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गुरुवार, 27 मई 2021

🔆* 🌺* 🔆 परिच्छेद ~ 61, [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] Actions drop when one realizes God*फल होने पर फूल आप ही झड़ जाते हैं*(The son of a real king gets his monthly allowance.)*वास्तविक राजा का लड़का (राजपुत्र) मासिक भत्ता पाता है* *‘यदृच्छालाभ’ : जिसे रुपये -पैसे में आसक्ति नहीं, रुपया उसके पास ही आता है* कामिनी-कांचन (में आसक्ति) यही माया है । माया को अगर पहचान सको तो वह आप लज्जा से भाग खड़ी होगी*जितनी स्त्रियाँ हैं सब शक्तिरूपिणी हैं ** प्रारब्ध कर्म ( पूर्वजन्म के संस्कार inherited tendencies) क्षय हुए बिना त्याग असम्भव * *वामाचार-साधन का निषेध*निर्जन (प्रशिक्षण-शिविर) में भक्तों की साधना**अध्यात्मरामायण**जीवन का अन्तिम लक्ष्य- ईश्वर से प्रेम* *नारी को स्त्री-भाव से देखने पर शीघ्र पतन होता है; मातृभाव शुद्ध भाव है । **जगतगुरु श्रीरामकृष्ण और शिक्षक में वार्तालाप *श्रीरामकृष्ण और प्रतिमापूजा *जहाँ ‘अस्ति, भाति और प्रिय’ है, वहीँ उनका प्रकाश* * बालकों जैसा विश्वास और दर्शन की व्याकुलता होने से ईश्वर लाभ *कहानी :बालक जटिल के दादा मधुसूदन /(कहानी : अब गोविन्दजी पति हैं)/कहानी : पिताजी ने भोग लगाने कहा है , मुझसे भी खाओ ! *गुरुगृहवास प्रशिक्षण से पूर्व श्री ठाकुर द्वारा कक्ष आवंटन**जीवन का अन्तिम लक्ष्य- ईश्वर से प्रेम* आमि ^ मुक्ती दिते कातोर नेई ,शुद्धा भक्ती दिते कातोर होई। * ‘कहाँ हो दादा मधुसूदन !

 [(14 दिसंबर, 1883) परिच्छेद ~ 61, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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परिच्छेद~ ६१ 

(१)

 [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

 🔆मणि का प्रथम गुरुगृहवास - निर्जन में साधना 🔆

आज अगहन की पूर्णिमा और संक्रान्ति हैं । दिन शुक्रवार 14 दिसम्बर, 1883 । दिन के नौ बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के दरवाजे के पास दक्षिण-पूर्व के बरामदे में खड़े हैं । पास ही रामलाल खड़े हैं। राखाल और लाटू भी कहीं इधर-उधर पास ही थे । मणि ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । 

श्रीरामकृष्ण ने कहा “आ गए, अच्छा हुआ । आज दिन भी अच्छा है ।” मणि कुछ दिन श्रीरामकृष्णके पास रहेंगे । साधना करेंगे । श्रीरामकृष्ण ने कहा है, “थोड़ी साधना करते ही कोई आकर तुम्हें बता देगा, ऐसा ऐसा करो ।”
[ঠাকুর বলিলেন, “এসেছো? তা আজ বেশ দিন।” তিনি ঠাকুরের কাছে কিছুদিন থাকিবেন, ‘সাধন’ করিবেন। ঠাকুর বলিয়াছেন, কিছু করিলেই কেউ বলে দেবে, “এই এই”।
It was the last day of the Bengali month and the day of the full moon. M. was going to spend a few days with the Master practising spiritual discipline. The Master had said to him, "If an aspirant practises a little spiritual discipline, then someone comes forward to help him."
श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा है, “यहाँ अतिथिशाला का अन्न तुम्हारे लिए रोज खाना उचित नहीं । यह साधुओं और कंगालों के लिए है । तुम अपना भोजन पकाने के लिए एक आदमी ले आना ।” इसीलिए उनके साथ एक आदमी भी आया है ।
उनका भोजन कहाँ पकाया जाएगा, इसकी व्यवस्था कर दी गयी । वे दूध पीएँगे, इसके लिए श्रीरामकृष्ण ने रामलाल को अहीर से कह देने को कहा ।
[ঠাকুর বলিয়া দিয়াছেন, এখানে অতিথিশালার অন্ন তোমার রোজ খাওয়া উচিত নয়। সাধু কাঙালের জন্য ও হয়েছে। তুমি তোমার রাঁধবার জন্য একটি লোক আনবে। তাই সঙ্গে একটি লোক এসেছে।তাঁহার কোথায় রান্না হইবে? তিনি দুধ খাইবেন, ঠাকুর রামলালকে গোয়ালার কাছে বন্দোবস্ত করিয়া দিতে বলিলেন।

The Master had said to M: "You should not eat every day at the guest-house of the Kali temple. The guest-house is intended to supply free food to monks and the destitute. Bring your own cook with you." M. had accordingly done so. The Master arranged a place for the man to cook and he asked Ramlal to speak to the milkman about milk.

  [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🌺अध्यात्मरामायण -गुहराज-निषाद की कथा 🌺

रामलाल “अध्यात्मरामायण’ पढ़ रहे हैं और श्रीरामकृष्ण सुन रहे हैं । मणि भी बैठे हुए सुन रहे हैं- ‘श्रीरामचन्द्रजी सीताजी से विवाह करके अयोध्या लौट रहे हैं । रास्ते में परशुराम से भेंट हुई । श्रीरामचन्द्र ने शिव का धनुष तोड़ डाला है, यह सुनकर परशुराम रास्ते में बड़ा गुलगपाड़ा मचाने लगे । मारे भय के दशरथ के होश ही उड़ गए । परशुराम ने एक दूसरा धनुष राम को देकर उस पर उन्हें गुण चढ़ा देने के लिए कहा । 
राम ने कुछ मुसकराकर बायें हाथ से धनुष लेकर गुण चढ़ाकर उसमें टंकार किया । शरासन में शरयोजना करके परशुराम से उन्होंने कहा, अब यह बाण कहाँ छोडूँ – कहो । परशुराम का दर्प चूर्ण हो गया । वे रामचन्द्र को परब्रह्म कहकर उनकी स्तुति करने लगे ।”
परशुराम की स्तुति सुनते ही सुनते श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो गया । रह-रहकर, ‘राम राम’ नाम का मधुर उच्चारण कर रहे हैं ।
[শ্রীযুক্ত রামলাল অধ্যাত্ম রামায়ণ পড়িতেছেন ও ঠাকুর শুনিতেছেন। মণিও বসিয়া শুনিতেছেন। রামচন্দ্র সীতাকে বিবাহ করিয়া অযোধ্যায় আসিতেছেন। পথে পরশুরামের সহিত দেখা হইল। রাম হরধনু ভঙ্গ করিয়াছেন শুনিয়া পরশুরাম রাস্তায় বড় গোলমাল করিতে লাগিলেন। দশরথ ভয়ে আকুল। পরশুরাম আর একটা ধনু রামকে ছুঁড়িয়া মারিলেন। আর ওই ধনুতে জ্যা রোপণ করিতে বলিলান। রাম ঈষৎ হাস্য করিয়া বামহস্তে ধনু গ্রহণ করিলেন ও জ্যা রোপন করিয়া টঙ্কার করিলেন! ধনুকে বাণ যোজনা করিয়া পরশুরামকে বলিলেন, এখন এ-বাণ কোথায় ত্যাগ করব বল। পরশুরামের দর্প চূর্ণ হইল। তিনি শ্রীরামকে পরমব্রহ্ম বলে স্তব করিতে লাগিলেন।পরশুরামের স্তব শুনিতে শুনিতে ঠাকুর ভাবাবিষ্ট! মাঝে মাঝে “রাম রাম” এই নাম মধুরকণ্ঠে উচ্চারণ করিতেছেন।
Rama had married Sita after breaking the great bow of Siva. On the way to Ayodhya with His bride, Rama was confronted by the warrior sage Parasurama, who was about to make trouble for Him. Parasurama threw a bow at Rama and challenged Him to string it. Dasaratha, Rama's father, was seized with fear. With a smile, Rama took the bow in His left hand and strung it. Then, twanging the bow-string, He fixed an arrow and asked Parasurama where to shoot it. That curbed the pride of the warrior sage. Prostrating himself before Rama, Parasurama worshipped Him as the Supreme Brahman.As Sri Ramakrishna listened to Parasurama's hymn, he went into a spiritual mood and now and then chanted the name of Rama in his melodious voice.
श्रीरामकृष्ण (रामलाल से) – जरा गुहराज-निषाद की कथा तो सुनाओ । रामलाल “भक्तमाल’ से सुनाते रहे-
श्रीरामचन्द्र जब पिता की सत्यरक्षा के लिए वन गए थे, तब उन्हें देखकर निषादराज को बड़ा आश्चर्य हुआ । उनके नेत्रों से अश्रु की धारा बहने लगी; गला रुँधे आया और वे काठ की बनी पुतली की तरह निःस्पन्द होकर अनिमेष दृष्टि से एकटक देखते रहे । धीरे धीरे उन्होंने श्रीरामचन्द्र के पास जाकर कहा, ‘आप हमारे घर चलें ।’ 
श्रीरामचन्द्र उन्हें मित्र कहकर भर बाँह भेंटे । निषाद ने आत्मसमर्पण करते हुए कहा, ‘आप मेरे मित्र हुए तो मैं भी आपको अपने प्राणों के साथ अपनी देह समर्पित करता हूँ । आप ही मेरे प्राण, धन, राज्य हैं, आप ही मेरी भक्ति, मुक्ति हैं, आप मेरे सर्वस्व हैं । आपके चरणों में मैं देहसमर्पण करता हूँ ।’
“श्रीरामचन्द्र चौदह साल वन में रहेंगे और जटा-वल्कल धारण करेंगे, यह सुनकर निषादराज ने भी जटा-वल्कल धारण कर लिया । फल-मूल छोड़कर अन्य कोई भोजन उन्होंने नहीं किया । चौदह साल के बाद भी श्रीरामचन्द्र नहीं आ रहे हैं यह देखकर गुह अग्निप्रवेश करने जा रहे थे । इसी समय हनुमानजी ने आकर संवाद दिया । संवाद पाकर गुह आनन्दसागर में मग्न हो गए । श्रीरामचन्द्र और सीतामाई पुष्पक पर आकर उपस्थित हो गए ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (রামলালকে) — একটু গুহক চণ্ডালের কথা বল দেখি!
রামচন্দ্র যখন “পিতৃসত্যের কারণ” বনে গিয়াছিলেন, গুহকরাজ চমকিত হইয়াছিলেন। রামলাল ভক্তমাল পড়িতেছেন —নয়নে গলয়ে ধারা মনে উতরোল। চমকি চাহিয়া রহে নাহি আইসে বোল ৷৷নিমিখ নাহিক পড়ে চাহিয়া রহিল। কাষ্ঠের পুতুলি প্রায় অস্পন্দ হইল ৷৷তারপর ধীরে ধীরে রামের কাছে গিয়া বলিলেন, আমার ঘরে এস। রামচন্দ্র তাঁকে মিতা বলে আলিঙ্গন করিলেন। গুহ তখন তাঁহাকে আত্মসমর্পণ করিতেছেন —গুহ বলে ভাল ভাল তুমি মোর মিতে। তোমাতে সঁপিনু দেহ পরাণ সহিতে ৷৷ তুমি মোর সরবস প্রাণ ধন রাজ্য। তুমি মোর ভক্তি, মুক্তি, তুমি শুভকার্য ৷৷আমি মর‍্যা যাই তব বালায়ের সনে। দেহ সমর্পিণু মিতা তোমার চরণে ৷৷
Guhaka, the pariah, was chief of the untouchables and an intimate friend of Rama. When Rama, Sita, and Lakshmana were starting into the forest to redeem Dasaratha's pledge, Guhaka ferried them across the river. Rama embraced Guhaka tenderly and told him He was going to spend fourteen years in exile, wearing the bark of trees and eating the herbs, fruits, and roots that grew in the woods. He promised to visit Guhaka again on His way back to Ayodhya after the period of exile was over. The pariah king waited patiently. But when the fourteenth year had run out and Rama had not returned, Guhaka lighted a funeral pyre. He was on the point of entering it when Hanuman arrived as Rama's messenger. In a celestial chariot Rama and Sita soon appeared, and Guhaka's joy was unbounded.

   [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🌺सन्ध्यादि कर्म आजीवन नहीं करना पड़ता ;फल होने पर फूल आप ही झड़ जाते हैं🌺

भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण थोड़ा आराम कर रहे हैं । मास्टर पास बैठे हुए हैं । इसी समय श्याम डाक्टर तथा और भी कुछ आदमी आए । श्रीरामकृष्ण उठकर बैठ गए और बातचीत करने लगे ।
श्रीरामकृष्ण – बात यह नहीं कि कर्म बराबर करते ही जाना पड़े । ईश्वरलाभ हो जाने पर कर्म फिर नहीं रह जाते । फल होने पर फूल आप ही झड़ जाते हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কর্ম যে বরাবরই করতে হয়, তা নয়। ঈশ্বরলাভ হলে আর কর্ম থাকে না। ফল হলে ফুল আপনিই ঝরে যায়।
 "It is by no means necessary for a man always to be engaged in his duties. Actions drop away when one realizes God, as the flower drops of itself when the fruit appears.]
“जिसे ईश्वरप्राप्ति हो जाती है उसके लिए सन्ध्यादि कर्म ^* नहीं रह जाते । सन्ध्या गायत्री में लीन हो जाती है; तब गायत्री जपने से ही काम हो जाता है । और गायत्री का लय ओंकार में हो जाता है; तब गायत्री जपने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती । तब केवल ‘ॐ’ कहने से ही हो जाता है । सन्ध्यादि कर्म कब तक है ! – जब तक हरिनाम या रामनाम में पुलक न हो, अश्रुधारा न बहे । धन के लिए या मुकदमा जीतने के लिए आदि कर्म -काण्ड (rituals) करना अच्छा नहीं ।”
[ 🌺 सन्ध्योपासना ^* : प्रत्येक हिन्दू बालक को धार्मिक अनुष्ठान करने की पात्रता अर्जित करने के लिए, पहले योग्य गुरू से 'उपनयन संस्कार' में संस्कारित होना पड़ता है। और अपने गुरु के निर्देशानुसार सन्ध्यावन्दन या सन्ध्योपासना का  दिन में तीन बार पाठ किया जाता है। एक सूर्योदय के दौरान (जब रात्रि से दिन निकलता है), अगला दोपहर के दौरान (जब  आरोही मार्तण्ड (सूर्य ) से अवरोही मार्तण्ड में संक्रमण होता है, या A.M.  से P.M. में संक्रमण होता है। ) और सूर्यास्त के दौरान (जब दिन के बाद रात आती है)। संध्यावन्दन में  ऋग्वेदः के  मण्डल १०/सूक्तं १०.१९० का निम्न  उद्धरण , तथा गायत्रीमंत्र आदि शामिल होते हैं -
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ।
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥१॥
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत ।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ॥२॥
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ॥३॥

--महाप्रलय के बाद इस महाकल्प के आरम्भ में  सब ओर से प्रकाशमान तपरूप परमात्मा से ऋत (सत्संकल्प) और सत्य (यथार्थ भाषण) की उत्पत्ति हुई । उसी परमात्मा से रात्रि-दिन प्रकट हुए तथा उसी से जलमय समुद्र का आविर्भाव हुआ । जलमय समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् दिनों और रात्रियों को धारण करने वाला कालस्वरूप संवत्सर प्रकट हुआ जो कि पलक झपकाने वाले चेतन प्राणियों और जडों से युक्त समस्त संसार को अपने अधीन रखने वाला है । इसके बाद सब को धारण करने वाले परमेश्वर ने सूर्य, चन्द्रमा, दिव (स्वर्गलोक) पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा महर्लोक आदि लोकों की मी पूर्वकल्प के अनुसार सृष्टि की !’ ]
“যার লাভ হয়, তার সন্ধ্যাদি কর্ম থাকে না। সন্ধ্যা গায়ত্রীতে লীন হয়। তখন গায়ত্রী জপলেই হয়। আর গায়ত্রী ওঁকারে লয় হয়। তখন গায়ত্রীও বলতে হয় না। তখন শুধু ‘ওঁ’ বললেই হয়। সন্ধ্যাদি কর্ম কতদিন? যতদিন হরিনামে কি রামনামে পুলক না হয়, আর ধারা না পড়ে। টাকা-কড়ির জন্য, কি মোকদ্দমা জিত হবে  বলে, পূজাদি কর্ম — ও-সব ভাল না।
"He who has realized God no longer performs religious duties such as the sandhya. In his case the sandhya merges in the Gayatri. When that happens, it is enough for a person to repeat just the Gayatri mantra. Then the Gayatri merges in Om. After that one no longer chants even the Gayatri; it is enough then to chant simply Om. How long should a man practise such devotions as the sandhya? As long as he does not feel a thrill in his body and shed tears of joy while repeating the name of Rama or of Hari. People worship God to win money or a lawsuit. That is not good." ]

   [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🌺*यदृच्छालाभ* -वास्तविक राजा का लड़का (राजपुत्र) मासिक भत्ता पाता है* 🌺
(The son of a real king gets his monthly allowance.)

[‘यदृच्छालाभ’ : जिसे रुपये -पैसे में आसक्ति नहीं, रुपया उसके पास ही आता है]  
  
एक भक्त – धन की चेष्टा तो, मैं देखता हूँ, सभी करते हैं । केशव सेन को ही देखिये, किस तरह महाराजा के साथ उन्होंने अपनी लड़की का विवाह किया ।
[ একজন ভক্ত — টাকা-কড়ির চেষ্টা তো সকলেই করছে দেখছি। কেশব সেন কেমন রাজার সঙ্গে মেয়ের বিয়ে দিলে।
A DEVOTEE: "We find that everyone strives after money. Even Keshab Sen married his daughter to a prince."] 
श्रीरामकृष्ण : केशव की बात दूसरी है । जो यथार्थ भक्त है वह अगर चेष्टा न भी करे तो भी ईश्वर उसके लिए सब कुछ जुटा देते हैं । जो ठीक ठीक राजा का लड़का है वह मुशाहरा पाता है । वकील आदि की बात मैं नहीं कहता – जो मेहनत करके, दूसरों की दासता करके रुपया कमाते हैं । मैं कहता हूँ, ठीक राजा का लड़का । जिसे कोई कामना नहीं है वह रुपया-पैसा नहीं चाहता; रुपया उसके पास ही आता है । गीता (4 . 22)  में है- यदृच्छा-लाभ-सन्तुष्टः। ‘यदृच्छालाभ’ *। वह कामना नहीं करता, उसके पास प्राप्ति आप ही आती है ।” 
‘यदृच्छालाभ’ * यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।। गीता 4.22।।अन्वय यदृच्छा-लाभ-सन्तुष्टः द्वन्द्व-अतीतः विमत्सरः सिद्धौ असिद्धौ च समः कृत्वा अपि न निबध्यते। 
 यदृच्छया (अपने आप) जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही सन्तुष्ट रहने वाला,  द्वन्द्वों से अतीत तथा मत्सर से रहित,  सिद्धि व असिद्धि में समभाव वाला पुरुष कर्म करके भी नहीं बन्धता है। अहंकार से परे आत्मस्वरूप में स्थित पुरुष इच्छा तथा फलासक्ति से प्रेरित होकर कर्म नहीं करता। कर्मों को करने से प्राप्त फल से ही वह सन्तुष्ट रहता है। मन (मिथ्या अहं) के प्रभावहीन होने पर बुद्धि अपने पूर्वाग्रह, ईर्ष्या और मत्सर आदि से ज्ञानी पुरुष को प्रभावित नहीं कर सकती।  जब अविद्याजनित अहंकार पूर्णरूप से दैवी स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, [अर्थात विद्याशक्ति माँ सारदा की कृपा से जब मिथ्या व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो जाता है ]  तब वह पुरुष सफलता और असफलता में समान भाव से स्थित रहता है। ऐसा ज्ञानी पुरुष कर्म करके भी कर्मफलों से नहीं बंधता। } 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশবের আলাদা কথা। যে ঠিক ভক্ত সে চেষ্টা না করলেও ঈশ্বর তার সব জুটিয়ে দেন। যে ঠিক রাজার বেটা, সে মুসোহারা পায়। উকিল-ফুকিলের কথা বলছি না, — যারা কষ্ট করে, লোকের দাসত্ব করে টাকা আনে। আমি বলছি, ঠিক রাজার বেটা। যার কোন কামনা নাই সে টাকা-কড়ি চায় না, টাকা আপনি আসে। গীতায় আছে — যদৃচ্ছালাভ।
MASTER: "Keshab's case is quite different. God provides everything for a genuine devotee, even without his making any effort. The son of a real king gets his monthly allowance. I am not talking of lawyers and men of that sort, who go through suffering in order to earn money, and who become slaves of others to that end. I am speaking of a real prince. A true devotee has no desire. He does not care for money. Money comes to him of itself. The Gita describes such a devotee as 'content with what comes to him without effort'. ] 
“जो सदब्राह्मण है, जिसे कोई कमाना नहीं है, वह चमार के यहाँ का भी सीधा ले सकता है । 
[“সদ্‌ব্রাহ্মণ, যার কোন কামনা নাই, সে হাড়ির বাড়ির সিধে নিতে পারে। ‘যদৃচ্ছালাভ’। সে চায় না, কিন্তু আপনি আসে।”
A good brahmin, without any personal motive, can accept food even from the house of an untouchable. He does not desire it; it comes of its own accord."
     [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🔆गृहस्थ जीवन में अनासक्त होकर रहना चाहिए 🔆
एक भक्त – अच्छा महाराज, संसार में (गृहस्थ जीवन में)  किस तरह रहना चाहिए ?
[একজন ভক্ত — আজ্ঞা, সংসারে কিরকম করে থাকতে হবে?
A DEVOTEE: "Sir, how should one live in the world?"] 
श्रीरामकृष्ण – पाँकाल मछली की तरह रहना चाहिए । संसार से दूर निर्जन में जाकर कभी कभी इश्वरचिन्तन करने पर उनमें भक्ति होती है । तब निर्लिप्त होकर संसार में रह सकोगे । पाँकाल मछली कीच के भीतर रहती है, फिर भी कीच उसकी देह में नहीं लगता । इस तरह का आदमी का अनासक्त होकर संसार में रहता है । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — পাঁকাল মাছের মতো থাকবে। সংসার থেকে তফাতে গিয়ে, নির্জনে ঈশ্বরচিন্তা মাঝে মাঝে করলে, তাঁতে ভক্তি জন্মে। তখন নির্লিপ্ত হয়ে থাকতে পারবে। পাঁক আছে, পাঁকের ভিতর থাকতে হয়, তবু গায়ে পাঁক লাগে না। সে লোক অনাসক্ত হয়ে সংসারে থাকে।
MASTER: "Live in the world as the mudfish lives in the mud. One develops love of God by going away from the world into solitude, now and then and meditating on God. After that one can live in the world unattached. The mud is there, and the fish has to live in it, but its body is not stained by the mud. Such a man can lead the life of a householder in a spirit of detachment."] 
श्रीरामकृष्ण देख रहे हैं, मणि एकाग्र चित्त से उनकी सब बातें सुन रहे हैं ।
[ঠাকুর দেখিতেছেন, মণি বসিয়া একমনে সমস্ত শুনিতেছেন।
The Master noticed that M. was listening to his words with great attention.]
श्रीरामकृष्ण (मणि को देखकर) – तीव्र वैराग्य होने से लोग ईश्वर को पाते हैं । जिसे तीव्र वैराग्य होता है, उसे जान पड़ता है, संसार दावाग्नि की तरह है – जल रहा है ! वह स्त्री और पुत्र को कुएँ के सदृश देखता है । इस तरह का वैराग्य जब होता है तब घर-द्वार आप ही छूट जाता है । केवल अनासक्त होकर संसार में रहना उसके लिए पर्याप्त नहीं है । 
कामिनी-कांचन (में आसक्ति) यही माया है । माया को अगर पहचान सको तो वह आप लज्जा से भाग खड़ी होगी । एक आदमी बाघ की खाल ओढ़कर भय दिखा रहा है । जिसे भय दिखा रहा है उसने कहा, मैं तुझे पहचानता हूँ, तू तो ‘हरिया’ है तब वह हँसकर चला गया – और किसी दूसरे का भय दिखाने लगा ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণিদৃষ্টে) — তীব্র বৈরাগ্য হলে তবে ঈশ্বরকে পাওয়া যায়। যার তীব্র বৈরাগ্য হয়, তার বোধ হয়, সংসার দাবানল! জ্বলছে! মাগছেলেকে দেখে যেন পাতকুয়া! সেরকম বৈরাগ্য যদি ঠিক ঠিক হয়, তাহলে বাড়ি ত্যাগ হয়ে পড়ে। শুধু অনাসক্ত হয়ে থাকা নয়। কামিনী-কাঞ্চনই মায়া। মায়াকে যদি চিনতে পার, আপনি লজ্জায় পালাবে। একজন বাঘের ছাল পরে ভয় দেখাচ্ছে। যাকে ভয় দেখাচ্ছে সে বললে, আমি তোকে চিনেছি — তুই আমাদের ‘হরে’। তখন সে হেসে চলে গেল — আর-একজনকে ভয় দেখাতে গেল।
MASTER (looking at M.): "One can realize God if one feels intense dispassion for worldly things. A man with such dispassion feels that the world is like a forest on fire. He regards his wife and children as a deep well. If he really feels that kind of dispassion, he renounces home and family. It is not enough for him to live in the world in a spirit of detachment.
'Woman and gold' alone is maya. If maya is once recognized, it feels ashamed of itself and takes to flight. A man put on a tiger skin and tried to frighten another man. But the latter, said: 'Ah! I have recognized you! You are our Hare.' At that the man dressed in the skin went away smiling to frighten someone else.]
“जितनी स्त्रियाँ हैं सब शक्तिरूपिणी हैं । वही आदिशक्ति स्त्री का रूप धारण किए हुए है । अध्यात्मरामायण में है – नारदादि राम का स्तव करते हैं, ‘हे राम, जितने पुरुष हैं सब आप हैं और प्रकृति के जितने रूप हैं सब सीता हैं । तुम इन्द्र हो, सीता इन्द्राणी; तुम शिव हो, सीता शिवानी; तुम नर हो, सीता नारी; अधिक और क्या कहूँ – जहाँ पुरुष है वहाँ तुम हो, जहाँ स्त्रियाँ हैं वहाँ सीता ।
[“যত স্ত্রীলোক, সকলে শক্তিরূপা। সেই আদ্যাশক্তিই স্ত্রী হয়ে, স্ত্রীরূপ ধরে রয়েছেন। অধ্যাত্মে আছে রামকে নারদাদি স্তব করছেন, হে রাম, যত পুরুষ সব তুমি; আর প্রকৃতির যত রূপ সীতা ধারণ করেছেন। তুমি ইন্দ্র, সীতা ঈন্দ্রাণী; তুমি শিব, সীতা শিবানী; তুমি নর, সীতা নারী! বেশ আর কি বলব — যেখানে পুরুষ, সেখানে তুমি; যেখানে স্ত্রী, সেখানে সীতা।”
"All women are the embodiments of Sakti. It is the Primal Power that has become women and appears to us in the form of women. It is said in the Adhyatma Ramayana that Narada and others praised Rama, saying: 'O Rama, Thou alone art all that we see as male, and Sita, all that we see a female. Thou art Indra, and Sita is Indrani; Thou art Siva, and Sita is Sivani; Thou art man, and Sita is woman. What more need I say? Thou alone dost exist wherever there is a male, and Sita wherever there is female.'] 

   [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🌺पूर्वजन्म के संस्कार  (inherited tendencies) क्षय हुए बिना त्याग असम्भव 🌺

(भक्तों से) “मन में लाने से ही त्याग नहीं किया जा सकता । प्रारब्ध, संस्कार ये सभी हैं । एक राजा से किसी योगी ने कहा, ‘तुम मेरे पास बैठकर परमात्मा का चिन्तन करो ।’ राजा ने उत्तर दिया, ‘यह मुझसे न होगा । मैं यहाँ रह सकता हूँ; परन्तु मुझे सब भी भोग करना है । इस वन में अगर रहूँगा तो आश्चर्य नहीं कि इस वन में भी एक राज्य हो जाए । मेरा भोग अभी बाकी है ।’
[(ভক্তদের প্রতি) — “মনে করলেই ত্যাগ করা যায় না। প্রারব্ধ, সংস্কার — এ-সব আবার আছে। একজন রাজাকে একজন যোগী বললে, তুমি আমার কাছে বসে থেকে ভগবানের চিন্তা কর। রাজা বললে, সে বড় হবে না; আমি থাকতে পারি; কিন্তু আমার এখনও ভোগ আছে।
(To the devotees) "One cannot renounce by the mere wish. There a prarabdha karma — inherited tendencies — and the like. Once a yogi said to a king, 'Live with me in the forest and think of God.' The king replied 'That I cannot very well do. I could live with you, but I still have the desire for enjoyment. If I live in this forest, perhaps I shall create a kingdom even here. I still have desires.']
“नटवर पाँजा  जब बच्चा था, इस बगीचे में जानवर चराता था । परन्तु उसके भाग्य में बहुत बड़ा भोग था; इसीलिए तो इस समय अण्डी का कारखाना खोलकर इतना रुपया इकट्ठा किया है । आलमबाजार में अण्डी का रोजगार खूब चला रहा है ।
[“নটবর পাঁজা যখন ছেলেমানুষ, এই বাগানে গরু চরাত। তার কিন্তু অনেক ভোগ ছিল। তাই এখন রেড়ির কল করে অনেক টাকা করেছে। আলমবাজারে রেড়ির কলের ব্যাবসা খুব ফেঁদেছে।
"Natabar Panja / कैलाश-राय  ?Sunny,  used to look after his cows in this garden during his boyhood. He had many desires. Hence he has established a castor-oil factory and earned a great deal of money. He has a prosperous castor-oil business at Alambazar.]
       [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🌺नारी को स्त्री-भाव  (पत्नी भाव ) से देखने पर शीघ्र पतन होता है । 🌺  
[When a woman is seen from the woman's sense (wife's sense), there is a quick fall, But to regard her as mother is a pure attitude."
“एक मत में है, स्त्री लेकर साधना करना । ‘कर्ताभजा’ सम्प्रदाय की स्त्रियों के बीच में एक बार एक आदमी मुझे ले गया था । वे सब मेरे पास आकर बैठ गयीं । मैं जब उन्हें ‘माँ माँ’ कहें लगा तब वे आपस में कहने लगीं, ये प्रवर्तक हैं, अभी ‘घाट’ की पहचान इनको नहीं हुई ! उन लोगों के मत में कच्ची अवस्था को प्रवर्तक कहते हैं, उसके बाद साधक, उसके बाद सिद्ध और फिर सिद्ध का सिद्ध ।
“एक स्त्री वैष्णवचरण के पास जाकर बैठी । वैष्णवचरण से पूछने पर उन्होंने कहा, इसका बालिकाभाव है ।
“नारी को स्त्री-भाव  (पत्नी भाव )से देखने पर शीघ्र पतन होता है । मातृभाव शुद्ध भाव है । 
[“এক মতে আছে, মেয়েমানুষ নিয়ে সাধন করা। কর্তাভজা মাগীদের ভিতর আমায় একবার নিয়ে গিছিল। সব আমার কাছে এসে বসল। আমি তাদের মা, মা বলাতে পরস্পর বলাবলি করতে লাগল, ইনি প্রবর্তক, এখনও ঘাট চিনেন নাই! ওদের মতে কাঁচা অবস্থাকে বলে প্রবর্তক, তারপরে সাধক, তারপর সিদ্ধের সিদ্ধ। “একজন মেয়ে বৈষ্ণবচরণের কাছে গিয়ে বসলে। বৈষ্ণবচরণকে জিজ্ঞাসা করাতে বললে, এর বালিকাভাব!
*“স্ত্রীভাবে শীঘ্র পতন হয়। মাতৃভাব শুদ্ধভাব।”
"There is one sect that prescribes spiritual discipline in company with women. I was once taken to the women belonging to the Kartabhaja sect. They all sat around me. I addressed them as 'mother'. At that they whispered among themselves: 'He is still a pravartaka. He doesn't know the way.' According to that sect the pravartaka is the beginner. Then comes the sadhaka, the struggling aspirant, and last of all the siddha of the siddha, the supremely perfect. A woman walked over to Vaishnavcharan and sat near him. Asked about it, he answered, 'She feels just like a young girl.' One quickly strays from the religious path by looking on woman as wife. But to regard her as mother is a pure attitude."
काँसारीपपाड़ा के भक्तगण उठ पडे । कहा, तो अब हम लोग चलें; कालीमाई तथा और देवों के दर्शन करेंगे ।
(२)

   [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🌺*जगतगुरु श्रीरामकृष्ण और शिक्षक में वार्तालाप * 🌺

मणि पंचवटी और कालीमन्दिर के विभिन्न स्थानों में अकेले घूम रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने कहा है, ‘थोड़ी साधना करने पर ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ।’ क्या मणि यही सोच रहे हैं ?
फिर श्रीरामकृष्ण ने तीव्र वैराग्य की बात कही और कहा कि 'माया को पहचान लेने पर' वह भाग खड़ी होती है । मणि यही सब सोच रहे हैं ।
पिछला पहर है, साढ़े तीन बजे का समय होगा । मणि फिर आकर श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठे हैं । ब्राउटन इंस्टिट्यूशन (Broughton Institution ) से एक शिक्षक कुछ छात्रों को साथ लेकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आए हुए हैं श्रीरामकृष्ण उनसे वार्तालाप कर रहे हैं । शिक्षक महाशय बीच बीच में एक एक प्रश्न कर रहे हैं । बातचीत मूर्तिपूजन के सम्बन्ध में हो रही है ।
[মণি পঞ্চবটী ও কালীবাড়ির অন্যান্য স্থানে একাকী বিচরণ করিতেছেন। ঠাকুর বলিয়াছেন, একটু সাধন করিলে ঈশ্বরদর্শন করা যায়। মণি কি তাই ভাবিতেছেন?আর তীব্র বৈরাগ্যের কথা। আর “মায়াকে চিনলে আপনি পালিয়ে যায়?” বেলা প্রায় সাড়ে তিনটা হইয়াছে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঘরে মণি আবার বসিয়া আছেন। ব্রাউটন্‌ ইন্‌স্টিটিউশন হইতে একটি শিক্ষক কয়েকটি ছাত্র লইয়া ঠাকুরকে দর্শন করিতে আসিয়াছেন। ঠাকুর তাঁহাদের সঙ্গে কথা কহিতেছেন। শিক্ষকটি মাঝে মাঝে এক-একটি প্রশ্ন করিতেছেন। প্রতিমাপূজা সম্বন্ধে কথা হইতেছে।
M. went walking alone in the Panchavati and other places in the temple garden. He thought about the Master's assurance that God can be easily realized, and about his exhortation to lead a life of intense renunciation, and his saying that maya, when recognized, takes to flight.At half past three in the afternoon M. again entered the Master's room and sat on the floor. A teacher from the Broughton Institution had come with several students to pay a visit to Sri Ramakrishna. They were conversing together. Now and then the teacher asked questions. The conversation was about the worship of images.

   [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🌺 मूर्तिपूजा - ‘अस्ति, भाति और प्रिय’  (Existence, Light, and Love), वहीँ उनका प्रकाश 🌺
जगतगुरु श्रीरामकृष्ण (शिक्षक 'M' से) – मूर्तिपूजन में दोष क्या है ? वेदान्त में कहा गया है, जहाँ ‘अस्ति, भाति और प्रिय’ (Existence, Light, and Love) है, वहीँ उनका प्रकाश है, इसलिए उनके सिवाय और किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ (শিক্ষকের প্রতি) — প্রতিমাপূজাতে দোষ কি? বেদান্তে বলে, যেখানে “অস্তি, ভাতি আর প্রিয়”, সেইখানেই তাঁর প্রকাশ। তাই, তিনি ছাড়া কোন জিনিসই  [नाम-रूप] নাই
MASTER (जगतगुरु) (to the teacher -शिक्षक): "What is wrong with image worship? The Vedanta says that Brahman manifests Itself where there is 'Existence, Light, and Love'. Therefore nothing exists but Brahman.] 
“और देखो, छोटी छोटी लड़कियाँ कितने दिन गुड़िया लेकर खेलती हैं ? जितने दिन तक विवाह नहीं होता और जितने दिन तक वे पति-सहवास नहीं करतीं । विवाह हो जाने पर गुड़ियाँ-गुड्डों को उठाकर सन्दूक में रख देती हैं । ईश्वरलाभ हो जाने पर फिर मूर्तिपूजन की क्या आवश्यकता है ?”

{“আবার দেখ, ছোট মেয়েরা পুতুল খেলা কতদিন করে? যতদিন না বিবাহ হয়, আর যতদিন না স্বামী সহবাস করে। বিবাহ হলে পুতুলগুলি পেটরায় তুলে ফেলে। ঈশ্বরলাভ হলে আর প্রতিমাপূজার কি দরকার?”
"How long do small girls play with their dolls? As long as they are not married and do not live with their husbands. After marriage they put the dolls away in a box. What further need is there of worshipping the image after the vision of God?"
  [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
 🌺 बालकों जैसा विश्वास और दर्शन की व्याकुलता होने से ईश्वर लाभ 🌺
मणि की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कहते हैं – “अनुराग होने पर ईश्वर मिलते हैं । खूब व्याकुलता होने पर संपूर्ण मन उन्हें अर्पित हो जाता है । 
[মণির দিকে চাহিয়া বলিতেছেন —“অনুরাগ হলে ঈশ্বরলাভ হয়। খুব ব্যাকুলতা চাই। খুব ব্যাকুলতা হলে সমস্ত মন তাঁতে গত হয়।”
The Master glanced at M. and said: "One attains God when one feels yearning for Him. An intense restlessness is needed. Through it the whole mind goes to God.]

   [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🌺कहानी : अब गोविन्दजी पति हैं 🌺

“एक आदमी के एक लड़की थी । बहुत कम आयु में लड़की विधवा हो गयी थी । पति का मुख उसने देखा था । दूसरी स्त्रियों के पतियों को आते-जाते वह देखती थी । उसने एक दिन कहा, ‘पिताजी, मेरा पति कहाँ है ?’ उसके पिता ने कहा, ‘गोविन्दजी तेरे पति हैं । उन्हें पुकारने पर वे तुझे दर्शन देंगे ।’ यह सुनकर वह लड़की द्वार बन्द करके गोविन्द को पुकारती और रोती थी । वह कहती थी – ‘गोविन्द ! तुम आओ, मुझे दर्शन दो, तुम क्यों नहीं आते ?’ छोटी लड़की का यह रोना सुनकर गोविन्दजी स्थिर न रह सके । उसे उन्होंने दर्शन दिए ।
[“একজনের একটি মেয়ে ছিল। খুব অল্পবয়সে মেয়েটি বিধবা হয়ে গিছিল। স্বামীর মুখ কখনও দেখে নাই। অন্য মেয়ের স্বামী আসে দেখে। সে একদিন বললে, বাবা, আমার স্বামী কই? তার বাবা বললে, গোবিন্দ তোমার স্বামী, তাঁকে ডাকলে তিনি দেখা দেন। মেয়েটি ওই কথা শুনে ঘরে দ্বার দিয়ে গোবিন্দকে ডাকে আর কাঁদে; — বলে, গোবিন্দ! তুমি এস, আমাকে দেখা দাও, তুমি কেন আসছো না। ছোট মেয়েটির সেই কান্না শুনে ঠাকুর থাকতে পারলেন না, তাকে দেখা দিলেন।
A man had a daughter who became a widow when she was very young. She had never known her husband. She noticed the husbands of other girls and said one day to her father, 'Where is my husband?' The father replied: Govinda (A name of Krishna.) is your husband. He will come to you if you call Him.' At these words the girl went to her room, closed the door, and cried to Govinda, saying: 'O Govinda, come to me! Show Yourself to me! Why don't You come? God could not resist the girl's piteous cry and appeared before her.]
“बालक जैसा विश्वास । बालक माँ को देखने के लिए जिस तरह व्याकुल होता है वैसी व्याकुलता चाहिए। इस व्याकुलता के होने पर समझना चाहिए कि अरुणोदय हुआ । इसके बाद सूर्योदय होगा ही। इस व्याकुलता के बाद ही इश्वर दर्शन होता है ।
[“বালকের মতো বিশ্বাস! বালক মাকে দেখবার জন্য যেমন ব্যাকুল হয়, সেই ব্যাকুলতা। এই ব্যাকুলতা হল তো অরুণ উদয় হল। তারপর সূর্য উঠবেই। এই ব্যাকুলতার পরেই ঈশ্বরদর্শন।
One must have childlike faith — and the intense yearning that a child feels to see its mother. That yearning is like the red sky in the east at dawn. After such a sky the sun must rise. Immediately after that yearning one sees God.] 

  [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
 🌺कहानी :बालक जटिल के दादा मधुसूदन  🌺 
जटिल बालक की कथा आती है । वह पाठशाला जाता था । कुछ जंगल की राह से पाठशाला जाना पड़ता था; इसलिए वह डरता था । उसने अपनी माँ से यह कहा । माता ने कहा, ‘डर क्या है ? तू मधुसूदन को पुकारना ।’ बच्चे ने पूछा, ‘मधुसूदन कौन है ?’ माता ने कहा, ‘मधुसूदन तेरे दादा होते हैं।’ 
जब अकेले में जाते समय वह डरा, तब एक आवाज लगायी – ‘मधुसूदन दादा !’ कहीं कोई न आया । तब वह, ‘कहाँ हो मधुसूदन दादा ! जल्दी आओ, मुझे बड़ा डर लग रहा है’ कहकर जोर जोर से पुकारते हुए रोने लगा । मधुसूदन न रह सके । आकर कहा, ‘यह हैं हम, तुझे भय क्या है ?’ यह कहकर उसे साथ लेकर वे पाठशाला के रास्ते तक छोड़ आए, और कहा, ‘तू जब बुलाएगा तभी मैं दौड़ा जाऊँगा, भय क्या है ?’ यही बालक का विश्वास है ! यही व्याकुलता है ! 
[“জটিল বালকের কথা আছে। সে পাঠশালে যেত। একটু বনের পথ দিয়ে পাঠশালে যেতে হত, তাই সে ভয় পেত। মাকে বলাতে মা বললে, তোর ভয় কি? তুই মধুসূদনকে ডাকবি। ছেলেটি জিজ্ঞাসা করলে, মধুসূদন কে? মা বললে, মধুসূদন তোর দাদা হয়। তখন একলা যেতে যেতে যাই ভয় পেয়েছে, অমনি ডেকেছে, ‘দাদা মধুসূদন’। কেউ কোথাও নাই। তখন উচ্চৈঃস্বরে কাঁদতে লাগল, ‘কোথায় দাদা মধুসূদন, তুমি এসো, আমার বড় ভয় পেয়েছে।’ ঠাকুর তখন থাকতে পারলেন না। এসে বললেন, ‘এই যে আমি, তোর ভয় কি?’ এই বলে সঙ্গে করে পাঠশালার রাস্তা পর্যন্ত পোঁছিয়া দিলেন, আর বললেন, ‘তুই যখন ডাকবি, আমি আসব। ভয় কি?’ এই বালকের বিশ্বাস! এই ব্যাকুলতা!
"Let me tell you the story of a boy named Jatila. He used to walk to school through the woods, and the journey frightened him. One day he told his mother of his fear. She replied: 'Why should you be afraid? Call Madhusudana.' (A name of Krishna.) 'Mother,' asked the boy, 'who is Madhusudana?' The mother said, 'He is your Elder Brother.' One day after this, when the boy again felt afraid in the woods, he cried out, 'O Brother Madhusudana!' But there was no response. He began to weep aloud: 'Where are You, Brother Madhusudana? Come to me. I am afraid.' Then God could no longer stay away. He appeared before the boy and said: 'Here I am. Why are you frightened?' And so saying He took the boy out of the woods and showed him the way to school. When He took leave of the boy, God said: 'I will come whenever you call Me. Do not be afraid.' One must have this faith of a child, this yearning.] 

  [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
 🌺कहानी : पिताजी ने भोग लगाने को कहा है , मुझसे भी खाओ ! 🌺
“एक ब्राह्मण के यहाँ भगवान् की सेवा होती थी । एक दिन किसी काम से उसे किसी दूसरी जगह जाना पड़ा । वह अपने छोटे बच्चे से कह गया, ‘आज श्रीठाकुरजी का भोग लगाना, उन्हें खिलाना ।’ बच्चे ने ठाकुरजी का भोग लगाया, परन्तु ठाकुरजी चुपचाप बैठे ही रहे । न बोले और न कुछ खाया ही। बच्चे ने बड़ी देर तक बैठे बैठे देखा कि ठाकुरजी नहीं उठते । उसे दृढ़ विश्वास था कि ठाकुरजी आकर आसन पर बैठकर भोजन करेंगे । 
वह बार बार कहने लगा, ‘ठाकुरजी, आओ, भोग पा लो, बड़ी देर हो गयी अब और मुझसे बैठा नहीं जाता ।’ ठाकुरजी क्यों उत्तर देने लगे? तब बच्चे ने रोना-शुरू कर दिया; कहने लगा, ‘ठाकुरजी, पिताजी तुम्हें खिलाने के लिए कह गए हैं, तुम क्यों नहीं आओगे ? क्यों मेरे पास नहीं खाओगे ?* व्याकुल होकर ज्यों ही कुछ देर तक वह रोया कि ठाकुरजी हँसते हँसते आकर हाजिर हो गए और आसन पर बैठकर भोग पाने लगे । 
ठाकुरजी को खिलाकर जब वह ठाकुरघर से निकला, तब घरवालों ने कहा, ‘भोग हो गया तो वह सब उतार ले आ ।’ बच्चे ने कहा, ‘हाँ, हो गया; ठाकुरजी ने सब भोग खा लिया ।’ उन लोगों ने कहा, ‘अरे, यह तू क्या कहता है ! बच्चे ने सरलतापूर्वक कहा, क्यों खा तो गए हैं ठाकुरजी सब ।’ यब घरवालों ने ठाकुर घर में जाकर देखा तो छक्के छूट गए ।”
[“একটি ব্রাহ্মণের বাড়িতে ঠাকুরের সেবা ছিল। একদিন কোন কাজ উপলক্ষে তার অন্যস্থানে যেতে হয়েছিল। ছোট ছেলেটিকে বলে গেল তুই আজ ঠাকুরের ভোগ দিস, ঠাকুরকে খাওয়াবি। ছেলেটি ঠাকুরকে ভোগ দিল। ঠাকুর কিন্তু চুপ করে বসে আছেন। কথাও কন না, খানও না। ছেলেটি অনেকক্ষণ বসে বসে দেখলে যে, ঠাকুর উঠেছন না! সে ঠিক জানে যে, ঠাকুর এসে আসনে বসে খাবেন। তখন সে বারবার বলতে লাগল, ঠাকুর, এসে খাও, অনেক দেরি হল; আর আমি বসতে পারি না। ঠাকুর কথা কন না। ছেলেটি কান্না আরম্ভ করলে। বলতে লাগল, ঠাকুর, বাবা তোমাকে খাওয়াতে বলে গেছেন; তুমি কেন আসবে না, কেন আমার কাছে খাবে না? ব্যাকুল হয়ে যাই খানিকক্ষণ কেঁদেছে, ঠাকুর হাসতে হাসতে এসে আসনে বসে খেতে লাগলেন! ঠাকুরকে খাইয়ে যখন ঠাকুরঘর থেকে সে গেল, বাড়ির লোকেরা বললে, ভোগ হয়ে গেছে; সে-সব নামিয়া আন। ছেলেটি বললে, হাঁ হয়ে গেছে; ঠাকুর সব খেয়ে গেছেন। তারা বললে, সে কি রে! ছেলেটি সরল বুদ্ধিতে বললে, কেন, ঠাকুর তো খেয়ে গেছেন। তখন ঠাকুরঘরে গিয়ে দেখে সকলে অবাক্‌!”
"A brahmin used to worship his Family Deity daily with food offerings. One day he had to go away on business. As he was about to leave the house, he said to his young son: 'Give the offering to the Deity today. See that God is fed.' The boy offered food in the shrine, but the image remained silent on the altar. It would neither talk nor eat. The buy waited a long time, but still the image did not move. But the boy firmly believed that God would come down from His throne, sit on the floor, and partake of the food. Again and again he prayed to the Deity, saying: 'O Lord, come down and eat the food. It is already very late. I cannot sit here any longer.' But the image did not utter a word. The boy burst into tears and cried: 'O Lord, my father asked me to feed You. Why won't You come down? Why won't You eat from my hands?' 'The boy wept for some time with a longing soul. At last the Deity, smiling, came down from the altar and sat before the meal and ate it. After feeding the Deity, the boy came out of the shrine room. His relatives said: 'The worship is over. Now bring away the offering.' 'Yes,' said the boy, 'the worship is over. But God has eaten everything.' 'How is that?' asked the relatives. The boy replied innocently, 'Why, God has eaten the food.' They entered the shrine and were speechless with wonder to see that the Deity had really eaten every bit of the offering."
[*काली और गोपाल एक हैं -😉😉,जीवन-नदी !] 

  [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
 🌺गुरुगृहवास प्रशिक्षण से पूर्व श्री ठाकुर द्वारा कक्ष आवंटन🌺
* Room allotment by Shri Thakur before Guru Grihavas training* 

सन्ध्या होने को अभी देर है । श्रीरामकृष्ण नौबतखाना के दक्षिण ओर खड़े हुए मणि के साथ बातचीत कर रहे हैं । सामने गंगा है । जाड़े का समय है । श्रीरामकृष्ण ऊनी कपड़ा पहने हुए हैं ।
[Late in the afternoon Sri Ramakrishna was talking to M. They were standing on the south side of the nahabat. Since it was winter the Master was wrapped in his woolen shawl.

श्रीरामकृष्ण – पंचवटीवाले घर में सोओगे ? 
শ্রীরামকৃষ্ণ — পঞ্চবটীর ঘরে শোবে?
MASTER: "Where will you sleep? In the hut in the Panchavati?"
मणि – क्या ये लोग * नौबतखाना के ऊपर का कमरा न देंगे ?
মণি — নহবতখানার উপরের ঘরটি কি দেবে না?
[M: "Won't they let me have the room on the upper floor of the nahabat?"
(जैसे कैम्प में रहने का कमरा और चौकी की व्यवस्था -विकासदा , प्रमोददा, प्रबाल मोहन्ती ?)
श्रीरामकृष्ण खजांची से मणि की बात कहेंगे । रहने के लिए एक कमरा ठीक कर देंगे मणि को नौबतखाने के ऊपर का कमरा पसन्द आया है । वे हैं भी कविता प्रिय मनुष्य । नौबतखाने से आकाश, गंगा, चाँदनी, फूलों के पेड़ ये सब दीख पड़ते हैं ।
[ঠাকুর খাজাঞ্চীকে মণির কথা বলিবেন। থাকবার ঘর একটি নির্দিষ্ট করে দিবেন। তার নহবতের উপরের ঘর পছন্দ হয়েছে। তিনি কবিত্বপ্রিয়। নহবত থেকে আকাশ, গঙ্গা, চাঁদের আলো, ফুলগাছ — এ-সব দেখা যায়।
M. selected the nahabat because he had a poetic temperament. From there he could see the sky, the Ganges, the moonlight, and the flowers in the garden.]
श्रीरामकृष्ण – देंगे क्यों नहीं ? मैं पंचवटीवाला कमरा ^  इसीलिए कह रहा हूँ कि वहाँ बहुत रामनाम और ईश्वर चिंतन किया गया है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেবে না কেন? তবে পঞ্চবটীর ঘর বলছি এই জন্য ওখানে অনেক হরিনাম, ঈশ্বরচিন্তা হয়েছে।
MASTER: "Oh, they'll let you have it. But I suggested the Panchavati because so much contemplation and meditation have been practised3 there and the name of God has been chanted there so often."
[^ अपनी साधना की अवधि के दौरान श्री रामकृष्ण ने पंचवटी के इसी कमरे  में आध्यात्मिक साधना  का अभ्यास किया था ।
During the period of his sadhana Sri Ramakrishna practised spiritual discipline in the hut in the Panchavati.]
(३)
   [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🌺मनुष्य जीवन का चरम  लक्ष्य- ईश्वर से प्रेम 🌺 
श्रीरामकृष्ण के कमरे में धूप दिया गया है । उसी छोटे तख्त पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण ईश्वरचिन्तन कर रहे हैं । मणि जमीन पर बैठे हुए हैं । राखाल, लाटू, रामलाल ये भी कमरे के अन्दर हैं ।
श्रीरामकृष्ण मणि से कह रहे हैं, - “बात है उन पर भक्ति करना – उन्हें प्यार करना ।” फिर उन्होंने रामलाल से गाने के लिए कहा । रामलाल मधुर कण्ठ से गाने लगे । श्रीरामकृष्ण हर गाने का पहला चरण कह दे रहे हैं ।
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঘরে ধুন দেওয়া হইল। ছোট খাটটিতে বসিয়া ঠাকুর ঈশ্বরচিন্তা করিতেছেন। মণি মেঝেতে বসিয়া আছেন। রাখাল, লাটু, রামলাল ইঁহারাও ঘরে আছেন। ঠাকুর মণিকে বলিতেছেন, কথাটা এই — তাঁকে ভক্তি করা, তাঁকে ভালবাসা। রামলালকে গাইতে বলিলেন। তিনি মধুর কণ্ঠে গাইতেছেন। ঠাকুর এক-একটি গান ধরাইয়া দিতেছেন।
It was evening. Incense was burning in the Master's room. He was sitting on the small couch, absorbed in meditation. M. was sitting on the floor with Rakhal, Latu, and Ramlal.The Master said to M., "The sum and substance of the whole thing is to cultivate devotion for God and love Him." At Sri Ramakrishna's request Ramlal sang a few songs, the Master himself singing the first line of each.
श्रीरामकृष्ण के कहने पर रामलाल पहले श्रीगौरांग का संन्यास गा रहे हैं --

कि देखिलाम रे केशव भारतीर कुटिरे,
अपरुप ज्योति श्रीगौरांग मूरति, दूनयने प्रेम बहे शतधारे। 
गौर मत्तमातंगेर प्राय, प्रेमावेशे नाचे गाय। 
कभु धराते लुटाये नयनजले भाशे रे,
कांदे आर बोले हरि, स्वर्ग मर्त्य भेद कोरि, सिंहरवे रे। 
आबार दंते तृण लोये कृतांजली होये, 
दास्य मूक्ती याचेन बारे बारे॥  
मुड़ाये चाँचर केश , धरेछेन योगीर वेश ,
देखे भक्ति प्रेमावेश , प्राण केन्दे उठे रे। 
जीवेर दुःखे कातर होये, 
एलेन सर्वस्व त्याजिये , प्रेम विलाते रे।  
प्रेमदासेर वाञ्छा मने , श्रीचैतन्यचरने, 
दास होये बेड़ाई द्वारे द्वारे।।    

কি দেখিলাম রে, কেশব ভারতীর কুটিরে,
অপরূপ জ্যোতিঃ, শ্রীগৌরাঙ্গ মূরতি, দুনয়নে প্রেম বহে শতধারে।
গৌর মত্তমাতঙ্গের প্রায়, প্রেমাবেশে নাচে গায়,
কভু ধরাতে লুটায়, নয়নজলে ভাসে রে,
কাঁদে আর বলে হরি, স্বর্গমর্ত্য ভেদ করি, সিংহরবে রে,
আবার দন্তে তৃণ লয়ে কৃতাঞ্জলি হয়ে,
দাস্য মুক্তি যাচেন বারে বারে ৷৷
মুড়ায়ে চাঁচর কেশ, ধরেছেন যোগীর বেশ,
দেখে ভক্তি প্রেমাবেশ, প্রাণ কেঁদে উঠে রে।
জীবের দুঃখে কাতর হয়ে,
                এলেন সর্বস্ব ত্যজিয়ে, প্রেম বিলাতে রে;
প্রেমদাসের বাঞ্ছা মনে, শ্রীচৈতন্যচরণে,
                দাস হয়ে বেড়াই দ্বারে দ্বারে ৷৷ 

(भावार्थ) – “केशवभारती के कुटीर में मैंने कैसी अपूर्वज्योति गौरांगमूर्ति देखी ! उनके दोनों नेत्रों में शत धाराओं से होकर प्रेम बह रहा है । मत्त मातंग के सदृश श्रीगौरांग कभी तो प्रेमावेश में नाचते हुए गाते हैं, कभी धूल में लोटते हैं, कभी आँसुओं में बहते हैं । वे रोते हुए हरि को पुकार रहे हैं । उनके सिंहगर्जन - सिंहनाद  का उच्च स्वर स्वर्ग और मर्त्यलोक को भी हिला रहा है । कभी वे दाँतों में तृण दबाकर, हाथ जोड़, बार- बार की दासता से मुक्त कर देने के लिए परमात्मा से प्रार्थना कर रहे हैं । अपने घुँघराले बालों को मुँड़ाकर उन्होंने योगी का वेश धारण किया है । उनकी भक्ति और प्रेमोवेश को देखकर जी रो उठता है । जीवों के दुःख से दुःखी होकर, सर्वस्व त्यागकर वे प्रेम प्रदान करने के लिए आए हैं । ‘प्रेमदास’ की यही अभिलाषा है की वह श्रीचैतन्यदेव के चरणों का दास होकर उनके साथ दर दर घूमे ।”
[Oh, what a vision I have beheld in Keshab Bharati's hut! Gora, in all his matchless grace, Shedding tears in a thousand streams! Like a mad elephant, He dances in ecstasy and sings, Drunk with an overwhelming love. . . .
रामलाल ने फिर एक गाना गया-  इसमें श्रीगौरांग की माता शची देवी का विलाप है - कहती हैं , बेटे निमाई ! मैं तुम्हारे बिना मैं घर में कैसे रहूंगी ? इसके बाद श्रीरामकृष्ण के आदेशानुसार रामलाल ने कुछ और गाने गाए ।
गीत १ -आमि मुक्ति दिते कातर नोई। शुद्धा भक्ति दिते कातर होइ। 

आमि ^ मुक्ती दिते कातोर नेई ,शुद्धा भक्ती दिते कातोर होई। 
आमार भक्ती जेबा पाय, ताते केब पाय,  शे जे सेवा पाय, होये त्रिलोकजयी। 

शुन चंद्रावली** भक्तीर कथा कोई ,
भक्तीर कारणे पाताल भवने,  
बलिर द्वारे आमि द्वारे होये रोई। 
शुद्धा भक्ती एक आछे वृन्दावने ,गोप -गोपी वीने अन्ये नाही जाने। 
भक्तीर कारणे नंदेर भवने ,पिता ज्ञाने नंदेर बाधा माथाय बोई। 

[^आमि > भगवान श्रीकृष्ण के लिए : The song represents Sri Krishna's words.^गीत श्रीकृष्ण के वचनों का प्रतिनिधित्व करता है।] 
 (১)   —   আমি মুক্তি দিতে কাতর নই, 
Though I am never loath to grant salvation,I hesitate indeed to grant pure love.Whoever wins pure love surpasses all; He is adored by men; He triumphs over the three worlds. . . .

राधार देखा कि पाय सकले,
राधार प्रेम कि पाय सकले। 

अति सुदुर्लभ धन, ना कोरले आराधन। 
साधन बिने शे धन, ए धन कि मेले ! 

तुला राशी मासे तिथी अमावास्या,
स्वाती नक्षत्रे जे बारी बरिशे, 
अन्य अन्य मासे जे बारि बरिशे,
से बारि कि बरिशे बरिषार जले ! 

युवति सकले शिशु लोये कोले, 
आय चांद बोले डाके बाहू तुले। 
शिशु ताहे भूले चंद्र कि ताय भूले,
गगन छेडे चांद की उदय होय भूतले। 

রাধার দেখা কি পায় সকলে, 
রাধার প্রেম কি পায় সকলে।

Radha-r dekha ki pay sakale.
[Do all get to see Radha?] 
Radhar prem ki pay sakale. 
[Can all love like Radha?] 

অতি সুদুর্লভ ধন, না করলে আরাধন,
সাধন বিনে সে-ধন, এ-ধনে কি মেলে ,
তুলারাশিমাসে তিথি অমাবস্যা,
স্বাতী নক্ষত্রে যে বারি বরিষে,
সে বারি কি বরিষে বরিষার জলে।
যুবতী সকলে শিশু লয়ে কোলে,
আয় চাঁদ বলে ডাকে বাহু তুলে।
শিশু তাহে ভুলে, চন্দ্র কি তায় ভুলে,
গগন ছেড়ে চাঁদ কি উদয় হয় ভূতলে।

श्रीरामकृष्ण रामलाल से फिर ‘गौरांग और नित्यानंद’ वाला गाना गाने के लिए कह रहे हैं । इस बार रामलाल के साथ श्रीरामकृष्ण भी गा रहे हैं ।
গৌর নিতাই তোমরা দুভাই, পরম দয়াল হে প্রভু
      (আমি তাই শুনে এসেছি হে নাথ)
गौर निताई तोमरा दूभाई , परम दयाल हे प्रभु 

(भावार्थ) – “हे प्रभु श्रीगौरांग और नित्यानन्द, तुम दोनों भाई बड़े ही दयालु हो ! यही सुनकर मैं यहाँ आया हूँ । मैं काशी गया था । वहाँ विश्वेश्वरजी ने मुझसे कहा है, वे परब्रह्म इस समय शचीदेवी के घर में हैं । हे परब्रह्म ! मैंने तुम्हें पहचान लिया है । मैं कितनी ही जगह गया, परन्तु इस तरह के दयासागर और कहीं मेरी दृष्टि में नहीं पड़े । तुम दोनों व्रजमण्डल में कृष्ण बलराम थे । 
अब नदिया में आकर श्रीगौरांग और नित्यानन्द हुए हो ! तुम्हारी व्रज की क्रीड़ा थी दौड़धूप और अब यह नदिया में तुम्हारी क्रीड़ा है धूल में लोटपोट हो जाना । व्रज में तुम्हरी क्रीड़ा जोर जोर की किलकारियाँ थीं और आज नदिया में तुम्हारी क्रीड़ा है, हरिनाम-कीर्तन । तुम्हारे सब और अंग तो छिप गए हैं, परन्तु दोनों बंकिम नेत्र अब भी हैं । तुम्हारा पतितपावन नाम सुनकर मेरे हृदय में बहुत बड़ा भरोसा हो गया है । मैं बड़ी आशा से यहाँ दौड़ा हुआ आया हूँ । तुम अपने चरणों की शीतल छाया में मुझे स्थान दो । जगाई और मधाई जैसे पाखण्डी भी तर गए हैं; प्रभो, यही भरोसा मुझे भी है । मैंने सुना है, तुम दोनों चाण्डालों को भी हृदय से लगा लेते हो, हृदय से लगाकर हरिनाम-कीर्तन करते हो ।”

   [(14 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🌺निर्जन (प्रशिक्षण-शिविर) में मणि का मनःसंयोग 🌺
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रात बहुत हो चुकी है । नौबतखाने के ऊपरवाले कमरे में मणि अकेले हुए हैं । आज अगहन की पूर्णिमा है । आकाश, गंगा, कालीमन्दिर, मन्दिरों के शिखर, उद्यानपथ, पंचवटी – सभी चन्द्रलोक से आलोकित है । मणि एकाकी श्रीरामकृष्ण का चिन्तन कर रहे हैं। 
[अर्थात 'श्रीठाकुर देव' पर मनःसंयोग का अभ्यास कर रहे हैं !!!]
[নহবতখানার উপরের ঘরে মণি একাকী বসিয়া আছেন। অনেক রাত্রি হইয়াছে। আজ অগ্রহায়ণ পূর্ণিমা। আকাশ, গঙ্গা, কালীবাড়ি, মন্দিরশীর্ষ, উদ্যানপথ, পঞ্চবটী চাঁদের আলোতে ভাসিয়াছে! মণি একাকী ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে চিন্তা করিতেছেন।
Late at night M. sat alone in the nahabat. The sky, the river, the garden, the steeples of the temples, the trees, and the Panchavati were flooded with moonlight. Deep silence reigned everywhere, broken only by the melodious murmuring of the Ganges. M. was meditating on Sri Ramakrishna.] 
रात के करीब तीन बज गए । मणि उठे और उत्तराभिमुख हो पंचवटी की ओर जाने लगे । श्रीरामकृष्ण ने पंचवटी की बात कही है । नौबतखाना अब अच्छा नहीं लग रहा है । मणि ने पंचवटीवाले घर में रहने का निश्चय किया ।
[রাত প্রায় তিনটা হইল, তিনি উঠিলেন। উত্তরাস্য হইয়া পঞ্চবটীর অভিমুখে যাইতেছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ পঞ্চবটীর কথা বলিয়াছেন। আর নহবতখানা ভাল লাগিতেছে না। তিনি পঞ্চবটীর ঘরে থাকিবেন, স্থির করিলেন।
At three o'clock in the morning M. left his seat. He proceeded toward the Panchavati as Sri Ramakrishna had suggested. He did not care for the nahabat any more and resolved to stay in the hut in the Panchavati.
(भोर साढ़ेतीन बजे के आसपास का समय है? ............ )  चारों ओर नीरवता है । रात के ग्यारह बजे गंगा में ज्वार आया था । बीच बीच में पानी की आवाज सुनायी दे रही है । मणि पंचवटी की ओर बढ़ने लगे । इतने में उन्हें दूर से एक आवाज सुनायी पड़ी । मानो कोई पंचवटी के वृक्षमण्डप के भीतर से आर्त स्वर से पुकार रहा है ‘कहाँ हो दादा मधुसूदन !’
आज पूर्णिमा होने के कारण वट वृक्ष की शाखा-प्रशाखाओं को भेदकर चन्द्र की किरणें प्रकाशित हो रही हैं ।
[চতুর্দিক নীরব। রাত এগারটার সময় জোয়ার আসিয়াছে। এক-একবার জলের শব্দ শুনা যাইতেছে। তিনি পঞ্চবটীর দিকে অগ্রসর হইতেছেন! — দূর হইতে একটি শব্দ শুনিতে পাইলেন। কে যেন পঞ্চবটীর বৃক্ষমণ্ডপের ভিতর হইতে আর্তনাদ করিয়া ডাকিতেছেন, কোথায় দাদা মধুসূদন!
Suddenly he heard a distant sound, as if someone were wailing piteously, "Oh, where art Thou, Brother Madhusudana?" The light of the full moon streamed through the thick foliage of the Panchavati, and as he proceeded he saw at a distance one of the Master's disciples sitting alone in the grove, crying helplessly, "Oh, where art Thou, Brother Madhusudana?"

कुछ और अग्रसर होकर मणि ने दूर से देखा कि पंचवटी में श्रीरामकृष्ण के एक भक्त बैठे हुए निर्जन में एकाकी पुकार रहे हैं - ‘कहाँ हो दादा मधुसूदन !’ मणि निःस्तब्ध हो देखते रहे ।
[আরও অগ্রসর হইলেন। একটু দূর হইতে দেখিলেন পঞ্চবটীরমধ্যে ঠাকুরের একটি ভক্ত বসিয়া আছেন! তিনিই নির্জনে একাকী ডাকিতেছেন, কোথায় দাদা মধুসূদন! মণি নিঃশব্দে দেখিতেছেন।
Suddenly he heard a distant sound, as if someone were wailing piteously, "Oh, where art Thou, Brother Madhusudana?" The light of the full moon streamed through the thick foliage of the Panchavati, and as he proceeded he saw at a distance one of the Master's disciples ?? sitting alone in the grove, crying helplessly, "Oh, where art Thou, Brother Madhusudana?" Silently M. watched him.

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बुधवार, 26 मई 2021

🌼🌼🌼🌼🌼परिच्छेद ~ 60,[(9 दिसंबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Chief AIM of Human Life-God vision* महाप्रभु की उच्च अवस्था*वेदान्ती हठयोग नहीं मानते राजयोग मानते हैं *ईश्वर दर्शन ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है**अद्भुत मूर्तिदर्शन* *हरिकथा (श्यामलसुन्दर) -प्रसंग**श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग भक्त और भविष्यत् महातीर्थ * चैतन्यदेव को तीन अवस्थाएँ *हठयोग और राजयोग* *श्रीरामकृष्ण (ठाकुरदेव) ही पुरुषोत्तम हैं *

[(9 दिसंबर, 1883) परिच्छेद ~ 60, श्रीरामकृष्ण वचनामृत  ]

परिच्छेद~  ६० 

(१)

🌼भक्ति की शिक्षा, समाधितत्त्व, और महाप्रभु की उच्च अवस्था ।🌼

9 दिसम्बर 1883 , रविवार अगहन शुक्ला दशमी, दिन के दो बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के उसी छोटे तख्त पर बैठे हुए भक्तों के साथ भगवत्चर्चा कर रहे हैं । अधर, मनोमोहन, ठनठनिया के शिवचन्द्र, राखाल, मास्टर, हरीश आदि कितने ही भक्त बैठे हुए हैं । हाजरा भी उस समय वहीँ रहते थे। श्रीरामकृष्ण महाप्रभु की उच्च अवस्था का वर्णन कर रहे हैं । [The Master was describing to them the exalted state of Sri Chaitanya.]

[রবিবার, ৯ই ডিসেম্বর, ১৮৮৩ খ্রীষ্টাব্দ; (২৪শে) অগ্রহায়ণ, শুক্লা দশমী তিথি, বেলা প্রায় একটা-দুইটা হইবে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ নিজের ঘরে সেই ছোট খাটটিতে বসিয়া ভক্তদের সঙ্গে হরিকথা কহিতেছেন। অধর, মনোমোহন, ঠনঠনের শিবচন্দ্র, রাখাল, মাস্টার, হরিশ ইত্যাদি অনেকে বসিয়া আছেন, হাজরাও তখন ওইখানে থাকেন। ঠাকুর মহাপ্রভুর অবস্থা বর্ণনা করিতেছেন।

SRI RAMAKRISHNA was seated on the small couch in his room with Adhar, Manomohan, Rakhal, M., Harish, and other devotees. It was about two o'clock in the afternoon. The Master was describing to them the exalted state of Sri Chaitanya.

🌼पंचकोष🌼

 [THE  CAUSAL BODY AND GREAT CAUSE]  

श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) – चैतन्यदेव को तीन अवस्थाएँ होती थीं । बाह्यदशा, - तब, स्थूल और सूक्ष्म में उनका मन रहता था । अर्धबाह्यदशा, - तब कारण-शरीर में, कारणानन्द में चला जाता था । अन्तर्दशा, - तब महाकारण में मन लीन हो जाता था ।

“वेदान्त के पंचकोष के साथ इसका यथार्थ मेल है । स्थूल-शरीर अर्थात् अन्नमय और प्राणमय कोष । सूक्ष्म–शरीर अर्थात् मनोमय और विज्ञानमय कोष । कारण – शरीर अर्थात् आनन्दमय कोष । महाकारण पंचकोषों से परे है । महाकारण में जब मन लीन होता था तब वे समाधि-मग्न हो जाते थे । इसी का नाम निर्विकल्प अथवा जड़-समाधि है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — চৈতন্যদেবের তিনটি অবস্থা হত —

১. বাহ্যদশা — তখন স্থূল আর সূক্ষ্ম তাঁর মন থাকত। 

২. অর্ধবাহ্যদশা — তখন কারণ শরীরে, কারণানন্দে মন গিয়েছে।

৩. অন্তর্দশা — তখন মহাকারণে মন লয় হত।

“বেদান্তের পঞ্চকোষের সঙ্গে, এর বেশ মিল আছে। স্থূলশরীর, অর্থাৎ অন্নময় ও প্রাণময় কোষ। সূক্ষ্মশরীর, অর্থাৎ মনোময় ও বিজ্ঞানময় কোষ। কারণ শরীর, অর্থাৎ আনন্দময় কোষ। মহাকারণে যখন মন লীন হত তখন সমাধিস্থ। — এরই নাম নির্বিকল্প বা জড়সমাধি।

MASTER: MASTER: "Chaitanya experienced three states of mind. First, the conscious state, when his mind dwelt on the gross and the subtle. Second, the semi-conscious state, when his mind entered the CAUSAL BODY and was absorbed in the BLISS OF DIVINE INTOXICATION, Third, the inmost state, when his mind was merged in the GREAT CAUSE."This agrees very well with the five koshas, or 'sheaths', described in the Vedanta. The gross body corresponds to the annamayakosha and the pranamayakosha, the subtle body to the manomayakosha and the vijnanamayakosha, and the causal body to the anandamayakosha. The Mahakarana, the Great Cause, is beyond the five sheaths. When Chaitanya's mind merged in That, he would go into samadhi. This is called the nirvikalpa or jada samadhi.}

“चैतन्यदेव को जब बाह्यदशा होती थी तब वे नामसंकीर्तन करते थे । अर्धबाह्यदशा में भक्तों के साथ नृत्य करते थे । अन्तर्दशा में समाधिस्थ हो जाते थे ।

[“চৈতন্যদেবের যখন বাহ্যদশা হত তখন নামসংকীর্তন করতেন। অর্ধ-বাহ্যদশায় ভক্তসঙ্গে নৃত্য করতেন। অর্ন্তদশায় সমাধিস্থ হতেন।”

"While conscious of the outer world, Chaitanya sang the name of God; while in the state of partial consciousness, he danced with the devotees; and while in the inmost state of consciousness, he remained absorbed in samadhi."

मास्टर(स्वगत) – क्या श्रीरामकृष्ण इस प्रकार स्वयं अपने मन की विभिन्न अवस्थाओं की ओर ही संकेत कर रहे हैं? चैतन्यदेव की भी ऐसी ही अवस्थाएँ होती थीं !

{মাস্টার (স্বগত) — ঠাকুর কি নিজের সমস্ত অবস্থা এইরূপে ইঙ্গিত করছেন? চৈতন্যদেবেরও এইরূপ হত!

M. (to himself): "Is the Master hinting at the different states of his own mind? There is much similarity between Chaitanya and the Master."}

 🌼भक्ति से सब कुछ मिलता है ~ वेदान्ती हठयोग नहीं राजयोग मानते हैं 🌼  

श्रीरामकृष्ण – श्रीचैतन्य भक्ति के अवतार थे । वे जीवों को भक्ति की शिक्षा देने के लिए आए थे । उन पर  भक्ति हुई तो सब कुछ हो गया । फिर हठयोग की कोई आवश्यकता नहीं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — চৈতন্য ভক্তির অবতার  'Love Personified', জীবকে ভক্তি (प्रेम) শিখাতে এসেছিলেন। তাঁর উপর ভক্তি হল তো সবই হল। হঠযোগের কিছু দরকার নাই।

MASTER: "Chaitanya was Divine Love incarnate. He came down to earth to teach people how to love God. One achieves everything when one loves God. There is no need of hathayoga."

  🌼प्राणवायु की करामात 🌼

एक भक्त – जी, हठयोग कैसा है ?

[একজন ভক্ত — আজ্ঞা, হঠযোগ কিরূপ?

A DEVOTEE: "Sir, what is hathayoga like?"]

श्रीरामकृष्ण हठयोग में शरीर की ओर मन ज्यादा देना पड़ता है । अन्तर-प्रक्षालन के लिए हठयोगी बाँस की नली पर गुदा-स्थापन करता है । लिंग के द्वारा दूध-घी खींचता रहता है । जिव्हा-सिद्धि का अभ्यास करता है । आसन साधकर कभी कभी शून्य पर चढ़ रहता है । ये सब कार्य प्राण -वायु के हैं । तमाशा दिखाते हुए किसी ने तालु के अन्दर जीभ घुसेड़ दी थी । बस, उसका शरीर स्थिर हो गया । लोगों ने सोचा, यह मर गया । क्तिने ही वर्ष वह कब्र में मिट्टी के नीचे पड़ा रहा । कालान्तर में वह कब्र धँस गयी । तब एकाएक उसे चेत हुआ चेतना के होते ही वह चिल्ला उठा – 'आबड़ा का डाबड़ा ' (बंगला लाग् भेलकी लाग्) छूमन्तर - यह देखो कलाबाजी ! यह देखो गिरहबाजी ! (सब हँसते हैं ।) यह सब साँस (प्राण-वायु) की करामत है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হঠযোগে শরীরের উপর বেশি মনোযোগ দিতে হয়। ভিতর প্রক্ষালন করবে বলে বাঁশের নলে গুহ্যদার রক্ষা করে। লিঙ্গ দিয়ে দুধ ঘি টানে। জিহ্বাসিদ্ধি অভ্যাস করে। আসন করে শূন্যে কখন কখন উঠে! ও-সব বায়ুর কার্য। একজন বাজি দেখাতে দেখাতে তালুর ভিতর জিহ্বা প্রবেশ করে দিয়েছিল। অমনি তার শরীর স্থির হয়ে গেল। লোকে মনে করলে, মরে গেছে। অনেক বৎসর সে গোর দেওয়া রহিল। বহুকালের পরে সেই গোর কোন সূত্রে ভেঙে গিয়েছিল! সেই লোকটার তখন হঠাৎ চৈতন্য হল। চৈতন্য হবার পরই, সে চেঁচাতে লাগল, লাগ্‌ ভেলকি, লাগ্‌ ভেলকি! (সকলের হাস্য) এ-সব বায়ুর কার্য।

MASTER: "A man practising hathayoga dwells a great deal on his body. He washes his intestines by means of a bamboo tube through his anus. He draws ghee and milk through his sexual organ. He learns how to manipulate his tongue by performing exercises. He sits in a fixed posture and now and then levitates. All these are actions of prana. A magician was performing his feats when his tongue turned up and clove to the roof of his mouth. Immediately his body became motionless. People thought he was dead. He was buried and remained many years in the grave. After a long time the grave somehow broke open. Suddenly the man regained consciousness of the world and cried out, 'Come delusion! Come confusion!1 (All laugh.) All these are actions of prana.]

🌼🌼 राजयोग सर्वोत्तम है🌼🌼

“वेदान्तवादी हठयोग नहीं मानते । वे राजयोग को मानते हैं।  राजयोग में यह पद्धति बताई गयी है कि मन को एकाग्र करने के साथसाथ ,विवेक - भक्ति के द्वारा भी योग होता है । यह राज योग ही अच्छा है, हठयोग अच्छा नहीं, क्योंकि कलि में प्राण अन्न के अधीन हैं ।”

{“হঠযোগ বেদান্তবাদীরা মানে না।“হঠযোগ আর রাজযোগ। রাজযোগে মনের দ্বারা যোগ হয় — ভক্তির দ্বারা বিচারের দ্বারা যোগ হয়। ওই যোগই ভাল। হঠযোগ ভাল নয়, কলিতে অন্নগত প্রাণ!”

"The Vedantists do not accept hathayoga. There is also rajayoga. Rajayoga describes how to achieve union with God through the mind — by means of discrimination and bhakti. This yoga is good. Hathayoga is not good. The life of a man in the Kaliyuga is dependent on food."}

(२)

 🌼श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग भक्त और भविष्यत् महातीर्थ  🌼 

श्रीरामकृष्ण नौबतखाने की बगलवाली राह पर खड़े हुए देख रहें – मणि नौबतखाने के बरामदे में एक ओर बैठे हुए घेरे की आड़ में कसी गहन चिन्ता में डूबे हुए हैं । क्या वे ईश्वर का चिन्तन कर रहे हैं ? श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले की ओर गए थे । मुँह धोकर वहीँ खड़े हुए ।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ নহবতের পার্শ্বে রাস্তায় দাঁড়াইয়া আছেন। দেখিতেছেন নহবতের বারান্দার একপার্শ্বে বসিয়া, বেড়ার আড়ালে মণি গভীর চিন্তামগ্ন। তিনি কি ঈশ্বরচিন্তা করিতেছেন? ঠাকুর ঝাউতলায় গিয়াছিলেন, মুখ ধুইয়া ওইখানে আসিয়া দাঁড়াইলেন। 

Sri Ramakrishna was standing in the road by the side of the nahabat. He was on his way to his room, having come from the pine-grove. He saw M. seated on the verandah of the nahabat, behind the fence, absorbed in meditation.

श्रीरामकृष्ण – क्यों जी, यहाँ बैठे हुए हो ! तुम्हारा काम जल्दी होगा ! कुछ ही दिन करने से कोई कहेगा – ‘यह, यह करो ।’

[  শ্রীরামকৃষ্ণ — কিগো, এইখানে বসে! তোমার শীঘ্র হবে। একটু করলেই কেউ বলবে, এই এই!]

MASTER: "Hello! You are here? You will get results very soon. If you practise a little, then someone will come forward to help you.

"चौंककर वे श्रीरामकृष्ण की ओर ताकते रह गये । अभी तक आसन भी नहीं छोड़ा ।

[চকিত হইয়া তিনি ঠাকুরের দিকে তাকাইয়া আছেন। এখনও আসন ত্যাগ করেন নাই।

M. looked up at the Master, startled; he remained sitting on the floor.

श्रीरामकृष्ण – तुम्हारा समय हो आया है । जब तक अण्डों के फोड़ने का समय नहीं होता, तब तक चिड़िया अण्डे नहीं फोड़ती । जो मार्ग तुम्हें बतलाया गया है, वही तुम्हारे लिए ठीक है । यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने फिर से 'मणि का मार्ग' (इष्टदेव his spiritual Ideal-विवेकदर्शन का अभ्यास ) बतला दिया ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার সময় হয়েছে। পাখি ডিম ফুটোবার সময় না হলে ডিম ফুটোয় না। যে ঘর বলেছি, তোমার সেই ঘরই বটে। এই বলিয়া ঠাকুর মণির ‘ঘর’ আবার বলিয়া দিলেন।

MASTER: "The time is ripe for you. The mother bird does not break the shell of the egg until the right time arrives. What I told you is indeed your Ideal. Sri Ramakrishna again mentioned to M. his spiritual Ideal.]

🌼ईश्वर दर्शन ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है  🌼

 ["The vision of God is the only goal of human life."] 

श्रीरामकृष्ण – यह आवश्यक नहीं कि सभी को मेरी तरह कठोर  तपस्या करनी पड़े । परन्तु मुझे तो बड़ा ही कष्ट उठाना पड़ा था । मिट्टी के टीले पर सिर रखकर पड़ा रहता था । न जाने कहाँ दिन पार हो जाता था । ‘माँ, माँ’ कहकर पुकारता था और रोता था ।

[“সকলেরই যে বেশি তপস্যা করতে হয়, তা নয়। আমার কিন্তু বড় কষ্ট করতে হয়েছিল। মাটির ঢিপি মাথায় দিয়ে পড়ে থাকতাম। কোথা দিয়ে দিন চলে যেত। কেবল মা মা বলে ডাকতাম, কাঁদতাম।”

MASTER: "It is not necessary for all to practise great austerity. But I went through great suffering. I used to lie on the ground with my head resting on a mound for a pillow. I hardly noticed the passing of the days. I only called on God and wept, 'O Mother! O Mother!'"

मणि श्रीरामकृष्ण के पास लगभग दो साल से आ रहे हैं । वे अंग्रेजी पढ़े हुए हैं । श्रीरामकृष्ण कभी कभी उन्हें इंन्लिश-मैन कहकर पुकारते थे । उन्होंने कालेज में अध्ययन किया है । विवाह भी किया है । 

केशव और दूसरे पण्डितों के व्याख्यान सुनने और अंग्रेजी दर्शन और विज्ञान पढ़ने में उनका खूब जी लगता है । परन्तु जब से वे श्रीरामकृष्ण के पास आए, तब से यूरोपीय पण्डितों के ग्रन्थ और अंग्रेजी अथवा दूसरी भाषाओँ के व्याख्यान उन्हें अलोने जान पड़ने लगे । अब दिनरात केवल श्रीरामकृष्ण को देखना और उन्हीं की बातें सुनना चाहते हैं ।

आजकल श्रीरामकृष्ण की एक बात वे सदा सोचते रहते हैं । श्रीरामकृष्ण ने कहा हैं, ‘साधना करने से मनुष्य ईश्वर को देख सकता है ।’ उन्होंने यह भी कहा है, ‘इश्वरदर्शन ही मनुष्यजीवन का उद्देश्य है ।’ 

[মণি ঠাকুরের কাছে প্রায় দুই বৎসর আসিতেছেন। তিনি ইংরেজী পড়েছেন। ঠাকুর তাঁহাকে কখন কখন ইংলিশম্যান বলতেন। কলেজে পড়াশুনা করেছেন। বিবাহ করেছেন।তিনি কেশব ও অন্যান্য পণ্ডিতদের লেকচার শুনিতে, ইংরেজী দর্শন ও বিজ্ঞান পড়িতে ভালবাসেন। কিন্তু ঠাকুরের কাছে আসা অবধি, ইওরোপীয় পণ্ডিতদের গ্রন্থ ও ইংরেজী বা অন্য ভাষার লেকচার তাঁহার আলুনী বোধ হইয়াছে। এখন কেবল ঠাকুরকে রাতদিন দেখিতে ও তাঁহার শ্রীমুখের কথা শুনিতে ভালবাসেন।আজকাল তিনি ঠাকুরের একটি কথা সর্বদা ভাবেন। ঠাকুর বলেছেন, “সাধন করলেই ঈশ্বরকে দেখা যায়,” আরও বলেছেন, “ঈশ্বরদর্শনই মানুষ জীবনের উদ্দেশ্য।”

M. had been visiting Sri Ramakrishna for the past two years. Since he had been educated along English lines, he had acquired a fondness for Western philosophy and science, and had liked to hear Keshab and other scholars lecture. Sri Ramakrishna would address him now and then as the "Englishman". Since coming to Sri Ramakrishna, M. had lost all relish for lectures and for books written by English scholars. The only thing that appealed to him now was to see the Master day and night, and hear the words that fell from his blessed lips. M. constantly dwelt on certain of Sri Ramakrishna's sayings. The Master had said, "One can certainly see God through the practice of spiritual discipline", and again, "The vision of God is the only goal of human life."]

श्रीरामकृष्ण – कुछ दिन करने से ही कोई कहेगा – ‘यह, यह करो ।’ तुम एकादशी का व्रत करना । तुम लोग अपने आदमी हो, आत्मीय हो । नहीं तो तुम इतना क्यों आओगे ? कीर्तन सुनते सुनते राखाल को मैंने देखा था, वह व्रजमण्डल के भीतर था । नरेन्द्र का स्थान बहुत ऊँचा है । और हीरानन्द । उसका कैसा बालकों का – सा भाव है ! उसका भाव कैसा मधुर है ! उसे भी देखने को जी चाहता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — একটু কল্লেই কেউ বলবে, এই এই। তুমি একাদশী করো। তোমরা আপনার লোক, আত্মীয়। তা না হলে এত আসবে কেন? কীর্তন শুনতে শুনতে রাখালকে দেখেছিলাম ব্রজমণ্ডলের ভিতর রয়েছে। নরেন্দ্রের খুব উঁচুঘর। আর হীরানন্দ [^श्रीठाकुरदेव के सिन्धी भक्त जैसे दादा के भक्त मनोज साधवनि] । তার কেমন বালকের ভাব। তার ভাবটি কেমন মধুর। তাকেও দেখবার ইচ্ছা করে।

MASTER (to M.): "If you practise only a little, someone will come forward to tell you the right path. Observe the ekadasi."You are my very own, my relative; otherwise, why should you come here so frequently? While listening to the kirtan, I had a vision of Rakhal in the midst of Sri Krishna's companions in Vrindavan. Narendra belongs to a very high level. Hirananda2 too; how childlike his nature is! What a sweet disposition he has! I want to see him too.] 

 🌼अन्तरंग भक्त के देखकर उठखड़ा होना - पूर्व जन्म की पहचान है 🌼

{बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।। 

(गीता 4.5) 

श्रीभगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं, (परन्तु) हे परन्तप ! उन सब को मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते। 

Lord Shri Krishna replied: I have been born again and again, from time to time; thou too, O Arjuna! My births are known to Me, but thou knowest not thine. ] 

“मैंने श्रीगौरांग के संगोपांगों को देखा था; भाव में नहीं, इन्हीं आँखों से ! पहले ऐसी अवस्था थी कि सादी दृष्टि से सब दर्शन होते थे ! अब तो भाव में होते हैं ।

“सादी दृष्टि से श्रीगौरांग के सब संगोपांगों को देखा था । उसमें शायद तुम्हें भी देखा था । और शायद बलराम को भी ।

किसी को देखकर झट उठकर क्यों खड़ा हो जाता हूँ, जानते हो ? आत्मीयों को दीर्घकाल के बाद देखने से ऐसा ही होता है ।

{“গৌরাঙ্গের সাঙ্গোপাঙ্গ দেখেছিলাম। ভাবে নয়, এই চোখে! আগে এমন অবস্থা ছিল যে, সাদাচোখে সব দর্শন হত! এখন তো ভাবে হয়।“সাদাচোখে গৌরাঙ্গের সাঙ্গোপাঙ্গ সব দেখেছিলাম। তারমধ্যে তোমায়ও যেন দেখেছিলাম। বলরামকেও যেন দেখেছিলাম।“কারুকে দেখলে তড়াক করে উঠে দাঁড়াই কেন জান; আত্মীয়দের অনেক কাল পরে দেখলে ওইরূপ হয়।

"Once I saw the companions of Chaitanya, not in a trance but with these very eyes. Formerly I was in such an exalted state of mind that I could see all these things with my naked eyes; but now I see them in samadhi. I saw the companions of Chaitanya with these naked eyes. I think I saw you there, and Balaram too. You must have noticed that when I see certain people I jump up with a start. Do you know why? A man feels that way when he sees his own people after a long time.}

“माँ से रो-रोकर कहता था, माँ, भक्तों के लिए मेरा जी निकल रहा है; उन्हें शीघ्र मेरे पास ला दे । जो कुछ मैं सोचता था, वही होता था ।

“पंचवटी में मैंने तुलसीकानन बनाया था, जप-ध्यान करने के लिए । बड़ी इच्छा हुई कि चारों ओर से बाँस की कमानियों का घेरा लगा दूँ । इसके बाद ही देखा, ज्वार में बहकर कुछ कमानियों का गट्ठा और कुछ रस्सी ठीक पंचवटी के सामने आकर लग गयी है । ठाकुरबाड़ी में एक कहार रहता था । आनन्द से नाचते हुए उसने आकर यह खबर सुनायी ।

[“মাকে কেঁদে কেঁদে বলতাম, মা! ভক্তদের জন্যে আমার প্রাণ যায়, তাদের শীঘ্র আমায় এনে দে। যা যা মনে করতাম, তাই হত।পঞ্চবটীতে তুলসী কানন করেছিলাম, জপ-ধ্যান করব বলে। ব্যাঁকারির বেড়া দেবার জন্য বড় ইচ্ছা হল। তারপরেই দেখি জোয়ারে কতকগুলি ব্যাঁকারির আঁটি, খানিকটা দড়ি, ঠিক পঞ্চবটীর সামনে এসে পড়েছে! ঠাকুরবাড়ির একজন ভারী (कहार) ছিল, সে নাচতে নাচতে এসে খবর দিলে।

"I used to pray to the Mother, crying: 'Mother, if I do not find the devotees I'll surely die. Please bring them to me immediately.In those days whatever desire arose in my mind would come to pass. I planted a tulsi-grove in the Panchavati in order to practise japa and meditation. I wanted very much to fence it around with bamboo sticks. Soon afterwards a bundle of bamboo sticks and some string were carried by the flood-tide of the Ganges right in front of the Panchavati. A temple servant noticed them and joyfully told me.]

“जब यह अवस्था हुई तब और पूजा न कर सका । कहा माँ, मुझे कौन देखेगा ? माँ, मुझमें ऐसी शक्ति नहीं है कि अपना भार खुद ले सकूँ । और तुम्हारी बात सुनने को जी चाहता है; भक्तों को खिलाने की इच्छा होती है; सामने पड़ जाने पर किसी को कुछ देने को भी इच्छा होती है । माँ, यह सब किस तरह होगा ? माँ, तुम एक बड़ा आदमी मेरी सहायता के लिए दो । इसीलिए तो मथुरबाबू ने इतनी सेवा की !

.{“যখন এই অবস্থা হল, পূজা আর করতে পারলাম না। বললাম, মা, আমায় কে দেখবে? মা! আমার এমন শক্তি নাই যে, নিজের ভার নিজে লই। আর তোমার কথা শুনতে ইচ্ছা করে; ভক্তদের খাওয়াতে ইচ্ছা করে; কারুকে সামনে পড়লে কিছু দিতে ইচ্ছা করে। এ-সব মা, কেমন করে হয়। মা, তুমি একজন বড়মানুষ পেছনে দাও! তাইতো সেজোবাবু এত সেবা করলে।

"In that state of divine exaltation (दिव्य उल्लास)  I could no longer perform the formal worship. 'Mother,' I said, 'who will look after me? I haven't the power to take care of myself. I want to listen only to talk about Thee. I want to feed Thy devotees. I want to give a little help to those whom I chance to meet. How will all that be possible, Mother? Give me a rich man to stand by me.' That is why Mathur Babu did so much to serve me.}

“और भी कहा था, मेरे तो सब सन्तान होगी नहीं, परन्तु इच्छा होती है कि एक शुद्ध भक्त बालक सदा मेरे साथ रहे । इसी तरह का एक बालक मुझे दो । इसीलिए तो राखाल आया । जो जो आत्मीय हैं, उनमें कोई अंश है और कोई कला ।”

[“আবার বলেছিলাম, মা! আমার তো আর সন্তান হবে না, কিন্তু ইচ্ছা করে, একটি শুদ্ধ-ভক্ত ছেলে, আমার সঙ্গে সর্বদা থাকে। সেইরূপ একটি ছেলে আমায় দাও। তাই তো রাখাল হল। যারা যারা আত্মীয়, তারা কেউ অংশ, কেউ কলা।”

"I said further, 'Certainly I shall not have any children, Mother. But it is my desire that a boy with sincere love for God should always remain with me. Give me such a boy.' That is the reason Rakhal came here. Those whom I think of as my own are part and parcel of me.")

[(9 दिसंबर, 1883)   श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🌼अद्भुत मूर्तिदर्शन का तात्पर्य - पंचवटी और माँ भवतारिणी भविष्य के महातीर्थ बनेंगे 🌼 

श्रीरामकृष्ण फिर पंचवटी की ओर जा रहे हैं । केवल मास्टर साथ हैं, और कोई नहीं । श्रीरामकृष्ण प्रसन्नतापूर्वक उनसे (अपने साधक जीवन के विषय में) विविध वार्तालाप  कर रहे हैं ।

[ঠাকুর আবার পঞ্চবটীর দিকে যাইতেছেন। মাস্টার সঙ্গে আছেন, আর কেহ নাই। ঠাকুর সহাস্যে তাঁহার সহিত নানা কথা কহিতেছেন।

The Master started again for the Panchavati accompanied by M. No one else was with them. Sri Ramakrishna with a smile narrated to him various incidents of the past years of his life.]

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) – देखो, मैंने एक दिन कालीमन्दिर से लेकर पंचवटी तक के आकाश में व्याप्त एक अद्भुत मूर्ति देखी ! इस पर तुम्हारा विश्वास होता है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — দেখ, একদিন দেখি — কালীঘর থেকে পঞ্চবটী পর্যন্ত এক অদ্ভুত মূর্তি। এ তোমার বিশ্বাস হয়?

MASTER: "You see, one day I saw a strange figure covering the whole space from the Kali temple to the Panchavati.  Do you believe this?"]

मास्टर आश्चर्य में आकर निर्वाक् हो रहे ।

वे पंचवटी की शाखा से दो-चार पत्ते तोड़कर अपनी जेब में रख रहे हैं ।

[মাস্টার অবাক্‌ হইয়া রহিলেন।তিনি পঞ্চবটীর শাখা হইতে ২/১টি পাতা পকেটে রাখিতেছেন।

M. remained silent with wonder. He plucked one or two leaves from a branch in the Panchavati and put them in his pocket.] 

श्रीरामकृष्ण – यह डाल गिर गयी है, देखते हो ? मैं इसके नीचे बैठता था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — এই ডাল পড়ে গেছে, দেখেছ; এর নিচে বসতাম।

MASTER: "See there — that branch has been broken. I used to sit under it."

मास्टर – मैं इसकी एक छोटी सी डाल तोड़ ले गया हूँ । उसे घर में रख दिया है ।

[মাস্টার — আমি এর একটি কচি ডাল ভেঙে নিয়ে গেছি — বাড়িতে রেখে দিয়েছি।

M: "I took a young twig from that tree — I have it at home."

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) – क्यों ? 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কেন?

MASTER (with a smile): "Why?"]

मास्टर – देखने से आनन्द होता है । सब समाप्त हो जाने पर यही जगह महातीर्थ होगी ।

[মাস্টার — দেখলে আহ্লাদ হয়। সব চুকে গেলে এই স্থান মহাতীর্থ হবে।

M: "I feel happy when I look at it. After all this is over, this place will be considered very holy."] 

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) – किस तरह का तीर्थ ? क्या पानीहाटी की तरह का ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কিরকম তীর্থ? কি, পেনেটীর মতো?

MASTER (smiling): "What kind of holy place? Like Panihati?"]

पानीहाटी में बड़े समारोह के साथ राघव पण्डित का महोत्सव होता है । श्रीरामकृष्ण प्रायः हर साल यह महोत्सव देखने जाया करते हैं और संकीर्तन के बीच में प्रेम और आनन्द से नृत्य किया करते हैं, मानो भक्तों की पुकार सुनकर श्रीगौरांग स्थिर नहीं रह सकते – संकीर्तन में स्वयं जाकर अपनी प्रेममूर्ति के दर्शन कराते हैं ।

(३)

[(9 दिसंबर, 1883)   श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🌼🌼भक्तमाल ग्रन्थ से श्रीमहाराज श्रीजयमल कथा का श्रवण 🌼🌼 

सन्ध्या हो गयी । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में छोटे तख्त पर बैठे हुए जगन्माता का चिन्तन कर रहे हैं । क्रमशः मन्दिर में देवताओं की आरती होने लगी । शंख और घण्टे बजने लगे । मास्टर आज रात को यही रहेंगे ।

[সন্ধ্যা হইল। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ঘরের ছোট খাটটিতে বসিয়া মার চিন্তা করিতেছেন। ক্রমে ঠাকুরবাড়িতে ঠাকুরদের আরতি আরম্ভ হইল। শাঁকঘন্টা বাজিতে লাগিল। মাস্টার আজ রাত্রে থাকিবেন।

It was evening. Sri Ramakrishna was sitting on the small couch in his room, absorbed in meditation on the Divine Mother. The evening worship in the temples began, with the music of gong and conch-shell. M. was going to spend the night with the Master.

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से ‘भक्तमाल’ पढ़कर सुनाने के लिए कहा । मास्टर पढ़ रहे हैं ।*

[কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর মাস্টারকে “ভক্তমাল” পাঠ করিয়া শুনাইতে বলিলেন। মাস্টার পড়িতেছেন —

(यह बंगला का भक्तमाल है । छन्दोबद्ध है । यहाँ इसका हिन्दी अनुवाद दिया गया है ।)

“जयमल नाम के एक शुद्धचित्त राजा थे । भगवान् श्रीकृष्ण पर उनकी अचल प्रीति थी । नवधा भक्ति के यजन में वे इतने दृढ़निष्ठ थे कि पत्थर पर खींची हुई रेखा की तरह उसका ल्हास न हो पाता था । वे जिस विग्रह का पूजन करते थे उसका नाम श्यामलसुन्दर था । श्यामलसुन्दर को छोड़ वे और अन्य किसी देवी-देवता को मानो जानते ही न थे उन्हीं पर उनका चित्त लगा रहता था । सदा दृढ़ नियमों से वे दस दण्ड दिन चढ़ते तक उस मूर्ति की पूजा किया करते थे । अपने पूजन में वे इतने दृढ़निश्चय थे कि चाहे राज्य और धन का नाश हो जाए, चाहे वज्रपात हो, तथापि पूजा के समय किसी दूसरी ओर ध्यान न देते थे ।

“इस बात की खबर उनके एक दूसरे प्रतिस्पर्धी राजा के पास पहुँची । उसने सोचा, यह तो शत्रु को पराजित करने का एक उत्तम उपाय हाथ आया । जिस समय राजा जयमल पूजन के लिए बैठे थे उसी समय उसने उनके राज्य पर आक्रमण कर युद्ध की घोषणा कर दी । राजा की आज्ञा बिना सेना युद्ध नहीं कर सकती । अतः राजा जयमल की सेना उनकी आज्ञा की राह देखती रही । तब तक शत्रुओं ने उनका किला घेर लिया । तथापि इन्होंने उस समय युद्ध की ओर ध्यान ही नहीं दिया, निरुद्ध होकर पूजन करते रहे । 

इनकी माता सिर पटकती हुई पास आकर उच्च स्वर से रोदन करने लगी । विलाप करते हुए उसने कहा कि अब जल्दी उठो, नहीं तो सब कुछ चला जाएगा; तुम तो ऐसे हो कि तुम्हारा इधर ध्यान ही नहीं है – शत्रु चढ़ आया – अब किला तोडना ही चाहता है । महाराज जयमल ने कहा, ‘माता ! तुम क्यों दुःख कर रही हो ? जिसने यह राज-पाट दिया है, वह अगर छीन ले तो हमारा इसमें क्या ! और अगर वह हमारी रक्षा करे, तो वह शक्ति किसमें है जो हमसे ले सके? अतएव हम लोगों का उद्यम तो व्यर्थ ही है।’

“इधर श्यामलसुन्दर ने घोड़े पर सवार हो अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्ध की तैयारी आकर दी । अकेले ही भक्त के शत्रुओं का संहार करके घोड़े को अपने मन्दिर के पास बाँधकर श्यामलसुन्दर जहाँ के तहाँ हो रहे ।

पूजा-अर्चना समाप्त होने पर राजा जयमल बाहर आकर देखते हैं कि सामने उनका घोड़ा पसीने से तर हो हाँफता खड़ा हैं । वे पूछने लगे, ‘मेरे घोड़े पर कौन सवार हुआ और इसे यहाँ बाँध गया ?’ सभी कहने लगे कि यह तो हम कुछ भी नहीं जानते । राजा में मन में सन्देह हुआ और यही सोचते हुए वे सेनासहित युद्धभूमि की ओर बढ़े । जाकर उन्होंने देखा कि सारी शत्रुसेना रणभूमि में लोट रही है – केवल शत्रुपक्ष का राज भर बचा है । विस्मित होकर राजा जयमल इसका कारण पूछने लगे । 

इतने में वह प्रतिस्पर्धी राजा उनके समीप आया और हाथ जोड़कर विनती करने लगा । वह बोला, ‘आपके एक 'नीले रंग ' के सिपाही ने अकेले ही इतना आश्चर्यजनक युद्ध किया कि उनके सामने कोई टिक न सका । वह अवश्य ही त्रिलोकविजयी है । महाराज, मैं आपका धन या राज्य नहीं चाहता । बल्कि आप चलकर मेरा भी राज्य ले लें । परन्तु मुझे इतना बताइये कि वह  'नीले रंग ' का सिपाही कौन था? केवल एक बार दर्शन देकर उसने मेरा मन हर लिया है ।”

“जयमल को समझने में देर न लगी कि यह सब श्यामलसुंदरजी का ही खेल है । यह मर्म जानते ही प्रतिद्वन्द्वी राजा जयमल के चरण पकड़कर स्तव करने लगे और कहने लगे कि जिनके कारण मुझ पर कृष्ण की कृपा हुई उन आपके चरणों में मैं शरण लेता हूँ – कृपा कीजिए कि यह श्यामल सिपाही मेरा स्वीकार करे ।”

*চরিত্র শ্রীমহারাজ শ্রীজয়মল*

জয়মল নামে এক রাজা শুদ্ধমতি। অনির্বচনীয় তাঁর শ্রীকৃষ্ণ পিরীত ৷৷ভক্তি-অঙ্গ-যাজনে যে সুদৃঢ় নিয়ম। পাসাণের রেখা যেন নাহি বেশি কম ৷৷শ্যামল সুন্দর নাম শ্রীবিগ্রহসেবা। তাহাতে প্রপন্ন, নাহি জানে দেবী দেবা ৷৷দশদণ্ড-বেলা-বধি তাঁহার সেবায়। নিযুক্ত থাকয়ে সদা দৃঢ় নিয়ম হয় ৷৷রাজ্যধন যায় কিবা বজ্রাঘাত হয়। তথাপিহ সেবা সমে ফিরি না তাকায় ৷৷প্রতিযোগী রাজা ইহা সন্ধান জানিয়া। সেই অবকাশকালে আইল হানা দিয়া ৷৷রাজার হুকুম বিনে সৈন্য-আদি-গণ। যুদ্ধ না করিতে পারে করে নিরীক্ষণ ৷৷ক্রমে ক্রমে আসি গড় ঘেরে রিপুগণ। তথাপিহ তাহাতে কিঞ্চিৎ নাহি মন ৷৷মাতা তাঁর আসি করে কত উচ্চধ্বনি। উদ্বিগ্ন হইয়া যে মাথায় কর হানি ৷৷সর্বস্ব লইল আর সর্বনাশ হৈল। তথাপি তোমার কিছু ভুরুক্ষেপ নৈল ৷৷জয়মল কহে মাতা কেন দুঃখভাব। যেই দিল সেই লবে তাহে কি করিব ৷৷সেই যদি রাখে তবে কে লইতে পারে। অতএব আমা সবার উদ্যমে কি করে ৷৷শ্যামলসুন্দর হেথা ঘোড়ায় চড়িয়া। যুদ্ধ করিবারে গেলা অস্তর ধরিয়া ৷৷একাই ভক্তের রিপু সৈন্যগণ মারি। আসিয়া বান্ধিল ঘোড়া আপন তেওয়ারি ৷৷সেবা সমাপনে রাজা নিকশিয়া দেখে। ঘোরার সর্বাঙ্গে ঘর্ম শ্বাস বহে নাকে ৷৷জিজ্ঞাসয়ে মোর অশ্বে সওয়ার কে হৈল। ঠাকুর মন্দিরে বা কে আনি বান্ধিল ৷৷সবে কহে কে চড়িল কে আনি বান্ধিল। আমরা যে নাহি জানি কখন আনিল ৷৷সংশয় হইয়া রাজা ভাবিতে ভাবিতে। সৈন্যসামন্ত সহ চলিল যুদ্ধেতে ৷৷যুদ্ধস্থানে গিয়া দেখে শত্তুরে সৈন্য। রণশয্যায় শুইয়াছে মাত্র এক ভিন্ন ৷৷প্রধান যে রাজা এবে সেই মাত্র আছে। বিস্ময় হইয়া ঞিহ কারণ কি পুছে ৷৷হেনকালে অই প্রতিযোগী যে রাজা। গলবস্ত্র হইয়া করিল বহু পূজা ৷৷আসিয়া জয়মল মহারাজার অগ্রেতে। নিবেদন করে কিছু করি জোড়হাতে ৷৷কি করিব যুদ্ধ তব এক যে সেপাই। পরম আশ্চর্য সে ত্রৈলোক্য-বিজয়ী ৷৷অর্থ নাহি মাগোঁ মুঞি রাজ্য নাহি চাহোঁ। বরঞ্চ আমার রাজ্য চল দিব লহো ৷৷শ্যামল সেপাই সেই লড়িতে আইল। তোমাসনে প্রীতি কি তার বিবরিয়া বল ৷৷সৈন্য যে মারিল মোর তারে মুই পারি। দরশনমাত্রে মোর চিত্ত নিল হরি ৷৷জয়মল বুঝিল এই শ্যামলজীর কর্ম। প্রতিযোগী রাজা যে বুঝিল ইহা মর্ম ৷৷জয়মলের চরণ ধরিয়া স্তব করে। যাহার প্রসাদে কৃষ্ণকৃপা হৈল তারে ৷৷তাঁহা-সবার শ্রীচরণে শরণ আমার। শ্যামল সেপাই যেন করে অঙ্গীকার ৷৷

After a time Sri Ramakrishna asked M. to read from the Bhaktamala, a book about the Vaishnava saints.

M. read: There was a king named Jayamal who loved Krishna with all his heart. He followed with unfailing devotion all the rites and ceremonies associated with the adoration of Krishna, whom he worshipped under the name of Syamalasundara.

Completely satisfied with his own Ideal Deity, he never directed his attention to any other god or goddess. One of the inflexible rules of his devotions was to worship the Deity daily till almost midday. He would never deviate from this practice, even at the risk of his wealth or his kingdom. 

Learning this secret, an enemy king invaded the kingdom during the morning hours. Jayamal's soldiers could not fight without his command; so they watched the invasion silently. Slowly the enemy surrounded the moat of the capital; yet Jayamal did not come out of his shrine room. 

His mother came to him and wept bitterly, trying to persuade the king to fight. He said to her calmly: "Why are you worried? Syamalasundara gave me this kingdom. What can I do if He has decided to take it away? On the other hand, none will be able to do me harm if He protects me. Our own efforts are vain!"

And actually, in the mean time, Syamalasundara, the Deity Himself, had taken the king's horse from the stable and had ridden fully armed to the field. Alone He faced the hostile king and alone destroyed his army. Having crushed the enemy forces, the Deity returned to the temple and fastened the horse near by.

Jayamal, on completing his worship, came out and discovered the horse there, panting and covered with sweat. "Who has been riding my horse?'' he demanded. "Who brought it to the temple?" The officers declared they knew nothing about it. In a pensive mood the king proceeded to the battle-field with his army and there found the enemy, with the exception of their leader, lying dead.

 He was staring uncomprehendingly at the scene, when the enemy king approached, worshipped him, and said: "Please permit me to tell you something. How could I fight? You have a warrior who could conquer the entire world. I do not want your wealth or your kingdom; indeed, I will gladly give you my own, if you will tell me about that Blue Warrior, your friend. No sooner did I turn my eves on him than he cast a spell on my heart and soul."

Jayamal then realized it had been none other than Syamalasundara that had appeared on the battle-field. The enemy king understood too. He worshipped Jayamal and through his blessings received Krishna's grace.]

 [(9 दिसंबर, 1883)   श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🌼क्या भक्तमाल की कथायें एक-पक्षीय हैं ?  🌼 

पाठ समाप्त होने के बाद श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ बात कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण – इन बातों पर तुम्हारा विश्वास होता है ? – श्रीकृष्ण स्वयं घोड़े पर सवार हुए और  उन्होंने सेना-नाश किया था; इन सब बातों पर ?

{ পাঠান্তে ঠাকুর মাস্টারের সহিত কথা কহিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার এ-সব বিশ্বাস হয়? তিনি সওয়ার হয়ে সেনা বিনাশ করেছিলেন — এ-সব বিশ্বাস হয়?}

MASTER: "Do you believe all that? Do you believe Krishna rode on that horse and killed Jayamal's enemies?"

मास्टर – भक्त ने व्याकुल होकर उन्हें पुकारा था । इस पर विश्वास होता है । श्रीभगवान् को उसने ठीक ठीक सवार करते देखा था या नहीं, यह सब समझ में नहीं आता । वे सवार होकर आ सकते हैं, परन्तु उन लोगों ने उन्हें ठीक ठीक देखा था या नहीं, इस पर विश्वास नहीं जमता ।

[মাস্টার — ভক্ত, ব্যাকুল হয়ে ডেকেছিল — এ-অবস্থা বিশ্বাস হয়। ঠাকুরকে সওয়ার ঠিক দেখেছিল কিনা — এ-সব বুঝতে পারি না। তিনি সওয়ার হয়ে আসতে পারেন, তবে ওরা তাঁকে ঠিক দেখেছিল কিনা।

M: "I believe that Jayamal, Krishna's devotee, prayed to Him with a yearning heart. But I don't know whether the enemy really saw Him coming to the battle-field on a horse. Krishna might have come there riding the horse, but I do not know whether they really saw Him."]

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) – पुस्तक में भक्तों की अच्छी कथाए लिखी हैं, परन्तु हैं सब एक पक्षीय समर्थक कथाएं ! जिनका दूसरा मत है, उनकी निन्दा लिखा है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — বইখানিতে বেশ ভক্তদের কথা আছে। তবে একঘেয়ে। যাদের অন্য মত, তাদের নিন্দা আছে।

MASTER (with a smile): "The book contains nice stories about devotees. Bur it is one-sided. Also, it abuses those who differ with its views."]

[(9 दिसंबर, 1883)   श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

दूसरे दिन सुबह को बगीचे में खड़े हुए श्रीरामकृष्ण वार्तालाप कर रहे हैं । मणि कहते हैं, “तो मैं यहाँ आकर रहूँगा ।”

[পরদিন সকালে উদ্যানপথে দাঁড়াইয়া ঠাকুর কথা কহিতেছেন। মণি বলিতেছেন, আমি তাহলে এখানে এসে থাকব।

The following morning the Master and M. were talking in the garden.M: "Then I shall stay here."]

श्रीरामकृष्ण – अच्छा, तुम लोग जो इतना आया करते हो, इसके क्या मानी है ? साधु को लोग ज्यादा से ज्यादा एक बार आकर देख जाते हैं । तुम इतना आते हो – इसके क्या मानी है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, এত যে তোমরা আস (तुम लोग जो लगातार 35 साल से 'C-IN-C नवनीदा' के कैम्प में आ रहे इसका क्या मानी है ?), এর মানে কি! সাধুকে লোকে একবার হদ্দ দেখে যায়। এত আস — এর মানে কি?

 MASTER: "Well, you all come here so often. What does it mean? People visit a holy man once at the most. But you all come here so often. What is the significance of that?"]

मणि तो चकित हो गये । श्रीरामकृष्ण स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर देने लगे ।

🌼अंतरंग कौन है? राजर्षि जनक ने शुकदेव से दक्षिणा पहले क्यों माँगी ? 🌼

श्रीरामकृष्ण (मणि से) – अन्तरंग न होते तो क्या आते ? अन्तरंग अर्थात् आत्मीय, अपना आदमी – जैसे पिता, पुत्र, भाई, बहन । सब बातें मैं नहीं कहता । नहीं तो फिर क्यों आओगे ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — অন্তরঙ্গ না হলে কি আস। অন্তরঙ্গ মানে আত্মীয়, আপনার লোক — যেমন, বাপ, ছেলে, ভাই, ভগ্নী। “সব কথা বলি না। তাহলে আর আসবে কেন?

MASTER: "Could you come here unless you belonged to my inner circle? That means you all are my own relatives, my own people — like father and son, brother and sister.I do not tell you everything. If I did, would you come here any more? 

“शुकदेव ब्रह्मज्ञान पाने के लिए जनक के पास गए थे । जनक ने कहा, ‘पहले दक्षिणा दो ।’ शुकदेव ने कहा, ‘जब तक उपदेश नहीं मिल जाता, तब तक कैसे दक्षिणा दूँ ? जनक ने हँसते हुए कहा, तुम्हें ब्रह्मज्ञान  जाने पर  फिर गुरु और शिष्य का भेद थोड़े ही रह जाएगा ? इसीलिए हमने पहले दक्षिणा देने की बात कही’ ^*। ”

[“শুকদেব ব্রহ্মজ্ঞানের জন্য জনকের কাছে গিয়েছিল। জনক বললে, আগে দক্ষিণা দাও। শুকদেব বললে, আগে উপদেশ না পেলে কেমন করে দক্ষিণা হয়! জনক হাসতে হাসতে বললে, তোমার ব্রহ্মজ্ঞান হলে (ठाकुर ही अवतार वरिष्ठ हैं ! यह बोध हो जाने पर) আর কি গুরু-শিষ্য বোধ থাকবে?  তাই আগে দক্ষিণার কথা বললাম।”

"Once Sukadeva went to Janaka to be instructed in the Knowledge of Brahman. Janaka said, 'First give me my fee.' 'But', said Sukadeva, 'why should I give you the fee before receiving the instruction?' Janaka laughed and said: 'Will you be conscious of guru and disciple after attaining Brahmajnana?

(^* गुरु और शिष्य का नाता कई जन्मों का होता है। जिस प्रकार एक गड़रिया अपनी भेड़ों को पहचानने के लिए उस पर रंग लगा देता है। इसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को पहचानने के लिए उस पर भक्ति का रंग लगाता है और अगले जन्म में भी अपने शिष्यों को पहचान लेता है और उसे सद्मार्ग पर ले आता है।] 

(४)

 [(9 दिसंबर, 1883)   श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🌼 सेवक के ह्रदय में - जिव,जगत 24 तत्व के निर्माता अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ? 🌼

शुक्लपक्ष है । चाँद निकला है । मणि कालीमन्दिर के उद्यान के रास्ते पर टहल रहे हैं । रास्ते के एक ओर श्रीरामकृष्ण का कमरा, नौबतखाना, बकुलतला और पंचवटी है – दूसरी ओर ज्योत्स्नापूर्ण भागीरथी बह रही हैं ।

[শুক্লপক্ষ। চাঁদ উঠিয়াছে। মণি কালীবাড়ির উদ্যানপথে পাদচারণ করিতেছেন। পথের একধারে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঘর, নহবতখানা, বকুলতলা ও পঞ্চবটী; অপরধারে ভাগীরথী জ্যোৎস্নাময়ী।

It was night. The moon rose, flooding all the quarters with its silvery light. M. was walking alone in the garden of the temple. On one side of the path stood the Panchavati, the bakul-grove, the nahabat, and the Master's room, and on the other side flowed the Ganges, reflecting millions of broken moons on its rippling surface'.]

मणि मन ही मन कह रहे हैं – “क्या सचमुच ही ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ? श्रीरामकृष्ण तो ऐसा कहते हैं । उन्होंने कहा कि थोड़ी साधना करते ही कोई आकर बता देगा, ‘ऐसा ऐसा करो ।’ अर्थात् उन्होंने थोड़ी साधना करने के लिए कहा । अच्छा, मेरा तो विवाह हो चुका है, लड़के-बच्चे भी हुए हैं क्या इतने पर भी ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है ? (थोड़ा सोचकर) अवश्य ही किया जा सकता है, नहीं तो ये वैसा क्यों कहते ? उनकी कृपा होने से क्यों न होगा ?

[আপনা-আপনি কি বলিতেছেন। — “সত্য সত্যই কি ঈশ্বরদর্শন করা যায়? ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তো বলিতেছেন। বললেন, একটু কিছু করলে কেউ এসে বলে দেবে, ‘এই এই’। অর্থাৎ একটু সাধনের কথা বললেন। আচ্ছা; বিবাহ, ছেলেপুলে হয়েছে, এতেও কি তাঁতে লাভ করা যায়? (একটু চিন্তার পর) অবশ্য করা যায়, তা নাহলে ঠাকুর বলছেন কেন? তাঁর কৃপা হলে কেন না হবে?

M. said to himself: "Can one really see God? The Master says it is possible. He says that, if one makes a little effort, then someone comes forward and shows the way. Well, I am married. I have children. Can one realize God in spite of all that?"M. reflected awhile and continued his soliloquy: "Surely one can. Otherwise, why should the Master say so? Why shouldn't it be possible through the grace of God?]

“सामने यह जगत् दिखायी दे रहा है – ये सूर्य, चन्द्र, तारे, जीव, चौबीस तत्त्व – ये सब कैसे उत्पन्न हुए, इनका करतार कौन है, मैं, उनका कौन हूँ ?, यह न जानने पर जीवन ही व्यर्थ है ।

[“এই জগৎ সামনে — সূর্য, চন্দ্র, নক্ষত্র, জীব, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব। এ-সব কিরূপে হল, এর কর্তাই বা কে, আর আমিই বা তাঁর কে — এ না জানলে বৃথাই জীবন!

"Here is the world around me — the sun, moon, stars, living beings, and the twenty-four cosmic principles. How did they come into existence? Who is their Creator? What am I to Him? Life is indeed vain without this knowledge.]

“ठाकुर श्रीरामकृष्णदेव ही पुरुषोत्तम हैं । ऐसे महापुरुष मैंने जीवन में आज तक नहीं देखे । इन्होंने अवश्य ही ईश्वर को देखा है । अन्यथा, ये ‘माँ माँ’ कहते हुए दिनरात किसके साथ बातचीत करते रहते हैं ! अन्यथा, ईश्वर पर इनका इतना प्रेम कैसे हो सकता है ! इतना प्रेम कि एकदम बाह्यज्ञानरहित हो जाते हैं ! समाधिमग्न जड़वत् हो जाते हैं ! फिर कभी प्रेम में मतवाले होकर हँसते, रोते नाचते और गाते हैं ।”

{“ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ পুরুষের শ্রেষ্ঠ। এরূপ মহাপুরুষ এ-পর্যন্ত এ-জীবনে দেখি নাই। ইনি অবশ্যই সেই ঈশ্বরকে দেখেছেন। তা না হলে, মা মা করে কার সঙ্গে রাতদিন কথা কন! আর তা না হলে, ঈশ্বরের ওপর ওঁর এত ভালবাসা কেমন করে হল। এত ভালবাসা যে ভাবশূন্য হয়ে যান! সমাধিস্থ, জড়ের ন্যায় হয়ে যান। আবার কখন বা প্রেমে উন্মত্ত হয়ে হাসেন, কাঁদেন, নাচেন, গান!”

["Sri Ramakrishna is certainly the 'best of men'. In all my life I have not seen another great soul like him. He must have seen God. Otherwise, how could he talk with God day and night, addressing Him so intimately as 'Mother'? Otherwise, how could he love God so intimately? Such is his love for God that he forgets the outer world. He goes into samadhi and remains like a lifeless thing. Again, in the ecstasy of that love, he laughs and cries and dances and sings."]

[साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ/(18 -19 अक्टूबर, 2021 :  राम बनवास लें या नहीं ? यह इतिहास घटित होता है , निर्देशित नहीं होता !सिटी ऑफिस, तारा टॉवर, या दिल्ली ?)  ]

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