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Tuesday, October 28, 2025

" जागृत अवस्था भी एक सपना है, इसको पहचानना ही उस सपने का टूटना है ! "स्वामी शुद्धिदानंद द्वारा भगवद गीता का पन्द्रहवाँ अध्याय : पुरूषोत्तम योग (सत्र-1)

" जागृत अवस्था भी एक सपना है, इसको पहचानना ही उस सपने का टूटना है ! 


Purushottama Yoga of Bhagavad Gita by Swami Shuddhidananda (Session-1)

 पन्द्रहवें अध्याय का महत्व या भूमिका

पन्द्रहवें अध्याय का मुख्य विषय क्या है ? इस अध्याय का मुख्य विषय है 'भगवत तत्व' का ज्ञान। भगवान या ईश्वर का तात्विक ज्ञान। देखिये जब भी हम ईश्वर की बात करते हैं , हमारे मन में कई प्रकार की कल्पनायें आती हैं। हर व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार भगवान के विभिन्न रूपों की कल्पना करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन भगवान का एक तात्विक स्वरुप है -जो हमारी कल्पना के परे है। आप ईश्वर को इस रूप (देवी रूप) में देखिये या उस रूप (देव रूप) में देखिये , ये ठीक है। लेकिन ईश्वर तात्त्विक दृष्टि से जैसा है, वैसा उसका ज्ञान या समझ प्रदान करना ही गीता के इस पन्द्रहवें अध्याय का मुख्य उद्देश्य है। गीता पर लिखित पन्द्रहवें अध्याय के भाष्य में भगवान शंकराचार्यजी में कहते हैं -इस 15 वें अध्याय का उद्देश्य है 'भगवत तत्व ज्ञानं', और उस ज्ञान का फल है -मोक्ष! [भगवत तत्व ज्ञानं मोक्ष फलं।] ईश्वर तत्व का ज्ञान होने से जीव मुक्ति को प्राप्त करता है, मोक्ष को प्राप्त करता है। सम्पूर्ण भगवत गीता को शास्त्र कहा गया है , मोक्ष शास्त्र कहा गया है। 

     और 'शास्त्र' शब्द का अर्थ क्या होता है ? गीता -स्वाध्याय का आरम्भ करने से पहले अध्यात्म विज्ञान के कुछ टेक्निकल शब्दों का अर्थ समझ लेना अच्छा होगा। हमें ज्ञान कैसे होता है? हम अपनी पाँच इन्द्रियों के द्वारा जगत की वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इन आँखों से मैं आपको देख रहा हूँ आप मुझे देख रहे हैं। इस विश्वप्रपंच को हम आँखों से देख रहे हैं। यह एक प्रकार का ज्ञान है , जिसको हमलोग इन्द्रिय ज्ञान कहते हैं। ये पूरा विश्वप्रपंच इन्द्रियगोचर है। लेकिन यहाँ पर हम जिस तात्विक ज्ञान की बात कर रहे हैं -वह ईश्वर का तात्विक ज्ञान इन्द्रियगोचर नहीं है। तो शास्त्र उसको कहते हैं , जो हमें उस अतीन्द्रिय सत्ता का ज्ञान प्रदान करती है। शास्त्र की परिभाषा है -'अज्ञात ज्ञापकं शास्त्रम्।'  भगवान शंकराचार्यजी एक दूसरे परिभाषा में कहते हैं - "प्रत्यक्ष अनुमानाभ्यां अनवगत इष्ट-प्राप्ति -अनिष्ट-परिहारयोः अलौकिकं उपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः।" अर्थात् इष्ट वस्तु की प्राप्ति और अनिष्ट वस्तु के त्याग करने का अलौकिक उपाय जो ग्रन्थ सिखलाता है, उसको वेद कहते हैं। अर्थात जिस तत्व को हम प्रत्यक्ष और अनुमान से भी समझ नहीं सकते, प्रत्यक्ष यानि जिस वस्तु को हम इन्द्रियों से समझ नहीं सकते; या अनुमान के द्वारा भी समझ नहीं सकते, उस वस्तु का जो हमें ज्ञान करा दे उसको हम शास्त्र या वेद (शास्त्र) कहते हैं। [ और 'वेद सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व उत्पन्न हुए', इससे यह भी नितान्त स्पष्ट हो जाता है कि परमात्मा का मनुष्य जाति पर कितना अनुग्रह है। मनुष्य शब्द की व्युत्पत्ति यह है कि 'मननात् मनुष्यः' अर्थात् जो मनन कर सकता है उसे मनुष्य कहते हैं। यद्यपि मनुष्य विचारवान् होने से तथा उन्नत अन्तःकरण या विवेक-युक्त होने से श्रवण-मनन -निदिध्यासन करने का सामर्थ्य रखता है, तथापि यदि उसे किसी निर्जन वन में रख दिया जाय जहां मृत्यु-पर्यन्त उसका किसी भी  'मनुष्य'  (विवेकी-ब्रह्म सत्य-जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मैव का बोध रखने वाले सद्गुरु से ) से सम्बन्ध न हो तो वह केवल अपनी बुद्धि के आधार पर कभी भी उन्नति न कर सकेगा और सर्वथा ज्ञान-शून्य रहेगा। यदि परमात्मा सृष्टि के प्रारम्भ में वेद का ज्ञान न देता तो अभी तक सब मनुष्य पशु के समान बने रहते। क्या हमलोगों को कोई क-ख -ग़ -घ लिखना बोलना नहीं सिखाता तो हम पढ़-लिख सकते थे ?]

तो गीता भी एक शास्त्र है, और जो हमें उस अतीन्द्रिय वस्तु, जो मन और इन्द्रियों के परे जो भगवत तत्व है, उस भगवत तत्त्व का ज्ञान करा देने वाला जो साधन है, उस साधन को शास्त्र (या गुरु) कहते हैं। आप सभी लोग जानते हैं कि गीता में 18 अध्याय हैं, और अपने आप में यह एक मोक्ष शास्त्र है। यह हमें उस अविनाशी तत्व का ज्ञान करा देती है , जिस ज्ञान के प्राप्ति के फलस्वरूप व्यक्ति मुक्त हो जाता है, मोक्ष को प्राप्त करता है। शास्त्र की एक अन्य परिभाषा यह भी है कि किसी 'एक विषय' के बारे में जो सब कुछ बता देती है, उसको शास्त्र कहते हैं। और गीता को हमलोग मोक्ष शास्त्र कहते हैं। तो मोक्ष के सम्बन्ध में जो कुछ भी हमें जानना हो , जो हमें यह बता देती हो , उसे शास्त्र कहते हैं। अब शंकराचार्यजी कहते हैं कि गीता का यह पन्द्रहवाँ अध्याय अपने आप में ही एक शास्त्र है। इस एक अध्याय के अन्दर मोक्ष से सम्बन्धित और भगवत तत्त्व-ज्ञान से सम्बन्धित सब कुछ बताया गया है। यह जो गीता के पन्द्रहवें अध्याय को मोक्षशास्त्र का दर्जा दिया गया है , वह गीता के अन्य किसी भी अध्याय को नहीं दिया गया है। तो 15 वे अध्याय की यह विशेषता है कि यह अपनेआप में ही एक शास्त्र है। और यह बात सिर्फ शंकरा-चार्यजी ही नहीं कह रहे हैं , स्वयं श्रीकृष्ण भी पन्द्रहवें अध्याय के अंतिम श्लोक में यही बात कह रहे हैं। 

इति गुह्यतमम् शास्त्रम् इदम् उक्तम् मया अनघ।

               एतत्  बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च  भारत।।15.20।।

 हे अर्जुन ! मेरे द्वारा तुम्हारे सम्मुख यह  'गुह्यतम शास्त्र' बताया गया। पन्द्रवें अध्याय को भगवान श्रीकृष्ण भी शास्त्र कह रहे हैं। ये दर्जा भगवतगीता के किसी भी अध्याय को नहीं दिया गया है। और जो शास्त्र मेंने तुम्हें बतलाया वो कैसा शास्त्र है ? यह गुह्यतम है - यानि यह ऐसा शास्त्र है-जो अत्यंत गुप्त है जो अत्यंत गंभीर बात है, जो सब किसी को पता नहीं है। कुछ लोग ही इसको जानते हैं। इसको यदि अंग्रेजी में कहें तो "secret or that which is extremely profound, that which is not known to everyone." क्योंकि जो बात सबको पता हो जाएगी फिर वो 'secret' या गुप्त नहीं होगी। तो इस सृष्टि के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न हैं - जिसमें से यह जो भगवत-तत्त्व ज्ञान को या ईश्वर के तात्त्विक स्वरुप को कितने लोग जानते हैं ? तो ईश्वर का ज्ञान ही वह ज्ञान है, जो इस संसार में सबसे रहस्यपूर्ण है, जो सबसे गुह्यतमं ज्ञान है। It is a greatest mystery it is not known to anyone ! ईश्वर क्या है ? कौन है ? इस बारे में हम सभी लोग भ्रमित हैं। हम ईश्वर के बारे में बात कर सकते हैं , भगवान के बारे में बात कर सकते हैं, विभिन्न रूपों में उसकी कल्पना कर सकते हैं। लेकिन ईश्वर जैसा है , वैसा उसका ज्ञान किसको पता है ? कल्पना अपनी जगह है, हर व्यक्ति अपनी समझ के हिसाब से उसकी कल्पना कर सकता है। लेकिन ईश्वर जैसा है, वैसा तात्त्विक ज्ञान किसके पास है ? किसीके पास नहीं है। इसलिए यह गुह्यतमं है, अर्थात यह सबसे गुह्यतं है, ऐसा एक ज्ञान है। तो कृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं -देखो मैंने तुम्हें गुह्यतं शास्त्र बता दिया है ! और ये ज्ञान कैसा है ? एतत्  बुद्ध्वा" -इस ज्ञान को जो जानेगा -वह व्यक्ति क्या होगा ? वह ठीक-ठीक बुद्धिमान-स्यात् होगा, और क्या होगा? जो ईश्वर को तत्त्वतः जान जायेगा, उसका जीवन कृतार्थ हो जायेगा, वह कृतकृत्य भी हो जायेगा। ये कृत्य -कृर्त्य बड़ा सुन्दर शब्द है - कृतः कृत्य ! (कृत्-कृत्य) का अर्थ है -मनुष्य शरीर को प्राप्त करके जो हमारे लिए करणीय है, जो करणीय है -वो है कृत्य। कृत -मतलब कर दिया। मनुष्य शरीर में जन्म लेने के बाद जो सबसे प्राथमिक करणीय चीज है - वो क्या है ? भगवत-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना ! 'अपने बनाने वाले सृष्टिकर्ता को जान लेना।' और जो यह करणीय प्राथमिक कार्य कर लेता है वह 'कृत्-कृत्य' हो जाता है। वह कृतार्थ हो जाता है। (कृतार्थ - अर्थात वह व्यक्ति जिसने अपना काम पूरा कर लिया हो और वह संतुष्ट हो। यह एक ऐसा व्यक्ति है जिसने अपने उद्देश्य को पूरा कर लिया है और सफल हो गया है।) तो भगवान श्रीकृष्ण हमें यह बतलाते हैं कि यह जो पन्द्रहवाँ अध्याय है, वह अपनेआप में एक शास्त्र है, जो इस भगवत-तत्त्व ज्ञान को हमारे सामने रखते हैं , जिसका फल है मोक्ष। "भगवत-तत्व ज्ञानं मोक्ष फलं !" [तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।उस- (तत्त्वज्ञान-) को (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ। उनको साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे।]  तो देखिये हमलोग अभी जिस शास्त्र को पड़ने जा रहे हैं , उसका मुख्य विषय क्या है ? उसका विषय यही होगा कि- 'ईश्वर का तात्त्विक स्वरुप क्या है ? तथा ईश्वर के इस तात्त्विक स्वरुप को प्राप्त करने के लिए हमारे पास साधन क्या है ? हमें क्या करना चाहिए वो सारी चीजें हमें गीता के इस पन्द्रहवें अध्याय में हमें देखने की मिलता है। और गीता का ये पन्द्रहवाँ अध्याय भी 20 श्लोकों वाला गीता का बारहवाँ अध्याय के समान ये दूसरा सबसे छोटा अध्याय है। लेकिन सम्पूर्ण गीता में केवल इस पन्द्रहवाँ अध्याय को ही मोक्ष शास्त्र कहा गया है। तो ये इस पन्द्रहवें अध्याय की भूमिका है, इसका गौरव है- वो इस प्रकार का है। (12:00)   

तो भगवतगीता में जितने भी अध्याय हैं ,  प्रथम अध्याय से, द्वितीय अध्याय, द्वितीय अध्याय से फिर तृतीय अध्याय, ऐसा करते हुए आगे बढ़ने से उन सभी अध्यायों में शुरुआत से लेकर अठारहवें अध्याय तक  आपको विचारों का एक बहुत सुन्दर सा प्रवाह चलता हुआ नजर आएगा। उसी प्रकार चौदहवें अध्याय के अंतिम भाग में भगवान कृष्ण एक बात बताते हैं। चौदहवें अध्याय का नाम है - गुणत्रय विभाग योग। इस अध्याय में तीनों गुणों का वर्णन किया गया है। जब हम इन तीनों गुणों के परे चले जाते हैं, तब जाकर के सत्य की अनुभूति होती है। क्योंकि यह जो हमलोग विश्वप्रपंच अपने सामने देख रहे हैं , वो त्रिगुणात्मिक है। ये तीन गुणों का खेल चल रहा है, यहाँ पर। हम सब त्रिगुणात्मिक हैं। जो भी हमको दिखाई देता है। ये सब त्रिगुणात्मिक है। ये तीन गुणों का खेल चल रहा है। इन तीन गुणों को हमलोग माया भी कहते हैं। माया त्रिगुणात्मिक है , और यहाँ जो भी हमको दिखाई दे रहा है , ये सब तीन गुणों का ही खेल चल रहा है। और ये तीन गुण ही हैं जिसने सत्य को (विवेकज-ज्ञान को) मानो आच्छादित करके - ढँक करके रख दिया है। तो इन तीन गुणों के पार जाने की जो विधि है, जो प्रक्रिया है, वह हमको चौदहवें अध्याय में बताया गया है। चौदहवें अध्याय के अंतिम भाग में - 26 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- 

माम् च यो अव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते।
  सः  गुणान्  समतीत्य एतान्  ब्रह्मभूयाय कल्पते।।14.26।। 

यहाँ दो शब्द अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - जो कोई भी पुरुष मेरा भजन करेगा, मुझ भगवान का भजन किस प्रकार करेगा ? 'अव्यभिचारी भक्तियोग द्वारा' मेरा भजन करेगा। ईश्वर के साथ सम्बन्ध बनाना, भगवान के साथ सम्बन्ध बनाना ये मनुष्यजीवन का प्रथम और अंतिम लक्ष्य है। इससे बढ़कर और कुछ नहीं है। ईश्वर से सम्बन्ध बनाये बगैर मनुष्य जीवन अपूर्ण था, अपूर्ण ही रहेगा। यहाँ भगवान कह रहे हैं - 'माम् च यो अव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते।' ईश्वर के साथ ऐसा सम्बन्ध जो एक क्षण के लिए भी न टूटता हो। भक्ति योग के द्वारा ईश्वर के साथ ऐसा अविछन्न -अखंड प्रेम का सम्बन्ध जब बनेगा, अटूट भक्ति भाव से भगवान का जो भजन करेगा, तो क्या होगा ? भगवान बहुत ही महत्व की बात बता रहे हैं -  सः  गुणान्  समतीत्य एतान्' -वह इन तीनों गुणों के पार जाकर के, उन तीनों गुणों से ऊपर उठ कर के - " ब्रह्मभूयाय कल्पते। " अब इस ब्रह्मभूयाय कल्पते का मतलब क्या है ? शंकराचार्य जी अपने भाष्य में-ब्रह्म भूयाय का अर्थ कहते हैं - ' ब्रह्म भव नाय ' - वह ब्रह्म होने के योग्य हो जाता है। उसके अंदर योग्यता आती है। जब ठीक-ठीक भक्ति - अव्यभिचारी भक्ति जब हमारे अंदर होगी, जब हम एकमेवाद्वितीय ईश्वर को ही हम सभी प्राणियों के ह्रदय में देखना शुरू कर देंगे , जब हम यह जानेंगे कि यहाँ पर ईश्वर से अतिरिक्त कोई द्वितीय वस्तु है ही नहीं। तब हमारी भक्ति अव्यभिचारी भक्ति होगी। 
      हमारी भक्ति में व्यभिचार आता क्यों है ? (16:51) हमको ऐसा लगता है कि, भगवान वहाँ अमुक मन्दिर में हैं, और मेरे सामने जो दिख रहा है- यह जगत है। हमलोग अब बहुत महत्वपूर्ण बात को समझने जा रहे हैं। हम जैसे सामान्य मनुष्यों की धारणा है कि ईश्वर कहाँ हैं ? अमुक स्थान पर या अमुक मंदिर में बैठे हुए हैं। तो यहाँ क्या है ? ये क्या ईश्वर से बाहर है ? ये एक बहुत बड़ा प्रश्न है। पहले हमको इस भ्रान्ति से ऊपर उठना होगा। ईश्वर कोई स्थान-विशिष्ट व्यक्ति नहीं है। ईश्वर कोई काल-विशिष्ट व्यक्ति नहीं है। (अर्थात ईश्वर कोई देश-काल विशिष्ट व्यक्ति नहीं है।) उसको हम अपने कल्पना-दोष से , अपने बुद्धि दोष से उसको हम काल-विशिष्ट बना देते हैं , उसको हम स्थान विशिष्ट बना देते हैं। इसके कारण होता क्या है ? हमारी भक्ति सब- समय (तैल -धारवत) बनी नहीं रहती है, वो खण्डित हो जाती है। आप मंदिर में जाते हो, तो आपको भक्ति-भाव लगता है, और मंदिर से बाहर निकलते ही आपकी भक्ति कहाँ गायब हो जाती है ? क्योंकि आपको (वॉट्सऐप ग्रुप आदि देखकर) लगता है - ये तो जगत है। भगवान वहाँ हैं और यह जगत है। यह एक बहुत बड़ी भ्रान्ति है। यह बुद्धि का दोष है। बुद्धि के इसी दोष को हटाने के लिए शास्त्र और गुरु का प्रयोजन होता है। गुरु और शास्त्र ही हमें धीरे -धीरे इस बात से अवगत कराते हैं कि हम जिस अविनाशी सत्य या ईश्वर को खोज रहे हैं - वह ईश्वर ही जीव-जगत बन गया है। ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है। ये हमको आज तक समझ में नहीं आया कि हम जिसको देख रहे हैं , यह ईश्वर का ही रूप है। यहाँ हमको जीव-जगत के रूप में जो भी दिख रहा है -ये सगुण ब्रह्म है। ये विश्वप्रपंच ईश्वर का ही अपना एक रूप है। (18:33
     सबसमय भक्ति भाव में रहने का उपाय : गीता के पन्द्रहवें अध्याय के अध्यन द्वारा हम इसी विवेक-दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) की ओर बढ़ रहे हैं। ये बहुत महत्वपूर्ण बात है। जो कुछ आपको दिख रहा है - धजाधारी पहाड़, ये जंगल जो आपको दिख रहा है , ये पूरा विश्व प्रपंच ये ब्रह्माण्ड जो आपको दिख रहा है - ये क्या है ? जब तक हमारे अंदर बुद्धि-दोष है या दृष्टि-दोष है , तब तक हम यही समझते हैं कि - ये जगत है , ये सबकुछ जगत है। ये जगत है। शास्त्र हमें बताती है कि आप जिसको जगत कह रहे हो , ये एक भ्रान्ति मात्र है। ये जगत नहीं है , ये ईश्वर का अपना ही एक रूप है। आपकी दृष्टि जब ऐसी विवेक-दृष्टि या ज्ञानमयी दृष्टि बन जाएगी तब क्या होगा ? अब आपकी भक्ति कभी खण्डित नहीं हो सकती। आप सब समय, भक्तिभाव में ही रहोगे। 
(परिवार के सदस्यों - हित , मित्रों से बातचीत करते समय भी आप मन-ही-मन भक्ति भाव में ही रहोगे !) क्योंकि आप जानते हो कि ये जो भी दिखाई दे रहा है, ये सब ईश्वर का ही रूप है। इस प्रकार अव्यभिचारी भक्ति योग से जब कोई भक्त भगवान की भजन करेगा , तब क्या होगा ?  उस भक्तियोगके द्वारा जो मेरी सेवा करता है -- वह ब्रह्मभूयाय कल्पते, नहीं- शंकराचार्य जी कहते हैं - 'ब्रह्म भव नाय '  वह  तीनों गुणों को पार कर के ब्रह्म को पाने के लिये  योग्य हो जाता है। तो यहाँ पर एक प्रश्न उठता है ; तो क्या हम भी ब्रह्म होने वाले हैं ? क्या अभी,  इस समय हम ब्रह्म नहीं हैं क्या ? ऐसी बात नहीं है। भगवान शंकराचार्यजी कहते हैं - ब्रह्मभूयाय कल्पते का मतलब है  'ब्रह्म भव नाय ' कल्पते।  आप ब्रह्म होने के लिए योग्य हो जाते हो , काबिल हो जाते हो। तो इसका मतलब क्या है ? क्या हमलोग इस समय ब्रह्म नहीं हैं ? हम सभी लोग स्वरूपतः ब्रह्म से अतिरिक्त और कुछ हैं ही नहीं। हम सब , प्रत्येक जीव जो भी है - उसका ब्रह्म से अतिरिक्त कोई अस्तित्व है ही नहीं। कभी भी नहीं था, अभी भी नहीं है , और कभी भी नहीं रहेगा। आज हम इस गुप्त बात को जानते नहीं हैं , इसलिए लगता हैं कि हम उससे कुछ भिन्न हैं। आप ब्रह्म बनोगे' यह कहने का तात्पर्य है - आप ब्रह्म को जानोगे। अज्ञान की निवृत्ति होगी- आप अपने स्वरुप को जानोगे। (निवृत्ति अस्तु महा फला) आप अपने भगवत स्वरुप को जानोगे। उसको जानने की योग्यता आपके अंदर आ जाएगी। किस प्रकार आएगी ? 'अव्यभिचारी भक्ति के द्वारा' आप में अपने स्वरुप को जानने की योग्यता आपके अंदर सृष्ट हो जाती है। भगवान कृष्ण कहते हैं। तो यहाँ तक पन्द्रहवें अध्याय की भूमिका है।  पन्द्रहवें अध्याय में जाने से पहले, चौदहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - इस प्रकार जब हम ठीक ठीक अखण्ड भाव से ईश्वर की भजना करते जायेंगे , तो हमारी जो बुद्धिदोष या दृष्टिदोष है , यह दूर होकरके हम उस ईश्वर के तात्त्विक-ज्ञान को प्राप्त करने के योग्य हो जायेंगे , ईश्वर के तात्त्विक-ज्ञान को प्राप्त करने की योग्यता हमारे अंदर उत्पन्न हो जाएगी।(21:44
      अब आगे हमलोग पन्द्रहवें अध्याय में प्रवेश करते हैं। पन्द्रहवें अध्याय के प्रारम्भ में जो पहले तीन श्लोक हैं , उसमें भगवान श्रीकृष्ण बहुत ही सुन्दर चित्र हमारे सामने रखते हैं। वो चित्र है इस पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड का, पूरे विश्व-प्रपंच का। हमको लगता है कि जो कुछ दिख रहा है - सब जगत है। तो इस जगत का स्वरुप क्या है ? आज हम सभी लोग इस जगत से इतने मोहित हैं - जो कुछ हम पंचेन्द्रियों से अनुभव कर रहे हैं , उससे हम इतने मोहित हैं , इतने प्रभावित हैं , जैसे कि हम उसके गुलाम हो गए हैं। क्यों ? क्योंकि हमको ये विश्व-प्रपंच सत्य सा लगता है। जगत के प्रति हमारी एक सत्यत्व बुद्धि है। हमने कभी प्रश्न ही नहीं किया कि क्या ये जगत सत्य अलग कुछ दूसरा भी हो सकता क्या ? साधारण व्यक्ति से -रस्ते पर चलने वाले व्यक्ति से आप पूछ लीजिये -जगत सत्य है या नहीं ? पूछिए उसको। वो तो कहेगा बिल्कुल सत्य है। वो तो हमको मूर्ख कहेगा - ऐसा प्रश्न आप करते हैं -आप मूर्ख हैं। साधारण मनुष्य यह मानकर ही चलता है कि ये जीव -जगत जैसा दिख रहा है -बिल्कुल सत्य है। और जबतक आपकी इस जगत के प्रति सत्यत्व बुद्धि है, आप अपने मन को इसके ऊपर उठा नहीं पाओगे, मन को इन्द्रिय विषयों से खींच नहीं पाओगे, और ईश्वर में लगा नहीं पाओगे। यह एक बहुत बड़ी समस्या है। अक्सर विद्यार्थी लोग प्रश्न करते हैं - मनःसंयोग करते समय भगवान में (या युवा आदर्श में) मन लग नहीं रहा है। और ये किसी एक व्यक्ति का प्रॉब्लम नहीं है - विश्व के सभी मनुष्यों की समस्या है। सार्वभौमिक समस्या है -हर जीव की समस्या है। इस समस्या के मूल में है - हमको जो भी दिखाई दे रहा है , उसके प्रति सत्यत्व बुद्धि। (हमें घड़ा-सुराही तो दीखता है 'मिट्टी' नहीं दिखती ?) जब तक आपको ऐसा लगता है कि नाम-रूप सत्य है (घड़ा-सुराही सत्य है) तो मन का ऐसा स्वभाव है कि वो जिस वस्तु को सत्य मानेगा , वो उसी वस्तु में जाकर चिपकेगा। और इसी लिए हमारा मन इस जगत की वस्तुओं से चिपका हुआ है , कि ये विश्व-प्रपंच हमको सत्य सा प्रतीत होता है। क्या हम जिस रूप में जगत को सत्य समझते हैं , वह उसी रूप में सत्य है क्या ? भगवत्तत्व ज्ञान की उतपत्ति में सबसे बड़ा बाधक क्या है ?
    पन्द्रहवें अध्याय का मुख्य विषय है - भगवत तत्व का ज्ञान। और जिसका फल क्या है ? मोक्ष ! भगवत तत्त्व ज्ञानं मोक्ष फलं ! ठीक है , लेकिन ये भगवत तत्त्व ज्ञान आएगा कहाँ से ? ईश्वर का जो यथार्थ स्वरुप है , उस स्वरूप का ज्ञान आयेगा कहाँ से।  भगवत्तत्व ज्ञान की उतपत्ति में सबसे बड़ा बाधक क्या है ? बाधक केवल एक ही है - वैराग्य का अभाव। तो भगवान श्री कृष्ण 15 वें अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में विश्वप्रपंच का चित्र इसलिए अंकित कर रहे हैं , ताकि हमारे अंदर इसके प्रति वैराग्य उत्पन्न हो। कामिनी-कांचन से अनासक्ति का भाव उत्पन्न हो। जब तक हम इस विश्वप्रपंच से आसक्त हैं , इससे चिपके हुए हैं , तब तक आप धर्म-या शिक्षा के नाम पर कुछ भी करते जाइये; हम सत्य तक पहुँच नहीं सकते हैं। क्योंकि हम जगत से चिपके हुए हैं। चिपकने का मतलब है वैराग्य का अभाव। आध्यात्मिक साधना का सबसे बड़ा बाधक है - वैराग्य का अभाव। जब वैराग्य उत्पन्न होगा , तभी आप ईश्वराभिमुख होंगे। जगत से अनासक्त हुए बगैर ईश्वर से आसक्ति या प्रेम होगा ही नहीं। इसी बात को श्रीरामकृष्ण बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं - ईश्वर के प्रति अनुराग और जगत के प्रति विराग ! अगर आपको पश्चिम की तरफ जाना हो , तो आपको पूरब की तरफ से मुख तो मोड़ना ही पड़ेगा। आप पूरब में ही चिपके रहोगे , तो पश्चिम में पहुँचोगे कैसे ? जब तक जगत के विषयों से (तीनो ऐषणाओं से) वैराग्य नहीं हो , आप कुछ भी कर लीजिये जन्म -पर जन्म बीतता जायेगा , 1000 जन्म भी बीत जायेगा , लेकिन ईश्वर का ज्ञान नहीं होगा। इसीलिए सभी महापुरुषों की वाणी में वैराग्य और त्याग का इतना महत्व है। त्याग और वैराग्य के अभाव में ही व्यक्ति अपने स्वरुप का और भगवत तत्त्व स्वरुप का ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाता है। इसी वैराग्य के महत्व को बताने के लिए पन्द्रहवें अध्याय के शुरुआत में बहुत सुंदर चित्र अंकित कर रहे हैं। इस विश्वप्रपंच का सिर्फ बौद्धिक ज्ञान भी होने से आपको जगत का मिथ्यत्व  महसूस होने लगता है, तभी आपका मन भगवान में लगना शुरू होगा। जबतक जगत से चिपके हुए भी हैं और जप-ध्यान भी करते हैं , तब तक आध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं हो पाती है। ठाकुर एक बहुत सुंदर उदाहरण देते हैं - आप नाव में बैठे हों, लेकिन लंगर से बंधे नाव को आप चला रहे हो , पर जब तक उस लंगर से नाव को निकालोगे नहीं, नाव क्या आगे बढ़ेगा ? हमारी दशा बिल्कुल उसी प्रकार की है। मंत्र-दीक्षा लेने मात्र से क्या होगा ? यदि यम-नियम और वैराग्य नहीं रहे। मंत्र की अपनी शक्ति है , मंत्र-दीक्षा लेने का प्रयोजन है , लेकिन साथ-साथ विवेक और वैराग्य का अनुष्ठान हमारे जीवन में नहीं हुआ , तो हमारी हालत उसी नाविक की तरह होगी जो लंगर डालकर नाव खेता रहता हो। आसक्ति के द्वारा, मोह के द्वारा हमने जो जगत के प्रति सम्बन्ध बना लिया , वो लंगर डालकर नाव खेने जैसा है। सुंदर सुंदर रूप देखकर हमलोग मोहित हो जाते हैं, लेकिन ये जगत वैसा है क्या ? वही मोह हमारे जीवन में दुःख का कारण बन जाता है। विषयों में सुख का आभास होता है , किन्तु वो दुःख रूप ही है। दुःख और बंधन ये दो चीजें साथ-साथ चलती रहती हैं। 

ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्, अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम्। 
 छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।। 
(15.1) 
यह विश्वप्रपंच कैसा है ? (35:09) - ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्' अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम्' इसका हर शब्द महत्वपूर्ण है। ये विश्व कैसा है ? इसको 'अश्वत्थम्' कहा गया है - पीपल या बरगद के पेड़ को हमने देखा है। इस विश्व प्रपंच की तुलना उस उस पेड़ से हो रही है। वृक्ष की उत्पत्ति जिस प्रकार बीज से होती है, उसी प्रकार इस विश्वप्रपंच का भी एक बीज है। और शास्त्र की परिभाषा में हमने देखा था , जो वस्तु हमको इन्द्रियों से दिखाई नहीं देती, उस वस्तु से अवगत कराने वाले साधन को शास्त्र कहते हैं। 
इस 'सृष्टि के बीज' को कोई भी मनुष्य इन्द्रियों से देखा है क्या ? सृष्टि के बीज को आज तक किसी ने इन्द्रियों से देखा है क्या ? सृष्टि का बीज क्या इन्द्रिय गम्य है क्या ? उस सृष्टि के बीज का ज्ञान जिसके माध्यम से प्राप्त होता है , उसी को गुरु और शास्त्र कहा जाता है। बीज से उत्पन्न हुआ जो बरगद / पीपल का वृक्ष है -वो हमको आँखों से दिखाई देता है। हम अश्वत्थ वृक्ष को देख रहे हैं। बीज दिखाई देता है क्या ? बीज छुपा हुआ है। इसी प्रकार यह विश्व-प्रपंच हमको आँखों से सामने दिखाई दे रहा है। लेकिन इसका बीज अव्यक्त, अदृश्य है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - ये विश्वप्रपंच बिल्कुल अश्वत्थ वृक्ष के समान है। शंकराचार्य जी कहते हैं - अश्वत्थ वह है जो कल अर्थात् अगले क्षण भी पूर्ववत् स्थित नहीं रहने वाला है। जो अभी है , लेकिन अगले क्षण जो बदल गया। और इस अश्वत्थ का जो उल्टा है वो क्या है ? वो शाश्वत है ! शाश्वत का मतलब है - वह जो अविनाशी है , जो हर समय रहता है। शास्त्र में आपको हमेशा इसी शाश्वत और नश्वर का वर्णन मिलेगा। आध्यात्मिक जीवन क्या है - अश्वत्थ से शाश्वत तक की यात्रा है। आपने बृहदारण्यक उपनिषद का वो प्रसिद्द श्लोक सुना होगा - 
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय॥
(बृहदारण्यक उपनिषद् 1.3.28) सुना होगा।  हे ईश्वर! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले जाओ, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाओ, और मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाओ । तो आपको हमारे सभी शास्त्रों में ये दो चीज देखने को अवश्य मिलेगा , एक जो शाश्वत है और दूसरा जो अविनाशी है। एक नित्य है और एक अनित्य है। एक सत्य है , दूसरा सत्य सा प्रतीत होता है। हमको जगत जिस रूप में दिखाई दे रहा है , वो सत्य सा प्रतीत होता है , लेकिन वो सत्य नहीं है। सत्य न होते हुए भी जो सत्य सत्य सा प्रतीत होता है , उसीको हमलोग मिथ्या कहते हैं। लेकिन जब तक हम इसको (स्थूल देह को) सत्य समझते हैं।  तबतक हम इससे ऊपर उठ नहीं पाते हैं। यही मनुष्य जीवन की विडंबना है। 
यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये संसार बिल्कुल अश्वत्थ वृक्ष की तरह है, अर्थात शंकराचार्यजी कहते हैं कि- प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभावं। अर्थात इन्द्रियगोचर हर वस्तु हर क्षण परिवर्तित हो रहा है या नहीं?  आपका अपना शरीर , आपका अपना मन कुछ भी स्थाई है क्या ? तो वह वस्तु कहाँ है -जो इस जगत में हर समय उपस्थित है ? हम जो कुछ अनुभव कर रहे हैं वह प्रतिक्षण चला जा रहा है। इसको शंकराचार्यजी 'दृष्ट नष्ट स्वभाव' कहते हैं। हमलोग अभी एक दूसरे को देख रहे हैं , लेकिन इस देखने की प्रक्रिया में ही वो वस्तु नाश को प्राप्त हो रहा है। दर्शन क्रिया में ही , जिस चीज का दर्शन हो रहा है , वो नाश को प्राप्त हो रहा है। मोह के कारण, मिथ्या जगत में सत्यत्व बुद्धि के कारण , हम जिसको भी मेरा मानकर पकड़े हैं , वो सब चला जा रहा है। जो क्षणभंगुर है , उसी को हम सत्य समझकर पकड़े हुए हैं। जो की नाश को प्राप्त हो रहा है , आप उसको छोड़ना नहीं चाहते हो। और जब चला जाता है , तब हम रोते हैं। प्रश्न करते हैं -ईश्वर ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया ? प्रतिक्षण बदलते रहना इस 'माया सृष्टि ' का स्वभाव है। यहाँ सबकुछ जाने वाला है , इसको आप जितना पकड़ोगे , उतना दुःख पाओगे। 
अब ऐसा जो नश्वर विश्व-प्रपंच है , इसके प्रति 'राग' होना चाहिए या 'विराग' होना चाहिए ? (43: 29) थोड़ा तो राग होना चाहिए ? थोड़ा राग होना चाहिए या बिल्कुल नहीं होना चाहिए ? इस नश्वर संसार से यदि राग करोगे , उससे चिपको गे तो उसका फल एक ही है - दुःख ! पूरे भगवत गीता का भाव एक ही है। इसलिए इसको अनासक्ति योग भी कहते हैं। [ ठाकुर के शब्दों में गीता = तागी।] भगवत गीता में भगवान कृष्ण एक ही बात को बार बार दोहराते रहते हैं। संगम त्यक्त्वा,- संगम त्यक्त्वा , संगम त्यक्त्वा। हर अध्याय में यह आपको मिलेगा - हे अर्जुन , इस विश्वप्रपंच के साथ आपको कैसे व्यवहार करना है ?  संगम त्यक्त्वा,  संगम त्यक्त्वा,  संगम त्यक्त्वा -योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। 2.48।। सङ्गं त्यक्त्वा' मतलब है - अनासक्ति पूर्वक कर्म करो , चिपके बगैर। भगवत गीता का मूल सन्देश यही -है आसक्त होना मना है ! चिपकना मना है। यदि चिपकोगे तो गए ! [पहले बसों- ट्रकों में लिखा होता था - लटकले तो गेले बेटा।] यहाँ सबके साथ रहना है - किसी भी परिचित वॉट्सऐप ग्रुप में रहना है, सबके साथ डीलिंग करना है , लेकिन किसी व्यक्ति या वस्तु को पकड़ के मत रखिये। आप जितना चिपकोगे उतना कष्ट ही आपको प्राप्त होगा। इसलिए गीता का मुख्य सन्देश यही है कि इस मिथ्या जगत से चिपकना मना है। चिपकना सख्त मना है। 
      हम इस मिथ्या जगत (3K) में चिपके हुए हैं , इसलिए भगवान में मन नहीं लगता है। सभी विद्यार्थी प्रश्न करते हैं , मन पढ़ाई में एकाग्र नहीं होता है। पढ़ाई में मन नहीं लगता है।  तो कारण क्या है ? कारण एक ही है - इस मिथ्या जगत से आपका मन चिपका हुआ है। जब तक सत्य सा भासित होने वाला जगत के वस्तु और व्यक्ति में चिपक करके , मोहित होकर बैठे हुए हैं, तबतक आपका मन आपके इष्ट की ओर आपका मन जायेगा कैसे ? इसलिए व्यक्ति के जीवन में संघर्ष चलता ही रहता है। हम ध्यान के लिए नहीं बैठते हैं , हम युद्ध के लिए बैठते हैं। मन के साथ युद्ध करके हार जाते हैं , और हार करके उठ जाते हैं। रहस्य ये है कि मन जितना अनासक्त होगा , उतना सहज भाव से आपका मन ईश्वर में जाता है या नहीं ? जिस परिमाण में आपका मन अनासक्त होगा , उतने ही परिमाण में ईश्वर में मग्न होगा। अगर मन 3k में पूर्ण अनासक्त हो तो आपको समाधि से कोई रोक नहीं सकता है। मन जितना इस मिथ्या जगत से अनासक्त होगा , उतना ही मन ईश्वर में ऐसा डूबेगा , जैसे नमक का पुतला समुद्र की गहराई नापने गया था। मन विलीन हो जायेगा। यह अनुभूति की बात है। देखिये अध्यात्म कोई theory नहीं है , ऋषि वाक्यों की परीक्षा करके हम देख सकते हैं। ये सब महावाक्य अपने जीवन में Verifiable है। लेकिन मिथ्या जगत से अनासक्त होना इसकी पूर्व शर्त है। तो जबतक विषयों से वैराग्य नहीं होगा , तबतक कोई प्रगति नहीं होगी। 
      इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण पन्द्रहवें अध्याय के शुरू में ही हमारे अंदर वैराग्य उत्पन्न कर रहे हैं। क्योंकि वैराग्य के बगैर भगवत तत्त्व का ज्ञान नहीं होगा। और भगवत तत्त्व ज्ञान के बगैर मोक्ष रूपी फल प्राप्त नहीं होगा। तो मोक्ष की शुरुआत कहाँ से है ? -वैराग्य ,वैराग्य ,वैराग्य ! तो ये विश्वप्रपंच कैसा है ? ये क्षणभंगुर है -अश्वत्थ है ! ये शाश्वत नहीं है। ये जैसा दीखता है, सत्य जैसा दीखता है - वैसा नहीं है। इसका मूल उर्ध्व में है -ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्। इस विश्वप्रपंच का बीज ऊपर है। तो क्या दिशा की दृष्टि से इस संसार का मूल ऊपर की दिशा में है ? नहीं ! उस अर्थ में यहाँ नहीं कहा गया है। उर्ध्व का मतलब विश्वप्रपंच का मूल जो है , वो अदृश्य है। वह कारणात्मक मूल है , वह अव्यक्त है। इस विश्वप्रपंच की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? इस जगत का कारण क्या है ? इसका कारण है - अव्यक्त माया युक्त जो ब्रह्म है, वही इस विश्वप्रपंच का बीज है।
 
        >>इस विश्वप्रपंच का मूल बीज हमारे भीतर है !! 

       और ये बीज कहाँ है ? ये बीज हमारे भीतर है। (50:05) इस विश्वप्रपंच का जो मूल बीज है, वो आपके ह्रदय में उपस्थित है। इस विश्वप्रपंच का बीज प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में ही है, कहीं और नहीं है ! अगर इस विश्वप्रपंच के बीज को खोजना हो तो, उसको हमारे ह्रदय में ही खोजना होगा। जब आपके ह्रदय में जो कारण शरीर है, आप जब वहाँ पहुँचोगे , तो आप पूरे विश्वब्रह्माण्ड के मूल में पहुँच जाओगे। यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है , किन्तु आध्यात्मिक सच्चाई को या इस सत्य को धीरे -धीरे साधना करके ही समझा जा सकता है। यहाँ कहा गया विश्वप्रपंच का मूल उर्ध्व है। उर्ध्व का मतलब अव्यक्त है। 
     मायायुक्त ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण) जो हैं - इसका मूल बीज है , जहाँ से ये पूरे विश्वप्रपंच की उत्पत्ति होती है। वो अदृश्य है , इसलिए उसको उर्ध्व कहा गया है। बीज में से जैसे एक छोटा सा पौधा पहले अंकुरित होता है फिर तना और शाखायें निकलती हैं , उसी प्रकार यह विश्वप्रपंच भी उस बीज से अंकुरित हुआ जो अदृश्य है। और इस संसार -वृक्ष की शाखायें अधः है, अधः का मतलब है -जो व्यक्त है।  
 उर्ध्व का मतलब जो अव्यक्त है , और अधः का मतलब है जो व्यक्त है। विश्वप्रपंच व्यक्त है , इसका बीज जो है वो अव्यक्त है। अव्यक्त से इस व्यक्त विश्वप्रपंच की उत्पत्ति हुई हैं। और जो अव्यक्त होगा , जो बीज होगा वो हर समय श्रेष्ठ होगा।
      बीज श्रेष्ठ है या पेड़ श्रेष्ठ है ? क्योंकि बीज के बगैर पेड़ हो ही नहीं सकता। उर्ध्व है मतलब श्रेष्ठ है। वो पर है और जो दिखाई दे रहा है -वो अवर है। इस विश्वप्रपंच का जड़ जो है वो अव्यक्त माया युक्त ब्रह्म जो है, वो उसका बीज है। उस बीज में से पूरा ये विश्वप्रपंच अंकुरित हुआ है। अतएव इस विश्वप्रपंच का जो बीज है, जो मूल या जड़ है वो उर्ध्व है - उर्ध्व का मतलब है - जो अव्यक्त है, और शाखायें अधः हैं। तो यहाँ उर्ध्व और अधः का मतलब दिशा की दृष्टि से ऊपर ,नीचे , दाहिने , बायें कहते हैं वैसा नहीं समझना है। बीज उर्ध्व है - अर्थात अव्यक्त है और शाखायें अधः हैं - अर्थात व्यक्त हैं। यह विश्वप्रपंच व्यक्त है, लेकिन इसका बीज जो है -वो अव्यक्त है। अव्यक्त बीज से व्यक्त विश्वप्रपंच की उत्पत्ति को यहाँ बताया गया है। जो अव्यक्त होगा, जो बीज होगा - जो कारण होगा, वो कार्य से सब समय श्रेष्ठ होगा। बीज श्रेष्ठ है या पेड़ श्रेष्ठ है ? क्योंकि बीज के बगैर पेड़ हो ही नहीं सकता। इसी कारण बीज को उर्ध्व कहा गया कि वो बीज श्रेष्ठ है ,वो पर है और जो दिखाई दे रहा है -वृक्ष वो अवर है।  पेड़ जो दिखाई देता है वो निकृष्ट है, बीज जो अदृश्य है वो उत्कृष्ट है। तो उर्ध्व और अधः कहने के तात्पर्य को हमें ठीक से समझ लेना चाहिए। उर्ध्व का मतलब क्या है ? बीज उत्कृष्ट है, श्रेष्ठ है और जो पेड़ दिखाई देता है , वो निकृष्ट है, या अपकृष्ट है। भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - मायायुक्त जो अव्यक्त ब्रह्म है, वो इस विश्वप्रपंच का बीज है। और उस अव्यक्त में से निकला हुआ जो अधः शाखायें हैं, यह दृष्टिगोचर जगत व्यक्त है, जो हमको दिखाई दे रहा है। तो "ऊर्ध्व मूलम् अधः शाखम्' अश्वत्थम्" - ऐसा जो विश्वप्रपंच है -वह अश्वत्थम् है। 
   अश्वत्थम् का मतलब जो शाश्वत नहीं है। यह जगत जो दीखता है लेकिन नहीं है ! इस रहस्य को समझाने के लिए शंकराचार्यजी अपने भाष्य में चार उदाहरण देते हैं। पहला - जैसे स्वप्न ! स्वप्न वास्तविक में है क्या ? लेकिन जब तक सपना चलता है , तब तक तो है। स्वप्न देखते समय, थोड़ी देर के लिए सपना सच जैसा लगता है कि नहीं ? लेकिन सपना जब सत्य सा भाषित होता हैं, उस समय भी वास्तविक रूप में वो सत्य है क्या ? जैसे स्वप्न मिथ्या है, वैसे ही यह जाग्रत भी मिथ्या ही है।  उसी प्रकार अभी, इस समय, इस क्षण, यहाँ पर अल्मोड़ा में , इस कमरा में जो यह पाठचक्र चल रहा है, यह भी एक सपना ही चल रहा है। जितना जल्दी ये सपना टूटे तो अच्छा है। जागृत अवस्था भी एक सपना है, इसको पहचानना ही उस सपने का टूटना है। (53:53) अगर आप पहचान जाओगे कि ये सपना है , तो सपना टूट जायेगा। फिर आप इस जगत्प्रपंच रूपी सपने में फँसोगे नहीं। यह बहुत बड़ी सच्चाई है। सपना जब चलता है, तो सपना सत्य सा लगता है, लेकिन जिस वक्त वो सत्य सा लगता है ,उस वक्त भी वो सत्य नहीं है। 'वो' कुछ और है। क्रमशः हमलोग वहाँ भी आएंगे। तो शंकराचार्यजी कहते हैं - ये विश्वप्रपंच जो है, वो अश्वत्थ है - कैसे ? स्वप्नवत है -बिल्कुल सपने के समान है। सत्य सा दीखता है , लेकिन सत्य नहीं है। फिर और एक उदाहरण देते हैं। जगत मरू-मरीचिकावत है। गर्मी के दिनों में मरुभूमि में - रेगिस्तान में जिस प्रकार हमको पानी दिखाई देता है। तो रेगिस्तान में जो पानी दिखाई देता है , वहाँ पर सचमुच में पानी है क्या ? दीखता है , लेकिन है नहीं। उसी प्रकार यहाँ पर जो विश्वप्रपंच दीखता है, लेकिन है नहीं ! जैसा दीखता है, वैसा है नहीं। 
     देखिये इसी महत्वपूर्ण बिन्दु पर हमें गहराई से विचार करना है। ये हर रोज हमारे साथ होता है। हमलोग अभी जगे हुए हैं, थोड़ी देर बाद जब रात को आप नींद में सो जायेंगे तो ये सारा विश्वप्रपंच गायब हो जायेगा। कुछ और शुरू हो जायेगा, सपना में जो दिखाई देगा वो नये तरीके का विश्वब्रह्माण्ड होगा। ये हमारे साथ हर रोज चल रहा है। हमने कभी इसके बारे में सोचा नहीं है। हमने कभी इसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया है। हम लोग इसीको सत्य जैसा पकड़कर निश्चिन्त बैठे हुए हैं। स्वप्न में हमें जो जगत दिखाई देता है, थोड़ी देर के लिए वो सत्य हो जाता है। अब प्रश्न है कि इस समय जो पाठचक्र चल रहा है, ये सत्य है ? या जो स्वप्न में सम्मेलन चल रहा था -वह सत्य है ? यह जागृत अवस्था भी सत्य सा दीखता है, लेकिन जैसा दीखता है, वैसा नहीं है। इसके लिए शंकराचार्य जी अपने भाष्य में बहुत सुन्दर शब्द use करते हैं - 'महाद्भुतम अनिर्वचनीयं !' जागृत अवस्था में हम जिस विश्वप्रपंच को देख रहे हैं , ये क्या है ? हम केवल इतना ही कह सकते हैं -  'महाद्भुतम अनिर्वचनीयं !'  इस जगत के बारे में- 'महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं' इसके आलावा हम और कुछ भी नहीं कह सकते। तो जैसे ब्रह्म क्या है ? यह मुख से नहीं बताया जा सकता। उसी प्रकार इस जगत का वर्णन भी हम शब्दों में नहीं कर सकते। माया द्वारा की गयी ऐसी एक अद्भुत सृष्टि है, जिसे देखकर, जिससे सभी लोग मोहित (Hypnotized) हैं। यह माया मय जगत मृगतृष्णा, mirage, मृगमरीचिका की तरह है। जगत किस प्रकार का है ? उसका पहला उदाहरण हुआ स्वप्न के समान, दूसरा है मृग-मरीचिका के समान। चौथी तुलना में शंकराचार्य जी इस जगत को जादूगर के जादू के समान- 'माया' कहते हैं। जादूगर जब जादू दिखाता है , तब बताइये वो जादू सत्य है या मिथ्या है ? लेकिन जादू देखते समय तो थोड़ी देर के लिए तो बिल्कुल ऐसा ही दीखता है , जैसे की सत्य है। जादूगर अपनी कला के द्वारा बहुत कुछ बनाता है। उसी प्रकार जिस विश्वप्रपंच को हमलोग देख रहे हैं, यह भी एक जादूगर की जादूगरी है। 
      वो जादूगर कौन है ? यह एक प्रश्न है। वही खोज है यहाँ पर। (57:29) यह खोज है कि वह जादूगर कौन है ? और वह रहता कहाँ है ? यहाँ है , वहाँ है , या वहाँ मंदिर में है ? यह सब कल्पना है। देखिये हमलोग बहुत सूक्ष्म या सटीक 'precise' चर्चा करने जा रहे हैं। हम जिस जादूगर को ढूँढ रहे हैं, वो हमारे भीतर ही बैठे हुए हैं। वो अपना ही सत्यस्वरूप है। जब तक हम अपने सत्यस्वरूप तक नहीं पहुँचेंगे, हम यहाँ -वहाँ भटकते रहेंगे। जाइये, तीर्थाटन आदि शुरुआती दौर के लिए ठीक है। लेकिन आप जिसको ढूँढ रहे हो वो आपके हृदय के अंदर ही बैठे हुए हैं। आपके साँसों में हैं, आपसे जरा सा भी अलग नहीं हैं। जरा सा भी भिन्न नहीं है। आप यह सोच सकते हो ? हम जिसको ढूँढ रहे हैं, वो हमसे अलग नहीं है। यह क्या खेल है? बड़ा विचित्र परिस्थिति है या नहीं ?
एक अज्ञान (अविद्या-अस्मिता) का परदा है, जिसके कारण हम 'सत्य' को समझ नहीं पा रहे हैं। और हम भटक रहे हैं, यही हो रहा है। तो शंकराचार्यजी कहते हैं - स्वप्नवत, मरु-मरीचिकावत, और माया मतलब जादू के समान ! और चौथा उदाहरण देते हैं -गन्धर्वनगरी वत। वर्षा के मौसम आकाश के ऊपर बादल आ जाते हैं। और इस प्रकार से एकत्र हो जाते हैं , जिससे लगता है कि पूरा एक शहर हो वहाँ पर। ये विश्वप्रपंच भी उसी प्रकार का एक गन्धर्वनगर है, और जो अश्वत्थ है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, इस जगत-प्रपंच का मूल जो है -वो उर्ध्व है, मतलब कहीं ऊपर नहीं है। उर्ध्व का मतलब है -जो अव्यक्त है, जो दिखाई नहीं दे रहा है, जो श्रेष्ठ है। और शाखायें जो हैं वो अधः हैं।  अधः का मतलब जो नीचे हो ऐसा नहीं , अधः वो है जो व्यक्त है। जब अव्यक्त से व्यक्त की अभिव्यक्ति होती है , जैसे बीज से जब पेड़ की उत्पत्ति होती है; तो पेड़ हमें दिखाई देता है लेकिन बीज हमें दिखाई नहीं देती। इसलिए बीज श्रेष्ठ है पेड़ निकृष्ट है। बीज उत्कृष्ट है , बीज से उत्पन्न हुआ, फलस्वरूप जो विश्वप्रपंच (पेड़) है वह निकृष्ट है। क्योंकि उस बीज (कारण)  के बगैर इस विश्वप्रपंच (कार्य) का अपना कोई अस्तित्व सम्भव नहीं है। तो ये बीज के फलस्वरूप उत्पन्न जो विश्वप्रपंच वो कैसा है ?  प्राहुः अव्ययम् ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्, अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम् ' कहने से मतलब है यह जगत प्रपंच अव्यय है ! अव्यय का मतलब क्या है ? जो कभी भी खत्म नहीं होगा(1:00:29
>> जब भागवत तत्व का ज्ञान होगा, तब ये सपना खत्म हो जायेगा।
     यहाँ कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पर हमलोग विचार करने जा रहे हैं। अव्यय का मतलब ये है कि ये विश्वप्रपंच चलता ही रहेगा। ये सपना तबतक चलता ही रहेगा , जब तक आपको ईश्वर-तत्व ज्ञान या, भगवत-तत्व ज्ञान जबतक आपको नहीं होगा , तब-तक यह चलता ही रहेगा। हाँ, लेकिन जिसदिन आपको भगवत तत्वज्ञान होगा , उस दिन ये सपना खत्म हो जायेगा। जबतक भगवत तत्त्व का ज्ञान नहीं होता , तब तक यह जगत (घड़ा में सत्यतत्व बुद्धि),अनवरत,अखण्ड रूप से चलता ही रहता है। ये अनादि है , अनंत चलता रहता है। 

पुनरपि जननं ,पुनरपि मरणं ,पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे खलु दुस्तारे,  कृपया पारे पाहि मुरारे॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते मरने , न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥

 ये जो जन्म-मृत्यु का चक्र है, ये अनवरत चलता ही रहेगा, जब तक आप भगवत तत्व ज्ञान को प्राप्त नहीं कर लेते हो, इसीलिए भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्। इसीलिए ईश्वरतत्त्व को जानने का प्रयास कीजिये। यही मनुष्यजीवन का मुख्य उद्देश्य है। इस ईश्वरतत्त्व को प्राप्त किये बगैर मनुष्य की गति उसी चक्र के समान होती है , जो अनवरत बस घूम रहा है , घूम रहा है ,केवल घूम रहा है। हम एक शरीर से दूसरे शरीर में, दूसरे से फिर तीसरे - इस प्रकार ये जो जन्म-मृत्यु का चक्र है - ये अनवरत अखंड रूप से चलता रहेगा। क्योंकि ये विश्वप्रपंच अव्यय है। यह संसरणं - ये संसार जो है ये अव्यय है, जब तक ईश्वर का ज्ञान नहीं हो जाता। इसके बाद वाली पंक्ति,' छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।' पर अगले सत्र में विचार करेंगे। 
अभी आप कोई प्रश्न पूछ सकते हैं। 
     प्राहु का मतलब क्या है ? प्राहु का मतलब इसको - ऐसा , अव्यय कहते हैं। महापुरुषों ने इस अश्वत्थ विश्वप्रपंच को अव्यय कहा है। अव्यय का मतलब ये तबतक अनवरत चलता रहेगा, जब तक हमें भगवत तत्त्व-ज्ञान नहीं हो जाता। उर्ध्व का मतलब है- बीज जो दिखाई नहीं देता है। उसी बीज को तो खोजना है। हम लोग तो बस पेड़ में व्यस्त हैं। हमलोग इस पेड़ में लगे हुए फलों को खाने में व्यस्त है। (1:03:49)  
      मुण्डक उपनिषद में आपने दो पक्षियों का वर्णन पढ़ा होगा ? -द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । दो सुन्दर पक्षी एक ही वृक्ष पर रहते हैं। आप कल्पना कीजिये कि वृक्ष के एकदम ऊपरी स्तर पर, एक पक्षी बैठा हुआ है -जो बिल्कुल अपने आनंद में मग्न होकर बैठा है। अर्थात आनंदविभोर होकर बैठा है , उसके अंदर कोई चंचलता नहीं है , बिल्कुल शान्त होकर के बैठा है। और उसी वृक्ष में, बिल्कुल नीचे एक दूसरा पक्षी है , जो कि अत्यंत ही चंचल है, जैसे कि हमलोग हैं। जो पाँच मिनट भी चुप नहीं बैठ सकते हैं। पाँच मिनट तो बहुत दूर की बात है, एक मिनट भी चुप नहीं बैठ सकते हैं। क्यों ? क्योंकि चंचलता हमारा स्वभाव है। इस देह-इन्द्रिय संघात * का स्वभाव ही चंचलता है। (cluster/fascicule/ फैसक्यूल संघात : गुच्छा या समुच्य) एक मिनट हम चुप नहीं बैठ सकते हैं। क्यों नहीं बैठ सकते हैं ? उसके मूल में है यही अज्ञान (अविद्या-अस्मिता) है। अज्ञान से उत्पन्न कामनायें हैं। (1:05:08) जब तक अज्ञान से उत्पन्न कामनायें हमारे अंदर हैं, तब तक कोई भी व्यक्ति चुप नहीं बैठ सकता। तो जो नीचे बैठा पक्षी है -वो क्या कर रहा है ? वह कभी इस डाल पर जाता है , वहां एक फल खाता है। उस डाल से उड़करके दूसरे डाल पर जाता है , वहाँ कुछ फल खाता है। इस प्रकार वो फल खाने में ही मग्न है। कभी कुछ मीठा फल खा लिया तो उसको बड़ा अच्छा लगता है। फिर कुछ कड़वे फल खा लिए तो दुःखी हो जाता है। जैसे ही उसको दुःख होता है तो वो ऊपर की ओर देखता है। तो देखता है कि वो (साक्षी -ब्रह्म) तो बड़े आनंद में बैठा हुआ है। तब वह उस ऊपर बैठे हुए पक्षी के पास जाने का प्रयास करता है। ये बिल्कुल हमारी कहानी है , हमारे जीवन में भी ऐसे ही होता है कि नहीं ? जब भी थोड़ा दुःख हो गया , कुछ चोट लग गया हम तुरंत भगवान के पास भागते हैं। जब तक हम मीठा फल खाते रहते हैं , तब तक भगवान याद नहीं आते हैं। तबतक हम व्यस्त हैं। यहाँ पर इस संसार से मोहित होकर के, यहाँ दीखने वाले विभिन्न फलों को खाने में हमलोग मग्न हैं।  हैं कि नहीं ? बाहर दृष्टि डालिये तो सभी लोग दौड़ रहे हैं। छोटे कस्बों में उतनी भागदौड़ नहीं हो, लेकिन मेट्रो शहरों में -आप दिल्ली जाइये , बम्बई जाइये सभी लोग दौड़ रहे हैं। कभी कभी मन में आता है , इनसे पूछूँ भाई तुम कहाँ दौड़ रहे हो ? बस लगे हुए हैं -दौड़ रहे हैं ,दौड़ रहे हैं , दौड़ रहे हैं, दिन-रात दौड़ रहे हैं।  दौड़ -दौड़ के थक जाते हैं , सो जाते हैं। नींद से उठते ही दौड़ना शुरू कर देते हैं। फिर से वही क्रम चलता रहता है। इसी प्रकार जन्म-जन्मान्तर चलता रहता है। क्यों ? क्योंकि व्यक्ति जबतक अपने सत्य स्वरूप को नहीं जानेगा, तबतक व्यक्ति की गति यही होती है। हम इस बात को समझते नहीं हैं। तो इसी प्रकार संसार का जो मूल है - संसार का जो कारण है , संसार का जो बीज है - वो खोज का विषय है। ये पाठचक्र और कुछ नहीं है , ये सत्य की खोज है।  उसी ईश्वर -तत्व को खोजने के लिए है। इसको आप भावुक होकर के देख सकते हो। या  भावुकता के साथ थोड़ा सा विवेक को लाना जरुरी है। ये सत्य की खोज है। याद रखिये। आध्यात्मिक जीवन जो है , वो सत्य की खोज है। सत्यान्वेषण है , ये सत्य का अन्वेषण है। यहाँ पर सत्य का अन्वेषण ही चल रहा है।  आप भावुक होकरके ईश्वर को इस रूप में देखिये , उस रूप में देखिये, अच्छी बात है। लेकिन सच्चाई में है कि हम जिस ईश्वर की कल्पना कर रहे हैं, वो आपका ही सत्य स्वरुप है। आप वही हो , आप उससे भिन्न नहीं हो। हम सब वही हैं। यह सत्य की खोज है। आप देखिएगा भगवत गीता में भगवान कृष्ण हमें धीरे धीरे उसी ओर ले जायेंगे। उसके पहले हमें वे इस विश्वप्रपंच से विमुख करवा रहे हैं। वैराग्य हेतु है। ताकि हमारे अंदर थोड़ा सा वैराग्य उत्पन्न हो। क्योंकि जब तक वैराग्य उत्पन्न नहीं होगा , तब तक हमारा मन कभी ईश्वराभिमुख नहीं होगा। ईश्वर की ओर कभी वो बढ़ नहीं पायेगा। (1:08:01) इसलिए हमारे भीतर वैराग्य उत्पन्न करने हेतु भगवान ने हमारे सामने विश्व-प्रपंच का - ऐसा दृश्य- ऊर्ध्व मूलम् अधः शाखम्, अश्वत्थम् प्राहुः अव्ययम् ' अंकित किया है। 
बीज और फल, बीज और वृक्ष में पहले कौन हुआ ? इसी को माया कहते हैं। इसकी शुरुआत कहाँ से है ? आप कहोगे पेड़ के बगैर बीज नहीं होगा। तो बीज के बगैर पेड़ भी नहीं होगा। यही महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं माया है। Maya is mysterious- माया रहस्यमय है-महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं ! इसके बारे में कुछ कह नहीं सकते , लेकिन एक ऐसी शक्ति है , जो इस अद्भुत दृश्य को खड़ी कर देती ही। (चंद्रग्रहण -सुर्यग्रगण नियत तिथि और समय पर ही होगा।) और ये शक्ति किसकी शक्ति है ? ब्रह्म की अपनी ही शक्ति है। इसको शकराचार्य जी परमेश शक्ति कहते हैं। परमेश्वर की शक्ति है -इस माया शक्ति की हम क्या वर्णन कर सकते हैं। ये सत्य है -ऐसा भी नहीं कह सकते , तो यह झूठ है ? ऐसा भी नहीं कह सकते। ये ब्रह्म से भिन्न है , ऐसा भी नहीं कह सकते। ये ब्रह्म से अभिन्न है ? ऐसा भी नहीं कह सकते। तो हम इसके बारे में क्या कह सकते हैं ? महाद्भुतम -अनिर्वचनीयं। इसके बारे में हम इतना ही कह सकते हैं कि, महा अद्भुत माया का एक खेल चल रहा है, जो न होते हुए भी होता हुआ सा दिखाई देता है। लेकिन ये सारी बातें बुद्धि से समझने वाली बात नहीं है। आप कितना भी बुद्धि लगा लीजिये। कहीं नहीं पहुँचोगे आप। यहाँ पर समर्पण और भक्ति आनी चाहिए ! (1:09:59) ईश्वर के चरणों में जब हम समर्पित (Dedicated) होते हैं। यह माया शक्ति किसकी शक्ति है ? उसी परब्रह्म की अपनी शक्ति है। उसमें जब तक हम अपने आप को परिपूर्ण रूप से समर्पित नहीं करते , तब तक बुद्धि से आप कितना भी समझने का प्रयास कर लीजिये, नहीं जान पाएंगे। इसीलिए इसको अतीन्द्रिय कहा गया है न । शास्त्र की परिभाषा में ही हमने देखा था - शास्त्र वो है , जो हमको इन्द्रियों से समझ में नहीं आता, उसको जो हमें समझा देती है , उसको शास्त्र कहते हैं। हमको कहीं न कहीं बुद्धि के दायरे से हटकर के , सपर्पण - अहंकार का समर्पण ! (1:10:33) अहंकार का समर्पण यही हमारी प्राथमिक साधना हो जाती है ! तत्व क्या है ? तत्त्व वो है -एक चीज जो जैसा है - उसका जो असली स्वरुप है। उस असली स्वरुप में ही उसका ज्ञान प्राप्त करना। (जैसे घड़ा क्या है ? मिट्टी के सिवा कुछ नहीं है।) वो तत्वज्ञान हुआ। आप उस वस्तु के बारे में कुछ कल्पना कर सकते हो। उस वस्तु की कल्पना एक रूप में कर सकते हो , या दूसरे रूप में कर सकते हो। या अनंत रूपों में उसकी कल्पना हो सकती है। कल्पना तो कल्पना ही होती है, लेकिन जो तत्त्व है -वो कल्पनाओं के परे वह वस्तु जैसा है, ठीक वैसा ही उसका ज्ञान प्राप्त करवा देना- यही सभी शास्त्रों का लक्ष्य है। उपनिषद के महावाक्य तत्वज्ञान की बात करते हैं। भगवतगीता भी तत्वज्ञान की बात करती है। 'ईश्वर को तत्वतः जान लेना' यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण यही बात कई बार कहते हैं। जो मुझे तत्वतः जानता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता , वो मुझे ही प्राप्त हो जाता है।  
जन्म कर्म  च मे दिव्यम् एवम् यः वेत्ति तत्त्वतः। 
 त्यक्त्वा देहम् पुनः जन्म नः एति माम् एति सः अर्जुन।।
(4:9) 

हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है, इस प्रकार जो पुरुष तत्त्वत:  जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता;  वह मुझे ही प्राप्त होता है, अर्थात मुक्त हो जाता है।। 
तत्वतः शब्द भगवत गीता में कितनी ही बार आया है। भगवान श्री कृष्ण सब समय अपनी बात कहते हैं - तुम मेरी शरण में आओ ! तुम मेरे पास आओ। यह सुनते ही हम तुरंत उनका रूप क्या सोच लेते हैं - वही बाँसुरी , मोरमुकुट धारी ! लेकिन भगवान श्री कृष्ण गीता में जब भी अपनी बात कर रहे हैं - मामेकं शरणं व्रज ! तो वे देह नहीं आत्मा की बात कर रहे हैं, परब्रह्म की बात कर रहे हैं। (1:12:35) उस तत्व की बात कर रहे हैं , जो हमारा भी सत्य स्वरुप है। " ईश्वर का तात्विक ज्ञान और आपका जो सत्य स्वरुप है" - यह दो अलग अलग चीजें नहीं है। इस बात को हमें ठीक से समझ लेनी चाहिए। हमारा जो अपना सत्य-स्वरुप है वह ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) के स्वरुप के साथ एक ही है। लेकिन यह सच्चाई भी हमें साधना से ही समझ में आती है। राग और वैराग्य क्या है ? राग का मतलब क्या है ? आप किसी शरीर पर मोहित हो जाते हो। राग कहते हैं किसी शरीर के प्रति आसक्ति को , किसी भी बच्चा -जवान के शरीर में आकर्षण या  attachment राग है। राग के विपरीत है विराग। वैराग्य शब्द की उत्पत्ति विराग शब्द से हुई है। सरल भाषा में राग का मतलब है - किसी भी शरीर में चिपक जाना। राग को कल्पना में नहीं  व्यवहार में देखिये कि आप कैसे किसी में चिपक जाते हैं। अपने बच्चों से , पति पत्नी से , पत्नी पति से , संसार के धन सम्पत्ति से, नाम-यश से - इन सभी चीजों से कैसे हम चिपक जाते हैं ? चिपक गए तो उससे फिर हम अलग नहीं हो पाते हैं। इसी चिपकाओ को राग कहते हैं। हम उस चीज को छोड़ना नहीं चाहते हैं। अब इसका उल्टा है विराग। 'Absence of Rag' - राग का बिल्कुल अभाव। आप सभी के साथ हो लेकिन कहीं भी चिपके नहीं हो। यही सुंदर ढंग से जीवन जीने की कला है। This is the art of living !
 अब वैराग्य का मतलब क्या है ? क्या आप अपनी पत्नी को छोड़ दोगे ? (1:14:38) ऐसी गल्ती नहीं कीजियेगा। बच्चों को छोड़ देना है क्या ? वैराग्य का अर्थ यह नहीं है। सबके साथ रहना है , लेकिन किसी के भी साथ चिपकना नहीं है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही 'art of living' सिखा रहे हैं। अर्जुन तो सब कुछ छोड़ करके जाना चाहता था। भागना चाहता था। कृष्ण कहते हैं -मूर्ख है ? कहाँ भागेगा तू ? सबके साथ रहना है , लेकिन कहीं चिपकना नहीं है। और वहाँ पर भगवान कृष्ण कितनी सुंदर बात कहते हैं ? 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।।

।।5.10।। जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है,  वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता।। 
जैसे कमल का जो फूल है , उसके जो पत्ते हैं , वो बिल्कुल पानी में हैं। पानी से भाग नहीं रहा है। लेकिन वो पानी जो है वो पत्तों से चिपक नहीं सकता। न वो पत्ता पानी से चिपकता है। थोड़ा सा उठा लीजिये सारा पानी गिर जायेगा। यही जीने की कला है। इसलिए कहीं भागना नहीं है , कहीं दौड़ना नहीं है। लेकिन चिपकना नहीं है , सबके साथ रहना है। सबकी सेवा करनी है। सबकी देखभाल करनी है। लेकिन जानना है कि ये सब दीखता है , लेकिन वास्तविक में है नहीं। सत्य वस्तु एक ही है और वो है ईश्वर। ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी सत्य नहीं है। और उस ईश्वर की खोज में हम अपने जीवन को लगाएं। यह हमारे जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए। एक बहुत सुंदर प्रश्न आया - क्या बीज और वृक्ष दो अलग अलग चीजें हैं ? आप जिसको विश्वप्रपंच कह रहे हो, इसका बीज क्या है ? ईश्वर ही है ! तो ये विश्वप्रपंच क्या है ? इसके सत्य स्वरुप में देखो तो ईश्वर ही है। आप जिसको पेड़ कह रहे हो।  वो पेड़ क्या है ? बीज ही है। बीज का जो व्यक्त रूप है , वो वृक्ष है। और वृक्ष का जो अव्यक्त रूप है , वो बीज है। बीज के व्यक्त रूप को हमलोग वृक्ष कहते हैं। और वृक्ष का जो अव्यक्त रूप है, उसको बीज कहते हैं। बीज और वृक्ष दो अलग चीजें हैं क्या ? वृक्ष के रूप में बीज ही है। (जगत के रूप में ब्रह्म ही है।) वह बीजात्मक ईश्वर ही है इस विश्वप्रपंच के रूप में। यह ज्ञान जिस दिन हो जायेगा हम मुक्त हो जायेंगे। विश्वप्रपंच कहाँ  है? अज्ञान में हमको लगता है कि जैसे विश्वप्रपंच है , जगत है। जिस दिन आप जान जाओगे वो ईश्वर ही बीजात्मक है , वही इस विश्वप्रपंच के रूप में है। जिस दिन हमें यह ज्ञान प्राप्त होगा , उस दिन हम मुक्त हो जायेंगे। तो यही रुक जाते हैं। ॐ शांति ! 
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   आचार्य शंकर का अद्वैत वेदांत : माया

आचार्य शंकर ने परमेश शक्ति - माया के लिए अव्यक्त, अविद्या , अध्यास , अध्यारोप , भ्रान्ति, विवर्त, भ्रम, नाम-रूप, मूल-प्रकृति आदि शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ मे किया है। 

>>माया रहती कहाँ है ? ( माया का आश्रय स्थान ):

     आचार्य शंकर के अनुसार माया ब्रम्ह में निवास करती है। माया का आश्रय ब्रह्म है फिर भी  ब्रह्म माया से प्रभावित नहीं होता। (जिस प्रकार जादूगर जादू की प्रवीणता से स्वयं प्रभावित नहीं होता।) ब्रह्म अनादि है उसी प्रकार उसमे निवास करने वाली माया भी अनादि है। दोनो में तादात्म्य सम्बन्ध है। माया ब्रह्म की शक्ति है जिसके आधार पर वह विश्व का निर्माण करता है। माया के कारण हि निष्क्रीय ब्रह्म सक्रीय हो जाता है। माया सहित ब्रह्म हि ईश्वर है। 
सांख्य दर्शन की प्रकृति के समान हि माया भी त्रिगुणात्मक, भौतिक ,अचेतन एवँ जड़ है। माया मोक्ष प्राप्ति मे बाधक है। आचार्य शंकर के अनुसार मोक्ष प्राप्ति तभी संभव हो सकती है जब अविद्या (अस्मिता) का जो कि माया का हि रूप है अंत हो जाए।  आत्मा मुक्त है पर वह अविद्या के कारण वह खुद को बंधन ग्रस्त पाती है। बंधन ग्रस्त हो जाती है,माया परतंत्र है। ( जबकी सांख्य की प्रकृति स्वतंत्र है।)

माया के कार्य:  माया के दो कार्य हैं ..

१.आवरण (concealment ): माया के कारण वस्तु पर आवरण / पर्दा पड़ जाता है। माया (काली माता) वस्तु (शिव) के वास्तविक स्वरुप को ढँक देती है। जिस प्रकार रस्सी मे सर्प का भ्रम होने पर, सर्प रस्सी के स्वरुप पर पर्दा डालने का कार्य करता है। यह माया का निषेधात्मक कार्य है। 

२. विक्षेप (projection) : माया सत्य के स्थान पर दूसरी वस्तु को उपस्थित करती है। माया का यह भावात्मक कार्य विक्षेप कहलाता है। जैसे रस्सी के स्थान पर सर्प को लाना। माया अपने आवरण शक्ति की वजह से ब्रह्म को ढँक लेती है। और प्रक्षेप शक्ति के कारण उसके स्थान पर नाना रूपात्मक जगत की प्रतीति कराती है। सत्य पर पर्दा डालना और असत्य को प्रस्थापित करना माया के दो मुख्य कार्य हैं। 

माया की विशेषताएं :

1. माया अध्यास ( superimposition) रूप है। जहाँ जो वस्तु नहीं है वहाँ उस वस्तु को कल्पित करना अध्यास कहा जाता है। जिस प्रकार रस्सी मे साँप का आरोपण होता है ..उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म (परदा) में जगत अध्यसित हो जाता है। 

2. माया ब्रह्म का विवर्त मात्र है, जो व्यावहारिक जगत रूप में दिख पड़ता है। 

3. माया ब्रह्म की शक्ति है जिसके आधार पर वह नाना रूपात्मक जगत का खेल प्रदर्शन करता है। 

4.माया महाद्भुत और अनिर्वचनीय है (क्योकि  माया ना हि सत् है ना हि असत् ना हि दोनो !)

5.माया का आश्रय स्थल ब्रह्म है। परन्तु ब्रह्म माया की अपूर्णता से अछूता रहता है। 

6. माया अस्थायी है ..इसका अंत ज्ञान से हो जाता है जैसे ज्ञान होते हि / प्रकाश आते हि ..सर्प का अंत हो जाता है और मात्र रस्सी शेष रह जाता है। 

7. माया अव्यक्त और भौतिक है। 

8. माया अनादि है। उसी से जगत की सृष्टि होती है। ईश्वर की शक्ति होने से माया ईश्वर के समान अनादि है।  
9. माया भावरूप है (निषेधात्मक नहीं ) क्योकि माया के द्वारा हि ब्रह्म सम्पूर्ण विश्व का प्रदर्शन करता है। माया हि विश्व को प्रस्थापित करती है।
    
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी/ 
https://pandyamasters.blogspot.com/2012/07/blog-post_05.html
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द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥
          - मुण्डकोपनिषद् ३.१.१
यह मंत्र उपनिषद् के सबसे सुन्दर और गूढ़ प्रतीकों में से एक है। इसमें दो पक्षियों के माध्यम से जीव और ईश्वर — आत्मा और परमात्मा — के सम्बन्ध की व्याख्या की गई है। वृक्ष पर बैठे दो समान, सखा-सदृश पक्षी, वस्तुतः प्रतीक हैं — एक भोगी जीव का, दूसरा साक्षी ब्रह्म का। भगवान शंकराचार्य इस मंत्र की व्याख्या करते हुए दिखाते हैं कि यह द्वैत केवल प्रतीत है; तात्त्विक रूप में दोनों एक ही ब्रह्मस्वरूप हैं।

आदिगुरु शंकराचार्य कहते हैं कि “द्वा सुपर्णा” — ये दो पक्षी एक ही चेतन तत्त्व के दो उपाधिसंवलित रूप हैं। एक जीव है, जो वृक्ष रूपी शरीर में कर्मफल का पिप्पल (स्वाद) लेता है — “पिप्पलं स्वाद्वत्ति”; दूसरा ईश्वर है, जो साक्षीभाव से देखते भर हैं — “अनश्नन् अभिचाकशीति”।

ईश्वर भोग में लिप्त नहीं, केवल ज्ञानमात्र स्वरूप हैं; जीव अविद्या के कारण भोग में रत है, और सुख-दु:ख में फँसा हुआ है। किन्तु शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि यह भिन्नता भी माया-जन्म है। वास्तव में यह जीव भी वही ब्रह्म है, जो अज्ञानवश अपने सत्य स्वरूप को भूलकर देहात्मबुद्धि में फँस गया है।

इस मंत्र में वृक्ष है — शरीर, एक पक्षी है जीव, दूसरा ईश्वर या साक्षी आत्मा। किन्तु यह द्वैत प्रतीत मात्र है। अद्वैत वेदान्त कहता है — जब अज्ञान हटता है, तब ज्ञानी देखता है कि जो साक्षी था, वही मैं हूँ — सोऽहम्।

ईश्वर और जीव के बीच कोई वस्तुगत भिन्नता नहीं है — केवल उपाधिभेद है। एक ही सूर्य जल में अनेक रूपों में प्रतिबिम्बित हो, ऐसा प्रतीत होता है, पर वह सूर्य तो एक ही है — यही शंकर भाष्य का निष्कर्ष है।

“द्वा सुपर्णा” मंत्र द्वैत के अनुभव से अद्वैत की यात्रा का संकेत है। जो पहले भोगी और भोक्ता प्रतीत होता है, वही ज्ञान होने पर ज्ञाता और ब्रह्म रूप में स्थित हो जाता है। शंकराचार्य की दृष्टि में यह उपनिषद् का प्रतीकात्मक वर्णन आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया है — अविद्या से विद्या की ओर, जीवभाव से ब्रह्मभाव की ओर।

[Swami Avdheshanand
@AvdheshanandG ] 
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