मेरे बारे में

शुक्रवार, 22 जुलाई 2022

$$$卐🙏 परिच्छेद- 106 [ (22 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]🔆🙏कीर्तनानन्द में भी, श्रीरामकृष्ण का नरेन्द्र के प्रति विशेष प्रेम🔆🙏 🙏'माँ', समाधि मन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ?🙏🔆🙏"नदे टलमल करे , गौर प्रेमेर हिल्लोले रे।" 🔆🙏🔆🙏श्री रामकृष्ण अपने जन्मोत्स्व के दिन भक्तों के साथ वार्तालाप करते हुए 🔆🙏卐🙏नरेन्द्र आत्मा का स्वरुप है, आकारहीन सिंह -गर्जन है, अखंड के घर का है, लेकिन जगत में आकर उसे भी शक्ति (अवतार) को मानना पड़ेगा !卐🙏卐🙏`वेदान्तडिण्डिमः ~"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या !" 卐🙏 🔆🙏नरेंद्र के गीत -'निबिड़ आंधारे माँ तोर चमके अरूप-राशि'और श्री रामकृष्ण🔆🙏 🔆🙏नरेन्द्र को शिक्षा - "भाई, द्वैत से परे रहो "🔆🙏卐🙏गृहस्थ तथा दानधर्म । मनोयोग तथा कर्मयोग卐🙏卐🙏गृहस्थ को कामिनी- कांचन में आसक्ति का त्याग करना चाहिए卐🙏 卐🙏तंत्र में महाकाली का ध्यान - गहरा अर्थ 卐🙏 卐🙏 श्री रामकृष्ण क्या अवतार हैं - परमहंस अवस्था卐🙏卐🙏अवतारी महापुरुष की कृपा से -मैं क्या था, क्या हुआ हूँ !卐🙏卐वेदान्तडिण्डिमः- डरो मत ! 🙏卐🙏 राम नाम का रहस्य 卐🙏

 परिच्छेद १०६.

(१)

 [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

🔆🙏कीर्तनानन्द में भी, श्रीरामकृष्ण का नरेन्द्र के प्रति विशेष प्रेम🔆🙏  

      श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में उत्तर-पूर्ववाले लम्बे बरामदे में गोपी-गोष्ठ तथा सुबल-मिलन-कीर्तन सुन रहे हैं । नरोत्तम कीर्तन कर रहे हैं । आज फाल्गुन शुक्लाष्टमी है, रविवार 22 फरवरी, 1885 ई. । भक्तगण उनका जन्म-महोत्सव मना रहे हैं । गत सोमवार, फाल्गुन शुक्ल द्वितीया के दिन उनकी जन्मतिथि थी । नरेन्द्र, राखाल, बाबूराम, भवनाथ, सुरेन्द्र, गिरीन्द्र, विनोद, हाजरा, रामलाल, राम, नित्यगोपाल, मणि मल्लिक, गिरीश, सींती के महेन्द्र वैद्य आदि अनेक भक्तों का समागम हुआ है । कीर्तन प्रातः काल से ही चल रहा है । अब सुबह आठ बजे का समय होगा । मास्टर ने आकर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने पास बैठने का इशारा किया ।

कीर्तन सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट हो गये हैं । श्रीकृष्ण को गौएँ चराने के लिए आने में विलम्ब हो रहा है । कोई ग्वाला कह रहा है, 'यशोदा माई आने नहीं दे रही हैं ।' बलराम (बलाई)  जिद करके कह रहे हैं, 'मैं सींग बजाकर कन्हैया को ले आऊँगा ।' बलराम (बलाई) का प्रेम अगाध है !

कीर्तनकार फिर गा रहे हैं । श्रीकृष्ण बंसरी बजा रहे हैं । गोपियाँ और गोप बालकगण बंसरी की ध्वनि सुन रहे हैं और उनमें अनेकानेक भाव उठ रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठकर कीर्तन सुन रहे हैं । एकाएक नरेन्द्र की ओर उनकी दृष्टि पड़ी । नरेन्द्र पास ही बैठे थे । श्रीरामकृष्ण खड़े होकर समाधिमग्न हो गये । नरेन्द्र के घुटने को एक पैर से छूकर खड़े हैं ।

श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ होकर फिर बैठे । नरेन्द्र सभा से उठकर चले गये । कीर्तन चल रहा है ।

श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम से धीरे धीरे कहा, 'कमरे में खीर है, जाकर नरेन्द्र को दे दो ।'

क्या श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के भीतर साक्षात् नारायण का दर्शन कर रहे हैं ?

कीर्तन के बाद श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आये हैं और नरेन्द्र को प्यार के साथ मिठाई खिला रहे हैं ।

गिरीश का विश्वास है कि ईश्वर श्रीरामकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए हैं ।

गिरीश - (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आपके सभी काम श्रीकृष्ण की तरह हैं । श्रीकृष्ण जैसे यशोदा के पास तरह तरह के ढोंग करते थे ।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, श्रीकृष्ण अवतार जो हैं । नरलीला में उसी प्रकार होता है । इधर गोवर्धन पहाड़ को धारण किया था, और उधर नन्द के पास दिखा रहे हैं कि पीढ़ा उठाने में भी कष्ट हो रहा है !

गिरीश – समझा । आपको अब समझ रहा हूँ ।

श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हैं । दिन के ग्यारह बजे का समय होगा । राम आदि भक्तगण श्रीरामकृष्ण को नवीन वस्त्र पहनायेंगे । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "नहीं, नहीं ।" एक अंग्रेजी पढ़े हुए व्यक्ति को दिखाकर कह रहे हैं, "वे क्या कहेंगे !" भक्तों के बहुत जिद करने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, “तुम लोग कह रहे हो, अच्छा लाओ, पहन लेता हूँ ।”

भक्तगण उसी कमरे में श्रीरामकृष्ण के भोजन आदि की तैयारी कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को जरा गाने के लिए कह रहे हैं । नरेन्द्र गा रहे हैं –

(भावार्थ) - "माँ, घने अन्धकार में तेरा रूप चमकता है । इसीलिए योगी पर्वत की गुफा में निवास करता हुआ ध्यान लगाता है । तुम्हारे अभय चरणकमलों में प्रेम की जो बिजली चमकती हैं, वही  तुम्हारे चिन्मय मुखमण्डल पर हास्य बन कर शोभायमान है । अनन्त अन्धकार की गोदी में, महानिर्वाण के हिल्लोल में चिर शान्ति का परिमल लगातार बहता जा रहा है । महाकाल का रूप धारण कर, अन्धकार का वस्त्र पहन, माँ, समाधिमन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ? तुम्हारे अभय चरण कमलों में प्रेम की बिजली चमकती है , तुम्हारे चिन्मय मुखमण्डल पर हास्य शोभायमान है। " 

नरेन्द्र ने ज्योंही गाया, 'माँ, समाधि मन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ? - उसी समय श्रीरामकृष्ण बाह्यज्ञान-शून्य होकर समाधिमग्न हो गये । बहुत देर बाद समाधि भंग होने पर भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को भोजन के लिए आसन पर बैठाया । अभी भी भाव का आवेश है । भात खा रहे हैं, परन्तु दोनों हाथ से भवनाथ से कह रहे हैं, "तू खिला दे !" भाव का आवेश अभी है, इसीलिए स्वयं खा नहीं पा रहे हैं । भवनाथ उन्हें खिला रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण ने बहुत कम भोजन किया । भोजन के बाद राम कह रहे हैं, "नित्यगोपाल आपकी जूठी थाली में खायेगा ।"

श्रीरामकृष्ण - मेरी जूठी थाली में ? क्यों ?

राम - क्यों क्या हुआ ? भला आपको जूठी थाली में क्यों न खाये ?

नित्यगोपाल को भावमग्न देखकर श्रीरामकृष्ण ने एक-दो कौर खिला दिये ।

अब कोन्नगर के भक्तगण नाव पर सवार होकर आये हैं । उन्होंने कीर्तन करते हुए श्रीरामकृष्ण के कमरे में प्रवेश किया । कीर्तन के बाद वे जलपान करने के लिए बाहर गये । नरोत्तम कीर्तनकार श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण नरोत्तम आदि से कह रहे हैं, "इनका मानो नाव चलानेवाला गाना !" गाना ऐसा होना चाहिए कि सभी नाचने लगें । इस प्रकार के गाने गाने चाहिए – "नदे टलमल करे , गौर प्रेमेर हिल्लोले रे।" 

(भावार्थ) - " ओ रे ! गौर-प्रेम की हिलोर से सारा नदिया शहर झूम रहा है ।’

(नरोत्तम के प्रति) - "उसके साथ यह कहना होता है –  

(भावार्थ) – “ओ रे ! 'हरिनाम कहते ही जिनके आँसू झरते हैं, वे दोनों भाई (गौरांग और नित्यानन्द ^ ) आये हैं । ओ रे ! जो मार खाकर प्रेम देना चाहते हैं, वे दो भाई आये हैं । ओ रे, जो स्वयं रोकर जगत् को रुलाते हैं, वे दो भाई आये है । ओ रे ! जो स्वयं मतवाले बनकर दुनिया को मतवाला बनाते हैं, वे दो भाई आये हैं। ओ रे! जो चण्डाल तक को गोदी में उठा लेते हैं, वे दो भाई आये हैं !!”

"फिर यह भी गाना चाहिए –

(भावार्थ) – “हे प्रभो, गौर निताई, तुम दोनों भाई परम दयालु हो । हे नाथ, यही सुनकर मैं आया हूँ, सुना है कि तुम चण्डाल तक को गोदी में उठा लेते हो, और गोदी में उठाकर उसे हरि नाम करने को कहते हो ।"

[ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

(२)

🔆🙏भक्तों के साथ वार्तालाप  🔆🙏

अब भक्तगण प्रसाद पा रहे हैं । चिउड़ा मिठाई आदि अनेक प्रकार के प्रसाद पाकर वे तृप्त हुए । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, "मुखर्जियों को नहीं कहा था । सुरेन्द्र से कहो, बाऊलों (गवैयों) को खिला दें ।"

श्री बिपिन सरकार आये हैं । भक्तों ने कहा, "इनका नाम बिपिन सरकार है ।" श्रीरामकृष्ण उठकर बैठे और विनीत भाव से बोले, "इन्हें आसन दो और पान दो ।" उनसे कह रहे हैं, "आपके साथ बात न कर सका, आज बड़ी भीड़ है ।"

गिरीन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम से कहा, "इन्हें एक आसन दो ।" नित्यगोपाल को जमीन पर बैठा देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "उसे भी एक आसन दो ।"

सींती के महेन्द्र वैद्य आये हैं । श्रीरामकृष्ण हँसते हुए राखाल को इशारा कर रहे हैं, "हाथ दिखा लो।"

रामलाल से कह रहे हैं, "गिरीश घोष के साथ दोस्ती कर, तो थिएटर देख सकेगा ।" (हँसी)

नरेन्द्र हाजरा महाशय से बरामदे में बहुत देर तक बातचीत कर रहे थे । नरेन्द्र के पिता के देहान्त के बाद घर में बड़ा ही कष्ट हो रहा है । अब नरेन्द्र कमरे के भीतर आकर बैठे ।

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र के प्रति) - तू क्या हाजरा के पास बैठा था ? तू विदेशी है, और वह विरही ! हाजरा को भी डेढ़ हजार रूपयों की आवश्यकता है । (हँसी)

"हाजरा कहता है, 'नरेन्द्र में सोलह आना सतोगुण आ गया है, परन्तु रजोगुण की जरा लाली है । मेरा विशुद्ध सत्व, सत्रह आना ।' (सभी की हँसी)

"मैं जब कहता है, "तुम केवल विचार करते हो, इसीलिए शुष्क हो, तो वह कहता है, 'मैं सूर्य की सुधा पीता हूँ, इसीलिए शुष्क हूँ ।'

"मैं जब शुद्धा भक्ति की बात कहता हूँ, जब कहता हूँ कि शुद्ध भक्त रुपया-पैसा, ऐश्वर्य कुछ भी नहीं चाहता ! तो वह कहता है, 'उनकी कृपा की बाढ़ आने पर नदी तो भर जायेगी ही, फिर गढ़े-नाले भी अपने आप ही भर जायेंगे । शुद्धा भक्ति भी होती है और षडैश्वर्य भी होते हैं । रुपये-पैसे भी होते हैं ।"

श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर नरेन्द्र आदि अनेक भक्त बैठे हैं, गिरीश भी आकर बैठे ।

श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - मैं नरेन्द्र को आत्मा स्वरूप मानता हूँ । और मैं उसका अनुगत हूँ। गिरीश - क्या कोई ऐसा है जिसके आप अनुगत नहीं भी हैं ?

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - उसका है मर्द का भाव (पुरुषभाव) और मेरा औरत-भाव (प्रकृतिभाव) । नरेन्द्र का ऊँचा घर, अखण्ड का घर है ।

गिरीश तम्बाकू पीने के लिए बाहर गये ।

नरेन्द्र (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - गिरीश घोष के साथ वार्तालाप हुआ, बहुत बड़े आदमी हैं । आपकी चर्चा हो रही थी ।

श्रीरामकृष्ण - क्या चर्चा ?

नरेन्द्र - आप लिखना-पढ़ना नहीं जानते हैं, हम सब पण्डित हैं, यही सब बातें हो रही थी । (हँसी)

मणि मल्लिक (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आप बिना पढ़े पण्डित हैं ।

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र आदि के प्रति ) - सच कहता हूँ, मुझे इस बात का जरा भी दुःख नहीं होता कि मैंने वेदान्त आदि शास्त्र नहीं पढ़े । मैं जानता हूँ, वेदान्त का सार है - 'ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है’ । फिर गीता का सार क्या है ? गीता का दस बार उच्चारण करने पर जो होता है, अर्थात् त्यागी, त्यागी !

"शास्त्र का सार श्रीगुरुमुख से जान लेना चाहिए । उसके बाद साधन-भजन । एक आदमी को किसी ने पत्र लिखा था । पत्र पढ़ा भी न गया था कि खो गया । तब सब मिलकर ढूँढ़ने लगे । जब पत्र मिला, पढ़कर देखा, लिखा था - 'पाँच सेर सन्देश और एक धोती भेज दो ।' पढ़कर उसने पत्र को फेंक दिया और पाँच सेर सन्देश और एक धोती का प्रबन्ध करने लगा । इसी प्रकार शास्त्रों का सार जान लेने पर फिर पुस्तकें पढ़ने की क्या आवश्यकता ? अब साधन-भजन ।"  

अब गिरीश कमरे में आये हैं ।

श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - हाँ जी, मेरी बात तुम लोग सब क्या कह रहे थे ? मैं खाता-पीता और मजे में रहता हूँ ।

गिरीश - आपकी बात और क्या कहूँगा आप क्या साधु हैं ?

श्रीरामकृष्ण - साधु वाधु नहीं । सच ही तो मुझ में साधु-बोध नहीं है ।

गिरीश - मजाक में भी आप से हार गया ।

श्रीरामकृष्ण - मैं लाल किनारी की धोती पहनकर जयगोपाल सेन के बगीचे में गया था । केशव सेन वहाँ पर था । केशव ने लाल किनारी की धोती देखकर कहा, 'आज तो खूब रंग दीख रहा है ! लाल किनारी की बड़ी बहार है !' मैंने कहा, 'केशव का मन भुलाना होगा, इसीलिए बहार लेकर आया हूँ ।"

अब फिर नरेन्द्र का संगीत होगा । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से तानपूरा उतार देने के लिए कहा । नरेन्द्र बहुत देर से तानपूरे को बाँध रहे हैं । श्रीरामकृष्ण तथा सभी लोग अधीर हो गये हैं । विनोद कह रहे हैं, "आज बाँधना होगा, गाना किसी दूसरे दिन होगा !” (सभी हँसते हैं ।)

श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं और कह रहे हैं, “ऐसी इच्छा हो रही है कि तानपूरे तोड़ डालूँ । क्या 'टंग टंग' - फिर 'ताना नाना तेरे नुम्' होगा ।"

भवनाथ - जात्रा संगीत के प्रारम्भ में ऐसी ही तंगी मालूम होती है ।

नरेन्द्र (बाँधते बाँधते) - न समझने से ही ऐसा होता है ।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - देखो, हम सभी को उड़ा दिया !

नरेन्द्र गाना गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे सुन रहे हैं । नित्यगोपाल आदि भक्तगण जमीन पर बैठे सुन रहे हैं।   

(भावार्थ) - (१) "ओ माँ, अन्तर्यामिनी, तुम मेरे हृदय में जाग रही हो, रात-दिन मुझे गोदी में लिये बैठी हो ।"

(२) "गाओ रे आनन्दमयी का नाम, ओ मेरे प्राणों को आराम देनेवाली एकतन्त्री ।”

(३) "माँ, घने अन्धकार में तेरा निराकार -रूप चमकता है ! अर्थात- " माँ , घने अँधकार में तेरा निराकार सौन्दर्य निखर उठता है । इसीलिए योगी पहाड़ की गुफा में रहकर ध्यान करता रहता है।"

श्रीरामकृष्ण भावविभोर होकर नीचे उतर आये हैं और नरेन्द्र के पास बैठे हैं । भावविभोर होकर बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - गाना गाऊँ ? नहीं, नहीं (नित्यगोपाल के प्रति) तू क्या कहता है ? उद्दीपन के लिए सुनना चाहिए । उसके बाद क्या आया और क्या गया !

“उसने आग लगा दी, सो तो अच्छा है । उसके बाद चुप । अच्छा, मैं भी तो चुप हूँ, तू भी चुप रह। "आनन्द-अमृत" में मग्न होने से वास्ता !

"गाना गाऊँ ? अच्छा, गाया भी जा सकता है । जल स्थिर रहने से भी जल है, और हिलने-डुलने पर भी जल है ।"

🔆🙏नरेन्द्र को शिक्षा - ज्ञान-अज्ञान से परे रहो "🔆🙏

नरेन्द्र पास बैठे हैं । उनके घर में कष्ट है, इसीलिए वे सदा ही चिन्तित रहते हैं । वे साधारण ब्राह्मसमाज में आते-जाते रहते हैं । अभी भी सदा ज्ञान-विचार करते हैं, वेदान्त आदि ग्रन्थ पढ़ने की बहुत ही इच्छा है । इस समय उनकी आयु तेईस वर्ष की होगी । श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (हँसकर नरेन्द्र के प्रति) - तू तो 'ख' (आकाश की तरह) है, परन्तु यदि टैक्स* न रहता ! (सभी की हँसी) (*अर्थात् घर की चिन्ता ।)

"कृष्णकिशोर कहा करता था, मैं 'ख' हूँ । एक दिन उसके घर जाकर देखता हूँ तो वह चिन्तित होकर बैठा है, अधिक बात नहीं कर रहा है । मैंने पूछा, 'क्या हुआ जी, इस तरह क्यों बैठे हो ?' उसने कहा, 'टैक्सवाला आया था, कह गया, यदि रुपये न दोगे, तो घर का सब सामान नीलाम कर लेंगे । इसीलिए मुझे चिन्ता हुई है ।' मैंने हँसते हँसते कहा, "यह कैसी बात है जी, तुम तो 'ख' (आकाश) की तरह हो । जाने दो, सालों को सब सामान ले जाने दो, तुम्हारा क्या ?"

“इसीलिए तुझे कहता हूँ, तू तो 'ख' है - इतनी चिन्ता क्यों कर रहा है ? जानता है, श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था, 'अष्टसिद्धि में से एक सिद्धि के रहते कुछ शक्ति हो सकती है, परन्तु मुझे न पाओगे ।' सिद्धि द्वारा अच्छी शक्ति, बल, धन ये सब प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती ।

"एक और बात । ज्ञान-अज्ञान से परे रहो । कई कहते हैं, अमुक बड़े ज्ञानी हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है । वशिष्ठ इतने बड़े ज्ञानी थे परन्तु पुत्रशोक से बेचैन हुए थे । तब लक्ष्मण ने कहा, 'राम, यह क्या आश्चर्य है ! ये भी इतने शोकार्त हैं !' राम बोले, 'भाई, जिसका ज्ञान है, उसका अज्ञान भी है, जिसको आलोक का बोध है, उसे अन्धकार का भी है, जिसे सुख का बोध है, उसे दुःख का भी है, जिसे भले का बोध है, उसे बुरे का भी है । भाई, तुम दोनों से परे चले जाओ, सुख-दुःख से परे जाओ, ज्ञान-अज्ञान से परे जाओ ।’ इसीलिए तुझे कहता हूँ, ज्ञान-अज्ञान दोनों से परे चला जा ।"

(३)

  [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

🙏गृहस्थ तथा दानधर्म । मनोयोग तथा कर्मयोग🙏

श्रीरामकृष्ण फिर छोटे तखत पर आकर बैठे हैं । भक्तगण अभी भी जमीन पर बैठे हैं । सुरेन्द्र उनके पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण उनकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देख रहे हैं और बातचीत के सिलसिले में उन्हें अनेकों उपदेश दे रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (सुरेन्द्र के प्रति) - बीच बीच में आते जाना । नागा कहा करता था, लोटा रोज रगड़ना चाहिए, नहीं तो मैला पड़ जायेगा । साधुसंग सदैव ही आवश्यक है ।

"कामिनी कांचन का त्याग संन्यासी के लिए है, तुम लोगों के लिए वह नहीं । तुम लोग बीच-बीच में निर्जन में जाना और उन्हें व्याकुल होकर पुकारना । तुम लोग मन में त्याग करना ।

"भक्त, वीर हुए बिना भगवान् तथा संसार दोनों ओर ध्यान नहीं रख सकता । जनक राजा साधन-भजन के बाद सिद्ध होकर संसार में रहे थे । वे दो तलवारें घुमाते थे – ज्ञान और कर्म ।"

यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं –

(भावार्थ) - "यह संसार आनन्द की कुटिया है । यहाँ मैं खाता, पीता और मजा लूटता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी थे । उन्हें किस बात की कमी थी ! उन्होंने 'भगवान और संसार' दोनों बातों  को सँभालते हुए दूध पिया था ।"

श्रीरामकृष्ण - "तुम्हारे लिए चैतन्यदेव ने जो कहा था, " जीवों पर दया, भक्तों की सेवा और नामसंकीर्तन ।" 

"तुम्हें क्यों कह रहा हूँ ? तुम 'हौस' में काम कर रहे हो । अनेक काम करने पड़ते है, इसलिए कह रहा हूँ । (House - व्यापारी की दुकान)

"तुम आफिस में झूठ बोलते हो, फिर भी तुम्हारी चीजें क्यों खाता हूँ ? तुम दान, ध्यान जो करते हो । तुम्हारी जो आमदनी है उससे अधिक दान करते हो । कहावत है न - बारह हाथ ककड़ी का तेरह हाथ बीज!

"कंजूस की चीज मैं नहीं खाता हूँ । उनका धन इतने प्रकारों से नष्ट हो जाता है – मामला मुकदमा में, चोर-डकैतों से, डाक्टरों में, फिर बदचलन लड़के सब धन उड़ा देते है, यही सब है ।

"तुम जो दान, ध्यान करते हो, बहुत अच्छा है । जिनके पास धन है उन्हें दान करना चाहिए । कंजूस का धन उड़ जाता है । दाता के धन की रक्षा होती है, सत्कर्म में जाता है । कामारपुकुर में किसान लोग नाला काटकर खेत में जल लाते हैं । कभी कभी जल का इतना वेग होता है कि खेत का बाँध टूट जाता है और जल निकल जाता है, अनाज बरबाद हो जाता है; इसीलिए किसान लोग बाँध के बीच बीच में सूराख बनाकर रखते हैं, इसे 'घोघी' कहते हैं । जल थोड़ा थोड़ा करके घोघी में से होकर निकल जाता है, तब जल के वेग से बाँध नहीं टूटता और खेत पर मिट्टी की परतें जम जाती हैं । उससे खेत उर्वर बन जाता है और बहुत अनाज पैदा होता है । जो दान, ध्यान करता है वह बहुत फल प्राप्त करता है, चतुर्वर्ग फल- (चारो पुरुषार्थ) ।"

भक्तगण सभी श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से दानधर्म की यह कथा एक मन से सुन रहे हैं ।

सुरेन्द्र - मैं अच्छा ध्यान नहीं कर पाता । बीच बीच में 'माँ माँ' कहता हूँ । और सोते समय 'माँ माँ' कहते कहते सो जाता हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - ऐसा होने से ही काफी है । स्मरण-मनन तो है न ?

"मनोयोग और कर्मयोग । पूजा, तीर्थ, जीवसेवा आदि तथा गुरु के उपदेश के अनुसार कर्म करने का नाम है कर्मयोग । जनक आदि जो कर्म करते थे, उसका नाम भी कर्मयोग है । योगी लोग जो स्मरण-मनन करते हैं उसका नाम है मनोयोग ।

"फिर कालीमन्दिर में जाकर सोचता हूँ 'माँ, मन भी तो तुम हो !' इसीलिए शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा एक ही चीज हैं ।"

सन्ध्या हो रही है । अनेक भक्त श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर घर लौट रहे हैं । श्रीरामकृष्ण पश्चिम के बरामदे में गये हैं । भवनाथ और मास्टर साथ हैं ।

श्रीरामकृष्ण (भवनाथ के प्रति) - तू इतनी देर में क्यों आता है ?

भवनाथ (हँसकर) - जी, पन्द्रह दिनों के बाद दर्शन करता हूँ । उस दिन आपने स्वयं ही रास्ते में दर्शन दिया । इसलिए फिर नहीं आया ।

श्रीरामकृष्ण - यह कैसी बात है रे ! केवल दर्शन से क्या होता है ? स्पर्शन, वार्तालाप ये सब भी तो चाहिए ।

(४)

गिरीश आदि भक्तों के साथ प्रेमानन्द में
.
सायंकाल हुआ । धीरे धीरे मन्दिर में आरती का शब्द सुनायी देने लगा । आज फाल्गुन की शुक्ला अष्टमी तिथि; छः-सात दिनों के बाद पूर्णिमा के दिन होली महोत्सव होगा । देवमन्दिर का शिखर, प्रांगण, बगीचा, वृक्षों के ऊपर के भाग चन्द्रकिरण में मनोहर रूप धारण किये हुए हैं । गंगाजी इस समय उत्तर की ओर बह रही है, चाँदनी में चमक रही हैं, मानो आनन्द से मन्दिर के किनारे से उत्तर की ओर प्रवाहित हो रही हैं । श्रीरामकृष्ण अपने कमरें में छोटे तखत पर बैठकर चुपचाप जगन्माता का चिन्तन कर रहे हैं ।

उत्सव के बाद अभी तक दो-एक भक्त रह गये हैं । नरेन्द्र पहले ही चले गये ।
 आरती समाप्त हुई। श्रीरामकृष्ण भावविभोर होकर दक्षिण-पूर्व के लम्बे बरामदे पर धीरे धीरे टहल रहे हैं । मास्टर भी वहीं खड़े खड़े श्रीरामकृष्ण की ओर देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण एकाएक मास्टर को सम्बोधित कर कह रहे हैं, "अहा, नरेन्द्र का क्या ही गाना है !”

मास्टर - जी, 'घने अन्धकार में’, वह गाना !

श्रीरामकृष्ण – हाँ, उस गाने का बहुत गम्भीर अर्थ है । मेरे मन को मानो अभी खींचकर रखा है ।
मास्टर – जी, हाँ ।
श्रीरामकृष्ण - अन्धकार में ध्यान, यह तन्त्र का मत है । उस समय सूर्य का आलोक कहाँ है ?

श्री गिरीश घोष आकर खड़े हुए । श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं ।

(भावार्थ) - "ओ रे ! क्या मेरी माँ काली है ? ओ रे ! कालरूपी दिगम्बरी हृतपद्म को आलोकित करती है ।"
श्रीरामकृष्ण मतवाले होकर खड़े खड़े गिरीश के शरीर पर हाथ रखकर गाना गा रहे हैं –     
(भावार्थ) - “गया, गंगा, प्रभास, काशी, कांची आदि कौन चाहता है । ..."
(भावार्थ) - "इस बार मैंने अच्छा सोचा है । अच्छे भाववाले से भाव सीखा है । माँ, जिस देश में रात्रि नहीं है, उस देश का एक आदमी पाया हूँ; क्या दिन और क्या सन्ध्या - सन्ध्या को भी मैंने वन्ध्या बना डाली है । नूपुर में ताल मिलाकर उस ताल का एक गाना सीखा है; वह ताल ‘ताध्रिम ताध्रिम' रव से बज रहा है । मेरी नींद खुल गयी है, क्या मैं फिर सो सकता हूँ ? मैं याग-योग में जाग रहा हूँ । माँ, योगनिद्रा  तुझे देकर मैने नींद को सुला दिया है । प्रसाद कहता है, मैंने भुक्ति और मुक्ति इन दोनों को सिर पर रखा है । काली ही ब्रह्म है इस मर्म को जानकर मैंने धर्म और अधर्म दोनों को त्याग दिया है ।"
गिरीश को देखते देखते मानो श्रीरामकृष्ण के भाव का उल्लास और भी बढ़ रहा है । वे खड़े खड़े फिर गा रहे हैं –  
(भावार्थ) - "मैंने अभय पद में प्राणों को सौंप दिया है, अब मुझे यम का कोई भय नहीं  ...।"
श्रीरामकृष्ण भाव में मस्त होकर फिर गा रहे हैं –
(भावार्थ) - “मैं देह को संसाररूपी बाजार में बेचकर श्रीदुर्गानाम खरीद लाया हूँ ।”

श्रीरामकृष्ण (गिरीश आदि भक्तों के प्रति) - " ‘भाव से शरीर भर गया, वह ज्ञान नष्ट हो गया ।'
" उस ज्ञान का अर्थ है बाहर का ज्ञान । तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान यही सब चाहिए ।

"भक्ति ही सार है । सकाम भक्ति भी है और निष्काम भक्ति भी । शुद्धा भक्ति, अहेतुकी भक्ति - यह भी है । केशव सेन आदि अहेतुकी भक्ति नहीं जानते थे । कोई कामना नहीं, केवल ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति !

"एक और है - उर्जिता भक्ति । मानो भक्ति उमड़ रही है । भाव में हँसता-नाचता-गाता है, जैसे चैतन्यदेव । राम ने लक्ष्मण से कहा, 'भाई, जहाँ पर उर्जिता भक्ति हो, वहीं पर जानो, मैं स्वयं विद्यमान हूँ ।" 
श्रीरामकृष्ण क्या अपनी स्थिति का इशारा कर रहे हैं ? क्या श्रीरामकृष्ण चैतन्यदेव की तरह अवतार हैं ? जीव को भक्ति सिखाने के लिए अवतीर्ण हुए हैं ?

गिरीश - आपकी कृपा होने से ही सब कुछ होता है । मैं क्या था, क्या हुआ हूँ !
श्रीरामकृष्ण - अजी, तुम्हारा संस्कार था, इसीलिए हो रहा है । समय हुए बिना कुछ नहीं होता । जब रोग अच्छा होने को हुआ, तो वैद्य ने कहा, 'इस पत्ते को काली मिर्च के साथ पीसकर खाना ।’ उसके बाद रोग दूर हो गया । अब काली मिर्च के साथ दवा खाकर अच्छा हुआ या यों ही रोग ठीक हो गया, कौन कह सकता है ?

"लक्ष्मण ने लव-कुश से कहा, ‘तुम बच्चे हो, श्रीरामचन्द्र को नहीं जानते । उनके पदस्पर्श से अहिल्या पत्थर से मानवी बन गयी ।' लव-कुश बोले, 'महाराज, हम सब जानते हैं; सब सुना है । पत्थर से जो मानवी बनी, यह मुनि का वचन था । गौतम मुनि ने कहा था कि त्रेतायुग में श्रीरामचन्द्र उस आश्रम के पास से होकर जायेंगे, उनके चरणस्पर्श से तुम फिर मानवी बन जाओगी । सो अब राम के गुण से बनी या मुनि के वचन से, कौन कह सकता है ?"
"सब ईश्वर की इच्छा से हो रहा है । यहाँ पर यदि तुम्हें चैतन्य प्राप्त हो, तो मुझे निमित्त मात्र जानना । चन्दामामा सभी का मामा है । ईश्वर की इच्छा से सब कुछ हो हो रहा है ।

‘गिरीश (हँसते हुए) - ईश्वर की इच्छा से न ? मैं भी तो यही कह रहा हूँ । (सभी की हँसी)

श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - सरल बनने पर ईश्वर का शीघ्र ही लाभ होता है । जानते हो कितनों को ज्ञान नहीं होता ? एक - जिसका मन टेढ़ा है, सरल नहीं है । दूसरा - जिसे छुआछूत का रोग है, और तिसरा जो संशयात्मा है ।

श्रीरामकृष्ण नित्यगोपाल की भावावस्था की प्रशंसा कर रहे हैं ।
अभी तक तीन-चार भक्त उस दक्षिण-पूर्ववाले लम्बे बरामदे में श्रीरामकृष्ण के पास खड़े हैं और सब कुछ सुन रहे हैं । श्रीरामकृष्ण परमहंस की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं ।
कह रहे हैं, "परमहंस को सदा यही बोध होता है कि ईश्वर सत्य है, शेष सभी अनित्य । हंस में जल से दूध को अलग निकाल लेने की शक्ति है । उसकी जिव्हा में एक प्रकार का खट्टा रस रहता है; दूध और जल यदि मिला हुआ रहे तो उस रस के द्वारा दूध अलग और जल अलग हो जाता है । परमहंस के मुख में भी खट्टा रस है, प्रेमाभक्ति । प्रेमाभक्ति रहने से हो नित्य-अनित्य का विवेक होता है, ईश्वर की अनुभूति होती है, ईश्वर का दर्शन होता है ।”
===================





       

 





सोमवार, 11 जुलाई 2022

🙏 🙏 "समन्वय और शान्ति के लिये धर्म" [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना -34]

समन्वय और शान्ति के लिये धर्म 

    'धर्म', 'समन्वय' और 'शान्ति' के विषय में हमारी धारणा अत्यन्त अस्पष्ट (vague) है। हम लोग इन सब विषयों के बारे में एक प्रकार से संदेहात्मक विचार रखते हैं। हम कहते हैं - मैं धर्म में विश्वास रखता हूँ। समन्वय का अर्थ हमलोग सम्मिलन (reunion) समझते हैं। शान्ति कहते समय हम लोग क्या सोचते हैं -ठीक ठीक बता नहीं सकते। 

      धर्म वह वस्तु है जो मनुष्य को धारण करती है। सृष्टि रचने के साथ ही साथ ब्रह्माजी ने यह विचार किया कि सृष्टि की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था रहनी जरुरी है। इसीलिये उन्होंने सृष्टि की रक्षा के लिये एक मंगलवस्तु का निर्माण किया - यह बात बृहदारण्यक उपनिषद में कही गयी है। उसी मंगलवस्तु (कल्याणकारी पद्धति) का नाम है -धर्म। धर्म की दो दिशायें हैं।  पहला उसकी तात्विक (आध्यात्मिक essence) दिशा है , और दूसरा उसे व्यावहारिक रूप देने की दिशा है , बृहदारण्यक में भी यही बात कही गयी थी। स्वामीजी ने धर्म के इसी व्यावहारिक पक्ष  ऊपर अधिक बल दिया है। स्वामीजी की मान्यता यह थी कि जो धर्म या  दर्शन यदि मनुष्य के  कल्याण के लिए, उसकी यथार्थ उन्नति के लिए, उसे अपने व्यवहार में लाने का उपाय न बता  सके, तो वैसे धर्म या दर्शन का कोई मोल नहीं है,वह व्यर्थ है। इसीलिए स्वामीजी अक्सर व्यावहारिक धर्म (वेदान्त) पर चर्चा करते थे। 

        हमारे शास्त्रों में कहा गया है -केवल शास्त्रों को पढ़ने या जान लेने से ही दर्शन का ज्ञान  नहीं होता, धर्मलाभ नहीं होता। जो मनुष्य क्रियाशील है, वही विद्वान है। जो लोग शास्त्रों में बतलाये गये उपदेशों का प्रयोग अपने जीवन में कर सकते हैं, सच्चे विद्वान् तो वे ही हैं। केवल कुछ विषयों को 'जान लेने ' से ही वे विद्या (Knowledge) अनुशासन में परिणत नहीं हो जाती। विद्या का प्रयोग भी होना चाहिए। यदि हम उसे 'प्रयोग' में नहीं लाएँ तो वह व्यर्थ है। हमलोग जब कोई चीज जानते हैं , या कोई की ज्ञान की बात दूसरों को 'सुनाते' हैं , और जब उसी ज्ञान का व्यवहार  अपने दैनंदिन जीवन में भी करते हैं - उसी चार समय पर हमारी विद्या प्रभावी होती है।

      पतंजलि ने अपने व्याकरण -महाभाष्य में बहुत सुंदर ढंग से कहा है। कोई भी विद्या चार भागों में उपयुक्त होती है। जिस समय उसे सीख रहा हूँ, यह उसकी एक उपयुक्तता है , सीखी हुई विद्या को अपनी स्मृति में रखने के बार- बार उसको दुहराता हूँ, उसमें महारत हासिल करने , चरित्रगत करने या आत्मसात करने के लिए जिस विषय की चर्चा हमलोग बार-बार करते हैं, फिर अपने जीवन में ढाल लेने के लिए -जब हम कोई क्रिया करते हैं , फिर उस विद्या के विषय में दूसरों को बतलाते हैं , और स्वयं जब उसका व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करते हैं। जो धर्म कार्यान्वित नहीं हो सके, जो धर्म केवल मंदिर -मस्जिद -गिरजा में बंधा हो वह धर्म नहीं है।  धर्म तो व्यवहार में अपनाने की चीज है। शंकरचार्य इस उपनिषद के भाष्य में कहते हैं -धर्म दो कार्य करेगा। एक वह सत्य देगा और उसको व्यवहार करना बतलायेगा। सत्य और प्रयोग। धर्म की दो दिशायें हैं।  इन्हीं दो को एक साथ रखना धर्म है। जब हमलोग धर्म के इस बात को समझ लेते हैं , तब उसीको महाभारत में कहा गया है - जो धारण करे वही धर्म है। 

      यदि धर्म के इसी भाव को हमलोग ग्रहण करें तो यह प्रश्न कहाँ  उठता कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान , या ईसाई , सिख ,बौद्ध या जैन हूँ -और कुछ हूँ। असली बात तो यह है कि क्या मैं धर्म चाहता हूँ ? यदि चाहता हूँ , तो मुझे यह जानने की कोई आवश्यकता नहीं कि- कौन सा धर्म? धर्म दो प्रकार के हैं , स्वामीजी कहते थे - छोटे- छोटे लेबल लगा धर्म एक प्रकार का है , और दूसरे प्रकार का धर्म है -महाधर्म।  जिस धर्म का कार्य होगा  - सभी प्राणियों , सभी मनुष्यों की रक्षा करना। उनको ऊपर उठने में सहायता करना।  महाभारत में कहा गया है -

" प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् ।

        य: स्यात्प्रभवसंयुक्त: स धर्म इति निश्चयः।। " 

(महाभारत १२.१०९.१० )' प्रभवार्थाय ' ---अर्थात धर्म होता है मनुष्यों की उन्नति के लिये, उनके विकास के लिए।  महर्षियों ने मनुष्य की उन्नति के लिए ही धर्म का प्रवचन किया है। जिससे मनुष्य का कल्याण होता हो वही धर्म है। (The sole aim with which Dharma is advocated is to bring about the evolution of living beings. A doctrine preaches that that which is able to bring about evolution is Dharma. - Mahabharat 12.109.10) 

      कैसी सुंदर अनुभूति है। यह सोचने का कोई कारण नहीं कि चूँकि यह महाभारत में कहा गया है , इसलिए यह केवल हिन्दुओं के लिए है। नहीं , वैसी बात नहीं है।  यह तो सम्पूर्ण विश्व के लिए है। मानवमात्र के लिए कहा गया है। हमलोगों के देश का धर्म केवल इसी देश के लिए निर्मित नहीं हुआ था। वेद संहिता में कहा गया है यह धर्म जिस प्रकार देश के लिए उपयुक्त है , वैसे ही विदेश के लिए भी। हमलोग क्या इस धर्म को केवल भारतवर्ष में , मंदिरों में या हमलोगों के अन्य दो-चार जो स्थान हैं ,वहीं तक सिमित कर देंगे ? वेद क्या कहता है ? यही कि हमलोग अभी जिस धर्म की चर्चा कर रहे हैं , जो कल्याणकारी धर्म है , वह सभी मनुष्यों के लिए है , उसे सभी मनुष्यों को दो। 

  यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। 

ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।"  

इस कल्याणी वेद-वाणी को " आवदानि जनेभ्यः "  -सभी मनुष्यों को दो।  " ब्रह्मराजन्याभ्यां" ब्राह्मणों को दो, क्षत्रियों को दो।"शूद्राय चार्याय च" -वैश्य को दो , शूद्र को दो। "स्वाय चारणाय च" -इस देश के लोगों को दो विदेशी लोगों को दो। वेद कह रहा है , हमलोगों या तो पढ़ा नहीं है, या उसका अर्थ नहीं समझा है। ठाकुर ने स्वामीजी को अपना यंत्र बनाकर, उनसे यही कार्य करवाया था। क्योंकि वेद कहता है - " कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम् । - (ऋग्वेद ९।६३।५) सारे संसार के मनुष्यों को श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव वाले बनाओ।  

      विश्व के इतिहास में स्वामीजी के पहले ऐसी घटना कभी नहीं घटित हुई थी। वेद ने कितने हजार वर्ष पहले ही कह दिया था- इस देश के लोगों को और विदेशी लोगों को धर्म के तत्व सुनाओ !  धर्म माने जो यथार्थ में महाधर्म है , लेबल वाला छोटा-धर्म नहीं, उसी को दो। स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म पर भाषण देने के लिए पाश्चात्य देशों में नहीं गए थे। ऐतिहासिक रूपसे ऐसा कहना ठीक नहीं होगा कि स्वामीजी ने विश्वधर्म महासभा में हिन्दू धर्म को प्रतिष्ठित कर दिया था , या हिन्दू धर्म की विजय-पताका लहरा आये थे। स्वामीजी ने कहा था , मुझे  वहां  'हिन्दुधर्म' पर जो निबंध पढ़ना  पड़ा था , उसे मैंने अपना उत्तरदायित्व समझकर कष्ट से पढ़ा था। दक्षिण भारत में स्वामीजी के विदेश जाने के लिए, जो धन इकट्ठा किया गया था, उसे  स्वामीजी ने--  शिकागो जाकर मुझे  हिन्दुधर्म के बारे में बोलना होगा, यदि इस शर्त पर आपलोग धन देंगे तो वापस कर दूंगा , यह कहकर उन्होंने दो बार धन वापस भी लौटा दिया था। मैं वहां जाकर क्या बोलूंगा , या नहीं बोलूंगा यह सब मैं कुछ नहीं जानता। मैं वहां क्यों जा रहा हूँ यह भी नहीं जनता। कन्याकुमारी में विदेश जाने की एक प्रेरणा आयी है। ठाकुर ने संकेत में कहा है , समुद्र के पार जाओ। माँ का आशीर्वाद मिल गया है , जाऊंगा। किन्तु यदि आप लोग यह कहेंगे कि हमलोगआपको धन इसीलिए  दे रहे हैं कि आपको अमेरिका जाकर हिन्दुधर्म के विषय में बोलना होगा तो मैं आपलोगों से धन नहीं लूंगा।  

      स्वामीजी के जीवन का इतिहास अच्छे से पढ़ने की जरूत है। पत्र-पत्रिका में या इधर-उधर से शिकागो भाषण पर एक -दो लेख पढ़कर,  जो हो सकता है गलत तथ्य से भरे हों , स्वामीजी के सम्बन्ध में कोई धारणा बना लेना उचित नहीं है।  स्वामीजी ने एक जगह कहा है , " मेरे देश में अनगिनत लोग कुपोषण से, बिना आवास और वस्त्र के मर रहे हैं रे , तुम्हारे शिकागो में होने वाले  विश्वधर्म  संसद की परवाह कौन करता है? इसे पढ़कर समझने की जरूरत है। स्वामीजी कहते हैं -मैं तो वहां इसी प्रेरणा से  गया था कि विदेश जाकर इनके लिए कुछ कर सकूंगा ।

     प्रोफेसर राईट ने स्वामीजी से कहा था , " देखिये संयोग वश हिन्दू धर्म  पर बोलने के लिए किसी को निमंत्रण पत्र नहीं भेजा गया था। उसके कई कारण थे , वे सब हास्यास्पद बातें हो सकती हैं। और बिना निमंत्रण आप यह सोचकर यहाँ आ गए हैं कि आप विश्वधर्म सभा में भाग ले सकेंगे ! लेकिन आपको वहां कोई बोलने का अवसर नहीं देगा क्योंकि अनुमति देने का समय तो निकल चुका  है। मेरे कहने से हो सकता है , वे लोग मान भी जाएँ लेकिन वहाँ जाने के लिए आपको  किसी एक धर्म का प्रतिनिधित्व करना होगा। यह ठीक है कि आप यहाँ किसी लेबल वाले धर्म का प्रचार करने के लिए नहीं आये हैं। लेकिन हिन्दुधर्म का प्रतिनिधि होकर यहाँ कोई नहीं आया है , यदि आप हिन्दुधर्म बोलने के लिए राजी हो जाएँ , तो मैं कोई उपाय निकाल सकता हूँ। " बाध्य होकर स्वामीजी हिन्दुधर्म पर बोलने के लिए राजी होना पड़ा। स्वामीजी को जीवन में पहली बार एक लिखित निबंध का पाठ  करना पड़ा। हमलोग नहीं जानते कि उन्होंने अपने जीवन में फिर कभी दूसरी बार कहीं लिखित निबंध पढ़कर भाषण दिया हो।  क्योंकि उसमें जो कुछ उन्होंने कहा था , वह उनके मन से नहीं निकला था।  विश्व धर्म महासभा में हिन्दुधर्म का प्रतिनधि के रूप स्वीकृत होने के लिए उन्हें  'Paper on Hinduism' का लिखित व्यख्यान पढ़ना पड़ा था।  

      स्वामी विवेकानन्द साहित्य, जो हिन्दी में  पहली बार 1963 ई ० में 10 खण्डों में प्रकाशित हुआ था , वह सर्वप्रथम 1907 ई ० में  अंग्रेजी में 8 खण्डों में प्रकाशित हुआ था। उसकी भूमिका में भगिनी निवेदिता लिखती हैं -" Of the Swami's address before the Parliament of Religions, it may be said that when he began to speak it was of "the religious ideas of the Hindus", but when he ended, Hinduism had been created."--अर्थात " विश्व धर्म महासभा के समक्ष जब स्वामी जी ने अपना भाषण आरम्भ किया, तो विषय था; `हिन्दुओं के धार्मिक विचार ' किन्तु जब उन्होंने समाप्त किया, तब तक 'हिन्दुत्व' (Hinduism या हिन्दू धर्म) का जन्म हो चुका था । निवेदिता विदेशिनी होकर भी भारत से प्रेम करती थीं , भारत के  धर्म को हिन्दुधर्म कहा जाता है, केवल कुछ बोल देना है, क्या इसीलिए निवेदिता ने हिन्दुत्व (Hinduism) शब्द का प्रयोग किया था ? नहीं, जिसे यह तथाकथित हिन्दुधर्म  कहा जाता है ,(कोट पर जनेऊ पहन लेने या टिक्का लगा लेने को?), उस धर्म की मूल बात कहते कहते समय जब अपनी बात को उन्होंने समाप्त किया, उस समय आधुनिक युग में धरती पर पहली बार 'मनुष्य के धर्म' का जन्म हुआ था। हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म ने  जन्म-ग्रहण  नहीं किया था। क्योंकि उस भाषण में स्वामीजी ने बार-बार उसकी सभ्यता की बात कही थी , अमुक धर्म या वह धर्म नहीं कहा था। तो वहां नए रूप में हिन्दु धर्म  जन्म कैसे ले सकता था ? निवेदिता भारतवर्ष को नए परिचय के कारण प्रेम करती थीं , इस पर श्रद्धा रखती थीं , इसमें कुछ संदेह नहीं है। किन्तु इसीलिए उन्होंने हिन्दुत्व (Hinduism) शब्द का प्रयोग किया होगा, वैसा सोचना ठीक नहीं। स्वामीजी ने आधुनिक युग के मनुष्यों को जो धर्म दिया था , वे उसको इंगित करना चाहती थीं। रवीन्द्रनाथ ने 'मनुष्य का धर्म' (Religion of Man) के नाम से एक विशाल भाषण दिया था , उसके प्रत्येक पंक्ति में स्वामीजी के इन्हीं विचारों का प्रभाव दिखाई देता है ।  

    हमने जो पहले वेद के आदेश को सुना " कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम् ।" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ।  आर्य बनाने का अर्थ हमलोग क्या समझेंगे ? हमलोगों के  आर्य बुद्धि , हिन्दू बुद्धि  की बातें तो आजकल बहुत चल रही हैं।  आर्य का अर्थ होता है संस्कृत। हमलोग न तो आर्य का अर्थ समझते हैं न संस्कृत का अर्थ समझते हैं। अंग्रेजी में कहने से हो सकता है समझेंगे - Cultured, आर्य का अर्थ हुआ Cultured , और संस्कृत का अर्थ भी हुआ Cultured , इस प्रकार   " कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम् ।"का अर्थ हुआ समस्त विश्व के मनुष्यों को Cultured करो  ! हम कहते हैं वहां का Cultural level अत्यन्त Low है। Cultured होने का प्रमाण क्या है ? Culture -की परिभाषा क्या है ? जिसको हमलोग आमतौर पर 'संस्कृति ' कहते हैं , रवीन्द्रनाथ ने उसके लिए एक नए शब्द का प्रयोग किया था - कृष्टि (कृषि 'Agriculture'?) -इसका क्या अर्थ हुआ ? इसका ठीक ठीक परिभाषा मिलना कठिन है। किन्तु स्वामीजी ने कहा है , " उसी राष्ट्र की संस्कृति या Culture उतना अधिक श्रेष्ठ है , जहाँ के बहुसंख्यक (numerous, अनगिनत ) मनुष्यों की आध्यात्मिक उन्नति हुई है। " स्वामीजी ने कहा है की  Culture की कसौटी (Criteria) है आध्यात्मिक उन्नति , इस प्रकार जगत मनुष्यों को आर्य करने , संस्कृत करने या Cultured करने का अर्थ हुआ मनुष्यजाति के संस्कृति के स्तर को उन्नत करना। स्वामीजी ने यही कार्य किया था। जहाँ जैसी प्रकार का भेद नहीं हो , द्वंद्व नहीं हो - वहीँ है Harmony -या समन्वय।  

        हम लोग समन्वय का अर्थ समझते हैं -' Put together ' सब कुछ को इकट्ठा  करना। श्रीरामकृष्णदेव ने हिन्दुधर्म की साधना की थी , इस्लाम की साधना की थी , ईसाई धर्म की साधना की थी। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई को एक बना दिया था। ठाकुरदेव के अमृत-उपदेशों को देखने से ही यह बात समझ में आ जाती है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि सभी एक हैं। अलग-अलग मार्ग की साधना करके , तीन चार प्रकार के खीर अलग-अलग कटोरी में  खाने या  उसका भिन्न-भिन्न स्वाद लेने के बाद उन्होंने कहा था - सब कुछ खीर ही रे ! अर्थात सभी कटोरी के खीर में दूध है। चीनी की मिठास सभी खीर में है। इसलिए सभी में खीर है।  ऐसा करने का अर्थ यह नहीं कि जो हिन्दुधर्म है , वही इस्लाम धर्म है और वही ईसाई धर्म है। समन्वय का तात्पर्य यह नहीं है। 

        समन्वय का अर्थ है -'अविरोधिता, अविरोध ' अर्थात कोई धर्म दूसरे के प्रतिकूल (against या विरुद्ध) नहीं है। इस बात को  समझ लेना पड़ता है।  और बिना खाये तो इसे समझा नहीं जा सकता। जैसे मैंने किसी एक कटोरी का खीर खाया , उसे खाने के बाद सोच सकता हूँ कि दूसरी कटोरी में रखी चीज खीर नहीं है। किन्तु जब उसको भी खाया , तब देखा नहीं,  कोई विरुद्धता (repugnance) नहीं है। इस  खीर में बतासा दिया है , उस खीर को गुड़ डालकर बनाया है , एक में चीनी दिया है , किसी में हो सकता है मिश्री दिया हो। और कोई अन्तर नहीं है। सभी कटोरीयों  में खीर ही है। अलग-अलग धर्मों की साधना करके  और सभी मार्ग से एक ही सत्य या ईश्वर की उपलब्धि करके, श्रीरामकृष्ण देव ने इस बात को समझाया है कि धर्मों के बीच संघर्ष का कोई स्थान ही नहीं है। सभी मार्गों से एक ही अविनाशी सत्य की उपलब्धि करने के बाद उन्होंने घोषित किया  - ' यत मत , तत पथ ' --अर्थात " जितने मत उतने पथ"।" सर्व धर्म समन्वय" कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि -सारे धर्म समाप्त हो जायेंगे , और एक नया धर्म बनेगा - हो सकता है कि उसका नाम 'रामकृष्ण धर्म ' ही दिया जाये ! ठाकुर के मन में या स्वामीजी के मन में कभी ऐसी कोई बात नहीं थी। बिल्कुल ही नहीं थी , ऐसा होने से यथार्थ शान्ति आ सकती है। 

  शान्ति का अर्थ है , बाह्य समाज  में उथल- पुथल , अराजकता या अव्यवस्था इन सबों का समाप्त हो जाना, और मनुष्य के मन में सांत्वना (consolation) या ढाढ़स रहना। हमारे 'मानस सागर ' (या चित्त सरोवर का जल) में  विभिन्न प्रकार के विषय-तूफान उठते रहने से ,हर समय हमलोगों का मन बहुत घबड़ाया  हुआ और चिंतित रहता है। इसलिए मनो-समुद्र में हर समय लहरे उठती रहती है , और मन हर समय अशान्त बना रहता है। यदि हमलोग नियमित मनःसंयोग का अभ्यास करके धीरे धीरे अपने मन को "प्रशांत महासागर" (pacific ocean)  में परिणत कर सकें , वह तूफान (चक्रवात) शान्त हो जायेगा। प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में यदि शान्ति रहे , तो इस प्रकार के मनुष्यों के संयोजन से बना हुआ समाज शान्ति से परिपूर्ण रहेगा। इसीलिए यह कार्य केवल धर्म ही कर सकता है। और इसके लिए एकमात्र यथार्थ धर्म ही समन्वय और शान्ति का प्रावधान करने में सक्षम है। 

      इसीलिए शिकागो धर्म महासभा के अंतिम अधिवेशन में  27 सितम्बर , 1893 को स्वामी जी ने जो छोटा सा भाषण दिया था , उसके सबसे अंत में कहा था -  " If anybody dreams of the exclusive survival of his own religion and the destruction of the others, I pity him from the bottom of my heart, and point out to him that upon the banner of every religion will soon be written, in spite of resistance: "Help and not Fight," "Assimilation and not Destruction," "Harmony and Peace and not Dissension."

" यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जायेंगे और केवल उसका धर्म ही जीवित रहेगा , तो उस पर मैं अपने ह्रदय के अंतस्तल से दया करता हूँ और उसे स्पष्ट बतलाये देता हूँ कि शीघ्र ही , सारे प्रतिरोधों के बावजूद , प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा रहेगा - ' सहायता करो , लड़ो मत। '  'पर भाव ग्रहण , न कि पर भाव- विनाश, 'समन्वय और शान्ति , न कि मतभेद और कलह !   

=========  

'9/11  से 27 सितम्बर, 1893 ' तक चलने वाले विश्व धर्म महासभा के कुल  17 दिनों में स्वामी विवेकानंद ने छह व्याख्यान दिए थे, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन को विश्व भर से आये हुए लोगो के सामने रखा था।  भारत जो उस समय गुलाम था, जिसको सांप और सपेरों का देश माना जाता था उसके पास दुनिया को देने के लिए सन्देश भी है यह विदेशियों को पहली बार पता चला था। 

      स्वामीजी का बोला हुआ हर शब्द, मात्र शब्द नहीं था वो उनकी साधना , तपस्या और संयम का निचोड़ था।  वो उस भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जिसको उन्होंने पिछले पांच वर्षों तक पैदल चलकर, घोड़ा, गाड़ी और रेल के माध्यम से जाना था।  इस दौरान वो अनेकों बार वह पेड़ के नीचे सोये, अनेकों अनेक दिन बिना भोजन के बिताए, लेकिन हार नहीं मानी।  भारतवर्ष  के पुनरुत्थान का कार्य करना ही  स्वामीजी की प्राथमिकता में था, जिसके लिए उन्होंने हर चुनौती को स्वीकार किया था और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही स्वामीजी विदेश गए थे।

      2 नवंबर 1893 को मद्रास के अपने शिष्य आलासिंगा पेरुमल को 11 सितम्बर 1893 भाषण के सन्दर्भ में लिखे हुए पत्र में स्वामीजी लिखते हैं, ‘बाकी सभी प्रतिनिधि तैयारी के साथ आये थे और मैं बिना तैयारी के था।  मैंने माता सरस्वती को प्रणाम किया और अपने भाषण की शुरुआत की। ’ प्रो. शैलेन्द्रनाथ धर द्वारा लिखित पुस्तक ‘स्वामी विवेकानंद समग्र जीवन दर्शन’ के अनुसार विश्व धर्म महासभा में दुनियाभर के दस प्रमुख धर्मों के अनेकों प्रतिनिधि आये हुए थे, जिसमें यहूदी , हिन्दू , इस्लाम , बौद्ध , ताओ, कनफयूशियम, शिन्तो, पारसी, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट इत्यादि शामिल थे, लेकिन स्वामीजी का वक्तव्य सबसे अधिक सफल हुआ था।  

     आज भी जब विश्व सम्प्रदायों और पंथो में बंटा हुआ है, अपनी मान्यताओं को दूसरों पर थोपने का प्रचलन चल रहा है।  हर भौगोलिक दृष्टि से बड़ा देश छोटे देश को दबाने में लगा है उसकी जमीन हड़पने में लगा है।  इस दौर में स्वामीजी का यह विश्व बंधुत्व का संदेश सबके लिए एक मार्ग है, जो विश्व के कल्याण की बात करता है, सभी को स्वीकार करने की प्रेरणा देता है।  जो मानव समाज को कटुता से बाहर निकालता है और सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के तौर पर देखने की दृष्टि प्रदान करता है।  हमे स्वामी जी के धर्म महासभा के अंतिम अधिवेशन में दिए हुए भाषण के इन शब्दों को भी याद करना चाहिए जहां वो कहते हैं, ‘ ईसाई को हिन्दू या बौद्ध नहीं हो जाना चाहिए , और न हिन्दू अथवा बौद्ध को ईसाई ही।  पर हां , प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के सार- भाग को आत्मसात करके पृष्टि – लाभ करे और अपने वैशिष्टय कि रक्षा करते हुए अपनी निजी वृद्धि के नियम के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हो। ‘

=======


  

          

          

                    

        






सोमवार, 4 जुलाई 2022

$$$🙏🔆 परिच्छेद- 105 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ] 🔆🙏'देवी चौधरानी' का पठन🔆🙏

 *परिच्छेद १०५*

*दक्षिणेश्वर मन्दिर में श्रीरामकृष्ण*

🔆🙏'देवी चौधरानी' का पठन🔆🙏

आज शनिवार है, २७ दिसम्बर, १८८४, पूस की शुक्ला सप्तमी । बड़े दिन की छुट्टियों में भक्तों को अवकाश मिला है । कितने ही श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने आये हैं । सुबह को ही बहुतेरे आ गये हैं । मास्टर और प्रसन्न ने आकर देखा, श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के दक्षिण दालान में थे । उन लोगों ने आकर श्रीरामकृष्ण की चरण-वन्दना की ।

श्रीयुत शारदा प्रसन्न ने पहले ही पहल श्रीरामकृष्ण को देखा है ।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा - "क्यों जी, तुम बंकिम को नहीं ले आये ?"

बंकिम स्कूल का विद्यार्थी है । श्रीरामकृष्ण ने उसे बागबाजार में देखा था । दूर से देखकर ही कहा था, लड़का अच्छा है ।

बहुत से भक्त आये हुए हैं । केदार, राम, नृत्यगोपाल, तारक, सुरेश आदि और बहुत से भक्तबालक भी आये हुए हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ पंचवटी में जाकर बैठे । भक्तगण उन्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं - कोई बैठे हैं, कोई खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण पंचवटी में ईंटों के बने हुए चबूतरे पर बैठे हैं । दक्षिण-पश्चिम की ओर मुँह किये हुए हैं । हँसते हुए मास्टर से उन्होंने पूछा, क्या तुम पुस्तक ले आये हो ?

मास्टर - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण - जरा पढ़कर मुझे सुनाओ तो ।

भक्तगण उत्सुकता के साथ देख रहे हैं कि कौन सी पुस्तक है । पुस्तक का नाम है 'देवी चौधरानी।' श्रीरामकृष्ण सुन रहे हैं । देवी चौधरानी में निष्काम कर्म की बातें लिखी हैं । वे लेखक श्रीयुत बंकिमचन्द्र की तारीफ भी सुन चुके थे । पुस्तक में उन्होंने क्या लिखा है, इसे सुनकर वे उनके मन की अवस्था समझ लेंगे । 

मास्टर ने कहा, यह स्त्री डाकुओं के पाले पड़ी थी, इसका नाम प्रफुल्ल था, बाद में देवी चौधरानी हुआ था । जिस डाकू के साथ यह स्त्री पड़ी थी, उसका नाम भवानी पाठक था । भवानी पाठक बड़ा अच्छा आदमी था । उसी ने प्रफुल्ल से बहुत कुछ साधना करायी थी, और किस तरह निष्काम कर्म किया जाता है, इसकी शिक्षा दी थी । डाकू दुष्टों से रुपया-पैसा छीनकर गरीबों को दिया करता था, उनके भोजन-वस्त्र के लिए । प्रफुल्ल से उसने कहा था, मैं दुष्टों का दमन और शिष्टों का पालन करता हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - यह तो राजा का काम है ।

मास्टर - और एक जगह भक्ति की बातें हैं । भवानी' ने प्रफुल्ल के पास रहने के लिए एक लड़की को भेजा था, उसका नाम था निशि, वह लड़की बड़ी भक्तिमती थी । वह कहती थी, मेरे स्वामी श्रीकृष्ण हैं । प्रफुल्ल का विवाह हो गया था । उसके बाप न था, माँ थी । अकारण एक कलंक लगाकर गाँववालों ने उसे जाति-पाति से अलग कर दिया था; इसीलिए प्रफुल्ल को उसका ससुर अपने यहाँ नहीं ले गया । अपने लडके के उसने और दो विवाह कर दिये थे । प्रफुल्ल अपने पति को बहुत चाहती थी । इस भूमिका के बाद अब पुस्तक का यह अंश समझ में आ जाएगा ।

निशि - उनकी (भवानी पाठक की) कन्या हूँ, वे मेरे पिता हैं । उन्होंने भी एक तरह से मेरा विवाह कर दिया है

प्रफुल्ल - एक तरह से, इसके क्या मानी ?

निशि - मैंने अपना सब कुछ श्रीकृष्ण को अर्पित किया है ।

प्रफुल्ल - वह कैसे ?

निशि - मेरा रूप, यौवन और प्राण ।

प्रफुल्ल - क्या वही तुम्हारे स्वामी हैं ?

निशि - हाँ, क्योंकि जिनका मुझ पर पूर्ण अधिकार हैं, वे ही मेरे स्वामी हैं ।

प्रफुल्ल ने एक लम्बी साँस छोड़कर कहा, "मैं नहीं कह सकूँगी । कभी तुमने पति का मुख नहीं देखा, इसीलिए कह रही हो । पति को अगर देखा होता तो कभी श्रीकृष्ण पर तुम्हारा मन न जाता।"

मूर्ख व्रजेश्वर (प्रफुल्ल का पति) यह न जानता था कि उसकी स्त्री उससे इतना प्रेम करती है ।

निशि ने कहा, "श्रीकृष्ण पर सब का मन लग सकता है, क्योंकि उनका रूप अनन्त है, यौवन अनन्त है, ऐश्वर्य अनन्त है ।"

यह युवती भवानी पाठक की शिष्या थी, निरक्षर प्रफुल्ल उसकी बातों का उत्तर न दे सकी । केवल हिन्दू-समाजधर्म के प्रणेतागण उत्तर जानते थे । मैं जानता हूँ, ईश्वर अनन्त हैं, परन्तु अनन्त को इस छोटे से हृदय-पिञ्जर में हम रख नहीं सकते, सान्त को रख सकते हैं । इसीलिए अनन्त ईश्वर हिन्दुओं के हृदय-पिञ्जर में सान्त श्रीकृष्ण के रूप में हैं । पति और भी अच्छी तरह सान्त है । इसीलिए प्रेम के पवित्र होने पर, पति ईश्वर के पथ पर चढ़ने का प्रथम सोपान है । यही कारण है कि पति ही हिन्दू स्त्रियों का देवता है । इस जगह दूसरे समाज हिन्दू समाज से निकृष्ट हैं ।

प्रफुल्ल मूर्खा थी, वह कुछ समझ न सकी । उसने कहा, "बहन, मैं इतनी बातें नहीं समझ सकती। तुम्हारा नाम क्या है, तुमने तो अब तक नहीं बताया ।"

निशि बोली, "भवानी पाठक ने मेरा नाम निशि रखा है । मैं दिवा की बहन निशि हूँ । दिवा   को एक दिन तुमसे मिलने के लिए लाऊँगी; परन्तु मैं जो कह रही थी, सुनो । एकमात्र ईश्वर हमारे स्वामी हैं । स्त्रियों का पति ही देवता है । श्रीकृष्ण सब के देवता हैं । क्यों बहन, दो देवता फिर क्यों रहें ? इस छोटे से जी में जो जरा भक्ति है, उसके दो टुकड़े कर डालने पर फिर कितना बच रहता है ?"

प्रफुल्ल - अरी चल ! स्त्रियों की भक्ति का भी कहीं अन्त है ?

निशि – स्त्रियों के प्यार का तो अन्त नहीं है, परन्तु भक्ति और चीज है, प्यार और चीज

मास्टर - भवानी पाठक प्रफुल्ल से आध्यात्मिक साधना कराने लगे ।

"पहले साल भवानी पाठक प्रफुल्ल के घर किसी पुरुष को न जाने देते थे, और न घर के बाहर किसी पुरुष से उसे मिलने ही देते थे । दूसरे साल मिलने-जुलने में इतनी रोक-टोक न रही; परन्तु उसके यहाँ किसी पुरुष को न जाने देते थे । फिर तीसरे साल, जब प्रफुल्ल ने सिर घुटाया, तब भवानी पाठक अपने चुने हुए चेलों को लेकर उसके पास जाया करते थे - प्रफुल्ल सिर घुटाये आँखें नीची करके शास्त्रीय चर्चा किया करती थी

"फिर प्रफुल्ल की शिक्षा का आरम्भ हुआ । वह व्याकरण समाप्त कर चुकी; रघुवंश, कुमार, नैषध, शाकुन्तल पढ़ चुकी । कुछ सांख्य, कुछ वेदान्त और कुछ न्याय भी उसने पढ़ा ।"

श्रीरामकृष्ण - इसका मतलब समझे ? बिना पढ़े ज्ञान नहीं होता । जिसने लिखा है, वैसे आदमियों का यही मत है । वे सोचते हैं, पहले पढ़ना-लिखना है, फिर ईश्वर है । यदि ईश्वर को समझना है तो पढ़ना-लिखना अत्यावश्यक है । परन्तु अगर मुझे यदु मल्लिक से मिलना है, तो उसके कितने मकान हैं, कितने रुपये हैं, कितने का कम्पनी का कागज है, क्या यह सब पहले जानने की आवश्यकता है ? मुझे इतनी खबरों का क्या काम ? स्तव या स्तुति करके किसी भी तरह से हो अथवा दरवान के धक्के ही सहकर, किसी तरह घर के भीतर घुसकर यदु मल्लिक से मिलना चाहिए । और अगर रुपया-पैसा और ऐश्वर्य के जानने की इच्छा हो, तो यदु मल्लिक से पूछने ही से काम सिद्ध हो जाता है । बहुत सहज में ही मतलब निकल जाता है । पहले राम हैं, फिर राम का ऐश्वर्य यह संसार । इसलिए वाल्मीकी ने 'मरा' जाना था । 'म' अर्थात् ईश्वर और 'रा' अर्थात् संसार - उनका ऐश्वर्य। 

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

 (२)

निष्काम कर्म और श्रीरामकृष्ण । फल-समर्पण और भक्ति 

मास्टर - प्रफुल्ल के अध्ययन समाप्त करने और बहुत दिनों तक साधना कर चुकने के पश्चात् भवानी पाठक उससे मिलने के लिए आये । अब वे उसे निष्काम कर्म का उपदेश देना चाहते थे । उन्होंने गीता का एक श्लोक कहा –

तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार ।

असक्तो ह्याचरन कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥3.19।।

अनासक्ति के उन्होंने तीन लक्षण बतलाये –(१) इन्द्रिय-संयम (२) निरहंकार (३) श्रीकृष्ण के चरणों में फल-समर्पण । निरहंकार के बिना धर्माचरण नहीं होता । गीता में और भी कहा गया है –

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।

इसके पश्चात् श्रीकृष्ण को सब कर्मों का फलार्पण । उन्होंने गीता के श्लोक का उल्लेख किया –

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9.27।।

निष्काम कर्म के ये तीन लक्षण कहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - यह अच्छा है । गीता की बात है । अकाट्य है । परन्तु एक बात है । श्रीकृष्ण को फलार्पण कर देने के लिए तो कहा, परन्तु उन पर भक्ति करने की बात तो नहीं कही

मास्टर - यहाँ यह बात विशेषतया नहीं कही गयी ।

फिर धन का व्यय किस तरह करना चाहिए, यह बात हुई । प्रफुल्ल ने कहा, यह सब धन श्रीकृष्ण के लिए मैने समर्पित किया ।

प्रफुल्ल - जब मैंने अपने सब कर्म श्रीकृष्ण को समर्पित किये, तब अपने धन का भी समर्पण मैंने श्रीकृष्ण को ही कर दिया । भवानी - सब ? प्रफुल्ल – सब ।

भवानी - तो कर्म वास्तव में अनासक्त कर्म न हो सकेगा । अगर तुम्हें अपने भोजन के लिए प्रयत्न करना पड़ा तो इससे आसक्ति होगी । अतएव, सम्भवतः तुम्हे भिक्षावृत्ति के द्वारा भोजन का संग्रह करना होगा या इसी धन से अपनी शरीर-रक्षा के लिए कुछ रखना होगा । भिक्षा में भी आसक्ति है, अतएव तुम्हें इसी धन से अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए

श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह इनका पटवारीपन है । हिसाबी बुद्धि है । जो ईश्वर को चाहता है, वह एकदम कूद पड़ता है । देह-रक्षा के लिए इतना रहे, यह हिसाब नहीं आता ।

मास्टर - फिर भवानी ने पूछा, - 'धन लेकर श्रीकृष्ण के लिए समर्पण कैसे करोगी ?' प्रफुल्ल ने कहा, 'श्रीकृष्ण सर्व भूतों में विराजमान हैं । अतएव सर्व भूतों के लिए इसका व्यय करूँगी ।' भवानी ने कहा, 'यह बहुत ही अच्छा है;’ और वे गीता के श्लोक पढ़ने लगे –

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥

[गीता-अ. ६, श्लोक ३०-३१-३२]

श्रीरामकृष्ण - ये उत्तम भक्त के लक्षण हैं ।

मास्टर पढ़ने लगे ।

“सर्व भूतों को दान करने के लिए बड़े परिश्रम की आवश्यकता है । इसलिए कुछ साज-सजावट, कुछ भोग-विलास की जरूरत है । भवानी पाठक ने इसीलिए कहा, 'कभी कभी कुछ दूकानदारी की भी आवश्यकता होती है ।”

श्रीरामकृष्ण - (विरक्ति के भाव से) - 'दुकानदारी की भी आवश्यकता होती है ।' जैसा आकर है, बात भी वैसी ही निकलती है । दिन-रात विषय की चिन्ता, मनुष्यों से धोखेबाजी, यह सब करते हुए बातें भी उसी ढंग की हो जाती हैं । मूली खाने पर मूली की ही डकार आती है । 'दूकानदारी' न कहकर वही बात अच्छे ढंग से भी कही जा सकती थी; वह कह सकता था, 'अपने को अकर्ता समझ कर्ता की तरह कार्य करना ।’ उस दिन एक आदमी गा रहा था । उस गाने के भीतर लाभ और घाटा, इन्हीं बातों की भरमार थी । मैंने मना किया । आदमी दिन-रात जो चिन्ताएँ किया करता है, मुँह से वही बातें निकलती रहती हैं

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

(३)

🔆🙏योग की दूरबीन। पतिव्रता -धर्म 🔆🙏     

पठन जारी है । अब ईश्वर-दर्शन की बात आयी । प्रफुल्ल अब देवी चौधरानी हो गयी है । वैशाख शुक्ला सप्तमी तिथि है । देवी छप्परवाली नाव पर बैठी हुई दिवा के साथ बातचीत कर रही है । चन्द्रोदय हो गया है । नाव का लंगर छोड़ दिया गया है, गंगा के वक्ष पर नाव स्थिर भाव से खड़ी है। नाव की छत पर देवी और उसकी दोनों सहेलियाँ बैठी हुई हैं । ईश्वर प्रत्यक्ष होते हैं या नहीं, यही बात हो रही है । देवी ने कहा, जैसे फूल की सुगन्ध घ्राणेन्द्रिय के निकट प्रत्यक्ष है, उसी तरह ईश्वर मन के निकट प्रत्यक्ष होते है ।

श्रीरामकृष्ण - जिस मन के निकट प्रत्यक्ष होते हैं, वह यह मन नहीं, वह शुद्ध मन है, तब यह मन नहीं रहता, विषयासक्ति के जरा भी रहने पर नहीं होता । मन जब शुद्ध होता है, तब चाहे उसे शुद्ध मन कह लो, चाहे शुद्ध आत्मा

मास्टर - मन के निकट सहज ही वे प्रत्यक्ष नहीं होते, यह बात कुछ आगे है । कहा है, प्रत्यक्ष करने के लिए दूरबीन चाहिए । दूरबीन का नाम योग है । फिर जैसा गीता में लिखा है, योग तीन तरह के हैं - ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग । इस योगरूपी दूरबीन से ईश्वर दीख पड़ते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - यह बड़ी अच्छी बात है । गीता की बात है ।

मास्टर - अन्त में देवी चौधरानी अपने स्वामी से मिली । स्वामी पर उसकी बड़ी भक्ति थी । स्वामी से उसने कहा - 'तुम मेरे देवता हो । मैं दूसरे देवता की अर्चना करना सीख रही थी, परन्तु सीख नहीं सकी । तुमने सब देवताओं का स्थान अधिकृत कर लिया है ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - 'सीख न सकी ।' इसे पतिव्रता का धर्म कहते हैं । यह भी एक मार्ग है ।

पठन समाप्त हो गया, श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं । भक्तगण टकटकी लगाये देख रहे हैं, कुछ सुनने के आग्रह से ।

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर, केदार तथा भक्तों से) - यह एक प्रकार से बुरा नहीं । इसे पतिव्रता-धर्म कहते हैं । प्रतिमा में ईश्वर की पूजा तो होती है, फिर जीते-जागते आदमी में क्यों नहीं होगी ! आदमी के रूप में वे ही लीला कर रहे हैं

"कैसी अवस्था बीत चुकी है ! हरगौरी (शिव और दुर्गा) के भाव में कितने ही दिनों तक रहा था । फिर कितने ही दिन श्रीराधाकृष्ण भाव में बीते थे ! कभी सीताराम का भाव था । राधा के भाव में रहकर 'कृष्ण-कृष्ण' कहता था, सीता के भाव में 'राम-राम ।'

"परन्तु लीला ही अन्तिम बात नहीं है । इन सब भावों के बाद मैंने कहा, माँ, इन सब में विच्छेद है। जिसमें विच्छेद नहीं है, ऐसी अवस्था कर दो; इसीलिए अनेक दिन अखण्ड सच्चिदानन्द के भाव में रहा । देवताओं की तस्वीरें मैने कमरे से निकाल दीं । "उन्हें सर्व भूतों में देखने लगा । पूजा उठ गयी । यही बेल का पेड़ है, यहाँ मै बेल-पत्र लेने आया करता था । एक दिन बेलपत्र तोड़ते हुए कुछ छाल निकल गयी । मैने पेड़ में चेतना देखी । मन में कष्ट हुआ । दूर्वादल लेते समय देखा, पहले की तरह मैं चुन नहीं सकता । तब बलपूर्वक चुनने लगा ।

"मै नीबू नहीं काट सकता । उस रोज बड़ी मुश्किल से 'जय काली' कहकर उनके सामने बलि देने की तरह एक नीबू में काट सका था । एक दिन मैं फूल तोड़ रहा था । उसने दिखलाया पेड़ में फूल खिले हुए हैं, जैसे सामने विराट की पूजा हो रही हो - विराट के सिर पर फूल के गुच्छे रखे हुए हों । फिर मैं फूल तोड़ न सका ।

"वे आदमी होकर भी लीलाएँ कर रहे हैं । मैं तो साक्षात् नारायण को देखता हूँ । काठ को घिसने से जिस तरह आग निकल पड़ती है, उसी तरह भक्ति का बल रहने पर आदमी में भी ईश्वर के दर्शन होते हैं । बंसी में अगर बढ़िया मसाला लगाया हो, तो 'रेहू' और 'कातला' फौरन उसे निगल जाती हैं । प्रेमोन्माद होने पर सर्व भूतों में ईश्वर का साक्षात्कार होता है । गोपियों ने सर्व भूतों में श्रीकृष्ण के दर्शन किये थे । सब को कृष्णमय देखा, कहा था, 'मैं ही कृष्ण हूँ ।' तब उनकी उन्मादावस्था थी । पेड़ देखकर उन लोगों ने कहा, 'ये तपस्वी हैं, कृष्ण का ध्यान कर रहे हैं । तृणों को देखकर कहा था, 'श्रीकृष्ण के स्पर्श से पृथ्वी को रोमाञ्च हो रहा है ।’

"पतिव्रता-धर्म में स्वामी देवता है, और यह होगा भी क्यों नहीं ? मूर्ति की पूजा तो होती है, फिर जीते-जागते आदमी की क्यों नहीं होगी ? 

"प्रतिमा में ईश्वर की अनुभूति करने  के लिए तीन बातों की जरूरत होती है - पहली बात, पुजारी में भक्ति हो; दूसरी, प्रतिमा सुन्दर हो, तीसरी गृहस्वामी स्वयं भक्त हो । वैष्णवचरण ने कहा था, अन्त में नरलीला में ही मन लीन हो जाता है ।

"परन्तु एक बात है - उन्हें बिना देखे इस तरह लीला-दर्शन नहीं होता । साक्षात्कार का लक्षण जानते हो ? देखनेवाले का स्वभाव बालक जैसा हो जाता है । बालस्वभाव क्यों होता है ? इसलिए कि ईश्वर स्वयं बालस्वभाव है । अतएव जिसे उनके दर्शन होते हैं, वह भी उसी स्वभाव का हो जाता है

"यह दर्शन होना चाहिए । अब उनके दर्शन भी कैसे हों ? तीव्र वैराग्य होना चाहिए । ऐसा चाहिए कि कहे - 'क्या तुम जगत्पिता हो, तो मैं क्या संसार से अलग हूँ ? मुझ पर तुम दया न करोगे ? – साला !’

"जो जिसकी चिन्ता करता है, उसे उसी की सत्ता मिलती है । शिव की पूजा करने पर शिव की सत्ता मिलती है । श्रीरामचन्द्रजी का एक भक्त था । वह दिन-रात हनुमान की चिन्ता किया करता । वह सोचता था, मैं हनुमान हो गया हूँ । अन्त में उसे दृढ़ विश्वास हो गया कि उसके जरा सी पूँछ भी निकली है । 

“शिव के अंश से ज्ञान होता है, विष्णु के अंश से भक्ति । जिनमें शिव का अंश है, उनका स्वभाव ज्ञानियों जैसा है, जिनमें विष्णु का अंश है, उनका भक्तों जैसा स्वभाव है ।"

मास्टर - चैतन्यदेव के लिए तो आपने कहा था, उनमें ज्ञान और भक्ति दोनों थे ।

श्रीरामकृष्ण - (विरक्तिपूर्वक) - उनकी और बात है । वे ईश्वर के अवतार थे । उनमें और जीवों में बड़ा अन्तर है । उन्हें ऐसा वैराग्य था कि सार्वभौम ने जब जीभ पर चीनी डाल दी, तब चीनी हवा में 'फर-फर' करके उड़ गयी, भीगी तक नहीं । वे सदा ही समाधिमग्न रहते थे । कितने बड़े कामजयी थे वे, जीवों के साथ उनकी तुलना कैसे हो ? सिंह बारह वर्ष में एक बार रमण करता है, परन्तु मांस खाता है; चिड़ियाँ दाने चबाती हैं, परन्तु दिन रात रमण करती है । उसी तरह अवतार और जीव है । जीव काम का त्याग तो करते हैं, परन्तु कुछ दिन बाद कभी भोग कर लेते हैं,  सँभाल नहीं सकते

मास्टर से-लज्जा क्यों ? जो पार हो जाता है, वह आदमी को कीड़े के बराबर देखता है । 'लज्जा, घृणा और भय, ये तीन न रहने चाहिए । ये सब पाश हैं । 'अष्ट पाश' है न ?

“जो नित्यसिद्ध है, उसे संसार का क्या डर ? बँधे घरों का खेल है, पासे फेंकने से कुछ और न पड़ जाय, यह डर उसे फिर नहीं रहता । "जो नित्यसिद्ध है, वह चाहे तो संसार में भी रह सकता है । कोई कोई दो तलवारें भी चला सकते हैं - वे ऐसे खिलाड़ी हैं कि कंकड़ फेंककर मारो तो तलवार में लगकर अलग हो जाता है।"

भक्त - महाराज, किस अवस्था में ईश्वर के दर्शन होते हैं ?

श्रीरामकृष्ण - बिना सब तरफ से मन को समेटे ईश्वर के दर्शन थोड़े ही होते हैं ? भागवत में शुकदेव की बातें हैं - वे रास्ते पर जा रहे थे - मानो संगीन चढ़ाई हुई हो ! किसी ओर नजर नहीं जाती ! एक लक्ष्य - केवल ईश्वर की ओर दृष्टि, योग यह है

"चातक बस स्वाति का जल पीता है । गंगा, यमुना, गोदावरी सब नदियों में पानी भरा हुआ है, सातों सागर पूर्ण है, फिर भी उनका जल वह नहीं पीता । स्वाति में वर्षा होगी तब वह पानी पीयेगा।

"जिसका योग इस तरह का हुआ हो, उसे ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं । थिएटर में जाओ तो जब तक पर्दा नहीं उठता तब तक आदमी बैठे हुए अनेक प्रकार की बातें करते हैं - घर की बातें, आफिस की बातें, स्कूल की बातें, यही सब पर्दा उठा नहीं कि सब बाते बन्द ! जो नाटक हो रहा है, टकटकी लगाये उसे ही देखते हैं । बड़ी देर बाद अगर एक-आध बातें करते भी हैं तो उसी नाटक के सम्बन्ध की ।

"शराबखोर शराब पीने के बाद आनन्द की ही बातें करता है ।”

 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

(४)

🔆🙏पंचवटी में श्रीरामकृष्ण 🔆🙏 .

 नित्यगोपाल सामने बैठे हुए हैं । सदा ही भावस्थ रहते हैं, बिलकुल चुपचाप ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) – गोपाल ! तू तो बस चुपचाप बैठा रहता है ।

नृत्यगोपाल - (बालक की तरह) - मैं नहीं जानता ।

श्रीरामकृष्ण - मैं समझा, तू क्यों कुछ नहीं बोलता । शायद तू अपराध  से डरता है। 

"सच है । जय और विजय नारायण के द्वारपाल थे । सनक सनातन आदि ऋषियों को भीतर जाने से उन्होंने रोका था । इसी अपराध से उन्हें इस संसार में तीन बार जन्म ग्रहण करना पड़ा था ।

 “श्रीदामा गोलोक में विरजा के द्वारी थे । श्रीमती (राधिका) कृष्ण को विरजा के मन्दिर में पकड़ने के लिए उनके द्वार पर गयी थीं, और भीतर घुसना चाहा - श्रीदामा ने घुसने नहीं दिया; इस पर राधिका ने शाप दिया कि तू मर्त्यलोक में असुर होकर पैदा हो । श्रीदामा  ने भी शाप दिया था । (सब मुस्कराये ।) परन्तु एक बात है - बच्चा अगर अपने बाप का हाथ पकड़ता है, तो वह गड्ढे में गिर भी सकता है, परन्तु जिसका हाथ बाप पकड़ता है, उसे फिर क्या भय है ?" 

श्रीदामा  की बात ब्रह्मवैवर्त पुराण में है ।

केदार चैटर्जी इस समय ढाका में रहते हैं । वे सरकारी नौकरी करते हैं । पहले उनका आफिस कलकत्ते में था । अब ढाके में है । वे श्रीरामकृष्ण के परम भक्त हैं । ढाके में बहुत से भक्तों का साथ हो चुका है । वे भक्त सदा ही उनके पास आते और उपदेश ले जाया करते हैं । खाली हाथ दर्शनों के लिए न जाना चाहिए, इस विचार से वे भक्त केदार के लिए मिठाइयाँ ले आया करते हैं।

केदार - (विनयपूर्वक) - क्या मैं उनकी चीजें खाया करूँ ?

श्रीरामकृष्ण - अगर ईश्वर पर भक्ति करके देता हो तो दोष नहीं है । कामना करके देने से वह चीज अच्छी नहीं होती ।

केदार - मैंने उन लोगों से कह दिया है । मैं अब निश्चिन्त हूँ । मैंने कहा है, मुझ पर जिन्होंने कृपा की है, वे सब जानते हैं ।

श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – यह तो सच है, यहाँ बहुत तरह के आदमी आते हैं, वे अनेक प्रकार के भाव भी देखते हैं ।

केदार - मुझे अनेक विषयों के जानने की जरूरत नहीं है ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं जी, जरा जरा सा सब कुछ चाहिए । अगर कोई पंसारी की दूकान खोलता है, तो उसे सब तरह की चीजें रखनी पड़ती हैं । कुछ मसूर की दाल भी चाहिए और कहीं जरा इमली भी रख ली - यह सब रखना ही पड़ता है । "जो बाजे का उस्ताद है, वह कुछ कुछ सब तरह के बाजे बजा सकता है ।"

श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले में शौच के लिए गये । एक भक्त गड्डुआ लेकर वहीं रख आये ।भक्तगण इधर-उधर घूम रहे हैं । कोई श्रीठाकुरमन्दिर की ओर चले गये, कोई पंचवटी की ओर लौट रहे हैं। श्रीरामकृष्ण ने वहाँ आकर कहा - "दो तीन बार शौच के लिए जाना पड़ा, मल्लिक के यहाँ का खाना - घोर विषयी है, पेट गरम हो गया ।”

श्रीरामकृष्ण के पान का डब्बा पंचवटी के चबूतरे पर अब भी पड़ा हुआ है; और भी दो एक चीजें पड़ी हुई हैं ।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा - "वह डब्बा, और क्या क्या है, कमरे में ले आओ ।” यह कहकर श्रीरामकृष्ण अपने कमरे की ओर जाने लगे । पीछे पीछे भक्त भी आ रहे हैं । किसी के हाथ में पान का डब्बा है, किसी के हाथ में गडुआ आदि ।

श्रीरामकृष्ण दोपहर के बाद कुछ विश्राम कर रहे हैं । दो-चार भक्त भी वहाँ आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर एक छोटे तकिये के सहारे बैठे हुए हैं ।  

एक भक्त ने पूछा – "महाराज, ज्ञान के द्वारा क्या ईश्वर के गुण समझे जाते हैं ?"

श्रीरामकृष्ण ने कहा - "वे इस ज्ञान से नहीं समझे जाते; एकाएक क्या कभी कोई उन्हें जान सकता है ? साधना करनी चाहिए । एक बात और, किसी भाव का आश्रय लेना । जैसे दासभाव । ऋषियों का शान्तभाव था । ज्ञानियों का भाव क्या है, जानते हो ? स्वरूप की चिन्ता करना । (एक भक्त के प्रति हँसकर) तुम्हारा क्या है ?"

भक्त चुपचाप बैठे रहे ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - तुम्हारे दो भाव हैं । स्वरूपचिन्ता करना भी है और सेव्य-सेवक का भाव भी है । क्यों, ठीक है या नहीं ?

भक्त - (सहास्य और ससंकोच) - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - इसीलिए हाजरा कहता है, तुम मन की बातें सब समझ लेते हो । यह भाव कुछ बढ़ जाने पर होता है । प्रह्लाद को हुआ था । 

"परन्तु उस भाव की साधना के लिए कर्म चाहिए

"एक आदमी बेर का काँटा एक हाथ से दबाकर पकड़े हुए हैं - हाथ से खून टप-टप गिर रहा है, फिर भी वह कहता है, मुझे कुछ नहीं हुआ । लगा नहीं । पूछने पर कहता है, मैं खूब अच्छा हूँ । मुझे कुछ नहीं हुआ । पर यह बात केवल जबान से कहने से क्या होगा ? भाव की साधना होनी चाहिए ।”

=======================