनुसार साधक अपनी भोगवासना को पूर्ण  करके काम को जीतना चाहता है। जबकि भोगवासना भोग करके कभी पूर्ण नहीं होती-राजा ययाति।)

“যতক্ষণ আমিটা তিনি রেখে দিয়েছেন, ততক্ষণ একটি ভাব আশ্রয় করে তাঁকে ডাকতে হয় — শান্ত, দাস্য, বাৎসল্য — এই সব। “আমি দাসীভাবে একবৎসর ছিলাম — ব্রহ্মময়ীর দাসী। মেয়েদের কাপড় ওড়না এই সব পরতাম। আবার নথ পরতাম! মেয়ের ভাব থাকলে কাম জয় হয়। “সেই আদ্যাশক্তির পূজা করতে হয়, তাঁকে প্রসন্ন করতে হয়। তিনিই মেয়েদের রূপ ধারণ করে রয়েছেন। তাই আমার মাতৃভাব।“মাতৃভাব অতি শুদ্ধভাব। তন্ত্রে বামাচারের কথাও আছে; কিন্তু সে ভাল নয়; পতন হয়। ভোগ রাখলেই ভয়

"As long as God retains the ego m a man, he should establish a definite relationship with God, calling on Him as Master, Mother, Friend", or the like. I spent one year as a handmaid — the handmaid of the Divine Mother, the Embodiment of Brahman. I used to dress myself as a woman. I put on a nose-ring. One can conquer lust by assuming, the attitude of a woman. "One must worship the Adyasakti. She must be propitiated. She alone has assumed all female forms. Therefore I look on all women as mother. The attitude of looking on woman as mother is very pure. The Tantra mentions the vamachara ^ method also. But that is not a good method; it causes the aspirant's downfall. A devotee keeping an object of enjoyment near him has reason to be afraid.

(^Literally, "left-hand path". According to this attitude the aspirant seeks to conquer lust by fulfilling its urge.] 

 [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

*मातृभाव मानो निर्जला एकादशी है*

"मातृभाव मानो निर्जला एकादशी है; किसी भोग की गन्ध नहीं है । दूसरी है फल-मूल खाकर एकादशी; और तीसरी, पूरी मिठाई खाकर एकादशी । मेरी निर्जला एकादशी है, मैंने मातृभाव से सोलह वर्ष की कुमारी की पूजा की थी । देखा, स्तन मातृस्तन हैं, योनि मातृयोनि है । "यह मातृभाव - साधना की अन्तिम बात है । ‘तुम माँ हो, मैं तुम्हारा बालक हूँ ।' यही अन्तिम बात है ।

“মাতৃভাব যেন নির্জলা একাদশী; কোন ভোগের গন্ধ নাই। আর আছে ফলমূল খেয়ে একাদশী; আর লুচি ছক্কা খেয়ে একাদশী। আমার নির্জলা একাদশী; আমি মাতৃভাবে ষোড়শীর পূজা করেছিলাম। দেখলাম স্তন মাতৃস্তন, যোনি মাতৃযোনি। “এই মাতৃভাব — সাধনের শেষ কথা — ‘তুমি মা, আমি তোমার ছেলে’। এই শেষ কথা।”

"Looking on woman as mother is like fasting on the ekadasi day without touching even a drop of water; in this attitude there is not the slightest trace of sensual enjoyment. Another way of observing the ekadasi allows the taking of fruit and the like. One can also observe the day by eating luchi and curries! But my attitude is not to touch even a drop of water while I observe the fast. I worshipped the Shorasi7 as my mother; I looked on all parts of her body as those of my mother. This attitude of regarding God as Mother is the last word in sadhana. 'O God, Thou art my Mother and I am Thy child' — this is the last word in spirituality.

[षोड़शी युवती : "सोलह वर्ष की कुमारी युवती की पूजा "। एक षोड़शी युवती की पूजा तंत्र में कही हुई एक साधना है।] 

 [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

卐🙏संन्यास के कड़े नियम - गृहस्थों के नियम और गिरीश  卐🙏

[সন্ন্যাসীর কঠিন নিয়ম — গৃহস্থদের নিয়ম ও গিরিশ ]

"संन्यासी की निर्जला एकादशी है; यदि संन्यासी भोग रखता है; तभी भय है । कामिनी-कांचन भोग हैं । जैसे थूककर फिर उसी थूक को चाट लेना । रुपये-पैसे, मान इज्जत, इन्द्रियसुख - ये सब भोग हैं । संन्यासी का स्त्रीभक्त के साथ बैठना या वार्तालाप करना भी ठीक नहीं हैं - इसमें अपनी भी हानि और दूसरों की भी हानि है । इससे दूसरे लोगों को शिक्षा नहीं मिलती, लोकशिक्षा नहीं होती । संन्यासी का शरीर-धारण लोकशिक्षा के लिए है ।

“সন্ন্যাসীর নির্জলা একাদশী; সন্ন্যাসী যদি ভোগ রাখে, তা হলেই ভয়। কামিনী-কাঞ্চন ভোগ, যেমন থুথু ফেলে আবার থুথু খাওয়া। টাকা-কড়ি, মান-সম্ভ্রম, ইন্দ্রিয়সুখ — এই সব ভোগ। সন্ন্যাসীর ভক্ত স্ত্রীলোকের সঙ্গে বসা বা আলাপ করাও ভাল নয় — নিজের ক্ষতি আর অন্য লোকেরও ক্ষতি। অন্য লোকের শিক্ষা হয় না, লোকশিক্ষা হয় না। সন্ন্যাসীর দেহধারণ লোকশিক্ষার জন্য।

"The sannyasi's way of living is like observing the ekadasi fast without taking even a drop of water. If he clings to enjoyment, then he has reason to be afraid. 'Woman and gold' is enjoyment. If a monk enjoys it, he is swallowing his own spittle, as it were. There are different kinds of enjoyment: money, wealth, name, fame, and sense pleasures. It is not good for a sannyasi to sit in the company of a woman devotee, or even to talk to her. This injures him and others as well. Then others cannot learn from him; he cannot set an example to humanity. A sannyasi keeps his body in order to teach mankind.

"औरतों के साथ बैठना या अधिक देर तक वार्तालाप करना - इसे भी रमण कहा है । रमण आठ प्रकार के हैं । कोई औरतों की बातें सुन रहा है; सुनते सुनते आनन्द हो रहा है, - यह एक प्रकार का रमण है । औरतों की बात कह रहा है (कीर्तन में) - यह एक प्रकार का रमण है ।औरतों के साथ एकान्त में गुपचुप बातचीत कर रहा है यह एक प्रकार का रमण है । औरतों की कोई चीज पास रख ली है, आनन्द हो रहा है - यह प्रकार है । स्पर्श करना भी एक प्रकार का रमण है; इसीलिए गुरुपत्नी यदि युवती हो तो पादस्पर्श नहीं करना चाहिए । संन्यासियों के लिए ये सब नियम है ।

“মেয়েদের সঙ্গে বসা কি বেশিক্ষণ আলাপ, তাকেও রমণ বলেছে। রমণ আট প্রকার। মেয়েদের কথা শুনছি; শুনতে শুনতে আনন্দ হচ্ছে; ও একরকম রমণ। মেয়েদের কথা বলছি (কীর্তনম্‌) ও একরকম রমণ; মেয়েদের সঙ্গে নির্জনে চুপি চুপি কথা কচ্ছি, ও একরকম। মেয়েদের কোন জিনিস কাছে রেখে দিয়েছি, আনন্দ হচ্ছে, ও একরকম। স্পর্শ করা একরকম। তাই গুরুপত্নী যুবতী হলে পাদস্পর্শ করতে নাই; সন্ন্যাসীদের এই সব নিয়ম।

"To sit with a woman or talk to her a long time has also been described as a kind of sexual intercourse. There are eight kinds. To listen to a woman and enjoy her conversation is one kind; to speak about a woman is another kind; to whisper to her privately is a third kind; to keep something belonging to a woman and enjoy it is a fourth kind; to touch her is a fifth. Therefore a sannyasi should not salute his guru's young wife, touching her feet. These are the rules for sannyasis.

"संसारियों की अलग बात है । वे दो-एक पुत्र होने पर भाईबहन की तरह रहें । उनके लिए अन्य सात प्रकार के रमण से उतना दोष नहीं है ।

“সংসারীদের আলাদা কথা; দু-একটি ছেলে হলে ভাই-ভগ্নীর মতো থাকবে; তাদের অন্য সাতরকম রমণে দোষ নাই।

"But the case is quite different with householders. After the birth of one or two children, the husband and wife should live as brother and sister. The other seven kinds of sexual intercourse do not injure them much.

"गृहस्थ के ऋण हैं । देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण; फिर स्त्रीऋण भी है – एक दो बच्चे होना और सती हो तो उसका प्रतिपालन करना ।

“গৃহস্থের ঋণ আছে। দেবঋণ, পিতৃঋণ, ঋষিঋণ; আবার মাগঋণও আছে, একটি-দুটি ছেলে হওয়া আর সতী হলে প্রতিপালন করা।

"A householder has various debts: debts to the gods, to the fathers, and to the rishis. He also owes a debt to his wife. He should make her the mother of one or two children and support her if she is a chaste woman.

 [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

卐🙏स्त्रियों में कौन विद्याशक्ति हैं और कौन अविद्याशक्ति ?卐🙏

“संसारी लोग समझ नहीं सकते कि कौन अच्छी स्त्री है और कौन बुरी स्त्री; कौन विद्याशक्ति और कौन अविद्याशक्ति । जो अच्छी स्त्री है, विद्याशक्ति है, उसमें काम, क्रोध आदि कम होता है, नींद कम होती है । वह पति के मस्तक को दूर ठेल देती है । जो विद्याशक्ति है उसमें स्नेह, दया, भक्ति, लज्जा आदि होते हैं । वह सभी की सेवा करती है, वात्सल्य भाव से; और पति की भगवान् में भक्ति बढ़ाने का यत्न करती है। अधिक खर्च नहीं करती, कहीं पति को अधिक श्रम न करना पड़े, कहीं ईश्वर के चिन्तन में विघ्न न हो ।

“সংসারীরা বুঝতে পারে না, কে ভাল স্ত্রী, কে মন্দ স্ত্রী; কে বিদ্যাশক্তি, কে অবিদ্যাশক্তি। যে ভাল স্ত্রী; বিদ্যাশক্তি, তার কাম ক্রোধ এ-সব কম, ঘুম কম; স্বামীর মাথা ঠেলে দেয়। যে বিদ্যাশক্তি তার স্নেহ, দয়া, ভক্তি, লজ্জা — এই সব থাকে। সে সকলেরই সেবা করে বাৎসল্যভাবে, আর স্বামীর যাতে ভগবানে ভক্তি হয় তার সাহায্য করে। বেশী খরচ করে না, পাছে স্বামীর বেশী খাটতে হয়, পাছে ঈশ্বরচিন্তার অবসর না হয়।

"Householders do not know who is a good wife and who is a bad wife, who is a vidyasakti and who is an avidyasakti. A vidyasakti, a good wife, has very little lust and anger. She sleeps little. She pushes her husband's head away from her. She is full of affection, kindness, devotion, modesty, and other noble qualities. Such a wife serves all, looking on all men as her children. Further, she helps increase her husband's love of God. She doesn't spend much money lest her husband should have to work hard and thus not get leisure to think of God.

"फिर मर्दानी स्त्रियों के भी लक्षण हैं । खराब लक्षण - टेढ़ी धँसी हुई आँखें, बिल्ली जैसी आँखें, हड्डियाँ उभरी हुई, बछड़े जैसे गाल ।"

“আবার পুরুষ মেয়ের অন্য অন্য লক্ষণ আছে। খারাপ লক্ষণ — টেরা, চোখ কোটর, ঊনপাঁজর, বিড়াল-চোখ, বাছুরে গাল।”

"Mannish women have different traits. These are bad traits: squint eyes and hollow eyes, catlike eyes, lantern jaws like a calf's, and pigeon-breast"

 [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

[ ईश्वरत्व का मार्ग - भक्ति ही सार है ]

[সমাধি-তত্ত্ব ও গিরিশ — ঈশ্বরলাভের উপায় — গিরিশের প্রশ্ন ]

गिरीश - हमारे उद्धार का उपाय क्या है ? 

গিরিশ — আমাদের উপায় কি?

GIRISH: "What is the way for people like us?"

श्रीरामकृष्ण - भक्ति ही सार है । फिर भक्ति का सत्त्व, भक्ति का रज, भक्ति का तम भी है । “भक्ति का सत्त्व है दीन-हीन भाव; भक्ति का तम मानो डाका पड़ने का भाव है - मैं उनका काम कर रहा हूँ, मुझे फिर पाप कैसा ? तुम मेरी अपनी माँ हो, दर्शन देना ही होगा ।"

“ভক্তির সত্ত্ব দীনহীন ভাব; ভক্তির তমঃ যেন ডাকাত-পড়া ভাব। আমি তাঁর নাম করছি, আমার আবার পাপ কি? তুমি আমার আপনার মা, দেখা দিতেই হবে।”

MASTER: "Bhakti is the only essential thing. Bhakti has different aspects: the sattvic, the rajasic, and the tamasic. One who has sattvic bhakti is very modest and humble. But a man with tamasic bhakti is like a highwayman in his attitude toward God. He says: 'O God, I am chanting Your name; how can I be a sinner? O God, You are my own Mother; You must reveal Yourself to me.'"

गिरीश (हँसते हुए) - भक्ति का तम आप ही तो सिखाते हैं ।

গিরিশ (সহাস্যে) — ভক্তির তমঃ আপনিই তো শেখান —

GIRISH (smiling): "It is you, sir, who teach us tamasic bhakti."

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - परन्तु उनके दर्शन होने का लक्षण है । समाधी होती है । समाधि पाँच प्रकार की होती है । (१) चींटी की गति - महावायु चींटी की तरह उठती है । (२) मछली की गति। (३) तिर्यक् गति । (४) पक्षी को गति - जिस प्रकार पक्षी एक शाखा से दूसरी शाखा पर जाता है । (५) कपिवत् या बन्दर की गति - मानो महावायु ^  कूदकर माथे पर उठ गयी और समाधि हो गयी ।

[महावायु ^ महान तंत्रिका प्रवाह जिसका उदय रीढ़ की हड्डी में महसूस होता है।] 

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তাঁকে দর্শন করবার কিন্তু লক্ষণ আছে। সমাধি হয়। সমাধি পাঁচপ্রকার; ১ম: — পিঁপড়ের গতি, মহাবায়ু উঠে পিঁপড়ের মতো। ২য়: — মীনের গতি। ৩য়: তির্যক্‌ গতি। ৪র্থ: — পাখির গতি, পাখি যেমন এ-ডাল থেকে ও-ডালে যায়। ৫ম: — কপিবৎ, বানরের গতি; মহাবায়ু যেন লাফ দিয়ে মাথায় উঠে গেল আর সমাধি হল।

MASTER (smiling): "There are certain signs of God-vision. When a man sees God he goes into samadhi. There are five kinds of samadhi. First, he feels the Mahavayu ^  rise like an ant crawling up. Second, he feels It rise like a fish swimming in the water. Third, he feels It rise like a snake wriggling along. Fourth, he feels It rise like a bird flying — flying from one branch to another. Fifth, he feels It rise like a monkey making a big jump; the Mahavayu reaches the head with one jump, as it were, and samadhi follows.

[महावायु =^The great nerve current whose rising is felt in the spinal column.

"और भी दो प्रकार की समाधि है । एक - स्थित समाधि, एकदम बाह्यशून्य; बहुत देर तक, सम्भव है, कई दिनों तक रहे । और दूसरी - उन्मना समाधि, एकाएक मन को समस्त इन्द्रियविषयों की ओर से समेट कर ईश्वर में लगा देना ।

“আবার দুরকম আছে; ১ম: — স্থিতসমাধি; একেবারে বাহ্যশূন্য; অনেকক্ষণ হয়তো অনেকদিন, রহিল। ২য়: — উন্মনাসমাধি; হঠাৎ মনটা চারিদিক থেকে কুড়িয়ে এনে ঈশ্বরেতে যোগ করে দেওয়া।”

"There are two other kinds of samadhi. First, the sthita samadhi, when the aspirant totally loses outer consciousness: he remains in that state a long time, it may be for many days. Second, the unmana samadhi: it is to withdraw the mind suddenly from all sense-objects and unite it with God.

 [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]

卐🙏 अकस्मात सिद्ध, जिन्होंने उन्मनासमाधि एकाएक प्राप्त कर लिया है 卐🙏

[Attained perfection all of a sudden!] 

(मास्टर के प्रति) “तुमने यह समझा है ?"

(মাস্টারের প্রতি) — “তুমি ওটা বুঝেছ?”

(To M.) "Do you understand this?"

मास्टर - जी हाँ ।

মাস্টার — আজ্ঞে হাঁ।

M: "Yes, sir."

गिरीश - क्या साधना द्वारा उन्हें प्राप्त किया जा सकता है ?

গিরিশ — তাঁকে কি সাধন করে পাওয়া যায়?

GIRISH: "Can one realize God by sadhana?"

श्रीरामकृष्ण - लोगों ने अनेक प्रकार से उन्हें प्राप्त किया है । किसी ने अनेक तपस्या, साधन-भजन करके प्राप्त किया है, ये हैं साधनसिद्ध कोई जन्म से सिद्ध हैं, जैसे नारद शुकदेव आदि; इन्हें कहते हैं नित्यसिद्ध । दूसरे हैं अकस्मात सिद्ध, जिन्होंने एकाएक प्राप्त कर लिया है; जैसे कोई आशा न थी । पर एकाएक नन्द बसू की तरह धन मिल गया ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — নানারকমে তাঁকে লোকে লাভ করেছে। কেউ অনেক তপস্যা সাধন-ভজন করে; সাধনসিদ্ধ। কেউ জন্মাবধি সিদ্ধ; যেমন নারদ, শুকদেবাদি, এদের বলে নিত্যসিদ্ধ। আবার আছে হঠাৎসিদ্ধ; হঠাৎ লাভ করেছে। যেমন হঠাৎ কোন আশা ছিল না, কেউ নন্দ বসুর মতো বিষয় পেয়ে গেছে।

MASTER: "People have realized God in various ways. Some through much austerity, worship, and devotion; they have attained perfection through their own efforts. Some are born perfect, as for example Narada and Sukadeva; they are called nityasiddha, eternally perfect. There are also those who have attained perfection all of a sudden; it is like a man's unexpectedly coming into a great fortune. Again, there are instances of people's realizing God in a dream and by divine grace."

"और कुछ लोग हैं स्वप्नसिद्ध और कृपासिद्ध । यह कहकर श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर होकर गाना गा रहे हैं ।

श्यामाधन कि सबाई पाय , 

अबोध मन बोझे ना एकि दाय।  

शिवेरई असाध्य साधन मनमजानो राँगा पाय।। 

इन्द्रादि सम्पद सुख तुच्छ होय जे भावे माय। 

सदानन्द सुखे भासे, श्यामा यदि फिरे चाय।। 

योगीन्द्र मुनीन्द्र इन्द्र जे चरण ध्याने ना पाय। 

निर्गुणे कमलाकान्त तबू से चरण चाय।।   

(भावार्थ) - "क्या श्यामारूपी धन को सभी लोग प्राप्त करते है ! अबोध मन नहीं समझता है, यह क्या बात है !"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আর আছে স্বপ্নসিদ্ধ আর কৃপাসিদ্ধ।এই বলিয়া ঠাকুর ভাবে বিভোর হইয়া গান গাহিতেছেন:

শ্যামাধন কি সবাই পায়,

অবোধ মন বোঝে না একি দায়।

শিবেরই অসাধ্য সাধন মনমজানো রাঙা পায়।।

ইন্দ্রাদি সম্পদ সুখ তুচ্ছ হয় যে ভাবে মায়।

সদানন্দ সুখে ভাসে, শ্যামা যদি ফিরে চায়।।

যোগীন্দ্র মুনীন্দ্র ইন্দ্র যে চরণ ধ্যানে না পায়।

নির্গুণে কমলাকান্ত তবু সে চরণ চায়।।

Saying this, Sri Ramakrishna sang, intoxicated with divine fervour:Can everyone have the vision of Syama? Is Kali's treasure for everyone? Oh, what a pity my foolish mind will not see what is true! . . .

(२)

गिरीश का शान्तभाव । 

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ]

卐🙏कलि में शुद्र की भक्ति और मुक्ति卐🙏

श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर भावाविष्ट हैं । गिरीश आदि भक्तगण सामने बैठे हैं । कुछ दिन पहले स्टार थिएटर में गिरीश ने अनेक अशिष्ट बातें सुनाई थीं, इस समय शान्त भाव है ।

ঠাকুর কিয়ৎক্ষণ ভাবাবিষ্ট হইয়া রহিয়াছেন। গিরিশ প্রভৃতি ভক্তেরা সম্মুখে আছেন। কিছুদিন পূর্বে স্টার থিয়েটারে গিরিশ অনেক কথা বলিয়াছিলেন; এখন শান্তভাব।

Sri Ramakrishna remained in ecstasy a few moments. Girish and the other devotees were seated before him. A few days earlier Girish had been very rude to the Master at the Star Theatre; but now he was in a calm state of mind.

श्रीरामकृष्ण(गिरीश के प्रति) - तुम्हारा यह भाव बहुत अच्छा है – शान्तभाव । माँ से इसीलिए कहा था, 'माँ', उसे शान्त कर दो, मुझे ऐसा-वैसा न कहे ।'

শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — তোমার এ ভাব বেশ ভাল; শান্তভাব, মাকে তাই বলেছিলাম, মা ওকে শান্ত করে দাও, যা তা আমায় না বলে।

MASTER (to Girish): "This mood of yours is very good; it is peaceful. I prayed about you to the Divine Mother, 'O Mother, make him peaceful so that he won't abuse me.

गिरीश(मास्टर के प्रति) - न जाने किसने मेरी जीभ को दबाकर पकड़ लिया है, मुझे बात करने नहीं दे रहा है ।

গিরিশ (মাস্টারে প্রতি) — আমার জিব কে যেন চেপে ধরেছে। আমায় কথা কইতে দিচ্ছে না।

GIRISH (to M.): "I feel as if someone were pressing my tongue. I can't talk."

श्रीरामकृष्ण अभी भी भावमग्न हैं, अन्तर्मुख । बाहर के व्यक्ति, वस्तु, धीरे-धीरे मानो सभी को भूलते जा रहे हैं । जरा स्वस्थ होकर मन को उतार रहे हैं । भक्तों को फिर देख रहे हैं ।श्रीरामकृष्ण(मास्टर को देखकर) - ये सब वहाँ पर (दक्षिणेश्वर में) जाते हैं, - जाते हैं तो जायँ, माँ सब कुछ जानती हैं ।

শ্রীরামকৃষ্ণ এখনও ভাবস্থ অনতর্মুখ। বাহিরের ব্যক্তি, বস্তু ক্রমে ক্রমে সব ভুলে যাচ্ছেন। একটু প্রকৃতিস্থ হইয়া মনকে নাবাচ্ছেন। ভক্তদের আবার দেখিতেছেন। (মাস্টার দৃষ্টে) এরা সব সেখানে (দক্ষিণেশ্বরে) যায়; — তা যায় তো যায়; মা সব জানে।

Sri Ramakrishna was still in an indrawn mood; he seemed to be gradually forgetting the men and the objects around him. He tried to bring his mind down to the relative world. He looked at the devotees. Looking at M., he said: "They all come to Dakshineswar. Let them. Mother knows everything." 

(पड़ोसी बालक के प्रति) - क्यों जी, तुम क्या समझते हो ? मनुष्य का क्या कर्तव्य है ?

(প্রতিবেশী ছোকরার প্রতি) — “কিগো! তোমার কি বোধ হয়? মানুষের কি কর্তব্য?”

To a young man of the neighbourhood he said: "Hello! What do you think? What is the duty of man?"

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ]

卐🙏विद्यार्थीयों का कर्तव्य परीक्षाओं में पास करना ही नहीं है - पाशमुक्त होना है卐🙏

(बंगला में 'पास' और 'पाश' दोनों का उच्चारण एक जैसा किया जाता है)

मनुष्य जीवन का उद्देश्य स्वयं को सम्मोहन के प्रभाव से मुक्त करना है।

জীবনের উদ্দেশ্য হল সম্মোহনের প্রভাব থেকে নিজেকে মুক্ত করা।

The purpose of human life is to free oneself from the -

'Influence of Hypnosis'.

[A man freed from bondage is Siva; entangled in bondage, he is jiva.]

[बंधन से मुक्त व्यक्ति शिव है; जो बंधन में फँसा है, वह जीव है। अतएव ईश्वर या परम् सत्य को जान कर भ्रममुक्त हो जाना, या स्वयं को सम्‍मोहन के प्रभाव से मुक्‍त कर लेना (release from hypnotism) ही जीवन का उद्देश्य है। ] 

सभी चुप हैं । क्या श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं कि ईश्वर की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है ?श्रीरामकृष्ण(नारायण के प्रति) - क्या तू पास होना नहीं चाहता ? अरे सुन, जो पाशमुक्त हो जाता है वह शिव बन जाता है और जो पाशबद्ध रहता है वह जीव है ।"* (*बंगला में 'पास' और 'पाश' दोनों का उच्चारण एक जैसा किया जाता है ।)

সকলে চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর কি বলিতেছেন যে ঈশ্বরলাভই জীবনের উদ্দেশ্য? 

 শ্রীরামকৃষ্ণ (নারায়ণের প্রতি) — তুই পাস করবিনি? ওরে পাশমুক্ত শিব, পাশবদ্ধ জীব।

All sat in silence. To Narayan he said: "Don't you want to pass the examinations? But, my dear child, a man freed from bondage is Siva; entangled in bondage, he is jiva."

श्रीरामकृष्ण अभी भावमग्न हैं । पास ही ग्लास में जल रखा था, उन्होंने उसका पान किया । वे अपने आप कह रहे हैं, “कहाँ, भाव में तो मैंने जल पी लिया !"

ঠাকুর এখন ভাবাবস্থায় আছেন। কাছে গ্লাস করা জল ছিল, পান করিলেন। তিনি আপনা-আপনি বলিতেছেন, কই ভাবে তো জল খেয়ে ফেললুম!

Sri Ramakrishna was still in the God-intoxicated mood. There was a glass of water near him. He drank the water. He said to himself, "Why, I have drunk water in this mood!"

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ] 

卐🙏श्री रामकृष्ण और श्रीअतुल - भ्रममुक्त होने की व्याकुलता卐🙏 

[শ্রীরামকৃষ্ণ ও শ্রীযুক্ত অতুল — ব্যাকুলতা ]

[अतुल चंद्र घोष - नाटककार गिरीश चंद्र घोष के छोटे भाई थे । कलकत्ता उच्च न्यायालय के अधिवक्ता थे । कोलकाता के बागबाजार क्षेत्र का निवासी थे । बाद में वे भी ठाकुरदेव  के भक्त बने गए थे । प्रथम दर्शन हुआ था बागबाजार दीनानाथ बोस के घर पर । प्रथमदर्शन के समय  तो वे ठाकुरदेव  से बिल्कुल प्रभावित नहीं  रहते थे और परिहास करते हुए  वे उन्हें 'राजहंस ' कहा करते थे । किन्तु यह सुनकर भी  जब ठाकुरदेव ने स्नेहपूर्वक उनके कथन का समर्थन किया तब अतुल इससे अभिभूत हो गए और ठाकुरदेव  की कृपा से धन्य हो गए। कल्पतरु उत्सव के दिन उन्हें भी ठाकुर देव को समाधि में देखने और अपना चैतन्य जाग्रत करने  का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ] 

卐🙏गृहस्थ हैं तो दोनों करें- अपना सांसारिक कर्तव्य निभाते हुए अवतार से प्रेम भी करें卐🙏  

अभी सायंकाल नहीं हुआ । श्रीरामकृष्ण गिरीश के भाई अतुल के साथ बातचीत कर रहे हैं । अतुल भक्तों के साथ सामने ही बैठे हैं । एक ब्राह्मण पड़ोसी भी बैठे हैं । अतुल हाईकोर्ट में वकील हैं ।

এখনও সন্ধ্যা হয় নাই। ঠাকুর গিরিশের ভ্রাতা শ্রীযুক্ত অতুলের সহিত কথা কহিতেছেন। অতুল ভক্তসঙ্গে সম্মুখেই বসিয়া আছেন। একজন ব্রাহ্মণ প্রতিবেশীও বসিয়া আছেন। অতুল হাইকোর্ট-এর উকিল।

It was not yet dusk. Sri Ramakrishna was talking to Atul, who was seated in front of him. Atul was Girish's brother and a lawyer of the High Court of Calcutta. A brahmin neighbour was also seated near him.

श्रीरामकृष्ण (अतुल के प्रति) - आप लोगों से यही कहता हूँ, आप दोनों करें, संसार धर्म भी करें और जिससे भक्ति हो वह भी करें ।

শ্রীরামকৃষ্ণ (অতুলের প্রতি) — আপনাদের এই বলা, আপনারা দুই করবে, সংসারও করবে, ভক্তি যাতে হয় তাও করবে।

MASTER (to Atul): "All I want to tell you is this. Follow both; perform your duties in the world and also cultivate love of God."

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ] 

卐🙏शरीर से ब्राह्मण होने पर अहंकार मत करो 卐🙏

ब्राह्मण पड़ोसी - क्या ब्राह्मण न होने पर मनुष्य सिद्ध होता है, (पूर्णता प्राप्त कर सकता है) ?

ব্রাহ্মণ প্রতিবেশী — ব্রাহ্মণ না হলে কি সিদ্ধ হয়?

BRAHMIN: "Can anyone but a brahmin achieve perfection?"

श्रीरामकृष्ण - क्यों ? कलियुग में शूद्र की भक्ति की कथाएँ हैं । शबरी, रैदास, गुहक चण्डाल, - ये सब उदाहरण हैं ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন? কলিতে শূদ্রের ভক্তির কথা আছে। শবরী, রুইদাস, গুহক চণ্ডাল — এ-সব আছে।

MASTER: "Why should you ask that? It is said that in the Kaliyuga the sudras achieve love of God. There are the instances of Sabari, Sant Raidas, the untouchable Guhaka, and others."

नारायण - (हँसते हुए )- ब्राह्मण, शूद्र सब एक हैं ।

নারায়ণ (সহাস্যে) — ব্রাহ্মণ, শুদ্র, সব এক।

NARAYAN (smiling): "Brahmins and sudras — all are one."

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ] 

卐🙏अवतार की कृपा से यदि तीव्र वैराग्य हो तो एक ही जन्म में पाशमुक्त हो सकता है 卐🙏

[अंधकार पूर्ण हृदय को अवतार के आलोक से क्षण मात्र में प्रकाशित कर 

पाशमुक्त होने के लिये नंगी तलवार जैसी तीव्र वैराग्य चाहिये]   

ब्राह्मण - क्या एक जन्म में होता है ? [क्या एक जन्म में ही कोई पाशमुक्त हो सकता है , या स्वयं को सम्‍मोहन के प्रभाव से मुक्‍त कर सकता है ?]  

ব্রাহ্মণ — এক জন্মে কি হয়?

BRAHMIN: "Can a man realize God in one birth?"

श्रीरामकृष्ण - उनकी दया होने पर क्या नहीं होता ! हजार वर्ष के अन्धकारपूर्ण कमरे में बत्ती लाने पर क्या थोड़ा थोड़ा करके अन्धकार जाता है ? एकदम रोशनी हो जाती है ! (अतुल के प्रति) – “तीव्र वैराग्य चाहिए - जैसी नंगी तलवार ! ऐसा वैराग्य होने पर स्वजन काले साँप जैसे लगते हैं, घर कुआँ-सा प्रतीत होता है ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর দয়া হলে কি না হয়। হাজার বৎসরের অন্ধকার ঘরে আলো আনলে কি একটু একটু করে অন্ধকার চলে যায়? একেবারে আলো হয়। (অতুলের প্রতি) — “তীব্র বৈরাগ্য চাই — যেন খাপখোলা তরোয়াল। সে বৈরাগ্য হলে, আত্মীয় কালসাপ মনে হয়, গৃহ পাতকুয়া মনে হয়।


MASTER: "Is anything impossible for the grace of God? Suppose you bring a light into a room that has been dark a thousand years; does it remove the darkness little by little? The room is lighted all at once. (To Atul) Intense renunciation is what is needed. One should be like an unsheathed sword. When a man has that renunciation, he looks on his relatives as black cobras and his home as a deep well.

"और अन्तर से व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । अन्तर की पुकार वे अवश्य सुनेंगे ।”

“আর আন্তরিক ব্যাকুল হয়ে তাঁকে ডাকতে হয়। আন্তরিক ডাক তিনি শুনবেনই শুনবেন।” 

"One should pray to God with sincere longing. God cannot but listen to prayer if it is sincere."

सब चुपचाप हैं । श्रीरामकृष्ण ने जो कुछ कहा, एकाग्र चित्त से सुनकर सभी उस पर चिन्तन कर रहे हैं ।

সকলে চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর যাহা বলিলেন, একমনে শুনিয়া সেই সকল চিন্তা করিতেছেন।

All sat in silence, pondering Sri Ramakrishna's words.

श्रीरामकृष्ण (अतुल के प्रति) - क्यों, वैसी दृढ़ता – व्याकुलता - नहीं होती ? 

[क्यों, कहाँ उलझे रहते हो , कामवासना और धन के लालच के प्रति आसक्ति में ? क्या वैसी ही बेचैनी ईश्वर या परम् सत्य को जानने के लिए नहीं होती ?] 

শ্রীরামকৃষ্ণ (অতুলের প্রতি) — কেন? অমন আঁট বুঝি হয় না — ব্যাকুলতা?

MASTER (to Atul): "What is worrying you? Is it that you haven't that grit, that intense restlessness for God?"

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ] 

卐🙏मन को ईश्वर (या अवतार) में कैसे लगाया जाता है-अभ्यासयोग 卐🙏

(अष्टांग योग को ही ठाकुर देव अभ्यासयोग कहते थे। )    

अतुल - मन कहाँ ईश्वर में रह पाता है ?

অতুল — মন কই থাকে?

ATUL: "How can we keep our minds on God?"

श्रीरामकृष्ण - अभ्यासयोग ! प्रतिदिन उन्हें पुकारने का अभ्यास करना चाहिए । एक दिन में नहीं होता । रोज पुकारते पुकारते व्याकुलता आ जाती है ।

[अभ्यासयोग : यम-नियम का अभ्यास 24 X 7 और आसन, प्रत्याहार, धारणा का अभ्यास प्रतिदिन दो बार -सूर्योदय से पूर्व और सूर्यास्त के तुरंत बाद या सोने से पहले। ]    

শ্রীরামকৃষ্ণ — অভ্যাসযোগ! রোজ তাঁকে ডাকা অভ্যাস করতে হয়। একদিনে হয় না; রোজ ডাকতে ডাকতে ব্যাকুলতা আসে।

MASTER: "Abhyasayoga, the yoga of practice. You should practise calling on God every day. It is not possible to succeed in one day; through daily prayer you will come to long for God.

"रात-दिन केवल विषय-कर्म करने पर व्याकुलता कैसे आयेगी ? यदु मल्लिक शुरू शुरू में ईश्वर की बातें अच्छी तरह सुनता था, स्वयं भी कहता था । आजकल अब उतना नहीं कहता । हमेशा चापलूसों (जमीन के दलालों) को लेकर बैठा रहता है, और रात-दिन केवल विषय की बातें करता है !"(आज कितना पैसा बैंक में जमा हुआ ? मेरा फोटो छपा आदि बातें करता है !)

“কেবল রাতদিন বিষয়কর্ম করলে ব্যাকুলতা কেমন করে আসবে? যদু মল্লিক আগে আগে ঈশ্বরীয় কথা বেশ শুনত, নিজেও বেশ বলত; আজকাল আর তত বলে না, রাতদিন মোসাহেব নিয়ে বসে থাকে, কেবল বিষয়ের কথা!”

"How can you feel that restlessness if you are immersed in worldliness day and night? Formerly Jadu Mallick enjoyed spiritual talk; he liked to engage in it himself. But nowadays he doesn't show that much interest. He surrounds himself with flatterers day and night and indulges in worldly talk."

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ] 

卐🙏मनःसंयोग के अभ्यास से पहले प्रार्थना करना है卐🙏 

सायंकाल हुआ । कमरे में बत्ती जलायी गयी है । श्रीरामकृष्ण देवताओं के नाम ले रहे हैं, गाना गा रहे हैं और प्रार्थना कर रहे हैं । कह रहे हैं, "हरि बोल, हरि बोल, हरि बोल"; फिर "राम, राम, राम" ! "नित्यलीलामयी, ओ माँ! उपाय बता दे, माँ ; हम तुम्हारे शरण में हैं ! हमें एक तुम्हारा ही आश्रय है !" "शरणागत, शरणागत, शरणागत" ।

সন্ধ্যা হইল; ঘরে বাতি জ্বালা হইয়াছে। শ্রীরামকৃষ্ণ ঠাকুরদের নাম করিতেছেন, গান গাহিতেছেন ও প্রার্থনা করিতেছেন। বলিতেছেন, “হরিবোল, হরিবোল, হরিবোল”; আবার “রাম রাম রাম”; আবার ‘নিত্যলীলাময়ী’। ওমা, উপায় বল মা! “শরণাগত, শরণাগত, শরণাগত”!

It was dusk. The lamp was lighted in the room. Sri Ramakrishna chanted the divine names. He was singing and praying. He said, "Chant the name of Hari, repeal the name of Hari, sing the name of Hari." Again he said, "Rama! Rama! Rama!" Then: "O Mother! Thou dost ever enjoy Thine eternal sports. Tell us, O Mother, what is the way? We have taken refuge in Thee; we have taken shelter at Thy feet."

गिरीश को व्यस्त देखकर श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर चुप रहे । तेजचन्द्र से कह रहे हैं, "तू जरा पास आकर बैठ ।" 

[तेजचंद्र [तेजचंद्र मित्र] (1863 - 1912) - ठाकुरदेव के एक गृहस्थ भक्त, बागबाजार बोस पाड़ा क्षेत्र के निवासी और श्रीम का छात्र थे । बचपन में ही श्रीम की प्रेरणा से उन्होंने श्री श्री ठाकुर के दर्शन प्राप्त किए थे । वे श्रीश्री माँ सारदा देवी के भी कृपापात्र होकर अपना जीवन धन्य किये  थे। वह नियमित रूप से ध्यान करते थे और मृदुभाषी थे। ठाकुर उन्हें 'शुद्ध आधार' के रूप में देखते थे और उन्हें 'अपना आदमी ' कहकर उनसे बहुत स्नेह करते थे।

গিরিশকে ব্যস্ত দেখিয়া ঠাকুর একটু চুপ করিলেন। তেজচন্দ্রকে বলিতেছেন, তুই একটু কাছে এসে বোস।

[তেজচন্দ্র [তেজচন্দ্র মিত্র] (১৮৬৩ - ১৯১২) — ঠাকুরের একজন গৃহীভক্ত। বাগবাজার বোসপাড়া অঞ্চলের বাসিন্দা, শ্রীম-র ছাত্র। বাল্যকালেই শ্রীম-র অনুপ্রেরণায় শ্রীশ্রীঠাকুরের দর্শনলাভ করেন। শ্রীশ্রীমায়েরও কৃপাধন্য ছিলেন। তিনি নিয়মিত ধ্যান করিতেন ও মিতভাষী ছিলেন । ঠাকুর তাঁহাকে ‘শুদ্ধ আধার’ জ্ঞান করিতেন এবং আপনার লোক বলিয়া অতিশয় স্নেহ করিতেন।] 

तेजचन्द्र पास बैठे । थोड़ी देर बाद मास्टर से कान में कह रहे हैं, "मुझे जाना है ।"श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति ) - क्या कह रहा है ? मास्टर - घर जाना है - यही कह रहा है ।

তেজচন্দ্র কাছে বসিলেন। কিয়ৎক্ষণ পরে মাস্টারকে ফিস্‌ফিস্‌ করিয়া বলিতেছেন, আমায় যেতে হবে।

Finding Girish restless, Sri Ramakrishna remained silent a moment. He asked Tejchandra to sit near him. The boy sat near the Master. He whispered to M. that he would have to leave soon.

MASTER (to M.): "What did he say?"

M: "He said he would have to go home."

श्रीरामकृष्ण - मैं इन्हें इतना क्यों चाहता हूँ ? ये निर्मल पात्र हैं - विषयबुद्धि प्रविष्ट नहीं हुई है । विषयबुद्धि रहने पर उपदेशों को धारण नहीं कर सकते । नये बर्तन में दूध रखा जा सकता है, दही के बर्तन में दूध रखने से खराब हो जाता है ।

"जिस कटोरी में लहसुन घोला हो, उस कटोरी को चाहे हजार बार धो डालो, लहसुन की गन्ध नहीं जाती ।"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি ওদের অত টানি কেন? ওরা নির্মল আধার — বিষয়বুদ্ধি ঢোকেনি। থাকলে উপদেশ ধারণা করতে পারে না। নূতন হাঁড়িতে দুধ রাখা যায়, দই পাতা হাঁড়িতে দুধ রাখলে দুধ নষ্ট হয়।“যে বাটিতে রসুন গুলেছে, সে বাটি হাজার ধোও, রসুনের গন্ধ যায় না।”

MASTER: "Why do I attract these boys to me so much? They are pure vessels untouched by worldliness. A man cannot assimilate instruction if his mind is stained with worldliness. Milk can be safely kept in a new pot; but it turns sour if kept in a pot in which curd has been made. You may wash a thousand times a cup that has held a solution of garlic, but still you cannot remove the smell."

(३)

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत,अद्भुत प्रसंग- 107 ]

卐🙏नरेन्द्र आदि के साथ श्रीरामकृष्ण का स्टार थिएटर में 'वृषकेतु' नाटक देखना卐🙏 

श्रीरामकृष्ण 'वृषकेतु' नाटक देखेंगे । बीडन स्ट्रीट पर जहाँ बाद में मनोमोहन थिएटर हुआ, पहले वहाँ स्टार थिएटर था । श्रीरामकृष्ण थिएटर में आकर बाक्स में दक्षिण की ओर मुँह करके बैठे । मास्टर आदि भक्तगण पास ही बैठे हैं ।

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বৃষকেতু অভিনয়দর্শন করিবেন। বিডন স্ট্রীটে যেখানে পরে মনোমোহন থিয়েটার হয়, পূর্বে সেই মঞ্চে স্টার-থিয়েটার আভিনয় হইত। থিয়েটারে আসিয়া বক্সে দক্ষিণাস্য হইয়া বসিয়াছেন।

Sri Ramakrishna arrived at the Star Theatre, on Beadon Street, to see a performance of Vrishaketu.^  He sat in a box, facing the south. M. and other devotees were near him.

[^Vrishaketu was the son of Karna, a hero of the Mahabharata, who was celebrated alike for charity and heroism. Karna sacrificed his son to fulfil a promise. 

^एक ही जन्म में दूसरी बार जीवित होने वाले कर्ण के पुत्र वृषकेतु की कथा :  कहते हैं मृत्यु जीवन का सत्य है जो एक बार मर जाता है वह फिर जीवित नहीं हो सकता। लेकिन कई बार ऐसे भी चमत्कार होते हैं कि मरने के बाद लोग जीवित हो उठते हैं। महाभारत में भी कुछ ऐसी ही कथाएं हैं। कथा इस प्रकार है - कर्ण के द्वार से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता था।  यदि एक बार वह किसी वस्तु को देने की स्वीकृति दे देता तो उसे अवश्य देता।  एक दिन महाराज कर्ण दोपहर के भोजन के लिए निकलने लगे तो एक ब्राह्मण पधारे. द्वारपाल ने उन्हें महल में जाने की आज्ञा दे दी।  महाराज ने पूछा –“कहिए विप्रवर ! मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ?” --कल एकादशी का व्रत था आज उपवास खोलना है।  किन्तु आपसे इच्छित भोजन चाहता हूँ। ” 

महात्मन ! आज्ञा दें, जैसे आज्ञा देंगे वही भोजन परोसा जाएगा। ” उस क्षद्मवेशी ने कर्ण के पुत्र का मांस खाने की इच्छा प्रकट की। “ब्राह्मण को नरमांस का लोभ ! प्रभु कहीं आप मेरी परीक्षा तो नहीं ले रहे ? मैं एक माँ होकर अपने ही बच्चे का मांस कैसे पकाऊ ? उसने विचार किया – “धर्म व व्रत के पालन के लिए सन्तान का बलिदान भी करना पड़े तो नि:संकोच कर देना चाहिए, हो सकता है ईश्वर ने वृषकेतु के भाग्य में यही लिखा हो। 

पद्मावती ने ध्यान लगा कर चित्त को शांत किया व समस्त मोह त्याग कर पुत्र वध के लिए प्रस्तुत हुई।  वृषकेतु के शरीर  के टुकड़े-टुकड़े कर दिए ब्राह्मण के आगे भोजन परोसा तो वह बोला –“ वाह ! क्या बढिया सुगंध आ रही है।  जाओ, बाहर से किसी बालक को बुला लाओ, पहला कौर उसे खिलाऊंगा। ”कर्ण बालक की खोज में बाहर गए तो देखा कि वृषकेतु बच्चों के साथ खेल रहा है।  उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। ब्राह्मण के वेश में स्वयं नारायण कर्ण व उसकी पत्नी की परीक्षा लेने आए थे।  पद्मावती ने पति-पत्नी की मर्यादा के पालन के लिए मातृत्व की सभी मर्यादाएँ तोड़ दीं व अपने अप्रतिम त्याग के बल पर संसार में अमर  हो गई।]  

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - नरेन्द्र आया है ?

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — নরেন্দ্র এসেছে?

MASTER (to M.): "Has Narendra come?"

मास्टर - जी हाँ ।

अभिनय हो रहा है । कर्ण और पद्मावती ने आरी को दोनों ओर से पकड़कर वृषकेतु का बलिदान किया । पद्मावती ने रोते रोते मांस को पकाया । वृद्ध ब्राह्मण अतिथि आनन्द मनाते हुए कर्ण से कह रहे हैं, “अब आओ, हम एक साथ बैठकर पका हुआ मांस खायें ।” कर्ण कह रहे हैं, "यह मुझसे न होगा । पुत्र का मांस खा न सकूँगा ।”

एक भक्त ने सहानुभूति प्रकट करके धीरे से आर्तनाद किया । साथ ही श्रीरामकृष्ण ने भी दुःख प्रकट किया ।

অভিনয় হইতেছে। কর্ণ ও পদ্মাবতী করাত দুইদিকে দুইজন ধরিয়া বৃষকেতুকে বলিদান করিলেন। পদ্মাবতী কাঁদিতে কাঁদিতে মাংস রন্ধন করিলেন। বৃদ্ধ ব্রাহ্মণ অতিথি আনন্দ করিতে করিতে কর্ণকে বলিতেছেন, এইবার এস, আমরা একসঙ্গে বসে রান্না মাংস খাই। অভিনয়ে কর্ণ বলিতেছেন, তা আমি পারব না; পুত্রের মাংস খেতে পারব না। 

একজন ভক্ত সহানুভূতি-ব্যঞ্জক অস্ফুট আর্তনাদ করিলেন। ঠাকুরও সেই সঙ্গে দুঃখপ্রকাশ করিলেন।

The performance began. Karna and his wife Padmavati sacrificed their son to please God, who had come to them in the guise of a brahmin to test Karna's charity. During this scene one of the devotees gave a suppressed sigh. Sri Ramakrishna also expressed his sorrow.

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ]

卐🙏 अवतार कहते हैं - “मैं आया हूँ"; भक्त कहेगा -मैं खुद नहीं आया, लाया गया हूँ  卐🙏

  [অবতার বলেন - "আমি এসেছি"; ভক্ত বলবে - 

আমি নিজে আসিনি, আমাকে আনা হয়েছে।] 

[Avatar says - "I have come"; The devotee will say -

 I myself have not come, I have been brought.] 

खेल (वृषकेतु नाटक) समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण रंगमंच के विश्रामगृह में आकर उपस्थित हुए । गिरीश, नरेन्द्र आदि भक्तगण बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण कमरे में जाकर नरेन्द्र के पास खड़े हुए और बोले, “मैं आया हूँ ।"

অভিনয় সমাপ্ত হইলে ঠাকুর রঙ্গমঞ্চের বিশ্রাম ঘরে গিয়া উপস্থিত হইলেন। গিরিশ, নরেন্দ্র প্রভৃতি ভক্তেরা বসিয়া আছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ ঘরে প্রবেশ করিয়া নরেন্দ্রের কাছে গিয়া দাঁড়াইলেন ও বলিলেন, আমি এসেছি।

After the play Sri Ramakrishna went to the recreation room of the theatre. Girish and Narendra were already there. The Master stood near Narendra and said, "I have come."

श्रीरामकृष्ण बैठे । अभी भी वृन्द वाद्यों (orchestra) का संगीत सुनायी दे रहा है । श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) - यह सहगान (Concert) सुनकर मुझे आनन्द हो रहा है । वहाँ पर (दक्षिणेश्वर में) शहनाई बजती थी, मैं भावमग्न हो जाता था । एक साधु मेरी स्थिति देखकर कहा करता था, 'ये सब ब्रह्मज्ञान के लक्षण हैं।'

ঠাকুর উপবেশন করিয়াছেন। এখনও ঐকতান বাদ্যের (কনসার্ট) শব্দ শুনা যাইতেছে।শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — এই বাজনা শুনে আমার আনন্দ হচ্ছে। সেখানে (দক্ষিণেশ্বরে) সানাই বাজত, আমি ভাবিবিষ্ট হয়ে যেতাম; একজন সাধু আমার অবস্থা দেখে বলত, এ-সব ব্রহ্মজ্ঞানের লক্ষণ।

MASTER (to the devotee): "I feel happy listening to the concert. The musicians used to play on the sanai at Dakshineswar and I would go into ecstasy. Noticing this, a certain sadhu said, 'This is a sign of the Knowledge of Brahman.'"

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ]

卐🙏 इस विश्व-रंगमंच पर "मैं खुद आया हूँ -कहना ठीक नहीं, और "मेरा" का ज्ञान卐🙏 

[গিরিশ ও “আমি আমার” ]

वाद्य बन्द होने पर श्रीरामकृष्ण फिर बात कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - यह तुम्हारा थिएटर है या तुम लोगों का ?

কনসার্ট থামিয়া গেলে শ্রীরামকৃষ্ণ আবার কথা কহিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — এ কি তোমার থিয়েটার, না তোমাদের?

The orchestra stopped playing and Sri Ramakrishna began the conversation.MASTER (to Girish): "Does this theatre belong to you?"

गिरीश - जी, हम लोगों का ।

গিরিশ — আজ্ঞা আমাদের।

GIRISH: "It is ours, sir."

श्रीरामकृष्ण - 'हम लोगों का' शब्द ही अच्छा है । 'मेरा' कहना ठीक नहीं । कोई कोई कहता है 'मैं खुद आया हूँ ।' ये सब बातें हीनबुद्धि अहंकारी लोग कहते हैं ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমাদের কথাটিই ভাল; আমার বলা ভাল নয়! কেউ কেউ বলে আমি নিজেই এসেছি; এ-সব হীনবুদ্ধি অহংকারে লোকে বলে।

MASTER: "'Ours' is good, it is not good to say 'mine'. People say 'I' and 'mine'; they are egotistic, small-minded people."

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ]

卐🙏सम्पूर्ण विश्व ही एक थिएटर है- नरेन्द्र 卐🙏

[ परन्तु कहीं विद्या का खेल है, कहीं अविद्या का -श्रीरामकृष्ण ] 

[পুরো পৃথিবীটাই থিয়েটার।

কিন্তু কোথাও আছে শেখার খেলা, কোথাও আছে অজ্ঞতার খেলা।]

The whole world is a theatre.]

नरेन्द्र - सभी कुछ थिएटर है ।

নরেন্দ্র — সবই থিয়েটার।

NARENDRA: "The whole world is a theatre."

श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, ठीक । परन्तु कहीं विद्या का खेल है, कहीं अविद्या का ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ হাঁ ঠিক। তবে কোথাও বিদ্যার খেলা, কোথাও অবিদ্যার খেলা।

MASTER: "Yes, yes, that's right. In some places you see tlie play of vidya and in some, the play of avidya."

नरेन्द्र - सभी विद्या के खेल है ।

(प्रत्येक नाटक में हम देखते हैं कि मनुष्य क्रमशः पूर्णता की ओर ही अग्रसर हो रहा है।) 

নরেন্দ্র — সবই বিদ্যার।

NARENDRA: "Everything is the play of vidya."

 [In each play we see that the Man is marching towards perfection.]  

श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, परन्तु यह तो ब्रह्मज्ञान से होता है । भक्ति और भक्त के लिए दोनो ही हैं, विद्यामाया और अविद्यामाया

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ হাঁ; তবে উটি ব্রহ্মজ্ঞানে হয়। ভক্তি-ভক্তের পক্ষে দুইই আছে; বিদ্যা মায়া, অবিদ্যা মায়া।

MASTER: "True, true. But a man realizes that when he has the Knowledge of Brahman. But for a bhakta, who follows the path of divine love, both exist — vidyamaya and avidyamaya.

 तू जरा गाना गा । नरेन्द्र गाना गा रहे हैं –

चिदानन्द सिन्धुनीरे प्रेमानन्देर लहरी। 
महाभाव रासलीला कि माधुरी मरी मरी।  


महायोगे समुदाय एकाकार होईलो ,
देश-काल , व्यवधान , भेदाभेद घुचिलो- आशा पुरीलो रे -
आमार सकल साध मिटे गेलो ! आशा पुरीलो रे -
आमार सकल साध मिटे गेलो ! .... 

चिदानन्द सिन्धुनीरे प्रेमानन्देर लहरी।
महाभाव रासलीला कि माधुरी मरी मरी।  
 
विविध विलास रंग प्रसंग, कत अभिनव भावतरंग ,
विविध विलास रंग प्रसंग, कत अभिनव भावतरंग ,

डूबीछे उठीछे करिछे रंग, नवीन नवीन रूप धरि। 
(हरि हरि बोले- नवीन नवीन रूप धरि। 
हरि बोल हरि बोल मन आमार 

एखन आनन्दे मातिया -दूबाहु तुलिया -
आनन्दे मातिया -दूबाहु तुलिया -

बोलो रे मन हरि हरि।  
बोलो रे मन हरि हरि।   

चिदानन्द सिन्धुनीरे प्रेमानन्देर लहरी। 
महाभाव रासलीला कि माधुरी मरी मरी।  

-त्रैलोक्यनाथ सान्याल रचित 

(भावार्थ) - "चिदानन्द समुद्र के जल में प्रेमानन्द की लहरें हैं । अहा ! महाभाव में रासलीला की क्या ही माधुरी है । नाना प्रकार के विलास, आनन्द-प्रसंग कितनी ही नयी नयी भाव तरंगें नये नये रूप धारण कर डूब रही हैं, उठ रही हैं और तरह तरह के खेल कर रही हैं । महायोग में सभी एकाकार हो गये । देश-काल की पृथक्ता तथा भेदाभेद मिट गये और मेरी आशा पूर्ण हुई । मेरी सभी आकांक्षाएँ मिट गयीं । अब हे मन, आनन्द में मस्त होकर दोनों हाथ उठाकर 'हरि हरि' बोल' ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — তুই একটু গান গা। নরেন্দ্র গান গাহিতেছেন:

চিদানন্দ সিন্ধুনীরে প্রেমানন্দের লহরী।

মহাভাব রাসলীলা কি মাধুরী মরি মরি।

বিবিধ বিলাস রঙ্গ প্রসঙ্গ, কত অভিনব ভাবতরঙ্গ,

ডুবিছে উঠিছে করিছে রঙ্গ নবীন রূপ ধরি।

(হরি হরি বলে)

মহাযোগে সমুদায় একাকার হইল,

দেশ-কাল, ব্যবধান, ভেদাভেদ ঘুচিল (আশা পুরিল রে, —

আমার সকল সাধ মিটে গেল)

এখন আনন্দে মাতিয়া দুবাহু তুলিয়া

বল রে মন হরি হরি।

"Please sing a little." Narendra sang: " Upon the Sea of Blissful Awareness waves of ecstatic love arise:Rapture divine! Play of God's Bliss! Oh, how enthralling! Wondrous waves of the sweetness of God, ever new and ever enchanting,Rise on the surface, ever assuming, Forms ever fresh.Then once more in the Great Communion all are merged, as the barrier walls Of time and space dissolve and vanish:Dance then, O mind! Dance in delight with hands upraised, chanting Lord Hari's holy name.

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ]

卐🙏सर्वोत्कृष्ट समागम, महाऐक्य में जब सब एकाकार हो गए -तब सब विद्या है卐🙏 

नरेन्द्र जब गा रहे थे, “महायोग में सब एकाकार हो गये", - तो श्रीरामकृष्ण ने कहा, "यह ब्रह्मज्ञान से होता है । तू जो कह रहा था, - सभी विद्या हैं ।"

নরেন্দ্র যখন গাহিতেছেন, ‘মহাযোগে সব একাকার হইল’ তখন শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, এটি ব্রহ্মজ্ঞানে হয়; তুই যা বলছিলি, সবই বিদ্যা।
As Narendra sang the words, "Then once more in the Great Communion all are merged", Sri Ramakrishna said to him, "One realizes this after attaining the Knowledge of Brahman; then all is vidya, Brahman, as you said."
नरेन्द्र जब गाने लगे, "हे मन ! आनन्द में मस्त होकर दोनों हाथ उठाकर ‘रे मन हरि हरि’ बोल" - तो श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र से कहा "इसे दो बार कहो।”गीत समाप्त होने पर भक्तों के साथ वार्तालाप हो रहा है ।
নরেন্দ্র যখন গাহিতেছেন, “আনন্দে মাতিয়া দুবাহু তুলিয়া বল রে মন হরি হরি,” তখন শ্রীরামকৃষ্ণ নরেন্দ্রকে বলিতেছেন, ওইটি দুবার করে বল্‌। গান হইয়া গেলে আবার ভক্তসঙ্গে কথা হইতেছে।
As Narendra sang the line, "Dance in delight with hands upraised, chanting Lord Hari's holy name", the Master said to him, "Sing that line twice." After the song Sri Ramakrishna resumed the conversation.

गिरीश - देवेन्द्रबाबू नहीं आये हैं । वे अभिमान करके कहते हैं, ‘हमारे अन्दर तो कुछ सार नहीं है, हम आकर क्या करेंगे !"
গিরিশ — দেবেন্দ্রবাবু আসেন নাই; তিনি অভিমান করে বললেন, আমাদের ভিতরে তো ক্ষীরের পোর নাই; কলায়ের পোর। আমরা এসে কি করব?
GIRISH: "Devendra Babu hasn't come. He says in a mood of wounded pride: 'We haven't any stuff inside us, no filling of thickened milk. We are filled only with worthless lentil-paste. Why should we go there?'"

श्रीरामकृष्ण (विस्मित होकर) - कहाँ, पहले तो वे वैसी बातें नहीं करते थे ? श्रीरामकृष्ण जलपान कर रहे हैं, नरेन्द्र को भी कुछ खाने को दिया ।

শ্রীরামকৃষ্ণ (বিস্মিত হইয়া) — কই, আগে তো উনি ওরকম করতেন না?ঠাকুর জলসেবা করিতেছেন, নরেন্দ্রকেও খাইতে দিলেন।
MASTER (surprised): "Does he say that? He never said so before." Sri Ramakrishna took some refreshments and handed some to Narendra.

यतीन देव (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आप ‘नरेन्द्र खाओ' 'नरेन्द्र खाओ' कह रहे हैं, और हम लोग क्या कहीं से बहकर आये हैं ।
যতীন দেব (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি — “নরেন্দ্র খাও” “নরেন্দ্র খাও” বলছেন, আমরা শালারা ভেসে এসেছি!
JATIN DEVA (to the Master): "You always say: 'Narendra, eat this! Eat that!' Are the rest of us fools? Are we like straw washed ashore by the flood-tide?"
यतीन को श्रीरामकृष्ण बहुत चाहते हैं । वे दक्षिणेश्वर में जाकर बीच-बीच में दर्शन करते हैं । कभी कभी रात भी वहीं बिताते हैं । वह शोभाबाजार के राजाओं के घर का (राधाकान्त देव के घर का) लड़का है श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र के प्रति हँसते हुए) - देख, यतीन तेरी ही बात कर रहा है ।

যতীনকে ঠাকুর খুব ভালবাসেন। তিনি দক্ষিণেশ্বরে গিয়া মাঝে মাঝে দর্শন করেন; কখন কখন রাত্রেও সেখানে গিয়া থাকেন। তিনি শোভাবাজারের রাজাদের বাড়ির (রাধাকান্ত দেবের বাড়ির) ছেলে। শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি, সহাস্যে) — ওরে (যতীন) তোর কথাই বলছে।
Sri Ramakrishna loved Jatin dearly. Jatin visited the Master now and then at Dakshineswar and occasionally spent the night there. He belonged to an aristocratic family of Sobhabazar. The Master said laughingly to Narendra, "He is talking about you."

श्रीरामकृष्ण ने हँसते हँसते यतीन की ठुड्डी पकड़कर प्यार करते हुए कहा, "वहाँ जाना, जाकर खाना ।” अर्थात् 'दक्षिणेश्वर में जाना ।' श्रीरामकृष्ण फिर ‘विवाहविभ्राट’ नाटक का अभिनय देखेंगे। बाक्स में जाकर बैठे । नौकरानी की बात सुनकर हँसने लगे । थोड़ी देर सुनकर उनका मन दूसरी ओर गया । मास्टर के साथ धीरे-धीरे बात कर रहे हैं ।

ঠাকুর হাসিতে হাসিতে যতীনের থুঁতি ধরে আদর করিতে করিতে বলিলেন, “সেখানে যাস, গিয়ে খাস!” অর্থাৎ “দক্ষিণেশ্বরে যাস।” ঠাকুর আবার বিবাহ-বিভ্রাট অভিনয় শুনবেন; বক্সে গিয়ে বসিলেন। ঝির কথাবার্তা শুনে হাসিতে লাগিলেন। খানিকক্ষণ শুনিয়া অন্যমনস্ক হইলেন। মাস্টারের সহিত আস্তে আস্তে কথা কহিতেছেন।
The Master went into the auditorium to see a farce. He sat in a box. He laughed at the conversation of the maidservant. After a while he became absent-minded and whispered a few words to M.

[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ]

卐🙏अवतार को पहचान लेने पर श्रद्धा होती है- क्या श्री रामकृष्ण अवतार हैं?卐🙏

[গিরিশের অবতারবাদ — শ্রীরামকৃষ্ণ কি অবতার? ]

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - अच्छा, गिरीश जो कह रहा है (अर्थात् अवतार) क्या वह सत्य है?

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আচ্ছা, গিরিশ ঘোষ যা বলছে (অর্থাৎ অবতার) তা কি সত্য?
MASTER (to M.): "Well, is what Girish Ghosh says true?"
Girish had lately been speaking of Sri Ramakrishna as an Incarnation of God.
मास्टर - जी, ठीक बात है । नहीं तो सभी के मन में क्यों लग रही है ?
মাস্টার — আজ্ঞা ঠিক কথা; তা না হলে সবার মনে লাগছে কেন?
M: "Yes, sir, it must be true. Otherwise why should it appeal to our minds?"
श्रीरामकृष्ण - देखो, अब एक स्थिति आ रही है, पहले की स्थिति उलट गयी है । अब धातु की चीजें छू नहीं सकता हूँ ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, এখন একটি অবস্থা আসছে; আগেকার অবস্থা উলটে গেছে। ধাতুর দ্রব্য ছুঁতে পারছি না।
MASTER: "You see, a change is coming over me. The old mood has changed. I am not able to touch any metal now."

मास्टर विस्मित होकर सुन रहे हैं । श्रीरामकृष्ण - यह जो नवीन स्थिति है, इसका एक बहुत ही गूढ़ अर्थ है । श्रीरामकृष्ण धातु छू नहीं सक रहे हैं । सम्भव है, अवतार माया के ऐश्वर्य का कुछ भी भोग नहीं करते, क्या इसीलिए श्रीरामकृष्ण ये सब बातें कह रहे हैं ?
শ্রীরামকৃষ্ণ — এই যে নূতন অবস্থা, এর একটি খুব গুহ্য মানে আছে। ঠাকুর ধাতু স্পর্শ করিতে পারিতেছেন না। অবতার বুঝি মায়ার ঐশ্বর্য কিছুই ভোগ করেন না, তাই কি ঠাকুর এই সব কথা বলিতেছেন?
M. listened to these words in wonder. MASTER: "There is a very deep meaning in this new mood." Was the Master hinting that a God-man cannot bear any association with worldly treasure?

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - अच्छा, मेरी स्थिति कुछ बदल रही है, देखते हो ?

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আচ্ছা, আমার অবস্থা কিছু বদলাচ্ছে দেখছ? 
MASTER (to M.): "Well, do you notice any change in me?"

मास्टर - जी, कहाँ ?
মাস্টার — আজ্ঞা, কই? 
M: "In what respect, sir?"
श्रीरामकृष्ण - कर्म में ?
শ্রীরামকৃষ্ণ — কার্যে?
MASTER: "In my activities."

मास्टर - अब कर्म बढ़ रहा है - अनेक लोग जान रहे हैं ।

মাস্টার — এখন কাজ বাড়ছে — যত লোক জানতে পারছে। 
M: "Your activities are increasing as more people come to know about you.
श्रीरामकृष्ण - देख रहे हो ! पहले जो कुछ कहता था, अब सफल हो रहा है ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখছ! আগে যা বলতুম এখন ফলছে?
MASTER: "Do you see? What I said before is now coming true.

श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर चुप रहकर एकाएक कह रहे हैं - "अच्छा, पल्टू का अच्छा ध्यान क्यों नहीं होता ?"
ঠাকুর কিয়ৎকাল চুপ করিয়া থাকিয়া হঠাৎ বলছেন, “আচ্ছা, পল্টুর ভাল ধ্যান হয় না কেন?”
After a few moments he said, "Can you tell me why Paltu can't meditate well?"
 [ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ] 

卐🙏गिरीश का प्रश्न - 'लहसुन की गन्ध क्या जायेगी ??' 卐🙏

ठाकुर देव का उत्तर -`या मतिः सा गतिर्भवेत'!  

"As we think, So we become."
 
 [श्रीरामकृष्ण देव का आशा का संदेश- मनुष्य को पापी कहना ही सबसे बड़ा पाप है !]

[গিরিশ কি রসুন গোলা বাটি? 

"Will this smell of garlic go?"

The Lord's message of hope for so-called 'Sinners' ]

अब श्रीरामकृष्ण के दक्षिणेश्वर जाने की व्यवस्था हो रही है । श्रीरामकृष्ण ने किसी भक्त के पास गिरीश के सम्बन्ध में कहा था, "पीसे हुए लहसुन की कटोरी को हजार बार धोओ, पर लहसुन की गन्ध क्या सम्पूर्ण रूप से जाती है ?" गिरीश ने भी इसीलिए मन ही मन प्रेम-कोप किया है । जाते समय गिरीश श्रीरामकृष्ण से कुछ कह रहे हैं ।
এইবার ঠাকুরের দক্ষিণেশ্বর যাইবার উদ্যোগ হইতেছে। ঠাকুর কোন ভক্তের কাছে গিরিশের সম্বন্ধে বলেছিলেন, “রসুন গোলা বাটি হাজার ধোও রসুনের গন্ধ কি একেবারে যায়?” গিরিশও তাই মনে মনে অভিমান করিয়াছেন; যাইবার সময় গিরিশ ঠাকুরকে কিছু নিবেদন করিতেছেন।
Sri Ramakrishna was ready to leave for Dakshineswar. He had remarked to a devotee about Girish, "You may wash a thousand times a cup that has held a solution of garlic; but is it ever possible to get rid of the smell altogether?" Girish was offended by this remark. When the Master was about to leave, Girish spoke.

गिरीश (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - लहसुन की गन्ध क्या जायेगी ?

গিরিশ (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — রসুনের গন্ধ কি যাবে?
 GIRISH: "Will this smell of garlic go?"

श्रीरामकृष्ण – जायेगी ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — যাবে।
 MASTER: "Yes, it will."

गिरीश - तो आप कह रहे हैं – जायेगी ?

গিরিশ — তবে বললেন ‘যাবে’? 

GIRISH: "So you say it will."

श्रीरामकृष्ण - खूब आग जलाकर लहसुन की कटोरी को उसमें तपा लेने पर फिर गन्ध नहीं रह जाती; बर्तन मानो नया बन जाता है ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — অত আগুন জ্বললে গন্ধ-ফন্ধ পালিয়ে যায়। রসুনের বাটি পুড়িয়ে নিলে আর গন্ধ থাকে না, নূতন হাঁড়ি হয়ে যায়।
MASTER: "All smell disappears when a blazing fire is lighted. If you heat the cup smelling of garlic, you get rid of the smell; it becomes a new cup.

‘‘जो कहता है 'मेरा नहीं होगा', उसका नहीं होता । मुक्त-अभिमानी मुक्त ही हो जाता है और बद्ध-अभिमानी बद्ध ही रह जाता है । जो जोर से कहता है 'मैं मुक्त हूँ', वह मुक्त ही हो जाता है । पर जो दिनरात कहता है, 'मैं बद्ध हूँ' वह बद्ध ही हो जाता है ।"
“যে বলে আমার হবে না, তার হয় না। মুক্ত-অভিমানী মুক্তই হয়, আর বদ্ধ-অভিমানী বদ্ধই হয়। যে জোর করে বলে আমি মুক্ত হয়েছি, সে মুক্তই হয়। যে রাতদিন ‘আমি বদ্ধ’ ‘আমি বদ্ধ’ বলে, সে বদ্ধই হয়ে যায়।”
"The man who says he will not succeed will never succeed. He who feels he is liberated is indeed liberated; and he who feels he is bound verily remains bound. He who forcefully says, 'I am free' is certainly free; and he who says day and night, 'I am bound' is certainly bound."

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मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।

किंवदंतीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्।।

 ( अष्टावक्र गीता १ :११ )

He who considers himself free becomes free indeed and he who considers himself bound remains bound. ‘As we think, so we become’, is a proverbial saying in this world and it is indeed quite true.

जो स्वयं को मुक्त समझता है वह वास्तव में मुक्त हो जाता है और जो स्वयं को बंधा हुआ समझता है वह बंधा रहता है। ‘जैसा हम सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं ’ (या मति: सा गति) यह एक प्रचलित कहावत है और यह वास्तव में एक सत्य है जो उपनिषद् भी कहते हैं।

जिसे मुक्त होने का अभिमान या गौरव है, वह सदैव मुक्त ही है और जिसे बद्ध या बंधनग्रस्त होने का अभिमान या गौरव है, वह निश्चय ही बंधन में बंधता है। संसार में भी यह किंवदंती सत्य प्रचलित है कि जिसकी जैसी मति (बुद्धि) होती है, उसकी वैसी ही गति होती है। कहा भी गया है कि ‘अंत मता सो गताः’ अर्थात मृत्यु के समय जिसकी जैसी बुद्धि होती है, जिसकी जैसी भावना होती है, उसी के अनुरूप उसे अगले जन्म की प्राप्ति होती है। यदि मरते समय धन में मोह हो तो कहा जाता है कि सर्प योनि मिलती है। परिवार में मोह हो तो उसका जन्म उसी परिवार में किसी-न-किसी रूप में होता है। इसीलिए कहा गया है कि मृत्यु काल में परमात्मा का स्मरण करना चाहिए। भरत मुनि की आसक्ति मृगशावक में थी, अतः उन्हें अगला जन्म मृगशावक का ही मिला। उस जन्म में भी उन्हें विगत जन्म स्मृत था। ‘श्रीमद्भगवद् गीता’ में भी कहा गया है कि जो कर्म आसक्ति रहित होकर किया जाए तो वह मोक्षदायी होता है। बंधन का कारण आसक्ति, मोह, राग है। यदि इनका त्याग कर दिया जाए तो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। कर्म कोई भी हो यदि आसक्त होकर किया जाए तो पाप का कारण बनता है। इसके विपरीत निरासक्त कर्म पुण्य प्रदाता होता है। कर्म का प्रेरक मन है। मन में ही सर्वप्रथम किसी कर्म के करने या न करने का विचार आता है। मन ही बंधन का कारण है तो मोक्ष का साधन भी है। आजकल के मनोवैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि मनुष्य जो कुछ सोचता है, जो कुछ मनन करता है वह प्रतिफलित हो जाता है।

क्व स्वप्न: क्व सुषुप्तिर्वा क्व जागरणं तथा।

क्व तुरीयम् भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य में॥१९.५॥

Where are dreams? Where is deep sleep? Where is wakefulness? And also where is the fourth state of Consciousness? Where is even fear for me, who abide in my own grandeur?

श्वपनावस्था(सपने दिखनेवाली नींद)कहाँ हैं? सुषुप्तावस्था (गहरी नींद) कहाँ है? जाग्रत अवस्था कहाँ है? और फिर चैतन्य की चौथी अवस्था, तुरीयम् कहाँ है? मेरे लिए भय भी कहाँ है, जो मेरी ही ऐश्वर्य में रहता है?

क्व मृत्युजीर्वितं क्व लोका: क्वास्य लौकिकम्।

क्व लय: क्व समाधिर्वा स्वमहिम्नि स्थितस्यमे॥१९.७॥

Where is life or where is death? Where are the worlds or where are the worldly relations? Where is dissolution of Consciousness? Where is samadhi for me, who in my own grandeur abide?

जीवन कहाँ है या मृत्यु कहाँ है? संसार कहाँ हैं या सांसारिक सम्बन्ध कहाँ हैं? चेतना का विघटन कहाँ है? मेरे लिए समाधि कहाँ है, जो मेरी ही भव्यता में निवास करती है?

अलं त्रिवर्गकथया योगस्य कथयाप्यलम्।

अलं विज्ञानकथया विश्रान्तस्य ममात्मनि।।19.8।।

For me, who repose in the Self, talks about the three goals of life (dharma, artha, kama) are useless, and even talks about direct knowledge are needless.

मेरे लिए, जो स्वयं में विश्राम करता है, जीवन के तीन लक्ष्यों (धर्म, अर्थ, काम) के बारे में बात करना बेकार है, और यहां तक ​​कि प्रत्यक्ष ज्ञान की बात करना भी बेकार है।

क्व चास्ति क्व च वा नास्ति क्वास्ति चैकं क्व च द्वयम्।

बहुनात्र किमुक्तेन किञ्चिन्नोत्तिष्ठते मम।।20.14।।

Where is existence or where is ‘non-existence’?Where is the one(unity) and where is duality?What need is there to say more? Nothing indeed emanates from me.

अस्तित्व कहाँ है या ‘अस्तित्व’ कहाँ है? एक (एकता) कहाँ है और द्वैत कहाँ है? अधिक कहने की क्या आवश्यकता है? वास्तव में मुझसे कुछ भी नहीं निकलता है।

 卐🙏Poet king Bhartrihari : भोग रखने से ही भय है卐🙏

[वासना और धन के लालच में आसक्ति रहने से भक्त को गिरने का भय रहता है। ]

ह्रदय के निकट जैसे सहानुभूति ग्रन्थि होती है , वैसे ही मूलाधार के निकट एक ययाति ग्रन्थि भी होती है। ययाति ग्रंथि वृद्धावस्था में यौवन की तीव्र कामना की ग्रंथि मानी जाति है। चिकित्‍सा विज्ञान मानता है कि मानव शरीर प्रकृति की एक जटिलतम संरचना है। इसे नियंत्रित करने के लिए स्‍नायु तंत्र यानी नर्वस सिस्‍टम का एक बड़ा संजाल भी है, जो स्‍पर्श, दाब, दर्द की संवेदना को त्‍वचा से मस्तिष्‍क तक पहुंचाता  है।  किशोरा-वस्‍था में विशिष्‍ट रासायनिक तत्‍व निकलते हैं जो स्‍नायुतंत्र द्वारा शरीर के विभिन्‍न हिस्‍सों तक पहुंचते हैं। इस अवस्‍था में विपरीत लिंगी को देखकर वासना का भाव उत्‍पन्‍न होता है, जो दो तरह के हार्मोन से नियंत्रित होता है। पुरुषों में ‘टेस्‍टोस्‍टेरोन (Testosterone)’ तथा महिलाओं में ‘इस्‍ट्रोजेन (estrogen) ’ हार्मोन होते हैं, जो वासना की आग भड़काते हैं। वासना या लालसा का दौर क्षणिक होता है। लेकिन वासना की तीव्रतर उत्कंठा के बाद आकर्षण या प्रेम का चिरस्थायी दौर प्रारंभ होता है। प्रेमी को तकते रहना, यादों में खोए रहना, लगातार बातें करते रहना, पढ़ने या किसी काम में मन न लगना जैसे लक्षणों से पीड़ित कर देता है। इस अवस्था में डोपामिन (dopamine), नॉर-एपिनेफ्रिन (norepinephrine) तथा फिनाइल-इथाइल-एमाइन (phenyl-ethyl-amineनामक हारमोन रक्त में शामिल होते हैं। उन्हें किसी अन्य का साथ अच्छा नहीं लगता और `एक में लागी लगन´ का भाव  स्थापित हो जाता है। इस अवस्था का रसायन है ऑक्सीटोसिन (oxytocin) तथा वेसोप्रेसिन (vasopressin)। ऑक्सीटोसिन जहां `निकटता का हार्मोन´ है, वहीं वेसोप्रेसिन प्रेमियों के मध्य लंबे समय तक सम्बंधों के कायम रखने में अपनी भूमिका निभाता है। वेसोप्रेसिन को `जुड़ाव का रसायन´ कहा जाता है। शरीर में स्वाभाविक रूप से किशोरावस्था, यौवनावस्था या  विवाह के तुरन्त पूर्व व बाद में इन रसायनों व हार्मोंस का उच्च स्तर कायम रहता है। उम्र ढलते-ढलते इनका स्तर घटने लगता है और विरक्ति, विवाहेत्तर सम्बंध जैसी भूल/गलती घटित हो जाती है।  किंवदंति है कि, राजा ययाति एक सहस्र वर्ष तक भोग लिप्सा में लिप्त रहे किन्तु उन्हें तृप्ति नहीं मिली। विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्होंने पुरु की युवावस्था वापस लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया। ययाति को वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होने कहा-

 "न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
 हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एव अभिवर्तते ।। 
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत् ।।

(महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 75, श्लोक 50, 51)अर्थात् मनुष्य की इच्छा कामनाओं के अनुरूप इन्द्रिय विषयों के सुखभोग से नहीं तृप्त होती है । यानी व्यक्ति की इच्छा फिर भी बनी रहती है । असल में वह तो और बढ़ने लगती है, ठीक वैसे ही जैसे आग में इंधन डालने से वह अधिक प्रज्वलित हो उठती है । इसलिए इच्छाओं पर नियंत्रण (शमन) ही विवेकशील व्यक्ति के लिए अनुकरणीय मार्ग है । इस पृथिवी पर जो भी धान-जौ (अन्न), स्वर्ण, पशुधन एवं स्त्रियां ---? हैं वे सब एक मनुष्य को मिलें तो भी पर्याप्त नहीं होंगे । इस तथ्य को जानते हुए व्यक्ति को चाहिए कि तृष्णा का परित्याग करे । तृष्णा के संदर्भ में कही गयी बातें तो स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए समान रूप से लागू होती हैं; फिर क्यों केवल पुरुषों का नाम लिया गया । इसलिये स्वामी जी कामिनी -कांचन में आसक्ति का त्याग न कहकर , ' Lust and lucre ' वासना और धन के लालच' में आसक्ति का त्याग करने की बात कहते थे। 
वैराग्यशतकम् भर्तृहरि के तीन प्रसिद्ध शतकों (शतकत्रय) में से एक है। इसमें वैराग्य सम्बन्धी सौ श्लोक हैं। प्राचीन उज्जैन में बड़े प्रतापी राजा हुए। राजा भर्तृहरि अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर मोहित थे और वे उस पर अत्यंत विश्वास करते थे। राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे। उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भर्तृहरि ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया। इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।यह चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए। राजा ने फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया।रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी।यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा।रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया।वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया।ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे। वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी।इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेंगे तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा।यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए।राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहां से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भर्तृहरि ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है। जब भरथरी को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गए कि रानी पिंगला उसे धोखा दे रही है। उनके अंतरचक्षु खुल गये। इस प्रकार जिसके पूर्वजन्मों के संस्कार अथवा पुण्य जगे हों तब कोई वचन, कथा अथवा घटना उसके हृदय को छू जाती है और उसके जीवन में विवेक-वैराग्य जाग उठता है, उसके जीवन में महान् परिवर्तन आ जाता है। कहते हैं कि असल में यह सारी गुरु गोरखनाथ की लीला थी। 
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः।
           अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च॥    
अर्थ -मैं अपने चित्त में रात दिन जिसकी स्मृति सँजोये रखता हूँ वो मुझसे प्रेम नहीं करती, वो किसी और पुरुष पर मुग्ध  है। वह पुरुष किसी अन्य स्त्री  में आसक्त है। उस पुरुष की अभिलाषित स्त्री मुझपर प्रसन्न है। इसलिए रानी को, रानी द्वारा चाहे हुए पुरुष को, उस पुरुष की चाहिए हुई वेश्या को तथा मुझे धिक्कार है और सबसे अधिक कामदेव को धिक्कार है जिसने यह सारा कुचक्र चलाया। 
 मैं जिसका सतत चिन्तन करता हूँ वह (पिंगला) मेरे प्रति उदासीन है। वह (पिंगला) भी जिसको चाहती है वह (अश्वपाल) तो कोई दूसरी ही स्त्री (राजनर्तकी) में आसक्त है। वह (राजनर्तकी) मेरे प्रति स्नेहभाव रखती है। उस (पिंगला) को धिक्कार है ! उस (अश्वपाल) को धिक्कार है ! उस (राजनर्तकी) को धिक्कार है ! उस कामदेव को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है !)
This is supposed to be the incident which lead Bhartrihari (then king of Ujjain) to Vairagya. Legend says that he received a celestial fruit which he gave to his beloved wife. She was in love with someone else so She gave it to her love, That person again passed it to a prostitute and the prostitute gave it back to king again. As the fruit completed this cycle Bhartrihari learned about the infidelity of world around him. He left the kingdom and turned into an ascetic. 
उन्होंने रनिवास, सिंहासन और राजपाट सब छोड़कर विवेकरूपी कटार से तृष्णा एवं राग की बेल को एक ही झटके में काट दिया। पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। उस गुफा में भर्तृहरि ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी। ये गुफा उज्जैन में भर्तृहरि या भरथरी की गुफा एक शहर के बाहर सुनसान क्षेत्र में स्थित है जिसके पास ही शिप्रा नदी है। फिर जंगलों में भटकते-भटकते भर्तृहरि ने गुरु गोरखनाथ के चरणों में निवेदन कियाः"हे नाथ ! मैंने सोने की थाली में भोजन करके देख लिया और चाँदी के रथ में घूमकर भी देख लिया। यह सब करने में मैंने अपनी आयुष्य को बरबाद कर दिया। अब मैं यह अच्छी तरह जान चुका हूँ कि ये भोग तो बल, तेज, तंदरुस्ती और आयुष्य का नाश कर डालते हैं। मनुष्य की वास्तविक उन्नति भोग-पूर्ति में नहीं वरन् योग में है। इसलिए आप मुझ पर प्रसन्न  होकर योगदीक्षा देने की कृपा करिये।"राजा भर्तृहरि की उत्कट इच्छा एवं वैराग्य को देखकर गोरखनाथ ने उन्हें दीक्षा दी एवं तीर्थाटन की आज्ञा दी। 
तीर्थाटन करते-करते, साधना करते-करते भर्तृहरि ने आत्मानुभव पा लिया। उसके बाद कलम उठाकर उन्होंने सौ-सौ श्लोक की तीन छोटी-छोटी पुस्तकें लिखीं- वैराग्यशतक, नीतिशतक एवं शृंगारशतक। ये आज विश्व-साहित्य के अनमोल रत्न हैं।  Poet king Bhartrihari 
कवि राजा भर्तृहरि ने कई ग्रंथ लिखे जिसमें ‘वैराग्य शतक’ ‘श्रृंगार शतक’ और ‘नीति शतक’ काफी चर्चित हैं।
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भभयं
मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम् ।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।। (- वैराग्यशतकम् ३१ )
( अर्थ - भोग करने पर रोग का भय, उच्च कुल मे जन्म होने पर बदनामी का भय, अधिक धन होने पर राजा का भय, मौन रहने पर दैन्य का भय, बलशाली होने पर शत्रुओं का भय, रूपवान होने पर वृद्धावस्था का भय, शास्त्र मे पारङ्गत होने पर वाद-विवाद का भय, गुणी होने पर दुर्जनों का भय, अच्छा शरीर होने पर यम का भय रहता है। इस संसार मे सभी वस्तुएँ भय उत्पन्न करने वालीं हैं। केवल वैराग्य से ही लोगों को अभय प्राप्त हो सकता है।)  
तन्त्र में षोड़षी पूजा का विधान क्यों किया गया है ? :  अभिनवगुप्त इस प्रकार की साधना का रहस्य समझाते हैं । तदनुसार अधिकारि भेद से तथा व्यक्ति की मनः शक्ति की भिन्नता के कारण शास्त्रों में भेद किया गया है- “चित्तभेदान्मनुष्याणां शास्त्रभेदो वरानने। ” भोग (प्रवृत्ति)  और मोक्ष (निवृत्ति) ये दो धर्म हैं, जो जीवन के मुख्य उद्देश्य हैं। जिसमें भोग की भावना प्रबल होती है वह मन से मुक्ति की साधना नहीं कर सकता क्योंकि उसका मन भोग में ही लिप्त रहेगा भले ही वह बाह्यरूप से विरक्त हो जाये। ऐसे व्यक्तियों को भोग से विरक्ति उत्पन्न होनी चाहिए और विरक्ति तभी होगी जब वह भोग के रहस्य को उसके अन्दर डूबकर जानेगा। उसकी नश्वरता और अल्पकालस्थायिता को समझेगा। इस हेतु भोग में भी भक्तिभाव आ जाये इसके लिए देव-देवी भाव को हृदय में स्थापित करते हुए “पूजा ते विषयोपभोगरचना” की भावनानुसार साधना करते हुए भोग के भौतिक भाव को भुलाकर उसके अध्यात्म और अधिदैव भाव की ओर साधक बढ़ता रहे। यही भाव इस साधना का है। क्‍योंकि कहा गया है कि “इन्द्रियाणि हयानाहु:” इन्द्रियाँ घोड़ों के समान हैं; और इन घोड़ों का अभ्यस्त मार्ग विषयों की ओर का मार्ग ही है। यदि बलपूर्वक उनको उस मार्ग से हटाकर यकायक सर्वथा अपरिचितपूर्ण वैराग्य-शम-दम-तितिक्षा-उपरति आदि के मार्ग पर चलाने की चेष्टा की जायेगी तो वे बिगड़कर अनेक उल्टे-सीधे मार्गों पर जायेंगी क्योंकि उनका चालक मन है। जैसा कि कहा है: 
स्वयं पन्थानं हयस्येव मनसो ये निरुन्धते। 
तेषा तत्खण्डनाञ्योगाद्‌ धावत्युत्पथकोटिभि:।। 
बलपूर्वक मन को वैराग्य में लगाने का विपरीत प्रभाव हो सकता है। अत: मर्यादित विषयोपभोग करते हुए मन्त्र जप, पूजा योग आदि का अभ्यास करना चाहिए। यह अभ्यास साधक आत्मानुभूति या आत्पप्रत्यभिज्ञान की ओर शनै: शनैः विषयानन्द से विरक्ति और स्वाभाविक अरूचि उत्पन्न होने के कारण ले जा सकता है। इस प्रकार वैराग्य को अनादर विरक्ति कहा गया है।
अनादर विरक्त्यैव गलन्तीन्द्रियवृत्तय: । 
यावत्तु विनियभ्यन्ते तावत्तावद्विकुर्वते।। 
कारण यह है कि सत्‌ चित्‌ आनन्द ये तीन ब्रह्म के स्वरूप हैं, जो वस्तुतः एक ही है। जहाँ जहाँ भी यत्किश्वित्‌ आनन्द की मात्रा है; वह ब्रह्म का ही रूप है भले ही वह पूर्ण प्रस्फ्रित न हो। पूर्ण ब्रह्मानन्द और विषयानन्द दोनों में भेद अनन्तता और क्षणिकत्व का है। आनन्द जिसके निजानन्द निरानन्द, जगदानन्द आदि ६० भेद वर्णित हैं ब्रह्म का प्रथम प्रारम्भिक स्वरूप उस आनन्द की अनुभूति करते करते उसके बाह्य रूप विषयों का विलापन होने पर ब्रह्म के चित्स्वरूप की अनुभूति होती है। आनन्द चिद्रूपता में परिवर्तित हो जाता है और वह चिद्रूपता साधना करते करते सत्‌ की स्थिति में या सन्मात्रा रूप में प्रतिष्ठित होती है। यही है असत्‌ से सत्‌ की ओर यात्रा-“ॐ असतो मा सद्गमय।तमसो मा ज्योतिर्गमय।मृत्योर्मामृतं गमय ॥ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ – बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28।
मैथुनेन विना मुक्तिनेति शास्त्रस्य निर्णयः। मैथुन के बिना मुक्तिलाभ नहीं होता, ऐसा शास्त्र का निर्णय है। बाह्य विषयानन्द ही तम है, मृत्यु है, पर उसकी अनुभूति करनी पड़ती है। उससे गुजरे बिना उसके प्रति अनादर, अनिच्छा, अस्थायित्व, नश्वरता का भाव नहीं उभर सकता। क्‍योंकि विषय आपाततः  रमणीय तो होते ही हैं। पश्चम मकार की साधना के द्वारा विषयानन्द की प्रथम अवस्था को पार करते हुए आनन्द की अन्तिम अवस्था जिसे जगदानन्द भी कहा गया है; की अनुभूति होने पर परिमित से अपरिमित में, ससीम से असीम में प्रवेश होता है। यह ज॑गदानन्द परमेश्वर का वह स्वभाव है जिसके कारण वह सृष्टि स्थिति संहार लीला करता रहता है। क्षणिक विषयानन्द की पराकाष्ठा पर पहुँच जाने पर मिथुन या युगल भैरव-मैरवीरूपता का अनुभव करते हुए जगदानन्द में चिरलीनता पर समावेश और स्थैर्य की ओर बढ़ता रहता है। उपनिषद कहता है कि स्त्री-पुरुष या पति-पत्नि एक भाव के दो रूप हैं। परमेश्वर एक था और लीला के लिए उसी पुरुष के दो भाग स्त्री-पुरुष के रुप में किये। "स एकाकी न रमते।  स द्वितीयमैच्छत्‌| स हैतावानास। यथा स्त्री पुमांसी परिष्वा क्तौ स। इयमेवात्मानं द्वेधाइपातयततः पतिश्व पत्नी चा5भवताम्‌ |"  एक से दो और दो से रमण के द्वारा ऐक्य सम्पादन। यही तो रहस्य है। इस प्रकार की रहस्यमयी साधनाओं को न तो अधिक गुप्त रखना चाहिए न ही अधिक प्रकट करना चाहिए। यही कारण है कि शाक्त तन्त्रों में इसे प्रकट करते हुए भी बहुत कुछ गुप्त रखा गया है।  अतः यदि पुस्तक पढ़कर कोई इसमें बिना गुरु से रहस्य प्राप्त किए प्रवृत्त होगा तो वह पतन की ओर अग्रसर होगा। इसीलिए सिद्धान्त है कि - “नातिरहस्यमेकत्र ख्याप्यं न चाप्यत्यन्ततो गोप्यम्‌ | उपर्युक्त साधना में भाव ही प्रधान होता है। यही कारण है कि “देवो भूत्वा देवं यजेत्‌”, “ब्रहौव सन्‌ ब्रह्माप्ेति” जैसे वाक्य उपदिष्ट हैं। बाह्य अन्त: की ओर जाना अन्तर्मुख हो ब्रह्मरूपता की सत्यानुभूति हुए बिना मोक्ष कहाँ ? यही तो रहस्य है कि मन्दिरों की बाह्य भित्ति पर पश्चम मकार के चित्र हैं किन्तु अन्दर कहीं नहीं । यह बाह्य जगत का चित्रण है जो अस्थायी और नश्वर है। इसका अनुभव करते हुए इसे छोड़कर मन्दिर के अन्दर जाना है।
हृदगुहा 'दहराकाश' में शान्त ब्रह्म के साथ आत्मा की एकाकारता स्थापित करना है।  अपने वास्तविक शिवरूप को पाना है।  मन्दिर के अन्दर की ओर बाह्य आवरणों को छोड़ते हुए जैसे-जैसे प्रवेश करते हैं आनन्द और शान्ति की मात्रा बढ़ती जाती है। यदि बाह्य भित्ति में लिप्त होकर चिपक गये तो वहीं पतन अवश्यम्भावी है क्योंकि यह बाह्यानन्द अस्थायी असत्‌, तम और मृत्युरूप हैं। बाहर से भीतर की ओर जाना है बाहरी चकाचौंध के रहस्य को जानकर अनादर विरक्ति के भाव को पाकर ही । यही रहस्य भित्ति चित्रों का है। तान्त्रिकों द्वारा यह चित्रण कराया गया प्रतीत होता है। उनपर विसर्गशक्ति के बारे में कहा गया है| वीर्यत्याग उसी दृष्टि से प्रयुक्त है। परन्तु उसका ईश्वरीय रहस्य शक्ति प्रवेश है। प्रतिविम्ब रूप से शक्ति में प्रवेश करना ही आगम्‌ प्रक्रिया का रहस्यमय सझ्डेत है। जैसा कि उल्लेख है-- काल शक्ति के त्रिगुणात्मिका प्रकृति में भगवान सदाशिव अधोक्षज ने सृष्टि की दृष्टि से अपने पुरूष स्वरूप से वीर्य का आधान किया अर्थात प्रतिबिम्ब रूप से शक्ति में प्रवेश कर एकाकारता स्थापित करते हुए सृष्टि में प्रवृत्त हुए। 
कालवृत्या तु मायायां गुणमयामधोक्षज: | 
पुरूषेणात्मभूतेन वीर्यमाधत्त वीर्यवान्‌।। 
तान्त्रिक साधना का मार्ग अति कठिन है; और विशेषतः वाममार्ग | निरुक्त में वाम शब्द के अनेन, अनेद्य, अनवद्य, अनभिशस्त, उक्थ्य, सुनीथ, पाक, वाग वयुन इस प्रकार दश पर्याय आए हैं; और इसका वास्तविक तात्पर्य प्राशस्त्य ही है। वाम साधना प्रशस्त मनोज्ञ साधना है। परन्तु उसका अधिकारी, जितेन्द्रिय, निर्लोभी, परनिन्दा में मौनव्रती, परस्त्रीसुरत से दूर रहने वाला व्यक्ति ही हो सकता है। अत एव कहा गया है- “वामो मार्ग: परम गहनो योगिनामप्यगम्य: |” यह अत्यन्त रहस्य गम्भीर मार्ग है। सामान्य योगी भी इसमें प्रवेश नहीं कर पाता। यही कारण है कि ग्रन्थों में अपूर्ण वर्णन ही प्राप्त होता है और वह सतही और ऊपरी-ऊपरी वर्णन है। रहस्य को गुरुगम्य ही रखा गया है। इसे प्रकट करने पर सिद्धियाँ नष्ट हो जाती हैं।  त्रिगुणात्मक स्वभाव के कारण त्रिविध साधक निम्न प्रकार से माने गए हैं- (१) तमोगुणप्रधान प्रकृतिसाधक-पशुभाव की साधना है। (२) रजःप्रधान प्रकृति साधक-वीर भाव की साधना हे।  (३) सत्व प्रधान प्रकृति साधक-दिव्यभाव की साधना है।  
आदोौ भावं पशु कृत्वा पश्चात्कुूर्यादवश्यकम्‌ 
वीरभावो महाभाव:  सर्वभावात्तमोत्तम: | | 
तत्पश्चाच्छेयसां स्थानं दिव्य भावों महाफल:। 
कहा भी है- दिव्यभावयुतानां तु तत्त्वज्ञानं सदा भवेत्‌ | दिव्य भाव वालों को सदा तत्त्व ज्ञान होता रहता है।  यह भावोपासना का क्रम है। यह साधना भावप्रधान है । जैसा कि ऊपर वर्णन है, देवभाव या ब्रह्मभाव में प्रवेश ही मुख्य उद्देश्य है। यदि भाव में विकृति आ जाय तो पतन और यदि भाव शुद्ध सात्तिक रहे तो सबकृछ प्राप्तव्य प्राप्त होता है। 
मत्स्य-इड़ा पिंगला नाड़ियों के द्वारा प्रवहमान श्वास और प्रश्नास ही दो मत्स्य हैं। प्राणायाम के द्वारा इनको नियन्त्रित कर केवल कुम्भक की  स्थिति में रहनेवाला योगी मत्स्य साधक है। अथवा सभी मेरी तरह सुखदुःख के समान भागी है। सभी को सुख दुःख को समान समझना चाहिए-यह सात्विक ज्ञान मत्स्य है। मन सहित इन्द्रियां मीन हैं | इन्हें वश में कर निर्जीव बनाने वाला मीनाक्षी है। 
सृष्टि का मूल शक्ति ही तो है। दुर्गासप्तशती में कहा गया है- “स्त्रियः समस्ता: सकला जगत्सु |” अर्थात जगत में जो कुछ है वह स्त्रीरूप ही है, अन्यथा निर्जीव है। भगवती शक्ति को योनिरूपा कहा गया है। इसी योनिरूप को अन्य तंत्र ग्रन्थों में त्रकोण या कामकला भी कहा गया है। योनिमुद्रा के बिना कोई भी साधन पूजन सफल नहीं हो सकता। यन्त्र में प्रतीक रूप से मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त अधोमुख त्रिकोण और ब्रह्मरन्ध्र से मूलाधार पर्यन्त ऊर्ध्वमुख त्रिकोण - इस प्रकार यह षट्कोण बन जाता है। यह समग्र पिण्ड का लोम विलोम प्रतीक भी है। तात्पर्य यह हुआ कि पिण्ड भी त्रिकोणात्मक और ब्रह्माण्ड के मूल में भी त्रिकोण ही है। जब यह उपर्युक्त षघटकोण बनता है तो मिथुन का प्रतीक भी। यह कैसे होता है, इसका मनोवैज्ञानिक रहस्य है। भारतीय मनीषा की यह सर्वोत्कृष्ट सर्वोच्च उपलब्धि है। यहाँ तक कहा गया है कि स्त्रियाँ सर्वप्रकार से पवित्र होती हैं- योगी व्यक्ति भोगी नहीं होता, और भोगी व्यक्ति भी योगवान नहीं होता | किन्तु योनिपीठ की साधना करने वाला व्यक्ति योग एवं भोग-दोनों को ही प्राप्त करता है।इस तन्त्र को कहीं भी प्रकाशित नहीं करना | दूसरे शिष्य को अथवा अभक्त अर्थात्‌ श्रद्धाहीन व्यक्ति को इस साधन को प्रदान मत करना | यह योनि तत्त्व (शक्तितत्त्व) अत्यन्त गोपनीय होने के कारण केवलमात्र तुम्हारे प्रति स्नेह के कारण ही मैंने प्रकाशित किया। 
महादेव ने कहा - हे पार्वति ! अब मैं उत्तम वीरसाधनपद्धति के विषय में कहूँगा। इस साधना का ज्ञान लाभ होने से ही साधक जीवनमुक्त हो जाता है। दिव्यसाधकगण प्रायः देवतुल्य होते हैं | वीरसाधकगण उग्र एवं उद्धतमना होते हैं | जिस देश में वीरसाधक हों, देवगण भी उस देश की पूजा करते हैं।  वीरसाधक के दर्शनमात्र से कोटितीर्थ के दर्शन का लाभ होता है।  स्वेच्छाचार ही वीरसाधन की पद्धति है-इसका अन्य कोई नियम नहीं है। किन्तु इस साधना में नारी ही (शक्ति ही) आराध्यदेवी, नारी ही प्राण एवं नारी ही साधक का आभूषण है- इसे सर्वदा स्मरण रखना चाहिए। 
काली साधना :  सहस्रों साधकों अथवा कोटिसंख्यक तपस्वीगणों में कदाचित एक व्यक्ति भाग्यवश कालीसाधन के लिए तत्पर होता है। 
कालीचजगतां माता सर्वशास्त्र-विनिश्चिता' | 
कालिका-स्मृतिमात्रेण. सर्वपापै: प्रमुच्यतेः ।। ६।। 
कालीजगत की माता है। यह सभी शास्त्रों का सुनिश्चित सिद्धान्त है। काली का स्मरण करने मात्र से सभी पापों से मुक्ति हो जाती है। यह ध्रुवसत्य है। पुनः सत्य एवं सुनिश्चित सत्य है। कालीमन्त्र का जाप करने से साधक कालिकापुत्र-तुल्य हो जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं। जो काली है, वही त्रिपुरा, षोडशी, भुवनेश्वरी, तारा, महालक्ष्मी (महामाया), मातंगी, कमला, सुन्दरी, भैरवी प्रभृति विभिन्न विद्यारूपों में प्रकाशित हैं। कौन हैं ये चौंसठ योगिनी? योगिनी का अर्थ है, योग की शिक्षिका लेकिन जब बात चौंसठ योगिनी की हो रही हो तब उसका प्रयोजन भिन्न होता है।  तंत्र साधना में प्रकृति के स्त्री स्वरूप को योगिनी के तौर पर ​रूपायित किया जाता है।  प्रकृति ​की विभिन्न शक्तियों को स्त्री रूप में अराधना करने के लिए उन्हें 64 विभिन्न नाम उनके गुणों के अनुरूप दिए गए हैं।  इसके बाद उनके नाम और गुण के आधार पर मंत्रों को विकसित किया गया है।  कई बार मातृकाओं को योगिनियां समझ लिया जाता है जबकि ये दोनों अलग—अलग हैं. 64 योगि​नियों को तंत्र साधना के माध्यम से सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है और इसके अनुष्ठान के तरीके एकदम अलग होते हैं।  




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