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मंगलवार, 1 जून 2021

🔆🙏🔆🙏🔆🙏🔆 परिच्छेद ~74, [ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ] मणि का गुरु (नेता -CINC) गृहवास में २३ वाँ दिन* ' तुम्हारे लड़के हुए हैं, सुनकर तुम्हें फटकारा था – अब जाकर घर में रहो *मणि ' को मनुष्य 'बनने और बनाने~Be and Make' का प्रशिक्षण**खुली आँखों से (बुलकनि देवी) ध्यान ~तीन त्याग जमीन ,जोरू -जायदाद * * डाकू रत्नाकर की स्वाधीन इच्छा (Free Will) भी केवल प्रतीति मात्र है **हमेशा भक्ति गीत ही गाने चाहिए ** निष्काम कर्म करना ही अच्छा है , actions without motives are good."** चिदात्मा श्रीकृष्ण हैं और चित्-शक्ति श्रीराधा !* भक्तगण उसी चित्-शक्ति के एक-एक स्वरूप हैं ।काली जड़ को भी चेतन बना देती हैं*

(१)

[(5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]  

[ मणि का गृहवास में ~Be and Make'  प्रशिक्षण का २३ वाँ दिन]  

श्रीरामकृष्ण दोपहर का भोजन कर चुके हैं । एक बजे का समय होगा । शनिवार, 5 जनवरी 1884 ई.। मणि को श्रीरामकृष्ण के साथ रहते हुए आज 23 वाँ दिन है । मणि भोजन करके नौबतखाने में थे, वहीँ से किसी को नाम लेकर पुकारते हुए सुना । बाहर आकर उन्होंने देखा कि घर के उत्तरवाले लम्बे बरामदे से श्रीरामकृष्ण स्वयं उन्हें पुकार रहे थे । मणि ने आकर उन्हें प्रणाम किया । दक्षिण के बरामदे में श्रीरामकृष्ण मणि से वार्तालाप कर रहे हैं ।

[ ঠাকুরের মধ্যাহ্ন সেবা হইয়াছে। বেলা প্রায় ১টা। শনিবার, ৫ই জানুয়ারি। মণির আজ প্রভুসঙ্গে ত্রয়োবিংশতি দিবস। মণি আহারান্তে নবতে ছিলেন — হঠাৎ শুনিলেন, কে তাহার নাম ধরিয়া তিন-চারবার ডাকিলেন। বাহিরে আসিয়া দেখিলেন, ঠাকুরের ঘরের উত্তরের লম্বা বারান্দা হইতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাহাকে ডাকিতেছেন। মণি আসিয়া তাঁহাকে প্রণাম করিলেন।দক্ষিণের বারান্দায় ঠাকুর মণির সহিত বসিয়া কথা কহিতেছেন।

Saturday, January 5, 1884; It was the twenty-third day of M.'s stay with Sri Ramakrishna. M. had finished his midday meal about one o'clock and was resting in the nahabat when suddenly he heard someone call his name three or four times. Coming out, he saw Sri Ramakrishna calling to him from the verandah north of his room.M. saluted the Master and they conversed on the south verandah.

[(5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ] 

[श्री रामकृष्ण  अपने साधनाकाल (1859 से 1861 ई०) के दौरान बेलतला में ध्यान करते हुए अपने अनुभवों को मणि के साथ वार्तालाप के क्रम में साझा कर रहे हैं !] 

 🔆🙏 त्रिशूलधारी कहता -`नीचे का काँटा यदि झुका, यही त्रिशूल भोंक दूँगा !'🔆🙏

[Visual Meditation with Open Eyes >खुली आँखों से द्रष्टा -दृश्य- ध्यान।]    

श्रीरामकृष्ण - तुम लोग  ध्यान (मनःसंयोग) किस तरह करते हो? – मैं तो बेल के नीचे कितने ही रूप साफ साफ देखता था । एक दिन देखा, सामने रूपये, दुशाला, एक थाल सन्देश, और दो औरतें ! तब मैंने मन से पूछा, मन ! तू इनमें से कुछ चाहता है ? – फिर सन्देशों को देखा, विष्ठा है ! औरतों में एक  बुलाक पहने हुए  थी । उनका भीतर बाहर सब मुझे दीख पड़ता था – आँतें-मल-मूत्र-हाड़-मांस-खून ! मन ने कुछ न चाहा ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমরা কিরকম ধ্যান কর? আমি বেলতলায় স্পষ্ট নানা রূপ দর্শন করতাম। একদিন দেখলাম সামনে টাকা, শাল, একসরা সন্দেশ, দুজন মেয়েমানুস। মনকে জিজ্ঞাসা করলাম, মন! তুই এ-সব কিছু চাস? — সন্দেশ দেখলাম গু! মেয়েদের মধ্যে একজনের ফাঁদি নথ। তাদের ভিতর বাহির সব দেখতে পাচ্ছি — নাড়ীভুঁড়ি, মল-মূত্র, হাড়-মাংস, রক্ত। মন কিছুই চাইলে না।

MASTER: "I want to know how you meditate. When I meditated under the bel-tree I used to see various visions clearly. One day I saw in front of me money, a shawl, a tray of sandesh, and two women. I asked my mind, 'Mind, do you want any of these?' I saw the sandesh to be mere filth. One of the women had a big ring in her nose. I could see both their inside and outside — entrails, filth, bone, flesh, and bloods The mind did not want any of these — money, shawl, sweets, or women. It remained fixed at the Lotus Feet of God.}

“मन उन्हीं के पाद-पद्मों में लगा रहा । निक्ती (small balance) के नीचे भी काँटा होता है और ऊपर भी । मन नीचे वाला काँटा है । मुझे सदा ही भय लगा रहता था कि कहीं ऐसा न हो कि ऊपरवाले काँटे से (ईश्वर से) मन विमुख हो जाय । तिस पर एक आदमी  (शिवजी ?)सदा ही हाथ में त्रिशूल लिये मेरे पास बैठे रहता था । उसने डराया, कहा, नीचेवाला काँटा ऊपरवाले काँटे से  इधर-उधर झुका नहीं कि यही त्रिशूल भोंक दूँगा ।

{“তাঁর পাদপদ্মেতেই মন রহিল। নিক্তির নিচের কাঁটা আর উপরের কাঁটা — মন সেই নিচের কাঁটা। পাছে উপরের কাঁটা (ঈশ্বর) থেকে মন বিমুখ হয় সদাই আতঙ্ক। একজন আবার শূল হাতে সদাই কাছে এসে বসে থাকত; ভয় দেখালে, নিচের কাঁটা উপরের কাঁটা থেকে তফাত হলেই এর বাড়ি মারব।

"A small balance has two needles, the upper and the lower. The mind is the lower needle. I was always afraid lest the mind should move away from the upper needle — God. Further, I would see a man always sitting by me with a trident in his hand. He threatened to strike me with it if the lower needle, moved away from the upper one.

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]  

गीता का सार 

[अब श्री रामकृष्ण परम् हंस देव अपने  (1878 से 1880 ई०) के दौरान `रघुबीर के जमीन की रजिस्ट्री' - करने के समय  सारे झगड़े की जड़, `जर, जोरू, जमीन जोर की, नहीं तो और की ' का उल्लेख। ]

🔆🙏जर, जोरू, जमीन का त्याग किये बिना कोई कैसे उन्हें पा सकता है ?🔆🙏

“बात यह है कि कामिनी-कांचन का त्याग हुए बिना कुछ भी आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं । मैंने तीन त्याग किये थे – जमीन, जोरू और जर (रुपया)। भगवान् रघुवीर के नाम की जमीन रजिस्ट्री कराने के लिए मुझे उस देश में (कामारपुकुर में) जाना पड़ा था । मुझसे दस्तखत करने के लिए कहा गया । मैंने दस्तखत नहीं किये। मुझे यह ख्याल था ही नहीं कि यह 'मेरी' जमीन है । रजिस्ट्री आफिसवालों ने केशव सेन का गुरु समझकर मेरा खूब आदर किया था । आम ला दिये, परन्तु घर ले जाने का अख्तियार था ही नहीं, क्योंकि संन्यासी को संचय नहीं करना चाहिए ।

[“কিন্তু কামিনী-কাঞ্চনত্যাগ না হলে হবে না। আমি তিন ত্যাগ করেছিলাম — জমিন, জরু, টাকা।১*   রঘুবীরের নামের জমি ও-দেশে রেজিস্ট্রি করতে গিছলাম। আমায় সই করতে বললে। আমি সই করলুম না। ‘আমার জমি’ বলে তো বোধ নাই। কেশব সেনের গুরু বলে খুব আদর করেছিল। আম এনে দিলে। তা বাড়ি নিয়ে যাবার জো নাই। সন্ন্যাসীর সঞ্চয় করতে নাই।

"But no spiritual progress is possible without the renunciation of 'woman and gold'. I renounced these three: land, wife, and wealth. Once I went to the Registry Office to register some land, the title of which was in the name of Raghuvir. The officer asked me to sign my name; but I didn't do it, because I couldn't feel that it was 'my' land. I was shown much respect as the guru of Keshab Sen. They presented me with mangoes, but I couldn't carry them home. A sannyasi cannot lay things up.}

{*भिक्षु अर्थात कोई संन्यासी यदि  परमहंस होकर भी वह स्वर्ण (धन) से प्रेम करे, तो उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है। भिक्षु होकर यदि परमहंस स्वर्ण से लगाव रखता है, तो चाण्डाल की तरह होता है। स्वर्ण से प्रेम करने वाला भिक्षु आत्मघाती होता है। इसलिए भिक्षु (परमहंस) को चाहिए कि वह न तो स्वर्ण को देखे, न स्पर्श करे और न ग्रहण ही करे। ऐसा परमहंस आप्तकाम हो जाता है अर्थात् या तो उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं या समाप्त हो जाती है। वह दु:ख से उद्विग्न नहीं होता और सुख से भी निस्पृह रहता है। राग को त्याग कर वह शुभ और अशुभ के प्रति आसक्ति रहित हो जाता है, जो न द्वेष करता है, न मुदित होता है।  उसकी समस्त इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं। वह अपने आत्म-तत्त्व में ही स्थित रहता है। वह अपने को सदा पूर्णानन्द, पूर्ण बोध स्वरूप ब्रह्म ही समझता है। ऐसी मान्यता रखने (और अनुभव करने) से वह कृत-कृत्य हो जाता है ॥ (परमहंसोपनिषत् -४) 

भिक्षुः सौवर्णादीनां नैव परिग्रहेन्न लोकनं नावलोकनं च न च बाधकः क इति चेद्बाधकोऽस्त्येव । यस्माद्भिक्षुर्हिरण्यं रसेन ग्राह्यं च स आत्महा भवेत् । तस्माद्भिक्षुर्हिरण्यं रसेन न दृष्टं च न स्पृष्टं च न ग्राह्यं च। ......सर्वे कामा मनोगता व्यावर्तन्ते । दुःखे नोद्विग्नः सुखे न स्पृहा त्यागो रागे सर्वत्र शुभाशुभयोरनभिस्न्नेहो न द्वेष्टि न मोदं च ।सर्वेषामिन्द्रियाणां गतिरुपरमते य आत्मन्येवावस्थीयते । तत्पूर्णानन्दैकबोधस्त-द्ब्रह्मैवाहमस्मीति कृतकृत्यो भवति कृतकृत्यो भवति ॥  साभार https://upanishads.org.in/otherupanishads/19/4 }

“त्याग के बिना कोई कैसे उन्हें पा सकता है ? अगर एक वस्तु के ऊपर दूसरी वस्तु रखी हो, तो पहली वस्तु को बिना हटाये दूसरी वस्तु कैसे मिल सकती है ?

{“ত্যাগ না হলে কেমন করে তাঁকে লাভ করা যাবে! যদি একটা জিনিসের পর আর একটা জিনিস থাকে, তাহলে প্রথম জিনিসটাকে না সরালে, কেমন করে একটা জিনিস পাবে?
"How can one expect to attain God without renunciation? Suppose one thing is placed upon another; how can you get the second without removing the first?}
 
[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]

🔆🙏 सकाम भक्ति भी निष्काम भक्ति में रूपांतरित हो सकती है  🔆🙏

[সকাম ভক্তিও নিস্কাম ভক্তিতে রূপান্তরিত হতে পারে।] 

['If someone in search of glass beads finds gold beads, 
why should he leave it?]

“निष्काम होकर उन्हें पुकारना चाहिए । परन्तु सकाम भजन करते करते भी निष्काम भजन होता है । ध्रुव ने राज्य के लिए तपस्या की थी, परन्तु उन्होंने ईश्वर को प्राप्त किया था । उन्होंने कहा था, 'कांच के मनकों की तलाश में अगर किसीको सोने के मनके मिल जाए तो वह उसे क्यों छोड़े ?'

{“নিষ্কাম হয়ে তাঁকে ডাকতে হয়। তবে সকাম ভজন করতে করতে নিষ্কাম হয়। ধ্রুব রাজ্যের জন্য তপস্যা করেছিলেন, কিন্তু ভগবানকে পেয়েছিলেন। বলেছিলেন, ‘যদি কাচ কুড়ুতে এসে কেউ কাঞ্চন পায়, তা ছাড়বে কেন’?

"One must pray to God without any selfish desire. But selfish worship, if practised with perseverance, is gradually turned into selfless worship. Dhruva practised tapasya to obtain his kingdom, but at last he realized God. He said, 'Why should a man give up gold if he gets it while searching for glass beads?'}

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]

  🔆🙏 विद्यादान भी निष्काम भाव से करना चाहिये-लेकिन है बड़ा कठिन 🔆🙏  

“सत्त्वगुण के पाने पर मनुष्य ईश्वर को पाता है । संसारी मनुष्यों के दानादि कर्म (विद्यादान भी) प्रायः सकाम ही होते हैं। यह अच्छा नहीं । निष्काम कर्म करना ही अच्छा है । परन्तु निष्काम भाव से करना है बड़ा कठिन ।

{“সত্ত্বগুণ এলে তবে তাঁকে লাভ করা যায়। “দানাদি কর্ম  সংসারী লোকের প্রায় সকামই হয় — সে ভাল না। তবে নিষ্কাম করলে ভাল। কিন্তু নিষ্কাম করা বড় কঠিন।

"God can be realized when a man acquires sattva. Householders engage in philanthropic work, such as charity, mostly with a motive. That is not good. But actions without motives are good. Yet it is very difficult to leave motives out of one's actions.}

“ईश्वर से भेंट होने पर क्या उनसे यह प्रार्थना करोगे कि मैं कुछ तालाब खुदवाऊँगा ? या रास्ता, घाट, दवाखाना और अस्पताल बनवाऊंगा ? क्या उनसे कहोगे, हे ईश्वर, मुझे ऐसा वर दीजिये कि मैं यही सब करूँ ? उनका दर्शन होने पर ये सब वासनाएँ, एक ओर पड़ी रहती हैं ।

{“সাক্ষাৎকার হলে ঈশ্বরের কাছে কি প্রার্থনা করবে যে ‘আমি কতকগুলো পুকুর, রাস্তা, ঘাট, ডিস্পেনসারি, হাসপাতাল — এই সব করব, ঠাকুর আমায় বর দাও। তাঁর সাক্ষাৎকার হলে ও-সব বাসনা একপাশে পড়ে থাকে। 

"When you realize God, will you pray to Him, 'O God, please grant that I may dig reservoirs, build roads, and found hospitals and dispensaries'? After the realization of God all such desires are left behind.

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]

🔆🙏 गृहस्थ को दान देते समय  'मैं अकर्ता हूँ ; दाता एक राम' यह बोध रहना चाहिए 🔆🙏 

“परन्तु इसलिए क्या दया और दान के कर्म ही न करना चाहिए ?

“नहीं, यह बात नहीं । आँखों से आगे दुःख और विपत्ति देखकर धन के रहते सहायता आवश्यक करनी चाहिए । ऐसे समय ज्ञानी कहता है, ‘दे, इसे कुछ दे ।’ परन्तु भीतर ही भीतर ‘मैं क्या कर सकता हूँ – कर्ता ईश्वर ही हैं, अन्य सब अकर्ता हैं’ – ऐसा बोध उसे होता रहता है ।

{“তবে দয়ার কাজ — দানাদি কাজ — কি কিছু করবে না?“তা নয়। সামনে দুঃখ কষ্ট দেখলে টাকা থাকলে দেওয়া উচিত। জ্ঞানী বলে, ‘দে রে দে রে, এরে কিছু দে।’ তা না হলে, ‘আমি কি করতে পারি, — ঈশ্বরই কর্তা আর সব অকর্তা’ এইরূপ বোধ হয়।

Then mustn't one perform acts of compassion, such as charity to the poor? I do not forbid it. If a man has money, he should give it to remove the sorrows and sufferings that come to his notice. In such an event the wise man says, 'Give the poor something.' But inwardly he feels: 'What can I do? God alone is the Doer. I am nothing.'}

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]

अवतार रूपी सच्चिदानन्द की भक्ति ही ऑक्सीज़न है ! 

🔆🙏अन्नदान की अपेक्षा ज्ञानदान और भक्तिदान अधिक ऊँचा है ।🔆🙏

[मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता -युगावतार को पहचानना और उनकी भक्ति करना है] 

[আম খেতে এসেছ, আম খেয়ে যাও। জ্ঞান-ভক্তির প্রয়োজন। ]

[The gift of knowledge and devotion is far superior to the gift of food.]  

“महापुरुषगण जीवों के दुःख से दुःखी होकर ईश्वर का मार्ग बतला जाते हैं । शंकराचार्य ने जीवों की शिक्षा के लिए ‘विद्या का अहं’ रखा था ।

अन्नदान की अपेक्षा ज्ञानदान और भक्तिदान अधिक ऊँचा है । चैतन्यदेव (समता की मूर्ति - रामानुजाचार्य ?) ने इसीलिए चाण्डालों (आलवार) तक में भक्ति का वितरण किया था । देह का सुख और दुःख तो लगा ही है । यहाँ आम खाने के लिए आये हो, आम खा जाओ । आवश्यकता ज्ञान और भक्ति की है। ईश्वर (सच्चिदानन्द) ही वस्तु है, और सब अवस्तु ।

{“মহাপুরুষেরা জীবের দুঃখে কাতর হয়ে ভগবানের পথ দেখিয়ে দেন। শঙ্করাচার্য জীবশিক্ষার জন্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিলেন।“অন্নদানের চেয়ে জ্ঞানদান, ভক্তিদান আরও বড়। চৈতন্যদেব তাই আচণ্ডালে ভক্তি বিলিয়েছিলেন। দেহের সুখ-দুঃখ তো আছেই। এখানে আম খেতে এসেছ, আম খেয়ে যাও। জ্ঞান-ভক্তির প্রয়োজন। ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু।”

"The great souls, deeply affected by the sufferings of men, show them the way to God. Sankaracharya kept the 'ego of Knowledge' in order to teach mankind. The gift of knowledge and devotion is far superior to the gift of food. Therefore Chaitanyadeva distributed bhakti to all, including the out-caste. Happiness and suffering are the inevitable characteristics of the body. You have come to eat mangoes. Fulfil that desire. The one thing needful is jnana and bhakti. God alone is Substance; all else is illusory.}

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]

🔆 ईश्वरदर्शन के बाद ही 'ईश्वर ही कर्ता है और जीव अकर्ता' का बोध होता है 🔆

 [যার ঠিক বোধ হয়েছে ‘ঈশ্বর কর্তা আমি অকর্তা’ তার আর বেতালে পা পড়ে না।]

“सब कुछ वे ही कर रहे हैं । अगर यह कहो कि सब कुछ उनके मत्थे मढ़कर फिर तो मनुष्य खूब पाप कर सकता है, तो यह ठीक न होगा; क्योंकि जिसने यह समझा है कि --" ईश्वर ही कर्ता है और जीव अकर्ता, उसका पैर कभी बेताल नहीं पड़ सकता ।

{“তিনি সব কচ্ছেন। যদি বল তাহলে লোকে পাপ করতে পারে। তা নয় — যার ঠিক বোধ হয়েছে ‘ঈশ্বর কর্তা আমি অকর্তা’ তার আর বেতালে পা পড়ে না।"

It is God alone who does everything. You may say that in that case man may commit sin. But that is not true. If a man is firmly convinced that God alone is the Doer and that he himself is nothing, then he will never make a false step.}

  [ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]

[इंग्लिशमैन के 'Free Will' का दुष्प्रभाव] 

[मिश्राजी प्रेफ़ेसर BIT राँची से मिलने जाना : ` स्वाधीन इच्छा के बल पर किसी-किसी बछड़े का खूँटा उखाड़ कर भाग जाना' भी माँ जगदम्बा कृपा पर निर्भर करता है ! हर क्लास में फर्स्ट होना /pvt limited IT कम्पनी का CEO /होटल का मालिक / फैक्ट्री का मालिक  खुद बना ? नहीं !! माँ जगदम्बा की कृपा से बना, मेहनत तो रिक्सावला भी करता है । जिन्होंने उन्हें पा लिया है, वे जानते हैं स्वाधीन इच्छा नाममात्र की है     

🔆जिन्हें माँ जगदम्बा पर विश्वास नहीं वैसे  इंग्लिशमैन" को 'Free Will' का भ्रम होगा 🔆

श्रीरामकृष्ण “इंग्लिशमैन ^* जिसे स्वाधीन इच्छा (Free Will) कहते हैं, वह उन्होंने ही दे रखी है ।

[“ইংলিশম্যান-রা যাকে স্বাধীন ইচ্ছা (Free will) বলে, সেই স্বাধীন ইচ্ছাবোধ তিনিই দিয়ে রাখেন।

"It is God alone who has planted in man's mind what the 'Englishman' ^  calls free will

[^श्री रामकृष्ण ने इस शब्द 'इंग्लिशमैन' का प्रयोग  सामान्य रूप से यूरोपीय लोगों को दर्शाने के लिए करते थे , अथवा वैसे भारतीय लोगों के लिए भी करते थे जो पाश्चात्य सभ्यता और शिक्षा से प्रभावित थे। ^Sri Ramakrishna used this word to denote Europeans in general, and also those whose ways and thoughts were largely influenced by Western ideas,] 

‘जिन लोगों ने उन्हें नहीं पाया, उनमें अगर इस स्वाधीन इच्छा का बोध न होता तो उनसे पाप की वृद्धि हो सकती थी । अपने दोषों से मैं पाप कर रहा हूँ – यह ज्ञान अगर (डाकू रत्नाकर को) उन्होंने न दिया होता तो पाप की और भी वृद्धि होती ।

[“যারা তাঁকে লাভ করে নাই, তাদের ভিতর ওই স্বাধীন ইচ্ছাবোধ না দিলে পাপের বৃদ্ধি হত। নিজের দোষে পাপ কচ্ছি, এ-বোধ যদি তিনি না দিতেন, তাহলে পাপের আরও বৃদ্ধি হত।

People who have not realized God would become engaged in more and more sinful actions if God had not planted in them the notion of free will. Sin would have increased if God had not made the sinner (डाकू रत्नाकर )  feel that he alone was responsible for his sin.

“जिन्होंने उन्हें पा लिया है, वे जानते हैं स्वाधीन इच्छा नाममात्र की है । वास्तव में वे ही यन्त्री (ऑपरेटर) हैं , मैं केवल यन्त्र (मशीन)  हूँ; वे ड्राइवर है, मैं गाड़ी !”

{“যারা তাঁকে লাভ করেছে, তারা জানে দেখতেই ‘স্বাধীন ইচ্ছা’ — বস্তুতঃ তিনিই যন্ত্রী, আমি যন্ত্র। তিনি ইঞ্জিনিয়ার, আমি গাড়ি।”

"Those who have realized God are aware that free will is a mere appearance. In reality man is the machine and God its Operator, man is the carriage and God its Driver."}

(२)

    [ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]

🔆🙏युवावस्था से ही हमेशा भक्ति और भक्तों की संगत में ही रहना चाहिए 🔆🙏

दिन का पिछला पहर हैं । चार बजे का समय होगा । पंचवटीवाले कमरे में श्रीयुत राखाल तथा और भी दो-एक भक्त मणि का कीर्तन सुन रहे हैं ।

गाना सुनकर राखाल को भावावेश हो गया है ।

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण पंचवटी में आये । उनके साथ बाबूराम और हरीश हैं ।

[বেলা চারিটা বাজিয়াছে। পঞ্চবটীঘরে শ্রীযুক্ত রাখাল, আরও দু-একটি ভক্ত মণির কীর্তন গান শুনিতেছেন —গান —ঘরের বাহিরে দণ্ডে শতবার তিলে তিলে এসে যায়। রাখাল গান শুনিয়া ভাবাবিষ্ট হইয়াছেন।কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ পঞ্চবটিতে আসিয়াছেন। তাঁহার সঙ্গে বাবুরাম, হরিশ — ক্রমে রাখাল ও মণি।

It was about four o'clock. Rakhal and several other devotees were listening to a kirtan by M. in the hut at the Panchavati. Rakhal went into a spiritual mood while listening to the devotional song. After a while the Master came to the Panchavati accompanied by Baburam and Harish. Other devotees followed.]

राखाल – इन्होंने कीर्तन सुनाकर हम लोगों को खूब प्रसन्न किया ।

{রাখাল — ইনি আজ বেশ কীর্তন করে আনন্দ দিয়েছেন।

RAKHAL: "How well he [referring to M.] sang kirtan for us! He made us all very happy."

श्रीरामकृष्ण भावावेश में गा रहे हैं  `बाँचलाम सखी , सुनी कृष्णनाम (भालो कथार मन्द ओ भालो। )বাঁচলাম সখি, শুনি কৃষ্ণনাম (ভাল কথার মন্দও ভাল)। `ऐ सखि, कृष्ण का नाम सुनकर मेरे जी में जी आ गया। ’ 

श्रीरामकृष्ण ने (मणि के प्रति) कहा, यही सब गाना चाहिए – ‘सब सखि मिलि बैठल ।" (সব সখি মিলি বৈঠল,) फिर कहा – बात यही है कि भक्ति और भक्तों को लेकर रहना चाहिए ।

{ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ভাবাবিষ্ট হইয়া গান গাহিতেছেন: 'বাঁচলাম সখি, শুনি কৃষ্ণনাম (ভাল কথার মন্দও ভাল)।(মণির প্রতি) — এই সব গান গাইবে — ‘সব সখি মিলি বৈঠল, (এই তো রাই ভাল ছিল)। (বুঝি হাট ভাল!)’আবার বলিতেছেন, “এই আর কি! — ভক্তি, ভক্ত নিয়ে থাকা।”

The Master sang in an ecstatic mood: "O friends, how great is my relief,To hear you chanting Krishna's name! . . .To the devotees he said, "Always sing devotional songs."To the devotees he said, "Always sing devotional songs." Continuing, he said: "To love God and live in the company of the devotees: that is all. What more is there?''}

      [ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]

" अवतार वरिष्ठ के भक्त ही अपने आत्मीय (गोतिया relatives)  हैं ।”

🔆🙏श्री राधिका (माँ सारदा) ने यशोदा से कहा  - मैं आदिशक्ति हूँ ! तुम मुझसे वर माँगो 🔆🙏

শ্রীমতী যশোদাকে বললেন, ‘আমি অদ্যাশক্তি, তুমি আমার কাছে কিছু বর লও।’

 'I am the Primordial Energy. Ask a boon of Me.'

‘श्रीकृष्ण के मथुरा जाने पर यशोदा राधिका के पास गयी थीं । राधिका उस समय ध्यान में थीं । फिर उन्होंने यशोदा से कहा, मैं आदिशक्ति हूँ । तुम मुझसे वरयाचना करो । यशोदा ने कहा – वर और क्या दोगी, - यही कहो जिससे मन, वचन और कर्मों से उनकी सेवा कर सकूं – इन्हीं आँखों से उनके भक्तों के दर्शन हों – इस मन से उनका ध्यान और उनका चिन्तन हो और वाणी से उनके नाम और गुणों का कीर्तन हो ।

{“কৃষ্ণ মথুরায় গেলে যশোদা শ্রীমতীর কাছে এসেছিলেন। শ্রীমতী ধ্যানস্থ ছিলেন। তারপর যশোদাকে বললেন, ‘আমি অদ্যাশক্তি, তুমি আমার কাছে কিছু বর লও।’ যশোদা বললেন, ‘বর আর কি দিবে! — তবে এই বলো — যেন কায়মনোবাক্যে তারই সেবা করতে পারি, — যেন এই চক্ষে তার ভক্তের দর্শন হয়; — এই মনে তার ধ্যান চিন্তা যেন হয় — আর বাক্য দ্বারা তার নামগুনগান যেন হয়।’

Continuing, he said: "To love God and live in the company of the devotees: that is all. What more is there?'' He said, again: "When Krishna went to Mathura, Yasoda came to Radha, who was absorbed in meditation. Afterwards Radha said to Yasoda: 'I am the Primordial Energy. Ask a boon of Me.' 'What other boon shall I ask of You?' said Yasoda. 'Only bless me that I may serve God with my body, mind, and tongue; that I may behold His devotees with these eyes, that I may meditate on Him with this mind, and that I may chant His name and glories with this tongue.'}

“परन्तु जिनकी भक्ति दृढ़ हो गयी है, उनके लिए भक्तों का संग न होनेपर भी कुछ हर्ज नहीं है । कभी कभी तो भक्तों से विरक्ति भी हो जाती है । बहुत चिकनी दीवाल पर से चूनाकारी धस जाती है । अर्थात् वे जिनके अन्तर-बाहर सर्वत्र है, उन्हीं की यह अवस्था है ।”

{“তবে যাদের খুব পাকা হয়ে গেছে, তাদের ভক্ত না হলেও চলে — কখন কখন ভক্ত ভাল লাগে না। পঙ্খের কাজের উপর চুনকাম ফেটে যায় অর্থাৎ যার তিনি অন্তরে বাহিরে তাদের এইরূপ অবস্থা।”

"But those who are firmly established in God may do as well without the devotees. This is true of those who feel the presence of God both within and without. Sometimes they don't enjoy the devotees' company. You don't whitewash a wall inlaid with mother of pearl — the lime won't stick."

श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले से लौटकर पंचवटी के नीचे मणि से फिर कह रहे है “तुम्हारी आवाज स्त्रियों जैसी है । तुम इस तरह के गानों का अभ्यास कर सकते हो ?  " सखी से वन कोतो दूर ? जे वने आमार श्यामसुन्दर ! ' (সখি সে বন কত দূর! — যে বনে আমার শ্যামসুন্দর।'') (भावार्थ) सखि, वह बन कितनी दूर है जहाँ मेरे श्यामसुन्दर हैं ? 

{ঠাকুর ঝাউতলা হইতে ফিরিয়া আসিয়া পঞ্চবটীমূলে মণিকে আবার বলিতেছেন — “তোমার মেয়ে সুর — এইরকম গান অভ্যাস করতে পার? — ‘সখি সে বন কত দূর! — যে বনে আমার শ্যামসুন্দর।’

The Master returned presently from the Panchavati, talking to M. MASTER: "You have the voice of a woman. Can't you practise a song such as this? —Tell me, friend, how far is the grove,Where Krishna, my Beloved, dwells?‘(Tell me, friend, how far is the grove, Where Krishna, my Beloved, dwells?)

(बाबूराम की ओर देखकर मणि से) “देखो, जो अपने आदमी हैं, वे पराये हो जाते हैं, - रामलाल तथा और सब लोग अब जैसे कोई दूसरे हों । फिर जो लोग दूसरे हैं, वे अपने हो जाते हैं । देखो न, बाबूराम से कहता हूँ, जंगल जा, हाथ-मुँह धो । अब तो भक्त ही अपने आत्मीय हैं ।”

{(বাবুরাম দৃষ্টে, মণির প্রতি) — “দেখ, যারা আপনার তারা হল পর — রামলাল আর সব যেন আর কেউ। যারা পর তারা হল আপনার, — দেখ না, বাবুরামকে বলছি — ‘বাহ্যে যা — মুখ ধো।’ এখন ভক্তরাই আত্মীয়।”

(To M., pointing to Baburam) "You see, my own people have become strangers; Ramlal and my other relatives seem to be foreigners. And strangers have become my own. Don't you notice how I tell Baburam to go and wash his face? The devotees have become relatives.}

मणि – जी हाँ ।

      [ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]

[जगत 'शक्ति' (जगतजननी)  का राज्य है , यहाँ आकर शक्ति को मानना ही पड़ेगा।] 

🔆🙏 काल ही ब्रह्म है । जो काल के साथ रमण करती है, वही काली है – आद्यशक्ति ! 🔆🙏

[ কালই ব্রহ্ম। যিনি কালের সহিত রমণ করেন, তিনিই কালী — আদ্যাশক্তি।

Kala, Siva, is Brahman. That which sports with Kala is Kali, the Primal Energy.] 

श्रीरामकृष्ण – (पंचवटी की ओर देखकर) – इस पंचवटी में मैं बैठता था – ऐसा भी समय आया कि मुझे उन्माद हो गया ! वह समय भी बीत गया ! काल ही ब्रह्म है । जो काल के साथ रमण करती है, वही काली है – आद्यशक्ति ! वे अटल को टाल देती है । [ आद्यशक्ति माँ काली अचल (Immutable-अपरिवर्तनशील ) को भी चलायमान (परिवर्तनशील)  बना देती हैं।] 

{শ্রীরামকৃষ্ণ (পঞ্চবটী দৃষ্টে) — এই পঞ্চবটীতে বসতাম। কালে উন্মাদ হলাম। তাও গেল। কালই ব্রহ্ম। যিনি কালের সহিত রমণ করেন, তিনিই কালী — আদ্যাশক্তি। অটলকে টলিয়ে দেন।

(Looking at the Panchavati) "I used to sit there. In course of time I became mad. That phase also passed away. Kala, Siva, is Brahman. That which sports with Kala is Kali, the Primal Energy. Kali moves even the Immutable"}

यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे -

भाब कि भेबे परान गेलो,

जार नामे हर काल, पदे महाकाल, तार केनो कालोरुप होलो ?

कालोरुप अनेक आछे, ए बडो आश्चर्य कालो, 

जाँरे हृदि माझे राखले परे हृदिपद्म कोरे आलो, 

रुपे काली, नामे काली, कालो होते अधिक कालो।

ओ रुप जे देखेछे, शे मेजेछे अन्यरुप लागे ना भालो,

प्रसाद बोले कुतुहले, एमोन मेये कोथाय छिलो, 

ना देखे नाम शुने काने मन गिये ताय लिप्त होलो। 

भाव कि भेवे प्राण गेलो। 

(भावार्थ) ‘तुम्हारा भाव क्या है, यह सोचते हुए यहाँ तो प्राण ही निकलने पर आ गये ! जिनके नाम से काल भी दूर हट जाता है, जिनके पैरों के नीचे महाकाल पड़े हुए हैं, उनका स्वरूप काला क्यों हुआ ?”

{এই বলিয়া ঠাকুর গান গাহিতেছেন — ‘ভাব কি ভেবে পরাণ গেল। যার নামে হর কাল, পদে মহাকাল, তার কালোরূপ কেন হল!’

[Saying this, the Master sang:My mind is overwhelmed with wonder, Pondering the Mother's mystery; Her very name removes, The fear of Kala, Death himself; Beneath Her feet lies Maha-Kala. Saying this, the Master sang: . . .My mind is overwhelmed with wonder, Pondering the Mother's mystery; Her very name removes The fear of Kala, Death himself; Beneath Her feet lies Maha-Kala.]  

श्रीरामकृष्णआज शनिवार * है, आज काली मन्दिर जाना ।

^*शनिवार और मंगलवार को मां काली की पूजा के लिए शुभ दिन माना जाता है।

{“আজ শনিবার, মা-কালীর ঘরে যেও।

”Then he said to M.: "Today is Saturday.5 Go to the temple of Kali."

*Saturday and Tuesday are regarded as auspicious days for the worship of the Divine Mother.]

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]  

🔆🙏  चिदात्मा पुरुष (श्रीरामकृष्ण) हैं और चित्-शक्ति प्रकृति (श्रीराधा-सारदा) 🔆🙏 

 [अवतारवरिष्ठ के भक्त  सखी-भाव या दास-भाव को लेकर रहेंगे । यही असली बात है ।] 

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (1) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा रचित -

नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |

वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||

नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |

सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||

सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||

सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||

[ शक्ति का उपासक यानि माँ सारदा (तारा) का पुत्र अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वे स्वयं इतनी प्रकाशमयी हैं कि उनकी सन्तानों का मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।] 

बकुल के पेड़ के नीचे आकर श्रीरामकृष्ण मणि से कह रहे हैं – “चिदात्मा और चित्-शक्ति । चिदात्मा पुरुष हैं और चित्-शक्ति प्रकृति । चिदात्मा श्रीकृष्ण हैं और चित्-शक्ति श्रीराधा । भक्तगण उसी चित्-शक्ति के एक-एक स्वरूप हैं । वे सखी-भाव या दासभाव को लेकर रहेंगे । यही असली बात है ।”

[ चिदात्मा श्रीकृष्ण ^* : देवी पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण (श्रीरामकृष्ण ?) कालिका देवी के अवतार हैं।  श्रीकृष्ण की लीलास्थली वृंदावन में एक ऐसा मंदिर विद्यमान है, जहां कृष्ण की काली रूप में पूजा होती है।  काली का अवतार होने के कारण वह जीव-रूप में लीला करने पर भी वे जीव से परे हैं। ] 

{বকুলতলার নিকট আসিয়া ঠাকুর মণিকে বলিতেছেন —“চিদাত্মা আর চিচ্ছক্তি। চিদাত্মা পুরুষ, চিচ্ছক্তি প্রকৃতি। চিদাত্মা শ্রীকৃষ্ণ, চিচ্ছক্তি শ্রীরাধা। ভক্ত ওই চিচ্ছক্তির এক-একটি রূপ।“অন্যান্য ভক্তেরা সখীভাব বা দাসভাবে থাকবে। এই মূলকথা।”“চিদাত্মা আর চিচ্ছক্তি। চিদাত্মা পুরুষ, চিচ্ছক্তি প্রকৃতি। চিদাত্মা শ্রীকৃষ্ণ, চিচ্ছক্তি শ্রীরাধা। ভক্ত ওই চিচ্ছক্তির এক-একটি রূপ।"“অন্যান্য ভক্তেরা সখীভাব বা দাসভাবে থাকবে। এই মূলকথা।”

 Chidatma and Chitsakti. The Purusha is the Chidatma and Prakriti is the Chitsakti. Sri Krishna is the Chidatma and Sri Radha the Chitsakti. The devotees are so many forms of the Chitsakti. They should think of themselves as companions or handmaids of the Chitsakti, Sri Radha. This is the whole gist of the thing."}

सन्ध्या हो जाने पर श्रीरामकृष्ण काली-मन्दिर गये । मंदिर में मणि माता का स्मरण कर रहे हैं, यह देखकर श्रीरामकृष्ण प्रसन्न हुए ।

{সন্ধ্যার পর ঠাকুর কালীঘরে গিয়াছেন। মণি সেখানে মার চিন্তা করিতেছেন দেখিয়া ঠাকুর প্রসন্ন হইয়াছেন।

After dusk Sri Ramakrishna went to the Kali temple and was pleased to see M. meditating there.] 

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]   

🔆🙏श्रीरामकृष्ण की एक झलक से सात जन्मों की तर्क-बुद्धि चकनाचूर हो जाती है🔆🙏

[लेकिन विश्वास चाहिए – गुरुवाक्य में विश्वास – बालक जैसा विश्वास !]

বিশ্বাস চাই (গুরুবাক্যে বিশ্বাস) — বালকের মতো বিশ্বাস।

 One needs faith — faith in the words of the guru (तत्त्वमसि) , childlike faith.]

सब देवालयों में आरती हो गयी । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में तख्त पर बैठे हुए माता का स्मरण कर रहे हैं । जमीन पर सिर्फ मणि बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण समाधिस्थ हो गये हैं ।

{সমস্ত দেবালয়ে আরতি হইয়া গেল। ঠাকুর ঘরে তক্তার উপর বসিয়া মার চিন্তা করিতেছেন। মেঝেতে কেবল মণি বসিয়া আছেন। ঠাকুর সমাধিস্থ হইয়াছেন।

The evening worship was over in the temples. The Master returned to his room and sat on the couch, absorbed in meditation on the Divine Mother. M. sat on the floor. There was no one else in the room.]

कुछ देर बाद वे समाधि से उतरने लगे; परन्तु फिर भी अभी भाव पूर्ण मात्रा में हैं । श्रीरामकृष्ण माँ से बातचीत कर रहे हैं, जैसे छोटा बच्चा माँ से दुलार करते हुए बातचीत करता है । माँ से करूण स्वर में कह रहे हैं – “माँ, क्यों तूने वह रूप नहीं दिखाया – वही भुवन-मोहन रूप ! कितना मैंने तुझसे कहा । परन्तु कहने से तू सुनेगी काहे को ? – तू इच्छामयी जो है ।”

{কিয়ৎক্ষণ পরে সমাধু ভঙ্গ হইতেছে। এখন ভাবের পূর্ণ মাত্রা — ঠাকুর মার সঙ্গে কথা কহিতেছেন। ছোটছেলে যেমন মার কাছে আবদার করে কথা কয়। মাকে করুণস্বরে বলিতেছেন, “ওমা, কেন সে রূপ দেখালি নি! সেই ভুবনমোহন রূপ! এত করে তোকে বললাম! তা তোকে বললে তো তুই শুনবিনি! তুই ইচ্ছাময়ী।”

The Master was in samadhi. He began to come gradually down to the normal plane. His mind was still filled with the consciousness of the Divine Mother. In that state he was speaking to Her like a small child making importunate demands on his mother. He said in a piteous voice: "Mother, why haven't You revealed to me that form of Yours, the form that bewitches the world? I pleaded with You so much for it. But You wouldn't listen to me. You act as You please."

श्रीरामकृष्ण ने माँ से ऐसे स्वर में ये बातें कहीं कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघलकर पानी हो जाय !

श्रीरामकृष्ण फिर माँ से बातचीत कर रहे हैं –

“माँ ! विश्वास चाहिए ! यह साला तर्क-विचार दूर हो जाय ! –सात जन्मों की तर्क-बुद्धि तुम्हारी (अवतरवरिष्ठ की )  एक झलक से चली जाती है !  लेकिन विश्वास चाहिए – गुरुवाक्य में विश्वास – बालक जैसा विश्वास ! – माँ ने कहा, वहाँ भूत है – तो उसने ठीक समझ रखा है कि वहाँ भूत है ! माँ ने कहा, वहाँ हौआ है ! तो इसीको उसने ठीक समझ रखा है । माँ ने कहा, वह तेरा दादा है, तो समझ लिया कि बस सोलहों आने दादा है ! विश्वास चाहिए !

{ সুর করে মাকে এই কথাগুলি বললেন, শুনলে পাষাণ বিগলিত হয়। ঠাকুর আবার মার সঙ্গে কথা কহিতেছেন —“মা বিশ্বাস চাই। যাক শালার বিচার। সাত চোনার বিচার এক চোনায় যায়। বিশ্বাস চাই (গুরুবাক্যে বিশ্বাস) — বালকের মতো বিশ্বাস। মা বলেছে, ওখানে ভূত আছে, তা ঠিক জেনে আছে, — যে ভূত আছে। মা বলেছে, ওখানে জুজু। তো তাই ঠিক জেনে আছে। মা বলেছে, ও তোর দাদা হয় — তো জেনে আছে পাঁচ সিকে পাঁচ আনা দাদা। বিশ্বাস চাই!

The voice in which these words were uttered was very touching. He went on: "Mother, one needs faith. Away with this wretched reasoning! Let it be blighted!  One needs faith — faith in the words of the guru (तत्त्वमसि) , childlike faith. The mother says to her child, 'A ghost lives there', and the child is firmly convinced that the ghost is there. Again, the mother says to the child, 'A bogy man is there', and the child is sure of it. Further, the mother says, pointing to a man, 'He is your elder brother', and the child believes that the man is one hundred and twenty-five per cent his brother. 

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]   

🔆🙏माँ काली के अवतार पर विश्वास के लिए एक बार युक्ति-तर्क से गुजरना जरूरी है🔆🙏

[বিচার একবার তো করে নিতে হয়!] 

It is necessary to go through reasoning once.

“परन्तु माँ उन्हीं का क्या दोष है ! वे क्या करेंगे ! विचार एक बार तो कर लेना चाहिए ! देखो न, अभी उस दिन इतना समझाकर कहा, परन्तु कुछ न हुआ – आज बिलकुल ....”

“কিন্তু মা! ওদেরই বা দোষ কি! ওরা কি করবে! বিচার একবার তো করে নিতে হয়! দেখ না ওই সেদিন এত করে বললাম, তা কিছু হল না — আজ কেন একেবারে — * * * *”

One needs faith. But why should I blame them, Mother? What can they do? It is necessary to go through reasoning once. Didn't You see how much I told him about it the other day? But it all proved useless."

श्रीरामकृष्ण माँ के पास करुणापूर्ण गद्गद स्वर से रोते हुए प्रार्थना कर रहे हैं । क्या आश्चर्य है ! भक्तों के लिए माँ के पास रो रहे हैं – “माँ, तुम्हारे पास जो लोग आते हैं उनका मनोरथ पूर्ण करो ! –लेकिन उन्हें एक ही झटके में सब-कुछ त्याग करने पर मजबूर न करना, माँ ! अच्छा, अन्त में जैसा तुम्हें समझ पड़े करना !

[ঠাকুর মার কাছে করুণ গদ্‌গদস্বরে কাঁদিতে কাঁদিতে প্রার্থনা করিতেছেন। কি আশ্চর্য! ভক্তদের জন্য মার কাছে কাঁদছেন — “মা, যারা যারা তোমার কাছে আসছে, তাদের মনোবাঞ্ছা পূর্ণ করো! সব ত্যাগ করিও না মা! আচ্ছা, শেষে যা হয় করো! 

The Master was weeping and praying to the Mother in a voice choked with emotion. He prayed to Her with tearful eyes for the welfare of the devotees: "Mother, may those who come to You have all their desires fulfilled! But please don't make them give up everything at once, Mother. Well, You may do whatever You like in the end. If You keep them in the world, Mother, then please reveal Yourself to them now and then. Otherwise, how will they live? How will they be encouraged if they don't see You once in a while? But You may do whatever You like in the end."

“माँ, संसार में (गृहस्थ जीवन में) अगर रखना तो एक बार दर्शन देना । नहीं तो कैसे रहेंगे ? एक एक बार दर्शन दिये बिना उत्साह कैसे होगा, माँ ! – इसके बाद अन्त में चाहे जो करना ।”

{“মা, সংসারে যদি রাখো, তো এক-একবার দেখা দিস! না হলে কেমন করে থাকবে। এক-একবার দেখা না দিলে উৎসাহ কেমন করে মা! তারপর শেষে যা হয় করো!” 

If You keep them in the world, Mother, then please reveal Yourself to them now and then. Otherwise, how will they live? How will they be encouraged if they don't see You once in a while? But You may do whatever You like in the end."]

श्रीरामकृष्ण अब भी भावावेश में हैं । उसी अवस्था में एकाएक मणि से कह रहे हैं – “देखो तुमने जो कुछ तर्क-विचार किया वह बहुत हो गया है । अब बस करो । कहो (वादा करो) , अब तो तर्क-विचार नहीं करोगे ?”

{ঠাকুর এখনও ভাবাবিষ্ট। সেই অবস্থায় হঠাৎ মণিকে বলিতেছেন, “দেখো, তুমি যা বিচার করেছো, অনেক হয়েছে। আর না। বল আর করবে না?”

The Master was still in the ecstatic mood. Suddenly he said to M: "Look here, you have had enough of reasoning. No more of it. Promise that you won't reason any more."

मणि हाथ जोड़कर कह रहे हैं “जी नहीं, अब नहीं करूँगा ।”

মনী করজোড়ে বলিতেছেন, আজ্ঞা না।

M. (with folded hands): "Yes, sir. I won't."

[श्री रामकृष्ण परमहंस (स्वयं महाकाल थे, लेकिन) माँ काली के भक्त थे। रामकृष्ण की चेतना इतनी ठोस थी कि वह जिस रूप की इच्छा करते थे, वह उनके लिए एक हकीकत बन जाती थी। उनके लिए काली कोई देवी नहीं थीं, वह एक जीवित हकीकत थी। काली उनके सामने नाचती थीं, उनके हाथों से खाती थीं, उनके बुलाने पर आती थीं और उन्हें आनंदविभोर छोड़ जाती थीं। यह वास्तव में होता था, यह घटना वाकई होती थी। उन्हें कोई मतिभ्रम नहीं था, वह वाकई काली को खाना खिलाते थे। जब वह उनके भीतर प्रबल होतीं, तो वह आनंदविभोर हो जाते और नाचना-गाना शुरू कर देते। जब वह थोड़े मंद होते और काली से उनका संपर्क टूट जाता, तो वह किसी शिशु की तरह रोना शुरू कर देते। 

इसलिए तोतापुरी जिस ब्रह्मज्ञान की बात कर रहे थे, उन सब में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। तोतापुरी ने कई तरीके से उन्हें समझाने की कोशिश की मगर रामकृष्ण समझने के लिए तैयार नहीं थे। तोतापुरी बोले, ‘यह बहुत आसान है। फिलहाल आप अपनी भावनाओं को शक्तिशाली बना रहे हैं, अपने शरीर को समर्थ बना रहे हैं, अपने भीतर के रसायन को शक्तिशाली बना रहे हैं। लेकिन आप अपनी जागरूकता को शक्ति नहीं दे रहे। आपके पास जरूरी ऊर्जा है मगर आपको सिर्फ अपनी जागरूकता को सक्षम बनाना है।’ अगर आप एक पूरी काली बनाने में समर्थ हैं, तो आप तलवार क्यों नहीं बना सकते? आप ऐसा कर सकते हैं। अगर आप एक देवी बना सकते हैं, तो उसे काटने के लिए एक तलवार क्यों नहीं बना सकते? तैयार हो जाइए।’ रामकृष्ण मान गए और बोले, ‘ठीक है, मैं अपनी जागरूकता को और शक्तिशाली बनाउंगा और अपनी पूरी जागरूकता में बैठूंगा।’मगर जिस पल उन्हें काली के दर्शन होते, वह फिर से प्रेम और परमानंद की बेकाबू अवस्था में पहुंच जाते। वह चाहे कितनी भी बार बैठते, काली को देखते ही उड़ने लगते। उसी समय तोतापुरी ने शीशे के उस टुकड़े से रामकृष्ण के भ्रूमध्य में  एक गहरा चीरा लगा दिया .... फिर तोतापुरी बोले, ‘अगली बार जब भी काली दिखें, आपको एक तलवार लेकर उनके टुकड़े करने हैं।’ रामकृष्ण ने पूछा, ‘मुझे तलवार कहां से मिलेगी?’ तोतापुरी ने जवाब दिया, ‘वहीं से, जहां से आप काली को लाते हैं।उसी समय, रामकृष्ण ने अपनी कल्पना में ज्ञान की तलवार बनाई और काली के टुकड़े कर दिए, इस तरह वह मां और मां से मिलने वाले परमानंद से मुक्त हो गए।  अब वह वास्तव में एक परमहंस और पूर्ण ज्ञानी बन गए। उस समय तक वह एक प्रेमी थे, भक्त थे, उस देवी मां के बालक थे, जिन्हें उन्होंने खुद उत्पन्न किया था। साभार : https://hi.quora.com/]

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]   

🔆🙏🔆अब घर में रहो – दिखाना कि तुम उनके अपने आदमी हो🔆🙏🔆

[ছেলে হয়েছে শুনে বকেছিলাম। এখন গিয়ে বাড়িতে থাকো —

জানিও যেন তুমি তাদের আপনার।

Now live in home, show as if you belong to them, 

But remember that you do not belong to them nor they to you.]

श्रीरामकृष्ण – बहुत हो चुका ! – तुम्हारे आते ही तो मैंने तुम्हें बतला दिया था – तुम कौन हो ,तुम्हारा आध्यात्मिक ध्येय क्या है । मैं यह सब तो जानता हूँ ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার ঘর, তুমি কে, তোমার অন্তর বাহির, তোমার আগেকার কথা, তোমার পরে কি হবে — এ-সব তো আমি জানি?

MASTER: "Yes, I know everything: what your Ideal is, who you are, your inside and outside, the events of your past lives, and your future. Do I not?"]

मणि – (हाथ जोड़कर) – जी हाँ ।

{মণি — (কৃতাঞ্জলি) — আজ্ঞা হাঁ।

M. (with folded hands): "Yes, sir."

श्रीरामकृष्ण तुम्हारे लड़के हुए हैं, सुनकर तुम्हें फटकारा था – अब जाकर घर में रहो – उन्हें दिखाना कि तुम उनके अपने आदमी हो, परन्तु भीतर से समझे रहना, तुम भी उनके अपने नहीं हो और वे भी तुम्हारे अपने नहीं ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — ছেলে হয়েছে শুনে বকেছিলাম। এখন গিয়ে বাড়িতে থাকো — তাদের জানিও যেন তুমি তাদের আপনার। ভিতরে জানবে তুমিও তাদের আপনার নও, তারাও তোমার আপনার নয়।

MASTER: "I scolded you on learning that you had a son. Now go home and live there. Let them know that you belong to them. But you must remember in your heart of hearts that you do not belong to them nor they to you."]

मणि चुपचाप बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण फिर कहने लगे – “अपने पिता को संतुष्ट रखना । अब उड़ना सीखा है तो भी उनसे प्रेम रखना । तुम अपने पिता को साष्टांग प्रणाम कर सकोगे न ?

{মণি চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর আবার কথা কহিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ — আর বাপের সঙ্গে প্রীত করো — এখন উড়তে শিখে — তুমি বাপকে অষ্টাঙ্গে প্রণাম করতে পারবে না?

M. sat in silence. The Master went on instructing him. MASTER: "You have now learnt to fly. But keep your loving relationship with your father. Can't you prostrate yourself before him?"

मणि – (हाथ जोड़े हुए) – जी हाँ ।

{মণি (করজোড়ে) — আজ্ঞা হাঁ।

M. (with folded hands): "Yes, sir. I can."

श्रीरामकृष्ण – तुम्हें और क्या कहूँ, तुम तो सब जानते हो – सब समझ गये हो । (मणि चुपचाप बैठे हैं।)

{শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমায় আর কি বলব, তুমি তো সব জানো? — সব তো বুঝেছো? (মণি চুপ করিয়া আছেন।) 

MASTER: "What more shall I say to you? You know everything. You understand, don't you?" (M. sat there without uttering a word. )

श्रीरामकृष्ण- सब समझ गये हो न ?

(ঠাকুর — সব তো বুঝেছো?

MASTER: "You have understood, haven't you?"

मणि – जी हाँ, कुछ कुछ समझा हूँ ।

{মণি — আজ্ঞা, একটু একটু বুঝেছি।

M: "Yes, sir, I now understand a little."

श्रीरामकृष्ण – नहीं, तुम्हारी समझ में बहुत कुछ आता है । राखाल यहाँ है, इससे उसके पिता को संतोष है ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — অনেকটা তো বুঝেছো। রাখাল যে এখানে আছে, ওর বাপ সন্তুষ্ট আছে।

MASTER: "No, you understand a great deal. Rakhal's father is pleased about his staying here."

मणि हाथ जोड़े चुपचाप बैठे हैं ।

श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं – तुम जो कुछ सोच रहे हो, (..... ?) वह भी हो जायगा ।

{মণি হাতজোড় করিয়া চুপ করিয়া আছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ আবার বলিতেছেন, “তুমি যা ভাবছো তাও হয়ে যাবে।”

M. remained with folded hands. MASTER: "Yes, what you are thinking will also come to pass."

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]   

🔆🙏के रणे नाचिछे बामा 'निरदबरनी ' = काली घटा से भी अधिक काली 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण अब अपनी साधारण दशा में आ गये हैं । कमरे में राखाल और रामलाल बैठे हैं । रामलाल से उन्होंने गाने के लिए कहा । रामलाल ने दो गाने गाये - 

{ঠাকর এইবার প্রকৃতিস্থ হইয়াছেন। ঘরে রাখাল, রামলাল। রামলালকে গান গাহিতে বলিতেছেন। রামলাল গান গাহিতেছেন: 

Sri Ramakrishna now came down to the normal state of mind. Rakhal and Ramlal entered the room. At the Master's bidding Ramlal sang: 

गीत -१ / के रणे नाचिछे बामा निरदबरनी  

  सोणित सायरे जेनो भासिचे नब नलिनी।। 

(কে রণে নাচিছে বামা নীরদবরণী

শোণিত সায়রে যেন ভাসিছে নব নলিনী ৷৷)

Who is the Woman yonder who lights the field of battle? Darker Her body gleams even than the darkest storm-cloud.[काली घटा से भी अधिक काली -महामण्डल द्वितीय अध्यक्ष -नीरदबरन चक्रवर्ती ]  And from Her teeth there Hash the lightning's blinding flames! . . .

गीत-२/  समर आलो  करे  कार कामिनी।

[গান — সমর আলো করে কার কামিনী।

Who is this terrible Woman, dark as the sky at midnight? Who is this Woman dancing over the field of battle? . . .

[ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]   

🔆🙏🔆🙏🔆🙏 माँ  और जननी। जननी जिनि जन्म स्थान 🔆🙏🔆🙏🔆🙏

[মা আর জননী। জননী যিনি জন্ম স্থান।

 The earthly mother gives birth to this body.] 

श्रीरामकृष्ण – माँ और जननी ।  जो सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड में चेतना के रूप में (सर्वव्यापी विराट अहंबोध के रूप में) सर्वव्यापिनी हैं वे माँ जगदम्बा हैं, और  जिन्होंने इस शरीर को जन्म दिया है, वे जननी हैं । माँ कहते ही मुझे समाधि हो जाती थी। माँ कहते कहते मैं मानो विश्व-ब्रह्माण्ड की ईश्वरी को खींच लाता था ! जैसे मछुआ लोग जाल फेंक देते हैं, फिर बड़ी देर बाद जाल खींचते रहते हैं । तब  उसमें बड़ी-बड़ी मछलियाँ आ जाती हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — মা আর জননী। যিনি জগৎরূপে আছেন — সর্বব্যাপী হয়ে তিনিই মা। জননী যিনি জন্ম স্থান। আমি মা বলতে বলতে সমাধিস্থ হতুম; — মা বলতে বলতে যেন জগতের ঈশ্বরীকে টেনে আনতুম! যেমন জেলেরা জাল ফেলে, তারপর আনেকক্ষণ পরে জাল গুটোতে থাকে। বড় বড় মাছ সব পড়েছে।

MASTER: "The Divine Mother and the earthly mother. It is the Divine Mother who exists in the form of the universe and pervades everything as Consciousness. The earthly mother gives birth to this body. I used to go into samadhi uttering the word 'Ma'. While repeating the word I would draw the Mother of the Universe to me, as it were, like the fishermen casting their net and after a while drawing it in. When they draw in the net they find big fish inside it.

  [ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]   

🔆🙏जो काली है, वही 'नर' के स्वरूप (human form) में श्रीगौरांग हैं 🔆🙏

“गौरी ने कहा था, काली और श्रीगौरांग को एक समझने पर ज्ञान पक्का होगा । जो ब्रह्म हैं, वही शक्ति काली है, वही 'नर' के स्वरूप में श्रीगौरांग हैं ।”

{“গৌরী বলেছিল, কালী গৌরাঙ্গ এক বোধ হলে, তবে ঠিক জ্ঞান হয়। যিনি ব্রহ্ম তিনিই শক্তি (কালী)। তিনি নবরূপে শ্রীগৌরাঙ্গ।”

"Gauri once said that one attains true Knowledge when one realizes the identity of Kali and Gauranga.6 That which is Brahman is also Sakti, Kali. It is That, again, which, assuming the human form, has become Gauranga."

[^ काली-भक्तों और श्रीगौरांग के भक्तों के बीच एक कट्टर (uncompromising-अटल) शत्रुता मौजूद है।

^An uncompromising hostility exists between the devotees of Kali and the devotees of Gauranga.]

श्रीरामकृष्ण की आज्ञा पाकर रामलाल ने फिर गाना शुरू किया -गीत - मैंने क्या देखा रे, केशब भारती की कुटिया में, अपरूप ज्योति, श्रीगौरांगमूर्ति के दो नेत्रों से प्रेमाश्रु  की शतधारा निकल रही है।  

গান — কি দেখিলাম রে, কেশব ভারতীর কুটিরে, অপরূপ জ্যোতিঃ,শ্রীগৌরাঙ্গমূরতি, দু’নয়নে প্রেম বহে শতধারে! 

गीत - गौर को प्रेम की लहर का स्पर्श शरीर में अनुभव हो रहा  है।

গান — গৌর প্রেমের ঢেউ লেগেছে গায়।

 [ (5 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-74 ]   

🔆🙏 अवतार अपने भक्तों के लिए जगत में अवतरित होकर मनुष्य के रूप में लीला करते हैं🔆🙏

[जो नित्य हैं , उन्हीं की लीला है , नित्य भी सत्य और लीला भी !] 

गाना समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण ने मणि से कहा – “जो नित्य हैं, उन्हीं की लीला है – भक्तों के लिए। उन्हें जब नररूप में देख लेंगे तभी तो भक्त उन्हें प्यार कर सकेंगे ? तभी तो उन्हें भाई, बहन, माँ, बाप और सन्तान की तरह प्यार कर सकेंगे ? वे भक्तों की प्रीति के कारण छोटे होकर लीला करने के लिए आते हैं ।”

{শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — যাঁরই নিত্য তাঁরই লীলা। ভক্তের জন্য লীলা। তাঁকে নররূপে দেখতে পেলে তবে তো ভক্তেরা ভালবাসতে পারবে, তবেই ভাই-ভগিনী, বাপ-মা সন্তানের মতো স্নেহ করতে পারবে।“তিনি ভক্তের ভালবাসার জন্য ছোটটি হয়ে লীলা করতে আসেন।”

MASTER (to M.): "The Nitya and the Lila are the two aspects of the Reality. God plays in the world as man for the sake of His devotees. They can love God only if they see Him in a human form; only then can they show their affection for Him as their Brother, Sister, Father, Mother, or Child. 

"It is just for this love of the devotees that God contracts Himself into a human form and descends on earth to play His lila."]

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[दक्षिणेश्वर में गुरु, जीवनमुक्त शिक्षक या नेता  (CINC) ] ठाकुर देव के द्वारा अपने प्रिय 'गृहस्थ शिष्य मणि ' को मनुष्य 'बनने और बनाने~'Be and Make' गुरुगृहवास में लीडरशिप ट्रेनिंग का 23 वां दिन। Meditation at Beltala during sadhana 1859-61 - Kamini-Kanchanan tyag/ Sri Ramakrishna's went to his Birthplace for Raghubir's Land Registry - 1878-80) (সাধনকালে বেলতলায় ধ্যান ১৮৫৯-৬১ — কামিনী-কাঞ্চনত্যাগ/ শ্রীরামকৃষ্ণের জন্মভূমি গমন — রঘুবীরের জমি রেজিস্ট্রি — ১৮৭৮-৮০)/'श्री ठाकुर देव द्वारा  (1859-1861) अपनी साधना के दौरान,मानसिक-एकाग्रता के प्रशिक्षण के बाद बेलतला में खुली आँखों से ध्यान करने की प्रणाली का प्रयोग करते हुए, बुलाक पहनी हुई दो स्त्री , एक थाल संदेश , रुपया (जर -जोरू-जमीन) / एक त्रिशूलधारी गुरु के साथ  कामिनी-कांचन-त्याग* का लक्ष्य प्राप्त करने का प्रसंग। तथा (1878 -1880) की साधना के दौरान रघुबीर- भूमि की रजिस्ट्री के लिए श्रीरामकृष्ण का जन्मभूमि गमनके समय पेपर पर साइन नहीं करना-प्रसंग।   *श्रीराधा और यशोदा संवाद - ठाकुर के 'अपने लोग' * 'সখি সে বন কত দূর! — যে বনে আমার শ্যামসুন্দর।'  (भावार्थ) सखि, वह बन कितनी दूर है जहाँ मेरे श्यामसुन्दर हैं ? [निष्काम-कर्म कठिन है - यस तूफान या COVID-19 के समय त्राणकार्य करते समय -आँखों से आगे दुःख और विपत्ति देखकर धन के रहते सहायता आवश्यक करनी चाहिए । ऐसे समय ज्ञानी कहता है, ‘दे, इसे कुछ दे ।’ परन्तु भीतर ही भीतर ‘मैं क्या कर सकता हूँ – कर्ता ईश्वर ही हैं, अन्य सब अकर्ता हैं’ – ऐसा बोध उसे होता रहता है । अन्नदान की अपेक्षा ज्ञानदान और भक्तिदान अधिक ऊँचा है* ‘(Tell me, friend, how far is the grove, Where Krishna, my Beloved, dwells?) महापुरुषगण जीवों के दुःख से दुःखी होकर ईश्वर का मार्ग बतला जाते हैं । शंकराचार्य ने जीवों की शिक्षा के लिए ‘विद्या का अहं’ रखा था । ]

" तुम्हारे लड़के हुए हैं, सुनकर तुम्हें फटकारा था – अब जाकर घर में रहो – उन्हें दिखाना कि तुम उनके अपने आदमी हो, परन्तु भीतर से समझे रहना, तुम भी उनके अपने नहीं हो और वे भी तुम्हारे अपने नहीं । “देखो, जो अपने आदमी हैं, वे पराये हो जाते हैं, - रामलाल तथा और सब लोग अब जैसे कोई दूसरे हों । फिर जो लोग दूसरे हैं, वे अपने हो जाते हैं । বাবুরামকে বলছি — ‘বাহ্যে যা — মুখ ধো।’ এখন ভক্তরাই আত্মীয়।”

🔆🙏 माँ  और जननी - नरलीला क्यों ? आज शनिवार  है, आज काली मन्दिर जाना । “माँ ! विश्वास चाहिए ! यह साला तर्क-विचार दूर हो जाय ! –सात जन्मों की तर्क-बुद्धि तुम्हारी एक झलक से चली जाती है !  लेकिन विश्वास चाहिए – गुरुवाक्य में विश्वास – बालक जैसा विश्वास ! –“चिदात्मा और चित्-शक्ति । चिदात्मा पुरुष हैं और चित्-शक्ति प्रकृति । चिदात्मा श्रीकृष्ण हैं और चित्-शक्ति श्रीराधा । ठाकुर के (नेता -नवनीदा के) अनन्य भक्तगण उसी चित्-शक्ति के एक-एक स्वरूप हैं । वे सखी-भाव या दासभाव को लेकर रहेंगे । यही असली बात है ।”


Lajja Gauri Swastika Symbol 

लज्जा गौरीLajja Gauri or bashful Parvati. The Shiva Purana tells the story of Parvati and Shiva in an unending coitus - when they were suddenly interrupted by a visitor, Parvati bashfully covered her face with a lotus. But strangely enough, none of the goddesses I see in temples today seem to have borne children. Parvati, the only major goddess with kids, did not carry them in her womb. This, in spite of several chapters in the Shiva Purana detailing her amazing love life with Shiva. Lakshmi, the Goddess of Wealth, has no kids either. And as for Saraswati, Goddess of Learning, she just sits there on her swan, looking pretty. No sign of ever bearing children, not with that waistline. She's a river goddess originally, dammit. She ought to be more fertile than that! साभार http://mumbai-magic.blogspot.com/] 

लिंग पुराण : मानव ऊर्जा शरीर रचना विज्ञान के सात चक्रों को अक्सर खिलते हुए कमल के रूप में चित्रित किया जाता है, और देवी को अक्सर उनके श्री यंत्र में एक योनि के रूप में चित्रित किया जाता है , जिसे केंद्र में एक सरल त्रिकोण के रूप में दिखाया जाता है।  योनि ( प्रकृति ) और बीज तो निजी हैं यानी व्यर्थ हैं किन्तु शिवजी ही इसके असली बीज हैं। बीज और योनि में आत्मा रूप शिव ही हैं।  श्री लिंग पुराण के अनुसार प्रधान ( प्रकृति ) को तो लिंग कहागया है और लिंगी तो स्वयं परमेश्वर ही हैं। स्वभाव से ही परमात्मा हैं। शिवलिंग का ध्यान करने से  मृत्यु का भय नहीं रहता।  वस्त्र से ढका हुआ आदमी यदि जितेन्द्रिय नहीं है तो वह नग्न ही है। जितेन्द्रिय पुरुष वस्त्र बिना भी नंगा नहीं है, क्योंकि वस्त्र कारण नहीं है। क्षमा, धैर्य, अहिंसा, वैराग्य  ही उत्तम वस्त्र है। जो व्यक्ति ऐसा शिव का ध्यान करता है जिसका मन भस्म के स्थान (मणिकर्णिका श्मसान घाट) से लिप्त है  उसके हजारों अकार्य भी भस्म हो जाते हैं। अधिक क्या शिव (विवेकानन्द) के भक्त शिव के समान ही पूज्य  हैं, इसमें संदेह नहीं है।  वही मुनि, वही ब्रह्मा तथा नित्य बुद्ध है वही विशुद्ध है। पुराणों में उन्हें शिव कहा गया है। लिंगपुराण में  रजस्वला के नियम, उसमें नियम पालने से पुत्र प्राप्ति की विशेषता, मैथुन की विधि, क्रम से हर एक वर्ण का वर्णन, सभी के लिये भक्ष, अभक्ष का विचार, प्रायश्चित का वर्णन विस्तार से किया गया है।

वह प्रकृति पहले से तो अव्यक्त है। लेकिन अव्यक्त से लेकर पृथ्वी तक सब उसी का स्वरूप बताया गया है। वह  प्रकृति सृष्टि रचना आदि में सतोगुणादि गुणों से युक्त होती है। विश्व को धारण करने वाली जो यह प्रकृति (योनि) है बह सब शिव की माया है। उसी माया को अजा कहते हैं। उसके लाल, सफेद तथा काले स्वरूप क्रमशः रज, सत्‌ तथा तमोगुण की बहुत सी रचनायें हैं। संसार को पैदा करने वाली इस माया को सेवन करते हुए मनुष्य इसमें फंस जाते हैं।  तथा अन्य मुक्त ऋषि लोग इस भोग- माया को त्याग देते हैं।

एक बार देवासुर संग्राम में देवता विजयी हो गए। देवता विजयी हुए थे ईश्वर की कृपा से , लेकिन सब अपनी अपनी प्रशंशा करने लगे। तब वहाँ भगवान शिव यक्ष के रूप में प्रकट हो गए।  यक्ष रूपी भगवान शिव को देखकर वायु,अग्नि आदि सब की शक्ति नष्ट हो गई। अग्नि एक छोटे से तिनके को भी नहीं जला सका। वायु उसे उड़ा नहीं स़का। अग्नि-वायु इत्यादि सभी देव शक्तिहीन हो गये। तब इन्द्र  ने यक्ष से पुछा–आप कौन हैं? उनके पूछते ही  यक्ष अन्तर्ध्यान हो गये और आम्बिका (उमा हैमवती)  प्रकट हुई। तब इन्द्र  आदिक सभी देवताओं ने पूछा–हे ईश्वरी! है देवि! यह यक्ष रूप में कौन थे। देवी ने कहा–ये साक्षात्‌ परमब्रह्म शिव भगवान थे। तब तो सबने देवी को प्रणाम किया। देवी ने कहा मैं ही पूर्व में प्रकृति रूप आद्यशक्ति हूँ और पुरुष रूप शिव हैं इन्हीं शिव की आज्ञा से प्रकृति रूप में सकल ब्रह्माण्ड की रचना करती हूँ। 

यह अजा ( माया ) शिव के आधीन हैं। सर्ग ( सर्जन ) की इच्छा से परमात्मा अव्यक्त में प्रवेश करता है, उससे महत्‌ तत्व की सृष्टि होती है। उससे त्रिगुण अहंकार जिसमें रजोगुण की विशेषता है, उत्पन्न होता है। अहंकार से तन्मात्रा ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ) उत्पन्न हुई। इनमें सबसे पहले शब्द, शब्द से आकाश, आकाश से स्पर्श तन्मात्रा त्रथा स्पर्श से वायु, वायु से रूप तन्मात्रा, रूप से तेज ( अग्नि ) अग्निसे रस तन्मात्रा की उत्पत्ति, उस से जल फिर गन्ध और गन्ध से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। है ब्राह्मणो! पृथ्वी में शब्द स्पर्शादि पांचों गुण हैं। तथा जल आदि में एक-एक गुण कम है अर्थात्‌ जल में चार गुण हैं, अग्नि में तीन गुण हैं, वायु में दो गुण और आकाश में केवल एक ही गुण है। तन्मात्रा से ही  पंचभूतों की उत्पत्ति को जानना चाहिये।

सात्विक अहंकार से पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय तथा उभयात्मक मन की उत्पत्ति हुई। महत्‌ से लेकर पृथ्वी तक सभी तत्वों का एक अण्ड बन गया। उसी अण्ड के भीतर ही सभी लोक और यह विश्व है। ‘यह अण्ड दस गुने जल से घिरा हुआ है, जल दस गुने वायु से, वायु दस गुने आकाश से घिरा  हुआ है। आकाश से घिरी हुई वायु अहंकार से शब्द पैदा करती है। आकाश महत्‌ तत्व से तथा महत्‌ तत्व प्रधान से व्याप्त है। रचना, पालन और नाश के कर्त्तां महेश्वर शिवजी ही हैं। सृष्टि की रचना में वे रजोगुण से युक्त ब्रह्म (या शक्ति या आद्यशक्ति) कहलाते हैं, पालन करने में सतोगुण से युक्त विष्णु तथा नाश करने में तमोगुण से युक्त कालरुद्र होते हैं। अतः क्रम से तीनों रूप शिव के ही हैं।

सृष्टि रचना में पहले सतयुग, त्रेता, द्वापर फिर कलयुग कहा है। हजार चतुर्युगी का एक कल्प होता है।  कल्प के अन्त में जब प्रलय होती है तो महःलोक से जन, जन लोक में चले जाते हैं। गुणों की समानता में प्रलय होती है और गुणों की विषमता में सृष्टि होने लगती है। भू: भुवः स्व: महः ऊपर के लोक हैं। सत, रज, तम गुणों की सृष्टि रचना करने के कारण उस ब्रह्म ( शिव ) के  कण्ठ में तीन रेखा बाला पड़ गया। जिसका आप सभी लोग ध्यान करते हो। 

पहले ब्रह्मा ने फल की इच्छा न रखने वाले निवृत्ति मार्ग के सनकादि ऋषि (सनक, सनन्दन,  सनातन व सनत्कुमार)  को उत्पन्न किया। फिर अपनी योग विद्या से प्रवृत्तिमार्ग के सप्तऋषियों - मरीचि, भूगु, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, अत्रि, वशिष्ठ को उत्पन्न किया। ये सप्तऋषि बह्मा के पुत्र हैं। अतः इन्हें भी ब्रह्मा के ही समान मानना चाहिए।ब्रह्मा ने शंकर भगवान के आदेशानुसार जरा और मरण से युक्त इस चराचर जगत की रचना की। भगवान तो निवृत्त होकर ही स्थित रहे । उस समय शंकर जी स्थाणु ( निश्चल ठूँठ के समान-ठुट्ठा जगन्नाथ ) बन गये। शिवजी तो आत्मभाव से निष्कल हैं, वे  तो अपनी इच्छा से ही शरीर थारण करते हैं। अपनी दयालुता से सभी का कल्याण करते हैं। शंकर जी अपनी योग विद्या से बिना ही प्रयत्न के योग में स्थित रहते हैं। मनुष्य संसार के भय से विषयों का त्याग करके वैराग्य और अभ्यास के द्वारा द्वारा मन पर विजय प्राप्त करते हैं। यह उनके दर्शनों की कृपा है। 

चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग कहा है। योग की सिद्धि के निम्न अष्टांग -साधन या आठ प्रकार के साधन कहे हैं।  यम,  नियम,  आसन,  प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा आठवाँ समाधि। परम तपस्या --पांच अभ्यास  - सत्य ,अहिंसा, ब्रह्मचर्य , अस्तेय और अपरिग्रह को   ही यम कहा जाता है। सत्य सबसे पहला यम का हेतु है। >>देखी हुईं, सुनी हुईं, अनुमान की हुईं, अनुभव की हुई कोई भी बात जो  दूसरे को पीड़ा पहुंचाने वाली हो;  मुख नहीं कहना को सत्य कहते हैं।  अश्लील बात न कहना तथा दूसरों के दोष जानकर भी न कहना चाहिए। ऐसा वेदों का आदेश है। इसके बाद है -अहिंसा ; संसार के सभी प्राणियों को अपने सामने ही समझना ही अहिंसा कही है, जो आत्मज्ञान की सिद्धि को देने वाली है। ब्रह्मचर्य है मन, वाणी और कर्म से पवित्र रहना (मैथुन में प्रवृत्ति न रखना) ही यतियों  और ब्रह्मचारियों के लिए ब्रह्मचर्य कहा है। यह बात वैखानस ( संन्यासी ) तथा जिनके पास पत्नियां  नहीं हैं, ऐसे महात्माओं को विशेषरूप से पालन करने को कही हैं। सपत्नीक गृहस्थी के लिए एक पत्नीव्रत रहना ही ब्रह्मचर्य है। ऋषियो! जर-जोरू -जमीन तीन में आसक्ति का त्याग से ही अमरत्व मिलता है। अमर पद  कर्म, सन्तान या द्रव्य से प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए मन, वाणी और कर्म से विराग करना चाहिए और ऋतु काल को छोड़कर मैथुन से नियृत्ति रखना ब्रह्मचर्य कहा है। विधि पूर्वक अपनी ही धर्म-पत्नी से सम्भोग करके स्नान करना चाहिये, ऐसा सद्‌ गृहस्थी भी आत्मयुक्त ब्रह्मचारी  कहा गया है।  स्त्री अंगांर के समान और पुरुष घी के समान है। भोग से विषयों को तृप्ति कदापि नहीं हो सकती है। इन्द्रियों के द्वारा विषयों को भोगने से काम ( इच्छायें) शान्त नहीं होतीं, अपितु अग्नि में घी आहृति देने के समान वे अधिक बढ़ती हैं। इससे नारी का संसर्ग दूर से ही परित्याग कर देना चाहिए। जो मनुष्य ययाति के इस पवित्र चरित्र को पढ़ेंगे-सुनेंगे, वह बुद्धिमान  पुरुष शिवलोक को प्राप्त करेंगे।केवल अपनी धर्म-पत्नी के साथ विधिपूर्वक मैथुन करना तथा अन्यों की पत्नियों को मातृवत समझना ऐसा स्मृतियों ने गृहस्थों का धर्म कहा  है।  मन कर्म वाणी से विचार करके वैराग्य या तृष्णा का त्याग से ही विषय शान्त हो सकते हैं।  अस्तेय अर्थात चोरी का अभाव, बिना पूछे किसी की वस्तु न उठाना। अपने ऊपर या दूसरे के ऊपर आई हुई मुसीबत में भी किसी का धन न लेना, तथा मन से, कर्म से, वाणी से भी लेने की इच्छा न करना ही संक्षेप में अस्तेय कहा गया है। अब 5 नियमों को सुनें -  शौच, सन्तोष , तपः , स्वाध्याय,  ईश्वरप्रणिधानंभीतरी-बाहरी पवित्रता ही शौच है। बाहरी पवित्रता अर्थात शरीर की पवित्रता से युक्त होकर भीतरी पवित्रता -मन की पवित्रता का आचरण करना चाहिए। आत्मज्ञान रूपी पवित्र जल में सदा स्नान करके  वैराग्य  रूपी सुन्दर मिट्टी या साबुन का चन्दन लगाकर अपने को पवित्र करना चाहिए। ओकार का जप, शास्त्रों का पठन या विवेकानन्द साहित्य का पठन -पाठन  ही स्वाध्याय कहा गया है।  जो तीन प्रकार का होता है | वाणी के द्वारा किया हुआ जप अधम कहा है। उपाँशु जप ही सर्वोत्तम है। मानसिक जप भी श्रेष्ठ है। ईश्वरप्रणिधानं अर्थात गुरु, महापुरुष या अवतार की अचल भक्ति से शिव का ज्ञान प्राप्त होता है। इन पांचो यमों और नियमों  के 24 X 7 पालन करना चाहिए। तब मन शुद्ध होने से, अर्थात उसकी चंचलता कम होने पर मन  को एकाग्र करने का अभ्यास (आसन -प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास) सरल हो जाता है।  

अशुभ जगह में,  दुष्ट पुरुषों से आक्रान्त जगह में, मच्छर आदि से युक्त स्थान में, शरीर में बाधा उत्पन्न होने पर, दुर्मन होने पर मनःसंयोग का अभ्यास न करे। तथा गुप्त शुभ स्थान में , शिवजी के बगीचे में, वन में, अथवा घर में, अत्यन्त निर्मल, अच्छी प्रकार लिपा पुता, , अगर धूप आदि से सुगन्धित अनेक प्रकार के सुगन्धित फूलों  से घिरा हुआ  कुशा पुष्प आदि के सहित स्थान में, सम आसन पर बैठकर बुद्धिमान को स्वयं योगाभ्यास करना चाहिए। सबसे प्रथम गुरु को प्रणाम करे इसके बाद ठाकुर को, देवी माँ  को, स्वामीजी  को,  प्रणाम करके युक्ति पूर्वक योग में लगना ‘चाहिए। ज्ञान-वृद्ध, जो लोलुप न हों, आत्म ज्ञानी हों, अदम्भी हों, अच्छी प्रकार बिनीत हों, सरल हों आदि गुण सम्पन्न जन आचार्य/नेता  कहे गए हैं। अपने आप भी जो धर्म आचरण करते हैं तथा दूसरों में भी आचार स्थापित करते हैं, शास्त्र और उनके भर्मो का भली भाँति आचरण करने वाले आचार्य कहलाते हैं। आँखों  को एक जगह स्थिर करके रीढ़ की हड्डी को सीधी रखे। ठुड्डी फर्श के समानांतर रखें। विधिवत्‌ योग सिद्धि के लिए अर्धपद्मासन में बैठकर स्थिर -आसन प्राप्त करके आत्मा को (अर्थात अपने आदर्श स्वामीजी या अवतार वरिष्ठ को) देखे। अद्वैतरूप ठाकुरदेव  को हृदय रूपी रक्तवर्ण कमल की पंखुड़ी पर विराजमान ठाकुर देव  का ध्यान करे। इन्द्रियों को बाह्य विषयों में जाने से रोकना और मन को खींच कर अपने सामने रखना  ही प्रत्याहार कहा गया है। सामने आये मन को ह्रदय स्थित पहले चुने गए आदर्श पर मन को एकाग्र रखने (एक चित्त होकर रहने) की चेष्टा को ही चित्त की धारणा कहते हैं। विषयों को विष के समान जानकर ईश्वर के गुणों का ध्यान करना चाहिए। प्रत्याहार और धारणा करते करते धारणा तैलधारवत हो जाना ही ध्यानकरना है , ध्यान होने से  समाधि हो जाती है। समाधि में अपने शरीर को शून्य मात्र समझता हुआ चिद्‌आनन्द का आभास होता है। समाधि होने  का मूल कारण भक्ति से होने वाला प्राणायाम है। भक्ति से होनेवाले प्राणायाम में अपने देह की वायु स्वतः  निरुद्ध हो जाती है।  

मनःसंयोग के समय योग में बाधाओं या रुकावटों का वर्णन: योग साधन में सर्व प्रथम आलस्य नाम की बाधा आती है। आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।अर्थ – व्यक्ति का सबसे बड़ा दुश्मन आलस्य होता है, व्यक्ति का परिश्रम ही उसका सच्चा मित्र होता है। क्योंकि जब भी मनुष्य परिश्रम करता है तो वह दुखी नहीं होता है और हमेशा खुश ही रहता है। दूसरी बाधा है अश्रद्धागुरुज्ञान, आचार, शिव आदि में साथक की भावना न होना ही अश्रद्धा है।  ज्ञान का विपर्यय ( उलटा समझना ) ही भ्रान्ति है। जैसे शरीर को ही आत्मा समझना आदि।लेकिन इन समस्त बाधाओं को अति अधिक उत्साह वाले मनुष्य बहुत आसानी से नष्ट कर सकते हैं । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इन बाधाओं  के नष्ट हो जाने पर सिद्धि की सूचक बाधाएं उत्तपन्न होती हैं। जैसे प्राणियों के मन को बात को जान लेना, अत्यन्त छोटा बन जाना तथा अत्यधिक बड़ा बन जाना आदि । परन्तु योगी को आत्म कामना के लिए इन सभी सिद्धियों को काकविष्ठा की तरह सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। अपने हृदय के अंधकार को हटाकर वह पुरुष अपने आत्मा में ही ईश्वर को देखता है। भगवान की कृपा से धर्म ऐश्वर्य, ज्ञान, वैराग्य, अपवर्ग ( मोक्ष ) प्राप्त होती है।  

सामने आये किसी भी कार्य को कुशलपूर्वक करना धर्म तथा अकुशलता से करना ही अधर्म है। धर्म के द्वारा इष्ट की प्राप्ति आचार्यों द्वारा उपदेश की गई है तथा अधर्म से अनिष्ट की प्राप्ति बताई गई है। बसुदेव को स्त्रियों में रोहिणी ने हलायुध बलराम‘ को पैदा किया। देवकी ने बसुदेव द्वारा भगवान कृष्ण को पैदा किया। उमा के देह से उत्पन्न भगवती योग निद्रा यशोदा के गर्भ से जन्मी | वह साक्षात्‌ प्रकृति और भगवान कृष्ण साक्षात्‌ पुरुष थे, जो धर्म मोक्ष के देने वाले चतुर्भुज वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुये जगत की रक्षा के लिये उत्पन्न हुये।  उनको वसुदेव जी ने यशोदा को समर्पण किया और कन्या को लाकर कंस के लिये दिया। कंस पुरानी आकाशवाणी को स्मरण करके कन्या को मारने को तैयार हुआ तब कन्या उसके हाथ से छूटकर आकाश में अष्टभुजी देवी बनकर उससे कहने लगी–कि तू मुझे क्या मारता है, तेरा मारने वाला तो संसार में पैदा हो गया। इसके पश्चात्‌ सभी लीला करके भगत़ान कृष्ण को जब १२० बर्ष बीत गये तब ब्राह्मण के शाप के बहाने से अपने कुल का नाश किया और जरा नाम के व्याध के अस्त्र से शरीर त्याग कर दिव्यलोक को पथारे। 

शिव और पार्वती दोनों सर्व आकार रूप से स्थित है। अत: कल्याण की इच्छा काने वाले पुरुषों को सदा उमा शंकर की पूजा करनी चाहिए और नमस्कार करना चाहिए।सब पुरुष महेश्वर शंकर के रूप हैं और सब स्त्रियाँ उमा पार्वती का स्वरूप हैं।‘पुल्लिंग के वाचक जितने भी शब्द हैं बह शिव रूप हैं और स्त्रीलिंग से वाचक सभी शब्द उमा पार्वती के रूप हैं।सब उमा महेश्वर रूप जानना चाहिए। पदार्थों की जो शक्ति है वह सब गौरी रूप हैं। शरीर धारियों  के सब शरीर के रूप हैं और सब शरीर शंकर के रूप हैं। सुनने योग्य सभी रूप उमा रूप हैं तो श्रोता रूप सभी शंकर हैं। स॒ष्टि करने योग्य सभी रूप उम्र हैं तो सृष्टा शंकर का रूप हैं। दृश्य पदार्थ यदि पार्वती हैं , तो दृष्टा शंकर का रूप है। रस रूप उमा हैं तो रसयता देव शंकर हैं। गंध  यदि उमा हैं सूँघने वाले महेश्वर हैं। बोध करने योग्य वस्तु उमा हैं तो बोधा शंकर हैं। पीठाकृति उमा हैं तो लिंग रूप शिव हैं। जो-जो पदार्थ लिंग है अंकित है वे सब शिव तथा जो-जो पदार्थ भगांकित हैं, वे  उमा का रूप हैं। ज्ञेय उमा रूप हैं तो ज्ञाता शंकर हैं।

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