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शुक्रवार, 22 जुलाई 2022

卐🙏卐🙏 परिच्छेद- 106 [ (22 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]🔆🙏कीर्तनानन्द में भी, श्रीरामकृष्ण का नरेन्द्र के प्रति विशेष प्रेम🔆🙏 🙏'माँ', समाधि मन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ?🙏🔆🙏"नदे टलमल करे , गौर प्रेमेर हिल्लोले रे।" 🔆🙏🔆🙏श्री रामकृष्ण अपने जन्मोत्स्व के दिन भक्तों के साथ वार्तालाप करते हुए 🔆🙏卐🙏नरेन्द्र आत्मा का स्वरुप है, आकारहीन सिंह -गर्जन है, अखंड के घर का है, लेकिन जगत में आकर उसे भी शक्ति (अवतार) को मानना पड़ेगा !卐🙏卐🙏`वेदान्तडिण्डिमः ~"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या !" 卐🙏 🔆🙏नरेंद्र के गीत -'निबिड़ आंधारे माँ तोर चमके अरूप-राशि'और श्री रामकृष्ण🔆🙏 🔆🙏नरेन्द्र को शिक्षा - "भाई, द्वैत से परे रहो "🔆🙏卐🙏गृहस्थ तथा दानधर्म । मनोयोग तथा कर्मयोग卐🙏卐🙏गृहस्थ को कामिनी- कांचन में आसक्ति का त्याग करना चाहिए卐🙏 卐🙏तंत्र में महाकाली का ध्यान - गहरा अर्थ 卐🙏 卐🙏 श्री रामकृष्ण क्या अवतार हैं - परमहंस अवस्था卐🙏卐🙏अवतारी महापुरुष की कृपा से -मैं क्या था, क्या हुआ हूँ !卐🙏卐वेदान्तडिण्डिमः- डरो मत ! 🙏卐🙏 राम नाम का रहस्य 卐🙏

 परिच्छेद १०६.

(१)

 [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

🔆🙏कीर्तनानन्द में भी, श्रीरामकृष्ण का नरेन्द्र के प्रति विशेष प्रेम🔆🙏  

      श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में उत्तर-पूर्ववाले लम्बे बरामदे में गोपी-गोष्ठ तथा सुबल-मिलन-कीर्तन सुन रहे हैं । नरोत्तम कीर्तन कर रहे हैं । आज फाल्गुन शुक्लाष्टमी है, रविवार 22 फरवरी, 1885 ई. । भक्तगण उनका जन्म-महोत्सव मना रहे हैं । गत सोमवार, फाल्गुन शुक्ल द्वितीया के दिन उनकी जन्मतिथि थी । नरेन्द्र, राखाल, बाबूराम, भवनाथ, सुरेन्द्र, गिरीन्द्र, विनोद, हाजरा, रामलाल, राम, नित्यगोपाल, मणि मल्लिक, गिरीश, सींती के महेन्द्र वैद्य आदि अनेक भक्तों का समागम हुआ है । कीर्तन प्रातः काल से ही चल रहा है । अब सुबह आठ बजे का समय होगा । मास्टर ने आकर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने पास बैठने का इशारा किया ।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে উত্তর-পূর্ব লম্বা বারান্দায় গোপীগোষ্ঠ ও সুবল-মিলন কীর্তন শুনিতেছেন। নরোত্তম কীর্তন করিতেছেন। আজ রবিবার, ২২শে ফেব্রুয়ারি ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ, ১২ই ফাল্গুন, ১২৯১, শুক্লাষ্টমী। ভক্তেরা তাঁহার জন্মমহোৎসব করিতেছেন। গত সোমবার ফাল্গুন শুক্লা দ্বিতীয়া তাঁহার জন্মতিথি গিয়াছে।  নরেন্দ্র, রাখাল, বাবুরাম, ভবনাথ, সুরেন্দ্র, গিরীন্দ্র, বিনোদ, হাজরা, রামলাল, রাম, নিত্যগোপাল, মণি মল্লিক, গিরিশ, সিঁথির মহেন্দ্র কবিরাজ প্রভৃতি অনেক ভক্তের সমাগম হইয়াছে। কীর্তন প্রাতঃকাল হইতেই হইতেছে, এখন বেলা ৮টা হইবে। মাস্টার আসিয়া প্রণাম করিলেন। ঠাকুর ইঙ্গিত করিয়া কাছে বসিতে বলিলেন।

SRI RAMAKRISHNA was sitting on the northeast verandah outside his room at Dakshineswar. It was about eight o'clock in the morning. Many devotees, including Narendra, Rakhal, Girish, Baburam, and Surendra, were present. They were celebrating the Master's birthday, which had fallen on the previous Monday. M. arrived and saluted him. The Master signed to him to take a seat near him.

कीर्तन सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट हो गये हैं । श्रीकृष्ण को गौएँ चराने के लिए आने में विलम्ब हो रहा है । कोई ग्वाला कह रहा है, 'यशोदा माई आने नहीं दे रही हैं ।' बलराम (बलाई)  जिद करके कह रहे हैं, 'मैं सींग बजाकर कन्हैया को ले आऊँगा ।' बलराम (बलाई) का प्रेम अगाध है !

[কীর্তন শুনিতে শুনিতে ঠাকুর ভাবাবিষ্ট হইয়াছেন। শ্রীকৃষ্ণের গোচারণে আসিতে দেরি হইতেছে। কোন রাখাল বলিতেছেন, মা যশোদা আসিতে দিতেছেন না। বলাই (Balai-बलराम) রোখ করিয়া বলিতেছে, আমি শিঙ্গা বাজিয়ে কানাইকে আনিব। বলাই-এর অগাধ প্রেম।

Narottam was singing kirtan. Sri Ramakrishna was in partial ecstasy. The subject was Krishna's meeting with His cowherd friends in the meadow. Krishna had not yet arrived. The cowherd boys were restless for Him. One of them said that Mother Yasoda was preventing Krishna from coming. Balai said in a determined voice that he would bring Krishna with the sound of his horn. 

कीर्तनकार फिर गा रहे हैं । श्रीकृष्ण बंसरी बजा रहे हैं । गोपियाँ और गोप बालकगण बंसरी की ध्वनि सुन रहे हैं और उनमें अनेकानेक भाव उठ रहे हैं ।

[কীর্তনিয়া আবার গাহিতেছেন। শ্রীকৃষ্ণ বংশীধ্বনি করিতেছেন। গোপীরা, রাখালেরা, বংশীরব শুনিতেছেন, তাহদের নানাভাব উদয় হইতেছে।

Balai's love for Krishna knew no bounds. The music went on. The cowherd boys and girls heard Krishna's flute and were filled with spiritual emotion.

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठकर कीर्तन सुन रहे हैं । एकाएक नरेन्द्र की ओर उनकी दृष्टि पड़ी । नरेन्द्र पास ही बैठे थे । श्रीरामकृष्ण खड़े होकर समाधिमग्न हो गये । नरेन्द्र के घुटने को एक पैर से छूकर खड़े हैं ।

[ঠাকুর বসিয়া ভক্তসঙ্গে কীর্তন শুনিতেছেন। হঠাৎ নরেন্দ্রের দিকে তাঁহার দৃষ্টিপাত হইল। নরেন্দ্র কাছেই বসিয়াছিলেন, ঠাকুর দাঁড়াইয়া সমাধিস্থ। নরেন্দ্রের জানু এক পা দিয়া স্পর্শ করিয়া দাঁড়াইয়াছেন।

Suddenly Sri Ramakrishna's eyes fell on Narendra, who was sitting very near him. He stood up and went into samadhi; he stood there touching Narendra's knee with his foot. Regaining consciousness he took his seat again. Narendra left the room. The music went on.

श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ होकर फिर बैठे । नरेन्द्र सभा से उठकर चले गये । कीर्तन चल रहा है ।

[ঠাকুর প্রকৃতিস্থ হইয়া আবার বসিলেন। নরেন্দ্র সভা হইতে উঠিয়া গেলেন। কীর্তন চলিতেছে।

श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम से धीरे धीरे कहा, 'कमरे में खीर है, जाकर नरेन्द्र को दे दो ।'

[শ্রীরামকৃষ্ণ বাবুরামকে আস্তে আস্তে বলিলেন, ঘরে ক্ষীর আছে নরেন্দ্রকে দিগে যা।

Sri Ramakrishna whispered to Baburam: "There is kshir in the room. Give Narendra some."

क्या श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के भीतर साक्षात् नारायण का दर्शन कर रहे हैं ?

[ঠাকুর কি নরেন্দ্রের ভিতর সাক্ষাৎ নারায়ণদর্শন করিতেছিলেন!

Did the Master see Narendra as the embodiment of God?

कीर्तन के बाद श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आये हैं और नरेन्द्र को प्यार के साथ मिठाई खिला रहे हैं ।

[কীর্তনান্তে শ্রীরামকৃষ্ণ নিজের ঘরে আসিয়াছেন ও নরেন্দ্রকে আদর করিয়া মিঠাই খাওয়াইতেছেন।

After the kirtan Sri Ramakrishna returned to his room. Tenderly he began to feed Narendra with sweets.

गिरीश का विश्वास है कि ईश्वर श्रीरामकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए हैं ।

[গিরিশের বিশ্বাস যে, ঈশ্বর শ্রীরামকৃষ্ণরূপে অবতীর্ণ হইয়াছেন।

It was Girish's belief that God Himself had been born in the person of Sri Ramakrishna.

गिरीश - (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आपके सभी काम श्रीकृष्ण की तरह हैं । श्रीकृष्ण जैसे यशोदा के पास तरह तरह के ढोंग करते थे ।

[গিরিশ (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — আপনার সব কার্য শ্রীকৃষ্ণের মতো। শ্রীকৃষ্ণ গোবর্ধনগিরি ধারণ করেছিলেন, আর নন্দের কাছে দেখাচ্ছেন, পিঁড়ে বয়ে নিয়ে যেতে কষ্ট হচ্ছে!

GIRISH (to the Master): "Your ways are like Krishna's. He too pretended many things to His mother Yasoda."

श्रीरामकृष्ण - हाँ, श्रीकृष्ण अवतार जो हैं । नरलीला में उसी प्रकार होता है । इधर गोवर्धन पहाड़ को धारण किया था, और उधर नन्द के पास दिखा रहे हैं कि पीढ़ा उठाने में भी कष्ट हो रहा है !

[MASTER: "True. It was because Krishna was an Incarnation of God. When God is born as a man He acts that way. You see, Krishna easily lifted the hill of Govardhan with His hand, but He made Nanda believe that He found it very hard to carry a footstool."

गिरीश – समझा । आपको अब समझ रहा हूँ ।

[গিরিশ — বুঝেছি, আপনাকে এখন বুঝেছি।

GIRISH: "Yes, sir, I have understood you now."

[ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

🙏'माँ', समाधि मन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ?🙏

[दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का जन्म-महोत्सव] 

[জন্মোৎসবে নববস্ত্র পরিধান, ভক্তগণকর্তৃক সেবা ও সমাধি ]

श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हैं । दिन के ग्यारह बजे का समय होगा । राम आदि भक्तगण श्रीरामकृष्ण को नवीन वस्त्र पहनायेंगे । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "नहीं, नहीं ।" एक अंग्रेजी पढ़े हुए व्यक्ति को दिखाकर कह रहे हैं, "वे क्या कहेंगे !" भक्तों के बहुत जिद करने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, “तुम लोग कह रहे हो, अच्छा लाओ, पहन लेता हूँ ।”

[ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিয়া আছেন। বেলা ১১টা হইবে। রাম প্রভৃতি ভক্তেরা ঠাকুরকে নববস্ত্র পরাইবেন। ঠাকুর বলিতেছেন — “না, না।” একজন ইংরেজী পড়া লোককে দেখাইয়া বলিতেছেন, “উনি কি বলবেন!” ভক্তেরা অনেক জিদ করাতে ঠাকুর বলিলেন — “তোমরা বলছ পরি।”

Sri Ramakrishna was sitting on the small couch. It was about eleven o'clock. Ram and the other devotees wanted to dress him in a new cloth. The Master said, "No, no." Pointing to an English-educated man, he said, "What will he say about it?" At the earnest request of the devotees he said, "Well, since you insist, I shall have to agree."

भक्तगण उसी कमरे में श्रीरामकृष्ण के भोजन आदि की तैयारी कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को जरा गाने के लिए कह रहे हैं । नरेन्द्र गा रहे हैं –


#swami_vivekananda_favourite_song

निविड़ आँधारे माँ तोर चमके ओ-रूपराशि।  

ताई योगी ध्यान धरे, होये गिरिगुहावासी।।

अभय -पद -कमले प्रेमेर-ई बिजली खेले । 

चिन्मय मुखमण्डले शोभे, अट्ट- अट्ट- हासि।। 

महाकाल रूप धरि , आँधार बसन परि।  

महासमाधिमन्दिरे माँ के तुमि गो एका बसि।।

अनन्त आँधार कोले , महानिर्वाण हिल्लोले।  

चिरशान्ति परिमल , अविरल जाय भासि।।

महासमाधिमन्दिरे माँ के तुमि गो एका बसि।।

(भावार्थ) - "माँ, घने अन्धकार में तेरा रूप चमकता है । इसीलिए योगी पर्वत की गुफा में निवास करता हुआ ध्यान लगाता है । तुम्हारे अभय चरणकमलों में प्रेम की जो बिजली चमकती हैं, वही  तुम्हारे चिन्मय मुखमण्डल पर हास्य बन कर शोभायमान है । अनन्त अन्धकार की गोदी में, महानिर्वाण के हिल्लोल में चिर शान्ति का परिमल लगातार बहता जा रहा है । महाकाल का रूप धारण कर, अन्धकार का वस्त्र पहन, माँ, समाधिमन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ? "

ভক্তেরা ওই ঘরেতেই ঠাকুরের অন্নাদি আহারের আয়োজন করিতেছেন।ঠাকুর নরেন্দ্রকে একটু গান গাইতে বলিতেছেন। নরেন্দ্র গাহিতেছেন:

নিবিড় আঁধারে মা তোর চমকে ও রূপরাশি ৷

তাই যোগী ধ্যান ধরে হয়ে গিরিগুহাবাসী ৷৷

অনন্ত আঁধার কোলে, মহার্নিবাণ হিল্লোলে ৷

চিরশান্তি পরিমল, অবিরল যায় ভাসি ৷৷

মহাকাল রূপ ধরি, আঁধার বসন পরি ৷

সমাধিমন্দিরে মা কে তুমি গো একা বসি ৷৷

অভয়-পদ-কমলে প্রেমের বিজলী জ্বলে ৷

চিন্ময় মুখমণ্ডলে শোভে অট্ট অট্ট হাসি ৷৷

The devotees were arranging the Master's meal in the room. He asked Narendra to sing. Narendra sang: "In dense darkness, O Mother, Thy formless beauty sparkles; Therefore the yogis meditate in a dark mountain cave. From the Lotus of Thy fear-scattering Feet flash Thy love's lightnings; Thy Spirit-Face shines forth with laughter terrible and loud!  In the lap of boundless dark, on Mahanirvana's waves upborne, Peace flows serene and inexhaustible. Taking the form of the Void, in the robe of darkness wrapped, Who art Thou, Mother, seated alone in the shrine of samadhi?"

नरेन्द्र ने ज्योंही गाया, 'माँ, समाधि मन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ? - उसी समय श्रीरामकृष्ण बाह्यज्ञान-शून्य होकर समाधिमग्न हो गये । बहुत देर बाद समाधि भंग होने पर भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को भोजन के लिए आसन पर बैठाया । अभी भी भाव का आवेश है । भात खा रहे हैं, परन्तु दोनों हाथ से भवनाथ से कह रहे हैं, "तू खिला दे !" भाव का आवेश अभी है, इसीलिए स्वयं खा नहीं पा रहे हैं । भवनाथ उन्हें खिला रहे हैं ।

[নরেন্দ্র যাই গাইলেন, ‘সমাধিমন্দিরে মা কে তুমি গো একা বসি!’ অমনি ঠাকুর বাহ্যশূন্য, সমাধিস্থ। অনেকক্ষণ পরে সমাধিভঙ্গের পর ভক্তেরা ঠাকুরকে আহারের জন্য আসনে বসাইলেন। এখনও ভাবের আবেশ রহিয়াছে। ভাত খাইতেছেন কিন্তু দুই হাতে। ভবনাথকে বলিতেছেন, “তুই দে খাইয়ে।” ভাবের আবেশ রহিয়াছে তাই নিজে খাইতে পারিতেছেন না। ভবনাথ তাঁহাকে খাওয়াইয়া দিতেছেন।

As Narendra sang the line, "Who art Thou, Mother, seated alone in the shrine of samadhi?", Sri Ramakrishna went into deep samadhi and lost all outer consciousness. After a long time, when he was regaining partial consciousness, the devotees seated him on the carpet and placed a plate of food before him. Still overcome with divine emotion, he began to eat the rice with both hands. He said to Bhavanath, "Feed me." Because of his ecstatic mood he could not use his own right hand. Bhavanath began to feed him.

 [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

🔆🙏"नदे टलमल करे , गौर प्रेमेर हिल्लोले रे।" 🔆🙏

 [ নদে টলমল টলমল করে,গৌর প্রেমের হিল্লোলে রে।]

 [See how all Nadia is shaking, Under the waves of Gauranga's love!]  

श्रीरामकृष्ण ने बहुत कम भोजन किया । भोजन के बाद राम कह रहे हैं, "नित्यगोपाल आपकी जूठी थाली में खायेगा ।"

[ ঠাকুর সামান্য আহার করিলেন। আহারান্তে রাম বলিতেছেন, ‘নিত্যগোপাল পাতে খাবে।’

Sri Ramakrishna could eat very little. Ram said to him, "Nityagopal will eat from your plate."

श्रीरामकृष्ण - मेरी जूठी थाली में ? क्यों ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — পাতে? পাতে কেন?

MASTER: "Why from my plate? Why?"

राम - क्यों क्या हुआ ? भला आपको जूठी थाली में क्यों न खाये ?

[রাম — তা আর আপনি বলছেন! আপনার পাতে খাবে না?

RAM: "Why not?"

नित्यगोपाल को भावमग्न देखकर श्रीरामकृष्ण ने एक-दो कौर खिला दिये ।

[নিত্যগোপালকে ভাবাবিষ্ট দেখিয়া ঠাকুর তাহাকে দু-একগ্রাস খাওয়াইয়া দিলেন।

Nityagopal was also in an ecstatic mood. The Master put a morsel or two into his mouth with his own hand.

अब कोन्नगर के भक्तगण नाव पर सवार होकर आये हैं । उन्होंने कीर्तन करते हुए श्रीरामकृष्ण के कमरे में प्रवेश किया । कीर्तन के बाद वे जलपान करने के लिए बाहर गये । नरोत्तम कीर्तनकार श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण नरोत्तम आदि से कह रहे हैं, "इनका मानो नाव चलानेवाला गाना !" गाना ऐसा होना चाहिए कि सभी नाचने लगें । इस प्रकार के गाने गाने चाहिए – "नदे टलमल करे , गौर प्रेमेर हिल्लोले रे।" 

(भावार्थ) - " ओ रे ! गौर-प्रेम की हिलोर से सारा नदिया शहर झूम रहा है ।’

[কোন্নগরের ভক্তগণ নৌকা করিয়া এইবার আসিয়াছেন। তাঁহারা কীর্তন করিতে করিতে ঠাকুরের ঘরে প্রবেশ করিলেন। কীর্তনান্তে তাঁহারা জলযোগ করিতে বাহিরে গেলেন। নরোত্তম কীর্তনিয়া ঠাকুরের ঘরে বসিয়া আছেন। ঠাকুর নরোত্তম প্রভৃতিকে বলিতেছেন, “এদের যেন ডোঙ্গা-ঠেলা গান। এমন গান হবে যে সকলে নাচবে! “এই সব গান গাইতে হয়:নদে টলমল টলমল করে,গৌর প্রেমের হিল্লোলে রে।" 

Some devotees from Konnagar arrived by boat. They entered Sri Ramakrishna's room singing kirtan; afterwards they went out to take some refreshments. Narottam was in the room. The Master said to him and the other devotees: "The music of the Konnagar devotees was dull. Music should be so lively as to make everyone dance. One should sing a song like this: " See how all Nadia is shaking, Under the waves of Gauranga's love! " 

(नरोत्तम के प्रति) - "उसके साथ यह कहना होता है –


जादेर हरि बलते नयन झरे , तारा , दूभाई ऐसेछे रे। 

जारा मार खेये प्रेम याचे , तारा , दूभाई ऐसेछे रे।। 

जारा आपनि केँदें  जगत काँदाय, तारा,  दूभाई ऐसेछे रे।   

जारा आपनि मेते जगत माताय , तारा,  दूभाई ऐसेछे रे।

जारा आचण्डाले कोल देय , तारा,  दूभाई ऐसेछे रे।  

(भावार्थ) – “ओ रे ! 'हरिनाम कहते ही जिनके आँसू झरते हैं, वे दोनों भाई (गौरांग और नित्यानन्द ^ ) आये हैं । ओ रे ! जो मार खाकर प्रेम देना चाहते हैं, वे दो भाई आये हैं । ओ रे, जो स्वयं रोकर जगत् को रुलाते हैं, वे दो भाई आये है । ओ रे ! जो स्वयं मतवाले बनकर दुनिया को मतवाला बनाते हैं, वे दो भाई आये हैं। ओ रे! जो चण्डाल तक को गोदी में उठा लेते हैं, वे दो भाई आये हैं !!”

[दोनों भाई ^ ****जै निताई -निमाई !!:---जब-जब भारत वर्ष में भक्ति की महिमा का वर्णन किया जाता रहेगा, तब-तब श्री गौरांग महाप्रभु [अर्थात चैतन्य महाप्रभु (18 फरवरी, 1486-1534)] और श्री नित्यानन्द प्रभु [निताई  प्रभु-(1474 -1599)]  का उल्लेख  किया जायेगा, जो कि भक्ति आन्दोलन के प्रमुख प्रणेताओं  में से एक हैं। ‘गौरांग’ का अर्थ है ‘स्वर्ण जैसा’ , जो कि चैतन्य महाप्रभु का हि दूसरा नाम है और ‘निताई’, नित्यानन्द प्रभु का हि लघु नाम है। अतः निताई प्रभु की दया के बिना न तो गौरांग महाप्रभु को समझा ही जा सकता है न हि उनकी कृपा पाई जा सकती है ।  प्रभु निताई  और गौरांग महाप्रभु एक-दूसरे के चिरकालिक सखा और सहयोगी रहे हैं । शायद ही कभी ऐसा अवसर आया होगा जब निताई प्रभु के नाम के साथ गौरांग महाप्रभु का नाम नहीं लिया गया होगा। निताई प्रभु गौरांग महाप्रभु के सखा और शिष्य दोनों ही थे । उन्होंने अपना सारा जीवन भक्ति के प्रचार-प्रसार और गौरांग महाप्रभु की सेवा में व्यतीत कर दिया ।  नित्यानन्द प्रभु चैतन्य महाप्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं। नित्यानंद जी  को  गौरांग महाप्रभु के  बड़े  भाई  का  दर्जा  प्राप्त  हुआ , दोनों के शरीर भिन्न होने पर भी एकात्म ही थे। श्री गौरांग ने इन्हें गृहस्थ धर्म पालन करने तथा बंगाल में कृष्णभक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया। यह गौड़ देश लौट आए। अंबिका नगर के सूर्यनाथ पंडित की दो पुत्रियों वसुधा देवी तथा जाह्नवी देवी से इन्होंने विवाह किया। इसके अनंतर नवनीदा के जन्मस्थान खड़दह ग्राम में आकर बस गए और श्री श्यामसुंदर की सेवा स्थापित की।]  

"फिर यह भी गाना चाहिए –

गौर निताई तोमरा दूभाई , परम दयाल हे प्रभु ! 

आमि ताई सुने ऐसेछि हे नाथ ; 

तोमरा नाकि आचण्डाले दाओ कोल , 

कोल दिये बल हरीबोल।।

(भावार्थ) – “हे प्रभो, गौर निताई, तुम दोनों भाई परम दयालु हो । हे नाथ, यही सुनकर मैं आया हूँ, सुना है कि तुम चण्डाल तक को गोदी में उठा लेते हो, और गोदी में उठाकर उसे हरि नाम करने को कहते हो ।"

[নরোত্তমের প্রতি) — “ওর সঙ্গে এইটা বলতে হয় —

যাদের হরি বলতে নয়ন ঝরে, তারা, দুভাই এসেছে রে ৷

যারা মার খেয়ে প্রেম যাচে, তারা, দুভাই এসেছে রে ৷

যারা আপনি কেঁদে জগৎ কাঁদায়, তারা, দুভাই এসেছে রে ৷৷

যারা আপনি মেতে জগৎ মাতায়, তারা, দুভাই এসেছে রে ৷

যারা আচণ্ডালে কোল দেয়, তারা দুভাই এসেছে রে ৷৷

“আর এটাও গাইতে হয়:

গৌর নিতাই তোমরা দুভাই, পরম দয়াল হে প্রভু!

আমি তাই শুনে এসেছি হে নাথ;

তোমরা নাকি আচণ্ডালে দাও কোল,

কোল দিয়ে বল হরিবোল।”

And along with it these lines: Behold, the two brothers (^Gauranga and Nityananda.) have come, who weep while chanting Hari's name, The brothers who, in return for blows, offer to sinners Hari's love. . . .

And these too: Gaur and Nitai, ye blessed brothers! I have heard how kind you are, And therefore I have come to you. . . ."

(२)

[ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

🔆🙏श्री रामकृष्ण अपने जन्मोत्स्व के दिन भक्तों के साथ वार्तालाप करते हुए 🔆🙏

अब भक्तगण प्रसाद पा रहे हैं । चिउड़ा मिठाई आदि अनेक प्रकार के प्रसाद पाकर वे तृप्त हुए । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, "मुखर्जियों को नहीं कहा था । सुरेन्द्र से कहो, बाऊलों (गवैयों) को खिला दें ।"

[এইবার ভক্তেরা প্রসাদ পাইতেছেন। চিঁড়ে মিষ্টান্নাদি অনেকপ্রকার প্রসাদ পাইয়া তৃপ্তিলাভ করিলেন। ঠাকুর মাস্টারকে বলিতেছেন, “মুখুজ্জেদের বল নাই? সুরেন্দ্রকে বল, বাউলদের খেতে বলতে।

”The devotees were taking the prasad. It was a sumptuous feast. Sri Ramakrishna said to M.: "Haven't you invited the Mukherjis? Ask Surendra to feed the musicians."

श्री बिपिन सरकार आये हैं । भक्तों ने कहा, "इनका नाम बिपिन सरकार है ।" श्रीरामकृष्ण उठकर बैठे और विनीत भाव से बोले, "इन्हें आसन दो और पान दो ।" उनसे कह रहे हैं, "आपके साथ बात न कर सका, आज बड़ी भीड़ है ।"

[শ্রীযুক্ত বিপিন সরকার আসিয়াছেন। ভক্তেরা বলিলেন, “এঁর নাম বিপিন সরকার।” ঠাকুর উঠিয়া বসিলেন ও বিনীতভাবে বলিলেন, “এঁকে আসন দাও। আর পান দাও।” তাঁহাকে বলিতেছেন, “আপনার সঙ্গে কথা কইতে পেলাম না; অনেক ভিড়!”

Bepin Sarkar arrived. The devotees introduced him to the Master. Sri Ramakrishna sat up and said to the devotees, "Give him a seat and some betel-leaf." He said to Bepin humbly: "I am sorry not to be able to talk to you. There is a great crowd today."

गिरीन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम से कहा, "इन्हें एक आसन दो ।" नित्यगोपाल को जमीन पर बैठा देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "उसे भी एक आसन दो ।"

[গিরীন্দ্রকে দেখিয়া ঠাকুর বাবুরামকে বলিলেন, “এঁকে একখানা আসন দাও।” নিত্যগোপাল মাটিতে বসিয়াছিলেন দেখিয়া ঠাকুর বলিলেন, “ওকেও একখানা আসন দাও।”

Pointing to Girindra, Sri Ramakrishna said to Baburam, "Give him a carpet." Nityagopal was sitting on the floor. The Master asked a devotee to give him a carpet too.

सींती के महेन्द्र वैद्य आये हैं । श्रीरामकृष्ण हँसते हुए राखाल को इशारा कर रहे हैं, "हाथ दिखा लो।"

[সিঁথির মহেন্দ্র কবিরাজ আসিয়াছেন। ঠাকুর সহাস্যে রাখালকে ইঙ্গিত করিতেছেন, “হাতটা দেখিয়ে নে।

”Physician Mahendra of Sinthi arrived. The Master, smiling, asked Rakhal by a sign to have the physician examine his pulse.

रामलाल से कह रहे हैं, "गिरीश घोष के साथ दोस्ती कर, तो थिएटर देख सकेगा ।" (हँसी)

[শ্রীযুক্ত রামলালকে বলিতেছেন, “গিরিশ ঘোষের সঙ্গে ভাব কর, তাহলে থিয়েটার দেখতে পাবি।” (হাস্য)

Turning to Ramlal, the Master said, "Be friendly with Girish Ghosh; then you will get a free ticket to the theatre."

नरेन्द्र हाजरा महाशय से बरामदे में बहुत देर तक बातचीत कर रहे थे । नरेन्द्र के पिता के देहान्त के बाद घर में बड़ा ही कष्ट हो रहा है । अब नरेन्द्र कमरे के भीतर आकर बैठे ।

[নরেন্দ্র হাজরা মহাশয়ের সঙ্গে বাহিরের বারান্দায় অনেকক্ষণ গল্প করিতেছিলেন। নরেন্দ্রের পিতৃবিয়োগের পর বাড়িতে বড়ই কষ্ট হইয়াছে। এইবার নরেন্দ্র ঘরের ভিতর আসিয়া বসিলেন।

Narendra had been talking a long time with Hazra on the porch. Since his father's death Narendra had been having financial worries. He entered the room and took a seat.

 [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

[हाजरा, गिरीश, मणि और नरेन्द्र की मनःस्थित !]

[হাজরা, গিরিশ, মণি ও নরেন্দ্রের মানসিক অবস্থা]

[The mental state of Hazra, Girish, Mani and Narendra!]  

卐🙏नरेन्द्र आत्मा का स्वरुप है, आकारहीन सिंह -गर्जन है, अखंड के घर का है,

 लेकिन जगत में आकर उसे भी शक्ति (अवतार) को मानना पड़ेगा !卐🙏

[নরেন্দ্র আত্মার স্বরূপ, নরেন্দ্রের উঁচুঘর, অখণ্ডের ঘর।]

[Narendra is the form of the soul, a voice without form (M/F)

and belongs to the realm of the Indivisible Brahman.]  

["नरेन्द्र आत्मा का स्वरुप है , वह अविभाज्य 'ब्रह्म' के देश का है, लकिन जगत 'शक्ति' का राज्य है, यहाँ आकर शक्ति को मानना ही पड़ेगा !!" (परिच्छेद -74) ]

["নরেন্দ্র অবিভাজ্য ব্রহ্মের রাজ্যের অন্তর্গত।"- কিন্তু পৃথিবীটা 'শক্তি'র রাজ্য, এখানে এসে শক্তিতে বিশ্বাস করতে হয়!!" (অনুচ্ছেদ-৭৪)]

["Narendra belongs to the realm of the Indivisible Brahman."  but the world is the kingdom of 'Shakti', one has to come here and believe the power!!" (Paragraph -74)]

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र के प्रति) - तू क्या हाजरा के पास बैठा था ? तू विदेशी है, और वह विरही ! हाजरा को भी डेढ़ हजार रूपयों की आवश्यकता है । (हँसी)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — তুই কি হাজরার কাছে বসেছিলি? তুই বিদেশিনী সে বিরহিণী! হাজরারও দেড় হাজার টাকার দরকার। (হাস্য)

MASTER (to Narendra): "Were you with Hazra? Both of you are in the same boat. You know the saying about the two friends: 'You are away from your country and he is away from his beloved.' Hazra, too, needs fifteen hundred rupees (laughter.)

"हाजरा कहता है, 'नरेन्द्र में सोलह आना सतोगुण आ गया है, परन्तु रजोगुण की जरा लाली है । मेरा विशुद्ध सत्व, सत्रह आना ।' (सभी की हँसी)

[“হাজরা বলে, ‘নরেন্দ্রের ষোল আনা সত্ত্বগুণ হয়েছে, একটু লালচে রজোগুণ আছে! আমার বিশুদ্দ সত্ত্ব সতের আনা।’ (সকলের হাস্য)"

Hazra says: 'Narendra has acquired one hundred per cent sattva, though still there is in him a pink glow of rajas. But I have one hundred and twenty-five per cent pure sattva.' (All laugh.)

"मैं जब कहता है, "तुम केवल विचार करते हो, इसीलिए शुष्क हो, तो वह कहता है, 'मैं सूर्य की सुधा पीता हूँ, इसीलिए शुष्क हूँ ।'

[“আমি যখন বলি, ‘তুমি কেবল বিচার কর, তাই শুষ্ক।’ সে বলে, আমি সৌর সুধা পান করি, তাই শুষ্ক।’"

I say to Hazra, 'You indulge in reasoning only: that is why you are so dry.' He retorts, 'No, I am dry because I drink the nectar of the sun.'

"मैं जब शुद्धा भक्ति की बात कहता हूँ, जब कहता हूँ कि शुद्ध भक्त रुपया-पैसा, ऐश्वर्य कुछ भी नहीं चाहता !

तो हाजरा (Hazraअपनी मनःस्थिति के अनुसार) कहता है, 'उनकी कृपा की बाढ़ आने पर नदी तो भर जायेगी ही, फिर गढ़े-नाले भी अपने आप ही भर जायेंगे । शुद्धा भक्ति भी होती है और षडैश्वर्य भी होते हैं । रुपये-पैसे भी होते हैं ।"

.[“আমি যখন শুদ্ধাভক্তির কথা বলি, যখন বলি শুদ্ধভক্ত টাকা-কড়ি ঐশ্বর্য কিছু চায় না; তখন সে বলে, ‘তাঁর কৃপাবন্যা এলে নদী তো উপচে যাবে, আবার খাল-ডোবাও জলে পূর্ণ হবে। শুদ্ধাভক্তিও হয়, আবার ষড়ৈশ্বর্যও হয়। টাকা-কড়িও হয়।”

"Speaking of pure bhakti, I say to Hazra, 'A real devotee does not pray to God for money or riches.' 

Hazra replies (according to his own state of mind) : 'When the flood of divine grace descends, the rivers overflow; and further, the pools and canals are filled. By the grace of God one gets not only pure devotion but also the six super-natural powers, and money too.'"

श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर नरेन्द्र आदि अनेक भक्त बैठे हैं, गिरीश भी आकर बैठे ।

[ঠাকুরের ঘরের মেঝেতে নরেন্দ্রাদি অনেক ভক্ত বসিয়া আছেন, গিরিশও আসিয়া বসিলেন।

Narendra and many other devotees were seated on the floor. Girish entered the room and joined them.

श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - मैं नरेन्द्र को आत्मा स्वरूप मानता हूँ । और मैं उसका अनुगत हूँ। गिरीश - क्या कोई ऐसा है जिसके आप अनुगत नहीं भी हैं ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — আমি নরেন্দ্রকে আত্মার স্বরূপ জ্ঞান করি; আর আমি ওর অনুগত।

MASTER (to Girish): "I look on Narendra as Atman. I obey him."

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - उसका है मर्द का भाव (पुरुषभाव) और मेरा औरत-भाव (प्रकृतिभाव) । नरेन्द्र का ऊँचा घर, अखण्ड का घर है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ওর মদ্দের ভাব (পুরুষভাব) আর আমার মেদীভাব (প্রকৃতিভাব)। নরেন্দ্রের উঁচুঘর, অখণ্ডের ঘর।

MASTER (smiling): "He has a manly nature and I have the nature of a woman. He is a noble soul and belongs to the realm of the Indivisible Brahman."

 [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

श्री रामकृष्ण और नरेंद्र - पाण्डित्य और शास्त्र

[শ্রীরামকৃষ্ণ ও নরেন্দ্র — পাণ্ডিত্য ও শাস্ত্র ]

[श्रीरामकृष्ण तथाकथित पण्डित नहीं थे, वे बिना पुस्तक पढ़े ही पण्डित थे]

[শ্রী রামকৃষ্ণ তথাকথিত পন্ডিত ছিলেন না, তিনি  বই না পড়েও পন্ডিত ছিলেন! ]

[Sri Ramakrishna was not a so called Pandit, He was scholar without reading books .]  

卐🙏`वेदान्तडिण्डिमः ~"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या !" 卐🙏  

गिरीश तम्बाकू पीने के लिए बाहर गये ।

[গিরিশ বাহিরে তামাক খাইতে গেলেন।

Girish went out to have a smoke.

नरेन्द्र (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - गिरीश घोष के साथ वार्तालाप हुआ, बहुत बड़े आदमी हैं । आपकी चर्चा हो रही थी ।

[নরেন্দ্র (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — গিরিশ ঘোষের সঙ্গে আলাপ হল, খুব বড়লোক (মাস্টারের প্রতি) — আপনার কথা হচ্ছিল।

NARENDRA (to the Master): "I had a talk with Girish Ghosh. He is indeed a great man. We talked about you."

श्रीरामकृष्ण - क्या चर्चा ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কি কথা?

MASTER: "What did you say about me?"

नरेन्द्र - आप लिखना-पढ़ना नहीं जानते हैं, हम सब पण्डित हैं, यही सब बातें हो रही थी । (हँसी)

[নরেন্দ্র — আপনি লেখাপড়া জানেন না, আমরা সব পণ্ডিত, এই সব কথা হচ্ছিল। (হাস্য)

NARENDRA: "That you are illiterate and we are scholars. Oh, we talked in that vein!" (Laughter.)

मणि मल्लिक (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आप बिना पढ़े पण्डित हैं ।

[মণি মল্লিক (ঠাকুরের প্রতি) — আপনি না পড়ে পণ্ডিত।

MANI MALLICK (to the Master): "You have become a pundit without reading a book."

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र आदि के प्रति ) - सच कहता हूँ, मुझे इस बात का जरा भी दुःख नहीं होता कि मैंने वेदान्त आदि शास्त्र नहीं पढ़े । मैं जानता हूँ, वेदान्त का सार >है - 'ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है’ । फिर गीता का सार क्या है ? गीता का दस बार उच्चारण करने पर जो होता है, अर्थात् त्यागी, त्यागी !

[वेदान्त का सार>`वेदान्तडिण्डिमः ' --  वेदान्त का दुन्दुभि-घोष, यानि वेदान्त का सार है -- "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या"-----इससे यह सिद्ध होता है कि 'ब्रह्म' का नाम (श्रीगुरुमुख सुना हुआ अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण का नाम) सत्य है, जगत् मिथ्या है। ’ ] 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রাদির প্রতি) — সত্য বলছি, আমি বেদান্ত আদি শাস্ত্র পড়ি নাই বলে একটু দুঃখ হয় না। আমি জানি বেদান্তের সার, ব্রহ্ম সত্য জগৎ মিথ্যা। আবার গীতার সার কি? গীতা দশবার বললে যা হয়; ত্যাগী ত্যাগী।

MASTER (to Narendra and the others): "Let me tell you this: really and truly I don't feel sorry in the least that I haven't read the Vedanta or the other scriptures. I know that the essence of the Vedanta is that Brahman alone is real and the world illusory. And what is the essence of the Gita? It is what you get by repeating the word ten times. Then it is reversed into 'tagi', which refers to renunciation.

"शास्त्र का सार श्रीगुरुमुख से जान लेना चाहिए । उसके बाद साधन-भजन । एक आदमी को किसी ने पत्र लिखा था । पत्र पढ़ा भी न गया था कि खो गया । तब सब मिलकर ढूँढ़ने लगे । जब पत्र मिला, पढ़कर देखा, लिखा था - 'पाँच सेर सन्देश और एक धोती भेज दो ।' पढ़कर उसने पत्र को फेंक दिया और पाँच सेर सन्देश और एक धोती का प्रबन्ध करने लगा । इसी प्रकार शास्त्रों का सार जान लेने पर फिर पुस्तकें पढ़ने की क्या आवश्यकता ? अब साधन-भजन ।" ^* 

[अब साधन-भजन ^* >> योगदर्शन और श्रुतियों (बृहदारण्यकोपनिषद: 4.4.21) में भी 'श्रवण, मनन और निदिध्यासन' को आत्म-ज्ञान के लिये आवश्यक बतलाया गया है ---- " यद्वा ज्ञानं शास्त्राचार्योपदेशजम् विज्ञानं निदिध्यासनजम्। तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः॥ "--- 'ब्रह्म (ईश्वर) के बुद्धिमान अन्वेषक (सत्यार्थी) को, केवल आत्मा  के बारे में जानकर, ज्ञान (प्रज्ञा) का अभ्यास करना चाहिए।  अभिप्राय यह कि शास्त्र और आचार्य के उपदेश से जो आत्मा-अनात्मा, शाश्वत -नश्वर, श्रेय-प्रेय  और विद्या-अविद्या आदि पदार्थों का जो बोध  होता है उसका नाम है ज्ञान।  एवं उसका जो विशेषरूप से अनुभव है उसका नाम है विज्ञान (विवेकज ज्ञान)! और निदिध्यासन का अर्थ हुआ अपने कल्याण की प्राप्ति के कारण-रूप उन ज्ञान (knowledge) और विज्ञान (discrimination) दोनों को यह काम (अर्थात कामिनी-कांचन में आसक्ति) नष्ट करनेवाला है, इसलिये -- " तस्मात् त्वम् इन्द्रियाणि आदौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मानं प्रजहि हि एनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ (गीता-कर्मयोग, 3.41)  हे अर्जुन ! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके, ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस कामिनी-कांचन में आसक्ति रूपी  पापी का परित्याग करो।  निदिध्यासन अर्थात हुआ गीता के इसी उपदेश का अनवरत, सतत चिंतन या  फिर- फिर स्मरण या बार- बार ध्यान में लाना। ]  

[“শাস্ত্রের সার গুরুমুখে জেনে নিতে হয়। তারপর সাধন-ভজন। একজন চিঠি লিখেছিল। চিঠিখানি পড়া হয় নাই, হারিয়ে গেল। তখন সকলে মিলে খুঁজতে লাগল। যখন চিঠিখানা পাওয়া গেল, পড়ে দেখলে পাঁচ সের সন্দেশ পাঠাবে আর একখানা কাপড় পাঠাবে। তখন চিঠিটা ফেলে দিলে, আর পাঁচ সের সন্দেশ আর একখানা কাপড়ের যোগাড় করতে লাগল। তেমনি শাস্ত্রের সার জেনে নিয়ে আর বই পড়বার কি দরকার? এখন সাধন-ভজন।”

 The pupil should hear the essence of the scriptures from the guru; then he should practise austerity and devotions. A man needs the letter he has received from home as long as he has not learnt its contents. After reading it, however, he sets out to get the things he has been asked to send. Likewise, what need is there of the scriptures if you know their essence? The next thing is the practice of spiritual discipline."]

अब गिरीश कमरे में आये हैं ।

[এইবার গিরিশ ঘরে আসিয়াছেন।

Girish entered the room.

श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - हाँ जी, मेरी बात तुम लोग सब क्या कह रहे थे ? मैं खाता-पीता और मजे में रहता हूँ ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — হাঁ গা, আমার কথা সব তোমরা কি কচ্ছিলে? আমি খাই দাই থাকি।

MASTER (to Girish): "Hello! What were you saying about me? I eat, drink, and make merry."

गिरीश - आपकी बात और क्या कहूँगा आप क्या साधु हैं ?

[গিরিশ — আপনার কথা আর কি বলব। আপনি কি সাধু?

GIRISH: "What should we have been saying about you? Are you a holy man?"

श्रीरामकृष्ण - साधु वाधु नहीं । सच ही तो मुझ में साधु-बोध नहीं है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সাধু-টাধু নয়। আমার সত্যই তো সাধুবোধ নাই।

MASTER: "No, nothing of the sort. Truly I do not feel I am a holy man."

गिरीश - मजाक में भी आप से हार गया ।

[গিরিশ — ফচকিমিতেও আপনাকে পারলুম না।

GIRISH: "I am not your equal even in joking."

श्रीरामकृष्ण - मैं लाल किनारी की धोती पहनकर जयगोपाल सेन के बगीचे में गया था । केशव सेन वहाँ पर था । केशव ने लाल किनारी की धोती देखकर कहा, 'आज तो खूब रंग दीख रहा है ! लाल किनारी की बड़ी बहार है !' मैंने कहा, 'केशव का मन भुलाना होगा, इसीलिए बहार लेकर आया हूँ ।"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি লালপেড়ে কাপড় পরে জয়গোপাল সেনের বাগানে গিছলাম। কেশব সেন সেখানে ছিল। কেশব লালপেড়ে কাপড় দেখে বললে, ‘আজ বড় যে রঙ, লালপাড়ের বাহার।’ আমি বললুম, ‘কেশবের মন ভুলাতে হবে, তাই বাহার দিয়ে এসেছি।’

MASTER: "I once went to Jaygopal Sen's garden house wearing a red-bordered cloth. Keshab was there. Looking at the red borders Keshab said: 'What's this? Such a flash of colour today! Such a display of red borders!' I said, 'I have to cast a spell on Keshab; hence this display.'"

अब फिर नरेन्द्र का संगीत होगा । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से तानपूरा उतार देने के लिए कहा । नरेन्द्र बहुत देर से तानपूरे को बाँध रहे हैं । श्रीरामकृष्ण तथा सभी लोग अधीर हो गये हैं । विनोद कह रहे हैं, "आज बाँधना होगा, गाना किसी दूसरे दिन होगा !” (सभी हँसते हैं ।)

[এইবার আবার নরেন্দ্রের গান হইবে। শ্রীরামকৃষ্ণ মাস্টারকে তানপুরাটি পাড়িয়া দিতে বলিলেন। নরেন্দ্র তানপুরাটি অনেকক্ষণ ধরিয়া বাঁধিতেছেন। ঠাকুর ও সকলে অধৈর্য হইয়াছেন। বিনোদ বলিতেছেন, বাঁধা আজ হবে, গান আর-একদিন হবে। (সকলের হাস্য)

Narendra was going to sing again. Sri Ramakrishna asked M. to take down the tanpura from the wall. Narendra was a long time tuning it. The Master and the devotees became impatient. Binode said, "He will tune it today and sing another day." (Laughter.)

श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं और कह रहे हैं, “ऐसी इच्छा हो रही है कि तानपूरे तोड़ डालूँ । क्या 'टंग टंग' - फिर 'ताना नाना तेरे नुम्' होगा ।"

[শ্রীরামকৃষ্ণ হাসিতেছেন আর বলিতেছেন, “এমনি ইচ্ছে হচ্ছে যে তানপুরাটা ভেঙে ফেলি। কি টং টং — আবার তানা নানা নেরে নূম্‌ হবে।”

Sri Ramakrishna laughed. He said: "I feel like breaking the tanpura to pieces! What is this? Only Tong — tong'! Then he will practise: 'Tana-nana-nere-num'!" (The sound of a stringed instrument.)

भवनाथ - जात्रा संगीत के प्रारम्भ में ऐसी ही तंगी मालूम होती है ।

[ভবনাথ — যাত্রার গোড়ায় অমনি বিরক্তি হয়।

BHAVANATH: "Everybody feels annoyed like this before a musical performance begins."

नरेन्द्र (बाँधते बाँधते) - न समझने से ही ऐसा होता है ।

[নরেন্দ্র (বাঁধিতে বাঁধিতে) — সে না বুঝলেই হয়।

NARENDRA (still tuning): "If you don't understand it."

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - देखो, हम सभी को उड़ा दिया !

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ওই আমাদের সব উড়িয়ে দিলে।

MASTER (smiling): "There! He explains away our complaints!"

 [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

[ In dense darkness, O Mother, Thy formless beauty sparkles]

🔆🙏नरेंद्र के गीत -'निबिड़ आंधारे माँ तोर चमके अरूप-राशि'और श्री रामकृष्ण🔆🙏 

[नरेंद्र के गीत - "माँ, घने अन्धकार में तेरा निराकार-रूप चमकता है"

और श्री रामकृष्ण की प्रेमोन्मत्तता -अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी मन -

 शांत सरोवर और तरंगायित सरोवर। ]

[নরেন্দ্রের গান ও শ্রীরামকৃষ্ণের ভাবাবেশ — 

অন্তর্মুখ ও বহির্মুখ — স্থির জল ও তরঙ্গ ]

नरेन्द्र गाना गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे सुन रहे हैं । नित्यगोपाल आदि भक्तगण जमीन पर बैठे सुन रहे हैं। 

1. अन्तरे जागीछो ओ माँ अन्तर यामिनी , 

कोले करे आछे मोरे दिवस यामिनी। 

तोबु सदा दूरे भ्रमितेछि आमि। 

संसार सुख कोरेछि बरन , 

तोबु तुमि मम जीवनस्वामिनी।। 

ना जानिया पथ भ्रमितेछि पथे ,

आपन गरबे असीम जगते। 

तबु स्नेहनेत्र जागे ध्रुवतारा , तव शुभ आशिस आसिछे नामिनी ।।  

(भावार्थ) - (१) "ओ माँ, अन्तर्यामिनी, तुम मेरे हृदय में जाग रही हो, रात-दिन मुझे गोदी में लिये बैठी हो ।"

2 . गाओ रे आनन्दमयीर नाम।

 ओरे आमार एकतन्त्री प्राणेर आराम।  

(२) "गाओ रे आनन्दमयी का नाम, ओ मेरे प्राणों को आराम देनेवाली एकतन्त्री ।”

3. "निबिड़ आंधारे माँ तोर चमके  अरूप-राशि। 

ताई योगी ध्यान धरे होय गिरिगुहा- वासी।।"  

(३) "माँ, घने अन्धकार में तेरा निराकार -रूप चमकता है ! अर्थात- " माँ , घने अँधकार में तेरा निराकार सौन्दर्य निखर उठता है । इसीलिए योगी पहाड़ की गुफा में रहकर ध्यान करता रहता है।"

[নরেন্দ্র গান গাহিতেছেন। ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিয়া শুনিতেছেন। নিত্যগোপাল প্রভৃতি ভক্তেরা মেঝেতে বসিয়া শুনিতেছেন।

১। অন্তরে জাগিছ ও মা অন্তর যামিনী,

    কোলে করে আছ মোরে দিবস যামিনী;

তবু সদা দূরে ভ্রমিতেছি আমি ॥

সংসার সুখ করেছি বরণ,তবু তুমি মম জীবনস্বামীনি  ॥

না জানিয়া পথ ভ্রমিতেছি পথে, আপন গরবে অসীম জগতে।

তবু স্নেহনেত্র জাগে ধ্রুবতারা,তব শুভ আশিস আসিছে নামি ॥

২। গাও রে আনন্দময়ীর নাম।

    ওরে আমার একতন্ত্রী প্রাণের আরাম।

৩। নিবিড় আঁধারে মা তোর চমকে ও রূপরাশি।

    তাই যোগী ধ্যান ধরে হয়ে গিরিগুহাবাসী ৷৷

[Narendra began to sing. Sri Ramakrishna was seated on the small couch. Nityagopal and the other devotees were on the floor.Narendra sang:

1. O Mother, Thou my Inner Guide, ever awake within my heart!

Day and night Thou boldest me in Thy lap.Why dost Thou show such tenderness to this unworthy child of Thine? . . .

2. O my lute of a single string!Sing the blessed Mother's name,For She is the solace of my soul. . . .

3. In dense darkness, O Mother, Thy formless beauty sparkles; Therefore the yogis meditate in a dark mountain cave. . . .

श्रीरामकृष्ण भावविभोर होकर नीचे उतर आये हैं और नरेन्द्र के पास बैठे हैं । भावविभोर होकर बातचीत कर रहे हैं ।

[ঠাকুর ভাবাবিষ্ট হইয়া নিচে নামিয়া আসিয়াছেন ও নরেন্দ্রের কাছে বসিয়াছেন। ভাবাবিষ্ট হইয়া কথা কহিতেছেন।

In an ecstatic mood Sri Ramakrishna came down and sat by Narendra's side. He began to talk, still in ecstasy.

श्रीरामकृष्ण - गाना गाऊँ ? नहीं, नहीं (नित्यगोपाल के प्रति) तू क्या कहता है ? उद्दीपन के लिए सुनना चाहिए । उसके बाद क्या आया और क्या गया !

[শ্রীরামকৃষ্ণ — গান গাইব? থু থু! (নিত্যগোপালের প্রতি) — তুই কি বলিস উদ্দীপনের জন্য শুনতে হয়; তারপর কি হল আর কি গেল।

MASTER: "Shall I sing? Fie! (To Nityagopal) What do you say? One should listen to singing to awaken the inner spirit. Nothing matters afterwards.

“उसने आग लगा दी, सो तो अच्छा है । उसके बाद चुप । अच्छा, मैं भी तो चुप हूँ, तू भी चुप रह। "आनन्द-अमृत" में मग्न होने से वास्ता !

[“আগুন জ্বেলে দিলে; সে তো বেশ! তারপর চুপ। বেশ তো, আমিও তো চুপ করে আছি, তুইও চুপ করে থাক।" “আনন্দ-রসে (Elixir) মগ্ন হওয়া নিয়ে কথা।

He has kindled the fire. That is nice. Now all is silence. That's nice too. I am silent; you be silent too. The thing is to dive into the Elixir of Bliss.

"गाना गाऊँ ? अच्छा, गाया भी जा सकता है । जल स्थिर रहने से भी जल है, और हिलने-डुलने पर भी जल है ।"

[“গান গাইব? আচ্ছা, গাইলেও হয়। জল স্থির থাকলেও জল আর হেললে দুললেও জল।”

"Shall I sing? Well, I may. Water is water whether it is still or in waves."


 [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

🔆🙏नरेन्द्र को शिक्षा - "भाई, द्वैत से परे रहो "🔆🙏

[নরেন্দ্রকে শিক্ষা — “জ্ঞান-অজ্ঞানের পার হও” ]

[ " Brother, go beyond duality. "]

नरेन्द्र पास बैठे हैं । उनके घर में कष्ट है, इसीलिए वे सदा ही चिन्तित रहते हैं । वे साधारण ब्राह्मसमाज में आते-जाते रहते हैं । अभी भी सदा ज्ञान-विचार करते हैं, वेदान्त आदि ग्रन्थ पढ़ने की बहुत ही इच्छा है । इस समय उनकी आयु तेईस वर्ष की होगी । श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं ।

.[নরেন্দ্র কাছে বসিয়া আছেন। তাঁর বাড়িতে কষ্ট, সেই জন্য তিনি সর্বদা চিন্তিত হইয়া থাকেন। তাঁহার সাধারণ ব্রাহ্মসমাজে যাতায়াত ছিল। এখনও সর্বদা জ্ঞানবিচার করেন, বেদান্তাদি গ্রন্থ পড়িবার খুব ইচ্ছা, এক্ষণে বয়স ২৩ বৎসর হইবে। ঠাকুর নরেন্দ্রকে একদৃষ্টে দেখিতেছেন।

Narendra was seated near the Master. He was constantly worried about his financial difficulties at home. He was now twenty-three years old. Sri Ramakrishna looked at him intently.

श्रीरामकृष्ण (हँसकर नरेन्द्र के प्रति) - तू तो 'ख' (आकाश की तरह) है, परन्तु यदि टैक्स* न रहता ! (सभी की हँसी) (*अर्थात् घर की चिन्ता ।)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে, নরেন্দ্রের প্রতি) — তুই তো ‘খ’ (আকাশবৎ); তবে যদি টেক্‌সো (Tax অর্থাৎ বাড়ির ভাবনা) না থাকত। (সকলের হাস্য)

MASTER (to Narendra, smiling): "Undoubtedly you are 'Kha'. But you have to worry about 'taxes'; that's the trouble."By "taxes" the Master meant Narendra's financial difficulties at home.

"कृष्णकिशोर कहा करता था, मैं 'ख' हूँ । एक दिन उसके घर जाकर देखता हूँ तो वह चिन्तित होकर बैठा है, अधिक बात नहीं कर रहा है । मैंने पूछा, 'क्या हुआ जी, इस तरह क्यों बैठे हो ?' उसने कहा, 'टैक्सवाला आया था, कह गया, यदि रुपये न दोगे, तो घर का सब सामान नीलाम कर लेंगे । इसीलिए मुझे चिन्ता हुई है ।' मैंने हँसते हँसते कहा, "यह कैसी बात है जी, तुम तो 'ख' (आकाश) की तरह हो । जाने दो, सालों को सब सामान ले जाने दो, तुम्हारा क्या ?"

[“কৃষ্ণকিশোর বলত ‘আমি খ’। একদিন তার বাড়িতে গিয়ে দেখি, সে চিন্তিত হয়ে বসে আছে; বেশি কথা কচ্ছে না। আমি জিজ্ঞাসা করলুম, ‘কি হয়েছে গা, এমন করে বসে রয়েছ কেন?’ সে বললে, ‘টেক্‌সোওয়ালা এসেছিল; সে বলে গেছে টাকা যদি না দাও তাহলে ঘটিবাটি সব নীলাম করে নিয়ে যাব; তাই আমার ভাবনা হয়েছে।’ আমি হাসতে হাসতে বললাম, ‘সে কি গো, তুমি তো ‘খ’, আকাশবৎ। যাক শালারা ঘটিবাটি নিয়ে যাক, তোমার কি?’

MASTER: "Krishnakishore used to say that he was 'Kha'. One day I visited him at his home and found him worried. He wouldn't talk to me freely. I asked him: 'What's the matter? Why are you brooding like this?' Krishnakishore said: 'The tax-collector came today. He said my pots and pans would be sold at auction if I didn't pay my taxes. That's what I am worrying about.' I laughed and said: 'How is that? You are surely 'Kha', the akasa. Let the rascals take away your pots and pans. What is that to you?'

“इसीलिए तुझे कहता हूँ, तू तो 'ख' है - इतनी चिन्ता क्यों कर रहा है ? जानता है, श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था, 'अष्टसिद्धि में से एक सिद्धि के रहते कुछ शक्ति हो सकती है, परन्तु मुझे न पाओगे ।' सिद्धि द्वारा अच्छी शक्ति, बल, धन ये सब प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती ।

[“তাই তোকে বলছি, তুই তো ‘খ’ — এত ভাবছিস কেন? কি জানিস এমনি আছে, শ্রীকৃষ্ণ অর্জুনকে বলছেন, অষ্টসিদ্ধের একটি থাকলে কিছু শক্তি হতে পারে, কিন্তু আমায় পাবে না। সিদ্ধাই-এর দ্বারা বেশ শক্তি, বল, টাকা, এই সব হতে পারে, কিন্তু ঈশ্বরকে লাভ হয় না।

(To Narendra) "So I am saying that you are 'Kha'. Why are you so worried? Don't you know that Sri Krishna said to Arjuna, 'If you have one of the eight siddhis, you may get a little power, but you will not realize Me.' By siddhis one may acquire powers, strength, money, and such things, but not God.

"एक और बात । ज्ञान-अज्ञान से परे रहो । कई कहते हैं, अमुक बड़े ज्ञानी हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है । वशिष्ठ इतने बड़े ज्ञानी थे परन्तु पुत्रशोक से बेचैन हुए थे । तब लक्ष्मण ने कहा, 'राम, यह क्या आश्चर्य है ! ये भी इतने शोकार्त हैं !' राम बोले, 'भाई, जिसका ज्ञान है, उसका अज्ञान भी है, जिसको आलोक का बोध है, उसे अन्धकार का भी है, जिसे सुख का बोध है, उसे दुःख का भी है, जिसे भले का बोध है, उसे बुरे का भी है । भाई, तुम दोनों से (duality) परे चले जाओ, सुख-दुःख से परे जाओ, ज्ञान-अज्ञान से परे जाओ ।’ इसीलिए तुझे कहता हूँ, ज्ञान-अज्ञान दोनों से परे चला जा ।"

[विष- अमृत, जीवित- मृतक व सुख- दुख जिनके लिये सब समान हैं ; वे 'प्रभु के दास' सदा प्रभु के गुणानुवाद व महिमा ही गाते रहते हैं ।---संत  जगजीवन साहब

[“আর একটি কথা — জ্ঞান-অজ্ঞানের পার হও। অনেকে বলে অমুক বড় জ্ঞানী, বস্তুতঃ তা নয়। বশিষ্ঠ এত বড় জ্ঞানী, পুত্রশোকে অস্থির হয়েছিল; তখন লক্ষ্মণ বললেন, ‘রাম এ কি আশ্চর্য! ইনিও এত শোকার্ত!’ রাম বললেন — ভাই, যার জ্ঞান আছে, তার অজ্ঞানও আছে; যার আলোবোধ আছে, তার অন্ধকারবোধও আছে; যার ভালবোধ আছে, তার মন্দবোধও আছে; যার সুখবোধ আছে, তার দুঃখবোধও আছে। ভাই, তুমি দুই-এর পারে যাও, সুখ-দুঃখের পারে যাও, জ্ঞান-অজ্ঞানের পারে যাও। তাই তোকে বলছি, জ্ঞান-অজ্ঞানের পার হও।”

"Let me tell you something else. Go beyond knowledge and ignorance. People say that such and such a one is a jnani; but in reality it is not so. Vasishtha was a great jnani, but even he was stricken with grief on account of the death of his sons. At this Lakshmana said to Rama: 'This is amazing, Rama. Even Vasishtha is so grief-stricken!' Rama said: 'Brother, he who has knowledge has ignorance as well. He who is aware of light is also aware of darkness. He who knows good also knows bad. He who knows happiness also knows misery. Brother, go beyond duality, beyond pleasure and pain, beyond knowledge and ignorance.' (To Narendra) So I am asking you to go beyond both knowledge and ignorance."

(३)

  [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

卐🙏गृहस्थ तथा दानधर्म । मनोयोग तथा कर्मयोग卐🙏

श्रीरामकृष्ण फिर छोटे तखत पर आकर बैठे हैं । भक्तगण अभी भी जमीन पर बैठे हैं । सुरेन्द्र उनके पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण उनकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देख रहे हैं और बातचीत के सिलसिले में उन्हें अनेकों उपदेश दे रहे हैं ।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আবার ছোট খাটটিতে আসিয়া বসিয়াছেন। ভক্তেরা এখনও মেঝেতে বসিয়া আছেন। সুরেন্দ্র তাঁহার কাছে বসিয়া আছেন। ঠাকুর তাঁহার দিকে সস্নেহে দৃষ্টিপাত করিতেছেন ও কথাচ্ছলে তাঁহাকে নানা উপদেশ দিতেছেন।

Sri Ramakrishna went back to his small couch. The devotees were seated on the floor. Surendra sat by his side. The Master cast an affectionate look on him and began to give him advice.

श्रीरामकृष्ण (सुरेन्द्र के प्रति) - बीच बीच में आते जाना । नागा कहा करता था, लोटा रोज रगड़ना चाहिए, नहीं तो मैला पड़ जायेगा । साधुसंग सदैव ही आवश्यक है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সুরেন্দ্রের প্রতি) — মাঝে মাঝে এসো। ন্যাংটা বলত, ঘটি রোজ মাজতে হয়; তা না হলে কলঙ্ক পড়বে। সাধুসঙ্গ সর্বদাই দরকার।

MASTER (to Surendra): "Come here every now and then. Nangta used to say that a brass pot must be polished every day; otherwise it gets stained. One should constantly live in the company of holy men.

 [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

卐🙏गृहस्थ को कामिनी- कांचन में आसक्ति का त्याग करना चाहिए卐🙏  

"कामिनी कांचन का त्याग संन्यासी के लिए है, तुम लोगों के लिए वह नहीं । तुम लोग बीच-बीच में निर्जन में जाना और उन्हें व्याकुल होकर पुकारना । तुम लोग मन में त्याग करना ।

[“সন্ন্যাসীর পক্ষে কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ, তোমাদের পক্ষে তা নয়। তোমারা মাঝে মাঝে নির্জনে যাবে আর তাঁকে ব্যাকুল হয়ে ডাকবে। তোমরা মনে ত্যাগ করবে।

"The renunciation of 'woman and gold' is for sannyasis. It is not for you. Now and then you should go into solitude and call on God with a yearning heart. Your renunciation should be mental.

"भक्त, वीर हुए बिना भगवान् तथा संसार दोनों ओर ध्यान नहीं रख सकता । जनक राजा साधन-भजन के बाद सिद्ध होकर संसार में रहे थे । वे दो तलवारें घुमाते थे – ज्ञान और कर्म ।"

[“বীরভক্ত না হলে দুদিক রাখতে পারে না; জনক রাজা সাধন-ভজনের পর সিদ্ধ হয়ে সংসারে ছিল। সে দুখানা তলোয়ার ঘুরাত; জ্ঞান আর কর্ম।”

"Unless a devotee is of the heroic type he cannot pay attention to both God and the world. King Janaka lived a householder's life only after attaining perfection through austerity and prayer. He fenced with two swords, the one of Knowledge and the other of action."

यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं –

एई संसार मजार कूटी। 

आमि खाई दाई आर मजा लूटी।।  

जनक राजा महातेजा तार किसे छीलो त्रुटि। 

से जे येदिक -ओदिक दूदिक रेखे खेयेछिलो दूधेर बाटि।।     

(भावार्थ) - "यह संसार आनन्द की कुटिया है । यहाँ मैं खाता, पीता और मजा लूटता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी थे । उन्हें किस बात की कमी थी ! उन्होंने 'भगवान और संसार' दोनों बातों  को सँभालते हुए दूध पिया था ।"

.[এই বলিয়া ঠাকুর গান গাহিতেছেন:

  এই সংসার মজার কুটি।

 আমি খাই দাই আর মজা লুটি।।

জনক রাজা মহাতেজা তার কিসে ছিল ত্রুটি।

সে যে এদিক-ওদিক দুদিক রেখে খেয়াছিল দুধের বাটি।।

The Master sang:

This very world is a mansion of mirth;Here I can eat, here drink and make merry.Janaka's might was unsurpassed; What did he lack of the world or the Spirit? Holding to one as well as the other, He drank his milk from a brimming cup!

श्रीरामकृष्ण - "तुम्हारे लिए चैतन्यदेव ने जो कहा था, " जीवों पर दया, भक्तों की सेवा और नामसंकीर्तन ।" 

[“তোমাদের পক্ষে চৈতন্যদেব যা বলেছিলেন, জীবে দয়া, ভক্তসেবা আর নামসংকীর্তন। 

MASTER: "For you, as Chaitanya said, the disciplines to be practised are kindness to living beings, service to the devotees, and chanting the name of God.

"तुम्हें क्यों कह रहा हूँ ? तुम 'हौस'* में काम कर रहे हो । अनेक काम करने पड़ते है, इसलिए कह रहा हूँ । (House - व्यापारी की दुकान)

[“তোমায় বলছি কেন? তোমার হৌস-এর (House, সদাগরে বাড়ির) কাজ; আর অনেক কাজ করতে হয়। তাই বলছি।

(To Surendra) "Why do I say all this to you? You work in a merchant's office. I say this to you because you have many duties to perform there.

"तुम आफिस में झूठ बोलते हो, फिर भी तुम्हारी चीजें क्यों खाता हूँ ? तुम दान, ध्यान जो करते हो । तुम्हारी जो आमदनी है उससे अधिक दान करते हो । कहावत है न - बारह हाथ ककड़ी का तेरह हाथ बीज!

[“তুমি আফিসে মিথ্যা কথা কও তবে তোমার জিনিস খাই কেন? তোমার যে দান-ধ্যান আছে; তোমার যা আয় তার চেয়ে বেশি দান কর; বার হাত কাঁকুড়ের তের হাত বিচি!

"You tell lies at the office. Then why do I eat the food you offer me? Because you give your money in charity; you give away more than you earn. The seed of the melon is bigger than the fruit', as the saying goes.

"कंजूस की चीज मैं नहीं खाता हूँ । उनका धन इतने प्रकारों से नष्ट हो जाता है – मामला मुकदमा में, चोर-डकैतों से, डाक्टरों में, फिर बदचलन लड़के सब धन उड़ा देते है, यही सब है ।

[“কৃপণের জিনিস খাই না। তাদের ধন এই কয় রকমে উড়ে যায়: ১ম, মামলা মোকদ্দমায়; ২য়, চোর ডাকাতে; ৩য়, ডাক্তার খরচে; ৪র্থ, আবার বদ ছেলেরা সেই সব টাকা উড়িয়ে দেয় — এই সব।

"I cannot eat anything offered by miserly people. Their wealth is squandered in these ways: first, litigation; second, thieves and robbers; third, physicians; fourth, their wicked children's extravagance. It is like that.

"तुम जो दान, ध्यान करते हो, बहुत अच्छा है । जिनके पास धन है उन्हें दान करना चाहिए । कंजूस का धन उड़ जाता है । दाता के धन की रक्षा होती है, सत्कर्म में जाता है । कामारपुकुर में किसान लोग नाला काटकर खेत में जल लाते हैं । कभी कभी जल का इतना वेग होता है कि खेत का बाँध टूट जाता है और जल निकल जाता है, अनाज बरबाद हो जाता है; इसीलिए किसान लोग बाँध के बीच बीच में सूराख बनाकर रखते हैं, इसे 'घोघी' कहते हैं । जल थोड़ा थोड़ा करके घोघी में से होकर निकल जाता है, तब जल के वेग से बाँध नहीं टूटता और खेत पर मिट्टी की परतें जम जाती हैं । उससे खेत उर्वर बन जाता है और बहुत अनाज पैदा होता है । जो दान, ध्यान करता है वह बहुत फल प्राप्त करता है, चतुर्वर्ग फल- (चारो पुरुषार्थ) ।"

[“তুমি যে দান-ধ্যান কর, খুব ভাল। যাদের টাকা আছে তাদের দান করা উচিত। কৃপণের ধন উড়ে যায়, দাতার ধন রক্ষা হয়, সৎকাজে যায়। ও-দেশে চাষারা খানা কেটে ক্ষেতে জল আনে। কখনও কখনও জলের এত তোড় হয় যে ক্ষেতের আল ভেঙে যায়, আর জল বেরিয়ে যায় ও ফসল নষ্ট হয়। তাই চাষারা আলের মাঝে মাঝে ছেঁদা করে রাখে, তাকে ঘোগ বলে। জল ঘোগ দিয়ে একটু একটু বেরিয়ে যায়, তখন জলের তোড়ে আল ভাঙে না। আর ক্ষেতের উপর পলি পড়ে। সেই পলিতে ক্ষেত উর্বরা হয়, আর খুব ফসল হয়। যে দান-ধ্যান করে, সে অনেক ফললাভ করে; চতুর্বর্গ ফল।”

"Your giving money away in charity is very good. Those who have money should give in charity. The miser's wealth is spirited away, but the money of the charitable person is saved. He spends it for a righteous purpose. At Kamarpukur I have seen the farmers cutting channels to irrigate their fields. Sometimes the water rushes in with such force that the ridges around the fields are washed away and the crops destroyed. For this reason the farmers make holes here and there in the ridges. Since the water escapes through the holes, the ridges are not destroyed by the rush of the water. Furthermore, the escaping water deposits soft clay in the fields, which increases their fertility and gives a richer crop. He who gives away in charity achieves great results. He achieves the four fruits; dharma, artha, kama, and moksha."

भक्तगण सभी श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से दानधर्म की यह कथा एक मन से सुन रहे हैं ।

[ভক্তেরা সকলে ঠাকুরের শ্রীমুখ হইতে এই দান-ধর্ম কথা একমনে শুনিতেছেন।

The devotees listened with great attention to Sri Ramakrishna's words.

सुरेन्द्र - मैं अच्छा ध्यान नहीं कर पाता । बीच बीच में 'माँ माँ' कहता हूँ । और सोते समय 'माँ माँ' कहते कहते सो जाता हूँ ।

[সুরেন্দ্র — আমার ধ্যান ভাল হয় না। মাঝে মাঝে মা মা বলি; আর শোবার সময় মা মা বলতে বলতে ঘুমিয়ে পড়ি।

SURENDRA: "I cannot meditate well. I repeat the Divine Mother's name now and then. Lying in bed, I repeat Her name and fall asleep."

श्रीरामकृष्ण - ऐसा होने से ही काफी है । स्मरण-मनन तो है न ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তা হলেই হল। স্মরণ-মনন তো আছে।

MASTER: "That is enough. You remember Her, don't you?

"मनोयोग और कर्मयोग । पूजा, तीर्थ, जीवसेवा आदि तथा गुरु के उपदेश के अनुसार कर्म करने का नाम है कर्मयोग । जनक आदि जो कर्म करते थे, उसका नाम भी कर्मयोग है । योगी लोग जो स्मरण-मनन करते हैं उसका नाम है मनोयोग ।

[“মনোযোগ ও কর্মযোগ। পূজা, তীর্থ, জীবসেবা ইত্যাদি গুরুর উপদেশে কর্ম করার নাম কর্মযোগ। জনকাদি যা কর্ম করতেন তার নামও কর্মযোগ। যোগীরা যে স্মরণ-মনন করেন তার নাম মনোযোগ।

"There are two kinds of yoga: manoyoga and karmayoga. To perform, following the guru's instructions, such pious acts as worship, pilgrimage, and service to living beings is called karmayoga. The duties that Janaka performed are also called karmayoga. The meditation and contemplation of the yogis is called manoyoga.

"फिर कालीमन्दिर में जाकर सोचता हूँ 'माँ, मन भी तो तुम हो !' इसीलिए शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा एक ही चीज हैं ।"

[“আবার ভাবি কালীঘরে গিয়ে, মা মনও তো তুমি! তাই শুদ্ধমন, শুদ্ধবুদ্ধি শুদ্ধ আত্মা একই জিনিস।”

"Sometimes I say to myself in the Kali temple, 'O Mother, the mind is nothing but Yourself.' Therefore Pure Mind, Pure Buddhi, and Pure Atman are one and the same thing."

सन्ध्या हो रही है । अनेक भक्त श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर घर लौट रहे हैं । श्रीरामकृष्ण पश्चिम के बरामदे में गये हैं । भवनाथ और मास्टर साथ हैं ।

[সন্ধ্যা আগত প্রায়, ভক্তেরা অনেকেই ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া বাটি প্রত্যাগমন করিতেছেন। ঠাকুর পশ্চিমের বারান্দায় গিয়াছেন; ভবনাথ ও মাস্টার সঙ্গে আছেন।

It was about dusk. Many of the devotees saluted Sri Ramakrishna and started to go home. The Master went to the west porch. Bhavanath and M. were with him.

श्रीरामकृष्ण (भवनाथ के प्रति) - तू इतनी देर में क्यों आता है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভবনাথের প্রতি) — তুই এত দেরিতে আসিস কেন?

MASTER (to Bhavanath): "Why do you come here so seldom?"

भवनाथ (हँसकर) - जी, पन्द्रह दिनों के बाद दर्शन करता हूँ । उस दिन आपने स्वयं ही रास्ते में दर्शन दिया । इसलिए फिर नहीं आया ।

[ভবনাথ (সহাস্যে) — আজ্ঞে, পনেরদিন অন্তর দেখা করি; সেদিন আপনি নিজে রাস্তায় দেখা দিলেন, তাই আর আসি নাই।

BHAVANATH (smiling): "Sir, I visit you once in a fortnight. I saw you in the street the other day, so I didn't come here."

श्रीरामकृष्ण - यह कैसी बात है रे ! केवल दर्शन से क्या होता है ? स्पर्शन, वार्तालाप ये सब भी तो चाहिए ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কিরে? শুধু দর্শনে কি হয়? স্পর্শন, আলাপ — এ-সবও চাই।

MASTER: "What do you mean? What can you gain by mere seeing? Touch and talk are also necessary."

(४)

गिरीश आदि भक्तों के साथ प्रेमानन्द में
.
सायंकाल हुआ । धीरे धीरे मन्दिर में आरती का शब्द सुनायी देने लगा । आज फाल्गुन की शुक्ला अष्टमी तिथि; छः-सात दिनों के बाद पूर्णिमा के दिन होली महोत्सव होगा । देवमन्दिर का शिखर, प्रांगण, बगीचा, वृक्षों के ऊपर के भाग चन्द्रकिरण में मनोहर रूप धारण किये हुए हैं । गंगाजी इस समय उत्तर की ओर बह रही है, चाँदनी में चमक रही हैं, मानो आनन्द से मन्दिर के किनारे से उत्तर की ओर प्रवाहित हो रही हैं । श्रीरामकृष्ण अपने कमरें में छोटे तखत पर बैठकर चुपचाप जगन्माता का चिन्तन कर रहे हैं ।
[সন্ধ্যা হইল। ক্রমে ঠাকুরদের আরতির শব্দ শুনা যাইতেছে। আজ ফাল্গুনের শুক্লষ্টমী, ৬।৭ দিন পরে পূর্ণিমায় দোল মহোৎসব হইবে।সন্ধ্যা হইল। ঠাকুরবাড়ির মন্দিরশীর্ষ, প্রাঙ্গণ, উদ্যানভূমি, বৃক্ষশীর্ষ — চন্দ্রালোকে মনোহররূপ ধারণ করিয়াছে। গঙ্গা এক্ষণে উত্তরবাহিনী, জ্যোৎস্নাময়ী, মন্দিরের গা দিয়া যেন আনন্দে উত্তরমুখ হইয়া প্রবাহিত হইতেছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ নিজের ঘরের ছোট খাটটিতে বসিয়া নিঃশব্দে জগন্মাতার চিন্তা করিতেছেন।
The evening worship had begun in the temples. It was the eighth day of the bright fortnight of the moon; the temple domes, the courtyard, the gardens, and the trees were shining in the moonlight. The Ganges was flowing north with a murmuring sound. Sri Ramakrishna sat on the small couch in his room absorbed in contemplation of the Divine Mother.

[ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

卐🙏तंत्र में महाकाली का ध्यान - गहरा अर्थ 卐🙏

[তন্ত্রে মহাকালীর ধ্যান — গভীর মানে ]

उत्सव के बाद अभी तक दो-एक भक्त रह गये हैं । नरेन्द्र पहले ही चले गये । आरती समाप्त हुई। श्रीरामकृष्ण भावविभोर होकर दक्षिण-पूर्व के लम्बे बरामदे पर धीरे धीरे टहल रहे हैं । मास्टर भी वहीं खड़े खड़े श्रीरामकृष्ण की ओर देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण एकाएक मास्टर को सम्बोधित कर कह रहे हैं, "अहा, नरेन्द्र का क्या ही गाना है !”
[উৎসবান্তে এখনও দু-একটি ভক্ত রহিয়াছেন। নরেন্দ্র আগেই চলিয়া গিয়াছেন।আরতি হইয়া গেল। ঠাকুর আবিষ্ট হইয়া দক্ষিণ-পূর্বের লম্বা বারান্দায় পাদচারণ করিতেছেন। মাস্টারও সেইখানে দণ্ডায়মান আছেন ও ঠাকুরকে দর্শন করিতেছেন। ঠাকুর হঠাৎ মাস্টারকে সম্বোধন করিয়া বলিতেছেন, “আহা, নরেনেদ্রর কি গান!”
The evening worship was over. One or two devotees were still in the temple garden. Narendra had left. Sri Ramakrishna was pacing the verandah northeast of his room. M. stood there looking at him. Suddenly he said to M., "Ah, how sweet Narendra's music is!"

मास्टर - जी, 'घने अन्धकार में’, वह गाना !

[ 'निबिड़ आंधारे माँ तोर चमके अरूप-राशि।'-- "माँ, घने अन्धकार में तेरा निराकार-रूप चमकता है" (In dense darkness, O Mother, Thy formless beauty sparkles;)

[মাস্টার — আজ্ঞা, “নিবিড় আঁধারে” ওই গানটি?
[M: "Yes, sir. That song beginning with 'In dense darkness' is particularly beautiful."

श्रीरामकृष्ण – हाँ, उस गाने का बहुत गम्भीर अर्थ है । मेरे मन को मानो अभी खींचकर रखा है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, ও গানের খুব গভীর মানে। আমার মনটা এখনও যেন টেনে রেখেছে।
MASTER: "You are right. That song has a deep meaning. A part of my mind is still drawn to it."

मास्टर – जी, हाँ ।
[মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ 
M: "Yes, sir."
श्रीरामकृष्ण - अन्धकार में ध्यान, यह तन्त्र का मत है । उस समय सूर्य का आलोक कहाँ है ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আঁধারে ধ্যান, এইটি তন্ত্রের মত। তখন সূর্যের আলো কোথায়?
 MASTER: "Meditation in darkness is prescribed in the Tantra."

श्री गिरीश घोष आकर खड़े हुए । श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं ।
माँ कि आमार कालो रे ! 
कालरूप दिगम्बरी ह्रदिपद्म करे आलो रे। 
(भावार्थ) - "ओ रे ! क्या मेरी माँ काली है ? ओ रे ! कालरूपी दिगम्बरी हृतपद्म को आलोकित करती है ।"
[শ্রীযুত গিরিশ ঘোষ আসিয়া দাঁড়াইলেন; ঠাকুর গান গাহিতেছেন:
মা কি আমার কালো রে!
কালরূপ দিগম্বরী হৃদিপদ্ম করে আলো রে।
Girish Ghosh came and stood by Sri Ramakrishna, who had started to sing:
Is Kali, my Mother, really black?
The Naked One, of blackest hue,
Lights the Lotus of the Heart. . . .
श्रीरामकृष्ण मतवाले होकर खड़े खड़े गिरीश के शरीर पर हाथ रखकर गाना गा रहे हैं –

गया गंगा प्रभासादि काशी कांची केबा चाय - 
काली काली बोले आमार अजपा यदि फुराय। 
त्रिसन्ध्या जे बोले काली , पूजा सन्ध्या से कि चाय ,
सन्ध्या तार सन्धाने फेरे कभू सन्धि नाही पाय।। 
दया व्रत दान आदि , आर किछु ना मने लय। 
मदनेरई यागयज्ञ ब्रह्ममयीर रांगा पाय।।     
(भावार्थ) - “गया, गंगा, प्रभास, काशी, कांची आदि कौन चाहता है । ..."
[ঠাকুর মাতোয়ারা হইয়া, দাঁড়াইয়া দাঁড়াইয়া গিরিশের গায়ে হাত দিয়া গান গাহিতেছেন:
গয়া গঙ্গা প্রভাসাদি কাশী কাঞ্চী কেবা চায় —
কালী কালী বলে আমার অজপা যদি ফুরায়।
ত্রিসন্ধ্যা যে বলে কালী, পূজা সন্ধ্যা সে কি চায়,
সন্ধ্যা তার সন্ধানে ফেরে কভু সন্ধি নাহি পায় ৷৷
দয়া ব্রত দান আদি, আর কিছু না মনে লয়।
মদনেরই যাগযজ্ঞ ব্রহ্মময়ীর রাঙ্গা পায় ৷৷
Sri Ramakrishna was filled with divine fervour. Standing with one arm resting on Girish's body he sang: " Why should I go to Ganga or Gaya, to Kasi, Kanchi, or Prabhas, So long as I can breathe my last with Kali's name upon my lips?What need of rituals has a man, what need of devotions any more, If he repeats the Mother's name at the three holy hours? Rituals may pursue him close, but never can they overtake him. . . .
एबार आमि भालो भेबेछि ,
भालो भाबीर काछे भाब शिखेचि। 
जे देशे रजनी नाई माँ सेई देशेर एक लोक पयेचि , 
आमि किबा दिबा किबा सन्ध्या सन्धयारे बन्ध्या कोरेचि। 
नूपुरे मिशाये ताल , सेई तालेर एक गीत शिखेचि ,
ताध्रीं ताध्रीं बाजेछे से ताल निमिरे उस्ताद करेछि। 
घूम भेंगेचे आर कि घुमाई , योगे योगे जेगे आछि , 
योगनिद्रा तोरे दिये माँ , घूमेरे घूम पड़ायेछि।
प्रसाद बोले भुक्ति मुक्ति उभये माथाये रेखेचि , 
आमि काली ब्रह्म जेने मर्म धर्माधर्म सब छेड़ेचि।।    
(भावार्थ) - "इस बार मैंने अच्छा सोचा है । अच्छे भाववाले से (^God, whom the poet worshipped as the Divine Mother.) भाव सीखा है । माँ, जिस देश में रात्रि नहीं है, उस देश का एक आदमी पाया हूँ; क्या दिन और क्या सन्ध्या - सन्ध्या को भी मैंने वन्ध्या बना डाली है । नूपुर में ताल मिलाकर उस ताल का एक गाना सीखा है; वह ताल ‘ताध्रिम ताध्रिम' रव से बज रहा है । मेरी नींद खुल गयी है, क्या मैं फिर सो सकता हूँ ? मैं याग-योग में जाग रहा हूँ । माँ, योगनिद्रा (^Samadhi, which makes one appear asleep.) तुझे देकर मैने नींद को सुला दिया है । प्रसाद कहता है, मैंने भुक्ति और मुक्ति इन दोनों को सिर पर रखा है । काली ही ब्रह्म है इस मर्म को जानकर मैंने धर्म और अधर्म दोनों को त्याग दिया है ।"

গান - এবার আমি ভাল ভেবেছি

ভাল ভাবীর কাছে ভাব শিখেছি।
যে দেশে রজনী নাই মা সেই দেশের এক লোক পেয়েছি,
আমি কিবা দিবা কিবা সন্ধ্যা সন্ধ্যারে বন্ধ্যা করেছি।
নূপুরে মিশায়ে তাল সেই তালের এক গীত শিখেছি,
তাধ্রিম তাধ্রিম বাজছে সে তাল নিমিরে ওস্তাদ করেছি।
ঘুম ভেঙেছে আর কি ঘুমাই, যোগে যাগে জেগে আছি,
যোগনিদ্রা তোরে দিয়ে মা, ঘুমেরে ঘুম পাড়ায়েছি।
প্রসাদ বলে ভুক্তি মুক্তি উভয়ে মাথায় রেখেছি,
আমি কালী ব্রহ্ম জেনে মর্ম ধর্মাধর্ম সব ছেড়েছি।

Then hesang: " Once for all, this time, I have thoroughly understood;From One2 who knows it well, I have learnt the secret of bhava.A man has come to me from a country where there is no night,And now I cannot distinguish day from night any longer;Rituals and devotions have all grown profitless for me.My sleep is broken; how can I slumber any more?For now I am wide awake in the sleeplessness of yoga.O Divine Mother, made one with Thee in yoga-sleep3 at last,My slumber I have lulled asleep for evermore.I bow my head, says Prasad, before desire and liberation;Knowing the secret that Kali is one with the highest Brahman,I have discarded, once for. all, both righteousness and sin.

गिरीश को देखते देखते मानो श्रीरामकृष्ण के भाव का उल्लास और भी बढ़ रहा है । वे खड़े खड़े फिर गा रहे हैं –

अभय पदे प्राण सोंपेछि , आमि आर कि यमेर भय रेखेछि।  
कालीनाम महामन्त्र आत्मशीर शिखाये बेन्धेछि ,
 आमि देह बेचे भावेर हाटे श्रीदुर्गा नाम किने एनेछी।।  
कालीनाम कल्पतरु हृदये रोपण करेछि , 
एबार शमन एले ह्रदय खुले देखाबो ताई बोसे आछि।।   
(भावार्थ) - "मैंने अभय पद में प्राणों को सौंप दिया है, अब मुझे यम का कोई भय नहीं  ...।"

[গিরিশকে দেখিতে দেখিতে যেন ঠাকুরের ভাবোল্লাস আরও বাড়িতেছে। তিনি দাঁড়াইয়া দাঁড়াইয়া আবার গাহিতেছেন:

অভয় পদে প্রাণ সঁপেছি
আমি আর কি যমের ভয় রেখেছি।
কালীনাম মহামন্ত্র আত্মশির শিখায় বেঁধেছি,
আমি দেহ বেচে ভবের হাটে শ্রীদুর্গানাম কিনে এনেছি।
কালীনাম কল্পতরু হৃদয়ে রোপণ করেছি,
এবার শমন এলে হৃদয় খুলে দেখাব তাই বসে আছি।
As Sri Ramakrishna looked at Girish, his ecstatic fervour became more intense.He sang: I have surrendered my soul at the fearless feet of the Mother;Am I afraid of Death any more?Unto the tuft of hair on my head Is tied the almighty mantra. Mother Kali's name. My body I have sold in the market-place of the world And with it have bought Sri Durga's name. 

श्रीरामकृष्ण भाव में मस्त होकर फिर गा रहे हैं –
(भावार्थ) - “मैं देह को संसाररूपी बाजार में बेचकर श्रीदुर्गानाम खरीद लाया हूँ ।”

श्रीरामकृष्ण (गिरीश आदि भक्तों के प्रति) - " ‘भाव से शरीर भर गया, वह ज्ञान नष्ट हो गया ।'
"यहाँ उस ज्ञान का अर्थ है बाहर का ज्ञान । तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान यही सब चाहिए ।

[ঠাকুর ভাবে মত্ত হইয়া আবার গাহিতেছেন:
আমি দেহ বেচে ভবের হাটে শ্রীদুর্গানাম কিনে এনেছি।
(গিরিশাদি ভক্তের প্রতি) — ‘ভাবেতে ভরল তনু হরল গেঞান।’
“সে জ্ঞান মানে বাহ্যজ্ঞান। তত্ত্বজ্ঞান, ব্রহ্মজ্ঞান এ-সব চাই।”
Intoxicated with God, Sri Ramakrishna repeated the lines:My body I have sold in the market-place of the world,And with it have bought Sri Durga's name. Looking at Girish and M. he said, "'Divine fervour fills my body and robs me of consciousness.' "Here 'consciousness' means consciousness of the outer world. One needs the Knowledge of Reality and Brahman.

 [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

卐🙏 श्री रामकृष्ण क्या अवतार हैं - परमहंस अवस्था卐🙏

[শ্রীরামকৃষ্ণ কি অবতার — পরমহংস অবস্থা ]

"भक्ति ही सार है । सकाम भक्ति भी है और निष्काम भक्ति भी । शुद्धा भक्ति, अहेतुकी भक्ति - यह भी है । केशव सेन आदि अहेतुकी भक्ति नहीं जानते थे । कोई कामना नहीं, केवल ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति !
[“ভক্তিই সার। সকাম ভক্তিও আছে, আবার নিষ্কাম ভক্তি, শুদ্ধাভক্তি, অহেতুকী ভক্তি এও আছে। কেশব সেন ওরা অহেতুকী ভক্তি জানত না; কোন কামনা নাই, কেবল ঈশ্বরের পাদপদ্মে ভক্তি।
"Bhakti, love of God, is the only essential thing. One kind of bhakti has a motive behind it. Again, there is a motiveless love, pure devotion, a love of God that seeks no return. Keshab Sen and the members of the Brahmo Samaj didn't know about motiveless love. In this love there is no desire; it is nothing but pure love of the Lotus Feet of God.

"एक और है - उर्जिता भक्ति । मानो भक्ति उमड़ रही है । भाव में हँसता-नाचता-गाता है, जैसे चैतन्यदेव । राम ने लक्ष्मण से कहा, 'भाई, जहाँ पर उर्जिता भक्ति हो, वहीं पर जानो, मैं स्वयं विद्यमान हूँ ।" 
[“আবার আছে, ঊর্জিতা ভক্তি। ভক্তি যেন উথলে পড়ছে। ‘ভাবে হাসে কাঁদে নাচে গায়।’ যেমন চৈতন্যদেবের। রাম বললেন লক্ষ্মণকে, ভাই যেখানে দেখবে ঊর্জিতা ভক্তি, সেইখানে জানবে আমি স্বয়ং বর্তমান।”১
"There is another kind of love, known as urjhita bhakti, an ecstatic love of God that overflows, as it were. When it is awakened, the devotee laughs and weeps and dances and sings'. Chaitanyadeva is an example of this love. Rama said to Lakshmana, 'Brother, if anywhere you see the manifestation of urjhita bhakti, know for certain that I am there."

श्रीरामकृष्ण क्या अपनी स्थिति का इशारा कर रहे हैं ? क्या श्रीरामकृष्ण चैतन्यदेव की तरह अवतार हैं ? जीव को भक्ति सिखाने के लिए अवतीर्ण हुए हैं ?

[ঠাকুর কি ইঙ্গিত করিতেছেন, নিজের অবস্থা? ঠাকুর কি চৈতন্যদেবের ন্যায় অবতার? জীবকে ভক্তি শিখাইতে অবতীর্ণ হইয়াছেন।
Is Sri Ramakrishna indicating his position? Is Sri Ramakrishna an incarnation like Chaitanyadev? Have He incarnated himself to teach devotion to us?

 [ (22 फरवरी, 1885)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 106 ]

卐🙏अवतारी महापुरुष की कृपा से -मैं क्या था, क्या हुआ हूँ !卐🙏

गिरीश - आपकी कृपा होने से ही सब कुछ होता है । मैं क्या था, क्या हुआ हूँ !

[গিরিশ — আপনার কৃপা হলেই সব হয়। আমি কি ছিলাম কি হয়েছি।
GIRISH: "Everything is possible through your grace. What was I before? And see what I am now."

श्रीरामकृष्ण - अजी, तुम्हारा संस्कार था, इसीलिए हो रहा है । समय हुए बिना कुछ नहीं होता । जब रोग अच्छा होने को हुआ, तो वैद्य ने कहा, 'इस पत्ते को काली मिर्च के साथ पीसकर खाना ।’ उसके बाद रोग दूर हो गया । अब काली मिर्च के साथ दवा खाकर अच्छा हुआ या यों ही रोग ठीक हो गया, कौन कह सकता है ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওগো, তোমার সংস্কার ছিল তাই হচ্ছে। সময় না হলে হয় না। যখন রোগ ভাল হয়ে এল, তখন কবিরাজ বললে, এই পাতাটি মরিচ দিয়ে বেটে খেও। তারপর রোগ ভাল হল। তা মরিচ দিয়ে ঔষধ খেয়ে ভাল হল, না আপনি ভাল হল, কে বলবে?
MASTER: "You had latent tendencies; so they are manifesting themselves now. Nothing happens except at the proper time. Take the case of a patient Nature has almost cured him, when the physician prescribes a herb and asks him to drink its juice. After taking the medicine he is completely cured. Now, is the patient cured by the medicine, or does he get well by himself? Who can tell?

"लक्ष्मण ने लव-कुश से कहा, ‘तुम बच्चे हो, श्रीरामचन्द्र को नहीं जानते । उनके पदस्पर्श से अहिल्या पत्थर से मानवी बन गयी ।' लव-कुश बोले, 'महाराज, हम सब जानते हैं; सब सुना है । पत्थर से जो मानवी बनी, यह मुनि का वचन था । गौतम मुनि ने कहा था कि त्रेतायुग में श्रीरामचन्द्र उस आश्रम के पास से होकर जायेंगे, उनके चरणस्पर्श से तुम फिर मानवी बन जाओगी । सो अब राम के गुण से बनी या मुनि के वचन से, कौन कह सकता है ?"
[“লক্ষ্মণ লবকুশকে বললেন, তোরা ছেলেমানুষ, তোরা রামচন্দ্রকে জানিস না। তাঁর পাদস্পর্শে অহল্যা-পাষাণী মানবী হয়ে গেল। লবকুশ বললে, ঠাকুর সব জানি, সব শুনেছি। পাষাণী যে মানব হল সে মুনিবাক্য ছিল। গৌতমমুনি বলেছিলেন যে ত্রেতাযুগে রামচন্দ্র ওই আশ্রমের কাছ দিয়ে যাবেন; তাঁর পাদস্পর্শে তুমি আবার মানবী হবে। তা এখন রামের গুণে না মুনিবাক্যে, কে বলবে বল।
"Lakshmana said to Lava and Kusa: (Rama's two sons.) "You are mere children; you don't know Rama's power. At the touch of His feet, Ahalya,4 who had been turned into a stone, got back her human form.' Lava and Kusa said: 'Revered sir, we know that. We have heard the story. The stone became Ahalya because of the power of the holy man's words. The sage Gautama said to her: "In the Tretayuga, Rama will pass this hermitage. You will become a human being again at the touch of His feet."' Now, who can tell whether the miracle happened in order that the sage's words should be fulfilled or on account of Rama's holiness?

"सब ईश्वर की इच्छा से हो रहा है । यहाँ पर यदि तुम्हें चैतन्य प्राप्त हो, तो मुझे निमित्त मात्र जानना । चन्दामामा सभी का मामा है । ईश्वर की इच्छा से सब कुछ हो हो रहा है ।
[“সবি ঈশ্বরের ইচ্ছায় হচ্ছে। এখানে যদি তোমার চৈতন্য হয় আমাকে জানবে হেতুমাত্র। চাঁদমামা সকলের মামা। ঈশ্বর ইচ্ছায় সব হচ্ছে।”
"Everything happens by the will of God. If your spiritual consciousness has been awakened at this place, know that I am only an instrument. 'Uncle Moon is everybody's uncle.' All happens by the will of God."

‘गिरीश (हँसते हुए) - ईश्वर की इच्छा से न ? मैं भी तो यही कह रहा हूँ । (सभी की हँसी)
[গিরিশ (সহাস্য) — ঈশ্বরের ইচ্ছায় তো। আমিও তো তাই বলছি! (সকলের হাস্য)
GIRISH (smiling): "Did you say 'by the will of God'? What I am saying is the very same thing." (All laugh.)

श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - सरल बनने पर ईश्वर का शीघ्र ही लाभ होता है । जानते हो कितनों को ज्ञान नहीं होता ? एक - जिसका मन टेढ़ा है, सरल नहीं है । दूसरा - जिसे छुआछूत का रोग है, और तिसरा जो संशयात्मा है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — সরল হলে শীঘ্র ঈশ্বরলাভ হয়। কয়জনের জ্ঞান হয় না। ১ম — যার বাঁকা মন, সরল নয়; ২য় — যার শুচিবাই; ৩য় — যারা সংশয়াত্মা।
MASTER (to Girish): "By being guileless one can speedily realize God. There are several kinds of people who do not attain divine knowledge. First, a man with a perverse mind; he is not guileless. Second, one who is very fastidious about outer purity. Third, a doubting person."

श्रीरामकृष्ण नित्यगोपाल की भावावस्था की प्रशंसा कर रहे हैं ।
[ঠাকুর নিত্যগোপালের ভাবাবস্থার প্রসংসা করিতেছেন।
Sri Ramakrishna spoke highly of Nityagopal's ecstasy.

अभी तक तीन-चार भक्त उस दक्षिण-पूर्ववाले लम्बे बरामदे में श्रीरामकृष्ण के पास खड़े हैं और सब कुछ सुन रहे हैं । श्रीरामकृष्ण परमहंस की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं ।
कह रहे हैं, "परमहंस को सदा यही बोध होता है कि ईश्वर सत्य है, शेष सभी अनित्य । हंस में जल से दूध को अलग निकाल लेने की शक्ति है । उसकी जिव्हा में एक प्रकार का खट्टा रस रहता है; दूध और जल यदि मिला हुआ रहे तो उस रस के द्वारा दूध अलग और जल अलग हो जाता है । परमहंस के मुख में भी खट्टा रस है, प्रेमाभक्ति । प्रेमाभक्ति रहने से हो नित्य-अनित्य का विवेक होता है, ईश्वर की अनुभूति होती है, ईश्वर का दर्शन होता है ।”
[এখনও তিন-চারজন ভক্ত ওই দক্ষিণ-পূর্ব লম্বা বারান্দায় ঠাকুরের কাছে দাঁড়াইয়া আছেন ও সমস্ত শুনিতেছেন। পরমহংসের অবস্থা ঠাকুর বর্ণনা করিতেছেন। বলিতেছেন, পরমহংসের সর্বদা এই বোধ — ঈশ্বরই সত্য আর সব অনিত্য। হাঁসেরই শক্তি আছে, দুধকে জল থেকে তফাত করা। দুধে জলে যদি মিশিয়া থাকে, তাদের জিহ্বাতে একরকম টকরস আছে সেই রসের দ্বারা দুধ আলাদা জল আলাদা হয়ে যায়। পরমহংসের মুখেও সেই টকরস আছে, প্রেমাভক্তি। প্রেমাভক্তি থাকলেই নিত্য-অনিত্য বিবেক হয়। ঈশ্বরের অনুভূতি হয়, ঈশ্বরদর্শন হয়।
Three or four devotees stood near Sri Ramakrishna on the verandah and listened to his words about the exalted state of the paramahamsa. The Master said: "A paramahamsa is always conscious that God alone is real and all else illusory. Only the swan has the power to separate milk from a mixture of milk and water. The swan's tongue secretes an acid that separates the milk from the mixture. The paramahamsa also possesses such a juice; it is his ecstatic love for God. That separates the Real from the mixture of the Real and the unreal. Through it one becomes aware of God and sees Him."

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卐🙏वेदान्तडिण्डिमः- डरो मत ! 卐🙏

" वेदान्त का दुन्दुभि-घोष" 

[Vedanta Dindima].
 झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मणिकर्णिका था और उनका बचपन बिठूर में नाना साहब, रावसाहब और तात्या टोपे के साथ बीता था, यहीं उन्होंने बचपन में सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त किया था। झांसी छावनी के विद्रोही सैनिक यह नारा लगाते हुए ‘‘'खल्क (सृष्टि) खुदा की , मुल्क बादशाह का और हुक्म रानी लक्ष्मीबाई का ‘‘ मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी’’ दिल्ली की ओर चले गए।
 (I will never give up my Jhansi)” to the British. ‘People (khalq) of God, country (mulk) of king (that is, the Mughal emperor), authority (hukm) of the local leaders or chiefs’ to imply loyalty to a common cause.”
“खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, हुकुम शहर कोतवाल का, हर खास और आम को आगाह किया जाता है, कि खबरदार रहें और अपने-अपने घर के किवाड़ों को कुंडी लगाकर बंद कर लें,गिरा दें खिड़कियों के परदे और, अपने बच्चों को सड़क पर न भेजें, क्योंकि, एक 72 साल का बूढ़ा आदमी,अपनी कांपती कमजोर आवाज में, सड़कों पर “सच” बोलता हुआ निकल पड़ा है....“Khilqat Khuda ki, Mulk Badshah ka, Hukm Company ka (The Lord’s creation, the emperor’s country, the company’s command).”

वेदान्त का सार है -`वेदान्तडिण्डिमः ' और यही सम्पूर्ण विश्व को विवेक-प्रयोग सिखाने वाला सूत्र है -- 
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।

अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ २० ॥

[ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या । जीवः ब्रह्म एव, न अपरः । अनेन वेद्यं सत्-शास्त्रम्, इति वेदान्त-डिण्डिमः (भवति) ।

          ब्रह्म सत्य है, ब्रह्मांड मिथ्या है (अर्थात इस जगत को परिवर्तनशील होने के कारण  'सत्य' या 'असत्य ' के रूप में भी वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है)। जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।

[Brahman is real, the universe is mithya (it cannot be categorized as either real or unreal). The jiva is Brahman itself and not different. This should be understood as the correct Sastra. This is proclaimed by Vedanta.  (Source –BrahmaJnānavali Māla/ ब्रह्मज्ञानावलीमाला) ] 

स्वामी विवेकानन्द दार्जिलिंग से 9 मार्च, 1897 को अपने प्रिय शिष्य श्री शरत चंद्र चक्रवर्ती बी.ए. को लिखित पत्र में कहते हैं ---"श्रेयांसि बहुविघ्नानि" इति निश्चितेऽपि समधिकतरं कुरुत यत्नम्। पश्यत इमान् लोकान् मोहग्राहग्रस्तान्। शृणुत अहो तेषां हृदयभेदकरं कारुण्यपूर्णं शोकनादम्। अग्रगा भवत, अग्रगा, हे वीरा, मोचयितुं पाशं बद्धानां श्लथयितुं क्लेशभारं दीनानां, द्योतयितुं हृदयान्धकूपं अज्ञानाम्। अभीरभीरिति घोषयति वेदान्तडिण्डिमः। भूयात् स भेदाय हृदग्रन्थेः सर्वेषां जगन्निवासिनामिति। " 

"श्रेयांसि बहुविघ्नानि"-----'श्रेय -प्रेय विवेक करके श्रेय-मार्ग से चलने में अनेक विघ्न आते हैं ' --यह तो निश्चित ही है, फिर भी श्रेय- पथ (मुमुक्षत्वं) से चलने का अधिकाधिक प्रयत्न करते रहो।  महामोह (देहाध्यास ) के ग्राह से ग्रस्त लोगों की ओर दृष्टिपात करो , हाय , उनके हृदयविदारक आर्तनाद को सुनो। हे विरो, बद्धों को पाशमुक्त करने के लिये , दरिद्रों के कष्टों को कम करने के लिये तथा अज्ञजनों के अन्तर का असीम अंधकार दूर करने के लिये आगे बढ़ो। बढ़ते जाओ - सुनो, वेदान्त -दुन्दुभि (नगाड़ा) बजाकर निर्भीक बनने की कैसी उद्घोषणा कर रहा है ! वह दुन्दुभि -घोष (विवेक-प्रयोग सूत्र) समस्त जगतवासियों की ह्रदय-ग्रन्थियों को विच्छिन्न करने में समर्थ हो। " ६/३०६     

 It is undoubtedly true that "all great achievements are fraught with numerous impediments"; still you should exert your utmost for your end. Behold, how men are already in the jaws of the shark of infatuation! Oh, listen to their piteous heart-rending wails. Advance, forward, O ye brave souls, to set free those that are in fetters, to lessen the burden of woe of the miserable, and to illumine the abysmal darkness of ignorant hearts! Look, how the Vedanta proclaims by beat of drums, "Be fearless!" May that solemn sound remove the heart's knot of all denizens of the earth. 

दृग्दृश्यौ द्वौ पदार्थौ स्तः परस्परविलक्षणौ ।

दृग्ब्रह्म दृश्यं मायेति सर्ववेदान्तडिण्डिमः ॥ १७ ॥

दृक्-दृश्यौ परस्पर-विलक्षणौ द्वौ पदार्थौ स्तः । दृक् ब्रह्म, दृश्यं माया इति सर्व-वेदान्त-डिण्डिमः (भवति) ।

17. There are two things which are different from each other. They are the seer and the seen. The seer is Brahman and the seen is Maya (illusion). This is what all Vedanta proclaims.

अहं साक्षीति यो विद्याद्विविच्यैवं पुनः पुनः ।

स एव मुक्तः सो विद्वानिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ १८ ॥

अहं साक्षी इति एवं पुनः पुनः विविच्य यः विद्यात् , सः एव मुक्तः, सः विद्वान् इति वेदान्त-डिण्डिमः (भवति) ।

18. He who realizes after repeated contemplation that he is a mere witness, he alone is liberated. He is the enlightened one. This is proclaimed by Vedanta

घटकुड्यादिकं सर्वं मृत्तिकामात्रमेव च ।

तद्वद्ब्रह्म जगत्सर्वमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ १९ ॥

घट-कुड्य-आदिकं सर्वं मृत्तिका-मात्रम् एव च । तत्-वत् सर्वं जगत् ब्रह्म इति वेदान्त-डिण्डिमः (भवति) ।

19. The pot, wall, etc., are all nothing but clay. Likewise, the entire universe is nothing but Brahman. This is proclaimed by Vedanta.

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।

अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ २० ॥

{ ब्रह्म सत्यम् । जगत् मिथ्या । जीवः ब्रह्म एव । न अपरः । अनेन वेद्यं [अनेन (इदम् =यह, तृतीया एकवचन)= इसे, वेद्यम् (वेद्+यत्)= जानने योग्य, जानना चाहिए] सत्-शास्त्रम् [ सत्शास्त्रम् = सही शास्त्र, सत्य शास्त्र वचन], इति वेदान्त-डिण्डिमः (भवति) [इति=ऐसा,वेदान्त =वेदान्त (वेदों का अन्त, वेदों का ज्ञान भाग) का डिण्डिमः = डिमडिम निनाद, उद्घोष है ।} 

ब्रह्म अदृश्य होने पर भी नित्य है और नाम-रूपात्मक जगत् दृश्य होने पर भी हर पल परिवर्तन-शील है। जगन्मिथ्या में मिथ्या का अर्थ झूठ (अभाव-स्वरूप) नही है। शाङ्करवेदान्त में प्रकृति को भावरूप अज्ञान माना गया है, अभावरूप नही। अन्तःकरण युक्त आत्मा (जड़ावरणसहित) को जीव या जीवात्मा कहते हैं। अन्तःकरण से मुक्त किन्तु चेतन संयुक्त आत्मा (चेतनावरणसहित) को चेतन आत्मा कहते हैं। जड़-चेतन-आवरण रहित को आत्मा या परमात्मा कहते हैं।

अर्थ—ब्रह्म सत्य है। जगत् अर्थात् जगत के सभी नाम-रूप मिथ्या अर्थात् नाशवान हैं। जीव ब्रह्म ही है दूसरा नही, अर्थात् आत्मा एवं ब्रह्म मूलतः एक ही है। इसे सही शास्त्र (शास्त्रवचन) जानना चाहिए, यह वेदान्त का उद्घोष है।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है— 

उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।13.23।।

(पदच्छेद—उपद्रष्टा अनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः। परमात्मा इति च अपि उक्तः देहे अस्मिन् पुरुषः परः।।)

अर्थ—इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करनेवाला होने से भर्ता,जीवरूप से भोक्ता,ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा ऐसा कहा गया है।

व्याख्या - यहाँ विभिन्न नामों के द्वारा एक ही परमात्मा को इंगित किया गया है। ये विभिन्न नाम जीव की मनस्थिति अर्थात् अज्ञान आवरण की सघनता और विरलता की दृष्टि से दिये गये हैं। आत्मस्वरूप के विषय में पूर्ण अज्ञानी तथा रागद्वेषादि वृत्तियों से पूर्ण मन वाले व्यक्ति में आत्मा मानो केवल उपद्रष्टा बनकर रहता है।  अर्थात इस पुरुष के अपराधपूर्ण कार्यों को भी साक्षीभाव से प्रकाशित मात्र करता है।   परन्तु जब उस व्यक्ति का चित्त कुछ मात्रा में शुद्ध होता है और वह सत्कर्म में प्रवृत्त हौता है।  तब परमात्मा मानो अनुमन्ता बनता है अर्थात् उसके सत्कर्मों को 'विवेक-प्रयोग ' करने की शक्ति को अपनी अनुमति प्रदान करता है। अन्तकरण के और अधिक शुद्ध होने पर वह व्यक्ति जब अपने दिव्य स्वरूप के प्रति जागरूक हो जाता है तब ईश्वर उसके कर्मों को पूर्ण करने वाला भर्ता बन जाता है। अर्पण की भावना से किये गये कर्मों में ईश्वर की कृपा से सफलता ही प्राप्त होती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो ईश्वर उस साधक के अल्प प्रयत्नों को भी पूर्णता प्रदान करता है। जब वह साधक अपने अहंकार को भुलाकर पूर्णतया योगयुक्त हो जाता है, तब ऐसे व्यक्ति के हृदय में आत्मा ही भोक्ता बनी प्रतीत होती है। इस श्लोक की समाप्ति इस कथन के साथ होती है कि आत्मा ही महेश्वर है। वही इस देह में परम पुरुष है।

20. Brahman is real, the universe is mithya (it cannot be categorized as either real or unreal). The jiva is Brahman itself and not different. This should be understood as the correct Sastra. This is proclaimed by Vedanta. 

     वेदान्त का यह 'दुन्दुभि घोष' (वेदान्तडिण्डिमः) हमें शाश्वत (अविनाशी) और नश्वर (श्रेय-प्रेय) में कैसे विवेक-प्रयोग किया जाय इसकी शिक्षा देता है। शंकराचार्य ने समझाया कि "ब्रह्म" (अस्ति-भाति-प्रिय श्रीगुरुमुख से सुना अवतार वरिष्ठ का नाम ) श्रीराम का नाम है और वे ही जगत के विभिन्न नाम-रूपों अपने को व्यक्त करते हैं ! जगत के समस्त कार्यकलापों के भीतर ब्रह्म (राम)के सिवा और कुछ नहीं है। जगत में दृष्टिगोचर समस्त द्विविधता (duality), द्रष्टा और दृश्य  एवं विपरीतता (polarity- वैचारिक मत-भिन्नता) के भीतर निर्गुण, निराकार परमात्मा (अल्ला या ब्रह्म) के रूप में (शक्ति) श्रीरामकृष्ण देव ही छिपे हुए हैं। परम सत्य (Ultimate truth-इन्द्रियातीत सत्य) एक ही है जो देश-काल -निमित्त (time, space, and causation) के परे है, जो कि नित्य या अविनाशी सत्य है !

It teaches how to discriminate between what is नित्य और अनित्य “eternal and the temporal things” ; Shankaracharya  explained that “ब्रहमन -Brahman alone shines as different names and forms in जगत-Jagat ( world). All activities including everything are nothing but  ब्रह्म “Brahman”. Shankaracharya explained that  a निराकार, निर्गुण “formless divine” i.e. “nirguna brahman” being the only hidden reality, in  all duality & polarity of world as we see it.. Ultimate truth is  ब्रह्म “Brahman”, the one  that is beyond time, space, and causation I.e. नित्य.

Mass is the quantity of matter in a physical body. An object's mass also determines the strength of its gravitational attraction to other bodies. It is also a measure of the body's inertia, the resistance to acceleration when a net force is applied. 

[किसी जड़पिण्ड  में पदार्थ की मात्रा (भार) को द्रव्यमान कहते  है । किसी जड़पिण्ड का द्रव्यमान अन्य पिण्डों के प्रति उसके गुरुत्वाकर्षण  की शक्ति (gravitational force) को भी निर्धारित करता है। जब किसी जड़-पिण्ड पर एक निर्धारित बल का प्रयोग किया जाता है,  तो उसके द्रव्यमान के अनुरूप उसके गतिवर्धन (फुर्ती , चाल बढ़ाना ,त्वरण acceleration) का प्रतिरोध होता है। इसलिए यह किसी बेडौल शरीर की जड़ता (आलस्य, काहिली या निष्क्रियता inertia) को मापने का  एक उपाय भी है। ] 

 What appears as “Mass” to our senses is nothing but “energy“ E= MC Square.  (InStine-आइंस्टाइन) At subatomic level our body , any mass or this vast universe which for practical purposes appears real is  –  almost entirely, 99.9999999 percent empty space. That means that only about 0.0000000000000000000042 percent of the universe contains any matter. 

[E=mc2, महान वैज्ञानिक आइंस्टीन (InStine) द्वारा दिया गया एक सूत्र है। द्रव्यमान-ऊर्जा समतुल्यता (mass–energy equivalence) के सिद्धान्त के अनुसार यदि किसी वस्तु में कुछ द्रवमान है तो उसमें उसके तुल्य एक ऊर्जा होती है और यदि उसमें कुछ ऊर्जा है तो उसके तुल्य एक द्रव्यमान होता है।  इस सूत्र की सहायता से हम ऊर्जा को द्रव्यमान में तथा द्रव्यमान को ऊर्जा में बदल सकते हैं।  इस सूत्र का अत्यधिक उपयोग नाभिक के अंदर ऊर्जा हॉर्स और ऊर्जा उत्पादन जानने के लिए किया जाता है। वैसे यह सूत्र प्रत्येक द्रव्यमान को ऊर्जा में बदल सकता है।

आइंस्टाइन के अनुसार हमारी इंद्रियों को "द्रव्यमान" के रूप में जो दिखाई देता है वह "ऊर्जा" E= MC Square = एमसी स्क्वायर के अलावा और कुछ नहीं है। अपरमाणविक स्तर ( subatomic level ) पर हमारा शरीर या कोई भी जड़पिण्ड (द्रव्यमान) या यह विशाल ब्रह्मांड जो व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए वास्तविक प्रतीत होता है - लगभग पूरी तरह से, 99.9999999 प्रतिशत खाली स्थान है । दूसरे शब्दों में कहें तो इसका मतलब है कि कोई पदार्थ या जड़पिण्ड ब्रह्माण्ड के केवल लगभग 0.0000000000000000000042 प्रतिशत में ही  है।

The universe is a pretty empty place. And that matter is nothing but  energy and empty space more then solid in every object. “ World emerged from nothingness and will disappear in nothingness “Advaita Vedanta”  अद्वैत वेदान्त is commonly misapprehended as an “intellectual philosophy”, whereas it is quite practical, seeking to awake “discrimination  विवेक (viveka) between “what is Permenent  नित्य and what is temporary अनित्य  and that discrimination that leads us to Self-realization.” 

ब्रह्मांड एक अत्यन्त रिक्त स्थान (अंतरिक्ष ) है। और वह दृष्टिगोचर पदार्थ (जड़पिण्ड) और कुछ नहीं बल्कि ऊर्जा (energy) और रिक्तस्थान (अंतरिक्ष empty space)  ही है जो हर जड़पिण्ड में ठोस  से अधिक है। "अद्वैत वेदान्त कहता है , दुनिया शून्य से निकली है और शून्य में ही लीन  हो जाएगी। " अद्वैत वेदान्त को एक "बौद्धिक दर्शन" के रूप में अक्सर उल्टा  समझ लिया जाता है, जबकि यह अत्यन्त व्यावहारिक है।  यह व्यावहारिक वेदान्त हमें शाश्वत (Permenent) और नश्वर ( temporary) में , नित्य और अनित्य वस्तुओं में विवेक -प्रयोग करने की शिक्षा देता है , और यह प्रशिक्षण हमें क्रमशः  आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।

The limitless higher Self i.e. Brahman cannot be comprehended by mind. “Transcending the mind” is the path of recognizing our ultimate essence, of Brahman. For all practical purposes it is through our senses and mind , Jagat ( World) is  or appear different than Brahman and real. But to see and think that Jagat ( World) is separate from Brahm is मिथ्या-Mithya or ignorance.  

अनन्त , उच्चतर आत्मा (समष्टि अहं) अर्थात् ब्रह्म (शक्ति माँ जगदम्बा) को मन (व्यष्टि अहं) के द्वारा नहीं समझा जा सकता। हमारे भीतर अन्तर्निहित दिव्यता या परम सत्य (ब्रह्म) को जानने, समझने और व्यवहार में लाने के  लिये हमें 'मन की चहारदीवारी के परे' जाना होगा।  क्योंकि "मन के परे जाना " (Transcending the mind) ही  हमारे दिव्यस्वरुप (ब्रह्म पूर्णत्व) को पहचानने का मार्ग है। जबकि अपने दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन के समस्त व्यावहारिक कार्य करने में मन और इन्द्रियों के माध्यम से जो जगत दृष्टिगोचर होता है वह -ब्रह्म से भिन्न और वास्तविक (सत्य) प्रतीत होता है।  लेकिन जगत को इस रूप  देखना और सोचना कि जगत (संसार) ब्रह्म से अलग है -- मिथ्या है या अज्ञान है। ठाकुर कहते थे ब्रह्म भी सत्य है और लीला भी सत्य है। 

[धन्यवाद सहित साभार/Sung By: Smt. Harini Agaram]

https://nivedita2015.wordpress.com/brahmagnaanaavaleemaalaa/]

यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यत: ।

एवा  मे   प्राण    मा  बिभे: । ।

अथर्ववेद 2/15/1 

जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो। अर्थात् जिस प्रकार सभी लोक परमेश्वर के नियम के पालन से अपने–अपने स्थान और मार्ग में स्थिर रह कर जगत का उपकार करते हैं । ऐसे ही मनुष्य भी ईश्वर की आज्ञा मानने से पापों को छोड़ कर सुकर्मों को करके सदा निर्भय और सुखी रहता है ।

अभयं मित्रादभयममित्रात् अभयं ज्ञातादभयं पुरो य: ।

अभयं नक्तमभयं दिवा न: सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु ।

अथर्ववेद 19/15/6

 हे प्रभु! मुझे मित्र से भय न हो, अमित्र से भी भय न रहे । जो मालूम हो गया है, उससे भय न हो और जो आगे आने वाला है उससे भी भय न हो । हम रात में भी अभय हों, दिन में भी अभय हों । सब दिशाओं के वासी प्राणी मेरे मित्र हो जाएँ, मित्ररूप में रहें ।

यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरू।    

शं नः कुरू प्रजायोऽभयं नः पशुभयः।। -यजु. 36.22

        भाषार्थ :---    हे परमेश्वर ! आप जिस- जिस देश की  रचना  और जगत  पालन की  चेष्टा करते हैं उस उस देश के भय से हमें रहित करिये। अर्थात् किसी देश से हम को किञ्चित् भी भय न हो।  (शन्न:कुरु) वैसे ही सब दिशाओं में जो आपकी प्रजा और पशु हैं उन से भी हम को भय रहित करें।  तथा हम से उनको सुख हो , और उनको भी हम से भय न हो तथा आप की प्रजा में जो मनुष्य और पशु आदि हैं , उन सब से जो धर्म , अर्थ काम और मोक्ष पदार्थ हैं , वे सुख से सिद्ध हों ।।७।।

माभैष्ट विद्वंस्तव नास्त्यपाय: संसारसिन्धोस्तरणेस्त्युपाय: ।

येनैव याता यतयोस्य पारं तमेव मार्गं तव निर्दिशामि ॥ विवेकचूड़ामणि ૪५॥

पदविभाग:-- मा भैष्ट विद्वन् तव नास्ति अपाय: संसारसिन्धो: तरणे अस्ति उपाय: । येन एव याता यतय: अस्य पारं तम् एव मार्गं तव निर्दिशामि।  

पदार्थ: मा भैष्ट - भयं माभूत्/विद्वन् - हे विद्वन्/अपाय: - अपाय:/संसारसिन्धो: - भवसागरम्/तरणे - तारयितुं/अस्ति - अस्ति /उपाय: - मार्ग:/येन - येन मार्गेन/याता: - प्राप्ता:/ यतय: -मुनय:/पारं - अन्तम् /मार्गं - मार्गम् /तव - तुभ्यम्/निर्दिशामि - उपदिशामि। 

अन्वय:- हे  विद्वन् मा भैष्ट ।  तव  अपाय: नास्ति । संसारसिन्धो: तरणे  उपाय: अस्ति। यतय: येन एव अस्य पारं याता: तं मार्गं  एव तव (तुभ्यं)  निर्दिशामि । 

-हे विद्वन् ! डरो मत्‌; तुम्हारा नाश नहीं है, संसार-सागर के पार उतरने का उपाय है। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मैं तुम्हें दिखाता हूँ !! ऐसा कहकर उन्होंने शिष्य को श्री शंकराचार्य कृत “विवेकचूड़ामणि' ग्रन्थ पढ़ने का आदेश दिया । 

[साभार -स्वामी अनन्यानन्द। अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम , मायावती , पिथौरा गढ़, हिमालय।/   https://archive.org/stream/in.ernet.dli.2015.263940/2015.263940.Vivekanand-Sahitya_djvu.txt] 

शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तोवसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।

 तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जना – नहेतुनान्यानपि तारयन्तः ॥ ३९ ॥

शान्ताः  = जिनका मन शांत और चुप है; महान्तः = जो उच्चतम आदर्शों (ठाकुर,माँ, स्वामीजी) का अनुसरण करते हुए अपना जीवन जीते हैं; निवसन्ती= वे रहते हैं; सन्तः  = ईश्वर के भक्त महात्मा लोग , ऋषि या  महान और श्रेष्ठ जन। वसन्तवत्  = वसन्त ऋतु के समान; लोकहितम् = वैसे ही जगत का कल्याण करते हैं जैसे वसन्त ऋतु बिना भेदभाव किये और बिना माँगे निर्जीव प्रकृति में नये जीवन का संचार कर उसे चेतन बना देता है। चरन्तः = देशविदेश घूमते रहते हैं ; तीर्णाः स्वयं = जो स्वयं पार हो चुके हैं; भीमभवार्णवम् = जन्म-मृत्यु चक्र रूपी सांसारिक जीवन का भयानक सागर से ;जनान् - जन साधारण को; अहेतुना  = बिना किसी स्वार्थ या कारण के ; अन्यान् अपि=दूसरे लोगों को भी ;  तारयन्तः (tārayantaḥ) = पार होने में सहायता करते हैं। 

स्वामी विवेकानन्द जैसे मानवजाति के मार्गदर्शक नेता , 'ब्रह्मवेद् ब्रह्मैव भवति' , के न्याय से साक्षात् शिवस्वरूप हैं , भव सागर से उत्तीर्ण आौर दूसरे डूबने वालों को अपने प्रवचनों से तारते हुये संत समाज में वैसे ही सुशोभित होते हैं जैसे सभी ऋतुओं में ऋतुराज वसन्त ।

There live the Saintly people, with calm and greatly noble minds (who live by the highest ideals), and like the spring season, moving and doing things for the welfare of the world. Having crossed the dreadful sea of worldly life themselves, they take others also across without any motive. 

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः

त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।

परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं

निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥ नीतिशतकम् (५३) 

इसे आसानी से ऐसे पढ़ें --" मनसि वचसि काये पुण्य पीयूष पूर्णाः ,त्रिभुवनं उपकार श्रेणिभिः  प्रीणयन्तः।  परगुण परमाणून् पर्वती कृत्य नित्यं, निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।।

भावार्थः----मन, वाणी और शरीर में पुण्य या सदकर्मरूपी अमृत से परिपूर्ण , तीनों लोकों का अनेक प्रकार के उपकारों से कल्याण करने वाले और दूसरों के थोडे से भी गुणों को सर्वदा पहाड़ की तरह (बहुत बड़ा ) मानकर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले सत्पुरुष (संसार में) कितने हैं, अर्थात् ऐसे सज्जन बहुत कम है, दुर्लभ हैं ।

卐🙏 राम नाम का रहस्य 卐🙏

[ श्री जगजीवन चरित्र और श्री कोटवाधाम दर्शन ]

आदिकाल से विश्व के संत महात्माओं ने समय-समय पर राम नाम, राम ध्वनि, अनहद नाद, शब्द, दिव्य ध्वनि, कलमा या नाम कह कर याद किया है।  यह सत्य है कि राम निर्गुण निराकार है। लेकिन वे स्वयं ही  धर्म की रक्षार्थ समय-समय पर साकार रूप धारण करते है। 

 जग में चार राम है, तीन राम व्यवहार।

 चौथा राम निज सार है, ताको करो विचार।।

 एक राम दशरथ घर डोले,

 कौन राम घट घट मा बोले।

 एक राम का सकल पसारा,

 एक राम तिरगुन से न्यारा।।

राम शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया गया है। कुछ लोग एक राम को राजा दशरथ का पुत्र, कुछ लोग घट घट में बैठे मन को राम कहते हैं। कुछ लोग सृष्टि का प्रसार करने वाले ब्रह्म को राम मानते हैं। किंतु निर्गुण विचारधारा के संतों ने राम को निराकार तीनों गुणों से न्यारा माना है।  

वेदान्त का सार है -- "ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या" इससे सिद्ध होता है कि- 'राम' ही ब्रह्म है, इसीलिए श्रीगुरुमुख से सुना "श्रीराम का नाम राम से बड़ा है"। ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप को समझना इतना कठिन नहीं है; जितना प्रभु के सगुण-साकार स्वरूप को समझना। ब्रह्म के अवतार वरिष्ठ, विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण को समझना तो अति कठिन है। वही सभी के अंदर रमा हुआ है। 'रं' राम की राशि का नाम है। यह जपा नहीं जाता। वह साधना से जाना जाता है। इसी को शब्द या नाम कहते हैं।  जब जब प्रभु पृथ्वी पर साकार सगुण रूप धारण कर अवतार होता है। तब मनुष्य ही नहीं ऋषि मुनि देवताओं तक भ्रम में पड़ जाते हैं। उनके सगुण स्वरूप को ही पहचान नहीं पाते हैं। 

निर्गुण रूप सुलभ अति,

 सगुन जानहै नहि कोय।

सगुन अगम नाना चरित्र, 

सुनि मुनि भ्रम होय।।

 रामचरितमानस के अनुसार पार्वती जी, शिव जी से राम के सही स्वरूप के विषय में संदेह करके कहती हैं। क्या यह वही राम है, जो पत्नी के विरह में वन-वन भटक रहे हैं ? पत्नी हेतु रावण का वध करते हैं। आप स्वयं राम का ही जाप करते हैं। सत्य वास्तविकता हमें बताएं, जो ब्रह्म सर्वव्यापक माया रहित, अजन्मा, अगम, अगोचर, इच्छा रहित है, जिसे वेद तक भी नहीं जानते हैं, वह क्या मानव शरीर धारण कर सकता है? शिवजी ने पार्वती से कहा कि सगुण निर्गुण में कोई भेद नहीं है। ब्रह्मा निर्गुण, निराकार, अलख, अजन्मा, अविनाशी है। वह धर्म रक्षार्थ समय-समय पर अवतरित होता है।राम चरित मानस, बाल काण्ड की चौपाई ( 1.1.121) में कहा गया है - 

   जब- जब होई धरम की हानि। 

     बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।।

      तब-तब धरि प्रभु विविध शरीरा। 

     हरहि दयानिधि सज्जन पीरा।।  

अर्थात जब-जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, दुष्टों का प्रभाव बढ़ने लगता है, तब सज्जनों की पीड़ा हरने के लिए प्रभु अनेकों रूप धारण कर अवतार लेते हैं। ये रामायण की वो चौपाई है, जिसमें सम्पूर्ण युगों और कालखंडों का सार है, मानवजाति के लिए ये एक सम्पूर्ण बात है। 

भगवान विष्णु ने कई अवतार लेकर असुरों का अंत किया है। और उनके प्रमुख अवतारों में  श्रीराम, और श्रीकृष्ण के अवतार मुख्य माने जाते हैं।  श्रीराम ने ज्यादा से ज्यादा स्वयं ही असुरों का अंत किया है। और श्रीकृष्ण भी वही किया है और गीता के माध्यम से अर्जुन सहित कई लोगों को अधर्म पर विजय प्राप्त करने का मार्ग सुझाया है। किन्तु, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव ने सम्पूर्ण विश्व को महामण्डल के माध्यम से भारत की प्राचीन अधर्म पर विजय प्राप्त करने का मार्ग-"Be and Make " अर्थात चरित्रवान 'मनुष्य' बनने और बनाने की प्रणाली---या "स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" को  ही  उपलब्ध करा दिया है। 

यदि मनुष्य भी पशु जैसा ही आचरण करें तो उनमें और पशुओं भेद ही क्या है ? ‘

येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।

ते मर्त्यलोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति || १३ || नीतिशतकम्’’

जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील, न गुण और न धर्म। वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में मृग (जानवर) की तरह से घूमते रहते हैं। अतः मनुष्यों में धर्म ही विशेष है |

‘‘आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पषुभिर्निराणाम्।

धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।’’

अर्थात् आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिये, एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्यों और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का अर्थात इन स्वाभाविक वृतियों को मर्यादित करने का और नया ज्ञान प्राप्त करने का। जिस मनुष्य में यह धर्म (विवेक)  नहीं है वह पशु के समान ही है।

विवेक शब्द का अर्थ है विचार करना , चीजों को अलग-अलग करके देखना।  विचिर्,पृथग्भावे धातु से विवेक शब्द निष्पन्न होता है।  इसी को आत्म- अनात्म  विवेक कहते हैं। (तिल - तण्डुल न्याय) तिल और चावल यदि एक साथ मिल गये हों तो उन्हें अलग करना।  नीर- क्षीर विवेक न्याय प्रसिद्ध ही है।  मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ ? और मेरा कौन है ? मेरा क्या है ? इसका स्पष्ट विवेक होना चाहिए।  

 श्रवण , मनन और निदिध्यासन के प्रयासों के माध्यम से (सुनना , सोचना और ध्यान करना) अपने आप में स्थिति होती है।  और उस स्वरूपावस्थिति का नाम ही मुक्ति है।  अपने को देह , प्राण , इन्द्रिय , मन , बुद्धि न जान कर शुद्ध दृक् स्वरूप जानना ही आत्मज्ञान में स्थित होना कहा जाता है।  

यदर्थप्रतिभानं तन्मन इत्यभिधीयते ।

अन्यन्न किंचिदप्यस्ति मनो नाम कदाचन ।। ३.४.४२।। योगवासिष्ठः ||

वह जो सभी वस्तुओं के भान का प्रतिनिधि है, उसे मन कहा जाता है: इसके अलावा मन और कुछ भी नहीं है जिसके लिए मन शब्द लागू होता है। जिसमें विषयों की प्रतीति होती है वह मन है और जिसको मालूम पड़ता है वह ज्ञानस्वरूप आत्मा है |

‘‘यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।

दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।१।। शिवसंकल्पोपनिषद्’’

हे परमात्मन् !जो मन जाग्रत् अवस्था में दूर-दूर तक गमन करता है और उसी प्रकार सुप्तावस्था में भी दूर-दूर तक जाता है; वही (मन) निश्चित रूप से इन्द्रियों का प्रकाशक है, जीवात्मा का एकमात्र माध्यम है, ऐसा हमारा वह मन श्रेष्ठ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो। ||५३||

मनुष्य को चरित्र की परिभाषा और चरित्र-निर्माण की पद्धति को समझकर सत्कर्मों पर ही चलकर अपना जीवन बिताना चाहिए। अधर्म करने के बहुत से रास्ते हैं, जो हमारे लक्ष्य और पथ का चयन करने में हमें भ्रमित करते हैं। पर हमें हमेशा ये याद रखना चाहिए कि, ईश्वर (गुरु विवेकानन्द) हमें देख रहे हैं। श्रेय और प्रेय दोनों तरह के रास्ते हमारे सामने आते ही रहते हैं; लेकिन विवेक-प्रयोग करके उन्हें चुनने और उनपर चलने का अधिकार सिर्फ हमारा ही होता है। इसीलिए स्वामीजी कहते हैं - 'मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है !" 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण ही जीवन की सभी परेशानियों से हम सबको बाहर निकालते हैं। अन्याय और बुरे कर्म न तो मन को शांति देते हैं, और ना आत्मा को, अतः हमें अपने आदर्श , उद्देश्य , उपाय , आदर्शवाक्य, और अभियान मंत्र -'चरैवेति चरैवेति' का अनुसरण करते हुए मनुष्य बनने और बनाने के पथ पर आगे बढ़ते रहना चाहिए। 

केनोपनिषद में कहा है कि —‘‘इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥५॥ (केनोपनिषद् द्वितीयः खण्डः)’’यदि व्यक्ति यहीं (इसी लोक में) उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो व्यक्ति का अस्तित्व सार्थक है, और यदि यहीं इसी जीवन में उस ज्ञान की प्राप्ति नहीं की, तो महाविनाश है। ज्ञानीजन विविध भूत-पदार्थों में ‘उस’ का विवेचन कर, उसी की सत्ता का अनुभव कर इस लोक से प्रस्थान करके अमर हो जाते हैं। अतः इन तीनों साधनों का एक साथ आश्रय करना चाहिये। 

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। 

जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें।।

 जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।)

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।

सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, विद्वानपण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है। 

“मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः । 

शमो विचारः संतोषश्चतुर्थः साधुसंगमः ।। (योगवासिष्ठः २.५९)  

शम (मनोनिग्रह), विवेक-विचार, (नित्य क्या है और अनित्य क्या है इसका विचार) संतोष = सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥ सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखे। एवं सत्संग ये ही मोक्षद्वार के चार द्वारपाल के रूप में कहे गये हैं। यदि इनमें से किसी एक का भी आश्रय प्राप्त कर लिया जाये, तो शेष तीनों द्वारपाल सहजतापूर्वक स्वयमेव ही अपने वश में हो जाते हैं।

बिनु सतसंग बिबेक न होई ।

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥

सतसंगत मुद मंगल मूला ।

सोइ फल सिधि सब साधन फूला

सत्संग बिना विवेक नही होताऔर श्रीरामजीकी कृपा बिना वह सत्संग सहज मे मिलता नहीं । सत्संगति आनन्द और कल्याणकी जड़ है । सत्संगकी सिद्धि ही फल है और सब साधन तो फूल हैं। 

[Without company of noble people, conscience can’t be there, and being away ( against) LORD RAMA, even that (company of noble people) is not accessible. Company of noble people is the foundation of happiness and welfare. Company of noble men is the only fruit of enlightenment , rest all means of devotion are mere flowers.]

उत्तम कर्म एवं उत्तम भावना की वृद्धि के लिए सतसंग ही एक मात्र उपाय है। सदा सत्पुरुषों का ही संग करना चाहिए क्योंकि मनुष्य पर संगत का सबसे बड़ा प्रभाव पड़ता है। सत्पुरुषों के गुण आचरण और उनके द्वारा दी गई शिक्षा को जानना समझना और आत्मसात कर के अपने जीवन में धारण करना और सत् शास्त्र का अध्ययन मनन और अभ्यास करना भी संत संग के समान ही माना गया है।

‘‘ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् ।

यः कारणानि निखिलानि तानिकालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः ॥ ३॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्’’

तब ऋषियों ने एकाग्रचित्त होकर ध्यान योग में स्वयं भगवान की सृजन-शक्ति को देखा जो अपने गुणों में छिपी हुई थी। ये वही एकमेवाद्वितीयं हैं जो काल, आत्मा तथा सभी कारणों के अधिपति हैं।

‘‘स्वाध्यायाद् योगमासीत योगात् स्वाध्यायमामनेत्।

स्वाध्याय-योग-सम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते||२|| (विष्णुपुराणम् / षष्टांशः/अध्यायः ६’)

स्वाध्याय से योग, योग से स्वाध्याय और अब स्वाध्याय, योग दोनों की सम्पदा आयेगी तब परमात्मा का दर्शन होगा ,योगपूर्वक स्वाध्याय से ही परमात्मा का साक्षात्कार हो सकता है। 

 ‘‘जपश्रान्तश्चरेद् ध्यानं ध्यानात् श्रान्तश्चरेज्जपम्। 

जप- ध्यान- परिश्रान्त आत्मतत्वं विचारयेत्।।’’ 

यदि जप में थकान मालूम हो तो आँख बन्द करके ध्यान करो और ध्यान में तबीयत ऊबने लगे तो माला लेकर जप करो। यदि दोनों में थकान मालूम पड़े तो स्वाध्याय करो, पढ़ो, पाठ करो! ||५५||

।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।

स्वाध्याय करने योग्य https://shastragyan.in/soorya-gita-

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