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गुरुवार, 27 मई 2021

🔆 🔆 🔆परिच्छेद ~ 63, [(16 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 'Bird imprisoned in a cage'*किस तरह व्याकुल होने पर ईश्वरलाभ होता है*सीता राममय-जीविता थीं* मनःसंयोग ='लंका में कैद सीता की सी व्याकुलता' के साथ राम'दर्शन का अभ्यास **श्री रामकृष्ण के अवतरित होने के बाद ऐहिक और पारमार्थिक (Sacred)का भेद समाप्त* *ब्रह्मज्ञान का एकमात्र उपाय : साधु(नेता) संग और कामिनी-कंचन में अनासक्ति *योगभ्रष्ट क्यों होते हैं?- ब्रह्मज्ञान के पश्चात् के बाद गृहस्थ-जीवन ** जीव-जगत क्या मिथ्या है : वह परब्रह्म भी पूर्ण है और यह कार्यब्रह्म भी पूर्ण है * उसी आद्याशक्ति से जीव-प्रपंच बना है ।*समाधि योग का उपाय — क्रन्दन । भक्तियोग और मनःसंयोग * *साधु-संग ('C-IN-C'= सिद्धों के भी सिद्ध का संग) करो और आम-मुखतारी दे दो* *Identity of the Undifferentiated and Differentiated**साधु-संग ('C-IN-C'= सिद्ध का सिद्ध का संग) करो और आम-मुखतारी दे दो* *राम का ध्यान -सीता की तरह व्याकुलता* *शिव के मन की दो अवस्थाएँ हैं *(Siva has two states of mind)*ऐहिक (worldly) और पारमार्थिक (other-worldly) पदार्थों में कोई अन्तर नहीं है* *श्रीरामकृष्ण का दर्शन और वेदान्ततत्त्वों की गूढ़ व्याख्या*

 [(16 दिसंबर, 1883) परिच्छेद ~ 63, श्रीरामकृष्ण वचनामृत  ] 

[लंका में कैद सीता की सी व्याकुलता के साथ राम-दर्शन का अभ्यास ! 

साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

*परिच्छेद ~ ६३* 

* ईश्वर दर्शन के उपाय * 

(१)

[(16 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

  🔆 पिंजरे में कैद पक्षी जैसी माँ सीता की व्याकुलता के साथ श्रीराम-दर्शन' का अभ्यास 🔆  

श्रीरामकृष्ण मणि के साथ पश्चिमवाले गोल बरामदे में बैठे हैं । सामने दक्षिणवाहिनी भागीरथी है । पास ही कनेर, बेला, जूही, गुलाब, कृष्णचूड़ा आदि अनेक प्रकार के फूले हुए पेड़ हैं । दिन के दस बजे होंगे।

आज रविवार, अगहन की कृष्णा द्वितीया है – 16 दिसम्बर, 1883 ।

श्रीरामकृष्ण मणि को देख रहे हैं और गा रहे हैं- 

भाविते होबे माँ तारा होयेछि शरणागत। 

होइया रोएछी जेनो पिंजरेर पाखिर मतो।।



असंख्य अपराधी आमि , ज्ञानशून्य मीछे भ्रमि। 

मायाते मोहित होय वत्स हारा गाभिर मतो।। 

भाविते होबे माँ तारा होयेछि शरणागत। 

होइया रोएछी जेनो पिंजरेर पाखिर मतो।।


তারিতে হবে মা তারা হয়েছি শরণাগত। 

হইয়া রয়েছি যেন পিঞ্জরের পাখির মতো ৷৷

অসংখ্য অপরাধী আমি, জ্ঞানশূন্য মিছে ভ্রমি।

মায়াতে মোহিত হয়ে বৎসহারা গাভীর মতো ৷৷

(भावार्थ) – “माँ तारा, मुझे तारना होगा, मैं शरणागत हूँ । पिंजड़े के पक्षी जैसी मेरी दशा हो रही है । मैंने असंख्य अपराध किए हैं । मैं ज्ञानहीन हूँ । मैं माया में मोहित हुआ व्यर्थ भटकता फिर रहा हूँ । बछड़ा खो जाने पर गाय की जो दशा होती है, वही दशा मेरी भी है ।”

[Thou must save me, sweetest Mother! Unto Thee I come for refuge, Helpless as a bird imprisoned in a cage. I have done unnumbered wrongs, and aimlessly I roam about, Misled by maya's spell, bereft of wisdom's light, Comfortless as a mother cow whose calf has wandered far away.

 [Why should I live like a 'bird imprisoned in a cage'? ]

  [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌻भला 'पिंजरे के पंछी' की तरह मैं रहूँगा ही क्यों ? छिः ! 🌻 

श्रीरामकृष्ण – क्यों ? –भला 'पिंजरे के पंछी' की तरह मैं रहूँगा ही क्यों ? छिः !”

[“কেন? পিঞ্জরের পাখির মতো হতে যাব কেন? হ্যাক্‌! থু!”

MASTER: "But why? Why should I live like a 'bird imprisoned in a cage'? Fie! For shame!"

कहते ही कहते भावावेश में आ गए । शरीर, मन सब स्थिर है; आँखों से धारा बह चली है ।

कुछ देर बाद कह रहे हैं, “माँ, सीता की तरह कर दो । बिलकुल सब भूल गयी हैं – देह का ख्याल नहीं; हाथ, पैर, स्तन, योनि – किसी का होश नहीं ! एकमात्र चिंता- ‘राम कहाँ !’

[কথা কহিতে কহিতে ভাবাবিষ্ট — শরীর, মন সব স্থির ও চক্ষে ধারা। কিয়ৎক্ষণ পরে বলিতেছেন, মা সীতার মতো করে দাও — একেবারে সব ভুল — দেহ ভুল, যোনি, হাত, পা, স্তন — কোনদিকে হুঁশ নাই। কেবল এক চিন্তা — ‘কোথায় রাম!’

As the Master said these words he went into an ecstatic mood. His body became motionless and his mind stopped functioning; tears streamed down his cheeks. After a while he said, "O Mother, make me like Sita, completely forgetful of everything — body and limbs —, totally unconscious of hands, feet, and sense-organs only the one thought in her mind, 'Where is Rama?"

किस तरह व्याकुल होने पर ईश्वरलाभ होता है, मणि को इसकी शिक्षा देने के लिए ही मानो श्रीरामकृष्ण के मन में सीता का उद्दीपन हुआ था । सीता राममय-जीविता थीं, - श्रीरामचन्द्र की चिन्ता में ही वे पागल हो रही थीं, - इतनी प्रिय वस्तु जो देह है उसे भी वे भूल गयी थीं ! 

[কিরূপ ব্যাকুল হলে ঈশ্বরলাভ হয় — মণিকে এইটি শিখাইবার জন্যই কি ঠাকুরের সীতার উদ্দীপন হইল? সীতা রামময়জীবিতা, — রামচিন্তা করে উন্মাদিনী — দেহ যে এমন প্রিয় তাহাও ভুলে গেছেন!

Was the Master inspired by the ideal of Sita to teach M. the yearning that a devotee should feel for God? Sita's very life was centred in Rama. Completely absorbed in the thought of Rama, Sita forgot even the body, which is so dear to all.

[*मनःसंयोग = 'लंका में कैद सीता की सी व्याकुलता' के साथ श्री रामदर्शन' का अभ्यास (विवेकदर्शन) का अभ्यास , (The distraction of practicing mindful-ness : during प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास) के समय दूसरी ओर  पागलपन की हद तक ध्यान का खिंचाव,  विवेकानन्द के प्रति इतना लगाव , सचेत (mindful) कि विवेकज -ज्ञान हो जाये।

दिन के तीसरे प्रहर के चार बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उसी कमरे में बैठे हुए हैं । 

जनाई के मुखर्जीबाबू आए हुए हैं, - ये श्री प्राणकृष्ण के आत्मीय हैं । उनके साथ एक शास्त्रज्ञ ब्राह्मण  मित्र भी आये हैं । मणि, राखाल, लाटू, हरीश, योगीन्द्रादि भक्त भी हैं । 

योगीन्द्र दक्षिणेश्वर के सावर्ण चौधरियों के यहाँ के हैं । ये आजकल प्रायः रोज दिन ढलने पर श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आते हैं और रात को चले जाते हैं । योगीन्द्र ने अभी विवाह नहीं किया ।

मुखर्जी (प्रणाम करके) – आपके दर्शन से बड़ा आनन्द हुआ ।

MUKHERJI: "I am very happy to meet you, sir."

श्रीरामकृष्ण - वे सभी के भीतर हैं, वही सोना सब के भीतर है, कहीं प्रकाश अधिक है । संसार में उस सोने पर बहुत मिट्टी पड़ी रहती है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনি সকলের ভিতরই আছেন। সকলের ভিতর সেই সোনা, কোনখানে বেশি প্রকাশ। সংসারে অনেক মাটি চাপা।]

MASTER: "God dwells in all beings. He is the gold in all. In some places it is more clearly manifest than in others. God dwells in the worldly-minded, no doubt, but He is hidden there, like gold under deep layers of clay."

   [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆श्री रामकृष्ण अवतार के बाद ऐहिक और पारमार्थिक (Sacred) का भेद समाप्त 🔆  

[After the incarnation of Shri Ramakrishna,

 the distinction between etheric and transcendental ends.]

मुखर्जी(सहास्य) – महाराज, ऐहिक (Secular) और पारमार्थिक (Sacred -transcendental ) पदार्थों में अन्तर क्या है ?

[মুখুজ্জে (সহাস্য) — মহাশয়, ঐহিক পারত্রিক কি তফাত?

MUKHERJI: "Sir, what is the difference between worldly and other-worldly things?"]

श्रीरामकृष्ण – साधना के समय ‘नेति’ ‘नेति’ करके त्याग करना पड़ता है । उन्हें पा लेने पर समझ में आता है, सब कुछ वही हुए हैं ।

 [ईश्वर ही सब कुछ = 'शिष्य'  Hypnotized 'भेंड़' and 'गुरु' De-Hypnotized (सिंह-शावक) हुए हैं। ]   

{শ্রীরামকৃষ্ণ — সাধনের সময় ‘নেতি’ ‘নেতি’ করে ত্যাগ করতে হয়। তাঁকে লাভের পর বুঝা যায় তিনিই সব হয়েছেন।

MASTER: "While striving for the realization of God, the aspirant has to practise renunciation, applying the logic of 'Neti, neti' — 'Not this, not this'. But after attaining the vision of God, he realizes that God alone has become all things.} 

“जब श्रीरामचन्द्र को वैराग्य हुआ, तब दशरथ को बड़ी चिन्ता हुई । वे वशिष्ठजी की शरण में गए, जिससे राम संसार का त्याग न करें । वशिष्ठजी ने श्रीरामचन्द्र के पास जाकर देखा, वे विमनस्क हुए बैठे हैं – अन्तर तीव्र वैराग्य से भरा हुआ है । वशिष्ठजी ने कहा, ‘राम, तुम संसार का त्याग क्यों करोगे ? संसार क्या कोई उनसे अलग वस्तु है ? मेरे साथ विचार करो ।’ राम ने देखा, संसार भी उसी परब्रह्म से हुआ है, इसलिए चुपचाप बैठे रहे ।

[“যখন রামচন্দ্রের বৈরাগ্য হল দশরথ বড় ভাবিত হয়ে বশিষ্ঠদেবের শরণাগত হলেন — যাতে রাম সংসারত্যাগ না করেন। বশিষ্ঠ রামচন্দ্রের কাছে গিয়ে দেখেন, তিনি বিমনা হয়ে বসে আছেন — অন্তরে তীব্র বৈরাগ্য। বশিষ্ঠ বললেন, রাম, তুমি সংসারত্যাগ করবে কেন? সংসার কি তিনি ছাড়া? আমার সঙ্গে বিচার কর। রাম দেখিলেন, সংসার সেই পরব্রহ্ম থেকেই হয়েছে, — তাই চুপ করে রহিলেন।

"At one time Rama was overpowered by the spirit of renunciation. Dasaratha, worried at this, went to the sage Vasishtha and begged him to persuade Rama not to give up the world. The sage came to Rama and found him in a gloomy mood. The fire of intense renunciation had been raging in the Prince's mind. Vasishtha said: 'Rama, why should You renounce the world? Is the world outside God? Reason with me.' Rama realized that the world had evolved from the Supreme Brahman. So He said nothing.]

“जैसे जिस चीज से मट्ठा होता है, उसी से मक्खन भी होता है । अतएव मट्ठे का ही मक्खन और मक्खन का ही मट्ठा कहना चाहिए । बड़ी कठिनाइयों से मक्खन उठा लेने पर देखोगे, मक्खन रहने से मट्ठा भी है; जहाँ मक्खन है वहीँ मट्ठा है । ब्रह्म है, इस ज्ञान के रहने से जीव, जगत् चतुर्विशति तत्त्व भी हैं ।

[“যেমন যে জিনিস থেকে ঘোল, সেই জিনিস থেকে মাখম। তখন ঘোলেরই মাখম, মাখমেরই ঘোল। অনেক কষ্টে মাখম তুললে (অর্থাৎ ব্রহ্মজ্ঞান হল); — তখন দেখছ যে মাখম থাকলেই ঘোলও আছে, — যেখানে মাখম সেইখানেই ঘোল। ব্রহ্ম আছেন বোধ থাকলেই — জীব, জগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্বও আছে।”

"Buttermilk is made from the same substance as butter. One who realizes this knows that butter goes with buttermilk and buttermilk with butter. After separating the butter with great effort — that is to say, after attaining Brahmajnana — you will realize that as long as butter exists, buttermilk also must exist. Wherever there is butter there must be buttermilk as well. As long as one feels that Brahman exists, one must also be aware that the universe, living beings, and the twenty-four cosmic principles exist as well.]

 [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

 🌻ब्रह्मज्ञान का उपाय : साधु (नेता) संग और कामिनी-कंचन में अनासक्ति🌻  

“ब्रह्म क्या वस्तु है, यह कोई मुँह से नहीं कह सकता । सब वस्तुएँ जूठी हो गयी हैं, (अर्थात् मुँह से कही जा चुकी हैं) परन्तु ब्रह्म क्या है, यह कोई मुंह से नहीं कह सका, इसीलिए वह जूठा नहीं हुआ । यह बात मैंने विद्यासागर से कही थी । विद्यासागर सुनकर बड़े प्रसन्न हुए ।

“विषयबुद्धि का लेशमात्र रहते भी यह ब्रह्मज्ञान नहीं होता । कामिनी-कांचन का भाव जब मन में बिलकुल न रहेगा, तब होगा । पार्वतीजी ने पर्वतराज से कहा, ‘पिताजी, अगर आप ब्रह्मज्ञान चाहते हैं तो साधुओं (जीवनमुक्त शिक्षकों) का संग कीजिए ।’

[“ব্রহ্ম যে কি বস্তু মুখে বলা যায় না। সব জিনিস উচ্ছিষ্ট হয়েছে (অর্থাৎ মুখে বলা হয়েছে), কিন্তু ব্রহ্ম কি, — কেউ মুখে বলতে পারে নাই। তাই উচ্ছিষ্ট হয় নাই। এ-কথাটি বিদ্যাসাগরকে বলেছিলাম — বিদ্যাসাগর শুনে ভারী খুশী।“বিষয়বুদ্ধির লেশ থাকলে এই ব্রহ্মজ্ঞান হয় না। কামিনী-কাঞ্চন মনে আদৌ থাকবে না, তবে হবে। গিরিরাজকে পার্বতী বললেন, ‘বাবা, ব্রহ্মজ্ঞান যদি চাও তাহলে সাধুসঙ্গ কর’।”

"But the Knowledge of Brahman cannot be realized if the aspirant is worldly-minded even in the slightest degree. He succeeds in acquiring this Knowledge only when his mind is totally free from 'woman and gold'. Parvati once said to Her father, 'Father, seek the company of holy men if you want the Knowledge of Brahman.'"

क्या श्रीरामकृष्ण के कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य चाहे संसारी हो या संन्यासी, कामिनी-कांचन में मग्न रहने पर उसे ब्रह्मज्ञान नहीं होता ?

[ঠাকুর কি বলছেন, সংসারী লোক বা সন্ন্যাসী যদি কামিনী-কাঞ্চন নিয়ে থাকে তাহলে ব্রহ্মজ্ঞান হয় না?]

   [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌻माँ यदि चाहें ब्रह्मज्ञान के पश्चात्  के बाद भी गृहस्थ-जीवन में रख सकती हैं 🌻 

श्रीरामकृष्ण फिर मुखर्जी से कह रहे हैं-

“तुम्हारे धन-सम्पत्ति है फिर भी तुम ईश्वर को भी पुकारते हो, यह बहुत अच्छा है । गीता में है जो लोग योगभ्रष्ट हो जाते हैं वही भक्त होकर धनी के घर जन्म लेते हैं ।”

[শ্রীরামকৃষ্ণ আবার মুখুজ্জেকে সম্বোধন করে বলছেন, “তোমাদের ধন ঐশ্বর্য আছে অথচ ঈশ্বরকে ডাকছ — এ খুব ভাল। গীতায় আছে যারা যোগভ্রষ্ট তারাই ভক্ত হয়ে ধনীর ঘরে জন্মায়।”

Addressing Mr. Mukherji, Sri Ramakrishna said: "You are rich, and still you call on God. That is very good indeed. It is said in the Gita that those who fall from the path of yoga are born in their next birth as devotees of God in rich families."

मुखर्जी (अपने मित्र से सहास्य) – “शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।”(गीता ६/४१) 

 [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌻 >माँ जगदम्बा इच्छामयी (Self-willed)हैं <🌻  

श्रीरामकृष्ण – वे (माँ जगदम्बा) यदि चाहे तो ज्ञानी को संसार में भी रख सकते हैं । उन्ही की इच्छा से यह जीव-प्रपंच हुआ है । वे इच्छामय हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনি মনে করলে জ্ঞানীকেও সংসারে রাখতে পারেন। তাঁর ইচ্ছাতে জীবজগৎ হয়েছে। তিনি ইচ্ছাময় —

MASTER: "God, if He  so desires, can keep a jnani in the world too. The world and all living beings have been created by His will. But He (माँ जगदम्बा)  is self-willed."

 [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌻इच्छामयी माँ तारा ही वराह (सूकर-शिशु ), भेंड़-शिशु, सिंह-शावक सब कुछ बनी हैं 🌻   

मुखर्जी(सहास्य) – उनकी फिर कैसी इच्छा ? क्या उन्हें भी कोई अभाव है ?

[মুখুজ্জে (সহাস্যে) — তাঁর আবার ইচ্ছা কি? তাঁর কি কিছু অভাব আছে?

MUKHERJI (with a smile):"How can God have any will? Does He lack anything?"] 

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - इसमें दोष ही क्या है ? पानी स्थिर रहे तो भी वह पानी है और तरंगें उठने पर भी वह पानी ही है ।

“साँप चुपचाप कुण्डली बाँधकर बैठा रहे, तो भी वह साँप है और तिर्यग्-गति हो, टेढ़ा-मेढ़ा रेंगने से भी वह साँप ही है । 

“बाबू जब चुपचाप बैठे रहते हैं, तब वे जो मनुष्य हैं, वही मनुष्य वे उस समय भी हैं जब वे काम करते हैं।

“ तुम ब्रह्म  से जीव-प्रपंच को अलग कैसे कर सकते हो ? इस तरह वजन तो घट जाएगा ! बेल के बीज  और खोपड़ा निकाल देने से पूरे बेल का वजन ठीक नहीं उतरता ।

[ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥अर्थ -वह परब्रह्म (परम सत्य) भी पूर्ण है और यह कार्यब्रह्म (सापेक्षिक सत्य) भी पूर्ण है।  यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण आत्मा से ही उत्पन्न हुआ है | उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।पूर्ण अर्थात ∞ अनन्त >  ∞+∞=∞,∞- ∞= ∞, ∞ x  ∞ =∞ /बस यही इस मंत्र का सार है।  ईशावास्योपनिषद् का यह मन्त्र हमें देश काल की सीमाओं से अनन्त बनाते हुए हमारी पूर्णता से हमारा साक्षात्कार कराता है। 

“ब्रह्म निर्लिप्त है । सुगन्ध और दुर्गन्ध वायु से मिलती है, परन्तु वायु निर्लिप्त है । ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं । उसी आद्याशक्ति से जीव-प्रपंच बना है ।”

 [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌻 वह परब्रह्म भी पूर्ण है और यह कार्यब्रह्म  भी पूर्ण है 🌻

[ Is the living world a lie? क्या जीवित दुनिया एक भ्रम  है?-नहीं ,हर देश में तूँ , हर भेष में तूँ , तेरे नाम अनेक तूँ एक ही है। उसी आद्याशक्ति से जीव-प्रपंच बना है ]

हर देश में तू, हर भेष में तू,तेरे नाम अनेक तू एक ही है। 

तेरी रंग भूमि यह विश्व धरा, सब खेल में, मेल में तू एक ही है।  

(१) सागर से उठा, बादल बनके,बादल से गिरा जल हो करके। 

फिर नहर बनी , नदियाँ गहरी,तेरे भिन्न प्रकार तू एक ही है। 

(हर देश में तू, हर भेष में तू, 

(२) चींटी से भी अणु परमाणु बना,सब जीव जगत का रूप लिया। 

कहीं पर्वत वृक्ष, विशाल बना,सौन्दर्य तेरा सब एक ही है। 

(हर देश में तू, हर भेष में तू,)

(३) यह दृश्य दिखाया हे जिसनें,वो है गुरुदेव की पूर्ण कृपा । 

"टुकड़ो " कहे और तो कोई नहीं,बस  तू और मै  दोनों एक ही है  ||

..... तेरा दास कहे प्रभु और दिखा,बस मैं और तू सब एक ही है,

हर देश में तू, हर भेष में तू , ] 

["Brahman is unattached. One finds good and bad smells in the air, but the air itself is untainted. Brahman and Sakti are identical. It is the Primordial Power that has become the world and all living beings."

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তাতেই বা দোষ কি? জল স্থির থাকলেও জল, — তরঙ্গ হলেও জল।

“সাপ চুপ করে কুণ্ডলী পাকিয়ে থাকলেও সাপ, — আবার তির্যগ্গতি হয়ে এঁকেবেঁকে চললেও সাপ।

“বাবু যখন চুপ করে আছে তখনও যে ব্যক্তি, — যখন কাজ করছে তখনও সেই ব্যক্তি।

“জীবজগৎকে বাদ দেবে কেমন করে — তাহলে যে ওজনে কম পড়ে। বেলের বিচি, খোলা বাদ দিলে সমস্ত বেলের ওজন পাওয়া যায় না।

“ব্রহ্ম নির্লিপ্ত। বায়ুতে সুগন্ধ দুর্গন্ধ পাওয়া যায়, কিন্তু বায়ু নির্লিপ্ত। ব্রহ্ম আর শক্তি অভেদ। সেই আদ্যাশক্তিতেই জীবজগৎ হয়েছে।”

MASTER (with a smile): MASTER (with a smile): "What's wrong in that? Water is water whether it is still or in waves. The snake is a snake whether it is coiled up motionless or wriggles along. A man is the same man whether sitting still or engaged in action.

"How can you eliminate from the Reality the universe and its living beings? If you do that, It will lack Its full weight. You cannot find out the total weight of the bel-fruit if you eliminate the seeds and shell.

"Brahman is unattached. One finds good and bad smells in the air, but the air itself is untainted. Brahman and Sakti are identical. It is the Primordial Power that has become the world and all living beings."

 [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌻योगभ्रष्ट न होने का उपाय  -क्रंदन ,भक्ति और मनःसंयोग 🌻

🌻दाई (Midwife) ने नाड़ी (navel cord) की बेड़ी काट दी अब कामिनी -कांचन बेड़ी कैसे काटूँ 🌻 

[ 🌼🐬 काव्य "Priceless words!" :  जब ह्रदय 'अहं' की भावना का परित्याग करके, विशुद्ध अनुभूतिमात्र रह जाता है तब वह मुक्त ह्रदय हो जाता है। ह्रदय की इस मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान (क्रंदन) करती आयी है उसे -काव्य (अर्थात श्रीरामकृष्ण वचनामृत)  कहते हैं !🌼🐬]

जब कोई साधारण ह्रदय अपने 'व्यष्टि अहं ' को त्यागकर (जो असम्भव है ,इसलिए ) माँ जगदम्बा के मातृहृदय सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित करके 'विशुद्ध अनुभूति' मात्र रह जाता है; तब वह मुक्त ह्रदय (नर-मादा भ्रम से मुक्त हृदय 'D-Hypnotized' Heart ) हो जाता है। ह्रदय की इस मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान (क्रंदन) करती आयी है उसे -काव्य (अर्थात श्रीरामकृष्ण वचनामृत)  कहते हैं ! 🌼🐬    

मुखर्जी – योगभ्रष्ट क्यों होते हैं?

[ মুখুজ্জে — কেন যোগভ্রষ্ট হয়? 

MUKHERJI: "Why does one deviate from the path of yoga?"

श्रीरामकृष्ण –एक बंगला कहावत है न , " गर्भे छिलाम योगे छिलाम , भूमे पोड़े खेलाम माटी। ओरे धात्रीति केटेछे नाड़ी , मायार बेड़ी किसे काटी। " --अर्थात ‘जब मैं गर्भ में था तब 'योग' में था, पृथ्वी पर गिरते ही मिट्टी खायी । धाई ने तो मेरा नार काटा; पर यह माया की बेड़ी (कामिनी -कांचन में आसक्ति रूपी बेड़ी) कैसे काटूँ ?’

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ‘গর্ভে ছিলাম যোগে ছিলাম, ভূমে পড়ে খেলাম মাটি। ওরে ধাত্রীতে কেটেছে নাড়ী, মায়ার বেড়ি কিসে কাটি।

MASTER: "As the saying goes: 'In my mother's womb I was in a state of yoga; coming into the world, I have eaten its clay. The midwife has cut one shackle, the navel cord; but how shall I cut the shackle of maya?']

“कामिनी-कांचन (Lust and Greed) ही माया है । मन से इन दोनों के जाते ही योग होता है । आत्मा – परमात्मा – चुम्बक पत्थर है, जीवात्मा एक सूई है – उनके खींच लेने ही से योग हो गया । परन्तु सूई में अगर मिट्टी लगी हुई हो, तो चुम्बक नहीं खींचता – मिट्टी साफ कर देने से फिर खींचता है । कामिनी-कांचन मिट्टी है, इसे साफ करना चाहिए ।”

[“কামিনী-কাঞ্চনই মায়া। মন থেকে ওই দুটি গেলেই যোগ। আত্মা — পরমাত্মা চুম্বক পাথর, জীবাত্মা যেন একটি ছুঁচ — তিনি টেনে নিলেই যোগ। কিন্তু ছুঁচে যদি মাটি মাখা থাকে চুম্বকে টানে না, মাটি সাফ করে দিলে আবার টানে। কামিনী-কাঞ্চন মাটি পরিষ্কার করতে হয়।”

"Maya is nothing but 'woman' and 'gold'. A man attains yoga when he has freed his mind from these two. The Self — the Supreme Self — is the magnet; the individual self is the needle. The individual self experiences the state of yoga when it is attracted by the Supreme Self to Itself. But the magnet cannot attract the needle if the needle is covered with clay; it can draw the needle only when the clay is removed. The clay of 'woman' and 'gold' must be removed."

मुखर्जी – यह किस तरह साफ हो ?

[মুখুজ্জে — কিরূপে পরিষ্কার হয়?

MUKHERJI: "How can one remove it?"

श्रीरामकृष्ण – उनके लिए व्याकुल होकर रोओ (क्रंदन करो) । वही जल मिट्टी पर गिरने से मिट्टी धुल जाएगी । जब खूब साफ हो जाएगी तब चुम्बक खींच लेगा । योग तभी होगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর জন্য ব্যকুল হয়ে কাঁদ — সেই জল মাটিতে লাগলে ধুয়ে ধুয়ে যাবে। যখন খুব পরিষ্কার হবে তখন চুম্বকে টেনে লবে। — যোগ তবেই হবে।

MASTER: "Weep for God with a longing heart. Tears shed for Him will wash away the clay. When you have thus freed yourself from impurity, you will be attracted by the magnet. Only then will you attain yoga."

मुखर्जी – अहा ! कैसी बात है !

[মুখুজ্জে — আহা কি কথা!

MUKHERJI: "Priceless words!"]

 [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌼🐬माँ के लिए क्रंदन करने से कुम्भक, उसके बाद समाधि 🌼🐬 

श्रीरामकृष्ण – उनके लिए रो सकने पर उनके दर्शन होते हैं – समाधि होती है । योग में सिद्ध होने से ही समाधि होती है । रोने से कुम्भक आप ही आप होता है । - उसके बाद समाधि ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর জন্য কাঁদতে পারলে দর্শন হয়। যোগ সিদ্ধ হলেই সমাধি। কাঁদলে কুম্ভক আপনি হয়, তারপর সমাধি।

 "If a man is able to weep for God, he will see Him. He will go into samadhi. Perfection in yoga is samadhi. A man achieves kumbhaka without any yogic exercise if he but weeps for God. The next stage is samadhi.

“एक उपाय और है – ध्यान । सहस्त्रार कमल (मस्तक) में विशेष रूप से शिव का अधिष्ठान है – उसका ध्यान । शरीर आधार है और मन-बुद्धि जल । इस पानी पर उस सच्चिदानन्द सूर्य का बिम्ब गिरता है ! उसी बिम्बसूर्य (गुरु विवेकानन्द) का ध्यान करते करते उनकी कृपा से यथार्थ सूर्य (श्रीरामकृष्ण-सच्चिदानन्द) के भी दर्शन होते हैं ।

[“আর-এক আছে ধ্যান। সহস্রারে শিব বিশেষরূপে আছেন। তাঁর ধ্যান। শরীর সরা, মন-বুদ্ধি জল। এই জলে সেই সচ্চিদানন্দ সূর্যের প্রতিবিম্ব পড়ে। সেই প্রতিবিম্ব সূর্যের ধ্যান করতে করতে সত্য সূর্য তাঁর কৃপায় দর্শন হয়।

"There is another method — that of meditation. In the Sahasrara, Siva (गुरु विवेकानन्द ) manifests Himself in a special manner. The aspirant should meditate on Him. The body is like a tray; the mind and buddhi are like water. The Sun of Satchidananda is reflected in this water. Meditating on the reflected sun , one sees the Real Sun through the grace of God (इष्टदेव) .

  [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌼साधु-संग करो और आम-मुखतारी  ('C-IN-C'= नवनीदा) को दे दो 🌼 

“परन्तु संसारी मनुष्यों के लिए तो सदा ही साधुसंग की आवश्यकता है । यह सभी के लिए आवश्यक है; संन्यासियों के लिए भी । परन्तु संसारियों के लिए यह विशेषकर आवश्यक है । उन्हें रोग लगा ही हुआ है – कामिनी-कांचन में सदा ही रहना पड़ता है ।”

[কিন্তু সংসারী লোকের সর্বদাই সাধুসঙ্গ দরকার। সকলেরই দরকার। সন্ন্যাসীরও দরকার। তবে সংসারীদের বিশেষতঃ, রোগ লেগেই আছে — কামিনী-কাঞ্চনের মধ্যে সর্বদা থাকতে হয়।”

"But the worldly man must constantly live in the company of holy men. It is necessary for all, even for sannyasis. But it is especially necessary for the householder. His disease has become chronic because he has to live constantly in the midst of 'woman and gold'."]

मुखर्जी – जी हाँ, रोग  लगा ही हुआ है ।

[মুখুজ্জে — আজ্ঞা, রোগ (वासना और लोभ की वंशानुगत प्रवृत्तियाँ)লেগেই আছে।

MUKHERJI: "Yes, sir. The disease (Inherited tendencies of Lust and greed) has indeed become chronic."

श्रीरामकृष्ण – उन्हें आम-मुखतारी दे दो – वे जो चाहे सो करें । तुम बिल्ली के बच्चे की तरह उन्हें पुकारते भर रहो – व्याकुल होकर । उसकी माँ उसे चाहे जहाँ रखे – वह कुछ भी नहीं जानता; -कभी बिस्तर पर रखती है तो कभी रसोईघर में !

[ শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁকে আমমোক্তারি (বকলমা) দাও — যা হয় তিনি করুন। তুমি বিড়ালছানার মতো কেবল তাঁকে ডাকো — ব্যাকুল হয়ে। তার মা যেখানে তাকে রাখে — সে কিছু জানে না; কখনও বিছানার উপর রাখছে, কখনও হেঁশালে।

"Give God the power of attorney. Let Him do whatever He wants. Be like a kitten and cry to Him with a fervent heart. The mother cat puts the kitten wherever she wants to. The kitten doesn't know anything. It is left sometimes on the bed and sometimes near the hearth."

  [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌼साधक अवस्था में 3H विकास के 5 अभ्यास अनिवार्य  🌼

मुखर्जी – गीता आदि शास्त्र पढ़ना अच्छा है ।

[মুখুজ্জে — গীতা প্রভৃতি শাস্ত্র পড়া ভাল।

MUKHERJI: "It is good to read sacred books like the Gita."

श्रीरामकृष्ण – केवल पढ़ने-सुनने से क्या होगा ? किसी ने दूध का नाम मात्र सुना है, किसी ने दूध देखा है और किसी ने दूध पिया है । ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं और उनसे वार्तालाप भी किया जा सकता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — শুধু পড়লে শুনলে কি হবে? কেউ দুধ শুনেছে, কেউ দুধ দেখেছে, কেউ খেয়েছে। ঈশ্বরকে দর্শন করা যায় — আবার তাঁর সঙ্গে আলাপ করা যায়।

"But what will you gain by mere reading? Some have heard of milk, some have seen it, and there are some, besides, who have drunk it. God can indeed be seen; what is more, one can talk to Him.

“पहले प्रवर्तक है – वह पढ़ता-सुनता है । उसके बाद साधक है, - उन्हें पुकारता है, ध्यान-चिन्तन और नामगुण-कीर्तन करता है । इसके बाद सिद्ध – उसे हृदय में उनका अनुभव हुआ है, उनके दर्शन हुए हैं। 

इसके बाद है सिद्ध का सिद्ध (C-IN-C, नवनीदा) – जैसे चैतन्यदेव की अवस्था – कभी वात्सल्य और कभी मधुर भाव ।”

[“প্রথমে প্রবর্তক। সে পড়ে, শুনে। তারপর সাধক, — তাঁকে ডাকছে, ধ্যান চিন্তা করছে, নামগুণকীর্তন করছে। তারপর সিদ্ধ — তাঁকে বোধ বোধ করেছে, দর্শন করেছে। তারপর সিদ্ধের সিদ্ধ; যেমন চৈতন্যদেবের অবস্থা — কখনও বাৎসল্য, কখনও মধুরভাব।”

"The first stage is that of the beginner. He studies and hears. Second is the stage of the struggling aspirant. He prays to God, meditates on Him, and sings His name and glories. The third stage is that of the perfect soul. He has seen God, realized Him directly and immediately in his inner Consciousness. Last is the stage of the 'supremely perfect' , like Chaitanya. (C-IN-C, नवनीदा ) Such a devotee establishes a definite relationship with God, looking on Him as his Son or Beloved."

मणि, राखाल, योगीन्द्र, लाटू आदि भक्तगण ये सब देवदुर्लभ तत्त्वपूर्ण कथाएँ आश्चर्यचकित होकर सुन रहे हैं ।

अब मुखर्जी और उनके साथवाले विदा होंगे । वे सब प्रणाम करके उठ खड़े हुए । श्रीरामकृष्ण भी, शायद उनके प्रति सम्मान दिखाने के उद्देश्य से खड़े हो गये ।

[এইবার মুখুজ্জেরা বিদায় লইবেন। তাঁহারা প্রণাম করিয়া দাঁড়াইলেন। ঠাকুরও যেন তাঁদের সম্মানর্থ উঠিয়া দাঁড়াইলেন।

Mr. Mukherji and his friend were taking leave of the Master. After saluting him, they stood up. The Master also stood up to show them courtesy.

मुखर्जी (सहास्य) – आपके लिए उठना और बैठना !

श्रीरामकृष्ण(सहास्य) – उठने और बैठने में हानि क्या है? पानी स्थिर होने पर भी पानी है और हिलने-डुलने पर भी पानी ही है । आँधी में जूठी पत्तल, हवा चाहे जिस और उड़ा ले जाय । मैं यन्त्र हूँ, वे यंत्री हैं।

[ "But what's the harm? Water is water whether it is placid or in waves. I am like a cast-off leaf in the wind. The wind blows that leaf wherever it lists. I am the machine and God is its Operator."

(२)

 [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

  🔆श्रीरामकृष्ण और 'वेदान्ततत्त्वों-अनेकता में एकता' की गूढ़ व्याख्या  🔆 

जनाई के मुखर्जी चले गए । मणि सोच रहे हैं वेदान्तदर्शन के मत से सब स्वप्नवत् है । तो क्या जीव, जगत्, मैं – यह सब मिथ्या है ?

[জনাইয়ের মুখুজ্জেরা চলিয়া গেলেন। মণি ভাবিতেছেন, বেদান্তদর্শন মতে “সব স্বপ্নবৎ”। তবে জীবজগৎ, আমি — এ-সব কি মিথ্যা?

Mr. Mukherji and his friend left the room. M. thought: "According to the Vedanta all is like a dream. Are all these — the ego, the universe, and the living beings — unreal then?"

मणि ने थोड़ा-बहुत वेदान्त पढ़ा है । फिर जिनके विचार मानो वेदान्त की ही अस्फुट प्रतिध्वनि है, उन कान्ट, हेगेल आदि जर्मन पण्डितों के भी कुछ ग्रन्थ पढ़े हैं । परन्तु श्रीरामकृष्ण ने दुर्बल मानव की तरह विचार के द्वारा ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, उन्हें तो स्वयं जगज्जननी ने सब कुछ दर्शन (इन्द्रियातीत सत्य का दर्शन) करा दिया है । मणि इसी के बारे में सोच रहे हैं ।

[মণি একটু একটু বেদান্ত দেখিয়াছেন। আবার বেদান্তের অস্ফুট প্রতিধ্বনি কান্ট্‌, হেগেল প্রভৃতি জার্মান পণ্ডিতদের বিচার একটু পড়েছেন। কিন্তু ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দুর্বল মানুষের ন্যায় বিচার করেন নাই, জগন্মাতা তাঁহাকে সমস্ত দর্শন১ (১Revelation: Transcendental Perception: God-vision.)করাইয়াছেন। মণি তাই ভাবছেন।

M. had studied a little of the Vedanta. He also had read the German philosophers, such as Kant and Hegel, whose writings are only a faint echo of the Vedanta. But Sri Ramakrishna did not arrive at his conclusions by reasoning, as do ordinary scholars. It was the Divine Mother of the Universe who revealed the (Absolute) Truth to him. These were the thoughts that passed through M.'s mind.

*Identity of the Undifferentiated and Differentiated*

[श्रीरामकृष्ण  निराकार और अपरोक्ष ज्ञान को चरम सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं किन्तु साथ ही, मूर्ति पूजा को अस्वीकार नहीं करते थे।]  

कुछ ही देर बाद श्रीरामकृष्ण मणि के साथ अकेले पश्चिमवाले गोल बरामदे में बातचीत कर रहे हैं । सामने गंगाजी कलकल नाद करती हुई दक्षिण की ओर बह रही हैं । शीत ऋतु है । नैऋत्य दिशा में सूर्यनारायण अभी भी दिखायी दे रहे हैं । जिनका जीवन वेदमय है, जिनके श्रीमुख से निकली वाणी वेदान्तवाक्य है, जिनके श्रीमुख से स्वयं भगवान् ही बोलते हैं, जिनके वचनरुपी अमृत से वेद, वेदान्त, श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों का निर्माण हुआ है, वही अहेतुककृपासिन्धु पुरुष गुरु (मेरे नेता /CINC/नवनीदा का) रूप धारण कर रहे हैं ।

[কিয়ৎক্ষণ পরেই ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মণির সহিত একাকী পশ্চিমের গোল বারান্দায় কথা কহিতেছেন। সম্মুখে গঙ্গা — কুলকুল রবে দক্ষিণে প্রবাহিত হইতেছেন। শীতকাল — সূর্যদেব এখনও দেখা যাইতেছেন দক্ষিণ-পশ্চিম কোণে। যাঁহার জীবন বেদময় — যাঁহার শ্রীমুখনিঃসৃত বাক্য বেদান্তবাক্য — যাঁহার শ্রীমুখ দিয়া শ্রীভগবান কথা কন — যাঁহার কথামৃত লইয়া বেদ, বেদান্ত, শ্রীভাগবত গ্রন্থাকার ধারণ করে, সেই অহেতুককৃপাসিন্ধু পুরুষ গুরুরূপ করিয়া কথা কহিতেছেন।

A little later Sri Ramakrishna and M. were conversing on the porch west of the Master's room. No one else was there. It was a late winter afternoon, and the sun had not yet gone below the horizon.] 

मणि- क्या संसार मिथ्या है ?

[মণি — জগৎ কি মিথ্যা?

M: "Is the world unreal?"

श्रीरामकृष्ण – मिथ्या क्यों है ? वह सब दार्शनिक चर्चा (philosophical discussion) की बात है।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — মিথ্যা কেন? ও-সব বিচারের কথা।

MASTER: "Why should it be unreal? What you are asking is a matter for philosophical discussion.]

“पहले-पहल ‘नेति’ ‘नेति’ विचार करते समय, वे न जीव हैं, न जगत् हैं, न चौबीस तत्त्व हैं, ऐसा हो जाता है, - यह सब स्वप्नवत् हो जाता है । इसके बाद अनुलोम का  विलोम होता है, तब वही जीव-जगत् हुए हैं, यह ज्ञान हो जाता है ।

[“প্রথমটা, ‘নেতি’ ‘নেতি’ বিচার করবার সময়, তিনি জীব নন, জগৎ নন, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব নন, হয়ে যায়; — ‘এ-সব স্বপ্নবৎ’ হয়ে যায়। তারপর অনুলোম বিলোম। তখন তিনিই জীবজগৎ হয়েছেন বোধ হয়।

"In the beginning, when a man reasons following the Vedantic method of 'Not this, not this', he realizes that Brahman is not the living beings, not the universe, not the twenty-four cosmic principles. All these things become like dreams to him. Then comes the affirmation of what has been denied, and he feels that God Himself has become the universe and all living beings.

“तुम एक-एक करके सीढ़ियों से छत पर गए । परन्तु जब तक तुम्हें छत का ज्ञान है, तब तक सीढ़ियों का ज्ञान भी है । जिसे चीज से छत बनी हुई है – ईंट, चूना, मसाला – उसी चीज से सीढ़ियाँ भी बनी हैं।

[“তুমি সিঁড়ি ধরে ধরে ছাদে উঠলে। কিন্তু যতক্ষণ ছাদবোধ ততক্ষণ সিঁড়িও আছে। যার উঁচুবোধ আছে, তার নিচুবোধও আছে।“আবার ছাদে উঠে দেখলে — যে জিনিসে ছাদ তৈয়ের হয়েছে — ইট, চুন, সুড়কি — সেই জিনিসেই সিঁড়ি তৈয়ের হয়েছে।

"Suppose you are climbing to the roof by the stairs. As long as you are aware of the roof, you are also aware of the stairs. He who is aware of the high is also aware of the low. But after reaching the roof you realize that the stairs are made of the same materials — brick, lime, and brick-dust — as the roof.] 

 [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌼परिवर्तनशीलता (लीला) और अपरिवर्तनीयता (नित्य) एक ही सत्य माँ काली के दो पहलु हैं🌼

[changeability and unchangeability belong to one and the same Reality.]

“और जैसे बेल-फल के खोपड़ा, बीज और गुद्दा की बात कही थी । -- “जिसका ‘अटल’ है, उसका ‘टल’ भी है ।

[“আর যেমন বেলের কথা বলেছি।“যার অটল আছে তার টলও আছে।“

"Further, I have given the illustration of the bel-fruit. Both changeability and unchangeability belong to one and the same Reality.]

“’मैं’ नहीं जाने का । ‘मैं-घट’ जब तक है, तब तक जीव-प्रपंच भी है । उन्हें प्राप्त कर लेने पर देखा जाता है, जीव-प्रपंच वही हुए हैं । -केवल विचार से ही नहीं होता ।

[“আমি যাবার নয়। ‘আমি ঘট’ যতক্ষণ রয়েছে ততক্ষণ জীবজগৎও রয়েছে। তাঁকে লাভ করলে দেখা যায় তিনিই জীবজগৎ হয়েছেন। — শুধু বিচারে হয় না।

"The ego cannot be done away with. As long as 'I-consciousness' exists, living beings and the universe must also exist. After realizing God, one sees that it is He Himself who has become the universe and the living beings. But one cannot realize this by mere reasoning.]

“शिव (समय, महाकाल, चैतन्य ) के मन की दो अवस्थाएँ हैं । जब वे समाधिस्थ हैं – महायोग में बैठे हुए हैं – तब आत्माराम हैं । फिर जब उस अवस्था से उतर आते हैं – थोड़ासा “मैं” रहता है – तब ‘राम राम’ कहकर नृत्य करते हैं।”

.[“শিবের দুই অবস্থা। যখন সমাধিস্থ — মহাযোগে বসে আছেন — তখন আত্মারাম। আবার যখন সে অবস্থা, থেকে নেবে আসেন — একটু ‘আমি’ থাকে তখন ‘রাম’ ‘রাম’ করে নৃত্য করেন!”

"Siva has two states of mind. First, the state of samadhi, when He is transfixed in the Great Yoga. He is then Atmarama, satisfied in the Self. Second, the state when He descends from samadhi and keeps a trace of ego. Then He dances about, chanting, 'Rama, Rama!'] 

क्या शिव की अवस्था का वर्णन कर श्रीरामकृष्ण अपनी ही अवस्था सूचित कर रहे हैं ?

[ঠাকুর শিবের অবস্থা বর্ণনা করিয়া কি নিজের অবস্থা ইঙ্গিত করিয়া বলিতেছেন?

\Did the Master describe Siva to hint at his own state of mind?]

शाम हो गयी है । श्रीरामकृष्ण जगन्माता का नाम और चिन्तन कर रहे हैं । भक्तगण भी निर्जन में जाकर अपना अपना ध्यान-जप करने लगे । इधर कालीमाई के मन्दिर में, श्रीराधाकान्तजी के मन्दिर में और बारहों शिवालयों में आरती होने लगी ।

[সন্ধ্যা হইল। ঠাকুর জগন্মাতার নাম ও তাঁহার চিন্তা করিতেছেন। ভক্তেরাও নির্জনে গিয়া যে যার ধ্যানাদি করিতে লাগিলেন। এদিকে ঠাকুরবাড়িতে মা-কালীর মন্দিরে, শ্রীশ্রীরাধাকান্তের মন্দিরে ও দ্বাদশ শিবমন্দিরে আরতি হইতে লাগিল।

 It was evening. Sri Ramakrishna was meditating on the Divine Mother and chanting Her holy name. The devotees also went off to solitary places and meditated on their Chosen Ideals. Evening worship began at the temple garden in the shrines of Kali, Radha-Krishna, and Siva.]

आज कृष्णपक्ष की द्वितीया है । सन्ध्या के कुछ समय बाद चन्द्रोदय हुआ । वह चाँदनी, मन्दिरशीर्ष, चारों ओर के पेड़-पौधे और मन्दिर के पश्चिम ओर भागीरथी के वक्षःस्थल पर पड़कर अपूर्व शोभा धारण कर रही है । इस समय उसी पूर्वपरिचित कमरे में श्रीरामकृष्ण बठे हुए हैं । फर्श पर मणि बैठे हुए हैं । शाम होते होते वेदान्त के सम्बन्ध की जो बात मणि ने उठायी थी उसी के बारे में श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं।

[আজ কৃষ্ণপক্ষের দ্বিতিয়া তিথি। সন্ধ্যার কিয়ৎক্ষণ পরে চন্দ্রোদয় হইল। সে আলো মন্দির শীর্ষ, চতুর্দিকের তরুলতা ও মন্দিরের পশ্চিমে ভাগীরথীবক্ষে পড়িয়া অপূর্ব শোভা ধারণ করিয়াছে। এই সময় সেই পূর্বপরিচিত ঘরে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বসিয়া আছেন। মণি মেঝেতে বসিয়া আছেন। মণি বৈকালে বেদান্ত সম্বন্ধে যে-কথার অবতারণা করিয়াছিলেন ঠাকুর আবার সেই কথাই কহিতেছেন।

It was the second day of the dark fortnight of the moon. Soon the moon rose in the sky, bathing temples, trees, flowers, and the rippling surface of the Ganges in its light. The Master was sitting on the couch and M. on the floor. The conversation turned to the Vedanta.

  [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌼जड़ कुछ नहीं, सब कुछ चिन्मय है  🌼

श्रीरामकृष्ण(मणि से) – संसार मिथ्या क्यों होने लगा ? यह सब विचार की बात है । उनके दर्शन हो जाने पर ही समझ में आता है कि जीव-प्रपंच सब वही हुए हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — জগৎ মিথ্যা কেন হবে? ও-সব বিচারের কথা। তাঁকে দর্শন হলে তখন বোঝা যায় যে তিনিই জীবজগৎ হয়েছেন।

MASTER (to M.): "Why should the universe be unreal? That is a speculation of the philosophers. After realizing God, one sees that it is God Himself who has become the universe and all living beings.]

“मुझे माँ ने कालीमन्दिर में दिखलाया कि माँ ही सब कुछ हुई हैं । दिखाया, सब चिन्मय है । प्रतिमा चिन्मय है ! वेदी चिन्मय है ! अर्ध्यपात्र चिन्मय है ! चौखट, संगमर्मर पत्थर – सब कुछ चिन्मय है !

[“আমায় মা কালীঘরে দেখিয়া দিলেন যে মা-ই সব হয়েছেন। দেখিয়া দিলেন সব চিন্ময়! — প্রতিমা চিন্ময়! — বেদী চিন্ময়! — কোশাকুশি চিন্ময়! — চৌকাট চিন্ময়! — মার্বেলের পাথর — সব চিন্ময়!

"The Divine Mother revealed to me in the Kali temple that it was She who had become everything. She showed me that everything was full of Consciousness. The Image was Consciousness, the altar was Consciousness, the water-vessels were Consciousness, the door-sill was Consciousness, the "marble floor was Consciousness — all was Consciousness.]
  [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 
🌼रस (रसो वै सः -श्री कृष्ण) और रसिक (भक्त -श्रीराधा) 🌼  

“मन्दिर के भीतर मैंने देखा, सब मानो रस से सराबोर हैं – सच्चिदानन्द-रस से । 

“कालीमन्दिर के सामने एक दुष्ट आदमी को देखा – परन्तु उसके भीतर भी उनकी शक्ति जाज्वल्यमान देखी !

[“ঘরের ভিতর দেখি — সব যেন রসে রয়েছে! সচ্চিদানন্দ রসে। “কালীঘরের সম্মুখে একজন দুষ্ট লোককে দেখলাম, — কিন্তু তারও ভিতরে তাঁর শক্তি জ্বলজ্বল করছে দেখলাম!]

I found everything inside the room soaked, as it were, in Bliss — the Bliss of Satchidananda. I saw a wicked man in front of the Kali temple; but in him also I saw the Power of the Divine Mother vibrating.]

  [(16 दिसंबर, 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🌼🐬मथुरबाबू ने खजांची को पत्र लिख कर ठाकुर-कार्य में बाधा डालने से मना किया 🌼🐬

“इसीलिए तो मैंने बिल्ली को उनके भोग की पूड़ियाँ खिलायी थीं । देखा, माँ ही सब कुछ हुई हैं । - बिल्ली भी । तब खजांची ने मथुरबाबू को लिखा कि भट्टाचार्य महाशय भोग की पूड़ियाँ बिल्लियों को खिलाते हैं । मथुरबाबू मेरी अवस्था समझते थे । चिट्ठी के उत्तर में उन्होंने लिखा, ‘वे जो कुछ करें, उसमें कुछ बाधा न देना ।’

[ “তাইতো বিড়ালকে ভোগের লুচি খাইয়েছিলাম। দেখলাম মা-ই সব হয়েছেন — বিড়াল পর্যন্ত। তখন খাজাঞ্চী সেজোবাবুকে চিঠি লিখলে যে ভটচার্জি মহাশয় ভোগের লুচি বিড়ালদের খাওয়াচ্ছেন। সেজোবাবু আমার অবস্থা বুঝতো। পত্রের উত্তরে লিখলে, ‘উনি যা করেন তাতে কোন কথা বলো না।’

"That was why I fed a cat with the food that was to be offered to the Divine Mother. I clearly perceived that the Divine Mother Herself had become everything — even the cat. The manager of the temple garden wrote to Mathur Babu saving that I was feeding the cat with the offering intended for the Divine Mother. But Mathur Babu had insight into the state of my mind. He wrote back to the manager: 'Let him do whatever he likes. You must not say anything to him.']

“उन्हें पा जाने पर यह सब ठीक ठीक दीख पड़ता है; वही जीव, जगत्, चौबीसों तत्त्व – यह सब हुए हैं।

“परन्तु, यदि वे ‘मैं’ को बिलकुल मिटा दें, तब क्या होता है, यह मुँह से नहीं कहा जा सकता । जैसे रामप्रसाद ने कहा है – ‘तब तुम अच्छी हो या मैं अच्छा हूँ यह तुम्हीं समझोगी ।’

“वह अवस्था भी मुझे कभी कभी होती है ।

[“তাঁকে লাভ করলে এইগুলি ঠিক দেখা যায়। তিনিই জীব, জগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব হয়েছেন।“তবে যদি তিনি ‘আমি’ একেবারে পুঁছে দেন তখন যে কি হয় মুখে বলা যায় না। রামপ্রসাদ যেমন বলেছেন — ‘তখন তুমি ভাল কি আমি ভাল সে তুমিই বুঝবে।’“সে অবস্থাও আমার এক-একবার হয়।

"After realizing God, one sees all this aright — that it is He who has become the universe, living beings, and the twenty four cosmic principles. But what remains when God completely effaces the ego cannot be described in words. As Ramprasad said in one of his songs, 'Then alone will you know whether you are good or I am good!' I get into even that state now and then.] 

“विचार करने से एक तरह का दर्शन होता है और जब वे दिखा देते हैं तब एक दूसरे तरह का ।” 

[“বিচার করে একরকম দেখা যায়, — আর তিনি যখন দেখিয়ে দেন তখন আর একরকম দেখা যায়।”

"A man sees a thing in one way through reasoning and in an altogether different way when God Himself shows it to him.]

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🔆 परिच्छेद ~ 62, [(15 दिसंबर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Nrisimha, the Man-lion *प्रह्लादचरित्र-श्रवण, नृसिंह की रुद्र मूर्ति तथा भावावेश **भक्तवत्सल नृसिंग प्रह्लाद की देह पर जीभ फिरा रहे हैं **स्त्रीसंग-निन्दा- ईश्वर के मार्ग पर रहकर भी पशुओं का-सा व्यवहार- शोभा नहीं देता ! *ठाकुर का प्रेमानन्द और मां काली की पूजा **निष्काम कर्म - पूर्णज्ञानी ग्रन्थ नहीं पढ़ते *

 [(15 दिसंबर, 1883) परिच्छेद ~ 62, श्रीरामकृष्ण वचनामृत  ]

साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ] ॐ 

परिच्छेद~ ६२

[ जगतगुरु श्री रामकृष्ण दक्षिणेश्वर में अंतरंग भक्तों के साथ] 

 [(15 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत  ]

 🔆प्रह्लादचरित्र-श्रवण, नृसिंह की रुद्र मूर्ति द्वारा भक्त प्रह्लाद का देह चाटना 🔆 

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर में उसी पूर्वपरिचित कमरे में फर्श पर बैठे हुए प्रह्लाद-चरित्र सुन रहे हैं । दिन के आठ बजे होंगे । रामलाल ‘भक्तमाल’ ग्रन्थ से प्रह्लाद-चरित्र पढ़ रहे हैं । 

आज शनिवार, अगहन की कृष्णा प्रतिपदा है, 15 दिसम्बर 1883 ई. । मणि दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण की पदच्छाया (गुरुगृहवास)  में ही रहते हैं । वे भी श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए प्रह्लाद-चरित्र सुन रहे हैं। कमरे में राखाल, लाटू , हरीश भी हैं,– कोई बैठे हुए सुन रहे हैं, कोई आना-जाना कर रहे हैं । हाजरा बरामदे में हैं ।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বরে সেই পূর্বপরিচিত ঘরে মেঝেতে বসিয়া প্রহ্লাদ চরিত্র শুনিতেছেন। বেলা ৮টা হইবে। শ্রীযুক্ত রামলাল ভক্তমাল গ্রন্থ হইতে প্রহ্লাদচরিত্র পড়িতেছেন।আজ শনিবার, (১লা পৌষ) অগ্রাহায়ণ কৃষ্ণা প্রতিপদ; ১৫ই ডিসেম্বর, ১৮৮৩ খ্রীষ্টাব্দ। মণি দক্ষিণেশ্বরে ঠাকুরের সঙ্গে তাঁহার পদছায়ায় বাস করিতেছেন; — তিনি ঠাকুরের কাছে বসিয়া প্রহ্লাদচরিত্র শুনিতেছেন। ঘরে শ্রীযুক্ত রাখাল, লাটু, হরিশ; কেহ বসিয়া শুনিতেছেন, — কেহ যাতায়াত করিতেছেন। হাজরা বারান্দায় আছেন।

M. had been staying at Dakshineswar with Sri Ramakrishna. The Master was sitting in his room, listening to the life of Prahlada, which Ramlal was reading from the Bhaktamala. M. was sitting on the floor. Rakhal, Latu, and Harish were also in the room, and Hazra was on the verandah. While listening to the story of Prahlada's love for God, Sri Ramakrishna went into an ecstatic mood.

श्रीरामकृष्ण प्रह्लाद-चरित्र की कथा सुनते सुनते भावावेश में आ रहे हैं । जब हिरण्यकशिपु का वध हुआ, तब नृसिंह की रुद्र मूर्ति देख और उनका सिंहनाद सुनकर ब्रह्मादि देवताओं ने प्रलय की आशंका से प्रह्लाद को ही उनके पास भेज दिया । प्रह्लाद बालक की तरह स्तव कर रहे हैं । भक्तवत्सल नृसिंग बड़े प्रेम से प्रह्लाद की देह को चाट रहे हैं - देह पर जीभ फिरा रहे हैं । ‘अहा ! भक्त पर कैसा प्यार है ।कहते हुए श्रीरामकृष्ण भावसमाधि में लीन हो गए । देह निःस्पन्द हो गयी है, आँखों की कोरों में प्रेमाश्रु दिखायी पड़ रहे हैं । 

[ঠাকুর প্রহ্লাদচরিত্র কথা শুনিতে শুনিতে ভাবাবিষ্ট হইতেছেন। যখন হিরণ্যকশিপু বধ হইল, নৃসিংহের রুদ্রমূর্তি দেখিয়া ও সিংহনাদ শুনিয়া ব্রহ্মাদি দেবতারা প্রলয়াশঙ্কায় প্রহ্লাদকেই নৃসিংহের কাছে পাঠাইয়া দিলেন। প্রহ্লাদ বালকের ন্যায় স্তব করিতেছেন। ভক্তবৎসল স্নেহে প্রহ্লাদের গা চাটিতেছেন। ঠাকুর ভাবাবিষ্ট হইয়া বলিতেছেন, “আহা! আহা! ভক্তের উপর কি ভালবাসা!” বলিতে বলিতে ঠাকুরের ভাবসমাধি হইল! স্পন্দহীন, — চক্ষের কোণে প্রেমাশ্রু!

Hiranyakasipu, the king of the demons and father of Prahlada, had put his son to endless torture to divert the boy's mind from the love of God. But through divine grace all the king's attempts to kill Prahlada were ineffective. At last God appeared, assuming the form of Nrisimha, the Man-lion, and killed Hiranyakasipu. The gods were frightened at the rage and roaring of the Man-lion and thought that the destruction of the world was imminent. They sent Prahlada to pacify the Deity. The boy sang a hymn to Him in words of love, and the Man-lion, moved by affection, licked Prahlada's body. Still in an ecstatic mood, the Master said, "Ah! Ah! What love for the devotee!" The Master went into deep samadhi. He sat there motionless. A tear-drop could be seen at the corner of each of his eyes.

     [(15 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत  ]

  🔆ईश्वर के मार्ग पर रहकर भी स्त्रीसंग की निन्दा  🔆

[विवेक-दर्शन का अभ्यास करने पर परम् सुन्दरी स्त्री भी चिताभस्म के समान जान पड़ती हैं] 

(By practicing Vivek-darshan, even a most beautiful woman seems to be like pyre ashes)

भाव का उपशम हो जाने पर श्रीरामकृष्ण उसी छोटे तख्त पर जा बैठे । मणि फर्श पर उनके चरणों के पास बैठे । श्रीरामकृष्ण उनसे बातचीत कर रहे हैं । ईश्वर के मार्ग पर रहकर भी जो लोग स्त्रीसंग करते हैं, उनके प्रति श्रीरामकृष्ण घृणा और क्रोध प्रकट कर रहे हैं । 

[ভাব উপশমের পর ঠাকুর ছোট খাটখানিতে গিয়া বসিয়াছেন। মণি মেঝের উপর তাঁহার পাদমূলে বসিলেন। ঠাকুর তাঁহার সঙ্গে কথা কহিতেছেন। ঈশ্বরের পথে থাকিয়া যাহারা স্ত্রীসঙ্গ করে তাহাদের প্রতি ঠাকুর ক্রোধ ও ঘৃণা প্রকাশ করিতেছেন

The Master came down to the plane of the sense world and spoke to M., expressing his abhorrence for those who, while practising spiritual discipline, enjoyed sex-life.]

श्रीरामकृष्ण – लाज भी नहीं आती – लड़के हो गए फिर भी स्त्रीसंग ! घृणा भी नहीं होती, - पशुओं का-सा व्यवहार ! लार, खून, मल, मूत्र – इन पर घृणा भी नहीं होती ! जो ईश्वर के पादपद्मों की चिन्ता करता है, उसे परम सुन्दरी स्त्री भी चिताभस्म (pyre ashes) के समान जान पड़ती हैं । जो शरीर (नश्वर है) नहीं रहेगा, जिसके भीतर कृमि, क्लेद, श्लेष्मा सब तरह की नापाक चीजें भरी हुई हैं, उसी को लेकर आनन्द ! लज्जा भी नहीं आती ! 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — লজ্জা হয় না। ছেলে হয়ে গেছে আবার স্ত্রীসঙ্গ! ঘৃণা করে না! — পশুদের মতো ব্যবহার! নাল, রক্ত, মল, মূত্র — এ-সব ঘৃণা করে না! যে ভগবানের পাদপদ্ম চিন্তা করে, তার পরমাসুন্দরী রমণি চিতার ভস্ম বলে বোধ হয়। যে শরীর থাকবে না — যার ভিতর কৃমি, ক্লেদ, শ্লেষ্মা, যতপ্রকার অপবিত্র জিনিস — সেই শরীর নিয়ে আনন্দ। লজ্জা হয় না!

মণি চুপ করিয়া হেঁটমুখ হইয়া আছেন।

MASTER: "Aren't you ashamed of yourself? You have children, and still you enjoy intercourse with your wife. Don't you hate yourself for thus leading an animal life? Don't you hate yourself for dallying with a body which contains only blood, phlegm, filth, and excreta? He who contemplates the Lotus Feet of God looks on even the most beautiful woman as mere ash from the cremation ground. To enjoy a body which will not last and which consists of such impure ingredients as intestines, bile, flesh, and bone! Aren't you ashamed of yourself?

M. sat there silently, hanging his head in shame.}

 [(15 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत  ]

 🔆विवेक-दर्शन का अभ्यास करने पर स्त्रीसंग और धनदौलत में आसक्ति तुच्छ जान पड़ते हैं 🔆

[By practicing Vivek-darshan, (or Mental Concentration on Swami Vivekananda) , attachment to women and gold seems to be insignificant. By practicing Vivek-darshan, even a beautiful woman seems to be like pyre ashes.)

"मणि (गृहस्थ भक्त) चुपचाप सिर झुकाए हुए हैं । श्रीरामकृष्ण फिर कहने लगे – “उनके प्रेम का एक बिन्दु भी यदि किसी को मिल गया तो कामिनी-कांचन अत्यन्त तुच्छ जान पड़ते हैं । जब मिश्री का शरबत मिल जाता है, तब गुड़ का शरबत नहीं सुहाता । व्याकुल होकर उनसे प्रार्थना करने पर, उनके नामगुण का सदा कीर्तन करने पर, क्रमशः उन पर वैसा ही प्यार हो जाता है ।”

यह कहकर श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त हो कमरे के भीतर नाचते हुए टहलने और गाने लगे-

सुरधनीर तीरे हरि बोले के , बुझी प्रेमदाता निताई ऐसेछे। 

(निताई नोइले प्राण जुड़ाबे किसे)।   

(भावार्थ) -  सुरधनिर तीरे - (गंगा नदी) के तट पर कौन हरिनाम ले रहा है ? शायद प्रेमदाता नित्यानन्द आए हैं । उनके बिना प्राण कैसे शीतल हों ?”

[মণি চুপ করিয়া হেঁটমুখ হইয়া আছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আবার বলিতেছেন — তাঁর প্রেমের একবিন্দু যদি কেউ পায় কামিনী-কাঞ্চন অতি তুচ্ছ বলে বোধ হয়। মিছরির পানা পেলে চিটেগুড়ের পানা তুচ্ছ হয়ে যায়। তাঁকে ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা করলে, তাঁর নামগুণ সর্বদা কীর্তন করলে — তাঁর উপর ভালবাসা ক্রমে হয়।এই বলিয়া ঠাকুর প্রেমোন্মত্ত হইয়া ঘরের মধ্যে নাচিয়া বেড়াইতে লাগিলেন ও গান গাইতে লাগিলেন:

সুরধনীর তীরে হরি বলে কে, বুঝি প্রেমদাতা নিতাই এসেছে।

          (নিতাই নইলে প্রাণ জুড়াবে কিসে)

M. sits still, hanging his head from the harsh rebuke. MASTER: "A man who has tasted even a drop of God's ecstatic love looks on 'Lust and greed ' as most insignificant. He who has tasted syrup made from sugar candy regards a drink made from treacle as a mere trifle. One gradually obtains that love for God if one but prays to Him with a yearning heart and always chants His name and glories."

Who is singing Hari's name upon the sacred Ganges' bank? Is it Nitai that has come, the giver of heavenly love? . . .

 [(15 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत  ]

 🔆प्रेमदाता ठाकुरदेव  मातृ-भक्ति की खुमारी में अपने मस्तक पर फूल रखकर ध्यान करते हैं ! 🔆
 [Sri Ramakrishna intoxicated with love for God meditates by placing flowers on his head

करीब दस बजे होंगे । रामलाल ने कालीमन्दिर की नित्यपूजा समाप्त कर दी है । श्रीरामकृष्ण माता के दर्शन करने के लिए कालीमन्दिर जा रहे हैं । साथ मणि भी हैं । मन्दिर में प्रवेश कर श्रीरामकृष्ण आसन पर बैठ गए । माता के चरणों पर दो-एक फूल उन्होंने अर्पित किए । अपने मस्तक पर फूल रखकर ध्यान कर रहे हैं । अब गीत गाकर माता की स्तुति करने लगे-

भवहारा भयहारा नाम शुनेछी तोमार। 

ताइते एबार दिएछि भार , तारो तारो ना तारो माँ।  

“हे शंकरि, मैंने सुना है तुम्हारा नाम भवहरा भी है । इसीलिए माँ, मैंने तुम्हें अपना भार दे दिया है, - तुम तारो चाहे न तारो ।’............

[প্রায় ১০টা বাজে। শ্রীযুক্ত রামলাল কালীঘরে মা-কালীর নিত্যপূজা সাঙ্গ করিয়াছেন। ঠাকুর মাকে দর্শন করিবার জন্য কালীঘরে যাইতেছেন। মণি সঙ্গে আছেন। মন্দিরে প্রবিষ্ট হইয়া ঠাকুর আসনে উপবিষ্ট হইলেন। দুই-একটি ফুল মার চরণে দিলেন। নিজের মাথায় ফুল দিয়া ধ্যান করিতেছেন। এইবার গীতচ্ছলে মার স্তব করিতেছেন:

ভবহারা ভয়হারা নাম শুনেছি তোমার।

তাইতে এবার দিয়েছি ভার, তারো তারো না তারো মা।

It was ten o'clock in the morning. Ramlal had finished the daily worship in the Kali temple. The Master went to the temple accompanied by M. Entering the shrine, the Master sat before the image. He offered a flower or two at the feet of the Divine Mother. Then he put a flower on his own head and began to meditate. He sang a song to the Divine Mother:

Thy name, I have heard, O Consort of Siva, is the destroyer of our fear ,And so on Thee I cast my burden: Save me! Save me, O kindly Mother! . . .

श्रीरामकृष्ण कालीमन्दिर से लौटकर अपने कमरे के दक्षिणपूर्ववाले बरामदे में बैठे । दिन के दस बजे का समय होगा । अब भी देवताओं का भोग या भोग-आरती नहीं हुई । माता काली और श्रीराधाकान्त के प्रसादी फल-मूल आदि से कुछ लेकर श्रीरामकृष्ण ने थोड़ा जलपान किया । राखाल आदि भक्तों को भी थोड़ा थोड़ा प्रसाद मिल चुका है ।

श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए राखाल स्माइल की ‘सेल्फ-हेल्प’? (Smile’s Self-help ^ ) पढ़ रहे हैं - लार्ड अर्स्किन (Lord Erskine) के सम्बन्ध में ।

[ঠাকুর কালীঘর হইতে ফিরিয়া আসিয়া তাঁর ঘরের দক্ষিণ-পূর্ব বারান্দায় বসিয়াছেন। বেলা ১০টা হইবে। এখনও ঠাকুরদের ভোগ ও ভোগারতি হয় নাই। মা-কালী ও রাধাকান্তের প্রসাদি মাখন ও ফলমূল হইতে কিছু লইয়া ঠাকুর জলযোগ করিয়াছেন। রাখাল প্রভৃতি ভক্তেরাও কিছু কিছু পাইয়াছেন। ঠাকুরের কাছে বসিয়া রাখাল Smiles' Self-Help পড়িতেছেন, — Lord Erskine-এর বিষয়।

Sri Ramakrishna returned from the Kali temple and sat on the southeast verandah of his room. He ate some refreshments which had been offered at the temple, and the devotees also received a share.Rakhal sat by the Master and read about Lord Erskine from Self-Help by Smiles.

['Self-Help; with Illustrations of Character and Conduct' was a book published in 1859 by Samuel Smiles.]  

 [(15 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत  ]

 🔆निष्काम  कर्म - पूर्णज्ञानी ~ अपनी ग्रन्थ नहीं पढ़ते  🔆

श्रीरामकृष्ण(मास्टर से) – इसमें क्या लिखा है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — ওতে কি বলছে?

MASTER (to M.): "What does the book say?"

मास्टरसाहब (लॉर्ड एर्स्किन) फल की आकांक्षा न करके कर्तव्य-कर्म करते थे – यही लिखा है । निष्काम-कर्म ।

[মাস্টার — সাহেব ফলাকাঙ্ক্ষা না করে কর্তব্য কর্ম করতেন, — এই কথা বলছে। নিষ্কামকর্ম।

M: "It says that Lord Erskine performed his duty without desiring any result for himself. Disinterested duty."

श्रीरामकृष्ण – तब तो अच्छा है । परन्तु पूर्ण ज्ञान का लक्षण है कि एक भी पुस्तक साथ न रहेगी जैसे शुकदेव – उनका सब कुछ जिव्हा पर ।

“पुस्तकों और शास्त्रों में शक्कर के साथ बालू भी मिली हुई है । साधु (विवेकी) शक्कर भर का हिस्सा ले लेता है, बालू छोड़ देता है । साधु (विवेकी) सार पदार्थ लेता है ।”

शुकदेवादि का नाम लेकर क्या ठाकुर अपनी अवस्था समझना चाहते हैं ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে তো বেশ! কিন্তু পূর্ণজ্ঞানের লক্ষণ — একখানাও পুস্তক সঙ্গে থাকবে না। যেমন শুকদেব — তাঁর সব মুখে। “বইয়ে — শাস্ত্রে — বালিতে চিনিতে মিশেল আছে। সাধু চিনিটুকু লয়ে বালি ত্যাগ করে। সাধু সার গ্রহণ করে।”

শুকদেবাদির নাম করিয়া ঠাকুর কি নিজের অবস্থা ইঙ্গিত করিয়া বুঝাইতেছেন?

"That is very good. But the characteristic of a man of Perfect Knowledge is that he doesn't keep a single book with him. He carries all his Knowledge on the tip of his tongue. There's the instance of Sukadeva. Books — I mean the scriptures — contain a mixture of sand and sugar. The sadhu takes the sugar, leaving aside the sand. He takes only the essence."

वैष्णवचरण कीर्तनिया (कीर्तन गानेवाले) आये हुए हैं; उन्होंने ‘सुबोल-मिलन’ नाम का कीर्तन गाकर सुनाया ।

[বৈষ্ণবচরণ কীর্তনিয়া আসিয়াছেন। তিনি সুবোলমিলন কীর্তন শুনাইলেন।

Vaishnavcharan, the musician, arrived and sang a few devotional songs.

कुछ देर बाद रामलाल ने थाली में श्रीरामकृष्ण के लिए प्रसाद ला दिया । प्रसाद पाकर श्रीरामकृष्ण थोड़ा विश्राम करने लगे ।

[কিয়ৎক্ষণ পরে শ্রীযুত রামলাল থালায় করিয়া ঠাকুরের জন্য প্রসাদ আনিয়া দিলেন। সেবার পর — ঠাকুর কিঞ্চিৎ বিশ্রাম করিলেন।

रात में मणि नौबतखाने में सोये । श्रीमाताजी जब श्रीरामकृष्णकी सेवा के लिए आती थीं तब इसी नौबतखाने में रहती थीं । कुछ मास हुए वे कामारपुकुर गयी हैं ।

[রাত্রে মণি নবতে শয়ন করিলেন। শ্রীশ্রীমা যখন দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে ঠাকুরের সেবার জন্য আসিতেন তখন এই নবতেই বাস করিতেন। কয়েকমাস হইল তিনি কামারপুকুর শুভাগমন করিয়াছেন।

M. spent the night in the nahabat.

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