परिच्छेद ७७
(१)
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆नरेन्द्र आदि भक्त भी माँ रसेश्वरि (ठाकुरदेव) की लीला के साक्षीगोपाल (onlooker) मात्र हैं ! 🔆
“श्रीरामकृष्ण काली-मन्दिर में, अपनी उसी छोटी खाट पर बैठे हुए गाना सुन रहे हैं । ब्राह्मसमाज के श्री त्रैलोक्य सान्याल गा रहे हैं। आज रविवार है, 2 मार्च 1884। जमीन पर भक्तगण बैठे हुए गाना सुन रहे हैं । - नरेन्द्र, सुरेन्द्र मित्र, मास्टर, त्रैलोक्य आदि कितने ही भक्त बैठे हैं ।
श्रीरामकृष्ण का शरीर, जब से हाथ टूटा, अब तक अच्छा नहीं हुआ । हाथ में बहुत दिनों तक तख्ती बँधी थी ।
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কালীমন্দিরে সেই পূর্বপরিচিত ঘরে ছোট খাটটিতে বসিয়া গান শুনিতেছেন। ব্রাহ্মসমাজের শ্রীযুক্ত ত্রৈলোক্য সান্যাল গান করিতেছেন। আজ রবিবার, ২০শে ফাল্গুন; শুক্লা পঞ্চমী তিথী; ১২৯০ সাল। ২রা মার্চ, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ। মেঝেতে ভক্তেরা বসিয়া আছেন ও গান শুনিতেছেন। নরেন্দ্র, সুরেন্দ্র (মিত্র), মাস্টার, ত্রৈলোক্য প্রভৃতি অনেকে বসিয়া আছেন।
Sunday, March 2, 1884-Sri Ramakrishna was sitting on the small couch in his room, listening to devotional music by Trailokya Sannyal of the Brahmo Samaj. He had not yet recovered from the effects of the injury to his arm, which was still supported by a splint. Many devotees, including Narendra, Surendra, and M., were sitting on the floor.]
श्रीयुत नरेन्द्र के पिता-बड़ी आदालत के वकील थे । उनका देहान्त हो जाने पर उनके परिवार को इस समय बड़ी तकलीफ है, यहाँ तक कि कभी-कभी फाका भी करना पड़ता है ।
[শ্রীযুক্ত নরেন্দ্রের পিতা বড় আদালতে উকিল ছিলেন। তাঁহার পরলোক প্রাপ্তি হওয়াতে, পরিবারবর্গ বড়ই কষ্টে পড়িয়াছেন। এমন কি মাঝে মাঝে খাইবার কিছু থাকে না। নরেন্দ্র এই সকল ভাবনায় অতি কষ্টে আছেন।
Narendra's father, a lawyer of the High Court of Calcutta, had passed away suddenly. He had not been able to make provision for the family, which consequently faced grave financial difficulties. The members of the family sometimes had to go without food. Narendra was therefore passing his days in great anxiety.
त्रैलोक्य माता का संगीत गा रहे हैं । गाते हुए, कह रहे हैं, - माँ, मुझे अपनी गोदी में लेकर, आँचल से ढककर मुझे अपनी छाती से लगा रखो ।
ओमा तोर कोले निये आंचल ढेंके,
आमाये बूके कोरे राख (माँ। )
ओमा तोर कोले लूकाये थाकि,
चेये चेये मूख पाने मा, मा, मा, बोले डाकि॥
डूबि चिदानंद रसे महायोगे निद्राबशे,
हेरि तोमाय अनिमेषे नयने नयन राखि॥
देखे शुने भय कोरे, प्राण केंपे उठे डरे,
राख आमाय बूके धोरे, स्नेहेर अंचले ढाकि (माँ )॥
(संगीत का भाव)
“माँ, मैं तेरे हृदय में छिपा रहूँगा । तेरे मुँह की ओर ताकताककर, माँ-माँ कहकर पुकारूँगा । चिदानन्द-रस में डूबकर महायोग की निद्रा के आवेश में निर्निमेष नयनों से, तेरी दृष्टि पर दृष्टि जमाये हुए, तेरा रूप देखूँ । संसार का तमाशा देखकर और सुनकर भय से हृदय काँप उठता है । मुझे अपने स्नेह के आँचल से ढककर तुम हृदय से लगा लो, फिर कभी अलग न करना ।”
[O Mother; I hide myself in Thy loving bosom; I gaze at Thy face and cry out, "Mother! Mother!" I sink in the Sea of Bliss and am lost to sense In yoga-sleep; I gaze with unwinking eyes, Upon Thy face, powerless to turn away. O Mother, I am terrified by this world; My spirit, trembles and cries out in fear. Keep me, sweet Mother, in Thy loving bosom; Cover me with the spreading skirt of Thy love.
गाना सुनते हुए ठाकुदेव की आँखों से प्रेम के आँसू टपक रहे हैं । भाव में गद्गद कण्ठ से कह रहे हैं – अहा ! कैसा भाव है ।
[ঠাকুর শুনিতে শুনিতে প্রেমাশ্রু বিসর্জন করিতেছেন। আর বলিতেছেন, আহা! কি ভাব!
The Master shed tears of love and cried out, "Ah me! Ah me!"
(१)“हरे ! तुम अपने के सम्मान हो । भक्तों की लाज रखनेवाले हो । तुम मेरी मनोकामना पूर्ण करो । ऐ ईश्वर ! तुम भक्तों के सम्मान हो । बिना तुम्हारे और कौन रक्षा कर सकता है ? प्राणपति, प्राणाधार तुम्हीं हो । मैं तो तुम्हारा गुलाम हूँ ।”
লজ্জা নিবারণ হরি আমার।
(দেখো দেখো হে — যেন — মনোবাঞ্ছা পূর্ণ হয়)।
ভকতের মান, ওহে ভগবান, তুমি বিনা কে রাখিবে আর।
তুমি প্রাণপতি প্রাণাধার, আমি চিরক্রীত দাস তোমার!
(দেখো)।
O Lord, Destroyer of my shame! Who but Thyself can save The honour of Thy devotee? Thou art the Ruler of my soul, my very life's Support, And I am Thy slave for evermore. ...
.তুয়া পদ সার করি, জাতি কুল পরিহরি, লাজ ভয়ে দিনু জলাঞ্জলি
(এখন কোথা বা যাই হে পথের পথিক হয়ে);
আব হাম তোর লাগি, হইনু কলঙ্কভাগী,
গঞ্জে লোকে কত মন্দ বলি। (কত নিন্দা করে হে)
(তোমায় ভালবাসি বলে) (ঘরে পরে গঞ্জনা হে)
সরম ভরম মোর, অবহি সকল তোর, রাখ বা না রাখ তব দায়
(দাসের মানে তোমারি মান হরি),
তুমি হে হৃদয় স্বামী, তব মানে মানী আমি, কর নাথ যেঁউ তুহে ভায়।
(२) “तुम्हारे चारों को सार समझकर, जाति-पाँति का विचार छोड़ लाज और भय को भी मैंने तिलांजलि दे दी । अब रास्ते का बटोही होकर मैं कहाँ जाऊँ ? अब तो तुम्हारे लिए मैं कलंक-भागी हो चुका; तुम्हें मैं प्यार करता हूँ, इसलिए लोग मेरी कितनी निन्दा करते हैं । अब मेरी शर्म और भ्रम सब तुम्हारा ही है। चाहे तुम मेरी रक्षा करो और चाहे न करो, उत्तरदायित्व और भार तुम्हीं पर है । परन्तु यह सोच लेना कि दास का मान तुम्हारा ही मान है । तुम मेरे हृदय के स्वामी हो, तुम्हारे ही मान से मेरा भी मान है, अतएव जैसी तुम्हारी रूचि हो, वही करो ।”
(३) “घर से बाहर निकालकर अगर तुमने मुझे अपने प्रेम में फँसाया है तो मुझे अपने श्रीचरणों में जगह भी तो दो । ऐ प्राणप्यारे, सदा ही मुझे अपना प्रेमसिन्धु पिलाते रहो । जो तुम्हारे प्रेम का दास है, उसका परित्राण करो ।”
ঘরের বাহির করি, মজাইলে যদি হরি, দেও তবে শ্রীচরণে স্থান,
(চির দিনের মতো) অনুদিন প্রেমবধু, পিয়াও পরাণ বঁধু,
প্রেমদাসে করে পরিত্রাণ।
[He continued: Seeking a shelter at Thy feet, I have for ever set aside My pride of caste and race, O Lord, And turned my back on fear and shame. A lonely pilgrim on life's way, Where shall I go for succour now? For Thy sake, Lord, I bear men's blame; They rail at me with bitter words And hate me for my love of Thee. Both friends and strangers use me ill. Thou art the Guardian of my name; Thou mayest save or slay me, Lord! Upon the honour of Thy servant Rests, O Lord, Thy name as well; Thou art the Ruler of my soul, The glow of love within my heart; Do with me as it pleases Thee!
Once more he sang: Lord, Thou hast taken me from home and made me captive with Thy love; Shield me for ever at Thy feet, O Thou Beloved One! Upon the Nectar of Thy love, feed me both day and night, And save Premdas, who is Thy slave.
श्रीरामकृष्ण की आँखों से प्रेम की धारा बह रही है । वे जमीन पर आकर बैठे और रामप्रसाद के भावों में गाने लगे –
[ঠাকুর আবার প্রেমাশ্রু বির্সজন করিতে করিতে মেঝেতে আসিয়া বসিলেন। আর রামপ্রসাদের ভাবে গাহিতেছেন —
he Master again shed tears of joy. He sang some lines from a song of Ramprasad:
“यश, अपयश, कुरस, सुरस सब तुम्हारे ही रस हैं । माँ, रसेश्वरि ! रस में रहकर रसभंग क्यों करती हो?”
যশ অপযশ কুরস সুরস সকল রস তোমারি।
(ওমা) রসে থেকে রসভঙ্গ কেন রসেশ্বরী ৷৷
[Glory and shame, bitter and sweet, are Thine alone; This world is nothing but Thy play. Then why, O Blissful One, dost Thou cause a rift in it?
त्रैलोक्य से कह रहे हैं – ‘अहा ! तुम्हारे गाने कैसे हैं ! तुम्हारे गाने बहुत ठीक हैं । केवल वही जो समुद्र को गया है, वहाँ का जल ला सकता है ।’
[ঠাকুর ত্রৈলোক্যকে বলিতেছেন, আহা! তোমার কি গান! তোমার গান ঠিক ঠিক। যে সমুদ্রে গিয়েছিল সেই সমুদ্রের জল এনে দেখায়।
Addressing Trailokya, the Master said: "Ah! How touching your songs are! They are genuine. Only he who has gone to the ocean can fetch its water."
त्रैलोक्य फिर गाते हैं –
(हरि) आपनि नाचो , आपनी गाओ , आपनि बाजाओ ताले ताले,
मानुष तो साक्षीगोपाल मिछे आमार आमार बोले।
छायाबाजिर पुतूल जेमन , जीवेर जीवन तेमन ,
देवता होते पारे , यदि तोमार पोथे चोले।
देह यन्त्रे तुमि यन्त्री , आत्मरथे तुमि रथी ,
जीव केवल पापेर भागी , निज स्वाधीनतार फले।
सर्वमूलाधार तुमि , प्राणेर प्राण ह्रदय स्वामी ,
असाधुके साधु कोरो , तुमि निज पुण्यबले।
“हरि, तुम्हीं नाचते हो, तुम्हीं गाते हो और तुम्हीं ताल ताल पर हथेली बजाते हो । मनुष्य तो एक 'साक्षी-गोपाल' का पुतला मात्र है, वृथा ही वह ‘मेरा मेरा’ कहता है । जैसे कठपुतली के खिलौने हैं, वैसा ही जीवों का जीवन भी है । मनुष्य यदि तुम्हारे रास्ते पर चलता है, तो वह देवता बन जाता है । देहयन्त्र में यन्त्रीस्वरूप तुम्हीं हो, आत्म-रथ में तुम्हीं रथी हो, जीव तो अपनी स्वाधीनता के फल से केवल पापों का भोग करता है । तुम सब के मूलाधार हो, तुम प्राणों के प्राण और हृदय के स्वामी हो, तुम अपने पुण्य के बल से असाधु को भी साधु बना देते ही ।”
[(হরি) আপনি নাচ, আপনি গাও, আপনি বাজাও তালে তালে,
মানুষ তো সাক্ষীগোপাল মিছে আমার আমার বলে।
ছায়াবাজির পুতুল যেমন, জীবের জীবন তেমন,
দেবতা হতে পারে, যদি তোমার পথে চলে।
দেহ যন্ত্রে তুমি যন্ত্রী, আত্মরথে তুমি রথী,
জীব কেবল পাপের ভাগী, নিজ স্বাধীনতার ফলে।
সর্বমূলাধার তুমি, প্রাণের প্রাণ হৃদয় স্বামী,
অসাধুকে সাধু কর, তুমি নিজ পুণ্যবলে।
[Thou it is that dancest, Lord, and Thou that singest the song; Thou it is that clappest Thy hands in time with the music's beat; But man, who is an onlooker merely, foolishly thinks it is he. Though but a puppet, man becomes a god if he moves with Thee; Thou art the Mover of the machine, the Driver of the car; But man is weighted down with woe, dreaming that he is free. Thou art the Root of everything, Thou the Soul of our souls; Thou art the Master of our hearts; through Thine unbounded grace Thou turnest even the meanest sinner into the mightiest saint.
गाना समाप्त हुआ । श्रीरामकृष्ण अब बातचीत कर रहे हैं ।
[গান সমাপ্ত হইল। ঠাকুর এইবার কথা কহিতেছেন।
The singing came to an end. The Master engaged in conversation with the devotees.
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆हरि ही सेव्य (गुरु) और हरि सेवक (शिष्य) बने हैं।🔆
श्रीरामकृष्ण – (त्रैलोक्य और दूसरे भक्तों से) – सच्चिदानन्द (हरि) ही गुरु (सेव्य) हैं और सच्चिदानन्द (हरि) ही सेवक (शिष्य ) बने हैं – यह भाव पूर्ण ज्ञान का लक्षण है । पहले नेति-नेति करने पर, ईश्वर ही सत्य है और सब मिथ्या है, यह बोध होता है । इसके बाद वह देखते हैं, ईश्वर ही सब कुछ हुए हैं –ईश्वर ही माया, जीव, जगत्, यह सब हुए हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ত্রৈলোক্য ও অন্যান্য ভক্তদের প্রতি) — হরিই সেব্য, হরিই সেবক — এই ভাবটি পুর্ণজ্ঞানের লক্ষণ। প্রথমে নেতি নেতি করে হরিই সত্য আর সব মিথ্যা বলে বোধ হয়। তারপরে সেই দেখে যে, হরিই এই সব হয়েছেন।
MASTER: "God alone is the Master, and again, He is the Servant. This attitude indicates Perfect Knowledge. At first one discriminates, 'Not this, not this', and feels that God alone is real and all else is illusory. Afterwards the same person finds that it is God Himself who has become all this — the universe, maya, and the living beings.
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆नेति से इति 🔆
['निषेध' (negation) से 'हाँ स्वीकरण' (affirmation)]
अनुलोम (निषेध-negation) हो जाने पर फिर विलोम (हाँ स्वीकरण-affirmation) होता है । यह पुराणों का मत है । जैसे एक बेल (वस्तु) में गूदा, बीज और खोपड़ा है । खोपड़ा और बीज निकाल देने पर गूदा रह जाता है; परन्तु बेल का वजन कितना था, यह जानने की अगर इच्छा हुई तो खोपड़ा और बीज के निकाल देने से काम न बनेगा । इसी तरह जीव-जगत् को छोड़कर पहले सच्चिदानन्द में जाया जाता है । फिर उन्हें प्राप्त कर लेने पर मनुष्य देखता है, यह सब जीव-जगत् भी सच्चिदानन्द ही हुए हैं । जिस वस्तु (बेल) का गूदा है, उसका खोपड़ा और बीज भी है, जैसे मट्ठे का मक्खन और मक्खन का मट्ठा ।
[অনুলোম হয়ে তারপর বিলোম। এইটি পুরাণের মত। যেমন একটি বেলের ভিতর শাঁস, বীজ আর খোলা আছে। খোলা বীজ ফেলে দিলে শাঁসটুকু পাওয়া যায়, কিন্তু বেলটি কত ওজনে ছিল জানতে গেলে, খোলা বীজ বাদ দিলে চলবে না। তাই জীবজগৎকে ছেড়ে প্রথমে সচ্চিদানন্দে পৌঁছাতে হয়; তারপর সচ্চিদানন্দকে লাভ করে দেখে যে তিনিই এই সব জীব, জগৎ হয়েছেন। শাঁস যে বস্তুর, বীজ ও খোলা সেই বস্তু থেকেই হয়েছে — যেমন ঘোলেরই মাখন, মাখনেরই ঘোল।
First negation and then affirmation. This is the view held by the Puranas. A vilwa-fruit, for instance, includes flesh, seeds, and shell. You get the flesh by discarding the shell and seeds. But if you want to know the weight of the fruit, you cannot find it if you discard the shell and seeds. Just so, one should attain Satchidananda by negating the universe and its living beings. But after the attainment of Satchidananda one finds that Satchidananda. Itself has become the universe and the living beings. It is of one substance that the flesh and the shell and seeds are made, just like butter and buttermilk.
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆एक बार अखण्ड सच्चिदानन्द तक पहुँचकर फिर वहाँ से उतरकर यह सब देखो 🔆
“परन्तु कोई-कोई कह सकते हैं कि सच्चिदानन्द इतने कड़े क्यों हो गये – इस पृथ्वी को दबाने से वह बड़ी कठिन जान पड़ती है । इसका उत्तर यह है कि शोणित और शुक्र तो इतना तरल पदार्थ है, परन्तु उन्हीं से इतने मनुष्य, बड़े-बड़े जीव तैयार हो रहे हैं ! ईश्वर से सब कुछ हो सकता है । एक बार अखण्ड सच्चिदानन्द तक पहुँचकर फिर वहाँ से उतरकर यह सब देखो ।”
[“তবে কেউ বলতে পারে, সচ্চিদানন্দ এত শক্ত হল কেমন করে। এই জগৎ টিপলে খুব কঠিন বোধ হয়। তার উত্তর এই, যে শোণিত শুক্র এত তরল জিনিস, — কিন্তু তাই থেকে এত বড় জীব — মানুষ তৈয়ারী হচ্ছে! তাঁ হতে সবই হতে পারে। “একবার অখণ্ড সচ্চিদানন্দে পৌঁছে তারপর নেমে এসে এই সব দেখা।”
"It may be asked, 'How has Satchidananda become so hard?' This earth does indeed feel very hard to the touch. The answer is that blood and semen are thin liquids, and yet out of them comes such a big creature as man. Everything is possible for God. First of all reach the indivisible Satchidananda, and then, coming down, look at the universe. You will then find that everything is Its manifestation. It is God alone who has become everything.
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆जगत ईश्वर से भिन्न नहीं है 🔆
[সংসার ঈশ্বর ছাড়া নয় ]
“वे ही सब कुछ हुए हैं । संसार उनसे अलग नहीं है । The world by no means exists apart from Him.गुरु के पास वेद पढ़कर श्रीरामचन्द्र को वैराग्य हो गया । उन्होंने कहा, संसार अगर स्वप्नवत् है तो इसका त्याग करना ही उचित है । इससे दशरथ डरे । उन्होंने रामको समझाने के लिए गुरु वशिष्ठ को भेज दिया । वशिष्ठ ने कहा, ‘राम, हमने सुना है – तुम संसार छोड़ना चाहते हो । तुम हमें समझा दो कि संसार ईश्वर से अलग एक वस्तु है । यदि तुम समझा सको कि ईश्वर से संसार नहीं हुआ तो तुम इसे छोड़ सकते हो ।’ राम तब चुप हो रहे, कोई उत्तर न दे सके ।
{“তিনিই সব হয়েছেন। সংসার কিছু তিনি ছাড়া নয়। গুরুর কাছে বেদ পড়ে রামচন্দ্রের বৈরাগ্য হল। তিনি বললেন, সংসার যদি স্বপ্নবৎ তবে সংসার ত্যাগ করাই ভাল। দশরথের বড় ভয় হল। তিনি রামকে বুঝাতে গুরু বশিষ্ঠকে পাঠিয়ে দিলেন। বশিষ্ঠ বললেন, রাম, তুমি সংসার ত্যাগ করবে কেন বলছ? তুমি আমায় বুঝিয়ে দাও যে, সংসার ঈশ্বর ছাড়া। যদি তুমি বুঝিয়ে দিতে পার ঈশ্বর থেকে সংসার হয় নাই তাহলে তুমি ত্যাগ করতে পার। রাম তখন চুপ করে রইলেন, — কোনও উত্তর দিতে পারলেন না।]
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆अनुलोम (involution-enfolding) और विलोम (evolution-unfolding) की प्रक्रिया 🔆
“सब तत्त्व अन्त में आकाश-तत्त्व में लीन हो जाते हैं । सृष्टि के समय आकाश-तत्त्व से महत्-तत्त्व, महत्-तत्त्व से अहंकार, ये सब (world-system) क्रमशः तैयार हुए हैं । अनुलोम और विलोम । भक्त इन सब को मानते हैं । भक्त अखण्ड सच्चिदानन्द को भी मानते हैं और जीव-जगत् को भी।
[“সব তত্ত্ব শেষে আকাশতত্ত্বে লয় হয়। আবার সৃষ্টির সময় আকাশতত্ত্ব থেকে মহৎতত্ত্ব, মহৎতত্ত্ব থেকে অহংকার, এই সব ক্রমে ক্রমে সৃষ্টি হয়েছে। অনুলোম, বিলোম। ভক্ত সবই লয়। ভক্ত অখণ্ড সচ্চিদানন্দকেও লয়, আবার জীবজগৎকেও লয়।
["All elements finally merge in akasa. Again, at the time of creation, akasa evolves into mahat and mahat into ahamkara. In this way the whole world-system is evolved. It is the process of involution and evolution. A devotee of God accepts everything. He accepts the universe and its created beings as well as the indivisible Satchidananda.
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत -77]
🔆 'योगी और माँ काली के भक्त' ~ के बीच अंतर 🔆
[যোগী ও ভক্তদের প্রভেদ]
“परन्तु योगी का मार्ग अलग है । वह परमात्मा (Supreme Soul-अखण्ड सच्चिदानन्द) में पहुँचकर फिर वहाँ से नहीं लौटता ! उसी परमात्मा से युक्त हो जाता है ।
[“যোগীর পথ কিন্তু আলাদা। সে পরমাত্মাতে পৌঁছে আর ফেরে না। সেই পরমাত্মার সঙ্গে যোগ হয়ে যায়।
"But the yogi's path is different. He does not come back after reaching the Paramatman, the Supreme Soul. He becomes united with It.]
“थोड़े के भीतर जो ईश्वर को देखता है, उसे खण्ड ज्ञानी- 'partial knower' कहते हैं । वह सोचता है, उसके परे और उनकी सत्ता नहीं है ।
[“একটার ভিতরে যে ঈশ্বরকে দেখে তার নাম খণ্ডজ্ঞানী — সে মনে করে যে, তার ওদিকে আর তিনি নাই!
"The 'partial knower' limits God to one object only. He thinks that God cannot exist in anything beyond that.]
[XXXX लेकिन माँ काली के भक्त का मार्ग अलग है !! मां का भक्त (नेता-CINC-नवनिदा) मन की सीमा के पार, अखण्ड सच्चिदानन्द में पहुँचकर फिर वापस उतर आता है!!
But the path of a devotee of Maa Kali is different!! The devotee of Mother (Leader-CINC-Navanida) reaches beyond the limit of mind, reaches Akhand Sachchidananda and comes back again!!]
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆उत्तम भक्त के लिए -'लोटा ब्रह्म , थाली ब्रह्म' 🔆
“भक्त तीन श्रेणी के होते हैं । अधम, मध्यम और उत्तम । अधम भक्त कहता है, वे हैं ईश्वर, और ऐसा कहकर आकाश की ओर उँगली उठा देता है । मध्यम भक्त कहता है, वे हृदय में अन्तर्यामी के रूप में विराजमान हैं । उत्तम भक्त कहता है वे ही यह सब हुए हैं, - जो कुछ मैं देख रहा हूँ, सब उन्हीं के एक-एक रूप हैं । नरेन्द्र पहले मजाक करके कहता था, 'अगर वे ही सब कुछ हुए हैं तो ईश्वर लोटा भी है और थाली भी ।' (सब हँसते हैं)
[“ভক্ত তিন শ্রেণীর। অধম ভক্ত বলে ‘ওই ঈশ্বর’, অর্থাৎ আকাশের দিকে সে দেখিয়ে দেয়। মধ্যম ভক্ত বলে যে, তিনি হৃদয়ের মধ্যে অন্তর্যামীরূপে আছেন। আর উত্তম ভক্ত বলে যে, তিনি এই সব হয়েছেন, — যা কিছু দেখছি সবই তাঁর এক-একটি রূপ। নরেন্দ্র আগে ঠাট্টা করত আর বলত, ‘তিনিই সব হয়েছেন, — তাহলে ঈশ্বর ঘটি, ঈশ্বর বাটি’।” (সকলের হাস্য)
"There are three classes of devotees. The lowest one says, 'God is up there.' That is, he points to heaven. The mediocre devotee says that God dwells in the heart as the 'Inner Controller'. But the highest devotee says: 'God alone has become everything. All that we perceive is so many forms of God.' Narendra used to make fun of me and say: 'Yes, God has become all! Then a pot is God, a cup is God!' (Laughter.)]
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆'face to face' ईश्वरदर्शन होते ही सब संशय दूर हो जाते हैं 🔆
“परन्तु उनके दर्शन होने पर सब संशय दूर हो जाते हैं । सुनना एक बात है और देखना दूसरी बात । सुनने से सोलहों आना विश्वास नहीं होता । साक्षात्कार हो जाने पर फिर विश्वास में कुछ बाकी नहीं रह जाता ।
[“তাঁকে কিন্তু দর্শন করলে সব সংশয় চলে যায়। শুনা এক, দেখা এক। শুনলে ষোলা আনা বিশ্বাস হয় না। সাক্ষাৎকার হলে আর বিশ্বাসের কিছু বাকী থাকে না।
"All doubts disappear when one sees God. It is one thing to hear of God, but quite a different thing to see Him. A man cannot have one hundred per cent conviction through mere hearing. But if he beholds God face to face, then he is wholly convinced.
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆ईश्वरदर्शन होने पर कर्मों का त्याग हो जाता है 🔆
“इश्वर-दर्शन करने पर कर्मों का त्याग हो जाता है । इसी तरह मेरी पूजा बन्द हो गयी । काली-मन्दिर में पूजा करता था, एकाएक माँ ने दिखाया, सब चिन्मय है – पूजा की चीजें, वेदी-मन्दिर की चौखट – सब चिन्मय है । मनुष्य, जीव, वस्तु, सब चिन्मय है । तब पागल की तरह चारों ओर फूल फेंकने लगा ! जो दृष्टि में आता, उसी की पूजा करने लगा !
[“ঈশ্বরদর্শন করলে কর্মত্যাগ হয়। আমার ওই রকমে পূজা উঠে গেল। কালীঘরে পূজা করতাম। হঠাৎ দেখিয়ে দিলে, সব চিন্ময়, কোশাকুশি, বেদী, ঘরের চৌকাঠ — সব চিন্ময়! মানুষ, জীব, জন্তু, সব চিন্ময়। তখন উন্মত্তের ন্যায় চতুর্দিকে পুষ্প বর্ষণ করতে লাগলাম! — যা দেখি তাই পূজা করি!
"Formal worship drops away after the vision of God. It was thus that my worship in the temple came to an end. I used to worship the Deity in the Kali temple. It was suddenly revealed to me that everything is Pure Spirit. The utensils of worship, the altar, the door-frame—all Pure Spirit. Men, animals, and other living beings — all Pure Spirit. Then like a madman I began to shower flowers in all directions. Whatever I saw I worshipped.
“एक दिन पूजा करते समय शिवजी के मस्तक पर चंदन लगा रहा था, उसी समय दिखलाया, यह विराट् मूर्ति – यह विश्व ही शिव है । तब शिव-लिंग तैयार करके पूजा करना बन्द हो गया । मैं फूल तोड़ रहा था, उसी समय मुझे दिखलाया – फूल के पेड़ फूल के एक एक गुलदस्ता (बुके-bouquets) हैं ।”
[“একদিন পূজার সময় শিবের মাথায় বজ্র দিচ্ছি এমন সময় দেখিয়ে দিলে, এই বিরাট মূর্তিই শিব। তখন শিব গড়ে পূজা বন্ধ হল। ফুল তুলছি হঠাৎ দেখিয়ে দিলে যে ফুলের গাছগুলি যেন এক-একটি ফুলের তোড়া।”
"One day, while worshipping Siva, I was about to offer a bel-leaf on the head of the image, when it was revealed to me that this Virat, this Universe, itself is Siva. After that my worship of Siva through the image came to an end. Another day I had been plucking flowers, when it was revealed to me that the flowering plants were so many bouquets."]
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆काव्यरस और ईश्वर-दर्शन में भेद 🔆
[কাব্যরস ও ঈশ্বরদর্শনের প্রভেদ — “ন কবিতাং বা জগদীশ” ]
[न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
(शिक्षाष्टकं -४)
चैतन्य महाप्रभु ने संस्कृत में आठ श्लोकों की रचना की जिन्हें शिक्षाष्टक कहा जाता है। एक छन्द में कहते हैं - " हे जगत के ईश्वर! मैं धन, अनुयायी, स्त्रियों या कविता की इच्छा न रखूँ। हे प्रभु, मुझे जन्म जन्मान्तर में आपसे ही अकारण प्रेम हो॥४॥ ]
त्रैलोक्य – अहा ! ईश्वर की रचना कैसी सुन्दर है !
[ত্রৈলোক্য — আহা, ঈশ্বরের রচনা কি সুন্দর!
TRAILOKYA: "Ah! How beautiful is God's creation!"
श्रीरामकृष्ण – नहीं जी, आँखों के आगे पेड़ एकाएक फूल के गुलदस्ते (bouquets) बन गये – यह कुछ मेरा केवल मानसिक भाव ही नहीं था । दिखा दिया, एक एक फूल का पेड़ एक एक गुलदस्ता है और उस 'विराट् मूर्ति' (Universal Form of God-जगत्जननी ) के सिर पर शोभायमान हो रहा है । उसी दिन से फूल तोड़ना बन्द हो गया । आदमी को भी मैं उसी रूप में देखता हूँ । मानो वे ही मनुष्य के आकार में झूम-झूमकर टहल रहे हैं । मानो तरंग पर एक तकिया बह रहा है – इधर उधर हिलता हुआ चला जा रहा है, लहर के लगने पर कभी कभी ऊँचा चढ़ जाता है और फिर लहर के साथ नीचे आ जाता है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — না গো, ঠিক দপ্ করে দেখিয়ে দিলে! — হিসেব করে নয়। দেখিয়ে দিলে যেন এক-একটি ফুল গাছ এক-একটি তোড়া, — সেই বিরাট মূর্তির উপর শোভা করছে। সেই দিন থেকে ফুল তোলা বন্ধ হয়ে গেল। মানুষকেও আমি ঠিক সেইরূপ দেখি। তিনিই যেন মানুষ-শরীরটাকে লয়ে হেলে-দুলে বেড়াচ্ছেন, — যেমন ঢেউয়ের উপর একটা বালিশ ভাসছে, — বালিশটাকে এদিক ওদিক নড়তে নড়তে চলে যাচ্ছে, কিন্তু ঢেউ লেগে একবার উঁচু হচ্ছে আবার ঢেউয়ে সঙ্গে নিচে এসে পড়ছে।
MASTER: "Oh no, it is not that. It was revealed to me in a flash. I didn't calculate about it. It was shown to me that each plant was a bouquet adorning the Universal Form of God. That was the end of my plucking flowers. I look on man in just the same way. When I see a man, I see that it is God Himself who walks on earth, as it were, rocking to and fro, like a pillow floating on the waves. The pillow moves with the waves. It bobs up and down.
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
[ঠাকুরের শরীরধারণ কেন — ঠাকুরের সাধ ]
🔆 ठाकुर ने शरीर धारण क्यों किया ?- ठाकुर के मन की साध क्या थी ? 🔆
“शरीर दो दिन के लिए है । वही ईश्वर सत्य है । शरीर तो अभी अभी है, अभी अभी नहीं । बहुत दिन हुए, जब पेट की बीमारी से बड़ी तकलीफ मिल रही थी, हृदय ने कहा, माँ से एक बार कहते क्यों नहीं जिससे अच्छे हो जाओ ! रोग के लिए मुझे कहते हुए बड़ी लज्जा लगी । मैंने कहा, माँ ! सोसायटी (Asiatic Society) में मैंने आदमी का अस्थिपंजर (Skeleton) देखा था, तारों से जोड़कर आदमी के आकार का बनाया गया था, माँ, बस केवल उतना ही इस शरीर को रहने दो, अधिक मैं नहीं चाहता । मैं तुम्हारा नाम लेता रहूँ – तुम्हारे गुण कीर्तन करता रहूँ, उतनी ही इच्छा है ।
[“শরীরটা দুদিনের জন্য, তিনিই সত্য, শরীর এই আছে, এই নাই। অনেকদিন হল যখন পেটের ব্যামোতে বড় ভুগছি, হৃদে বললে — মাকে একবার বল না, — যাতে আরাম হয়। আমার রোগের জন্য বলতে লজ্জা হল। বললুম, মা সুসাইটিতে (Asiatic Soceity) মানুষের হাড় (Skeleton) দেখেছিলাম, তার দিয়ে জুড়ে জুড়ে মানুষের আকৃতি, মা! এরকম করে শরীরটা একটু শক্ত করে দাও, তাহলে তোমার নামগুণকীর্তন করব।
"The body has, indeed, only a momentary existence. God alone is real. Now the body exists, and now it does not. Years ago, when I had been suffering terribly from indigestion, Hriday said to me, 'Do ask the Mother to cure you.' I felt ashamed to speak to Her about my illness. I said to Her: 'Mother, I saw a skeleton in the Asiatic Society Museum. It was pieced together with wires into a human form. O Mother, please keep my body together a little, like that, so that I may sing Thy name and glories.'
[ ( ॐ 2, ॐ 9-मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🙏“वासना के बिना रहे शरीर धारण नहीं हो सकता 🙏
“Without lust, a body cannot exist.
“বাসনা না থাকলে শরীর ধারণ হয় না।
श्री रामकृष्ण - “बचने की इच्छा क्यों है ? जब रावण मारा गया तब राम और लक्ष्मण लंका के भीतर गये । जहाँ रावण रहता था, वहाँ जाकर देखा, उन्हें देख राम ने निकषा को अपने पास बुलाकर उससे कहा, रावण की माँ निकषा भाग रही थी । इससे लक्ष्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने राम से कहा, ‘भाई ! जिसके वंश में अब कोई भी नहीं रह गया, उसे भी शरीर की इतनी ममता है ।’
राम ने निकषा को अपने पास बुलाकर उससे कहा, ‘तुम डरो मत, परन्तु यह बतलाओ कि तुम भाग क्यों रही थी ?’ निकषा ने कहा, ‘राम ! मैं इसलिए नहीं भागी कि मुझे देह की प्रीति है, नहीं, मैं बची थी, इसीलिए तो तुम्हारी इतनी लीलाएँ देखीं – यदि और भी कुछ दिन बची रहूँगी तो तुम्हारी और न जाने कितनी लीलाएँ देखूँगी ! इसीलिए मुझे बचने की लालसा है ।’
“वासना के बिना रहे शरीर धारण नहीं हो सकता ।
[“বাঁচবার ইচ্ছা কেন? রাবণ বধের পর রাম লক্ষ্মণ লঙ্কায় প্রবেশ করলেন, রাবণের বাটীতে গিয়ে দেখেন, রাবণের মা নিকষা পালিয়ে যাচ্ছে। লক্ষ্মণ আশ্চর্য হয়ে বললেন, রাম, নিকষার সবংশ নাশ হল তবু প্রাণের উপর এত টান। নিকষাকে কাছে ডাকিয়ে রাম বললেন, তোমার ভয় নাই, তুমি কেন পালাচ্ছিলে? নিকষা বললে, রাম! আমি সেজন্য পালাই নাই — বেঁচে ছিলাম বলে তোমার এত লীলা দেখতে পেলাম — যদি আরও বাঁচি তো আরও কত লীলা দেখতে পাব! তাই বাঁচবার সাধ।
“বাসনা না থাকলে শরীর ধারণ হয় না।
"Why this desire to live? After Ravana's death Rama and Lakshmana entered his capital and saw Nikasha, his old mother, running away. Lakshmana was surprised at this and said to Rama, 'All her children are dead, but still life attracts her so much!' Rama called Nikasha to His side and said: 'Don't be afraid. Why are you running away?' She replied: 'Rama, it was not fear that made me flee from You. I have been able to see all these wondrous actions of Yours simply because I am alive. I shall see many more things like these if I continue to live. Hence I desire to live.' " Without desires the body cannot live.
[ ( ॐ 2, ॐ 9-मार्च, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🙏नेता का 'चरैवेति चरैवेति' देशाटन पर्यटन ज्ञानियों-भक्तों का सत्संग पाने के लिए है 🙏
[The leader's countryside tourism is to get 'Charaiveti Charaiveti' satsang ]
[নেতার পল্লী পর্যটন হল 'চরৈবেতি চরৈবেতি' সৎসঙ্গ পেতে]
श्री रामकृष्ण (सहास्य) – मुझे भी दो-एक इच्छाएँ थीं । मैंने कहा था, ‘माँ, कामिनी-कांचन-त्यागियों का सत्संग मुझे दो । और ज्ञानी और भक्तों का सत्संग करूँगा। अतएव कुछ शक्ति भी दे दे, जिससे कुछ चल सकूं – यहाँ-वहाँ जा सकूं ।’ परन्तु उसने चलने की शक्ति नहीं दी ।”
[(সহাস্যে) “আমার একটি-আধটি সাধ ছিল। বলেছিলাম মা, কামিনীকাঞ্চনত্যাগীর সঙ্গ দাও; আর বলেছিলাম, তোর জ্ঞানী ও ভক্তদের সঙ্গ করব, তাই একটু শক্তি দে যাতে হাঁটতে পারি, — এখানে ওখানে যেতে পারি। তা হাঁটবার শক্তি দিলে না কিন্তু!”
"Without desires the body cannot live. (Smiling) I had one or two desires. I prayed to the Mother, 'O Mother, give me the company of those who have renounced "woman and gold".' I said further: 'I should like to enjoy the society of Thy jnanis and bhaktas. So give me a little strength that I may walk hither and thither and visit those people.' But She did not give me the strength to walk."
त्रैलोक्य – (सहास्य) – साध मिटी ? (अहं मिटा ?)
[ত্রৈলোক্য (সহাস্যে) — সাধ কি মিটেছে?
TRAILOKYA (smiling): "Have all the desires been fulfilled?"
श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – कुछ बाकी है । (सब हँसते हैं ।)
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — একটু বাকী আছে। (সকলের হাস্য)
MASTER (smiling): ''No, there are still a few left. (All laugh.)
“शरीर दो दिन के लिए है । हाथ जब टूट गया तब माँ से मैंने कहा- ‘माँ ! बड़ा दर्द हो रहा है !’ तब उसने दिखाया, गाड़ी है और उसका इंजीनियर । गाड़ी के पुर्जे कहीं कहीं खुल गये थे ! इंजीनियर जैसा चलाता है, गाड़ी वैसे ही चल रही है । उसकी अपनी कोई शक्ति नहीं है ।
[“শরীরটা দুদিনের জন্য। হাত যখন ভেঙে গেল, মাকে বললুম, ‘মা বড় লাগছে।’ তখন দেখিয়ে দিলে গাড়ি আর তার ইঞ্জিনিয়ার। গাড়ির একটা-আধটা ইস্ক্রু আলগা হয়ে গেছে। ইঞ্জিনিয়ার যেরূপ চালাচ্ছে গাড়ি সেইরূপ চলছে। নিজের কোন ক্ষমতা নাই।"
The body is really impermanent. When my arm was broken I said to the Mother, 'Mother, it hurts me very much.' At once She revealed to me a carriage and its driver. Here and there a few screws were loose. The carriage moved as the driver directed it. It had no power of its own.
“फिर देह की देखभाल क्यों करता हूँ ? इच्छा है, ईश्वर को लेकर आनन्द करूँ, उनका नाम लूँ, - उनके गुण गाऊँ, उनके ज्ञानियों और भक्तों को देखता फिरूँ ।”
[“তবে দেহের যত্ন করি কেন? ঈশ্বরকে নিয়ে সম্ভোগ করব; তাঁর নাম গুণ গাইব, তাঁর জ্ঞানী, ভক্ত দেখে দেখে বেড়াব।”
"Why then do I take care of the body? It is to enjoy God, to sing His name and glories, and to go about visiting His jnanis and bhaktas."
(२)
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत -77 ]
[নরেন্দ্রাদি সঙ্গে — নরেন্দ্রের সুখ-দুঃখ — দেহের সুখ-দুঃখ]
🔆नरेन्द्र के सुख-दुःख ~देह का सुख-दुःख 🔆
[अन्नपूर्णा की काशी में भी किसी किसी को भोजन के लिए शाम तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है !]
नरेन्द्र जमीन पर सामने बैठे हैं ।
[নরেন্দ্র মেঝের উপর সম্মুখে বসিয়া আছেন।
Narendra was sitting on the floor in front of the Master.
श्रीरामकृष्ण – (त्रैलोक्य और भक्तों से) – देह के लिए सुख-दुःख तो लगा ही है । देखो न, नरेन्द्र के पिता का देहान्त हो गया, घरवाले सब बड़ी तकलीफ पर रहे हैं, परन्तु कोई उपाय नहीं हो रहा है । वे कभी सुख में रहते हैं, कभी दुःख में ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ত্রৈলোক্য ও ভক্তদের প্রতি) — দেহের সুখ-দুঃখ আছেই। দেখ না, নরেন্দ্র — বাপ মারা গেছে, বাড়িতে বড় কষ্ট; কোন উপায় হচ্ছে না। তিনি কখনও সুখে রাখেন কখনও দুঃখে।"
The joys and sorrows of the body are inevitable. Look at Narendra. His father is dead, and his people have been put to extreme suffering. He can't find any way out of it. God places one sometimes in happiness and sometimes in misery."
त्रैलोक्य – जी, नरेन्द्र पर ईश्वर की दया होगी ।
[ত্রৈলোক্য — আজ্ঞে, ঈশ্বরের (নরেন্দ্রের উপর) দয়া হবে।
TRAILOKYA: "Revered sir. God will be gracious to Narendra."
श्रीरामकृष्ण – (हँसते हुए) – और कब होगी ! काशी में अन्नपूर्ण के यहाँ कोई भूखा नहीं रहता, परन्तु किसी किसी को शाम तक बैठा रहना पड़ता हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আর কখন হবে! কাশীতে অন্নপূর্ণার বাড়ি কেউ অভুক্ত থাকে না বটে; — কিন্তু কারু কারু সন্ধ্যা পর্যন্ত বসে থাকতে হয়।
"But when? It is true that no one starves at the temple of Annapurna in Benares; but some must wait for food till evening.]
हृदय ने शम्भू मल्लिक से कहा था, मुझे कुछ रूपये दो । शम्भू मल्लिक अंग्रेजी मत का आदमी है । उसने कहा, ‘तुम्हें क्यों रूपये दूँ ? तुम मेहनत करके उपार्जन कर सकते हो । तुम कुछ रोजगार तो करते ही हो । हाँ, बहुत गरीब कोई हो, तो उसकी बात और है । अथवा अन्धे-लँगड़े-लूले को कुछ देने से ठीक भी है ।’
तब हृदय ने कहा, ‘महाशय, बस यह बात न कहियेगा । मुझे रुपयों की जरूरत नहीं । ईश्वर करें, मुझे अन्धा-लँगड़ा-लूला या दरिद्र न होना पड़े । न अब आपके देने का काम है और न मेरे लेने का ।’
[“হৃদে শম্ভু মল্লিককে বলেছিল, আমায় কিছু টাকা দাও। শম্ভু মল্লিকের ইংরাজী মত, সে বললে। তোমায় কেন দিতে যাব? তুমি খেটে খেতে পার, তুমি যা হোক কিছু রোজগার করছ। তবে খুব গরিব হয় সে এক কথা, কি কানা, খোঁড়া, পঙ্গু; এদের দিলে কাজ হয়। তখন হৃদে বললে, মহাশয়! আপনি উটি বলবেন না। আমার টাকায় কাজ নাই। ঈশ্বর করুন যেন আমায় কানা, খোঁড়া, আতি দারিদ্দীর — এ-সব না হতে হয়, আপনারও দিয়ে কাজ নাই, আমারও নিয়ে কাজ নাই।”
"Once Hriday asked Sambhu Mallick for some money. Sambhu held the views of 'Englishmen' on such matters. He said to Hriday: 'Why should I give you money? You can earn your livelihood by working. Even now you are earning something. The case of a very poor person is different. The purpose of charity is fulfilled if one gives money to the blind or the lame.' Thereupon Hriday said: 'Sir, please don't say that. I don't need your money. May God help me not to become blind or deaf or extremely poor! I don't want you to give, and I don't want to receive.'"
ईश्वर नरेन्द्र पर अब भी दया नहीं करते, इस पर मानो अभिमान करके श्रीरामकृष्ण ने यह बात कही । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र की ओर स्नेह की दृष्टि से देख रहे हैं ।
[ঈশ্বর নরেন্দ্রকে কেন এখনও দয়া করছেন না ঠাকুর যেন অভিমান করে এই কথা বলছেন। ঠাকুর নরেন্দ্রের দিকে এক-একবার সস্নেহ দৃষ্টি করিতেছেন।
The Master spoke as if piqued because God had not yet shown His kindness to Narendra. Now and then he cast an affectionate glance at his beloved disciple.
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆नरेन्द्र और नास्तिकवाद - ईश्वर का काम और भीष्मदेव 🔆
[নরেন্দ্র ও নাস্তিক মত — ঈশ্বরের কার্য ও ভীষ্মদেব ]
नरेन्द्र – मैं ‘नास्तिकवाद’ पढ़ रहा हूँ ।
[নরেন্দ্র — আমি নাস্তিক মত পড়ছি।
NARENDRA: "I am now studying the views of the atheists."
श्रीरामकृष्ण – दो हैं – ‘अस्ति’ और ‘नास्ति’ । ‘अस्ति को ही क्यों नहीं लेते ?’
[শ্রীরামকৃষ্ণ — দুটো আছে, অস্তি আর নাস্তি, অস্তিটাই নাও না কেন?
MASTER: "There are two doctrines: the existence and the non-existence of God. Why don't you accept the first?"
सुरेन्द्र – ईश्वर तो बड़े न्यायी हैं, वे क्या भक्त की देखभाल न करेंगे ?
[সুরেন্দ্র — ঈশ্বর তো ন্যায়পরায়ণ, তিনি তো ভক্তকে দেখবেন।
SURENDRA: "God is just. He must look after His devotees."
श्रीरामकृष्ण – शास्त्रों में है, पूर्वजन्म में जो लोग दान आदि करते हैं, उन्हीं को धन मिलता है; परन्तु बात यह है कि संसार उनकी माया है, माया के राज्य में बड़ी गोलमाल है, कुछ समझ में नहीं आता ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আইনে (শাস্ত্রে) আছে, পূর্বজন্মে যারা দান-টান করে তাদেরই ধন হয়! তবে কি জান? এ-সংসার তাঁর মায়া, মায়ার কাজের ভিতর অনেক গোলমাল, কিছু বোঝা যায় না!
"It is said in the scriptures that only those who have been charitable in their former births get money in this life. But to tell you the truth, this world is God's maya. And there are many confusing things in this realm of maya. One cannot comprehend them.
“ईश्वर का काम कुछ समझा नहीं जाता । भीष्मदेव शरशय्या पर लेटे हुए थे । पाण्डव उन्हें देखने गये । साथ में श्रीकृष्ण भी थे । आये तो थोड़ी देर बाद उन्होंने देखा, भीष्म रो रहे थे । पाण्डवों ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘कृष्ण, यह बड़े आश्चर्य की बात है ! पितामह अष्ट वसुओं में एक हैं, उनकी तरह ज्ञानी देखने में नहीं आते, परन्तु ये भी मृत्यु के समय माया में पड़कर रो रहे हैं !’ श्रीकृष्ण ने कहा, ‘भीष्म इसलिए नहीं रो रहे हैं । इसका कारण उन्हीं से पूछो ।’
पूछने पर भीष्म ने कहा, ‘कृष्ण, ईश्वर के कार्य कुछ समझ न सका । मैं इसलिए रो रहा हूँ कि जिनके साथ साथ साक्षात् नारायण घूम रहे हैं उन पाण्डवों की भी विपत्ति का अन्त नहीं होता ! यह बात जब मैं सोचता हूँ तब यही निश्चय होता है कि उनके कार्य का कुछ भी अंश समझ में नहीं आ सकता ।’
[“ঈশ্বরের কার্য কিছু বুঝা যায় না। ভীষ্মদেব শরশয্যায় শুয়ে; পাণ্ডবেরা দেখতে এসেছেন। সঙ্গে কৃষ্ণ। এসে খানিকক্ষণ পরে দেখেন, ভীষমদেব কাঁদছেন। পাণ্ডবেরা কৃষ্ণকে বললেন, কৃষ্ণ, কি আশ্চর্য! পিতামহ অষ্টবসুর একজন বসু; এঁর মতন জ্ঞানী দেখা যায় না; ইনিও মৃত্যুর সময় মায়াতে কাঁদছেন! কৃষ্ণ বললেন, ভীষ্ম সেজন্য কাঁদছেন না। ওঁকে জিজ্ঞাসা কর দেখি। জিজ্ঞাসা করাতে ভীষ্ম বললেন, কৃষ্ণ! ঈশ্বরের কার্য কিছু বুঝতে পারলাম না! আমি এইজন্য কাঁদছি যে সঙ্গে সঙ্গে সাক্ষাৎ নারায়ণ ফিরছেন কিন্তু পাণ্ডবদের বিপদের শেষ নাই! এই কথা যখন ভাবি, দেখি যে তাঁর কার্য কিছুই বোঝবার জো নাই!”
"The ways of God are inscrutable indeed. Bhishma lay on his bed of arrows. The Pandava brothers visited him in Krishna's company. Presently Bhishma burst into tears. The Pandavas said to Krishna: 'Krishna, how amazing this is! Our grandsire Bhishma is one of the eight Vasus. Another man as wise as he is not to be found. Yet even he is bewildered by maya and Weeps at death.' 'But', said Krishna, 'Bhishma isn't weeping on that account. You may ask him about it.' When asked, Bhishma said: 'O Krishna, I am unable to understand anything of the ways of God. God Himself is the constant companion of the Pandavas, and still they have no end of trouble. That is why I weep. When I reflect on this, I realize that one cannot understand anything of God's ways.'
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
[শুদ্ধ আত্মা একমাত্র অটল — সুমেরুবৎ ]
🔆शुद्ध आत्मा ही एकमात्र अपरिवर्तनीय है -सुमेरुवत 🔆
“मुझे उन्होंने दिखलाया था, जिन्हें वेदों में शुद्धात्मा कहा है, एक वही परमात्मा अटल सुमेरूवत् निर्लिप्त तथा सुख और दुःख से अलग हैं । उनकी माया के कार्यों में बड़ी जटिलता है । किसके बाद क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता ।”
[“আমায় তিনি দেখিয়েছিলেন, পরমাত্মা, যাঁকে বেদে শুদ্ধ আত্মা বলে, তিনিই কেবল একমাত্র অটল সুমেরুবৎ নির্লিপ্ত, আর সুখ-দুঃখের অতীত। তাঁর মায়ার কার্যে অনেক গোলমাল; এটির পর ওটি, এটি থেকে উটি হবে — ও-সব বলবার জো নাই।”
"God has revealed to me that only the Paramatman, whom the Vedas describe as the Pure Soul, is as immutable as Mount Sumeru, unattached, and beyond pain and pleasure. There is much confusion in this world of His maya. One can by no means say that 'this' will come after 'that' or 'this' will produce 'that'."
सुरेन्द्र – (सहास्य) – और पूर्वजन्म में कुछ दान आदि करने से इस जन्म में धन प्राप्त होता है, तो हमें दान आदि करना चाहिए ।
[সুরেন্দ্র (সহাস্যে) — পূর্বজন্মে দান-টান করলে তবে ধন হয়, তাহলে তো আমাদের দান-টান করা উচিত।
SURENDRA (smiling): "If by giving away money in a previous birth one gets wealth in this life, then we should all give away money now."
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆धन रहते हुए कंजूसी करना ठीक नहीं, क्या ठिकाना धन मेरे बाद किसका होगा ? 🔆
श्रीरामकृष्ण – जिसके पास धन है, उसे दान करना चाहिए । (त्रैलोक्य से) जयगोपाल सेन के धन है, उसे दान करना चाहिए । वह नहीं करता, यह उसके लिए निन्दा की बात है । धन के रहने पर भी कोई कोई बड़े हिसाबी होते हैं – परन्तु इसका क्या ठिकाना कि वह धन किसके हिस्से में पड़ जायगा ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যার টাকা আছে তার দেওয়া উচিত। (ত্রৈলোক্যের প্রতি) জয়গোপাল সেনের টাকা আছে তার দান করা উচিত। এ যে করে না সেটা নিন্দার কথা। এক-একজন টাকা থাকলেও হিসেবী (কৃপণ) হয়; — টাকা যে কে ভোগ করবে তার ঠিক নাই!
MASTER: "Those who have money should give it to the poor and needy. (To Trailokya) Jaygopal Sen is well-to-do. He should be charitable. That he is not so is to his discredit. There are some who are miserly even though they have money. There is no knowing who will enjoy their money afterwards.
“अभी उस दिन जयगोपाल आया था । गाड़ी पर आया करता है । गाड़ी में फूटी लालटेन और घोड़े मरघट से लौटे हुए – दरवान मेडिकल कालेज के अस्पताल का वापस आया हुआ मरीज – और यहाँ के लिए ले आता है दो सड़े अनार !” (सब हँसते हैं ।)
[“সেদিন জয়গোপাল এসেছিল। গাড়ি করে আসে। গাড়িতে ভাঙা লণ্ঠন; — ভাগাড়ের ফেরত ঘোড়া; মেডিকেল কলেজের হাসপাতাল ফেরত দ্বারবান; — আর এখানের জন্য নিয়ে এলে দুই পচা ডালিম।” (সকলের হাস্য)"
Jaygopal came here the other day. He drove over here in a carriage. The lamps were broken, the horse seemed to have been returned from the charnel-house, and the coachman looked as if he had just been discharged from the Medical College Hospital. And he brought me two rotten pomegranates!" (All laugh.)
सुरेन्द्र – जयगोपाल बाबू ब्राह्म-समाजी हैं । मेरी समझ में शायद केशव के सम्प्रदाय में अब कोई भी ढंग का आदमी नहीं रह गया है । विजय गोस्वामी, शिवनाथ तथा अन्य बाबुओं ने मिलकर साधारण ब्राह्मसमाज की स्थापना की है ।
[সুরেন্দ্র — জয়গোপালবাবু ব্রাহ্মসমাজের। এখন বুঝি কেশববাবুর ব্রাহ্মসমাজে সেরূপ লোক নাই। বিজয় গোস্বামী, শিবনাথ ও আর আর বাবুরা সাধারণ ব্রাহ্মসমাজ করছেন।
SURENDRA: "Jaygopal Babu belongs to the Brahmo Samaj. I understand that now there is not one worth-while man in Keshab's organization. Vijay Goswami, Shivanath, and other notables have organized the Sadharan Brahmo Samaj."
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆 श्रीरामकृष्णदेव के शिष्यों की आनन्द मयी मण्डली तथा केशव के शिष्य का अन्तर 🔆
श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) –गोविन्द अधिकारी अपनी नाट्यमण्डली में अच्छा आदमी (good actors) न रखता था – हिस्सा देने का भय जो था । (सब हँसते हैं ।)
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — গোবিন্দ অধিকারী যাত্রার দলে ভাল লোক রাখত না; — ভাগ দিতে হবে বলে। (সকলের হাস্য)
MASTER (smiling): "Govinda Adhikari, it is said, would not keep good actors in his theatre lest they should claim a share of the profit. (All laugh.)
“उस दिन केशव के एक शिष्य को मैंने देखा था । केशव के मकान में अभिनय हो रहा था । देखा, वह लड़के को गोद में लेकर नाच रहा है । फिर सुना, व्याख्यान भी देता है । खुद को कौन शिक्षा दे, इसका पता नहीं ।”
[“কেশবের শিষ্য একজনকে সেদিন দেখলাম। কেশবের বাড়িতে থিয়েটার হচ্ছিল। দেখলাম, সে ছেলে কোলে করে নাচছে! আবার শুনলাম লেকচার দেয়। নিজেকে কে শিক্ষা দেয় তার ঠিক নাই!”
"The other day I saw a disciple of Keshab. A theatrical performance was being given in Keshab's house, and I saw the disciple dancing on the stage with a child in his arms. I understand that this man delivers 'lectures'. He had better lecture to himself."
[ত্রৈলোক্য গাহিতেছেন, —
চিদানন্দ সিন্ধুনীরে প্রেমানন্দের লহরী।
মহাভাব রসলীলা কি মাধুরী মরি মরি।।
মহাযোগে সমুদায় একাকার হইল।
দেশ-কাল ব্যবধান ভেদাভেদ ঘুচিল।।
এখন আনন্দে মাতিয়া দুবাহু তুলিয়া, বল রে মন হরি হরি।।
त्रैलोक्य गाने लगे -
🔆चिदानन्द सिन्धु नीरे प्रेमानन्देर लहरी।🔆
"चिदानन्द सिन्धु नीरे प्रेमानन्देर लहरी।
महाभाव रसलीला कि माधुरी मरि मरि।।
महायोगे समुदाय एकाकार होईलो।
देश-काल व्यवधान भेदाभेद घुचिलो।
एखन आनन्दे मातिया दूबाहू तुलिया , बोलो रे मन हरि हरि।।
[ खुद को शिक्षा देने के लिए यम-नचिकेता मार्ग पर चलते समय जोखिमों के बारे में जागरूकता (awareness of risks-क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथः तत् कवयो वदन्ति') के विवेकज -आनन्द रूपी सागर के सतह पर जो प्रेम की लहरें उठती हैं - वही माँ आनन्दमयी (काली) की क्रियाशीलता (खेल) का दिव्यानन्द है ! ओह, ईश्वरीय माधुर्य के आनन्द सागर की सतह पर उठने वाली ये चमत्कारिक तरंगें, जो हमेशा नये -नये और आकर्षक रूप धारण कर रही हैं; कितनी चित्ताकर्षक और सम्मोहित करने वाली हैं ! देश-काल की बाधा एक बार फिर खत्म होकर ज्योंही अदृष्ट (vanish) हो जाती है , त्यों ही सारे दृश्य (नाम-रूप) उस बृहत एकात्मबोध (Great Communion ) में विलीन हो जाते हैं ! तो फिर नाचो, हे मन ! आओ हम - भगवान हरि के पवित्र नाम का जाप करते हुए, दोनों बाहु ऊपर उठाकर प्रसन्नता से नृत्य करें।]
Trailokya sang: Upon the Sea of Blissful Awareness waves of ecstatic love arise: Rapture divine! Play of God's Bliss! Oh, how enthralling! Wondrous waves of the sweetness of God, ever new and ever enchanting, Rise on the surface, ever assuming Forms ever fresh. Then once more in the Great Communion all are merged, as the barrier walls Of time and space dissolve and vanish: Dance then, O mind! Dance in delight, with hands upraised, chanting Lord Hari's holy name.]
[ॐ 🔆ॐ 🔆ॐ🔆:>स्वामी विवेकानंद का जन्म जिस समय में हुआ था, ( अर्थात श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द Be and Make' वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा का जन्म जिस समय में हुआ था) , वह भारत में अज्ञान का नहीं, तो संभवतः जनचेतना का सुषुप्त काल था। लोग पारंपरिक रूढ़ियों में (जाति-पाँति में) बँधे थे और समुदायों के आवरण (अगड़ा-पिछड़ा के आवरण ) से बाहर आकर समग्र हिन्दू राष्ट्र के रूप में संगठित नहीं थे। शेष विश्व में भारत की छवि एकीकृत राजनैतिक इकाई के रूप में तो छोड़ दीजिए एक भौगोलिक-सांस्कृतिक इकाई के रूप में भी नहीं देखी जाती थी। ऐसे समय में विवेकानंद ने ‘उठो जागो…’ का नारा दिया था और विश्व धर्म संसद में सनातन धर्म की अलख जगाई थी। स्वामी विवेकानंद ने भी नचिकेता की भाँति ज्ञान (परम् सत्य) की खोज करने के पश्चात् ‘उठो, जागो…’ का उद्घोष कर भारत के सुषुप्त जनमानस को जगाया था। कठोपनिषद के प्रथम अध्याय तीसरी वल्ली का 14वाँ मंत्र है: “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथः तत् कवयो वदन्ति॥” ज्ञान (विवेकज -ज्ञान) के बिना इस जगत में कुछ भी उन्नति साध्य नहीं हो सकती। यह 'विवेकज -ज्ञान ' (आत्मज्ञान और आत्मोन्नति का मार्ग- 3H विकास के 5 अभ्यास का मार्ग) अत्यंत कठिन है वैसे ही जैसे तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलना। इस पथ पर संभलकर चलना चाहिए, पथ से थोड़ा भी डिगे तो पतन हो जाएगा। सब ज्ञानी इस मार्ग का ऐसा ही वर्णन करते आए हैं। सदा सावधान रहना चाहिए। उठो जागो, यहाँ जागकर भी सोये रहने से काम नहीं चलेगा।” कठोपनिषद का यह मंत्र कहता है कि ज्ञान (अर्थात विवेकज -ज्ञान) प्राप्त करने और उसे साधने का मार्ग अस्त्रों को साधने जितना ही कठिन है। यहाँ ज्ञान को अस्त्र के समान बताया गया है अर्थात ज्ञान (अर्थात विवेकज-ज्ञान) मारक और प्रतिरक्षा दोनों स्थितियों में कारगर हथियार है। ज्ञान के प्रयोग की विधा (विवेक-प्रयोग की विधा-मनःसंयोग ) भी सबको सुलभ नहीं होती। इस विषय में पारंगत व्यक्ति ही ज्ञान का प्रतिपादन करने में सक्षम है। [अर्थात 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make ' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित और चपरास-प्राप्त (CINC नवनीदा जैसा) मार्गदर्शक नेता (Leader) ही इस ज्ञान (विवेकज-ज्ञान) का प्रतिपादन करने (लीडरशिप प्रशिक्षण देने) में सक्षम है।] इसीलिए कहा गया कि श्रेष्ठ ज्ञानियों के पास जाकर ही ज्ञान (आत्मज्ञान और आत्मोन्नति की पद्धति का प्रशिक्षण) की प्राप्ति हो सकती है। [साभार https://hindi.opindia.com/opinion/swami-vivekananda-upanishad-knowledge-information-parilament-of-religions/]
गाना जब समाप्त हो गया तब श्रीरामकृष्ण ने उनसे ‘आमाय दे माँ पागल करे’ गाने के लिए कहा -
आमाय दे माँ पागल कोरे।
आमार काज नाई माँ ज्ञान विचारे।
ब्रह्ममयी दे माँ पागल क 'रे।।
(ओ माँ) तोमार प्रेमेर सूरा, पाने करे मातोयारा।
ओ माँ भक्तचित्त-हरा डूबाओ प्रेमसागरे।
तोमार ए पागला गारदे, केह हासे केह कांदे , केह नाचे आनन्द भरे।।
ईसा मूसा श्रीचैतन्य , (ओ माँ) प्रेम भरे अचैतन्य।।
हाय कोबे हबो माँ धन्य , (ओ माँ) मिशे तार भीतरे।
स्वर्गेते पागलेर मेला , जेमोन गुरु तेमनी चेला ,प्रेमेर खेला के बूझते पारे।।
तुमि प्रेमे उन्मादिनी , ओमा पागलेर शिरोमणि।।
प्रेमधने कोरो माँ धनी , कांगाल प्रेमदासेरे।
(भाव ) हे माँ, मुझे अपने प्यार से पागल कर दो! मुझे ज्ञान (विवेक-प्रयोग) या तर्क-विचार करने की क्या आवश्यकता है ? अपने प्यार की मदिरा से मुझे मतवाला बना दे ; हे माँ , तुम तो अपने भक्तों के ह्रदय को ही चुरा लेती हो ; मुझे भी अपने प्यार के सागर में गहराई तक गोते लगवा दे ! तुम्हारे इस जगतरूपी पागलखाने में (gymnasium में ) कुछ हँसते हैं , कुछ रोते हैं। तो वहीं ईसा , मूसा , बुद्ध , गौरांग जैसे मानवजाति के मार्गदर्शक नेता तुम्हारे प्रेम के नशे में आनन्द से मदहोश होकर नृत्य करते हैं ! हे माँ, उन अवतारों (गुरुओं ,नेताओं) की आनन्द मयी मण्डली में शामिल होने का आशीर्वाद मुझे कब प्राप्त होगा ?
[अर्थात महामण्डल के " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त Be and Make शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में आयोजित महामण्डल युवा -प्रशिक्षण शिविर" में शामिल होने का आशीर्वाद मुझे कब प्राप्त होगा ?O Mother, when shall I be blessed By joining their blissful company? ]
[গান সমপ্ত হইলে শ্রীরামকৃষ্ণ ত্রৈলোক্যকে বলিতেছেন, ওই গানটা গাও তো গা, — আমায় দে মা পাগল করে।
আমায় দে মা পাগল ক'রে।
আমার কাজ নাই মা জ্ঞান বিচারে৷
ব্রহ্মময়ী দে মা পাগল ক’রে।।
(ও মা)তোমার প্রেমের সুরা,পানে কর মাতোয়ারা।।
ও মা ভক্তচিত্তহরা ডুবাও প্রেমসাগরে।
তোমার এ পাগলাগারদে,কেহ হাসে কেহ কাঁদে,
কেহ নাচে আনন্দ ভরে।।
ঈশা মুসা শ্রীচৈতন্য,(ও মা)প্রেম ভরে অচৈতন্য।।
হায় কবে হব মা ধন্য,(ও মা)মিশে তার ভিতরে ৷
স্বর্গেতে পাগলের মেলা,যেমন গুরু তেমনি চেলা,
প্রেমের খেলা কে বুঝতে পারে।।
তুমি প্রেমে উন্মাদিনী,ওমা পাগলের শিরোমণি।।
প্রেমধনে কর মা ধনী,কাঙ্গাল প্রেমদাসেরে।
Sri Ramakrishna requested Trailokya to sing the song beginning, "O Mother, make me mad with Thy love".Trailokya sang:O Mother, make me mad with Thy love! What need have I of knowledge or reason? Make me drunk with Thy love's Wine; O Thou who stealest Thy bhaktas' hearts,Drown me deep in the Sea of Thy love!Here in this world, this madhouse of Thine Some laugh, some weep, some dance for joy: Jesus, Buddha, Moses, Gauranga,All are drunk with the Wine of Thy love.O Mother, when shall I be blessed By joining their blissful company?
(२)
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
[দক্ষিণেশ্বরে মণিলাল প্রভৃতি ভক্তসঙ্গে]
[मणिलाल आदि भक्तों के साथ दक्षिणेश्वर में]
रविवार, 9 मार्च 1884 ई. । श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में मणिलाल मल्लीक , सींती के महेन्द्र कविराज, बलराम, मास्टर, भवनाथ, राखाल, लाटू, अधर, महिमाचरण, हरीश, किशोरी(गुप्त), शिवचन्द्र आदि अनेक भक्तों के साथ बैठे हैं । अभी तक गिरीश, काली, सुबोध आदि नहीं आये हैं । शरत् तथा शशी ने केवल एक-दो बार ही दर्शन किया है । पूर्ण, छोटे नरेन आदि ने भी अभी तक उन्हें नहीं देखा है ।
श्रीरामकृष्ण क्व हाथ में बैण्डेज बँधा हुआ है । रेलिंग के किनारे गिरकर हाथ टूट गया है – उस समय भाव में विभोर हो गये थे । हाल ही में हाथ टूटा है – निरन्तर पीड़ा बनी रहती है ।
[আজ রবিবার, ৯ই মার্চ, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ (২৭শে ফাল্গুন, শুক্লা ত্রয়োদশী)। শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে অনেকগুলি ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন; মণিলাল মল্লিক, সিঁথির মহেন্দ্র কবিরাজ, বলরাম, মাস্টার, ভবনাথ, রাখাল, লাটু, হরিশ, কিশোরী (গুপ্ত), শিবচন্দ্র প্রভৃতি। এখনও গিরিশ, কালী, সুবোধ প্রভৃতি আসিয়া জুটেন নাই। শরৎ, শশী ইঁহারা সবে দু-একবার দেখিয়াছেন। পূর্ণ, ছোট নরেন প্রভৃতিও তাঁহাকে এখনও দেখেন নাই।
Sunday, March 9, 1884 SRI RAMAKRISHNA was sitting in his room at Dakshineswar with many devotees. Among them were Mani Mallick, Mahendra Kaviraj, Balaram, M., Bhavanath, Rakhal, Latu, and Harish. The Master's injured arm was in a splint. In spite of the injury he was constantly absorbed in samadhi or instructing the devotees.
परन्तु इस स्थिति में भी वे प्रायः समाधिमग्न रहते हैं और भक्तों के साथ गम्भीर तत्त्वों की बातें करते हैं ।
[কিন্তু এই অবস্থাতেই প্রায় সমাধিস্থ থাকেন ও ভক্তদের গভীর তত্ত্বকথা বলেন।
एक दिन कष्ट से रो रहे हैं, उसी समय समाधिमग्न हो गये । समाधिभंग होने के बाद महिमाचरण आदि भक्तों से कह रहे हैं, “भाई, सच्चिदानन्द की प्राप्ति न हुई तो कुछ भी न हुआ । व्याकुल हुए बिना कुछ न होगा । मैं रो-रोकर पुकारता था और कहता था, ‘हे दीनानाथ, मेरा साधन-भजन कुछ भी नहीं है, पर मुझे दर्शन देना होगा ।’”
[একদিন যন্ত্রণায় কাঁদিতেছেন, এমন সময় সমাধিস্থ হইলেন। সমাধির পর প্রকৃতিস্থ হইয়া মহিমাচরণ প্রভৃতি ভক্তগণকে বলিতেছেন, বাবু, সচ্চিদানন্দ লাভ না হলে কিছুই হল না। ব্যাকুলতা না হলে হবে না। আমি কেঁদে কেঁদে ডাকতাম আর বলতাম, ওহে দীননাথ, আমি ভজন-সাধনহীন, আমায় দেখা দিতে হবে।
उसी दिन रात को फिर महिमाचरण, अधर, मास्टर आदि बैठे हैं ।
[সেই দিন রাত্রে আবার মহিমাচরণ, অধর, মাস্টার প্রভৃতি বসিয়া আছেন।
श्रीरामकृष्ण – (महिमाचरण के प्रति) – एक प्रकार है – अहेतुकी भक्ति, इसे यदि प्राप्त कर सको !
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমাচরণের প্রতি) — একরকম আছে অহেতুকী ভক্তি, এইটি যদি সাধতে পার।
फिर अधर से कह रहे हैं – “इस हाथ पर जरा हाथ फेर सकते हो ?”
আবার অধরকে বলিতেছেন — এই হাতটাতে একটু হাত বুলিয়ে দিতে পার?
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[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत -77]
[শ্রীরামকৃষ্ণ ও ধন, ঐশ্বর্য ]
[ श्रीरामकृष्ण और धन तथा ऐश्वर्य ]
🔆प्रदर्शनी में सोने का पलंग देखने से बड़ा लाभ -यह बोध कि ये चीजें सब असार (trash) हैं! 🔆
मणिलाल मल्लिक तथा भवनाथ प्रदर्शनी की बातें कर रहे हैं जो 1883 -84 ई. में एशियाटिक म्यूजियम के पास हुई थी । वे कह रहे हैं, “कितने राजाओं ने मूल्यवान चीजें भेजी हैं; सोने के पलंग आदि देखने योग्य चीजें हैं ।”
[মণিলাল মল্লিক ও ভবনাথ এগ্জিবিশনের কথা বলিতেছেন — ১৮৮৩-৮৪ খ্রীষ্টাব্দ, এশিয়াটিক মিউজিয়াম্-এর কাছে হইয়াছিল। তাঁহারা বলিতেছেন — কত রাজারা বহুমূল্য জিনিস সব পাঠাইয়াছেন! সোনার খাট ইত্যাদি — একটা দেখবার জিনিস।
Mani Mallick and Bhavanath referred to the exhibition which was then being held near the Asiatic Museum. They said: "Many maharajas have sent precious articles to the exhibition — gold couches and the like. It is worth seeing."]
श्रीरामकृष्ण – (भक्तों के प्रति हँसते हुए) – हाँ, वहाँ जाने पर एक लाभ अवश्य होता है । ये सब सोने की चीजें – राजमहाराजाओं की चीजें देखकर बिलकुल क्षुद्र-सी मालुम होती हैं । यह भी बड़ा लाभ है । जब मैं कलकत्ता आता था, तो हृदय मुझे गवर्नर का मकान दिखाता था, कहता था, ‘मामाजी, वह देखो, गवर्नर साहब (ब्रिटिश राज का प्रतिनिधि -लाटसाहब -Viceroy's palace) का मकान, बड़े बड़े खम्भे !’ माँ ने दिखा दिया, कुछ मिट्टी की बनी ईंटें एक के ऊपर दूसरी रखकर सजायी हुई हैं !
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি সহাস্যে) — হ্যাঁ, গেলে একটা বেশ লাভ হয়। ওইসব সোনার জিনিস, রাজরাজড়ার জিনিস দেখে সব ছ্যা হয়ে যায়। সেটাও অনেক লাভ। হৃদে, কলকাতায় যখন আমি আসতাম, লাট সাহেবের বাড়ি আমাকে দেখাত — মামা, ওই দেখ, লাট সাহেবের বাড়ি, বড় বড় থাম। মা দেখিয়ে দিলেন, কতকগুলি মাটির ইট উঁচু করে সাজান।
MASTER (to the devotees, with a smile): "Yes, you gain much by visiting those things. You realize that those articles of gold and the other things sent by maharajas are mere trash. That is a great gain in itself. When I used to go to Calcutta with Hriday, he would show me the Viceroy's palace and say: 'Look, uncle! There is the Viceroy's palace with the big columns.' The Mother revealed to me that they were merely clay bricks laid one on top of another.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆जादूगर (भगवान) ही सत्य है- ऐश्वर्य दो दिन के लिए है !🔆
“भगवान् और उनका ऐश्वर्य । ऐश्वर्य दो दिन के लिए है; भगवान् ही सत्य हैं । जादूगर और उसका जादू। जादू देखकर सभी लोग विस्मित हो जाते हैं, परन्तु सब झूठा है, जादूगर ही सत्य है । मालिक और उसका बगीचा । बगीचा देखकर बगीचे के मालिक की खोज करनी चाहिए ।”
[“ভগবান ও তাঁর ঐশ্বর্য। ঐশ্বর্য দুদিনের জন্য, ভগবানই সত্য; বাজিকর আর তার বাজি! বাজি দেখে সব অবাক্, কিন্তু সব মিথ্যা; বাজিকরই সত্য। বাবু আর তাঁর বাগান। বাগান দেখে বাগানের মালিক বাবুকে সন্ধান করতে হয়।”
"God and His splendour. God alone is real; the splendour has but a two-days existence. The magician and his magic. All become speechless with wonder at the magic, but it is all unreal. The magician alone is real. The rich man and his garden. People see only the garden; they should look for its rich owner."
मणि मालिक – (श्रीरामकृष्ण के प्रति) – देखो, प्रदर्शनी में कितनी बड़ी बिजली की बत्ती लगायी है । उस बत्ती को देखकर हमें लगता है वे (भगवान्) कितने बड़े हैं, जिन्होंने बिजली की बत्ती बनायी है ।
[মণি মল্লিক (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — আবার কত বড় ইলেক্ট্রিক লাইট দিয়েছে। তখন আমাদের মনে হয় তিনি কত বড় যিনি ইলেকট্রিক লাইট করেছেন!
MANI MALLICK (to the Master): "What a big electric light they have at the exhibition! It makes us think how great He must be who has made such an electric light."
श्रीरामकृष्ण – (मणिलाल के प्रति) – एक और मत है, वे ही ये सब कुछ बने हुए हैं । फिर जो कह रहा है वह भी वे ही हैं । ईश्वर, माया, जीव, जगत् ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণিলালের প্রতি) — আবার একমতে আছে, তিনি এইসব হয়ে রয়েছেন; আবার যে বলছে সেও তিনি। ঈশ্বর মায়া, জীব, জগৎ।
MASTER (to Mani): "But according to one view it is He Himself who has become everything. Even those who say that are He. It is Satchidananda Itself that has become all — the Creator, maya, the universe, and living beings."
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
[শ্রীরামকৃষ্ণ ও সাধুসঙ্গ — যোগীর ছবি ]
🔆साधुसंग का परिणाम - योगी की छवि देखने से भी श्रद्धा जाग्रत होती है🔆
म्युजियम की चर्चा चली ।
[মিউজিয়ামের কথা পড়িল।
The conversation turned to the museum.
श्रीरामकृष्ण – (भक्तों के प्रति) – मैं एक बार म्युजियम में गया था । वहाँ मुझे फासिल* दिखाये गये । मैंने देखा कि लकड़ी पत्थर बन गयी है, पूरा जानवर पत्थर बन गया है । देखो, - संग का क्या गुण है ! इसी प्रकार सदा सज्जन का संग करने से वही बन जाता है । (*फासिल ,Fossil – करोड़ों वर्ष पूर्व की लकड़ी, पत्ते, फल, यहाँ तक कि फूल भी हमें आज पत्थर के रूप में प्राप्त हैं, इन्हें ‘फासिल’ कहते हैं ।)
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — আমি একবার মিয়জিয়ামে গিছলুম; তা দেখালে ইট, পাথর হয়ে গেছে, জানোয়ার পাথর হয়ে গিয়েছে। দেখলে, সঙ্গের গুণ কি! তেমনি সর্বদা সাধুসঙ্গ করলে তাই হয়ে যায়।
MASTER (to the devotees): "I visited the museum once. I was shown fossils. A whole animal has become stone! Just see what an effect has been produced by company! Likewise, by constantly living in the company of a holy man one verily becomes holy."
मणि मल्लिक – (हँसकर) – महाराज, यदि आप एक बार प्रदर्शनी में आते तो शायद हमें १०-१५ वर्ष तक उपदेश देने की सामग्री आपको मिल जाती ।
[মণি মল্লিক (সহাস্যে) — আপনি ওখানে একবার গেলে আমাদের ১০/১৫ বৎসর উপদেশ চলত।
MANI (smiling): "Had you visited the exhibition only once, we could receive instruction for ten or fifteen years."
श्रीरामकृष्ण – (हँसकर) - क्या उपमा के लिए ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি, উপমার জন্য?
MASTER (with a smile): "How so? You mean illustrations?"
बलराम – नहीं, वहाँ जाना ठीक नहीं । इधर-उधर जाने से हाथ को आराम नहीं मिलेगा ।
[বলরাম — না; এখানে ওখানে গেলে হাত সারবে না।
BALARAM: "No, you shouldn't go. Your arm won't heal if you go here and there."
श्रीरामकृष्ण – मेरी इच्छा है कि मुझे दो चित्र मिलें । एक चित्र, योगी धुनी जलाकर बैठा है, और दूसरा चित्र, योगी गांजा की चिलम मुँह में लगाकर पी रहा है, और उसमें से एकाएक आग जल उठती है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার ইচ্ছা যে দুখানি ছবি যদি পাই। একটি ছবি; যোগী ধুনি জ্বেলে বসে আছে; আর-একটি ছবি, যোগী গাঁজার কলকে মুখ দিয়ে টানছে আর সেটা দপ্ করে জ্বলে উঠছে।
MASTER: "I should like to have two pictures. One of a yogi seated before a lighted log, and another of a yogi smoking hemp and the charcoal blazing up as he pulls.
“इन सब चित्रों से काफी उद्दीपन होता है । जिस प्रकार मिट्टी का बनावटी आम देखकर सच्चे आम का उद्दीपन होता है ।
[“এ-সব ছবিতে বেশ উদ্দীপন হয়। যেমন সোলার আতা দেখলে সত্যকার আতার উদ্দীপন হয়।
Such pictures kindle my spiritual consciousness, as an imitation fruit awakens the idea of a real one.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆 चित्त शुद्ध होने पर योग होता है, इसके लिए निर्जनवास और साधुसंग आवश्यक 🔆
“परन्तु योग में विघ्न है – कामिनी-कांचन । यह मन शुद्ध होने पर योग होता है । मन का निवास है कपाल में (आज्ञाचक्र में), परन्तु दृष्टि रहती है लिंग, गुदा और नाभि में – अर्थात् कामिनी-कांचन में । साधना करने पर उस मन की ऊपर की ओर दृष्टि होती है ।
[“তবে যোগের বিঘ্ন — কামিনী-কাঞ্চন। এই মন শুদ্ধ হলে যোগ হয়। মনের বাস কপালে (আজ্ঞা চক্রে) কিন্তু দৃষ্টি লিঙ্গ, গুহ্য, নাভিতে — অর্থাৎ কামিনী-কাঞ্চনে! সাধন করলে ওই মনের ঊর্ধ্বদৃষ্টি হয়।"
The obstacle to yoga is 'woman and gold'. Yoga is possible when the mind becomes pure. The seat of the mind is between the eyebrows; but its look is fixed on the navel and the organs of generation and evacuation, that is to say, on 'woman and gold'. But through spiritual discipline the same mind looks upward.
कौनसी साधना करने से मन की दृष्टि ऊपर की ओर होती है ? सदा साधुपुरुषों का संग करने से सब जाना जा सकता है ।
“ऋषिगण सदा या तो निर्जन में या साधुओं के संग में रहा करते थे – इसीलिए उन्होंने बिना क्लेश के ही कामिनी-कांचन का त्याग कर ईश्वर में मन लगा लिया था – निन्दा-भय कुछ भी नहीं है ।
[“কি সাধন করলে মনের ঊর্ধ্বদৃষ্টি হয়? সর্বদা সাধুসঙ্গ করলে সব জানতে পারা যায়।“ঋষিরা সর্বদা হয় নির্জনে, নয় সাধুসঙ্গে থাকতেন — তাই তাঁরা অনায়াসে কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ করে ঈশ্বরেতে মন যোগ করেছিলেন — নিন্দা, ভয় কিছু নাই। "
What are the spiritual disciplines that give the mind its upward direction? One learns all this by constantly living in holy company. The rishis of olden times lived either in solitude or in the company of holy persons; therefore they could easily renounce 'woman and gold' and fix their minds on God. They had no fear nor did they mind the criticism of others.
“त्याग करना हो तो ईश्वर से पुरुषकार के लिए प्रार्थना करनी चाहिए । जो मिथ्या जँचे, उसका उसी समय त्याग करना उचित है ।
“ऋषियों का यह पुरुषकार था । इसी पुरुषकार के द्वारा ऋषियों ने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की थी ।
“कछुआ अगर हाथ पैर भीतर समेट ले, तो टुकड़े टुकड़े कर डालने पर भी वह हाथपैर नहीं निकालेगा!
[“ত্যাগ করতে হলে ঈশ্বরের কাছে পুরুষকারের জন্য প্রার্থনা করতে হয়। যা মিথ্যা বলে বোধ হবে তা তৎক্ষণাৎ ত্যাগ। “ঋষিদের এই পুরুষকার ছিল। এই পুরুষকারের দ্বারা ঋষিরা ইন্দ্রিয় জয় করেছিলেন।“কচ্ছপ যদি হাত-পা ভিতরে সাঁধ করে দেয়, চারখানা করে কাটলেও হাত-পা বার করবে না!
"In order to be able to renounce, one must pray to God for the will-power to do so. One must immediately renounce what one feels to be unreal. The rishis had this will-power. Through it they controlled the sense-organs. If the tortoise once tucks in its limbs, you cannot make it bring them out even by cutting it into four pieces.]
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆कपटीपन त्याग दो ! (Give up hypocrisy)🔆
“विषयी लोग कपटी होते हैं - सरल नहीं होते । मुँह से कहते हैं, ‘ईश्वर से प्रेम करता हूँ” परन्तु उनका विषयों पर जितना आकर्षण तथा कामिनी-कांचन में जितना प्रेम रहता है, उसका एक अंश भी ईश्वर की ओर नहीं रहता । परन्तु मुँह से कहते हैं, “ईश्वर से प्रेम करता हूँ ।’ (मणि मल्लिक के प्रति) कपटीपन छोड़ो ।”
[“সংসারী লোক কপট হয় — সরল হয় না। মুখে বলে ঈশ্বরকে ভালবাসি, কিন্তু বিষয়ে যত টান, কামিনী-কাঞ্চনে যত ভালবাসা, তার অতি অল্প অংশও ঈশ্বরের দিকে দেয় না। অথচ মুখে বলে ঈশ্বরকে ভালবাসি।"(মণি মল্লিকের প্রতি) — “কপটতা ছাড়ো।”
The worldly man is a hypocrite. He cannot be guileless. He professes to love God, but he is attracted by worldly objects. He doesn't give God even a very small part of the love he feels for 'woman and gold'. But he says that he loves God. (To Mani Mallick) Give up hypocrisy."
मणिलाल – मनुष्य के साथ या ईश्वर के साथ ?
[মণিলাল — মানুষ সম্বন্ধে না ঈশ্বর সম্বন্ধে?
MANI: "Regarding whom, God or man?"
श्रीरामकृष्ण – सभी के साथ । मनुष्य के साथ भी, और ईश्वर के साथ भी – कपट कभी नहीं करना चाहिए ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সবরকম। মানুষ সম্বন্ধেও বটে, আর ঈশ্বর সম্বন্দেও বটে; কপটতা করতে নাই।
MASTER: "Regarding everything — man as well as God. One must not be a hypocrite.
“भवनाथ कैसा सरल है ! विवाह करके आकर मुझसे कहता है, ‘स्त्री पर मेरा इतना प्रेम क्यों हो रहा है? अहा, वह बहुत ही सरल है ।
[“ভবনাথ কেমন সরল! বিবাহ করে এসে আমায় বলছে, স্ত্রীর উপর আমার এত স্নেহ হচ্ছে কেন? আহা! সে ভারী সরল!"
How guileless Bhavanath is! After his marriage he came to me and asked, 'Why do I feel so much love for my wife?' Alas, he is so guileless!
“तो, स्त्री पर प्रेम नहीं होगा ? यह जगन्माता की भुवनमोहिनी माया है । स्त्री को देखकर ऐसा लगता है मानो उसके समान अपना संसार भर में और कोई नहीं है – मानो वह उसका जीवन ही है, इहलोक और परलोक दोनों में !
[“তা স্ত্রীর উপর ভালবাসা হবে না? এটি জগন্মাতার ভুবনমোহিনী মায়া। স্ত্রীকে বোধ হয় যে পৃথিবীতে অমন আপনার লোক আর হবে না — আপনার লোক, জীবনে মরণে, ইহকালে পরকালে।"
Isn't it natural for a man to love his wife? This is due to the world-bewitching maya of the Divine Mother of the Universe. A man feels about his wife that he has no one else in the world so near and dear; that she is his very own in life and death, here and hereafter.
“पर इसी स्त्री को लेकर मनुष्य क्या क्या दुःख नहीं भोग रहा है, फिर भी समझता है कि उसके समान अपना और कोई नहीं है । क्या दुर्दशा है ! बीस रूपये वेतन, तीन बच्चे हुए हैं – उन्हें अच्छी तरह से खिलाने की शक्ति नहीं है – मकान की छत से पानी टपकता है, मरम्मत कराने को पैसा नहीं है – लड़के को नयी पुस्तकें खरीद कर नहीं दे सकता – लड़के का यज्ञोपवीत-संस्कार नहीं कर सकता – किसी से आठ आना, किसी से चार आना करके भीख माँगता है !
[“এই স্ত্রী নিয়ে মানুষ কি না দুঃখ ভোগ করছে, তবু মনে করে যে এমন আত্মীয় আর কেউ নাই। কি দুরবস্থা! কুড়ি টাকা মাইনে — তিনটে ছেলে হয়েছে — তাদের ভাল করে খাওয়াবার শক্তি নেই, বাড়ির ছাদ দিয়ে জল পড়ছে, মেরামত করবার পয়সা নাই — ছেলের নতুন বই কিনে দিতে পারে না। — ছেলের পৈতে দিতে পারে না — এর কাছে আট আনা, ওর কাছে চার আনা ভিক্ষে করে।"
Again, how much a man suffers for his wife! Still he believes that there is no other relative so near. Look at the sad plight of a husband. Perhaps he earns twenty rupees a month and is the father of three children. He hasn't the means to feed them well. His roof leaks, but he hasn't the wherewithal to repair it. He cannot afford to buy new books for his son. He cannot invest his son with the sacred thread. He begs a few pennies from his different friends.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत -77]
🔆आध्यात्मिक ज्ञान से सम्पन्न स्त्री यह जानती है कि ईश्वर ही एकमात्र अपना है🔆
“विद्यारुपिणी स्त्री वास्तव में सहधर्मिणी है । वह स्वामी के ईश्वर-पथ में जाने में विशेष सहायता करती है । एक-दो बच्चे होने के बाद दोनों आपस में भाई-बहन की तरह रहते हैं । दोनों ही ईश्वर के भक्त हो जाते हैं – दास तथा दासी । उनकी गृहस्थी विद्या की गृहस्थी है । ईश्वर और भक्तों को लेकर सदा आनन्द मनाते हैं । वे जानते हैं, ईश्वर ही एकमात्र अपना है – चिरकाल के लिए अपना । सुख में, दुःख में कभी उन्हें नहीं भूलते – जैसे पाण्डव ।
[“বিদ্যারূপিণী স্ত্রী যথার্থ সহধর্মিণী। স্বামীকে ঈশ্বরের পথে যেতে বিশেষ সহায়তা করে। দু-একটি ছেলের পর দুজনে ভাই-ভগিনীর মতো থাকে। দুজনেই ঈশ্বরের ভক্ত — দাস-দাসী। তাদের সংসার, বিদ্যার সংসার। ঈশ্বরকে ও ভক্তদের লয়ে সর্বদা আনন্দ। তারা জানে ঈশ্বরই একমাত্র আপনার লোক — অনন্তকালের আপনার। সুখে-দুঃখে তাঁকে ভুলে না — যেমন পাণ্ডবেরা।”
"But a wife endowed with spiritual wisdom is a real partner in life. She greatly helps her husband to follow the religious path. After the birth of one or two children they live like brother and sister. Both of them are devotees of God — His servant and His handmaid. Their family is a spiritual family. They are always happy with God and His devotees. They know that God alone is their own, from everlasting to everlasting. They are like the Pandava brothers; they do not forget God in happiness or in sorrow.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
[ गृहस्थ भक्त और त्यागी भक्त > সংসারীভক্ত ও ত্যাগীভক্ত ]
🔆गृहस्थ -जीवन में रमें लोगों का ईश्वर-प्रेम क्षणिक है 🔆
“गृहस्थ -जीवन में रमें लोगों का ईश्वरप्रेम क्षणिक है – जैसे तपाये हुए तवे पर जल पड़ा हो – ‘छुन्’ शब्द हुआ – और उसके बाद ही सूख गया । अधिकांश गृहस्थ लोगों का मन भोग की ओर रहता है इसलिए वह अनुराग, वह व्याकुलता नहीं होती ।
[“সংসারীদের ঈশ্বরানুরাগ ক্ষণিক — যেমন তপ্ত খোলায় জল পড়েছে, ছ্যাঁক করে উঠল — তারপরই শুকিয়ে গেল।"“সংসারী লোকদের ভোগের দিকে মন রয়েছে — তাই জন্য সে অনুরাগ, সে ব্যাকুলতা হয় না।
The longing of the worldly-minded for God is momentary, like a drop of water on a red-hot frying-pan. The water hisses and dries up in an instant. The attention of the worldly-minded is directed to the enjoyment of worldly pleasure. Therefore they do not feel yearning and restlessness for God.
“एकादशी तीन प्रकार की होती है । प्रथम निर्जला एकादशी, जल तक नहीं पिया जाता; इसी प्रकार, फकीर पूर्ण त्यागी होते हैं – एकदम सब भोगों का त्याग । दूसरी में दूध मिठाई खायी जाती है – मानो भक्त ने घर में मामूली भोग रखा है । तीसरी – वह जिसमें हलवापूरी खायी जाती है - खूब भर पेट खा रहा है; इधर रोटी दूध में भी छोड़ रखी है * – बाद में खायगा !
[^* यह केवल नाम की एकादशी व्रत है, क्योंकि इसमें उपासक चावल और थोड़े पक्वान्न को त्याग कर एकादसी व्रत पालन का दिखावा भर करता है, इधर स्वादिष्ट भोजन से अपना पेट भी भरता है। ^This observance is an ekadasi in name only, since the observer fills his stomach with delicious food. By avoiding rice and a few cooked articles, he keeps to the letter of the law.]
People may observe the ekadasi in three ways. First, the 'waterless' ekadasi — they are not permitted to drink even a drop of water. Likewise, an all-renouncing religious mendicant completely gives up all forms of enjoyment. Second, while observing the ekadasi they take milk and sandesh. Likewise, a householder devotee keeps in his house simple objects of enjoyment. Third, while observing the ekadasi they eat luchi and chakka. They eat their fill. They keep a couple of loaves soaking in milk, which they will eat later on.1
“लोग साधन-भजन करते हैं, परन्तु मन रहता है स्त्री तथा धन की ओर; मन भोग की ओर रहता है, इसीलिए साधन-भजन ठीक नहीं होता ।
[“লোকে সাধন-ভজন করে, কিন্তু মন কামিনী-কাঞ্চনে, মন ভোগের দিকে থাকে তাই সাধন-ভজন ঠিক হয় না।"
A man practises spiritual discipline, but his mind is on 'woman and gold' — it is turned toward enjoyment. Therefore, in his case, the spiritual discipline does not produce the right result.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
[ गृहस्थ भक्त और त्यागी भक्त > সংসারীভক্ত ও ত্যাগীভক্ত ]
🔆गृहस्थ -जीवन में रमें लोगों का ईश्वर-प्रेम क्षणिक है 🔆
“हाजरा यहाँ पर बहुत जप-तप करता था, परन्तु घर में स्त्री, बच्चे, जमीन आदि थी, मन भोग की ओर रहता है, इसलिए जप-तप भी करता है, भीतर भीतर दलाली भी करता है । इन सब लोगों की बातों की स्थिरता नहीं रहती । कभी कहता है, ‘मछली नहीं खाऊँगा’, पर फिर खाता है ।
[“হাজরা এখানে অনেক জপতপ করত, কিন্তু বাড়িতে স্ত্রী ছেলেপুলে জমি — এ-সব ছিল, কাজে কাজেই জপতপও করে; ভিতরে ভিতরে দালালিও করে। এ-সব লোকের কথার ঠিক থাকে না। এই বলে মাছ খাব না। আবার খায়।"
Hazra used to practise much japa and austerity here. But in the country he has his wife, children, and land. Therefore along with his spiritual discipline he carried on the business of a broker. Such people cannot be true to their word. One moment they say they will give up fish, but the next moment they break their vow.
“धन के लिए लोग क्या नहीं कर सकते । ब्राह्मणों से, साधुओं, से कुली का काम ले सकते हैं !
[“টাকার জন্য লোকে কি না করতে পারে! ব্রাহ্মণকে, সাধুকে মোট বহাতে পারে।"
Is there anything that a man will not do for money? He will even compel a brahmin or a holy man to carry a load.
“मेरे कमरे में कभी कभी सन्देश सड़ तक जाता था, फिर भी मैं उसे संसारी लोगों को दे नहीं सकता था। दूसरों के शौच के लोटे का जल ले सकता था परन्तु ऐसे लोगों का तो लोटा भी नहीं छू सकता था।
[“সন্দেশ পচে যেত, তবু এ-সব লোককে দিতে পারতুম না। অন্য লোকের হেগো ঘটির জল নিতে পারতুম, এ-সব লোকের ঘটি ছুঁতুম না।"
In my room sweets would turn bad; still I could not give them away to the worldly-minded. I could accept dirty water from others, but not even touch the jar of a worldly person.
“हाजरा धनवानों को देखने पर उन्हें अपने पास बुलाता था – बुलाकर लम्बी लम्बी बातें सुनाता था और उनसे कहता था, ‘राखाल आदि जिन्हें देख रहे हो वे जप-तप नहीं कर सकते – हो हो करके घूमते हैं ।’
[“হাজরা টাকাওয়ালা লোক দেখলে কাছে ডাকত — ডেকে লম্বা লম্বা কথা শোনাত; আবার তাদের বলত রাখাল-টাখাল যা সব দেখছ — ওরা জপতপ করতে পারে না — হো-হো করে বেড়ায়।"
At the sight of rich people Hazra would call them to him. He would give them long lectures. He would say to them: 'You see Rakhal and the other youngsters. They do not practise any spiritual discipline. They simply wander about merrily.'
“मैं जानता हूँ यदि कोई पहाड़ की गुफा में रहता हो, देह पर भभूत मलता हो, उपवास करता हो, अनेक प्रकार के कठोर तप करता हो परन्तु भीतर भीतर उसका विषय की ओर मन रहता हो – कामिनी-कांचन में मन रहता हो – तो उसे मैं धिक्कारता हूँ । और जिसका कामिनी-कांचन में मन नहीं होता है – खाता पीता और मस्त घूमता है, उसे धन्य कहता हूँ ।
[“আমি জানি যে যদি কেউ পর্বতের গুহায় বাস করে, গায়ে ছাই মাখে, উপবাস করে, নানা কঠোর করে কিন্তু ভিতরে ভিতরে বিষয়ী মন — কামিনী-কাঞ্চনে মন — সে লোককে আমি বলি ধিক্ আর যার কামিনী-কাঞ্চনে মন নাই — খায় দায় বেড়ায় তাকে বলি ধন্য।"
A man may live in a mountain cave, smear his body with ashes, observe fasts, and practise austere discipline; but if his mind dwells on worldly objects, on 'woman and gold', I say, 'Shame on him!' But I say that a man is blessed indeed who eats, drinks, and roams about, but who keeps his mind free from 'woman and gold'.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆 गुलाम मानसिकता के भारतीय घर में साधुओं के नहीं बाइबिल से जुड़े चित्र रखते हैं 🔆
(मणि मल्लिक को दिखाकर) “इनके घर में साधुओं के चित्र नहीं हैं । सधुओं के चित्र देखने पर ईश्वर का उद्दीपन होता है ।”
[(মণি মল্লিককে দেখাইয়া) — “এঁর বাড়িতে সাধুর ছবি নাই। সাধুদের ছবি রাখলে ঈশ্বরের উদ্দীপন হয়।”(Pointing to Mani Mallick) "
There is no picture of a holy man at his house. Divine feeling is awakened through such pictures."
मणिलाल – हाँ नन्दिनी* के कमरे में एक ईसाई भक्त मेम का चित्र है – मेम प्रार्थना में लीन है --और एक चित्र है जिसमें विश्वासरुपी पहाड़ को पकड़कर एक व्यक्ति है, नीचे गम्भीर समुद्र है, विश्वास छोड़ने पर एकदम अटल जल में जा गिरेगा । (*नन्दिनी – নন্দিনীর১ मणि मल्लिक की विधवा कन्या, श्रीरामकृष्ण की भक्तिनी ।)
मणिलाल – और एक चित्र है - जिसमें ईसाई धर्म के प्रभु ईसा मसीह के प्रसिद्द वचन 'Parable of the Ten Virgins' (दस कुँवारियों का दृष्टान्त) को दर्शाया गया है।
[মণিলাল — আছে, নন্দিনীর১ ঘরে ভক্ত মেমের ছবি আছে। মেম ভজনা (Prayer) করছে। আর-একখানা ছবি আছে — বিশ্বাস পাহাড় ধরে একজন আছে — নিচে অতলস্পর্শ সমুদ্র, বিশ্বাস ছেড়ে দিলে একেবারে অতল জলে পড়ে যাবে।
“আর-একটি ছবি আছে — কয়টি বালিকা বর আসবে বলে প্রদীপে তেল ভরে জেগে বসে আছে। যে ঘুমিয়ে পড়েছে, সে দেখতে পাবে না। ঈশ্বরকে বর বলে বর্ণনা করেছে।”২
MANILAL: "Yes, there is. In one room there is a picture of a pious Christian woman engaged in prayer. There is another picture in which a man holds to the Hill of Faith; below is an ocean of immeasurable depth. If he gives up his hold on faith, he will drop into the bottomless water. There is still a third picture. Several virgins are keeping vigil, feeding their lamps with oil in expectation of the Bridegroom. A sleeping virgin is by their side. She will not behold the Bridegroom when He arrives. God is described here as the Bridegroom."[^*दस कुँवारियों का दृष्टान्त : प्रभु यीशु ने कहा है, "तब स्वर्ग का राज्य उन दस कुँवारियों के समान होगा जो अपनी मशालें लेकर दूल्हे से भेंट करने को निकलीं। उनमें पाँच मूर्ख और पाँच समझदार थीं। मूर्खों ने अपनी मशालें तो लीं, परन्तु अपने साथ तेल नहीं लिया; परन्तु समझदारों ने अपनी मशालों के साथ अपनी कुप्पियों में तेल भी भर लिया" जो तैयार थीं, उन्होंने उसके साथ विवाह-भवन में प्रवेश किया और द्वार बन्द हो गया। बाद में शेष कुँवारियाँ भी आ कर बोली, प्रभु! प्रभु! हमारे लिए द्वार खोल दीजिए’। इस पर उसने उत्तर दिया, ’मैं तुम से यह कहता हूँ - मैं तुम्हें नहीं जानता’।इसलिए जागते रहो, क्योंकि तुम न तो वह दिन जानते हो और न वह घड़ी। (मत्ती 25:01-13)।]
श्रीरामकृष्ण – (हँसकर) – यह अच्छा है ।
MASTER (smiling): "That's very nice."
मणिलाल - और भी तस्वीरें हैं - 'ट्री ऑफ फेथ'-विश्वास का वृक्ष और 'पाप-पुण्य' की तस्वीर।
[মণিলাল — আরও ছবি আছে — বিশ্বাসের বৃক্ষ! আর পাপ-পুণ্যের ছবি।৩
MANILAL: "I have other pictures too — one of the 'Tree of Faith' and another of 'Sin and Virtue'."
श्रीरामकृष्ण - (भवनाथ के प्रति) – अच्छे चित्र हैं सब; तू देखने को जाना ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভবনাথের প্রতি) — বেশ সব ছবি; তুই দেখতে যাস।
MASTER (to Bhavanath): "Those are good pictures. Go to his house and see them."
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆विवेक, वैराग्य, गुरु- वाक्य पर विश्वास है तो पाप -पुण्य सब भूल जाता है 🔆
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “ कभी कभी इन बातों पर सोचता हूँ तो ये सब अच्छी नहीं लगतीं। पहले एक बार पाप पाप सोचना होता है, कैसे पाप से मुक्ति मिले, परन्तु उनकी कृपा से एक बार प्रेम यदि आ जाय, एक बार प्रेमाभक्ति यदि हो जाय तो पाप पुण्य सब भूल जाता है । उस समय वह शास्त्र के विधि-निषेध के परे चला जाता है । पश्चात्ताप करना पड़ेगा, प्रायश्चित्त करना होगा, - यह सब चिन्ता फिर नहीं रह जाती ।
[কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর বলিতেছেন, “এক-একবার ভাবি — তখন ও-সব ভাল লাগে না। প্রথমে একবার পাপ পাপ করতে হয়, কিসে পাপ থেকে মুক্তি হয়, কিন্তু তাঁর কৃপায় একবার ভালবাসা যদি আসে, একবার রাগভক্তি যদি আসে, তাহলে পাপ-পুণ্য সব ভুলে যায়। তখন আইনের সঙ্গে, শাস্ত্রের সঙ্গে তফাত হয়ে যায়। অনুতাপ করতে হবে, প্রায়শ্চিত্ত করতে হবে, এ-সব ভাবনা আর থাকে না।
The Master remained silent a few minutes .MASTER: "Now and then I reflect on these ideas and find that I do not like them. In the beginning of spiritual life a man should think about sin and how to get rid of it. But when, through the grace of God, devotion and ecstatic love are awakened in his heart, then he altogether forgets virtue and sin. Then he leaves the scriptures and their injunctions far behind. Thoughts of repentance and penance do not bother him at all.
“मानो टेढ़ी नदी में से होकर बहुत कष्ट से और काफी देर के बाद अपने गन्तव्य स्थान पर जा रहे हो । परन्तु यदि बाढ़ आ जाय तो सीधे रास्ते से थोड़े ही समय में उस स्थान पर पहुँच सकते हो । उस समय जमीन पर भी काफी जल हो जाता है । “प्रथम स्थिति में काफी घूमना पड़ता है, बहुत कष्ट करना पड़ता है ।
[“যেমন বাঁকা নদী দিয়ে অনেক কষ্টে এবং অনেকক্ষণ পরে গন্তব্য স্থানে যাচ্ছ। কিন্তু যদি বন্যে হয় তাহলে সোজা পথ দিয়ে অল্পক্ষণের মধ্যে গন্তব্যস্থানে পোঁছানো যায়। তখন ড্যাঙাতেই একবাঁশ জল।"
It is like going to your destination along a winding river. This requires great effort and a long time. But when there is a flood all around, then you can go straight to your destination in a short time. Then you find the land lying under water deep as a bamboo pole.
पहले मेड़ पर से घूम- घूम कर जाना पड़ता था । “प्रेमाभक्ति होने पर बहुत सरल हो जाता है, जैसे धान काट लेने के बाद मैदान में जिधर चाहो, जाओ । अब जिधर से चाहो, जाओ । यदि कुछ कूड़ा-कर्कट पड़ा हो, तो जूता पहनकर जाने से फिर कोई कष्ट ही नहीं होता । विवेक, वैराग्य, गुरु के वाक्य पर विश्वास – ये सब रहने पर फिर कोई कष्ट नहीं है ।”
[“প্রথম অবস্থায় অনেক ঘুরতে হয়, অনেক কষ্ট করতে হয়।“রাগভক্তি এলে খুব সোজা। যেমন মাঠের উপর ধান কাটার পর যেদিক দিয়ে যাও। আগে আলের উপর দিয়ে ঘুরে ঘুরে যেতে হত এখন যেদিক দিয়ে যাও। যদি কিছু কিছু খড় থাকে — জুতা পায়ে দিয়ে চলে গেলে আর কোন কষ্ট নাই। বিবেক, বৈরাগ্য, গুরুবাক্যে বিশ্বাস — এ-সব থাকলে আর কোন কষ্ট নাই।”
"In the beginning of spiritual life one goes by a roundabout way. One has to suffer a great deal. But the path becomes very easy when ecstatic love is awakened in the heart. It is like going over the paddy-field after the harvest is over. You may then walk in any direction. Before the harvest you had to go along the winding balk, but now you can walk in any direction. There may be stubble in the field, but you will not be hurt by it if you walk with your shoes on. Just so, an aspirant does not suffer if he has discrimination, dispassion, and faith in the guru's words."
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔱🔆श्री रामकृष्ण और ध्यानयोग, शिवयोग, विष्णुयोग 🔆🔱
[শ্রীরামকৃষ্ণ ও ধ্যানযোগ, শিবযোগ, বিষ্ণুযোগ — নিরাকার ধ্যান ও সাকার ধ্যান ]
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔱 निराकार ध्यान और साकार ध्यान🔱
[🙏निराकार ईश्वर (formless God ) का ध्यान 🙏
और ईश्वर (अर्थात 100 % निःस्वार्थपरता) की साकार मूर्ति
🙏भगवान श्रीरामकृष्ण (God with form) का ध्यान। 🙏]
मणिलाल – (श्रीरामकृष्ण के प्रति) – अच्छा, ध्यान का क्या नियम है ? कहाँ पर ध्यान करना चाहिए ?
[মণিলাল (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — আচ্ছা, ধ্যানের কি নিয়ম? কোথায় ধ্যান করতে হয়?
MANILAL (to the Master): "Well, what is the rule for concentration? Where should one concentrate?"
श्रीरामकृष्ण – प्रसिद्ध स्थान है हृदय । हृदय में ध्यान हो सकता है अथवा सहस्त्रार में । ये सब विधि के अनुसार ध्यान शास्त्रों में हैं । फिर तुम्हारी इच्छा हो ध्यान कर सकते हो । सभी स्थान तो ब्रह्ममय हैं, वे कहाँ नहीं हैं ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হৃদয় ডঙ্কাপেটা জায়গা। হৃদয়ে ধ্যান হতে পারে, অথবা সহস্রধারে, এগুলি আইনের ধ্যান — শাস্ত্রে আছে। তবে তোমার যেখানে অভিরুচি ধ্যান করতে পার। সব স্থানই তো ব্রহ্মময়; কোথায় তিনি নাই?
MASTER: "The heart is a splendid place. One can meditate there or in the Sahasrara. These are rules for meditation given in the scriptures. But you may meditate wherever you like. Every place is filled with Brahman-Consciousness. Is there any place where It does not exist?
“जिस समय बलि की उपस्थिति में नारायण ने तीन पदों से स्वर्ग, मृत्यु, पाताल ढँक लिया था । उस समय क्या कोई स्थान बाकी बचा था ! गंगातट जैसा पवित्र है वैसा ही वह स्थान भी जहाँ कूड़ाकर्कट है। फिर यह बात भी है कि ये सब उन्हीं की विराट मूर्ति हैं ।
[“যখন বলির কাছে তিন পায়ে নারায়ণ স্বর্গ, মর্ত্য, পাতাল ঢেকে ফেললেন, তখন কি কোন স্থান বাকী ছিল? গঙ্গাতীরও যেমন পবিত্র আবার যেখানে খারাপ মাটি আছে সে-ও তেমনি পবিত্র। আবার আছে এ-এমস্ত তাঁরই বিরাটমূর্তি।
Narayana, in Bli's presence, covered with two steps the heavens, the earth, and the interspaces.*^ Is there then any place left uncovered by God? A dirty place is as holy as the bank of the Ganges. It is said that the whole creation is the Virat, the Universal Form of God.
[^* भागवत में दी गयी एक कहानी का संदर्भ। राजा बलि को अपने दानी होने का बहुत घमण्ड हो गया था। भगवान विष्णु एक ब्राह्मण वामन (बौने) के रूप में उनके सामने प्रकट हुए और उनसे उतना ही स्थान माँगा , जिसे वे तीन कदमों से नाप सकें । बाली ने वरदान दिया। भगवान ने दो पगों से पृथ्वी, आकाश और अन्तरिक्षों को नाप दिया। तब तीसरा कदम रखने के लिए दैत्यराज बलि को अपना सिर भगवान के सामने प्रस्तुत करना पड़ा। इससे उसका घमण्ड कम हो गया।
^A reference to a story in the Bhagavata. King Vali was proud of his charity. God appeared before him in the form of a dwarf and asked him for the space that He could cover with three steps. Vali granted the boon. With two steps the Lord covered the earth, the heavens, and the interspaces. Vali was forced to place his own head before the Lord for the third step. This curbed his pride.]
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔱🙏शिवयोग 🔱🙏
“निराकार ध्यान बहुत ही कठिन है । उस ध्यान में तुम जो कुछ देख या सुन रहे हो – उन सब को हटा देना चाहिए । फिर केवल तुम्हारे सत्य स्वरूप का चिन्तन रह जाता है । इसी स्वरूप का चिन्तन कर शिव नृत्य करते हैं । ‘मैं क्या हूँ’, ‘मैं क्या हूँ’, कहकर नृत्य करते हैं ।
“इसे कहते हैं शिवयोग । इस ध्यान के समय कपाल की ओर दृष्टि रखनी होती है । ‘नेति’ ‘नेति’ कहकर जगत् को छोड़ अपने स्वरूप का चिन्तन ।
[“নিরাকার ধ্যান ও সাকার ধ্যান। নিরাকার ধ্যান বড় কঠিন। সে ধ্যানে যা কিছু দেখছ শুনছ — লীন হয়ে যাবে; কেবল স্ব-স্বরূপ চিন্তা। সেই স্বরূপ চিন্তা করে শিব নাচেন। ‘আমি কি’, ‘আমি কি’ এই বলে নাচেন। “একে বলে শিবযোগ। ধ্যানের সময় কপালে দৃষ্টি রাখতে হয়। ‘নেতি’ ‘নেতি’ করে জগৎ ছেড়ে স্ব-স্বরূপ চিন্তা।
There are two kinds of meditation, one on the formless God and the other on God with form. But meditation on the formless God is extremely difficult. In that meditation you must wipe out all that you see or hear. You contemplate only the nature of your Inner Self. Meditating on His Inner Self, Siva dances about. He exclaims, 'What am I! What am I!' This is called the 'Siva yoga'. While practising this form of meditation, one directs one's look to the forehead. It is meditation on the nature of one's Inner Self after negating the world, following the Vedantic method of 'Neti, neti'.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔱🙏विष्णुयोग🔱🙏
“और एक है विष्णुयोग । नासिका के अग्रभाग में दृष्टि । आधी भीतर, आधी बाहर । साकार ध्यान में इसी प्रकार होता है ।
“शिव कभी कभी साकार चिन्तन करते हुए नाचते हैं – ‘राम’ ‘राम’ कहकर नाचते हैं ।”
[“আর এক আছে বিষ্ণুযোগ। নাসাগ্রে দৃষ্টি; অর্ধেক জগতে, অর্ধেক অন্তরে। সাকার ধ্যানে এইরূপ হয়। “শিব কখন কখন সাকার চিন্তা করে নাচেন। ‘রাম’, ‘রাম’ বলে নাচেন।”
"There is another form of meditation known as the 'Vishnu yoga'. The eyes are fixed on the tip of the nose. Half the look is directed inward and the other half outward. This is how one meditates on God with form. Sometimes Siva meditates on God with form, and dances. At that time he exclaims, 'Rama! Rama!' and dances about."
(३)
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत -77]
[জীবাত্মা ও পরমাত্মার যোগ ও সমাধি ]
[ जीवात्मा और परमात्मा का योग और समाधि]
🔆परछाई के सूर्य को पकड़ पकड़ कर वास्तव सूर्य के पास जाया जाता है🔆
[लीला (अवतार) को पकड़ कर नित्य (सच्चिदानन्द) तक पहुँचा जा सकता है ]
मणिलाल मल्लिक पुराने ब्राह्म-समाजी हैं । भवनाथ, राखाल, मास्टर बीच बीच में ब्रह्म समाज में जाते थे। श्रीरामकृष्ण ओंकार 'ॐ ' की व्याख्या तथा यथार्थ ब्रह्मज्ञान और उसके बाद की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं ।
[মণিলাল মল্লিক পুরাতন ব্রহ্মজ্ঞানী। ভবনাথ, রাখাল, মাস্টার মাঝে মাঝে ব্রাহ্মসমাজে যাইতেন। শ্রীরামকৃষ্ণ ওঁকারের ব্যাখ্যা ও ঠিক ব্রহ্মজ্ঞান, ব্রহ্মদর্শনের পর অবস্থা বর্ণনা করিতেছেন।
Sri Ramakrishna then explained the sacred Word "Om" and the true Knowledge of Brahman and the state of mind after the attainment of Brahma jnana.
श्रीरामकृष्ण - (भक्तों के प्रति) – ॐ शब्द ब्रह्म है, यद्यपि मुनि लोग उसी शब्द को प्राप्त करने के लिए तपस्या करते थे । सिद्ध होने पर साधक सुनता है कि नाभि से वह शब्द स्वयं ही उठ रहा है – अनाहत शब्द ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — শব্দ ব্রহ্ম, ঋষি মুনিরা ওই শব্দ লাভের জন্য তপস্যা করতেন। সিদ্ধ হলে শুনতে পায়, নাভি থেকে ওই শব্দ আপনি উঠছে — অনাহত শব্দ।
MASTER: "The sound Om is Brahman. The rishis and sages practised austerity to realize that Sound-Brahman. After attaining perfection one hears the sound of this eternal Word rising spontaneously from the navel.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत -77]
🙏🔆परछाई के सूर्य को पकड़ पकड़ कर वास्तव सूर्य के पास जाया जाता है🔆🙏
🔱लीला (अवतार) को पकड़ कर नित्य (सच्चिदानन्द) तक पहुँचा जा सकता है🔱
“एक मत है कि केवल शब्द सुनने से क्या होगा ? दूर से समुद्र के शब्द का कल्लोल सुनायी देता है । उस शब्द-कल्लोल के सहारे धीरे धीरे आगे बढ़ने से तुम समुद्र तक पहुँच सकते हो । जहाँ कल्लोल होगा, वहाँ समुद्र भी अवश्य होगा । अनाहत ध्वनि के अनुसार आगे बढ़ने पर उसका प्रतिपाद्य जो ब्रह्म उसके पास पहुँचा जा सकता है । उसे ही वेदों में 'परम पद' कहते हैं ।* 'मैं'-पन रहते वैसा दर्शन नहीं होता । जहाँ ‘मैं’ भी नहीं, ‘तुम’ भी नहीं, ‘एक’ भी नहीं, ‘अनेक’ भी नहीं, वहीं पर यह दर्शन होता है ।
(*तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम्॥ (गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद् श्लोक 27) भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) के उस अविनाशी परमधाम गोलोक ( ”यत्र नादो विलीयते । तद्विष्णोः परमं पदम् । सदा पश्यन्ति सूरयः ।”) श्रीरामकृष्ण लोक) का ज्ञानी और प्रेमी भक्तजन निरन्तर दर्शन करते रहते हैं। आकाश में सूर्य के सदृश वे (भगवान्) परम व्योम में चतुर्दिक् संव्याप्त एवं प्रकाशस्वरूप विद्यमान हैं ।
[“একমতে, শুধু শব্দ শুনলে কি হবে? দূর থেকে শব্দ-কল্লোল শোনা যায়। সেই শব্দ-কল্লোল ধরে গেলে সমুদ্রে পৌঁছানো যায়। যে কালে কল্লোল আছে সে কালে সমুদ্রও আছে। অনাহত ধ্বনি ধরে ধরে গেলে তার প্রতিপাদ্য ব্রহ্ম তাঁর কাছে পোঁছানো যায়। তাঁকেই পরমপদ১ বলেছে। ‘আমি’ থাকতে ওরূপ দর্শন হয় না। যেখানে ‘আমি’ও নাই, ‘তুমিও নাই, একও নাই, অনেকও নাই; সেইখানেই এই দর্শন।”
"'What will you gain', some sages ask, 'by merely hearing this sound?' You hear the roar of the ocean from a distance. By following the roar you can reach the ocean. As long as there is the roar, there must also be the ocean. By following the trail of Om you attain Brahman, of which the Word is the symbol. That Brahman has been described by the Vedas as the ultimate goal. But such vision is not possible as long as you are conscious of your ego. A man realizes Brahman only when he feels neither 'I' nor 'you', neither 'one' nor 'many'.
“मानो सूर्य और दस जलपूर्ण घड़े हैं, प्रत्येक घड़े में सूर्य का प्रतिबिम्ब दिखायी दे रहा है । पहले देखा जाता है एक सूर्य और दस परछाइयों के सूर्य । यदि नौ घड़े तोड़ डाले जायँ, तो बाकी रहते हैं एक सूर्य और एक परछाईवाला सूर्य । एक एक घड़ा मानो एक एक जीव है । परछाई के सूर्य को पकड़ पकड़ कर वास्तव सूर्य के पास जाया जाता है; जीवात्मा से परमात्मा में पहुँचा जाता है । जीव (जीवात्मा) यदि साधन-भजन करे, तो परमात्मा का दर्शन कर सकता है । अन्तिम घड़े को तोड़ देने पर क्या है वह मुँह से नहीं कहा जा सकता ।
[“মনে কর সূর্য আর দশটি জলপূর্ণ ঘট রয়েছে, প্রত্যেক ঘটে সূর্যের প্রতিবিম্ব দেখা যাচ্ছে। প্রথমে দেখা যাচ্ছে সূর্য ও দশটি প্রতিবিম্ব সূর্য। যদি ৯টা ঘট ভেঙে দেওয়া যায়, তাহলে বাকী থাকে একটি সূর্য ও একটি প্রতিবিম্ব সূর্য। এক-একটি ঘট যেন এক-একটি জীব। প্রতিবিম্ব সূর্য ধরে ধরে সত্য সূর্যের কাছে যাওয়া যায়। জীবাত্মা থেকে পরমাত্মায় পোঁছানো যায়। জীব (জীবাত্মা) যদি সাধন-ভজন করে তাহলে পরমাত্মা দর্শন করতে পারে। শেষের ঘটটি ভেঙে দিলে কি আছে মুখে বলা যায় না।"
Think of the sun and of ten jars filled with water. The sun is reflected in each jar. At first you see one real sun and ten reflected ones. If you break nine of the jars, there will remain only the real sun and one reflection. Each jar represents a jiva. Following the reflection one can find the real sun. Through the individual soul one can reach the Supreme Soul. Through spiritual discipline the individual soul can get the vision of the Supreme Soul. What remains when the last jar is broken cannot be described.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆विज्ञानी होने के बाद की अवस्था 🔆
“जीव पहले अज्ञानी बना रहता है । ईश्वरबुद्धि नहीं रहती वरन् नाना वस्तुओं की बुद्धि, अनेक चीजों का बोध रहता है । जब ज्ञान होता है, तब उसकी समझ में आता है कि ईश्वर सभी भूतों में है । जिस प्रकार पैर में काँटा चुभता है तो एक और काँटे को ढूँढ़कर उससे वह काँटा निकल जाता है, अर्थात् ज्ञानरुपी काँटे के द्वारा अज्ञानरुपी काँटे को निकाल बाहर करना ।
“फिर विज्ञान होने पर अज्ञान-काँटा और ज्ञान-काँटा दोनों को ही फेंक देना । उस समय केवल दर्शन ही नहीं, वरन् ईश्वर के साथ रातदिन बातचीत चलती रहती है ।
[“জীব প্রথমে অজ্ঞান হয়ে থাকে। ঈশ্বর বোধ নাই, নানা জিনিস বোধ — অনেক জিনিস বোধ। যখন জ্ঞান হয় তখন তার বোধ হয় যে ঈশ্বর সর্বভূতে আছেন। যেমন পায়ে কাঁটা ফুটেছে, আর-একটি কাঁটা জোগাড় করে এনে ওই কাঁটাটি তোলা। অর্থাৎ জ্ঞান কাঁটা দ্বারা অজ্ঞান কাঁটা তুলে ফেলা।" “আবার বিজ্ঞান হলে দুই কাঁটাই ফেলে দেওয়া — অজ্ঞান কাঁটা এবং জ্ঞান কাঁটা। তখন ঈশ্বরের সঙ্গে নিশিদিন কথা, আলাপ হচ্ছে — শুধু দর্শন নয়।
The jiva at first remains in a state of ignorance. He is not conscious of God, but of the multiplicity. He sees many things around him. On attaining Knowledge he becomes conscious that God dwells in all beings. Suppose a man has a thorn in the sole of his foot. He gets another thorn and takes out the first one. In other words, he removes the thorn of ajnana, ignorance, by means of the thorn of jnana, knowledge. But on attaining vijnana, he discards both thorns, knowledge and ignorance. Then he talks intimately with God day and night. It is no mere vision of God.
“जिसने केवल दूध की बात सुनी है उसे अज्ञान है, जिसने दूध देखा है उस ज्ञान हुआ और जो दूध पीकर मोटा-ताजा हुआ है उसे विज्ञान प्राप्त हुआ है ।”
[“যে দুধের কথা কেবল শুনেছে সে অজ্ঞান; যে দুধ দেখেছে তার জ্ঞান হয়েছে। যে দুধ খেয়ে হৃষ্টপুষ্ট হয়েছে তার বিজ্ঞান হয়েছে।”
"He who has merely heard of milk is 'ignorant'. He who has seen milk has 'knowledge'. But he who has drunk milk and been strengthened by it has attained vijnana."
अब सम्भव है, श्रीरामकृष्ण अपनी स्थिति भक्तों को समझा रहे हैं । विज्ञानी की स्थिति का वर्णन कर, सम्भव है, अपनी स्थिति कह रहे हैं ।
[এইবার ভক্তদের বুঝি নিজের অবস্থা বুঝাইয়া দিতেছেন। বিজ্ঞানীর অবস্থা বর্ণনা করিয়া বুঝি নিজের অবস্থা বলিতেছেন।
Thus the Master described his own state of mind to the devotees. He was indeed a vijnani.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
[শ্রীরামকৃষ্ণের অবস্থা — শ্রীমুখ-কথিত — ঈশ্বরদর্শনের পর অবস্থা
[श्री रामकृष्ण की अवस्था - श्रीमुख से उच्चारित - ईश्वरदर्शन के बाद की अवस्था]
🔆ज्ञानी साधु और विज्ञानी साधु में अन्तर 🔆
श्रीरामकृष्ण – (भक्तों के प्रति) ज्ञानी साधु और विज्ञानी साधु में भेद है । ज्ञानी साधु के बैठने का कायदा अलग है । मूँछों पर हाथ फेरकर बैठता है । कोई आये तो कहता है, ‘क्या जी, तुम्हें कुछ पूछना है ?’
“विज्ञानी साधु सदा ईश्वर का दर्शन करता रहता है, उनके साथ बातचीत करता है, अर्थात् जो विज्ञानी है उसका स्वभाव दूसरा होता है । कभी जड़ की तरह, कभी पिशाच की तरह, कभी बालक की तरह और कभी उन्माद की तरह ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — জ্ঞানী সাধু আর বিজ্ঞানী সাধু প্রভেদ আছে। জ্ঞানী সাধুর বসবার ভঙ্গী আলাদা। গোঁপে চাড়া দিয়ে বসে। কেউ এলে বলে, “কেমন বাবু, তোমার কিছু জিজ্ঞাসা আছে?”“যে ঈশ্বরকে সর্বদা দর্শন করছে, তাঁর সঙ্গে কথা হচ্ছে (বিজ্ঞানী) তার স্বভাব আলাদা — কখনও জড়বৎ, কখনও পিশচবৎ, কখনও বালকবৎ, কখনও উন্মাদবৎ।
MASTER (to the devotees): "There is a difference between a sadhu endowed with jnana and one endowed with vijnana. The jnani sadhu has a certain way of sitting. He twirls his moustache and asks the visitor, 'Well, sir! Have you any question to ask?' But the man who always sees God and talks to Him intimately has an altogether different nature. He is sometimes like an inert thing, sometimes like a ghoul, sometimes like a child, and sometimes like a madman.]
‘कभी समाधिमग्न होकर बाहर का ज्ञान खो बैठता है - जड़ की तरह बन जाता है ।
“ब्रह्ममय देखता है इसलिए पिशाच की तरह है । पवित्रता-अपवित्रता का ख्याल नहीं रहता । सम्भव है कि शौच करते बेर खा रहा हो – बालक की तरह । स्वप्नदोष के बाद अशुद्धि नहीं समझता है, - समझता है, वीर्य से ही शरीर बना है ।
“विष्ठा-मूत्र का ज्ञान नहीं है । सब ब्रह्ममय । भात-दाल बहुत दिनों तक रख देने से विष्ठा की तरह बन जाता है ।
[“কখনও সমাধিস্থ হয়ে বাহ্যশূন্য হয় — জড়বৎ হয়ে যায়।“ব্রহ্মময় দেখে তাই পিশাচবৎ; শুচি-অশুচি বোধ থাকে না। হয়তো বাহ্যে করতে করতে কুল খাচ্ছে, বালকের মতো। স্বপ্নদোষের পর অশুদ্ধি বোধ করে না — শুক্রে শরীর হয়েছে এই ভেবে।“বিষ্ঠা মূত্র জ্ঞান নাই; সব ব্রহ্মময়। ভাত-ডালও অনেকদিন রাখলে বিষ্ঠার মতন হয়ে যায়।"
When he is in samadhi, he becomes unconscious of the outer world and appears inert. He sees everything to be full of Brahman-Consciousness; therefore he behaves like a ghoul. He is not conscious of the holy and the unholy. He does not observe any formal purity. To him everything is Brahman. He is not aware of filth as such. Even rice and other cooked food after a few days become like filth.
“फिर उन्माद के समान; उसकी चाल-ढाल देखकर लोग उसे पागल समझते हैं । और फिर कभी बालक की तरह, लज्जा, घृणा, संकोच आदि कोई बन्धन नहीं रहता ।
[“আবার উন্মাদবৎ; তার রকম সকম দেখে লোকে মনে করে পাগল।“আবার কখনও বালকবৎ, কোন পাশ নাই, লজ্জা, ঘৃণা, সঙ্কোচ প্রভৃতি।'
"Again, he is like a madman. People notice his ways and actions and think of him as insane. Or sometimes he is like a child — no bondage, no shame, no hatred, no hesitation, or the like.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆ईश्वर -दर्शन के बाद का 'मैं' उबला हुआ धान जैसा🔆
“ईश्वर-दर्शन के बाद यह स्थिति होती है । जैसे चुम्बक पहाड़ के पास होकर जाने से जहाज के स्क्रू-कील-काँटे सब ढीले होकर छूट जाते हैं । ईश्वर-दर्शन के बाद काम, क्रोध आदि नहीं रह जाते ।
[“ঈশ্বরদর্শনের পর এই অবস্থা। যেমন চুম্বকের পাহাড়ের কাছ দিয়ে জাহাজ যাচ্ছে, জাহাজের স্ক্রু, পেরেক আলগা হয়ে খুলে যায়। ঈশ্বর দর্শনের পর কাম-ক্রোধাদি আর থাকে না।"
One reaches this state of mind after having the vision of God. When a boat passes by a magnetic hill, its screws and nails become loose and drop out. Lust, anger, and the other passions cannot exist after the vision of God.
“माँ काली के मन्दिर पर जब बिजली गिरी थी, तो हमने देखा था, सभी स्क्रू के माथे उड़ गये थे ।
[“মা-কালীর মন্দিরে যখন বাজ পড়েছিল, তখন দেখেছিলাম স্ক্রুর মূখ উড়ে গেছে।"
Once a thunderbolt struck the Kali temple. I noticed that it flattened the points of the screws.
“जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया है, उनसे फिर बच्चा पैदा करना अथवा सृष्टि का काम नहीं होता । धान बोने से पौधा होता है, परन्तु धान उबाल कर बोने से उससे पौधा नहीं होता है ।
[“যিনি ঈশ্বরদর্শন করেছেন, তাঁর দ্বারা আর ছেলেমেয়ের জন্ম দেওয়া, সৃষ্টির কাজ হয় না। ধান পুঁতলে গাছ হয়, কিন্তু ধান সিদ্ধ করে পুঁতলে গাছ হয় না।"
It is no longer possible for the man who has seen God to beget children and perpetuate the creation. When a grain of paddy is sown it grows into a plant; but a grain of boiled paddy does not germinate.
“जिन्होंने ने ईश्वर का दर्शन किया है उनका ‘मैं’ केवल नाम का ही रह जाता है । उस ‘मैं’ द्वारा कोई अनुचित कार्य नहीं होता, सिर्फ नाम ही रह जाता है ।
{“যিনি ঈশ্বরদর্শন করেছেন, তাঁর ‘আমি’টা নামমাত্র থাকে, সে ‘আমি’র দ্বারা কোন অন্যায় কাজ হয় না। নামমাত্র থাকে — যেমন নারকেলের বেল্লোর দাগ। বেল্লো ঝরে গেছে — এখন কেবল দাগ মাত্র।”
"He who has seen God retains his 'I' only in name. No evil can be done by that 'I'. It is a mere appearance, like the mark left on the coconut tree by its branch. The branch has fallen off. Only the mark remains.}
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
[ঈশ্বরদর্শনের পর ‘আমি’ — শ্রীরামকৃষ্ণ ও কেশব সেন ]
🔆गुरुगिरि करने वाले मैं को त्याग दो - श्री रामकृष्ण और केशव सेन🔆
“मैंने केशव सेन से कहा, ‘मैं’ को त्याग दो – मैं – कर्ता हूँ – मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ – इस ‘मैं’ को । केशव ने कहा, ‘महाशय, तो फिर दल नहीं रहता !’ मैंने कहा, बुरे ‘मैं’ को त्याग दो ।
“’ईश्वर का दास मैं’ ‘ईश्वर का भक्त मैं’ इसे त्यागना नहीं पड़ेगा । ‘बुरा मैं’ मौजूद है, इसीलिए ‘ईश्वर का मैं’ नहीं रहता ।
“यदि कोई भण्डारी रहे तो मकान का मालिक भण्डार का भार स्वयं नहीं लेता ।”
[(ভক্তদের প্রতি) — “আমি কেশব সেনকে বললাম, ‘আমি’ ত্যাগ কর — আমি কর্তা — আমি লোকে শিক্ষা দিচ্ছি। কেশব বললে, ‘মহাশয়, তাহলে দল-টল থাকে না।’ আমি বললাম, ‘বজ্জাত আমি’ ত্যাগ কর। ‘ঈশ্বরের দাস আমি’, ‘ঈশ্বরের ভক্ত আমি’ ত্যাগ করতে হবে না। ‘বজ্জাত আমি’ আছে বলে ‘ঈশ্বরের আমি’ থাকে না।"“ভাঁড়ারী একজন থাকলে বাড়ির কর্তা ভাঁড়ারের ভার লয় না।”
"I said to Keshab Sen, 'Give up the ego that makes you feel, "I am the doer; I am teaching people."' Keshab said to me, 'Sir, then I cannot keep the organization.' Thereupon I said to him, 'Give up the "wicked ego".' One doesn't have to renounce the ego that makes one feel, 'I am the servant of God; I am His devotee.' One doesn't develop the 'divine ego' as long as one retains the 'wicked ego'. If a man is in charge of the store-room, the master of the house doesn't feel responsible for it.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
[শ্রীরামকৃষ্ণ — মানুষলীলা ও অবতারতত্ত্ব ]
🔆 नरलीला ,अवतार का सिद्धांत🔆
श्रीरामकृष्ण – (भक्तों के प्रति) – देखो इस हाथ में चोट लगने के कारण मेरा स्वभाव बदलता जा रहा हैं। अब मनुष्य में ईश्वर का अधिक प्रकाश दिखायी दे रहा है । मानो वे (ॐ) कह रहे हैं, मेरा मनुष्यों में वास है, तुम मनुष्यों के साथ आनन्द करो ।
“वे शुद्ध भक्तों में अधिक प्रकट हैं – इसीलिए तो मैं नरेन्द्र, राखाल आदि के लिए इतना व्याकुल होता हूँ।
[(ভক্তদের প্রতি) — “দেখ, এই হাতে লাগার দরুন আমার স্বভাব উলটে যাচ্ছে। এখন মানুষের ভিতর ঈশ্বরের বেশি প্রকাশ দেখিয়ে দিচ্ছে। যেন বলছে আমি মানুষের ভিতর রইচি, তুমি মানুষ নিয়ে আনন্দ কর। “তিনি শুদ্ধভক্তের ভিতর বেশি প্রকাশ — তাই নরেন্দ্র, রাখাল এদের জন্য এত ব্যাকুল হই।
(To the devotees) "You see, my nature is changing on account of this injury to my arm. It is being revealed to me that there is a greater manifestation of God in man than in other created beings. God is telling me, as it were: 'I dwell in men. Be merry with men.' Among men God manifests Himself in a still greater degree in pure-souled devotees. That is why I feel great longing for Narendra, Rakhal, and other such youngsters.
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत -77]
🔆नर ही नारायण है, शालग्राम से भी मनुष्य बड़ा है! मानवमात्र के समक्ष शीश झुकाओ 🔆
“तालाब के किनारे पर छोटे छोटे गढ़े रहते हैं, उन्हीं में मछलियाँ, केकड़े आकर इकट्ठे हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य में ईश्वर अधिक है ।”
ऐसा है कि शालग्राम से भी मनुष्य बड़ा है,- 'नर' ही 'नारायण' हैं ।
“प्रतिमा में उनका आविर्भाव होता है और भला मनुष्य में नहीं होगा ?
[“জলাশয়ের কিনারায় ছোট ছোট গর্ত থাকে, সেইখানে মাছ, কাঁকড়া এসে জমে, তেমনি মানুষের ভিতর ঈশ্বরের প্রকাশ বেশি।"“এমন আছে যে শালগ্রাম হতেও বড় মানুষ। নরনারায়ণ।“প্রতিমাতে তাঁর আবির্ভাব হয় আর মানুষে হবে না?
One often sees small holes along the edge of a lake. Fish and crabs accumulate there. Just so, there is a greater accumulation of divinity in man. It is said that man is greater than the salagram. Man is Narayana Himself. If God can manifest Himself through an image, then why not through man also?
“वे नरलीला करने के लिए मनुष्य-रूप में अवतीर्ण होते हैं – जैसे श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्ण, श्रीचैतन्यदेव । अवतार का चिन्तन करनेसे ही उनका चिन्तन होता है ।”
[“তিনি নরলীলা করবার জন্য মানুষের ভিতর অবতীর্ণ হন, যেমন রামচন্দ, শ্রীকৃষ্ণ, চৈতন্যদেব। অবতারকে চিন্তা করলেই তাঁর চিন্তা করা হয়।”
"God is born as man for the purpose of sporting as man. Rama, Krishna, and Chaitanya are examples. By meditating on an Incarnation of God one Meditates on God Himself."
[अर्थात 🔆🔆🔆" श्रीमत गौड़ पाद -आचार्य शंकर परम्परा , श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द परम्परा , विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर परम्परा में" Be and Make ' वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग देने के लिए वे (ईश्वर) 'नेता -मनुष्य' के रूप में अवतीर्ण होते हैं। अवतार (नेता /गुरु/जीवनमुक्त शिक्षक-CINC नवनीदा ) का चिंतन करने से उनका ही चिंतन होता है !]
[ (9 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔆सनातन धर्म के विषय में श्री रामकृष्ण की भविष्यवाणी🔆
ब्राह्मभक्त भगवानदास आये हैं ।
ব্রাহ্মভক্ত ভগবান দাস আসিয়াছেন।
Bhagavan Das, a Brahmo devotee, arrived.
श्रीरामकृष्ण – (भगवानदास के प्रति) – ऋषियों का धर्म, सनातन धर्म, अनन्त काल से है और रहेगा । इस सनातन धर्म के भीतर निराकार, साकार सभी प्रकार की पूजाएँ हैं । ज्ञानपथ, भक्तिपथ सभी हैं । अन्य जो सम्प्रदाय हैं, वे आधुनिक है । कुछ दिन रहेंगे, फिर मिट जायँगे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভগবান দাসের প্রতি) — ঋষিদের ধর্ম সনাতন ধর্ম, অনন্তকাল আছে ও থাকবে। এই সনাতন ধর্মের ভিতর নিরাকার, সাকার সবরকম পূজা আছে; জ্ঞানপথ, ভক্তিপথ সব আছে। অন্যান্য যে-সব ধর্ম আধুনিক ধর্ম কিছুদিন থাকবে আবার যাবে।
MASTER (to Bhagavan Das): "The Eternal Religion, the religion of the rishis, has been in existence from time out of mind and will exist eternally. There exist in this Sanatana Dharma all forms of worship — worship of God with form and worship of the Impersonal Deity as well. It contains all paths — the path of knowledge, the path of devotion, and so on. Other forms of religion, the modern cults, will remain for a few days and then disappear."
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