परिच्छेद १०६.
(१)
[ (22 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]
🔆🙏कीर्तनानन्द में भी, श्रीरामकृष्ण का नरेन्द्र के प्रति विशेष प्रेम🔆🙏
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में उत्तर-पूर्ववाले लम्बे बरामदे में गोपी-गोष्ठ तथा सुबल-मिलन-कीर्तन सुन रहे हैं । नरोत्तम कीर्तन कर रहे हैं । आज फाल्गुन शुक्लाष्टमी है, रविवार 22 फरवरी, 1885 ई. । भक्तगण उनका जन्म-महोत्सव मना रहे हैं । गत सोमवार, फाल्गुन शुक्ल द्वितीया के दिन उनकी जन्मतिथि थी । नरेन्द्र, राखाल, बाबूराम, भवनाथ, सुरेन्द्र, गिरीन्द्र, विनोद, हाजरा, रामलाल, राम, नित्यगोपाल, मणि मल्लिक, गिरीश, सींती के महेन्द्र वैद्य आदि अनेक भक्तों का समागम हुआ है । कीर्तन प्रातः काल से ही चल रहा है । अब सुबह आठ बजे का समय होगा । मास्टर ने आकर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने पास बैठने का इशारा किया ।
कीर्तन सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट हो गये हैं । श्रीकृष्ण को गौएँ चराने के लिए आने में विलम्ब हो रहा है । कोई ग्वाला कह रहा है, 'यशोदा माई आने नहीं दे रही हैं ।' बलराम (बलाई) जिद करके कह रहे हैं, 'मैं सींग बजाकर कन्हैया को ले आऊँगा ।' बलराम (बलाई) का प्रेम अगाध है !
कीर्तनकार फिर गा रहे हैं । श्रीकृष्ण बंसरी बजा रहे हैं । गोपियाँ और गोप बालकगण बंसरी की ध्वनि सुन रहे हैं और उनमें अनेकानेक भाव उठ रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठकर कीर्तन सुन रहे हैं । एकाएक नरेन्द्र की ओर उनकी दृष्टि पड़ी । नरेन्द्र पास ही बैठे थे । श्रीरामकृष्ण खड़े होकर समाधिमग्न हो गये । नरेन्द्र के घुटने को एक पैर से छूकर खड़े हैं ।
श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ होकर फिर बैठे । नरेन्द्र सभा से उठकर चले गये । कीर्तन चल रहा है ।
श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम से धीरे धीरे कहा, 'कमरे में खीर है, जाकर नरेन्द्र को दे दो ।'
क्या श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के भीतर साक्षात् नारायण का दर्शन कर रहे हैं ?
कीर्तन के बाद श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आये हैं और नरेन्द्र को प्यार के साथ मिठाई खिला रहे हैं ।
गिरीश का विश्वास है कि ईश्वर श्रीरामकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए हैं ।
गिरीश - (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आपके सभी काम श्रीकृष्ण की तरह हैं । श्रीकृष्ण जैसे यशोदा के पास तरह तरह के ढोंग करते थे ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, श्रीकृष्ण अवतार जो हैं । नरलीला में उसी प्रकार होता है । इधर गोवर्धन पहाड़ को धारण किया था, और उधर नन्द के पास दिखा रहे हैं कि पीढ़ा उठाने में भी कष्ट हो रहा है !
गिरीश – समझा । आपको अब समझ रहा हूँ ।
श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हैं । दिन के ग्यारह बजे का समय होगा । राम आदि भक्तगण श्रीरामकृष्ण को नवीन वस्त्र पहनायेंगे । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "नहीं, नहीं ।" एक अंग्रेजी पढ़े हुए व्यक्ति को दिखाकर कह रहे हैं, "वे क्या कहेंगे !" भक्तों के बहुत जिद करने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, “तुम लोग कह रहे हो, अच्छा लाओ, पहन लेता हूँ ।”
भक्तगण उसी कमरे में श्रीरामकृष्ण के भोजन आदि की तैयारी कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को जरा गाने के लिए कह रहे हैं । नरेन्द्र गा रहे हैं –
(भावार्थ) - "माँ, घने अन्धकार में तेरा रूप चमकता है । इसीलिए योगी पर्वत की गुफा में निवास करता हुआ ध्यान लगाता है । तुम्हारे अभय चरणकमलों में प्रेम की जो बिजली चमकती हैं, वही तुम्हारे चिन्मय मुखमण्डल पर हास्य बन कर शोभायमान है । अनन्त अन्धकार की गोदी में, महानिर्वाण के हिल्लोल में चिर शान्ति का परिमल लगातार बहता जा रहा है । महाकाल का रूप धारण कर, अन्धकार का वस्त्र पहन, माँ, समाधिमन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ? तुम्हारे अभय चरण कमलों में प्रेम की बिजली चमकती है , तुम्हारे चिन्मय मुखमण्डल पर हास्य शोभायमान है। "
नरेन्द्र ने ज्योंही गाया, 'माँ, समाधि मन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ? - उसी समय श्रीरामकृष्ण बाह्यज्ञान-शून्य होकर समाधिमग्न हो गये । बहुत देर बाद समाधि भंग होने पर भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को भोजन के लिए आसन पर बैठाया । अभी भी भाव का आवेश है । भात खा रहे हैं, परन्तु दोनों हाथ से भवनाथ से कह रहे हैं, "तू खिला दे !" भाव का आवेश अभी है, इसीलिए स्वयं खा नहीं पा रहे हैं । भवनाथ उन्हें खिला रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण ने बहुत कम भोजन किया । भोजन के बाद राम कह रहे हैं, "नित्यगोपाल आपकी जूठी थाली में खायेगा ।"
श्रीरामकृष्ण - मेरी जूठी थाली में ? क्यों ?
राम - क्यों क्या हुआ ? भला आपको जूठी थाली में क्यों न खाये ?
नित्यगोपाल को भावमग्न देखकर श्रीरामकृष्ण ने एक-दो कौर खिला दिये ।
अब कोन्नगर के भक्तगण नाव पर सवार होकर आये हैं । उन्होंने कीर्तन करते हुए श्रीरामकृष्ण के कमरे में प्रवेश किया । कीर्तन के बाद वे जलपान करने के लिए बाहर गये । नरोत्तम कीर्तनकार श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण नरोत्तम आदि से कह रहे हैं, "इनका मानो नाव चलानेवाला गाना !" गाना ऐसा होना चाहिए कि सभी नाचने लगें । इस प्रकार के गाने गाने चाहिए – "नदे टलमल करे , गौर प्रेमेर हिल्लोले रे।"
(भावार्थ) - " ओ रे ! गौर-प्रेम की हिलोर से सारा नदिया शहर झूम रहा है ।’
(नरोत्तम के प्रति) - "उसके साथ यह कहना होता है –
(भावार्थ) – “ओ रे ! 'हरिनाम कहते ही जिनके आँसू झरते हैं, वे दोनों भाई (गौरांग और नित्यानन्द ^ ) आये हैं । ओ रे ! जो मार खाकर प्रेम देना चाहते हैं, वे दो भाई आये हैं । ओ रे, जो स्वयं रोकर जगत् को रुलाते हैं, वे दो भाई आये है । ओ रे ! जो स्वयं मतवाले बनकर दुनिया को मतवाला बनाते हैं, वे दो भाई आये हैं। ओ रे! जो चण्डाल तक को गोदी में उठा लेते हैं, वे दो भाई आये हैं !!”
"फिर यह भी गाना चाहिए –
(भावार्थ) – “हे प्रभो, गौर निताई, तुम दोनों भाई परम दयालु हो । हे नाथ, यही सुनकर मैं आया हूँ, सुना है कि तुम चण्डाल तक को गोदी में उठा लेते हो, और गोदी में उठाकर उसे हरि नाम करने को कहते हो ।"
[ (22 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]
(२)
🔆🙏भक्तों के साथ वार्तालाप 🔆🙏
अब भक्तगण प्रसाद पा रहे हैं । चिउड़ा मिठाई आदि अनेक प्रकार के प्रसाद पाकर वे तृप्त हुए । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, "मुखर्जियों को नहीं कहा था । सुरेन्द्र से कहो, बाऊलों (गवैयों) को खिला दें ।"
श्री बिपिन सरकार आये हैं । भक्तों ने कहा, "इनका नाम बिपिन सरकार है ।" श्रीरामकृष्ण उठकर बैठे और विनीत भाव से बोले, "इन्हें आसन दो और पान दो ।" उनसे कह रहे हैं, "आपके साथ बात न कर सका, आज बड़ी भीड़ है ।"
गिरीन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम से कहा, "इन्हें एक आसन दो ।" नित्यगोपाल को जमीन पर बैठा देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "उसे भी एक आसन दो ।"
सींती के महेन्द्र वैद्य आये हैं । श्रीरामकृष्ण हँसते हुए राखाल को इशारा कर रहे हैं, "हाथ दिखा लो।"
रामलाल से कह रहे हैं, "गिरीश घोष के साथ दोस्ती कर, तो थिएटर देख सकेगा ।" (हँसी)
नरेन्द्र हाजरा महाशय से बरामदे में बहुत देर तक बातचीत कर रहे थे । नरेन्द्र के पिता के देहान्त के बाद घर में बड़ा ही कष्ट हो रहा है । अब नरेन्द्र कमरे के भीतर आकर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र के प्रति) - तू क्या हाजरा के पास बैठा था ? तू विदेशी है, और वह विरही ! हाजरा को भी डेढ़ हजार रूपयों की आवश्यकता है । (हँसी)
"हाजरा कहता है, 'नरेन्द्र में सोलह आना सतोगुण आ गया है, परन्तु रजोगुण की जरा लाली है । मेरा विशुद्ध सत्व, सत्रह आना ।' (सभी की हँसी)
"मैं जब कहता है, "तुम केवल विचार करते हो, इसीलिए शुष्क हो, तो वह कहता है, 'मैं सूर्य की सुधा पीता हूँ, इसीलिए शुष्क हूँ ।'
"मैं जब शुद्धा भक्ति की बात कहता हूँ, जब कहता हूँ कि शुद्ध भक्त रुपया-पैसा, ऐश्वर्य कुछ भी नहीं चाहता ! तो वह कहता है, 'उनकी कृपा की बाढ़ आने पर नदी तो भर जायेगी ही, फिर गढ़े-नाले भी अपने आप ही भर जायेंगे । शुद्धा भक्ति भी होती है और षडैश्वर्य भी होते हैं । रुपये-पैसे भी होते हैं ।"
श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर नरेन्द्र आदि अनेक भक्त बैठे हैं, गिरीश भी आकर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - मैं नरेन्द्र को आत्मा स्वरूप मानता हूँ । और मैं उसका अनुगत हूँ। गिरीश - क्या कोई ऐसा है जिसके आप अनुगत नहीं भी हैं ?
श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - उसका है मर्द का भाव (पुरुषभाव) और मेरा औरत-भाव (प्रकृतिभाव) । नरेन्द्र का ऊँचा घर, अखण्ड का घर है ।
गिरीश तम्बाकू पीने के लिए बाहर गये ।
नरेन्द्र (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - गिरीश घोष के साथ वार्तालाप हुआ, बहुत बड़े आदमी हैं । आपकी चर्चा हो रही थी ।
श्रीरामकृष्ण - क्या चर्चा ?
नरेन्द्र - आप लिखना-पढ़ना नहीं जानते हैं, हम सब पण्डित हैं, यही सब बातें हो रही थी । (हँसी)
मणि मल्लिक (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आप बिना पढ़े पण्डित हैं ।
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र आदि के प्रति ) - सच कहता हूँ, मुझे इस बात का जरा भी दुःख नहीं होता कि मैंने वेदान्त आदि शास्त्र नहीं पढ़े । मैं जानता हूँ, वेदान्त का सार है - 'ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है’ । फिर गीता का सार क्या है ? गीता का दस बार उच्चारण करने पर जो होता है, अर्थात् त्यागी, त्यागी !
"शास्त्र का सार श्रीगुरुमुख से जान लेना चाहिए । उसके बाद साधन-भजन । एक आदमी को किसी ने पत्र लिखा था । पत्र पढ़ा भी न गया था कि खो गया । तब सब मिलकर ढूँढ़ने लगे । जब पत्र मिला, पढ़कर देखा, लिखा था - 'पाँच सेर सन्देश और एक धोती भेज दो ।' पढ़कर उसने पत्र को फेंक दिया और पाँच सेर सन्देश और एक धोती का प्रबन्ध करने लगा । इसी प्रकार शास्त्रों का सार जान लेने पर फिर पुस्तकें पढ़ने की क्या आवश्यकता ? अब साधन-भजन ।"
अब गिरीश कमरे में आये हैं ।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - हाँ जी, मेरी बात तुम लोग सब क्या कह रहे थे ? मैं खाता-पीता और मजे में रहता हूँ ।
गिरीश - आपकी बात और क्या कहूँगा आप क्या साधु हैं ?
श्रीरामकृष्ण - साधु वाधु नहीं । सच ही तो मुझ में साधु-बोध नहीं है ।
गिरीश - मजाक में भी आप से हार गया ।
श्रीरामकृष्ण - मैं लाल किनारी की धोती पहनकर जयगोपाल सेन के बगीचे में गया था । केशव सेन वहाँ पर था । केशव ने लाल किनारी की धोती देखकर कहा, 'आज तो खूब रंग दीख रहा है ! लाल किनारी की बड़ी बहार है !' मैंने कहा, 'केशव का मन भुलाना होगा, इसीलिए बहार लेकर आया हूँ ।"
अब फिर नरेन्द्र का संगीत होगा । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से तानपूरा उतार देने के लिए कहा । नरेन्द्र बहुत देर से तानपूरे को बाँध रहे हैं । श्रीरामकृष्ण तथा सभी लोग अधीर हो गये हैं । विनोद कह रहे हैं, "आज बाँधना होगा, गाना किसी दूसरे दिन होगा !” (सभी हँसते हैं ।)
श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं और कह रहे हैं, “ऐसी इच्छा हो रही है कि तानपूरे तोड़ डालूँ । क्या 'टंग टंग' - फिर 'ताना नाना तेरे नुम्' होगा ।"
भवनाथ - जात्रा संगीत के प्रारम्भ में ऐसी ही तंगी मालूम होती है ।
नरेन्द्र (बाँधते बाँधते) - न समझने से ही ऐसा होता है ।
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - देखो, हम सभी को उड़ा दिया !
नरेन्द्र गाना गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे सुन रहे हैं । नित्यगोपाल आदि भक्तगण जमीन पर बैठे सुन रहे हैं।
(भावार्थ) - (१) "ओ माँ, अन्तर्यामिनी, तुम मेरे हृदय में जाग रही हो, रात-दिन मुझे गोदी में लिये बैठी हो ।"
(२) "गाओ रे आनन्दमयी का नाम, ओ मेरे प्राणों को आराम देनेवाली एकतन्त्री ।”
(३) "माँ, घने अन्धकार में तेरा निराकार -रूप चमकता है ! अर्थात- " माँ , घने अँधकार में तेरा निराकार सौन्दर्य निखर उठता है । इसीलिए योगी पहाड़ की गुफा में रहकर ध्यान करता रहता है।"
श्रीरामकृष्ण भावविभोर होकर नीचे उतर आये हैं और नरेन्द्र के पास बैठे हैं । भावविभोर होकर बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - गाना गाऊँ ? नहीं, नहीं (नित्यगोपाल के प्रति) तू क्या कहता है ? उद्दीपन के लिए सुनना चाहिए । उसके बाद क्या आया और क्या गया !
“उसने आग लगा दी, सो तो अच्छा है । उसके बाद चुप । अच्छा, मैं भी तो चुप हूँ, तू भी चुप रह। "आनन्द-अमृत" में मग्न होने से वास्ता !
"गाना गाऊँ ? अच्छा, गाया भी जा सकता है । जल स्थिर रहने से भी जल है, और हिलने-डुलने पर भी जल है ।"
🔆🙏नरेन्द्र को शिक्षा - ज्ञान-अज्ञान से परे रहो "🔆🙏
नरेन्द्र पास बैठे हैं । उनके घर में कष्ट है, इसीलिए वे सदा ही चिन्तित रहते हैं । वे साधारण ब्राह्मसमाज में आते-जाते रहते हैं । अभी भी सदा ज्ञान-विचार करते हैं, वेदान्त आदि ग्रन्थ पढ़ने की बहुत ही इच्छा है । इस समय उनकी आयु तेईस वर्ष की होगी । श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (हँसकर नरेन्द्र के प्रति) - तू तो 'ख' (आकाश की तरह) है, परन्तु यदि टैक्स* न रहता ! (सभी की हँसी) (*अर्थात् घर की चिन्ता ।)
"कृष्णकिशोर कहा करता था, मैं 'ख' हूँ । एक दिन उसके घर जाकर देखता हूँ तो वह चिन्तित होकर बैठा है, अधिक बात नहीं कर रहा है । मैंने पूछा, 'क्या हुआ जी, इस तरह क्यों बैठे हो ?' उसने कहा, 'टैक्सवाला आया था, कह गया, यदि रुपये न दोगे, तो घर का सब सामान नीलाम कर लेंगे । इसीलिए मुझे चिन्ता हुई है ।' मैंने हँसते हँसते कहा, "यह कैसी बात है जी, तुम तो 'ख' (आकाश) की तरह हो । जाने दो, सालों को सब सामान ले जाने दो, तुम्हारा क्या ?"
“इसीलिए तुझे कहता हूँ, तू तो 'ख' है - इतनी चिन्ता क्यों कर रहा है ? जानता है, श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था, 'अष्टसिद्धि में से एक सिद्धि के रहते कुछ शक्ति हो सकती है, परन्तु मुझे न पाओगे ।' सिद्धि द्वारा अच्छी शक्ति, बल, धन ये सब प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती ।
"एक और बात । ज्ञान-अज्ञान से परे रहो । कई कहते हैं, अमुक बड़े ज्ञानी हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है । वशिष्ठ इतने बड़े ज्ञानी थे परन्तु पुत्रशोक से बेचैन हुए थे । तब लक्ष्मण ने कहा, 'राम, यह क्या आश्चर्य है ! ये भी इतने शोकार्त हैं !' राम बोले, 'भाई, जिसका ज्ञान है, उसका अज्ञान भी है, जिसको आलोक का बोध है, उसे अन्धकार का भी है, जिसे सुख का बोध है, उसे दुःख का भी है, जिसे भले का बोध है, उसे बुरे का भी है । भाई, तुम दोनों से परे चले जाओ, सुख-दुःख से परे जाओ, ज्ञान-अज्ञान से परे जाओ ।’ इसीलिए तुझे कहता हूँ, ज्ञान-अज्ञान दोनों से परे चला जा ।"
(३)
[ (22 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]
🙏गृहस्थ तथा दानधर्म । मनोयोग तथा कर्मयोग🙏
श्रीरामकृष्ण फिर छोटे तखत पर आकर बैठे हैं । भक्तगण अभी भी जमीन पर बैठे हैं । सुरेन्द्र उनके पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण उनकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देख रहे हैं और बातचीत के सिलसिले में उन्हें अनेकों उपदेश दे रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (सुरेन्द्र के प्रति) - बीच बीच में आते जाना । नागा कहा करता था, लोटा रोज रगड़ना चाहिए, नहीं तो मैला पड़ जायेगा । साधुसंग सदैव ही आवश्यक है ।
"कामिनी कांचन का त्याग संन्यासी के लिए है, तुम लोगों के लिए वह नहीं । तुम लोग बीच-बीच में निर्जन में जाना और उन्हें व्याकुल होकर पुकारना । तुम लोग मन में त्याग करना ।
"भक्त, वीर हुए बिना भगवान् तथा संसार दोनों ओर ध्यान नहीं रख सकता । जनक राजा साधन-भजन के बाद सिद्ध होकर संसार में रहे थे । वे दो तलवारें घुमाते थे – ज्ञान और कर्म ।"
यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं –
(भावार्थ) - "यह संसार आनन्द की कुटिया है । यहाँ मैं खाता, पीता और मजा लूटता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी थे । उन्हें किस बात की कमी थी ! उन्होंने 'भगवान और संसार' दोनों बातों को सँभालते हुए दूध पिया था ।"
श्रीरामकृष्ण - "तुम्हारे लिए चैतन्यदेव ने जो कहा था, " जीवों पर दया, भक्तों की सेवा और नामसंकीर्तन ।"
"तुम्हें क्यों कह रहा हूँ ? तुम 'हौस' में काम कर रहे हो । अनेक काम करने पड़ते है, इसलिए कह रहा हूँ । (House - व्यापारी की दुकान)
"तुम आफिस में झूठ बोलते हो, फिर भी तुम्हारी चीजें क्यों खाता हूँ ? तुम दान, ध्यान जो करते हो । तुम्हारी जो आमदनी है उससे अधिक दान करते हो । कहावत है न - बारह हाथ ककड़ी का तेरह हाथ बीज!
"कंजूस की चीज मैं नहीं खाता हूँ । उनका धन इतने प्रकारों से नष्ट हो जाता है – मामला मुकदमा में, चोर-डकैतों से, डाक्टरों में, फिर बदचलन लड़के सब धन उड़ा देते है, यही सब है ।
"तुम जो दान, ध्यान करते हो, बहुत अच्छा है । जिनके पास धन है उन्हें दान करना चाहिए । कंजूस का धन उड़ जाता है । दाता के धन की रक्षा होती है, सत्कर्म में जाता है । कामारपुकुर में किसान लोग नाला काटकर खेत में जल लाते हैं । कभी कभी जल का इतना वेग होता है कि खेत का बाँध टूट जाता है और जल निकल जाता है, अनाज बरबाद हो जाता है; इसीलिए किसान लोग बाँध के बीच बीच में सूराख बनाकर रखते हैं, इसे 'घोघी' कहते हैं । जल थोड़ा थोड़ा करके घोघी में से होकर निकल जाता है, तब जल के वेग से बाँध नहीं टूटता और खेत पर मिट्टी की परतें जम जाती हैं । उससे खेत उर्वर बन जाता है और बहुत अनाज पैदा होता है । जो दान, ध्यान करता है वह बहुत फल प्राप्त करता है, चतुर्वर्ग फल- (चारो पुरुषार्थ) ।"
भक्तगण सभी श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से दानधर्म की यह कथा एक मन से सुन रहे हैं ।
सुरेन्द्र - मैं अच्छा ध्यान नहीं कर पाता । बीच बीच में 'माँ माँ' कहता हूँ । और सोते समय 'माँ माँ' कहते कहते सो जाता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - ऐसा होने से ही काफी है । स्मरण-मनन तो है न ?
"मनोयोग और कर्मयोग । पूजा, तीर्थ, जीवसेवा आदि तथा गुरु के उपदेश के अनुसार कर्म करने का नाम है कर्मयोग । जनक आदि जो कर्म करते थे, उसका नाम भी कर्मयोग है । योगी लोग जो स्मरण-मनन करते हैं उसका नाम है मनोयोग ।
"फिर कालीमन्दिर में जाकर सोचता हूँ 'माँ, मन भी तो तुम हो !' इसीलिए शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा एक ही चीज हैं ।"
सन्ध्या हो रही है । अनेक भक्त श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर घर लौट रहे हैं । श्रीरामकृष्ण पश्चिम के बरामदे में गये हैं । भवनाथ और मास्टर साथ हैं ।
श्रीरामकृष्ण (भवनाथ के प्रति) - तू इतनी देर में क्यों आता है ?
भवनाथ (हँसकर) - जी, पन्द्रह दिनों के बाद दर्शन करता हूँ । उस दिन आपने स्वयं ही रास्ते में दर्शन दिया । इसलिए फिर नहीं आया ।
श्रीरामकृष्ण - यह कैसी बात है रे ! केवल दर्शन से क्या होता है ? स्पर्शन, वार्तालाप ये सब भी तो चाहिए ।