ईश्वर सर्वगत भी है एवं सर्वतातीत भी हैं !
God is omnipresent and also transcendental!
तो विगत सत्र के 11 -15 श्लोकों तक में हमने ईश्वर के सर्वव्यापित्व को देखा था। थोड़ा सा उसी विषय पर हम पुनः प्रकाश डालें। ईश्वर सर्वगत है, सर्वव्यापी है ! जैसे बोलचाल की भाषा में हमलोग कहते हैं - ' कण कण में शिव और घट घट में राम विद्यमान है ।' उसी प्रकार हम देखते हैं यह जो ईश्वर ,प्रभु, परमेश्वर, परमात्मा या आत्मा है वो सर्वव्यापी है। और सब में ओतप्रोत भरा हुआ है। देखिये यह सिद्धांत, (विचार) अपने-आप में बहुत ही महत्वपूर्ण और बहुत ही बल देने वाला सिद्धांत है। लेकिन जीव अपने-आपको इतना कमजोर क्यों महसूस करता है? दुबारा हमलोग वहीं जायेंगे जहाँ से हमने शुरू किया था। जीव- हम , आप, सब अपनेआप को इतना कमजोर क्यों महसूस कर रहे हैं ? उसका एक ही मुख्य कारण है - हमने अब तक ईश्वर सम्बन्ध नहीं बनाया है। मैं दुबारा कहता हूँ , मैंने वहीँ से शुरू किया था।
जीव अपने आप को इतना कमजोर क्यों महसूस करता है ? ईश्वर-सम्बन्ध बनाना ये अत्यंत आवश्यक है। ईश्वर सम्बन्ध के अभाव में ही जीव अपनेआप को इतना दीन और हीन महसूस करता है। इतना कमजोर महसूस करता है। लेकिन सच्चाई क्या है ? सच्चाई ये है कि हम ईश्वर से ओतप्रोत हैं। (2:30) क्या आप कल्पना कर सकते हो, कि आप ईश्वर से ओतप्रोत हो ?
ईश्वर आपके कण-कण में बसा हुआ है ! हमने सम्बन्ध बनाया नहीं है, इसीलिए हमलोग अपने को इतना कमजोर महसूस करते हैं। इतना दीन, हीन और लाचार महसूस करते हैं। हमारे अन्दर जितनी भी कमजोरियाँ हैं, वो चाहे भय हो या असुरक्षितता का भाव हो। Insecurity हो, हर व्यक्ति अपने को असुरक्षित महसूस है ,सभी के अंदर देखो कैसा एक भय काम कर रहा है। भय से सारा यह विश्वप्रपंच भयग्रस्त है ! भयाद्स्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचमः ॥ कठ०॥ क्यों भयग्रस्त है ? ईश्वर सम्बन्ध नहीं बनाया। जीव जब ईश्वर सम्बन्ध बनाता है- (अहं ब्रह्मास्मि बोध हो जाता है !) तो उसका पहला प्रतिफलन यही होगा। वह भय से मुक्त होता है। उसके अन्दर जो एक असुरक्षितता का भाव होता है वह नष्ट होता है। (नश्वर देहभाव के बदले , शाश्वत सच्चिदानन्द स्वरुप की स्मृति आ जाने पर ) उसके व्यक्तित्व में और उसके जीवन में एक अद्भुत स्थिरता का भाव , अवर्णनीय स्थिरता- Indescribable stability' आ जाती है। ये अकाट्य सत्य है। [ लेकिन आत्मसाक्षात्कार हो जाने पर भी देह रहने तक माँ सर्वमंगला के राज्य में ही रहना है , इसकी निरंतर स्मृति भी माँ ही प्रदान करती है। ] इसलिए देखिये ईश्वर सम्बन्ध बनाना बहुत जरुरी है। लेकिन यहाँ पर एक प्रश्न है कि ईश्वर (आत्मा) से हमरा सम्बन्ध नहीं हो, ये तो हो ही नहीं सकता है। क्योंकि हम तो ईश्वर से (यानि आत्मा) से सदा सम्बन्धित हैं ही। ऐसा कुछ नहीं है कि आप आत्मा या ईश्वर से कुछ नया सम्बन्ध बनाने जा रहे हैं। शास्त्र यह कहती है कि आत्मा या ईश्वर के अतिरिक्त इस भौतिक देह का अपना कोई सामर्थ्य है ही नहीं। इसी बात को शास्त्र कहते हैं यहाँ पर ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। आप भी नहीं हो , ईश्वर (आत्मा) ही है। [आप नाम-रूप का मिथ्या अहं BKS भी नहीं हो इस व्यावहारिक मैं -Apparent I, (प्रातिभासिक मनुष्य) का वास्तविक मैं (Real I), ईश्वर (आत्मा) ही है।] इस परम सत्य को जब हम अपने रोम रोम में बसायेंगे , अपनी साँसों में जब हम इस बात को महसूस करेंगे, तब व्यक्ति का जीवन ही बदल जाता है । (4:36) तो इस ईश्वर अर्थात आत्मा से सम्बन्ध बनाने के लिए, पहले हमारी दृष्टि में (अपने को M/F देह मात्र समझने) एक परिवर्तन लाना जरुरी है। और वो नया दृष्टि क्या होना चाहिए ? यही कि यहाँ पर, इस सृष्टि के कण- कण में आत्मा (ईश्वर) ही ओत-प्रोत हैं।
यही बात भगवान श्रीकृष्ण बहुत सुंदर ढंग से चार श्लोकों में कहते हैं -
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।15.12।।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।15.13।।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।15.14।।
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो,मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो, वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।
15.15।।
सर्वस्य च अहं हृदि सन्निविष्टः, मत्तः स्मृतिः ज्ञानम् अपोहनं च।
वेदैः च सर्वैः अहम् एव वेद्यः, वेदान्तकृत् वेदवित् एव च अहम् ॥
पन्द्रहवें अध्याय के पन्द्रहवें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में (आत्मा या ईश्वर) होकर विद्यमान हूँ स्थित हूँ। भगवान (आत्मा , ईश्वर या इष्टदेव) कहाँ विद्यमान हैं? भक्तों के ह्रदय में रहते हैं। (आत्मा, ईश्वर या इष्टदेव भक्तों के ह्रदय में रहते हैं !) मन्दिर या पूजा का कमरा तो आत्मा, ईश्वर, या इष्टदेव के निवास का एक सिर्फ एक प्रतिरूप मात्र है। आत्मा , ईश्वर या इष्टदेव का असली वासस्थान तो भक्त का ह्रदय है। हमारे ह्रदय में इष्टदेव , ईश्वर या आत्मा तो पहले ही विद्यमान है। हमने उस अविनाशी आत्मा, ईश्वर या इष्टदेव से सम्बन्ध नहीं बनाया, ( और जीवन भर अपने इस मिथ्या अहं की पहचान नश्वर M/F शरीर को ही वास्तविक मैं समझने की भूल करते रहे) इसलिए जीव इतने कष्ट में है। और आत्मा , ईश्वर या इष्टदेव के साथ सम्बन्ध बनाने की प्रक्रिया क्या है ? ईश्वर सम्बन्ध बनाने की प्रक्रिया को भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - ऐसी दृष्टि बनाओ कि आत्मा , ईश्वर या इष्टदेव से अतिरिक्त यहाँ, इस पूरे सृष्टि में कुछ भी नहीं है। यह एक बहुत बड़ा अकाट्य सत्य है !
अब इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए भगवान क्या कहते हैं कि - आत्मा , ईश्वर, इष्टदेव ये सर्वव्यापी है। वही आत्मा, ईश्वर, सच्चिदानंद परब्रह्म, परमेश्वर जो है, वह जब उपाधियुक्त होता है (नाम रूप में व्यक्त होता है-अवतरित होता है), तब वो सर्वगत होता है, सर्वव्यापी होता है। मैं दोबारा यही बात कह रहा हूँ कि वही आत्मा , ईश्वर, इष्टदेव या प्रभु परमेश्वर जो है वो जब उपाधियुक्त होता है तो सर्वव्यापी और सर्वगत होता है। (7:06) वही परमात्मा उपाधि-वियुक्त जब होगा, तब वही सर्वव्यापी जो परमात्मा है वो सर्वातीत हो जाता है। (7:17) तो इसका निष्कर्ष क्या है ? यही कि आत्मा , ईश्वर या इष्टदेव सर्वव्यापी सर्वगत भी है और सर्वातीत भी है। पिछले चार श्लोकों में - हमने ईश्वर के सर्वव्यापी रूप को देखा; ईश्वर के सर्वगतत्व को हमने देखा।
आने वाले तीन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण हमें ईश्वर का जो सर्वातीत रूप है, उस रूप को हमारे सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। आत्मा, ईश्वर या इष्टदेव सर्वातीत (transcendent) कैसे हो जाते हैं ? पिछले चार श्लोको में हमने देखा कि ईश्वर तो सर्वव्यापी है। अब वही ईश्वर (आत्मा या इष्टदेव) सर्वातीत हैं, सभी उपाधिओं के परे हैं। (7:57) वह आत्मा, ईश्वर या इष्टदेव सगुण भी है, वह निर्गुण भी है। हम जब ईश्वर (आत्मा या इष्टदेव) की बात करते हैं - वो सगुण, निर्गुण दोनों भी हैं। आत्मा ईश्वर या इष्टदेव जब गुण-युक्त होते तो सर्वव्यापी हो जाते हैं। और जब वही आत्मा, ईश्वर या इष्टदेव गुण-वियुक्त हो जाते हैं , तो सर्वातीत हो जाते हैं। ये ईश्वर का असली स्वरुप है। (8:17)
तो ये जो सर्वातीत, गुणरहित जो ईश्वर है -वो कैसे हैं ? वो देखिये , उनके बारे में भगवान श्री कृष्ण क्या कहते हैं, आपलोग मेरे साथ-साथ दोहराइये -
द्वाविमौ पुरुषौ लोके, क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।15.16।।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः, परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य, बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।15.17।।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहम,क्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च, प्रथितः पुरुषोत्तमः।।
(उत्तमः पुरुषः तु अन्यः, परमात्मा इति उदाहृतः।
यः लोकत्रयम् आविश्य बिभर्ति अव्ययः ईश्वरः ॥)
(यस्मात् क्षरम् अतीतः अहम्, क्षरात् अपि च उत्तमः।
अतः अस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥)
15.18।।
भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं - 'द्वाविमौ पुरुषौ लोके ' (9:40) इस लोक में दो प्रकार के पुरुष हैं। अभी यहाँ पर तीन पुरुषों की बात होने वाली है। सच्चाई (सत्य-सच्चिदानन्द) तो एक ही है , लेकिन उसके विभिन्न स्तर हैं। एक स्तर को एक पुरुष कहा गया है। दूसरे स्तर को दूसरा पुरुष कहा गया। और इन दोनों से अतीत पुरुषोत्तम है। तो हमको सब समझना है। तो भगवान कृष्ण कहते हैं -इस लोक में दो पुरुष हैं। अब दो पुरुष का मतलब क्या है ? क्षरश्चाक्षर एव च- एक क्षर पुरुष है , और एक अक्षर पुरुष है। एक क्षर पुरुष क्या है ? क्षरः सर्वाणि भूतानि, - ये जो कुछ भी हमको यहाँ पर दिखाई दे रहा है , हमारे आँखों के सामने जो कुछ इन्द्रिय प्रत्यक्ष है - हम आँखों से यहाँ पर जो भी देख रहे हैं वह सब क्षर पुरुष है। (10:50) क्षर 'पुरुष' कहने का मतलब क्या है ? जो भी बदलता रहता है, जो (M/F देह) भी नष्ट हो रहा है, यह भी सच्चाई का (आत्मा,ईश्वर इष्टदेव का) एक पहलु है। इसको एक पुरुष कहा गया, जो क्षर पुरुष है,जो प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव है। जो दृष्ट-नष्ट स्वभाव है। जो हमें इन्द्रियों से दिखाई देता है , उसको हमलोग क्षर पुरुष कहते हैं। It is also a one dimension of existence' यह भी अस्तित्व का एक आयाम है। जो बदलता है , जो अशाश्वत है , जो नश्वर है , जो अनित्य है , जो मिथ्या है , इसको हमलोग क्षर 'पुरुष' कहते हैं। लेकिन इस क्षर पुरुष (देह-मन) की उत्पत्ति कहाँ से हुई है ?(11:45) अक्षर से हुई है। ये क्षर है और इसकी उत्पत्ति का जो मूल हेतुस्थान है - वह अक्षर है। यहाँ पर अक्षर से क्या लेना है ? यहाँ पर अक्षर का मतलब है - माया ! यह महाद्भुतम -अनिर्वचनीयम जो एक माया शक्ति है , यह पूरा जो विश्वप्रपंच ब्रह्माण्ड (M/F शरीर) जो है , उसी शक्ति का खेल है , उसी शक्ति का प्रकटीकरण है। यह उसी अव्यक्त माया का व्यक्त रूप है। अव्यक्त माया के व्यक्त रूप (M/F शरीर) को हम लोग क्षर पुरुष कहते हैं। माया को अक्षर कहते हैं। (12:25) तो ये दो पुरुष हो गए। एक है क्षर पुरुष जो कि बदलता है। और इसकी उत्पत्ति स्थान क्या है ? उसको हमलोग माया कहते हैं। उसी माया को अक्षर पुरुष कहते हैं। इसलिए -क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते। माया को ही कूट भी कहते हैं - 'कूट' बड़ा सुंदर शब्द है। कूट का मतलब क्या है ? पता है ? - छल ! जो छल करता है। बंगला में 'छल' को हमलोग क्या कहते हैं? बंगला में छल को 'cheating' या धोखा /प्रताड़ना कहते हैं ? छल करना मतलब जो सत्य नहीं है , उसको सत्य समझा देना - धोखा होना, यही है। माया जो है वो छल करती है, इसीलिए उसको कूट भी कहा जाता है। माया क्या करती है ? माया हमारे साथ छल करती है ,धोखा देती है , जो सत्य नहीं है , नित्य नहीं है, उसके प्रति हमारे अंदर सत्यत्व बुद्धि उत्पन्न कर देती है। महाद्भुतम -अनिर्वचनीयम। आप अगर पूछोगे कि ऐसा क्यों है ? इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। यह वास्तविकता है। लेकिन माया के इस जाल से हर व्यक्ति ऊपर उठ सकता है ! माया के जाल से ऊपर उठने का एक मार्ग है। ये ऋषियों की वाणी (वेद) है, कि जब तक इस मायाधीश (इष्टदेव) के शरण में न जाओ, तब तक हम माया के ही जाल में फँसे रहेंगे! (14:06) जब हम माया का जो अधीश्वर है, उस मायाधीश की शरण में चले जाते हैं, तब हम इस माया के जाल से हम ऊपर उठ सकते हैं। (गुरु-शिष्य श्रुति परम्परा में मायाधीश का नाम-जप श्रवण,मनन, निदिदिध्यासन) ये माया से ऊपर उठने की प्रक्रिया है। (14:19)
तो यहाँ भगवान कृष्ण कह रहे हैं, यहाँ पर एक क्षर पुरुष है , यह जो बदलता हुआ दृश्य वर्ग (M/F शरीर) है, इसको हमलोग क्षर पुरुष कहते हैं। और इसका जो उत्पत्ति स्थान है -वो है कूट या माया (जगतजननी माँ सर्वमंगला)! जिसको हम अक्षर पुरुष कहते हैं। 'क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते।' अब इन दोनों के अतीत, यहाँ पर ईश्वर या परब्रह्म का जो सर्वातीत भाव है, इस माया (व्यक्त देह-मन M/F) के अतीत जो सत्य वस्तु (आत्मा या इष्टदेव) है, उसी को परम पुरुष कहते हैं या पुरुषोत्तम कहते हैं। (15:02)
जो यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - 'उत्तमः पुरुषः तु अन्यः।' इन दोनों पुरुषों से अन्य- अलग एक उत्तम पुरुष है। एक 'क्षर' पुरुष है, एक 'अक्षर' पुरुष है और एक 'उत्तम' पुरुष है। उत्तम पुरुष , इस क्षर और अक्षर के अतीत है, परे है -'परमात्मा इति उदाहृतः', उस उत्तम पुरुष को परमात्मा कहते हैं। और वही हमारा भी स्वरुप है। हम सब का सत्यस्वरूप वही है। आज भले ही हम इस को नहीं जान रहे हों, भले ही हमको इसका ज्ञान न हो, लेकिन कभी न कभी यह (परमात्मैक्यबोध-awareness of the Supreme Being) होना ही है। ये होना ही है , आपके पास दूसरा विकल्प नहीं है। ये सिर्फ समय की बात है। कल हो सकता है , 10 वर्षों के बाद हो सकता है , 10 जन्मों के बाद हो सकता है, 100 जन्मों के बाद हो सकता है। लेकिन ये अनुभव होना ही है। क्योंकि जीव की अंतिम गति वही है। आपके पास दूसरा विकल्प नहीं है। आप जितनी जल्दी इस कार्य में लगेंगे (ईश्वराभिमुखी यात्रा आत्मबोध की यात्रा में लगेंगे) उतना जल्दी होगा। आप इस कार्य को छोड़ देंगे तो माया के जाल में फँसे रहेंगे। इतना ही है , सरल बात है। ऋषियों की वाणी है। बहुत सरल है। इसमें कोई जटिलता नहीं है। (16:30)
तो यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - उत्तमः पुरुषः तु अन्यः ! इन दोनों पुरुषों से अन्य , इनके अतीत एक उत्तम पुरुष है, जिसको हमलोग परमात्मा कहते हैं-'परमात्मा इति उदाहृतः'। और वे परमात्मा कैसे हैं ? यः लोकत्रयम् आविश्य बिभर्ति अव्ययः ईश्वरः ॥ वह परमात्मा इन तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर के - सबको बिभर्ति , धारण करती है। सबको धारण करने वाली सत्ता ही परमात्मा है। हमको कौन धारण कर रहा है ? बिना आत्मा की शक्ति की सहायता के - क्या आप खुद अपने पैरों पर खड़े भी हो सकते हैं ? हमारे अंदर वो सत्ता विद्यमान है , जिसके कारण हम जो भी कर रहे हैं - ये उसी की क्षमता है। उसी की योग्यता है। हमें धारण करने वाली वो सत्ता क्या है ? वो एक परमात्मा ही है। एक ही परमात्मा सभी लोकों में प्रविष्ट होकर के सभी को बिभर्ति - मतलब सभी को धारण करती है। और अव्ययः ईश्वरः' वह ईश्वर जो पुरुषोत्तम है - वह अव्यय है, अर्थात सनातन है। अविनाशी है , अनश्वर है , शाश्वत है। और ये जगत जो सामने दिखाई देता है -ये अश्वत है, और ईश्वर शाश्वत है। इसीलिए इस अश्वत जगत से चिपकना सख्त मना है ! इस तीन -दिवसीय शिविर की चर्चा का निष्कर्ष यही निकलेगा कि इस मिथ्या जगत से , अशाश्वत जो जगत है , उससे चिपकना नहीं है। इसमें यदि चिपक गए या कमनी-कांचन - कीर्ति में आसक्त हो गए तो हम मुश्किल में पड़ गए। अनासक्ति (या वैराग्य) ही आध्यात्मिक जीवन की बुनियादी स्तम्भ है। अनासक्त हुए बिना कोई आध्यात्मिक जीवन में प्रगति कर ही नहीं पायेगा। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण शुरुआत में ही कह देते हैं -इस अशाश्वत जगत से सम्बन्ध /आसक्ति को अगर समूल उखाड़ फेंकना हो , या काट डालना हो तो असंगता ही इसका शस्त्र है। असंगता/ अनासक्ति रूपी शस्त्र के द्वारा इस अनित्य जगत के प्रति हमारा जो मोह है , है उसको काट दीजिये। जब अनित्य जगत (3K) के प्रति मोह नष्ट होगा, तब भगवत भक्ति उत्पन्न होती है। (19:11) उसके पहले तो भगवान के प्रति प्रेम कहाँ है? हम तो जगत से प्रेम कर रहे हैं। अपने-आप से पूछ कर देखिये - आप क्या भगवान से प्रेम कर रहे हैं ? थोड़ा सा -10 % प्रेम भगवान से , बाकी का 90 % प्रेम तो जगत के प्रति ही है। पूछिए अपनेआप से -ये प्रश्न सबके लिए है। हम क्या ईश्वर से प्रेम करते हैं? हम तो ईश्वर से सम्बन्धित होना क्यों चाहते हैं ? जगत के वस्तुओं (3K) की सुरक्षा के लिए। हमारे परिवार वालों की सुरक्षा के लिए हम भगवान से प्रार्थना करते हैं। ये प्रेम किससे है ? जगत से प्रेम है। ईश्वर से कहाँ प्रेम है ? भक्ति तो शुरू हुई ही नहीं है। वह अव्यभिचारी भक्ति - एक मात्र ईश्वर से प्रेम तब शुरू होगी , जब आप जगत के विषय में आपके मन में और कोई कामना-वासना ही नहीं होगी। इस अनित्य संसार से हमें क्या मिलने वाला है ? कुछ भी नहीं चाहिए। यहाँ का सब कुछ नष्ट होने वाला है। अभी दीखता है , अगले क्षण नहीं है। आप पाओगे भी तो क्या पाओगे ? जो भी पाओगे वो अभी है , कल नहीं रहेगा। तो हम चाहते क्या हैं ? क्या हम ईश्वर को चाहते हैं ? यह प्रश्न है। ईश्वर के प्रति सही भक्ति, तभी उत्पन्न होगी , उसी दिन होगी जब संसार के प्रति हमारा मोह नष्ट हो जायेगा। हम संसार से जब अनासक्त हो जायेंगे , उस दिन ठीक ठीक भगवान के प्रति भक्ति उत्पन्न होगी। तब उस जीव का ह्रदय भगवतमय हो जायेगा। भगवान के प्रेम से उसका ह्रदय जब भर जायेगा। उसको आँख बंद करके नहीं , आँख खोलकर के सर्वदा ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई देगा। यदि आप आँख बंद करके ही ईश्वर को देखते हो , तो आँख खोल करके जिसको देखते हो वो क्या है ? ऐसे कई प्रश्न हैं, जिसका समाधान हमें खुद ढूँढ़ना होगा। शास्त्र हमें केवल मार्ग दिखा देती है। (21:24)
तो यहाँ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - ये जो ईश्वर हैं वे क्षर और अक्षर दोनों पुरुषों से अतीत हैं। एक अन्य पुरुष हैं जो उत्तम पुरुष हैं। उस उत्तम पुरुष को हम परमात्मा कहते हैं। ये परमात्मा तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर के सभी को धारण करती है। यह ईश्वर शाश्वत है, अव्यय है। तो भगवान श्री कृष्ण यहाँ कह रहे हैं -'मैं' कैसा हूँ ? 'मैं' मतलब वो परमात्मा। -यस्मात् क्षरम् अतीतः अहम् क्षरात् अपि च उत्तमः। अतः अस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ क्योंकि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम के नाम से प्रसिद्ध हूँ। वेदों में और लोक में भी मुझे पुरुषोत्तम कहा गया है। ये पुरुषोत्तम हमारे जीवन का लक्ष्य है। और ये पुरुषोत्तम हमारा भी स्वरुप है। इस पुरुषोत्तम को अपने आप से अलग मत कीजिये। (23:07) यहीं हम एक गलती कर देते हैं। हमारा आज का जो अस्तित्व है , हमारी आज की जो पहचान है, यह उस पुरुषोत्तम से अलग हो ही नहीं सकता। पुरुषोत्तम ही हमारा मूल आधार है , हमारा अधिष्ठान है। इसलिए वेदों में और लोकों में भी इसको पुरुषोत्तम कहा गया है। जो क्षर और अक्षर दोनों पुरुष के अतीत है। दोनों से अतीत होने से इसको उत्तम पुरुष कहा गया है। इसलिए पन्द्रहवें अध्याय का नाम ही पुरुषोत्तम योग है। कितना सुंदर उस परमपुरुष, परमात्मा का यहाँ पर विवरण है। उसका नाम-रूप, स्थान सीमित नहीं है, और ना ही काल विशिष्ट है। ऐसा जो एकमेवाद्वितीय ईश्वर है , वही यहाँ विद्यमान है। उससे भिन्न द्वितीय कुछ भी विद्यमान नहीं है यहाँ पर। जो हमारा स्वरुप है , जो इस जगत का स्वरुप है। इस जगत को खोजो तो जगत चला जाता है , ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। जीव को खोजो तो जीव चला जाता है , ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। उस पुरुषोत्तम का वर्णन पन्द्रहवें अध्याय में किया गया है। केवल 20 श्लोकों में भगवान कृष्ण हमारे सामने रखते हैं। इसलिए साधु समाज में जब भी भण्डारा होता है , या महत्वपूर्ण कार्य होता है तो इस पन्द्रहवें अध्याय का पाठ होता है। आगे भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।15.19।।
यः माम् एवम् असम्मूढः जानाति पुरुषोत्तमम्।
सः सर्ववित् भजति मां सर्वभावेन भारत ॥
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।15.20।।
इति गुह्यतमं शास्त्रम् इदम् उक्तं मयानघ।
एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च भारत ॥ २० ॥
अब देखिये पिछले दो दिनों का विश्लेषण जो इतना ज्ञान केंद्रित था अब भक्ति में आकर समाप्त हो रहा है। कितनी सुंदर बात है। जो चर्चा ज्ञान-वेदांत केंद्रित था , उसकी परिसमाप्ति परम भक्ति में हो रही है। यह परम भक्ति और परम ज्ञान एक ही चीज है। यथार्थ भक्ति ज्ञानविहीन नहीं हो सकती। (25:50) और यथार्थ अद्वैत ज्ञान जो है , उसकी परिसमाप्ति परमभक्ति में होती है। आपको पता होगा, गीता के सातवें अध्याय, के 16 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने चार प्रकार के भक्तों की बात कही है। (आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।) एक आर्त है, दूसरा जिज्ञासु है, तीसरा अर्थार्थी है - उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है, और चौथा जो ज्ञानी है -और ज्ञानी ही मेरे लिए सबसे प्रिय है। ज्ञानी क्यों सबसे प्रिय है ? इसके भाष्य में शंकराचार्य जी का अतुलनीय भाष्य है, उसमें वे कहते हैं , क्योंकि ज्ञानी की दृष्टि में एक ईश्वर से अतिरिक्त, द्वितीय, अन्य ,भिन्न, कुछ भी नहीं है। इसीलिए ज्ञानी के लिए भक्ति सहज है। - क्योंकि जहाँ पर द्वैत आता है , जहाँ पर ईश्वर अलग है और जगत अलग है। तब उसके लिए अव्यभिचारी -एकनिष्ठ भक्ति सम्भव नहीं है। क्योंकि आपका मन थोड़ी देर के लिए भगवान में रहेगा, बाकि समय जगत में रहेगा। लेकिन 'ज्ञानी' के लिए -तो जगत नाम की कोई चीज ही नहीं है। एकमेवद्वित्तीय ईश्वर से अतिरिक्त कोई दूसरी चीज है ही नहीं भजने के लिए। वहाँ भगवान शंकराचार्यजी कहते हैं - "अन्यस्य भजनीयस्य अदर्शनात् अतः स एकभक्तिः विशिष्यते' ।" -( उसकी दृष्टि में अन्य किसी भजने योग्य वस्तु का अस्तित्व न रहने के कारण वह केवल एक मुझ परमात्मा में ही अनन्य भक्तिवाला होता है। ) किसी ज्ञानी के लिए - भजने के योग्य , दूसरा तो कोई है ही नहीं। एक ईश्वर ही तो है। तो जगत को इस दृष्टि से (सिया-राम मय या ब्रह्ममय) देखने के कारण - उसकी भक्ति अव्यभिचारी होती है। अखण्ड होती है , उसकी भक्ति में कोई व्यभिचार होना ही सम्भव नहीं है। जो सर्वत्र सब स्थान में सब काल में एक ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी महसूस नहीं करता , सब समय वो भक्ति के भाव में रहता है। इस ज्ञान की परिसमाप्ति , इस तत्वज्ञान की पराकाष्ठा परम भक्ति में होती है। (28:14)
आप इन महा ज्ञानियों के जीवन को देखिये , आप भगवान शंकराचार्यजी के जीवन को देखिये। जो इतिहास के सबसे बड़े ज्ञानी माने जाते हैं, जो अद्वैत ज्ञानी माने जाते हैं। वे सबसे बड़े भक्त भी थे। थे की नहीं ? गङ्गाष्टकं , नर्मदा अष्टकं, यमुनाष्टकं , शिवाष्टकं , कृष्णाष्टकं - एक ही परब्रह्म परमेश्वर कितने रूपों में उसकी पूजा होती है। एक रूप विशिष्ट नहीं - ईश्वर को आप एक रूप विशिष्ट मत कीजिये , सीमित मत कीजिये। वो काल विशिष्ट नहीं हो सकता। वो देश-विशिष्ट नहीं हो सकता। ना ही एक रूप विशिष्ट हो सकता है। ईश्वर के कई रूप हैं , आप किसी भी रूप को पकड़ लीजिये। आप उस सत्य तक पहुँच जाओगे। यह वेदांत की भाषा है। और ईश्वर का सबसे सुंदर रूप क्या है ? सुनने में कठिन लगेगा , लेकिन सच्चाई है। वेदांत की दृष्टि से उपनिषद की दृष्टि से -ईश्वर का सबसे सुंदर रूप क्या है ? पता है ? ये, ये , ये जो दृष्टिगोचर जगत (मेला, बारात-सरात) दिखाई दे रहा है , ये ईश्वर का ही अपना सबसे सुंदर रूप है। हमको यह बात समझ में नहीं आ रहा है। इस सामने खड़े ईश्वर को छोड़ करके आप किस ईश्वर को ढूँढ रहे हैं ? ये सामने बैठे, खड़े , काम करते , सभी जीव सगुण ब्रह्म हैं , हमको अभी समझ में नहीं आ रहा है। जगत कहाँ है , ये तो सगुण ब्रह्म है , ये ईश्वर है। जीव -जगत भी ईश्वर का सबसे सुंदर रूप है , पर दीखते हुए भी हमको दिखाई नहीं दे रहा है। और यही मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना है। इस आँख को , इस ज्ञानमयी दृष्टि को - खोलने का कार्य सिर्फ शास्त्र करते हैं , सिर्फ गुरु करते हैं। उपनिषद ही कर सकती है -दूसरा ग्रंथ नहीं कर सकता। यह दृष्टि उपनिषद प्रदत्त दृष्टि है , ईश्वर-प्रदत्त दृष्टि है -यह जगत ईश्वर का ही रूप है। लेकिन यहाँ तक पहुँचने में कठिनाई है। क्योंकि जब तक हम इस अशास्वत जगत से - अनित्य जगत से चिपके हुए हैं (वैराग्य नहीं हुआ ? 3K से अनासक्त जबतक नहीं हुए) , तब तक यह दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) आएगी नहीं। (30:10)
घुमाफिरा के दिखिए कि पन्द्रहवें अध्याय की शुरुआत कहाँ से हुई थी ? इस नश्वर, अनित्य , अशाश्वत विश्वप्रपंच से चिपकिये मत। असंग शस्त्र से -अनासक्ति के शस्त्र से इस जगत के प्रति आपके अंदर जो मोह है , इसको काट कर फेंक दीजिये, इसका छेदन कीजिये , इसका खण्डन कीजिये। जब आप इस नश्वर जगत (3K) से अनासक्त हो जायेंगे, तभी ठीक ठीक -ईश्वरदृष्टि की उत्पत्ति होती है। यह परम ज्ञान ही परम भक्ति के रूप में पुरस्कृत (rewarded) हो रही है। भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - यः माम् एवम् असम्मूढः जानाति पुरुषोत्तमम्।
सः सर्ववित् भजति मां सर्वभावेन भारत ॥
पहले बात हुई थी 'विमूढ़' की। अब बात हो रही है -असम्मूढ़ की। यह व्यक्ति अब मूढ़ नहीं रह गया है, ये विवेकी है , यह वेद वित् है। यह ईश्वर वित् है। यह आत्मवेत्ता है। ये असम्मूढ़ व्यक्ति है। ऐसा जो असम्मूढ़ व्यक्ति है - वह मुझको इस प्रकार जानेगा। शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं - वो मुझको इस प्रकार जानेगा। शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं -ईश्वर कोई कल्पना का विषय नहीं है। आप ईश्वर को इस रूप कल्पना कर सकते हैं , उस रूप में भी कल्पना कर सकते हैं। कल्पना कल्पना ही होता है , लेकिन ईश्वर का जो तात्विक स्वरुप है - वो सिर्फ शास्त्र में ही मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण में कहते हैं - यो माम् एवम् असम्मूढः जानाति पुरुषोत्तमम्। जो मुझे इस प्रकार जानेगा , किस प्रकार जानेगा ? अपनी बुद्धि से किये कल्पना से नहीं , पुरुषोत्तम को इस प्रकार जानेगा -वह सर्व वित् - एक एक शब्द महत्वपूर्ण है। वो सर्व वित् है - जो सर्व वित् हो गया , अब वो मेरी भजन करेगा , भक्ति करेगा। वो सर्ववेत्ता हो गया सर्व ज्ञानी हो गया। सर्वज्ञ हो गया , ज्ञान आ गया वहाँ पर। और जब कोई व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है , वो भक्त भी हो जाता है। 'भजति मां सर्वभावेन भारत' सर्व वित् सर्वभावेन ईश्वरं भजति। क्या सुंदर बात है ?
जो सर्व वेत्ता होता है , वह सर्व काल में सर्व भाव से ईश्वर की ही भजना करेगा। क्योंकि उसके लिए ईश्वर से अतिरिक्त कोई दूसरा है ही नहीं। ईश्वर मंदिर में सीमित नहीं है। ईश्वर किसी एक स्थान में सीमित नहीं है। हमें हमारी दृष्टि का परिवर्तन करना होगा। सही दृष्टिकोण का अवलंबन करना होगा। सही दृष्टि कोण यही होगी - कि जहाँ कोई भी मिलेगा वो सगुण ब्रह्म ही है। ईश्वर का अपना ही रूप है। आप जिसको पति -पत्नी कहते हैं , भाई -बहन कहते हैं , आप जिसको बेटा -बेटी कहते हो , वे सभी ईश्वर के ही विभिन्न रूप हैं। आप उनके लिए जो भी कर रहे हो , आप लौकिक कार्य नहीं कर रहे हो। आप ईश्वर की पूजा करने - के लिए ही भगिनी की बेटी के विवाह में जा रहे हो। हमें अपने दैनंदिन जीवन में इस दृष्टि को लाना ही होगा। ये सिर्फ संन्यासियों के लिए नहीं है। आप भेद मत कीजिए। भगवान कृष्ण ने क्या यह उपदेश संन्यासी को दिया था ? अर्जुन तो गृहस्थ था। संसार में पूरीतरह से लिप्त था। भगवान कृष्ण उसकी ऑंखें खोल रहे हैं। उपनिषद क्या सिर्फ संन्यासियों के लिए है ? ये भेद आपलोग मत कीजिये। आप संन्यासी हैं , हमलोग गृहस्थ है - यह एक दूसरी भ्रान्ति है। विवेक-वैराग्य के अधिकारी तो गृही और संन्यासी दोनों ही हैं। भगवान ने जगत को ब्रह्ममय देखने की क्षमता सब जीवों में दी है। ईश्वर को खुली आँखों से देखने की क्षमता, ईश्वर ने सभी मनुष्यों में दी है , हमलोग इस क्षमता का उपयोग नहीं करते हैं। आप जब इस क्षमता का उपयोग करना शुरू कर दोगे, हर व्यक्ति अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है। इसमें कोई दो मत नहीं है। हो भी नहीं सकता। (35:03)
तो भगवान यहाँ पर कहते हैं -स सर्व वित् ! अब ये सर्व वित् होने का क्या मतलब है? सर्वज्ञ होने का मतलब क्या है ? मुंडक उपनिषद का एक प्रश्न है, उपनिषद ही गोमुख है , उपनिषद ही ऋषियों की वाणी है, वही मूल सिद्धांत है - शिष्य गुरु से प्रश्न करते हैं। 'कस्मिन् भगवो विज्ञाते सर्वं इदं विज्ञातं भवति इति '-हे गुरुदेव ! मुझे उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करा दीजिये, जिस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने पर व्यक्ति सब कुछ जान जाता है? किसको जान लेने से सब कुछ कुछ को जान लिया जाता है ? वो एक वस्तु क्या है ? ईश्वर है। जो व्यक्ति ईश्वर को जान गया वो सब कुछ को जान गया। क्योंकि ईश्वर से भिन्न तो कुछ है ही नहीं। सर्व वित् या सर्वज्ञ होने का मतलब समझ रहे हैं ? सर्वज्ञ होने का मतलब यह नहीं है कि मैं मोबाईल को जान गया , मैं ने हारमोनियम को जान लिया, कम्प्यूटर को जान लिया। ऐसा नहीं है। एक ईश्वर का ज्ञान जब हम प्राप्त करते हैं , और जब हम यह जान लेंगे कि ईश्वर से भिन्न तो यहाँ कुछ भी नहीं है। तब तो फिर सब का ज्ञान हो गया ! व्यक्ति सर्वज्ञ या सर्व वित् कब होगा ? जब उस पुरुषोत्तम को, पर ब्रह्म परमेश्वर को , अपने स्वरुप को, अपनी आत्मा को हम इस प्रकार जानेंगे - जिस प्रकार शास्त्र प्रतिपादित करते हैं। पर ब्रह्म परमेश्वर तो अपना ही स्वरुप है। लेकिन जब भी हम परब्रह्म परमेश्वर की बात करते हैं - हम ऊँगली ऊपर या उधर करते हैं। जब अपनेआप को हम इस प्रकार से जानेंगे , जब हम अपने ईश्वर स्वरुप को हम पहचानेंगे तो उसका फल क्या होगा ? उस एक वस्तु (सच्चिदानन्द) से भिन्न तो यहाँ कुछ भी नहीं है , कोई व्यक्ति जब यह जानेगा तब वह व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है। वो व्यक्ति अपने-आप को सबके अंदर पाता है , सब को अपने अंदर पाता है। वो स्वयं को सबके अंदर पाता है , अंदर-बाहर अलग अलग कुछ नहीं होता - एक तत्व मात्र ही यहाँ पर है। अब वह सर्व वित् हुआ कि नहीं ? एक ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने से व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है। सर्व वित् हो जाता है। सर्व वित् हो जाने के बाद वह व्यक्ति क्या करेगा ? बहुत से लोग पूछते हैं , जब कोई व्यक्ति मुक्त हो गया तो वह व्यक्ति अब क्या करेगा ? (38:34) भगवत दर्शन होगया , मुक्ति प्राप्त हो गया , तो उसके बाद व्यक्ति क्या करेगा ? उसके बाद वो एक ही काम करेगा - सः सर्ववित् भजति मां सर्वभावेन भारत / उसका अब यहाँ एक ही काम है , जब वह जानता है कि ईश्वर से भिन्न यहाँ कुछ भी नहीं है , ईश्वर के अतिरिक्त उसको अब कुछ भी दिखाई नहीं देता। वो ईश्वर की भजन करता रहता है। परम् ज्ञान की परिसमाप्ति परम् भक्ति में हो जाती है। और परम भक्ति ज्ञान के बगैर सम्भव नहीं है। भक्ति कुछ काल्पनिक भावुकता, मनुष्य-केंद्रित भावुकता नहीं है। सिर्फ रोना -धोना कमजोरी है। स्वामीजी बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। मानवीय संवेदनाएं भक्ति के रूप में दिखती हैं। सही भक्ति कुछ और है। भक्त तो सर्वशक्तिमान होता है। (39:43) उस भक्त के अंदर कोई कमजोरी नहीं होती , वो बलशाली होता है। क्योंकि वह ह्रदय में बैठे एक ईश्वर को जानता है। वो जब ईश्वर को जानेगा , तो सतत अखंड भाव से भक्त बन जाता है। उसकी भक्ति में कोई व्यभिचार नहीं होता।
अंतिम श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -इति गुह्यतमं शास्त्रम् इदम् उक्तं मयानघ। एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च भारत। जब व्यक्ति यहाँ तक पहुँच जाता है , तो वह कृत-कृत्य हो जाता है, परिपूर्ण हो जाता है। इस परिपूर्णता को प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य है। अगर हम मनुष्य शरीर में जन्म लेने के पश्चात् हमने ये काम नहीं किया , तो कितना बड़ा दुर्भाग्य है। कृत-कृत्यता , परिपूर्णता , परितृप्ति कहाँ है? क्या इस नश्वर जगत के विषय-भोगों (3K) में है ? क्या इस नश्वर जगत के विषयों का सेवन करके कोई भी व्यक्ति परितृप्त हुआ है ? यह सब प्रश्न अपनेआप से कर लेना चाहिए। इसका उत्तर भीतर से आना चाहिए। विवेक होगा तभी वैराग्य की उत्पत्ति होगी। और वैराग्य की उत्पत्ति के बगैर भगवत तत्व का ज्ञान नहीं होता। भगवत तत्व ज्ञान के बिना कृत-कृत्यता का लाभ नहीं होता। वैराग्य के बगैर आध्यात्मिक जीवन नहीं होता , ये सिद्धान्त है। इसमें गृहस्थ या संन्यासी का कोई भेद नहीं है। वैराग्य ही अध्यात्म जीवन का स्तम्भ है।
हम श्रीरामकृष्ण के जीवन में क्या देखते हैं ? संसार के प्रति (3K) के प्रति थोड़ी सी भी आसक्ति कहीं दिखाई देती है आपको ? रंच मात्र भी आसक्ति ? ऐसा त्याग ! माँ कहती है - श्री रामकृष्ण का जीवन क्या है ? त्याग ही तो है। बाकि सब कहानियाँ हैं। श्रीरामकृष्ण का जीवन -बस एक ही चीज सत्य है, ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ' और मिथ्या है उसके प्रति वैराग्य। त्याग - दीखता है कि नहीं ? (घोड़ा -गाड़ी , धोती-कोट , जूता है पर - पूर्ण अनासक्ति है। ) सत्य वस्तु के प्रति प्रगाढ़ प्रेम और जो मिथ्या है , उसके प्रति प्रगाढ़ वैराग्य। दीखता है कि नहीं ? शंकराचार्यजी का जो अतुलनीय महावाक्य है - 'ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या ' उसके मूर्त रूप हैं श्री रामकृष्ण ! यही उनका जीवन है। और दूसरी पंक्ति में शंकराचार्यजी कहते हैं - जीव क्या है ? ब्रह्म ही है। जगत क्या है ? ब्रह्म ही है। ये ज्ञानमयी दृष्टि है। यहाँ एक ईश्वर तत्व से भिन्न कुछ है ही नहीं। हम अज्ञान में (अविद्या में ?) जीव और जगत को देखते हैं। लेकिन जो एक विवेकी है , जो एक आत्मवेत्ता है , जो ईश्वर को अपने अनुभव से जनता है , जो ईश्वर को इस प्रकार से अनुभव करता है , जिस प्रकार से शास्त्र इस सिद्धांत को प्रतिपादित करती है - उस व्यक्ति के लिए ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है।
भगवान अंतिम श्लोक में कहते है -इति गुह्यतमं शास्त्रम् इदम् उक्तं मयानघ। भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन, इस प्रकार मैंने तुझे सबसे गुह्यतमं, श्रेष्ठतम (superlative) परम् रहस्य को मैंने बता दिया। ये बात (कि जीव-जगत-ईश्वर सब पुरुषोत्तम ही हैं) 'Supreme secret'- सर्वोच्च रहस्य है कि नहीं, सोच के देखिये। ये secret (रहस्य -पहेली-गुप्तता) नहीं है क्या ? ये गुप्त ही तो है; कितने लोगों को पता है ? जो बात सबको पता है, वो secret है क्या? हम secret किसको कहते हैं ? जो कि किसी को पता नहीं है। और ये कितना बड़ा सत्य है ? आप राह चलने वाले किसी को पूछिए, उसको पता है क्या कि - एक पुरुषोत्तम ही -जीव,जगत, ईश्वर, आत्मा सब बन गए हैं ? राह चलने वाले किसी व्यक्ति को पूछिए उसकी दृष्टि क्या है ? यह दृष्टि है क्या ? ये सबसे गुह्यतमं शास्त्रं ! 'इदम् उक्तं मयानघ।' हे अर्जुन - हे अनघ, जिसके अंदर कोई दोष नहीं है !! निष्पाप है अर्जुन ऐसा उल्लेख करते हैं। हे अर्जुन मैंने तुम्हें सबसे गुह्यतमं चीज बताई है। अब यह देखिये कि भगवान श्रीकृष्ण ने यह रहस्य अर्जुन को बताया है, कि आपको बताया है ? (44:30) आपको बताया है ! है न ? अर्जुन तो निमित्त मात्र है। अर्जुन को निमित्त बनाकरके भगवान कृष्ण हम सबको, हम सबके लिए यह 'गुह्यतमं-शास्त्र' छोड़ कर के गए हैं ! गीता अतुलनीय शास्त्र है, गीता की कोई तुलना कभी नहीं हो सकती है। इसको आप लिख कर रख लीजिये। एक उपनिषद है और एक भगवत गीता है - इसकी तुलना कोई भी ग्रन्थ नहीं कर सकता। मैं (स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज) हमेशा कहते हैं - Go back to the Upanishads ! Go back to the Bhagwan Krishna ! उपनिषदों की ओर लौटें ! भगवान कृष्ण की ओर लौटें ! गीता के ऐसा जो 'Teaching' है , शिक्षण या ट्रेनिंग है- वो कहीं भी नहीं है। भगवान कृष्ण की वाणी अमर वाणी है। तो भगवान यह कहते हैं कि यह सबसे गुह्यतमं शास्त्रं है! 'एतद् बुद्ध्वा' जो व्यक्ति जीव , जगत और ईश्वर को इस प्रकार जानेगा, वो व्यक्ति 'बुद्धिमान् स्यात्' वही व्यक्ति बुद्धिमान होता है, और क्या होता है ? कृतकृत्यः च भारत ' वो व्यक्ति कृत-कृत्य हो जायेगा। मतलब परिपूर्णता को लाभ करेगा। (45:29)
ॐ तत्सत इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तम योगो नाम पंचदशो अध्यायः।
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में पुरुषोत्तम-योग नाम का पंद्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥ आधा घंटा का समय बचा है, मैं दो चीजें कर सकता हूँ। इस पूरे अध्याय को 'summarise' करूँ क्या ? पूरे पन्द्रहवें अध्याय का सार प्रस्तुत करूँ क्या ? हमने अब तक जो भी पढ़ा उसको 10 -15 मिनट में एक बार summarise कर लेते हैं; उसके बाद अगर कोई प्रश्न करना हो तो आप लोग प्रश्न कर सकते हो। (46:09)
अब श्लोकों की तरफ न जाकर के बहुत सरल भाषा में। इस अध्याय का शुरुआत बहुत महत्व पूर्ण है। भगवान शंकराचार्यजी कहते हैं कि इस पन्द्रहवें अध्याय की शुरुआत कैसे होती है ? इस पूरे विश्वप्रपंच की तुलना एक अश्वत वृक्ष के साथ की गयी है। 'अश्वत' शब्द ही बहुत महत्वपूर्ण है। अश्वत का अर्थ है - वह चीज जो शाश्वत नहीं हो ! जो वस्तु प्रतिक्षण परिवर्तित हो रही है - जिसके भीतर परिवर्तन होता है, उसको हमलोग अशाश्वत कहते हैं या अश्वत, अनित्य कहते हैं। और शाश्वत वह वस्तु है जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। शाश्वत वो चीज है जिसके अंदर कभी भी कोई चीज कभी परिवर्तित नहीं होती है। (47:17)
मैं आपसे एक प्रश्न करता हूँ। जब से हमलोग इसी शरीर में जन्में हैं , तब से लेकर आज तक -आप सभी लोग ; यहाँ बहुत से व्यस्क लोग भी हैं। कोई 50 , कोई 60 , कोई 70 साल के जितने भी हैं, हमने अपने पूरे जीवन में आज तक क्या यहाँ पर किसी नित्य वस्तु या शाश्वत वस्तु का अनुभव किया है ? बहुत बड़ा प्रश्न है ! हम सतत क्या अनुभव कर रहे हैं ? सब अशाश्वत वस्तु अनित्य वस्तु को ही अनुभव कर रहे हैं। और अशाश्वत वस्तु से (स्थूल-शरीर से?) हमलोग चिपके हुए हैं या नहीं ? कैसे पागलों की तरह हमलोग चिपके हुए हैं ? और यही हमारी विडंबना है। (उपहास की वस्तु mockery) है। लेकिन हमको ये समझ में नहीं आता है। यह जो अशाश्वत वस्तुओं से हमलोग चिपक करके जो बैठे हैं , यही हमारे सारे दुःखों का कारण है।(48:00) और यह चिपकना जो है, उसी कारण भगवान (श्रीरामकृष्ण) में हमारा मन नहीं लगता। ये कोई मजाक की बात नहीं है -बहुत serious बात है। सभी भक्तों के अंदर यह एक सार्वभौमिक समस्या है। [अविद्या -अस्मिता (स्वयं को M/F स्थूल शरीर मानना) -राग-द्वेष -अभिनिवेश] ये सार्वभौमिक समस्या है - Universal है ! यह किसी एक व्यक्ति केन्द्रित नहीं है। सबकी समस्या है , मेरी भी समस्या है। क्या समस्या है ? देखिये न महाराज , भगवान में मन नहीं लग रहा है। ध्यान करने बैठो तो मन यहाँ -वहाँ पर दौड़ रहा है। उस समय ही सारी चिंतायें आती हैं। लेकिन और सब जगह में तो मन लग रहा है , पर भगवान में ही नहीं लग रहा है। कैसे लगेगा ? उसका मूल कारण यही है कि हमारा मन इस अशाश्वत जगत से चिपका हुआ है-आसक्त है।Attachment is a disease and the only cure for this disease is detachment. आसक्ति एक बीमारी है और इस बीमारी का एक मात्र इलाज है - अनासक्ति ! और ये अनासक्ति आती कहाँ से है ? विवेक से ही आती है। जब तक आपको विवेक नहीं होगा , जब तक आपको शाश्वत क्या है ? अशाश्वत क्या है ? इसके बीच में का जो पार्थक्य है , जब तक इसका आपको ज्ञान नहीं होगा। तब तक आप इस आसक्ति रूपी बीमारी से ऊपर उठ नहीं पाओगे।
जब तक आप जो अशाश्वत है , उसीको आप शाश्वत मानकर बैठे हुए हो, तब तक आप इससे अनासक्त होंगे कैसे ? प्रश्न ये है , हम जो अशाश्वत है , नश्वर है , उसी को हम सत्य समझकर के ही बैठे हैं - हैं कि नहीं ? आप देखिये अपने जीवन को साठ साल ,सत्तर साल कैसे बिताये हैं ? आपके मन में कभी शंका आयी कि ये सत्य है या नहीं ? हमने तो इस पर कभी सोचा ही नहीं। और जो असत्य (देहमन) है उसी को सत्य समझकर के हम चिपकते हैं। उसका फल क्या होता है ? नित्य -निरंतर दुःख का एक प्रवाह चलता रहता है, ये प्रवाह तब तक खत्म नहीं होगा जबतक हम इसके मूल में जाकरके इस आसक्ति रूपी बीमारी , को हम खत्म न करें।
गीता के पन्द्रहवें अध्याय के सार की अगर बात करूँ - तो सार यही है - चिपकना सख्त मना है। इसको आप अपने घर के प्रमुख दीवारों पर लिखकर टाँग दीजिये ? नहीं अपने ह्रदय में अंकित कर लीजिये। नहीं तो वो दीवार पर लिखा है - और जीवन में भोग ही चल रहा है। आप अपने ह्रदय में इसको अंकित कर लीजिये - सबके साथ रहिये , सबकी सेवा कीजिये। सबकी देखभाल कीजिये -लेकिन जान लीजिये कि यहाँ पर कोई भी अपना नहीं है !(50:36) अपना मेरा बोलने के लिए कोई भी नहीं है -यहाँ पर। ये 'मैं और मेरा' रूपी जो बीमारी है , इससे ऊपर उठना पड़ेगा। तभी आध्यात्मिक जीवन में हम प्रगति कर पाएंगे। ये मैं क्या है ? मेरा क्या है ? दोनों प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़िये आप। मैं को ढूँढ़ोगे तो -आप गायब हो जाओगे , ईश्वर प्रकट हो जायेगा। और 'मेरा ' को भी ढूंढिये तो जिसको आप मेरा कह रहे हो , वो भी गायब हो जायेगा -ईश्वर प्रकट हो जायेगा।
'मैं और मेरा ' का गलत अर्थ लगाकरके हमलोग यहाँ पर कष्ट में हैं , बहुत बड़ी दुविधा में हैं। तो यहाँ पर भगवान कृष्ण शुरुआत में ही कहते हैं - ये जो अशाश्वत जगत है। दृष्ट-नष्ट स्वभाव है। ये हर समय हमारे साथ छल कर रही है। ये कूट है , इससे चिपकिये मत। इसको काटिये। काटोगे कैसे ? असंग शस्त्र से। पेड़ को अगर काटना हो तो शस्त्र की आवश्यकता है। और वहां कोई भी शस्त्र नहीं चलेगा। शस्त्र कैसा होना चाहिए - ? शस्त्र पैना होना चाहिए। तीक्ष्ण होना चाहिए। कुल्हाड़ी पजा हुआ होना चाहिए। इसीलिए असंगता रूपी शस्त्र को पैना बनाना पड़ेगा। उसको पैना बनाएंगे कैसे ? उस असंगता रूपी शस्त्र को , विवेक रूपी पत्थर पर घिसकर पैना बनाइये और उस शस्त्र से इस मोह को समूल काटिये , इसका छेदन कीजिये। उसके बाद भगवान कहते हैं -
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।।
ईश्वर (या सत्य) की असली खोज तो तब से शुरू होगी, जब तक आप संसार से चिपके हो , ईश्वर की खोज तो शुरू ही नहीं हुई। जब तक आप पूरब से चिपके हो , तब तक आप पश्चिम की ओर बढ़ोगे कैसे ? कई भक्त लोग कहते हैं - 30-35- 40 साल हो गए , मंत्र दीक्षा लिए हुए। मैंने अमुक महाराज से मंत्र दीक्षा लिया। बड़े बड़े साधुओं का नाम लेते हैं। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। मूल दोष क्या है ? आप बुरा मत मानिये , ये सबकी भलाई के लिए है। मूल दोष क्या है ? आप संसार से चिपके हुए हो। 3k में चिपक कर के आप कुछ भी कर लीजिये, प्रगति नहीं होगी। आप तो वहाँ -3K में चिपके हुए हो ?
इसका श्रीरामकृष्ण सुंदर उदाहरण देते हैं -जो नौका किनारे के खूँटे से बँधा हुआ है , उसको आप कितना भी खेते जाइये -वो नौका 1 इंच भी आगे बढ़ने वाला नहीं है। आप कितना भी मंत्र को घुमाइए , प्रार्थना करते रहिये। आप जब तक यहाँ चिपके हुए हो , यहाँ से अनासक्त हुए बगैर आगे बढ़ोगे कैसे ?
भगवान कृष्ण बहुत सुंदर क्रम बता रहे हैं। इस अशाश्वत संसार से पहले अनासक्त हो जाइये , ततः पदं तत् परिमार्गितव्यं - का मतलब क्या है ? (विवेक-वैराग्य होने के बाद, उस ईश्वर , आत्मा या इष्टदेव की खोज शुरू होती है, जिसे देखकर देवकुलिश अँधा हो गया था ?) यस्मिन् गताः न निवर्तन्ति भूयः। तम् एव च आद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥ उसके पश्चात् - यानि अनासक्ति होने के पश्चात् - यथार्थ ईश्वर की खोज शुरू होती है, यथार्थ भक्ति की उत्पत्ति वहाँ से होती है। यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति वहाँ से होती है। उसके पहले तो हम 3K की आसक्ति में, गोल-गोल घूम रहे होते हैं। जीवन खत्म हो जाता है , बुढ़ापा आ जाता है। एक दिन मृत्यु आ जाती है। पुनः जन्म शुरू हो जाता है। "पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।" ये चक्र चलता ही रहता है।
हम इसी प्रतीक्षा में बैठे हैं कि ईश्वर आयेंगे। ये दूसरी बीमारी है। सुनने में थोड़ा कठोर लगेगा , लेकिन ये सत्य है। ईश्वर क्या प्रतीक्षा का विषय है ? Is God something to wait for? ईश्वर ही तो है - हमको समझ में नहीं आ रहा है। (मिथ्या अहं के कारण , मैं और मेरा में आसक्ति के कारण हमको समझ में नहीं आ रहा है।)(55 :22) हम प्रतीक्षा कर रहे हैं कि ईश्वर अंतिम काल में आएंगे ? ठीक है आस्था की बात है। आप विश्वास कर सकते हो। लेकिन उपनिषद कहेंगे - भाई क्यों प्रतीक्षा में बैठे हो ? ये आपके सामने क्या है ? आप दृष्टि को बदलिए , सही दृष्टि लाइए। तब देखिये ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है क्या यहाँ ? इसलिए हमारी साधना की दिशा - दृष्टिकोण में परिवर्तन होना चाहिए।
तो कृष्ण वहां कहते हैं - ततः पदं तत् परिमार्गितव्यं यस्मिन् गताः न निवर्तन्ति भूयः। जिसको प्राप्त करने के पश्चात् व्यक्ति फिर दुबारा इस संसार में प्रविष्ट नहीं होता। मिथ्या संसार से अनासक्त हो गए, अब ईश्वर की खोज शुरू हो गयी। ईश्वर की खोज करेंगे कैसे ? ईश्वर की शरण में जाकर के। क्या सुंदर प्रक्रिया है ईश्वर की शरण में जाने के बाद क्या करना है ? 'तम् एव च आद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥ 'तम् एव' उस आदि पुरुष (आत्मा , इष्टदेव या ईश्वर) के शरण में ही व्यक्ति को शरणागत होना होगा , जहाँ से इस सारी सृष्टि की उत्पत्ति होती है। ये शरणागति प्रधान साधन है। जब तक व्यक्ति अपने मिथ्या अहंकार का समर्पण नहीं करता ईश्वर के चरणों में - प्रगति नहीं होती। समर्पण -शरणागति ये बहुत जरुरी है। प्रधान साधन शरणागति के साथ कुछ गौण साधन भी करना है। जो कि बहुत महत्वपूर्ण है - क्या क्या है ? निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै
र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।
आपको अपना मान -अभिमान छोड़ना होगा , मोह छोड़ना होगा। कामनायेँ छोड़नी होंगी। 3k में आसक्ति को छोड़ना होगा। और अध्यात्मनित्या ' मैं सतत ईश्वर को ही चाहता हूँ। ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहता हूँ। ऐसी मानसिकता बनाकर के रखनी होगी। जब कोई व्यक्ति ऐसा करेगा - गछन्ति अमूढ़ा - पदम् अव्ययं। तब ये जीव जो है उस परम् तत्व तक पहुँचेगा। पहले के पाँच श्लोकों में भगवान ने पूरी साधना बता दी है - भक्त को क्या साधना करनी चाहिए , बहुत सुंदर ढंग से बताया है। जगत से असंगता और ईश्वर के प्रति प्रेम। श्रीरामकृष्ण कहते हैं , जगत से विराग और ईश्वर के प्रति अनुराग। एक ही बात है - संसार के 3K से विराग हुए बगैर , ईश्वर के प्रति अनुराग सम्भव नहीं है।
अब हम जो जीव हैं - परमेश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध क्या है ? (58:28) यह पूरा अध्याय , गीता और उपनिषद ये हमें ईश्वर सम्बन्ध बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जीव को जानना चाहिए कि हम ईश्वर से कैसे सम्बन्धित हैं ? अभेद रूप से सम्बंधित है। यह एक परस्पर विरोधी प्रकार की भाषा है। हम अभेद रूप से सम्बंधित हैं ! जब अभेद है , तब फिर सम्बन्ध कहाँ है ? जो अभिन्न हो उसमें फिर सम्बन्ध की बात ही नहीं आती। फिर भी हमें बोलचाल की भाषा में बोलना पड़ता है। कि हमें सम्बन्ध बनाना है। जहाँ पर सम्बन्ध पहले से ही बना है , वहां पर हम फिर सम्बन्ध बनाने की बात कर रहे हैं , क्योंकि ईश्वर के साथ सम्बन्ध के विषय में हमें ज्ञान नहीं है। समस्या यह है। ऐसा नहीं है कि कोई नया सम्बन्ध हमलोग बना रहे हैं। आप तो अभी भी सम्बन्धित हो। आपको ये पता नहीं है। ये मनुष्य की दुविधा है। ऐसा नहीं है कि हम अभी ईश्वर से सम्बन्धित नहीं हैं। हम ईश्वर स्वरुप ही हैं। पर हमें पता नहीं है। पता नहीं होने के कारण हमलोग , इतना दीन -हीन और लाचार हो जाते हैं। थोड़ा सा भी जब ज्ञान होना शुरू हो जाता है, तब देखिये कैसे व्यक्ति का व्यक्तित्व ही बदल जायेगा , बदल जाता है। उस व्यक्ति के जीवन में , उस व्यक्ति के व्यक्तित्व में , उसका अद्भुत परिणाम दिखाई देता है। उसका प्रतिफलन अतिसुंदर - शोक , मोह निवृत्ति। यह उपनिषद की भाषा है। किस बात का शोक ? हम किसके लिए शोक कर रहे हैं ? उस व्यक्ति के जीवन में तो शोक का स्थान ही नहीं होगा। (1:00:02) जीवन में ये रोना-धोना क्या है ? जब तक हम सत्य को नहीं जानते हैं, तब तक हम ऐसे ही व्यथित होकर के जीवन को बिताते हैं। लेकिन जब सत्य का दर्शन होता है , वहाँ शोक -मोह का कोई स्थान नहीं है। ये बात भगवान श्रीकृष्ण सरल भाषा में यहाँ कह रहे हैं। तो इस जीव का परमेश्वर के साथ सम्बन्ध कैसा है ?
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।15.7।।
ये जीव क्या है ? मेरा ही अंश है। तो भगवान शंकराचार्य इसकी व्याख्या बहुत सुंदर ढंग से करते हैं। अंश होने का मतलब क्या है ? अंश और अंशी दो अलग चीजें हैं क्या ? जिसका अंश है उसको हम अंशी कहते हैं। एक पूर्ण वस्तु है , उसका एक अंश है। यह दो अलग अलग चीजें हैं क्या ? अंश और अंशी दो नहीं हैं - एक ही हैं। कैसे ? जैसे कि एक बिम्ब है और प्रतिबिम्ब है। भगवान शंकराचार्य जी कह रहे हैं - जैसे कि आप आईने के सामने खड़े हों , तो आईने में आप क्या देख रहे हो ? ये प्रतिबिम्ब क्या बिम्ब से अलग है ? प्रतिबिम्ब का बिम्ब से अलग कोई अस्तित्व है क्या ? आप ही हो , बिम्ब ही हो। ईश्वर ही हो। ईश्वर वह बिम्ब है जो यहाँ पर जीव के रूप में प्रतिबिम्बित हो रहा है। ये जीव जो है प्रतिबिम्ब है। बिम्ब से अलग उसका कोई अस्तित्व है ही नहीं। शंकराचार्य जी कह रहे हैं - वो अनुभव सिद्ध बात है। ये कोई सिद्धांत नहीं है - हम जैसे साधना करते जायेंगे , तो ये अनुभवगम्य होगा। आज जो बुद्धिगम्य है वो साक्षात् अनुभव गम्य होगा। तो ईश्वर और जीव का सम्बन्ध इस प्रकार का है। एक प्रतिबिम्ब है , दूसरा बिम्ब है। प्रतिबिम्ब दीखता है। वास्तविक रूप में नहीं है। वास्तविक रूप में बिम्ब ही है। ईश्वर ही वह बिम्ब है , जिसके इतने सारे प्रतिबिम्ब हैं। (God is the image that has so many reflections.) अब ईश्वर को कहाँ ढूंढोगे मुझे बताओ ? ईश्वर क्या मृत्यु काल में आने वाला है ? तुम्हारे सामने इतने रूपों में ईश्वर ही प्रतिबिम्बित हैं। यही उपनिषद की दृष्टि है। तो जीव और ईश्वर का सम्बन्ध इस प्रकार से है। लेकिन जब तक इस सम्बन्ध को अपने अनुभव से नहीं जानेंगे , इस सम्बन्ध के विषय में हमारे अंदर ज्ञान नहीं होगा , तब-तक भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - ये जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहेगा। ये जन्म-मृत्यु का चक्र चलता ही रहेगा। तो ये पुनर्जन्म होता कैसे है? (1:02:39) उसका चर्चा हो चुका है। कुछ लोग जीवित अवस्था में हों, या मरण काल में हों , या इस संसार की चीजों का सेवन करते समय भी। कुछ लोग सत्य को देख पाते हैं , कुछ लोग देख नहीं पाते हैं। कुछ लोग जीवित काल में , कुछ लोग मरणकाल में , कुछ लोग विषयों का उपभोग करते समय भी , सत्य को क्यों देख पाते हैं , और कुछ लोग सत्य को क्यों नहीं देख पाते हैं? (1:03:06) उसका एक ही कारण है - मन की , अंतःकरण की शुद्धि। (चित्तशुद्धि ?) अन्तःकरण अशुद्ध होगा तो हम सत्य को देख नहीं पाते हैं। अगर दर्पण में मैल हो , आपके सामने जो आईना हो। आईना के ऊपर अगर मैल हो , तो क्या बिम्ब वहाँ पर प्रतिबिम्बित होगा ? हमारा अंतःकरण यदि मैला है , यह जो हृदय रूपी यह अंतःकरण रूपी जो दर्पण है , यह मैला है , इसीलिए बिम्ब यहाँ पर ठीक से प्रतिबिंबित नहीं हो रहा है। इसीलिए हमको सत्य दिखाई नहीं दे रहा है। सत्य है - लेकिन दिखाई नहीं देता , क्यों ? अन्तःकरण अशुद्ध है। और किसी का अन्तःकरण अशुद्ध कैसे होता है ? कामना से। सांसारिक विषयों (3K) के प्रति कामना। जब तक सांसारिक विषयों के प्रति कामना हो , तब तक अन्तःकरण शुद्ध नहीं हो सकता। और जिसका अन्तःकरण शुद्ध है , उसको तो सबकुछ स्पष्ट है। जिसके अन्तःकरण में कोई जगतिक वासना नहीं हो उसके लिए ईश्वर जो है प्रत्यक्ष है , साक्षात्कार है। फिर ईश्वर का सर्वव्यापी और सर्वगत रूप कैसा है ? (1:04:20)
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।15.12।।
जो तेज सूर्य में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और अग्नि में है, उस तेज को तुम मेरा ही जानो।
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।
15.15।।
मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।
क्या सुंदर बात है ? मैं ही सबों के हृदयों में हूँ। मैं ही इतने सारे रूपों में प्रतिबिंबित हूँ। कहाँ ईश्वर को ढूँढना है ? देखिये ये शास्त्र की दृष्टि है। कोई रूप विशिष्ट नहीं , कोई स्थान विशिष्ट नहीं , कोई काल विशिष्ट नहीं। सर्वत्र सब समय , ईश्वर (आत्मा या इष्टदेव) ही विद्यमान है। इस बात को अपने ह्रदय में एकदम अंकित करना चाहिये। ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं था। आज भी नहीं है। भविष्य में भी नहीं होगा। यहाँ पर भूतकाल हो, अभी वर्तमानकाल हो , या भविष्यत्काल हो। यहाँ पर विद्यमान सिर्फ एक ही वस्तु है। वो है भगवत वस्तु-सच्चिदानन्द। इसीलिए भगवान श्रीरामकृष्ण कहते हैं- भगवान ही एकमात्र वस्तु हैं , बाकि सब अवस्तु है ! सभी अवतार घुमा-फिराकर एक ही बात कहते हैं। ईश्वर से अतिरिक्त कोई वस्तु यहाँ है ही नहीं। वास्तविक रूप में एक ही वस्तु यहाँ पर विद्यमान है , और वो ईश्वर है। (1:05:31) ये ईश्वर का सर्वव्यापित्व है। और ईश्वर का जो सर्वातीत रूप जो है , वहां भगवान कृष्ण कहते है - एक क्षर पुरुष है , एक अक्षर पुरुष है , और इस क्षर और अक्षर के अतीत एक पुरुषोत्तम है। क्षर पुरुष वो है जो भौतिक जगत , अशाश्वत जगत -ब्रह्माण्ड हम देख रहे हैं इसको क्षर पुरुष कहते हैं। और इसका जो मूल कारण जो है -कूट है , माया है। उसको अक्षर कहते हैं। और इस माया से भी अतीत -मायाधीश जो हैं - वो पुरुषोत्तम हैं। जो इस सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच में प्रविष्ट होकरके सभी को धारित करते हैं। सभी को धारण कर रहे हैं। देखिये ये भी एक दृष्टि है। हमको कौन धारण कर रहे हैं ? इस शरीर को कौन धारित कर रहा है ? हमारे अंदर बोलने की क्षमता कहाँ से आ रही है ? आपके अंदर कार्य करने की क्षमता कहाँ से आ रही है ? आप सभी के मन में विचार चल रहे हैं। इन विचारों को चलने के पीछे की जो सामर्थ्य क्षमता किसकी है ? क्या आपकी अपनी है ? आप कुछ भी नहीं विचार कर सकते हो। आप कुछ स्मरण भी नहीं कर पाओगे। आपको किसी चीज का ज्ञान नहीं होगा। अगर इन सब चीजों के पीछे ईश्वर विद्यमान नहीं हों ?
देखिये इस दृष्टि का परिवर्तन हमारे जीवन में होना अनिवार्य है। तभी आध्यात्मिक जीवन है। आध्यात्मिक जीवन का तात्पर्य क्या ? शास्त्र के अनुसार पूरे दृष्टि का परिवर्तन। तभी हमारा आध्यात्मिक जीवन सही मार्ग पर सही दिशा में जायेगा। अंत में भगवान कहते हैं - जो इस प्रकार मुझे जानता है , वो सर्व वित् हो जाता है। और जो सर्व वित् होगा , वो सर्व भाव से सब समय मेरी ही भजना करेगा। वहां पर परम् भक्ति आ जाती है। वो व्यक्ति सर्वत्र एक ईश्वर को ही देखेगा। आँख खोल कर के ईश्वर को देखेगा। वो सबको नमन करता रहता है। वो पेड़ को नमन करेगा , पत्थर को नमन करेगा। गंगा को नमन करेगा , सूर्य को नमन करेगा। क्योंकि यहाँ पर न तो पत्थर है , ना तो गंगा है -एक ईश्वर मात्र है। ये परम भक्ति का लक्षण है , जो ज्ञान आधारित है। अंत में भगवान अर्जुन से कहते हैं - कि देख अर्जुन मैंने तुमको सबसे बड़ा secret दे दिया। कि नहीं ? बताइये ? इससे बढ़कर मूल्य वान और कुछ है क्या ? हमने जो इन तीन दिनों में जो सीखा इसका आप क्या मोल लगाओगे ? इस ज्ञान का क्या मोल लगाओगे ? अनमोल है , इससे बढ़कर कोई ज्ञान है ? जो इस ज्ञान में प्रतिष्ठित होता है , वो कृत-कृत्य हो जाता है। बोलो भगवान श्रीकृष्ण की जय ! भगवान श्रीरामकृष्ण देव की जय ! ॐ शांति हरि ॐ तत्सत ! (1:08:47)
अब आप कुछ प्रश्न पूछ सकते हो। ५ मिनट समय है हमारे पास।
एक सर्वगत है और सर्वव्यापी है और एक सर्वातीत है। आध्यात्मिक साधना की कठिनाई - मिथ्या जगत से अनासक्त हो गए, वैराग्य हो गया पर वस्तु प्राप्ति नहीं हुई ? उस बीच की अवस्था में सम्बल क्या है ? में श्रद्धा ही उसका बल होता है - शास्त्र के प्रति श्रद्धा , गुरु वाक्य के प्रति श्रद्धा। वो श्रद्धा के बल पर आगे बढ़ता है। इस मध्य काल में जो अवस्था है , जहाँ पर व्यक्ति संसार से विमुख भी हो गया है। लेकिन ईश्वर को अभी प्राप्त नहीं किया है। उस समय साधक गुरु प्रदत्त ज्ञान में श्रद्धा करके उस श्रद्धा के बल पर आगे बढ़ता है। इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - श्रद्धावान लभते ज्ञानं ! यदि गीता के प्रति श्रद्धा नहीं हो तो आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाओगे। श्रद्धा ही जबरदस्त स्तम्भ है साधक के जीवन में। जो उसको अवगति पर्यन्त ले जाएगी। गुरु ने जो कहा वो सत्य है, शास्त्र ने जो कहा वो सत्य है। ऐसा गुरु और शास्त्र वाक्य पर जो सत्यत्व बुद्धि है , वही उसका बल बनता है। उसी गुरुवाक्य और उपनिषद वाक्य में श्रद्धा बल के सहारे वो जीवन में आगे बढ़ता है।
अनासक्ति न तो भोग से , न तो दुःख से , अनासक्ति आनी चाहिए विवेक से। जब आप यह जान जाओगे कि यह जगत परिवर्तनशील है , प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव है। या सबकुछ तो चला जा रहा है। तो यह विवेक है - सभी लोग जो दुखी है , वो अनासक्त है क्या ? सारा जीवन तो दुःख ही है न ? कितना मार खाये हमलोग ? कितना रोना धोना चलता रहा , हमलोग अनासक्त हुए क्या ? भोग की तो बात ही छोड़ दीजिये। जो विषय भोगों में डूबता है -वो तो और भी डूबता है। हम इतना मार चोट खाने के बाद भी अनासक्त हुए क्या ? क्योंकि विवेक नहीं है। विवेक ही अनासक्ति का मूल आधार है। इसलिए विवेक-चूड़ामणि है , विवेक से बढ़कर कुछ नहीं है। विवेक से ही आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत होतीं है। जब विवेक होगा तब वैराग्य होगा। जब वैराग्य होगा तब भगवत तत्व ज्ञान की उत्पत्ति होगी। जब भगवत तत्वज्ञान की उत्पत्ति होगी तब परिपूर्णता का लाभ होगा। यही उसका क्रम है।
भक्ति की व्याख्या : (1:13:19) हमारे पुराणों में प्रह्लाद की कहानी अपने सुनी होगी ? प्रह्लाद ईश्वर से क्या प्रार्थाना करते थे ? हे भगवान ! जिस प्रकार संसार में अत्यंत ही विषय लोग,भोगी लोग हैं , उनका विषयों के प्रति जैसा आकर्षण होता है। देखिये बड़ा सुंदर शब्द है , देखिये संसार में कोई भी संसारी व्यक्ति है। ये किसी एक व्यक्ति के बारे में कोई जजमेंट नहीं दे रहे हैं। हम वास्तविकता की बात कहते हैं। कुछ लोग इतना अधिक भोग में डूबे हुए हैं। सब समय विषयों के पीछे ही दौड़ते रहते हैं। उनमें विषयों के प्रति कितना प्रगाढ़ आकर्षण है। प्रह्लाद बोल रहे हैं -हे प्रभु ! मेरा उसी प्रकार का आकर्षण हो , सिर्फ आपके प्रति। अब ये भक्ति है। इसमें कोई मानवीय भावुकता जैसी बात नहीं है। ये अलग ही चीज है , इसको परम् प्रेम कहते हैं।
नारद भक्ति सूत्र
अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ।
अब भक्ति कि व्याख्या करते हैं ॥१॥
सा त्वस्मिन परप्रेमरूपा ।
वह तो ईश्वर के लिये परम् प्रेम रूप है ॥२॥
अमृतस्वरूपा च ।
अमृत स्वरूप है ॥३॥
भक्ति पर हमलोग बात कर सकते हैं , इसकी व्याख्या नहीं कर सकते। भक्ति शब्द से प्रकट नहीं होती। न ही ज्ञान शब्द से प्रकट होता है। हम सिर्फ इसका संकेत दे सकते दे सकते हैं। मानवीय भावुकता में थोड़ा आँसू बहा लिया , ये भक्ति नहीं है। ये कमजोरी है। स्वामीजी कहेंगे स्नायु रोग हैं। घर में जाकर घी खाइये , नाड़ी को पुष्ट कीजिये। असली भक्ति में कोई कमजोरी नहीं है। भक्त बहुत बहादुर व्यक्ति होता है।
यल्लब्धवा पुमान सिध्दो भवति अमृतो भवति तृप्तो भवति ।
जिसे पा कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है ॥४॥
यत्प्राप्य न किन्चित वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ।
जिसे प्राप्त कर, वह न कभी और कुछ चाहता है, न ही शोक करता है, न घृणा करता है, न ही किसी चिज में रमता है, वह अन्य विषयों कि तरफ उत्साह रहित हो जाता है ॥५॥
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ।
जिसे जान कर वो उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है, और अपने आप में ही सन्तुष्ट रहता है ॥६॥
मीराबाई का और कृष्ण का सम्बन्ध जानते हो बेटा ? (1:15:46) नहीं ? तुम जरा जानो , जिसका नाम लिए हो न, वो भक्ति की रानी हैं। महारानी हैं। उसकी भक्ति को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसके लिए कृष्ण अलग हैं ? नहीं ..... कृष्ण उसके सांसों में बसते हैं। रामरतन धन पायो ! क्या कहें ? हम क्या बताएं 'भक्ति' बिल्कुल ही अलग चीज है। भक्ति वो अलग नहीं है, ज्ञान ही है ! मीरा की भक्ति को ज्ञान से अलग कहना गलत है। लेकिन उसके सारे भाव, जोश (emotions- उमंग, आवेग, राग) उसका नेतृत्व , लक्ष्य या दिशा (direction) वो बिल्कुल अलग है। वो जो मानवीय स्तर पर हमारी 'superficial'-बाहरी, दिखावटी या सतही जो संवेदनायें होती हैं; जो भावुकतायें होती हैं - मीरा की भक्ति वैसी भक्ति नहीं है। तुमने जो प्रश्न किया वो सही बात है। देखिये अभी तो हमारे अंदर वो अभेद दृष्टि नहीं है। अभी हमारे अंदर भेद दृष्टि है।
लेकिन गीता के पन्द्रहवें अध्याय में गुह्यतम रहस्य को जान लेने के बाद, हमें यह समझ में आएगा कि हम किस दिशा में जा रहे हैं, और हमें किस दिशा में जाना है? यहाँ पर (3K-M/F) में ही अटक कर नहीं रहना है। मैं द्वैत दृष्टि से सीधा अद्वैत दृष्टि में प्रतिष्ठित होने की बात नहीं कह रहा हूँ। दृष्टि-कोण में यह परिवर्तन , ये अवस्था एक दिन में प्राप्त होने वाली बात नहीं है। अभी तो आपके लिए भगवान अलग ही है। (1:16:27) चलो मैं अभी 'Ground Level' जमीनी स्तर पर आता हूँ। [ठीक है चलो मैं भी अभी "ईश्वर, जीव और जगत" को तुम्हारी द्वैत दृष्टि से अलग -अलग देखने की अवस्था में उतर आता हूँ।] आज हमारी जो मानसिक दशा है, वो क्या है? मैं फलाना, मैं -मैं गीता पॉल हूँ ठाकुर वहाँ बैठे हैं ! और ये सामने जगत है। [अर्थात मैं 'फलाना' सिंह , अग्रवाल, पाण्डे हूँ ! मैं यहाँ बैठा / बैठी हूँ/ और ठाकुर वहाँ (मंदिर या दीवाल पर) बैठे हैं? और ये सामने हाथी-महावत वाला जगत है ?] अभी तो हमारी दृष्टि बिल्कुल ऐसी ही है। तो ठीक है, मंदिर में जरूर जाइये। साष्टांग प्रणाम 'prostration' करते रहिये। धीरे- धीरे- धीरे आगे बढ़ते रहिये , लेकिन जाने की दिशा क्या है ? या आज जो पन्द्रहवाँ अध्याय पढ़ा है न आपने ? उसी ओर हमें प्रगतिशील होना चाहिए। यहीं पर अटके/चिपके नहीं रहना है। हमने इतना पढ़ा क्यों ? इतना पाठचक्र , इतना कैम्प, इतना अनुवाद किया क्यों ? ऐसा नहीं है कि पढ़ने के बाद अभी तुरंत गीता अभी पढ़ा और तुरंत ही अभेद दर्शन हो जायेगा। ये अद्वैत ज्ञान तो क्रम से होता है , धीरे धीरे होता है। आज आपके अंदर द्वैत बुद्धि ही है। आपको लगता है कि मैं ईश्वर से अलग हूँ , और ईश्वर से ये जगत (हाथी -महावत) अलग है ?
ठीक है कोई बात नहीं , यहाँ से ही शुरू कीजिये। लेकिन आपके जाने की दिशा क्या है ? क्या वह दिशा है 'आत्मविश्वास में प्रतिष्ठित' हो जाने की दिशा है ? जीव से मनुष्य भाव में पहुँचने की दिशा ये है। इस प्रकार शास्त्र और गुरु के निर्देशानुसार साधन-भजन कीजिये। सर्व जीवों तथा जगत में एक अविभक्त ईश्वर-तत्व सम्पूर्ण सृष्टि में एक अविभक्त ईश्वर-तत्व (सच्चिदानन्द) को खुली आँखों से देखने का प्रयास कीजिये। वो भी अपने-आप में एक साधना है। ऐसा करते- करते, ये ईश्वर के साथ के ये जो हमारी दूरी है; वो दूरी कम होती जायेगी। और एक दिन ऐसा समय आयेगा बेटा, जब तू ये जानेगा कि ईश्वर से व्यतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है। ये होना ही है। 'This is the process ' यह अद्वैत भाव में पहुँचने की प्रक्रिया है।
ये ज्ञान भी ठाकुर ,माँ और स्वामीजी की कृपा से ही होता है। उनकी कृपा से त्रिगुण से गुणातीत हो, या गुणसहित हो , ये सब हमलोग खेलते हैं। ईश्वर -ईश्वर है। वास्तव में -actually, हम लोग ब्रह्म को कहते हैं , ये सगुण है , वो निर्गुण है। ये मानवीय बुद्धि की परिकल्पना है। ब्रह्म स्वयं तो कभी नहीं कहता कि मैं अभी सगुण हूँ , बाद में निर्गुण हूँ। ब्रह्म तो ब्रह्म है ! ईश्वर तो ईश्वर है। यह मनुष्य की दृष्टि है। हम अपने सुविधा के लिए कहते हैं। नहीं तो आप इस जीव -जगत-और ईश्वर को explain कैसे करोगे ? तो समझने में सुविधा के लिए हम कहते हैं कि -ब्रह्म सगुण है। explain करने के लिए ये भाव है। लेकिन ब्रह्म क्या खुद अपने बारे में ऐसा सोचता है क्या ? कि देखो मैं अभी सगुण हूँ , अब मैं निर्गुण बन गया ? तो ब्रह्म तो ब्रह्म ही है। भगवान शंकराचार्य जी यही बात कहते हैं।
ये सब मानवीय बात है , हम अपनी कल्पनाओं को ईश्वर पर थोप रहे हैं। वो ठीक है - समझने में सुविधा के लिए थोपना पड़ता है। क्यों कि कुछ चीजों को पकड़- पकड़ कर के ही, तो हम आगे बढ़ सकेंगे। तो हम एक सगुण रूप को एक रूप विशिष्ट को , ईश्वर को हम एक स्थान -विशिष्ट बना देते हैं। स्थान-विशिष्ट बना देते हैं। लेकिन बात ये है कि आप वहाँ पर - किसी रूप विशिष्ट पर ? अटके मत रहिये। आगे बढिये।
भगवान श्रीरामकृष्ण सब समय कहते हैं - आगे बढ़ो! आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! रुको मत ! अच्छा आज द्वैत है , आगे बढ़ो ! विशिष्ट अद्वैत आ जायेगा , वहाँ पहुँचो। फिर आगे बढ़ो ! अंतिम दृष्टि जो होगी वो यह होगी कि एक ईश्वर से व्यतिरिक्त कुछ भी नहीं है। तो यहाँ पर , द्वैत और विशिष्ट अद्वैत में कोई समस्या नहीं है , होने दो। अच्छी बात है। आप द्वैत दृष्टि से साधना कीजिये , लेकिन आपके जीवन की जो प्रगति की जो दिशा होगी , वो दिशा क्या होगी ? उपनिषद और भगवत गीता में वो दिशा-निर्देश प्राप्त होता है। धीरे -धीरे - धीरे हमें आगे बढ़ना होगा। ईश्वर को ऑंखें खोलकर सर्वत्र देखने का अभ्यास करना होगा। यह अभ्यास की बात है। टाइम हो गया। तो आगे क्या करना है ? यह हमारे organiser व्यवस्थापक लोग बतायेंगे।
"अक्षर शब्द" (1:20:36) जो है , ये दोनों अर्थ में है। आपने बिल्कुल सही कहा है। परब्रह्म को भी अक्षर ही कहा गया है। लेकिन यहाँ पर (गीता पन्द्रहवें अध्यायमें) अक्षर का मतलब है माया। इस लोक में -ये context है - इस (मृत्यु लोक या पृथ्वी लोक ) के सम्बन्ध में अक्षर का मतलब है -माया ! यहाँ पर जो हमलोग पुरुषोत्तम की जो व्याख्या है , यहाँ पर उसमें भगवान कृष्ण कह रहे हैं। तीन पुरुष हैं। तो वास्तविकता में क्या तीन पुरुष हैं-क्या? एक ही पुरुष है। वो एक ही पुरुष क्षर रूप में भी दिख रहा है और अक्षर रूप में भी दिख रहा है। वो पुरुषोत्तम है ! एक ही पुरुषोत्तम जो है अपनी ही माया शक्ति के माध्यम से वह क्षर और अक्षर रूप में दिखाई दे रहा है।
>>आध्यात्मिक जीवन में प्रगति का मापदण्ड क्या है ?
कुछ बातों को मैं बहुत bluntly- रुखाई से , बिना किसी बनावट के , या दो टूक लब्जों में कह दूंगा- (1:21:28) कोई कहेगा मैंने सपने में ठाकुर को ये रूप में देखा , उस रूप में देखा। तो उससे आपका क्या हुआ ? बहुत बड़ा प्रश्न है। आध्यात्मिक जीवन में प्रगति का जो मापदण्ड है , प्रगति की जो लक्षण है, वो क्या है ? ये रूप देखना , वो रूप देखना , हमलोग यहाँ रूपों को ही तो देख रहे हैं। इस रूप -दर्शन से आपके अज्ञान का नाश हुआ क्या ? हम तो वहीं पर हैं। तो ये जो विभिन्न रूपों का दर्शन होता है। स्वप्न जो ये होता है , वो होता है। ये सिर्फ इतना संकेत देती है कि आपका अन्तःकरण शुद्ध हो रहा है। बस इससे अतिरिक्त और कुछ नहीं है , ज्यादा महत्व importance उसको मत दीजिये।
अध्यात्म जीवन में प्रगति का मापदण्ड है- (disinterestedness) 3K में निष्कामता, अनासक्ति, वैराग्य ! आप जितना निष्काम हो रहे हो , उतना आप ठीक ठीक आध्यात्मिक पथ पर आपकी प्रगति हो रही है। हृदय के अंदर की वासनायें -कामनायें जितनी कम हो रही हैं,उतनी आप ठीक ठीक प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहे हो। एक ही मापदण्ड है निष्कामता। इसीलिए माँ श्रीश्री सारदा देवी कहती हैं न , ईश्वर से प्रार्थना करना तो क्या प्रार्थना करना ? Mother, make me free from lust. माँ मुझे निर्वासना बना दो। माँ मुझे वासना रहित बना दो ! जितनी वासना कम होती है , वही ठीक ठीक आध्यात्मिक जीवन की प्रगति का मापदण्ड है। सपने में ये देखा -वो देखा तो -उससे आपका क्या हुआ ? मन तो पूरा वासनाओं से ही भरा हुआ है ? उससे क्या होता है ?
>> सब में भगवान है तो आतंकवादी कौन है ? आतंकवादी में भी भगवान है। आतंकवादी भी भगवान का ही रूप है। (1:23:39) आपको विश्वास नहीं होगा। वही प्रभु परमेश्वर उस आतंकवादी के रूप में खेल रहे हैं , तो क्या करोगे उसको ? यही दुविधा थी अर्जुन की। भ्रम में पड़ गया था। ये कौरव क्या हैं ? ईश्वर के ही अपने रूप हैं। पाण्डव क्या हैं ? ईश्वर के अपने रूप हैं , एक अधर्म को represent कर रहा है , दूसरा धर्म को represent कर रहा है। प्रभु परमेश्वर की इस माया सृष्टि में -वही प्रभु परमेश्वर दो रूप में अभिव्यक्त होते हैं। एक धर्म के रूप में अभिव्यक्त होते हैं , दूसरी अधर्म के रूप में अभिव्यक्त होती है। तो व्यावहारिक स्तर पर हमारे लिए कर्तव्य क्या है ?
सभी ईश्वर का रूप है। साँप भी ईश्वर का ही रूप है। गाय भी ईश्वर का रूप है। आप गाय को जाकर सहला सकते हो। साँप को please सहलाइये मत। आप शेर को जाकर सहलाने का प्रयास करोगे , आप उसका भोजन बन जाओगे। वो ईश्वर उसी रूप में है। तो जैसा जिसका स्वभाव होगा उसको उसी प्रकार से हैंडल करना होगा। ये उसका practical application है हमारे जीवन में। वही एक प्रभु परमेश्वर अपने मायाशक्ति के द्वारा , दो रूपों में यहाँ पर अभिव्यक्त हो रहे हैं। एक धर्म के रूप में एक अधर्म के रूप में। तो व्यावहारिक स्तर पर हमारा कर्तव्य क्या है ? हम धर्म का पक्ष लें और अधर्म का सामना करें। तो सब ईश्वर है। यही बात भगवान श्रीरामकृष्ण एक बहुत सुंदर कहानी के माध्यम से बताते हैं। एक महावत नारायण है , और एक हाथी नारायण है। सब नारायण ही हैं लेकिन , जिसका जैसा स्वभाव है , वैसा उसको हैण्डल करना पड़ता है। तो आपके सामने कोई देशद्रोही , अधर्मी आएगा , तो उसको आपो उसी प्रकार से हैण्डल करना होगा। यह अतिसुंदर बात भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।8.7।।
हे अर्जुन ! मेरा स्मरण कर , मेरी दृष्टि का पालन कर। और तू अपने कर्तव्य का पालन कर। the greatest teaching ever -अब तक की सबसे महान शिक्षा ! भगवान श्रीकृष्ण की कोई तुलना ही नहीं है। उपनिषद का व्यावहारिक अनुप्रयोग Practical application of Upanishad- यही है। उपनिषद की दृष्टि यही है। व्यावहारिक स्तर पर हर समय कठिनाई तो होगी। आपके जीवन में भी , आप समाज में देखेंगे। ऐसे विद्रोही -अधर्मी -पाखण्डी - ढोंगी जो मनुष्य रूप में पशु विचरण कर रहे हैं - ऐसे लोगों को देखोगे तो क्या करोगे ? वो भी नारायण का ही रूप है। लेकिन उसको उस प्रकार से हैण्डल करना होगा। वहां कोई कमजोरी नहीं आनी चाहिए। बस यहीं रुक जाते हैं। बस ये ईश्वर की माया है -ऐसा समझ लीजिये आप। प्रभु परमेश्वर का यहाँ पर माया का खेल चल रहा है। विगत दो दिनों में इस अध्यात्म विद्या पर चर्चा से आपको क्या मिला पता नहीं , लेकिन मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो गया। मेरा अन्तःकरण बहुत शुद्ध हो गया, इतना पक्का है। (1:27:32)
महाराज के चरणों में मेरा प्रणाम। अब मैं श्रद्ध्येय स्वामी ध्रुवेशानन्द जी महाराज , (अध्यक्ष, रामकृष्ण कुटीर) से अनुरोध करूँगा कि वे एक संक्षिप्त धन्यवाद भाषण दें। 'ॐ नमो भगवते श्रीरामकृष्णये नमः' पिछले तीन दिनों से , नहीं ढाई दिनों से हमलोगों ने गीता के पन्द्रहवें अध्याय पर 5 कक्षाएं सुनी। ठाकुर , माँ के बारे में सुना। स्वामी राघवेंद्रानन्द जी महाराज, स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज , और स्वामी सुखानंदजी महाराज , आज शाम में सुनेगे स्वामी आत्मश्रद्धानन्द जी महाराज को जो कानपूर से आये हैं।
अभी ये जो अब जो थैंक्स गिविंग धन्यवाद देना है, कौन किसको थैंक्स देगा ? जैसा शुद्धिदानन्द जी महाराज ने बताया है - " सभी पुरुषोत्तम हैं और सभी मायाधीन हैं।" हमारा लक्ष्य है मायाधीश ! मतलब हमलोगों का लक्ष्य होगा , सभी प्रकार के माया (3K -आसक्ति) के पार हो जाना (1:28:52) चार वेदों का सारांश - पंचम वेद है गीता में है। और गीता का सारांश मिलता है पुरुषोत्तम योग में। इसके ऊपर महाराज ने पांच भाषण दिए। गीता में श्रीकृष्ण बार -बार बोले हैं - अहं, अहं। बहुत से लोगों का प्रश्न होता है , भगवान तो मैं मैं कहते हैं , हमलोग भी वैसा ही कहे क्या ? पर श्रीरामकृष्ण अपने जीवन में कभी आमार -आमार नहीं बोले हैं। वे बोलते हैं - एखाने - मतलब बोले हैं - यहाँ पर !
श्री कृष्ण जो बोले हैं अहं , अहं इसका उदाहरण हम श्रीरामकृष्ण के जीवन में देखते हैं। भगवान कृष्ण को यमुना के पार होना था , वे किनारे पर आये हैं । गोपियाँ भी हैं , उनको भी उस पार जाना है। वे कृष्ण भगवान से उपाय पूछती हैं। श्रीकृष्ण बोले मुझे भूख लगी है कुछ खिलाओगी क्या? उन लोग खीर , मखन, दही बहुत खिलाया। एक-एक हाड़ी , हांड़ी खा गए। गोपी लोग बोली अब उस पार जाने की व्यवस्था क्या हुआ ? कृष्ण बोले, 'हे यमुने ' अगर मैं ने आज कुछ भी नहीं खाया , तो आप दो भाग हो जाओ , मुझे बीच से जाने का मार्ग देदो। हो गया। गोपियाँ बोलने लगीं , ये कैसे हुआ ? इतना खाया , फिर कहते हैं , मैंने कुछ नहीं खाया। यह मैं और श्रीकृष्ण का मैं एक है।
स्वामी सारदानंद जी महाराज के जीवन में भी हम यही देखते हैं। रामकृष्ण मठ मिशन का नियम है, जो मठ मिशन के अध्यक्ष होंगे वे केवल संन्यास और ब्रह्मचर्य दीक्षा देंगे। सारदानंद जी महाराज पहले सेक्रेटरी थे , GS का पोस्ट नहीं हुआ था , तो जयराम बाटी में जब मंदिर का उद्घाटन हुआ। उस समय कुछ लोगों को साधु बनना था , कुछ को ब्रह्मचर्य दीक्षा दिए , और कुछ को संन्यास दीक्षा भी दिए। उसके बाद जब साधु लोग एकत्रित हुए एक स्वामी जी ने शरत महाराज से पूछा -महाराज अपने तो नियम बनाया कि केवल जो प्रेसिडेन्ट होंगे वही संन्यास और ब्रह्मचर्य दीक्षा दे पाएंगे। तो आप तो प्रेसिडेंट नहीं हैं , आप कैसे संन्यास दीक्षा दिए ? तब शरत महाराज बोले मैंने किसी को संन्यास नहीं दिया। मैंने किसी को ब्रह्मचर्य दीक्षा नहीं दिया। यह जो मैं है यह वही मैं है। ब्रह्म है।
तो महाराज का यह जो बताया मायातीत और मायाधीश, हम लोगों को मायाधीश बनना है। महाराज ने गीता के ऊपर अद्वैत भाव को स्पष्ट किया है। अद्वैत आश्रम मायावती में ठाकुर का फोटो नहीं है। पूजा वहां नहीं होती है। उन्होंने बताया ठाकुर अद्वैतवादी थे। आप उनके सभी शिष्य भी अद्वैतवादी हो। मायावती हमलोग जाते हैं , बहुत लोग पूछते हैं वहां मंदिर कहा है? अरे वहां सभी मंदिर है। अरे वहां का सभी कुछ मंदिर ही है , वहाँ का एक एक वृक्ष , एक एक बिल्डिंग, जीवजंतु सभी ईश्वर हैं, सभी रामकृष्णदेव हैं। इसी अद्वैत भाव से महाराज ने गीता की क्याख्या की है। महाराज वहाँ पर हैं , वे हमारे अनुरोध से आये हैं। यह पांच क्लास लिए है महाराज से विनती बाद में भी आये और ,क्लास आगे बढे। आप सबके तरफ मैं महाराज को धन्यवाद हूँ। सबको धन्यवाद।
['मूछों वाले बच्चे' (mustache baby) गाते हैं - "वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी। " ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो। भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन। वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी। संत निश्चलदास ने अपने 'विचारसागर' में स्पष्टतापूर्वक कहा है-
जो ब्रह्मविद वही ब्रह्म है, ताको वाणी वेद।
संस्कृत और भाषा में, करत भरम का छेद।।
'जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेद है, और उससे अज्ञान का अन्धकार दूर हट जायेगा, चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या किसी लोक-भाषा में (मगही-भोजपुरी-मैथली -पंजाबी या गुजराती में) हो ! इस प्रकार द्वैतवादी मतानुसार ईश्वर (श्री ठाकुर) का साक्षात्कार करना, या ब्रह्म की उपलब्धि करना। अथवा अद्वैतवादी मतानुसार -"ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाना " -यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है। और उसके अन्य उपदेश (कर्मकाण्ड) इसी लक्ष्य की ओर प्रगति के लिए सोपान मात्र हैं। भाष्यकार भगवान शंकराचार्य की महिमा यही है कि उनकी विलक्षण प्रतिभा (ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य) ने महर्षि व्यास के भावों की ऐसी अपूर्व व्याख्या हमारे समक्ष प्रकट की। ( "मद्रास-अभिनन्दन का लिखित उत्तर- 'नामरहित, सीमारहित, सनातन धर्म' के पक्ष में !" महामण्डल ब्लॉग -15 मई , 2017) और एक प्रश्न ? (1:16:08)
[अगर कोई "एथेंस का सत्यार्थी" (सुदर्शन द्वारा लिखित एक कहानी का पात्र) देवकुलिश (अर्थात ईश्वरकोटि-जीवकोटि नहीं ?) Who am I? Or what am I? मैं कौन हूँ ? या मैं क्या हूँ ? सत्य को खोजने का अदम्य साहस रखते हुए अध्य्वसाय पूर्वक खोजता ही रहता है तो इसी सत्य का अविष्कार होता है कि - प्रतिबिम्ब जो है , वो बिम्ब है। जीव ईश्वर से भिन्न कुछ भी नहीं है! बिम्ब श्रीकृष्ण (आत्मा , इष्टदेव, माँ काली छिन्नमस्ता, मातृशक्ति है ) ही है , प्रतिबिम्ब भी -अर्जुन नहीं है !
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरन्ये त्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
# नारायणी तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो, कल्याणदायिनी शिवा हो, सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। हे माँ दुर्गा आपके श्री चरणों में नमस्कार है।
# अचानक संकट उपस्थित होने पर लगातार मानसिक जाप करें। शीघ्र ही समस्या का निदान हो जाएगा। उपरोक्त मंत्र जप करने मात्र से ही समस्याओं पर विजय मिलती है। आवश्यकता है श्रद्धा और विश्वास की।
(#माँ दुर्गा/काली /छिन्नमस्ता देवी दस महाविद्याओं में से एक हैं, जिन्हें प्रचंड चंडिका भी कहा जाता है। उनकी प्रमुख पहचान उनके अपने ही कटे हुए सिर को हाथ में धारण करना और अपने धड़ से निकलती तीन रक्त की धाराओं को पीना है। यह स्वरूप आत्म-बलिदान, त्याग और परोपकार का प्रतीक है। )
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