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Friday, October 17, 2025

⚜️️🔱मानव शरीर सभी शरीरों में ताजमहल जैसा है ! ⚜️️🔱श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय , संस्थापक सचिव, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ⚜️️🔱

⚜️️🔱मानव शरीर सभी शरीरों में ताजमहल जैसा है⚜️️🔱 


"Man is the highest, the Taj Mahal"
 - Shri Nabaniharan Mukhopadhyay

श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय 

 (संस्थापक सचिव, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल )

 सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

    आहा ,प्राचीन काल में हमारे देश में प्रार्थना कितनी सुन्दर थी ! जगत के प्रत्येक मनुष्य के लिए, ऋषि प्रार्थना करते हैं कि, सभी मनुष्य सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मनुष्य जो मनुष्योचित (decent) या मंगलमय हो वही देखे , वही सुने ताकि कोई भी दुःख का भागी न बने। कितनी सुंदर प्रार्थना है ! किन्तु हममें से कितने व्यक्ति यह प्रार्थना कर सकते हैं ? हमारे ऋषि यह प्रार्थना किसके लिए कर रहे हैं ? समस्त मानवजाति के कल्याण के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। क्योंकि इस जगत में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है ! 

     बंगाली कवि चण्डीदास ने कहा था - " सबार ऊपरे मानुष सत्य , ताहार ऊपरे नाई।"  अर्थात " सभी प्राणियों में मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ है, उससे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है!"  किसी किसी व्यक्ति के में मन में यह प्रश्न उठ सकता है , कि मनुष्य कैसे सभी प्राणियों से ऊपर हो सकता है ? मनुष्य से ऊपर और कुछ अवश्य है जिस पर मनुष्य विश्वास करता है, या कम से कम ऐसी कल्पना करता है, उसके विचार में यह भाव रहता अवश्य है। किन्तु कवि चण्डीदास जी ने कुछ कहा है , वही बात महाभरत में भी कही गयी है, और कवि की उक्ति उसकी ही प्रतिध्वनि प्रतीत होती है। महर्षि वेदव्यास जी ने महाभारत में कहा है - न हिं मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचितः।- "इस संसार में मनुष्य- जन्म से श्रेष्ठ और कुछ नही है।

   मनुष्य-जन्म के सम्बन्ध में बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" Man-manifestation is the highest in the phenomenal world. "(Vol-5:284) " इस प्रपंचमय जगत में मानव-योनि में जन्म सबसे ऊँचा है। "(९/७३-वेदान्त दर्शन) 'मनुष्य शरीर में जन्म मिलना दुर्लभ है '- इस विषय में कोई संदेह नहीं है। (1:56 किन्तु वही मनुष्य आज किस अवस्था में पहुँच गया है ? (पशु अवस्था में) क्यों पहुँच गया है ? इस पर हमें विचार करना चाहिए। वेदांत अमृत की बात तो हम लोग करते हैं। किन्तु अमृत कहाँ है ? सब तो मानो विष हो गया है। इसलिए हमें युवाकाल से ही विवेक-विचार पूर्वक जीवन यापन करना चाहिए। [अर्थात विवेक -दृष्टि (जीव ब्रह्म ही है, भिन्न नहीं ) में प्रतिष्ठित होकर जगत को ब्रह्ममय देखकर शिव ज्ञान से जीव सेवा करना चाहिए।] 

        हमलोगों के देश में जिस प्रकार प्राचीन काल से ही महाभारत के उपदेशों की बात होती आ रही है, मध्य युग के कवि चण्डीदास की उक्तियों का उल्लेख होता रहा है, 1200 साल पहले शंकराचार्यजी भी यही कहते थे - 'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम्।' आधुनिक युग में  स्वामी विवेकानन्द भी यही कहते हैं कि, " Man-manifestation is the highest"  मनुष्य-जन्म ही सबसे ऊँचा है। किन्तु रवीन्द्रनाथ टैगोर के मुख से यही भाव एक अन्य तरीके से व्यक्त हुई है। उन्हों अपनी बंगला भाषा में लिखित कविता - "मैं" , आमि ( ami) या "I"  में इस प्रकार कहा है -   

'आमि' 

( ami) 

आमारई चेतनार रँगे पान्ना होलो सबुज , चुनि उठलो रांगा होय।

आमि चोख मेललूम आकाशे, ज्वले उठलो आलो, पूबे पश्चिमे।  

मेरे चैतन्य के रंग से ही पन्ना (emerald) हरा हो गया, 

(और) माणिक (ruby) लाल रंग में रंग गया !  

मैंने अपनी आँखों से आकाश की ओर देखा, और पूर्व से पश्चिम तक प्रकाश चमक रहा था ! 

गोलापेर दिके चेये बललूम 'सुन्दर' ! सुन्दर हल से। 

गुलाब की ओर देखकर मैंने कहा - 'सुन्दर'! और वो सुन्दर हो गया !

तुमि बलबे, ए जे तत्वकथा, ए कविर वाणी नय।  

आमि बलब , ए सत्य , ताई ए काव्य। 

आप कहोगे, ये सैद्धान्तिक बातें हैं, किसी कवि के शब्द नहीं।

मैं कहूंगा, यही सत्य है, इसीलिए यह कविता है।

ए आमार अहंकार , अहंकार समस्त मानुषेर हये।

मानुषेर अहंकारेर चित्र पटेई,   विश्वकर्मार विश्वशिल्प।

हाँ, यह मेरा 'अहं' है ! लेकिन यह 'अहं' तो सभी मनुष्यों में होता है। 

मनुष्यों के "अहं" ('मैं') के भीतर और पीछे ही तो,  

विश्वकर्मा की विश्वप्रपंच कला छिपी/अन्तर्निहित है

******

আমি 

(ami)

আমারই চেতনার রঙে পান্না হল সবুজ, চুনি উঠল রাঙা হয়ে। 

 আমি চোখ মেললুম আকাশে, জ্বলে উঠল আলো, পুবে পশ্চিমে।

 গোলাপের দিকে চেয়ে বললুম "সুন্দর', সুন্দর হল সে।    

তুমি বলবে, এ যে তত্ত্বকথা, এ কবির বাণী নয়।

 আমি বলব, এ সত্য, তাই এ কাব্য। 

এ আমার অহংকার, অহংকার সমস্ত মানুষের হয়ে।

 মানুষের অহংকার-চিত্র পটেই, বিশ্বকর্মার বিশ্বশিল্প।

(3:03(साभार -https://www.tagoreweb.in/Verses/shyamali-108/ami-770)

"I" 

(ego)

In the colour of my consciousness,

 the emerald turned green, the ruby ​​rose red.

I looked up at the sky with my eyes, 

and light shone from east to west.

Looking at the rose, I said, "Beautiful," 

and it became beautiful!

You will say, this is a theory, not the words of a poet.

I will say, this is the Truth , therefore this is poetry.

This is my 'ego' ('I'), but this 'ego'

 (I) is present in all human beings.  

Within and behind the "I" (ego) of humans,

                     lies the art of Vishwakarma's cosmic creation. 

       इस कविता में कवि रवीन्द्रनाथ ने मानव-मन की महिमा (बुद्धि, चित्त और या अहंकार की महिमा) को बहुत आश्चर्यजनक तरीके से अभिव्यक्त किया है। और हमारे शास्त्रों में भी ठीक यही बात कही गयी है-

 "मनो जन्मो जगत् जन्मो, मनोलयः जगन्नाशः।" 

   (क्योंकि मनोलय के बिना अद्वैत ज्ञान संभव ही नहीं है, इसलिए)' मन का जन्म होने से जगत का जन्म हुआ' तो किसके 'मन' का जन्म होने से -जगत का जन्म हुआ ? मनुष्य के मन का जन्म होने से सृष्टि की उत्पत्ति हुई ! यदि मनुष्य ही जगत में नहीं रहे , तो इस जगत का मूल्य ही क्या है ? यदि मनुष्य ही न हो तो , इस विश्वप्रपंच या जगत को देखेगा कौन ? इस जगत के साथ व्यवहार कौन करेगा ? इस जीव -जगत के पीछे कोई सत्य है या नहीं ? इस सृष्टि को देखकर इसका सृष्टिकर्ता, कोई ईश्वर है या नहीं?  परिवर्तनशील जगत के पीछे कोई इस शाश्वत सत्य या ईश्वर  है या नहीं इसका आविष्कार मनुष्य के सिवा और कौन करेगा? [मनुष्य के अतरिक्त अन्य कोई जीव सत्य की खोज या आत्मानुसंधान नहीं कर सकता है।]  इसलिए इस सृष्टि का वर्णन करते हुए हमारे देश के शास्त्र श्रीमद्भागवत (११.९.२८) में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है 

सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽत्मशक्त्या ।

वृक्षान्- सरीसृप- पशून्- खग-दंश-मत्स्यान् ।

तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ।

ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥ 

(श्रीमद्भागवत -11.9.28)

   तो कहते हैं- 'सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या' अर्थात् परमेश्वर, ब्रह्म या भगवान (कोई भी नाम ? मेरे लिए श्रीरामकृष्ण) ने अपनी आत्मशक्ति, अजया 'माया शक्ति' के द्वारा अनेकों प्रकार पुराणि (पुर या शरीर) को रचा  -वृक्षान्- सरीसृप- पशून्- खग-दंश-मत्स्यान् । बिल्कुल 'biological evolution' जैसा जीवों के क्रम-विकास का वर्णन होता है, उसी प्रकार यह सृष्टि हुई जिसमें आत्मा की सत्ता अधिकाधिक अभिव्यक्त हो रही थी , ऐसी सृष्टि रची गयी। जड़ सृष्टि- वृक्षादि तथा चेतन सृष्टि में पेट से रेंगने वाले सर्पादि, पैर से चलने वाले पशु आदि पंखों के सहारे उड़ने वाले पक्षी, डंक मारने वाले जीवजंतु, तैरने वाले मछली आदि का निर्माण किया, किंतु - 'तैस्तैर अतुष्ट हृदयः ' ईश्वर ने अपनी शक्ति से तरह-तरह के जीवों की सृष्टि की, लेकिन फिर भी " उनसे असंतुष्ट हृदय वाला" उनका हृदय पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुआ।  सृष्टि के आरंभ में जब ईश्वर ने कई प्रकार की योनियों (जैसे जड़ वृक्ष, चेतन सरीसृप, पशु आदि) की रचना की, किन्तु उससे स्रष्टा में मन में सृष्टि करने का आनंद नहीं हुआ। तब -'पुरुषं विधाय' तब सब से अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया। किस तरह के मनुष्य को बनाया ?- 'ब्रह्म अवलोक धिषणं जो ब्रह्म को जान सकता है। जो इस जगत के मूल (कारण) को जानने की योग्यता (विवेक-दृष्टि) से युक्त है। जो सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच का स्रोत है , जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई है, उसको भी जान सकता है । तब 'मुदमाप देवः' तब स्रष्टा को या ईश्वर को बहुत आनन्द हुआ। (4:53

    यह बात केवल हमारे देश के शास्त्र -श्रीमद्भागवत में ही कही गयी हो , ऐसा नहीं है। पाश्चात्य देशो में दिए एक भाषण में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि , ईस्लाम तथा ईसाई धर्म के ग्रंथों में भी सृष्टि के सम्बन्ध लगभग एक जैसी कहानी पायी जाती है। ईश्वर ने देवदूतों (फरिश्तों) और अनेक प्रकार के जीव-जंतुओं की सृष्टि की। किन्तु इससे उनको सन्तुष्टि नहीं हुई। तब अंत में उन्होंने मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य की रचना करने के बाद ईश्वर (ठाकुर देव) ने कहा - " समस्त देवदूतों (एन्जिल्स) को बुलाकर ले आओ ! वे लोग आकरके देखें कि मैंने कितने अद्भुत जीव की रचना की है। जब वे लोग आये ईश्वर ने देवदूतों से कहा कि, देखो यह 'मनुष्य' मेरी सर्वश्रेष्ठ रचना है, तुम लोग अपना सिर झुका कर मनुष्य प्रणाम और अभिनंदन करो ! इबलीस को छोड़कर बाकी सब ने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने उसको कहा - दूर हटो शैतान, इससे वह शैतान बन गया।' इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य- जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। " (१/५३) जो 'मनुष्य' के सामने श्रद्धा से अपना सिर नहीं झुकाता, वह मनुष्य तो नहीं ही है, वह 'शैतान जैसा मनुष्य' बन जाता है। (5:58

       श्रीरामकृष्ण परमहंस ने इसी बात को थोड़ा अन्य प्रकार से कहा है। वे कहते हैं - " मनुष्य दो प्रकार का होता है। एक है सामान्य मनुष्य और दूसरा है जिसको 'चैतन्य लाभ' हुआ है वह है -मानहूँश ! बहुत से लोग कई बार 'मान' (वैशिष्ट्य-characteristic) और 'हूँश' को दो अलग-अलग चीज समझते हैं। लेकिन ये दोनों अलग-अलग चीजें नहीं है। यहाँ 'मनुष्य' के 'मान' का अर्थ है उसकी जो 'विवेक क्षमता' है, यही मनुष्य का-विशेष गुण, धर्म, मनुष्य की पहचान या 'वैशिष्ट्य' (characteristic) या विशेष योग्यता है। जो विवेक-क्षमता मनुष्य के आलावा अन्य किसी प्राणी के पास नहीं है; यहाँ श्री रामकृष्ण उसी मानव-गरिमा (human dignity) के सम्बन्ध में होश की बात कह रहे हैं। मनुष्य की जो विशेष योग्यता -उसकी जो 'विवेक-क्षमता' (जगत को ब्रह्ममय देखने की क्षमता) है उसके विषय में जो व्यक्ति अवगत (Aware) है या उसका जिसको होश (हूँश) है, उस विवेक-क्षमता के प्रति जो सतर्क (conscious) है, उसी को 'मानहूँश' मनुष्य कहा जाता है।  और (सुप्त विवेक-क्षमता को जगाकर) ऐसा मनुष्य बन जाने की संभावना प्रत्येक व्यक्ति में होती है इसलिए मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ जीव कहा जाता है। किन्तु आज का मनुष्य तो प्राचीन काल के ऋषियों (विवेकी-मनुष्यों) जैसा 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की प्रार्थना नहीं कर पा रहा है। आज का मनुष्य तो ऐसी प्रार्थना नहीं कर पा रहा है कि,  -" संसार के सभी मनुष्य सुखी हों, सभी शांति और आनंद में रहें, सबों को ईश्वर की प्राप्ति हो !" सभी मनुष्यों का शरीर स्वस्थ और शक्तिशाली हो, सभी का मंगल या कल्याण हो ! किसी भी मनुष्य को दुःख का भागी नहीं बनना पड़े ! आज का मनुष्य यह प्रार्थना नहीं कर पा रहा है कि " किसी व्यक्ति का दोष मत देखो, उसमें जो अच्छा मंगलमय है उसी को देखो, जो अच्छा है वही सुनो ! " (6: 50

आज विश्व के विभिन्न देशों में तथा अपने देश में भी कई प्रकार के मनुष्य दिखाई देते हैं। किन्तु आज से लगभग 1500 वर्ष पहले या पाँचवीं शताब्दी में भारत के दार्शनिक कवि हुए थे -भर्तृहरि! उन्होंने एक श्लोक में बताया है कि 'जगत में कई श्रेणी के मनुष्य पाये जाते हैं !' उन्होंने मनुष्यों को चार प्रकार की श्रेणी में विभक्त करते हुए कहा था - 

एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थ परित्यज्यये। 

सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये।। 

तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये। 

येनिघ्नन्ति निरर्थकं पराहितं ते के न जानीमहे।। 

इस दार्शनिक कवि ने मनुष्यों की चार प्रकार की श्रेणी में वर्गीकृत करने का कितना अद्भुत प्रयास आज से 1500 वर्ष पहले किया था। कवि कहता है कि वह तीन श्रेणी के मनुष्यों का वर्गीकरण आसानी से कर लेता है। 'एके' माने कई लोग ऐसे ‘सत्पुरुष’ होते हैं जो - 'परार्थघटकाः' हैं अर्थात  जो अपने स्वार्थ को त्याग करके भी दूसरों का स्वार्थ सिद्ध करते हैं, दूसरों का मंगल करते हैं, दूसरों का उपकार करते हैं। दूसरे श्रेणी में वैसे ‘सामान्य’ जन आते हैं - 'स्वार्थ अविरोधेन ये' जो लोग अपने स्वार्थ की रक्षा करते हुए, अपने स्वार्थ को चोट पहुँचाये बिना दूसरों की भलाई करते है, दूसरों का मंगल करते हैं। सामान्य श्रेणी के मनुष्य भी दूसरों का उपकार करते हैं, लेकिन,  अपने स्वार्थ को त्यागकर दूसरों का उपकार नहीं करते। और तृतीय श्रेणी के मनुष्य वैसे लोग होते हैं जो अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए, दूसरों के जीवन की हानि से लेकर के सभी प्रकार की हानि पहुँचा सकते हैं । वैसे मनुष्यों को भर्तृहरि 'मानव-राक्षस' या मनुष्यों में राक्षस की संज्ञा देते हैं। और चौथे श्रेणी के मनुष्य के वे हैं -'येनिघ्नन्ति निरर्थकं पराहितं' - जो 'निरर्थकं' बिना किसी कारण के ही, दूसरों की हानि करते रहते हैं, दूसरों का अहित करते रहते हैं, जिनकी प्रवृत्ति ही परहित के विरुद्ध कार्य करने की रहती है; भले ही इससे उनका कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो।ऐसा देखा जाता है कि कोई बिल्कुल निर्दोष व्यक्ति था, लेकिन उसके जीवन को किसी ने अकारण ही नष्ट कर दिया। कवि कहता है कि - ते के न जानीम हे' उन चतुर्थ श्रेणी के मनुष्यों को वह किस नाम से पुकारे? यह कवि भी नहीं जानता, क्योंकि ऐसे लोगों में अधमता की पराकाष्ठा है क्योंकि वे अकारण ही दूसरों के कार्य को बिगाड़ते हैं ।  1500 वर्ष पहले  दार्शनिक कवि भर्तृहरि ने ऐसे चतुर्थ श्रेणी के मनुष्यों को सचमुच देखा था या उन्होंने ऐसी मनुष्यों की कल्पना थी; इसके बारे में निश्चयपूर्वक अभी कुछ कहना सम्भव नहीं है। किन्तु 1500 वर्ष पहले जिस प्रकार के चतुर्थ श्रेणी के मनुष्य के बारे में कहा था, ऐसे मनुष्य आज भी दिखाई अवश्य देते हैं। (9:56

लेकिन इसमें आशाजनक बात यह है कि कोई मनुष्य जन्मजात रूप से चाहे किसी भी श्रेणी में क्यों न जन्म लिया हो, लेकिन मनुष्य का जो वैशिष्ट्य है , मनुष्यमात्र में जो  विवेक-क्षमता या 'divinity' अन्तर्निहित है, उस विवेक-दृष्टि के जाग्रत हो जाने पर उसके विकास की असीम सम्भावना अवश्य रहती है। अन्य पशुओं से मनुष्य का अन्तर उसकी इसी योग्यता (विवेक-दृष्टि) के कारण है। पशु जैसा होकर आता है, पशु अवस्था में ही उसकी मृत्यु हो जाती है। लेकिन मनुष्य अपूर्ण होकर आता है, असम्पूर्ण होकर आता है, लेकिन अपने को पूर्ण बना लेना ही उसका कर्तव्य है। यह अद्भुत सिद्धांत हमारे देश के सनातन धर्म में प्राचीन समय से चला आ रहा है।

 किन्तु यह देखकर आश्चर्य होता है कि एक अंग्रेज कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग -(Robert Browning) इस प्राचीन भारतीय सिद्धांत को किसी प्रकार समझ लिया था। इसलिए उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं हमेशा ध्यान में आ जाती हैं- “Progress, man’s distinctive mark alone, Not God’s, and not the beasts’: God 'is', they 'are', Man partly is and wholly hopes to be” - Progress अर्थात प्रगति, उन्नति ,उत्थान या विकास यह मनुष्य का एक विशिष्ट चिन्ह है। यह भगवान में भी नहीं है , पशु में भी नहीं है। ईश्वर पूर्ण है -वे जैसे हैं , वैसे ही रहेंगे। पशु लोग जैसे आये हैं, वैसे ही रहेंगे , पशु अवस्था में ही जगत से चले जायेंगे। लेकिन Man partly is and wholly hopes to be अपूर्ण मनुष्य पूर्ण (ईश्वर-100 % निःस्वार्थी) होना चाहता है। इसलिए स्वामी विवेकानन्द ने मनुष्य के ऊपर बहुत अच्छी बात कही है -" First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto." पहले हमें पूर्ण (ईश्वर) बन लेने दो। तत्पश्चात  दूसरों को पूर्ण (ईश्वर) बनाने में सहायता देंगे। 'बनो और बनाओ' यही हमारा मूल-मंत्र रहे। हम यही कहें -"We are" and "God is" and "We are God !" " हम हैं" और "ईश्वर हैं" और " हम ईश्वर हैं !" चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ कहते हुए आगे बढ़ते चलो। आत्मा की शक्ति का विकास करो, और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो और जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी।" स्वामी विवेकानन्द ने कहा है जो व्यक्ति यह काम करता है -पूर्णतर मनुष्य बनने और पूर्णतर मनुष्य बनाने "Be and make." आंदोलन के प्रचार-प्रसार में लगा रहता है, वही है मनुष्य। हम जितने भी लोग इस काम को करने में लगे हैं , स्वामी जी के इस उपदेश का मूलसिद्धांत (keynote-मुख्य बात, प्रधान- राग) हमारे ह्रदय में प्रवेश नहीं करता है। अर्थात इस सिद्धांत का आत्मसातीकरण नहीं हो पाता है। इसीलिए इस सिद्धांत को अपने जीवन में धारण करने के लिए जितने उद्यम की आवश्यकता होती है , उतना उद्यम, उतना प्रयत्न हम नहीं कर पाते हैं।  यदि हम सभी लोग निष्ठा के साथ स्वयं पूर्ण मनुष्य बनने और दूसरों को पूर्ण मनुष्य बनाने के कार्य में लगे रहें तो निश्चित रूप से मानवजाति का उत्थान होगा। मनुष्यों के बीच परस्पर -कलह (Brawl) झगड़ा, लड़ाई (fight) विवाद (altercation) समाप्त हो जाएगी। (11:59 

हमारे देश की सनातन विचारधारा में यह आस्था है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर देवता हैं, ईश्वर हैं, ब्रह्म हैं, लेकिन उस देवत्व, ब्रह्मत्व या पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करना अभी बाकी है । इसीलिए स्वामी जी ने कहा है - 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' - यही हमारा दृढ़ विश्वास है ! हमारे उपनिषदों में जिस सत्य का अनुभव किया है, और उसकी घोषणा की है , ऋषियों की वाणी को हमलोग महावाक्य कहते हैं। ऐसे अनेको महावाक्य हैं , उनमें से केवल कुछ को संग्रहित करके व्याससूत्र या ब्रह्मसूत्र की रचना हुई है। किन्तु ऐसे अनेकों महावाक्य हैं। ये महावाक्य बिल्कुल सरल हैं , किन्तु अत्यंत आश्चर्यजनक हैं ! उसके मर्म को आसानी से समझ नहीं पाते हैं। जैसे एक महावाक्य है - 'अहं ब्रह्मास्मि !' स्वरूपतः 'मैं कौन हूँ ?' मैं ही ब्रह्म हूँ। जैसा कि श्रीमद्भागवत (11.9.28) श्लोक पर चर्चा करते हुए हमने सुना था - 'ब्रह्मावलोकधिषणं' मनुष्य में जो एक विशिष्ट योग्यता 'विवेक' है उसके द्वारा ब्रह्म को भी समझ सकता है। लेकिन ब्रह्म को तर्क (reasoning) के द्वारा न तो खुद  समझा जा सकता है , न तर्क के द्वारा दूसरों को समझाया जा सकता है। श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ईश्वरचंद्र विद्यासागर से मिलने के लिए गए थे। वे अपने समकालीन प्रसिद्द लोगों से मिलने के लिए दौड़ पड़ते थे। उनसे मिलने के बाद विद्यासागर महाशय ने ठाकुर देव से कहा कि मुझे ब्रह्म के विषय में बताइये। तब ठाकुर रामकृष्णदेव बोले - ब्रह्म के विषय में मुख से तो कहा नहीं जा सकता है। समस्त शास्त्र मुँह से कहकर के जूठा हो गए हैं। किन्तु ब्रह्म क्या है ? यह आज तक कोई मुख से उच्चारित नहीं कर सका है। उच्चारण करने से जूठा हो जायेंगे। (क्योंकि 'तम अगोचरं' -आत्मा या ब्रह्म को इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता) तब विद्यासागर महाशय ने कहा -आज यह नई बात मैंने सुनी है ! लेकिन ये कोई नई बात नहीं है। एक महान पण्डित (महिमाचरण-चक्रवर्ती) ने श्री रामकृष्ण देव से कहा था, आप जो भी बोलते थे वह सब शास्त्रों में लिखा हुआ है, तो भी मैं आपके पास क्यों आता हूँ, जानते हैं ? आपके मुख से सुनने में बहुत अच्छा लगता हैं। विद्यासागर महाशय से श्री रामकृष्ण देव ने जो कहा था , वह शास्त्र में इस प्रकार लिखा है - "उच्छिष्ठ सर्व शास्त्राणि सर्व विद्या मुखे मुखे। न उच्छिष्ट ब्रह्मणो ज्ञानं अव्यक्तं चेतनामयं।" समस्त शास्त्र मुख से उच्चारित होकर जूठा हो गया है , किन्तु ब्रह्म क्या है ? यह कोई मुख से नहीं कह सकता। ब्रह्म के विषय में ठाकुर देव कितने प्रकार से उदाहरण देते थे - " तीन व्यक्ति ब्रह्म सागर को देखने गए थे!" एक व्यक्ति ब्रह्मसागर को दूर से देखकर और आवाज सुनकर ही अचेतावस्था में चला गया। दूसरा व्यक्ति जल के निकट पहुँचा और उसको स्पर्श करते ही वह भी बेहोशी के हालत में चला गया। और तीसरा व्यक्ति जल में डुबकी लगाया था, फिर भी अचेतावस्था में नहीं गया। इसलिए वापस आकर देवर्षि नारद कुछ संकेत बता सके थे।  जैसा साधक कवि रामप्रसाद ने एक गाना में कहा है -ब्रह्म को चरण बद्ध तरीके से धीरे-धीरे (ঠারে ঠোরে বুঝে নিয়ে যায় /श्रवण , मनन , निदिध्यासन) समझा जा सकता है, किन्तु मुख से बोला नहीं जा सकता है। ब्रह्म के बारे में बोला नहीं जा सकता है , ब्रह्म हुआ जा सकता है। “ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति जो व्यक्ति ब्रह्म हो जाता है , वही समझ सकता है कि, ब्रह्म वस्तु क्या है(14:46) किन्तु वह भी मुख से बोल नहीं सकता कि ब्रह्म क्या है ? परन्तु उसका अनुभव कर सकता है। उस समय उस (ऋषि) को अनुभव होता है-'अहं ब्रह्मास्मि'! उसे यह अनुभव होता है कि- ब्रह्म उससे भिन्न नहीं हैं। वह ब्रह्मविद जब दूसरों को देखता है, तब कहता है -तत्त्वमसि -'तत् त्वम् असि' (वही तू है !) उसके बाद जब वो अपने चारों ओर देखता है , तब देखता है कि 'ब्रह्म से भिन्न तो कुछ है ही नहीं !' समस्त जगत ब्रह्म ही है , तब कहता है -"सर्वं खलु इदं ब्रह्म" या "यह सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच ब्रह्म ही है"। हमलोग शंकराचार्य जी को अद्वैतवादी के रूप में जानते हैं। किन्तु शंकराचार्य जी ने अपने भाष्यों में अद्वैत वेदांत को प्रतिष्ठित किये हैं, अपने एक ग्रन्थ (अपरोक्षानुभूति) में कहते हैं - 

  दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत। 

     सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी।। 

हमारे योग-शास्त्रों में ध्यान करते समय अपनी दृष्टि को नासिका के अग्रभाग में निबद्ध रखने का उपदेश दिया गया है। और इसके ऊपर विवाद भी हुआ है - नासिका अग्रभाग किसको माना जायेगा , जहाँ से नासिका शुरू होती है , वहाँ या जहाँ समाप्त होती है वहाँ -दृष्टि को निबद्ध रखनी है। वह दृष्टि नहीं, यहाँ ज्ञामनमयी दृष्टि से -'पश्येद ब्रह्ममयं जगत।' जगत को ब्रह्ममय देखने की बात कही जा रही है। (क्योंकि प्रत्येक जीव में ब्रह्मत्व या रामत्व की अभिव्यक्ति एक सामान नहीं होती , हाँ उसे अभिव्यक्त करने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में निहित है।  विवेक -दृष्टि, ज्ञान-दृष्टि सम्पन्न संत तुलसी दास की भक्ति दृष्टि में ईश्वर ही जीव-जगत हैं - 'सियाराम मय सब जग जानी !')  'सा दृष्टिः परमोदारा' ऐसी दृष्टि ही -परम् उदार दृष्टि है। समस्त जगत एक है , जगत के सभी जीव-जगत या वृक्ष या पर्वत जिसे हम जड़ सृष्टि कहते है, कुछ भी जड़ नहीं है , सब कुछ चैतन्य है। 'चैतन्यात् सर्वं उत्पन्नं !' (16:22जो कुछ विश्वप्रपंच दिख रहा है, पत्थल, पहाड़, पेड़-पौधा सब कुछ चैतन्य (ईश्वर) है।  श्रीमद्भागवत (११-२-४१) में भी कहा गया है - 

खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ,ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।

      सरित समुद्रान् च हरेः शरीरं यत्किं च भूतं प्रणमेदनन्यः ।। 

[खम् - आकाश ; वायुम् - वायु ; अग्निम् - अग्नि ; सलिलम् - जल ; महीम् - पृथ्वी ; च - तथा ; ज्योतिंषि - सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य दिव्य ज्योतियाँ ; सत्त्वनि - सभी जीव ; दिशाएँ - दिशाएँ ; द्रुमा - आदिन् - वृक्ष तथा अन्य स्थावर प्राणी ; सरित - नदियाँ ; समुद्रान् - तथा महासागर ; च - भी ; हरेः  शरीरम् - परमेश्वर हरि के शरीर ; यत् किम् च - जो कुछ भी ; भूतम् - सृष्टि में ; प्रणमेत् - प्रणाम करना चाहिए ; अनन्यः - भगवान से भिन्न कुछ भी न मानकर ।] 

(विवेक-दृष्टि सम्पन्न) भक्त को किसी भी वस्तु को भगवान श्रीरामकृष्ण से पृथक नहीं देखना चाहिए। आकाश, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, सूर्य तथा अन्य ज्योतियाँ, सभी जीव, दिशाएँ, वृक्ष और अन्य वनस्पतियाँ, नदियाँ और समुद्र - भक्त को जो भी अनुभव हो, उसे परमात्मा का ही अंश समझना चाहिए। इस प्रकार सृष्टि में विद्यमान प्रत्येक वस्तु को भगवान हरि का शरीर मानकर, यद्यपि भक्त को भगवान के शरीर के सम्पूर्ण विस्तार के प्रति अपना सच्चा सम्मान अर्पित करना चाहिए। तथापि ह्रदय को प्रसारित करते समय कैसी सावधानी रखनी चाहिए, इसके विषय भागवत महापुराण का एक श्लोक द्रष्टव्य है -   

हरि: सर्वेषु भूतेषु भगवानास्त ईश्वर:।

इति भूतानि मनसा कामैस्तैः साधु मनयेत् ॥ 32 ॥

हमें सदैव भगवान के उस स्थानीय स्वरुप (localized-प्रत्येक मनुष्य के इष्टदेव के स्वरूप) का स्मरण करना चाहिए जो परमात्मा (श्रीरामकृष्ण) के रूप में प्रत्येक जीव (xyz) के हृदय के मूल में स्थित हैं। अतः हमें प्रत्येक जीव (xyz) को उसके ह्रदय में विराजमान परमात्मा (श्रीरामकृष्ण) की अभिव्यक्ति के तारतम्य को सम्मान देना चाहिए।

One should always remember the Supreme Personality of Godhead in His localized representation as the Paramātmā, who is situated in the core of every living entity’s heart. Thus one should offer respect to every living entity according to that living entity’s position or manifestation.

कहने का तात्पर्य (Purport) 

>>> विवेकहीन (unscrupulous-या नीतिज्ञानहीन)-व्यक्तियों के द्वारा 'हरिः सर्वेषु भूतेषु';  कहने का तात्पर्य (निष्कर्ष) कभी कभी गलत निकाल लिया जाता है, और वे यह समझ लेते हैं कि चूँकि भगवान हरि (श्रीरामकृष्ण) प्रत्येक जीव में स्थित हैं, इसलिए प्रत्येक जीव (xyz) भी हरि है। 

ऐसे मूढ़ व्यक्ति आत्मा और परमात्मा, जो प्रत्येक शरीर में स्थित हैं, के बीच अंतर नहीं करते। आत्मा जीव है और परमात्मा भगवान है। (लेकिन सियाराममय सबजग जानी'; या ' दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्ममय जगत', कहने से भी विभिन्न जीवों या व्यक्तियों के ब्रह्मत्व (रामत्व) की अभिव्यक्ति में तारतम्य तो रहता है, इसलिए स्वामी जी ने सभी जीवों को यथास्थिति ब्रह्म समझकर प्रणाम करने के लिए नहीं कहा है , उन्होंने कहा है- प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। इसलिए ब्रह्मत्व को व्यक्त करने के उपाय का प्रशिक्षण लेना होगा।हालाँकि, व्यक्तिगत आत्मा या जीव परमात्मा, परमेश्वर से भिन्न है। इसलिए 'हरिः सर्वेषु भूतेषु' का अर्थ है कि हरि परमात्मा (श्रीरामकृष्ण)  के रूप में स्थित हैं, आत्मा (xyz) के रूप में नहीं , यद्यपि आत्मा परमात्मा का एक अंश है। प्रत्येक जीव (xyz) को आदर देने का अर्थ है प्रत्येक जीव में स्थित परमात्मा- (श्रीरामकृष्ण) को आदर देना। किन्तु प्रत्येक जीव (xyz) को परमात्मा (हरि ठाकुरदेव) समझने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। कभी-कभी अविवेकी लोग किसी ढोंगी जीव को भी (जो गरीब-भिखारी की वेशभूषा में रहने का दिखावा करता है) को दरिद्र-नारायण, स्वामी-नारायण, यह (लुच्चा) नारायण या वह (भोगी) नारायण कह देते हैं। हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि यद्यपि नारायण प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं, फिर भी जीव (xyz) कभी नारायण (श्रीरामकृष्ण) नहीं बनता

       जो कुछ आप देखते हो, सब कुछ हरि का शरीर है, भगवान का शरीर है। कहने का तात्पर्य हुआ ,'सर्वं खलु इदं ब्रह्म'- सब कुछ ब्रह्म ही हैं। इसलिए जिस किसी वस्तु , प्राणी या मनुष्य  को देखो उन सब को मन ही मन प्रणाम करो! इसीको विवेक-दृष्टि या ज्ञान-मयी दृष्टि में प्रतिष्ठित होना कहते हैं । इस प्रकार जो मनन शील है, विवेक -दृष्टि से जगत को ब्रह्ममय देखकर मन ही मन प्रणाम करने में सक्षम है, वो मनुष्य है। "मननशीलो मनुष्यः" यही मनुष्य की योग्यता है कि वह मननशील है। उसका वैशिष्ट्य यही है कि वह विवेक-विचार कर सकता है, आत्मविश्लेषण कर सकता है, आत्मानुसंधान कर सकता है। और केवल मनुष्य इस जीव -जगत पीछे और भीतर अवस्थित सत्य को भी आविष्कृत कर सकता है। (17:03) यह योग्यता मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी प्राणी के पास नहीं है। [अर्थात अपने -पराये किसी के भी परिवार के सदस्य, परिचित क्रमचारी या सेवक में भी ब्रह्म को देखकर मन ही मन उन्हें प्रणाम करने की योग्यता मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी के पास नहीं है। अथवा 'सर्वमंगल मांगल्ये' प्रार्थना करके किसी मानव-राक्षस से भी अधम चतुर्थ श्रेणी के उच्छृंखल (unruly, बेलगाम)  पुरुष -स्त्री से बचने की योग्यता भी केवल मनुष्य में ही है!] 

    यदि कोई व्यक्ति "स्वामी विवेकानन्द की चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा- Be and Make " का प्रशिक्षण ( अर्थात विवेक-दृष्टि  सम्पन्न मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा) प्राप्त करके धीरे -धीरे सम्पूर्ण जगत को ब्रह्ममय देखने में सक्षम बन सके तो वह देवता से भी आगे निकल सकता है। (दादा ने कहा था - " तुम देखना एक दिन 'Be and Make ' ही वैश्विक धर्म बनेगा और जो व्यक्ति इस "विवेकी-मनुष्य बनने और बनाने वाले आन्दोलन' के प्रचार-प्रसार में आजीवन लगा रह सकेगा वह बिना कोई अन्य साधना किये ही मुक्त हो जायेगा।) 

फ़ारसी के कवि जलालुद्दीन रूमी अपनी एक कविता में बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं — खनिज (mineral) के रूप में 'मैं' मरा और पौधा बन गया, पौधे के रूप में मैं मरा और पशु बनकर उभरा, पशु के रूप में मैं मरा और मनुष्य बन गया, मुझे भय क्यों हो? मरने से मुझमें कमी कब आई है? मनुष्य के रूप में मैं अभी एक बार और मरूँगा, जिससे कि देवता से भी उन्नत हो सकूँ !" लेकिन देवता या देवदूत बन जाना भी उन्नति का अंत नहीं है। मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र से परे, देवत्व से भी परे अनन्त आलोक (ब्रह्म) के साथ एकत्व की अनुभूति में प्रतिष्ठित हो जाना चाहिए। (17:31) शंकराचार्यजी ने विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ में कहा है -

इतः को न्वस्ति मूढ़ात्मा, यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति। 

दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम्।। ५।।

जो व्यक्ति दुर्लभ मनुष्य शरीर तथा 'पौरुष' को प्राप्त करके भी अपने स्वार्थ साधन में अर्थात आत्मान्वेषण में या 'मैं कौन हूँ ?'- यह जानने में आलस्य करता है, उससे अधिक मूढ़ और कौन हो सकता है? 

     स्वामी विवेकानन्द ने शंकराचार्य जी के इसी कथन से 'पौरुष' शब्द को आत्मसात करते हुए  कहा था- " पौरुष मेरा नया सिद्धान्त है !" [My new gospel is Manliness ! स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-" जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है, उतना ही अधिक मुझे लगता है कि 'पौरुष'-इस एक शब्द में समस्त शक्तियाँ निहित हैं। यह मेरा नया महावाक्य है !"(८/१३०)- “The older I grow, the more everything seems to me to lie in manliness. This is my new gospel."] पौरुष 'Manliness' किसे कहते हैं ? प्रत्येक मनुष्य में वैराग और अभ्यास द्वारा अपने मन पर नियंत्रण रखते हुए स्वयं उन्नततर मनुष्य बनने  तथा दूसरों को भी उन्नततर मनुष्य (विवेकी-मनुष्य) बनने में सहायता करने की जो 'Be and Make' शक्ति है, उसी को मनुष्य का वैशिष्ट्य, विशेष योग्यता या पौरुष (Manliness) कहा जाता है। 

    इसी लिए शंकराचार्य जी खेद प्रकट करते हुए कहते हैं - 'दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम्' -अर्थात एक तो मानव-शरीर मिलना दुर्लभ है, उसके साथ -साथ किसी व्यक्ति को 'पौरुष' या विवेक-दृष्टि भी प्राप्त हो, यदि फिर भी वह अपने को उन्नततर मनुष्य बनाने का प्रयत्न नहीं करता (अर्थात जगत को ब्रह्ममय देखकर भी उसकी, निःस्वार्थ सेवा करने का प्रयत्न नहीं करता) तो उस व्यक्ति से अधिक मूढ़, मूर्ख या अभागा (unlucky) व्यक्ति और कौन होगा?      

     इसीलिए स्वामी विवेकानन्द हमलोगों को सही अर्थों में धार्मिक और शिक्षित मनुष्य बनने के लिए उत्साहित करते हुए कहते हैं - "It is good to be born in a church or in a temple, but it is bad to die there ." "किसी गिर्जा या मंदिर में जन्म लेना अर्थात किसी सम्प्रदाय में पैदा होना अच्छा है, पर उसकी सीमाओं के भीतर ही मर जाना बुरा है। बच्चा पैदा होना अच्छा है , पर सदा के लिए बच्चा ही रह जाना बुरा है। सम्प्रदाय, नियम और प्रतीक बच्चों के लिए तो ठीक है , पर जब बच्चा सायना हो जाये तो, उसे चाहिए कि या तो वह सम्प्रदाय को ही अतिशय विस्तृत बना दे या स्वयं उससे बाहर चला जाये। हमें सदा ही शिशु नहीं रहना है। यह बात तो कुछ वैसी ही लगती है जैसे बचपन के कोट को ही हर अवस्था में पहनने की कोशिश की जाये। " (आत्मा, ईश्वर और धर्म/२/२३५)[It is good to be born a child, but bad to remain a child. Churches, ceremonies, and symbols are good for children, but when the child is grown, he must burst the church or himself. We must not remain children for ever. It is like trying to fit one coat to all sizes and growths. Volume (1):Soul, God and Religion]- (18:29

         धर्म क्या है ? अभी हमलोग यह समझ बैठे हैं कि, मंदिर, मस्जिद या गिर्जा जाना और वहाँ कुछ कर्मकाण्डी अनुष्ठान आदि में भाग लेना ही धर्म है। उसको धर्म नहीं कहते हैं। प्रत्येक मनुष्य में जो दिव्यता अन्तर्निहित है, उसको जाग्रत का लेना ही धर्म है। [divinity-विवेकक्षमता-या जगत को ब्रह्ममय देखने की शक्ति अन्तर्निहित है उस विवेक-दृष्टि को 3H विकास के 5 अभ्यास, या मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा के द्वारा को जाग्रत का लेना ही धर्म है।]  महाभारत में कहा गया है -धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः।" धर्म वह वस्तु है जो सभी मनुष्यों को या समस्त प्रजा वर्ग को धारण करता है ! मनुष्य -धर्म के वास्तविक अर्थ (3H विकास) को यदि हम समझ सकें और उसके साथ-साथ 'पौरुष' अर्थात हमारे कार्य करने की शक्ति, और उद्यम, मनोबल या संकल्प की दृढ़ता [देह (Hand), मन (Head) और ह्रदय (Heart) की विशालता (अर्थात विवेक -दृष्टि द्वारा जगत को ब्रह्ममय देखने और सेवा करने की क्षमता) अर्थात '3H' का सुसमन्वित विकास करने की चेष्टा करें या 'Be and Make' आंदोलन के प्रचार-प्रसार करने में जुटे रहें, तो मनुष्य -जाति में एक नई श्रेणी के मनुष्यों की उत्पत्ति होगी जो साधारण मनुष्यों के स्तर से ऊपर के स्तर के मनुष्य होंगे। और इसी प्रकार के उन्नत स्तर के मनुष्य बनने और बनाने के लिए हमें युवाओं का आह्वान करना चाहिए। (19: 17

  आजकल मनुष्य होकर भी पशु जैसे कार्य करने वाले मनुष्यों की संख्या भी कम नहीं है, क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था जिसे हम वेदांत अमृत कहते हैं, मंगलमय, कल्याणकारी विचार, उच्च जीवनदायी विचार, शक्तिदायी विचार कहते हैं उन अच्छे भावों को हमारी भावी पीढ़ी प्राप्त नहीं कर पा रही है। क्या इस अवस्था में परिवर्तन लाने का कोई उपाय नहीं है ? इस अवस्था परिवर्तन का उपाय हमारे देश में पर्याप्त है। जिस समय भारतवर्ष अंग्रेजों का गुलाम था, उस समय स्वामी विवेकानन्द से कुछ लोग पूछते थे -कि स्वामीजी आप देश की स्वतन्त्रता के लिए क्या कर रहे हैं ? इसके उत्तर में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - मैं तीन दिनों में देश को स्वाधीन करा सकता हूँ, लेकिन जो इस स्वाधीनता रक्षा करने में सक्षम हों, तुम्हारे पास ऐसे मनुष्य कहाँ हैं? स्वाधीनता को बचाये रखने के लिए, देश की उन्नति के लिए जो प्रथम आवश्यक वस्तु है,उसकी पहली सीढ़ी है वो है -शिक्षा ! उस शिक्षा की आज क्या अवस्था है ? देश को स्वाधीनता प्राप्त किये लगभग 57-58 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन आज भी हमारे देश की शिक्षा का स्तर क्या है( यह वीडियो शायद 2005, सरिसा कैम्प का होना चाहिए ? अभी अक्टूबर 2025 है, देश की स्वाधीनता के 78 वर्ष बीत चुके हैं !20:20) सभी के सामने वर्तमान शिक्षा के विषय में बोलने से भी संकोच होता है; फिर भी कहना पड़ेगा कि शिक्षा अत्यंत निम्न-स्तर में पहुँच चुकी है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने देश की सर्वांगिण उन्नति के उपाय पर बोलते हुए कहा था - "पहले मनुष्य निर्माण करो !" लेकिन 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' या विवेकी मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा का प्रचार-प्रसार कहाँ हो रहा है ? स्वामी जी ने कहा था -" सम्पूर्ण शिक्षा-व्यवस्था को हमें अपने हाथ में लेना होगा" अर्थात भारतीय  शिक्षण परम्परा के अनुरूप बनना होगा । लेकिन वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था किस तरह के लोगों के हाथों में है ? भारतीय संस्कृति की वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा के महत्व को समझने वाले विवेकी- मनुष्यों के हाथों में तो देश की शिक्षा व्यवस्था नहीं है। सरकार ने ऐसी आशा की थी कि विद्यालय में यदि दोपहर के भोजन की व्यवस्था की जाए तो, तो छोटे-छोटे बच्चे स्कूल आने लगेंगे। लेकिन इस दोपहर भोजन-व्यवस्था आधारित शिक्षा में कितने तरह के काण्ड हुए यह सभी लोग जानते हैं। अभी हाल में बंगाल के अख़बार में छपा है कि स्कूल में फिल्म दिखाने की व्यवस्था होगी , ताकि फिल्म देखने के बहाने लड़के स्कूल आएंगे। क्या इसको शिक्षा कह सकते हैं ? क्या इस प्रकार शिक्षा दी जाती है ? शिक्षा वास्तविक उद्देश्य है 'मनुष्यत्व' को विकसित कर देना, अंतर्निहित दिव्यता (विवेक-दृष्टि) को जागृत कर देना! अर्थात मनुष्यों के भीतर वह जो पशुत्व या पशुभाव 'Animality' रहता है, उसको  (3H निर्माण के 5 अभ्यास द्वारा) दूर करना होगा। छात्रों में विद्यमान पशुभाव (यानि घोर स्वार्थपरता) को हटाकर पहले उन्हें मनुष्य भाव में (50%निःस्वार्थ या सामान्य मनुष्य की श्रेणी में) प्रतिष्ठित करना होगा। मनुष्य भाव में प्रतिष्ठित हो जाने के बाद, उससे भी उच्चतर भाव - मनुष्य भीतर जो 'Divinity' (विवेक-दृष्टि) अन्तर्निहित है, उसको जाग्रत और व्यक्त करने की चेष्टा करनी होगी। (21:33इसलिए स्वामीजी ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा था - "Education is the manifestation of the perfection already in man." (मनुष्य के भीतर जो सम्पूर्णता पहले से है, उसको अभिव्यक्त करने की चेष्टा का नाम है शिक्षा।) "शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। " (खंड २/३२८) किन्तु हमारे देश में ऐसी शिक्षा- अन्तर्निहित पूर्णता (दिव्यता, ब्रह्मत्व) को व्यक्त करने वाली शिक्षा कहाँ दी जाती है? स्वाधीनता के 78 वर्ष बीत जाने के बाद भी हमारे विद्यालयों में ऐसी शिक्षा कहाँ दी जाती है ? अपनी भावी पीढ़ी को इस अंतर्न्हित देवत्व (या Divinity) को व्यक्त करने वाली शिक्षा की ओर ले जाने की थोड़ी सी चेष्टा भी कहाँ हो रही है? (21:55स्वाधीनता के बाद कई 'शिक्षा-आयोग'(Education Commission) भी घटित हुए थे। उन शिक्षा आयोगों ने साकार को जो प्रस्ताव दिए थे, जो अनुशंषायें (Recommendations) की थी क्या सरकार ने उन प्रस्तावों का क्रियान्वन किया है ? तीन शिक्षा आयोग का गठन तो हुआ किन्तु उनकी प्रस्तावों का क्रियान्वन नहीं हुआ है, उनके परामर्श को कार्य में रूपायित नहीं किया जा सका है। 

   मनुष्य निर्माण (या 3H निर्माण कारी) शिक्षा यदि सरकारी स्तर पर देना सम्भव नहीं है , तो हम लोगों को स्वयं उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। हमलोग स्वयं किस प्रकार 'मनुष्यत्व' को जाग्रत  में उन्नत मनुष्य (विवेक-दृष्टि सम्पन्न मनुष्य) बना सकते हैं ?  उसके लिए हमें यह समझना होगा कि मनुष्य के प्रमुख अवयव या उपादान क्या हैं?  मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं -जिससे मनुष्य निर्मित हुआ है। एक है मनुष्य का 'शरीर' (Hand), दूसरा है 'मन' (Head) और तीसरा है 'हृदय' (Heart) ! हमारे देश प्राचीन विचारधारा में (सनातन धर्म में) मनुष्य के तीन प्रमुख उपादानों को 'देह , मन और आत्मा' कहा गया है। किन्तु आश्चर्य की बात है कि स्वामी विवेकानन्द ने 'देह , मन और आत्मा' नहीं कहकर, उसे बहुत सुंदर ढंग से 'देह , मन और हृदय' कहा है। "हृदय" एक संस्कृत शब्द है, जो  किसी भी चीज़ के सार, मूल या आंतरिक भाग को दर्शाता है। (23:00) किन्तु यहाँ उस अर्थ में स्वामीजी ने 'हृदय' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। यहाँ हृदय शब्द का व्यवहार हृदयवत्ता (Heartiness-सौहार्द) के लिए किया गया है। अर्थात दूसरे मनुष्यों के प्रति सहानुभूति रखना, उनके सुख -दुःख को अपने हृदय में अनुभव करना। सिर्फ अपने दुःख-कष्ट का ही अनुभव नहीं करना, या केवल अपने आनंद का ही अनुभव नहीं करना। बल्कि दूसरों के दुःख-कष्ट और आनंद को बिल्कुल अपने ही दुःख-कष्ट और आनंद की तरह अनुभव करना। दूसरों की उन्नति , दूसरों का मंगल, दूसरों के कल्याण को भी बिल्कुल अपना मंगल, अपना कल्याण जैसा अनुभव करना उचित है। यदि ऐसा नहीं हो रहा हो तो जिसको अंग्रेजी में 'Empathy' समानुभूति (Oneness) कहा जाता है। और दूसरा है Sympathy' सहानुभूति-या  भ्रातृभाव (Brotherhood) इसमें केवल दूसरों के दुःख-कष्ट को अपने दुःख-कष्ट जैसा अनुभव किया जाता है। लेकिन मनुष्य को दूसरों के दुःख-कष्ट को अपना दुःख-कष्ट जैसा अनुभव करने के साथ -साथ दूसरों के आनंद को भी बिल्कुल अपने आनंद के जैसा अनुभव करना चाहिए।यही गुण मनुष्य चरित्र का एक अपरिहार्य (Very necessary) वस्तु है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " मेरा मतलब उस भावुकतापूर्ण कथन से नहीं है कि - 'सभी मनुष्य भाई भाई हैं' बल्कि मनुष्य जीवन की एकत्वानुभूति की आवश्यकता से है। " (आत्मा,ईश्वर और धर्म /खंड २/२३५) [Love and charity for the whole human race, that is the test of true religiousness. I do not mean the sentimental statement that all men are brothers, but that one must feel the oneness of human life.]

       ऐसी समानुभूति (Empathy) या एकत्वबोध हमारे पुराणों में वर्णित , श्रीमद्भागवत में वर्णित 'भक्त प्रह्लाद' के चरित्र में देखा जा सकता है। (23:55) परार्था व्यथीतो दुःखितौ दुःखितेषु- प्रह्लाद भागवत" वे दूसरों के दुःख में व्यथित होते थे, और दूसरों के ऐश्वर्य, मंगल को देखकर बहुत आनंदित भी होते थे। मनुष्य को अपना चरित्र इस प्रकार का बनाना चाहिए। हमलोगों का प्रयास यह होना चाहिए कि हमें अपना शरीर बहुत स्वस्थ और शक्तिशाली, निरोग, कार्यसक्षम बनाने के लिए जैसा पौष्टिक आहार और नियमित व्यायाम आदि करना चाहिए। ठीक उसी प्रकार मन को भी असीम साहसी और प्रबल इच्छाशक्ति-सम्पन्न बनाने का पौष्टिक आहार व्यायाम किया जाता है। मन का व्यायाम है मन को एकाग्र करने की चेष्टा करना, मन को किसी विषय में नियोजित करना, या लगा देना। और उसी प्रकार किसी विषय से मन को वियुक्त करने या हटा लेने में भी सक्षम होना। इसके साथ विधिवत मन को एकाग्र करने का अभ्यास भी करते रहना चाहिए। और मन का आहार क्या है ? मन का आहार है शुभविचार, पवित्र विचार, जहाँ से प्राप्त होते हों उसको पढ़ना या सुनना अर्थात उसके तात्पर्य की अवधारणा करने के लिए समझने केलिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना।

     उसी प्रकार हमारे हृदय को भी बहुत विशाल होना चाहिए। स्वामी जी ने मनुष्य को परिभाषित करते हुए एक, जगह कहा है - " मनुष्य एक ऐसा वृत है जिसकी परिधि कहीं नहीं है , किन्तु उसका केंद्र एक बिन्दु में स्थापित है।" वह बिन्दु क्या है ? वह केंद्र बिन्दु है -हमलोगों का 'मैं'-बोध; हमें अपने 'मैं' केंद्र बनाकर उसके चारों ओर अनंत त्रिज्या का वृत बनाना होगा , जिसके घेरे में सम्पूर्ण विश्व-जगत का स्थान होगा। जिसका हृदय इतना अधिक विस्तृत हो जाता है , अनंत जितना वृहद हो जाता है , उसकी को यथार्थ मनुष्य कहा जाता है। इसलिए हमलोगों को अपने ह्रदय को प्रसारित करने का प्रयत्न करना होगा। (25:14

 यह जो अपने देश में और अन्य कई देशों में  एक के बाद दूसरा आकस्मिक विपदा (disaster) घटित होता दिखाई दे रहा है। कहीं बादल फट रहा है , कहीं बाढ़ आ रहा है , कहीं भूकंप आ रहे हैं। बिना किसी कारण के निर्दोष लोगों की जान कैसे जा रही है? बाढ़ आने से , चक्रवाती तूफान (Cyclone) आने से, हिमाचल प्रदेश, आदि पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्ख्लन (landslides) से कितने ही निर्दोष लोगों की जान जा रही है ! इन सब आपदाओं को देखकर हृदय में बहुत वेदना का अनुभव होता है। कुछ वर्षों पूर्व एक नई आकस्मिक त्रासदी 'tsunamis' या सुनामी आयी थी , यह नाम हमलोगों ने पहलर कभी नहीं सुना था। उसमें अचानक 100 फिट ऊँचा समुद्र का विशाल आकर का लहर उठ गया, जिसमें कितने  ही देशों के समुद्री तटवर्ती इलाकों में रहने वाले हजारों- हजार मनुष्यों की जान चली गयी थी। (सुनामी एक विशाल जल तरंग है जिसमें पूरा जल स्तंभ गतिमान होता है।यह लहर पानी की भारी मात्रा के अचानक विस्थापन से उत्पन्न होती है। समुद्र तल में जो शक्तिशाली भूकंप आया उससे भारत वर्ष तथा पूर्वी एशिया के tectonic plates हैं , उनमें विशाल विस्थापन हुआ और समुद्र तल में दरारें पैदा हो गयीं जो  सुनामी की शुरुआत का कारण बन गयीं।) इस प्रकार के आकस्मिक विपदाओं में किसी मनुष्य की जान नहीं जाये, इसके लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं , वैज्ञानिकों को इस पर विचार करना चाहिए। और जिन मनुष्यों का परिवार उसमें नष्ट हो गया उनको पुनरास्थिप्त करने के लिए हमलोग क्या करेंगे , इस पर विचार करना होगा। इसी प्रकार के मनुष्योचित मनोभाव को हृदयवत्ता (Heartiness-सौहार्द) कहा जाता है।

 हमलोगों के देश में इसी मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा के तीन प्रमुख उपादानों के विकास की शिक्षा के लिए आवश्यक उपादान 'हृदयवत्ता' को लेकर ही गुरु-शिष्य परम्परा में देह, मन और आत्मा का विकास करने की शिक्षा दी जाती थी। भारत की इसी देह,मन और आत्मा को विकसित करने शिक्षा पर चर्चा करते हुए किसी व्यक्ति ने स्वामी विवेकानन्द से प्रश्न किया था -हमारी प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था में यह जो देह, मन और आत्मा को विकसित करने की शिक्षा दी जाती थी, तो यह आत्मा देह में रहती कहाँ है ? स्वामी जी को विज्ञान की बहुत अच्छी जानकारी थी। विज्ञान में जिसको उन्मूलन विधि (elimination method ) कहा जाता है, उसी तरह शरीर के किस भाग में आत्मा है ? क्या हाथ में आत्मा है ? क्या पैरों में आत्मा है ? क्या सिर में आत्मा है ? इस प्रकार 'by excluding' एक के बाद दूसरे अंगों का बहिष्करण (exclusion) करते हुए उन्होंने कहा - 'जानते हो हमारे देह में आत्मा कहाँ रहती है ? हमारे भीतर 'Sympathetic Ganglion' सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि नामक एक ग्रंथि हैं आत्मा उसी में रहती है। यह पढ़कर मुझे # भी आश्चर्य हुआ। मैंने (नवनी दा - श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय, संस्थापक सचिव, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ने ) कई डॉक्टर्स इसके विषय पूछा , लेकिन कोई बता नहीं पाए। अंत में एक ऐसा डॉक्टर से पूछा जिसने हाल ही में डॉक्टरी पास किया था, और यूनिवर्सिटी में टॉप किया था। उसने तुरंत 'Physiology' (शरीर क्रिया विज्ञान) की पुस्तक निकाल कर चित्र-सहित दिखलाते हुए कहा कि इसीको 'सिम्पैथेटिक गैंग्लियन' कहा जाता है।  (27:46) मैंने देखा कि हमारा जो ह्रदय यंत्र (Heart) है उसके वहुत ही नजदीक वह नाड़ीग्रन्थि अवस्थित है। मैंने उसके विषय में जो पुस्तक में लिखा था , उसको पूरा पढ़ लिया। वहाँ लिखा हुआ था कि 'सिम्पैथेटिक गैंग्लियन' के कई function हैं उसमें से एक है , हमारे ह्रदय यंत्र में कितना रक्त संचालित होगा उसकी गति को control या नियंत्रित करता है। तो यह कितने आश्चर्य की बात है कि जहाँ कई नाड़ियाँ आकर मिलती हैं , उस नाड़ीग्रंथि के विषय में स्वामी जी कहते हैं , हमारे ह्रदय मशीन से कितना खून बहेगा या नहीं बहेगा , उसकी गति को यह गैंग्लियन ही नियंत्रित करता है। तो ह्रदय जिस प्रकार हमारे शरीर में रक्त-संचारित करने वाला यंत्र (Blood Pumping machine) है उसी प्रकार ह्रदय ही हमारे शरीर का ' एकत्व अनुभूति केंद्र ' (Oneness-Feeling centre) भी है जिसके द्वारा हम समस्त जगत को अपने साथ एक और अभिन्न अनुभव कर सकते हैं। सभी के सुख-दुःख को यदि हम अपना सुख-दुःख जैसा अनुभव करने की क्षमता को हृदयवत्ता कहते हैं। स्वामी जी ने एक जगह कहा है - सभी धर्मों में सार्वभौमिक भ्रातृत्व-भाव (universal brotherhood) की घोषणा की जाती है ,किन्तु हमारे भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में इस भ्रातृत्व-भाव से संतुष्ट न होकर 'सार्वभौमिक एकत्व'  (Universal Oneness) स्थापित करना चाहते हैं। " We want the Unity of Man, We want the oneness of mankind." हम सम्पूर्ण मानव-जाति के प्रति एकत्व की अनुभूति को स्थापित करना चाहते हैं। (We want to establish a feeling of oneness towards the entire human race.) क्योंकि सम्पूर्ण मानव-जाती (Humanity) एक ही है। (29:08

इस नए युग , या वर्तमान युग की यही अनिवार्यता है। आज के युग में विज्ञान ने काफी प्रगति कर ली है। अंतरिक्ष में रॉकेट भेज कर किस ग्रह पर क्या-क्या है , इसकी अच्छीतरह से खोजबीन की गयी है। किन्तु हमारे मन के भीतर का सत्य क्या है, 'मैं' -कौन हूँ ?, स्वरूपतः हमलोग क्या हैं ? इसकी खोजबीन करने की तरफ हमारी दृष्टि नहीं जा रही है। इसलिए दृष्टि को केवल बहिर्मुखी ही बनाये नहीं रखकर अपने ह्रदय के भीतर ही सत्य को खोजने की चेष्टा करना उचित है। यदि हम अपने विद्यमान सत्य को देखने की चेष्टा करें , तब हम जान जायेंगे कि हमलोग केवल पशु ही नहीं हैं, हमलोग अपने सत्यस्वरुप में ब्रह्म ही हैं , इसकी अनुभूति हमें प्राप्त हो सकती है। हमलोग इस जीव, जगत और ईश्वर के समस्त रहस्यों का भेदन करके , सत्य को आविष्कृत कर सकते हैं। और अपने उसी सत्य-स्वरुप के अनुरूप जीवन व्यतीत करने से , हम केवल स्वयं उन्नत मनुष्य नहीं बन कर दूसरों भी उन्नत मनुष्य बनने में सहायता करने में सक्षम हो जायेंगे। जब तक यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा सम्पूर्ण भारत में नहीं दी जाएगी , तब तक समाज में आमूलचूल परिवर्तन नहीं लाया जा सकेगा। इसीलिए आधुनिक युग के प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयनबी-(Arnold Toynbee) बहुत सुंदर कहा है - " सामाजिक अवस्था  में परिवर्तन केवल Creative Minority के द्वारा ही लाया जा सकता है। और यह जो 'रचनात्मक अल्पसंख्यक' श्रेणी के व्यक्ति होंगे या (देवतुल्य मनुष्य) होंगे या 'Creative Minority Category' के लोग होंगे इनकी संख्या कभी भी हजारो-हजार और लाखों में नहीं होगी। खूनी क्रांति या सत्ता-परिवर्तन की सम्पूर्ण -क्रांति करने के लिए जिस प्रकार हजारों -हजार लोगों की आवश्यकता होती है , उतने लोग नहीं होंगे - बल्कि 'Creative Minority' होगी। किन्तु हमारे देश में धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों (मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन) के हितों की रक्षा और संरक्षण के लिए जो  राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (National Commission for Minorities - NCM) बनाई गयी है। उसके विषय में कहने पर संकोच हो रहा है कि उसमें श्रीरामकृष्ण मिशन के स्कूल को भी अल्प-संख्यक वर्ग का स्कूल कहा गया था। (30:41) जबकि श्रीरामकृष्ण तो हमारे युग में आये हैं। मैंने ऐसे लोगों को देखा है, जिन्होंने श्रीरामकृष्ण को देखा है। जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द को देखा है, ऐसे मनुष्य को मैंने देखा है। जिन्होंने श्री श्री सारदा देवी को देखा है , ऐसे मनुष्य को देखा हूँ। वे लोग भी तो हम जैसे साधारण लोग ही थे , और बहुत ज्यादा शिक्षा भी प्राप्त नहीं किये थे। स्वामी विवेकानंद जी ने B.A. पास किया था किन्तु कोई बहुत उच्च डिग्री प्राप्त नहीं थी। लेकिन सुंदर जीवन कैसा होता है ? जीवन-गठन कैसे किया जाता है ? मनुष्य जीवन को सार्थक कैसे किया जाता है ? उनके आदर्श जीवन को हमलोग यदि मन ही मन थोड़ा स्मरण करें, थोड़ा -थोड़ा भी अनुसरण करने की चेष्टा करें , तो हमलोगों का जीवन भी अत्यंत सुंदर ढंग से गठित हो जायेगा। श्रीरामकृष्ण देव की विवेक-दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) में जीव-जगत और ईश्वर को लेकर कोई भेद-बुद्धि नहीं थी। इसी भेदबुद्धि को मिटाने के लिए श्रीरामकृष्ण देव ने अपने सिर के बालों से एक मेहतर के घर के पैखाना साफ़ कर दिया था। स्वामी जी बड़े आनंद के साथ कहा करते थे कि श्रीरामकृष्ण के जीवन में दूसरों मनुष्यों के साथ ही नहीं, जड़ सृष्टि घास के साथ भी बिल्कुल अभिन्न -बोध करने के उदाहरण देखे जा सकते हैं। एक बार कोई व्यक्ति उनके कमरे के सामने वाले हरी -हरी घांस को रौंदता हुआ चला गया , तो उस घांस की यंत्रणा का अनुभव कर उनकी छाती 6 घंटों तक लाल हो गयी थी। श्रीरामकृष्ण समस्त जीव-जगत और ईश्वर के साथ एकत्व की अनुभूति कर सकते थे। इस सार्वभौमिक एकत्व की अनुभूति की बात हम कोई पुस्तक पढ़कर नहीं बोल रहे हैं , कोई शास्त्र की बात नहीं पढ़ रहे हैं , ये महापुरुष हमारी आँखों के समक्ष हुए थे , ऐसा कहा जा सकता है। उसी प्रकार स्वामी जी के जीवन में हम क्या देखते हैं ? उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन मानवता के कल्याण में न्योछावर कर दिया था। हमारे देश के अत्यंत प्राचीन ग्रन्थ में , वेद में इस बात का उल्लेख देखने को मिलता है। किन्तु हमलोग वेदों -उपनिषदों के उन श्लोकों को नहीं जानते हैं। (31:57) वेदों में कहा गया है 'अमृतम् न वृणीत', इस उक्ति को स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन से दिखाया था। विश्व के इतिहास में बहुत से लोग ऐसे हुए हैं जो सत्य को जानने के लिए या ईश्वर-लाभ करने के लिए मृत्यु का वरण करने के लिए भी प्रस्तुत रहते थे। किन्तु कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो -'प्रजा एकं अमृतम् ना वृणीत' जो प्रजा वर्ग के लिए अर्थात मानव-समाज के कल्याण के लिए अपने अमृतत्व को यानि अपनी मुक्ति या मोक्ष तक इच्छा को भी तुच्छ समझकर त्याग कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था मेरी मुक्ति की इच्छा 14 जन्मों तक के लिए मर चुकी है। ऐसी बात कौन कह सकता है !

   यही बात स्वामी जी के जैसा भक्त प्रह्लाद ने भी कहा था। नारायण ने जब नृसिंह अवतार लेकर हिरण्य कशिपु का वध कर दिया। तब हिरण्यकशिपु के वध के बाद भी भगवान अत्यंत क्रोधित ही रहे। उनका क्रोध शांत ही नहीं हो रहा था। तो देवता लोग बड़े भयभीत होगये। उन्होंने उनको शांत करने का बहुत प्रयत्न किया पर जब वे शांत नहीं तो उन्होंने लक्ष्मी देवी से कहा माँ आप उनके क्रोध को शांत कर दीजिये। किन्तु वे भी भगवान नृसिंहदेव के समक्ष जाने का साहस नहीं कर सकीं। तब ब्रह्माजी ने बालक प्रह्लाद से कहा कि वे आगे बढ़कर भगवान का क्रोध शांत करें। प्रह्लाद महाराज अपने स्वामी भगवान नृसिंहदेव के स्नेह में पूर्णतः आश्वस्त थे, इसलिए उन्हें तनिक भी भय नहीं हुआ। वे अत्यंत गंभीर भाव से भगवान के चरणकमलों के समक्ष प्रकट हुए और उन्हें सादर प्रणाम किया।  भगवान नृसिंहदेव ने भक्त प्रह्लाद से वर माँगने के लिए कहा। उसके उत्तर में प्रह्लाद ने 40 श्लोकों में जो कहा है , वो पूरे वेदांत का सार है। भगवान ने बहुत जिद किया तुम कुछ मांगों मैं तुम्हें सबकुछ दूंगा। भक्त प्रह्लाद ने कहा मेरी कुछ पाने की इच्छा ही नहीं है। तब भगवान ने कहा तुम मुक्ति -मोक्ष माँग लो। प्रह्लाद जी ने कहा छिः मुक्ति मैं मुक्ति माँगूगा ? मेरा मन आपकी उन लीलाओं के गान में मग्न रहता है, जो स्वर्गीय अमृत को भी तिरस्कृत करनेवाली -परम् अमृत स्वरुप है।  (साभार https://vedabase.io/en/library/sb/7/9/44/)

प्रायेण देव मुनय: स्वविमुक्तिकामा

मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा: ।

नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एको

नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥ ४४ ॥

[ प्रयेण - सामान्यतः, लगभग सभी मामलों में ; देव - हे मेरे प्रभु ; मुनयः - महान संत पुरुष ; स्व - व्यक्तिगत, अपना ; विमुक्ति - कामः - इस भौतिक संसार से मुक्ति के लिए महत्वाकांक्षी ; मौनम् - चुपचाप ; चरन्ति - वे (हिमालय के पहाड़ों ,जंगलों आदि स्थानों में, जहाँ सांसारिक गति-विधियों से उनका  कोई संपर्क नहीं रहता) विचरण करते हैं ; विजने - एकांत स्थानों में ; न - नहीं ;  न परार्थनिष्ठा: न - पर - अर्थ - निष्ठाः -दूसरों को कृष्णभावनामृत आंदोलन का लाभ देकर, उन्हें कृष्णभावनामृत से प्रबुद्ध करके उनके लिए काम करने में रुचि रखते हैं।

[ na — not; para-artha-niṣṭhāḥ — interested in working for others by giving them the benefit of the Kṛṣṇa consciousness movement, by enlightening them with Kṛṣṇa consciousness;  हमारे लिए 'Be and Make'-आंदोलन  विवेक-दृष्टि सम्पन्न मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलनअर्थात 3H विकास के 5 अभ्यास में प्रबुद्ध/प्रशिक्षित करके उन्हें विवेकी-मनुष्य (या प्रबुद्ध मनुष्य :enlightened man) बनने के लिए उनकी सहायता करने के काम में रुचि नहीं रखते हैं] ;

एतान् - इन्हें ; कृपणान् मूढ़ और शठ (लोग जो अत्यंत दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त होने के महत्व को नहीं समझते, और संसार में या कामिनी-कांचन -कीर्ति तीन ऐषणाओं में डूबे रहते हैं।) विहाय - छोड़कर ; एकः – अकेले ; न – नहीं;  विमुमुक्षे – मैं मुक्त होना चाहता हूँ और भगवान के पास वापस जाना चाहता हूँ ;  अन्यम् – अन्य ; त्वत् – आपके अतिरिक्त ; अस्य – इसका ; शरणम् – आश्रय ; भ्रमतः – भौतिक ब्रह्माण्डों में घूमते और विचरण करते हुए जीवात्मा का ; अनुपश्ये – देखता हूँ ।

हे भगवान नृसिंहदेव, मैं देखता हूँ कि वास्तव में अनेक साधु-सन्त हैं, किन्तु वे केवल अपनी मुक्ति  में ही रुचि रखते हैं। बड़े शहरों या कस्बों में रहने वाले मनुष्यों की परवाह न करते हुए,  ध्यान करने के लिए, मौन व्रत धारण करके वे हिमालय पहाड़ पर या वन में चले जाते हैं। वे दूसरों को भी विवेक-दृष्टि सम्पन्न मनुष्य बनकर आत्मानुसंधान करने के लिए उन्हें भी प्रेरित करने में रुचि नहीं रखते। किन्तु, जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं इन बेचारे मूर्खों और शठों को छोड़कर, अकेले मुक्ति नहीं चाहता। मैं जानता हूँ कि कृष्णभावनामृत के बिना, आपके (ठाकुरदेव के)  चरणकमलों में शरण लिए बिना, कोई सुखी नहीं हो सकता। (मनुष्य बनने और बनाने के लिए भगवान श्रीरामकृष्ण देव, ज्ञानदायिनी माँ सारदा देवी और बड़े भाई स्वामी विवेकानन्द के चरणकमलों में शरण लिए बिना- कोई भी व्यक्ति 'विवेकी-दृष्टि सम्पन्न मनुष्य' नहीं बन सकता।) इसलिए मैं उन्हें आपके (अवतार वरिष्ठ के)  चरणकमलों की शरण में वापस लाना चाहता हूँ

My dear Lord Nṛsiṁhadeva, I see that there are many saintly persons indeed, but they are interested only in their own deliverance. Not caring for the big cities and towns, they go to the Himālayas or the forest to meditate with vows of silence [mauna-vrata]. They are not interested in delivering others. As for me, however, I do not wish to be liberated alone, leaving aside all these poor fools and rascals. I know that without Kṛṣṇa consciousness, without taking shelter of Your lotus feet, one cannot be happy. Therefore I wish to bring them back to shelter at Your lotus feet.

मैं तो उन मूढ़ प्राणियों के लिए शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगान से विमुख रहकर इन्द्रियों के विषयों का मिथ्या सुख प्राप्त करने के लिए (या नामयश पाने के लिए) अपने सिर पर सारे संसार का भार ढोते रहते हैं। हे भगवान नृसिंहदेव, बड़े बड़े ऋषि- मुनि तो केवल अपनी मुक्ति में ही रूचि रखते हैं। और मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा: अपनी मुक्ति के लिए निर्जन वन में जाकर मौन व्रत धारण कर लेते हैं। वे दूसरों की मुक्ति के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। लेकिन दूसरों की मुक्ति के लिए प्रयत्न करते रहना सबसे बड़ी बात है।

 इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने (मैसूर राजा को 3 जून, 1894 को लिखित पत्र में) एक अद्भुत बात कही थी - " This life is short, the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive." (34:01) स्वामी जी कहते हैं यह जीवन बहुत छोटा है , सीमित है। और भोगों के जितने विषय हैं वे पहाड़ से ऊँचे हैं। परन्तु वे सब इस नश्वर शरीर के साथ नष्ट हो जायेंगे। यहोगा थार्थ जीवन के अधिकारी वे ही हैं जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। और जो दूसरों की परवाह नहीं कर अपने लिए ही जीते है , वे मृत से भी अधम हैं। क्या हमलोग मृत से भी अधम बने रहेंगे ? किसी के बारे में विचार नहीं करेंगे ? किसी के भी दुःख को अपने दुःख के जैसा अनुभव नहीं करेंगे ? कितने शिशु अपोषण का शिकार हो रहे हैं। गाँव में कितने कष्ट का जीवन बिता रहे हैं। अस्पताल में उचित चिकित्सा सेवा की व्यवस्था नहीं है। डॉक्टर लोग सलाह देते हैं कि आप घर में रखकर ही सेवा कीजिये। हमलोग दूसरों के बारे में कुछ सोचना नहीं चाहते हैं , केवल अपने स्वार्थ को पूरा करने में जुटे रहते हैं। हमलोगो को जीवन गठन के उच्च विचारों को सुनना होगा, सुनकर के मनन करना होगा, फिर ग्रहण करना होगा, उन्हें अपने जीवन में रूपायित करना होगा। (35 :36) यदि वेदांत के सिद्धांत, विचार या महावाक्य जीवन में रूपातीत नहीं हुए , उन विचारों को दैनंदिन जीवन के व्यवहार में नहीं ला सके, हम यदि विवेक-दृष्टि से जगत को ब्रह्ममय देखकर इसकी सेवा नहीं कर सके, तो केवल शास्त्रों के अध्यन से कोई लाभ नहीं होगा। 

     कहा गया है -"शास्त्र सुचिंतित अपि प्रतिचिन्तनीयं।" भली भांति अध्ययन किये हुये शास्त्रो को भी बार बार अध्ययन करते रहना चाहिये । केवल शास्त्र (और गुरु) के शब्दों को पढ़ना (श्रवण करना) ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनमें वर्णित ज्ञान को आचरण उतार लेना (जगत को ब्रह्ममय देखकर उसकी सेवा करना) भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

  "यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान्" का अर्थ है कि केवल शास्त्र का अध्यन करना ही पर्याप्त नहीं है; जो व्यक्ति ज्ञान को व्यवहार में लाता है, वही वास्तव में विद्वान है। शास्त्र को पढ़कर बार बार उसका मनन और निदिध्यासन करना होता है , तब वह ज्ञान जीवन में रूपायित होता है। यदि शास्त्र ज्ञान दैनंदिन जीवन के व्यवहार में नहीं उतरा , तो उस ज्ञान का क्या लाभ ? जिस प्रकार केवल औषधि का नाम जानना ही रोगी को ठीक नहीं कर सकता, बल्कि उसका सेवन करना आवश्यक है। 

यदि किसी व्यक्ति ने बहुत से शास्त्रों का अध्यन तो कर लिया है, किन्तु शास्त्र ज्ञान यदि उसके आचरण में नहीं दिखाई देता , शास्त्र के ज्ञान का प्रयोग अगर जीवन में नहीं दिखाई देता हो उस अध्यन का क्या लाभ?    

शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः 

यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ।

सुचिन्तितं चौषधामातुराणाम् 

न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ।।

शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी लोग मूर्ख रह जाते हैं, लेकिन जो शास्त्रों को पढ़ कर अपने जीवन में उनका अनुकरण करते हैं वही विद्वान हैं । जैसे रोग दूर करने के लिए दवा की अच्छी जानकारी होना या दवा का नाम ले लेना पर्याप्त नही अपितु दवा का नियमित सेवन करना आवश्यक एवम् लाभदायक होता है।

वेद उपनिषदों में बहुत सी अच्छी बातें कही गयीं हैं , किन्तु ज्ञान यदि जीवन में नहीं उतरा तो क्या लाभ ? इसलिए श्रीरामकृष्ण कहा करते थे - " पंचांग में लिखा हुआ है, 20 आना वृष्टि होगी, किन्तु पंचांग को निचोड़ने से एक बून्द जल भी नहीं गिरेगा। " शास्त्रों में बहुत अच्छी अच्छी बातें लिखी हैं, उनको पढ़कर हम लेख लिखते हैं , पुस्तक लिख देते हैं ,चारों ओर भाषण देते हैं। किन्तु हमारे जीवन को देखने से, यही दिखाई देता है कि भाषण में जो बातें कहता हूँ वे हमारे आचरण में दिखाई नहीं पड़ते। (37:00) इसलिए हमलोगों जीवन-गठन पर सबसे अधिक ध्यान देना होगा। सुंदर जीवन कैसे गठित किया जा सकता है ? हम अपने शरीर को स्वस्थ , शक्तिशाली , निरोग और कर्मठ कैसे बनाएंगे -इसका प्रयत्न करना होगा। उसी के साथ-साथ मन में कैसे पवित्र विचार, सुंदर भाव , कल्याण कारी विचार, मंगलदायी भाव , अपने मन में बनाये रखने का प्रयास करना होगा। हमारे देश पहले सतशास्त्रों का ज्ञान (रामायण -महाभारत का ज्ञान घर में) बचपन से ही दिया जाता था। आजकल यह बंद हो गया है। रूस का नाम जब USSR था उस समय वहाँ मॉस्को के Children's theatre' में 25 वर्षों तक लगातार रामायण , महाभारत का मंचन किया जाता था। जो संस्था यह मंचन किया करता था , उससे पूछा गया आपलोग इसका मंचन वहां क्यों कर रहे हैं ? उन्होंने कहा था क्या रामायण -महाभारत सिर्फ भारत के लिए है ? ये पूरे विश्व की , सम्पूर्ण मानवजाति की विरासत है। और यदि बच्चों को यह शिक्षा न दी जाये तो , वे मनुष्य कैसे बनेंगे ? ये बात कम्युनिस्ट रूस के एक अधिकारी ने कहा था। किन्तु हमारे देश में रामायण , गीता, महाभारत स्कूल -कॉलेज में पढ़ाने की कोई व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में जो दुरावस्था शिक्षा की हुई है , वही संगीत की हुई है , वही भारतीय नृत्य आदि की भी हुई है। कला के नाम पर जो प्रस्तुत किया जाता है , उसे देखना -सुनना असम्भव हो गया है। हमलोग शास्त्रीय संगीत-नृत्य कला की गहराई को नहीं समझते हैं। एक समय हमारे यहाँ की कला-संस्कृति बहुत उन्नत हुई थी। शास्त्र , संगीत और शिक्षा -विद्या की एक ही दुरावस्था हो गयी है। 

    इनदिनों अंग्रेजी भाषा को लेकर विशेष कर बंगाल में, तथा भारत के अन्य स्थानों पर जहाँ कहीं भी मैं जाता हूँ , विश्वविद्यालय में भी कहते हैं कि अंग्रेजी में कहने से कोई नहीं समझेगा , आप हिंदी में बोलिये। अन्य स्थानों में भी अंग्रेजी की अवस्था अच्छी नहीं है , किंतु विशेषकर कोलकाता विश्वविद्यालय लेकर जितनी भी नई नई संस्थाएं खुली हैं, कल ही एक संस्था खुली है वैसे छात्रों के लिए जिन्होंने डॉक्टरी या इंजीनियरिंग पास की है, वे उनको अंग्रेजी बोलना सिखाएंगे। (39:05)  -कोलकाता में वैसे अंग्रेजी शिक्षा देने वाले अनेकों संस्थाएं हैं। किसी जानकार व्यक्ति ने बताया कि वहाँ जो लोग सिखाते हैं वे स्वयं ही अंग्रेजी नहीं जानते तो सिखायेंगे क्या ? कोलकाता या अन्य स्थानों में शिक्षा की ऐसी दुरावस्था क्यों हो गयी है ? पहले तो ऐसी अवस्था नहीं थी। किन्तु अंग्रेजी सीखना होगा क्योंकि अब ऐसी मान्यता हो गयी है कि अंग्रेजी  International language बन गया है। अंग्रेजी कभी भी भारत के आम जनों की भाषा नहीं थी। अभी जापान में भी अंग्रेजी सीखने की तीव्र चेष्टा हो रही है। लेकिन जो चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा अत्यंत प्रयोजनीय है ,उसकी शिक्षा देने का प्रयास नहीं हो रहा है। अभी हाल में केंद्रीय विश्व-विद्यालय से प्रोफेर्स और psychologist का एक Team वे लोग 4 वर्षों से 50 से अधिक स्कूल -कॉलेजों में अन्वेषण करके देखे हैं कि लड़के-लड़कियों को एक साथ पढ़ाने में कठिनाई पर कहे हैं , उनको क्लास में एक-साथ बैठाने से जैसी पढ़ाई होनी चाहिए वैसी हो नहीं पाती है। देश की राजधानी दिल्ली तो है ही किन्तु दूसरी राजधानी के जैसा कोलकाता का अलग नियम चल रहा है। हाल में  जापान में भी ट्रेन में ladies compartment' बनाना पड़ा है। वहाँ भी देखा गया है कि नारी और पुरुषों को एक साथ बैठकर यात्रा करना सुरक्षित नहीं है। ऐसा क्यों हो रहा है ? हमारे देश में मनु सहिंता में तथा अन्य शास्त्रों में भी लड़के- लड़कियों को एक समान नहीं माना गया है। लेकिन पाश्चात्य देशों में एक सामान नहीं बल्कि 'Women Lib' की बात की जाती है, अर्थात स्त्रियों को liberated कर देना होगा , उनको मुक्त करना होगा। स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका गए थे तो वहाँ स्त्रियों की स्वंत्रता अच्छी प्रतीत हुई थी, और सोंचे थे कि अपने देश में भी स्त्रियों को पुरुषों के सामान बनाना चाहिए। (40:59) किन्तु हमारे देश में लड़कियों को एक समान बनाने की बात नहीं करके लड़कियों को मानों उच्छृंखल (licentious) बनने की छूट दी गयी हो । ऐसा क्यों हो रहा है ? यथार्थ शिक्षा (मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा) के अभाव में ऐसा हो रहा है। जहाँ तक मुझे बोध है , उसके अनुसार भारत में कभी भी, किसी भी युग में स्त्री -पुरुष को एक समान नहीं कहा गया है। हमारे यहाँ स्त्रियों का स्थान पुरुष से ऊपर माना गया है। स्त्रियाँ पूर्ण पूज्या हैं। पुरुष ने हमेशा अपूर्णता का ही दिग्दर्शन किया है। (41:28) श्री रामकृष्ण की विवाहिता पत्नी सारदा देवी उस समय 19 वर्ष की थीं वे श्रीरामकृष्ण के साथ एक कमरे में एक महीने तक रही थीं। किसी तरह की सम्पर्क नहीं देखि गयी , बीच -बीच में श्री रामकृष्ण को समाधि हो जाती थी तो उनको भय होता था। एक दिन ऐसा होने पर माँ ने कहा जब आपकी अवस्था ऐसी हो तू तुम ये शब्द उच्चारित करना डरना नहीं। और भारतीय इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जब ज्येष्ठ मास की फलहारिणी काली पूजा के रात्रि में अपने भगना ह्रदय को बोले कि आज मेरे कमरे में काली पूजा की व्यवस्था कर देना। पूजा का सब इंतजाम करने के बाद ह्रदय ने कहा पूजा के लिए एक प्रतिमा की लाने की आवश्यकता तो होगी ही। ठाकुरदेव ने कहा नहीं प्रतिमा की आवश्यकता नहीं है , प्रतिमा बैठाने के लिए एक पीढ़ी मँगा लेना। पूजा करने का समय हुआ तब श्री सारदा देवी पीढ़ी पर बैठाकर जगतजननी, जगन्माता बोलकर पूजा किये। जप की माला अर्पित कर पूजा किये। और स्तवपाठ किये - 

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। 

शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।

गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

ॐ शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे । 

सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ 

(श्री दुर्गासप्तशती एकादश अध्याय:१०,११, १२श्लोक)    

मायायै सिद्धयोगिन्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः।

 सारायै सारदायै च परादेव्यै नमो नमः॥६१॥

बालाधिष्ठातृदेव्यै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः। 

कल्याणदायै कल्याण्यै फलदायै च कर्मणाम्॥६२॥

परमेश शक्ति माया, सिद्धयोगिनी षष्ठी देवी, सारा (सार तत्त्व), सारदा (सार देने वाली), परादेवी, बालकों की अधिष्ठात्री, कल्याणी, कल्याण देने वाली, कर्मों का फल देने वाली माँ सारदा देवी को बारम्बार नमस्कार है। (श्रीमद् देवी भागवत पुराण, स्कन्ध ९, अध्याय ३८)

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["इस प्रपंचमय जगत में मनुष्य-योनि उच्चतम है। वेदान्ती कहता है मानव देवता से भी ऊँचा है। समस्त देवताओं को एक न एक दिन मरना ही होगा और पुनः मनुष्य शरीर में जन्म लेना होगा - केवल मनुष्य शरीर में ही वे पूर्णत्व लाभ कर सकेंगे। (वेदान्त दर्शन-2, पेज -73, खण्ड -9) Man-manifestation is the highest in the phenomenal world. The Vedantist says he is higher than the Devas. The gods will all have to die and will become men again, and in the man-body alone they will become perfect." (On The Vedanta Philosophy/ Volume -5, page - 284) )] 

जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता 

तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता  विद्वत्त्वमस्मात्परम्। 

आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति- 

र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते।। 2 ।।

जीवों को प्रथम तो नरजन्म ही दुर्लभ है, उससे भी पुरुषत्व और उससे भी ब्राह्मणत्वका मिलना कठिन है; ब्राह्मण होने से भी वैदिक धर्मका अनुगामी होना और उससे भी विद्वत्ताका होना कठिन है। (यह सब कुछ होने पर भी) आत्मा और अनात्माका विवेक सम्यक् अनुभव –ब्रह्मात्मभाव से स्थिति और मुक्ति-ये तो करोड़ों जन्मों में किये हुए शुभ कर्मों के परिपाकके बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते।                                                 

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु (Hand :स्थूल शरीर) पर होने से भौतिक उन्नति होती है , विचार पर होने से (Head :मन पर) होने से बुद्धि का विकास होता है , और 'अपने स्व '(Heart) पर ही होने से मनुष्य का (3H विकसित होकर ) ईश्वर बन जाता है।" 

[First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto. Say not man is a sinner. Tell him that he is a God. Even if there were a devil, it would be our duty to remember God always, and not the devil.] 

  पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात  दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे। 'बनो और बनाओ' यही हमारा मूल-मंत्र रहे। " First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto." ऐसा न कहो कि मनुष्य पापी है। उसे यह बताओ कि तू ब्रह्म है। यदि कोई शैतान हो, तो भी हमारा कर्तव्य यही है कि हम ब्रह्म का ही स्मरण करें, शैतान का नहीं। हमें यह समझ लेना चाहिए कि जो कुछ भी नकारात्मक (negative) है, विध्वंशकारक (destructive) है और जो केवल छिद्रान्वेषण (criticism) है, उसका अंत अवश्यम्भावी है; और जो सकारात्मक, सत्यात्मक (affirmative) और रचनात्मक है, वही अमर है और वही सदा रहेगा। हम यही कहें -"We are" and "God is" and "We are God !" " हम हैं" और "ईश्वर हैं" और " हम ईश्वर हैं !" चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ कहते हुए आगे बढ़ते चलो। आत्मा की शक्ति का विकास करो, और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो और जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी।  (Bring forth the power of the spirit, and pour it over the length and breadth of India; and all that is necessary will come by itself. ) अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को प्रकट करो, उसके चारों ओर सब कुछ समन्वित होकर विन्यस्त हो जायेगा।  वेदों में बताये हुए इन्द्र और विरोचन के उदाहरण को स्मरण रखो। दोनों को अपने ब्रह्मत्व का बोध कराया गया था, परन्तु असुर विरोचन अपनी देह को ही ब्रह्म मान बैठा। इन्द्र तो देवता थे, वे समझ गए कि वास्तव में आत्मा ही ब्रह्म है। तुम तो इन्द्र की सन्तान हो। तुम देवताओं के वंशज हो। जड़ पदार्थ (शरीर) तुम्हारा ईश्वर कदापि नहीं हो सकता; शरीर तुम्हारा ईश्वर कभी नहीं हो सकता। ऐसा मत कहो कि हम दुर्बल हैं, कमजोर हैं। आत्मा सर्वशक्तिमान है। श्री रामकृष्ण के चरणों के दैवी स्पर्श से जिनका अभ्युदय हुआ है, उन मुट्ठी भर नवयुवकों की ओर देखो। उन्होंने उनके उपदेशों का प्रचार आसाम से सिंध तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक कर डाला।" (९/३७९-३८०)

दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत् 

देहबुद्धया तु दासोऽहं  जीवबुद्धया त्वदंशक

आत्मबुद्धया  त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥ 

ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए, देहबुद्धिसे तो मैं दास हूँ, जीवबुद्धिसे आपका अंश ही हूँ और  आत्मबुद्धिसे में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥  

आदमी की तरक़्क़ी 

(मनुष्य का क्रमविकास:evolution of man

बेजान खनिजों से मर गया, पौधा बन गया

फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया

हैवानों से मर गया और आदमी हो गया

डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?

अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ

ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ

और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना

कि सिवा उस के हर शै को फ़ना हो जाना

एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा

फिर जो सोच में नहीं आता, वो हो जाऊँगा

[Education is the manifestation of the perfection already in man. Religion is the manifestation of the Divinity already in man. Therefore the only duty of the teacher in both cases is to remove all obstructions from the way. Hands off! as I always say, and everything will be right. That is, our duty is to clear the way. The Lord does the rest. (Letter Written to “Kidi” on March 3, 1894)  

[मनोलय के बिना अद्वैत ज्ञान संभव नहीं। मन का प्राण में लय होना और -'सर्वं खलु इदं ब्रह्म' के बोध में जीवन का सहज स्थिर होना ही मुक्ति है। (लेकिन जब तक शरीर है, यह शक्ति का राज्य है , यहाँ निरंतर शक्ति की प्रार्थना और शरण में ही रहना है।

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