परिच्छेद-108
*दक्षिणेश्वर में भक्तों के संग में
(१)
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏सुपक्व भक्ति रूपी कटार से भवबंधन कट जायेंगे !卐🙏
श्रीरामकृष्ण कमरे में छोटे तखत पर समाधिमग्न बैठे हुए हैं । सब भक्त जमीन पर बैठे हुए टकटकी लगाये उन्हें देख रहे हैं । महिमाचरण, रामदत्त, मनोमोहन, नवाई चैतन्य, नरेन्द्र, मास्टर आदि कितने ही लोग बैठे हुए हैं । आज दोलयात्रा (अबीर की होली) होती है, फाल्गुन पूर्णिमा, महाप्रभु (अवतार) श्रीचैतन्यदेव का जन्मदिन है । रविवार, 1 मार्च 1885 ई. ।
আজ ৺দোলযাত্রা, শ্রীশ্রীমহাপ্রভুর জন্মদিন, ১৯শে ফাল্গুন, পূর্ণিমা, রবিবার, ১লা মার্চ, ১৮৮৫। শ্রীরামকৃষ্ণ ঘরের মধ্যে ছোট খাটটিতে বসিয়া সমাধিস্থ। ভক্তেরা মেঝেতে বসিয়া আছেন — একদৃষ্টে তাঁহাকে দেখিতেছেন। মহিমাচরণ, রাম (দত্ত), মনোমোহন, নবাই চৈতন্য, মাস্টার প্রভৃতি অনেকে বসিয়া আছেন।
SRI RAMAKRISHNA was seated on the small couch in his room, absorbed in deep samadhi. Mahimacharan, Ram, Manomohan, Nabai Chaitanya, M., and other devotees were sitting on a mat spread on the floor. They were watching the Master intently.
भक्तगण एकटक देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी । इस समय भी भाव पूर्ण मात्रा में है । श्रीरामकृष्ण महिमाचरण से कह रहे हैं - "बाबू, हरिभक्ति की कोई कथा – ”
महिमाचरण -
"आराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।
नाराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥
अन्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।
नान्तर्बहियदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥
विरम विरम ब्रह्मन् किं तपस्यासु वत्स ।
“'नारद-पंचरात्र' में है कि नारद जब तपस्या कर रहे थे, उस समय यह दैववाणी हुई - 'यदि हरि की आराधना की जाय तो फिर तपस्या की क्या आवश्यकता ? और यदि हरि की आराधना न की जाय तो भी तपस्या की क्या आवश्यकता ? अन्दर बाहर यदि हरि ही हो तो फिर तपस्या का क्या प्रयोजन ?
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏विवेकदर्शन का अभ्यास करने से अवतारवरिष्ठ के प्रति सुपक्वभक्ति लाभ होगी卐🙏
व्रज व्रज द्विज शीघ्र शंकरं ज्ञानसिन्धुम् ॥
लभ लभ हरिभक्तिं वैष्णवोक्तां सुपक्वाम् ॥
भवनिगड निबन्धच्छेदनीं कर्तरीं च ॥
और अन्दर -बाहर यदि हरि न हों तो भी तपस्या का क्या प्रयोजन ? अतएव हे ब्रह्मन्, तपस्या से विरत होओ । वत्स, तपस्या की क्या आवश्यकता है ? हे द्विज, शीघ्र ही ज्ञानसिन्धु शंकर ^ के पास जाओ । वैष्णवों ने जिस हरिभक्ति की महिमा गायी है उस सुपक्व भक्ति का लाभ करो । इस भक्तिरूपी कटार से भवबंधन कट जायेंगे ।"
[ज्ञानसिन्धु शंकर ^`व्रज व्रज द्विज शीघ्र शंकरं ज्ञानसिन्धुम्'-(द्विज = दुबारा जी उठने वाला-जिसका दो बार जन्म हुआ हो - द्विज जिसका दमन कभी न हो सके - अदम्य (अप्रतिरोध्य-100 %निःस्वार्थी) जिसका पार न पाया जाए), उस द्विज को अर्थात माँ जगदम्बा-काली की कृपा-प्राप्त भक्त को शीघ्र शंकरं ज्ञानसिन्धुम्'-स्वामी विवेकानन्द के पास जाना चाहिए ॥
जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने।
इस बहाने से मगर, देख ली दुनिया हमने।।"
-- रूप यहाँ भी है मगर उसकी तलाश है। वह महज कोई चेहरा नहीं , एक 'Ideal figure ' युवा आदर्श है- जो केवल स्वामी विवेकानन्द' ही हो सकते हैं । Hasten to Sankara (Swami Vivekananda), the Ocean of Heavenly Wisdom; Obtain from Him the love of God.]
ভক্তেরা একদৃষ্টে দেখিতেছেন। সমাধি ভঙ্গ হইল। ভাবের পূর্ণমাত্রা। ঠাকুর মহিমাচরণকে বলিতেছেন – ‘বাবু’, হরিভক্তির কথা —
মহিমা -
আরাধিতো যদি হরিস্তপসা ততঃ কিম্ ৷
নারাধিতো যদি হরিস্তপসা ততঃ কিম্ ৷৷
অন্তর্বহির্যদি হরিস্তপসা ততঃ কিম্ ৷
নান্তর্বহির্যদি হরিস্তপসা ততঃ কিম্ ৷৷
বিরম বিরম ব্রহ্মন্ কিং তপস্যাসু বৎস ৷
ব্রজ ব্রজ দ্বিজ শীঘ্রং শঙ্করং জ্ঞানসিন্ধুম্ ৷৷
লভ লভ হরিভক্তিং বৈষ্ণবোক্তাং সুপক্কাম্ ৷
ভবনিগড়নিবন্ধচ্ছেদনীং কর্তরীঞ্চ ৷৷
“নারদপঞ্চরাত্রে আছে। নারদ তপস্যা করছিলেন দৈববানী হল —
“হরিকে যদি আরাধনা করা যায়, তাহলে তপস্যার কি প্রয়োজন? আর হরিকে যদি না আরাধনা করা হয়, তাহলেই বা তপস্যার কি প্রয়োজন? হরি যদি অন্তরে বাহিরে থাকেন, তাহলেই বা তপস্যার কি প্রয়োজন? আর যদি অন্তরে বাহিরে না থাকেন, তাহলেই বা তপস্যার কি প্রয়োজন? অতএব হে ব্রহ্মন, বিরত হও, বৎস, তপস্যার কি প্রয়োজন? জ্ঞান-সিন্ধু শঙ্করের কাছে গমন কর। বৈষ্ণবেরা যে হরিভক্তির কথা বলে গেছেন, সেই সুপক্কা ভক্তি লাভ কর, লাভ কর। এই ভক্তি — এই ভক্তি-কাটারি — দ্বারা ভবনিগড় ছেদন হবে।”
It was the day of the Dolayatra, a Hindu religious festival. Sri Krishna and Radha are the central figures of this celebration, their images being placed on a swing which is rocked now and then. A red powder is showered on the images. Later, friends and relatives throw the powder at one another. This festival is celebrated when winter passes into spring, on a full-moon day rendered doubly sacred by its association with the birth of Sri Chaitanya.The devotees saw that the Master was returning to consciousness of the world, though his mind still lingered in the realm of God-vision.The Master said to Mahimacharan, "My dear sir, please tell us something about love of God." Mahimacharan chanted the following lines from the Narada Pancharatra:
Mahimacharan chanted the following lines from the Narada Pancharatra: " What need is there of penance if God is worshipped with love? What is the use of penance if God is not worshipped with love? What need is there of penance if God is seen within and without? What is the use of penance if God is not seen within and without? O Brahman! O my child! Cease from practising further penances. Hasten to Sankara, the Ocean of Heavenly Wisdom; Obtain from Him the love of God, the pure love praised by devotees, Which snaps in twain the shackles that bind you to the world. Mahima said, "Once while the great sage Narada was practising austerity, he suddenly heard a heavenly voice repeating those lines."
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏जीवकोटि और ईश्वरकोटि भक्तों (जीवनमुक्त शिक्षक,नेता) की विशेषता卐🙏
[ঈশ্বরকোটি — শুকদেবের সমাধিভঙ্গ — হনুমান, প্রহ্লাদ ]
[Jivakotis (ordinary men) and Isvarakotis (Divine Messengers.)]
श्रीरामकृष्ण - जीवकोटि और ईश्वरकोटि, दो हैं । जीवकोटि की भक्ति वैधी भक्ति है - इतने उपचार से पूजा की जायेगी, इतना जप और इतना पुरश्चरण किया जायेगा । इस वैधी भक्ति के बाद है ज्ञान । इसके बाद है लय । इस लय के बाद फिर जीव नहीं लौटता ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — জীবকোটি ও ঈশ্বরকোটি। জীবকোটির ভক্তি, বৈধভক্তি। এত উপচারে পূজা করতে হবে, এত জপ করতে হবে, এত পুরশ্চরণ করতে হবে। এই বৈধীভক্তির পর জ্ঞান। তারপর লয়। এই লয়ের পর আর ফেরে না।
MASTER: "There are two classes of devotees: jivakotis, or ordinary men, and Isvarakotis, or Divine Messengers. The jivakoti's devotion to God is called vaidhi, formal; that is, it conforms to scriptural laws. He worships God with a fixed number of articles, repeats God's holy name a specified number of times, and so on and so forth. This kind of devotion, like the path of knowledge, leads to the Knowledge of God and to samadhi. The jivakoti does not return from samadhi to the relative plane.
"ईश्वरकोटि की और बात है - जैसे अनुलोम और विलोम । 'नेति नेति' करके वह छत पर पहुँचकर जब देखता है, कि छत जिन चीजों की - चूना, सुरखी और ईंटों की - बनी हुई है – सीढ़ी भी उन्हीं चीजों की बनी हुई है, तब वह चाहे तो छत में रह जाय (माँ चाहे तब ??), चाहे चढ़ना-उतरना जारी रखे । वह दोनों ही कर सकता है ।
“ঈশ্বরকোটির আলাদা কথা, — যেমন অনুলোম বোলুম। ‘নেতি’ ‘নেতি’ করে ছাদে পৌঁছে যখন দেখে, ছাদও যে জিনিসে তৈরী, — ইঁট, চুন, সুরকি, সিঁড়িও সেই জিনিসে তৈরী। তখন কখন ছাদেও থাকতে পারে, আবার উঠা নামাও করতে পারে।"
But the case of the Isvarakoti is different. He follows the process of 'negation' and 'affirmation'. First he negates the world, realizing that it is not Brahman; but then he affirms the same world, seeing it as the manifestation of Brahman. To-give an illustration: a man wanting to climb to the roof first negates the stairs as not being the roof, but on reaching the roof he finds that the stairs are made of the same materials as the roof: brick, lime, and brick-dust. Then he can either move up and down the stairs or remain on the roof, as he pleases (The Mother ??).
"शुकदेव समाधिस्थ थे । निर्विकल्प समाधि - जड़ समाधि हो गयी थी । भगवान् (ठाकुरदेव) ने नारद (CINC) को भेजा - परीक्षित् को भागवत सुनाना था । उधर नारद ने देखा कि शुकदेव जड़ की तरह बाह्य चेतना से रहित बैठे हुए हैं । तब नारद वीणा बजाते हुए चार श्लोकों में श्रीभगवान् के रूप का वर्णन गाने लगे । जब वे पहला श्लोक गा रहे थे, तब शुकदेव को रोमांच हुआ । क्रमश: आँसू बहने लगे । भीतर - हृदय में चिन्मयस्वरूप के दर्शन होने लगे । जड़ समाधि के पश्चात् फिर रूप के दर्शन भी हुए । शुकदेव ईश्वरकोटि के थे ।
“শুকদেব সমাধিস্থ ছিলেন নির্বিকল্পসমাধি, — জড়সমাধি। ঠাকুর নারদকে পাঠিয়ে দিলেন, — পরীক্ষিৎকে ভাগবত শুনাতে হবে। নারদ দেখলেন জড়ের ন্যায় শুকদেব বাহ্যশূন্য — বসে আছেন। তখন বীণার সঙ্গে হরির রূপ চার শ্লোকে বর্ণনা করতে লাগলেন। প্রথম শ্লোক বলতে বলতে শুকদেবের রোমাঞ্চ হল। ক্রমে অশ্রু; অন্তরে হৃদয়মধ্যে, চিন্ময়রূপ দর্শন করতে লাগলেন। জড়সমাধির পর আবার রূপদর্শনও হল। শুকদেব ঈশ্বরকোটি।
"Sukadeva was absorbed in samadhi — nirvikalpa samadhi, jada samadhi. Since Suka was to recite the Bhagavata to King Parikshit, the Lord sent the sage Narada to him. Narada saw him seated like an inert thing, absolutely unconscious of the world around him. Thereupon Narada sang four couplets on the beauty of Hari, to the accompaniment of the vina. While the first couplet was being sung the hair on Suka's body stood on end. Next he shed tears; for he saw the form of God, the Embodiment of Spirit, within himself, in his heart. Thus Sukadeva saw the form of God even after jada samadhi. He was an Isvarakoti.
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏ईश्वरकोटि के ह्रदय में चेतना (विवेक) और आनन्द की मूर्ति- 'विवेकानन्द' का वास है卐🙏
[Rama (Sri Ramakrishna) the Embodiment of Consciousness and Bliss.]
"हनुमान ने साकार और निराकार दोनों के दर्शन कर लेने के पश्चात् श्रीराम की मूर्ति पर अपनी निष्ठा रखी थी । चिद्घन आनन्द की मूर्ति वही श्रीराम मूर्ति है ।
“হনুমান সাকার-নিরাকার সাক্ষাৎকার করে রামমূর্তিতে নিষ্ঠা করে থাকল। চিদঘন আনন্দের মূর্তি — সেই রামমূর্তি।
"Hanuman, after having the vision of God both with form and without, remained firmly devoted to the form of Rama, the Embodiment of Consciousness and Bliss.
"प्रह्लाद कभी तो 'सोऽहम्' देखते थे और कभी दासभाव में रहते थे । भक्ति न लें तो क्या लेकर रहें ? इसीलिए सेव्य और सेवक का भाव लेना पड़ता है, - तुम प्रभु हो, मैं दास - यह भाव हरि-रसास्वादन के लिए । रस-रसिक का यह भाव है - हे ईश्वर, तुम रस हो, मैं रसिक हूँ ।
[रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति। को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात्। यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।(तैत्तिरीयोपनिषत् २-७-२)
आरम्भ में यह सम्पूर्ण विश्व 'असत्' (अस्तित्वहीन) एवं 'अव्यक्त' था, इसी में से इस 'व्यक्त सत्ता' का प्रादुर्भाव हुआ। उसने अपना सृजन 'स्वयं' ही किया; अन्य किसी ने उसको नहीं सृजा। इसी कारण इसके सम्बन्ध में कहा जाता है यह 'सुकृत' अर्थात् बहुत सुचारु एवं सुन्दर रूप से रचा गया है। और यह जो बहुत अच्छी तरह तथा सुन्दरता से रचा गया है यह वस्तुतः अन्य कुछ नहीं, इस अस्तित्व के पीछे छिपा हुआ आनन्द, रस ही है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है। कारण, यदि उसकी सत्ता के हृदयाकाश में यह आनन्द न हो तो कौन है जो प्राणों को अन्दर ले पाने का श्रम कर पायेगा? अथवा किसके पास प्राणों को बाहर छोड़ने की शक्ति होगी? 'यही' है जो आनन्द का स्रोत है; क्योंकि जब हमारी 'अन्तरात्मा' उस 'अदृश्य', 'अशरीरी' (अनात्म्य) अनिर्दशं (अनिरुक्त) एवं 'अनिलयन' 'ब्रह्म' में आश्रय ग्रहण करके दृढ़ रूप से 'उस' प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह 'भय' की पकड़ से बाहर हो जाता है। किन्तु जब हमारी 'अन्तरात्मा' स्वयं के लिए 'ब्रह्म ' में स्वल्पमात्र भी भेद करती है, तो वह भयभीत होता है; जो विद्वान् मननशील नहीं है, उसके लिए स्वयं 'ब्रह्म' ही एक भय बन जाता है।(तैत्तिरीयोपनिषत् २-७-२)]
“প্রহ্লাদ কখন দেখতেন সোঽহম; আবার কখন দাসভাবে থাকতেন। ভক্তি না নিলে কি নিয়ে থাকে? তাই সে সেব্য-সেবকভাব আশ্রয় করতে হয়, — তুমি প্রভু, আমি দাস। হরিরস আস্বাদন করবার জন্য। রস-রসিকে ভাব, — হে ঈশ্বর, তুমি রস,১ আমি রসিক।
"Prahlada sometimes realized, 'I am He'; sometimes he felt that he was the servant of God. How can such a person live without love of God? That is why he must accept the relationship of master and servant, feeling that God is the Master and himself the servant. This enables him to enjoy the Bliss of Hari. In this attitude he feels that God is the Bliss and he himself is the enjoyer.
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏लाख विचार करो, पर 'मैं’ नहीं जाता-कुम्भ ('मैं') अगर न रहे तब और बात है। 卐🙏
‘भक्ति के मैं' में, 'विद्या के मैं' में तथा 'बालक के मैं' में दोष नहीं । शंकराचार्य ने विद्या का 'मैं' रखा था - लोकशिक्षा के लिए । बालक के 'मैं' में दृढ़ता नहीं है । बालक गुणातीत है - वह किसी गुण के वश नहीं । अभी अभी वह गुस्सा हो गया । थोड़ी देर में कहीं कुछ नहीं । देखते ही देखते उसने खेलने के लिए घरौंदा बनाया, फिर तुरन्त ही उसे भूल भी गया । अभी तो खेलनेवाले साथियों को वह प्यार कर रहा है, फिर कुछ दिनों के लिए अगर उन्हें न देखा तो सब भूल भी गया । बालक सत्त्व, रज और तम किसी गुण के वश नहीं है ।
“ভক্তির আমি, বিদ্যার আমি, বালকের আমি, — এতে দোষ নাই। শঙ্করাচার্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিলেন; লোকশিক্ষা দিবার জন্য। বালকের আমির আঁট নাই। বালক গুণাতীত, — কোন গুণের বশ নয়। এই রাগ কল্লে, আবার কোথাও কিছু নাই। এই খেলাঘর কল্লে, আবার ভুলে গেল; এই খেলুড়েদের ভালবাসছে, আবার কিছুদিন তাদের না দেখলে তো সব ভুলে গেল। বালক সত্ত্ব রজঃ তমঃ কোন গুণের বশ নয়।
"The 'ego of Devotion', the 'ego of Knowledge', and the 'ego of a child' do not harm the devotee. Sankaracharya kept the 'ego of Knowledge'. The 'ego of a child' is not attached to anything. The child is beyond the three gunas; he is not under the control of any of them. One moment you find him angry; the next moment it is all over. One moment you see him building his play house; the next moment he forgets all about it. Now you see him love his playmates; but if they are out of his sight a few days he forgets all about them. A child is not under the control of any of the gunas — sattva, rajas, or tamas.
“तुम भगवान् हो, मैं भक्त हूँ, यह भक्तों का भाव है, - यह 'मैं' 'भक्ति का मैं' है । लोग 'भक्ति का मैं' क्यों रखते हैं ? इसका कुछ अर्थ है । 'मैं' मिटने का तो है ही नहीं, तो फिर वह पड़ा रहे - 'दास का मैं', 'भक्त का मैं' होकर । "लाख विचार करो, पर 'मैं’ नहीं जाता ।
“তুমি ঠাকুর, আমি ভক্ত — এটি ভক্তের ভাব, এ আমি ‘ভক্তির আমি’। কেন ভক্তির আমি রাখে? তার মানে আছে। আমি তো যাবার নয়, তবে থাক শালা ‘দাস আমি’ ‘ভক্তের আমি’ হয়ে।
"The bhakta feels, 'O God, Thou art the Lord and I am Thy devotee.' This 'I' is the 'ego of bhakti'. Why does such a lover of God retain the 'ego of Devotion'? There is a reason. The ego cannot be got rid of; so let the rascal remain as the servant of God, the devotee of God.
卐🙏ज्ञानी संत कबीर दास का अध्यात्म और काली-भक्त श्री रामकृष्ण卐🙏
जल में कुंभ कुंभ में जल है , बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जल ही समाया , यही तथ्य कथ्यो ज्ञानी।।
'मैं' मानो कुम्भ स्वरूप है, और ब्रह्म है समुद्र, चारों ओर जल राशि । कुम्भ के भीतर भी जल है, बाहर भी जल । पर कुम्भ तो है ही । यही 'भक्त के मैं' का स्वरूप है । जब तक कुम्भ है, तब तक 'मैं' और 'तुम' है; तुम भगवान् हो, मैं भक्त हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; यह भी है । विचार चाहे लाख करो, परन्तु इसे छोड़ने का उपाय नहीं । कुम्भ अगर न रहे, तो और बात है ।"
“হাজার বিচার কর, আমি যায় না। আমিরূপ কুম্ভ। ব্রহ্ম যেন সমুদ্র — জলে জল। কুম্ভের ভিতরে বাহিরে জল। জলে জল। তবু কুম্ভ তো আছে। ওইটি ভক্তের আমির স্বরূপ। যতক্ষণ কুম্ভ আছে, আমি তুমি আছে; তুমি ঠাকুর, আমি ভক্ত; তুমি প্রভু, আমি দাস; এও আছে। হাজার বিচার কর, এ ছাড়বার জো নাই। কুম্ভ না থাকলে তখন সে এক কথা।”
"You may reason a thousand times, but you cannot get rid of the ego. The ego is like a pitcher, and Brahman like the ocean — an infinite expanse of water on all sides. The pitcher is set in this ocean. The water is both inside and out; the water is everywhere; yet the pitcher remains. Now, this pitcher is the 'ego of the devotee'. As long as the ego remains, 'you' and 'I' remain, and there also remains the feeling, 'O God, Thou art the Lord and I am Thy devotee; Thou art the Master and I am Thy servant.' You may reason a million times, but you cannot get rid of it. But it is different if there is no pitcher."
(२)
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
नरेन्द्र के प्रति संन्यास का उपदेश
नरेन्द्र आये और उन्होंने प्रणाम करके आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से बातचीत कर रहे हैं । बातचीत करते हुए जमीन पर आकर बैठे । जमीन पर चटाई बिछी हुई है । अब कमरा भी आदमियों से भर गया । भक्तगण भी हैं और बाहर के आदमी भी आये हुए हैं ।
নরেন্দ্র আসিয়া প্রণাম করিয়া বসিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ নরেন্দ্রের সঙ্গে কথা কহিতেছেন। কথা কহিতে কহিতে মেঝেতে আসিয়া বসিলেন। মেঝেতে মাদুর পাতা। এতক্ষণে ঘর লোকে পরিপূর্ণ হইয়াছে। ভক্তেরাও আছেন, বাহিরের লোকও আসিয়াছেন।
Narendra entered the room and saluted the Master. They began to talk together. Presently the Master came down from the couch and sat on the floor, on which a mat had been spread. In the mean time the room had become filled with people, both devotees and visitors.
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - तेरी तबीयत अच्छी है न ? सुना है, तू गिरीश घोष के यहाँ प्राय: जाया करता है ?
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — ভাল আছিস? তুই নাকি গিরিশ ঘোষের ওখানে প্রায়ই যাস?
MASTER (to Narendra): "Are you well? I hear that you often visit Girish Ghosh at his house. Is it true?"
नरेन्द्र - जी हाँ, कभी कभी जाया करता हूँ ।
নরেন্দ্র — আজ্ঞে হাঁ, মাঝে মাঝে যাই।
NARENDRA: "Yes, sir, I go there now and then."
इधर कुछ महीनों से श्रीरामकृष्ण के पास गिरीश आया-जाया करते हैं । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, गिरीश का विश्वास इतना जबरदस्त है कि पकड़ में नहीं आता । उन्हें जैसा विश्वास है, वैसा ही अनुराग भी है । घर में सदा ही श्रीरामकृष्ण के चिन्तन में मस्त रहा करते हैं। नरेन्द्र प्राय: उनके वहाँ जाते हैं । हरिपद, देवेन्द्र तथा और भी कई भक्त प्रायः उनके यहाँ जाया करते हैं । गिरीश उनके साथ श्रीरामकृष्ण की ही चर्चा किया करते हैं । गिरीश संसारी है; इधर श्रीरामकृष्ण देखते हैं, नरेन्द्र संसार में न रहेंगे, - वे कामिनी-कांचन त्यागी होंगे; अतएव नरेन्द्र से कह रहे हैं –
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের নিকট গিরিশ কয়মাস হইল নূতন আসা যাওয়া করিতেছেন। ঠাকুর বলেন, গিরিশের বিশ্বাস আঁকড়ে পাওয়া যায় না। যেমন বিশ্বাস, তেমনি অনুরাগ। বাড়িতে ঠাকুরের চিন্তায় সর্বদা মাতোয়ারা হয়ে থাকেন। নরেন্দ্র প্রায় যান, হরিপদ, দেবেন্দ্র ও অনেক ভক্ত তাঁর বাড়িতে প্রায় যান; গিরিশ তাঁহাদের সঙ্গে কেবল ঠাকুরের কথাই কন। গিরিশ সংসারে থাকেন, কিন্তু ঠাকুর দেখিতেছেন নরেন্দ্র সংসারে থাকিবেন না — কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ করিবেন। ঠাকুর নরেন্দ্রের সহিত কথা কহিতেছেন —
Girish had been visiting Sri Ramakrishna for some months. The Master said that none could fathom the depth of Girish's faith. And his longing for God was as intense as his faith was deep. At home, he was always absorbed in the thought of Sri Ramakrishna. Many of the Master's devotees visited him; they talked only about Sri Ramakrishna. But Girish was a householder who had had varied experiences of worldly life, and the Master knew that Narendra would renounce the world, that he would shun "woman and gold" both mentally and outwardly.
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏जो सत्यान्वेषी होकर भी भोग में ही आसक्त हैं वे रावण की श्रेणी के हैं卐🙏
[সন্ন্যাসের অধিকারী — কৌমারবৈরাগ্য —
গিরিশ কোন্ থাকের — রাবণ ও অসুরদের প্রকৃতিতে যোগ ও ভোগ ]
"तू गिरीश घोष के यहाँ क्या बहुत जाया करता है ? "परन्तु लहसुन के कटोरे को चाहे जितना धोओ, कुछ न कुछ बू तो रहेगी ही । लड़के शुद्ध आधार हैं; कामिनी और कांचन का स्पर्श अभी उन्होंने नहीं किया । बहुत दिनों तक कामिनी और कांचन का उपभोग करने पर लहसुन की तरह बू आने लगती है । "जैसे कौए का काटा हुआ आम । देवता पर चढ़ ही नहीं सकता, अपने खाने में भी सन्देह है । जैसे नयी हण्डी और दही जमायी हण्डी - दही जमायी हण्डी में दूध रखते हुए डर लगता है । अक्सर दूध खराब हो जाता है ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — তুই গিরিশ ঘোষের ওখানে বেশি যাস?“কিন্তু রসুনের বাটি যত ধোও না কেন, গন্ধ একটু থাকবেই। ছোকরারা শুদ্ধ আধার! কামিনী-কাঞ্চন স্পর্শ করে নাই; অনেকদিন ধরে কামিনী-কাঞ্চন ঘাঁটলে রসুনের গন্ধ হয়।“যেমন কাকে ঠোকরান আম। ঠাকুরদের দেওয়া যায় না, নিজেরও সন্দেহ। নূতন হাঁড়ি আর দইপাতা হাঁড়ি। দইপাতা হাঁড়িতে দুধ রাখতে ভয় হয়। প্রায় দুধ নষ্ট হয়ে যায়।
MASTER: "Do you visit Girish frequently? No matter how much one washes a cup that has contained a solution of garlic, still a trace of the smell will certainly linger. The youngsters who come here are pure souls — untouched by 'woman and gold'. Men who have associated a long time with 'woman and gold' smell of the garlic, as it were. They are like a mango pecked by crows. Such a fruit cannot be offered to the Deity in the temple, and you would hesitate to eat it yourself. Again, take the case of a new pot and another in which curd has been made. One is afraid to keep milk in the second pot, for the milk very often turns sour.
"गिरीश जैसे गृहस्थ एक दूसरी श्रेणी के हैं । वे योग भी चाहते हैं और भोग भी । जैसा भाव रावण का था - नागकन्याओं और देवकन्याओं को हथियाना चाहता था, उधर राम की प्राप्ति की भी आशा रखता था । "असुर लोग अनेक प्रकार के भोग भी करते हैं और नारायण के पाने की भी इच्छा रखते हैं ।
“ওরা থাক আলাদা। যোগও আছে, ভোগও আছে। যেমন রাবণের ভাব — নাগকন্যা দেবকন্যাও নেবে, রামকেও লাভ করবে। “অসুররা নানা ভোগও কচ্ছে, আবার নারায়ণকেও লাভ কচ্ছে।”
"Householder devotees like Girish form a class by themselves. They desire yoga and also bhoga. Their attitude is that of Ravana, who wanted to enjoy the maidens of heaven and at the same time realize Rama. They are like the asuras, the demons, who enjoy various pleasures and also realize Narayana."
[हनुमानजी का सीता शोध के लिए लंका प्रस्थान: (सुन्दर कांड) जैसा स्वामीजी ने कहा था "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।"-अर्थात उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रुको मत!इस वचन के माध्यम से उन्होंने देशवासियों को अज्ञानजन्य अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी थी । हनुमान जी भी कहते थे - `राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।' हनुमान जी नें अपनी बुद्धि और बल से माता सीता की खोज की थी इसी कारण से सुंदरकांड को हनुमानजी की सफलता के लिए याद किया जाता है। हनुमान जी सीता माता की खोज में लंका गए थे लंका के सुंदर पर्वत में ही अशोक वाटिका थी जहाँ हनुमान जी की भेंट सीता माता से हुई थी। इसी कारण इस भाग का नाम सुन्दरकाण्ड पड़ा।
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥
भावार्थ — जहां वन, बाग—बागीचे, बावडियां, तालाब, कुएँ आदि शोभायमान हो रहे हैं। जहां मनुष्यकन्या, नागकन्या, देवकन्या और गन्धर्व कन्यायें विराजमान हो रही हैं जिनका रूप देखकर मुनि लोगों का भी मन मोहित हुआ जाता है। हनुमान जी ने नगर के सब भवनों तथा एकान्त स्थानों को छान डाला, परन्तु कहीं सीता दिखाई नहीं दीं। फिर वे सोचने लगे मुझे सीता जी कहीं नहीं मिलीं। रावण ने उन्हें मार तो नहीं डाला? यदि ऐसा है तो मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ गया। नहीं, मुझे यह नहीं सोचना चाहिये। जब तक मैं लंका का कोना-कोना न छान मारूँ, तब तक मुझे निराश नहीं होना चाहिये। यह सोच कर अब उन्होंने ऐसे-ऐसे स्थानों की खोज आरम्भ की, जहाँ तनिक भी असावधानी उन्हें यमलोक तक पहुँचा सकती थी। उन स्थानों में उन्होंने रावण द्वारा हरी गई अनुपम सुन्दर नागकन्याओं एवं किन्नरियों को भी देखा, परन्तु सीता कहीं नहीं मिलीं। सब ओर से निराश हो कर उन्होंने सोचा, मैं बिना सीता जी का समाचार लिये लौट कर किसी को मुख नहीं दिखा सकता। इसलिये यहीं रह कर उनकी खोज करता रहूँगा, अथवा अपने प्राण दे दूँगा। यह सोच कर भी उन्होंने सीता को खोजने का कार्य बन्द नहीं किया। इन्द्र के भवन से भी अधिक सुसज्जित इस भव्य शाला को देख कर हनुमान चकित रह गये। उन्होंने एक ओर स्फटिक के सुन्दर पलंग पर रावण को हुए मदिरा के मद में पड़े देखा जो कि अनिंद्य सुन्दरियों से घिरे हए था। उसके नेत्र अर्द्ध-निमीलित हो रहे थे। अनेक रमणियों के वस्त्राभूषण अस्त-व्यस्त हो रहे थे और वे सुरा के प्रभाव से अछूती भी नहीं थीं। वहाँ भी सीता को न पा कर पवनसुत बाहर निकल आये।अकस्मात् वे सोचने लगे कि आज मैंने पराई स्त्रियों को अस्त-व्यस्त वेष में सोते हुये देख कर भारी पाप किया है। वे इस पर पश्चाताप करने लगे। फिर यह विचार कर उन्होंने अपने मन को शान्ति दी कि उन्हें देख कर मेरे मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ इसलिये यह पाप नहीं है। फिर जिस उद्देश्य के लिये मुझे भेजा गया है, उसकी पूर्ति के लिये मुझे अनिवार्य रूप से स्त्रियों का अवलोकन करना पड़ेगा। इसके बिना मैं अपना कार्य कैसे पूरा कर सकूँगा। ]
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏बूढ़ा बधिया बैल के पुराने संस्कार आसानी से नहीं छूटते卐🙏
[He is like a bull castrated in old age. बोड़ो बेलाये दामड़ा (खसिया) होएछे]
नरेन्द्र - गिरीश घोष ने पहले का संग छोड़ दिया है ।
নরেন্দ্র — গিরিশ ঘোষ আগেকার সঙ্গ ছেড়েছে।
NARENDRA: "But Girish has given up his old associates."
श्रीरामकृष्ण - बूढ़ा बैल बधिया बनाया गया है । मैंने बर्दवान में देखा था, एक बधिया एक गाय के पीछे लगा हुआ था । देखकर मैंने पूछा, 'यह कैसा ? - यह तो बधिया है !' तब गाड़ीवान ने कहा, 'महाराज, बड़ा हो जाने पर यह बधिया किया गया था । इसीलिए पहले के संस्कार नहीं गये ।'
শ্রীরামকৃষ্ণ — বড় বেলায় দামড়া হয়েছে, আমি বর্ধমানে দেখেছিলাম। একটা দামড়া, গাই গরুর কাছে যেতে দেখে আমি জিজ্ঞেস কল্লুম, এ কি হল? এ তো দামড়া! তখন গাড়োয়ান বললে, মশাই এ বেশি বয়সে দামড়া হয়েছিল। তাই আগেকার সংস্কার যায় নাই।
MASTER: "Yes, yes. He is like a bull castrated in old age. In Burdwan I once saw an ox moving about the cows. I asked a bullock-cart driver: 'What is this? An ox? How strange!' He said to me: 'True, sir. But it was castrated in old age, and so it hasn't altogether shaken off the old tendencies.'
"एक जगह अनेक संन्यासी बैठे हुए थे । उधर से एक औरत निकली । सब के सब ईश्वर-चिन्तन कर रहे थे । उनमें से एक ने जरा नजर तिरछी करके उसे देख लिया । तीन लड़के हो जाने के बाद उसने संन्यास लिया था ।
“এক জায়গায় সন্ন্যাসীরা বসে আছে — একটি স্ত্রীলোক সেইখান দিয়ে চলে যাচ্ছে। সকলেই ঈশ্বরচিন্তা করছে, একজন আড়চোখে চেয়ে দেখলে। সে তিনটি ছেলে হবার পর সন্ন্যাসী হয়েছিল।
"In a certain place there sat some sannyasis. A young woman happened to pass by. All continued as before to meditate on God, except one of them, who cast sidelong glances at her. Before becoming a monk he had been the father of three children.
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏क्या हर कोई एक योगी की गूढ़ शक्तियों को प्राप्त कर सकता है?卐🙏
"इमली के पेड़ में क्या कभी आम फलते हैं ?"
বাবুই গাছে কি আম হয়?
[Can everyone acquire occult powers of a yogi ?]
Do mangoes ever grow in the tamarind tree?
"एक कटोरे में अगर लहसुन पीसकर घोल दिया जाय, तो क्या लहसुन की बू जाती है ? इमली के पेड में क्या कभी आम फलते हैं ? अगर वैसा विभूती का बल किसी को हो तो यह हो सकता है - वह इमली में भी आम लगा देता है । परन्तु क्या वैसी विभूती सभी के पास रहती है ?
“একটি বাটিতে যদি রসুন গোলা যায়, রসুনের গন্ধ কি যায়? বাবুই গাছে কি আম হয়? হতে পারে সিদ্ধাই তেমন থাকলে, বাবুই গাছেও আম হয়। সে সিদ্ধাই কি সকলের হয়?
"If you make a solution of garlic in a cup, won't it be hard to remove the smell from it? Can a worthless tree like the babui produce mangoes? Of course such a thing may become possible through the occult powers of a yogi; but can everyone acquire such powers?
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏चार हल-आठ बैल में व्यस्त भागवती पण्डित नहीं राजर्षि जनक जैसा नेता चाहिए卐🙏
"संसारी आदमियों को अवसर कहाँ ? एक ने एक भागवतपाठी पण्डित चाहा था । उसके मित्र ने कहा, 'एक बड़ा अच्छा भागवती पण्डित है, परन्तु कुछ अड़चन है । वह यह कि उसे खुद अपने घर की खेती का काम संभालना पड़ता है, उसके चार हल चलते हैं और आठ बैल हैं । सदा उसे अपने काम की देखरेख करनी पड़ती है; इसलिए अवकाश नहीं है । जिसे पण्डित की जरूरत थी, उसने कहा, 'मुझे इस तरह के भागवती पण्डित की जरूरत नहीं है, जिसे अवकाश ही न हो। हल और बैल वाले भागवती पण्डित की तलाश मैं नहीं करता, मैं तो ऐसा पण्डित चाहता हूँ जो मुझे भागवत सुना सके ।'
“সংসারী লোকের অবসর কই? একজন একটি ভাগবতের পণ্ডিত চেয়েছিল। তার বন্ধু বললে, একটি উত্তম ভাগবতের পণ্ডিত আছে, কিন্তু তার একটু গোল আছে। তার নিজের অনেক চাষবাস দেখতে হয়। চারখানা লাঙল, আটটা হেলে গরু। সর্বদা তদারক করতে হয়; অবসর নাই। যার পণ্ডিতের দরকার সে বললে, আমার এমন ভাগবতের পণ্ডিতের দরকার নাই, যার অবসর নাই। লাঙল-হেলেগরু-ওয়ালা ভাগবত পণ্ডিত আমি খুঁজছি না। আমি এমন ভাগবত পণ্ডিত চাই যে আমাকে ভাগবত শুনাতে পারে।
"When have worldly people time to think of God? A man wanted to engage a pundit who could explain the Bhagavata to him. His friend said: I know of an excellent pundit. But there is one difficulty: he does a great deal of farming. He has four ploughs and eight bullocks and is always busy with them; he has no leisure.' Thereupon the man said: 'I don't care for a pundit who has no leisure. I am not looking for a Bhagavata scholar burdened with ploughs and bullocks. I want a pundit (राजर्षि जनक)who can really expound the sacred book to me.'
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏राजर्षि जनक जानते थे अवतार वरिष्ठ के चरण ही सार वस्तु हैं और सब मिथ्या卐🙏
"एक राजा प्रतिदिन भागवत सुनता था, पाठ समाप्त करके पण्डितजी रोज कहते थे, 'महाराज, आप समझे ?' राजा भी रोज कहता, 'पहले तुम खुद समझो ।’ पण्डित घर जाकर रोज सोचता था, 'राजा ऐसी बात क्यों कहता है कि पहले तुम खुद समझो ?" वह पण्डित भजन-पूजन भी करता था, क्रमशः उसे होश (चैतन्य) हुआ । तब उसने देखा, ईश्वर का पादपद्म ही सार वस्तु है और सब मिथ्या । संसार से विरक्त होकर वह निकल गया । एक आदमी को उसने राजा के पास इतना कहने के लिए भेज दिया कि 'राजा, अब वह समझ गया है ।'
“এক রাজা রোজ ভাগবত শুনত। পণ্ডিত পড়া শেষ হলে রাজাকে বলত, রাজা বুঝেছ? রাজাও রোজ বলে — আগে তুমি বোঝ! পণ্ডিত বাড়ি গিয়ে রোজ ভাবে — রাজা এমন কথা বলে কেন যে তুমি আগে বোঝ। লোকটা সাধন-ভজন করত — ক্রমে চৈতন্য হল। তখন দেখলে যে হরিপাদপদ্ম্মই সার, আর সব মিথ্যা। সংসারে বিরক্ত হয়ে বেরিয়ে এল। কেবল একজনকে পাঠালে রাজাকে বলতে যে — রাজা, এইবার বুঝেছি।
"There was a king who used to listen daily to a pundit's exposition of the Bhagavata. Every day at the end of their study the pundit would ask the king, 'O King, have you understood what I have read?' To this question the king would daily give the same reply: 'Sir, you had better understand it first yourself.' Each day, when the pundit returned home, he would ponder the meaning of the king's words. He was a pious man, devoted to prayer and meditation. Gradually he came to his senses and realized that the only real thing in the world is the Lotus Feet of God, and that all else is illusory. He felt dispassion for the world and took up the life of a monk. As he was leaving the world he sent a man to the king with the message: 'Yes, O King! Now I have understood.'
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏वेदान्त प्रयोग 'वेश्या और सती लक्ष्मी' सब मातृयोनि हैं -
वे ही सब कुछ हुए हैं सब नारायण हैं卐🙏
[लेकिन सभी तीन ऐषणाओं के ग्राहक हैं -रूप, ऐश्वर्य और नाम-यश में बद्ध हैं]
[`No one wants to give up 'woman and gold'-
'स्त्री और सोना' में आसक्ति का त्याग कोई करना नहीं चाहता।]
[I apply the Knowledge of Brahman,
the Oneness of Existence.
Brahman Itself has become everything ]
[সব কলাইয়ের ডালের খদ্দের — রূপ ও ঐশ্বর্যের বশ ]
"परन्तु क्या मैं इन्हें घृणा करता हूँ ? नहीं, मैं उन्हें ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से देखता हूँ । वे ही सब कुछ हुए हैं - सब नारायण हैं । सब योनियों को मातृयोनि मानता -हूँ, तब वेश्या और सती लक्ष्मी में कोई भेद नहीं दीख पड़ता । "क्या कहूँ ["काश! मुझे ऐसा कोई ग्राहक नहीं मिला जो मटर दाल से बेहतर कुछ चाहता हो] , देखता हूँ, सब के सब मटर की दाल के ग्राहक हैं । कामिनी और कांचन नहीं छोड़ना चाहते । आदमी स्त्रियों के रूप पर मुग्ध हो जाते हैं, रुपये और ऐश्वर्य देखकर सब कुछ भूल जाते हैं, परन्तु यह नहीं जानते कि ईश्वर के रूप का दर्शन करने पर ब्रह्मपद भी तुच्छ हो जाता है ।
“তবে কি এদের ঘৃণা করি? না, ব্রহ্মজ্ঞান তখন আনি। তিনি সব হয়েছেন, — সকলেই নারায়ণ। সব যোনিই মাতৃযোনি, তখন বেশ্যা ও সতীলক্ষ্মীতে কোন প্রভেদ দেখি না।”“কি বলব সব দেখছি কলাইয়ের ডালের খদ্দের। কামিনী-কাঞ্চন ছাড়তে চায় না। লোকে মেয়েমানুষের রূপে ভুলে যায়, টাকা ঐশ্বর্য দেখলে ভুলে যায়, কিন্তু ঈশ্বরের রূপদর্শন করলে ব্রহ্মপদ তুচ্ছ হয়।
"But do I look down on worldly people? Of course not. When I see them, I apply the Knowledge of Brahman, the Oneness of Existence. Brahman Itself has become everything; all are Narayana Himself. Regarding all women as so many forms of the Divine Mother, I see no difference between a chaste woman and a streetwalker.
"Alas! I find no customers who want anything better than kalai pulse. No one wants to give up 'woman and gold'. Man, deluded by the beauty of woman and the power of money, forgets God. But to one who has seen the beauty of God, even the position of Brahma, the Creator, seems insignificant.
"रावण से किसी ने कहा था, तुम इतने रूप बदलकर तो सीता के पास जाते हो; परन्तु श्रीरामचन्द्र का रूप क्यों नहीं धारण करते ? रावण ने कहा, 'राम का रूप हृदय में एक बार भी देख लेने पर रम्भा और तिलोत्तमा चिता की खाक जान पड़ती हैं । ब्रह्मपद भी तुच्छ हो जाता है - पराई स्त्री की तो बात ही दूर रही ।'
“রাবণকে একজন বলেছিল, তুমি সব রূপ ধরে সীতার কাছে যাও, রামরূপ ধর না কেন? রাবণ বললে, রামরূপ হৃদয়ে একবার দেখলে রম্ভা তিলোত্তমা এদের চিতার ভস্ম বলে বোধ হয়। ব্রহ্মপদ তুচ্ছ হয়, পরস্ত্রীর কথা তো দূরে থাক।
"A man said to Ravana, 'You have been going to Sita in different disguises; why don't you go to her in the form of Rama?' 'But', Ravana replied, 'when I meditate on Rama in my heart, the most beautiful women — celestial maidens like Rambha and Tilottama — appear no better than ashes of the funeral pyre. Then even the position of Brahma appears trivial to me, not to speak of the beauty of another man's wife.'
"सब के सब मटर की दाल के ग्राहक हैं । शुद्ध आधार के हुए बिना ईश्वर पर शुद्धा भक्ति नहीं होती - एक लक्ष्य नहीं रहता, कितनी ही ओर मन दौड़ता फिरता है ।
“সব কলাইয়ের ডালের খদ্দের। শুদ্ধ আধার না হলে ঈশ্বরে শুদ্ধাভক্তি হয় না – একলক্ষ্য হয় না, নানাদিকে মন থাকে।”
"Alas! I find that all the customers here seek worthless kalai pulse. Unless the soul is pure, it cannot have genuine love of God and single-minded devotion to the ideal. The mind wanders away to various objects.
[ (1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏नेपाली लड़की, भगवान की दासी - गृहस्थ की गुलामी卐🙏
[নেপালী মেয়ে, ঈশ্বরের দাসী — সংসারীর দাসত্ব ]
(मनोमोहन से) - “तुम गुस्सा करो और चाहे जो करो, राखाल से मैंने कहा, तू अगर ईश्वर के लिए गंगा में डूबकर मर जाय, तो यह बात मैं सुन लूँगा; परन्तु तू किसी की गुलामी करता है, ऐसी बात न सुनूँ ।
(^ श्रीरामकृष्ण के एक गृहस्थ भक्त, जिनकी बहन का विवाह राखाल से हुआ था।)
(মনোমোহনের প্রতি) — “তুমি রাগই কর আর যাই কর — রাখালকে বললাম ঈশ্বরের জন্য গঙ্গায় ঝাঁপ দিয়ে মরেছিস এ-কথা বরং শুনব; তবু কারুর দাসত্ব করিস, এ-কথা যেন না শুনি।
(To Manomohan1) "You may take offence at my words, but I said to Rakhal, 'I would rather hear that you had drowned yourself in the Ganges than learn that you had accepted a job under another person and become his servant.'
[^A householder disciple of the Master, whose sister was married to Rakhal.]
"नेपाल से एक लड़की आयी थी । इसराज बजाकर उसने बहुत अच्छा गाया । भजन गाती थी । किसी ने पूछा, 'क्या तुम्हारा विवाह हो गया है ? उसने कहा, 'अब और किसकी दासी बनूँ ? - एक ईश्वर की दासी हूँ ।'
“নেপালের একটি মেয়ে এসেছিল। বেশ এসরাজ বাজিয়ে গান করলে। হরিনাম গান। কেউ জিজ্ঞাসা করলে — ‘তোমার বিবাহ হয়েছে?’ তা বললে, ‘আবার কার দাসী হব? এক ভগবানের দাসী আমি।’
"One day a Nepalese girl came here. She sang devotional songs to the accompaniment of the esraj. When someone asked her if she was married, she said sharply: 'What? I am the handmaid of God! Whom else could I serve?'
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 108 ]
卐🙏माँगना होगा तो खुदा से माँगूगा, दौलतमन्द कंगाल अकबर बादशाह से क्या माँगू卐🙏
(দিল্লীর বাদশা ধন-দৌলতের ভিখারী ? চাইতে হয় তো আল্লার কাছে চাইব।)
"कामिनी और कांचन के भीतर रहकर कैसे कोई सिद्ध हो ? वहाँ अनासक्त होना बहुत ही मुश्किल है । एक ओर बीबी का गुलाम, दूसरी ओर रुपये का गुलाम, तीसरी ओर मालिक का गुलाम - उनकी नौकरी बजानी पड़ती है ।
“কামিনী-কাঞ্চনের ভিতের থেকে কি করে হবে? অনাসক্ত হওয়া বড় কঠিন। একদিকে মেগের দাস, একদিকে টাকার দাস, আর-একদিকে মনিবের দাস, তাদের চাকরি করতে হয়।
"How can a man living in the midst of 'woman and gold' realize God? It is very hard for him to lead an unattached life. First, he is the slave of his wife, second, of money, and third, of the master whom he serves.
"एक फकीर जंगल में कुटी बनाकर रहता था । तब अकबर शाह दिल्ली के बादशाह थे । फकीर के पास बहुत से आदमी आयाजाया करते थे । अतिथि-सत्कार की उसे बड़ी इच्छा हुई । एक दिन उसने सोचा, 'बिना रुपये-पैसे के अतिथि सत्कार कैसे हो सकता है ? इसलिए एक बार अकबर शाह के दरबार में चलूँ ।' साधु-फकीर के लिए सब जगह द्वार खुला रहता है । जब फकीर वहाँ पहुँचा, तब अकबर शाह नमाज पढ़ रहे थे । फकीर मसजिद में उसी जगह पर जाकर बैठ गया । उसने सुना कि नमाज पूरी करके अकबर शाह खुदा से कह रहे थे, 'ऐ खुदा, मुझे तू दौलत मन्द कर खुश रख तथा और भी इसी तरह की कितनी ही इच्छाएँ पूरी करने के लिए खुदा से दुआएँ माँगते थे ।
उसी समय फकीर ने वहाँ से उठ जाना चाहा । अकबर शाह ने बैठने के लिए इशारा किया। नमाज पूरी करके बादशाह ने आकर पूछा, 'आप बैठे थे, फिर चले कैसे ?' फकीर ने कहा, "यह शाहंशाह के सुनने लायक बात नहीं है, मैं जाता हूँ ।'बादशाह के जिद करने पर फकीर ने कहा, 'मेरे यहाँ बहुत से आदमी आया करते हैं, इसीलिए मैं कुछ रुपये माँगने आया था ।' अकबर ने पूछा, 'तो आप चले क्यों जा रहे हैं ?' फकीर ने कहा, 'मैंने देखा, तुम भी दौलत के कंगाल हो, और सोचा कि यह भी फकीर ही है, फकीर से क्या माँगू ? माँगना ही है तो खुदा से ही माँगूँगा ।”
“একটি ফকির বনে কুটির করে থাকত। তখন আকবর শা দিল্লীর বাদশা। ফকিরটির কাছে অনেকে আসত। অতিথিসৎকার করতে তার বড় ইচ্ছা হয়। একদিন ভাবলে যে, টাকা-কড়ি না হলে কেমন করে অতিথিসৎকার হয়? তবে যাই একবার অকবর শার কাছে। সাধু-ফকিরের অবারিত দ্বার। আকবর শা তখন নমাজ পড়ছিলেন, ফকির নমাজ ঘরে গিয়ে বসল। দেখলে আকবর শা নমাজের শেষে বলছে, ‘হে আল্লা, ধন দাও দৌলত দাও’, আরও কত কি। এই সময়ে ফকিরটি উঠে নমাজের ঘর থেকে চলে যাবার উদ্যোগ করতে লাগল। আকবর শা ইশারা করে বসতে বললেন। নমাজ শেষ হলে বাদশা জিজ্ঞাসা কল্লেন — আপনি এসে বসলেন আবার চলে যাচ্ছেন? ফকির বললে, — সে আর মহারাজের শুনে কাজ নাই, আমি চল্লুম। বাদশা অনেক জিদ করাতে ফকির বললে — আমার ওখানে অনেকে আসে। তাই কিছু টাকা প্রার্থনা করতে এসেছিলাম। আকবর বললে — তবে চলে যাচ্ছিলেন কেন? ফকির বললে, যখন দেখলুম, তুমিও ধন-দৌলতের ভিখারী — তখন মনে করলুম যে, ভিখারীর কাছে চেয়ে আর কি হবে? চাইতে হয় তো আল্লার কাছে চাইব।”
"When Akbar was Emperor of Delhi there lived a hermit in a hut in the forest. Many people visited the holy man. At one time he felt a great desire to entertain his visitors. But how could he do so without money? So he decided to go to the Emperor for help, for the gate of Akbar's palace was always open to holy men. The hermit entered the palace while the Emperor was at his daily devotions and took a seat in a corner of the room. He heard the Emperor conclude his worship with the prayer, 'O God, give me money; give me riches', and so on and so forth. When the hermit heard this he was about to leave the prayer hall; but the Emperor signed to him to wait. When the prayer was over, Akbar said to him, 'You came to see me; how is it that you were about to leave without saying anything to me?' 'Your Majesty need not trouble yourself about it', answered the hermit. 'I must leave now.' When the Emperor insisted, the hermit said, 'Many people visit my hut, and so I came here to ask you for some money.' 'Then', said Akbar, 'why were you going away without speaking to me?' The hermit replied: 'I found that you too were a beggar; you too prayed to God for money and riches. Thereupon I said to myself, "Why should I beg of a beggar? If I must beg, let me beg of God."
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
卐🙏ह्रदय मुखर्जी की निन्दात्मक बातें - ठाकुर देव की सतगुण की अवस्था卐🙏
[পূর্বকথা — হৃদয় মুখুজ্জের হাঁকডাক — ঠাকুরের সত্ত্বগুণের অবস্থা ]
[State of Sattvaguna of Sri Ramakrishna]
नरेन्द्र - गिरीश घोष इस समय बस ऐसी ही चिन्ताएँ (आध्यात्मिक चिंतन)करते हैं ।
নরেন্দ্র — গিরিশ ঘোষ এখন কেবল এই সব চিন্তাই করে।
NARENDRA: "Nowadays Girish Ghosh thinks of nothing but spiritual things."
श्रीरामकृष्ण - यह तो बहुत ही अच्छा है, परन्तु इतनी गालियाँ क्यों दिया करता है ? मेरी वह अवस्था नहीं है । जब बिजली गिरती है, तब भारी चीजें उतनी नहीं हिलती, परन्तु झरोखे की झंझरियाँ हिल जाती है । मेरी वह अवस्था नहीं है । सतोगुण की अवस्था में शोर-गुल नहीं सहा जाता । हृदय इसीलिए चला गया, - माँ ने उसे नहीं रखा । पिछले दिनों में बड़ी बढ़ा-चढ़ी करने लगा था । मुझे गालियाँ देता था, हल्ला मचाता था ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — সে খুব ভাল। তবে অত গালাগাল মুখখারাপ করে কেন? সে অবস্থা আমার নয়। বাজ পড়লে ঘরের মোটা জিনিস তত নড়ে না, কিন্তু সার্সী ঘটঘট করে। আমার সে অবস্থা নয়। সত্ত্বগুণের অবস্থায় হইচই হয় না। হৃদে তাই চলে গেল; — মা রাখলেন না। শেষাশেষি বড় বাড়িয়েছিল। আমায় গালাগালি দিত। হাঁকডাক করত।
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
卐🙏क्या नरेंद्र श्री रामकृष्ण को 1885 तक अवतार वरिष्ठ के रूप में पहचान सके थे?卐🙏
[নরেন্দ্র কি অবতার বলেন? নরেন্দ্র ত্যাগীর থাক — নরেন্দ্রের পিতৃবিয়োগ ]
(नरेन्द्र के प्रति ) "गिरीश घोष जो कुछ कहता है, वह तेरे साथ कहीं कुछ मिला भी ?"
(নরেন্দ্রের কাছে) “গিরিশ ঘোষ যা বলে তোর সঙ্গে কি মিললো?”
(To Narendra) Do you agree with Girish about me?"
नरेन्द्र - मैंने कुछ कहा नहीं, वे ही कहा करते हैं उनका विश्वास है कि आप अवतार हैं । मैंने कुछ कहा नहीं ।
নরেন্দ্র — আমি কিছু বলি নাই, তিনিই বলেন, তাঁর অবতার বলে বিশ্বাস। আমি আর কিছু বললাম না।
NARENDRA: "He said he believed you to be an Incarnation of God. I didn't say anything in answer to his remarks."
श्रीरामकृष्ण - परन्तु खूब विश्वास है, देखा है न ?
শ্রীরামকৃষ্ণ — কিন্তু খুব বিশ্বাস! দেখেছিস?
MASTER: "But how great his faith is! Don't you think so?"
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
卐🙏लोकशिक्षक को कामिनी-कांचन में आसक्ति का त्याग करना अनिवार्य है卐🙏
भक्तगण एकदृष्टि से देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण नीचे ही चटाई पर बैठे हैं । पास मास्टर है, सामने नरेन्द्र, चारों ओर भक्तमण्डली ।
ভক্তেরা একদৃষ্টে দেখিতেছেন। ঠাকুর নিচেই মাদুরের উপর বসিয়া আছেন। কাছে মাস্টার, সম্মুখে নরেন্দ্র, চতুর্দিকে ভক্তগণ।
The devotees listened intently to the Master's words. He was still seated on the mat spread on the floor, with M. by his side and Narendra in front of him. The devotees were sitting around.
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहकर प्रेमपूर्ण दृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं ।
ঠাকুর একটু চুপ করিয়া নরেন্দ্রকে সস্নেহে দেখিতেছেন।
कुछ देर बाद नरेन्द्र से कहा, "भैया, कामिनी और कांचन के बिना छूटे कुछ न होगा ।" कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण भावमग्न हो गये । करुणा से भरी हुई सस्नेह दृष्टि है । साथ ही भाव में मस्त होकर गाने लगे –
कथा बोलते डराई, ना बोललेओ डराई।
मने संद होय पाछे तोमाधने हाराई हाराई।।
आमरा जानि जे मन -तोर , दिलाम तोके सेई मन तोर,
जेखन मन तोर;आमरा जे मन्त्रे बिपतते तरि तराई।।
(भावार्थ) - "बात करते हुए भी मुझे भय होता है, और कुछ नहीं बोलता तो भी भय होता है । मेरे हृदय में यह सन्देह है कि कहीं तुम्हारे जैसे धन को मैं खो न बैठूँ । हम जो मन्त्र जानते हैं, वही मंत्र तुझे देंगे । फिर तो तेरा मन तेरे पास है ही । हम लोग जिस मन्त्र के बल से विपत्तियों से त्राण पाते हैं, उसी मन्त्र से दूसरों को भी उत्तीर्ण कर देते हैं ।"
[^ यह समय (1885) नरेंद्रनाथ के जीवन की एक अत्यन्त क्रांतिक कालावधि (critical period) थी। अपने पिता की मृत्यु के बाद उन्हें गरीबी की चरम सीमा का सामना करना पड़ रहा था; बुरे समय पर दोस्त और रिश्तेदार विश्वासघाती सिद्ध हुए थे, उनको गरीबी में घिरा देख कर उन्होंने उनसे अपना पल्ला झाड़ लिया था। यह सब देखकर उनके तर्कयुक्त मन (rational mind) में ईश्वर की दयाशीलता (mercy of God) और बेरहम संसार (जहाँ खून का रिश्ता भी विश्वासघात करता हो) में मनुष्य की दयनीयता (misery) को लेकर घोर अन्तर्द्वन्द्व चल रहा था। श्रीरामकृष्ण के साथ इस मुलाकात के कुछ दिन पहले, नरेन्द्र एक दिन नौकरी की एक निरर्थक खोज के बाद लगभग श्रांत (exhausted) हो गए थे ; घर लौटते समय रास्ते में बारिश की बौछार जब तेज हो गयी तो, उसके रुक जाने की प्रतीक्षा में वे सड़क के किनारे एक घर के खुले बरामदे पर बैठ गए थे। वहाँ उन्हें एक रहस्योद्घाटन (Revelation-आकाशवाणी, इहलाम) प्राप्त हुई थी जिसमें उन्होंने अपनी सभी परस्पर विरोधी समस्याओं का समाधान खोज लिया था।उन्हें वहाँ जगत की असत्यता का अनुभव (जगत तीन काल में नहीं है, जो दीखता है वो मिथ्या है का अनुभव) हुआ , और तब उन्होंने एक संन्यासी (निवृत्तिमार्ग का मार्गदर्शक नेता) बनने का निर्णय कर लिया था। इसके बाद उन्होंने खुद को तरोताजा महसूस किया। इसीलिए वे उस दिन अपने गुरु श्री रामकृष्ण से विदाई मांगने के लिए आये थे, किन्तु उन्हें अपने इरादे के बारे में नहीं बताया था। फिर भी अन्तर्यामी श्री रामकृष्ण देव से कुछ भी छिपा नहीं था; इसलिए उन्होंने इस गाने को गया था।]
কিয়ৎক্ষণ পরে নরেন্দ্রকে বলিলেন, বাবা, কামিনী-কাঞ্চনত্যাগ না হলে হবে না। বলিতে বলিতে ভাবপূর্ণ হইয়া উঠিলেন। সেই করুণামাখা সস্নেহ দৃষ্টি, তাহার সঙ্গে ভাবোন্মোত্ত হইয়া গান ধরিলেন:
কথা বলতে ডরাই, না বললেও ডরাই।
মনে সন্দ হয় পাছে তোমাধনে হারাই হারাই ৷৷
আমরা জানি যে মন-তোর, দিলাম তোকে সেই মন্তোর,
এখন মন তোর; আমরা যে মন্ত্রে বিপদেতে তরি তরাই ৷৷
After a few minutes' silence he said to Narendra tenderly, "My child, you will not attain God without renouncing 'woman and gold'." As he said this, great emotion welled up in his heart. Fixing on Narendra an earnest and tender look, he sang: ^
"We are afraid to speak, and yet we are afraid to keep still; Our minds, O Radha, half believe that we are about to lose you! We tell you the secret that we know —The secret whereby we ourselves, and others, with our help, Have passed through many a time of peril; Now it all depends on you."
[^This was a very critical period in Narendranath's life. After his father's death he had been faced with extreme poverty; friends and relatives had proved indifferent or treacherous. His rational mind could not reconcile the existence of human misery with the mercy of God. A few days before this meeting with the Master, on his way home, almost exhausted after a futile search for a job, he had sat down on the open porch of a house by the street, waiting for a shower of rain to pass. There he had received a revelation in which he had found the solution of all his conflicting problems. He had felt refreshed, realizing the unreality of the world, and had determined to become a monk at once. So he had come to the Master to take leave of him, but had not told him of his intention. Yet nothing could be hidden from Sri Ramakrishna; hence the song.]
श्रीरामकृष्ण को जैसे भय हो रहा हो कि नरेन्द्र किसी दूसरे का हो गया । नरेन्द्र आँखों में आँसू भरे हुए देख रहे हैं ।
শ্রীরামকৃষ্ণের যেন ভয়, বুঝি নরেন্দ্র আর কাহারও হইল, আমার বুঝি হল না! নরেন্দ্র অশ্রুপূর্ণলোচনে চাহিয়া আছেন।
Sri Ramakrishna seemed to be afraid lest Narendra should leave him. Narendra looked at the Master with tears in his eyes.
बाहर के एक भक्त श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए आये हुए थे । वे भी पास बैठे हुए सब कुछ देख-सुन रहे थे । भक्त - महाराज, कामिनी और कांचन का अगर त्याग ही करना है तो गृहस्थ फिर कहाँ जाय ?
বাহিরের একটি ভক্ত ঠাকুরকে দর্শন করিতে আসিয়াছিলেন। তিনিও কাছে বসিয়া সমস্ত দেখিতেছিলেন ও শুনিতেছিলেন। ভক্ত — মহাশয়, কামিনী-কাঞ্চন যদি ত্যাগ করতে হবে, তবে গৃহস্থ কি করবে?
A visitor who was there for the first time heard and saw all this. He said to the Master, "Sir, if one must renounce 'woman and gold', then what shall a householder do?"
श्रीरामकृष्ण - तुम गृहस्थी करो न ! हम लोगों के बीच में एक ऐसी ही बात हो गयी ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — তা তুমি কর না! আমাদের অমনি একটা কথা হয়ে গেল।
MASTER: "You may enjoy 'woman and gold'. What has passed between us is no concern of yours."
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
卐🙏"आगे बढ़ो , और भी आगे बढ़ते जाओ,चन्दन-लकड़ी के जंगल की खोज करो 卐🙏
[গৃহস্থ ভক্তের প্রতি অভয়দান -এগিয়ে পড়! আরও আগে যাও, চন্দনকাঠ পাবে|]
"Go forward. Push on, discover the forest of sandal-wood.
महिमाचरण चुपचाप बैठे हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण (महिमा से) - बढ़ जाओ, और भी आगे बढ़ जाओ । चन्दन की लकड़ी मिलेगी; और भी आगे बढ़ जाओ, चाँदी की खान मिलेगी; और भी आगे बढ़ जाओ, सोने की खान पाओगे; और भी आगे बढ़ो तो हीरे और मणि मिलेंगे; बढ़े जाओ ।
মহিমাচরণ চুপ করিয়া বসিয়া আছেন, মুখে কথাটি নাই।শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — এগিয়ে পড়! আরও আগে যাও, চন্দনকাঠ পাবে, আরও আগে যাও, রূপার খনি পাবে; আরও এগিয়ে যাও সোনার খনি পাবে, আরও এগিয়ে যাও হীরে মাণিক পাবে। এগিয়ে পড়!
Mahimacharan, a householder devotee, heard everything and sat speechless.MASTER (to Mahima): "Go forward. Push on. You will discover the forest of sandal-wood. Go farther and you will find the silver-mine. Go farther still and you will see the gold-mine. Do not stop there. Go forward, and you will reach the mines of rubies and diamonds. Therefore I say, go forward."
महिमा – पर जी खींचता रहता है, आगे बढ़ने देता ही नहीं ।
মহিমা — আজ্ঞে, টেনে রাখে যে — এগুতে দেয় না!
MAHIMA: "But, sir, something holds us back. We can't move."
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
卐🙏वैद्यराज ! नमस्तेऽस्तु यमराज सहोदरः।
प्रमाण - "शतमारी भवेद् वैद्यः सहस्रमारी चिकित्सकः ।"卐🙏
[आसक्ति ( लगा-म) को काट ! माँ काली नाम के प्रभाव से`मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं' --ग़ालिब !]
श्रीरामकृष्ण (हँसकर) – क्यों लगा-म काट दी । उनके नाम के प्रभाव से काट डालो । उनके नाम के प्रभाव से कालपाश भी छिन्न हो जाता है ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কেন, লাগাম কাট, তাঁর নাম গুণে কাট। ৺কালী নামেতে কালপাশ কাটে।
MASTER (with a smile): "Why? Cut the reins. Cut them with the sword of God's name. 'The shackles of Kala, Time, are cut by Kali's name.'"
पिता के निधन के बाद से संसार में नरेन्द्र को बड़ा कष्ट हो रहा है । उन पर कई आफतें गुजर चुकीं । बीच-बीच में श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, "तू चिकित्सक तो नहीं बना ?-"शतमारी भवेद्वैद्यः सहस्रमारी चिकित्सकः ।" (सब हँसते हैं ।)
নরেন্দ্র পিতৃবিয়োগের পর সংসারে বড় কষ্ট পাইতেছেন। তাঁহার উপর অনেক তাল যাইতেছে। ঠাকুর মাঝে মাঝে নরেন্দ্রকে দেখিতেছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, তুই কি চিকিৎসক হয়েছিস? ‘শতমারী ভবেদ্বৈদ্যঃ। সহস্রমারী চিকিৎসকঃ।’ (সকলের হাস্য)
Every now and then the Master cast his gracious look on Narendra. He said, "Have you now become an experienced physician?" Quoting a Sanskrit verse he said, "He who has killed only a hundred patients is a novice in medicine; but he becomes an expert after killing a thousand!"
श्रीरामकृष्ण का शायद यह अर्थ है कि नरेन्द्र इतनी ही उम्र में बहुत-कुछ देख चुका - सुख और दुःख के साथ उसका बहुत परिचय हो चुका ।
[ঠাকুর কি বলিতেছেন, নরেন্দ্রের এই বয়সে অনেক দেখাশুনা হইল — সুখ-দুঃখের সঙ্গে অনেক পরিচয় হইল।
Was the Master hinting that Narendra, even though still young, had had many painful experiences of life?
नरेन्द्र जरा मुस्कराकर रह गये ।
নরেন্দ্র ঈষৎ হাসিয়া চুপ করিয়া রহিলেন।
Narendra smiled and kept silent.
(३)
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
卐🙏श्रीश्री दोलयात्रा और श्री रामकृष्ण की श्रीश्री राधाश्याम (राधाकान्त) जी,
माँ काली और सब भक्तों (नरेन्द्र और मास्टर) को गुलाल अर्पण卐🙏
[শ্রীশ্রীদোলযাত্রা ও শ্রীরামকৃষ্ণের ৺রাধাকান্ত ও মা-কালীকে
ও ভক্তদিগের গায়ে আবির প্রদান]
नवाई चैतन्य गा रहे हैं । भक्तगण बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । एकाएक उठे । कमरे के बाहर गये । भक्त सब बैठे ही रहे । गाना हो रहा है ।
[নবাই চৈতন্য গান গাহিতেছেন। ভক্তেরা সকলেই বসিয়া আছেন। ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিয়াছিলেন, হঠাৎ উঠিলেন। ঘরের বাহিরে গেলেন। ভক্তেরা সকলে বসিয়া রহিলেন, গান চলিতে লাগিল।
It was afternoon. The devotees were seated around the Master, listening to Nabai Chaitanya's singing. Suddenly the Master left the room, but the music continued. M. accompanied the Master.
मास्टर श्रीरामकृष्ण के साथ-साथ गये । श्रीरामकृष्ण पक्के आँगन से होकर कालीमन्दिर की ओर जा रहे हैं । पहले श्रीराधाकान्त के मन्दिर में गये । भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । उन्हें प्रणाम करते हुए देख मास्टर ने भी प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण के सामनेवाली थाली में अबीर रखा हुआ था । आज होली है, श्रीरामकृष्ण भूले नहीं । थाली से अबीर लेकर श्रीश्री राधाश्यामजी पर चढ़ाया । फिर उन्हें प्रणाम किया ।
মাস্টার ঠাকুরের সঙ্গে সঙ্গে গেলেন। ঠাকুর পাকা উঠান দিয়া কালীঘরের দিকে যাইতেছেন। ৺রাধাকান্তের মন্দিরে আগে প্রবেশ করিলেন। ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। তাঁহার প্রণাম দেখিয়া মাস্টারও প্রণাম করিলেন। ঠাকুরের সম্মুখের থালায় আবির ছিল। আজ শ্রীশ্রীদোলযাত্রা — ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাহা ভুলেন নাই। থালার ফাগ লইয়া শ্রীশ্রীরাধাশ্যামকে দিলেন। আবার প্রণাম করিলেন।
Sri Ramakrishna walked across the courtyard and entered the temple of Radhakanta. He bowed down before the images, M. following him. There was some red powder in a tray. The Master offered a little powder to the images and bowed down again.
अब कालीमन्दिर जा रहे हैं । पहले सातों सीढ़ियों पर चढ़कर चबूतरे पर खड़े हुए, माता को प्रणाम किया, फिर मन्दिर में गये । माता पर अबीर चढ़ाया । प्रणाम करके कालीमन्दिर से लौट रहे हैं । कालीमन्दिर के सामने चबूतरे पर खड़े होकर मास्टर से उन्होंने कहा, "बाबूराम को तुम क्यों नहीं ले आये ?"
এইবার কালীঘরে যাইতেছেন। প্রথম সাতটি ধাপ ছাড়াইয়া চাতালে দাঁড়াইলেন মাকে দর্শন করিয়া ভিতরে প্রবেশ করিলেন। মাকে আবির দিলেন। প্রণাম করিয়া কালীঘর হইতে চলিয়া আসিতেছেন। কালীঘরের সম্মুখের চাতালে দাঁড়াইয়া মাস্টারকে বলিতেছেন, — বাবুরামকে আনলে না কেন?
Next he proceeded to the Kali temple. Passing up the seven steps, he stood on the open porch and looked at the image. Then he entered the shrine, offered red powder to the Divine Mother, and saluted Her. As he left the temple he asked M., "Why didn't you bring Baburam with you?"
श्रीरामकृष्ण फिर आँगन से कमरे की ओर जा रहे हैं । साथ में मास्टर हैं तथा और एक जन अबीर की थाली हाथ में लिये हुए आ रहे हैं । कमरे में आकर श्रीरामकृष्ण ने सब चित्रों पर अबीर चढ़ाया – दो-एक चित्रों को छोड़कर, - उनमें एक उनका अपना चित्र था और दूसरी येशु की तसबीर । अब आप बरामदे में आये । कमरे में प्रवेश करते समय बरामदे का जो भाग आता है, वहीं नरेन्द्र बैठे हुए हैं । किसी-किसी भक्त के साथ उनकी बातचीत हो रही है । श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र पर अबीर छोड़ा । आप कमरे में प्रवेश कर रहे हैं, मास्टर भी साथ जा रहे हैं, आपने मास्टर पर भी अबीर छोड़ा । कमरे में जितने भक्त थे, सब पर आपने अबीर डाला । सब के सब प्रणाम करने लगे ।
ঠাকুর আবার পাকা উঠান দিয়া যাইতেছেন। সঙ্গে মাস্টার ও আর-একজন আবিরের থালা হাতে করিয়া আসিতেছেন। ঘরে প্রবেশ করিয়া সব পটকে ফাগ দিলেন — দু-একটি পট ছাড়া — নিজের ফটোগ্রাফ ও যীশুখ্রীষ্টের ছবি। এইবার বারান্দায় আসিলেন নরেন্দ্র ঘরে ঢুকিতে বারান্দায় বসিয়া আছেন। কোন কোন ভক্তের সহিত কথা কহিতেছেন। ঠাকুর নরেন্দ্রের গায়ে ফাগ দিলেন। ঘরে ঢুকিতেছেন, মাস্টার সঙ্গে আসিতেছেন, তিনিও আবির প্রসাদ পাইলেন।ঘরে প্রবেশ করিলেন। যত ভক্তদের গায়ে আবির দিলেন। সকলেই প্রণাম করিতে লাগিলেন।
Sri Ramakrishna returned to his room accompanied by M. and another devotee carrying the tray of red powder. He offered a little of it to all the pictures of gods and goddesses in his room, but not to those of Jesus Christ and himself. Then he threw the powder on the bodies of Narendra and the other devotees. They all took the dust of his feet.
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
卐🙏तर्कबुद्धि दूर करने का उपाय अवतार की साकार मूर्ति का ध्यान卐🙏
दिन का पिछला पहर हो चला । भक्तगण इधर-उधर घूमने लगे । श्रीरामकृष्ण मास्टर से धीरे-धीरे बातचीत करने लगे । पास कोई नहीं है । बालक-भक्तों की बात कह रहे हैं । कह रहे हैं, "अच्छा, सब तो कहते है कि ध्यान खूब होता है, परन्तु पल्टू का ध्यान क्यों नहीं होता ?"नरेन्द्र के बारे में तुम्हारी क्या राय है ? बड़ा सरल है; परन्तु उस पर संसार की बड़ी बड़ी आफतें गुजर चुकी हैं, इसीलिए कुछ दबा हुआ है । यह भाव रहेगा भी नहीं ।"
অপরাহ্ন হইল। ভক্তেরা এদিক-ওদিক বেড়াইতে লাগিলেন। ঠাকুর মাস্টারের সঙ্গে চুপিচুপি কথা কহিতেছেন। কাছে কেহ নাই। ছোকরা ভক্তদের কথা কহিতেছেন। বলছেন, “আচ্ছা, সব্বাই বলে, বেশ ধ্যান হয়, পল্টুর ধ্যান হয় না কেন?”“নরেন্দ্রকে তোমার কিরকম মনে হয়? বেশ সরল; তবে সংসারের অনেক তাল পড়েছে, তাই একটু চাপা; ও থাকবে না।”
In the cool shade of the late afternoon the devotees walked about in the temple garden, leaving the Master and M. in the room. The Master whispered to M.: "All say that they meditate well. But why is it different with Paltu? What do you think of Narendra? He is utterly guileless. Just now he is faced with many difficult family problems and so his spiritual progress is a little checked; but it will not be so for long."
श्रीरामकृष्ण रह-रहकर बरामदे में चले जाते हैं । नरेन्द्र एक वेदान्तवादी से विचार कर रहे हैं ।क्रमशः भक्तगण फिर इकट्ठे हो रहे हैं । महिमाचरण से अब स्तव पाठ करने के लिए कहा गया । वे महानिर्वाण-तन्त्र के तृतीय उल्लास में लिखी हुई ब्रह्म की स्तुति (अवतार की साकार मूर्ति का ध्यान करने की सुविधा के लिए) कह रहे हैं –
“हृदयकमलमध्ये निर्विशेषं निरीहं
हरिहरविधिवेद्यं योगिभिर्ध्यानगम्यम् ।
जननमरणभीतिभ्रंशिसच्चित्स्वरूपं
सकलभुवनबीजं ब्रह्मचैतन्यमीडे ॥"
(श्रीब्रह्मास्त्र मंत्र ?-Mahanirvanatantra, III, 50.)
[हम अपने हृदय- कमल पर विराजमान उस ब्रह्म-चैतन्य की पूजा करते हैं ! जो अविनाशी हैं , वे हरि (विष्णु) , हर (शिव) और ब्रह्मा के भी आराध्य हैं। वे योगियों द्वारा ध्यान की गहराई में प्राप्त किए जाते हैं। वे (शाश्वत-चैतन्य, अखण्ड सच्चिदानन्द, the leader, known as the "granny" अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव ) ही जन्म और मृत्यु के भय का नाश करने वाले , ज्ञान और सत्य का सार, तथा संसार के आदि बीज हैं !
In the lotus of my heart I contemplate the Divine Intelligence, the Brahman without distinctions and difference, Knowable by Hari, Hara, and Vidhi ( creator, protector and destroyer), whom Yogis approach in meditation, He Who destroys the fear of birth and death, Who is Existence, Intelligence, the Root of all the three worlds (50) (Sir John Woodroffe)
ঠাকুর মাঝে মাঝে বারান্দায় উঠিয়া যাইতেছেন। নরেন্দ্র একজন বেদান্তবাদীর সঙ্গে বিচার করছেন।ক্রমে ভক্তেরা আবার ঘরে আসিয়া জুটিতেছেন। মহিমাচরণকে স্তব পাঠ করিতে বলিলেন। তিনি মহানির্বাণ তন্ত্র, তৃতীয় উল্লাস হইতে স্তব বলিতেছেন —
হৃদয়কমল মধ্যে নির্বিশেষং নিরীহং,
হরিহর বিধিবেদ্যং যোগিভির্ধ্যানগম্যম্।
জননমরণভীতিভ্রংশি সচ্চিৎস্বরূপম্,
সকলভুবনবীজং ব্রহ্মচৈতন্যমীড়ে।
Narendra was arguing on the verandah with a Vedantist. Now and then the Master went out to look at them. As the devotees gathered in the room he asked Mahima to recite a hymn. Mahima chanted a verse from the Mahanirvana Tantra: " We worship the Brahman-Consciousness in the Lotus of the Heart,The Undifferentiated, who is adored by Hari, Hara, and Brahma. . . ."
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
卐🙏गृहस्थों के प्रति अभयदान-उन्हें पकड़ने पर फिर क्या भय है ?卐🙏
[গৃহস্থের প্রতি অভয় ]
और भी दो एक स्तुतियाँ कहकर महिमाचरण श्रीशंकराचार्य की रची हुई स्तुति कह रहे हैं । उसमें संसार-कूप और संसार-गहनता की बात है । महिमाचरण स्वयं गृहस्थ भक्त हैं ।
श्रीशिवनामावल्यष्टकम्
" हे चन्द्रचूड मदनान्तक शूलपाणे
स्थाणो गिरीश गिरिजेश महेश शम्भो ।
भूतेश भीतभयसूदन मामनाथं
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ १॥
हे चन्द्रचूड! (चन्द्रमा को सिर पर धारण करने वाले), हे मदनान्तक! (कामदेव को भस्म कर देने वाले), हे शूलपाणे! हे स्थाणो! (सदा स्थिर रहने वाले), हे गिरीश तथा गिरिजापते, हे महेश, हे शम्भो, हे भूतेश, जरा, मृत्यु आदि से भयभीत की रक्षा करने वाले, हे जगदीश्वर शिव! संसार के गहन दु:खों से मेरी रक्षा कीजिए।"
O Great God! O Thou Auspicious One, with the moon shining in Thy crest! Slayer of Madana! (The god of love.) Wielder of the trident! Unmoving One! Lord of the Himalayas! O Consort of Durga, Lord of all creatures! Thou who scatterest the distress of the fearful! Rescue me, helpless as I am, from the trackless forest of this miserable world.
हे पार्वतीहृदयवल्लभ चन्द्रमौले
भूताधिप प्रमथनाथ गिरीशचाप ।
हे वामदेव भव रुद्र पिनाकपाणे
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ २॥
हे माता पार्वती के हृदयेश्वर! हे चन्द्रमौले! हे भूताधिप! हे प्रमथ (रुण्ड-मुण्ड-तुण्ड) गणों के स्वामिन्! गिरिजा का पालन करने वाले, हे वामदेव, हे भव, हे रुद्र, हे पिनाकपाणे, हे जगदीश्वर शिव! संसार के गहन दु:खों से मेरी रक्षा कीजिए।
O Beloved of Parvati's heart! O Thou moon-crested Deity!Master of every being! Lord of hosts! O Thou, the Lord of Parvati!O Vamadeva, Self-existent One! O Rudra, Wielder of the bow! Rescue me, helpless as I am, from the trackless forest of this miserable world.
हे नीलकण्ठ वृषभध्वज पञ्चवक्त्र
लोकेश शेषवलय प्रमथेश शर्व ।
हे धूर्जटे पशुपते गिरिजापते मां
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ३॥
हे नीलकण्ठ, हे वृषकेतु, हे पंचमुख, हे लोकेश, शेष का कंगण धारण करने वाले! हे प्रमथगणों के स्वामी, हे शर्व, हे धूर्जटे, हे पशुपते, हे गिरिजापते, हे जगदीश्वर शिव! संसार के गहन दु:खों से मेरी रक्षा कीजिए।
O blue-throated God! Siva, whose ensign is the bull! O Five-faced One! Lord of the worlds, who wearest snakes upon Thy wrists! O Thou Auspicious One! O Siva! O Pasupati! (Lord of beings.) O Thou, the Lord of Parvati! Rescue me, helpless as I am, from the trackless forest of this miserable world.
हे विश्वनाथ शिव शङ्कर देवदेव
गङ्गाधर प्रमथनायक नन्दिकेश ।
बाणेश्वरान्धकरिपो हर लोकनाथ
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ४ ॥
हे विश्वनाथ, हे शिव, हे शंकर, हे देवाधिदेव, हे गंगा को धारण करने वाले, हे प्रमथगणों के स्वामी, हे नन्दीश्वर, हे बाणेश्वर, हे अन्धकासुर के विनाशक, हे हर, हे लोकनाथ, हे जगदीश्वर शिव! संसार के गहन दु:खों से मेरी रक्षा कीजिए।
O Lord of the Universe! O Siva Sankara! O God of Gods! Thou who dost bear the river Ganges in Thy matted locks! Thou, the Master of Pramatha and Nandika! (Attendants of Siva.) O Hara, Lord of the world! Rescue me, helpless as I am, from the trackless forest of this miserable world.
वाराणसीपुरपते मणिकर्णिकेश
वीरेश दक्षमखकाल विभो गणेश ।
सर्वज्ञ सर्वहृदयैकनिवास नाथ
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ५॥
हे वाराणसी नगरी के स्वामिन्, हे मणिकर्णिकेश, हे वीरेश, हे दक्षयज्ञ के विध्वंसक, हे विभो, हे गणेश, हे सर्वज्ञ, हे सर्वान्तरात्मन्, हे नाथ! हे जगदीश्वर शिव! संसार के गहन दु:खों से मेरी रक्षा कीजिए।
O King of Kasi, Lord of the cremation ground of Manikarnika!O mighty Hero, Thou the Destroyer of Daksha's (Siva's father-in-law.) sacrifice! O All-pervasive One!O Lord of hosts! Omniscient One, who art the sole Indweller in every heart! O Lord! Rescue me, helpless as I am, from the trackless forest of this miserable world.
श्रीमन्महेश्वर कृपामय हे दयालो
हे व्योमकेश शितिकण्ठ गणाधिनाथ ।
भस्माङ्गराग नृकपालकलापमाल
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ६॥
हे श्रीमान् महेश्वर, हे कृपामय, हे दयालो, हे व्योमकेश (आकाश ही है केश जिनका), हे नीलकण्ठ, हे गणाधिनाथ, हे भस्म को अंगराग बनाने वाले, मनुष्यों के कपालसमूह की माला धारण करने वाले, हे जगदीश्वर शिव! संसार के गहन दु:खों से मेरी रक्षा कीजिए।
O Great God! Compassionate One! O Benign Deity! O Byomakesa! (A name of Siva.) Blue-throated One! O Lord of hosts! Thy body is smeared with ashes! Thou art garlanded with human skulls! Rescue me, helpless as I am, from the trackless forest of this miserable world.
कैलासशैलविनिवास वृषाकपे हे
मृत्युञ्जय त्रिनयन त्रिजगन्निवास ।
नारायणप्रिय मदापह शक्तिनाथ
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ७॥
हे कैलासशैल पर निवास करने वाले, हे वृषाकपे, हे मृत्युंजय, हे त्रिनयन, हे तीनों लोकों में निवास करने वाले, हे नारायणप्रिय, हे अहंकार को नष्ट करने वाले, हे शक्तिनाथ, हे जगदीश्वर शिव! संसार के गहन दु:खों से मेरी रक्षा कीजिए।
O Thou who dwellest on Mount Kailas! Thou whose carrier is the bull! O Conqueror of death! O Three-eyed One! Lord of the three worlds! Bloved of Narayana! Conqueror of lust! Thou, Sakti's Lord! Rescue me, helpless as I am, from the trackless forest of this miserable world.
विश्वेश विश्वभवनाशक विश्वरूप
विश्वात्मक त्रिभुवनैकगुणाधिकेश ।
हे विश्वनाथ करुणामय दीनबन्धो
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ८॥
हे विश्वेश, हे संसार के जन्म-मरण के चक्र को दूर करने वाले, हे विश्वरूप, हे विश्वात्मन्, हे त्रिभुवन के समस्त गुणों से परिपूर्ण, हे विश्वबन्धो, हे करुणामय, हे दीनबन्धो! हे जगदीश्वर शिव! संसार के गहन दु:खों से मेरी रक्षा कीजिए।
Lord of the Universe! Refuge of the whole world! O Thou of infinite forms!Soul of the Universe! O Thou in whom repose the infinite virtues of the world! O Thou adored by all! Compassionate One! O Friend of the poor!Rescue me, helpless as I am, from the trackless forest of this miserable world.
गौरीविलासभवनाय महेश्वराय
पञ्चाननाय शरणागतकल्पकाय ।
शर्वाय सर्वजगतामधिपाय तस्मै
दारिद्र्यदुःखदहनाय नमः शिवाय ॥ ९॥
भगवती पार्वती के विलास के आधार महेश्वर के लिए, पंचानन के लिए, शरणागतों के रक्षक के लिए, शर्व–शम्भु के लिए, सम्पूर्ण जगत्पति के लिए एवं दारिद्रय तथा दु:ख को भस्म करने वाले भगवान शिव के लिए मेरा नमस्कार है।
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ शिवनामावल्यष्टकं सम्पूर्णम् ॥"
আরও দু-একটি স্তবের পর মহিমাচরণ শঙ্করাচার্যের স্তব বলিতেছেন, তাহাতে সংসারকূপের, সংসারগহনের কথা আছে। মহিমাচরণ সংসারী ভক্ত।
হে চনদ্রচূড় মদনান্তক শূলপাণে, স্থাণো গিরিশ গিরিজেশ মহেশ শম্ভো।
ভূতেশ ভীতভয়সূদনং মামনাথং, সংসারদুঃখগহনাজ্জগদীশ রক্ষ ৷৷
হে পার্বতী-হৃদয়বল্লভ চন্দ্রমৌলে, ভূতাধিপ প্রমথনাথ গিরিশজাপ।
হে বামদেব ভব রুদ্র পিনাকপাণে, সংসারদুঃখগহনাজ্জগদীশ রক্ষ ৷৷ . . . . ইত্যাদি
Mahima recited a few more hymns and at last one to Siva, by Sankaracharya, that compared the world to a deep well and a wilderness. Mahima was a householder. The hymn ran thus:
" O Great God! O Thou Auspicious One, with the moon shining in Thy crest! Slayer of Madana! (The god of love.) Wielder of the trident! Unmoving One! Lord of the Himalayas! O Consort of Durga, Lord of all creatures! Thou who scatterest the distress of the fearful! Rescue me, helpless as I am, from the trackless forest of this miserable world.
O Beloved of Parvati's heart! O Thou moon-crested Deity!Master of every being! Lord of hosts! O Thou, the Lord of Parvati!O Vamadeva, Self-existent One! O Rudra, Wielder of the bow! Rescue me, helpless as I am, from the trackless forest of this miserable world...... " .
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
*गृहस्थों के प्रति अभयदान*
卐🙏काँटों के जंगल को चमड़े से मत ढंको, जूते पहन लो पार हो जाओ !卐🙏
[अँखमुँदा खेल में जो 'बूढ़ी दादी' को छू लेगा अर्थात
( वेदान्त नेता, जीवनमुक्त शिक्षक प्रशिक्षण परमरा में) आध्यात्मिक ज्ञान
(अद्वैत ज्ञान) प्राप्त कर लेगा वह भयमुक्त हो जायेगा !]
श्रीरामकृष्ण (महिमा से) -श्रीरामकृष्ण (महिमा से) - संसार कूप है, संसार गहन है यह सब क्यों कहते हो ? पहले-पहल इस तरह कहा जाता है । उन्हें पकड़ने पर फिर क्या भय है ? तब यह संसार मौज की कुटिया हो जाता है । मैं खाता-पीता हूँ और आनन्द करता हूँ ।...’
एई संसार मजार कूटि।
आमि खाई दाई आर मजा लूटि।
जनक राजा महातेजा तार किसे छिलो त्रुटि।
से जे येदिक-ओदिक दूदिक रेखे खेयेछिलो दूधेर बाटि।
[जनक राजा महातेजा ^की विस्तृत व्याख्या के लिए ब्लॉग तारीख : शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018/भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण-2 देखें। ]
শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — সংসারকূপ, সংসারগহন, কেন বল? ও প্রথম প্রথম বলতে হয়। তাঁকে ধরলে আর ভয় কি? তখন —
এই সংসার মজার কুটি।
আমি খাই দাই আর মজা লুটি।
জনক রাজা মহাতেজা তার কিসে ছিল ত্রুটি!
সে যে এদিক-ওদিক দুদিক রেখে ফেয়েছিল দুধের বাটি!
MASTER (to Mahima): "Why do you call the world a deep well or a track-less forest? An aspirant may think so in the beginning; but how can he be frightened by the world if he holds fast to God? Then he finds that —
This very world is a mansion of mirth; Here I can eat, here drink and make merry.
"भय क्या है ? उन्हें पकड़ो । यदि संसार काँटों का जंगल है, तो क्या हुआ ? जूते पहन लो और काँटों को पार कर जाओ ।
“কি ভয়? তাঁকে ধর। কাঁটাবন হলেই বা। জুতো পায়ে দিয়ে কাঁটাবনে চলে যাও।
"Why should you be frightened? Hold fast to God. What if the world is like a forest of thorns? Put on shoes and walk on the thorns.
भय क्या है ? जो पाला छू लेता है, क्या वह भी कभी चोर हो सकता है ?
[ टिप्पणी : भय क्या है ? जो लुका -छिपी (hide-and-seek) के खेल में बूढ़ी दादी को (The Leader, known as the "granny" अर्थात 'नेता' या जीवनमुक्त शिक्षक CINC-नवनीदा को) छू लेता है, क्या वह भी कभी चोर हो सकता है ?]
কিসের ভয়? যে বুড়ি ছোঁয় সে কি আর চোর হয়?
Whom should you fear? You won't have to play again the part of the 'thief in the game of hide-and-seek, once you touch the 'granny'.
[^The allusion is to the Indian game of hide-and-seek, in which the leader, known as the "granny", bandages the eyes of the players and hides herself. The players are supposed to find her. If any player can touch her, the bandage is removed from his eyes and he is released from the game.]
“राजा जनक दो तलवारें चलाते थे । एक ज्ञान की और दूसरी कर्म की । पक्के खिलाड़ी को किसी का डर नहीं रहता ।"
[ टिप्पणी : 'पक्के खिलाड़ी को भय नहीं होता ' ..... जनक राजा -अर्थात - माँ जगदम्बा का भक्त या वीर (हीरो) हुए बिना कोई व्यक्ति ' भगवान तथा संसार' दोनों ओर ध्यान नहीं रख सकता। जनक राजा अपने गुरु अष्टावक्र की कृपा से साधन-भजन (मनःसंयोग और विवेक-प्रयोग) में सिद्ध होकर संसार में रहे थे। राजर्षि (राजा +ऋषि) जनक एक ओर जहाँ 'ब्रह्मतेज' या आध्यात्मिक-ज्ञान शक्ति से सम्पन्न थे , तो दूसरी ओर क्षात्रवीर्य (अर्थात ज्ञान को आचरण में उतारने की क्षमता) से भी सम्पन्न थे । उन्हें किस बात की कमी थी ! वे एक साथ 'ज्ञान' और 'कर्म' की दो तलवारें घुमाने में समर्थ थे। उन्होंने दोनों बातों को (क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज को) सम्भालते हुए, दूध से भरे कटोरे से बिना एक बूँद छलकाये दूध पिया था। "अर्थात अवतार वरिष्ठ [C-IN-C, पैगम्बर या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता] को पहचान कर उनकी कृपा से आध्यात्मिक ज्ञान या अद्वैत ज्ञान प्राप्त कर लेने पर ,यह संसार आनन्द का भवन (मौज की कुटिया) हो जाता है । मैं यहाँ खाता-पीता हूँ और आनन्द करता हूँ ।]
“জনক রাজা দুখানা তলোয়ার ঘোরাত। একখানা জ্ঞানের, একখানা কর্মের। পাকা খেলোয়াড়ের কিছু ভয় নাই।”
"King Janaka used to fence with two swords — the one of Knowledge and the other of action. Nothing can frighten an expert player.
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
卐🙏प्रेम भक्ति - सारवस्तु, और सब - सारहीन।卐🙏
প্রেম ভক্তি — বস্তু, আর সব — অবস্তু।
इसी तरह की ईश्वरी बातें हो रही हैं । श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी चारपाई पर बैठे हुए हैं । चारपाई की बगल में मास्टर बैठे हैं ।
এইরূপ ঈশ্বরীয় কথা চলিতেছে। ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিয়া আছেন। খাটের পাশে মাস্টার বসিয়া আছেন।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - उसने जैसा कहा, उसी ने उसे खींच रखा है ।
[उसने (महिमा ने) अभी जिस ब्रह्मज्ञान विषयक स्तव का पाठ किया था , मेरा मन उसी की तरफ खिंचा हुआ है।]
ঠাকুর (মাস্টারকে) — ও যা বললে, তাইতে টেনে রেখেছে!
(To M.) "My mind is still drawn to what he just recited."
श्रीरामकृष्ण महिमाचरण की बातें कह रहे हैं । नवाई चैतन्य तथा अन्य भक्त फिर गाने लगे । अब श्रीरामकृष्ण उनमें मिल गये और भावमग्न होकर संकीर्तन की मण्डली में नृत्य करने लगे । कीर्तन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "यही इतना काम हुआ और सब मिथ्या था । प्रेम और भक्ति, यही वस्तु है और सब अवस्तु ।"
ঠাকুর মহিমাচরণের কথা বলিতেছেন ও তাঁহার কথিত ব্রহ্মজ্ঞান বিষয়ক শ্লোকের কথা। নবাই চৈতন্য ও অন্যান্য ভক্তেরা আবার গাইতেছেন। এবার ঠাকুর যোগদান করিলেন, আর ভাবে মগ্ন হইয়া সংকীর্তন মধ্যে নৃত্য করিতে লাগিলেন।কীর্তনান্তে ঠাকুর বলিতেছেন, “এই কাজ হল, আর সব মিথ্যা। প্রেম ভক্তি — বস্তু, আর সব — অবস্তু।”
Sri Ramakrishna referred to the hymns chanted by Mahima.Nabai Chaitanya and the other devotees began to sing. They were joined by the Master, who danced, drunk with divine love. Afterwards he said: "This is the one thing needful, the chanting of God's name. All else is unreal. Love and devotion alone are real, and other things are of no con- sequence."
(४)
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
*गुह्य बातें*
दिन का पिछला पहर हो गया । श्रीरामकृष्ण पंचवटी गये हुए हैं । मास्टर से विनोद की बातें पूछते हैं । विनोद मास्टर के स्कूल में पढ़ते हैं । ईश्वर का चिन्तन करते हुए कभी-कभी विनोद को भावावेश हो जाता है । इसीलिए श्रीरामकृष्ण उन्हें प्यार करते हैं ।
বৈকাল হইয়াছে। ঠাকুর পঞ্চবটীতে গিয়াছেন। মাস্টারকে বিনোদের কথা জিজ্ঞাসা করিতেছেন। বিনোদ মাস্টারের স্কুলে পড়িতেন। বিনোদের ঈশ্বরচিন্তা করে মাঝে মাঝে ভাবাবস্থা হয়। তাই ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহাকে ভালবাসেন।
Later Sri Ramakrishna went out in the direction of the Panchavati. He asked M. about Binode, a student in M.'s school, who now and then experienced ecstasy while thinking of God. The Master loved him dearly.
[(1 मार्च, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-108]
卐🙏अवतार वरिष्ठ का वजन : षट् भुजाओं में श्रीकृष्ण, श्रीराम व स्वयं चैतन्य卐🙏
अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत करते हुए कमरे की ओर लौट रहे हैं । बकुलतल्ले के घाट के पास आकर उन्होंने कहा, “अच्छा, यह जो कोई कोई (मुझे) अवतार कहते हैं, इस पर तुम्हारा क्या विचार है ?"
এইবার ঠাকুর মাস্টারের সহিত কথা কহিতে কহিতে ঘরে ফিরিতেছেন। বকুলতলার ঘাটের কাছে আসিয়া বলিলেন — “আচ্ছা, এই যে কেউ কেউ অবতার বলছে, তোমার কি বোধ হয়?”
As he was returning to his room with M., he asked: "Well, some speak of me as an Incarnation of God. What do you think about it?"
बातचीत करते हुए श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आ गये । चट्टी उतारकर उसी छोटे तखत पर बैठ गये । तखत के पूर्व की ओर एक पाँवपोश रखा हुआ है । मास्टर उसी पर बैठे हुए बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने वही बात फिर पूछी । दूसरे भक्त कुछ दूर बैठे हुए हैं । ये सब बातें उनकी समझ में नहीं आयीं ।
কথা কহিতে কহিতে ঘরে আসিয়া পড়িলেন। চটিজুতা খুলিয়া ছোট খাটটিতে বসিলেন। খাটের পূর্বদিকের পাশে একখানি পাপোশ আছে। মাস্টার তাহার উপর বসিয়া কথা কহিতেছেন। ঠাকুর ওই কথা আবার জিজ্ঞাসা করিতেছেন। অন্যান্য ভক্তেরা একটু দূরে বসিয়া আছেন। তাঁহারা এ-সকল কথা কিছু বুঝিতে পারিতেছেন না।
The Master came back to his room and sat on the small couch. He repeated the question to M. The other devotees were seated at a distance and could not follow the conversation.
श्रीरामकृष्ण - तुम क्या कहते हो ?
শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি কি বল?
MASTER: "What do you say?"
मास्टर - जी, मुझे भी यही जान पड़ता है, जैसे चैतन्यदेव थे ।
মাস্টার — আজ্ঞা, আমারও তাই মনে হয়। যেমন চৈতন্যদেব ছিলেন।
M: "I think so too. You are like Sri Chaitanya."
श्रीरामकृष्ण - पूर्ण या अंश या कला ? - तौल कहो न ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — পূর্ণ, না অংশ, না কলা? — ওজন বল না?
MASTER: "Is it a full manifestation of God, or a part? Tell me how much."
मास्टर - जी, तौल मेरी समझ में नहीं आती । इतना कह सकता हूँ, भगवान् की शक्ति अवतीर्ण हुई है । वे तो आप में हैं ही ।
মাস্টার — আজ্ঞা, ওজন বুঝতে পারছি না। তবে তাঁর শক্তি অবতীর্ণ হয়েছেন। তিনি তো আছেনই।
M: "I don't know, sir. But it is true that there is in you an Incarnation of the Divine Power. There is no doubt that God alone dwells in you."
श्रीरामकृष्ण - हाँ, चैतन्यदेव ने शक्ति के लिए प्रार्थना की थी ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, চৈতন্যদেব শক্তি চেয়েছিলেন।
MASTER: "That is true. Chaitanya also wanted to realize Sakti, the Divine Power."
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहे । फिर कहा, "परन्तु वे षट्भुज हुए थे ।"
ঠাকুর কিয়ৎক্ষণ চুপ করিয়া রহিলেন। পরেই বলিতেছেন — কিন্তু ষড়ভুজ?
मास्टर सोच रहे हैं, चैतन्यदेव को षड्भुज रूप में उनके भक्तों ने देखा था जरूर, परन्तु श्रीरामकृष्ण ने किस उद्देश्य से इसका उल्लेख किया ?
[वृन्दावन (मथुरा) में एक चैतन्य महाप्रभु की मूर्ति में ही श्रीराम, श्रीकृष्ण का दर्शन मंदिर है। चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों को समय-समय अनेक रूपों के दर्शन कराये थे जिसमें से एक षट्भुज अंग दर्शन भी कराये थे। जिसके दर्शन करने से षट् भुजाओं में श्रीकृष्ण, श्रीराम व स्वयं चैतन्य ने अपने आपको प्रस्तुत कर एक ही रूप में तीनों दर्शन करा दिये थे। इस रूप के दर्शन वृन्दावन तथा मथुरा के मंदिरों में होते हैं। ]
মাস্টার ভাবিতেছেন, চৈতন্যদেব ষড্ভুজ হয়েছিলেন — ভক্তেরা দেখিয়াছিলেন। ঠাকুর একথা উল্লখ কেন করিলেন?
भक्तगण पास ही कमरे में बैठे हुए हैं । नरेन्द्र तीखी बहस में उलझे हुए हैं । राम (दत्त) बीमारी से उठकर ही आये हैं, वे भी नरेन्द्र के साथ घोर तर्क कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण देख रहे हैं ।
ভক্তেরা অদূরে ঘরের ভিতর বসিয়া আছেন। নরেন্দ্র বিচার করিতেছেন। রাম (দত্ত) সবে অসুখ থেকে সেরে এসেছেন, তিনিও নরেন্দ্রের সঙ্গে ঘোরতর তর্ক করছেন। ঠাকুর দেখিতেছেন।
Narendra was engaged in a heated discussion. Ram, who had recently recovered from an illness, joined him.
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मुझे ये सब विचार अच्छे नहीं लगते । (राम से) बन्द करो - एक तो तुम बीमार थे । अच्छा, धीरे-धीरे (मास्टर से) मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता । मैं रोता था और कहता था, 'माँ, एक कहता है - ऐसा नहीं, ऐसा है; दूसरा कुछ और बतलाता है । सत्य क्या है, तू मुझे बतला दे ।'
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আমার এ-সব বিচার ভাল লাগে না। (রামের প্রতি) — থামো! তোমার একে অসুখ! — আচ্ছা, আস্তে আস্তে। (মাস্টারের প্রতি) — আমার এ-সব ভাল লাগে না। আমি কাঁদতুম, আর বলতুম, “মা, এ বলছে এই এই; ও বলছে আর-একরকম। কোন্টা সত্য, তুই আমায় বলে দে!”
MASTER (to M.): "I don't like such discussions. (To Ram) Will you stop that? You haven't been well. All right, go on softly; don't get so excited. (To M.) I don't like these discussions. I used to weep and pray to the Divine Mother saying: 'O Mother, one man says it is this, while another says it is that. Do Thou tell me, O Mother, what is the truth.'"
========
'क्या भारत [महामण्डल ] मर जाएगा? तब तो संसार से सारी आध्यात्मिकता (अद्वैत भाव) का समूल नाश हो जाएगा, सारे सदाचारपूर्ण आदर्श जीवन का विनाश हो जाएगा, धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्ट हो जाएगी, सारी भावुकता का भी लोप हो जाएगा। और, उसके स्थान में कामरूपी देव और विलासितारूपी देवी राज करेगी। धन उनका पुरोहित होगा। प्रताड़ना, पाशविक बल और प्रतिद्वंद्विता, ये ही उनकी पूजा-पध्दति होगी और मानवता उनकी बलि सामग्री हो जाएगी।' (विवेकानंद साहित्य भाग 9, पृष्ठ 377)। स्वामी विवेकानंद के इस विचार-सूत्र से समझ में आता है कि समग्र मानवता के लिए भारत याने भारतीयता का जीवित-जागृत रहना कितना जरूरी है। भारतीयता के कारण ही 'सदाचारपूर्ण आदर्श', 'मधुर सहानुभूति', 'सारी भावुकता' 'साम्प्रदायिक सहानुभूति' वासना, धनलोलुपता, प्रताड़ना, प्रतिद्वंद्विता आदि पाशविक बलों का ही बोलबाला हो जाएगा जो मानवता को मर-मर कर जीने के लिए मजबूर कर देंगे। पर स्वामीजी ने अपनी भविष्य दृष्टि से देख लिया था कि 'ऐसी दुर्घटना कभी हो नहीं सकती'। उन्होंने दृढ़ विश्वास प्रकट किया था कि 'भारत की उन्नति अवश्य होगी और साधारण तथा गरीब लोग सुखी होंगे।'
स्वामीजी ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था- 'भारत का पुनरुत्थान होगा, पर वह जड़ की शक्ति से नहीं, वरन् आत्मा की शक्ति के द्वारा। वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं, वरन् शांति और प्रेम की ध्वजा से सन्यासियों के वेश से धन की शक्ति से नहीं, बल्कि भिक्षापात्र की शक्ति से सम्पादित होगा।' (वही पुस्तक, भाग 9 पृ. 380)। 'सुदीर्घ रजनी अब समाप्त होती हुई जान पड़ती है। महानिद्रा में निमग्न शव मानों जागृत हो रहा है... जड़ता धीरे-धीरे दूर हो रही है। अब कोई उसे रोक नहीं सकता। अब वह फिर सो भी नहीं सकती। कोई बाह्य शक्ति इस समय इसे दबा नहीं सकती क्योंकि यह असाधारण शक्ति का देश अब जागकर खड़ा हो रहा है।' (वही, भाग 5, पृ. 42, 43)। क्या वर्तमान भारत की दिशा और दशा स्वामी जी की भविष्यवाणी को सही साबित नहीं कर रही है? सारी खामियों और खासियतों के बावजूद विश्व बिरादरी में भारत को मिल रही अहमियत भारत के क्रमश: जागरूक व सशक्त होने का प्रमाण नहीं है? अपनी उस भविष्यवाणी की परिपूर्णता के लिए स्वामी जी ने साधन संकेत देते हुए आह्वान किया था- 'भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उावल करना है तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गई, जिसमें कहा गया है, 'तुम सब लोग एकमन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ।... एक मन हो जाना ही समाज संगठन का रहस्य है।' (वही, पृ. 192)। यह भी सनातन सत्य है कि 'संघे शक्ति कलि-युगे।' हर प्रकार की सफलता प्राप्ति में संगठन-शक्ति मुख्यधार है।
उस संगठन-शक्ति का स्वरूप कैसा होगा? उसे भी स्वामी जी ने स्पष्ट देख लिया था। भारत में हिन्दू-मुस्लिम दो बड़े समुदायों का साम्प्रदायिक संघर्ष सदियों से समय-समय पर होता रहा है। इससे राष्ट्रीय एकात्मता बाधित होती रही है। परंतु गत कुछ वर्षों से संघर्ष की कमी देखी जा रही है। विघ्न संतोषियों के लाख विषवमनों के बावजूद दोनों समाजों की दूरियां काफी घटी हैं, सद्भावनाएं बढ़ी हैं।
इस दशा व दिशा को पहले ही देख लिया था स्वामी जी ने- 'मैं अपने मानस चक्षु से भावी भारत की उस पूर्णावस्था को देखता हूं, जिसका तेजस्वी और अजेय रूप में वेदान्ती बुध्दि और इस्लामी शरीर (आमिर खान की लालसिंह चड्ढा वाली बुद्धि नहीं) के साथ उत्थान होगा... हमारी मातृभूमि के लिए इन दोनों विशाल मतों का सामंजस्य-हिन्दुत्व और इस्लाम-वेदान्ती बुध्दि और इस्लामी शरीर-यही एक आशा है।' (वही भाग 6, पृ. 405, 06)। ऐसे साम्प्रदायिक सामंजस्यता व सामाजिक समरसता से एक नवीन भारत उठ खड़ा होगा। जिसका स्वरूप अखिल विश्व में अद्भुत, अद्वितीय, अतुलनीय और अदमनीय होगा।
इसीलिए 'भावी भारत' का सपना देखने वाले देशभक्तों सम्पूर्ण समर्पण हेतु आह्वान करते हुए कहा था- 'एक नवीन भारत निकल पड़े। निकले-निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटिया भेदकर, मछुआ, माली, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से! निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से!... अतीत के कंकाल-समूह यही है तुम्हारे सामने तुम्हारी उत्तराधिकारी भावी भारत! वे तुम्हारी रत्न पेटिकाएं, तुम्हारी मणि की अंगुठियां-फेंक दो इनके बीच, जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो, और तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ, सिर्फ-कान खड़े रखो। तुम ज्यों ही विलीन होगे, उसी वक्त सुनोगे:-कोटिजिमूतस्मंदिनी, त्रैलोक्यकंपनकारिणी भावी। भारत की उद्बोधन ध्वनि 'वाह गुरु की फतह'। (वही पुस्तक, भाग 8, पृष्ठ 167-68)।'
✦शाही संत चढे गिरी गोविन्द, पृथ्वी हेतु पुकारै ।
आदि अंकूर गुरु मुख गरजै, सुन सुन शब्द कटे अपराध ॥
परम पुरुष संतों (नेताओं, पैगम्बरों, जीवनमुक्त शिक्षकों) को नरों का उद्धार करने के लिये, परब्रह्म ने ही बुलाया है। किंतु फिर भी जड़ प्राणी तो उनकी वाणी सुनकर भी मोह निद्रा में ही सो रहे हैं और जगाने वाले जिज्ञासु जन जाग गये हैं ।
✦ प्रभु की आज्ञानुसार चलने वाले संत बोलते हैं तब उनके शब्दों को बारबार सुनने से पाप कट कर , गुरुमुख अर्थात गुरु की आज्ञा में चलने वाले साधकों के आदि आत्म स्वरूप बीज का ज्ञान रूप अंकुर फूट निकलता है ।
✦ऐसा सदगुरु शोधर कीजे, जाकी संगति युग युग जीजे ॥ ✦ विचार पूर्वक खोज करके ऐसा सदगुरु बनाओ, जिसकी संगति से ब्रह्म रूप होकर प्रति युग में जीवित रह सको।
-*श्री रज्जबवाणी
वैद्यराज नमस्तुभ्यं यमराजसहोदर ।
यमस्तु हरति प्राणान् वैद्यो प्राणान् धनानि च ॥
हे वैद्यराज, यम के भाई, मैं आपको प्रणाम करता हूँ .यम तो सिर्फ प्राण हर लेते है पर आप धन और प्राण दोनों हर लेते हो !!
वृंदावन का स्वरूप क्या है? एक तो यहां गिरिराज है, दूसरी बहती हुई नदी है, और तीसरा निर्मल सरोवर है। निर्मल सरोवर भक्तों के हृदय हैं, नदी भगवान की ओर प्रवाहित होने वाली वृत्ति है, और गिरिराज पर्वत दृढ़ निष्ठा है । वृंदावन ध्येय भूमि के कारण, चिन्मय है, भगवत रस की अभिव्यक्ति है। सत् की प्रधानता से आकृतियां है। चित्त की प्रधानता से, वृत्तियां है और आनंद की प्रधानता से सुख का उल्लास होता है।वृतियों में सुख की झलक ही, प्रेम संज्ञा धारण करती है । वृंदावन में भगवत प्रेम कण -कण में प्रकट हो रहा है। जीव जब निस्साधन एवं कुसाधन हो जाता है,तब स्वयं भगवान अपनी ओर से लीला प्रकट करके,जीवो को आलिंगन देते हैं और अपने में मिला लेते हैं।अस्तु वृंदावन भगवान की अनुग्रह एवं भक्तों के प्रेम का मिलन स्थान है।
शुक-मनमोहक श्लोक:
( मंदाक्रांता -छन्द )
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
बिभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधयापूरयन् गोपवृन्दै-
र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः ॥ ५ ॥
(श्रीमद् भागवत 10/21/5)
"परमानन्दकन्द भगवान श्रीकृष्णचन्द्र नटवर-वपु को धारण किये, बर्हमय आपीड को धारण किये, वैजन्तीमाला को पहने, कानों में कर्णिकार धारण किए, पीताम्बरधर पहने, अधर-सुधा से वेणु को परिपूरित करते हुए, गोपवृन्दों के संग विलसित होते हुए श्रीमद् वृन्दावन धाम में पधारे।"
श्लोक का भाव: श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं, उन्होंने मस्तक पर मोर-पंख धारण किया हुआ है, कानों पर पीले-पीले कनेर के पुष्प, शरीर पर सुन्दर मनोहारी पीताम्बर शोभायमान हो रहा है तथा गले में सुन्दर सुगन्धित पुष्पों की वैजयन्तीमाला धारण किये हैं। रंगमंच पर अभिनय करनेवाले नटों से भी सुन्दर और मोहक वेष धारण किये हैं श्यामसुन्दर I बांसुरी को अपने अधरों पर रख कर उसमें अधरामृत फ़ूंक रहे हैं ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे लोकपावन करनेवाली कीर्ति का गायन करते हुए चल रहे हैं, और वृन्दावन आज श्यामसुन्दर के चरणों के कारण वैकुण्ठ से भी अधिक सुन्दर और पावन हो गया है।श्रीमद्भागवत में नारद जी द्वारा शुकदेव की समाधि तोड़ने के लिये चार श्लोकों में श्रीभगवान् के रूप का वर्णन। शुकदेव जी महाराज ने श्रीमद् भागवत शास्त्र का उपदेश, राजा परीक्षित के लिए किया है ।
[https://books.google.co.in/books=Thereupon+Narada+sang+four+couplets+on+the+beauty+of+Hari,]
https://durgashankerpandey.blogspot.com/2020/02/blog-post.html]
वैष्णव संप्रदाय के बारे में IAS लोगों को seculer शिक्षा इस प्रकार दी जाती है :भागवत धर्म को वैष्णव धर्म के रूप में भी जाना जाता है। इसके प्रवर्तक वृष्णि कबीले के कृष्ण को माना जाता है, जो मथुरा के राजा थे। कृष्ण का प्रथम उल्लेख छांदोग्य उपनिषद् में देवकी के सुपुत्र एवं अंगिरस नामक ऋषि के शिष्य के रूप में किया गया है। कृष्ण के अनुयायियों द्वारा इन्हें भगवत (पूज्य) कहा जाता था, इसीलिए इनके द्वारा स्थापित धर्म को भागवत धर्म कहा गया। महाभारत काल में जब कृष्ण का उल्लेख विष्णु रूप में किया जाने लगा तो भागवत धर्म का नाम बदलकर वैष्णव धर्म हो गया। इसे सात्वत् धर्म भी कहा गया है। सात्वत अर्थात् विष्णु से संबंधित । वैष्णव । विष्णु का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है। तद्नुसार इन्होंने तीन पगों से समस्त लोकों को नाप लिया। ऋग्वेद में विष्णु आकाश के देवता के रूप में जाने जाते थे। भागवत धर्म मुख्यरूप से पाणिनि के काल में अत्यधिक प्रचलित हुआ। मेगास्थनीज ने इण्डिका में लिखा है कि शूरसेन (मथुरा) के लोग हेराक्लीज (कृष्ण) के उपासक थे।दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म-दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म के सन्त अलवार कहलाएं। इनकी संख्या 12 बतलायी गई है।
शैव धर्म: यह भारत का प्राचीनतम धर्म है। इसकी प्राचीनता आद्य इतिहास (सिन्धु सभ्यता) तक जाती है, क्योंकि मार्शल ने मोहनजोदडो से प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित मूर्ति को शिव का प्रारम्भिक रूप सिद्ध किया है। ऋग्वेद में शिव का नाम रुद्र मिलता है। वहाँ वे अन्तरिक्ष के देवता थे।उत्तर वैदिक काल में (तैत्तिरीय संहिता) इनका नाम शिव प्राप्त होता है। शिव का लिंग रूप में भी पूजा का प्रमाण मिलता है। लिंग पूजा का प्रथम उल्लेख मत्स्य पुराण में हे। शिव की प्राचीनतम मूर्ति पहली शताब्दी ई- में मद्रास के निकट रेनीगुंटा में प्रसिद्ध गुडिमल्लम लिंग के रूप में प्राप्त हुई है।शैव सिद्धान्त :शैव धर्म के अनुसार सृष्टि अथवा जगत के तीन रत्न है- शिव (यह कर्ता है),शक्ति (यह कारण है)बिन्दु (यह उपादन है)| शाक्त धर्म :‘शक्ति’ को ईष्ट देवी मानकर पूजा करने वालों का सम्प्रदाय शाक्त कहा जाता है। शक्ति का प्रारम्भिक रूप सिन्धुकाल में मातृदेवी की पूजा में दिखाई पड़ता है।सम्प्रति शाक्त उपासना के तीन प्रमुख केन्द्र हैं- कश्मीर, काँची तथा असम स्थित कामाख्या। इसमें कामाख्या कौल मत का प्रसिद्ध केन्द्र है। शाक्तों के दो वर्ग हैं- कौलमार्गी और समयाचारी।1. कौलमार्गीः कौलमार्गी पंचमकार की उपासना करते हैं, जिनमें मद्य, माँस, मत्स्य, मुद्रा एवं मैथुन शामिल है। इनके नाम ‘म’ से प्रारम्भ होते हैं।2. समयाचारीः ये सामान्य रूप से देवी की पूजा करते हैं। शाक्त सम्प्रदाय में देवी के नौ योनियों का वृत्त बनाकर उसके मध्य में एक योनि का चित्र खींचकर चक्र बनाया जाता है। इसे ‘श्री चक्र’ कहते हैं। शाक्त धर्म के सिद्धान्त त्रिपुरा रहस्य मलिनी विजय, महानिर्वान, डाकार्णव, कुलार्णव, आदि तंत्र ग्रंथों में उल्लिखित मिलते हैं।3. पंचायतन पूजाः शंकराचार्य ने पंचायतन पूजा का उल्लेख किया है। इसमें शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश की पूजा का विधान है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें