*परिच्छेद-100
[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
(१)
🔆🙏समाधितत्व 🔆🙏
आज श्रीरामकृष्ण 12 नम्बर मल्लिक स्ट्रीट बड़ा बाजार जानेवाले हैं । मारवाड़ी भक्तों ने 'अन्नकूट '^* के अवसर पर श्रीरामकृष्ण को न्योता दिया है । कालीपूजा को बीते दो दिन हो गये । आज सोमवार है, 20 अक्टूबर, 1884, कार्तिक शुक्ला द्वितीया । बड़ा बाजार में अब भी दीवाली का आनन्द चल रहा है।
दिन को लगभग तीन बजे मास्टर छोटे गोपाल के साथ बड़ा बाजार आये । श्रीरामकृष्ण ने छोटी धोती खरीदने की आज्ञा दी थी - मास्टर उसे खरीदकर एक कागज में लपेटकर हाथ में लिये हुए हैं। मल्लिक स्ट्रीट में दोनों ने पहुंचकर देखा, आदमियों की बड़ी भीड़ है ।
१२ नम्बर स्ट्रीट के पास पहुँचकर देखा, श्रीरामकृष्ण बग्धी पर बैठे हुए हैं, बग्घी बढ़ नहीं सकती - गाड़ियों की इतनी भीड़ है । भीतर बाबूराम थे और राम चट्टोपाध्याय । गोपाल और मास्टर को देखकर श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण गाड़ी से उतरे । साथ में बाबूराम हैं, मास्टर आगे रास्ता दिखाते हुए चल रहे हैं ।
मारवाड़ी भक्त के यहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, नीचे आँगन में कपड़े की कितनी ही गाँठें पड़ी हुई हैं । एक ओर बैलगाड़ियों पर माल लद रहा है । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ ऊपर के मंजले पर चढ़ने लगे । मारवाड़ियों ने आकर उन्हें तिमंजले के एक कमरे में बैठाया । उस कमरे में काली का चित्र था । श्रीरामकृष्ण आसन ग्रहण करके हँसते हुए भक्तों से बातचीत करने लगे ।
एक मारवाड़ी आकर श्रीरामकृष्ण के पैर दबाने लगा । श्रीरामकृष्ण ने पहले तो मना किया, परन्तु फिर कुछ सोचकर कहा, 'अच्छा'; फिर मास्टर से पूछा, स्कूल का क्या हाल है ।
मास्टर - जी आज छुट्टी है ।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - कल अधर के यहाँ चण्डी का गाना (काली-कीर्तन) होगा ।
मारवाड़ी भक्त ने पण्डितजी को श्रीरामकृष्ण के पास भेजा । पण्डितजी ने आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया । पण्डितजी के साथ अनेक प्रकार की ईश्वर सम्बन्धी वार्ता हो रही है । अवतार - सम्बन्धी बातें होने लगीं ।
श्रीरामकृष्ण - अवतार भक्तों के लिए हैं, ज्ञानियों के लिए नहीं।"
पण्डितजी -`परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे । (गीता 4.8 )
“अवतार पहले तो भक्तों के आनन्द के लिए होता है, और दूसरे दुष्टों के दमन लिए । परन्तु ज्ञानी कामनाशून्य होते हैं ।”
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - परन्तु मेरी सब कामनाएँ नहीं मिटी । भक्ति की कामना बनी हुई है ।
इसी समय पण्डितजी के पुत्र ने आकर श्रीरामकृष्ण की चरण-वन्दना की और आसन ग्रहण किया।
श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी के प्रति) - अच्छा जी, भाव किसे कहते हैं, और भक्ति किसे कहते हैं ?
पण्डितजी - ईश्वर की चिन्ता करते हुए जब मनोवृत्तियाँ आनन्दपूर्ण हो जाती हैं, तब उस अवस्था को भाव कहते हैं, जैसे सूर्य के निकलने पर बर्फ गल जाती है ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा जी, प्रेम किसे कहते हैं ?
पण्डितजी हिन्दी में ही बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उनके साथ बड़ी मधुर हिन्दी में बातचीत कर रहे हैं । पण्डितजी ने प्रेम का उत्तर एक दूसरे ही ढंग से समझाया ।
श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी से) - नहीं, प्रेम का अर्थ यह नहीं है । प्रेम यह है, ईश्वर पर ऐसा प्यार होगा कि संसार के अस्तित्व का होश तो रह ही नहीं जायेगा, साथ ही अपनी देह भी जो इतनी प्यारी वस्तु है, भूली जायेगी । प्रेम चैतन्यदेव को हुआ था ।
पण्डितजी - जी हाँ, जैसा मतवाला होने पर होता है ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा जी, किसी को भक्ति होती है किसी को नहीं इसका क्या अर्थ है ?
पण्डितजी - ईश्वर में वैषम्य नहीं है । वे कल्पतरु हैं। जो जो कुछ चाहता है, वह वही पाता है, परन्तु कल्पतरु के पास जाकर माँगना चाहिए ।
पण्डितजी यह सब हिन्दी में कह रहे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर की ओर देखकर अर्थ बतला रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा जी, समाधियाँ किस किस तरह की हैं, अब कहिये तो जरा ।
पण्डितजी - समाधि दो तरह की है, सविकल्प और निर्विकल्प। निर्विकल्प समाधि में विकल्प नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, `निर्विकल्प समाधि' की अवस्था में मन ‘तदाकाराकारित’ हो जाता है? ध्याता और ध्येय का भेद नहीं रहता । और `चेतन समाधि' और `जड़ समाधि' , ये भी हैं। नारद, शुकदेव , इनकी चेतन समाधि है, क्यों जी ?
पण्डितजी - जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण - और उन्मना समाधि और स्थित समाधि, ये भी हैं, क्यों जी ?
पण्डितजी चुप हो रहे, कुछ बोले नहीं ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा जी, जप-तप करने से तो विभूतियाँ प्राप्त हो सकती हैं - जैसे गंगा के ऊपर से पैदल चले जाना ।
पण्डितजी - जी हाँ, यह सब होता है, परन्तु भक्त ( devotee ) यह कुछ नहीं चाहता ।
और थोड़ीसी बातचीत होने पर पण्डितजी ने कहा, एकादशी के दिन दक्षिणेश्वर में आपके दर्शन करने आऊँगा ।
श्रीरामकृष्ण - अहा, तुम्हारा लड़का तो बड़ा अच्छा है ।
पण्डितजी - महाराज, नदी की एक तरंग जाती हैं, तो दूसरी आती है । सब कुछ अनित्य है ।
श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे भीतर सार वस्तु है ।
कुछ देर के बाद पण्डितजी ने प्रणाम किया । कहा, 'तो पूजा करने जाऊँ ?’
श्रीरामकृष्ण - अजी, बैठो ।
पण्डितजी फिर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण ने हठयोग की बात चलायी । पण्डितजी भी हिन्दी में इसी के सम्बन्ध में बातचीत करने लगे ।
श्रीरामकृष्ण ने कहा, हाँ, यह भी एक तरह की तपस्या है, परन्तु हठयोगी देहाभिमानी साधु है, उसका मन सदा देह पर ही लगा रहता है ।
पण्डितजी ने फिर बिदा होना चाहा । पूजा करने के लिए जायेंगे । श्रीरामकृष्ण पण्डितजी के लड़के से बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - कुछ न्याय, वेदान्त तथा और और दर्शनों के पढ़ने से श्रीमद्भागवत खूब समझ में आती है, क्यों ?
पुत्र - जी महाराज, सांख्य दर्शन पढ़ने की बड़ी आवश्यकता है । इस तरह की बातें होने लगीं ।
श्रीरामकृष्ण तकिये के सहारे जरा लेट गये । पण्डितजी के पुत्र तथा भक्तगण जमीन पर बैठे हुए हैं। श्रीरामकृष्ण लेटे ही लेटे धीरे धीरे गा रहे हैं –
'हरि सो लागी रहो रे भाई ।
तेरा बनत-बनत बनि जाई ॥
अंका तारे बँका तारे, तारे मीराबाई ।
सुआ पढ़ावत गणिका तारे, तारे सजन कसाई ॥
[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
(२)
🔆🙏साधना की आवश्यकता 🔆🙏
"All cannot recognize an Incarnation."
[অবতার কি এখন নাই?]
घर के मालिक ने आकर प्रणाम किया । ये मारवाड़ी भक्त श्रीरामकृष्ण पर बड़ी भक्ति रखते हैं । पण्डितजी के लड़के बैठे हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण ने पूछा, `क्या इस देश में 'पाणिनि व्याकरण' पढ़ाया जाता है ?'
मास्टर - जी पाणिनि ?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, न्याय और वेदान्त, क्या यह सब पढ़ाया जाता है ?
इन बातों का घर के मालिक मारवाड़ी ने कोई उत्तर नहीं दिया ।
गृहस्वामी - महाराज, उपाय क्या है ?
श्रीरामकृष्ण - उनका नाम-गुण-कीर्तन और साधुसंग । उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करना ।
गृहस्वामी - महाराज, ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि जिससे संसार से मन हटता जाय ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कितना है ? आठ आने ? (हास्य ।)
गृहस्वामी - यह सब तो आप जानते ही हैं । महात्मा की दया के हुए बिना कुछ भी न होगा ।
श्रीरामकृष्ण – ईश्वर को सन्तुष्ट करोगे तो सभी सन्तुष्ट हो जायेंगे । महात्मा के हृदय में वे ही तो है ।
गृहस्वामी - उन्हें पाने पर तो बात ही कुछ और है । उन्हें अगर कोई पा जाता है, तो सब कुछ छोड़ देता है । रुपया पाने पर आदमी पैसे का आनन्द छोड़ देता है ।
श्रीरामकृष्ण - कुछ साधना की आवश्यकता होती है । साधना करते ही करते आनन्द मिलने लगता है । मिट्टी के बहुत नीचे अगर घड़े में धन रखा हुआ हो, और अगर कोई वह धन चाहे तो मेहनत के साथ उसे खोदते रहना चाहिए । सिर से पसीना टपकता है, परन्तु बहुत कुछ खोदने पर घड़े में जब कुदार लगकर ठनकार होती है, तब आनन्द भी खूब मिलता है । जितनी ही ठनकार होती है, उतना ही आनन्द बढ़ता है । राम से प्रार्थना करो, उनको पुकारते जाओ, उनकी चिन्ता करो , वे ही सब कुछ ठीक कर देंगे ।
गृहस्वामी - महाराज, आप राम हैं ।
श्रीरामकृष्ण - यह क्या, नदी की ही तरंगें हैं, तरंगों की नदी थोड़े ही है ?
गृहस्वामी - महात्माओं के ही भीतर राम हैं । राम को कोई देख तो पाता नहीं, और अब अवतार भी नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कैसे तुम्हें मालूम हुआ कि अवतार नहीं है ?
श्रीरामकृष्ण - अवतारी पुरुष को सब लोग नहीं पहचान पाते । नारद जब श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन करने के लिए गये, तब राम ने खड़े होकर नारद को साष्टांग प्रणाम किया और कहा, 'हम लोग संसारी जीव हैं, आप जैसे साधुओं के आये बिना हम लोग कैसे पवित्र होंगे !'
फिर जब सत्यपालन के लिए वन गये, तब देखा, राम के वनवास का संवाद पाकर ऋषिगण आहार तक छोड़कर पड़े हुए थे । फिर भी उनमें से बहुतों को मालूम नहीं था कि राम अवतार हैं ।
गृहस्वामी - आप भी वही राम हैं ।
श्रीरामकृष्ण – राम ! राम ! ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए ।
यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा- "जो राम घट घट में विराजमान हैं, उन्हीं का बनाया यह संसार है। मैं तुम लोगों का दास हूँ । वही राम ये सब मनुष्य और जीव-जन्तु हुए हैं ।"
गृहस्वामी - हम लोग यह क्या जानें ?
श्रीरामकृष्ण - तुम जानो या न जानो, तुम राम हो ।
गृहस्वामी - आप में राग-द्वेष नहीं हैं ।
श्रीरामकृष्ण – क्यों ? जिस गाड़ीवाले से कलकत्ते आने की बात हुई थी, वह तीन आने पैसे ले गया, फिर नहीं आया, उससे तो मैं खूब चिढ़ गया था । और था भी वह बड़ा बुरा आदमी । देखो न, कितनी तकलीफ दी ।
[ (20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
(३)
🔆🙏बड़ा बाजार का अन्नकूट-महोत्सव -श्री मोर मुकुट धारी की पूजा 🔆🙏
[বড়বাজারে অন্নকূট-মহোৎসবের মধ্যে — ৺ময়ূরমুকুটধারীর পূজা]
श्रीरामकृष्ण ने कुछ देर विश्राम किया । इधर मारवाड़ी भक्त छत पर गाने-बजाने लगे । आज श्रीमयूर-मुकुटधारी का महोत्सव है । भोग का सब आयोजन हो गया । देवदर्शन करने के लिए लोग श्रीरामकृष्ण को बुला ले गये । श्रीमयूर मुकुटधारी का दर्शन कर श्रीरामकृष्ण ने निर्माल्य धारण किया ।
विग्रह के दर्शन कर श्रीरामकृष्ण भाव-मुग्ध हो रहे हैं ।
हाथ जोड़कर कह रहे हैं - "प्राण हो, हे कृष्ण, मेरे जीवन हो । जय गोविन्द गोविन्द वासुदेव सच्चिदानन्द ! हे कृष्ण, हे कृष्ण, ज्ञान कृष्ण, मन कृष्ण, प्राण कृष्ण, आत्मा कृष्ण, देह कृष्ण, जाति कृष्ण, कुलकृष्ण, प्राण हो, हे कृष्ण, मेरे जीवन हो ।" ये बातें कहते हुए श्रीरामकृष्ण खड़े होकर समाधिमग्न हो गये । श्रीयुत राम चैटर्जी श्रीरामकृष्ण को पकड़े रहे । बड़ी देर बाद समाधि छूटी ।
इधर मारवाड़ी भक्त श्रीमयूर-मुकुटधारी विग्रह को बाहर ले जाने के लिए आये । भोग का बन्दोबस्त बाहर ही हुआ था ।
अब श्रीरामकृष्ण की समाधि-अवस्था नहीं है । मारवाड़ी भक्त बड़े आनन्द से सिंहासन के विग्रह को बाहर लिये जा रहे हैं, श्रीरामकृष्ण भी साथ-साथ जा रहे हैं । भोग लगाया जा चुका ।
भोग के समय मारवाड़ी भक्तों ने कपड़े की आड़ की थी । भोग के पश्चात् आरती और गाने होने लगे । श्रीरामकृष्ण विग्रह को चामर व्यजन कर (चँवर ^*डुला) रहे हैं । मारवाड़ियों ने श्रीरामकृष्ण से भोजन करने का अनुरोध किया । श्रीरामकृष्ण बैठे, भक्तों ने भी प्रसाद पाया ।
[चँवर ^*- सुरा गाय की पूँछ के बालों का गुच्छा जो काठ, सोने, चाँदी आदि की डंडी में बाँधकर राजाओं या देवमूर्तियों से मक्खियों आदि को दूर रखने के लिए हिलाया-डुलाया जाता है। चँवर प्रायः तिब्बती और भोटिया ले आते हैं ।]
श्रीरामकृष्ण चलने के लिए बिदा होने लगे । शाम हो गयी है और रास्ते में भीड़ भी बहुत है । श्रीरामकृष्ण ने कहा, "हम लोग गाड़ी से तब तक के लिए उतर पड़ें । गाड़ी पीछे से घूमकर आये तब चढ़ें ।”
रास्ते से जाते समय श्रीरामकृष्ण ने देखा, पानवाला एक बहुत छोटी सी दूकान में बैठा हुआ है जिसे देखकर मालूम हुआ कि दूकान क्या है, बिल है । उस दूकान में बिना खूब सिर झुकाये कोई घुस नहीं सकता था । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "कितना कष्ट है, इतने ही के भीतर बद्ध होकर रहना ! संसारियों का स्वभाव भी कैसा है ! इसी में उन्हें आनन्द मिलता है ।
गाड़ी लौटकर पास आयी । श्रीरामकृष्ण फिर गाड़ी पर बैठे । भीतर श्रीरामकृष्ण के साथ बाबूराम, मास्टर, राम चैटर्जी और छत पर छोटे गोपाल बैठे हुए हैं ।
एक भिखारिन ने गोद में बच्चा लिये हुए गाड़ी के सामने आकर भीख माँगी । श्रीरामकृष्ण ने देखकर मास्टर से कहा - “क्यों जी, पैसा है ?" गोपाल ने पैसा दे दिया ।
बड़ा बाजार से गाड़ी जा रही है । दीवाली की बड़ी धूम है । अँधेरी रात दीपों से जगमगा रही है । बड़ा बाजार की गली से होकर गाड़ी चितपुर रोड पर आयी । वहाँ भी दिये जगमगा रहे हैं और चीटियों की तरह आदमियों की पाँत चल रही है । आदमी दूकानों की सजावट पर मुग्ध हो रहे हैं । दूकानदार अच्छे अच्छे वस्त्र पहने हुए गुलाबपाश हाथ में लिये लोगों पर गुलाब छिडक रहे हैं । गाड़ी एक इत्रवाले की दूकान के सामने आयी ।
श्रीरामकृष्ण पाँच वर्ष के बालक की तरह तस्वीर और रोशनी देख-देखकर प्रसन्न हो रहे हैं । चारों ओर कोलाहल हो रहा है । श्रीरामकृष्ण उच्च स्वर से कह रहे हैं - “और भी बढ़कर देखो - और भी बढ़कर ।" यह कहकर हँस रहे हैं । बड़े जोरों से हँसकर बाबूराम से कह रहे हैं, 'अरे बढ़ता क्यों नहीं ? तू कर क्या रहा है ?’
भक्तगण हँसने लगे । उन्होंने समझा, श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं ईश्वर (लक्ष्य?) की ओर बढ़ जा, अपनी वर्तमान अवस्था से सन्तुष्ट होकर न रहना । ब्रह्मचारी ने लकड़हारे से कहा था, बढ़ जाओ । बढ़ते हुए उसने क्रमशः चन्दन का वन, चाँदी की खान, सोने की खान, हीरा, मणि आदि देखा था। इसीलिए श्रीरामकृष्ण बार बार कहते हैं, बढ़ जाओ, बढ़ जाओ ।
गाड़ी चलने लगी । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर की खरीदी हुई धोतियाँ देखीं । दो धोतियाँ कोरी थीं और दो धुली हुई थीं । श्रीरामकृष्ण ने सिर्फ आठ हाथ की कोरी धोतियाँ लाने के लिए कहा था, जो नहाने के समय पहनी जाती हैं । श्रीरामकृष्ण ने ऐसी ही धोतियाँ खरीदने के लिए कहा था । उन्होंने कहा - "ये कोरी धोतियाँ दोनों दे जाओ और दूसरी धोतियाँ इस समय लेते जाओ, अपने पास रख लेना । चाहे एक दे देना ।"
मास्टर - जी, एक धोती लौटा ले जाऊँगा ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं, तो अभी रहने दो; दोनों ही साथ ले जाना ।
मास्टर - जो आज्ञा ।
श्रीरामकृष्ण - फिर जब आवश्यकता होगी तब ले आना । देखो न, कल वेणीपाल रामलाल के लिए गाड़ी में खाना देने के लिए आया था । मैंने कहा, मेरे साथ कोई चीज न देना । मुझमें संचय करने की शक्ति नहीं है ।
मास्टर - जी हाँ । इसमें और क्या है, ये दोनों सादी धोतियाँ लौटा ले जाऊँगा ।
श्रीरामकृष्ण - (सस्नेह) - मेरे मन में किसी तरह से कुछ (लेने की इच्छा) पैदा हो यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं । - यह तो अपनी बात है, जब आवश्यकता होगी, कहूँगा ।
मास्टर - (विनयपूर्वक) - जो आज्ञा ।
गाड़ी एक दूकान के सामने आ गयी । वहाँ चिलमें बिक रही थीं । श्रीरामकृष्ण ने राम चैटर्जी से कहा, 'राम, एक पैसे की चिलम मोल न ले लोगे ?
श्रीरामकृष्ण एक भक्त की बात कह रहे हैं । श्रीरामकृष्ण - मैंने उससे कहा, कल बड़ा बाजार जाऊँगा, तू भी चलना । परन्तु सुना तुमने - उसने क्या कहा ? कहा - 'ट्राम के चार पैसे लगेंगे, कौन जाय ?" वह कल वेणीपाल के बगीचे में गया था । वहाँ फिर गुरुगिरि भी की । किसी ने न कहा, न सुना, आप ही आप गाने लगा जिससे आदमी समझें मैं ब्राह्मसमाजवालों का ही एक आदमी हूँ । (मास्टर से) क्यों जी, यह भला क्या है? कहता है - एक आना खर्च हो जायेगा ।
फिर मारवाड़ी भक्तों के अन्नकूट की बात होने लगी । श्रीरामकृष्ण - (भक्तों से) - यहाँ जो कुछ तुमने देखा, वहीं बात वृन्दावन में भी है । राखाल आदि वृन्दावन में यही सब देख रहे होंगे । परन्तु वहाँ अन्नकूट और बढ़कर होता है । आदमी भी बहुत हैं । गोवर्धन पर्वत है, यही विचित्रता है ।
“परन्तु मारवाड़ियों में कैसी भक्ति है, देखी ? यथार्थ ही इनमें हिन्दू भाव (हिन्दुत्व) है । यही सनातन धर्म है । - श्रीठाकुरजी को ले जाते समय, देखा तुमने, उन्हें कैसा आनन्द हो रहा था ? आनन्द यह सोचकर कि हम भगवान का सिंहासन उठाये लिये जा रहे हैं ।
"हिन्दूधर्म ही सनातन धर्म है । आजकल जो सब सम्प्रदाय (creeds-मजहब) देख रहे हो, यह सब उनकी इच्छा से होकर फिर मिट जायेंगे । इसीलिए मैं कहता हूँ, आधुनिक जो सब भक्त हैं, उनके भी चरणों में प्रणाम है । हिन्दूधर्म पहले से है और सदा रहेगा भी ।"
मास्टर घर जायेंगे । वे श्रीरामकृष्ण की चरण-वन्दना करके शोभा बाजार के पास उतर गये । श्रीरामकृष्ण आनन्द मनाते हुए गाड़ी पर जा रहे हैं ।
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