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शुक्रवार, 18 मार्च 2022

🔆🙏$$$$$ परिच्छेद~ 100 [ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 🔆🙏 हिंदू-भाव (हिन्दुत्व) ही सनातन धर्म है !

 *परिच्छेद-100 

 [ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

(१)

🔆🙏अन्नकूट -गोबर्धन पूजा के अवसर पर बड़ा बाजार, कोलकाता में श्रीरामकृष्ण 🔆🙏

आज श्रीरामकृष्ण 12 नम्बर मल्लिक स्ट्रीट बड़ा बाजार जानेवाले हैं । मारवाड़ी भक्तों ने 'अन्नकूट '^* के अवसर पर श्रीरामकृष्ण को न्योता दिया है । कालीपूजा को बीते दो दिन हो गये । आज सोमवार है, 20 अक्टूबर, 1884, कार्तिक शुक्ला द्वितीया । बड़ा बाजार में अब भी दीवाली का आनन्द चल रहा है।

[^अन्नकूट - शाब्दिक अर्थ  "भोजन की पहाड़ी" या गोवर्धन पूजा; अन्नकूट कई तरह के अन्न और सब्जियों के समूह को कहा जाता है।  इस दिन अपनी सामर्थ्य के अनुसार 21, 51, 101 और 108 सब्ज़ियों को मिलाकर एक तरह की मिक्स सब्ज़ी बनाई जाती है; जिसको विशेष तौर पर गोवर्धन पूजा के दिन भगवान श्रीकृष्ण को भोग लगाने के लिए बनाया जाता है।  इस त्योहार के दौरान बड़ी मात्रा में पका हुआ भोजन देवता को चढ़ाया जाता है और बाद में भक्तों और गरीबों के बीच वितरित किया जाता है। दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा (Govardhan Puja) करने की परंपरा है। इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन की पूजा कर देवराज इंद्र का अहंकार तोड़ा था। इस दिन घर के आंगन, छत या बालकनी में गोबर से गोवर्धन बनाए जाते हैं और उनको अन्नकूट (Annakoot) का भोग लगाया जाता है।  मान्यता है कि त्रेतायुग में भगवान श्री कृष्ण के कहने पर बृजवासियों ने भगवान इन्द्र की जगह पर गोवर्धन पर्वत की पूजा की थी।  क्योंकि गायों को चारा गोवर्धन पर्वत से मिलता था और गायें बृजवासियों के जीवन-यापन का जरिया थीं।  तब इंद्रदेव ने नाराज होकर मूसलाधार बारिश की थी और भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर बृजवासियों की मदद की थी और उनको पर्वत के नीचे सुरक्षा प्रदान की थी।  तब से ही भगवान श्री कृष्ण के गोवर्धन पर्वत उठाये हुए रूप की पूजा की जाती है, जिसके तहत गोवर्धन पर्वत और भगवान श्री कृष्ण दोनों की पूजा होती है। 

[আজ ঠাকুর ১২নং মল্লিক স্ট্রীট বড়বাজারে শুভাগমন করিতেছেন। মারোয়াড়ী ভক্তেরা অন্নকূট করিয়াছেন — ঠাকুরের নিমন্ত্রণ। দুইদিন হইল শ্যামাপূজা হইয়া গিয়াছে। সেই দিনে ঠাকুর দক্ষিণেশ্বরে ভক্তসঙ্গে আনন্দ করিয়াছিলেন। তাহার পরদিন আবার ভক্তসঙ্গে সিঁথি ব্রাহ্মসমাজে উৎসবে গিয়াছিলেন। আজ সোমবার, ২০শে অক্টোবর, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ কার্তিকের শুক্লা প্রতিপদ — দ্বিতীয়া তিথি, বড়বাজারে এখন দেওয়ালির আমোদ চলিতেছে।

Two days after the worship of Kali, the Marwaris of the Burrabazar section of Calcutta were celebrating the Annakuta festival. Sri Ramakrishna had been invited by the Marwari devotees to the ceremony at 12 Mallick Street. It was the second day of the bright fortnight of the moon. The festival connected with the worship of Kali, known as the "Festival of Light", still going on at Burrabazar.

दिन को लगभग तीन बजे मास्टर छोटे गोपाल के साथ बड़ा बाजार आये । श्रीरामकृष्ण ने छोटी धोती खरीदने की आज्ञा दी थी - मास्टर उसे खरीदकर एक कागज में लपेटकर हाथ में लिये हुए हैं। मल्लिक स्ट्रीट में दोनों ने पहुंचकर देखा, आदमियों की बड़ी भीड़ है ।

१२ नम्बर स्ट्रीट के पास पहुँचकर देखा, श्रीरामकृष्ण बग्धी पर बैठे हुए हैं, बग्घी बढ़ नहीं सकती - गाड़ियों की इतनी भीड़ है । भीतर बाबूराम थे और राम चट्टोपाध्याय । गोपाल और मास्टर को देखकर श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।

[আন্দাজ বেলা ৩টার সময় মাস্টার ছোট গোপালের সঙ্গে বড়বাজারে আসিয়া উপস্থিত। ঠাকুর তেলধুতি কিনিতে আজ্ঞা করিয়াছিলেন, — সেইগুলি কিনিয়াছেন। কাগজে মোড়া; একহাতে আছে। মল্লিক স্ট্রীটে দুইজনে পৌঁছিয়া দেখেন, লোকে লোকারণ্য — গরুর গাড়ি, ঘোড়ার গাড়ি জমা হইয়া রহিয়াছে। ১২ নম্বরের নিকটবর্তী হইয়া দেখিলেন, ঠাকুর গাড়িতে বসিয়া, গাড়ি আসিতে পারিতেছে না। ভিতরে বাবুরাম, রাম চাটুজ্যে। গোপাল ও মাস্টারকে দেখিয়া ঠাকুর হাসিতেছেন।

About three o'clock in the afternoon M. and the younger Gopal came to Burrabazar. M. had in his hand a bundle of cloths he had purchased for Sri Ramakrishna. Mallick Street was jammed with people, bullock-carts, and carriages. As M. and Gopal approached 12 Mallick Street they noticed Sri Ramakrishna in a carriage, which could hardly move because of the jam. Baburam and Ram Chakravarty were with the Master. He smiled at M. and Gopal.

श्रीरामकृष्ण गाड़ी से उतरे । साथ में बाबूराम हैं, मास्टर आगे रास्ता दिखाते हुए चल रहे हैं ।

मारवाड़ी भक्त के यहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, नीचे आँगन में कपड़े की कितनी ही गाँठें पड़ी हुई हैं । एक ओर बैलगाड़ियों पर माल लद रहा है । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ ऊपर के मंजले पर चढ़ने लगे । मारवाड़ियों ने आकर उन्हें तिमंजले के एक कमरे में बैठाया । उस कमरे में काली का चित्र था । श्रीरामकृष्ण आसन ग्रहण करके हँसते हुए भक्तों से बातचीत करने लगे ।

एक मारवाड़ी आकर श्रीरामकृष्ण के पैर दबाने लगा । श्रीरामकृष्ण ने पहले तो मना किया, परन्तु फिर कुछ सोचकर कहा, 'अच्छा'; फिर मास्टर से पूछा, स्कूल का क्या हाल है । मास्टर - जी आज छुट्टी है ।

[ঠাকুর গাড়ি থেকে নামিলেন। সঙ্গে বাবুরাম, আগে আগে মাস্টার পথ দেখাইয়া লইয়া যাইতেছেন। মারোয়াড়ীদের বাড়িতে পৌঁছিয়া দেখেন, নিচে কেবল কাপড়ের গাঁট উঠানে পড়িয়া আছে। মাঝে মাঝে গরুর গাড়িতে মাল বোঝাই হইতেছে। ঠাকুর ভক্তদের সঙ্গে উপর তলায় উঠিলেন। মারোয়াড়ীরাও আসিয়া তাঁহাকে একটি তেতলার ঘরে বসাইল। সে ঘরে মা-কালীর পট রহিয়াছে — ঠাকুর দেখিয়া নমস্কার করিলেন, ঠাকুর আসন গ্রহণ করিলেন ও সহাস্যে ভক্তদের সঙ্গে কথা কহিতেছেন। একজন মারোয়াড়ী আসিয়া ঠাকুরের পদসেবা করিতে লাগিলেন। ঠাকুর বলিলেন, থাক্‌ থাক্‌। আবার কি ভাবিয়া বলিলেন, আচ্ছা, একটু কর। প্রত্যেক কথাটি করুণামাখা। মাস্টারকে বলিলেন, স্কুলের কি —মাস্টার — আজ্ঞা, ছুটি।

Sri Ramakrishna alighted from the carriage. With Baburam he proceeded on foot to the house of his host, M. leading the way. They saw the courtyard of the house filled with big bales of clothes which were being loaded into bullock-carts for shipment. The Marwari host greeted the Master and led him to the third floor of the house. A painting of Kali hung on the wall. Sri Ramakrishna bowed before it. He sat down and became engaged in conversation with the devotees. One of the Marwaris began to stroke his feet. The Master asked him to stop. After reflecting a minute he said, "All right, you can stroke them a little." His words were full of compassion. 

MASTER (to M.): "What about your school?"

M: "Today is a holiday, sir."

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - कल अधर के यहाँ चण्डी का गाना (काली-कीर्तन) होगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কাল আবার অধরের ওখানে চণ্ডীর গান।

MASTER (smiling): "Tomorrow there will be a musical recital of the Chandi at Adhar's house."

 (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏महामण्डल (नरसिंह, वामन,.... अवतार) के आविर्भूत होने का प्रायोजन🔆🙏

[श्री रामकृष्ण की इच्छा (कामना), माँ का आशीर्वाद, स्वामीजी का उत्साह (दीवानापन -infatuation, प्रेम -भावावेग, भावातिरेक)

[শ্রী রামকৃষ্ণের ইচ্ছা, মায়ের আশীর্বাদ, স্বামীজীর উদ্দীপনা (উন্মাদ-প্রেম-আবেগ-ভাবাতিরেক )]

मारवाड़ी भक्त ने पण्डितजी को श्रीरामकृष्ण के पास भेजा । पण्डितजी ने आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया । पण्डितजी के साथ अनेक प्रकार की ईश्वर सम्बन्धी वार्ता हो रही है । अवतार - सम्बन्धी बातें होने लगीं ।

[মারোয়াড়ী ভক্ত গৃহস্বামী, পণ্ডিতজীকে ঠাকুরের কাছে পাঠাইয়া দিলেন। পণ্ডিতজী আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া আসন গ্রহণ করিলেন। পণ্ডিতজীর সহিত অনেক ঈশ্বরীয় কথা হইতেছে। অবতারবিষয়ক কথা হইতে লাগিল।

The host sent a pundit to Sri Ramakrishna. He saluted the Master and took a seat. Soon they were engaged in conversation. They talked about spiritual things.

श्रीरामकृष्ण - भगवान भक्त के लिए अवतार लेते हैं, ज्ञानी के लिए नहीं।"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ভক্তের জন্য অবতার, জ্ঞানীর জন্য নয়।

MASTER: "God incarnates Himself for the bhakta and not for the jnani."  

पण्डितजी -`परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । 

                 धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे । (गीता 4.8 ) 

“अवतार पहले तो भक्तों के आनन्द के लिए होता है, और दूसरे दुष्टों के दमन लिए । परन्तु ज्ञानी कामनाशून्य ^* होते हैं ।” 

পণ্ডিতজী — পরিত্রাণায় সাধূনাং বিনাশায় চ দুষ্কৃতাম্‌।

                       ধর্মসংস্থাপনার্থায় সম্ভবামি যুগে যুগে।।

“অবতার, প্রথম, ভক্তের আনন্দের জন্য হন; আর দ্বিতীয়, দুষ্টের দমনের জন্য। জ্ঞানী কিন্তু কামনাশূন্য।”

[PUNDIT: "'I incarnate Myself in every age for the protection of the good, for the destruction of the wicked, and for the establishment of dharma.' (Bhagavad Gita, IV, 8.) God becomes man, first, for the joy of the bhakta, and secondly, for the destruction of the wicked. The jnani (knowledgeable) has no desire."

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - परन्तु मेरी सब कामनाएँ नहीं मिटी । भक्ति की कामना बनी हुई है ।

[मेरी सब कामनाएँ नहीं मिटी । ^*भगवान् श्रीकृष्ण गीता 4 /8 में अर्जुन को अपने अवतार होने के  विषय में इतने विस्तार से जानकारी क्यों दे रहे हैं? विष्णु का प्रतीक 'नेता'- हिरण्यकश्यप जब राष्ट्र धर्म निभाने के बजाये स्वयं-को -'विष्णु' कहने लगा,  और भक्त प्रह्लाद की जान लेने के लिए अपनी बहन होलिका को भेजा, तब भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए, दुष्ट का घमण्ड चूर करने के लिए भगवान को नरसिंह अवतार लेना पड़ा। 'वामन अवतार' भक्त राजा बली के लिए हुआ था, ज्ञानी-गुरु शुक्राचार्य के लिए नहीं। क्या अवतार वरिष्ठ भी यहाँ अपने महामण्डल -अवतार होने का संकेत नहीं दे रहे हैं ? ] 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আমার কিন্তু সব কামনা যায় নাই। আমার ভক্তিকামনা আছে।

MASTER (smiling): "But I have not got rid of all desires. I have the desire for love of God."

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏'Thawing of Ice' (हिम द्रवण)~  किसे कहते हैं ?🔆🙏

[`भाव 'किसे कहते हैं, `भक्ति' किसे कहते हैं, `प्रेम '(दीवानापन) किसे कहते हैं ?]

इसी समय पण्डितजी के पुत्र ने आकर श्रीरामकृष्ण की चरण-वन्दना की और आसन ग्रहण किया।

[এই সময়ে পণ্ডিতজীর পুত্র আসিয়া ঠাকুরের পাদবন্দনা করিয়া আসন গ্রহণ করিলেন।

The pundit's son entered the room. He saluted the Master and took a seat.

श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी के प्रति) - अच्छा जी, भाव किसे कहते हैं, और भक्ति किसे कहते हैं ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (পণ্ডিতজীর প্রতি) — আচ্ছা জী! ভাব কাকে বলে, আর ভক্তি কাকে বলে?

MASTER (to the pundit): "Well, what is bhava and what is bhakti?"

पण्डितजी - ईश्वर की चिन्ता करते हुए जब मनोवृत्तियाँ आनन्दपूर्ण (mellow) हो जाती हैं, तब उस अवस्था को भाव (mellowness-दीवानापन)  कहते हैं, जैसे सूर्य के निकलने पर बर्फ गल जाती है ।

[পণ্ডিতজী — ঈশ্বরকে চিন্তা করে মনোবৃত্তি কোমল হয়ে যায়, তার নাম ভাব, যেমন সূর্য উঠলে বরফ গলে যায়।

PUNDIT: "Meditation on God mellows the mind. This mellowness is called bhava. It is like the thawing of ice (हिमद्रवण) when the sun rises."

[Sri Ramakrishna as hindi to bengali interpreter ]

श्रीरामकृष्ण - अच्छा जी, प्रेम किसे कहते हैं ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা জী! প্রেম কাকে বলে?

MASTER: "Well, what is prema?

पण्डितजी हिन्दी में ही बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उनके साथ बड़ी मधुर हिन्दी में बातचीत कर रहे हैं । पण्डितजी ने प्रेम का उत्तर एक दूसरे ही ढंग से समझाया ।

[পণ্ডিতজী হিন্দীতে বরাবর কথা কহিতেছেন। ঠাকুরও তাঁহার সহিত অতি মধুর হিন্দিতে কথা কহিতেচেন। পণ্ডিতজী ঠাকুরের প্রশ্নের উত্তরে প্রেমের অর্থ একরকম বুঝাইয়া দিলেন। 

The pundit and Sri Ramakrishna were talking in Hindusthani. The former gave some sort of explanation of prema.

श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी से) - नहीं, प्रेम का अर्थ यह नहीं है । प्रेम यह है, ईश्वर पर ऐसा प्यार होगा कि संसार के अस्तित्व का होश तो रह ही नहीं जायेगा, साथ ही अपनी देह भी जो इतनी प्यारी वस्तु है, भूली जायेगी । प्रेम चैतन्यदेव को हुआ था

[শ্রীরামকৃষ্ণ (পণ্ডিতজীর প্রতি) — না, প্রেম মানে তা নয়। প্রেম মানে ঈশ্বরেতে এমন ভালবাসা যে জগৎ তো ভুল হয়ে যাবে। চৈতন্যদেবের হয়েছিল।

MASTER (to the pundit): "No! No! That is not the meaning. Prema means such love for God that it makes a man forget the world and also his body, which is so dear to him. Chaitanyadeva had prema."

पण्डितजी - जी हाँ, जैसा मतवाला होने पर होता है ।

[পণ্ডিতজী — আজ্ঞে হ্যাঁ, যেমন মাতাল হলে হয়।

PUNDIT: "Yes, sir. One behaves like a drunkard."

{विवेक-दर्शन का अभ्यास (मनःसंयोग) करते-करते मनोवृत्तियाँ जब -mellow (आनन्दपूर्ण, मतवाला-drunken) हो जाती हैं, उस अवस्था को भाव या दीवानगी कहते हैं। जैसे सूर्य उदित होने पर बर्फ गल जाता है , उसी तरह ह्रदय में ठाकुरदेव के आ जाने को पत्थरदिल का पिघल जाने को ~ thawing of ice (हिमद्रवण) कहते हैं।     

॥वात्सल्य भक्ति॥*दृष्टांत कथा - नन्द रानी यशोदा जब कृष्ण को उखल से बाँधने लगी तब बहुत-सी रस्सियें जोड़ने पर भी रस्सी दो अंगुल छोटी ही रहती गई । फिर यशोदा को जब लज्जित और परिश्रम से खिन्न देखा तब तुरन्त बँध गये । इससे सूचित होता है कि भगवान् अपना प्रताप दिखा करके भी वात्सल्य भक्तों से बँध जाते हैं ।}

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏किसी को भक्ति होती है किसी को नहीं, क्यों ?🔆🙏

[श्रीरामकृष्ण देव हिन्दी -बंगला इंटरप्रेटर के रूप में]

श्रीरामकृष्ण - अच्छा जी, किसी को भक्ति होती है किसी को नहीं इसका क्या अर्थ है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা জী, কারু ভক্তি হয় কারু হয় না, এর মানে কি?

MASTER: "Some people develop bhakti and others do not; how do you explain that, sir?"

पण्डितजी - ईश्वर में वैषम्य नहीं है । वे कल्पतरु (The wish-fulfilling tree of heaven) हैं । जो जो कुछ चाहता है, वह वही पाता है, परन्तु कल्पतरु के पास जाकर माँगना चाहिए ।

[পণ্ডিতজী — ঈশ্বরের বৈষম্য নাই। তিনি কলপতরু, যে যা চায় সে তা পায়। তবে কল্পতরুর কাছে গিয়ে চাইতে হয়।

PUNDIT: "There is no partiality in God. He is the Wish-fulfilling Tree. Whatever a man asks of God he gets. But he must go near the Tree to ask the boon."

पण्डितजी यह सब हिन्दी में कह रहे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर की ओर देखकर अर्थ बतला रहे हैं ।

[পণ্ডিতজী হিন্দীতে এ-সমস্ত বলিতেছেন। ঠাকুর মাস্টারের দিকে ফিরিয়া এই কথাগুলির অর্থ বলিয়া দিতেছেন।

The pundit said all this in Hindusthani. The Master explained it to M. in Bengali.

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏 समाधितत्त्व- नारद और शुकदेव की चेतन समाधि है 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण - अच्छा जी, समाधियाँ किस किस तरह की हैं, अब कहिये तो जरा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা জি, সমাধি কিরকম সব বল দেখি।

MASTER: "Sir, please describe samadhi to us."

पण्डितजी - समाधि दो तरह की है, सविकल्प ^* और निर्विकल्प ^* । निर्विकल्प समाधि में विकल्प नहीं है ।

[ सविकल्प समाधि में भक्त अपने और भगवान के बीच अंतर को बरकरार रखता है।  In Savikalpa samadhi the aspirant retains the distinction between himself and God

[পণ্ডিতজী — সমাধি দুইপ্রকার — সবিকল্প আর নির্বিকল্প। নির্বিকল্প-সমাধিতে আর বিকল্প নাই।

PUNDIT: "There are two kinds of samadhi: savikalpa and nirvikalpa. In nirvikalpa samadhi the functioning of the mind stops altogether."

श्रीरामकृष्ण - हाँ, `निर्विकल्प समाधि' की अवस्था में मन ‘तदाकाराकारित’ हो जाता है? ध्याता और ध्येय का भेद नहीं रहता । और `चेतन समाधि' ^* और `जड़ समाधि' ये भी हैं। नारद, शुकदेव , इनकी चेतन समाधि है, क्यों जी ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, ‘তদাকারকারিত’ ধ্যাতা, ধ্যেয় ভেদ থাকে না। আর চেতনসমাধি ও জড়সমাধি। নারদ শুকদেব এঁদের চেতনসমাধি। কেমন জী?

MASTER: "Yes. 'The mind completely takes the form of Reality.' The distinction between the meditator and the object of meditation does not exist. There are two other kinds of samadhi: chetana  and jada. Narada and Sukadeva attained chetana samadhi. Isn't that true, sir?"

[चेतन समाधि ^* नारद, शुकदेव, जैसे मानवजाति का मार्गदर्शक नेता (या जीवनमुक्त शिक्षक) की चेतन समाधि है।  में साधक भगवान के साथ (जनता जनार्दन के would be Leader- के साथ) संवाद करता है, इसलिए वह अपने अस्तित्व की चेतना (नाम-रूप का 'अहं' -भावको बनाए रखता है।In Chetana samadhi the aspirant retains consciousness of his I-ness as he communes with God . 

`जड़ समाधि ^*   In Jada samadhi the aspirant appears like an inert object as he communes with God . जड़ समाधि में साधक जब  भगवान के साथ संवाद करता है , उस समय वह स्वयं को एक अक्रिय घटक (inert component, यंत्र -आमि यंत्र तुमि यंत्री) के रूप सोचता है।] 

पण्डितजी - जी हाँ ।

PUNDIT: " Yes, sir, that is so."

श्रीरामकृष्ण - और उन्मना समाधि और स्थित समाधि, ये भी हैं, क्यों जी ?

[In Unmana samadhi ^* the functioning of the mind does not totally cease as the aspirant communes with God ; उन्मना समाधि ^* में मन की क्रिया पूरी तरह से समाप्त नहीं होती है, क्योंकि वहां भक्त भगवान के साथ संवाद करता है। 

 In Sthita samadhi ^* the aspirant gets fully established in the Self`स्थित समाधि ' स्थित समाधि में साधक पूर्ण रूप से आत्मा में अवस्थित हो जाता है। समाधि मानवीय चेतना की वो सबसे ऊँची अवस्था है, जिस तक कोई व्यक्ति पहुँच सकता है। ]

শ্রীরামকৃষ্ণ — আর জী, উন্মনাসমাধি আর স্থিতসমাধি; কেমন জী?

MASTER: "Further, there are the unmana samadhi and the sthita samadhi. Isn't that true, sir?"

पण्डितजी चुप हो रहे, कुछ बोले नहीं ।

[The pundit remained silent. He did not venture an opinion.

श्रीरामकृष्ण - अच्छा जी, जप-तप करने से तो विभूतियाँ प्राप्त हो सकती हैं - जैसे गंगा के ऊपर से पैदल चले जाना ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা জী, জপতপ করলে তো সিদ্ধাই হতে পারে — যেমন গঙ্গার উপর দিয়ে হেঁটে যাওয়া?

MASTER: "Well, sir, through the practice of japa and austerity one can get occult powers, such as walking on the water of the Ganges. Isn't that true?"

पण्डितजी - जी हाँ, यह सब होता है, परन्तु भक्त यह कुछ नहीं चाहता ।

[পণ্ডিতজী — আজ্ঞে তা হয়, ভক্ত কিন্তু তা চায় না।

PUNDIT: "Yes, one can. But a devotee doesn't want them."

और थोड़ीसी बातचीत होने पर पण्डितजी ने कहा, एकादशी ^* के दिन दक्षिणेश्वर में आपके दर्शन करने आऊँगा ।

[ एकादशी ^*  Eleventh day of the lunar fortnight. चंद्र पखवाड़े का ग्यारहवां दिन] 

[আর কিছু কথাবার্তার পর পণ্ডিতজী বলিলেন, একাদশীর দিন দক্ষিণেশ্বরে আপনাকে দর্শন করতে যাব।

\The conversation continued for some time. The pundit said he would visit the Master at Dakshineswar the next ekadasi day.

श्रीरामकृष्ण - अहा, तुम्हारा लड़का तो बड़ा अच्छा है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা, তোমার ছেলেটি বেশ।

MASTER: "Ah! Your boy is very nice."

पण्डितजी - महाराज, नदी की एक तरंग जाती हैं, तो दूसरी आती है । सब कुछ अनित्य है ।

[পণ্ডিতজী — আর মহারাজ! নদীর এক ঢেউ যাচ্ছে, আর-এক ঢেউ আসছে। সবই অনিত্য।

PUNDIT: "Well, revered sir, all this is transitory. It is like the waves in a river — one goes down and another comes up."

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे भीतर सार वस्तु है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার ভিতরে সার আছে।

MASTER: "You have substance in you."

कुछ देर के बाद पण्डितजी ने प्रणाम किया । कहा, 'तो पूजा करने जाऊँ ?’

[পণ্ডিতজী কিয়ৎক্ষণ পরে প্রণাম করিলেন, বলিলেন, পূজা করতে তাহলে যাই।

After a few minutes the pundit saluted Sri Ramakrishna. He said: "I shall have to perform my daily devotions. Please let me go."

श्रीरामकृष्ण - अजी, बैठो ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আরে, বৈঠো, বৈঠো!

MASTER: "Oh, sit down! Sit down!"

पण्डितजी फिर बैठे ।

श्रीरामकृष्ण ने हठयोग की बात चलायी । पण्डितजी भी हिन्दी में इसी के सम्बन्ध में बातचीत करने लगे । श्रीरामकृष्ण ने कहा, हाँ, यह भी एक तरह की तपस्या है, परन्तु हठयोगी देहाभिमानी साधु है, उसका मन सदा देह पर ही लगा रहता है ।

[পন্ডিতজী আবার বসিলেন। ঠাকুর হঠযোগের কথা পাড়িলেন। পণ্ডিতজী হিন্দিতে ঠাকুরের সহিত ওই সম্বন্ধে আলাপ করিতেছেন। ঠাকুর বলিলেন, হাঁ, ও-একরকম তপস্যা বটে, কিন্তু হঠযোগী দেহাভিমানী সাধু — কেবল দেহের দিকে মন।

The pundit sat down again. The conversation turned to hathayoga. The pundit discussed the subject with the Master in Hindusthani. Sri Ramakrishna said: "Yes, that is also a form of austerity. But the hathayogi identifies himself with his body. His mind dwells on his body alone." 

पण्डितजी ने फिर बिदा होना चाहा । पूजा करने के लिए जायेंगे । श्रीरामकृष्ण पण्डितजी के लड़के से बातचीत कर रहे हैं ।

[পণ্ডিতজী আবার বিদায় গ্রহণ করিলেন। পূজা করিতে যাইবেন। ঠাকুর পণ্ডিতজীর পুত্রের সহিত কথা কহিতেছেন।

The pundit took leave of the Master. Sri Ramakrishna conversed with the pundit's son.

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏सांख्य द्वारा श्रीमद्भागवत (के महारास ) को समझने की पात्रता अर्जित करो🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण - कुछ न्याय, वेदान्त तथा और और दर्शनों के पढ़ने से श्रीमद्भागवत खूब समझ में आती है, क्यों ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কিছু ন্যায়, বেদান্ত, আর দর্শন পড়লে শ্রীমদ্ভাগবত বেশ বোঝা যায়। কেমন?

MASTER: "One can understand the Bhagavata well if one has already studied the Nyaya, the Vedanta, and the other systems of philosophy. Isn't that so?"

पुत्र - जी महाराज, सांख्य दर्शन ^*  पढ़ने की बड़ी आवश्यकता है । इस तरह की बातें होने लगीं ।

[सांख्य दर्शन  ^* महर्षि कपिल द्वारा स्थापित शास्त्रसम्मत षड्दर्शन में से एक दर्शन है । सांख्य दो प्रकार के परम सत्य - `पुरुष' और `प्रकृति' को स्वीकार करता  है। तथा यह घोषित करता है कि मनुष्य के दुःख  का कारण यह है कि वह प्रकृति और उसके गुणों  के साथ तादात्म्य कर लेता है। सांख्य यह सिखाता है कि मुक्ति और सच्चा ज्ञान - सर्वोच्च चेतना (इन्द्रियातीत अवस्था) में प्राप्त होता है। जहां इस तरह का  देहाध्यास  समाप्त हो जाता  है, और पुरुष को अपनी पारलौकिक (अतीन्द्रिय) प्रकृति में स्वतंत्र रूप से विद्यमान  अनुभव करता  है।] 

  One of the six systems of orthodox Hindu philosophy founded by Kapila. Samkhya postulates two ultimate realities, Purusha and Prakriti. Declaring that the cause of suffering is man’s identification of Purusha with Prakriti and its products, Samkhya teaches that liberation and true knowledge are attained in the supreme consciousness, where such identification ceases and Purusha is realized as existing independently in its transcendental nature. साभार-श्री `म' ट्रस्ट  https://www.kathamrita.org/kathamrita/volume-2-section-21#_ftn11] 

[পুত্র — হাঁ, মহারাজ! সাংখ্য দর্শন পড়া বড় দরকার।

PUNDIT'S SON: "Yes, sir. It is very necessary to study the Samkhya philosophy."

श्रीरामकृष्ण तकिये के सहारे जरा लेट गये । पण्डितजी के पुत्र तथा भक्तगण जमीन पर बैठे हुए हैं। श्रीरामकृष्ण लेटे ही लेटे धीरे धीरे गा रहे हैं –

'हरि सो लागी रहो रे भाई । 

तेरा बनत-बनत बनि जाई ॥

अंका तारे बँका तारे, तारे मीराबाई ।

सुआ पढ़ावत गणिका तारे, तारे सजन कसाई ॥

[এইরূপ কথা মাঝে মাঝে চলিতে লাগিল।

The conversation went on. Sri Ramakrishna was leaning against a big pillow; the devotees were sitting on the floor. Lying in that position, the Master began to sing: Brother, joyfully cling to God; Thus striving, some day you may attain Him. 

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

(२)

🔆🙏अवतारी पुरुष को सब लोग नहीं पहचान पाते, तब भक्ति का उपाय क्या है ? 🔆🙏

"All cannot recognize an Incarnation."

[অবতার কি এখন নাই?] 

घर के मालिक ने आकर प्रणाम किया । ये मारवाड़ी भक्त श्रीरामकृष्ण पर बड़ी भक्ति रखते हैं पण्डितजी के लड़के बैठे हुए हैं । 

श्रीरामकृष्ण ने पूछा, `क्या इस देश में (हिन्दी -मीडियम स्कूल में) 'पाणिनि व्याकरण' पढ़ाया जाता है ?'

मास्टर - जी पाणिनि ?

श्रीरामकृष्ण - हाँ, न्याय और वेदान्त, क्या यह सब पढ़ाया जाता है ?

इन बातों का घर के मालिक मारवाड़ी ने कोई उत्तर नहीं दिया ।

[গৃহস্বামী আসিয়া প্রণাম করিলেন। তিনি মারোয়াড়ী ভক্ত, ঠাকুরকে বড় ভক্তি করেন। পণ্ডিতজীর ছেলেটি বসিয়া আছেন। ঠাকুর জিজ্ঞাসা করিলেন, “পাণিনি ব্যাকরণ কি এদেশে পড়া হয়?”

Their host entered the room and saluted Sri Ramakrishna. He was a pious man and devoted to the Master. The pundit's son was still there. The Master asked if the Panini, the Sanskrit grammar, was taught in the schools. He further asked about the Nyaya and the Vedanta philosophies. The host did not show much interest in the discussion and changed the subject.

गृहस्वामी - महाराज, उपाय क्या है ?

(प्रवृत्ति मार्ग, कामिनी -कांचन में आसक्त व्यापारियों के लिए अवतार-भक्ति प्राप्त करने का उपाय क्या है ?)

[গৃহস্বামী — মহারাজ, উপায় কি?

HOST: "Revered sir, what is the way for us?"

श्रीरामकृष्ण - उनका नाम-गुण-कीर्तन और साधुसंग । उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करना ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর নামগুণকীর্তন। সাধুসঙ্গ। তাঁকে ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা।

MASTER: "Chanting the name and glories of God, living in the company of holy men, and earnestly praying to God."

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏आत्मनिरीक्षण करो -संसारे मन कत आछे ? आठ आना ?🔆🙏

गृहस्वामी - महाराज, ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि जिससे संसार से मन हटता जाय ।

[গৃহস্বামী — আজ্ঞে, এই আশীর্বাদ করুন, যাতে সংসারে মন কমে যায়।

HOST: "Please bless me, sir, that I may pay less and less attention to worldly things."

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कितना है ? आठ आने ?  (हास्य ।) 

[आत्मनिरीक्षण करो ~ अभी तुम्हारा कामिनी-कांचन दोनों के प्रति `attachment' कितना है ? 50 %? अर्थात एक- में खत्म ?...... ? दूसरे ..... में कितना बचा ? ]

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — (সংসারে মন.... ) কত আছে? আট আনা? (হাস্য)

MASTER (smiling): "How much attention do you give to the world? Fifty per cent?" (Laughter.)

गृहस्वामी - यह सब तो आप जानते ही हैं । महात्मा की दया के हुए बिना कुछ भी न होगा ।

[গৃহস্বামী — আজ্ঞে, তা আপনি জানেন। মহাত্মার দয়া না হলে কিছু হবে না।

HOST: "You know that, sir. We cannot achieve anything without the grace of a holy person like yourself."

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏नदी की ही तरंगें हैं, तरंगों की नदी थोड़े ही है 🔆🙏

[वर्तमान के चपरास प्राप्त नेता (C-IN-C) विवेकानन्द को सन्तुष्ट करो]

(does the river belong to the waves?)

श्रीरामकृष्ण – ईश्वर को सन्तुष्ट करोगे तो सभी सन्तुष्ट हो जायेंगे । महात्मा के हृदय में वे ही तो है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সেইখানে সন্তোষ করলে সকলেই সন্তুষ্ট হবে। মহাত্মার হৃদয়ে তিনিই আছেন তো।

MASTER: "If you please God, everyone will be pleased. It is God alone that exists in the heart of the holy man."

गृहस्वामी - उन्हें पाने पर तो बात ही कुछ और है । उन्हें अगर कोई पा जाता है, तो सब कुछ छोड़ देता है । रुपया पाने पर आदमी पैसे का आनन्द छोड़ देता है ।

[গৃহস্বামী — তাঁকে পেলে তো কথাই থাকে না। তাঁকে যদি কেউ পায়, তবে সব ছাড়ে। টাকা পেলে পয়সার আনন্দ চেড়ে যায়।

HOST: "Nothing, of course, remains unrealized when one attains God. If a man attains God, he can give up everything else. If a man gets a rupee, he gives up the joy of a penny."

श्रीरामकृष्ण - कुछ साधना की आवश्यकता होती है । साधना करते ही करते आनन्द मिलने लगता है । मिट्टी के बहुत नीचे अगर घड़े में धन रखा हुआ हो, और अगर कोई वह धन चाहे तो मेहनत के साथ उसे खोदते रहना चाहिए । सिर से पसीना टपकता है, परन्तु बहुत कुछ खोदने पर घड़े में जब कुदार लगकर ठनकार होती है, तब आनन्द भी खूब मिलता है । जितनी ही ठनकार होती है, उतना ही आनन्द बढ़ता है राम से प्रार्थना करो, उनको पुकारते जाओ, उनकी चिन्ता करो (अर्थात उनकी छवि पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करो) , वे ही सब कुछ ठीक कर देंगे ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কিছু সাধন দরকার করে। সাধন করতে করতে ক্রমে আনন্দ লাভ হয়। মাটির অনেক নিচে যদি কলসী করা ধন থাকে, আর যদি কেউ সেই ধন চায়, তাহলে পরিশ্রম করে খুঁড়ে যেতে হয়। মাথা দিয়ে ঘাম পড়ে, কিন্তু অনেক খোঁড়ার পর কলসীর গায়ে যখন কোদাল লেগে ঠং করে উঠে, তখনই আনন্দ হয়। যত ঠং ঠং করবে ততই আনন্দ। রামকে ডেকে যাও; তাঁর চিন্তা কর। রামই সব যোগাড় করে দেবেন।

MASTER: "A little spiritual discipline is necessary. Through the practice of discipline one gradually obtains divine joy. Suppose a jar with money inside is hidden deep under the earth and someone wants to possess it. In that case he must take the trouble of digging for it. As he digs, he perspires. After much digging the spade strikes the metal jar. He feels a thrill at the sound. The more sound the spade makes, striking against the jar, the more joy he feels.Pray to Rama. Meditate on Him (विवेकानन्द ? )". He will certainly provide you with everything."

गृहस्वामी - महाराज, आप राम हैं ।

[গৃহস্বামী — মহারাজ, আপনিই রাম।

HOST: "Revered sir, you are Rama Himself."

श्रीरामकृष्ण - यह क्या, नदी की ही तरंगें हैं, तरंगों की नदी ^* थोड़े ही है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি, নদীরই হিল্লোল, হিল্লোলের কি নদী?

MASTER: "How is that? The waves belong to the river; does the river belong to the waves?"

[नदी की ही तरंगें हैं, तरंगों की नदी ^* थोड़े ही है ?  केशव धृत-सूकररूप जय जगदीश हरे ... केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे .... केशव धृत-वामनरूप, जय जगदीश हरे ॥] 

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि, इस समय अवतार नहीं है ?🔆🙏 

गृहस्वामी - महात्माओं के ही भीतर राम हैं । राम को कोई देख तो पाता नहीं, और अब अवतार भी नहीं है ।

[গৃহস্বামী — মহাত্মাদের ভিতরেই রাম আছেন। রামকে তো দেখা যায় না। আর এখন অবতার নাই।

HOST: "Rama dwells only in the hearts of holy men. He cannot be seen in any other way. There is no Incarnation of God at the present time."

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कैसे तुम्हें मालूम हुआ कि अवतार नहीं है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কেমন করে জানলে, অবতার নাই?

MASTER (smiling): "How do you know there is no Divine Incarnation?"

गृहस्वामी चुपचाप बैठे हुए हैं ।

[গৃহস্বামী চুপ করিয়া রহিলেন।

The host remained silent. 

श्रीरामकृष्ण - अवतारी पुरुष को सब लोग नहीं पहचान पाते । नारद जब श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन करने के लिए गये, तब राम ने खड़े होकर नारद को साष्टांग प्रणाम किया और कहा, 'हम लोग संसारी जीव हैं, आप जैसे साधुओं के आये बिना हम लोग कैसे पवित्र होंगे !' फिर जब सत्यपालन के लिए वन गये, तब देखा, राम के वनवास का संवाद पाकर ऋषिगण आहार तक छोड़कर पड़े हुए थे । फिर भी उनमें से बहुतों को मालूम नहीं था कि राम अवतार हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — অবতারকে সকলে চিনতে পারে না। নারদ যখন রামচন্দ্রকে দর্শন করতে গেলেন, রাম দাঁড়িয়া উঠে সাষ্টাঙ্গে প্রণাম কল্লেন আর বললেন, আমরা সংসারী জীব; আপনাদের মতো সাধুরা না এলে কি করে পবিত্র হব? আবার যখন সত্যপালনের জন্য বনে গেলেন, তখন দেখলেন, রামের বনবাস শুনে অবধি ঋষিরা আহার ত্যাগ করে আনেকে পড়ে আছেন। রাম যে সাক্ষাৎ পরব্রহ্ম, তা তাঁরা অনেকে জানেন নাই।

MASTER: "All cannot recognize an Incarnation. When Narada visited Rama, Rama prostrated Himself before Narada and said: 'We are worldly creatures. How can we be sanctified unless holy men like you visit us?' Further, Rama went into exile in the forest to redeem His father's pledges. He saw that, since hearing of His exile, the rishis of the forest had been fasting. Many of them did not know that Rama was none other than the Supreme Brahman."

गृहस्वामी - आप भी वही राम हैं ।

[গৃহস্বামী — আপনিই সেই রাম!

HOST: "You too are that same Rama."

श्रीरामकृष्ण – राम ! राम ! ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — রাম! রাম! ও-কথা বলতে নাই।

MASTER: "For heaven's sake! Never say that."

यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा- 

`वही राम घट घट में लेटा, उसी राम का जगत पसारा !' ^* 

-- "जो राम घट घट में विराजमान हैं, उन्हीं का बनाया यह संसार है। मैं तुम लोगों का दास हूँ । वही राम ये सब मनुष्य और जीव-जन्तु हुए हैं ।"

[এই বলিয়া ঠাকুর হাতজোড় করিয়া প্রণাম করিলেন ও বলিলেন — “ওহি রাম ঘটঘটমে লেটা, ওহি রাম জগৎ পসেরা! আমি তোমাদের দাস। সেই রামই এই সব মানুষ, জীব, জন্তু হয়েছেন।”

As Sri Ramakrishna spoke these words, he bowed down to the host and said, with folded hands: ` That Rama dwells in all beings; He exists everywhere in the universe.' I am your servant. It is Rama Himself who has become all men, animals, and other living beings."

गृहस्वामी - हम लोग यह क्या जानें ?

[গৃহস্বামী — মহারাজ, আমরা তো তা জানি না —

HOST: "But sir, we do not know that."

श्रीरामकृष्ण - तुम जानो या न जानो, तुम राम हो ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি জান আর না জান, তুমি রাম!

MASTER: "Whether you know it or not, you are Rama."

गृहस्वामी - आप में राग-द्वेष नहीं हैं ।

[গৃহস্বামী — আপনার রাগদ্বেষ নাই।

HOST: "You are free from love and hatred."

श्रीरामकृष्ण – क्यों ? जिस गाड़ीवाले से कलकत्ते आने की बात हुई थी, वह तीन आने पैसे ले गया, फिर नहीं आया, उससे तो मैं खूब चिढ़ गया था । और था भी वह बड़ा बुरा आदमी । देखो न, कितनी तकलीफ दी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন? যে গাড়োয়ানের কলকাতায় আসবার কথা ছিল। সে তিনআনা পয়সা নিয়ে গেল, আর এলো না, তার উপরে তো খুব চটে গিছলুম!

কিন্তু ভারী খারাপ লোক, দেখ না, কত কষ্ট দিলে।

MASTER: "How so? I engaged a carriage to bring me to Calcutta and advanced the coachman three annas. But he didn't turn up. I became very angry with him.

 He is a very wicked man. He made me suffer a lot."

 [ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

(३)

🔆🙏बड़ा बाजार का अन्नकूट-महोत्सव -श्री मोर मुकुट धारी की पूजा 🔆🙏

[বড়বাজারে অন্নকূট-মহোৎসবের মধ্যে — ৺ময়ূরমুকুটধারীর পূজা]

[Worship of the Peacock-Crown holder]

श्रीरामकृष्ण ने कुछ देर विश्राम किया । इधर मारवाड़ी भक्त छत पर गाने-बजाने लगे । आज श्रीमयूर-मुकुटधारी ^* का महोत्सव है । भोग का सब आयोजन हो गया । देवदर्शन करने के लिए लोग श्रीरामकृष्ण को बुला ले गये । श्रीमयूर मुकुटधारी का दर्शन कर श्रीरामकृष्ण ने निर्माल्य धारण किया ।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কিয়ৎক্ষণ বিশ্রাম করিতেছেন। এদিকে মারোয়াড়ী ভক্তেরা বাহিরে ছাদের উপর ভজন আরম্ভ করিয়াছেন। শ্রীশ্রীময়ূরমুকুটধারীর আজ মহোৎসব। ভোগের সমস্ত আয়োজন হইয়াছে। ঠাকুরদর্শন করিতে শ্রীরামকৃষ্ণদেবকে আহ্বান করিয়া তাঁহারা লইয়া গেলেন। ময়ূরমুকুটধারীকে দর্শন করিয়া ঠাকুর প্রণাম করিলেন ও নির্মাল্যধারণ করিলেন।

Sri Ramakrishna was resting. The Marwari devotees had been singing bhajan on the roof. They were celebrating the Krishna festival. Arrangements had been made for worship and food offering. At the host's request the Master went to see the image. He bowed down before the Deity.

विग्रह के दर्शन कर श्रीरामकृष्ण भाव-मुग्ध हो रहे हैं ।

हाथ जोड़कर कह रहे हैं - "प्राण हो, हे कृष्ण, मेरे जीवन हो । जय गोविन्द गोविन्द वासुदेव सच्चिदानन्द ! हे कृष्ण, हे कृष्ण, ज्ञान कृष्ण, मन कृष्ण, प्राण कृष्ण, आत्मा कृष्ण, देह कृष्ण, जाति कृष्ण, कुलकृष्ण, प्राण हो, हे कृष्ण, मेरे जीवन हो ।" ये बातें कहते हुए श्रीरामकृष्ण खड़े होकर समाधिमग्न हो गये । श्रीयुत राम चैटर्जी श्रीरामकृष्ण को पकड़े रहे । बड़ी देर बाद समाधि छूटी ।

[বিগ্রহদর্শন করিয়া ঠাকুর ভাবে মুগ্ধ। হাতজোড় করিয়া বলিতেছেন, “প্রাণ হে, গোবিন্দ মম জীবন! জয় গোবিন্দ, গোবিন্দ, বাসুদেব সচ্চিদানন্দ বিগ্রহ! হা কৃষ্ণ, হে কৃষ্ণ, জ্ঞান কৃষ্ণ, মন কৃষ্ণ, প্রাণ কৃষ্ণ, আত্মা কৃষ্ণ, দেহ কৃষ্ণ, জাত কৃষ্ণ, কুল কৃষ্ণ, প্রাণ হে গোবিন্দ মম জীবন!”এই কথাগুলি বলিতে বলিতে ঠাকুর দাঁড়াইয়া দাঁড়াইয়া সমাধিস্থ হইলেন। শ্রীযুক্ত রাম চাটুজ্যে ঠাকুরকে ধরিয়া রহিলেন।

Sri Ramakrishna was profoundly moved as he stood before the image. With folded hands he said: "O Govinda, Thou art my soul! Thou art mv life! Victory to Govinda! Hallowed be the name of Govinda! Thou art the Embodiment of Satchidananda! Oh, Krishna! Ah, Krishna! Krishna is knowledge. Krishna is mind. Krishna is life. Krishna is soul. Krishna is body. Krishna is caste. Krishna is family. O Govinda, my life and soul!" Uttering these words, Sri Ramakrishna went into samadhi. He remained standing. Ram Chatterji supported him.

इधर मारवाड़ी भक्त श्रीमयूर-मुकुटधारी विग्रह को बाहर ले जाने के लिए आये । भोग का बन्दोबस्त बाहर ही हुआ था ।

अब श्रीरामकृष्ण की समाधि-अवस्था नहीं है । मारवाड़ी भक्त बड़े आनन्द से सिंहासन के विग्रह को बाहर लिये जा रहे हैं, श्रीरामकृष्ण भी साथ-साथ जा रहे हैं । भोग लगाया जा चुका ।

भोग के समय मारवाड़ी भक्तों ने कपड़े की आड़ की थी । भोग के पश्चात् आरती और गाने होने लगे । श्रीरामकृष्ण विग्रह को चामर व्यजन कर (चँवर ^*डुला) रहे हैं । मारवाड़ियों ने श्रीरामकृष्ण से भोजन करने का अनुरोध किया । श्रीरामकृष्ण बैठे, भक्तों ने भी प्रसाद पाया ।

[चँवर ^*- सुरा गाय की पूँछ के बालों का गुच्छा जो काठ, सोने, चाँदी आदि की डंडी में बाँधकर राजाओं या देवमूर्तियों से मक्खियों आदि को दूर रखने के लिए हिलाया-डुलाया जाता है। चँवर प्रायः तिब्बती और भोटिया ले आते हैं

[অনেকক্ষণ পরে সমাধিভঙ্গ হইল।এদিকে মারোয়াড়ী ভক্তেরা সিংহাসনস্থ ময়ূরমুকুটধারী বিগ্রহকে বাহিরে লইয়া যাইতে আসিলেন। বাহিরে ভোগ আয়োজন হইয়াছে।শ্রীরামকৃষ্ণের সমাধিভঙ্গ হইয়াছে। মহানন্দে মারোয়াড়ী ভক্তেরা সিংহাসনস্থ বিগ্রহকে ঘরের বাহিরে লইয়া যাইতেছেন, ঠাকুরও সঙ্গে সঙ্গে যাইতেছেন।ভোগ হইল। ভোগের সময় মারোয়াড়ী ভক্তেরা কাপড়ের আড়াল করিলেন। ভোগান্তে আরতি ও গান হইতে লাগিল। শ্রীরামকৃষ্ণ বিগ্রহকে চামর ব্যজন করিতেছেন। 

এইবার ব্রাহ্মণ ভোজন হইতেছে। ওই ছাদের উপরেই ঠাকুরের সম্মুখে এই সকল কার্য নিষ্পন্ন হইতে লাগিল। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে মারোয়াড়ীরা খাইতে অনুরোধ করিলেন। ঠাকুর বসিলেন, ভক্তেরাও প্রসাদ পাইলেন।

After a long time the Master regained consciousness of the world. The Marwari devotees were about to take out the image. The offering of food was to take place outside the room. The Master joined the procession of devotees. The food was offered with arati and music. Sri Ramakrishna fanned the image. Then began the ceremony of feeding the brahmins. They were seated on the roof. The Master and his devotees also partook of the prasad.

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏बड़ाबाजार से राजपथ तक - 'दीवाली' का दृश्य, कांचन-बद्ध जीवों का स्वभाव 🔆🙏

[বড়বাজার হইতে রাজপথে — ‘দেওয়ালি’ দৃশ্যমধ্যে ]

[From Barabazar to Rajpath - 'Diwali' scene]

श्रीरामकृष्ण चलने के लिए बिदा होने लगे । शाम हो गयी है और रास्ते में भीड़ भी बहुत है । श्रीरामकृष्ण ने कहा, "हम लोग गाड़ी से तब तक के लिए उतर पड़ें । गाड़ी पीछे से घूमकर आये तब चढ़ें ।” 

रास्ते से जाते समय श्रीरामकृष्ण ने देखा, पानवाला एक बहुत छोटी सी दूकान में बैठा हुआ है जिसे देखकर मालूम हुआ कि दूकान क्या है, बिल है । उस दूकान में बिना खूब सिर झुकाये कोई घुस नहीं सकता था । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "कितना कष्ट है, इतने ही के भीतर बद्ध होकर रहना ! संसारियों का स्वभाव भी कैसा है ! इसी में उन्हें आनन्द मिलता है ।

[ঠাকুর বিদায় গ্রহণ করিলেন। সন্ধ্যা হইয়াছে। আবার রাস্তায় বড় ভিড়। ঠাকুর বলিলেন, “আমরা না হয় গাড়ি থেকে নামি; গাড়ি পেছন দিয়ে ঘুরে যাক।” রাস্তা দিয়া একটু যাইতে যাইতে দেখিলেন, পানওয়ালারা গর্তের ন্যায় একটি ঘরের সামনে দোকান খুলিয়া বসিয়া আছে। সে ঘরে প্রবেশ করিতে হইলে মাথা নিচু করিয়া প্রবেশ করিতে হয়। ঠাকুর বলিতেছেন, কি কষ্ট, এইটুকুর ভিতরে বদ্ধ হয়ে থাকে! সংসারীদের কি স্বভাব! ওইতেই আবার আনন্দময়!

Sri Ramakrishna took leave of the host. It was evening and the street was jammed as before with people and vehicles. He said: "Let us get out of the carriage. It can go by a back street." Proceeding on foot, he found that a betel-leaf seller had opened his stall in front of a small room that looked like a hole. One could not possibly enter it without bending one's head. The Master said: "How painful it is to be shut in such a small space! That is the way of worldly people. And they are happy in such a life."

गाड़ी लौटकर पास आयी । श्रीरामकृष्ण फिर गाड़ी पर बैठे । भीतर श्रीरामकृष्ण के साथ बाबूराम, मास्टर, राम चैटर्जी और छत पर छोटे गोपाल बैठे हुए हैं ।

[গাড়ি ঘুরিয়া কাছে আসিল। ঠাকুর আবার গাড়িতে উঠিলেন। ভিতরে ঠাকুরের সঙ্গে বাবুরাম, মাস্টার, রাম চাটুজ্যে। ছোট গোপাল গাড়ির ছাদে বসিলেন।

The carriage came up after making the detour. The Master entered it with Baburam, M., and Ram Chatterji. The younger Gopal sat on the roof of the carriage.

एक भिखारिन ने गोद में बच्चा लिये हुए गाड़ी के सामने आकर भीख माँगी । श्रीरामकृष्ण ने देखकर मास्टर से कहा - “क्यों जी, पैसा है ?"^ * गोपाल ने पैसा दे दिया ।

[একজন ভিখারিণী, ছেলে কোলে গাড়ির সম্মুখে আসিয়া ভিক্ষা চাহিল। ঠাকুর দেখিয়া মাস্টারকে বলিলেন, কিগো পয়সা আছে? গোপাল পয়সা দিলেন।

A beggar woman with a baby on her arm stood in front of the carriage waiting for alms. The Master said to M., "Have you any money?" Gopal gave her something.

[विवाह 6 मई , 1971 : में आटा चक्की > मलाड बॉम्बे > इंडस्ट्रियल एरिया चिंचवाड़, पूना>  

दिल्ली का सदरबाजार> कोलकाता का बड़ाबाजार> राँची का जिमखाना क्लब>

 झुमरी तिलैया जिमखाना क्लब -16 मार्च,2022 ]

  [ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏“और भी बढ़कर देखो - और भी बढ़कर ।" 🔆🙏 

["Go forward! Move on!"]

 [আরও এগিয়ে দেখ, আরও এগিয়ে!]

बड़ा बाजार से गाड़ी जा रही है । दीवाली की बड़ी धूम है । अँधेरी रात दीपों से जगमगा रही है । बड़ा बाजार की गली से होकर गाड़ी चितपुर रोड पर आयी । वहाँ भी दिये जगमगा रहे हैं और चीटियों की तरह आदमियों की पाँत चल रही है । आदमी दूकानों की सजावट पर मुग्ध हो रहे हैं । दूकानदार अच्छे अच्छे वस्त्र पहने हुए गुलाबपाश हाथ में लिये लोगों पर गुलाब छिडक रहे हैं । गाड़ी एक इत्रवाले की दूकान के सामने आयी । श्रीरामकृष्ण पाँच वर्ष के बालक की तरह तस्वीर और रोशनी देख-देखकर प्रसन्न हो रहे हैं । चारों ओर कोलाहल हो रहा है । श्रीरामकृष्ण उच्च स्वर से कह रहे हैं - “और भी बढ़कर देखो - और भी बढ़कर ।" यह कहकर हँस रहे हैं । बड़े जोरों से हँसकर बाबूराम से कह रहे हैं, 'अरे बढ़ता क्यों नहीं ? तू कर क्या रहा है ?’

বড়াবজার দিয়া গাড়ি চলিতেছে। দেওয়ালির ভারী ধুম। অন্ধকার রাত্রি কিন্তু আলোয় আলোকময়। বড়বাজারের গলি হইতে চিৎপুর রোডে পড়িল। সে স্থানেও আলোবৃষ্টি ও পিপীলিকার নামে লোকে লোকাকীর্ণলোক হাঁ করিয়া দুই পার্শ্বের সুসজ্জিত বিপণীশ্রেণী দর্শন করিতেছিল। কোথাও বা মিষ্টান্নের দোকান, পাত্রস্থিত নানাবিধ মিষ্টান্নে সুশোভিত। কোথাও বা আতর গোলাপের দোকান, নানাবিধ সুন্দর চিত্রে সুশোভিত। দোকানদারগণ মনোহর বেশ ধারণ করিয়া গোলাপপাশ হস্তে করিয়া দর্শকবৃন্দের গায়ে গোলাপজল বর্ষণ করিতেছিল। গাড়ি একটি আতরওয়ালার দোকানের সামনে আসিয়া পড়িল। ঠাকুর পঞ্চমবর্ষীয় বালকের ন্যায় ছবি ও রোশনাই দেখিয়া আহ্লাদ প্রকাশ করিতেছেন। চতুর্দিকে কোলাহল। ঠাকুর উচ্চৈঃস্বরে কহিতেছেন — আরও এগিয়ে দেখ, আরও এগিয়ে! ও বলিতে বলিতে হাসিতেছেন। বাবুরামকে উচ্চহাস্য করিয়া বলিতেছেন, ওরে এগিয়ে পড় না, কি করছিস? 

The carriage rolled along Burrabazar. Everywhere there were signs of great festivity. The night was dark but illuminated with myriads of lights. The carriage came to the Chitpur road, which was also brightly lighted. The people moved in lines like ants. The crowd looked at the gaily decorated stores and stalls on both sides of the road. There were sweetmeat stores and perfume stalls. Pictures, beautiful and gaudy, hung from the walls. Well-dressed shopkeepers sprayed the visitors with rose-water. The carriage stopped in front of a perfume stall. The Master looked at the pictures and lights and felt happy as a child. People were talking loudly. He cried out: "Go forward! Move on!" He laughed. He said to Baburam with a loud laugh: "Move on! What are you doing?" The devotees laughed too. 

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏अपनी वर्तमान अवस्था से संतुष्ट न हों🔆🙏

[Don't Be satisfied with your present state]

भक्तगण हँसने लगे । उन्होंने समझा, श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं ईश्वर (लक्ष्य?) की ओर बढ़ जा, अपनी वर्तमान अवस्था से सन्तुष्ट होकर न रहना । ब्रह्मचारी ने लकड़हारे से कहा था, बढ़ जाओ । बढ़ते हुए उसने क्रमशः चन्दन का वन, चाँदी की खान, सोने की खान, हीरा, मणि आदि देखा था । इसीलिए श्रीरामकृष्ण बार बार कहते हैं, बढ़ जाओ, बढ़ जाओ ।

[ভক্তেরা হাসিতে লাগিলেন; বুঝিলেন, ঠাকুর বলিতেছেন, ঈশ্বরের দিকে এগিয়ে পড়, নিজের বর্তমান অবস্থায় সন্তুষ্ট হয়ে থেকো না। ব্রহ্মচারী কাঠুরিয়াকে বলিয়াছিল, এগিয়ে পড়। কাঠুরিয়া এগিয়ে ক্রমে ক্রমে দেখে, চন্দনগাছের বন; আবার কিছুদিন পরে এগিয়ে দেখে, রূপার খনি; আবার এগিয়ে দেখে, সোনার খনি; শেষে দেখে হীরা মাণিক! তাই ঠাকুর বারবার বলিতেছেন, এগিয়ে পড় এগিয়ে পড়। 

They understood that the Master wanted them to move forward to God and not to be satisfied with their `present state' .


गाड़ी चलने लगी । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर की खरीदी हुई धोतियाँ देखीं । दो धोतियाँ कोरी थीं और दो धुली हुई थीं । श्रीरामकृष्ण ने सिर्फ आठ हाथ की कोरी धोतियाँ लाने के लिए कहा था, जो नहाने के समय पहनी जाती हैं । श्रीरामकृष्ण ने ऐसी ही धोतियाँ खरीदने के लिए कहा था । उन्होंने कहा - "ये कोरी धोतियाँ दोनों दे जाओ और दूसरी धोतियाँ इस समय लेते जाओ, अपने पास रख लेना । चाहे एक दे देना ।"

[গাড়ি চলিতে লাগিল। মাস্টার কাপড় কিনিয়াছেন, ঠাকুর দেখিয়াছেন। দুইখানি তেলধুতি ও দুইখানি ধোয়া। ঠাকুর কিন্তু কেবল তেলধুতি কিনিতে বলিয়াছিলেন। ঠাকুর বলিলেন, তেলধুতি দুখানি সঙ্গে দাও, বরং ও কাপড়গুলি এখন নিয়ে যাও, তোমার কাছে রেখে দেবে। একখানা বরং দিও।

The carriage drove on. The Master noticed that M. had brought some cloths for him. M. had with him two pieces of unbleached and two pieces of washed cloth. But the Master had asked him only for the unbleached ones. He said to M.: "Give me the unbleached ones. You may keep the others. All right. You may give me one of them."

मास्टर - जी, एक धोती लौटा ले जाऊँगा ?

মাস্টার — আজ্ঞা, একখানা ফিরিয়ে নিয়ে যাব?

M: "Then shall I take back one piece?"

श्रीरामकृष्ण - नहीं, तो अभी रहने दो; दोनों ही साथ ले जाना ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — না হয় এখন থাক, দুইখানাই নিয়ে যাও।

MASTER: "Then take both."

मास्टर - जो आज्ञा ।

श्रीरामकृष्ण - फिर जब आवश्यकता होगी तब ले आना । देखो न, कल वेणीपाल रामलाल के लिए गाड़ी में खाना देने के लिए आया था । मैंने कहा, मेरे साथ कोई चीज न देना । मुझमें संचय करने की शक्ति नहीं है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আবার যখন দরকার হবে, তখন এনে দেবে। দেখ না, কাল বেণী পাল রামলালের জন্য গাড়িতে খাবার দিতে এসেছিল। আমি বললুম, আমার সঙ্গে জিনিস দিও না। সঞ্চয় করবার জো নাই।

MASTER: "You can give me those when I need them. You see, yesterday Beni Pal wanted me to carry away some food for Ramlal. I told him I couldn't. It is impossible for me to lay up for the future."

मास्टर - जी हाँ । इसमें और क्या है, ये दोनों सादी धोतियाँ लौटा ले जाऊँगा ।

মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ, তার আর কি। এ সাদা দুখানা এখন ফিরিয়ে নিয়ে যাবো।

M: "That's all right, sir. I shall take back the two pieces of washed cloth."

श्रीरामकृष्ण - (सस्नेह) - मेरे मन में किसी तरह से कुछ (लेने की इच्छा) पैदा हो यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं । - यह तो अपनी बात है, जब आवश्यकता होगी, कहूँगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সস্নেহে) — আমার মনে একটা কিছু হওয়া তোমাদের ভাল না। — এ তো আপনার কথা, যখন দরকার হবে, বলব।

MASTER (tenderly): "Don't you see, if any desire arises in my mind, it is for the good of you all? You are my own. I shall tell you if I need anything."

मास्टर - (विनयपूर्वक) - जो आज्ञा ।

गाड़ी एक दूकान के सामने आ गयी । वहाँ चिलमें बिक रही थीं । श्रीरामकृष्ण ने राम चैटर्जी से कहा, 'राम, एक पैसे की चिलम मोल न ले लोगे ?

[গাড়ি একটি দোকানের সামনে আসিয়া পড়িল, সেখানে কলকে বিক্রী হইতেছে। শ্রীরামকৃষ্ণ রাম চাটুজ্যেকে বলিলেন, রাম, একপয়সার কলকে কিনে লও না!

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏गुरुगिरि करने में इंट्रेस्टेड व्यक्ति एसपीटीसी में जाने का हिसाब जोड़ता है🔆🙏  

श्रीरामकृष्ण एक भक्त की बात कह रहे हैं । श्रीरामकृष्ण - मैंने उससे कहा, कल बड़ा बाजार जाऊँगा, तू भी चलना । परन्तु सुना तुमने - उसने क्या कहा ? कहा - 'ट्राम के चार पैसे लगेंगे, कौन जाय ?" वह कल वेणीपाल के बगीचे में गया था । वहाँ फिर गुरुगिरि  भी की । किसी ने न कहा, न सुना, आप ही आप गाने लगा जिससे आदमी समझें मैं ब्राह्मसमाजवालों का ही एक आदमी हूँ । (मास्टर से) क्यों जी, यह भला क्या है? कहता है - एक आना खर्च हो जायेगा ।

[ঠাকুর একটি ভক্তের কথা কহিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি তাকে বললুম কাল বড়বাজারে যাব, তুই যাস। তা বলে কি জান? “আবার ট্রামের চার পয়সা ভাড়া১ লাগবে; কে যায়।” বেণী পালের বাগানে কাল গিছল, সেখানে আবার আচার্যগিরি কল্লে। কেউ বলে নাই, আপনিই গায় — যেন লোকে জানুক, আমি ব্রহ্মজ্ঞানীদেরই একজন। (মাস্টারের প্রতি) — হ্যাঁগা, এ কি বল দেখি, বলে, একানা আবার খরচ লাগবে!

Referring to a devotee, Sri Ramakrishna said: "I said to him yesterday, 'Tomorrow I shall go to Burrabazar; please meet me there.' Do you know what he said? He said: 'The tram fare will be one anna. Where shall I get it?' He had been to Beni Pal's garden yesterday and had officiated there as priest. No one had asked him to do it. He had put on the show himself. He wanted people to know that he was a member of the Brahmo Samaj. (To M.) Can you tell me what he meant when he said that the tram would cost him one anna?"

[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏हिन्दू धर्म पहले से है और सदा रहेगा भी🔆🙏

[हिंदू-भाव (हिन्दुत्व) ही सनातन धर्म है] 

হিন্দুভাব (হিন্দুত্ব)  - এই সনাতন ধর্ম।

[Hinduism is a eternal religion]

फिर मारवाड़ी भक्तों के अन्नकूट की बात होने लगी । श्रीरामकृष्ण - (भक्तों से) - यहाँ जो कुछ तुमने देखा, वहीं बात वृन्दावन में भी है । राखाल आदि वृन्दावन में यही सब देख रहे होंगे । परन्तु वहाँ अन्नकूट और बढ़कर होता है । आदमी भी बहुत हैं । गोवर्धन पर्वत है, यही विचित्रता है ।

[মারোয়াড়ী ভক্তদের অন্নকূটের কথা আবার পড়িল। শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — এ যা দেখলে, বৃন্দাবনেও তাই। রাখালরা২ বৃন্দাবনে এই সব দেখছে। তবে সেখানে অন্নকূট আরও উঁচু; লোকজনও অনেক, গোবর্ধন পর্বত আছে — এই সব প্রভেদ।

The conversation turned to the Annakuta festival of the Marwaris. MASTER (to the devotees): "What you have seen here one sees at Vrindavan too. Rakhal has been seeing the same thing there. But the mound of food at Vrindavan is higher, and more people gather there. There you also see the Govardhan hill. That's the only difference.]

“परन्तु मारवाड़ियों में कैसी भक्ति है, देखी ? यथार्थ ही इनमें हिन्दू भाव (हिन्दुत्व) है । यही सनातन धर्म है । - श्रीठाकुरजी को ले जाते समय, देखा तुमने, उन्हें कैसा आनन्द हो रहा था ? आनन्द यह सोचकर कि हम भगवान का सिंहासन उठाये लिये जा रहे हैं ।

[“কিন্তু খোট্টাদের (?) কি ভক্তি দেখেছ! যথার্থই হিন্দুভাব। এই সনাতন ধর্ম। — ঠাকুরকে নিয়ে যাবার সময় কত আনন্দ দেখলে। আনন্দ এই ভেবে যে, ভগবানের সিংহাসন আমরা বয়ে নিয়ে যাচ্ছি

"Did you notice the Marwaris' devotion? That is the real Hindu ideal (Hinduism). That is the Sanatana Dharma. Did you notice their joy when they carried the image in procession? They were happy to think that they bore the throne of God on their shoulders.

"हिन्दूधर्म ही सनातन धर्म है । आजकल जो सब सम्प्रदाय (creeds-मजहब)  देख रहे हो, यह सब उनकी इच्छा से होकर फिर मिट जायेंगे । इसीलिए मैं कहता हूँ, आधुनिक जो सब भक्त हैं, उनके भी चरणों में प्रणाम है । हिन्दूधर्म पहले से है और सदा रहेगा भी ।"

[“হিন্দুধর্মই সনাতন ধর্ম! ইদানীং যে সকল ধর্ম দেখছ এ-সব তাঁর ইচ্ছাতে হবে যাবে — থাকবে না। তাই আমি বলি, ইদানীং যে সকল ভক্ত, তাদেরও চরণেভ্যো নমঃ। নিন্দুধর্ম বরাবর আছে আর বরাবর থাকবে।”

"The Hindu religion alone is the Sanatana Dharma. The various creeds you hear of nowadays have come into existence through the will of God and will disappear again through His will. They will not last forever. Therefore I say, 'I bow down at the feet of even the modern devotees.' The Hindu religion has always existed and will always exist,"

मास्टर घर जायेंगे । वे श्रीरामकृष्ण की चरण-वन्दना करके शोभा बाजार के पास उतर गये । श्रीरामकृष्ण आनन्द मनाते हुए गाड़ी पर जा रहे हैं ।

[মাস্টার বাড়ি প্রত্যাগমন করিবেন। ঠাকুরের চরণ বন্দনা করিয়া শোভাবাজারের কাছে নামিলেন। ঠাকুর আনন্দ করিতে করিতে গাড়িতে যাইতেছেন।

M. was going home. He saluted the Master and got out of the carriage near Sobhabazar. Sri Ramakrishna proceeded to Dakshineswar in a happy mood.

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🔆🙏'वह', जो 'नहीं' है ? समाधि शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है - ‘सम’ और ‘धी’। ‘सम’ का मतलब है एक जैसा होना, और ‘धी’ का मतलब बुद्धि है।  बुद्धि का मूल स्वभाव है अंतर बनाना, फर्क करना, दो चीजों को अलग-अलग देखना।  फर्क करने का गुण वो साधन है जो आपके शरीर की हर कोशिका में मौजूद जीवित रहने की इच्छा को सहयोग देता है और उसे चलाता है। अगर आप बुद्धि के एक समान स्तर पर पहुँच जायें, जहाँ आप बुद्धि से कोई फर्क नहीं करते , हरेक चीज़ को एक जैसा (श्रेय-प्रेय, शाश्वत -नश्वर विवेक पूर्वक)  देखते हैं, तो उसे चेतन समाधि में रहना कहते हैं। अगर आप इस बुद्धि के परे चले जाते हैं तो आप (नारद और शुकदेव जैसा ?) समबुद्धि वाले हो जाते हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि आपकी फर्क करने की काबिलियत खत्म हो जाती है।  समाधि की अवस्था में भी आपकी फर्क करने वाली बुद्धि अपनी सही अवस्था (विवेकपूर्ण अवस्था)  में होती है पर साथ ही, आप इसके परे चले गये होते हैं। तब हर चीज़ एक हो जाती है, पूर्ण बन जाती है, जो एक वास्तविकता है। इस तरह की अवस्था आपको अस्तित्व की एकात्मकता का, यानी हर चीज़ के एकीकरण का अनुभव देती है। आपका शरीर, और, आप जो हैं, उसमें अंतर आ जाता है। इस अवस्था में कोई समय  या स्थान नहीं रहता। समय (Time) और स्थान (Space) ये आपके मन की रचना हैं। जब `आप ' {(???) अर्थात नाम-रूप का `अहं' नहीं `आत्मा'} मन की सीमितता (ससीमता-मन अनन्त नहीं है !!)  के परे चले जाते हैं तो समय और स्थान, आपके लिये, अस्तित्व में ही नहीं रहते।  आपके लिये कोई भूत या भविष्य नहीं रह जाता, सब कुछ यहीं है, इसी पल में।  जिस पल आप अपनी बुद्धि को विसर्जित कर देते हैं, सब कुछ उस एक में ही लीन हो जाता है।
'अस्तित्व' दो चीजों से मिल कर बना है - 'वह, जो है', और, 'वह, जो नहीं है'! 'वह जो है' उसमें (नाम -रूप) आकार, रूप, गुण और सुंदरता है पर 'वह जो नहीं है', उसमें इनमें से कुछ भी नहीं है पर ये स्वतंत्र है। 
'वह, जो नहीं है' वो कभी-कभी, यहाँ-वहाँ 'वह जो है' में पनप उठता है और जैसे-जैसे 'वह, जो है' ज्यादा जागरूक होता जाता है, तो वो 'वह, जो नहीं है' बनने के लिये ज्यादा इच्छुक हो जाता है। 
हालांकि हम 'वह, जो है' (ईश्वर -भगवान ,जनता जनार्दन) के आकार, रूप, परिचय, गुण और सुंदरता से बहुत लगाव रखते हैं, फिर भी, पूरी स्वतंत्रता की अवस्था पा लेने की जीव की इच्छा अनिवार्य और टाली न जा सकने वाली हो जाती है। 
 तो, बस ये समय का ही सवाल रह जाता है। समय (Time) और स्थान (Space) का बंधन भी 'वह, जो है' का एक भ्रम (Hypnotized अवस्था में रहना) ही है। 'वह, जो नहीं है' उसके लिए समय और स्थान का कोई बंधन नहीं , क्योंकि वह स्वयं भी असीमित और अनंत है, वह समय और स्थान की सीमितताओं में जकड़ा नहीं है।
जब 'अस्तित्व ' में  एकदम मूल प्रक्रिया (जन्म-मृत्यु चक्र)  से पूरी तरह मुक्त होने की इच्छा जगती है, तो मन और भावनाओं का डरपोक स्वभाव समझता है कि वे (देहाध्यास -मृत्यु का भय) नष्ट होने वाले हैं। सोचने वाले मन के लिये, आध्यात्मिक प्रक्रिया (आत्मसाक्षात्कार) कुछ और नहीं पर अपनी इच्छा से की गयी 'आत्महत्या' (मिथ्या 'अहं ' का नष्ट हो जाना) ही है।  पर, ये आत्महत्या नहीं है - ये उससे कहीं ज्यादा है। " यह मिथ्या अहं का माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो जाना है !"  
अपने आपको (मिथ्या अहं को) खत्म करने की इच्छा का एक खराब तरीका आत्महत्या है। मैं इसे खराब कहता हूँ क्योंकि ये असफल ही होता है। ये काम नहीं करता-पुनर्जन्म होता ही रहता ?। पर हमारी इस संस्कृति में ऐसे लोग हैं, जो उसको उस ढंग से करते हैं, जिससे ये वाकई में काम करता है - वह होती है आध्यात्मिक प्रक्रिया (मनःसंयोग के अभ्यास और माँ की कृपा द्वारा  प्राप्त आत्मसाक्षात्कार)
किसी खास तरह की समाधि का अनुभव होने का ये मतलब नहीं है कि आप अस्तित्व से बाहर आ गये हैं। ये अनुभव का सिर्फ एक नया स्तर है। ये वैसे ही है जैसे कि, जब आप बच्चे थे, तब आपके अनुभव एक स्तर के होते थे। जब आप वयस्क हो गये, तो आपके अनुभव एक नये स्तर के हैं। अपने जीवन के अलग अलग समय पर एक ही बात का एकदम अलग तरह से अनुभव होता है। समाधि कुछ ऐसी ही होती है। आप अनुभव के एक स्तर से दूसरे स्तर के अनुभव पर ज्यादा महत्वपूर्ण, ज्यादा गहरे ढंग से जाते हैं, पर फिर भी, आखिर तो ये, बस, अनुभव का एक और स्तर ही होता है।
[साभार https://isha.sadhguru.org/in/hi/wisdom/article/what-is-samadhi-in-hindi]

##मन का विघटित होना परमेश्वर का विधान है।   परमेश्वर ने अपनी माया को चलाते रहने के लिए ही मन की सृष्टि की है।  तथा उस स्रष्टि का संहार करने के लिए, उसे समेटने के लिए, वह जब इच्छा करता है, मन को समेट लेता है - विघटित एवं विलीन कर देता है।  मन के विलीन होते ही जीव और शिव एकरूप हो समाधिस्थ हो जाते हैं।  यही निर्विकल्प समाधि है।  अतएव जीव कर्ताभाव "अहंकार" - मैं कर्ता हूँ - को छोड़, एकमेव कर्ता - वह परम प्रभु ही है मान।  स्वयं को उसे समर्पित कर।  मन तभी वश होगा, विघटित होगा।  प्रभु मन को , उसकी माया को संवरित कर लेंगे।  उनकी कृपा की कामना ही सर्व कामनाओं का शमन करेगी।  अतः उस कर्ता पुरुष की शरण चल।  मेरे मन टालमटोल और आनाकानी छोड़ !
जैसे बालक 'टोटी- टोटी' कहता है तब माता उसके शब्द का विचार न करके भाव को समझ कर 'रोटी' देती है।  वैसे ही भगवान भोले भाव के भक्तों की क्रिया को न देख कर उसके भाव के अनुसार उन्हे दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं। भोले भाव वाले साधू संत किसी के भाव को नष्ट नहीं करते, भाव का स्थापन करते उसे उखाड़ते नहीं। और परब्रह्म के प्रेम से पत्थर की भी सेवा करते हैं । भोले भक्त के भाव में शत्रु में शत्रु मित्र दोनों का ही साझा है । उसमे शत्रु मित्र भाव न होकर भगवत् भाव ही होता है । यदि किंचित भी भेद हो तो जैसे उससे शत्रु, मित्र और विरक्त तीनों प्रेम से मिलते हैं, वैसे नहीं मिल सकते । भोले भाव वाले भक्त भगवान को ही प्राप्त होते हैं ।
प्रभु दास (नेता,जनता-जनार्दन का दास), फिर क्यों उदास ? 

मेरे मन, तुम्हारे लिए श्रेय क्या है ? प्रेय क्या है ? हेय क्या है ? इसका विवेक करना कठिन जाता होगा। प्रेय, श्रेय भी हो सकता है और हेय भी हो सकता है।  अतएव प्रेय, तुम्हारा चाहा करने की अपेक्षा - अप्रिय होने पर भी - जो प्रभु को प्रिय है (अर्थात जनता-जनार्दन को प्रिय है-विनम्रता) - वही तुम्हारे लिए श्रेय है। और विनयी कभी "अहंकारी" नहीं हो सकता। मेरे मन ! सेवा निरभिमान होना चाहिए और निरभिमान होने के लिए विनम्र होना आवश्यक है।  नम्रता आती है सर्वत्र व्याप्त प्रभु की प्रभुता को स्वीकारने से, यथार्थ में उस प्रभु को ही कर्ता जानने , मानने से।  स्वयं को उसके हाथ का खिलौना जानकर, उसकी इच्छा के अनुसार बरतने से, उसका दिया सब कुछ, उसने स्वीकार किया, इसलिए उसके प्रति कृतज्ञ होने से। स्वयं को ज्ञानी माना और तू अभिमानी बना, मेरे मन ! परम ज्ञान स्वरुप जो एक मात्र परमेश्वर है, उसकी अनंत किरणों की छटा एवं प्रतिविम्ब मात्र, मानव बुद्धि ग्रहण करती और लौटती है।   उन लौटती हुई किरणों को अपनी आभा प्रभा जानकर - स्वयं को ज्ञान का स्त्रोत और भण्डार मानकर चलना, अभिमान ही नहीं, मिथ्याभिमान (हिरण्यकश्यप का अहं)  भी है !  मूल स्त्रोत वह प्रभु है, जिससे सभी ज्योति ग्रहण करते हैं।  उसकी उन किरणों को उसकी जानकर विनयी बनना ही अभिमान के पाश से मुक्ति दिला सकता है।   पतन से बचा सकता है।  अतः मेरे मन, प्रभु का गुणगान कर। जनता जनार्दन के परमाणु समान गुण को भी पर्वत जैसा बनाकर अपने ह्रदय को विकसित करता रह !  यही एक धुन धारण कर :

 मनसि वचसि काये पुण्य पीयूष पूर्णा,स्त्रिभुवनमुपकार श्रेणिभिः प्रीणयन्तः।

परगुण परमाणून पर्वतीकृत्य नित्यं,  निज हृदि विकसन्ति सन्ति संतः कियन्तः।।

  मेरे मन प्रभु ही कर्ता है- यह जान और फल से विरत होजा।  विराग से ज्ञान और ज्ञान से भक्ति - सहज ही तुझे सुलभ होगी। मेरे मन विरागी बनविरागी बनाने से आशय है कि, प्रभु के प्रति तेरा "राग" - प्रेम अनुराग तुझे उसका ही बना दे।  जो प्रभु को प्रिय हो (अर्थात जो जनता-जनार्दन को प्रिय हो) - वही तेर लिए प्रेय - सहर्ष करणीय -बन जाए !  जो प्रभु को न भाये - वाह तुझे न सुहाए। प्रभु से (माँ जगदम्बा से)  तदाकार, तद्रूप हो जाना ही - विरागी होना है। जिसने जगत के रस को (कामिनी -कांचन में आसक्ति को ) त्याग दिया - तथा सम्पूर्ण जगत में रस रूप में समाये इश्वर को सर्वत्र देख, उसमे समरस हो गया, वही ज्ञानी-भक्त हो गया | परन्तु ज्ञानी होने का उसे भान भी नहीं होता।  ज्ञान का भान होना ही अभिमान (मिथ्या अहं) का अंकुर आना है।  मेरे मन उससे सावधान रहना। अतएव अहंकार को छोड़ मेरे मन - नम्र बन - सर्वत्र प्रभु को देख और नमन कर !   जब न - मन होगा, तभी सच्चा नमन होगा !   प्रेय होने पर भी जो प्रभु को प्रिय नहीं हो सकता - उसे तुम हेय जानो।  हेय से दूर रहना चाहते हो तो श्रेय में रत रहो - हेय स्वयं ही विलुप्त हो जाएगा , जैसे प्रकाश के होते अन्धकार नहीं रहता।  अतएव प्रभु को (जनता-जनार्दन को) प्रेय तुम्हारे लिए श्रेय है, करणीय है, प्रभु को अप्रिय तुम्हारे लिए हेय है - अकरणीय है। मेरे मन इसी भाँति चलो !

1. कामनाशून्य ज्ञानी ?(^*):  भगवान् श्रीकृष्ण गीता 4 /8 में अर्जुन को अपने अवतार होने के  विषय में इतने विस्तार से जानकारी क्यों दे रहे हैं? अर्जुन (would be Leader) के लिये इतना सब कुछ विस्तार से बताना पड़ा क्योंकि वह श्रीकृष्ण (महामण्डल) के वास्तविक स्वरूप (अवतारी -स्वरूप) के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ था। श्रीकृष्ण (C-IN-C of Mahamandal) को एक साधारण मनुष्य और मित्र के रूप में ही समझने के कारण वह प्रथम अध्याय में इतने प्रकार के तर्क प्रस्तुत करता रहा अन्यथा उसमें इतना साहस ही नहीं होता।

यह तो स्पष्ट है कि बिना किसी इच्छा अथवा प्रयोजन के ईश्वर अपने को व्यक्त नहीं करता। इसी प्रकार परमब्रह्म किसी प्रयोजन के अभाव में किसी उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट उपाधि को न धारण कर सकता है और न उसे उसकी कोई आवश्यकता ही होती है। इच्छाओं के आत्यन्तिक अभाव का अर्थ है कर्मों का पूर्ण अभाव। पूर्ण परमात्मा श्रीरामकृष्ण में क्या कामना थी कि उनको महामण्डल संगठन के रूप में  अवतरित होना पड़ा ? सब इच्छाओं में सर्वोत्तम दैवी इच्छा है (आत्मावलोकन की इच्छा या) जगत् की निस्वार्थ भाव से सेवा करने की इच्छा किन्तु वह भी एक इच्छा ही है। अवतारी पुरुष को कर्तव्य पालन करने वाले साधु पुरुषों के रक्षण का कार्य करते हुये एक और कार्य अपनी माया का आश्रय ^* लेकर करना होता है, वह है दुष्टों का संहार।  दुष्टों के संहार से तात्पर्य शब्दश दुष्ट व्यक्तियों के संहार से ही समझना आवश्यक नहीं है; उसमें किसी व्यक्ति के दुष्ट प्रवृत्तियों का (मिथ्या अहं का) नाश अभिप्रेत है। अवतारी पुरुषों द्वारा किया जाने वाला यह कार्य वस्त्र रखने की आलमारी में रखने की पुर्नव्यवस्था करने के समान होता है। जो वस्त्र अत्यन्त निरुपयोगी हो जाते हैं उन्हें नये वस्त्रों के रखने हेतु स्थान बनाने हेतु वहाँ से हटाना ही पड़ता है। इसी प्रकार अवतारी पुरुष (जीवनमुक्त शिक्षक या नेता -CINC) ) अपने कर्तव्य का पालन (अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले) साधु-पुरुषों का उत्साह बढ़ाते हैं, और दुष्टों के स्वभाव को परिवर्तित करने का प्रयत्न भी करते हैं; और कभी-कभी दुष्टों का पूर्ण संहार भी आवश्यक हो जाता है। उसी प्रकार अवतरित युवा संघटन 'organization ' के जीवनमुक्त शिक्षक/ नेता द्वारा वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में चपरास बैज बाँटने के दौरान  किया जाने वाला यह कार्य (वस्त्र को अलमारी में रखने की पुनर्व्यवस्था है जो ) वामन अवतार के द्वारा  राजा बलि के अहंकार को पाताल लोक भेजने जैसा होता है। आज निसन्देह ही हम एक पशु के समान जी रहे हैं परन्तु जब कभी हम निस्वार्थ इच्छा से प्रेरित हुए कर्म (Be and Make) करते हैं, उस समय परमात्मा की ही दिव्य क्षमता हमारे कर्मों में झलकती है। बिना किसी साधन के विद्युत् शक्ति (माँ जगदम्बा की इच्छा) किसी विशेष रूप (महामण्डल रूपी `एक नया युवा आंदोलन') में व्यक्त (अवतरित) नहीं हो सकती। पूर्ण परमात्मा (श्रीरामकृष्ण) में युवा महामण्डल रूपी `वामन अवतार' (primary school) रूप में आविर्भूत होने की कारण रूप जो इच्छा (अंगूर के गुच्छों के जैसा गली गली में गोपाल कृष्ण जैसे नेताओं-पैगंबरों का निर्माण करने की इच्छा) है; उसी इच्छा को यहाँ व्यास जी अपने शब्दों में वर्णन करते हैं ~ `परित्राणाय साधूनां ... संभवामि युगे युगे।' [नदी की ही तरंगें हैं, तरंगों की नदी ^* थोड़े ही है ?  केशव धृत-सूकररूप जय जगदीश हरे ... केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे .... केशव धृत-वामनरूप, जय जगदीश हरे ॥] 

श्री दशावतार स्तुति :-

प्रलय पयोधि-जले धृतवान् असि वेदम् ।

विहित वहित्र-चरित्रम् अखेदम् ।

केशव धृत-मीन शरीर जय जगदीश हरे ॥1॥

हे मीनावतारी केशव ! हे जगदीश्वर ! हे हरे ! प्रलयकाल में बढ़े हुए समुद्रजल में बिना क्लेश नौका चलाने की लीला करते हुए आपने वेदों की रक्षा की थी, आपकी जय हो  ॥1॥

क्षितिर् इह विपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे ।

धरणि- धारण किण चक्र-गरिष्ठे। 

केशव धृत-कच्छप रुप जय जगदीश हरे ॥2॥

हे केशव ! पृथ्वी के धारण करने के चिह्न से कठोर और अत्यन्त विशाल तुम्हारी पीठ पर पृथ्वी स्थित है, ऐसे कच्छपरूपधारी जगत्पति आप हरि की जय हो॥2॥

वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना ।

शशिनि कलंकलेव निमग्ना ।

केशव धृत-सूकर रूप जय जगदीश हरे ॥3॥

हे जगदीश! चंद्रमा में निमग्न हुई कलंक रेखा के समान यह पृथ्वी आपके दांत की नोक पर अटकी हुई सुशोभित हो रही है ,ऐसे सुकररूपधारी जगत्पति हरि केशव की जय हो ॥3॥

तव कर-कमल वरे नखम् अद्भुत शृंगम्। 

दलित हिरण्यकशिपु-तनु भृंगम्। 

केशव धृत-नरहरि रूप जय जगदीश हरे ॥4॥

हिरण्यकशिपुरूपी तुच्छ भृंग को चीरडालने वाले विचित्र नुकीले नख आपके कर कमल में हैं , ऐसे नृसिंहरूप धारी जगत्पति हरि केशव की जय हो ॥4॥ 

छलयसि विक्रमणे बलिम् अद्भुत-वामन,

पद - नख - नीर जनित जन पावन,

केशव धृत-वामन रूप, जय जगदीश हरे ॥5॥

हे आश्चर्यमय वामनरूपधारी केशव ! आपने पैर बढ़ाकर राजा बलि को छल से पवित्र किया तथा अपने चरणनखों के जल से लोगों को पवित्र किया , ऐसे आप जगत्पति हरि की जय हो। ॥5॥

क्षत्रिय-रुधिर-मये जगद् अपगत-पापम्। 

स्नपयसि पयसि शमित-भव-तापम्। 

केशव धृत-भृगुपति रूप जय जगदीश हरे ॥6॥

हे केशव ! आप ने भृगुपति (परशुराम) रूप धारणकर, क्षत्रियों के रुधिर रूप जल से स्नान कराते हुए जगत को पवित्र कर, संसार का सन्ताप दूर किया है। हे परशुराम-रूपधारी जगत्पति केशव आपकी जय हो ॥6॥

वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयम ।

दशमुखमौलिबलिं रमणीयम ।

केशव धृत-रघुपति वेष जय जगदीश हरे ॥7॥

हे जगत् स्वामिन् श्रीहरे ! आप युद्ध-भूमि में राम रूप धारण कर सब दिशाओं में दिक्पालों को प्रसन्न करने वाली रावण के अत्यन्त मनोहर किरीट भूषित सिरों की सुन्दर बलि लेकर दश-दिशाओं में वितरित कर रहे हैं । ऐसे श्रीरामावतारी आप जगत्पति भगवान केशव की जय हो॥7॥

वहसि वपुषे विशदे वसनं जलदाभम ।

हलहतिभीतिमिलितयमुनाभम ।

केशव धृत-हलधर रूप जय जगदीश हरे ॥8॥

हे जगत् स्वामिन् ! बलराम-स्वरूप धारण कर, आपने अपने गौर शरीर में नवीन जलदाभ अर्थात् नूतन मेघों की शोभा के सदृश नीलाम्बर धारण किया है। ऐसा लगता है, यमुनाजी मानो आपके हल के प्रहार से भयभीत होकर आपके वस्त्र में छिपी हुई हैं । हे हलधरस्वरूप ! जगत्पति भगवान केशव आपकी जय हो ॥8॥

निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातम ।

सदयहृदयदर्शितपशुघातम ।

केशव धृत-बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे ॥9॥

हे जगदीश्वर! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय हृदय से पशुहत्या के प्रति कठोरता दिखाते हुए यज्ञविधान संबंधी श्रुति-समुदाय की निन्दा की है। बुद्ध-रूपधारी भगवान केशव की जय हो॥9॥

म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालम ।

धूमकेतुमिव किमपि करालम ।

केशव धृत-कल्कि शरीर जय जगदीश हरे ॥10॥

हे जगदीश्वर! म्लेच्छ समूह का नाश करने के लिए, आप कल्किरूप धारण कर धूमकेतु के समान अत्यन्त भयंकर तलवार चलाते हैं। ऐसे कल्कि रूप धारी आप जगत्पति केशव की जय हो ॥10॥

श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारम ।

श्रृणु सुखदं शुभदं भवसारम ।

केशव धृत-दशविध रूप जय जगदीश हरे ॥11॥

हे दशबिध रूपों को धारण करने वाले भगवन् ! आप मुझ श्रीजयदेव कवि की कही हुई संसार के सार स्वरूप, मनोहर आनंददायक, सुख-प्रद एवं  कल्याणमय तत्व रूप स्तुति को सुनो। हे दशावतारधारी ! जगत्पति हरि केशव आपकी सदा जय हो ॥11॥

वेदान् उद्धरते जगंति वहते भू-गोलम् उद्बिभ्रते,

दैत्यम् दारयते, बलिम् छलयते, क्षत्र-क्षयम् कुर्वते।

पौलस्त्यम् जयते, हलम् कलयते, कारुण्यम् आतन्वते, 

म्लेच्छान् मूर्छयते दशाकृति-कृते कृष्णाय तुभ्यम् नमः।। 

- श्री जयदेव गोस्वामी

भगवान विष्णु जी के 10 अवतार : 

1. मत्स्य :  मत्स्य अवतार भगवान विष्णु का पहला अवतार है इस अवतार में विष्णु जी मछली बनकर प्रकट हुए थे। पुराणों के अनुसार यह अवतार सृष्टि को महाप्रलय से बचने के लिए लिया गया।  मान्यता के अनुसार असुर हयग्रीव ने जब वेदों को चुराकर समुद्र की गहराई में छुपा दिया था तब भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार में आकर वेदों को पाया और उन्हें फिर से स्थापित किया। 

2. कुर्म : दूसरा अवतार है कच्छप अवतार जिसे कूर्म अवतार भी कहते हैं। इसमें भगवान विष्णु कछुआ बनकर प्रकट हुए थे। ग्रंथो के अनुसार यह अवतार समुन्द्र मंथन में मदद के लिए कछुवा का लिया था। कच्छप अवतार में श्री हरि ने छीरसागर के समुद्र मंथन में मंदराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर संभाला था। मंथन में भगवान विष्णु मंदराचल पर्वत और वासुकी सर्प की मदद से देवताओं और राक्षसों ने 14 रत्न पाए थे। 

3. वराह : वराह अवतार को हिंदू धर्म ग्रंथों के भगवान विष्णु का तीसरा अवतार माना गया है।दैत्य हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया था तब  भगवन विष्णु ने वराह (सूअर) का रूप धारण करके हिरण्याक्ष राक्षस का वध किया था और पृथ्वी को उसके कक्ष में पुनः स्थापित किया था।  

4. नरसिंह : हिरण्यकशिपू का वध करने के लिए, हुआ चौथा अवतार नरसिंह है। इस अवतार में लक्ष्मीपति नरसिंह मतलब आधे शेर और आधे मनुष्य बनकर प्रकट हुए थे। इसमें भगवान का चेहरा शेर का था और शरीर इंसान का था नरसिंह अवतार में उन्होंने अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए उसके पिता राक्षस हिरण्यकश्यप को मारा था। 

5. वामन : वामन भगवान विष्णु का पांचवा अवतार है।  इसमें भगवान ब्राह्मण बालक के रूप में धरती पर आए थे।

श्रीभृगु-संहिता (मूल)

आत्मतया तदा गुरोः भृगोः वा इत्युक्तवान् ।

प्रभो ब्रूहि कथां बलेः वामनस्य ममश्रुणुवे ॥

तब आत्मतया (हातिम ताई) ने आचार्य भृगु से कहा :"हे प्रभो ! मुझसे कृपया राजा बलि तथा वामन की कथा कहिये। रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को ‘येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबल:’ का श्लोक क्यों कहता है ? मैं आपके मुख से इस कथा का श्रवण करना चाहता हूँ।  

ऋषि भृगु ने तब कहना प्रारंभ किया : पुराकल्प में किसी समय दैत्यराज बलि ने अत्यन्त पराक्रम से तीनों लोकों को युद्ध में परास्त कर सम्पूर्ण पृथ्वी सहित सर्वस्व दान कर दिया । किन्तु दान देने के गर्व से उसका अहंकार और भी अत्यन्त दृढ तथा प्रबल हो उठा । तब भगवान् नारायण ब्राह्मण बटुक (वामन) वेश धारण कर उसके समक्ष आ खड़े हुए । उस समय हमारे पूर्वकुल में हुए आचार्य भृगु (शुक्राचार्य) जो उस काल में राजा बलि के राजपुरोहित एवं भी राजगुरु भी थे,ने बलि को चेताते हुए कहा :"यह बटुक ब्राह्मण कोई और नहीं, ब्राह्मण के वेश में साक्षात् भगवान् हरि श्रीमन्नारायण स्वयं हैं । तुम इनके धोखे में मत आओ ।"

जब राजा बलि ने उनसे दान ग्रहण करने की प्रार्थना की, और उन्हें दान में कौन सी वस्तु चाहिए, यह प्रश्न किया तो ब्राह्मण वेश में अवस्थित बटुक बोला :"मुझे केवल साढ़े तीन पग भूमि चाहिए ।" जब राजा बलि ने हठपूर्वक गुरु की चेतावनी को अनसुना कर दिया, तो भार्गव उस पात्र के जल-मार्ग में जाकर बैठ गए, (जहाँ से दान के संकल्प के लिए शास्त्रोक्त रीति से जल हथेली पर छोड़ा जाता है ।)  ताकि जल न छोड़ा जा सके और राजा का संकल्प तथा दान पूर्ण न हो सके । तब बटुकवेशधारी वामन बोले :"राजन् ! लगता है जल-पात्र की नली (चञ्चु / बिल) में कुछ कचरा आ जाने से जल का मार्ग अवरुद्ध हो गया है । तुम इस सींक से उस बाधा को दूर कर दो ।"तब राजा बलि ने उस सींक से चञ्चु में स्थित बाधा को हटाने का यत्न किया । चूँकि वहाँ आचार्य भृगु बैठे हुए थे और उस सींक से उनका दक्षिण नेत्र बिंध गया (विद्ध हो गया), इसलिए वे बिलबिलाकर उस बिल से बाहर आ गए । (तब से हमारे कुल तथा सम्प्रदाय में कृष्ण यजुर्वेद की परंपरा चल पड़ी ।)

आत्मतया ! (हातिम ताई !) तत्पश्चात् संकल्प पूरा हो जाने पर राजा ने बटुकवेशधारी बटुकेश्वर वामन से कहा कि वे साढ़े तीन पग चलें, - जितनी भूमि उनके पग के तले आ जाए, उसे दान में ग्रहण कर लें । तब वामन ने एक पग में मृत्युलोक (धरती) को, दूसरे में स्वर्ग को तथा तीसरे में अंतरिक्ष को माप लिया और राजा से पूछा :"आधा पग कहाँ रखूँ ?"

और जब स्वयं भगवान् विष्णु ने वामन का वेष धरकर प्रहलाद के पौत्र राजा बलि से दान में  साढ़े तीन डग भूमि उससे दान में माँगी थी। तब  दैत्यों के गुरु `शुक्राचार्य ' (यह दैत्यों के गुरु की उपाधि है, जो महर्षि भृगु के कुल की ही सन्तान हैं जिसकी अपनी  कुल-परंपरा है) ने  बलि को पहले तो रोका किन्तु जब वह नहीं रुका तो उस पात्र के भीतर वहाँ जाकर उन्होंने उसके उस जलमार्ग को अवरुद्ध कर दिया, जिससे संकल्प करते समय जल छोड़ा जाता है । तब ब्राह्मण-वेशधारी वामन ने बलि से कहा था : `राजन् ! जल के मार्ग में कोई अवरोध है कृपया इस तिनके से उसे हटा दीजिये नहीं तो आपका संकल्प अपूर्ण रह जाएगा ।' तब बलि ने उनके हाथ से तिनका लेकर उससे उस अवरोध को हटाने का यत्न किया । वही तिनका शुक्राचार्य की एक आँख में जा घुसा और वे तड़पकर वहाँ से हट गए ।यही शुक्राचार्य जिन्होंने श्री हरि को इस छल के लिए क्रोधवश उनके सीने पर पादाघात किया था तो श्री हरि ने मुस्कुराकर ऋषि भृगु से पूछा था :"अरे! आपके पैर में चोट तो नहीं लगी? क्योंकि मेरा वक्षस्थल कठोर है और आपके चरण बहुत कोमल हैं।" "तब ऋषि ने उनके प्रश्न को सुना-अनसुना कर दिया किन्तु तब भी ऋषि शुक्राचार्य की परंपरा में दैत्यों के लिए सहानुभूति और श्री हरि के प्रति कुछ द्वेष अवश्य बना रहा । इस घटना से एक लोकोक्ति बनी।

क्षमा बड़न को चाहिये, छोटन को उत्पात।

का रहीम हरी का घट्यो, जो भृगु मारी लात।।

अर्थात उद्दंडता करने वाले हमेशा छोटे कहे जाते हैं और क्षमा करने वाले ही बड़े बनते हैं। भृगु महाराज ने क्रोध करके स्वयं को छोटा प्रमाणित कर दिया, जबकि विष्णु भगवान क्षमा करके और भी बड़े हो गए। अधिकांश मामलों में प्रहार करने के लिए लात की भी आवश्यकता नहीं पड़ती, हमारी जिह्वा ही पर्याप्त होती है।`रहिमन जिह्वा बावरी, कह गयी सरग-पताल।आप कह भीतर गयी, जूती खात कपाल।।' अर्थात बावरी जिह्वा अंट-शंट बकवास करके, अपशब्द कह कर जीभ तो  मुँह के भीतर चली जाती है।  मगर बदले में सिर को जूते खाने पड़ते हैं।  

हे आत्मतया ! (हातिम ताई !) तत्पश्चात् संकल्प पूरा हो जाने पर राजा ने बटुकवेशधारी बटुकेश्वर वामन से कहा कि वे साढ़े तीन पग चलें,- जितनी भूमि उनके पग के तले आ जाए, उसे दान में ग्रहण कर लें । 

तब वामन ने एक पग में मृत्युलोक (धरती) को, दूसरे में स्वर्ग को तथा तीसरे में अंतरिक्ष को माप लिया और राजा से पूछा :"आधा पग कहाँ रखूँ ?"  तब राजा बलि ने अपना मस्तक झुकाकर कहा -"प्रभो ! अब तो मेरा मस्तक (अहंकार) ही वह शेष स्थान है जिस पर आप अपना पावन चरण रखकर मुझे धन्य करें ।" मैं जानता हूँ कि ब्राह्मण के वेष में आप स्वयं भगवान् नारायण मेरे समक्ष खड़े हैं इससे बढ़कर मेरे लिए और क्या सौभाग्य होगा ? "तब वामन-वेषधारी भगवान् श्रीहरि ने झुककर अपने घुटने से राजा बलि के मस्तक को दबाकर उसे पाताल भेज दिया अर्थात् पाताल लोक का राज्य रहने के लिये दे दिया। यह पाताल बलि की धरती के दूसरे सिरे पर स्थित था जहाँ दैत्यराज का कुल फल-फूल और पनप रहा था । जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया और भगवान विष्णु को उनका द्वारपाल बनना पड़ा।  इस प्रकार नारायण का पाताल में बहुत समय बीत गया।  उधर बैकुंठ में नारायण की अनुपस्थिति से लक्ष्मीजी को चिंता होने लगी। 

तभी नारदजीका आना हुआ। लक्ष्मीजी ने कहा, `नारदजी आप तो तीनों लोकों में घूमते हैं, क्या नारायण को कहीँ देखा है आपने ?” नारदजी बोले, “पाताल लोक में हैं राजा बलि के प्रहरी बने हुए है जगतके स्वामी।  ” तब लक्ष्मीजी ने कहा, ” मुझे आप ही कोई युक्ति बताएं जिससे मैं अपने पति को पुनः यहाँ ला सकूं। ” तब नारदने कहा आप राजा बलि को भाई बना लें और रक्षा का वचन लें। और पहले त्रिवाचा करवा लें कि दक्षिणा में जो मांगुगी उसे वे देंगे और और दक्षिणा में अपने नारायण को मांग लें। ”लक्ष्मी जी सुन्दर स्त्रीके रूपमें रोते हुए पातल पहुंची | बलिने कहा, “क्यों रो रहीं हैं आप ?”लक्ष्मीजी बोलीं, “मेरा कोई भाई नहीँ हैं; इसलिए मैं दुखी हूं। ”तब बलि बोले “आप मेरी धर्म की बहन बन जाएं। ” तब लक्ष्मी ने उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और उपहार स्वरुप अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ ले आई। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी तब से ये रक्षा-बन्धन आरम्भ हुआ। जाते समय भगवान विष्णु ने राजा बलि को वरदान भी दिया कि वह हर साल चार महीने पाताल में ही निवास करेंगे। यह चार महीना चर्तुमास के रूप में जाना जाता है , जो देव-शयनी एकादशी से लेकर देव-उठानी एकादशी तक होता है।

यह कथा सुनकर हातिम ताई अत्यन्त चकित हुआ  । उसने आचार्य से प्रार्थना की कि इस कथा का गूढ तात्पर्य भी उसे समझाएँ । उसके इस निवेदन पर आचार्य (भृगु) पुनः बोले : "प्रकृति से उत्पन्न शरीर ही नारायण का पहला पग है जिस पर सबसे पहले अहंकार अपना आधिपत्य और स्वामित्व मान लेता है । यह मान्यता ही मन है । अहंकार के विकास और विस्तार के साथ वह बलवान् (बली) होकर मन रूपी साम्राज्य का स्वामी बन बैठता है और अपने आपको एक स्वतंत्र एकछत्र राजा घोषित करता है । तीसरे पग में वह मन से संयुक्त अहंकार / मन; - अन्तरिक्ष (मन के गूढ रहस्य) में विचरता रहता है । चूँकि अन्तरिक्ष असीम और अनन्त है इसलिए वह उसका अतिक्रमण नहीं कर पाता । पहले पग की भूमि (जन्म), दूसरे पग की भूमि (शरीर) का अतिक्रमण तो मन / अहंकार अनायास ही कर लेता है किन्तु मन से पूर्व (जो तत्व है उस तत्व) का अतिक्रमण करना उसके लिए संभव नहीं । वह भूमि नारायण की है । वह भूमि नारायण को समर्पित कर दिए जाने के बाद भी मन / अहंकार दान के उद्धत मस्तक गर्व से भरा खड़ा रहता है । जब उस गर्व को वामन अपने दाहिने घुटने से कुचलकर नष्टप्राय कर देता है, तब वह मन / अहंकार पाताल में जाकर छिप जाता है किन्तु फिर भी नष्ट नहीं होता क्योंकि वह आत्मा का अंश है, जबकि नारायण सम्पूर्ण आत्मतत्व है । इस प्रकार ब्रह्मांड एक बार फिर देवराज इंद्र के शासन में बहाल हो गया। 

6. श्री परशुराम :  विष्णु के अवतार परशुराम शिव के परम भक्त थे।  भगवान शंकर ने इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर इनको परशु शस्त्र दिया था। इनका नाम राम था और परशु लेने के कारण वह परशुराम कहलाते थे। सहस्त्रबाहु का वध करने के लिए  ही इनका जन्म हुआ था। कहा जाता है कि इन्होंने 21 बार क्षत्रियों का विनाश किया था।  

7. श्री राम : श्री राम ने त्रेता युग में अयोध्या के राजा दशरथ और उनकी पहली रानी कौशल्या के पुत्र के रूप में -राक्षसराज रावण का वध करने के लिए ,जन्म लिए थे। 

 कौन राम ? :> 

👉garudajee ke saat prashn tatha kaakabhushundi ke uttar: 

गरुड़जी के सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डि के उत्तर : [काम+क्रोध +लोभ= तीनो ऐषणाएँ मिल जाएँ तो सन्निपात (typhus, delirium, प्रलाप या नींद की बेहोशी में बोलना) रोग उत्पन्न होता है।]  

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।

 तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥

काम बात कफ लोभ अपारा। 

क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥

भावार्थ:- सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान-अविद्या, illusion of ignorance , विद्या -illusion of knowledge) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥15॥

* प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। 

उपजइ सन्यपात दुखदाई॥

बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। 

      ते सब सूल नाम को जाना॥16॥

भावार्थ:-यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ, तीनों ऐषणाएँ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात्‌ वे अपार हैं)॥16॥

`रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।' रोम रोम में रमने वाले जिस चैतन्य आत्मा में  (कामिनी-कांचन में नहीं) योगी लोग रमण करते हैं, वह ‘राम’ है। ......और उनका `नागपाश' तुमने तोड़ा ? राम की सत्ता से तुम्हारे पंख चल रहे हैं और तुमने 'राम' की मदद की ?” हम लोग भी तो यही कर रहे हैं। ”हमने भगवान की सेवा की.... हमने बेटे की सेवा की .....देश की सेवा की।” किसकी सत्ता से की यह सेवा ....?

गीता के दशम अध्याय मेँ भगवान श्रीकृष्ण कहते है- ‘रामःशस्त्रभृतामहम्।’ कि अर्जुन ! शस्त्र धारियों में मैं राम हूँ  ...  राम  ... केवल राम नहीं  ...  शस्त्रधारी राम  ..  विना शस्त्र , बिना कोदण्ड राम नहीं ।  राम शांत स्वरुप है ।  राम स्नेह प्रेम की मूर्ति है।   उसी के हाथ में शस्त्र शोभा देते हैं ।  ऐसे सर्वश्रेष्ठ आदर्श पुरुष के हाथ में ही वह योग्यता है; जो उस धनुष को धारण करे जिसमें से सदैव अमोघ बाणों की ही वर्षा होती है। विनय शाली व्यक्ति में विद्या का अहङ्कार और मद रहित व्यक्ति पास पद और अधिकार, सेवा भाव युक्त व्यक्ति के पास धन , स्नेह प्रेम और शान्ति पूर्ण व्यक्ति के हाथ में शस्त्र, यही शोभा देते हैं । इस के पूर्व श्री कृष्ण ने कहा , "आयुधानाम अहम् वज्रम" ।  शस्त्रों में मैं वज्रायुध हूँ । यहाँ, "रामः शस्त्र भृतामहम" कह रहे हैं" ।

प्रभु श्री राम के द्वारा `रामेश्वर महादेव ' की स्थापना:> श्रीरामचरितमानस– लंकाकाण्ड : 

सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥

देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥

परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥

करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना॥

सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए॥

लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥

सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥

संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥

भावार्थ:- वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यंत सुंदर रचना देखकर कृपासिन्धु श्री रामजी हँसकर वचन बोले- यह (यहाँ की) भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिवजी की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान्‌ संकल्प है॥ श्री रामजी के वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आए। शिवलिंग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया (फिर भगवान बोले-) शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है॥ जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकरजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है

दोहा :

संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।

ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥2॥

भावार्थ:- जिनको शंकरजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥2॥

चौपाई :

जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥

जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥

होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संकर देइहि॥

मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥

राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए॥

गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती॥

बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥

बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई॥

महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥

भावार्थ:- जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात्‌ मेरे साथ एक हो जाएगा)॥ जो छल छोड़कर और निष्काम होकर श्री रामेश्वरजी की सेवा करेंगे, उन्हें शंकरजी मेरी भक्ति देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा॥ श्री रामजी के वचन सबके मन को अच्छे लगे। तदनन्तर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आए। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रघुनाथजी की यह रीति है कि वे शरणागत पर सदा प्रीति करते हैं॥ चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। श्री रामजी की कृपा से उनका यह (उज्ज्वल) यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज (नेता) के समान (स्वयं तैरने वाले और दूसरों को पार ले जाने वाले) हो गए॥ यह न तो समुद्र की महिमा वर्णन की गई है, न पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात है॥

दोहा :श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान। ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥3॥

भावार्थ:- श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे श्री रामजी को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं॥3॥

*श्रीरामचरितमानस* अरण्यकाण्ड तृतीय सोपान ~ मंगलाचरण ] : समस्त चराचर प्राणियोँ एवं विश्व का कल्याण करो प्रभु रामेश्वर महादेव,,,

श्लोक :

मूलं धर्मतरोर्विवेक जलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं

वैराग्याम्बुज भास्करं ह्यघघन ध्वान्तापहं तापहम्‌।

मोहाम्भोधर पूग पाटन विधौ स्वःसम्भवं शंकरं

वंदे ब्रह्म कुलं कलंक शमनं श्री राम भूप प्रियम्‌॥१॥

भावार्थ : धर्म रूपी वृक्ष के मूल हैं-शंकर जी ! विवेक रूपी समुद्र को आनंद देने वाले पूर्णचन्द्र, वैराग्य रूपी कमल के विकसित करने वाले सूर्य, पाप रूपी घोर अंधकार को निश्चय ही मिटाने वाले, तीनों तापों को हरने वाले, मोह रूपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने की विधि क्रिया में आकाश से उत्पन्न पवन स्वरूप, ब्रह्माजी के वंशज आत्मज तथा कलंकनाशक, महाराज श्री रामचन्द्रजी के प्रिय श्री शंकरजी (विवेकानन्द) की मैं वंदना करता हूँ॥१॥ 

कष्ट हरो,,काल हरो,,दुःख हरो,,दारिद्रय हरो,,, हर,,,हर,,,महादेव,,,

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुंदरं

पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्‌।

राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं

सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥२॥

भावार्थ : जिनका शरीर जलयुक्त मेघों के समान सुंदर श्यामवर्ण एवं आनंदघन है, जो सुंदर (वल्कल का) पीत वस्त्र धारण किए हैं, जिनके हाथों में बाण और धनुष हैं, कमर उत्तम तरकस के भार से सुशोभित है, कमल के समान विशाल नेत्र हैं और मस्तक पर जटाजूट धारण किए हैं, उन अत्यन्त शोभायमान श्री सीताजी और लक्ष्मणजी सहित मार्ग में चलते हुए आनंद देने वाले श्री रामचन्द्रजी को मैं भजता हूँ॥२॥

रामचरितमानस षष्ठ सोपान (लंका काण्ड) : मंगलाचरण

* रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं

योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।

मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं

वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥1॥

भावार्थ : कामदेव के शत्रु शिवजी के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरने वाले, काल रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृन्द के एकमात्र देवता (रक्षक), जल वाले मेघ के समान सुंदर श्याम, कमल के से नेत्र वाले, पृथ्वीपति (राजा) के रूप में परमदेव श्री रामजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

राम से बड़ा राम का नाम !!!:> 

ऐसी बात नहीं है कि श्रीराम जब अवधपुरी (अयोध्या) में राजा दशरथ के घर अवतरित हुए तब से लोग श्रीराम का भजन करते हैं । राजा दिलीप,राजा रघु एवं राजा दशरथ के पिता राजा अज भी श्रीराम का ही भजन करते थे; क्योंकि श्रीराम केवल दशरथ के पुत्र ही नहीं हैं, बल्कि रोम-रोम में जो चेतना व्याप्त रही है, रोम-रोम में जो रम रहा है उसका ही नाम है ‘राम’। राम जी के अवतरण से हजारों-लाखों वर्ष पहले राम नाम की महिमा वेदों में पायी जाती है। 

`रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।'

‘जिसमें योगी लोगों का मन रमण करता है उसी को कहते हैं ‘राम’।’

एक दिन पार्वतीजी ने महादेवजी से पूछा : “आप हरदम क्या जपते रहते हैं ?” उत्तर में महादेवजी ने 'नेता' (C-IN-C) सहित  विष्णुसहस्रनाम सुना दिया । अन्त में पार्वती जी ने कहा : “ये तो अपने हजार नाम कह दिये । इतना सारा जपना तो सामान्य मनुष्य के लिए असम्भव है । कोई एक नाम कहिए जो सहस्रों नामों के बराबर हो और उनके स्थान में जपा जाये ।” तब महादेवजी बोले :

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनामतत्तुल्यम्: रामनाम वरानने ।।

“हे सुमुखि ! राम नाम विष्णुसहस्रनाम के तुल्य है,और इसका जाप, सम्पूर्ण विष्णु सहस्त्रनाम या विष्णु के 1000 नामों के जाप के समतुल्य है।  मैं सर्वदा ‘राम… राम… राम… ‘ इस प्रकार मनोरम राम-राम में ही रमण करता हूँ ।” (इस मंत्र को श्री राम तारक मंत्र और श्री राम रक्षास्तोत्रम् के नाम से भी जाना जाता है।)

किसी महात्मा ने कहा :

एक राम घट-घट में बोले ।

एक (दूजो?)  राम दशरथ घर डोले ।

एक (तीसर?) राम का सकल पसारा ।

एक (ब्रह्म?) राम है सबसे न्यारा ।।

तब शिष्य ने कहा : “गुरुजी ! आपके कथनानुसार तो चार राम हुए । ऐसे कैसे?”

गुरु : “थोड़ी साधना कर, जप-ध्यानादी कर, फिर समझ में आ जायेगा ।”

साधना करके शिष्य की बुद्धि सुक्ष्म हुई, तब गुरु ने कहा :

जीव राम घट-घट में बोले ।

ईश राम दशरथ घर डोले ।

बिंदु राम का सकल पसारा ।

ब्रम्ह राम है सबसे न्यारा ।

शिष्य बोला : “गुरुदेव ! जीव, ईश, बिंदु और ब्रम्ह इस प्रकार भी तो राम चार ही हुए न ?” गुरु ने देखा कि साधनादि करके इसकी मति थोड़ी सुक्ष्म तो हुई है किन्तु अभी तक चार राम दिख रहे हैं । 

गुरु ने करुणा करके समझाया कि : “वत्स ! देख, घड़े में आया हुआ आकाश, मठ में आया हुआ आकाश, मेघ में आया हुआ आकाश और उससे अलग व्यापक आकाश, ये चार दिखते हैं । अगर तीनों उपाधियों को घट, मठ और मेघ को हटा दो तो चारों में आकाश तो एक का एक है ।इसी प्रकारः

वही राम घट-घट में बोले ।

वही राम दशरथ घर डोले ।

`उसी' राम का सकल पसारा ।

वही राम है सबसे न्यारा ।।

रोम-रोम में रमने वाला चैतन्यतत्व वही का वही है और उसी का नाम है 'चैतन्य राम'।  वे 'चैतन्य राम' (सच्चिदानन्द) ही  जिस दिन दशरथ -कौशल्या के घर श्री राम के साकार रूप में अवतरित हुए, उस दिन को भारतवासी श्रीरामनवमी के पावन पर्व के रूप में मनाते हैं। कैसे हैं वे श्रीराम ? भगवान श्रीराम नित्य कैवल्य ज्ञान में विचरण करते थे। वे आदर्श पुत्र,आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र एवं आदर्श शत्रु थे। आदर्श शत्रु ! हाँ, श्रीराम आदर्श शत्रु भी थे, तभी तो शत्रु भी उनकी प्रशंसा किये बिना न रह सके।

कथा आती है कि लक्ष्मण जी के द्वारा मारे गये मेघनाद की दाहिनी भुजा सती सुलोचना के समीप जा गिरी। सुलोचना ने कहाः ` अगर यह मेरे पति की भुजा है तो हस्ताक्षर करके इस बात को प्रमाणित कर दे।’ कटी भुजा ने हस्ताक्षर करके सच्चाई स्पष्ट कर दी।सुलोचना ने निश्चय किया कि ‘मुझे अब सती हो जाना चाहिए।’ किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती ! जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा। तब रावण ने उत्तर दियाः “देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। जिस समाज में बाल-ब्रह्मचारी श्रीहनुमान, परम जितेन्द्रिय श्री लक्ष्मण तथा एकपत्नी व्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए।मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।” जब रावण सुलोचना से ये बातें कह रहा था,उस समय कुछ मंत्री भी उसके पास बैठे थे।उन लोगों ने कहाः “जिनकी पत्नी को आपने बंदिनी बनाकर अशोक वाटिका में रख छोड़ा है, उनके पास आपकी बहू का जाना कहाँ तक उचित है ? यदि यह गयी तो क्या सुरक्षित वापस लौट सकेगी ?”यह सुनकर रावण बोलाः “मंत्रियो ! लगता है तुम्हारी बुद्धि विनष्ट हो गयी है। अरे ! यह तो रावण का काम है जो दूसरे की स्त्री को अपने घर में बंदिनी बनाकर रख सकता है, राम का नहीं।"

धन्य है श्रीराम का दिव्य चरित्र ! जिसका विश्वास शत्रु भी करता है और प्रशंसा करते थकता नहीं! प्रभु श्रीराम का पावन चरित्र दिव्य होते हुए भी इतना सहज सरल है कि मनुष्य चाहे तो अपने जीवन में भी उसका अनुसरण कर सकता है।

—नर या नारायण कौन थे ‘राम’ ? श्रीराम पूर्णतः ईश्वर हैं। भगवान हैं। साथ ही पूर्ण मानव भी हैं। उनके लीला चरित्र में जहां एक ओर ईश्वरत्व का वैचित्रमय लीला विन्यास है, वहीं दूसरी ओर मानवता का प्रकाश भी है। विश्वव्यापिनी विशाल यशकीर्ति के साथ सम्यक निरभिमानिता है। वज्रवत न्याय कठोरता के साथ पुष्यवत प्रेम कोमलता है। अनंत कर्ममय जीवन के साथ संपूर्ण वैराग्य और उपरति है। समस्त निषमताओं के साथ नित्य सहज समता है। अनंत वीरता के साथ मनमोहक नित्य सौंदर्य है। इस प्रकार असंख्य परस्पर विरोधी गुणों और भावों का समन्वय है। भगवान श्री राम की लीला चरित्रों का श्रद्धा भक्ति के साथ चिंतन,अध्ययन व विचार करने पर साधारण नर नारी भी सर्वगुण समन्वित एवं सर्वगुण रहित अखिल विश्व व्यापी,सर्वातीत, सर्वमय श्रीराम को अपने निकटस्थ अनुभव कर सकते हैं। श्री राम में नर और नारायण तथा मानव और ईश्वर की दूरी मिटाकर भगवान के नित्य परिपूर्ण स्वरूप का परिचय मिलता है। भगवान पुरुषोत्तम ने श्री राम के रूप में प्रकट होकर मानवीय रूप में सांसारिक लोगों के दिलो दिमाग पर नित्य प्रभुत्व की प्रतिष्ठा कर समस्त भारतीय संस्कृति को आध्यात्म भाव से ओतप्रोत कर दिया है। 

रामचरितमानस महाकवि तुलसीदास की अमर कृति है। यह एक ऐसा सर्वोपयोगी आदर्श प्रदर्शित करने वाला पवित्र धर्मग्रंथ है। जिसने मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम को समस्त नर नारियों के हृदय में परम देवत्व रूप के साथ अत्यंत आत्मीय रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसने शिक्षित अशिक्षित आबाल -वृद्ध, स्त्री- पुरुष सभी प्रकार के जीवन को श्रीराम के प्रति भक्ति तथा प्रेम के दिव्य, मधुर सुधा रस से अभिषिक्त कर अपना अद्भुत प्रभाव विस्तार किया है। श्रीरामचरितमानस के श्रीराम सर्वसद्गुण संपन्न मर्यादा-रक्षक परम आदर्श शिरोमणि होने के साथ ही स्वमहिमा में स्थित महामानव है। श्रीरामचरित मानस के श्रवण,मनन तथा चिंतन से अत्यंत विष्यासक्त, असदाचारी कठोर हृदय मानव भी पवित्र विचार परायण एवं सदाचारी होकर निर्मल प्रेम भक्ति की रसधारा में सराबोर होकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इस ग्रंथ के सभी पात्र आदर्श चरित्र से परिपूर्ण हैं। इसमें गुरु शिष्य,माता पिता,भ्राता, पुत्र, स्वामी, सेवक, प्रेम, सेवा, क्षमा, वीरता,दान,त्याग,धर्मनीति आदि संपूर्ण आदर्शों के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। यही कारण है कि इस ग्रंथ का सर्वत्र समादर है। तथा यह सर्वप्रिय ग्रंथ है। श्रीरामचरितमानस की चौपाइयों को अधिकांश मानव मंत्रवत कर जप परायण करते हैं। वाल्मीकि ने श्री रामायण की रचना करते समय श्रीराम कथा के रूप में मानवता की कथा कही है। उन्होंने श्रीराम के चरित्र के माध्यम से विश्व के मानवों को मानवता का संदेश दिया है। राम जैसा नर मानव है। राम के समान चरित से मानवता की प्राप्ति होती है। राम एक ऐसे सेतु हैं जहां एक छोर से शुरू होकर मनुष्य दूसरे छोर पर परमात्मा तक पहुंच जाता है। 

उन्हीं पूर्णाभिराम श्रीराम के दिव्य गुणों को अपने जीवन में अपनाकर श्रीराम तत्त्व की ओर प्रयाण करने के पथ पर अग्रसर हो, यही अभ्यर्थना… यही शुभ कामना….नमामि रामं रघुवंशनाथं !

जब आटा गूँथने और सब्जी बनाने के लिए भी बेटी को, बहू को किसी न किसी से सीखना पड़ता है तो जीवात्मा का भी यदि परमात्मा का साक्षात्कार करना है तो अवश्य ही सदगुरू से सीखना ही पड़ेगा।

गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई।

चाहे विरंचि संकर सम होई।।

गुरू की कृपा के बिना तो भवसागर से नहीं तरा जा सकता। ऐसे महापुरूषों को पाने के लिए भगवान से मन ही मन बातचीत करो किः “प्रभु ! जिंदगी बीती जा रही है, अब तो तेरी भक्ति, तेरा ध्यान और परम शांति का प्रसाद लुटाने वाले किसी सदगुरू की कृपा का दीदार करा दे।

[संत कबीर ने कहा है -

"राम-राम सब जगत बखाने, आदिराम' (आद्यशक्ति) कोई बिरला जाने।"

एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में लेटा।

एक राम का जगत पसारा, एक राम है जग से न्यारा।।"

कौन है असली व पूर्ण राम (भगवान-अवतार वरिष्ठ) ? जिसकी भक्ति से पूर्ण मोक्ष  प्राप्त होता है? (जिस C-IN-C विवेकानन्द की भक्ति से सिंह-शावक भेंड़त्व के भ्रम से मुक्त -Dehypnotized हो जाता है ?) जानने के लिये महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लें !! 

इति श्री भृगु-संहिता

★#साभार_संकलित; 

8. श्री कृष्ण : कंस का वध करने के लिए। श्री कृष्ण के महाभारत के युद्ध में बहुत बड़ी भूमिका थी वह इस युद्ध में अर्जुन के सारथी थे उनकी बहन सुभद्रा अर्जुन की पत्नी थी। उन्होंने युद्ध से पहले अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था।  

[barha peedam natavara vapu : [श्रीमयूर-मुकुटधारी श्री कृष्ण नाम की महिमा ^*]

05 FACTS;-

1-श्री कृष्ण भारत में अवतरित हुये भगवान विष्णु के ८वें अवतार और हिन्दू धर्म के ईश्वर हैं। कन्हैया, श्याम, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता हैं।श्री कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्ज महान पुरुष थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है।

2-श्रीकृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तुत रूप से लिखा गया है। भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस कृति के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है। श्री कृष्ण वसुदेव और देवकी की ८वीं संतान थे। मथुरा के कारावास में उनका जन्म हुआ था और गोकुल में उनका लालन पालन हुआ था। यशोदा और नन्द उनके पालक माता पिता थे। उनका बचपन गोकुल में व्यतीत हुआ।

3-बाल्य अवस्था में ही उन्होंने बड़े बड़े कार्य किये जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव नहीं थे। मथुरा में मामा कंस का वध किया। सौराष्ट्र में द्वारका नगरी की स्थापना की और वहाँ अपना राज्य बसाया। पांडवों की मदद की और विभिन्न आपत्तियों में उनकी रक्षा की। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई और भगवद्गीता का ज्ञान दिया जो उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है।

4-"कृष्ण" मूलतः एक संस्कृत शब्द है, जो "काला", "अंधेरा" या "गहरा नीला" का समानार्थी है। "अंधकार" शब्द से इसका सम्बन्ध ढलते चंद्रमा के समय को कृष्ण पक्ष कहे जाने में भी स्पष्ट झलकता है।इस नाम का अनुवाद कहीं-कहीं "अति-आकर्षक" के रूप में भी किया गया है।

5-श्रीमदभागवत पुराण के वर्णन अनुसार कृष्ण जब बाल्यावस्था में थे तब नन्दबाबा के घर आचार्य गर्गाचार्य द्वारा उनका नामकरण संस्कार हुआ था। नाम रखते समय गर्गाचार्य ने बताया कि, 'यह पुत्र प्रत्येक युग में अवतार धारण करता है। कभी इसका वर्ण श्वेत, कभी लाल, कभी पीला होता है। पूर्व के प्रत्येक युगों में शरीर धारण करते हुए इसके तीन वर्ण हो चुके हैं। इस बार कृष्णवर्ण का हुआ है, अतः इसका नाम कृष्ण होगा। वासुदेव का पुत्र होने के कारण उसका अतिरतिक्त नाम वासुदेव भी रखा गया। "कृष्ण" नाम के अतिरिक्त भी श्री कृष्ण भगवान को कई अन्य नामों से जाना जाता रहा है, जो उनकी कई विशेषताओं को दर्शाते हैं। सबसे व्यापक नामों में "मोहन", गोविन्द, माधव, और गोपाल प्रमुख हैं।  

barha peedam natavara vapu :श्री कृष्ण के रहस्य :-

02 FACTS;-

1- भगवान श्री कृष्ण का नाम मुंह में आते ही हमारे आँखो के सामने उनके सुन्दर बाल छवि या उनके युवा छवि का चेहरा समाने आ जाता है. श्री कृष्ण के हर छवि में उनके मस्तक पर मोर पंख शोभायमान होता है. भगवान श्री कृष्ण को मोर पंख इतना पसंद था की वह उनके श्रृंगार का हिस्सा बन गया था.

2-कहते हैं कि कृष्ण अपनी देह को अपने हिसाब से ढ़ाल लेते थे। कभी उनका शरीर स्त्रियों जैसा सुकोमल हो जाता था तो कभी अत्यंत कठोर। युद्ध के समय उनका शरीर वज्र की तरह कठोर हो जाता था। ऐसा इसलिए हो जाता था क्योंकि वे योग और कलारिपट्टू विद्या (मार्शल आर्ट) में पारंगत थे।

👉barha peedam natavara vapu : `वेणु गीत की कथा' : `बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं ' श्लोक  अर्थ➡ शुकदेव जी राजा परीक्षित से इस सुंदर गीत का वर्णन कर रहे हैं,  जिसे हम  वेणूगीत कहते हैं। शरद ऋतु का पावन अवसर चल रहा है उस शरद ऋतु में श्री बाल कृष्ण अपनी मित्र मंडलियों और गाय बछड़ों के साथ वृंदावन में प्रवेश करते हैं;  उस समय भगवान की बड़ी दिव्य शोभा होती है, जिसका वर्णन  इस श्लोक में दर्शाया गया है, इस श्लोक की बड़ी भारी महिमा बताई गई है। भागवत कथा के प्रस्तुत श्लोक का अनुसंधान करने से अनेक प्रकार के संकट दूर हो जाते हैं।  यानी यदि किसी व्यक्ति को डर लगता है या किसी जंगल या निर्जन स्थान में अकेले हैं, चाहे हिंसक व्यक्तियों या हिंसक जीवों से भयभीत रहता हो या भय की अनुभूति होती है, तो इस मंत्र का जप करने से मानव रक्षित होता है, और वह मंत्र  है  -

बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कणिकारं

विभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।

रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै-

र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः।।

                 भाग0 10/21/5

बर्हापीडं नटवरवपुः – बर्ह-( मोर पंख ),अपीड-( मुकुट )>बर्हापीडं➡ जिनके सिर पर मोर मुकुट है | नट-( नाटक दिखाने वाले या लीला करने वाले ),वर-( उत्तम या श्रेष्ठ पुरुष ),वपु:-( सर्वांग सुंदर )>नटवरवपुः➡ सुंदर लीला करने वाले, पुरुषों में उत्तम भगवान पुरुषोत्तम, जिनका सुंदर स्वरूप है |

कर्णयोः कर्णिकारं– कर्णयोः-( दो कान द्विवचन का रूप है यह) कर्णिकारं-( एकवचन का रूप माने- एक कान में )>कर्णयोः कर्णिकारं➡ भगवान श्री कृष्ण दो कानों में से किसी एक कान पर कनेर का पुस्तक धारण करते हैं, यह पुष्प गोपियों के लिए संकेत होता है कि आज हम किस दिशा की ओर गौ चरण के लिए जाएंगे। 

बिभ्रद् वासः कनककपिशं- ( स्वर्णमय पीतांबर या अंबर )>बिभ्रद् वासः कनककपिशं➡ जैसे अग्नि में तपाया हुआ स्वर्ण (कनक) चमचमाता है, वैसे ही भगवान श्री कृष्ण का पितांबर चमक रहा है या भगवान का शरीर सोने की कांति के समान देदीप्यमान हो रहा है। 

वैजयन्तीं च मालाम्-( वैजयंती माला )>वैजयन्तीं च मालाम्➡ भगवान श्री कृष्ण के गले में सुंदर वैजयंती की माला शोभायमान हो रही है।  

रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन-( वेणु के रंध्र से उसे रस सुधा से पूरित कर रहे हैं )>रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन➡ भगवान श्री कृष्ण वेणु वादन कर रहे हैं उस वेणु को अपने मुख से लगा कर के अपने अधरामृत रस सुधा से उसे पूरित कर रहे हैं |

गोपवृन्दैः वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः-( गोप गायें के साथ ब्रज में प्रवेश )>गोपवृन्दैः वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः➡ भगवान श्री कृष्ण गोप ग्वाल गायों के साथ वृंदावन में प्रवेश कर रहे हैं और सभी सखा गण उनके कीर्ति का गुणगान कर रहे हैं उनकी जय-जयकार कर रहे हैं, उस समय भगवान श्री कृष्ण की बड़ी दिव्य शोभा हुई |

अर्थ➡ यानी जो बर्ह (मोर पंख) का अपीड (मुकुट) धारण किए हैं अर्थात जो मोर के पंख का मुकुट पहने हैं तथा जो संसार में नाचते हैं और स्वयं संसार के लोगों को नचाने का भी कार्य करते हैं ऐसे नाचने वालों में जो श्रेष्ठ नट हैं, जिनके कानों में सुंदर कुंडल है तथा गले में-गुँजामाला- अर्थात वैजयंती की माला है, सुंदर वंशी लिए हुए हैं और वंशी के छिद्रों से जो आवाज निकलती है उससे सारे गोप एवं गोपी आकृष्ट होकर सब आनंदित हो जाते हैं। वे सुन्दर वेणू की तान के साथ वृंदावन में प्रवेश कर रहे हैं सभी ग्वाल बाल उनकी कीर्ति का गान कर रहे हैं। 

प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण की अद्भुत मोहिनी शोभा का वर्णन है। एक ओर कृष्ण नट की भांति नाना रूप धर लेते हैं, कभी वर दूल्हे की तरह दिखते हैं। माथे पर मोर मुकुट, कानों में कनेर के फूल खुँसे हुए, नीलकमल सी देह पर सुनहले पीताम्बर कीआभा, गले में वैजयन्ती माला, बाँस की बाँसुरी के छिद्रों को अपने अधरामृत का पान कराते हुये, ग्बाल-बालों के साथ वे वृन्दावन में ऐसे प्रवेश कर रहे हैं जैसे रंगमंच पर कोई नायक प्रवेश कर रहा हो। पर श्रीकृष्ण वृन्दावन में विहार के लिए नंगे पैर आते हैं क्योंकि उनके चरणों के स्पर्श से ही भूमि पर तृण अंकुरित होंगे और उन तृणांकुरों से गउओं की तृप्ति होगी इसीलिए वह गोपाल कहलाये

 barha peedam natavara vapu : श्री कृष्ण का मोर मुकुट धारण करने का रहस्य;-

बर्हापीड 👉`रास का  मर्म'- श्रीरामकृष्ण (श्री M से) कहते हैं -  " तुझे याद है न, श्री कृष्ण के सिर पर मोर पंख रहता था; उस में योनि चिन्ह बना हुआ होता है। इसका यह अर्थ है कि श्रीकृष्ण ने प्रकृति को सिर रखा था। कृष्ण जब रास-मण्डल में गए तो खुद प्रकृति बन गए। इसलिए देख रास -मण्डल में उनका प्रकृति वेश है। जानता है मास्टर स्वयं प्रकृतिभाव को बिना धारण किये कोई प्रकृति के संग का अधिकारी नहीं होता। "

श्रीकृष्ण के मस्तक पर मोर पंख का मुकुट है। मोर ब्रह्मचर्य का प्रतीक है। मोर पूरे जीवन एक ही मोरनी के संग रहता है। जो एकपत्नीव्रत होता है , कामसुख का त्याग करता है, उसे श्रीकृष्ण अपने मस्तक पर स्थान देते हैं। मोर (Peacock) नर पक्षी है, जबकि मोरनी (Peahen) मादा है और साथ में वे मोर (peafowl) के रूप में जाने जाते हैं। इनके बच्चों को peachicks कहा जाता है।  नर और मादा मोर की पहचान करना बहुत आसान है। नर के सिर पर बड़ी कलंगी तथा मादा के सिर पर छोटी कलंगी होती है। मोर के अद्भुत सौंदर्य के कारण ही भारत सरकार द्वारा 26 जनवरी 1963 में इसे राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया। बालकृष्ण को मोर बहुत पसन्द है, श्रीकृष्ण का मयूर नृत्य भी बहुत प्रसिद्ध है। मोर में अनेक गुण हैं–वह दूसरों के दु:ख से दु:खी और सुख से सुखी होता है। अधिक गर्मी पड़े और सब कुछ सूख जाये तो मोर को मरण-तुल्य दु:ख होता है। आकाश में बादल गड़गड़ाने पर वह अत्यन्त आनन्द के साथ नाचता है। यशोदानन्दन, मुरलीमनोहर, पीताम्बरधारी स्यामसुंदर श्रीराधारानी के मोर के साथ नाचते हैं। नाचते-नाचते मोर का पिच्छ गिर पड़ता है, श्रीकृष्ण उसे उठा लेते हैं और कहते हैं कि:- "अरे यह तो हमें पुरस्कार मिला है" और उसे अपने सिर पर धारण कर लेते हैं, इसीलिये इनको बर्हापीड़ भी कहते हैं।

barha peedam natavara vapu : श्रीकृष्ण के गुँजामाला धारण करने का रहस्य 👉  श्रीकृष्ण गले में गुँजामाला (Natural Red Gunja Ratti Mala-रत्ती के दाने -जिससे कभी सोना, जवाहर को तौला जाता था।धारण करते हैं, यह माला उन्हें बहुत प्रिय है।

ब्रह्माण्ड का आकार गुँजा जैसा है, श्रीकृष्ण अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के नायक हैं। उन्होंने ब्रह्माजी को बताया कि तुम तो एक ही ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हो, ऐसे ऐसे अनेक ब्रह्माण्ड मेरे श्रीअंग में विलास करते हैं, इसीलिये उन्होंने गले में गुँजामाला धारण की है। 

barha peedam natavara vapu : नटवरवपु:👉 श्रीकृष्ण का शरीर ऐसा है कि देखने में लगता है कि मानो लावण्य दौड़ रहा है। वह तरह-तरह के वेश धारण कर लेते हैं, कभी खड़िया से सुन्दर श्रृंगार करते हैं, कभी फेंटे को बांध लेते हैं

barha peedam natavara vapu : कर्णयो कर्णिकारं विभ्रद् 👉 कर्णिकार अमलतास के लम्बे-लम्बे लटकते हुये फूलों को कहते हैं, इसे कनेर या करवीर का पुष्प भी कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण इस गंधहीन पुष्प को अपने कान में लगाकर रखते हैं।

 barha peedam natavara vapu :कनक कपिशम् 👉 श्रीराधा का शरीर स्वर्णमयी आभा लिये हुये है इसीलिए श्रीकृष्ण ने उनके समान वस्त्र धारण किये हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि भगवान पृथ्वी के उद्धार के लिये अवतरित हुये हैं अत: उन्होंने पृथ्वी के पीले रंग के वस्त्र धारण किये हैं।

barha peedam natavara vapu :वैजयन्ती च मालाम् 👉 भगवान के गले में पांच वर्ण के पुष्पों की माला है जिसमें शोभा, सौन्दर्य और माधुर्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मीजी छिपी रहती हैं।

 barha peedam natavara vapu : रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् 👉 वेणु एक तो पुरुष है, बांस की बनती है, दूसरे कठोर है। तीसरे उसमें छेद हैं परन्तु इतना होने पर भी श्रीकृष्ण उसे अपने अधरों पर धारण करते हैं क्योंकि वह पोली होती है, अपने अन्दर कुछ भी छिपाकर नहीं रखती भगवान ने स्वयं कहा है, ‘मोहे कपट छल छिद्र न भावा’ बांस गर्मी, सर्दी, बरसात सहकर भी चीरकर बांसुरी बना लेने पर मीठी तान ही सुनाता है, इसीलिये श्रीकृष्ण को बांसुरी प्रिय है। 

गोपी कहती है:- सखी; गले में वनमाला पहने स्यामसुंदर वन से आते हुये बड़ी शोभा पा रहे हैं। फूलों से सजी लाल पगड़ी बायीं ओर लटक रही है, इस शोभा को देखने के बाद यह मन से हटती ही नहीं। माथे पर मोर मुकुट है, मुख गायों के खुरों से उड़ी धूल से सुशोभित है, श्रेष्ठ नट जैसा वेशबनाये बड़ी शोभा से आ रहे हैं । सूरदासजी कहते हैं कि ब्रज की स्त्रियां श्रीकृष्ण की शोभा देखकर अपना तन-मन उन पर न्यौछावर कर देती हैं।(कृष्णा के भाई थे शेषनाग के अवतार बलराम और नागों के दुश्मन होते है मोर। वहीं मोर जो नागों का शत्रु है वह भी श्रीकृष्ण के सिर पर विराजित है। यह विरोधाभास ही श्रीकृष्ण के भगवान होने का प्रमाण भी है कि वे शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रखते हैं।

barha peedam natavara vapu : जीव और ब्रह्म का मिलन ... महारास :-

04 FACTS;-

1-रासलीला का वर्णन श्रीमद्भागवत में दशम स्कन्ध के अध्याय २९ से ३३ तक में है। ये पांच अध्याय ’श्रीरासपंचाध्यायी’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये श्रीमद्भागवतरूपी शरीर के ‘पांच प्राण’ या ‘हृदय’ माने जाते हैं। पंच प्राणों का ईश्वर के साथ रमण ही ‘रास’ है।

2-इस रासलीला के श्रोता हैं–धर्म-ज्ञान, विवेक, वैराग्य से पूर्ण व मरण की प्रतीक्षा करने वाले राजा परीक्षित और वक्ता हैं–ब्रह्मनिष्ठ परम योगी जीवन्मुक्त श्रीशुकदेवजी। इसलिए यह लौकिक श्रृंगारलीला नहीं वरन् भगवान श्रीकृष्ण की अपनी ह्लादिनी शक्ति श्रीराधा और उनकी अन्तरंग शक्तियां कायव्यूहरूपा गोपांगनाओं के साथ होने वाली परम दिव्य रसमयी लीला का वर्णन है।

3-भारतीय वाङग्मय के अघ्ययन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इस प्रेम को “भव्य प्रेम” की श्रेणी में रखते हैं और इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली।   

4-भगवान श्रीकृष्ण ने शरद् पूर्णिमा की धवल रात्रि में व्रजगोपियों के संग रासलीला की थी और अपनी योगमाया से इस रात्रि को छ: माह के बराबर कर दिया था अर्थात् यह रासलीला लौकिक सृष्टि के स्तर से ऊपर थी। इस लीला में जीव और ईश्वर का मिलन वर्णित है

4-भगवान श्रीकृष्ण ने शरद् पूर्णिमा की धवल रात्रि में व्रजगोपियों के संग रासलीला की थी और अपनी योगमाया से इस रात्रि को छ: माह के बराबर कर दिया था अर्थात् यह रासलीला लौकिक सृष्टि के स्तर से ऊपर थी। इस लीला में जीव और ईश्वर का मिलन वर्णित है।

5-सोलह कलाओं से परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मुख्यत: आनंद प्रधान माना जाता है। उनके आनंद भाव का पूर्ण विकास उनकी मधुर रस लीला में हुआ है। यह मधुर रस लीला उनकी दिव्य रास क्रीड़ा है , जो श्रृंगार और रस से पूर्ण होते हुए भी इस स्थूल जगत के प्रेम व वासना से मुक्त है। 

6-इस रासलीला में वे अपने अंतरंग विशुद्ध भक्तों (जो उनकी निज रसरूपा राधा की सोलह हजार कायरूपा गोपियां हैं) के साथ शरत् की रात्रियों में विलास करते हैं। कृष्ण की इस रासलीला में दो धाराएं हैं , जो दोनों ओर से आती हैं और एकाकार हो जाती हैं। हर क्षण नया मिलन , नया रूप , नया रस और नई तृप्ति- यही प्रेम-रस का अद्वैत स्वरूप है और इसी का नाम रास है।

7-भगवान के साथ रासलीला के लिए जीवात्मा का दिव्य शरीर और दिव्य मन होना अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में ,इस मधुर रस लीला में शुद्ध जीव का ब्रह्म से विलासपूर्ण मिलन है ,जिसमें लौकिक प्रेम व काम अंशमात्र भी नहीं है। शुद्ध जीव का अर्थ है- माया के आवरण से रहित जीव। ऐसे जीव का ही ब्रह्म से मिलन होता है

barha peedam natavara vapu :क्या है महारास का रहस्य;-

03 FACTS;-

1-मार्गदर्शक चिंतन-शरद पूर्णिमा वह पावन दिवस जब भगवान श्रीकृष्ण ने वृन्दावन में असंख्य गोपिकाओं के साथ "महारास" रचाया था। शास्त्रों में कहा गया कि परमात्मा रसस्वरूप है अथवा जो रस तत्व है, वही परमात्मा है।

2-श्रीकृष्ण द्वारा उसी आनंद रूप रस का गोपिकाओं के मध्य वितरण ही तो "रास" है। यानि एक ऐसा महोत्सव जिसमें स्वयं ब्रह्म द्वारा जीव को अपने ब्रह्म रस में डुबकी लगाने का अवसर प्रदान किया जाता है। जीवन के अन्य सभी सांसारिक रसों का त्याग कर जीव द्वारा ब्रह्म के साथ ब्रह्मानन्द के आस्वादन का सौभाग्य ही "महारास" है

3-काम तभी तक जीव को सताता है जब तक जीव जगत में रहे, जगदीश की शरण लेते ही उसका काम स्वतः गल जाता है। अतः "महारास" जीव और जगदीश का मिलन ही है। इसीलिए श्रीमद् भागवत जी में कहा गया कि जो 'काम' को मिटाकर 'राम' से मिला दे, वही "महारास" है

barha peedam natavara vapu :रास क्या है?-

03 FACTS;-

1-रास क्या है? यह है श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के स्वरूपानन्द का वितरण। ‘रास’ शब्द का मूल ‘रस’ है। ‘रस’ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं। परन्तु बिना योगमाया के रास नहीं हो सकता क्योंकि रस को अनेक बनाकर ही रास हो सकता है। रस के समूह को रास कहते हैं।

2-जिस दिव्य लीला में एक ही रस अनेक रसों के रूप में प्रकट होकर अनन्त-अनन्त रस का वितरण करे, उसी का नाम ‘रास’ है। रास चिदानन्दमय भगवान के स्व-स्वरूप-वितरण की मधुर लीला है, जिसके भोक्ता-भोग्य दोनों स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही होते हैं।

3-हनुमानप्रसादजी पोद्दार के अनुसार;-

आस्वादक आस्वाद्य न दो थे, था मधुमय लीला-संचार।

था यह एक विलक्षण पावन परम प्रेमरस का विस्तार।।

मधुर परम इस रस-सागर में गोपीजन का ही अधिकार।

परम त्याग का मूर्त रूप लख जिन्हें किया हरि ने स्वीकार।

barha peedam natavara vapu :गोपियां कौन थीं?-

06 FACTS :-

1-जब ऋषि मुनि हजारों वर्षों तक तपस्या और ब्रह्म चिंतन करते रहने पर भी मन में बसे काम को न मार सके तो उस काम को भी ‘श्रीकृष्णार्पण’ करने की इच्छा से गोपियां का अवतार लेकर गोकुल में आ बसे। इनमें साधन सिद्धा, ऋषि रूपा, श्रुति रूपा, स्वयं सिद्धा, अन्य पूर्वा, अनन्य पूर्वा आदि कई प्रकार की गोपियां थीं।

2-सांसारिक भोगों का उपभोग करने के पहले ही जिसे वैराग्य आ जाता है, वह अनन्यपूर्वा गोपी है। संसार के सभी सुखों का मन से त्याग करके ईश्वर से मिलने के लिए गोपी की भांति निकल पड़ने वाले को ही ईश्वर का सांनिध्य प्राप्त होता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण भी गोपियों का स्वागत कर उन्हें ‘महाभागा’ कहते हैं–‘स्वागतं वो महाभागा:’।

3-भगवान श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान हैं, पूर्ण परब्रह्म के अवतार हैं और सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हैं। भगवान के समान गोपियां भी सच्चिदानन्दमयी हैं। उनके हृदय में श्रीकृष्ण को तृप्त करने वाला प्रेमामृत है।

4-ब्रह्मा, शंकर, उद्धव और अर्जुन–जिन्होंने गोपियों को पहिचाना है, उन्होंने गोपियों की चरणधूलि प्राप्त करने की अभिलाषा की व गोपियों की उपासना करके भगवान के चरणों में प्रेम का वरदान प्राप्त किया।

5-देव, गन्धर्व, किन्नर तथा नारद आदि ने भी आकाश से एवं महादेवजी ने स्वयं गोपी बनकर गोपीश्वर महादेव के रूप में वंशीवट पर वृन्दावन में रासलीला में प्रवेशकर महारास को अपने तीनों नेत्रों से निहारा है। आज भी श्रीगोपीश्वर महादेव के रूप में निहार रहे हैं।

6-विभिन्न विद्वानों ने श्रीकृष्ण को वेद-पुरुष एवं व्रजगोपियों को उनकी ऋचाओं के रूप में स्वीकारते हुए रासलीला को वेद के विस्ताररूप में देखा है।

barha peedam natavara vapu :रासलीला का आध्यात्मिक रहस्य :-

13 FACTS;-

1-माया के आवरण से रहित शुद्ध जीव का ब्रह्म के साथ विलास ही ‘रास’ है। गोपियों के वासना और अज्ञान के आवरण को हटाने के लिए श्रीकृष्ण ने महारास से पूर्व ‘चीरहरण’ लीला की थी। जीवात्मा का परमात्मा के सामने कोई पर्दा नहीं रह सकता। पर्दा माया में ही है। पर्दा होने से वासना और अज्ञान आत्मा को ढक देते हैं और परमात्मा को दूर करते हैं।

2-चीर-हरण से गोपियों का उक्त मोह भंग हुआ। जीव का ब्रह्म से मिलन सहज नहीं होता। चीरहरण लीला द्वारा श्रीकृष्ण ने गोपियों के वासना और अज्ञान रूपी वस्त्रों के आवरण को हटा दिया और शुद्ध-बुद्ध गोपियों के साथ महारास किया। पति के वियोग में छटपटाती पत्नी की भांति जब जीव ईश्वर के वियोग में छटपटाता है, तभी जीव को ईश्वर मिलते हैं

3-भगवान श्रीकृष्ण ने व्रज में जो वेणुवादन किया तो उसकी ध्वनि दिव्य लोकों में पहुंचकर वहां के देवताओं को भी स्तम्भित कर देती है किन्तु रासलीला की बांसुरी तो ईश्वर से मिलनातुर अधिकारी जीव गोपी को ही सुनाई देती है।

4-वंशी-ध्वनि क्या थी? यह भगवान का आह्वान था। जो अपनी समस्त इन्द्रियों के द्वारा केवल भक्तिरस का ही पान करे, वही गोपी है। ‘स्त्रीत्व’ तथा ‘पुरुषत्व’ की विस्मृति होने के बाद ही गोपीभाव जागता है। शुद्ध गोपीभाव जागने के बाद ही रास की वंशी का स्वर कानों में सुनाई देने लगता है। इसी कारण वेणुनाद एवं रास की अधिकारिणी गोपियाँ ही हुईं।

5-गोपियों ने अपना मन श्रीकृष्ण में मिला दिया था। अत: भगवान श्रीकृष्ण की योगमाया ने रासलीला के लिए गोपियों के दिव्य मन, दिव्य स्थल की सृष्टि की।

6-अगर रासलीला लौकिक श्रृंगारलीला होती को गोपियां सज-धज कर जातीं परन्तु यहां तो भगवान का आह्वान सुनकर उन्हें जगत भूल गया। उन्होंने उल्टे-सीधे वस्त्र पहन लिए। उनका विचित्र श्रृंगार हो गया। गोविन्द ने उनके मन को हर लिया था

7-भगवान हैं बड़े लीलामय। उन्हीं की इच्छा से, उन्हीं की वंशी के प्रेमाह्वान पर देह का भान भूली गोपियां जब भगवान के पास पहुंचती हैं तो उन्होंने ऐसी भाव-भंगिमा प्रकट की मानो उन्हें गोपियों के आने का कुछ पता ही न हो और वे उनसे पूछते हैं–’गोपियो! व्रज में कोई विपत्ति तो नहीं आई, घोर रात्रि में यहां आने का कारण क्या है? मेरे पास क्यों आयी हो? पतिसेवा और संतानसेवा करो, वहीं तुम्हें सुख मिलेगा। मैं सुख नहीं केवल आनन्द ही दे सकता हूँ।’

8-भगवान जीव को संसार में लौटाते हैं, प्रलोभन देते हैं, मायाजाल में फंसाते हैं।रास-शिरोमणि श्रीकृष्ण गोपियों को स्त्री धर्म समझाते हैं। गोपियां जानतीं थीं कि श्रीकृष्ण योगेश्वर, अन्तर्यामी, पूर्णब्रह्म हैं। गोपियां उसका उत्तर देती हैं–’आप ही हमारे सच्चे पति हैं। जब हमें साक्षात् परमात्मा मिल गए तो लौकिक पति से क्या लेना-देना? अब हमारे लिए स्त्री-धर्म पालन करने की आवश्यकता ही नहीं है।

9-गोपियां आगे कहती हैं–’हे गोविन्द! हमारे पांव आपके चरण-कमलों को छोड़कर एक पग भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं, हम व्रज को लौटें तो कैसे? हमारा मन आपमें ही रमा हुआ है। हम आपके स्वरूप में तदाकार होना चाहती हैं।’

10-गोपियों ने अपने हृदय में जिस विशुद्ध प्रेमामृत को भर रखा था, उस प्रेमामृत की चाह पूर्णकाम भगवान को हो गई। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि गोपियों का प्रेम सच्चा है, ये शुद्ध भाव से मुझसे मिलने आईं हैं, अत: उन्होंने उन्हें अपना लिया।

11-गोपियों ने भगवान को प्रेमामृत दिया। गोपियों ने भगवान को सुखी देखा तो उनको परम सुख हुआ और भगवान ने गोपियों को सुखी देखा तो भगवान को परम सुख हुआ। ‘एक-दूसरे को सुखी बनाकर सुखी होना’–इसी का नाम ‘रास’ है। यह रासलीला त्याग की पराकाष्ठा का रूप बताने वाली है।

12-श्रीकृष्ण ने एक साथ अनेक रूप धारण किए। जितनी गोपियां थीं, उतने स्वरूप बना लिए और प्रत्येक गोपी के साथ एक-एक स्वरूप रखकर रासलीला आरम्भ की। हजारों जन्मों की तपस्या के फलस्वरूप विरही जीव आज ईश्वरमय हो गया। गोपियां श्रीकृष्णमय और भगवन्मय हो गयीं। सभी हाथों से हाथ मिलाकर नाचने लगे। रास में साहित्य, संगीत और कला (नृत्य) का समन्वय हुआ है।

13-गोपियां आनन्दातिरेक में नाच रहीं थीं। उन्हें देखकर श्रीकृष्ण ने भी ताल का अनुसरण करते हुए नाचना शुरु कर दिया। ब्रह्म से जीव का मिलन हुआ। जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकार-भाव से अपनी परछाई के साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान श्रीकृष्ण ने व्रजसुन्दरियों के साथ विहार किया। न कोई जड शरीर था और न प्राकृत अंग-संग। भगवान श्रीकृष्ण की इस चिदानन्द रसमयी दिव्य क्रीडा का नाम ही रास है।

barha peedam natavara vapu :ब्रह्माजी, देवर्षि नारद एवं रासलीला : -

04 FACTS;-

1-महारास देखते हुए ब्रह्माजी संशकित हुए कि इस प्रकार परायी नारियों से लीला करना शास्त्र-मर्यादा का उल्लंघन है। वे यह नहीं समझ सके कि प्रेम का रास , विलास नहीं , धर्म का फल है , यानी प्रेम का फल है। कृष्ण ने अचानक सभी सोलह हजार गोपियों को अपना स्वरूप दे दिया और सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण दिखाई देने लगे। गोपियां हैं कहां ?

2-भगवान श्रीकृष्ण ने एक और लीला रची–श्रीकृष्ण ने सभी गोपियों को अपना स्वरूप दे दिया। अब तो सब जगह कृष्ण-ही-कृष्ण दिखायी दे रहे थे। गोपियां थीं ही नहीं। महारास प्रेम का अद्वैत स्वरूप है , जिसमें भगवत् स्वरूप हो जाने के बाद जीव का स्वत्व नहीं रहता ।सभी पीताम्बरधारी कृष्ण हैं और एक-दूसरे से रास खेल रहे हैं।अब श्रीकृष्ण के साथ श्रीकृष्ण की क्रीड़ा हो रही है।शुद्ध जीव अब ब्रह्म बन गया है। ब्रह्म का ब्रह्म के साथ विलास करने का नाम रास है।

3-ब्रह्माजी ने मान लिया कि यह स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं है; यह तो अंश और अंशी का मिलन है। श्रीकृष्ण गोपीरूप हो गए हैं और गोपियां श्रीकृष्णमय हो गयीं। कृष्णरूप (ब्रह्मरूप) हो जाने के बाद गोपी (जीव) का अस्तित्व कहां रहा?

4-महारास के समय नारदजी वहां आए और अंदर जाने लगे तो सखियों ने उन्हें रोक दिया। नारदजी सोचने लगे कि यदि मैं ब्रह्मा का पुत्र न होकर गोपी होता तो मुझे भी आज परमात्मा का आलिंगन प्राप्त होता। वे ‘राधे-राधे’ कहकर रोने लगे। श्रीराधा को उन पर दया आ गई और उन्हें महारास में प्रवेश की आज्ञा मिल गयी। नारदजी ने राधाकुण्ड में स्नान किया तो उनमें अलौकिक गोपीभाव जाग्रत हो गया और नई नारदी गोपी बनकर परमात्मा श्रीकृष्ण की अलौकिक लीला के साक्षी बने

barha peedam natavara vapu :रासलीला : काम-विजय लीला या `मदन मान-भंग लीला' :-

04 FACTS;-

1-भगवान श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार ब्रह्माजी का गर्व ‘गो-वत्स हरण लीला’ करके, अग्नि का गर्व ‘दावानल-पान लीला’ करके और इन्द्र का गर्व ‘गोवर्धन-धारण लीला’ करके नष्ट किया, उसी प्रकार उन्होंने रासलीला करके कामदेव का गर्व नष्ट किया।

2-यह रासलीला काम के पराभव के लिए हुई है।कामदेव ने जब सब देवताओं को वश में कर लिया तब उसको अभिमान हो गया और उसने भगवान को भी पराजित करने का विचार किया।

3-कामदेव ने भगवान से कहा–’मेरी इच्छा है कि शरद् ऋतु की पूर्णिमा हो, मध्य रात्रि का समय हो उस समय आप स्त्रियों के साथ क्रीडा कीजिए। मैं आकाश में रहकर बाण मारूँ। यदि आपके मन में विकार पैदा हो, तो मैं ईश्वर होऊंगा।’ भगवान तो कन्दर्प-दर्पदलन हैं। श्रीकृष्ण विहार तो गोपियों के साथ कर रहे थे परन्तु उनका मन निर्विकार था।

4-अनेक प्रयत्न करने पर भी कामदेव भगवान श्रीकृष्ण को अपने अधीन न कर सका। भगवान ने मदन का पराभव किया अत: ‘मदनमोहन’ कहलाए। भगवान लौकिक काम को अलौकिक काम से मारते हैं।

barha peedam natavara vapu :रासलीला : कुछ महत्वपूर्ण तथ्य;-

04 FACTS;-

1-रासलीला में ब्रह्म ही ऋषियों से, गोपियों से, आह्लादिनी शक्ति से एवं जीवधारियों से मिल रहा है। इस प्रकार रासलीला में

(A) गोपी के शरीर से कुछ लेना-देना नहीं है।

(B) लौकिक काम का अंश भी नहीं है।

(C) रासलीला में किसी स्त्री को प्रवेश नहीं मिला है। उसमें तो शुद्ध जीव ही जा सकता है।

(D) यह जीव और ब्रह्म का मिलन है।

(E) रासलीला एक आनन्द प्रधान लीला है।

barha peedam natavara vapu :रासलीला पठन व श्रवण का महत्व;-

1-श्रीशुकदेवजी ने इस रासलीला के श्रवण का अपूर्व फल बतलाया है–’हृद्रोग व काम का नाश और प्रेमाभक्ति की प्राप्ति।’ इस रासलीला का चिन्तन करने से काम वासना नष्ट होती है।

2-हनुमानप्रसादजी पोद्दार

जो इस मधुर शुद्ध रस का किंचित् भी कर पाता आस्वाद।

दृश्य जगत् का मिटता सारा शोक-मोह-भय-लोभ-विषाद।।

होता कामरोग का उसके जीवन में सर्वथा अभाव।

राधा-माधव-चरण-रेणु-कण-करुणा से वह पाता ‘भाव’।।

मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है रासलीला। ईश्वर को प्राप्त किए बिना जीव को शान्ति नहीं मिल सकती। जीव ईश्वर के साथ एक हुआ नहीं कि मुक्त हो गया।

barha peedam natavara vapu :क्यों है भगवान कृष्ण का रंग नीला ?-

07 FACTS;-

1-“कृष्ण” का अर्थ;-“कृष्ण” संस्कृत के इस शब्द का प्रयोग ऐसे व्यक्ति के लिए किया जाता है जिसका रंग काला या श्याम हो। मूर्तियों में श्रीकृष्ण को काले वर्ण का दर्शाया जाता है वहीं तस्वीरों में उनकी देह को नीले रंग में प्रदर्शित किया जाता है।

2-ब्रह्म संहिता में श्रीकृष्ण के वर्ण को नीले बादलों के साथ छमछमाते हुए कहा गया है। कलाकृतियों में भी कृष्ण को नीले रंग का दर्शाया जाता है।श्रीकृष्ण के अलावा हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में शिव को भी नीले रंग में प्रदर्शित किया गया है। उन्हें नीलकंठ कहा गया है। शिव को नीलकंठ इसलिए कहा जाता है क्योंकि विषपान की वजह से उनका गला नीला हो गया था।

3-प्रेम के स्वरूप भगवान कृष्ण ने जीवन के अलग-अलग पहलुओं को बड़ी ही सहजता के साथ शब्द दिए हैं।धरती, पाताल, अंतरिक्ष, कोई भी लोक हो, कृष्ण अपनी मौजूदगी हर जगह दर्ज करवाते हैं। कृष्ण का तो अर्थ ही होता है सबसे अधिक आकर्षक।

4-शायद यही वजह है कि कृष्ण भले ही अपने किसी भी स्वरूप में क्यों ना हों, एक बार जो उन्हें देख ले वह अपनी नजर उनसे हटा ही नहीं पाता।लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि कृष्ण को हमेशा नीले रंग में ही क्यों दर्शाया गया है? आखिर कृष्ण के इस नीले रंग का रहस्य क्या है?

5-कृष्ण के इस नीले रंग के पीछे अलग-अलग सिद्धांत मौजूद हैं जिनमें से एक के अनुसार विष्णु का संबंध पानी से है इसलिए उन्होंने जितने भी अवतार लिए, जिनमें से कृष्ण भी एक हैं, उनका रंग भी नीला है।हिन्दू धर्म में उन सभी किरदारों को नीले रंग में प्रस्तुत किया गया है, जिनके पास बुराई से लड़ने की ताकत होती है ।

7-कृष्ण के नीले रंग के पीछे एक और मान्यता यह भी है कि प्रकृति ने अपनी रचनाओं में से ज्यादातर को (अनन्त को) नीला रंग दिया है, जैसे सागर, आकाश, आसमान। इसलिए ऐसा व्यक्ति जिसके भीतर स्थिरता, धैर्य, शीतलता, साहस, समर्पण जैसी भावनाएं हैं उसे भी नीले रंग के रूप में ही देखा जाता है। ये सभी गुण कृष्ण के भीतर मौजूद हैं।

barha peedam natavara vapu :क्या वास्तव में श्रीकृष्ण की 16 हजार 108 पत्नियां थी?-

04 FACTS :-

1-कृष्ण का अर्थ हैं अंधकार में विलीन होने वाले, सम्पूर्ण को अपने में समा लेने वाला। इसी भांति राधा शब्द भी धारा का उल्टा है। जहां धारा किसी स्रोत से बाहर आती है वहीं राधा का अर्थ है वापिस अपने स्रोत में समाना। यही कारण है कि राधाकृष्ण युगल को हिंदू धर्मों में शिव-पार्वती जैसी पवित्र भावना के साथ देखा जाता है। राधाकृष्ण वस्तुत कोई युगल (दो भिन्न स्त्री-पुरुष) है ही नहीं, वरन स्वयं में ध्यानलीन होना ही है।

2-पिंगला,इड़ा और सुषुम्णा इन तीन नाडि़यों में से एक सुषुम्णा ही सर्वप्रमुख है,क्योंकि यह योगियों के लिए अत्यंत प्रिय है, क्योंकि यह उनके लिए परमपदरूप आश्रय को देने वाली है। अन्य जितनी भी नाडि़यां हैं, वे सब भी देह में ही स्थित रहती है। ये तीनों नाडि़यां कमल-तंतु के समान अधोमुख होकर स्थित रहती हैं। ये तीनों चंद्र, सूर्य और अग्नि रूपिणी हैं तथा शरीर के पृष्ठवंश अर्थात् मेरुदंड के आश्रय में अवस्थित हैं।

3-श्रीराधा इड़ा और श्री कृष्ण पिंगला हैं। परंतु राधाकृष्ण युगल रूप में सुषुम्णा में अवस्थित होते हैं।इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस परमपद -प्राप्ति की बात योगी व भक्तजन करते रहते हैं,वह शरीर में उपस्थित है

4-भागवतपुराण के अनुसार अष्ट (देह) प्रकृति के आठ सिद्धातों/सिद्धि के रूप को श्रीकृष्ण की पत्नियां कहा गया है यानि उन्होंने इन आठ पत्नियों से विवाह किया था, जोकि वास्तव में जीवन में अपनाए गए उनके आठ सिद्धांत थे. शेष 16 हजार रानियों से उन्होंने विवाह नहीं किया था लेकिन उन्हें श्रीकृष्ण की पत्नी होने का समान दर्जा दिया जाता है.

barha peedam natavara vapu :अष्ट सिद्धि क्या है?-

03 FACTS;-

1-सिद्धियाँ हजारों तरह की होती हैं उन्हें प्राप्त करने के तरीके अलग –अलग शास्त्रों में वर्णित हैं सिद्धियाँ गुण अनुसार सत् रज तम तीन तरह की होती हैं तमोगुण सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है रजोगुण सिद्धि काफी प्रयत्न से प्राप्त होती है और सतोगुणी सिद्धि ईश्वर की इच्छा से प्राप्त होती है

2-यहाँ आठ सतोगुणी मुख्य सिद्धियाँ का वर्णन किया जा रहा है। पंच तत्वों की स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थतत्व—ये पाँच अवस्थाएँ हैं। इन पर संयम करने से जगत् का निर्माण करने वाले पंचभूतों पर विजयलाभ प्राप्त होता है और प्रकृति वशीभूत हो जाती है

3-इससे अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, ईशित्व—ये अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

barha peedam natavara vapu :अष्ट सिद्धियाँ का वर्णन;-

1-अणिमा सिद्धि;-अपने को सूक्ष्म बना लेने की क्षमता ही अणिमा है. यह सिद्धि वह सिद्धि है, जिससे युक्त होकर व्यक्ति सूक्ष्म रूप धारण कर एक प्रकार से दूसरों के लिए अदृश्य हो जाता है. इसके द्वारा आकार में लघु होकर एक अणु रुप में परिवर्तित हो सकता है. अणु एवं परमाणुओं की शक्ति से सम्पन्न हो साधक वीर व बलवान हो जाता है. अणिमा की सिद्धि से सम्पन्न योगी अपनी शक्ति द्वारा अपार बल पाता है.

2-महिमा सिद्धि;-अपने को बड़ा एवं विशाल बना लेने की क्षमता को महिमा कहा जाता है. यह आकार को विस्तार देती है विशालकाय स्वरुप को जन्म देने में सहायक है. इस सिद्धि से सम्पन्न होकर साधक प्रकृति को विस्तारित करने में सक्षम होता है. जिस प्रकार केवल ईश्वर ही अपनी इसी सिद्धि से ब्रह्माण्ड का विस्तार करते हैं उसी प्रकार साधक भी इसे पाकर उन्हें जैसी शक्ति भी पाता है.

3-गरिमा सिद्धि;-

इस सिद्धि से मनुष्य अपने शरीर को जितना चाहे, उतना भारी बना सकता है. यह सिद्धि साधक को अनुभव कराती है कि उसका वजन या भार उसके अनुसार बहुत अधिक बढ़ सकता है जिसके द्वारा वह किसी के हटाए या हिलाए जाने पर भी नहीं हिल सकता .

4-लघिमा सिद्धि;-

स्वयं को हल्का बना लेने की क्षमता ही लघिमा सिद्धि होती है. लघिमा सिद्धि में साधक स्वयं को अत्यंत हल्का अनुभव करता है. इस दिव्य महासिद्धि के प्रभाव से योगी सुदूर अनन्त तक फैले हुए ब्रह्माण्ड के किसी भी पदार्थ को अपने पास बुलाकर उसको लघु करके अपने हिसाब से उसमें परिवर्तन कर सकता है.

5-प्राप्ति सिद्धि;-

कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता इस सिद्धि के बल पर जो कुछ भी पाना चाहें उसे प्राप्त किया जा सकता है. इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक जिस भी किसी वस्तु की इच्छा करता है, वह असंभव होने पर भी उसे प्राप्त हो जाती है. जैसे रेगिस्तान में प्यासे को पानी प्राप्त हो सकता है या अमृत की चाह को भी पूरा कर पाने में वह सक्षम हो जाता है केवल इसी सिद्धि द्वारा ही वह असंभव को भी संभव कर सकता है.

6-प्राकाम्य सिद्धि;-

कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता प्राकाम्य सिद्धि की प्राप्ति है. इसके सिद्ध हो जाने पर दूसरों के मन के विचार आपके अनुरुप परिवर्तित होने लगते हैं. इस सिद्धि में साधक अत्यंत शक्तिशाली शक्ति का अनुभव करता है. इस सिद्धि को पाने के बाद मनुष्य जिस वस्तु कि इच्छा करता है उसे पाने में कामयाब रहता है. व्यक्ति चाहे तो आसमान में उड़ सकता है और यदि चाहे तो पानी पर चल सकता है.

7-ईशिता सिद्धि;-हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना ही इस सिद्धि का अर्थ है. इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक समस्त प्रभुत्व और अधिकार प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है. सिद्धि प्राप्त होने पर अपने आदेश के अनुसार किसी पर भी अधिकार जमाया जा सकता है. वह चाहे राज्यों से लेकर साम्राज्य ही क्यों न हो. इस सिद्धि को पाने पर साधक ईश रुप में परिवर्तित हो जाता है.

8-वशिता सिद्धि;-जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता को वशिता या वशिकरण कही जाती है. इस सिद्धि के द्वारा जड़, चेतन, जीव-जन्तु, पदार्थ- प्रकृति, सभी को स्वयं के वश में किया जा सकता है. इस सिद्धि से संपन्न होने पर किसी भी प्राणी को अपने वश में किया जा सकता है.

barha peedam natavara vapu :अष्ट (देह) प्रकृति क्या हैं.? -

11 FACTS;-

1-जैसे अंकों में ज्ञान को एक संख्या में बोलना हो तो १०८ कह दीजिये संपूर्ण ज्ञान इस 108 में है। १०८ का मतलब हुआ 8 जो ईकाई के स्थान पर है, '0' दहाई के स्थान पर है, 1 सैकड़ा के स्थान पर है। दहाई 8 का मतलब हुआ अष्टधा प्रकृति ये जो पाँच पदार्थ है आकाश, वायु, अग्नि, जल, थल ये पञ्च महाभूत हो गए। और मन, बुद्धि, अहंकार। ये अष्टधा प्रकृति भी कहलाती है..1- पृथ्वी, 2- जल /आप, 3- अग्नि 4- वायु 5-आकाश 6-मन 7-बुद्धि 8-अहंकार.

2-गीता में इसको इसको अष्टधा प्रकृति कहा गया है। तो इस आठ '8 ' का अर्थ हो गया प्रकृति। सारा ब्रह्माण्ड। आठ (8) का अर्थ, संकेत है सारा ब्रह्माण्ड। '0' का अर्थ है आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म जो निराकार है। उस निराकार त्मा-ईश्वर-ब्रह्म का संकेत '0' है, और जो परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म है उसका संकेत '1' है

3-तो इस '108 ' का मतलब था सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण ज्ञान। प्रकृतिस्थ का ज्ञान, आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का ज्ञान और परमात्मा-परमेश्वर का ज्ञान..., तीनों ज्ञान स्थित हो जिनमें उसकी टाइटिल 108  है।

4-वैदिक काल के महान् मनीषियों ने जगत् की उत्पत्ति पर सूक्ष्म विचार करके यह बताया है कि जगत् जड़ पदार्थ (प्रकृति) और चेतनतत्त्व (पुरुष) के संयोग से उत्पन्न होता है। उनके अनुसार पुरुष की अध्यक्षता में जड़ प्रकृति से बनी शरीरादि उपाधियाँ चैतन्ययुक्त होकर समस्त व्यवहार करने में सक्षम होती हैं।

5-एक आधुनिक दृष्टान्त से इस सिद्धांत को स्पष्ट किया जा सकता है। लोहे के बने वाष्प इंजिन में स्वत कोई गति नहीं होती। परन्तु जब उसका सम्बन्ध उच्च दबाब की वाष्प से होता है तब वह इंजिन गतिमान हो जाता है। केवल वाष्प भी किसी यन्त्र की सहायता के बिना अपनी शक्ति को व्यक्त नहीं कर सकती दोनों के सम्बन्ध से ही यह कार्य सम्पादित किया जाता है।

6-भारत के तत्त्वचिन्तक ऋषियों ने वैज्ञानिक विचार पद्धति से इसका वर्णन किया है कि किस प्रकार सनातन पूर्ण पुरुष प्रकृति की जड़ उपाधियों के संयोग से इस नानाविध सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ है।भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में प्रकृति का वर्णन करते हैं तथा अगले श्लोक में चेतन तत्त्व का। यदि एक बार मनुष्य प्रकृति और पुरुष ;जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट रूप से समझ ले तो वह यह भी सरलता से समझ सकेगा कि जड़ उपाधियों के साथ आत्मा का तादात्म्य ही उसके सब दुखों का कारण है।

7-स्वाभाविक ही इस मिथ्या तादात्म्य की निवृत्ति होने पर वह स्वयं अपने स्वरूप को पहचान सकता है जो पूर्ण आनन्दस्वरूप है। आत्मा और अनात्मा के परस्पर तादात्म्य से जीव उत्पन्न होता है। यही संसारी दुखी जीव आत्मानात्मविवेक से यह समझ पाता है कि वह तो वास्तव में जड़ प्रकृति का अधिष्ठान चैतन्य पुरुष है जीव नहीं।अर्जुन को जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण प्रथम प्रकृति के आठ भागों को बताते हैं जिसे यहाँ अष्टधा प्रकृति कहा गया है। इस विवेक से प्रत्येक व्यक्ति अपने शुद्ध और दिव्य स्वरूप को पहचान सकता है

8-आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी वे पंचमहाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार यह है अष्टधा प्रकृति जो परम सत्य के अज्ञान के कारण उस पर अध्यस्त (कल्पित) है। व्यष्टि (एक जीव) में स्थूल पंचमहाभूत का रूप है स्थूल शरीर तथा उनके सूक्ष्म भाव का रूप पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जिनके द्वारा मनुष्य बाह्य जगत् का अनुभव करता है।

9-ज्ञानेन्द्रियाँ ही वे कारण हैं जिनके द्वारा विषयों की संवेदनाएं मन तक पहुँचती हैं। इन प्राप्त संवेदनाओं का वर्गीकरण तथा उनका ज्ञान और निश्चय करना बुद्धि का कार्य है। इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण मन के द्वारा उनका एकत्रीकरण तथा बुद्धि के द्वारा उनका निश्चय इन तीनों स्तरों पर एक अहं वृत्ति सदा बनी रहती है जिसे अहंकार कहते हैं। ये जड़ उपाधियाँ हैं जो चैतन्य का स्पर्श पाकर चेतनवत् व्यवहार करने में समर्थ होती हैं।

10-इसके पश्चात् अपनी पराप्रकृति बताने के लिए भगवान् कहते हैं भगवान श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ थीँ । अष्टधा प्रकृति ही आठ पटरानियाँ हैँ । ईश्वर इन सभी प्रकृतियोँ के स्वामी हैँ । ये प्रकृतियाँ परमात्मा की सेवा करती हैँ ।

11-जीव प्रकृति के अधीन है । ईश्वर प्रकृति के अधीन नहीँ हैँ। जीव अष्टधा प्रकृति के वश मे आ जाता है , जबकि ईश्वर उनको अपने वश मेँ करते हैँ । प्रकृति अर्थात् स्वभाव । स्वभाव के अधीन होने के बदले स्वभाव को प्रकृति को वशीभूत करने वाला जीव सुखी हो जाता है , मुक्त हो जाता है ।

barha peedam natavara vapu :क्या सत्संग और भक्ति दोनों एक दूसरे के पूरक है?-

04 FACTS;-

1-प्रकृति और प्राण साथ साथ ही जाते हैँ । फिर भी यदि जप , ध्यान , सेवा , स्मरण , सत्संग . सत्कर्म किया जाय , सदग्रन्थों का अध्ययन किया जाय तो स्वभाव/चरित्र  सुधर सकता है ।

2-सत्संग का अर्थ है -- कृष्ण भक्तो का , साधु सन्तो का और सदग्रन्थों का संग ।सत्संग और भक्ति दोँनो एक दूसरे पूरक हैँ । सत्संग करने वाला यदि परमात्मा का भजन नहीँ करेगा तो उसका सत्संग निरर्थक ही रहेगा ।

3-पत्थर नर्मदाजी में हमेशा स्नान करता रहता है फिर भी वह पत्थर ही बना रहता है । इसी प्रकार कई मनुष्य कथा श्रवण तो करते हैँ किन्तु भक्तिमय न हो पाने के उनका जीवन सुधर नहीँ पाता है।

4-पहले अपने मन को सुधारो/ एकाग्रता का अभ्यास / मन को वश में करो - फिर जगत को सुधारो । अपने चारित्र्य से यदि अपनी आत्मा को सन्तोष मिले . तभी मानो कि तुम्हारा स्वभाव/चरित्र निर्मित हुआ है , या सुधरा है। कथा श्रवण करने पर श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम न जागे , पाप की ओर घृणा न जागे , धर्म की ओर अभिमुखता न हो पाए तो मान लो कि तुमने कथा सुनी ही नहीँ है। कथा कहती है पापकर्मो का त्याग करो . और प्रभू से प्रेम बढ़ाओ ।

barha peedam natavara vapu :भगवान् कृष्ण की सोलह हजार रानियाँ ..क्या हैं पहेली?-

09 FACTS;-

1-भगवान् कृष्ण की सोलह हजार रानियाँ बताई जाती हैं। यों लौकिक दृष्टि से यह बात समझ से बाहर की है। महाभारत में उनकी एक-दो पत्नियों का ही वर्णन है। रुक्मिणी, सत्यभामा आदि ही उनकी धर्म-पत्नी हैं। सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से यह उचित भी था। फिर यह हजारों रानियाँ क्या हैं इस पहेली का हल भी उपरोक्त प्रकार का ही है। ईश्वरीय प्रयोजन में जो आत्मायें प्राणपण से जुट जाती हैं उसी में अपना आत्म-समर्पण कर देती हैं। वे आत्मा-परमात्मा की प्राण-प्रिय पत्नियों ही कहलायेगी।

2-पत्नी सम्बन्ध के साथ काम-क्रीड़ा और गोपनीयता का सम्बन्ध जुड़ जाने से सामाजिक क्षेत्र में वह रिश्ता अड़चन भरा और अचकचा-सा लगता है पर अध्यात्म चर्चा में इस प्रकार की कोई अड़चन नहीं है। आत्म-समर्पण और अभिन्न एकता की जो भावनात्मक स्थिति है उसकी तुलना लौकिक रिश्ते में पति-पत्नी भाव से ही मिलती-जुलती है। अन्य रिश्ते कुछ दूर पड़ जाते हैं। इसलिये सन्तों, सूफियों ने आत्मा और परमात्मा की एकता को प्रणय सूचक शब्दों में अनेक गीतों में गाया है।

3-कबीर का सुरतियोग, मीरा का प्रणय-योग एक उच्च आध्यात्मिक भूमिका है। उसमें जिस पति-पत्नी भाव की चर्चा की है वह सामान्य गृहस्थ पद्धति से असंख्य गुनी ऊँची वस्तु है। श्रीकृष्ण भगवान् की सोलह हजार रानियाँ उस अवतार की सहयोगिनी सोलह हजार प्रबुद्ध आत्मायें ही हैं।

4-इस प्रकार के विवाह में नर-नारी लिंग भेद अपेक्षित नहीं। सखी- सम्प्रदाय में पुरुष भी अपनी मनोभूमि को नारी जैसी मानकर पति रूप में ईश्वर की उपासना करते हैं। भक्ति-योग में ऐसे अनेक साधन-क्रम विद्यमान हैं। कृष्ण उपासना का क्रिया-कलाप तो बहुत करके इसी स्तर का है। नर भी उन्हीं गीतों को गाकर भाव-विभोर होते हैं जिन्हें नारियाँ अपने पति के सदर्भ में गा सकती हैं।

5-गोपी-कृष्ण का प्रेम-प्रसंग प्रस्तुत नर-नारी भेद से असंख्य गुना ऊँचा है उसे विशुद्ध रूप से आत्मा-परमात्मा का मिलन बिन्दु ही कहा जा सकता है। कृष्णावतार के समय सहप्तों प्रबुद्ध आत्माओं ने परमात्मा के अभीष्ट प्रयोजन में आत्म-समर्पण करके जो महारास रचाया उसी से अवतार का उद्देश्य पूर्ण हो सका। साथी-सहचरों के बिना अकेले कृष्ण आखिर कर भी क्या सकते थे ?

6-शरीर (Hand) से हृदय (Heart)  का महत्व बहुत अधिक है। जीवन का श्रेय उसी को है, पर सहस्रों नाड़ियों द्वारा उसे रक्त अर्पण करने का जो प्रेम-योग साधा जाता है उसी आधार पर शरीर जीवित है। समुद्र इसीलिये नहीं सूखता कि सहस्रों नदियाँ इनमें अपना योगदान अर्पित करती हैं। चक्रवर्ती शासक (Heart) वही कहलाता है जिसमें सहस्रों राजा एक महाछत्र के नीचे प्रकाशित होते हैं। इसी एकीकरण के लिये प्राचीन काल में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन होता था। उन्हें राजनैतिक महारास कहना चाहिये।

7-भागवतपुराण के अनुसार ये 16 हजार स्त्रियां वास्तव में राजकुमारियां थी. जिन्हें नारकासुर नाम के राक्षस ने विवाह के उद्देश्य से बंदी बना रखा था. श्रीकृष्ण ने नारकासुर से युद्ध करके इन राजकुमारियों को मुक्त करवाया था. लेकिन एक असुर के महल में इतने समय तक रहने के कारण समाज में कोई भी उन्हें अपनाने को तैयार नहीं था और न ही कोई राजकुमार उनसे विवाह करना चाहता था.

8-सभी जीवों को सप्रेम अपनाने वाले श्रीकृष्ण ने इन 16 हजार रानियों को अपनाकर उनसे विवाह किया और उनके लिए एक बहुत विशाल महल का निर्माण करवाया. जिसमें वो सुख-शांति से रहती थी.

9-वेदों और ऋषि रचनाओं की माने तो भगवान श्री कृष्ण की 16100 रानियां वेदों की ऋषिचाएं माना जाता है. चारों वेदों में लगभग एक लाख श्लोक हैं जिनमें से 80 हजार श्लोक यज्ञ के हैं और बाकी के 4000 श्लोक पराशक्तियों के हैं. बाकी बचे 16000 लोग गृहस्थी या आम लोगों की रचनाएं हैं (जो भगवान के भक्त रह चुके हैं). शायद इसीलिए जनसामान्य के लिए ऋचाओं को ही भगवान की रानियां माना जाता है.

[साभार : https://www.facebook.com/IndianMeditation/] 

9. बुद्ध अवतार : दैत्यो की शक्ति को कम करने के लिए। भगवान विष्णु के 9वे अवतार  बुद्ध को माना गया है।  बौद्ध धर्म संसार के चार बड़े धर्मों में से एक है।  इनके पिता का नाम राजा शुद्धोधन था। इनका जन्म क्षत्रिय कुल के शाक्य वंश में हुआ था। पनी शादी के बाद बच्चे राहुल और अपनी पत्नी यशोधरा को छोड़ कर गृहस्त जीवन का त्याग कर संसार को मोह माया और दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग पर निकल पड़े थे। 

10. कल्कि अवतार : इन का अवतार कलियुग या सतयुग के संधिकाल में होगा।  

पहले तीन अवतार, अर्थात् मत्स्य, कूर्म और वराह प्रथम महायुग में अवतीर्ण हुए। पहला महायुग सत्य युग या कृत युग है। नरसिंह, वामन, परशुराम और राम दूसरे अर्थात् त्रेतायुग में अवतरित हुए। कृष्ण और वेंकटेश्वर द्वापर युग में अवतरित हुए। इस समय चल रहा युग कलियुग है और भागवत पुराण की भविष्यवाणी के आधार पर इस युग के अंत में कल्कि अवतार होगा। इससे अन्याय और अनाचार का अंत होगा तथा न्याय का शासन होगा जिससे सत्य युग की फिर से स्थापना होगी। 

कुछ धार्मिक समूहों की मान्यता के अनुसार कृष्ण ही परमात्मा हैं और दशावतार कृष्ण के ही दस अवतार हैं; अतः उनकी सूची में कृष्ण नहीं बल्कि उनके स्थान पर बलराम होते हैं। कुछ लोग बलराम को एक अवतार मानते हैं, बुद्ध को नहीं। सामान्यतः बलराम को आदिशेष (विष्णु के विश्राम के आधार) का अवतार माना जाता है। कुछ लोग अवतारों के क्रम को विकासवादी डार्विन के सिद्धान्त से जोड़ते हैं। इस विचार के अनुसार अवतार जलचर से भूमिवास की ओर बढ़ते क्रम में हैं; फिर आधे जानवर से विकसित मानव तक विकास का क्रम चलते गया है। इस प्रकार दशावतार क्रमिक विकास का प्रतीक या रूपक की तरह है।

 कठोलिक परंपरा में इसे ही जानने की दूसरी प्रक्रिया है जिसकी शिक्षा कठोनिषद् और तैत्तिरीय उपनिषद् आदि से प्राप्त होती है । कापालिक परंपरा में इतनी कठिनता नहीं है ।कापालिक परंपरा प्रवृत्ति-मार्ग है, कठोलिक परंपरा निवृत्ति मार्ग है । प्रवृत्ति मार्ग से वृत्ति परमेश्वर में लीन हो जाती है, निवृत्ति-मार्ग में अन्ततः अहंकार शेष रह जाता है जो परमेश्वर की कृपा से ही विलीन होता है ।

[भारतीय धरोहर : नाद-बिन्दु (Sound -Light)^उत्पत्ति का क्रम (evolution) और प्रलय की अवधारणा (dissolution)`वही राम घट घट में लेटा, उसी राम का जगत पसारा!'   

बिन्दुनाद : अरबों साल पहले ब्रह्मांड नहीं था, सिर्फ अंधकार था। अचानक एक बिंदु की उत्पत्ति हुई। फिर वह बिंदु मचलने लगा। फिर उसके अंदर भयानक परिवर्तन आने लगे। इस बिंदु के अंदर ही होने लगे विस्फोट। शिव पुराण मानता है कि नाद और बिंदु के मिलन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई। नाद अर्थात ध्वनि और बिंदु अर्थात प्रकाश। इसे अनाहत या अनहद (जो किसी आहत या टकराहट से पैदा नहीं) की ध्वनि कहते हैं जो आज भी सतत जारी है इसी ध्वनि को हिंदुओं ने ॐ के रूप में व्यक्त किया है। ब्रह्म प्रकाश स्वयं प्रकाशित है। परमेश्वर का प्रकाश। 'सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से साँस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।' -(ऋग्वेद) ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा- यह तीन तत्व हैं। ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ 'बढ़ना' या 'फूट पड़ना' होता है। ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है।- (उपनिषद) जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि नृत्यकार और नृत्य में कोई फर्क नहीं। जब तक नृत्यकार का नृत्य चलेगा, तभी तक नृत्य का अस्तित्व है, इसीलिए हिंदुओं ने ईश्वर के होने की कल्पना अर्धनारीश्वर के रूप में की जो नटराज है। इसे इस तरह भी समझें 'पूर्व की तरफ वाली नदियाँ पूर्व की ओर बहती हैं और पश्चिम वाली पश्चिम की ओर बहती है। जिस तरह समुद्र से उत्पन्न सभी नदियाँ अमुक-अमुक हो जाती हैं किंतु समुद्र में ही मिलकर वे नदियाँ यह नहीं जानतीं कि 'मैं अमुक नदी हूँ' इसी प्रकार सब प्रजा भी सत् (ब्रह्म) से उत्पन्न होकर यह नहीं जानती कि हम सत् से आए हैं। वे यहाँ व्याघ्र, सिंह, भेड़िया, वराह, कीट, पतंगा व डाँस जो-जो होते हैं वैसा ही फिर हो जाते हैं। यही अणु रूप वाला आत्मा जगत है।-(छांदोग्य) महाआकाश व घटाकाश :ब्रह्म स्वयं प्रकाश है। उसी से ब्रह्मांड प्रकाशित है। उस एक परम तत्व ब्रह्म में से ही आत्मा और ब्रह्मांड का प्रस्फुटन हुआ। ब्रह्म और आत्मा में सिर्फ इतना फर्क है कि ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश। घटाकाश अर्थात मटके का आकाश। ब्रह्मांड से बद्ध होकर आत्मा सीमित हो जाती है और इससे मुक्त या (Dehypnotized हो जाना) ही मोक्ष है

उत्पत्ति का क्रम (evolution) परमेश्वर से आकाश अर्थात जो कारण रूप 'द्रव्य' सर्वत्र फैल रहा था उसको इकट्ठा करने से अवकाश उत्पन्न होता है। वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि बिना अवकाश (खाली स्थान) के प्रकृति और परमाणु कहाँ ठहर सके और बिना अवकाश के आकाश कहाँ हो। अवकाश अर्थात जहाँ कुछ भी नहीं है और आकाश जहाँ सब कुछ है

 पदार्थ के संगठित रूप को जड़ (Matter) कहते हैं और विघटित रूप परम अणु (Atom) है, इस अंतिम अणु को ही वेद परम तत्व कहते हैं जिसे ब्रह्माणु भी कहा जाता है और श्रमण धर्म के लोग इसे पुद्‍गल कहते हैं। आकाश के पश्चात वायु, वायु के पश्चात अग्न‍ि, अग्नि के पश्चात जल, जल के पश्चात पृथ्वी, पृथ्वी से औषधि, औ‍षधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात शरीर उत्पन्न होता है।- (तैत्तिरीय उपनिषद)

 इस ब्रह्म (परमेश्वर) की दो प्रकृतियाँ हैं पहली 'अपरा' और दूसरी 'परा'। अपरा को ब्रह्मांड कहा गया और परा को चेतन रूप आत्मा। उस एक ब्रह्म ने ही स्वयं को दो भागों में विभक्त कर दिया, किंतु फिर भी वह अकेला बचा रहा। पूर्ण से पूर्ण निकालने पर पूर्ण ही शेष रह जाता है, इसलिए ब्रह्म सर्वत्र माना जाता है और सर्वत्र से अलग (न्यारा) भी उसकी सत्ता है। त्रिगुणी प्रकृति : परम तत्व से प्रकृति में तीन गुणों की उत्पत्ति हुई सत्व, रज और तम। ये गुण सूक्ष्म तथा अतिंद्रिय हैं, इसलिए इनका प्रत्यक्ष नहीं होता। ये गुण नहीं ब्रहांड या प्रकृति (शरीर) के निर्माणक तत्व (उपादान) हैं।  

प्रकृति से ही महत् उत्पन्न हुआ जिसमें उक्त गुणों की साम्यता और प्रधानता थी। सत्व शांत और स्थिर है। रज क्रियाशील है और तम विस्फोटक है। उस एक परमतत्व के प्रकृति तत्व में ही उक्त तीनों के टकराव से सृष्टि होती गई। सर्वप्रथम महत् उत्पन्न हुआ, जिसे बुद्धि कहते हैं। बुद्धि प्रकृति का अचेतन या सूक्ष्म तत्व है। महत् या बुद्ध‍ि से अहंकार

 व्यक्ति ~ जो व्यक्त हो रहा है सत्व, रज और तम में: अहंकार के भी कई उप भाग है। यह व्यक्ति का तत्व है। व्यक्ति अर्थात जो व्यक्त हो रहा है सत्व, रज और तम में। सत्व से मनस, पाँच इंद्रियाँ, पाँच कार्मेंद्रियाँ जन्मीं। तम से पंचतन्मात्रापंचमहाभूत (आकाश, अग्न‍ि, वायु, जल और ग्रह-नक्षत्र) जन्मे। 

इसे इस तरह समझें : उस एक परम तत्व से सत्व, रज और तम की उत्पत्ति हुई। यही इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटॉन्स का आधार हैं। इन्हीं से प्रकृति का जन्म हुआ। प्रकृति से महत्, महत् से अहंकार, अहंकार से मन और इंद्रियाँ तथा पाँच तन्मात्रा और पंच महाभूतों का जन्म हुआ। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं।

जब हम पृथ्वी कहते हैं तो सिर्फ हमारी पृथ्वी ही नहीं-समस्त ग्रह, नक्षत्र । प्रकृति के इन्हीं रूपों में सत्व, रज और तम गुणों की साम्यता रहती है। प्रकृति के प्रत्येक कण में उक्त तीनों गुण होते हैं। यह साम्यवस्था भंग होती है तो महत् बनता है। प्रकृति वह अणु है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता, किंतु महत् जब टूटता है तो अहंकार का रूप धरता है। 

अहंकारों से ज्ञानेंद्रियाँ, कामेद्रियाँ और मन बनता है। अहंकारों से ही तन्मात्रा भी बनती है और उनसे ही पंचमहाभूत का निर्माण होता है। बस इतना समझ लीजिए क‍ि महत् ही बुद्धि है। महत् में सत्व, रज और तम के संतुलन टूटने पर बुद्धि निर्मित होती है। महत् का एक अंश प्रत्येक पदार्थ या प्राणी में ‍बुद्धि का कार्य करता है।‍ बुद्धि से अहंकार के तीन रूप पैदा होते हैं- पहला सात्विक अहंकार जिसे वैकारी भी कहते हैं विज्ञान की भाषा में इसे 'न्यूट्रॉन' कहा जा सकता है। यही पंच महाभूतों के जन्म का आधार माना जाता है। दूसरा तेजस अहंकार इससे तेज की उत्पत्ति हुई, जिसे वर्तमान भाषा में `इलेक्ट्रॉन ' कह सकते हैं। तीसरा तामसिक अहंकार भूतादि है। यह पंच महाभूतों (आकाश, आयु, अग्नि, जल और पृथ्वी) का पदार्थ रूप प्रस्तुत करता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार इसे `प्रोटोन्स' कह सकते हैं

 इससे रासायनिक तत्वों के अणुओं का भार न्यूनाधिक होता है। अत: पंचमहाभूतों में पदार्थ तत्व इनके कारण ही माना जाता है। सात्विक अहंकार और तेजस अहंकार के संयोग से मन और पाँच इंद्रियाँ बनती हैं। तेजस और भूतादि अहंकार के संयोग से तन्मात्रा एवं पंच महाभूत बनते हैं। पूर्ण जड़ जगत प्रकृति के इन आठ रूपों में ही बनता है, किंतु आत्म-तत्व इससे पृथक है। इस आत्म तत्व की उपस्थिति मात्र से ही यह सारा प्रपंच होता है अब इसे इस तरह भी समझें : 'अनंत-महत्-अंधकार-आकाश-वायु-अग्नि-जल-पृथ्वी।' यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस ‍गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से ‍आच्छादित है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है। वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहाँ तक प्रकाशित होता है, वहाँ से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है। और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत् से घिरा हुआ है और महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। 

प्रलय की अवधारणा : [The concept of catastrophe, universal dissolution-Holocaust] : प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय ( सार्वभौमिक विघटन, सर्वनाश dissolution) है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं। पुराणों में प्रलय के चार प्रकार बताए गए हैं- नित्य, नैमित्तिक, द्विपार्थ और प्राकृत।प्राकृत ही महाप्रलय  है।

`अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्ति अहरागमे।

 रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्र एव अव्यक्तसंज्ञके ॥' 

(-भगवद्गीता-8.18)

अर्थात 'जब ब्रह्मा का दिन उदय होता है, तब सब कुछ अव्यक्त से व्यक्त हो जाता है और जैसे ही रात होने लगती है, सब कुछ वापस आकर अव्यक्त में लीन हो जाता है।' प्रजापति (ब्रह्मा)  के दिन में और रात्रि में जो कुछ होता है उसका वर्णन किया जाता है --, दिन के आरम्भकाल का नाम अहरागम है।  ब्रह्मा के दिन के आरम्भ काल में अर्थात् ब्रह्मा के प्रबोधकाल में अव्यक्त से -- प्रजापति की निद्रावस्था से समस्त व्यक्तियाँ, 'स्थावर-जङ्गम रूप समस्त प्रजाएँ ' उत्पन्न होती हैं -- प्रकट होती हैं। जो व्यक्त प्रकट होती है उसका नाम व्यक्ति है। तथा रात्रि के आने पर -- ब्रह्मा के शयन करने के समस्त उस पूर्वोक्त अव्यक्त नामक प्रजापति की निद्रावस्था में ही समस्त प्राणी लीन हो जाते हैं। (-भगवद्गीता-8.18)

सात लोक हैं : भूमि, आकाश और स्वर्ग, इन्हें मृत्युलोक कहा गया है, जहाँ उत्पत्ति, पालन और प्रलय चलता रहता है। उक्त तीनों लोकों के ऊपर महर्लोक है जो उक्त तीनों लोकों की स्थिति से प्रभावित होता है, किंतु वहाँ उत्पत्ति, पालन और प्रलय जैसा कुछ नहीं, क्योंकि वहाँ ग्रह या नक्षत्र जैसा कुछ भी नहीं है। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्य लोक तीनों अकृतक लोक कहलाते हैं। अर्थात जिनका उत्पत्ति, पालन और प्रलय से कोई संबंध नहीं, न ही वो अंधकार और प्रकाश से बद्ध है, वरन वह अनंत असीमित और अपरिमेय आनंदपूर्ण है। 

श्रेष्ठ आत्माएँ पुन: सत्यलोक में चली जाती हैं, बाकी सभी त्रैलोक्य में जन्म और मृत्य के चक्र में चलती रहती हैं। जैसे समुद्र का जल बादल बन जाता है, फिर बादल बरसकर पुन: समुद्र हो जाता है। जैसे बर्फ जमकर फिर पिघल जाती है।

[साभार http://viveksurange.blogspot.com/]

🔆🙏:`शीक्षा '  की वैदिक दृष्टि-तैत्तरीय उपनिषद : तैत्तरीय उपनिषद की `शीक्षा' प्राप्त करने से जब जगत को देखने दृष्टि ज्ञानमयी हो जाती है, तब हम होशपूर्वक जगत को देखना प्रारम्भ करते हैं। अर्थात विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से  मनोवृत्तियाँ आनन्दपूर्ण (mellow-Huh, हूहा -सुनिहुई बात,hearsay) हो जाती हैं, और हमें भी 'पंचभूतों के फंदे में फंस कर रोते हुए ब्रह्म ' दीखने लगते हैं तथा उनकी निःस्वार्थ सेवा करने की इच्छा मन में जाग्रत होती है, चित्त की उस अवस्था को भाव (mellowness-कोमलता, या मधुरता)  कहते हैं।

 [Vedic vision of education :Thawing of ice (हिमद्रवण) when the Sun rises. Training to concentrate the mind on the image of Vivekananda, that is, by receiving the 'shiiksha' of the Taittiriya Upanishad, when the vision of seeing the world becomes enlightened, then we begin to see the world consciously - then the attitudes become mellow Huh. Then we see the  Brahman weeping trapped in the noose of the five elements, and the desire to serve Him selflessly awakens in the mind, that state of mind is called mellowness-tenderness, or sweetness.

 👉माड़वाड़ी  -भजन :

मेरा अवगुण भरा शरीर,

कहो जी कैसे तारोगे मोरे राम। 

अंका तारे बंका तारे,तारे सदन कसाई,

सुवा पढ़ावत गणिका तारी, तारी  मीरा बाई। 

ध्रुव तारे प्रहलाद उबारे,और गजराज उबारे,

नरसिंह जी को भात भर्यो जद, रूप साँवरो धारे, 

कहो जी कैसे, कहो जी कैसे, तारोगे मेरे राम,

धन्ना भगत का खेत बचाया, नामकी छान छवाई,   

सेन भगत का सासा मेट्या,आप बने हरि नाई,

कहो जी कैसे, कहो जी कैसे,तारोगे मेरे राम,

मेरा अवगुण भरा शरीर।

काशी के हम वासी कहिये,नाम है मेरा कबीरा,

करनी करके पार उतर गया, जात परण कुल हीरा,

कहो जी कैसे, कहो जी कैसे,तारोगे मेरे राम,

मेरा अवगुण भरा शरीर।

[भगवान सालिग्राम का भक्त~ सदन कसाई :सदन भगवान श्री जगन्नाथ जी के परम भक्त थे। इनको बचपन से ही भगवन्नाम-जप और हरि कीर्तन प्रिय था। भगवान का नाम तो इनकी जीभ पर सदा ही नाचता रहता था। ये जाति से कसाई थे, फिर भी इनका हृदय दया से पूर्ण था। जीव-वध के नाम से ही इनका शरीर काँपने लगता था। आजीविका के लिये और कोई उपाय न होने से दूसरों के यहाँ से मांस लाकर बेचा करते थे, स्‍वयं अपने हाथ से पशु-वध नहीं करते थे। 

जाति पाँति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।।(साभार bhartdiscovery.org)

यह कहानी उस स्त्री की है जो पूर्वजन्म में एक गाय थी। इस गाय का मालिक कसाई था। एक दिन यह गाय अपना बंधन तोड़कर भाग चली। कसाई गाय का पीछा करता दौड़ रहा था।रास्ते में एक व्यक्ति ने उसे पकड़ लिया और गाय को कसाई के हवाले कर दिया। समय बीता और गाय ने दूसरा जन्म लिया।गाय को पकड़ने वाले ने भी लिया दूसरा जन्म। गाय एक स्त्री बनी और कसाई उसका पति। गाय को पकड़ने वाले का भी पुनर्जन्म हुआ और वह कसाई बना। इस कसाई का नाम था सदन। राजा ने दंड स्वरूप सदन के दोनों हाथ कटवा दिए। सदन अपने कटे हुए हाथों के साथ जगन्नाथ पुरी पहुंचा। यहां पहुंचने पर एक रात उसे सपने में आकर जगन्नाथ जी ने बताया कि तुमने पूर्वजन्म में गाय को पकड़कर कसाई को सौंप दिया था।गाय ने तुम्हें माफ नहीं किया और स्त्री के रूप में जन्म लेकर तुम्हें यह दंड दिया है। कहते हैं इसके बाद जगन्नाथ जी ने एक चमत्कार किया और सदन के दोनों हाथ वापस लौट आए। इस कथा का उल्लेख गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण पत्रिका के भक्तमाल अंक में किया किया गया है।

कसाई परिवार में जन्मे होने के कारण सदना मांस बेचते तो थे, परन्तु  भगवत भजन में बड़ी निष्ठा थी एक दिन सदना को नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा मिला। पत्थर अच्छा लगा इसलिए वह उसे मांस तोलने के लिए अपने साथ ले आए।वह इस बात से अंजान थे कि यह  वही शालिग्राम थे जिन्हें पूर्वजन्म में नित्य पूजते थे ।सदना कसाई पूर्वजन्म के शालिग्राम को इस जन्म में मांस तोलने के लिए बाँट ( तोल) के रूप में प्रयोग करने लगे।आदत के अनुसार सदना ठाकुरजी के भजन गाते रहते थे। ठाकुरजी भक्त की स्तुति का पलड़े में झूलते हुए आनंद लेते रहते।बाँट का कमाल ऐसा था कि चाहे आधा किलो तोलना हो, एक किलो या दो किलो सारा वजन उससे पक्का हो जाता।एक दिन सदना की दुकान के सामने से एक ब्राह्मण निकले, उनकी नजर बाँट पर पड़ी तो सदना के पास आए और शालिग्राम को अपवित्र करने के लिए फटकारा। उन्होंने कहा- मूर्ख, जिसे पत्थर समझकर मांस तौल रहे हो वे शालिग्राम भगवान हैं। ब्राह्मण ने सदना से शालिग्राम भगवान को लिया और घर ले आए। गंगा जल से नहलाया, धूप, दीप,चन्दन से पूजा की। ब्राह्मण को अहंकार हो गया जिस शालिग्राम से पतितों का उद्दार होता है आज एक शालिग्राम का वह उद्धार कर रहा है।रात को उसके सपने में ठाकुरजी आए और बोले- तुम जहां से लाए हो वहीँ मुझे छोड़ आओ, मेरे भक्त सदन कसाई की भक्ति में जो बात है वह तुम्हारे आडंबर में नहीं।

सबसे ऊँची प्रेम सगाई।

दुर्योधन की मेवा त्यागी, साग विदुर घर पाई॥

जूठे फल सबरी के खाये बहुबिधि प्रेम लगाई॥

प्रेम के बस नृप सेवा कीनी आप बने हरि नाई॥

राजसुयज्ञ युधिष्ठिर कीनो तामैं जूठ उठाई॥

प्रेम के बस अर्जुन-रथ हाँक्यो भूल गए ठकुराई॥

ऐसी प्रीत बढ़ी बृन्दाबन गोपिन नाच नचाई॥

सूर क्रूर इस लायक नाहीं कहँ लगि करौं बड़ाई॥

भावार्थ:- सूरदास जी कहते हैं कि परस्पर प्रेम का रिश्ता ही भगवान की दृष्टि में बड़ा रिश्ता है। अभिमान के साथ आदर देने वाले दुर्योधन की परोसी हुई मेवा को त्यागकर भगवान कृष्ण ने विदुर द्वारा प्रेम और आदर के साथ हरी पत्तियों से बनाया साग ग्रहण किया। प्रेम के वशीभूत राम ने शबरी नाम की भील स्त्री के जूठे बेर खाए थे। प्रेम के वशीभूत ही भगवान कृष्ण अपने भक्त नरसिंह मेहता के नाई अर्थात् संदेशवाहक बनकर गए थे। प्रेम के वशीभूत ही उन्होंने युधिष्ठिर द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ में जूठी पत्तलें स्वयं उठाई थीं। प्रेम के कारण ही महाभारत-युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन के रथ का सारथि बनना स्वीकार किया था। गोपियों के निष्काम-प्रेम के तो भगवान इतने वशीभूत हो गये कि उनके कहे अनुसार ही नाचते थे अर्थात् जैसा वह कहती थीं वैसा ही वे करते थे। सूरदास कहते हैं कि मेरा मन तो कठोर है, उसमें प्रेम नहीं है इसलिए मैं भगवान की प्रशंसा भी बहुत अधिक नहीं कर पाता हूँ।

 मारवाड़ :- ये क्षेत्र राजस्थान के पश्चिमी भाग में आता है। मारवाड़ की ऐतिहासिक राजधानी  जोधपुर रही है। जोधपुर राज्य की स्थापना 13 वीं शताब्दी में राजपूतों के राठौड़ वंश द्वारा की गई थी। मारवाड़ संस्कृत के मरूवाट शब्द से बना है जिसका अर्थ है मौत का भूभाग।  इसके अंतर्गत राजस्थान प्रांत के बाड़मेर, जोधपुर, पाली, जालोर और नागौर जिले आते हैं।

मेवाड़ :- ये क्षेत्र राजस्थान के दक्षिण मध्य भाग में आता है।  मेवाड़ मुस्लिम त्रिकोण (नागौर- गुजरात-मालवा) के बीच फंसा राजपूती राज्य था। एक समय में जब कुम्भा ने मालवा की राजधानी मांडू और गुजरात की राजधानी “अहमद नगर’ पर हमला किया तो दोनों मुस्लिम शासकों ने कुम्भा को “हिंदू-सुरत्राण” की उपाधि से नवाजा.बाद में कुम्भा के बेटे महाराणा सांगा ने जब खानवा में बाबर से युद्ध किया तो मारवाड ने मेवाड़ का बराबर साथ दिया।  इसके अलावा मारवाड़ और मेवाड़ दोनों में आपसी वैवाहिक संबंध भी स्थापित हुए थे। श्री कृष्ण की भक्ति में सबसे अग्रणी मीरा बाई का संबंध इन दोनों ही क्षेत्रों से रहा है। मीरा बाई का जन्म मारवाड़ के नागौर के मेड़ता तहसील के कुड़की गांव में हुआ और विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राजपरिवार के महाराजा भोजराज से हुआ।

राजस्थान के  वीरों ने “जीवन और मृत्यु” के -सवाल को बहुत पहले ही हल कर लिया था।  वे जीना  और मरना दोनों सीख गये थे । उनके लिये यह बायें हाथ का खेल था । महाराणा प्रताप (जन्म- 9 मई, 1540, राजस्थान, कुम्भलगढ़; मृत्यु- 19 जनवरी, 1597) उदयपुर, मेवाड़ में शिशोदिया राजवंश के राजा थे। वह तिथि धन्य है, जब मेवाड़ की शौर्य-भूमि पर मेवाड़-मुकुट मणि प्रताप का जन्म हुआ। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। महाराणा का वह निश्चय लोकविश्रुत है—भगवान एकलिंग की शपथ है, प्रताप के इस मुख से अकबर तुर्क ही कहलायेगा। मैं शरीर रहते उसकी अधीनता स्वीकार करके उसे बादशाह नहीं कहूँगा। सूर्य जहाँ उगता है, वहाँ पूर्व में ही उगेगा। सूर्य के पश्चिम में उगने के समान प्रताप के मुख से अकबर को बादशाह निकलना असम्भव है।

 यही कारण था कि मुसलमानों के दुर्दान्त धक्के को भी राजस्थान सह गया। आज मुगलों और पठानों के राजाओं के वंशज, इस संसार में यदि कहीं पर होंगे भी तो अपनी जिन्दगी की घटती के दिन किसी तरह पूरा कर रहे होंगे। पर महाराणा प्रताप की संतानें आज भी अपने उसी सिंहासन पर विराजमान हैं। संसार के इतिहासं में मेवाड़ के राजवंश से अधिक पुराना राजवंश खोजने से भी शायद ही मिले।अमर सिंह ने राणा प्रताप से पूछा कि इन कैद हुई मुस्लिम बेगमों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए तब राणा प्रताप ने जवाब दिया कि इनको पूरे सम्मान के साथ मुगलों के पास भेज दिया जाए। इस पर अमर सिंह ने दोबारा सवाल किया कि मुगलिया मुस्लिम सैनिकों ने हमेशा युद्ध जीतने के बाद हिंदू महिलाओं के साथ जबर जिना किया इस खौफ की वजह से ही चित्तौड़ की जंग में हजारों हिंदू महिलाओं ने जौहर भी किया था... फिर हम इन बेगमों को ससम्मान क्यों रिहा करें? इस पर महाराणा प्रताप ने जवाब दिया कि हम राजपूत हैं और राजपूत का सबसे बड़ा धर्म है महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान... अगर हम भी उनकी ही तरह हो जाएंगे तो आखिर हम हिंदुओं और मलेच्छों में क्या फर्क रह जाएगा? तब अमर सिंह ने अब्दुलरहीम खानखाना की सभी बेगमों को पूरे इज्जत और सम्मान के साथ मां-बहन का दर्जा देकर अकबर के कैंप में पहुंचा दिया।इस घटना का अब्दुलरहीम खानखाना के मन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वो महाराणा प्रताप के भक्त हो गए... अब्दुरहीम खानखाना की रचनाएँ हिन्दी-साहित्य-जगत में “रहीम" के नाम से प्रचलित हैं। महाराणा प्रताप की उदारता पर मुग्ध  होकर, अकबर के हित की परवाह किये बिना नवाब अब्दुल रहीम  खानखाना ने जो- कुछ कहा था वह अक्षरश: सत्य निकला  कि- 

ध्रम रहसी, रहसी धरा, खिस जासे खुरसाण। 

अमर विसंभर ऊपरै, राख नहंचो राण।। 

भावार्थ- 'धर्म रहेगा और पृथ्वी भी रहेगी, (पर) खुरसान वाला मुग़ल-साम्राज्य एक दिन अवश्य नष्ट हो जायगा। अत: हे राणा अमर सिंह ! 'विश्वम्भर' अर्थात संसार का पालन करने वाले भगवान एकलिंग के भरोसे अपने निश्चय को अटल रखना।'-अब्दुलरहीम खानखाना 

रहिमन विपदाहू भली, जो थोड़े दिन होय। 

'हित अनहित या जगत में, जानि पड़त सब कोय ॥ 

 रहिमन चुप हू बेठिये, देखि दिनन के फेर। 

जब नीके दिन आइहें, बंट न लगीहें देर ॥     ।

1. 👉 vivaah sanskaar : “क्यों जी, पैसा है ?"^ विवाह करोगे ? = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है - विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। हिंदू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह,  दो लोगों के बीच एक सामाजिक या धार्मिक मान्यता प्राप्त मिलन है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई- परिवार-का मूल है। यह मानव प्रजाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान जीवशास्त्री माध्यम भी है। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार (contract) होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है।  परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी क बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे कि किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे ले कर और 'ध्रुव तारा' को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिंदू मान्यताओं के अनुसार मानव जीवन को चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , सन्यास,  तथा वानप्रस्थ) में विभक्त किया गया है और गृहस्थ आश्रम के लिये पाणिग्रहण संस्कार अर्थात् विवाह नितांत आवश्यक है। 

 vivaah sanskaar ka aadhyaatmik lakshy : विवाह संस्कार का आध्यात्मिक लक्ष्य : हमारे पूर्वज ऋषियों ने भारतीय संस्कृति के अनुसार मानव जीवन के लिए चार पुरुषार्थ (जीवन की चार बुनियादी खोज) निर्धारित किये हैं। यानि हिंदू धर्म  के अनुसार जीवन के चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष निर्धारित किया है। विवाह संस्कार का उद्देश्य `धर्म' की सहायता से ( धर्म का मूल शंकर हैं जो 'राम' जपते रहते हैं) 'अर्थ और 'काम' के पुरुषार्थ को पूरा करना और फिर धीरे-धीरे 'मोक्ष' की ओर बढ़ना है। एक पुरुष और महिला के जीवन में कई महत्वपूर्ण चीजें शादी से जुड़ी होती हैं; उदाहरण के लिए, पुरुष और महिला के बीच प्यार, उनका रिश्ता, संतान, समृद्धि पाने का प्रयत्न , उनके जीवन में विभिन्न सुख-दुःख की घटनाएं और   सामाजिक स्थिति । हिंदू समाज में एक विवाहित महिला को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। उसके माथे पर कुमकुम के साथ एक महिला की दृष्टि, उसके गले में एक मंगलसूत्र पहने हुए, हरी चूड़ियाँ, पैर के अंगूठे के छल्ले और छह या नौ-यार्ड साड़ी स्वचालित रूप से एक पर्यवेक्षक के मन में उसके लिए सम्मान उत्पन्न करता है ।

shaadee kee umr kya honee chaahie ?शादी की उम्र क्या होनी चाहिए ? पहले के समय में, उपनयन संस्कार के बाद आठ साल की उम्र में, एक लड़का अपने गुरु के आश्रम में कम से कम बारह साल तक रहता था। तत्पश्चात, गृहस्थश्रम (गृहस्थ) के चरण में प्रवेश करने से पहले, चार से पांच वर्षों तक वह आजीविका कमाने की क्षमता विकसित करने का प्रयास करेगा। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, लड़के के विवाह के लिए पच्चीस से तीस वर्ष की आयु को  आदर्श माना गया। एक बार जब लड़की ने अपने बचपन के चरण को पार कर लिया, तो अगले पांच से छह वर्षों तक उसे सिखाया गया कि कैसे सांसारिक जिम्मेदारियों को निभाना है। अत: बीस से पच्चीस वर्ष की आयु को लड़की के विवाह के लिए आदर्श माना गया। वर्तमान काल में भी आध्यात्मिक दृष्टिकोण से उपर्युक्त आयु वर्ग लड़के-लड़कियों के विवाह के लिए आदर्श हैं।

Kundli matching while arranging marriage:विवाह की व्यवस्था करते समय कुंडली मिलान : विवाह की व्यवस्था करने से पहले, धर्म द्वारा भावी वर और वधू के कुंडली का मिलान करना आवश्यक है। इसलिए दोनों की कुंडली का सटीक होना जरूरी है। कुंडली बनाने वाले व्यक्ति को अपने कार्य में भी दक्ष होना चाहिए। विवाह के लगन को वर और वधु के बायोडाटा को ऑनलाइन भी साझा किया जाता है जिससे वर-वधु एक दूसरे के बारे में जान और समाज पातें है। जिसमें कुंडली का मिलान, गोत्र, समय, तिथि, दिशा, राशि, रंग आदि गुण मिलाया जाता है।

 "Jatakam" or "Kundli -"जातकम "या" कुंडली " जन्म के समय तारों और ग्रहों के स्थान के आधार पर तैयार की जाती है । किसी भी मैच के लिए अधिकतम अंक 32 हो सकते हैं और मिलान के लिए न्यूनतम अंक 18 है। 18 से कम अंक वाले किसी भी मैच को सौहार्दपूर्ण रिश्ते के लिए शुभ मैच नहीं माना जाता है। लेकिन फिर भी यह उन व्यस्क हो चुके वर-कन्या की उदारतापूर्वक निर्भर करता है जिनसे वे अभी भी शादी कर सकते हैं। यदि दो व्यक्तियों (वर और कन्या) का ज्योतिषीय चार्ट अंकों में आवश्यक सीमा को प्राप्त करता है तो भावी विवाह के लिए आगे की बातचीत पर विचार किया जाता है। साथ ही वर  और कन्या को एक-दूसरे से बात करने और समझने का मौका दिया जाता है। एक बार समझौता हो जाने के बाद शादी के लिए एक शुभ समय चुना जाता है। हाल के वर्षों में, भारत में डेटिंग संस्कृति की शुरुआत के साथ, अरेंज्ड मैरिज और कुंडली मिलाने  में मामूली कमी देखी गई है,  लव-अरेंज मैरिज या अरेंज-लव मैरिज की ऐसी नई अवधारणा है।  संभावित दूल्हे और दुल्हन अपने दम पर जीवनसाथी चुनना पसंद करते हैं और जरूरी नहीं कि केवल वही जिसके लिए उनके माता-पिता सहमत हों; यह ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी और उपनगरीय क्षेत्रों में अधिक स्पष्ट है। 

types of marriages : विवाह के प्रकार :

1. ब्रह्म विवाह : ब्रह्म को जानने वाला व्यक्ति - 'ब्रह्मविद ' हर तत्व में ब्रह्म या ईश्वर को देखता है। ब्रह्म को प्राप्त वर के लिए कन्या का चुनाव करना या ब्रह्म को प्राप्त कन्या के लिए वर का चुनाव करने में  कठिनाई होती है। इसलिए इस विवाह में वर की योग्यता परखने के लिए स्वयंबर  में एक शर्त रख दी जाती है जो उसे पूर्ण करेगा वो विवाह करेगा । जैसे राजा जनक द्वारा सीता लिए योग्य वर हेतु विश्व के समक्ष शिव धनुष पर प्रत्यंचा  चढाने की शर्त जो पूर्ण करे वो इसीका है वही इस लिए ईश्वर ब्रह्म है । अन्य उदाहरण द्रोपदी और अर्जुन का विवाह जिसमे मछली की आंख को तीर मार कर विवाह ।  आज का "पूर्वायोजित विवाह" (Arranged Marriage) भी  'ब्रह्म विवाह' का ही रूप है। दोनो पक्ष की सहमति से किसी सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह निश्चित कर देना भी  'ब्रह्म विवाह' कहलाता है। सामान्यतः इस विवाह के बाद कन्या को आभूषणयुक्त करके विदा किया जाता है।

2. दैव विवाह : इसमे कन्या ही अपने योग्य वर को पसंद करती है संसार मे जो भी विवाह करना चाहे वो सामने आए यदि कन्या उसे अपने योग्य पाती है तो उसे वर माला गले मे डाल कर जगत से चुन लेती है । उदाहरण : विश्व मोहिनी और नारायण का विवाह, लक्मी और विष्णु का विवाह , शिव सती का विवाह फिर शिव पार्वती का विवाह । सावित्री का जंगल मे सत्यवान को चुन लेना फिर सावित्री और सत्यवान का विवाह ।

3. आर्श विवाह : कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य दे कर (सामान्यतः गौदान करके) कन्या से विवाह कर लेना "आर्श विवाह" कहलाता है। 

4. प्रजापत्य विवाह : कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग के वर से कर देना 'प्रजापत्य विवाह' कहलाता है।  इसमे प्रजाति राजा या उस कन्या का पिता अपनी मर्जी के वर लेकर चुन कर कन्या का विवाह कर देता है । जैसे : कृष्ण और जामवंती का विवाह , कृष्ण और सत्यभामा का विवाह। 

5. गंधर्व विवाह : परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना 'गंधर्व विवाह' कहलाता है। दुष्यंत ने शकुन्तला से 'गंधर्व विवाह' किया था। उनके पुत्र भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम "भारतवर्ष" बना। समय के साथ कहीं न कहीं, अरेंज मैरिज प्रमुख हो गई और प्रेम विवाह अस्वीकार्य हो गए या कम से कम उन पर ठहाके लगाए जाते हैं ।  कुछ इतिहासकारों का मानना ​​​​है कि यह विदेशी आक्रमण काल ​​में हुआ था। कुछ प्रेम विवाहों के बावजूद, हिंदुओं के विशाल बहुमत अभी भी अपनी जाति में  अरेंज मैरिज को ही स्वीकार करता है।

6. असुर विवाह :  कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से कमजोर को दबा कर) विवाह कर लेना 'असुर विवाह' कहलाता है। जानवरो को धन आदि से जैसे खरीद कर उसका स्वामी बना जाता है जैसे:रावण का मन्दोदरी से विवाह, राजा शांतनु का सत्यवती से विवाह ।

7. राक्षस विवाह : कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना 'राक्षस विवाह' कहलाता है। या उसके पिता को डरा , धमका , दबा बल प्रयोग कर बलात्कार आदि कारण विवाह । 

love, passion and lust : प्रेम, उन्माद और काम : हातिम ताई उसके (गरुड़- गरुत्मान् के) पंजों में जकड़ा हुआ था लेकिन उसे कोई खरोंच तक नहीं आई थी । जैसे बिल्ली अपने बच्चों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक दाँतों में दबाकर ले जाती है, कुछ इसी तरह गरुड़ उसे अपने पंजों में दबाए हुए था । बहुत वेग से उड़ता हुआ गरुड़ उसे लेकर रक्त सागर (लाल सागर) को पार कर वहाँ, उस देश में ले गया जहाँ गरुड़ की राजधानी थी । गरुत्मान् की वह राजधानी गिरीश कही जाती थी क्योंकि वहाँ अनेक पहाड़ियों झरनों, कल-कल बहती नदियों के बीच गिरीश (ग्रीक) साम्राज्य अपनी कला और वैभव की ऊँचाइयों पर वैभव और समृद्धि से पूर्ण था । दैत्यराज राजा Dietrich (दैत्यऋक्ष) की राजधानी यद्यपि वहाँ से दूर थी, किंतु उसकी सेना और ग्रीक सेना के बीच अकसर युद्ध होते रहते थे । दैत्यगुरु भृगु अर्थात् शुक्राचार्य प्रायः वहाँ आश्रम बनाकर निवास करते थे । उनकी परंपरा के मूल पुरुष तो इन्दोनेशिया के बाली द्वीप से आए थे जहाँ राजा बलि ने जब उस यज्ञ का संकल्प लिया था;  जिसमें सर्वस्व दान कर दिया जाता है, तो उन्होंने ही उसे तब रोका था।  जब स्वयं भगवान् विष्णु ने वामन का वेष धरकर साढ़े तीन डग भूमि उससे दान में माँगी थी । 

जब गरुड़ हातिम ताई को लेकर वहाँ पहुँचा तो एक सुन्दर झील के किनारे शुक्राचार्य के आश्रम के निकट उसे छोड़ दिया । महर्षि भृगु के कुल के किसी अगली पीढ़ी के वंशज तब दैत्य-गुरु थे । जब हातिम ताई वहाँ पहुँचा तो पहले तो उसे नींद आ गई । वन में फूलों फलों से लदे वृक्ष और उनसे संलग्न मधुछत्रों से च्यवित हो रहा मधुरस पीकर  उसे बहुत प्रसन्नता हुई । तब वह पथहीन वन में कुछ दूर स्थित उस आश्रम की ओर बढ़ चला जहाँ ऋषि भृगु अपने गुरुकुल में शिष्यों को कृष्ण-यजुर्वेद की शिक्षा देते थे । हातिम ताई संस्कृत और वेद से तो सर्वथा अनभिज्ञ था किन्तु उसे यह अवश्य लगा कि महात्मा गरुड़ उसके हितैषी हैं और ईश्वर के दूत हैं । पुनः गरुड़ के पंजों में दबा वह प्रायः अचेत हो चुका था । इस बीच तन्द्रा जैसी स्थिति में वह पुनः स्वप्नावस्था जैसी मनःस्थिति में उन घटनाओं को जी रहा था जो उसके उस शहर में रहते हुए उसके साथ हुई थीं । वहाँ उसे आए हुए अभी एक-दो साल ही हुए थे कि उसके धर्मपिता ने क़बीले की एक लड़की से उसका विवाह तय किया । वह तो धर्मपिता की आज्ञा में बँधा था इसलिए उसई इच्छा पूछने का प्रश्न ही कहाँ था ?

विवाह हो जाने पर हातिम ताई की पत्नी उसके साथ रहने लगी । उसे पत्नी बहुत अच्छी लगती थी इसलिए उससे उसका प्रेम निरंतर बढ़ने लगा । इसी प्रेम के आवेश में उसमें कामोन्माद उठने लगा और वह सोचने लगा कि यह उन्माद कैसा है? क्या यह कोई रोग या मनोविकार है? उसने पशुओं को तो काम-क्रीड़ा करते देखा था और पक्षियों आदि को भी किंतु उसे यह नहीं पता था कि मनुष्यों में भी ऐसा होता है । तब उसने अपने धर्मपिता से इस विषय मे प्रश्न किया ।धर्मपिता ने कहा यह उन्माद (नशा) प्रकृति से ही प्राप्त होता है किंतु केवल मनुष्य ही इस विकार से मुक्त रह सकता है । पशुओं के लिए यह असंभव है कि वे इसके पाश से मुक्त हो सकें । लेकिन पशु और दूसरे जंतु भी इस उन्माद के वैसे अभ्यस्त नहीं होते जैसा कि प्रायः अविवेकी और प्रमादयुक्त मनुष्य अपनी असावधानी से हो जाया करता है।  

"क्या मनुष्य के लिए यह संभव है?"

"मनुष्यों में जो पशु हैं उनके लिए तो संभव नहीं है, किंतु जो वास्तव में मनुष्य हैं या धर्म के अनुसार जिनका आचरण है उनके लिए यह अवश्य संभव है ।"

"मनुष्य कौन हैं और मनुष्यों में वास्तविक पशु कौन और वास्तविक मनुष्य कौन हैं?"

 "देखो प्रकृति में - जो कि माता और बीजीय है, यह उन्माद / विकार नहीं है किंतु मनुष्य में यह उन्माद विकार हो सकता है ।"धर्मपिता की बात सुनकर हातिम ताई को कुछ स्पष्ट नहीं हुआ ।

"ऐसा कैसे हो सकता है?" 

"देखो, जब अपनी पत्नी के प्रति यह उन्माद उठता है तो पत्नी से आत्मीयता होती है, -उसके साथ प्रेम जुड़ा होता है और तब जो संतान पत्नी से पैदा होती है वह भी वास्तविक मनुष्य या ईश्वर-पुत्र होती है । जबकि जब पशुओं की तरह केवल इस उन्माद, इसकी उत्तेजना और उपभोग के और इसकी निवृत्ति के सुख के लिए पुरुष द्वारा किसी भी स्त्री से, या स्त्री द्वारा किसी भी पुरुष से जो काम-व्यवहार किया जाता है, वह पशुता है ।"

तब हातिम ताई के मन में प्रश्न उठा कि क्या इस उन्माद का सन्तान की उत्पत्ति से कोई संबंध है? उसने अपने धर्मपिता से यही प्रश्न पूछा ।

"हाँ कुछ लोग ऐसा ही समझते हैं ।"

"क्या इसीलिए विवाह नामक रस्म शुरु हुई?"

"नहीं ! इस उन्माद का सन्तान की उत्पत्ति से कोई संबंध नहीं है और स्त्री चूँकि माता है, इसलिए वही मनुष्य का बीज है जिसमें से पुनः स्त्री या पुरुष जैसी सन्तानें जन्म लेती हैं । जैसे किसी वृक्ष के बीज से वही वृक्ष पुनः पैदा (प्रदाय) होता है, वैसे ही नारी से पुनः मनुष्य पैदा होता है, और संतान के जन्म का इस उन्माद से वस्तुतः तब कोई संबंध नहीं होता जब नारी के प्रति पुरुष में प्रेम और आदर होता है ।"

"तो क्या एक ही पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से, या एक ही स्त्री एक से ज़्यादा पुरुषों से विवाह कर सकते हैं?"

"वैसा प्रायः न तो संभव है, न आवश्यक क्योंकि यदि प्रेम है तो यह समाज की व्यवस्था पर और समाज में स्त्रियों और पुरुषों की संख्या पर भी  निर्भर होता है । इसलिए इस बारे में कुछ तय नहीं किया जा सकता । किंतु परिवार और वंश चलाने के लिए यही सबसे अच्छा तरीका है कि एक पुरुष एक ही स्त्री से, और एक स्त्री एक ही पुरुष से निष्ठापूर्वक प्रेम और आदरसहित प्रसन्नतापूर्वक काम-व्यवहार करे, न कि इसका उपयोग नशे के तरह करे ।"

तब उसे याद आया उसके पिता उसकी माता को ’बी’ या ’बीजी’ क्यों कहते थे ! उसके समाज में ही स्त्री-मात्र को प्रायः ’बी’ कहकर आदर और सम्मान दिया जाता था । (इसी ’बी’ से अंग्रेज़ी का विमिन / women और वुमन / वुमन तथा वाइव्ज़ wives / वाइफ़ / wife बने हैं । इसी प्रकार से womb शब्द भी बना है जिसका प्रयोग 'गर्भ' के अर्थ में किया जाता है।  हिंदी और दूसरी भाषाओं में 'बाई' भी इसी से प्रचलित हुआ शब्द है। और इसी प्रकार से ’मादा’ भी ’माता’ का ही अपभ्रंश है ।) धर्मपिता की शिक्षा से हातिम ताई भ्रम दूर हो गया और उसे स्पष्ट हुआ कि पुरुष के लिए स्त्री और स्त्री के लिए पुरुष, उपभोग का साधन नहीं बल्कि परस्पर आदर, प्रीति और सम्मान के लिए होते हैं 

🔆🙏हातिम ताई की आरुरुक्ष / योगरूढ/ स्थितप्रज्ञ-दशा : बचपन में ही माता-पिता से बिछुड़कर हातिमताई जब से उनसे दूर हो गया था, और दूसरे अनुभवों की तरह ही यद्यपि यह पहचान भी अनित्य थी, किन्तु मानों उसकी एक अमिट छाप  उसके मन पर थी । दूसरे तमाम अनुभवों, उनकी पहचान और उनकी स्मृति के बनने-मिटते रहने पर भी यह स्मृति उनकी तरह बनती-मिटती नहीं थी । और बचपन की कुछ बहुत छोटी-छोटी वे घटनाएँ थीं, जो किसी भी शिशु-मन में स्वप्न सी अंकित हो जाया करती हैं । वे पुनः पुनः बरसों बाद भी स्वप्न में या अचानक अनायास मन में उभर आती हैं । 

🔆🙏शायद इसे भावावेग, भावातिरेक या nostalgia (गृह- विरह, घर की याद , अतीत की ललक) कह सकते हैं । वह स्थिति,`जब तुम न रुक पाओ, न भाग पाओ, जब तुम न सो पाओ, न जाग पाओ । ' यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि हम सभी की तरह हातिमताई भी अपनी पहचान को भूलकर, उनकी पहचान में ही अपना अस्तित्व देखता था । 

[`पंचभूतों के फंदे में फंसकर रोते हुए ब्रह्म' में ही अपना अस्तित्व देखता था । स्वरूप से दिव्य होते हुये भी चैतन्य आत्मा मोहावरण में फँसी हुई प्रतीत होती है। इस मोह का कारण है एक अनिर्वचनीय शक्ति माया। अव्यक्त विद्युत के समान माया भी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होती परन्तु विभिन्न रूपों में उसकी अभिव्यक्ति से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है। बुद्धि पर आत्मस्वरूप के अज्ञान के रूप में पड़े इस आवरण को वेदान्त में माया की आवरण शक्ति कहा गया है। बुद्धि पर पड़े इस अज्ञान आवरण के कारण मन अनात्म जगत् की कल्पना करता है और उस जगत् के विषय में उसकी दो धारणायें दृढ़ होती हैं कि (क) यह सत्य है और (ख) यह अनात्मा (देह आदि) ही में हूँ। मन के स्तर पर कार्य करने वाली माया की यह शक्ति माया की विक्षेप शक्ति कहलाती है। कर्मयोग की भावना से (निःस्वार्थभाव से)  कर्म करते रहने पर बुद्धि की शुद्धि होती है और तब उसके लिये सम्भव होता है कि आवरण को हटाकर आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर सके।  इस प्रकार मोह निवृति का परिणाम है विषयोपभोग से वैराग्य परन्तु आत्मअज्ञान के होने पर मनुष्य विषयों से ही सुख पाने की आशा में दिनरात परिश्रम करता रहता है। शीत ऋतु में बादलों से सूर्य के आच्छादित होने पर मनुष्य अग्नि जलाकर उसके समीप बैठता है किन्तु धीरेधीरे बादलों के हट जाने पर सूर्य की उष्णता का अनुभव कर वह अग्नि के पास से उठकर धूप का आनन्द लेता है। वैसे ही आनन्दस्वरूप के अज्ञान के कारण विषयों को पाने के लिये चल रही मनुष्य की भागदौड़ स्वत समाप्त हो जाती है जब वह स्व-स्वरूप को पहचान लेता है......  में ही अपना अस्तित्व देखता था । ] 

कठोलिकों के गिरीश (ग्रीस) स्थित आश्रम में आने से पहले  वह केवल ईश्वर का विचार किया करता था । क्या ईश्वर उसके पिता की तरह है? या ईश्वर उसकी माता की तरह है? अर्थात् ईश्वर पुरुष है, अथवा स्त्री है? हातिम ताई को इस बारे में सन्देह नहीं था, कि वह स्वयं अपने पिता की तरह पुरुष है, किन्तु ईश्वर के बारे में विचार करते समय उसके मन में प्रायः यह प्रश्न उठता था कि कहीं ईश्वर उसकी माता की तरह स्त्री तो नहीं है?

महेश्वर (मिस्र) में ईश्वर को लिङ्ग-स्वरूप में देखकर तो उसे यही लगा था कि ईश्वर पुरुष होगा, और इसी दृष्टि से उसकी पूजा लिङ्ग के रूप में की जाती है । वैसे भी लिङ्ग का अर्थ है लक्षण, संकेत या चिह्न । फिर उसे यह भी लगता था कि ईश्वर किसी माता-पिता की सन्तान नहीं है, क्योंकि तब उसके माता-पिता के भी पूर्वजों के प्रश्न पर विचार करना होगा और इस निरर्थक श्रंखला का प्रारंभ कहाँ है, इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता । हातिम ताई बस इतना ही जानता था कि ईश्वर ’वह’ है : अन्य पुरुष । जैसे उसे यह भी नहीं पता था कि ’वह’ स्वयं स्त्री है या ’पुरुष’, वैसे ही हातिम ताई इस बात से भी अनभिज्ञ था,कि ईश्वर ’एक’ है या ’अनेक’ ???। हातिम ताई यह अवश्य जानता था कि ईश्वर अद्भुत्, अनिर्वचनीय और अद्वितीय-अप्रतिम (unique) है, और  उसके और समस्त अन्य जीवों की तरह चेतन भी है ।

किन्तु कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ भी उसके साथ हुआ करती थीं जब भाव-विभोर अवस्था में वह उस सत्ता से इतना एकीभूत होकर उसमें निमग्न हो जाता था, जब उसे संसार, जगत् और देह-मन-प्राण तथा इन्द्रियों की सुध-बुध नहीं रह जाती थी।  तो उस समय अहं-भावना ही कैसे रह सकती थी ? बुद्धि ठिठक जाती थी, किन्तु चित्त समाहित होकर ’न व्यतीत होनेवाले समय’ में खोया / लीन रहता था ।  

वह स्थिति ---`जब तुम न रुक पाओ, न भाग पाओ, जब तुम न सो पाओ, न जाग पाओ ।

--यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। 

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।52 

(गीता अध्याय  2/52)   जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदल (कलिल)  को तर जायगी, तब तुम उन सब  सुने हुए और सुनने में आने वाले भोगों से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे।  

उस समय उसकी (हातिम ताई की) बुद्धि कुण्ठित नहीं, निश्चल और स्तब्ध रहती थी : उस मोहावरण भेदकर और विवेकजनित आत्मज्ञान को प्राप्त कर कर्मयोग के फल परमार्थ-योग को तुम कब पाओगे तो सुनो-

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। 

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।53 

(गीता अध्याय ,  2/53)जब अनेक प्रकार के विषयों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि आत्मस्वरूप में अचल और स्थिर हो जायेगी तब तुम (परमार्थ) योग को प्राप्त करोगे।। जब पाँचो ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण करने पर भी जिसकी बुद्धि अविचलित रहती है तब उसे योग में स्थित समझा जाता है। सामान्यत इन्द्रियों के विषय ग्रहण के कारण मन में अनेक विक्षेप उठते हैं। योगस्थ पुरुष का मन इन सबमें निश्चल रहता है। 

तात्पर्य यह कि हातिम ताई योगारूढ स्थिति में था। 

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। 

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।3

 योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मुनि के लिए कर्म करना ही हेतु (साधन) कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उसी पुरुष के लिए शम को (शांति, संकल्पसंन्यास) साधन कहा गया है।।

मन के समत्व प्राप्त योगारूढ़ व्यक्ति के लिए ज्ञानरूप शम अर्थात् शांति वह साधन है जिसके द्वारा वह अपने पूर्णस्वरूप में स्थित हो सकता है।

यहाँ योगारूढ़ होने के विषय को स्पष्ट करने के लिए अश्वारोहण (घोड़े की सवारी) के अत्यन्त उपयुक्त रूपक का प्रयोग किया गया है। यदि कोई व्यक्ति युद्ध के अश्व को अपने पूर्णवश में करना चाहे तो कुछ काल तक उसे उस अश्व पर सवार होने का प्रयास करना पड़ता है। एक पैर को पायदान पर रखकर जीन पर झूलते हुए दूसरे पैर को पृथ्वी से उठाकर (उछलकर) अश्व की पीठ पर बैठने और उसे अपने वश में करने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। एक बार उस पर सवार हो जाने के बाद उसे अपने वश में रखना सरल कार्य है। परन्तु तब तक अश्वारोही को उस अवस्था में से गुजरना पड़ता है जब तक वह पूर्णरूप से न अश्व पर बैठा होता है और न पृथ्वी पर खड़ा होता है।

प्रारम्भ में हम केवल कर्म करने वाले होते हैं अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुए हम परिश्रम करते हैं पसीना बहाते हैं रोते हैं हँसते हैं। जब व्यक्ति इस प्रकार के कर्मों से थक जाता है तब वह मनोरूप अश्व पर आरूढ़ होना चाहता है। ऐसे ही व्यक्ति को कहते हैं आरुरुक्ष (आरूढ़ होने की इच्छा वाला)। वह पुरुष कर्म तो पूर्व के समान ही करता है परन्तु अहंकार और स्वार्थ को त्यागकर। यज्ञ भावना से किये गये कर्म वासनाओं को नष्ट करके अन्तकरण को शुद्ध एवं सुसंगठित कर देते हैं। ऐसे शुद्धान्तकरण वाले साधक को शनैशनै कर्म से निवृत्त होकर मनःसंयोग का अभ्यास अधिक करना चाहिए। जब वह मन पर विजय प्राप्त करके उसकी प्रवृत्तियों को अपने वश में कर लेता है तब वह योगारूढ़ कहा जाता है। 

इसी प्रकार साधना की प्रारम्भिक अवस्था में निष्काम कर्म समीचीन है परन्तु और अधिक विकसित हुए साधक को आवश्यक है आत्मचिन्तनरूप निदिध्यासन। पहले अहंकार रहित कर्म साधन है और तत्पश्चात् आत्मस्वरूप का ध्यान। इस ध्यानाभ्यास की आवश्यकता तब तक होती है जब तक साधक निश्चयात्मक रूप से यह अनुभव न कर ले कि शुद्ध आत्मा ही पारमार्थिक सत्य वस्तु है न कि अहंकार। तत्पश्चात् वह कर्म करे अथवा न करे उसे इस ज्ञान की विस्मृति नहीं होती

ध्यानयोग पर आरूढ़ होने के इच्छुक व्यक्ति के लिए प्रथम साधन कहा गया है कर्म। जगत् में कर्तृत्व के अभिमान और फलासक्ति का त्याग करके कर्म करने से पूर्व संचित वासनाओं का क्षय होता है और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते। 

सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी  योगरूढस्तदोच्यते।।4 

(गीता अध्याय 6/3, 6/4) जब (साधक) न इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में आसक्त होता है तब सर्व संकल्पों के संन्यासी को योगारूढ़ कहा जाता है।। कर्मों का संन्यास तभी करना चाहिए जब मन के ऊपर पूर्ण संयम प्राप्त हो गया हो। इसके पूर्व ही कर्मों का त्यागना उतना ही हानिकारक होगा जितना कि योगारूढ़त्व की अवस्था को प्राप्त होने पर कर्मों से मन को क्षुब्ध करना। उस अवस्था में तो साधन है शम। मन के सहयोग के बिना इन्द्रियों की स्वयं ही विषयों की ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यदि मन को आनन्दस्वरूप आत्मतत्त्व के ध्यान में लगाया जाय तो उस निर्विषय आनन्द का अनुभव कर लेने के उपरान्त वह स्वयं ही विषयों के क्षणिक सुखों की खोज में नहीं भटकेगा। 

कापालिकों के नगर में हातिम ताई की स्थिति 'आरुरुक्ष' मुनि की थी, तो कठोलिकों के नगर में 'योगारूढ' की ! दोनों ही स्थितियाँ शमः / शं शमन-धर्म के दो सोपान थे जिनका स्थान उसके जीवन में था ।

 वास्तव में ईश्वर या अपने-आप (आत्मा) को जानने-समझने का तात्पर्य है वह होना। और यह तभी संभव है जब बुद्धि निश्चल और जिज्ञासा प्रबल हो। बुद्धि कुण्ठित नहीं बल्कि स्तब्ध हो।यह आकस्मिक संयोग नहीं था कि हातिम ताई का नाम अदम / आदम (Adam) के रूप में अमर हो गया। यहाँ तक कि उसे 'प्रथम प्रवक्ता' (The First Prophet) भी कहा गया।

🔆🙏हातिम-ताई का यज्ञोपवीत संस्कार : [भृगुवल्ली / The Bridge-Valley/ कृष्ण-यजुर्वेद,  तैत्तिरीय उपनिषद / शमन-धर्म या शमनवाद  धार्मिक परमानंद की वह तकनीक ' जो दूसरों के कहने पर चेतना की एक बदली हुई स्थिति- जैसे ट्रांस में पहुँचकर, आत्मा की दुनिया से संपर्क कर सकता है।  शमनवाद इस आधार को समाहित करता है कि शमनवादी मानव दुनिया और आत्मा की दुनिया के बीच मध्यस्थ या संदेशवाहक हैं। कहा जाता है कि शमां लोग आत्मा को ठीक करके बीमारियों और बीमारियों का इलाज करते हैं।](Shamanism- derives from the Russian word šamán,  the Sanskrit word śramaṇa; the term was adopted by Russians interacting with the indigenous peoples in Siberia. the word "shamanism" among anthropologists is Arabic term shaitan (meaning "devil" "anybody who contacts a spirit world while in an altered state of consciousness.")'

जब हातिम-ताई का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ तो वह ऋषि भृगु - अङ्गिरा (Angel) के गोत्र के गुरुकुल का अन्तेवासी हो गया । तब उसे आचार्य के अन्य शिष्यों के साथ शिक्षा-सत्र में शामिल होने का प्रसंग उपस्थित हुआ । दूसरे सभी शिष्य अभी बालक वटुक थे, जबकि हातिम-ताई आयु के तीसरे पड़ाव (वानप्रस्थ अवस्था -50 से 75 वर्ष) को पार कर चुका था । 

"आचार्य ने उससे उसके पूर्व-जीवन का वृत्तान्त क्यों नहीं पूछा?" हातिम ताई के इस प्रश्न पर आचार्य ने कहा :"तुम आयु के तीसरे पड़ाव (सोपान) को पार कर चुके हो । ये वटुक अभी आयु के पहले पड़ाव का अतिक्रमण कर चुके हैं । इसलिए उन्हें ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी गई । आयु की दृष्टि से तुम गृहस्थ आश्रम की मर्यादा पूरी कर चुके हो । इसलिए उस पूर्व-जीवन से निवृत्त होकर इस वानप्रस्थ जीवन में प्रवृत्त होने पर तुम वैसे भी ब्रह्मचर्य में ही स्थित हो । 

वे ब्रह्मचारी वटुक भी प्रकृति से ही ब्रह्मचर्य में स्थित हैं और यदि अभी उन्हें संस्कार प्राप्त हो जाता है, तो वे आयु के आगामी सोपान तक पहुँचने से पूर्व ही विवेक-वैराग्य की उस भूमिका को प्राप्त कर लेंगे जिसे तुमने तुम्हारे पूर्व के शुभ कर्मों से तुम्हारी आयु के इस सोपान पर अदृश्य संयोग से प्राप्त किया है। अदृश्य इसलिए क्योंकि इसे ईश्वर-कृपा या दैव भी कहा जाता है । ईश्वर ही देवता है (अवतार वरिष्ठ है)  जिसे ब्रह्मचर्यपूर्वक वर्णों के अभ्यास से (गुरुवाक्य से) जाना जाता है । इसी देवता का नाम शंकर, शम्भू आदि है जो परिणाम (परि-नाम) के रूप में शान्त की तरह भी ग्रहण किया जाता है । यही (शम् - वर्ण) शान्ति के रूप में सर्वत्र अवस्थित नित्य-तृप्त परमेश्वर है । इसी प्रच्छन्न शान्त को शान्ति-पाठ के माध्यम से प्रकटतः जाना जाता है । अब तुम इस कक्षा के छात्र हो अर्थात् इस शिष्य मंडल की छाया में हो, अतः यहाँ बैठकर इसकी यह शिक्षा ग्रहण करो ।"तब आचार्य ने शाम (साम) स्वरों में शान्ति-पाठ का उपदेश इस प्रकार प्रारंभ किया :ॐ शं नो मित्रः । शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा ।शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः ।नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि ।ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि ।तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम् ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

टिप्पणी : सुरलोक को तब सुरीय / स्वरीय / स्वरीया आदि नामों से जाना जाता था । लोकभाषा के प्रभाव (असर) से इसमें ’अ’ उपसर्ग संयुक्त होने से इसे आगे चलकर असुरीय या असीरिया और वर्तमान में सीरिया (शाम) कहा जाने लगा । यह है सीरिया / शाम का प्रागितिहास । उर्दू भाषा में सीरिया को शाम कहा जाता है। 'साम' वैसे तो सामवेद का तत्व है, किन्तु अर्थ-साम्य (purport / meaning) तथा ध्वनि-साम्य (phonetics) के आधार पर 'Psalm' (शाम या धर्मगीत) को इसी का सज्ञात (cognate) कहा जा सकता है। साभार Vinay Kumar Vaidya/ https://swaadhyaaya.blogspot.com/2019/07/the-bridge-valley.html

 तैत्तिरीय आरण्यक के 7 वें, 8 वें और 9 वें अध्याय को तैत्तिरीय उपनिषद कहा जाता है। 7 वें अध्याय को उपनिषद में *शीक्षा वल्ली* के रूप में स्मरण किया जाता है। इस प्रकरण में दी गयी शिक्षा (3H विकास के 5 अभ्यास) के अनुसार जो व्यक्ति अपना जीवन गठित कर लेता है, वह अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों प्रदान करने वाली 'ब्रह्मविद्या' को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है, इसी भाव को समझाने के लिये, दीर्घ 'ई' की मात्रा लगाकर इस प्रकरण का नाम -'शीक्षा-वल्ली ' रखा गया है।  

इस *शीक्षा वल्ली* का प्रथम अनुवाक मंगलाचरण की तरह है। `त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि। तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो । अतः तुम्हें ही प्रत्यक्ष तौर पर ब्रह्म कहूंगा । ऋत बोलूंगा । सत्य बोलूंगा । वह ब्रह्म मेरी रक्षा करें । वह वक्ता आचार्य की रक्षा करें । रक्षा करें मेरी । रक्षा करें वक्ता आचार्य की । त्रिविध ताप की शांति हो । 

 इसके उपरांत द्वितीय अनुवाक में ऋषि कहते हैं कि हम शिक्षा की व्याख्या करेंगे। तीसरे अनुवाक में वे इसका प्रयोजन बताते हैं कि इससे गुरु और शिष्य दोनों का ब्रह्मवर्चस और ब्रह्म तेज बढ़ेगा, यशस्वी होंगे और शिक्षा के द्वारा लोकों के विषय में, ब्रह्मांड की ज्योतियों के विषय में, सभी प्रकार की विद्याओं के विषय में, विश्व की समस्त प्रकार की प्रजाओं के विषय में तथा शरीर और उसके स्थूल,सूक्ष्म तथा कारण इन सभी रूपों के विषय में और इस प्रकार लोक, प्रजा, ज्योति, विद्या और जीवात्मा के समस्त स्तरों और रहस्यों के विषय में वर्णन करेंगे

आगे इसी अध्याय में नौवे अनुवाक में बताते हैं कि स्वाध्याय और प्रवचन के मुख्य फल हैं – ऋत अर्थात कॉस्मिक यानी ब्रह्मांडीय व्यवस्था के नियमों का ज्ञान, सत्य का ज्ञान और सत्य पालन की सामथ्र्य, तप की शक्ति, आंतरिक शांति की सामथ्र्य, इंद्रिय निग्रह की सामथ्र्य, वेदों के पठन पाठन की सामथ्र्य, योग्य संतान प्रजनन की सामथ्र्य, कुटुंब की वृद्धि (प्रजाति) की सामथ्र्य, मनुष्यों के लिए आवश्यक समस्त व्यवहार की सामथ्र्य, यज्ञ की सामथ्र्य और अतिथियों की यथायोग्य सेवा की सामर्थ्य।

समस्त ज्ञान प्रदान कर आचार्य 11 वें अनुवाक में अनुशासन देते हैं इस अनुवाक में गुरु अपने शिष्य और सामाजिक गृहस्थ को सद आचरणों पर चलने की प्रेरणा देता है। वह कहता है- 'सत्यं वद। धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमद:।' अर्थात् सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय (अर्थात सतत स्व-शिक्षा) में आलस्य मत करो। अपने श्रेष्ठ कर्मों से साधक को कभी मन नहीं चुराना चाहिए। आचार्य के लिए अभीष्ट धन की व्यवस्था करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए और सृष्टि के विकास में सदा सहयोगी बनाना चाहिए। आचार्य कहते हैं-'मातृ देवो भव। पितृ देवो भव। आचार्य देवो भव। अतिथि देवों भव।' अर्थात् माता को, पिता को, आचार्य को और अतिथि को देवता के समान मानकर उनके साथ व्यवहार करो। यह भारतीय संस्कृति की उच्चता है कि यहाँ माता-पिता और गुरु तथा अतिथि को भी देवता के समान सम्मान दिया जाता है। यहाँ 'दान' की विशिष्ट परम्परा है। दान सदैव मैत्री-भाव से ही देना चाहिए तथा कर्म, आचरण और दोष आदि में लांछित होने का भय, यदि उत्पन्न हो जाये, तो सदैव विचारशील, परामर्शशील, आचारणनिष्ठ, निर्मल बुद्धि वाले किसी धर्मनिष्ठ व्यक्ति से परामर्श लेना चाहिए। जिसने लोक-व्यवहार और धर्माचरण को अपने जीवन में उतार लिया, वही व्यक्ति मोह और भय से मुक्त होकर उचित परामर्श दे सकता है। श्रेष्ठ जीवन के ये श्रेष्ठ सिद्धान्त ही उपासना के योग्य हैं।

”सदा सत्यनिष्ठ रहना, इसमें प्रमाद नहीं करना। धर्ममय ही आचरण करना, इसमें प्रमाद नहीं करना। शुभ कर्मों में कभी प्रमाद मत करना। देव कार्य और पूर्वजों की परंपरा को आगे ले जाने के कार्य में कभी चूक नहीं करना तथा संतति परंपरा गतिमय रखना। ऐश्वर्य की साधना में कभी प्रमाद मत करना और स्वाध्याय तथा ज्ञान विस्तार में कभी चूक नहीं करना। माता, पिता, आचार्य और अतिथि को देवतुल्य मानना (विद्या, आयु, तप और आचरण में श्रेष्ठ व्यक्ति जब घर पर बिना आमंत्रण आ जाएँ, तो वे ही अतिथि कहलाते हैं। आजकल के गेस्ट या मेहमान को अतिथि नहीं कहते।)। जो निर्दोष कर्म हैं, उनका ही आचरण करना। हमारे भी जो सुचरित हैं, अच्छे आचरण हैं, उनका ही अनुसरण करना, अन्य आचरणों का नहीं। जो श्रेष्ठ विद्वान आयें, उन्हे आसन देना, विश्राम देना और श्रद्धापूर्वक दान देना। विवेकपूर्वक संकोच सहित अपनी आर्थिक स्थिति के अनुरूप दान देना चाहिए। जब जहां कोई दुविधा या शंका हो, तो उत्तम विचार वाले सदाचारी से परामर्श कर कर्तव्य का निश्चय करना। यही आदेश है। यही उपदेश है।”

शिक्षा वल्ली के बाद आगे ब्रह्मानन्द वल्ली है और भृगु वल्ली है। शिक्षा वल्ली में वर्णित पुरुषार्थों को सम्पन्न कर चुके व्यक्ति में ही ब्रह्मानन्द की साधना और ज्ञान की सामर्थ्य आती है, अन्य में नहीं। वस्तुत: ब्रह्मानन्द का संबंध परा विद्या से है।तृतीय मुंडक में द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया वाला प्रख्यात मंत्र है जो आत्मा और परमात्मा संबंधी प्रभावशाली विवेचना है। इसलिए योग विद्या ही परा विद्या का मूल आधार है जिसके अनंत भेद या रूप संभव हैं। अत्यंत प्राचीन काल से भारत में यह ज्ञान था कि ज्ञान अनंत है। ब्रह्मानन्द वल्ली के आरंभ में ही उपनिषद मंत्र है – सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म। ब्रह्म सत्य हैं, ज्ञान हैं, अनंत हैं। इसीलिए यहाँ विद्या के अनंत रूप सहज विद्यमान हैं। आयुर्वेद से लेकर योग तक प्रत्येक ज्ञान शाखा में ज्ञान के अनंत रूप वर्णित हैं

इसीलिए विविध पंथ यहाँ सहज स्वीकृत हैं; परंतु उन सबका एक सामान्य आधार है, जो सार्वभौम है, यह भी प्रारम्भ से ज्ञात है। ये सार्वभौम नियम या आधुनिक यूरोपीय पदावली में कहें तो सार्वभौम मूल्य हैं। ये ही सामान्य धर्म या सार्वभौम धर्म और मानव धर्म कहे गए हैं।  5 यम हैं - अहिंसा  अर्थात् किसी भी प्राणी या प्रकृति के किसी भी तत्व के प्रति द्रोह और द्वेष का सर्वथा अभाव, सत्य, ब्रह्मचर्य (संयम-मन, वचन , शरीर से पवित्र रहना। ) , आस्तेय --अन्य के वस्तुओं के प्रति गिद्धदृष्टि नहीं रखना, अपरिग्रह, मर्यादित भोग और उसके लिए मर्यादित संग्रह – ये पाँच सार्वभौम यम या मूल्य हैं।इनके सर्वमान्य आधार के साथ व्यक्ति, समूह, समाज और राष्ट्रों की अपनी विशेषताओं का सतत् संवर्धन ही अपरा विद्या का विस्तार है।  और जिन उपकरणों से अर्थात मन और बुद्धि की जिस सामथ्र्य से यह सब ज्ञान होता है, उस आत्मसत्ता के मूल स्वरूप का ज्ञान परा विद्या है।

जब किसी समाज में आत्मसत्ता के स्वरूप का ज्ञान रखने वाले श्रेष्ठ लोग होंगे और वे सम्मानित होंगे, तब वहाँ सभी मानस संरचनाएं, ( मेंटल या इंटेलेक्चुअल कान्स्टृक्ट) मर्यादित मान्य होंगी क्योंकि यह ज्ञात होगा कि वे परमार्थ रूप में अंतिम सत्य नहीं हैं, वे सब सापेक्ष सत्य हैं और परिवर्तनशील सत्य हैं। इसीलिए व्यक्ति, कुल, गोत्र, वर्ण, क्षेत्र, आदि सब से परे जो मूल तत्व है, उसके ज्ञान की साधना को परा विद्या कहा गया और उसके ज्ञाता ही सर्वमान्य रहे। इस प्रकार प्रारम्भ से ही भारत में परा और अपरा दोनों विद्याओं की साधना परंपरा प्रवाहित है और शिक्षा (****शीक्षा वल्ली***  वही है जो इन दोनों का ज्ञान दे

इसमें से पराविद्या  का मूल ज्ञान सबको आवश्यक है, अत: योग और ध्यान की किसी न किसी पद्धति के द्वारा आत्मस्वरूप का ज्ञान सबके लिए सर्वोपरि मान्य रहा। जबकि अपने संस्कारों और सामथ्र्य तथा प्रतिभा के अनुरूप अपरा विद्या के किस एक या कतिपय अनुशासनों में दक्षता को स्वधर्म माना गया। अत: सामान्य धर्म और स्वधर्म, दोनों का ज्ञान प्रत्येक विद्यार्थी को कराना शिक्षा का भारतीय लक्ष्य है।

यहाँ कुछ और आधारभूत तथ्य स्मरण कर लेना चाहिए। समस्त शिक्षा वृद्ध संवाद है अर्थात ज्ञान की किसी न किसी शाखा या अनुशासन में उत्कर्ष प्राप्त अपने पूर्वज लोगों के द्वारा जो ज्ञान प्रदान किया गया, प्रस्तुत किया गया, उसे नयी पीढ़ी को देना ही शिक्षा का मूल आधार है। वही शिक्षा है। इस प्रकार किसी भी समाज की सम्यक शिक्षा वह है जो सर्वप्रथम अपने ही समाज और राष्ट्र में हुए ज्ञानियों ऋषियों के द्वारा प्रस्तुत, निरूपित और व्याख्यायित ज्ञान के स्वरूप को ठीक-ठीक नयी पीढ़ी को प्रदान करे। अर्थात् अपने वृद्धों से संवाद करें। 

क्योंकि सर्वत्र शिक्षा का मूल प्रयोजन अपने ही पूर्वजों के ज्ञान को नई पीढ़ी को प्रदान करना है। भारत में भी शिक्षा के इसी सार्वभौम प्रयोजन के अनुरूप शिक्षा प्रदान की जानी आवश्यक है।

अपरा विद्या के प्रत्येक अनुशासन में सर्वप्रथम विद्यार्थियों को अपने ही राष्ट्र और अपने ही समाज के वृद्धों (अर्थात ऋषियों) के द्वारा जाने गए और प्रस्तुत किए गए ज्ञान को जानना चाहिए तथा सर्वप्रथम अपने ही वृद्धों से संवाद करना चाहिए। इसके बाद जैसा हमारे वृद्धों ने निर्देश दिया है, सारे संसार के भी वृद्धों से ज्ञान प्राप्त करना सहज स्वाभाविक है। अपनों से संवाद न करके केवल बाहरी वृद्धों के ज्ञान को जानना तो शिक्षा के प्रयोजन को नष्ट करना है। शिक्षा का मूल प्रयोजन है सर्वप्रथम अपने समाज और राष्ट्र के वृद्धों से (ऋषियों से)  विद्यार्थियों का संवाद कराना। उनके ज्ञान को उन्हें प्रदान करना। इतिहास, पुराण, गणित, ज्योतिष, विज्ञान, आयुर्वेद, योगशास्त्र सहित समस्त भारतीय दर्शन शास्त्र, व्याकरण, भाषा शास्त्र आदि सभी रूपों में सबसे पहले अपने देश के ज्ञानियों को जानना आवश्यक है। फिर यूरो-अमेरिकी विद्वान वृद्धों की (भौतिक) शिक्षा को भी अवश्य वे जानें।

क्योंकि सर्वत्र शिक्षा का मूल प्रयोजन अपने ही पूर्वजों के ज्ञान को नई पीढ़ी को प्रदान करना है। भारत में भी शिक्षा के इसी सार्वभौम प्रयोजन के अनुरूप शिक्षा प्रदान की जानी आवश्यक है।हमारे जिस परंपरागत शैक्षणिक ढांचे को अंग्रेजों ने बलपूर्वक तथा योजना पूर्वक तोड़ा और फिर 15 अगस्त 1947 ईस्वी के बाद उस परंपरा गत शिक्षा के ढांचे को टूटा फूटा और बिखरा ही रहने दिया गया, उसे फिर से नए उत्साह के साथ प्रामाणिक रूप में रचे जाने की आवश्यकता है।

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