Tuesday, October 28, 2025

परमात्मा के ज्ञान का फल है- 'कृतकृत्यता'! " "स्वामी शुद्धिदानंद द्वारा भगवद गीता का पन्द्रहवाँ अध्याय : पुरूषोत्तम योग (सत्र-1): https://www.sadhanapath.in/search?updated-max=2025-06-02T06:00:00%2B05:30&max-results=7&start=133&by-date=false// https://shlokam.org/texts/vivekachudamani-4-7/

"जाग्रत अवस्था भी एक सपना है, इसको पहचानना ही उस सपने का टूटना है ! 

“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”


Purushottama Yoga of Bhagavad Gita by Swami Shuddhidananda (Session-1)(1:35:54)

 >>श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता के पन्द्रहवें अध्याय का महत्व 

1. पूरे गीता तथा इसके पन्द्रहवें अध्याय का मुख्य विषय है- 'भगवत तत्व का ज्ञान'!  

     देखिये जब भी हम ईश्वर की बात करते हैं , हमारे मन में कई प्रकार की कल्पनायें आती हैं। हर व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार भगवान के विभिन्न रूपों की कल्पना करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन भगवान का एक तात्विक स्वरुप है -जो हमारी कल्पना के परे है। आप ईश्वर को इस रूप (देवी रूप) में देखिये या उस रूप (देव रूप) में देखिये , ये ठीक है। लेकिन गीता के इस पन्द्रहवें अध्याय का मुख्य उद्देश्य है ईश्वर तात्त्विक दृष्टि से जैसा है, ठीक उसी रूप में उस भगवत-तत्त्व का ज्ञान या समझ प्रदान करना । तो पन्द्रहवें अध्याय का मुख्य विषय क्या हुआ ?इस पन्द्रहवें अध्याय का तथा पूरे गीता शास्त्र का मुख्य विषय है 'भगवत तत्व', या ईश्वर का तात्विक ज्ञान प्रदान करना। भगवान शंकराचार्यजी गीता पर लिखित अपने पन्द्रहवें अध्याय के भाष्य में कहते हैं, गीता के इस 15 वें अध्याय का उद्देश्य है 'भगवत तत्व ज्ञानं' और उस ज्ञान का फल है -मोक्ष! ईश्वर तत्व का ज्ञान होने से जीव मुक्ति को प्राप्त करता है, मोक्ष को प्राप्त करता है। [भगवत तत्व ज्ञानं मोक्ष फलं।] इसीलिए सम्पूर्ण भगवत गीता को ही शास्त्र या मोक्ष शास्त्र कहा गया है। शास्त्र का मतलब क्या है ? (3:03) 

 2. अध्यात्म विज्ञान (Spiritual Science) से जुड़े कुछ पारिभाषिक शब्द 

  " स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा " या गीता का स्वाध्याय का आरम्भ करने से पहले, हमारे लिए 'Spiritual Science', अध्यात्म विज्ञान या विशेष विद्या से सम्बन्धित कुछ 'Technical terms' या पारिभाषिक शब्दों - जैसे शास्त्र और गुरु, श्रद्धा और विवेक आदि शब्दों के अर्थ पर चिंतन कर लें ; तो हमलोगों को " स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा " का फल है  'कृतकृत्यता'! इस बात को समझने में आसानी होगी। अर्थात गीता के पन्द्रहवें अध्याय का मनुष्य जवन में क्या महत्व है, वो  समझने में आसानी होगी।    

(i) शास्त्र और गुरु, श्रद्धा और विवेक  क्या हैं   

>>शास्त्र और गुरु (नेता) की परिभाषा 

गीता को अज्ञान के बंधन से मुक्ति का शास्त्र कहा गया है, तो 'शास्त्र' शब्द का अर्थ क्या होता है? शास्त्र की परिभाषा क्या है ? शास्त्र की एक परिभाषा है -'अज्ञात ज्ञापकं शास्त्रम्।' -अर्थात  जो हमें अज्ञात तत्व का ज्ञान करा दे उसको शास्त्र और गुरु कहते हैं। और सत्य का ज्ञान हमें प्राप्त कैसे होता है ?                    

 सत्य दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार का सत्य वह है जिसको हम अपने मन-बुद्धि और पाँच इन्द्रियों के माध्यम से देखते समझते हैं। हम अपनी पाँच इन्द्रियों के द्वारा जगत की वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जैसे इन आँखों से मैं आपको देख रहा हूँ, आप मुझे देख रहे हैं। इस  विश्वप्रपंच को हम अपनी आँखों से देख रहे हैं। यह एक प्रकार का ज्ञान है, जिसको हमलोग इन्द्रिय ज्ञान या विज्ञान कहते हैं। जैसे सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण किस तिथि को और कितने बजे होगा यह हमलोग जान लेते हैं; क्योंकि ये पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड इन्द्रियगोचर है। 

     लेकिन दूसरा एक इन्द्रियातीत सत्य, अतीन्द्रिय सत्य भी होता है उस अतीन्द्रिय सत्य का ज्ञान ; या हम जिसे यहाँ 'भगवत-तत्व ज्ञान' या ईश्वर के तात्त्विक ज्ञान कह रहे हैं, वह तात्विक ज्ञान इन्द्रियगोचर नहीं है। और जो हमें उस अतीन्द्रिय सत्य का भी ज्ञान करवा दे उसे शास्त्र और गुरु या 'नेता' कहते हैं। क्योंकि उस अतीन्द्रिय सत्ता -भगवत-तत्व, या सच्चिदानन्द परब्रह्म प्रभु परमेश्वर की का ज्ञान हमें केवल शास्त्र और गुरु (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) के माध्यम से ही प्राप्त हो सकता है। उस अतीन्द्रिय सत्य का ज्ञान प्राप्त करने का, शास्त्र और गुरु के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है। (हमलोगों को कोई अगर क-ख -ग़ -घ लिखना और बोलना नहीं सिखाता तो क्या हम स्वयं लिखना-पढ़ना सीख सकते थे ?) 

भारत सरकार के द्वारा घोषित राष्ट्रीय युवा आदर्श हैं-स्वामी विवेकानन्द ! इसलिए वे भारत के समस्त युवाओं के, या कहिये समस्त युवा हृदय व्यक्तियों के लिए एक 'मार्गदर्शक नेता' या गुरु के समान है। विष्णु-सहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम भी -'नेता' ही है! इसलिए हमारे युवा नेता स्वामी विवेकानन्द 'सत्य' के विषय में हमारा 'मार्गदर्शन' करते हुए कहते हैं - 

" सत्य के दो भेद हैं : पहला, जो मनुष्य के पंचेन्द्रियों से एवं उन पर आधारित तर्कों से ग्रहण किया जाय, और दूसरा, जो अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति द्वारा ग्रहण किया जाय।

          इन्द्रियों के द्वारा संकलित ज्ञान को 'विज्ञान' कहते हैं और दूसरे प्रकार से -अर्थात सूक्ष्म योगज शक्ति द्वारा संकलित ज्ञान को 'वेद' कहते हैं। यह अतीन्द्रिय योगज शक्ति, जिनमें आविर्भूत अथवा प्रकाशित होती है, उनका नाम ऋषि है , और उस शक्ति के द्वारा वे जिस 'इन्द्रियातीत सत्य' (अलौकिक सत्य) की उपलब्धि करते हैं, उसका नाम 'वेद' है।  

      अनादि अनंत अलौकिक 'वेद' नामधारी ज्ञानराशि (चार महावाक्य) सदा विद्यमान है। सृष्टिकर्ता ( ईश्वर ,परमात्मा, परब्रह्म परमेश्वर, सच्चिदानन्द) स्वयं इसी (वेद) की सहायता से इस जगत की सृष्टि, स्थिति और उसका नाश करता है। " (हिन्दू धर्म और श्रीरामकृष्ण : १०/१३९) 

[Truth is of two kinds: (1) that which is cognisable by the five ordinary senses of man, and by reasonings based thereon; (2) that which is cognisable by the subtle, supersensuous power of Yoga.

Knowledge acquired by the first means is called science; and knowledge acquired by the second is called the Vedas.

The person in whom this supersensuous power is manifested is called a Rishi, and the supersensuous truths which he realises by this power are called the Vedas.

The whole body of supersensuous truths, having no beginning or end, and called by the name of the Vedas, is ever-existent. The Creator Himself is creating, preserving, and destroying the universe with the help of these truths.(Hinduism and Sri Ramakrishna :6/181)]  

      इसीलिए भगवान शंकराचार्य जी शास्त्र की एक दूसरी परिभाषा देते हुए कहते हैं - "प्रत्यक्ष अनुमानाभ्यां अनवगत इष्ट-प्राप्ति -अनिष्ट-परिहारयोः अलौकिकं उपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः।" अर्थात् इष्ट वस्तु की प्राप्ति और अनिष्ट वस्तु का त्याग करने के अलौकिक उपाय जो ग्रन्थ सिखलाता है, उसको वेद (शास्त्र) कहते हैं। अर्थात जिस तत्व को हम प्रत्यक्ष और अनुमान से भी समझ नहीं सकते, प्रत्यक्ष ज्ञान यानि जिस वस्तु को हम इन्द्रियों से नहीं जान सकते; या अनुमान के द्वारा भी समझ नहीं सकते, उस वस्तु का भी जो हमें ज्ञान करा दे उसको हम शास्त्र या वेद कहते हैं। 

  उसी प्रकार गीता भी एक शास्त्र है, और जो हमें उस अतीन्द्रिय वस्तु, जो मन और इन्द्रियों के परे जो भगवत तत्व है, उस भगवत तत्त्व का ज्ञान करा देने वाला जो साधन है, उस साधन को शास्त्र (या गुरु) कहते हैं। आप सभी लोग जानते हैं कि गीता में 18 अध्याय हैं, और अपने आप में यह एक मोक्ष शास्त्र है। यह हमें उस अविनाशी तत्व का ज्ञान करा देती है , जिस ज्ञान के प्राप्ति के फलस्वरूप व्यक्ति मुक्त हो जाता है, मोक्ष को प्राप्त करता है।

>>श्रद्धा : आचार्य सायण (वेद-भाष्यकार) ने श्रद्धा का अर्थ आस्तिक्य बुद्धि किया है।'अस्ति इति' का भाव आस्तिक्य बुद्धि है। आचार्य शङ्कर ने कहा है -

गुरुवेदान्तवाक्येषु बुद्धिर्या निश्चयात्मिका।

सत्यमित्येव सा श्रद्धा निदानं मुक्तिसिद्धये।।210 ।।

गुरु और शास्त्र (वेदान्त) वाक्यों में जो निश्चयात्मिका सत्यस्वरूपिणी बुद्धि है,वही श्रद्धा है। यह श्रद्धा ही मोक्षसिद्धि का मार्ग है। 

गीता के चतुर्थ अध्याय में भगवान् ने श्रद्धावान् ,साधनपरायण , जितेन्द्रिय को तत्वज्ञान प्राप्त करने वाला बताया है, जिसे पाकर मनुष्य अचिर यानि शीघ्र ही परम शान्ति पा जाता है- " श्रद्धावान् लभते ज्ञानं ,तत्पर: संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां,  शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।39।।

>>विवेक की परिभाषा : नित्य-अनित्य विवेक , शाश्वत-नश्वर विवेक , श्रेय-प्रेय विवेक। 

  (ii)  ईश्वर क्या है, कौन है ? और मैं क्या हूँ , कौन हूँ ? इस बारे में हम सभी भ्रमित हैं :

   शास्त्र की एक अन्य परिभाषा यह भी है कि जो किसी 'एक विषय' के बारे में जो सब कुछ बता देती है, उसको शास्त्र कहते हैं। और गीता को हमलोग मोक्ष शास्त्र कहते हैं। तो मोक्ष या मुक्ति के सम्बन्ध में हमें जो कुछ भी जानना है, वे सारी बातें जो हमें यह बता देती हो, उसे शास्त्र कहते हैं। और भगवान शंकराचार्य जी अपने भाष्य में कहते हैं कि गीता का यह पन्द्रहवाँ अध्याय अपने आप में ही एक शास्त्र है। क्योंकि इस एक ही अध्याय के अन्दर भगवत तत्त्व-ज्ञान और मोक्ष से सम्बंधित सभी बातों को बता दिया गया है। इस प्रकार गीता के 15 वें अध्याय की विशेषता यही है कि केवल एक अध्याय अपने आप में एक शास्त्र है। और यह बात सिर्फ शंकरा-चार्यजी ही नहीं कह रहे हैं , बल्कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी पन्द्रहवें अध्याय के अंतिम श्लोक में यही बात कह रहे हैं। 

इति गुह्यतमम् शास्त्रम् इदम् उक्तम् मया अनघ।

               एतत्  बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च  भारत।। 15.20।।

 हे अर्जुन ! मेरे द्वारा तुम्हारे सम्मुख यह  'गुह्यतम शास्त्र' बताया गया। पन्द्रवें अध्याय को भगवान श्रीकृष्ण भी शास्त्र कह रहे हैं। ये दर्जा भगवतगीता के किसी भी अध्याय को नहीं दिया गया है। और जो शास्त्र मेंने तुम्हें बतलाया वो कैसा शास्त्र है ? यह गुह्यतम है - यानि यह ऐसा शास्त्र है-जो अत्यंत गुप्त और अत्यंत गूढ़ है, जो सब किसी को पता नहीं है। केवल कुछ लोग ही इसको जानते हैं। क्योंकि जो बात सबको पता हो जाएगी फिर वो फिर 'secret' या गुप्त नहीं होगी।

 (iii) परमात्मा के ज्ञान का फल है- 'कृतकृत्यता'!  :  

   हर किसी के मन में इस सृष्टि के सम्बन्ध में, तथा इसके सृष्टिकर्ता के सम्बन्ध में कुछ न कुछ प्रश्न रहते हैं। लेकिन भगवत-तत्त्व ज्ञान या ईश्वर के तात्त्विक स्वरुप के बारे में कितने लोगों को पता हो पाता है ? तो ईश्वर का ज्ञान ही वह ज्ञान है, जो इस संसार में सबसे रहस्यपूर्ण है, जो सबसे गुह्यतमं ज्ञान है। It is a greatest mystery it is not known to anyone ! ईश्वर क्या है ? कौन है ? इस बारे में हम सभी लोग भ्रमित हैं। हम ईश्वर के बारे में बात कर सकते हैं , भगवान के बारे में बात कर सकते हैं, विभिन्न रूपों में उसकी कल्पना कर सकते हैं। लेकिन ईश्वर जैसा है , वैसा उसका ज्ञान किसको पता है ? कल्पना अपनी जगह ठीक है, हर व्यक्ति अपनी समझ के हिसाब से ईश्वर के रूप की कल्पना कर सकता है। लेकिन ईश्वर जैसा है, वैसा तात्त्विक ज्ञान किसके पास है ? शास्त्र और गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी के पास नहीं है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, देखो अर्जुन मैंने तुम्हें शास्त्र का वह गुह्यतं ज्ञान बतला दिया है "एतत्  बुद्ध्वा" - जिसको जान लेने के बाद कोई पुरुष ठीक ठीक बुद्धिमान तो होगा ही वह कृत-कृत्य भी हो जायेगा। जो व्यक्ति ईश्वर को तत्त्वतः जान लेता है; या जो पुरुष अपने (आत्मा के) और पुरुषोत्तम स्वरुप (परमात्मा) के एकत्व को जान लेता है, वह पुरुष ('अहं' नहीं, आत्मा) बुद्धिमान् बन जाता है। बुद्धिमान् बन जाने का अर्थ यह है कि इस आत्मज्ञान (एकत्व ज्ञान-Oneness बोध) के पश्चात् "वह जीवन में वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को समझने में और कर्म से संबंधित निर्णय लेने में आगे फिर कोई त्रुटि नहीं करता है। फलस्वरूप वह न स्वयं के लिये भ्रम और दुःख उत्पन्न करता है और न ही समाज के अन्य व्यक्तियों के लिये। परमात्मा के ज्ञान का फल है कृतकृत्यता। [आत्मा (पुरुष) और परमात्मा (पुरुषोत्तम) के एकत्व ज्ञान का फल है कृत-कृत्यता।]  मन में पूर्ण सन्तोष का वह भाव जो जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेने पर उदय होता है, कृतकृत्यता कहलाता है। तत्पश्चात् उस व्यक्ति के लिये न कोई प्राप्तव्य शेष रहता है और न कोई कर्तव्य। {अर्थात 'Be and Make' अर्थात स्वयं विवेकी मनुष्य बनो और दूसरों को विवेकी मनुष्य बनने सहायता करो !'  अथवा स्वयं 'विवेक-दृष्टि सम्पन्न मनुष्य बनो और दूसरों को 'विवेक-दृष्टि' सम्पन्न मनुष्य बनाने में सहायता करो'- रूपी कर्तव्य के अतिरिक्त, अन्य कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता।

 तो भगवान श्रीकृष्ण हमें यह बतलाते हैं कि यह जो पन्द्रहवाँ अध्याय है, वह अपने आप में एक शास्त्र है, जो इस भगवत-तत्त्व ज्ञान को हमारे सामने रखते हैं , जिसका फल है मोक्ष। "भगवत-तत्व ज्ञानं मोक्ष फलं !"

  तो देखिये हमलोग अभी जिस शास्त्र को पड़ने जा रहे हैं , उसका मुख्य विषय क्या है ? उसका विषय यही होगा कि- 'ईश्वर का तात्त्विक स्वरुप क्या है ? तथा ईश्वर के इस तात्त्विक स्वरुप को प्राप्त करने के लिए हमारे पास साधन क्या है ? हमें क्या करना चाहिए वो सारी चीजें हमें गीता के इस पन्द्रहवें अध्याय में हमें देखने की मिलता है। और गीता का ये पन्द्रहवाँ अध्याय भी 20 श्लोकों वाला गीता का बारहवाँ अध्याय के समान ये दूसरा सबसे छोटा अध्याय है। लेकिन सम्पूर्ण गीता में केवल इस पन्द्रहवाँ अध्याय को ही मोक्ष शास्त्र कहा गया है। और यही गीता के पन्द्रहवें अध्याय का विशेष महत्व है।  (12:00

 (iv) ये तीन गुण ही हैं जिसने सत्य को मानो ढँक दिया है :   

    वैसे भगवतगीता के प्रथम अध्याय से, द्वितीय अध्याय, द्वितीय अध्याय से फिर तृतीय अध्याय, ऐसा करते हुए आगे बढ़ने से उन सभी अध्यायों में शुरुआत से लेकर अठारहवें अध्याय तक क्रमशः जितने भी अध्याय हैं, उनमें आपको विचारों का एक बहुत सुन्दर सा क्रम प्रवाह चलता हुआ नजर आएगा। उसी तरह गीता के चौदहवें अध्याय का नाम है - 'गुणत्रय विभाग योग'। इस अध्याय में प्रकृति (माया) के तीनों गुणों का वर्णन किया गया है। क्योंकि हमलोग अपने सामने यह जो विश्वप्रपंच  देख रहे हैं वो त्रिगुणात्मिक है। यहाँ जो भी हमको दिखाई देता है, ये सब त्रिगुणात्मिक है। इस विश्व-ब्रह्माण्ड में तीन गुणों का खेल चल रहा है। हम सब त्रिगुणात्मिक हैं।  इन तीन गुणों को ही हमलोग माया भी कहते हैं। माया त्रिगुणात्मिक है और यहाँ जो भी हमको दिखाई दे रहा है, ये सब तीन गुणों का ही खेल चल रहा है। और ये तीन गुण ही हैं जिसने सत्य को (अर्थात विवेक-ज-ज्ञान को) मानो आच्छादित करके - ढँक करके रख दिया है। जब हम इन तीनों गुणों के परे चले जाते हैं, तब जाकर के सत्य की अनुभूति होती है। इसलिए तीन गुणों के पार जाने की जो विधि, प्रणाली है-या पद्धति है उसे उद्घाटित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण चौदहवें अध्याय के अंतिम भाग के 26 वें श्लोक में कहते हैं- 

माम् च यो अव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते।

  सः  गुणान्  समतीत्य एतान्  ब्रह्मभूयाय कल्पते।।

(14.26) 

जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा अर्थात् उपासना करता है, वह इन तीनों गुणों के अतीत होकर ब्रह्म बनने के लिये योग्य हो जाता है।।

भगवान कहते हैं -जो अव्यभिचारी भक्तियोग से मेरी सेवा करता है, तो भक्ति क्या है ? 3K से नहीं, बल्कि 'ईश्वर से परम प्रीति' ही भक्ति कहलाती है। प्रिय वस्तु में हमारा मन सहजता से रमता है। हमारा सम्पूर्ण स्वभाव या चरित्र हमारे विचारों से पोषित होता है। "यथा विचार तथा मन" यह ऋषि वाक्य है, नियम है। और मन ही मनुष्यों के बंधन और मुक्ति का कारण है - 

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥ 

मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है ॥  

भगवान कहते हैं -जो अव्यभिचारी भक्तियोग से मेरी सेवा करता है, क्योंकि एकाग्र चित्त से आत्मा के अनन्तस्वरूप का चिन्तन करने से परिच्छिन्न नश्वर अहंकार की समाप्ति और स्वस्वरूप में- अपने सत्यस्वरूप में स्थिति हो जाती है। लेकिन अभी तो हमारा मन विश्वप्रपंच की ऐषणाओं में ही लगा हुआ है। साधकों की इस अक्षमता को जानते हुये भगवान् श्रीकृष्ण एक उपाय बताते हैं जिसके द्वारा हम दीर्घकाल तक ईश्वर का स्मरण बनाये रख सकते हैं।
और वह उपाय है सेवा। तृतीय अध्याय में यह वर्णन किया जा चुका है कि ईश्वरार्पण की भावना से किए गए मनुष्यों की सेवा रूपी कर्म भी ईश्वर की पूजा (यज्ञ) बन जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि केवल मूर्तिपूजा या भजन ही पर्याप्त नहीं है। गीताचार्य की अपने भक्तों से यह अपेक्षा है कि वे अपने धर्म को केवल पूजा के कमरे या मन्दिरों में ही सीमित न रखें। क्योंकि यह जगत भी ईश्वर ही हैं, इसलिए हमें चाहिये कि वे अपने दैनिक जीवन के कार्य क्षेत्र और परिवार -समाज में लोगों के साथ व्यवहार करते समय भी हम सेवा-धर्म का अनुसरण करें। 
भगवान बहुत ही महत्व की बात बता रहे हैं -  सः  गुणान्  समतीत्य एतान्' -वह इन तीनों गुणों के पार जाकर के, उन तीनों गुणों से ऊपर उठ कर के - " ब्रह्मभूयाय कल्पते। " अब इस ब्रह्मभूयाय कल्पते का मतलब क्या है ? वह ब्रह्म होने के योग्य हो जाता है।
अखण्ड ईश्वर स्मरण तथा 'Be and Make' सेवा-साधना मन के विक्षेपों को दूर करके उसे ध्यान की सूक्ष्मतर साधना के योग्य बना देती है। तमस और रजस की मात्रा घटती जाती है और उसी अनुपात में सत्त्वगुण प्रवृद्ध होता जाता है। ऐसा सत्त्वगुण प्रधान साधक विवेक-दृष्टि से या ज्ञानमयी दृष्टि से जगत को ब्रह्ममय देखकर उसकी सेवा करने के योग्य बन जाता है। ऐसे साधक से आत्मानुभूति दूर नहीं रहती।  उत्तम अधिकारी ब्रह्मस्वरूप का अनुभव कर स्वयं ब्रह्म बन जाता है। जैसे स्वप्नद्रष्टा जागने पर स्वयं ही जाग्रत पुरुष बनता है। 
 पन्द्रहवें अध्याय में जाने से पहले, चौदहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - इस प्रकार जब हम ठीक ठीक अखण्ड भाव से 'शिव ज्ञान से जीव सेवा' या Be and Make' को ही ईश्वर की भजना समझ कर करते जायेंगे, तो हमारी जो बुद्धिदोष या दृष्टिदोष है यह दूर हो जाएगी और ईश्वर के तात्त्विक-ज्ञान को प्राप्त करने की योग्यता हमारे अंदर उत्पन्न हो जाएगी। (21:44

      अब आगे हमलोग पन्द्रहवें अध्याय में प्रवेश करते हैं। पन्द्रहवें अध्याय के प्रारम्भ में जो पहले तीन श्लोक हैं , उसमें भगवान श्रीकृष्ण बहुत ही सुन्दर चित्र हमारे सामने रखते हैं। वो चित्र है इस पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड का, पूरे विश्व-प्रपंच का। हमको लगता है कि जो कुछ दिख रहा है - सब जगत है। तो इस जगत का स्वरुप क्या है ? आज हम सभी लोग इस जगत से इतने मोहित हैं - जो कुछ हम पंचेन्द्रियों से अनुभव कर रहे हैं , उससे हम इतने मोहित हैं , इतने प्रभावित हैं , जैसे कि हम उसके गुलाम हो गए हैं। क्यों ? क्योंकि हमको ये विश्व-प्रपंच सत्य सा लगता है। जगत के प्रति हमारी एक सत्यत्व बुद्धि है। हमने कभी प्रश्न ही नहीं किया कि क्या ये जगत सत्य अलग कुछ दूसरा भी हो सकता क्या ? साधारण व्यक्ति से -रस्ते पर चलने वाले व्यक्ति से आप पूछ लीजिये -जगत सत्य है या नहीं ? पूछिए उसको। वो तो कहेगा बिल्कुल सत्य है। वो तो हमको मूर्ख कहेगा - ऐसा प्रश्न आप करते हैं -आप मूर्ख हैं। साधारण मनुष्य यह मानकर ही चलता है कि ये जीव -जगत जैसा दिख रहा है -बिल्कुल सत्य है। और जबतक आपकी इस जगत के प्रति सत्यत्व बुद्धि है, आप अपने मन को इसके ऊपर उठा नहीं पाओगे, मन को इन्द्रिय विषयों से खींच नहीं पाओगे, और ईश्वर में लगा नहीं पाओगे। यह एक बहुत बड़ी समस्या है। 
    अक्सर विद्यार्थी लोग प्रश्न करते हैं - मनःसंयोग करते समय भगवान में (या युवा आदर्श में) मन लग नहीं रहा है। और ये किसी एक व्यक्ति का प्रॉब्लम नहीं है - विश्व के सभी मनुष्यों की समस्या है। सार्वभौमिक समस्या है -हर जीव की समस्या है। इस समस्या के मूल में है - हमको जो भी दिखाई दे रहा है , उसके प्रति सत्यत्व बुद्धि। (हमें घड़ा-सुराही तो दीखता है 'मिट्टी' नहीं दिखती ?) जब तक आपको ऐसा लगता है कि नाम-रूप सत्य है (घड़ा-सुराही सत्य है) तो मन का ऐसा स्वभाव है कि वो जिस वस्तु को सत्य मानेगा , वो उसी वस्तु में जाकर चिपकेगा। और इसी लिए हमारा मन इस जगत की वस्तुओं से चिपका हुआ है , कि ये विश्व-प्रपंच हमको सत्य सा प्रतीत होता है। क्या हम जिस रूप में जगत को सत्य समझते हैं , वह उसी रूप में सत्य है क्या ? भगवत्तत्व ज्ञान की उतपत्ति में सबसे बड़ा बाधक क्या है ?
    पन्द्रहवें अध्याय का मुख्य विषय है - भगवत तत्व का ज्ञान। और जिसका फल क्या है ? मोक्ष ! भगवत तत्त्व ज्ञानं मोक्ष फलं ! ठीक है , लेकिन ये भगवत तत्त्व ज्ञान आएगा कहाँ से ? ईश्वर का जो यथार्थ स्वरुप है , उस स्वरूप का ज्ञान आयेगा कहाँ से।  भगवत्तत्व ज्ञान की उतपत्ति में सबसे बड़ा बाधक क्या है ? बाधक केवल एक ही है - वैराग्य का अभाव। तो भगवान श्री कृष्ण 15 वें अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में विश्वप्रपंच का चित्र इसलिए अंकित कर रहे हैं , ताकि हमारे अंदर इसके प्रति वैराग्य उत्पन्न हो। कामिनी-कांचन से अनासक्ति का भाव उत्पन्न हो। जब तक हम इस विश्वप्रपंच से आसक्त हैं , इससे चिपके हुए हैं , तब तक आप धर्म-या शिक्षा के नाम पर कुछ भी करते जाइये; हम सत्य तक पहुँच नहीं सकते हैं। क्योंकि हम जगत से चिपके हुए हैं। चिपकने का मतलब है वैराग्य का अभाव। आध्यात्मिक साधना का सबसे बड़ा बाधक है - वैराग्य का अभाव। जब वैराग्य उत्पन्न होगा , तभी आप ईश्वराभिमुख होंगे। जगत से अनासक्त हुए बगैर ईश्वर से आसक्ति या प्रेम होगा ही नहीं। इसी बात को श्रीरामकृष्ण बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं - ईश्वर के प्रति अनुराग और जगत के प्रति विराग ! अगर आपको पश्चिम की तरफ जाना हो , तो आपको पूरब की तरफ से मुख तो मोड़ना ही पड़ेगा। आप पूरब में ही चिपके रहोगे , तो पश्चिम में पहुँचोगे कैसे ? जब तक जगत के विषयों से (तीनो ऐषणाओं से) वैराग्य नहीं हो , आप कुछ भी कर लीजिये जन्म -पर जन्म बीतता जायेगा , 1000 जन्म भी बीत जायेगा , लेकिन ईश्वर का ज्ञान नहीं होगा। इसीलिए सभी महापुरुषों की वाणी में वैराग्य और त्याग का इतना महत्व है। त्याग और वैराग्य के अभाव में ही व्यक्ति अपने स्वरुप का और भगवत तत्त्व स्वरुप का ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाता है। इसी वैराग्य के महत्व को बताने के लिए पन्द्रहवें अध्याय के शुरुआत में बहुत सुंदर चित्र अंकित कर रहे हैं। इस विश्वप्रपंच का सिर्फ बौद्धिक ज्ञान भी होने से आपको जगत का मिथ्यत्व  महसूस होने लगता है, तभी आपका मन भगवान में लगना शुरू होगा। जबतक जगत से चिपके हुए भी हैं और जप-ध्यान भी करते हैं , तब तक आध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं हो पाती है। ठाकुर एक बहुत सुंदर उदाहरण देते हैं - आप नाव में बैठे हों, लेकिन लंगर से बंधे नाव को आप चला रहे हो , पर जब तक उस लंगर से नाव को निकालोगे नहीं, नाव क्या आगे बढ़ेगा ? हमारी दशा बिल्कुल उसी प्रकार की है। मंत्र-दीक्षा लेने मात्र से क्या होगा ? यदि यम-नियम और वैराग्य नहीं रहे। मंत्र की अपनी शक्ति है , मंत्र-दीक्षा लेने का प्रयोजन है , लेकिन साथ-साथ विवेक और वैराग्य का अनुष्ठान हमारे जीवन में नहीं हुआ , तो हमारी हालत उसी नाविक की तरह होगी जो लंगर डालकर नाव खेता रहता हो। आसक्ति के द्वारा, मोह के द्वारा हमने जो जगत के प्रति सम्बन्ध बना लिया , वो लंगर डालकर नाव खेने जैसा है। सुंदर सुंदर रूप देखकर हमलोग मोहित हो जाते हैं, लेकिन ये जगत वैसा है क्या ? वही मोह हमारे जीवन में दुःख का कारण बन जाता है। विषयों में सुख का आभास होता है , किन्तु वो दुःख रूप ही है। दुःख और बंधन ये दो चीजें साथ-साथ चलती रहती हैं। 

ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्, अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम्। 
 छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।। 
(15.1) 
यह विश्वप्रपंच कैसा है ? (35:09) - ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्' अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम्' इसका हर शब्द महत्वपूर्ण है। ये विश्व कैसा है ? इसको 'अश्वत्थम्' कहा गया है - पीपल या बरगद के पेड़ को हमने देखा है। इस विश्व प्रपंच की तुलना उस उस पेड़ से हो रही है। वृक्ष की उत्पत्ति जिस प्रकार बीज से होती है, उसी प्रकार इस विश्वप्रपंच का भी एक बीज है। और शास्त्र की परिभाषा में हमने देखा था , जो वस्तु हमको इन्द्रियों से दिखाई नहीं देती, उस वस्तु से अवगत कराने वाले साधन को शास्त्र कहते हैं। 
इस 'सृष्टि के बीज' को कोई भी मनुष्य इन्द्रियों से देखा है क्या ? सृष्टि के बीज को आज तक किसी ने इन्द्रियों से देखा है क्या ? सृष्टि का बीज क्या इन्द्रिय गम्य है क्या ? उस सृष्टि के बीज का ज्ञान जिसके माध्यम से प्राप्त होता है , उसी को गुरु और शास्त्र कहा जाता है। बीज से उत्पन्न हुआ जो बरगद / पीपल का वृक्ष है -वो हमको आँखों से दिखाई देता है। हम अश्वत्थ वृक्ष को देख रहे हैं। बीज दिखाई देता है क्या ? बीज छुपा हुआ है। इसी प्रकार यह विश्व-प्रपंच हमको आँखों से सामने दिखाई दे रहा है। लेकिन इसका बीज अव्यक्त, अदृश्य है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - ये विश्वप्रपंच बिल्कुल अश्वत्थ वृक्ष के समान है। शंकराचार्य जी कहते हैं - अश्वत्थ वह है जो कल अर्थात् अगले क्षण भी पूर्ववत् स्थित नहीं रहने वाला है। जो अभी है , लेकिन अगले क्षण जो बदल गया। और इस अश्वत्थ का जो उल्टा है वो क्या है ? वो शाश्वत है ! शाश्वत का मतलब है - वह जो अविनाशी है , जो हर समय रहता है। शास्त्र में आपको हमेशा इसी शाश्वत और नश्वर का वर्णन मिलेगा। आध्यात्मिक जीवन क्या है - अश्वत्थ से शाश्वत तक की यात्रा है। आपने बृहदारण्यक उपनिषद का वो प्रसिद्द श्लोक सुना होगा - 
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय॥
(बृहदारण्यक उपनिषद् 1.3.28) सुना होगा।  हे ईश्वर! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले जाओ, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाओ, और मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाओ । तो आपको हमारे सभी शास्त्रों में ये दो चीज देखने को अवश्य मिलेगा , एक जो शाश्वत है और दूसरा जो अविनाशी है। एक नित्य है और एक अनित्य है। एक सत्य है , दूसरा सत्य सा प्रतीत होता है। हमको जगत जिस रूप में दिखाई दे रहा है , वो सत्य सा प्रतीत होता है , लेकिन वो सत्य नहीं है। सत्य न होते हुए भी जो सत्य सत्य सा प्रतीत होता है , उसीको हमलोग मिथ्या कहते हैं। लेकिन जब तक हम इसको (स्थूल देह को) सत्य समझते हैं।  तबतक हम इससे ऊपर उठ नहीं पाते हैं। यही मनुष्य जीवन की विडंबना है। 
यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये संसार बिल्कुल अश्वत्थ वृक्ष की तरह है, अर्थात शंकराचार्यजी कहते हैं कि- प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभावं। अर्थात इन्द्रियगोचर हर वस्तु हर क्षण परिवर्तित हो रहा है या नहीं?  आपका अपना शरीर , आपका अपना मन कुछ भी स्थाई है क्या ? तो वह वस्तु कहाँ है -जो इस जगत में हर समय उपस्थित है ? हम जो कुछ अनुभव कर रहे हैं वह प्रतिक्षण चला जा रहा है। इसको शंकराचार्यजी 'दृष्ट नष्ट स्वभाव' कहते हैं। हमलोग अभी एक दूसरे को देख रहे हैं , लेकिन इस देखने की प्रक्रिया में ही वो वस्तु नाश को प्राप्त हो रहा है। दर्शन क्रिया में ही , जिस चीज का दर्शन हो रहा है , वो नाश को प्राप्त हो रहा है। मोह के कारण, मिथ्या जगत में सत्यत्व बुद्धि के कारण , हम जिसको भी मेरा मानकर पकड़े हैं , वो सब चला जा रहा है। जो क्षणभंगुर है , उसी को हम सत्य समझकर पकड़े हुए हैं। जो की नाश को प्राप्त हो रहा है , आप उसको छोड़ना नहीं चाहते हो। और जब चला जाता है , तब हम रोते हैं। प्रश्न करते हैं -ईश्वर ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया ? प्रतिक्षण बदलते रहना इस 'माया सृष्टि ' का स्वभाव है। यहाँ सबकुछ जाने वाला है , इसको आप जितना पकड़ोगे , उतना दुःख पाओगे। 
अब ऐसा जो नश्वर विश्व-प्रपंच है , इसके प्रति 'राग' होना चाहिए या 'विराग' होना चाहिए ? (43: 29) थोड़ा तो राग होना चाहिए ? थोड़ा राग होना चाहिए या बिल्कुल नहीं होना चाहिए ? इस नश्वर संसार से यदि राग करोगे , उससे चिपको गे तो उसका फल एक ही है - दुःख ! पूरे भगवत गीता का भाव एक ही है। इसलिए इसको अनासक्ति योग भी कहते हैं। [ ठाकुर के शब्दों में गीता = तागी।] भगवत गीता में भगवान कृष्ण एक ही बात को बार बार दोहराते रहते हैं। संगम त्यक्त्वा,- संगम त्यक्त्वा , संगम त्यक्त्वा। हर अध्याय में यह आपको मिलेगा - हे अर्जुन , इस विश्वप्रपंच के साथ आपको कैसे व्यवहार करना है ?  संगम त्यक्त्वा,  संगम त्यक्त्वा,  संगम त्यक्त्वा -योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। 2.48।। सङ्गं त्यक्त्वा' मतलब है - अनासक्ति पूर्वक कर्म करो , चिपके बगैर। भगवत गीता का मूल सन्देश यही -है आसक्त होना मना है ! चिपकना मना है। यदि चिपकोगे तो गए ! [पहले बसों- ट्रकों में लिखा होता था - लटकले तो गेले बेटा।] यहाँ सबके साथ रहना है - किसी भी परिचित वॉट्सऐप ग्रुप में रहना है, सबके साथ डीलिंग करना है , लेकिन किसी व्यक्ति या वस्तु को पकड़ के मत रखिये। आप जितना चिपकोगे उतना कष्ट ही आपको प्राप्त होगा। इसलिए गीता का मुख्य सन्देश यही है कि इस मिथ्या जगत से चिपकना मना है। चिपकना सख्त मना है। 
      हम इस मिथ्या जगत (3K) में चिपके हुए हैं , इसलिए भगवान में मन नहीं लगता है। सभी विद्यार्थी प्रश्न करते हैं , मन पढ़ाई में एकाग्र नहीं होता है। पढ़ाई में मन नहीं लगता है।  तो कारण क्या है ? कारण एक ही है - इस मिथ्या जगत से आपका मन चिपका हुआ है। जब तक सत्य सा भासित होने वाला जगत के वस्तु और व्यक्ति में चिपक करके , मोहित होकर बैठे हुए हैं, तबतक आपका मन आपके इष्ट की ओर आपका मन जायेगा कैसे ? इसलिए व्यक्ति के जीवन में संघर्ष चलता ही रहता है। हम ध्यान के लिए नहीं बैठते हैं , हम युद्ध के लिए बैठते हैं। मन के साथ युद्ध करके हार जाते हैं , और हार करके उठ जाते हैं। रहस्य ये है कि मन जितना अनासक्त होगा , उतना सहज भाव से आपका मन ईश्वर में जाता है या नहीं ? जिस परिमाण में आपका मन अनासक्त होगा , उतने ही परिमाण में ईश्वर में मग्न होगा। अगर मन 3k में पूर्ण अनासक्त हो तो आपको समाधि से कोई रोक नहीं सकता है। मन जितना इस मिथ्या जगत से अनासक्त होगा , उतना ही मन ईश्वर में ऐसा डूबेगा , जैसे नमक का पुतला समुद्र की गहराई नापने गया था। मन विलीन हो जायेगा। यह अनुभूति की बात है। देखिये अध्यात्म कोई theory नहीं है , ऋषि वाक्यों की परीक्षा करके हम देख सकते हैं। ये सब महावाक्य अपने जीवन में Verifiable है। लेकिन मिथ्या जगत से अनासक्त होना इसकी पूर्व शर्त है। तो जबतक विषयों से वैराग्य नहीं होगा , तबतक कोई प्रगति नहीं होगी। 
      इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण पन्द्रहवें अध्याय के शुरू में ही हमारे अंदर वैराग्य उत्पन्न कर रहे हैं। क्योंकि वैराग्य के बगैर भगवत तत्त्व का ज्ञान नहीं होगा। और भगवत तत्त्व ज्ञान के बगैर मोक्ष रूपी फल प्राप्त नहीं होगा। तो मोक्ष की शुरुआत कहाँ से है ? -वैराग्य ,वैराग्य ,वैराग्य ! तो ये विश्वप्रपंच कैसा है ? ये क्षणभंगुर है -अश्वत्थ है ! ये शाश्वत नहीं है। ये जैसा दीखता है, सत्य जैसा दीखता है - वैसा नहीं है। इसका मूल उर्ध्व में है -ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्। इस विश्वप्रपंच का बीज ऊपर है। तो क्या दिशा की दृष्टि से इस संसार का मूल ऊपर की दिशा में है ? नहीं ! उस अर्थ में यहाँ नहीं कहा गया है। उर्ध्व का मतलब विश्वप्रपंच का मूल जो है , वो अदृश्य है। वह कारणात्मक मूल है , वह अव्यक्त है। इस विश्वप्रपंच की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? इस जगत का कारण क्या है ? इसका कारण है - अव्यक्त माया युक्त जो ब्रह्म है, वही इस विश्वप्रपंच का बीज है।
 
        >>इस विश्वप्रपंच का मूल बीज हमारे भीतर है !! 

       और ये बीज कहाँ है ? ये बीज हमारे भीतर है। (50:05) इस विश्वप्रपंच का जो मूल बीज है, वो आपके ह्रदय में उपस्थित है। इस विश्वप्रपंच का बीज प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में ही है, कहीं और नहीं है ! अगर इस विश्वप्रपंच के बीज को खोजना हो तो, उसको हमारे ह्रदय में ही खोजना होगा। जब आपके ह्रदय में जो कारण शरीर है, आप जब वहाँ पहुँचोगे , तो आप पूरे विश्वब्रह्माण्ड के मूल में पहुँच जाओगे। यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है , किन्तु आध्यात्मिक सच्चाई को या इस सत्य को धीरे -धीरे साधना करके ही समझा जा सकता है। यहाँ कहा गया विश्वप्रपंच का मूल उर्ध्व है। उर्ध्व का मतलब अव्यक्त है। 
     मायायुक्त ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण) जो हैं - इसका मूल बीज है , जहाँ से ये पूरे विश्वप्रपंच की उत्पत्ति होती है। वो अदृश्य है , इसलिए उसको उर्ध्व कहा गया है। बीज में से जैसे एक छोटा सा पौधा पहले अंकुरित होता है फिर तना और शाखायें निकलती हैं , उसी प्रकार यह विश्वप्रपंच भी उस बीज से अंकुरित हुआ जो अदृश्य है। और इस संसार -वृक्ष की शाखायें अधः है, अधः का मतलब है -जो व्यक्त है।  
 उर्ध्व का मतलब जो अव्यक्त है , और अधः का मतलब है जो व्यक्त है। विश्वप्रपंच व्यक्त है , इसका बीज जो है वो अव्यक्त है। अव्यक्त से इस व्यक्त विश्वप्रपंच की उत्पत्ति हुई हैं। और जो अव्यक्त होगा , जो बीज होगा वो हर समय श्रेष्ठ होगा।
      बीज श्रेष्ठ है या पेड़ श्रेष्ठ है ? क्योंकि बीज के बगैर पेड़ हो ही नहीं सकता। उर्ध्व है मतलब श्रेष्ठ है। वो पर है और जो दिखाई दे रहा है -वो अवर है। इस विश्वप्रपंच का जड़ जो है वो अव्यक्त माया युक्त ब्रह्म जो है, वो उसका बीज है। उस बीज में से पूरा ये विश्वप्रपंच अंकुरित हुआ है। अतएव इस विश्वप्रपंच का जो बीज है, जो मूल या जड़ है वो उर्ध्व है - उर्ध्व का मतलब है - जो अव्यक्त है, और शाखायें अधः हैं। तो यहाँ उर्ध्व और अधः का मतलब दिशा की दृष्टि से ऊपर ,नीचे , दाहिने , बायें कहते हैं वैसा नहीं समझना है। बीज उर्ध्व है - अर्थात अव्यक्त है और शाखायें अधः हैं - अर्थात व्यक्त हैं। यह विश्वप्रपंच व्यक्त है, लेकिन इसका बीज जो है -वो अव्यक्त है। अव्यक्त बीज से व्यक्त विश्वप्रपंच की उत्पत्ति को यहाँ बताया गया है। जो अव्यक्त होगा, जो बीज होगा - जो कारण होगा, वो कार्य से सब समय श्रेष्ठ होगा। बीज श्रेष्ठ है या पेड़ श्रेष्ठ है ? क्योंकि बीज के बगैर पेड़ हो ही नहीं सकता। इसी कारण बीज को उर्ध्व कहा गया कि वो बीज श्रेष्ठ है ,वो पर है और जो दिखाई दे रहा है -वृक्ष वो अवर है।  पेड़ जो दिखाई देता है वो निकृष्ट है, बीज जो अदृश्य है वो उत्कृष्ट है। तो उर्ध्व और अधः कहने के तात्पर्य को हमें ठीक से समझ लेना चाहिए। उर्ध्व का मतलब क्या है ? बीज उत्कृष्ट है, श्रेष्ठ है और जो पेड़ दिखाई देता है , वो निकृष्ट है, या अपकृष्ट है। भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - मायायुक्त जो अव्यक्त ब्रह्म है, वो इस विश्वप्रपंच का बीज है। और उस अव्यक्त में से निकला हुआ जो अधः शाखायें हैं, यह दृष्टिगोचर जगत व्यक्त है, जो हमको दिखाई दे रहा है। तो "ऊर्ध्व मूलम् अधः शाखम्' अश्वत्थम्" - ऐसा जो विश्वप्रपंच है -वह अश्वत्थम् है। 
   अश्वत्थम् का मतलब जो शाश्वत नहीं है। यह जगत जो दीखता है लेकिन नहीं है ! इस रहस्य को समझाने के लिए शंकराचार्यजी अपने भाष्य में चार उदाहरण देते हैं। पहला - जैसे स्वप्न ! स्वप्न वास्तविक में है क्या ? लेकिन जब तक सपना चलता है , तब तक तो है। स्वप्न देखते समय, थोड़ी देर के लिए सपना सच जैसा लगता है कि नहीं ? लेकिन सपना जब सत्य सा भाषित होता हैं, उस समय भी वास्तविक रूप में वो सत्य है क्या ? जैसे स्वप्न मिथ्या है, वैसे ही यह जाग्रत भी मिथ्या ही है।  उसी प्रकार अभी, इस समय, इस क्षण, यहाँ पर अल्मोड़ा में , इस कमरा में जो यह पाठचक्र चल रहा है, यह भी एक सपना ही चल रहा है। जितना जल्दी ये सपना टूटे तो अच्छा है। जागृत अवस्था भी एक सपना है, इसको पहचानना ही उस सपने का टूटना है। (53:53) अगर आप पहचान जाओगे कि ये सपना है , तो सपना टूट जायेगा। फिर आप इस जगत्प्रपंच रूपी सपने में फँसोगे नहीं। यह बहुत बड़ी सच्चाई है। सपना जब चलता है, तो सपना सत्य सा लगता है, लेकिन जिस वक्त वो सत्य सा लगता है ,उस वक्त भी वो सत्य नहीं है। 'वो' कुछ और है। क्रमशः हमलोग वहाँ भी आएंगे। तो शंकराचार्यजी कहते हैं - ये विश्वप्रपंच जो है, वो अश्वत्थ है - कैसे ? स्वप्नवत है -बिल्कुल सपने के समान है। सत्य सा दीखता है , लेकिन सत्य नहीं है। फिर और एक उदाहरण देते हैं। जगत मरू-मरीचिकावत है। गर्मी के दिनों में मरुभूमि में - रेगिस्तान में जिस प्रकार हमको पानी दिखाई देता है। तो रेगिस्तान में जो पानी दिखाई देता है , वहाँ पर सचमुच में पानी है क्या ? दीखता है , लेकिन है नहीं। उसी प्रकार यहाँ पर जो विश्वप्रपंच दीखता है, लेकिन है नहीं ! जैसा दीखता है, वैसा है नहीं। 
     देखिये इसी महत्वपूर्ण बिन्दु पर हमें गहराई से विचार करना है। ये हर रोज हमारे साथ होता है। हमलोग अभी जगे हुए हैं, थोड़ी देर बाद जब रात को आप नींद में सो जायेंगे तो ये सारा विश्वप्रपंच गायब हो जायेगा। कुछ और शुरू हो जायेगा, सपना में जो दिखाई देगा वो नये तरीके का विश्वब्रह्माण्ड होगा। ये हमारे साथ हर रोज चल रहा है। हमने कभी इसके बारे में सोचा नहीं है। हमने कभी इसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया है। हम लोग इसीको सत्य जैसा पकड़कर निश्चिन्त बैठे हुए हैं। स्वप्न में हमें जो जगत दिखाई देता है, थोड़ी देर के लिए वो सत्य हो जाता है। अब प्रश्न है कि इस समय जो पाठचक्र चल रहा है, ये सत्य है ? या जो स्वप्न में सम्मेलन चल रहा था -वह सत्य है ? यह जागृत अवस्था भी सत्य सा दीखता है, लेकिन जैसा दीखता है, वैसा नहीं है। इसके लिए शंकराचार्य जी अपने भाष्य में बहुत सुन्दर शब्द use करते हैं - 'महाद्भुतम अनिर्वचनीयं !' जागृत अवस्था में हम जिस विश्वप्रपंच को देख रहे हैं , ये क्या है ? हम केवल इतना ही कह सकते हैं -  'महाद्भुतम अनिर्वचनीयं !'  इस जगत के बारे में- 'महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं' इसके आलावा हम और कुछ भी नहीं कह सकते। तो जैसे ब्रह्म क्या है ? यह मुख से नहीं बताया जा सकता। उसी प्रकार इस जगत का वर्णन भी हम शब्दों में नहीं कर सकते। माया द्वारा की गयी ऐसी एक अद्भुत सृष्टि है, जिसे देखकर, जिससे सभी लोग मोहित (Hypnotized) हैं। यह माया मय जगत मृगतृष्णा, mirage, मृगमरीचिका की तरह है। जगत किस प्रकार का है ? उसका पहला उदाहरण हुआ स्वप्न के समान, दूसरा है मृग-मरीचिका के समान। चौथी तुलना में शंकराचार्य जी इस जगत को जादूगर के जादू के समान- 'माया' कहते हैं। जादूगर जब जादू दिखाता है , तब बताइये वो जादू सत्य है या मिथ्या है ? लेकिन जादू देखते समय तो थोड़ी देर के लिए तो बिल्कुल ऐसा ही दीखता है , जैसे की सत्य है। जादूगर अपनी कला के द्वारा बहुत कुछ बनाता है। उसी प्रकार जिस विश्वप्रपंच को हमलोग देख रहे हैं, यह भी एक जादूगर की जादूगरी है। 
      वो जादूगर कौन है ? यह एक प्रश्न है। वही खोज है यहाँ पर। (57:29) यह खोज है कि वह जादूगर कौन है ? और वह रहता कहाँ है ? यहाँ है , वहाँ है , या वहाँ मंदिर में है ? यह सब कल्पना है। देखिये हमलोग बहुत सूक्ष्म या सटीक 'precise' चर्चा करने जा रहे हैं। हम जिस जादूगर को ढूँढ रहे हैं, वो हमारे भीतर ही बैठे हुए हैं। वो अपना ही सत्यस्वरूप है। जब तक हम अपने सत्यस्वरूप तक नहीं पहुँचेंगे, हम यहाँ -वहाँ भटकते रहेंगे। जाइये, तीर्थाटन आदि शुरुआती दौर के लिए ठीक है। लेकिन आप जिसको ढूँढ रहे हो वो आपके हृदय के अंदर ही बैठे हुए हैं। आपके साँसों में हैं, आपसे जरा सा भी अलग नहीं हैं। जरा सा भी भिन्न नहीं है। आप यह सोच सकते हो ? हम जिसको ढूँढ रहे हैं, वो हमसे अलग नहीं है। यह क्या खेल है? बड़ा विचित्र परिस्थिति है या नहीं ?
एक अज्ञान (अविद्या-अस्मिता) का परदा है, जिसके कारण हम 'सत्य' को समझ नहीं पा रहे हैं। और हम भटक रहे हैं, यही हो रहा है। तो शंकराचार्यजी कहते हैं - स्वप्नवत, मरु-मरीचिकावत, और माया मतलब जादू के समान ! और चौथा उदाहरण देते हैं -गन्धर्वनगरी वत। वर्षा के मौसम आकाश के ऊपर बादल आ जाते हैं। और इस प्रकार से एकत्र हो जाते हैं , जिससे लगता है कि पूरा एक शहर हो वहाँ पर। ये विश्वप्रपंच भी उसी प्रकार का एक गन्धर्वनगर है, और जो अश्वत्थ है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, इस जगत-प्रपंच का मूल जो है -वो उर्ध्व है, मतलब कहीं ऊपर नहीं है। उर्ध्व का मतलब है -जो अव्यक्त है, जो दिखाई नहीं दे रहा है, जो श्रेष्ठ है। और शाखायें जो हैं वो अधः हैं।  अधः का मतलब जो नीचे हो ऐसा नहीं , अधः वो है जो व्यक्त है। जब अव्यक्त से व्यक्त की अभिव्यक्ति होती है , जैसे बीज से जब पेड़ की उत्पत्ति होती है; तो पेड़ हमें दिखाई देता है लेकिन बीज हमें दिखाई नहीं देती। इसलिए बीज श्रेष्ठ है पेड़ निकृष्ट है। बीज उत्कृष्ट है , बीज से उत्पन्न हुआ, फलस्वरूप जो विश्वप्रपंच (पेड़) है वह निकृष्ट है। क्योंकि उस बीज (कारण)  के बगैर इस विश्वप्रपंच (कार्य) का अपना कोई अस्तित्व सम्भव नहीं है। तो ये बीज के फलस्वरूप उत्पन्न जो विश्वप्रपंच वो कैसा है ?  प्राहुः अव्ययम् ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्, अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम् ' कहने से मतलब है यह जगत प्रपंच अव्यय है ! अव्यय का मतलब क्या है ? जो कभी भी खत्म नहीं होगा(1:00:29
>> जब भागवत तत्व का ज्ञान होगा, तब ये सपना खत्म हो जायेगा।
     यहाँ कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पर हमलोग विचार करने जा रहे हैं। अव्यय का मतलब ये है कि ये विश्वप्रपंच चलता ही रहेगा। ये सपना तबतक चलता ही रहेगा , जब तक आपको ईश्वर-तत्व ज्ञान या, भगवत-तत्व ज्ञान जबतक आपको नहीं होगा , तब-तक यह चलता ही रहेगा। हाँ, लेकिन जिसदिन आपको भगवत तत्वज्ञान होगा , उस दिन ये सपना खत्म हो जायेगा। जबतक भगवत तत्त्व का ज्ञान नहीं होता , तब तक यह जगत (घड़ा में सत्यतत्व बुद्धि),अनवरत,अखण्ड रूप से चलता ही रहता है। ये अनादि है , अनंत चलता रहता है। 

पुनरपि जननं ,पुनरपि मरणं ,पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे खलु दुस्तारे,  कृपया पारे पाहि मुरारे॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते मरने , न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥

 ये जो जन्म-मृत्यु का चक्र है, ये अनवरत चलता ही रहेगा, जब तक आप भगवत तत्व ज्ञान को प्राप्त नहीं कर लेते हो, इसीलिए भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्। इसीलिए ईश्वरतत्त्व को जानने का प्रयास कीजिये। यही मनुष्यजीवन का मुख्य उद्देश्य है। इस ईश्वरतत्त्व को प्राप्त किये बगैर मनुष्य की गति उसी चक्र के समान होती है , जो अनवरत बस घूम रहा है , घूम रहा है ,केवल घूम रहा है। हम एक शरीर से दूसरे शरीर में, दूसरे से फिर तीसरे - इस प्रकार ये जो जन्म-मृत्यु का चक्र है - ये अनवरत अखंड रूप से चलता रहेगा। क्योंकि ये विश्वप्रपंच अव्यय है। यह संसरणं - ये संसार जो है ये अव्यय है, जब तक ईश्वर का ज्ञान नहीं हो जाता। इसके बाद वाली पंक्ति,' छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।' पर अगले सत्र में विचार करेंगे। 
अभी आप कोई प्रश्न पूछ सकते हैं। 
     प्राहु का मतलब क्या है ? प्राहु का मतलब इसको - ऐसा , अव्यय कहते हैं। महापुरुषों ने इस अश्वत्थ विश्वप्रपंच को अव्यय कहा है। अव्यय का मतलब ये तबतक अनवरत चलता रहेगा, जब तक हमें भगवत तत्त्व-ज्ञान नहीं हो जाता। उर्ध्व का मतलब है- बीज जो दिखाई नहीं देता है। उसी बीज को तो खोजना है। हम लोग तो बस पेड़ में व्यस्त हैं। हमलोग इस पेड़ में लगे हुए फलों को खाने में व्यस्त है। (1:03:49)  
      मुण्डक उपनिषद में आपने दो पक्षियों का वर्णन पढ़ा होगा ? -द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । दो सुन्दर पक्षी एक ही वृक्ष पर रहते हैं। आप कल्पना कीजिये कि वृक्ष के एकदम ऊपरी स्तर पर, एक पक्षी बैठा हुआ है -जो बिल्कुल अपने आनंद में मग्न होकर बैठा है। अर्थात आनंदविभोर होकर बैठा है , उसके अंदर कोई चंचलता नहीं है , बिल्कुल शान्त होकर के बैठा है। और उसी वृक्ष में, बिल्कुल नीचे एक दूसरा पक्षी है , जो कि अत्यंत ही चंचल है, जैसे कि हमलोग हैं। जो पाँच मिनट भी चुप नहीं बैठ सकते हैं। पाँच मिनट तो बहुत दूर की बात है, एक मिनट भी चुप नहीं बैठ सकते हैं। क्यों ? क्योंकि चंचलता हमारा स्वभाव है। इस देह-इन्द्रिय संघात * का स्वभाव ही चंचलता है। (cluster/fascicule/ फैसक्यूल संघात : गुच्छा या समुच्य) एक मिनट हम चुप नहीं बैठ सकते हैं। क्यों नहीं बैठ सकते हैं ? उसके मूल में है यही अज्ञान (अविद्या-अस्मिता) है। अज्ञान से उत्पन्न कामनायें हैं। (1:05:08) जब तक अज्ञान से उत्पन्न कामनायें हमारे अंदर हैं, तब तक कोई भी व्यक्ति चुप नहीं बैठ सकता। तो जो नीचे बैठा पक्षी है -वो क्या कर रहा है ? वह कभी इस डाल पर जाता है , वहां एक फल खाता है। उस डाल से उड़करके दूसरे डाल पर जाता है , वहाँ कुछ फल खाता है। इस प्रकार वो फल खाने में ही मग्न है। कभी कुछ मीठा फल खा लिया तो उसको बड़ा अच्छा लगता है। फिर कुछ कड़वे फल खा लिए तो दुःखी हो जाता है। जैसे ही उसको दुःख होता है तो वो ऊपर की ओर देखता है। तो देखता है कि वो (साक्षी -ब्रह्म) तो बड़े आनंद में बैठा हुआ है। तब वह उस ऊपर बैठे हुए पक्षी के पास जाने का प्रयास करता है। ये बिल्कुल हमारी कहानी है , हमारे जीवन में भी ऐसे ही होता है कि नहीं ? जब भी थोड़ा दुःख हो गया , कुछ चोट लग गया हम तुरंत भगवान के पास भागते हैं। जब तक हम मीठा फल खाते रहते हैं , तब तक भगवान याद नहीं आते हैं। तबतक हम व्यस्त हैं। यहाँ पर इस संसार से मोहित होकर के, यहाँ दीखने वाले विभिन्न फलों को खाने में हमलोग मग्न हैं।  हैं कि नहीं ? बाहर दृष्टि डालिये तो सभी लोग दौड़ रहे हैं। छोटे कस्बों में उतनी भागदौड़ नहीं हो, लेकिन मेट्रो शहरों में -आप दिल्ली जाइये , बम्बई जाइये सभी लोग दौड़ रहे हैं। कभी कभी मन में आता है , इनसे पूछूँ भाई तुम कहाँ दौड़ रहे हो ? बस लगे हुए हैं -दौड़ रहे हैं ,दौड़ रहे हैं , दौड़ रहे हैं, दिन-रात दौड़ रहे हैं।  दौड़ -दौड़ के थक जाते हैं , सो जाते हैं। नींद से उठते ही दौड़ना शुरू कर देते हैं। फिर से वही क्रम चलता रहता है। इसी प्रकार जन्म-जन्मान्तर चलता रहता है। क्यों ? क्योंकि व्यक्ति जबतक अपने सत्य स्वरूप को नहीं जानेगा, तबतक व्यक्ति की गति यही होती है। हम इस बात को समझते नहीं हैं। तो इसी प्रकार संसार का जो मूल है - संसार का जो कारण है , संसार का जो बीज है - वो खोज का विषय है। ये पाठचक्र और कुछ नहीं है , ये सत्य की खोज है।  उसी ईश्वर -तत्व को खोजने के लिए है। इसको आप भावुक होकर के देख सकते हो। या  भावुकता के साथ थोड़ा सा विवेक को लाना जरुरी है। ये सत्य की खोज है। याद रखिये। आध्यात्मिक जीवन जो है , वो सत्य की खोज है। सत्यान्वेषण है , ये सत्य का अन्वेषण है। यहाँ पर सत्य का अन्वेषण ही चल रहा है।  आप भावुक होकरके ईश्वर को इस रूप में देखिये , उस रूप में देखिये, अच्छी बात है। लेकिन सच्चाई में है कि हम जिस ईश्वर की कल्पना कर रहे हैं, वो आपका ही सत्य स्वरुप है। आप वही हो , आप उससे भिन्न नहीं हो। हम सब वही हैं। यह सत्य की खोज है। आप देखिएगा भगवत गीता में भगवान कृष्ण हमें धीरे धीरे उसी ओर ले जायेंगे। उसके पहले हमें वे इस विश्वप्रपंच से विमुख करवा रहे हैं। वैराग्य हेतु है। ताकि हमारे अंदर थोड़ा सा वैराग्य उत्पन्न हो। क्योंकि जब तक वैराग्य उत्पन्न नहीं होगा , तब तक हमारा मन कभी ईश्वराभिमुख नहीं होगा। ईश्वर की ओर कभी वो बढ़ नहीं पायेगा। (1:08:01) इसलिए हमारे भीतर वैराग्य उत्पन्न करने हेतु भगवान ने हमारे सामने विश्व-प्रपंच का - ऐसा दृश्य- ऊर्ध्व मूलम् अधः शाखम्, अश्वत्थम् प्राहुः अव्ययम् ' अंकित किया है। 
बीज और फल, बीज और वृक्ष में पहले कौन हुआ ? इसी को माया कहते हैं। इसकी शुरुआत कहाँ से है ? आप कहोगे पेड़ के बगैर बीज नहीं होगा। तो बीज के बगैर पेड़ भी नहीं होगा। यही महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं माया है। Maya is mysterious- माया रहस्यमय है-महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं ! इसके बारे में कुछ कह नहीं सकते , लेकिन एक ऐसी शक्ति है , जो इस अद्भुत दृश्य को खड़ी कर देती ही। (चंद्रग्रहण -सुर्यग्रगण नियत तिथि और समय पर ही होगा।) और ये शक्ति किसकी शक्ति है ? ब्रह्म की अपनी ही शक्ति है। इसको शकराचार्य जी परमेश शक्ति कहते हैं। परमेश्वर की शक्ति है -इस माया शक्ति की हम क्या वर्णन कर सकते हैं। ये सत्य है -ऐसा भी नहीं कह सकते , तो यह झूठ है ? ऐसा भी नहीं कह सकते। ये ब्रह्म से भिन्न है , ऐसा भी नहीं कह सकते। ये ब्रह्म से अभिन्न है ? ऐसा भी नहीं कह सकते। तो हम इसके बारे में क्या कह सकते हैं ? महाद्भुतम -अनिर्वचनीयं। इसके बारे में हम इतना ही कह सकते हैं कि, महा अद्भुत माया का एक खेल चल रहा है, जो न होते हुए भी होता हुआ सा दिखाई देता है। लेकिन ये सारी बातें बुद्धि से समझने वाली बात नहीं है। आप कितना भी बुद्धि लगा लीजिये। कहीं नहीं पहुँचोगे आप। यहाँ पर समर्पण और भक्ति आनी चाहिए ! (1:09:59) ईश्वर के चरणों में जब हम समर्पित (Dedicated) होते हैं। यह माया शक्ति किसकी शक्ति है ? उसी परब्रह्म की अपनी शक्ति है। उसमें जब तक हम अपने आप को परिपूर्ण रूप से समर्पित नहीं करते , तब तक बुद्धि से आप कितना भी समझने का प्रयास कर लीजिये, नहीं जान पाएंगे। इसीलिए इसको अतीन्द्रिय कहा गया है न । शास्त्र की परिभाषा में ही हमने देखा था - शास्त्र वो है , जो हमको इन्द्रियों से समझ में नहीं आता, उसको जो हमें समझा देती है , उसको शास्त्र कहते हैं। हमको कहीं न कहीं बुद्धि के दायरे से हटकर के , सपर्पण - अहंकार का समर्पण ! (1:10:33) अहंकार का समर्पण यही हमारी प्राथमिक साधना हो जाती है ! तत्व क्या है ? तत्त्व वो है -एक चीज जो जैसा है - उसका जो असली स्वरुप है। उस असली स्वरुप में ही उसका ज्ञान प्राप्त करना। (जैसे घड़ा क्या है ? मिट्टी के सिवा कुछ नहीं है।) वो तत्वज्ञान हुआ। आप उस वस्तु के बारे में कुछ कल्पना कर सकते हो। उस वस्तु की कल्पना एक रूप में कर सकते हो , या दूसरे रूप में कर सकते हो। या अनंत रूपों में उसकी कल्पना हो सकती है। कल्पना तो कल्पना ही होती है, लेकिन जो तत्त्व है -वो कल्पनाओं के परे वह वस्तु जैसा है, ठीक वैसा ही उसका ज्ञान प्राप्त करवा देना- यही सभी शास्त्रों का लक्ष्य है। उपनिषद के महावाक्य तत्वज्ञान की बात करते हैं। भगवतगीता भी तत्वज्ञान की बात करती है। 'ईश्वर को तत्वतः जान लेना' यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण यही बात कई बार कहते हैं। जो मुझे तत्वतः जानता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता , वो मुझे ही प्राप्त हो जाता है।  
जन्म कर्म  च मे दिव्यम् एवम् यः वेत्ति तत्त्वतः। 
 त्यक्त्वा देहम् पुनः जन्म नः एति माम् एति सः अर्जुन।।
(4:9) 

हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है, इस प्रकार जो पुरुष तत्त्वत:  जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता;  वह मुझे ही प्राप्त होता है, अर्थात मुक्त हो जाता है।। 
तत्वतः शब्द भगवत गीता में कितनी ही बार आया है। भगवान श्री कृष्ण सब समय अपनी बात कहते हैं - तुम मेरी शरण में आओ ! तुम मेरे पास आओ। यह सुनते ही हम तुरंत उनका रूप क्या सोच लेते हैं - वही बाँसुरी , मोरमुकुट धारी ! लेकिन भगवान श्री कृष्ण गीता में जब भी अपनी बात कर रहे हैं - मामेकं शरणं व्रज ! तो वे देह नहीं आत्मा की बात कर रहे हैं, परब्रह्म की बात कर रहे हैं। (1:12:35) उस तत्व की बात कर रहे हैं , जो हमारा भी सत्य स्वरुप है। " ईश्वर का तात्विक ज्ञान और आपका जो सत्य स्वरुप है" - यह दो अलग अलग चीजें नहीं है। इस बात को हमें ठीक से समझ लेनी चाहिए। हमारा जो अपना सत्य-स्वरुप है वह ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) के स्वरुप के साथ एक ही है। लेकिन यह सच्चाई भी हमें साधना से ही समझ में आती है। राग और वैराग्य क्या है ? राग का मतलब क्या है ? आप किसी शरीर पर मोहित हो जाते हो। राग कहते हैं किसी शरीर के प्रति आसक्ति को , किसी भी बच्चा -जवान के शरीर में आकर्षण या  attachment राग है। राग के विपरीत है विराग। वैराग्य शब्द की उत्पत्ति विराग शब्द से हुई है। सरल भाषा में राग का मतलब है - किसी भी शरीर में चिपक जाना। राग को कल्पना में नहीं  व्यवहार में देखिये कि आप कैसे किसी में चिपक जाते हैं। अपने बच्चों से , पति पत्नी से , पत्नी पति से , संसार के धन सम्पत्ति से, नाम-यश से - इन सभी चीजों से कैसे हम चिपक जाते हैं ? चिपक गए तो उससे फिर हम अलग नहीं हो पाते हैं। इसी चिपकाओ को राग कहते हैं। हम उस चीज को छोड़ना नहीं चाहते हैं। अब इसका उल्टा है विराग। 'Absence of Rag' - राग का बिल्कुल अभाव। आप सभी के साथ हो लेकिन कहीं भी चिपके नहीं हो। यही सुंदर ढंग से जीवन जीने की कला है। This is the art of living !
 अब वैराग्य का मतलब क्या है ? क्या आप अपनी पत्नी को छोड़ दोगे ? (1:14:38) ऐसी गल्ती नहीं कीजियेगा। बच्चों को छोड़ देना है क्या ? वैराग्य का अर्थ यह नहीं है। सबके साथ रहना है , लेकिन किसी के भी साथ चिपकना नहीं है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही 'art of living' सिखा रहे हैं। अर्जुन तो सब कुछ छोड़ करके जाना चाहता था। भागना चाहता था। कृष्ण कहते हैं -मूर्ख है ? कहाँ भागेगा तू ? सबके साथ रहना है , लेकिन कहीं चिपकना नहीं है। और वहाँ पर भगवान कृष्ण कितनी सुंदर बात कहते हैं ? 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।।

।।5.10।। जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है,  वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता।। 
जैसे कमल का जो फूल है , उसके जो पत्ते हैं , वो बिल्कुल पानी में हैं। पानी से भाग नहीं रहा है। लेकिन वो पानी जो है वो पत्तों से चिपक नहीं सकता। न वो पत्ता पानी से चिपकता है। थोड़ा सा उठा लीजिये सारा पानी गिर जायेगा। यही जीने की कला है। इसलिए कहीं भागना नहीं है , कहीं दौड़ना नहीं है। लेकिन चिपकना नहीं है , सबके साथ रहना है। सबकी सेवा करनी है। सबकी देखभाल करनी है। लेकिन जानना है कि ये सब दीखता है , लेकिन वास्तविक में है नहीं। सत्य वस्तु एक ही है और वो है ईश्वर। ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी सत्य नहीं है। और उस ईश्वर की खोज में हम अपने जीवन को लगाएं। यह हमारे जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए। एक बहुत सुंदर प्रश्न आया - क्या बीज और वृक्ष दो अलग अलग चीजें हैं ? आप जिसको विश्वप्रपंच कह रहे हो, इसका बीज क्या है ? ईश्वर ही है ! तो ये विश्वप्रपंच क्या है ? इसके सत्य स्वरुप में देखो तो ईश्वर ही है। आप जिसको पेड़ कह रहे हो।  वो पेड़ क्या है ? बीज ही है। बीज का जो व्यक्त रूप है , वो वृक्ष है। और वृक्ष का जो अव्यक्त रूप है , वो बीज है। बीज के व्यक्त रूप को हमलोग वृक्ष कहते हैं। और वृक्ष का जो अव्यक्त रूप है, उसको बीज कहते हैं। बीज और वृक्ष दो अलग चीजें हैं क्या ? वृक्ष के रूप में बीज ही है। (जगत के रूप में ब्रह्म ही है।) वह बीजात्मक ईश्वर ही है इस विश्वप्रपंच के रूप में। यह ज्ञान जिस दिन हो जायेगा हम मुक्त हो जायेंगे। विश्वप्रपंच कहाँ  है? अज्ञान में हमको लगता है कि जैसे विश्वप्रपंच है , जगत है। जिस दिन आप जान जाओगे वो ईश्वर ही बीजात्मक है , वही इस विश्वप्रपंच के रूप में है। जिस दिन हमें यह ज्ञान प्राप्त होगा , उस दिन हम मुक्त हो जायेंगे। तो यही रुक जाते हैं। ॐ शांति ! 
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[" यदि मैं ईश्वर हूँ, तो मेरी आत्मा सर्वोच्च सत्ता (पुरुषोत्तम) का मन्दिर है, और मेरी हर क्रिया उपासना का एक अंग होनी चाहिए। भक्ति केवल भक्ति के लिए, कर्तव्य पालन केवल कर्तव्य के लिए, पुरस्कार की आशा अथवा दण्ड के भय बिना होना चाहिए। इस प्रकार मेरे धर्म का अर्थ है -प्रसार। और प्रसार का उच्चतम भाव में अर्थ होता है - साक्षात्कार और अभिव्यक्तिकरण। केवल शब्दों की असपष्ट गुनगुनाहट ये घुटनो के बल बैठना नहीं।" 

(- स्वामी विवेकानन्द : हिन्दू धर्म /खण्ड-१/२६१)

If I am God, then my soul is a temple of the Highest, and my every motion should be a worship — love for love's sake, duty for duty's sake, without hope of reward or fear of punishment. Thus my religion means expansion, and expansion means realisation and perception in the highest sense — no mumbling words or genuflections.] 

" यदि मैं स्वयं अपने भाग्य का निर्माता नहीं हूँ, तो मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। अपने इस अस्तित्व की दुर्गति के दायित्व को मैं स्वीकार करता हूँ और कहता हूँ कि पूर्वजन्म में मैंने जो बुरा किया है, उसका मैं प्रतिकार करूँगा। और यही हमारी आत्मा के पुनर्जन्म का दर्शन है। हम इस जीवन में पिछले जीवन का अनुभव लेकर आते हैं , और हम सदैव श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर होते जाते हैं, अन्ततः पूर्णता की प्राप्ति होती है। " (१/२६०) 

" If I cannot be the maker of my own fortune, then I am not free. I take upon myself the blame for the misery of this existence, and say I will unmake the evil I have done in another existence. This, then, is our philosophy of the migration of the soul. We come into this life with the experience of another, and the fortune or misfortune of this existence is the result of our acts in a former existence, always becoming better, till at last perfection is reached.]    

   आचार्य शंकर का अद्वैत वेदांत : माया

आचार्य शंकर ने परमेश शक्ति - माया के लिए अव्यक्त, अविद्या , अध्यास , अध्यारोप , भ्रान्ति, विवर्त, भ्रम, नाम-रूप, मूल-प्रकृति आदि शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ मे किया है। 

>>माया रहती कहाँ है ? ( माया का आश्रय स्थान ):

     आचार्य शंकर के अनुसार माया ब्रम्ह में निवास करती है। माया का आश्रय ब्रह्म है फिर भी  ब्रह्म माया से प्रभावित नहीं होता। (जिस प्रकार जादूगर जादू की प्रवीणता से स्वयं प्रभावित नहीं होता।) ब्रह्म अनादि है उसी प्रकार उसमे निवास करने वाली माया भी अनादि है। दोनो में तादात्म्य सम्बन्ध है। माया ब्रह्म की शक्ति है जिसके आधार पर वह विश्व का निर्माण करता है। माया के कारण हि निष्क्रीय ब्रह्म सक्रीय हो जाता है। माया सहित ब्रह्म हि ईश्वर है। 
सांख्य दर्शन की प्रकृति के समान हि माया भी त्रिगुणात्मक, भौतिक ,अचेतन एवँ जड़ है। माया मोक्ष प्राप्ति मे बाधक है। आचार्य शंकर के अनुसार मोक्ष प्राप्ति तभी संभव हो सकती है जब अविद्या (अस्मिता) का जो कि माया का हि रूप है अंत हो जाए।  आत्मा मुक्त है पर वह अविद्या के कारण वह खुद को बंधन ग्रस्त पाती है। बंधन ग्रस्त हो जाती है,माया परतंत्र है। ( जबकी सांख्य की प्रकृति स्वतंत्र है।)

माया के कार्य:  माया के दो कार्य हैं ..

१.आवरण (concealment ): माया के कारण वस्तु पर आवरण / पर्दा पड़ जाता है। माया (काली माता) वस्तु (शिव) के वास्तविक स्वरुप को ढँक देती है। जिस प्रकार रस्सी मे सर्प का भ्रम होने पर, सर्प रस्सी के स्वरुप पर पर्दा डालने का कार्य करता है। यह माया का निषेधात्मक कार्य है। 

२. विक्षेप (projection) : माया सत्य के स्थान पर दूसरी वस्तु को उपस्थित करती है। माया का यह भावात्मक कार्य विक्षेप कहलाता है। जैसे रस्सी के स्थान पर सर्प को लाना। माया अपने आवरण शक्ति की वजह से ब्रह्म को ढँक लेती है। और प्रक्षेप शक्ति के कारण उसके स्थान पर नाना रूपात्मक जगत की प्रतीति कराती है। सत्य पर पर्दा डालना और असत्य को प्रस्थापित करना माया के दो मुख्य कार्य हैं। 

माया की विशेषताएं :

1. माया अध्यास ( superimposition) रूप है। जहाँ जो वस्तु नहीं है वहाँ उस वस्तु को कल्पित करना अध्यास कहा जाता है। जिस प्रकार रस्सी मे साँप का आरोपण होता है ..उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म (परदा) में जगत अध्यसित हो जाता है। 

2. माया ब्रह्म का विवर्त मात्र है, जो व्यावहारिक जगत रूप में दिख पड़ता है। 

3. माया ब्रह्म की शक्ति है जिसके आधार पर वह नाना रूपात्मक जगत का खेल प्रदर्शन करता है। 

4.माया महाद्भुत और अनिर्वचनीय है (क्योकि  माया ना हि सत् है ना हि असत् ना हि दोनो !)

5.माया का आश्रय स्थल ब्रह्म है। परन्तु ब्रह्म माया की अपूर्णता से अछूता रहता है। 

6. माया अस्थायी है ..इसका अंत ज्ञान से हो जाता है जैसे ज्ञान होते हि / प्रकाश आते हि ..सर्प का अंत हो जाता है और मात्र रस्सी शेष रह जाता है। 

7. माया अव्यक्त और भौतिक है। 

8. माया अनादि है। उसी से जगत की सृष्टि होती है। ईश्वर की शक्ति होने से माया ईश्वर के समान अनादि है।  
9. माया भावरूप है (निषेधात्मक नहीं ) क्योकि माया के द्वारा हि ब्रह्म सम्पूर्ण विश्व का प्रदर्शन करता है। माया हि विश्व को प्रस्थापित करती है।
    
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी/ 
https://pandyamasters.blogspot.com/2012/07/blog-post_05.html
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द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥
          - मुण्डकोपनिषद् ३.१.१
यह मंत्र उपनिषद् के सबसे सुन्दर और गूढ़ प्रतीकों में से एक है। इसमें दो पक्षियों के माध्यम से जीव और ईश्वर — आत्मा और परमात्मा — के सम्बन्ध की व्याख्या की गई है। वृक्ष पर बैठे दो समान, सखा-सदृश पक्षी, वस्तुतः प्रतीक हैं — एक भोगी जीव का, दूसरा साक्षी ब्रह्म का। भगवान शंकराचार्य इस मंत्र की व्याख्या करते हुए दिखाते हैं कि यह द्वैत केवल प्रतीत है; तात्त्विक रूप में दोनों एक ही ब्रह्मस्वरूप हैं।

आदिगुरु शंकराचार्य कहते हैं कि “द्वा सुपर्णा” — ये दो पक्षी एक ही चेतन तत्त्व के दो उपाधिसंवलित रूप हैं। एक जीव है, जो वृक्ष रूपी शरीर में कर्मफल का पिप्पल (स्वाद) लेता है — “पिप्पलं स्वाद्वत्ति”; दूसरा ईश्वर है, जो साक्षीभाव से देखते भर हैं — “अनश्नन् अभिचाकशीति”।

ईश्वर भोग में लिप्त नहीं, केवल ज्ञानमात्र स्वरूप हैं; जीव अविद्या के कारण भोग में रत है, और सुख-दु:ख में फँसा हुआ है। किन्तु शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि यह भिन्नता भी माया-जन्म है। वास्तव में यह जीव भी वही ब्रह्म है, जो अज्ञानवश अपने सत्य स्वरूप को भूलकर देहात्मबुद्धि में फँस गया है।

इस मंत्र में वृक्ष है — शरीर, एक पक्षी है जीव, दूसरा ईश्वर या साक्षी आत्मा। किन्तु यह द्वैत प्रतीत मात्र है। अद्वैत वेदान्त कहता है — जब अज्ञान हटता है, तब ज्ञानी देखता है कि जो साक्षी था, वही मैं हूँ — सोऽहम्।

ईश्वर और जीव के बीच कोई वस्तुगत भिन्नता नहीं है — केवल उपाधिभेद है। एक ही सूर्य जल में अनेक रूपों में प्रतिबिम्बित हो, ऐसा प्रतीत होता है, पर वह सूर्य तो एक ही है — यही शंकर भाष्य का निष्कर्ष है।

“द्वा सुपर्णा” मंत्र द्वैत के अनुभव से अद्वैत की यात्रा का संकेत है। जो पहले भोगी और भोक्ता प्रतीत होता है, वही ज्ञान होने पर ज्ञाता और ब्रह्म रूप में स्थित हो जाता है। शंकराचार्य की दृष्टि में यह उपनिषद् का प्रतीकात्मक वर्णन आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया है — अविद्या से विद्या की ओर, जीवभाव से ब्रह्मभाव की ओर।

[Swami Avdheshanand
@AvdheshanandG ] 

[ और 'वेद सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व उत्पन्न हुए', इससे यह भी नितान्त स्पष्ट हो जाता है कि परमात्मा का मनुष्य जाति पर कितना अनुग्रह है। मनुष्य शब्द की व्युत्पत्ति यह है कि 'मननात् मनुष्यः' अर्थात् जो मनन कर सकता है उसे मनुष्य कहते हैं। यद्यपि मनुष्य विचारवान् होने से तथा उन्नत अन्तःकरण या विवेक-युक्त होने से श्रवण-मनन -निदिध्यासन करने का सामर्थ्य रखता है, तथापि यदि उसे किसी निर्जन वन में रख दिया जाय जहां मृत्यु-पर्यन्त उसका किसी भी  'मनुष्य'  (विवेकी-ब्रह्म सत्य-जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मैव का बोध रखने वाले सद्गुरु और शास्त्र) से सम्बन्ध न हो तो वह केवल अपनी बुद्धि के आधार पर कभी भी उन्नति न कर सकेगा और सर्वथा ज्ञान-शून्य रहेगा। यदि परमात्मा सृष्टि के प्रारम्भ में वेद का ज्ञान न देता तो अभी तक सब मनुष्य पशु के समान बने रहते।]

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'मैं कौन हूँ- का विवेक' जाग्रत करना , अर्थात 'मुझ' अमुक नाम-रूप वाले जीव का परमेश्वर, परब्रह्म के साथ क्या सम्बन्ध है , इसको अनुभव करना :

[Session-2:(1:26:38)]


Purushottama Yoga of Bhagavad Gita by Swami Shuddhidananda (Session-2)

जीते जी (while alive) - 'अर्थात इसी शरीर में रहते हुए', इस बात अपने अनुभव से जान लेना कि 'मुझ' अमुक नाम -रूप वाले जीव का परमेश्वर , परब्रह्म (सच्चिदानन्द) के साथ क्या सम्बन्ध है ? वास्तव में मैं कौन हूँ ? Who am I? यदि यह प्रयत्न हम नहीं करते हैं , तो हमारे शास्त्रों के अनुसार यह दुर्भाग्य पूर्ण है। क्योंकि सभी प्राणियों में मनुष्य ही एक मात्र ऐसा जीव है, जो इसको (इस नित्य-अनित्य विवेक को) कर सकता है।  


लब्ध्वा कथञ्चिन्नरजन्म दुर्लभं, 
तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् ।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढधीः,
           स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसङ्ग्रहात् ॥4॥

{लब्ध्वा कथञ्चित् नर-जन्म दुर्लभम्, 
तत्र अपि पुंस्त्वम् श्रुति-पार-दर्शनम्। 
 यः स्व आत्म -मुक्तौ  न यतेत मूढ-धीः,
सः हि आत्म-हा स्वम् विनिहन्ति असद्-संग ग्रहात् ।

इतः को न्वस्ति मूढात्मा,
 यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति ।
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य,
 तत्रापि पौरुषम् ॥5॥ 

{इतः को नु अस्ति मूढात्मा, 
यः तु  स्वार्थे प्रमाद्यति। 
दुर्लभम् मानुषम् देहम् प्राप्य,
तत्र अपि पौरुषम्।।}   

देव दुर्लभ मनुष्य शरीर में जन्म लेने के बाद भी अगर कोई व्यक्ति इस सत्य को, कि ~ " वास्तव में मैं कौन हूँ ?  Who am I? अमुक नाम-रूप वाले 'मुझ' विवेकी 'जीव' (मनुष्य) का परमेश्वर, परब्रह्म (सच्चिदानन्द) के साथ (मेरा) क्या सम्बन्ध है ? " अगर कोई व्यक्ति इस 'सत्य' को खोजने में अपने जीवन को समर्पित न करे; तो यह आत्महत्या करने के समान है। [देव दुर्लभ मनुष्य शरीर, उसके साथ पौरुष अर्थात 'Manliness' - अर्थात इन्द्रियातीत सत्य को जानने का साहस, दृढ़ संकल्प और धैर्य, पुंस्त्वम् -पुरुषत्व या पौरुषम्; 'पौरुष'-Manliness : अर्थात इन्द्रियातीत सत्य को जानने का साहस, दृढ़ संकल्प और धैर्य ! इसके साथ - साथ ही, श्रीरामकृष्ण- विवेकानन्द (गुरु-शिष्य परम्परा) में गुरु और शास्त्र (वेदों और उपनिषदों) में प्रतिपादित आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध की शास्त्रीय समझ भी यदि मिल जाए तो यह अत्यंत दुर्लभ संयोग है। ये तीनों दुर्लभ संयोग मिल जाने के बाद भी यदि कोई व्यक्ति- परमेश्वर, परब्रह्म (सच्चिदानन्द) के साथ (मेरा) क्या सम्बन्ध है ? "~  इस 'सत्य' को खोजने में अपने जीवन को समर्पित न करे; तो यह आत्महत्या करने के समान है। इसलिए विवेकचूड़ामणि के 5 वें श्लोक में शंकराचार्यजी कहते हैं -"दुर्लभम् मानुषम् देहम् प्राप्य,तत्र अपि पौरुषम् " अर्थात देव दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पौरुष Manliness, अर्थात इन्द्रियातीत सत्य को जानने का साहस, दृढ़संकल्प और धैर्य  को पाकर भी अगर कोई व्यक्ति स्वार्थ-साधन में (ईश्वर के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है , इसे जान लेने में) प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ माने मूर्ख व्यक्ति और कौन होगा ? दादा कहते थे - स्वामी विवेकानन्द ने यह महावाक्य- " पौरुष मेरा नया महावाक्य है!" 'Manliness is my new gospel!' विवेक-चूड़ामणि के इसी श्लोक से लिया था! यह दोनों श्लोक विवेकचूडामणि शास्त्र  (शंकराचार्य कृत) का चौथा और पाँचवाँ श्लोक है, जो मनुष्य जन्म की महत्ता और मैं कौन हूँ ? यानि अपने 'सत्य' स्वरूप को जानने के प्रयास की अनिवार्यता को स्पष्ट करता है। इसमें आदि शंकराचार्य मनुष्य को चेतावनी देते हैं कि यह जीवन अत्यंत दुर्लभ अवसर है, जिसे व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए।] 
ऐसे विवेक चूड़ामणि में कहा गया है। आत्महत्या का मतलब क्या है ? (2:07) 'शरीर का मर जाना '- यह मृत्यु नहीं है ! इन्द्रियातीत सत्य को न जानना ही मृत्यु है ! जब तक हम 'उस सत्य को' नहीं जानते हैं , तब-तक हम सब मृत्यु ग्रस्त हैं। और यह जो संसार में जीवन-मरण का चक्र है , ये अनवरत चलता रहेगा। इसलिए भगवान श्री कृष्ण गीता के पन्द्रहवें अध्याय के शुरुआती श्लोकों में हमारे अंदर 'विवेक' और 'वैराग्य' को उत्पन्न करने के लिए , इस विश्वप्रपंच का स्वरुप क्या है , यह हमें समझा रहे हैं। हमको ये समझना यह है कि यह जो विश्व-ब्रह्माण्ड है, अश्वत्थ वृक्ष के समान है, और यह शाश्वत नहीं है। ये विश्व-ब्रह्माण्ड हमको सत्य सा प्रतीत हो रहा है -लेकिन सत्य नहीं है। (सूर्योदय-सूर्यास्त, चंद्र-ग्रहण , सूर्य -ग्रहण निश्चित समय और तिथि पर हो रहे हों तब भी ये सत्य नहीं हैं !!???) ये विद्यमान सा लग रहा है , किन्तु वास्तव में विद्यमान नहीं है। जगत के रूप में कुछ और ही यहाँ पर विद्यमान है। क्या विद्यमान है ? यही खोज का विषय है(3:14) हमको लगता है यहाँ पर विश्व-ब्रह्माण्ड विद्यमान है , शास्त्र (और गुरु) कहते हैं, कि ईश्वर मात्र ही विद्यमान हैजगत को देखने के दो पक्ष हैं। हमको लगता है -यहाँ जीव है, विश्वब्रह्माण्ड है। शास्त्र और गुरु कहते हैं - कहाँ जीव है ? कहाँ विश्व-ब्रह्माण्ड है ? यहाँ एक ईश्वर से अतिरिक्त दूसरा कुछ है ही नहीं। तो हम समझ सकते हैं कि इस जीव-जगत के बारे में हमारा जो आज का बोध है, वो सत्य से कितना विपरीत है ? दुबारा सुन लीजिये। अपने विषय में - मैं कौन हूँ ? इस विषय में -(अनित्य ,नश्वर, M/F शरीर मात्र हम हैं?) हमारा जो आज का बोध है -और सामने इस विश्व-ब्रह्माण्ड को जैसा देख रहे हैं, इस विश्व-ब्रह्माण्ड के विषय में आज हमारी जो धारणा है। ये सच्चाई से कितना कोसों-कोस दूर है। यही मनुष्य जीवन की विडंबना है, और हम मिथ्या जगत में फँसे हुए हैं। इस जगत के (इन्द्रिय विषयों) प्रति सत्यत्व बुद्धि से ऊपर उठे बगैर कोई व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता।  
     इसीलिए हमारे भीतर विवेक-वैराग्य जाग्रत करने हेतु भगवान श्रीकृष्ण पहले इस सत्य जैसा प्रतीत होने वाले विश्व-प्रपंच के बारे में हमें यह बता रहे हैं, बच्चों जान लो कि, यह जो विश्व-ब्रह्माण्ड दिख रहा है, यह शाश्वत नहीं है - ये अश्वत्थ है ! यह 'प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव' - बदलने वाला है। आपके देखते -देखते ही हर वस्तु नाश को प्राप्त हो रही है। कुछ भी आप पकड़ के नहीं रख सकते हो। कोई आज तक जगत को प्राप्त करके तृप्त नहीं हो सका है। तो पन्द्रहवें अध्याय प्रथम श्लोक के प्रथम पंक्ति में हमने देखा था कि , ये जगत  -"ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्, अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम्।"  छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।। (15.1) 
    'ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम् ' में 'ऊर्ध्वमूलम् कहने का तात्पर्य' दिशा की दृष्टि से ऊपर नहीं,बल्कि  जो परब्रह्म हमारे ह्रदय में 'अव्यक्त' रूप से बैठा है। वो अव्यक्त है, वो बीज है, वो श्रेष्ठ है। इस विश्व-ब्रह्माण्ड रूपी वृक्ष का जो बीज है, वह अव्यक्त है। और जो अव्यक्त होगा वो श्रेष्ठ होगा। जो व्यक्त है वो अपकृष्ट है। जो पेड़ दीखता है , वह उस बीज में से उत्पन्न हुआ है जो नहीं दीखता है। तो ऐसा यह ऊर्ध्वमूल और अधः शाख रूपी यह विश्व-प्रपंच है। और अश्वत्थ है - मतलब शाश्वत नहीं है। और इसको 'प्राहुः अव्ययम्' - अव्ययं इसलिए कहा गया है, कि ये तब तक ये अनवरत चलता ही रहेगा जब तक जीव ईश्वर को या परब्रह्म के तत्वज्ञान को अनुभव नहीं करता। -इसीलिए अव्ययं - तब तक ये खत्म नहीं होगा। 
अब दूसरी पंक्ति में कहते हैं - " छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।" कोई भी वृक्ष जीवित कैसे रहता है ? वृक्ष अपने पत्तों के कारण जीवित रहता है। ये 'pure science' है , हम जानते हैं कि वृक्ष अपने पत्तों के द्वारा ही साँसे लेता है। इसको हमलोग विज्ञान में प्रकाश-संश्लेषण या 'Photo-synthesis' कहते हैं। वृक्ष पत्तो से साँसे लेता है और वो जीवित रहता है। उसी प्रकार ये विश्व-ब्रह्माण्ड रूपी वृक्ष , ये कैसे जीवित है ? इसके पत्ते कौन से हैं ? छन्द- छन्दांसि यस्य पर्णानि। इसके 'पर्ण ' यानि पत्ते कौन से हैं ? छन्द का मतलब यहाँ क्या है ? वेद ! आप सोचेंगे  इस जगत्प्रपंच के पत्ते 'वेद' कैसे हुए ? यहाँ पर वेद का मतलब है कर्म, कर्मकाण्ड ! यहाँ पर जीव जैसे कर्म करता है , वो कर्म उसी पत्ते के समान है, जिस पत्ते के कारण वृक्ष जीवित रहता है। उसी प्रकार हमारा जो कर्म है, वही इस संसार गति को चलाये रखता है। व्यक्ति जैसे कर्म करता है, वैसे फल पाता है। उस फल को पाने के लिए दुबारा और कर्म करता है। और फल पाता है , तो यह जो कर्म और उस कर्म का फल पाने जो चक्र है, इसी के कारण यह संसार-वृक्ष  जीवित है। यह प्रतिष्ठित है। यह चलता रहता है। जिसप्रकार वृक्ष जीवित रहता है और फलता है , फूलता है। उसी प्रकार यह विश्वप्रपंच भी तब- तक फलता फूलता रहेगा, जब तक ये कर्म और कर्मफल का चक्र चलता रहेगा(7:38) और इस कर्म और कर्मफल के पीछे है - "अविद्या" (अज्ञान -अस्मिता) जो हमारे 'विवेक' को ढँक देती है। अज्ञान/अविद्या /माया ? के कारण व्यक्ति अपने-आप को एक सीमित जीव (M/Fशरीर) समझ लेता है। और अपने को सीमित जीव समझ कर के अपने सामने इस विश्व-प्रपंच को पाता है। और इस विश्व-प्रपंच की चीजों के पीछे (3K के पीछे) दौड़ता रहता है। दौड़ता रहता है। दौड़ता रहता है। चीजों (कामिनी-कांचन) को पाता है , और पाने की इच्छा करता है। वो व्यक्तियों से (M/F) जुड़ना चाहता है। सोचता है 'अमुक' व्यक्ति सम्बन्ध बन जाये तो मैं जीवन में सुखी हो जाऊँगा। बड़ी चिंतनीय बात है। हम सोचते हैं कि 'अमुक' (M/F) से मैं सम्बन्ध बना लूँ , तो मैं सुखी हो जाऊँगा। आजतक कोई हुआ है क्या ? हम सोचते हैं -अमुक वस्तु हमको प्राप्त हो जाये , तो मैं तृप्त हो जाऊँगा। आज तक कोई हुआ है क्या? बहुत से लोग यहाँ व्यस्क और बुजुर्ग लोग भी हैं। अपने जीवन की अनुभूतियों को थोड़ा टटोल करके देखिये। कौन सी वस्तु ने आपको आज तक जीवन में परितृप्त किया है। इन्द्रिय भोग की वस्तुएं हमारे भूख को और भी बढ़ाती है। कामनायें बढ़ती जाती हैं। इस प्रकार व्यक्ति कर्म करता जाता है। व्यक्ति कर्म करता जाता है, करता जाता है और इसी प्रकार यह संसार वृक्ष -अनवरत चलते जा रहा है। इसलिए इस संसार वृक्ष के पर्ण क्या हैं ? कर्म ! कर्म ही इसके पर्ण हैं। 'छन्दांसि ' का मतलब यहाँ लेना चाहिए - कर्म ! सकाम कर्म। फल की इच्छा से किया जाने वाला सकाम कर्म। सकाम कर्म ही वह पत्ता है जो इस संसार वृक्ष को गतिमान रखता है। और यह विश्वप्रपंच चलता ही रहेगा। छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं , जो व्यक्ति इस संसार वृक्ष को इस प्रकार जानेगा वो वेदविद हो गया ! अर्थात वह वेद के सार को समझ रहा है। यह बहुत महत्वपूर्ण घोषणा है। क्या संसार को हमने कभी इस दृष्टि से देखा है क्या ? आज हमलोग इस चर्चा को सुन रहे हैं , तब थोड़ा सा अनुमान हो रहा है , लेकिन जो सर्वसाधारण व्यक्ति है-क्या उसकी दृष्टि संसार के विषय में इस प्रकार है ? तो शास्त्र के अनुसार जो इस विश्वप्रपंच को जानेगा उसको वेदविद - अर्थात विद्वान व्यक्ति कहा गया है। तो हमें अपने अंदर शास्त्र दृष्टि को उत्पन्न करके विवेक-दृष्टि से इस विश्वप्रपंच को देखेंगे , तभी हमारे अंदर वैराग्य की उत्पत्ति होगी। और वैराग्य की उत्पत्ति के बगैर -भगवत तत्व का ज्ञान कभी नहीं होने वाला है, लिख लीजिये । वैराग्य के बगैर हृदय में विद्यमान ईश्वर का जो तात्त्विक ज्ञान है, वह असम्भव है। कभी भी नहीं हुआ , कभी भी नहीं होगा। और उस भगवततत्व-ज्ञान के बिना व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। (11:07) ये एक श्रृंखला है - एक चीज दूसरे से बँधी हुई है -संबन्धित है। इसलिए मुक्ति/ मोक्ष की शुरुआत होती है विवेक और वैराग्य से। उस विवेक और वैराग्य को उत्पन्न करने के लिए ही पन्द्रहवें अध्याय के शुरुआत में विश्व-प्रपंच का एक सुंदर चित्र हमारे सामने अंकित करते हैं। 
>>इस सृष्टि का और विश्वप्रपंच का दो प्रकार के बीज हैं - सृष्टि का एक मूल बीज है, और दूसरा एक निचले स्तर का बीज है। तो इस श्लोक के प्रथम पंक्ति में जो कहा गया - ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्, 'अश्वत्थम्' - इस सृष्टि का बीज कहाँ है ? ऊर्ध्वमूलम् - मतलब एक दम हमारे ह्रदय में ही है। हमारे ह्रदय में बैठा हुए माया-युक्त जो ब्रह्म है, वही इस पूरे विश्वप्रपंच का प्रधान बीज है, विश्व-ब्रह्माण्ड का मूल है। यही प्रधान बीज है। अब एक बार ईश्वरीय सृष्टि हो जाने के बाद, जीव की स्तर पर जीव (अस्मिता?) स्वयं एक द्वितीय बीज बन जाता है। जहाँ से सृष्टि फैलती है। एक ईश्वर स्वयं जो बीज है , वो मूल बीज है। वो प्रधान बीज है , वहाँ से जब सृष्टि निर्मित हो जाती है, तब इस जीव के स्तर पर - आपके और मेरे स्तर पर, हम स्वयं एक बीज बन जाते हैं। हमारे स्तर पर - यहाँ से सृष्टि की शाखायें और भी प्रसृत होती हैं। पहले तो मूल शाखा, यह विश्व-ब्रह्माण्ड मूल बीज से निकली। और फिर जीव के स्तर पर हम स्वयं (अविद्या -अस्मिता) एक द्वितीय स्तर के बीज वन जाते हैं। जहाँ से शाखायें और भी चारों ओर फैलने लगती है। कैसे ? अविवेकी जीव जब कर्म करेगा तो कामना से युक्त कर्म ही करेगा। सकाम कर्म करेगा, तो फल पायेगा। उस फल के फल को पाने की इच्छा से वो और भी कर्म करेगा। इस प्रकार जीव (अस्मिता) स्वयं सृष्टि का बीज बन जाता है। यहाँ से सृष्टि और भी फैलती है। तो इसी द्वितीय बीज की बात अगले श्लोक भगवान कहते हैं - 
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा, 

गुण-प्रवृद्धा विषय-प्रवालाः।

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि

कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।

(15.2)

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते

नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलं ,

असङ्ग-शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।

(15.3) 

भगवान श्रीकृष्ण इन तीन श्लोकों में पूरे आध्यात्मिक जीवन की बात अतुलनीय सुंदर शब्दों में हमारे सामने रख रहे हैं - कह रहे हैं -" अधः च  ऊर्ध्वम् प्रसृताः तस्य शाखाः, गुणप्रवृद्धाः विषयप्रवालाः। अधः च मूलानि अनुसन्ततानि, कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।। " अब यहाँ से इस जीव के स्तर से शाखायें दो दिशाओं में और भी फ़ैल रही हैं। एक ऊपर की और दूसरी नीचे की ओर। इसका क्या मतलब है ? जीव जैसा कर्म करेगा , वैसा फल पायेगा। शास्त्रों में कहा गया है -* पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन* -व्यक्ति जब पुण्य कर्म करता है, तो उसको पुण्य फल मिलता है। और पाप कर्म का फल पाप ही होता है। कर्म के अनुसार व्यक्ति फल पाता है। कोई व्यक्ति अच्छा कर्म करता है , तो उसकी गति उर्ध्व गति होती है। जो बुरे कर्म करते हैं -मनुष्य शरीर में रहकर पशुतुल्य कार्य करते हैं -जो हम सोंच भी नहीं सकते हैं। इसके बारे में भृतृहरि ने कहा है -मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ! 
 
येषां न विद्या न तपो न दानं,
 ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।

ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, 
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।

अर्थ : जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक पशु । उनकी दुर्गति होती है। दुर्गति क्या है ? इस शरीर के पश्चात् जो अगला शरीर वो प्राप्त करता है , निम्न योनियों का शरीर प्राप्त करता है। जब व्यक्ति कुछ अच्छा कर्म करता है , निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा करता है। उसकी गति उर्ध्व गति होती है। वह ऊँचे योनियों को प्राप्त करता है। वह देव शरीर को प्राप्त करता है। तो कर्म के अनुसार जीव की गति होगी। तो इस प्रकार जीव के स्तर से भी शाखायें फैलती हैं , और दो दिशाओं में फैलती हैं। या तो ऊर्ध्वगति संभव है या फिर अधोगति सम्भव है। भगवान कृष्ण कहते हैं -गुण-प्रवृद्धा विषय-प्रवालाः। ये गति गुण से और भी सशक्त होती है। कैसे सशक्त होती है ? गुणों के द्वारा। गुण क्या हैं ? सत्व, रजस और तमस ये तीन गुण हैं। पूरी सृष्टि तीन गुणों का खेल है। गुण इस प्रवृत्ति को और भी सुदृढ़ बनाती है। ये हमें बाँध लेती है। रस्सी को भी संस्कृत में गुण कहते हैं। तमोगुण और रजोगुण हमें बांध देती है,लेकिन सतोगुण मोक्षकारी है। संसार में बंध जाने पर शाखायें और भी फैलती जाती हैं। और विषय टहनियों के समान हैं, जिसके पीछे- विषयों के पीछे अविवेकी जीव दौड़ता रहता है। और 'अधः च मूलानि अनुसन्ततानि' इस संसार वृक्ष का मूल भी बहुत फैला हुआ है। बरगद के पेड़ का जड़ कितने जगहों से निकलता है ? उसी प्रकार यह जो अज्ञान रूपी बीज है-अविद्या रूपी जो बीज है वो फैला हुआ है। और - इस मनुष्य लोक में ' कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।' इस मनुष्य लोक में बीज के साथ-साथ ही कर्म भी चलता है। बीज (मैं -अस्मिता) के रहने से ही कर्म हो रहा है। और अगर बीज का नाश हो गया तो फिर सकाम कर्म सम्भव नहीं है। सकाम कर्म इस बीज (अहं -अस्मिता) के रहने पर ही सम्भव होता है। इसलिए ये कर्म अनुबन्धिनी है। बीज के साथ -साथ कर्म भी चल रहा है , और ये संसार वृक्ष भी फल-फूल रहा है, और फ़ैल रहा है। ये तब तक चलता रहेगा जबतक कि हम इस संसार वृक्ष के मूल में जाकर के अपने सत्य-स्वरूप का अनुभव नहीं करलें। जब तक हम इन्द्रियातीत सत्य को अनुभव नहीं -करते हैं , तब तक इस संसार-वृक्ष का नाश सम्भव नहीं। (21 :33)
अब पन्द्रहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं- न रूपम् अस्य इह तथा उपलभ्यते, न अन्तः न  च आदिः न च संप्रतिष्ठा अश्वत्थम्  एनम् सुविरूढमूलम् असङ्ग शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा। इस संसार को क्या हम इस प्रकार जान रहे हैं , जिस प्रकार भगवान हमारे सामने रख रहे हैं। भगवान कृष्ण ने जिस रूप में हमारे सामने इस संसार वृक्ष को रखा है , कोई साधारण व्यक्ति इस दृष्टि कभी संसार को देख पाता है ? हमारी जो भी उम्र हो रही हो - क्या हमने आज तक संसार वृक्ष को कभी इस विवेक-दृष्टि से देखा है ? कोई भी साधारण व्यक्ति संसार वृक्ष को इस प्रकार उपलब्धि नहीं कर पाता है। और "न अन्तः न  च आदिः न च संप्रतिष्ठा।" इस न संसार वृक्ष के आदि और अंत को ही आप देख सकते हो। इसका मध्य क्या है ? ये आपको समझ में नहीं आ रहा है। 
इस सृष्टि की शुरुआत कहाँ से हुई ? किसी scientist को पता है scientist लोग कितना भी अपना सिर फोड़ लें, भौतिक विज्ञानी (Physicist) लोग चाहे कितना भी साहसी, दृढ़संकल्प और धैर्य रखने वाले क्यों हों, big-bang या और कुछ भी कहें, जब तक आप सत्य की खोज इन्द्रियों के द्वारा कर रहे हैं, तब तक आप LHC (लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर) में atoms को कितना भी तोड़ते जाइये , आप कभी भी सत्य को इन्द्रियों से नहीं पहचान पाओगे ! (23:35) जब तक व्यक्ति इन्द्रियों से ऊपर उठकर के सत्य का अन्वेषण (आत्मानुसंधान - मैं कौन हूँ ? जानने की चेष्टा ) नहीं करेगा , तब तक वह सत्य का अनुभव नहीं कर पायेगा। यह हमारे ऋषियों का सिद्धान्त है -महावाक्य है ! (अनुसन्धान वाक्य है -अयं आत्मा ब्रह्म !) यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - इस सृष्टि की शुरुआत कब हुई ? किसको पता है ? इसका अंत किसको दिखाई दे रहा है ? मध्य में क्या है ? किसको समझ में आ रहा है ? किसी भी साधारण आदमी को समझ में नहीं आ रहा है। इसकी जो प्रतिष्ठा है - इसके विषय में किसी को क्या पता है ? हम तो इस विश्व-ब्रह्माण्ड को सत्य मान करके ही चल रहे हैं। संसार सत्य है -इस विषय में हमको कोई संशय है ही नहीं ! क्या कॉन्फिडेंस है हमलोग का ? और यही कॉन्फिडेंस हमारी दुर्गति का कारण हो जाता है। हमलोग एकदम निश्चित मानकर चल रहे हैं कि ये जगत जैसा दिख रहा है - ठीक वैसा ही तो है? हमारी दिनचर्या , हमारा सारा व्यवहार - पारस्परिक सम्बन्ध , स्त्री, पुरुष,बच्चे सब कुछ के बारे में हमें एक सत्यत्व बुद्धि है , जिसके कारण हमको लगता है कि यही सत्य है। और इसी संसार में (3K) में हम सब डूबे हुए हैं। आज तक ऐसे ही हमारा जीवन चलता चला आ रहा है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - अश्वत्थम्  एनम् ! मेरे बच्चों जान लो आप जिसको शाश्वत सत्य समझके बैठे हो - ये तो अश्वत्थम् है, अनित्य है। आप इस जगत को (स्थूल शरीर) को सत्य समझकर बैठे हो, ये तो अश्वत्थ है। जो अगले क्षण नहीं रहता उसको हमलोग अश्वत्थ कहते हैं। ये पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड शाश्वत नहीं है। जो शाश्वत नहीं है - उस संसार वृक्ष के साथ हमें करना क्या है ? इस संसार-वृक्ष को जड़ सहित काटकर या उखाड़ कर फेंक देना है(25:53) शब्द बड़े सुंदर हैं - भगवान कह रहे हैं - अश्वत्थम्  एनम् सुविरूढ़ मूलम् असङ्ग शस्त्रेण दृढ़ेन छित्त्वा। इस संसार वृक्ष का मूल यानि जड़ 'सुविरूढ़' है। ये इतना सशक्त है कि इसको काटना बहुत कठिन है। देखिये कैसे हमलोग इस संसार चक्र में फँसे हुए हैं ? पीपल या बरगद के पेड़ का जड़ कितना strong होता है ? तूफान भी उसको हिला नहीं पाता है। क्यों ? उसके जो बीज हैं - जड़ हैं वे अत्यंत सुदृढ़ हैं -अत्यंत strong हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं - यह जो अश्वत्थ रूपी यह संसार वृक्ष का जड़ है वो - सुविरूढ़ है। तो अब इस संसार वृक्ष के साथ क्या करना है ? क्या इस संसार-वृक्ष को पालना -पोसना है ? या काट -फेंकना है ? ये निर्णय हमलोगों को स्वयं करना है। हमलोग कैम्प में आने तक इसीको पाल-पोस रहे थे। अब विवेक जग जाने के बाद क्या करना है ? अब इसको करना है? इस (अविद्या -अस्मिता) को पालोगे , पोसोगे तो दुःख ही मिलेगा। अब इसको और आगे पालना -पोसना नहीं है, "असङ्ग शस्त्रेण दृढ़ेन छित्त्वा " इस संसार वृक्ष का छेदन करना है , इसको काटना है।  शंकराचार्य जी इस जड़ को काटने के विषय में बहुत सुंदर बात कहते हैं - आप अगर किसी पेड़ की एक टहनी को काटिये तो पेड़ मरेगा क्या ? उसके तने को बीच में से भी काटिये वो नहीं मरेगा। फिर उसमें से फुनगी फेंक देगा। इसको काटने का मतलब क्या है ? इसको जड़-सहित उखाड़ फेंकना। (3K : कामिनी- कांचन-कीर्ति Fame, celebrity, यश, ख्याति) शंकराचार्य जी अपने भाष्य में कहते हैं -'संसारवृक्षं सबीजम् उद्धृत्य।' मतलब संसार वृक्ष को सबीज उखाड़ना पड़ेगा। अगर आप बीज को (माने 3K - पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोक- ऐषणा को) छोड़ देते हैं, तब पेड़ दुबारा आएगा। तो इस वृक्ष को  ('3K') को काटेंगे कैसे ? वृक्ष को काटने के लिए हमको किसी औजार की जरूरत होती है। बड़ी -बड़ी आरी होती है। या कुल्हाड़ी से भी पेड़ कटता है। लेकिन कुल्हाड़ी को भी एक दम पजा हुआ और मजबूत होना चाहिए। कुल्हाड़ी का धार एक दम पैना होना चाहिए। धार अगर भोथर हो तो क्या वो पेड़ कटेगा? पेड़ नहीं कटेगा तो , यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं - "असङ्ग शस्त्रेण दृढ़ेन छित्त्वा। असंग शस्त्र से काटना है। असंगता ही शस्त्र है -औजार है , इस असंगता रूपी शस्त्र के द्वारा ये जो अश्वत्थ वृक्ष के सामान जो विश्व-प्रपंच है ,इसको उखाड़ कर फेंकना होगा। "असङ्ग शस्त्रेण दृढ़ेन छित्त्वा।  यहाँ पर शंकराचार्य जी बहुत सुंदर ढंग से एक बात कहते हैं - वे कहते हैं इस संसार-वृक्ष को काटने के लिए आपके पास कोई तेज धार वाली मजबूत कुल्हाड़ी होनी चाहिए , या  तेज आरी के ब्लेड्स होने चाहिए। उसका धार तीक्ष्ण होना तेज धार होना अनिवार्य है। उसी प्रकार ये जो 'असंग रूपी शस्त्र' की बात भगवान कह रहे हैं , इसका भी धार तीक्ष्ण होना 'Sharp edge' होना जरुरी है। ये अगर पैना नहीं है, अगर 'Sharp edge' नहीं है तो पेड़ कटेगा क्या ? उसी प्रकार हमारे अंदर जो असंगता है - इसको भी Sharp बनाना पड़ेगा। अब इसको शार्प बनायेंगे कैसे ? तो बचपन हमलोग देखे है - कुल्हाड़ी -छुरी को धार चढ़ाने वाला व्यक्ति पत्थल का पर रगड़ कर उसको तीक्ष्ण बना देता था। पत्थल पर घिस-घिस कर उसको पैना बना देता है। असंग यानि अनासक्ति -detachment रूपी शस्त्र को पैना बनाने के लिए जो रहस्य की बात शंकराचार्य जी बता रहे हैं - यही जीने की कला भी है। भगवत गीता के एकमात्र सन्देश यही है - असंगता, अनासक्ति -detachment रूपी शस्त्र को हम पैना कैसे बनाएंगे ? तो शंकराचार्य जी कहते हैं -इस असंग रूपी शस्त्र को विवेक रूपी पत्थर के ऊपर उसी प्रकार बारम्बार घिसना होगा, जिस प्रकार हम कुल्हाड़ी या चाकू को पत्थल पर घिस-घिस कर पैना बना लेते हैं। जो इतना पैना असंग शस्त्र होगा उसके माध्यम से आप इस संसार-वृक्ष को समूल उखाड़ फेंकने में सक्षम हो जायेंगे। [असङ्ग शस्त्र से छेदन करना है यानी (3K) पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणादि से उपराम हो जाना ही असङ्ग होना है।  ऐसे असङ्ग शस्त्र से जो कि परमात्मा के सम्मुख होना रूप निश्चय से दृढ़ किया हुआ है, और बारंबार  विवेक अभ्यास रूप पत्थर पर घिसकर पैना किया हुआ है ,  इस संसार वृक्ष को बीज सहित काटकर उखाड़ फेंकना है।] 
(33:03)  श्री कृष्ण ने हमको अध्यात्म जीवन के नाम पर क्या करना है- उसका सार ये सब कुछ यहाँ इन तीन श्लोकों में बता दिया है। आप जप- ध्यान प्रार्थना सब कुछ कीजिये , वो ठीक है। लेकिन जब तक आप इस (3K : पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणादि) में चिपके हुए हैं - कामिनी-कांचन से अनासक्त नहीं हुए हैं। तब तक आप मन (अस्मिता या 3K) के गुलाम ही बने रहेंगे। तो इस शास्त्र का मूल सन्देश क्या है ? चिपकना या आसक्त होना मना है ? नहीं ! -चिपकना सख्त मना है। Sticking is strictly prohibited ! इसमें 'strictly' शब्द बहुत बहुत महत्वपूर्ण है। 'strictly' is very important ! 3K में चिपकने के प्रति थोड़ी सी भी ढिलाई मत कीजिये। थोड़ा भी जगह मत दीजिये। अच्छा कम से कम अपने बच्चों से तो मैं चिपक सकता हूँ। नहीं ! बच्चे को भी विवेक पूर्वक हैंडल कीजिये। (आप कौन हैं ? जगत क्या है ? नित्य -अनित्य विवेक करते हुए लोक -व्यवहार निभाते रहिये।) अगर आप विवेक पूर्वक 'सत्य'(-असत्य -मिथ्या) को नहीं जानते हो , और अगर जगत के साथ (3K के साथ) 'deal' समझौता करते हो , तो निश्चित है कि आप कहीं न कहीं चिपक जाओगे। और बहुत बड़े संकट में घिर जाओगे। (अविद्या -अस्मिता - राग-द्वेष -अभिनिवेश-पंचक्लेश !) क्योंकि जिससे (M/F) आप चिपक रहे हो , वो वास्तविक रूप में वैसा नहीं है। इस बात को समझने में हमारा सारा जीवन चला जाता है। लेकिन जिस दिन हम अपने सत्य स्वरूप को जान जायेंगे हमारा सारा जीवन परिवर्तित हो जायेगा। जिस दिन किसी भी जीव को इस विश्व-प्रपंच के पीछे का सत्य समझ में आ जायेगा उसका थोड़ा सा भी झलक मिल जायेगा , तो अब उस विश्व-प्रपंच के साथ deal करने का, किसी अन्य जीव के साथ लेन-देन करने का जो उसका तरीका है , वही बदल जायेगा। कितना सुंदर जीवन होगा ? यही जीने की कला है - Art of living है। So beautiful! हर व्यक्ति के साथ रहना है , सब किसी की सेवा करना है - सभी का देखभाल करना है , आप को जो भूमिका मिली है - पति या पत्नी , मित्र-पिता -मामा -भैया का वो सारा Role आप play कीजिये। अपना duty आप पूरा कर लीजिये ; पर कहीं भी किसी भी Role से आप चिपकिये मत
      हमारा चरित्र वैसा निर्लिप्त होना चाहिए ? भगवान श्रीकृष्ण गीता 5-10 में कहते है -  जैसे कमल के पत्ते जल में रहते हैं लेकिन पत्तों पर एक बून्द जल नहीं रहता - उस प्रकार का हमारा जीवन होना चाहिए। 
ब्रह्मणि आधाय कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा करोति यः। 

लिप्यते न सः पापेन पद्मपत्रम् इव अम्भसा ।। 

( 5.10)

जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है,  वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से कभी लिप्त नहीं होता।। 
   कितनी सुंदर बात है - संसार छोड़कर कहीं भागना नहीं है। यहाँ -वहां दौड़ना नहीं है। तो इसलिए भगवान श्री कृष्ण हमारे अंदर विवेक-वैराग्य उत्पन्न करने की इच्छा से पहले हमें इस विश्व-प्रपंच की सच्चाई को समझा रहे हैं कि बच्चो जान लो , यह विश्व-प्रपंच जैसा दिख रहा है , वैसा यह नहीं है। यह (स्थूल शरीर) सत्य सा दीखता है , सत्य सा भासित हो रहा है, लेकिन अपने आप में ये सत्य नहीं है। यहाँ जो सत्य वस्तु वो कुछ और है। उस सत्य वस्तु के खोज, "सर्वमंगल मांगल्ये , शिवे सर्वार्थसाधिके" की खोज में ही -  में ही हमें अपने जीवन को समर्पित करना है। अगर हम वो नहीं कर रहे हैं तो हम एक बहुत बड़ा अवसर खो रहे हैं। (35:41) वो अवसर क्या है ? मनुष्य जन्म! इस मनुष्य शरीर में जन्म लेकर भी यदि हमने अपने जीवन को सत्य की खोज में समर्पित नहीं किया, तो हम बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं। समय चला जा रहा है, दिन बीत रहा है

 दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।

कालः क्रीड़ति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः॥1॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्... 

दिन रात में बदल जाता है , रात दिन में बदल जाती है। सुबह के बाद शाम हो जाती है , शाम के बाद सुबह हो जाती है। इस प्रकार एक दिन के बाद दूसरा दिन , दूसरे दिन के बाद तीसरा दिन। दिनों के बाद एक पक्ष हो जाता है, द्वितीय पक्ष हो जाता है। एक मास हो गया। तीन मास हो गया तो एक ऋतू बन जाती है। चार ऋतुओं से एक वर्ष बन जाता है। एक वर्ष के बाद , दूसरा वर्ष -इस प्रकार आपका जीवन -यानि काल का चक्र, 'कालः क्रीड़ति' - ये जो काल का चक्र है वो अनवरत चल रहा है। फिर भी हमारे ह्रदय के अंदर जो आशायें हैं , जो वासनायें हैं , जो कामनायें हैं , यह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। 'कालः क्रीड़ति गच्छति आयुः तत् अपि मुञ्चति न आशावायुः।' तो ऐसी परिस्थिति में हमें करना क्या है ? 

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते। 

संप्राप्ते सन्निहिते मरने , न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे 

 ये भगवान शंकराचार्यजी की अमृत वाणी है, वे कह रहे हैं कि मृत्यु आपके बिल्कुल दरवाजे पर खड़ी है, और आप इस जगत के विषय-भोगों से एकदम चिपक कर - आसक्त हुए बैठे हैं।  मृत्यु दरवाजे पर दस्तक दे रही है -'संप्राप्ते सन्निहिते मरणे' ! मृत्यु बिल्कुल हमारी छाया है, हम समझ नहीं रहे हैं। मृत्यु बिल्कुल परछाईं की तरह हमारे पीछे ही खड़ी है। वो कब हमें दबोच लेगी, ये किसी को पता नहीं है। हम निश्चिन्त होकर यहाँ बैठे है -सब कुछ ठीक चल रहा है। लेकन कल सवेरे मैं यहाँ रहूँगा या नहीं ? - कोई बता सकता है क्या ? कोई गारंटी है क्या? मैं कोई ज्योतिष या भविष्य-वक्ता नहीं हूँ, पर एक भविष्यवाणी कर सकता हूँ -जो कभी गलत नहीं होगा। एक भविष्य वाणी मैं कर सकता हूँ - आप सभी मरने वाले हो ! और उसमें मैं भी हूँ! मैं अपनेआप को हटा नहीं रहा हूँ। ये भविष्यवाणी कभी गलत साबित नहीं होगी, आप भी कर सकते हो। मृत्यु हमारी परछाईं है , ये सिर्फ एक समय की बात है। किसी के लिए आज होगा, किसी के लिए कल होगा। किसी के लिए एक घंटे के बाद भी हो सकता है। लेकिन हमलोग यहाँ पर इस अश्वत्थ वृक्ष से चिपके हुए बैठे हैं। इसी लिए शंकराचार्यजी हमारे विवेक को जगाने के लिए कहते हैं - 'न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणेमेरे बच्चों संस्कृत के व्याकरण को कंठस्थ करने से भी तुम मृत्यु के जाल से तुम बच नहीं पाओगे! संस्कृत के व्याकरण रटने' का मतलब है - हम जिन सांसारिक चीजों में -3K में डूबे हुए हैं, यह भी आपको मृत्यु के जाल से बचाने वाली नहीं है। इस मृत्यु के जाल से अगर व्यक्ति को ऊपर उठना है , तो क्या करना होगा ? भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते। अर्थात सत्य को जानो , सत्य को जानो, सत्य को जानो- और सत्य को जानने के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दो। यही एक मात्र चीज है  जो मनुष्य जीवन में करणीय है,और यही मनुष्य की विशेष योग्यता है। बाकि सारी चीजें (3K) secondary- हैं दूसरे दर्जे की हैं। उनकी प्राथमिकता नहीं है। 
इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं इस अश्वत्थ संसार -वृक्ष से आसक्त मत रहो। हमारे इस आसक्ति को काटने का जो शस्त्र है वो केवल असंगता -यानि अनासक्ति ही है। और ये असंगता रूप शस्त्र कैसा होना चाहिए ? ये एकदम पैना होना चाहिए। sharp होना चाहिए। इस असंगता के शस्त्र को sharp बनाओगे कैसे? विवेक-रूपी पत्थर पर इसको बारम्बार घिसना होगा। कितनी सुंदर बात है। अब विवेक क्या है नित्य-अनित्य वस्तु विवेक है। एक ही वस्तु नित्य है , उससे अतिरिक्त जो भी है, वो अनित्य है। अनित्य से चिपकना नहीं है , और नित्य को जानना है। नित्य को पहचानना है - नित्य को अनुभव करना है। जो नित्य वस्तु है - वही हमारा भी स्वरुप है। आध्यात्मिक जीवन का जो गूढ़ कर्तव्य है , जो रहस्य है उसको गीता के पन्द्रहवें अध्याय के शुरू में ही भगवान श्रीकृष्ण ने हमें बता दिया है, कि असंगता या अनासक्ति रूपी गुण को चरित्र में धारण किये बिना इस संसार-वृक्ष को काटकर इससे बाहर नहीं निकल पाओगे। 3K से अनासक्त हुए बिना आध्यात्मिक प्रगति उसी प्रकार सम्भव नहीं है, जैसे लंगर डालकर नाव चलाते रहने से भी एक इंच आगे नहीं बढ़ सकते हो। (41:19
>>ईश्वर की ओर आगे बढ़ने की प्रक्रिया :अब गीता 15-4 श्लोक में भगवान बता रहे हैं, असंगता यानि अनासक्ति के शस्त्र से अश्वत्थ रूपी संसार वृक्ष को- असङ्ग-शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।। मूल सहित काट देने के बाद -क्या करना है? इस अश्वत्थ रूपी विश्वप्रपंच को जड़ समेत उखाड़ फेंकने के बाद ही, हमारा आध्यात्मिक जीवन या  इन्द्रियातीत सत्य की खोज तब से शुरू होती है।

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।।

 [ततः पदम् तत् परिमार्गितव्यम्  यस्मिन् गताः न निवर्तन्ति भूयः। तम् एव च आद्यम्  पुरुषम् प्रपद्ये, यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।] असङ्ग-शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा',  ततः पदम् तत् परि मार्गि तव्यम्। मिथ्या जगत को मूल सहित उखाड़ फेंकने के बाद वहाँ से हमें उस सत्य वस्तु की ओर चल पड़ना है।  उस सत्य वस्तु की खोज में या आत्मानुसंधान करने की यात्रा हमें स्वयं लगा देना है। भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - पहले आप इस मिथ्या जगत से मुँह तो मोड़िये। यदि पहले आप इन्द्रिय विषयों से (3K की आसक्ति से ) मुँह मोड़ोगे ही नहीं तो उस इन्द्रियातीत सत्य की ओर जाओगे कैसे ? इस लिए पहले 3K से अनासक्त तो हो जाइये , ततः पदम् तत् परि मार्गि तव्यम्। ततः -उस 3K में आसक्ति को काट देने के बाद,  जो ईश्वर रूपी परम पद है, परब्रह्म परमेश्वर रूपी जो परम पद है, उसकी खोज हमें शुरू करनी चाहिए।
पहले आप अपनी सुप्त विवेक दृष्टि को जाग्रत कर के एक दम सत्य (नित्य) जैसी प्रतीत होने वाली मिथ्या (अनित्य) इन्द्रिय-भोग विषयों से पूर्णतः अनासक्त (detached) तो हो जाइये। और तब जगत-प्रपंच के अनित्य विषयों से विरक्त हो जाने के बाद, आप उस परम् सत्य का अनुसन्धान, इन्द्रियातीत सत्य की खोज या आत्मानुसंधान की यात्रा शुरू कर सकते हैं।       
[First you become detached from the so called world, which appears to be real ! First you become detached , and then you can start your journey towards the attainment of that supreme reality.(43:15)] 
यहाँ भगवान श्री कृष्ण सत्यान्वेषण की कितना सुंदर पद्धति का चित्रण कर रहे है। इन्द्रिय-विषय भोगों की तरफ से मुँह मोड़ लेने के बाद ही हम ईश्वराभिमुख हो सकते हैं। विश्वप्रपंच की आसक्ति से मुंह मोड़कर के ही हम ईश्वराभिमुख हो सकते हैं। ये ईश्वर की ओर आगे बढ़ने की प्रक्रिया है। 
इसके बाद कहते हैं -यस्मिन् गताः !  ईश्वर रूपी जो परमपद है, परब्रह्म परमेश्वर का जो परम पद है -वो हमारा स्वरुप है, जो हम सभी लोगों का स्वरुप है। जो व्यक्ति उस परम् पद को प्राप्त कर लेगा, उस परम् पद को पा लेने के बाद- न निवर्तन्ति भूयः' -वह व्यक्ति फिर दुबारा इस, 'संसार-चक्र' में बंध नहीं सकता। वो दुबारा फिर इस संसार में नहीं आएगा - वो मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। भगवान श्रीरामकृष्ण की आरती शुरू होती है - 'खण्डन- भव- बन्धन ' इन तीन शब्दों से। जो ठाकुर देव के भक्त हैं वे, अनासक्ति शस्त्र के द्वारा हम लोग- विश्वप्रपंच में आसक्ति को खण्डन कर देते हैं। 'भव-बन्धन का खण्डन ' खण्डन शब्द बड़ा प्रभावशाली है। खण्डन शब्द सुनने में भी मधुर नहीं लगता। उनकी आरती ही जगत-प्रपंच में आसक्ति को काटने की बात से होती है। उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण भी - असङ्ग-शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा', अनासक्ति के शस्त्र से संसार-वृक्ष को 'छित्त्वा' छेदन करना है। हमें यहाँ संसार वृक्ष में आसक्ति का खण्डन करना है, और अपने ब्रह्मस्वरूप को, अन्तर्निहित पूर्णता या दिव्यता को (Inherent Divinity) को अभिव्यक्त करना है। यही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। फिर वो व्यक्ति दुबारा इस संसार-चक्र में नहीं आता है। अपने सत्य स्वरुप को जान करके वो मुक्त हो जाता है। 
>>उस ईश्वर को प्राप्त कैसे करें ? (उस प्रक्रिया का नाम है -शरणागति): हमलोग जानते हैं कि गीता को पूरे वेदों का सार कहा जाता है। लेकिन शंकराचार्यजी कहते है कि गीता का केवल पन्द्रहवाँ अध्याय ही अपनेआप में पूरे वेदों का सार है। अगर कोई यह प्रश्न करे कि मैं हिन्दू सनातन धर्म /शिक्षा को समझना चाहता हूँ। आप बताइये हिन्दू धर्म/ शिक्षा की सारभूत बात क्या है ? तो गीता का पन्द्रहवाँ अध्याय ही इस सृष्टि के परम रहस्य को उद्घाटित कर देता है। हम अपनेआप को एक जीव के रूप में देखते हैं , सामने इस विश्व-प्रपंच को देखते हैं -इन सबके पीछे एकमात्र सत्य वस्तु ईश्वर ही है। उस परब्रह्म परमेश्वर के अतिरिक्त यहाँ द्वितीय और कुछ भी नहीं है। यही पूरे वेदों का सार है , पूरे गीता का भी यही सार है , और इस पन्द्रहवाँ अध्याय का भी यही सार है- एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति। ठीक है अब मुझे इस विश्व-प्रपंच में कोई आसक्ति नहीं है, लेकिन उस परमेश्वर के परम पद को हम प्राप्त कैसे करेंगे ? कल्पना कीजिये - ठीक है मुझे इस विश्वप्रपंच में कोई आसक्ति नहीं है, पुत्र का मोह नहीं है, धन का मोह नहीं है,स्त्री-पुरुष (M/F) का मोह नहीं है। कल्पना कीजिये कि हम इस 3K में  आसक्ति से ऊपर उठ गए हैं। लेकिन उस परम तत्व की अनुभूति तो नहीं हुई है? उसके लिए क्या करना होगा ? भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - " तम् एव च आद्यम्  पुरुषम् प्रपद्ये,  यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।' (49:57
       असंगता रूपी शस्त्र के द्वारा अपने इस विश्वप्रपंच का छेदन कर दिया। अब उस परम पद का अन्वेषण करना है। क्योंकि अगर परम सत्य की खोज करना छोड़ दिया जाये तो , जीवन का कोई मतलब है ? केवल शरीर के स्तर पर जीवन क्या है ? खाना-पीना -सोना, खाना-पीना -सोना, खाना-पीना -सोना, और कुछ इन्द्रिय-विषयों का भोग। खाना-पीना -सोना, और कुछ इन्द्रिय-विषयों का भोग। करते -करते एक दिन हम मर जाते हैं। क्या मनुष्य-जीवन का यही लक्ष्य है ? शरीर और मन को स्वस्थ सबल बनाये रखने के लिए पौष्टिक आहार और व्यायाम करने की आवश्यकता है। लेकिन इतना मात्र ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। सार्थक जीवन , यानि अर्थपूर्ण जीवन कैसे होगा ? यह केवल सत्य की खोज ही है जो मनुष्य जीवन को सार्थक बना देता है। अर्थपूर्ण बना देता है। हम हर सुबह नींद से उठते हैं -किस लिए ? क्या केवल भोजन करने के लिए ? हम नींद से उठते हैं - सत्य की खोज के लिए, या अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के लिए जिसमें भोजन की आवश्यकता है। लेकिन केवल भोजन करने के लिए ही हम जीवित नहीं हैं। मनुष्य जीवन का उद्देश्य है सत्य की खोज। कैसे खोजें ?  " तम् एव च आद्यम्  पुरुषम् प्रपद्ये' वो जो परम पुरुष है , ईश्वर है जो सच्चिदानन्द परब्रह्म परमेश्वर है -उसकी प्रपत्ति का मतलब है  उसकी शरणागति। उस परम सत्य ईश्वर की शरण में जाना होगा। (53:09) संसार-वृक्ष से अनासक्त हो जाने के बाद उस प्रभु-परमेश्वर के चरणों में शरणागत होना होगा। यही सत्य को जानने की प्रक्रिया है। हमारा जो यह मिथ्या अहंकार है , इस मिथ्या अहंकार को पूरी तरह से से ईश्वर के चरणों में समर्पित करना होगा। इन्द्रियातीत सत्य को बुद्धि के द्वारा नहीं जाना जा सकता है। आध्यात्मिक जीवन में ईश्वर के शरणापन्न होने से, ईश्वर के अनुग्रह से ही उस परम सत्य को  या ईश्वर को जीव भी स्वयं समझने लगता हैं। वो एक प्रकार की अनुभूति है , एक दूसरे स्तर की अनुभूति है। जो शरणापन्न होने के बाद हर जीव के जीवन में आती है। भगवान कृष्ण स्वयं बता रहे हैं - उस प्रभु परमेश्वर को हम प्राप्त कैसे करेंगे ? उसके शरण में जाकर के। तम् एव च उस ईश्वर के अतिरिक्त और कोई दूसरा स्थान नहीं है -जहाँ पर जाकर के आप शरण ले सकते हो। इस जगत में शरण लेने के लिए एक ही स्थान है - प्रभु, परमेश्वर।  'यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी' जहाँ से यह सारा विश्वप्रपंच निकलती है। ऊर्ध्वमूलं -विश्वप्रपंच का मूल बीज हमारे ह्रदय में बैठे परमेश्वर ही हैं। उस मूल बीज में अपने मिथ्या अहं (बुद्धि-मैं-पन) को समर्पित करना है। तभी उस परब्रह्म परमेश्वर की असीम कृपा की अनुभूति हम स्वयं कर पाएंगे। सर्पण करने का अर्थ क्या है ? जैसे मंदिर में जाकर हम भगवान श्रीरामकृष्ण को साष्टांग प्रणाम करते हैं - तो समर्पण का बाह्य प्रतीक है। यह प्रतीक है - हे प्रभु ! मैं नहीं हूँ , ये तूँ ही है ! हम स्वयं को सृष्टि के मूल के प्रति समर्पित कर रहे हैं।  मैं नहीं हूँ , ये तूँ ही है !  मैं नहीं हूँ , ये तूँ ही है ! क्योंकि हमारा जो यह सीमित अहंकार है (आधारकार्ड वाला,नाम-रूप) इसका कोई अस्तित्व है ही नहीं। ये जो BKS नाम का व्यक्ति है। या कोई अमुक अमुक नाम वाला व्यक्ति है। मैं यह हूँ। या वह हूँ। मेरा अपना नाम है। ये नहीं है, 'ये' ईश्वर ही है। यह अभी हमको समझ में नहीं आ रहा है। चाहे आज या अन्य किसी दिन हमको यह समझ में आयेगा कि, 'शुद्धिदानन्द' नाम का व्यक्ति पहले भी नहीं था, अभी भी नहीं है। ये नाम-रूप दिख जरूर रहा है, पर यहाँ पर प्रभु परमेश्वर ही हैं। यह सुनकर थोड़ा आश्चर्य लगेगा आपको। पर यहाँ पर इतने जो लोग बैठे हुए हैं , ये प्रभु परमेश्वर ही इतने रूपों में बैठे हुए हैं। यहाँ अलग-अलग जितने नाम-रूप दिख रहे हैं , सब प्रभु परमेश्वर ही हैं, ईश्वर से भिन्न या अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है। इस अनुभूति तक हम तभी पहुँच सकते हैं जब हम अपने मिथ्या अहंकार को ईश्वर के चरणों में समर्पित नहीं कर देते। 
हम स्वयं को ही एक 'नमक का ढेला' के रूप में कल्पना कर सकते हैं। नमक का ढेला को पानी में छोड़ देने से वो बिल्कुल उसमें घुल जाता है , विलीन हो जाता है। यही समर्पण है यही शरणागति है। मुँह से समर्पित हूँ बोलना आसान है , समर्पित होने पर आप नहीं रह जाते हो। तब आपके साथ कुछ भी -ईश्वर से कोई शिकायत कर नहीं पाओगे। जीव जब परम् सत्य के साथ  एकत्व की अवस्था में चला जाता है, तब उस अवस्था में उसका मिथ्या अहं भी विलीन हो जाता है।' वहाँ तक पहुँचना हमारा लक्ष्य है। यही आध्यात्मिक जीवन है। अपने मिथ्या अहंकार को ईश्वर में समर्पित करना, विलीन करना यही आध्यात्मिक जीवन है। यही शरणागति है। (1:00:07
गीता में अर्जुन को 17 अध्यायों में सब उपदेश देने के बाद 18 वें अध्याय में अंतिम उपदेश क्या है ? 'सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।' ध्यान देना है -माम् एकं। 'एक' कोई दूसरा नहीं। भगवान के चरणों में ही स्वयं को समर्पित करना होगा। और यह समर्पण की भावना 'विवेक-वैराग्य ' से ही उत्पन्न होती है। जब हम जगत की वासनाओं से (3K से) विरक्त होते हैं -कोई व्यक्ति विरक्त कैसे होता है ? विवेक से ही विरक्त होता है। विवेक से वैराग्य की उत्पत्ति होती है , वैराग्य से हम इस नश्वर संसार से जब हम विमुख हो जाते हैं , और जो एक मात्र सत्य वस्तु ईश्वर है, उसके चरणों में जब हम अपने अहं को समर्पित करते हैं। तब ईश्वर की अनुभूति होती है। यहाँ तक पहुँचने के लिए सारा जीवन अभ्यास करना होगा। 
शरणागति के साथ साथ कुछ और साधन भी करने होंगे ; 

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा

अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै

र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।

(15.5) 

[निर्मानमोहाः  जितसङ्गदोषाः अध्यात्मनित्याः  विनिवृत्तकामाः। द्वन्द्वैः विमुक्ताः  सुख दुःख संज्ञैः गच्छन्ति अमूढाः पदम् अव्ययम्  तत्।। ] 
 जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं।  और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं।।
ये सब आध्यात्मिक अभ्यास की बातें हैं। जप -ध्यान के साथ साथ ये अभ्यास भी चलेगा। नहीं तो लंगर डालकर नौका चलाने जैसी बात होगी। तो क्या करना होगा ? निर्मान, मोहाः। अपना जो झूठा अहंकार है , उसको छोड़ देना होगा। 'मैं' कुछ हूँ ! 'मैं' उस पोस्ट पर हूँ ! ये 'मैं' 'मैं',  'मैं' 'मैं' करना राक्षस की तरह है। असुर और क्या है ? अहंकार ही असुर है। असुर और देव में क्या अन्तर है ? (1:03:21) जो व्यक्ति अहंकार या घमण्ड में एक दम अँधा हो गया हो, वह घमण्ड व्यक्ति को बर्बाद कर देता है। निर-मान या 'अभिमान' रहित होने का अभ्यास करना होगा। निर्मोह होने का मतलब क्या है ? शंकराचार्यजी कहते हैं, निर्मोह होने का मतलब है विवेक-युक्त होना। विवेक-युक्त होना ही मोह रहित होना है। हम मोहग्रस्त क्यों हैं ? विवेक के अभाव में ही हम मोहग्रस्त हो जाते हैं। अविवेक के कारण ही हम मोहग्रस्त हो जाते हैं। अविवेक का मतलब क्या है? मिथ्या को सत्य समझ लेना- ही अविवेक है। और विवेक क्या है ? नित्य -नित्य है , अनित्य -अनित्य है। सत्य -सत्य है , मिथ्या - मिथ्या है। दोनों को स्पष्ट रूप से पहचान लेना। दोनों को अलग-अलग समझ लेना। मिथ्या को सत्य समझ लेना - ये अविवेक है। जो सत्य नहीं है , सत्य सा भासित हो रहा है , उसी को सत्य समझ लेना। ये अविवेक है और यही मोह का कारण बन जाता है। निर्मोह होने के लिए हमें विवेकयुक्त होना होगा। निर मान और निर्मोह ये दोनों गुण हमें हमारे अंदर उत्पन्न करना होगा। झूठा अहंकार को खत्म कैसे करेंगे ? ईश्वर के चरणों में अभिमान को समर्पित करके। मैं -मेरा नहीं प्रभु , सब तूँ और तेरा है।  जित सङ्ग दोषाः माने 3K में आसक्ति से रहित होना। अध्यात्म नित्याः क्या है ? ज्ञानमयी दृष्टि को एकाग्र करके - जगत को ब्रह्ममय देखते रहना। ईश्वर को पाने की इच्छा के साथ -निरन्तर ईश्वर में अपनी दृष्टि को लगाए रखना। ऐसी मानसिकता बनाये रखना। और सबसे बड़ी बात - विनिवृत्त कामाः , मन को 3K की कामना से शून्य बना लेना। जब तक हमारे अंदर 3K की कामना है , तब तक ईश्वर की प्राप्ति असम्भव है। जहाँ राम हैं , वहाँ काम नहीं , और जहाँ काम है , वहाँ राम नहीं। ये दोनों अलग चीजें हैं। हमलोग अपने को श्री रामकृष्ण के भक्त कहते हैं। क्या श्रीरामकृष्ण के जीवन में , उनके चरित्र में, उनके व्यक्तित्व में इस मिथ्या जगत के प्रति थोड़ी सी भी आसक्ति दिखाई देती है क्या? श्रीरामकृष्ण के भक्त होने का मतलब है कि हम भी मिथ्या जगत के प्रति आसक्ति रहित होने का प्रयास करें। श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द के अंदर जो गुण हैं, उन गुणों का हमारे अंदर भी वर्धन होना चाहिए। श्रीरामकृष्ण के जीवन में हमको वैराग्य दीखता है ? या वैराग्य का अभाव दिखाई देता है ? सभी महापुरुषों के जीवन में वैराग्य ही दीखता है। श्रीकृष्ण स्वयं अपने उपदेशों के मूर्त  रूप हैं। श्रीरामकृष्ण तो अपने सबसे प्रिय शिष्य विवेकानन्द की सांसारिक समस्यायों का समाधान करने की प्रार्थना भी ईश्वर से नहीं कर पाए थे। ईश्वर से अपने लिए संसार की किसी वस्तु को पाने की कामना नहीं करनी है। भगवान से संसार की वस्तुओं को (3K) माँगते रहना आध्यात्मिकता नहीं है। ये तो सांसारिक बुद्धि है। भगवान से प्रार्थना क्या करना है ? मुझे भक्ति दो, विवेक दो , वैराग्य दो , ज्ञान दो। 
      नरेन्द्र के पिताश्री के निधन के बाद परिवार गरीब हो गया था। घर में खाने को नहीं था। नरेंद्र घर के बड़े लड़के थे , उनके कंधों पर परिवार को सँभालने की जिम्मेदारी थी। नौकरी नहीं मिली , कोई सहायता नहीं मिली। अपने परिवार को खाली पेट सोते हुए देखना पड़ा। नरेंद्र के जीवन का यह सबसे दर्दनाक अध्याय है। नरेन्द्र शक्ति को नहीं मानते थे। नरेंद्र काली को नहीं मानते थे। वहाँ मुख्य समस्या वो थी।  लेकिन श्रीरामकृष्ण के जीवन को देखते थे। काली क्या हैं ? उसी परब्रह्म के परमेश शक्ति की बात हो रही हैं। 'माया' युक्त जो ब्रह्म हैं , उन्हीं की माया शक्ति को हम काली कहते हैं। ब्रह्म को जो अपनी शक्ति है , उसको हमलोग काली कहते हैं। ब्रह्म ही काली है , काली ही ब्रह्म है। ब्रह्म और शक्ति अलग नहीं हैं। जैसे वट वृक्ष का जो बीज है , उसी के अंदर पूरे वट वृक्ष को उत्पन्न करने की शक्ति विद्यमान है। उसी प्रकार ब्रह्म के अंदर भी इस विश्वप्रपंच रूप दृश्य को खड़ी कर देने की शक्ति भी ब्रह्म के अंदर अनुस्यूत है। लेकिन नरेंद्र उस शक्ति को नहीं मानते थे। अंत में असहाय होकर के श्रीरामकृष्ण के पास जाकर कहते हैं। आप तो मेरे पूरे परिवार की दुर्गति जानते ही हैं। आपका तो इस काली के साथ , इस शक्ति के साथ, इस माया के साथ एक बहुत ही घनिष्ट संपर्क है। (1:12:22) आप कृपा कर के मेरे परिवार वालों के समस्यायों के समाधान के लिए, आप कुछ प्रार्थना कीजिये। श्रीरामकृष्ण ने कहा सांसारिक वस्तु को पाने की प्रार्थना मुझसे नहीं होगी। अपने प्रिय शिष्य के लिए भी प्रार्थना नहीं कर सके -ये आदर्श है। कहते हैं तूँ खुद जा माँ वहाँ पर बैठी हैं। आज तूँ जो भी प्रार्थना करेगा , तुझे मिल जायेगा। नरेंद्र तीन बार गए , लेकिन तीन बार नरेंद्र भी प्रार्थना नहीं कर पाए। सब समय माँ के सामने खड़े होते थे , लेकिन माँग नहीं पाते हैं। नरेंद्र से विवेकानन्द होने के बाद -उस घटना के विषय में कहते हैं ,कि उस दिन उन्होंने क्या प्रार्थना की थी। माँ  काली से अपने परिवार वालों की समस्या के समाधान के लिए प्रार्थना नहीं की थी। स्वामी जी माँ से कहते हैं -उनके मुख से निकले हुए शब्द हैं ; " हे माँ! मुझे विवेक दो ! मुझे वैराग्य दो ! मुझे भक्ति दो ! मुझे ज्ञान दो ! " उनके मुख से निकला पहला शब्द 'विवेक' है। समझे ? पहला शब्द विवेक है - विवेक से बढ़कर कुछ नहीं हैविवेक के बगैर तो आध्यात्मिक जीवन शुरू ही नहीं होती है ! (1:13:42) जब तक आप जो विश्वप्रपंच मिथ्या है , उसी को सत्य समझकर चल रहे हो , आपके आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत ही नहीं हुई है। आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ ही (नित्य-अनित्य) विवेक से ही होता है। जब विवेक होता है तभी वैराग्य भी उत्पन्न होता है। वैराग्य होने के बाद ही सत्य का अनुसन्धान शुरू होता है , वैराग्य होने के बाद ही आप उस परम पद को पाने की ओर प्रस्थान कर पाते हैं। मिथ्या विश्व-प्रपंच से वैराग्य उत्पन्न हुए बगैर आप ब्रह्म की ओर प्रस्थान कैसे करोगे ? जब तक आप इस मिथ्या जगत से ही चिपके हुए हो , तब तक उस परम पद की ओर प्रस्थान करना सम्भव है क्या ? ब्रह्म सत्यं -जगत मिथ्या , ये दोनों अलग चीजें हैं। तो देखिये परम् सत्य को खोजने की शुरुआत विवेक से होती है , जिससे वैराग्य की उत्पत्ति होती है। और जब व्यक्ति के अंदर वैराग्य होता है , तब उस परमपद की ओर प्रस्थान करने की योग्यता हमारे अंदर आती है। अन्यथा हमारे अंदर परम पद को पाने की दिशा में आगे बढ़ने की योग्यता ही सम्भव नहीं है। 
तो भगवान श्रीकृष्ण भी वही बात कह रहे हैं - निर्मानमोहाः  जितसङ्गदोषाः अध्यात्मनित्याः  विनिवृत्तकामाः। सांसारिक कामनाओं से रहित होना चाहिए। फिर क्या ? द्वन्द्वैः विमुक्ताः  सुख दुःख संज्ञैः , संसार में सुख -दुःख रूपी जो द्वंद्व हैं ,इससे ऊपर उठकर जीवन को जीना है।  भगवत प्राप्ति का साधन यही है। पन्द्रहवें अध्याय के शुरुआती 5 श्लोकों में ही इस संसार का मिथ्यत्व , इसके प्रति जो असंगता है , हमारे भीतर लानी होगी। असंग शस्त्र के द्वारा इस संसार वृक्ष का छेदन करने के बाद उस परमपद का अन्वेषण करना। उस आत्मानुसाधन को आप करोगे कैसे ? उस ईश्वर (काली) के शरणागत होना होगा। उनके चरणों में अपनेआप को समर्पित करना होगा। और उसके साथ-साथ मान , (मिथ्या अहंकार) से मुक्त , मोह -से मुक्त और विवेक से युक्त होना होगा। ईश्वर को प्राप्त करना ही है - इस दृष्टि को बनाये रखना। जीवन में सुख-दुःख आते ही रहेंगे। सुख में उछलना नहीं है, दुःख में हाय -हाय नहीं करना है। सुख आने पर हम उसका जश्न मनाने लगते है -Celebrate करते हैं। Celebration -समारोह करने का हमलोगों को बहुत शौख है। कुछ हो गया तो पार्टी देना होता है। थोड़ा सा कुछ बुरा हो गया तो 10 दिन उदास रहे। सुख-दुःख ये दोनों मिथ्या है -ये बीमारी है , इससे ऊपर उठना है। (1:16:41) इसमें सुख भी उसी प्रकार का है , दुःख भी उसी प्रकार का है। सुख -दुःख रूपी द्वंद्व से ऊपर उठकर के जीवन जीने का प्रयास करना। ऐसे व्यक्ति को भगवान श्री कृष्ण अमूढ़ कहते हैं अमूढ़ का मतलब जो की विद्वान् है, माने विवेकी है । दूसरे शब्दों में जिसके अंदर ये सभी गुण नहीं है - वे सब मूढ़ व्यक्ति है।  द्वन्द्वैः विमुक्ताः सुख दुःख संज्ञैः गच्छन्ति अमूढाः पदम् अव्ययम्  तत्।। इस प्रकार उस परमपद को कोई व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। इन पांच श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने आध्यात्मिक जीवन में हमें जो कच करना है -उसका बहुत सुंदर चित्रण किया है। एक बार पुनः इसको चैंट कर लेते हैं। भगवान श्रीरामकृष्ण किस चीज के मूर्त रूप हैं ? संसार को पोषित करना , या संसरण को खत्म करना ? इस प्रश्न का उत्तर आप स्वयं ढूँढ़ने का प्रयास कीजिये। तो आपको समझ में आएगा कि श्रीरामकृष्ण के भक्त होने का  मतलब क्या है ? क्या हम सांसारिक बुद्धि को पोषित करने के लिए उनके शिष्य -भक्त बने हैं ? या संसार वृक्ष का पूरी तरह से उच्छेदन करने के लिए-भवबंधन का खंडन करने के लिए हमरा जीवन है ? यह प्रश्न आपको स्वयं से पूछना होगा , और इसका उत्तर स्वयं ढूँढ कर लाना होगा। अगर हमारे जीवन में यह स्पष्ट विवेक आता है कि संसार -वृक्ष का खण्डन होना है , उसका जड़सहित छेदन होना है , तो उसके आदर्श हैं श्री रामकृष्ण। 
      अपने बच्चो पर विवेक का उपयोग करने के पहले अपने आप पर विवेक का उपयोग करें। विवेक मनुष्य की एक विशेष योग्यता है जो हर मनुष्य में होता है। लेकिन ये विवेक सोया रहता है। कोई व्यक्ति विवेक का उपयोग नहीं करता। विवेक एक ऐसी क्षमता है -जो हम सबके पास है , लेकिन हम उसका प्रयोग अपने जीवन में नहीं करते हैं। कुछ इने गिने लोगों को छोड़ कर के कोई इसका प्रयोग नहीं करता है। इस सृष्टि में कोई भी विवेक को use नहीं कर रहा है। क्योंकि विवेक-प्रयोग शुरू हो जायेगा तो आपका जीवन परिवर्तित होने ही वाला है। ये गारंटी है। हमारा जीवन में परिवर्तन नहीं हुआ तो उसका मूल यही है। अभी भी हमारा विवेक सोया हुआ हुआ है , जग नहीं सका है। जब विवेक को जगाने की बात करते हैं तो पहले उसको अपनेआप पर प्रयोग कीजिये। उसके बाद दूसरों पर कर सकने योग्य होंगे। जब आपके जीवन में विवेक का प्रयोग दिखाई देगा तो वो अपनेआप दूसरों पर प्रभाव डालेगा। विवेक-चूड़ामणि में विवेक की बहुत सुंदर व्याख्या है। अपने आप पर विवेक Apply करने का मतलब है - हमें अपने आप से प्रश्न पूछना चाहिए कि ये BKS कौन है ? (1:23:04) मैं कौन हूँ ? आप अपने विषय में जो समझकर बैठे हुए हो , ये अविवेक पर आधारित है। इसलिए स्वयं पर विवेक -प्रयोग करो अपने सत्यस्वरूप में क्या हो ? Who am I? मैं क्या  BKS हूँ ? हो ही नहीं सकता। असम्भव है , हम भ्रम में हैं। भ्रम में हम कहते हैं कि मैं BKS हूँ। यहाँ से विवेक की शुरुआत होती है। अपने आप पर विवेक Apply किये बगैर अपने बच्चे पर इसको Apply नहीं कर सकते हो। विवेक जीवन का उदात्ती -करण है दमन नहीं है। Viveka is sublimation not suppression ! विवेक ऐसी क्षमता है, जिसमें सब कुछ जल कर भस्म हो जाता है। आप अगर अपमानित होने का अनुभव कर रहे हो , तो विवेक वो अग्नि है उसमे अपमानित होने वाली जो अनुभूति है वो जल कर के भस्म हो जाती है। उसमें दमन नहीं होता , सब कुछ supplement या पूर्ण  हो जाता है। अगर विवेक-आधारित पहचान नहीं होगा , तब अवसाद आ सकता है। अवसाद का मूल कारण है -अविवेक ! 
विवेकी व्यक्ति को कोई डिप्रेस कर सकता है ? असम्भव ! यही विवेक की शक्ति है ! जब आप विवेक को जाग्रत करके जगत के साथ व्यवहार करेंगे तो आपके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन आने शुरू हो जायेंगे। जिन पाँच श्लोकों को हमने पढ़ा है -उसमे तो आध्यात्मिक जीवन का पूरा रहस्य बता दिया गया है। विश्वप्रपंच से हमें अनासक्त होना है , अनासक्त होने के बाद हमें ईश्वराभिमुख होना है। ईश्वराभिमुख होने के प्रयास में हमें ईश्वर के शरण में जाना है , या अपने आप को ईश्वर के चरणों  में समर्पित कर देना है। और उसके साथ में जो दूसरे अभ्यास है -  निर्मानमोहाः  जितसङ्गदोषाः अध्यात्मनित्याः  विनिवृत्तकामाः। इन सबका मंथन कीजिये। आपके जीवन में स्पष्टता आने लगेगी। 
ॐ शांति,शांति, शांतिः हरिः ॐ तत्सत। 
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Purushottama Yoga of Bhagavad Gita by Swami Shuddhidananda (Session-3)
(Spiritual Retreat at Ramakrishna Kutir, Almora on 9th May 2025.)

⚜️️🔱जीवन का परम लक्ष्य है - 'ईश्वर सम्बन्ध बना लेना।'  ⚜️️🔱

 'ईश्वर के साथ सम्बन्ध बना लेने पर, जीवन सार्थक हो जाता है ' 


Purushottama Yoga of Bhagavad Gita by Swami Shuddhidananda (Session-3)

1.हमारे वेदों -उपनिषदों-श्रुति का मूल सिद्धान्त क्या है ? 
हमारे उपनिषदों का मूल सिद्धान्त यह है कि - ईश्वर से भिन्न , कुछ अस्तित्व में है ही नहीं। ....... तो पहले हम लोग इस बात को जानलें कि परम् सिद्धान्त (ultimate principle) क्या है ? और तब फिर हमको यह समझ में आ जायेगा कि आज हमलोग कहाँ पर खड़े हुए हैं ? तो श्रुति कहती है कि एक ईश्वर के अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी विद्यमान नहीं है। लेकिन हमारी आज की दशा यह है कि , हमको लगता कि हम जीव है , और सामने जो दिख रहा है ये जगत है। और इस भेद बुद्धि में ही हमारा सारा व्यावहारिक जीवन चल रहा है। और जो जगत-ब्रह्माण्ड हमें इन्द्रियों से दिखाई देता है, इसके प्रति हमारे अंदर एक सत्यत्व बुद्धि काम कर रही है। 
2. मनुष्य के मन स्वभाव कैसा है ? (2:34- -'चिपकने का' )
मन का स्वभाव ऐसा है कि एक बार वो जिस चीज को सत्य मान लेगा , वहीं पर चिपका रहेगा। यही एक मूल कारण है जिसके चलते हम दीक्षा होने के 20 -40 बाद भी भगवान में को लगा नहीं पाते हैं। इसीलिए ये एक सार्वभौमिक समस्या है , कि आदर्श पर या पढाई पर हम मन को एकाग्र नहीं कर पाते हैं। ध्यान के लिए बैठते है , या मनःसंयोग करके पढाई के लिए बैठते हैं , तो मन भटकता रहता है। क्यों ? यही सत्यत्व बुद्धि , हम जिसको सत्य मान लेते हैं , मन वहीं पर फँसा रहता है। वहाँ से हटेगा ही नहीं। (अपने M/F शरीर या रूप को - Apparent 'I', व्यावहारिक 'मैं' को वास्तविक मैं समझ लेते हैं।) 
3. इसीलिए ये विश्व-प्रपंच क्या है ? (3:25 -अशाश्वत है !) इसी बात को समझाने के लिए भगवान कृष्ण गीता के पन्द्रहवें अध्याय के शुरुआत में ही हमें यह बताते हैं कि इस विश्व-प्रपंच का वास्तविक स्वरुप क्या है ? अश्वत वृक्ष की कल्पना है वहाँ पर। अश्वत वृक्ष के साथ इस विश्वप्रपंच की तुलना है। और उसके साथ हमको ये बताया जाता है कि , ये जो विश्वप्रपंच हमको इन्द्रियों के माध्यम से दिखाई दे रहा है, ये अशाश्वत है। ये दृष्ट-नष्ट स्वभाव वाला है। ये क्षणभंगुर है। ये प्रति क्षण अन्यथा स्वभाव है। ये जैसा दीखता है , वैसा नहीं है। इस मिथ्या जगत (M/F स्थूल शरीर)  के प्रति अगर हमारी आसक्ति होती तो मनुष्य सिर्फ दुःख ही प्राप्त करता है। इसीलिए इस विश्वप्रपंच से हमें आसक्त नहीं होना है। 
4. इस अशाश्वत विश्व-प्रपंच का छेदन करने का शस्त्र क्या है ? (4:34-असंगता, आसक्ति या वैराग्य )   
विश्व-प्रपंच का छेदन करने की बात भगवान कृष्ण कहते हैं। इसका खण्डन करने की बात भगवान कृष्ण कहते हैं। इसके छेदन करने के लिए जिस शस्त्र की आवश्यकता है -वो है असंगता। असंगता अपने आप में एक शस्त्र है। हमारे जीवन पर इसका अद्भुत परिणाम होता है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण पड़ाव है। जब हम वेदान्त को अपने व्यावहारिक जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे - तो उसकी पहली अभिव्यक्ति, पहला प्रकटीकरण जो होगी वो असंगता (अनासक्ति या वैराग्य) के रूप में ही होगी। 
5. लेकिन असंगता , अनासक्ति ये वैराग्य की गलत धारणा 
 लेकिन असंगता (वैराग्य या अनासक्ति) का ये मतलब बिलकुल नहीं है कि आप जीवन के प्रति आप एकदम उदासीन हो जाओगे। ये गलत धारणा है। असंगता का मतलब ये नहीं कि आपके आस-पास के लोगों से आपका कोई लेना-देना ही नहीं है। कहीं घर में कोई बीमार पड़ा है , आप कहोगे , नहीं मैं तो कुछ नहीं कर सकता क्योंकि मैं तो - 'असंग' हूँ ! अगर किसी ने असंगता का अर्थ इस प्रकार समझा है , तो उसने गलत समझा है। असंगता मतलब ये नहीं है कि आप अपने आसपास के लोगों की उपेक्षा करोगे। अगर हमलोगों असंगता का अर्थ गलत समझ लिया , तो हमारा जीवन गलत दिशा में चला जायेगा। 
6. कमल के फूल का पत्ता असंगता,अनासक्ति या वैराग्य का उदाहरण :
 असंगता को समझने के लिए भगवान कृष्ण स्वयं एक उदाहरण देते हैं - जिस प्रकार कमल का पत्ता पानी में ही होता है। पानी में ही हैं पानी से बाहर नहीं हैं। जिस प्रकार हमलोग यहाँ पर इस संसार में ही हैं। संसार से भागना नहीं है। हमारे आसपास के सगे -सम्बन्धियों को कहीं छोड़कर के जाना नहीं है। जिस प्रकार कमल का पत्ता पानी में है , उसी प्रकार हमें भी इस संसार में ही रहना है। लेकिन जिस प्रकार कमल के पत्ते से पानी चिपकता नहीं है। और न कमल का पत्ता पानी से चिपकता है , उसी प्रकार हमें भी यहाँ रहना है। सबके बीच रहना है , हमारा जो कर्तव्य है उसका निर्वाह करना है। कर्तव्य करने की पद्धति भी भगवान आगे बताएंगे। तो असंगता का स्वरुप ये है , कि सबके साथ में हैं , लेकिन कहीं भी आप चिपके नहीं हैं। मैं हर रोज ये कहता रहूंगा -चिपकना मना है। नहीं चिपकना सख्त मना है। इस नहीं चिपकने की बात ,असंगता या अनासक्ति के पद्धति को हमें अपने ह्रदय में अंकित करना होगा। क्योंकि यही मुख्य साधना है। इस अनासक्ति को किये बगैर आप कुछ भी कर लीजिये आप ईश्वराभिमुखी दिशा में एक इंच आगे नहीं बढ़ पाएंगे।  असंगता बहुत महत्पूर्ण बात है , हम सभी लोग यहाँ पर संग दोष से ग्रसित है। इस संग-दोष या चिपकने की आदत के साथ आप कुछ भी कर लीजिये , जप-ध्यान प्रार्थना कुछ भी कर लीजिये आप देखेंगे कि -30-40 साल के बाद भी आप वहीं पर फँसे हुए हैं। मंत्रदीक्षा के 40-50 साल हो गए पर कुछ भी प्रगति नहीं हो रही है। उसका मुख्य कारण एक मात्र कारण, स्थूल शरीर से चिपके रहने ही है। (8:45)
7. मंत्र दीक्षा तो सिर्फ एक शुरुआत है। जो मंत्र आपको दिया गया है , वो आपके आध्यात्मिक जो लक्ष्य है , उस लक्ष्य की ओर प्रस्थान करने के लिए एक शुरुआती धक्का दिया गया है। एक दिशा दिखा दिया गया है। लेकिन उस मंत्र के साथ कुछ अन्य चीजों का (विवेक-वैराग्य)  अनुशीलन भी आवश्यक है। अनासक्त -हुए बिना आप देखोगे कि आप वहीँ पर अटके हुए हो। यह वैराग्य और अनासक्ति का भाव जब तक व्यक्ति के जीवन में नहीं आता , तब तक आध्यात्मिक जीवन में हमारी प्रगति नहीं होती। यही बात पन्द्रहवें अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में भगवान कृष्ण कहते हैं- अश्वत्थम्  एनम् सुविरूढ़मूलम् असङ्ग शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।  असंगता रूप शस्त्र के द्वारा इस विश्व प्रपंच को छेदन करना चाहिए। और उसको समूल -बीज समेत उखाड़ फेंकना चाहिए। 'ततः  तत्  पदम्  परिमार्गितव्यम् ' - एक बार हम इस विश्वप्रपंच से, कमल के पत्ते के समान, जो पानी से चिपके बगैर पानी में ही रहता है, असंग रहने में समर्थ हो जाते हैं। तब हम ईश्वर की ओर प्रस्थान करने के लिए प्रस्तुत होते हैं। ईश्वर का जप-ध्यान करने या मनःसंयोग का अभ्यास करने के योग्य होते हैं। ततः मतलब , वैराग्य को प्राप्त होने या अनासक्त हो जाने के पश्चात्, हम जो परम पद है , ईश्वर पद है उसकी ओर प्रस्थान करने का प्रयास हमें करना चाहिए। (10:37) कैसे करोगे ? करना क्या है ? 
8. शरणागत होने -समर्पित होने का मतलब क्या है ?:
तम्  एव  च आद्यम् पुरुषम्  प्रपद्ये। वो जो आदिपुरुष परमेश्वर पिता जो है , उस प्रभु के चरणों में समर्पण और शरणागति के द्वारा। यह मार्ग है। तो शरणागत होने का मतलब क्या है ? हमारा जो मिथ्या 'मैं' -पन है , सीमित अहंता , मिथ्या अहंकार को प्रभु परमेश्वर रूपी समुद्र में विलीन करना।  जिस प्रकार नमक के ढेले को आप पानी में छोड़ दीजिये , तो क्या होगा ? पानी में ही घुल जायेगा। उस नमक के ढेले का अपना स्वरुप (नामरूप) वहीँ पर विलीन हो जाता है। उसी प्रकार समर्पण का मतलब क्या है ? हम मंदिर में जाकर साष्टाङ्ग प्रणाम करते हैं। ये तो सिर्फ उसका बाहरी अभिव्यक्ति है। अंदर का भाव ये होता है कि , हे प्रभु परमेश्वर 'मैं' तो हूँ ही नहीं ; तुम ही हो ! सतत हमारे मन में यही भाव होना चाहिए। इस सृष्टि में हमको मिथ्या अहं के भ्रम के वश में आकर ऐसा लगता है कि ईश्वर के अतरिक्त यहाँ (इस स्थूल शरीर रूपी M/F) कुछ है। यह हमारी बुद्धि का दोष है , 
9. दृष्टि-दोष : (12:08) ईश्वर क्या सिर्फ मंदिर में ही है ? यहाँ क्या है ? ये जो इन्द्रियों से हम देख रहे हैं , यह क्या है ? एक बहुत बड़ा पश्न है। जब आप इस प्रश्न का उत्तर खोजोगे तो सत्य का अविष्कार होना शुरू हो जायेगा। वेदांत, भगवत गीता उपनिषद हमें यह सिखाती है कि ऑंखें खोल कर के ईश्वर को देखो। कोई स्थान-विशिष्ट ईश्वर नहीं, कोई एक रूप विशिष्ट ईश्वर नहीं , ईश्वर ही विद्यमान है। यही दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) हमें शास्त्र प्रदान करती है , उपनिषद प्रदान करती है। लेकिन यहाँ तक पहुँचोगे कैसे ? जब तक हमारा 'मिथ्या अहं' ईश्वर में विलीन नहीं होता , तब तक ये सत्य-दृष्टि (सच्चिदानन्द मय जगत को देखने की दृष्टि) हमें प्राप्त नहीं होती। तम्  एव  च आद्यम् पुरुषम्  प्रपद्ये , यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी। वो जो परमेश्वर हैं , सच्चिदानन्द , परब्रह्म , परमात्मा हैं , उस आत्मा में जब हम अपने मिथ्या 'मैं'-पन को (सीमित अहंता को) पूरी तरह विलीन कर देते हैं , तब धीरे-धीरे हम इस सत्य का आविष्कार करने लगते हैं। यह क्रम से होता है , एक दिन में नहीं होगा। मिथ्या मैंपन को आत्मा में  लीन करने का अभ्यास -जब अखण्ड रूप से निरंतर करते रहेंगे , तब हमारे जीवन में- जगत को ब्रह्ममय देखने की दृष्टी- कभी न कभी यह प्राप्त होना ही है। हमारे पास दूसरा विकल्प नहीं है। ये उपनिषदों की वाणी है। यही हमारी अंतिम गति है। तो सच्चिदानन्द स्वरुप 'आत्मा' में मिथ्या 'मैं-पन' का समर्पण और शरणागति तो मुख्य साधन है। 
10. केवल विवेकी मनुष्य ही अमूढ़ व्यक्ति है ?
 इस मुख्य साधन के साथ कुछ सहकारी साधन भी आवश्यक है। भगवान कृष्ण कहते हैं - निर्मानमोहाः जितसङ्गदोषाः  अध्यात्मनित्याः  विनिवृत्तकामाः, द्वन्द्वैः  विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः  गच्छन्ति  अमूढाः पदम् अव्ययम् तत्। यह जो अमूढ़ व्यक्ति है - जो विवेकी है। वही उस परम पद या ईश्वर पद को प्राप्त करेगा। कैसे करेगा ? उसके सहायक साधन कौन से हैं ? शरणागति के साथ -साथ निर्मान -निर्मोह , फिर संग-दोष विहीन , कामना रहित अन्तःकरण जब होगा - तब हम धीरे धीरे ईश्वर को अनुभव करना हम शुरू कर सकते हैं। ये एक अनुभूति है , जो क्रम से होता है। जैसे जैसे हम इन सभी दोषों से मुक्त होते जाते हैं , वैसे वैसे ईश्वर की अनुभूति हमें होने लगती है। 
11. क्या ईश्वर मृत्यु के समय आयेंगे  ? (15:33)  
 यह एक बहुत बड़ी विश्वास की बात है। ठीक है। मरते वक्त ईश्वर दर्शन होता है , ठीक है। विश्वास कर सकते हो।  लेकिन उपनिषद हमें यह बताती है कि - मरते वक्त ही क्यों ? अभी क्या है ? यह आँखों के सामने हमको क्या दिखाई दे रहा है ? उपनिषद और भगवान कृष्ण हमे यह बता रहे हैं कि ईश्वर से अतिरिक्त अभी भी कुछ नहीं है। ठाकुर की भाषा में - लोटा-ब्रह्म, थाली ब्रह्म। यह बात अभी समझना है। जब हम समस्त अभ्यासों का अनुशीलन करेंगे , तब हमें हमारे जीवन में ही अनुभवगम्य हो जायेगा। तो ये सभी 5 श्लोकों पर पिछले सत्र में चर्चा हुई थी।  अब हम लोग आगे बढ़ते हैं।  (16:36)को वह व्यक्ति प्राप्त कर लेगा , जो इस प्रकार ईश्वर की शरण में जाता है और साथ साथ अपने मिथ्या अहं को आत्मा में विलीन करने का अभ्यास करता है।               
छठे श्लोक में भगवान कहते हैं कि परमपद या ईश्वरपद क्या है ? हम जिसको प्रभु परमेश्वर कहते हैं , सच्चिदानन्द ब्रह्म कहते हैं , इसका स्वरुप क्या है ? न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।15.6।। 
 न  तत्  भासयते सूर्यो न  शशाङ्को न  पावकः। 
 यत् गत्वा न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम। 
 मेरा परम धाम , अब देखिये कृष्ण भगवान सब समय मैं -मेरा का व्यवहार करते रहते हैं।  कहते हैं - मेरा परम धाम , लेकिन जब भी भगवान कृष्ण 'मैं ' कहते हैं , वो उस परमात्मा की बात कर रहे हैं। मेरा परम धाम कैसा है ? जिसका ज्ञान हम सबको एक न एक दिन प्राप्त करना है।  प्राप्त होना ही है , जिसको हम सबको एक न एक दिन प्राप्त होना ही है। उपनिषद इस विषय में एकदम positive है , हम इस खोज में कितना रूचि लेते हैं , कितना इस पथ पर अपनेआप को नियुक्त करते हैं ? उस पर निर्भर करता है। 
भगवान बताते हैं मेरा धाम कैसा है ? वहाँ पर यह सूर्य भासित नहीं होगा। इस सूर्य की किरणे उसको भासित नहीं कर सकती। इस सूर्य का प्रकाश वहां पर विद्यमान नहीं है। और न चन्द्रमा ही है। न सूर्य , न चन्द्रमा , न अग्नि वहां विद्यमान है - कहने का मतलब है वह परमधाम बिल्कुल अतीन्द्रिय है। इन्द्रियों से दिखने वाला इस जगत में ज्योति के जितने भी स्रोत हैं , यह जो भौतिक जगत हमको दिख रहा है , इसके परे वह चैतन्य ज्योति है , आत्मज्योति है। जिसके रहने के कारण ही ये भौतिक ज्योति के स्रोत भासित होते हैं। सूर्य की ज्योति उसको भासित नहीं कर सकती , उस आत्मज्योति से ही यहाँ सबकुछ भासित होता है। यह मुख्य बात है। जिसको प्राप्त करने के बाद पुनः इस संसार में प्रवेश नहीं करता -  यत् गत्वा न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम। रामकृष्ण की भाषा में कहें तो -'खण्डन भव बन्धन' एक बार अगर इस भवबन्धन का खण्डन हो जाता है , फिर जीव दुबारा इस जन्म-मृत्यु के चक्र में दुबारा प्रवेश नहीं करता। 
        भगवान कृष्ण का पहला उपदेश हुआ - इस अशाश्वत  विश्व-प्रपंच से असंग होना ! ये पहला उपदेश है। असंग होकर के उस परमपद या ईश्वर पद की ओर प्रस्थान करना (विवेक द्वारा मिथ्या जगत से अनासक्त होकर वैराग्य में प्रतिष्ठित होने के पश्चात्) ये दूसरा उपदेश है। प्रस्थान करने के लिए मिथ्या मैं-पन को ईश्वर के चरणों में शरणागत करना ये तीसरा हुआ। इसके साथ कुछ सहायक अनुशासन - जैसे निर्मान मोहा , जितसंग दोष। का अनुशीलन करता हैं, तब उस परमपद को प्राप्त करते हैं। वो परमपद कैसा है ? ऐसा है - उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर जीव /मनुष्य संसार में - जन्म-मृत्यु के चक्र में पुन: प्रवेश नहीं करता। नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है। 
      जीव - हम और आप जब तक अपने सत्य स्वरुप को हम नहीं जानते , अभी हमको लगता है कि ईश्वर हमसे भिन्न है। ईश्वर का स्वरुप क्या है ? ईश्वर का स्वरुप हमारा ही सत्य स्वरुप है। हमारा जो सत्य (सच्चिदानंद) स्वरुप है - वही ईश्वर है। ईश्वर हमसे भिन्न नहीं है। पहले हम इस बात को जान लें। (22:17) आज हमलोग अपने को ईश्वर से भिन्न करके देख रहे होंगे , ये ठीक है। आध्यात्मिक जीवन में शुरुआत ऐसा ही होता है। हम समझते हैं कि हमसे अलग कोई ईश्वर है। हम उसकी पूजा करते हैं , उसकी अर्चना करते हैं।  ये बात ठीक है। लेकिन सत्य क्या है ? हमारा जो सत्य स्वरुप है , वह ईश्वर ही है। जब तक हमें इसका ज्ञान नहीं होता , तब तक जीव इस जन्म-मृत्यु के चक्र में फँसा रहता है। पुनर्पि जननं , पुनर्पि मरणम। पुनर्पि जननी जठरे शयनं , पुनः पुनः कितनी बार हम जननी के गर्भ में प्रवेश कर चुके हैं ,हमें इसकी कल्पना नहीं है। हम भूल चुके हैं , हमें पता नहीं है हम कितनी बार माता के गर्भ में प्रवेश कर चुके हैं। और हर जन्म में वही कहानी चलती है। कितनी बार हमारे पति हो गए हैं , हमारी पत्नियाँ हो गयी हैं , और हर जन्म में लगता है कि यही सत्य है। इस जन्म में देखिये - एक पति,एक पत्नी और बच्चे हुए है। हमको लगता है कि यही सत्य है। ये कितनी बार हो गयी है। और जिस जन्म में हम जिसके साथ बंधे हैं , उसीसे मोहित हो जाते हैं। यह होता क्यों है ? सत्यत्व बुद्धि। जब तक इस अशाश्वत विश्वप्रपंच के प्रति हमारी सत्यत्व बुद्धि होगी , तब तक व्यक्ति मोहित ही रहेगा। और जब तक मोहित रहेगा , वो जन्म-मृत्यु के इस चक्र से वो बाहर नहीं निकल पायेगा। और यही संसरण है - संसार शब्द का असली मतलब है संसरण !  संसरण का मतलब है , एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करना। एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करने का सिलसिला तबतक चलता रहेगा जबतक व्यक्ति अपने आप को नहीं जानेगा , अपने ईश्वर स्वरुप को नहीं पहचानेगा। तब तक वह इस जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं होगा। यह भवबंधन है और इसी बंधन का खंडन करना है , और उसके मूर्त रूप हैं -श्रीरामकृष्ण। श्री रामकृष्ण ही नहीं , जितने भी महात्मा होकर गए हैं , उन सभी के जीवन में यही दिखाई देता है। उपनिषदों के ऋषियों से शुरू करके जितने भी महापुरुष होकरके गए हैं , वे सभी इसी के मूर्त रूप हैं। सभी उपदेश एक ही है -इस भवबंधन से हर जीव को कभी न कभी मुक्त होना ही है। ये हमारा परम् कर्तव्य है , ये हमारा परम लक्ष्य है। ये संसरण होता कैसे है ? 
     यहाँ एक मुख्य विषय है -पुनर्जन्म का। (25:21) एक शरीर छूट जाता है , हम दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।  यह हिन्दू धर्म का एकमात्र विचारधारा है। जो विश्व में कहीं भी नहीं है , याद रखिये। ये हिन्दू सनातन धर्म का वैदिक विचारधारा है। बाकि जितने भी सेमेटिक धर्म हैं - उसमें सिर्फ एक जीवन ही है बस , दूसरा जीवन नहीं होता। यह बात कितना illogical है , कितना अतार्किक है , आप खुद सोचिये। इस पुनर्जन्म का सिद्धान्त है कर्म और कर्म का फल है पुनर्जन्म। ये अकाट्य सत्य है। तो  भगवान कृष्ण यहाँ कहते हैं। ये पुनर्जन्म होता कैसे है
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।15.7।।

 मम  एव अंशः जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
 मनःषष्ठानि इन्द्रियाणि  प्रकृतिस्थानि  कर्षति।। 

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।15.8।।

 शरीरम्  यत् अवाप्नोति यत् च अपि  उत्क्रामति  ईश्वरः। 
 गृहीत्वा एतानि  संयाति  वायुः  गन्धान्  इव आशयात्।।

परमेश्वर के साथ जीव का सम्बन्ध क्या है , जब तक इसका ज्ञान नहीं होता , तब तक वो इस जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं हो सकता। सातवें श्लोक में भगवान कृष्ण बतला रहे हैं कि इस जीव का परमेश्वर के साथ क्या संबन्ध है ? आपका और मेरा परमेश्वर के साथ क्या सम्बन्ध है ? जीवन का परम लक्ष्य है - 'ईश्वर सम्बन्ध बना लेना। ' ईश्वर सम्बन्ध बनाये बगैर व्यक्ति का जीवन निरर्थक है। कभी सार्थक नहीं हो सकता। जो व्यक्ति जितना ईश्वर सम्बन्ध बना लेता है , उतना उसका जीवन सार्थक होता है , सुखमय होता है। वह परिपूर्णता की ओर बढ़ता है। 
ईश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध कैसा है -भगवान कहते हैं -  मम  एव अंशः जीवलोके जीवभूतः सनातनः। आपलोग क्या हैं ? मैं क्या हूँ ? ये जीव जो है , क्या है ?   मम  एव अंशः' मेरा ही अंश है। आप क्या हो ? ईश्वर के अंश हो। और ईश्वर का अंश होने का मतलब क्या है ? कोई पूर्ण चीज है - उसका एक अंश होने की बात यहाँ नहीं है। ईश्वर का अंश होने का मतलब भगवान शंकराचार्यजी कहते हैं - आप अंश कहोगे तो वो ईश्वर से अलग हो गया। तो हम क्या ईश्वर से अलग हैं ? असम्भव,  हो ही नहीं सकता। ईश्वर के अतिरिक्त हमारा कोई अस्तित्व है ही नहीं। ईश्वर हमारा अधिष्ठान है , हमारा मूल आधार है। ईश्वर (आत्मा)  के बगैर हमारा कोई अलग जैसा अस्तित्व है ही नहीं , हो ही नहीं सकता। हम हैं ही नहीं - ईश्वर ही है ये भ्रम में मुझको लगता है कि मैं BKS हूँ। ईश्वर से अलग हमारा कोई अस्तित्व हो ही नहीं सकता। अंश को कैसे समझें ? आप जमीन पर 10 घड़े रख दीजिये। 10 घड़ों में आप पानी भर दीजिये। आप देखिये आसमान में सूर्य है। सूर्य उस घड़े के पानी में प्रतिबिंबित हो रहा है। अब वो प्रतिबिंबित सूर्य क्या है ? अगर प्रतिबम्बित सूर्य अपनेआप से प्रश्न करेगा कि मैं कहाँ से आया हूँ ? तो वो कहाँ पहुंचेगा ? थोड़ी कल्पना कर के देख लीजिये आप। प्रतिबिंबित सूर्य को लगता है कि उस सूर्य से मैं अलग हूँ। आज हमारी दशा बिल्कुल उसी प्रकार है। अगर प्रतिबिंबित सूर्य अपने आपसे प्रश्न करेगा कि मैं कौन हूँ ? अगर उस सत्य को खोजेगा , तो प्रतिबम्बित सूर्य कहाँ पहुंचेगा ? मूल सूर्य में पहुँचेगा। उस प्रतिबिंबित सूर्य का मूल सूर्य से कोई अलग से अस्तित्व है क्या ? ईश्वर का अंश होने का मतलब है - कि हम ईश्वर के प्रतिबिम्ब हैं। प्रतिबिंबित सूर्य उस मूल सूर्य का अंश है। उसी प्रकार हम जीव भी उस परमेश्वर के अंश है। उसी प्रकार जब हम प्रश्न करना शुरू कर देंगे कि मैं कौन हूँ ? तो आप कहाँ पहुँचोगे ? प्रभु परमेश्वर में पहुंचोगे। वही एकमात्र गति है। आज अज्ञानवश हमको लगता है कि हम प्रभि परमेश्वर से भिन्न हैं। लेकिन जब खोजना शुरू कर दोगे , तो यह सत्य आविष्कृत हो जायेगा कि हम अलग हैं ही नहीं। हम हैं ही नहीं ईश्वर (सच्चिदानन्द)  मात्र ही है।  मम  एव अंशः जीवलोके जीवभूतः सनातनः। का यह मतलब है। कि एक एक घड़े के अंदर ईश्वर ही प्रतिबिंबित हो रहे हैं। प्रत्येक घड़ा ईश्वर का प्रतिबिंबित रूप है। हम सभी ईश्वर को ही प्रतिबम्बित कर रहे हैं। जीव क्या है ? ईश्वर का प्रतिबिम्ब है। लेकिन इस प्रतिबिम्ब का बिम्ब कहाँ है ? इस प्रतिबिम्ब का बिम्ब ईश्वर या आत्मा ही है। जिव जब अपना स्वरुप खोजना शुरू करेगा तो पहुँचेगा कहाँ ? प्रभु परमेश्वर में। तब वो जानेगा कि ईश्वर से अतिरिक्त तो मैं कभी था ही नहीं। यही हमारे उपनिषदों का सिद्धांत है। और यही भगवान कृष्ण भी कह रहे हैं -मम  एव अंशः जीवलोके जीवभूतः सनातनः। यही मोक्ष शास्त्र है। जिस दिन यह ज्ञान होगा , व्यक्ति जीवित अवस्था में ही मुक्त हो जायेगा। मरने तक रुकने की जरूरत नहीं है। यह अभी होने की बात है - हम कभी सत्य को खोजने का साहस /प्रयास ही नहीं करते। क्यों नहीं करते ? हम अभी चिपके हुए हैं। कहाँ चिपके हुए हैं ? स्थूल शरीर में - इसीलिए चिपकना सख्त मना है। इस नश्वर अशाश्वत विश्व से चिपकोगे , तो कभी भी सत्य का आविष्कार नहीं होगा। जब तक सत्य का अविष्कार नहीं होगा तबतक जन्म -मृत्यु के चक्र से मुक्ति नहीं होगी। असम्भव। प्रार्थना ,जप और ध्यान करने की बात नहीं है। यह ज्ञान है और परम भक्ति का यही रहस्य, और यह भक्ति ज्ञान तब होगा जब हम सत्य को खोजेंगेइतना साहस देखता हूँ कि अभी मरता कौन है ? भज गोविंदम , भज गोविन्दम कहने का अर्थ क्या है ? ईश्वर को खोजो , ईश्वर को खोजो , सत्य को जानो ! ईश्वर को खोजने का प्रयास करो , साहस करो ! यही मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य है , यही एकमात्र लक्ष्य है। अगर हम वो नहीं कर रहे हैं , तो बहुत बड़ा दुर्भाग्य है। जिव परमेश्वर का अंश है - अर्थात ईश्वर का प्रतिबिम्ब है। आत्मा (महामाया की) का प्रतिबिम्ब है। और प्रतिबिम्ब का बिम्ब से अतिरिक्त कोई अस्तित्व है ही नहीं।      
भगवान शकराचार्य जी इस बात को समझाने के लिए फिर घड़े का ही उदाहरण देते हैं। उस समय मिट्टी का घड़ा हर घर में हुआ करता था। अब देखिये घड़ा है , लेकिन घड़ा खाली है क्या? घड़े के अंदर आकाश है। घट के अंदर जो सीमित आकाश है , उसको घटाकाश कहते हैं। अच्छा आकाश का विभाजन सम्भव है क्या ? घड़ा क्या आकाश को विभाजित कर सकता है ? घड़े का शरीर मानो अखंड आकाश को विभक्त कर रही है। घटाकाश और महाकाश के रूप में वो विभक्त कर रही है। लेकिन वास्तव क्या आकाश भी विभक्त हो सकता है ? कहने के लिए आप कह सकते हो कि घटाकाश महाकाश का अंश है। घटाकाश अगर अपने आप को खोजेगा तो क्या पायेगा ? मैं महाकाश ही हूँ। महाकाश से अतिरिक्त घटाकाश का कोई अस्तित्व है ही नहीं।  
(37:20) जब हमें इसका ज्ञान नहीं होता तब क्या होता है ? पुनर्जन्म होता रहता है। इसीलिए भज गोविंदम मूढ़ मते। 
पुनरपि जननं ,पुनरपि मरणं ,पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे खलु दुस्तारे,  कृपया पारे पाहि मुरारे॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते मरने , न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥ 

मृत्यु दरवाजे पर दस्तक दे रही है , आप जिन जिन चीजों से चिपके हुए हो -ये आपको जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं करा सकती। 
अब पुनर्जन्म कैसे होता है ? उसका वर्णन भगवान कृष्ण करते हैं। (38:08) अज्ञान दशा में जीव की गति यही होती है। जैसा कर्म किया होता है , उस प्रकार का उसको शरीर मिलता है। भगवत गीता में इसका कई जगह पर उल्लेख है। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय आपने सुना होगा

 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।
अच्छा यहाँ मृत्यु से सभी लोग भयभीत हैं (38:43)  मृत्यु का भय ह्रदय में गूढ़ रूप से भरा हुआ है। लेकिन मृत्यु है क्या ? उपनिषदों में इसका विस्तार से वर्णन है। मृत्यु क्या चीज है ? मृत्यु क्या है ? हमलोग रोज नहाते हैं या नहीं ? नहाते वक्त हमलोग क्या करते है ? पुराने वस्त्र को छोड़ देते हैं। और नये वस्त्र को पहन लेते हैं। नहाने के बाद हमलोग पुराना वस्त्र नहीं पहनते हैं। हमलोग फिर नया वस्त्र ही पहनते हैं। उसी प्रकार पुराना जो स्थूल शरीर है , जो जीर्ण हो गया है , बूढ़ा हो गया है। अब इसका कोई काम नहीं है।  इस पुराने यंत्र को हम छोड़ देते हैं, सूक्ष्म -शरीर , इस स्थूल शरीर को छोड़ देता है। और अपने कर्म के अनुसार खुद अपना एक नया शरीर बना लेता है। यही मृत्यु है। वास्तव में वो मरता है क्या ? कुछ भी नहीं हुआ है उसको। तो अगली बार ज्यादा रोना -धोना की जरूरत नहीं है। हमलोग उल्टा करते हैं। जब बच्चे का जन्म होता है , तब हमलोग खुश होते हैं। और मृत्यु के लिए रोते हैं। यही बात भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं -ये जो मर रहे हैं , उसके लिए तू आँसू बहा रहा है ? जो जन्मा है , वो मरेगा ही।  और जो मरेगा उसका जन्म होगा। तो क्यों शोक कर रहा है तूँ ? शोक करने लायक कोई बात है क्या इसमें ? जिस प्रकार हम एक वस्त्र छोड़कर नया वस्त्र पहन लेते हैं। उतना ही तो है मृत्यु। एक स्थूल शरीर चला गया , और दूसरे स्थूल शरीर को ग्रहण करता है। पुनर्जन्म के बारे यही बात भगवान कृष्ण आठवें श्लोक में कहते हैं -    शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।15.8।।
 शरीरम्  यत्  अवाप्नोति  यत् च अपि  उत्क्रामति ईश्वरः।  
गृहीत्वा एतानि संयाति वायुः गन्धान् इव आशयात्।।

जब (देहादि का) ईश्वर (जीव) (एक शरीर से) उत्क्रमण करता है, तब इन (इन्द्रियों और मन) को ग्रहण कर अन्य शरीर में इस प्रकार ले जाता है, जैसे गन्ध के आश्रय (फूलादि) से गन्ध को वायु ले जाता है।।
जीव पुराने शरीर से अपने-आप का उत्क्रमण कर लेता है। सूक्ष्म शरीर पुराने स्थूल शरीर से उत्क्रमण करता है। और दूसरे नए शरीर में प्रवेश कर जाता है। जब एक स्थूल शरीर को छोड़ता है , तो क्या करता है ? मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।15.7।। इस सूक्ष्म शरीर की पाँच इन्द्रियाँ हैं, और मन है । इन सबको आकृष्ट करके सिर्फ स्थूल ढाँचा जो है , स्थूल शरीर को छोड़ देता है। और इन्द्रिय और मन समेत वह , चला जाता है और दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाता है। पुनर्जन्म का यही स्वरुप है। और फिर क्या ? गृहीत्वा एतानि संयाति -सूक्ष्म शरीर जो स्थूल शरीर को छोड़ करके उत्क्रमण करता है , उत्क्रमण करते समय इन्द्रियां और मन को अपने साथ ले लेता है। और दूसरे नए शरीर में प्रवेश कर जाता है। इन्द्रियों और मन को कैसे ले लेता है ? उसका उदाहरण देते हैं -वायुः गन्धान् इव आशयात्।। जिस प्रकार वायु बहती है , तो सुगन्धित फूल या बगीचा हो तो वायु क्या करती है ? उस सुगंध को अपने साथ ले आती है। उसी प्रकार ये सूक्ष्म शरीर भी स्थूल शरीर को छोड़ते वक्त , इन्द्रियों और मन को अपने साथ लेकर के दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाता है। जब तक आत्मज्ञान नहीं हुआ , तब तक हर जीव के साथ मृत्यु काल में यही होता रहता हैजब तक सत्य का ज्ञान नहीं हुआ , प्रभु परमेश्वर का ज्ञान नहीं हुआ ,या  ईश्वर-लाभ नहीं हुआ , तबतक यही सिलसिला चलता रहेगा। एक के बाद , दूसरा ,दूसरे के बाद तीसरा , यह अनवरत चलता ही रहेगा। और यही दुःख का प्रवाह है , हमको समझ में नहीं आता है। इसमें सुख कहाँ है ? पुनः पुनः माता के गर्भ में प्रवेश करने में कोई सुख है ?
किसी अविवेकी मूढ़ व्यक्ति को ही इसमें सुख दिखाई देगा। इसमें तो अत्यंत वेदना है। योगी लोग कहते हैं जब तक 9 महीना तक माता के गर्भ में जीव रहता है -तबतक कितनी यातना है ? हमे आज उसका स्मरण नहीं है। हम लोग भूल गए है। गर्भवास यातना का समय होता है। इसलिए बच्चा जब माँ के गर्भ से बाहर आता है , तो क्या हंस कर आता है ? वहां से जीव का रोनाधोना शुरू होता है। सारा जीवन रोना ही गुजरता है , बीच में कुछ एक बून्द हँसी होती है , तो 10 बून्द दुःख होता है। यही संसार का स्वरुप है।  फिर भी हमें वैराग्य नहीं आता ? 3k के प्रति हमारा मोह टूटता नहीं। फिर भी हम इसी से चिपक कर रहते हैं। 
जीवित अवस्था में हम इस विश्व-प्रपंच का कैसे उपभोग करते हैं ? (45:33) 20 श्लोकों  भगवान कृष्ण ने सबकुछ बता दिया है। इसलिए शंकराचार्य जी कहते हैं कि पन्द्रहवाँ अध्याय केवल गीता का ही सार नहीं हैं , पूरे वेदों का सार है। पूरे हिन्दू सनातन धर्म का सार है। जीवित काल में हम विश्व-प्रपंच का उपभोग कैसे करते हैं ? (46:08)
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।।15.9।। उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।।15.10।।यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः।।15.11।
  
 श्रोत्रम्  चक्षुः  स्पर्शनम् च रसनम् घ्राणम् एव च। 
अधिष्ठाय  मनः च अयम् विषयान् उपसेवते। 
उत्क्रामन्तम्  स्थितम्  वा अपि भुञ्जानम्  वा  गुणान्वितम्।
 विमूढाः न अनुपश्यन्ति  पश्यन्ति  ज्ञानचक्षुषः। 
यतन्तः योगिनः  च  एनम्  पश्यन्ति  आत्मनि अवस्थितम्।
  यतन्तः अपि अकृतात्मानः  न  एनम् पश्यन्ति अचेतसः।।

>>मूढ़ व्यक्ति कौन है ? 
       श्रीकृष्ण कहते हैं, 'श्रोत्रम्  चक्षुः  स्पर्शनम् विषयान् उपसेवते।' ये जीव जो है , आप मैं हम सभी ये हमारी ही कहानी चल रही है। ये आपका और हमारा वर्णन चल रहा है यहाँ। हमलोग इस पूरे विश्व प्रपंच का उपभोग कैसे कर रहे हैं ? पांच इन्द्रियों के पांच विषय हैं हम इस पूरे विश्व प्रपंच को पाँच इन्द्रियों से ही तो जानते हैं। इन इन्द्रियों के बाहर कोई विश्व -प्रपंच है क्या ? वेदांत हमें यह भी कहती है - पूरा ये विश्वप्रपंच क्या है ? इन्द्रियाँ हैं और क्या हैं ? आप थोड़ा सा कल्पना कर के देख लीजिये।  आपके पास यदि ये पाँच इन्द्रियाँ नहीं है - ऐसा सोंचकर देखिये। कल्पना कीजिये कि ये पाँच इन्द्रियाँ आपके पास नहीं हैं , तो आपको यह विश्वप्रपंच दिखाई देगा क्या ? कुछ नहीं दिखाई देगा। विश्वप्रपंच क्या है ? ये इन्द्रियां ही हैं। आपके पास यदि इन्द्रियां न हों , तो आपको दिखाई नहीं देगी।  स्वामी विवेकानन्द कहते हैं,अगर आपके पास एक इन्द्रिय और होती तो आपको ये विश्वप्रपंच कुछ और दिखाई देता। पांच इन्द्रिय और मन - मन प्रधान है जो षष्ठ है - छठी इन्द्रिय है , इन्हीं को अधिष्ठान बना करके हमारे अनुभूति का आधार है। भौतिक अनुभूति का यही मूल आधार है। जीव इन्हीं छः इन्द्रियों के माध्यम से आप और हम, सभी इन सभी विषयों का उपभोग कर रहे हैं। अब देखिये भगवान कृष्ण तीन अवस्था की बात कह रहे हैं - उत्क्रामन्तम्  यानि मृत्यु काल में, स्थितम्  वा अपि- माने जीवित काल में।  भुञ्जानम्  वा  गुणान्वितम्' और विभिन्न  विषयों का उपभोग करते समय भी। विवेकी को यह दिखाई देता है , कि एक प्रभु परमेश्वर का ही सब खेल चल रहा है। लेकिन जो अविवेकी और मूढ़ व्यक्ति है उसको यह दिखाई नहीं देता। 'विमूढाः न अनुपश्यन्ति  पश्यन्ति  ज्ञानचक्षुषः।' कितनी सच्चाई है इस बात में। हम सब लोग क्या हैं ? अविवेकी और मूढ़ व्यक्ति क्या नहीं हैं ? फ़िलहाल तो अविवेकी ही हैं। हम लोग भी मूढ़ ही हैं।  भगवान शंकराचार्यजी का ये मूढ़ शब्द बहुत प्रिय शब्द है। बीच बीच में कहते रहते हैं - ये जो मूढ़ व्यक्ति हैं -सत्य को सामने देख कर भी नहीं देख पाते ? जब तक हमलोग निरंतर सत्य को देखने में अभ्यस्त नहीं हैं, आदि नहीं हैं या 'accustomed' बन जाते हैं, तबतक तो हम मूढ़ ही हैं। हमलोग जबतक निरंतर सत्य को (ह्रदय में विद्यमान प्रभु परमेश्वर को यानि आत्मा या ईश्वर को ही) देखने के अभ्यासी नहीं हैं , तबतक हम मूढ़ ही हैंआपकी डिग्रियाँ चाहे कितनी भी हों , आप मूढ़ ही हैं। इसको समझकर रख लीजिये। (51:54 ) भगवान श्रीरामकृष्ण कहते हैं - भगवान का ज्ञान ही एक मात्र ज्ञान है , बाकिसब तो अज्ञान ही है। आपकी इतनी लम्बी लम्बी डिग्रियाँ चाहे जो भी हों। वो सब अज्ञान के क्षेत्र में ही आता है। ईश्वर का ज्ञान है बाकिसब अज्ञान है। तो वही बात भगवान कृष्ण यहाँ कहते हैं - 'विमूढाः न अनुपश्यन्ति  पश्यन्ति  ज्ञानचक्षुषः।' मूढ़ व्यक्ति को सच्चाई दिखाई नहीं देता , सत्य क्या है ? चाहे मृत्युकाल में हो या जीवित काल में हो , या विभिन्न विषयों का उपभोग करते समय भी उसको सच्चाई दिखाई नहीं देता ? क्योंकि वो भ्रमित है - M/F स्थूल शरीर को मैं मानकर सम्मोहित है ? लेकिन कौन देख पाता है ? 'पश्यन्ति  ज्ञानचक्षुषः।' जिसके ज्ञान-चक्षु खुल गए हों -जिसकी अन्तर्दृष्टि खुल गयी हो , वह कभी भी भ्रमित नहीं है ! वो आँखे खोल करके सत्य को देखता है{ लकिन प्रारब्ध भोग लेने के बाद - माया के राज्य में रहते समय यह दावा भी माँ सारदा की कृपा के बिना कोई नहीं कर सकता और आँखों में झाँक कर जो एक मात्र ईश्वर माँ सारदा को ही देख नहीं पाता ?} वह कभी किसी चीज से मोहित नहीं है। वो प्रत्येक वस्तु (या M/F शरीर) को जानता है कि इसका सत्यस्वरूप क्या है ? (52:47) हर मनुष्य के जीवन में इतनी बड़ी उपलब्धि होना ही है। ये होगा ही। अगर हम जो करणीय है , (विवेक-वैराग्य पूर्वक 5 करणीय अभ्यास) अगर हम करेंगे , तो यह होगा। ये 100 % होगा। ये उपनिषदों का वादा है , भगवत गीता का वादा है , सभी महापुरुषों का वादा है। लेकिन जो करणीय है , उसको करना पड़ता है (और जो अकरणीय कर्म या  शास्त्र निषिद्ध कर्मों से बचना पड़ता है)। विवेक-जनित वैराग्य पूर्वक यम-नियम का पालन किये बगैर नहीं होगा। लेकिन अगर आप उल्टा करोगे , इस अशाश्वत संसार से चिपके रहोगे , मोहित होकर के रहोगे तब कभी भी सत्य का आविष्कार होना सम्भव नहीं है।[ उत्क्रामन्तम्  स्थितम्  वा अपि भुञ्जानम्  वा  गुणान्वितम्।विमूढाः न अनुपश्यन्ति  पश्यन्ति  ज्ञानचक्षुषः। ] (गुरु के मार्गदर्शन में ? ) जिस व्यक्ति ज्ञान चक्षु जिसके खुल गए हों , वो व्यक्ति ऑंखें खोलकर के सत्य को देखता है , वो कभी भी भ्रमित नहीं है, कहीं चिपकता नहीं है । वो विमूढ़, सिर्फ मूढ़  नहीं, वो तो फिर adjective हो , प्रखर रूप से मूढ़। माँ जैसे बच्चों को डाँटती है - पढ़ता नहीं है , गधा है ? तू एक नंबर का गधा है। वैसे ही भगवान शंकराचार्यजी कहते हैं - तुम मूढ़ नहीं विमूढ़ हो ! मूढ़ का विशेषण है विमूढ़। तू एकदम गधा है ? 
    (54:44 >>सत्य को हम क्यों नहीं देख पाते हैं ?  
    आगे भगवान कहते हैं - ये विशेष मूढ़ता हमसे क्यों होती है ? इसमें हँसने की बात नहीं है। लेकिन हम सत्य को देख क्यों नहीं पाते हैं ? इसका एक ही कारण है , हमारे अंतःकरण की अशुद्धि। वही बात भगवान कृष्ण यहाँ कहते हैं -जबतक अन्तःकरण अशुद्ध होगा , तबतक हम सत्य को देख नहीं पाएंगे। और अन्तःकरण की अशुद्धि में सबसे बड़ा बाधा क्या है ?  कामना ,कामना ,कामना,काम -काम कामना। जबतक हमारे अन्तःकरण सांसारिक कामनायें होंगी (3K में आसक्ति होगी) तबतक हम सत्य को जान नहीं पाएंगे। इसलिए अन्तःकरण की शुद्धि -( चित्तशुद्धि) का मतलब क्या है ? 'निष्कामता ' (विवेक जनित अनासक्ति या वैराग्य ) इसलिए हमारे वेदों , उपनिषदों , गीता में निष्कामता को इतना महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। हमारा अंतःकरण जितना निष्काम होता है , कामना रहित होता है , जितना आप सांसारिक वासनाओं से मुक्त होते है -Free from worldly desires होता है , उतना ही आपको ईश्वर सर्वत्र दिखाई देने लगेगा। ईश्वर कहाँ है ? मंदिर में है? वो भावना शुरुआती दौर के लिए ठीक है। जितना मन वासना मुक्त होगा , उसको तो सर्वत्र एक ईश्वर ही दिखेगा। क्योंकि ईश्वर ही तो है , ईश्वर के अतिरिक्त यहाँ कुछ है क्या ? है ही नहीं , लेकिन हमको दिखाई क्यों नहीं देता ? हमारा मन या अन्तःकरण अभी तक शुद्ध नहीं हुआ है। वहां वासनायें हैं , कामनायें हैं , इसीलिए हमको सत्य समझ में नहीं आता ! (56:05)  यहाँ भगवान कृष्ण कहते हैं - यतन्तो योगिनः  च  एनम्  पश्यन्ति  आत्मनि अवस्थितम्। यतन्तो मतलब जो योगी यत्नशील है , वो सतर्कता के साथ प्रयत्न कर रहा है। सत्य को जानने का प्रयत्न कर रहा है। यत्नशील है -सतर्क है। योगी या साधक के जीवन का जो बहुत बड़ा लक्षण है वो है - सतर्कता (vigilant सावधान, सतर्क )। diligent, अध्यवसाई। जो बुद्धिमान -अमूढ़ Intelligent साधक होता है वो निरन्तर सतर्क रहता है, vigilant रहता है। (वो अमूढ़ साधक हर भेष में तू हर देश में तू- कौरव या पाण्डव ? आतंकी नारायण , हाथी नारायण और महावत नारायण, नारायण या बहुरुपिया हरि ही है को सावधानी से  पहचान लेता है और यथायोग्य  के साथ व्यवहार करता है, काटता नहीं फुँफकारता जरूर है। ) और ऐसा अमूढ़ साधक , भगवान कृष्ण कहते हैं - वो पश्यन्ति ! वो देख लेता है। क्या देख लेता है ? आत्मनि अवस्थितम्। ये प्रभु परमेश्वर, ईश्वर या आत्मा जो सभी के ह्रदय में बैठे हुए हैं - ये उसको स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।  ये अमूढ़ या विवेकी और अनासक्त साधक सत्य को या ईश्वर को हर वेश में लीला करता हुआ देख लेता है। लेकिन दूसरा जो व्यक्ति है , वह सतर्क होने के बावजूद उसको दिखाई नहीं देता है। (57: 14) क्यों नहीं दिखाई देता ?   यतन्तो अपि अकृतात्मानः  न  एनम् पश्यन्ति अचेतसः।। यतन्तो अपि - यानि सतर्कता से प्रयत्न करने पर भी, 'अकृतात्मानो' माने जिसका अन्तःकरण अभी तक शुद्ध नहीं हुआ है,अपरिष्कृत है। जिसका अन्तःकरण अभी भी (ब्रह्मज्ञान हो जाने पर भी) कामनाओं से , वासनाओं से भरा हुआ है, उसके अंदर का अहंकार है (देहभाव -दास नहीं हुआ ?) उसका दुराचरण या शास्त्र निषिद्ध आचरण अभी भी दुराचारी ही है , सदाचारी नहीं हैजो जीव-कोटि का यानि अच्छे चरित्र का गठन नहीं किया है। ऐसे व्यक्ति को एक प्रभु परमेश्वर या ईश्वर सर्वत्र होते हुए भी ,उसको सच्चाई दिखाई नहीं देती। [सिया-राम मय जगत- या ब्रह्ममय जगत दिखाई नहीं देता।] उसी व्यक्ति को हमलोग विमूढ़ व्यक्ति कहते हैं। उसको जिव-जगत में अन्तर्निहित सत्य दिखाई नहीं देतालेकिन जो व्यक्ति प्रथम वर्ग (category) या जो जीव कोटि का नहीं जो ईश्वर कोटि का है अर्थात जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो चुका है (निष्काम कर्म करके -करके जिसकी चित्तशुद्धि हो चुकी है। उसको तो सर्वत्र ईश्वर ही दिखाई देता है। तो हमारे जीवन के लिए यह एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है।  ऐसा नहीं है कि हमको 50 बिंदु याद रखना है। इन सबका निचोड़ ये है -(58:16सब शास्त्रों को पढ़ने के बाद यदि शंकराचार्य जी को देखें तो वे एक बहुत सुंदर बात कहते हैं-
 
ॐ तन्मनः शोधनं कार्यं प्रयत्नेन मुमुक्षुणा।

विशुद्धे सति चैतस्मिन्मुक्तिः करफलायते॥

मुमुक्षु को प्रयत्नपूर्वक मन का शोधन करना चाहिए, उसके शुद्ध हो जाने पर मुक्ति करामलकवत् (सुगम, सरल) हो जाती है। मोक्ष कोई मरने के बाद नहीं, जीवित रहते हुए मुक्ति-लाभ लेना है
 आप जप-ध्यान -प्रार्थना हर चीज कर लीजिये। हर रोज मंदिर में जाकर बैठिये , तीर्थ भ्रमण कर लीजिये। सारे शास्त्रों को पढ़ने , साधना -भजन करने का, सब कुछ करने का मूल निष्कर्ष क्या है? तन मन का शोधन , यानि अन्तःकरण की शुद्धि। कार्यं मतलब करणीयं। मनुष्य जीवन में जब आप साधक के रूप में आध्यात्मिक पथ पर चलते हैं तो उसका मूल निचोड़ क्या है ? हम क्या कर रहे हैं ? सवेरे उठकर के मंदिर जाते हैं। मंगल आरती में जाते हैं , शाम की आरती करते हैं। लेकिन ये सब क्या हो रहा है ? और कुछ नहीं हो रहा है , आपके अंतःकरण की शुद्धि हो रही है। अन्तःकरण के शुद्धि की प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए। आप मंदिर में रहो या घर में रहो , घरों में अशुद्धि की सम्भावना ज्यादा होती है। गृहस्थी में रहते हुए हमारा जीवन शुद्ध हो पवित्र हो , इसके लिए हमें निरंतर सतर्क रहना होगा। हमारा जीवन जितना शुद्ध होगा पवित्र होगा , तो क्या होगा ? भगवान शंकर कहते हैं - विशुद्धे सति चैतस्मिन्मुक्तिः करफलायते॥ मुक्ति ऐसे मिलेंगे जैसे कि हथेली पर कोई फल होता है , उस प्रकार से स्पष्ट ईश्वर दर्शन होगा। ऐसा ईश्वरदर्शन होगा क्या सुंदर शब्द है ? मूढ़ व्यक्ति को सत्य दिखाई नहीं देता , क्यों नहीं दिखाई देता ?- आकृतात्मनो -उसका अन्तःकरण अभी शुद्ध नहीं है। अकृतात्मानः  यतन्तो  अपि अकृतात्मानः  न  एनम् पश्यन्ति अचेतसः।। उसके अन्तःकरण में अशुद्धियाँ हैं , जिसके रहने के कारण उसको सत्य या ईश्वर , आत्मा सबके ह्रदय में बैठे रहते हुए भी उसको ईश्वर दिखाई नहीं देता है। लेकिन जो ईश्वरकोटि का व्यक्ति है , जिसका अन्तःकरण निर्मल है ,निष्काम है , उसको सांसारिक कोई कामनाएं वासनाएं नहीं हैं , वो आँख खोल करके भी वो सर्वत्र एक ईश्वर को ही देखता है। यह पूरे साधना के मर्म का निचोड़ है। आज हमलोग यही रुक जाते हैं, इसके बाद एक दूसरा विषय शुरू हो जाता है। (1:00:46'यतन्तो योगी नो ' अभी तक हमलोग 11 श्लोक पढ़ लिए हैं , और 9 श्लोक बाकि हैं।  ये जिस ईश्वर की हम बात कर रहे हैं, जिसको प्राप्त करने की बात हम कर रहे हैं , उस प्रभु परमेश्वर की सर्वव्यापकता -यह अगला विषय है। 
अभी तक हमने जो पढ़ा उसका सारांश बता देता हूँ। (1:01:33) वो परमपद या ईश्वरपद जिसको हमको प्राप्त करना है, वो कैसा है ? न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।15.6।।
ईश्वर का जो परम धाम है वह अतीन्द्रिय है। इन्द्रियों से हमको जो दिखाई देता है (देह-मन) , इसके परे है वो सच्चिदानन्द ब्रह्म जो है , वो इसके परे है। जहाँ कोई भी भौतिक प्रकाश नहीं पहुँच सकता। जिसके होने के कारण ये सारा भौतिक प्रकाश हमें दिखाई देता है। उस एक सच्चिदानन्द ब्रह्म के कारण ही हमके ये सारा भौतिक प्रकाश दिखाई देता है। इसका सूर्य-चंद्र का कोई अपना अस्तित्व है ही नहीं। जानने वाला तो चैतन्य है , चैतन्य के बगैर इस जड़ प्रकाश को कौन जानेगा ? ये जो सूर्य का प्रकाश है , ये जड़ प्रकाश है कि चैतन्य प्रकाश है ? सूर्य का प्रकाश कितना भी तेज भले ही क्यों न हो , ये जड़ प्रकाश है। इसको जानता कौन है ? चैतन्य जानता है ! परमधाम में न तो इस जड़ प्रकाश का कोई काम है , यह जड़ प्रकाश उसको प्रकाशित नहीं कर सकता। उस चैतन्य प्रकाश की अनुपस्थिति में यह सबकुछ हम अनुभव करते हैं। वो मेरा परम धाम है। -तद्धाम परमं मम। यह ईश्वर का सत्य स्वरुप है। उसको आप इस रूप में देखिये , उस रूप में देखिये। यह आपके कल्पना की बात है। लेकिन तात्वीक ईश्वर का ज्ञान -अतीन्द्रिय अवस्था में होता है।
अब इस ईश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध कैसा है ? ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। हम जो जीव हैं वो क्या हैं ? हम उसी परमेश्वर के ही अंश हैं , अंश का मतलब टुकड़ा नहीं , प्रतिबिम्ब हैं। प्रतिबिम्ब का बिम्ब के साथ क्या सम्बन्ध है ? प्रतिबिम्ब बिम्ब ही है , बिम्ब से अतिरिक्त प्रतिबिम्ब का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह आपका ही परिचय दिया जा रहा है ? आप कौन हैं ? उसीका परिचय आपसे करवाया जा रहा है। आप ईश्वर से भिन्न हो ही नहीं, हो ही नहीं सकतेअज्ञान में ये जीव हमें प्रतिबिंबित सा दिखाई देता है। यह प्रतिबिंबित जो जीव है वह परब्रह्म परमेश्वर ही है। उससे अतिरिक्त उसकी कोई हस्ती नहीं है। इस बात को भगवान शंकराचार्यजी बताते हैं - अमृतवाणी। दो पंक्तियों में उन्होंने सबकुछ निचोड़ कर रख दिया है। क्या कहते हैं ? "ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" ये जीव क्या है ? ब्रह्म ही है। प्रभु परमेश्वर से भिन्न उसका कोई अस्तित्व है ही नहीं। ये जगत क्या है ? ब्रह्मैव - ब्रह्म ही है। ब्रह्म से भिन्न हमको जो जीव और जगत दिखाई देता है , ये मिथ्या है। ये विश्वप्रपंच कभी सत्य नहीं हो सकता। यह सत्यत्व हमारा दृष्टि दोष है , बुद्धि दोष है , अविद्या है , अज्ञान है। जब अज्ञान की निवृति होती है , आप मैं हम सबकी अनुभूति यही होने वाली है , यही होती है कि हम वही परमेश्वर ही हैं। परमेश्वर से भिन्न हमारी कोई अलग से अस्तित्व है ही नहीं। यही बात भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। ये जीव जो है ये सिर्फ मेरा प्रतिबिम्ब है। और प्रतिबिम्ब का बिम्ब से अतिरिक्त अस्तित्व है ही नहीं। 
और जब तक जीव को इस प्रकार 'बिम्ब-प्रतिबिम्ब ' का अनुभूति जन्य ज्ञान नहीं होता, तब तक उसका संसरण चलता रहता है। संसरण मतलब एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश। वो कैसे होता है ? उसका विवरण भी हमने देखा। सूक्ष्म शरीर जब स्थूल शरीर को छोड़ता है , तो क्या करता है ? सूक्ष्म शरीर इन्द्रियों और मन को साथ में लेकर के दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाती है। जिस प्रकार वायु जब बहती है तो , अपने साथ सुगंध को अपने साथ ले लेती है। उसीप्रकार यह सूक्ष्म शरीर इन्द्रियों और मन को अपने साथ समेटकर के एक नए स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाता है। जिस प्रकार व्यक्ति अपने पुराने वस्त्र को छोड़करके नए वस्त्र को पहन लेता है। उसी प्रकार ये सूक्ष्म शरीर पुराने जीर्ण स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाती है। तो इसमें रोना क्या है ? क्यों रोते हो ? भगवान कृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं न ? रोते क्यों हो ? ये तो कितनी बार हो गया है , और भी कितनी बार होगा , जबतक ज्ञान नहीं होगा - अपने सत्य स्वरूप का ज्ञान नहीं होगा। ये चलता रहेगा। जब तक हम अपने सत्य स्वरुप को नहीं जानेंगे , तब तक बार बार आना-जाना पड़ेगा। 
>>फिर ये जगत पाँच इन्द्रियों और मन के सिवा कुछ नहीं है। इन छः इन्द्रियों के द्वारा प्रत्येक जीव इस जगत का उप-भोग करता है। जिसके ज्ञान चक्षु खुले हुए हैं , वो तो सत्य को देख लेता है। लेकिन जो विमूढ़ व्यक्ति होगा वो सत्य के होते हुए भी उसको नहीं देख पाता है। 
>> प्रभु परमेश्वर के सर्व व्यापकता को आगे समझेंगे कि भगवान क्या केवल मंदिर में सीमित है? आप को पहले इस भ्रम से बाहर निकलना होगा। वेदांत हमको यह नहीं सिखाता है। मंदिर और मूर्ति का अपना प्रयोजन अवश्य है। मंदिर होना बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन भगवान क्या मंदिर तक ही सीमित है ? सबसे पहले इस भ्रम से आप बाहर निकलिए। मंदिर से बाहर आते ही क्या हमको जगत दिखाई देता है ? यही हमारा सबसे बड़ा भ्रम या सम्मोहन है। जीव और जगत ही तो ईश्वर है। उसको हम विशेष रूप से मंदिर में पूजते हैं। इतना ही है , लेकिन यहाँ पर ईश्वर को देखने का अभ्यास हमें करना है। ये उपनिषद का सिद्धांत है। (1:07:57) यही बात स्वामी जी अपनी कविता में बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं। - बहुरूपे सम्मुखे तोमार छाड़िये कोथाय खूंजिछो ईश्वर ? जीवे प्रेम करे जेई जन से सेवेछे ईश्वर ! इतने रूपों में आपके सामने जो ईश्वर खड़े हैं , इस ईश्वर को छोड़ करके आप कौन से ईश्वर को खोज रहे हो ? ये स्वामी विवेकानन्द कोई नई बात नहीं बता रहे हैं। ये उपनिषद की वाणी है - ऋषियों की वाणी है। एक ईश्वर से अतिरिक्त कोई और चीज है क्या यहाँ पर ? ईश्वर क्या स्थान विशिष्ट है ? ईश्वर क्या काल विशिष्ट है ? ईश्वर क्या रूप विशिष्ट है ? ये तीनों कोई सीमा नहीं है ईश्वर की!! ईश्वर क्या देश-काल -निमित्त के अधीन है ? ईश्वर ही है -हम इसको रूप विशिष्ट बना देते हैं। हम उसको कालविशिष्ट बना देते हैं। हम समझते हैं कि ईश्वर क्या मृत्यु के समय में आएंगे ? हम उसको कलविशिष्ट बना रहे हैं। क्या अभी ईश्वर नहीं हैं ? ईश्वर क्या स्थान विशिष्ट है ? ईश्वर क्या स्थान सीमित है ? एक ईश्वर से अतिरिक्त कोई है ही नहीं। हाथी नारायण और महावत नारायण में एक ईश्वर को देखने की बात अभ्यास करते -करते हमें हमारी बुद्धि में बैठानी पड़ेगी। हमारे ह्रदय में हमको अंकित करना पड़ेगा। तब हम ठीक ठीक ईश्वर की ओर प्रस्थान करना शुरू करेंगे। 
>>मन को समझना 5 मिनट सम्भव नहीं है। ये मन तो बड़ा अद्भुत चीज है। (1:10:08) मन को समझने के लिए हमें , यह समझना होगा कि ,जिसको हमलोग सूक्ष्म शरीर कहते हैं , वो क्या है ? मन जो है वो सूक्ष्म शरीर का केवल एक घटक है। सूक्ष्म शरीर आठ चीजों से बना हुआ है। तो मैं अभी ऊन सब चीजों का वर्णन अभी नहीं करूँगा। अन्तःकरण के चार विभाग हैं , उसमें से मन एक घटक है। जटिलताओं में मत जाइये , आप इतना समझ लीजिये कि एक स्थूल शरीर है और एक सूक्ष्म शरीर है। इस सूक्ष्म शरीर को ही हमलोग मन कह रहे हैं। सूक्ष्म शरीर का मूल घटक मन है। वह इस स्थूल शरीर को छोड़ देती है। और दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाती है। >>मृत्यु से बढ़कर कोई गुरु/शिक्षक नहीं है। (1:11:42) अगर आपको जीवन में वैराग्य उत्पन्न करना हो , तो यम-नचिकेता से बढ़कर कोई शिक्षक नहीं है। इसीलिए हमारे गुरुओं ने , हमारे बड़ों ने , हमारे शास्त्रों में भी ध्यान करने का सबसे उत्तम स्थान कौन सा है ? श्मशान ! श्मशान में जाकर ध्यान कीजिये फिर देखिये किस प्रकार भगवान में मन लगता है। यहाँ बैठकर आपको अपने परिवार वाले याद आते हैं ? श्मशान में तो आपके परिवार वाले सब भष्म होने वाले हैं - आपको वैराग्य आ जायेगा। आपका सारा मोह टूटेगा। आप किसमें चिपक रहे हैं ? सब तो भष्म होने ही वाले हैं। तब ठीक ठीक भगवान में मन जायेगा। तो मृत्यु सबसे बड़ा गुरु है। यमराज को हमलोग मृत्यु के देवता कहते हैं। लेकिन यमराज तो ब्रह्मज्ञानी है वो गुरु हैं। कठोपनिषद के मुख्य गुरु यमदेव है। यमराज है , वो तो परम ज्ञानी हैं। मृत्यु के देवता नचिकेता को उपदेश दे रहे हैं। कहना ये है कि मृत्यु गुरु है , हमारी आँखे खोल देती है। जीवन हमें भ्रमित कर देती है , मृत्यु हमारी ऑंखें खोल देती है। 
>> जैसा कर्म होगा वैसी उसकी गति होती है : (1:13:18) कर्म की पूंजी हमारे अन्तःकरण में है। कर्म जैसे एक पूंजी की गठरी है। हम इस गठड़ी को लेकर के चल रहे हैं। हमारे किये हुए कर्मों की जो गठड़ी है , उस गठड़ी का भार हम सर पर ढोकर के चल रहे हैं , हमको समझ में नहीं आ रहा है। हर जीव अपने जन्म-जन्मांतर के अच्छे कर्म ,बुरे कर्म की गठड़ी बाँध कर के चल रहा हे। जैसा कर्म होगा वैसा उसकी आगे की गति होती है। उसको बोलना नहीं पड़ता किस ओर जाना है। जिसका जैसा कर्म होगा उसका फल वहीँ  पर जायेगा। उसका कर्म निर्धारण करता है कहाँ जायेगा। 
>>एक ही सत्य है 'ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या' -(1:14:27) जगत को मिथ्या हम किस दृष्टि से कहते हैं ? अज्ञान की अवस्था में जगत मिथ्या है। लेकिन जब ब्रह्म का ज्ञान होगा, ईश्वर का ज्ञान होगा , तब जगत कहाँ है ? ईश्वर ही रह जायेगा। ईश्वर दृष्टि से सब सत्य हैलेकिन आज हमारे अंदर ईश्वर दृष्टि है क्या ? जब तक ईश्वर दृष्टि नहीं है , तबतक जगत मिथ्या ही है। ब्रह्म सत्यं और जगत सत्यं कहना भी एक ही चीज है। दो विभिन्न अवस्थायें है , तदनुसार दो दृष्टिकोण है। एक अज्ञान में कहते हैं , दूसरा ज्ञान में हम बोलते हैं। सत्य एक ही है। उपनिषदों में वापस लौटो। साधना किये बिना उपनिषद के महावाक्यों को समझा नहीं जा सकता। साधना किये बिना बुद्धि से इन्द्रियातीत सत्य को समझने का प्रयास मत कीजिये। बिना साधना किये आप कहीं नहीं पहुंचोगे। भगवान कृष्ण कहते हैं न - निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा,इसको पहले कीजिये 10 साल कीजिये। फिर आपको समझ में आएगा की सत्य क्या है ? 

>>ईश्वर में समर्पण का मतलब है अपने तुच्छ अहंकार का समर्पण (1:15:57) अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। कामना रहित नहीं होकर जबतक सांसारिक कामनाएं हैं , तब तक आप कितना भी बुद्धि लगा लीजिये ,इसने कहा , उसने कहा - पर सत्य तो सत्य हैकिसी के कहने से क्या होता है ? उपनिषद में जाइये आपको सत्य वहाँ पर मिलेगा। अतीन्द्रिय सत्य को बुद्धि से समझने का प्रयास मत कीजिये। वैराग्य पूर्वक साधना करना पड़ता है। जब आप साधना करोगे , तब आपको समझ में आएगा सत्य क्या है ? इस जन्म में हम को क्या करना है , वही भगवान कृष्ण हमको बता रहे हैं। सूक्ष्म शरीर से भीतर  एक कारण शरीर है , इसको समझना बहुत अच्छी बात है। उसी कारण शरीर को यहाँ पर ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।15.1।। कहा गया है। पूरे सृष्टि का मूल कहाँ है ? उस कारण शरीर में है , उसी कारण शरीर से इस पूरी सृष्टि की उत्पत्ति होती सी हमको दिखाई देती  है। तो उस ओर हमारा प्रस्थान करना , यही जीवन का मुख्य लक्ष्य है। सृष्टि के मूल में जाओ। सृष्टि के मूल में जाने का मतलब क्या है ? आप अपने मूल में चले जाइये ।  आप जब अपने स्वयं के मूल में पहुँचोगे तो आप कहाँ पहुंचोगे पता है ? सृष्टि के मूल में पहुंच जाओगे। वही है कारण शरीर। आपका जो कारण शरीर है , वही सृष्टि का मूल उद्गम स्थान है। तो आप सोच सकते हैं कि आपके अंदर क्या विद्यमान है ? Can you imagine what is hidden inside each one of you ? हमें उसका कोई अंदाजा नहीं है। हमारे अंदर अनंत शक्ति और ग्लोरी कीशक्ति छिपी है। प्रत्येक के अंदर। लेकिन हम अपने आप को कैसे दीन हीन बना के रखे हैं ? क्यों ?? संसार से मोहित होकर के। इसलिए बताइये त्याग -वैराग्य अच्छा है या बुरा है ? संदेह होता है ? बहुत कष्ट से बोल रहे हैं ? ॐ शांति शांति शांति हरिः ॐ तत्सत ! 
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हम सभी जीवों का लक्ष्य -परमपद प्राप्ति है।


Purushottama Yoga of Bhagavad Gita by Swami Shuddhidananda (Session-4)

पिछले सत्र में हमने 11 वां श्लोक तक देखा था। आगे बढ़ने से पहले थोड़ा हमलोग देख ले कि पिछले सत्र में हमने क्या पढ़ा था ? हम सभी जीवों का लक्ष्य -परमपद प्राप्ति है। उसका स्वरुप कैसा है ? तो भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।15.6।।

मेरा जो परमधाम है वह ऐसा है - हमलोग इन्द्रियों से जो इस भौतिक प्रपंच को देख रहे हैं , उससे ये परमधाम (परम सत्य) अतीत है। उसका अधिष्ठान या आधार वह परम तत्व है। यहाँ एक विचारणीय बिंदु है , हम यहाँ जिस भौतिक प्रपंच की बात कर रहे हैं , प्रपंच या प्रतीयमान जगत (phenomenal world) की जब बात करते हैं , तो हम अपनी ऊँगली बाहर दिखाते हैं। ये जगत -पहाड़ , सूर्य -चंद्र तारे ये सब प्रपंच ही विश्व-ब्रह्माण्ड है। ये सत्य है , हम जब भी जगत की बात करते हैं , तो हमलोग ऊँगली बाहर दिखाते हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि उस प्रपंच में (प्रातिभासिक जगत में) हमारा शरीर (M/F शरीर) भी आता है(3:16) हमारा अपना शरीर भी पंचभौतिक शरीर है , ये पंचभूतों से बना हुआ है। चाहे स्थूल शरीर हो , चाहे सूक्ष्म शरीर हो , ये सब प्रपंच के अंतर्गत है। वास्तव में हम इनमें से कुछ भी नहीं हैं। जब हम सत्य को खोजना शुरू कर देते हैं , तब हमारा मन इस भौतिक प्रपंच से धीरे -धीरे ऊपर उठने लगता है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण हमें दिशा प्रदान कर रहे हैं , भगवान बता रहे हैं कि देखिये आपका जो लक्ष्य है -वो इस प्रकार का है। (अतीन्द्रिय है) वहाँ पर इस भौतिक सूर्य की उपस्थिति नहीं है। ये भौतिक चन्द्रमा जो है , उसका प्रकाश उस परमेश्वर को प्रकाशित नहीं करता। वो जो प्रभु परमेश्वर है , वो चैतन्य स्वरुप है। उस चैतन्य के प्रकाश से सबकुछ भासित हो रहा है। प्रकाशित है। ये सिद्धांत है। और जब इस परम पद को इस प्रकार नहीं जानते हैं , तब क्या होता है ? जब तक हम अज्ञान में हैं। अपने सत्य स्वरुप का ज्ञान जबतक नहीं हुआ , तब तक जीव इस जन्म-मृत्यु के चक्र से वह बाहर नहीं निकल पाता। जन्म मृत्यु का जो प्रवाह है -पुनर्जन्म का जो एक प्रवाह है , यह पुनर्जन्म होता कैसे है ? दो श्लोकों में भगवान कृष्ण ये बताते हैं कि पुनर्जन्म होता कैसे है ? पुनर्जन्म का सिलसिला तबतक चलता रहेगा , जबतक हम ईश्वर का ज्ञान प्राप्त नहीं करते हैं। 
फिर हमने देखा जिस व्यक्ति का ज्ञान चक्षु खुल गया हो , या जिसकी अंतर्दृष्टि खुल गयी हो , वह चाहे जीवित अवस्था में हो , या जब मरणकाल में सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से उत्क्रमण का समय होता है ,उस अवस्था में हो , या जब इस पंचेन्द्रिय ग्राह्य जगत के भौतिक विषयों का उपभोग करने की अवस्था में हों , उस तीनों अवस्था में भी। यह व्यक्ति जिसका ज्ञानचक्षु खुल गया है। वो सब समय सत्य को ही देखता है। वो भौतिक जगत का उपभोग करते समय भी देख सकता है , क्योंकि उसका ज्ञानचक्षु खुल गया है(5 :51) वह कभी भी भ्रम में नहीं है , उसके मन में कोई भ्रान्ति नहीं है। कि ईश्वर क्या है ? 
  लेकिन इसके ठीक विपरीत जो विमूढ़ है , मतलब जो अविवेकी है। मतलब जिसका विवेक अभी भी सक्रीय नहीं हुआ है। उसका विवेक अभी भी  (50-60-70 के बाद भी ) सक्रीय नहीं है , ऐसा जो व्यक्ति है वो अपने सामने साक्षात् ईश्वर को देखकर भी उसको ईश्वर दिखाई नहीं देते है। ईश्वर देश-काल -पात्र या रूप विशिष्ट नहीं हैईश्वर न तो स्थान विशिष्ट है , न तो काल विशिष्ट है , और न ही वो कोई रूप विशिष्ट हैहम अपनी सुविधा के लिए ईश्वर को देश-काल -रूप विशिष्ट बनाते हैं। ठीक है , उसका भी अपना स्थान है। आध्यात्मिक जीवन में हम सीधे इस परम दृष्टि तक पहुँच नहीं सकते हैं , तो धीरे धीरे हम वहाँ तक पहुँचने के लिए किसी एक नामरूप का हम आसरा हम लेते हैं। शुरुआती दौर में हम मंदिर जाते हैं ,तो ईश्वर को वहाँ देखते है। अच्छी बात है। तो हमारा दृष्टिकोण क्या होता है ? वहाँ ईश्वर है ? ये बाहर में क्या है ? यह प्रश्न है। क्या ईश्वर सिर्फ मंदिर तक सीमित है ? मंदिर से बाहर आते ही हमको लगता है कि ये जगत है। यह एक प्रकार की भ्रान्ति हमारे मन में सतत कार्यरत है। 
हमें इस भ्रान्ति से ऊपर उठना होगा। इसलिए आगे आने वाले श्लोकों में भगवान हमें यह दृष्टि प्रदान कर रहे हैं। आगे वाले 4 श्लोकों में वे ईश्वर की सर्व व्यापकता बताई गयी है। ईश्वर ही तो है , ईश्वर से अतिरिक्त और कुछ है क्या ? हमको समझ में नहीं आ रहा है , इसलिए हम सभी लोग कष्ट में हैं , दुःख में हैं। जिस दिन हम आँखे खोलकर साफ साफ ईश्वर को देखने का अभ्यास करेंगे , तब धीरे धीरे समझ में आने लगेगा। यह दृष्टि तुरंत प्राप्त नहीं होती , इसमें समय लगता है। उपनिषदों की यही दृष्टि है, हमारे ऋषियों की यही दृष्टि है। गुरु का काम यही दृष्टि प्रदान करने का काम है। ऑंखें खोल करके ईश्वर दर्शन करना कि एक ईश्वर से भिन्न यहाँ पर कुछ भी नहीं है। जिस जगत को हमलोग ईश्वर से भिन्न समझ रहे हैं , कि कोई अलग सा जगत है। और अलग सा जीव है। यह सिर्फ भ्रान्ति में ही चलता है। ये जो जीव है , वो क्या है ? ईश्वर ही है , ईश्वर से भिन्न नहीं है। ये जगत कोई ईश्वर से भीं दूसरी सत्ता नहीं है। यहाँ दूसरा कोई है ही नहीं। लेकिन दूसरा सा दीखता है। दूसरा सा हमको लगता है , लेकिन दूसरा यहाँ कुछ भी नहीं है। एकमेवाद्वितीय ईश्वर ही है। उसको आप इस रूप में देख लीजिये या उस रूप में देख लीजिये। आपका इष्ट देव अगर श्री रामकृष्ण हैं, तो आपको यही कहना पड़ेगा की सब रामकृष्णमय है यहाँ पर। (8:50) जो शिव के भक्त होंगे वे कहेंगे , कण कण में शिव हैं। राम के भक्त होंगे वे कहेंगे घट घट में राम हैं। कहने का मतलब है ईश्वर तत्व एक ही है , विभिन्न रूपों में आप उसकी उपासना कर सकते हो। उसकी पूजा कर सकते हो। वे रूप हमारे सुबिधा के लिए है। हमें अपने इष्ट के विषय में कुछ कट्टर होने की जरूरत नहीं है। जितने भी रूप हैं , वे सभी उसी एक ही प्रभु परमात्मा के रूप हैं। आप जिस किसी रूप का भी आसरा ले लीजिये , आप उस गन्तव्य स्थान तक पहुंच जाओगे। ये उपनिषदों का सिद्धांत है। और यही हमारे हिन्दू सनातन वैदिक धर्म की सुंदरता है। यह व्यवस्था विश्व के किसी भी सम्प्रदाय में नहीं है। जैसी भी मत में नहीं है। जितने भी Semitic विचार धारा हो , ईसाई,  इस्लमिक विचारधारा हो , वहाँ पर बस एक ही ईश्वर है। दूसरा वहां नहीं हो सकता है। प्रभु परमेश्वर की उपासना सिर्फ एक रूप में ही हो सकती है। ये हिन्दू धर्म ही ऐसा एक अद्भुत सार्वभौमिक और साइंटिफिक धर्म है, स्वामी विवेकानन्द जिस हिन्दू धर्म के विषय में इतना गर्वित होकर के पूरे विश्व के सामने इन सिद्धान्तों को रखा था , उसी धर्म की यह विशेषता है। यहाँ पर उस एक ईश्वर को इतने रूपों में पूजते हैं , इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते हैं। ईश्वर ही है। इसलिए हर हिन्दू क्या करता है ? वह पेड़ों के सामने नमन कर लेता है , पर्वत के सामने नमन करता है। गंगा -यमुना को नमन कर लेता है। सबको नमन करता है क्योंकि सब में ईश्वर ही है। ये दृष्टि केवल हिन्दू धर्म प्रदान करती है। कि ईश्वर कोई स्थान विशिष्ट नहीं है , ईश्वर कोई काल विशिष्ट वस्तु नहीं है , ईश्वर कोई रूप विशिष्ट नहीं है , यानि देश-कल रूप के अतीत वस्तु है, और जगत में ओतप्रोत भी है। यह है ईश्वर की सर्वव्यापकता। जो अब भगवान कृष्ण हमारे सामने रख रहे हैं। चार सुंदर श्लोक हैं - यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।15.12।।गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।15.13।।अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।15.14।।सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।15.15।। 

यत् आदित्यगतम् तेजः जगत् भासयते अखिलम्। 
 यत् चन्द्रमसि  यत् च अग्नौ तत् तेजः विद्धि मामकम्।।12.

गाम  आविश्य च भूतानि धारयामि अहम् ओजसा।  
पुष्णामि  च औषधीः  सर्वाः  सोमः भूत्वा रसात्मकः।।  13

अहम्  वैश्वानरः भूत्वा  प्राणिनाम् देहम् आश्रितः। 
 प्राणापानसमायुक्तः  पचामि अन्नम् चतुर्विधम्।। 14

 सर्वस्य च  अहम्  हृदि सन्निविष्टः मत्तः स्मृतिः ज्ञानम् अपोहनम् च। 
  वेदैः च सर्वैः अहम्  एव  वेद्यः  वेदान्तकृत्  वेदवित्  एव च अहम्।। 15

इन चार श्लोकों में भगवान कृष्ण हमारे सामने इस परम सत्य को रख रहे हैं। हम जिस पुरुषोत्तम की यहाँ पर उपासना कर रहे हैं , वो पुरुषोत्तम सर्व व्यापी है , सर्वगत है(12:46) घट घट में वह उपस्थित है। वही हैं। हमें जो लगता है यहाँ पर BKS बैठा हुआ है , या अमुक है या तुमुक है , कोई भी नहीं है यहाँ। वह ईश्वर ही हमारा अधिष्ठान है। हमारा आधार है। उसके बगैर हम एक साँस भी नहीं ले सकते। एक ऊँगली नहीं उठा सकते। मुँह से  एक शब्द भी नहीं निकल सकता। अगर मेरे मुंह से शब्द निकल रहे हैं उसके पीछे ईश्वर ही है। मैं नहीं हूँ , एक ईश्वर से भिन्न यहाँ कुछ भी नहीं है। अब यह अभ्यास के लिए कहा जा रहा है। यह कोई सिद्धांत थ्योरी नहीं है , हमलोग कुछ पढ़ रहे हैं। लोग पूछते हैं कि साधना में क्या करना है ? यही तो साधना है , दृष्टि को बदलिए।  शास्त्र दृष्टि को लाइए , गुरु दृष्टि को लाइए। आप आँख खोल कर देखिये -इसका अभ्यास करना पड़ता है। आप अपने इष्ट को सिर्फ एक स्थान पर सीमित मत कीजिये। सब में वही इष्ट उपस्थित है। विद्यमान है। कैसे ?
 तो भगवान कृष्ण कहते हैं - यत् आदित्यगतम् तेजो जगत् भासयते अखिलम्। आदित्य यानि ये जो सूर्य है , इसमें जो तेज दीखता है। सूर्य हमारे सौर मंडल में सबसे तेजस्वी प्रकाश का मूल स्रोत है। सूर्य से अधिक तो कोई यहाँ पर प्रकाशमान नहीं है। सूर्य का प्रकाश किसका प्रकाश है ? भगवान कृष्ण कह रहे हैं - मेरा ही प्रकाश है। मैं ही उस प्रकाश के रूप में वहाँ पर विद्यमान हूँ। हम हिन्दू लोग सूर्य देव को देखते हैं तो नमस्कार करते हैं। लेकिन हमलोग तो बहुत पढ़लिख लिए , एकदम मॉडर्न हो गए , एकदम वेस्टर्न हो गए हैं । पाश्चात्य लोग बोलेंगे , देखो हिन्दू लोग कितने अंधविश्वासी हैं ? ये लोग सूर्यदेव को नमस्कार करता है। इनको पता नहीं है इसके पीछे का सिद्धांत क्या है ? एक परब्रह्म परमेश्वर ही है इतने सारे रूपों में। जो चमक रहा है। ये ऋषियों की दृष्टि है। यत् आदित्यगतम् तेजो जगत् भासयते अखिलम्। अखिल जगत को जो भासित करता है , प्रकाशित करता है। चाँद की जो चाँदनी है , और अग्नि में जो प्रकाश है , अग्नि में जो उष्णता है। ये सब क्या है ? कहते हैं - तत् तेजो विद्धि मामकम्।  यत् चन्द्रमसि  यत् च अग्नौ तत् तेजः विद्धि मामकम्। सारा तेज और प्रकाश मुझसे है। मेरे कारण वह सब दिखाई दे रहा है। मैं अगर नहीं हूँ तो इसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। इसकी कोई विद्यमानता  ही नहीं है। ये सिर्फ सूर्य और  चन्द्रमा की बात नहीं है। उस ईश्वर के बगैर हम और आप , किसी का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है। हमारा जो ये तथाकथित शरीर, मन और इन्द्रियां जो काम कर रही हैं , कैसे कर रही हैं? इसके पीछे इस प्रभु परमेश्वर , ईश्वर या आत्मा की विद्यमानता है। उसके बगैर एक पत्ता नहीं हिल सकता। यहाँ पर ये दृष्टिकोण है। दृष्टि बदलने की प्रक्रिया क्या है ? (16:24) कोई पूछता है कि साधना क्या है ? यह मुख्य साधना है।  जब तक हम हमारी दृष्टि को नहीं बदलेंगे।  जब तक हम स्वयं को केवल स्थूल शरीर समझेंगे , अपनी बुद्धि दोष के कारण हम भगवान को भी सीमित बना देते हैं। भगवान को हम एक रूप में सीमित कर देते हैं। हमको लगता है कि इसीके अंदर भगवान है। और इसके बाहर पूरा जगत है। अगर भगवान सीमित है , तो फिर भगवान हुआ ही नहीं। ईश्वर क्या सीमित हो सकते हैं ? किसी एक रूप में , किसी एक स्थान में ,किसी एक काल में सीमित सकते हैं। काल विशिष्ट ईश्वर की क्या धारणा है ? हमें लगता है कि मृत्यु के समय में ईश्वर आएंगे। लेकिन ईश्वर क्या सिर्फ मृत्यु के वक्त ही है अभी नहीं है ? तो अभी क्या है ? ये बहुत बड़ा प्रश्न है ! जो मछली तालाब में तैर रही है , वो मछली अगर सोचे कि पानी आएगा , पानी आएगा । मछली अगर बैठकर यह सोचे कि मेरे मरने के समय पानी आएगी , पानी आएगी ,  पानी आएगी तो उस मछली को क्या कहोगे ? भ्रम में है कि नहीं ? भ्रम में है कि नहीं। यही हमारी दशा है। हम कल्पना कर रहे हैं कि ईश्वर किसी काल विशेष में आएगा ? अभी क्या है ? ये सिर्फ एक भ्रान्ति के कारण हमारे अंदर आती है। ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ कुछ है ही नहीं। ये दृष्टिदोष के कारण हम ईश्वर को काल विशिष्ट बना देते है। स्थान विशिष्ट बना देते हैं , और रूप विशिष्ट बना देते हैं। उपनिषद कहती है कि ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है। एक वैश्वानर और हिरण्यगर्भ और एक ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ नहीं है। (18 :43) माया के पर्दे से ढँका हुआ है। [यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा , यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेभ्रमः । यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ।। ६ ।।अनुवाद -
जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य-जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिये एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहाने वाले भगवान् हरि की मैं वन्दना करता हूँ। ] तुलसीदास जी कहते है , इस माया के वश में सारा जगत है। ब्रह्मा से लेकर सभी देव देवता , सभी लोग इस माया के वश में हैं।  माया क्या है ? ( 19:18) एक पर्दा है जो सत्य को ढँकती है। और जो सत्य नहीं है , उसको प्रकट करती है। जैसे एक रज्जु में हमको सर्प दीखता है , और जो झूठ है वो सत्य सा भासित होने लगता है। हमारे साथ बिल्कुल यही हो रहा है। रज्जु में दिखने वाला जो सर्प है , वो क्या है ? वास्तविक रूप में है क्या ? सपने में दिखने वाला जो विश्वप्रपंच है , वास्तविक रूप में है क्या ? हमको ये समझ में नहीं आता है कि यह भी द्वितीय सपना चल रहा है।जो कि सत्य को ढँक रहा है। इस सपने के पीछे जो मूल आधार है , वो किसका है ? प्रभु परमेश्वर ही है। प्रभु परमेश्वर वो जादूगर है जो इस स्वप्न रूपी जगत को प्रकट करते हैं। और हम सब इससे मोहित हैं और इसके जाल में फँसे हुए हैं। अब इस सपने को तोड़ने का काम कौन करता है ? गुरु ही कर सकता है। शास्त्र ही कर सकता है। भगवत गीता हम क्यों पढ़ते हैं ? ये शास्त्र है। गुरु वाक्य है। जब हमारी बुद्धि इसके अनुसार चलना शुरू करेगी , तो देखोगे धीरे धीरे ये सपना टूटने लगेगा। और आप सत्य का दर्शन करना शुरू कर दोगे। ये अनुभव की बात है। शायद एक दो दिन में नहीं होने वाला। बरसों लग जाते हैं , जीवन बीत जाता है , तपस्या करनी पड़ती है , साधना करनी पड़ती है , एक दृष्टि का अवलंबन करके प्रामाणिक रूप से जीवन को जीना पड़ता है। जब आप इस प्रकार का जीवन जिओगे तो आपको सत्य वस्तु दिखाई देने लगेगी। ये ऋषियों की वाणी है। सत्य है। एक प्रभु परमेश्वर अगर नहीं हों , तो पूरा विश्वप्रपंच असत हो जाता है। ये जगत जगत की तरह क्यों दिखाई देता है ? इसके पीछे इसका मूल आधार ईश्वर है। जो एकमात्र सत्य वस्तु है। 
 >> प्रतिबिम्ब भी बिम्ब ही है ! (अर्थात जीव भी ईश्वर ही है। ):
  इसीलिए शंकराचार्य जी कहते हैं -ब्रह्म सत्यं। ब्रह्म ही सत्य हैबाकि सब का सब भासित होता है। (22:27) भगवान श्रीरामकृष्ण कहते हैं - भगवान ही एकमात्र वस्तु बाकि सब अवस्तु है। ये शंकराचार्य जी की ही बात है , दूसरे ढंग से कह रहे हैं। ब्रह्म ही सत्य है बाकि सब मिथ्या है। श्रीरामकृष्ण कहेंगे भगवान ही एकमात्र वस्तु है , अर्थात वास्तविक रूप में यहाँ पर विद्यमान भगवान ही है। ईश्वर ही है , ईश्वर से भिन्न यहाँ पर द्वितीय वस्तु कुछ भी नहीं है। हमको अगर ईश्वर भिन्न कुछ लगता है , तो यह हमारी भ्रान्ति हैजीव क्या है ? ईश्वर से भिन्न है क्या ? हो ही नहीं सकता। जैसे कि प्रतिबिम्ब कभी बिम्ब से अलग है क्या ? (जीव ईश्वर का अंश है , ऐसा कहने का अर्थ हमने यह जाना कि जीव रूपी 'प्रतिबिम्ब' अपने ईश्वर रूपी 'बिम्ब ' से अलग हो ही नहीं सकता !) लेकिन यदि कोई विमूढ़ व्यक्ति (जो विवेकी नहीं है) अगर प्रतिबिम्ब को ही बिम्ब समझ ले , तो इसका मूल कारण क्या हो सकता है ? एक ही कारण हो सकता है कि वो है भ्रान्ति, अविद्या- अज्ञान ! कोई व्यक्ति अगर प्रतिबिम्ब (reflection)  को ही बिम्ब (image-प्रतिमा ) समझ ले तो उसका मूल कारण क्या हो सकता है ? अविद्या -भ्रान्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति यदि प्रतिबिम्ब को सत्य समझ ले तो उसका मूल कारण अज्ञान ही है। प्रतिबिम्ब का कोई अपना अलग सा अस्तित्व है ही नहीं वो , बिम्ब से अलग है ही नहीं। प्रतिबिम्ब जो है वो बिम्ब ही है अगर सत्य को खोजो तो यह अविष्कार होता है(23:47) उसी प्रकार इस जीव के मूल सत्य स्वरुप को जब आप खोजना शुरू करोगे , तब उस सत्य की खोज कहाँ जाकर समाप्त होती है ? वो इस विश्वास में जाकर समाप्त होती है कि एक ईश्वर ही है , मैं (अर्जुन-BKS) भ्रान्ति के कारण समझ रहा था कि मैं कोई (अर्जुन BKS) हूँ, मैं फलाना , फलाना 'ये' हूँ 'वो' हूँ। द्वितीय वस्तु कुछ नहीं है , यहाँ पर एक प्रभु परमेश्वर , ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यहाँ किसी का 'जन्म' नहीं हो रहा है , किसी की 'मृत्यु' नहीं हो रही है (24:17) सुनने में यह आपको बड़ा आश्चर्य लगेगा।  अगर एक प्रभु परमेश्वर ही है , तो क्या यहाँ पर किसी का जन्म हो रहा है ? हमको लगता है। और यही बात भगवान कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं। अरे , तू रोता क्यों है ? किन्नाम रोदसी सखे ? त्वयि सर्व शक्तिः ! 
 
किन्नाम रोदिषि सखे त्वयि सर्वशक्ति:
आमन्त्रयस्व भगवन् भगदं स्वरूपम्।
त्रैलोक्यमेतदखिलं तव पादमूले
आत्मैव हि प्रभवते न जडः कदाचित्।।

हे सखे, तुम क्योँ रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन्, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। 

मा भैष्ट विद्वस्त्व नास्त्यपायः संसारसिन्धोस्तरणेsस्त्युपायः।
येनैव याता यतयोsस्य पारं तमेव मार्ग तव निर्दिशामि।।
(विवेकचुडामणी-४३)

हे विद्वन! डरो मत्; तुम्हारा नाश नहीं है, संसार-सागर के पार उतरने का उपाय है। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार सागर के पार उतरे हैं,वही श्रेष्ठ पथ मैं तुम्हे दिखाता हूँ! ( वि.स. १/८)
 निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु।
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा ।
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।  

( भर्तृहरि:नीतिशतक-74 )

भावार्थ : धीर पुरुष (साहसी, सिद्धांतनिष्ठ व्यक्ति) और नीति में निपुण की चाहे कोई निन्दा करे या स्तुति करे, उनके पास लक्ष्मी (धन-वैभव) ठहरे या फिर चली जाए, चाहे उनकी मृत्यु आज ही आ जाए या फिर युगों बाद आए वह कभी भी न्याय के पथ से एक भी कदम विचलित नहीं होते
एक दिन पंडित लोग प्रशंसा करेंगे,दूसरे दिन निन्दा करेंगेधन चंचल है, वह इच्छानुसार आएगा और जाएगा;मृत्यु आज हो या हजार वर्ष बाद,परन्तु जो धीर और दृढ़ निश्चयी हैं, उन्हें 'उचित मार्ग'( Be and Make, चरैवेति , चरैवेति) से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। "

और यही बात भगवान कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं। अरे , तू रोता क्यों है ? यहाँ न तो किसी का जन्म हुआ है , न किसी की मृत्यु हुई है , ये सब दीखता है। लेकिन तुम्हें ऐसा लग रहा है कि यहाँ पर जन्म-मृत्यु का खेल चल रहा है। सत्य को जब जानोगे तब जानोगे एक ईश्वर (सच्चिदानन्द -ब्रह्म) से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। एक ईश्वर ही है (माँ छिन्नमस्ता ही है) ,जो इतने रूपों में खेल रही है। (24:46) यहाँ पर किसका जन्म हो रहा है , किसकी मृत्यु हो रही है ? देखिये यह ऑंखें खोलने की प्रक्रिया ही चल रही है। यह दृष्टिकोण जब होगा , तब हमारा जीवन परिपूर्णता में बदल जायेगा। आप परम तृप्ति और परम शांति का अनुभव करोगे। केवल तभी हम ठीक से जीना सीखेंगे। इसके पहले तो हमने कभी मनुष्य जीवन को मनुष्य (राजर्षि) की तरह जीया ही नहीं। अज्ञान -अविद्या-अस्मिता -राग-द्वेष -अभिनिवेश के पंचक्लेश रूपी अंधकार में जीया हुआ जीवन क्या जीवन है ? (25:09) क्या भ्रान्ति में जीया हुआ जीवन है ? प्रतिबिम्ब को सत्य समझकर के हम जो जीवन जीते हैं , वो क्या जीवन है ? जब हम बिम्ब को जानेंगे तब हमारा सत्य जीवन-सुख पूर्वक जीवन शुरू होगा। तब हमें समझ में आएगा कि आनंद कहाँ है , परिपूर्णता कहाँ है? परितृप्ति कहाँ से आती है - तब हमें समझ में आएगाउसके पहले तो हम सिर्फ दौड़ रहे है , विषयों के पीछे भटक रहे हैं। हमको अभी ऐसा लगता है कि , ये जगत अलग है , भगवान अलग है। जगत के विषयों का उपभोग करके मैं सुखी हो जाऊँगा। ये सब भ्रान्ति मूलक है। इससे ऊपर उठे बगैर - (इन्द्रिय ग्राह्य विषय भोगों से -रूप, रस, गंध , शब्द और स्पर्श रूपी विषय भोगों से ऊपर उठे बगैर) कोई भी जीव कभी भी परिपूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। (25:52) इसलिए भगवान कृष्ण कह रहे हैं , देखो , इस बात को जान लो कि यहाँ पर जो भी है - मैं ही हूँ! " तुझसे हमने दिल को लगाया , जो कुछ है सो ? 'तूँ' ही है ! " इसका मर्म समझ में आता है क्या ? ये सिर्फ गाना गाने के लिए नहीं है। कितना सुंदर गाया है ? प्रशंसा करके हम छोड़ देते हैं , अरे भाई ये दृष्टि है - हमारे दैनंदिन जीवन में इस दृष्टि को उतारना पड़ता है , इसको जीना पड़ता है। हर साँस में इस दृष्टि को उतारने का अभ्यास करना पड़ता है। एक उस प्रभु परमेश्वर से भिन्न यहाँ कुछ है क्या ? ऐसा विवेकी जीवन आप जी करके देखिये , तब जीवन की शुरुआत होती है। असली जिंदगी तब से शुरू होती है। उसके पहले तक तो हमने जीवन को जीया ही नहीं। (26:40) दृष्टि में ऐसा परिवर्तन होना - जो कुछ है सो तूँ ही है , अत्यावश्यक है। तो यहाँ श्रीकृष्ण कह रहे हैं -यत् आदित्यगतम् तेजः जगत् भासयते अखिलम्। यत् चन्द्रमसि  यत् च अग्नौ तत् तेजः विद्धि मामकम्।।  ये जो आदित्य में जो तेज है , चन्द्रमा में जो प्रकाश है , अग्नि में जो उष्णता और प्रकाश है , वो सब -मामकम् ! वो सब मेरे वजह से है। और श्रीरामकृष्ण भी अंकगणित का सुंदर उदाहरण देते है - आप एक सौ शून्य लगा लीजिये , 1000 शून्य लगा लीजिये , 1 लाख शून्य लगा लीजिये , उसका क्या मोल है ? कोई मोल नहीं है। उससे आगे 'एक' लगा लीजिये तो सब मूल्य वान हो जाते हैं। वो एक ईश्वर है।  एक ईश्वर के बगैर ,  कोई बंगला में बोले या संस्कृत में बोले , मूल सिद्धांत तो एक ही है। भगवान श्री रामकृष्ण कोई नई बात नहीं बता रहे हैं। मूल याद रख लीजिये -सिद्धान्त उपनिषद का है। उपनिषद के सिद्धांत को पुनरस्थापित करने के लिए ही सभी महापुरुष(ईश्वरकोटि) या अवतार लोग आते हैं। और वे इस जीवन को जी करके दिखाते हैं। 
           श्रीरामकृष्ण , माँ और स्वामी जी क्या है ? (28:00 ) उपनिषदों के मूर्तमान रूप हैं , स्वरुप हैं। उपनिषदों के सिद्धान्त को वे जीकर के दिखाते हैं। कि देखो बच्चों इस तरह तरह से जीना सीखोकामना रहित हो जाओ। सर्वत्र एक ईश्वर ही है ! इस ज्ञान को अपने जीवन में उतारो। कैसे उतारें ? माँ उपाय बताती हैं - किसी का दोष मत देखो, अपना दोष देखो। और कोई पराया नहीं है , सभी को अपना बनाना सीखो। " ठाकुर सिखाते हैं - काटना मत , फुँफकारना जरूर। और यदि हाथी में नारायण देखते हो तो , महावत भी नारायण क्यों नहीं दीखता ?" स्वामीजी कहते हैं -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। उपनिषदों के मूर्त रूप हैं श्रीरामकृष्ण। ये सिर्फ पूजा करने की बात नहीं है। उनके अंदर जो गुण हैं , वे हमारे अंदर भी आना चाहिए। ठीक है धीरे धीरे आएगी। समय लगता है। लेकिन यही साधना है। हम इस साधना को जितना करेंगे , हमारा जीवन और चरित्र उतना ही उन्नत होता है । भगवान कृष्ण आगे कहते हैं - गामाविश्य च भूतानि धारयामि अहम् ओजसा। पुष्णामि  च औषधीः  सर्वाः  सोमः भूत्वा रसात्मकः।। भगवान कृष्ण कहते हैं -मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ; और मैं ही रसमय चन्द्रमा के रूप में समस्त ओषधियों-(वनस्पतियों-) को पुष्ट करता हूँ।  गाम आविश्य, गाम पृथ्वी को कहते हैं। मैं ही हूँ जो इस पृथ्वी में प्रविष्ट होकर के, देखिये दृष्टि यहाँ बदल रही है। हमको लगता है कि ईश्वर कहीं यहाँ -वहाँ है। भगवान कह रहे हैं मैं ही हूँ। 'मैं ' यानि किसी रूप-विशिष्ट याने बाँसुरी धर कृष्ण' की बात यहाँ नहीं  हो रही है। (29:39) यहाँ पर प्रभु परमेश्वर परमात्मा की बात हो रही है, सच्चिदानन्द ब्रह्म की बात हो रही है। उस ईश्वर तत्व की बात हो रही है, आत्मा की बात हो रही है ! मैं पृथ्वी में प्रविष्ट होकर के अपनी शक्ति से / या ओज शक्ति के द्वारा सबको धारण करता हूँ। पृथ्वी का अर्थ आप स्थूल धरती माता ले सकते हो , लेकिन उस गाम का वास्तविक अर्थ पंचभूत है - आकाश ,वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी। हमारा शरीर इन पंचभूतों से बना हुआ है।  इस स्थूल शरीर का एक तत्व पृथ्वी है , पृथ्वी से बना हुआ है। इस पृथ्वी तत्व के अंदर मैं ही प्रविष्ट हूँ। और मैं ही इसमें प्रविष्ट होकर के अपनी ही शक्ति से सबको धारित करता हूँ। जैसे हमलोग बोलचाल की भाषा में कहते है - घट-घट में राम। या कण कण में महादेव शिव है। ये दृष्टिकोण कितना सुंदर है ! इस पृथ्वी के हर कण कण में वही एक प्रभु परमेश्वर विद्यमान हैं। इसीलिए हिन्दू सबको नमस्कार करता है। सब जगह वो सर झुकाता है , सिर्फ एक जगह नहीं।  ये एकत्व दृष्टि हिन्दू समाज के आलावाऔर किसी सम्प्रदाय में आपको नहीं मिलेगी(31:23) हम पेड़ों को नमस्कार करते हैं , पत्थर को नमस्कार करते हैं। क्यों ? पाश्चात्य लोग कहेंगे अंधविश्वासी है। उनको क्या पता है ? कण कण में एक प्रभु परमेश्वर के अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है। आप जब ऐसी दृष्टि रखते हुए व्यवहार में उतरोगे -तब देखोगे आपका सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही बदल जाता है। मन में जो सारी चिंतायें हैं stress हैं  tension है , ये सब मूल भ्रान्ति के कारण होती हैं। दृष्टि जब सीधा हो जाता है ; शास्त्र के उपदेशों के अनुसार हो जाता है , तब देखोगे कैसा परम शांति है। जब सब किसी में एक प्रभु परमेश्वर को देखने का अभ्यास (या विवेक-प्रयोग का अभ्यास) करना शुरू करोगे , तब आपको यह समझ में आएगा कि जीवन में शांति का मतलब क्या है ? उसके पहले तो हम शांति को ढूंढ ही रहे हैं , लेकिन शांति हमको मिलती नहीं है। ये कौन है , कहाँ है ? ये शांति कहाँ छुप करके बैठा है , ये हमको पता नहीं है।  है न ? तो ये हमारी विडंबना है। 
तो भगवान कृष्ण कहते हैं मैं ही इस पृथ्वी में प्रविष्ट होकर के अपनी शक्ति से सबको धारित करता हूँ। और और मैं ही- पुष्णामि  च औषधीः  सर्वाः  सोमः भूत्वा रसात्मकः।।  मैं ऐसा रसात्मक सोम या रसमय चन्द्रमा बन करके मैं सभी ओषधियों का मतलब वनस्पतियों का पोषण करता हूँ। और उसी बनस्पति को खाकरके ये सभी जीवजंतु प्राणी पुष्ट होते हैं। 'सोम' क्या अर्थ क्या है -भगवान शंकराचार्य जी बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं -हमलोग कोई भी खाद्य पदार्थ खाते हैं , और जब हम उसको चबाते हैं , उसके अंदर से रस निकलता है। रस सभी वस्तुओं का सार है। हम जो भी भोजन करते हैं -लड्डू, चावल , रोटी भी बनाइये और चबाते है, या संतरा चबाते हैं, तब उसके अंदर से रस ही निकलता है। वो रस जो है , उस वस्तु का सार है। और सभी रसों का जो मूल सार है , उसको सोम कहते हैं(34:00) और वो सोम भगवान कृष्ण कहते हैं - मैं ही हूँ। क्या सुंदर है। तो हम जिस किसी चीज का सेवन करते हैं , उसमें जो मूल -जो सारभूत रस है , उसमें भगवान उसी रूप में स्वयं वहाँ पर विद्यमान हैं। उस रस रूप में विद्यमान होकर के सबको पुष्ट कर रहे हैं , आप सोच सकते हैं ? हम भोजन करके जो पुष्टि पाते हैं वो पुष्टि आती कहाँ से है ? वही रसात्मक प्रभु परमेश्वर उस रसमय रूप में विद्यमान होकर के सभी को पोषित करते हैं , पुष्ट करते हैं। इसमें से हम एक बहुत सुंदर निष्कर्ष निकाल सकते हैं। हमलोग रोज भोजन करते हैं , तो उस भोजन करने की प्रक्रिया के पीछे क्या है ? हमें दो प्रश्न अपने आप से पूछ लेना चाहिए , ये भोजन करने वाला कौन है ? कौन भोजन कर रहा है ? और जिसको खाया जा रहा है वो क्या है ? (35:11) भोजन करने वाला कौन है ? आप अगर खोजोगे , तो पाओगे एक ईश्वर ही है ! हम क्या भोजन कर सकते हैं ?  क्या मुँह खोलने और चबाने की हमारे अंदर ताकत है ?  आप जब मुँह में निवाला डाल रहे हो आप जान लीजिये कि आप ईश्वर को अर्पण कर रहे हो। और जो चीज खाया जा रहा है , वह भी ईश्वर ही उस रूप में  है। हमलोग भोजन मंत्र पढ़कर भोजन करते हैं - कभी सोंचा कि खाने वाला कौन है ? पूड़ी खाने वाला प्रभु परमेश्वर है , और स्वयं प्रभु परमेष्वर ही 'पूड़ी' के रूप में है।इस दृष्टि से आप खाइये , भगवान शंकराचार्यजी कहते हैं - इस दृष्टि से जो भोजन करेगा , वो उस भोजन में जो अशुद्धि है, या त्रुटियाँ हैं, वे उस व्यक्ति को स्पर्श नहीं करेगा। भगवान शंकराचार्यजी इसके भाष्य में कहते हैं। जो इस दृष्टिकोण से भोजन करेगा , या विषयों का सेवन करेगा कि सेवन करने वाला प्रभु परमेश्वर है। जिस चीज का सेवन हो रहा है , वो प्रभु परमेश्वर है। " यहाँ पर ईश्वर ही ईश्वर का सेवन कर रहा है " जब आप  इस प्रकार का दृष्टिकोण रखकर भोजन करेंगे , तो उस भोजन में जो दोष होगा वो दोष उस व्यक्ति को स्पर्श नहीं करेगा। दृष्टि को बदलना चाहिए ! दृष्टि को बदलना चाहिए ! लेकिन अगर दृष्टि गलत हो तो हम कभी भी अध्यात्म जीवन में परम सत्य तक नहीं पहुँच सकेंगे। थोड़ा -पूजापाठ , जपध्यान , प्रार्थना ये आध्यात्मिक जीवन नहीं है -दृष्टि बदलनी चाहिए। शास्त्र के अनुरूप दृष्टि होनी चाहिए , गुरु प्रदत्त दृष्टि होनी चाहिए। तब आप आध्यात्मिक जीवन में प्रगति का अनुभव कर सकोगे। ईश्वर दूर है क्या ? सबसे हास्यास्पद बात यही सोचना है।  हम अपनी भ्रान्ति से ईश्वर को दूर कर रहे हैं। ईश्वर ही तो है , ईश्वर और आपके बीच में कहाँ , दुरी है ? बताइये ? भ्रान्ति के कारण आप दूरी बना रहे हैं। यह दृढ़ विश्वास या conviction हमारे अंदर होना चाहिए कि हमारे और ईश्वर के बीच में कोई भेद -दूरी है ही नहीं। हम भ्रान्ति के कारण दूरी को सृष्ट कर रहे हैं। हम समझ रहे हैं -ईश्वर यहाँ है , वहां है। अमुक अमूक जगह जायेंगे। इसी बात को श्रीरामकृष्ण कहते हैं , वहाँ , वहाँ क्या है ? सिर्फ अज्ञान है। यहाँ यहाँ ? ज्ञान है ! हमारी भ्रान्ति के कारण हम ईश्वर को दूर कर रहे हैं। रूप विशिष्ट बना रहे है। जीव और ईश्वर बीच में दूरी कहाँ है ? कोई दूरी नहीं है , लेकिन हम प्रतीक्षा कर रहे हैं कि ईश्वर मृत्युकाल में आएंगे ? (38 :01) जैसे कोई मछली पानी में तैरते हुए प्रतीक्षा कर रही है कि एक काल में पानी आएगी। पानी आएगी।पानी आएगी। तो आप उस मछली के बारे में क्या कहोगे ? भ्रान्ति के अलावा तो और कुछ नहीं है। इसी प्रकार जीव भी प्रतीक्षा में बैठा हुआ है -की ईश्वर आएंगे ? ईश्वर ही तो है , anticipation या प्रत्याशा में क्या है ? दृष्टि बदलनी चाहिए। शास्त्र दृष्टि होनी चाहिए गुरु प्रदत्त दृष्टि होनी चाहिए। तब आप देखेंगे कि यही ठीक ठीक भक्ति का रहस्य है। भक्ति अब शुरू होगी।  दृष्टि बदलने के पहल्रे भक्ति की शुरुआत भी नहीं हुई है। भक्ति का मतलब क्या है ? थोड़ा सा यहाँ दिया जला दिया , थोड़ा अगरबत्ती घुमा दिया। ये भक्ति है ? असली भक्ति तो अब शुरू होगी जब वो व्यक्ति अपने चारों ओर सब समय , सर्व स्थान पर एक ईश्वर को ही देखता है वह अब बनावटी नहीं , स्वभाव से ही सब समय भक्तिभाव में ही रहेगावो सब समय ईश्वर का ही खेल देखेगा। इस व्यक्ति के लिए, ईश्वर से भीं दूसरा कोई वस्तु ही नहीं है। शंकराचार्यजी (गीता 7 /17) के भाष्य में कहते हैं - अन्यस्य भजनीयस्य अदर्शनात्  ' उसकी दृष्टिमें अन्य किसी भजनेयोग्य वस्तुका अस्तित्व न रहनेके कारण वह केवल एक मुझ परमात्मामें ही अनन्य भक्तिवाला होता है।  इस व्यक्ति के लिए , इस साधक के लिए, इस भक्त के लिए ईश्वर से अन्य कोई चीज है ही नहीं। तो क्या होगा ?  अतः स एकभक्तिः विशिष्यते 
 एक भक्ति। अव्यभिचारी भक्ति उससे होगी। क्या सुंदर बात है - परम ज्ञान से ही परम भक्ति की उत्पत्ति होती हैऔर जहाँ सही भक्ति (मीराबाई की?) होगी , वहां परम ज्ञान होगा ही होगा! ये सिद्धांत है। आप जितने भी महापुरुष थे उनके जीवन को देखिये , वे परम भक्त भी थे और परम ज्ञानी भी थे। हम भगवान शंकराचार्यजी को इतिहास का सबसे बड़ा ज्ञानी मानते हैं। बताइये वे उतने ही महान भक्त भी थे। उनकी रचनाएँ भक्ति से ओतप्रोत हैं और हृदय को द्रवीभूत करती हैं। श्रीरामकृष्ण क्या थे ? ज्ञानी थे या भक्त थे ? दोनों थे ! हमको तो लगता है कि वे परम भक्त थे। लेकिन नहीं वे परम् अद्वैत ज्ञानी थे। उनके लिए तो एक ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जब यह दृष्टि  अद्वैत दृष्टि हमारे अभ्यास में और जीवन में होगी , तब हमारे अंदर ठीक ठीक भक्ति उत्पन्न होती है। ऐसा व्यक्ति सब समय भक्तिभाव में ही रहता है(40:32) इसलिए आनंद में ही रहता है। उसके लिए भगवान कहीं यहाँ-वहाँ नहीं हैं। सिर्फ भगवान ही है ! यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्‌॥ "यत यत कर्म करोमि तत् अखिलं शम्भो तव आराधनं" का अर्थ है: "हे शम्भो! मैं जो-जो कार्य करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है"। हे ईश्वर ! मैं उठते -बैठते, सोते -जागते जो भी कर्म कर रहा हूँ सब एक प्रभु परमेश्वर की आराधना यहाँ पर निरंतर अखंड रूप से चल रही है। यह जीवन जीने की कला है। लेकिन ये तभी आएगी जब हम ईश्वर को इस प्रकार से जानेंगे कि घट घट में एक ईश्वर ही है, वो आदित्य के रूप में हो या चन्द्रमा के रूप में हो। अग्नि के रूप में हो कि बनस्पतियों के रूप में हो। कहीं भी हो , सब में एक ईश्वर ही विद्यमान है। कण कण में शिव है , कण कण में राम है। 
जब यह दृष्टिकोण हमारे जीवन में चला आता है , तब आप ठीक ठीक पूजा करना सीख गए हैं। यही पूजा है। शुरुआती दौर में मंदिर -पूजा ठीक है। लेकिन सही पूजा यह दृष्टि प्राप्त करना है। दृष्टि तब बदलती है , जब आप जानते हो कि आप जो मुंह में अन्न डाल रहे हो , यह ईश्वर को ही प्रदान कर रहे हो। ये पूजा है। तब फिर आप अपने स्वार्थ के लिए भोजन नहीं कर रहे हो। तब आपके भोजन करने की प्रक्रिया भी पूजा हो जाएगी। जीवन ही पूजामय हो जाता है। यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्‌॥ "यत यत कर्म करोमि तत् अखिलं शम्भो तव आराधनं" का अर्थ है: "हे शम्भो ! मैं जो-जो कार्य करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है"।
 
आगे श्री कृष्ण कहते हैं -अहम्  वैश्वानरो  भूत्वा  प्राणिनाम् देहम् आश्रितः।  प्राणापानसमायुक्तः  पचामि अन्नम् चतुर्विधम्।। 14 (41:24) मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।। पहले तो उन्होंने कह दिया मैं सभी बनस्पतियों का सार भूत रस सोम है , वो सोम मैं ही हूँ। जिस प्रकार मैं सोममय हूँ , उसी प्रकार सभी जीवों के जठर में जो अग्नि है , जिसको हम जठराग्नि कहते हैं , उस जठराग्नि को वैश्वानर भी भी कहते हैं। वह भी मैं ही हूँ ! सभी प्राणियों के शरीर में वैश्वानर अग्नि के रूप में प्रविष्ट हो गया हूँ। और वहाँ पर प्रविष्ट होकर मैं क्या कर रहा हूँ ? प्राण और अपान के साथ युक्त होकर के ,पचामि अन्नम् चतुर्विधम्चार प्रकार के अन्न - जो चबाया जाता , निगला जाता , चूसा जाता है , या चाटा जाता है ; को मैं प्राण और अपान के संयुक्त होकर पचा रहा हूँ ! मैं यानि वैश्वानर , जठराग्नि ।  भोजन को आप पचा सकते हो क्या ? कौन पचा रहा है इसको ? पचाने वाला जो जठराग्नि है भी वही प्रभु परमेश्वर है , और जो पच रहा है , वह भी प्रभु परमेश्वर है। आप ढूंढिए अपने आप को आप कहाँ हैं ? खाने और पचाने वाला तो ईश्वर हैं। आपका नाम BKS या XYZ जो भी हो , वो कहाँ है ? आप मैं कौन हूँ को ढूँढेगे , तो मैं आपको नहीं मिलेगा , ईश्वर ही मिल जायेंगेजीव को अगर आप खोजिये जीव गायब हो जाता है। ईश्वर प्रकट हो जाते हैंमैं दुबारा कहता हूँ ,जीव के अंदर अगर आप खिजिये तो , आप देखोगे कि जीव गायब हो जाता है , ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। जीव कहाँ है ? ईश्वर ही है इतने रूपों में। जो साँस ले रही है , जो देख रही है , जो अन्न को पचा रही है। जो बोल रही है, ईश्वर ही है यहाँ पर।यहाँ प्रभु परमेश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह दृष्टि कितनी सुंदर दृष्टि है ! यह दृष्टि हमें अपने जीवन में लानी है। तब सही सही आध्यात्मिक जीवन का शुरू होता है। जीव के अंदर आप खिजिये , जीव गया , ईश्वर प्रकट होता है। जगत के अंदर आप खोजिये , जगत कहाँ है ? ईश्वर - सच्चिदानन्द प्रकट होते हैं। हम खोजते नहीं हैं। हम जीव-जगत रूपी इस भ्रान्ति को ही सत्य मानकर लोक व्यवहार कर रहे हैं ? इसीलिए सारा प्रपंच वहां से उत्पन्न होता है। ये विशिष्ट अद्वैत है , ये द्वैत है , यही सब खिचड़ी पकाते रहते हैं। यहाँ सत्य एक ही है। इस बौद्धिक खिचड़ी को पकाना हम बंद करें। मूल दृष्टिकोण यही है कि एक ईश्वर से भिन्न कुछ भी नहीं है। यही उपनिषद के ऋषियों का अंतिम सिद्धांत है। अटल अकाट्य सिद्धांत है। अनुभव सिद्ध है ! इस को सभी मनुष्य अनुभव कर सकते हैं , सिर्फ समय की बात है।आप साधना करोगे तो ये सिद्धि प्राप्त होनी ही है। होगा ही होगा, ये झूठ नहीं हो सकता। (46:36)  
श्रीकृष्ण पन्द्रहवें श्लोक में आगे कहते हैं - सर्वस्य च  अहम्  हृदि सन्निविष्टः मत्तः स्मृतिः ज्ञानम् अपोहनम् च। वेदैः च सर्वैः अहम्  एव  वेद्यः  वेदान्तकृत्  वेदवित्  एव च अहम्।।  मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।
मैं ही सब में हूँ , मैं ही सब में हूँ, मैं ही सब में हूँ। मुझसे पृथक , मुझसे अलग कुछ है ही नहीं। अब बताइये ये जगत मिथ्या है की नहीं ? जगत नाम का कोई चीज है ? जीव मिथ्या है कि नहीं ? ईश्वर ही है , ईश्वर से अतरिक्त कुछ है यहाँ पर ? हमलोग भ्रमित हैं , इसलिए हमको ये समझ में नहीं आ रहा है। इसलिए हम को लगता है कि जीव और जगत है। सब में मैं ही हूँ। -ईश्वर कह रहे हैं अर्जुन को , कि तुम समझ नहीं रहे हो। प्यारे बच्चों समझिये इस बात को , यहाँ पर ईश्वर से भिन्न कुछ है ही नहीं। ये सिद्धांत है। तो भगवान कृष्ण कह रहे हैं -  सर्वस्य च  अहम्  हृदि सन्निविष्टो ! शब्द कितने सुंदर हैं। सभी जीवों के ह्रदय में मैं प्रविष्ट हो गया हूँ। तो कैसे प्रविष्ट हुए? जैसे मेरा शरीर उस कमरे से इस कमरे में प्रविष्ट हो गया तो क्या ईश्वर भी किसी दूसरे स्थान से हमारे ह्रदय में प्रविष्ट होते हैं क्या ? (48:00) जब हम भाषा का प्रयोग करते हैं तो हमारे दिमाग में ये सब कल्पना चलता रहता है। ईश्वर का कोई पोस्टल अड्रेस कहीं है, और वहाँ से वे यहाँ हमारे ह्रदय में प्रविष्ट हो जायेंगे। ऐसा नहीं है तो , ह्रदय कमल पर ईश्वर के प्रवेश की प्रक्रिया क्या है ? उसको भगवान शंकराचार्यजी  घड़ा-पानी में सूर्य रूपी बिम्ब के प्रतिबिम्ब की अद्भुत उपमा से समझा देते है। सूर्य उस घड़े के जल में प्रतिबिंबित होता है , यही उस सूर्य का घड़े में प्रवेश करना है। सूर्य क्या अपना स्थान छोड़कर उस घड़े में प्रविष्ट हुआ है क्या ? सूर्य अपने स्थान पर ही है , लेकिन वो एक विशिष्ट माध्यम में प्रतिबिंबित हो रहा है। इतना ही , ये जो शरीर है , यह एक माध्यम है - ह्रदय में ईश्वर ही प्रतिबिंबित हो रहे हैं। यही ईश्वर का इस जीव के अंदर प्रवेश करना है। ऐसा नहीं कि एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में प्रविष्ट करना है। हर शरीर एक घड़े के समान है - घट घट में राम है। ये स्थूल शरीर एक घड़ा है , और घड़ा तो टूटने ही वाला है। इसको टूटने में कितना समय लगता है ? इसलिए यहाँ देह पर अहंकार करने लायक क्या है ? मैं मैं मैं हमलोग जो करते रहते हैं , ये क्या है ? इस घड़े पर अभिमान करना ही मूल भ्रान्ति है। एक धक्का लगा की घड़ा फुट जायेगा। फिर भी हम इस घड़े को लेकर , इसकी सुंदरता पर इतना अभिमान करते हैं। घड़ा तो घड़ा है - टूटने ही वाला है। कहना यही है कि जीव ईश्वर का प्रतिबिम्ब ही है। इसका बिम्ब कहाँ है ? ईश्वर ही है। प्रतिबिम्ब क्या बिम्ब सेअलग है ? प्रतिबिम्ब को खोजने जाओ तो बिम्ब मिल जाता है।  जीव को खोजने जाओ तो , जीव चला जाता है , बिम्ब रूपी ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं मैं ही सभी जीवों के ह्रदय में प्रविष्ट हो गया हूँ। मतलब मैं ही मनुष्यों के ह्रदय में प्रतिबिंबित हो रहा हूँ। आत्मा की चैतन्य ज्योति हमारे अन्तःकरण में प्रतिबिंबित हो रही है (50:54) हमको समझ में नहीं आ रहा है। ईश्वर कितना दूर है ? आप सभी के जल समान अन्तःकरण में (चित्त में ? शांत सरोवर में) उसके पीछे जो आत्मा है , वह अंतःकरण में प्रतिबिंबित हो रहा है। अन्तःकरण में कौन प्रतिबिंबित हो रहा है ? वही एक आत्मचैतन्य की ज्योति ही प्रतिबिंबित हो रहा है। यही ईश्वर का जीव के अंदर प्रवेश होना है। मैं ही सबके ह्रदय में प्रविष्ट हो गया हूँ , और क्या ?मत्तः स्मृतिः ज्ञानम् अपोहनम् च। मेरे ही कारण सभी जीवों में स्मृति की शक्ति है। ज्ञान की शक्ति है। हमलोग कई बातों को याद कर लेते हैं , हमको लगता है कि मेरी स्मरण शक्ति कितनी प्रखर है ! (51:57) ईश्वर की शक्ति से ही हम कुछ स्मरण रख पाते है। ईश्वर प्रदत्त शक्ति से ही हमारी स्मरण शक्ति काम करती है , कोई अच्छा गा लेता है , वह भी ईश्वर प्रदत्त सामर्थ्य है। कोई अच्छा भाषण देता है - वो भी ईश्वर प्रदत है। हमारा सारा सामर्थ्य ईश्वर प्रदत्त है। फार्मूला का हल खोज लेते हैं , ये ज्ञान हो जाता है - वो भी ईश्वर प्रदत्त है। जो भी ज्ञान -भौतिक ज्ञान या अतीतन्द्रिय ज्ञान प्राप्त होता है , उसके मूल में परमात्मा के विद्यमानता के बगैर कोई ज्ञान सम्भव नहीं है। क्योंकि परमात्मा ज्ञान स्वरुप है। आपके भीतर आत्मा की जो चैतन्य ज्योति है , उसी के कारण है। अब देखिये मजे की बात -ज्ञान का अभाव अगर है , तो उसके पीछे भी ईश्वर ही है- अपोहनम् च। जब विस्मृति होती है तो डरिये मत , वो ईश्वर का ही खेल है। यही जानना की 'मैं हूँ ही नहीं' एक ईश्वर ही हैं यही समर्पण और शरणागति है। मान -अपपमान, सुख-दुःख सब ईश्वर प्रदत्त है - यही बोध शरणागति है। वो जान गया कि मैं तो हूँ ही नहीं, जो कुछ है सो? - तूँ ही है , ईश्वर ही हैं। ये समर्पण है वेदैः च सर्वैः अहम्  एव  वेद्यः -सभी वेदो के माध्यम से वेद्य वस्तु क्या है ? चारो वेदों के माध्यम से जो जानने योग्य वस्तु है -वो क्या है ? भगवान कहते है -वेद्य वस्तु मैं ही हूँ ! हमलोग जो गीता शास्त्र पढ़ रहे है , ये किसी मनुष्य की बुद्धि से निकली हुई बात नहीं है। ये हिन्दू धर्म का कोई भी सिद्धांत किसी एक महात्मा का दिया हुआ नहीं है। न तो राम भगवान , न तो कृष्ण भगवान का दिया हुआ है। वे सब वेद प्रदत्त हैं। हिन्दू धर्म व्यक्ति आधारित नहीं है , वह वेद आधारित है। वेद अपौरुषेय है -ये सिद्धांत है।  (56 :06) जितने भी महापुरुष , महात्मा , अवतार आते हैं , वे हमारे सामने उसी वैदिक ज्ञान को रखते हैं। रामकृष्ण तो वेद की ही बात कर रहे हैं। श्रुति प्रमाण है।  ये सभी हिन्दुओं को जान लेना चाहिए। प्रमाण श्रुति या उपनिषद है। श्रुति के द्वारा वेद्य वस्तु क्या है ? प्रभु परमेश्वर ही है। वेद सिर्फ ईश्वर की ही रहे हैं।  वेदों के द्वारा हम ईश्वर को ही जानते हैं।  और वेदान्त कृत् कौन है ? वेदांत यानि उपनिषद -मैं ही हूँ। और जो भी वेदवित् है - वेद को जानने वाला है , मैं ही हूँ। और वेदों के द्वारा जो जाना जाता है , वो भी मैं ही हूँ - एव च अहम्।। मैं ही हूँ हूँ मतलब मुझसे पृथक कुछ नहीं है। (57:48)  
आज का विषय था ईश्वर की सर्व्यापकता।  ईश्वर सर्वगत है , सर्व व्यापक है। देखिये जगत को देखने की हमारी दृष्टि कैसे बदल जाती है। यहाँ से निकलने के बाद फिर वही जीव है और जगत है - यही याद रहेगा ? ईश्वर ही भुला भी देते हैं ? वह भी ईश्वर को स्मरण करने का एक माध्यम है। जीवन की विफलता के पीछे भी ईश्वर की कृपा को देखना - यह भी एक साधना है। ऐसा नहीं कि सिर्फ सफलता में ही ईश्वर की कृपा है ? यह जो आप श्रवण कर रहे हो , इसका मनन और निदिध्यासन करना पड़ता है। 10 मिनट का मनन नहीं , वर्षों तक मनन करना पड़ता है। मनन का मतलब क्या है ? गुरु के वाक्य के अनुसार अपने मानस -व्यापार को चलाना। शास्त्र के शब्दों के अनुसार जब आपका मानस व्यापार चलता है, जब उसी लाइन पर सोंचते हो। वैसा सोचते, सोचते, मनन करते करते दीर्घकाल तक जब इसका अभ्यास होगा। मनन का अभ्यास करते- करते आपकी दृष्टि ही बदल जाएगीये जगत को ईश्वर मय देखने का दृष्टिकोण का परिवर्तन एक दिन में होने वाली बात नहीं है। मनन करना पड़ता है। और जब मनन करते करते आपकी दृष्टि बदल जाएगी , तब आप निदिध्यासन करने के योग्य हो सकोगे। (1:00:02) उसके पहले क्या हम ध्यान कर सकते हैं ? जब तक आपके अंदर जीव-जगत और ईश्वर को अलग समझने की बुद्धि है , तब तक आप ध्यान के लिए बैठते हैं , तो 5 मिनट में उठ जाते हैं। क्योंकि जगत आपको खींचता रहता है। कहाँ से आपका मन ईश्वर में लगेगा ? जब हमारी दृष्टि बदलेगी कि ईश्वर से भिन्न कुछ भी नहीं है। तो बताइये मन जायेगा कहाँ ? इस व्यक्ति का मन जायेगा कहाँ पर ? जो यह जानता है कि यहाँ पर ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ईश्वर में ही उसका मन रहता है। एक भक्ति अब्यभिचारिणी उसकी दृष्टि होती है। उसका ध्यान भी बिल्कुल सहज हो जाता है। वो आनंद में ईश्वर का उपभोग करना शुरू कर देता है। ये अनुभव की बात है, हमने जो श्रवण किया , उसके बाद मनन होना चाहिए। दीर्घ काल तक इसका मनन चलना चाहिए। मनन करते करते जब हमारी दृष्टि बदलेगी तब जाकर के हम ध्यान करने के योग्य हो पाते हैं। जब दृष्टि बदलेगी तब ध्यान करने का सामर्थ्य उत्पन्न होगा। तब हमारा ईश्वर सम्बन्ध बनेगा। मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है - ईश्वर सम्बन्ध बनाना। अगर हमने ईश्वर के साथ सम्बन्ध नहीं बनाया , तो जीवन व्यर्थ है , निरर्थक है। वो कभी सार्थक नहीं हो सकता। एक ईश्वर सम्बन्ध के अभाव में ही हम सभी जीव दुःखी हैं। अतृप्त है।  और ये अतृप्ति ईश्वर सम्बन्ध बनाये बिना चलती ही रहेगी। जितना ईश्वर सम्बन्ध प्रगाढ़ होगा। वो व्यक्ति आनंद में रहेगा। 
हमने एक ऐसी बात प्रचलित कर दी है कि भक्ति सहज है। भक्ति सहज है क्या ? अध्यात्म पथ में कुछ भी सहज नहीं है। और क्यों सहज नहीं है ? पता है ? (1:03:46) मेरे बच्चे -वैराग्य का अभाव ही उसका एक मात्र कारण है। वैराग्य हो जाता है , तब सबकुछ सहज हो जाता है। वैराग्य का अभाव होगा , तो भक्ति भी नहीं होगी , ज्ञान भी नहीं होगा। ध्यान भी नहीं होगा। कुछ भी नहीं होता। विवेक और वैराग्य ये दो ऐसे स्तम्भ हैं - जिसपर भक्ति साधना भी होती है , ज्ञान साधना भी होता है। ध्यान साधना भी होता है। आप नारद भक्ति सूत्र को पढ़िए। परम वैराग्य की बात है वहां। वैराग्य के बिना क्या भक्ति कभी सम्भव है ? जब तक 3k के भोग में पूरे डूबे हुए हो , भगवान की भक्ति आएगी ? दूरदूर तक यह असम्भव है। भक्ति लेकर हमारे मन में कल्पनाएं हैं कि किसी एक अवतार का फोटो रख दिया। सबेरे उठके जपध्यान कर लिया। हमको लगता है कि हम भक्त  बन गए हैं। भक्ति तब शुरू होगी जब उस भक्त को भगवान से अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए। जगत की कोई वस्तु उसको नहीं चाहिए। अर्थात उसको जगत से विरक्त होना होगा। 3K से उसका मन ऊपर उठ गया है। ईश्वर अतरिक्त  और किसी से प्रेम नहीं करता। भक्ति -प्रेम की भाषा बोलता है। ज्ञान की भाषा में हम सत्य  खोजने की बात कहते हैं। भक्त प्रेम की भाषा करेगा। दोनों एक ही है अलग सा दीखता है। समानता यह कि ज्ञानी और भक्त दोनों इस जगत की वस्तुओं को नहीं चाहता। दोनों एक ही वस्तु को चाहता है। ज्ञानी उसको ब्रह्म कहेगा , भक्त उसको भगवान कहेगा , इतना ही अंतर है। वैराग्य के बिना अध्यात्म जीवन शुरू  ही नहीं होगा। और वैराग्य की उत्पत्ति कहाँ से होती है ? विवेक से। विवेकानंद क्या नाम है ! सही आनंद तो विवेक से उतपन्न होता है। जब हम यह जानेंगे कि जगत मिथ्या है , एक मात्र प्रभु परमेश्वर -सच्चिदानंद ही सत्य है। और जन मन सिर्फ उस एक प्रभु परमेश्वर में जब टिकेगा ,तब आनंद की अनुभूति होती है। ये विवेकानंद एक अनुभूति है। विवेकानंद एक व्यक्ति नहीं है। (1 :06:19) अध्यात्म जीवन में साधक यत्नशील होता है , जीव-जगत में ईश्वर की लीला देखने का अभ्यास करता है , उसे हर समय सतर्क -diligent रहना होता है। आध्यत्मिक दृष्टि से जीवजगत को देखकर व्यवहार करना  तलवार की धार पर चलने जैसा है , हर क्षण सतर्क रहना पड़ता है।  उपनिषद यही कहते हैं। यतन्तो का मतलब है बहुत सतर्क होना। ईश्वर या आत्मा के बैद्धिक समझ और आत्मा के साक्षात्कार तक जो सफर है यही साधना है(1: 08:32) शुरुआत में जो बौद्धिक है ,  वो बाद में साक्षात् हो जाता है। साक्षात्कार में बदल जाता है। अनुभूति तो हमको हुई नहीं है , हमलोग बुद्धि से कुछ लुक आकलन करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन बौद्धिक समझ के आधार पर जैसे जैसे हम साधना करते जायेंगे , तो यह बौद्धिक धारणा धीरे धीरे साक्षात्कार में परिणत हो जाएगी। वैराग्य पूर्वक साधना करना ही पड़ता है , केवल बुद्धि से हम प्रश्न करते रहते हैं। साधना कीजिये तो भगवान श्रीकृष्ण कहे हुए हर बात को परखकर देख सकोगे, कि वह कितना सत्य है। 10 वर्ष तक साधना करने के बाद आइये। तीनदिवसीय शिविर से लौटने के बाद हमें जीवन को साधना करते हुए जीना पड़ता है। हमारी दृष्टि को बदलना पड़ता है। विवेक और विचार में कोई मूलभूत अंतर नहीं है। विवेक कहने से आप क्या समझते हैं ? क्या इसका उत्तर आप जानते हैं ? उपनिषदों के सिद्धांत का अनुसरण कीजिये। जीव की अपनी बुद्धि क्या है ? कहाँ तक दौड़ सकता है वो ? बुद्धि अपने को बहुत होशियार समझता है , पर जानता कुछ नहीं हैजीव का बुद्धि तो पूरा अज्ञान के अंधकार में डूबा हुआ है , वो क्या जानता है ? जीव की बुद्धि उपनिषदों के ऋषियों के अनुकूल जबतक नहीं चलता , तब तक वो प्रकाश को नहीं पायेगा। विवेक का मतलब है नित्य और अनित्य वस्तु के बीच में जो पार्थक्यता है , इसको समझना। एक शाश्वत वस्तु है और एक नश्वर वस्तु है। नित्य वस्तु का मतलब क्या है ? जो कभी भी नहीं बदलता , और अनित्य वस्तु क्या है जिसका सबकुछ बदलता रहता है। हम जो भी यहाँ पर अनुभव कर रहे हैं , ये नित्य है या अनित्य है ? अनित्य है , तो अच्छी बात है। अब नित्य वस्तु की खोज है। अनित्य क्या है ? हम सबको पता है। थोड़ा सा भी बुद्धि किसी व्यक्ति को होगा , उसको यह समझ में आ जायेगा कि अनित्य क्या है ? लेकिन नित्य वस्तु क्या है ? यही हमारे जीवन में मुख्य खोज है। नित्य और अनित्य वस्तु के बिच में जो पृथककरण है , वो विवेक है। और विचार क्या है ? नित्य-अनित्य विवेक के आधार पर आपकी जो बौद्धिक और मानसिक चिंतन-मनन चलेगा , वो विचार है। विवेक आधारित जो बौद्धिक प्रक्रिया चलेगी। वह विचार है। प्रातिभासिक सत्य - व्यावहारिक सत्य और परम सत्य में विवेक के आधार पर जो चितन मनन चलेगा , वो विचार है। विचार या मनन विवेक रूपी स्तम्भ पर खड़ा होगा।  विवेक-विचार परस्पर जुड़वाँ शब्द है , विवेक के बिना विचार का कोई मूल्य नहीं है।  जहाँ विवेक होगा वही सही विचार होगा। दोनों को अलग नहीं कर सकते। कल हमलोग बचे हुए 5 श्लोक देखेंगे , और पूरे पन्द्रहवें अध्याय सारांश पर चर्चा करेंगे। ॐ शांतिः          
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साभार : https://www.rupeshtiwari.com/vivekananda/spiritual/mantra-by-swami-vivekananda/(14 अप्रैल। 1992 -20 नवंबर, 2025)

"जीव का सम्बन्ध सगुण और निर्गुण ईश्वर में किसके साथ बनेगा ? " 
 
(Session-5:1:35:53)


Purushottama Yoga of Bhagavad Gita by Swami Shuddhidananda (Session-5)

ईश्वर सर्वगत भी है एवं सर्वतातीत भी हैं !  
God is omnipresent and also transcendental!

           तो विगत सत्र के 11 -15 श्लोकों तक में हमने ईश्वर के सर्वव्यापित्व को देखा था। थोड़ा सा उसी विषय पर हम  पुनः प्रकाश डालें। ईश्वर सर्वगत है, सर्वव्यापी है ! जैसे बोलचाल की भाषा में हमलोग कहते हैं - ' कण कण में शिव और घट घट में राम विद्यमान है ।' उसी प्रकार हम देखते हैं यह जो ईश्वर ,प्रभु, परमेश्वर, परमात्मा या आत्मा है वो सर्वव्यापी है। और सब में ओतप्रोत भरा हुआ है। देखिये यह सिद्धांत, (विचार) अपने-आप में  बहुत ही महत्वपूर्ण और बहुत ही बल देने वाला सिद्धांत है। लेकिन जीव अपने-आपको इतना कमजोर क्यों महसूस करता है? दुबारा हमलोग वहीं जायेंगे जहाँ से हमने शुरू किया था। जीव- हम , आप, सब अपनेआप को इतना कमजोर क्यों महसूस कर रहे हैं ? उसका एक ही मुख्य कारण है - हमने अब तक ईश्वर सम्बन्ध नहीं बनाया है। मैं दुबारा कहता हूँ , मैंने वहीँ से शुरू किया था। 
जीव अपने आप को इतना कमजोर क्यों महसूस करता है ? ईश्वर-सम्बन्ध बनाना ये अत्यंत आवश्यक है। ईश्वर सम्बन्ध के अभाव में ही जीव अपनेआप को इतना दीन और हीन महसूस करता है। इतना कमजोर महसूस करता है। लेकिन सच्चाई क्या है ? सच्चाई ये है कि हम ईश्वर से ओतप्रोत हैं (2:30) क्या आप कल्पना कर सकते हो, कि आप ईश्वर से ओतप्रोत हो ? 
ईश्वर आपके कण-कण में बसा हुआ है ! हमने सम्बन्ध बनाया नहीं है, इसीलिए हमलोग अपने को इतना कमजोर महसूस करते हैं। इतना दीन, हीन और लाचार महसूस करते हैं। हमारे अन्दर जितनी भी कमजोरियाँ हैं, वो चाहे भय हो या असुरक्षितता का भाव हो। Insecurity हो, हर व्यक्ति अपने को असुरक्षित महसूस है ,सभी के अंदर देखो कैसा एक भय काम कर रहा है। भय से सारा यह विश्वप्रपंच भयग्रस्त है ! भयाद्स्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचमः ॥ कठ०॥ क्यों भयग्रस्त है ? ईश्वर सम्बन्ध नहीं बनाया। जीव जब ईश्वर सम्बन्ध बनाता है- (अहं ब्रह्मास्मि बोध हो जाता है !) तो उसका पहला प्रतिफलन यही होगा। वह भय से मुक्त होता है। उसके अन्दर जो एक असुरक्षितता का भाव होता है वह नष्ट होता है। (नश्वर देहभाव के बदले , शाश्वत सच्चिदानन्द स्वरुप की स्मृति आ जाने पर ) उसके व्यक्तित्व में और उसके जीवन में एक अद्भुत स्थिरता का भाव , अवर्णनीय स्थिरता- Indescribable stability' आ जाती है। ये अकाट्य सत्य है। [ लेकिन आत्मसाक्षात्कार हो जाने पर भी देह रहने तक माँ सर्वमंगला के राज्य में ही रहना है , इसकी निरंतर स्मृति भी माँ ही प्रदान करती है। ] इसलिए देखिये ईश्वर सम्बन्ध बनाना बहुत जरुरी है। लेकिन यहाँ पर एक प्रश्न है कि ईश्वर (आत्मा)  से हमरा सम्बन्ध नहीं हो,  ये तो हो ही नहीं सकता है। क्योंकि हम तो ईश्वर से (यानि आत्मा) से सदा सम्बन्धित हैं ही। ऐसा कुछ नहीं है कि आप आत्मा या ईश्वर से कुछ नया सम्बन्ध बनाने जा रहे हैं। शास्त्र यह कहती है कि आत्मा या ईश्वर के अतिरिक्त इस भौतिक देह का अपना कोई सामर्थ्य है ही नहीं। इसी बात को शास्त्र कहते हैं यहाँ पर ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। आप भी नहीं हो , ईश्वर (आत्मा) ही है। [आप नाम-रूप का मिथ्या अहं BKS भी नहीं हो इस व्यावहारिक मैं -Apparent I, (प्रातिभासिक मनुष्य) का वास्तविक मैं (Real I), ईश्वर (आत्मा) ही है।] इस परम सत्य को जब हम अपने रोम रोम में बसायेंगे , अपनी साँसों में जब हम इस बात को महसूस करेंगे, तब व्यक्ति का जीवन ही बदल जाता है (4:36) तो इस ईश्वर अर्थात आत्मा से सम्बन्ध बनाने के लिए, पहले हमारी दृष्टि में (अपने को M/F देह मात्र समझने) एक परिवर्तन लाना जरुरी है। और वो नया दृष्टि क्या होना चाहिए ? यही कि यहाँ पर, इस सृष्टि के कण- कण में आत्मा (ईश्वर) ही ओत-प्रोत हैं। 
यही बात भगवान श्रीकृष्ण बहुत सुंदर ढंग से चार श्लोकों में कहते हैं -
 
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।15.12।।

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।15.13।।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।15.14।।

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो,मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो, वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।
15.15।।   

सर्वस्य च अहं हृदि सन्निविष्टः, मत्तः स्मृतिः ज्ञानम् अपोहनं च। 
वेदैः च सर्वैः अहम् एव वेद्यः, वेदान्तकृत् वेदवित् एव च अहम् ॥ 

 पन्द्रहवें अध्याय के पन्द्रहवें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में (आत्मा या ईश्वर) होकर विद्यमान हूँ स्थित हूँ। भगवान (आत्मा , ईश्वर या इष्टदेव) कहाँ विद्यमान हैं? भक्तों के ह्रदय में रहते हैं। (आत्मा, ईश्वर या इष्टदेव भक्तों के ह्रदय में रहते हैं !) मन्दिर या पूजा का कमरा तो आत्मा, ईश्वर, या इष्टदेव के निवास का एक  सिर्फ एक प्रतिरूप मात्र हैआत्मा , ईश्वर या इष्टदेव का असली वासस्थान तो भक्त का ह्रदय है। हमारे ह्रदय में इष्टदेव , ईश्वर या आत्मा तो पहले ही विद्यमान है। हमने उस अविनाशी आत्मा, ईश्वर या इष्टदेव से सम्बन्ध नहीं बनाया, ( और जीवन भर अपने इस मिथ्या अहं की पहचान नश्वर  M/F शरीर को ही वास्तविक मैं समझने की भूल करते रहे)  इसलिए जीव इतने कष्ट में है। और आत्मा , ईश्वर या इष्टदेव के साथ सम्बन्ध बनाने की प्रक्रिया क्या है ? ईश्वर सम्बन्ध बनाने की प्रक्रिया को भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - ऐसी दृष्टि बनाओ कि आत्मा , ईश्वर या इष्टदेव से अतिरिक्त यहाँ, इस पूरे सृष्टि में कुछ भी नहीं है। यह एक बहुत बड़ा अकाट्य सत्य है ! 
       अब इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए भगवान क्या कहते हैं कि - आत्मा , ईश्वर, इष्टदेव ये सर्वव्यापी है। वही आत्मा, ईश्वर, सच्चिदानंद परब्रह्म, परमेश्वर जो है, वह जब उपाधियुक्त होता है (नाम रूप में व्यक्त होता है-अवतरित होता है), तब वो सर्वगत होता है, सर्वव्यापी होता है। मैं दोबारा यही बात कह रहा हूँ कि वही आत्मा , ईश्वर, इष्टदेव या प्रभु परमेश्वर जो है वो जब उपाधियुक्त होता है तो सर्वव्यापी और सर्वगत होता है(7:06) वही परमात्मा उपाधि-वियुक्त जब होगा, तब वही सर्वव्यापी जो परमात्मा है वो सर्वातीत  हो जाता है। (7:17)  तो इसका निष्कर्ष क्या है ? यही कि आत्मा , ईश्वर या इष्टदेव सर्वव्यापी सर्वगत भी है और सर्वातीत भी है। पिछले चार  श्लोकों में - हमने ईश्वर के सर्वव्यापी रूप को देखा; ईश्वर के सर्वगतत्व को हमने देखा। 
आने वाले तीन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण हमें ईश्वर का जो सर्वातीत रूप है, उस रूप को हमारे सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। आत्मा, ईश्वर या इष्टदेव सर्वातीत (transcendent) कैसे हो जाते हैं ? पिछले चार श्लोको में हमने देखा कि ईश्वर तो सर्वव्यापी है। अब वही ईश्वर (आत्मा या इष्टदेव) सर्वातीत हैं, सभी उपाधिओं के परे हैं (7:57) वह आत्मा, ईश्वर या इष्टदेव सगुण भी है, वह निर्गुण भी है। हम जब ईश्वर (आत्मा या इष्टदेव)  की बात करते हैं - वो सगुण, निर्गुण दोनों भी हैं। आत्मा ईश्वर या इष्टदेव जब गुण-युक्त होते तो सर्वव्यापी हो जाते हैं। और जब वही आत्मा, ईश्वर या इष्टदेव गुण-वियुक्त हो जाते हैं , तो सर्वातीत हो जाते हैंये ईश्वर का असली स्वरुप है(8:17)          
    तो ये जो सर्वातीत, गुणरहित जो ईश्वर है -वो कैसे हैं ? वो देखिये , उनके बारे में भगवान श्री कृष्ण क्या कहते हैं, आपलोग मेरे साथ-साथ दोहराइये - 
द्वाविमौ पुरुषौ लोके, क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।15.16।।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः, परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य, बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।15.17।।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहम,क्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च, प्रथितः पुरुषोत्तमः।।

(उत्तमः पुरुषः तु अन्यः, परमात्मा इति उदाहृतः।
 यः लोकत्रयम् आविश्य बिभर्ति अव्ययः ईश्वरः ॥)

(यस्मात् क्षरम् अतीतः अहम्, क्षरात् अपि च उत्तमः।
 अतः अस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥)

15.18।।  
 भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं - 'द्वाविमौ पुरुषौ लोके ' (9:40) इस लोक में दो प्रकार के पुरुष हैं। अभी यहाँ पर तीन पुरुषों की बात होने वाली है। सच्चाई (सत्य-सच्चिदानन्द) तो एक ही है , लेकिन उसके विभिन्न स्तर हैं। एक स्तर को एक पुरुष कहा गया है। दूसरे स्तर को दूसरा पुरुष कहा गया। और इन दोनों से अतीत पुरुषोत्तम है।  तो हमको सब समझना है। तो भगवान कृष्ण  कहते हैं -इस लोक में दो पुरुष हैं। अब दो पुरुष का मतलब क्या है ? क्षरश्चाक्षर एव च- एक क्षर पुरुष है , और एक अक्षर पुरुष है। एक क्षर पुरुष क्या है ? क्षरः सर्वाणि भूतानि, - ये जो कुछ भी हमको यहाँ पर दिखाई दे रहा है , हमारे आँखों के सामने जो कुछ इन्द्रिय प्रत्यक्ष है - हम आँखों से यहाँ पर जो भी देख रहे हैं वह सब क्षर पुरुष है(10:50क्षर 'पुरुष' कहने का मतलब क्या है ? जो भी बदलता रहता है, जो (M/F देह) भी नष्ट हो रहा है, यह भी सच्चाई का (आत्मा,ईश्वर इष्टदेव का) एक पहलु है। इसको एक पुरुष कहा गया, जो क्षर पुरुष है,जो प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव है। जो दृष्ट-नष्ट स्वभाव है। जो हमें इन्द्रियों से दिखाई देता है , उसको हमलोग क्षर पुरुष कहते हैं। It is also a one dimension of existence' यह भी अस्तित्व का एक आयाम है। जो बदलता है , जो अशाश्वत है , जो नश्वर है , जो अनित्य है , जो मिथ्या है , इसको हमलोग क्षर 'पुरुष' कहते हैं। लेकिन इस क्षर पुरुष (देह-मन) की उत्पत्ति कहाँ से हुई है ?(11:45) अक्षर से हुई है। ये क्षर है और इसकी उत्पत्ति का जो मूल हेतुस्थान है - वह अक्षर है। यहाँ पर अक्षर से क्या लेना है ? यहाँ पर अक्षर का मतलब है - माया ! यह महाद्भुतम -अनिर्वचनीयम जो एक माया शक्ति है , यह पूरा जो विश्वप्रपंच ब्रह्माण्ड (M/F शरीर)  जो है , उसी शक्ति का खेल है , उसी शक्ति का प्रकटीकरण है। यह उसी अव्यक्त माया का व्यक्त रूप है। अव्यक्त माया के व्यक्त रूप (M/F शरीर) को हम लोग क्षर पुरुष कहते हैं। माया को अक्षर कहते हैं। (12:25) तो ये दो पुरुष हो गए।  एक है क्षर पुरुष जो कि बदलता है। और इसकी उत्पत्ति स्थान क्या है ? उसको हमलोग माया कहते हैं। उसी माया को अक्षर पुरुष कहते हैं। इसलिए -क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते।  माया को ही कूट भी कहते हैं - 'कूट' बड़ा सुंदर शब्द है।   कूट का मतलब क्या है ? पता है ? - छल ! जो छल करता है। बंगला में 'छल' को हमलोग क्या कहते हैं? बंगला में छल को 'cheating' या  धोखा /प्रताड़ना कहते हैं ? छल करना मतलब जो सत्य नहीं है , उसको सत्य समझा देना - धोखा होना, यही है। माया जो है वो छल करती है, इसीलिए उसको कूट भी कहा जाता है। माया क्या करती है ? माया हमारे साथ छल करती है ,धोखा देती है , जो सत्य नहीं है , नित्य नहीं है, उसके प्रति हमारे अंदर सत्यत्व बुद्धि उत्पन्न कर देती है। महाद्भुतम -अनिर्वचनीयम। आप अगर पूछोगे कि ऐसा क्यों है ?  इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। यह वास्तविकता है। लेकिन माया के इस जाल से हर व्यक्ति ऊपर उठ सकता है ! माया के जाल से ऊपर उठने का एक मार्ग है। ये ऋषियों की वाणी (वेद) है, कि जब तक इस मायाधीश (इष्टदेव)  के शरण में न जाओ, तब तक हम माया के ही जाल में फँसे रहेंगे! (14:06) जब हम माया का जो अधीश्वर है, उस मायाधीश की शरण में चले जाते हैं, तब हम इस माया के जाल से हम ऊपर उठ सकते हैं(गुरु-शिष्य श्रुति परम्परा में मायाधीश का नाम-जप श्रवण,मनन, निदिदिध्यासन) ये माया से ऊपर उठने की प्रक्रिया है। (14:19)  
        तो यहाँ भगवान कृष्ण कह रहे हैं, यहाँ पर एक क्षर पुरुष है , यह जो बदलता हुआ दृश्य वर्ग (M/F शरीर) है, इसको हमलोग क्षर पुरुष कहते हैं। और इसका जो उत्पत्ति स्थान है -वो है कूट या माया (जगतजननी माँ सर्वमंगला)! जिसको हम अक्षर पुरुष कहते हैं। 'क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते।' अब इन दोनों के अतीत, यहाँ पर ईश्वर या परब्रह्म  का जो सर्वातीत भाव है, इस माया (व्यक्त देह-मन M/F) के अतीत जो सत्य वस्तु (आत्मा या इष्टदेव) है, उसी को परम पुरुष कहते हैं या पुरुषोत्तम कहते हैं। (15:02)  
        जो यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - 'उत्तमः पुरुषः तु अन्यः।' इन दोनों पुरुषों से अन्य- अलग एक उत्तम पुरुष है। एक 'क्षर' पुरुष है, एक 'अक्षर' पुरुष है और एक 'उत्तम' पुरुष है। उत्तम पुरुष , इस क्षर और अक्षर के अतीत है, परे है -'परमात्मा इति उदाहृतः', उस उत्तम पुरुष को परमात्मा कहते हैं। और वही हमारा भी स्वरुप है। हम सब का सत्यस्वरूप वही है। आज भले ही हम इस को नहीं जान रहे हों, भले ही हमको इसका ज्ञान न हो, लेकिन कभी न कभी यह (परमात्मैक्यबोध-awareness of the Supreme Being) होना ही है। ये होना ही है , आपके पास दूसरा विकल्प नहीं है।  ये सिर्फ समय की बात है। कल हो सकता है , 10 वर्षों के बाद हो सकता है , 10 जन्मों के बाद हो सकता है, 100 जन्मों के बाद हो सकता है। लेकिन ये अनुभव होना ही है। क्योंकि जीव की अंतिम गति वही है। आपके पास दूसरा विकल्प नहीं है। आप जितनी जल्दी इस कार्य में लगेंगे (ईश्वराभिमुखी यात्रा आत्मबोध की यात्रा में लगेंगे) उतना जल्दी होगा। आप इस कार्य को छोड़ देंगे तो माया के जाल में फँसे रहेंगे। इतना ही है , सरल बात है। ऋषियों की वाणी है। बहुत सरल है। इसमें कोई जटिलता नहीं है। (16:30
तो यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - उत्तमः पुरुषः तु अन्यः ! इन दोनों पुरुषों से अन्य , इनके अतीत एक उत्तम पुरुष है, जिसको हमलोग परमात्मा कहते हैं-'परमात्मा इति उदाहृतः'। और वे परमात्मा कैसे हैं ? यः लोकत्रयम् आविश्य बिभर्ति अव्ययः ईश्वरः ॥ वह परमात्मा इन तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर के - सबको बिभर्ति , धारण करती है। सबको धारण करने वाली सत्ता ही परमात्मा है। हमको कौन धारण कर रहा है ? बिना आत्मा की शक्ति की सहायता के - क्या आप खुद अपने पैरों पर खड़े भी हो सकते हैं ? हमारे अंदर वो सत्ता विद्यमान है , जिसके कारण हम जो भी कर रहे हैं - ये उसी की क्षमता है। उसी की योग्यता है। हमें धारण करने वाली वो सत्ता क्या है ? वो एक परमात्मा ही है। एक ही परमात्मा सभी लोकों में प्रविष्ट होकर के सभी को बिभर्ति - मतलब सभी को धारण करती है। और अव्ययः ईश्वरः' वह ईश्वर जो पुरुषोत्तम है - वह अव्यय है, अर्थात सनातन है। अविनाशी है , अनश्वर है , शाश्वत है। और ये जगत जो सामने दिखाई देता है -ये अश्वत है, और ईश्वर शाश्वत है। इसीलिए इस अश्वत जगत से चिपकना सख्त मना है ! इस तीन -दिवसीय शिविर की चर्चा का निष्कर्ष यही निकलेगा कि इस मिथ्या जगत से , अशाश्वत जो जगत है , उससे चिपकना नहीं है। इसमें यदि चिपक गए या कमनी-कांचन - कीर्ति में आसक्त हो गए तो हम मुश्किल में पड़ गए। अनासक्ति (या वैराग्य) ही आध्यात्मिक जीवन की बुनियादी स्तम्भ है। अनासक्त हुए बिना कोई आध्यात्मिक जीवन में प्रगति कर ही नहीं पायेगा। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण शुरुआत में ही कह देते हैं -इस अशाश्वत जगत से सम्बन्ध /आसक्ति को अगर समूल उखाड़ फेंकना हो , या काट डालना हो तो असंगता ही इसका शस्त्र है। असंगता/ अनासक्ति रूपी शस्त्र के द्वारा इस अनित्य जगत के प्रति हमारा जो मोह है , है उसको काट दीजिये। जब अनित्य जगत (3K) के प्रति मोह नष्ट होगा, तब भगवत भक्ति उत्पन्न होती है। (19:11) उसके पहले तो भगवान के प्रति प्रेम कहाँ है? हम तो जगत से प्रेम कर रहे हैं। अपने-आप से पूछ कर देखिये - आप क्या भगवान से प्रेम कर रहे हैं ? थोड़ा सा -10 % प्रेम भगवान से , बाकी का 90 % प्रेम तो जगत के प्रति ही है। पूछिए अपनेआप से -ये प्रश्न सबके लिए है। हम क्या ईश्वर से प्रेम करते हैं? हम तो ईश्वर से सम्बन्धित होना क्यों चाहते हैं ? जगत के वस्तुओं (3K) की सुरक्षा के लिए। हमारे परिवार वालों की सुरक्षा के लिए हम भगवान से प्रार्थना करते हैं। ये प्रेम किससे है ? जगत से प्रेम है। ईश्वर से कहाँ प्रेम है ? भक्ति तो शुरू हुई ही नहीं है। वह अव्यभिचारी भक्ति - एक मात्र ईश्वर से प्रेम तब शुरू होगी , जब आप जगत के विषय में आपके मन में और कोई कामना-वासना ही नहीं होगी। इस अनित्य संसार से हमें क्या मिलने वाला है ? कुछ भी नहीं चाहिए। यहाँ का सब कुछ नष्ट होने वाला है। अभी दीखता है , अगले क्षण नहीं है। आप पाओगे भी तो क्या पाओगे ? जो भी पाओगे वो अभी है , कल नहीं रहेगा। तो हम चाहते क्या हैं ? क्या हम ईश्वर को चाहते हैं ? यह प्रश्न है। ईश्वर के प्रति सही भक्ति,  तभी उत्पन्न होगी , उसी दिन होगी जब संसार के प्रति हमारा मोह नष्ट हो जायेगा। हम संसार से जब अनासक्त हो जायेंगे , उस दिन ठीक ठीक भगवान के प्रति भक्ति उत्पन्न होगी। तब उस जीव का ह्रदय भगवतमय हो जायेगा। भगवान के प्रेम से उसका ह्रदय जब भर जायेगा। उसको आँख बंद करके नहीं , आँख खोलकर के सर्वदा ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई देगा।  यदि आप आँख बंद करके ही ईश्वर को देखते हो , तो आँख खोल करके जिसको देखते हो वो क्या है ? ऐसे कई प्रश्न हैं, जिसका समाधान हमें खुद ढूँढ़ना होगा। शास्त्र हमें केवल मार्ग दिखा देती है। (21:24)
       तो यहाँ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - ये जो ईश्वर हैं वे क्षर और अक्षर दोनों पुरुषों से अतीत हैं। एक अन्य पुरुष हैं जो उत्तम पुरुष हैं। उस उत्तम पुरुष को हम परमात्मा कहते हैं। ये परमात्मा तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर के सभी को  धारण करती है। यह ईश्वर शाश्वत है, अव्यय है। तो भगवान श्री कृष्ण यहाँ कह रहे हैं -'मैं' कैसा हूँ ? 'मैं' मतलब वो परमात्मा। -यस्मात् क्षरम् अतीतः अहम् क्षरात् अपि च उत्तमः। अतः अस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ क्योंकि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम के नाम से प्रसिद्ध हूँ। वेदों में और लोक में भी मुझे पुरुषोत्तम कहा गया है। ये पुरुषोत्तम हमारे जीवन का लक्ष्य है। और ये पुरुषोत्तम हमारा भी स्वरुप है। इस पुरुषोत्तम को अपने आप से अलग मत कीजिये। (23:07)  यहीं हम एक गलती कर देते हैं। हमारा आज का जो अस्तित्व है , हमारी आज की जो पहचान है, यह उस पुरुषोत्तम से अलग हो ही नहीं सकता। पुरुषोत्तम ही हमारा मूल आधार है , हमारा अधिष्ठान है। इसलिए वेदों में और लोकों में भी इसको पुरुषोत्तम कहा गया है। जो क्षर और अक्षर दोनों पुरुष के अतीत है। दोनों से अतीत होने से इसको उत्तम पुरुष कहा गया है। इसलिए पन्द्रहवें अध्याय का नाम ही पुरुषोत्तम योग है। कितना सुंदर उस परमपुरुष, परमात्मा का यहाँ पर विवरण है। उसका नाम-रूप, स्थान सीमित नहीं है, और ना ही काल विशिष्ट है। ऐसा जो एकमेवाद्वितीय ईश्वर है , वही यहाँ विद्यमान है। उससे भिन्न द्वितीय कुछ भी विद्यमान नहीं है यहाँ पर। जो हमारा स्वरुप है , जो इस जगत का स्वरुप है। इस जगत को खोजो तो जगत चला जाता है , ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। जीव को खोजो तो जीव चला जाता है , ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। उस पुरुषोत्तम का वर्णन पन्द्रहवें अध्याय में किया गया है। केवल 20 श्लोकों में भगवान कृष्ण हमारे सामने रखते हैं। इसलिए साधु समाज में जब भी भण्डारा होता है , या महत्वपूर्ण कार्य होता है तो इस पन्द्रहवें अध्याय का पाठ होता है। आगे भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -
  
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।15.19।।

यः माम् एवम् असम्मूढः जानाति पुरुषोत्तमम्। 
 सः सर्ववित् भजति मां सर्वभावेन भारत ॥
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।15.20।।
इति गुह्यतमं शास्त्रम् इदम् उक्तं मयानघ। 
 एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च भारत ॥ २० ॥  

अब देखिये पिछले दो दिनों का विश्लेषण जो इतना ज्ञान केंद्रित था अब भक्ति में आकर समाप्त हो रहा है। कितनी सुंदर बात है। जो चर्चा ज्ञान-वेदांत केंद्रित था , उसकी परिसमाप्ति परम भक्ति में हो रही है। यह परम भक्ति और परम ज्ञान एक ही चीज है। यथार्थ भक्ति ज्ञानविहीन नहीं हो सकती(25:50) और यथार्थ अद्वैत ज्ञान जो है , उसकी परिसमाप्ति परमभक्ति में होती है। आपको पता होगा, गीता के सातवें अध्याय, के 16 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने चार प्रकार के भक्तों की बात कही है। (आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।) एक आर्त है, दूसरा जिज्ञासु है, तीसरा अर्थार्थी है - उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है, और चौथा जो ज्ञानी है -और ज्ञानी ही मेरे लिए सबसे प्रिय है ज्ञानी क्यों सबसे प्रिय है ? इसके भाष्य में शंकराचार्य जी का अतुलनीय भाष्य है, उसमें वे कहते हैं , क्योंकि ज्ञानी की दृष्टि में एक ईश्वर से अतिरिक्त, द्वितीय, अन्य ,भिन्न,  कुछ भी नहीं है। इसीलिए ज्ञानी के लिए भक्ति सहज है। - क्योंकि जहाँ पर द्वैत आता है , जहाँ पर ईश्वर अलग है और जगत अलग है। तब उसके लिए अव्यभिचारी -एकनिष्ठ भक्ति सम्भव नहीं है। क्योंकि आपका मन थोड़ी देर के लिए भगवान में रहेगा, बाकि समय जगत में रहेगा। लेकिन 'ज्ञानी' के लिए -तो जगत नाम की कोई चीज ही नहीं है। एकमेवद्वित्तीय ईश्वर से अतिरिक्त कोई दूसरी चीज है ही नहीं भजने के लिए। वहाँ भगवान शंकराचार्यजी कहते हैं - "अन्यस्य भजनीयस्य अदर्शनात् अतः स एकभक्तिः विशिष्यते' ।" -( उसकी दृष्टि में अन्य किसी भजने योग्य वस्तु का अस्तित्व न रहने के कारण वह केवल एक मुझ परमात्मा में ही अनन्य भक्तिवाला होता है। ) किसी ज्ञानी के लिए - भजने के योग्य , दूसरा तो कोई है ही नहीं। एक ईश्वर ही तो है। तो जगत को इस दृष्टि से (सिया-राम मय या ब्रह्ममय) देखने के कारण - उसकी भक्ति अव्यभिचारी होती है। अखण्ड होती है , उसकी भक्ति में कोई व्यभिचार होना ही सम्भव नहीं है। जो सर्वत्र सब स्थान में सब काल में एक ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी महसूस नहीं करता , सब समय वो भक्ति के भाव में रहता है। इस ज्ञान की परिसमाप्ति , इस तत्वज्ञान की पराकाष्ठा परम भक्ति में होती है। (28:14)
आप इन महा ज्ञानियों के जीवन को देखिये ,  आप भगवान शंकराचार्यजी के जीवन को देखिये। जो इतिहास के सबसे बड़े ज्ञानी माने जाते हैं, जो अद्वैत ज्ञानी माने जाते हैं। वे सबसे बड़े भक्त भी थे। थे की नहीं ? गङ्गाष्टकं , नर्मदा अष्टकं, यमुनाष्टकं , शिवाष्टकं , कृष्णाष्टकं - एक ही परब्रह्म परमेश्वर कितने रूपों में उसकी पूजा होती है। एक रूप विशिष्ट नहीं - ईश्वर को आप एक रूप विशिष्ट मत कीजिये , सीमित मत कीजिये। वो काल विशिष्ट नहीं हो सकता। वो देश-विशिष्ट नहीं हो सकता। ना ही एक रूप विशिष्ट हो सकता है। ईश्वर के कई रूप हैं , आप किसी भी रूप को पकड़ लीजिये। आप उस सत्य तक पहुँच जाओगे। यह वेदांत की भाषा है। और ईश्वर का सबसे सुंदर रूप क्या है ? सुनने में कठिन लगेगा , लेकिन सच्चाई है। वेदांत की दृष्टि से उपनिषद की दृष्टि से -ईश्वर का सबसे सुंदर रूप क्या है ? पता है ? ये, ये , ये जो दृष्टिगोचर जगत (मेला, बारात-सरात) दिखाई दे रहा है , ये ईश्वर का ही अपना सबसे सुंदर रूप है। हमको यह बात समझ में नहीं आ रहा है। इस सामने खड़े ईश्वर को छोड़ करके आप किस ईश्वर को ढूँढ रहे हैं ? ये सामने बैठे, खड़े , काम करते , सभी जीव सगुण ब्रह्म हैं , हमको अभी समझ में नहीं आ रहा है। जगत कहाँ है , ये तो सगुण ब्रह्म है , ये ईश्वर है। जीव -जगत भी ईश्वर का सबसे सुंदर रूप है , पर दीखते हुए भी हमको दिखाई नहीं दे रहा है। और यही मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना है। इस आँख को , इस ज्ञानमयी दृष्टि को - खोलने का कार्य सिर्फ शास्त्र करते हैं , सिर्फ गुरु करते हैं। उपनिषद ही कर सकती है -दूसरा ग्रंथ नहीं कर सकता। यह दृष्टि उपनिषद प्रदत्त दृष्टि है , ईश्वर-प्रदत्त दृष्टि है -यह जगत ईश्वर का ही रूप है। लेकिन यहाँ तक पहुँचने में कठिनाई है। क्योंकि जब तक हम इस अशास्वत जगत से - अनित्य जगत से चिपके हुए हैं (वैराग्य नहीं हुआ ? 3K से अनासक्त जबतक नहीं हुए) , तब तक यह दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) आएगी नहीं। (30:10
   घुमाफिरा के दिखिए कि पन्द्रहवें अध्याय की शुरुआत कहाँ से हुई थी ? इस नश्वर, अनित्य , अशाश्वत विश्वप्रपंच से चिपकिये मत। असंग शस्त्र से -अनासक्ति के शस्त्र से इस जगत के प्रति आपके अंदर जो मोह है , इसको काट कर फेंक दीजिये, इसका छेदन कीजिये , इसका खण्डन कीजिये। जब आप इस नश्वर जगत (3K) से अनासक्त हो जायेंगे, तभी ठीक ठीक -ईश्वरदृष्टि की उत्पत्ति होती है। यह परम ज्ञान ही परम भक्ति के रूप में पुरस्कृत (rewarded) हो रही है। भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं -  यः माम् एवम् असम्मूढः जानाति पुरुषोत्तमम्। 
 सः सर्ववित् भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ 
        पहले बात हुई थी 'विमूढ़' की। अब बात हो रही है -असम्मूढ़ की। यह व्यक्ति अब मूढ़ नहीं रह गया है, ये विवेकी है , यह वेद वित् है। यह ईश्वर वित् है। यह आत्मवेत्ता है। ये असम्मूढ़ व्यक्ति है। ऐसा जो असम्मूढ़ व्यक्ति है - वह मुझको इस प्रकार जानेगा। शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं - वो मुझको इस प्रकार जानेगा। शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं -ईश्वर कोई कल्पना का विषय नहीं है। आप ईश्वर को इस रूप कल्पना कर सकते हैं , उस रूप में भी कल्पना कर सकते हैं। कल्पना कल्पना ही होता है , लेकिन ईश्वर का जो तात्विक स्वरुप है - वो सिर्फ शास्त्र में ही मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण  में कहते हैं -  यो माम् एवम् असम्मूढः जानाति पुरुषोत्तमम्। जो मुझे इस प्रकार जानेगा , किस प्रकार जानेगा ? अपनी बुद्धि से किये कल्पना से नहीं , पुरुषोत्तम को इस प्रकार जानेगा -वह सर्व वित् - एक एक शब्द महत्वपूर्ण है। वो सर्व वित् है - जो सर्व वित् हो गया , अब वो मेरी भजन करेगा , भक्ति करेगा। वो सर्ववेत्ता हो गया सर्व ज्ञानी हो गया। सर्वज्ञ हो गया , ज्ञान आ गया वहाँ पर। और जब कोई व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है , वो भक्त भी हो जाता है। 'भजति मां सर्वभावेन भारत' सर्व वित् सर्वभावेन ईश्वरं भजति। क्या सुंदर बात है ? 
      जो सर्व वेत्ता होता है , वह सर्व काल में सर्व भाव से ईश्वर की ही भजना करेगा। क्योंकि उसके लिए ईश्वर से अतिरिक्त कोई दूसरा है ही नहीं। ईश्वर मंदिर में सीमित नहीं है। ईश्वर किसी एक स्थान में सीमित नहीं है। हमें हमारी दृष्टि का परिवर्तन करना होगा। सही दृष्टिकोण का अवलंबन करना होगा। सही दृष्टि कोण यही होगी - कि जहाँ कोई भी मिलेगा वो सगुण ब्रह्म ही है। ईश्वर का अपना ही रूप है। आप जिसको पति -पत्नी कहते हैं , भाई -बहन कहते हैं , आप जिसको बेटा -बेटी कहते हो , वे सभी ईश्वर के ही विभिन्न रूप हैं। आप उनके लिए जो भी कर रहे हो , आप लौकिक कार्य नहीं कर रहे हो। आप ईश्वर की पूजा करने - के लिए ही भगिनी की बेटी के विवाह में जा रहे हो। हमें अपने दैनंदिन जीवन में इस दृष्टि को लाना ही होगा। ये सिर्फ संन्यासियों के लिए नहीं है। आप भेद मत कीजिए। भगवान कृष्ण ने क्या यह उपदेश संन्यासी को दिया था ? अर्जुन तो गृहस्थ था। संसार में पूरीतरह से लिप्त था। भगवान कृष्ण उसकी ऑंखें खोल रहे हैं।  उपनिषद क्या सिर्फ संन्यासियों के लिए है ? ये भेद आपलोग मत कीजिये। आप संन्यासी हैं , हमलोग गृहस्थ है - यह एक दूसरी भ्रान्ति है। विवेक-वैराग्य के अधिकारी तो गृही और संन्यासी दोनों ही हैं। भगवान ने जगत को ब्रह्ममय देखने की क्षमता सब जीवों में दी है। ईश्वर को खुली आँखों से देखने की क्षमता, ईश्वर ने सभी मनुष्यों में दी है , हमलोग इस क्षमता का उपयोग नहीं करते हैं। आप जब इस क्षमता का उपयोग करना शुरू कर दोगे, हर व्यक्ति अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है। इसमें कोई दो मत नहीं है। हो भी नहीं सकता।  (35:03
    तो भगवान यहाँ पर कहते हैं -स सर्व वित् ! अब ये  सर्व वित् होने का क्या मतलब है? सर्वज्ञ होने का मतलब क्या है ?  मुंडक उपनिषद का एक प्रश्न है, उपनिषद ही गोमुख है , उपनिषद ही ऋषियों की वाणी है, वही मूल सिद्धांत है - शिष्य गुरु से प्रश्न करते हैं। 'कस्मिन् भगवो विज्ञाते सर्वं इदं विज्ञातं भवति इति '-हे गुरुदेव ! मुझे उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करा दीजिये, जिस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने पर व्यक्ति सब कुछ जान जाता है? किसको जान लेने से सब कुछ कुछ को जान लिया जाता है ? वो एक वस्तु क्या है ? ईश्वर है। जो व्यक्ति ईश्वर को जान गया वो सब कुछ को जान गयाक्योंकि ईश्वर से भिन्न तो कुछ है ही नहींसर्व वित् या सर्वज्ञ होने का मतलब समझ रहे हैं ? सर्वज्ञ होने का मतलब यह नहीं है कि मैं मोबाईल को जान गया , मैं ने हारमोनियम को जान लिया, कम्प्यूटर को जान लिया। ऐसा नहीं है। एक ईश्वर का ज्ञान जब हम प्राप्त करते हैं , और जब हम यह जान लेंगे कि ईश्वर से भिन्न तो यहाँ कुछ भी नहीं है। तब तो फिर सब का ज्ञान हो गया ! व्यक्ति सर्वज्ञ या सर्व वित् कब होगा ? जब उस पुरुषोत्तम को, पर ब्रह्म परमेश्वर को , अपने स्वरुप को, अपनी आत्मा को हम इस प्रकार जानेंगे  - जिस प्रकार शास्त्र प्रतिपादित करते हैं। पर ब्रह्म परमेश्वर तो अपना ही स्वरुप है। लेकिन जब भी हम परब्रह्म परमेश्वर की बात करते हैं - हम ऊँगली ऊपर या उधर करते हैं। जब अपनेआप को हम इस प्रकार से जानेंगे , जब हम अपने ईश्वर स्वरुप को हम पहचानेंगे तो उसका फल क्या होगा ? उस एक वस्तु (सच्चिदानन्द) से भिन्न तो यहाँ कुछ भी नहीं है , कोई व्यक्ति जब यह जानेगा तब वह व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है। वो व्यक्ति अपने-आप को सबके अंदर पाता है , सब को अपने अंदर पाता है। वो स्वयं को सबके अंदर पाता है , अंदर-बाहर अलग अलग कुछ नहीं होता - एक तत्व मात्र ही यहाँ पर है। अब वह सर्व वित् हुआ कि नहीं ? एक ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने से व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है। सर्व वित् हो जाता है। सर्व वित् हो जाने के बाद वह व्यक्ति क्या करेगा ? बहुत से लोग पूछते हैं , जब कोई व्यक्ति मुक्त हो गया तो वह व्यक्ति अब क्या करेगा ? (38:34) भगवत दर्शन होगया , मुक्ति प्राप्त हो गया , तो उसके बाद व्यक्ति क्या करेगा ? उसके बाद वो एक ही काम करेगा - सः सर्ववित् भजति मां सर्वभावेन भारत / उसका अब यहाँ एक ही काम है , जब वह जानता है कि ईश्वर से भिन्न यहाँ कुछ भी नहीं है , ईश्वर के अतिरिक्त उसको अब कुछ भी दिखाई नहीं देता। वो ईश्वर की भजन करता रहता है। परम् ज्ञान की परिसमाप्ति परम् भक्ति में हो जाती है। और परम भक्ति ज्ञान के बगैर सम्भव नहीं है। भक्ति कुछ काल्पनिक भावुकता, मनुष्य-केंद्रित भावुकता नहीं है। सिर्फ रोना -धोना कमजोरी है। स्वामीजी बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। मानवीय संवेदनाएं भक्ति के रूप में दिखती हैं। सही भक्ति कुछ और है। भक्त तो सर्वशक्तिमान होता है। (39:43) उस भक्त के अंदर कोई कमजोरी नहीं होती , वो बलशाली होता है। क्योंकि वह ह्रदय में बैठे एक ईश्वर को जानता है। वो जब ईश्वर को जानेगा , तो सतत अखंड भाव से भक्त बन जाता है। उसकी भक्ति में कोई व्यभिचार नहीं होता। 
अंतिम श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -इति गुह्यतमं शास्त्रम् इदम् उक्तं मयानघ। एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च भारत। जब व्यक्ति यहाँ तक पहुँच जाता है , तो वह कृत-कृत्य हो जाता है, परिपूर्ण हो जाता है। इस परिपूर्णता को प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य है। अगर हम मनुष्य शरीर में जन्म लेने के पश्चात् हमने ये काम नहीं किया , तो कितना बड़ा दुर्भाग्य है।  कृत-कृत्यता , परिपूर्णता , परितृप्ति कहाँ है? क्या इस नश्वर जगत के विषय-भोगों (3K) में है ? क्या इस नश्वर जगत के विषयों का सेवन करके कोई भी व्यक्ति परितृप्त हुआ है ? यह सब प्रश्न अपनेआप से कर लेना चाहिए। इसका उत्तर भीतर से आना चाहिए। विवेक होगा तभी वैराग्य की उत्पत्ति होगी। और वैराग्य की उत्पत्ति के बगैर भगवत तत्व का ज्ञान नहीं होता। भगवत तत्व ज्ञान के बिना कृत-कृत्यता का लाभ नहीं होता। वैराग्य के बगैर आध्यात्मिक जीवन नहीं होता , ये सिद्धान्त है। इसमें गृहस्थ या संन्यासी का कोई भेद नहीं है। वैराग्य ही अध्यात्म जीवन का स्तम्भ है।
     हम श्रीरामकृष्ण के जीवन में क्या देखते हैं ? संसार के प्रति (3K) के प्रति थोड़ी सी भी आसक्ति कहीं दिखाई देती है आपको ? रंच मात्र भी आसक्ति ? ऐसा त्याग ! माँ कहती है - श्री रामकृष्ण का जीवन क्या है ? त्याग ही तो है। बाकि सब कहानियाँ हैं। श्रीरामकृष्ण का जीवन -बस एक ही चीज सत्य है, ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ' और मिथ्या है उसके प्रति वैराग्य। त्याग - दीखता है कि नहीं ? (घोड़ा -गाड़ी , धोती-कोट , जूता है पर - पूर्ण अनासक्ति है। ) सत्य वस्तु के प्रति प्रगाढ़ प्रेम और जो मिथ्या है , उसके प्रति प्रगाढ़ वैराग्य। दीखता है कि नहीं ? शंकराचार्यजी का जो अतुलनीय महावाक्य है - 'ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या ' उसके मूर्त रूप हैं श्री रामकृष्ण ! यही उनका जीवन है।  और दूसरी पंक्ति में शंकराचार्यजी कहते हैं - जीव क्या है ? ब्रह्म ही है। जगत क्या है ? ब्रह्म ही है। ये ज्ञानमयी दृष्टि है।  यहाँ एक ईश्वर तत्व से भिन्न कुछ है ही नहीं। हम अज्ञान में (अविद्या में ?) जीव और जगत को देखते हैं। लेकिन जो एक विवेकी है , जो एक आत्मवेत्ता है , जो ईश्वर को अपने अनुभव से जनता है , जो ईश्वर को इस प्रकार से अनुभव करता है , जिस प्रकार से शास्त्र इस सिद्धांत को प्रतिपादित करती है - उस व्यक्ति के लिए ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है। 
    भगवान अंतिम श्लोक में कहते है -इति गुह्यतमं शास्त्रम् इदम् उक्तं मयानघ।  भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन, इस प्रकार मैंने तुझे सबसे गुह्यतमं, श्रेष्ठतम (superlative) परम् रहस्य को मैंने बता दिया। ये बात (कि जीव-जगत-ईश्वर सब पुरुषोत्तम ही हैं) 'Supreme secret'- सर्वोच्च रहस्य है कि नहीं, सोच के देखिये। ये secret (रहस्य -पहेली-गुप्तता) नहीं है क्या ये गुप्त ही तो है; कितने लोगों को पता है ? जो बात सबको पता है, वो secret है क्या? हम secret किसको कहते हैं ? जो कि किसी को पता नहीं है। और ये कितना बड़ा सत्य है ? आप राह चलने वाले किसी को पूछिए, उसको पता है क्या कि - एक पुरुषोत्तम ही -जीव,जगत, ईश्वर, आत्मा सब बन गए हैं ? राह चलने वाले किसी व्यक्ति को पूछिए उसकी दृष्टि क्या है ? यह दृष्टि है क्या ? ये सबसे गुह्यतमं शास्त्रं ! 'इदम् उक्तं मयानघ।' हे अर्जुन - हे अनघ, जिसके अंदर कोई दोष नहीं है !! निष्पाप है अर्जुन ऐसा उल्लेख करते हैं। हे अर्जुन मैंने तुम्हें सबसे गुह्यतमं चीज बताई है। अब यह देखिये कि भगवान श्रीकृष्ण ने यह रहस्य अर्जुन को बताया है, कि आपको बताया है ? (44:30) आपको बताया है ! है न ? अर्जुन तो निमित्त मात्र है। अर्जुन को निमित्त बनाकरके भगवान कृष्ण हम सबको, हम सबके लिए यह 'गुह्यतमं-शास्त्र'  छोड़ कर के गए हैं ! गीता अतुलनीय शास्त्र है, गीता की कोई तुलना कभी नहीं हो सकती है। इसको आप लिख कर रख लीजिये। एक उपनिषद है और एक भगवत गीता है - इसकी तुलना कोई भी ग्रन्थ नहीं कर सकता। मैं (स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज) हमेशा कहते हैं - Go back to the Upanishads ! Go back to the Bhagwan Krishna ! उपनिषदों की ओर लौटें ! भगवान कृष्ण की ओर लौटें ! गीता के ऐसा जो 'Teaching' है , शिक्षण या ट्रेनिंग है- वो कहीं भी नहीं हैभगवान कृष्ण की वाणी अमर वाणी है। तो भगवान यह कहते हैं कि यह सबसे गुह्यतमं शास्त्रं है! 'एतद् बुद्ध्वा' जो व्यक्ति जीव , जगत और ईश्वर को इस प्रकार जानेगा, वो व्यक्ति 'बुद्धिमान् स्यात्' वही व्यक्ति बुद्धिमान होता है, और क्या होता है ? कृतकृत्यः च भारत ' वो व्यक्ति कृत-कृत्य हो जायेगा। मतलब परिपूर्णता को लाभ करेगा। (45:29
ॐ तत्सत इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तम योगो नाम पंचदशो अध्यायः। 
  इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में पुरुषोत्तम-योग नाम का पंद्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥ आधा घंटा का समय बचा है, मैं दो चीजें कर सकता हूँ। इस पूरे अध्याय को 'summarise' करूँ क्या ? पूरे पन्द्रहवें अध्याय का सार प्रस्तुत करूँ क्या ? हमने अब तक जो भी पढ़ा उसको 10 -15 मिनट में एक बार summarise कर लेते हैं; उसके बाद अगर कोई प्रश्न करना हो तो आप लोग प्रश्न कर सकते हो। (46:09
    अब श्लोकों की तरफ न जाकर के बहुत सरल भाषा में। इस अध्याय का शुरुआत बहुत महत्व पूर्ण है। भगवान शंकराचार्यजी कहते हैं कि इस पन्द्रहवें अध्याय की शुरुआत कैसे होती है ? इस पूरे विश्वप्रपंच की तुलना एक अश्वत वृक्ष के साथ की गयी है। 'अश्वत' शब्द ही बहुत महत्वपूर्ण है। अश्वत का अर्थ है - वह चीज जो शाश्वत नहीं हो ! जो वस्तु प्रतिक्षण परिवर्तित हो रही है - जिसके भीतर परिवर्तन होता है, उसको हमलोग अशाश्वत कहते हैं या अश्वत, अनित्य कहते हैं। और शाश्वत वह वस्तु है जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। शाश्वत वो चीज है जिसके अंदर कभी भी कोई चीज कभी परिवर्तित नहीं होती है। (47:17)   
      मैं आपसे एक प्रश्न करता हूँ। जब से हमलोग इसी शरीर में जन्में हैं , तब से लेकर आज तक -आप सभी लोग ; यहाँ बहुत से व्यस्क लोग भी हैं। कोई 50 , कोई 60 , कोई 70 साल के जितने भी हैं, हमने अपने पूरे जीवन में आज तक क्या यहाँ पर किसी नित्य वस्तु या शाश्वत वस्तु का अनुभव किया है ? बहुत बड़ा प्रश्न है ! हम सतत क्या अनुभव कर रहे हैं ? सब अशाश्वत वस्तु अनित्य वस्तु को ही अनुभव कर रहे हैं। और अशाश्वत वस्तु से (स्थूल-शरीर से?) हमलोग चिपके हुए हैं या नहीं ? कैसे पागलों की तरह हमलोग चिपके हुए हैं ? और यही हमारी विडंबना है। (उपहास की वस्तु mockery) है। लेकिन हमको ये समझ में नहीं आता है। यह जो अशाश्वत वस्तुओं से हमलोग चिपक करके जो बैठे हैं , यही हमारे सारे दुःखों का कारण है।(48:00) और यह चिपकना जो है, उसी कारण भगवान (श्रीरामकृष्ण) में हमारा मन नहीं लगता। ये कोई मजाक की बात नहीं है -बहुत serious बात है। सभी भक्तों के अंदर यह एक सार्वभौमिक समस्या है। [अविद्या -अस्मिता (स्वयं को M/F स्थूल शरीर मानना) -राग-द्वेष -अभिनिवेश] ये सार्वभौमिक समस्या है - Universal है ! यह किसी एक व्यक्ति केन्द्रित नहीं है। सबकी समस्या है , मेरी भी समस्या है। क्या समस्या है ? देखिये न महाराज , भगवान में मन नहीं लग रहा है। ध्यान करने बैठो तो मन यहाँ -वहाँ पर दौड़ रहा है। उस समय ही सारी चिंतायें आती हैं। लेकिन और सब जगह में तो मन लग रहा है , पर भगवान में ही नहीं लग रहा है। कैसे लगेगा ? उसका मूल कारण यही है कि हमारा मन इस अशाश्वत जगत से चिपका हुआ है-आसक्त है।Attachment is a disease and the only cure for this disease is detachment.  आसक्ति एक बीमारी है और इस बीमारी का एक मात्र इलाज है - अनासक्ति ! और ये अनासक्ति आती कहाँ से है ? विवेक से ही आती है। जब तक आपको विवेक नहीं होगा , जब तक आपको शाश्वत क्या है ? अशाश्वत क्या है ? इसके बीच में का जो पार्थक्य है , जब तक इसका आपको ज्ञान नहीं होगा। तब तक आप इस आसक्ति रूपी बीमारी से ऊपर उठ नहीं पाओगे। 
      जब तक आप जो अशाश्वत है , उसीको आप शाश्वत मानकर बैठे हुए हो, तब तक आप इससे अनासक्त होंगे कैसे ? प्रश्न ये है , हम जो अशाश्वत है , नश्वर है , उसी को हम सत्य समझकर के ही बैठे हैं - हैं कि नहीं ? आप देखिये अपने जीवन को साठ साल ,सत्तर साल कैसे बिताये हैं ? आपके मन में कभी शंका आयी कि ये सत्य है या नहीं ? हमने तो इस पर कभी सोचा ही नहीं। और जो असत्य (देहमन) है उसी को सत्य समझकर के हम चिपकते हैं। उसका फल क्या होता है ? नित्य -निरंतर दुःख का एक प्रवाह चलता रहता है, ये प्रवाह तब तक खत्म नहीं होगा जबतक हम इसके मूल में जाकरके इस आसक्ति रूपी बीमारी , को हम खत्म न करें
         गीता के पन्द्रहवें अध्याय के सार की अगर बात करूँ - तो सार यही है - चिपकना सख्त मना है। इसको आप अपने घर के प्रमुख दीवारों पर लिखकर टाँग दीजिये ? नहीं अपने ह्रदय में अंकित कर लीजिये। नहीं तो वो दीवार पर लिखा है - और जीवन में भोग ही चल रहा है। आप अपने ह्रदय में इसको अंकित कर लीजिये - सबके साथ रहिये , सबकी सेवा कीजिये। सबकी देखभाल कीजिये -लेकिन जान लीजिये कि यहाँ पर कोई भी अपना नहीं है !(50:36) अपना मेरा बोलने के लिए कोई भी नहीं है -यहाँ पर। ये 'मैं और मेरा' रूपी जो बीमारी है , इससे ऊपर उठना पड़ेगा। तभी आध्यात्मिक जीवन में हम प्रगति कर पाएंगे। ये मैं क्या है ? मेरा क्या है ? दोनों प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़िये आप। मैं को ढूँढ़ोगे तो -आप गायब हो जाओगे , ईश्वर प्रकट हो जायेगा। और 'मेरा ' को भी ढूंढिये तो जिसको आप मेरा कह रहे हो , वो भी गायब हो जायेगा -ईश्वर प्रकट हो जायेगा 
'मैं और मेरा ' का गलत अर्थ लगाकरके हमलोग यहाँ पर कष्ट में हैं , बहुत बड़ी दुविधा में हैं। तो यहाँ पर भगवान कृष्ण शुरुआत में ही कहते हैं - ये जो अशाश्वत जगत है।  दृष्ट-नष्ट स्वभाव है। ये हर समय हमारे साथ छल कर रही है। ये कूट है , इससे चिपकिये मत। इसको काटिये। काटोगे कैसे ? असंग शस्त्र से। पेड़ को अगर काटना हो तो शस्त्र की आवश्यकता है। और वहां कोई भी शस्त्र नहीं चलेगा। शस्त्र कैसा होना चाहिए - ? शस्त्र पैना होना चाहिए। तीक्ष्ण होना चाहिए। कुल्हाड़ी पजा हुआ होना चाहिए। इसीलिए असंगता रूपी शस्त्र को पैना बनाना पड़ेगा। उसको पैना बनाएंगे कैसे ? उस असंगता रूपी शस्त्र को , विवेक रूपी पत्थर पर घिसकर पैना बनाइये और उस शस्त्र से इस मोह को समूल काटिये , इसका छेदन कीजिये। उसके बाद भगवान कहते हैं -
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।।

 ईश्वर (या सत्य) की असली खोज तो तब से शुरू होगी, जब तक आप संसार से चिपके हो , ईश्वर की खोज तो शुरू ही नहीं हुई। जब तक आप पूरब से चिपके हो , तब तक आप पश्चिम की ओर बढ़ोगे कैसे ? कई भक्त लोग कहते हैं - 30-35- 40 साल हो गए , मंत्र दीक्षा लिए हुए। मैंने अमुक महाराज से मंत्र दीक्षा लिया। बड़े बड़े साधुओं का नाम लेते हैं। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। मूल दोष क्या है ? आप बुरा मत मानिये , ये सबकी भलाई के लिए है। मूल दोष क्या है ? आप संसार से चिपके हुए हो। 3k में चिपक कर के आप कुछ भी कर लीजिये, प्रगति नहीं होगी। आप तो वहाँ -3K में चिपके हुए हो ? 
       इसका श्रीरामकृष्ण सुंदर उदाहरण देते हैं -जो नौका किनारे के खूँटे से बँधा हुआ है , उसको आप कितना भी खेते जाइये -वो नौका 1 इंच भी आगे बढ़ने वाला नहीं है। आप कितना भी मंत्र को घुमाइए , प्रार्थना करते रहिये। आप जब तक यहाँ चिपके हुए हो , यहाँ से अनासक्त हुए बगैर आगे बढ़ोगे कैसे
        भगवान कृष्ण बहुत सुंदर क्रम बता रहे हैं। इस अशाश्वत संसार से पहले अनासक्त हो जाइये , ततः पदं तत् परिमार्गितव्यं - का मतलब क्या है ? (विवेक-वैराग्य होने के बाद, उस ईश्वर , आत्मा या इष्टदेव की खोज शुरू होती है, जिसे देखकर देवकुलिश अँधा हो गया था ?)   यस्मिन् गताः न निवर्तन्ति भूयः। तम् एव च आद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥  उसके पश्चात् - यानि अनासक्ति होने के पश्चात् - यथार्थ ईश्वर की खोज शुरू होती है, यथार्थ भक्ति की उत्पत्ति वहाँ से होती है। यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति वहाँ से होती है। उसके पहले तो हम 3K की आसक्ति में, गोल-गोल घूम रहे होते हैं। जीवन खत्म हो जाता है , बुढ़ापा आ जाता है। एक दिन मृत्यु आ जाती है। पुनः जन्म शुरू हो जाता है। "पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।" ये चक्र चलता ही रहता है। 
       हम इसी प्रतीक्षा में बैठे हैं कि ईश्वर आयेंगे। ये दूसरी बीमारी है। सुनने में थोड़ा कठोर लगेगा , लेकिन ये सत्य है। ईश्वर क्या प्रतीक्षा का विषय है ? Is God something to wait for? ईश्वर ही तो है - हमको समझ में नहीं आ रहा है। (मिथ्या अहं के कारण , मैं और मेरा में आसक्ति के कारण हमको समझ में नहीं आ रहा है।)(55 :22) हम प्रतीक्षा कर रहे हैं कि ईश्वर अंतिम काल में आएंगे ? ठीक है आस्था की बात है। आप विश्वास कर सकते हो। लेकिन उपनिषद कहेंगे - भाई क्यों प्रतीक्षा में बैठे हो ? ये आपके सामने क्या है ? आप दृष्टि को बदलिए , सही दृष्टि लाइए। तब देखिये ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है क्या यहाँ ? इसलिए हमारी साधना की दिशा - दृष्टिकोण में परिवर्तन होना चाहिए। 
       तो कृष्ण वहां कहते हैं - ततः पदं तत् परिमार्गितव्यं यस्मिन् गताः न निवर्तन्ति भूयःजिसको प्राप्त करने के पश्चात् व्यक्ति फिर दुबारा इस संसार में प्रविष्ट नहीं होता। मिथ्या संसार से अनासक्त हो गए, अब ईश्वर की खोज शुरू हो गयी। ईश्वर की खोज करेंगे कैसे ? ईश्वर की शरण में जाकर के।  क्या सुंदर प्रक्रिया है ईश्वर की शरण में जाने के बाद क्या करना है ? 'तम् एव च आद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥ 'तम् एव' उस आदि पुरुष (आत्मा , इष्टदेव या ईश्वर) के शरण में ही व्यक्ति को शरणागत होना होगा , जहाँ से इस सारी सृष्टि की उत्पत्ति होती है। ये शरणागति प्रधान साधन है। जब तक व्यक्ति अपने मिथ्या अहंकार का समर्पण नहीं करता ईश्वर के चरणों में - प्रगति नहीं होती। समर्पण -शरणागति ये बहुत जरुरी है। प्रधान साधन शरणागति के साथ कुछ गौण साधन भी करना है। जो कि बहुत महत्वपूर्ण है - क्या क्या है ? निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै
र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।। 
आपको अपना मान -अभिमान छोड़ना होगा , मोह छोड़ना होगा। कामनायेँ छोड़नी होंगी। 3k में आसक्ति को छोड़ना होगा। और अध्यात्मनित्या ' मैं सतत ईश्वर को ही चाहता हूँ। ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहता हूँ। ऐसी मानसिकता बनाकर के रखनी होगी। जब कोई व्यक्ति ऐसा करेगा - गछन्ति अमूढ़ा - पदम् अव्ययं। तब ये जीव जो है उस परम् तत्व तक पहुँचेगा। पहले के पाँच श्लोकों में भगवान ने पूरी साधना बता दी है - भक्त को क्या साधना करनी चाहिए , बहुत सुंदर ढंग से बताया है। जगत से असंगता और ईश्वर के प्रति प्रेम। श्रीरामकृष्ण कहते हैं , जगत से विराग और ईश्वर के प्रति अनुराग। एक ही बात है - संसार के 3K से विराग हुए बगैर , ईश्वर के प्रति अनुराग सम्भव नहीं है। 
      अब हम जो जीव हैं - परमेश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध क्या है ? (58:28) यह पूरा अध्याय , गीता और उपनिषद ये हमें ईश्वर सम्बन्ध बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जीव को जानना चाहिए कि हम ईश्वर से कैसे सम्बन्धित हैं ? अभेद रूप से सम्बंधित है। यह एक परस्पर विरोधी प्रकार की भाषा है। हम अभेद रूप से सम्बंधित हैं ! जब अभेद है , तब फिर सम्बन्ध कहाँ है ? जो अभिन्न हो उसमें फिर सम्बन्ध की बात ही नहीं आती। फिर भी हमें बोलचाल की भाषा में बोलना पड़ता है। कि हमें सम्बन्ध बनाना है। जहाँ पर सम्बन्ध पहले से ही बना है , वहां पर हम फिर सम्बन्ध बनाने की बात कर रहे हैं , क्योंकि ईश्वर के साथ सम्बन्ध के विषय में हमें ज्ञान नहीं है। समस्या यह है। ऐसा नहीं है कि कोई नया सम्बन्ध हमलोग बना रहे हैं। आप तो अभी भी सम्बन्धित हो। आपको ये पता नहीं है। ये मनुष्य की दुविधा है। ऐसा नहीं है कि हम अभी ईश्वर से सम्बन्धित नहीं हैं। हम ईश्वर स्वरुप ही हैं। पर हमें पता नहीं है। पता नहीं होने के कारण हमलोग , इतना दीन -हीन और लाचार हो जाते हैं। थोड़ा सा भी जब ज्ञान होना शुरू हो जाता है, तब देखिये कैसे व्यक्ति का व्यक्तित्व ही बदल जायेगा , बदल जाता है। उस व्यक्ति के जीवन में , उस व्यक्ति के व्यक्तित्व में , उसका अद्भुत परिणाम दिखाई देता है। उसका प्रतिफलन अतिसुंदर - शोक , मोह निवृत्ति। यह उपनिषद की भाषा है। किस बात का शोक ? हम किसके लिए शोक कर रहे हैं ? उस व्यक्ति के जीवन में तो शोक का स्थान ही नहीं होगा(1:00:02) जीवन में ये रोना-धोना क्या है ? जब तक हम सत्य को नहीं जानते हैं, तब तक हम ऐसे ही व्यथित होकर के जीवन को बिताते हैं। लेकिन जब सत्य का दर्शन होता है , वहाँ शोक -मोह का कोई स्थान नहीं है। ये बात भगवान श्रीकृष्ण सरल भाषा में यहाँ कह रहे हैं। तो इस जीव का परमेश्वर के साथ सम्बन्ध कैसा है ? 
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।15.7।।

ये जीव क्या है ? मेरा ही अंश है। तो भगवान शंकराचार्य इसकी व्याख्या बहुत सुंदर ढंग से करते हैं। अंश होने का मतलब क्या है ? अंश और अंशी दो अलग चीजें हैं क्या ? जिसका अंश है उसको हम अंशी कहते हैं। एक पूर्ण वस्तु है , उसका एक अंश है। यह दो अलग अलग चीजें हैं क्या ? अंश और अंशी दो नहीं हैं - एक ही हैं। कैसे ? जैसे कि एक बिम्ब है और प्रतिबिम्ब है। भगवान शंकराचार्य जी कह रहे हैं - जैसे कि आप आईने के सामने खड़े हों , तो आईने में आप क्या देख रहे हो ? ये प्रतिबिम्ब क्या बिम्ब से अलग है ? प्रतिबिम्ब का बिम्ब से अलग कोई अस्तित्व है क्या ?  आप ही हो , बिम्ब ही हो। ईश्वर ही हो। ईश्वर वह बिम्ब है जो यहाँ पर जीव के रूप में प्रतिबिम्बित हो रहा है। ये जीव जो है प्रतिबिम्ब है। बिम्ब से अलग उसका कोई अस्तित्व है ही नहीं। शंकराचार्य जी कह रहे हैं - वो अनुभव सिद्ध बात है। ये कोई सिद्धांत नहीं है - हम जैसे साधना करते जायेंगे , तो ये अनुभवगम्य होगा। आज जो बुद्धिगम्य है वो साक्षात् अनुभव गम्य होगा। तो ईश्वर और जीव का सम्बन्ध इस प्रकार का है। एक प्रतिबिम्ब है , दूसरा बिम्ब है। प्रतिबिम्ब दीखता है। वास्तविक रूप में नहीं है। वास्तविक रूप में बिम्ब ही है। ईश्वर ही वह बिम्ब है , जिसके इतने सारे प्रतिबिम्ब हैं। (God is the image that has so many reflections.) अब ईश्वर को कहाँ ढूंढोगे मुझे बताओ ? ईश्वर क्या मृत्यु काल में आने वाला है ? तुम्हारे सामने इतने रूपों में ईश्वर ही प्रतिबिम्बित हैं। यही उपनिषद की दृष्टि है। तो जीव और ईश्वर का सम्बन्ध इस प्रकार से है। लेकिन जब तक इस सम्बन्ध को अपने अनुभव से नहीं जानेंगे , इस सम्बन्ध के विषय में हमारे अंदर ज्ञान नहीं होगा , तब-तक भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - ये जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहेगा। ये जन्म-मृत्यु का चक्र चलता ही रहेगा। तो ये पुनर्जन्म होता कैसे है? (1:02:39) उसका चर्चा हो चुका है। कुछ लोग जीवित अवस्था में हों, या मरण काल में हों , या इस संसार की चीजों का सेवन करते समय भी। कुछ लोग सत्य को देख पाते हैं , कुछ लोग देख नहीं पाते हैंकुछ लोग जीवित काल में , कुछ लोग मरणकाल में , कुछ लोग विषयों का उपभोग करते समय भी , सत्य को क्यों देख पाते हैं , और कुछ लोग सत्य को क्यों नहीं देख पाते हैं? (1:03:06) उसका एक ही कारण है - मन की , अंतःकरण की शुद्धि। (चित्तशुद्धि ?) अन्तःकरण अशुद्ध होगा तो हम सत्य को देख नहीं पाते हैं। अगर दर्पण में मैल हो , आपके सामने जो आईना हो।  आईना के ऊपर अगर मैल हो , तो क्या बिम्ब वहाँ पर प्रतिबिम्बित होगा ? हमारा अंतःकरण यदि मैला है , यह जो हृदय रूपी यह अंतःकरण रूपी जो दर्पण है , यह मैला है , इसीलिए बिम्ब यहाँ पर ठीक से प्रतिबिंबित नहीं हो रहा है। इसीलिए हमको सत्य दिखाई नहीं दे रहा है। सत्य है - लेकिन दिखाई नहीं देता , क्यों ? अन्तःकरण अशुद्ध है। और किसी का अन्तःकरण अशुद्ध कैसे होता है ? कामना से। सांसारिक विषयों (3K) के प्रति कामना। जब तक सांसारिक विषयों के प्रति कामना हो , तब तक अन्तःकरण शुद्ध नहीं हो सकता। और जिसका अन्तःकरण शुद्ध है , उसको तो सबकुछ स्पष्ट है। जिसके अन्तःकरण में कोई जगतिक वासना नहीं हो उसके लिए ईश्वर जो है प्रत्यक्ष है , साक्षात्कार है। फिर ईश्वर का सर्वव्यापी और सर्वगत रूप कैसा है ? (1:04:20)

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।15.12।।

जो तेज सूर्य में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और अग्नि में है, उस तेज को तुम मेरा ही जानो।

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।

15.15।।
मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।। 
क्या सुंदर बात है ? मैं ही सबों के हृदयों में हूँ। मैं ही इतने सारे रूपों में प्रतिबिंबित हूँ। कहाँ ईश्वर को ढूँढना है ? देखिये ये शास्त्र की दृष्टि है। कोई रूप विशिष्ट नहीं , कोई स्थान विशिष्ट नहीं , कोई काल विशिष्ट नहीं। सर्वत्र सब समय , ईश्वर (आत्मा या इष्टदेव)  ही विद्यमान है इस बात को अपने ह्रदय में एकदम अंकित करना चाहिये। ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं था। आज भी नहीं है। भविष्य में भी नहीं होगा। यहाँ पर भूतकाल हो, अभी वर्तमानकाल हो , या भविष्यत्काल हो।  यहाँ पर विद्यमान सिर्फ एक ही वस्तु है। वो है भगवत वस्तु-सच्चिदानन्द। इसीलिए भगवान श्रीरामकृष्ण कहते हैं- भगवान ही एकमात्र वस्तु हैं , बाकि सब अवस्तु है ! सभी अवतार घुमा-फिराकर एक ही बात कहते हैं। ईश्वर से अतिरिक्त कोई वस्तु यहाँ है ही नहीं। वास्तविक रूप में एक ही वस्तु यहाँ पर विद्यमान है , और वो ईश्वर है। (1:05:31) ये ईश्वर का सर्वव्यापित्व है। और ईश्वर का जो सर्वातीत रूप जो है , वहां भगवान कृष्ण कहते है - एक क्षर पुरुष है , एक अक्षर पुरुष है , और इस क्षर और अक्षर के अतीत एक पुरुषोत्तम है। क्षर पुरुष वो है जो भौतिक जगत , अशाश्वत जगत -ब्रह्माण्ड हम देख रहे हैं इसको क्षर पुरुष कहते हैं। और इसका जो मूल कारण जो है -कूट है , माया है। उसको अक्षर कहते हैं। और इस माया से भी अतीत -मायाधीश जो हैं - वो पुरुषोत्तम हैं। जो इस सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच में प्रविष्ट होकरके सभी को धारित करते हैं। सभी को धारण कर रहे हैं। देखिये ये भी एक दृष्टि है। हमको कौन धारण कर रहे हैं ? इस शरीर को कौन धारित कर रहा है ? हमारे अंदर बोलने की क्षमता कहाँ से आ रही है ? आपके अंदर कार्य करने की क्षमता कहाँ से आ रही है ? आप सभी के मन में विचार चल रहे हैं। इन विचारों को चलने के पीछे की जो सामर्थ्य क्षमता किसकी है ? क्या आपकी अपनी है ? आप कुछ भी नहीं विचार कर सकते हो। आप कुछ स्मरण भी नहीं कर पाओगे। आपको किसी चीज का ज्ञान नहीं होगा। अगर इन सब चीजों के पीछे ईश्वर विद्यमान नहीं हों ?
      देखिये इस दृष्टि का परिवर्तन हमारे जीवन में होना अनिवार्य है। तभी आध्यात्मिक जीवन है। आध्यात्मिक जीवन का तात्पर्य क्या ? शास्त्र के अनुसार पूरे दृष्टि का परिवर्तन। तभी हमारा आध्यात्मिक जीवन सही मार्ग पर सही दिशा में जायेगा। अंत में भगवान कहते हैं - जो इस प्रकार मुझे जानता है , वो सर्व वित् हो जाता है। और जो सर्व वित् होगा , वो सर्व भाव से सब समय मेरी ही भजना करेगा। वहां पर परम् भक्ति आ जाती है। वो व्यक्ति सर्वत्र एक ईश्वर को ही देखेगा। आँख खोल कर के ईश्वर को देखेगा। वो सबको नमन करता रहता है।  वो पेड़ को नमन करेगा , पत्थर को नमन करेगा। गंगा को नमन करेगा , सूर्य को नमन करेगा। क्योंकि यहाँ पर न तो पत्थर है , ना तो गंगा है -एक ईश्वर मात्र है। ये परम भक्ति का लक्षण है , जो ज्ञान आधारित है। अंत में भगवान अर्जुन से कहते हैं - कि देख अर्जुन मैंने तुमको सबसे बड़ा secret दे दिया। कि नहीं ? बताइये ? इससे बढ़कर मूल्य वान और कुछ है क्या ? हमने जो इन तीन दिनों में जो सीखा इसका आप क्या मोल लगाओगे ? इस ज्ञान का क्या मोल लगाओगे ? अनमोल है , इससे बढ़कर कोई ज्ञान है ? जो इस ज्ञान में प्रतिष्ठित होता है , वो कृत-कृत्य हो जाता हैबोलो भगवान श्रीकृष्ण की जय ! भगवान श्रीरामकृष्ण देव की जय ! ॐ शांति हरि ॐ तत्सत ! (1:08:47
अब आप कुछ प्रश्न पूछ सकते हो। ५ मिनट समय है हमारे पास। 
एक सर्वगत है और सर्वव्यापी है और एक सर्वातीत है। आध्यात्मिक साधना की कठिनाई - मिथ्या जगत से अनासक्त हो गए, वैराग्य हो गया  पर वस्तु  प्राप्ति नहीं हुई ? उस बीच की अवस्था में सम्बल क्या है ? में श्रद्धा ही उसका बल होता है - शास्त्र के प्रति श्रद्धा , गुरु वाक्य के प्रति श्रद्धा। वो श्रद्धा के बल पर आगे बढ़ता है। इस मध्य काल में जो अवस्था है , जहाँ पर व्यक्ति संसार से विमुख भी हो गया है। लेकिन ईश्वर को अभी प्राप्त नहीं किया है। उस समय साधक गुरु प्रदत्त ज्ञान में श्रद्धा करके उस श्रद्धा के बल पर आगे बढ़ता है। इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - श्रद्धावान लभते ज्ञानं ! यदि गीता के प्रति श्रद्धा नहीं हो तो आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाओगे। श्रद्धा ही जबरदस्त स्तम्भ है साधक के जीवन में। जो उसको अवगति पर्यन्त ले जाएगी। गुरु ने जो कहा वो सत्य है, शास्त्र ने जो कहा वो सत्य है। ऐसा गुरु और शास्त्र वाक्य पर जो सत्यत्व बुद्धि है , वही उसका बल बनता है। उसी गुरुवाक्य और उपनिषद वाक्य में श्रद्धा बल के सहारे वो जीवन में आगे बढ़ता है।
      अनासक्ति न तो भोग से , न तो दुःख से , अनासक्ति आनी चाहिए विवेक से। जब आप यह जान जाओगे कि यह जगत परिवर्तनशील है , प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव है। या सबकुछ तो चला जा रहा है। तो यह विवेक है - सभी लोग जो दुखी है , वो अनासक्त है क्या ? सारा जीवन तो दुःख ही है न ? कितना मार खाये हमलोग ? कितना रोना धोना चलता रहा , हमलोग अनासक्त हुए क्या ? भोग की तो बात ही छोड़ दीजिये। जो विषय भोगों में डूबता है -वो तो और भी डूबता है। हम इतना मार चोट खाने के बाद भी अनासक्त हुए क्या ? क्योंकि विवेक नहीं है। विवेक ही अनासक्ति का मूल आधार है। इसलिए विवेक-चूड़ामणि है , विवेक से बढ़कर कुछ नहीं है। विवेक से ही आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत होतीं है। जब विवेक होगा तब वैराग्य होगा। जब वैराग्य होगा तब भगवत तत्व ज्ञान की उत्पत्ति होगी। जब भगवत तत्वज्ञान की उत्पत्ति होगी तब परिपूर्णता का लाभ होगा। यही उसका क्रम है। 
     भक्ति की व्याख्या : (1:13:19) हमारे पुराणों में प्रह्लाद की कहानी अपने सुनी होगी ? प्रह्लाद ईश्वर से क्या प्रार्थाना करते थे ? हे भगवान ! जिस प्रकार संसार में अत्यंत ही विषय लोग,भोगी लोग हैं , उनका विषयों के प्रति जैसा आकर्षण होता है। देखिये बड़ा सुंदर शब्द है , देखिये संसार में कोई भी संसारी व्यक्ति है। ये किसी एक व्यक्ति के बारे में कोई जजमेंट नहीं दे रहे हैं। हम वास्तविकता की बात कहते हैं। कुछ लोग इतना अधिक भोग में डूबे हुए हैं। सब समय विषयों के पीछे ही दौड़ते रहते हैं। उनमें विषयों के प्रति कितना प्रगाढ़ आकर्षण है। प्रह्लाद बोल रहे हैं -हे प्रभु ! मेरा उसी प्रकार का आकर्षण हो , सिर्फ आपके प्रति। अब ये भक्ति है।  इसमें कोई मानवीय भावुकता जैसी बात नहीं है। ये अलग ही चीज है , इसको परम् प्रेम कहते हैं
नारद भक्ति सूत्र
अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ।
अब भक्ति कि व्याख्या करते हैं ॥१॥
सा त्वस्मिन परप्रेमरूपा ।
वह तो ईश्वर के लिये परम् प्रेम रूप है ॥२॥
अमृतस्वरूपा च ।
अमृत स्वरूप है ॥३॥
भक्ति पर हमलोग बात कर सकते हैं , इसकी व्याख्या नहीं कर सकते। भक्ति शब्द से प्रकट नहीं होती। न ही ज्ञान शब्द से प्रकट होता है। हम सिर्फ इसका संकेत दे सकते दे सकते हैं। मानवीय भावुकता में थोड़ा आँसू बहा लिया , ये भक्ति नहीं है। ये कमजोरी है। स्वामीजी कहेंगे स्नायु रोग हैं। घर में जाकर घी खाइये , नाड़ी को पुष्ट कीजिये। असली भक्ति में कोई कमजोरी नहीं है। भक्त बहुत बहादुर व्यक्ति होता है। 
यल्लब्धवा पुमान सिध्दो भवति अमृतो भवति तृप्तो भवति ।
जिसे पा कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है ॥४॥
यत्प्राप्य न किन्चित वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ।
जिसे प्राप्त कर, वह न कभी और कुछ चाहता है, न ही शोक करता है, न घृणा करता है, न ही किसी चिज में रमता है, वह अन्य विषयों कि तरफ उत्साह रहित हो जाता है ॥५॥
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ।
जिसे जान कर वो उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है, और अपने आप में ही सन्तुष्ट रहता है ॥६॥
मीराबाई का और कृष्ण का सम्बन्ध जानते हो बेटा ? (1:15:46) नहीं ?  तुम जरा जानो , जिसका नाम लिए हो न, वो भक्ति की रानी हैं। महारानी हैं। उसकी भक्ति को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसके लिए कृष्ण अलग  हैं ? नहीं .....  कृष्ण उसके सांसों में बसते हैं। रामरतन धन पायो ! क्या कहें ? हम क्या बताएं 'भक्ति' बिल्कुल ही अलग चीज है। भक्ति वो अलग नहीं है, ज्ञान ही है ! मीरा की भक्ति को ज्ञान से अलग कहना गलत है।  लेकिन उसके सारे भाव, जोश (emotions- उमंग, आवेग, राग) उसका नेतृत्व , लक्ष्य या दिशा (direction) वो बिल्कुल अलग है। वो जो मानवीय स्तर पर हमारी 'superficial'-बाहरी, दिखावटी या सतही जो संवेदनायें होती हैं; जो भावुकतायें होती हैं - मीरा की भक्ति वैसी भक्ति नहीं है। तुमने जो प्रश्न किया वो सही बात है। देखिये अभी तो हमारे अंदर वो अभेद दृष्टि नहीं है। अभी हमारे अंदर भेद दृष्टि है। 
लेकिन गीता के पन्द्रहवें अध्याय में गुह्यतम रहस्य को जान लेने के बाद, हमें यह समझ में आएगा कि हम किस दिशा में जा रहे हैं, और हमें किस दिशा में जाना है?  यहाँ पर (3K-M/F) में ही अटक कर नहीं रहना हैमैं द्वैत दृष्टि से सीधा अद्वैत दृष्टि में प्रतिष्ठित होने की बात नहीं कह रहा हूँ। दृष्टि-कोण में यह परिवर्तन , ये अवस्था एक दिन में प्राप्त होने वाली बात नहीं है। अभी तो आपके लिए भगवान अलग ही है(1:16:27) चलो मैं अभी 'Ground Level' जमीनी स्तर पर आता हूँ। [ठीक है चलो मैं भी अभी "ईश्वर, जीव और जगत" को तुम्हारी द्वैत दृष्टि से अलग -अलग देखने की अवस्था में उतर आता हूँ।]  आज हमारी जो मानसिक दशा है, वो क्या है? मैं फलाना, मैं -मैं गीता पॉल हूँ ठाकुर वहाँ बैठे हैं ! और ये सामने जगत है। [अर्थात मैं 'फलाना' सिंह , अग्रवाल, पाण्डे हूँ ! मैं यहाँ बैठा / बैठी हूँ/ और ठाकुर वहाँ (मंदिर या दीवाल पर) बैठे हैं? और ये सामने हाथी-महावत वाला जगत है ?] अभी तो हमारी दृष्टि बिल्कुल ऐसी ही है। तो ठीक है, मंदिर में जरूर जाइये। साष्टांग प्रणाम 'prostration' करते रहिये। धीरे- धीरे- धीरे आगे बढ़ते रहिये , लेकिन जाने की दिशा क्या है ? या आज जो पन्द्रहवाँ अध्याय पढ़ा है न आपने ? उसी ओर हमें प्रगतिशील होना चाहिए। यहीं पर अटके/चिपके नहीं रहना है। हमने इतना पढ़ा क्यों ? इतना पाठचक्र , इतना कैम्प, इतना अनुवाद किया क्यों ? ऐसा नहीं है कि पढ़ने के बाद अभी तुरंत गीता अभी पढ़ा और तुरंत ही अभेद दर्शन हो जायेगा। ये अद्वैत ज्ञान तो क्रम से होता है , धीरे धीरे होता है। आज आपके अंदर द्वैत बुद्धि ही है। आपको लगता है कि मैं ईश्वर से अलग हूँ , और ईश्वर से ये जगत (हाथी -महावत) अलग है ?
      ठीक है कोई बात नहीं , यहाँ से ही शुरू कीजिये। लेकिन आपके जाने की दिशा क्या है ? क्या वह दिशा है 'आत्मविश्वास में प्रतिष्ठित' हो जाने की दिशा है ? जीव से मनुष्य भाव में पहुँचने की दिशा ये है। इस प्रकार शास्त्र और गुरु के निर्देशानुसार साधन-भजन कीजिये। सर्व जीवों तथा जगत में एक अविभक्त ईश्वर-तत्व सम्पूर्ण सृष्टि में एक अविभक्त ईश्वर-तत्व (सच्चिदानन्द) को खुली आँखों से देखने का प्रयास कीजिये। वो भी अपने-आप में एक साधना है। ऐसा करते- करते, ये ईश्वर के साथ के ये जो हमारी दूरी है; वो दूरी कम होती जायेगी। और एक दिन ऐसा समय आयेगा बेटा, जब तू ये जानेगा कि ईश्वर से व्यतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है। ये होना ही है। 'This is the process ' यह अद्वैत भाव में पहुँचने की प्रक्रिया है। 
      ये ज्ञान भी ठाकुर ,माँ और स्वामीजी की कृपा से ही होता है। उनकी कृपा से त्रिगुण से गुणातीत हो, या गुणसहित हो , ये सब हमलोग खेलते हैं। ईश्वर -ईश्वर है। वास्तव में -actually, हम लोग ब्रह्म को कहते हैं , ये सगुण है , वो निर्गुण है। ये मानवीय बुद्धि की परिकल्पना है। ब्रह्म स्वयं तो कभी नहीं कहता कि मैं अभी सगुण हूँ , बाद में निर्गुण हूँ। ब्रह्म तो ब्रह्म है ! ईश्वर तो ईश्वर है। यह मनुष्य की दृष्टि है। हम अपने सुविधा के लिए कहते हैं। नहीं तो आप इस जीव -जगत-और ईश्वर को explain कैसे करोगे ? तो समझने में सुविधा के लिए हम कहते हैं कि -ब्रह्म सगुण है। explain करने के लिए ये भाव है। लेकिन ब्रह्म क्या खुद अपने बारे में ऐसा सोचता है क्या ? कि देखो मैं अभी सगुण हूँ , अब मैं निर्गुण बन गया ? तो ब्रह्म तो ब्रह्म ही है। भगवान शंकराचार्य जी यही बात कहते हैं।
   ये सब मानवीय बात है , हम अपनी कल्पनाओं को ईश्वर पर थोप रहे हैं। वो ठीक है - समझने में सुविधा के लिए थोपना पड़ता है। क्यों कि कुछ चीजों को पकड़- पकड़ कर के ही, तो हम आगे बढ़ सकेंगे। तो हम एक सगुण रूप को एक रूप विशिष्ट को , ईश्वर को हम एक स्थान -विशिष्ट बना देते हैं। स्थान-विशिष्ट बना देते हैं। लेकिन बात ये है कि आप वहाँ पर - किसी रूप विशिष्ट पर ? अटके मत रहिये। आगे बढिये। 
         भगवान श्रीरामकृष्ण सब समय कहते हैं - आगे बढ़ो! आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! रुको मत ! अच्छा आज द्वैत है , आगे बढ़ो ! विशिष्ट अद्वैत आ जायेगा , वहाँ पहुँचो। फिर आगे बढ़ो ! अंतिम दृष्टि जो होगी वो यह होगी कि एक ईश्वर से व्यतिरिक्त कुछ भी नहीं है। तो यहाँ पर , द्वैत और विशिष्ट अद्वैत में कोई समस्या नहीं है , होने दो। अच्छी बात है। आप द्वैत दृष्टि से साधना कीजिये , लेकिन आपके जीवन की जो प्रगति की जो दिशा होगी , वो दिशा क्या होगी ? उपनिषद और भगवत गीता में वो दिशा-निर्देश प्राप्त होता है। धीरे -धीरे - धीरे हमें आगे बढ़ना होगा। ईश्वर को ऑंखें खोलकर सर्वत्र देखने का अभ्यास करना होगा। यह अभ्यास की बात है। टाइम हो गया। तो आगे क्या करना है ? यह हमारे organiser व्यवस्थापक लोग बतायेंगे।
"अक्षर शब्द" (1:20:36) जो है , ये दोनों अर्थ में है। आपने बिल्कुल सही कहा है। परब्रह्म को भी अक्षर ही कहा गया है। लेकिन यहाँ पर (गीता पन्द्रहवें अध्यायमें) अक्षर का मतलब है माया। इस लोक में -ये context है - इस (मृत्यु लोक या पृथ्वी लोक ) के सम्बन्ध में अक्षर का मतलब है -माया ! यहाँ पर जो हमलोग पुरुषोत्तम की जो व्याख्या है , यहाँ पर उसमें भगवान कृष्ण कह रहे हैं। तीन पुरुष हैं। तो वास्तविकता में क्या तीन पुरुष हैं-क्या? एक ही पुरुष है। वो एक ही पुरुष क्षर रूप में भी दिख रहा है और अक्षर रूप में भी दिख रहा है। वो पुरुषोत्तम है ! एक ही पुरुषोत्तम जो है अपनी ही माया शक्ति के माध्यम से वह क्षर और अक्षर रूप में दिखाई दे रहा है।
 >>आध्यात्मिक जीवन में प्रगति का मापदण्ड क्या है ? 
कुछ बातों को मैं बहुत bluntly- रुखाई से , बिना किसी बनावट के , या दो टूक लब्जों में कह दूंगा- (1:21:28) कोई कहेगा मैंने सपने में ठाकुर को ये रूप में देखा , उस रूप में देखा। तो उससे आपका क्या हुआ ? बहुत बड़ा प्रश्न है। आध्यात्मिक जीवन में प्रगति का जो मापदण्ड है , प्रगति की जो लक्षण है, वो क्या है ? ये रूप देखना , वो रूप देखना , हमलोग यहाँ रूपों को ही तो देख रहे हैं। इस रूप -दर्शन से आपके अज्ञान का नाश हुआ क्या ? हम तो वहीं पर हैं। तो ये जो विभिन्न रूपों का दर्शन होता है। स्वप्न जो ये होता है , वो होता है। ये सिर्फ इतना संकेत देती है कि आपका अन्तःकरण शुद्ध हो रहा है। बस इससे अतिरिक्त और कुछ नहीं है , ज्यादा महत्व importance उसको मत दीजिये। 
     अध्यात्म जीवन में प्रगति का मापदण्ड है- (disinterestedness) 3K में निष्कामता, अनासक्ति, वैराग्य ! आप जितना निष्काम हो रहे हो , उतना आप ठीक ठीक आध्यात्मिक पथ पर आपकी प्रगति हो रही है। हृदय के अंदर की वासनायें -कामनायें जितनी कम हो रही हैं,उतनी आप ठीक ठीक प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहे हो। एक ही मापदण्ड है निष्कामता। इसीलिए माँ श्रीश्री सारदा देवी कहती हैं न , ईश्वर से प्रार्थना करना तो क्या प्रार्थना करना ? Mother, make me free from lust. माँ मुझे निर्वासना बना दो। माँ मुझे वासना रहित बना दो ! जितनी वासना कम होती है , वही ठीक ठीक आध्यात्मिक जीवन की प्रगति का मापदण्ड है। सपने में ये देखा -वो देखा तो -उससे आपका क्या हुआ ? मन तो पूरा वासनाओं से ही भरा हुआ है ? उससे क्या होता है ? 
      >> सब में भगवान है तो आतंकवादी कौन है ? आतंकवादी में भी भगवान है। आतंकवादी भी भगवान का ही रूप है(1:23:39) आपको विश्वास नहीं होगा। वही प्रभु परमेश्वर उस आतंकवादी के रूप में खेल रहे हैं , तो क्या करोगे उसको ? यही दुविधा थी अर्जुन की। भ्रम में पड़ गया था। ये कौरव क्या हैं ? ईश्वर के ही अपने रूप हैं। पाण्डव क्या हैं ? ईश्वर के अपने रूप हैं , एक अधर्म को represent कर रहा है , दूसरा धर्म को represent कर रहा है। प्रभु परमेश्वर की इस माया सृष्टि में -वही प्रभु परमेश्वर दो रूप में अभिव्यक्त होते हैं। एक धर्म के रूप में अभिव्यक्त होते हैं , दूसरी अधर्म के रूप में अभिव्यक्त होती है। तो व्यावहारिक स्तर पर हमारे लिए कर्तव्य क्या है
       सभी ईश्वर का रूप है। साँप भी ईश्वर का ही रूप है। गाय भी ईश्वर का रूप है। आप गाय को जाकर सहला सकते हो। साँप को please सहलाइये मत। आप शेर को जाकर सहलाने का प्रयास करोगे , आप उसका भोजन बन जाओगे। वो ईश्वर उसी रूप में है। तो जैसा जिसका स्वभाव होगा  उसको उसी प्रकार से हैंडल करना होगा। ये उसका practical application है हमारे जीवन में। वही एक प्रभु परमेश्वर अपने मायाशक्ति के द्वारा , दो रूपों में यहाँ पर अभिव्यक्त हो रहे हैं। एक धर्म के रूप में एक अधर्म के रूप में। तो व्यावहारिक स्तर पर हमारा कर्तव्य क्या है ? हम धर्म का पक्ष लें और अधर्म का सामना करें। तो सब ईश्वर है। यही बात भगवान श्रीरामकृष्ण एक बहुत सुंदर कहानी के माध्यम से बताते हैं। एक महावत नारायण है , और एक हाथी नारायण है। सब नारायण ही हैं लेकिन , जिसका जैसा स्वभाव है , वैसा उसको हैण्डल करना पड़ता है। तो आपके सामने कोई देशद्रोही , अधर्मी आएगा , तो उसको आपो  उसी प्रकार से हैण्डल करना होगा। यह अतिसुंदर बात भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।8.7।।
हे अर्जुन !  मेरा स्मरण कर , मेरी दृष्टि का पालन कर। और तू अपने कर्तव्य का पालन कर। the greatest teaching ever -अब तक की सबसे महान शिक्षा ! भगवान श्रीकृष्ण  की कोई तुलना ही नहीं है। उपनिषद का व्यावहारिक अनुप्रयोग Practical application of Upanishad- यही है। उपनिषद की दृष्टि यही है। व्यावहारिक स्तर पर हर समय कठिनाई तो होगी। आपके जीवन में भी , आप समाज में देखेंगे। ऐसे विद्रोही -अधर्मी -पाखण्डी - ढोंगी जो मनुष्य रूप में पशु विचरण कर रहे हैं - ऐसे लोगों को देखोगे तो क्या करोगे ? वो भी नारायण का ही रूप है। लेकिन उसको उस प्रकार से हैण्डल करना होगा। वहां कोई कमजोरी नहीं आनी चाहिए। बस यहीं रुक जाते हैं। बस ये ईश्वर की माया है -ऐसा समझ लीजिये आप। प्रभु परमेश्वर का यहाँ पर माया का खेल चल रहा है। विगत दो दिनों में इस अध्यात्म विद्या पर चर्चा से आपको क्या मिला पता नहीं , लेकिन मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो गया। मेरा अन्तःकरण बहुत शुद्ध हो गया, इतना पक्का है। (1:27:32)   
महाराज के चरणों में मेरा प्रणाम। अब मैं श्रद्ध्येय स्वामी ध्रुवेशानन्द जी महाराज , (अध्यक्ष, रामकृष्ण कुटीर) से अनुरोध करूँगा कि वे एक संक्षिप्त धन्यवाद भाषण दें।  'ॐ नमो भगवते श्रीरामकृष्णये नमः'  पिछले तीन दिनों से , नहीं ढाई दिनों से हमलोगों ने गीता के पन्द्रहवें अध्याय पर 5 कक्षाएं सुनी। ठाकुर , माँ के बारे में सुना। स्वामी राघवेंद्रानन्द जी महाराज, स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज , और स्वामी सुखानंदजी महाराज , आज शाम में सुनेगे स्वामी आत्मश्रद्धानन्द जी महाराज को जो कानपूर से आये हैं।  
अभी ये जो अब जो थैंक्स गिविंग धन्यवाद देना है, कौन किसको थैंक्स देगा ? जैसा शुद्धिदानन्द जी महाराज ने बताया है -  " सभी पुरुषोत्तम हैं और सभी मायाधीन हैं।" हमारा लक्ष्य है मायाधीश ! मतलब  हमलोगों का लक्ष्य होगा , सभी प्रकार के माया (3K -आसक्ति) के पार हो जाना (1:28:52) चार वेदों का सारांश - पंचम वेद है गीता में है।   और गीता का सारांश मिलता है पुरुषोत्तम योग में। इसके ऊपर महाराज ने पांच भाषण दिए। गीता में श्रीकृष्ण बार -बार बोले हैं - अहं, अहं।  बहुत से लोगों का प्रश्न होता है , भगवान तो मैं मैं कहते हैं , हमलोग भी वैसा ही कहे क्या ? पर श्रीरामकृष्ण अपने जीवन में कभी आमार -आमार नहीं बोले हैं। वे बोलते हैं - एखाने - मतलब बोले हैं - यहाँ पर ! 
 श्री कृष्ण जो बोले हैं अहं , अहं इसका उदाहरण हम श्रीरामकृष्ण के जीवन में देखते हैं। भगवान कृष्ण को यमुना के पार होना था , वे किनारे पर आये हैं । गोपियाँ भी हैं , उनको भी उस पार जाना है। वे कृष्ण भगवान से उपाय पूछती हैं। श्रीकृष्ण बोले मुझे भूख लगी है कुछ खिलाओगी क्या? उन लोग खीर , मखन, दही बहुत खिलाया। एक-एक हाड़ी , हांड़ी खा गए। गोपी लोग बोली अब उस पार जाने की व्यवस्था क्या हुआ ? कृष्ण बोले, 'हे यमुने ' अगर मैं ने आज कुछ भी नहीं खाया , तो आप दो भाग हो जाओ , मुझे बीच से जाने का मार्ग देदो। हो गया। गोपियाँ बोलने लगीं , ये कैसे हुआ ? इतना खाया , फिर कहते हैं , मैंने कुछ नहीं खाया। यह मैं और श्रीकृष्ण का मैं एक है। 
     स्वामी सारदानंद जी महाराज के जीवन में भी हम यही देखते हैं। रामकृष्ण मठ मिशन का नियम है, जो मठ मिशन के अध्यक्ष होंगे वे केवल संन्यास और ब्रह्मचर्य दीक्षा देंगे। सारदानंद जी महाराज पहले सेक्रेटरी थे , GS का पोस्ट नहीं हुआ था , तो जयराम बाटी में जब मंदिर का उद्घाटन हुआ। उस समय कुछ लोगों को साधु बनना था , कुछ को ब्रह्मचर्य दीक्षा दिए , और कुछ को संन्यास दीक्षा भी दिए। उसके बाद जब साधु लोग एकत्रित हुए एक स्वामी जी ने शरत महाराज  से पूछा -महाराज अपने तो नियम बनाया कि केवल जो प्रेसिडेन्ट होंगे वही संन्यास और ब्रह्मचर्य दीक्षा दे पाएंगे। तो आप तो प्रेसिडेंट नहीं हैं , आप कैसे संन्यास दीक्षा दिए ? ब शरत महाराज बोले मैंने किसी को संन्यास नहीं दिया। मैंने किसी को ब्रह्मचर्य दीक्षा नहीं दिया। यह जो मैं है यह वही मैं है। ब्रह्म है। 
      तो महाराज का यह जो बताया मायातीत और मायाधीश, हम लोगों को मायाधीश बनना है। महाराज ने गीता के ऊपर अद्वैत भाव को स्पष्ट किया है। अद्वैत आश्रम मायावती में ठाकुर का फोटो नहीं है। पूजा वहां नहीं होती है। उन्होंने बताया ठाकुर अद्वैतवादी थे। आप उनके सभी शिष्य भी अद्वैतवादी हो। मायावती हमलोग जाते हैं , बहुत लोग पूछते हैं वहां मंदिर कहा है? अरे वहां सभी मंदिर है। अरे वहां का सभी कुछ मंदिर ही है , वहाँ का एक एक वृक्ष , एक एक बिल्डिंग, जीवजंतु सभी ईश्वर हैं, सभी रामकृष्णदेव हैं। इसी अद्वैत भाव से महाराज ने गीता की क्याख्या की है।  महाराज वहाँ पर हैं , वे हमारे अनुरोध से आये हैं। यह पांच क्लास लिए है महाराज से विनती बाद में भी आये और ,क्लास आगे बढे। आप सबके तरफ मैं महाराज को धन्यवाद हूँ। सबको धन्यवाद।                 
 ['मूछों वाले बच्चे' (mustache baby) गाते हैं - "वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी। " ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो। भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन। वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी। संत निश्‍चलदास ने अपने 'विचारसागर' में स्‍पष्‍टतापूर्वक कहा है-
 
जो ब्रह्मविद वही ब्रह्म है, ताको वाणी वेद। 
         संस्कृत और भाषा में, करत भरम का छेद।। 

 'जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेद है, और उससे अज्ञान का अन्धकार दूर हट जायेगा, चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या किसी लोक-भाषा में (मगही-भोजपुरी-मैथली -पंजाबी या गुजराती में) हो ! इस प्रकार द्वैतवादी मतानुसार ईश्वर (श्री ठाकुर) का साक्षात्कार करना, या ब्रह्म की उपलब्धि करना। अथवा अद्वैतवादी मतानुसार -"ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाना " -यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है। और उसके अन्य उपदेश (कर्मकाण्ड) इसी लक्ष्य की ओर प्रगति के लिए सोपान मात्र हैं।  भाष्यकार भगवान शंकराचार्य की महिमा यही है कि उनकी विलक्षण प्रतिभा (ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य) ने महर्षि व्यास के भावों की ऐसी अपूर्व व्याख्या हमारे समक्ष प्रकट की। ( "मद्रास-अभिनन्दन का लिखित उत्तर- 'नामरहित, सीमारहित, सनातन धर्म' के पक्ष में !" महामण्डल ब्लॉग -15 मई , 2017) और एक प्रश्न ? (1:16:08
     [अगर कोई "एथेंस का सत्यार्थी" (सुदर्शन द्वारा लिखित एक कहानी का पात्र) देवकुलिश (अर्थात ईश्वरकोटि-जीवकोटि नहीं ?) Who am I? Or what am I? मैं कौन हूँ ? या मैं क्या हूँ ? सत्य को खोजने का अदम्य साहस रखते हुए अध्य्वसाय पूर्वक खोजता ही रहता है तो इसी  सत्य का अविष्कार होता है कि - प्रतिबिम्ब जो है , वो बिम्ब है। जीव ईश्वर  से भिन्न कुछ भी नहीं है! बिम्ब श्रीकृष्ण (आत्मा , इष्टदेव, माँ काली छिन्नमस्ता, मातृशक्ति है ) ही है , प्रतिबिम्ब भी  -अर्जुन नहीं है ! 
 
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
 शरन्ये त्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।

# नारायणी तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो, कल्याणदायिनी शिवा हो, सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। हे माँ दुर्गा आपके श्री चरणों में नमस्कार है। 
# अचानक संकट उपस्‍थित होने पर लगातार मानसिक जाप करें। शीघ्र ही समस्या का निदान हो जाएगा। उपरोक्त मंत्र जप करने मात्र से ही समस्याओं पर विजय मिलती है। आवश्यकता है श्रद्धा और विश्वास की। 
(#माँ दुर्गा/काली /छिन्नमस्ता देवी दस महाविद्याओं में से एक हैं, जिन्हें प्रचंड चंडिका भी कहा जाता है। उनकी प्रमुख पहचान उनके अपने ही कटे हुए सिर को हाथ में धारण करना और अपने धड़ से निकलती तीन रक्त की धाराओं को पीना है। यह स्वरूप आत्म-बलिदान, त्याग और परोपकार का प्रतीक है। )
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