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बुधवार, 2 जून 2021

🔱🙏🔆ॐ परिच्छेद ~78, [ (23 मार्च, 1884*) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] KartaBhaJa: faithful to one man ?पाशमुक्तः सदा शिवः ।[शिवजी (CINC -नवनीदा ) रामजी (इष्टदेव-अवतारवरिष्ठ) की भक्ति देंगे] My Chosen Ideal is God'नरलीला' ~“मिट्टी की मूर्ति में तो उनकी पूजा होती है और मनुष्यों में नहीं हो सकती ? *ईश्वरलाभ ही जीवन का उद्देश्य है ~धैर्यरेता !“उन्हें पाने ही से काम हो गया ! – संस्कृत न पढ़ी तो क्या हुआ है ?* “मैं हूँ मूर्खोत्तम !" (मूर्ख पुरुषों का सिरमौर) 16 स्त्रियों को एक-एक कर छोड़ने वाला वैराग्य ? आदमी की शक्ति से लोक-शिक्षा नहीं होती । ईश्वर की शक्ति के बिना अविद्या नहीं जीती जा सकती ।*त्यागी हुए बिना लोक-शिक्षा नहीं होती/ ऊर्ध्वरेता, धैर्यरेता और ईश्वरलाभ ~ संन्यासी के लिए सख्त नियम/साधुओं को अगर कोई रुपया-पैसा न देगा तो वे खायेंगे क्या ? [या मति सा गति - सोचोगे मैं धैर्यरता -त्यागी हूँ , तो त्यागी बन जाओगे !]

  [ (23 मार्च, 1884)  परिच्छेद ~78 , श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

परिच्छेद~७८

[दक्षिणेश्वर मन्दिर में राखाल, राम, आदि के साथ]

(१)

रविवार, 23 मार्च 1884  श्रीरामकृष्ण दोपहर के भोजन के बाद राखाल, राम आदि भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । शरीर पूर्ण स्वस्थ नहीं है । अब तक हाथ में तख्ती बँधी हुई है ।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মধ্যাহ্নে সেবার পর রাখাল, রাম প্রভৃতি ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। শরীর সম্পূর্ণ সুস্থ নহে — এখনও হাতে বাড় বাঁধা। (আজ রবিবার, ১১ই চৈত্র, ১২৯০; কৃষ্ণা একাদশী; ২৩শে মার্চ, ১৮৮৪)।

March 23, 1884; Sri Ramakrishna was sitting in his room after his midday meal, with Rakhal, Ram, and some other devotees. He was not quite well. The injured arm was still bandaged.

शरीर अस्वस्थ रहने पर भी श्रीरामकृष्ण आनन्द की हाट लगाये हुए हैं । दल के दल भक्त आते हैं । सदैव ही ईश्वरी कथा-प्रसंग और आनन्द है । कभी किर्तानानंद और कभी समाधिमग्न होकर श्रीरामकृष्ण ब्रह्मानन्द का अनुभव कर रहे हैं । भक्तगण अवाक् होकर देखते हैं । श्रीरामकृष्ण वार्तालाप करने लगे ।

[নিজের অসুখ, — কিন্তু ঠাকুর আনন্দের হাট বসাইতেছেন। দলে দলে ভক্ত আসিতেছেন। সর্বদাই ঈশ্বরকথা প্রসঙ্গে — আনন্দ। কখনও কীর্তনানন্দ, কখনও বা ঠাকুর সমাধিস্ত হইয়া ব্রহ্মানন্দ ভোগ করিতেছেন। ভক্তেরা অবাক্‌ হইয়া দেখে। ঠাকুর কথা কহিতেছেন।

But in spite of his illness, his room was a veritable mart of joy and he the centre of it. Devotees thronged there daily to see the Master. Spiritual talk went on incessantly, and the very air of the room vibrated with bliss. Sometimes the Master would sing the name and glories of God, and sometimes he would go into samadhi, the devotees being amazed at the ease with which the Master freed himself from the consciousness of the body.

, [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[নরেন্দ্রের বিবাহ-সম্বন্ধ — “নরেন্দ্র দলপতি” ]

🔱🙏 🔆 नरेन्द्र का विवाह ठीक हो रहा है । बहुत धन देने को कहता है  🔆🔱🙏

राम आर. मित्र (R. Mitra) की कन्या के साथ नरेन्द्र का विवाह ठीक हो रहा है । बहुत धन देने को कहता है ।

[রাম — আর মিত্রের (R. Mitra) কন্যার সঙ্গে নরেন্দ্রের সম্বন্ধ হচ্ছে। অনেক টাকা দেবে বলেছে।

RAM: "There is talk of Narendra's marrying Mr. R. Mitra's daughter. Narendra has been offered a large dowry."

श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – इसी तरह किसी दल का नेता बन जायगा । वह जिस तरफ झुकेगा, उसी ओर बड़ा व्यक्ति होकर नाम पैदा करेगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ওইরকম একটা দলপতি-টলপতি হয়ে যেতে পারে। ও যেদিকে যাবে সেইদিকেই একটা কিছু বড় হয়ে দাঁড়াবে।

MASTER (smiling): "Yes, Narendra may thus become a leader of society or something like that. He will be an outstanding man, whatever career he follows."}

श्रीरामकृष्ण ने फिर नरेन्द्र की बात ही न उठने दी ।

[ঠাকুর নরেন্দ্রের কথা আর বেশি তুলিতে দিলেন না।

The Master did not much encourage the conversation about Narendra.

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[শ্রীরামকৃষ্ণ অসুখে অধৈর্য কেন? বিজ্ঞানীর অবস্থা]

 🔆ईश्वर ही डॉक्टर के का रूप धारण किये हैं,मनुष्य सोचने पर विश्वास नहीं होता  🔆

श्रीरामकृष्ण – (राम से) – अच्छा, बीमार पड़ने पर मैं इतना अधीर क्यों हो जाया करता हूँ ? कभी इससे पूछता हूँ, किस तरह अच्छा होऊँगा, कभी उससे पूछता हूँ ।

“बात यह है कि विश्वास या तो सब पर करे या किसी पर न करे ।

[(রামের প্রতি) — “আচ্ছা, অসুখ হলে আমি এত অধৈর্য হই কেন? একবার একে জিজ্ঞাসা করি কিসে ভাল হবে। একবার ওকে জিজ্ঞাসা করি।“কি জানো, হয় সকলকেই বিশ্বাস করতে হয়, না হয় কারুকে নয়।

MASTER (to Ram): "Well, can you tell me why I become so impatient when I am ill? Sometimes I ask this man and sometimes that man how I may be cured. You see, one must either believe everyone or no one at all.

“वे ही डाक्टर और कविराज हुए हैं; इसलिए सभी चिकित्सकों पर विश्वास करना चाहिए । पर उन लोगों को आदमी सोचने पर विश्वास नहीं होता ।

[“তিনিই ডাক্তার-কবিরাজ হয়েছেন। তাই সকল চিকিৎসককেই বিশ্বাস করতে হয়। মানুষ মনে করলে বিশ্বাস হয় না।”

"It is God Himself who has become the physicians. Therefore one must believe all of them. But one cannot have faith in them if one thinks of them as mere men.

“शम्भु को घोर विकार था । डाक्टर सर्वाधिकारी ने देखकर बतलाया – दवा की गरमी है ।

“ह्लधारी ने नाड़ी दिखायी, डाक्टर ने कहा – ‘आँख देखें – अच्छा ! तुम्हारी प्लीहा बढ़ गयी है !’ हलधारी ने कहा – ‘मेरे प्लीहा-फीहा कहीं कुछ नहीं है ।’

“मधु डाक्टर की दवा अच्छी है ।”

[“শম্ভুর ঘোর বিকার — সর্বাধিকারী দেখে বলে ঔষধের গরম।“হলধারী হাত দেখালে, ডাক্তার বললে, ‘চোখ দেখি; — ও! পিলে হয়েছে।’ হলধারী বলে, ‘পিলে-টিলে কোথাও কিছু নাই।’“মধু ডাক্তারের ঔষধটি বেশ।”

"Sambhu was fearfully delirious. Dr. Sarvadhikari said that the delirium was due to the strong medicine. Haladhari asked the doctor to feel his pulse. The doctor said: 'Let me see your eyes. Oh, it is an enlargement of the spleen!' Haladhari said he had nothing of the sort. But Dr. Madhu gives good medicine."

राम – दवा से फायदा नहीं होता, परन्तु इतना अवश्य होता है कि वह प्रकृति की बहुत कुछ सहायता जरुर करती है ।

[রাম — ঔষধে উপকার হয় না। তবে প্রকৃতিকে অনেকটা সাহায্য করে।

RAM: "The medicine by itself does no good, though it greatly helps nature."

श्रीरामकृष्ण – दवा से अगर उपकार नहीं होता तो अफीम फिर कैसे दस्त रोक देती है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঔষধে উপকার না হলে, আফিমে বাহ্যে বন্ধ হয় কেন?

MASTER: "If that is so, why does opium cause constipation?"


 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[কেশব সেনের কথা — সুলভ সমাচারে ঠাকুরের বিষয় ছাপানো ]

🔆 समाचारपत्र में नाम छपवाकर नेता (लोकशिक्षक) नहीं बना जाता 🔆  

राम केशव के देहान्त होने की बात कह रहे हैं ।

[রাম কেশবের শরীরত্যাগের কথা বলিতেছেন।

Ram referred to Keshab Sen's death.

राम – आपने तो ठीक ही कहा था – अच्छा गुलाब का पेड़ हुआ तो माली उसकी जड़ खोल देता है । ओस पाने पर पौधा और जोरदार होता है । सिद्धवचन का फल तो प्रत्यक्ष कर लिया ।

[রাম — আপনি তো ঠিক বলেছিলেন, — ভাল গোলাপের — (বসরাই গোলাপের) গাছ হলে মালী গোড়াসুদ্ধ খুলে দেয়, — শিশির পেলে আরও তেজ হবে। সিদ্ধবচন তো ফলেছে!

RAM: "You were quite right. You said that a gardener uncovers the roots of a good rose-plant so that it may absorb the dew and grow stronger and healthier. The words of a holy man have been fulfilled."

श्रीरामकृष्ण - क्या जाने भाई, इतना तो हिसाब मैंने नहीं किया था, तुम्हीं कह रहे हो ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কে জানে বাপু, অত হিসাব করি নাই; তোমরাই বলছ।

MASTER: "I don't know about that. I wasn't calculating when I said it. It is you who say that."

राम – उन लोगों ने (ब्रह्मसमाज वालों ने) आपकी बात अपने समाचार-पत्र (सुलभ -समाचार)  में निकाल दी थी ।

[রাম — ওরা আপনার বিষয় (সুলভ সমাচারে) ছাপিয়ে দিয়েছিল।

RAM: "The Brahmos have published something about you in their magazine."

श्रीरामकृष्ण – छाप दी ! यह क्या ? अभी से छापना क्यों ? मैं खाता हूँ – पड़ा रहता हूँ, बस, और मैं कुछ नहीं जानता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ছাপিয়ে দেওয়া! এ কি! এখন ছাপানো কেন? — আমি খাই-দাই থাকি, আর কিছু জানি না।

MASTER: "Published about me? Why? Why should they write now? I eat and drink and make merry. I don't know anything else.

“केशव सेन से मैंने कहा, छापा क्यों ? उसने कहा – तुम्हारे पास लोग आये इसलिए ।

[“কেশব সেনকে আমি বললাম, কেন ছাপালে? তা বললে — তোমার কাছে লোক আসবে বলে।”

"I once asked Keshab, 'Why have you written about me?' He said that it would bring people here. But man cannot teach by his own power. 

  [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[লোকশিক্ষা ঈশ্বরের শক্তিদ্বারা — হনুমান সিং-এর কুস্তিদর্শন ]

🔆ईश्वर की शक्ति बिना अविद्या पर विजय असम्भव - हनुमान सिंह और मुस्लिम पहलवान🔆

(राम आदि से) “आदमी की शक्ति से लोक-शिक्षा नहीं होती । ईश्वर की शक्ति के बिना अविद्या नहीं जीती जा सकती ।

[(রাম প্রভৃতির প্রতি) — ”মানুষের শক্তি দ্বারা লোকশিক্ষা হয় না। ঈশ্বরের শক্তি না হলে অবিদ্যা জয় করা যায় না।

 But man cannot teach by his own power. One cannot conquer ignorance without the power of God.]

“दो आदमी कुश्ती लड़े – हनुमानसिंह और एक पंजाबी मुसलमान । मुसलमान खूब तगड़ा था । कुश्ती के दिन तथा उसके पन्द्रह दिन पहले उसने खूब मांस और घी खाया था । सब सोचते थे यही जीतेगा ।

“हनुमानसिंह मैले कपड़े पहने रहता था । कुश्ती के कुछ दिन पहले वह बहुत कम खाया करता था, परन्तु महावीरजी का नाम खूब लेता था । जिस दिन कुश्ती होने की थी, उस दिन तो उसने निर्जल उपवास किया । लोग सोचने लगे, यह जरुर हारेगा ।

“परन्तु जीता वही, और पन्द्रह दिन तक जिसने खूब खाया था, वह हार गया ।

[“দুইজনে কুস্তি লড়েছিল — হনুমান সিং আর একজন পাঞ্জাবী মুসলমান। মুসলমানটি খুব হৃষ্টপুষ্ট। কুস্তির দিনে, আর আগের পনেরদিন ধরে, মাংস-ঘি খুব করে খেলে। সবাই ভাবলে, এ-ই জিতবে। হনুমান সিং — গায়ে ময়লা কাপড় — কদিন ধরে কম কম খেলে, আর মহাবীরের নাম জপতে লাগল। যেদিন কুস্তি হল, সেদিন একেবারে উপবাস। সকলে ভাবলে, এ নিশ্চয়ই হারবে। কিন্তু সেই জিতল। যে পনেরদিন ধরে খেলে, সেই হারল।

"At one time two men were engaged to wrestle. One of them was Hanuman Singh and the other a Mussalman from the Punjab. The Mussalman was a strong, stout man. He had eaten lustily of butter and meat for fifteen days before the day of the wrestling-match, and even on that day. All thought he would be the victor. Hanuman Singh, on the other hand, clad in a dirty cloth, had eaten sparingly for some days before the day of the match and devoted himself to repeating the holy name of Mahavir. (Mahavir, or Hanuman, is the patron deity of wrestlers.) On the day of the match he observed a complete fast. All thought that he would surely be defeated. But it was he who won, while the man who had feasted for fifteen days lost the fight.

  [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

 🔆त्यागी हुए बिना लोक-शिक्षक बनना और बनाना सम्भव नहीं🔆 

“अख़बार में नाम छपवाने से क्या होगा ? – जिसे लोक-शिक्षा देनी है, उसकी शक्ति ईश्वर के पास से आयेगी । और त्यागी हुए बिना लोक-शिक्षा नहीं होती ।

[“ছাপাছাপি করলে কি হবে? — যে লোকশিক্ষা দেবে তার শক্তি ঈশ্বরের কাছ থেকে আসবে। আর ত্যাগী না হলে লোকশিক্ষা হয় না।”

"What is the use of printing and advertising? He who teaches men gets his power (चपरास ) from God. None but a man of renunciation can teach others. 

  [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[বাল্য — কামারপুকুরে লাহাদের বাড়ি সাধুদের পাঠশ্রবণ ]

[बचपन - कामारपुकुर में लाहा बाबू के घर में पधारे सन्तों से केवल सुनकर ही वेदान्त प्रवेश] 

“मैं हूँ मूर्खोत्तम !" (मूर्ख पुरुषों का सिरमौर) – “ (लोग हँसते हैं ।)

[“আমি মূর্খোত্তম।” (সকলের হাস্য)

I am the greatest of all fools!" (All laugh.)

एक भक्त – ऐसा है तो आप के मुँह से वेद-वेदान्त – इसके अलावा भी न जाने क्या क्या – कैसे निकलते हैं ?

[একজন ভক্ত — তাহলে আপনার মুখ থেকে বেদ-বেদান্ত — তা ছাড়াও কত কি — বেরোয় কেন?

A DEVOTEE: "Then how is it that the Vedas and the Vedanta, and many things besides, come out of your mouth?"

श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – परन्तु मेरे लड़कपन में लाहा बाबू के यहाँ साधु-महात्मा जो कुछ पढ़ते थे, वह सब मैं समझ लेता था, परन्तु कहीं कहीं समझ में आता भी नहीं था । पण्डित आकर यदि संस्कृत बोलता है तो मैं समझ लेता हूँ । परन्तु खुद संस्कृत नहीं बोल सकता ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কিন্তু ছেলেবেলায় লাহাদের ওখানে (কামারপুকুরে) সাধুরা যা পড়ত, বুঝতে পারতাম। তবে একটু-আধটু ফাঁক যায়। কোন পণ্ডিত এসে যদি সংস্কৃতে কথা কয় তো বুঝতে পারি। কিন্তু নিজে সংস্কৃত কথা কইতে পারি না।

MASTER (smiling): "During my boyhood I could understand what the sadhus read at the Lahas' house at Kamarpukur, although I would miss a little here and there. If a pundit speaks to me in Sanskrit I can follow him, but I cannot speak it myself.

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[পাণ্ডিত্য কি জীবনের উদ্দেশ্য? মূর্খ ও ঈশ্বরের কৃপা ]

🔆पाण्डित्य नहीं , ईश्वरलाभ ही जीवन का उद्देश्य है- मूर्खों पर भी ईश्वर की समान कृपा है🔆

“उन्हें प्राप्त करना, यही जीवन का उद्देश्य है । लक्ष्य-भेद के समय अर्जुन ने कहा, मुझे और कुछ नहीं दीख पड़ता – केवल चिड़िया की आँख देख रहा हूँ, न राजाओं को देखता हूँ, न पेड़, यहाँ तक कि चिड़िया को भी नहीं देख रहा हूँ ।

[“তাঁকে লাভ করাই জীবনের উদ্দেশ্য। লক্ষ্য বিঁধবার সময় অর্জুন বললেন — আমি আর কিছুই দেখতে পাচ্ছি না, — কেবল পাখির চক্ষু দেখতে পাচ্ছি — রাজাদেরও দেখতে পাচ্ছি না, — গাছ দেখতে পাচ্ছি না — পাখি পর্যন্ত দেখতে পাচ্ছি না।

"To realize God is the one goal of life. While aiming his arrow at the mark, Arjuna said, 'I see only the eye of the bird and nothing else — not the kings, not the trees, not even the bird itself.'

“उन्हें पाने ही से काम हो गया ! – संस्कृत न पढ़ी तो क्या हुआ है ?

[“তাঁকে লাভ হলেই হল! সংস্কৃত নাই জানলাম।

"The realization of God is enough for me. What does it matter if I don't know Sanskrit?

“उनकी कृपा पण्डित, मूर्ख और सब बच्चों पर है – जो उनको पाने के लिए व्याकुल हो । पिता का स्नेह सब पर बराबर है ।

“पिता के पाँच लड़के हैं, उनमें एक-दो बाबूजी कहकर पुकार सकते हैं । कोई 'बा' कहकर पुकारता है । कोई 'पा ' कहता है, पूरा पूरा उच्चारण नहीं कर सकता । जो बाबूजी कहता है, उस पर क्या बाप का प्यार ज्यादा होगा और जो पा कहकर पुकारता है, उस पर कम ? बाप जानता है, यह छोटा बच्चा अभी साफ बाबूजी नहीं कह सकता ।

[তাঁর কৃপা পণ্ডিত মূর্খ সকল ছেলেরই উপর — যে তাঁকে পাবার জন্য ব্যাকুল হয়। বাপের সকলের উপরে সমান স্নেহ।“বাপের পাঁচটি ছেলে, — দুই-একজন ‘বাবা’ বলে ডাকতে পারে। আবার কেউ বা ‘বা’ বলে ডাকে, — কেউ বা ‘পা’ বলে ডাকে, — সবটা উচ্চারণ করতে পারে না। যে ‘বাবা’ বলে, তার উপর কি বাপের বেশি ভালবাসা হবে? — যে ‘পা’ বলে তার চেয়ে? বাবা জানে — এরা কচি ছেলে, ‘বাবা’ ঠিক বলতে পাচ্ছে না।”

"The grace of God falls alike on all His children, learned and illiterate — whoever longs for Him. The father has the same love for all his children. Suppose a father has five children. One calls him 'Baba', some 'Ba', and some 'Pa'. These last cannot pronounce the whole word. Does the father love those who address him as 'Baba' more than those who call him 'Pa'? The father knows that these last are simply too young to say 'Baba' correctly.

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[ঠাকুর শ্রীরাককৃষ্ণের নরলীলায় মন ]

['नरलीला' ~में श्री रामकृष्ण के मन का आकर्षण]  

🔆'नरलीला' ~ ईश्वर ही डॉक्टर , नर्स, रोगी बनकर खेल रहे हैं🔆  

हाथ टूटने के बाद से एक अवस्था बदल रही है । नरलीला की ओर मन बहुत जा रहा है । वे ही आदमी बनकर खेल रहे हैं ।

“मिट्टी की मूर्ति में तो उनकी पूजा होती है और मनुष्यों में नहीं हो सकती ?

[“এই হাত ভাঙার পর একটা অবস্থা বদলে যাচ্ছে — নরলীলার দিকে মনটা বড় যাচ্ছে। তিনি মানুষ হয়ে খেলা কচ্ছেন।“মাটির প্রতিমায় তাঁর পূজা হয় — আর মানুষে হয় না?

"Since this injury to my arm  a change has been coming over my mind. I have been feeling much inclined to the Naralila. It is God Himself who plays about as human beings. If God can be worshipped through a clay image, then why not through a man?

“एक सौदागर, लंका के पास जहाज के डूब जाने से, लंका के तट पर बहकर लग गया । विभीषण के आदमी उसकी आज्ञा पाकर उस आदमी को विभीषण के पास ले गये । ‘अहा ! मेरे रामचन्द्र जैसी इसकी मूर्ति है । वही नर-रूप !’ यह कहकर विभीषण आनन्द मनाने लगे । उस आदमी को तरह तरह के कपड़े पहनाकर उसकी पूजा-आरती की !

“यह बात जब मैंने पहले पहल सुनी थी, तब मुझे इतना आनन्द हुआ था जिसका ठिकाना नहीं ।

[“একজন সদাগর লঙ্কার কাছে জাহাজ ডুবে যাওয়াতে লঙ্কার কূলে ভেসে এসেছিল। বিভীষণের লোকেরা বিভীষণের আজ্ঞায় লোকটিকে তাঁর কাছে লয়ে গেল। ‘আহা! এটি আমার রামচন্দ্রের ন্যায় মূর্তি — সেই নবরূপ।’ এই বলে বিভীষণ আনন্দে বিভোর হলেন। আর ওই লোকটিকে বসন ভূষণ পরিয়ে পূজা আর আরতি করতে লাগলেন।“এই কথাটি আমি যখন প্রথম শুনি, তখন আমার যে কি আনন্দ হয়েছিল, বলা যায় না।”

"Once a merchant was shipwrecked. He floated to the shore of Ceylon, where Bibhishana was the king of the monsters. Bibhishana ordered his servants to bring the merchant to him. At the sight of him Bibhishana was overwhelmed with joy and said: 'Ah! He looks like my Rama. The same human form!' He adorned the merchant with robes and jewels, and worshipped him. When I first heard this story, I felt such joy that I cannot describe it.

  [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[পূর্বকথা — বৈষ্ণবচরণ — ফুলুই শ্যামবাজারের কর্তাভজাদের কথা ]

🔆वैष्णवचरण - फुलुई श्यामबाजार के कर्ताभजा-सम्प्रदाय की बात🔆

“वैष्णवचरण से पूछने पर उसने कहा जो जिसे प्यार करता है, उसे इष्ट मानने पर ईश्वर पर शीघ्र ही मन लग जाता है ।  उस देश में (कामारपुकुर के निकट श्यामबाजार में) एक सम्प्रदाय-विशेष ^* के स्त्री-पुरुष एक साथ मिलकर साधना करते हैं। वे एकदूसरे से पूछते है , ‘तू किसे प्यार करता है ?’  ‘अमुक स्त्री को ।’ तो उसे  ही अपना इष्ट मान ।’

[सम्प्रदाय-विशेष ^*: वैष्णववाद के कुछ छोटे पंथों  - कर्ताभजा- सम्प्रदाय  और नवरसिक -सम्प्रदाय , में सिखाया जाता है कि पुरुषों और महिलाओं को एक साथ रहकर प्रेमपूर्ण -सम्बन्ध बना लेना चाहिए। धीरे-धीरे एक दूसरे को राधा-कृष्ण  का प्रतिरूप मानकर परस्पर प्यार करते समय उन्हें एक दूसरे की आँखों में देख्ग्ते हुए, यह अनुभव करना चाहिए कि उनका शारीरिक प्रेम भी ईश्वर का ही प्रेम है। लेकिन यह अनुभव  करना बहुत कठिन है। 

^The reference is to certain minor sects of Vaishnavism, such as the Kartabhaja and the Navarasika, which teach that men and women should live together in the relationship of love. Gradually they should idealize their love by looking upon each other as divine, eventually realizing that their physical love is also the love of God. This is very difficult to realize.कर्ताभजा- सम्प्रदाय के विषय में स्वामीजी अपने 25 सितम्बर 1894 को लिखित पत्र में कहते हैं -यह पतनशील वैष्णवमत की एक शाखा है। इसके अनुयायी ईश्वर को कर्ता कहते हैं , झाड़फूंक द्वारा रोग दूर करने के लिए प्रसिद्द हैं। }

 मैंने कहा – ‘इस तरह का मत मेरा नहीं है – मेरा मातृ-भाव (दिव्यभाव) है । देखो, बातें तो बड़ी लम्बी-चौड़ी करते हैं और उधर व्यभिचार भी करते हैं । औरतों ने पूछा – क्या हम लोगों की मुक्ति न होगी? मैंने कहा – होगी अगर एक पुरुष ही पर भगवद्दृष्टि से निष्ठा रखनी होगी । पाँच मर्दों के साथ रहने से न होगी ।”

{“বৈষ্ণবচরণকে জিজ্ঞাসা করাতে বললে, যে যাকে ভালবাসে, তাকে ইষ্ট বলে জানলে, ভগবানে শীঘ্র মন হয়। ‘তুই কাকে ভালবাসিস?’ ‘অমুক পুরুষকে।’ ‘তবে ওকেই তোর ইষ্ট বলে জান্‌।’ ও-দেশে (কামারপুকুর, শ্যামবাজারে) আমি বললাম — ‘এরূপ মত আমার নয়। আমার মাতৃভাব।’ দেখলাম যে লম্বা লম্বা কথা কয়, আবার ব্যাভিচার করে। মাগীরা জিজ্ঞাসা করলে — আমাদের কি মুক্তি হবে না? আমি বললাম — হবে যদি একজনেতে ভগবান বলে নিষ্ঠা থাকে। পাঁচটা পুরুষের সঙ্গে থাকলে হবে না।”

"Vaishnavcharan said to me, 'If a person looks on his beloved as his Ishta, he finds it very easy to direct his mind to God.' The men and women of a particular sect3 at Syambazar, near Kamarpukur, say to each other, 'Whom do you love?' 'I love so-and-so.' 'Then know him to be your God.' When I heard this, I said to them: 'That is not my way. I look on all women as my mother.' I found out that they talked big but led immoral lives. The women then asked me if they would have salvation. 'Yes,' I said, 'if you are absolutely faithful to one man and look on him as your God. But you cannot be liberated if you live with five men.'"

राम – केदार शायद कर्ताभजावालों (एक सम्प्रदाय) के यहाँ गये थे ।

[রাম — কেদারবাবু কর্তাভজাদের ওখানে বুঝি গিছলেন?

RAM: "I understand that Kedar Babu has recently visited the Kartabhajas' place."

श्रीरामकृष्ण – वह पाँच तरह के फूलों से मधु लिया करता है ।(राम, नित्यगोपाल आदि से) – “यहाँ उसके/मेरे इष्ट हैं, इस तरह का जब सोलहों आना विश्वास हो जायेगा, तब ईश्वर मिलेंगे – तब उनके दर्शन होंगे ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ও পাঁচ ফুলের মধু আহরণ করে, (রাম, নিত্যগোপাল প্রভৃতি প্রতি) — “ইনিই আমার ইষ্ট” এইটি ষোল আনা বিশ্বাস হলে — তাঁকে লাভ হয় — দর্শন হয়।

[MASTER: "He gathers honey from various flowers. (To Ram, Nityagopal, and the others) If a devotee believes one hundred per cent that his/ My Chosen Ideal is God, then he attains God and sees Him.

  [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[“হলধারীর বাবা” — “আমার বাবা” — বৃন্দাবনে ফিরতিগোষ্ঠদর্শনে ভাব ]

🔆"हलधारी के पिता " और "मेरे पिता" का आनन्दातिरेक (ecstasy)🔆

[भगवान माँ काली के रूप में नाचते हैं और देवीपुत्र आनन्द से ताली बजाता है ]

“पहले के आदमियों में विश्वास बहुत होता था । हलधारी के पिता को बड़ा पक्का विश्वास था ।

“वह अपनी लड़की की ससुराल जा रहा था । रास्ते में बेल खूब फूल रहे थे और बेल के अच्छे दल भी उसे दीख पड़े । श्रीठाकुरजी की सेवा करने के लिए फूल और बेलपत्र लेकर उल्टे पाँव तीन कोस जमीन अपने घर लौट आया !

[“আগেকার লোকের খুব বিশ্বাস ছিল। হলধারীর বাপের কি বিশ্বাস!“মেয়ের বাড়ি যাচ্ছিল। রাস্তায় বেলফুল আর বেলপাতা চমৎকার হয়ে রয়েছে দেখে, ঠাকুরের সেবার জন্য সেই সব নিয়ে দুই-তিনক্রোশ পথ ফিরে তার বাড়ি এল।

"People of bygone generations had tremendous faith. What faith Haladhari's father had! Once he was on the way to his daughter's house when he noticed some beautiful flowers and vilwa-leaves. He gathered them for the worship of the Family Deity and walked back five or six miles to his own house.

“रामलीला हो रही थी । कैकेयी ने राम को वनवास की आज्ञा दी । हलधारी का बाप भी रामलीला देखने गया था । वह बिलकुल उठकर खड़ा हो गया । जो कैकेयी बना था उसके पास पहुँचकर कहा – ‘अभागिन् !’ यह कहकर उसके मुँह में दीया लगा देना चाहा !

“नहाने के बाद जब पानी में खड़ा होकर ‘रक्तवर्ण चतुर्मुखम्’ कहकर ध्यान करता था, तब उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चलती थी ।

[“রাম যাত্রা হচ্ছিল। কৈকেয়ী রামকে বনবাস যেতে বললেন। হলধারীর বাপ যাত্রা শুনতে গিছিল — একবারে দাঁড়িয়ে উঠল। — যে কৈকেয়ী সেজেছে, তার কাছে এসে ‘পামরী!’ — এই কথা বলে দেউটি (প্রদীপ) দিয়ে মুখ পোড়াতে গেল।  স্নান করবার পর যখন জলে দাঁড়িয়ে — রক্তবর্ণং চতুর্মুখম্‌ — এই সব বলে ধ্যান করত — তখন চক্ষু জলে ভেসে যেত!

"Once a theatrical troupe in the village was enacting the life of Rama. When Kaikeyi asked Rama to go into exile in the forest, Haladhari's father, who had been watching the performance, sprang up. He went to the actor who played Kaikeyi, crying out, 'You wretch!', and was about to burn the actor's face with a torch. He was a very pious man. After finishing his ablutions he would stand in the water and meditate on the Deity, reciting the invocation: 'I meditate on Thee, of red hue and four faces', while tears streamed down his cheeks.

“मेरे पिता जब खड़ाऊ पहनकर रास्ते पर चलते थे तब गाँव के दूकानदार उठकर खड़े हो जाते थे । कहते, वे आ रहे हैं !

“जब वे हलदार तालाब में नहाते थे, तब वहाँ कोई नहाने जाय, ऐसी हिम्मत किसी में न थी । लोग खबर रखते, वे नहाकर गये या नहीं ।

[“আমার বাবা যখন খড়ম পরে রাস্তায় চলতেন, গাঁয়ের দোকানীরা দাঁড়িয়ে উঠত। বলত, ওই তিনি আসছেন।“যখন হালদার-পুকুরে স্নান করতেন, লোকেরা সাহস করে নাইতে যেত না। খপর নিত — ‘উনি কি স্নান করে গেছেন?’

"When my father walked along the lanes of the village wearing his wooden sandals, the shopkeepers would stand up out of respect and say, 'There he comes!' When he bathed in the Haldarpukur, the villagers would not have the courage to get into the water. Before bathing they would inquire if he had finished his bath.

“रघुवीर रघुवीर कहते कहते उनकी छाती लाल हो जाती थी ।

“मुझे भी ऐसा ही होता था । वृन्दावन में गौओं को चरकर लौटते हुए देखकर, आनंदातिरेक से शरीर की वैसी ही दशा हो गयी थी ।

[“রঘুবীর! রঘুবীর! বলতেন, আর তাঁর বুক রক্তবর্ণ হয়ে যেত।“আমারও ওইরকম হত। বৃন্দাবনে ফিরতিগোষ্ঠ দেখে, ভাবে শরীর ওইরূপ হয়ে গিছল।

"When my father chanted the name of Raghuvir, his chest would turn crimson. This also happened to me. When I saw the cows at Vrindavan returning from the pasture, I was transported into a divine mood and my body became red.

“तब के आदमियों में बड़ा विश्वास था । ऐसी बात भी सुनने में आती है कि भगवान काली के रूप में नाच रहे हैं और साधक तालियाँ बजा रहे हैं ।”

{“তখনকার লোকের খুব বিশ্বাস ছিল। হয়তো কালীরূপে তিনি নাচছেন, সাধক হাততালি দিচ্ছে! এরূপ কথাও শোনা যায়।”

"Very strong was the faith of the people in those days. One hears that God used to dance then, taking the form of Kali, while the devotee clapped his hands keeping time."}

पंचवटी के कमरे में एक हठयोगी आये हुए हैं । एँड़ेदा के कृष्णकशोर के पुत्र रामप्रसन्न और दूसरे भी कई आदमी उन हठयोगी पर बड़ी भक्ति रखते हैं । परन्तु उनके अफीम और दूध के लिए हर महीने पच्चीस रूपये का खर्च होता है । रामप्रसन्न ने श्रीरामकृष्ण से कहा था, ‘आपके यहाँ तो कितने भक्त आते हैं, उनसे कुछ कह दीजियेगा; हठयोगी के लिए कुछ रूपये मिल जायँगे ।’

श्रीरामकृष्ण ने कुछ भक्तों से कहा, “पंचवटी में जाकर हठयोगी को देखो, कैसा आदमी है ।”

[পঞ্চবটীর ঘরে একটি হঠযোগী আসিয়াছেন। এঁড়েদের কৃষ্ণকিশোরের পুত্র রামপ্রসন্ন ও আরও কয়েকটি লোক ওই হঠযোগীকে বড় ভক্তি করেন। কিন্তু তাঁর আফিম আর দুধে মাসে পঁচিশ টাকা খরচা পড়ে। রামপ্রসন্ন ঠাকুরকে বলেছিলেন, “আপনার এখানে অনেক ভক্তরা আসে কিছু বলে কয়ে দিবেন, — হঠযোগীর জন্য তাহলে কিছু টাকা পাওয়া যায়। ঠাকুর কয়েকটি ভক্তকে বলিলেন — পঞ্চবটীতে হঠযোগীকে দেখে এসো, কেমন লোকটি।

” A hathayogi was staying in the hut at the Panchavati. Ramprasanna, the son of Krishnakishore of Ariadaha, and several other men had become his devotees. The yogi needed twenty-five rupees a month for his milk and opium; so Ramprasanna had requested Sri Ramakrishna to speak to his devotees about the yogi and get some money. The Master said to several devotees: "A hathayogi has come to the Panchavati. Go and visit him. See what sort of man he is."

(२)

  [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[ঠাকুরদাদা ও মহিমাচরণের প্রতি উপদেশ]

🔆कथावाचक ठाकुरदादा और महिमाचरण को उपदेश🔆

ठाकुर दादा (Thakur Dada ) नामक एक २७-२८ साल का युवा अपने दो-एक मित्रों को साथ लेकर श्रीरामकृष्ण के पास आये हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।  वराहनगर में रहते हैं । ब्राह्मण पण्डित के लड़के हैं । धर्मग्रन्थों से पाठकर के 'कथावाचक' ^ बनने का अभ्यास कर रहे हैं, ताकि परिवार चलाने के लिए धन कमा सकें । अब संसार का भार ऊपर आ पड़ा है । कुछ दिन के लिए विरागी होकर घर से निकल गये थे । साधन-भजन अब भी करते हैं ।

['कथावाचक' ^^ गीति आलेख या रुचिकर संगीत के साथ धर्मग्रन्थों में लिखित कहानियों का पाठ।^The recital of stories from religious books, with appropriate music.

[‘ঠাকুরদাদা’ দু-একটি বন্ধুসঙ্গে আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন। বয়স ২৭/২৮ হইবে। বরাহনগরে বাস। ব্রাহ্মণ পণ্ডিতের ছেলে, — কথকতা অভ্যাস করিতেছেন। সংসার ঘাড়ে পড়িয়াছে, — দিন কতক বৈরাগ্য হইয়া নিরুদ্দেশ হইয়াছিলেন। এখনও সাধন-ভজন করেন।

A young man of twenty-seven or twenty-eight, known as Thakur Dada, entered the room with a few friends and saluted the Master. He lived at Baranagore and was the son of a brahmin pundit. He was practising the kathakata ^* in order to earn money to meet his family's expenses. At one time he had been seized with the spirit of renunciation and had gone away from his family. Even now he practised spiritual discipline at home.

श्रीरामकृष्ण – क्या तुम पैदल आ रहे हो ? कहाँ रहते हो ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি কি হেঁটে আসছ? কোথায় বাড়ি?

MASTER: "Have you come on foot? Where do you live?"

ठाकुरदादा – जी हाँ, वराहनगर में रहता हूँ ।

[ঠাকুরদাদা — আজ্ঞা হাঁ; বরাহনগরে বাড়ি।

DADA: "Yes, sir, I have walked from home. I live at Baranagore."

श्रीरामकृष्ण – यहाँ क्या कोई काम था ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — এখানে কি দরকার ছিল?

MASTER: "Have you come here for any particular purpose?"

ठाकुरदादा – जी, आपके दर्शन करने आया हूँ । उन्हें पुकारता हूँ, परन्तु बीच बीच में अशान्ति क्यों होती है ? दो-चार दिन तो आनन्द में रहता हूँ, परन्तु उसके बाद फिर अशान्ति क्यों होने लगती है ?

[ঠাকুরদাদা — আজ্ঞা, আপনাকে দর্শন করতে আসা, তাঁকে ডাকি — মাঝে মাঝে অশান্তি হয় কেন? দুপাঁচদিন বেশ আনন্দে যায় — তারপর অশান্তি কেন?

DADA: "I have come here to visit you. I pray to God. But why do I suffer now and then from worries? For a few days I feel very happy. Why do I feel restless afterwards?"

  [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[কারিকর; মন্ত্রে বিশ্বাস; হরিভক্তি; জ্ঞানের দুটি লক্ষণ ]

 🔆शिल्पी -दन्तचिकित्स्क ~ मन्त्र में विश्वास और हरिभक्ति; ज्ञान के दो लक्षण🔆

श्रीरामकृष्ण – मैं समझ गया । ऊपर -नीचे के कृत्रिम दांतों की पंक्ति - ठीक नहीं बैठती । जब दाँतों का डाक्टर दाँत में दाँत ठीक बैठा देता है, तब चबाने में कष्ट नहीं होता । शायद कहीं कुछ अटक रहा है ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — বুঝেছি, — ঠিক পড়ছে না। কারিকর দাঁতে দাঁত বসিয়ে দেয় — তাহলে হয় — একটু কোথায় আটকে আছে।

MASTER: "I see. Things have not been fitted quite exactly. The machine works smoothly if the mechanic fits the cogs of the wheels correctly. In your case there is an obstruction somewhere."

ठाकुरदादा – जी हाँ, ऐसी ही अवस्था  हुई है ।

[ঠাকুরদাদা — আজ্ঞা, এইরূপ অবস্থাই হয়েছে।

DADA: "Yes, sir. That must be so."

श्रीरामकृष्ण – क्या तुम मन्त्र ले चुके हो ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — মন্ত্র নিয়েছ?

MASTER: "Are you initiated?"

ठाकुरदादा – जी हाँ ।

[DADA: "Yes, sir."

श्रीरामकृष्ण – मन्त्र पर विश्वास तो है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — মন্ত্রে বিশ্বাস আছে?

MASTER: "Do you have faith in your mantra?"

ठाकुरदादा के एक मित्र ने कहा – ‘ये बहुत अच्छा गाते हैं ।’ श्रीरामकृष्ण ने एक गाना गाने के लिए कहा ।

ঠাকুরদাদার বন্ধু বলিতেছেন — ইনি বেশ গান গাইতে পারেন।

A friend of Thakur Dada said that the latter could sing well. The Master asked him to sing.

ठाकुरदादा गा रहे हैं

प्रेम गिरी-कंदरे, योगी होये रोहिबो।  

आनन्द निर्झर पाशे योगध्याने थाकिबो।।

तत्वफल आहरिये ज्ञान-क्षुधा निवारिये , 

वैराग्य-कुसुम दिये श्रीपादपद्म पूजिबो।

मिटाते विरह -तृषा कूप जले आर जाबो ना , 

ह्रदय -करंग भरे शान्ति -वारि तुलीबो। 

कभू भाव श्रृंग पोरे , पदामृत पान कोरे ,

हासिबो ,कांदीबो , नाचिबो गाइबो। 

[“प्रेम-गिरि की कन्दरा में योगी बनकर रहूँगा । वहाँ आनन्द के झरने के पास मैं ध्यान करता हुआ बैठा रहूँगा । तत्त्व-फलों का संग्रह करके मैं ज्ञान की भूख मिटाऊँगा और वैराग्य कुसुमों से पादपद्मों की पूजा करूँगा । विरह की प्यास बुझाने के लिए मैं अब कुएँ के पानी के लिए न जाऊँगा, हृदय के पात्र में शान्ति का सलिल भर लूँगा । कभी भाव के शिखर पर चरणामृत पीकर हँसूँगा, रोऊँगा, नाचूँगा और गाऊँगा ।”

প্রেম গিরি-কন্দরে, যোগী হয়ে রহিব।
আনন্দনির্ঝর পাশে যোগধ্যানে থাকিব ৷৷
তত্ত্বফল আহরিয়ে জ্ঞান-ক্ষুধা নিবারিয়ে,
বৈরাগ্য-কুসুম দিয়ে শ্রীপাদপদ্ম পূজিব।
মিটাতে বিরহ-তৃষা কূপ জলে আর যাব না,
হৃদয়-করঙ্গ ভরে শান্তি-বারি তুলিব।
কভু ভাব শৃঙ্গ পরে, পদামৃত পান করে,
হাসিব কাঁদিব নাচিব গাইব।
[Thakur Dada sang:I shall become a yogi and dwell in Love's mountain cave;I shall be lost in yoga beside the Fountain-head of Bliss.I shall appease my hunger for Knowledge with the fruit of Truth;I shall worship the feet of God with the flower of Dispassion.I shall not seek a well to slake the burning thirst of my heart,But I shall draw the water of Peace into the jar of my soul.Drinking the glorious Nectar of Thy blessed Lotus Feet,I shall both laugh and dance and weep and sing on the heights of Joy.

श्रीरामकृष्ण – वाह, अच्छा गाना है ! आनन्द-निर्झर (Fountain-head of Bliss !) तत्त्वफल (Frute of Truth, इन्द्रियातीत सत्य का फल) !  हँसूँगा, रोऊँगा, नाचूँगा और गाऊँगा !

“तुम्हारे भीतर से गाना कैसा मधुर लग रहा है ! – बस और क्या चाहिए !

{শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা, বেশ গান! আনন্দনির্ঝর! তত্ত্বফল! হাসিব কাঁদিব নাচিব গাইব।“তোমার ভিতর থেকে এমন গান ভাল লাগছে — আবার কি!

MASTER: "Ah, what a nice song! "Fountain-head of Bliss'! 'Fruit of Truth'! 'Laugh and dance and weep and sing'! Your song tastes very sweet to me. Why should you worry?}

“संसार में रहने से सुख और दुःख हैं ही – थोड़ी सी अशान्ति तो मिलेगी ही । काजल की कोठरी में रहने से देह में कुछ कालिख लग ही जाती है ।”

[“সংসারেতে থাকতে গেলেই সুখ-দুঃখ আছে — একটু-আধটু অশান্তি আছে।“কাজলের ঘরে থাকলে গায়ে একটু কালি লাগেই।”

"Pleasure and pain are inevitable in the life of the world. One suffers now and then from a little worry and trouble. A man living in a room full of soot cannot avoid being a little stained."

ठाकुरदादा – जी, मैं अब क्या करूँ, बतला दीजिये ।

[“ঠাকুরদাদা — আজ্ঞা, — এখন কি করব — বলে দিন।

DADA: "Please tell me what I should do now."

श्रीरामकृष्ण – तालियाँ बजा-बजाकर सुबह-शाम ईश्वर के गुण गाया करना – नाम लेना ‘हरि बोल’ ‘हरि बोल’ कहकर ।

“एक बार और आना – मेरा हाथ कुछ अच्छा होने पर ।”

[শ্রীরামকৃষ্ণ —  হাততালি দিয়ে সকালে বিকালে হরিনাম করবে — ‘হরিবোল’ — ‘হরিবোল’ — ‘হরিবোল’ বলে। “আর একবার এসো, — আমার হাতটা একটু সারুক।”

MASTER: "Chant the name of Hari morning and evening, clapping your hands. Come once more when my arm is healed a bit."

  [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

🔆भवबंधन काटने के लिए आचार्य शकंर से भगवान विष्णु की भक्तिरूपी कटार प्राप्त करो 🔆

महिमाचरण ने श्रीरामकृष्ण को आकर प्रणाम किया ।

श्रीरामकृष्ण – (महिमा से) – अहा ! उन्होंने एक बड़ा सुन्दर गाना गाया है । गाओ तो जी वही गाना एक बार और ।

[মহিমাচরণ আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন। (মহিমার প্রতি) — “আহা ইনি একটি বেশ গান গেয়েছেন। — গাও তো গা সেই গানটি আর একবার।”

Mahimacharan entered the room and saluted the Master. Sri Ramakrishna said to him: "Ah! He has sung a nice song. Please sing it again." Thakur Dada repeated the song.

गाना समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण महिमाचरण से कह रहे हैं – ‘तुम वही श्लोक एक बार कहो तो जरा, जिसमें ईश्वरभक्ति की बातें हैं ।’

[গান সমাপ্ত হইলে ঠাকুর মহিমাচরণকে বলিতেছেন — তুমি সেই শ্লোকটি একবার বলতো — হরিভক্তির কথা।

MASTER (to Mahima): "Please recite that verse, the one about devotion to Hari."

महिमाचरण ने, ‘अन्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम्’, कहकर सुनाया; श्रीरामकृष्ण ने कहा, और वह भी कहो जिसमें ‘लभ लभ हरिभक्तिम्’ है । महिमाचरण 'नारद पंचरात्र' का श्लोक पढ़ने लगे –

आराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।

नाराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥

अन्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।

 नान्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥६॥

विरम विरम ब्रह्मन् किं तपस्यासु वत्स ।

व्रज व्रज द्विज शीघ्रं शंकरं ज्ञानसिन्धुम् ॥

लभ लभ हरिभक्तिं वैष्णवोक्तां सुपक्वाम् ।

भव-निगड़ -निबन्धच्छेदनीं कर्तरीं च ॥

[ ‘नारद – पंचरात्र’ में है कि नारद जब तपस्या कर रहे थे, उस समय यह दैववाणी हुई – ‘यदि हरि की आराधना की जाय तो फिर तपस्या की क्या आवश्यकता ? और यदि हरि की आराधना न की जाय तो भी तपस्या की क्या आवश्यकता ? अन्दर बाहर यदि हरि ही हो तो फिर तपस्या का क्या प्रयोजन ? और अन्दर बाहर यदि हरि न हों तो फिर तपस्या का क्या प्रयोजन ? अतएव हे ब्रह्मन्, तपस्या से विरत होओ ! वत्स, तपस्या की क्या आवश्यकता है! हे द्विज, शीघ्र ही ज्ञानसिन्धु शंकर के पास जाओ! वैष्णवों ने जिस हरिभक्ति की महिमा गायी है उस सुपक्व भक्ति का लाभ करो! इस भक्तिरुपी कटार से भवबन्धन कट जायेंगे!’ ]

[মহিমাচরণ নারদপঞ্চরাত্র হইতে সেই শ্লোকটি বলিতেছেন —

অন্তর্বহির্যদি হরিস্তপসা ততঃ কিম্‌।

নান্তর্বহির্যদি হরিস্তপসা ততঃ কিম্‌।

আরাধিতো যদি হরিস্তপসা ততঃ কিম্‌।

নারাধিতো যদি হরিস্তপসা ততঃ কিম্‌।

[Mahimacharan recited, quoting from the Narada Pancharatra:What need is there of penance if God is worshipped with love?What is the use of penance if God is not worshipped with love?What need is there of penance if God is seen within and without?What is the use of penance if God is not seen within and without?

বিরম বিরম ব্রহ্মন্‌ কিং তপস্যাসু বৎস।

ব্রজ ব্রজ দ্বিজ শীঘ্রং শঙ্করং জ্ঞানসিন্ধুম্‌ ৷৷

লভ লভ হরিভক্তিং বৈষ্ণবোক্তাং সুপক্কাম্‌।

ভব-নিগড়-নিবন্ধচ্ছেদনীং কর্তরীঞ্চ।

O Brahman! O my child! Cease from practising further penances. Hasten to Sankara, the Ocean of Heavenly Wisdom; Obtain from Him the love of God, the pure love praised by devotees, Which snaps in twain the shackles that bind you to the world.

   [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

['शं करोति सः शंकरः'- भगवान शंकर विष्णुभक्ति देकर परमकल्याण करते हैं, इसलिए शंकर] 

🔆(ज्ञानसिन्धु) शंकर हरि-भक्ति (विष्णु-भक्ति) देंगे 🔆 

श्रीरामकृष्ण – (ज्ञानसिन्धु) शंकर हरि-भक्ति (विष्णु-भक्ति) देंगे । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — শঙ্কর হরিভক্তি দিবেন।

MASTER: "Yes, Sankara will bestow the love of God."

[स्कन्दोपनिषत् -  में यह बताया गया है की विष्णु और शिव में कोई भेद नहीं है तथा शिव और जीव में भी कोई भेद नहीं है। शरीर को मंदिर माना है तथा अध्यात्म दर्शन को व्यवहारिक बनाने की दिशा दी गयी है। ज्ञानसिन्धु आचार्य शंकर (स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित 'CINC -नवनीदा ') हरि-भक्ति  (इष्टदेव-अवतारवरिष्ठ) की भक्ति देंगे!

महिमाचरण स्कन्दोपनिषत् से पाठ कर रहे है--  

जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः ।

तुषेण बद्धो व्रीहिः स्यात्तुषाभावेन तण्डुलः॥ ६।। 

 - जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। वह जीव विशुद्ध शिव ही है। (जीव-शिव) उसी प्रकार है, जैसे धान का छिलका लगे रहने पर 'व्रीहि' कहा जाता है, और छिलका दूर हो जाने पर उसे 'चावल' कहा जाता है॥६॥

एवं बद्धस्तथा जीवः कर्मनाशे सदाशिवः ।

पाशबद्धस्तथा जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः॥७।। 

(स्कन्द उपनिषद)

उसी  प्रकार बन्धन में बँधा हुआ (मन का गुलाम -चैतन्य तत्त्व) जीव  होता है और वही (प्रारब्ध) कर्मों के नष्ट होने पर (मन को वशीभूत कर लेने पर) सदाशिव हो जाता है ! अथवा दूसरे शब्दों में पाश में बँधा जीव 'जीव' कहलाता है और पाशमुक्त हो जाने पर सदाशिव हो जाता है।  'One who is free from bondage is the eternal Siva. ' ॥७॥

यथान्तरं न भेदाः स्युः शिवकेशवयोस्तथा ।

देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः ॥ १०॥

तत्त्वदर्शियों द्वारा इस देह को ही देवालय कहा गया है और उसमें जीव केवल शिवरूप है। जब मनुष्य अज्ञानरूप कल्मष का परित्याग कर दे, तब वह सोऽहं भाव से उनका (शिव का) पूजन करे॥१०॥

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।

दिवीव चक्षुराततम् ॥ १४॥

ऐसे ब्रह्मवेत्ता (ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति) उस भगवान् विष्णु के परम पद को सदा ही (ध्यान मग्न होकर) देखते हैं, अपने चक्षुओं में उस दिव्यता को समाहित किये रहते हैं॥१४॥ 

   [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 🔆'अब लौं नसानी, अब न नसैहों ' जैसी जिद्दी हरि -भक्ति से अष्टपाश कट जाते हैं🔆  

श्रीरामकृष्ण – लज्जा, घृणा भय और संकोच, ये सब पाश हैं, क्यों जी ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — লজ্জা, ঘৃণা, ভয়, সঙ্কোচ — এ-সব পাশ; কি বল?

MASTER: "Shame, hatred, fear, hesitation — these are the shackles. What do you say?"

[अष्ट पाश - : लज्जा, घृणा, भय, जाति, कुल, शील, शंका, जुगुप्सा (निन्दा।) ये अष्ट मानव लक्षण सर्वदा ही मनुष्य के आध्यात्मिक उन्नति हेतु बाधक माने गए हैं तथा साधन पथ (Be and Make ) में त्याज्य हैं। पशु भाव साधन क्रम के अनुसार साधक इन्हीं लक्षणों या पाशों पर विजय पाने का प्रयास करता हैं।

*घृणा लज्जा भयं शंका जुगुप्सा चेति पंचमी । 

कुलं शीलं तथा जातिरष्टो पाशः प्रकीर्तिताः ॥ 

पाश बद्धो भवेत् जीवः पाश मुक्त सदाशिव।-(कुलार्णवतन्त्र)] 

महिमा जी हाँ । गुप्त रखने की इच्छा, प्रशंसा से अत्यधिक सिकुड़ना ।

[মহিমা — আজ্ঞা হাঁ, গোপন করবার ইচ্ছা, প্রশংসায় কুণ্ঠিত হওয়া।

MAHIMA: "Yes, sir. And also the desire to conceal, and shrinking before praise."]

श्रीरामकृष्ण – ज्ञान के दो लक्षण हैं । पहला तो यह कि कूटस्थ बुद्धि हो । लाख दुःख, कष्ट, विपत्तियाँ और विघ्न हों – सब में निर्विकार रहना – जैसे लोहार के यहाँ का लोहा, जिस पर हथौड़ा चलाते हैं । और दूसरा है पुरुषकार  – पूरी जिद ^*। काम और क्रोध से अपना अनिष्ट हो रहा है – देखा कि एकदम त्याग!! कछुआ जब अपने हाथ पैर भीतर समेट लेता है, तब उसके चार खण्ड कर डालने पर भी उन्हें वह बाहर नहीं निकालता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — দুটি জ্ঞানের লক্ষণ। প্রথম কূটস্থ বুদ্ধি। হাজার দুঃখ-কষ্ট, বিপদ-বিঘ্ন হোক — নির্বিকার, যেমন কামারশালের লোহা, যার উপর হাতুড়ি দিয়ে পেটে। আর, দ্বিতীয়, পুরুষকার — খুব রোখ। কাম-ক্রোধে আমার অনিষ্ট কচ্ছে তো একেবারে ত্যাগ! কচ্ছপ যদি হাত-পা ভিতরে সাঁদ করে, চারখানা করে কাটলেও আর বার করবে না।

MASTER: "There are two signs of knowledge. First, an unshakable buddhi. No matter how many sorrows, afflictions, dangers, and obstacles one may be faced with, one's mind does not undergo any change. It is like the blacksmith's anvil, which receives constant blows from the hammer and still remains unshaken. And second, manliness — very strong grit. If lust and anger injure a man, he must renounce them once for all. If a tortoise once tucks in its limbs, it won't put them out again though you may cut it into four pieces.]

[पुरुषकार  – पूरी जिद से मनःसंयोग का अभ्यास करने ^* का उदाहरण : 

अब लौं नसानी, अब न नसैहों।

रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥

भावार्थ : अब तक तो (यह आयु व्यर्थ ही ) नष्ट हो गयी, परन्तु अब इसे नष्ट नहीं होने दूंगा। श्री राम की कृपा से संसाररूपी रात्रि बीत गयी है ! (अर्थात उत्तिष्ठ-जाग्रत मंत्र को सुन-सुन कर मैं संसार की माया-रात्रि से अर्थात भेंड़त्व वाली Hypnotized अवस्था से जग गया हूँ !!) अब जागने पर फिर माया का बिछौना नहीं बिछाऊंगा, अब फिर माया के फंदे में नहीं फसूंगा।

पायो नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं।

स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं॥

मुझे रामनाम (अवतार -वरिष्ठ का नाम) रूपी  जो सुन्दर चिंतामणि मिल गयी है; उसे हृदय रुपी हाथ से कभी नहीं गिरने दूंगा। भगवान विष्णु [की शक्ति माँ काली ] के अवतार श्री रघुनाथजी, कृष्ण, नरसिंह, श्रीठाकुरदेव  का जो पवित्र श्यामसुंदर रूप है, उसकी कसौटी बनाकर  अपने चित्तरूपी सोने को कसूंगा (प्रत्याहार-धारणा का नियमित अभ्यास करूँगा) , अर्थात् यह देखूंगा कि श्री ठाकुरदेव के ध्यान में  मेरा मन सदा- सर्वदा लगता है कि नहीं। 

परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन निज बस ह्वै न हँसैहौं।

मन मधुपहिं प्रन करि, तुलसी रघुपति पदकमल बसैहौं॥

जब तक मैं इन्द्रियों के वश में था, तब तक इन्द्रियों ने (मन माना नाच नचाकर) मेरी बड़ी हंसी उडाई, परन्तु अब स्वतंत्र होने पर यानी मन- इन्द्रियों को जीत लेने पर उनसे अपनी हंसी नहीं कराऊंगा। अब तो अपने मनरूपी भ्रमर को प्रण करके श्री ठाकुरदेव जी के चरण कमलों में लगा दूंगा, अर्थात् श्री राम जी के चरणों को छोड़कर दूसरी जगह अपने मन को नहीं जाने दूंगा।- गोस्वामी तुलसीदास जी  (' विनय-पत्रिका')]

   [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[তীব্র, মন্দা ও মর্কট বৈরাগ্য ]


🔆 तीव्र वैराग्य (Intense renunciation ) माया पाश को तुरन्त काट देता है🔆

(ठाकुरदादा आदि से) “वैराग्य दो तरह का है । तीव्र वैराग्य और मन्द वैराग्य । मन्द वैराग्य वह है जिसका भाव है, ‘धीरे-धीरे होता है – हो जायगा ।’ तीव्र वैराग्य शान पर लगाये हुए छुरे की धार है – माया के पाशों को तुरन्त काट देता है ।

[(ঠাকুরদাদা প্রভৃতির প্রতি) — “বৈরাগ্য দুইপ্রকার। তীব্র বৈরাগ্য আর মন্দা বৈরাগ্য। মন্দা বৈরাগ্য — হচ্ছে হবে — ঢিমে তেতালা। তীব্র বৈরাগ্য — শাণিত ক্ষুরের ধার — মায়াপাশ কচকচ করে কেটে দেয়।

 (To Thakur Dada and the others) There are two kinds of renunciation: intense and feeble. Feeble renunciation is a slow process; one moves in a slow rhythm. Intense renunciation is like the sharp edge of a razor. It cuts the bondage of maya easily and at once.

“कोई किसान कितने ही दिनों से मेहनत करता है, परन्तु पानी खेत में आता ही नहीं मन में जिद है ही नहीं ! और कोई दो-चार दिन मेहनत करने के बाद – ‘आज पानी लाकर दम लूँगा’ इस तरह का हठ ठान बैठता है । नहाना-खाना सब बन्द कर देता है । दिन भर मेहनत करने के बाद जब कुल्-कुल् स्वर से पानी आने लगता है तब उसे कितना आनन्द होता है ! तब वह घर जाकर अपनी स्त्री से कहता है – ‘ले आ तेल – मालिश करके नहाऊँगा’ । नहा-खाकर फिर सुख की नींद सोता है ।

[“কোনও চাষা কতদিন ধরে খাটছে — পুষ্করিণীর জল ক্ষেতে আসছে না। মনে রোখ নাই। আবার কেউ দু-চারদিন পরেই — আজ জল আনব তো ছাড়ব, প্রতিজ্ঞা করে। নাওয়া খাওয়া সব বন্ধ। সমস্ত দিন খেটে সন্ধ্যার সময় যখন জল কুলকুল করে আসতে লাগল, তখন আনন্দ। তারপর বাড়িতে গিয়ে পরিবারকে বলে — ‘দে এখন তেল দে নাইব।’ নেয়ে খেয়ে নিশ্চিন্ত হয়ে নিদ্রা।

"One farmer labours for days to bring water from the lake to his field. But his efforts are futile because he has no grit. Another farmer, after labouring for two or three days, takes a vow and says, 'I will bring water into my field today, and not till then will I go home.' He puts aside all thought of his bath or his meal. He labours the whole day and feels great joy when in the evening he finds water entering his field with a murmuring sound. Then he goes home and says to his wife: 'Now give me some oil. I shall take my bath.' After finishing his bath and his meal he lies down to sleep with a peaceful mind.

“एक की स्त्री ने कहा, ‘अमुक को बड़ा वैराग्य हुआ है – तुम्हें कुछ भी न हुआ ।’ जिसे वैराग्य हुआ था, उसके सोलह स्त्रियाँ थीं, एक एक करके वह सब को छोड़ रहा है ।

“उस स्त्री का स्वामी कन्धे पर अँगौछा डाले हुए नहाने जा रहा था । उसने कहा, अरी, सुन, त्याग करने की शक्ति उसमें नहीं है, थोड़ा थोड़ा करके कभी त्याग नहीं होता । देख, मैं अब चला !

“घर का कोई प्रबन्ध न करके, उसी अवस्था में कंधे पर अँगौछा डाले हुए, घर छोड़कर वह चला गया । इसे ही तीव्र वैराग्य कहते हैं ।

[“একজনের পরিবার বললে, ‘অমুক লোকের ভারী বৈরাগ্য হয়েছে, তোমার কিছু হল না!’ যার বৈরাগ্য হয়েছে, সে লোকটির ষোলজন স্ত্রী, — এক-একজন করে তাদের ত্যাগ করছে।“সোয়ামী নাইতে যাচ্ছিল, কাঁধে গামছা, — বললে, ‘ক্ষেপী! সে লোক ত্যাগ করতে পারবে না, — একটু একটু করে কি ত্যাগ হয়! আমি ত্যাগ করতে পারব। এই দেখ, — আমি চললুম!’ সে বাড়ির গোছগাছ না করে — সেই অবস্থায় — কাঁধে গামছা — বাড়ি ত্যাগ করে, চলে গেল। — এরই নাম তীব্র বৈরাগ্য।

"A certain woman said to her husband: 'So-and-so has developed a spirit of great dispassion for the world, but I don't see anything of the sort in you. He has sixteen wives. He is giving them up one by one.' The husband, with a towel on his shoulder, was going to the lake for his bath. He said to his wife: 'You are crazy! He won't be able to give up the world. Is it ever possible to renounce bit by bit? I can renounce. Look! Here I go.' He didn't stop even to settle his household affairs. He left home just as he was, the towel on his shoulder, and went away. That is intense renunciation.

   [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

🔆मर्कट-वैराग्य या कायरों  (अंगूर खट्टे हैं  ) का पलायनवादी वैराग्य 🔆

“एक तरह का वैराग्य और है, उसे मर्कट-वैराग्य कहते हैं । संसार की ज्वाला से जलकर गेरुआ वस्त्र पहनकर काशी चला गया । बहुत दिनों तक कोई खबर नहीं । फिर एक चिट्ठी आयी – ‘तुम लोग कोई चिन्ता न करो, यहाँ मुझे एक काम मिल गया है ।’

[ আর-একরকম বৈরাগ্য তাকে বলে মর্কট বৈরাগ্য। সংসারের জ্বালায় জ্বলে গেরুয়া বসন পরে কাশী গেল। অনেকদিন সংবাদ নাই। তারপর একখানা চিঠি এল — ‘তোমরা ভাবিবে না, আমার এখানে একটি কর্ম হইয়াছে।’

"There is another kind of renunciation, called 'markatavairagya', 'monkey renunciation'. A man, harrowed by distress at home, puts on an ochre robe and goes away to Benares. For many days he does not send home any news of himself. Then he writes to his people: 'Don't be worried about me. I have got a job here.'

“संसार की ज्वाला तो है ही । बीबी कहना नहीं मानती, वेतन सिर्फ बीस रुपया महीना, बच्चे का ‘अन्नप्राशन-संस्कार ’^* नहीं हो रहा है, बच्चे को पढ़ाने का खर्च नहीं, घर टूटा हुआ, छत चू रही है, मरम्मत के लिए रूपये नहीं !

[‘अन्नप्राशन-संस्कार ’^* जब शिशु के दाँत उगने लगे, मानना चाहिए कि प्रकृति ने उसे ठोस आहार, अन्नाहार करने की स्वीकृति प्रदान कर दी है। कहावत है जैसा खाय अन्न-वैसा बने मन। इसलिए आहार स्वास्थ्यप्रद होने के साथ पवित्र, संस्कार युक्त हो इसके लिए भी अभिभावकों, परिजनों को जागरूक करना जरूरी होता है। अन्न को व्यसन के रूप में नहीं औषधि और प्रसाद के रूप में लिया जाय, इस संकल्प के साथ अन्नप्राशन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है।]

[“সংসারের জ্বালা তো আছেই! মাগ অবাধ্য, কুড়ি টাকা মাইনে, ছেলের অন্নপ্রাশন দিতে পারছে না, ছেলেকে পড়াতে পারছে না — বাড়ি ভাঙা, ছাত দিয়ে জল পড়ছে; — মেরামতের টাকা নাই।"

There is always trouble in family life. The wife may be disobedient. Perhaps the husband earns only twenty rupees a month. He hasn't the means to perform the 'rice-eating ceremony' for his baby. He cannot educate his son. The house is dilapidated. The roof leaks and he hasn't the money to repair it.

“इसीलिए जब कोई कम उम्र का लड़का आता है तब मैं उससे पूछ लेता हूँ कि तुम्हारे कौन कौन हैं ।

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

 🔆 राजर्षि जनक निर्जन में जाकर विवेकज-ज्ञान लाभ करके गृहस्थी में रहते थे!🔆   

(गृहस्थ -महिमाचरण ! 100 नंबर काशीपुर रोड  के प्रति) “तुम्हारे लिए संसार-त्याग करने की क्या जरूरत है ? साधुओं को कितनी तकलीफ होती है ! एक की स्त्री ने पूछा, ‘तुम संसार छोड़ेगे – क्यों ? दस घरों में घूमघूमकर भीख माँगोगे, इससे तो एक घर में खाते हो, यही अच्छा है ।’

[“তাই ছোকরারা এলে আমি জিজ্ঞাসা করি, তোর কে কে আছে? (মহিমার প্রতি) — “তোমাদের সংসারত্যাগের কি দরকার? সাধুদের কত কষ্ট! একজনের পরিবার বললে, তুমি সংসারত্যাগ করবে — কেন? আট ঘরে ঘুরে ঘুরে ভিক্ষা করতে হবে, তার চেয়ে এক ঘরে খাওয়া পাচ্ছ, বেশ তো।

"Therefore when the youngsters come here I ask them whether they have anyone at home. (To Mahima) Why should householders renounce the world? What great troubles the wandering monks pass through! The wife of a certain man said to him: 'You want to renounce the world? Why? You will have to beg morsels from eight different homes. But here you get all your food at once place. Isn't that nice?']

सदाव्रत की तलाश में रास्ता छोड़कर साधु-संत तीन कोस से भी दूर चले जाते हैं । मैंने देखा है, जगन्नाथ के दर्शन करके सीधे रास्ते से साधु आ रहे हैं, परन्तु सदाव्रत के लिए उन्हें सीधा रास्ता छोड़कर जाना पड़ता है ।

[सदाव्रत : मैंने पुरी की तीर्थ यात्रा के बाद  (दातव्य धर्मशाला ) की तलाश में भटकते संन्यासियों को   नियमित सड़क पर यात्रा करते हुए और खाने की जगह खोजने के लिए छः मील का चक्कर लगाते हुए देखा है।]

“সদাব্রত খুঁজে খুঁজে সাধু তিনক্রোশ রাস্তা থেকে দূরে গিয়ে পড়ে। দেখেছি, জগন্নাথদর্শন করে — সোজা পথ দিয়ে সাধু আসছে; সদাব্রতর জন্য তার সোজা পথ ছেড়ে যেতে হয়।"

Wandering monks, while searching for a sadavrata,5 may have to go six miles out of their way. I have seen them travelling along the regular road after their pilgrimage to Puri and making a detour (चक्कर काटते) to find an eating-place.]

“यह तो अच्छा है – किले से लड़ना । मैदान में खड़े होकर लड़ने में असुविधाएँ हैं । विपत्ति, देह पर गोले और गोलियाँ आकर गिरती है ।

[“এতো বেশ — কেল্লা থেকে যুদ্ধ। মাঠে দাঁড়িয়ে যুদ্ধ করলে অনেক অসুবিধা। বিপদ। গায়ের উপর গোলাগুলি এসে পড়ে!"

You are leading a householder's life. That is very good. It is like fighting from a fort. There are many disadvantages in fighting in an open field. So many dangers, too. Bullets may hit you.

“हाँ कुछ दिनों के लिए निर्जन में जाकर, ज्ञान-लाभ करके ^* संसार के आकर रहो । जनक ज्ञान-लाभ करके संसार में आकर रहे थे । ज्ञान-लाभ हो जाने पर   फिर जहाँ रहो, उसमें कोई हानि नहीं ।”

[“তবে দিন কতক নির্জনে গিয়ে, জ্ঞানলাভ করে,  সংসারে এসে থাকতে হয়। জনক জ্ঞানলাভ করে সংসারে ছিল। জ্ঞানের পর যেখানেই থাক তাতে কি?”

"But one should spend some time in solitude and attain Knowledge. Then one can lead the life of a householder. Janaka lived in the world after attaining Knowledge. When you have gained it, you may live anywhere. Then nothing matters."

🔆🔆🔆🔆🔆🔆[निर्जन में जाकर, ज्ञान-लाभ करके  ^* यम-नचिकेता परम्परा में 'आत्मा के रहस्य का ज्ञान' ~ प्राप्त करने के बाद/दादागुरु गौड़पादाचार्य - आचार्य शंकर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में जाती-पति भेद रहित कर्मप्रधान वर्णाश्रम धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के बाद /, या श्री रामकृष्ण -स्वामी विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में निवृत्ति मार्ग से चपरास-प्राप्त गुरु बनने और मार्ग / या "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में - महामण्डल द्वारा आयोजित ' वैराग्य-अभ्यास ' पूर्वक चित्त-वृत्तियों का निरोध करने का छः दिवसीय प्रशिक्षण द्वारा -आत्मा के रहस्य का ज्ञान  प्राप्त कर, (विवेकज -ज्ञान अर्थात सत्य-असत्य-मिथ्या विवेक लाभ से सिंह शावक के उत्तिष्ठत -जाग्रत का ज्ञान  प्राप्त कर ), राजर्षि जनक के जैसा  गृहस्थ जीवन में रहो, या चाहे जहाँ जाकर रहो उसमें कोई हानि नहीं ! ]  

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

🔆आत्मा का रहस्य नहीं जानने कारण ही मनुष्य कामिनी-कांचन की आसक्ति में फँस जाता है🔆 

महिमाचरण – महाराज, मनुष्य विषय में क्यों फँस जाता है ?

[মহিমাচরণ — মহাশয়, মানুষ কেন বিষয়ে মুগ্ধ হয়ে যায়?

MAHIMA: "Sir, why does a man become deluded by worldly objects?"

श्रीरामकृष्ण – उन्हें बिना प्राप्त किये ही विषय में रहता है, इसलिए । उन्हें प्राप्त कर लेने पर फिर मुग्ध नहीं होता । पतिंगा अगर एक बार उजाला देख लेता है, तो फिर और उसे अन्धकार अच्छा नहीं लगता।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁকে লাভ না করে বিষয়ের মধ্যে থাকে বলে। তাঁকে লাভ করলে আর মুগ্ধ হয় না। বাদুলে পোকা যদি একবার আলো দেখতে পায়, — তাহলে আর তার অন্ধকার ভাল লাগে না।

MASTER: "It is because he lives in their midst without having realized God. Man never succumbs to delusion after he has realized God. The moth no longer enjoys darkness if it has once seen the light.]

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[ঊর্ধ্বরেতা, ধৈর্যরেতা ও ঈশ্বরলাভ — সন্ন্যাসীর কঠিন নিয়ম ]

🔆 मेधानाड़ी ( nerve of memory.)  ऊर्ध्वरेता (A man of unbroken and complete continence.), धैर्यरेता (previously have had discharges of semen but who later on have controlled  them.) 🔆 

“उन्हें पाने की इच्छा रखनेवालों को वीर्य-धारण करना पड़ता है ।

“शुकदेवादि ऊर्ध्वरेता थे । इनका रेतपात कभी नहीं हुआ ।

“एक और है धैर्यरेता । पहले रेतपात हो चुका है, - परन्तु इसके बाद से वे वीर्यधारण करने लगे हैं । बारह वर्ष तक धैर्यरेता रहने पर विशेष शक्ति पैदा होती है । भीतर एक नयी नाड़ी होती है; उसका नाम है मेधानाड़ी उस नाड़ी के होने पर सब स्मरण रहता है – आदमी सब जान सकता है ।

[“তাঁকে পেতে হলে বীর্যধারণ করতে হয়।“শুকদেবাদি ঊর্ধ্বরেতা। এঁদের রেতঃপাত কখনও হয় নাই।“আর এক আছে ধৈর্যরেতা। আগে রেতঃপাত হয়েছে, কিন্তু তারপর বীর্যধারণ। বার বছর ধৈর্যরেতা হলে বিশেষ শক্তি জন্মায়। ভিতরে একটি নূতন নাড়ী হয়, তার নাম মেধা নাড়ী। সে নাড়ী হলে সব স্মরণ থাকে, — সব জানতে পারে।"

To be able to realize God, one must practise absolute continence. Sages like Sukadeva are examples of an urdhareta. (A man of unbroken and complete continence.) Their chastity was absolutely unbroken. There is another class, who previously have had discharges of semen but who later on have controlled them. A man controlling the seminal fluid for twelve years develops a special power. He grows a new inner nerve called the nerve of memory. Through that nerve he remembers all, he understands all.

“वीर्यपात से बल का क्षय होता है । स्वप्नदोष से जो कुछ निकल जाता है, उसमें दोष नहीं । ऐसा खाद्य पदार्थ के गुण से होता है । इस तरह निकल जाने पर भी जो कुछ रहता है, उसी से काम होता है । फिर भी स्त्री-प्रसंग हरगिज न करना चाहिए ।

[“বীর্যপাতে বলক্ষয় হয়। স্বপ্নদোষে যা বেরিয়ে যায়, তাতে দোষ নাই। ও ভাতের গুণে হয়। ও-সব বেরিয়ে গিয়েও যা থাকে, তাতেই কাজ হয়। তবু স্ত্রীসঙ্গ করা উচিত নয়।"

Loss of semen impairs the strength. But it does not injure one if one loses it in a dream. That semen one gets from food. What remains after nocturnal discharge is enough. But one must not know a woman.

“अन्त में जो कुछ रहता है वह refine (सार पदार्थ) है । लाहा बाबू के यहाँ राब (molasses-गुड़रस ) के घड़े रखे थे । घड़ों के नीचे एक एक छेद करके फिर एक साल बाद जब देखा, तब सब दाने बँध गये थे – मिश्री की तरह । जितना शीरा निकलना था, सब छेद से निकल गया था ।

[“শেষে যা থাকে, তা খুব রিফাইন (Refine) হয়ে থাকে। লাহাদের ওখানে গুড়ের নাগরি সব রেখেছিল, — নাগরির নিচে একটি একটি ফুটো করে, তারপর একবৎসর পরে দেখলে; সব দানা বেঁধে রয়েছে — মিছরির মতো। রস যা বেরিয়ে যাবার, ফুটো দিয়ে তা বেরিয়ে গেছে।"

The semen that remains after nocturnal discharge is very 'refined'. The Lahas kept jars of molasses in their house. Every jar had a hole in it. After a year they found that the molasses had crystallized like sugar candy. The unnecessary watery part had leaked out through the hole.

    [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

🔆ईश्वरलाभ ~ संन्यासी के लिए सख्त नियम 🔆

“स्त्रियों का संपूर्ण त्याग संन्यासियों के लिए है । तुम लोगों का विवाह हो गया है, कोई दोष नहीं है ।

[“স্ত্রীলোক একেবারে ত্যাগ — সন্ন্যাসীর পক্ষে। তোমাদের হয়ে গেছে, তাতে দোষ নাই।"

A sannyasi must absolutely renounce woman. You are already involved; but that doesn't matter.

“संन्यासी को स्त्रियों का चित्र भी न देखना चाहिए । पर साधारण लोगों के लिए यह सम्भव नहीं है । सा, रे, ग, म, प, ध, नि; ‘नि’ में तुम्हारी आवाज बहुत देर तक नहीं रह सकती ।

[“সন্ন্যাসী স্ত্রীলোকের চিত্রপট পর্যন্ত দেখবে না। সাধারণ লোকে তা পারে না। সা রে গা মা পা ধা নি। ‘নি’তে অনেকক্ষণ থাকা যায় না।"

A sannyasi must not look even at the picture of a woman. But this is too difficult for an ordinary man. Sa, re, ga, ma, pa, dha, ni are the seven notes of the scale. It is not possible to keep your voice on 'ni' a long time.

“संन्यासी के लिए वीर्यपात बहुत ही बुरा है; इसीलिए उन्हें सावधानी से रहना पड़ता है, ताकि स्त्रियाँ दृष्टि में भी न पड़ें । भक्त-स्त्री होने पर भी वहाँ से हट जाना चाहिए । स्त्री-रूप देखना भी बुरा है । जाग्रत अवस्था में चाहे न हो स्वप्न में अवश्य वीर्य-स्खलन हो जाता है ।

[“সন্ন্যাসীর পক্ষে বীর্যপাত বড়ই খারাপ। তাই তাদের সাবধানে থাকতে হয়। স্ত্রীরূপদর্শন যাতে না হয়। ভক্ত স্ত্রীলোক হলেও সেখান থেকে সরে যাবে। স্ত্রীরূপ দেখাও খারাপ। জাগ্রত অবস্থায় না হয়, স্বপ্নে বীর্যপাত হয়।"

To lose semen is extremely harmful for a sannyasi. Therefore he must live so carefully that he will not have to see the form of a woman. He must keep himself away from a woman even if she is a devotee of God. It is injurious for him to look even at the picture of a woman. He will lose semen in a dream, if not in the waking state.

“संन्यासी जितेन्द्रिय होने पर भी लोक-शिक्षा के लिए स्त्रियों के साथ उसे बातचीत न करनी चाहिए । भक्त-स्त्री होने पर भी उससे ज्यादा देर तक बातचीत न करे ।

[“সন্ন্যাসী জিতেন্দ্রিয় হলেও লোকশিক্ষার জন্য মেয়েদের সঙ্গে আলাপ করবে না। ভক্ত স্ত্রীলোক হলেও বেশিক্ষণ আলাপ করবে না।"

A sannyasi may have control over his senses, but to set an example to mankind he should not talk with women. He must not talk to one very long, even if she is a devotee of God.

“संन्यासी की है निर्जला एकादशी । एकादशी और दो तरह की है । एक फलमूल खाकर रखी जाती है, एक पूड़ी-कचौड़ी और मालपुए खाकर । (सब हँसते हैं ।)

“कभी तो ऐसा भी होता है कि उधर पूड़ियाँ उड़ रही हैं और इधर दूध में दो-एक रोटियाँ भी भीग रही हैं, फिर खायेंगे ! (सब हँसते हैं ।)

[“সন্ন্যাসীর হচ্ছে নির্জলা একাদশী। আর দুরকম একাদশী আছে। ফলমূল খেয়ে, — আর লুচি ছক্কা খেয়ে। (সকলের হাস্য)"“লুচি ছক্কার সঙ্গে হলো দুখানা রুটি দুধে ভিজেছে। (সকলের হাস্য)

Living as a sannyasi is like observing the ekadasi without drinking even a drop of water. There are two other ways of observing the day. You may eat fruit or take luchi and curry. With the luchi and curry you may also take slices of bread soaked in milk. (All laugh.)

(हँसते हुए) “तुम लोग निर्जला एकादशी न रख सकोगे ।

[(সহাস্যে) “তোমরা নির্জলা একাদশী পারবে না।”

(Smiling) "Absolute fasting is not possible for you.

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[পূর্বকথা — কৃষ্ণকিশোরের একাদশী — রাজেন্দ্র মিত্র ]

🔆उपमा - कृष्णकिशोर की एकादशी - राजेंद्र मित्रा 🔆

कृष्णकिशोर को मैंने देखा, एकादशी के दिन पूड़ियाँ और पकवान उड़ा रहे थे । मैंने हृदय से कहा, हृदय, मेरी इच्छा होती है कि मैं भी कृष्णकिशोर की एकादशी रखूँ (सब हँसते हैं ।) एक दिन ऐसा ही किया भी । खूब कसकर खाया । परन्तु उसके दूसरे दिन फिर कुछ न खाया गया ।”(सब हँसते हैं ।)

[“কৃষ্ণকিশোরকে দেখলাম, একাদশীতে লুচি ছক্কা খেলে। আমি হৃদুকে বললাম — হৃদু, আমার কৃষ্ণকিশোরের একাদশী করতে ইচ্ছা হচ্ছে। (সকলের হাস্য) তাই একদিন করলাম। খুব পেট ভরে খেলাম, তার পরদিন আর কিছু খেতে পারলাম না” (সকলের হাস্য)

"Once I saw Krishnakishore eating, luchi and curry on an ekadasi day. I said to Hriday, 'Hridu, I want to observe Krishnakishore's ekadasi!' (All laugh.) And so I did one day. I ate my fill. The next day I had to fast." (Laughter.)

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

🔆अखण्ड सच्चिदानन्द (मार्गदर्शक नेता -ठाकुरदेव) जो हैं वही माँ काली भी हैं🔆  

जो भक्त पंचवटी में हठयोगी को देखने गये थे, वे लौटे । श्रीरामकृष्ण उनसे कह रहे हैं – “क्यों जी, कैसा देखा ? अपने गज से तो नापा ही होगा ?” 

[যে কয়েকটি ভক্ত পঞ্চবটীতে হঠযোগীকে দেখিতে গিয়াছিলেন, তাঁহারা ফিরিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহাদের বলিতেছেন — “কেমন গো — কিরূপ দেখলে? তোমাদের গজ দিয়ে তো মাপলে?”

The devotees who had gone to the Panchavati to visit the hathayogi came back.MASTER (addressing them): "Well, what do you think of him? I dare say you have measured him with your own tape."

श्रीरामकृष्ण ने देखा, भक्तों में कोई भी हठयोगी को रूपये देने के लिए राजी नहीं है ।

[ঠাকুর দেখিলেন, ভক্তরা প্রায় কেহই হঠযোগীকে টাকা দিতে রাজী নয়।

Sri Ramakrishna saw that very few of the devotees were willing to give money to the hathayogi.]

श्रीरामकृष्ण – साधु को जब रूपये देने पड़ते हैं तब फिर वह नहीं भाता ।

“राजेन्द्र मित्र ^* की तनख्वाह आठ सौ रुपया महीना है – वह प्रयाग से कुंभ मेला देखकर आया था । मैंने पूछे – ‘क्यों जी, मेले में कैसे सब साधु देखे ?’ राजेन्द्र ने कहा – ‘कहाँ ? – वैसा साधु एक भी न देखा था। एक को देखा था, परन्तु वह भी रुपया लेता था ।’

[राजेंद्रनाथ मित्रा - डिप्टी मजिस्ट्रेट, ब्रिटिश सरकार के पहले भारतीय सहायक सचिव, वायसराय कैबिनेट में  कानून मंत्री के पद पर कार्यरत थे। राजेन्द्र मित्र ^* Rajendranath Mitra - Deputy Magistrate, First Indian Assistant Secretary to the British Government, Law Minister of the Viceroy.

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সাধুকে টাকা দিতে হলেই তাকে আর ভাল লাগে না।“রাজেন্দ্র মিত্র — আটশ টাকা মাইনে — প্রয়াগে কুম্ভমেলা দেখে এসেছিল। আমি জিজ্ঞাসা করলাম — ‘কেমন গো, মেলায় কেমন সব সাধু দেখলে?’ রাজেন্দ্র বললে — ‘কই তেমন সাধু দেখতে পেলাম না। একজনকে দেখলাম বটে কিন্তু তিনিও টাকা লন।’

MASTER: "You don't like a sadhu if you have to give him money. Rajendra Mitra draws a salary of eight hundred rupees a month. He had been to Allahabad to see the kumbhamela. I asked him, 'Well, what kind of sadhus did you see at the fair?' Rajendra said: 'I didn't find any very great sadhu there. I noticed one, it is true. But even he accepted money.' 

“मैं सोचता हूँ, साधुओं को अगर कोई रुपया-पैसा न देगा तो वे खायेंगे क्या ? यहाँ कुछ देना नहीं पड़ता, इसलिए सब आते हैं । मैं सोचता हूँ, इन लोगों को अपना पैसा बहुत प्यारा है । तो फिर रहें न उसी को लेकर ।”

[“আমি ভাবি যে সাধুদের কেউ টাকাপয়সা দেবে না তো খাবে কি করে? এখানে প্যালা দিতে হয় না — তাই সকলে আসে। আমি ভাবি; আহা, ওরা টাকা বড় ভালবাসে। তাই নিয়েই থাকুক।”

"I say to myself, 'If no one gives money to a sadhu, then how will he feed himself?' There is no collection plate here; therefore all come. And I say to myself: 'Alas! They love their money. Let them have it.'"

श्रीरामकृष्ण जरा विश्राम कर रहे हैं । एक भक्त छोटी खाट पर बैठे हुए उनके पैर दबा रहे हैं । वे भक्त से धीरे धीरे कह रहे हैं, “जो निराकार हैं वही साकार भी हैं । साकाररूप भी मानना चाहिए । काली-रूप की चिन्ता करते हुए साधक काली-रूप के ही दर्शन पाता है । फिर वह देखता है कि वह रूप अखण्ड में लीन हो गया । जो अखण्ड (Indivisible -अविभाज्य ) सच्चिदानन्द हैं वही काली भी हैं ।”

[ঠাকুর একটু বিশ্রাম করিতেছেন। একজন ভক্ত ছোট খাটটির উত্তরদিকে বসিয়া তাঁহার পদসেবা করিতেছেন। ঠাকুর ভক্তটিকে আস্তে আস্তে বলিতেছেন — “যিনি নিরাকার, তিনিই সাকার। সাকাররূপও মানতে হয়। কালীরূপ চিন্তা করতে করতে সাধক কালীরূপেই দর্শন পায়। তারপর দেখতে পায় যে, সেই রূপ অখণ্ডে লীন হয়ে গেল। যিনিই অখণ্ড সচ্চিদানন্দ, তিনিই কালী।”

The Master rested awhile. A devotee sat on the end of the small couch and gently stroked his feet. The Master said to him softly: "That which is formless again has form. One should believe in the forms of God also. By meditating on Kali the aspirant realizes God (ठाकुर) as Kali. Next he finds that the form (ठाकुरदेव) merges in the Indivisible Absolute. That which is the Indivisible Satchidananda is verily Kali."

(३)

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

[মহিমার পাণ্ডিত্য — মণি সেন, অধর ও মিটিং (Meeting)]

[महिमा का पंडित्य - मणि सेन, अधर और मीटिंग]

श्रीरामकृष्ण पश्चिमवाले गोल बरामदे में महिमाचरण आदि के साथ हठयोगी की बातें कर रहे हैं । रामप्रसन्न ^* भक्त कृष्णकिशोर के पुत्र हैं । इसीलिए श्रीरामकृष्ण उन पर स्नेह करते हैं ।

[ঠাকুর পশ্চিমের গোল বারান্দায় মহিমা প্রভৃতির সহিত হঠযোগীর কথা কহিতেছেন। রামপ্রসন্ন ভক্ত কৃষ্ণকিশোরের পুত্র, তাই ঠাকুর তাহাকে স্নেহ করেন।

Sri Ramakrishna was sitting on the semicircular porch west of his room, talking with Mahima and other devotees about the hathayogi. The talk drifted to Ramprasanna, the son of Krishnakishore. The Master was fond of the young man.]

श्रीरामकृष्ण – रामप्रसन्न उसी तरह अल्हड़पने में निरुद्देश्य ही घूम रहा है । उस दिन यहाँ आकर बैठा, कुछ बोला भी नहीं; प्राणायाम साधकर नाक दबाकर श्वास चढ़ाये बैठा रहा । खाने को दिया, परन्तु खाया भी नहीं।

एक और दूसरे दिन भी बुलाकर बैठाया । वह पैर पर पैर चढ़ाकर बैठा – कप्तान की ओर पैर करके । उसकी माँ का दुःख देखकर रोता हूँ ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — রামপ্রসন্ন কেবল ওইরকম করে হো-হো করে বেড়াচ্ছে। সেদিন এখানে এসে বললে — একটু কথা কবে না। প্রাণায়াম করে নাক টিপে বসে রইল; খেতে দিলাম, তা খেলে না। আর-একদিন ডেকে বসালুম। তা পায়ের উপর পা দিয়ে বসল — কাপ্তেনের দিকে পা-টা দিয়ে। ওর মার দুঃখ দেখে কাঁদি

MASTER: "Ramprasanna roams about aimlessly. The other day he came here and sat in the room, but he did not speak a word. He pressed his nostrils with his fingers, practising pranayama. I offered him something to eat, but he wouldn't take it. On another occasion I had asked him to sit by me. He squatted on the floor placing one leg upon the other. He was rather discourteous to Captain. I weep at his mother's suffering.

(महिमाचरण से) “ उस हठयोगी की बात उसने तुमसे कहने के लिए मुझे कहा था । उस योगी का खर्च प्रति दिन उसका साढ़े छः आने का  है । लेकिन इधर खुद कुछ ना कहेगा !”

[(মহিমার প্রতি) —  ওই হঠযোগীর কথা তোমায় বলতে বলেছে। সাড়ে ছ আনা দিন খরচ। এদিকে আবার নিজে বলবে না।”

(To Mahima) "Ramprasanna asked me to speak to you about the hathayogi. The yogi's daily expenses are six and a half annas. But he won't tell you about it himself."

महिमा – कहने से सुनता कौन है ! (श्रीरामकृष्ण और दूसरे हँसते हैं ।)

[মহিমা — বললে শোনে কে? (ঠাকুরের ও সকলের হাস্য)

MAHIMA: "Who will listen to him even if he does?"

[रामप्रसन्न भट्टाचार्य - दक्षिणेश्वर के निकट अरियादह ग्राम के निवासी रामप्रसन्न,  श्री रामकृष्ण के सानिध्य में आए थे। वे भक्तवर कृष्णकिशोर भट्टाचार्य के पुत्र थे । ठाकुर के संपर्क में आने के बाद, रामप्रसन्न कभी-कभी ठाकुर के निकट बैठकर प्राणायाम का अभ्यास किया करते थे। एक बार अपनी वृद्धा माँ की सेवा न कर हठयोगी साधु की सेवा करने के लिए  ठाकुर देव ने नाराजगी व्यक्त की थी।

রামপ্রসন্ন ভট্টাচার্য — শ্রীরামকৃষ্ণের সান্নিধ্যে আগত রামপ্রসন্ন দক্ষিণেশ্বরের পার্শ্ববর্তী আড়িয়াদহের অধিবাসী। ভক্তবর কৃষ্ণকিশোর ভট্টাচার্যের পুত্র। ঠাকুরের সংস্পর্শে আসার পর রামপ্রসন্ন মাঝে মাঝে ঠাকুরের কাছে বসিয়া প্রাণায়াম করিতেন। একবার রামপ্রসন্ন তাঁহার বৃদ্ধা মায়ের সেবা না করিয়া হঠযোগী সাধুর সেবা করার জন্য ঠাকুর বিরক্তি প্রকাশ করিয়াছিলেন।] 

श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आकर अपने आसन पर बैठे । पानिहाटी के श्रीयुत मणि सेन दो-एक मित्रों के साथ आये हैं, श्रीरामकृष्ण के हाथ टूटने के सम्बन्ध में पूछताछ कर रहे हैं । उनके साथियों में एक डॉक्टर भी है !

श्रीरामकृष्ण आजकल डॉक्टर प्रतापचन्द्र मजूमदार का इलाज कर रहे हैं । मणिबाबू के सामनेवाले डॉक्टर ने उनकी चिकित्सा का अनुमोदन नहीं किया । श्रीरामकृष्ण उनसे कहा रहे हैं – “वह (प्रताप) कुछ बेवकूफ तो है नहीं, तुम क्यों ऐसी बात कह रहे हो ?”

[ঠাকুর ঘরের মধ্যে আসিয়া নিজের আসনে বসিয়াছেন। শ্রীযুক্ত মণি সেন (যাঁদের পেনেটীতে ঠাকুরবাড়ি) দু-একটি বন্ধুসঙ্গে আসিয়াছেন ও ঠাকুরের হাত ভাঙা সম্বন্ধে জিজ্ঞাসা পড়া করিতেছেন। তাঁর সঙ্গীদের মধ্যে একজন ডাক্তার। ঠাকুর ডাক্তার প্রতাপ মজুমদারের ঔষধ সেবন করিতেছেন। মণিবাবুর সঙ্গী ডাক্তার তাঁহার ব্যবস্থার অনুমোদন করিলেন না। ঠাকুর তাঁহাকে বলিতেছেন, “সে (প্রতাপ) তো বোকা নয়, তুমি অমন কথা বলছ কেন?”

Mani Sen of Panihati entered the room with several friends, one of whom was a physician. Mani asked the Master about his injured arm. The doctor did not approve of the medicine prescribed by Pratap Mazumdar. The Master said to him: "Why should you say that? Pratap is no fool."

इसी समय लाटू ने जोर से पुकारकर कहा, “शीशी गिरकर फूट गयी है ।”

[এমন সময় লাটু উচ্চৈঃস্বরে বলিতেছেন শিশি পড়ে ভেঙে গেছে।

Suddenly Latu cried out, "Oh! The medicine Bottle has dropped and broken."

मणि सेन हठयोगी की बात सुनकर कह रहे हैं – “हठयोगी किसे कहते हैं ? हॉट(hot) का तो अर्थ है गरम !”

मणि सेन के डॉक्टर के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्ण ने पीछे से कहा – “उसे जानता हूँ । यदु मल्लिक से मैंने कहा भी था, यह तुम्हारा डॉक्टर बिलकुल खोखला है – अमुक डॉक्टर से भी इसकी बुद्धि मोटी है !”

[শ্রীযুক্ত মাস্টারের সহিত একান্তে কথা ]

['M' के साथ निजी बात]

[ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆रजोगुण होने से पाण्डित्य प्रदर्शन की इच्छा  , सतोगुण से मनुष्य अन्तर्मुख हो जाता है🔆  

अभी सन्ध्या नहीं हुई है । श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठकर मास्टर से बातचीत कर रहे हैं । वे खाट के पास पाँवपोश पर पश्चिम की ओर मुँह करके बैठे हैं; इधर महिमाचरण पश्चिमवाले गोल बरामदे में बैठकर मणि सेन के डॉक्टर के साथ उच्च स्वर में शास्त्रालाप कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण अपने आसन से सुन रहे हैं और कुछ हँसकर मास्टर से कह रहे हैं – “देखो, लेक्चर झाड़ रहा है; रजोगुणी है । रजोगुण होने से कुछ पाण्डित्य दिखलाने और लेक्चर देने की इच्छा होती है । सतोगुण से मनुष्य अन्तर्मुख हो जाता है, खुद के गुण छिपा रखने की इच्छा होती है । पर आदमी खासा है – ईश्वर के नाम पर कितना उत्साह है !”

{এখনও সন্ধ্যা হয় নাই। ঠাকুর নিজের আসনে বসিয়া মাস্টারের সহিত কথা কহিতেছেন। তিনি খাটের পাশে পাপোশ পশ্চিমাস্য হইয়া বসিয়া আছেন। এদিকে মহিমাচরণ পশ্চিমের গোল বারান্দায় বসিয়া মণি সেনের ডাক্তারের সহিত উচ্চৈঃস্বরে শাস্ত্রালাপ করিতেছেন। ঠাকুর নিজের আসন হইতে শুনিতে পাইতেছেন ও ঈষৎ হাস্য করিয়া মাস্টারকে বলিতেছেন — “ওই ঝাড়ছে! রজোগুণ! রজোগুণে একটু পাণ্ডিত্য দেখাতে, লেকচার দিতে ইচ্ছা হয়। সত্ত্বগুণে অন্তর্মুখ হয়, — আর গোপন। কিন্তু খুব লোক! ঈশ্বর কথায় এত উল্লাস!”

It was not yet dusk. The Master, seated on the couch, was talking to M. Mahimacharan was on the semicircular porch engaged in a loud discussion of the scriptures with the physician friend of Mani Sen. Sri Ramakrishna heard it and with a smile said to M.: "There! He is delivering himself. That is the characteristic of rajas. It stimulates the desire to lecture and to show off one's scholarship. But sattva makes one introspective. It makes one hide one's virtues. But I must say that Mahima is a grand person. He takes such delight in spiritual talk."

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

🔆भगवत्प्राप्ति के लिए अभ्यास करने में शीघ्रता करो~ make haste to worship God.🔆

अधर आये, प्रणाम किया और मास्टर के पास बैठ गये । श्रीयुत अधर सेन डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैंउम्र तिस साल की होगी । दिन भर आफिस का काम करके, कितने ही दिनों से शाम के बाद श्रीरामकृष्ण के पास आ रहे हैं । इनका मकान कलकत्ते के शोभा बाजार बनियाटोले में है । कई दिनों से ये आये नहीं थे।

[অধর আসিয়া প্রণাম করিলেন ও মাস্টারের পাশে বসিলেন।শ্রীযুক্ত অধর সেন ডেপুটি ম্যাজিস্ট্রেট, বয়ঃক্রম ত্রিশ বৎসর হইবে। অনেক দিন ধরিয়া সমস্ত দিন আফিসের পরিশ্রমের পর ঠাকুরের কাছে প্রায় প্রত্যহ সন্ধ্যার পার আসেন। তাঁহার বাটী কলিকাতা শোভাবাজার বেনেটোলায়। অধর কয়েকদিন আসেন নাই।

Adhar entered the room, saluted the Master, and sat by M.'s side. He had not come for the past few days.]

श्रीरामकृष्ण- क्यों जी, इतने दिन क्यों नहीं आये ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কিগো, এতদিন আস নাই কেন?

MASTER: "Hello! Why haven't you come all these days?."

अधर – कई कामों में फँसा था । स्कूलों की सभाओं और कुछ दूसरी मीटिंग में भी जाना पड़ा था ।

[অধর — আজ্ঞা, অনেকগুণো কাজে পড়ে গিছলাম। ইস্কুলের দরুন সভা এবং আর আর মিটিং-এ যেতে হয়েছিল।

ADHAR: "Sir, I have been busy with so many things. I had to attend a conference of the school committee and various other meetings."

श्रीरामकृष्ण – मीटिंग, स्कूल लेकर और सब बिलकुल भूल गये थे ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — মিটিং, ইস্কুল — এই সব লয়ে একেবারে ভুলে গিছলে।

MASTER: "So you completely lost yourself in schools and meetings and forgot everything else?"

अधर – (विनयपूर्वक) – जी, नहीं, काम के कारण बाकी सब बातें दबी सी पड़ी थीं । आपका हाथ कैसा है ?

[অধর (বিনীত ভাবে) — আজ্ঞা সব চাপা পড়ে গিছল। আপনার হাতটা কেমন আছে?

ADHAR: "Everything else was hidden away in a corner of my mind. How is your arm?"

श्रीरामकृष्ण – यह देखो, अभी तक अच्छा नहीं हुआ । प्रताप की दवा खा रहा था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — এই দেখ এখনো সারে নাই। প্রতাপের ঔষধ খাচ্ছিলাম।

MASTER: "Just look. It is not yet healed. I have been taking medicine prescribed by Pratap."

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण एकाएक अधर से कहने लगे – “देखो, यह सब अनित्य है । मीटिंग, स्कूल, ऑफिस, यह सब अनित्य है । ईश्वर ही वस्तु है और सब अवस्तु । बस मन लगाकर उन्हीं की आराधना ^  करनी चाहिए ।”

[কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর হঠাৎ অধরকে বলিতেছেন — “দেখো এ-সব অনিত্য — মিটিং, ইস্কুল, আফিস — এ-সব অনিত্য। ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু। সব মন দিয়ে তাঁকেই আরাধনা করা উচিত।”

MASTER: "All else is illusory. This moment the body is and the next moment it is not. One must make haste to worship God. 

अधर चुप हैं ।

[অধর চুপ করিয়া আছেন।

Adhar sat without speaking a word.

श्रीरामकृष्ण – यह सब अनित्य है । शरीर अभी अभी है, अभी अभी नहीं । जल्दी उन्हें पुकार लेना चाहिए ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — এ-সব অনিত্য। শরীর এই আছে এই নাই। তাড়াতাড়ি তাঁকে ডেকে নিতে হয়।

MASTER: "All else is illusory. This moment the body is and the next moment it is not. One must make haste to worship God.6

[^इस बातचीत के कुछ महीने बाद ही आधार की मौत हो गई।^A few months after this conversation Adhar died. 
(इसीलिए महाभारत शान्तिपर्व  में कहा गया है- "युवावस्था से ही धर्मपरायण होना चाहिए_" को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति । युवैव धर्मशीलः स्यादनित्यं खलु जीवितम् ।।"  कौन जानता है कि किसका आज मृत्युकाल होगा, युवावस्था से ही धर्मशील होना चाहिए क्योंकि जीवन अनित्य है।_यह समझकर प्रति क्षण भगवत्प्राप्ति के लिए अभ्यास करते रहना चाहिए।हर दिन को हर पल को जो यह समझता है कि किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है , उसे सहज ही वैराग्य उत्पन्न होने लगता है । उस मनुष्य के द्वारा कभी भी कोइ गलत जल्दी नहीं हो सकता है । वह किसके लिए झूठ बोलेगा ,किसके लिए छल कपट करेगा , इसी लिए हर समय यह स्मरण करते रहना चाहिए , जिससे हमारे द्वारा किसी भी प्रकार का कोइ भी गलत कार्य न हो , जिससे हम अधर्म को त्याग कर धर्म के मार्ग पर चलते रहें।) ]

 तुम लोगों को सब त्याग करने की आवश्यकता नहीं है । कछुए की तरह संसार में रहो । कछुआ स्वयं तो पानी में भोजन की तलाश करता है, परन्तु अपने अण्डे किनारे पर रखता है – उसका सब मन वहीँ रहता है जहाँ उसके अण्डे हैं ।

[“তোমাদের সব ত্যাগ করবার দরকার নাই। কচ্ছপের মতো সংসারে থাক। কচ্ছপ নিজে জলে চরে বেড়ায়; — কিন্তু ডিম আড়াতে রাখে — সব মনটা তার ডিম যেখানে, সেখানে পড়ে থাকে।"

But you don't have to renounce everything. Live in the world the way the tortoise does. The tortoise roams about in the water but keeps its eggs on land. Its whole mind is on the eggs.]

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

 [ইংরেজী পড়া লোক ভ্রষ্টাচারী!]

🔆केवल  पाश्चात्य शिक्षा पद्धति में  पढ़नेवाले भ्रष्टाचारी होते हैं 🔆

“कप्तान का स्वभाव अब अच्छा हो गया है । जब पूजा करने बैठता है तब बिलकुल ऋषि की तरह जान पड़ता है । इधर कपूर की आरती और बहुत ही सुन्दर स्तव पाठ करता है । पूजा करके जब उठता है, तब भाव के कारण उसकी आँखें सूज जाती हैं, मानो चींटियों ने काटा हो । और सारे समय गीता, भागवत यही सब पढ़ता रहता है । मैंने दो-चार अंग्रेजी शब्द कहें, इससे बिगड़ बैठा । कहा – अंग्रेजी पढ़नेवाले भ्रष्टाचारी होते हैं ।”

[“কাপ্তেনের বেশ স্বভাব হয়েছে। যখন পূজা করতে বসে, ঠিক একটি ঋষির মতো! — এদিকে কর্পূরের আরতি; সুন্দর স্তব পাঠ করে। পূজা করে যখন ওঠে, চক্ষে যেন পিঁপড়ে কামড়েছে! আর সর্বদা গীতা, ভাগবত — এ-সব পাঠ করে। আমি দু-একটা ইংরেজী কথা কয়েছিলাম, — তা রাগ কল্লে। বলে — ইংরেজী পড়া লোক ভ্রষ্টাচারী!”

"What a nice state of mind Captain has developed! He looks like a rishi when he is seated to perform worship. He performs the arati with lighted camphor and recites beautiful hymns. When he rises from his seat after finishing the worship, his eyes are swollen from emotion, as if bitten by ants. Besides, he always devotes himself to the study of the sacred books, such as the Gita and the Bhagavata. Once I used one or two English words before him, and that made him angry. He said, 'English-educated people are profane.'"

कुछ देर बाद अधर ने बड़े विनीत भाव से कहा –

“हमारे यहाँ बहुत दिनों से आप नहीं पधारे हैं । बैठकखाने में मानो संसारीपन की दुर्गन्ध आती है और बाकी तो सब अँधेरा ही अँधेरा है ।”

[কিয়ৎক্ষণ পরে অধর অতি বিনীতভাবে বলিতেছেন —“আপনার আমাদের বাড়িতে অনেকদিন যাওয়া হয় নাই। বৈঠকখানা ঘরে গন্ধ হয়েছিল — আর যেন সব অন্ধকার!”

After a while Adhar said humbly to the Master: "Sir, you haven't been to our place for a long time. The drawing-room smells worldly and everything else appears to be steeped in darkness."

भक्त की यह बात सुनकर श्रीरामकृष्ण के स्नेह का सागर उमड़ पड़ा । भावावेश में वे उठकर खड़े हो गये । अधर और मास्टर के मस्तक और हृदय पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया । स्नेहपूर्वक कहा – “मैं तुम लोगों में को नारायण देख रहा हूँ । तुम्हीं लोग मेरे अपने आदमी हो ।”

[ভক্তের এই কথা শুনিয়া ঠাকুরের স্নেহ-সাগর যেন উথলিয়া উঠিল। তিনি হঠাৎ দণ্ডায়মান হইয়া ভাবে অধর ও মাস্টারের মস্তক ও হৃদয় স্পর্শ করিয়া আশীর্বাদ করিলেন। আর সস্নেহে বলিতেছেন — “আমি তোমাদের নারায়ণ দেখছি! তোমরাই আমার আপনার লোক!”

The Master was deeply touched by these words of his devotee. He suddenly stood up and blessed M. and Adhar in an ecstatic mood, touching their heads and hearts. In a voice choked with love the Master said: "I look upon you as Narayana Himself. You are indeed my own."

 [ (23 मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-78 ] 

🔆 🔆 मेधानाड़ी ( nerve of memory. स्मृति का स्नायुकेन्द्र ) 

 ऊर्ध्वरेता (शुकदेव परमहंस ), धैर्यरेता (राजर्षि जनक)🔆 

अब महिमाचरण भी कमरे में आकर बैठे ।

[এইবার মহিমাচরণ ঘরের মধ্যে আসিয়া বসিলেন।

Mahimacharan entered the room.

श्रीरामकृष्ण – (महिमा से) – धैर्यरेता की बात उस समय जो तुम कह रहे थे, वह ठीक है । वीर्यधारण किये बिना इन सब बातों की धारणा नहीं होती ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — ধৈর্যতার কথা তখন যা বলেছিলে তা ঠিক। বীর্যধারণ না করলে এ-সব (উপদেশ) ধারণ হয় না।

MASTER (to Mahima): "What I said about aspirants practising continence is true. Without chastity one cannot assimilate these teachings.

“किसी ने चैतन्यदेव से कहा, ‘आप इन भक्तों को इतना उपदेश दे रहे हैं, तो भी वे अपनी उतनी उन्नति क्यों नहीं कर पाते ?”

“चैतन्यदेव ने कहा – ‘ये लोग योषित्-संग करके सब अपव्यय कर देते हैं, इसीलिए धारणा नहीं कर सकते । फूटे घड़े में पानी रखने से क्रमशः सब निकल जाता है ।”

[“একজন চৈতন্যদেবকে বললে, এদের (ভক্তদের) এত উপদেশ দেন, তেমন উন্নতি করতে পাচ্ছে না কেন? তিনি বললেন — এরা যোষিৎসঙ্গ করে সব অপব্যয় করে। তাই ধারণা করতে পারে না। ফুটো কলসীতে জল রাখলে জল ক্রমে ক্রমে বেরিয়ে যায়।”

"Once a man said to Chaitanya: 'You give the devotees so much instruction. Why don't they make much progress?' Chaitanya said: 'They dissipate their powers in the company of women. That is why they cannot assimilate spiritual instruction. If one keeps water in a leaky jar, the water escapes little by little through the leak.'"

महिमा आदि भक्तगण चुपचाप बैठे हैं । कुछ देर बाद महिमाचरण ने कहा – ईश्वर के पास हम लोगों के लिए प्रार्थना कर दीजिये, जिससे हम लोगों को वह शक्ति प्राप्त हो ।

[মহিমা প্রভৃতি ভক্তেরা চুপ করিয়া আছেন! কিয়ৎক্ষণ পরে মহিমাচরণ বলিতেছেন — ঈশ্বরের কাছে আমাদের জন্য প্রার্থনা করুন — যাতে আমাদের সেই শক্তি হয়।

Mahima and the other devotees remained silent. After a time Mahima said, "Please pray to God for us that we may acquire the necessary strength."

श्रीरामकृष्ण – अब भी सावधान हो जाओ ! सच है कि आषाढ़ का पानी है, रोकना मुश्किल है, परन्तु पानी निकल भी तो बहुत चुका है, अब बाँध बाँधने से रुक जायगा । ॐ 

{শ্রীরামকৃষ্ণ — এখনও সাবধান হও! আষাঢ় মাসের জল, বটে, রোধ করা শক্ত। কিন্তু জল অনেক তো বেরিয়ে গেছে! — এখন বাঁধ দিলে থাকবে। 

MASTER: "Be on your guard even now. It is difficult, no doubt, to check the torrent in the rainy season. But a great deal of water has gone out. If you build the embankment now it will stand."}

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॥अथ स्कन्दोपनिषत्॥

स्कन्दोपनिषत्

स्कन्दोपनिषत्  शान्तिपाठ

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

वह परमात्मा हम दोनों गुरु और शिष्य की साथ- साथ रक्षा करें, हम दोनों का साथ- साथ पालन  करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें। हे परमात्मन् त्रिविध ताप की शान्ति हो। आध्यात्मिक ताप (मन के दु:ख) की, अधिभौतिक ताप (दुष्ट जन और हिंसक प्राणियों से तथा दुर्घटना आदि से प्राप्त दु:ख) की शान्ति हो।

अच्युतोऽस्मि महादेव तव कारुण्यलेशतः ।

विज्ञानघन एवास्मि शिवोऽस्मि किमतः परम् ॥ १॥

हे महादेव! आपकी लेश मात्र कृपा प्राप्त होने से मैं अच्युत (पतित या विचलित न होने वाला) विशिष्ट ज्ञान-पुञ्ज एवं शिव (कल्याणकारी) स्वरूप बन गया हूँ, इससे अधिक और क्या चाहिए? ॥१॥

न निजं निजवद्भाति अन्तःकरणजृम्भणात् ।

अन्तःकरणनाशेन संविन्मात्रस्थितो हरिः ॥ २॥

जब साधक अपने पार्थिव स्वरूप को भूलकर अपने अन्त:करण का विकास करते हुए सबको अपने समान प्रकाशमान मानता है, तब उसका अपना अन्त:करण (मन,बुद्धि, चित्त, अहंकार) समाप्त होकर वहाँ एक मात्र परमेश्वर का अस्तित्व रहता है॥२॥

संविन्मात्रस्थितश्चाहमजोऽस्मि किमतः परम् ।

व्यतिरिक्तं जडं सर्वं स्वप्नवच्च विनश्यति ॥ ३॥

इससे अधिक क्या होगा कि मैं आत्मरूप में स्थित हैं और अजन्मा अनुभव करता हैं। इसके अतिरिक्त यह सम्पूर्ण जड़-जगत् स्वप्नवत् नाशवान् है॥३॥

चिज्जडानां तु यो द्रष्टा सोऽच्युतो ज्ञानविग्रहः ।

स एव हि महादेवः स एव हि महाहरिः ॥ ४॥

जो जड़-चेतन सबका द्रष्टारूप है, वही अच्युत (अटल) और ज्ञान स्वरूप है,वही महादेव और वही महाहरि (महान् पापहारक) है॥४॥

स एव हि ज्योतिषां ज्योतिः स एव परमेश्वरः ।

स एव हि परं ब्रह्म तद्ब्रह्माहं न संशयः ॥ ५॥

वही सभी ज्योतियों की मूल ज्योति है, वही परमेश्वर है, परब्रह्म है, मैं भी वही हैं, इसमें संशय नहीं है॥५॥

जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः ।

तुषेण बद्धो व्रीहिः स्यात्तुषाभावेन तण्डुलः ॥ ६॥

जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। वह जीव विशुद्ध शिव ही है। (जीव-शिव) उसी प्रकार है, जैसे धान का छिलका लगे रहने पर व्रीहि और छिलका दूर हो जाने पर उसे चावल कहा जाता है॥६॥

एवं बद्धस्तथा जीवः कर्मनाशे सदाशिवः ।

पाशबद्धस्तथा जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः ॥ ७॥

इस प्रकार बन्धन में बँधा हुआ (चैतन्य तत्त्व) जीव होता है और वही (प्रारब्ध) कर्मों के नष्ट होने पर सदाशिव हो जाता है अथवा दूसरे शब्दों में पाश में बँधा जीव 'जीव' कहलाता है और पाशमुक्त हो जाने पर सदाशिव हो जाता है॥७॥

शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे ।

शिवस्य हृदयं विष्णुः विष्णोश्च हृदयं शिवः ॥ ८॥

भगवान् शिव ही भगवान् विष्णुरूप हैं और भगवान् विष्णु भगवान् शिवरूप हैं। भगवान् शिव के हृदय में भगवान् विष्णु का निवास है और भगवान् विष्णु के हृदय में भगवान् शिव विराजमान हैं॥८॥

यथा शिवमयो विष्णुरेवं विष्णुमयः शिवः ।

यथान्तरं न पश्यामि तथा मे स्वस्तिरायुषि ॥ ९॥

जिस प्रकार विष्णुदेव शिवमय हैं, उसी प्रकार देव शिव विष्णुमय हैं। जब मुझे इनमें कोई अन्तर नहीं दिखता,तो मैं इस शरीर में ही कल्याणरूप हो जाता हूँ। 'शिव' और 'केशव' में भी कोई भेद नहीं है॥९॥

यथान्तरं न भेदाः स्युः शिवकेशवयोस्तथा ।

देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः ॥ १०॥

तत्त्वदर्शियों द्वारा इस देह को ही देवालय कहा गया है और उसमें जीव केवल शिवरूप है। जब मनुष्य अज्ञानरूप कल्मष का परित्याग कर दे, तब वह सोऽहं भाव से उनका (शिव का) पूजन करे॥१०॥

त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहंभावेन पूजयेत् ।

अभेददर्शनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मनः ।

स्नानं मनोमलत्यागः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ॥ ११॥

सभी प्राणियों में ब्रह्म का अभेदरूप से दर्शन करना यथार्थ ज्ञान है और मन का विषयों से आसक्ति रहित होना-यह यथार्थ ध्यान है। मन के विकारों का त्याग करना-यह यथार्थ स्नान है और इन्द्रियों को अपने वश में रखना-यह यथार्थ शौच (पवित्र होना) है॥११॥

ब्रह्मामृतं पिबेद्भैक्ष्यमाचरेद्देहरक्षणे ।

वसेदेकान्तिको भूत्वा चैकान्ते द्वैतवर्जिते।।

इत्येवमाचरेद्धीमान्स एवं मुक्तिमाप्नुयात् ॥ १२॥

ब्रह्मज्ञान रूपी अमृत का पान करे, शरीर रक्षा मात्र के लिए उपार्जन (भोजन ग्रहण) करे, एक परमात्मा में लीन होकर द्वैतभाव छोड़कर एकान्त ग्रहण करे। जो धीर पुरुष इस प्रकार का आचरण करता है, वही मुक्ति को प्राप्त करता है॥१२॥

श्रीपरमधाम्ने स्वस्ति चिरायुष्योन्नम इति ।

विरिञ्चिनारायणशङ्करात्मकं नृसिंह देवेश तव प्रसादतः ।

अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तमव्ययं वेदात्मकं ब्रह्म निजं विजानते ॥ १३॥

श्री परमधाम वाले (ब्रह्मा, विष्णु, शिव देव) को नमस्कार है, (हमारा) कल्याण हो, दीर्घायुष्य की प्राप्ति हो। हे विरञ्चि, नारायण एवं शंकर रूप नृसिंह देव! आपकी कृपा से उस अचिन्त्य, अव्यक्त, अनन्त, अविनाशी, वेद स्वरूप ब्रह्म को हम अपने आत्म स्वरूप में जानने लगे हैं॥१३॥

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।

दिवीव चक्षुराततम् ॥ १४॥

ऐसे ब्रह्मवेत्ता उस भगवान् विष्णु के परम पद को सदा ही (ध्यान मग्न होकर) देखते हैं, अपने चक्षुओं में उस दिव्यता को समाहित किये रहते हैं॥१४॥

तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते ।

विष्णोर्यत्परमं पदम् ।

इत्येतन्निर्वाणानुशासनमिति वेदानुशासनमितिम्

वेदानुशासनमित्युपनिषत् ॥ १५॥

विद्वज्जन ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर जो भगवान् विष्णु का परमपद है, उसी में लीन हो जाते हैं। यह सम्पूर्ण निर्वाण सम्बन्धी अनुशासन है, यह वेद का अनुशासन है। इस प्रकार यह उपनिषद् (रहस्य ज्ञान) है॥१५॥

स्कन्दोपनिषत्  शान्तिपाठ

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

[साभार https://ptvaishnavi.blogspot.com/2021/01/skanda-upanishad.html] 

भगवत रसिक––ये टट्टी संप्रदाय के महात्मा स्वामी ललितमोहनीदास के शिष्य थे। इन्होंने अपनी उपासना से सबंध रखने वाले अनन्य-प्रेम-रसपूर्ण बहुत से पद, कवित्त, कुंडलिया, छप्पय आदि रचे है।  इनका रचनाकाल सवत् १८३० और १८५० के बीच माना जा सकता है।  इनकी रचनाओं में  एक ओर तो वैराग्य का भाव और दूसरी ओर अनन्य प्रेम का भाव छलकता है। इनका हृदय प्रेम-रसपूर्ण था। इसी से इन्होंने कहा है कि "भगवत रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना।" ये कृष्णभक्ति में लीन एक प्रेमयोगी थे। इन्होंने प्रेमतत्व का निरूपण बड़े ही अच्छे ढंग से किया है। इनका प्रसिद्द पद है -

"हमारो वृंदावन उर और;

माया काल तहाँ नहिं व्यापै जहाँ रसिक सिरमौर। 

छूटि जाति सत असत वासना, मन की दौरादौर।

भगवत रसिक बतायो श्रीगुरु अमल अलौकिक ठौर।। "

रसिक वह है जो किञ्चित् एक क्षण श्यामाश्याम की पृथकता की कल्पना , उनके द्वेत की भावना नहीँ कर सके , रस , रसक्षेत्र , रसराज , रसिका में भेद ना हो जिस चित् में , वह रसिक है । जिसकी वाणी से राधा कहने के लिए कृष्ण आवेशित हो , और कृष्ण पुकारने को श्री राधा वह रसिक है । जिसका जीवन का प्रति स्पंदन , भाव क्षेत्र , सर्वस्व श्यामाश्याम के मिलन हेतु ही रचा बसा हो । भाव राज्य में युगल की एक रूप झाँकि को जो जीवन पर्यन्त अबाध रस में पीना चाहे ,वह रसिक है।  जिसे दूसरी अन्य वस्तु , पदार्थ , तत्व  , ज्ञान का होना पन भी अन्तस् में बोध न हो , किसी बाह्य वस्तु का बोध से निषेध त्याग नहीँ , अपितु सभी में उन्ही की भावना हो , अन्यत्र  वस्तु में केवल यह बोध हो उनकी ही है । लेकिन स्त्री-पुरुष का एक साथ रहते हुए इस अवस्था को प्राप्त करना बहुत कठिन है। गिरने का खतरा बहुत ज्यादा है। ]

Letter of swamiji abaut  Kartâbhajâ dated 25th September, 1894.

MY DEAR—, (Meant for his brother-disciples.)Christian Science. They form the most influential party, nowadays, figuring everywhere. They are spreading by leaps and bounds, and causing heart-burn to the orthodox. They are Vedantins; I mean, they have picked up a few doctrines of the Advaita and grafted them upon the Bible. And they cure diseases by proclaiming "So'ham So'ham"—"I am He! I am He!"—through strength of mind. They all admire me highly.

The Christian Science is exactly like our Kartâbhajâ[2  An offshoot of degenerate Vaishnavism, calling God "Kartâ" or Master, and noted for efficiency in faith-cure.] sect: Say, "I have no disease", and you are whole; and say, "I am He"—"So'ham"—and you are quits—be at large. This is a thoroughly materialistic country. The people of this Christian land will recognise religion if only you can cure diseases, work miracles, and open up avenues to money; and they understand little of anything else. But there are honourable exceptions. ...

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